________________ (247 ) भावार्थ---स्त्रियों के और स्त्रियों का संसर्ग करनेवाले पुरुषों के संग को दूर ही से छोड़ कर कल्याण में आत्म सत्तावाला बन, एकान्त में बैठ, मेरा ध्यान कर। माता, भगिनी और पुत्री के साथ भी एक आसन पर न बैठ; क्योंकि इन्द्रियों का समूह बलवान होने से, वह विद्वानों को भी विषयवासना की ओर खींचता है। ___ भागवत और मनुस्मृति के उक्त श्लोक सर्वथा ठीक कहते हैं कि जहाँ स्त्री रहती हो वहाँ ब्रह्मचारी वास न करे / मगर जैनधर्म तो इनसे भी आगे बढ़ता है / वह तो पशु और नपुंसक के सहवास की भी मनाई करता है / क्योंकि, पशुओं को यह ज्ञान नहीं रहता है कि, ये महात्मा बैठे हैं, इसलिए इनके सामने विषय-सेवन न करूँ। वे तो अनादिकाल से उनके सिर पर लगी हुई मैथुन संज्ञा के आधीन होकर चेष्टाएँ करेंगेही / मगर अपूर्ण तत्वज्ञानीयों को उन चेष्टाओं को नहीं देखना चाहिए। पूर्ण तत्वज्ञानी-सर्वज्ञ तो सारे जगत को देखते हैं। मगर रागद्वेष के नहीं होने से उनको किसी प्रकार का दोष नहीं लगता है। अन्य महापुरुषों को संसारी जीवों की अपेक्षा रागद्वेष कम होने से, वासनाओं का कम डर रहता है, तो भी पूर्णतया रागद्वेष के नष्ट न होनेसे विप्रतिपत्ति का भय रहता है। इसीलिए श्रीवीतराग प्रभुने तत्वदृष्टि से देखकर, स्त्री, पशु और नपुंसकहीन स्थान में रहने की आज्ञा दी है। यह बात जरा विपरीत मालुम