________________ ( 271 ) श्राद्धाऽकृतौ न स्याद् दोषो विस्मृते चात्मनिकर्मणि प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला // 8 // कियद् वच्मि महाभाग ! पापे नैवास्ति दृषणम् / प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला // 9 // इत्यादि श्लोक क्या प्रामाणिक गिने जा सकते हैं ? यदि ये श्लोक प्रामाणिक गिने जाय तो फिर संसार से पाप बिल्कुल ही उठ जाय और केवल पुण्य ही पुण्य बाकी रह जाय / मगर हम न ऐसा देखते हैं और न अनुभव ही करते हैं। जगत् को हम विचित्र ढंगवाला देखते हैं। और जैसा कृत्य करते हैं वैसे ही फल का अनुभव करते हैं। इसीलिए जिस में हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और सस्पृहता है वह अधर्म है और इससे नो विपरीत है वह धर्म है / यह बात सदा ध्यान में रखनी चाहिए कि, खंडन, मंडन और बखेडों से कभी धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। कोई प्रश्न करेगा कि-न मांसभक्षणे दोषो इत्यादि वाक्यों को लेकर अबतक जितना कुछ कहा है वह खंडन नहीं है तो और क्या है ? हम उस को कहेंगे कि, हमने खंडन नहीं किया है। हमने तो श्लोक का वास्तविक अर्थ बताया है। धर्मी वर्ग हिंसा करने में खुश नहीं है तो भी यदि कोई मनुष्य ऐसे वाक्यों पर विश्वास करके धर्मच्युत होता हो तो उस को धर्म में स्थित करने के लिए हमारा यह प्रयत्न है / इतना होने पर भी अंध