________________ ( 226 ) बुद्धिवाले संयम के आराधक साधु को चाहिए कि वह सदा भाव शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे / इस प्रकार वह प्रश्न कर्ता के सामने भी नीचा न देखे। कुशलता के साथ-युक्ति पूर्वक-शान्त भावों से अहिंसादि लक्षणयुक्त धर्म का प्रकाश करे; सूक्ष्मदृष्टि से अपने आत्मभावों को देखे; यदि कोई मारे तो भी उस पर क्रोध न करे और यदि कोई पूजा करे तो मी वह अभिमान न करे / (2) सूत्रकारने 'दुर ' शब्द का अर्थ मोक्ष किया है। यह बिल्कुल ठीक है। मोक्ष वास्तव में दूर ही है। श्री वीतराग प्रभु की आज्ञानुसार तप, जप, ज्ञान, ध्यान, परोपकार दया आदि किये जाते हैं तब ही मुक्ति नगर का शुद्ध मार्ग-जो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र रूप है-मिलता है / जबतक भूत भविष्यत काल संबंधी जीवों की शुभाशुभ प्रवृत्ति का * ज्ञान नहीं होता है, तबतक अपने कर्तव्य में दृढ नहीं हुआ जाता। इसीलिए सूत्रकार कहते हैं कि-जीवों की कर्मकृत शुभाशुभ गति और विचित्र वर्ताव को तू देख / जगत और भगत में अनादि काल से वैर चला आरहा है। इसलिए यदि साधु को कोई कठोर वचन कहे या कोई उसे मारे तो भी साधु को उसके प्रति द्वेष भाव नहीं करना चाहिए और निम्नलिखित मावना मानी चाहिए। यदि कोई विना कारण साधु को कष्ट दे तो उस को विचारना चाहिए कि,-" मेरे भाग्य का उदय हुआ है, कि जिससे अनायास ही मेरे कर्म की निर्जरा होगी। लोगों को मेरा