________________ (243) भावार्थ-जिस शून्य गृह में साधु सोवे उसे उसका दर्वाना न बंद करना चाहिए और न खोलना चाहिए। क्योंकि खोलने से या बंद करने से अचानक जीव हत्या होनाने की संभावना है। रस्ते चलते हुए साधु किसी के प्रश्न का उत्तर न दे / यदि उत्तर देने की बहुत ज्यादा आवश्यकता ही हो तो साधु असत्य बात न कहे / जो वास्तविक बात हो वही कहे / वह मकान में पड़ी हुई धूलि को न उठावे और न उस पर घास आदि ही बिछाये। चलते हुए जहाँ सूर्य अस्त हो जाय वहीं वह रह जाय / ध्यान करे। परिसह, उपसर्गादि से लेशमात्र भी न डरे। सागर के समान गंभीर रहे / जगह खड्डेवाली हो तो समभावों से उसकी तकलीफ़ को उठाले / इसी तरह दंश, मशक, भयंकर भूत, पिशाच, सादि के परिसहों को भी समतापूर्वक सह ले / राग, द्वेष थोडासा भी न करे / सूत्रकार और कहते हैं किः तिरिया मणुया य दिव्वगा उवसग्गा तिविहा हियासिया / लोमादियं पि ण हरिसे सुन्नागारगओ महामुणी // 15 // णो अभिकखेज जीवियं नो विय पूयणपत्थए सिया। अब्भत्थमुर्विति भेरवा सुन्नागारगयस्स मिक्खुणो // 16 // भावार्थ-सिंह, व्याघ्रादि तिर्यंच कृत उपसर्गों को, मनुष्य कृत प्रतिकूल और अनुकूल उपसर्गों को, और व्यन्तरादि देवकृत उपसर्गों को सूने घर में रहे हुए मुनि समभावों के साथ सहन