________________ थाले चाहे साधु हो, बहुश्रुत-शास्त्रों का ज्ञाता-हो और चाहे सामान्य मनुष्य हो / शास्त्रकार फरमाते हैं कि, कर्म की सत्ता का नाम ही संसार की सत्ता है, और कर्म के अभाव का नाम ही संसार का अभाव है। कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्य भी कुमारपाल राजा को उपदेश देते हुए कहते हैं कि: "कर्म कर्तृ च भोक्तृ च श्राद्ध ! जैनेन्द्रशासने / " इस वाक्य को यद्यपि जैन लोग खास करके स्वीकारते हैं, लेकिन दूसरे भी इसी न्यायकी सीधी सड़क पर आते हैं। देखो कई लोग श्रीरामचंद्रनी को ईश्वर का अवतार मानते हैं। मगर उन्हीं रामचंद्रजी को गद्दी बैठते समय ही, कर्म के कारण, बन में जाना पड़ा था / इस बात का पहिले विशेष रूप से उल्लेख किया जा चुका है। राजा हरिश्चंद को भी कर्मने कैसी विडम्बना की थी ! कहा है: सुतारा विक्रीता, स्वजन विरहः, पुत्र मरणं; विनीतायास्त्यागो रिपु बहुलदेशे च गमनम् / हरिश्चन्द्रो राजा वहति सलिलं प्रेतसदने; अवस्थाप्येकाहोप्यहह ! विषमाः कर्मगतयः // भावार्थ- सुतारादेवी को बेचना, कुटुंब का विरह होना,