________________ (30) एक वार भक्तिपूर्वक इन्द्र महाराज ने वीरप्रमु के जिन * चरणकमलों का स्पर्श किया था, उन्हीं चरणकमलों का स्पर्श, द्वेषबुद्धि से चंडकौशिक सर्पने किया था। चंडकौशिकने विचारा था कि-' अहो ! मेरे स्थान में यह कौन आकर खड़ा है ! मैं शीघ्र ही दंश मारकर, तत्काल ही जमीन पर गिराऊँगायमरान के घर पहुँचाऊँगा / . ____ इस माँति दोनों कौशिर्कोने-एक कौशिक इन्द्र और दूसरा * कौशिक सर्पने-भगवान का चरणस्पर्श किया था। और दोनों के माव सर्वथा एक दूसरे के प्रतिकूल थे। एक का स्पर्श करना * भक्ति पूर्वक था और दूसरे का द्वेष सहित / तो भी भगवान महावीर की दृष्टि तो दोनों के लिए समान ही रही। ऐसे रागद्वेष रहित परमात्मा को मेरा नमस्कार होवे। अहा ! भगवान कितने करुणानिधि थे ? फिर भी कृतापराधेऽपि जने कृपामन्थरतारयोः / ईषद्बाप्यायोभद्रं श्रीवीरनिननेत्रयोः // अर्थात्-संगमदेवने एक रात के अंदर श्रीवीर प्रमु पर अति कठोर बीस उपसर्ग किये थे। वे उपसर्ग ऐसे थे कि, यदि उनमें का एक भी उपसर्ग किसी दृढ शरीर वाले लौकिक पुरुष पर हुआ होता तो, क्षण मात्र ही में उस का शरीर नष्ट हो गया होता; मगर भगवान् ने समान भावों से ऐसे बीस