________________ (158 ). विपत्तियों में डालती है। विषयी मनुष्य रंक के समान हो जाता है। चाहे कोई राजा हो या फकीर, धनी हो या गरीब, देव हो या दानव, और भूत हो, या पिशाच, चाहे कोई भी हो / विषय की आशा में पड़ कर वे स्त्री के दास हो जाते हैं; सिर पर जूते खाते हैं, और जन समूह में तिरस्कार व अपमानित होते हैं। इसी मांति कीर्ति के लोभी भी स्वर्ग और मोक्ष फल के देनेवाले धर्मानुष्ठान को धूल में मिला देते हैं; मिथ्या ढौंग व मायाचार कर संसार के बंधन को दृढ करते हैं और ऐसे कार्य करते हैं; जिन से लोग उन पर तो क्या, मगर सत्य साधुओं पर भी संदेह करने लगते हैं / उन के भक्त लोग भी उन से विमुख हो जाते हैं / यह जो कहा जाता है कि, आशाधीन मनुष्य जगत् के दाप्त होते हैं, इस में लेश मात्र भी अवास्तविकता था अतिशयोक्ति नहीं है / गाँची, मोची, तेली, तबोली, लोहार, सूतार, दरजी, नाई और पंडित आदि सब ही लोग लोभाधीन हो कर, दूसरों की सेवा में अपना जीवन बिताते हैं / अहो ! कहां तक कहें लोभ रूपी दावानल समस्त वस्तुओं को नाश करने में समर्थ है / इस लिए भव्य जीवों को उचित है कि वे लोम रूपी दावानल को, ज्ञानमेघसे बरसनेवाले संतोष जलसे शान्त कर देवें /