________________ ( 208 ) तम्हा दवि इक्ख पंडिए पावाओ विरतेमिनिबुडे / पणए वीरे महाविहिं सिद्धिपहं नेआउयं धुवं // मावा :- अनुकूळ उपसर्ग कायर पुरुषों को धर्म ध्यान से भ्रष्ट का दे / हैं, इसलिए हे मुक्तिगमन योग्य साधो! तू तत्यासत्व का विचार कर / संसारस्थ जीव महाकर्म करते हैं। उनके अतिकटु विपाक को देख पापकर्म से अलग रह; शान्त हो / प्राणातिपात आदि आश्रवों से, जो पाप के कारण हैं-तू निवृत्त हो / इसी भाँति सदसद् विचार में कुशल बनकर कर्म शत्रुओं का नाश करने के लिए वीरव्रत धारण कर; और युक्तियुक्त जो मुक्ति का मार्ग है उस म लीन हो / यानी सदनुष्ठान में स्थिर रह / अगली गाथा में भी यही बात कही गई है: वेयालिय मग्गमागओ मणवयसाकायण संवुडो / विचावित्तं च णायओ आरंभं च सुसंवुडे चरेज्जासि // 22 // भावार्थ:--साधु कर्म का नाश करनेवाले ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप मुक्ति के मार्ग को प्राप्त होने पर मन, वचन, काया के दंड से रहित होकर, परिग्रह और कुटुंब को वैराग्य भावना से छोडकर, सावद्य व्यागर का त्याग कर, एवं इन्द्रियों के विकार से रहित बनकर के विचरे / इस तरह सुधर्मास्वामी जंबूस्वामी को कहते हैं।