________________ ( 241) मगर ऐसे साधु स्वच्छंदी होने से अवंद्य हैं / उपाध्याय यश). विजयनी महाराज कहते हैं: समुदाये मनागदोषभी तैः स्वेच्छाविहारिमिः / संविग्नैरप्यगीतार्थैः परेभ्यो नातिरिच्यते // वदन्ति गृहिणां मध्ये पार्श्वस्थानामवन्द्यताम् / यथाच्छंदतयात्मानमवन्धं जानते न ते // - कुछ वैराग्यवृत्तिवाले जीव, अशुद्ध आहारादि के और न्यूनाधिक क्रिया के अल्प दोषों से डरकर, स्वेच्छाविहारी बनते हैं। मगर ऐसे साधु अगीतार्थी हैं / वे शिथिलाचारियों से किसी तरह कम नहीं हैं। बल्के शिथिलाचारी ही हैं। वे गृहस्थों के सामने समुदाय में रहनेवाले नरम गरम साधुओं को अवंद्य बताते है। मगर आप स्वच्छंदी बनकर अवन्ध हो जाते हैं, इसकी उनको खबर नहीं रहती है। विहार, गीतार्थ और गीतार्थ के आश्रय में रहकर करने की आज्ञा है। अन्य प्रकार के विहार के लिए प्रभु की आज्ञा नहीं है / जैन साधु भी यदि स्वच्छंदता से विचरण करने लग जायँ तो 56 लाख साधुओं की जो बुरी दशा हम देख रहे हैं, वही दशा वीर के साधुओं की भी हो जाय, इसमें संदेह की कोई बात नहीं है। वर्तमान काल में कई अंशों के अंदर साधु वर्ग में क्रिया, यतना, भाषा, और श्रावकों के साथ का व्यवहार, कुछ विपरीत प्रकार 16