________________ ( 171) विविध बोध / G== = वैराग्य / संबुन्झह, कि न बुन्झह, संबोही खलु पेञ्च दुल्लहा। णो हुवणमंति राईओ, नो सुलभं पुणरवि जीवियं // 1 // डहरा वुड्ढाय पासह, गन्मत्था वि चियंति माणवा / सेणे जह बट्टयं हरे, एवमाउक्खयम्मि तुट्टई // 2 // 1 हे भव्यो ! समझो / समझते क्यों नहीं हो ! परलोक में धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है / गया समय फिर वापिस नहीं आता है / बार बार मनुष्य जीवन मिलना कठिण है। कई बालकपन में, कई वृद्धावस्था में और कई जन्मते ही मर जाते हैं। आयुष्य समाप्त होने पर जीवन किसी तरह से नहीं टिकता है / श्येन पक्षी जैसे चिड़ियाँ आदि क्षुद्र जीवों का नाश करते हैं। इसी तरह काल जीवों का संहार करता है। 2 दुष्ट काल कराल पिशाच की दृष्टि जब टेढी हो जाती है तब, वह किसी की बाधा नहीं मानती है। धन्वंतरी वैद्य और यांत्रिक, मांत्रिक, तांत्रिक कोई भी उसको नहीं बचा सकता है। इस बात का हरेक को अनुभव है कि जब अपने कष्ट पदार्थ का वियोग होता है, अथवा अपने किस प्रिय मनुष्य