________________ ( 227 ) तिरस्कार करने से आनंद मिलता है। इसलिए उनसे भी मुझ को ' ज्यादह आनंद है / क्यों कि उनके किये हुए तिरस्कार को मैं थोड़ी देर शान्ति के साथ सहन कर सकूँगा तो, मेरे चिरकाल के दुःखदायक क्लिष्ट कर्म नष्ट हो जायेंगे / मुझ को मारने से लोगों को सुख होता है तो वे भले सुखी हों / एक को दुःख होने से यदि सैकड़ों को सुख होता है तो कौन ऐसा मूर्ख है जो सैकड़ो को सुख न होने देगा ! ये कठोर वचन कहनेवाले मेरे वास्तविक बंधु हैं / क्यों कि कर्म रूप दृढ़ गाँठ जो मेरे हृदयकोश में बंधी हुई है, उसके ये लोग खारे वचन रूप औषध से काट रहे हैं। ये लोग मेरा खूब ताड़न, तर्जन करें / इससे मेरा लाभ ही है / स्वर्ण पर लगा हुआ मैल अग्नि के विना साफ नहीं होता है, इसी तरह आत्मा के ऊपर लगा हुआ कर्म-मेल भी उपसर्ग, परिसह रूपी अग्नि के विना नष्ट होनेवाला नहीं हैं। द्रव्य से दुःख देनेवाले और मेरे भाव रोग को हरनेवाले मेरे मित्रों पर यदि मैं क्रोध करूँ तो कृतघ्न कहलाऊँ / क्यों कि वे स्वयं दुर्गति के खड्डे में उतरकर मुझ को उस से बाहिर निकाल रहे हैं। अपना पुण्य धन खर्च करके जो मेरा अनादिकाल का ऋण चुका रहै हैं उन पर मैं क्रोध कर सकता हूँ ! वध बंधनादि मेरे हर्ष के लिए हैं। क्यों कि वे तो मुझ को संसार रूपी जेलखाने से निकालने के प्रयत्न हैं / मुझे अफ्सोस है तो केवल इतना ही कि, मुझ को जेलखाने से छुड़ानेवाले मेरे हितुओं की संसार-वृद्धि