________________ (16) अन्त नहीं है। प्रारंभ में लोम का स्वरूप छोटा होता है; परन्तु क्रमशः वह बढ़ता हुआ भयंकर राक्षसी रूप धारण कर लेता है। अन्त में लोभी मनुष्य यहां तक निकृष्ट बन जाता है कि वह अपने माता को, पिता को, भाई को, बहिन को, स्वामो को, सेवक को और देव को व गुरु को ठग लेने में भी आगापीछा नहीं करता है / इतना ही क्यों समय पड़ने पर उनके प्राण लेलेने में भी आगापीछा नहीं करता है। कहा है कि: हिंसेव सर्वपापानां मिथ्यात्वमिव कमणाम् / राजयक्ष्मेव रोगाणां लोभः सर्वागसां गुरुः // भावार्थ-हिंसा जैसे सारे पापों का, मिथ्यात्व सारे कर्मों का, क्षय रोग सारे रोगों का गुरु है, वैसे ही लोम सारे अपराधों का गुरु है। जहाँ हिंसा होती है वहाँ सारे पाप स्वयमेव आ खड़े होते हैं। हिंसा सारे धर्मों की नाश करनेवाली होती है। मगर कई लोग हिंसा में धर्म मानते हैं, इसलिए यह विचारणीय है कि, वे धर्मात्मा हैं या नहीं / अस्तु / हिंसा, मिथ्यात्व और राजयक्ष्मा ऐसे तीन दृष्टान्त देकर भोम की भयंकरता बताई गई है। एकेन्द्री से पंचेन्द्री तक में लोम का अखंड राज्य हो रहा है / कहा है कि: