________________ ( 155 ) अहर्निशि आत्म-मनन में रत रहते है उनके लिए मोह उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं है / तो भी कईवार मुनि मोह में फँस जाते हैं इसका कारण आहार भी है। कई जगह सदाव्रत की भाँति दान दिया जाता है / मगर उससे दान देनेवाले और लेनेवाले दोनों को कुछ वास्तविक लाम नहीं होता है / दाता यदि नीति से पैसा उपार्जन कर आत्मकल्याण के हित सुपात्र को दान दे और सुपात्र केवल संयम निर्वाह के लिए शरीर को टिका रखने की गरज से दान ले, तो इससे दोनों की सुगति होती है। मगर यदि इससे विपरीत किया जाता है, यदि. नीति अनीति का विचार किये विना दाता धन उपार्जन करता है और यश कीर्ति के हेतु दान देता है; और लेनेवाले अपने शारीरिक सुख के लिए दान लेता है तो दोनों की दुर्गति है। जहाँ वास्तविक मुनिपन है वहाँ लोभ का अभाव भी आवश्यक है। यदि गृहस्थों के संसर्ग से लोभादि दुर्गुण मुनि में उत्पन्न हों, तो मुनि को चाहिर कि वह ऐसे श्रावकों के संसर्ग में आना छोड़ दे / संसर्ग छोड़ने पर भी यदि उसकी लोभवृत्ति का शमन न होतो उसको समझना चाहिए कि अभी उसको और बहुत काल तक संसार में भ्रमण करना है। लोम के वश में पड़ा हुआ जीव अनेक अनर्थ परंपरा की