________________ से दूसरों पर दोष लगाता हुआ वह विचारा स्वयं ही नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। इस लिए आत्मार्थी पुरुषों को चाहिए कि वे यथार्थ बात कहें / उस में एक शब्द भी न बढावे न घटावें। हे भव्य ! तू लोक में माननीय, पूजनीय और वंदनीय होने के आशा तंतुओं को तोड दे / लौकिक कार्य को अनुचित समझ कर तू लोकोत्तर कार्य करने में प्रवृत्त हुआ है, तो भी खेद है कि तू अव तक मोह माहाराज के माया रूपी बंधन में बंधा हुआ है। और उस बंधन को, जैसे मकड़ी अपने जाले को दृढ़ बनाती है वैसे, विशेष रूप से दृढ़ करता जा रहा है / मगर यह सर्वथा अनुचित है / निष्कपटी, निर्दभी और निर्मायी हो कर, स्वसत्ता का भागी बन; जगत जीवों का हितकर बन और सदा के लिए आनंद भोग। लोभ का स्वरूप / भिन्न भिन्न रुचिवाले लोगों के अंदर वसी हुई माया का वर्णन कर प्रमुने लोभ के संबंध में कहा था। इस लिए यहाँ अब लोभ के संबंध में विचार किया जायगा। - श्री दशवकालिक सूत्र में लिखा है: