________________ ( 281 ) प्रजा के पास भेजता है। यह मानमंत्री अपनी पुत्री माया के साथ लोगों की घनिष्ठता करवाकर निश्चिन्त होजाता है। कोई कितनाही त्याी होता है, उसे भी मायादेवी एकवार तो चक्कर खिला ही देती है। इसीलिए शास्त्रकर्ता बार बार मायादेवी से दूर रहने का उपदेश देते हैं। मगर जब तक मनुष्यों को कीर्ति, पूनादि की अभिलाषा रहती है तब तक उनकी उत्कृष्ट क्रियाएँ संसार क्षय के बजाय संसार-वृद्धि करती हैं। उनकी वे सब क्रियाएँ लोकरंजन के लिए होती हैं। साधु को अपना व्यवहार शुद्ध रखना चाहिए। लोग चाहै पूजें या न पूनें। साधु को इसकी कुछ परवाह नहीं करनी चाहिए। कोई भी क्रिया लोगों के लिए न कर अपने आत्महित के लिए करनी चाहिए / इसीलिए तो साधु एक वृत्तिवाले बताये गये हैं। एकान्त में हो या जनसमुदाय में हों; ग्राम में हों या अरण्य में हों; साधुओं को सब जगह समभाव भावितात्मा रहना चाहिए / अन्यथा क्रिया कष्ट रूप है / उसके लिए यहाँ एक दृष्टान्त दिया जाता है / "कुसुमपुर में एक शेठ के घर दो साधु गये। एक ऊपर की मंजिल में गये और दूसरे नीचे की मजिल में रहे। ऊपर की मंजिलवाले साधु पंचमहाव्रतधारी, शुद्धाहारी, पादचारी, सचित्तपरिहारी, एकलविहारी आदि गुणगण विशिष्ट थे। मगर उनके वे सारे गुण लोकेषणा के उपयोग में आते थे। दूसरे