________________ को पाकर मुझे यह क्या प्रमाद हो रहा है ? क्योंकि देवराजइन्द्र को भी गया हुआ आयुष्य फिर से मिलनेवाला नहीं तात्पर्य यह है कि, व्यावहारिक पक्ष में समर्थ ऐसे इन्द्रादि देव भी जब मृत्यु की शरण में चले जाते हैं तब फिर अपने समान पामरों की तो गति ही क्या है ? प्रमाद, भव्य जीवों का पक्का शत्रु है / यह भव्य जीवों को उठा उठाकर संसार समुद्र में फेंक देता है। ऊपर के श्लोक में 'कः प्रमादो मे' कहा गया है। इस प्रमाद ' शब्द से पाँचों प्रकार के प्रमादों का ग्रहण हो सकता है; परन्तु उन पाँच में भी मुख्य तो विषय ही है / बाकी के मद्य, कषाय, निद्रा और विकथा जो हैं, वे तो उस के कार्य रूप हैं। क्योंकि विषयो पुरुष व्यसनी होते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय भी विषय के निमित्त से ही होते हैं। राग, द्वेष तो उनके सहचारी ही हैं। निद्रा अव्यभिचरित रीत्या विषयी मनुष्य को सेवा करती है / और विकथाएं तो विषयी मनुष्य के सिर पर विधिलिपि के समान लिखी हुई ही होती हैं। श्रीकोट्याचार्यजी सूत्रकृतांग की टीका में लिखते हैं:निर्वाणादिसुखप्रदे नरभवे जैनेन्द्रधर्मान्विते; - लब्धे स्वल्पमचारुकामजसुखं नो सेवितुं युज्यते /