________________ ( 195 ) जहाँ दंम प्रवेश करता है वहाँ शीघ्र ही दुर्भाग्य का उदय होता है / और अध्यात्म का सुख तो दंभी को स्वप्न में भी नहीं मिलता है / इस लिए मनुष्य को चाहिए कि वह सदा दंभ से दूर रहे / दंभ के लिए और भी कहा है. कि सुत्यनं रसलाम्पट्यं सुत्यनं देहभूषणम् / सुत्यनाः कामभोगाद्या दुस्त्यजं दम्भसेवनं // भावार्थ-रस की लालसा प्रसन्नता से छोड़ी जा सकती है। देह का आभूषण भी खुशी से छोड़ा जा सकता है और काम भोगादि भी खुशी से छोड़े जा सकते हैं, परन्तु दम्भ की सेवा छोड़ना कपट करना छोड़ देना-बड़ा ही कठिन काम है। अहो ! कहाँ तक कहें ? दंमत्याग के विना श्री भगवान भाषित दीक्षा पालन भी निष्फल है। कहा है कि: अहो ! मोहस्य माहात्म्यं दीक्षां भागवतीमपि / दम्भेन यद्विछुम्पन्ति कजलेनेव रूपकम् // भावार्थ-अहो ! मोह का कैसा माहात्म्य है कि उसके कारण-मोहोद्भुत दम्भ के कारण-श्री वितराग की दीक्षा का भी नाश हो जाता है, जैसे कि काजल से चित्र नाश हो जाता हैं।