________________ (174) हजार मिलने पर लाख की आशा करता है / लाख मिलने पर करोड़ की चाह करता है; करोड भी मिल गये तो उसे चक्रवर्ती की ऋद्धि की अभिलाषा होती है। सद्भाग्य से वह भी मिल गई तो फिर सोचता है कि मनुष्यों के भोग तो देवों के भोगों के सामने तुच्छ हैं, इसलिए मैं देव हो जाउँ तो अच्छा है। काकतालीय न्याय से कहीं वह देव भी हो गया तो मन फिर इन्द्र बनने के लिए ललचाता है। इस भाति आकाशोपम अनन्त इच्छा बढती ही जाती है। उस का कहीं अन्त नहीं होता। मनोरथ भट की खाडी कभी नहीं भरती / इसी लिए बारबार कहा जाता है कि, सन्तोष रूपी राजा की राजधानी के अंदर निवास करो। उस की राजधानी औचित्य रूप नगर है। उपशम रूपी सुन्दर मन्दिरों से वह सुशोभित है। सद्भावना रूपी स्त्री वर्ग उस में रमण करता है। तप रूपी राजकुमारों का वह क्रीडा स्थल है / सत्य नाम का मंत्री सारी प्रजा के सुख का ध्यान रखता है / संयम नामा सेना उस नगर की रक्षा करती है। ऐसी सन्तोष राजा की नगरी है / उस में जो निवास करता है, वह देव, दानव, राजा और इन्द्रादि के सुखों से भी विशेष सुखी होता है। कहावत भी है कि-" असत्य के समान कोई पाप नहीं है। शान्ति के समान कोई तप नहीं है। परोपकार के समान कोई पुण्य नहीं है और सन्तोष के समान कोई सुख नहीं है।"