________________ ( 267 ) एवं लोगंमि ताइणा बुइए जे धम्मे अणुत्तरे / तं गिण्ह हियं ति उत्तम कडमिव सेसवहाय पंडिए // 24 // भावार्थ-पासों से और कोडियों से खेलता हुआ द्यूतकार अन्य द्यूतकार से नहीं जीता जाता है / क्यों कि जिस दाव से उस की जीत होती है, उसी दाव को वह स्वीकार करता है / उदाहरणार्थ- यदि वह चौक से जीता होता है, तो दुआ तीआ के ऊपर कभी दाव नहीं लगाता है / अर्थात् जैसे जुआरी जीते हुए दाव ही को ग्रहण करता है, वैसे ही साधु भी उसी धर्म को स्वीकार करता है जो अहिंसा प्रधान है; जो वीतराग प्ररूपक है; जो क्षमादि दश प्रकार के धर्म युक्त है और जीससे अनंत जीव विजयी हुए हैं, होते हैं और होंगे। जैसे जुआरी चौकके विना दूसरे दावों को छोड़ देता है, वैसे ही साधु भी केवल अहिंसादि गुणगण विभूषित धर्म का स्वीकार करता है और गृहस्थ धर्म, पासत्यादि का धर्म और मिथ्यामार्गानुगामी के धर्म को छोड़ देता है। उच्च, नीच सब ही जातियाँ 'धर्म' शब्द का व्यवहार करती हैं। आस्तिक और नास्तिक सब ही धर्म के लिए लड़ते हैं। इसी के खंडन मंडन के लिए लाखों, करोडों ग्रंथों की रचना हुई है / तो भी जगत के जीव अबतक सत्य धर्म की परीक्षा नहीं कर सके। और जिसने परीक्षा करली है, समझना चाहिए कि