________________ ( 178) लिप्त हो उन के अवास्तविक संबंध को वास्तविक मान, ऐसी विषयवासना के फेर में पड़ जाता है कि जो अनादि कालसे दुःख देतो आरही है और भावी में जो नरकादि के दुःखों में ढकेलनेवाली है। ऐसा होते हुए भी जीव भ्रांति वश उस को अपना कर्तव्य समझ बैठता है। ___ कई लोग कहा करते हैं कि, दस, बीस बरस तक माता पिता कुटुंबादि का पालन करके व उनके स्नेह का और विषय तृष्णा का उपभोग करके उसके शान्त होनाने पर आत्मश्रेय करूँगा / मगर मनुष्य को ध्यान में रखना चाहिए कि विषयतृष्णा मध्याह्नोत्तर काल की छाया के समान है। अर्थात् दुपहर के बादल की छाया जैसे क्रमशः बढ़ती ही जाती है, वैसे ही मोहजन्य संबंध और विषय तृष्णा भी बढ़ती जाती है। उसके परिणाम से जो कर्म बंधते हैं उनका फल जीव को अवश्यमेव भोगना पड़ता है। कर्म को किसीकी शर्म नहीं आती है। इसी बात को विशेष रूप से स्पष्ट करनेवाली गाथा की ओर ध्यान दीजिए। जे यावि बहुस्सुए सिया धम्मिय माहण भिक्खुए सिया। अमिणूगकडेहिं मुच्छिए तिव्वं से कम्मेहिं किञ्चति // 7 // भावार्थ-जो कोई मूर्छा सहित कर्म करता है उस को उन का फल अवश्यमेव भोगना पड़ता है। पीछे वह कर्म करने