________________ ( 265 ) क्रोध नहीं करना चाहिए। लोग अपने ही अभिप्रायों से शुभा. शयवाले बनते हैं। कई जीवहिंसा में धर्म मानते हैं, कई आरंभादिसे द्रव्य उपार्जन कर कुटुंब का पालन करने में धर्म मानते हैं और कई माया, प्रपंच करके लोगों को ठगनाही धर्म समझते हैं। मगर हे मुनि ! तुझे तो निर्मायी-मायाविहीन-होकर वर्ताव करना चाहिए और मन, वचन व काया से शीत उष्णादि परिसह सहने चाहिए। चंचल द्रव्य के लिए कई पुरुष विकट अटवी में जाते हैं। कालेपानी को लांघते है; वचन क्रम को छोड़ते हैं; असेव्य को -नहीं सेवन करने योग्य को-सेवते हैं और अकृत्य को भी कृत्य समझते हैं। इतना ही नहीं। जहाँ रहते हैं वहाँ बहुत बड़ी चिन्ता का भार लेकर रहते हैं। उदाहरणार्थ-एक आदमी रेल या जहाज में सफर कर रहा है। उस के पास कुछ द्रव्य है। तो उस की रक्षा के लिए वह बिलकुल नहीं सोवेगा। यदि कहीं अचानक नींद आगई तो वापिस जल्दी ही से जाग कर वह अपनी कमर और जेब संभालेगा। विश्वासपात्र मनुष्यों के बीच में सोने पर भी उस को धैर्य नहीं रहेगा। वह अपनी चीजें देख लेगा कि हैं या नहीं। देखो, इस चंचल द्रव्य के लिए कितना खयाल रखना पड़ता है ? तो भी मनुष्य उसे रखता है। मगर जो जीवन कोटि रुपये खर्चने पर भी एक घड़ीभर के लिए भी