________________ (62) मताएं दृष्टिगोचर होती हैं-देखी जाती हैं। इन में जितनी उत्तमताएँ हैं वे सब पुण्य के कारण से मिली हैं / इसलिए यदि सुख की इच्छा हो तो पुण्य के कारणों का सेवन करो और पाप के कारणों को दूर कर दो। कहा है कि क्रोधान्धस्य मुनेश्चण्डचण्डालस्य च नान्तरम् / तस्मात् क्रोधं परित्यज्य मनोज्वलधियां पदम् // भावार्थ-क्रोधान्ध मुनि में और चाण्डाल में कुछ भी अन्तर नहीं होता है। इसलिए क्रोध को छोड़ कर शान्तिप्रधान पुरुषों के स्थान का सेवन करो। विचार करने से ज्ञात होता है कि-क्रोधी पुरुष सचमुच ही चाण्डाल ही के समान है / जैसे चाण्डाल निर्दयता के काम करता है उसी तरह क्रोधी मनुष्य भी निर्दयता के अमुक कार्य करने में आगा पीछा नहीं देखता है / क्रोधावस्थावाले को सज्जन और दुर्जन की पहिचान भी होना कठिन हो जाता है। इस के लिए यहाँ हम एक साधु का और धोबी का उदाहरण देंगे / "एक साधु बहुत ज्यादा क्रियापात्र था। उस के तप संयम के प्रभाव से एक देवता उस के वश में हो गया था। वह उस की सेवा किया करता था। एक बार वह साधु कायचिन्ताशरीर के आवश्यकीय कर्तव्य मलमूत्र का त्याग के लिए बाहिर