________________ ( 279) निष्कपटभाव / छन्नं च पसंस णो करे न य उक्कोस पगास माहणे / तेसिं सुविवेगमाहिए पणया जेहिं सुनोसिय धुयं // 29 // अणिहे सहिए सुसंवुडे धम्मट्ठी उवहाण वीरिए / विहरेज समाहि इंदिए आत्तहिअं खु दुहेण लब्भइ // 30 // भावार्थ- ( लक्षण से लक्ष्यार्थ का बोध कराने के लिए उपदेश करते हैं) प्रथम छन्न यानी माया। क्योंकि मायावी मनुष्य अपने अभिप्राय को छिपा हुआ रखता है, इसलिए हे मुनि ! तू माया न कर / प्रशस्य यानी लोभ / जगजीव लोम को मान देते हैं इसलिए इसका नाम प्रशस्य है, उसको भी हे मुनि ! तु न कर / इसीतरह उत्कर्ष मान को कहते हैं इसलिए हे मुनि ! उस को भी तू न कर / जिसके उदित होने से मुख विकारादि चेष्टाएँ होती हैं। वह प्रकाश यानी क्रोध है। उसको भी हे मुनि ! तू न कर / उक्त माया, लोभ, मान और क्रोध जो नहीं करते हैं उन्हें सुविवेकी जानने चाहिए। समझना चाहिए कि उन महापुरुषोंने संयम की सेवा की है। अस्नेह यानी ममत्वरहित या परिसहादि से अपरानित; अथवा अणह अर्थात् अनद्य-निष्पाप, ज्ञानादि गुणयुक्त इसीतरह स्वहित यानी आत्महितकारक / भली प्रकार का संवृतेन्द्रिय और मनोविकार रहित / धर्मार्थी, उपधान, सूत्रविधि के अनुमार योगवहनादि क्रिया करने