________________ ( 183 ) भाति अनेक भव तक संसार में भ्रमण करना पड़ता है। कहा जइवि य णिगणे किसे चरे जइवि य मुंनिय मासमंतसो / जे इह मायावि मिज्जइ आगंता गब्भाय णतंसो // 9 // भावार्थ:-- यदि कोई नग्न होकर फिरे; एक एक मास के अन्तर से पारणा करे और अपने शरीर को कृश बना दे मगर माया में लिप्त रहे तो उसे कभी मुक्ति नहीं मिलती है। ___कई तापसादि ऐसे हैं जो धन, धान्यादि बाह्य परिग्रहों को छोड़ कर, नग्न होजाते हैं; तपस्या कर करके अपने शरीर को सुखा डालते हैं। परन्तु माया कषायादि अन्तरंग परिग्रह से वे दूर नहीं होते हैं इसलिए उन के कष्ठानुष्ठान केवल व्यर्थ ही नहीं जाते हैं बल्के उल्टे भवभ्रमण बढ़ानेवाले होजाते हैं। चाहे कोई खड़े खड़े अपना जन्म बिता दे, चाहे कोई गंगा नदी की सेवाल से अपना पेट भरे; चाहे कोई नर्मदा नदी की मिट्टी से अपने दिन निकाले; चाहे कोई महीने महीने के अन्तर से निरस और तुच्छ आहार ले और चाहे कोई एक पैर पर खड़े हुए एक हाथ ऊँचा कर कष्ट सहन करे / इन से कुछ नही होना जाना है। ये क्रियाएँ जब तक हृदय में माया-कपट का अधिकार है तब तक सब व्यर्थ हैं / माया के छूटे विना कोई जन्ममरण के फंदे से नहीं छूट सकता है / चाहे कोई वैष्णव हो; कोई बौद्ध हो.