________________ ( 182 ) यह बात सत्य है, कि जबतक सम्यग्ज्ञान नहीं होता है, तब तक सारे कष्ठानुष्ठान भवभ्रमण के कारण होते हैं / जो साधु सम्यग्ज्ञान विहीन होता है, वह व्यर्थ ही पूजा, स्तुति की अभिलाषा कर साधुता का गर्व करता है और अनेक प्रकार के कपट कर आजिविका चलाता है। धन संग्रह करता है। घुणाक्षर न्याय से कदाचित किसी को वास्तविक मुक्ति मार्ग का ज्ञान भी हो जाय और उसको वह सत्य भी मानने लगे तो भी उसके अन्तः करण रूपी मंदिर में मिथ्यात्व वासना घुसी रहने से वह निरवद्य अनुष्ठान नहीं कर सकता है। वह सावध क्रिया-स्नानादि क्रिया को सुख का साधन समझकर करता है; वह स्वर्गादि सुखों की अभिलाषा से ऐसी क्रियाएँ करता है, संभव है कि उसकी साधना से उसको स्वर्गादि सुख प्राप्त हो जाय-मगर मुक्ति तो उन से कभी नहीं मिलती है। हा संसार-भ्रमण की वृद्धि उन से अवश्य होती है। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि, कोई जैनेतर त्यागी, वैरागी निष्परिग्रही बनकर तप करे तो उस को मुक्ति मिल सकती है या नहीं ? इस के समाधान में हम कह सकते हैं कि, यदि वह निर्ममत्व-मूर्छारहित-भाववाला होता है तो वल्कल ऋषि की भांति उस को सम्यग्ज्ञान होकर मुक्ति मिल जाती है; परन्तु यदि वह ममत्वी कषाय करनेवाला होता है तो अग्निशर्मा की