________________ ( 215) ... कर्म दो प्रकार के हैं / शुभ और अशुभ / यहाँ अशुभ कर्म से मुक्त होना साधुओं के लिए कहा गया है। शुभ से नहीं / शुभ कर्म तो किसी रूप में थोड़ा बहुत मुक्ति का साधक भी होता है / अनुत्तर विमान के देवों का नाम सप्तलवा है। इसका कारण यह है कि, वे श्रेणी में आरूढ हुए हैं। यदि सातलव आयु ही शेष रही होती तो वे अवश्यमेव मुक्ति नगरी में निवास करते। परन्तु पुण्य का पुंज उनके बाकी होने से उनकी आयु सातला की अवशेष न हो कर, तेतीस सागरोपम की हुई है। यहाँ पुण्य मुक्ति का प्रतिबंधक हुआ है; परन्तु / उसने एकावतारी बना, मुक्ति की छाप लगा दी है। अर्थात् वे देव गति से चव मनुष्य पर्याय पा, अवश्यमेव मोक्ष में जायँगे / इन्द्रादि पदवी पुण्य से मिलती है। इन्द्रादिकों के और त्रिषष्ठिशलाका पुरुषों के पुण्य की छाप लगी हुई है। इसी लिए मुक्ति मिलने में पुण्य भी शुभ साधन है। अन्तमें तो उसका क्षय हो जाता है / मनुष्य गति भी मुक्ति का कारण है; परन्तु अन्त में उसका भी क्षय हो जाता है। अभिप्राय यह है कि, अन्त में क्षय होनेवाला भी मुक्ति का कारण हो सकता है। अक्षय ज्ञान, दर्शन और चारित्र भी कारण हैं, और पुण्य भी परंपरा से कारण है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र अनंतर कारण हैं। इसी लिए पाप से विरत ' विशेषण दिया है। यदि पुण्य