________________ ग्यारहवें गुणस्थान से पतित जीव कई तो सातवें गुणस्थान में आते हैं और वहां से उपशान्त श्रेणी छोड़ कर क्षपक श्रेणी प्रारंभ कर के मोक्ष में जाते हैं। कई सीधे मिथ्यात्व गुणस्थान में आते हैं और मर कर निगोद आदि गतियों में जाते हैं। समस्त जैन तत्त्ववेत्ताओंने यह बात बताई है कि, दशर्वे गुणस्थान तक लोभ का जोर रहता है / कर्म-सिद्धान्त के रहस्य को जाननेवाले यह बात मली प्रकार से समझते हैं कि जीव ग्यारहवें गुणस्थान से वापिस गिरता है। जब आत्म-सत्ता को पहिचानने वाले भी लोभ के सपाटे में आ कर नीचे गिर जाते हैं तब दूसरे पामर जीवोंकी तो बात ही क्या है ? __ वर्तमान स्थिति का यदि हम विचार करेंगे तो हमें ज्ञात होगा कि लोभ डाकूने सारे वर्ग के साधुओं की दुर्दशा कर डाली है। यहां पहिले हम त्यागी, वैरागी गिने जानेवाले जैन मुनियों का विचार करेंगे / हमें इन की स्थिति देख कर बड़ा आश्चर्य होता है। उन के नाम हैं अनगार, भिक्षु, मुनि, मुमुक्षु आदि / परंतु उन में से कइयोंके व्यवहार इन नामों से सर्वथा उल्टे हैं। मगर इसका वास्तविक कारण देखेंगे तो मालूम होगा कि वह लोभ वृत्ति ही है। ठीक ही है / लोभवृत्ति का जोर जब दश गुणस्थान तक होता