________________ उत्सर्पयन मानदुस्त कानेवा ऊपर मान के-आठों पदों के-भिन्न 2 स्वरूपों का विचार किया अब उस का सामान्यतः समुच्चय-स्वरूप का विचार किया जायगा। कहा है कि उत्सर्पयन् दोषशाखां गुणमूलान्यधो नयन् / उन्मूलनीयो मानदुस्तन्मादवसरित्पूरैः // भावार्थ-दोष रूपी शाखाओं को फैगनेवाले, और गुण सपी जड़ों को नीचे ले जानेवाले-गुणों को दवा देनेवाले-मान रूपी वृक्ष को मार्दव-सरलता-रूपी नदी के पूर से उखाड़ कर बैंक देना चाहिए। इस मानरोग को नाश करने की इच्छा रखनेवाले मनुष्यों को मृता-कोमलता-रूपी औषध का सेवन करना चाहिए। कहा है कि: मार्दवं नाम मृदुता तच्चौद्धत्यनिषेधनम् / मानस्य पुनरौद्धत्यं स्वरूपमनुपधिकम् // अन्तः स्पृशेद्यत्र यत्रौद्धत्यं जात्यादिगोचरम् / तत्र तस्य प्रतिकारहेतोर्दिवमाश्रयेत् // मावार्थ---मान का स्वाभाविक रूप उद्धतता-अविनीतताहै। इस को दूर करनेवाला मार्दव-मृदुता-है।