________________ ( 248) देगी कि, एक तरफ से तो व्याघ्रादि से नहीं डरने का उपदेश दिया जाता है और दूसरी तरफसे स्त्रियों से और नपुंसकादि से इतना भयभीत रहना बताया जाता है / सोचने से मालूम होगा कि यह बात बिलकुल ठीक है। क्योंकि, व्याघ्रादि तो इसी द्रव्य शरीर को नष्ट करनेवाले हैं; परन्तु स्त्रियाँ आदि तो भावप्राणों को नाश कर देनेवाले हैं / इसी हेतु से ऐसा उपदेश दिया गया है / साधुओं को गरम जल पीने की आज्ञा दी गई है। वह जैसे तैसे गरम किया हुआ नहीं होना चाहिए। वह 'त्रिदंडोत्कालिक-तीनवार उबाल आया हुआ होना चाहिए। नाम मात्र को गरम किया हुआ, या रात को चूल्हे पर रक्खा हुआ जल सबेरे नहीं पीना चाहिए। विज्ञानवेत्ता लोग भी अमुक डिग्री तक आग के परमाणु पहुँचने पर जल को निर्जीव मानते हैं। सत्रकार का यथार्थ तात्पर्य समझ कर टीका करनेवाले धुरंधर विद्वान आचार्योंने, टीकाद्वारा उसे समझाया है। इसीलिए टीकाकारों को भी भगवान की उपमा दी गई है। मगर अफसोस ह कि आजकल भगुरुकुल सेवी सूत्रों का अपनी इच्छानुरुप अथ कर, पर को दूषित करने का प्रयत्न करते हैं / आत्मार्थी पुरुषों को ऐसे लोगों के चक्कर में न आकर सत्य की शोध करनी चाहिए। सोचो कि, सूत्रों की टीकाएँ लिखनेवाले कान थे ? और वे कैसे समय में हुए थे ? वाद के लिए कोई कह बैठे कि-टीकाएँ लिखनेवाले तो शिथिलाचारी थे। यद्यपि यह