________________ ( 197) 'प्रभाव से औषध रूप बन जाते हैं / कुष्ट युक्त शरीर भी उसके संबंध से कंचन तुल्य हो जाता है। यानी उनके श्लेष्मादि से कोट भी मिट जाते हैं और कोढी शरीर स्वर्ण के समान उज्ज्वल हो नाता है जैसे कि, कोटिरस से तांबा भी सोना हो जाता है। उनके कान, नेत्र और शरीर से उत्पन्न हुआ हुआ मैल सब रोगों को नष्ट करने में समर्थ होता है। भाव कहने का यह है कि, मुनियों के स्पर्श मात्र ही से प्राणियों के सब तरह के रोग नष्ट हो जाते हैं। जैसे बिजली के स्पर्श से वायु रोग नष्ट हो जाता है और गंधहस्ति के मद की गंध से अन्य हाथी भाग जाते हैं वैसे ही चाहे कैसा ही विषमिश्रित अन्न उन मुमुक्षुओं के पात्र में आता है तो वह अमृत के समान हो जाता है / जैसे मंत्राक्षर के स्मरण से जहर नष्ट हो जाता है वैस ही, मुनियों के वचनों को सुन कर बड़ी से बड़ी व्याधि भी मिट जाती है / नख, केश, दाँत और शरीर के दूसरे अवयव भी औषध रूप हो जाते हैं। स्वातिनक्षत्र का पानी सीप में पड़ने से मोती, सर्प के मुख में .पड़ने से नहर और बाँस में पड़ने से वंशलोचन हो जाता है। इस का कारण पात्र है। यानी स्वातिन जैसे पात्र में पड़ता है, वैसे ही रूप को धारण कर लेता है / इसी भांति शरीर के अवयव यद्यपि स्वभाव ही से असुंदर होते हैं, तथापि तप के तेजसे वे पूर्वोक्त अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। इस में रेशमात्र