________________ (47) हे महानुभावो ! नदियों और सरोवरों का पानी पी डाला तो भी जिसकी प्यास नहीं बुझी उसकी प्यास क्या तृण के अग्र भाग से टपकने वाली बूंदों को पी कर बुझ सकती है ? कदापि नहीं। इसी भाँति इस जीव ने अनादि काल से संसारचक्र में भमते हुए, सुरों और असुरों के बहुत से भोग भोगे हैं तो भी इसको तृप्ति नहीं हुई तो अब इस मनुष्य भव के भोय भोग लेने ही से क्या यह तृप्त हो जायगा !" यह सुन कर अठानवे पुत्रों में जो सब से बड़ा पुत्र था वह बोला:-" हे प्रभो ! आप की बात सत्य है। आपने अपने हाथों से जो राज्यलक्ष्मी दी है उसी से हम संतुष्ट हैं। हम अधिक की इष्छा नहीं करते हैं। तो भी एक बात है। भरत बार बार हमारे पास दूत भेजता है और हमारा अपमान करता है / इस से हमारे हृदय में कषाय वृत्तियाँ उत्पन्न हुई हैं / हमने सब ने भरत के साथ युद्ध करना निश्चित किया है; आप की भाज्ञा चाहते हैं। अपने पुत्रों के ऐसे वचन सुन कर, करुणासागर प्रभु ने इस प्रकार देशना देना प्रारंभ किया: प्रभु की देशना। दुष्प्रापं प्राप्य मानुष्यं सौम्याः ! सर्वाङ्गसुंदरम् / धर्मे सर्वात्मना यत्नः कार्यः स्वात्मसुखार्थिभिः //