________________ ( 186 ) और परवशता से सहते हैं इसलिए उन से कुछ लाभ नहीं होता हैं / हा हानी उन से अवश्यमेव होती है। वेही कष्ट यदि ज्ञान पूर्वक वैराग्य और समता भावना से सहे जायें तो उन से बहुत लाभ हो / कई अशक्त और धन की आशा रखनेवाले लोग बाह्य दृष्टि से दुर्जनों के वचन सहते हैं; कई विदेश जाने के लिए, या रोग के वश में होकर खिन्न चित्त से अपने घर का सुख छोड़ते हैं; परन्तु सन्तोष पूर्वक कोई ऐसा नहीं करता। इसी भाँति आशा की जंजीर में बंधे हुए कई जीव बड़ी ही भयंकर सरदी, गरमी, विषेली हवा सहते हैं; समुद्रयात्रा की पीड़ा उठाते हैं; द्रव्य के लोभ में चंचल लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए दिनभर चिन्ता करते हैं; परिश्रम करते हैं और भूखे प्यासे रहते हैं। मगर वही या इसी प्रकार के कष्ट यदि धर्म के निमित्त सहे जाय तो जीवों की सब आशायें स्वयमेव पूरी हो जायं / जो गुरु के कठोर-मगर हितकारी-वचनों को आनंदसे सहते हैं; जो रूप, रस, गंध और स्पर्शादि विषयों को संतोष पूर्वक त्याग करते हैं और जो दूसरे जीवों को कष्ट न हो इस प्रकार के आचरण पूर्वक मुनिधर्म का पालन करते हैं; वे ही महा पुरुप होते हैं; वे ही परिसह और उपसर्ग सह सकते हैं; वे ही अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र को उन्वल बना सकते हैं और वे ही अपने दोनों लोक सुधारते हैं। यह सदा ध्यान में रखना चाहिए कि, सत्पात्र में जो अवगुण जाता है वह भी सद्गुण बन जाता है / जैसे कि भिक्षा