________________ (10) वैडूर्यादिमहोपलौघनिधिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे; लातुं स्वल्पमदीप्तिकाचशकलं किं चोचितं साम्प्रतम् ! // मावार्थ-श्री जिनेन्द्र के धर्म से युक्त; निर्वाण और स्वर्गादि सुख को देनेवाले मनुष्य जन्म को पाकर, अमनोज्ञ और थोड़े विषय के सुख का सेवन करना कदापि उचित नहीं है / वैडूर्यादि रत्नो के समूह से भरे हुए रत्नाकर की प्राप्ति हो जाने पर, थोड़ी कान्ति-शोभावाले काच के टुकड़े को ग्रहण करना क्या उचित है ? कदापि नहीं / हे भव्य प्राणिओ ! थोड़े के लिए विशेष खोना उचित नहीं है / निगोद में से चढ़ते हुए बहुत कठिनाइ से मनुष्यजन्म की प्राप्ति हो गई है। अब तो विषयवासना को छोड़ना ही बाकी रहा है / यदि तुम क्रूर पाप की खानि विषय की सगति नहीं छोड़ दोगे तो कल्याण तुम्हारे से सैकड़ों कोस दूर भागता रहेगा / इस बात को दृढता के साथ तुम अपने हृदय में जमा रखना / _मनुष्य जन्म की दुर्लभता दिखाने के लिए शास्त्रकारों ने दस दृष्टान्त दिये हैं। उनका आगे उल्लेख किया जायगा / यहाँ अब यह बताया जाता है कि संसार में कौन कौन से पदार्थ उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं / यानि कौनसा पदार्थ