________________ (35) यह दूसरों की कीर्ति को सहन नहीं कर सकता है इसी लिए बिचारा दूसरों की निन्दा करता है; मिथ्या दोष लगा कर, दुर्गति का भाजन होता है; कृतक्रियाओं को नष्ट करता है। धर्म को हार जाता है और संसार की वृद्धि करता है। मनुष्य को अपनी निन्दा के समय ऐसी ही भावनाएँ भाना चाहिए। और भी कहा है: वधायोपस्थितेऽन्यस्मिन् हसेद्विस्मितमानसः / वधे मकर्मसंसाध्ये वृथा नृत्यति बालिशः // भावार्थ-अपने को मारने के लिए उद्यत मनुष्य को देखकर विस्मित चित्त होकर मनुष्य हँसे कि-मौत तो मेरे कर्मके अधीन है / उस में यह मूर्ख मनुष्य वृथा ही नाच फाँद कर रहा है। किसी मनुष्य के कर्म अशुभ होते हैं तब ही मारने वाला उस को मार सकता है अन्यथा मारने वाले के सारे प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं / यहाँ निश्चयनय की अपेक्षा विचार करना चाहिए कि मेरी मौत जिस निमित्त से होनी होगी उसी निमित्त से होगी। मारने वाले का प्रयत्न व्यर्थ है। इस प्रकार माक्रमित मनुष्य वैराग्य रंग में रंगा जा कर हँसता है। मारने वाले