________________ ( 109) कण्ठगत प्राण हों-मरणासन्न हो-तो भी यवनों की भाषा नहीं बोलना चाहिए। . इस श्लोक के उत्तर में यदि कोई जैनाचार्य भी इस तरह के श्लोक की रचना कर डाले तो वह अनुचित नहीं कही जा सकती / जैसे सिंहेनाताड्यमानोऽपि न गच्छेच्छेवमन्दिरम् / न वदेद् हिसिकी भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि // भावार्थ-सिंह मारने आया हो तो भी शिव के मंदिर में नहीं जाना चाहिए; और कण्ठ गत प्राण हों तो भी हिंसक भाषा नहीं बोलना चाहिए। महाशयो ! द्वेषबुद्धि से कैसे कैसे आक्षेप किये जाते हैं ? ऊपर के दोनों श्लोक अग्राह्य हैं। ये दोनों श्लोक क्या हैं ? दंडादंडि, केशाकेशि और मुष्टामुष्टि युद्ध है / वस्तुतः देखा जाय, तो किसी अल्पबुद्धिवाले ने जैनियों पर उक्त प्रकार का आक्षेप किया है / क्यों कि यह श्लोक न कहीं किसी स्मृति में है और न किसी पुराण में ही / स्मृति या पुराण में इस श्लोक का न होना ही बताता है कि यह किसी उच्छंखल वृत्तिवाले की कृति है। अपनी उच्छंखलता को निर्दोष प्रमाणित करने और संसार में अनर्थ उत्पन्न करने के लिए यह श्लोक बना डाला है।