________________ भावार्थ--किसी प्राणि की हिंसा न करना; लेश मात्र भी झूठ न बोलना; अहितकर और अप्रिय भी न बोलना और लेशमात्र भी. चोरी न करना चाहिए। ... २-जो प्राणी दूसरे का कुछ भी-चाहे वह शाक हो, घास हो, मिट्टी हो या जल हो कुछ भी हो उसे-हरण करता है वह नरक को प्राप्त करता है-नरक में जाता है। उक्त श्लोकों के अर्थ का मनन करने से प्रतीत होता है कि वर्तमान समय में, सन्यासी, उदासी, निर्मला, खाकी आदि की जो प्रवृत्ति है, वह आत्मिक धर्म के विरुद्ध है; कृत्रिम शौच का पालन करनेवाली है; उन्मार्ग का पोषण करनेवाली है। इतना ही नहीं, जो वास्तविक साधु और त्यागी हैं उनके ऊपर आक्रमण करने में भी उन लोगों की प्रवृत्ति होती है। एक छोटेसे सारगर्मित वाक्य से साधुओं और गृहस्थों का आचार पाठकों के समझ में आ जायगा। कहा है कि: ‘गृहस्थानां यद्भूषणं तत् साधूनां दूषणं / ' (गृहस्यों के लिए जो भूषण है वही साधुओं के लिए. दूषण है।) उदाहरणार्थ-धन, माल, स्त्री, पुत्र, परिवार आदि निस गृहस्थ के होते हैं वह माग्यशाली समझा जाता है; ये उस के