________________ ( 257 ) कहा:-" हे राजन् ! हमें जब उत्तम भोजन लेने की भी इच्छा नहीं है तब राज्य की इच्छा तो हो ही कैसे सकती हैं ? कहा है किः शमसुखशीलितमनसामशनमपि द्वेषमेति किमु कामाः 1 / स्थलमपि दहति झषानां किमङ्ग ! पुनरुज्वलो वह्निः // भावार्थ-जिन का मन शम-सुख से मुक्त होता है उनको भोजन से भी द्वेष होता है तो फिर कामवासना की तो बात ही क्या है ? क्यों कि जब केवल स्थल ही मछलियों को जलानेवाला, दुःख देनेवाला होता है तब फिर उज्वल अग्नि की तो बात ही क्या है ? हे राजन् हम तुम्हारे राज्य से भी अधिक सुखी हैं। स्वतंत्र और स्वाभाविक सुख को छोड़ कर परतंत्र और वैभाविक सुख की कौन बुद्धिमान इच्छा कर सकता है ? साधु की अवस्था में कैसे सुख हैं ? इस की लिए श्रीभर्तृहरि कहते हैं किःमही रम्या शय्या, विपुलमुपधानं भुजलता, वितानं चाकाशं, व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः / स्फुरद्दीपश्चन्द्रो, विरति वनिता सङ्गमुदितः ___ सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव // भावार्थ:- राजा के समान अतुल ऋद्धिवाले शान्त मुनि सुख के साथ सोते हैं। सोते समय राजा को चिन्ता होती है। 17