________________ (59) प्रकुप्याम्यपकारिभ्य इति चेदाशयस्तव / तत्कि न कुप्यसि स्वस्य कर्मणे दुःखहेतवे ? // मावार्थ-तेरे कहने का आशय यदि यह हो कि, मैं अपराधी के ऊपर क्रोध करता हूँ, तो दुख के कारण वास्तविक अपराधी जो तेरे कर्म हैं उन पर क्यों नहीं कोप करता है ! / ____ कहने का भाव यह है कि दूसरे अपराधियों की अपेक्षा कर्म विशेष अपराधी हैं / क्यों कि दूसरे अपराधी तो थोड़े ही समय तक, मात्र थोड़ा सा दुख देते हैं, परन्तु कर्म तो अनादि काल से अनन्त दुःख दे रहा है और आगे भी अपने अस्तित्व तक देता रहेगा / इस लिए वास्तविक अपराधी को छोड़ कर अवास्तविक अपराधी पर कोप करना सर्वथा अकर्तव्य है। संसार में लोग हमें शत्रु या मित्र ज्ञात होते हैं, यह सब प्राचीन कर्मों का प्रभाव है / यदि कर्मों का नाश हो जाय तो. उस के साथ ही शत्रु और मित्र के भाव का भी नाश हो जाय। शत्रु और मित्रमाव का अभाव होने से राग-द्वेष का अभाव. होता है और राग-द्वेष के अभाव से मुक्ति मिलती है। इसी लिए जो मूल की ओर ध्यान देने वाला होता है, वही बुद्धिमान गिना जाता है। यह भी समझने की बात है कि, जैसे कोध, कर्म का कारण है इसी तरह कर्म भी क्रोध का कारण है। कर्म के अभाव से क्रोध का अभाव हो जाता है और क्रोध