________________ ( 222) दूसरों की निन्दा की जाती है / दुनिया में परनिंदा के समान और कोई दूसरा पाप नहीं है। दूसरों की निन्दा करनेवाला महा निन्द्य कर्म बांधता है और फिर उन के कारण वह संसारकान्तार में-दुनिया रूपी जंगल में पशु की तरह भटकता फिरता है; ओर अनन्त जन्म, मरणादि के कष्टों को सहता है / इसी लिए सूत्रकारोंने निन्दा को 'पापिणी ' का विशेषण दिया है। हे महानुभावो ! यदि तुम्हें आत्मकल्याण की अभिलाषा हो तो, जागृतावस्था की बात तो दूर रही, मगर स्वप्नावस्था में भी परनिंदा न करो / यदि निन्दा करने की तुम्हारी आदत ही पड़ गई हो तो, किसी दूसरे की निंदा न कर स्वयं अपनी ही निंदा करो, जिससे किसी समय तुम्हारा उद्धार भी हो सके / वास्तविक रीत्या तो आत्म-निंदा करना भी अनुचित है। क्योंकि आत्मा तो स्वभाव से ही निर्मल है; परन्तु वैभाविक दशा के कारण से वह जड़ीभूत हो गया है / इस लिए साधुओंने मन, वचन और काया से परमावों को छोड़ना चाहिए ।अपने मनमें यह न सोचना चाहिए कि, मेरे समान कोई सूत्र सिद्धान्तों का जाननेवाला नहीं है। मेरे समान कोई तप करनेवाला नहीं है; मेरे समान कोई उच्च कुलवान नहीं है और मेरे समान कोई रूपवाला नहीं है। आदि मन हो क्या न जवान ही से ऐसे शब्दों का उच्चारण करना चाहिए और न शरीर ही