________________ (50) भावार्थ-एक दिन का ज्वर छः महीने के तेज को हर लेता है; परन्तु क्रोध-एक क्षण का क्रोध भी-पूर्व कोटि वर्षों में उपार्जन किये हुए तप को नष्ट कर देता है। सन्निपातन्वरेणेव क्रोधेन व्याकुलो नरः / कृत्याकृत्यविवेके हा ! विद्वानपि जडीमवेत् // भावार्थ-क्रोधवाला मनुष्य-वह विद्वान हो तो भीसन्निपातज्वर वाले मनुष्य की भाँति व्याकुल-पागलसा-हो जाता है और खेद है कि, वह कृत्य, अकृत्य के विवेक को खोकर, जड़ के समान बन जाता है। इसी बात का हम विशेष रूप से स्पष्टीकरण करेंगे। ज्वर आनेसे शरीर के सारे अवयव शिथिल हो जाते हैं। वही ज्वर जब सन्निपात का रूप धारण कर लेता है तब मनुष्य अनेक प्रकार की चेष्टाएँ करने लग जाता है; न जाने क्या क्या बकने लग जाता है / लोग उसके जीवन की आशंका करने लग जाते हैं। इसी भाँति क्रोधाभिभूत क्रोध के वश में पड़े हुए-मनुष्य के अवयव भी शिथिल हो जाते हैं। उसकी वचनवर्गणा अव्यवस्थित होजाती है-वह कुछ का कुछ बोलने लग जाता है। उसके शरीर की स्थिति विलक्षण होजाती है। उस समय लोगों को उसके धर्म रूपी जीवन की आशंका हो जाती है / कहा