________________ भावार्थ-निसका मैंने विचार किया था वह अत्यंत दूर मा रहा है और निम का भूलकर भी विचार नहीं किया था वह पासमें आ रहा है / प्रातःकाल ही मैं पृथ्वी का नाथ चक्रवर्ती होनेवाला था परन्तु ( सवेरे होने के पहिले ही ) मैं इसी समय जटाधारी तपस्वी बनकर वन में जारहा हूँ। इससे स्पष्ट है कि, प्रत्येक दर्शनवालोंने येनकेन प्रकारेणकिसी न किसी तरहसे-कर्म की प्रधानता को स्वीकार किया है। ईश्वर के कर्तृत्व स्वीकारने गलों को भी अन्त में कर्म ही का आधार लेना पड़ा है। इस की अपेक्षा तो पहिले ही से कर्म को मानना विशेष अच्छा है। प्रशगवश थोड़ामा कर्म का विवेचन कर फिर हम अपने विषय पर आते हैं / अं ऋषभदेव भगवानने वार्षिक तपस्यादि अनेक तपस्याएँ के घोर परिसह और उपसर्ग मह घाति कर्मों का क्षय किया; केवज्ञान पाया और अनेक प्राणियों को शिवसुख का मार्ग बताया। इसी भाँति श्रीमहावीर प्रभुने भी घोर तपस्या की थी। इस देशना के प्रारंभ में-उपोदयात में-उस का दिग्दर्शन कराया जा चुका है / इसलिए यहाँ इतना ही कहना काफी होगा कि-उन लोकोत्तर पुरुषों की तपस्या के सामने आनी तपस्या-जिस को हम घोर तपस्या समझते हैं- तुच्छ है। ऐपी तुच्छ तपस्या का गर्व करना क्या उचित है ? निस तप के द्वारा निकाचित कर्म भी क्षय हो जाते हैं, उसी तप के द्वारा,