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श्री यतीन्दसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारकथ
संयोजक
ज्योतिषाचार्य मुनिप्रवर जयप्रभविजय श्रमण
प्रकाशक श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्रीसंघ,
भेसवाड़ा (राजस्थान)
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:: परिचय
नाम पिताजी का नाम मातेश्वरी का नाम भाईयो का नाम
बहिनो का नाम
:श्री रामरत्न राजजी : रायसाहब श्रेठीवर्य श्री वज्रलालजी जैन :श्रीमती चम्पाकुवंरजी :श्री बड़ेभाता दुल्हीचन्दजी छोटेभाइ श्री किशोरमलजी बड़ी बहन श्रीमती गंगाकुंवरी व छोटीबहिन रमाकुंवरी : धौलपुर (राजस्थान) सं.1940 :प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज खाचरौद नगर, जि.उज्जैन (म.प्र.)
जन्म नगर दीक्षा गुरु दीक्षा स्थान दीक्षा के बाद मुनि जीवन का नाम बागरा राजस्थान में प्रदान
: मुनिराज श्री यतीन्द्रविजय महाराज सं.1958 : व्याख्यान वाचस्पति सं.1977 की मानद उपाधि
:पिताम्बर विजेता
रतलाम नरेश श्रीमन्त सज्जनसिंहजी व्दारा पण्डित वयं की उपधि में कौन सी पदवी दी उपाध्याय पद कौन से नगर में दिया आचार्य पद कहां प्रदान हआ कौन से तीर्थ की स्थापना की जिन मन्दिरो का जिर्णोध्दार करवाया हीरक जयन्ती महोत्सव कहा व कब मनाया साहित्य साधना
: जावरा जि. रतलाम (म.प्र.) सं. 1980
आहोर. जिः जालौर.राजस्थान सं. 1995 श्री लक्ष्मणजी जैन तीर्थ (जिःझाबुआ) म.प्र.
:श्री मोहनखेड़ा तीर्थ,भाण्डवपुर तीर्थ
गुरु तीर्थ स्थापना का संदेश
:खाचरौद नगर (म.प्र.) सं. 2015 : स्वर चितविविध विषय की 61 पुस्तको का प्रकाशन करवाया : श्रीमत राजेन्द्र सूरी -जैन दादावाड़ी
गुरु तीर्थ, जावरा सं. 2015 : श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में सं. 2017
स्वर्गवास कहां व कब
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श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वर
जवरजी म.सा.
आचायदेव
(दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध)
* मार्गदर्शक * माला परम पूज्य राष्ट्रसंत शिरोमणी गच्छाधिपति आचार्य श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
* प्रेरणा*
संयवय स्थिविर मुनिराज श्री सौभाग्यविजयजी महाराज सा.
* प्रधान सम्पादक*
ज्योतिषाचार्य, मालवरत्न, शासन दीपक मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी "श्रमण"
*मुख्य उपदेशिका* गच्छशिरोमणी शासन दीपिका प्रवर्तिनीय गुरुणीजी साध्वीश्रीमुक्तिश्रीजी म.सा.
कारगर * प्रकाशक* श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय - खुडाला - श्री मोहनखेड़ा तीर्थ श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी (ट्रस्ट), श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्री संघ, भेसवाड़ा श्री शीतलनाथ-शान्तिनाथ मन्दिर प्राण प्रतिष्ठात्सव स्मृति में
(विक्रम सं. २०५५ माघ सुदी १४ दिनांक ३०-१-९९ शनिवार)
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15जागा
* परामर्शदाता समिति* श्री प्रकाशचन्दजीमूलचन्दजीभेसवाड़ा श्रीहुकमीचन्दजीवागरेचा, सियाणा श्री महेन्द्रकुमारजीकोठारी, भेसवाड़ा श्री मिटुलालजी ओस्तवाल, जावरा, श्रीप्रकाशचन्दजीलोढ़ा(एडव्होकेट),वाचरौद श्री बाबूलालजीरिखमेसरा, जावरा श्री रजनीकान्त शान्तिलालजी मेहता, धानेरा, मुम्बई श्रीराजेन्द्रकुमारधाड़ीवाल,रतलाम कोकोपार* श्रीसमीरकुमारशान्तिलालजी मेहता,धानरास श्रीअनोरवीलालजी मोदी,पेटलावद
जाड संघवी श्रीसुमेरमलजीलुकड़, भीनमाल श्रीजीतमलजीलुक्कड़, जावरा श्रीसुभाषचन्दजीनागदा, वाचरौद श्रीभांगीलालजीपावेचा, राजगढ़ श्री बागमलजीनहार, मन्दसौर श्रीभांगीलालजीबांठिया, ताल श्रीलालचन्दजी (कालूजी) आहोर श्रीवालचन्दजीरामाणी, नेल्लूर श्रीराजमलजी केशरीमलजीलूकड़, जावरा श्रीमाणकलालजी कोठारी, अध्यक्ष त्रिस्तुतिकसंध, जावरा
* प्रवेश* विक्रमसं.२०५४ * महावीर निवार्णसं.२५२४ * इश्वीसं. १९९७ * श्रीराजेन्द्रसूरिस.९२
SIFT* प्राप्ति स्थान* श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय
श्री भूपेन्द्र सूरिसाहित्य समिति श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
मन्त्री श्री शान्तिलाल वख्तावरमलजी मुथा देरासर सेरी, राजगढ़ (धार) म. प्र. काय आहोर (जालौर) राज. वाया जमाई बान्ध
* मूल्य:- ५००/- (पांच सौ रुपये)
जावरा
ला .*मुद्रक*जिन
श्री राजेन्द्र ग्राफिक्स २3, जवाहर मार्ग, राजगढ़ (धार) फोन : (०७२९६) 313२२, 3११४८
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विश्व पूज्य प्रातः स्मरणीय युग दृष्टा
श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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द्रसूरीश्वरजी म.
देवश्रीमद्विजय यतीन्द्रम
(दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्थ)
आचार्य
* प्रधान सम्पादक* ख्याति प्राप्त विद्वान आगम वाचस्पति डॉ. सागरमलजी जैन, शाजापुर * सम्पादक मण्डल *
प्रवचनकार मुनिराज श्री हितेशचन्द्रविजयजी म.सा. डॉ. रमणलालभाईसी. शाह, मुम्बई
डॉ. श्री प्रकाश पाण्डे, वाराणसी डॉ. श्री विनोदकुमारजी शर्मा, शाजापुर डॉ. श्रीमती ताराबहिन आर. शाह, मुम्बई सुश्री उषादेवीसुनिलकुमारपारख, बडवाह
* प्रबन्ध सम्पादक मण्डल* मुनिराज श्री दिव्यचन्द्रविजयजी म.सा.
श्री किशोरचन्द एम. वर्द्धन, मुम्बई श्री शान्तिलाल वरख्तावरमलजी मुथा, आहोर श्रीसुजानमलजीसागरमलजीसेठ, राजगढ़
श्री पुरवराज ताराचन्दजी, बागरा-मुम्बई श्रीसुशीलकुमार रमेशचन्दजी खटोड़, मनावर आ धार
श्रीसभरथमल उंकारलालजी लोढ़ा, जावरा यार मयूर श्री भूपेन्द्रकुमारसरदारमलजीरुणवाल, जावरा. श्री अनीलकुमार ज्ञानचन्दजी चौपड़ा, जावरा
* वित्त समिति अध्यक्ष * श्री जयन्तिलाल मूलचन्दजी बाफना, भीनमाल-मुम्बई
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अनुक्रमणिका
लेख
लेखक
पेजनं.
1. हे जिन्होंको साधुवाद
वि.66
मुनिप्रवर जयप्रभविजयजी श्रमण 2. संपादकीय
डॉ. सागरमल जैन 3. शुभ-संदेश
श्री महामहोपाध्याय विनयसागरजी 4. शुभ-संदेश
श्री विक्रम वर्मा (अध्यक्ष मध्यप्रदेश भारतीय जनता पार्टी)
कीका राय 5. शुभ-संदेश
श्री कान्तिलालजी भूरिया सांसद 6. शुभ-संदेश
श्री निवास तिवारी (अध्यक्ष म.प्र. विधान सभा) 7. शुभ-संदेश
सत्यदेव कटरे (खाद्य मंत्री म.प्र. शासन) 8. शुभ-संदेश
डॉ. एस.के.शर्मा (कुलपति) 9. शुभकामना-संदेश
डॉ. वच्छराज दुग्गड (विभागाध्यक्ष) 10. शुभ-सन्देश
रानमाला सावनू 11. शुभ-सन्देश
राम मूर्ति त्रिपाठी 12. शुभकामना सन्देश
हरिशचन्द्र जैन 13. शुभकामना सन्देश
डॉ. महेन्द्र भानावत, उदयपुर 14. शुभकामना सन्देश
श्री सुरेन्द्र सिंह पोखरणा अहमदाबाद 15. आचार्य श्री कोमल हृदयी
थे य धार
श्री मांगीलाल छाजेड (मैनेजिंग ट्रस्ट्री श्री मोहनखेडा तीर्थ) 13 16. आचार्य श्री आगम ज्ञाता थे
संघवी बालचन्द्र रामाणी, नेलूर 17. योग्य-गुरू के योग्य शिष्य
चम्पालाल पुखराजजी चौपड़ा, आहोर 18. हार्दिक शुभकामना DPRठी महेन्द्रकुमार नरपतराजजी, भैसवाड़ा 19. एकता के प्रबल समर्थक
मांगीलाल चौपड़ा, रतलाम 20. वे गुण ग्राहक थे Fant 118
बाबूलाल भंवरलाल खिमेसरा, जावरा 21. महान साहित्य सजग
मिट्ठलाल औस्तवाल, जावरा
O Fट 22. वे निर्भिक निडर, निष्पक्ष
अनोखीलाल मोदी, पेटलावद 23. वे भेद ज्ञानी थे
-गजाली हुकमीचंदजी वागरेचा, राणी बेन्नूर 24. कुशल प्रवचनकार जवाहराना संघवी सुमेरमल, सियाणा PFre 25. व्यसनमुक्त समाज के समर्थक
कठिीका राजेन्द्रकुमार धाड़ीवाल, रतलाम 26. वे इतिहास प्रेमी थे
गागका
लालचंद जैन, आहोर 27. अनुपम विशेषताओं के धारक
प्रकाशचंद मूलजी, भैसवाड़ा 28. ज्ञान के आगार
माणकलाल कोठारी, रतलाम 29. वे कुशल संपादक थे
कमलचंद ओटमलजी सेठ, आहोर 30. जिनकी कल्पना आज साकार हो रही गीता ज्ञानचंद चौपड़ा, रतलामाकीनfio
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31. लेखन के धनी
32. वे निराभिलाषी थे
33. वे निरासक्त थे
34. वे भय मुक्त थे
35. परम दयालु गुरूदेव
36. वे अजेय थे
37. वे सही अर्थों में मुनि थे
38. वे मनोविजेता
39. उन्होंने मानवभव सार्थक किया
40. भूले भटकों के आश्रय दाता थे
41. उन्होंने जीवन की क्षण........
42. वे सर्वप्रिय थे
43. वे सच्चे गुरू थे
44. वे सबका कल्याण चाहते थे
45. आप तीरे औरन को तारा
46. कुल का नाम उज्ज्वल किया
47. पुण्य स्मरण
48. अनुपम गुणों के धारक
49. कल्पना आज साकार स्वरूप में
50. मंगल कामना
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
वर्तमान सन्दर्भ में आचार्य देव का प्रवचनसाहित्य
धरती पर सूरज उतरा
इतिहास आचार्यदेव
जीवन निर्माता गुरुदेव
आचार्यश्री का यात्रा साहित्य एक अनुशीलन
8.
संयम पथ पर बढ़ते कदम
9.
शास्त्रार्थ में प्रवीण आचार्य देव
10. आचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरी जी द्वारा
रचित साहित्य एक वर्गीकरण
कुशल प्रवचनकार आचार्य भगवन्
श्री अभिधान राजेन्द्र कोश और आचार्यश्री
अर्जुनप्रसाद, बाल्मीकि प्रसाद, मोहनखेडा
मोतीलाल बोहरा, इन्दौर
विमलचंद रूपचंद बजावत आहोर
महावीरचंद शांतिलालजी मूंथा, आहोर
सुमेरमल वांणीगोता, आहोर
शांतिलाल बजावत आहोर पारसमलजी वजावत, आहोर भीखचंद चोपड़ा, आहोर गणेशमल बजावत आहोर
मिश्रीमल नरपतराज, रीपटूर
श्रेणिक कुमार लुणावत, रतलाम
प्रकाशचंद लोढ़ा, खाचरौद
कमलराज संघवी,
सूरत जेठमल रूणवाल, जावरा
राजमल लुक्कड़, जावरा
'शांतिलाल सिसौदिया, जावरा
लक्ष्मीचंद सरोज, जावरा
आनंदीलाल धाड़ीवाल, मोहनखेड़ा
संतोष मामा, राजगढ़
मानव मुनि इन्दौर
व्यक्तित्व-कृतित्व
मुनिराज श्री सौभाग्यविजयजी
मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी श्रमण
मुनिराज श्री लेखेन्द्रविजय
मुनि श्री ऋषभचन्द्रविजयजी विद्यार्थी
मुनि हितेशचन्द्रविजयजी 'श्रेयस'
मुनि दिव्यचन्द्रविजयजी 'सुमन' गुरुणजी मुक्ति श्रीजी म.
साध्वी श्री जयन्त श्रीजी
साध्वी संघवण श्रीजी
साध्वी श्री तत्त्वलोचना श्रीजी
29
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1.
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11. राग से वैराग्य की ओर 12. जैनाचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि 13. आचार्य श्री मद्विजय यतीन्द्रसूरि-विराचित 14. भूगोलवेत्ता आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी 15. एक संकल्प-एक स्वप्न 16. श्री मद् यतीन्द्रसूरि - एक परिचय 17. आचार्यश्री के प्रथम पुण्यदर्शन 18. समाज-सुधारक आचार्य भगवन् 19. पिताम्बर विजेता - यतीन्द्रसूरि 20. आगम मर्मज्ञ आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म. 21. संघनायक आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म. 22. श्री यतीन्द्रसूरि-दीक्षा-शताब्दी 23. भेदविज्ञान के ज्ञाता आचार्यश्री
साध्वी श्री मणिप्रभा श्रीजी पं. मदनलाल जोशी किशोरचन्द्र एम. वर्द्धन सेठ सुजानमल जैन आनन्दीलालजी संघवी अचलचन्द जैन पं. मदनलाल जोशी शास्त्री श्री समरथमल लोढा कु. सोनाली लोढा श्री भूपेन्द्र कुमार रुणवाल अनिलकुमार ज्ञानचन्दजी चौपड़ा कु. सोनाली लोढा सुशील कुमार रमेशचन्द्रजी खरोड़
(144)
परिशिष्ठ
श्री राजेन्द्रसूर्यभ्युदयावली 2. श्री राजेन्द्रसूरि जैन ग्रंथमाला 3. श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय सीरिज
श्री यतीन्द्रसूरि - साहित्य माला श्री सौधर्म त्रिस्तुतिक गुर्वावली ग्रन्थनायक के चातुर्मास
ग्रन्थनायक द्वारा दीक्षा बड़ी दीक्षाएं 8. ग्रन्थनायक द्वारा लिखित साहित्य 19, ग्रन्थनायक द्वारा प्रतिष्ठाएं एवं अंजनशलाकाएँ 10. ग्रन्थनायक द्वारा उपधानतप आराधना 11. ग्रन्थनायक द्वारा की निकाली गई तीर्थ यात्राएं12. मंगलाचरण 13. कलशबंद स्तुति 14. यतीन्द्र सूरिस्वरः 15. अष्टकहार बन्धः 16. गीतिका छन्द मय प्रार्थना 17. शिखरणी-छन्दः 18. बसंततालिका छन्दः
संकलन संकलन संकलन संकलन संकलन संकलन संकलन संकलन संकलन संकलन संकलन जयप्रभविजयजी श्रमण पंडित मदनलाल जी जोशी पंडित करमलकर शास्त्री पंडित मदनलाल जोशी आचार्य विद्याचन्द्र सूरि आचार्य विद्याचन्द्र सूरि उपाध्याय गुलाब विजयजी
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19. उपेन्द्र वज्रा छन्दः 20. पञ्चामर छन्दः 21. त्रिशन्मात्रिक चौपया छन्द 22. गुरुवन्दना 23. शार्दूल विक्रीडित छन्दः 24. मालिनी छन्दः 25. द्रुतविलम्बित वृत्तम् 26. क्षमास्वापराधम् 27. श्री यतीन्द्र-गरिमा 28. शार्दुल विक्रीडित छन्द 29. गुरुदेव स्तभः 30. श्री गुरुवर 31. स्वागत-स्तवक-गुच्छः 32. गुरू-कीर्तनम् 33. श्रीयतीन्द्र गुरु-गुणनुवादिः 34. गुरुवन्दन् 35. जयति-श्री यतीन्द्र 36. क्षमापना स्तोत्रम् 37. राग कल्याण ध्रुपद
मुनि श्री वल्लभ विजयजी मुनिश्री वल्लभविजयजी मुनिश्री सागरानन्द विजयजी मुनि उत्तम विजयजी पं. मदनलाल जोशी पं. मदनलाल जोशी पं. मदनलाल जोशी पं. मदनलाल जोशी पं. विश्वेरनाथ तर्क काव्य भूषण पं. वज्रनाथ मिश्र शास्त्री पं. पन्नालाल जी नागर आचार्य विद्याचन्द्र सूरिजी पं. मदनलालजी जोशी पं. अवधकिशोर मिश्र पं. विहारीलाल शास्त्री पं. विश्वश्वर साहित्य तीर्थ पं. विश्वेश्वर व्याकरणाचार्य पं. मदनलाल जी जोशी शास्त्री पं. मदनलालजी जोशी शास्त्री मन्दसौर
40 (184)
जैन आगम एवं साहित्य
1. अष्टप्रातिहार्य का सन्देश 2. प्रति ग्राम नगर में सामायिक मंडल आवश्यक 3. अल्पा बहुत्व नु द्वार ना अणणु व प्रकार ना, 4. क्रिया 5. देवार्चन और स्नात्रपूजा 6. आगमिक चूर्णिया और चूर्णिकार 7. प्राचीन दिगम्बराचार्य और उनकी साहित्य साधना 8. षट्प्रभृत का रचनाकार कौन और उसका रचनाकाल 9. वसुदेव हिण्डी में वर्णित साध्वीयां
साध्वी मणिप्रभा श्रीजी साध्वी मणिप्रभा श्रीजी शांतिलालजी मूथा मुनि नरेन्द्रविजय मुनि जिनेन्द्रविजय 'जलज' डॉ. मोहनलाल मेहता डॉ. रमेशचन्द्र जैन डॉ. के.आर.चन्द्र डॉ. रंजन सूरिदेव
067
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98
10. नियुक्ति साहित्य : एक परिचय 11. भाष्यकार : एक परिशीलन 12. छेदसूत्र एक अनुशीलन 13. भाष्य और भाष्यकार 14. कीर्ति कौमुदी में प्रयुक्त छन्द 15. जैन आगामों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी 16 प्राकृत महाकाव्यों में ध्वनितत्व 17. अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श 18. आगम साहित्य में प्रकीर्णको स्थान महत्व 19. नियुक्ति साहित्य : एक पूनर्चिन्तन 20. आचारांगसूत्र : एक विश्वलेषण 21. रामपुत्त या रामगुप्त सूत्र : कृताङ्ग के संदर्भ में 22. अंतकृतदशा की विषय वस्तु : एक पुनर्विचार 23. प्रश्न व्याकरण सूत्र की प्राचीन विषय वस्तु की खोज
डॉ. श्री प्रकाश पाण्डेय समणि कुसुमप्रज्ञा मुनिदुलहराज डॉ मोहनलाल मेहता डॉ अशोककुमार सिंह डॉ. सागरमल जैन डॉ. रंजन सूरिदेव डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन
102 117 123
164
169
183
190
192
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जैन दर्शन
1. जैनयोग का तत्वमीमांसीय आधार 2. जैन दर्शन का परमाणुवाद 3. जैन परमाणुवाद और विज्ञान
संभाष्य तत्वार्थाधिगम सूत्र में प्रत्यक्षप्रमाण
जैन-तर्क में अनुमान 6. जैन दर्शन में मानववादी-चिन्तन 7. आचार्य कुन्दकुन्द का मौलिक चिन्तन 8. जैन आचार में उत्सर्ग मार्ग और अपवाद मार्ग 9. जैन-धर्म में प्रायश्चित एवं दण्ड-व्यवस्था 10. नीति मानवता वादीसिद्धान्त और जैन आचार दर्शन 11. जैन आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न 12. जैन नीति दर्शन की सामाजिक सार्थकता 13. श्रावक आचार की प्रासङ्गीत्कता का प्रश्न
डॉ सुधा जैन प्रो. डॉ. लालचन्द जैन डॉ. रज्जनकुमार डॉ. प्रकाश प्रमाण डॉ. वशिष्ठनारायण सिंह डॉ. विजयकुमार डॉ. ऋषभचन्द्र जैन फौजदार डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन
107
114 (514)
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जैन-धर्म
1. श्री नमस्कार महामंत्र
मुनिराज श्री देवेन्द्र विजयजी साहित्यप्रेमी 2. जैन धर्म में तीर्थकर : एक विवेचन
डॉ. रमेशचन्द्र गुप्त 3. जैन तीर्थंकरों के लांच्छन
मुनि ऋषभचन्द्र विजय विद्यार्थी 4. क्रान्तदर्शीशलाका पुरुष : भगवान महावीर
डॉ. श्री रंजन सूरिदेव 5. ऋषभनाथ : श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतियें के समन्वय सेतु विद्यावाचस्पति डॉ. श्री रंजनसूरि देव
64 (582)
1. ब्रह्मचर्य तपोत्तमम् 2. ब्रह्मचर्य : स्वरूप एवं साधना
ब्रह्मचर्य
मंत्र की साधकता : एक विश्लेषण 5. भारतीय-चिन्तन में दान की महिमा 6.: एक चिन्तन 7. जैन-योग में अनुप्रेक्षा 8. जैन-आचार संहिता 9. जैन न्याय में स्मृति प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क 10. जैन-धर्म का त्रिविध साधना मार्ग 11. जैन आगमों में समाधिमरण की अवधारणा 12. जैन धर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान 13. जैन साधना का आधार सम्मग्दर्शन 14. जैन-साधना में ध्यान 15. जैन धर्म में पूजा विधान एवं धार्मिक अनुष्ठान 16. पर्युषण पर्व : एक विवेचन
जैन साधना एवं आचार
आचार्य श्री मद्विजय यतीन्दसूरीश्वरजी म. राष्ट्रसन्त उपाध्याय अमर मुनि मुनि नरेन्द्र विजय श्री नन्दलाल जैन श्री बाबूलाल जैन "उज्ज्वल" डॉ. रच्जन कुमार समणी-नियोजिका मंगल प्रज्ञा डॉ. सुधा जैन डॉ. वशिष्ट नारायण सिन्हा डॉ. सागरमल जी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन
107
117 (706)
इतिहास
1. जैन धर्म की परम्परा इतिहास के झरोखे से 2. प्राचीन मालवा के जैन विद्वान् और उनकी रचनाएं
आगम वाचस्पति डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. तेजसिंह गौड़
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5.
62
72
103
3. श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामत्य परिचय
डॉ. शिवप्रसाद 4. चैत्र गच्छ का संक्षिप्त इतिहास
डॉ. शिवप्रसाद इतिहास-लेखन की भारतीय अवधारणा
डॉ. असीम कुमार मिश्र 6. वैदिक एवं श्रमण वांड्मय में नारी शिक्षा
डॉ. सुनीता कुमारी 7. पल्लीवाल गच्छ का इतिहास
डॉ. शिवप्रसाद 8. प्राचीन एवं अर्वाचीन त्रिस्तुतिक गच्छ
डॉ. शिवप्रसाद 9. छाजहड़ गौत्रिय ओसवाल वंश का इतिहास
श्री भंवरलाल नाहटा 10. जैसलमैर : पुरातात्तिक तथ्य
श्री भंवरलाल नाहटा 11. दक्षिण भारत का जैन पुरातत्व
डॉ. भागचन्द्र जैन "भास्कर" 12. कोरटाजी तीर्थ प्राचीन इतिहास
आचार्य देव यतीन्द्र सूरि 13. लक्ष्मणी तीर्थ इतिहास
मुनि श्री जयन्तविजयजी 14. मरूधर और मालव के पांच तीर्थ
मुनिराज श्री देवेन्द्र विजयजी साहित्य प्रेमी आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
113
121
135
139
142
(856)
1. 21 वीं सदी की प्रमुख समस्याएं और जैन दर्शन के प्ररिप्रेक्ष में उनके समाधान
डॉ. सागरमलजी जैन 2. अपराध एवं उपकार की आध्यात्मिक समझ से तनाव मुक्ति डॉ. पारसमल अग्रवाल 3. द्वन्द्व और उनका निवारण
डॉ. रामनारायण, डॉ. रज्जनकुमार 4. चिकित्सा के प्रति समाज सांस्कृतिक उपागम
डॉ. रामनारायण, डॉ. रज्जनकुमार स्वास्थ्य और अध्यात्म
चंचलमल चोरडिया 6. अज्ञान सभी रोगों का मूल है?
चंचलमल चोरडिया जैन दर्शन में पर्यावरण संरक्षण
श्री कन्हैयालाल लोढा 8. आकाश की अवधारणा : आगमों के विशेष सन्दर्भ में डॉ. विजयकुमार व्यसन मुक्त हो जीवन
मुनि जयप्रभविजय श्रमण 10. जैन धर्म की परम्परा इतिहास के झरोखे से
डॉ. सागरमलजी जैन 11. जैन इतिहास : अध्ययन विधि एवं मूल स्त्रोत्र डॉ. सागरमलजी जैन 12. जैन धर्म का विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय
डॉ. सागरमलजी जैन 13. समदर्शी आचार्य हरिभद्र
डॉ. सागरमलजी जैन
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114
14. आचार्य हेमचन्द्र : एक युग पुरुष 15. जैन धर्म में तीर्थ की अवधारणा
डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन
119 (984)
समाज एवं संस्कृति
1. जैन एकता का प्रश्न 2. जैन धर्म में नारी की भूमिका 3. शुभः पुन्यस्य अशुभः पापस्य
डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन डॉ. सागरमलजी जैन
11
31 (1020)
अंग्रेजी विभाग
Dr. Ramesh S. Betai
Application of Anekantavada On Mathematical Contents of Jaina Prakrit Texts Sadhna of Mahavira as Depicted in Upadhan Sruta Exposition of naya in Jaina philosophy The Mystic Syllable Om
A Brief Survey Dr. Ashok Kumar Singh DR Ajit shuk deo sharma Dr.A.N. Jain
5.
(1056)
गुजराती विभाग
1. विनय 2. प्रभु साथेनी गोठहीने माणिये 3. जैन धार्मिक सन्दर्भ अने मध्यकालिन गुजराती साहित्य 4. जैन साहित्यमा हेम कुमार पाल संबंधित रूपक कथओं
अतिचार अने भारतीय फौजधारी धारो 6. मोहनविजय कृत चन्द राजानों रास 7. अगड़ दत्त कथा 8. साधु सन्तोनी वाणीयां प्रगट थति विन
सम्पादिता अने सामाजिक संवादिता 9. दीक्षाना प्रकारो 10. आर्य वज्रस्वामी
डॉ. रमणलाल चि. शाह प.पू. आचार्य प्रद्युम्न सूरिजी म. डॉ कान्तिभाई सी शाह डॉ. प्रहलाद पटेल डॉ. कविन शाह डॉ. कीर्तिदा जोशी श्रीमति कल्पना कनुभाई सेठ
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डॉ. कनुभाई सेठ प.पू.साध्वी श्री मोक्षगणा श्रीजी डॉ. ताराबहिन रमणलाल शाह
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(1120)
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हे जिन्होको साधुवाद
महापुरुषो की जन्म तिथि, स्वर्गगमन तिथि, और यदि संत/आचार्य हुए तो दीक्षा तिथि, आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने की तिथि आदि तिथियों का विशेष महत्व होता है। उनके अनुयायी इन तिथियों के अवसर पर विशेष आयोजन कर अपने आराध्य का गुणगान कर उन्हे अपनी हार्दिक भावंजली देते है। इतना ही नहीं कभी कभी उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए कुछ स्थाई प्रकार के ऐसे कार्य भी करते है। जो सार्वजनिक हित में होते हुए उनकी कीर्तिपताका फहराते रहे । पूज्य गुरुदेव व्याख्यान वाचस्पति, बाल ब्रह्मचारी, आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. भी एक महापुरुष थे । इसके साथ ही वे तीर्थ निर्माता, तीर्थोद्धारक, आओजस्वी वक्ता, पीताम्बर विजेता, आगममनीषी, गम्भीर गणनायक एवं महान साहित्यकार, सम्पादक भी थे । वे एक कुशल संगठक भी थे।
मात्र 14-15 वर्षकी वासंतीवय में उन्होने अपना जीवन गुरुदेव प्रातः स्मरणीय, विश्व पूज्य जैनाचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. के श्री चरणों मे समर्पित कर दिया था। इसके पश्चात पू. गुरुदेव के चरणों में रहते हुए आपने काफी विकास किया । परिणाम स्वरुप केवल चालिस वर्ष की आयु में आपने आचार्य श्री सागरानन्द सूरि को शास्त्रार्थ में पराजित कर एक स्व-गुरुगच्छ का ध्वज फहरा दिया।
_पू. गुरुदेव ने आपकी प्रतिभा को काफी पहले ही जान लिया था फलस्वरुप उन्होने अपने अन्तीम समय में 23 वर्ष की उम्र में आपके सुदृड़ कंधो पर संघ और समाज का उत्तरदायित्व डाल दिया था । पू. गुरुदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.केस्वार्गगमन के पश्चात आचार्य श्रीमद्विजय धनचन्द सूरीश्वरजी म. सा. एवं उनके पश्चात आचार्य श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. के नेतृत्व में आपने संघ एवं समाज हित मे अनेक कार्य सम्पन्न किये/करवाये तत्पश्चात आचार्य पद का दायित्व भी आपके ही कन्धो पर आ गया।
पूज्यश्री ने अपने सम्पूर्ण संयम काल में अनेक महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित किये जो आप ही आपकी कीर्ति का गुणगान कर रहे है । उन सबका विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्दर पढ़ने को मिलेगा । शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर आपने अपनी ज्ञान गरिमा प्रकट कर दी, लक्ष्मणी तीर्थ (जिला- झाबुआ) की स्थापना की जिससे आप तीर्थ निर्माता कहलाये । श्री भाण्डवपुर तीर्थ का जिर्णोद्धार करवाकर आप तीर्थोद्धारक कहलाये । इसी प्रकार आपने श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के विकास में भी अपना अनुपम 64 वर्ष तक योगदान दिया है इससे आज यह तीर्थ देश के महान जैन तीर्थो मे से एक है, एवं अन्तर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि में गणना अग्रगण्यता में होती है।
पू. गुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. द्वारा रचित श्री अभिधान राजेन्द्र कोष का कुशलता पूर्वक सम्पादन कर उसे मुद्रित करवाकर आप एक कुशल सम्पादक के रुप में हमारे सामने आते है । इतना ही नहीं आपने लगभग साठ से भी अधिक विभिन्न विषयों से सम्बन्धित पुस्तको की रचना की है जिससे आप एक साहित्यकार आचार्य भगवन्त के रुप में विख्यात हुए। आप गुण ग्राहक भी थे विद्वानों का आप सदैव सम्मान करते थे, करवाते थे आपने कुछ विद्वानो की प्रतिभा पहचान कर उनसे भी उच्च कोटी के ग्रन्थो की रचना करवाई । वैसै ग्रन्थ आज दुर्लभ हो गये है।
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आपश्री एक कुशल प्रवचनकार भी थे। आपके प्रवचन पीयूष का पान करने के लिए गुरु भक्त एवं श्रद्धालु लालायित रहते थे। आप सामाजिक विषयों पर अपने प्रवचन फरमाते थे । प्रवचन सुनते समय श्रोता मंत्र मुग्ध हो जाया करते थे। अपने प्रवचनो में आपकी विषय अनुकुल शास्त्रीय उद्रण देते हुए उसको बोधगम्य बनाने के लिए यथा प्रसंगो का भी उल्लेख करते थे। आपके प्रवचनो के वैशिष्टय को देखते हुए ही आपको सं. 1972 में बागरा नगर मे आचार्य श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने हजारो गुरुभक्तो की उपस्थिति चतुर्विध श्री संघ के समक्ष व्याख्यान वाचस्पति की उपाधि से अलंकृत किया था ।
आपश्री इतिहास के अनन्य प्रेमी थे । यही कारण है कि आपने शिलालेखों, प्रतिमा लेखों का संग्रह तो किया ही साथ ही आपने अनेक ग्राम-नगरों के इतिहास का लेखन भी किया है। इतना ही नहीं आपने अपनी विहार यात्राओं के पडावो का भी उल्लेख करते हुए एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक की दूरी, वहाँ उपलब्ध सुविधाओं आदि का उल्लेख कर भावी पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन प्रदान किया है।
आपने अपने संयम जीवन में अनेक स्थानो पर अंजनशलाकायें, प्रतिष्ठाएं आदि सम्पन्न करवाई । अनेक तीर्थ स्थानों के लिए संघ यात्राऐं आपके सानिध्य में निकली । आपके पावन सानिध्य में अनेक स्थानों पर उपधान तपो का भी आयोजन हुआ और अनेक मुमुक्षुओं ने आपके कर कमलो से संयम व्रत अंगीकार किया जो आज अपने गुरुदेव का नाम उज्जवल कर रहें है ।
आप एकता के महत्व को भलीभांती जानते थे और सदैव संघ-समाज को एक जुट रहने का उपदेश दिया करते थे । यही कारण रहा की आपने समाज में जहाँ भी विग्रह देखा आपने दोनो पक्षो को सामने बुलाकर उनकी बाते ध्यान से सुनते हुए उनके विवाद को समाप्त कर समाज में एकता स्थापित की ।
आपश्री व्यसनमुक्त समाज के पक्षधर थे, आपश्री इस तथ्य से भली भांती परिचित थे कि व्यसन से समाज खोखला होता है, पतन के गर्त में गिरता है और अंत मे इसका कारण विनिष्ट हो जाता है। यही कारण था कि आप जहाँ भी पधारते व्यसन मुक्ति के लिए लोगो को प्ररित करते । परिणाम स्वरुप अनेक व्यक्तियों ने आपश्री से प्रेरणा लेकर मद्य और मांस का त्याग किया अनेक लोगो ने आखेट न करने का नियम भी लिया । इसी प्रकार आपने समाज में व्याप्त अन्य बुराईयों को दूर करने के लिए भी लोगो को प्रेरित किया । इस प्रकार आपने समाज सेवा का एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया ।
पूज्य गुरुदेव की हजारों हजार विशेषाताऐं है । उन सबका गुणगान कहां तक किया जावे। जितना भी किया जाए उतना ही कम लगता है। ऐसे ज्ञानी-ध्यानी- परोपकारी, मेरे जीवन निर्माता पूज्य गुरुदेव श्री श्री श्री 1008 आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. की दीक्षा शताब्दी का प्रसंग जब मेरे मानस पटल पर उभरा तो इस शुभ अवसर पर कुछ कुछ करने के लिए में चिंतन में डुब गया। काफी सोच विचार के पश्चात में इस निष्कर्ष पर पहुचां की इस शुभ अवसर पर शताब्दी स्मारक ग्रन्थ के द्वारा श्रद्धाजंली अर्पित करना सर्वश्रेष्ठ रहेगा । साथ ही यह निर्णय भी कर लिया की इसके प्रधान सम्पादक कार्य जैन धर्म दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान, आगम वाचस्पति डॉ. सागरमलजी जैन (निदेशक- पार्श्वनाथ शोध संस्थान, वाराणसी) को सौंपा जावे ।
इतना निर्णयहो जाने के उपरान्त अब इस विचार को मूर्त रुप देना था । इसलिए सबसे पहले सम्पूर्ण विवरण सहित डॉ. सागरमलजी जैन को प्रधान सम्पादक का उत्तरदायित्व सम्हालने की स्वीकृति प्रदान
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करने के लिए एक पत्र लिखा । मुझे अल्प समय में ही डॉ. जैन सा. की स्वीकृति मिल गई । गुजराती विभाग के लिए डॉ. रमणभाई सी. शाह एवं श्रीमती ताराबहिन आर. शाह की स्वीकृति भी मिल गई और शताब्दी स्मारक ग्रन्थ की रुपरेखा तैयार कर उसके अनुरुप कार्य आरम्भ कर दिया गया।
दीक्षा शताब्दी स्मारकग्रन्थ सभी दृष्टि से श्रेष्ठ हो इस बात को ध्यान रखते हुए अपने कार्यो में अति व्यस्त रहते हुए एवं वृद्धावस्था में होते हुए भी डॉ. जैन सा. पूर्ण लगन एवं निष्ठा से जुटे रहे । आपने देश के ख्याती प्राप्त विद्वानों से सम्पर्क कर उच्च स्तरीय सामग्री का संग्रह किया।
का प्रस्तुत दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रन्थ जिस रुप में है उसका सम्पूर्ण श्रेय डॉ. जैन सा. को है । इसके लिए उन्हे जितना भी साधुवाद दिया जावे कम ही है। जिस उत्साह, लगन एवं निष्ठा से डॉ. जैन सा. ने इस ग्रन्थ के लिए कार्य किया और समाज के लिए आज वे जो कर रहै है, वे सब कार्य कराते हुए समाज को लाभान्वित करते रहें । यही पूज्य पाद गुरुदेव से विनती है।
इसी प्रकार सम्पादक कार्य में मुम्बई निवासी पण्डित सरलमना डॉ. रमणलाल भाई एवं श्रीमती तारा बहिन रमणभाई शाह का भी सम्पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ एवं गुजराती विभाग में प्रतिष्ठित विद्वानों के लेख आपके पूर्ण परिचय के कारण ही ऐसे सारगर्भित लेख प्राप्त हो सके आप भी साधुवाद के पात्र है।
वाराणसी श्री पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निर्देशक डॉ. श्री प्रकाशजी पाण्डेय व शाजापुर निवासी डॉ. वि. के. शर्मा का भी पूर्ण श्रम पूर्वक सहयोग मिला आप दोनों विद्वान साधुवाद के पात्र है।
उज्जैन निवासी डॉ. श्री तेजसिंहजी गौड़ का विशेषकर शताब्दी नायक के जीवन खण्ड में पूर्ण सहयोग मिला आप भी धन्यवाद के योग्य है । गुरुणिजी प्रर्वनिनी शासन दिपीका गच्छ शिरोमणी शताब्दी नायक की शिष्या श्री मुक्ति श्रीजी की मुख्य प्रेरणा अविस्मरणीय सहयोग अधिक से अधिक रहा व सन्दर लेखन कार्य में शताब्दी नायक से दीक्षा प्राप्त कर शिष्या होने का जिन्हे सौभाग्य मिला साध्वी श्री जयन्त श्रीजी आदि साध्वी मण्डल का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ घर के सदस्यों को क्या साधुवाद दू यह अपनी ज्ञान दर्शना साधना में जीवन का अधिक से अधिक समय देकर चारित्र पालते हुए आत्म साधना मे पढ़ते चाए यहीं मंगल कामना। जी
श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ एवं श्री शीतलनाथ, शान्तिनाथ प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव की स्मृति मे त्रिस्तुतिक श्री संघ भैसवाड़ा का ग्रन्थ प्रकाशन मे विशेष सहयोग मिला धन्यवाद एवं प्रत्येक कार्य में उत्साह से तन, मन, धन का सहयोग करने में परम गुरु भक्त सरल हृदयी आहोर निवासी श्री शान्तिलालजी वख्तावरमलजी मुथा प्रमुख साधुवाद के पात्र है।
ग्रन्थ छापने के कार्य में सन्तोष मामा श्री राजेन्द्रग्राफिक्स निवासी राजगढ़ काश्रम भी बुलाया नहीं जा सकता है वह भी साधुवाद के योग्य है । अन्त में जिन जिन लेखकों ने व श्रावक वर्ग ने अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग कर साहित्य प्रकाशन करवाकर गुरु भक्ति का परिचय दिया वे सभी साधुवाद के पात्र है।
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संवत् 2057 कार्तिक सुदि 2 रविवार दीक्षा शताब्दी नायक का 118 वां जन्म दिवस जावरा (रतलाम)
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जागर ज्योतिषाचार्य मालव रत्न मुनि प्रवर जयप्रभविजय श्रमण
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सम्पादकीय
आचार्य श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. श्वे. मूर्तिपूजक त्रिस्तुतिक संघ के मूर्धन्य आचार्य रहे हैं। आपने-अपने संयमी जीवन में ज्ञान, दर्शन और चारित्र गुणों का प्रकर्षता के साथ परिपालन किया। आपकी दीक्षा शताब्दी के उपलक्ष में आपकी संयमपर्याय के अनुमोदनार्थ आपके प्रबुद्ध शिष्य ज्योतिषाचार्य मुनि पुंगव श्री जयप्रभविजयजी श्रमण ने एक दीक्षा शताब्दी स्मृति ग्रंथ के प्रकाशित करने की योजना प्रस्तुत की और उसके सम्पादन का दायित्व मुझे सौंपा। उन सतपुरुष की संयम पर्याय के अनुमोदनार्थ प्रस्तुत योजना को क्रियान्वित करने का दायित्व तो मैंने स्वीकार कर लिया, किन्तु सेवानिवृत्ति के पश्चात विद्यानगरी वाराणसी से सुदूर शाजापुर जैसे छोटे से नगर में बैठकर यह कार्य कर पाना कठिन प्रतीत हुआ। उसमें में भी बढ़ती हुई वय और गिरता हुआ स्वास्थ्य बाधक ही प्रतीत हो रहे थे। किन्तु मुनिप्रवर जयप्रभविजयजी की सतत प्रेरणा और प्रोत्साहन ने ही इसे इस रूप में पूर्ण कर पाना संभव बनाया है। इस सबमें उनका दृढ़ निश्चय और सतत प्रेरणा मेरे श्रय की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है।
15 जैन धर्म में किसी कार्य को करने और कराने की अपेक्षा उसके अनुमोदन को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। पू. आचार्य प्रवर की संयमपर्याय की अनुमोदना का मेरी दृष्टि में इससे अच्छा कोई अन्य उपक्रम नहीं हो सकता था। क्योंकि त्रिस्तुतिक धर्म संघ अपने जन्म से ही ज्ञान और विवेक पर अधिक बल देता रहा है। उसके प्रथम आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी की ज्ञान साधना का सबसे बढ़ा प्रमाण उनके द्वारा अभिधान राजेन्द्र कोष जैसे अति विशाल सप्त खंडात्मक विश्वकोष की रचना ही है। आज जब जैन विद्या के क्षेत्र में नए पुराने अनेक ग्रंथों का प्रणयन और प्रकाशन हो चुका है। फिर भी इस महाकोश की कोई तुलना नहीं है। ऐसी विद्या-उपासक परंपरा के प्रबुद्ध आचार्य, जिनका नाम स्वतः यतीन्द्र अर्थात संयमियों में सर्वश्रेष्ठ रहा है, उनकी संयम पर्याय की अनुमोदना में दीक्षा शताब्दी स्मृति ग्रंथ प्रकाशन से अच्छा कोई उपक्रम नहीं हो सकता था। अतः मैंने इस दायित्व को स्वीकार करना उचित समझा है।
“दीक्षा" व्यक्ति का सन्मार्ग की यात्रा में रखा वह प्रथम चरण है, जो उसके जीवन के चरमसाध्य की उपलब्धि पर ही विराम लेता है। दीक्षा एक संस्कार है, जो संस्कृति को जन्म देता है
और संस्कृति ही वह तत्व है जो व्यक्ति और समाज को विकृति से बचाती है। अतः इस दीक्षा शताब्दी स्मृतिग्रंथ में जैन संस्कृति का यथा शक्य सम्पूर्णता के साथ परिचय देना ही हमारा लक्ष्य रहा है। अतः प्रस्तुत कृति में जैन धर्म और संस्कृति के सभी पक्षों से संबंधित सामग्री पाठकों को प्रदान करना हमारा लक्ष्य रहा है।
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किन्तु वर्तमान में उन सभी पक्षों पर मौलिक निबंध प्राप्त कर लेना भी एक कठिन कार्य था। मेरे सहयोगी डॉ. श्री प्रकाश पांडे ने अथक प्रयत्न कर इस हेतु विद्वानों से लेख आमंत्रित किए, किन्तु दुर्भाग्य से अनेक स्मरण पत्रों के बावजूद हमें सीमित संख्या में ही मौलिक लेख उपलब्ध हो सके अतः जैन संस्कृति के यथा शक्य सभी पक्ष ग्रंथ समाहिक हो सके इस दृष्टि में रखकर कुछ पूर्व प्रकाशित विकीर्ण सामग्री को भी इसमें समाहित किया गया है।
इसमें जो सामग्री पुनः प्रकाशित की जा रही है उसके लिए विशेष रूप से पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी के विशेष आभारी है। क्योंकि मुनिप्रवर श्री जयप्रभविजयजी के विशेष आग्रह पर इसमें मेरे अनेक लेख पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रकाशन जैन विद्या के आयाम खंड 6 से पुनः प्रकाशित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त कुछ विद्वानों के श्रमण आदि पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित लेख भी प्राप्त हुए हैं और कुछ को स्वयं हमने भी चुना है। अतः इस पूर्व प्रकाशित सामग्री के पुनः प्रकाशन के लिए हम उन सभी प्रकाशकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
लेखादि उपलब्ध कराने में हमें अपने सम्पादक मंडल के जिन सदस्यों का सहयोग प्राप्त हुआ है उनके भी विशेष रूप से आभारी हैं। इस कार्य में हमें सर्वाधिक सहयोग डॉ. श्री प्रकाश पांडे और आदरणीय डॉ. रमणलाल ची. शाह का मिला है। अतः उन दोनों के प्रति भी आभार व्यक्त करते हैं। इसके गुजराती खंड के लिए तो डॉ. रमणलाल ची. शाह का सहयोग ही विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
ग्रंथ के प्रकाशन में सबसे नीरस किन्तु सबसे महत्वपूर्ण कार्य प्रुफ संशोधन का होता है। इस दायित्व का अपनी सम्पूर्ण शक्ति और योग्यता के साथ पूरी निष्ठा से निर्वाह किया है डॉ. विनोद कुमार शर्मा (प्राध्यापक संस्कृत विभाग महाविद्यालय, शाजापुर) ने। सहयोग के बिना इस ग्रंथ इस रूप में प्रकाशन संभव नहीं था। प्रफुसंशोधन एक ऐसा कार्य है, जिसमें पर्याप्त सावधानी सतर्कता के बावजूद भी कुछ स्खलन स्वाभाविक है। क्योंकि जैन विद्या के अनेक पारिभाषिक शब्द ऐसे हैं, जिनसे भारतीय विद्या के विशिष्ट विद्वान भी अल्प परिचित होते हैं। अतः इसमें रह गई त्रुटियों के लिए हम विशेष रूप से क्षमा प्रार्थी हैं।
ग्रंथ कम्पोजिंग और मुद्रण का दायित्व श्री राजेन्द्र ग्राफिक्स के श्री सन्तोष मामा ने पूर्ण किया अतः हम उन्हें भी धन्यवाद देते हैं। इस सम्पूर्ण ज्ञान यज्ञ की अथ से लेकर इति तक सम्पूर्ण प्रक्रिया में जो सदैव सक्रिय रहे उन्हें हम किन शब्दों में धन्यवाद दे उन्होंने तो इस ज्ञान-यज्ञ के माध्यम से अपने गुरु के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह किया है।
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डॉ. सागरमल जैन पूर्व निदेशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी
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दादाराज श्री राजेन्द्र गवरजी मझा।
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विश्व पूज्य प्रात: स्मरणीय युग दृष्टा
श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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गम्भीरगणनायक, पिताम्बर विजेता तीर्थोद्धारक, व्याख्यान वाचस्पति
साहित्याचार्य
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परम उपकारी गुरुदेव २० श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
Newomjainelibrary.org
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वर्तमानाचार्य राष्ट्रसंत शिरोमणी
श्रीमद्विजय हेमेन्द्र सरीश्वरजी म.सां.
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परमपूज्य कविरत्न आचार्यदेव श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सरीश्वरजी म. सा.
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परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्र कोष के सम्पादक
आगम भास्कर पिताम्बर विजेता श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य रत्न ज्योतिषाचार्यशासन दीपक ज्योतिष समाट शिरोमणि
எசு 1993 पोषवदि 10
स्थल जावरा
दीक्षा 2015 माघ सुदी4
स्थल सियाणा
पदप्रदान शासनदीप
2050 कार्तिक सुदी
2046 कार्तिक सुदी 5
स्थल काशी पण्डित सभा वाराणसी
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स्थल श्रीसंघ मनावर
पूज्य श्रीजयाप्रमविजयजी म.सा. "श्रमण"
विजयशील स्वाध्याय सुधाकरः प्रति भारत सद्धर्मधुरीण। जय तप संयम व्रत परिपालक गुरु चरणाश्रित सेवा लीन । धर्म प्रचारक "श्रमण" सुधारक सुविचारक सुहृदय गुणवान। जयतु जयतु विजयश्रीभत्रित जयप्रभाविजय महामतिमान् ।।
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पन्यासप्रवर
श्री रवीन्द्रविजयजी गणिवर्य
ज्योतिष समाट मुनिप्रवर
श्री ऋषभचन्द्र विजयजी म.सा. 'विद्यार्थी
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वर्तमानाचार्य राष्ट्रसंत शिरोमणी
श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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ग्रन्थ प्रेरक
संयमवय स्थिविर मुनिराज श्री सौभाग्यविजयजी म.सा.
मुख्य उपदेशिका
गच्छ शिरोमणी प्रवर्तिनीय गुरुणीजी श्री मुक्ति श्रीजी म.सा.
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जीजीम राजेन्द्र घट अपनिमित हेमचंद्रसूरी
गुणाश्रीजी म. की शि. देवेन म. ला स्वराजजी गुश्री श
सम्पादक सहयोगी
चंद तिं गुणी म अइम तप निमि नीमसर सुगं
मुनिराज श्रीहितेशचन्द्र विजयजी म.सा. 'श्रेयस' प्रबन्ध सम्पादक सहयोगी
मुनिराज श्री दिव्यचन्द्र विजयजी म.सा. 'सुमन'
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श्री यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ
साध्वी श्री जयन्त श्रीजी म.सा.
साध्वी श्री प्रसन्न श्रीजी म.सा.
साध्वी श्री पुष्पा श्रीजी म.सा.
साध्वी श्री संघवण श्रीजी म.सा.
श्रीमती बदामीबाईसंघवी व श्री चुन्नीलालजी संघवी की पुण्य स्मृति में
श्री नवरत्नराजजी अ.सौ. गुणवन्ता देवी चि. चेतन बेटा पोता श्री वनेचन्दजी संघवी परिवार
फर्म :रत्नदीप ज्वेलर्स, हुबली
Jain Education Internatie
jainelibrary.org
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लेखन कार्य सम्पादित करते हुए
ज्योतिषाचार्य मुनिश्री जयप्रविजयजी म.सा, 'श्रमण'
शताब्दी वर्ष के प्रारम्भ में गुरुगुणानुवाद सभा
साध्वी श्री मुक्तिश्रीजी, महेन्द्र श्रीजी, अष्पा श्रीजी ।
कतिप्रभाश्रीजी आदि रमणीकण्डल
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प्रधान सम्पादक
आगम वाचस्पति डॉ. श्री सागरमलजी जैन, शाजापुर
सम्पादक
सम्पादिक
श्रीरमणभाईसी. शाह, मुम्बई
श्रीमती ताराबहिन आर.शाह, मुम्बई
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध
*प्रबन्ध सम्पादक मण्डल*
श्री किशोरचन्द एम. वर्धन, भीनमाल
श्री शान्तिलालजी मुथा, आहोर
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध
*प्रबन्ध सम्पादक मण्डल *
- वित्त समिति अध्यक्ष - श्री जयन्तीलाल बाफना, भीनमाल
श्री सुजानमलजी जैन, राजगढ़
श्री भूपेन्द्रकुमारजी रुणवाल, जावरा
श्री समरथमलजी लोढ़ा जावरा
Private
Personal use only
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध
* सम्पादक मण्डल *
श्री अनिलकुमारजी चौपड़ा, जावरा
श्री आनन्दीलालजी संघवी. जावरा
श्री मिट्ठलाल ओस्तवाल, जावरा
श्री सुनीलकुमार खटोड़, मनावर
डॉ. वि. के. शर्मा, शाजापुर
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मोहनखेड़ा तीर्थाधिपति श्री आदिनाथ भगवान
सुविधीनाथ जिन मन्दिर, सियाणा
गोड़ीपार्श्वनाथ जिनालय प्रवेश द्वार, आहोर
जैनागम ज्ञान मंदिर (भंडार) आहोर
गोड़ीपार्श्वनाथ जिनालय का उपरी दृश्य
शांतिनाथ राजेन्द्र टुक गुरूदेव द्वारा प्रतिष्ठित
स्वर्णगिरी तीर्थ जालोर दुर्ग
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ राजेन्द्रसूरि जैनाश्रम प्रवेश द्वार ।
शताब्दी नायक प्रतिष्ठा महोत्सव पर वासक्षेप करते हुए, आहोर
गोड़ी पार्श्वनाथ ५२ जिनालय का उपरी दृश्य
श्री महावीर स्वामी जैन मंन्दिर कोरटा
श्री आदिनाथ जिनालय, कोरटा तीर्थ
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
मङ्गला बरणम्
मोहन खेटक - तीर्थ -मण्डनं, नाभि भूपजम् नमामि शुभ भावेन ऋषभदेव स्वाभिनम् (१६ बृहत् - सौधर्मगच्छेयः श्री राजेन्द्रसूरीश्वरः । श्री अभिधान - राजेन्द्र कोषकर्ता प्रणीमितम् ।।२।। तच्छिस्यः धीर गम्भीरः श्री यतीन्द्र सूरीश्वरः । प्रभावकः प्रबुद्धश्च जयति जिन शासन (1310 दीक्षा - शताब्दी वर्षेऽयं ग्रन्थः प्रकाश्यतशुभः । सौभाग्यन जयप्रभ विजयन सुभक्तितः ॥४॥ दिव्याशीवादाताऽय कविगुण विभूषित। पट्त्रिंशत् गुणधारः विद्याचन्द्र सूरीश्वरः ॥६॥ ग्रन्थ सम्पादनेचाऽत्र सन्तिनक सहायकाः । मुख्यः हितेशचन्द्रोऽस्ति दिव्यचन्द्र समन्वितः 11६11
-FOrPavala PershamEADRI
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
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स्वास्ति श्री ऋद्धि वृद्धि जयौ मङ्गलाभ्युदयाश्चेति श्री विक्रमादित्य सं. १९५४ तत्र श्रीमद्भूपतिशालिवाहनकृतशाके १८१९ भानुरुत्तरायणेगतेश्री सूर्यग्रीष्म सौमहाङ्गल्यप्रदमासोत्तमे मासेशुभकारके आषाढ़मासे शुभे कृष्ण पक्षे तिर्थो२ घट्यः २९/५२ सोम्यवासरे पूर्वाषाढानक्षत्रे घट्य ३६/३३ ब्रह्मायोगेघट्य: ५०/२३ तैतिलकरणेघट्यः १२/८ दिनमानम् ३४/८ रात्रिमानं २५/५२ दिनार्ध १७/४ रात्र्यर्ध धनराशि स्थिते चन्द्रराशीनवांशे ७ सप्तमे मेषाद्ये तुलाख्येभुगुदैवते वानरयोनौ मनुष्यगणे क्षत्रियवर्णे मूषक वर्गेमध्य नाडीस्थिते श्रीफणीश्वरचक्रे परभागभुजायां एवमादि पञ्चांगशुद्धावत्र दिने भास्करोदयादिष्ट नाड्यः १२/२५ स्पष्टार्कराश्यादि २/२/५६/८ स्पष्टलग्नं राश्यादि ७/४/२०/३३ एतद्समयेसिंहलग्नाङ्गोदयेऽस्यां शुभ ग्रहावलोकितकल्याणवति वेलायां निखिल गुणगणमण्डितश्रेय मार्गदर्शक शुद्धाचारपालक श्रीयतीन्द्रविजयमुनि पुङ्गवस्य दीक्षा समयः । पूर्वाषाढ़ाभे ३ तृतीयचरणेस्तेन फाकाराक्षरोपरि अकारस्परेणाभिधानम् ज्ञेयम् अपरंच यथारुचिः स्थापनीयम् निकटरतलामे नगरेपलभा ५/८ चरखण्डा ५१/४१/१७ स्वेदेशोदयः २२७/२५८/३०६- ३४०/३२९ समीपवर्ती श्रीखाचरौदनगरे अक्षांस २३/२४ रेखांश ७५/८ स्टेण्डर्ड अन्तर २८ परम पूज्य कलिकालसर्वज्ञ सौधर्मबृहत्तपोगच्छय नायक अभिधान राजेन्द्र कोष प्रणेता विश्व वन्ध कोरटाजी तालनपुरजालौरादि तीर्थोद्धारक शन्त्रुजयावतार श्री मोहनखेड़ा तीर्थ संस्थापक श्री श्री श्री १००८ श्री प्रभु श्री मद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शुभ कर कमलोद्वारा चतुर्विध श्री संघ हजार मानववेदनी की उपस्थिति में मुमुक्षु बालक श्री रामरत्न को दीक्षा देकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के शासन मे आत्म कल्याणार्थे प्रवेश करवाया ।
दीक्षा लग्न
राशी लग्न
मं४ के
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२श.
५ गुरु
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३
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दीक्षा देकर मुनि यतीन्द्रविजयजी म. सा. के नाम से घोषित किया ।
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बागरा नगर, महावीर स्वामी जिन मन्दीर
मोहनखेड़ा तीर्थ
प्रवेश द्वार संवत् २०१२
मोहनखेड़ा तीर्थ मन्दीर के पास का भाग
संवत् २०१२
श्रीपार्श्वनाथ जिनालय, बागरा
बागरा श्री राजेन्द्र भवन
उपाश्रय संवत् २००६
गच्छनायक आचार्य पद प्रदान स्थल, आहोर
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विचारमुदामें
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परम कृपालु पूज्य गुरुदेव श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा.
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उपधान तपकअवसरपर
परम कृपालु पूज्य गुरुदेव श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा.
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आहोर नगर में आचार्य पद व उपाध्याय पद महोत्सव पर उपस्थित मुनि मण्डल सवंत् १६६५
शताब्दी नायक अपने शिष्य द्वय के साथ
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शताब्दी नायक अर्द्धशताब्दी महोत्सव मोहनखेड़ा तीर्थ पर अपने मुनि मण्डल के साथ
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गुड़ा बालोतान से जैसलमेर की ओर विहार में संघ व शताब्दी नायक अपने मुनि मण्डल के साथ
मुनि मण्डल सहित राणापुर चार्तुमास सवंत् २०१४
शताब्दी नायक विद्याविजयजी को आर्शीवाद देकर आर्चाय घोषित करते हुए। सर्वत् १६१७ का.सु. पुनम
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2009
श्री राजेन्द्र सुरीस्वरजी म.सा.
श्री यतीन्द्र सुरीस्वरजी म.सा.
श्री यतीन्द्र सुरीस्वरजी म.सा.
श्री यतीन्द्र सुरीस्वरजी म.सा.
श्री यतीन्द्र सुरीस्वरजी म.सा.
श्री विद्याचन्द्र सुरीस्वरजी म.सा.
७
श्री यतीन्द्र सुरीस्वरजी म.सा.
श्री देवेन्द्र विजयजी म.सा.
गच्छ नायक की सेवा में मुनी
जयप्रभ विजयजी म.सा.
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स्वाध्याय शिरोमणी समतामुर्ति महत्तरीका
गुरुणीजी श्री हेत श्रीजी म.सा.
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गुरुणीजी श्री मान श्रीजी म.सा.
गुरुणीजी श्री भाव श्रीजी म.सा.
गुरुणीजी श्री गुलाब श्रीजी म.सा.
गुरुणीजी श्री ललित श्रीजी म.सा.
गुरुणीजी श्री मुक्ति श्रीजी म.सा.
गुरुणीजी श्री महेन्द्र श्रीजी म.सा.
www.jagalibrary.org
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CENTER
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ऊँ अर्ह नमः परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पतिसाहित्याचार्य ॐ शत्रुजयावतार मालव भुमि का सिद्धाचल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ उद्धारक
आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा.
दीक्षा शताब्दी वर्ष (१६५४-२०५४) श्रीमद यतीन्द सूरि स्मारक ग्रन्थ प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में
वन्दन वन्दन वन्दन
आप प्रत्येक संस्था एवं कार्यो में उल्हास पूर्ण भाग लेते हैं एवं धर्मकार्य में सदा व्यय कर पुण्योपार्जन समय समय पर करते ही है। बाफणा मूथा कपूरचन्दजी के पुत्र जसरूपजी जीतमलजी के वंशजों द्वारा की गई धर्म प्रभावना सं १६५५ फागुन वदी ५ को राजस्थान में प्रथम बार भव्याति भव्य महोत्सव कर ६५१ जिन प्रतिमाजी
की प्राण प्रतिष्ठा परम पूज्य प्रभु श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शुभ कर | कमलों से की गई, एवं फले चुनड़ी में उस समय ५० हजार मानव वेदनि उपस्थित
थी। आहोर के ५२ जिनालय में ४ देहरी बनाई, १६६६ में गुरू मन्दिर में मूर्ति - भराई सं. २०३३ में मोहनखेड़ा में खाद मुहूर्त किया मोहनखेड़ा में श्री राजेन्द्र सूरी
जैनाश्रम का मुख्य द्वार पर नाम लिखाया। २०२५ आहोर गुरू मन्दिर का आगे सभा मण्डप बनवाया। मोहनखेडा तीर्थ गम्भारे में प्रतिमाजी भराकर विराजमान की। पालीताणा में आचार्य श्रीमद यतीन्द्रसूरिजी म. की मूर्ति भराकर राजेन्द्र भवन में विराजमान की। श्री मोहनखेड़ा में प्रतिष्ठा महोत्सव में १० जिन प्रतिमा भराई। तनकू प्रतिष्ठा में लापसी का एवं ध्वजा का चढावा बोलकर लाभ लिया। मोहनखेड़ा पालीताणा तनक आदि नगरों में समय समय पर नवकारसी या नास्ता आदि का लाभ लेते रहे। आहोर से राणकपुर व मोहनखेड़ा बसों से संग
आहोर में शताब्दी महोत्सव में 3 रोज आंगी भक्ति की एवं ५२ जिनालय में सभी भगवान की देहरियों में । सूरत से पछवाया भरवाकर अपर्ण कीया। आज भी जसरूपजी जीतमल के वंशज धर्म कार्य में समय समय पर
लक्ष्मी का उपयोग करते रहते हैं। वंश में श्री जीतमलजी, शांतिलालजी, हस्तिमलजी, भवरलाल, पारसमल, जयंतिलाल, सुमेरमल, विमलचन्द, रमेश कुमार, चम्पालाल, आदि।
आहोर निवासी जसरूपजी जीतमलजी के वंशज श्री शान्तिलालजी धर्मपत्नी अ.सौ.श्रीमती सुखिबाई का दसवां (१०) वार्षितप सानन्द सम्पन्न हुआ, आप के ३ पुत्र हैं। महावीर कुमार, धरणेन्द्र कुमार, यतीन्द्र कुमार, एक पुत्री है। चि. विद्यादेवी पौत्र श्रेयस, अजीत, श्रेणिक, पक्षाल, अनन्त, हेमलता, हीना, अनिता, प्रीति
फर्म :- सेठ शान्तिलाल एण्ड कम्पनी
तनकू (आन्ध्र प्रदेश)
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on
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ऊँ अहं नमः परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पतिसाहित्याचार्य शत्रुजयावतार मालव भुमि का सिद्धाचल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ उदारक
आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा.
दीक्षा शताब्दी वर्ष (१६५४-२०५४) श्रीमद यतीन्द्र सूरि स्मारक ग्रन्थ प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में
वन्दन वन्दन वन्दन
श्री जेठमल चम्पालालजी रूणवार
श्रीमति धापुबाई जेठमल जी रूणवार अभिनन्दन अभिवादन बन्दन
सागरमल धर्मपत्नी अं.सौ. चन्द्रकांताबाई सरदारमल धर्मपत्नी अं.सौ. प्रभावतीदेवी समीरमल धर्मपत्नी अं.सौ. सुशीलादेवी वर्धमान धर्मपत्नी अं.सौ. शान्ताबाई सुधीर कुमार धर्मपत्नी अं.सौ. मधुदेवी
पौत्र प्रदीप कुमार धर्मपत्नी अं.सौ. निर्मला देवी प्रमोद कुमार धर्मपत्नी अं.सौ. जीवनबाला भूपेन्द्र कुमार धर्मपत्नी अं.सौ. सुशीला देवी महेन्द्र कुमार धर्मपत्नी अं.सौ. मीना देवी जितेन्द्र कुमार धर्मपत्नी अं.सौ. मीनू देवी प्रवीण कुमार धर्मपत्नी अं.सौ. वत्सला देवी
अमीत कुमार धर्मपत्नी अं.सौ. राणी देवी फर्मः- चम्पालाल, जेठमल, सरदारमल, समीर कुमार, सौरभ इन्टरप्राईजेस
रत्नाज ट्रेडर्स, जे.डी.इन्डस्ट्रीज
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ऊ अह नमः
परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पतिसाहित्याचार्य
शंत्रुजयावतार मालव भुमि का सिद्धाचल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ उद्धारक
आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. दीक्षा शताब्दी वर्ष (१६५४-२०५४)
श्रीमद यतीन्द्र सूरि स्मारक ग्रन्थ प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन
एंड मिला
जावरा (म.प्र.) निवासी श्री रूपचन्दजी खिमेसरा के पुत्र बाबूलाल, भंवरलाल, अनोखीलाल, खिमेसरा
फर्म:- बालचन्द हरखचन्द खिमेसरा, बजाज खाना, जावरा
合
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श्री प्रवीण कुमार उकचन्दजी सेठ की पुण्य स्मृति में
शाह श्री उकचन्द मलूकचन्दजी सेठ भीनमाल
फर्म:- ओसवाल टायर्स, जोधपुर
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प्राकृत भारतीय अकादमी
निदेशकयती
क्रमांक:
महोपाध्याय विनयसागर
दिनांक
Sodhe
संदेश
मुनिपुगंव श्रीजचप्रभविजयजी महाराज
सादर वंदन
बड़े हर्ष का विषय है कि आचार्य प्रवर श्रीमद् यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के दीक्षा शताब्दी वर्ष का आयोजन किया जा रहा हैं। तथा इस अवसर पर स्मृति ग्रन्थ भी प्रकाशित किया जा रहा हैं। इस अवसर पर मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
आशा है, आचार्यश्री की बहुआयामी गतिविधियों को प्रेरक रूप में आप इस ग्रन्थ में समेटने में सफल होंगे। ऐसे धर्म प्राण व प्रभावी व्यक्तियों की स्मृतियां जनसामान्य में धर्म प्रभावना करने में सहायक होती हैं।
मैं अस्वस्थता तथा समयाभाव के कारण प्रकाशन चोग सामग्री भेजने में इच्छा होने पर भी असमर्थ हूँ।
शुभ कामनाओं सहित
hyayा 1535715 आपका ही
म. विनयसागर
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विक्रम वर्मा नेता प्रतिपक्ष मध्यप्रदेश विधानसभा
दूरभाष: ५५२४२९ फैक्स : ०७५५-५५५९०४ बी-१८, स्वामी दयानन्द नगर, ७४ बंगला, भोपाल -४६२००३
संदेश
यह जानकर अत्यधित हार्दिक प्रसन्नता हुई कि पूज्य श्री श्री श्री १००८ श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का दीक्षा शताब्दी वर्ष प्रारम्भ होने के उपलक्ष्य में "आचार्य श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रन्थ" प्रकाशित किया जा रहा हैं।
देश-विदेश के विद्वानों के आलेखों में दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रन्थ के रूप में संग्रहणीय एवं उपयोगी होगा।
सफलता की शुभकामनाओं सहित ।
विक्रम वर्मा
ज्योतिषाचार्य मुनि जयप्रमविजय “श्रमण" प्रधान सम्पादक, आचार्य श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रन्थ, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, पोस्ट-राजगढ़ जिला धार (म.प्र.)
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कांतिलाल भूरिया मंत्री, आदिम जाति कल्याण विभाग मध्यप्रदेश
निवास : बी-१९,७४ बंगला
कार्यालय : ५५०७६१ दूरभाष निवास : ५५५६७४
पत्र क्रमांक :............
दिनांक ३०/६/९७.....
संदेश
परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति साहित्याचार्य श्रीमद् यतीन्द्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रन्थ का प्रकाशन होने जा रहा हैं यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। स्मारक ग्रन्थ के प्रकाशन की सोच एवं प्रयास अविनय कदम के साथ - साथ सराहनीय प्रयास हैं। मैं इस ग्रन्थ के प्रकाशन पर अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूं।
आशा है, यह ग्रन्य पाठकों श्रद्धालु श्रोताओं एवं अध्येताओं के लिये प्रेरणा का कार्य करेगा।
शुभकामनाओं सहित।
कांतिलाल भूरिया
प्रति, प्रधान संपादक, आचार्य श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा, शताब्दी स्मारक, ग्रंथ, ज्योतिषाचार्य मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी श्रमण श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, पो. राजगढ़, जिला - धार
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श्रीनिवास तिवारी
अध्यक्ष
मध्यप्रदेश विधान सभा
Nog की
संदेश
19515
फोन :
कार्यालय : ५५१६४६, १५००८१
निवास :
: ५५३१४८, ५५०२२५ ई- ४४ (४५ बंगले) भोपाल ४६२००३
दिनांक : ३०.०६.९७
जानकार प्रसन्नता हुई कि श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर एक स्मारक ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा हैं।
समाज को राह दिखाने के लिये हर युग में युगपुरुष जन्म लेते हैं जो अपने आचार विचार से लोगों को सद्कर्मों, सद्प्रवृत्तियों और सदाचरण के लिये प्रेरित करते हैं। आचार्य यतीन्द्रसूरि जी ऐसे ही महापुरुषो में से एक हैं। जिन्होंने धर्म एवं समाज के लिये उल्लेखनीय कार्य किये हैं। आशा है स्मारक ग्रन्थ उनके विचारों को आम लोगों तक पहुंचा कर मानवता की सेवा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
प्रकाय ग्रन्थ अपने उद्देश्य में सफल हो, यही कामना हैं।
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श्रीनिवास तिवारी
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सत्यदेव कटारे मंत्री खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति तथा उपभोक्ता संरक्षण मध्यप्रदेश
दूरभाष : कार्यालय : ५५१७६५
निवास : ५५००४७ बी-१९, चार इमली, भोपाल (म.प्र.) अर्ध शा. पत्र क्रं. ९९६ मंत्री।खाद्या९
भोपाल. दिनांक : ०५.०७.९७
संदेश
मुझे यह जानकार अति प्रसन्नता हुई कि परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति, साहित्याचार्य एवं जैनाचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का दीक्षा शताब्दी वर्ष दिनांक २२ जून १९९७ से प्रारम्भ हो चुका हैं एवं इस संबंध में शताब्दी स्मारक ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा हैं।
आशा है शताब्दी स्मारक ग्रन्थ में उनके व्याख्यानों एवं अनुभवों का समावेश होगा।
मायाजा सत्यदेव कटारे
माणका काम
प्रधान सम्पादक आचार्य श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रन्थ श्री मोहनखेडा तीर्थ, पोस्ट- राजगढ़, जिला-धार
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डॉ. एस.के. शर्मा कुलपति
दूरभाष कार्यालय : ३५८१६०
आवास:३५०२६८ फैक्स :९१-५४२-३५०२६८ महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ
वाराणसी -२२१००२ दिनांक.............
संदेश
यह परम सौभाग्य की बात है कि अपने न्याय-नीति, आचार, व्यवहार, साहित्य - साधना, धर्म भावना, विद्यानुराग से बने मुनि उपाध्याय आचार्य काल में जैन शासन की अद्वितीय सेवा करने वाले महान जैनाचार्य श्रीमद्यतीन्द्रसूरिजी का दीक्षा शताब्दी वर्ष दिनांक २२ जून १९९७ सोमवार विक्रम संवत २०५४ आषाढ़ यदि २ से आरम्भ हो चुका हैं। इस पुनीत अवसर पर सर्वप्रथम मैं श्रीमद यतीन्द्रसूरिजी को उनके द्वारा की गई अहर्निश सेवा हेतु शत-शत नमन करता हूँ।
असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, अविद्या से विद्या की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर यात्रा की जिन भूखण्ड पर चिरकाल से साधना की जाती रही हो ऐसे भारत वर्ष के संस्कृति की सबसे भव्य और अमूल्य विशेषता है ऋषि परम्परा। जिसका उत्सगुहृय प्राचीनता में खो गया है, किन्तु उसका प्रवाह कभी नहीं रूका। वैदिक काल में ऋषि हुए फिर दृष्टाओं की एक परम्परा आई, और हुए उपनिषेद के ज्ञानी पुरुष और इसी के साथ श्रमण परम्परा के निर्वाहकों द्वारा घोर साधना एवं तप से अर्जित शक्ति एवं ज्ञान से लोकसेवा का अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया जाता रहा हैं।
भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा के रूप में वैदिक परम्परा को सदैव मान्यता मिलती रही हैं। वैदिक परम्परा के समान्तर अपना अस्तित्व रखने वाली श्रमण परम्परा की एक उपशाखा जैन धर्म द्वारा निवृति पर अत्यधिक बल दिया गया, फिर भी उसके द्वारा लोक कल्याण कार्य को अभीष्ट के रूप में स्वीकार किया जाता रहा हैं। इस कथन के प्रमाण स्वरूप जैन परम्परा के चौबीसों तीर्थकरों को अदभुत करना प्रासंगिक है। प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव (आदिनाथ) से आरम्भ होकरके तेडसवें और चौबीसवें तीर्थंकर क्रमशः पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी तक भी तीर्थकर ज्ञान के प्राप्ती के बाद किसी वन अथवा गुफा में एकान्तवास नहिं किए, वरन् उन्होंने समाज में रहकर जगत के कल्याणार्थ अपने जीवन का उत्सर्ग किया।
वैदिक तथा श्रमण दोनों ही धाराओं ने स्वतंत्र रूप से अथवा सम्मिलित रूप से ऋषि परम्परा को कायम रखा यद्यपि समय-समय पर इसमें गतिरोध भी आता रहा है तथापि रषि परम्परा का प्रवाह कभी थमा नहीं।
विगत शताब्दी में ऋषि परम्परा को जीवंत बनाने वालों में से श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी अग्रणी रहे। बाल्यवस्था में ही माता-पिता का देहान्त हो जाने से तथा स्वजनों द्वारा तिरस्कृत किये जाने के बावजूद श्रीमद यतीन्द्रसूरिजी की जीवन पर्यन्त दूसरों के प्रति दया, करुणा, प्रेम जैसे सद्भाव उनको ऋषि में स्थापित करते हैं। विश्व प्रसिद्ध अभिधान राजेन्द्र कोष के संशोधक, सम्पादक के रूप में आपका पाण्डित्व स्तुत्य हैं। धर्म, नीति, समाज, इतिहास, पुरातत्व की दृष्टियों से उपदेव ए, संग्रहणीय लगभग ६० से अधिक छोटी-बड़ी ऐसी प्रकाशित पुस्तकें जिनके रचियता सम्पादक अथवा संकलनकर्ता आप हैं। जीवन पर्यन्त आपद्वारा की गयी यात्राएँ, संघयात्राएँ, अंजनशलाका प्रतिष्ठायें, तपाराधन, तीर्थोद्धार, मण्डल विद्यालयों की स्थापना, जैसी अनेकानेक सेवाएँ व्यक्ति और समाज हेतु अनुकरणीय आदर्श है।
जड़ और चेतन दोनों के प्रति सदैव कल्याण की कामना करने वाले श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी के महान आदर्शों का व्यापक प्रसार एवं प्रचार करते हुए हम उसे अपने जीवन में क्रियान्वित करने हेतु संकल्पबद्ध होकर ही दीक्षा शताब्दी को सार्थक बना सकते हैं।
श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, राजगढ़ (धार) म.प्र. द्वारा आयोजित श्रीमद यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी के सफलतापूर्वक संचालन एवं सम्पादन हेतु मैं ईश्वर से प्रार्थना करता है। इस अवसर पर प्रकाशित होने वाले स्मारक ग्रन्थ की सफलता हेतु मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें।
भवदीय एस.के.शमा
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दिनांक : १४.०७.९७
डॉ. बच्छराम दुग्गड़ विभागाध्यक्ष अहिंसा एवं शांतिशोध विभाग जैन विश्व भारती संस्थान विश्वविद्यालय लाईन
संदेश
प्रतिष्ठा में, प्रधान सम्पादक आचार्य श्रीमदयतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रन्थ
सादर जय जिनेन्द्र
किसी महान आचार्य की स्तुति एवं स्मरण निर्जरा का हेतु बनती हैं, ऐसा मेरा विश्वास हैं। शब्दों की सार्मथ्य नहीं कि वे उस महान आचार्य के व्यक्तित्व एवं कर्तव्य को व्यक्त कर सकें, लेकिन जब भावना प्रबल और श्रद्धा उत्कृष्ट होती हैं। तो स्वयमेव कुछ उद्गार व्यक्त हो ही जाते हैं। श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के प्रति भी ऐसा ही श्रद्धा और भावना निश्रित होती हैं।
विश्व प्रसिद्ध अभिधान राजेन्द्र कोष का सम्पादन स्वतः आपकी विद्धता, गुरुभक्ति, सेवा एवं त्याग की कहानी कह देता हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष के कर्ता श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के हाथों आपकी दीक्षा गुरु-शिष्य परम्परा को धन्य करती हैं। धन्य हैं वे क्षण और जन जिन्होंने श्रीमदविजय राजेन्द्रसूरिजी महाराज की सानिध्य में यतीन्द्रविजयजी की दीक्षा पर उनके तेज और तप का साक्षात अनुभव किया था।
तपो-तेजः पुंज, अनवरत, ज्ञान - साधनारत, गुरुभक्त, तीर्थ- संस्थापक, तीर्थोद्धारक, अंजनशलाकाका प्रतिष्ठापक, तपाराधक,ज्ञान-भण्डार संवर्द्धक एवं साहित्य सजक श्रीमद यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की दीक्षा शताब्दी पर स्मारक ग्रन्थ का प्रकाशन समाज का दायित्व तो है ही पर ज्ञान पिपासुओं एवं राह-खोजियों के लिए पथप्रदर्शन भी हैं। दीक्षा शताब्दी पर समाज का यह दायित्व भी है कि ज्ञान भण्डारों की वृद्धि एवं संरक्षण के प्रयत्नों के साथ आधुनिक विद्याओं के संदर्भ में जैन विद्वानों के निर्माण का कार्य भी अपने हाथ में ले।
महान आचार्य के प्रति मेरी भावांजलि एवं दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रन्थ के लिये मेरी शुभकामनाएँ स्वीकार करें।
डॉ. बच्छराज दूग्गड़
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रत्नमाला सावनूर राज्यमंत्री योजना एवं कार्यक्रम समन्वयन भारत सरकार
दिनांक ४ जुलाई ९७
संदेश
पूज्य मुनि जयप्रभविजयजी,
आपका श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का दीक्षा शताब्दी समारोह का निमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ, बहुत-बहुत धन्यवाद। अत्यन्त व्यवस्तता के कारण मैं उक्त समारोह में सम्मिलित नहीं हो पाई, इसका मुझे खेद हैं।
भवदीय
ESSSSSSBPSE रत्नमाला सावनूर
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राममूत्रि त्रिपाठी 2, स्टेट बैंक कॉलोनी देवास रोड,
उज्जैन (म.प्र.) 456010 दूरभाष : (0734) 510772
सन्देश यह जानकर परम प्रसन्नता हुई कि आप सबआचार्य श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षाशताब्दी स्मारक ग्रंथ के प्रकाश की योजना कार्यान्वित करने जा रहे हैं। इस पुनीत संकल्प की जितनी प्रशंसा की जाए स्वस्थ है। श्रीमद् यतीन्द्रसूरि जैन साधु थे। जो जिन है- जयनशाली है-कासाय पर विजय पा लिया है-वह जिन है और सच्चे अर्थों में वही जैन हैं। साध्नोति परकार्यमिति साधु : जो परहित साधनरत हो-नही साधु है। इस प्रकार आचार्य श्री की जैन साधुता अन्वर्थ है। आचार्य श्री की जीवन चर्चा स्वाध्याय और गुरु सेवा में निरंतर पगी रही। परिणाम सामने हैं। भारतीय परंपरा की पहचान है- गुरुसेवा और स्वाध्याय। महाराज श्री ने अपनी जीवन चर्चा से इस पहचान को पूर्ण प्रतिष्ठा दी है।
__महान क्षमताएं स्वाध्याय, बोध, आचरण और प्रचारक के सोमानों पर क्रमशः आरुढ़ होकर जीवनयात्रा को सार्थक बनाते हैं और ऊर्ध्वारोहण करते हैं। आपने स्वाध्याय को बोध में परिणित किया। बोध केवल अधीन की समझ तक ही नहीं होता- उसे समझ के साथ पचाना और पचाकर उसमें कुछ जोड़ना भी होता है। बोध तभी सार्थक है जब वह आचरण में उत्तर जाय। महाराज श्री ने उसे आचरण में उतारा है। ज्ञानं भारः क्रियाणीक ही कहा है। पर वह आचरणशाली आचार्य घूम-घूकर उसका प्रकरण भी करता है ताकि लोक का मंगल हो- संसार सही रास्ते पर संसरण करे। इस मार्ग से चलकर गंतव्य तक पहुंचने-पहुंचाने वाले आचार्य श्री की दीक्षा शताब्दी मनाना श्रद्धालुजन का कर्त्तव्य है। निश्चय ही ऐसा सुनीत कर्त्तव्य करने वाले आदरणीय है।
भवदीय
राममूर्ति त्रिपाठी प्रति, ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX (9) XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
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लिन
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हरिशचन्द्र जैन
सन्देश
कामा
गजमा मान्यवर :19 गीगानाचगाको कारण यात्रा
बाप्रकार 22 जून 1997 से आप श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ शताब्दी वर्ष प्रारंभ कर रहे हैं।
आइजिशिना कागा आपका यह कार्य जिन शासन एवं श्रमण संस्कृति की प्रभावना का अंग जाना
है। यह ज के भौतिक युग में अंधकार में प्रकाश का कार्य करेगा यह मेरा मत है। PISi - संक्षिप्त में स्मारक ग्रंथ जैन साहित्य का एक ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक दीपस्तंभ होगा।
इससे जन-जन मानसिक एवं आत्मिक लाभ प्राप्त करेंगे। ऐसा मेरा विश्वास
निगमशागत का शिकार गायक- शिवाजहार का मोहालकीणी गा माह। हम काजसधन्यवाद।
किसान विकासकातीकक नितीशाक मनानालालजा विकिमाना भवदीय -Map
शीण हरिशचन्द्र जैन की
प्रति, ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
गीतमाम प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ NXX*XXXXXXXXXXXXXXXNXRESYRERERURYRXA2 (10) RURYSYNYRENS RENESE NENE NENNERXXNXNXX
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डॉ. महेन्द्र भानावत
352, श्रीकृष्णपुरा, उदयपुर -313001 (राज.)
TOS
सन्देश
सादर वन्दना,
यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी महाराज की दीक्षा शताब्दी के उपलक्ष्य में उनकी स्मृति में अक्षुण्ण बनाए रखने के लि स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है।
श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी बहुमुखी प्रतिभा के प्रज्ञा पुरुष थे, जिन्होंने धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में ही नहीं अपितु शिक्षा तथा समाज हिताकरिणी कई प्रवृत्तियों के संचालन की प्रेरणा दी। उनके सान्निध्य एवं दिशानिर्देश में कई धार्मिक तीर्थों की उद्धार एवं संरक्षण हुआ। जैन विद्या विषयक महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन हुआ और लोक जीवन प्रतिभा का यथोचित पोषण, परख और सझात के सुकृत्य संपादित किए गए।
जैनचेतना को मुखरित करने एवं प्रभावी नाने के लिए यतीन्द्रसूरिजी महाराज के प्रयत्न अनुकरणीय एवं आदर्शोन्मुखी रहे। आपके व्यारयानों तथा उपदेशों से प्रभावित होकर जैनेतर समाज के कई लोग जैन संस्कृति, आचरण और सहकार की भावना की ओर उन्मुख हुए।
आशा है, उनके स्मारक ग्रंथ में उनके समग्र व्यक्तित्व तथा कृतित्व पक्ष का पूरा मूल्यांकन होगा साथ ही जो देन उन्होंने दी उसका सम्यक प्रकारेण विश्लेषण होगा ताकि भावी पीढ़ी उससे प्रेरित तथा प्रभावित हो अपना जीवन सार्थक कर सके। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ
विनीत डॉ. महेन्द्र भानावत
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ NENENENENERENERBRBRBRENER४RENINENENENER2 (11) 8888N8RENERENESENBNBRUARNERBENENESERENM
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काpaas. रामानी (D) 10001
सुरेन्द्रसिंह पोखरणा
वरिष्ठ वैज्ञानिक भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन
अहमदाबाद
सन्देश 190
परम आदरणीय मुनिश्री जी
आपका समारोह का नियंत्रण प्राप्त हुआ। इसके लिए हार्दिक धन्यवाद। साथ में जो पुस्तिका भेजी उसे पढ़कर लगा कि श्रीमद् यतीन्द्र सूरिजी महाराज के दीक्षा का शताब्दी समारोह मनाना अत्यन्त उपयुक्त है। ऐसे समारोह मनाने से हम जैन धर्म और महान आचार्यों के कार्यों तथा त्याग को सही परिप्रेक्ष्य में समझने का अवसर मिलता है। हमारा कर्त्तव्य को सही परिप्रेक्ष्य में समझने का अवसर मिलता है। हमारा कर्त्तव्य है कि हम इन कार्यों की समीक्षा आज की समस्याओं के संदर्भ में करे तथा हम महान सिद्धांतों की उपयोगिता इस भौतिक युग में समझे। डाक वैज्ञानिक होने के नाते में दावे के साथ कह सकता हूं कि जीवन रूपी गाड़ी को चलाने के लिए विज्ञान तथा धर्म दोनों आवश्यक है। ____ गाड़ी डाक पहिये से नहीं चलती। जब विज्ञान का प्रयुत्व बढ़ता जा रहा है तथा धर्म का प्रभाव कम हो रहा है सो यहीं आज के जीवन की समस्याओं की जड़ है। आज द्वारा आयोजित शताब्दी समारोह इस अन्तर को कम करने में उपयोगी सिद्ध होगा। यदि मेरी शुभकामनाएं हैं। मैं इसकी हार्दिक सफलता की मनोकामना करता है। शाक धिानमक किनामीकार
धन्यवाद।
आपका शुभेच्छु फवामी
सुरेन्द्रसिंह पोखरणा प्रति, ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ NPNENERNENENER/NUSUNUWARENENIRUNANBNENE (12) NENERUNERNENERUNARENENINARUNNINENERENx
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथःसन्देश- वन्दन कोटि कोटि वन्दनारे..... किमीकि
आचार्य श्री कोमल हृदयी थे कि सामान्यतः मनुष्य दो प्रकार के होते हैं। एक बादाम के सामान है और दूसरे खारक के समान। जो बादाम के समान होते हैं वे ऊपर से अथवा बाहर से बड़े कठोर दिखाई देते हैं ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसे व्यक्ति किसी भी मूल्य पर अपने विचारों से नहीं हटेंगे। वे पाषाण से भी कठोर व्यवहार करते दिखाई देते हैं, किन्तु अंदर से उनका हृदय बादाम की गिरी की भांति कोमल होता है।
किसी का भी दुःख-दर्द देखकर उनका हृदय द्रवित हो जाता है और वे अपना कार्य या अपना-अपना दुःख दुःखी व्यक्ति के दुःख को कष्ट को दूर करने में लग जाते हैं, इसके विपरीत दूसरे प्रकार के व्यक्ति होते हैं वे ऊपर से तो खारक की भांति मुलायम होते हैं बड़ी दया करूणा दिखाते हैं मीठे वचन बोलते हैं, किन्तु अन्दर से खारक की गुठली की भांत कठोर होते हैं उनका हृदय कभी भी दुःखी असहाय व्यक्ति को देखकर पिघलता नहीं है वे पाषाणवत् बने रहकर अपनी स्वार्थ सिद्धि में
लगे रहते हैं।
व्याख्यान वाचस्पति स्व. आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. बहुत ही कोमल हृदय के थे किसी भी दीन दुःखी को देखकर उनका हृदय द्वीत हो जाया करता था और उस व्यक्ति की किसी न किसी प्रकार से सहायता अवश्य करवाते थे। वे सही अर्थों में प्रथम प्रकार से सहायता अवश्य करवाते थे। वे सही अर्थों में प्रथम प्रकार के महापुरुष थे। यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आचार्यश्री की स्मृति में आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है। मैं आचार्यश्री के श्री चरणों में अपनी वंदना प्रस्तुत कर स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन के आयोजन की हृदय से मंगल कामना करता हूं।
शाकडीबिनिशाना प्रति , ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
किमी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
___- मांगीलाल छाजेड़
मैनेजिंग ट्रस्टी, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
प्रधान सम्पादक
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथः सन्देश- वन्दन
कोटि कोटि वन्दनारे..... कि कि
आचार्य श्री आगम ज्ञाता थे
या संयमवृत अंगीकार कर जीवन जयंती उसका पालन करना एक बड़ी उपलब्धी मानी जाती है। संयम वृत अंगीकार करना प्रत्येक व्यक्ति के सामर्थ की बात भी नहीं है। बड़ी पुण्यवानी के पश्चात ऐसा दुलर्भ अवसर प्राप्त होता है इसके साथ ज्ञान प्राप्ति भी हो जावे तो वह सोने पे सुहागा बन जाता है। कारण कि ज्ञान भी प्रत्येक व्यक्ति को सहज ही उपलब्ध नहीं होता है। कभी-कभी सामान्य से सामान्य बात भी व्यक्ति समझ नहीं पाता है। जो बात एक छोटा बालक कभी-कभी आसानी से समझ लेता है वहीं बात एक प्रौड़ व्यक्ति साफ नहीं समझ पाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ज्ञान प्राप्त करना भी भाग्य एवं पुरुषार्थ की बात है।
उस पर तात्विक ज्ञान प्रागण करना भी भाग्य एवं पुरुषार्थ की बात है उस पर तात्विक ज्ञान प्राप्त करना तो और भी कठिन होता है। तात्विक ज्ञान आगम साहित्य से सतत अध्ययन से मिलता है। हर कोई व्यक्ति आगम साहित्य के रहस्य को समझ नहीं सकता फिर वह व्यक्ति गृहस्थ हो अथवा साधु । आगम ज्ञान प्राप्त करना भी भाग्य की बात है। पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. उच्च कोटि के साहित्यकार तो थे ही उन्होंने आगम साहित्य का भी तत्स्पर्शी अध्यय था।
इसी कारण वे आगम ज्ञाता भी माने जाते थे। उनके आगम ज्ञान का प्रमाण उनके प्रवचन साहित्य तथा उनके द्वारा रचित अन्य साहित्यिक कृतियों में उपलब्ध है। आज जब यह ज्ञात हुआ कि उनकी स्मृति में श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ प्रकाशन हो रहा है हृदय प्रसन्नता से भर गया। मैं आपके इस आयोजन की अन्तर्मन से सफलता की कामना करते हुए पूज्य आचार्य भगवंत के चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हूं।
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
-- संघवी बालचन्द रामाणी ट्रस्टी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ गुड़ा बालोतरा-नैल्लूर श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ PRESENxxxnxNENENENERENENER/NERERENERrNER2 (14) NENENENENENENENENENENENENENENENENENENENM
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश- वन्दन कोटि कोटि वन्दनार... popsiकिनकि
योग्य गुरु के योग्य शिष्य जगी जब यह ज्ञात हुआ कि परम पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की दीक्षा शताब्दी के अवसर पर एक स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है तब मेरा ध्यान सहसा उनके गुरुदेव की
ओर गया। उन्होंने प्रातः स्मरणीय विश्व पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में खाचरौद जिला-उज्जैन में दीक्षा वृत्त अंगीकार किया था। प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्री उच्चकोटि के साधक एवं संयम आराधक होने के साथ एक महान साहित्यकार भी थे।
- उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना कर मां भारती के भंडार में अभिवृद्धि की है। उनके द्वारा रचित अभिधान राजेन्द्र कोष आज संपूर्ण विश्व में उनकी कीर्ति पताका फहरा रहा है। ऐसे महान गुरु का शिष्य होने का गौरव आचार्य श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. को मिला। वे भी अपने गुरुदेव के पदचिह्नों पर ही चले वे स्वयं भी उच्चकोटि के साधक थे और संयम पालन में शिथिलता उन्हें स्वीकार नहीं थी। संयम पालन के मामले में वे निश्चय ही कठोर थे। अपने गुरुदेव की भांति ही उन्होंने भी गहन अध्ययन कर अपने ज्ञान में अभिवृद्धि की ओर विभिन्न विषयों की साठ से भी अधिक पुस्तकों की रचना कर हिन्दी साहित्य के भंडार में अभिवृद्धि की। इतना ही नहीं विद्वानों का सम्मान करते हुए उन्होंने उनको सहयोग प्रदान कर महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की साथ ही एक महत्वपूर्ण कार्य भी आपने सम्पन्न किया। वह कार्य था गुरुदेव श्री द्वारा रचित श्री अभिधान राजेन्द्र
विश्व कोष का संपादन कर मुद्रित करवाना। कीति इस प्रकार श्रद्धेय आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरिजी म.सा. ने अपने आपको एक योग्य
गुरु का योग्य शिष्य प्रमाणित किया। स्मारक ग्रंथ प्रकाशन योजना का में हार्दिक समर्थन करते हुए उसकी सफलता की शुभकामना करता हूं और पूज्य आचार्य श्री के चरणों में सविधि नमन करता हूं। प्रति, यिनकाशा ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
चंपालाल पुखराजजी चौपड़ा , आहोर प्रधान सम्पादक
ट्रस्टी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश-वन्दन
टिवन्दनारे...... तिकि
गि हार्दिक शुभकामना ति यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि व्याख्यान वाचस्पति आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. की पावन स्मृति में एक स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है। जब हम श्रद्धेय आचार्यश्री के समग्र जीवन पर दृष्टिगत करते हैं तो पाते हैं कि उनका जीवन अनेक अनुपम विशेषताओं से भरा हुआ था और विविध आयामी था। वे एक और संयम पालन में कठोर थे तो दीन-दुःखियों के अभावों को दूर करने में कोमल हृदयीभी थे। वे उक्त महान साहित्य सेवी के साथ-साथ उच्चकोटि के साधक भी ये समाज सधारक के साथ श्रेष्ठ प्रवचनकार भी थे। जैन धर्म में तप की महिमा का काफी वर्णन है तप से शरीर भले ही क्षीण हो, किन्तु अनोबल में वृद्धि होती है और अनेक लब्धियों की प्राप्ति होती है। आप इन लक्ष्य से अच्छी प्रकार से परिचित थे। तभी तो आपकी प्रेरणा से अनेक विघ तपस्याओं और उपघान तप आदि के आयोजन हुए।
आपके पावन सान्निध्य में अनेक संघ यात्राओं का भी आयोजन हुआ। इससे यात्रियों को विभिन्न क्षेत्रो की जानकारी मिली और तीर्थ यात्रों का लाभ प्राप्त हुआ।
आप एक तिर्थोद्धारक के रूप में भी जाने जाते हैं। आपके सुप्रसिद्ध तीर्थ लक्ष्मणी जिलाझाबुआ (म.प्र.) एवं श्री भाण्डवपुर तीर्थ जिला-जालोर : राज. का उद्धार करवाया जिनका काफी विकास हो चुका है और हजारों यात्री यहां प्रतिवर्ष आकार दर्शन वंदन एवं पूजन कर लाभ प्राप्त करते
पूज्य आचार्य भगवंत की सेवा में अनेक मुमुक्षुओं ने दीक्षावृत्त अंगीकार किया, जिनमें वे आज भी अनेक गुरु गच्छा की महिमा में चार चांद लगा रहे हैं। ऐसे महान आचार्य भगवंत की स्मृति में आपका यह प्रयास अनुमोदनीय है। इसकी सफलता के लिए में अपनी ओर से तथा अपने परिवार की ओर से हृदय की गहराई से शुभ कामना प्रेषित करता हूं। कामकागद तिमिल किया प्रति,
- महेन्द्रकुमार नरपतराजजी कोठारी ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ जियालालागंज
भैसवाड़ा : भीवण्डी प्रधान सम्पादक श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथःसन्देश-वन्दन
कोटिकोटिवन्दनारे...
किनकि एकता के प्रबल समर्थक इस संसारी मनुष्य छोटी-छोटी बातों का बुरा मान जाते हैं और बैर बांध लेते हैं। परिणामस्वरूप समाज में गुटबाजी हो जाती है। समाज दो या अधिक समूहों में विभक्त हो जाता है। समाज का इस प्रकार अलग-अलग समूहों में विभक्त हो जाना समाज हित में नहीं होता है। जो विज्ञ पुरुष होते हैं वे समय-समय पर समाज के इन विग्रहों को दूर कर एकता स्थापित करने का प्रयास करते हैं। गृहस्थाश्रम में रहने वाले व्यक्ति आपस में समझाने पर भी नहीं समझते हैं। वे एकता का महत्व जानते हुए भी अपनी बात पर अड़े रहते हैं। ऐसे हटाग्रही लोगों को समझाकर संघ में समाज में एकता स्थापित करनी बड़ी टेड़ी खीर होती है, परंतु जो संघ समाज में एकता स्थापित करनी बड़ी टेडीखीर होती है। परंतु जो संघ समाज में एकता के पक्षधर होते हैं, उनके लिए ऐसे व्यक्तियों को सत्य मार्ग पर लाना कठिन कार्य नहीं होता है। वे अपने प्रयासों से संघ समाज में एकता स्थापित करके ही रहते हैं।
परम पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. ने देश के विभिन्न भागों में विचरण किया था। अपने विचरणकाल में उनके सामने अनेक समस्याएं भी आती थी, जिनका वे सहज ही निराकरण कर दिया करते थे अनेक स्थानों पर समाज की फुट के उदाहरण भी उनके सामने आए। समाज की इस फुट के कारण समाजहित के अनेक कार्य नहीं हो पा रहे थे। ऐसे समय में आप दोनों पक्षों की बात को बड़ी गंभीरता से सुनते थे और फिर उस पर गहन चिंता कर दूध का दूध और पानी का पानी कर अपना निर्णय देते थे अथवा दोनों पक्षों को अपने सामने बैठाकर इस प्रकार समझाते थे कि दोनों पक्ष प्रसन्नतापूर्वक अपने हठ का त्यागकर आपस में गले मिल जाया करते थे। यह सब उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं निश्पक्षता के गुण के कारण संभव होता था वे स्वयं एकता के प्रबल समर्थक थे। आज जब उनकी स्मृति में एक श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है तो आनंदद की लहरें उत्पन्न हो रही है। मैं आचार्य श्री के चरणों में नमन करते हुए इस आयोजन की सफलता की हार्दिक मंगल कामना करता हूं। कामना कर
मांगीलाल चौपड़ा प्रति,
अध्यक्ष - खतरगच्छ संघ, रतलाम ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ NENXNXNNENERENENERENXNXNENERENENENERe8 (17) MANENERegRINNESBNxxxseNNERENERBKEN
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ: सन्देश--वन्दन -
कोटि कोटि वन्दनारे... ppीकिडीकि
का वे गुण ग्राहक थेट
हम यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि परम श्रद्धेय बाल ब्रह्मचारी व्याख्यान वाचस्पति
आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. की दीक्षा शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में एक स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन होने जा रहा है। निश्चय ही यह स्मारक ग्रंथ श्रद्धेय आचार्य भगवंत की सम्पूर्ण जीवन अंग को प्रस्तुत करे तथा उनके जीवन के अप्रकाशित पृष्ठों को भी उजागर करेगा साथ ही इस स्मृति ग्रंथ में जैन धर्म दर्शन साहित्य कला एवं संस्कृति से संबंधित स्तरीय आलेख भी सम्मिलित किए जाएंगे। आपके द्वारा प्रकाशित होने वाला यह ग्रंथ स्मति ग्रंथों की श्रृंखला नए कीर्तिमान स्थापित करें यही मंगल मनीषा है।
मुझे एक बात स्मरण आती है कि श्रद्धेय आचार्य श्री स्वयं तो विविध विषयों में लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान थे ही वे विद्वानों को भी सम्मान करते थे और आवश्यकता के अनुरूप यथा संभव उनकी सहायता भी करते व करवाते थे। ऐसे विधान आचार्य बहुत कम देखने को मिलते हैं। आचार्यश्री किसी भी विषय पर विद्वानों से चर्चा करते समय उनकी बात को ध्यानपूर्वक न केवल सुनते वरन आवश्यकतानुसार उसके अनुरूप कार्य भी करते थे। वे सच्चे अर्थों में गुण ग्राहक थे।
ऐसे गुण ग्राही आचार्य श्री के पावन चरणों में अपनी ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कोटि-कोटि वंदन
Eकायम
बाबूलाल भंवरलाल अनोखीलाल प्रति,
खिमेसरा - बजाजखाना जावरा ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ SYRENYNONYM RYRYNYNYNXRYRYNERY RYNXNXRX (18) RXNXNXNXNXNXXE
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश- वन्दन
कोटिकॉटिवन्दनारे.....शाळजाक
महान साहित्य सर्जक
जब हम किसी को उसकी मृत्यु के पश्चात भी याद करते हैं और उसकी स्मृति में कोई महत्वपूर्ण कार्य करना चाहते हैं तो यह निश्चित ही मानना चाहिए कि मृतक शारीरिक रूप से भले ही हम से बिछुड़ गया हो मगर वैचारिक रूप से वह आज भी हमारे बीच में विद्यमान है। इस संदर्भ में जब हम यह विचार करते हैं कि प्रातः स्मरणीय बाल ब्रह्मचारी व्याख्यान वाचस्पति परम श्रद्धेय आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरिश्वरजी म.सा. की दीक्षा शताब्दी के अवसर पर एक स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है, तो हमारी उपर्युक्त बात सत्य प्रमाणित होती है। आज अनेक मुर्धन्य ख्याति लब्ध आचार्य एवं मुनिराज है जिनके अभिनंदन ग्रंथों का प्रकाशन होना चाहिए किन्तु किन्हीं कारणों से नहीं हो पा रहे हैं और श्रद्धेय आचार्य श्री की दीक्षा शताब्दी पर एक स्मृति ग्रंथ का प्रकान हो रहा है यह हार्दिक प्रसन्नता का विषय है वैचारिक दृष्टि से आचार्य श्री आज भी हमारे मध्य विराजमान हैं, जिनसे हमें प्रेरणा मिलती है।
श्रद्धेय आचार्यश्री न केवल साधक थे वरन उच्चकोटि के साहित्यकार भी थे। उन्होंने विभिन्न विषयों पर संबंधित लगभग 60-65 पस्तकों की रचना कर उनके माध्यम से समाज का मार्गदर्शन किया उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक है। आपने साहित्य में उन्होंने जो जानकारियां दी है वे आज भी प्रासंगिक है। इतिहास के क्षेत्र में उनका लेखन अद्वितीय है। उनके प्रवचन आज भी प्रेरणा स्त्रोत बने हुए हैं। उन्होंने अपने लेखन से हिन्दी साहित्य के भंडार में अभिवृद्धि ही की है। उनकी अप्रकाशित रचनाओं का प्रकाशन हो जाता है, तो यह स्वागत योग्य है।
वा आपके इस महत्वपूर्ण आयोजन की सफलता की मैं हृदय से कामना करता हूं। आचार्य श्री के चरणों में कोटि-कोटि वंदना। प्रति, ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
नीयफ मिठूलाल ओस्तवाल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
जनता टेंट हाउस, जावरा प्रधान सम्पादक श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
NYRERNE ENERXXNXNXNXNXNXNXNXNXNXNXNXN2 (19) XXXY*XXXRENERXRESENERERERERERERERERENERX
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यतीन्द्रसूविस्मारक ग्रंथ : सन्देश - वन्दन -
कोटि कोटि वन्दना रे...
जीकिक वे निर्भिक निडर निष्पक्ष थे
बाल ब्रह्मचारी व्याख्यान वाचस्पति परम श्रद्धेय आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. का समग्र व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली था। उनके जीवन पर दृष्टिपात करे तो पाते हैं कि अपने बाल्यकाल में भी प्रभावी एवं निर्भिक थे। बचपन से ही माता-पिता की छत्रछाया से वंचित हो गए थे। मामा में संरक्षण में भोपाल में रहे यहां वे दिन रात कठोर परिश्रम करते थे। एक रात्रि में एक चोर को पकड़वाने में आपकी भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही थी। यही आपकी निर्भिकता का प्रमाण है। इतना ही नहीं जब मामा ने आपको कुछ चुभती बात कही तो आप भोपाल को छोड़कर चल दिए। बचपन में उन दिनों ऐसा साहस कौन दिखा सकता था। इधर-उधर घूमते फिरते आप महिदपुर पहुंच गए उस समय वहां परम योगीराज प्रातः स्मरणीय विश्व पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सरिश्वरजी म.सा. विराजमान थे। आप उनकी सेवा में पहुंच गए। वैसे आप दिगम्ब जैनथे किन्त बाल्यावस्था में आपको मिली धार्मिक शिक्षा एवं संस्कार के कारण आप वंदन नमस्का आदि से परिचित ये आपने विधिवत वंदन किया पूज्य गुरुदेव से वार्तालाप भी हुई।
आप पूज्य गुरुदेव से इतने प्रभावित हुए कि आपने उनकी सेवा में दीक्षावृत्त अंगीकार करने की अपनी बात सहज ही निर्भिक होकर कर दी। वैसे पारखी गुरुदेव ने भी इनकी प्रतिभा को पहचान लिया था पूज्य गुरुदेव ने इन्हें रामरत्न अपने पास रख लिया और फिर खाचरौद जिला-उज्जैन में इन्हें दीक्षा वृत्त प्रदान कर मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. के रूप में अपना ही शिष्य घोषित किया। निर्भिकता का आपका यह स्वभाव जीवन पर्यन्त बना रहा।
ऐसे गुरुदेव की स्मृति में प्रकाशित होने वाले स्मारक ग्रंथ के लिए मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए पूज्य गुरुदेव के चरणों में वंदना अर्पित करता हूं। जाया
प्रति,
अनोखीलाल मोदी ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
अध्यक्ष - श्री राजेन्द्रसूरि आराधना भवन प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ 9888888888888888888888888888888888888882 (20)888888RUNBRBRBRBABRBRBRBRBSeweeeeee
पेटलावद (झाबुआ) म. प्र.
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश-वन्दन
कोटि कोटिवन्दनार...
किनकि
यस वे भेद विज्ञानी थे
कि शरीर और आत्मा, आत्मा और शरीर दोनों एक नहीं भिन्न है, किन्तु सामान्य मानक इनमें भेद नहीं कर पाता है। वह आत्मा और शरीर दोनों को एक-एक ही मानता है। जैसे किसी व्यक्ति के शरीर में कहीं एक फोड़ा हो गया और जिसके कारण उसे काफी कष्ट हो रहा है, तो वह स्वाभाविक रूप से कहता है कि उसकी आत्मा को बड़ा कष्ट हो रहा है। वह अज्ञानी शरीर के कष्ट को अलग नहीं समझता जो फोड़ा हुआ है वह शरीर का कष्ट है उसका आत्मा से कोई संबंध नहीं है।
या आत्मा का कष्ट शरीर के कष्ट से सर्वथा भिन्न है जो व्यक्ति इस भेद को जान जाता है वह शरीर के कष्ट की भी परवाह नहीं करता है। क्योंकि उसे तो अपनी आत्मा का कल्याण करना है जो अजर आत्मा है। शरीर को नश्वर देह की चिंता नहीं करते हैं।
परम श्रद्धेय आचार्य देवेश श्रमद्विजय यतीन्द्र सूरिश्वरजी म.सा. भेद विज्ञानी थे भेद विज्ञानी के पूर्ण ज्ञाता थे वे आत्मा और शरीर के पृथक के भलीभांति परिचित थे तभी तो एक बार जब उनका ऑपरेशन होना था तब डॉक्टर ने उन्हें मूर्च्छित करना चाहा तब उन्होंने डॉक्टर से कह दिया कि आपको जो करना है करे। मुझे करने का प्रयास नहीं करें।
श्रद्धेय आचार्य भगवंत अपने चिंतन में लीन हो गए और डॉक्टर शल्यक्रिया में। शल्यक्रिया हो गई। डॉक्टर श्रद्धेय आचार्यश्री के साहस दृढ़ता आदि को देखकर आश्चर्य चकित रह गए ऐसे तत्वज्ञानी पू. आचार्य भगवंत की स्मृति में जब स्मृति ग्रंथ के प्रकाशन की जानकारी मिली तो हृदय आल्हाद से भर गया। मैं आपके इस आयोजन की सफलता की कामना हृदय से करता हूं और श्रद्धेय आचार्यश्री के पावन चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हूं। मारक विणायाममा
हुक्मीचन्द बागरेचा सियाणा ट्रस्टी प्रति, ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी श्रमण'
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, रानीबेनुर, कर्नाटक श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ RBNBRBRBRBRBRBRBRBRBRBRBRBRBRBRBSESBSHS2 (21) RMSBSERENESEARNERBSIBIBIMSHRESERe RBRBRBR8
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : सन्देश-वन्दत कोटि कोटि वन्दनारे... कीकडीकि
कुशल प्रवचनकार। विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त किया और प्रकाण्ड विद्वान बन गए किन्तु प्राप्त ज्ञान का यदि आप वितरण नहीं कर पाए तो उसका क्या लाभ आपकी विद्वता का लाभ किसी को नहीं मिल पाया यदि विद्वता है और उसे अभिव्यक्त कर वितरण करने की क्षमता है तो प्राप्त ज्ञान दिन दूना रात चौगुना वृद्धि पाता जावेगा। व्याख्यान देना भी एक कला है प्रत्येक व्यक्ति फिर भले ही वह अच्छा विद्वान ही क्यों न हो जरूरी नहीं कि वह एक अच्छा वक्ता भी हो। कम पढ़ा लिखा अल्प अध्ययनशील व्यक्ति अच्छा वक्ता हो सकता है, जिसके पास शास्त्रीय ज्ञान हो और वह उत्तम वक्ता हो तो फिर बात ही क्या।
परम पूज्य आचार्य श्रीमद् विजयसूरिश्वरजी म.सा. के पास असीम शास्त्रीय ज्ञान था और वक्त्व कला के भी वे अद्भुत कलाकार थे। ज्ञान और अभिव्यक्ति का उनमें अनुपम संयोग था, जिन्होंने उनके प्रवचन सुने हैं जानते हैं कि जब आचार्य श्री प्रवचन फरमाते थे तो श्रोता मंत्र मुग्ध हो जाते थे। श्रोताओं को प्रवचन श्रवण में अपने अस्तित्व का ही ज्ञान नहीं रहता था। वे तो तब होश में आते थे जब आचार्यश्री का प्रवचन समाप्त हो जाता।
वे अन्यनस्क हो तब इधर-उधर देखकर अपनी स्थिति का आकलन करते। अपने प्रवचन के विषय को भी आप कुशलता के साथ उसी प्रवाह के साथ मोड़ देने में सक्षम थे। आपके प्रवचन में श्रोता डूब के स्थान पर आनंद की अनुभूति करता था। आपके प्रवचन में शास्त्रीय उद्धारणों के साथ प्रसंगानुसार कलात्मक दृष्टान्त भी होते थे। इससे कठिन विषय भी बोधगम्य हो जाता था। आपके प्रवचन संग्रह देखने पर इस बात की पुष्टि होती है।
परम पूज्य आचार्यश्री के पावन चरणों में वंदन करते हुए मैं स्मृति ग्रंथ प्रकाशन की योजना की सफलता की लक्ष्य की गहराई से मंगल कामना करता हूं। प्रति, ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
संघवी सुमेरमल रायचंद विनोदकुमार दिलीपकुमार श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
हंसमुखकुमार बेटापोता हंजारीमलजी श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
सूरजमलजी सियाणा संघवी
प्रधान सम्पादक
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : सन्देश - वन्दन
कोटि कोटि वन्दना रे...
व्यसन मुक्त समाज के समर्थक
15 प्रत्येक चमकदार वस्तु सोना नहीं होती है किन्तु व्यक्ति चमकीली वस्तु को देखकर उसकी और आकर्षित हो ही जाती है। इसी प्रकार व्यक्ति बुराइयों की ओर भी स्वाभाविक रूप से आकर्षित होता है जैसा जुआ एक बहुत बड़ी बुराई एवं व्यसन है, किन्तु व्यक्ति का सोच यह रहता है कि उसके दाव लगाते ही उसे लगाए गए धन से कई गुना धन मिल जावेगा और वह इसी आशय में दावा जाता है। उसे धन मिलता तो नहीं है वरन् वह दरिद्र हो जाता है।
समाज में उसे अपमानित अलग से होना पड़ता है। इसी प्रकार अन्य व्यवसन जैसे आखेट, वेश्यागमन, मद्यपान परदारा गमन आदि भी व्यक्ति के लिए विनाश के कारण ही है। समाज में सभी व्यक्ति व्यसनमुक्त नहीं रहते। अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो किसी न किसी व्यवसन में लिप्त रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों का जीवन और उनका परिवार सदैव दुःख ही रहता है।
कीकीक
प्रातः स्मरणीय बाल ब्रह्मचारी आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. समाज में व्याप्त इस बुराई से परिचित थे यही कारण था कि वे समय-समय पर अपने प्रवचनों के माध्यम से चर्चाओं में व्यसनमुक्त जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान किया करते थे व उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अनेक व्यक्तियों ने व्यसनों का त्याग कर सादा जीवन जीना शुरू कर दिया था।
जैन धर्मावलम्बी ही नहीं मारवाड़ के कुछ ठाकुरों ने भी श्रद्धेय आचार्यश्री के उपदेशों से प्रभावित होकर आजीवन शिकार नहीं खेलने और मद्यपान नहीं करने का नियम ग्रहण किया था। ऐसे उदाहरणों से आचार्य श्री के सर्वव्यापी प्रभाव की जानकारी मिलती है। ऐसे महामहिम आचार्य श्री की स्मृति में एक श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन एक सच्ची श्रद्धांजलि है। मैं इस आयोजन की सफलता की अन्तर्मन से कामना करते हुए आचार्यश्री के चरणों में भावभरी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
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प्रार्थी
राजेन्द्रकुमारधाड़ीवाल, रतलाम
प
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश-वन्दन
कोटि कोटि वन्दना रे......popsiकांकि
को वे इतिहास प्रेमी थे
विश जैन मुनियों जैनाचार्यों का मुख्य उद्देश्य अपनी साधना द्वारा आत्म कल्याण करना होता है। साथ ही वे धर्माराधना के लिए सामान्य जनता को भी अपने प्रवचन के माध्यम से प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं। वे बालकों में सुसंस्कारों का वमन भी करते हैं। इस प्रकार उनका प्रमुख कार्य क्षेत्र ही रहता है। इसके अन्तर्गत समाज सुधार भी आ जाता है। इतना होते हुए भी यदि कोई जैनाचार्य जैन मुनि धार्मिक विषयों से हटकर इतिहास जैसे विषयों पर अपनी कलम चलाता है तो महत्वपूर्ण बात होती है। ऐसे इतिहास विषयक जानकारी की खबरों कदम-कदम पर आवश्यकता होती है। यह बात अलग है कि सब इसके महत्व को नहीं समझते हैं।
अनेक तीर्थों के उद्धारक बाल ब्रह्मचारी परम पज्य आचार्य देवेश श्रीमद विजय यतीन्द्रसरीश्वरजी म.सा. इतिहास विषय के अध्ययन के महत्व को भलीभांति समझते थे। यही कारण रहा कि उन्होंने इतिहास निर्माण के साधनों में प्रमुख शिलालेखों प्रतिमा लेखों का संग्रह किया । जहां-जहां आपका पर्दापण हुआ उनमें से प्रमुख स्थानों का इतिहासिक विवरण सप्रमाण प्रस्तुत कर अनुयायियों का मार्गदर्शन किया आचार्य श्री द्वारा जिन ग्राम-नगरों के इतिहास लेखन का कार्य अपने साहित्य में किया है वह आज हमारी सांस्कृतिक धरोहर बन गया है। आज वह विवरण इतिहास निर्माण के स्रोत के रूप में काम में लिया जा सकता है। आचार्यश्री के इतिहास विषयक वर्णन अपने इतिहास प्रेम के कारण किया आपका यह प्रयास सराहनीय है। आज जब श्रद्धेय आचार्यश्री की स्मृति में एक आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है तो विश्वास किया जाता है कि उसमें आपके इतिहास प्रेम विषयक विवरण को भी पर्याप्त स्थान मिलेगा। मैं आपके इस आयोजन की सफलता की कामना करते हुए आचार्यश्री के चरणों में वंदन करता हूं। प्रति, ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
लालचंद जैन कालुजी वाला, आहौर प्रधान सम्पादक श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथः सन्देश- वन्दन
कोटि कोटि वन्दनारे....mppीकिक
अनुपम विशेषताओं के धारक
जो संत पुरुष होते हैं उनके जीवन का एक-एक क्षण मूल्यावान होता है। वे समय का सही मूल्यांकन करते हुए अपने और दूसरों के जीवन का निर्माण करते हुए परम श्रद्धेय बाल ब्रह्मचारी व्याख्यान वाचस्पति आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. जाने-माने और सुविख्यात आचार्य देव थे। उन्होंने समाज को नई दिशा दी।
समाज में उनके मार्गदर्शन में नवीन ज्योति प्रज्वलित हुई परिणामस्वरूप उस दिव्य ज्योति के प्रकाश में समाज में विपरीत मार्ग का परित्याग कर सही मार्ग का अनुसरण किया। आपने समाज को सत्य ईमानदारी और नैतिकता के मार्ग का अनुसरण करने की प्रबल प्रेरणा प्रदान की। आपने अपनी अप्रतिम प्रतिभा और शुद्ध लेखनी से जैन साहित्य के भंडार में अपूर्व योगदान दिया।
म आपके सान्निध्य में रहते हुए अनुपम आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति होती थी। आप केवल साधक ही नहीं वरन साधकों के निर्माता भी थे। आपका जीवन अनुपम विशेषताओं का भंडार था आपकी स्मृति में होने वाले स्मृति ग्रंथ की सफलता के लिए मैं अपनी मंगल कामनाएं प्रेषित करता हूं और आपके श्रीचरणों में कोटि-कोटि वंदना प्रस्तुत करता हूं।
माताजीकाकाराम
उपवावा
प्रकाशचन्द्र मूलजी भैंसवाड़ा भिवण्डी
प्रति, ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ wasengNEResearSHRENENESENANENENARENES/02 (25) 8888SBNBIERENESENT
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथःसन्देश-वन्दन -
किनकि
कोटि कोटि वन्दनारे...
ज्ञान के आगार
पहले विद्वता के परीक्षण के लिए शास्त्रार्थ हुआ करता था। जिसका अपूर्ण अध्ययन हुआ करता था वह मैदान छोड़कर भाग जाया करता था और जो ज्ञानी समस्त शास्त्रों में पारंगत होता था उसे निर्णायक मंडल विजेता घोषित कर किसी उपाधि से सम्मानित करता था। वर्तमान काल में अब ऐसी कोई परंपरा दिखाई नहीं देती है।
मुझे स्मरण आता है कि किसी समय परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. उस समय मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म.सा. रतलाम में विराजमान थे उस समय आपकी आयु भी कोई विशेष नहीं थी आप युवा ही थे। उस समय एक अन्य जैन आचार्य श्री सागरानंदसूरिजी म. भी विराजमान थे। उन्होंने आपको शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी। आपने उस समय उस चुनौती को सहर्ष स्वीकार कर लिया एक निर्णायक मंडल के समक्ष शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ दीर्घकाल तक शास्त्रार्थ चलता रहा आप अपने असीम ज्ञान भंडार और विवेक से उक्त आचार्य के तर्की का खंडन करते हुए स्वमत का मंडन करते रहे। अंत में अपनी पराजय होती देख उक्त आचार्य रातोरात रतलाम छोड़कर अन्यत्र चले गए। निर्णायक मंडल ने आपको विजेता घोषित करते हुए “पीताम्बर विजेता" की उपाधि में अलंकृत किया उस समय आपकी ज्ञान गरिमा की चारों और भूरि-भूरि प्रशंसा हुई।
ऐसे ज्ञान के आगार परम श्रद्धेय आचर्यदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की स्मृति में स्मारक ग्रंथ के प्रकाशन से अच्छी श्रद्धांजलि और क्या हो सकती है। उसके लिए तो ज्ञान की आराधना ही श्रेष्ठ मानी गई है। स्मृति ग्रंथ मील का पत्थर साबित हो यही मंगल मनीषा है इस अवसर पर पूज्य आचार्यश्री को कोटि-कोटि वंदन।।
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
माणकलाल कोठारी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
या अध्यक्ष प्रधान सम्पादक श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
त्रिस्तुतिक श्री संघ जावरा (रतलाम) म. प्र. WANANENENENENINENENENENENINENENENENENEL (26) BRESENERENERENENERENEReseNENESENENENENE
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश-वन्दन
कोटि कोटि वन्दनारे...mpps/कीकि
जर वे कुशल संपादक थे काहानी
किसी भी विषय पर लिखित सामग्री का संपादन करना सरल कार्य नहीं होता । संपादन भी एक कला है । संपादन करते समय सम्पादक को अनेक बातों का ध्यान रखना होता है। जैसे लेखक के मौलिक विचारों का हनन न हो, जिस विषय की चर्चा की गई है उससे भिन्न विषय का समावेश न हो। वाक्य रचना सही हो, भाषा निर्दोष हो, वर्तनी की भूल न हो। इसके साथ ही अनावश्यक विस्तार न हो किन्तु विषय वस्तु का स्पष्टीकरण सटीक हो पाठक की रुचि बने रहे आदि।
इस दृष्टि से देखा जाए तो व्याख्यान वाचस्पति आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. एक कुशल संपादक थे। उनके संपादन में वैसे तो अनेक व्यंथों का प्रकाशन हुआ किन्तु सबसे उल्लेखनीय यंथराज श्री अभिधान राजेन्द्र कोष इसके संपादन में आपकी संपादन कला निखर कर समाज के सामने आई। जिस समय आपने श्री अभिधान राजेन्द्र कोष का संपादन किया उस समय आपकी आयु मात्र २४ वर्ष की थी। इसी से आपकी महान प्रतिभा का परिचय मिल जाता है। ऐसे महान संपादन और लेखन के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि उसकी स्मृति में साहित्य का प्रकाशन ही हो सकती है। जब यह ज्ञात हुआ कि श्रद्धेय आचार्य भगवंत के परम पावन श्री चरणों में सश्रद्धा सभक्ति सादर वंदन करता हूं।
डीति-जति हिhिani
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ 'RENENENINENENENENENENENINBN8RENENENENIN2 (27) NUNERINENERUNNERBNBNANENERARUNINENENINM
कमलचंद ओटमलजी सेठ, आहोर
ट्रस्टी - मोहनखेड़ा तीर्थ
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश-वन्दन
कोटि कोटिवन्दना रे...
5कति
जिनकी कल्पना आज साकार हो रही
यह जानकर अत्यन्त हर्ष का अनुभव हो रहा है कि परम पूज्य ज्योतिषाचार्य मुनिप्रवर श्री जयप्रभविजयजी म.सा..श्रमण. के संपादकत्व में परम पूज्य इतिहासवेत्ता व्याख्यान वाचस्पति पिताम्बर विजेता आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. के दीक्षा शताब्दी वर्ष पर उनकी स्मृति
को अक्षुण्ण, चिरस्थाई बनाए रखने हेतु स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है। का 18 सांसारिक जीवन में यदि पुत्र अपने पिता की स्मृति में यादगार कार्य करता है वह उस पिता का सुपुत्र कहलाता है और दीक्षित जीवन में यदि कोई अपने गुरु की स्मृति को अक्षुण्ण एवं यादगार बनाना चाहे वह उस गुरु का सुयोग्य शिष्य होता है। निश्चिय ही मुनिप्रवर श्री का यह प्रयास अपने गुरु के प्रति किया है वह सराहनीय ही नहीं अपितु अनुमोदनीय भी है।
परम पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. वि.सं. 2012 में राजस्थान में विचरण कर रहे थे जब राजगढ़ के कुछ श्रावकगण राज. जाकर पूज्य गुरुदेव श्री को राजगढ़ जिला धार म.प्र. लाए। वि.सं. 2012 में गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिश्वरजी म.सा. के देवलोक गमन में 50 वर्ष पूर्ण हो चुके थे। पूज्य आचार्य श्री ने गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का अर्द्ध शताब्दी महोत्सव श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में आयोजित करने का निश्चय किया। यह आयोजन काफी विशाल पैमाने पर हुआ था। कहा जाता है कि पूज्य आचार्य श्री ने इस महोत्सव में श्री मोहनखेड़ा तीर्थ से लगी हुई जमीनों पर टेण्ट के भवन आज विशाल धर्मशालाओं के रूप में दिखाई दे रही है श्री विद्या विहार धर्मशाला, श्री यतीन्द्रविहार धर्मशाला, श्री मोहनविहार धर्मशाला, भूपेन्द्र सूरि भवन श्री घनचन्द्र सूरि भवन, श्री राजेन्द्र विहार श्री आदिनाथ भवन आदि भवनों की कल्पना कर आचार्य श्री ने टेंट के रूप में बने थे आज साक्षात भवनों के रूप में दिखाई दे रहे हैं। जो उनकी कल्पना थी जो आज साकार रूप में परिणित हो गई। स्मारक ग्रंथ प्रकाशन पर हार्दिक शुभकामना सहित आचार्य श्री को कोटि-कोटि वंदन। प्रति,
ज्ञानचन्द चौपड़ा ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
उपाध्यक्ष श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
त्रिस्तुतिक श्रीसंघ, जावरा (रतलाम) श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
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कोटि कोटि वन्दना रे...
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : सन्देश - वन्दन
लेखन के धनी
परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति आचार्य देवेश श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की कलम हमेशा किसी न किसी विषय पर अविरल चला करती थी कहते हैं कि जब वे कुछ लिखने बैठते थे तो फिर सिर ऊंचा करके नहीं देखते हैं कि कौन आ रहा है और कौन जा रहा है। जब किसी श्रावकगण को आचार्य श्री से मिलना होता था तो वे किसी भी साधु मुनिराज से संपर्क कर अपना संदेश भिजवाते थे, साधु मुनिराज श्री उनकी लेखन क्रिया में व्यवधान नहीं डाल सकते थे। संयोगवश आचार्य श्री लेखन क्रिया से कुछ समय के लिये लेखनी बन्द करते थे तब आगन्तुक श्रावक का संदेश देते थे।
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आचार्य श्री की लेखनी संघ यात्रा में भी चला करती थी। जब किसी छः रि पालक यात्रा संघ का आयोजन होता था आचार्य श्री उन सभी गांवों नगरों की जानकारी उसी गांव नगर में करते हैं। आचार्य श्री उस गांव नगर की भौगोलिक स्थिति, वहां के श्रावकों का स्वभाव एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी रेलवे स्टेशन, डाकखाना, हास्पिटल विद्यालय आदि समस्त सुविधा-असुविधा का सारा विवरण अंकित करते थे। आचार्य श्री विहारकाल में भी उन गांवों नगरों की स्थिति का वर्णन किया करते थे। उनकी पुस्तक मेरी निमाड़ यात्रा ऐसी कई पुस्तकें हैं जिनमें उन गांवों की जानकारियां उपलब्ध हैं।
ऐसा आचार्य देवेश श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की स्मृति में पूज्य मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी म.सा. का प्रयास स्मृति ग्रन्थ प्रकाशन का अन्तः मन से हम अनुमोदन करता है एवं परम पूज्य आचार्य श्री के चरण कमलों में कोटि-कोटि नमन करता हैं। यह स्मृति ग्रंथ सुज्ञ जनों का मार्ग प्रशस्त करेगा यह कामना ।
प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
अर्जुन प्रसाद मेहता (पावापुरी वाले) मुख्य व्यवस्थापक
प्रति,
('s ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण ' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
डीक ठीक
वाल्मिकि प्रसाद मेहता भोजशाला प्रबंधक श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश - वन्दन कोटको
काटिवन्दनारे... - Spopकि
वे निराभिलाषी थे....
मुनि सुख या दुःख की वासना से रहित होते हैं। वे दोनों ही परिस्थितियों में समभाव का अनुभव करते हैं। उनके मन में किसी भी प्रकार की कामना या इच्छा नहीं रहती है। यहां तक की वे मोक्ष प्राप्ति की भी कामना नहीं करते हैं। जो कि
'मोक्ष भवे च सर्वत्रा निष्पृहो मुनि-सत्तमः।'-इसका तात्पर्य यह है कि मुनि को मोक्ष प्राप्ति के विषय में भी निष्पृह होना चाहिए। इसका कारण यही हो सकता है कि मोक्ष की कामना भी आर्त्तध्यान का कारण बन सकती हैं। इसलिए गीता में भी निष्काम होकर कर्म करने के लिये कहा गया है। आशारहित कर्म करो, फल की इच्छा मत करो, वह तो स्वतः ही मिल जाता है।
परमाराध्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. ने कभी कोई कार्य किसी फल प्राप्ति के उद्देश्य से नहीं किया। उन्हें तो बस तो बस कार्य करना है, साधना करना है, फिर क्या होगा? क्या नहीं होगा? इस विषय पर कभी विचार ही नहीं किया। उन्होंने कभी कोई अभिलाषा नहीं की। वे निराभिलाषी थे। सही अर्थों में मुनि थे, संत थे।
उनके दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर आज जब यह सुना कि उनकी स्मृति में श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है तो मन आल्हाद से मर गया। आपके इस आयोजन की सफलता के लिए अन्तरमन से शुभकामना करते हुए पूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वंदन।
प्रति,
वंदन श्रद्धा सुमन अर्पित कर्या
मोतीलाल प्रकाशचन्द्र ज्ञानचन्द ऋषभकुमार (एडव्होकेट)
सनिक राजेश वोहरा, इन्दौर
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ NXNENENINENaNaNENENENENENDIENPNENENINEN2 (30) RENENENERENENENBNPNENENENENENINENENENENE
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश-वन्दन
कोटिकोटिवन्दन...
जालनाक
वे निरासक्त थे.....
कभी-कभी व्यक्ति विचार करता है कि मुनि वर्ग तो बहुत देकने को मिलते हैं, किन्तु उनमें सच्चा मुनि कौन है? सच्चे मुनि की पहचान क्या है? सच्चे मुनि के लक्षण गुरुनानक ने इस प्रकार बताए हैं
हरष शोक जाके नहीं, बैरी मीत समान। कहे नानक सुन रे मना ! मुक्ति ताहिं ते जान॥ इस्तुत निंद्या नाहिं जिंह, कंचन लोह समान ।
कहे नानक सुन रे मना ! मुक्त ताहि तै जान॥ इसका तात्पर्य यह है कि सच्चे मुनि की कुटुम्ब-परिवार, धन-वैभव, भोजन-वस्त्र आदि किसी में भी आसक्ति नहीं होती है। जैसा मिल गया खा लिया, जैसा मिल गया पहन लिया।
इस संदर्भ में यदि परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. के जीवन पर दृष्टिपात करते हैं, त वे इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। तब हम उन्हें निरासक्त कहने के साथ-साथ एक सच्चा मुनिप्रवर ही नहीं मुनिरत्न भी कह सकते हैं। कि उनके दीक्षा के सौ वर्ष हो गए। एक शताब्दी के पश्चात उनका स्मरण उनकी महत्ता को प्रकट करता है। इस दृष्टि से वे मानसिक रूप से आज भी जीवित हैं। शताब्दी वर्ष के अवसर पर श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है, यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। मैं आपको इस आयोजन की सफलता के लिए हृदय की गहराई से शुभकामना देता हूं और परम पूज्य गुरुदेव के पावन चरणों में कोटि-कोटि वंदन अर्पित करता हूं। प्रति, ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
श्रद्धापना श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
विमलचन्द्र रूपचंदजी वजापत श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
आहोर-चेन्नई
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : सन्देश वन्दन
कोटि कोटि वन्दना रे...
भयमुक्त थे.....
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संसार में रहे हुए व्यक्ति को अनेक प्रकार के भय रहते हैं। वह व्यक्ति भय मुक्त हो ही नहीं सकता। यदि भयमुक्त/निर्भय कोई होता है तो मुनि। इस संदर्भ में भतृहरि ने बहुत ही सुंदर लिखा हैं
भोगे रोग भयं कुले च्युति भयं, वित्ते नृपायाद् भयं । माने दैन्य दयं बले रिपु भयं, रूपे जराया भयं ॥ शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं, कार्ये कृतान्ताद्' भयं । सर्व वस्तु भयावहं भुदि नृणां, वैराग्यमेवा भयम् ॥
तात्पर्य यह है कि भोगों में रोग का भय है, ऊंचे कुल में पतन का भय है। धन में राजा का, मान में दीनता का, बल में शत्रु का तथा रूप में वृद्धावस्था का भय है। साथ ही शास्त्र में वाद-विवाद का, गुण में दुष्टजनों का तथा शरीर में काल का भय होता है इस प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए सभी वस्तुएं भयपूर्ण होती हैं। बस, भय से रहित तो केवल वैराग्यावस्था है। जिस साधु ने वैराग्य प्राप्त कर ली, उसे इनमें से किसी का भी भय नहीं रह जाता। वह भय मुक्त हो जाता है। परम श्रद्धेय आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. इस अवस्था को प्राप्त कर भय मुक्त हो चुके थे। उनके दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर प्रकाशित होने वाले दीक्षा शताब्दी ग्रंथ के आयोजन की सफलता के लिए हार्दिक मंगल मनीषा । पूज्य गुरुदेव के पावन श्री चरणों में बारंबार वंदन ।
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
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प्रधान सम्पादक
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श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
REREDEREREREDEREREREDEREREREDEREREDERERE (32) AEEDEDEDEDEDEREREDEREREDEREREREREDERE
श्रद्धांजलि अर्पितकर्ता
महावीरचन्द्र शांतिलालजी मूथा आहोर तनकू
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश- वन्दन -
कोटि कोटि वन्दनारे.....mpopीकांत
परम दयालु गुरुदेव.....
व्यक्ति जैसा होता है, वैसा हमें दिखाई नहीं देता और जैसा दिखाई देता है, वैसा होता नहीं है। यह एक सामान्य कहावत जैसी बात है, किन्तु है सत्य। नारियल को ही ले लें। उसके बाह्य स्वरूप में तो वह खुरदरा और कठोर दिखाई देता है, किन्तु अंदर से सुकोमल और सुमधुर होता है। यही बात गुरुदेव साहित्य मनीषी, व्याख्यान वाचस्पति पू. आचार्य भगवंत श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के संबंध में भी कहीं जा सकती है। दूर से देखने पर तो वे हमें कठोर से दिखाई देते थे।
उनके समीप जाने में भी एक अज्ञात सा भय प्रतीत होता था, किन्तु जैसे ही उनकी सेवा में पहुंचे कि वह भय न जाने कहा चला जाता। उनकी कठोरता के स्थान पर सुकोमलता दिखाई ही नहीं देती महसूस भी होती । गुरुदेव परम दयालु थे। वे बाहर से भले ही कठोर दिखाई देते हों, किन्तु दया
और करूणा का निर्झर उनके अन्तरमन में सदैव बहता रहता था और दीन-दुखियों, असहायों की यथासमय सहायता भी करवाते रहते थे। ऐसे परम करूणा सागर गुरुदेव की स्मृति तो सदैव बनी रहती है।
उनकी दीक्षा शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में प्रकाशित होने वाले स्मारक ग्रंथ के लिए मैं अपनी ओर से हार्दिक मंगल कामनाएं प्रेषित करता हूं। परम पूज्य गुरुदेव के श्री चरणों में कोटि-कोटि वंदन।
बोडीकिगणक
प्रति,
सुमेरमल सोहनराजजी वाणीगोता ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
आहोर - भीवण्डी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
शिवा प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ NENENINDNENESEENERYNEINENERENERUNGNENES2 (33) BenaNPRENENERUNBNENBIBNESNENERARUNBNBN828
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश- वन्दन
कोटि कोटि वन्दनारे...
वे अजेय थे....
डीकिडीकि
हमारे संपर्क में अनेक व्यक्ति आते हैं और हम भी अनेक व्यक्तियों/गुरु भगवंतों के संपर्क में आते हैं। स्मृति में केवल वे ही रहते हैं, जिनमें कुछ वैशिष्ट्य होता है। प्रातः स्मरणीय व्याख्यान वाचस्पति परम श्रद्धेय गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. भी एक ऐसी ही विरल विभूति थे, जो सदैव स्मृति पटल पर विराजमान रहते हैं।
कि परम पूज्य गुरुदेव ज्ञान के क्षेत्र में तो अपराजेय थे ही, वे अन्य क्षेत्रों में भी अजेय थे। शरीर और आत्मा के भेद को उन्होंने समझ लिया था। इसलिए आधिव्याधि की उन्हें चिंता नहीं रहती थी। इस दृष्टि से भी वे अजेय थे।
ऐसे ज्ञानी गुरुदेव की दीक्षा के सौ वर्ष होने के उपलक्ष्य में प्रकाशित होने वाले स्मारक ग्रंथ की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामना प्रेषित करते हुए परम कृपालु गुरुदेव के श्री चरणों में कोटिशः वंदन।
गोणीमावामिष्ट
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
शांतिलाल फतेहराजजी वजावत श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
आहोर - चेन्नई प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ RENxnwarRENENENINENERENENENENENENENENER2 (34) NENENERENESENENENENESENENERENENENENENERY
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश-वन्दन
कोटि कोटि वन्दनारे... mopopीकिक
वेसही अर्थों में मुनि थे....
संव-वृत्ति एक ऐसी कसौटी होती हैं, जिस पर मनुष्य के धैर्य, साहस, संयम, सहनशीलता, शांति तथा संतोष की परख होती है। साधु वृत्ति धारण करके धनुष्य को सभी वासनाओं और कामनाओं का उन्मूलन करना पड़ता है। एक सामान्य व्यक्ति के लिए ऐसा कर पाना कठिन होता है। इन्द्रियों को वश में रखना तो और भी कठिन होता है, किन्तु जो मुनि होते हैं उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। वे अपनी इच्छाओं का विरोध करते हैं, मन और इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रखते
तभी उनका मुनि तत्व सार्थक भी होता है। हमारे परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. भी सही अर्थों में मुनि रत्न थे। उन्होंने अपने मन और इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया था। वे सद्गुणों के भंडार थे। ऐसे परम कृपालु गुरुदेव की छत्रछाया सदैव बनी रहे, यह प्रत्येक गुरुभक्त की इच्छा रहती है। आज गुरुदेव भले ही हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनकी कृपा और आशीर्वाद सदैव हमारे साथ है।
मैं परम श्रद्धेय गुरुदेव के श्री चरणों में वंदन करते हुए उनके दीक्षा शताब्दी के अवसर पर प्रकाशित होने वाले स्मारक ग्रंथ के लिए हार्दिक मंगल कामनाएं प्रेषित करता हूं।
जातकार शासककाम
प्रार्थी
पारसमल घेवरचन्दजी वजापत पनि वकालकामगीर
आहोर - तनकु (हैदराबाद) ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ NERENEWANANENENENENERENENENENINEWwNeN8R2 (35) RENERENERVIBRARYNENENENBNBABNANENEResese
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथःसन्देश- वन्दन
कोटि कोटि वन्दनारे.....mpopsiकिडीकि
वे मनोविजेता थे....6
उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है
अहीवेगंत दिट्ठीए, चरित्ते पुत्त ! दुच्चरे। जानना
जवालोहमया चेवं, चावेयव्वा सुदुक्करं॥ इसका तात्पर्य यह है कि सर्प की एकाग्र दृष्टि की भांति एकाग्र मन रखते हुए चारित्र पालना अत्यन्त दुष्कर है और लोहे के चने चबाने के समान संयम पालना अत्यन्त कठिन है।"
विराबात वास्तव में सत्य कही गई है। भोगों से विमुख होकर, सांसारिक सुखों का त्याग कर एकाग्र चित्त के साधना किए बिना संयम का पालन नहीं हो सकता। किंतु जो दृढ़ संकल्पी होते हैं, जो मनोविजेता होते हैं उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं होता है। मन से जो हार स्वीकार कर लेता है, हार मान लेता है वह कभी भी विजयी नहीं हो सकता। मनोविजेता कहीं भी पराजित नहीं हो सकता। हर स्थान पर हर क्षेत्र में सफलता उसके सामने हाथ पसारे खड़ी दिखाई देती है। परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. सही अर्थों में इन्द्रियों विजेता/मनोविजेता थे। तभी तो दुष्कर संयम पालन में वे पूर्णतः सफल रहे।
___ऐसे संयमाराधक, मनोविजेता पूज्य गुरुदेव के परम पावन चरणों में कोटिशः वंदन करते हुए उनके दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर प्रकाशित होने वाले स्मारक ग्रंथ के लिए मैं अपनी हार्दिक मंगल कामनाएं प्रेषित करता हूं।
प्रति,
वंदन श्री चरणों में
भीखमचंद मुनिलालजी चौपड़ा ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
आहोर श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ NYRENYSYNY NYRESYNX NENENE NYRERNE ERENS R2 (36) RXAYRYNENNUNUNUNUNUNUNUN
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश-वन्दन
कोटि कोटि वन्दनार..... किमीकि
उन्होंने मानव भव सार्थक किया...
हम सब इस तथ्य से भली भांति परिचित हैं कि यह मानव भव दुर्लभ हैं। इस दुर्लभ मानव भव को यों ही भोग विलास में नष्ट नहीं करना चाहिए। इस मानव भव को प्राप्त करने के लिए देवता भी तरसते रहते हैं, किन्तु हम जिन्हें यह भव प्राप्त हुआ है इसे भौतिकता की चकाचौंध में डूबकर बर्बाद कर रहे हैं। जो ज्ञानी होते हैं, पुण्यवान होते हैं वे इसके महत्व को जानकर इसका सही उपयोग करते हैं।
प्रातः स्मरणीय, साहित्य मनीषी, व्याख्यान वाचस्पति आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने इस तथ्य को समझ लिया था और यही कारण रहा है कि उन्होंने अपने मानव भव को सार्थक करने के लिए विश्व पूज्य प्रातः स्मरणीय श्री मज्जैनाचार्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. की सेवा में उपस्थित होकर संयम व्रत अंगीकार कर अपने आपको साधना में लगाकर अपना मानव भव सार्थक किया।
शासगा भारपणाकार आज जब पूज्य गुरुदेव के दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है तो मन अति प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है। मैं इस आयोजन की सफलता की हार्दिक शुभकामना करता हूं और परमाराध्य गुरुदेव के श्री चरणों में कोटिश वंदन करता हूं। माणमामलापकायाकल्प प्रति, जाड ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
गणेशमल गुलाबचंदजी वजापत प्रधान सम्पादक
आहोर श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश- वन्दन
कोटि कोटि वन्दनारे...
किडकि भूले भटकों के आश्रय दाता थे....
* प्रत्येक व्यक्ति बुद्धिमान नहीं होता, बुद्धिमान होता है, तो विवेकवान नहीं होता। सांसारिकता और आध्यात्मिकता में भेद करने में समर्थ नहीं होता। व्यक्ति खाओ, पीओ
और मौज उड़ाओं को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानकर अज्ञानान्धकार में भटकता रहता है। ऐसे भूले भटके लोगों को अज्ञानान्धकार से निकालकर ज्ञान का प्रकाश प्रदान करने वाले सच्चे गुरुदेव होते हैं।
छोक कामावलि + ऐसे ही सुगुरुदेव थे हमारे गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. । वे सही अर्थों में मार्गदर्शक थे, पथ प्रदर्शक थे। वे जीवन भर भूल-भटके व्यक्तियों को अज्ञानान्धकार से निकालने का प्रयास करते रहे। प्रतिबोध देते रहे। यह तो हमारा ही दुर्भाग्य रहा कि हम उनके द्वारा दिए गए उपदेशों को सही ढंग से समझ नहीं पाए और इस अमूल्य जीवन को भव संसार के जाल में उलझाए रखा।
जब यह ज्ञात हुआ कि परम श्रद्धेय गुरुदेव आचार्यश्री के दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर एक स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है, तो मन अति प्रसन्न हुआ। आपके इस आयोजन की सफलता के लिए मैं हृदय की गहराई से शुभकामना करते हुए परम पूज्य गुरुदेव के पावन श्री चरणों में वंदन करता हूं।
मिश्रीमल, नरपतराज
महेन्द्रकुमार, मुकेशकुमार राणावत ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
टीपटुर, बैंगलोर, दुजाणा, श्री मोहनखेड़ा तीर्थयात्रा
प्रति,
प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ XXXNXNXNXNXNXNXNX SYRYNY RYNE RESERXAYAXS2 (38) NYXY XXXXXXX
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : सन्देश - वन्दन
कोटि कोटि वन्दना रे... उन्होंने जीवन की क्षण 15 भंगुरता को पहचाना......
12
चलती सांस कब रुक जाए? इस संबंध में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। प्रायः लोग इस तथ्य से अनभिज्ञ रहकर आज का काम कल पर छोड़ देते हैं। ऐसे लोग अज्ञानी ही हैं। पूज्य गुरुदेव व्याख्यान वाचस्पति आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. जीवन की क्षण भंगुरता से भलीभांति परिचित थे। य कारण था कि वे अपना कोई भी कार्य दूसरे दिन के लिए नहीं छोड़ते थे । वे आज काम आज ही करते थे। अस्वस्थावस्था में भी अपनी इस प्रकार की दिनचर्या में वे कोई परिवर्तन नहीं आने देते थे। EPTE
ऐसे महान ज्ञानी गुरुदेव के दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर उनकी स्मृति में एक स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन कर उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए मैं इस आयोजन की सफलता के लिए हृदय से शुभकामना करता हूं। पूज्य गुरुदेवश्री के चरणों में इस अवसर पर कोटिशः वंदन । कगिरि
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
शीकशीकि
श्रेणिककुमार चिमनलालजी लूणावत
रतलाम
प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
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REDEREREDEREREREDE DEDEDEDEDEDEDEREREDERE (39) MEREDEREREREREREDEREREDEREREDEREREDERERE
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : सन्देश - वन्दन
कोटि कोटि वन्दना रे...
णवे सर्वप्रिय थे......
ता. साथ- संत और सामान्य
राजा-महाराजा, नेता, साधु-संत और सामान्य, व्यक्ति सभी प्रकार के होते हैं । न तो सब राजा-महाराजा, न सब नेता, न सब साधु-संत और नहीं सब व्यक्ति सर्व लोकप्रिय होते हैं। कौआ और कोयल दोनों का रंग एक समान होता है, किन्तु कोयल अपनी मधुर वाणी के लिए सबको प्रिय होती है। केवल उच्च पद पर आसीन होने मात्र से व्यक्ति लोकप्रिय नहीं हो सकता। सबका प्रिय बनने के लिए व्यक्ति में सद्गुणों का होना अनिवार्य है। जब तक व्यक्ति अपने में सद्गुणों का विकास नहीं कर लेता तब तक वह सर्वप्रियता प्राप्त नहीं कर सकता। यदि इस संदर्भ में परम श्रद्धेय आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में सद्गुणों का विकास कर लिया था। यही कारण रह कि वे सर्वप्रिय रहे और आज भी हैं।
Pop Sी क
पू. आचार्य भगवन की स्मृति में एक स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन सराहनीय कार्य है। आपके इस आयोजन की सफलता के लिए मैं अपनी ओर से हार्दिक मंगल कामना प्रेषित करते हुए उनके परम पावन चरणों में कोटि-कोटि वंदन ।
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण '
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
DEREREREDEREREDEREREREDEREREREREREDERERE (40) REREREREDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDE
प्रकाशचन्द्र, रमेशचन्द्र राजेन्द्रकुमार महेन्द्रकुमार
भूपेन्द्रकुमार शांतिलालजी लोढ़ा
एडव्होकेट, खाचरौद
म
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कोटि कोटि वन्दना
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : सन्देश - वन्दन
is
रे......कशीत
वे सच्चे गुरु थे.....
गुरु शब्द देखने में जितना छोटा हैं, उतना ही उसकी महत्ता है। उसकी विराटता / विशालता की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। गु का अर्थ होता है अंधकार और रू का अर्थ होता है दूर करने वाला। अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर ज्ञान रूपी प्रकाश प्रदान करने वाला गुरु । हमारा मार्गदर्शक होता है।
वह एक मित्र की भांति हमें मार्गदर्शन प्रदान करता है। गुरु के संबंध में पाश्चात्य विद्वानों ने भी गुरु की महत्ता स्वीकार करते हुए कहा है कि गुरु एक दीपक या मोमबत्ती के समान होता है, जो स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश प्रदान करता है। एक अन्य विद्वान ने कहा है कि गुरु जहाज के कप्तान के समान होता है जो स्वयं डूबकर अन्यों के प्राणों की रक्षा करता है। महात्मा कबीरदासजी ने भी गुरु की महत्ता इस प्रकार बताई है
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागु पाय । बलिहारी गुरु आपनी, गोविंद दियो बताय ॥
इस दृष्टि से जब हम परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. के जीवन पर दृष्टिपात करते हैं, तो पाते हैं कि वे सच्चे अर्थों में गुरु थे। उनके दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर प्रकाशित हो रहे स्मारक ग्रंथ के लिए मैं अपनी ओर से हार्दिक शुभकामना प्रेषित करता हूं और पूज्य गुरुदेव के पावन चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हूं।
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
DEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDEDERERE (41) REDEEMEREREDEREREREREREREREDEREREDERERE
कमलराज चुन्नीलालजी संघवी
सूरत-भूति
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश-वन्दन
कोटि कोटि वन्दनारे......ीकिजीति
वे सबका कल्याण चाहते थे....
अपने लिए तो सभी जीते हैं, पर जो दूसरों के लिए जीता है, वहीं महान है। जो विश्व के प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझते हैं। ऐसे लोगों के हृदय में भगवान महावीर की पुनीत शिक्षा के अनुसार सदैव यही कामना बनी रहती है कि
नाकात सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। तमाम
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भागभवेत्॥ तात्पर्य यह है कि सभी प्राणी सुखी हो, सभी निरोगी रहें, सभी का कल्याण हो, कोई भी कष्ट का भागी न बने।जी ममी परम श्रद्धेय प्रातः स्मरणीय गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. जीवन पर्यन्त प्राणिमात्र के कल्याण की भावना से कार्य करते रहे। वे अपने हृदय की गहराई से सबका कल्याण चाहते थे। वे आज हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनके कार्य और उनका साहित्य इस बात का साक्षी है।
पू. आचार्य भगवंत के दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर एक स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है, यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। यह स्मारक ग्रंथ उनके जीवन के अनछुए पक्षों का उद्घाटन करने में सफल हों , यही हार्दिक शुभकामना करते हुए पू. आचार्यश्री के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं और उनके चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हूं।
जेठमल, सागरमल, सरदारमल समीरकुमार, वर्द्धमान, सुधीरकुमार प्रदीप, प्रमोद, भूपेन्द्र, महेन्द्र, जितेन्द्र, प्रवीण, अमीत, हेमन्त (सौरभ) रुणवाल
जावरा
प्रति.
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ MERENENENENENENINENENENENINENUMERENENEZ (42) UNBRUNBHABINMAMMONUMERENENERENONENENBE
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : सन्देश वन्दन
कोटि कोटि वन्दना रे...
आप तिरे औरन को तारा.......
भतृहरि ने एक स्थान पर जो कहा उसका अर्थ यह है कि धरि पुरुषों की चाहे निंदा हो या स्तुति, वैभव उनके पास आवे या जावे, मृत्यु आज ह हो जाए या युग-युग तक जीवन बना रहे, वे किसी भी अवस्था में धर्म तथा न्याय के पथ से विचलित नहीं होते ।
छात
डीकीक
ऐसे ही व्यक्ति अपने जीवन को उन्नत बनातेह हैं और साथ ही दूसरों को भी सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं उनका जीवन वास्तव में एक नौका के समान होता है, जो स्वयं तैर जाती है तथा अपने आश्रित अन्य प्राणियों को भी पार उतार देती है। डीड
इस दृष्टि से यदि हम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. के जीवन को देखते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने न केवल आत्मकल्याण का मार्ग अपनाकर अपना कल्याण करने का प्रयास किया वरन् अन्य अनेक मुमुक्षुओं का भी कल्याण करने का कार्य किया । इसलिए उनके विषय में यह सहज ही कह सकते हैं आप तिरे औरन को तारा ।
परम पूज्य गुरुदेव के दीक्षा शताब्दी वर्ष के अवसर पर एक स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन हो रहा है। यह जानकर आनंद का अनुभव हुआ। आपके इस आयोजन की सफलता की हृदय से शुभकामना करते हुए पूज्य गुरुदेव के चरणों में कोटि-कोटि वंदन करता हूं।
फणिर
प्रति,
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ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
राजमल लूकड़ कोषाध्यक्ष
श्री राजेन्द्रसूरि जैन दादावड़ी चेरिट्रेबल ट्रस्ट
जावरा (रतलाम) म. प्र.
प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथ : सन्देश- वन्दन
कोटि कोटि वन्दनारे.... Troposीकिनकि
कुल का नाम उज्जवल किया....
का स्थानांग सूत्र में चार प्रकार के पुत्र बताये गये हैं। एक अतिजात, दो अनुजात, तीन अवजात और चौथा कुलांगार। अतिजात पुत्र अपने कुल में चार चांद लगा देता है। वह अपने कुल का नाम उज्ज्वल कर देता है। उसके नाम से उसके माता-पिता तथा कुल की पहचान होती है। वह अपने पिता की यश-कीर्ति, समृद्धि आदि में हर प्रकार से वृद्धि करता है और अपने पति से भी आगे बढ़ जाता है।
इस दृष्टि से यदि विचार किया जावें तो परम श्रद्धेय आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. प्रथम श्रेणी में आते हैं। उन्होंने संयम व्रत अंगीकार कर न केवल मुनि जीवन अपनाया वरन आचार्य पद को भी सुशोभित किया। आज उनके नाम से उनका कुल जाना जाता है। उन्होंने निश्चित रूप से अपने कुल में चार चांद लगाए हैं। उसका नाम उज्ज्वल किया है।
किया ऐसे आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. के दीक्षा शताब्दी वर्ष के
अवसर पर प्रकाशित होने वाले स्मारक ग्रंथ की सफलता के लिये मैं हार्दिक शुभकामना प्रेषित करते हुए उनके श्री चरणों में बारंबार वंदन करता हूं।
उमीक शान्तिलाल सिसौदिया प्रति,
टीम प्रमोट जावरा (रतलाम) म. प्र. ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ 9x sex s3 sts say suggsys Sease ss2 2s2 2s2 (44) 62 92 93 94 93 92 922 sgsgsgsgsgsgsgsgsgsgsg9x
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथःसन्देश-वन्दन कोटि कोटि वन्दनारे.....
पुण्य स्मरण
हे यतीन्द्रवर ! पुण्य स्मरण, आज तुम्हारा हर्षित। Bा जन्म शताब्दी पर जन गण मन जलज हुआ आकर्षित॥
महावीर के श्रमण धर्म में, तेरा जन्म हुआ था। उनकी दिव्य देशना के सम, तू भी सुखद हआ था।
गुरु राजेन्द्र के वरदहस्त ने, तेरा रूप संवारा। मालव के अमिराम अंक में, तूने धर्म पसारा॥ सौम्य मूर्ति गुणववान भाग्य भी, तुझको गोद लिए था। स्वस्थ साधु सन्तुष्ट वंध हो, सबको मोद दिए था॥
तूं अगाध अध्यात्मवाद का रत्नाकर था। अगामा
तू अथाह व्यवहारवाद का सीमाधर था॥ीमीरा सत्य-अहिंसा शील अचौर्य, से तुझ में रत्न अपरमित । जो
तू जीवित था जगकर जी मूल पथ करने आलोकित॥ हिमाली
जैन संस्कृति का जीवित जगती पर सुखद स्रोत था। विश्वबन्धु ! तत्व अन्तरात्मा सचमुत शांति-पोत था।। तब चिह्नों पर चलने उत्सुक, जन-समाज है आया। जिसके डर पर तेरा शासन वर्तमान में छाया॥
तू महान उद्देश्य लिए बढ़ता था पथ में आगे। माशालाका
जिससे भौतिक युग में फिर से धार्मिकता जागे॥ काकीची
हे यतीन्द्रवर ! पुण्य स्मरण, बाग तुम्हारा वर्धित। प्रति,
दया क्षमा ऋजुता -शुचिता के श्वेत पुष्प सब अर्पित॥ ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
- लक्ष्मीचन्द्र सरोज (एम.ए.बी.एड.)
22 बजाजखानाजावरा श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ RESERERSENYRYNENE NYRESY SYNXRYRY RYNYRBR2 (45) RURYNENESYRENYRENESYNXSYENYRYNENESEX
प्रधान सम्पादक
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कोटि कोटि वन्दना रे...
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ : सन्देश वन्दन
अनुपम गुणों के धारक
1518
जो संत पुरुष होते हैं उनके जीवन का एक-एक क्षण मूल्यावान होता है। वे समय का सही मूल्यांकन करते हुए अपने और दूसरों के जीवन का निर्माण करते हुए परम श्रद्धेय बाल ब्रह्मचारी व्याख्यान वाचस्पति आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. जाने-माने और सुविख्यात आचार्य देव थे। उन्होंने समाज को नई दिशा दी ।
समाज में उनके मार्गदर्शन में नवीन ज्योति प्रज्वलित हुई परिणाम स्वरूप उस दिव्य ज्योति के प्रकाश में समाज में विपरीत मार्ग का परित्याग कर सही मार्ग का अनुसरण किया। आपने समाज को सत्य ईमानदारी और नैतिकता के मार्ग का अनुसरण करने की प्रबल प्रेरणा प्रदान की। आपने अपनी अप्रतिम प्रतिभा और शुद्ध लेखनी से जैन साहित्य के भंडार में अपूर्व योगदान दिया। आपके सान्निध्य में रहते हुए अनुपम आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति होती थी।
प्रेषित
आप केवल साधक ही नहीं वरन साधकों के निर्माता भी थे। आपका जीवन अनुपम विशेषताओं का भंडार था आपकी स्मृति में होने वाले स्मृति ग्रंथ की सफलता के लिए मैं अपनी मंगल कामनाएं प्रेषित करता हूं और आपके श्रीचरणों में कोटि-कोटि वंदना प्रस्तुत करता हूं।
LÍTE À Up Te than USÌ PESE FISH
ਸਿਰ ਦੇ ਕਈ ਸੌ ਨੀ ਓਸ
॥ श
प्रति,
ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण ' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ
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आनन्दीलाल धाड़ीवाल विधीकारक श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
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• यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रंथःसन्देश- वन्दन
कोटि कोटि वन्दनारे...
कल्पना आज साकारस्वरुप में
परम पूज्य आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. वि.सं. 2012 में राजस्थान में विचरण कर रहे थे जब राजगढ़ के कुछ श्रावकगण राज. जाकर पूज्य गुरुदेव श्री को राजगढ़ जिला धार म.प्र. लाए। वि.सं. 2012 में गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिश्वरजी म.सा. के देवलोक गमन में 50 वर्ष पूर्ण हो चुके थे। पूज्य आचार्य श्री ने गुरुदेव श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का अर्द्ध शताब्दी महोत्सव श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में आयोजित करने का निश्चय किया।
यह आयोजन काफी विशाल पैमाने पर हुआ था। कहा जाता है कि श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का पूर्नउद्धार ही पूज्य आचार्य श्री ने इस महोत्सव को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ आयोजित कर किया और जहाँ जमीनों पर कपड़े के टेण्ट के भवन थे आज विशाल धर्मशालाओं के रूप में दिखाई दे रही है भवनों की कल्पना कर आचार्य श्री ने टेंट के रूप में बने थे आज साक्षात भवनों के रूप में दिखाई दे रहे हैं। जो उनकी कल्पना थी जो आज साकार रूप में परिणित हो गई।
किया और साथ धार्मिक शिक्षा एवं संस्कार के लिए गुरुकुल की भावना जो हर समय गुरुदेव के हृदय में रहती थी । वह भी हाईस्कूल के साथ श्री मोहनखेड़ी तीर्थ में चल रहा है । ऐसे शिल्पकार के दीक्षा शताब्दी के अवसर पर परम पूज्य ज्योतिषाचार्य मुनिप्रवर श्री जयप्रभविजयजी म.सा. श्रमण के संपादकत्व में परम पूज्य इतिहास वेत्ता व्याख्यान वाचस्पति पिताम्बर विजेता आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूीरश्वरजी म.सा. के दीक्षा शताब्दी वर्ष पर उनकी स्मृति को अक्षुण्ण, चिरस्थाई बनाए रखने हेतु स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है।
स्मारक ग्रंथ प्रकाशन पर हार्दिक शुभकामना सहित आचार्य श्री को कोटि-कोटि वंदन।
फजीह निवासी कामकारवाहामन्तोष मामा
प्रति,
का सचिव ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण
श्री जैन श्वेताम्बर सोश्यल ग्रुप, राजगढ़ श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ NENENENENENEVENENENENENENENENINENEIN2 (47) HINENEWSwaral
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मङ्गल कामना!
मानवमुनि, इन्दौर
पूज्य आचार्य देव व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद्यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी का जो आयोजन किया गया तथा स्मारक ग्रन्थ के प्रकाशन का जो विचार किया गया वह अभिनन्दनीय है। हार्दिक कामना है कि स्मारक ग्रन्थ प्रेरणास्पद तथा नित्य पठनीय है।
पूज्य आचार्य देव की सेवा करने का स्वर्ण अवसर इस बालक को भी सुलभ हुआ। खाचरोद में आचार्य-प्रवर श्री मद्विजययतीन्द्र सूरि जी म.सा. की निश्रा में हीरक जयन्ती मनायी गई थी। खाचरोद नगर के इतिहास में वह क्षण स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा जब आध्यात्मिक चिन्तन, समाज-सुधार तथा मानव-कल्याण की भावना संजोये साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाएं तथा चतुर्विध श्रीसंघ भारी संख्या में उपस्थित थे। नम्रता की मूर्ति, ऋजुप्रकृति तथा तेजस्वी आचार्य देव के व्याख्यानों का प्रभाव केवल जैन समाज पर ही नहीं वरन् अजैनों पर भी होता है। उनकी वाणी वचनामृत की मधुर वर्षा से मानव हृदय को सराबोर कर देती थी। आपने हजारों अजैन बन्धुओं को व्यसनमुक्त कर मानवकल्याण के लिए प्रेरित किया। जाति तथा सम्प्रदाय से वे काफी ऊंचे उठे हुए थे। अपने व्याख्यान में आपने महावीर स्वामी के अहिंसामय धर्म मार्ग को मानवकल्याण का पथ निरूपित किया। आपने बताया कि वैराग्य, संयम, साधना, त्याग तथा तपस्या का मार्ग वीरों का मार्ग है; कायरों का नहीं। मानव में प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव होना चाहिए। तभी मानव महामानव बन सकता है। यह उनकी तपस्या का ही प्रभाव था कि जो एक बार आचार्यश्री के दर्शन कर लेता था वह सर्वदा के लिए उन्हीं का हो जाया करता था। 5 युगपुरुष, योगिराज तथा जन-जन के हृदयसम्राट् श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी ने विक्रम सं. १९५४ आषाढ़ वदि २ सोमवार को १४ वर्ष की अवस्था में उन्हें दीक्षा देकर श्रीमद्यतीन्द्रविजय नाम से प्रसिद्ध किया था। महापुरुषों के आशीर्वचन-मात्र से शिष्य से शिष्य महान् बन जाता है। परम् उपकारी साहित्यकार व आगममर्मज्ञ आचार्यशिरोमणि ने अपने साधनामय पुरुषार्थ से त्रिस्तुतिक संघ का गौरव देश-विदेशों में बढ़ाया।
पूजनीय आचार्य देव परम आध्यात्मिक होते हुए भी मानववादी समाजसुधारक थे। वे व्यष्टि एवं समष्टि के समन्वय पर बल देने वाले यशस्वी युगपुरुष थे। उन्होंने कहा था कि गुण के बिना रूप व्यर्थ है, नम्रता के बिना विद्या व्यर्थ है, उपयोग के बिना धन व्यर्थ है, साहस के बिना अस्त्र व्यर्थ है भूख के बिना भोजन व्यर्थ है तथा होश के बिना जोश व्यर्थ है। वासना से बढ़कर कोई दुर्भाग्यपूर्ण विषय नहीं है। त्याग, संयम, साधना, वैराग्य तथा सेवा के आदर्शों से बड़ा कोई धर्म नहीं है। उन्होंने कहा था कि 'भावों का जगत् ही सच्चा व अनूठा है। भावचिन्तन नरक, स्वर्ग और मोक्ष तक प्राप्त कराने का निमित्त हो सकता है। वस्तुतः महापुरुषों के विषय में जितना लिखा जाय उतना ही कम है। कबीर के शब्दों में -
__'सब धरती कागद करू लेखनि सब वनराय कामकामा
सात समद की मसि करूँ गुरु गुन लिखा न जाय।।' जब तक सूरज-चाँद रहेंगे, युग पुरुष का नाम रहेगा। अपने विश्वविख्यात अभिधानराजेन्द्रकोश के प्रणेता आराध्यपाद प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. के श्री मोहन खेडा तीर्थ की राजगढ़ के समीप स्थापना कर गुरुमहिमा में श्रीवृद्धि की। गुरुवर्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर सर्वदा के लिए जन-जन के हृदयों में समा गये। आज जो उनका विश्वास व श्रद्धा से उनका स्मरण करता है, पूजन-अर्चन करता है, उसकी मनोकामना पूर्ण होती है। प्रतिवर्ष पौष मास में गुरुसप्तमी का विशाल मेला श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेटी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ द्वारा आयोजित किया जाता है। इसमें सुरक्षा हेतु शासन का भी सक्रिय सहयोग मिलता है। जैन समाज के अतिरिक्त हजारों ग्रामीण कृषक तथा आदिवासी परिवार यहाँ दर्शनार्थ ओत हैं। पू. गुरुदेव श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. सर्वदा के लिए अमर हो गये। उनके ग्रन्थ समाज का सर्वदा मार्गदर्शन करते रहेंगे। ऐसे महापुरुष के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन्। उनके विचार जन-जन का पथ प्रशस्त करते रहेंगे ताकि मानव जीवन संस्कारित हो सके तथा दीक्षा शताब्दी वर्ष सार्थक हो।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व
वर्तमान सन्दर्भ में आचार्यदेव का प्रवचन-साहित्य
आचार्यदेवश्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म.
-शिष्य संयमवय स्थिविर मनिराज श्रीसौभाग्यविजयजी....)
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भाव तो प्राणिमात्र में उत्पन्न होते हैं पर भावों को अभिव्यक्त करने की क्षमता केवल मनुष्य में ही है। यही कारण है कि मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ माना जाता है। विचारों की इस अभिव्यक्ति को वाणी कहा जाता है, जो मनुष्य की सर्वोत्तम उपलब्धि है। यही मनुष्य को अलंकृत करने वाला सच्चा आभूषण है। वाणी मोह-प्रमाद एवं अज्ञान की नींद में सोये प्राणी को जगाने में प्रचण्ड शंखनाद है, तो कर्तव्यहीन
और आलसी को सचेत करने में संजीवनी बूटी है। वाणी की शक्ति अपरिमित है। उसमें जादुई शक्ति है। वाणी के माध्यम से असम्भव को भी सम्भव किया जा सकता है। ऐसा कोई कार्य नहीं, जो वाणी के माध्यम से नहीं किया जा सकता। तोप और तलवार जो कार्य नहीं कर सकते, वे वाणी द्वारा किए जा सकते हैं, किन्तु वाणी की यह अनुपम शक्ति विचारों की पवित्रता तथा शुद्धता पर आधृत है। कहने का तात्पर्य यह है कि वाणी को विचारों से परिष्कृत कर अभिव्यक्त किया जाता है। हीन विचारों को यहाँ स्थान नहीं है। इसी प्रकार जो वाणी विचारशून्य है, उसका भी महत्त्व नहीं है।
विचार या भाव प्रत्येक मानव के मानस पटल पर प्रकट होते हैं। उन विचारों को व्यवस्थित रूप से अभिव्यक्त करना भी एक कला है। प्रत्येक मनुष्य इस कला में पारंगत नहीं होता है। अनेक मनुष्य बहुत अच्छे लेखक होते हैं, किन्तु जब उन्हें अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए कहा जाता है, तब वे. व्यवस्थित एवं स्पष्ट रूप से अपने भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करने में असमर्थ रहते हैं और जब उनसे लिपिबद्ध कर अपने विचार स्पष्ट करने को कहा जाता है, तो वे इतने सुन्दर ढंग से भावाभिव्यक्ति करते हैं कि पाठक आश्चर्यचकित रह जाता है। ठीक इसी प्रकार कुछ मनुष्य अपने भावों तथा, विचारों को बोलकर उत्तम प्रकार से अभिव्यक्त कर सकते हैं। वे लिखने में उतने सुन्दर विचार प्रकट नहीं कर पाते हैं। कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं, जो मौखिक और लैखिक दोनों रूपों में अपने भावों को उत्तम रूप में प्रकट कर सकते. हैं। ऐसे मनुष्यों का प्रतिशत कम ही होता है। ऐसे मनुष्यों की गणना सामान्य मनुष्यों में नहीं की जा सकती।
मानामुनि भगवन्तों का कार्य अपनी साधना करने के साथ-साथ समाज का मार्गदर्शन करना भी होता है। वे नित्य स्वाध्याय करते हैं। चिंतन करते हैं। अपने चिंतन के परिणामस्वरूप वे नए अनुभव भी प्राप्त करते हैं। वे जिस बात में, कामया मानव जगत का कल्याण देखते हैं, उसके लिए उपदेश देते हैं। वे अपना उपदेश जिसे व्याख्यान या प्रवचन कहा जाता है, प्रायः नित्य प्रति देते हैं। सामान्य व्यक्ति का कथन, वचन कहा जाता है और आचार्य, मुनि आदि का कथन प्रवचन कहलाता है। भगवान महावीर स्वामी की वाणी का लाभ विश्व के प्राणिमात्र उठाते थे। भगवान के उपदेश सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक हैं। उन्हें
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - किसी सीमा-विशेष अथवा वर्ग विशेष के लिए सीमित नहीं किया जा सकता है। उनकी अमृतमयी वाणी (जिन वाणी) आज भी समाज का मार्गदर्शन कर रही है। उनके विचारों को आज उनके अनुयायी आचार्य, उपाध्याय, मुनिराज आदि अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं। यहाँ इतना स्पष्ट कर देना उचित प्रतीत होता है।
नधर्म किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष के लिये नहीं है। यह आचरणप्रधान धर्म है। जो भी इसके नियमों का पालन करता है, वही इसका अनुयायी है। जैन धर्म में जाति-पाँति को भी स्थान नहीं है।
व्याख्यानवाचस्पति, साहित्यशिरोमणि आचार्य भगवन् श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. जहाँ एक ओर सिद्धहस्त लेखक थे, वहीं दूसरी ओर ओजस्वी वक्ता भी थे। आपका जन्म दिगम्बर जैन मतालम्बी परिवार में हुआ था और आप ने युग प्रधान आचार्य भगवंत श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में जैन भागवती दीक्षा अंगीकार की थी। वे उच्चकोटि के साधक होने के साथ-साथ जैनआगममर्मज्ञ और कुशल प्रवचनकार भी थे। वे समय को पहचानकर अपना प्रवचन फरमाते थे और कभी-कभी अपने प्रवचनपीयूष की वर्षा करते हुए समय के प्रवाह को मोड़ने की क्षमता भी रखते थे आप के प्रवचनपीयूष का पान करने के लिए सभी धर्म और जाति के लोग आते थे। लोग न केवल आपके के प्रवचनपीयूष का पान करते थे, वरन् आपके के प्रवचन को अपने जीवन में उतारने का भी प्रयास करते थे। आपके के प्रवचन के विषय भी ऐसे होते थे, जो जनसामान्य के लिए उपयोगी होते थे
और उनसे मानवीय मूल्यों में वृद्धि होती थी। एक आचार्य मुनिराज जिस प्रकार समाज का मार्गदर्शन करते हैं, समाज में व्याप्त कुव्यसनों को दूर करने के लिए समाज को उपदेश प्रदान करते हैं, ठीक उसी प्रकार आचार्य भगवंत श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने भी अपने प्रवचनों के माध्यम से समाज को अपना मार्गदर्शन प्रदान किया।
- इस आलेख के माध्यम से हम यह प्रतिपादित करना चाहते हैं कि आचार्यदेव के प्रवचन उनके समय में तो उपयोगी थे ही, वर्तमान सन्दर्भ में भी उनके प्रवचन उतने ही उपयोगी हैं। आचार्यश्री के प्रवचन से सम्बन्धित निम्नांकित पुस्तकों का उल्लेख मिलता है - (१) श्रीयतीन्द्रप्रवचन, (२) भाषण सुधा (३) समाधानप्रदीप, (४) सत्यसमर्थनप्रश्नोत्तरी भाग १/२। (५) मानवजीवन का उत्थान, (६) श्रीयतीन्द्रप्रवचन (गुजराती) और आर्हत्प्रवचन (गुजराती)। फगवानकार
समाधानप्रदीप और सत्यसमर्थनप्रश्नोत्तरी से ऐसा प्रतीत होता है कि किसी विषयविशेष के प्रश्नोत्तर के रूप में होंगी। भाषणसुधा और मानवजीवन का उत्थान प्रवचन संग्रह हमें उपलब्ध नहीं हो सके हैं, यहां यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक ही होगा कि आचार्यश्री के द्वारा रचित अनेक पुस्तकें वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। उनके अनुयायियों को चाहिए कि पुस्तकों की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए वे जहाँ कहीं उपलब्ध हों, प्राप्त कर उनका पुनर्मुद्रण करवा लें। हमें इस समय केवल श्रीयतीन्द्र प्रवचन नामक प्रवचन संग्रह उपलब्ध है। श्री यतीन्द्र प्रवचन में संग्रहीत प्रवचनों से ही हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि आचार्य देव के प्रवचन वर्तमान सन्दर्भ में कितने प्रासंगिक हैं।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व न यह सर्वमान्य सत्य है कि मानव जन्म दुर्लभ है। इस प्रवचनसंग्रह का प्रथम प्रवचन ही 'माणुसो जन्मों दुलहों ही' है। मानवजन्म की इस दुर्लभता को हर समय और हर काल में किया जाता है। अपने प्रवचन में आपने ने फरमाया की संसार में जिस प्रकार चिंतामणि रत्न, अखंड साम्राज्य, स्वाधीन समृद्धियाँ और वांछित सुखोपभोग बिना भाग्य के नहीं मिलते, उसी प्रकार 'मणुअंत बहुविहभव भमण समृद्धि कहमवि लद्धं' अनेक भवों के संचित महान् पुण्योदय के बिना मनुष्य जन्म भी नहीं मिल सकता। चौरासी लाख जीवयोनि हैं, उनमें मनुष्य भव सबसे अधिक महत्त्व और उत्तमता रखता है। विश्वज्ञाता प्रभु श्री महावीर स्वामी ने स्पष्ट फरमाया है कि चुल्लक, पाशक आदि दश दृष्टांत किसी तरह सिद्ध किए जा सकते हैं, परन्तु विषयपिपासा की आशा में जो लब्ध मनुष्य जन्म को खो दिया, वह फिर लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं मिलता।' (पृष्ठ १५)
मनुष्य जन्म का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए आपने ने आगे कहा है - “आहार (भोजन), निद्रा (नींद लेना), भय (डरना) और मैथुन (स्त्रीभोग करना) ये चार बातें मनुष्यों और पशुओं में समान ही हैं, परन्तु मनुष्य में विशेषता यही है कि वह मनुष्यता (विवेक बल) से सार-असार, हित-अहित और सत्यअसत्य वस्तुओं को भली प्रकार पहचान सकता है और उनको कार्यरूप में परिणत कर सकता है। जिस मनुष्य में यह मनुष्यता नहीं है, वह पशुओं से भी गया गुजरा है।" (पृष्ठ १६-१७)। मानव देह की उपयोगिता के विषय में आपने ने फरमाया कि पशुओं का शरीर तो मरने के बाद भी काम आता है, किन्तु मनुष्य का शरीर किसी भी काम नहीं आता है। आपने के ये विचार आज के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक हैं।
इस प्रवचनसंग्रह का तीसरा प्रवचन 'सुख-दुःख के कारण' है। प्रवचन शीर्षक के अनुरूप है और यह प्रवचन हर समय प्रासंगिक है। कारण यह कि सुख-दुःख के लिए जिन बातों का आपने ने उल्लेख किया है, वे मानव प्रवृत्ति में सदैव ही विद्यमान रहने वाली हैं। सुख और दुःख मनुष्य के कर्म पर आधृत हैं। चतुर्थ प्रवचन है - 'सत्य और उसकी व्याख्या' इसमें आपने ने फरमाया कि सत्य वक्ता के पास सुखसमृद्धियाँ सदैव कायम रहती हैं और जिस प्रकार आयुष्य पूर्ण हो जाने के बाद चेतना नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार असत्य बोलने वाले की सभी सुख-समृद्धियाँ बर्बाद हो जाती हैं। प्रवचन के अंत में आपने ने स्पष्ट | किया कि जिसमें स्वार्थ-हीनता, सहनशीलता और निर्दोष-निस्पृहता रहती है, उसी में सत्य रहता है और उसी का कथन सत्य रूप से संसार में परिणत होता है। (पृष्ठ ३१) अपने छठे प्रवचन में आपने ने उत्तम पुरुषों की पहचान पर प्रकाश डाला है।
साधु जीवन पर आचार्य देन ने साधुओं की परीक्षा नाम के प्रवचन में फरमाया है कि हर परिस्थिति में जो खरा उतरे, वही सच्चा साधु है, उसका साधुजीवन सार्थक है। इस प्रवचन के आधार पर वर्तमान में रहते हुए साधुओं के जीवन का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है और अन्तर को भी देखा जा सकता है। विनय के महत्त्व को हर समय हर एक ने स्वीकार किया है। जो कार्य असम्भव से लगते हैं, वे भी विनय से सम्भव हो जाते हैं। विनय के महत्त्व पर इसी नाम से आपका प्रवचन है।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व म आजकल विभिन्न प्रकार की आदतें, मनुष्यों में पड़ गई हैं। बात-बात में यही कहते पाये जाते हैं कि क्या करें आदत पड़ गई है। ऐसा कहने वाला मनुष्य यह भूल जाता है कि आदत भी उसी ने डाली। यदि कोई व्यसन है, तो उसने ही उसे स्वीकारा है, फिर वह उसे छोड़ने के लिए यह बहाना क्यों बनाता है कि आदत पड़ गई है। क्या आदत को मिटाने की औषधि नहीं है ?
इस प्रवचन में आचार्यश्री ने फरमाया है - 'संसार में पशु दमन, अग्नि, धाम, रोग आदि मिटाने का उपाय है, परन्तु जिस मनुष्य में जो आदत पड़ जाती है, उसको मिटाने का कोई भी उपाय नहीं है। आदत ही मनुष्यों को उत्तम या अधम बनाती है। यहाँ आदत से मतलब खोटे स्वभाव पड़ जाने से है। मनुष्य में दुर्व्यसनादि स्वभाव पड़ जाते हैं। उनको मिटाना अशक्य है। (पृष्ठ ५४)।
इसका समाधान आपने यह बताया कि मनुष्य को मानवता प्राप्त करने के लिए बचपन से ही अच्छी आदतें डालने का प्रयत्न करना चाहिए। 'पत्र लिखने में पाँच श्री की मर्यादा' प्रवचन में आपने सर्वमान्य कहावत - “पहली पेट पूजा फिर देवपूजा।" सभी देवों में पेट देव बड़ा है का बहुत ही सुन्दर रित्यानुसार प्रयोग किया है। 'गृहिणी गृहमुच्यते' प्रवचन में आप ने स्त्री की महत्ता बताते हुए फरमाया - 'कोई भी घर को घर नहीं कहता, किन्तु स्त्री को घर कहते हैं। जो घर स्त्री से रहित है, वह श्मशान के समान दिखाई देता है।' (पृष्ठ ६०)। इसी प्रवचन में आप ने आगे कहा है - "वही स्त्री है, जो घर के कार्यों को सँभालने में चतुर हो, वही स्त्री है जो सन्तान वाली हो और वही स्त्री है, जो पति की प्राणरूप और पतिव्रताअखण्डशील हो। ठीक ही है कार्यदक्षा, सन्तानसम्पन्ना, पतिप्राव्रता और सुशील स्त्री अपने घर को स्वर्ग, अपनी संतान को शिक्षित, अपने कुटुम्ब या पति को सदाचारी और अपने साथियों को सुशील बना सकती है।" (पृष्ठ ६१)।
इसी प्रकार आप ने स्वास्थ्य पर भी प्रकाश डाला है। आपका कहना है कि तन स्वस्थ है, तो सब कुछ ठीक है, अन्यथा सब कुछ शून्य है। 'व्यक्तित्व' नामक प्रवचन में आप ने व्यक्तित्व की पहचान बताने हुए फरमाया- “ऐसी शक्ति जो दूसरों के ऊपर प्रभाव डालकर अपनी तरफ खींच सके और अपने विषय में उनका विश्वास करा सके, वह 'व्यक्तित्व' कहलाती है।" (पृष्ठ ६७)
इस प्रवचनसंग्रह में कुछ जैन धर्म से सम्बन्धित प्रवचन भी हैं। ऐसा होना स्वाभाविक ही है। वास्तविक जैनत्व धर्माज्जयोऽधर्मात्क्षया, विश्व के शहंशाह, प्रभु महावीर, वास्तविक वैराग्य रंग, भवरक्षा कैसे होय? पर्युषण महापर्व, साधु विहार से लाभ, तपस्या की असफलता, इयापपिथिरी प्रतिक्रमण, पर्युषण पर्व तब और अब पर्वाधिराज का रहस्य कुछ ऐसे ही प्रवचन है। यद्यपि अन्य प्रवचन भी इसी श्रेणी में आते हैं, किन्तु विषयवस्तु को ध्यान में रखते हुए उन्हें किसी धर्मविशेष या सम्प्रदायविशेष के घेरे में नहीं रखा जा सकता।
जैन धर्म से सम्बन्धित प्रवचन भी सांकेतिक रूप से जनसामान्य के लिए उपयोगी हैं। 'स्त्री जाति का महत्त्व शीर्षक वाले प्रवचन में आप ने स्त्री के महत्त्व पर प्रकाश डाला है और वर्तमान फैशन पर
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - कटाक्ष किया है। 'दाढ़ी-मूंठ मुँडाने की फैशन, शीर्षक वाले अपने प्रवचन में। दाढ़ी-मूंछ साफ करवाकर रखने की परम्परा किस प्रकार शुरू हुई ? इस पर भी विचार प्रकट किया है। इसमें आपने यह भी स्पष्ट . किया है कि मानव की पहचान का मुख्य चिह्न दाढ़ी-मूंछ ही है और उनके रखने का रिवाज बहुत प्राचीनकाल से चला आया है। उसको सफाचट कर देने से मनुष्य का अभिमान रूपी दूसरा कोई चिह्न नहीं रहता। अंत में आचार्यश्री ने फरमाया- 'विदेशियों की फैशन के गुलाम न बनकर अपने देशी मर्दानी रिवाज को अपनाना सीखो। विदेशियों की नकल नहीं, उनकी अक्ल सीखने की शक्ति भर कोशिश करो, तभी मर्द कहलाओगे।' (पृष्ठ १०८)।
रूपसेन कुमार चरित्र पर इसी नाम से आप का प्रवचन मानवीय मूल्यों की स्थापना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस कथानक के आधार पर कुछ काल्पनिक दृष्टांत जोड़कर एक अच्छा प्रभावशाली उपन्यास तैयार हो सकता है, जो मानवीय मूल्यों की समुन्नति के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसी प्रवचन के अंत में अजैन शास्त्रों में बताए गए २८ नरकों का भी वर्णन किया गया है। अंत में आप ने प्रवचन का समापन करते हुए फरमाया है - “अनन्त दुःखसंसार: मोक्षाऽनन्तसुखः" अनन्त दुःखमय संसार है और अनन्त सुखमय मोक्ष है, इसलिए संसार-वासनाओं का त्याग करो। धर्माराधना के बिना सच्चा सुख नहीं मिल सकता और जन्म-मरण का फेरा नहीं मिट सकता। बस, प्राणिमात्र का यही ध्येय होना चाहिए और यही ध्येय उनको सफल-मनोरथ बनाकर शाश्वत धाम में विराजमान रहेगा।" (पृष्ठ १६५)।
जब तक मन में काम, क्रोध, मद और लोभ विद्यमान है, तब तक पंडित और मूर्ख समान ही हैं। यह बात कही है आप ने अपने 'विद्या का अभिमान अच्छा नहीं प्रवचन में। यह कथन उस समय भी सत्य था, आज भी सत्य है और भविष्य में भी सत्य ही रहेगा। साधुविहार से होने वाले लाभों को स्पष्ट किया गया है - "साधु विहार से लाभ" नामक प्रवचन में। इस प्रवचन में आप ने रात्रिभोजननिषेध पर भ प्रकाश डाला है। उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार के सन्दर्भ से आप ने फरमाया - 'चींटी के खाने से बुद्धि का नाश, रतौंधी, मकड़ी के खाने से कोढ़ रोग, मक्खी के खाने से वमन, जूं के खाने से जलोदर, काँटा या करपा खाने से कंठ पीडा, व्यंजन (शाक भाजी) के साथ विच्छू खाने से तालु का विंध जाना, केश के खाने से स्वरभंग, इत्यादि अनेक हानिप्रद दोष रात्रि भोजन से पैदा होते हैं, जो शरीर-सम्पत्ति को बिगाड़ते देर नहीं करते। रात्रि-भोजन करने वाले मरकर घुग्घू, कौआ, बिल्ली, गिद्ध, साँभर, भंडूरा, साँप, बिच्छू और गोधा आदि नीच योनियों में पैदा होकर महादुःख भोगते हैं, अतः इस निकृष्ट कार्य को छोड़ देना चाहिए। (पृष्ठ १७०)।
व्यसन-परिहार नामक प्रवचन में व्यसनों से होने वाली हानियों की ओर संकेत करते हुए व्यसनों से बचने के लिए मार्गदर्शन दिया गया है। माननीय शिक्षाएँ नामक प्रवचन में उन बातों पर प्रकाश डाला गया है, जो व्यक्ति के लिए उपयोगी हैं। दान का महत्त्व स्पष्ट किया गया है, इसी नाम के प्रवचन में। समय का सदुपयोग नामक प्रवचन में आप ने फरमाया है - "समय पुरुषों का सर्वस्व, जीवनधन और अमूल्य वस्तु है। जो मनुष्य समय को व्यर्थ खो देते हैं, उसके मूल्य को नहीं समझते, अंत में समय उनको बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट करता है। ऐसे पुरुष संसार में सफलता के बजाय पद-पद पर संकल्प-विकल्प में फँस जाते हैं। जो लोग संसार में आगे बढ़े और आदर्श हुए हैं, उन्होंने समय का मूल्य समझा था।" (पृष्ठ २१४)।
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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व कृतित्व
उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट हो जाता है कि व्याख्यान वाचस्पति आचार्य भगवन् श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का प्रवचनसाहित्य वर्तमान सन्दर्भ में भी प्रासंगिक है। वह आज भी उतना ही उपयोगी और मार्गदर्शक है, जितना उनकी जीवितावस्था में था। अब आवश्यकता इस बात की है कि उनके प्रवचनसाहित्य का पुनः मुद्रण हो, उसका प्रचार-प्रसार हो। तभी सामान्य जन उससे लाभान्वि हो सकेंगे। जिज्ञासु अपनी जिज्ञासा का भी समाधान कर सकेंगे। इत्यलम् ।।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व धरती पर सूरज उतरा
ज्योतिषाचार्य ज्योतिषसम्राटशिरोमणि मुनिराज जयप्रभविजयजी श्रमण......
जीवन : 2 इस धरा पर असंख्य आत्माएँ देह धारण कर अपनी जीवन यात्रा सम्पन्न करती रही हैं, कर रही हैं और करती रहेंगी। यह क्रम असमाप्य है तथा अनंत है तथा असीम है। विश्व के समस्त प्राणियों में मानव को सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। इसका कारण यह है कि समस्त प्राणियों में मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो विवेकसम्पन्न और बुद्धिमान है। वह अपना हिताहित विचार कर कार्य कर सकता है, करता है। इसके अतिरिक्त एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यही वह भव है जिसमें रहकर मानव साधना करते हुए अपने कर्मों का क्षय कर परम मोक्ष पद को प्राप्त कर सकता है। यह अवसर देवताओं को भी सुलभ नहीं है। इसी कारण देवता भी मानव भव में जन्म लेने के लिए तरसते रहते हैं। धरती पर जन्म लेने वाले असंख्य मानवों में कुछ महामानव भी होते हैं, जो समाज का नेतृत्व करते हैं और दुर्लभ मानव भव को सार्थक करने के लिए सतत् प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं। जो भाग्यशाली होते हैं, वे प्रेरणा पाकर अवसर का लाभ उठा लेते हैं और जो माया-मोह के जाल में उलझे रहते हैं, वे अज्ञानतावश उसी में अपने जन्म की सार्थकता समझते हैं। यह उनकी भूल है जिसे वे अंतिम क्षण तक नहीं समझ पाते हैं। ज्ञानी पुरुष उसी को कहा जाता है जो नश्वर संसार की असारता को जानकर अपने जीवन को सार्थक करने का प्रयत्न करता रहता है। हम इस आलेख में ऐसे ही एक महापुरुष, महामानव के प्रारंभिक जीवन का विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। जीवन प्रभात - राजस्थान की भूमि त्याग और बलिदान की भूमि है। इस पावन धरा पर अनेक धर्मवीर, दानवीर, शूरवीर, तपवीर पैदा हुए हैं और उन्होंने अपने-अपने कृत्यों से अपने कुल में चार चाँद लगाकर उसका नाम उज्ज्वल किया है। ऐसे ही कुलों में एक कुल धौलपुर में भी था। धौलपुर में जैसवाल गोत्रीय श्रेष्ठी संतलाल निवास करते थे। इनके चार पुत्र थे। चार पुत्रों में सौभाग्यचंद्रजी धर्मशास्त्रों के ज्ञाता थे। वे लोकप्रिय भी अधिक थे, जिस कारण वे धौलपुर में भाई जी के नाम से विख्यात थे। पं. सौभाग्यचंद्रजी के तीन पुत्र हुए। इनके सबसे छोटे पुत्र श्री ब्रजलाल जी सबसे अधिक प्रख्यात हुए। ब्रजलालजी ने भी दिगंबर जैन शास्त्रों का तलस्पर्शी अध्ययन किया था। ये अपने पिता के अनुरूप ही थे। ये भी धौलपुर में भाईजी के नाम से विख्यात थे।
श्री ब्रजलाल का पाणिग्रहण आगरा निवासी श्रेष्ठी रामदासजी की सुंदर, सशील सुपुत्री चम्पाकुँवर के साथ हुआ था। चंपाकुँवर श्री ब्रजलाल जी के सर्वथा अनुकूल थी। दोनों की जोड़ी मनोहारिणी थी।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्य - शारीरिक दृष्टि से भी दोनों स्वस्थ एवं सुंदर थे। धार्मिक दृष्टि से भी श्री चंपाकुँवर अपने पति के समान ही धर्मपरायणा ही थी। सौ. चम्पाकुँवर की रुचि धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन की विशेष थी। विवाहोपरांत भी उसने अपनी यही रुचि बनाए रखी। सौ. चंपाकुंवर ने अपने वैदुष्य का लाभ अन्य महिलाओं को भी प्रदान किया। गृहकार्य में भी वह पूर्ण दक्ष थी। सास-ससुर की भी वह सदैव सेवा करती रहती थी। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि इस परिवार में वह साक्षात् लक्ष्मी थी। वह परिवार में किसी को कभी भी शिकायत का अवसर प्रदान नहीं करती थी। पतिपरायणा, सुशीला, सेवापरायणा, गृहकार्यदक्षा, चम्पाकुँवर को पाकर परिवार प्रसन्न था। श्री ब्रजलालजी तो ऐसी पत्नी पाकर फूले नहीं समाते थे।
वि.सं. १९३२ पौष शुक्ला तृतीया का दिन इस परिवार के लिए और आनंददायक रहा। इस दिन सौ. चंपाकुंवर की पावन कुक्षि से दुलीचंद नामक पुत्र और गंगाकुँवर नामक पुत्री का युगल रूप में जन्म हुआ। पुत्र-पुत्री का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया गया। सं. १९३५ में पुनः इस परिवार में हर्ष व्याप्त हो गया। श्री ब्रजलालजी के गुणों से प्रभावित होकर धौलपुर नरेश ने उन्हें राज्य के एक उच्च पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। अल्पकाल में ही श्री ब्रजलाल जी ने राजा का विश्वास अर्जित कर लिया और प्रजा में भी लोकप्रिय हो गए। यह उनकी कार्यकुशलता का प्रमाण था। F कार्तिक शुक्ला द्वितीया सं. १९४० रविवार को इस परिवार में सूरज उतर आया। हाँ, आकाश का सूरज धरती पर उतर आया। इस दिन सौ. चंपाकुँवर की पावन कुक्षि से एक सुंदर, सलौने, हृष्ट-पुष्ट पुत्र रत्न का जन्म हुआ। माता-पिता एवं परिजनों ने नाम रखा रामरत्न। रामरत्न के जन्मोत्सव को हर्षोल्लासमय वातावरण में मनाया गया। इस पुत्र के जन्म के कुछ समय पश्चात् धौलपुर नरेश ने श्री ब्रजलाल जी को राय साहब की उपाधि से अलंकृत किया। श्री ब्रजलाल जी का यही पुत्ररत्न रामरत्न आगे चलकर आचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरिजी महाराज के नाम से विख्यात हुआ।
वि.सं. १९४४ श्रावण शुक्ला पंचमी को श्रीमती चंपाकुँवर की पावन कुक्षि से किशोरीलाल नामक एक पुत्र और रमाकुँवर नामक एक पुत्री का युगल रूप से जन्म हुआ। इस प्रकार इस परिवार में तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ हो गईं। एमा।
या कहा गया है कि माता शिशु की प्रथम शिक्षका होती है। यदि माता विदुषी हो तो सोने में सुहागा वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है। सौ. चम्पाकुँवर सर्वगुण सम्पन्न थी, परम विदुषी भी थी। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र एवं पुत्री को प्रारम्भिक अक्षरज्ञान घर पर ही करवाया। अपने दूसरे पुत्र रामरत्न को भी वह शिक्षा प्रदान करने लगी, किन्तु विधि का विधान कुछ और ही था।
_वज्रघात- एक ही वर्ष अर्थात् वि.सं. १९४६ में श्री ब्रजलालजी के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद एक दिन यकायक सौ. चंपाकुँवर अस्वस्थ हुई और देखते ही देखते देवलोकगमन कर गई। श्री वज्रलाल जी और उनकी संतान के लिए सौ. चंपाकुँवर का देहावसान वज्राघात था। परिवार में मायसी और निराशा छा गई। हंसता-खेलता परिवार शोक के अंधकार में डूब गया। विधि को यहीं संतोष
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - नहीं हुआ। चंपाकुँवर की मृत्यु के पंद्रह दिनों के पश्चात् कनिष्ठ पुत्र किशोरीलाल कालकवलित हो गया। यह इस परिवार का दूसरा वज्रघात था। नगरनिवासी भी इस परिवार का संकट देखकर हा-हाकार कर उठे। इस आघात से श्री ब्रजलालजी की हालत भी कुछ बिगड़ गई थी। कुछ शुभचिंतकों ने उनको पुनर्विवाह का भी परामर्श दिया था, किन्तु उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। धौलपुर नरेश भी अब नहीं रहे थे। उनके पुत्र का राज चल रहा था। श्री ब्रजलाल जी ने राज्य पद छोड़ दिया और धौलपुर से भोपाल आ गए। वातावरणपरिवर्तन से कुछ प्रभाव पड़ता है। यही विचार कर ब्रजलाल जी अपने पुत्रों एवं पुत्रियों को लेकर भोपाल आ गए थे।
भोपाल आकर उन्होंने मुख्य रूप से दो बातों पर ध्यान दिया- (१) अपने लिए धर्मध्यान और (२) संतान के लिए उचित शिक्षण। किन्तु भोपाल आने पर भी दुर्दिन ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। उनके ज्येष्ठ पुत्र दुलीचंद को भोपाल की जलवायु अनुकूल न लगी और वह पुनः धौलपुर अपने काका के पास लौट गया। इस समय रामरत्न की आयु सात वर्ष की थी। शिक्षा
दिगंबर जैन मतावलम्बी होने के कारण श्री ब्रजलालजी ने रामरत्न को वि.सं. १९४७ में भोपाल की दिगंबर जैन पाठशाला में प्रविष्ट करवा दिया। रामरत्न अब पाठशाला और घर दोनों स्थानों पर अध्ययन करने लगे। श्री ब्रजलाल जी प्रातः धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करवाते और रात्रि को धार्मिक कहानियां सुनाते। रामरत्न कुशाग्र बुद्धि वाले थे। योग्य पिता के योग्य पुत्र ने शीघ्र ही मंगलपाठ, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकाण्ड श्रावकाचार, आलापपद्धति, द्रव्यसंग्रह, देवधर्मपरीक्षा, नित्य स्मरण पाठ आदि ग्रंथों को न केवल कंठस्थ कर लिया, वरन् अर्थ सहित पठन भी कर लिया। इनके अतिरिक्त भक्तामर, मंत्राधिराज, विषापहार, कल्याणमंदिर और जिनदर्शन स्त्रोतों को भी अर्थ सहित समझकर कंठस्थ कर लिया। यह सब रामरत्न ने नौ वर्ष की अल्पायु में कर लिया था। इससे रामरत्न की तीव्र मेधा शक्ति का पता चलता है। आपकी बुद्धिमता को और स्मरण शक्ति को देखकर शिक्षक भी दाँतों तले अंगुली दबाकर वाह-वाह कर उठते थे। रामरत्न का अपनी कक्षा में अब प्रथम स्थान हो गया। इसके अतिरिक्त रामरत्न में एक गुण और यह था कि अपने अध्ययन के साथ-साथ मोहल्ले के समवय लड़कों को वे नियमित रूप से धार्मिक अभ्यास भी करवाने लगे थे। पिताश्री ब्रजलाल जी अपने पुत्र का यह विकास देखकर प्रसन्न थे, गद्गद् थे।
आघात पर आघात- श्री ब्रजलाल एवं पुत्र रामरत्न का समय आनंदपूर्वक व्यतीत हो रहा था, किन्तु विधि से उनकी यह प्रसन्नता देखी नहीं गई। वि.सं. १९५२ शुरू हुआ। परिवार के दिन सुखपूर्वक बीत रहे थे कि चैत्र मास के अंत में श्री ब्रजलाल जी कुछ अन्य मनष्क से रहने लगे। उनका यह परिवर्तन समझ से परे था। वैशाख शुक्ल प्रतिपदा का दिन रामरत्न के लिए बहुत बड़ा आघात लेकर उपस्थित हुआ। श्री ब्रजलाल जी एकाएक इस दिन इस असार संसार को छोड़कर सदा-सदा के लिए चले गए। रामरत्न असहाय हो गए। टूटी की बूटी नहीं होती। विधि के विधान के आगे किसी का वश नहीं चलता। रामरत्न इस समय परिस्थिति को समझने लगे थे। उनके सामने अब केवल शून्य था।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - मामा के यहां - अपने पिताश्री के स्वर्गवास के पश्चात् रामरत्न को भोपाल में ही रह रहे उनके मामा ठाकुरदास अपने यहां ले गए। ठाकुरदास नि:संतान थे और भोपाल में ही व्यवसाय करते थे। धौलपुर से काका रामरत्न को लेने आए तो ठाकुरदास ने भेजने से मना कर दिया। चूँकि रामरत्न को यहां कोई कष्ट नहीं था, इस कारण काका ने भी अधिक आग्रह नहीं किया और वापस धौलपुर चले गए। अब रामरत्न की जीवनचर्या में परिवर्तन हो गया। पाठशाला का स्थान दुकान ने ले लिया जब से रामरत्न ने दुकान पर बैठना शुरू किया, तब से बिक्री भी अधिक होने लगी। रामरत्न ने व्यवसाय में भी अपनी कुशलता और बुद्धिमता का परिचय दिया। परिणाम यह हुआ कि रामरत्न का परिचयक्षेत्र और अधिक बढ़ गया। मित्रों की संख्या में भी वृद्धि हो गई। रात्रि को सब अपनी-अपनी दुकानें बंद कर इनकी दुकान पर आकर बैठ जाते और गप-शप में मग्न हो जाते। इस अनुक्रम में प्रायः विलंब हो जाया करता था। मामा को इनका विलंब से आना तो अच्छा नहीं लगता किन्त इनके कार्य से प्रसन्न होने के कारण इनसे कछ कहते नहीं थे। किन्तु जब अधिक विलंब होने लगा तो टोका-टोकी शुरू हो गई। इसी बीच रामरत्न के बाल्य-जीवन की कुछ साहस भरी घटनाएँ भी हईं जिनमें एक ठग की कला पर पानी फेरना, एक चोर को पकड़वाना और राज्य द्वारा सम्मानित होना प्रमुख है।
यद्यपि मामा ठाकुरदास पर अपने भानजे रामरत्न के इन साहस भरे कार्यों का अच्छा प्रभाव पड़ा था, किन्तु उन्हें रामरत्न का विलंब से आना अच्छा नहीं लगता था। एक रात्रि में जब रामरत्न अधिक विलंब से लौटे तो मामा ने द्वार नहीं खोले। फलस्वरूप रामरत्न ने मकान के बाहर चबूतरे पर ही रात व्यतीत की। प्रातःकाल मामा ने अपने भानजे की वीरता, सहसिकता, निडरता की प्रशंसा सुनी तो उसे अपने व्यवहार पर पश्चाताप हुआ और उसने अपने भानजे को अपने वक्ष से लगाकर कहा कि तुम इतना विलंब मत किया करो। दोनों पुनः परस्पर प्रेमपूर्वक रहने लगे।
जीवन में परिवर्तन - रामरत्न एक बार अपने मित्रों के साथ एक नाटक देखने गए। लौटने में रात्रि अधिक हो गई। मामा ठाकुरदास अपने भानजे की इस आदत से पहले ही नाराज था। आज तो वह आगबबूला होकर बैठा था। जिस समय रामरत्न का आगमन घर हुआ, मामा ने उल्टी-सीधी सुनाना शुरू कर दिया और क्रोधावेश में कहते-कहते कह गए- 'यही स्वभाव रहा तो भिक्षा माँगोगे। मैं नहीं होता तो रगड-रगडकर मरना पड़ता।' मामा के ये शब्द रामरत्न के वक्षस्थल को आहत कर गए। तलवार का घाव तो भर जाता है, किन्तु शब्दों का घाव कभी भी नहीं भरता। रामरत्न बिना कुछ कहे ही वहाँ से लौट पड़े। sh दूसरे दिन से रामरत्न ने अपने एक हलवाई मित्र की दुकान पर नौकरी कर ली। उनकी बहन गंगाकुँवर का विवाह भोपाल में ही हुआ था। रामरत्न अब अपनी बहन के यहां भोजन करने लगे। वे भोपाल में रह तो रहे थे, किन्तु मामा के द्वारा कहे गए शब्दों का शल्य उनके हृदय में चुभ रहा था। अब उनका मन भोपाल में लग नहीं रहा था। इनके मामा को अपने कथन पर पश्चात्ताप हुआ और मामा-मामी
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
ने भी इन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया, किन्तु अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। कोई घटना किसी नई घटना को जन्म देने वाली होती है। मामा के शब्द भी रामरत्न को नई दिशा प्रदान करने वाले थे। यदि यह निमित्त नहीं मिला होता तो रामरत्न का जन्म जिस कार्य के लिए हुआ था उस राह पर वे कैसे बढ़ पाते।
अब रामरत्न के लिए भोपाल आकर्षणविहीन हो चुका था। वे यहाँ से अन्यत्र जाना चाहते थे। इसे भी संयोग ही कहा जा सकता है कि इन्हीं दिनों उज्जैन में सिंहस्थ मेला लग रहा था और भोपाल-निवासी ओसवाल वंशीय पारखगोत्रीय श्रेष्ठी केसरीमल जी का नौकर प्रेमदास ब्राह्मण सिंहस्थ मेला देखने के लिए उज्जैन जाने वाला था। रामरत्न प्रेमदास ब्राह्मण के साथ भोपाल से उज्जैन के लिए निकल पड़े। सिंहस्थ मेला देखकर रामरत्न मक्सी पार्श्वनाथ तीर्थ के दर्शन करते हुए महिदपुर पहुंच गए। इस समय विश्व पूज्य प्रातः स्मरणीय श्री मज्जैनार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. अपने शिष्यों सहित महिदपुर में विराजमान थे। रामरत्न को गुरुदेव के दर्शनों का लाभ सहज एवं अकस्मात् प्राप्त हुआ। गुरुदेव के शिष्यों में मुनिश्री लक्ष्मीविजयजी म. एवं मुनिश्री दीपविजयजी म. नामक दो बाल मुनि थे। इनसे रामरत्न का परिचय था। इन दोनों मुनिराजों के सहयोग से रामरत्न को पूज्य गुरुदेव के दर्शन के साथ-साथ वार्तालाप करने का भी अवसर मिल गया। पू. गुरुदेव के दर्शन करने एवं उनसे चर्चा करने के पर रामरत्न को लगा कि उसे मंजिल मिल गई है।
परिवारप्रशस्ति - ऊपर हमने पूज्य आचार्य देव श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के जीवन से लेकर पूज्य गुरुदेव की सेवा में पहुंचने तक का विवरण प्रस्तुत किया है। अब संक्षेप में उनके कुल आदि का परिचय देकर अपना कथन समाप्त करेंगे।
किसी समय भीनमाल नगर में जैसपाल नामक एक राजपूत क्षत्रिय अवधराज्यान्तर्गत रायबरेली परगने में आया और अपने नाम से वहाँ जैसपालपुर नामक नगर बसाकर वहीं के आसपास के क्षेत्र पर विजय प्राप्त कर राज्य स्थापित किया। उसी समय वहाँ श्रीमद् जज्जासूरि नामक महाप्रभावक जैनाचार्य का जैसपालपुर में पदार्पण हुआ। राजा जैसपाल जैनधर्म के प्रति श्रद्धा रखता था। जैन साधु-संतों का आदर सत्कार करता था। जब उसे ज्ञात हुआ कि उसके नगर में महाप्रभावक जैनाचार्य का आगमन हुआ है। तो वह दर्शन वंदन और प्रवचनश्रवण करने उनकी सेवा में पहुंच गया। जैनाचार्य से प्रभावित होकर राजा जैसपाल ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। राजा जैसपाल के पुत्र का नाम जिनपाल था। वह अपने नाम के अनुरूप इन्द्रियजित सिद्ध हुआ। राजा जिनपाल की सातवीं पीढ़ी में राजा अमरपाल हुआ। राजा अमरपाल से यवन आक्रमणकारियों ने जैसपालपुर छीन लिया। तब राजा अमरपाल वहाँ से बुंदेलखंड की राजधानी धौलपुर आकर बस गया और यहीं व्यापार करना प्रारंभ किया। जैसपालपुर से आने के कारण इनका जैसवाल गोत्र स्थापित हुआ । इनका वंशवृक्ष इस प्रकार है -
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व नामिण अमरपालामा कि
नागाणीमरावता संतलाल लालकाजीका
मीठालाल सौभाग्यचंद्र
मामा
जीवराज
कानमल
देवचंद्र
शिवराज जयचंद्र बालजी टेकचंद्र जमनालाल ब्रजलाल (चंपाकुंवर) बसंतलाल रोड़ीमल
मक कालूजी देवकीपर नागरिक जानकार
दुलीचंद
गंगाकुंवर
रामरत्न
रमाकुँवर किशोरीलाल
इस परिवार से संबंधित हैं रामरत्न-भविष्य के सविख्यात जैनाचार्य।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्य : व्यक्तित्व-कृतित्व . -
इतिहासज्ञ आचार्यदेव
मुनिराजश्री लेखेन्द्र विजयजी....
राजस्थान के धौलपुर में जन्म लिया, भोपाग में मामा के घर रहे और मामा के कटु वचन सुनकर घर छोड़ दिया। घर छोड़ना एक नए अध्याय की शुरूआत थी। जब किसी घटना का अंत होता है तो वह अंत नवीन घटना के लिए होता है। आचार्यदेव का अपने कार्यकाल में घर से निकल जाना कुछ लोगों के लिए दुःख का विषय इसलिये रहा होगा कि अब वह यह क्या खायेगा? कहाँ रहेगा ऐसा लोगों का सोच सही हो सकता है किंतु दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो आने वाला काल एक नया संदेश लेकर आता है। यही आचार्य देव के साथ भी हुआ।
भोपाल से उज्जैन होते हुए आप महिदपुर पहुंच गए और वहाँ युगप्रधान आचार्य भगवन् श्रीमद् विजयराजेन्द्र सूरीश्वर जी म. की सेवा में जा पहुँचे। कालांतर में उनके करकमलों से दीक्षित होकर मुनि यतीन्द्रविजय जी म. हो गए। यह भी एक इतिहास ही है।
सामान्यतः कई लोग इतिहास को एक शुष्क विषय मानते हैं। कारण यह कि इसमें राजाओं का विवरण पढ़ना पड़ता है। कौन राजा कब से कब तक रहा? कितने युद्ध किये आदि किन्तु केवल यही इतिहास नहीं है। इतिहास का अर्थ है इति + हास = ऐसा हुआ। फिर वह किसी भी क्षेत्र में हुआ हो। इतिहास को केवल राजा और युद्ध तक सीमित रखना उस विषय के साथ अन्याय करना है। इतिहास में राजनीति के साथ सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक, कलात्मक आदि सभी बातों का समावेश होता है, तब कहीं बनता है समग्र इतिहास। ऐसे इतिहास का अध्ययन करने तथा लेखक हुए तो लिखने आदि में जो आनन्दानुभूति होती है उसको वर्णन शब्दों में कर पाना सम्भव प्रतीत नहीं होता।
साधु किसी भी धर्म से सम्बन्धित क्यों न हो, उसकी रुचि इतिहास की ओर कम ही रहती है। इसका प्रमुख कारण तो यह है कि उसका मूल लक्ष्य अपनी साधना की ओर रहता है। अपने आध्यात्मिक लक्ष्य का त्याग कर वह इतिहास की ओर उन्मुख क्यों होने लगा। फिर भी कुछ साधु भगवन् ऐसे होते हैं जो अपने धर्म के इतिहास को प्रकाश में लाने का प्रयास करते हैं। अपने तीर्थों के इतिहास में अपने मंदिरों और प्रतिमाओं के कलापक्ष का उद्घाटन करते हैं। ऐसा करने में उनका उद्देश्य कुछ भी रहा हो किंतु वे अनजाने में ही इतिहास का एक बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित कर देते हैं।
आचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. को इतिहास से कुछ लगाव था। अपनी इसी लगन के परिणाम स्वरूप आपने जैन इतिहास के कुछ पक्षों पर साधिकार लिखा है। यह तथ्य सर्वविदित है कि जैन साधु पादविहारी होते हैं।
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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
वे गाँव-गाँव, नगर-नगर पैदल भ्रमण करते हैं। अपनी इस विहार यात्रा में वे अनेक वस्तुओं को बड़े करीब से देखते हैं। आपने मालवा, राजस्थान, गुजरात आदि प्रांतों के विभिन्न ग्राम-नगरों में वर्षावास किये हैं। जहाँ-जहाँ आपने वर्षावास किया, उन ग्राम-नगरों तथा विहारक्रम में जिन ग्राम-नगरों में पधारे, उनमें से अधिकांश का ऐतिहासिक एवं भौगोलिक दृष्टि से वर्णन किया है। इतिहास लेखन से सम्बन्धित आप की निम्नांकित पुस्तकें है
:
१. नाकोडा पार्श्वनाथ २. यतीन्द्रविहार दिग्दर्शन भाग १ से ३. कोरटा जी तीर्थ का इतिहास ४. मेरी निमाड़ यात्रा ५. मेरी गोड़वाड़ यात्रा ६. तीन स्तुति की प्राचीनता आदि। इस प्रकार आप ने इतिहास सम्बन्धी नौ पुस्तकों की रचना की।
तीर्थों के इतिहास में आपने केवल धार्मिक दृष्टि से ही लेखन नहीं किया, वरन आपका लेखन एक इतिहासकार की भाँति रहा है। इतिहासलेखन में साधनों का विशेष महत्त्व और उनमें भी पुरातात्त्विक साधन अधिक महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। आप इस तथ्य से भली भाँति परिचित थे, तभी तो आपने शिलालेखों और मूर्तिलेखों के संग्रह पर भी विशेष ध्यान दिया। शिलालेख तो जिस उद्देश्य को लेकर उत्कीर्ण कराये जाते हैं, उसका उनमें विस्तृत वर्णन होता है। वे अपने समय के दस्तावेज होते हैं। सामान्यतः शिलालेख नष्ट भी नहीं होते हैं किंतु प्रतिमा लेख प्रक्षाल के कारण घिस जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनका वाचन नहीं हो पाता है, जबकि प्रतिमालेख भी काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं। कारण कि उनमें तिथि, वार, संवत्, आचार्य या मुनिराज का नाम उनके गच्छ का नाम, गृहस्थ का नाम उसके परिवार के सदस्यों का नाम, कुल का विवरण, गाँव/नगर का नाम तथा जिस राजा के समय उस प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई उसका नाम भी उत्कीर्ण रहता है। एक छोटा सा प्रतिमालेख काफी महत्त्वपूर्ण होता है। आचार्य भगवन् ने शिलालेखों और प्रतिमालेखों के महत्त्व को जाना, समझा और उनका संग्रह किया। अपने लेखन में भी उनका उपयोग किया। यह उनके इतिहासकार होने का प्रमाण है।
यात्रियों के यात्रावृतांत को भी इतिहास के स्रोत के रूप में मान्यता प्राप्त है। हमारे देश में यूनान, चीन, अरव आदि विभिन्न देशों के यात्री आए और उन्होंने अपनी भारतयात्रा के संस्मरम् लिखे। उन्होंने यहाँ की व्यवस्था, धर्म, समाज आदि के विषय में जो लिखा वही हमारे इतिहासनिर्माण के साधन का एक अंग बन गया। जैसा कि ऊपर संकेत दिया जा चुकाहै और साधु ग्राम ग्राम, नगर - नगर भ्रमण करते हैं और विभिन्न स्थानों को बड़े निकट से देखते भी हैं। यह बात अलग है कि वे इस पर अपनी लेखनी नहीं चलाते हैं। किंतु कुछ जैनाचार्य अथवा मुनिराज ऐसे भी होते हैं जो इस स्थानों के ऐतिहासिक महत्त्व को देखते हुए, उस गाँव अथवा नगर के इतिहास को लिपिबद्ध कर लेते हैं। इतना ही नहीं वे वहां के पुरातात्त्विक महत्त्व के स्थानों, दर्शनीय स्थानों का भी सूक्ष्मता के साथ विवरण प्रस्तुत करते हैं। इतिहास में उसकी उपयोगिता पर भी अपने विचार प्रकट करते हैं। आचार्य भगवत् श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वर जी ने अपने इस प्रकार के साहित्य में इतिहास विषयकजानकारियों पर विस्तार से प्रकाश डाला है।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - आप द्वारा रचित 'मेरी नेमाड़ यात्रा' में नेमाड़ क्षेत्र के ग्राम-नगरों-तीर्थों पर आपने ऐतिहासिक एवं भौगोलिक दृष्टि से प्रकाश डाला है। इसी प्रकार 'मेरी गोड़वाड़ यात्रा' में गोड़वाड़ क्षेत्र के ग्राम-नगरों के विषय में लिखा है। आपके द्वारा लिखा गया - ग्राम नगरों का इतिहास आज भी उपयोगी है और शोधकर्ताओं के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रदान करता है।
इसी प्रकार आपके द्वारा लिखे गये यतीन्द्रविहारदिर्शन के चारों भाग भी इतिहास विषयक सामग्री से भरे पड़े हैं विहारसाहित्य में प्राय: इस बात की सूचना रहती है कि कौन सा ग्राम या नगर कौन से ग्रा या नगर से कितनी दूर है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई जानकारी देनी हो तो ठहरने आदि के स्थान के साथ धार्मिक स्थानों का उल्लेख कर दिया जाता है, किंतु आप ने केवल इतना ही नहीं किया। अपने विहार दिग्दर्शन साहित्य में आप ने ग्राम या नगर की पुरानी जानकारी, उसका इतिहास तथा अन्य महत्त्वपूर्ण बातों का समादेश किया है। साथ में वहाँ के प्रतिमालेख, शिलालेख (यदि हैं तो) वे भी दे दिये हैं। ऐसा विवरण देने से आप की इन पुस्तकों का महत्त्व काफी बढ़ गया है। अनेक प्राचीन स्थानों का जो विवरण
आप ने दिया है, वह तो अत्यन्त ही प्रशंसनीय है। जिस व्यक्ति ने वे स्थान नहीं देखे हैं, और इन पुस्तकों में ही उनकी जानकारी प्राप्त कर लेता है, तो वह उसके लिए महत्त्वपूर्ण हो जाती है फिर यदि वह उन स्थानों का भ्रमण करता है और अपने द्वारा पढ़ी गई जानकार को ध्यान में रखता है, तो प्रत्यक्ष देखकर वह आनन्दित हो जाता है। उन व्यक्तियों के लिए भी यह सामग्री उपयोगी है, जिन्होंने उन स्थानों की यात्रा की है और उन स्थानों की जानकारी प्राप्त नहीं की है। इनके अध्ययन से उन व्यक्तियों की जानकारी पूर्ण हो जाती है और कभी-कभी उस स्थान के अवलोकन की यात्रा करने की पुनः इच्छा होने लगती है। जब आप द्वारा लिखित विवरण को पढ़कर पाठक के मन में उस स्थान को देखने की जिज्ञासा जाग्रत हो जाती है तो यहीं लेखक का प्रयास सफल हो जाता है।
'तीन स्तुति की प्राचीनता' नामक पुस्तक भी इतिहास की श्रेणी की पुस्तक है। इसमें आप ने जैनागमों के और इतिहास प्रमाण देकर तीन स्तुति की प्राचीनता सिद्ध की है।
इन सबके अतिरिक्त यहाँ एक बात और भी रेखांकित करना आवश्यक प्रतीत होता है आचार्य भगवत् को न केवल इतिहास विषय से प्रेम था, वरन् वे इतिहासलेखन में भी गहरी रूचि लेते थे। धार्मिक इतिहास के साथ ही साथ जातिगत इतिहासलेखन के लिए उन्होंने अपना मार्गदर्शन और प्रेरणा प्रदान कर श्री दौलत सिंह लोढ़ा से प्राग्वाट जाति का इतिहास जैसा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखवाया। आप की इस अमूल्य देने को विस्मृत नहीं किया जा सकता।
आप ने कुछ चरित्रग्रंथों की भी रचना की। मूलरूप में देखा जाये तो ये चरित्रग्रंथ भी इतिहास के अंग ही होते हैं। कारण कि जो इतिहास पुरुष होते हैं फिर चाहे वे धार्मिक इतिहास के हों, अथवा सामाजिक इतिहास के, उनका आदर्श चरित्र सबके लिए अनुकरणीय होता है। अपने गुरु भगवंतों के चरित्र को प्रस्तुत करना गुरु-परम्परा के इतिहास का एक अंग है।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
निष्कर्षतः हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि आचार्य भगवन् श्री मदविजययतीन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. एक आध्यात्मिक महापुरुष के साथ ही साथ एक इतिहासकार भी थे। एतद्विषयक उनका लेखन इसका साक्षात् प्रमाण है।
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ਇਸ ਤੋਂ ਇਲਾ ਜੀਤ ਤੇ ਉਸ ਦੇ ਜਦ ਕਿ ਨੀਤ ॥ ਨਾ ਓ ਚ ਲੂਓਲ
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ਸਿਰਹੈ ਨਾ ਹੀ ਸੀ ਈ ਨ ਵਸੈ ਕਾ
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व -
कुशल प्रवचनकार आचार्य भगवन् SHREE
मनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी विद्यार्थी...
यही सर्वमान्य तथ्य है कि इस धरती के समस्त प्राणियों में मानव सबसे श्रेष्ठ प्राणी माना गया है। अन्य प्राणियों की तुलना में उसकी अनेक उपलब्धियाँ है। इनमें सर्वोत्तम उपलब्धि वाणी है, विचारों को अभिव्यक्त करने की क्षमता है। भावों का जहाँ तक प्रश्न है, वे पशओं में भी उत्पन्न होते हैं। किन्तु पश अपने भावों को अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं। यह क्षमता तो केवल मनुष्य जाति में ही है। वाणी के संबंध में भर्तृहरि ने कहा है
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं.. बाग्भूषणं भूषणम्। अर्थात् अगर पुरुष को अलंकृत करने वाला कोई सच्चा आभूषण या अलंकरण है तो वह वाणी है।
यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वाणी कैसी होनी चाहिये जो वाणी विचारशून्य व अशुद्ध हो, उसका कोई महत्व नहीं वह निरर्थक है। एक पागल भी चिल्लाता रहता है, उसका कोई महत्त्व नहीं होता है। इसीलिए वाणी के पीछे विचार का तेजभाषा के पीछे भावों की शक्ति होना अनिवार्य है। वाणी अंधों की आँखें खोलने वाली और मुर्दो में प्राण फूंकने वाली होनी चाहिये। वाणी के संबंध में ऋग्वेद में कहा गया है
र सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्रधीरा मनसा वाचमक्रमत। REFaim अत्रा सखाय सख्यानि जानते भद्रैषा लक्ष्मीनिहताधि वाणी १०/७१/२ मग काला TO अर्थात् जैसे सत्तू को सूप से शुद्ध करते हैं, वैसे ही मेधावी जन अपने बुद्धिबल से परिष्कृत की गयी भाषा को प्रस्तुत करते हैं, विद्वान लोग वाणी से होने वाली अभ्युदय को प्राप्त करते हैं, इनकी वाणी में मंगलमयी लक्ष्मी निवास करती है।
जो भी व्यक्ति बोलता है वक्ता कहलाता है। किसी किसी वक्ता की भाषा इतनी लुभावनी होती है श्रोता वाह वाह कर उठते है,किन्तु ऐसी लच्छेदार भाषा विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। चीनी धर्मग्रंथ ताओ उपनिषद में कहा गया है 'हृदय से निकले हुए शब्द लच्छेदार नहीं होते और लच्छेदार शब्द कभी विश्वास करने लायक नहीं होते।
ऐसा कहा जाता है कि साधारण व्यक्ति की वाणी वचन है तो विशिष्ट विचारकों की वाणी प्रवचन है। कारण यह है कि उनकी वाणीमें चिंतन, भावना, विचार और जीवन का दर्शन होता है। उनके बोलने में गूढ गहरा अर्थ निहित होता है। संभवत: इसी बात को ध्यान में रखते हुए संघदासगणि ने बृहत्कल्प भाष्य में कहा है
म गणसट्रियस्स कयणं घयपरिसित्तब्व पावओ मवट।
गणइणिस्म न सोहा नेहविहणो नह पर्दवो। REPREFERE rooo-sooooominoritoindorsed १७/ransinodrandoorinidironiousudasudidren
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व तात्पर्य यह है कि गुणवान चरित्रवान वक्ता का वचन घी से प्रज्ज्वलित अग्नि की भाँति अधिक तेजस्वी होता है, जबकि चरित्रहीन वक्ता का वचन बिना तेल बाती के दीपक की तरह मिट्टी का पिंडमात्र होता है। एक पाश्चात्य चिंतक रोथोका का कथन है- वक्तृत्व कला केवल शब्दों के चुनाव में ही नहीं है, वरन शब्दों के उच्चारण में आँखों में, चेष्टाओँ में और जीवन व्यवहार में भी होती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि वाणी को प्रभावशाली और वक्तृता को तेजोदीप्त बनाने के लिए वक्ता को चरित्रसम्पन्न या गुणवान होना भी आवश्यक है। एक चरित्रहीन व्यक्ति यदि चरित्र की उत्तमता की बात कहे अथवा एक जुआरी जुआ न खेलने का परामर्श दे तो उसका क्या प्रभाव पड़ेगा? यह विचारणीय है। स्वामी विवेकानंद विश्व धर्मपरिषद में सम्मिलित होने के लिए अमेरिका गये थे। वहाँ सामान्यतः सम्बोधन में लेडिज एण्ड जेन्टलमैन बोला जाता है, किन्तु जब स्वामी विवेकानंद बोलने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने कहा सिस्टर्स एण्ड ब्रदर्स आफ अमेरिका उनके इस सम्बोधन ने जादू के समान असर किया
और फिर तो अमेरिका के निवासी उनका भाषण मंत्रमुग्ध हो सुनते रहे वाणी में ऐसा जादुई प्रभाव या चमत्कार हो तो बात कुछ और ही होती है। 20 अब हम अपनी मूल बात पर आते हैं। आचार्य भगवन् श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. एक कुशल प्रवचनकार थे। एक कुशल प्रवचनकार में जितने गुण होने चाहिये वे सब उनमें विद्यमान थे।उनकी वाणी में ओज था, प्रवाह था। भाषा भावपूर्ण बोधगम्य थी। वे समयानुकूल प्रवचन फरमाने में प्रवीण थे। घंटों धारा प्रवाह बोल सकते थे। किन्तु एक ही विषय पर एक ही वक्ता को घंटों सुनने में श्रोता ऊबने लगता है, वह विचार करने लगता है कि अब यहाँ से चल देना चाहिये। आचार्य भगवन् के प्रवचनों को सुनते समय श्रोता ऐसा विचार कदापि नहीं करता था उसका कारण यह था कि आचार्य भगवन् अपने प्रवचन में विषय को मोड़ देने की क्षमता रखते थे। वे मनोविज्ञान के भी ज्ञाता थे। जानते थे कि लगातार एक समान विषय को सुनते-सुनते श्रोता ऊब जाता है, इसलिए अपने प्रवचन में वे श्रोताओं की मानसिकता में परिवर्तन लाने की दृष्टि से कोई दृष्टांत जोड़ दिया करते। दृष्टांत की प्रस्तुति से श्रोता एकदम हलका-हलका अनुभव करते। उनका मनोरंजन भी हो जाया करता। श्रोताओं की मानसिकता की पहचान कर धारा प्रवाह से चल रहे प्रवचन की धारा को मोड़ देना विरले ही प्रवचनकारों में देखने को मिलता है।
आचार्य प्रवर श्रीमद् यतीन्द्रसूरीश्वर जी. म. इस अर्थ में भी कुशल प्रवचनकार थे। उनके प्रवचन अपने विषय की सीमा को लाँघते नहीं थे। आपके प्रवचन एक ओर शास्त्रीय प्रमाणों से पुष्ट होते हैं तो दूसरी ओर विषय की गूढ़ता को स्पष्ट करने के उद्देश्य से दृष्टांतयुक्त भी होते थे। आप की प्रवचन फरमाने की शैली इतनी आकर्षक कि श्रोता मंत्रमुग्ध होकर प्रवचनपीयूष का पान करता ही रहता, वह उसमें इतना डूब जाया करता था कि उसे अपने अस्तित्व का भी भान नहीं रहता। वह उस समय स्तब्ध रह जाता था जब प्रवचन-समाप्ति की घोषणा होती थी। इसी को एक प्रवचनकार की सफलता कहते हैं।
आचार्य भगवन के प्रवचन सामान्यतः समसामयिक विषयों पर आधारित होते थे। जैन आचार्य होने के नाते उनके प्रवचनों के विषय अपने धर्म के अनुकूल ही होते थे, किन्तु उनमें समसामयिकता का
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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
पुट होता था । उदाहरणार्थ यदि वे किसी ऐसे ग्राम में पहुँच गये, जहाँ माँस-मदिरा सेवन करने वालों की संख्या अधिक है तो वे अपने अनुयायियों के मध्य प्रवचन में व्यसन के दोषों पर अपना प्रवचन फरमाते । गाँवों में और नगरों में भी प्रवचन के समय सभी जाति और धर्म के लोग प्रवचन- पीयूष का पान करने आते थे, आपके ऐसे प्रवचनों का अचूक प्रभाव होता और लोग खड़े होकर माँस मदिरा का आजीवन त्याग करने का नियम ग्रहण कर लेते। इसके विपरीत यदि वे उन लोगों को सीधे-सीधे माँस मदिरा का त्याग करने के लिए कहते तो शायद वे लोग त्याग नहीं करते।
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इसी प्रकार एक बार आप विहार करते हुए भोरोल पधारे। यहाँ देवी के मंदिर में पशुबलि दी जाती थी। जब आप को इस तथ्य से अवगत कराया गया तो आप के पशुपलि को रूकवाने के लिए यहाँ के ठाकुर जाधव को प्रतिबोध दिया। परिणाम यह हुआ कि ठाकुर साहब ने पशुबलि रोकने के आदेश दे दिये । इस प्रकार हिंसा पर अहिंसा की विजय हुई। आपके प्रवचनों के प्रभाव से समाज में पड़ी अनेक स्थानों की फूट समाप्त हुई। आपसी फूट के कारण समाज के कई कार्य रूके पड़े हुए थे। यह आपकी प्रवचन - पटुता ही कही जायेगी। आप व्यक्तिगत रूप से समझाने के स्थान पर सार्वजनिक रूप से अपनी बात कहकर श्रद्धालुओं को प्रभावित करते थे।
हमारा उद्देश्य यहाँ आचार्य भगवनके प्रवचन साहित्य पर विचार करना न होकर उनके कुशल प्रवचनकार होने पर विचार करना है, इसलिए हम उनके प्रवचन के विषय आदि पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, प्रवचन साहित्य की समीक्षा वाला अलग विषय हो सकता है। हाँ, अब थोड़ा सा विचार उनके प्रवचन की भाषा पर भी करना चाहेंगे। कारण कि एक कुशल प्रवचनकार की भाषा का प्रभाव भी उसके श्रोताओं को बाँधे रखने का काम करता है।
आचार्यश्री के प्रवचन की भाषा सरल एवं सहज समझ में आनेवाली है। भाषा में सामान्य हिन्दी के साथ कहीं-कहीं स्थानीय बोली के शब्दों का भी अनायास प्रयोग हुआ है। ऐसे प्रयोग से भाषा सौंदर्य में निखार आया है और प्रवचन सरस एवं प्रवाहमय बन गया है। कहीं-कहीं उर्दू शब्दों का भी प्रयोग हुआ है जो स्वाभाविक लगता है। प्रवचनों में लोक कहावतों, मुहावरों का भी प्रयोग स्वाभाविक रूप से हुआ है, कुछ उदाहरण प्रस्तुत
हैं -
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
सबसे भली चुप |
क्रोधक्रोड पूरबतणो तप जावे नाश ।
दो घड़ी की वाह-वाह का कारण बनना।
चंगुल से बचाव करना ।
थोथा चना बाजे घना।
कीड़ी संचे तीतर खाय, पापी का धन पल्ले जाय।
पड्या लक्षण न मिटे मुआ
अन्न बिना सब बात खोटी ।
6
[१९
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१०.
यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - ९. आटा ही बड़ा है पाटामा मिस किती गावाम र
सभी देवों में प्रत्यक्ष देव है रोटी। ११. जहाँ देखो, भरी परात, वहाँ बैठिये सारी रात। मनात
ऐसी ही अनेक कहावतें और मुहावरे प्रवचन में प्रयुक्त हुए हैं, अनावश्यक विस्तार-भय से हम और देना नहीं चाहते। प्रसंगानुसार कहीं-कहीं अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी हआ है, जैसे स्पीच एसोसिएशन सोसायटी कमेटी आदि।
हमारा उपर्युक्त कथन इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि आचार्य भगवन् एक कुशल प्रवचनकार थे। आपकी इस कुशलता से प्रभावित होकर ही आप को व्याख्यान वाचस्पति अलंकरण से अलंकृत किया गया था। आप जैसे कुशल प्रवचनकार बहुत ही कम देखे गये हैं।
कहा कि का का सवारी कामना काम ਬਲਿ ਜਾਂ ਜੋ ਸਰਕਲ ਬਰੇਨ ਸਰਜਨ
ਸ਼ਰਤ ਬਣ ਕੇ ਸਨਮਾਨਤ ਰਿਦ
ਬ
ੜਾ
ਲਾਪਤਾ
ਹੈ ਕਿ
ਇਹ ਇ ਜਾਂਦਾ ।
जागाही काही
कर गाजमिनकविका
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व कृतित्व
श्री अमिधानराजेन्द्रकोश और आचार्य श्री
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विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने लगातार चौदह-पंद्रह वर्ष तक कठोर परिश्रम कर एक अमूल्य ग्रंथरत्न की रचना की, जिसे आज सम्पूर्ण विश्व अभिधानराजेन्द्रकोश के नाम से जानता है। समस्त जैन साहित्य इस कोश में समाहित हो गया है। इस ग्रंथ रत्न को हम जैन ऐनसाइक्लोपीडिया भी कह सकते हैं। कारण यह कि इस कोश के माध्यम से कोई भी विद्वान् जैनागमों का महत्त्वपूर्ण एवं महोत्तम ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
परमपूज्य ज्योतिषाचार्य मुनिराज
श्री जयप्रभविजयजी श्रमवशिष्य रत्न मुन्राज श्री हितेशचन्द्रविजय 'श्रेयस'...
वि.सं. १९६० का आप का वर्षावास सूरत में व्यतीत हुआ था। वहीं इस कोश के निर्माण का कार्य समाप्त हुआ था। कठोर परिश्रम के परिणामस्वरूप पूज्य गुरुदेव का स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं रह रहा था। कोश की रचना के पश्चात् उसको सम्पादित कर व्यवस्थित करना और फिर उसका प्रकाशन करवाना भी एक महत्त्वपूर्ण किन्तु कठिन कार्य था। कारण यह कि इसका प्रकाशन सामान्य बात नहीं थी। इस विशाल कोश के प्रकाशन में भी वर्षों लगने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। पूज्य गुरुदेव इस स्थिति में नहीं थे कि वे अब पूर्व की भांति कठोर परिश्रम कर सकें। इदं शरीरं व्याधिमंदिरम की उक्ति के अनुसार पूज्य गुरुदेव का स्वास्थ्य दिनप्रतिदिन गिरता ही जा रहा था । पू. गुरुदेव का स्वास्थ्य जैसे-जैसे गिरता जा रहा था, वैसे-वैसे उनकी चिन्ता बढ़ती जा रही थी। उनकी यह चिन्ता स्वयं के विषय में नहीं थी। उनकी चिंता का मूल कारण यह था कि जिस लगन, निष्ठा और कठोर परिश्रम के साथ अमिधानराजेन्द्रकोश का निर्माण किया, उसका उनके देवलोक गमन के पश्चात क्या होगा? क्या उनका परिश्रम निष्फलचला जायगा।
ऐसी ही परिस्थिति में पूज्य गुरुदेव का वि.सं. १९६३ का वर्षावास बड़नगर में सानंद सम्पन्न हुआ। वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् आप ने वहाँ से विहार कर दिया और मार्गवर्ती ग्रामों में धर्मध्वजा फहराते हुए आप राजगढ़ (धार) पधारे। मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म.सा. अपने गुरुदेव की अमिधानराजेन्द्रकोश के प्रकाशन विषयक चिंता से परिचित थे। आपश्री इस भार को वहन करने के लिये तत्पर भी थे। आप किसी उचित समय पर अपनी भावना की अभिव्यक्ति अपने गुरुदेव के समक्ष करना चाहते थे। आप अपने गुरुदेव द्वारा कठोर अध्यवसाय कर निर्माण किये गए कोश का विधिवत सम्पादन कर उसका मुद्रण करवाने की भावना रखते थे। जब राजगढ़ में एक दिन गुरुदेव के सान्निध्य में मुनिराज श्री दीपविजय जी म. तथा मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. बैठे हुए कुछ कार्य कर रहे थे, उस समय दोनों मुनिभगवंतों ने अपने गुरुदेव प्रातःस्मरणीय श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर जी म. को कुछ अधिक ही चिंतित मुद्रा में देखा । गुरुदेव पूर्व में अपनी चिंता का कारण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अपने सुशिष्यों और समाज के प्रमुख
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
महानुभावों के समक्ष प्रकट कर चुके थे। अभी तक उन्हें समाधान नहीं मिला था। आज जब पुनः गुरुदेव को असमंजस एवं चिन्तित देखा तो मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. ने उपयुक्त समय जानकर निवेदन किया 'गुरुदेव ! कोश के मुद्रण के लिये आप को किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। आप की कृपा एवं आशीर्वाद से हम दोनों (मुनिराज श्री दीपविजयजी म. एवं मुनिराज श्रीयतीन्द्रविजयजी म.) इस कार्य को सम्पन्न करने का पूरा-पूरा प्रयास करेंगे।'
'केवल मुद्रण ही नहीं, इसे व्यवस्थित रूप से सम्पादित भी करना उसके पश्चान् ही मुद्रण कार्य प्रारंभ हो, यह ध्यान रखने की बात है' गुरुदेव ने अपनी बात कही।
'आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन होगा। आप निश्चिंत रहें' मुनिराज श्री यतींद्रविजयजी म.ने कहा ।
'तब ठीक है मैं इस ओर से आश्वस्त हुआ।' गुरुदेव ने कहा और फिर उन्होंने राजगढ़ और बड़नगर के श्री संघों की उपस्थिति में श्री अमिधानराजेंद्रकोश के सम्पादन/प्रकाशन का उत्तरदायित्व अपने सुयोग्य शिष्यद्वय मुनिराज श्री दीपविजयजी म. एवं मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म. को सौंप दिया। इसके तीन दिन पश्चात् ही, पौष शुक्ला ६ वि.सं. १९६३ को गुरुदेव देवलोक गमन कर गए। गुरुदेव के समाधिमरण का समाचार पवन-वेग से चारों ओर प्रसारित हो गया। अनेक ग्राम एवं नगरों के श्री संघ राजगढ़ में एकत्र हो गए। इस अवसर पर मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. ने गुरुदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधृत विस्तृत प्रवचन फरमाया। अपने प्रवचन में आप ने गुरुदेव के साहित्य पक्ष और उसमें भी श्री अमिधानराजेन्द्रकोश को प्रमुख रूप से स्थान दिया। साथ ही आप ने गुरुदेव की भावना को अभिव्यक्त करते हुए फरमाया कि गुरुदेव के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनके अपूर्ण कार्य को पूरा करें। श्री अमिधान राजेन्द्र कोश के प्रकाशन के लिये धनराशि की आवश्यकता को भी आप ने प्रतिपादित किया। आगत श्री संघों ने इस अवसर पर श्री अमिधानराजेन्द्रकोश के प्रकाशन के लिये यथाशक्ति अर्थसहयोग प्रदान करने का आश्वासन दिया और कोश के प्रकाशन का प्रस्ताव स्वीकृत कर उसके सम्पादन का भार मुनिराज श्री दीपविजयजी म. एवं मुनिराज श्री यतीन्द्र विजय जी म. को सौंप दिया।
वि. सं. १९६४ का पं. श्री मोहन विजयजी म. तथा मुनिमंडल का वर्षावास रतलाम में हुआ। वर्षावास-कालीन प्रवचन प्रारंभ हुए। प्रवचन मुख्य रूप से श्री अमिधानराजेन्द्रकोष पर आधिरत होते थे। कोश के प्रकाशन की समस्या पर भी विचार-विमर्श होता रहा। इसका परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। श्रावण शुक्लपंचमी, वि. सं १९६४ को श्री अमिधानराजेन्द्रकोश प्रकाशन-कार्यालय की स्थापना शुभमुहूर्त में हुई। विचार-विमर्श में यही निर्णय हुआ कि कोश के मुद्रण का कार्य किसी प्रिंटिंग प्रेस से करवाने के स्थान पर समाज का ही एक प्रिन्टिंग प्रेस प्रारंभ कर लिया जाय, जिसमें केवल कोश का ही कार्य हो । कोश के मुद्रण के पश्चात अन्य पुस्तकों के प्रकाशन आदि का कार्य होता रहेगा। इस निर्णय के अनुरूप वर्षावास के पश्चात् श्री जैन प्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस भी प्रारंभ हो गया और कोश के प्रकाशन का कार्य भी शुरू हो गया।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
s मुद्रण कार्य से भी कठिन कार्य था सम्पादन करने का । सम्पादन करते समय इस बात का ध्यान रखना अति आवश्यक होता है कि स्व-परम्परा के विरुद्ध कुछ अन्य विषय न चले जायें। भाषा और शैली को शुद्ध एवं व्यवस्थित करना दूसरी आवश्यकता है। तीसरे इस बात का भी ध्यान रखा जाना आवश्यक होता है कि लेखक की मूल भावना और विषय वस्तु से परे न लिखा जाए। वर्तनी की त्रुटियाँ न रहने पायें । इस कठिन कार्य का प्रारंभ किया मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म. ने । आपको इसमें सहयोग मिला मनुराज श्री दीपविजयजी म. का (बाद में आचार्य श्रीमद्विजयभूपेन्द्र सूरीश्वर जी म. ) ।
सम्पादन और मुद्रण में जो कठोर अध्यवसाय मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म. (कालांतर में आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.) ने किया उसकी अभिव्यक्ति शब्दों में कर पाना कठिन है। आप के अथक परिश्रम का परिणाम यह हुआ कि वि.सं. १९७२ में कोश के मुद्रण का कार्य समाप्त हो गया। इस अवधि में व्यतीत किये गए वर्षावास एवं शेष काल में आप केवल कोश से संबंधित कार्य सम्पन्न करते रहे। यदि इतना कठोर परिश्रम आपके द्वारा नहीं किया जाता, तो इतनी जल्दी कोश का मुद्रण कार्य सम्भव नहीं हो पाता। आप ने पूर्ण लगन, निष्ठा और समर्पण की भावना से कोश के प्रकाशन में अपना योगदान दिया था। यह आप के कठोर अध्यवसाय का ही परिणाम था कि कोश जैसा अद्वितीय एवं उपयोगी था, वैसा ही उसका सुंदर एवं प्रामाणिक ढंग से सम्पादन करके उसका प्रकाशन करवाया। कोश का मुद्रण ग्रेट और पाई के टाइपों में बहुत बढ़िया रायल चार पृष्ठीय पत्र पर हुआ। कोश को वर्णों के अनुक्रम में विभक्त कर उसका सात भागों में प्रकाशन किया गया। इन सातों भागों पृष्ठ संख्या और उनमें समाविष्ट वर्णों का विवरण इस प्रकार है।
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वर्ण
पृष्ठ संख्या
१०३६
११९२
१३७९
२७९६
१६३६
१४६६
१२४४
यदि सातों भागों की पृष्ठ संख्या का योग करें, तो वह १०७४९ होता है। इससे इसकी भव्यता और विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है। मुद्रण का कार्य समाप्त होने के पश्चात् उसकी बाइन्डिंग का कार्य महत्त्वपूर्ण रहता है। बाइन्डिंग में बहुत अधिक सावधानी रखने की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि श्री अमिधानराजेन्द्रकोश की बाइन्डिंग में लगभग दो वर्ष लगे और सं. १९८१ तक पूरा कोष पुस्तकाकार रूप में पूर्ण रूप से तैयार होकर विद्वानों एवं जिज्ञासुओं के कर-कमलों में पहुँचा।
भाग
प्रथम
द्वितीय
तृतीय
चतुर्थ
पंचम
षष्ठ
सप्तम
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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - Hश्री अमिधानराजेन्द्रकोश को देखकर कोई भी विद्वान् उसकी सम्पादन-शैली, छपाई, सुन्दरता और आकर्षण की मुक्त कंठ से प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। यहाँ यह उल्लख करना प्रासंगिक ही होगा कि वर्तमान में छप रहे उत्तम ग्रंथों में भी छापे की भूलें देखने को मिलती हैं किन्तु अमिधानराजेन्द्र कोश में इस प्रकार की कोई त्रुटि नहीं पाई जाती है। यह सम्पादक की विशिष्ट योग्यता को दिग्दर्शित करता है। पर कैसा भी बहुमूल्य एवं सुन्दर क्यों न हो, उसकी सच्ची कीमत और उपयोगिता तो कुशल कारीगर के चातुर्यपूर्ण व्यवहार एवं श्रम पर ही अवलम्बित है। ठीक इसी प्रकार अमिधान राजेन्द्र कोश का संकलन स्वर्गीय गुरुदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर सा. के प्रखर पाण्डित्य अनंत उत्साह तथा अथक परिश्रम का परिणाम तो है ही, साथ ही मुनिराज श्रीयतीन्द्र विजयजी म. की तत्परतापूर्ण कुशलता तथा योग्यतापूर्ण सम्पादन पर भी निर्भर है। उन्होंने जिस समर्पण भाव से इस कोश को मुद्रित करवाकर उपलब्ध करवाया वह सराहनीय है। अमिधान राजेन्द्र कोश के माध्यम से आप की अद्वितीय सम्पादन-कला का परिचय मिलता है। अतः यह निर्विवाद रूप से प्रतिपादित किया जा सकता है कि गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. ने जिस कठोर अध्यवसाय से निरंतर चौदह-पंद्रह वर्षों में अमिधान राजेन्द्र कोश की रचना की उसी के अनुरूप परिश्रम कर श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. ने उसे प्रकाशित करवाकर अपने गुरुदेव की भावना को मूर्तरूप प्रदान किया।
शिफाशाकिनीमारीयालय पर पाक
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
जीवननिर्माता गुरुदेव
आचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वर जी महाराज
- ज्योतिषाचार्य ज्योतिषसम्राट् मुनिप्रवर श्री जयप्रभविजयजी श्रमण-शिष्य, मुनि दिव्यचन्द्रविजय 'सुमन'......
आचार्य भगवन् श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. ने अपने एक प्रवचन में फरमाया कि संसार में जिस प्रकार चिन्तामणिरत्न अखण्ड साम्राज्य, स्वाधीन समृद्धियां और वांछित सुखोपयोग बिना भाग्य के नहीं मिलते। उसी प्रकार मणु अत्तं बहुविहभव भमणस एहिं कहमक्लिद्धं अर्थात अनेक भवों के संचित महान पुण्योदय के बिना मनुष्यजन्म भी नहीं मिल सकता। चौरासी लाख जीवयोनि हैं, उनमें मनुष्य भव सबसे अधिक महत्त्व और उत्तमता रखता है। प्रभु श्री महावीर स्वामी ने स्पष्ट फरमाया है कि चुल्लक, पाशक आदि दृष्टान्त किसी तरह सिद्ध किये जा सकते हैं, परन्तु विषय-पिपासा की आशा में जिसने मनुष्य जन्म को खो दिया, तो फिर लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं मिलता। आप ने आगे फरमाया कि अतिशय पुण्य से लम्यमनुष्यजन्म को प्रमादों का परित्याग करके सफल बनाने के लिए सदा सावधान रहना ही वास्तविक मनुष्यता है और इसी मनुष्यता की प्रशंसाजनक समुन्नति होती है, जो अटूट सामर्थ्य को देने वाली तथा स्वपर का कल्याण करने वाली होती है।
इस मनुष्यभव को दुर्लभ कहा गया है कि इसमें जन्म लेने के लिए देवता भी आस लगाये रहते है। कारण कि यह वह भव है, जिसमें रहकर व्यक्ति आत्मसाधना तथा धर्माराधना करते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है यदि हम जीवन पर विचार करें तो प्रतीत होता है कि यह एक अनबूझ पहेली है, जिसे सुलझाने का प्रयोग युग-युग में अनेक चिंतकों द्वारा होता रहा है, किन्तु यह तथ्य उसकी अपूर्णता का द्योतक ही है कि आज भी विचारकों के लिए यह पहेली जस की तस बनी हुई है। विचारक जीवन के स्वरूप को अपनी-अपनी दृष्टि से देखते हैं वे उसका स्वरूप उसी रूप में स्वीकार करते हैं, जर्मन विद्वान् गेटे के अनुसार जीवन अमरत्व का शैशव है। एक अन्य विद्वान्शापनहावर के कथन मृत्यु का स्थगित होते रहना ही जीवन है- के संबंध में और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है, किन्तु अधिक विस्तार न करते सांकेतिक रूप से इतना ही पर्याप्त समझते हैं।
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चिन्तकों ने जीवन का भी वर्गीकरण किया है। एकमान्य वर्गीकरण का लें तो जीवन को तीन भागों में विभक्त किया गया है- १. आसुरी जीवन २. दैवी जीवन और ३. आध्यात्मिक जीवन संक्षेप में इनका विवरण इस प्रकार है
१. आसुरी जीवन - आसुरी जीवन भोगवादी है। खाओ, पीओ और मौज करो। भोग विलास, राग-द्वेष, सत्ता-महत्ता के दल-दल में निमग्न तथाकथित सांसारिक सुखोपयोग का जीवन ही आसुरी जीवन का है।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - २.दैवी जीवन-जीवन में सत्य का सहारा हो, अहिंसा का आलोक हो, प्रेम का प्रदीप हो, करुणा का कमनीय कुंज हो, संयम का शस्त्र हो तथा आत्मानुशासन का आधार हो। सज्ञानता का सम्बल हो, तो जीवन श्लाध्य हो जाता है, यही दैवी जीवन है।
३.आध्यात्मिक जीवन- आध्यात्मिक जीवन के बारे में कहा गया है कि अपरिमित ज्ञानालोक से जगमगाता जीवन आध्यात्मिक स्तरीय जीवन है। जिसमें सम्यक् ज्ञान की लौ प्रचण्ड प्रकाश को विकीर्ण कर स्वानुकूल आचरण हेतु न केवल प्रेरणा देती है, वरन् इस मार्ग के सभी व्यवधान-तिमिरों को निर्मूल कर देती है। यही आध्यात्मिक जीवन की आधारभूत विशेषता है। आध्यात्मिक जीवन एक मंजूषा है, जो रत्नत्रय की झलमलाहट से सदा ज्योतिर्मय रहती है। सम्यक्ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र की यह त्रिवेणी गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम के समान आध्यात्मिक जीवन को तीर्थराज प्रयाग की ही भाँति न केवल गरिमा व पवित्रता देती है, वरन् उद्धारक रूप का निर्माण भी करती है। आध्यात्मिक जीवन व्यक्ति को जनहितार्थ अपेक्षित क्षमता भी देता है और इस दिशा में गहन रुचिशीलता भी।
ऊपर सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक् चारित्र का उल्लेख हुआ है। वस्तुत: इन तीनों का चरम विकास ही आत्मा को परमात्मा बनाता है। आध्यात्मिक जीवन का प्रथम सोपान दीक्षा है। यही वह यात्रारम्भ है जिसका चरम लक्ष्य मोक्ष है। दीक्षा के संबंध में एक विद्वान् का कथन है कि दीक्षा जीवन क परिवर्तन है। निश्चिय ही दीक्षा-प्रक्रिया में वेश-परिवर्तन, सिर-मुण्डन, गृहपरित्यागादि सब कुछ होता है। किन्तु यही दीक्षा के महान् विचार का सर्वस्व नहीं हुआ करता। ये तो बाह्य क्रियाएँ मात्र हैं, जो आभ्यन्तरिक परिवर्तन की परिचायिका होती हैं। ये बाह्य परिवर्तन अपने में दीक्षा के समग्र महत्त्वमय स्वरूप का वहन करने की क्षमता नहीं रखते। केशमुण्डन तभी सार्थक होता है, जब राग द्वेष की जटायें मुण्डित हो सकें। ममताबुद्धि का त्याग आदि ही तो दीक्षान्तर्गत परिवर्तन के मूलतत्त्व हैं। भोगेच्छु कभी दीक्षोपयुक्त नहीं माना जा सकता। अतृप्त बुभुक्षाग्रस्त व्यक्ति दीक्षा का पात्र नहीं ठहराया जा सकता। जिसके अंतर्मन में मोक्ष की कामना का तीव्रतम स्वरूप है और जो उसी की प्राप्ति हेतु साधनारत होने के संकल्प के साथ वीत रागी हो जाने की दृढ़ अभिलाषा का वहन करने वाला है यथार्थ में दीक्षार्थी हो सकता है। दीक्षा का प्रयोजन है, अचंचलमन से मुक्तिमार्ग पर सतत् गतिशीलता का शुभारंभ। जाम शान 2 अनेक भव्य आत्माओं ने आचार्य भगवन् श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के कर-कमलों से दीक्षाव्रत अंगीकार कर अपने जीवन को सार्थक बनाया है। इस संदर्भ में यदि हम यह कहें कि आचार्य भगवन् सच्चे अर्थों में जीवन निर्माता गुरुदेव थे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आचार्य भगवन् के करकमलों से दीक्षित होने वाले भव्य आत्माओं की नामावली इस प्रकार है- शामी का १. बीजापुर (गोड़वाड़ मरुधर) में खुशालचन्द्र जी एवं जसी बहन की पुत्री केसरबाई धर्मपत्नी
रामचंद्र जी को वि.सं. १९७५ फाल्गुन शुक्ला ३ को लघु दीक्षा प्रदान कर साध्वी श्री चमनश्री के नाम से पू. मानश्री जी की शिष्या घोषित किया।
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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
२. भेंसवाड़ा में ईदाजी और भूतिबहन की पुत्री भली बहन धर्मपत्नी अचलदास जी को वैशाख शुक्ला २ को लघु दीक्षा प्रदान कर साध्वी श्री पुण्य श्री के नाम से पू. मानश्री की शिष्या घोषित किया। रतलाम में पूनमचंद जी एवं श्रीमती मोतीबाई के पुत्र जबरचंद निवासी राजगढ़ को वि.सं. १९८० में मार्गशीर्ष शुक्ला ५ को समारोहपूर्वक लघुदीक्षा प्रदान कर मुनिसागर विजय जी. म. के नाम से प्रसिद्ध किया।
३.
४. रतलाम श्री संघ के आग्रह से आपने बालमुनि वल्लभ विजय जी एवं विद्या विजयजी को वि.सं. १९८० में माघ शुक्ल ५ को शुभमुहूर्त में समारोहपूर्वक बड़ी दीक्षाएँ प्रदान कीं।
५.
६.
७.
८.
९.
रिंगनोद में झाबुआ निवासी नथमल और वरधीबहन की सुपुत्री रुखी बहन धर्मपत्नी चुन्नीलाल जी निवासी झाबुआ को वि.सं. १९८१ चैत्र शुक्ला३ को शुभमुहूर्त में लघु दीक्षा दीक्षा प्रदान कर साध्वी
विमलश्रीजी के नामसे प्रसिद्ध किया।
वि.सं. १९८१ में बागनगर के वर्षावास में ज्ञानपंचमी के दिन मुनि सागरानंद जी को बड़ी दीक्षा प्रदान की।
सियाणा में वि.सं. १९८३ में माघ शुक्ला ६ को टाण्डा (मालवा) निवासी धन्नालाल जी और सकमाबाई की पुत्री जन्म्मूबाई धर्मपत्नी जड़ावचंद जी निवासी रिंगनोद को तथा लूणा जी एवं बरदीबाई की पुत्री मिश्रीबाई धर्मपत्नी हेमराज जी निवासी राजगढ़ को समारोहपूर्वक लघु दीक्षा प्रदान की और जम्मूबाई को चेतनश्रीजी तथा मिश्रीबाई को चतुरश्रीजी के नाम से प्रसिद्ध कर दोनों को गुरुणीश्री भाव श्रीजी की शिष्या घोषित किया।
आहोर में वि.सं. १९८४ फाल्गुन कृष्णा ५ को आकोली निवासी शाह सूजा एवं बालीबाई की पुत्री रूपी बहन धर्मपत्नी केसरी मलजी निवासी मांडोली को लघु दीक्षा प्रदान कर साध्वी शांतिश्रीजी के नाम से प्रसिद्ध किया।
आहोर में वि.सं. १९८८ आषाढ़ कृष्णा १३ को नाडोल निवासी मोतीलाल को लघुदीक्षा प्रदान कर मुनि उत्तम विजयजी के नाम से प्रसिद्ध किया।
१०. कुक्षी में वि.सं. १९९३ मार्गशीर्ष शुक्ला १० को शुभमुहूर्त में समारोहपूर्वक मुनिश्री प्रेम विजय जी म. को दीक्षा प्रदान की।
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११. डूडसी में वि.सं. १९९५ आषाढ़ शुक्ला ११ को खाचरोद निवासी कस्तूरचन्द्र ने धुलीबाई के पुत्र कन्हैयालाल को शुभमुहूर्त में दीक्षाव्रत प्रदान कर मुनि न्यायविजयजी म. के नाम से विख्यात किया । १२. अकोली में वि.सं. १९९५ मार्ग शीर्ष शुक्ला १२ को सूरत निवासी गांधी धन्नाजी भूता व भानी बहन की सुपुत्री मिश्री बहन धर्मपत्नी शा. छोगा जी संघवी निवासी आलासण को दीक्षा व्रत प्रदान कर साध्वी लावण्यश्रीजी के नाम से प्रसिद्ध कर गुरुणी श्री मानश्रीजी की शिष्या घोषित किया।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - १३. सियाणा में माघ शुक्ला ९ वि.सं. १९९५ को मुनि श्री प्रेमविजयजी, मुनि न्यायविजयजी, मुनिश्री
नीति विजयजी और साध्वीश्री मोतीश्री जी साध्वी श्री विशालश्रीजी साध्वी श्री विनोदश्रीजी,
साध्वीजी लावण्य श्री जी को समारोहपूर्वक बड़ी दीक्षा प्रदान की। १४. सियाणा में वि.सं. १९९९ में वीश स्थानकतप का उद्यापन करवाया। इसी अवसर पर मुनिश्री
लावण्य विजयजी, मुनिश्री रंग विजयजी आदि सात मुनियों को बड़ी दीक्षा प्रदान की। १५. आहोर में वि.सं. २००१ माघ शुक्ला ६ को प्रतिष्ठोत्सव के शुभ अवसर पर मुनिश्री कान्ति
विजयजी एवं मुनिश्री हेमेन्द्र विजय जी को बड़ी दीक्षा प्रदान की। मुनिश्री हेमेन्द विजयजी वर्तमान में गच्छाधिपति आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. के रूप में
संघसमाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं। १६. आहोर में ही निकटस्थ चरली ग्राम निवासी इदाजी व सोनीबहन की सुपुत्री जीवीबाई धर्मपत्नी शा.
मगराज जी निवासी आहोर को प्रतिष्ठोत्सव के शुभ अवसर पर वि.सं. २००१ माघ शुक्ला ६ को दीक्षाव्रत प्रदान कर साध्वीश्री जयश्री जी के नाम से प्रसिद्ध कर गुरुणी श्री कमलश्रीजी की शिष्या
घोषित किया। १७. आहोर में ही वि.सं. २००१ माघ शुक्ला १४ को धनासुता निवासी हीरालालजी व सुन्दरबाई की
सुपुत्रिया कमला व रुक्माबाई को दीक्षाव्रत प्रदान कर कमला को श्री महिमा श्री और रूक्मीबाई को जयन्तश्री के नाम से प्रसिद्ध कर गुरुणी कमलश्रीजी की शिष्याएँ घोषित किया। आकोली में वि.सं. २००२ माघ शुक्ला ५ को बागरा के समीपस्थ सरत निवासी गेनमल जी व लहरबहन की सुपुत्री दीपावली को दीक्षा प्रदान कर साध्वीश्री देवेन्द्रश्रीजी के नाम से विख्यातकर श्री कमलश्रीजी की शिष्या घोषित किया। बागरा में लक्ष्मीचंद जी सदीबहन की सुपुत्री नवीबहन धर्मपत्नी श्री मंशालाल निवासी बागरा को वि.सं. २००३ वैशाख शुक्ला ३ को दीक्षाव्रत प्रदान कर साध्वी श्री कुसुम श्री जी के नाम से
विख्यात कर गुरुणी श्री कमल श्रीजी की शिष्या घोषित किया। २०. वि.सं. २००३ वैशाख शुक्ला ३ को ही बागरा निवासी अमीचंद्र व सदीबहन की सुपुत्री रंभाबहन
धर्मपत्नी बागरा निवासी भभूतमलजी को दीक्षाव्रत प्रदान कर साध्वी कुमुदश्री के नाम से प्रसिद्ध
कर गुरुणी श्री कमल श्रीजी की शिष्या घोषित किया। | २१. हरजी में वि.सं. २००३ ज्येष्ठ कृष्णा ६ को निम्नांकित भव्य आत्माओं को दीक्षाव्रत प्रदान किया गया
१. अहमदाबाद प्रांत के ताल्लुका ठासरा परगना खेड़ाग्राम अंगाड़ी निवासी माणिकलाल भट्ट
ब्राह्मण व रेवाबहन के सुपुत्र जेठमल को दीक्षा प्रदान कर मुनिश्री सौभाग्य विजयजी म. के नाम से विख्यात किया।
मामाकागार
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व २. सिरोही राज्यान्तर्गत पेथापुर निवासी भगवान जी व जयंतीबाई रेबारी के सुपुत्र देवीचंद को का दीक्षाव्रत प्रदान कर मुनिश्री शांतिविजयजी म.के नाम से विख्यात किया। ३. आहोर निवासी केसरीमल जी व श्रृंगार बहन की सुपुत्री भूरीबहन धर्मपत्नी शा.लक्ष्मीचन्द्र जी
निवासी हरजी को दीक्षा प्रदान कर साध्वीश्री क्षमाश्रीजी के नाम से विख्यात कर गुरुणी श्री
कमल श्री जी की शिष्या घोषित किया। २२. भूति में वि.सं. २००३ मार्गशीर्ष शुक्ला ५ को प्रतिष्ठोत्सव के शुभ अवसर पर जावरा निवासी
भेरूलाल जी व प्यारीबाई के सुपुत्र शांतिलाल को लघु दीक्षा प्रदान कर मुनिश्री देवेन्द्र विजय जी म.के नाम से विख्यात किया।
२३. थराद में वि.सं. २००५ माघ शुक्ला ६ को मुनि विमल विजय जी मुनि सौभाग्य विजयजी, मुनिशांति विजयजी मुनिदेवेन्द्र विजयजी तथा साध्वी श्री प्रसन्नश्रीजी देवेन्द्र श्रीजी, कुसुम श्रीजी कुमुदक्षजी और क्षमाश्री जी को बड़ी दीक्षा प्रदान की।
थराद में ही वि.सं.२००५ माघ शुक्ला६ को आकोली निवासी अब्बाजी की धर्मपत्नी धर्मीबाई को
दीक्षा प्रदान कर साध्वी चंद्रप्रभाश्रीजी के नाम से प्रसिद्ध किया। २५. थराद में ही वि.सं. २००५ माघ शुक्ला ८को मोरसिम जालौर निवासी कैरिंगजी व मनुबाई के सुपुत्र
कानजी को दीक्षा प्रदान कर मुनिश्री रसिक विजयजी म.के नाम से प्रसिद्ध किया। २६. जावरा निवासी भेरूलाल धाड़ीवाल के सुपुत्र कान्तिलाल एवं पेपराल थराद निवासी सरूपचंद
धरु के सुपुत्र पूनमचन्द्र आप के सान्निध्य में विगत आठ वर्षों से रहते हुए धार्मिक अध्ययन कर रहे थे। दोनों युवक दीक्षाव्रत अंगीकार करने के लिए विनती कर चुके थे । अंततः सियाणा वि.सं. २०१० माघ शुक्ला ४ रविवार को दोनों वैरागी युवकों को दीक्षाव्रत प्रदान कर कांतिलाल को मुनिश्री जयप्रभ विजयजी जी.म. तथा पूनमचन्द्र को मुनिश्री जयंत विजयजी म. के नाम से विख्यात किया।
वि.सं. २०११ मगसर वरि १० को आहोट में थराद निवासी माधुलालभाई को दीक्षा देकर
मुनिराज पुण्यविजयजी नाम दिया। वि.सं. २०१२ वैशाख सुदि १२ को अलिराजपुर में भीनमाल निवासी मनोहरमल को दीक्षा देकर
मुनिभूपन वि. जयजी नाम दिया। वि. सं. २०१२ आषाढ़ सुदि ११ को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में अलिराजपुर निवासी अमोलरवचन्द
व कुक्षी निवासी श्री कमला बहिन को दीक्षा देकर मुनि लक्ष्ममाविजयजी श्री साध्वी स्वयंप्रभाश्रीजी नाम दिया।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्य : व्यक्तित्व - कृतित्व कि आचार्य श्रावन श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वर म.सा. द्वारा वि.सं. २०१२ तक प्रदत्त दीक्षाओं का विवरण ऊपर प्रस्तुत किया गया। अनेक भव्य आत्माओं को दीक्षा प्रदान कर आप जीवन निर्माता गुरुदेव के रूप में भी विख्यात हुए। क्योंकि आप के सान्निध्य में रहते हुए इन भव्य आत्माओं ने अपने आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है और इस अमूल्य मानव भव को सार्थक बनाने का प्रयास किया है तथा कर रहे हैं।
ਇਸ ਬਿਓ ਦਾ ਸਰ ਲੂ ਤੋਂ ਉਲੇ ਦ ਬਸighਲਈ ਕੀ ਕੀ ਜਾ ਕੋ ਨ ਲ ਚ ਜਾ ਨਿ ਨ ਨਿਕਲ ਕੇ ਸਿਣ ਲ ਈ
ਜੇਦ, ਬਾਣੀ ਲਿ ਸੰਤ ਸਲੀ ਤੇ ਜੈ ਸਿ ਸਾਸ 2005 ਲੈ ਜਤ , ਬਣ ਜਾਣ ਹੀ ਰਹਿ ਗਏ ਹਨ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ
ਓ ਸਿਤ ਨਾ ਕਰ ਸਕਣਗੇ ਸਭ ਨ ਜੋ ਅ ਸੀਂ ਰਿਸ਼ਤ 3
ਦਾਸ ਜੀ ਦੀ ਚਰਨ ਰਹਿਤ ਇਸ ਹਾ .. ਸਾਲ ਹੀ ਇਸ ਦਸ ਦਿਨ ਨੂੰ ਖੋ ਤਾਜਾ
ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਸੀ ਤੇ ਇਸ ਸ ਇਸ / ਬਲ ਸੀ ਉ ਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਜੀਵ ਨੂੰ ਵੀ
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3 ੧॥
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व आचार्यश्री का यात्रा-साहित्य : एक अनुशीलन नाम
परम पूज्य महत्तरिका गुरुणीजी भावश्रीजी की शिष्या
गच्छशिरोमणि शासनदीपिकाप्रवर्तिनी ममतामयीकाकर
गुरुणिजी मुक्ति श्रीजी....)
इतिहास निर्माण के साधनों में यात्रा-साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हमारे देश भारतवर्ष में सदियों से विदेशी यात्री आते रहे हैं। इन विदेशी यात्रियों ने तत्कालीन भारतवर्ष के विषय में जो कुछ लिखा आज वह भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर है। विदेशी यात्रियों की भांति कुछ भारतीय यात्रियों ने भी अपने यात्रा प्रसंग लिखे हैं। यद्यपि इस प्रकार के यात्रा प्रसंग बहुत कम ही लिखे गए हैं, तथापि ये हमें महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराते हैं। वस्तुस्थिति यह है कि यात्रा प्रसंग पुरातत्त्व की भांति ही इतिहास की प्रामाणिक ठोस सामग्री उपलब्ध कराते हैं। इसका कारण यह है कि यात्री जैसा देखता है, अनुभव करता है, उसके सामने जैसा करता है, वह ठीक वैसा ही अपने यात्रा प्रसंगों के विवरण में लिपिबद्ध करता है। इसमें उसे कल्पना की उड़ान भरने की आवश्यकता नहीं रहती है।
| विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय श्रीमज्जैनाचार्य गुरुदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के सुशिष्यरत्न आचार्य प्रवर श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. एक उद्भट विद्वान थे। वे जैन धर्म दर्शन के ही नहीं, अन्य अनेक विषयों के भी मान्य विद्वान् थे। उन्होंने अनेक विषयों का तलस्पर्शी अध्ययन किया था। उनके द्वारा लिखित विविध विषयक लगभग साठ-पैंसठ पस्तकें हैं। यह सर्वविदित है कि जैन साध पाद-विहारी होते हैं। उन्हें जहाँ भी जाना होता है, तो वे पैदल ही जाते हैं। पदयात्रा में मार्गवर्ती प्रत्येक गाँव/ नगर से सम्पर्क होता है। विवेकसम्पन्न व्यक्ति ऐसे गाँव/ नगरों की ऐतिहासिकता, धार्मिकता अथवा किसी अन्य विशेषता को लिपिबद्ध करना नहीं भूलता है, फिर भले ही वह उसका उपयोग लेखन में कहीं करे अथवा नहीं करे। जो व्यक्ति/संत यात्रा साहित्य के महत्त्व को समझता है। वह उसे लिपिबद्ध कर पुस्तक का स्वरूप भी प्रदान कर देता है। आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थे। इसीलिए उन्होंने यात्रा-साहित्य विषयक निम्नांकित पुस्तकें लिखकर प्रकाशित करवाईं।
१. यतीन्द्र-विहार-दिग्दर्शन भाग १, २, ३, ४। २. मेरी नेमाड़ यात्रा और ३. मेरी गोड़वाड़ यात्रा।
अब हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि आपके द्वारा लिखित यह यात्रा-साहित्य किस प्रकार उपयोगी होकर मार्गदर्शन प्रदान करता है।
१. श्री यतीन्द्र विहार-दिग्दर्शन भाग १ - इस पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है - "आज इतिहास के अतिगहन विषय को परिस्फुट करके दिखलाने वाली, पूर्वकालीन जाहोजलाली को प्रत्यक्ष बताने वाली और आदर्श आत्माओं के कतकार्यों का स्मरण कराके आश्चर्यान्वित करने वाली तीर्थ
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व मालाएँ, ताम्र-पत्रों के लेख, प्रशस्तिलेख और दान-पत्र उपलब्ध हैं, वे अप्रतिबद्ध विहार के वास्तविक रहस्य को ही प्रकट कर रहे हैं।
जिन अश्रुतपूर्व बातों का हमें पता तक नहीं था, वे आज हमें हस्तामलकवत् दिखाई देती हैं और हमारे पूर्वजों को आर्थिक शक्ति, धार्मिक शक्ति और आत्मिक शक्ति का भान कराके आश्चर्यनिमग्न करती हैं। इतना ही नहीं, वे हमारी हार्दिक भावनाओं में उत्तेजना शक्ति प्रगट करके वैसा ही बनने को उत्साहितकरती है।
सीमाकी सोचो कि यह सब प्रभाव किसका है। कहना ही पड़ेगा कि क्षेत्रों का, उपाश्रयों का, श्रावकों का और श्राविकाओं का प्रेम रखने वाले परोपकारी आत्मदर्शी मुनि, सन्यासी, उपाध्याय और आचार्यों के अप्रतिबद्ध विहारों का ही प्रताप है। अगर उन्होंने उपकारदृष्टि को लक्ष्य में रखकर और प्रतिकूल या अनुकूल अनेक उपसों को सहकर प्रतिदेश या प्रतिनगरों में विहार न किया होता, तो हमारे पूर्वजों, हमारे प्रभावक तीर्थों और अद्वितीय ज्ञान-भण्डारों का गहनातिगहन इतिहास आकाशकुसुमवत् ही बन जाता।" छल उपर्युक्त कथ्य में बहुत ही सारपूर्ण बातें कही गई हैं। इस प्रथम भाग में नवम्बर ७ सन् १९२५ के दिन कुक्षी (म.प्र.) से काठियावाड़, गुजरात और मारवाड़ तक हुए लम्बे विहार के दरम्यान आए हुए गाँवों
और गुढ़ा बालोतरा (राजस्थान) से २२ नवम्बर सन् १९२७ के दिन हुए लम्बे विहार के गाँवों की संक्षिप्त नोट इसमें दर्ज की गई है। गाँवों के नाम, उनमें जैनों के घर आदि की जानकारी दी गई है, जिससे विहार -काल में साधु-साध्वियों को सुविधा है। इस प्रकार के गाँवों की सूची में एक गाँव से दूसरे गाँव के मध्य की दूरी भी दे रखी है। इसमें गाँव, नगरों की संक्षिप्त जानकारी और तत्रस्थ स्थित जैन मंदिरों का विवरण दिया गया है। जहाँ शिलालेख, प्रतिमालेख, प्रशस्तिलेख है, उसका उल्लेख करते हुए सम्बन्धित लेख भी दिया गया है। ये लेख इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। जहाँ तक प्रतिमा लेखों का प्रश्न है, प्रक्षालन के कारण अनेक प्रतिमालेख घिस जाते हैं और इस कारण वे अपठनीय हो जाते हैं। इस प्रकार संग्रह में लिपिबद्ध कर लेने से वे अमूल्य हो जाते हैं। अपने विहारदिग्दर्शन के प्रथम भाग में आचार्यश्री ने पालीताणा का विस्तार से वर्णन किया है। उस समय पालीताणा कस्बे में भीतर और बाहर छोटी-बडी बत्तीस जैन धर्मशालाएँ थीं। वर्तमान समय में तो काफी परिवर्तन हो चुका है। पवित्र तीर्थ श्री शत्रुजय का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस विवरण में देशी और विदेशी विद्वानों के तथ्य भी उद्धत किये गये हैं। यह विवरण आज भी उपयोगी है। पुस्तक में तीन परिशिष्ट भी दिये गये हैं। इनमें भी गांवों और जैन तीर्थों की जानकारी है। समग्र रूप से पुस्तक जहां पाद-विहारी जैन साध-साध्वियों के लिये उपयोगी है. व इतिहास के विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी है। गायक FREE
(२) श्री यतीन्द्र विहार - दिग्ददर्शन भाग २ - इस पुस्तक का प्रकाशन सन् १९३१ में हुआ था। इसमें फागुन शुक्ला २ वि.सं. १९८५ से आषाढ़ शुक्ला ६ सं. १९८६ तक तथा मगसर कृष्ण ५, वि.सं. १९८६ से ज्येष्ठ शुक्ला ५ वि.सं. १९८७ की अवधि में हुए विहार का विवरण है। इस भाग में चार परिशिष्ट भी हैं। परिशिष्ट नं. १ में संस्कृत प्रशस्ति लेख का हिंदी अनुवाद है। परिशिष्ट नं. २ में संडेरथगच्छीय Broad గడుసారం 7 7 parainoneindi
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - श्री यशोभद्र सूरिजी का संक्षिप्त जीवनचरित्र है, जो माननीय और चमत्कारपूर्ण है। परिशिष्ट नं. ३ में मारवाड़ देशस्थ गुड़ाबालोतरा से सेठ जीवाजी लखाजी के निकाले हुए जैसलमेर यात्रा संघ का वर्णन है
और परिशिष्ट नं. ४ में आचार्यश्री के वर्षावास काल में विभिन्न गांवों में भावुकों की ओर से आए हुए विज्ञप्ति-पत्र हैं।
प्रथम भाग की भाँति इस भाग में भी गाँव तथा नगरों का विवरण, जैनमतावलम्बियों की संख्या जैन मंदिरों तथा उपाश्रयों की जानकारी दी गई है। मार्गवर्ती जैन तीर्थों का इतिहास भी दिया गया है। मूर्तिलेख, शिलालेख, प्रशस्तिलेख भी दिए गए हैं। जो इतिहास निर्माण के लिए काफी उपयोगी और महत्त्वपूर्ण हैं। पृष्ठ १२६ पर मंत्री सायर का वंशवृक्ष भी दे रखा है। मंत्री सायर ने आदिनाथ प्रतिमा का दो बार उद्दार करवाया था। इसमें ऐसी ही और भी महत्त्वपूर्ण सामग्री संग्रहीत है। वर्तमान युग में भी यह प्रासंगिक है।
(३) श्री यतीन्द्र विहार-दिग्दर्शन भाग ३ - इसका प्रकाशन सन् १९३५ में हुआ। अपने प्राथमिक वक्तव्य में आप ने लिखा - 'भूमंडल का अवलोकन करने से प्रचुर (बहुत) लक्ष्मी मिलती है, विद्वानों के साथ परिचय होता है। नई-नई सुन्दर विद्याएँ प्राप्त होती हैं। नाना प्रकार की भाषा, वेश और लिपियों का ज्ञान होता है। कुन्द पुष्प के समान उज्ज्वल यश मिलता है, मन की दृढ़ता होती है और सत्पुरुषों का सम्मान करने से निजगुणों पर विश्वास जमता है। संसार में ऐसा कौन-सा गुण है, जो देशाटन से विकास प्राप्त न हो।' आपने आगे भी इस सम्बन्ध में लिखा है और पादविहार करने के लाभ बताए हैं। प्रस्तुत तीसरे भाग के सम्बन्ध में आप ने लिखा है - 'प्रस्तुत श्री यतीन्द्र विहार दिग्दर्शन का यह तृतीय भाग भी अप्रतिबद्ध लम्बी मुसाफिरी (पादविहार) का द्योतक जानना चाहिए। इसमें हमारे विशाल विहार क्षेत्र में आए हुए रास्ते के गाँव, उनमें श्वेताम्बर जैन गृहों की संख्या, जिनालय, धर्मशाला, उपाश्रय और उनके प्रशस्तिलेख आदि प्राचीन अर्वाचीन ऐतिहासिक और भौगोलिक सामग्री आलेखित है, जो इतिहास - लेखकों के लिए उपयोगी और पाद-विहार करने वाले जैन साधु साध्वियों के लिए मार्गदर्शक है। इसके परिशिष्ट में संस्कृतमय प्रशस्ति लेखों का हिन्दी अनुवाद भी दर्ज है, जिससे प्रशस्ति लेखों का भाव नि:संदेह समझ में आ सकता है।'
इस तृतीय भाग में पालीताणा से भद्रेश्वर तीर्थ के लिए लघु संघ के प्रस्थान से विवरण दिया गया है। मार्गवर्ती गाँवों का इतिहास देते हुए वहाँ का विवरण है, साथ ही वहाँ उज्ज्वल विभिन्न लेख भी दिए गए हैं। वरमाण गाँव के लेख देखने से ज्ञात होता है कि ये लेख सं. १०१६, १२४२, १३१५, १३४२, १३५१, १३५६ के हैं। लेख जैन इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। दाँतीवाड़ा में सं. १२२६ का लेख है। इस लेख से ज्ञात होता है कि मूलनायक की अंजन शलाका सं. १२२६ में तपागच्छ-नायक श्री विजय सोम सूरिजी के हाथ से राउल गजसिंह समय में हुई है।
आगे पालनपुर के सम्बन्ध में भी विस्तार से लिखा है। इसी प्रकार सिद्धपुर, महेसाणा, जैन तीर्थ भोयणी, लींबड़ी आदि के सम्बन्ध में भी लिखा है। पालीताणा तीर्थ का विवरण काफी विस्तार एवं
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - ऐतिहासिक दृष्टि से दिया गया है, जो आज के लेखकों के लिए सन्दर्भ का काम दे सकता है। इस यात्रा के अंत में सियाणा से पालीताणा तक मार्ग में आने वाले गांवों और उनके मध्य की दूरी जैन घर, देरासर, उपाश्रय, धर्मशाला आदि के साथ उनके मकाम की तिथियाँ भी दी गई हैं।
इसके आगे श्री कच्छ भद्रेश्वर यात्रा लघु संघ का विवरण है। प्रारम्भ में तीर्थ यात्रा का फल बताया गया है। निर्धारित मुहूर्त के अनुसार सिद्ध क्षेत्र पालीताणा से संघ का प्रयाण हुआ। मार्गवर्ती अपने विभिन्न लक्ष्यों तक पहुंचा। साथ में मार्गवर्ती गाँवों की सूची दी गई है, जिसमें उपर्युक्तानुसार समस्त जानकारी दी गई है। ___ इस भाग में सहसावन (गिरनार) का इतिहास विस्तार से दिया गया है। जूनागढ़ गोंडल, राजकोट, मोरवी, अंजार, भद्रेश्वर (वसई) का विवरण भी काफी दिया गया है। आगे कुछ और भी ग्राम, नगरों का विवरण है, जो उपयोगी है। अंत में परिशिष्ट है। परिशिष्टों के साथ स्तवना आदि दिए गए हैं। इनसे पुस्तक की उपयोगिता और अधिक बढ़ गई है। प्रस्तुत भाग भी वर्तमान समय में उपयोगी है।
(४) श्री यतीन्द्र विहार-दिग्दर्शन भाग ४ - इस भाग का प्रकाशन सन् १९३७ में हुआ। इस भाग के हार्दिक संदेश में आचार्यश्री ने लिखा है - 'इसका संकलन ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टि से हुआ है। इसलिए इससे इतिहासज्ञों को इतिहास की सामग्री मिलेगी और पैदल भ्रमण करने वालों को प्रति ग्राम नगरों का रास्ता मिलेगा।'
'प्रस्तुत ग्रंथ का यह चौथा भाग है, जिसमें पालीताणा से अहमदाबाद, अहमदाबाद से सेरीसा, पानसर, मणासा, बीजापुर, ईडर, पोशीना, केशरियाजी और केशरियाजी से नागफणी, दूंगरपुर, आशापुर, बड़ौदा, बांसवाड़ा, बाजना, खवासा, राजगढ़, रतलाम, खाचरौद, खाचरौद से बड़नगर, कड़ौद, राजगढ़, अमीझरा, धार, मण्डपाचल मनावर, तालनपुर, लखमणी, आलीराजपर. घोडा जोबट, बागट गुफा और कुक्षी तक के गाँवों तथा जैन तीर्थों का प्राचीन-अर्वाचीन इतिहास अलेखित है। इसमें दो परिशिष्ट भी संयोजित हैं । प्रथम परिशिष्ट में विहार के दरम्यान आए हुए छोटे-बड़े गाँवों के क्रमवार नाम, एक गाँव से दूसरे गाँव का अन्तर (कोश), उनमें जैनों की गृहसंख्या धर्मशालोपाश्रय, जिनालयसंख्या
और स्थिरवार के दिन का जनक कोष्ठक दर्ज है। द्वितीय परिशिष्ट में इस भाग में आए हुए जिनालय, जिन -प्रतिमा, धर्मशाला और उपाश्रय के संस्कृत, गद्य-पद्यमय प्रशस्ति तथा शिलालेखों का सरल हिन्दी अनुवाद गुम्फित है। इस कथ्य में चतुर्थ भाग का सार आ गया है। इससे इस भाग के महत्त्व का प्रतिपादन होता है। गाँव-नगरों का जो विवरण दिया गया है। वह उनके महत्त्व को प्रदर्शित करता है। गाँवनगरों के इतिहास को आप ने ऐतिहासिक ढंग से ही लिपिबद्ध किया है। ऐतिहासिक वर्णन के साथ ही साथ आप ने गाँव-नगर के भौगोलिक परिवेश का वर्णन कर अपने इस विहार-दिग्दर्शन साहित्य का महत्त्व और अधिक बढ़ा लिया है।
अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आप ने परिशिष्ट में संस्कृत प्रशस्तिलेख, शिलालेख आदि का हिन्दी अनुवाद देकर उन पाठकों, विद्वानों पर उपकार ही किया है, जो संस्कृत भाषा नहीं जानते या समझते हैं।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - कि हिन्दी अनुवाद के माध्यम से इन लेखों की ऐतिहासिक सामग्री का सहज ही समुचित उपयोग हो सकता है। एक गाँव से दूसरे गाँव तक की दूरी को अंकित कर पाद-विहारी साधु-साध्वियों के लिए सुविधा उपलब्ध कर दी है। यद्यपि अब मार्ग काफी सुगम हो गए हैं, तथापि दूरी तो वही है। हाँ, यह हो सकता है कि इन ग्रामनगरों के मध्य कुछ गाँव और बस गए हों। ठहरने आदि की सुविधाओं में विस्तार ही हुआ होगा।
इस प्रकार यह सहज ही कहा जा सकता है कि आप द्वारा रचित श्री यतीन्द्र विहार दिग्दर्शन भाग १. २,३,४ आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उस समय थे। दूसरी बात इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण यह है कि गाँवों और कस्बों का इतिहास इन पुस्तकों के माध्यम से सहज ही तैयार किया जा सकता है।
की तीसरी बात जैन धर्मावलम्बियों की दृष्टि से यह है कि उस समय की अपनी स्थिति से वर्तमान स्थिति की तुलना कर देखें कि कितनी उन्नति अथवा अवनति हुई है। निश्चय ही आचार्यश्री ने इन पुस्तकों की रचना कर बहुत बड़ा उपकार किया है।
(५) मेरी नेमाड़ यात्रा- यह पुस्तक भी विहार-दिग्दर्शन ही है। यदि इसे भी विहार दिग्दर्शन भाग के रूप में प्रकाशित कर दिया जाता तो भी कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि एक ही क्षेत्र से सम्बन्धित होने से आचार्य भगवन् ने इसे स्वतंत्र पुस्तक का स्वरूप प्रदान करना उचित समझा। कुछ भी हो, मेरी नेमाड़ यात्रा काफी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत करने वाला दस्तावेज है।
इस पुस्तक के प्राथमिक वक्तव्य में आचार्यश्री ने लिखा है - 'इस प्रांत में दो-तीन मर्तबा हमको भी विहार करने का अवसर मिला। उसके दरम्यान हमने यहाँ के प्राचीन जिनालय, उनके खण्डहर, उनके ध्वंसावशेष खंडित मूर्तियाँ, उनके अवयव, नदियाँ, तालाब, शिक्षा, व्यवसाय, भाषा, सभ्यता और लोकस्थिति आदि का निरीक्षण किया।
बस, प्रस्तुत 'मेरी नेमाड़ यात्रा' पुस्तक में उन्हीं बातों का दिग्दर्शन मात्र वृत्तांत लिखा गया है, जिसको उक्त उद्देश्य की अभिवृद्धि स्वरूप समझना चाहिए।
इस पुस्तक के प्रारम्भ में आचार्यश्री ने नेमाड़ का भौगोलिक वर्णन प्रस्तुत किया है। सर्वप्रथम आप ने नेमाड़ और उसके विभाग बताए हैं, फिर इस प्रदेश के नाम पर विचार किया गया है। इसमें आप ने माहिष्मती के संक्षिप्त इतिहास पर भी प्रकाश डाला है। तदुपरांत आप ने बताया कि नीमाड़/नेमाड़ के मुख्य दो विभाग हैं- एक मध्य प्रांत (अंग्रेजी राज्य. का नीमाड़) और दूसरा मध्य भारत (देशी रियासतों का नीमाड)। फिर दोनों के विस्तार क्षेत्रफल को बताया गया है। इसके पश्चात विंध्याचल और सतपडा पर्वतों का विवरण है। इस विवरण में इन पर्वतों का विस्तार और उनकी प्रमुख चोटियों की ऊँचाई भी दी गई है। पर्वतों के विवरण के पश्चात् नीमाड़ क्षेत्र में बहने वाली प्रमुख नदियों का वर्णन किया गया है। इन नदियों के परिक्षेत्र का सूक्ष्म वर्णन किया गया है। नदियों के वर्णन के पश्चात्, नीमाड़ की गर्मी व वर्षा का विवरण है, फिर आवागमन के साधन, जनसंख्या और शिक्षा, व्यवसाय और अंधविश्वास, भाषा और सभ्यता का विवरण दिया गया है।
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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व कृतित्व
यहाँ आप ने नेमाड़ी और हिन्दी भाषा के अंतर को स्पष्ट किया है तथा हिन्दी के अक्षर-शब्दों का माड़ी रूपांतर भी दिया है। साथ ही सर्वनाम, वर्तमान क्रिया आदि का भी विवरण दिया है। ने भौगोलिक वर्णन और भाषा-विषयक विवरण देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्यश्री किसी भूगोल वेत्ता और भाषाविद् से कम नहीं थे। आप का भूगोलज्ञान और भाषाज्ञान अद्वितीय था ।
इतना वर्णन करने के पश्चात् आप ने नेमाड़ के कतिपय प्राचीन कस्बों का वर्णन किया है। ऐसे कस्बों में बड़वानी, बुरहानपुर, खरगोन, सिघाणा, कुक्षी, बाग, चिकलीढोला आदि का ऐतिहासिक वर्णन करते हुए तत्रस्थ जिनालयों का भी उल्लेख किया गया है।
नेमाड़ के एक परगना का विवरण देते हुए आप ने बताया कि पहले यह नेमाड़ में ही सम्मिलित था। बाद में नेमाड़ से दूसरी गणना अलग होने लगी। इसमें आलीराजपुर और जोबट ये दो रियासतें हैं। तदुपरांत आप ने नीमाड़ में श्वेताम्बर तीर्थ के अन्तर्गत श्री लक्ष्मणी, तालनपुर, मांडवगढ़ का विवरण दिया है। इनमें मांडवगढ़ तीर्थ का वर्णन आपने अति विस्तार से किया है। तदुपरांत आप ने अपनी निष्पक्ष दृष्टि का परिचय देते हुए नीमाड़ में दिगम्बर सिद्ध क्षेत्रों का उल्लेख किया है। इनमें चूलगिरि (बावनगजा), सिद्धवर कूट और पावागिरि है। आप ने इनका स्थिति और कला की दृष्टि से महत्त्व भी प्रतिपादित किया है।
सारपूर्ण भाषा में कहें तो यह पुस्तक नेमाड़ के भौगोलिक वर्णन के साथ जैन तीर्थो और प्रमुख कस्बों का इतिहास उचित रीत्यनुसार प्रस्तुत करती है। वर्तमान सन्दर्भ में भी यह पुस्तक महत्त्वपूर्ण है। आज भी यह पाठकों तथा शोधकर्ताओं का मार्गदर्शन करने में सक्षम है। आकार-प्रकार में लघु होने के बावजूद सामग्री की दृष्टि से किसी विशाल ग्रंथ से कम नहीं है। ऐसी महत्त्वपूर्ण पुस्तक का प्रणयन कर आचार्यश्री ने पाठकवर्ग और शोधकर्ताओं पर उपकार ही किया है।
(६) मेरी गोड़वाड़ यात्रा - यह पुस्तक मेरी नेमाड़ यात्रा की भाँति ही है। इसका प्रकाशन सन् १९४४ में हुआ था। इसके प्रारम्भ में 'इतिहास में जैन तीर्थों का स्थान' शीर्षकान्तर्गत शिल्पकला और मूर्तिकला पर संक्षेप में विचार प्रस्तुत किए गये हैं। तत्पश्चात् आप ने जैनों की तीर्थ स्थापत्य कला का उत्कर्ष शीर्षकान्तर्गत लिखा है "वैसे तो धर्म-तीर्थों की स्थापना संसार में सर्वत्र मिलती है। यूरोप, अमरीका, जापान आदि देशों में भी धर्म-स्थान विशेष सुन्दर, भव्य, दीर्घकाय और कला के सजीव नमूने बने खड़े हैं, परन्तु भारत के तीर्थ स्थानों को बनाने में एक दूसरा ही ध्येय प्रधान रहा है, जो अन्यत्र संसार में कहीं गौण रूप में और कहीं नहीं भी रहा है।
हमारे यहाँ तीर्थों की स्थापना से तीर्थंकरों, महापुरुषों तथा अवतारों के स्मारक बनाए रखने के साथ-साथ उससे एक और कार्य लिए जाने का ध्येय विशेष रहा है, जो अन्य देशों के धर्मस्थानों में देश कालस्थिति के प्रभाव से थोड़ी बहुत अंशों में ही स्पर्श कर सका है। वह ध्येय है वैभव, सामाजिक स्थिति, सभ्यता, गौरव, उत्थान, उच्चता और इष्ट के प्रति अपार श्रद्धाभक्ति इन धर्म स्थानों के शरीरों के प्रति रोमरोम से उद्भाषित हो। सर्वप्रधान ध्येय यह था कि ये धर्म स्थान शिल्पकला के भी अनन्यतम उदाहरण एवं
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व आदर्श हों। जितना द्रव्य भारतवर्ष ने अपने इन तीर्थ स्थानों में व्यय किया है, उसका सहस्राश भी किसी देश ने व्यय नहीं किया। माम मुहम्मद गजनवी के आक्रमणों का मुख्य ध्येय इन स्थानों से द्रव्य अपहरण कर गजनी को सम्पन्न एवं समृद्ध बनाने का था। अन्य आक्रमणकारियों का भी यह ध्येय प्रधान या गौणरूप से सदा रहा है।'
जैन धर्मस्थानों/ तीर्थस्थानों के सम्बन्ध में आप ने लिखा है - “जैन समाज ने अपेक्षाकृत धर्म स्थानों को विशेष महत्त्व दिया है। कला और समृद्धि दोनों दृष्टियों से स्मृति रूप से आज भी सहस्रों श्रीसंघ प्रतिवर्ष इन तीर्थों की यात्रा निकालते रहते हैं और इन तीर्थों में अपार धनराशि एकत्रित होती रहती है, जो तीर्थ-मंदिरों के जीर्णोद्धार में व्यय होती रहती है। ...... जैन तीर्थों में शिल्पकला उत्तरोत्तर निखरती रही है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव है जैन धर्मका विस्तार और स्थायित्व। ऐसे दीक्षा
उपर्युक्त उद्धरण में आपश्री ने भारतीय एवं पौर्वात्य तीर्थों एवं कला के अन्तर को स्पष्ट किया है। आगे आप ने यात्रा की आवश्यकता और पारमार्थिक लाभ को स्पष्ट करते हुए श्री संघों के निष्क्रमण और लक्ष्मी के सदुपयोग पर प्रकाश डाला है। इसके साथ ही आप ने प्राचीनकाल में संघ निष्क्रमण की परम्परा का उल्लेख कर यह प्रमाणित किया है कि संघ यात्रा निकालना कोई नई परम्परा नहीं है।
'जैन धर्म की दृष्टि से मरुस्थल का महत्त्व' इस शीर्षक के अन्तर्गत आप ने इस क्षेत्र में जैन धर्म के विकास को बताया है। इसके साथ ही आप ने गोड़वाड़ (राजस्थान का एक क्षेत्र) के सम्बन्ध में लिखा है कि गोड़वाड़ प्रांत इस समय दो भागों में विभक्त है। एक देसुरी परगना और दूसरा बाली परगना। इतना लिखने के उपरांत आप ने इस क्षेत्र में समय-समय पर रहे विभिन्न वंशों के शासन का उल्लेख किया है। आप ने देसुरी और बाली के इतिहास के साथ ही कुछ भौगोलिक परिवेश का भी वर्णन किया है। इसके उपरांत आप ने गोड़वाड़ प्रांत के जैन आबादी वाले गाँवों की सारणी प्रस्तुत कर वहाँ के मूलनायकजी, धर्मशाला, उपाश्रय पोरवाल का, ओसवाल घर आदि जानकारी उपलब्ध कराई है। प्रस्तुत पुस्तक में श्री वरकाणा तीर्थ, श्री नाडोल तीर्थ, श्री नाडलोई तीर्थ, श्री सुमेर (सोमेश्वर) तीर्थ, श्री महावीर मुछाला तीर्थ, श्री राणकपुर तीर्थ के इतिहास आदि का विस्तृत वर्णन किया है। ___इन तीर्थों का इतिहास वर्तमान सन्दर्भ में भी उपयोगी है। यह इतिहास जैन तीर्थों और जैन कला पर शोध करने वाले शोधार्थियों के लिए मार्गदर्शक का काम करने वाला है। पुस्तक के अंत में अपने गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का जीवन चरित्र तथा कुछ महत्वपूर्ण पावन प्रेरक प्रसंग भी दिए गये हैं। इसका प्रमुख कारण यह रहा कि पौष शुक्ला ५,६,७के दिन पंचतीर्थी यात्रा की वापसी पर संघ का मुकाम खुड़ाला रहा। चूँकि पौष शुक्ल सप्तमी गुरुदेव की परम पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ भट्टारक जैनाचार्य श्री मद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी की जन्मतिथि तथा पुण्यतिथि दोनों ही है और गुरु सप्तमी के रूप में आजकल न केवल सम्पूर्ण भारत में, वरन् विश्व में भी समारोहपूर्वक मनाई जाती है।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व की इस कारण प्रसंगानुसार गुरुदेव का जीवनचरित्र इसमें समाहित कर दिया गया प्रतीत होता है, जो स्वाभाविक ही है। ऐसा करने से पुस्तक का और भी महत्त्व बढ़ गया।
- इस प्रकार यदि हम आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. द्वारा रचित यात्रा साहित्य पर विचार करते हैं, तो पाते हैं कि यह यात्रा साहित्य इतिहास के साथ ही साथ भूगोल और कला विषयों पर भी प्रकाश डालता है। यह यात्रा साहित्य जहाँ पाद-विहारी जैन साधु-साध्वियों के लिए उपयोगी है, वहीं इस क्षेत्र के शोधार्थियों के लिए भी मार्गदर्शन प्रदान करने वाला है। आज के इस युग में भी यह साहित्य काफी उपोयगी है। इसकी आवश्यकता की अनुभूति आज भी होती रहती है। ऐसा साहित्य रचकर आचार्यश्री ने समाज पर उपकार ही किया है।
सवायरताला संदर्भात मात्र शानिवार शाम १. श्री यतीन्द्र विहार दिग्दर्शन - भाग ४, पृष्ठ १४-१५ हार्दिक सन्देश । २. मेरी नेमाड़ यात्रा, पृ.४-५
हालांकि ३. मेरी गोड़वाड़ यात्रा, पृ. ११-१२-
कामना ४. वही, पृ. १२
समाजमा विकास गांजगारनामा
काकीपणा
सामाणिक
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व -
संयम-पथ पर बढ़ते कदम माजी गुरुणीजी वात्सल्यमूर्ति श्री हेतश्रीजी की शिष्या
समय साध्वी श्री जयंत श्रीजी....
दीक्षा आध्यात्मिक जीवनोत्थान का प्रथम सोपान है। इसकी सार्थकता इसी में है कि यह साधना के पथ को ज्योतिर्मय कर दे। दीक्षा-दीप प्रज्ज्वलित होकर इस महती भूमिका निर्वाह में सक्षम तभी हो सकता है, जब उसमें वैराग्य की वर्तिका और विवेक का तेज होगा। दीक्षा-दीप अपनी इस सार्थकता के अभाव में उपेक्षणीय और कांतिहीन लघु मृत्तिका पात्र के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म.सा ने दीक्षा का यही सार्थक स्वरूप अति प्रारंभ से स्वीकार किया था। ऐसे दीक्षाव्रत को अंगीकार करने के लिए उनका मन उद्विग्न रहा करता था और इसकी पात्रता-अर्जन हेतु ज्ञान-साधन में तल्लीन रहा करते थे। दीक्षाव्रत अंगीकार करने के पश्चात साध्वाचार के अनुरूप अपना-आचरण बनाये रखने के लिए आप सदैव सचेत रहते थे। इसका कारण यह था कि संयम-पालन में आपको शिथिलता पसंद नहीं थी, दूसरे आपके गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. तपस्वी और शुद्ध साध्वाचारी थे। ऐसे महान् एवं सच्चे साधु के सान्निध्य में रहना तभी सम्भव है, जब निष्ठापूर्वक संयम-पालन की भावना हो। मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. ने दस वर्षावास अपने जीवननिर्माता गुरुदेव के सान्निध्य में सम्पन्न किये। इस अवधि में गुरुदेव के द्वारा दीक्षाएँ भी दी गयीं। प्रतिष्ठायें भी सम्पन्न करवायी गयीं। तपों के उद्यापन कराये, शास्त्र भण्डारों की स्थापना करायी। प्राचीन एवं प्रसिद्ध जिनालयों का जीर्णोद्वार कराया । संघों में एकता स्थापित कर विघटन होने से बचाया। अनेक सुप्रसिद्ध तीर्थ-स्थलों की यात्राएँ की। विहारकाल में विभिन्न ग्राम-नगरों में विचरण किया। मार्गों में आनेवाली कठिनाइयों को न केवल देखा वरन् स्वयं भोगा भी। इन सबको मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. ने अति निकट से देखा और उन क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त किया। गुरुदेव के सर्वतो-मुखी अनुभव एवं ज्ञान का लाभ भी मिला। कब किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार किया जाता है। यह प्रत्यक्ष सीखने को मिला। एक योग्य, तेजस्वी तथा ओजस्वी गुरुदेव के परम पावन सान्निध्य में रहते हुए आपने व्यावहारिक एवं सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त किया।
दस वर्षावास की संक्षिप्त झलक कुछ इस प्रकार है- वि.सं. १९५४ के रतलाम-वर्षावास में आपने संस्कृत-व्याकरण का अध्ययन किया। साधुक्रिया के सूत्रों का अध्ययन किया। सं. १९५५ के आहोर वर्षावास के पश्चात् आहोर में ही बड़ी दीक्षा का कार्यक्रम प्रतिष्ठांजन-शलाका का उत्सव पहली बार देखा
और क्रियाओं में अपने गुरुदेव के साथ रहकर व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। वि.सं. १९५६ के शिवगंज वर्षावास में गुरुदेव ने ३५ बोल की समाचारी निर्मित की। यह समाचारी साध्वाचार में शिथिलता बचाने के लिए थी। वर्षावास के पश्चात् गौड़वाड़ के प्रसिद्ध नगर बाली में गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.
और पू. हेत विजयजी तूर्यक में हुए शास्त्रार्थ को प्रत्यक्ष देखा। गुरुदेव के पांडित्य और शास्त्रार्थ-शैली का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। वि.सं. १९५७ का वर्षावास सियाणा में था। यहाँ गुर्जर सम्राट् कुमार पाल
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - द्वारा निर्मित विशाल जिनालय है। उस मंदिर का जीर्णोद्धार करने का गुरुदेव ने उपदेश दिया। वि.सं. १९५८ में आहोर वर्षाकाल के पश्चात् उपधान तप का विशाल आयोजन किया गया था। इसमें आप को गुरुदेव ने विशेष क्रियादक्षता के संचालन की आज्ञा फरमाई थी वि.सं. १९५९ में वर्षावास जालोर था। गुरुदेव ने यहाँ के तीर्थ की प्रतिष्ठांजन शलाका करवायी। यहाँ कुछ परिवारों में आपस में वैमनस्य था। गुरुदेव ने उनका वैमनस्य दूर कर एकता स्थापित की। मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. ने काफी आगम-साहित्य व संस्कृत-प्राकृत का ज्ञान प्राप्त किया। गुरुदेव द्वारा शास्त्र भण्डारों की सुरक्षा के लिए आहोर में ज्ञान - भंडार भी स्थापित करवाया। श्री यतीन्द्र विजयजी म. ज्ञान पिपासु तो प्रारंभ से ही थे। ज्ञान भंडार का निर्माण करवाने से आपको शास्त्रों को सुरक्षित रखने की विधि का ज्ञान मिला।
वि.सं. १९५९ में वर्षावास सूरत में व्यतीत किया। आपने सूरत में गुरुदेव के प्रभाव को प्रत्यक्ष देखा। जो विद्वेषी तथा विरोधी थे वे गुरुदेव के प्रखर पांडित्य और सच्चे साधुत्व को देखकर उनके सम्मुख नतमस्तक हो गये। वि.सं. १९६१ का वर्षाकाल कुक्षी में सम्पन्न किया। इस वर्षावास में गुरुदेव के उपदेश एवं प्रभाव को प्रत्यक्ष देखा। गुरुदेव के प्रभाव से झाबुआ नरेश उदयसिंह ने अनेक देवस्थानों पर होने वाले पशुवध को रोकने के आदेश दिये। तदनन्तर गुरुदेव की आज्ञा से मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म.स. ने बोरीग्राम और गुणदी में जाकर सन् १९६१ में स्वतंत्र रूप से प्रतिष्ठाएँ करवायीं।
वि.सं. १९६२ का वर्षावास गुरुदेव के साथ खाचरौद में व्यतीत किया। इस वर्षावास में गुरुदेव ने चिरोला-वासियों को ढाई सौ वर्षों के पश्चात् पुनः समाज में प्रवेश दिलवाया। मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. भी सम्पूर्ण कार्रवाई के समय अपने गुरुदेव के साथ रहे। सब कुछ प्रत्यक्ष देखा, सुना और सम्पन्न करवाने की शैली का ज्ञान प्राप्त किया। इस अवधि में आपको यह जानकारी भी मिली कि अच्छे -अच्छे आचार्य एवं प्रभावक मुनिराज एवं श्रावक भी परिश्रम कर चुके थे, किन्तु उनके प्रयास निरर्थक ही रहे। अपने गुरुदेव के तेजस्वी व्यक्तित्व और ओजस्वी व्याख्यान के कारण यह असम्भव कार्य आपने अपनी आँखों से सम्भव होते देखा।
वि.सं. १९६३ का वर्षाकाल बड़नगर में व्यतीत किया। इस समय तक गुरुदेव द्वारा रचित अभिधानराजेन्द्र कोष का कार्य पूर्ण हो चुका था। इस कोष के निर्माण में आपने गुरुदेव के कठोर परिश्रम को देखा था। कोष पूरा हो तो गया, किन्तु गुरुदेव कुछ अस्वस्थ रहने लगे उनके हृदय में अंदर ही अंदर एक पीड़ा और भी थी। उसे मुनिराज श्री दीप विजय जी म. और आपने पहचाना और कोष के सम्पादन
और प्रकाशन का उत्तरदायित्व स्वीकार किया। दोनों मुनिराजों के ऐसा करने से गुरुदेव को संतोष हुआ। गुरुदेव अस्वस्थ रहने लगे थे। गुरुदेव अपने शिष्यों के साथ राजगढ़ (धार) पधारे और यहीं पौष शुक्ला ६ को आपका देवलोक-गमन हो गया। अपने जीवन-निर्माता गुरुदेव के स्वर्गगमन से आपको गहरा
आघात तो लगा किन्तु आपने वास्तविकता को स्वीकार कर लिया। कि गुरुदेव के जीवन-काल में ही आपने तीन स्तुति की प्राचीनता नामक एक पुस्तक की रचना की थी। इस पुस्तक का अध्ययन करने से आपका पांडित्य प्रकट होता है। गुरुदेव की आज्ञा से आपने बोरी
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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
ग्राम (झाबुआ स्टेट) और गुणदी (जावरा स्टेट) में स्वतंत्र रूप से प्रतिष्ठा कार्य सानन्द निर्विघ्न सम्पन्न करवाया था । तत्पश्चात् यह पुस्तक। इनसे आपकी योग्यता, प्रतिभा एवं दक्षता प्रकट हुई जिससे गुरुदेव काफी संतुष्ट थे। आपका विकास देखकर गुरुदेव प्रसन्न थे।
अभिधानराजेन्द्रकोष विश्वविख्यात एवं कालजयी ग्रन्थरत्न है। गुरुदेव ने जितने कठोर परिश्रम से इसे लिखकर तैयार किया था, उससे भी कहीं अधिक परिश्रम, लगन और निष्ठा के साथ इसका संशोधन, सम्पादन कर आपने अपने गुरुभ्राता मुनिराज श्रीदीप विजयजी म. के सहयोग से उसका प्रकाशन करवाया। इस कार्य में आपको लगभग दस वर्ष का समय लगा और लगभग उतना ही समय इसकी बाइंडिंग में लगा। सं. १९८१ में यह ग्रंथरत्न पूर्ण रूप से तैयार हो गया। इसमें आपकी सम्पादन-कला स्पष्ट झलकती है। इस अवधि में आपने भी कुछ और पुस्तकों की रचना की। साथ ही दीक्षाएँ भी प्रदान कीं और उपधान भी सम्पन्न करवाये। इतना सब होते हुए भी आपके साध्वाचार में कोई शिथिलता नहीं आने पाई। इसके साथ ही आपका धर्मिक ग्रंथों का अध्ययन और लेखन भी नियमित रूप से चलता रहता था। प्रमाद को आपके जीवन में अवकाश नहीं था।
वि.सं. १९९७ में आपका वर्षावास आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में बागरा में था, कारण था आचार्यश्री की अस्वस्थता। आपने आचार्य श्री की समर्पित भाव से सेवा सुश्रूषा की। किन्तु कहा गया है कि टूटी की बूटी नहीं है। कुशल वैद्यों और विख्यात डाक्टरों द्वारा चिकित्सा होने पर भी आचार्यश्री को बचाया नहीं जा सका और उनका वि.सं. १९७७ भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा को देवलोक गमन हो गया। उधर, कुक्षी में पौष शुक्ला चतुर्थी को उपाध्याय श्री मोहन विजयजी म. का स्वर्गवास हो गया। थोड़े से अन्तराल से आचार्य देव एवं उपाध्याय श्री के स्वर्गवास से आपको गहरा आघात लगा । इसे भी आपने सहन किया।
निम्बाहेड़ा वर्षावास वि.सं. १९७९ में आपकी प्रेरणा से काफी महत्त्वपूर्ण कार्य हुए। कुछ विवरण इस प्रकार है
१. श्री यतीन्द्र जैन युवक मण्डल की स्थापना । इस मण्डल का मुख्य उद्देश्य था जैन समाज का संगठन करना और समाज में प्रचलित कुरीतियों और घातक रूढ़ियों का अंत करना ।
२. श्री राजेन्द्र संगीत मण्डली की स्थापना। इसका उद्देश्य था जैन युवकों को पूजा-पूर्ति संगीत की शिक्षा प्रदान करना।
३. श्री यतीन्द्र जैन पाठशाला की स्थापना ।
४. श्री यतीन्द्र सार्वजनिक पुस्तकालय और श्री राजेन्द्र ग्रन्थमाला की स्थापना ।
वि.सं. १९८०, वैशाख शुक्ला प्रतिपदा, द्वितीया एवं तृतीया को आपके सान्निध्य में मालवदेशीय राजेन्द्र महासभा का अधिवेशन सम्पन्न हुआ। यह अधिवेशन रतलाम में सम्पन्न हुआ था और इसमें निम्नांकित प्रस्ताव सर्वानुमति से पारित हुए थे।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - मुनिश्री दीप विजयजी म. को आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरिजी म.के पट्ट पर वि.सं. १९८० में ज्येष्ठ शुक्ला ८ को प्रतिष्ठित करना और मुनिश्री यतीन्द्र विजयजी म. को उपाध्याय पद से अलंकृत करना।
२. आचार्य पदोत्सव का समस्त विधि-विधान मनि श्री यतीन्द्र विजय जी.म. के कर कमलों से सम्पानित करवाना तथा संप्रदाय के समस्त साधु-साध्वियों को उपर्युक्त अवसर पर निमंत्रित कर बुलाना
और संघ में एकता एवं सौहार्द्र बने एवं बढ़ता रहे- इस दृष्टि एवं उद्देश्य से नियम बनाना और उन्हें कार्यान्वित करना।
३. आचार्य पदोत्सव श्री संघ जावरा की ओर से होगा। सम्प्रदाय के निकट-दूर के ग्राम-नगरों के श्री संघों को आमंत्रण-पत्र भेजकर साग्रह निमंत्रित करना।
इस निर्णयानुसार जावरा में आचार्य पदोत्सव धूमधाम से सम्पन्न हुआ। अब आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीजी म. सम्प्रदाय के आचार्य हो गये और उपाध्याय पद से अलंकृत किया गया मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. को । यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा कि जब आपको उपाध्याय पद प्रदान किया जाने लगा तब आपने विस्तृत प्रवचन फरमाया। इस प्रवचन में आपने उपाध्याय पद की योग्यता
और महिमा-गरिमा का वर्णन किया तथा यह कहते हुए पद स्वीकार करने से इन्कार कर दिया कि अभी उनमें इस पद के अनुरूप योग्यता नहीं है। ऐसा करके आपने अपनी निस्पृहता का ही परिचय दिया। तत्पश्चात् सर्वानुमति-जावरा के अग्रगण्य श्रावक श्री टेकचंद जी ने उपस्थित धर्मप्रेमी श्रावकों को सम्बोधित करते हुए प्रस्तावित एवं सम्मानित वक्तव्य का वाचन किया। सबकी सम्मति से मुनि श्री दीप विजयजी को सूरि पद और मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी को उपाध्याय पद प्रदान किया गया। इस घोषणा के साथ जय-जयकार के निनादों से जावरा का गगन मण्डल गूंज उठा।
वि.सं. १९८० का आपका वर्षावास रतलाम में सम्पन्न हुआ। उल्लेखनीय तथ्य यह रहा कि यहाँ श्रीमद् सागरानंद सूरि का भी वर्षावास था। ये जैनाचार्यों में आगम-ज्ञान के प्रखर धारक माने गये हैं। जब उपाध्याय की यतीन्द्र विजयजी का वर्षावास रतलाम में हुआ और उनकी ख्याति बढ़ी तो श्रीमद् सागरानं सूरि को यह सहन नहीं हुआ कि अपने से छोटी आयु वाला साधु उनसे अधिक महिमावान् हो जाये। उन्होंने आप के साथ शास्त्रार्थ का प्रस्ताव रखा। शास्त्रार्थ का विषय था 'जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिये या पीत।' आपने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। विद्वानों के समक्ष शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ और आपके अकाट्य एवं आगम-सम्मत प्रमाणों के आगे श्रीमद् सागरानंद सूरि टिक नहीं पाये। यह शास्त्रार्थ सात माह तक चलता रहा। अंततः श्रीमद् सागरानंद सूरि एक रात्रि को सूर्योदय के पूर्व ही बिना किसी को सूचित किये, चुपचाप रतलाम से विहार कर गये। इस शास्त्रार्थ से उपाध्याय यतीन्द्र विजयजी म.सा. की कीर्ति चारों ओर फैल गयी और आपकी प्रतिभा एवं योग्यता की सब ओर प्रशंसा होने लगी। तब से आप पीताम्बर पट विजेता भी कहलाने लगे। इस विजय के उपलक्ष्य में विद्वानों ने जो प्रमाण-पत्र आपको समर्पित किया था, वह आज भी आपके जीवन-चरित्र श्री गुरु-चरित्र नामक पुस्तक में सुरक्षित है।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व शास्त्रार्थ की इस घटना से आपकी कीर्ति काफी बढ़ गयी थी। आपकी विद्वत्ता की धाक भी जम गयी थी। प्रतिष्ठाएँ, दीक्षाएँ, संघयात्राएँ भी होती रहीं और साहित्य-सृजन भी चलता रहा। इन सबके साथ जहाँ कहीं भी आपने संघ में कुछ कमी देखी वहीं आपने एकता एवं मैत्री के लिए प्रयास किया । समय व्यतीत होता रहा और आप संयम साधना के सोपान चढ़ते गये। आपकी ख्याति एक महान् साहित्यकार के साथ-साथ महान साधक एवं व्याख्यान-वाचस्पति के रूप में हो गयी। जहाँ-कहीं भी आप पधारते, आपकी ख्याति आपके पूर्व वहाँ पहुँच जाती। कार एक आपने केवल नगरीय क्षेत्रों में ही विचरणकर धर्म प्रचार नहीं किया वरन् आप ऐसे क्षेत्रों में भी पहुँचे, जहाँ उन दिनों पहुँचना सरल नहीं माना जाता था, जहाँ भी आप पहुँचते वहाँ के गुरुभक्त कृतकृत्य हो जाया करते थे।
वि.सं. १९९३ माघ शुक्ला सप्तमी को आपको फिर एक आघात सहन करना पड़ा। इस दिन आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरिजी म. का आहोर में स्वर्गवास हो गया। इस समय आप कुक्षी में विराजमान थे। जैसे ही आचार्यश्री के स्वर्गगमन का समाचार मिला, सारे समाज में शोक की लहर छा गयी। आपके पावन सान्निध्य में गुणानुवाद सभा कर आचार्यश्री को हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
आचार्य श्री भूपेन्द्र सूरिजी म.के देवलोक गमन से गच्छ-नायक का पद रिक्त हो गया था। लगभग दस माह व्यतीत हो गये। अभी तक आचार्य पद का निर्णय नहीं हो पाया था। पद कब तक रिक्त रहता। अंततः सम्प्रदाय के समस्त साधु-साध्वियों और प्रतिष्ठित श्रावकों ने आपको आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित करने का निर्णय लिया। इन दिनों आप अलीराजुपर में विराजमान थे। इस निर्णय के उपरांत आहोर से प्रतिष्ठित श्रावकों का एक प्रतिनिधिमंडल अलीराजपुर में आपकी सेवा में उपस्थित हुआ और आपको संघ की सदिच्छा और निर्णय से अवगत करवाया। संघ की आज्ञा का पालन करना प्रत्येक साधु-साध्वी के लिए अनिवार्य है, ऐसी शास्त्र-मर्यादा है। आपने भी इस मर्यादा का पालन किया और संघ की आज्ञा शिरोधार्य की। पाटोत्सव का आयोजन आहोर में ही किया जाना निश्चित हुआ था। अतः आपने शिष्य - परिवार सहित अलीराजपुर से आहोर के लिए विहार कर दिया। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आप चैत्र पूर्णिमा वि.सं. १९९५ को आहोर पधारे। आपके आहोर पधारने के पूर्व ही आपके सम्प्रदाय के मुनिवर एवं साध्वी-गण भी आहोर पधार चुके थे। आपका नगर प्रवेशोत्सव समारोहपूर्वक हुआ। इस अवसर पर हजारों की संख्या में गुरुभक्त एकत्र हुए थे। प्रमुख मार्गों से होता हुआ आपके नगर-प्रवेश का चल समारोह धर्मशाला में जाकर धर्मसभा में परिवर्तित हो गया। इस धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए अपने प्रवचन में आपने गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्र सूरीजी म. आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरिजी एवं आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरिजी के दिव्य गुणों का वर्णन किया। तदनन्तर आपने उपाध्याय श्री मोहन विजय जी के आत्मधन का परिचय दिया। तदनन्तर आपने अपने आपको सूरिपद के अयोग्य बताते हुए फरमाया कि वे श्रीसंघ की आज्ञा के समक्ष विवश है। श्रीसंघ की आज्ञा अनिवार्यतः शिरोधार्य होती है। इस दृष्टि से आपने अपनी स्वीकृति प्रदान की।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
पाटोत्सव का कार्यक्रम वैशाख शुक्ला तृतीया से प्रारंभ हुआ और वैशाख शुक्ला दशमी सोमवार को हजारों गुरुभक्तों की उपस्थिति में व्याख्यानवाचस्पति उपाध्याय श्री यतीन्द्र विजयजी म. को श्रीसंघ ने सूरिपद से अलंकृत किया। इसी अवसर पर विद्वान् मुनिप्रवर भी गुलाब विजयजी म. को उपाध्याय पद से विभूषित किया। पद - अलंकरण के पश्चात् जय जयकार के निनादों से आहोर का गगन मंडल गूंज उठा। इस प्रकार यह पाटोत्सव हर्षोल्लासमय वातावरण में सानन्द निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर श्री संघ आहोर ने सेवा का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया। आगत अतिथियों के आवास एवं भोजन की उत्तम व्यवस्था की गयी थी। अब आप गच्छनायक आचार्य देव श्रीमद विजय यतीन्द्र सूरीश्वर म.सा. के रूप में विख्यात हो गये। मुनि से आचार्य पद तक पहुँचना आपकी साध्वाचार के प्रति निष्ठावान लगन के साथ ही विद्वत्ता एवं संगठनशक्ति को प्रकट करता है। आपकी इस सर्वतोमुखी प्रतिभा के कारण ही आप इस पद पर प्रतिष्ठित हुए। श्रीसंघ को आपके रूप में एक महान आचार्य एवं मार्गदर्शक मिल गया।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - शास्त्रार्थ में प्रवीण आचार्य देव
महत्तरिका गुरुणिजी श्री ललित श्रीजी की - शिष्या सेवाभावी
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शास्त्रार्थ की परम्परा प्राचीन एवं मध्यकाल में अधिक प्रचलित थी। वर्तमान काल में तो शास्त्रार्थ का नाम तक सुनने को नहीं मिलता है। हाँ, शास्त्रार्थ के स्थान पर आजकल विद्वत् गोष्ठियाँ अवश्य होती हैं। इन गोष्ठियों में विद्वानों द्वारा विभिन्न विषयक आलेखों का वाचन किया जाता है और कुछ अन्य विद्वानों द्वारा उन पर प्रश्न पूछे जाते हैं। जिनका समाधान लेखक के द्वारा किया जाता है। शास्त्रार्थ में अपने मत या पक्ष को सत्य सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। इसमें दो पक्ष होते हैं। दोनों पक्ष अपने मत को सत्य सिद्ध करने के लिए शास्त्रीय प्रमाणों सहित तर्क प्रस्तुत करते हैं। एक निर्णायकमंडल होता है, जो निष्पक्ष रहकर अपना निर्णय देता है कि जो शास्त्रप्रमाण प्रस्तुत किया गया है और उसे आधार मानकर जो तर्क प्रस्तुत किये गये हैं, वे सत्य हैं अथवा असत्य। सत्य होने की स्थिति में मान्य कर लिये जाते हैं और असत्य होने की स्थिति में निरस्त कर दिये जाते हैं जो पक्ष अंत तक अपना पक्ष सही ढंग से रखने में असमर्थ होता है, उसे निर्णायक मंडल पराजित घोषित कर देता है और दूसरे पक्ष को विजयी घोषित कर दिया जाता है।
वि.सं. १९८० में तत्कालीन आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. की आज्ञा से आप (मुनिराज श्री यतीन्द्र विजय जी म.सा.) का वर्षावास रतलाम में था। इसी वर्ष रतलाम में श्रीमद सागरानंद सूरि जी का भी वर्षावास था। श्रीमद् सागरानंद सूरि जैनाचार्यों में आगमज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान् माने जाते थे। इस प्रकार दो आगमवेत्ताओं का वर्षावास रतलाम में था। दोनों अपने अपने पाण्डित्य और दिव्य तेज के लिए भी विश्रुत थे। श्रीमद् सागरानंद सूरी की तुलना में मुनिराज श्री यतीन्द्र विजय जी म.सा अल्पायु के थे। अल्पायु में बढ़ता हुआ उनका दिव्य प्रभाव श्रीमद् सागरानंद सूरि को सहन नहीं हो पा रहा था। उन्होंने मुनिराज श्री यतीन्द्र विजय जी म.सा. के साथ शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखा। शास्त्रार्थ का विषय था- जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिये या पीत। सामान
श्रीमद् सागरानंद सूरी की धारणा यह रही होगी कि इस शास्त्रार्थ के माध्यम से मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. को पराजित कर नीचा दिखा दिया जाये। मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. ने शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया। ये योग्य गुरु के योग्य शिष्य थे। अपने गुरुदेव से अगाध ज्ञान प्राप्त किया था और शास्त्रार्थ-विधि भी सीखी थी। यहाँ यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक ही होगा कि शास्त्रार्थ प्रारंभ होने के पूर्व उसके कुछ नियम भी निर्धारित कर लिये जाते हैं। इन नियमों का पालन करना दोनों पक्षों के लिए अनिवार्य होता है। इस शास्त्रार्थ के लिए निम्नांकित विद्वानों का एक निर्णायक मंडल बनाया गया था।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व १. सदानंद शर्मा प्रधानाध्यापक नाथद्वारीय गोवर्धन संस्कृत पाठशाला
मधुसूदन मिश्र श्रोत्रिय, व्याकरण काव्य तीर्थ
रामेश्वर शर्मा मैथिल-व्याकरण के लब्धप्रतिष्ठित विद्वान् ४. ब्रजनाथ शर्मा व्याकरणतीर्थभूषण ५. पं. शंभूनाथ त्रिपाठी, व्याकरणाचार्य, महाविद्यालय, इंदौर ६. पं. छोटेलाल शास्त्री जैन, अध्यापक, जैन पाठशाला, बड़नगर ७. बाल शास्त्री भट्ट, प्रधानाध्यापक, राजकीय वेदशाला, इंदौर
काम ८. पं. श्रीधर शास्त्री, इंदौर ९.. दुर्लभ राम शास्त्री, विद्याभूषण, झाबुआ
ਸਾਲ ਦੀ ਉ ਸਿ ਗਾਇ ਏ । १०. पं. सदाशिव दीक्षित, साहित्याचार्य, एफ-ए, बनारस लाश
किती का ११. पन्नालाल शास्त्री, रतलाम
इनके अतिरिक्त नगर के जैनेतर प्रतिष्ठित व्यक्तियों और दोनों ओर के प्रतिष्ठित वयोवृद्ध अनुभवी सज्जनों को भी साक्षी के रूप में रखा गया था। दोनों मुनिराजों के मध्य अधिकतर मुद्रित पत्रों के द्वारा शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। यह शास्त्रार्थ सात माह तक चलता रहा। मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. के आचारांगादि अनेक आगम ग्रंथों के प्रमाणों से युक्तियुक्त तर्कों के सम्मुख श्रीमद् सागरानंद सूरि का हठाग्रह सबकी निंदा का कारण बनने लगा। तथापि उनके हठाग्रह में कोई कमी दिखायी नहीं दी। परिणाम यह हुआ कि जब निंदा अधिक बढ़ती दिखायी दी तो वे एकरात्रि में सूर्योदय के पूर्व ही बिना अपने पक्ष के श्रावकों को अथवा किसी अन्य को सूचित किये रतलाम से विहार कर गये। प्रात:काल सूर्योदय के पश्चात् श्रीमद् सागरानंद सूरि के रतलाम छोड़कर विहार कर जाने का समाचार पवनवेग से पूरे रतलाम नगर में प्रसारित हो गया। उसी वेग से मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. की कीर्ति भी प्रसारित हो गयी। आप की प्रतिभा पर पाण्डित्य की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। तत्पश्चात् निर्णायक मंडल (जिसे उस समय साक्षी जनों का नाम दिया गया था), की बैठक हुई और उन्होंने संस्कृत में लिखित शास्त्रार्थ में विजेता का प्रमाण पत्र मुनिराज श्री यतीन्द्रसूरीश्वर जी म. सा. को समर्पित किया। शास्त्रार्थ का यह प्रकरण यहाँ सिद्ध करता है कि आचार्य भगवन श्रीमद् विजयतीद्र सूरीश्वर म.सा. शास्त्रार्थ करने में प्रवीण थे। - ना स्मरण रहे कि आप ने वि.स. १९७९ में 'पीतपटाग्रह मीमांसा' नामक एक पुस्तक की रचना की थी। इसकी रचना का संबंध पीतवस्त्र विषय को लेकर हुए विवाद से अंत में जुड़ा है। इस पुस्तक में उन सब युक्तियों तथा प्रयत्नों का भी यथासंभव वर्णन है, जिनका पूर्व भूतवादियों ने अपने को परास्त होते समझकर ।
शास्त्रार्थ में मिली विजय एक बात और सूचित करती है कि आप का आगम ज्ञान अगाध था। अर्थात् आप ने आगमसाहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन किया था।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व -
आचार्य देव श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिजी द्वारा ___रचित साहित्य : एक वर्गीकरण
गुरुणिजी महत्तारिका श्री ललित श्रीजी की शिष्या
म. तत्त्वलोचना श्रीजी....
सदियों से जैन साधु तथा साध्वी साहित्यसृजन करते आये हैं। उनके द्वारा रचे गये अनेक ग्रंथ आज की परिस्थिति में भी प्रासंगिक हैं। इसका मूल कारण यह है कि उनका साहित्य किसी समय विशेष की परिधि में बँधा हुआ नहीं है, वे जिस उद्देश्य को लेकर साहित्य-सृजन करते हैं, वह सदैव विद्यमान रहता है। यही कारण है कि उनके साहित्य का जब भी अध्ययन किया जाता है, तभी वह नया और समसामयिक प्रतीत होता है।
विश्ववंद्य प्रातः स्मरणीय पूज्य गुरुदेव जैनाचार्य श्रीमदविजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. ने श्री अमिधान राजेन्द्र कोश के साथ ही अन्य अनेक ग्रंथों का सृजन किया जो आज भी उपयोगी है। आप के ही सुयोग्य शिष्यरल आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. ने भी अपने जीवननिर्माता गुरुदेव का अनुसरण करते हए लगभग साठ ग्रंथों का निर्माण किया। आप द्वारा रचित ये ग्रंथ आज भी उपयोगी लगते हैं और हमारे मार्गदर्शन के लिए उद्यत हैं। यह तो हमारे ऊपर है कि हम उनका कितना उपयोग करते हैं। आप द्वारा रचित ग्रंथ विभिन्न विषयों से संबंधित है , इसलिए हम यहाँ आप द्वारा रचित साहित्य का विषयवार वर्गीकरण करना समीचीन समझते हैं। ऐसा करने से आप के साहित्य का वर्गीकरण तो होगा ही, साथ ही हमारे सम्मुख स्पष्ट रूप से विषय-विभाजन की रूपरेखा भी आ जायेगी। अस्तु आप द्वारा रचित साहित्य का वर्गीकरण इसप्रकार किया जा सकता है। यह वर्गीकरण विषयवार है
१. सम्पादित साहित्य २. यात्रा साहित्य ३. प्रवचन साहित्य, ४.जीवनीपरक साहित्य, ५. धार्मिक साहित्य ६. ऐतिहासिक साहित्य और ७ स्फुट साहित्य। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है१. सम्पादित साहित्य - आचार्य भगवन् एक कुशल सम्पादक भी थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आपने गुरुदेव के देवलोक गमन के पश्चात् उनके द्वारा रचित श्री अभिधानराजेन्द्रकोष का कुशलतापूर्वक सम्पादन कर प्रकाशन करवाया। श्री अभिधानराजेन्द्रकोश आज न केवल भारतवर्ष में वरन् सम्पूर्ण विश्व में विख्यात है। यह मागधी और प्राकृत भाषा का सबसे महान कोश है।
२. यात्रा साहित्य - इतिहासनिर्माण के साधन के रूप में यात्रा साहित्य का प्राचीन काल से ही महत्व रहा है। भारतवर्ष में प्राचीन काल में जितने भी विदेशी यात्री आये और उन्होंने भारतवर्ष के विषय में जो कुछ लिखा वह इतिहास की अमूल्य धरोहर है। हमारे देश के लेखकों ने इस विषय पर बहुत ही कम लिखा है। आचार्य भगवन चूंकि इतिहासप्रेमा थ, इसालए आपन
तिहासप्रेमी थे, इसलिए आप ने इस विषय पर अपनी कलम चलायी और సాంసారరరరరరరmous report
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - अपनी यात्रा प्रसंगों को अक्षुण्ण बनाये रखने के विचार से अथवा उस क्षेत्र विशेष के इतिहास पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से विस्तार से लिखा है। इस विषय में आप की निम्नांकित पुस्तकों को सम्मिलित किया जा सकता है - १. श्री यतीन्द्र विहार दिग्दर्शन भाग १, २, ३, ४ २. मेरी गोड़वाड़ यात्रा ३. मेरी नेमाड़ यात्रा। चूँकि ये सब पुस्तकें इतिहास विषयांतर्गत आती हैं,
इसलिए इतिहास की विपुल सामग्री इन पुस्तकों में संग्रहीत है शिलालेखों, ताम्रपत्रों प्रतिमालेखों व
पट्टे-परवानों का इनमे समावेश होने से इनका इतिहास की दृष्टि से काफी महत्त्व है। ३. प्रवचन-साहित्य - प्रवचन कला में आप प्रवीण थे। इस बात को ध्यान में रखकर आप को व्याख्यानवाचस्पति की उपाधि से भी अलंकृत किया था। आप के प्रवचन सरल भाषा में होते थे। प्रवचनों में यथास्थान लोकोक्तियों, मुहावरों आदि का आप प्रयोग कर अपने प्रवचन को सरस एवं प्रभावशाली बना दिया करते थे। प्रवचन में शास्त्रीय उद्धरण एवं दृष्टांत प्रस्तुत कर दिया करते थे। इससे प्रवचन विषय की दृष्टि से पुष्ट एवं दृष्टांत के द्वारा सरल हो जाता था। प्रवचन-साहित्य के अंतर्गत आपश्री की निम्नलिखित पुस्तकों को सम्मिलित किया जाता है :
१. भाषणसुधा २. श्री यतीन्द्र-प्रवचन भाग - १३. समाधानप्रदीप, ४. सत्यसमर्थनप्रश्नोत्तरी, ५.मानव जीवन का उत्थान, (६) श्री यतीन्द्र प्रवचन (गुजराती) (७) आर्हत प्रवचन (संग्रहीत-गुजराती)। ४. जीवनीपरक साहित्य - महापुरुषों का जीवन चरित्र धार्मिक इतिहास का एक अंग होता है। उनके अनुयायी उनके आदर्श जीवन से प्रेरणा प्राप्त करते हैं। आचार्य भगवन ने इस विषय पर भी काफी लिखा है। इसमें अर्वाचीन और प्राचीन का समन्वय मिलता है। यह विषय पर लिखित आप की निम्नांकित पुस्तकें उपलब्ध होती है -
१.जीवन प्रभा-इस पुस्तक में आप ने अपने गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.स. का जीवन परिचय दिया है। २. अघटकुमार रत्नसार, हरीबल धीवर चरित्र, ३. जगडूशाहचरित्र, ४. कयवन्ना चरित्र, ५. चम्पकमालाचरित्र ६. राजेन्द्र सूरीश्वरचरित्र, ७. सत्पुरुषों के लक्षण, ८ मोहन जीवनादर्श ९. संक्षिप्त जीवन चरित्र।। ५. धार्मिक साहित्य - आप जैन धर्म के आचार्य थे। इसलिए धर्म विषय पर लिखना भी स्वाभाविक ही था। इस संबंध में आप की निम्नलिखित पुस्तकें उपलब्ध होती हैं।
१. भावनास्वरूप २. सक्तिरसलता ३. लघ चाणक्य नीति ४. पीतपटााग्रहमीमांसा ५. जीवभेद निरूपण गौतम कुलक. ६. प्रकरण चतुष्टय, ७. स्त्रीशिक्षाप्रदर्शन, ८. गुणानुराग कुलक ९. तप परिमल १०.सत्यबौधभास्कर,११. निक्षेपनिबंध, १२. जैनर्षिपटनिर्णय। १३. रत्नाकर पच्चीसी १४. कुलिंगवनोद्गार मीमांसा १५. वृहद्विद्वद्गोष्ठी १६. अक्षय निधि तप विधि तथा पौषध विध १७. समाधान प्रदीप १८. जन्ममरणसूतकनिर्णय।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - ६. ऐतिहासिक साहित्य - आचार्य भगवन् को इतिहास विषय से लगाव था। यही कारण है कि आप ने इस विषय पर काफी लिखा और लिखवाया भी। अपने विहारदिग्दर्शन में आप ने इतिहास विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला। इसके अतिरिक्त आप ने जैन तीर्थों के इतिहास पर भी ग्रंथ लिखे। ऐसे दो ग्रंथ उपलब्ध हैं -
१. तीन स्तुति की प्राचीनता, २ श्री नाकोड़ा पाश्र्वानथ और ३. श्रीकोरटा जी तीर्थ का इतिहास। इनके अतिरिक्त आपने प्राग्वाट जाति का इतिहास भी लिखवाया था। ७. भक्ति-साहित्य - आचार्य देव द्वारा रचित साहित्य के वर्गीकरण की इस श्रेणी में उन पुस्तकों का समावेश किया जा रहा है, जो ऊपर नहीं आ पायी हैं। इसमें भजन, स्तवन, पूजा से संबंधित साहित्य का समावेश किया गया है। इसी प्रकार की अन्य पुस्तकों को भी इसमें लिया जा सकता है। इसमें निम्नांकित कुछ पुस्तकें उल्लेखनीय हैं - १. जितेन्द्रगुणगान लहरी २. श्री सिद्धाचाल नवाणुं प्रकारी पूजा ३. चतुर्विंशति जिन स्तुतिमाला ४. श्री राजेन्द्रसूरीश्वर अष्टप्रकारी पूजा ५ सविधि स्नात्रपूजा, ६.देवसी पडिक्कमण सूत्र, ७. साध्वीव्याख्यानसमीक्षा ८. साधु प्रतिक्रमणसूक्त-शब्दार्थ।
इस लघु निबंध में आचार्य भगवन् श्रीमद विजययतीन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. द्वारा रचित साहित्य का वर्गीकरण करने का प्रयास किया गया है। आचार्य भगवन् ने साहित्य सेवा के माध्यम से जैन शासन की सेवाएँ की हैं। इस वर्गीकरण में कुछ भूल होना स्वाभाविक है। कारण यह कि हमारे सामने आचार्य भगवन् का सम्पूर्ण साहित्य उपलब्ध न होकर केवल पुस्तकों की नामावली उपलब्ध थी। अस्तु भूल के लिए मिच्छामि दुक्कड़म्।
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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
राग से वैराग्य की ओर
धौलपुर निवासी श्रीमान् ब्रजलाल जी एवं उनकी पतिपरायणा धर्मपत्नी चम्पाबाई के पुत्र रामरत्न अपनी माता के स्वर्गवास के पश्चात् अपने पिताश्री के साथ भोपाल आ गये। भोपाल में पिताजी के निधन के पश्चात् मामा ठाकुरदास के पास रहना पड़ा। अपने मामा के एक दिन के व्यवहार से क्षुब्ध होकर रामरत्न अपने एक परिचित के साथ भोपाल से उज्जैन आये। उज्जैन में मक्सी पार्श्वनाथ तीर्थ के दर्शन कर रामरत्न महिदपुर जिला उज्जैन पहुँचे। यहाँ संयोग इस समय जैन धर्म-प्रभावक अपने युग के एक महान् जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. महिदपुर में अपने शिष्यों के साथ विराजमान थे। पूज्य गुरुदेव के शिष्यों में मुनि श्री लक्ष्मी विजयजी म. ये एवं मुनिश्री दीप विजय जी म. दो बालमुनि रामरत्न के पूर्व परिचित थे। परिणामस्वरूप रामरत्न को पूज्य गुरुदेव के दर्शन करने और चर्चा करने का अवसर सुलभ हो गया। बातचीत में पूज्य गुरुदेव ने अनुमान लगा लिया कि बालक होनहार है और भविष्य में अपने कुल का नाम उज्ज्वल करेगा। उधर रामरत्न को भी गुरुदेव के साथ हुई बातचीत से न केवल संतोष हुआ वरन् उनकी मानसिक व्यग्रता समाप्त होती प्रतीत हुई। उन्होंने शांति का भी अनुभव किया।
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महत्तरिका गुरुणीजी श्री ललित श्रीजी की शिष्या साध्वी श्री मणिप्रभा श्रीजी.....
रामरत्न ने कुछ जैन शास्त्रों का अध्ययन तो पहले से ही कर रखा था, उसे जैन धर्म का प्रारंभिक से कुछ अधिक ही ज्ञान था । पूज्य गुरुदेव की सेवा में आने और उनके नित्य दर्शन करने तथा प्रवचनपीयूष का पान करने से रामरत्न के हृदय की रही-सही बैचेनी भी समाप्त हो गयी और उसने अपने आपको पूर्ण संतुष्ट पाया । रामरत्न को अब लगने लगा कि उसकी अभिलाषा की पूर्ति यहीं हो सकती है। रामरत्न पूज्य गुरुदेव के प्रवचन का नियमित रूप से पूर्ण सावधानी के साथ श्रवण करते थे। श्रीमद् के प्रवचन अत्यन्त मार्मिक एवं सारगर्भित होते थे। प्रवचन मूल रूप से मानवजीवन, मानव का अन्य प्राणियों से सम्बन्ध, दुर्लभ मानवदेह की प्राप्ति, संसार की असारता तथा जीवन, यौवन, मान, वित्त पद आयु, वैभव की महामेघ के मध्य में स्थित एक क्षुद्र एवं चंचल और अस्थिर जलबिंदु के समान क्षणभंगुरता आदि विषयों पर केंद्रित होते थे । पुज्य गुरुदेव के प्रवचनों को सुनकर रामरत्न का हृदय गद्गद् हो जाया करता था। प्रवचनों के उपरान्त रामरत्न इन विषयों पर गहराई से चिंतन भी किया करते। ऐसा करने से उन्हें अद्भुत शांति मिलती और आनन्दभूति भी होती । इस प्रकार इन पर प्रवचनों का अमिट प्रभाव पड़ने लगा। पंडित पिता की सुशिक्षाएँ, विदुषी एवं धर्मपरायणा माता के द्वारा डाले गये सुसंस्कार और फिर स्मरण आता माता-पिता का स्वर्गवास और मामा का व्यवहार । जब वे सभी परिस्थितियों पर चिंतन करते तो पिताजी की सुशिक्षाएँ और माता के संस्कारों के परिणामस्वरूप उनके मन में विरिक्त के भाव उत्पन्न होने लगते। वैराग्य-भावना जाग्रत होती दिखायी देने लगी। वैराग्य का अंकुर फूटने लगा।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - रामरत्न की परिवर्तित मानसिकता का आभास दोनों बाल मुनियों को होने लगा। पू. गुरुदेव के कर्णकुहरों तक भी यह चर्चा पहँच चुकी थी।
रामरत्न ने अपनी दिन चर्या प्रायः निश्चित ही कर ली थी। वे प्रातः प्रवचन पीयूष का पान करते दिन में मुनि भगवन्तों के सत्संग का लाभ प्राप्त करने और फिर जो समय अवशिष्ट रहता उसमें श्वेताम्बर धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते। उनकी इस दिनचर्या के कारण उन्हें पूज्य गुरुदेव प्रातः स्मरणीय जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर जी म. को काफी निकट से देखने का अवसर मिला। रामरत्न के सुसंस्कारी हृदय पर गुरुदेव के क्रियाकाण्ड, उनकी दैनिक जीवनचर्या तथा कठोर समयपालन का अद्भुत एवं अमिट प्रभाव पड़ा। उन्होंने गुरुदेव की निर्लिप्तता को भी देख और मन ही मन कह उठे- धन्य हैं ऐसे मुनिजी जो महापंडित होते हुए भी कीर्ति की अभिलाषा नहीं रखते हैं। जैन एवं जनसमुदाय की भक्ति श्रद्धा के केंद्र होते हुए भी डगर-डगर, उबड़खाबड़ एवं विषम मार्गों से क्षुधा, प्यास एवं विविध शारीरिक कष्ट एवं यातनाएँ सहते हुए अपने भक्तों और अनुयायियों का ही नहीं, वरन् समस्त मानव और प्राणी समाज का ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में जाकर कल्याण करते हैं, उन्हें धर्मोपदेश देते हैं, उनके दोषों को दूर करते हैं, जिनसे उनके दुःख समाप्त होते हैं। अस्थिरता दूर होती है। विभ्रम की स्थिति समाप्त होती है वे शांति का अनुभव करते है। आप स्वयं कष्ट सहन करते हैं पर अन्यों को सुख पहुँचाते है।
पूज्य गुरुदेव की दिनचर्या तथा उनके कल्याणकारी कार्यों को देखकर रामरत्न उनके प्रति श्रद्धावनत हो गये। उन्होंने निश्चित करलिया कि यही मार्ग कल्याणकारी है। यदि आत्मकल्याण का कोई मार्ग है तो यही है। इस मार्ग का अनुसरण करने में ही हित है। चिंतन दिन प्रतिदिन बढ़ता गया और एक दिन उन्होंने संकल्प कर लिया कि वे भी इस आत्म-कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करेंगे। अब रामरत्न पर वैराग्य का रंग चढ़ गया था, जिसने धीरे-धीरे मजीठे का रूप धारण कर लिया। शास्त्रीय दृष्टि से हम वैराग्य के कारणों पर विचार करें तो वैराग्य के अनेक कारण गिनाये गये हैं, यद्यपि उन सबका विवरण यहाँ देना प्रासंगिक प्रतीत नहीं होता तथापि इतना बताना उचित प्रतीत होता है कि रामरत्न जिस वैराग्य के रंग में सराबोर हो रहे थे वह वैराग्य ज्ञानगर्भित वैराग्य है। ज्ञानगर्भित वैराग्य को स्थायी माना गया है। कारण इस स्थिति में काफी चिंतन हो चुका होता है और उस चिंतन के परिणामस्वरूप ही वैराग्य अंकुरित होता है। इसमें वैरागी के हृदय में से स्नेह, मोह, माया, ममता, राग, द्वेष, काम,क्रोध, जैसे विकारों का अंत हो जाता है। इनके स्थान पर उसके हृदय में ज्ञान का जागरण होता है। मास्तिष्क में शुभ विचारों एवं भावों का प्रादुर्भाव होता है। वह व्यक्ति संयम-मार्ग अंगीकार करने के लिए व्याकुल सा रहता है। रामरत्न की स्थिति भी अब लगभग ऐसी ही हो गयी थी। यह शीघ्रातिशीघ्र दीक्षाव्रत अंगीकार करना चाहता था। प्रश्न यह था कि अपने मनोभावों को गुरुदेव के समक्ष किस प्रकार प्रकट किया जाये।
रामरत्न की चिन्तनशीलता और व्यग्रता छिप नहीं पायी। मुनिमंडल भी इसका रहस्य समझ चुका था। किन्तु संयम-मार्ग पर चलना कितना कठिन है, इस तथ्य से वे पूर्ण परिचित थे, उस पर पूज्य गुरुदेव का अनुशासन। इस कारण सब कुछ जानते हुए भी किसी ने गुरुदेव के समक्ष कुछ नहीं कहा। स्वयं
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्य : व्यक्तित्व - कृतित्व - रामरत्न भी अपने विचारों को गुरुदेव के समक्ष प्रस्तुत करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। एक रात्रि में तो रामरत्न की व्यग्रता इतनी अधिक तीव्र हो गयी कि सारी रात्रि चिंतन में ही व्यतीत हो गयी, किन्तु संकल्प कर लिया कि अपनी भावना गुरुदेव के समक्ष प्रकट कर ही दूंगा। ममा प्रात: होते ही देवदर्शन करके गुरुदेव जी सेवा में पहुँचे वंदन किया और विनम्र शब्दों में निवेदन किया 'भगवन मुझे अपने शिष्य रूप में स्वीकार कीजिये। मैं आपकी शरण में दीक्षाव्रत अंगीकार करना चाहता हूँ।'
'अभी तुम्हारी आयु मात्र चौदह वर्ष की है। साधु-जीवन का पालन खड्ग की दुधारा पर चलने से भी अधिक कठिन है।' गुरुदेव ने कहा। फिर भी कुछ दृष्टान्त देकर रामरत्न को समझाया। रामरत्न तो दृढ़संकल्प ले चुके थे। उन्होंने गुरुदेव के समक्ष अपना संकल्प दोहराया। उनकी एक ही बात थी 'गुरुदेव मुझे स्वीकार कीजिये। मैं अब प्रतीक्षा नहीं कर सकता।' 'रामरत्न विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। तुम रत्न हो। योग्य अवसर उपस्थित होने पर तुम्हारी इच्छापूर्ति हो जायेगी।' गुरुदेव ने आश्वस्त किया। इससे रामरत्न का मनमयूर नृत्य कर उठा।
गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर जी म. अपने धर्म-परिवार के साथ महिदपुर से विहार कर मार्गवर्ती ग्रामों में धर्मप्रचार करते हुए जावरा पधारे और फिर जावरा से खाचरौद पधारे। इस अवधि में रामरत्न का सभी प्रकार का परीक्षण हो चुका था। अत: खाचरौद में आषाढ कृष्णा द्वितीया वि.सं. १९५४ सोमवार का दिन दीक्षा के लिए निश्चित हुआ। शुभ मुहूर्त निकलने के साथ ही यह समाचार चारों ओर प्रसारित भी हो गया। दीक्षोत्सव प्रारंभ होते ही किसी विघ्नसंतोषी व्यक्ति ने राजसभा में शिकायत कर दी कि एक बालक को जबरन दीक्षा दी जा रही है। राज्या धिकारियों ने जाँच की। रामरत्न से प्रश्न किये। रामरत्न ने दृढ़ता से उत्तर देकर स्वेच्छा से दीक्षाव्रत अंगीकार करने की बात कही तो मामला समाप्त हो गया। शुभ मुहूर्त में विशाल जनसमुदाय की साक्षी में गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर जी म. ने रामरत्न को जैन भागवती दीक्षा प्रदान कर उनका नाम मुनिश्री यतीन्द्र विजय जी म. रखा। इसके साथ ही आपका नवीन जीवन प्रारंभ हुआ। तथा आपकी इच्छा की पूर्ति हो गयी।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व -
- जैनाचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरि
पं. मदनलाल जोशी शास्त्री
मंदसौर (म.प्र.)...
त्याग, तपस्या, संयम एवं सदाचार की पावन परिधि में साधना करते हुए जिन महामनीषियों, ऋषियों एवं तपःपूत साधकों ने आध्यात्मिक चिन्तन तथा आत्मदर्शन के दार्शनिक स्रोत के आधार पर भारतीय दर्शन का साकार स्वरूप प्रस्तुत किया एवं सत्य का साक्षात्कार करने में सफलता प्राप्त की, उन्हीं महान् आत्माओं के फलस्वरूप उनकी आध्यात्मिक प्रतिभा के पुण्य प्रकाश में सम्पूर्ण संसार अपने जीवन को सही दिशा में प्रवृत्त करने हेतु मार्गदर्शन प्राप्त करता रहा है एवं मित्ती में सव्वभूएसु तथा आत्मवत्सर्वभूतेषु के आगमोक्त सनातन सिद्धांतों को आत्मसात करने को उद्यत रहता है। यही कारण है कि भौतिकवाद से सदासर्वदा दूर रहने वाला यह भारत अपनी आध्यात्मिक साधना के द्वारा जहाँ सम्पूर्ण विश्व का सफल एवं सार्थक नेतृत्व करता है वहीं अपने अलौकिक क्रियाशील आचरणों के माध्यम से आध्यात्मिक दर्शन के प्रभावोत्पादक स्वरूप को सही रूप में प्रगट करने की भी पूर्ण क्षमता रखता है। इसीलिए रत्नगर्भा वसुन्धरा के वैशिष्ट्य को सार्थक रूप में सिद्ध करने वाला भारत, वसुन्धरा के गौरवशाली एवं समुन्नत शिरोभाग के रूप में प्रभावोत्पादिनी अपनी प्राञ्जल प्रतिभा के द्वारा चमत्कृत एवं समलंकृत करने वाला वह मुकुटमणि है, जिसका अन्तदर्शनात्मक वर्चस्वशील आध्यत्मिक आलोक 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के प्रात:कालीन प्रार्थना के स्वर की सार्थकता के अनुरूप, किसी चतुष्पथ (चौराहा) के मध्य स्थापित शाश्वत प्रकाश स्तम्भ के समान इतस्ततः निरुद्देश्य परिभ्रमण करते हुए मानव मात्र को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने के साथ ही वह दिव्य दृष्टि प्रदान करता है, जिससे विश्व का प्रत्येक प्राणी जीवन का निर्धारित लक्ष्य प्राप्तकर पारमार्थिक दृष्टि से अनुशासनबद्ध हो आत्मकल्याण के साथ प्रेय का परित्याग कर श्रेय की प्राप्ति कर सके।
वस्तुत: यह इस अध्यात्म प्रधान भारत की ही एकमात्र विशेषता है कि यहाँ आरंभ से ही 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का उदात्त उद्घोष एवं उसकी सार्थकता का सुखद संदेश घर-घर गँजता रहता है, जिसने भी एक बार इस सुखद सत्य सन्देश को अपने जीवन का मूलतंत्र स्वीकार कर लिया, निस्संदेह वह सारहीन इस नश्वर संसार में रहते हुए भी सत्यता के समीप पहुँचे बिना नहीं रह सका।
वर्तमान भौतिकवादी युग में भी भारत की इस अध्यात्मपरक विशेषता एवं सर्वेभवन्तु सुखिन: की सौहार्द-मयी सभावना को अक्षुण्ण बनाये रखने का सम्पूर्ण श्रेय उन तपःपून महामनीषियों, साधनारत संयमियों, तत्वज्ञ महात्माओं एवं परोपकरपरायण शास्त्रज्ञ आचार्यों, तथा सदाचरणशील सामाजिक अभ्युत्थान में समर्पित भाव से लगे कर्त्तव्यनिष्ठ उपदेष्टाओं को है, जिन्होंने परिव्राजक के रूप में यत्र-तत्र विचरण करते हुए अपने प्रभावशील सदुपदेशों, क्रियाशील आचरणों एवं सैद्धांतिक आदर्शों के नियमों का
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परिपालन कर जनमानस में आध्यात्मिकता का प्रेरणादायी सजीव संचार एवं प्रचार-प्रसार किया तथा जो अपने उन पूर्वाचार्यों के पदचिन्हों का अक्षरशः अनुसरण करते हुए आज भी उसी प्रकार सदाशयता के साथ इस लोककल्याणकारी परम पवित्र अनुष्ठान में लगे हुए हैं, जिन महापुरुषों ने इस अभियान की ऊर्जा को नवीन शक्ति एवं निरन्तरता प्रदान की एवं जनमानस को अध्यात्म की ओर न केवल उन्मुख किया, अपितु आध्यात्मिक अभिरुचि का इस प्रकार सिञ्चन किया जिससे दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के सूत्रों का सैद्धांतिक अवबोध हो सके, उनके प्रति कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धावनत होना हम सबका परम कर्त्तव्य है।
यद्यपि अपने अध्यात्मपरक सिद्धांतों के आधार पर आदर्श जीवन-यापन करने वाले परमोपकार तत्त्ववेता एवं आत्मधर्म के मर्मज्ञ कई महान आचार्य तथा महापुरुष समय समय पर इस भूमि पर अवतीर्ण हुए जिन्होंने आध्यत्मिक साधनों के माध्यम से लोकमंगल के उदात्त उद्देश्यों की पूर्ति में पर्याप्त रूपेण सफलता प्राप्त की तथापि जैन दर्शन के समुदार एवं समन्ववादी स्वस्थ दृष्टिकोण को अपना लक्ष्यबिन्दु बनाकर व्यष्टि में समष्टि का दर्शन करने वाले कतिपय महापुरुष आचार्य के रूप में ऐसे भी हो गये हैं। जिनका पुण्य स्मरण आज भी हमारे लिए आध्यात्मिक प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।
सौधर्म बृहद्तयागच्छीय त्रिस्तुतिक सिद्धांत के मर्मज्ञ परमयोगी आचार्यप्रवर श्रीमद् विजयराजेंद्र सूरीश्वर जी महाराज ऐसे ही महापुरुषों एवं आचार्य की गौरवशाली परम्परा में हुए हैं, जिन्होंने अपनी तपोमयी योगसिद्धि के साथ जैन दर्शन के मौलिक सिद्धांतों का सूक्ष्म विवेचन करते हुए जहाँ कई ग्रंथों की रचनाएँ कीं, एवं जैन दर्शन के तात्त्विक सिद्धांत प्रतिपादित किये, वहीं सात भागों में अभिधानराजेन्द्रकोष जैसे विशालकाय प्राकृत - कोष की रचना कर जो वैदुष्यपूर्ण कीर्तिमान स्थापित किया, वह अन्यत्र सुदुर्लभ है। आचार्यप्रवर द्वारा रचित यह कोष विश्व का एक मात्र विलक्षण कोष है, जिसकी प्रशंसा भारतीय विद्वानों के साथ-साथ कई विदेशी विद्वानों ने भी की है एवं अपने अभिमत में स्पष्टतः उल्लेख किया है कि ऐसे ग्रंथ की तुलना किसी भी अन्य ग्रंथ से करना नितान्त असंभव है। जिस अभिधान राजेन्द्रकोष की रचना आचार्य प्रवर श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी ने की। उसका शुभारंभ उन्होंने विक्रम संवत् १९४६ में किया तथा पूर्ण किया वि.सं. १९६० में इस प्रकार पूरे सोलह वर्ष के निरंतर प्रयास का सुपरिणाम है यह विश्वकोष जो जैन वाङमय की अमूल्य निधि है।
पूज्य श्रीमद विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी के पश्चात् त्रिस्तुतिक सौधर्म वृहद्तपागच्छीय आचार्य परम्परा में विजय श्री धनचंद्रसूरिजी एवं विजय श्री भूपेंद्रसूरिजी हुए तथा इनके पट्ट पर वि.सं. १९९५ में आचार्य के रूप में विराजित हुए श्री मद्विजययतीन्द्र सूरीश्वर जी महाराज ।
श्रीमद्यतीन्द्रसूरिजी अपने समय के उद्भट विद्वान् एवं प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे। आपका जन्म संवत् १९४० में कार्तिक शु. २ को हुआ तथा दीक्षा हुई संवत् १८५४ में। आपने श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी से दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् संस्कृत, प्राकृत व्याकरण, साहित्य एवं न्याय आदि के साथ विशेष रूप से जैन दर्शन का विधिवत् अध्ययन किया एवं उल्लेखनीय दक्षता प्राप्त की। आरंभ से ही आप में विद्याध्ययन एवं लेखन आदि की प्रकृति रही जिसके फलस्वरूप आपने जैन दर्शन के साथ ही अन्य
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - विषयों का भी पर्याप्त अध्ययन किया एवं अपनी इसी अध्ययनात्मिका प्रवृत्ति के कारण अंतिम समय तक उसी में संलग्न रहे।
श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। आपकी इसी प्रतिभा के कारण पूज्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराज ने अपने द्वारा रचित अभिधानराजेन्द्र कोष के प्रकाशन एवं सम्पादन आदि सम्पूर्ण दायित्व तत्कालीन मुनिश्री दीपविजयजी के साथ आपको सौंपा। आपने अपने गुरुदेव पूज्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर जी महाराज के द्वारा दिये गये इस दायित्व का निष्ठापूर्वक निर्वहण करते हुए कोष के सम्पादन एवं प्रकाशन का कार्य किया। इतने बड़े कोष का सम्पादन एवं प्रकाशन सामान्य काम नहीं था, किन्तु आपने अपने परम सहयोगी मुनिश्री दीपविजय जी के साथ मिलकर अथक परिश्रम करते हुए कोष के प्रकाशन का कार्य सम्पन्न किया। इस कार्य में आपको पूर नौ वर्ष लगे। दोनों महानुभावों ने गुरु-आज्ञाको शिरोधार्य कर वि. संवत् १९६३ ई. सन् १९०७ के रतलाम चातुर्मास में प्रकाशनकार्य का शुभारंभ कर संवत् १९७२ ई. सन् १९१में पूरा कर दिया। इस कोष के सातों भागों में कुल पृष्ठ १०७४९ हैं, जिनके संशोधन मुद्रण एवं प्रकाशन में नौ वर्ष लगना स्वाभाविक है। इन दोनों शिष्यों के द्वारा गुरु-आज्ञा के परिपालन का यह अद्भुत उदाहरण है। जैनाचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का व्यक्तित्व प्रभावोत्पादक तो था ही, साथ ही वे वक्तव्य कला में भी निष्णात थे। चातुर्मास के साथ जैन दर्शन के गूढ़ सिद्धांतों का विविध प्रसंगों के साथ समन्वय कर उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत करते कि जनमानस भावविभोर हुए बिना नहीं रहता। उनके व्याख्यानों की सर्वाधिक विशेषता यह थी कि सभी समुदायों के आबाल-वृद्ध नरनारी भारी संख्या में उपस्थित हो लाभान्वित होते एवं जीवनोपयोगी आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेते। आप जहाँ एक ओर अपने व्यक्तित्व के अनुरूप स्पष्ट एवं ओजस्वी वक्ता थे। वहीं आपके व्याख्यानों में उन मौलिक विचारों का समावेश रहता जिनको सहजता से ग्रहण करने में सभी को सुविधा रहती, अपनी निर्भीक एवं प्रामाणिक वक्तृता के कारण संवत् १९७२ में बागरा (राज) में आयोजित विशाल जनसमारोह के मध्य आचार्य श्री धनचन्द्र सूरिजी महाराज ने आपको 'व्याख्यानवाचस्पति' के पद से सम्मानित किया। इसी प्रकार विविध आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान होने के कारण आप किसी भी प्रकार की अप्रमाणिकता को सहन नहीं करते तथा शास्त्रार्थ-महारथी के रूप में उस अप्रामाणिकता को खुली चुनौती देने में भी आज किसी भी प्रकार का संकोच नहीं करते। संवत् १९८० में रतलाम-चातुर्मास के समय जैनाचार्य श्री सागरचंद्र सूरि के साथ इसी संदर्भ में शास्त्रार्थ के प्रस्ताव का प्रसंग आया था, जिसका विषय था- जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिये या पीत। बिन्दु श्री सागरानंद सूरि अपने पक्ष (पिल वस्त्र) का आगमसम्मत प्रस्तुत प्रमाणों से प्रतिपादन न कर सके एवं चातुर्मासकी अवधि पूर्ण होने के पूर्व ही अन्यत्र विहार कर गये। जबकि आपने अपने पक्ष (श्वेतवस्त्र) का आगमोक्त प्रमाणों से प्रतिपादन करने में सफलता प्राप्त की। फलस्वरूप आपको व्याख्यान वाचस्पति के साथ ही पीताम्बरविजेता के अलकरण से भी सम्मानित किया गया। आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वर जी महाराज की अभिरुचि आध्यात्मिक साधना के साथ साहित्यलेखन की ओर विशेष रही है। यही कारण है कि आपकी लेखनी ने प्रायः उन सभी संदर्भो को अपना विषय बनाया जिनसे मानवीय जीवन
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - सही दिशा में प्रस्तुत हो। आपके प्रिय विषय रहे हैं, इतिहास, पुरातत्व एवं दर्शन । इसके साथ ही प्राचीन साहित्य का अनुसंधान एवं उसका सम्पादन कर आपने इस प्रकार के साहित्य की भी रचना की, जिससे धर्म एवं अध्यात्म के क्षेत्र में प्रचलित भ्रांत धारणाओं का निराकरण हो एवं वास्तविक तथ्य की प्रामाणिक जानकारी प्राप्त हो सके। आपने अपने विहार में आने वाले उन स्थलों का विशेष विवेचन किया, जिनका ऐतिहासिक एवं भौगोलिक महत्त्व रहा है। आपके द्वारा लिखित यतीन्द्रविहारदिग्दर्शन भाग १, २, ३, ४ मेरी गोड़काड़ यात्रा, मेरी नेमाड़ यात्रा तथा कोरटा का इतिहास ऐसी पुस्तके हैं, ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्व है। इन पुस्तकों में शिलालेख एवं ताम्रपत्र आदि का संकलन होने से पुरातात्त्विक महत्त्व प्रकट हुए बिना नहीं रहता। महापुरुषों के जीवन चरित्र एवं दार्शनिक साहित्य की भी रचनाएँ आपने की है। कुल मिलाकर कर आपके साहित्यरचना के माध्यम से समाज को धर्म एवं आध्यात्मिकता का सफल दिग्दर्शन कराने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, इसमें संदेह नहीं।
वस्तुतः आपने गुरुपद एवं आचार्यत्व की सार्थकता के लिये वह कार्य किया, जिसको सोमप्रभ सूरि ने परिभाषित करते हुए गुरु के संबंध में अपने सिन्दूरप्रकार ग्रंथ में लिखा है :मा
अवन्द्यमुक्ते पथि यः प्रवर्तते प्रवर्तयत्यजनं च निःस्पृहः
स एव सेव्यः स्वहितेषिणा गुरुः स्वयं तरंस्तारयितुं च क्षमः।। जो निस्पृह होकर अनिन्द्य मार्ग पर चलते हुए दूसरों को भी चला के तथा जो (इस भवसागर से पार होने के लिए) स्वयं तैर कर दूसरों को तैराने की क्षमता रखता हो आत्महितैषी का कर्तव्य है कि वह ऐसे ही गुरु का सेवन करे। इसी प्रकार आचार्य के संबंध में यह सूक्ति प्रचलित है कि
का आचिनोति हि शास्त्राणि स्वयमाचर यत्यपि।
स्वयमाचरति यस्मात् तस्मादाचार्य ईरितः। अर्थात् जो समस्त शास्त्रों का अध्ययन तदनुसार आचरण करता हो, वही आचार्य कहलाता है। इस दृष्टि से श्री जैनाचार्य श्रीमविजययतीन्द्रसुरिजी सफल एवं सार्थक आचार्य एवं गुरु थे। यह सत्य है ऐसे महानआचार्य एवं सद्गुरु के प्रति श्रद्धापूर्वक शत्-शत् नमन्।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व भी आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि-विरचित चरित्र एवं अन्य साहित्य : एक सिंहावलोकन
या कानगा किशोरचन्द्र एम. वर्द्धन
अध्यक्ष अखिल भारतीय भारत जैन महामण्डल मुम्बाई कोषाध्यक्ष श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर ट्रस्ट, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. उच्चकोटि के साधक होने के साथ-साथ उत्तम संगठक, प्रवचनकार, समाज सुधारक तो थे ही, आप उच्च कोटि के विद्वान भी थे। आप ने न केवल जैनागमों का तलस्पर्शी अध्यन किया था, वरन् अन्य अनेक साहित्यिक, ऐतिहासिक ग्रंथों का भी अध्ययन किया था। आप को साहित्य के प्रति विशेष रुचि थी। यही कारण था कि आप ने लगभग साठ पुस्तकों की रचना की तथा उन्हें प्रकाशित भी करवाया। इतना ही नहीं, आप विद्वानों को भी पर्याप्त सम्मान देते थे। आप ने विभिन्न विषयों की पुस्तकों की रचना की है। हम यहाँ आप द्वारा रचित जीवनचरित्र विषयक तथा कुछ अन्य स्फुट रचनाओं का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं।
१. जीवनप्रभा - यह ४४ पृष्ठ की पुस्तक है। इसमें आप जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का जीवन परिचय संक्षेप में दिया है। गुरुदेव के लोकोपकारी जीवन का इसमें सजीव चित्रण किया गया है। इस पर अपना मंतव्य प्रकट करते हुए पं. जयदेव शास्त्री प्रधानाध्यापक, संस्कृत पाठशाला परसरपुर (गोंडा) ने लिखा है - "जीवनप्रभा पुस्तकमद्य मम चक्षोर्गोचरतामध्यगमत्। अतः कार्यान्तराण्यपास्य प्रभूतप्रणयतया तदेवाद्राक्षम्। दो जीवन चरितमतीवोपयुक्तं विद्यते। अत्रानेके गुणा दृश्यन्ते। आर्य भाषातीवसरला निरर्थकशब्दाडम्बर - विकला, संक्षिप्तसारार्थ प्रदर्शिनी, चास्ति, अमुना जीवनसुधारणा भवितुमर्हति। भवान् आर्य भाषायाः सुलेखकोऽजनिष्ट। एवं लोकोपकारकान्, बहुशो ग्रंथान्, विरचयन्, धर्म प्रचारादिकृत्यं, चानुतिष्ठन् भवान् सूरीश्वरत्वमधिगन्तुं शक्नोति एवमस्ति, महती मे मानसप्रसक्तिः ।'
२. संक्षिप्त जीवन चरित्र - इस १७३ पृष्ठ वाली पुस्तक में गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के पट्टधर आचार्य श्रीमद् धनचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की जन्म से लेकर स्वर्ग गमन तक की जीवनचर्या का लेखा-जोखा है। यह चरित्र केवल कहानी मात्र या खाली आलंकारिक बाह्याडम्बर का पोषक नहीं, वरन् आचार्यों के विशेष कर्तव्यों कार्यों का समर्थक है। आचार्य-परम्परा की दृष्टि से भी यह पुस्तक उपयोगी है। 22 ३. श्री मोहन जीवनादर्श - इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या ५६ है। श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय जैन संघ में उपाध्याय श्री मोहन विजयजी म. नामक एक उच्चकोटि के मुनिराज हुए हैं। यह पुस्तक उनके जीवन पर आधृत है। इसमें उपाध्याय श्री मोहन विजयजी म. के जीवन का सजीव चित्रण किया गया है इसके अध्ययन करने से अनेक शिक्षाएँ भी मिलती हैं। इस दृष्टि से पुस्तक उपयोगी है।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - आचार्यश्री द्वारा रचित अन्य चरित्र ग्रंथों में - १. अघट कुमार चरित्रम्, २. रत्नसारचरित्रम्, ३. हरिबलधरचरित्रम्, ४. श्री जगडूशाहचरित्रम्, ५. श्री कयवन्नाचरित्रम्, ६. श्री चम्पकमालाचरित्रम् आदि भी हैं। ये चरित्र रचनाएँ, सामान्यतः साधु-साध्वियों के प्रवचन के लिए उपयोगी हैं। इनके चरित्र शिक्षाप्रद है। इनके दृष्टांतों से धर्माराधना की ओर प्रवृत्ति को आलम्बन मिलता है।
चरित्र रचनाओं के विवरण के पश्चात् अब यहाँ कुछ अन्य रचनाओं का परिचय देने का प्रयास किया जा रहा है। ये विविध विषयों की रचनाएँ इस प्रकार हैं
१. भावना स्वरूप - यह पुस्तक सरल हिन्दी भाषा में है। यह अनित्यादि बारह भावनाओं का अत्यल्प स्वरूप जानने के लिए अच्छे वैराग्य रस की पोषक है।
२. गौतमपृच्छा - किसी जैनाचार्य द्वारा रचित ६४ प्राकृत गाथाओं वाला गौतमपृच्छा नामक एक छोटा-सा ग्रंथ है। उसका यह हिन्दी अनुवाद है। संसार में कोई राजा है तो कोई रंक, कोई सुखी है तो कोई दुःखी, कोई काना है तो कोई अंधा, कोई लूला है, तो कोई कुबड़ा और कोई बहरा है, तो कोई मूक। यह सब किन-किन कर्मों से उदित होता है। इस बात को समझने के लिए यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी है।
____ सत्यबोधभास्कर - इस पुस्तक का दूसरा नाम 'प्रतिमासंसिद्धि है। स्थानकवासी सम्प्रदाय. के लोग मूर्तिपूजा और मूर्तिप्रतिष्ठा के विरुद्ध हैं। नाना प्रकार के प्रश्न करते हैं। इन्हीं प्रश्नों के युक्ति संगत उत्तर इस पुस्तक में हैं। उत्तरों में जिनेन्द्रों की प्रतिमा-प्रतिष्ठा की आवश्यकता और उपयोगिता बताई गई है। इसके अतिरिक्त शास्त्राभ्यास, व्याकरण के अध्ययन की आवश्यकता, युक्तियुक्त प्रश्नोत्तर आदि का भी विवेचन किया गया है। पुस्तक उपयोगी है।
४. गुणानुराग-कुलकम् - इस पुस्तक में श्री जिन हर्षगणि निर्मित २९ आर्यावृत्त-प्राकृत भाषा में हैं। परन्तु आप ने उसका विस्तृत विवेचन करके ग्रंथ का आकार मूल से कई गुना बढ़ा दिया है। आप ने प्राकृत-गाथाओं की संस्कृत छाया, उसका शब्दार्थ और उनका भावार्थ भी लिख दिया है। आप के द्वारा किया गया विवेचन अति सुन्दर और शिक्षाप्रद है। इसकी भूमिका में आप ने लिखा है - 'जो मनुष्य विवेचन-गत सिद्धांतों के अनुसार अपने चाल-चलन को सुधारेगा, वह संसार में आदर्श पुरुष बनकर अपना और दूसरों का भला कर सकेगा।' यह कथन निःसंदेह सत्य है। पुस्तक अत्यंत उपयोगी है। इस पुस्तक की अनेक तत्कालीन विद्वानों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
५. जन्म-मरण सूतक निर्णय - इस पुस्तक में जन्म-मरण सूतक का विस्तृत विवरण है। सूतक सम्बन्धी झंझट को दूर करने के लिए यह पुस्तक महत्त्वपूर्ण है।
६. जीवभेद-निरूपण - (हिन्दी) - इस पुस्तक की रचना जैन पाठशालाओं में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए जीवविचार आदि ग्रंथों के आधार पर की गयी है। इस पुस्तक में कुल १६ पाठ हैं। प्रथम आठ पाठों में जीवों के भेद-प्रभेदों का स्वरूप और बाद के आठों पाठों में उनके शरीर, मान, आय, आदि पाँच द्वारों का विवरण दिया गया है।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - ७. श्री गौतमकुलक (हिन्दी अनुवाद) - यह वसंततिलका वृत्तों में प्राकृत भाषामय बीस गाथाओं का किसी प्राचीन आचार्य द्वारा रचित सभाषित-शिक्षा ग्रंथ है। उसी का यह मल. शब्दार्थ और भावार्थ है। इसकी प्रत्येक गाथा जैन और जैनेतर सभी के लिये कंठस्थ करने योग्य है। इसकी प्रत्येक गाथा में चार-चार शिक्षाएँ हैं, जिनके धारण करने से मनुष्य अपने जीवन में सुधार कर सकता है। यह ग्रंथ जीव-भेद निरूपण हिन्दी पुस्तक सहित छपा है। इसका गुजराती अनुवाद भी है।
८. पीतपटाग्रह-मीमांसा - अपने रतलाम वर्षावास के समय आप का शास्त्रार्थ चतुर्थस्तुतिक, पीत वस्त्राग्रही अपवादी आचार्य सागरानन्द सूरिजी से नौ माह तक हुआ था। आचार्य सागरानन्द सूरि पीत वस्त्र धारण करने के पक्षपाती थे। उन्होंने अपने भक्तों के माध्यम से काफी हो हल्ला भी मचाया था। शास्त्रार्थ में भी उन्होंने जोर लगाया, किन्तु वे अपने मनोरथ में इसलिए सफल नहीं हो के थे कि आप के अकाट्य तर्क और शास्त्रीय प्रमाणों के सामने उनके पास कोई उत्तर नहीं था। अंतत: उन्हें रातोंरात बिन किसी को सूचना दिए रतलाम से विहार करना पड़ा था। उस शास्त्रार्थ में पीत वस्त्र धारण करने का युक्तियुक्त और शास्त्र प्रमाणानुसार जो खंडन किया गया था, वही सब कुछ इस पुस्तक में है। यह पुस्तक आप की विद्वता का प्रतीक है।
९. निक्षेप-निबंध - इसमें निक्षेपों का स्वरूप सुन्दर ढंग से समझाया गया है।
१०. अध्ययन-चतुष्टय - साध्वाचार-विषयक दशवैकालिक नामक सूत्र है। इसके रचनाकार श्रुतकेवली श्री शय्यम्भव सूरि हैं और पद जैनागमों में से एक है। अध्ययन चतुष्टय उसी के प्रारम्भिक चार अध्ययन हैं। इसमें प्रथम मूल बाद में उसका शब्दार्थ और भावार्थ सन्दर्भित है। अनुवाद इतना सरल और सरस है कि मर्म को समझने में तनिक भी संदिग्धता नहीं रहती। बड़ी दीक्षा के उत्साही साधु-साध्वियों यह पुस्तक कंठस्थ करने योग्य है।
११. लघुचाणक्य-नीति - अनुवाद - चाणक्यमंत्री-रचित वृहच्चाणक्यनीति से सार-सार सुभाषित श्लोक उद्धृत करके किसी यति ने आठ अध्याय वाला लघुचाणक्यनीति ग्रन्थ बनाया। आप ने इसी का सरल हिन्दी में अनुवाद किया है। इसका प्रत्येक श्लोक जैन और जैनेतर सभी के लिए उपयोगी और कंठस्थ करने योग्य है।
१२. सत्यसमर्थक प्रश्नोत्तरी - इस पुस्तक में प्रश्नोत्तर हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान सप्रमाण किया गया है। उदाहरणार्थ कुछ प्रश्न इस प्रकार हैं -
चैत्य-वन्दन क्रिया कहाँ पर करनी चाहिए? मामिल कर मिला काय आप ने इस प्रश्न का सटीक तथा सप्रमाण उत्तर विस्तार से दिया है। IR E E 'चौथी बुई को नवीन है' ऐसा किस शास्त्र में लिखा है ? इस प्रश्न का उत्तर भी आप ने समुचित सन्दर्भ सहित दिया है।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - कुछ प्रश्र इस प्रकार के भी हैं -
१. सामायिक बैठे-बैठे उच्चरना या खड़े होकर? पाकि २. सामायिक गुरुवन्दन पूर्वक लेना या गुरुवन्दन बिना भी? ३. कायोत्सगन्ति में श्रुतदेव, क्षेत्रदेव, भुवनदेव, का कायोत्सर्ग करना और स्तुति कहना या नहीं?
आप ने इन प्रश्नों तथा अन्य प्रश्रों का सटीक एवं सप्रमाण समाधान किया है। संदेह का तो स्थान ही नहीं है।
१३. स्त्रीशिक्षा-प्रदर्शन - पुस्तक के प्रारम्भ में प्रासंगिक बोध शीर्षकान्तर्गत, दया, दान, दम, दक्षता, दौलत जातां, दुःख भाँजे, दीनवचन, दुर्जन ऊपर, दीन-दु:खी पर का वर्णन करते हुए आप ने कहा कि इन नव दकारमय गुणों से परिशोभित स्त्री कुलदीपिका कहलाती है। आप ने आगे लिखा है - 'असल में जो महिला सुशील, शिक्षिता एवं सहनशीला होती है। वह स्व-पर को सुधारने और अपने घर को स्वर्ग सदृश बनाने की क्षमता रखती है, जिस जाति, कुल और घर में ऐसी गुणवती स्त्री नहीं होती, वह जाति कुल या घर संसार में नहीं के समान है।
इस पुस्तक में हरिगीत छंद के माध्यम से चार छंदों में आप ने विद्या का महत्त्व भी प्रतिपादित किया है। इसके पूर्व सद्गुणवती स्त्रियों के लक्षण भी बताए हैं, जो काव्यमय (दोहों में) हैं। पुस्तक में कुछ दृष्टांत भी दिए गए हैं साथ ही खराब स्त्रियों के चाल-चलन पर विचार करने के बाद स्त्रियों के उत्तमादि भेद भी बताए गये हैं। इस लघु पुस्तक में अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख है, जो आज भी प्रासंगिक है। पुस्तक के अंत में पुस्तक में आए हुए सुभाषित दिए गए हैं। यह भी संकेत दिया गया है कि कौन-सा सुभाषित कौनसे पृष्ठ पर आया है। कुल ४३ सुभाषित बताए गए हैं।
१४. श्री साध्वीव्याख्यान-समीक्षा - यह एक निबंध है, जिसे पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करवाया गया। आंतरिक उद्गार में आप ने लिखा है - 'वर्तमानकाल में खरतरगच्छ आदि गच्छों में साध्वियों को सूत्राभ्यास करने एवं व्याख्यान देने का निषेध नहीं है। इससे उन गच्छों की साध्वियाँ अपनी बुद्धि के अनुसार व्याकरण, सूत्र और प्रकरण ग्रंथों का अभ्यास करती हैं और जनता में उपदेश प्रदान करके अपने अभ्यस्त ग्रन्थों का सदुपयोग भी करती हैं।'
मा 'तपागच्छ में अपनी सत्ता के पुजारी आचार्यों के कपोल-कल्पित प्रतिबंध के कारण साध्वियाँ न तो सूत्राभ्यास कर पाती हैं और न स्व-पर की प्रगति के लिए अपना कदम उठा सकती हैं।'
वस्तुतः साध्वियों पर लगे इस प्रतिबंध के सत्य को परखने के लिए ही यह निबंध लिखा गया था। विभिन्न प्रमाणों से आप ने यह स्पष्ट किया कि जैन शास्त्रों के अवलोकन और मनन से पता लगता है कि पाँच महाव्रत, अष्ट प्रवचन माता, छह काया का संरक्षण, ब्रह्मचर्य-पालन, विशुद्ध पिंडग्रहण, अप्रतिबद्ध विहार, स्वाध्याय, ध्यान आदि क्रियाओं का जिस प्रकार साधुओं को परिपालन करना पड़ता है, उसी प्रकार साध्वियों को भी परिपालन करना पड़ता है। इस विषय में दोनों में बहुत कुछ समानता है।
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इसलिए साधु के समान यदि साध्वियाँ भी ग्राम नगरों में मर्यादापूर्वक विहार करती हुई स्त्री-पुरुष मिश्रित सभा में या महिलाओं की सभा में व्याख्यान प्रदान करें, तो इसमें शास्त्रकार कुछ दोष नहीं मानते और न उसका विरोध करते हैं।
अंत में शास्त्रकारों द्वारा व्याख्यान देने के लिए बनाए गये नियम भी दिए गये हैं। नियम देखें -
अकेली या अनेक स्त्रियों की सभा में साधुओं को और अकेले या बहुत पुरुषों की सभा में साध्वियों को व्याख्यान नहीं देना चाहिए। पुरुष एवं स्त्रियों की संयुक्त सभा में व्याख्यान में कोई आपत्ति नहीं है।
साधुओं को अकेले पुरुषों की सभा में तथा साध्वियों को अकेली स्त्रियों की सभा में अपनी मर्यादानुसार उपदेश देने में किसी तरह की दोषापत्ति नहीं है, यह मर्यादा निर्दोष है।
विशेष कारण की उपस्थिति में धार्मिक महालाभ की सम्भावना होने पर अकेले पुरुषों की सभा में साध्वियों व्याख्यान दे सकती हैं, परन्तु शास्त्रों की यह आज्ञा आपवादिक है । सदा आचरण में लेने योग्य नहीं है। यही बात अकेली स्त्रियों की सभा में साधु-विषयक भी समझना चाहिए।
इन बातों से यह सिद्ध होता है कि अपनी मर्यादा का पालन करते हुए साध्वियाँ व्याख्यान दे सकती हैं। उनके व्याख्यान देने और सूत्राभ्यास करने पर जो प्रतिबंध वाली बात कही गई है, वह सत्य नहीं है। आप ने इस विषय पर अपनी लेखनी चलाकर बहुत बड़े विवादास्पद विषय का निर्णय किया। ऐसा करना आप जैसे समर्थ आचार्य के साहस का ही कार्य है।
१५. श्री पौषध-विधि तथा अक्षयनिधितप - विधि इस पुस्तक में पौषध विधि तथा अक्षय निधि तप की विधि पर प्रकाश डाला गया है। प्रासंगिक प्रदर्शन में पौषध के पाँच अतिचार, पौषध के 'अठारह दोष तथा सामयिक के बत्तीस दोष भी बताए गए हैं। इस पुस्तक में इस बात का भी उल्लेख किया गया है कि यह तप कितना प्रभावशाली है और इसके आराधन से क्या लाभ मिलता है। इसमें कुछ कथा प्रसंगों को भी स्थान दिया गया है। पुस्तक हर काल में उपयोगी है। उक्त तपों के आराधकों के लिए इसका उपयोग करना हितकर है।
१६. कुलिंगवदनोद्गार-मीमांसा - आगमोदय समिति के नियंता महानुभाव सागरानन्द सूरिजी ने अपनी योग्यता का परिचय दिखलाने वाली एक यतीन्द्रमुख चपेटिका नाम की छोटी-सी पुस्तिका प्रकाशित की थी। इस पुस्तक में उसी का अकाट्य युक्ति और प्रमाणों से सभ्यतापूर्वक उत्तर दिया गया है। इसी पुस्तक से घबराकर सागरानन्द सूरि बिना शास्त्रार्थ किए ही पाँचवीं बार भी मारवाड़ से पलायन कर गए थे।
१७. जैनर्षिपट निर्णय - भगवान श्री महावीर स्वामी के सर्वमान्य शासन को मान्य करने वाले साधु और साध्वियों के लिए शास्त्रानुसार श्वेत मानोपेत और जीर्णप्राय अल्पमूल्य वस्त्र ही धारण करना चाहिए, रंगीन नहीं। इसी विषय को सुदृढ़ बनाने के लिए इसमें जैनागम और प्रामाणिक बहुश्रुताचार्यों द्वारा रचित ग्रंथरत्नों के ५१ पाठ मय हिन्दी- भावार्थ के दिए गए हैं।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व १८. जिनेन्द्र गुणगान-लहरी - इस पुस्तक में विश्व पूज्य चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों के चैत्य वन्दन ८८, स्तुतियाँ २२, स्तवन ७०, गुरु-गुणगर्भित स्तवन ११ और गुंहलियाँ ५ सन्दर्भित हैं। जिन गुणगान और गुरु कीर्तन के लिए यह पस्तक अत्यंत उपयोगी है।
यहाँ हमने आचार्य भगवंत द्वारा रचित चरित्र-साहित्य तथा कुछ अन्य साहित्य का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है। आचार्यश्री की इतिहासपरक रचनाओं, प्रवचनसाहित्य, विहार-दिग्दर्शन तथा पूजा साहित्य को सम्मिलित नहीं किया है। ऐसा इस दृष्टि से किया गया है कि इतिहास, प्रवचन एवं विहार साहित्य पर पृथक से लेखन की अपेक्षा है। हमारे संक्षिप्त अनुशीलन से स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य भगवंत द्वारा रचित साहित्य महत्त्वपूर्ण तो है ही, साथ ही आज भी प्रासंगिक है। इनमें से कुछ पुस्तकों का सर्वजन हिताय पुनर्प्रकाशन आवश्यक प्रतीत होता है।
संदर्भ १. स्त्री शिक्षा - प्रदर्शन, पृष्ठ - ५ २. श्री साध्वी व्याख्यान - समीक्षा, पृष्ठ – २
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व – भूगोलवेत्ता आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरिजी म.
सेठ सुजानमल जैन राजगढ़ (ट्रस्टी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ)....
जो प्रातः स्मरणीय. विश्व पूज्य गुरुदेव जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के परम पावन श्रीचरणों में संयम अंगीकार करने के पश्चात् आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने अपना सारा ध्यान गुरुसेवा और अध्ययन की ओर लगा दिया था। सूरि पद पर अलंकृत होने के पश्चात् तो ज्ञानाराधना के क्षेत्र में आप और भी अधिक दत्तचित्त हो गए थे। आप ने कुछ ऐसे विषयों पर भी ध्यान दिया, जिन पर प्रायः जैनमुनि नहीं के बराबर लिखते हैं। आप ने अपनी विहार-यात्राओं को पुस्तकाकार रूप प्रदान किया और इन पुस्तकों में आप ने नगर से नगर की दूरी गाँव से गाँव की दूरी, ठहरने योग्य स्थान की जानकारी तो दी ही है। इस जानकारी से विहार करने वाले जैन साधु-साध्वियों को आज भी सुविधा होती है। इस दृष्टि से आप का यह साहित्य आज भी जीवंत है। आप ने अपने इस प्रकार के साहित्य में इतिहास विषय पर भी अपना ध्यान दिया और तीर्थ स्थानों का इतिहास, ग्राम-नगरों का इतिहास, तत्रस्थ जैन मंदिरों में विद्यमान प्रतिमाओं के लेखों का संग्रह तथा अन्य उपयोगी लेखों का संग्रह कर एक स्तुत्य कार्य किया है। आप ने अपनी पुस्तक 'मेरी निमाड़ यात्रा' में भूगोल-विषयक जानकारी का इस प्रकार लेखन किया है, जैसे एक भूगोलवेत्ता करता है।
जैन धर्म में भूगोल-विषयक साहित्य भी काफी है। पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा आदि के विषय में जैनदृष्टि कुछ भिन्न है। हमारा उद्देश्य यहां वह सब प्रस्तुत करना नहीं है, हम तो केवल यहां यह प्रमाणित करने का प्रयास करेंगे कि आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का भूगोल विषयक ज्ञान किसी भूगोलवेत्ता से कम नहीं था। जिस प्रकार एक भूगोलवेत्ता किसी क्षेत्रविशेष का भूगोल विषय की दृष्टि से वर्णन करता है। ठीक उसी प्रकार का वर्णन कर आपने यह प्रमाणित कर दिया है कि आप किसी भूगोलवेत्ता से कम नहीं हैं। 'मेरी निमाड़ यात्रा' पुस्तक का प्रारम्भ ही आप ने निमाड़ और उसके विभाग से किया है। इसमें आप ने लिखा है - 'प्राचीनकाल में इस परगने का महू से बराड़ और दोहद से खण्डवा तक विस्तार था। वर्तमान में महू से विंध्याचल और जोबट से खण्डवा तक का प्रदेश निमाड़ माना जाता है। कतिपय इतिहासज्ञ नर्मदा नदी महिष्मती (महेश्वर) के आसपास के प्रदेश का नाम 'अनूपदेश' और बराड़ प्रांत जिस समय इसमें सम्मिलित था, उसके कारण विदर्भ देश कहते हैं।' (पृष्ठ १) यह निमाड़ की सीमा हुई।
आप ने इस प्रदेश के नाम पर भी विचार किया है और बताया है कि इस प्रदेश का नाम नम्याट या नम्यार भी था, जो बिगड़कर वर्तमान में निमाड़, नीमाड, नेमार या नीमार हो गया। इसके पश्चात् आपने यह स्पष्ट किया है कि इस प्रदेश की राजधानी माहिष्मती को किसने और कब बसाया था तथा यह प्रदेश कब-कब किस-किसके अधीन रहा। आगे आप ने इस प्रदेश के दो विभाग बताते हुए तथा उसकी तहसीलों के नाम देते हुए क्षेत्रफल बताया है।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व कृतित्व
माड़ के दोनों विभागों का जो क्षेत्रफल आप ने बताया है कि वह १०६६३ वर्ग फीट है। नेमाड़ की प्राकृतिक सीमा बताते हुए भी आप ने लिखा है कि निमाड़ के उत्तर में विंध्याचल, दक्षिण में सतपुड़ा, पूर्व में गंजाल नदी और पश्चिम में हरिणफाल वन है। यह प्रांत २१-५ से २२-३५ उत्तरी अक्षांश और ७४-३५ से ७७-१३ पूर्व रेखांतर के बीच अवस्थित है।
विंध्य और सतपुड़ा ये दो पर्वत ही इस प्रांत की उत्तरी तथा दक्षिणी सीमाओं के बोधक है। नर्मदा नदी मानो इनकी विभाजक रेखा है, जो इनके मध्य में बहकर दोनों भूधरों को विभिन्न दिखाती है। आगे आप ने सतपुड़ा की चोटियों की ऊँचाई भी बताई है, फिर विंध्याचल की ऊंचाई बताते हुए उसके प्रारम्भ से लेकर विस्तार तक की चर्चा की है। इस क्षेत्र में बसे प्रमुख ग्राम-नगरों के नामों के साथ ही प्रमुख घाटों के नामों का भी उल्लेख किया गया है। आपने पाताल पानी नामक प्रसिद्ध झरने का नामोल्लेख कर बताया गया है कि आगे चलकर यह चोरल नदी बन गया है।
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सतपुड़ा और विंध्याचल का विवरण देकर आप ने नेमाड़ की नदियों का वर्णन किया है। इनमें प्रमुख नर्मदा नदी है। निमाड़ में इसकी लम्बाई १६८ मील बताई गई है। आप के अनुसार नर्मदा की कुल लम्बाई ७५० मील है। नर्मदा नदी में मिलने वाली नदियों के नाम भी आप ने बताए हैं। निमाड़ में छोटी तवा, सुक्ता, कुन्दा, बेदा, डेव और गोई नदियाँ दक्षिण से तथा बोगदी, चन्दकेसर, चोरल महेसरी, याद, बागनी और हाथिनी उत्तर से मिलती हैं। ताप्ती नदी का विवरण भी दिया गया है।
आप ने आगे बताया कि पेमगढ़ से पांच मील दूर नर्मदा के उत्तरी तट पर धाधरी स्थान के पास नर्मदा का सबसे बड़ा जलप्रपात है, जो बड़ी चट्टान को फोड़कर पचास फीट की ऊँचाई से गिरता है। इसके साथ जो पत्थर गिरते हैं, वे नीचे के जलगत पत्थरों के साथ टकरा कर गोल बन जाते हैं। वैष्णव लोग उनको बाणलिंग समझकर अपने घरों या देवालयों में रखकर पूजते हैं (पृष्ठ ७) । नर्मदा तट के दोनों ओर हिरफ फाल जंगल का उल्लेख भी किया गया है। आगे वनों में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के वृक्षों के नाम दिए गए हैं ( पृष्ठ ८) ।
निमाड़ की जलवायु की चर्चा करते हुए आप ने लिखा है कि निमाड़ में १६ मार्च से ग्रीष्मकाल शुरू हो जाता है। ११८ डिग्री तक गर्मी पड़ती है । २५-२६ इंची वर्षा पर्याप्त है। कभी-कभी ३० इंच तक भी वर्षा हो जाती है। यह प्रांत समुद्र की सतह से १०५० फीट ऊँचा है। इस कारण वर्षा कम और गर्मी अधिक रहती है। आगे इस क्षेत्र में होने वाले रोगों का उल्लेख है।
आप ने उससमय के निमाड़ के यातायात के साधन, जनसंख्या और शिक्षा के साथ ही व्यवसाय और अंधविश्वासों की भी चर्चा की है। ये अंधविश्वास किसी न किसी रूप में आज भी प्रचलित हैं। इतना वर्णन करने के पश्चात् आप ने निमाड़ी की भाषा और सभ्यता पर भी प्रकाश डाला है। हिन्दी का कौन-सा शब्द निमाड़ में कैसे परिवर्तित होता है ? इसका आप ने उदाहरण सहित वर्णन किया है। इससे भाषाविज्ञानविषयक आप के तलस्पर्शी ज्ञान का पता चलता है। उदाहरणार्थ
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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
ए के बदले अ, हाथ के बदले हात्त, नीम के बदले लीम, कहता है के बदले कयज या कयच ।
भाषा-सम्बन्धी यह विवरण बहुत ही उपयोगी एवं रोचक है। अपनी इस पुस्तक में आप ने निमाड़ के कुछ नगरों, ग्रामों और जैन तीर्थ-स्थानों का भी वर्णन किया है। कुल मिलाकर केवल इसी एक पुस्तक में मिलने वाले विवरण के आधार पर आप को एक भूगोलवेत्ता कहा जा सकता है। यदि इस विषय पर आप और अधिक लिखते तो आप की ख्याति एक भूगोलवेत्ता आचार्य के रूप में होती ।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व एक सकल्प-एक स्वप्न
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आनन्दीलालजी संघवी, कामना कियामागाट गाजावरा...
संवत् १९५४ में बालक रामरत्नराज गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के करकमलों से दीक्षित होकर खाचरौद से जावरा की ओर विहार करने आ रहे थे। जावरा नगर की सीमा में प्रवेश करते हुए भगतजी की बावड़ी के पास आकर साथ के वरिष्ठ मुनिवृन्द नवदीक्षीत मुनि यतीन्द्र विजयजी को एक वृक्ष की ओर इशारा करते हुए बताते हैं 'यही वह पुण्य धरा है, जहाँ आचार्यश्री ने आषाढ़ वदी १० संवत् १९२५ को क्रियोद्धार किया था। और साध्वाचार में आए हुए शिथिलाचार के विरुद्ध शंखनाद किया था।" बालमुनि यतीन्द्र विजयजी मन ही मन उस धारा को नमन करते हैं और अन्तर्मन में प्रार्थना करते हुए संकल्प करते हैं कि हे गुरुदेव मुझे शक्ति दो, सामर्थ्य दो और आशीर्वाद दो कि मैं अपने जीवन में आपसे जुड़ी हुई इस पावन धरा को जन-जन की आस्था का केन्द्र बना सकूँ और यहाँ की पवित्र रज को अपने माथे पर लगाकर आपका हर अनुयायी धन्य हो सके।
निरंतर अध्ययन, विहार और साहित्य साधना के बीच भी इस पावन भूमि पर लिया गया संकल्प सदैव याद आता रहता और मुनि यतीन्द्र विजयजी इसके लिए कुछ चिंतन करते ही रहते।
संवत् १९६३ में गुरुदेव के देवलोक गमन के पश्चात् आपका दायित्व कुछ बढ़ा। अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रकाशन और सम्पादन का गुरुतर भार मुनिश्री के कंधों पर आ गया, जिसे आपने अपनी सम्पूर्ण योग्यता और क्षमता से वहन किया तथा गुरुदेव की इस अमूल्य धरोहर को प्रकाशित करवा कर विश्व के विद्वत् समुदाय में अपने गुरु की साख को स्थापित किया।
समय वर्ष प्रतिवर्ष बीतता गया। संकल्प की स्मृति का प्रकाश मन के अंदर ही अंदर आलोकित होता रहा और आया संवत् २०१३-श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में गुरुदेव के निर्वाण का अर्द्ध-शताब्दी महोत्सव का भव्य आयोजन। आपने मन में एक विचार, एक संकल्प और किया कि 'गुरुदेव ! आपकी इस निर्वाण भूमि को मैं भारत के जैन तीर्थों के नक्शे पर स्वर्णाक्षरों में उतारूँगा।' और तभी से जावरा और श्री मोहनखेड़ा दोनों ही स्थानों के विकास के स्वप्न सँजोए जाने लगे। समाज इतने समय में आपसे इतना प्रभावित हो गया था कि आपके एक आदेश पर सब कुछ करने को तैयार था। और आया संवत् २०१५ का वह स्वर्णिम वर्ष, आचार्य श्री के रूप में यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का जावरा में चातुर्मास। जावरा श्रीसंघ के श्रद्धावान् वरिष्ठ श्री हीरालाल लोढ़ा, बालचन्द्र मेहता, श्री सोभागमल बरमेचा, श्री हुकमीचन्द ललवानी, श्री प्रेमचन्द लोढा, श्री कुन्दनमल जी चोरड़िया, श्री माँगीलाल चपड़ौद, श्री लालचन्द मेहता, जेठमल रुणवाल, फतेहलाल नाहटा आदि श्रावकों की उपस्थिति में श्री हीरालालजी लोढ़ा ने अपनी बात रखते हुए आचार्यश्री के समक्ष जावरा में गुरुतीर्थ निर्माण का प्रस्ताव रखा।
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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व -
आचार्य श्री द्वारा अपनी बाल्यावस्था में लिए गए संकल्प की सफलता की स्वर्णिम वेला उपस्थित थी। आचार्यश्री ने श्रीसंघ को सम्बोधित करते हुए गुरुतीर्थ निर्माण की भावना प्रकट की और इस योजना को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। साथ ही अपनी गद्दी के उत्तराधिकारी मुनिराज श्री विद्या विजयजी एवं गुरुदेव की क्रियोद्धारक पुण्य भूमि में ही जन्मे बाल मुनि देवेन्द्र विजयजी एवं जयप्रभविजयजी को इस योजना तथा अपने संकल्प और ध्येय से अवगत कराते हुए इस स्वप्न को शीघ्रातिशीघ्र साकार करने के निर्देश दिए।
स्वप्न तो सबने अपनी आँखों में सँजोये रखा था। स्वप्न की साकारता का शुभारम्भ हुआ। आचार्यश्री के आदेशाअनुसार भूमि प्राप्त करने का निर्णय लिया इतना होजाने पर भी श्रीसंघ को भूमि का वास्तविक कब्जा लेने हेतु बहुत प्रयास करने पड़े।
-कृतित्व
यद्यपि इस पुण्य भूमि के स्वप्नदृष्टा का तो संवत् २०१७ की पौष सुदि ३ को देवलोक गमन हो गया था, लेकिन उनका आदेश वर्तमान आचार्यश्री विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., मुनिराज श्री देवेन्द्र विजयजी एवं जयप्रभ विजयजी के कानों में आज भी गूँज रहा था और वे सब अपने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए इसके लिए प्राण-पण से समर्पित थे।
आचार्यश्री की प्रेरणा से मिती सं. २०२८ आसोज सुदि १० संवत् को जावरा के ही श्रेष्ठी श्री लालूरामजी लूकड़ के करकमलों से श्री राजेन्द्र सूरि जैन दादावाड़ी का भूमि-पूजन होने के बाद श्री जेठमलजी रुणवार की अध्यक्षता में कार्य प्रारम्भ हुआ। आचार्यश्री एवं मुनिद्वय की प्रेरणा से गुरुभक्तों ने इस गुरु तीर्थ - निर्माण हेतु राशि प्रेषित करना प्रारम्भ कर दिया।
जब जावरा श्रीसंघ के प्रतिनिधि मुनिद्वय के पत्रों के साथ जैन संग्रह करने हेतु बम्बई पहुँचे, तब परम पूज्य ज्योतिषाचार्य ज्योतिष सम्राटशिरोमणि मुनि प्रवर श्री जयप्रभविजयजी श्रमण के उपदेश से भीनमाल के एक गुरुभक्त श्री मूलचन्दजी फूलचन्दजी बाफणा ने इस परम पवित्र भूमिपर गुरु मंदिर अपनी तरफ से बनवाने की भावना प्रकट की। श्रीसंघ के सदस्यों ने आचार्यश्री एवं मुनिद्वय से चर्चा कर बाफना परिवार को अपनी सहमति प्रदान की।
श्रद्धावान् गुरुभक्तों की निर्माण समिति ने अपनी पूर्ण योग्यता से कार्य करते हुए जल्दी ही निर्माण को प्रतिष्ठा की स्थिति तक पहुँचा दिया और जावरा श्रीसंघ ने खाचरौद में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्य श्री विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. एवं मुनि मण्डल से जावरा पधार कर इस प्रथम गुरु तीर्थ में गुरुदेव की मनोहारी प्रतिमा प्रतिष्ठित करने की विनती करते हुए मुहूर्त प्रदान करने का आग्रह किया।
आचार्यश्री ने ज्योतिष विशारद मुनिराज श्री जयप्रभ विजयजी श्रमण एवं मुनि-मण्डल से विचारविमर्श के पश्चात् अगहन सुदी ५ संवत् २०३० को प्रतिष्ठा का मुहूर्त प्रदान किया। मुहूर्त पाते ही जावरा में प्रसन्नता के समुद्र में ज्वार आ गया। समाज के समस्त सदस्यों ने विभिन्न समितियों के माध्यम से अपनेअपने दायित्वों को ग्रहण किया और उन्हें पूर्ण करने में जुट गए।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्ध : व्यक्तित्व-कृतित्व आचार्यश्री एवं मुनि-मण्डल खाचरौद वर्षावास सम्पूर्ण कर जावरा पधारे और कार्यक्रम की तैयारियों ने नई ऊँचाइयाँ प्राप्त की। दादावाड़ी-प्रांगण और नई मंडी का विशाल क्षेत्र कार्यक्रम स्थल बन चुके थे। सभी गुरुभक्तों का प्रवाह जावरा की ओर था और जावरा का समस्त जैन समाज अतिथि-भक्ति का लाभ लेने को तत्पर था।
अगहन् सुदी ५ का स्वर्णिम प्रभात, जावरा के इतिहास का एक स्वर्णिम दिन । आज गुरुदेव की मूर्ति का विशाल चल-समारोह तथा प्रमुख गुरुभक्तों की शोभयात्रा नगर में निकलने वाली थी। ज नगर तोरण द्वारों से सजा हुआ था। नगर में चल समारोह के लिए निर्धारित सम्पूर्ण मार्ग फूलों और गुलाल से सराबोर हो गया था।
नगर के बुजुर्गों का कहना था कि 'हमने ऐसा चल समारोह अपने जीवन में पहली बार देखा है।' इस तीर्थ में गुरुमंदिर निर्माण के सहयोगी श्री मूलचंदजी बाफना तथा इस तीर्थ में पेढ़ी के संस्थापक श्री किशोरचन्दजी वर्धन ने जावरा में पाए स्नेह को अपने जीवन की अविस्मरणीय उपलब्धि अवसर बताया।
अगहन सुदी ५ का रत्नजडित प्रभात । हर कदम दादावाड़ी की ओर बढ़ रहा है। उत्साह और उमंगों के बीच श्रद्धा से परिपूर्ण वातावरण। जय-जयकार के घोष के मध्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., मुनिराज श्री देवेन्द्र विजयजी म.सा., मुनिराज श्री जयप्रभ विजयजी श्रमण तथा मुनि मंडल साध्वी मंडल की उपस्थिति में प्रातः स्मरणीय विश्व वंद्य गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की मनमोहिनी मूर्ति की प्रतिष्ठा विधि आचार्यश्री ने पूर्ण कराई और इसी के साथ अपने गुरु के संकल्प की पूर्ति का पुष्प गुरुदेव के चरणों में अर्पित किया।
आज यह गुरु तीर्थ एक रजिस्टर्ड ट्रस्ट के माध्यम से अपने परामर्शदाता ज्योतिषाचार्य शासन - दीपक मुनिराज श्री जयप्रभ विजयजी श्रमण के मार्गदर्शन में आवास एवं भोजन शाला युक्त विशाल परिसर वाले तीर्थ का स्वरूप ग्रहण करता जा रहा है। यहाँ प्रतिवर्ष आषाढ़ वदी १० को लगने वाला क्रियोद्धारक दिवस मेला आज भी उन स्मृतियों को नवीन चेतना से भर देता है, जब गुरुदेव ने यहाँ की रज को अपने स्पर्श से पवित्र किया था।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व श्रीमद् यतीन्द्र सूरि - एक परिचय
अचलचन्द जैन, Ex-Block Development officer (B.D.O.)
सायला (जि. जालौर)
लक्ष्मणी तीर्थ के संस्थापक, विद्वान् और इतिहासप्रेमी श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का जैनाचार्यों में विशिष्ट स्थान है, क्योंकि “दूसरों की भलाई ही मनुष्य का आभूषण है" इसे आपे जीवन में कर दिखाया। यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का जन्म विक्रम संवत् १९४० में धौलपुर (राजस्थान) नगर में हुआ। आपका जन्म नामरामरत्न था। आपकी माताश्री का नाम चम्पाकँवर एवं पिताश्री का नाम रायसाहब ब्रजलाल जी था। अल्पायु में ही माताश्री एवं भ्राता के देहावसान के कारण इनके पिता अपनी ससुराल भोपाल में आकर बस गये। परन्तु चिन्ता एवं उदासीनता के कारण थोड़े वर्षों में ही ब्रजलालजी ने भी देह त्याग दी।
पिताश्री के देहत्याग के पश्चात् इनका भरण-पोषण इनके मामा श्री ठाकुरदास करने लगे। इनके मामाश्री निःसंतान थे, परन्तु स्वभाव से चिड़चिड़े थे। वे छोटी-छोटी बातों पर रामरत्न को फटकार देते थे। कभी-कभी तो वे ऐसे शब्दों का भी प्रयोग कर बैठते थे, जो प्राणवान् प्रतिभाशाली बालक रामरत्न सहन नहीं कर पाता था।
एक बार रामरत्न उज्जैन के सिंहस्थ मेले में गए और रात्रि को नाटक आदि देखकर देर से घर पहुँचे, जिस पर इनके मामाश्री अत्यन्त क्रोधित हुए और उन्होंने कहा, - “यही स्वभाव रहा तो मांगकर खाओगे। जो मैं नहीं होता तो तुम्हें रगड़-रगड कर मरना पड़ता।" मामाश्री के ये शब्द रामरत्न के हृदय में तीर की तरह चुभ गए और आपने तुरन्त मामा का घर त्याग दिया और महिदपुर में आकर रुके।
महिदपुर में आपकी भेंट सरस्वतीपुत्र आचार्यदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी से हुई। वहाँ रामरत्न ने विनयूर्वक आचार्यदेव से दीक्षा हेतु निवेदन किया। कहते हैं कि “होनहार विरवान के होत चिकने पात" रामरत्न की योग्यता और विनयशीलता को देखकर आचार्य श्री ने विहार में साथ रहने एवं योग्य अवसर पर दीक्षा देने का विश्वास दिलाया। म विक्रम संवत् १९५४ की आषाढ़ वदी २ को खाचरौद में आचार्य भगवन् श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने रामरत्न को भारी जनसमूह की उपस्थिति में भागवती दीक्षा प्रदान की और आपका नाम यतीन्द्र विजय रखा। दीक्षा के समय आपकी आयु मात्र १४ वर्ष की थी। आचार्यश्री की के निर्देशन में आपने तीव्रगति से परिश्रमपूर्वक अध्ययन प्रारम्भ किया। प्राकृत एवं संस्कृत दोनों भाषाओं में आपने जैनागम-सूत्रों, व्याकरण, छन्द, साहित्य तथा धर्म के सभी मूल ग्रन्थों का समुचित अध्ययन दस वर्ष की अवधि में पूर्ण कर ख्याति अर्जित की।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व कृतित्व
श्रीयतीन्द्रसूरिजी, राजेन्द्रसूरिजी के उन विद्वान् शिष्यों में से एक हैं, जिन्होंने अपने गुरु के कार्यों को निष्ठापूर्वक आगे बढ़ाया। साधु जीवन में आपके केवल दो ही उद्देश्य थे - गुरुसेवा और अध्ययन। विद्या - व्यसनी होने के कारण आप गुरु के कृपापात्र शिष्य थे।
आचार्य देव राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने देहत्याग के पूर्व 'अभिधानराजेन्द्रकोष' के सम्पादन और प्रकाशन का गुरुत्तर भार मुनि श्री दीप विजय (बाद में श्रीमद् भूपेन्द्रसूरीश्वरजी के नाम से विख्यात) एवं मुनिश्री यतीन्द्रविजय (बाद में श्रीमद् यतीन्द्र सूरीश्वरजी के नाम से विख्यात) को सौपा। उस समय यतीन्द्र विजयजी को दीक्षा लिए हुए केवल ९ वर्ष ही हुए थे। परन्तु आप और दीप विजयजी ने योग्यता, विद्वत्ता एवं परिश्रम से इस गुरुत्तर भार के स्वीकार कर विक्रम संवत् १९७८ में 'अभिधानराजेन्द्रकोष' के सातों भागों का सम्पादन और मुद्रण पूर्ण कर लिया जो अपने आप में अनूठी बात थी । यह आपकी साहित्य साधना, ,नियम पालन और दृढ़ प्रतिज्ञ होने का प्रमाण है।
विश्व विख्यात ‘अभिधानराजेन्द्रकोष' वर्ण-माला के अक्षरों में निम्नानुसार ७ भागों में विभक्त है
(१) अ - पृष्ठ १०२६ (२) आ - पृष्ठ ११९२ (३) इ से छ तक - पृष्ठ १३७९ (४) ज से न तक - पृष्ठ २७९६ (५) प से भ तक - • पृष्ठ १६३६ (६) म से व तक- पृष्ठ १४६६ (७) श से ह तक- पृष्ठ १२४४
विश्व के चोटी के इस संदर्भ ग्रंथ में जैन शास्त्रों, आगम कथा कोषों में प्रयुक्त समस्त प्राकृत शब्दों का संकलन है। प्रत्येक प्राकृत शब्द से प्रारम्भ और प्रसिद्ध हुई पुस्तक में कथा, कहानी, पुरुष, ग्राम, नगर, सूक्ति आदि अनेक बातों का विशद् साहित्यिक और ऐतिहासिक वर्णन है।
बागरा में श्रीमद् विजयधनचन्द्र सूरीश्वरजी की आज्ञा पाकर यतीन्द्रविजयजी व्याख्यानपीठ पर पधारे और जनप्रिय रोचक शैली में देशना प्रारम्भ की। सभा खचाखच भरी हुई थी। परन्तु व्याख्यान के दौरान एक भी व्यक्ति न तो उठा और न बोला। सम्पूर्ण सभा मंत्रमुग्ध होकर व्याख्यान सुनती रही । जनताजनार्दन को व्याख्यान द्वारा मंत्रमुग्ध करने के कारण व्याख्यान की समाप्ति के बाद आपको परम पूज्य चर्चा चक्रवर्ती आचार्य श्रीमद्विजय धन चन्द्रसूरीश्वरजी म. ने चतुर्विध श्रीसंघ की विशाल सभा में 'व्याख्यान वाचस्पति' की उपाधि से विभूषित किया । एक सफल जैनाचार्य के रूप में आपकी ओजस्वी एवं प्रभावशाली वाणी सदैव जनसभाओं में गूँजती रही और समाज का कल्याण करती रही। इस तरह 'व्याख्यानवाचस्पति' की उपाधि आपके लिए पूर्ण रूप से सार्थक है।
आप ने न केवल पालीताणा, गिरनार, अर्बुदगिरी, श्री मोहनखेड़ा, जैसलमेर, कच्छ भद्रेश्वर एवं गोड़वाड़ पंचतीर्थी आदि की संघसहित यात्राएँ कीं, अपितु इन संघ - यात्राओं का वर्णन श्री यतीन्द्र-विहार दिग्दर्शन भाग - १, २, ३, ४ और श्री कोरटाजी तीर्थ का इतिहास, मेरी नेमाड़ यात्रा, मेरी गोड़वाड़ यात्रा, श्री भाण्डवपुर तीर्थ, श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ आदि पुस्तकों में किया है।
इसके अलावा त्रिस्तुतिक की प्राचीनता, गौतमपृच्छा, सत्यबोध - भास्कर, गुणानुरागकुलक, जैनर्षिपट्टनिर्णय, श्री भाषणसुधा, समाधान- प्रदीप एवं "प्राग्वाट इतिहास" आदि अन्य प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। ये ग्रन्थ लिखकर आपने इतिहास - पुरातत्त्व की महान् सेवा की है। ये ग्रन्थ आपके इतिहासप्रेम को प्रदर्शित करते हैं। आपने मूर्तिलेख
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व और शिलालेखों का भी पर्याप्त संग्रह किया है, जो इन ग्रंथों में यथास्थान सप्रसंग आए हैं। "श्री जैनप्रतिमालेखसंग्रह" नाम से आपके द्वारा संग्रहीत लेखों का एक स्वतंत्र ग्रन्थ भी प्रकाशित हुआ है।
___साहित्यरचना के साथ-साथ श्री यतीन्द्रसूरिजी ने १४ वर्ष की अवस्था से ही समाजसेवा का व्रत अंगीकार कर पैदल विहार करते हुए गाँव-गाँ कर सामाजिक व धार्मिक उपदेश देकर मानवता का कल्याण किया। आपने चारित्र, न्यायनीति, आचारव्यवहार, साहित्यसाधना, धर्मभावना, समाजसेवा आदि सभी क्षेत्रों में प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
आप के करकमलों से लगभग ५० प्रतिष्ठाअंजन शलाकायें, ११००० मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा, ५६ स्वलिखित पुस्तकों का प्रकाशन तथा ३५० सम्पादित एवं संशोधित ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है, जो अपने आप में एक कीर्तिमान् है। धर्म, नीति, समाज इतिहास तथा पुरातत्त्व की दृष्टियों से ये सभी ग्रंथ अधिक उपादेय एवं संग्रहणीय हैं।
आप ने समाज के संगठन, समाज में शिक्षा का प्रचार, समाज के कार्य-कलापों के प्रकाशन व धर्म के प्रचार के उद्देश्य से त्रिस्तुतिक समाज का "शाश्वत धर्म" नाम से मासिक पत्र प्रारम्भ करवाया। तथा उसके आधिकारिक प्रचार-प्रसार पर जोर देकर समाजोत्थान का महत्त्वपूर्ण कार्य किया, जो चिरस्मरणीय रहेगा। स्थानस्थान पर धार्मिक पाठशालाएं भी इसी की कड़ी हैं।
आपने ४० मुनिराजों एवं १५० साध्वियों को दीक्षा प्रदान कर जैन धर्म के शासन में प्रवेश करवाया। लक्ष्मणीतीर्थ, हरजी, आहोर, बागरा, सियाणा, थराद, भाण्डवपुर तीर्थ और वाली की अंजन शलाकाप्रतिष्ठा अत्यन्त प्रसिद्ध और प्रभावकारी रही है। इनमें से अधिकांश प्रतिष्ठानों का वर्णन "श्री गुरुचरित" नामक पुस्तक में है। प्रकाशित पुस्तकों के विक्रय के लिए "श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय", श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रसिद्ध है।
आप के तत्वावधान में सियाणा, गुढाबालोतान पालीताणा, खाचरौद, बागरा, आकोली, राणापुर तथा मोहनखेड़ा में उपधानतपों का आराधन हुआ। जिसमें सैकड़ों श्रावक-श्राविकाओं ने भाग लेकर आत्म कल्याण किया।
- वि.संवत् १९९५ में राजस्थान के आहोर नगर में श्री संघ ने मिलकर आपको गच्छाधीश के पद पर आरूढ़ किया और आप श्रीयतीन्द्र विजय से आचार्य श्री मद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी हो गए। संक्षेप में आपके जीवन की मुख्य विशेषताएँ निम्नानुसार हैं -
(१) अनवरत लेखन (२) विचारों में नवीनता व दृढ़ता (३) धुन के पक्के और लक्ष्य प्राप्ति में तत्पर (४) शरीर से हष्ट पुष्ट तथा विचारों से मजबूत और क्रान्तिकारी (५) गुण-पारखी और नीर-क्षीर विवेक के धनी (६) सरलता और गंभीरता का अद्भुत समावेश (७) स्पष्ट वक्ता तथा छलकपट से दूर (८) जीवन शैली धैर्यपूर्वक संघर्ष करना और कठिनाईयों का दृढ़तापूर्वक मुकाबला करना । मक
दीक्षा शताब्दी के इस पावन अवसर पर परोपकारी आचार्य देव श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी को शत्: शत्: नमन् करते हुए मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता हूँ।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व -
आचार्यश्री के प्रथम पुण्यदर्शन
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मदनलाल जोशी, 'शास्त्री'....
साहित्यिक अध्ययन एवं साहित्यकारों के साथ ही कतिपय अन्य अनुभवशील व्यक्तित्त्वशाली व्यक्तियों के सम्पर्क में रह कर मैं प्राय: यह सुना करता था कि 'यथासाध्य यत्नशील होने पर भी अधिकांश कार्य योगवश ही सम्पन्न होते हैं, वास्तव में अनुश्रुति एवं जीवनगत अनुभूतियों के आधार पर यह स्पष्ट एवं सैद्धांतिक सत्य सा प्रतीत हुआ कि कार्यों की सम्पन्नता एवं उनके साफल्य का सम्पूर्ण श्रेय योग को ही है। यह है योग-संयोग का महत्त्व, जिसको आधुनिक युगीन अधिकांश संस्कृति-विहीन पाश्चात्य प्रेमी अपनी प्रतिष्ठा को रसातल में जाती हुई समझ, हेय दृष्टि से देखते हैं। इधर कतिपय तथाकथित वेगवान् विद्वान् यह समझकर इससे घृणा करते हैं कि यदि उन्होंने योग को महत्त्व दिया तो उन की प्रगतिशीलता कम हो जाएगी। इसलिए कि आज के युग में प्राचीन परम्परा का सर्वथा परित्याग कर, नवीन मार्ग का निर्माण करना ही प्रायः प्रगतिशीलता की परिभाषा है। ऐसी स्थिति में योग को कैसे महत्त्व दिया जा सकता है? स्पष्ट है-तथापि अनुभूतिजन्य तात्त्विक तथ्यों के आधार पर मुझे यह लिखने में तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है कि प्रयत्न करने पर भी जब तक सम्पन्नशीलता का स्वर्णिम संयोग नहीं आता है, तब तक कार्य सम्पन्न होना नितान्त असंभव है। यह मेरा व्यक्तिगत मत है, संभव है अन्यों का इसमें मतैक्य न हो।
महत्त्वसम्पन्न योग की महत्ता के सम्बन्ध में इतना लिखने के पश्चात् यहाँ यह व्यक्त करना भी अनुचित न होगा कि जिस कार्य की हम स्वप्न में भी कल्पना नहीं करते वह कार्य भी केवल संयोग की महत्ता के फलस्वरूप इतनी सफलता के साथ सम्पन्न होता है, जैसे हमने उसको सफल बनाने के हेतु प्रारम्भ से ही तत्परता के साथ रूपरेखा निर्धारित एवं निश्चित कर ली हो।
प्रायः प्रत्येक व्यक्ति के जीवन इसी योग के कारण कभी-कभी ऐसी अकल्पित घटनायें घट जाती हैं, जिनका जीवन से किसी भी समय सम्बन्ध नहीं रहता है।
मेरे जीवन में भी एक बार ऐसा ही स्वर्णिम एवं संस्मरणीय सुन्दर संयोग आया। सहसा एक ऐसी कल्पनातीत घटना घटित हुई कि मैं हर्षोत्फुल्ल तथा आश्चर्यचकित होकर अपने भाग्य की सराहना करने लगा। तबसे मैं योग-संयोग को विशेष महत्त्व देता रहा हूँ।
यौगिक महत्त्व के आधार पर घटित जीवन की जिस आदर्श घटना का मैं निम्न पंक्तियों में चित्रण कर रहा हूँ, उसका शिलान्यास बारह वर्ष पूर्व चातुर्मास के सांस्कृतिक पर्वशील एवं प्राकृतिक मनोहर दिवसों में हुआ था जब मेरे जीवन की कुंडली में किसी शुभ योग ने पदार्पण कर जीवन के इतिहास में एक अभिनव पृष्ठ जोड़ने की धारणा बनाई थी।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व . वि.सं. २००० में जब त्रिस्तुतिक सम्प्रदाय के मुनिश्री कल्याण विजयजी का चातुर्मास मन्दसौर में था, भाद्रपद मास में सहसा मेरा उनसे परिचय होने के पश्चात् उन्होंने मुझे अध्यापन कार्य के हेतु तत्कालीन जोधपुर राज्यान्तर्गत आहोर नामक ग्राम में भेजने का निश्चय करते हुए अपने विचार व्यक्त किए। इस आकस्मिक योग से अत्यधिक प्रभावित हो, मैंने उसी क्षण मालवा से अति सुदूर मारवाड़ तक जाने की अपनी स्वीकृति दे दी। जिस दिन इस चर्चा ने निश्चयात्मक रूप धारण किया। मैंने उसी दिन परिवारिकजनों के मना करने पर भी मालवमही की वंदना करते हुए मारवाड़ की ओर प्रस्थान कर दिया।
मार्ग में मैं इसी विषय पर गंभीरतापूर्वक सोच रहा था कि कहाँ तो शैवमतावलम्बी ब्राह्मण और कहाँ जैन मत के प्रचारक जैनमुनि। दोनों का अकस्मात् संयोग, फलस्वरूप मेरा मारवाड़ की ओर जैन - जगत् में जीवन-यापन करने के हेतु प्रस्थान। ये सब ऐसी घटनायें थीं, जिन पर अनन्यमनस्क होकर विचार करने के साथ ही तन्मयता के सागर में इतना डूब रहा था कि मैं यह नहीं जान पाया कि कब मारवाड़ जंक्शन और कब एरनपुरा रोड आया।
जब मैं आहोर पहुंचा उन दिनों वहाँ स्व. उपाध्याय श्री गुलाबविजयजी म. शांत एवं परमहंस मुनि हंसविजयजी के साथ चातुर्मासिक आवास में विराजमान थे और उन्हीं के नेतृत्व में कतिपय साध्वजी भी वहीं चातुर्मास व्यतीत कर रही थीं। साध्वीसमुदाय की साध्वियों को पढ़ाने का मुझे आदेश हुआ और मैंने उन्हीं के द्वारा निर्धारित शुभ दिन के शुभ मुहूर्त में अध्यापन कार्य करना प्रारम्भ कर दिया।
जैन साध्वी के अध्यापन, जैन साधुओं के सम्पर्क एवं जैन जगत् के वैयक्तिक तथा सामाजिक अनुभवों के आधार पर अल्पावधि में ही मैं त्रिस्तुतिक सम्प्रदाय से पूर्णतया परिचित हो गया था। परिचय की इस पावन वेला में साधु-साध्वी समुदाय, जैन-जनता एवं जैन-साहित्य के द्वारा जिनके शुभ नाम, आदर्श वर्चस्वसम्पन्न व्यक्तित्व, प्रगाढ़ दुष्य, सरस साहित्यिकता, प्रभावोत्पादिनी तेजस्विता और प्रकांड पांडित्ययुत पवित्रशालीनता का परोक्ष परिचयाभास प्राप्त हुआ। उन प्रकांड पंडित सुप्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता व्याख्यानवाचस्पति आगमोदधिपारङ्गत आचार्यश्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के पुण्य दर्शनों के लिए अत्यधिक अधीर हो, समुत्सुक रहने लगा। वेगशील हो आन्तरिक अभिलाषा की । वह अभिलाषा भी जिसके द्वारा आचार्यश्री के पुण्य-दर्शन हों, उत्तरोत्तर वृद्धिङ्गत होने लगी।
अत्यधिक प्रतीक्षा के पश्चात् अन्ततोगत्वा जीवन के सर्वथा विशुभ्र एवं निर्मल आकाश में सहसा एक ऐसे अद्वितीय अनुपम और चिरस्मरणीय सुखकर शुभ संयोग का स्वर्णिम सूर्योदय हुआ जिस की प्रतिभा के पावन प्रकाश में ग्यांकित रेखायें प्रदीप्त हो उठीं एवं आचार्यश्री केपुण्य दर्शनों का स्वर्णावसर प्राप्त हुआ।
जिन दिनों मैं आहोर में था, उन दिनों वहाँ जैन-जनता ने अपने यहाँ के सुप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक विशाल गोड़ी पाश्वर्नाथ मंदिर पर ध्वज-कलशारोहण एवं प्रतिष्ठाअञ्चनशलाका का भव्य समारोह श्रद्धेय आचार्य के करकमलों द्वारा सम्पन्न कराने का निश्चय किया। फलतः समाज के प्रतिष्ठित नागरिक आचार्य श्री के चातुर्मासिक आवास स्थल गये एवं आचार्यश्री से उक्त कार्य सम्पन्न कराने हेतु अग्रिम संवत् २००१ का चातुर्मास आहोर में ही करने की प्रार्थना की। संयोग एवं जनता के सौभाग्यवश आचार्यजी ने इसे स्वीकृत कर समाज को उक्त कार्य के हेतु समुचित निर्देशन भी दिया।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्य : व्यक्तित्व-कृतित्व योग और शुभ संयोग का ही यह महात्म्य एवं प्रभाव था कि दर्शनौत्सुक्य से परिपूर्ण अधीरता ने धीरता का रूप धारण किया और फलस्वरूप चातुर्मासिक आवास करने के हेतु आचार्यश्री द्वारा आहोर पदार्पण करने पर मुझे अनायास ही उन प्रथम पुण्य दर्शनों का सुखमय सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसकी मैंने अपने जीवन के किसी भी जाग्रत अथवा स्वप्निल क्षण में कल्पना भी नहीं की थी।
वि.सं. २००१ का वर्ष प्रारम्भ हो चुका था। अपने शिशु-जीवन के तीन मास भी पार कर लिए थे। इधर आषाढ़ की अंधियारी अमाँ भी विदा ले रही थी कि आचार्य श्री के पदार्पण की शुभ सूचना ने नगर के स्थावर-जंगम, अर्थात् जन-जन के मन-मन में व थल-थल के कण-कण में नवीन जागृति, नवीन स्फूर्ति, नवीन उत्साह, नवीन उमंग एवं श्रद्धान्वित नवीन उत्सुकता का व्यापक एवं सफलसंचार कर दिया। नगर के विविध स्थानों पर विविध प्रकार के दिव्य-भव्य एवं सरस-सुन्दरतम स्वागत आयोजनों के रूप में आचार्यश्री के प्रति नगरवासियों की श्रद्धा उमड़ रही थी। सभी चातक वन आचार्यश्री के दर्शनों के लिए उत्सुक थे। अंतत: कोटि-कोटि पिपासित नयनों को निज दर्शन रूपी रसवृष्टि से संतृप्त करते हुए आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी शुक्रवार को आचार्यश्री ने शिष्यसमुदाय सहित नगर में पदार्पण किया।
स्वागत के समय नगर की शोभा एवं नागरिकों की श्रद्धा अवर्णनीय थी। जिस समय आचार्यश्री का स्वागत-समारोह, चलसमारोह के रूप में दृष्टिगत हो रहा था, उस समय की समस्त दृश्यावली को मैं चलचित्र की भाँति अपलक नयनों से निहारता ही रहा। यही मेरे जीवन की शुभ संयोगमयी तथा स्वर्णमयी सुन्दर बेला थी, जिसमें मैंने शिष्यसमुदाय सहित आचार्यश्री के जीभर प्रथम पुण्य दर्शन किए। श्रवणों ने तो आचार्यश्री के गुणों का रसास्वादन कर रखा था, किन्तु बेचारे ये निर्बल एवं असहाय नयन अभी तक तृषातुर थे, इनकी पिपासा को तृप्त करने का कोई शुभावसर नहीं आ पाया था, अतः कभी-कभी श्रवणों एवं नयनों में पारस्परिक द्वंद्व सा छिड़ता रहता था। श्रवण आचार्यश्री के जिन गुणों का वर्णन करते नयन अदर्शनवश उनका खंडन करते; किन्तु आज पुण्य दर्शन प्राप्त कर दोनों की पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता की इति होगई और निर्निमेष हो निहारने केपश्चात् नयनों ने अपनी धृष्टता पर खेद प्रकट किया एवं श्रवणों को धन्यवाद दिया कि उन्होंने पूर्व ही आचार्य श्री की सद्गुणावली से उन्हें परिचित कर दिया था। दोनों की प्रतिद्वंद्विता पर मन ही मन मुग्ध हो मैंने आचार्यश्री के सम्मुख पहुँच कर निवेदन किया कि -
दूरेऽपि श्रुत्वा भवदीय कीर्ति, काँच तृप्तौ न तु चक्षसी में।
तयोर्विवादं परिहर्तुकामः,समागतोऽहं तव दर्शनाय ।। आचार्य प्रवर ! दूर से ही अन्य व्यक्तियों एवं आपके कार्यकलापों द्वारा आप की निर्मल कीर्ति का श्रवण कर मेरे कान तो सन्तृप्त हो चुके थे, किन्तु अधीर नयन अब तक आपके दर्शनोंसे वंचित होकर अतृप्त ही थे। यही कारण था कि समय-समय पर दोनों की विवादग्रस्त स्थिति हो जाती थी। अत: आज उनका विवाद दूर करने के हेतु आपके पुण्य दर्शनों का अनुपम लाभ लेने के लिए सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।"
आचार्यश्री ने उक्त निवेदन को सुनकर अपनी गंभीर, आन्तरिक एवं विशाल उदारता की समुदात्तवृत्ति का परिचय देते हुए जन-मन-मोहिनी माधुर्य-मिश्रित मन्द-मन्द मुस्कान के साथ मन ही मन यह असीम आशीर्वाद दिया, जिसका निर्मल व पावन प्रतिबिम्ब कमलोपम कोमल नयनों की कमनीय एवं सुकोमल
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - कोरों में स्पष्टतया प्रतिबिम्बित हो रहा था। आचार्यश्री के इस आन्तरिक आशीर्वाद को शिरोधार्य कर प्रथम दर्शन में ही मैंने अपने भाग्य की भरि-भूरि प्रशंसा की।
य यद्यपि आचार्य श्री जैसे परम विद्वान् निखिलागममर्मज्ञ साहित्यधुरन्धर के सम्मुख मुझ जैसे साधारण व्यक्ति के पांडित्य का परिचय देना साहस के परे था, साथ ही अशोभनीय भी; तथापि बाल-सुलभ धृष्टता का मैंने परित्याग नहीं किया एवं 'हारबन्ध' के 'कलशबन्ध' एवं विविध गुणगणाष्टकों के रूप में आचार्यश्री के सुयोग्य पट्टशिष्य कविवर मुनि श्री विद्याविजयजी के द्वारा मैं अपनी संचित योग्यता के पृष्ठ खोल-खोलकर उनके सामने प्रस्तुत करता ही रहा। परिणामत: आचार्य ने अपनी असीम गुणग्राहिता का परिचय देते हुए मेरी योग्यता को बल, प्रश्रय एवं प्रोत्साहन ही नहीं दिया अपितु उचित पथ-प्रदर्शन एवं सहृदयता के साथ सराहा भी। आचार्यश्री की इस अकल्पित अनुकम्पा और अपूर्व अनुग्रह ने मुझे और अधिक अग्रसर किया फलत: संस्कृत साहित्य के साथ ही हिन्दी साहित्य की ओर भी प्रवृत्त होने में मुझे विलम्ब नहीं हुआ। आज इस लेखनी द्वारा जो कुछ हिन्दी साहित्य में लिखा जाता है, उसका सम्पूर्ण श्रेय आचार्यश्री को ही है, जिनके तत्त्वावधान में मुझे कई साहित्यिक कार्यों का सम्पादन करने का सुअवसर प्राप्त होता रहा।
___ वस्तुत: आचार्यश्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वर जी महाराज वर्तमान युग के महान् सन्त, तपपूत साधक, अद्वितीय साहित्यकार, उच्च कोटि के विद्वान एवं प्रतिभाशाली प्रखर वक्ता हैं। जिनकी पंडित्यमयी प्रतिभा के प्रकाश में न केवल त्रिस्तुतिक जैनमत अपितु सम्पूर्ण जैन जगत् प्रकाशित हो रहा है। यही नहीं आचार्य जैसे उत्तरदायित्व पद का निर्वहण करते हुए आप जहाँ अपने आध्यात्मिक सदुपदेशों द्वारा जनता का कल्याण करते हैं, वहीं आपने कई ग्रन्थों की रचना कर साहित्यिक उपकार भी किया है। वृद्धावस्था में पदार्पण करने पर आज भी निरन्तर धाराप्रवाह रूप में आपकी लेखनी चल रही है, जिसके द्वारा साहित्य विशेषतः हिन्दी साहित्य श्रीसम्पन्न होता जा रहाहै। हमारी हार्दिक अभिलाषा है कि आध्यात्मिक सदुपदेशों के साथ आपकी यह मंगलमयी लेखनी चिरकाल तक चलती रहे।
त्रिस्तुतिक श्री संघ ने आचार्य श्री मद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की दीक्षाशताब्दी मनाने एवं दीक्षाशताब्दी स्मारक ग्रन्थ निकालने का निर्णय सुन अति प्रसन्नता हो रही है। कि एक महान् साहित्यकार जैन धर्म के प्रकाण्ड पण्डित के यशस्वी जीवन की स्मृतियाँ भावी पीढ़ी की मार्गदर्शक हों । समाज का यह कर्तव्य भी था कि ऐसे आचार्यवर्य का दीक्षा शताब्दी ग्रन्थ निकाल कर उन का ज्ञान जन-जन के तक प्रसारित किया जाय ताकि वह आत्मकल्याण में सहायक हो।
नधि
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व
समाज-सुधारक आचार्य भगवन्
समरथमल लोढा, जावरा....
धर्मगुरु अपने उपदेशों के माध्यम से समाज में फैले अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर ज्ञानरूपी प्रकाश फैलाते हैं। वे समाज में व्याप्त फूट-वैमनस्य को दूर कर एकता स्थापित करने के लिए उपदेश देते हैं। समाज में व्याप्त व्यसनों को दूर करने के लिए वे उनसे होने वाली हानियों के प्रति समाज को सदैव जागृत करते रहते हैं। उनका कार्य होता है समाज में व्याप्त बुराइयों, व्यसनों, रूढ़ियों आदि की हानियाँ बताते हुए उनसे बचने के लिए तथा उनका त्याग करने के लिए समाज को प्रेरणा प्रदान करना। अब सवाल यह है कि समाज उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अपने आप में कितना सुधार करता है ? यह
ज पर निर्भर करता है। एक कहावत है - 'घोडे को पानी के पास ले जाया जा सकता है तथा किन्तु उसे पानी पीने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।' इस कहावत के अनुसार धर्मगुरु समाज को उचित मार्गदर्शन प्रदान कर सकते हैं, करते हैं। अपनी बात को मनवाने के लिए वे किसी को बाध्य नहीं करते। उन्होंने अपना कार्य कर दिया। यह तो हमारा अर्थात् समाज का दोष है कि उनके सम्यक् उपदेश को हम अनदेखा कर रहे हैं। फिर भी कुछ भव्य प्राणी ऐसे होते हैं, जो अपने अपने धर्मगुरु की बात को, उनके उपदेश को आत्मसात् कर दोषों का त्याग कर अपने जीवन में परिवर्तन ले आते हैं।
आचार्य भगवन् श्री मद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के उपदेशों से प्रेरित होकर कुछ स्थानों पर वर्षों से चली आ रही फूट समाप्त हुई और वहाँ एकता स्थापित हुई तो कुछ स्थानों पर अजैन भाइयों ने आपके उपदेशों से प्रभावित होकर मद्य एवं मांस का त्याग किया। आप का यह रूप आपको एक समाज सुधारक के रूप में प्रतिष्ठित करता है। यहाँ प्रस्तुत हैं इस प्रकार के कुछ उदाहरण :
राजगढ़ में गुरु-मंदिर की प्रतिष्ठा होनी थी, किन्तु परस्पर वैमनस्य के कारण यहाँ एकता का अभाव था। जब तक आपस का झगड़ा समाप्त नहीं होता, तब तक प्रतिष्ठा नहीं होती। आप झकणावदा से बिहार कर राजगढ़ पधारे और कुसम्प मिटाने के प्रयास शुरू कर दिए। आपके तेजस्वी व्यक्तित्व के प्रभाव से एकता स्थापित हो गई और वि.सं. १९८१ में गुरु-मंदिर की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। इसी प्रकार वि.सं. १९८४ में आकोली श्री संघ का कुसम्प भी आपने प्रभाव व प्रेरणा से दूर किया।
वि.सं. २००८ की बात है। आप अपने शिष्य परिवार सहित भाण्डवपुर तीर्थ से थराद की ओर विहार करते हुए बागोड़ा पधारे। उस समय बागोड़ा में जैन मतावलम्बियों के साठ घर थे। आप के पधारने पर बागोड़ावासियों ने आप का भव्य स्वागत किया। बागोड़ा से लगभग १८-२० किलोमीटर की दूरी पर मोरसिम नामक ग्राम है। इन दोनों श्री संघों में लगभग सत्तर वर्ष से किसी बात को लेकर झगड़ा था। ये दोनों गाँव चौहान पट्टी में गिने जाते हैं। यह झगड़ा इतना बढ़ा कि पूरी चौहान पट्टी का झगड़ा हो गया। इस झगड़े को समाप्त करने के लिए दोनों ग्रामों के श्री संघों ने अनेक बार प्रयास भी किए, किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिल पाई थी।
in Education Intemational
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्य : व्यक्तित्व-कृतित्व -- झगड़ा समाप्त होने के स्थान पर अब तो स्थिति यह हो गई थी कि इनका आपस में भोजनव्यवहार भी बंद हो गया था। इस प्रकार विवाहादि कार्यों में जाति में आपस में आना-जाना ही बंद हो गया। यहाँ की विषमता दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी। जब आचार्य भगवान् बागोड़ा पधारे, तो दोनों श्री संघों के मध्य के झगड़े का वृत्तांत गुरुदेव के समक्ष प्रस्तुत किया गया। इस पर आप ने श्री संघ के सदस्यों को एकत्र कर झगड़ा समाप्त करने के सम्बन्ध में समयोचित उपदेश दिया।
हार्दिक प्रसन्नता का विषय रहा कि श्री संघ बागोड़ा ने अपनी सहमति प्रदान की कि जिस प्रकार भी गुरु भगवन् झगड़े का निपटारा करेंगे, वह उसे स्वीकार होगा। बागोड़ा से विहार कर आचार्य भगवंत राउता ग्राम पधारे। इस विहार यात्रा में बागोड़ा संघ भी आपश्री के साथ राउता तक रहा। राउता में मोरसिम के श्री संघ ने भी आपकी सेवा में उपस्थित होकर पूर्ण श्रद्धा-भक्ति के साथ वंदन किया और नगर-प्रवेश के समय भी पूर्ण श्रद्धा-भाव रखा और हर्षोल्लास के साथ प्रवेशोत्सव में साथ दिया।
मोरसिम की भक्ति-भावना देखकर आचार्य भगवन को संतोष हुआ। आचार्य भगवन् का यहाँ दो दिन मुकाम रहा और दोनों श्री संघों का झगड़ा समाप्त कर एकता के लिए प्रयास किया गया। समझाइश, उपदेश और आपके प्रभाव के कारण अंततः दोनों श्री संघों में एकता स्थापित हो गई। झगड़ा समाप्त हो गया। जैसे ही एकता स्थापित हुई दोनों ही श्री संघों ने एक स्वर में जय-जयकार के निनादों से गगन मण्डल गुंजा दिया। चारों ओर हर्ष और आनन्द की लहर व्याप्त हो गई। तत्पश्चात् दोनों श्री संघों की ओर से अलग-अलग स्वामी-वात्सल्य हुए। इस प्रकार ७० वर्षों से चले आ रहे झगड़े का समापन कर आचार्य भगवन् राउता से विहार कर मोरसिम पधारे। यहाँ भी दो दिन विराजमान रहे।
विहारक्रम में आप का साचोर पदार्पण हुआ। साचोर नगर के श्री संघ में भी कई वर्षों से कुछ विशेष कारणों से फूट पड़ी हुई थी। जिस समय आचार्य भगवन् का पदार्पण हुआ, तो श्री संघ के दोनों पक्षों ने धूमधाम से समारोहपूर्वक आपका नगर-प्रवेश करवाया। यहाँ की फूट की बात भी आप के सम्मुख आई
और आपने एकता के लिए प्रयास किए। मध्यस्थता के लिए भीनमाल निवासी शाहदानमल पृथ्वीराजजी भण्डारी को रखा गया। ये सरकारी कर्मचारी थे। इन्होंने एकता के लिए आचार्य भगवन् के मार्गदर्शन में कठोर परिश्रम किया। आचार्य भगवन् का मार्गदर्शन, उपदेश और शा. दानमल पृथ्वीराजजी भण्डारी का कठोर परिश्रम उस समय सफल हुआ, जब दोनों पक्षों ने 'बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि ले' वाली कहावत स्वीकार कर एकता स्थापित कर ली। दोनों पक्ष एक हो गए। जय-जयकार के नारे गूंज उठे। दोनों पक्षों की ओर से दो स्वामी-वात्सल्य हुए और तीसरा स्वामी-वात्सल्य शाह दानमलजी पृथ्वीराजजी की ओर से हुआ।
वि.सं. २००९ वैशाख कृष्णा १ को आप ने थराद से विहार किया। आप ग्रामानुग्राम धर्मप्रचार करते हुए निरंतर विहाररत् थे। इन दिनों आप का स्वास्थ्य भी अनुकूल नहीं रहता था और विहार भी लम्बा नहीं हो पाता था। मार्ग में जहाँ भी मुकाम होता, अवसरानुकूल उपदेश प्रदान करते। ग्राम नारोल और वासणा में आपके उपदेशों से प्रभावित होकर यहाँ के ठाकुरों ने मांस और मदिरा का आजीवन त्याग किया।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व इसी प्रकार ग्राम वाघासन (वाकडाऊ) के अनेक किसानों ने आप के उपदेश से प्रेरणा लेकर खेतों में एकत्र किए हुए कचरे को, जिसे सूड़ कहा जाता है, जलाने का त्याग किया। सूड को जलाने से इसमें छिपे हुए असंख्य जीव जलकर मर जाते थे। सूड़ जलाने का त्याग कर यहाँ के किसानों ने आचार्य के साथ ही अहिंसा के प्रति अपनी भक्ति-भावना का परिचय दिया।
मारवाड़ से विहार कर आप अपने शिष्यों के साथ मालवा में पधारे और वि.सं. २०१२ का वर्षावास आप ने राजगढ़ (धार) में व्यतीत किया। वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् आप ने राजगढ़ से विहार कर दिया और मार्गवर्ती ग्राम-नगरों में जिनवाणी की अमृतवर्षा करते हुए आप जावरा पधारे। जावरा में आप का नगर प्रवेश समारोहपूर्वक हर्षोल्लासमय वातावरण में हुआ। इस अवसर पर आप ने अपने प्रवचन में ज्ञान-प्रसार की बात के साथ ही संगठन की एकता पर भी जोर दिया। यहाँ आपके सम्मुख यह बात आई कि पिपलौदा के जाति भाई ५०० ओसवाल घर लगभग तीन सौ वर्षों से जाति से बहिष्कृत हैं। आप ने इन जाति भाइयों को पुनः जाति में सम्मिलित करने के लिए उपदेश दिए। एकता पर जोर दिया। परिणाम शीघ्र ही सामने आए। दो ही दिन में जावरा श्री संघ ने खाचरौद, रतलाम, बड़नगर, इन्दौर, उज्जैन, नागदा, महिदपुर, निम्बाहेड़ा, नीमच, मंदसौर आदि आसपास के समाज के प्रतिनिधियों को बुलाकर सर्वसम्मति से पिपलौदा के जाति-भाई ओसवाल घरों के साथ खान-पान आदि व्यवहार प्रारम्भ करने की आचार्य भगवन् के सम्मुख घोषणा की। a इस घोषणा के साथ ही चहुँ ओर हर्ष व्याप्त हो गया। आनन्द की लहर छा गई। इस प्रकार तीन सौ' वर्षों से बहिष्कृत जाति-भाइयों का समाज में मिलन हुआ। आप की प्रेरणा से खाचरौद वर्षावास के समय खाचरौद में भी पिपलौदा समाज के साथ खान-पान आदि शुरू करने का प्रस्ताव पारित रखा हुआ। F उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य भगवन संघ-एकता के प्रति सजग थे। साथ ही वे व्यसन-मुक्त समाज का भी निर्माण करना चाहते थे। यदि उनके समग्र जीवन का गहराई से अध्ययन किया जाए, तो सम्भव है, ऐसे और भी अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। उनके इन कार्यों से उनका समाजसुधारक का एक नया रूप हमारे सामने प्रकट होता है। वैसे यहाँ एक बात स्पष्ट करना प्रासंगिक ही होगा कि गुरुदेव आचार्य भगवन् श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का व्यक्तित्त्व ही इतना प्रभावशाली था कि उनके कथन का विरोध करने का साहस भी कोई जुटा नहीं पाता था। उनकी ओजस्वी वाणी और तेजस्वी व्यक्तित्व के सम्मुख प्रत्येक दर्शनार्थी स्वतः उनके समक्ष नतमस्तक होकर श्रद्धावनत हो जाया करता था।
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व पीताम्बरविजेता - आचार्यश्री यतीन्द्रसूरि
म
कु. सोनाली लोढा, जावरा....
मानव जीवन का महत्त्व भौतिक पदार्थों के अम्बारों से नहीं आंका जा सकता। मानव-जीवन का महत्त्व तो दरअसल आध्यात्मिक संस्कारों में निहित है जिस मानव का जीवन सत्संस्कारों से परिपूर्ण होता है वह भौतिकता की चकाचौंध से दूर हटकर आध्यात्म की ओर बढ़कर अपना आत्मरूपी दीप प्रज्ज्वलित करता है। आध्यात्म की पथरीली राह पर सहज रूप से बढ़ने वालों में से एक थे आचार्य श्री यतीन्द्र सूरिजी म.सा.। उनसे साक्षात्कार तो हुआ नहीं, परन्तु मुझे प्रसन्नता है कि आज उनके जीवन के विषय में मुझे कुछ लिखने का अवसर प्राप्त हुआ है। उन महान आचार्य श्री यतीन्द्र सूरिजी म.सा. के विषय में, मैं क्या शब्द लिखू। मैं तो उस पूजा के थाल में अपनी स्मृति के कुछ अक्षत ही रख सकती हूँ। आज मेरी स्मृति में उनके जीवन में हुआ एक विवाद अंकित हो रहा है, जिसका उन्होंने बड़ी सहजता से शास्त्रार्थ के सहारे पुष्टिकरण कर दिया था। उस विवाद के समय मेरा वजूद तो था नहीं, परन्तु उस घटना के पढ़ने मात्र से मैं अत्यंत प्रभावित हुई और वही घटना शब्दों के माध्यम से मैं आपके समक्ष प्रस्तुत करना च
वि.सं. १९८० का चातुर्मास मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. ने आचार्य श्रीभूपेन्द्र सूरिजी म.सा. की आज्ञा से रतलाम में किया। उसी समय श्रीमद् सागरानन्द सूरिजी म.सा., जो जैनाचार्यों में आगमज्ञान के प्रखर धारक माने गए हैं, वे भी चातुर्मास हेतु वहीं रतलाम की धरा पर विराजमान थे। दोनों ही अपने प्रखर पांडित्य एवं दिव्य तेज के लिए विश्रुत थे। सागरानन्द सूरिजी म.सा. को यतीन्द्र विजयजी म.सा. की शोभा, अपने से छोटी आयु में ही अतिशय बढ़ती हुई, सहन नहीं हो रही थी। उन्होंने मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. के साथ शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखा, जिसे मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. ने सहर्ष स्वीकार किया। शास्त्रार्थ का विषय था -
"जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए या पीत' संस्कृत, प्राकृत, व्याकरण, न्याय शास्त्रों के बड़े-बड़े विद्वानों, नगर के जैनेतर प्रतिष्ठित व्यक्तियों एवं दोनों ओर के प्रतिष्ठित वयोवृद्ध अनुभवी सज्जनों की साक्षी में दोनों मुनिराजों के बीच अधिकतर मुद्रित पत्रों के द्वारा शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। यह शास्त्रार्थ सात मास पर्यन्त चलता रहा। जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए, इस आशय की पुष्टि हेतु मुनिश्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. ने निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए - ॐ १. प्रथमतः श्वेताम्बरी शब्द से ही स्पष्ट है कि श्वेत वस्त्र धारण करना, अतः श्वेत वस्त्र धारण
करने वाले साधु-साध्वी ही यथार्थत: जैन साधु होने चाहिए। गान २. शुकुकम्बरा श्रमणाः, निरंबराश्च, जिनकल्पिकारयः श्वेतभिक्षुणां सेयंवरो सेवस्याणं
मायाकीमकामगाउका - सुकुंबरा श्रमण Poinindiannavaraa e ? horontoineinternational
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3.
- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - इन्हीं शब्दों से 'सुकुंबरा श्रमण' में स्थविरकल्पी मुनियों की पहचान कराई गई है, जिससे स्पष्ट होता है कि जैन साधुओं को श्वेत वस्त्र रखना चाहिए। तीर्थंकरों ने केवल ज्ञान से ऋजुजड़, ऋजुप्राज्ञ और वक्रजड़ इन तीन प्रकार के पुरुषों की स्वाभाविक प्रकृति को देखकर वस्त्र रखने की अनुज्ञा दी है। उनके अनुसार प्रथम व अंतिम तीर्थंकरों के साधु ऋजुजड़ और वक्रजड़ होने से वस्त्रों पर मोहित हो सकते हैं, अतः श्वेत
वस्त्र रखने की अनुज्ञा दी है। ४. आनंदचन्द्र मुनि द्वारा लिखित 'आगम विचार संग्रह के २०वें पत्र में किए गए उल्लेख से भी
सा यही स्पष्ट होता है कि जैन साधुओं को केवल श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए। ५. श्री यशोविजयोपाध्यायारचित .. सझ्झाय 'रंगेल कपड़ा खंभे घावली
एहनुं नाम न लीजे' इस सझ्झाय की निम्न पंक्तियों में भी स्पष्ट किया गया है कि जैन साधुओं को रंगे हुए वस्त्र नहीं धारण करने चाहिए। तपागच्छ के प्रख्यात आचार्य श्री विजयदेव सूरीश्वरजी महाराज के प्रसादीकृत 'साधु मर्यादा पद्धक' में भी स्पष्ट रूप से लिखा है कि जैन श्वेताम्बरी साधुओं को रंगे हुए वस्त्र धारण नहीं
करने चाहिए। सय ७. गच्छाचार पयन्ना के प्रथमाधिकार की २६वीं गाथा
आज्ञां तीर्थंकरोपदेशवचनरूपां ....... ........... सावधाचार्य स्मेव ज्ञेयम। इस टीका भावार्थ भी यही है कि जो साधु तीर्थंकरों की उपदेश वनचरूप आज्ञा का उल्लंघन करता हुआ वस्त्र धारण करता है, वह आचार्य पुरुषाधम है, इसी प्रकार -
आचारांग २ श्रु.५ अ.२ उद्देश्य एवं
९. आचारांग १ श्रु. ५ अ. ४ उद्देश्य से भी यही स्पष्ट होता है कि जैन साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए।
उपर्युक्त प्रमाणों को प्रस्तुत करने के साथ ही मुनिश्री ने स्पष्ट किया कि यथार्थ में वस्त्र स्थविरकल्पी मुनियों को संयम निर्वाह और लोकलज्जा के निमित रखने पड़ते हैं। शोभा या शोक के लिए नहीं। वस्त्रों को रँगने का कारण ही शोभा या शोक है, अन्यथा वस्त्रों को रँगने की आवश्यकता ही क्या है ? यदि इसके प्रत्युत्तर में यह कहा जाता है कि जो शिथिल हुए हैं, उनसे भेद दिखलाने हेतु वस्त्र रँगे गए हैं, तो यह तथ्य भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि साधुधर्म की योग्यता क्रिया पर निर्भर है. वस्त्र रंजन पर नहीं। जो साधसाध्वी सदाचारी हैं, संयम क्रिया में रहते हैं और अप्रतिबद्ध विहार करते रहते हैं. उनको समाज के लोग वैसे ही जान सकते हैं कि यह साधु-साध्वी उत्तम व क्रियापात्र हैं।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - संसार में विद्या, स्वभाव, गुण एवं क्रिया इन चार तत्त्वों से पुरुषों की पहचान होती है सत्यप्रियता, शिष्टाचार, विनय परोपकारिता और चित्त की विशुद्धता ये गुण जिनमें पाए जाएँ, वे कहीं छिपे नहीं रहते रंगे हुए वस्त्र धारण कर भी लिए जाएँ, परन्तु यदि आचरण ठीक नहीं हो रंगे हुए वस्त्र धारण करने से क्या फायदा। केवल बाहरी आडम्बर से काम नहीं चलता। उत्तम पुरुषों में गुण भी होने चाहिए।
शास्त्रकारों को वस्त्रों को रंगने से कोई द्वेष नहीं है, परन्तु उनका अभिप्राय यह है कि साधु कहीं रंग, जगमगाहट, विचित्रता आदि के प्रभाव में पड़कर संयमभावना के प्रयत्न में शिथिल न पड़ जाए, अर्थात् साधुओं को बाह्य आकर्षणों से बचाने के लिए ही वस्त्र न रंगने की आज्ञा का आरम्भ हुआ है।
इस प्रकार के शास्त्रार्थ एवं युक्तियुक्त तर्क से मुनिश्री ने स्पष्ट कर दिया कि जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत-वस्त्र ही धारण करने चाहिए। इस प्रकार के स्पष्टीकरण के परिणामस्वरूप श्री सागरानन्द सूरिजी एक रात्रि को दिन निकलने के बहुत पूर्व ही बिना सूचना दिए रतलाम से विहार कर गए। प्रातः वायुवेग से यह समाचार समस्त रतलाम नगर में फैल गया। मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. की कीर्ति भी उसी वेग से फैली और सर्वत्र इनकी प्रतिभा और विद्वत्ता की प्रशंसा होने लगी। दिन में शास्त्रार्थ में उपस्थित साक्षिजनों की सभा हुई और उन्होंने संस्कृत में प्रमाण-पत्र लिखकर तथा अपने हस्ताक्षरों से उसे प्रमाणित करके मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. को सादर समर्पित किया, जो कि इस प्रकार है -
सम्मति-पत्रम् विदितमेवैतत्सर्वेषां सुधीमतां यदत्र रत्नपुर्यां (रतलाम-नगरे) श्रीमान् व्याख्यानवाचस्पतिर्यतीन्द्रविजयमुनिपुंगवः श्रीमतासाडम्बर चुन्चुना सागरानन्दसूरिणा साकं श्वेतपीतपटविषयमवलम्ब्य सप्तमासिकंयावच्छास्त्रार्थ कृतवान्। तत्र श्रीमद् यतीन्द्र विजयमुनिवरदर्शितास्साचाराङ्गाद्यनेक जैनागमीयप्रमाणपटलं पश्यद्भिरस्माभिः प्रणीयते यज्जैनश्रमणानां श्रमणीनञ्च श्वेतमानोपेतजीर्णप्रायवसनधारणमेव सनातनं शिष्टाचरित-ञ्चास्तीति।
सागराननन्दसूरिणा तु प्रकाशितेषु मुद्रितास्मुद्रित (हेणडबिल) पत्रेषु जैनसाधूनां पीतवस्त्रधारणमागमासिद्धमिति कक्षीकृत निजपक्षसिषाधयिषया शास्त्रयमेकमपि प्रमाणं नास्सदर्शि, किन्त्वाश्विनमासीयामावस्यायां प्रकाशितपत्रे स्वयमप्यसौ सागरानन्द-सूरिर्निजपक्षस्थापनक्षमासागमोक्त प्रमाणमलभमनो जैनश्रमणानां श्वेताम्बरमेव शास्त्रमर्यादोपेतमित्यङ्गीकृतवान्। तत एव तत्पक्षः सर्वथा शास्त्रविरुद्धो निष्प्रमाणः स्वकपोलकल्पित एवं प्रतिभाति। अतः सकलैरपि जैनसाधुभिः साध्वीभिश्व जैनशास्त्रानुसारतो वस्त्रस्य वर्णपरावर्तनं भ्रमादपि कदापि नैव विधातव्यमिति यतीन्द्रविजय मुनिवरस्य साधीयान् पक्षः संमन्यते विद्वद्वरैरिति शम्। सकल जैनसाधुभिः श्वेतं मनोपेतं जीर्णप्रायं वसनमेव धार्यमित्येयं सम्मतिरेतेषां विद्वद्वराणां जागर्ति
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - प्रमाणकर्तागणानां हस्ताक्षराणि : -
१. सदानन्द शर्मा गाण की कटीकरीशानडाही म नाथद्वारीय - गोवर्द्धन संस्कृत पाठशाला प्रधानाध्यापकः -काशा
न्यायव्याकरणतीर्थलब्धधौतप्रतिष्ठः नासिता । २. मधुसूदनमिश्रः श्रोत्रियः नाक कालिका कागज लब्धधौतप्रतिष्ठिव्याकरणकाव्यतीर्थःकर
शामगार ३. रामेश्वरशर्मा मैथिल: माणिकडा गि व्याकरण काव्यतीर्थरत्नोपाधिकप्राप्तधौतप्रतिष्ठः शकीय शालाई कार ४. व्रजनाथ शर्मा गायक कामगार महाप्राजकारणाशि-काए कि - व्याकरणतीर्थभूषणः
मार कर निकाली तिजोरका ५. पं. शम्भनाथ त्रिपाठी
मारामारनामा व्याकरणाचार्य : महाविद्यालय इन्दौर (मालवा) पं. छोटेलालशास्त्री जैनः जैन पाठशालाध्यापकः बड़नगर (मालवा) बालशास्त्री भट्टः राजकीय वेदशाला प्रधानाध्यापकः इन्दौर (मालवा)
गीता ८. पं. श्रीधर शास्त्री, इन्दौर (मालवा)
शविनाको ९. दुर्लभराम शास्त्री झाबुआनरेशाश्रितो विद्याभषण: झाबआ (मालवा)P
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काय-काही १०. पं. सदाशिव दीक्षितः
साहित्याचार्यः एफ.ए. बनारस (काशी) कायाकारणावामन ११. पन्नालाल शास्त्री भारतधर्ममहामण्डलस्य महामहोपदेशको रतलामनरेशाश्रितश्च,
रतलाम (मालवा) पाठकगण उपर्युक्त सम्मति पत्र को पढ़कर तथा श्वेता-म्बर सम्प्रदाय पद का अर्थ विचार कर भी बुद्धि से सहज समझ सकते हैं कि जैन साधुओं को श्वेत अथवा पीति वस्त्र धारण करने चाहिए।
सम्मति-पत्र में साक्षीधरों ने लिखा है कि व्याख्यानवाचस्पति यतीन्द्र विजय मुनिपुंगव द्वारा आचारांगादि अनेक जैनागमों के प्रमाण पटलों से हम सर्वजनों को प्रतीति करवा दी गई कि जैन साधु एवं साध्वियों के निकट श्वेत वस्त्र धारण करना ही उनका सनातन शिष्टाचार है।
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-यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व अब यह स्पष्ट हो ही जाता है कि जैन साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए अथवा पीत। जैन साधु एवं साध्वियों के द्वारा श्वेत वस्त्र धारण करना ही उनका सनातन शिष्टाचार है। अंतत: सूरिजी श्री सागरानन्द म.सा. ने भी आश्विन मास की अमावस्या को अपने प्रकाशित पत्र में जैन आगमों के प्रमाणों के अभाव में स्वीकार किया कि जैन साधुओं का श्वेत वस्त्र धारण करना ही शास्त्रीय-मर्यादा है।
ऐसे थे आचार्य श्री यतीन्द्र सूरिजी म.सा. जो अपनी निर्मल बुद्धि से सहज ही समस्याओं को हल कर देते थे। युक्ति युक्त वार्तालाप करना ही उनकी दैनंदिनी था। यह तो उनके जीवन में घटी मात्र एक छोटी-सी घटना है। इस प्रकार न जाने कितनी ही समस्याओं का उन्होंने बड़ी सहजता से पुष्टिकरण कर दिया था, परन्तु उन सबको शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता। आखिर ...
साड "उनका यह विराट रूप शब्दों में कैसे समाएगा,
कितना ही कुछ लिख दूँ, मगर लिखने को शेष रह जाएगा। आधार:
१. श्री गुरुचरित २. पीतपटाग्रहमीमांसा ३. कुलिङ्गिवदनोद्गार - मीमांसा
-
ए
मEिEEना कालराकिणि नागर आता
एकामागाट गीको मार गिरगान किया गया वाकर विजिकिगाकार किया निशान या किसी गाणि शीकशी
यामाहाकी किताबमल किया कामगाव पानसमावस्या मानानकमा
ਹਨ
। ਇਸ
ਸਬਉਸਦਉ ਲਗਾ ਕੇ ਇਸ ਦੇ ਸਿਰ
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व
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Tags आगम मर्मज्ञ मानविय काय माया आचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म.
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श्री भूपेन्द्र कुमार मनोरूणवार, जावरा...
वैदिक परम्परा में जो स्थान वेदों का है, बौद्ध परम्परा में जो स्थान त्रिपिटकों का है, वही स्थान जैन परम्परा में आगमों का है। मान्यता भेद के कारण दिगम्बर मतावलम्बी अपने आगम ग्रंथ अलग मानते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन मतावलम्बी जहाँ पैंतालीस आगम ग्रंथ स्वीकार करते हैं, वहीं स्थानकवासी जैन मतावलम्बी बत्तीस आगम ग्रंथ ही स्वीकार करते हैं जो विद्वान् इन आगमग्रंथों का तलस्पर्शी अध्ययन कर इनमें समाविष्ट गूढ़ रहस्यों को समझ लेता है, उसे आगमवेत्ता अथवा आगम मर्मज्ञ कहा जा सकता है।
जब हम आचार्य भगवन् श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म. को आगममर्मज्ञ की संज्ञा से अभिहित करते हैं, तो यह स्पष्ट है कि आचार्य भगवन् ने आगमसाहित्य का न केवल तलस्पर्शी अध्ययन किया होगा, वरन् आगम ग्रंथों के रहस्यों को भी भली-भाँति समझ लिया होगा। यद्यपि अभी हमारे पास इस बात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है अथवा आचार्य भगवन् की कोई ऐसी पुस्तक भी नहीं है, जो सीधे आगम ग्रंथों से सम्बन्धित हो, तथापि आचार्य भगवन् श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी. म.सा. को आगम -मर्मज्ञ मानने के हमारे पास यथेष्ट प्रमाण हैं। इसके लिए हमें आचार्य भगवन् के सांसारिक परिवार की पृष्ठभूमि में जाना होगा।
आचार्य भगवन् के सांसारिक पितामाह पं. सौभाग्यचन्द्रजी अच्छे पंडित और धर्मशास्त्रों के ज्ञाता थे। इनके तीन पुत्रों में से एक श्री ब्रजलालजी हमारे आचार्य भगवन् के सांसारिक पिताश्री थे। श्री ब्रजलालजी ने अपने सभी गुणों को द्विगुणित करके धारण किया था और इस प्रकार श्री ब्रजलालजी ने अपने आपको अतिजात पुत्र के रूप में प्रस्तुत किया।
आचार्य भगवन् की सांसारिक माता सौ. चंपा कुँवर ने भी अपने शास्त्रज्ञ पति से दिगम्बर जैन शास्त्रों की प्रमुख बातों से अवगति प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार माता-पिता दोनों जैन शास्त्रों के ज्ञाता थे। विदुषी माता और पंडित पिता से बाल्यावस्था में आपको सुसंस्कार मिलने के साथ ही जैन शास्त्रों की कथाएँ भी सुनने को मिलीं।
परिणामस्वरूप आपकी रुचि शास्त्रों के अध्ययन की ओर बढ़ी, किन्तु सब दिन एक समान नहीं रहते। यह ज्ञान अधूरा उस समय रह गया, जब माता चम्पाकुँवर एकाएक स्वर्ग सिधार गईं और युवा होतेहोते पिताश्री भी देवलोक गमन कर गए। विषम परिस्थितियों में आप अपने मामा के घर से निकलकर जैनागमों के महापंडित आचार्य भगवन् श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म. की सेवा में जा पहँचे।
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गुरुदेव के सान्निध्य में एक वर्ष तक रहकर धार्मिक अध्ययन किया। यह स्वाभाविक ही है कि जैनागमों के महापंडित गुरुदेव के सान्निध्य में रहते हुए आपने भी अपने गुरुदेव से आगमों का ज्ञान प्राप्त किया।
जैन- भागवती दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् तो आपने अपना सम्पूर्ण ध्यान गुरुसेवा, संयम पालन और धार्मिक अध्ययन में लगा दिया। परिणाम यह हुआ कि शीघ्र ही आपकी ख्याति विद्वान् मुनिराज के रूप में हो गई। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण उस समय देखने को मिला जब वि.सं. १९८० के रतलाम वर्षावास अवसर पर श्रीमद् सागरानन्द सूरि ने, जो जैनाचार्यों में आगम ज्ञान के प्रखर धारक माने जाते थे, आपके सामने 'जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए या पीत' विषय पर शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखा। आप ने तत्काल शास्त्रार्थ का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ?
उस समय के मूर्धन्य विद्वानों और प्रतिष्ठित वयोवृद्ध अनुभवी श्रावकों की एक निर्णायक समिति भी बनी। दोनों के मध्य लिखित रूप में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। यह शास्त्रार्थ सात मास तक चलता रहा। आप के आचरांग आदि अनेक आगमों के प्रमाणों तथा युक्ति-युक्त तर्कों के आगे अंत में श्री सागरानन्द सूरि का हठाग्रह निंदा का कारण बनने लगा। जब कोई उपाय शेष नहीं रहा तो श्री सागरानंद सूरि किसी को सूचित किए बिना ही रतलाम से रात में विहार कर गए। निर्णायक समिति ने आपको विजेता घोषित कर एक प्रमाण-पत्र आपश्री को समर्पित किया। यह था आप के आगममर्मज्ञ होने का प्रमाण ।
आप के आगम मर्मज्ञ होने का दूसरा प्रमाण आप द्वारा लिखित पुस्तक 'तीन स्तुति की प्राचीनता' है। इसमें आप ने जैनागमों और ऐतिहासिक प्रमाणों से तीन स्तुति की प्राचीनता सिद्ध की है। दूसरी पुस्तक जैनर्षिपट्ट निर्णय में भी आप के आगम ज्ञान की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। इसी प्रकार कुलिंगवनोदगार पुस्तक से भी आप की आगमविद्वत्ता प्रकट होती है। इसके अतिरिक्त आप के प्रवचन साहित्य का अनुशीलन करने पर भी हम पाते हैं कि आपश्री को आगम साहित्य का तलस्पर्शी ज्ञान था।
आप के आगम मर्मज्ञ होने का एक अन्य प्रमाण है, आपश्री द्वारा दशवैकालिक सूत्र के चार अध्ययन् का शब्दार्थ- भावार्थ सहित 'अध्ययन चतुष्टय' नामक ग्रंथ । जो आगम-मर्मज्ञ होता है वही ऐसे ग्रंथ प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है।
प्रातःस्मरणीय गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने चौदह-पन्द्रह वर्षों के कठोर परिश्रम से श्री अभिधान राजेन्द्र कोश का निर्माण किया। यह कोशरत्न सात खण्डों में है। इस कोश में समस्त जैन शास्त्र एवं आगम तथा आचार्यों के विरचित प्रामाणिक एवं उपयोगी ग्रंथों का समावेश किया गया है। कोश की संकलना इस प्रकार की गई है कि प्रथम प्राकृत सम्बन्धी शब्द लिखकर उसका संस्कृत रूप दिया गया है। तत्पश्चात् उसके लिंग तथा व्युत्पत्ति दिए गए हैं और फिर उसके होने एवं मिलने वाले अनेक अर्थ सप्रयोग-आधार, अध्ययन तथा उद्देश्यों के अंकन सहित आगमों के ग्रन्थान्तरों के उदाहरण सहित अवतरण दिए हैं तथा व्याख्यादि बड़ी ही कुशलता एवं योग्यता पूर्वक दी गई है। जहाँ-जहाँ शब्द के विस्तृत एवं बहु अधिकार आए हैं, वहाँ-वहाँ सूची दी गई है। फलतः किसी विषय, शब्द और अर्थ तथा
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उसके भिन्न ग्रंथ में भिन्न-भिन्न दृष्टियों से प्रयोग और प्रयोजन को समझने, देखने में पाठकों के लिए अत्यन्त सरलता एवं सुगमता हो गई है। इस कोश को जैन-साइक्लोपीडिया भी कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इस कोश का निर्माण जितना कठिन था, उससे अधिक कठिन उसे व्यवस्थित रूप से सम्पादित कर प्रकाशित करवाना था। कोई आगममर्मज्ञ मुनिराज अथवा विद्वान ही उसका सम्पादन कर सकता था । अन्य किसी के सामर्थ्य की बात नहीं थी । मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. (कालांतर में आचार्यप्रवरश्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म.) ने आचार्य श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म. के सान्निध्य में इस कोश का सम्पादन एवं प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ किया और सत्रह वर्षों के कठोर अध्यवसाय के फलस्वरूप यह कोश ग्रंथाकार रूप में समाज के सामने आ सका। अभिधान राजेन्द्र कोश के कुशल सम्पादन से भी स्पष्ट हो जाता कि आचार्य भगवन् श्रीमद्विजययतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. आगममर्मज्ञ थे। इतना ही नहीं, आप जैन शास्त्रों के भी तलस्पर्शी अध्येता थे। इससे यह बात भी स्पष्ट हो गई कि संस्कृत और प्राकृत भाषा पर भी आपका पूर्ण अधिकार था।
उपर्युक्त सभी संक्षिप्त प्रमाणों के आधार पर हम सहज ही यह कह सकते हैं कि आचार्य भगवन् श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. जैनागममर्मज्ञ थे। आप ने स्वार्जित ज्ञान का वितरण अपने शिष्यों और अनुयायियों में मुक्त हस्त से किया।
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संघनायक आचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. श्री अनिलकुमार ज्ञानचन्दजी चौपड़ा,
जावरा...
सूरिपद से अलंकृत होने के कुछ दिन पश्चात् तक श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी आहोर में ही विराजमान रहे। फिर आहोर से विहार का आप हरजी पधारे और वहाँ प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न करवाया। हरजी से विहार कर आप डूडसी पधारे और वहाँ भी प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न करवाया। साथ ही उसी दिन अर्थात् सं. १९९५ आषाढ शुक्ला एकादशी को वैरागी कन्हैयालाल को आपने दीक्षाव्रत प्रदान कर मुनिश्री न्यायविजय जी म.के. नाम से प्रसिद्ध किया।
वर्षावास काल समीप ही था। अभी तक आचार्य देव के वर्षावास का निर्णय नहीं हुआ था। डूडसी में समीपवर्ती अनेक ग्राम-नगरों के श्रीसंघ एवं गुरुभक्त अपने नूतन आचार्य भगवन् के दर्शन करने एवं जिनवाणी का अमृतपान करने के उद्देश्य से आये थे। यहाँ लगभग सभी ग्रामों से आये श्रीसंघों ने अपनेअपने यहाँ वर्षाकाल करने की अपनी-अपनी आग्रह भरी विनती आचार्यदेव के समक्ष प्रस्तुत की। बागरा श्रीसंघ के सत्याग्रह और अन्य अनेक प्रबल कारणों से आगामी वर्षावास के लिए बागरा श्रीसंघ को आचार्य भगवन् ने स्वीकृति प्रदान कर दी। वर्षावास की स्वीकृति मिलते ही हर्ष की लहर व्याप्त हो गयी। और जय-जयकार के निनाद गूंज उठे। नाशिक
आचार्य भगवन् ने आषाढ शुक्ला त्रयोदशी सं. १९९५ को डूडसी से विहार किया और बागरा पधार गये। आषाढ शुक्ला चतुर्दशी को प्रात: दस बजे आप का नगर प्रवेश हुआ। आचार्य पद से अलंकृत होने के पश्चात् आपका यह प्रथम वर्षावास था। आचार्य देव एवं मुनि मण्डल का नगर प्रवेश अति शोभनीय उपकरणों एवं सजधज के साथ हुआ। अपार जनसमूह आप के दर्शन करने के लिए उमड़ पड़ा। स्थान-स्थान पर नव वधुएँ अपने आराध्य आचार्य देव को बधाने के लिए कुंकुम भरे थाल और मोती - अक्षत लिए खड़ी थी। उपाश्रय में आकर प्रवेशोत्सव का चल समारोह धर्मसभा के रूप में परिवर्तित हो गया। इस धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्य देव ने अपने सागरर्भित प्रवचन में ज्ञान की महत्ता और उसकी आवश्यकता की अनिवार्यता पर विस्तार से प्रकाश डाला। आप के इस प्रवचन का प्रभाव भी हुआ।
समय के प्रवाह के साथ वर्षावास की अवधि भी व्यतीत होती रही। बागरा के श्रावकों के मानस पटल पर आप के विचारों को मूर्तरूप प्रदान करने के विचार उभरे और अंततः सं. १९९५ आश्विन शुक्ला ६ दिनां. २९.११.१९३८ को हर्षोल्लासमय वातावरण में श्री राजेन्द्र जैन गुरुकुल की स्थापना हो गयी। इसके अतिरिक्त इस वर्षावासकाल में तपाराधना के साथ पूजाओं का और प्रभावनाओं का अतिशय ठाट
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व - रहा। इस प्रकार एक अमिट छाप छोड़कर आचार्यश्री का यह वर्षावास सानन्द् सम्पन्न हुआ और आप ने बागरा से विहार कर दिया।
आचार्य के रूप में अब आप का उत्तरादायित्व भी अधिक हो गया था। समूचे चतुर्विध संघ का मार्गदर्शन करना और उसमें एकता बनाये रखना एक गुरुतर कार्य है इसके अतिरिक्त भी संघ में अनेक कार्य होते हैं उनका भी निर्वहण करना पड़ता है। वैराग्यमूर्तियों को जैन भागवती दीक्षा प्रदान करना, प्रतिष्ठाअंजनशलाका सम्पन्न करना,उपधान तप का आयोजन करना, छरिपालित संघ यात्राओं का आयोजन
और उनका नेतृत्व करना पूजा पढ़वाना तथा अन्य संघहित के कार्यों को सम्पन्न करवाना। अपने शिष्यों -प्रशिष्यों के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था करना-करवाना। संयमपालन में किसी भी प्रकार की शिथिलता न होने पाये इसका ध्यान रखना और स्वयं के द्वारा की जाने वाली धर्मराधना-स्वाध्याय आदि करना, दर्शनार्थी जिज्ञासुओं की जिज्ञासा का समाधान करना, समयानुकूल प्रवचन फरमाना प्रवचन के लिए तैयारी करना और शास्त्रानुसार लेखन-कार्य करना। आगत विद्वानों से चर्चा करना आदि विभिन्न कार्यों में आचार्य देव की दिनचर्या अतिव्यस्त हो गयी थी। इतनी व्यस्तता के बावजूद आप लेखन के लिए समय निकाल ही लिया करते थे। 'जहाँ चाह, वहाँ राह, कहावत के अनुसार आचार्य भगवन् अपना कार्य कुशलतापूर्वक सम्पन्न करते थे। अपने आचार्य काल में आप ने अनेक वैराग्य मूर्ति भाई बहनों को दीक्षाव्रत प्रदान अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठाएं सम्पन्न करवायीं। सैकड़ों प्रतिमाओं की अंजन शलाका भी सम्पन्न की।
आप की निश्रा में जितने भी प्रतिष्ठोत्सव तथा अंजन शलाकाओं के कार्यक्रम सम्पन्न हुए उनमें बागरा के अतिरिक्त सियाणा का प्रतिष्ठोत्त्व काफी महत्त्वपूर्ण था सियाणा में वि.सं. २०००में देव २४कुलिकाओं में ६८ प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवायीं। इसके साथ ही उल्लेखनीय बात यह है कि यहाँ कुछ अप्रतिष्ठित प्रतिमाएँ रखी हुई थीं। उनके संबंध में आप ने श्री संघ को उपदेश देते हुए फरमाया आपलोग पूर्व प्रतिष्ठित प्रतिमाओं की स्थापना करा रहे हैं और प्रतिष्ठोत्सव में जितना होता है, उतना ही होगा, तब अप्रतिष्ठित प्रतिमाएँ जो आपके यहाँ कई वर्षों से रखी हुई हैं, उनको भी क्यों न इसी शुभावसर पर प्रतिष्ठित करवाया जाये। थोड़ा और व्यय करने पर दोनों कार्य पूर्ण हो जाते हैं।नहीं तो फिर अलग जब कभी उनकी प्राणप्रतिष्ठा करवायी जायेगी, सर्वप्रकार का व्यय और समारम्भ फिर नवविधि से करना पड़ेगा। समय को किसने देखा है ? आज क्या है और कल क्या होने वाला है। मेरी तो यही सम्मति है कि प्रतिष्ठित बिम्बों की स्थापना के साथ में ही अप्रतिष्ठित प्रतिमाओं की भी प्रतिष्ठांजनशलाका करवा ली जाय। आचार्य भगवन् का यह सामयिक सुझाव श्रीसंघ को लाभकारी प्रतीत हुआ और सर्वसम्मति से इसे स्वीकार किया गया। परिणामस्वरूप ५८ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठांजनशलाका सम्पन्न हुई। इसके पश्चात् मण्डवारिया में प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न किया और वि.सं. २००० का वर्षावास सियाणा में ही विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों के साथ सानन्द सम्पन्न किया। वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् धाणसा में भी प्रतिष्ठोत्सव समारोहपूर्वक सम्पन्न करवाया।
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इतनी व्यस्तता के बावजूद आप का साहित्य सृजन का कार्य भी निरंतर गतिशील बना हुआ था। आपने वि.सं. १९९६ में 'यतीन्द्रप्रवचन' की रचना की थी। इसका प्रकाशन सं. २००० में हुआ । इसी वर्ष समाधान प्रदीप का भी प्रकाशन हुआ। इसके पूर्व भी आपकी अनेक पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका था । आप का ३८वाँ वर्षावास आहोर में सम्पन्न हुआ। यहाँ भी वि.सं. २००१ में प्राणप्रतिष्ठा का कार्य और वैराग्यमूर्ति भाई-बहनों को दीक्षा व्रत प्रदान किये गये। जिनमें उल्लेखनीय नाम वर्तमानआचार्य श्रीमद् हेमेन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. है । आपने वि.सं. १९९९ आषाढ़ शुक्ला द्वितीया के दिन दीक्षाव्रत अंगीकार किया था और प्रतिष्ठोत्सव के अवसर पर माघ शुक्ला ६ को आपकी बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई ।
आप का उनचालीसवाँ वर्षावास (वि.सं. २००२ में बागरा में सम्पन्न हुआ। बागरा निवासियों की वर्षों पुरानी भावना थी कि उपधान तप का आयोजन करवाया जाये। आप की पावन निश्रा में इस वर्ष उनकी भावना ने मूर्तरूप लिया और उपधान तप सम्पन्न हुआ। उल्लेखनीय तथ्य यह रहा कि बागरा संघ ने कोरटा जी तीर्थ पर धर्मशाला निर्माण हेतु दस हजार रुपये देने की घोषणा की और इसी प्रकार जालोर के अष्टपदावतार नामक सौध शिखरी जिनालय के जीर्णोद्धार हेतु भी दस हजार रुपये की देने की घोषणा की।
वि. सं. २००२ में आचार्य भगवन् के सान्निध्य में बागरा में उपधान तप का कार्यक्रम चल रहा था। बागरा के समीप ही आकोली नामक एक छोटा सा गाँव है, वहाँ के श्रावक आप की सेवा में उपस्थित हुए और यहाँ उपधानतप का आयोजन करने की प्रार्थना की। आचार्य भगवन ने बागरा संघ की विनती स्वीकार कर ली। आप ने उपधान तप का शुभ मुहूर्त भी प्रदान किया। वास्तविकता यह है कि आकोली निवासी श्री लालचंद मिश्रीलाल भंडारी ने आकोली में अपनी ओर से उपधान तप करवाने की प्रार्थना श्री संघ के समक्ष प्रकट की थी। उनकी भावना के अनुरूप श्री संघ ने आचार्य भगवन् से निवेदन कर स्वीकृति प्राप्त की । उपधान तप के पूर्व आचार्य भगवन् अपने शिष्यों के साथ आकोली पधारे तो उनका अभूतपूर्व भक्तिभाव एवं श्रद्धाभाव के साथ नगरप्रवेश करवाया गया। उपधान तप यथासमय प्रारंभ हुआ। व्यवस्था अति सुंदर थी। उपधान तप का समस्त व्यय श्री लालचंद मिश्रीलाल भंडारी द्वारा वहन किया गया। इस अवसर पर साध्वीजी श्री देवेन्द्र जी म. की दीक्षा भी सम्पन्न हुई। आकोली के कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात् आचार्य भगवन् ने यहाँ से विहार कर दिया।
वि.सं. २००३ वैशाख शुक्ला तृतीया से बागरा में श्री कुसुमश्री जी म एवं श्री कुमुदश्री जी म. को दीक्षाव्रत प्रदान किया। यहां से विहार कर आपश्री हरजी पधारे। वि.सं. २००३ ज्येष्ठ कृष्णा ६ को मुनिराज श्री सौभाग्य विजय जी म एवं मुनिराज श्री शांति विजय जी म. को दीक्षाव्रत प्रदान किया। साथ ही साध्वीजी श्री क्षमाश्रीजी म. को भी दीक्षित किया। वि.सं. २००३ के अपने मूर्ति वर्षावास में उल्लेखनीय तथ्य यह रहा कि मूर्ति में आपश्री की प्रेरणा से एक पाठशाला का शुभारम्भ हुआ, जो कालांतर में शासकीय विद्यालय के रूप में परिणित हो गई। मूर्ति में भी प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न करवाया और माघ शुक्ला पंचमी को श्री देवेन्द्र विजय जी म. को दीक्षाव्रत प्रदान किया।
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– यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - आचार्य भगवन् का इकतालीसवां एवं बयालीसवां वर्षावास थराद में हुआ। वर्षावास के बाद पुनः वर्षावास सकारण था। प्रथम वर्षावास वि.सं. २००४ में हुआ था। इस अवसर पर आपश्री का नगर प्रदेशोत्सव जितने भव्य रूप में हुआ वह ऐतिहासिक था। ज्ञात जैन इतिहास में ऐसा भव्य नगर प्रवेश्योत्सव किसी का भी देखने-सुनन में नहीं आया। नगर के जिन-जिन मार्गों से होकर आचार्य भगवन् को ले जाना था, वे सभी मार्ग रेशन एवं जरी के सुन्दर पट्टों से और तोरण द्वारों से सजाये गये थे। नगर के बाहर से वर्षावास स्थल तक श्री मूदर भाई जवेरी के नव निर्मित भवन तक मार्ग के उपरस्थन्द्रवाँ बाँधकर सूर्य की धूप को रोका गया था। बाजार की दुकानों की सजावट तो और भी अद्भुत थी। किसी दुकान पर रजतोरण, किसी पर नगद रुपयों की झूलती हुई मालायें, किसी की दुकान पर दस-दस के नोटों की बनी हुई मूल और किसी की दुकान पर चांदी और स्वर्ण के बने हुए पुष्पों की हार मालायें लटक रही थीं। नगर प्रवेशोत्सव के अवसर पर आसपास के ग्रामों से हजारों की संख्या में श्रद्धालु भक्त उपस्थित हुए थे। जब आप वर्षावास स्थल पर पहुंचे तो श्री मूदर भाई जवेरी और उनकी धर्म पत्नी ने पक्के मोतियों का स्वस्तिक बनाकर गुरुदेव को बधाया/ स्वागत किया। उल्लेखनीय है कि इस दम्पत्ति ने शीलवत अंगीकार कर लिया था। आपश्री का यह वर्षावास अतिभव्य एवं ऐतिहासिक रहा। इस वर्षावास काल में तपाराधना भी अच्छी हुई। जब वर्षावास समाप्ति की ओर था तब एकाएक आचार्य भगवन अस्वस्थ हो गए। आपको निमोनिया हो गया था। उपचार नियमित चलता रहा, किन्तु फिर भी डबल निमोनिया हो गया। कहा भी गया है - इदं शरीरं व्याधिमंदिरम। इस कहावत के अनुसार आचार्य भगवन् अस्वस्थ्य अवश्य थे। योग्यतम् वैद्यों और डॉक्टरों ने उनकी चिकित्सा करवाई गई। श्री संघ ने अपनी ओर से कोई भी कमी नहीं होने दी। स्थिति यहां तक आ गई कि उपचार कर रहे वैद्यों और डॉक्टरों ने आचार्य भगवन से किसी को भी मिलने की अनुमति देने से मना कर दिया। बातचीत करना तो ठीक, दर्शन देने के लिए भी मना कर दिया। उपचार एवं विश्राम का प्रभाव दिखाई देने लगा। आचार्य भगवन् के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा। वृद्धावस्था भी थी। स्वास्थ्य लाभ होते-होते काफी समय लग गया। कमजोरी इतनी अधिक हो गई थी कि चलने फिरने में भी असुविधा होती थी। इन सब कारणों से वर्षावास के बाद और फिर शीत ऋतु में भी आपश्री की .... में सकारण रुकना पड़ा।
आचार्य भगवन् की अस्वस्थावस्था में भराव श्री संघ ने तन, मन और धन से सेवा कर अपनी सेवा भक्ति का अपूर्व परिचय दिया। एक डॉक्टर तो प्रतिक्षण आपश्री की सेवा में ही उपस्थित रहता था। आपश्री के स्वास्थ्य में आशाजनक सुधार न हो तब तक डॉक्टर बराबर आपकी सेवा में उपस्थित रहता था। गरुभक्तों ने आपश्री के स्वस्थ्य होने और दीर्घाय होने की शभाकांक्षा से तप, व्रत, पौषधादि धर्मकार्य भी किये। आचार्य भगवन के स्वस्थ्य होते-होते और विहार करने की स्थिति में आते-आते आगामी वर्षावास का समय आ गया। विहार करने की स्थिति में थे कि मुनि श्री सागरानन्दजी म. के पेट में दर्द होने लगा। यह उदर थूल इतना तीव्र था कि वे मरणासन्न हो गये। परिणामस्वरूप उनकी चिकित्सा की व्यवस्था की गईक्ष। विहारक्रम रूक गया। अंततः वर्ष २००५ का वर्षावास भी थराव में ही व्यतीत करना पड़ा। वर्षावास काल में गुरुभक्तों का उत्साह बना रहा। सभी धार्मिक क्रियायें यथावत सम्पन्न हुईं। यह Arianorariantarandhra porn
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-यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्य : व्यक्तित्व-कृतित्व अहसास ही नहीं हआ कि थराव में यह निरन्तर दूसरा वर्षावास है। थराव में माघ शुक्ला अष्टमी सं. २००५ को मुनि श्री रसिक विजयजी म. को दीक्षाव्रत प्रदान किया गया।
वि.सं. २००० का वर्षावास बाली में व्यतीत किया। यहां मार्गशीर्ष माह में प्रतिष्ठा जनशलाका का कार्यक्रम सम्पन्न कर आपश्री ने विहार किया और ग्रामानुग्राम धर्मप्रचार करते हुए आपश्री खिमेव होते हुए गूढ़ा पधारे। आपश्री की प्रेरणा से यहां ज्ञान भण्डार की स्थापनाकिए भवन निर्माण करने का निश्चय किया। इस ज्ञान भण्डार की स्थापना का उद्देश्य आपश्री द्वारा प्रकाशित एवं संग्रहीत विपुल साहित्य को सुरक्षित रखना था।
वि.सं. २००७ का वर्षावास आपश्री ने गूढा बालोतान में किया। ऊपर उल्लेख किया जा चुका था कि यहां एक ज्ञान भण्डार के लिए भवन निर्माण करने का निश्चय किया गया। इस निश्चय के अनुरूप यहां भी श्री यतीन्द्र जैन ज्ञान भण्डार मंदिर का निर्माण किया गया। साहित्य को सुरक्षित एवं चिरस्थायी रखने के लिए गूढ़ा के श्रीसंघ का यह प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय प्रयास था। इसके अतिरिक्त यहाँ अन्य समस्त सामान्य धार्मिक कार्य भी सम्पन्न हुए। वर्षावास के पश्चात् आपश्री विहार करने वाले थे किन्तु यहां के गुरुभक्त वशिस्थानक तप उद्यापन तथा प्रतिष्ठा करवाना चाहते थे। अतः गुरुभक्तों के आग्रह से आपश्री को ठहरना पड़ा। ये दोनों कार्यक्रम सम्पन्न होते होते फाल्गुन मास आ गया। आपश्री विहार करने ही वाले थे कि आपको असह्य मूत्रावरोध वेदना उत्पन्न हो गई। तत्काल उपचार प्रारम्भ करवाया गया। स्वस्थ्य होने के बाद यहां से विहार कर दिया। मार्गवर्ती ग्रामों में धर्म प्रचार करते हुए आपश्री मँगएवा पधारे। मेंगएवा से आपश्री माणुवपुर तीर्थ पधारे। माण्डवपुर में एक भी जैन परिवार नहीं था। वहां की अजैन जनता ने आपश्री का हार्दिक स्वागत किया। श्री भाण्डवपुर के ठाकुर साहब ने नंगे पैर अपने कुछ साथियों के साथ लगभग दो किलोमीटर आगे आकर आचार्य भगवन् एवं मुनि मण्डल की अगवानी की एवं दर्शन लाभ प्राप्त किया। आपश्री भाण्डवपुर में तीन दिन विराजमान रहे। भाण्डवपुर में उस क्षेत्र की अजैन जनता का आपके प्रति श्रद्धाभाव उस समय देखने को मिला जब उसने आपके समक्ष वर्षावास का प्रस्ताव रखा और समस्त व्यवस्था का उत्तरदायित्व भी स्वीकार किया। उसके श्रद्धाभाव और सरल व्यवहार को देखकर प्रत्येक दर्शक मुग्ध था। आचार्य भगवन् का आगामी वर्षावास कुछ विशिष्ट कारणों से थराव होना निश्ति हुआ। दि. १३.६.१९५१ को थराव के लिये यहां से विहार कर दिया।
थराव में वर्षावास स्वीकृत करने का कारण यह था कि वहां एक प्राचीन कायोत्सर्गस्थ प्रतिभा भूगर्भ से निकली थी, उसकी प्रतिष्ठा तथा कुछ अन्य प्रतिमाओं की अंजनावस्था प्रतिष्ठा सम्पन्न करनी थी। थराव श्रीसंघ यह प्रतिष्ठोत्सव अपने आराध्य गुरुदेव के करकमलों से ही सम्पन्न करवाना चाहता था। अस्तु थराव में वर्षावास करने की स्वीकृति प्रदान करना पड़ी थी। जागा र कुछ अस्वस्थता के कारण कमजोरी और कुछ शरीर का स्थूल होना। इअन कारणों से अब आचार्य भगवन यदि थोड़ा भी शारीरिक श्रम करते तो थक जाया करते थे। विहार करने में भी कष्ट का अनुभव होता था, किन्तु आपश्री की प्रबल इच्छाशक्ति से सब कार्य सुगम होते जा रहे थे। माण्डवपुर से
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व कृतित्व
थराव का मार्ग काफी लम्बा था और मार्ग निर्विघ्न भी नहीं था। मार्गवर्ती ग्राम नगरों में धर्म प्रचार करते हुए। विश्राम लेते हुए आपश्री की बिहार यात्रा सानन्द चल रही थी। अपने बिहार क्रम में आपश्री बागोड़ा पधारे। बागोड़ा श्रीसंघ ने अपने गुरुदेव का भावभीना स्वागत कर अच्छी गुरुभक्ति का परिचय दिया। बागोड़ा से लगभग बीस किलोमीटर की दूरी पर मोरसिम नामक गाँव है। इन दोनों ग्रामों के श्री संघों में लगभग सत्तर वर्ष से वैमनस्य चला आ रहा था। झगड़ा इतना बढ़ गया था कि मोहन व्यवहार भी बन्द हो गया था। जब आचार्य भगवंत के सम्मुख यह बात आई तो आपश्री ने दोनों संघों के एकत्र करने समझाया और वैमनस्य त्यागने का परामर्श दिया। दोनों संघों ने आपश्री के परामर्श को मान लिया। दोनों पक्षों की बातों को सुनकर आपश्री ने निष्पक्ष भाव से अपना निर्णय सुना दिया। दोनों संघों ने आपश्री के निर्णय को शिरोधार्य कर आपसी कलह को समाप्त कर दिया। इससे दोनों संघों में हर्षोल्लास का वातावरण व्याप्त हो गया। यहां आपश्री ने अपने संघ नायकत्व को सार्थक किया। दोनों संघ की ओर से काडता ग्राम में अलग-अलग स्वामीवात्सल्य हुए। आपश्री को यहां दो दिन ठहरना पड़ा था।
भाण्डवपुर से थराव का मार्ग रेतीला है। इस मार्ग से विहार करने में काफी कठिनाई आती है। फिर आपश्री की शारीरिक स्थिति भी विहार के अनुकूल नहीं थी । ऐसी स्थिति में आपश्री के शिष्य आपश्री को डोली में बिठाकर चलते थे। जब आपश्री साचोर पधारे तो यहां भी उत्साह और उमंग का वातावरण हो गया। साचोर में श्रीसंघ में फूट पड़ी हुई थी। आपश्री का जब पदार्पण हुआ तो दोनों पक्षों ने मिलकर धूमधाम से नगर प्रवेश करवाया। दोनों पक्षों की ओर से स्वामीवात्सल्य भी हुआ। आपश्री के प्रभाव से यहां भी संघ में एकता स्थापित हो गई। साचोर के विहार कर मार्गवर्ती ग्रामों में धर्म प्रचार करते हुए आपश्री यथा समय वर्षावास हेतु थरावघ पधारे। आपके आगमन से हर्षोल्लास छा गया। यहां के गुरुभक्तों ने अति उत्साह के साथ अपनी परम्परा के अनुसार समारोहपूर्वक धूमधाम से आपश्री का नगर प्रवेश करवाया। विभिन्न धार्मिक क्रियायें और तपाराधना के साथ वर्षावास सानन्द सम्पन्न हुआ।
थराव वर्षावास का मुख्य उद्देश्य प्रतिष्ठाजनशलाका करवाना था। मुर्हृत्त का माघ शुक्ला ६ की निश्चित मुहूत्त में प्रतिष्ठांजन शलाका का कार्य सम्पन्न हुआ। प्रतिष्ठा के अंतिम दिन आचार्य भगवन् एकाएक असह्य ज्वर से ग्रसित हो गये। सम्भवतः अतिशय थकान के कारण ज्वर आ गया हो। यह ज्वर निमोनिया में परिवर्तित हो गया। श्रीसंघ थराव ने अपने आपको आपश्री की सेवा में समर्पित कर दिया। समुचित उपचार होने से आपश्री स्वस्थ्य हुए। पूर्ण रूप से स्वस्थ्य होने पर आपश्री ने अपने शिष्य परिवार के साथ वैशाख कृष्णा अष्टमी संवत २००१ को थराव से मारवाड़ की ओर विहार कर दिया।
मार्गवर्ती ग्रामों में जिनवाणी का अमृतपान करते हुए आपश्री का नाऐल और वाघाहन में पदार्पण हुआ। आपश्री के उपदेशों से प्रभावित होकर दोनों गांवों के ठाकुरों ने मांस-मदिरा का आजीवन त्याग किया। बांकड़ाऊ पधारे तो यहां के कृषकों ने आपश्री के उपदेश से प्रभावित होकर सूड़ (खेतों में एकत्र किया हुआ कचरा, जिसमें असंख्य जीव छिपे हुए रहते हैं) को जलाने का त्याग किया। जाखए में दो जोड़ ने आजीवन शीलव्रत ग्रहण किया। बाली (सांचोर) में भी दो पक्ष थे। आपश्री के उपदेश से दोनों में एकता स्थापित हुई और यहां आपश्री के कर कमलों से प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न हुआ।
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्य : व्यक्तित्व - कृतित्व - वि.सं. २००९ का वर्षावास आपश्री ने बागरा में व्यतीत किया। वर्षावासकाल में एकाएक आचार्य भगवन् मूत्रावरोध से ग्रसित हो गए। स्मरण रहे यह बीमारी आपश्री को पहले भी दो तीन बार हो चुकी थी। समुचित उपचार प्रारम्भ हुआ। आपरेशन भी करवाया गया। उसके कई सप्ताह बाद तक भी उपचार चलता रहा। पूर्ण स्वस्थ्य होने में पूरे तीन मास लग गए। कमजोरी काफी थी। विहार करने की स्थिति नहीं थी। सर्दी भी शुरु हो गईक्ष थी। इस अवधि में आपश्री बागरा में ही विराजमान रहे। स्वस्थ्य होने के पश्चात् चैत्र कृष्णा तृतीया को बागरा से विहार कर दिया। चैत्र पूर्णिमा के अवसर पर माण्डव पुरतीर्थ में मेला लगता है। इस वर्ष का यह मेला सियाणा के श्रावक की ओर से लगने वाला था। उनकी विनंती स्वीकार कर आचार्य भगवन माण्डवपर तीर्थ पधारे।
चैत्र पूर्णिमा पर इस क्षेत्र के चौबीस ग्रामों के श्रीसंघ भी उपस्थित हुए थे। इस क्षेत्र को दिया पट्टपट्टी के नाम से जाना जाता है। इस अवसर पर श्री संघों ने यहां प्रतिष्ठा विचार किया और उन्होंने इस सम्बन्ध में आचार्य भगवन से निवेदन किया। आचार्य भगवन ने श्री संघों की प्रार्थना स्वीकार कर शुभ मुर्हत्त प्रदान कर दिया। यह शुभ मुहूत्त श्रेष्ठ शुक्ला दसमी का था। आचार्य भगवन् का विहार स्थगित हो गया। श्रावकगण प्रतिष्ठोत्सव की तैयारी में लग गए। विशेष उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इस अवसर पर आगन्तुक अतिथियों के आवास के लिये ग्राम की अजैन जनता ने अपने आवास खाली कर दिये थे और स्वयं अपने कुओं पर रहने लगे थे। ऐसा सहयोग कम ही३ देखने को मिलता है। यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक ही होगा कि माण्डवपुर तीर्थ एकदम वनखण्ड में स्थित है। ग्राम बहुत ही छोटा है। आगन्तुक अतिथियों के लिये आवास हेतु टेंट आदि में भी समुचित व्यवस्था की गई थी। प्रतिष्ठोत्सव जिस धूमधाम के साथ सम्पन्न हुआ, उसकी स्मृति आज भी लोगों के मानस पटल पर है। लोग यह कहते पाये गये कि ऐसा प्रतिष्ठोत्सव कई सौ वर्षों में भी नहीं हुआ था। यह सब आचार्य भगवन के पुण्य प्रभाव का परिणाम कहा जा सकता है। स्वयं अस्वस्थ होते हुए भी आपने लगन एवं निष्ठा से यह प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न करवाया था इसमें मुनिराज श्री विद्याविजयजी स्वाद में आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचंद्र सूरीश्वर जी म. की भूमिका भी सराहनीय रही थी।
वि.सं. २०१० का वर्षावास सियाणा में हुआ। यहां मुनिश्री वल्लभ विजय जी म. अस्वस्थ्य हो गये थे। इस कारण वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् भी आपश्री का विहार नहीं हो पाया। माघ व. अमावस्या को मुनिजी वल्लभ विजयजी का देहावसान हो गया।
सियाणा में ही वि. सं. २०१० माघ शुक्ला चतुर्थी रविवार को आचार्य भगवन ने दो को दीक्षा व्रत प्रदान किया। जिन्हें मुनिश्री जयंत विजय जी म. एवं मुनिश्री जयप्रभ विजयजी म. के नाम से अपने शिष्य रूप में प्रसिद्ध किया। तत्पश्चात् यहां से विहार कर दिया और ग्रामानुग्रानम जैन धर्म की ध्वजा फहराते रहे। आगामी वर्षावास आहोर में व्यतीत किया। वि.सं. २०११ में आपश्री द्वारा रचित निम्नांकित पुस्तकें प्रकाशित हुईं--
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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व शाना (१) साधु-प्रतिक्रमण सूत्र (सार्थ-हिन्दी), (२) सत पुरुष के लक्षण, (३) स्त्री-शिक्षा-प्रदर्शन और (४) श्री तप परिमल। यिक
वि.सं. २०१२ का वर्षावास राजगढ़ (धार), वि.सं. २०१३ कारवाचरोद एवं वि.सं. २०१४ का वर्षावास राणापुर में व्यतीत किया। इस अवधि में अनेक धार्मिक कार्यक्रमों के साथ अन्य समाजोपयोगी कार्य भी सम्पन्न हुए। गुरुदेवश्री राजेन्द्रसूरिजी का अद्ध शताब्दी महोत्सव भी मनाया गया। इसी समय आचार्य भगवन श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वर जी म. का दीक्षा हीरक जयंती वर्ष भी आ गया। तब आपकी सेवा में एक अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया। एक ज्ञान योगी आचार्य को इससे अच्छी भेंट और क्या हो सकती थी। इस अवसर पर आपने अपने संदेश में फरमाया कि यह उनका नहीं जिन शासन का सम्मान है। भघवान्, महावीर के शासन को दीपाना संतों का सच्चा सम्मान है।
आचार्य भगवन् ने आजीवन जैन धर्म और ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए अथक प्रयास किया। उनका मुखमण्डल ब्रह्मचर्य के तेज से दैदीप्यमान था। उनका ओजस्वी एवं तेजस्वी व्यक्तित्व सबके लिये आकर्षण का केन्द्र था। उनका अपना एक प्रभा मण्डल था जो उनकी उत्कृष्ट साधना का परिणाम
था। उनकी एक अन्य विशेषता थी, विद्वानों का सम्मान करना। ऐसी विशेषता अन्यत्र कम ही देखने को मिलती है। आज आचार्य प्रवर हमारे बीच नहीं है किन्तु उनकी स्मृतियाँ हमारा मार्गदर्शन करती हैं।
मोपचार Sharगांधी
प
र माशोमा डिमांगो कि
जिजामात विगिंग कर कि काराम विवाहमाची किलानणाशी मानवी
ही शिकार मागपत्रमाणको काशी
రురురురురురురురువారం
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రవారందరు గురువారుతరసాని
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-यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व
श्री यतीन्द्रसूरि - दीक्षा - शताब्दी
| कुमारी सोनाली लोढा, जावरा,
निशा
श्रीमुख पर रहती थी सदा प्रसन्न मद्रा खिली-खिली
य यकीनन जिनके जीवन की ज्योति जग-आलोकहित जली
ती तीक्ष्ण बुद्धि के स्वामी विमल वृत्तियाँ जीवन में ढली
।
।
न् न्याय-त्याग की सरस धारा जीवन में बहती चली
।
द्रवणशील अन्तर में वैराग्य की तरंगावलि पली ।
RREFERE
।
।
।
सू सूझ-बूझ से निर्मल, निश्छल, मृदुल भाव विश्व में बिखेरे रिक्त हृदय को स्नेह से भर दे वाणी के थे ऐसे चितेरे दी दीप्त जगत् को कर दिया ऐसा था जिनका आचार क्षा क्षार को मिश्री कर दे ऐसे थे अनुपम विचार श शत् - शत् नमन् हो चरणों में गुरुदेव हैं अनंत उपकारी
।
।
।
ता तारना हमें भी ओ जिनशासन के प्रबल प्रचारी
ब् बलिदान कई किये जिसने साधना में जिंदगी गुजारी दी दीनदयालु चरणों में हैं आपके यही है विनती हमारी
मना
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - भेदविज्ञान के ज्ञाता आचार्यश्री श्री सुशीलकुमार रमेशचन्द्रजी खटोड़,
मनावर...
आचार्य भगवत् श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का वि.सं.२००९ का वर्षावास बागरा में था। इस वर्षावास-काल में आप के सदुपदेश से पुरानी धर्मशाला के जीर्णोद्धार का कार्य करवाया जाना था और श्री पार्श्वनाथ जिनालय की श्रृंगार चौकी के निर्माण का कार्य करवाना भी श्री संघ बागरा ने स्वीकृत कर लिया था। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य कार्य भी वहाँ पर सम्पन्न हुए। वर्षावास-कालीन धार्मिक कार्य बहुत ही शानदार ढंग से सम्पन्न हो रहे थे। श्रीसंघ में अपूर्व उत्साह भी था।
एक दिन एकाएक आचार्य श्री को मूत्रावरोध का रोग हो गया था। यह रोग इसी वर्षावास में उत्पन्न हुआ हो,ऐसी बात नहीं थी। इसके पूर्व भी दो-तीन बार यह रोग आपको पीड़ित कर चुका था। उस समय तात्कालिक उपचार से रोग ठीक हो गया था। बागरा वर्षावास में जैसे ही यह रोग उत्पन्न हुआ और बागरा श्री संघ को जानाकरी मिली तो श्रावक संघ के प्रमुख श्रावक आप की सेवाएं तत्काल उपस्थित हुए सबकी मुखमुद्राओं पर चिंता की रेखाएँ खिंची हुई थी। सभी ने एक स्वर से इस रोग की समुचित चिकित्सा करवाने की विनती की। आचार्य देव ने श्रावक संघ के प्रमुख व्यक्तियों की विनती स्वीकार कर ली। बागरा में योग्य चिकित्सक न होने के कारण जालोर से तत्काल डाक्टर को बुलाया गया। डाक्टरने आप का परीक्षण कर शल्यक्रिया (आपरेशन) करने का परामर्श किया। उसनेने यह भी बताया कि बिना शल्यक्रिया के इसका उपचार संभव नहीं है। तात्कालिक लाभ कुंछ औषधियों से मिल सकता है, किन्तु स्थायी लाभ के लिए शल्यक्रिया आवश्यक है सबकी सहमति होने पर शल्य-क्रिया कराना निश्चित हो गया।
शल्यक्रिया की कार्रवाई शुरू हुई। उन दिनों यदि छोटी शल्यक्रिया भी होती थी तो रोगी को क्लोरोफार्म सुँघा कर मूर्च्छित किया जाता था। उसके पश्चात् ही शल्यक्रिया की जाती थी। जब आचार्यश्री को मूछित करने के लिए क्लोरोफार्मसुंघाया जाने लगा तो आप ने कहा मुझे मूछित करने की आवश्यकता नहीं है।
भगवन यदि मूञ्छित नहीं किया जायेगा तो आप को असह्य कष्ट होगा।' एक श्रावक ने कहा। महाराज श्री क्लोरोफार्म सुँघाने से आपको कोई कष्ट नहीं होगा। आपके मूर्छित होने से आपरेशन करने में सुविधा होगी। डाक्टर ने भी कहा। मेरी सुविधा कष्ट आदि की आप चिंता न करें। मैं जानता हूँ कि यह कष्ट शरीरका हे. आत्मा इससे अलग हे शारीरिक कष्ट की चिंता नहीं। आप निश्चिन्त होकर आपरेशन करें मेरी ओर से आपको कोई भी असुविधा नहीं होगी।' आचार्य श्री ने फरमाया।
इतना होने पर भी प्रमुख श्रावकों और डाक्टरों ने आपसे पुनः क्लोरोफार्म सुंघवाकर मूछित कर शल्यक्रिया करने की विनती की, किन्तु आप अपने कथन पर दृढ़ रहे। अंततः आप को मूञ्छित किये बिना ही डाक्टर ने आपका आपरेशन कर दिया। जिस समय आपरेशन किया जा रहा था, अंगछेदन किया जा रहा था, उस समय आप एकदम शांत निश्चल सोये रहे। आपरेशन की अवधि में न तो आप के मुख से किसी प्रकार की ध्वनि निकली और न शरीर का कोई अंग ही हिला। आपरेशन सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया। तब आप ने फरमाया- इतनी सी बात के लिए मुझे मूर्छित किया जा रहा था।
वहाँ उपस्थित सभी ने आप के साहस की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। सभी यह जान गये कि आचार्य भगवन् भेदविज्ञान के केवल ज्ञाता ही नहीं है, उन्होंने उसे अपने जीवन में उतार भी लिया है। काफी दिनों तक उपचार चलता रहा। बागरा श्रीसंघ ने तन-मन-धन से प्रशंसनीय सेवा की। मूत्रावरोध रोग से फिर आप को पूर्णत: मुक्ति मिल गयी। इस प्रसंग से गुरुदेव का भेदविज्ञानी रूप हमारे सामने प्रकट हुआ जो अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है।
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ॐ अहँ नमः परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पतिसाहित्याचार्य शंत्रुजयावतार मालव भूमि का सिद्धाचल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ उद्धारक
आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारकगन्ध * प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन *
परम पूज्य गुरुणीजी साध्वी श्री देवेन्द्र श्रीजी म.सा.
भीनमाल निवासी श्रीमती सुआबाई सुमेरमलजी लुकड़, भीनमाल
की ओर से
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध
* प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन*
जावरा (म. प्र.) निवासी श्री ऊंकारलालजी धर्मपत्नि मोहनबाई की पुण्य स्मृति में श्री अशोककुमार धर्मपत्नि अ.सौ. सुशीलाबाई
श्री महेन्द्रकुमार धर्मपत्नि अ.सौ. शशीदेवी अन्तिमकुमार, मोहितकुमार, संजयकुमार, रोनककुमार बेटा पोता परपोता ऊंकारलालजी सागरमलजी औरा परिवार
फर्म:सागरमल ऊंकारलाल औरा, जावरा
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ॐ अहँ नमः परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पतिसाहित्याचार्य शंत्रुजयावतार मालव भूमि का सिद्धाचल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ उद्धारक
आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्थ * प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन *
श्रीमती ओटीबाई फूलचन्दजी आहोर फूलचन्द्र मेमोरियल ट्रस्ट आहोर
1 की संस्थापिका श्रीमती ओटीबाई फूलचन्दजी आहोर
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध * प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन *
टीपटूर (कर्नाटक) नगर में सं. 2053 जेष्ठ सुदी 6 गुरुवार दिनांक 23-5-96 को भव्याति भव्य श्री अरनाथजी भगवान का प्रतिष्ठाज्जनशलाका महोत्सव हुआ था। इस महोत्सव में मूलनायक श्री अरनाथ भगवान के माता पिता बनने का, नवकारसी का चढ़ावा बोलनेवालो को
तिलक करने का श्रीफल देकर हार पहिनानेका मूलनायक श्री अरनाथ भगवान के मन्दिरजी पर कायम ध्वजा चढ़ानेका लाभ सर्वोच बोली बोलकर
प्राप्त किया इस पुण्यानुबन्धी पुण्य की स्मृति में
दुजाणा (निवासी) श्री मिश्रीमलजी धर्मपत्नि अ. सौ.धाकूबाई, नरपतकुमारजी, धर्मपत्नि अ. सौ. श्रीमती रेखा,
महेन्द्रकमारजी धर्मपत्नि अ. सौ.सुशीला, मुकेशकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. गीता, पुत्री- वीणा, समगीता, करुणाकुमारी पौत्री चि. डिम्पल, मनीषा, खुशबु, स्नेहा, पूजा
बेटा पोता वख्तावरमलजी चमनाजीराणावत फर्म-*महावीर टेक्सटाईल्स, टीपटूर
* महेन्द्र टेक्सटाईल्स, टीपटूर *मिश्रीमलजीराणावत, बैगलोर (कर्नाटक) * केएमंराणावत, बैगलोर (कर्नाटक)
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध * प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में नन्दन वन्दना वन्दन *
भीनमाल (राजस्थान) निवासी जैनरत्न समाज भूषण दानवीर मूलचन्दजयन्तिलाल कान्तिलाल अशोक कुमार, प्रियंक कुमार, रितेश कुमार, शशांक कुमार बेटा, पोता, पड़पोता फुलचन्दजीगीरधारमलजी बाफना
फर्मः बाफनामेटल कारपोरेशन, मुम्बई बाफनास्टील सेन्टर, मुम्बई।
शीतल मेटल, मुम्बई
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध
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मनावर (म. प्र.) निवासी श्री रमेशचन्द्र धर्मपत्नि अ. सौ. पुखराजबाई, प्रवीणकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. उर्मिलादेवी, सुशीलकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. रजनीदेवी,
हेमन्तकुमार अ. सौ. शीलादेवी, राजेशकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. ममतादेवी.
शैलेषकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. श्री पारसकुमार, लवेशकुमार पोत्री स्वाती, अंजनी, इति महावीर शिवानी।
फर्म:-* मे. रमेशकुमार मांगीलाल खटोड* लवेश उद्योग
*खटोड़ इन्टरप्राईजेस, मनावर (धार) म.प्र.
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध * प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में चन्दन वन्दबा बन्दना *
जावरा (म. प्र.) निवासी श्री रुपचन्दजी की खिमेसरा की पुण्य
स्मृति में धर्मपत्नि कंचनबाई सुपुत्र बाबूलालजी धर्मपत्नि अ. सौ. चन्द्रकान्ताबाई.
भंवरलाल धर्मपत्नि अ. सौ. मीनाबाई,
अनोखीलाल अ.सौ. कान्ताबाई पोत्र विरेन्द्रकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. साधनाबाई,
मुकेशकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. राखीदेवी, सुनीलकुमार, सुभाषकुमार पर पौत्र नीलेश
एवं खिमेसरा परिवार
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ॐ अर्ह नमः परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पतिसाहित्याचार्य शंत्रुजयावतार मालव भूमि का सिद्धाचल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ उद्धारक
आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध * प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन *
रतलाम (म.प्र.) निवासी श्री ऊंकारलालजी मेहता की धर्मपत्नि श्रीमती सम्पतबाई की स्मति में
श्री सुभाषचन्द्र, सुरेश कुमार, दिलीप कुमार दिनेश कुमारजावरावाला
फर्म: जावरा किराणा मर्चेट, स्टेशन रोड, रतलाम
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध * प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन *
श्री चतरभूजजी वोहरा के सुपुत्र श्रेष्ठिवर्य
मिश्रीमलजी आप परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति गुरुदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के परम गुरुभक्त थें, एवं रतलाम में ____ शास्त्रार्थ 1980 में हुआ था
उस समय प्रत्येक कार्य में पूर्ण रुप सेसमर्पित होकर सहयोग व श्रम किया। आपके एकमात्र पुत्र श्री मोतीलालजी है
यह भी अपने पिताश्री के
पद चिन्हो पर रहकर अपने गुरुदेव श्री की सेवा में समर्पित है।
रतलाम (म. प्र.) निवासी श्रीमोतीलालजी धर्मपत्नि अ.सौ. तारााबाई प्रकाशचन्द्र (एण्डवोकेट) धर्मपत्नि अ. सौ. पुष्पाबाई,
ज्ञानचन्द अ. सौ. विमलादेवी
ऋषभकुमार धर्मपत्निरचनादेवी राजेशकुमार, विमलकुमार, शरदकुमार पियूषकुमारहालमुकाम- इन्दौर
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध * प्रकाशन कीस्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन *
जालौर (राजस्थान) निवासी श्रीखुशालचन्दजी की पुण्य स्मृति मे पुत्र श्री सुरेशकुमारजी, विनोदकुमारजी,
ललीतकुमारजी नरेशकुमारजी बेटा पोटा श्रीखुशालचन्दजी मेघराजजीसाजी
- फर्मश्री राजेन्द्र जैनगुइस ट्रांसपोर्ट, मानपुर कालोनी, जालौर
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारकगन्ध * प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन *
रतलाम (म.प्र.) निवासी श्री भेरुलालजी धर्मपत्नि श्रीमती प्यारीबाई, श्री चान्दमलजी, धर्मपत्नि श्रीमतीसम्पतबाई की पुण्य स्मृति में
राजेन्द्रकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. सुमीत्रादेवी वैभवकुमार, विशालकुमारधाड़ीवाल परिवार
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध * प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन *
दुजाणा (राजस्थान) निवासी श्री पन्नालालजी धर्मपत्नि अ. सौ. समित्रादेवी
रमेशचन्द धर्मपत्नि अ. सौ. मौहिनीदेवी अरविन्दकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. कुवलदेवी प्रफुल्लकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. अल्पादेवी
राहुल, निखीलकुमार, नवीलकुमार बेटा पोता वख्तावरमलजी चमनाजीराणावत । फर्म:- रमेशजवेरी एण्ड कम्पनी, जवेरी बाजार, मुम्बई - 2
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ॐ अहँ नमः परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पतिसाहित्याचार्य शंत्रुजयावतार मालव भूमि का सिद्धाचल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ उद्धारक
आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारकगन्धः * ग्राकाशन की स्वार्णीमा स्मृति में लान्दना लान्दजा लान्दबा *
सियाणा (राजस्थान) निवासी शाह जवेरचन्दजी, शान्तिलाल, मीठालाल,
शिरिशकुमार, पुष्पककुमार बेटा पोता नोपाजी लखमाजी ।
-:फर्म:वर्षा प्लास्टिक प्रायव्हेट लिमिटेड, मुम्बई
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ॐ अहँ नमः परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पतिसाहित्याचार्य शंत्रुजयावतार मालव भूमि का सिद्धाचल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ उद्धारक
आचार्य देव श्रीमद्विजया यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दीस्मारकगन्ध
* प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन *
धानेरा (उत्तरगुजरात) निवासी श्री मंगुबहिन धर्मपत्नि श्री शान्तिलाल मेहता पुत्र रजनाकांत धर्मपत्नि अ. सौ. निरु बहिन समीरकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. श्री लेखाबहिन पोत्र मितुल आशीषकुमार, हर्षकुमार मेहता श्री शान्तिलाल सुन्दरलाल मेहता परिवार
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ॐ अहँ नमः परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पतिसाहित्याचार्य शंत्रुजयावतार मालव भूमि का सिद्धाचल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ उद्धारक
आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध * प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन *
पेटलावद (म.प्र.) निवासी श्री अनोखीलालजी धर्मपत्नि अ. सौ. श्रीमती मंजूदेवी
चि. प्रवीणकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. अरुणादेवी
चि. अनिलकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. ड़ाखीदेवी पोत्र चि. शुभम, अक्षय, पौत्री चि. सुरभी, साक्षी, पल्लवी
- फर्मअनिल ट्रेडर्स * अक्षय ट्रेडर्स 30/1 अहिल्या मार्ग पेटलावद (झाबुआ)
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ॐ अर्हं नमः
परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पतिसाहित्याचार्य
शंत्रुजयावतार मालव भूमि का सिद्धाचल श्री मोहनखेड़ा तीर्थ उद्धारक
आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्थ
* प्रकाशन की स्वर्णीम स्मृति में वन्दन वन्दन वन्दन *
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041
कौशेलाव (राजस्थान) निवासी
शाह साकलचन्दजी प्रेमचन्दजी एवं मातेश्वरी जीवीबाई की पूण्य स्मृति में शाह फूलचन्दजी धर्मपत्नि अ. सौ. चन्दावतिदेवी पुत्र उत्तमचन्दजी धर्मपत्नि अ. सौ. प्रमिलादेवी
डॉ. सुरेशकुमारजी धर्मपत्नि अ. सौ. उषादेवी प्रपोत्र ऋषभकुमार, मंयककुमार, अप्रितकुमार
प्रपोत्रिया - मोनिका, विश्वा, मित्तर घुसी, दिव्या हिरण बेटा पोता एस. पी. शाह ।
फर्म - एस. पी. शाह एण्ड ज्वेलर्स
157, ए. पहला माला, शेख मेमन स्ट्रीट, जवेरी बाजार, मुम्बई 400002
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध
लक्ष्मी का सदुपयोग करने वाले श्रेष्ठजन
(गुरु भक्तों) की स्वर्णीम नामावलि
वन्दन...वन्दन...वन्दन...
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★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
आहोर (राजस्थान) श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति
ह. श्री शान्तिलालजी मूथा आहोर (राजस्थान) निवासी श्रीमती नारंगीबेन चंचलबेन, आहोर
बागरा निवासी श्रीमती सणगारीबाई शंकरलालजी की पुण्य स्मृति में श्री मोहनलालजी शंकरलालजीजी जैन
बागरा निवासी श्री सम्पतराजजी हिराचन्दजी
आहोर (राजस्थान) निवासी सराफ विजयराज भंवरलाल बाबुलाल अशोककुमार ललितकुमार, राजेन्द्रकुमार, कमलेशकुमार, प्रवीणकुमार, प्रदीपकुमार, नरेन्द्रकुमार बेटा पोता उदयचन्दजी रतनाजी।
ओटवाड़ा (राजस्थान) निवासी श्री गणेशमलजी, हेमराजजी, महेन्द्रकुमारजी, धीरजकुमारजी,
जितेन्द्रकुमार, कुशलराज बेटा पोता भारतीजी।
अहमदाबाद (गुज.) निवासी श्री शान्तिलाल धर्मपत्नी अं. सौ. रूखमणी बहिन पुत्र किरीटकुमार ।
विपीन कुमार, अशोक कुमार, वोहरा थराद। फर्म - शान्तिलाल दीपचन्दजी एण्ड कम्पनी, राजेन्द्र सूरि चौक,
रतनपोल, अहमदाबाद
PAK
साध्वीजी श्री कीर्त्तिप्रभा श्रीजी के उपदेश से
सियाणा (राजस्थान) निवासी बाबूलालजी वख्तावरमलजी की पुण्य स्मृति में महेन्द्रकुमार, दिलीपकुमार, कमलेशकुमार, विमलेशकुमार, सिद्धार्थ, गौतम,
नमन जया बागरा निवासी - श्री भरमलजी गोमराजजी, मुम्बई
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
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रेवतडा (राजस्थान) निवासी संघवी श्री घेवरचन्दजी सुखराजजी सोपाडीया फर्म - पवन टेक्सटाईल्स, बैंगलौर
भीनमाल (राजस्थान) निवासी स्व. श्री प्रवीणकुमार की स्मृति में ऊंकचन्दजी, मूलचन्दजी, कमलेशकुमार, विपीनकुमार बेटा पोता मलूकजी सेठ फर्म - ओसवाल टायर्स, जौधपुर
बागरा निवासी - श्री पूनमचन्दजी गुलाबचन्दजी, मुम्बई गोल (राजस्थान) निवासी सेठ श्री मनोहरलालजी सुमेरमलजी, कोयम्बटूर । भीनमाल (राज.) निवासी
श्री उगमराज धर्मपत्नी अं. सौ. गोदावरी देवी पुत्र अमीतकुमार व पुत्री अं. सौ. लताकुमारी बेटा पोता पोति सोहनराजजी शिवराजजी रायसोनि मुम्बई
जोधपुर (राजस्थान) निवासी
श्री सुमेरमलजी प्रकाश, राजेश, धीरज, हर्षिल, बेटा पोता श्री फूलचन्दजी बौहरा
फर्म- राज एण्ड एसोसिएट आर्किटेक्ट
अभय चेम्बर, जालोरी गेट, जोधपुर
पी. बोहरा एण्ड कम्पनी, सी २०७/५०९ कार्मस हाउस, बम्बई
पादरु ( राजस्थान) निवासी
श्री मोतीलाल धर्मपत्नि अ. सौ. पुष्पादेवी, पुत्र अनिलकुमार पुत्री अ. सौ. रंजीताकुमारी, रतिकुमार, राखीकुमारी बेटा पोता पोती श्री धर्मचन्दजी वेनाजी सकलेचा (रासोनि)
फर्म - अनिल ईम्पेश १, वैनकटारारायन स्ट्रीट, चैन्नई (तमिलनाडु) बागरा निवासी - श्री पुखराज ताराचन्दजी, मुम्बई
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-- ------ - भैसवाड़ा (राजस्थान) निवासी श्री जुहारमलजी धर्मपत्नि अ. सौ. देवीबाई, किरणराज
धर्मपत्नि अ. सौ. विमलादेवी श्री दलपतराज धर्मपत्नि अ. सौ. सुशीलादेवी, श्री सुरेशकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. सुमीत्रादेवी श्री जयन्तिलाल धर्मपत्नि अ. सौ. अंजूदेवी, उत्तमलाल धर्मपत्नि अ. सौ. संगीतादेवी कमलेशकुमार, कपिलकुमार, आशीषकुमार, पक्षाल,
अपिल बेटा पोता परपोता श्री हरखचन्दजी सरुपचन्दजी बालगोता संघवी परिवार फर्म - मेसर्स महावीर पेपर प्रोडक्टस्, विजयवाड़ा
मेसर्स सुरेशकुमार जयन्तिलाल, ऊंझा मेसर्स किरण पेन इण्डस्ट्रीज, आहोर
भैसवाड़ा (राजस्थान) निवासी श्रीमती लीलादेवी धर्मपत्नि श्री नरपतराजजी श्री महेन्द्रकुमारजी धर्मपत्नि अ. सौ. मधुदेवी,
अशोककुमार धर्मपत्नि अ. सौ. मंजूदेवी श्री सुरेशकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. संतोषीदेवी, श्री किरणराज धर्मपत्नि अ. सौ. रेखादेवी
श्री राजेशकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. नगीनादेवी, सन्दीपकुमार, दिपेशकुमार, अभिषेक बहिन अ. सौ. विमलादेवी गौतमकुमारजी
कुमभट, जोधपुर, अ. सौ. मंजूदेवी महेन्द्रकुमारजी धाड़ीवाल, अ. सौ. यशवन्तीदेवी राकेशकुमारजी, पोती निकू, रिंकू, सेजल, निधी बेटा पोता परपोता श्री नरपतराजजी मिठालालजी छत्र गौता कोठारी परिवार
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मोदरा (राज.) निवासी श्री सिरेमलजी, श्री मांगीलालजी, सुमरेमलजी, कान्तिलालजी
बेटा पोता सिरेमलजी हंसाजी। थराद (बनासकाठा - गुजरात) निवासी संघवी खेमचन्द
लल्लूभाई संघवी पूनमचन्दजी खेमचन्दजी
बागरा निवासी - श्री जेठमलजी गुलाबचन्दजी मुम्बई
सरत (राज.) निवासी तिलोकचन्द्र, भंवरलाल, सुमेरमल, गुलाबचन्द, मदनराज, गौतमकुमार, विनोदकुमार, दिनेशकुमार, यतीन्द्रकुमार,
अभयकुमार बेटा पोता श्री प्रतापचन्दजी वाणीगोता फर्म - शाह प्रतापचन्दजी मूलाजी , बिजापुर (कर्नाटक)
भीनमाल (राज.) निवासी श्री माणकचन्दजी धर्मपत्नि अ. सौ. मोतिबाई पुत्र सोहनलाल अ.
सौ. कमलादेवी, दिनेशकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. अंजूदेवी, मुकेशकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. बसन्तीदेवी, दिशान्तकुमार, पुत्री
अ. सौ. अजनादेवी सेठ, अ. सौ. संगीतादेवी बागरा निवासी - श्री कान्तिलालजी पेराजमलजी, मुम्बई
टिपटुर निवासी - श्रीमती पवनबाई जुगराजजी फतापुरा (राज.) निवासी श्री दलीचन्दजी मयाचन्दजी
फर्म - पोहा मिल इन्द्रापुर जिला रायगढ (महाराष्ट्र) उज्जैन (म. प्र.) निवासी श्री शान्तिलालजी धर्मपत्नि राजीबाई पुत्र अभयकुमार, राजकुमार, अजितकुमार, प्रकाशकुमार सेठिया परिवार
बागरा निवासी - श्री टीकनमचन्द, गुलाबचन्द अमरिशकुमार, मुम्बई k★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
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★★★★★★★★★★★★★★★★★
नेलूर (आन्ध्रप्रदेश) गुरु भक्त शाह पारसमल, शान्तिलाल, मण्डप्पा स्ट्रीट, प्लोर, नेलूर
रचना इण्डस्ट्रीज, मुलुण्ड AMBA INDUSTRIES, MUMBAY
चन्दनमलजी केशरीमलजी बागरेचा, आहोर
श्री रतनलाल रायचन्दजी, गुण्डाबालोतान शा. जयन्तिलालजी घेवरमलजी, बालवाड़ा
संघवी पेकेजिंग, मुम्बई महाराजा इन्टरप्राइजेस, मद्रास हस्तीमलजी भबुतमलजी आहोर
हिरन बद्रर्स, मदुराई अशोक एजेन्सी, कुम्बाकोनम
एम. पी. मेटल, विजयवाड़ा जालौर (राज.) निवासी श्री बाबूलालजी सोहनलालजी व्होरा
बाबूलालजी वागरेचा, खाचरौद बागरा (राज.) निवासी श्री फूलचन्दजी केशरीमलजी
गुड़ा बालोतान (राज.) निवासी श्री थानमलजी सांकलचन्दजी एवं मातेश्वरी श्रीमती तेजाबाई की पुण्य स्मृति में श्री चम्पालाल,
जितेन्द्रकुमार, कमलेशकुमार, राकेशकुमार, अनिशकुमार चिरागकुमार बेटा पोता थानमलजी सांकलचन्दजी दोलानी परिवार फर्म - सिटी टेक्स सिल्क मिल्स प्रायवेट लि.
६/८, पुराना हनुमान १ क्रोस २ फ्लोर रुम ३० एम. आय मार्केट के पास, मुम्बई-१
REARN
★★★★★★★
++★★★★
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★★★★★★★★★★★★★★
★★★★★★
धानेरा (राज.) निवासी सेठ श्री चन्नुलालजी चिमनलालजी शाह जालौर (राज.) निवासी श्री डुगरमल मालाजी कांकरिया
फर्म - MY ELECTRONICS
Gee Gee Electronic Arede 2/3, Marasingapuam Street, Mount Road CHENNAI 600002
KONSURA
आहौर (राज.) निवासी श्रीमती कंकूबेन, आहोर
इन्दौर (म. प्र.) निवासी संघवी श्री जिनेन्द्रकुमारजी सुराणा धर्मपत्नि निर्मलादेवी, पुत्र
मनीषकुमार, अंकुरकुमार पुत्री अंजली फर्म - माय चाईल्ड रेडिमेड गारमेन्ट २०६, एम. जी रोड़, राजबाड़ा, इन्दौर
इन्दौर (म. प्र.) निवासी श्री मानमलजी, रविन्द्रकुमार, संजयकुमार हार्दिककुमार बेटा पोता
श्री सौभागमलजी मोदी, (राजगढ़ वाला) खाचरौद (मध्य प्रदेश) निवासी श्री मोतीलालजी के आत्मश्रेयार्थ
श्रीमती चमेलीबाई, नागदा । खाचरौद (म. प्र.) निवासी श्री माणकलालजी मन्नालालजी नागदा ।
खाचरौद (मध्य प्रदेश) निवासी श्री सौभागमलजी अभयकुमारजी हिंगड़
खाचरौद (मध्य प्रदेश) निवासी श्री सुभाषचन्दजी अभयकुमारजी भारती
खाचरौद (मध्य प्रदेश) निवासी मूणत रतनलालजी, खेमचन्दजी, शान्तिलालजी ।
RAMA
★★★+++
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★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ खाचरौद (म. प्र.) निवासी श्री हीरालाल मन्नालालजी नागदा
खाचरौद (मध्य प्रदेश) निवासी श्री मन्नालालजी नागदा के सुपुत्र राजमलजी नागदा व धर्मपत्नी चन्द्रकान्ताबाई की पुण्य स्मृति में पुत्र विरेन्द्रकुमार
एडव्होकेट व सुभाषकुमार राजगढ़ (म. प्र.) निवासी श्रीमती दाखाबाई छगनलालजी कापड़िया
हस्ते श्री अशोककुमारजी कापड़िया हाल मुकाम - इन्दौर
राजगढ़ (म. प्र.) निवासी मोदी श्री मथुरालालजी प्यारचन्दजी
हस्ते श्री सेवन्तीलालजी मोदी
कुक्षी (मध्य प्रदेश) निवासी शाह ताराचन्दजी खेमाजी, धनराजजी, राजेन्द्रकुमारजी, नरेन्द्रकुमारजी, श्रेणिककुमारजी, संजयकुमारजी जैन ।
कुक्षी (म. प्र.) निवासी श्री दानमलजी के
आत्मश्रेयार्थ श्रीमती चन्द्रकान्ताबाई जैन कुक्षी (मध्य प्रदेश) निवासी चौधरी तिलोकचन्दजी अ. सौ. कमलाबाई सुरेशकुमार अ. सौ. अरुणादेवी नरेशकुमार अ. सौ. रजनीदेवी लोकेशकुमार, योगेशकुमार बेटा पोता रुपचन्दजी
डूंगरचन्दजी चौधरी
इन्दौर (म. प्र.) निवासी श्री शान्तिलालजी, बसन्तिलालजी गादिया इन्दौर (म. प्र.) निवासी श्री राजमलजी की स्मृति में धर्मपत्नि शक्करबाई पुत्र श्री पारसमलजी प्रमोदकुमारजी देवेन्द्रकुमारजी, कीर्तिकुमारजी, मनीषकुमारजी, राजेन्द्रकुमारजी बया परिवार ।
★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
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कक्रक्क
बागरा निवासी- श्री विनोदकुमार शंकरजी, मुम्बई बागरा निवासी - श्री शान्तिलालजी हेमराजजी मुम्बई
बागरा निवासी - श्री छगनराजजी हस्तिमलजी मुम्बई बागरा निवासी - श्री सम्पत्तराजजी छगनराजजी संघवी मुम्बई बागरा निवासी - श्री सम्पतराजजी हिराचन्दजी मुम्बई
धार (मध्य प्रदेश) निवासी श्री मांगीलालजी छाजेड़ अं. सौ. मांगीबाई सुपुत्र बसन्तीलाल (न्यायाधीश) मनोहरलाल, डाँ. स्वतन्त्रकुमार, प्रकाशचन्द्र
खाचरौद (म. प्र.) निवासी श्रीमती कुशालबाई धर्मपत्नी श्री प्रकाशचन्द्र के मासक्षमण की
तपस्या की स्मृति में बापुलालजी मन्नालालजी नागदा
HERPAN
बागरा निवासी स्वर्गीय छगनराजजी पूनमचन्दजी संघवी की पुण्य स्मृति में श्रीमती जमनाबाई हिराचन्दजी छगनराजजी ताल (म. प्र.) निवासी श्री नगेन्द्रकुमारजी राजेन्द्रकुमारजी धाकड़
बामनिया (म. प्र.) निवासी अभयकुमार धर्मपत्नि अ. सौ. ललीतादेवी, पुत्र नरेशकुमार, भूपेन्द्रकुमार बेटा पोता परपोता
श्री हीरालालजी रतीचन्दजी लूणावत झाबुआ (म. प्र.) निवासी श्रीमती चन्द्रकान्ताबाई अन्तिमकुमार, गौरवकुमार, जीवनबाला, शालिनी।।
राजमहेन्द्री - श्री मच्छालालजी खुबाजी
हस्ते - शान्तिलाल तखतगढ़ रतलाम (म. प्र.) निवासी श्री श्रेणिककुमार धर्मपत्नि अ. सौ. श्रीमती पुखराजबाई पुत्र अभिनव पुत्री मोना
बेटा पोता पोती छोगमलजी घोच्चा ।
PRATO
HERA
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दीक्षा शताब्दी समारोह चित्र में झलकियाँ
တွင်
दीक्षा शताब्दी समारोह स्थल पर जुलुस के साथ श्री जयप्रभविजयजी श्रमण एवं श्रावक श्राविकाए
दीक्षा शताब्दी समारोह स्थल पर जुलुस के साथ श्री जयप्रभ विजयजी श्रमण एवं श्रावक श्राविकाए
မ
ग्रन्थराज को विमोचन समारोह स्थल पर ले जाती महिलाएँ
उप मुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी का स्वागत करते हुए स्वागताध्यक्ष श्री बाबूलाल जी खिमेसरा समीप खड़े कुँवर भारत सिंह जी विधायक, भूपेन्द्र महेन्द्र
ဆိုင်ဆိုင်ဆိုင်မဆိုင်ဆိုင်ဆိုင်မဆိုင်ဆိုင်နိုင်သည်များကိုပ
སྐྱེད་པའི་རཱུ་རཱུཏིཙྪཔས་རཱུ་པི་ཎེསཔ་ཙི་ཏྟ་རཱུ་ཏཱི་ཙྪཙྪ་ཧེ བྱཱ དྷ ཏིཥྛ་བྷཱུཏིཙྪ, དྷཱཏུཙྪ་པཱུ, ཏུའི དུ
की मद यतीन्द्र मटि दौमा पाटील
या
जेन्द्र जैन नगएकन
आगम वाचस्पति डॉ.सागरमलजी जैन विमोचन समारोह में भाषण करते हुए
स्वागताध्यक्ष श्री बाबूलालजी खिमेसरा
स्वागत भाषण करते हुए
ENGar
င်
ICING THU
पर यतीन्ट सरि दीया शतकदी चाळ ।
जयह
मद यतीन्द्र सरिटीशा शताब्दी साल नावर विमाचन:समारोह २०. •आयोजक.
वहजार
मारोह 2000
रविमोचन समारोह
आयोजक Pोन जैन नवयुवक महल जाला ।
भीरत
CIEO
INN
मुनिहरी
उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी विमोचन समारोह में भाषण करते हुए
MERARY समरथमलजी लोढ़ा गुरुदेवश्री का गीत द्वारा स्वागत करते हुए
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मुनिराज श्रीहितेशचन्द्रविजयजी महाराज दीक्षा शताब्दी
ग्रंन्थ का विमोचन में उद्बोधन देते हुए।
ज्योतिषाचार्य मुनिराज जयप्रभविजयजी का अभिनन्दन करते हुए श्री बाबूलाल जी खिमसेरा, समरथमल लोढा,धर्मचन्द्र चपड़ोद आदि
TOVERTI
तदाता न-स
प
शताब्दी ग्रन्थ का विमोचन हेतू महेन्द्र गोखरू अध्यक्ष राजेन्द्र जैन नवयुवक मण्डल उपमुख्यमंत्री को देते हुए
उप मुख्मंत्री श्रीमती जमुनादेवी विमोचन के पश्चात् ग्रन्थ पर अपने हस्ताक्षर करते हुए।
विमोचन के बाद ग्रन्थ को दिखाते हुए
ग्रंन्थ को विमोचन पश्चात् मुनिश्री को भेंट करती
उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी
त्रिस्तुतिक श्री संघ द्वारा मालव रत्न श्रीजयप्रभविजयजी श्रमण को
कामली अर्पण करते हुए श्रावकगण
पूज्य साध्वी श्री का शाल द्वारा स्वागत करती महिलाएँ
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culcui y
शरदीर
उप मुख्यमंत्री स्वागत करते हुए वाचस्पति डॉ.सागरमल जी जैन का ग्रन्थ के प्रधान संपादक खड़े संपादक डॉ. रमण भाई मुम्बई
उप मुख्यमंत्री संपादक डॉ.रमण भाई शाह मुम्बई का स्वागत करते
हुए, समिप खड़े श्री रमेशचन्दजी खटोड़ श्री सागरमलजी जैन
श्रीमदय परि दीक्षा शान
समोचन समार •आयोज ननवगन
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जादाप्रदात
मणी जयहा
GHZ
श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मण्डल जावरा के अध्यक्ष श्री महेन्द्र गोखरू का श्री महेन्द्र गोखरू ने अपनी ओर से ३५०० स्कवेयर फुट जमीन श्री राजेन्द्र
स्वागत करते श्री माणक लाल जी अध्यक्ष त्रिस्तुतिक संघ जावरा श्रमण विघापीठ को दान दी उनका स्वागत करते श्री बाबूलाल जी खिमसेरा
ပယ်ပယ်ကိုယ်တိုင်တိုင်အမည်မမပပပပပပပပပပပပကုန်းကုနိုင်ကယ်
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विमोचन समारोह में श्री राजेन्द्रकुमारजी धारीवाल का स्वागत
कर स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए श्रीमती जमुना देवी
श्रीकान्तिलालजी वजावत का स्वागत कर स्मृति चिन्ह भेंट करती उपमुख्यमंत्री
धार निवासी श्री मांगीलालजी छाजेड़ ट्रस्टी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
का स्वागत कर स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए श्रीमती जमुना देवी ཝི་བྷེ ཝེ ཝི ཝི ཙེ ཚེ ནི ཝི ཝི ཏི ཝི ཝིདྷི
श्री जयन्तीलाल बाफना अध्यक्ष वित्त समिति दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रन्थ का स्वागत कर समति चिन्ह अपर्ण कर रहें हैं।
श्रीमती जमुनादेवी उप मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश शासन ཡཾ, , , , ཝི ཝི ཝི ཝི , , པཏྟི
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विमोचन पश्चात् दिखाते हुए प्रधान सम्पादक श्री जयप्रभविजय जी श्रमण
श्री किशोरमलजी नाहर का स्वागत कर स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए श्रीमती जमुना देवी
श्री शन्तिलाल जी वजावत का स्वागत कर चिन्ह भेंट करती हुई श्रीमती जमुनादेवी उपमुख्यमंत्री मध्यप्रदेश शासन
श्री रमेशचन्द्रजी खटोड़ का स्वागत कर स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए श्रीमती जमुना देवी
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श्री महावीरजी का स्वागत कर स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए श्रीमती जमुना देवी
श्री अनोखीलाल जी मोदी अध्यक्ष राजेन्द्र आराधना भवन, पेटलावद का स्वागत कर स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए श्रीमती जमुना देवी
श्री रजनीकांत जी का स्वागत कर स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए श्रीमती जमुना देवी
श्री तीन्ट सरि दक्ष
च आ नव
श्री संतोष मामा प्रबंधक श्री राजेन्द्र ग्राफिक्स राजगढ़ का स्वागत कर स्मृति चिन्ह भेंट करती हुई श्रीमती जमुनादेवी उपमुख्यमंत्री मध्यप्रदेश शासन indian
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मध्यप्रदेश शासन भोपाल-462004 10 नवम्बर 2000
संदेश
प्रसन्नता का विषय है कि श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मण्डल जावरा, जिला रतलाम द्वारा आचार्य देवेश श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी के दीक्षा शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में श्री यतीन्द्रसूरी दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन किया जा रहा है।
जैन समाज ने अहिंसा और मानव सेवा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है। जैन समाज के सन्तों ने सामाजिक सद्भाव और शांति की दिशा में महत्वपूर्ण संदेश दिया है। श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने भी जैन परम्परा का पालन करते हुए एक बेहतर समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
मझे आशा है कि श्री यतीन्द्रसरीश्वरजी के शताब्दी स्मारिका ग्रंथ में जैन परम्परा एवं जैन सन्तों के बारे में विस्तार से महत्वपूर्ण जानकारी प्रकाशित की जायेगी।
शुभकामनाओं सहित।
(दिग्विजय सिंह)
परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति आचार्यदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रन्थ
का
विमोचन समारोह
की चित्रमय प्रस्तुति
श्री आनन्दीलाल संघवी अध्यक्ष - लायन्स क्लब जावरा
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श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी अभिनन्दन ग्रंथ के विमोचन समारोह
अंखियों के झरोखे से........
आज गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की क्रियोद्धारक पुण्यभूमि जावरा के त्रिस्तुतिक समाज का प्रत्येक सदस्य अत्यंत प्रसन्न नजर आ रहा है। नगर में अनेकों परिवारों में बाहर से पधारे हुए अतिथियों के साथ धार्मिक वातावरण बना हुआ है।
दोपहर १२.०० बजे के बाद का समय समाज की बहनें केशरिया रंग की पोषाखें धारण किये हुए पुरुष वर्ग श्वेत वस्त्र धारण किये हुए पीपली बाजार के प्राचीन एवं ऐतिहासिक जैन मन्दिर के परिसर में आज की भव्य शोभायात्रा में सम्मिलित होने हेतु एकत्र हो रहे हैं। गुरुदेव के चित्र से सजी हुई शोभायात्रा विजय मुहुर्त में मन्दिर प्रांगण से प्रारम्भ होकर बेण्ड पर गुरुदेव की मधुर गीतों की धुनों के साथ, ढोलों के उच्च उद्घोष के बीच नगर के प्रमुख मार्गों से निकल रही है। बहनों ने जरी और रेशम के वस्त्र में लिपटे ग्रंथ को रजत मंजूषा में रखकर अपने मस्तक पर ससम्मान उठाते हुए आज की इस शोभायात्रा को गरिमा प्रदान की है। जिनशासन और गुरुदेव की जयघोष करता हुआ यह जनप्रवाह प.पू.ज्योतिषाचार्य, मालवरत्न मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी म.सा., "श्रमण' ,प.पू. प्रवचनकार मुनिराज श्री हितेशचन्द्र विजयजी म.सा., प.पू. मुनिराज श्री दिव्यचन्द्रविजयजी म.सा. की पावन निश्रा में नगर के वातावरण को गुरु भक्तिमय बनाते हुए लगभग दोपहर २.३० बजे श्री राजेन्द्रसूरि जैन दादावाड़ी के प्रांगण में निर्मित यतीन्द्र पाण्डाल में पहुंचता है, जहां आकर्षक सज्जा के साथ विशाल मंच एवं पाण्डाल बनाया गया है।
____ मुनि मण्डल, आमन्त्रित अतिथिगण, समाज के वरिष्ठ एवं युवा साथी तथा बहनें गुरुदेव को अपना वन्दन करते हुए उनकी प्रतिमा से आज के कार्यक्रम हेतु आशीर्वाद ग्रहण करते हुए विशाल पाण्डाल में पधारते हैं। उपस्थित समुदाय द्वारा जिनशासन एवं गुरुदेव की जयघोष के साथ पाण्डाल को गुंजायमान करते हुए मुनिमण्डल एवं आमंत्रित अतिथियों का स्वागत करता है। मंच के उद्घोष श्री विशाल छाजेड़ कार्यक्रम के आगामी संचालन हेतु लायन्स क्लब जावरा के अध्यक्ष - आनन्दीलाल संघवी को आग्रह के साथ आमंत्रित कर संचालन का दायित्व सौंपते हैं।
पुनः जयघोष के साथ संचालक द्वारा आमंत्रित अतिथियों से गुरुदेव के चित्र को माल्यार्पण एवं दीप प्रज्जवलन के साथ कार्यक्रम प्रारंभ करने का आग्रह किया जाता है। अतिथि श्री के.के. सिंग (उपाध्यक्ष म.प्र. कृषि विपणन संघ, भोपाल), श्री नवकृष्णजी पाटील (विधायक मन्दसौर), प्रमुख वक्ता श्री सागरमलजी जैन (शाजापुर), श्री रमणभाई ची., शाह, मुम्बई, आयोजन के लाभार्थी श्री सुभाषचंद्रजी राजमलजी नागदा खाचरौद, श्री रमेशचन्द्रजी खटोड़ मनावर, श्री राजेन्द्रकुमारजी मेहता मुम्बई, जावरा श्री संघ, श्री दादावाड़ी ट्रस्ट के पदाधिकारी, स्वागताध्यक्ष श्री बाबुलालजी खेमसरा, कार्यक्रम संयोजक श्री धर्मचन्दजी चपड़ोद, श्री राजेन्द्र जैन नयुवक मण्डल अध्यक्ष महेन्द्र गोखरू, सचिव अभय चौपड़ा दीप प्रज्जवलन एवं माल्यार्पण का दायित्व निर्वाह कर गुरुदेव एवं मुनिश्री का आशीर्वाद ग्रहण करते हैं।
श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मण्डल, श्री जावरा श्री संघ, श्री दादावाड़ी ट्रस्ट, श्री चौपाटी ट्रस्ट, श्री हेमेन्द्रसूरि सेवा मण्डल, श्री राजेन्द्र गुरू मित्र मण्डल, श्री राजेन्द्र श्रमण विद्यापीठ, श्री राजेन्द्रसूरि जैन फेडरेशन, महिला फेडरेशन के पदाधिकारियों द्वारा अतिथियों का पुष्पमालाओं से भावभीना स्वागत किया जाता है । इसी के साथ स्वागताध्यक्ष श्री बाबुलालजी खेमसरा द्वारा शब्द सुमनों से अतिथियों एवं आमंत्रित संघ का स्वागत किया गया।
कार्यक्रम संयोजक श्री धरमचन्दजी चपड़ोद ने कार्यक्रम की जानकारी प्रदान करते हुए लगभग १२०० पृष्ठ के इस ग्रन्थ एवं इसके संयोजनकर्ता प.पू. मनिराज श्री जयप्रभ विजयजी म.सा. के अथक परिश्रम और प्रयासों की जानकारी देते हुए इसे एक ऐतिहासिक ग्रंथ बताया। ग्रंथ के संपादक मंडल के सदस्य श्री पुखराजजी ताराचंदजी बागरा ने ग्रंथ प्रकाशन की योजना एवं आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जीवन के संस्मरण प्रस्तुत कर भविष्य में अपने आपको समाज सेवा हेतु समर्पित करने का संकल्प व्यक्त किया।
अनेकों जैन ग्रंथों के रचियता एवं तीर्थकर परिचय के लेखक, गुजराती एवं हिन्दी के प्रख्यात श्री रमणभाई ची. शाह ने अपने उद्बोधन में अमुद्रित जैन साहित्य के प्रकाशन का आग्रह करते हुए इस ग्रंथ प्रकाशन में आने वाली समस्याओं के संस्मरण प्रस्तुत किये। आगम वाचस्पति
और अनेकों आचार्यों व जैन मुनियों के मार्गदर्शक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी के पूर्व निर्देशक तथा ग्रंथ के प्रधान संपादक श्री सागरमलजी जैन, शाजपुर ने समस्त जैन श्रीसंघों और आचार्यों से आग्रह के साथ कहा कि "जितना खर्च आज हम अपने कार्यक्रमों की पत्रिकाओं पर कर रहे हैं, यदि उसका कुछ अंश भी जैन साहित्य शोध संस्थान पर खर्च किया जाये तो हम आने वाली पीढ़ी के लिये कुछ करते हुए साहित्य और समाज रक्षा हेतु प्रयास कर सकेंगे। परन्तु इस कार्य हेतु समर्पण, सक्रियता और जागरूकता की आवश्यकता है।"
प.पू. मुनिराजश्री हितेशचन्द्रविजयजी म.सा. ने अपने गुरू की जयप्रभविजयजी म.सा. के चरणों में अपना नमन प्रस्तुत करते हुए कहा कि शारीरिक रूप से अस्वस्थता के बावजूद भी इस ग्रंथ का संयोजन मुनिश्री के प्रबल आत्मविश्वास और साहस का ही प्रतिफल है। आपने बताया कि मुनिराजश्री ने विगत वर्षों में जैन साहित्य की १० हजार पुस्तकों का संकलन किया है और निकट भविष्य में श्री राजेन्द्र श्रमण विद्यापीठ के माध्यम से हम श्री सागरमलजी जैन की भावनाओं को पूर्ण करने का प्रयास कर रहे हैं। इस हेतु श्री राजेन्द्रसूरि जैन दादावाड़ी के सामने ही श्री चिमनलालजी, महेन्द्रकुमारजी गोखरू परिवार द्वारा भूमि दान की घोषणा की गई है, जिस पर जल्द ही निर्माण कार्य प्रारंभ हो जायेगा। ग्रंथ का विमोचन करते हुए कार्यक्रम की मुख्य अतिथि श्रीमती जमुनादेवी (उपमुख्यमंत्री म.प्र. शासन) ने अपने आपको श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की सेविका निरूपति करते हुए कहा कि विश्व में शांति स्थापना हेतु जैन धर्म का महत्वपूर्ण योगदान है और अब विश्वशांति और भाईचारे के प्रयास हेतु महिलाओं को आगे आकर कार्य करना होगा।
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इस अवसर पर कुं. भारतसिंहजी (पूर्व गृहमंत्री), श्री नवकृष्णजी पाटिल, श्री राजेन्द्र पाण्डेय ने भी अपनी शुभकामनाएँ प्रदान की। विमोचन के अवसर पर बोलते हुए मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी म.सा, ने कहा कि मेरे गुरू आचार्यदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के साधु जीवन में भी उन्हें अन्य आचार्य, आचार्य से ज्यादा सम्मान प्रदान करते थे और सामाजिक और धार्मिक निर्णयों में उनकी बात को मान्य किया जाता था। ऐसे गुरू को आज छोटी सी रचना समर्पित कर मैं अपने को धन्य मानते हुए उनसे आशीर्वाद की याचना करता हूं कि उन्होंने जावरा के लिये जो स्वप्न संजोये थे वो मैं पूर्ण कर सकू।
इसी अवसर पर त्रिस्तुतिक श्रीसंघ के समाज हितेषी श्रावकों एवं ग्रंथ के संपादक मण्डल तथा अतिथियों एवं कार्यक्रम के लाभार्थियों का बहुमान करते हुए उन्हें स्मृति चिन्ह मुख्य अतिथि के करकमलों से भेंट किये गये। अंत में आभार श्री समरथमलजी लोढ़ा ने माना। मुनिश्री के मांगलिक के साथ समारोह का समापन हुआ।
लाभ खाचरौद निवासी श्री राजमल-मन्नालाल, नागदा परिवार, मनावर निवासी श्री रमेशचंद्र मांगीलालजी खटोड़ परिवार तथा मुंबई निवासी श्री राजेन्द्र मेहता परिवार को मिलेगा। आगम वाचस्पति डॉ. सागरमल जैन (शाजापुर) एवं डॉ. रमणभाई (मुंबई) के व्याख्यान भी होंग। श्री सौधर्म बृहतपागच्छीय जैन श्वेतांबर श्रीसंघ जावरा के अध्यक्ष श्री जीतमल लुक्कड़, कार्यवाहक अध्यक्ष श्री माणकलाल कोठारी, श्रीमद् राजेन्द्र सूरि जैन दादावाड़ी चैरिटेबल ट्रस्ट अध्यक्ष श्री सुजानमल आंचलिया, श्रीमद् यतीन्द्रसूरी दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ विमोचन समिति स्वागताध्यक्ष श्री बाबूलाल खेमसरा, कार्यक्रम संयोजक श्री धरमचंद चपड़ोद ने धर्मप्रेमी नागरिकों से कार्यक्रम में अधिक से अधिक संख्या में शामिल होने की अपील की है।
चौथासंसार
नईनिया
इन्दौर - बुधवार, 22 नवम्बर 2000 श्री यतीन्द्रसूरिजी दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन 26 नवंबर को
जावरा २१ नवंबर (निप्र)। श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मंडल के तत्वावधान में श्रीमद् यतीन्द्रसूरीजी दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन समारोह २६ नवंबर को होगा। इस अवसर पर साधु-साध्वी तथा विशिष्ट हस्तियाँ उपस्थित रहेंगी।
यह जानकारी श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मंडल के अध्यक्ष श्री महेन्द्र गोखरू तथा सचिव श्री अभय चौपड़ा ने दी। उन्होंने बताया कि इस अवसर पर श्री जयप्रभविजयजी म.सा. 'श्रमण', पंन्यास प्रवर श्री रवीन्द्र विजयजी गणिवर्य', श्री जयशेखर विजयजी म.सा. 'आत्मार्थी', श्री ऋषभचंद विजयजी म.सा. 'विद्यार्थी', श्री हितेशचंद्र विजयजी म.सा. 'श्रेयस', श्री दिव्यचंद्र विजयजी म.सा. 'सुमन' एवं साध्वीश्री महेन्द्रश्रीजी म.सा., साध्वी श्री संघवणश्रीजी म.सा. आदि श्रमणी मंडल की पावन निश्रा प्राप्त होगी। इस कार्यक्रम में प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिंह, उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी, स्वास्थ्य एवं जनसंपर्क मंत्री श्री सुभाष सोजतिया, कृषि मंत्री श्री महेन्द्रसिंह कालूखेड़ा, उद्योग मंत्री श्री नरेन्द्र नाहटा, क्षेत्रीय सासंद डॉ. लक्ष्मीनारायण पांडे, सीतामऊ विधायक श्री भारतसिंह सहित अनेक गणमान्य नागरिकों के आने की संभावना है। कार्यक्रम की जानकारी देते हुए श्री गोखरू एवं श्री चौपड़ा ने बताया कि दोपहर में पीपली बाजार जैन मंदिर से शोभायात्रा निकाली जाएगी, जो नगर के विभिन्न मार्गों से होती हुई श्रीमद् राजेन्द्र सूरि जैन दादावाड़ी पहुंचेगी।
इस अवसर पर अ.भा. श्री सौधर्म बृहतपागच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेतांबर श्री संघ में योगदान करने वाले देश-प्रदेश के गुरुभक्त श्रेष्ठिवों का बहुमान भी किया जाएगा। समारोह के अंत में स्वामीवात्सल्य का आयोजन भी रखा है। इस संपूर्ण आयोजन का
- इन्दौर - बुधवार, 22 नवम्बर 2000 श्रीमद् यतीन्द्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन व
बहुमान समारोह २६ को जावरा (निप्र)। राष्ट्रसंत शिरोमणि, गच्छाधिपति वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय हे मेन्द्रसूरीश्वर के आज्ञानुवर्ती ज्योतिषाचार्य, शासनदीपक, मालवरत्न मुनिराज जयप्रभविजयजी म.सा. द्वारा संयोजित श्रीमद् यतीन्द्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन समारोह श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मंडल जावरा के तत्वावधान में २६ नवंबर को विविध कार्यक्रमों के साथ होगा।
उपरोक्त जानकारी देते हुए श्री राजेंद्र जैन नवयुवक मंडल अध्यक्ष महेंद्र गोखरू एवं सचिव अभय चोपड़ा ने बताया कि इस अवसर पर ज्योतिषाचार्य शासनदीपक, मालवरत्न मुनिराज जयप्रभविजय श्रमण, पन्यास प्रवर रविन्द्रविजय गणिवर्य, तपस्वी मुनिराज जयशेखर विजय आत्मार्थी, ज्योतिष सम्राट मुनिराज, ऋषभचंद्रविजय म.सा. विद्यार्थी, युवा प्रकोष्ठ मुनिराज हितेशचंद्र विजय श्रेयस, युवा मनीषी मुनिराज दिव्यचंद्रविजय सुमन एवं विदुषी साध्वीजी महेंद्रश्री जी, सेवाभावी साध्वीजी संघवण श्री जो आदि श्रमणी मंडल की पावन निश्रा प्राप्त होगी।
इस अवसर पर प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह, उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी, स्वास्थ्य एवं जनसंपर्क मंत्री सुभाष सोजतिया, कृषि मंत्री महेंद्रसिंह कालूखेड़ा, उद्योगमंत्री नरेन्द्र नाहटा, क्षेत्रीय सांसद डॉ. लक्ष्मीनारायण पांडेय, सीतामऊ के विधायक कुँ, भारतसिंह सहित अनेक गणमान्य नागरिकों के आगमन की संभावना है।
कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए श्री गोखरू एवं श्री चोपड़ा ने बताया कि दोपहर १२.३९ बजे पीपलीबाजार जैन मंदिर से एक विशाल शोभायात्रा निकाली जायेगी, जो नगर के विभिन्न मार्गों से होती हुई दोपहर ३.०० बजे श्रीमद् राजेंद्रसूरि जैन दादावाड़ी पहुँचेगी, जहाँ श्रीमद् यतींद्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन समारोह संपन्न होगा। इस
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अवसर पर अ.भा. श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेतांबर श्रीसंघ में अपना अमूल्य योगादन देने वाले देश-प्रदेश के गुरुभक्त श्रेष्ठिवर्यो का बहुमान भी किया जायेगा। समारोह के अंत में संपूर्ण नवकार मंत्राराधक जैन समाज के स्वामीवात्सल्य का आयोजन भी रखा गया है। इस संपूर्ण आयोजन का लाभ खाचरौद निवासी राजमल मन्नालाल नागदा परिवार, मनावर निवासी, रमेशचंद्र माँगीलाल खटोड़ परिवार, मुंबई निवासी राजेंद्र मेहता परिवार ने लिया है। इस अवसर पर आगम वाचस्पति डा. सागरमल जैन, शाजापुर एवं डा. रमणभाई ची. शाह, मुंबई के प्रवचनों का लाभ भी प्राप्त होगा। श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय जैन श्वेतांबर श्रीसंघ अध्यक्ष जीतमल लुक्कड़ कार्यवाहक अध्यक्ष माणकलाल कोठारी, श्रीमद् राजेंद्र सूरि जैन दादावाड़ी चेरिटेबल ट्रस्ट अध्यक्ष सुजानमल आंचलिया, श्रीमद् यतींद्र सूरिदीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ विमोचन समिति स्वागताध्यक्ष बाबूलाल' खेमसरा, कार्यक्रम संयोजक धरमचंद चपड़ोद ने समस्त धर्मप्रेमी नागरिकों से कार्यक्रम को सफल बनाने की अपील की है।
श्रीमद् यतींद्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन समारोह संपन्न होगा। इस अवसर पर अ.भा. श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेतांबर श्रीसंघ में अपना अमूल्य योगादन देने वाले देश-प्रदेश के गुरुभक्त श्रेष्ठिवों का बहुमान भी किया जायेगा। समारोह के अंत में संपूर्ण नवकार मंत्राराधक जैन समाज के स्वामीवात्सल्य का आयोजन भी रखा गया है। इस संपूर्ण आयोजन का लाभ खाचरौद निवासी राजमल मन्नालाल नागदा परिवार, मनावर निवासी, रमेशचंद्र माँगीलाल खटोड़ परिवार, मुंबई निवासी राजेंद्र मेहता परिवार ने लिया है। इस अवसर पर आगम वाचस्पति डा. सागरमल जैन, शाजापुर एवं डा. रमणभाई ची. शाह, मुंबई के प्रवचनों का लाभ भी प्राप्त होगा। श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय जैन श्वेतांबर श्रीसंघ अध्यक्ष जीतमल लुक्कड़ कार्यवाहक अध्यक्ष माणकलाल कोठारी, श्रीमद् राजेंद्र सूरि जैन दादावाड़ी चेरिटेबल ट्रस्ट अध्यक्ष सुजानमल आंचलिया, श्रीमद् यतींद्र सूरिदीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ विमोचन समिति स्वागताध्यक्ष बाबूलाल खेमसरा, कार्यक्रम संयोजक धरमचंद चपड़ोद ने समस्त धर्मप्रेमी नागरिकों से कार्यक्रम को सफल बनाने की अपील की है।
नवभारत
इन्दौर - बुधवार, 22 नवम्बर 2000 बहुमान समारोह व ग्रंथ विमोचन
26 नवम्बर को जावरा (निप्र)। राष्ट्रसंत शिरोमणि, गच्छाधिपति वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय हे मेन्द्रसूरीश्वर के आज्ञानुवर्ती ज्यो तिषाचार्य, शासनदीपक, मालवरत्न मुनिराज जयप्रभविजयजी म.सा. द्वारा संयोजित श्रीमद् यतीन्द्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन समारोह श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मंडल जावरा के तत्वावधान में २६ नवंबर को विविध कार्यक्रमों के साथ होगा।
उपरोक्त जानकारी देते हुए श्री राजेंद्र जैन नवयुवक मंडल अध्यक्ष महेंद्र गोखरू एवं सचिव अभय चोपड़ा ने बताया कि इस अवसर पर ज्योतिषाचार्य शासनदीपक, मालवरत्न मुनिराज जयप्रभविजय श्रमण, पन्यास प्रवर रविन्द्रविजय गणिवर्य, तपस्वी मुनिराज जयशेखर विजय आत्मार्थी, ज्योतिष सम्राट मुनिराज, ऋषभचंद्रविजय म.सा. विद्यार्थी, युवा प्रकोष्ठ मुनिराज हितेशचंद्र विजय श्रेयस, युवा मनीषी मुनिराज दिव्यचंद्रविजय सुमन एवं विदुषी साध्वीजी महेंद्रश्री जी, सेवाभावी साध्वीजी संघवण श्री जी आदि श्रमणी मंडल की पावन निश्रा प्राप्त होगी।
इस अवसस्पर प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह, उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी, स्वास्थ्य एवं जनसंपर्क मंत्री सुभाष सोजतिया, कृषि मंत्री महेंद्रसिंह कालूखेड़ा, उद्योगमंत्री नरेन्द्र नाहटा, क्षेत्रीय सांसद डॉ. लक्ष्मीनारायण पांडेय, सीतामऊ के विधायक कुँ. भारतसिंह सहित अनेक गणमान्य नागरिकों के आगमन की संभावना है।
कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए श्री गोखरू एवं श्री चोपड़ा ने बताया कि दोपहर १२.३९ बजे पीपलीबाजार जैन मंदिर से एक विशाल शोभायात्रा निकाली जायेगी, जो नगर के विभिन्न मार्गों से होती हुई दोपहर ३.०० बजे श्रीमद् राजेंद्रसूरि जैन दादावाड़ी पहुँचेगी, जहाँ
दैनिकभास्कर
इन्दौर - बुधवार, 22 नवम्बर 2000 गुरु भक्तों का बहुमान होगा, शोभायात्रा निकलेगी
श्रीमद्यतींद्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन 26 को
जावरा (निप्र)। राष्ट्रसंत शिरोमणि, गच्छाधिपति वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय हे मेन्द्रसूरीश्वर के आज्ञानुवर्ती ज्योतिषाचार्य, शासनदीपक, मालवरत्न मुनिराज जयप्रभविजयजी म.सा. द्वारा संयोजित श्रीमद् यतीन्द्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन समारोह श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मंडल जावरा के तत्वावधान में २६ नवंबर को विविध कार्यक्रमों के साथ होगा।
उपरोक्त जानकारी देते हुए श्री राजेंद्र जैन नवयुवक मंडल अध्यक्ष महेंद्र गोखरू एवं सचिव अभय चोपड़ा ने बताया कि इस अवसर पर ज्योतिषाचार्य शासनदीपक, मालवरत्न मुनिराज जयप्रभविजय श्रमण, पन्यास प्रवर रविन्द्रविजय गणिवर्य, तपस्वी मुनिराज जयशेखर विजय आत्मार्थी, ज्योतिष सम्राट मुनिराज, ऋषभचंद्रविजय म.सा. विद्यार्थी, युवा प्रकोष्ठ मुनिराज हितेशचंद्र विजय श्रेयस, युवा मनीषी मुनिराज दिव्यचंद्रविजय सुमन एवं विदुषी साध्वीजी महेंद्रश्री जी, सेवाभावी साध्वीजी संघवण श्री जी आदि श्रमणी मंडल की पावन निश्रा प्राप्त होगी।
इस अवसर पर प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह, उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी, स्वास्थ्य एवं जनसंपर्क मंत्री सुभाष सोजतिया, कृषि मंत्री महेंद्रसिंह कालूखेड़ा, उद्योगमंत्री नरेन्द्र नाहटा, क्षेत्रीय सांसद डॉ. लक्ष्मीनारायण पांडेय, सीतामऊ के विधायक कुँ. भारतसिंह सहित अनेक गणमान्य नागरिकों के आगमन की संभावना है।
कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए श्री गोखरू एवं श्री चोपड़ा ने बताया कि दोपहर १२.३९ बजे पीपलीबाजार जैन मंदिर से एक विशाल
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दैनिकभास्कर
इन्दौर - सोमवार, 27 नवम्बर 2000
संतों के बताए मार्ग पर चलने से जीवन सार्थक
शोभायात्रा निकाली जायेगी, जो नगर के विभिन्न मार्गों से होती हुई दोपहर ३.०० बजे श्रीमद् राजेंद्रसूरि जैनदादावाड़ी पहुँचेगी, जहाँ श्रीमद् यतींद्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन समारोह संपन्न होगा। इस अवसर पर अ.भा. श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेतांबर श्रीसंघ में अपना अमूल्य योगादन देने वाले देश-प्रदेश के गुरुभक्त श्रेष्ठिवर्यो का बहुमान भी किया जायेगा। समारोह के अंत में संपूर्ण नवकार मंत्राराधक जैन समाज के स्वामीवात्सल्य का आयोजन भी रखा गया है। इस संपूर्ण आयोजन का लाभ खाचरौद निवासी राजमल मन्नालाल नागदा परिवार, मनावर निवासी, रमेशचंद्र माँगीलाल खटोड़ परिवार, मुंबई निवासी राजेंद्र मेहता परिवार ने लिया है। इस अवसर पर आगम वाचस्पति डा. सागरमल जैन, शाजापुर एवं डा. रमणभाई ची. शाह, मुंबई के प्रवचनों का लाभ भी प्राप्त होगा। श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय जैन श्वेतांबर श्रीसंघ अध्यक्ष जीतमल लुक्कड़ कार्यवाहक अध्यक्ष माणकलाल कोठारी, श्रीमद् राजेंद्र सूरि जैन दादावाड़ी चेरिटेबल ट्रस्ट अध्यक्ष सुजानमल आंचलिया, श्रीमद् यतींद्र सरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ विमोचन समिति स्वागताध्यक्ष बाबूलाल खेमसरा, कार्यक्रम संयोजक धरमचंद चपड़ोद ने समस्त धर्मप्रेमी नागरिकों से कार्यक्रम को सफल बनाने की अपील की है।
दैनिकभास्कर
इन्दौर - शनिवार, 25 नवम्बर 2000 ग्रंथ का तीन वर्षों तक
सतत कार्य हुआ जावरा । श्रीमद् यतींद्रसूरि दीक्षा शताब्दी ग्रंथ में देश के सवा सौ से अधिक विद्वान लेखकों के विचारों का समावेश है। मुनिश्री जयप्रभविजयजी के निर्देशन में इस ग्रंथ पर पिछले तीन वर्षों से सतत कार्य हुआ। मुनिश्री यतींद्रसूरिजी की कर्मभूमि जावरा रही थी इसलिए इस ग्रंथ का विमोचन यहीं किया गया जा रहा है। ग्रंथ के प्रधान संपादक डा. सागरमल जैन (आगम वाचस्पति) व संपादक डा. रमणभाई ची. शाह (मुंबई) हैं। ग्रंथ की सामग्री को संयोजित करने वाले ज्योतिषाचार्य मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी बताते हैं ग्रंथ में गुरुजी यतींद्रसूरिजी के व्यक्तित्व व कृतित्व के बारे में संपूर्ण जानकारी के साथ ही जैन दर्शन, इतिहास व पुरातत्व, जैन धर्म की आराधना के विषय में अलग-अलग खंड हैं। एक-एक खंड अंग्रेजी व गुजराती में भी है । मुनिश्री बताते हैं ग्रंथ की कल्पना बहुत पहले से थी लेकिन 1997 से नियमित कार्य शुरू किया गया। मुनिश्री का मानना है कि ग्रंथ में कोई भी विषय छूटा नहीं है । ग्रंथ के लिए मुनिश्री के साथ ही साध्वी प्रवर्तिनी दक्षशिरोमणी मुक्तिश्रीजी व परम विदुषी साध्वी जयंतश्रीजी तथा शिष्य हितेशचंद्र विजयजी व दिव्यचंद विजयजी ने कार्य किया। मुनिश्री ने बताया 23 वर्ष की आयु में ही यतींद्रसूरिजी के कंधों पर पर त्रिस्तुतिक समाज की बागडोर आ गई थी। उनकी समाज की सेवाओं अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए ग्रंथ की योजना बनाई गई। कुल 1200 पृष्ठ वाले इस ग्रंथ का आवरण पृष्ठ बहुरंगी होकर अनेक दुर्लभ चित्रों से संयोजित है।
जावरा, 26 नवम्बर । हमारा देश ऋषि मुनियों का देश है तथा संतों की वाणी एवं उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथ हमारे जीवन को निखारते हैं। हम उनके बताए मार्ग पर चलकर ही अपने जीवन को सार्थक बना सके हैं।
उक्त विचार मध्यप्रदेश शासन की उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी ने आज श्री राजेन्द्र सूरि जैन दादावाड़ी प्रांगण में श्री त्रिस्तुतिक श्री संघ के आचार्य प्रवर हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के आज्ञानुवर्ती श्री ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म.सा. श्रमण द्वारा संयोजित श्रीमद् यतीन्द्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन किया। इस अवसर पर हितेशचंद्र विजयजी म.सा. सहित समारोह के विशिष्ठ अतिथि एवं पूर्व गृहमंत्री भारतसिंह, मंदसौर के विधायक नवकृष्ण पाटिल, कृषिमंत्री महेन्द्रसिंह कालूखेड़ा के प्रतिनिधि के रूप में के.के. सिंह कृषि निर्देशक भोपाल, सांसद प्रतिनिधि डॉ. राजेन्द्र पांडेय आदि ने संबोधित कर अपनी शुभकामनाएं व्यक्त की। प्रमुख अतिथि वक्ता के रूप में समारोह को आगम वाचस्पति डॉ. सागरमल जैन शाजापुर एवं डॉ. रमणभाई शाह मुंबई ने संबोधित किया।
समारोह के अतिथियों का स्वागत अध्यक्ष जीतमल लक्कड कार्यवाहक अध्यक्ष, माणकलाल कोठारी, दादावाड़ी ट्रस्ट अध्यक्ष सुजानमल आंचलिया, राजेन्द्र जैन नवयुवक मंडल के अध्यक्ष महेन्द्र गोखरू, सचिव अभयकुमार चौपड़ा, स्वागत अध्यक्ष बाबूलाल खेमसरा एवं संयोजक धरमचंद चपड़ोद ने किया।
इस अवसर पर ज्योतिषाचार्य जयप्रभविजयजी म.सा.का श्रीसंघ की ओर से कमली ओढ़ाकर बहुमान किया गया। समाज के दानदाताओं का भी प्रतीक चिन्ह प्रदान कर सम्मान किया गया। समारोह का संचालन आनंदीलाल संघवी ने किया।
समारोह के पूर्व लगभग एक किलोमीटर लंबी विशाल ग्रंथ शोभायात्रा नगर के प्रमुख मार्गों से होती हुई दादावाडी प्रांगण में समारोह में बदल गई। समारोह के पश्चात् नवकार मंत्र आराधकों का स्वामी वात्सल्य उल्लास के साथ संपन्न हुआ।
TESTRI
बिना माविजयजी मला । मही
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दैनिकभास्कर
नईदुनिया
इन्दौर - रविवार, 26 नवम्बर 2000 शताब्दी ग्रंथ का विमोचन तथा श्रेष्ठीजनों
का सम्मान समारोह आज जावरा (निप्र)। ज्योतिषाचार्य, शासनदीपक, मालवरत्न मुनिराज जयप्रभविजयजी म.सा. द्वारा संयोजित श्रीमद् यतीन्द्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन समारोह श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मंडल जावरा के तत्वावधान में २६ नवंबर को विविध कार्यक्रमों के साथ होगा।
उपरोक्त जानकारी देते हुए श्री राजेंद्र जैन नवयुवक मंडल अध्यक्ष महेंद्र गोखरू एवं सचिव अभय चोपड़ा ने बताया कि इस अवसर पर ज्योतिषाचार्य शासनदीपक, मालवरत्न मुनिराज जयप्रभविजय श्रमण, पन्यास प्रवर रविन्द्रविजय गणिवर्य, तपस्वी मुनिराज जयशेखर विजय आत्मार्थी, ज्योतिष सम्राट मुनिराज, ऋषभचंद्रविजय म.सा. विद्यार्थी, युवा प्रकोष्ठ मुनिराज हितेशचंद्र विजय श्रेयस, युवा मनीषी मुनिराज दिव्यचंद्रविजय सुमन एवं विदुषी साध्वीजी महेंद्रश्री जी, सेवाभावी साध्वीजी संघवण श्री जी आदि श्रमणी मंडल की पावन निश्रा प्राप्त होगी।
इस अवसर पर प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह, उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी, स्वास्थ्य एवं जनसंपर्क मंत्री सुभाष सोजतिया, कृषि मंत्री महेंद्रसिंह कालूखेड़ा, उद्योगमंत्री नरेन्द्र नाहटा, क्षेत्रीय सांसद डॉ. लक्ष्मीनारायण पांडेय, सीतामऊ के विधायक कुँ. भारतसिंह सहित अनेक गणमान्य नागरिकों के आगमन की संभावना है।
कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए श्री गोखरू एवं श्री चोपड़ा ने बताया कि दोपहर १२.३९ बजे पीपलीबाजार जैन मंदिर से एक विशाल शोभायात्रा निकाली जायेगी, जो नगर के विभिन्न मार्गों से होती हुई दोपहर ३.०० बजे श्रीमद् राजेंद्रसूरि जैनदादावाड़ी पहुँचेगी, जहाँ श्रीमद् यतींद्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन समारोह संपन्न होगा । इस अवसर पर अ.भा. श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेतांबर श्रीसंघ में अपना अमूल्य योगादन देने वाले देश-प्रदेश के गुरुभक्त श्रेष्ठिवों का बहुमान भी किया जायेगा। समारोह के अंत में संपूर्ण नवकार मंत्राराधक जैन समाज के स्वामीवात्सल्य का आयोजन भी रखा गया है।
इस संपूर्ण आयोजन का लाभ खाचरौद निवासी राजमल मन्नालाल नागदापरिवार, मनावर निवासी, रमेशचंद्र माँगीलाल खटोड़ परिवार, मुंबई निवासी राजेंद्र मेहता परिवार ने लिया है। इस अवसर पर आगम वाचस्पति डा. सागरमल जैन, शाजापुर एवं डा. रमणभाई ची. शाह, मुंबई के प्रवचनों का लाभ भी प्राप्त होगा। श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय जैन श्वेतांबर श्रीसंघ अध्यक्ष जीतमल लुक्कड़ कार्यवाहक अध्यक्ष माणकलाल कोठारी, श्रीमद् राजेंद्र सूरि जैन दादावाड़ी चेरिटेबल ट्रस्ट अध्यक्ष सुजानमल आंचलिया, श्रीमद् यतींद्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ विमोचन समिति स्वागताध्यक्ष बाबूलाल खेमसरा, कार्यक्रम संयोजक धरमचंद चपड़ोद ने समस्त धर्मप्रेमी नागरिकों से कार्यक्रम को सफल बनाने की अपील की है।
रतलाम - रविवार, 26 नवम्बर 2000 श्रीमद् यतींद्रसूरि दीक्षा शताब्दी ग्रंथ का विमोचन आज, शोभायात्रा निकलेगी
रतलाम (निप्र)। राष्ट्रसंत शिरोमणि, गच्छाधिपति वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजय हे मेन्द्रसूरीश्वर के आज्ञानुवर्ती ज्योतिषाचार्य, शासनदीपक, मालवरत्न मुनिराज जयप्रभविजयजी म.सा. द्वारा संयोजित श्रीमद् यतीन्द्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन समारोह श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक मंडल जावरा के तत्वावधान में २६ नवंबर को विविध कार्यक्रमों के साथ होगा।
उपरोक्त जानकारी देते हुए श्री राजेंद्र जैन नवयुवक मंडल अध्यक्ष महेंद्र गोखरू एवं सचिव अभय चोपड़ा ने बताया कि इस अवसर पर ज्योतिषाचार्य शासनदीपक, मालवरत्न मुनिराज जयप्रभविजय श्रमण, पन्यास प्रवर रविन्द्रविजय गणिवर्य, तपस्वी मुनिराज जयशेखर विजय आत्मार्थी, ज्योतिष सम्राट मुनिराज, ऋषभचंद्रविजय म.सा. विद्यार्थी, युवा प्रकोष्ठ मुनिराज हितेशचंद्र विजय श्रेयस, युवा मनीषी मुनिराज दिव्यचंद्रविजय सुमन एवं विदुषी साध्वीजी महेंद्रश्री जी, सेवाभावी साध्वीजी संघवण श्री जी आदि श्रमणी मंडल की पावन निश्रा प्राप्त होगी।
इस अवसर पर प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह, उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी, स्वास्थ्य एवं जनसंपर्क मंत्री सुभाष सोजतिया, कृषि मंत्री महेंद्रसिंह कालूखेड़ा, उद्योगमंत्री नरेन्द्र नाहटा, क्षेत्रीय सांसद डॉ. लक्ष्मीनारायण पांडेय, सीतामऊ के विधायक कुँ. भारतसिंह सहित अनेक गणमान्य नागरिकों के आगमन की संभावना है।
कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते हुए श्री गोखरू एवं श्री चोपड़ा ने बताया कि दोपहर १२.३९ बजेपीपलीबाजार जैन मंदिर से एक विशाल शोभायात्रा निकाली जायेगी, जो नगर के विभिन्न मार्गों से होती हुई दोपहर ३.०० बजे श्रीमद् राजेंद्रसूरिजैन दादावाड़ी पहुँचेगी, जहाँ श्रीमद् यतींद्र सूरिदीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन समारोह संपन्न होगा। इस अवसर पर अ.भा. श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेतांबर श्रीसंघ में अपना अमूल्य योगादन देने वाले देश-प्रदेश के गुरुभक्त श्रेष्ठिवों का बहुमान भी किया जायेगा। समारोह के अंत में संपूर्ण नवकार मंत्राराधक जैन समाज के स्वामीवात्सल्य का आयोजन भी रखा गया है । इस संपूर्ण आयोजन का लाभ खाचरौद निवासी राजमल मन्नालाल नागदा परिवार, मनावर निवासी, रमेशचंद्र माँगीलाल खटोड़ परिवार, मुंबई निवासी राजेंद्र मेहता परिवार ने लिया है। इस अवसर पर आगम वाचस्पति डा. सागरमल जैन, शाजापुर एवं डा. रमणभाई ची. शाह, मुंबई के प्रवचनों का लाभ भी प्राप्त होगा। श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय जैन श्वेतांबर श्रीसंघ अध्यक्ष जीतमल लुक्कड़ कार्यवाहक अध्यक्ष माणकलाल कोठारी, श्रीमद् राजेंद्र सूरि जैन दादावाड़ी चेरिटेबल ट्रस्ट अध्यक्ष सुजानमल आंचलिया, श्रीमद् यतींद्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ विमोचन समिति स्वागताध्यक्ष बाबूलाल खेमसरा, कार्यक्रम संयोजक धरमचंद चपड़ोद ने समस्त धर्मप्रेमी नागरिकों से कार्यक्रम को सफल बनाने की अपील की है।
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चौथासंसार
नईनिया
इन्दौर - मंगलवार, 28 नवम्बर 2000 दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का
समारोहपूर्वक विमोचन
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जावरा 27 नवंबर । यहाँ रविवार को दादवाड़ी परिसर में आयोजित भव्य समारोह में श्रीमद् यतीन्द्र सूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन हुआ। मुख्य अतिथि प्रदेश की उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी थीं। इस अवसर पर अ.भा. त्रिस्तुतिक संघ से जुड़े सक्रिय तथा सेवाभावी गुरुभक्तों का बहुमान भी किया गया।
विमोचन समारोह में साधु, साध्वीगण, विद्वान तथा बड़ी संख्या में अनुयायी उपस्थितथे।ज्योतिषाचार्य मुनिश्रीजयप्रभविजयजी श्रमण ने ग्रंथ विमोचन समारोह की शुरुआत मंगलाचरण से की। इस अवसर पर श्री भारतसिंह (विधायक), श्री नवलकृष्ण पाटिल (विधायक), श्री के.के. सिंह तथा डॉ. राजेंद्र पाण्डेय अतिथि थे। अतिथियों ने गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरिजी के चित्र पर माल्यार्पण तथा दीप प्रज्जवलि किया। श्री सागरमल जैन (शाजापुर), श्री रमणभाई शाह (मुंबई) प्रमुख वक्ता थे। श्री पुखराज पोरवाल ने भी इस अवसर पर विचार व्यक्त किए। स्वागत भाषण श्री बाबूलाल खेमसरा ने दिया। विमोचन से पूर्व ग्रंथ की शोभायात्रा निकाली गई। कार्यक्रम संयोजक श्री धरमचंद चपड़ोद ने ग्रंथ की जानकारी दी।
अतिथियों का स्वागत श्री जीतमल लुक्कड़ अध्यक्ष त्रिस्तुतिक श्रीसंघ, श्री माणकलाल कोठारी कार्यकारिणी अध्यक्ष, श्री बाबूलाल खेमसरा स्वागताध्यक्ष, श्री धरमचंद चपड़ोद कार्यक्रम संयोजक, श्री सुजानमल आंचलिया अध्यक्ष राजेन्द्र सूरी जैन दादावाड़ी, श्री महेंद्र गोखरु अध्यक्ष श्री राजेंद्र जैन नवयुवक मंडल तथा श्री अभय चोपड़ा सचिव श्री राजेंद्र जैन नवयुवक मंडल ने किया। इस अवसर पर ज्योतिषाचार्य मुनिश्री जयप्रभविजयजी म.सा. का बहुमान श्रीसंघ के अध्यक्ष श्री जीतमल लुक्कड़ तथा सचिव श्री प्रकाश चोरड़िया ने कांबली ओढ़ाकर किया। समारोह में ज्योतिषाचार्य मुनिश्री जयप्रभ विजयजी म.सा. तथा मुनिश्री हितेशचंद्र विजयजी म.सा. के प्रवचन हुए। इस मौके पर अ.भा. त्रिस्तुतिक श्रीसंघ को योगदान देने वाले गुरुभक्तों का बहुमान किया गया। अतिथियों को स्मृति चिह्न भी भेंटकिए गए। इस अवसर पर सर्वश्री दीनदयाल पाटीदार, प्रहलाद पोरवाल, चंद्रप्रकाश ओस्तवाल, सागरमल जैन, डा. रमणभाई शाह वाचस्पति तथा पुखराज पोरवाल का भी सम्मान किया गया। आभार श्री समरथमल लोढ़ा ने माना।
__इन्दौर - बुधवार, 22 नवम्बर 2000 समाज का दर्पण होते हैं ग्रंथ - जमुनादेवी
जावरा (निप्र)। ग्रंथ समाज का दर्पण होते हैं। समाज की प्राचीनता, मौलिकता, इतिहास आदि समस्त तत्वों का संग्रह ग्रंथों में होता है । ग्रंथ आने वाली पीढ़ी के लिए भी मार्गदर्शक का कार्य करते हैं | वे उन्हें समाज की ऐतिहासिकता से अवगत कराते हैं।
उपरोक्त विचार प्रदेश की उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी ने श्रीमद् राजेंद्रसूरि जैन दादावाड़ी में ज्योतिषाचार्य मुनिराज जयप्रभविजयजी म.सा.द्वारा संयोजित श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ के विमोचन अवसर पर व्यक्त किये। उन्होंने महिलाओं से आग्रह किया कि वे अपना आत्मविश्वास मजबूत कर समाज के हर कार्य में आगे आयें। महिलाएं ही समाज को मजबूत कर सकती हैं और किसी भी प्रकार के विवाद का अंत कर सकती हैं। विमोचन समारोह के पूर्व एक भव्य शोभायात्रा पिपली बाजार जैन मंदिर से प्रारंभ होकर नगर के प्रमुख मार्गों सोमवारिया, नीमचौक, कोठीबाजार, बजाजखाना, जवाहर पथ, शुक्रवारिया होती हुई श्री राजेंद्रसूरि जैन दादावाड़ी पहुँची, जहां प्रदेश की उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी के मुख्य आतिथ्य में श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन संपन्न हुआ। समारोह में मंदसौर विधायक नवकृष्ण पाटिल, सीतामऊ विधायक कुँ. भारतसिंह, सांसद प्रतिनिधि डा. राजेन्द्र पाण्डेय, मंडी बोर्ड संचालक के.के. सिंह विशेष रूप से उपस्थित थे।
प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत श्री राजेंद्र जैन नवयुवक मंडल के अध्यक्ष महेंद्र गोखरू,सचिव अभय चोपड़ा, स्वागताध्यक्ष बाबूलाल खेमसरा. कार्यक्रम संयोजक धरमचंदचपड़ोद आदि ने किया। समारोह को ज्योतिषाचार्य मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी, मुनिराज श्री हितेशचंद्रविजयजी के साथ ही ग्रंथ के प्रधान संपादक आगम वाचस्पति डा. सागरमल जैन शाजापुर, संपादक डा. रमणभाई ची. शाह, मुंबई ने भी संबोधित किया।
इस अवसर पर अ.भा. श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक श्रीसंघ में अमूल्य योगदान प्रदान करने वाले श्रेष्ठिवर्य माँगीलाल छाजेड़ धार, धर्मचंद नागदा, मूलंचद बाफना मुंबई, जयंतीलाल बाफना मुंबई, रमेशचंद्र खटोड़ मनावर, श्रेणिक लुणावत रतलाम, माँगीलाल बांठिया ताल, शांतिलाल वजावत चेन्नई, राजेंद्रकुमार मेहता मुंबई, बागमल नाहर मंदसौर आदि का बहुमान किया गया।
समारोह की आयोजिक श्री राजेंद्र जैन नवयुवक मंडल जावरा ने अपने प्रेरणास्त्रोत ज्योतिषाचार्य मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी म.सा. को कामली ओढ़ाकर एवं अभिनन्दन पत्र भेंट कर सम्मान किया। इस अवसर पर अतिथियों द्वारा ग्रंथ के प्रधान संपादक डा. सागरमल जैन शाजपुर, संपादक डा. रमणभाई ची. शाह, प्रबंध संपादक समरथमल लोढ़ा, बाबूलाल खेमसरा, अनिल चोपड़ा, भूपेंद्र रुणवाल, पुखराज टी. पोरवाल एवं मुद्रक संतोष मामा का भी बहुमान किया गया। अंत में आभार समरथमल लोढ़ा ने माना।
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रतलाम - रविवार, 26 नवम्बर 2000
दैनिकभास्कर शांति स्थापना में जैन धर्म की भूमिका महत्वपूर्ण
___ जावरा । श्रीमद् यतींद्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ का विमोचन यहां समारोह पूर्वक हुआ। श्री राजेंद्र जैन नवयुवक मंडल के तत्वावधान में आयोजित समारोह की मुख्य अतिथि प्रदेश की उपमुख्यमंत्री श्रीमती जमुनादेवी थीं। समारोह में अखिल भारतीय त्रिस्तुतिक संघ से जुड़े सदस्यों तथा सेवाभावी गुरुभक्तों का बहुमान किया गया।
समारोह को संबोधित करते हुए कहा जिस तरह देश में अशांति बढ़ती जा रही है ऐसी स्थिति में जैन धर्म का दायित्व
और बढ़ गया है। शांति स्थापना में जैन धर्म महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है । समारोह को पूर्व गृहमंत्री व सीतामऊ विधायक भारतसिंह, मंदसौर विधायक नवकृष्ण पाटिल, मंडी बोर्ड के अधिकारी के.के. सिंह, सांसद प्रतिनिधि, डा. राजेंद्र पांडे ने भी संबोधित किया। मंच पर जिला पंचायत उपाध्यक्ष दीनदयाल पाटीदार, चंद्रप्रकाश ओस्तवाल, भाजपा जिलाध्यक्ष प्रहलाद पोरवाल सहित अन्य अतिथि उपस्थित थे।
ग्रंथ विमोचन के बाद श्रमण विद्यापीठ का मुख्यालय ज्योतिषाचार्य मुनिश्री जयप्रभविजयजी
जावरा में स्थापित होगा महाराज का बहुमान कांबली ओढ़ाकर
जावरा । ज्योतिषाचार्य मुनिराज किया गया। इस अवसर पर अखिल
श्री जयप्रभविजयजी महाराज द्वारा भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय श्री
संरक्षित श्री राजेन्द्र श्रमण विद्यापीठ का संघ में योगदान प्रदान करने वाले
मुख्यालय नगर में स्थापित होगा।
मुख्यालय निर्माण हेतु चिमनलाल, मांगीलालजी छाजेड़, धरमचंद नागदा,
महेंद्रकुमार, विजयकुमार गोखरू परिवार मूलचंद बाफना मुंबई, जयंतीलाल
जावरा द्वारा लगभग 3600 वर्गफीट भूमि बाफना मुंबई, रमेशचंद्र खटोड़ मनावर
प्रदान की गई। विद्यापीठ के संस्थापक श्रेणिक लुणावत रतलाम, मांगीलाल
मुनिराज श्री हितेशचंद्र विजयी म.सा. व बाठिया ताल, शांतिलाल वजावत मार्गदर्शकं मुनिराज श्री दिव्यचंद्र चेन्नई, राजेन्द्र कुमार मेहता मुंबई, विजयजी म.सा. के निर्देशन में इस भूमि बागमल नाहर मंदसौर, ग्रंथ के प्रधान पर विद्यापीठ के मुख्यालय के साथ ही संपदाक सागरमल जैन शाजापुर, विशाल ग्रंथालय व वाचनालय का संपादक रमणभाई पी.शाह मुंबई, प्रबंध निर्माण किया जाएगा जिसमें जैन एवं संपादक समरथमल लोढ़ा, बाबूलाल
जैनेत्तर साहित्य का संग्रह उपलब्ध रहेगा खिमेसरा, अनिल चौपड़ा, भूपेंद्र
साथ ही एक गुरुकुल की स्थापना कर
50 श्रावकों को जैन विधिकारक की पूर्ण रुणवाल, पुखराज टी. पोरवाल व
शिक्षा प्रदान की जाएगी। संतोष मामा का बहुमान किया गया।
स्वागत भाषण बाबूलाल खेमसरा ने दिया । कार्यक्रम संयोजक धरमचंद चपड़ौद ने ग्रंथ के बारे में जानकारी दी।
प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत श्री राजेंद्र जैन नवयुक मंडल के अध्यक्ष महेंद्र कुमार गोखरू, सचिव अभय चौपड़ा, त्रिस्तुतिक श्री संघ के अध्यक्ष जीतमल लुक्कड़, माणकलाल कोठारी, बाबूलाल खेमसरा, धरमचंद चपड़ौद, श्री राजेंद्र सूरि जैन दादावाड़ी के अध्यक्ष सुजानमल आंचलिया आदि ने किया। संचालन आनंदीलाल संघवी ने किया। समरथमल लोढ़ा ने आभार व्यक्त किया। विमोचन समारोह में साधु-साध्वी तथा बड़ी संख्या में अनुयायी उपस्थित थे। इससे पूर्व ग्रंथ की भव्य शोभायात्रा निकाली गई। शोभायात्रा पिपली बाजार उपाश्रय से प्रारंभ हुई और प्रमुख मार्गों से होते हुए श्री जैन दादावाड़ी पहुंची।
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परमपूज्य व्याख्यानवाचस्पति साहित्याचार्य आचार्यदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
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| दीक्षा - शताब्दी।
समृति-ग्रन्थ
* परिशिष्ट *
प्रस्तुति मुनिराज श्री हितेशचन्द्रविजयजी श्रेयस' मुनि श्री दिव्यचन्द्रविजयजी 'सुमन'
androomeromotoroloriomotomowoniromivonorarrorobor
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॥ परिशिष्ट ॥
दीक्षा-शताब्दी-नायक ने रतलाम (मालवा) में प्रस्थापित श्री 'अभिधानराजेन्द्र-प्रचारक-संस्था के अधिकार में विक्रम सं. १९६४ में 'श्रीराजेन्द्रसूर्यभ्युदयावली' और संवत् १९७८ में श्री राजेन्द्रसूरि जैन ग्रन्थमाला' तथा खुडाला (मारवाड़) में प्रचलित 'श्री राजेन्द्रप्रवचन कार्यालय के आश्रित सं. १९८६ में 'श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय-सीरीज' और उसी के आधिपत्य में सं.२००१ में 'श्रीयतीन्द्रसूरि-साहित्यमाला' संस्थापित करके, उनके द्वारा अनेक छोटे-बड़े ग्रन्थ प्रकाशित करवाये हैं।
इन ग्रन्थों में सरल संस्कृतगद्यपद्यात्मक, स्तवनादि गायन, शुद्ध हिन्दी-भाषा, धार्मिक क्रियाकाण्ड और हिन्दी-अनुवाद-सम्बन्धी ग्रन्थ-साहित्य है जो शुद्ध, बढ़िया कागज पर आकर्षक रूप में मुद्रित है और यह साहित्य-प्रेमी जैन सद्-गृहस्थ श्रावकों एवं श्राविकाओं द्वारा प्रदत्त-द्रव्य सहाय से प्रकाशित हुआ है। इसके गई ग्रन्थों पर अनेक विद्वानों के अभिप्राय उपलब्ध हैं और पत्रसम्पादकों की ओर से समालोचनाएँ निकल चुकी हैं।
उपर्युक्त ग्रन्थमालाओं के द्वारा चरितनायक ने जो साहित्य-सम्बन्धी ग्रन्थ प्रकाशित किये, करवाये और सर्व-साधारण को रुचिकर हुए उनके हजारों की संख्या में प्रकाशित होने पर भी आज उनमें से कुछ की प्रतियाँ अनुपलब्ध हैं। ग्रन्थों के नाम मय-पृष्ठ संख्या के,इस प्रकार हैं
१. श्रीराजेन्द्रसूर्यभ्युदयावली
नाम-पुस्तक
१.धनसार अघटकुंवर चौपाई २. राइदेवसी-प्रतिक्रमण चौपाई ३. आगमसार (सजिल्द) ४. अष्टाह्निका व्याख्यान(मारवाड़ी भाषा सहित) ५. भावनास्वरूप (संक्षिप्त हिन्दी) ६.मांगलिक-संग्रह(मोटा टाइप) ७. गायन-सुधारस द्वि. भाग ८. जिनगुणमञ्जूषा प्रथम भाग(स्तवनादि संग्रह) ९. जिनगुणमञ्जूषा, द्वि भाग १०. पूजामहोदधि, प्रथम भाग ११. पूजा महोदधि, द्वि. भाग १२. महासती शीलरती रास १३. महासती शीलसुन्दरी रास १४. श्री स्थापनाचार्यजी १५. नाकोड़ा तीर्थ का इतिहास १६. गायन-सुधारस तृ. भाग १७. चतुर्विंशतिदण्डकविचार (३६ द्वार) १८.जिनगुणमञ्जूषा, तृ. भाग(स्तवनादि संग्रह)
१९. गायन-सुधारस चौथा भाग bordedubodibediuorirbraidedurbraidrawbraidrawbredindibedieo-२
६४ dibediediodrowomanbrdbedomdediomaherdibudhirdibraidad
Jain, Education International
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२०. यशोब्रह्मनाटक गुजराती
२१. गुणठाणाद्वार विवरण
२२. जिनेन्द्रभक्ति सुधाकर (स्तवनादि संग्रह )
२३. श्रीगुणानुरागकुलक (विस्तृत विवेचन ) २४. पार्श्वनाथ छन्दसंग्रह (प्राचीन) २५. प्रश्नोत्तरपुष्पवाटिका ( राजेन्द्रसूरिकृत ) २६. आत्मबोध - प्रकाश (धनचन्द्रसूरिकृत )
२७. सत्यबोध - भास्कर (चर्चात्मक)
२८. श्रीगौतमपृच्छा (हिन्दी अनुवाद)
२९. सुबुद्धिशिक्षा रास
३०. श्रीरिंगनोद - स्तवनावली
३१. जीवनप्रभा (राजेन्द्रसूरीश - जीवनी)
१. श्रीकर्मबोध - प्रभाकर (३५ मार्गणा विवरण)
२. श्रीराइदेवसिय प्रतिक्रमण
३. जन्ममरण - सूतक निर्णय (आवृत्ति ३)
४. स्त्रीशिक्षण हिन्दी (मिश्रीमल वोरा)
१५. जिनेन्द्रगुणगानलहरी, सजिल्द
१६. जिनगुममञ्जूषा, चौथा भाग
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ- परिशिष्ट
२. श्रीराजेन्द्रसूरि जैन - ग्रन्थमाला
५. श्रीपंचप्रतिक्रमणसूत्र (फुटनोट सहित) ६. श्रीराजेन्द्रसूरिगुणाष्टक संग्रह सार्थ हिन्दी ७. राइदेवसिय प्रतिक्रमण (मोटा टाइप)
८. पीतपटाग्रह-मीमांसा और निक्षेपनिबन्ध ९. संक्षिप्त जीवनचरित (श्रीधनचन्द्रसूरिचरित्र) . राजेन्द्रसूर्यष्टप्रकारी पूजा
१०.
११. जीवभेदनिरूपण और गौतमकुलकशब्दार्थ १२. सप्तव्यसन - परिहार
१३. सविधि साधुपंचप्रतिक्रमणसूत्राणि (पत्राकार)
१४. श्रीजैनरहस्यम् (चर्चात्मक)
१७. उमेदअनुभव, स्तवनादि संग्रह (द्वि.तृ. संस्करण)
१८. जैनर्षिपटनिर्णय (चर्चात्मक)
१९. एकसो आठ बोल का थोकड़ा (राजेन्द्रसूरीश कृत)
२०. जैनसुबोध प्रथम भाग (स्तवनादि) పాపాచర రరరరరరసా
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट २१. अध्ययनचतुष्टय (दशवैकालिक के प्रथम ४ अध्ययन) सार्थ २२. रत्नाकरपच्चीसी सान्वयार्थ हिन्दी २३. श्रीमोहनजीवनादर्श (उ.मोहनविजयजी - जीवनी) २४. श्रीनवपदपूजा (राजेन्द्रसूरिशकृत) । २५. श्रीगुरुदेवभजनमाला (स्तवन-संग्रह) २६. श्रीदेववन्दनमाला (तीसरी आवृत्ति) २७. गुंहली-विलास द्वितीय भाग २८. गुणानुरागकुलकम् (विस्तृत विवेचन सहित) २९. श्रीयतीन्द्रसेवाफल सुधापान ३०. श्रीगुरुदेवगुण-तरंगिणी (उपदेशक पद-संग्रह) ३१. श्रीयतीन्द्र-विहारादर्श(ऐतिहासिक) ३२. श्री यतीन्द्रविहार-दिग्दर्शन, प्रथम भाग (ऐतिहासिक)
३. श्री राजेन्द्रप्रवचन-कार्यालय-सीरीज
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१. श्रीकोरटाजी तीर्थ का इतिहास, सजिल्द २. श्रीयतीन्द्रविहार-दिग्दर्शन, द्वि. भाग (ऐतिहासिक) ३. श्री कल्पसूत्रबालावबोध, दूसरी आवृत्ति, सजिल्द ४. श्रीविद्याविनोद प्रथम भाग, (स्तवन-संग्रह) ५. कयवन्नाचरित्रम् गद्यपद्यात्मकम्(पत्राकार) ६. श्रीवृहद्-विद्वद्गोष्ठी गद्यपद्यात्मिका (पत्राकार) ७. श्रीकल्पसूत्रार्थप्रबोधिनीटीका, सजिल्द ८. श्रीजगडूशाहचरित्रम गद्यपद्यात्मकम् (पत्राकार) ९. श्रीजिनेन्द्रगुणगानलहरी (पाकेट) १०. श्रीसाधु पंचप्रतिक्रमणसूत्राणि, सजिल्द ११. जिनेश्वरों के चौपन स्थानक १२. श्रीचम्पकमालाचरित्रम्, गद्यपद्यात्मकम् (पत्राकार) १३. श्रीसिद्धाचलनवणुप्रकारी पूजा १४. श्रीयतीन्द्रजीवन, गुजराती (केशवलालदेशाईलिखित) १५. श्रीजिनेन्द्रपूजासंग्रह, सजिल्द सचित्र १६. श्रीपंचसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी, सजिल्द १७. श्रीयतीन्द्रविहार-दिग्दर्शन तृ. भाग (ऐतिहासिक) १८. श्रीआत्म-निवेदन (रत्नाकरपच्चीसी पद्यानुवाद) १९. श्रीमहावीर-गौतमप्रवचन, (दोहात्मक) २०. श्रीराजेन्द्रसूरीश्वराष्टप्रकारी पूजा
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट २१. श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुतिमाला (संस्कृतचैत्यवन्दनानि) २२. सतीत्वरक्षा, हिन्दी पद्यमय २३. श्रीलक्ष्मणीतीर्थस्तवनमाला २४. श्रीविद्या-विनोद द्वि. भाग २५. सविधि स्नात्र-पूजा (यतीन्द्रसूरिकृत) २६. श्रीयतीन्द्रविहार-दिग्दर्शन, चौथा भाग (ऐतिहासिक) २७. श्रीमद्राजेन्द्रसूरि, त्रिभाषात्मक (राजसंस्करण) २८. जिनेन्द्रस्तुतिभावना द्वादशभावना सहित २९. श्रीभूपेन्द्रसूरि (गीतिका-पद्यमय जीवन) ३०. श्रीलक्ष्मणीतीर्थ-प्रतिष्ठारास (ऐतिहासिक) ३१. श्रीमद्यतीन्द्रसूरि, प्रथम भाग (पद्यमयजीवन) ३२. श्रीराइयदेवसिय-प्रतिक्रमणसूत्र (स्वगच्छीय) ३३. श्रीजिनदेवस्तुति (हरिगीतिछन्द) ३४. श्रीअमृत-स्तवनावली ३५. शान्तिनिकेतन श्रीमन्मोहनविजय जी पद्यात्मक ३६. मेरी नेमाड़ यात्रा (ऐतिहासिक) ३७. पौषधविधि तथा अक्षयनिधितपविधि ३८. मेरी गोड़वाड़-यात्रा (ऐतिहासिक) ३९. श्रीपंचप्रतिक्रमणसूत्राणि (स्वगच्छीय) ४०. श्रीदेवगुरुगुण-पुष्पमाला ४१. पौषधविधि (स्वगच्छीय) ४२. श्रीभाषणसुधा (उपदेशक व्याख्यान) ४३. श्री जिनेन्द्रगुणमाला ४४. श्रीयतीन्द्रप्रवचन हिन्दी (उपदेशमय) सजिल्द ४५. श्रीजिनेन्द्रस्तवचतुर्विशति (पाकेट राजेन्द्रसूरीशकृत) ४६. समाधान-प्रदीप-हिन्दी (उपयोगी प्रश्रोत्तर) ४७. श्रीप्रतिष्ठामहोत्सव-धाणसा, (ऐतिहासिक) ४८. भजन-मंजरी (जमाने की तों में पदसंग्रह)
२९२
१५१
२७५
४. श्रीयतीन्द्रसूरि-साहित्यमाला
१. श्रीप्राणप्रतिष्ठामहोत्सव-सियाणा (ऐतिहासिक) २. श्रीप्रवर्तिनी-प्रेमश्रीजी (जीवनचरित्र) ३. संगीत-सुधा (स्तवन, भजनादि) ४. प्राणप्रतिष्ठावर्णन-बागरा (पद्यमय)
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट सूक्तिरसलता (सिंदूरप्रकर का पद्यानुवाद हिन्दी भावार्थ सहित) ५. गुरुणी-श्रीमानश्रीजी (जीवनचरित्र) ६. श्रीदेवगुरु-संगीतमाला ७. पथिक (उपदेशात्मक कविता) ८. प्रकरण-चतुष्टय (जीवविचार, नवतत्त्व, दंडक्र, लघुसंघयणी हिन्दी शब्दार्थ, भावार्थ, यंत्रसहित) ९. श्रीयतीन्द्र-प्रवचन, द्वि. भाग (उपदेशात्मक गुजराती) १०. विंशतिस्थानकपदतपविधि (देववन्दन सहित) ११. श्रीगीतपुष्पाञ्जलि, (गुजराती) १२. राइयदेवसिय-प्रतिक्रमण सार्थ सजिल्द १३. पंचप्रतिक्रमण, सरलविधि सूत्रसहित १४. सूरीशविहार-प्रदर्शन (संवत् २००९) १५. सत्यसमर्थक-प्रश्नोत्तरी १६. साधुपंचप्रतिक्रमणसूत्र, शब्दार्थ हिन्दी सजिल्द १७. साध्वी व्याख्यान-समीक्षा, (आगमप्रमाण सहित) १८. देवसीराइय-प्रतिक्रमण(सजिल्द पाकेट) १९. सामायिक लेने के विधिसूत्र सरहस्य २०. देवगुरु-दर्शन विधि, सम्यक्त्व-स्वरूप २१. स्त्रीशिक्षा-प्रदर्शन (उपदेशात्मक) २२. सत्पुरुषों के लक्षण, (तृष्णां छिन्धि श्लोकव्याख्या) २३. तपः परिमल (कतिपय तपों की विधि) २४. पीयूषप्रभा (आदर्श जैन विभूतियाँ) २५. श्री भाण्डवपुरवीरचैत्यप्रतिष्ठावर्णन (ऐतिहासिक) २६. श्रीराइयदेवसिय-प्रतिक्रमणसूत्र २७. श्रीशिवानन्दनकाव्य (हिन्दीपद्यात्मक)
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट
१९५४-२०५४ सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-त्रिस्तुतिक-गुर्वावलीसे
शासनपति-महावीर स्वामी
3
)
५२. श्राप
श्री सुधर्मास्वामी जी श्री जम्बूस्वामी जी श्री प्रभवस्वामी जी श्री शय्यंभवसूरिजी श्री यशोभद्रसूरिजी श्री संभूतिसूरिजी, श्री भद्रबाहु स्वामी जी श्री स्थूलिभद्रसूरि जी , श्री आर्यमहागिरिजी श्री आर्यसुहस्तिसूरिजी , श्री सुस्थितसूरिजी
श्री सुप्रतिबद्धसूरिजी, श्री सुप्रतिबद्धसूरिजी १०. श्री दिन्नइन्द्रदिन्नसूरिजी ११. श्री सिंहगिरिसूरि जी १२. श्री वज्रस्वामिजी| १३. श्री वज्रसेन सूरिजी १४. श्री चन्द्र सूरिजी १५. श्री सामन्तभद्रसूरिजी १६. श्री वृद्धदेवसूरिजी १७. श्री प्रद्योतनसूरिजी १८. श्री मानदेवसूरिजी
श्री मानतुंग सूरिजी २०. श्री वीरसूरिजी २१. श्री जयदेवसूरिजी
श्री देवानन्दसूरिजी २३. श्री विक्रमसूरिजी २४. श्री नरसिंहसूरिजी २५. श्री समुद्रसूरिजी २६. श्री मानदेवसूरि जी २७. श्री रविप्रभसूरिजी
श्री विबुधप्रभसूरिजी श्री जयानन्दसूरि जी
श्री यशोदेवसूरिजी ३१. श्री प्रद्युम्नसूरिजी
श्री मानदेवसूरिजी श्री विमलचन्द्रसूरिजी
श्री उद्योतनसूरि जी ३५. श्री सर्वदेवसूरिजी
३६. श्री देवसूरिजी రసాయరంగుసారwanavani
३७. श्री सर्वदेवसूरिजी ३८. श्री यशोभद्रसूरिजी ३९. श्री नेमिचन्द्रसूरिजी , श्री मुनिचन्द्रसूरिजी ४०. श्री अजितदेवसूरिजी ४१. श्री विजयसिंह सूरिजी | ४२. श्री सोमप्रभसूरिजी , श्री मणिरत्नसूरिजी ४३. श्री जगच्चन्द्रसूरिजी
श्री देवेन्द्र सूरिजी, श्री विद्यानन्दसूरिजी ४५. श्री धर्मघोषसूरि जी , श्री सोमप्रभसूरिजी ४६. श्री सोमतिलक सूरि जी
श्री देवसुन्दर सूरि जी४८. श्री सोमसुन्दरसूरिजी ४९. श्री मुनिसुन्दरसूरिजी
श्री रत्नशेखरसूरिजी ५१. श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी
श्री सुमतिसाधुसूरिजी ५३. श्री हेमविमलसूरिजी ५४. श्री आनन्दविमलसूरिजी ५५. श्री विजयदानसूरिजी ५६. श्री हीरविजयसूरिजी ५७. श्री विजयसेनसूरिजी ५८. श्री विजयदेवसूरि जी ५९. श्री विजयसिंहसूरि जी ६०. श्री विजयप्रभसूरिजी ६१. श्री विजयरत्नसूरिजी ६२. श्री वृद्धक्षमासूरिजी श्री विजयदेवेन्द्रसरिजी ६३. श्री विजयकल्याण सूरिजी ६४. श्री विजयकल्याणसूरिजी ६५. श्री विजयप्रमोदसूरिजी ६६. श्री विजयराजेन्द्रसूरि जी ६७. श्री विजयधनचन्द्रसूरिजी ६८. श्री विजयभूपेन्द्रसूरिजी ६९. श्री विजययतीन्द्रसूरि जी ७०. श्री विजयविद्याचन्द्रसूरिजी ७१. श्री विजयहेमेन्द्रसूरि जी
- రురురురురురురురంలోend
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L
संख्या
१.
२.
३.
६.
७.
८.
९.
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
१७.
१८.
१९.
२०.
२१.
२२.
२३.
२४.
२५.
२६.
२७.
२८.
२९.
३०.
३१.
३२.
चतीन्द्रसूरि स्मारकराज्य परिशिष्ट
शताब्दीनायक श्री मद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब के चातुर्मास
वि.सं. १९५४ से २०१७
संख्या
संवत्
१९५४
१९५५
१९५६
१९५७
१९५८
१९५९
१९६०
१९६१
१९६२
१९६३
१९६४
१९६५
१९६६
१९६७
१९६८
१९६९
१९७०
१९७१
१९७२
१९७३
१९७४
१९७५
१९७६
१९७७
१९७८
१९७९
१९८०
१९८१
१९८२
१९८३
१९८४
१९८५
ग्राम, नगर
रतलाम (मालवा)
आहोर (मारवाड़)
शिवगंज (सिरोही)
सियाणा ( मारवाड़)
आहोर
जालोर (मारवाड़
सूरत
कुक्षी (मालवा)
खाचरोद (मालवा)
बड़नगर (मालवा)
रतलाम
रतलाम
रतलाम
मंदसौर
रतलाम
बागरा
आहोर
जावरा
खाचरोद
आहोर
सियाणा
भीनमाल
बागरा
बागरा
रतलाम
निंबाहेड़ा
-
३३.
३४.
३५.
३६.
३७.
३८.
३९.
४०.
४१.
४२.
४३.
४४.
४५.
४६.
४७.
४८.
४९.
५०.
५१.
५२.
५३.
५४.
५५..
५६.
५७.
५८.
५९.
६०.
६१.
६२.
६३.
६४.
mal 6 mi
रतलाम
बाग (ग्वालियर स्टेट)
कुक्षी
आकोली
गुड़ाबालोतरा
थराद
संवत
१९८६
१९८७
१९८८
१९८९
१९९०
१९९१
१९९२
१९९३
१९९४
१९९५
१९९६
१९९७
१९९८
२००९
२०००
२००१
२००२
२००३
२००४
२००५
२००६
२००७
२००८
२००९
२०१०
२०११
२०१२
२०१३
२०१४
२०१५
२०१६
२०१७
ग्राम, नगर
फनाहपुरा
हरजी
जालोर
शिवगंज
सिद्धक्षेत्र पालीताणा
सिद्धक्षेत्र पालीताणा
खाचरोद
कुक्षी
आलीराजपुर
बागरा
भूति
जालोर
बागरा
खिमेल
सियाणा
आहोर
बागरा
भूति
थराद
थराद
बाली
गुड़ाबालोतरा
थराद
बागरा
सियाणा
आहोर
राजगढ़
खाचरोद
राणापुर
जावरा
राजगढ़
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
'
|
1
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1
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1
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1
|
|
1
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१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.
परमपूज्य व्याख्यानवाचस्पतिश्रुताचार्यभट्टारक आगमदिवाकर
आचार्यदेव श्री श्री श्री १००८ श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शुभ करकमलों द्वारा प्रदत्त-दीक्षा एवं बड़ी दीक्षा की
स्वर्णिम नामावली >
१९७५
१९७७
१९८०
१९८०
१९८१
१९८१
१९८३
१९८४
१९८८
१९९२
११.
१९९३ १२. १९९५
१९७९
१९९५
१९९९
-
फाल्गुन सुदि ३ को श्री रामचन्द्र जी की धर्मपत्नी
श्रीमती केसरबाई को विधि सह दीक्षा देकर साध्वी चमन श्री जी नाम घोषित किया वैशाख सुदि २ को श्राविका भलीबाई को भव्य समारोह में दीक्षा देकर साध्वी पुण्यश्री जी नाम घोषित किया
मार्गशीर्ष ५ को राजगढ़ मध्यभारत निवासी जवेर चन्दजी को भागवती दीक्षा अठ्ठाई-महोत्सवपूर्वक दीक्षा देकर मुनिराज श्री सागरानन्द विजयजी नाम देकर अपना शिष्य बनाया ।
माघ सुदि ५ को श्रीसंघ के अत्याग्रह से मुनिराज वल्लभविजयजी मुनिराज श्री विद्याविजयजी को बड़ी बाग में दीक्षा दी।
रिंगनोद मध्यप्रदेश निवासी रणीबाई को दीक्षा चैत्र सुदि ३ देकर साध्वी विमल श्री नाम दिया
कार्तिक सुदि ५ को मुनिराज श्री सागरानन्द विजयजी को बड़ी दीक्षा एक महीने में योगोद्वन करवाकर बड़ी दीक्षा दी।
देकर मुनिराज श्री विद्याजयजी नामकरण किया
मगसर सुदि १२ को श्राविका श्रीमती मिश्रीबाई को दीक्षा प्रदान कर
साध्वी जी लावण्य श्री जी नाम दिया।
मुनि लावण्य विजयजी मुनिरंग विजयजी आदि ७ मुनिराजों को बड़ी दिक्षा दि।
GramEntrambi omówim
विजापुर
For Private Personal Use Only
भेंसवाडा
रतलाम
रतलाम
रिंगनोद (धार)
माघ सुदि ६ को श्राविका जम्मूबाई एवं मिश्रीबाई को दीक्षा देकर क्रमश: साध्वी चेतन
श्री जी साध्वी चतुर श्री जी नाम दिया।
फाल्गुन वदि ५ को रूपीबाई को दीक्षा देकर साध्वी शान्तिश्री जी नाम दिया। द्वितीय आषाढ़ वदि १३ सोमवार को नाडोलनिवासी श्री मोतीलालजी जैन को दीक्षा देकर मुनि श्री उत्तमविजयजी नाम दिया।
माघ सुदि १५ को कुक्षी (मध्यप्रदेश) निवासी चि. लीला बहिन को परमपूज्य आचार्य देव श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी म. की निश्रा में परमपूज्य उपाध्याय भगवन् मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म. ने दीक्षा के क्रियाविधान सह साध्वी मुक्तिश्री जी नाम घोषित किया। मार्गशीर्ष १० को मुनिराज श्री प्रेमविजयजी को दीक्षा दी।
कुक्षी
आषाढ़ सुदि ११ शुक्रवार को कन्हैयालाल जी को दीक्षा देकर मुनिराज न्यायविजयजी नाम दिया कुक्षी डुडसी माघ सुदि १० को जोधपुरनिवासी प्रभु लाल को भव्य अठाई महोत्सव करके जावरा में दीक्षा
जावरा
बाग
सियाणा
आहोर
आहोर
अहमदाबाद
आकोली
सियाणा
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२००१
आहोर(भेसवाडा)
२००२
आकोली
२००३
बागरा
२००३
हरजी
२००३
२००५
थराद
२००५
थराद
- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट माघ सुदि ६ शुक्रवार को मुनि श्री कान्तिविजयजी, मुनि श्री हेमेन्द्र विजयजी को बड़ी दीक्षादी। माघ सुदि ५ को सूरतनिवासी श्राविका दीपावली बाई की दीक्षा देकर साध्वी देवेन्द्र श्री जी नाम दिया। वैशाख सुदि ३ को बागरानिवासी श्राविका श्रीनवीबहिन रखवी बहिन को दीक्षा देकर साध्वी कुसुम श्री जी व साध्वी कुमुद श्री जी नामदिया। जेठ वदि६ को अंघाडी निवासी श्री जेठाभाई व पेथापुर निवासी देवाभाई हरजीनिवासी श्री विकारबाई को दीक्षा देकर क्रमशः श्री मुनिराज सौभाग्यविजयजी मुनि श्री शान्ति विजयजी, साध्वी क्षमाश्रीजी नाम दिया। माघ सदि५ को श्री भेरूलालजी धाडीवाल जावरा निवासी के सपत्र शान्तिलाल को दीक्षा देकर मुनिराज देवेन्द्रविजयजी नाम दिया। माघ सुदि ६ को मुनि श्री विमलविजयजी मुनि सौभाग्यविजयजी मुनि शान्तिविजयजी मुनि श्री देवेन्द्रविजयजी साध्वी प्रसन्नश्रीजी, साध्वी देवेन्द्रश्रीजी, साध्वी कुसुमश्रीजी, साध्वी कुमुदश्रीजी तथा क्षमाश्रीजी को बड़ी दीक्षा दी। माघ सुदि६ को आकोली निवासी श्रीमति धर्मीबाई धर्मपत्नी अभयचन्द्रजी को दीक्षा देकर साध्वी चन्द्रप्रभाश्रीजी नाम दिया। माघ सुदि ८ को मारेसिमनिवासी श्रावक श्री कानराजजी को दीक्षा देकर मुनि श्री रसिकविजयजी नाम दिया माघ सुदि ४ रविवार को थरादनिवासी स्वरूप चन्द्रजी धरु के सुपुत्र पूनमचन्द व जावरानिवासी भेरुलालजी धाडीवाल के सुपुत्र कान्तिलाल को दीक्षा देकर क्रमशः मुनिराज श्रीजयन्तविजयजी मुनिराज जयप्रभविजयजी नाम दिया। मगसर वदि ११ को थरादनिवासी माधवलालजी धरु को दीक्षा देकर मुनि श्री पुण्यविजयजी नाम दिया। जेठ वदि६ को भीनमालनिवासी मनोहरमल दीक्षा देकर मुनि भुवन विजयजी मुनि नाम दिया। कार्तिक सुदि ११ को मुनि श्री जयन्तविजयजी मुनिराज जयप्रभविजयजी, मुनि श्री पुण्यविजयजी, मुनि भुवनविजयजी, मुनि लक्ष्मण, विजयजी, साध्वीजी चन्द्रप्रभा श्रीजी, श्री महाप्रभा श्रीजी, अशोक प्रभाश्रीजी, महेन्द्र श्रीजी, स्वयंप्रभा श्रीजी आदि को बड़ी दीक्षा दी। जेठ सुदि ३ को पारा में मुनि श्री कंचन विजयजी साध्वीजी हेमप्रभा श्रीजी को बड़ी दीक्षा दी।
२००५
थराद
२०१०
सियाणा
२०११
आहोद
२०१२
मोहनखेड़ा तीर्थ
२०१२
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
२०१४
पारा
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________________
१९७१
१९८०
- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट ग्रन्थ का नाम
मुद्रण सं. त्रिस्तुतिक की प्रचीनता
१९६३ भावनास्वरूप (१२ भावना संक्षिप्त)
१९६५ गौतमपृच्छा (केवल भाषानुवाद) नाकोड़ा तीर्थ का इतिहास
१९७१ सत्यबोधभास्कर (प्रतिमापूजा संसिद्धि)
१९७१ जीवनप्रभा (श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी जीवन)
१९७२ गुणानुरागकुलक (विस्तृत-विवेचन)
१९७४ लघु चाणक्यनीति का अनुवाद
१९७५ जन्म-मरण-सूतक-निर्णय
१९७८ संक्षिप्त-जीवन चरित्र(श्री मदधनचन्द्रसूरिजी)
१९८० जीव भेद-निरूपण-गौतम कुलक
१९८० पीतपटाग्रह-मीमांसा-निक्षेपनिबन्ध जिनेन्द्रगुणगानलहरी
१९८० जैनर्षिपट्टनिर्णय (श्वेत वस्त्र-सिद्धि)
१९८१ रत्नाकरपच्चीसी (शब्दार्थभावार्थ)
१९८२ मोहन जीवनादर्श(उपाध्याय मोहनविजयजीजीवनचरित्र)
१९८२ अध्ययनचतुष्टय कुलिङ्गवदनोद्गारमीमांसा
१९८३ अघटकुमार
१९८४ रत्नसार हरिबल धीवरवरचरित्र गद्यसंस्कृत
१९८५ आर्हत्-प्रवचन (संग्रह, गुजराती)
१९८५ जीवभेदनिरूपण (गुजराती) गौतमकुलक
१९८५ यतीन्द्र - विहार - दिग्दर्शन (प्रथम भाग)
१९८६ कोरटाजीतीर्थ का इतिहास
१९८७ जगडूशाहचरिम् गद्यम् पत्राकार
१९८८ कयवन्ना-चरित्रं गद्यम् पत्राकार
१९८८ यतीन्द्र-विहार-दिग्दर्शन द्वितीय भाग
१९८८ बृहद्विद्वद्गोष्ठी संवर्धिता (पत्राकार) चम्पकमालाचरित्रं गद्य पत्रकार श्री राजेन्द्रसूरिजी म.जीवनकल्पसूत्र में
१९९० सिद्धाचल-नवाणुप्रकारीपूजा
१९९० androwdniromotoroordinarordAirdrodromidnirbirdrid-११-brinird-GroduodwordGibedieowbeditorioravoriwarGrower
१९८२
m
१९८१
१९९०
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१९९१ १९९१
१९९१
१९९३
१९९३ १९९६ १९९१
१९९१
२०००
- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट चतुर्विशति जिनस्तुतिमाला (श्लोकबद्ध) यतीन्द्रविहारदिग्दर्शन (तृतीय भाग) श्रीमद्राराजेन्द्रसूरीश्वर-अष्टप्रकारी पूजा श्रीयतीन्द्रविहारदिग्दर्शन (चतुर्थ भाग) सविधि स्नात्रपूजा (नवीन) मेरी नेमाड़ यात्रा (ऐतिहासिक) अक्षयनिधितपविधिपौषध विधि भाषणसुधा (सात प्रवचन) श्री यतीन्द्रप्रवचन (हिन्दी) प्रथम भाग समाधानप्रदीप (हिन्दी) सूक्तिरसलता (सुन्दर प्रकार का हिन्दी पद्य) मेरी गोडवाडयात्रा प्रकरणचतुष्टय (नवतत्त्व जीवविचारदण्डक लघुसंग्रहणी) श्री यतीन्द्रप्रवचन (द्वितीय भाग) गुजराती श्री विंशतिस्थानकतपविधि देवसी प्रतिक्रमण(हिन्दी-शब्दार्थ) श्री सत्यसमर्थक-प्रश्रोत्तरी साध्वीव्याख्यान-समीक्षा साधुप्रतिक्रमण (शब्दार्थ हिन्दी) स्त्री-शिक्षा-प्रदर्शन सत्पुरुषों के लक्षण(तृष्णा हिन्दी श्लोक की व्याख्या) श्री तपः परिमल प्रथम भाग(तपविधि) श्री तपः परिमल द्वितीय भाग(तपविधि) मानवजीवन(प्रवचनसंग्रह)
२००० २००१ २००१ २००५ २००५
१००
२००५
२००७ २००९ २०१० २०११ २०११ २०११ २०११
२०१२
amaniramiraniraniwaroorkariwoodrowonoramirikar6-१२-6NDAGARA6A6AGartamororirirandirandivorionianswara
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट शताब्दीनायक श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब द्वारा
की गईं प्रतिष्ठाएँ एवं अंजनशलाकाएँ
वि.सं. १९६१ से वि.सं. २०१५
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AMARI-Dr.co
_ वि.सं. १.१९६१ फा.कृ.१ २.१९६१ मार्गशु.३ ३. १९६४ पौ. शु.११ ४.१९६७ ज्ये.शु.१ गुरु
ग्राम, नगर बोरी(झाबुआ) गुणदी (जावरा) एलचीर ग्वालियर) सिरोड़ी सिरोही)
विशेष और प्रतिष्ठित बिम्ब मू.ना. चन्द्रप्रभस्वामी बिम्ब की प्रतिष्ठा
म.ना. शांतिनाथ-बिम्ब की प्रतिष्ठा
मू.ना. पार्श्वनाथ विम्ब की प्रतिष्ठा स्वर्णदण्ड-ध्वज की प्रतिष्ठा और आदिनाथ चरणपादुका की अंजनशलाका
६.१९७४ मार्ग.शु.६ ७.१९७८ मार्ग.शु.६ ८.१९८१ वै.शु. ५ मूगु. ९.१९८१ वै.शु.११ गुरु १०.१९८२ माघशु.१० ११.१९८२ ज्ये.शु.११ बुध. १२.१९८२ आषाढ शु.१० म. १३.१९८२ मार्ग.शु. १० बुध १४.१९८७ फा.शु. ३ शुक्र.
संजीत(जावरा) संजीत (जावरा) रिगंनोद( देवास) झणकवदा(झाबुआ) बड़ीकड़ोद(धार) कुक्षी(धार) नानपुर मोहनखेड़ा(ग्वालियर) थलवाड़(जोधपुर)
१५.१९८८ माघ.शु.१०म १६.१९८८ माघ.शु.१३ शुक्र. १७.१९९४ मार्गशु.१० सोम.
भाण्डवपुर तीर्थ(जोधपुर) मालवा लक्ष्मणीतीर्थ आलीराजपुर)
मू.ना. पार्श्वनाथ बिंबों की प्रतिष्ठा
म.ना. पार्श्वनाथ-बिंब की प्रतिष्ठा मू.ना. चंद्रप्रभस्वामी आदि बिंबों की और गुरुचरण-पादुका की प्रतिष्ठा
प्रतिष्ठा व अंजनशलाका
श्री वासुपूज्य स्वामी आदि बिम्बोंकी प्रतिष्ठा श्री सीमंधर स्वामी आदि पांच बिंब और स्वर्णकलश-दण्ड-ध्वज की प्रतिष्ठा
श्री पार्श्वनाथ आदि बिम्ब की प्रतिष्ठा श्री राजेन्द्रसरि-बिंब और चरण-पादुका की प्रतिष्ठा अंजनशलाका ६ जिन बिंबों की और अधिष्ठायक अधिष्ठायिका के बिम्ब की
प्रतिष्ठाजन शलाका दण्डध्वाजारोहण और दोजिन बिम्बों की प्रतिष्ठा
दोधातु-जिन पिम्बाकी प्रतिष्ठा चौदह जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा और स्वर्णकलश-दण्डध्वज, अधिष्ठायक,
अधिष्ठायिका केबिम्बोंकी अंजनशलाका स्वर्णकलश-दण्ड-ध्वज और अधिष्ठायिका केबिम्बोंकी अंजनशलाका
म.ना. नेमिनाथ आदि बिम्बोंकी प्रतिष्ठा दोराजेन्द्र सूरि-बिम्बों की अंजनशलाका
श्री राजेन्द्रसूरि बिम्बों की प्रतिष्ठा श्री राजेन्द्रसरि और हिम्मतविजयजी की चरणपादुकाओं की प्रतिष्ठाचन शलाका
श्री पार्श्वनाविम्ब की प्रतिष्ठा श्री राजेन्द्रसूरि बिम्ब की प्रतिष्ठा-अंजनशलाका स्वर्णकलशदण्डध्वज की प्रतिष्ठा-अंजनशलाका
श्री राजेन्द्रसूरि बिम्बकी प्रतिष्ठा अंजनशलाका जिनबिम्ब, स्वर्णकलशदण्डध्वज और श्री धनचंद्र सूरि-बिम्ब कीअंजन शलाका
___ पच जिनबिम्बोंकी, स्वर्णकलश, दण्ड ध्वजादि की प्रतिष्ठा स्वर्णकलश, दण्ड, ध्वज और अधिष्ठायकादि बिम्बों की प्रतिष्ठा-अंजन शलाका
दो जिनबिम्बोंकी और अधिष्ठायकादि बिम्बों की प्रतिष्ठा
१८.१९९५ ज्ये.शु.१४ शनि १९.१९९५ आषाढशु.११शुक्र २०.१९९६वे.शु.७ बुध २१.१९९६ ज्ये.शु.२ रवि २२. १९९६ ज्ये. शु.९ शनि. २३.१९९६ ज्ये.शु. १४ गुरु. २४.१९९६ पौ.शु. ८ गुरु २५.१९९७ वै.शु.१४ २६.१९९७ मार्गःशु. १० सोम २७.१९९८ मार्ग,शु. १० शुक्र. २८.१९९८ फा.शु.५ शुक्र. २९.१९९९ माघ.शु.११ सोम. ३०.१९९९ फा.शु.२ सोम.
हरजी जोधपुर) ढूडसी जोधपुर) श्री कोरटाजी तीर्थ( जोधपुर) रोवाड़ा(सिरोही) फतहपुरा(जोधपुर) सलोदिया(जोधपुर) भूति(जोधपुर) आहोर( जोध.) जालोरर जोधपुर) बागरा(जोधपुर) सेदरिया(जोधपुर) बलदूट (सिरोही)ऊड़ा सिरोही)
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३१. २००० वै.शु. ६ सोम
३२. २००० ज्ये. शु. ६ बुध. -
३३. २००० फा. शु. ११ रवि. -
३४. २००२ वै.शु. ७ शनि
३५. २००१ ज्ये. क्र. २ बुध
३६. २००१ माघ शु. ६ शुक्र
३७. २००१ फा. शु. ५
३८. २००३ मार्ग.शु. ५
३९. २००५ माघ शु. ५ गुरु.
४०. २००६ मार्ग. शु. ६ शुक्र
४१. २००७ माघ शु. १३
४२. २००८ माघ शु. ५ गुरु
४३.
४४. २००९ ज्ये. कृ. ६ ४५. २०१० ज्ये. शु. १० रवि.
४६. २०१३ चै.शु. १०
४७. २०२४ ज्ये. शु. ६
४८. २०१४ मगसर कृ.६
४९. २०१४ मगसर शु. १०
५०. २०१५ फा. शु. ४
५१. २०१५ ज्येष्ठ कृ. ६
५२. २०१५ ज्ये. शु. ६
५३. २०१५ आषाढ शु. १०
५४. २०१५ माघ शु. ५ -
५५. २०१५ माघ शु. १०
सियाणा(जोधपुर)मडवारिया (सेरिही)
धानसा(जोधपुर)
सेरणा (जोधपुर) धानसा(जोधपुर)
आहोर(जोधपुर)
भेखवाड़ा (जोधपुर) भूति(बोधपुर)
थराद (उत्तरगुर्जर)
बाली (जोधपुर)
गुढ़ा बालोतरा (जोधपुर)
थराद (उत्तर गुजरात
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य परिशिष्ट
बाली मेोरसीम (जोधपुर)भाण्डवपुरती(जोधपुर)
तीर्थाधिराज श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
पारानगर
राणापुर
तीर्थाधिराज श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
नागदा जंक्शन
बड़नगर
प्राचीन नगरी अवन्तिका (उज्जैन)
जावरा नगर
देवर
मामरखेडा
दो जिनकी प्रतिष्ठा और नवीन ५४ विम्यों को अंजनशलाका मु. ना. पार्श्वनाथ विग्नों आदि की प्रतिष्ठा और अधिष्ठायकादि केन स्वर्णकलश दण्डध्वज की प्रतिष्ठानला
मू.ना. श्री शांतिनाथ, गौड़ीपार्श्वनाथ आदि विकी प्रतिष्ठा और अधिकादि और दि गुरु बिम्बों की तथा स्वर्णकलशदण्डध्वजों की प्रतिष्ठा अंजनशलाका श्री पार्श्वनाथदिपांची प्रतिष्ठा गुरुमंदिर पर स्वर्णकलश दण्डध्वजारोपण-प्रतिष्ठा जिनबिम्ब, गुरु- मूर्तियां और स्वर्णकलशदण्ड ध्वजों की प्रतिष्ठाञ्जनशलाका जिनबिम्ब और गुरु- मूर्ति की प्रतिष्ठा श्री राजेन्द्रसूरि और चंद्रकी प्रतिष्ठा जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा और स्वर्ण कलश तथा श्री राजेन्द्र को प्रति
SabটGad १४ ja
नवीन जिनबिम्ब और गुरुप्रतिमा की अंजनशलाका जिनबिम्ब गुरुर्तियां और अधिष्ठायक-प्रतिष्ठा सप्तसत्तर (७७) जिनबिम्ब, चौदह जिनपट्ट, स्वर्णकलशदण्डध्वज,
श्री आदिनाथ भगवान व दादागुरुदेव भगवन् श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर जी महाराजमन्दिर पर स्वर्णकलशध्वजदण्ड चढ़ाया नूतन मन्दिर में अनन्तलब्धि निधान श्री गौतमस्वामीजी व दादागुरुदेव भगवन् श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजीमहाराज व आचार्यदेव श्री मद्विजयधनचन्द्रसूरिजी की मूर्तिप्रतिष्ठा
नूतन गुरुमन्दिर में अनन्तलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामीजी दादागुरुदेव भगवन् श्री मद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज, आचार्यदेव श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी की मूर्तियों की प्रतिष्ठा मू. ना. भगवान के पास में देवाधिदेव प्रभु श्री पार्श्वनाथजी भगवान् का नूतन मन्दिर बना उसमें मूर्तिप्रतिमा, स्वयंवदध्वज चढ़ाया। नूतन श्री चन्दाप्रभु जीकेमन्दिर की व दादागुरुदेव श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरज की मूर्ति प्रतिष्ठा की व स्वर्णकलध्वजदण्ड चढ़ाया परमपूज्य दादा गुरुदेव भगवन् श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की मूर्ति व गुरुपिजी श्री प्रेमश्री जी की चरणपादुका को प्रतिष्ठा प्राचीन जिनमन्दिर श्री अवनि पार्श्वनाथ जी के जिनमन्दिर पर स्वर्णकलशध्वजदण्ड चढ़ाया
श्री प्यारचन्द जी सकलेचा ने अपनी ओर से श्री नवपदजी का मन्दिर श्री सीमन्धरस्वामी जी के मन्दिर की प्राणप्रतिष्ठा की स्वर्णकलशध्वजदण्ड बनाकर
चढ़ावा व सिद्धाचलजी का पट्ट विराजित किया। जिनमंदिर पर स्वर्णकलशदण्ड ध्वज चढ़ाया
श्री सुमतिनाथ भगवान के मन्दिर की प्रतिष्ठा, स्वर्णकलशदण्डध्वज चढ़ाया
गुरुविम्ब की अंजनशलाका जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा जिनबिम्ब, गुरुप्रतिमा, अधिष्ठायव- मूर्तियं, स्वर्णकलदण्डध्वज को
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट -
एमपज्यव्याख्यानवयकासाथा
8%95598280385338888 300020
आचार्य भगवन् श्रीश्रीश्री १००८ श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म. द्वारा करवाये
गये श्री उपधानतपों की आराधनाएँ
विक्रम-सम्वत्
नगर ग्राम
तपाराधन कराने वाले
तपाराधना करने वालों का स्वर्णिम नाम
१९७४
सियाणा
जैनश्वेताम्बर श्रीसंघ
२००
१९८९
शाहलालचन्द लखमाजी
१६१
१९९१
गुढ़ाबालोतरा पालीताणा खाचरौद
बागरानिवासी ओटमलजी घुडाजी द्वारा
३५०
१९९२
२५०
बागरा
३५०
२००२ २००३
आकोली
३५०
श्रीसंघ द्वारा श्री त्रिस्तुतिक श्रीसंघ श्री लालचन्द्रजी अभयचन्द्रजी श्री त्रिस्तुतिक श्रीसंघ श्रीसंघ एवं बालीनिवासी श्री उदयभान प्रेमचन्दजी
२०१४
२५०
राणापुर श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
२०१७
Gramromanoramerdonaramordnaromsomorom
morsomstand supermassion SNSDMOND MID Chromatosinhos duran
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यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट -
[ परमपूज्य व्याख्यानवाचस्पति साहित्याचार्य । आचार्य भगवन् श्रीश्रीश्री १००८ श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म.
द्वारा की गयी तीर्थयात्राएँ
विक्रम सम्वत्
किस स्थान से गिरनार तीर्थ
यात्रास्थान शंखेश्वर तारंगा और अर्बुद तीर्थ
किनके साथ १९८२ साधु मुनिमण्डल सह मुनि व साध्वीमण्डल सहित
गुढ़ाबालोतरा शिवगंज
थराद - बाली
१९८४ १९८४ १९८५ १९८६ १९८७ १९८८ १९८९ १९९० १९९१ १९९३ २००४ २००४ २००४
थलवाड आहोर शिवगंज सियाणा पालीताणा अलीराजपुर खिमेल
श्री कोरटाजी तीर्थ बरकाणा तीर्थ ढीमा भोरोल तीर्थ श्री कोरटाजी तीर्थ श्री भाण्डवपुर तीर्थ श्री भाण्डवपुर तीर्थ श्री कोरटाजी श्री सिद्धाचल पालीताणा तीर्थ श्री केसरियाजी तीर्थ श्री लक्ष्मणी तीर्थ श्री गौडवाड़पंच तीर्थी श्री जीरावला पार्श्वनाथ अर्बुद तीर्थ श्री भीलडीयाजी तीर्थ स्वर्णगिरि भाण्डवपुर नाकोड़ा तीर्थ भाण्डवपुर भाण्डवपुर स्वर्णगिरि-जालौर केसरियाजी एवं श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
२००४
खुडाला जीरावला बाली गुढाबालोतरा जालौर
२००८
थराद
२००८ २००९ २०१० २०११ २०१२
बागरा सियाणा आहोर
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट
पायावाचस्पति साहित्याचार्य
आचार्यदेव श्रीश्रीश्री १००८ श्री मद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की निश्रा में
निकाले गये - लघु एवं बृहद् - संघ
विक्रम सम्वत्
किस स्थान से
कहाँ के लिये
किस के द्वारा
१९८१
१९८२
राजगढ़(धार) राणापुर से पालीताणा से
मण्डपाचल तीर्थ सिद्धाचल तीर्थाधिराज गिरनार तीर्थ अर्बुद तीर्थ और गोड़वाड़
श्री जैन श्रीसंघ श्री जैन श्रीसंघ सियाणानिवासी श्री कानाजी उमाजी श्री संघ थाद द्वारा
१९८२
१९८५
थराद
१९८६
पंचतीर्थी
१९९०
पालीताणा
गिरनार तीर्थ कच्छमडेश्वर तीर्थ
१९९३
खाचरौद
बागरा निवासी श्री प्रतापचन्द्र घुडाजी द्वारा श्री संघ राजगढ़ द्वारा शाह देवीचन्द रामाजी द्वारा श्रीसंघ द्वारा
१९९९ २०१२
मण्डपाचल तीर्थ गोडवाड़ पंच तीर्थी श्री लक्ष्मणीतीर्थ
भूति राणापुर
DoordNGramirmiromidndromeromosomorimadirikar
-१७kirimiriwaririkonamoromosomindidrioritoniantaran
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- यतीन्द्रसरि स्मारक परिशिष्ट - योगीन्द्रयतिवाय, सत्यतत्त्वप्रकाशिने।। आचार्यश्रीयतीन्द्राय, सन्त्वस्मन्नतयोऽनिशम्।।१।।
कलशबन्धस्तुतिः
तं सतं संप्रभासन्तं, संभासन्तं नतं सतम्। तं नतं संप्रभासन्तं, यतीन्द्रं प्रणमाम्यहम्।।१।।
- पं. मदनलाल जोशी व्या. शास्त्री,
मु. दशपुर (मालवस्थः )
doodwortronidroidrosodiuoratoribitoriouiridward १८6brGroudirabalibudwboratibandirdomaibedioraordibasini
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________________
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श्री.
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ- परिशिष्ट
श्री यतीन्द्रसूरीश्वरः
Pit
'रायात्स श्रीजिनेन्द्रः शिवनिजसुपदं दग्धमारः सदा ते।
राद्धान्ता यस्य तुण्डे सरसि जलजवद् भान्ति विश्वस्तुतास्ते । । राजेन्द्रे तीव्रभक्त्या स्खलति जगति नोऽद्यापि सूरीन्द्र ! वाक् ते । राकाचन्द्रप्रबोधो हरतु जनमनो भो मुने! सूक्तिभाक् ते' ।।
के एतां रचना मंत्रसु लभाम करोन्नरः
१९
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट
अष्टक - हारबन्धः
अपारावारसंसारनिमज्जितजन्तूनां समुद्धारक - प्रातःस्मरणीय-पूज्यपाद-भट्टारकश्रीमज्जैनाचार्यवर्य-व्याख्यानवाचस्पतिश्रीविजययतीन्द्रसूरीश्वराणां करकमलयोः सादरं समर्प्यतेऽयं
हारबंधः।
य इह जगति पातीन्नाशयन् श्रीसुधीन्द्रः,
यतिपतिरतिभातीन्दोरिवानाघहेन्द्रः। यमनियमसुवार्ती धीरवीरो मुनीन्द्रः
यजतु सुकृतसातीश्श्रीलसूरिर्यतीन्द्रः॥1॥
-पं. मदनलाल जोशी, व्या. शास्त्री, मन्दसौर (मालवस्थः)
గరయention and Roman
tic
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट
गीतिकाछन्दमय-प्रार्थना परमपूज्य व्याख्यानवाचस्पति आचार्यदेव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराजशिष्यरत्न
आचार्य श्री विद्याचन्द्रसूरि .
भगवन् यतीन्द्रसूरे ! चरणेषु ते नतोऽहम्। शुचिशास्त्रबोधशालिन् ! चरणेषु ते नतोऽहम् ।।१।। पीयूषकल्पवचसा, तुष्टा नरास्तवेह। रससिक्तशब्दधारिन् ! चरणेषु ते नतोऽहम् ।।२।। सुविधाय दर्शनं ते, नन्दन्ति मानवा वै। कमनीयकान्तिधारिन् ! चरणेषु ते नतोऽहम् ।।३।। नतशीलमानवानामसि, सौख्यकारकस्त्वम् । त्रयतापशापहारिन् ! चरणेषु ते नतोऽहम् ।।४।। प्रथितप्रदेशप्रान्ते, ह्यतिरत्नयनपुर्याम् । पीताम्बरप्रजेतः, चरणेषु ते नतोऽहम् ।।५।। विद्यानिधे विहारिन् ! विविधाप्तवाक्यधारिन्। यतीन्द्रदेव हे दयालो! चरणेषु ते नतोऽहम् ।।६।।
शिखरिणी-छन्दः गुरोः ते गम्भीरा रुचिरमुखमुद्रा मदकरी, प्रकर्षालादं मे प्रकटयति चित्ते प्रणमतः। अतो वारम्वारं विषयविटपीकृन्तनकृते, सदा तां ध्यायामि प्रखरकरपत्राकृतिमहम् ।।१।।
असारं संसारं गुरुवर! विचार्य स्वहृदये, त्वया सर्वे त्यक्ता:नरभवप्रपञ्चाः द्रुततरम्। भवद्भिः संप्राप्तुं कठिनतरकैवल्यपदवीं, गृहीतं वैराग्यं जगति परमानन्दकरणम् ।।२।। अगाधं श्रीजैनागमजलनिधिं निर्मलधिया, विगाह्याऽवाप्तं च ह्यतलतलगं रत्ननिचयम्। जनेभ्यस्तच्छ्रद्धाभरनतशिरोभ्यो वितरता, निरस्तं लोकानां घनतिमिरमज्ञानप्रभवम्।।३।।
oraibarbarbiwbndrooriwbrdwordworrorirandiworrivorch-२१miwondinbibrin60-626thamboriniromdomomdiworcinomiarror
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ परिशिष्ट शरीरे धृत्वैवं यमनियमवर्माणि सततम्, जगज्जैत्रामोघं स्मरशरबलं व्यर्थमकरोः । कषायान्निर्जित्य श्रितसमकितस्त्वं हि धवलाम्, पताकां सत्कीर्त्तेरिह जगति विस्तारयसि वै । ॥४॥
सुधासिकता दृष्टिर्भवति नितरां भाविकजने, विलग्ना त्वाद्वाणी कलिहतधियां शिक्षणविधौ । सतां नित्यं नृणामनुकरणयोग्यास्तव क्रियाः, अहन्त्वां सूरीशं गुरुवर ! यतीन्द्रं खलु भजे ।।५।।
वसन्ततिलकाछन्दः
★ उपाध्याय मुनिश्रीगुलाबविजय जी
श्री धौलपत्तनवरे व्रजलाल इभ्यश्चम्पाभिधा च ललनाऽजनि तस्य पुत्रः ।
द्योवेदनन्दविधुगे शुचिरामरत्न
स्तं सज्जना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् ।।१।।
राजेन्द्रसूरिसुगुरोरुपदेशमाप्य,
श्री खाचरौदनगरे रुचिरोत्सवेन ।
दीक्षां ललौ गतिशराङ्कधरासुवर्षे,
तं सज्जना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् ।।२।।
साधुक्रियां च समधीत्य जवात्सुबुद्धया, लेभेऽपरां पुनरयं महतीं सुदीक्षाम् । आहोरमध्य इषुपञ्चनवाचलाब्दे, तं सज्जना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् ।।३।।
काव्यादिजैनवचनस्फुटशब्दशास्त्रे,
तं सज्जना विबोधकरणे सुमतिश्च यस्य । व्याख्यानपद्धतिवराखिलबोधदात्री, सम्यग् हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् ॥४॥ सद्वाचकेतिसमुपाधिविभूषितात्मा, देशेतरे विचरणे प्रियतास्ति यस्य । श्रीलक्ष्मणौ ह्यजनि पद्मजिनस्य तीर्थः सज्जना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् ॥५॥
पমिটমिট{ २२ वी पी वी वि
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट संघेन सार्द्धममुना बहुतीर्थयात्रा, भद्रेश्वरस्य विहिता विमलाचलस्य। प्रीत्या पुनर्विकटजैसलमेरुकस्य, तं सज्जना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् ।।६।। अन्योपकारकरणार्थमनेन भूरिशास्त्राणि मजुलतराणि विनिर्मितानि। ख्यातानि तानि च बहून्यपि मुद्रितानि, तं सज्जना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् ।।७।। उद्यापनादिसुकृतानि बहून्यभूवन्, यस्योपदेशमनुसृत्य तथा प्रतिष्ठाः शिष्यावलिश्च शुभधर्मपथप्रवृद्धिस्तं सज्जना हि सुनमन्ति यतीन्द्रसूरिम् ।।८।। पञ्चाङ्काङ्कधराब्दकेऽतिसुमहै, राधे सिताशातिथौ, यं सूरिं सकलोऽन्यसंघसहितश्चाऽऽहोरसंघो व्यधात्। भक्त्यैतस्य जनो हि योऽष्टकमदो नित्यं मुदा सम्पठेत्, सर्व्वर्द्धिस्तमियाद् गुलाबविजयो वक्तिस्फुटं वाचकः ।।९।।
उपेद्रवज्रा-छन्दः + आचार्यदेवश्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरचरणरेणुः मुनिवल्लभविजयः
यशःपताका चहूँ ओर छाई, प्रभात मानो जिसने दिखाई । अशेष अज्ञान विनाशकारी, यतीन्द्रसूरीश्वर ब्रह्मचारी ।।१।। महागुणालंकृत पुण्यशाली, मुनीन्द्र हैं ज्ञान-प्रभा निराली। प्रमोदकारी विभु-ध्यानधारी, यतीन्द्रसूरीश्वर ब्रह्मचारी ।।२।। स्वदेश में औ परदेश में भी,
सुकीर्ति फैली जनवृन्द में भी। महाप्रतापी यश-धामधारी,
यतीन्द्रसूरीश्वर ब्रह्मचारी ।।३।।
सुकाव्य औ व्याकरणादि-धारी,
सुबोध-शैली अतिमुग्धकारी। दर्याद्र हो नाथ! परोपकारी,
यतीन्द्रसूरीश्वर ब्रह्मचारी ।।४।। . antrenorintiemersmGrononcimeramannsroman sa krimengimonssonar
ENGITESTINGNANONG
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ- परिशिष्टमनीष गाते गुण हैं जिन्हीं का,
सदा सुखी जीवन है उन्हीं का । सदा मनोवृत्ति अहो ! सुचारी,
यतीन्द्रसूरीश्वर ब्रह्मचारी । । ५ । । दिखा जनों को शुभ नीति प्यारी, लगा रहे मानसवृत्ति सारी । जिनेन्द्र-संदेश सदा पुकारी,
यतीन्द्रसूरीश्वर ब्रह्मचारी | ६ || न कोपमूर्छा-मद-मान जानो,
न दंभ- माया अरु लोभ मानो। मनोज्ञ वाणी मृदु मिष्टकारी,
यतीन्द्रसूरीश्वर ब्रह्मचारी ।।७।।
कुपन्थ मिथ्यात्व - स्वरूपटारी,
महीजनों के मनमोदकारी।
महान् चारित्र सहर्ष - धारी,
यतीन्द्रसूरीश्वर ब्रह्मचारी ।।८।।
द्रुतविलम्बितछन्द
यह गुणाष्टक गान यतीन्द्र का,
सतत संपत्तिकार मुनीन्द्र का ।
मनुज जो पढ़ता अति प्रेम से, वह लहे फल वल्लभ नेम से ।। ९ ।।
पञ्चचामरच्छन्दः
* आचार्यदेव श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरचरणरेणुमुनिवल्लभविजयः
कलानिधानबन्धुरं धुरन्धरं निमज्जतां,
भवोदधाववाप्य भारतीं शिशावनर्गलाम् ।
दिनेशवद् विराजितं जगत्त्रयेऽपराजितं,
भजे यतीन्द्रसूरिणं सुसूरिचक्रवर्त्तिनम् ।।१।। कुशेशयं यथोपयान्ति षट्पदास्तथैव यं, श्रवन्ति भावुका मुदा वचोविलासलोलुपाः ।
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Grief Surð fimbrimfiramsaraton
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मिले
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ परिशिष्ट कुतोऽपि नाऽऽत्मनीनमाश्रयं प्रपद्य सादरं,
भजे यतीन्द्रसूरिणं सुसूरिचक्रवर्त्तिनम् ॥२॥ समस्तमानसान्धकारमाशु संप्रलीयते,
यदीयदेशनादिनेशदीपितेऽनिशं भृशम्। जगन्ति मोदमावहन्ति हन्यते च किल्विषं, भजे यतीन्द्रसूरिणं सुसूरिचक्रवर्त्तिनम् ।।३।। कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदीनदैन्यकं,
जिनोक्तधर्मधारणाज्जितोरुकामसैन्यकम् । अगण्यपुण्यसञ्चयाज्जनैरतः प्रपूजितम्,
भजे यतीन्द्रसूरिणं सुसूरिचक्रवर्त्तिनम् ।।४।।
अनेकजीर्णशीर्णतीर्थमन्दिरस्य कारिता,
समुद्धतिर्द्वतञ्च येन मानवस्य वारिता । अधोगतिः सतां मतं मुमुक्षुभिश्च वन्दितं,
भजे यतीन्द्रसूरिणं सुसूरिचक्रवर्त्तिनम् ।।५ ।।
अतिष्ठिपत्सुबिम्बमर्हतामनेकमर्हतां,
चिरागतप्रभूतकर्मकर्तने पटीयसाम् । व्रतोपधानकर्मकारितञ्च येन भूरिशो,
भजे यतीन्द्रसूरिणं सुसूरिचक्रवर्त्तिनम् ।। ६ ।। अजेयकामकोपलोभमोहमत्सरानरीं,
सुहेलया विजित्य शेमुषीमिवाप्य सत्तरिम् । ततार योऽतिदुस्तरं भवं तमानतोऽहकं,
भजे यतीन्द्रसूरिणं सुसूरिचक्रवर्त्तिनम् ।।७।। गुरो ! गुणैर्गरिष्ठतावकीनकीर्त्तिकीर्तना
दियत्तया न संहतं वचस्त्वशक्तितो मया । तथापि तत्तवेप्सितं पदं सुनाम संरटन्,
भजे यतीन्द्रसूरिणं सुसूरिचक्रवर्त्तिनम् ।।८।।
शार्दूलविक्रीडितछन्दः
यः प्रातःस्मरणीयतामुपगतो राजेन्द्रसूरीश्वरस्तच्छिष्यप्रवरस्य सूरिनृपतेः श्रीमद्यतीन्द्रप्रभोः । पादाम्भोरुहचञ्चरीकसदृशं श्रीवल्लभेनाष्टकं,
देयाच्छं मुनिना कृतं सुपठतां नणामदः सन्ततम् ।। ১টট[ २५ ] প
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ- परिशिष्ट त्रिंशन्मात्रिक - चौपइयाछन्दः
★ आचार्यदेव श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरचरणरेणुः मुनिसागरानन्दविजयः
जय जग हितकारी, हो यशधारी, अद्भुत् रूप निहारी। सूरिगुणालंकृत, धर्मधराधृत, दिनकर विश्वविहारी ।। करते हैं जागृत, उपदेशामृत से निशदिन नर-नारी ।
यतीन्द्रसूरीश्वर, ज्ञानगुणागर, आबालब्रह्मचारी । । १ । । हैं शासननायक, संयमपालक जैनागम दिलधारी ।
निरख - निरख भू पर चलते पग धर, इरियासमिति निहारी ।। शम-दम-गुण-धारी, कर्मविदारी, हरते शंसय भारी ।
यतीन्द्रसूरीश्वर, ज्ञानगुणागर, आबालब्रह्मचारी ।।२।। क्रोध, लोभ नहीं हैं, मान नहीं है, मायाकपटनिवारी ।
झूठवचन त्यागी, शिवपुररागी जीवदयानितधारी ।। परवस्तु नहीं लेते, नहीं स्त्री सेते, परिग्रह सब ही टारी ।
यतीन्द्रसूरीश्वर, ज्ञानगुणागर, आबालब्रह्मचारी ।। ३॥ भवि - मधुकर आकर, गुण-रस पाकर, लख शुभ संयम - क्यारी । चित्त प्रफुल्लित कर, समकित को धर संसृति का दुःखवारी ।। इन्द्रियगण गोपी, विकथा लोपी, करते तप जयकारी ।
यतीन्द्रसूरीश्वर, ज्ञानगुणागर, आबालब्रह्मचारी ।।४॥ विमलाचल गिरिवर, तीर्थ भद्रेश्वर, जैसलमेरुविहारी |
श्रीलक्ष्मणी, मांडव, मक्षी, भांडव, रैवतगिरि मनुहारी । । आबु, तरंगा, है अति चंगा, श्रीधुलेव जुहारी ।
यतीन्द्रसूरीश्वर ज्ञान गुणागर, आबालब्रह्मचारी ।। ५ ।। उपधानोद्यापन, तपसोपासन, प्रतिष्ठादि करि सारी ।
जिनशासन उन्नति, फिर-फिर करि अति, परम आनंदकारी ।। ग्रन्थावलीगुम्फित हर्षित पण्डित, होते लख लख प्यारी ।
यतीन्द्रसूरीश्वर, ज्ञानगुणागर आबालब्रह्मचारी ।।६।। है जन्म धवलपुर, चंपा मातर, सद्गुणी शीलाचारी ।
हैं ब्रजलाल पिता, सद्गुणाङ्किता, श्रावकव्रतनितधारी।। दुलिचन्दकिशोरी, गंगाजोरी भगिनी रमाकुमारी ।
यतीन्द्रसूरीश्वर, ज्ञानगुणागर, आबालब्रह्मचारी ।।७।।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ परिशिष्ट गुरु राजेन्द्रसूरि, सद्गुणी भूरि, योगीश्वर उपकारी ।
खाचरौद दीक्षा, पाई शिक्षा, बृहत् आहोरधारी ।। वाचकपद भूषित, मनकलि विकसित, संघ जावरा भारी |
यतीन्द्रसूरीश्वर, ज्ञानगुणागर, आबालब्रह्मचारी ।।८।। सकल संघ मिलकर आहोर नगर उत्सव किया विचारी ।
आचार्य दिया पद संघ हुआ मुद, जय-जय ध्वनी उच्चारी ।। सौधर्मगच्छपति, प्रसरो यशतति, जयवन्त रहो भारी ।
यतीन्द्रसूरीश्वर, ज्ञानगुणागर, आबालब्रह्मचारी । ९॥
गुरुवन्दना
* आचार्यदेव श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराजशिष्य, उत्तमविजय
वृजिनराशिनिराकरणक्षमं, प्रबुधवाचकवृन्दशिरोमणिम् । सकलशास्त्रविचारणदक्षिणं, नमत धीर - यतीन्द्रगुरुं परम् ॥ १॥
नमत सादरमेनमनारतं, श्रमणसद्गुणशोभिवपुः श्रियम् । जगति तत्त्वविदामतितोषदं गुरुयतीन्द्रमनीहमलोभिनम् ॥ २ ॥ करुणया परया जगदद्भुतं, सदसि निर्जितवादिमतिप्रभम् । परमपावनमानतशर्मदं, गुरुयतीन्द्रमहर्निशमानुमः ॥३॥ रतिपतिच्छविजित्त्वररूपिणं, शशिसमानसुशीतलकारिणम् । श्रमणसेवकसंसृतितारिणं नमत धीर-यतीन्द्रगुरुं प्रभुम् ॥४॥ प्रतिदिशोदितकीर्त्तिलताजुषं, सुजनवारिजराशिदिवाकरम् । कुमतनागमहाङ्क शमद्वयं, परिणुमो गुरुधीर - यतीन्द्रकम् ॥ ५ ॥ सदसि वागधिपोपममर्थिनां, नवपयोदमिवेष्टवसुप्रदम् । सकलविश्वजनीनपुरःसरं, परिणुमो गुरुधीर - यतीन्द्रकम् ॥६॥
श्रुतिसुखावहधर्मसुदेशनां, मधुरया गिरया ददतं सदा । सकलजीवदयारतमानसं, नमत धीर - यतीन्द्रगुरुं जनाः ॥७॥
अष्टकं कृतवानेतद्विजयान्तिक उत्तमः । उपाध्यायगुरोरस्य, कृपया सीमया मुदा ।।८।।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट
शार्दूलविक्रीडितछन्दः
पं. मदनलाल जोशी शास्त्री, मन्दसौर
यः शिष्यान् परिपाति मोहरहितान् योग्यान् स्वपादाश्रितान् । यं वै विश्वविभीषकाः सविनतं देवं स्तुवन्ति प्रभुम् ।। येनेदं निखिलं जगत् सुमहसा संभासते सर्वतः । यस्मै श्रीविदुषे नमन्ति सुजना जीयात्स लोके सुधीः ।।१।। यस्माद्बोधमवाप्य यान्ति च जना धन्यात्मनो मानवाः । यस्य श्रीसुविदः प्रसादकरणात्, स्तुत्यं पदं सर्वथा । । यस्मिन् भान्ति दयादिकाः (हि) सुगुणा व्याख्यानवाचस्पतौ । विश्वस्मिज्यताद् वसत्वथ चिरं सूरिर्यतीन्द्रो हि सः ।।२।।
मोहध्वंसदिवाकरो यतिवरः सज्ज्ञानधर्माम्बुधिः । कारुण्यार्द्रहृदः कवित्त्वकुशलो देदीप्यमानो मुनिः ।। जेता जल्पकपुंगवो जनहितः पीताम्बरीयान् मुनीन् । भाषाकल्पतरुः सदा विजयतां सूरिर्यतीन्द्रो यतिः । । ३ । । वैदुष्यादियमादिभिर्गुणगणैर्विद्वद्वरैरर्चितः । शान्तिक्षान्तिदयादिरत्नसहितो दीप्तो जनाह्लादकः । कृत्याकृत्यविवेचने सुनिपुणः सद्धर्मसंस्थो मुनिः । जैनाचार्यवरः सदा विजयतां श्रीमद्यतीन्द्रः सुधीः । । ४ । ।
मालिनीवृत्तम्
मुनिमहितमुनीन्द्रो मारसंमर्दनेन्द्रः,
सकलगुणगणेन्द्रो धीमतां यः सुधीन्द्रः । विजनकरिमृगेन्द्रः शास्त्रसत्त्वे करीन्द्रः, जयतु जयतु देवः श्रीलसूरिर्यतीन्द्रः ।। ५ ।। सुविनतमुनिवृन्दैः शिष्यवर्गैः सुवन्द्यः । विविधविधिविधानेनाप्तमान्यो वदान्यः || गुरुगुणगणरक्तस्त्यक्तदर्पो विरक्तः । जयतु जयतु देवः श्रीलसूरिर्यतीन्द्रः ॥ ६ ॥ विहितहितसुकृत्यो विश्ववन्द्योऽनवद्यः, निखिलगुणगणानामालयो यः सुनम्यः । रविवि हि सुदीप्तो माननीयो मुनीन्द्रः । जयतु जयतु देवः श्रीलसूरिर्यतीन्द्रः ।।७।।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट द्रुतविलम्बितवृत्तम्
परमपण्डितमण्डितमण्डलः,सुनयनो नयनन्दितमानवः। जयतु सूरियतीन्द्रयतीश्वरः, यमवतामवतां च पुरः प्रभः।।८।। वसन्ततिलकाछन्दः श्रीमद्यतीन्द्रयतिवर्यमहामतीनाम्, सिद्धिप्रदं मदन-संविहितं स्तवं यः। स्तौत्यर्थसिद्धिसहितं ह्यनिशं सुचित्तः, सर्वार्थसिद्धिमधिगम्य स नन्दतीह।।९।।
क्षमस्वापराधम् .पं. मदनलाल जोशी शास्त्री, मन्दसौर .
विद्यानिधान, विहितागमतत्त्वज्ञान ! राराजते तव पुरः शुभकीर्त्ति-लक्ष्मीः । सौजन्यसागरसमाहित सत्यसिद्धे, आचार्य हे विजयसूरियतीन्द्रदेव।।१।। कल्याणकाय विजयप्रभ हे प्रदीप्त ! सौभाग्यसंयुतसुभूषितकान्तिकान्त !, देवेन्द्रदेव जिनशासनपूर्णभक्त, आचार्य हे विजयसूरियतीन्द्रदेव ! ।।२।। शान्तिः सदा वसति ते हृदि हे प्रणम्य, साहित्यसाररसिकप्रतिभाप्रकाश !! कारुण्यपूर्णकरुणावरुणालयेश !, आचार्य हे विजयसूरियतीन्द्रदेव! ।।३।। सज्ज्ञानदानशुभकर्मणि हे जयन्त! सम्प्रार्थयेऽहमयि देव ! दयानिधे हे !, सर्व क्षमस्व विहितं खलु मेऽपराधम्, आचार्यवर्य्य! विभुसूरियतीन्द्रदेव!।।४।। मन्ये मया ह्यनुचितं विहितं च कर्म, वाक्कायजं हृदयजं करपादजं वा। सर्व क्षमस्व विहिताऽविहितापराधम्, आचार्य हे विजयसूरियतीन्द्रदेव! ।।५।। क्षमात्मकमिदं स्तोत्रं, मदनेन विनिर्मितम्। स्वीकृत्य कृपया देव, क्षम्यतां विजितेन्द्रिय! ।।६।।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट
श्रीयतीन्द्र-गरिमा · पं. विश्वेश्वरनाथ वैयाकरण तर्ककाव्यभूषण .
यो वेदान्ते तरुणतिमिरद्वैतध्वंसप्रचण्डः, कार्याकार्यकलनकरणनीतदक्षावतारः। धर्माधर्माचरणचलननीतधर्मावतारः, श्रीसूरीशो विबुधजलजोद्दीपकः श्रीयतीन्द्रः॥१॥ यो विद्याब्धिविगूढमन्थनलभच्छ्रीशब्दरत्नोऽधुना, व्याख्यानामृतपायनेन मृतकान्मूर्खान् मुहुर्जीवयन् । कारुण्याम्बुविसेचनैर्भुवि बुधान् संमोदयन् सत्वरं, कं कं रङ्कजनं न रक्षति महाकारुण्यपूर्णो भवान् ।।२।। लोकस्वान्तगलान्धकारतपनः कान्त्या (च) स्वर्णोपमो, दारैश्वर्यपराङ्मुखो मतिमतामग्रेसरः केसरी। धर्माचारसुचारकारणचयैः कालान्मुहुर्यापयन्, सूरीशो जयतेऽधुना च नितरां श्रीमान्-यतीन्द्रो यतिः ॥३॥ यतीशः संयमी नित्यं, बुधान् सन्तोषयन् सुधीः। वार्तासुधाप्रदानेन, सर्वान् साधून् (हिं) मोमुदीत् ! ॥४॥ शिष्ये खल कृपादृष्टिः, गरुभक्तिश्च वर्तते। सोऽयं यतीन्द्रसूरिर्हि,राजतां धर्मगो बुधः ।।५।। गाम्भीर्ये सरिताम्पतिं परिजयन् धैर्ये जयन्मेदिनी, औदार्येऽङ्गमहीपतिं परिजयन् कीर्त्या सुधांशुं जयन् । पुण्यैर्धर्मसुतं जयन् सुरगुरुं वाचा तु विस्मापयन्, भक्ति श्रीचरणे दधं (श्च) नितरां श्रीमान् दयावारिधिः ॥६॥ कन्दपं दमयन् रिपून विदलयन विद्याविनोदैनिजैः, सन्तोषं जनयन् बुधेत्वतितरां प्रासादमासादयन् । शिष्ये स्नेहवचो ब्रुवन्नतितरां दुखं बुधानां हरन्, श्री श्रीमान् (सु) यतीन्द्रसूरिविबुधो विद्यावतामग्रगः ।।७।। श्रद्धा श्रेष्ठजने दया बुधजने भक्तिः जिने जायतां, स्नेहः शिष्यजने जयो रिपुजने धर्मश्च ते वर्धताम् । शिष्यस्तातनियोगपालनपरो विद्यावृतो जायतां, श्रीमच्चन्द्रकलासु धवलितयशोराशिः शुभाभासताम्॥८॥ विद्यावयोवृद्धं, श्रीयतीन्द्रं पुनः पुनः
नमामि भक्तिभावेन, पायान्मां सततं नुतः ॥९॥ Dwabrdrowdubadibadwabranbrdabootaritoriadrindiabrand ३० driroinordinarbediodioediodadibadiibudhiandibudhibdiom
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट शार्दूलविक्रीडितछन्दः .पं. ब्रजनाथ मिश्र शास्त्री
यस्याऽऽस्ये शरदिन्दुसुन्दरतरे वाणी नरीनृत्यते, वादीन्द्रानपि सङ्गतानधिसभं युक्त्या यजन्ती क्षणात् । विद्वद्वन्दमनःसुतोषजननी संछेदिनी संशयान् , विद्याढ्यं तमुपास्महे सविजयं श्रीमद्यतीन्द्राभिधम् ।।१।। द्राक्षापाकसमानतामुपगता यद्देशनाऽत्यद्भुता, वर्षन्ती वचनामृतं सुमधुरं धयं पयोवाहवत् । सद्युक्तिः श्रुतिसेविताऽपरिमिता पापापहारक्षमा, विद्याढ्यं समुपास्महे सविजयं श्रीमद्यतीन्द्राभिधम् ।।२।। सर्वाङ्गे कमनीयतां विदधतं सौन्दर्यरत्नाकरम्, भास्वन्तं गुरुतेजसा सुयशसा प्रद्योति नाशं परम् । साक्षात्काममिवापरं विजयिनं लोकानुकम्पाकर, विद्याढ्यं तमुपास्महे सविजयं श्रीमद्यतीन्द्राभिधम् ।।३।। यावज्जीवसुसंयमव्रतपरं षट्शास्त्रचर्चाकर, श्रामण्याऽखिलसद्गुणातुलमहारत्नश्रिया मण्डितम् । निर्धूताखिलकर्मसन्ततिभरं वैज्ञानिकानां वरं, विद्याढ्यं तमुपास्महे सविजयं श्रीमद्यतीन्द्राभिधम् ।।४।। क्षान्तिर्यस्य महीयसी भुवितले विभ्राजते शाश्वती, हेतौ सत्यपि जायते नहि मनाक कोपोद्भवो जातचित् । धन्यं धन्यजनैः प्रशस्यमतुलं सत्कीर्तिमन्तं विभुं, विद्याढ्यं तमुपास्महे सिवजयं श्रीमद्यतीन्द्राभिधम् ।।५।। धैर्ययत्र वरीवृतीति सततं लोकोत्तरं सद्गुरौ, चित्तक्षोभकरेषु सत्स्वपि मनो नायाति चाञ्चल्यताम्। ध्यानारूढमना विपश्यति सदा स्वात्मानमेवाचलं, विद्याढ्यं तमुपास्महे सविजयं श्रीमद्यतीन्द्राभिधम् ।।६।। विश्वेषामतिमण्डनं सुमनसां चित्ताम्बुजोल्लासनं, भव्याभव्यजनप्रबोधपटुतोद्भूताच्छकीर्त्तिव्रजम् । दीनानाथजनोपकारकुशलं व्याख्यानवाचस्पतिम्, विद्याढ्यं तमुपास्महे सविजयं श्रीमद्यतीन्द्राभिधम्।।७।।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट भास्वद्भासुरसद्गुणाकरजगत्पोपूज्यमानस्फुरच्छ्रीमद्गौरवपादपद्मयुगलध्यानप्रसन्नात्मनाम्। युक्त्याखण्डयतामनल्पकुधियां वाचः सभायां विदां, विद्याढ्यं तमुपास्महे सविजयं श्रीमद्यतीन्द्राभिधम् ।।८।। श्रीमद्यतीन्द्रविजयप्रभुसद्गुरूणां, स्याद्वादपद्मपरिबोधनभास्कराणाम्। विद्याविवेकवरशिष्यगणैःप्रणुनश्चक्रेऽष्टकंश्रुतिसुखं ब्रजनाथमिश्रः।।९।।
गुरुदेवस्तयः। "पं. पन्नालाल शास्त्री नागर, रतलाम
क्षपणीयकर्मरम्भा-तरुबेभिदा करीन्द्रम्। शिववर्तनीगतीन्द्रं, भजतां गुरुं यतीन्द्रम् ।।१।। गुणगौरवाधरस्तात्, कृतदिव्यभा गिरीन्द्रम्। जिनसेवि-सद्यतीन्द्रम, भजतां गुरुं यतीन्द्रम् ।।२।। विनयानमनरेन्द्रम्, सुमनस्वि-किन्नरेन्द्रम्। गुणितोल्लसन्मतीन्द्रम्, भजतां गुरुं यतीन्द्रम् ।।३।। भजनेन नैजमिन्द्रम्, नमतां पदं किलेन्द्रम्। भजतां गुरूं यतीन्द्रम, भजतां गुरुं यतीन्द्रम् ।।४।। वदन्तीति भव्यविद्या, जगतीतराऽनवद्या। क्रियतां निजाऽनवद्या, शिवसौख्यसाधिपद्या।।५।।
श्रीगुरुवर यतीनां राजानो जिनरचितमार्गानुसरणाः कृपापारावारा जिनसमुदयावाप्तिविषयाः। विजेतारः पीताम्बरधरमुनीनां सुमहसा, स्वतंत्रा जीयासुर्गणधरमनीषा इव पराः।।१।। श्रीमान् धर्मधुरन्धरो धृतियुतो विद्वज्जनैस्सेवितो, निर्दर्पः सुविनायको गणधरो विख्यातकीर्तिः क्षितौ। श्रद्धानां प्रियकारकोऽस्ति महतां विद्यानिधेर्वारिधिः,
दिव्याच्छीमुनिराजराजमुकुटो श्रीमान् यतीन्द्रो गुरुः।।२।। DironiroduDrdroid-abraordibaoniudorontrord-on-३२-6daridrirideGloridad-66rdrobradabrdandari
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट व्याख्यानवाचस्पतिरेव धीरः, गम्भीरतावार्धिरिवापर श्च। राद्धान्ततत्त्वार्थनिषण्णमेधो, जीयाद् मुनीन्द्रप्रवरो यतीन्द्रः।।३।।
राजेन्द्रसूरीश्वर एव विद्वान्, गुरुर्दयालुःपरमार्थबुद्धिः। आराधितो येन मुनीश्वरेण, भक्त्या महत्या परित्यक्तकामः।।४।। ज्ञाने पर: कोविदहेमचन्द्रः, उदारचेता महनीयकीर्तिः। गृहीतकार्य न जहाति कामम्, उद्योगशाली जयताद् यतीन्द्रः।।५।। आह्लादने चन्द्रमसो हि शोभा, धत्ते कृपालुर्जनतापहर्ता। समाधिनिष्ठः पुरुषार्थहस्तः गुरोः कृपातो जयताद् यतीन्द्रः।।६।। कार्यान्तगः शिक्षणपारदृश्वा, गुरोश्च वाक्यानि वहत्यजस्रम्।। क्रोधादिजेता जगदद्वितीयधाराप्रवाही वचने यतीन्द्रः।।७।। गृहीतविद्याविजयः सुशिष्यः, समस्तलोकोपकरिष्णुरेषः। मासान् हि वेदान् गमयन् हि कुक्षौ, सुखेन तस्थौ मुनिराड् यतीन्द्रः।।८।। इदं हि पद्यमष्टकं कृतं मयाल्पबुद्धिना, विशोध्य मूलतस्ततो गुणान् विभाव्य सन्ततम्। भणन्तु पण्डिता जनाः सभासु तान्प्रपूजितान्, व्रजन्तु सज्जनाः सुखं सुरालयं स्वकर्मणा ।।९।।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट स्वागत-स्तयकगुच्छः।
वसन्ततिलकावृत्तम् . पं. मदनलाल जोशी शास्त्री, मन्दसौर •
भूव्योमखद्वयमिते ननु वैक्रमाब्दे, पक्षे सिते भृगुयुते सुतिथौ चतुर्थ्याम्। आहोरनान्मि नगरे रमणीयदृश्ये, सुस्वागतं विजयसूरियतीन्द्रकाणाम् ।।१।।
श्रीमद्यतीन्द्रमुनिवर्यमुनीन्द्रकाणाम, व्याख्यानवारिधिवरैर्हि सुपूज्यकानाम्। राजेन्द्रसूरिपदपङ्कजपूजकानाम्, सुस्वागतं विजयसूरियतीन्द्रकाणाम् ।।२।।
रम्याननेऽमृतरसं स्रवतीह येषाम, कान्तिस्तथैव वदनस्य हि भाति येषाम्। सन्दर्शनं नयनमोदकरं च येषाम्, सुस्वागतं सुखकरं सुखदं समेषाम् ।।३।।
शिष्याः सदैव परितः परिरम्यमाणाः, सेवारताः सुविनया विनतिं दधानाः। पार्श्वेऽनिशं परिवसन्ति गुणाकराणाम्, सुस्वागतं विजयसूरियतीन्द्रकाणाम् ।।४।।
तेषां सुपार्श्ववसतां विनताऽन्तराले, संदृश्यतेऽद्भुतमतिर्महनीयकीर्तिः। कान्तः कविः करुणकाव्यकलापकर्ता, राराजते य इह काव्यकलानुरक्तः ।।५।।
गाम्भीर्यभावभरणे कविभारविर्यः, साहित्यसारसरणे कविकालिदासः। लालित्यपादरचने कविदण्डितुल्यो, नानार्थसिद्धिसहितः कविमाघ एव ।।६।।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट नामैव यस्य सुकवेः सुखदं श्रुतीनाम्, विद्यां विकासमतिदां विशुभां विजेता। तन्नाम एवं चरितार्थमभिप्रयाति, विद्याविजेतुरनघस्य कवित्वचञ्चोः ।।७।।
पद्यप्रकाशनपटुः प्रविभासमानः, श्रीमद्यतीन्द्रपदपङ्कजमादधानः। प्रद्योतकः प्रबलपुण्यफलप्रभावैः, श्रद्धायुतैः सुमनुजैः परिसेव्यमानः ।।८।।
स्रग्धरावृत्तम् स्निग्धे साहित्यसारे सुपदसरसिजे, स्नेहसिक्तानुरक्तः। रम्ये पद्यप्रबन्धे ललितपदयुते, प्रौढमत्यातिशक्तः।। श्रीमद्व्याख्यानवाचस्पति-विजययतीन्द्रार्यसूरेः सुशिष्यः। जिव्याज्जीयाच्च विद्याविजय इह कविः कान्तकायः कवीशः।।
वसन्ततिलकावृत्तम् इत्थं सुशिष्यकरैः सततं सुवन्द्याः, आचार्यवर्यविभुसूरियतीन्द्रपादाः स्वागत्य बोधपरिपूर्णसुदेशनातः, आहोरजैनजनतां विदधत्त्वनज्ञाम्।।१०।।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट
गुरु-कीर्तनम् पं. अवधकिशोर मिश्र व्याकरणाचार्य मैथिल.
जरीहर्ति जाड्यं जनानामजस्रम्, चरीकर्ति यद्दर्शनं पापपुजम्। दरीदर्ति मिथ्यात्वितां तत्क्षणं यत्, स जीयाद् यतीन्द्रः सदाचार्यवर्यः।।१।।
नरीनर्ति यदर्शनान् मानवाली, पयोदागमे शोभना पिच्छशाली। दिनेशोदये षट्पदालीव भूयः, स जीयाद् यतीन्द्रः सदाचार्यवर्यः।।२।।
परीपर्ति पीयूषतुल्यैर्वचोभिर्जनानामभीष्टं द्रुतं यःसमग्रम्। सरीसर्ति लोकोपकाराय भूमौ, स जीयाद् यतीन्द्रः सदाचार्यवर्यः।।३।।
जरीगर्दि यस्यामलां देशनां यः, तरीतर्ति कामं भवाब्धि जनः सः। वरीवर्ति तस्यागमेनैव भूयः,
स जीयाद् यतीन्द्रः सदाचार्यवर्यः।।४।। यदीयैर्गुणैरजितैर्भव्यवगै-, स्तुवद्भिर्यदीयं कलाकौशलं च। दिगन्तेऽपि यत्कीर्तिरातन्यते च, स जीयाद् यतीन्द्रः सदाचार्यवर्यः ।।५।।
चरीक्लृप्यते यो विपक्षेऽपि शश्वत्, सभायां जितो भूरिशो बद्धकक्षः।। अरिघुन नीतः स्वपक्षेऽपि दक्षः, स जीयाद् यतीन्द्रः सदाचार्यवर्यः।।६।।
यमालोक्य सन्तो विकासं भजन्ते, समं दुर्धियो दिग्विभाजं श्रयन्ते। सुशान्तश्च दान्तश्व धन्यो वदान्यः, स जीयाद् यतीन्द्रः सदाचार्यवर्यः।।७।।
सकलागमपारगतस्य यदि, प्रपठेदिदमष्टकमच्छति। विजयादि यतीन्द्र-यतीन्द्रगुरोः, स च याति बृहस्पतितां झटिति ।।८।।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्टश्रीयतीन्द्रगुरु-गुणानुवादिः
पं. बिहारी लाल शास्त्री
हृद्याऽनवद्या यद्विद्या, विद्ववृन्दाभिनन्दिता। वादिवादाऽवसादाय, प्रकामं क्षमता मिता।।१।।
ग्रामं ग्राम प्रतिग्रामं, मुनिमण्डलमण्डितः। धर्मव्यवस्थां तनुते, कुर्वन् यो धर्मदेशनाम्।।२।।
यदीयो नित्य-आचारो, युक्ताहार-विहारवान्। दर्शकानां मनोवृत्तौ, प्रभावं जनयत्यरम्।।३।।
नित्यमाचार्यमाणा यच्चारित्राद्यखिलक्रियाः। कदाचिदपि नायान्ति, शैथिल्यं तद्भयादिव।।४।।
कामादिककषाया यद्भयादिव यदन्तिकात्। दूरं पलाय्य शरणीचक्रुः पाखण्डमण्डलम्।।५।।
यद्धर्म्यसूक्तिमाकावधीरितसुधारसाम्। समस्ता जनता तृप्ता, सुधां कलयते मुधा।।६।।
पापक्रान्तिमयेऽप्यस्मिन्, विकराले कलौ युगे। धर्मस्थिति यस्तनुते, क्षान्त्वाऽसहपरिषहान्।।७।।
जिनालयप्रतिष्ठानमधिष्ठानं शुभाश्रियाम्। कारयन् यः प्रतिष्ठानं, प्रतिष्ठानं श्रितोऽसमाम्।।८।।
तं श्रीयतीन्द्रसूरीन्द्रं, नरो भक्तिभराञ्चितः। प्रणमन् संस्मरन् ध्यायन्, कर्मबन्धाद्विमुच्यते।।९।।
సారసాగరుగారుశారుగురురురురురురురుర
రురురురురురురురురురుడు
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तपसा रविरेवलसत्किरणो, यशसा चलपार्वणचन्द्रचणः । वचसा ननु गीष्पतिरेव भवान्, महसा च यतीन्द्रमुनिर्जयति ॥ १ ॥
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ परिशिष्ट गुरुवन्दन
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श्रीमज्जिनेन्द्र शुभधर्मधृतावतारो, भव्योपदेशकरणाभरणार्णवौघः । देशाटनाटवि (प्र) पत्तनचाटुवाटः, श्रीमद्यतीन्द्र मुनिराजवरो विजीव्यात् ॥ २ ॥
मूर्त्या महर्षिरिव चन्द्र इव स्वकीर्त्या, मत्या बृहस्पतिरिवाब्धिरिवातिधृत्या । सत्यावृतो विधिरिव श्रुतिधर्मवेत्ता, श्रीमद्यतीन्द्रविजयोऽवतु मां मुनीन्द्रः । । ३ ॥ जयति श्रीयतीन्द्रः
यस्य प्रोद्यन्निपुणधिषणासाम्यमाप्तुं न दक्षोऽलक्ष्यो देवालिपक्षोऽप्यदितिसुतगुरुर्गीष्पतिर्भूतलेऽसौ । यः स्वीयज्ञानकाण्डप्रखरकिरणध्वंसिताऽज्ञानजालध्वान्तो जैनो जयति विजयश्रीयतीन्द्रो महीयान् ॥ १ ॥
★ पं. विश्वेश्वर व्याकरणाचार्य साहित्यतीर्थ
यदीयसुयशो विधुर्धवलयन् महीमण्डलम्, प्रचण्डतरकल्मषव्रजसरोजमामीलयन्।
विराजतितरामसौ विविधशास्त्रपारङ्गमो, यतीन्द्रविजयाभिधः सदयजैनतत्त्वाविशः ॥ २॥
संस्तारयन्निजगुणैरुपकारजातान्, प्रेम्णा हि कं न मनुजं हि वशीकरोति । शिष्योऽप्युदारचरितस्तवशान्तचित्तः, विद्याविनोदरसिको जगतां हितैषी ॥३॥
श्रीगुरुदेवयतीन्द्रसूरिविबुधोऽहिंसापथः सत्वरम्, कारुण्यायुतमानसः प्रतिदिनं लोकान्तमोमोदीत्। साधूपकारकरो हि लोभरहितो भिक्षाव्रतः संयमी, स्याद्वादादिप्रचारकरणपरः कारुण्यपूर्णोपमः ॥४॥
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट क्षमापनस्तोत्रम्
क्षमाप्रार्थी मदनलाल जोशी.
संसारसागरनिमज्जनकर्णधारिन्!
कारुण्यपूर्णकृतकार्यसुकान्तकाय!! श्रीमद्यतीन्द्रमुनिपादिसुशोभिताख्य,
सर्व क्षमस्व कृपया विहिताऽपराधम् ।।१।।
श्रीजैनशास्त्रसरसो ननु पारगामिन् !
नृणां भवेरतहदां कलुषापहारिन्! भक्तान् सुबोधमनुजान् ह्युपदेशदातः!
सर्व क्षमस्व कृपया विहिताऽपराधम् ।।२।।
शिष्यैः सुचित्तविभवैः परिसेव्यमान!
सुश्रावकैः सहदयैः परिपूज्यमान!! देदीप्यमानतनुभिः परिपूतकाय !!!
सर्व क्षमस्व कृपया विहिताऽपराधम् ।।३।।
व्याख्यानवारिधिमहोदयसूरिवर्य!
___भूपेन्द्रपट्टसमलंकृत-पादपीठ!! राजेन्द्रसूरिगुरुवर्यायसुशिष्यश्रीमन्!,
सर्व क्षमस्व कृपया विहिताऽपराधम् ।।४।।
स्तोत्रश्च सादरमदो हि क्षमापनस्य,
श्रीमत्कृपैषि मदनेन विनिम्मितं यत्। स्वीकृत्य तच्च कृपया मुनिराड्-यतीन्द्र !,
सर्व क्षमस्व विहितं ननु मेऽपराधम् ।।५।।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - परिशिष्ट राग-कल्याण ध्रुपद
.पं. मदनलाल जोशी शास्त्री.
भजत भजत भो जनाः ! श्रीयतीन्द्रसूरिम्। नमत नमत भो नराः ! श्रीयतीन्द्रसूरिम् ।।१।।
विगतमोहवीतरागविश्ववन्द्यमानं, धनभृतैर्धराधिपैः सदा हि ध्यायमान। प्रणतशीलपापहारिणं श्रीयतीन्द्रसूरिम् ।।भ. ।।२।।
श्रुतिमधुरमञ्जुलैः पदैर्युतां सुवाणी, वदनकमलधारिणं सुपूज्यवन्द्यपाद। वचनसुमनभूषितं च श्रीयतीन्द्रसूरिम्॥भ.।।३।।
शोक-मोह-भोग-रोग-नाशिनं यतीशं, सुकृतकृत्यसंरतं महान्तकं मुनीशं। गुणगणैः गुरूपमं हि श्रीयतीन्द्रसूरिम्।।भ. ।।४।।
सर्वशास्त्रसारहारभूषिताङ्गभव्यं,
तरुण-अरुण-तेजसा युतं तथा हिनव्यं। - लसितललितकमललोचनं यतीन्द्रसूरिम् ।भ. ।।५।।
सत्यस्नेहसत्पदै : स्तवैर्हि स्तूयमानं, भवपरैर्विरक्तयोगिभिश्च ध्यायमानं। मदनवदनकान्तिधारिणं यतीन्द्रसूरिम्।।भ. ।।६।।
సారంగురంగురంగురుతరగతir romance wరురురురురువారం
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जैन आगम
साहित्य
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अष्टप्रातिहार्य का संदेश
अद्भुत वीतराग भाव में मग्न अति निस्पृह तीर्थंकर परमात्मा के पुण्य से आकृष्ट चारों निकाय के देव मिलकर विश्व में अलौकिक एवं आश्चर्यकारी अष्ट प्रातिहार्य की रचना करते हैं। ये प्रातिहार्य सामान्य नहीं है अपितु गर्भित रूप से जगत् के लिए अनेक प्रकार की प्रेरणा के श्रोत रूप हैं।
अशोक वृक्ष प्रातिहार्य : कल्याणमंदिर स्तोत्र में सिद्धसेन दिवाकर सूरि म. ने आठों प्रातिहार्य के संदेश तथा तीन गढ़ का स्वरूप बताया है। परमात्मा के पीछे स्वदेह से १२ गुना ऊंचा अशोक नामक वृक्ष है। यह विश्व के लोगों को संबोधित कर कह रहा है, कि हे मनुष्या ! तुम परमात्मा के प्रभाव को जानो, जिस प्रकार मैं भगवान् के नजदीक होने से शोकरहित हूँ। उसी प्रकार अगर आप भी भगवान् के सानिध्य में रहेंगे तो शोक रहित हो जायेंगे। अर्थात् संसारी जीवों के दुःख- संताप टल जाएंगे। जैसे सूर्य के उदय से मात्र मनुष्य ही नहीं, वृक्ष एवं फूल आदि भी पत्रसंकोच आदि रूप निद्रा का त्याग कर विकसित होते हैं। उसी प्रकार हे चेतनावान् मनुष्यो परमात्मा के प्रभाव से जैसे अव्यक्त चेतनावाला मैं (वृक्ष) शोक रहित बना हूं उसी प्रकार चेतनावान् आप सभी तो नितरां शोक रहित बन जाओगे अतः परमात्मा की शरण को स्वीकार करो।
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सुरपुष्पवृष्टि प्रातिहार्य : परमात्मा के समवसरण में देवों के द्वारा चारों तरफ की गई पुष्पवृष्टि में सभी पुष्पों को सीधा गिरते देखकर किसी ने आश्चर्यचकित होकर पुष्पों से पूछा कि 'वृक्ष से गिरने वाले आप सब सीधे कैसे पड़ रहे हो?' तब पुष्पों ने कहा कि 'यह तो परमात्मा का प्रभाव है कि इनके सानिध्य को प्राप्त करने पर जिन डंठलों ने हमें वृक्ष में जकड़ रखा था वे डंठल रूपी बंधन वृक्ष से टूट कर नीचे की तरफ ही गिरे, इससे हम उर्ध्वमुखी बने हैं, इसी प्रकार आप भी प्रभु के सानिध्य में रहेगें तो आपके भी कर्म रूपी बंधन अथवा संसार के कोई भी बंधन टूट कर नीचे गिर पड़ेगें एवं आत्मा मोक्ष की तरफ ऊर्ध्वगमन करेगी।
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महत्तरिका गुरुणिजी श्री ललित श्रीजी की शिष्या साध्वी मणिप्रभा श्री...
दिव्यध्वनि : कवियों ने दिव्यध्वनि को अमृत की उपमा दी । दिव्यध्वनि का कहना है मुझे दी गई उपमा को मैं बराबर सार्थक कर रही हूँ। जैसे अमृत समुद्र में उत्पन्न होता है, एवं जगत् के जीवों को अमर बनाता है उसी प्रकार मैं परमात्मा के हृदय रूपी गम्भीर समुद्र से उत्पन्न हुई हूँ और मेरा ( प्रभुवाणी का) पान करने वालों को मैं अतिशीघ्र अजरामर (मोक्ष) पद को प्राप्त कराती हूँ।
चामर प्रातिहार्य : देवता भगवान के चारों तरफ ८ जोड़ी चामर वीजते है। वीजते समय पहले चामरों को नीचे ले जाया जाता है फिर वे ऊपर उठते हैं, इनका संदेश है कि जो वीतराग प्रभु के चरणों में भक्तिभाव से शीश झुकाते हैं वे आत्माएँ शुद्ध भाव वाली होकर उर्ध्वगति को प्राप्त करती है।
सिंहासन प्रातिहार्य : उज्जवल देदीप्यमान सुवर्णमिश्रित रत्न के बने हुए सिंहासन पर बैठे हुए, श्याम वर्ण वाले, गम्भीर मेघगर्जना के समान देशना को देते हुए पार्श्वनाथ भगवान को देखकर भव्य प्राणी रूपी मोर खुश होते है। अर्थात् जिस प्रकार मेरुपर्वत पर गर्जना करते काले बादल को मोर उत्सुकता पूर्वक देखते हैं। उसी प्रकार सिंहासन कह रहा है कि मेरे ऊपर स्थित प्रभुको भव्य जीव उत्सुकता पूर्वक देखते हैं।
भामंडल प्रातिहार्य : परमात्मा के मुख का तेज सैंकड़ों सूर्य से भी अधिक होने की वजह से कोई भगवान के मुख को नहीं देख सकता। इसलिए देवता प्रभु के तेज का भामंडल में संहार करते हैं, जिससे प्रभु का मुख सुखपूर्वक देखा जाता है । ऊपर की ओर प्रसारित प्रभु की कांति से अशोक वृक्ष के पत्तों की कांति आच्छादित हो जाने पर वह राग रहित दिखने लगा। इस भामंडल का संदेश है कि हे वीतराग! आपके सानिध्य को. प्राप्त करने पर अशोक वृक्ष तो क्या, कोई भी सचेतन रागरहित बने बिना नहीं रहता ।
देवदुंदुभि प्रातिहार्य : भगवान के समवसरण में बजने वाली देवदुंदुभि तीन जगत् के जीवों को संदेश दे रही है कि अरे !
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य अरे! भव्य जीवो! तुम प्रमाद का त्याग कर मोक्षपुरी में जाने के प्रभु के तीन गढ़ : परमात्मा की कांति,प्रताप एवं यश लिए सार्थवाह के समान प्रभु के पास आकर इनकी सेवा करो। से तीनों लोक भर गये तो भी कांति, प्रताप और यश जगत में समा छत्र प्रातिहार्य : चंद्र कह रहा है कि जब साक्षात् प्रभु तीन ।
नशानी न पाये इसलिए ये तीनों माणिक्य, सुवर्ण एवं रजत के रूप में लोक को प्रकाशित कर रहे हैं, तो मेरा तो आकाश में रहकर प्रभु क तान गढ़ बन गए। प्रकाश करने का कोई अधिकार ही नहीं रहा। इसलिए तारामंडल इस प्रकार आंख बन्द कर अष्टप्रातिहार्य-युक्त प्रभु का सहित मैंने आकर मुक्ताफल की मोती के समूह से उल्लसित ध्यान करने पर एवं उनके संदेश को हृदय में धारण करने पर तीन छत्रों के बहाने से अपने शरीर को त्रिधा बनाया है। अर्थात् आत्मा परमात्मा के साथ अभेद रूप को प्राप्त करती है। भगवान का जगत् में इतना प्रभाव है कि चंद्रादि भी अधिकाररहित बन भगवान की सेवा में जुट गए हैं।
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आज के युग में मनोरंजन के हजारों साधन नजर आ रहे हैं। ये साधन मनोरंजन एवं समय व्यतीत तो कराते हैं लेकिन आत्मा में अनेक कुसंस्कार डाले बिना नहीं रहते। इसलिए धार्मिक आयोजन अति आवश्यक हैं। प्रत्येक गाँव में जहाँ भी सोसायटी आदि में अपने २०-२५ या इससे अधिक घरों की संख्या है वहाँ पर एक सामायिक मंडल तो होना ही चाहिए ।
प्रति ग्राम - नगर में सामायिक मण्डल आवश्यक
आज गुजरात एवं देशावरों में अधिकांश स्थानों पर सामायिक मंडल दिखाई देते हैं । मारवाड़ मालवा में यह पद्धति इतनी विकसित नहीं हुई है। लेकिन इन पुराने मंडलों में कितने ही आशय दीप प्रविष्ट होने से परिणाम सही नहीं मिल रहा है। एवं जहाँ पर मंडल ही नहीं हैं वे गाँव तो बिल्कुल परिणामशून्य हैं। दोनों ही स्थानों में सामायिक मंडल के सही स्वरूप एवं उद्देश्य कैसे होने चाहिए एवं सामायिक का क्या महत्त्व है यह समझें । 'सामायम्मि उकए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं बहुसो सामइयं कुज्जा ।।
हर व्यक्ति साधु नहीं बन सकता। लेकिन सामायिक तो कर ही सकता है। सामायिक में श्रावक भी साधु जैसा होता है । सामायिक में साधु पणे का आस्वाद लिया जा सकता है। वह इस प्रकार है - सामायिक के मुख्य सूत्र 'करेमि भंते' में दो प्रतिज्ञाएँ है । ( १ ) 'सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' यह प्रतिज्ञा सामायिक में पाप-व्यापार आदि से निवृत्ति रूप है। इस प्रतिज्ञा से ३२ दोषों का त्याग किया जाना है। (२) 'जाव नियमं पज्जुवासामि' इस प्रतिज्ञा से सामायिक में रत्नत्रयी (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) की आराधना करने का प्रण किया जाता है। इन दो प्रतिज्ञाओं को बराबर समझे बिना शुद्ध सामायिक नहीं हो सकती । प्रथम प्रतिज्ञा दोषत्याग रूप है - मन वचन तथा काया के दोष का त्याग इस प्रकार है। मनदोष शत्रु को देखकर गुस्सा, गाम गपाटे, मन में कंटाला, यश की वांछा, भय का विचार, व्यापार या रसोई संबंधी विचार, धर्म के फल में शंका एवं धर्म के फल की इच्छा इत्यादि कुविकल्प नहीं करना ।
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साध्वी मणिप्रभा श्री...
वचनदोष - किसी को अपशब्द, पापकर्म का आदेश, गृहस्थ की आगता - स्वागता या क्षेमकुशलपृच्छा, गाली, विकथा (स्त्री, खान, पान, देश एवं राजा संबंधी बातें) एवं मजाक तथा बकबक इनमें से किसी भी असभ्य वाणी का प्रयोग नहीं करना । कायदोष- घड़ी-घड़ी जगह बदलना, यहाँ-वहाँ देखना, पापकारी काम, आलस मरोड़ना असभ्य रूप से बैठना, भीत का टेका लेना, शरीर का मैल उतारना, खुजली - खनन, पैर पर पैर चढ़ाकर बैठना, काम-चेष्टा एवं निद्रा ये सभी काया संबंधी कुव्यापार नहीं करें।
द्वितीय प्रतिज्ञा गुणप्राप्ति रूप है - वह इस प्रकार है -
सामायिक में ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की आराधना करनी चाहिए। ज्ञानाराधना - स्वाध्याय करना, ज्ञान की पुस्तक पढ़ना, गाथा करना, गाथा सुनना, दूसरों को पढ़ाना। दर्शनाराधना
माला गिनना, चौबीशी बाँचना, शुभ सम्यक्त्वादि का चिंतन करना । चारित्राराधना - कामोत्सर्ग करना, खमासमण देना, मुहपत्ति एवं चरवले का बराबर उपयोग करना, साधु-साध्वीजी की अनुमोदना करना, अपने पूर्वकृत् दुष्कृत्यों की गर्हा करना इत्यादि ।
अपने सामायिक मंडल में ऐसी सामायिक होनी खूब आवश्यक है। प्रभु वीर ने श्रेणिक महाराजा को नरक में गिरने से बचने के उपाय के रूप में पुणिया श्रावक की एक सामायिक खरीद लेने को कहा । श्रेणिक सामायिक लेने पुणिया श्रावक के यहाँ पहाँचे भी; लेकिन सामायिक बेचना पुणिया श्रावक नहीं जानता था। दोनों सामायिक की कीमत पूछने प्रभु वीर के समीप पधारे। श्रेणिक को तो किसी भी हालत में नरक में जाने से बचना था, वह पूरा मगध राज्य बेचकर भी अपनी दुर्गति का निवारण करना चाहता था। परंतु जब भगवान् ने एक सामायिक की महिमा १ लाख सुवर्ण की हाँडी के दान से भी कई गुना अधिक बताई। आश्चर्य ! कि सारे मगध का सम्राट् होते हुए भी श्रेणिक इतना धन सारे राज्य को बेचने पर भी नहीं दे सका।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ साथ ही भगवान् ने बताया एक सामायिक भाव से की जाय तो देवलोक के आयुष्य का बंध पड़ता है।
ऐसी अद्भुत सामायिक की आराधना समूह में करना मंडल रूप में करना, अनेक नये जीवों के लिए धर्मप्रेरक योग है। लेकिन जितनी अधिक सावधानी रखेंगें उतने ही अंश में अपनी सामायिक पुणिया श्रावक के समान बनती जाएगी। अभ्यास करते-करते एक दिन ऐसा भी आना चाहिए कि हमारी सामायिक समभाव की सिद्धि-साधिका बन जाये ।
बुजुर्ग एवं मंडल के अग्रजनों का फर्ज बन जाता है कि वे स्वयं ऐसी सुंदर सामायिक करें, जिससे बाल एवं नये धर्म में जुड़ने वाले जीवों पर उसका प्रभाव पड़े। याद रखें कि मंडल में हाजिरी, प्रभावना, यात्रा एवं दण्ड आदि विषयों को लेकर कभी विवाद नहीं होना चाहिए।
हाजिरी - इसका प्रयोजन व्यवस्था है, अनव्यस्था नहीं ।
प्रभावना – इसका प्रयोजन आराधकों की अनुमोदना है, जबर्दस्ती नहीं । विशेष निर्जरा के इच्छुक प्रभावना कर सभी आराधकों के सामायिक का लाभ उठा सकते हैं।
यात्रा - सामायिक मंडल में कभी यात्रा का आयोजन दर्शन-शुद्धि के लिए किया जाय तो उसमें विशेष ध्यान रखें कि
जैन आगम एवं साहित्य
सभी अपनी टिकिट से यात्रा करें यात्रा में मंडल के लिए पैसा एकत्र करने का लालच बिल्कुल न करें। किसी को सामायिक कराने का भाव हो तो शक्ति के अनुसार खर्च कर सकते हैं। परंतु अपनी तरफ से कोइ माँग नहीं होनी चाहिए।
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दण्ड - अगर कारणवशात् सामायिक के दिन हाजिर नहीं हो सकें तो व्यवस्था टूट न जाये तथा दूसरे भी आलस में आकर सामायिक का त्याग न करें इस हेतु दण्ड रखा जाता है। दण्ड रुपयों का ही रखना जरूरी नहीं है। मंडल में सामायिक न हुई हो तो कारण टल जाने पर उपाश्रय में आकर सामायिक करें एवं साथ में ४ पक्की माला या एकासणा या साधुपद के २७ खमा खड़े-खड़े दें, या २ रु. फाइन भरें।
इस प्रकार शांत चित्त से की गई आराधना अनेक भव्य जीवों के लिए अनुमोदना एवं सम्यक्त्व का निमित्त बनती है। प्रत्येक छोटे - बड़े जैनसंघों में इस प्रकार के सामायिक मंडल जोरत्नत्रयी के प्रचारक एवं प्रभावक बन सकें, परम आवश्यक हैं। अपने संघ के अनुरूप महीने में प्रति येषृमी, चतुर्दशी, शुक्ल पंचमी आदि सामायिक रख सकते हैं।
सभी संघों में इस प्रकार के विवेक पूर्ण सामायिक मंडलों की खूब स्थापना हो एवं आराधना ।
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अल्पा बहुत्य नुद्वार ना, अठाणु ९८ प्रकार
संकलनकर्ता मूथा शान्तिलाल बख्तावरमलजी मंत्री, श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्यसमिति, आहोर...
१. सर्व थकी थोड़ा गर्भज मनुष्य संख्याती कोडा कोडी प्रमाण १२. उससे सातमी नरक पृथ्वीना नारकी असंख्यात गुणा है। छे ते मोटे अल्प छ।
घनीकृत लोकनी एक श्रेणीना असंख्यात भाग जीतने आकाश २. उससे मनुष्यनी स्त्री संख्यातगुणी अधिक छे एटले सत्यावीस
प्रदेशनी राशि है उतनी संख्या में है। गुणी छे ए बोल मली अढी द्वीप माहेला एकसो ने एक क्षेत्रना १३. उससे छठी नरक पृथ्वीना नारकी असंख्यात गुणा है क्योंकि मनुष्यनी संख्या कहे छे नरकावासा ज्यादा है, क्योंकि उत्कृष्ट पापी जीवों से हीन (७९२८८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६) एटले पापी जीव ज्यादा होते हैं, इसलिए यहाँ पैदा होते हैं। सात क्रोड कोडा कोडी बाणु लाख कोडा कोडी कोडी १४. उससे सहस्त्रार देवलोकना देवता असंख्यात गणा है। अठ्यासी हजार कोडा कोडी कोडी एक सो कोडा कोडी कोडी बासठ कोडा कोडी कोडी एकावन लाख कोडा १५. उससे महाशुक्र देवलोकना देवता असंख्य गणा है. क्योंकि कोडी बेतालीस हजार कोडा कोडी ससो कोडा कोडी
वहाँ विमान ज्यादा हैं। तेतासीस कोडा कोडी, साडातीस लाख कोडी उगणसाठ १६. उससे पांचमी नरक पृथ्वी ना नारकी असंख्यात गुणा है। हजार कोडी तणसो कोडी चोपन कोडी उगणचालीस लाख १७. उससे लोतक देवलोकना देवता असंख्यात गणा है। पसास हजार तण सो ने छत्तीस एटली संख्या ये मनुष्य छे तेना अठावीस भाग करीये नेमा एक भाग जीतने मनुष्य है
१८. उससे चौथी नारक पृथ्वीना नारकी असंख्यात गुणा है। और सतावीस भाग जीतनी स्त्रीयो है।
१९. उससे ब्रह्म देवलोकना देवता असंख्यात गुणा है। ३. उससे बाहर तेउकाय पर्याप्ता असंख्यात् गुणा एक आवलीका २०. उससे भीजी पृथ्वीना नारकी असंख्यात गुणा है।
ना समय नो वर्ग करी तेने काइक न्यून आवलीका ना २१. उससे माहेन्द्र देवलोकना देवता असंख्यात गुणा है। समय साथे गुणेन पर जितने समय थाय उतने हे।
२२. उससे सनत कुमार देवलोकना देवता असंख्यात गुणा है। ४. उससे अनुत्तर विमान वासी देवो असंख्यात गुणा है क्षेत्र
२३. उससे बीजी शर्करा प्रभा नरक पृथ्वीना नारकी असंख्यात पल्योपम ने असंख्यात ये भागे जितने आकाश प्रदेश होय उतने है।
२४. उससे संमूच्छिम् मनुष्य असंख्यात गुणा है। अंगुलप्रमाण ५. उससे उपर के तीन ग्रैवेयक के देवता संख्यात गुणा है ।
क्षेत्र प्रदेश रासि सम्बन्धी बीजा वर्ग मूल ने प्रथम मूल साथे ६. उससे मध्य भाग के ग्रैवेयक ना देवो संख्याता है।
गुण करें तो जितने प्रदेश होते हैं उतने है। ७. उससे नीचे के तीन ग्रैवेयक के देवता संख्यात गुणा है। २५. उससे इशान देवलोकना देवता असंख्यात गुणा है। अंगुल ८. उससे अच्युत देवलोकना देवता संख्यात गुणा है।
मात्र आकाश क्षेत्रनी प्रदेश राशि सम्बन्धी बीजो वर्गमूल
जिसको त्रीजा वर्गमूल साथे गुण ने पर जितने प्रदेश होते ९. उससे आरण्य देवलोकना देवता संख्यात गुणा है।
हैं, उससे घनीकृत एक प्रदेश की श्रेणी लेनी उससे जितने १०. उससे प्राणत देवलोकना देवता संख्यात गुणा है।
आकाश प्रदेश होते हैं, उतने ईशान देवलोक के देवता ११. उससे आनत देवलोकना देवता संख्यात गुणा है।
होते हैं।
गुणा है।
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य २६. उससे ईशान देवलोक में रहने वाली देवियाँ बत्तीस गुणी ४९. उससे पंचेन्द्रिय अपर्याप्ता विशेष अधिक है। ज्यादा है।
५०. उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्ता विशेष अधिक है। २७. उससे सौधर्म देवलोकना देवता संख्यात गुणा है, क्योंकि ५१.उससे तेडन्द्रीय अपर्याप्ता ज्यादा है।
वहाँ विमान ज्यादा हैं और दक्षिण दिशा में कृष्णपक्षी जीव ज्यादा हैं।
५२. उससे बेइन्द्रिय अप्रर्याप्ता ज्यादा है। २८. उससे सौधर्म देवलोकनी देवियो बत्रीस गुणी है।
५३. उससे प्रत्येक शरीर वाला बादर द वनस्पति कायना अपर्याप्ता
असंख्यात गुणा है। एक प्रभूत प्रतरमां अंगुलना असंख्यातमा २९. उससे भवनपति देवता असंख्याता है।
भाग प्रमाण जितने सूची खंड होते हैं उतने है। ३०. उससे भवनपति नी देवीयो बत्तीस गणी है।
५४. उससे बादर निगोद पर्याप्ता अनंत कायना शरीर असंख्यात ३१. उससे रत्नप्रभानामा नरक पृथ्वीना नारकी असंख्यात है। गुणा है, जिस लिए संख्याता प्रतरमा एक अंगुल ने असंख्यात ३२. उससे खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यन्च योनिया पुरुष असंख्यात गुणा है।
जैसे जितने सूची खंड में समा सकते हैं, जितने खंड प्रमाण है। ३३. उससे खेचर योनि तिर्यन्च पंचेन्द्रिय स्त्रीयो तीन गुणी है।
५५. उससे बादर पृथ्वीकायना पर्याप्ता जीव असंख्यात गुणा है,
जिससे प्रभूत संख्याता प्रतर मध्य में अंगुल ना असंख्याता ३४. उससे स्थलचर पंचेन्द्रिय योनिना पुरुष संख्यात गुणा है।
. भाग मात्र सूची खंड जितने समा सकते उतने हैं। ३५. उससे स्थलचर पंचेन्द्रिय योनिनी स्त्रीयो तीन गुणी है।
५६. उससे बादर अपकाय के पर्याप्ता असंख्यात गुणा है, जिससे ३६. उससे जलचर पंचेन्द्रिय योनिना पुरुष संख्याता है।
अत्यंत प्रभूत संख्याता प्रतर मध्य में अंगुलना असंख्य ३७. उससे जलचर पंचेन्द्रिय योनिनी स्त्रीयो तीन गुणी है।
भाग जितने सूची खंड में समा सकते हैं जितने हैं। ३८. उससे व्यन्तर निकायना देवो संख्यात गुणा है।
५७. उससे बादर वायु काय के पर्याप्ता जीव असंख्यात गुणा है
घनीकृत लोकना असंख्याता प्रतरने विषे जितने आकाश है ३९. उससे व्यन्तर निकायनी देवीयो बत्तीस गणी है।
उतने प्रदेश प्रमाण में है। ४०. उससे ज्योतिष देवता संख्यात गुणा है।
५८. उससे बादर तेउकाय के अपर्याप्ता असंख्य गुणा है, जिससे ४१. उससे ज्योतिषी देवीयो बत्तीस गुणी है।
असंख्याता लोकाकाश प्रदेश राशि प्रमाण है। ४२. उससे खेचर योनिना पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च नपुंसक संख्यात ५९. उससे प्रत्येक शरीर वाला बादर वनस्पति के अपर्याप्ता गुणा है।
जीव असंख्यात गुणा है। ४३. उससे स्थलचर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय योनिना नपुंसक संख्यात ६०. उससे बादर निगोद के अपर्याप्ता ना शरीर असंख्यात गुणा है।
६१. उससे बादर पृथ्वी काय के अपर्याप्ता असंख्यात गुणा है। ४४. उससे जलचर तिर्यन्च पंचेन्द्रिय योनिना नपंसक संख्यात
६२. उससे बादर अपकाय के अपर्याप्ता असंख्यात गुणा है। गुणा है।
६३. उससे बादर वायुकाय के अपर्याप्ता असंख्यात गुणा है। ४५. उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्ता संख्यात गुणा है।
६४. उससे सूक्ष्म तेउकाय के अपर्याप्ता असंख्यात गुणा है, क्योंकि ४६. उससे सर्व पंचेन्द्रिय पर्याप्ता विशेष अधिक है।
सर्वलोकव्यापी है। ४७. उससे बेइन्द्रिय प्रर्याप्ता विशेष अधिक है।
६५. उससे सूक्ष्म पृथ्वीकाय के अपर्याप्ता विशेषाधिक है। ४८. उससे तेइन्द्रीय प्रर्याप्ता विशेष अधिक है।
६६. उससे सूक्ष्म अपकाय के अप्रर्याप्ता विशेषाधिक हैं। Addroidroidroidroidoasardarodaridroomindian Fooranioranitoribordoorinironitorobiob-ordinaran
गुणा है।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य -- ६७. उससे सूक्ष्म वायुकाय के अपर्याप्ता विशेषाधिक है। ८४. उससे सूक्ष्म पर्याप्ता वनस्पतिकाय के जीव संख्यात गुणा ६८. उससे सूक्ष्म तेउकाय के पर्याप्ता संख्यात गुणा है। यहाँ ये है, क्योंकि सूक्ष्म पर्याप्ता मोहे सूक्ष्म अपर्याप्ता मोहे सूक्ष्म
सूक्ष्म मध्य स्वभावे क्योंकि अपर्याप्ता भी पर्याप्ता से घणा है। अपर्याप्ता स्वभावे सदेव संख्याता गुणा प्राप्त है। ६९. उससे सूक्ष्म पृथ्वीकाय के अपर्याप्ता असंख्य गुणा है। ८५. उससे सर्वसूक्ष्म पर्याप्ता जीव विशेषाधिक है, क्योंकि सक्षम
पर्याप्ता पृथिव्यादिक साथे मिलाने से। ७०. उससे सूक्ष्म अपकाय के पर्याप्ता विशेषाधिक है।
८६. उससे सर्वपर्याप्ताअपर्याप्ता सूक्ष्म जीव विशेषाधिक है। ७१. उससे सूक्ष्म वायुकाय के पर्याप्ता विशेषाधिक है।
८७. उससे भव्य सिद्धक भव्य जीव विशेषाधिक है, इसलिए ७२. उससे सूक्ष्म निगोद ना शरीर अपर्याप्ता असंख्यात गुणा है।
जघन्य युक्त अनंता प्रमाण अभव्य जीव है, क्योंकि उसको ७३. उससे सूक्ष्म निगोदना शरीर पर्याप्ता संख्यात गुणा है। छोड़कर बीजा सब भव्य जीव है। ७४. उससे अभव्य सिद्ध के जीव अनंतगुणा है, क्योंकि जघन्य ८८. उससे निगोद के जीव विशेष अधिक है, क्योंकि निगोद के युक्त चौथा अनंता जितने है।
जीव छोड़कर बीजा सब जीव असंख्यात लोकालोक प्रदेश ७५. उससे पडिवाइ प्रतिपति सम्यग् दृष्टि जीव अनंत गुणा है।
प्रमाणज है। ७६. उससे सिद्धना जीव अनंत गणा है क्योंकि मध्य यक्त पांचमा ८९. उससे वनस्पति के जीव विशेषाधिक है। निगोदमां प्रत्येक अनंता जितने हैं।
वनस्पति प्रक्षेपवा से। ७७. उससे बादर वनस्पतिकाय के पर्याप्ता जीव अनंत गुणा है,
९०. उससे एकेन्द्रिय जीव विशेषाधिक है। वनस्पति में क्योंकि जे महि एक निगोद ने अनंतमे भाग में सिद्ध है
प्रथिव्यादिकना प्रक्षेपवा से। क्योंकि एक असंख्याता बादर वनस्पति में है।
९१. उससे तिर्यञ्च योनि के विशेष अधिक है। बेइन्द्रियाहि के ७८. उससे बादर पर्याप्ता जीव विशेषाधिक है। बादर पर्याप्ता
मिलाने से। पृथ्वी कायादि प्रक्षेपवा से।
९२. उससे मिथ्या दृष्टि विशेषाधिक है, क्योंकि ए जीव चारे गति मो ७९. उससे बादर वनस्पतिकाय के अपर्याप्ता असंख्यात गुणा है,
मले छ। क्योंकि एकेक बादर निगोद पर्याप्तानी निश्चयि असंख्याता ९३. उससे अविरती जीव विशेषाधिक है, अविरती सम्यग् दृष्टि पर्याप्ता निश्चय होते है।
जीव इसमें मिलने से। ८०. उससे बादर पर्याप्ता विशेषाधिक है। बादर पर्याप्ता पृथ्वी ९४. उससे सकषायी जीव विशेषाधिक है, क्योंकि उसमें देश कायादिक प्रक्षेपवा थकी।
विख्यात है। ८१. उससे सर्व पर्याप्ता बादर जीव विशेषाधिक है।
९५. उससे छद्यस्थ जीव विशेषाधिक है, क्योंकि उपशांत मोही ८२. उससे सूक्ष्म वनस्पतिकाय के अपर्याप्ता असंख्य गुणा है,
पण इसमें मिले है। इसलिए कि बादर जीवों से सूक्ष्म ज्यादा है, क्योंकि ९६. उससे संयोगी विशेषाधिक है, क्योंकि उसमें संयोगी केवली सर्वलोकव्यापी है।
मिले है। ८३. उससे सक्ष्म अपर्याप्ता विशेषाधिक है, इसलिए कि सूक्ष्म ९७. उसमें सर्व संसारी जीव विशेषाधिक है. क्योंकि इसमें अयोगी
अपर्याप्ता पृथ्वी कायादिक ने उसमें प्रक्षेपवा से विशेष केवली भी मिले है। अधिक होते हैं।
९८. उससे सर्व जीव विशेषाधिक है। इसमें सिद्धना जीव भी
शामिल है। braduadroomowomadrandirdGirbrGroid-driibio-[७]60ndiaidiodoiramidrioriritd-dioraibardwadibrar
मिला
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आनत
- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - मनुष्य क्षेत्र के बहार ये पदार्थ नहीं होते है
स्वर्ग, मृत्यु और पाताल लोक में शाश्वत जिननदी, द्रह, बादल, बादलनो गर्जारव, बादर अग्निकाय, चैत्य और जिन-प्रतिमाजी का विवरण तीर्थंकर, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती और दूसरे भी सामान्य मनुष्य के जन्म-मरण तथा मुहूर्त प्रहर दिवस चन्द्र-सूर्य परिवेश बिजली, चय, अपचय और उपराग इतने पदार्थ पीस्तालीस योजन स्थान
स्थान चैत्य में प्रासाद
प्रतिमाजी
प्रतिमाजी प्रमाण मनुष्य क्षेत्र में होते हैं।
यहां अढीद्वीप में पीसतालीस लाख योजन भमि में वीस सौधर्म १८० बत्तीस लाख सतावन करोड साठ लाख लाख योजन समद्रनी भूमि है, जहाँ समद्र नी भूमि में मनष्य नहीं ईशान १८० अट्ठाईस लाख । पचास करोड़ चालीस लाख है। मात्र अन्तर द्वीप है। वे थोड़े है तेनी विपक्षा नहीं करते है, सन्तकुमार २८० बारह लाख इक्कीस करोड़ साठ लाख इसलिए समुद्र नी भूमि रहित मात्र द्वीप नी पचीच लाख योजन महेन्द्र १८० आठ लाख चौदह करोड़ चालीस लाख भमि है. उसको एक भाग में आइ हुई पूर्वोक्त हाथनी राशि से बदा
नालाख सात करोड़ बहत्तर लाख गुणा करने पर (९०९९५८१८८३४९९९९४९५ ९९८२
लांतक १८० पचास हजार । नब्बे लाख (९०) ५००००००) इतनी राशि होती है, ये भी उगण भीश अंक है। ये भी उपर के सात कोडा कोडी गर्मज मनुष्य के २९ आंक के
शुक्र १८० चालीस हजार बहत्तर लाख (७२) राशि में भाग देने पर एक मनुष्य के भाग में एक हाथ भूमि भाग
सहस्त्रार १८० छः हजार दस लाख अस्सी हजार आता है। उसमें सो ना बैठ नहीं सकते और भी पर्वत द्रह नदी वन
१८० दो सौ
छत्तीस हजार अटवी आदि बिना मनुष्य वाली जमीन भी बहुत छूट जाती है प्राणत १८० दो सौ
छत्तीस हजार और थोड़ी भूमि में मनुष्य रहते हैं, इसलिए पूर्वोक्त संख्या में
आरण्य १८० एक सौ पचास सत्ताईस हजार मनुष्य इतनी जमीन में समा सकते नहीं यह शंका होती है।
अच्युत १८० एक सौ पचास सत्ताईस हजार उसका समाधान नीचे मुजब है, इसलिए वीतराग के वचन
प्रथमत्रिक १२० एक सौ ग्यारह तेरह हजार तीन सौ वीस में कोई संदेह नहीं है। जो २९ आंक प्रमाण गर्भज मनुष्य कहे हैं,
द्वितीयत्रिक १२० एक सौ सात बारह हजार आठ सौ चालीस वे सदा सर्वदा काल में इतने दूज है, मगर कम-ज्यादा नहीं,
तृतीयत्रिक इसका समाधान यह है कि पुरुष से स्त्रीयो सतावीस गुणा ज्यादा
१२० एक सौ
बारह हजार है और गर्भधारण करने वाली ये ही हैं और उसके गर्भ में उत्कृष्ट पंचानुत्तर १२० पाँच
छह सौ से नव लाख संख्या ये पण गर्मज मनष्य होते है और जघन्य
८४९७०२३ १५२९४४४७५० मध्यम पण होते हैं और स्त्रीनी राशि ज्यादा है, इसलिए उनके गर्भ में गर्भज मनुष्योंनि संख्या सर्वदा होती है। इसलिए गर्भ में
राजेन्द्रकोष में यह पाठ है ज्यादा जीव होने चाहिए और स्वल्प जीव गर्भ के बाहर होते है। इसलिए जीव पृथ्वी में सख से रह सकते है। ऐसा कहने से नंदिसरे बावन जिनहरा, सुरगिरिसु तह असीई जैवक्रिया का लोप नहीं होता है और केवली कहे ते सत्य जानना कुंडल नगमणुसुत्तर रुअग वलए सु चउ चउरो चाहिए। पढ़ना, चिंतन करना और पूछना इसका नाम त्रिपक्षी उसु यारेसु चत्तारि असीई व स्खार पव्वयेसु तहा। विद्या कहते हैं। जगत में त्रिपक्षी विद्या नी कहेवत है, उससे वे अड्डे सत्तरिसय तीस वासहर सेलेसु संशयक बातों का समाधान होता है।
वीसं गयदंतेसु दस जिण भवणाइ कुरु नगरवरे एवं च तिरियलोए अडवणा हुंति सयचउरो ।।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -जैन आगम एवं साहित्य । तिर्छा लोक में चैत्य व जिन प्रतिमा जी जबकि सकलतीर्थ में ३२५९ का पाठ है : ३९१३२० प्रासाद १ में प्रतिमा
नंदीश्वर द्वीप ५२ मानुषोत्तर पर्वत ४ मेरु पर्वत
१२० १०२०० सूचक द्वीप
वृक्षाकार ४० गजदंतगिरी २० १२० २४००
कुन्डल द्वीप
वैताड्य
१७० ८० वरकारा पर्वत
९६०० इक्षुकार
कुलगिरि १००० कंचनगिरि १०००
पर्वत १२० १२००००
गजदंत विचित्र पर्वत
१२०
मेरु पर्वत ८० जंबूवृक्षशालि वृक्ष १० चित्र पर्वत
६००
. राजेन्द्र कोश में यह पाठ है बाकी केवलीगम्य ४५८ यमक पर्वत
१२००
पाताल लोक में अवनपति में वर्षधर पर्वत
३६०० स्थान प्रासाद प्रतिमाजी ४ इक्षुकार पर्वत
४८० १. असुर कुमार चौंसठ लाख एक सौ पन्द्रह करोड़ बीस लाख २०. वृत वैताड्य २० १२० २४००
२. नागकुमार
चौरासी लाख एक सौ इक्यावन करोड़ वीस लाख १६० दीर्घ वैताड्य
१२०
२०४०० ३. सुवर्ण कुमार बहत्तर लाख एक सौ उगणतीस करोड़ साठ लाख ४० दिग्गज कूट ४० १२०
४. विद्युत कुमार छियत्तर लाख एक सौ छत्तीस करोड़ अस्सी लाख १० जेम्बयादिवृक्ष ११६० ।। १२० १४०४०० ५.अग्नि कुमार छियत्तर लाख एक सौ छत्तीस करोड़ अस्सी लाख ३८० कुंड
१२० ४५६०० ६.द्वीप कुमार छियत्तर लाख एक सौ छत्तीस करोड अस्सी लाख ७० महानदी कुंड
८४०० । ७. उदधिकुमार छियत्तर लाख एक सौ छत्तीस करोड अस्सी लाख ८० द्रह चैत्य
९६०० ८.दिशा कुमार छियत्तर लाख एक सौ छत्तीस करोड़ अस्सी लाख मानुषोत्तर पर्वत
४८० ९.स्तनित कुमार छियत्तर लाख एस सौ छत्तीस करोड़ अस्सी लाख नदीश्वर द्वीप
१२४ ६४४८ १०. वायु कुमार छियानवे लाख एक सौ छत्तीस करोड़ अस्सी लाख १९२०
७७२००००० ३८९६०००००० सूचक द्वीप ४ १२४ ४९६ एक-एक प्रसाद में
कुन्डल द्वीप ४ १२४ ४९६ १८० प्रतिमाजी है सात करोड़ बहत्तर लाख तेरह सौनबासीकरोड़ साठ लाख अठी द्वीप के नकशे की पुस्तक से ३२४९
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क्रिया
परमपूज्य आगमज्ञाता साहित्याचार्य मुनिराज
श्री देवेन्द्रविजयजी महाराज के शिष्य मुनिश्री नरेन्द्र विजयजी 'नवल'....
यों तो संसार के सभी प्राणी क्रिया करते हैं, कोई भी बिना कभी किसी से मामूली सा झगड़ा हो जाए तो आप वकील क्रिया के नहीं रह सकता, पर यहाँ लौकिक क्रिया के विषय में की सलाह लेते हैं। घर में किसी को मामूली सा बुखार हो जाए नहीं कहना है, यहाँ तो लोकोत्तर क्रिया, धर्मक्रिया, सम्यक् क्रिया तो डॉक्टर के पास जाते हैं। मकान बनाना हो तो इंजीनियर की अर्थात् सम्यक् चारित्र के विषय में चर्चा करनी है।
सलाह लेते हैं। फीस देकर, सलाह लेकर उसके कहे अनुसार आत्मा और कर्म का बन्धन अनादिकाल से है। संसार में करते हैं, किन्तु धर्मगुरु बिना फीस लिए जीवन का सच्चा मार्ग यह बन्धन मोह और अज्ञान के कारण है। फिर भी इस संसार में बताते हैं और सच्ची सलाह देते हैं, पर उनकी सलाह पर चलते सख की खोज निरंतर चाल है। सभी प्राणी सखी होना चाहते हैं. कितन लाग हा कोई भी दुःखी नहीं रहना चाहता, पर ज्ञानियों का कहना है कि धर्मक्रिया में सबसे प्रथम स्थान सत्संग का है। धर्म की संसार में दुःख ही दुःख भरा है। संसार में दुःखभय, पापभय, वाणी को तथा शास्त्र की वाणी को निरन्तर सुनना चाहिए। रोगभय, वेदनाभय, जराभय और न जाने कितने-कितने और सन्तजनों के मुख से उच्चरित जिनवाणी को सुनने से विचारशुद्धि कैसे-कैसे भय भरे पड़े हैं।
प्राप्त होती है। वस्त्र शुद्ध हों, मकान शुद्ध हो, खाना-पीना शुद्ध ये दःख क्यों हैं? क्योंकि आत्मशक्ति दब गई है और कर्म हो, सब कुछ शुद्ध हो, पर विचार शुद्ध न हों, आचरण शुद्ध न हो की शक्ति जीव पर हावी हो गई है। कर्म की शक्ति को सत्त्वहीन । करने के लिए, कर्म के बन्धनों को तोड़ने के लिए धर्मशक्ति बुद्धि की शुद्धि होगी तो सिद्धि भी मिलेगी, प्रसिद्धि भी का प्रयोग आवश्यक है। चार पुरुषार्थों में धर्म मुख्य पुरुषार्थ है। होगी और समृद्धि भी बढ़ेगी। बुद्धि की शुद्धि के बारे में एक धर्म बीज है अर्थ और काम तो तना और पत्तियां हैं, मोक्ष उसका दृष्टान्त याद आ गया है। एक महात्माजी नाव में संवार थे। कुछ फल है।
अन्य लोग भी उस नाव में बैठे थे। कछ तो शान्तिप्रिय सज्जन कर्मबन्धन को काटने के लिए धर्मक्रिया या सम्यक् चारित्र
थे, कुछ को उन्माद सूझ रहा था। खाली दिमाग शैतान का घर की आवश्यकता है। संसारी जीव मोहान्धकार और अज्ञानान्धकार
होता है। परस्पर बातचीत होने लगी। कुछ बातें सत्य होती हैं, में भटक रहे हैं। धर्म रूपी प्रकाश से मार्ग तो मिला है. पर उस कुछ सत्य के करीब होती हैं, कुछ झठ होती है और कछ झटके मार्ग पर चलने से ही कर्म कटेंगे। परम ज्ञानी पुरुष स्वयं प्रकाश
करीब होती हैं। महात्माजी ने कहा, भाइयो! बातें करनी हैं तो प्राप्त कर उस पर चलते हैं और दसरों को भी उस पर चलने की
कुछ अच्छी बातें करो, जिन्हें सुनकर प्रसन्नता हो, आपस में प्रेरणा देते हैं।
मधुरता बढ़े, मित्रता बढ़े। आप लोगों की बातें सुनकर तो सभी
अन्य यात्रीगण लज्जा एवं घृणा के भाव से ओतप्रोत हो रहे हैं। श्री हरिभद्रसूरिजी ने १४४४ ग्रन्थों की रचना की थी।
महात्माजी की शिक्षा लोगों को ऐसी लगी मानो साँप की पूँछ पर आज तो उनमें से कुछ ही उपलब्ध हैं। उनका धर्मबिन्दु ग्रन्थ
पाँव रख दिया हो। वे लोग महात्माजी को ही भला-बुरा कहने जीवन-निर्माण के लिए अत्यंत उपयोगी है। जीवन में नैतिक,
लगे। महात्माजी भजन में लीन हो गए। एकाएक आकाशवाणी धार्मिक, व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग इसमें
हुई, महात्माजी! अगर आप कहें तो इन दुष्टों को अभी फल मिलेगा।
चखा दूं, इस नाव को उलट दूँ। आकाशवाणी सुनकर सब
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__ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य घबराए। महात्माजी के पैर पकड़ने लगे, क्षमा माँगने लगे। थोड़ी है। भजन करते हए भी नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि बातें करने देर में पुन: वही आकाशवाणी हुई। महात्माजी ने आँखें खोलीं, से भजन में रस नहीं आता। विनम्र शब्दों में बोले, देव! तुम उलटना ही चाहते हो तो इन
इन प्रत्येक शभ कार्य के प्रारंभ में मंगलाचरण किया जाता सबकी बुद्धि उलट दो। नाव उलटने से क्या होगा?' है। धर्मबिन्दु ग्रन्थ के भी प्रारंभ में ग्रन्थकार मंगलाचरण करते
मनुष्य की कुबुद्धि ही पाप की ओर प्रेरित करती है। हैं, क्योंकि 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' अच्छे कार्य में बहुत विघ्न कुबुद्धिधारी को मिटाने से क्या होगा? कुबुद्धि को ही मिटा देना आते हैं। हम जब माला फेरते हैं, प्रवचन सुनते हैं, प्रतिक्रमण चाहिए। सद्बुद्धि पाने के लिए जिनवाणी ग्रन्थों को तथा सूत्रों को करते हैं तब नींद आ जाती है। धर्म करते हुए जीवों को ऐसे ही सुनना आवश्यक है। सुनते हुए पूरी सावधानी रखनी चाहिए। १३ प्रकार के विघ्न आते हैं। अच्छी वाणी सुननी चाहिए, एकाग्रतापूर्वक सुनना चाहिए और सेठ मफतलाल प्रवचन सन रहे थे। प्रवचन में द्रव्यगणपर्याय मौन होकर सुनना चाहिए।
का विवेचन चल रहा था, इसलिए रस नहीं आ रहा था, नीरस इस संसार में अनेक बातें हैं, बातों की क्या कमी है ? यदि लग रहा था। सेठ को प्रवचन सुनते-सुनते झपकी आने लगी। व्यक्ति गप्पें लगाने बैठ जाये तो घड़ी थक जाएगी, किन्तु व्यक्ति गुरु महाराज ने देख लिया और पूछ बैठे "क्यों सेठजी! आप सो नहीं थकेगा। किन्तु अच्छी वाणी सुनने में किसकी रुचि होती है? रहे हैं?" सेठजी ने बात छिपाई और कहा, "नहीं ध्यान से सुन कानों द्वारा किसी के विचार सुनकर विवेक से सोचें। यदि वह रहा है। दूसरी बार फिर सोते देखा तो फिर टोका। सेठजी बोले, ठीक लगे तो मन में उतरने दें, अन्यथा सुना-अनसुना कर दें। "नहीं-नहीं, मैं सो नहीं रहा हूँ, कौन कहता है कि मैं सो रहा हूँ। सुनें सबकी, करें मन की।
मैं तो समाधि लगाकर एकाग्रता से सुन रहा हूँ।" तीसरी बार भी एक बार सेठानी दिवालीबाई व्याख्यान सुनने गई थी।
सेठजी को उसी हालत में देख कर गुरु महाराज ने भाषा बदलकर नित्य ही सुनने जाया करती थी। गुरु महाराज भगवती सत्र पर पूछा, “क्यों सेठजी! जीते हैं क्या?" सेठजी ने तुरंत नींद में ही व्याख्यान देते थे। भगवती सत्र में गोयमा शब्द बार-बार आता उत्तर दे दिया, “नहीं-नहीं।" इस बार पोल खुल गई। सेठजी की है। गुरु महाराज गंभीर होकर अनूठे ढंग से गोयमा शब्द बोलते क्या'
क्या गति थी? नींद में सोते हैं या जीते हैं का कुछ अन्तर ही थे। दिवालीबाई सुनते-सुनते समाधि लगा लेती थी (सो जाती मालूम नही
- मालूम नहीं पड़ा। सोचा कि सोते हैं क्या, यही पछा होगा, इसलिए थी)। एक ध्यान से सनने का बहाना बनाती। एक बार घर पर कह दिया- नहीं नहीं, जबकि पूछा था कि जीत है क्या? बहूजी ने पूछा-माताजी! गुरु महाराज का प्रवचन कैसा है? अच्छे कार्यों में इस प्रकार के अनेक विघ्न आ जाते हैं।
आज गुरुजी ने क्या बताया? माँजी ने कहा-"गुरुजी व्याख्यान आप नियम बना लीजिए कि १२ माह तक निरंतर श्री गौड़ीजी .तो अच्छा देते हैं, परन्तु उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं लगता। की पूजा करूँगा, फिर देखिए कैसे-कैसे विघ्न आते हैं? प्रवचन के दौरान बार-बार ओय माँ, ओय माँ करते रहते हैं।"
- मंगल दो प्रकार के होते हैं, द्रव्यमंगल और भावमंगल। दिवालीबाई ने कैसा अच्छा प्रवचन सुना? गोयमा से ओय मंगल का अर्थ होता है 'मं पापं गालयति इति मंगलम्' जो पाप मां हो गया। क्या आप भी ऐसी ही एकाग्रता से प्रवचन सुनते हैं? को गला दे, टाल दे वह मंगल है। 'धर्मबिन्दु' में भाव. मंगल एकाग्रता से सुनेंगे तो ध्यान में भी रहेगा। जो सुना हो उसे घर पर करते हुए कहा गया है किजाकर लिख लेना चाहिए भविष्य में बहुत काम आएगा।
प्रणम्य परमात्मानं समुद्धृत्य श्रुतार्णवात्। प्रवचन मौन होकर सुनना चाहिए। मौन से सर्व कार्य
. धर्मबिन्दुं प्रवक्ष्यामि, तोयबिन्दुमिवोदधेः॥ सिद्ध होते हैं। ज्ञान, ध्यान, भोजन और भजन मौनपर्वक करने . मंगल-विधान का उद्देश्य है- विघ्नों का नाश हो। आप चाहिए। भोजन करते हुए बोलने पर ज्ञानावरणीय कर्म का बंध छोटी-सी यात्रा करने जाते हैं या देशान्तर भी जाते हैं तो द्रव्यहोता है, जिससे मूकपन, गूंगापन, तुतलाहट और अज्ञान आता मंगल (शकुन, स्वर) सब कुछ देखते हैं न? प्रस्थान करते समय
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-- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य भी और प्रवेश करते समय भी। आपको भाव-मंगल भी करना शक्ति प्रकट होगी। इसलिए सर्वप्रथम परमात्मा के शासन के चाहिए। सूर्यस्वर चंद्रस्वर चलता हो या दिन में दायें और रात में परम भक्त बनें, उनकी वाणी सुनें, उनकी आराधना करें, यही बायें पैर को प्रथम रखकर कम से कम ३-३ बार नवकार मंत्र धर्मक्रिया है, यही सम्यक् क्रिया या सम्यक् चारित्र है। भक्त का स्मरण करना चाहिए।
तीन प्रकार के होते हैं सदैया, कदैया, भदैया। सदैया भक्त बनें, मंदिर में देवदर्शन तथा देवपूजा के बाद बाहर आकर '
तभी शासन के प्रति समर्पण का भाव जाग्रत होगा। समर्पण नवकार मंत्र गिन लेना चाहिए। यहाँ पर ग्रन्थकार ने भाव-मंगल
-
कर,
करें, समर्पण करने से ही सदैया बनेंगे। किया है। परमात्मा को प्रणाम किया है। परमात्मा को नमस्कार। सुनकर तथा समझकर उसके अनुकूल प्रवृत्ति करनी चाहिए, नमस्कार करने से झुकना पड़ता है अर्थात् विनय करनी पड़ती है गुणों को जीवन में उतारना ही सम्यक क्रिया है, सम्यक् चारित्र इसलिए नमस्कार से अहंकार दूर होता है। व्यक्ति के जीवन में है। 'ज्ञानस्य फलं विरतिः' के अनुसार ज्ञान का फल त्याग है। ईगो (अहंकार) ही खतरनाक है। अहं का नाश ही विकास का बिना चारित्र के, बिना क्रिया के शुष्क ज्ञान व्यर्थ है। कहा गया हैमूल है। अहं-अहंकार विघ्न है। सर्वप्रथम सर्वगुणों का आधार
पिंजरा खुला, पर पाँखें नहीं खुली तो क्या? विनय गुण है। विनय को क्रियान्वित करने से अहंकार स्वयं नष्ट
दीपक जला, पर आँखें बंद रहीं तो क्या? हो जाता है। अहंकार-नाश का स्वाधीन उपाय है परमात्मा को
पैर तो बहुत उठाए, पर गति नहीं तो क्या? नमस्कार। इसमें कोई पराधीनता नहीं, परतंत्रता नहीं। परमात्मा
करने की बातें तो बहुत की, पर कर्मठता नहीं तो क्या? को नमस्कार करने से क्या परमात्मा से परिचय होता है? आत्मा दो प्रकार की होती है, परम और अपरम। परम किसे कहते हैं?
शास्त्रकार कहते हैं-. जिसके कर्म दूर हो गए हों, जो लोक और अलोक को देखते हों, .
जाणंतोऽवियतरिउं, काइजयोगं न जुंजइ नईए। जिनको सर्वदृश्य हो, जो निर्लेप, निष्काम, निरहंकार, निस्पृह,
सो बुज्झई सोएणं, एवं नाणी चरणहीणो।। निरंजन हों, अष्ट प्रातिहार्य से सुशोभित हों, वाणी के ३५ गुण हों,
जैसे कोई तैरना जानते हुए भी नदी में हाथ-पैर न हिलाए ३४ अतिशय हों। जिनकी वाणी को सब प्राणी समझ सकें. तो वह नदी में डूब जाता है। वैसे ही धर्म-सिद्धान्तों को जानते सबके संशय दूर हो जाएं। जहाँ पदार्पण हो वहाँ सख-शान्ति हुए भी यदि कोई उनके अनुसार आचरण न करे तो वह दुःखों से फैल जाए, उसको परम आत्मा कहते हैं। परम यानी उत्कष्ट है मुक्त नहीं हो सकता। कहा गया हैआत्मा जिसकी।
सुबहुपि सुयमहीयं, किं का हितो चरणविप्पहूणस्स। परमात्मा शब्द में चमत्कार है। प का आकार ५ जैसा, र
अंधस्स जह पलिता, दीवसयसहस्स कोडी वि।। का आकार २ जैसा, मा का आकार ४ जैसा का आकार ८ जैसे अन्धे के समक्ष सैकड़ों, हजारों, करोड़ों दीपक भी जैसा और मा का ४ जैसा, कुल चौबीस की संख्या होती है। व्यर्थ हैं, वैसे ही चारित्र का पालन न करने वाले के लिए ज्ञान तीर्थंकरों की संख्या भी चौबीस है। अतः परमात्मा को नमस्कार का भण्डार भी व्यर्थ है। 'आचारहीनं न पुनन्ति वेदा।' आचारहीन करने से २४ तीर्थंकरों को नमस्कार हो जाता है। अपनी हथेली को वेद भी पवित्र नहीं बना सकते। महान योगी भर्तृहरि ने कहा हैमें भी २४ की संख्या अंकित है, सिद्धशिला भी है। किन्तु अभी आहारनिद्राभयमैथुनं च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्। हम अपरम है। अपरम से परम बनने की, आत्मा से परमात्मा तत्रापि धर्मो अधिको विशेषो, धर्मेण हीना पशुभिः समानाः।। बनने की उपासना ही धर्मक्रिया है, धर्माराधना है।
आहार, निद्रा, भय और मैथुन तो मनुष्यों और पशुओं में अपरम आत्मा परम आत्मा का ध्यान करे. आलम्बन समान ही हैं। मनुष्य में एक धर्म की ही विशेषता है। धर्म के ग्रहण करे तो स्वयं भी परम बन जाती है। आपको अपरम ही बिना मनुष्य पशु के समान ही है। धर्म की चर्चा कितनी ही करे, रहना है या परम बनना है, बतलाइए? बनना तो परम है पर पर क्रिया कुछ भी न करे, तो उसका कल्याण हो सकता है क्या? शक्ति नहीं है। शक्ति कैसे प्राप्त हो? परमात्मा की भक्ति से ही कदापि नहीं। इसीलिए कहा है
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- यतीन्द्रसरिस्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य चर्चा ही चर्चा करें, धारणा करे न कोय।
प्राकृत भाषा में चारित्र के लिए चयरित्तं शब्द का प्रयोग हुआ है धर्म बिचारा क्या करे, धारे ही सुख होय।। जिसका अर्थ है विभाव रूप चय से आत्मा को रिक्त करना,
अतः यह स्पष्ट है कि ज्ञानाराधना का सार है सम्यक खाली करना। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में लिखा हैचारित्र।
'चयस्स रिक्तिकरणं चरितं' अनपढ़ से पढ़ता भला, पढ़ता से भणवान।
यथाख्यात निर्मोह भाव, छद्मस्थ तथा जिन को होता। भणता से गुणता भला, जो हो आचारवान।।
करता संचित है कर्मरिक्त, चारित्र वही है कहलाता।। अनपढ़ से पढ़ने वाला अच्छा है, पढ़ने वाले से समझने संचित कर्म को रिक्त करने को ही चारित्र कहा गया है। वाला अच्छा है, समझने वाले से चिंतन करने वाला अच्छा है,
तत्त्वार्थ की प्रतीति के अनुसार क्रिया करना चरण या पर सबसे अच्छा तो वह है जो उस पर आचरण करे।
आचरण कहलाता है। अर्थात् मन, वचन, काया से शुभकर्मों में जिसमें सदाचरण की सुगन्ध हीं है, वह साक्षर भी बेकार प्रवृत्ति करना परमचारित्र है, सम्यक क्रिया है। तात्पर्य यह है कि है, क्योंकि उसको विपरीत होने में समय नहीं लगता। साक्षरा पाप एवं सावध प्रवृत्ति का त्याग कर मोक्ष हेतु संयम में शुभ या को उल्टा कर दें तो राक्षसा बन जाता है। वही आजकल हो रहा शुद्ध जो प्रवृत्ति की जाती है, उसी का नाम चारित्र है। मर्यादापूर्वक है। आज शिक्षा का प्रचार तो बहुत है किन्तु सद्संस्कार देने मन व इंद्रियों को पापप्रवृत्ति से रोककर पुण्य परिणति रूप बाह्य वाली, सच्चरित्र बनाने वाली नैतिक शिक्षा के अभाव में शिक्षितों क्रिया महाव्रत, अणुव्रत, समिति, गुप्ति, व्रत, प्रत्याख्यान, तप, में अनपढ़ों से भी अधिक उदंडता, उच्छंखलता व अनुशासनहीनता त्याग आदि व्यवहार चारित्र है। 'चारित्तं समभावो के अनुसार देखने को मिलती है। शिक्षा के साथ नैतिकता का होना अत्यंत समभाव में स्थित होना निश्चय चारित्र है। अथवा 'स्वरूपे चरणं आवश्यक है। एक पौराणिक कहानी है
चारित्रम्।' अर्थात् स्वरूप में आत्मा के शुद्ध स्वभाव में लीन कौरव-पाण्डवों को गरु द्रोणाचार्य ने एक पाठ याद करने हाना च को कहा। पाठ था 'सत्यं वद, चर' सत्य बोलो, क्षमा करो। चारित्र दो प्रकार का कहा गया है अणगार चारित्र, आगार दूसरे दिन जब यह पाठ गुरुजी सबसे सुन रहे थे, तब सबने तो चारित्र अर्थात साधु का संयम और गृहस्थ का आंशिक संयम। पाठ सुना दिया पर युधिष्ठिर चुप रहा। गुरु ने कहा- क्या बात है? पाँच महाव्रत रूपी मुनिधर्म को अणगार चारित्र और श्रावक के तुम सबसे बड़े हो और तुमने अभी तक पाठ याद नहीं किया। बारह व्रत रूपी धर्म को आगार चारित्र कहा जाता है। अणगार दूसरे दिन भी युधिष्ठिर ने पाठ नहीं सुनाया तो गुरुजी ने उसके धर्म को सम्पूर्ण चारित्र और आगार धर्म को आंशिक चारित्र भी थप्पड़ मार दिया। कुछ दिन बाद महाराज धृतराष्ट्र पाठशाला का कहा जाता है। आगार का अर्थ गृह है, अतः अणगार का अर्थ निरीक्षण करने आए तब सबने तो पाठ सुना दिया पर युधिष्ठिर ने गहरहित मनि और आगार का अर्थ गृहस्थ होता है। आधा ही सनाया 'क्षम चर' पूछने पर बताया कि अभी मुझे यह चारित्र तेरह प्रकार का भी माना जाता है। पाँच समिति, पाठ आधा ही याद हुआ है। महाराज धृतराष्ट्र ने कहा- तुम ,
म तीन गुप्ति और पाँच महाव्रत के पालन रूप सम्यक् क्रिया को पाण्डवों में श्रेष्ठ हो, तुमसे तो हमें बहुत आशा है। युधिष्ठिर बोला,
तेरह प्रकार का चारित्र कहते हैं। निरवद्य एवं निर्दोष प्रवृत्ति को मैं मात्र पाठ को रट लेने को याद करना नहीं मानता, उसे जीवन
संयम कहते हैं। मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्तियों को में उतारने को ही याद करना मानता हूँ। थप्पड़ खाकर भी क्रोध
रोककर संसार के कारणों से आत्मा की भली प्रकार से रक्षा नहीं आया इसलिए आधा पाठ याद हुआ मानता हूँ। युधिष्ठिर
करने को गुप्ति कहते हैं। की इस बात से सब प्रभावित हुए। भविष्य में यही राजकुमार महान् सत्यवादी बना, जो धर्मराज के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
काम होने पर ही उपयोगपूर्वक चलना, किसी भी दूसरे
जीव को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो, इस प्रकार उपयोगपूर्वक चारित्र शब्द चर् धातु से बना है। चर् अर्थात् चलना, गति .
- चलने को ईर्या समिति कहते हैं। अंग्रेजों में कहावत हैकरना। आत्मा का विभाव से स्वभाव में गति करना चारित्र है।
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यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - 'Look before you leap & think before you speak'
पहले हदय तौल कर, पाछे बाहर खोल। कदम उठाने के पहले देखो और बोलने के पहले सोचे जो भी बोला जाए. वह हित. मित और सत्य हो। सत्य आवश्यक होने पर ही निर्दोष वचन बोलने को भाषा समिति होने पर भी जो अप्रिय है, कट है. उसे नहीं बोलना चाहिए। कहते हैं। ४२ दोष टालकर निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने को एषणा एक उर्द शायरने तो कहा हैसमिति कहते हैं। उपकरणों के प्रतिलेखन और प्रमार्जन में विवेक
कुदरत को नापसंद है, सख्ती जबान में। रखने को निक्षेपण समिति कहते हैं।
इसलिए दी नहीं, हड्डी जवान में। मन को अशुभ ध्यान से रोककर निरवद्य शुभ या शुद्ध
शरीर को आस्रव प्रवृत्ति से रोककर संवर में स्थिर करना तत्त्वचिंतन में लगाने को मनोगुप्ति कहते हैं। यह सबसे कठिन
कायगुप्ति है। साधक के लिए शरीर पर नियंत्रण भी आवश्यक है। इसको साध लेने पर साधना में निश्चित सफलता मिलती है।
है। साधक की भावना सदैव महाव्रतों का तीन करण तथा तीन कहा भी गया है
योग से पालन करने की होती है। गृहस्थ की भावना अपने तन से जोगी सब हुए, मन से बिरला कोय।
अणुव्रतों का दो करण तथा तीन योग से पालन करने की रहती है। जो मन से जोगी हुए, सहज ही सब सिद्ध होय॥
अर्थात् मन, वचन, काया से आस्त्रव सेवन करूँ नहीं, कराऊँ नहीं। कबीरदासजी ने भी इस विषय में ऐसा ही कहा है
चारित्र के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता। मात्र ज्ञान से कोई कबीरा मनडुं गयंद है, अंकुश दे-दे राख।
पण्डित नहीं हो सकता। कहा गया हैविष की बेला परिहरे, अमृत का फल चाख।।
पढ़े पढ़ावे चिन्तवे, व्यसनी मूरख दोय। जिह्वा को सावध और दोषपूर्ण वचन बोलने से रोकना जे जीवन में आचरे, ते जन पण्डित होय।। वचनगुप्ति है। वचनगुप्ति का संबंध जीभ से है, जिसको जीतना
तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा गया है कि 'सम्यक्दर्शनज्ञानअन्य इंद्रियों की अपेक्षा अधिक कठिन है, क्योंकि यह एक होत चारित्राणि मोक्षमार्गः।' क्रिया के बिना शक ज्ञान लँगडा है और हए भी इसके दो कार्य हैं, बोलना और खाना। जीभ को वश में जान के बिना मात्र क्रिया अन्धी है। इस विषय में एक दृष्टान्त है। करना साधक के लिए अत्यंत आवश्यक है। जीभ के वश होकर ही संयम पालन में विघ्न आते हैं। जीभ सबसे छोटा अंग
एक सेठ के घर में चोर घुस आए। सेठानी ने सेठ से कहा है पर इसको वश में करना ही सबसे कठिन है। जिन्होंने इसको
कि 'घर में चोर घुस गए हैं। सेठ बोला, 'जानता हूँ।' चोरों ने वश कर लिया उन्होंने सब वश में कर लिया ऐसा समझना
तिजोरी खोल ली तो सेठानी ने फिर कहा। सेठ फिर बोला चाहिए। अधिकांश झगड़े, मारपीट और बड़े-बड़े युद्ध भी इस
'जानता हूँ।' चोरों ने आभूषणों और नोटों की गठरी बाँध ली और जीभ पर नियंत्रण न होने से ही होते हैं। कवि रहीम जी ने ठीक ही
जाने को तैयार हो गए। सेठानी ने फिर सावधान किया कि चोर
माल ले जा रहे हैं। सेठ फिर बोला- 'जानता हूँ।' तब सेठानी को कहा है
क्रोध आ गया। वह चिल्लाकर बोलीरहिमन जिह्वा बावरी, कह गई स्वर्ग पाताल। आपहु तो कह भीतर गई, जूती खात कपाल।।
जानू जानूं कर रह्या, माल गयो अति दूर।
. सेठानी कहे सेठ से, थारे जाणपणा में धूर।। साधक को मौन रखना चाहिए। बहत आवश्यकता होने पर ही बोलना चाहिए। बक-बक नहीं करनी चाहिए। जो भी
सचमुच ऐसे जानने से कुछ भी फायदा नहीं है। अंग्रेजी में बोला जाए उसे पहले हृदय में तौल-तौलकर बोलना चाहिए। भी कहावत है किकवि कहते हैं
"No knowledge is power unless put into action" बोली-बोल अमोल है, बोल सके तो बोल।
अर्थात् जब तक ज्ञान को क्रियान्वित नहीं किया जाए,
तब तक वह सशक्त नहीं बन सकता। नीति में कहा हैDoordarshword-roword-Howard-id-id-d-Grib १ ४/brdestroGurdGibrobraibusinird-Grdrobriramidrorande
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - 'क्रियाविहीना: खरवद् वहन्ति।' अर्थात् बिना क्रिया के ज्ञान गधे कल्पवृक्षोऽस्ति वृक्षेषु श्रेष्ठः प्राणिषु मानवः। के समान बोझा ढोना है।
तद्वत् सर्वेषु लोकेषु, चारित्रमुत्तमं स्मृतम्॥ अठारह पापों में से एक मिथ्यादर्शन को छोड़कर शेष जैसे वृक्षों में कल्पवृक्ष, तथा सब प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ सत्रह पाप चारित्र से रुकते हैं। अतः बिना चारित्र के मनुष्य छत माना गया है, वैसे ही चारित्र तीनों लोगों में श्रेष्ठ है। रहित मकान जैसा है जिसमें वह आनंद से ही नहीं रह सकता।
आत्मनः शुद्धिकरणं, दोषध्वान्तनिवारकम्। आचरण की एक बूंद भी विचारों के समुद्र से अधिक कर्मधूरिहरं प्रोक्तमक्षयं सुखदायकम्।। प्रभावकारी होती है। आचरण के कण के समक्ष विचारों का मण - यह चारित्र आत्मा की शुद्धि करने वाला, दोष रूपी भी नगण्य है। चक्रवर्ती सम्राट् और देवेन्द्र भी एक मुनि का . अन्धकार को दूर करने वाला, कर्मरज को दूर करने वाला और चारित्र के कारण ही वंदन करते हैं। स्वामी विवेकानंद जब अक्षय सुख का दाता है। अमेरिका गए थे तब उनके पहनावे को देखकर लोग उन पर
चारित्र सर्वोत्तम आभूषण है, इससे बढ़कर संसार में कोई हँसते थे। किन्तु वे चारित्रवान् थे, उन्होंने कहा कि- “तुम्हारी
आभूषण नहीं हैसंस्कृति को दर्जी सीता है, जबकि हमारी संस्कृति का निर्माण चारित्र करता है।" स्वामीजी के आत्मबल और चारित्रबल का
सत्यैकभूषणा वाणी, विद्या विरतिभूषणा। उन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे स्वामीजी के भक्त बन गए।
धर्मकभूषणा मूर्तिः, लक्ष्मी सद्दानभूषणा।
सत्य का भषण वाणी, विद्या का भूषण विरति, धर्म का महात्मा गांधी जब लंदन में पढ़ते थे, तब एक पादरी उन्हें
भूषण मर्ति और लक्ष्मी का भूषण सद्दान है। ये चारों ही भषण नित्य भोजन करने घर बुलाता था। पर गांधीजी को ईसाई बनाना चाहता था। गांधी के लिए वह शाकाहारी भोजन बनाता
चारित्र महाभूषण के ही अंग हैं। था। जब पादरी के बच्चों ने गांधीजी से मांस नहीं खाने का सम्यक् चारित्र के बिना त्रिकाल में भी सद्गति संभव कारण पूछा तो गांधीजी ने उन्हें अहिंसा का महत्त्व समझाया। नहीं है। आगम में कहा गया है - गांधीजी के चारित्र का बच्चों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि बच्चों ने जहा खरो चंदनभाववाही, भारस्स भागी न तु चन्दनस्स। भी मांस खाना छोड़ दिया। फिर तो पादरी ने गांधीजी को बुलाना एवं खुणाणी चरणेण हीणओ, णाणस्स भागी न तु सग्गईए। ही बंद कर दिया।
चंदन को ढोने वाला गधा भार का ही भागीदार होता है, आचरण में बड़ी शक्ति होती है। आचरणवान् व्यक्ति चंदन का भागीदार नहीं होता। इसी प्रकार चारित्र के बिना ज्ञानी बैठा रहे, कुछ भी नहीं बोले, तो भी उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं मात्र ज्ञान का भार ढोता है, वह सुगति को प्राप्त नहीं कर सकता। रहता है। कहा गया है
चारित्र के बिना चौदहपूर्वधारी महाज्ञानी भी संसार में आचार विचार का द्योतक है, चाहे वह कुछ भी कहे नहीं। परिभ्रमण करते हैं और नरक निगोद तक में जाते हैं। घनपटल बीच रहकर भी रवि, चलने में पीछे रहे नहीं। आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है
चारित्राष्टक में एक मुनि ने चारित्र की महिमा कितने सुन्दर "चरणगुण विप्पहीणो, बुड्डइ सुबहुं पि जाणंतो।" . शब्दों में गायी है
बहुत शास्त्रों का ज्ञाता भी चारित्र के बिना संसार-समुद्र में वनेषु नन्दनः श्रेष्ठः, ब्रह्मचर्यव्रतं व्रते। निरवद्यं वचः सत्यं, तथा चारित्रमुत्तमम्॥
डूब जाता है। जैसे वनों में नन्दनवन, व्रतों में ब्रह्मचर्य, वचनों में निर्दोष ।
__ व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए चारित्र की
अत्यंत आवश्यकता है। आज संसार में जो अशान्ति, युद्ध, सत्य वचन श्रेष्ठ है, वैसे ही सभी साधनाओं में चारित्र श्रेष्ठ है।
दुःख, रोग, अनैतिकता आदि बढ़ रहे हैं, उन सबका मूल कारण
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य चारित्र का अभाव और अनैतिकता है। विश्व में सुख-शान्ति के का पाठ पढ़ाया गया होता, संसार की अधिक से अधिक भलाई लिए चारित्र पर ध्यान देना आवश्यक है। बचपन से ही बच्चों में का पाठ पढ़ाया गया होता तो वैज्ञानिकों ने अणु शक्ति का नैतिकता के गुण भरने चाहिए। रहीम जी ने चारित्र को पानी की प्रयोग विनाशक शस्त्रों के निर्माण के बजाय शान्तिपूर्ण अन्य उपमा देते हुए कहा है
निर्माणों में किया होता, फलतः आज विश्व की कितनी तरक्की रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
हो गई होती। जो अरबों-खरबों डॉलर शस्त्रनिर्माण में खर्च हो रहे पानी गए न ऊबरे, मोती मानुस चून।।।
हैं उन्हें विश्व के कल्याण के लिए खर्च किया गया होता तो कबीरदास जी ने चारित्र को गुरु की उपमा देते हुए कहा है
संसार में अपोषण और गरीबी का नामोनिशान नहीं रहता। करनी करे सो पूत हमारा, कथनी करे सो नाती।
संसार रूपी भयंकर जंगल में जहाँ पद-पद पर विषय -- रहणी रहे सो गुरु हमारा, हम रहणी के साथी॥
कषाय की धधकती ज्वालाएँ जल रही हैं, उससे सकुशल बाहर भगवान महावीर ने ज्ञान और चारित्र के विषय में एक
निकलने के लिए, मुक्तिप्राप्ति के लिए ज्ञान रूपी नेत्रों के साथ महत्त्वपूर्ण बात कही है। जब भगवान से ज्ञान और क्रिया के '
चारित्र रूपी चरणों को गति देनी होगी। यही मोक्ष का मार्ग हैविषय में पूछा गया तो प्रभु ने कहा -
शब्दों को सन्देश नहीं, अब जीवन को सन्देश बनाओ। "विन्नाणे समागमे धम्मसाहुण मिच्छिउं।"
जो बोलो सो करो स्वयं भी, जीवन की गरिमा को पाओ।।
पानी-पानी कहने से क्या, प्यास बुझी है कभी किसी की। अर्थात् धर्म की पूर्ण उपलब्धि के लिए विज्ञान और चारित्र जो पीता है ठंडा पानी, प्यास मिटी है सदा उसी की। का समन्वय आवश्यक है, क्योंकि बिना ज्ञान के जड़ क्रिया
__अत: यदि धर्म की प्यास बुझाना है तो पानी-पानी मत अंधी है और बिना क्रिया का ज्ञान शैतान है।
कहते रहिए अपितु धर्म का पवित्र ठण्डा जल पीजिए, उसे आज संसार में जो अणुबम का भय छा रहा है, उसका जीवन में उतारिए, उसे क्रियान्वित कीजिए तभी यहाँ भी सुखकारण क्या है? उसका कारण है विज्ञान का धर्म के साथ शान्ति प्राप्त होगी और भविष्य में-परभव में भी उत्तम गति की समन्वय नहीं होना। यदि वैज्ञानिकों को बचपन से ही नैतिकता प्राप्ति होगी।
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अनादि अनन्त विश्व में अनादिकाल से परिभ्रमण करने वाले संसारी जीवों के लिए संसारसागर को तैरकर मोक्ष का शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए सद्धर्म के अनेक प्रशस्त साधन हैं। उनमें सर्वोत्कृष्ट आलम्बन जिनबिम्ब और जिनागम हैं। संसार के प्रत्येक धर्म में प्रभु के दर्शन, वन्दन और पूजन को आत्मा की उन्नति का सर्वोत्कृष्ट निमित्त माना गया है। जगत् में प्रसिद्ध जैन धर्म में भी श्री जिनेश्वरदेव की अनुपम उपासना, सेवा-पूजा को आत्मोन्नति का प्रथम साधन बतलाया गया है। प्राकृतिक नियम के अनुसार विश्व के प्रणियों का विशेष आकर्षण मूर्ति - प्रतिमा की ओर देखा जाता है।
दर्शन - विशुद्धि का महान् आलम्बन जिनमूर्ति - जिनप्रतिमा है। वीतराग परमात्मा के, जिनेश्वरदेव के दर्शन - वन्दन - पूजन से ही आत्मदर्शन होता है। जैसे ज्योति से ज्योति प्रकट होती है, वैसे ही वीतराग परमात्मा के दर्शनादि से आत्मा की पहचान होती है। श्री दौलतरामजी ने कहा भी है कि
जय परम शान्त मुद्रा समेत । भवजन को निज अनुभूति हेत ।।
देवार्चन और स्नात्रपूजा
कुछ लोग कहते हैं कि पत्थर की मूर्ति अचेतन होने से कुछ भी लाभ नहीं कर सकती, तब तो यह मानना पड़ेगा कि सिनेमा, टी.वी. में जो दृश्य देखते हैं, वे कुछ भी हानि नहीं कर सकते क्योंकि वे भी अचेतन हैं। किन्तु हम देखते हैं कि वे अचेतन द्रव्य भी लोगों को कामी, विषयी, विकारी, खूनी, हिंसक, गुडे आदि बना रहे हैं, तब वीतराग प्रभु की मूर्ति भी हमें अकामी, निर्विषयी, निर्विकारी और अहिंसक क्यों नहीं बना सकेगी? कहा भी गया है
शरीर में जैसे चेतन है, नौकरी में जैसे वेतन है। 'नवल' सच मानो पत्थर में मूर्तिमन्त करुणानिकेतन है ।।
मुनिराज श्री नरेन्द्रविजयजी के शिष्य मुनिश्रीजिनेन्द्र विजयजी 'जलज'.......
आप स्वयं अपनी बुद्धि से सोचें। कागज के दो टुकड़े आपके सामने पड़े हैं। एक कोरा है और दूसरे पर सौ रुपए की सरकारी छाप लगी हुई है। अब इन दोनों में से किस कागज की कीमत अधिक है? ऐसे ही कुशल कारीगरों द्वारा निर्मित पत्थर की मूर्ति में आचार्य महाराज द्वारा अंजनशलाका प्राण-प्रतिष्ठा विधि से प्राण प्रतिष्ठित किए जाते हैं तब वह मूर्ति साक्षात् परमात्मा का दिव्य रूप धारण करती है।
धर्म फूल खिले जीवन-बाग हैं। मेरी श्रद्धा के सुमन वीतराग हैं ।। 'नवल' मूर्ति के माध्यम से
साक्षात् प्रभुदर्शन का पराग है।
परमात्मा का स्वरूप निराकार है। वे निराकार होते हुए भी आकार में ही पाए जाते हैं, क्योंकि विश्व में किसी भी प्रकार की निराकार वस्तु भी आकृति से ही उपलब्ध होती है। ऐसे ही निराकार विश्वव्यापक प्रभु परमेश्वर से मिलने के लिए, उनकी मूर्ति का दर्शन - वंदन - पूजन करने के लिए मंदिर में जाना होता है। क्योंकि
आकृति - आकार बिना निराकार नहीं । और मूर्ति प्रतिमा बिना प्रभु परमात्मा नहीं ||
पूजा शब्द पूज् धातु से बना है, जिसका पूजन के अर्थ में प्रयोग होता है। अर्थात् मन से, वचन से और काया से फूल - फल, धूप, दीप, गन्ध, जल, अक्षत, नैवेद्य इत्यादि सामग्री द्वारा इष्टदेव की प्रतिमा का जो विशेष सत्कार कियाजाता है, उसी का नाम पूजा है
प्रतिमा पूजो प्रेम से है परमेश्वर रूप । 'नवल' पूजता पूज्य को, जागे परम स्वरूप ॥
श्री वीतराग प्रभु की मूर्ति की श्रद्धायुक्त भक्ति-भाव से अष्टप्रकारी आदि पूजा की जाती है, वही जिनमूर्तिपूजा है। विशेष सत्कार करने को ही मूर्तिपूजा कहते हैं। भक्त का तो यही लक्ष्य रहता है कि इन वीतराग प्रभु की मूर्ति द्वारा ही मैं वीतराग प्रभु के
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य वास्तविक स्वरूप का वंदन, पूजन, दर्शन, ध्यान तथा चिंतन करूँ। क्योंकि संसारी आत्मा पुद्गल के विषय में आसक्त होकर वीतराग प्रभु के प्रति अनुपम आत्मश्रद्धा, स्नेह, प्रेम और भक्ति, कर्मबंधन करता है। इसलिए वह कर्मसहित है और परमात्मा सद्धर्म पर दृढ़ श्रद्धा और पूर्ण विश्वास तथा ईश्वत्व के विषय में कर्मरहित विशुद्ध स्वरूप परमेश्वर है। परमात्मा और आत्मा में
अस्तित्व बुद्धि रखना ही उनका मुख्य ध्येय रहता है। अत: यह यही अन्तर है। आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए परमात्मा की सिद्ध है कि विश्व में सदाचार शान्ति, सुख और समृद्धि का उपासना-अर्चना-सेवा-भक्ति परम अवलम्बनभूत व हितकारी कारण मूर्तिपूजा ही है।
है। सेवा-भक्ति का यह उद्देश्य नहीं है कि उनसे हम किसी प्रकार जब परमेश्वर और उनके गण भी निराकार हैं तो उनको के सांसारिक सुखों की याचना करें। उनके दर्शन और पूजन चर्मचक्षु वाले प्राणी कैसे देख सकेंगे? और उनकी उपासना
आदि का उद्देश्य तो उनके गुणों का कीर्तन, स्मरण, ध्यान आदि आदि भी कैसे कर सकेंगे? इसलिए चर्मचक्ष वाले को साकार करना ही है। अर्थात् आत्मा में शुद्ध परमात्मस्वरूप का ध्यान इन्द्रियगोचर दृश्य वस्तु की ही आवश्यकता रहती है। विश्व में करना स्मरण करना। ऐसा सर्वोत्तम साधन शुक्लध्यानावस्थित और प्रशान्त मुद्रा धर्माराधन में सद्देव, सद्गुरु और सद्धर्म का आलंबन
की मनोहर मूर्तिप्रतिमा से बढ़कर परम आवश्यक है। इनको तत्त्वत्रय कहा गया है। सदेव के दर्शन, अन्य कोई भी नहीं है। चाहे वह मूर्ति पाषाण की हो, काष्ठ की हो, पूजन, वंदन से आत्मा को सम्यक्त्व का लाभ प्राप्त होता है। रत्न की हो, सोने-चाँदी की हो, सर्वधातु की हो, मिट्टी की हो,
उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः। बालू-रेत की हो, या किसी अन्य पदार्थ की ही क्यों न हो,
मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे॥ उपासना का लक्ष्य तो उस मूर्ति द्वारा श्री वीतराग परमात्मा के
जिनेश्वर भगवान की पजा करने से उपसर्ग नष्ट होते हैं. विनों सच्चे स्वरूप का चिंतन, ध्यान करना ही रहता है
का नाश होता है और मन प्रसन्न होता है। कहा भी कहा हैजिनदर्शन निश-दिन करो, निज-दर्शन के काज।
पूज्यपूजा दया दानं, तीर्थयात्रा जपस्तपः। 'नवल' सुगुण सर्जन करो, चढ़ो बढ़ो गुण साज॥
श्रुतं परोपकारं च, मर्त्यजन्मफलाष्टकम्॥ भारत में ही नहीं अन्य देशों में भी मूर्तिपूजा का प्रचार था,
जिनेश्वर भगवान की पूजा, दया, दान, तीर्थयात्रा, जप, ऐसे ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं। चौदहवीं शताब्दी तक जर्मनी
तप, श्रुत और परोपकार मनुष्यलोक में जन्म लेने के ये आठ आदि में भी मूर्तिपूजा का काफी प्रचार था। उस समय उन
फल हैं। प्रदेशों में जैनमंदिर भी विद्यमान थे, जिनके विनाश के अवशेष अनुसंधान करने पर आज भी मिल रहे हैं। आस्ट्रेलिया में श्रमण
दर्शनाद् दुरितध्वंसी, वन्दनात् वांछितप्रदः। भगवान महावीर की मूर्ति, अमेरिका में ताम्रमय श्री सिद्धचक्र
पूजनात् पूजकः श्रीणां, जिनः साक्षात् सुरद्रुमः॥ का गट्टा और मंगोलिया प्रान्त में अनेक भग्न मूर्तियों के अवशेष __ जिनेश्वर भगवान के दर्शन करने से सब पाप नष्ट होते हैं, मिले हैं। पुरातन काल में मक्का-मदीना में भी जैन मंदिर थे, वन्दन से वांछित फल की प्राप्ति होती है, पूजन करने से पूजा किन्तु जब वहाँ पूजा करने वाले कोई जैन नहीं रहे तब वे मूर्तियाँ करने वाले को लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, अत: जिनेश्वर भगवान भारत देश में सुप्रसिद्ध मधुमति (महुआ बंदर) में लाई गईं। तो साक्षात् कल्पवृक्ष ही हैं।
सर्वज्ञ विभु श्री जिनेश्वर तीर्थंकर भगवन्त-भाषित जैन सिद्धान्त अनादिकाल से विश्व में जड़ और चेतन ये दो पदार्थ आगम-शास्त्रों का यह कथन है कि इस विश्व में प्रत्येक आत्मा विशेष प्रसिद्ध हैं। संसार की समस्त अवस्थाओं में जीवात्मा का सत्ता या निश्चय नय से परमात्म स्वरूप है। लेकिन संसारी आत्मा कार्य रूपी मूर्त पदार्थों को स्वीकार किए बिना नहीं चल सकता। की यह परिस्थिति ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के अधीन है। प्रत्येक चेतन व्यक्ति को जड़ वस्तु का आलम्बन लेना ही पड़ता सिद्धां जैसो जीव है,जीव सोही सिद्ध होय।
है, जैसे काल अरूपी है, किन्तु उसे जानने के लिए घड़ी रूपी कर्म मैल को आंतरा, बूझे बिरला कोय।।
यंत्र की आकृति को मानना ही पड़ता है। Awarendro-do-Gersio-dibarbaaudardward-submirsional Hindirdiomarmonioudioramiomarsidarbediodosiasioner
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य मूर्तिपूजा का सर्वप्रथम विरोध करने वाले मुस्लिम धर्म से सीखी जाती हैं। कुव्यसनों की ट्रेनिंग आधुनिक चलचित्रों से .. के संस्थापक हजरत मुहम्मद सा. थे, किन्तु उनके अनुयायी ही ली जा रही है, आज के छोटे-छोटे बच्चों में वह वृद्धि पा रही अपनी मस्जिदों में पीरों की कब्र बनाकर उन्हें पुष्प, धूप आदि । है। हिंसा, स्वेच्छाचार, कामुकता आदि भावनाएँ टेलीविजन से पूजते हैं। मोहर्रम के दिनों में ताजिये बनाकर रोना-पीटना और सिनेमा की ही देन हैं। जब चलचित्रों का ऐसा प्रभाव पड़ करते हैं और यात्रा के लिए अपने धर्मतीर्थ मक्का-मदीना जाते सकता है तब देवाधिदेव वीतराग प्रभु की मूर्ति के दर्शन आदि हैं। मूर्तिपूजा को नहीं मानने वाले ईसाई भी सूली पर लटकती से और उनकी विधिपूर्वक की गई पूजा भक्ति एवं उपासना हुई ईसा-मसीह की मूर्ति और क्रास अपने गिरजाघरों में स्थापित आदि से हम पवित्र नहीं बन सकते क्या? कर्मों का क्षय नहीं कर कर उन्हें पूज्य भाव से देखते हैं। पारसी अग्नि को देवता मानते सकते क्या? परमात्मतत्त्व की प्राप्ति नहीं कर सकते क्या? हैं और सूर्यदेव की भी पूजा करते हैं, यह मूर्तिपूजा का ही अवश्य कर सकते हैं, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। परिवर्तित रूप है। बौद्ध धर्म के मठ स्थान-स्थान पर देश- मर्ति को मात्र पत्थर मानने वालों का यह कहना कि विदेश में विद्यमान है। इस धर्म के अनुयायी भी अपने मठी में 'यह पत्थर की मर्ति हमें क्या देगी?' भारी भल है। एक प्रभगौतम बद्ध की मर्ति रखते हैं। आज भी गौतम बुद्ध की अनक भारत ने कहा है प्राचीन मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। इससे सिद्ध होता है कि बौद्धमत में भी मूर्तिपूजा श्रद्धा का केन्द्र है। सिक्ख अपने को मूर्तिपूजा का
पत्थर भी सुन लेता है, विरोधी कहते हुए भी गुरुग्रन्थ साहब की पूजा करते हैं तथा पुष्प
इसलिए हम पत्थर को पूजते हैं। एवं अगरबत्ती भी चढ़ाते हैं। कबीर, नानक, रामचरण आदि
जिसके दिल में है पत्थर, मूर्तिपूजा-विरोधियों के अनुयायी भी अपने-अपने पूज्य पुरुषों
उसे पत्थर ही सूझते हैं। की समाधियाँ बनाकर उनकी पूजा करते हैं। स्थानकवासी वर्ग वे यह भूल जाते हैं कि जब माता-पिता के चित्र को भी अपने पूज्य पुरुषों की समाधि, चरण पादुका, फोटो इत्यादि देखकर तत्काल उनकी याद आ जाती है, तब भगवान की प्राणबनाकर उनकी उपासना करते हैं। विश्व में कोई भी धर्म, मत, प्रतिष्ठित मूर्ति को देखकर भगवान की याद क्यों नहीं आएगी? पन्थ, सम्प्रदाय, समाज, जाति तथा व्यक्ति मूर्तिपूजा से अलग अवश्य ही आएगी और उनके गण भी अवश्य याद आयेंगे। नहीं रह सकता।
वीतराग परमात्मा की उपासना वीतराग प्रभु को प्रसन्न इसलिए मूर्तिपूजा आत्मकल्याण का एक महान् साधन करने के लिए नहीं, अपितु अपनी आत्मा को निर्मल बनाने के है। संसारत्यागी साधु-साध्वियों के लिए भी श्री अरिहन्त परमात्मा लिए की जाती है। 'चउवीसं पि जिनवरा तित्थयरा मे पसीयंतु' की भावपूजा प्रतिदिन करना अत्यंत आवश्यक है तथा श्रावक- कहकर अन्त में 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' से सिद्ध पद की, मोक्ष
पजा और भावपजा दोनों निरंतर करनी चाहिए। की माँग की जाती है। अनादिकाल से आत्मा के साथ लगे हुए प्रायः यह देखा जाता है कि शत्र के चित्र को देखकर राग-द्वेष आदि कर्मों को दूर करने के लिए वीतराग परमात्मा की आत्मा में क्रोध आ जाता है और मित्र के चित्र को देखकर प्रेम मूर्ति का आलंबन लेना परमावश्यक है। पैदा हो जाता है, धार्मिक चित्र देखने से धर्म-भावना बढ़ती है यूँ तो विश्व में अनेक मूर्तियाँ हैं, किन्तु वीतराग प्रभु
और स्त्रियों के शृंगारिक चित्र देखने से कामवासना बढ़ती है। देवाधिदेव जिनेश्वर भगवान की मूर्तियों की विशिष्टता सबसे · जब चित्रों का भी ऐसा प्रभाव है तो मर्तियों का क्यों नहीं होगा? अलग है। जिनकी अंजनशलाका अर्थात् प्राण-प्रतिष्ठा जैन-मंत्रों सिनेमा के पर्दे पर चित्रों को आप जीवित व्यक्ति की दृष्टि ।
एवं विधि-विधानपूर्वक हुई हो, ऐसी जिनमूर्ति देखते ही अन्तःकरण से ही तो देखते हैं। वे चित्र जड़ होते हुए भी आपके हृदय पर
में वीतराग भाव की उत्पत्ति होती है। इसके आलंबन द्वारा जीवित-तुल्य प्रभाव डालते हैं, तब प्राण-प्रतिष्ठित की हुई मूर्ति
आत्मा परमात्मा बनता है और मोक्ष के शाश्वत सख को प्राप्त वैसा क्यों नहीं कर सकती? संसार की बहुत सी बातें चलचित्रों।
करता है।
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ प्रभु की मूर्ति के दर्शन-पूजन से संसारी आत्मा की पापवासना मन्द होती है और विषयकषाय का वेग कम होता है। उनके पूजन से सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की श्रद्धा स्थिर रहती है तथा चित्त को शांति मिलती है। शारीरिक रोगादि कारणों से प्रभु की पूजा न हो सके तो भी भावना प्रभु- पूजा की रहती है। ऐसी परिस्थिति में कभी मृत्यु भी हो जाए तो भी आत्मा की शुभ गति होती है।
वीतराग प्रभु श्री जिनेश्वरदेव की भव्य मूर्ति के दर्शनपूजन के समय विषय-विकार आदि को त्यागना होगा है, अर्थात् ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है, यह भी शीलधर्म का एक प्रकार है। मूर्ति के दर्शन-पूजन के समय अन्न-पान - खाद्य-स्वाद्य आदि चारों प्रकार के आहार का त्याग करना होता है, अतः यह भी एक प्रकार का तप है। दर्शन-पूजन के समय वीतराग प्रभु की स्तुतिस्तवन आदि द्वारा गुणगान करने से भावना की शुद्धि होती है।
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मूर्ति और मंदिर के निर्माण में भारतीय शिल्पकला को अत्यन्त ही पोषण मिला है और आज भी मिल रहा है। मन्दिरनिर्माण में लगाया हुआ धन धर्मदृष्टि से आत्मा को परमात्मा की ओर ले जाता है और व्यवहार दृष्टि से शिल्पकला के रूप में आपके शुभ्र यश को विश्व में स्थायित्व प्रदान करता है ।
जिनदर्शन एवं पूजन के समय वीतराग श्री अरिहन्त परमात्मा तथा श्री सिद्ध भगवान के गुणों का स्मरण करने से क्रमशः दर्शनमोहनीय और चरित्रमोहनीय कर्मों का क्षय होता है। जीवदया
शुभ भावना से वेदनीय कर्म का क्षय होता है, शुभ अध्यवसाय की तीव्रता से आयुष्य-कर्म का क्षय होता है, नामस्मरण से नामकर्म का क्षय होता है, वंदन-पूजन से गोत्र-कर्म का क्षय होता है, भावपूर्वक दर्शन करने से दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होता है, तन-मन-धन की शक्ति और समय का सदुपयोग करने से अन्तराय - कर्म का क्षय होता है। इस प्रकार जिनदर्शन एवं जिनपूजन आठों कर्मों के क्षय करने का एक श्रेष्ठतम और सरलतम अनुपम साधन है। इसको अपनाने से पुण्य का बंध, आंशिक या सर्व कर्म की निर्जरा तथा अन्त में आत्मा को शाश्वत सुख रूप मोक्ष की प्राप्ति पर्यन्त समस्त कार्य एक साथ सिद्ध होते हैं।
जैसे संसार में विद्याध्ययन के लिए विद्यालय, चिकित्सा के लिए चिकित्सालय तथा ज्ञानार्जन के लिए पुस्तकालय की आवश्यकता है, वैसे ही जिनेश्वरदेव के वंदन पूजन-दर्शन-के लिए जिनालयों की भी अत्यंत आवश्यकता है। आत्मा के
जैन आगम एवं साहित्य
आत्मकल्याण के कार्य में जिनमंदिर, जैन उपाश्रय, जैन तीर्थस्थल देवालय इत्यादि श्रेष्ठ साधन हैं।
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श्री जिनमंदिर संसार के त्रिविध ताप आधि-व्याधि, उपाधि से संतप्त आत्माओं के लिए विश्रामालय या आश्रयस्थान हैं।
आचार्य भगवन्त श्रीमहरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने कहा
२०
चैत्यवन्दनतः सम्यक् शुभो भावः प्रजायते । तस्मात् कर्मक्षयः सर्वस्तत् कल्याणमश्नुते ॥
चैत्य अर्थात् जिनमूर्ति की सम्यक् प्रकार से वंदना करने प्रकृष्ट शुभ भाव पैदा होते हैं। शुभ भावों से समस्त कर्मों का क्षय होता है, पश्चात् पूर्ण कल्याण की प्राप्ति होती है। "अर्हतां प्रतिमाः प्रशस्तसमाधिचित्तोत्पादकत्वात् चैतन्यानि भण्यन्ते।”
चित्त अर्थात् अन्तःकरण का भाव या अन्त:करण की क्रिया, उसका नाम चैत्य है। श्री अरिहन्तों की मूर्ति प्रतिमाएँ अन्तःकरण की प्रशस्त समाधि को उत्पन्न करने वाली होने से चैत्य कहलाती हैं।
मूर्तिपूजा के शास्त्र - सम्मत होने के कई प्रमाण उपलब्ध हैं। श्री उववाई सूत्र में 'बहवे महंत चेइयाई' पाठ आता है। वहाँ पर भी बहुत सी अरिहन्त भन की मूर्तियाँ और मंदिर ऐसा अर्थ किया गया है। व्यवहार सूत्र की चूलिका में श्री भद्रबाहु स्वामीजी ने 'द्रव्यलिंगी चैत्य स्थापना करने लग जाएंगे' ऐसा कहा है। वहाँ पर भी मूर्ति की स्थापना करने लग जाएंगे ऐसा अर्थ किया गया है। श्री आवश्यक सूत्र के पाँचवें कायोत्सर्ग नामक अध्ययन में 'अरिहंत चेइयाणं' शब्द का अर्थ जिनप्रतिमा किया है। भगवती सूत्र में निम्न पाठ है
" नन्नत्थ अरिहंते वा अरिहंत चेइयाणि वा भावी अप्पणो अणगारस्स वाणिस्साव उङ्कं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो । "
असुरकुमार देव सौधर्म देवलोक में जाने तक तीन की शरण लेते हैं- अरिहंत भगवान की, चैत्य यानी जिन प्रतिमा की और साधु की।
जिनमूर्ति क्या-क्या करती है? इसका वर्णन एक भक्त अपनी प्रार्थना में करता है, हे प्रभो! आपकी मूर्ति मोह रूपी दावानल को शान्त करने के लिए मेघवृष्टि के समान है। आपकी
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - प्रतिमा समता-प्रवाह की प्रदाता पवित्र सरिता के सदृश है। हे का उच्च भाव पत्थर इत्यादि की मूर्ति में भी परमात्मा का दर्शन प्रभो! आपकी प्रतिमा भव्य जीवों को संयम द्वारा मोक्षनगर में कराता है। इससे उसको अपूर्व लाभ होता है। आत्मिक विकास ले जाने वाला अंतरिक्षयान है। हे प्रभो! आपकी मूर्ति आराधक का सारा आधार अन्तःकरण के शुभ भाव पर है और प्रशस्त आत्मा के कर्मों की निर्जरा करती है। चैत्यवंदन और स्तुति- आलम्बन के बिना शुभ भाव प्रकट नहीं हो सकते। स्तवन आराधक आत्मा के ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय करते हैं।
. देवाधिदेव श्री जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा के अनुपम आपकी मूर्ति के समक्ष श्री अरिहन्त एवं श्री सिद्ध भगवान के गुणों का स्मरण मात्र करने से आराधक के दर्शन-मोहनीय और
दर्शन-अर्चन आदि से दर्शनविशुद्धि अवश्य होती है। साथ ही चारित्र-मोहनीय कर्मों का क्षय होता है। आपकी मूर्ति राग-द्वेष
साथ उनके गुणों का चिंतन-मनन भी आसानी से होता है। रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाली है। हे प्रभो! आपकी
आत्मा साकार उपासना द्वारा ही निराकार उपासना की अधिकारिणी मर्ति क. भावपूर्वक दर्शन-पूजन करने वाले भव्य जीवों को होती है। अर्थात् आत्मा सगुण उपासना के आलंबन से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
निर्गुण-उपासना की उत्तम भूमिका तक पहुँचती है। अपने इष्टदेव अशुभ आलम्बन से आत्मा के भावों में अशद्धता आती है।
देवाधिदेव जिनेश्वर परमात्मा की मूर्ति का दर्शन-वंदन और पूजन और शुभ आलम्बन से शुद्धता आती है। इसीलिए जहाँ साधु
करना ही सगुण उपासना है। यूँ करते-करते ही अन्त में आत्मा
अपने वास्तविक स्वरूप में लवलीन होती है। जिस समय ध्याता, महाराज ठहरते हैं, उस स्थान पर कामवासना-उत्तेजक कोई स्त्री का चित्र भी हो तो वहाँ साधु को नहीं ठहरना चाहिए, ऐसा
ध्येय और ध्यान ये तीनों एकरूप हो जाते हैं, ध्याता अपनी
आत्मा है, ध्यान परमात्मा का स्वरूप और ध्येय परमात्मपद दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है
मोक्षपद प्राप्त करना है। अर्थात् ध्याता, ध्येय और ध्यान इन चित्तभित्तं न णिज्जाए नारिं वा सुअलंकि।
तीनों का एकाकार हो जाना ही मोक्षपद की प्राप्ति है। भक्खरमिव दट्ठणं दिट्टि पडिसमाहरे।।
आचार्य श्रीमद रत्नशेखर सूरीश्वरजी महाराज विरचित सिरि जहाँ दीवार पर भी सुअलंकृत स्त्री का चित्र हो, वहाँ साधु
सिरिवाल कहा (श्री श्रीपाल-कथा) में कहा गया है कि "उज्जैन को नहीं ठहरना चाहिए। यदि उस चित्र पर दृष्टि पड़ भी जाए तो
नगरी में श्री केसरियानाथ (श्री ऋषभदेव) की मूर्ति के सम्मुख दृष्टि को तुरंत दूसरी तरफ घुमा लेना चाहिए जैसे दोपहर के
श्री सिद्धचक्र यन्त्र के स्नात्रजल (प्रक्षालन जल)से श्रीपाल राजा समय चमचमाते सूर्य की तरफ दृष्टि जाते ही उसे घुमा लेते हैं।
तथा सात सौ कोढ़ियों का अठारह प्रकार का कोढ़रोग सर्वथा ____ दशवैकालिक सूत्र की इस गाथा का लोकभाषा में अनुवाद दूर हो गया और इन सभी के शरीर कंचन के समान शुद्ध हो करने वाले महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने अपने गए।" श्री केसरियानाथजी की यही प्राचीन भव्य मूर्ति आज भी स्तवन में कहा है -
उदयपुर के निकट श्री केसरियाजी तीर्थ में विद्यमान है। दशवैकालिक दूषण दाख्यं, नारी चित्र ने ठामे।
जब श्रीकृष्ण और जरासंध का युद्ध हुआ तब जरासंध ने तो किम जिन प्रतिमा देखी ने, गुण नवी होय परिणामे॥ कृष्ण की सेना पर जरा विद्या का प्रयोग किया जिससे कृष्ण की
दीवार पर सुअलंकृत सुशोभित नारी का चित्र देखना भी सारी सेना वृद्ध हो गई तब श्री नेमिकुमार की प्रेरणा से श्रीकृष्ण ने जब दोष उत्पन्न कर सकता है, जब जिनप्रतिमा को देखकर गुण तेले का तप किया। तेले के प्रभाव से धरणेंद्र ने आकर श्री उत्पन्न क्यों नहीं हो सकते? जब अश्लील चित्र आदि से मन के पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति दी, जिसे पूर्व चौबीसी के समय परिणाम अशुभ हो सकते हैं, तब वीतराग परमात्मा की मूर्ति के दामोदर तीर्थंकर के श्रावक आषाढ़ी ने बनवाया था। इस मूर्ति दर्शन, वंदन एवं पूजन से शुभ भाव क्यों नहीं उत्पन्न हो सकते? के स्नात्रजल से जरासंध की जराविद्या दूर हो गई और संग्राम में कहना ही पड़ेगा कि शुभ आलंबन-निमित्त से शुभ भाव अवश्य कृष्ण की विजय हुई। तब हर्ष विभोर होकर वासुदेव कृष्ण ने प्रकट हो सकते हैं। इसमें थोड़ा भी संदेह नहीं है। मूर्ति भले ही अपने मुख से अपना शंख बजाया और तभी से यह जिनमूर्ति श्री पत्थर की हो या अन्य धातु की हो, किन्तु अपने अन्तःकरण शंखेश्वर पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुई।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य आवश्यक नियुक्ति नामक ग्रन्थ में जिनमूर्ति के भावपूर्वक वीतराग प्रभु की द्रव्यपूजा और भावपूजा करने से भवभ्रमण दर्शन करने के संबंध में कहा गया है कि श्रमण भगवान महावीर सर्वथा दूर होता है, इसके समर्थन में चौदह पूर्वधर श्री भद्रबाहु प्रभु ने गौतमस्वामी महाराज की शंका का निवारण करने के स्वामीजी महाराज ने श्री आवश्यक निर्यक्ति में कहा हैलिए कहा कि "जो भव्यात्मा अपनी आत्मलब्धि से श्री अष्टापद
अकसिणपवत्तमाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। तीर्थ पर चढ़कर श्री भरत चक्रवर्ती द्वारा बनवाई गई और वहाँ
संसारपयणु करणे, दव्वत्थए कूवदिढतो।। स्थापित की हुई जिनमूर्तियों का भावोल्लासपूर्वक दर्शन करेगा, वह इसी भव में अवश्य मोक्ष पायेगा। यह सुनकर इस बात का
... जैसा कुआ खोदते समय तो बहुत परिश्रम होता है और निर्णय करने के लिए गौतम स्वामी गणधर स्वयं स्वात्मलब्धि बहुत प्य
बहुत प्यास लगती है, किन्तु कुए में पानी निकल जाने पर सदैव द्वारा अष्टापद तीर्थ पर चढ़े तथा वे 'जग चिन्तामणि' नूतन रचना
के लिए प्यास बुझाने का प्रबंध हो जाना है, वैसे ही भगवान की द्वारा जिनेश्वर देवों की चैत्यवन्दना करके और यात्रा करके उसी द्रव्यपूजा से भवभ्रमण समाप्त हो जाता है और मोक्षसुख की भव में सकल कर्मों का क्षय करके मुक्त हो गए।
प्यास भी शान्त हो जाती है। स्नात्रपूजा श्री जिनेश्वरदेव का अभिषेक है। तीर्थंकरों के पाँचों जिनमर्तिपजा महान फलदायक शभ क्रिया है। सपात्रदान. कल्याणक इन्द्रादि देव मेरु पर्वत पर स्नात्रपजा से (जिनेश्वर के स्वामिवात्सल्य और धर्मस्थान के निर्माण, जिनप्रतिमा-पूजन अभिषेक द्वारा) करते हैं। स्नात्रपूजा से विचारों की शुद्धि होती है। इत्यादि शुभ प्रवृत्तियों में आरम्भ-समारम्भ का सामान्य दोष श्री सूत्रकृतांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध में छठे अध्ययन
होने पर भी आत्मा के अध्यवसाय शुभ रहते हैं। अत: वहाँ की वृत्ति-टीका में कहा गया है कि मगध देश के सम्राट् श्रेणिक
पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है, साथ ही कर्मनिर्जरा का भी महाराज के सुपुत्र श्री अभयकुमार मंत्री द्वारा भेजी गई श्री ऋषभदेव
जो जीव को अपूर्व लाभ मिलता है। भगवान की मूर्ति के दर्शन से ही अनार्यदेश में उत्पन्न हुए श्री 'श्री जिनेश्वर भगवान की यथाशक्ति सेवा-भक्ति करना आर्द्रकुमार ने जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त किया और वे आर्य देश में मेरा परम कर्तव्य है प्रभु की प्रशान्त मुद्रा को देखकर ऐसी शुभ आकर वैराग्य दशा में लीन हुए।
भावना अन्तःकरण में उत्पन्न होती है कि जैसे मेरू पर्वत पर ले कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद हेमचंद्र सरीश्वरजी महाराज ने जाकर इन्द्र आदि ने प्रभु का अभिषेक किया, स्नात्रपूजा की, योगशास्त्र में कहा है कि श्री श्रेणिक महाराज ने श्री जिनेश्वर देव वैसे ही मैं भी उत्तम अभिषेक इत्यादि का अनुपम लाभ लेकर की प्रतिमा की सम्यक् आराधना से तीर्थंकर गोत्र बाँधा था। भगवान की स्नात्रपूजा करूँ, अष्टप्रकारी पूजा करूँ।
श्री आवश्यक वृत्ति में ऐसा वर्णन है कि श्री जिनेश्वर कुछ लोग यह शंका करते हैं कि जल, चंदन, पुष्प, धूप, भगवान की स्नात्रपूजा पुण्य का अनुबंध कराने वाली होती है दीप, फल इत्यादि से प्रभु की पूजा करने में हिंसा है, क्योंकि ये तथा निर्जरा रूप फल भी देने वाली होती है।
सब सचित्त द्रव्य हैं। हिंसा में धर्म नहीं हो सकता, इसलिए परुषादानीय श्री स्थंभन पार्श्वनाथ भगवान की भव्य मति मूतिपूजा का अचत नहीं कहा जा सकता। के स्नात्र जल (प्रक्षाल-जल) से नवांगी टीकाकार श्री अभयदेव इसका समाधान यह है कि संसारी प्राणियों को इस प्रकार सूरीश्वरजी महाराज का गलण कोढ़ का रोग दूर हो गया। की हिंसा तो कदम-कदम पर लगती है, इसीलिए ज्ञानी महापुरुषों
राजा भोज ने चमत्कार की दृष्टि से जैनाचार्य श्रीमान तंगाचार्य ने कहा है कि विषय और कषाय आदि की प्रवृत्ति करते हए सूरीश्वरजी महाराज के शरीर पर लोहे की ४४ बेडियाँ डालीं। श्री अन्य जीवों को दुःखहानि हो, उसी को हिंसा कहते हैं। हिंसा दो भक्तामर स्तोत्र के ४४ श्लोकों की रचना द्वारा भगवान आदिनाथ
प्रकार की है। द्रव्यहिंसा और भावहिंसा, द्रव्यहिंसा में होने वाली की स्तति और उदघोषणा से बेडियाँ ट गई जिससे जिनशासन स्थावर जीवों की हिंसा को भावहिंसा नहीं कह सकते, क्योंकि की प्रभावना में अनुपम वृद्धि हई। इस भक्तामर स्तोत्र में बिम्ब भगवान की पूजा से आत्मगुणों की वृद्धि रूप भावदया होती है. शब्द का बहुप्रयोग है।
और भावदया को तो मोक्ष का कारण कहा गया है।
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यतीन्द्रसूरि स्मारक सत्य जैन आगम एवं साहित्य
जिनप्रतिमा की स्नात्र प्रक्षालन पूजा भी जन्म दीक्षानिर्वाण कल्याणकों के निमित्त ही कराई जाती है, क्योंकि जिनेश्वर भगवान को जल से ही स्नान कराने का विधान है। आगमों में भी इस बात का स्पष्ट उल्लेख है। नियमानुसार जल को छानकर, उस
सीमित जल में दूध इत्यादि द्रव्यों को मिलाकर पंचामृत बना लेने से वह अचित्त हो जाता है। उस पंचामृत से जिन मूर्ति को स्नान कराने के बाद थोड़े से सादे जल से स्नान कराकर स्वच्छ वस्त्र से पौंछकर मूर्ति को एकदम निर्मल किया जाता है।
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आगमिक चूर्णियाँ और चूर्णिकार
डॉ. मोहनलाल मेहता.....)
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___ आगमों की प्राचीनतम पद्यात्मक व्याख्याएँ नियुक्तियों है। इससे यह सिद्ध होता है कि आवश्यकचूर्णि दशवैकालिक और भाष्यों के रूप में प्रसिद्ध हैं। वे सब प्राकृत में हैं। जैनाचार्य चूर्णि से पूर्व की रचना है। उत्तराध्ययनचूर्णि में दशवैकालिकचूर्णि इन पद्यात्मक व्याख्याओं से ही संतष्ट होने वाले न थे। उन्हें उसी का निर्देश है जिससे प्रकट होता है कि दशवैकालिकचर्णि स्तर की गद्यात्मक व्याख्याओं की भी आवश्यकता प्रतीत हई। इस उत्तराध्ययनचूर्णि के पहले लिखी गई है। अनयोगद्वारचर्णि में आवश्यकता की पर्ति के रूप में जैन-आगमों पर प्राकत अथवा नंदीचूर्णि का उल्लेख किया गया है ससे सिद्ध होता है कि संस्कृतिमिश्रित प्राकृत में जो व्याख्याएँ लिखी गई हैं. वे चर्णियों के नंदीचूर्णि की रचना अनुयोगद्वारचूर्णि के पूर्व हुई है। इन उल्लेखों रूप में प्रसिद्ध हैं। आगमेतर साहित्य पर भी कुछ चूर्णियाँ लिखी गई
को देखते हुए श्री आनन्दसागर सूरि के मत का समर्थन करना हैं, किन्तु वे आगमों की चूर्णियों की तुलना में बहुत कम हैं।
अनुचित नहीं है। हाँ, उपर्युक्त रचनाक्रम में अनुयोगद्वारचूर्णि के उदाहरण के लिए कर्मप्रकृति, शतक आदि की चूर्णियाँ उपलब्ध है।
बाद तथा आवश्यकचूर्णि के पहले ओघनियुक्तिचूर्णि का भी समावेश
कर लेना चाहिए, क्योंकि आवश्यकचूर्णि में ओधनियुक्तिचूर्णि का चूर्णियाँ
उल्लेख है, जो आवश्यकर्णि के पूर्व की रचना है। निम्नांकित आगम ग्रंथों पर आचार्यों ने चूर्णियाँ लिखी हैं- भाषा की दृष्टि से नन्दीचूर्णि मुख्यतया प्राकृत में है। इसमें १. आचारांग, २. सूतकृत्रांग, ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ४. संस्कृत का बहुत कम प्रयोग किया गया है। अनुयो जीवाभिगम, ५. निशीथ, ६. महानिशीथ, ७. व्यवहार, ८. मुख्य रूप से प्राकृत में ही है, जिसमें यत्र-तत्र संस्कृत के श्लोक दशाश्रुतस्कन्ध, ९. बृहत्कल्प, १०. पंचकल्प, ११. ओधनियुक्ति, और गद्यांश उद्धृत किए गए हैं। जिनदासकृत दशवैकालिकचूर्णि १२. जीतकल्प, १३. उत्तराध्ययन, १४. आवश्यक, १५. की भाषा मुख्यतया प्राकृत है, जबकि अगस्त्यसिंहकृत दशवैकालिक, १६. नंदी, १७. अनुयोगद्वार, १८. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति। दशवैकालिकचूर्णि प्राकृत में ही है। उत्तराध्यनचूर्णि संस्कृतमिश्रित निशीथ और जीतकल्प पर दो-दो चूर्णियाँ लिखी गईं, किन्तु प्राकृत में है। इसमें अनेक स्थानों पर संस्कृत के श्लोक उद्धृत वर्तमान में एक-एक ही उपलब्ध है। अनुयोगद्वार, बृहत्कल्प किए गए हैं। आचारांगचूर्णि प्राकृत-प्रधान है, जिसमें यत्र-तत्र एवं दशवैकालिक पर भी दो-दो चूर्णियाँ हैं।
संस्कृत के श्लोक भी उद्धृत किए गए हैं। सूत्रकृतांगचूर्णि की चूर्णियों की रचना का क्या क्रम है, इस विषय में निश्चितरूप
भाषा एवं शैली आचारांगचूर्णि के ही समान है। इसमें संस्कृत का से कुछ नहीं कहा जा सकता। चूर्णियों में उल्लिखित एक-दूसरे
प्रयोग अन्य चूर्णियों की अपेक्षा अधिक मात्रा में हुआ है। के नाम के आधार पर क्रम-निर्धारण का प्रयत्न किया जा
जीतकल्पचूर्णि में प्रारंभ से अंत तक प्राकृत का ही प्रयोग है। सकता है। श्री आनन्दसागर सूरि के मत से जिनदासगणिकृत
- इसमें जितने उद्धरण है, वे भी प्राकृत ग्रंथों के हैं। इस दृष्टि से यह निम्नलिखित चर्णियों का रचनाक्रम इस प्रकार है--नन्दीचर्णि चूणि अन्य चूर्णियों में विलक्षण है। निशीथविशेषचर्णि अल्प अनुयोगद्वारकचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि,
संस्कृतमिश्रित प्राकृत में है। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि प्रधानतया प्राकृत उत्तराध्ययनचर्णि, आचारांगचर्णि, सत्रकतांगचर्णि और में है। बृहत्कल्पचूणि संस्कृतमिश्रित प्राकृत में है। व्याख्याप्रज्ञप्तिचूर्णि।
चूर्णिकार आवश्यकचूर्णि में ओघनियुक्तिचूर्णि का उल्लेख है। इससे
चूर्णिकार के रूप में मुख्यतया जिनदासगणि महत्तर का प्रतीत होता है कि ओधनियुक्तिचूर्णि आवश्यकचूणि से पूर्व नाम प्रसिद्ध है। इन्होंने वस्तुतः कितनी चूर्णियाँ लिखी है, इसका लिखी गई है। दशर्वकालिचूणि में आवश्यकचूणि का नामोल्लेख कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। परंपरा से निम्नांकित dowardwidiosariwariramiranddarswarodarirdia- २४Hainitarinitariandiandominadiranidratarianitarian
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-चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - चूर्णियाँ जिनदासगणि महत्तर की कही जाती है-निशीथविशेषचूर्णि, हैं, इसकी संभावना का विचार करते हुए पं. दलसुख मालवणिया नन्दीचूर्णि, अनुयोगद्वारचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, लिखते हैं कि आचार्य जिनभद्र के पश्चात्वर्ती तत्त्वार्थभाष्यउत्तराध्ययनचूर्णि और सूत्रकृतांगचूर्णि। उपलब्ध जीतकल्पचूर्णि व्याख्याकार सिद्धसेनगणि और उपमितिभवप्रपंचकथा के लेखक सिद्धसेनसूरि की कृति है। बृहत्कल्पचूर्णिकार का नाम प्रलम्बसूरि सिद्धर्षि अथवा सिद्धव्याख्यानिक-ये दो प्रसिद्ध आचार्य तो है। आचार्य जिनभभद्र की कृतियों में एक चर्णि का भी समावेश प्रस्तुत चूर्णि के लेखक प्रतीत नहीं होते, क्योंकि यह चूर्णि, भाषा है। यह चूर्णि अनुयोगद्वार के अंगुल पद पर है जिसे जिनदास की का प्रश्न गौण रखते हुए देखा जाए तो भी कहना पड़ेगा कि, बहुत अनुयोगद्वार चूर्णि में अक्षरश: उद्धृत किया गया है। इसी प्रकार सरल शैली में लिखी गई है, जबकि उपर्युक्त दोनों आचार्यों की दशवकालिक सूत्र पर भी एक और चूर्णि है। इसके रचयिता शैली अति क्लिष्ट है। दूसरी बात यह है कि इन दोनों आचार्यों की अगस्त्यसिंह हैं। अन्य चूर्णिकारों के नाम अज्ञात हैं।
कृतियों में इसकी गिनती भी नहीं की जाती। इससे प्रतीत होता है जिनदासगणि महत्तर के जीवन-चरित्र से संबंधित विशेष
कि प्रस्तुत जिनभद्रकृत बृहत्क्षेत्रसमास की वृत्ति के रचयिता सामग्री उपलब्ध नहीं है। निशीथविशेषचूर्णि के अंत में चू
सिद्धसेनसूरि प्रस्तुत चूर्णि के भी कर्ता होने चाहिए क्योंकि इन्होंने का नाम जिनदास बताया गया है तथा प्रारंभ में उनके विद्यागरु उपर्युक्त वृत्ति वि.सं. ११९२ में पूर्ण की थी। दूसरी बात यह है कि के रूप में प्रद्युम्न क्षमाश्रमण के नाम का उल्लेख किया गया है।
इन सिद्धसेन के अतिरिक्त अन्य किसी सिद्धसेन का इस समय के उत्तराध्ययनचूर्णि के अंत में चर्णिकार का परिचय दिया गया है आसपास होना ज्ञात नहीं होता। ऐसी स्थिति में बृहत्क्षेत्रसमास की किन्तु उनके नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है। इसमें वृत्ति के कर्ता और प्रस्तुत चूर्णि के लेखक संभवत: एक ही उनके गरु का नाम वाणिज्यकलीन कोटिकगणीय वजशाखीय सिद्धसेन है। यदि ऐसा ही है तो मानना पड़ेगा कि चर्णिकार सिद्धसेन गोपालगणि महत्तर बताया गया है। नंदीचूर्णि के अंत में चूर्णिकार
उपकेशगच्छ के थे तथा देवगुप्तसूरि के शिष्य एवं यशोदेवसूरि के ने अपना जो परिचय दिया है वह स्पष्ट रूप में उपलब्ध है। गुरुभाई थे। इन्हीं यशोदेवसूरि ने उन्हें शास्त्रार्थ सिखाया था। जिनदास के समय के विषय में इतना कहा जा सकता है कि ये उपर्युक्त मान्यता पर अपना मत प्रकट करते हुए पं. श्री भाष्यकार आचार्य जिनभद्र के बाद एवं टीकाकार आचार्य हरिभद्र सुखलालजी लिखते हैं कि जीतकल्प एक आगमिक ग्रंथ है। के पूर्व हुए हैं, क्योंकि आचार्य जिनभद्र के भाष्य की अनेक यह देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी चर्णि के कर्ता कोई गाथाओं का उपयोग इनकी चूर्णियों में हुआ है, जबकि आचार्य आगमिक होने चाहिए। इस प्रकार के एक आगमिक सिद्धसेन हरिभद्र ने अपनी टीकाओं में इनकी चूर्णियों का पूरा उपयोग क्षमाश्रमण का निर्देश पंचकल्पचूर्णि तथा हारिभद्रीयवृत्ति में है। किया है। आचार्य जिनभद्र का समय विक्रम संवत् ६००-६६० संभव है कि जीतकल्पचूर्णि के लेखक भी यही सिद्धसेन क्षमाश्रमण के आसपास है तथा आचार्य हरिभद्र का समय वि.सं. ७५७- हों।१२ जब तक एतद्विषयक निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं होते ८२७ के बीच का है। ऐसी दशा में जिनदासगणि महत्तर का तब तक प्रस्तुत चूर्णिकार सिद्धसेन सूरि के विषय में निश्चित रूप समय वि.सं. ६५०-७५० के बीच में मानना चाहिए। नन्दीचूर्णि से विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता। के अंत में उसका रचनाकाल शक संवत् ५९८ अर्थात् वि.सं. पं. दलसख मालवणिया ने निशीथ-चर्णि की प्रस्तावना ७३३ निर्दिष्ट है। इससे भी यही सिद्ध होता है।
में संभावना की है कि ये सिद्धसेन आचार्य जिनभद्र के साक्षात् उपलब्ध जीतकल्पचूर्णि के कर्ता सिद्धसेनसूरि है। प्रस्तुत शिष्य हों। ऐसा इसलिए संभव है कि जीतकल्पभाष्य चूर्णि का सिद्धसेन सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न ही कोई आचार्य हैं। इसका मंगल इस बात की पुष्टि करता है। साथ ही यह भी संभावना की है कारण यह है कि सिद्धसेन दिवाकर जीतकल्पकार आचार्य जिनभद्र कि बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ भाष्य के भी कर्ता ये हों।१३ के पूर्ववर्ती हैं प्रस्तुत चूर्णि की एक व्याख्या (विषमपदव्याख्या)
बृहत्कल्पचूर्णिकार प्रलंबसूरि के जीवनचरित्र पर प्रकाश श्रीचंद्रसरि ने वि.सं. १२२७ में पूर्ण की है अतः चूर्णिकार सिद्धसेन डालने वाली कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। ताडपत्र पर लिखित वि.सं. १२२७ के पहले होने चाहिए। ये सिद्धसेन कौन हो सकते प्रस्तत चर्णि की एक प्रति का लेखन-समय वि.सं. १३३४ हैं।१४ సారసాగరుగారురంగురువారసారంగారూరురు రంగురువారూరురుపాదుగురురురురురురలో
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
अतः इतना निश्चित है कि प्रलंबसूरि वि.सं. १३३४ के पहले हुए हैं। हो सकता है कि ये चूर्णिकार सिद्धसेन के समकालीन हों अथवा उनसे भी पहले हुए हों ।
दशवैकालिक चूर्णिकार अगस्त्यसिंह कोटिगणीय वज्रस्वामी की शाखा के एक स्थविर हैं । इनके गुरु का नाम ऋषिगुप्त है। इनके समय आदि के विषय में प्रकाश डालने वाली कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इनकी चूर्णि अन्य चूर्णियों से विशेष प्राचीन नहीं है। इसमें तत्त्वार्थ सूत्र आदि के संस्कृत-उद्धरण भी हैं। चूर्णि के प्रारंभ में ही सम्यग्दर्शनज्ञान (तत्त्वा. अ. १, सू. १) सूत्र उद्धृत किया गया है। शैली आदि की दृष्टि से चूर्णि सरल है।
आगे हम कुछ महत्त्वपूर्ण चूर्णियों के संबंध में प्रकाश डालेंगे। नन्दी चूर्णि
यही चूर्णि५ मूल सूत्रानुसारी है तथा मुख्यतया प्राकृत में लिखी गई है। इसमें यत्र-तत्र संस्कृत का प्रयोग है अवश्य किन्तु वह नहीं के बराबर है। इसकी व्याख्यानशैली संक्षिप्त एवं सारग्राही है। इसमें सर्वप्रथम जिन और वीरस्तुति की व्याख्या की गई है, तदन्तर संघस्तुति की। मूल गाथाओं का अनुसरण करते हुए आचार्य ने तीर्थंकरों, गणधरों और स्थविरों की नामावली भी दी है। इसके बाद तीन प्रकार की पर्षद् की ओर संकेत करते हुए ज्ञानचर्चा प्रारंभ की है। जैनागमों में प्रसिद्ध आभिनिबोधिक (मति), श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन पांच प्रकार के ज्ञानों का स्वरूप - वर्णन करने के बाद आचार्य ने प्रत्यक्ष-परोक्ष की स्वरूप-चर्चा की है। केवलज्ञान की चर्चा करते हुए चूर्णिकार
पंद्रह प्रकार के सिद्धों का भी वर्णन किया है- १. तीर्थसिद्ध, २. अतीर्थसिद्ध, ३. तीर्थंकरसिद्ध, ४ अतीर्थंकरसिद्ध, ५. स्वयंबुद्धसिद्ध, ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध, ७ बुद्धबोधितसिद्ध, ८. स्त्रीलिंगसिद्ध, ९. पुरुषलिंगसिद्ध, १०. नपुंसकलिंगसिद्ध, ११. स्वलिंगसिद्ध, १२. अन्यलिंगसिद्ध, १३. गृहलिंग सिद्ध, १४. एकसिद्ध, १५. अनेकसिद्ध। ये अनन्तसिद्ध केवलज्ञान के भेद हैं। इसी प्रकार केवलज्ञान के परम्परसिद्ध केवलज्ञान आदि अनेक भेदोपभेद हैं। इन सबका मूल सूत्रकार ने स्वयं ही निर्देश किया है।
केवलज्ञान और केवलदर्शन के संबंध की चर्चा करते हुए आचार्य ने तीन मत उद्धृत किए हैं- १. केवलज्ञान और केवलदर्शन का यौगपद्य, २. केवलज्ञान और केवलदर्शन का क्रमिकत्व, ३. केवल ज्ञान और केवलदर्शन का अभेद । एतद्विषयक गाथाएँ इस प्रकार हैं-
ई भांति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा । अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुकवदेसेणं ।।1।। अण्णे ण चेव वीसुं दंसणमिच्छंति जिणवरिंदस्स । जं चिय केवलणाणं तं चिय से दंसणं बेंति ॥ 2 ॥
इन तीनों मतों के समर्थन के रूप में भी कुछ गाथाएँ दी गई हैं। आचार्य ने केवलज्ञान और केवलदर्शन के क्रमभावित्व का समर्थन किया है। एतद्विषयक विस्तृत चर्चा विशेषावश्यक भाष्य में देखनी चाहिए । १६
श्रुतनिश्रित, अश्रुतनिश्रित आदि भेदों के साथ आभिनिबोधिक्ज्ञान का सविस्तर विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने श्रुतज्ञान का अति विस्तृत व्याख्यान किया है। इस व्याख्यान में संज्ञीश्रुत, असंज्ञीश्रुत, सम्यक् श्रुत, मिथ्याश्रुत, सादिश्रुत, अनादिश्रुत, गमिकश्रुत, अगमिक श्रुत, अंगप्रविष्टश्रुत, अंगबाह्य श्रुत, उत्कालिक श्रुत, कालिकश्रुत आदि श्रुत के विविध भेदों का समावेश किया गया है। द्वादशांग की आराधना के फल की ओर संकेत करते हुए आचार्य ने निम्न गाथा में अपना परिचय देकर ग्रन्थ समाप्त किया है-
णिरेणगगमत्तणहसदा जिया, पसुपतिसंखगजट्ठिताकुला। कमट्ठिता धीमतचिंतियक्खरा, फुडं कहेयंतभिघाणकत्तुणो ॥ 1 ॥ नन्दी चूर्णि (प्रा.टे.सो.) पृ. ८३
अनुयोगद्वारचूर्णि
प्राकृत
यह चूर्णि १७ मूल सूत्र का अनुसरण करते हुए मुख्यतया 'में लिखी गई है। इसमें संस्कृत का बहुत कम प्रयोग हुआ है। प्रारंभ में मंगल के प्रसंग से भावनंदी का स्वरूप बताते हुए 'णाणं पंचविधं पण्णत्तं' इस प्रकार का सूत्र उद्धृत किया गया है और कहा गया है कि इस सूत्र का जिस प्रकार नंदीचूर्णि में व्याख्यान किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी व्याख्यान कर लेना चाहिए। इस कथन से स्पष्ट है कि नंदीचूर्णि अनुयोगद्वारचूर्णि से पहले लिखी गई है। प्रस्तुत चूर्णि में आवश्यक, तंदुलवैचारिक
marsamsvar på môrmérőkamönsi
Bromstromom
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- यतीन्दसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य आदि का भी निर्देश किया गया है।९ अनुयोगविधि और अनुयोगार्थ होते हैं? इस प्रश्न का उत्तर चूर्णिकार ने निम्न शब्दों में दिया है - का विचार करते हुए चूर्णिकार ने आवश्यकाधिकार पर भी पर्याप्त जेहिं एवं दंसणणाणादिसंजुत्तं तित्थं कयं ते तित्थकरा भवंति, प्रकाश डाला है। आनुपूर्वी का विवेचन करते हुए कालानुपूर्वी अहवा तित्थं गणहरा तं जेहिंकयं ते तित्थकरा, अहवा तित्थं के स्वरूप-वर्णन के प्रसंग से आचार्य ने पूर्वांगों का परिचय चाउव्वन्नो संघो तं जेहिं कयं ते तित्थकरा। भगवान की व्युत्पत्ति दिया है। 'णामाणि जाणि' आदि की व्याख्या करते हुए नाम शब्द इस प्रकार की है--भगो जेसिं अत्थि ते भगवंतो। भग क्या है? का कर्म आदि दृष्टियों से विचार किया गया है। सात नामों के इसका उत्तर देते हुए चूर्णिकार ने निम्न श्लोक उद्धृत किया है-- २३ रूप में सप्तस्वर का संगीतशास्त्र की दृष्टि से सूक्ष्म विवेचन माहात्म्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशस: श्रियः। किया गया है। नवविध नाम का नौ प्रकार के काव्यरस के रूप धर्मास्याथ प्रयत्नस्य, पण्णां भग इतींगना॥1॥ में सोदाहरण वर्णन किया गया है- वीर, शृंगार, अद्भुत, रौद्र,
सामायिक नामक प्रथम आवश्यक का व्याख्यान करते हुए ब्रीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशांत। इसी प्रकार प्रस्तुत
चूर्णिकार ने सामायिक का दो दृष्टियों से विवेचन किया है-द्रव्यपरंपरा चूर्णि में आत्मांगुल, उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल, कालप्रमाण,
से और भावपरंपरा से। द्रव्यपरंपरा की पुष्टि के लिये यासासासा औदारिकादि शरीर, मनुष्यादि प्राणियों का प्रमाण, गर्भजादि मनुष्यों
और मृगावती के आख्यानक दिए हैं।२४ आचार्य और शिष्य के की संख्या, ज्ञान और प्रमाण, संख्यात, असंख्यात, अनंत आदि
संबंध की चर्चा करते हुए निम्न श्लोक उद्धृत किया है-- २५ विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है।
आचार्यस्यैव तज्जाड्यं, यच्छिष्यो नावबुध्यते। आवश्यकचूर्णि
गावो गोपालकेनैव, अतीर्थेनावतारिताः॥1॥ यह चूर्णि२० मुख्यरूप से नियुक्ति का अनुसरण करते हुए सामायिक का उद्देश, निर्देश, निर्गम आदि २६ द्वारों से लिखी गई है। कहीं-कहीं पर भाष्य की गाथाओं का भी उपयोग विचार करना चाहिए,२६ इस ओर संकेत करने के बाद आचार्य किया गया है। इसकी भाषा प्राकृत है, किन्तु यत्र-तत्र संस्कृत के ने निर्गमद्वार की चर्चा करते हुए भगवान् महावीर के (मिथ्यात्वादि श्लोक, गद्यांश एवं पंक्तियाँ उद्धृत की गई हैं। भाषा में प्रवाह है। से) निर्गम की ओर संकेत किया है तथा उनके भवों की चर्चा शैली भी ओजपूर्ण है। कथानकों की तो इसमें भरमार है और करते हुए भगवान् ऋषभदेव के धनसार्थवाह आदि भवों का इस दृष्टि से इसका ऐतिहासिक मूल्य भी अन्य चूर्णियों से अधिक विवरण दिया है। ऋषभदेव के जन्म, विवाह, अपत्य आदि का है। विषय-विवेचन का जितना विस्तार इस चूर्णि में है उतना बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन करने के बाद तत्कालीन शिल्प, कर्म, अन्य चूर्णियों में दुर्लभ है। जिस प्रकार इसमें भी प्रत्येक विषय का लेख आदि पर भी समुचित प्रकाश डाला है। ऋषभदेव के पुत्र अति विस्तारपूर्वक व्याख्यान किया गया है। विशेषकर ऐतिहासिक भरत की दिग्विजय का वर्णन करने में तो चूर्णिकार ने सचमुच आख्यानों के वर्णन में तो अन्त तक दृष्टि की विशालता एवं लेखनी कमाल कर दिया है। युद्धकला के चित्रण में आचार्य ने सामग्री की उदारता के दर्शन होते हैं। इसमें गोविंदनियुक्ति, ओघनियुक्तिचूर्णि एवं शैली दोनों दृष्टियों से सफलता प्राप्त की है। चूर्णि के इसी एक (एत्थंतरे ओहनिज्जुत्तिचन्नी भाणियव्या जाव सम्मता),वसुदेवहिण्डि अंश से चर्णिकार के प्रतिपादन-कौशल एवं साहित्यिक अभिरुचि आदि अनेक ग्रंथों का निर्देश किया गया है।२१ ।।
का पता लग सकता है। सैनिकप्रयाण का एक दृश्य देखिएउपोद्घातचूर्णि के प्रारंभ में मंगलचर्चा की गई है और असिखेवणिखग्गचावपाराएकपमकप्पणिसूललउडार्भिडिमालधणुतोपसरपणेहि भावमंगल के रूप में ज्ञान का विस्तृत विवेचन किया गया है। य कालणीलरुहिरपीतसुविकल्ललअणेगचिंधसयसण्णिविटुं श्रुतज्ञान के अधिकार को दृष्टि में रखते हुए आवश्यक का निक्षेप- अफ्फोडितसीहणायच्छेलितहयसितहत्थिगुलगुलाइतअणेगरहसयसहस्सघणघणेतणिपद्धति से विचार किया गया है। द्रव्यावश्यक और भावावश्यक हम्ममाण सद्दसहितेण जगमं समकं भंभाहोरंभकिणितखरके विशेष विवेचन के लिए अनुयोगद्वार सत्र की ओर निर्देश कर मुहिमुर्गदसंखीयपरिलिवव्वयपीरव्वायणिवंसवेणुवीणावियचिमह दिया गया है।२२ श्रुतावतार की चर्चा करते हए चर्णिकार कहते हैं
* तिकच्छभिरिगिसिगिकलतालकंसतालकरधाणुत्थिदेण संनिनादेण सकलमवि कि तीर्थंकर भगवान से श्रृत का अवतार होता है। तीर्थंकर कौन जावलाग पूरयत
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- यतीन्दसूरि स्मारक नात्य - जैन आगम एवं साहित्य - भरत का राज्याभिषेक, भरत और बाहुबलि का युद्ध, आदि में विहार, चंदनबालावृत्त, गोपकृत शलाकोपसर्ग, बाहुबलि को केवलज्ञान की प्राप्ति आदि घटनाओं का वर्णन केवलोत्पाद, समवसरण, गणधरदीक्षा आदि। देवीकृत उपसर्ग भी आचार्य ने कुशलतापूर्वक किया है। इस प्रकार ऋषभदेव का वर्णन करते समय आचार्य ने देवियों के रूप-लावण्य, स्वभाव, संबंधी वर्णन समाप्त करते हुए चक्रवर्ती, वासुदेव आदि का भी चापल्य, श्रृंगार-सौंदर्य आदि का सरस एवं सफल चित्रण किया थोड़ा सा परिचय दिया गया है तथा अन्य तीर्थंकरों की जीवनी है। इसी प्रकार भगवान के देह-वर्णन में भी आचार्य ने अपना पर भी किंचित् प्रकाश डाला गया है। साथ ही यह भी बताया साहित्य-कौशल दिखाया है। गया है कि भगवान् महावीर के पूर्वभव के जीव मरीचि ने किस
क्षेत्र, काल आदि शेष द्वारों का व्याख्यान करते हुए चूर्णिकार प्रकार भगवान् ऋषभदेव से दीक्षा ग्रहण की और किस प्रकार
प्रकार ने नयाधिकार के अंतर्गत वज्रस्वामी का जीवन वृत्त प्रस्तुत
के परीषहों से भयभीत होकर स्वतंत्र सम्प्रदाय की स्थापना की। किया है और यह बताया है कि आर्य वज के बाद होने वाले इस वर्णन में मूल बातें वही हैं, जो आवश्यक नियुक्ति में है।२८ ।
आर्य रक्षित ने कालिक का अनुयोग पृथक कर दिया है। इस निर्मगद्वार के प्रसंग से इतनी लंबी चर्चा होने के बाद पुनः प्रसंग पर आर्य रक्षित का जीवन-चरित्र भी दे दिया गया है। भगवान् महावीर का जीवनचरित्र प्रारंभ होता है। मरीचि का जीव आर्य रक्षित के मातुल गोष्ठामाहिल का वृत्त देते हुए यह बताया किस प्रकार अनेक भवों से भ्रमण करता हुआ ब्राह्मणकुण्डग्राम गया है कि वह भगवान् महावीर के शासन में सप्तम निह्नव के
दा ब्राह्मणी की कुक्षि में आता है, किस प्रकार गर्भापहरण रूप में प्रसिद्ध हुआ। जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंगसूरि होता है, किस प्रकार राजा सिद्धार्थ के पुत्र के रूप में उत्पन्न होता और षडुलूक- ये छह निह्नव गोष्ठामाहिल के पूर्व हो चुके थे। इन है। किस प्रकार सिद्धार्थसुत वर्धमान का जन्माभिषेक किया सातों निह्नवों के वर्णन में चूर्णिकार ने नियुक्तिकार का अनुसरण जाता है आदि बातों का विस्तृत वर्णन करने के बाद आचार्य ने किया है। साथ ही भाष्यकार का अनुसरण करते हुए चूर्णिकार महावीर के कुटुम्ब का भी थोड़ा-सा परिचय दिया है। वह इस ने अष्टम निह्नव के रूप में बोटिक-दिगंबर का वर्णन किया है प्रकार है
और कथानक के रूप में भाष्य की गाथा उद्धृत की है।३० समणे भगवं महावीरे कासवगोत्तेणं, तस्स णं ततो णामधेज्जा - इसके बाद आचार्य ने सामायिकसंबंधी अन्य आवश्यक एवमाहिज्जंति, तंजहा-अम्मापिउसंतिए बद्धमाणे सहसंमुदिते समणे बातों का विचार किया है, जैसे सामायिक के द्रव्य-पर्याय, अयलेभयभेरवाणं खंता पडिमासतपारए अरतिरतिसहे दविए नयदृष्टि से सामायिक, सामायिक के भेद, सामायिक का स्वामी, धितिविरिय संपन्ने परीसहोवसग्गसहेत्ति देवेहिं से कतं णामं समणे भगवं महावीरे। भगवतो माया चेडगस्स भगिणी, भोयी चेडगस्स प्राप्ति करने वाला, सामायिक की प्राप्ति के हेतु, एतद्विषयक धुआ, णाता णाम जे उसभसामिस्स सयाणिज्जगा ते णातवंसा, आनंद, कामदेव आदि के दृष्टांत, अनुकम्पा आदि हेतु और मेंठ, पित्तिज्जए सुपासे, जे? भाता णंदिबद्धणे, भगिणी सुदंसणा, भारिया इन्द्रनाग, कृतपुण्य, पुण्यशाल, शिवराजर्षि, गंगदत्त, दशार्णभद्र, जसोया कोडिन्नागोत्तेणं, धूययाकासवीगोत्तेणं तीसे दो नामधेज्जा, इलापुत्र आदि के उदाहरण सामायिक की स्थिति, सामायिकवालों तं. अणोज्जगित्ति वा पियदंसणाविति वा, णत्तुई कोसीगोत्तणं, की संख्या, सामायिक का अंतर, सामायिक का आकर्ष, समभाव तीसे दो नामधेज्जा (जसवतीति वा) सेववतीति वा, एवं (यं) के लिए दमदन्त का दृष्टांत, समता के लिए मेतार्य का उदाहरण, नामाहिगारे दरिसितं।
समास के लिए चिलातिपुत्र का दृष्टांत, संक्षेप और अनबद्ध के भगवान महावीर के जीवन से संबंधित निम्न घटनाओं
लिए तपस्वी और धर्मरुचि के उदाहरण, प्रत्याख्यान के लिए का विस्तृत वर्णन चूर्णिकार ने किया है- धर्मपरीक्षा, विवाह,
तेतलीपुत्र का दृष्टांत। यहाँ तक उपोद्घातनियुक्ति की चूर्णि का अपत्य, दान, संबोध, लोकान्तिकागमन, इंद्रागमन, दीक्षामहोत्सव,
अधिकार है। उपसर्ग, इंद्रप्रार्थना, अभिग्रहपंचक, अच्छंदकवृत्त, चण्डकौशिकवृत्त, सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति की चूर्णि में निम्न विषयों का प्रतिपादन गोशालकवृत्त, संगमककृत उपसर्ग, देवीकृत उपसर्ग, वैशाली किया गया है- नमस्कार की उत्पत्ति, निक्षेपादि, राग के निक्षेप,
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्ध - जैन आगम एवं साहित्य स्नेहराग के लिए अरहन्नक का दृष्टांत, द्वेष के निक्षेप और धर्मरुचि निम्नलिखित पांच प्रकार के श्रमण अवन्द्य हैं--१. आजीवक, का दृष्टांत, कषाय के निक्षेप और. जमदग्न्यादि के उदाहरण, २. तापस, ३. परिव्राजक, ४. तच्चणिय, ५. बोटिक। इसी प्रकार अर्हन्नमस्कार का फल, सिद्धनमस्कार और कर्म सिद्धादि, पार्श्वस्थ आदि भी अवंद्य हैं। चूर्णिकार स्वयं लिखते हैं -- किं औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी बद्धि, कर्मक्षय, च, इमेवि पंच ण वंदियव्वा समणसद्देवि सति, जहा आजीवगा और समुद्घात, अयोगिगुणस्थान और योगनिरोध, सिद्धों का तावसा परिव्वायगा, तच्चंणिया बोडिया समणा वा इमं सासणं सुख, अवगाह आदि, आचार्यनमस्कार, उपाध्यायनमस्कार, पडिवन्ना, ण य ते अन्नतित्थे ण य सतित्थे जे वि सतित्थे न साधुनमस्कार, नमस्कार का प्रयोजन आदि यहाँ तक। प्रतिज्ञामणुपालयन्ति ते वि पंच पासत्थादी ण वंदितव्वा।३३ आगे नमस्कारनियुक्ति की चूर्णि का अधिकार है।
आचार्य ने कुशीलसंसर्गत्याग, लिंग, ज्ञान-दर्शन-चारित्रवाद, सामायिकनियुक्ति की चर्णि में 'करेमि' इत्यादि पदों की आलंबनवाद, वंद्यवंदकसंबंध, वंद्यावंद्यकाल, वंदनसंख्या. पदच्छेदपूर्वक व्याख्या की गई है तथा छह प्रकार के करण का
वंदनदोष, वंदनफल आदि का दृष्टान्तपूर्वक विचार किया है। विस्तृत निरूपण किया गया है। यहाँ तक सामायिक. चर्णि का प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन का विवेचन करते हुए अधिकार है।
चूर्णिकार कहते हैं कि प्रतिक्रमण का शब्दार्थ है प्रतिनिवृत्ति। सामायिक अध्ययन की चूर्णि समाप्त करने के बाद आचार्य
देवास प्रमाद के वश अपने स्थान (प्रतिज्ञा) से हटकर अन्यत्र जाने के ने द्वितीय अध्ययन चतुर्विंशतिस्तव पर प्रकाश डाला है। इसमें
बाद पुनः अपने स्थान पर लौटने की जो क्रिया है, वही प्रतिक्रमण नियुक्ति का ही अनुसरण करते हए स्तव, लोक, उद्योत. धर्म है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य ने दो श्लोक उद्धृत तीर्थंकर आदि पदों का निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया गया किए हैहै। प्रथम तीर्थंकर ऋषभ का स्वरूप बताते हुए चूर्णिकार कहते
स्वस्थानाद्यत्परं स्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः। हैं-- वृष उद्वहने, उब्बूढं तेन भगवता जगत्संसारभग्गं तेन ऋषभ
तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते।।1।। इति, सर्व एव भगवन्तो जगात अतुलं नाणदंसणचरितं वा,
क्षायोपशमिकाद्वापि, भावादौदयिकं गतः। एते सामण्णं वा, विसेसो ऊरूषु दोसुवि भगवतो उसभा ओपरामुहा
तत्रापि हि स एवार्थः, प्रतिकूलगमात् स्मृतः।।2।। तेण निव्वत्त बारसाहस्स नामं कतं उसभोत्ति...।" इसी प्रकार
इसी प्रकार चूर्णिकार ने प्रतिक्रमण का स्वरूप समझाते अन्य तीर्थंकरों का स्वरूप भी बताया गया है।
हुए एक प्राकृत गाथा भी उद्धृत की है, जिसमें बताया गया है
कि शुभ योग में पुनः प्रवर्तन करना प्रतिक्रमण है। वह गाथा इस तृतीय अध्ययन वन्दना का व्याख्यान करते हुए आचार्य
प्रकार है--३५ ने अनेक दृष्टांत दिए हैं। वन्दनकर्म के साथ ही साथ चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म का भी सोदाहरण विवेचन
पति पति पवत्तणं वा सुभेसु जोगेसु मोक्खफलदेसु। किया है। वन्द्यावन्द्य का विचार करते हुए चूर्णिकार ने वन्द्य
निस्सल्लस्स जतिस्सा जं तेणं तं पडिक्कमणं॥1॥ श्रमण का स्वरूप इस प्रकार बताया है--श्रम तपसि खेदे च, . चर्णिकार ने नियुक्तिकार ही की भाँति प्रतिक्रमक, प्रतिक्रमण श्राम्यतीति श्रमणः तंवंदेज्ज केरिसं? मेधावि मेरया धावतीति और प्रतिक्रांतव्य- इन तीनों दृष्टियों से प्रतिक्रमण का व्याख्यान मेधावी, अहवा मेधावी-विज्ञानवान् तं; पाठान्तरं वा समणं वंदेज्जु किया है। इसी प्रकार प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, मेधावी। तेण मेधाविणा मेधावी वंदित्तव्वो, चउभंगी, चउत्थे भंगे निंदा, गर्दा, शुद्धि और आलोचना का विवेचन करते हुए आचार्य कितिकंमफलं भवतीति, सेसएसु भयणा। तथा संजतं संमं ने तत्तद्विषयक कथानक भी दिए हैं। प्रतिक्रमण-संबंधी सूत्र के पावोवरतं, तहा सुसमाहितं सुटठु समाहितं सुसमाहितं पदों का अर्थ करते हुए कायिक, वाचिक और मानसिक अतिचार, णाणदंसणचरणेसु समुज्जतमिति यावत, को य सो एवंभूतः? ईर्यापथिकी विराधना, प्रकामशय्या, भिक्षाचर्या, स्वाध्याय आदि पंचसमितो तिगुत्तो अट्ठहिं पवयणमाताहिं ठितो...२ मेधावी, में लगने वाले दोषों का स्वरूप समझाया गया है। इसी प्रसंग में संयत और ससमाहित श्रमण की वंदना करनी चाहिए। चार प्रकार के कामगण, पाँच प्रकार के महाव्रत, पाँच प्रकारकी
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य समिति, परिष्ठापना, प्रतिलेखना आदि का अनेक आख्यानों एवं वरं प्रविष्टं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम्। उद्धरणों के साथ प्रतिपादन किया गया है। एकादश वरं हि मृत्युः परिशुद्धकर्मणो, न शीलवृत्तस्खलितस्य जीवतम्॥1॥ उपासकप्रतिमाओं का स्वरूप समझाते हुए चूणिकार ने एत्थ अर्थात जलती हुई अग्नि में प्रवेश कर लेना अच्छा है किन्त कहवि अण्णोवि पाढो दीसति३६ इन शब्दों के साथ पाठांतर भी।
चिरसंचित व्रत को भंग करना ठीक नहीं। विशुद्धकर्मशील होकर दिया है। इसी प्रकार द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओं का भी वर्णन किया
मर जाना अच्छा है,किन्तु शील से स्खलित होकर जीना ठीक नहीं। गया है। तेरह क्रियास्थान, चौदह भूतग्राम एवं गुणस्थान, पंद्रह परमाधार्मिक, सोलह अध्ययन (सूत्रकृत के प्रथम श्रुतस्कन्ध
पंचम अध्ययन कायोत्सर्ग की व्याख्या के प्रारंभ में के अध्ययन), सत्रह प्रकार का असंयम, अठारह प्रकार का
व्रणचिकित्सा (वणतिगिच्छा) का प्रतिपादन किया गया है और अब्रह्म, उत्क्षिप्तना आदि उन्नीस अध्ययन, बीस असमाधिस्थान ।
कहा गया है कि व्रण दो प्रकार का होता है- द्रव्यव्रण और इक्कीस सबल (अविशुद्ध चरित्र), बाईस परीषह,तेईस सूत्रकृत
भावव्रण। द्रव्यव्रण की औषधादि से चिकित्सा होती है। भावव्रण
अतिचाररूप है जिसकी चिकित्सा प्रायश्चित्त से होती है। वह के अध्ययन (पुंडरीक आदि), चौबीस देव, पच्चीस भावनाएँ, छब्बीस उद्देश (दशाश्रुतस्कन्ध के दस, कल्प-बृहत्कल्प के छह
प्रायश्चित्त दस प्रकार है--आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, और व्यवहार के दस),३६ सत्ताईस अनगार गुण, अट्ठाईस प्रकार
व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक। चूर्णि का का आचराकल्प, उनतीस पापश्रुत, तीस मोहनीय स्थान, इकतीस मूल पा०२
मूल पाठ इस प्रकार है--सो य वणो दुविधो-दव्वे भावे य, सिद्धादिगुण, बत्तीस प्रकार का योगसंग्रह आदि विषयों का प्रतिपादन
दव्ववणो ओसहादीहिं तिगिच्छिज्जति, भाववणो संजमातियारो करने के बाद आचार्य ने ग्रहण-शिक्षा और आसेवनशिक्षा--इन
तस्स पायच्छित्तेण तिगिच्छणा, एतेणावसरेण पायच्छित्तं दो प्रकार की शिक्षाओं का उल्लेख किया है और बताया है कि
परूविज्जति। वणतिगिच्छा अणुगमो य, तं पायच्छित्तं
दसविहं....४० दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का विशद वर्णन जीतकल्प आसेवनशिक्षा का वर्णन उसी प्रकार करना चाहिए जैसा कि ओघसामाचारी और पदविभागसामाचारी में किया गया है--
सूत्र में देखना चाहिए। कायोत्सर्ग में काय और उत्सर्ग दो पद हैं। आसेवणसिक्खा जथा ओहसामायारीए पयविभागसामाचारीए
काय का निक्षेप नाम आदि बारह प्रकार का है। उत्सर्ग का य वण्णितं।३८ शिक्षा का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए अभयकुमार
निक्षेप नाम आदि छह प्रकार का है। कायोत्सर्ग के दो भेद हैंका विस्तृत वृत्त भी दिया गया है। इसी प्रसंग पर चूर्णिकार ने
चेष्टाकायोत्सर्ग और अभिभवकायोत्सर्ग। अभिभवकायोत्सर्ग हार श्रेणिक, चेल्लणा, सुलसा, कोणिक, चेटक, उदायी, महापदमनंद,
कर अथवा हराकर किया जाता है। हूणादि से पराजित होकर शकटाल, वररुचि, स्थूलभद्र आदि से संबंधित अनेक महत्त्वपूर्ण
कायोत्सर्ग करना अभिभवकायोत्सर्ग है। गमनागमनादि के कारण ऐतिहासिक आख्यानों का संग्रह किया है। अज्ञातोपधानता,
जो कायोत्सर्ग किया जाताहै वह चेष्टाकायोत्सर्ग है--सो पुण अलोभता, तितिक्षा, आर्जव, शुचि, सम्यग्दर्शनविशुद्धि, समाधान,
काउसग्गो दुविधो चेट्ठाकाउस्सग्गो य अभिभवकाउस्सग्गो य, आचारोपगत्व, विनयोपगत्व, धृतमति, संवेग, प्रणिधि, सुविधि,
अभिभवो नाम अभिभूतो वा परेण परं वा अभिभूय कुणति, संवर, आत्मदोषोपसंहार, प्रत्याख्यान, व्युत्सर्ग, अप्रमाद, ध्यान,
परेणाभिभूतो तथा हूणादीहिं अभिभूतो सव्वं सरीरादि वोसिरामिति वेदना, संग, प्रायश्चित, आराधना, आशातना, अस्वाध्यायिक,
काउस्सग्गं करेति, परं वा अभिभूय काउस्सग्गं करेति, जथा तित्थगरो प्रत्युपेक्षणा आदि प्रतिक्रमणसंबंधी अन्य आवश्यक विषयों का
देवमणुयादिणो अणुलोमपडिलोमकारिणो भयादी पंच अभिभूय दृष्टांतपूर्वक प्रतिपादन करते हुए प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन
काउस्सग्गं कातुं प्रतिज्ञां पूरेति, चेट्ठाकाउस्सग्गो चेट्ठातो निप्फण्णो का व्याख्यान समाप्त किया है। आत्मदोषोपसंहार का वर्णन
जथा गमणागमणादिसु काउस्सग्गो कीरति...।४१ कायोत्सर्ग के करते हुए व्रत की महत्ता बताने के लिए आचार्य ने एक सुंदर .
प्रशस्त और अप्रशस्त ये दो अथवा उच्छ्रित आदि नौ भेद भी होते श्लोक उद्धृत किया है जिसे यहाँ देना अप्रासंगिक न होगा। वह
हैं।४२ इन भेदों का वर्णन करने के बाद श्रुत, सिद्ध आदि की श्लोक इस प्रकार है-३९
स्तुति का विवेचन किया गया है तथा क्षामणा की विधि पर प्रकाश डाला गया है। कायोत्सर्ग के दोष, फल आदि का वर्णन
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ करते हुए पंचम अध्ययन का व्याख्यान समाप्त किया गया है।
षष्ठ अध्ययन, प्रत्याख्यान की चूर्णि में प्रत्याख्यान के भेद, श्रावक के भेद, सम्यक्त्व के अतिचार, स्थूलप्राणातिपातविरमण और उसके अतिचार, स्थूलमृषावादविरमण और उसके अतिचार, स्थूल अदत्तादानविरमण और उसके अतिचार, स्वदारसंतोष और परदारप्रत्याख्यान एवं तत्संबंधी अतिचार, परिग्रहपरिमाण एवं तद्विषयक अतिचार, तीन गुणव्रत और उनके अतिचार, चार शिक्षाव्रत और उनके अतिचार, दस प्रकार के प्रत्याख्यान, प्रकार की विशुद्धि, प्रत्याख्यान के गुण और आगार आदि का विविध उदाहरणों के साथ व्याख्यान किया गया है। बीच-बीच में यत्र-तत्र अनेक गाथाएँ एवं श्लोक भी उद्धृत किए गए हैं। अंत में प्रस्तुत संस्करण की प्रति के विषय में लिखा गया है कि सं. १७७४ में पं. दीपविजयगणि ने पं. न्यायसागरगणि को आवश्यकचूर्णि प्रदान की-सं. १७७४ वर्षे पं. दीपविजयगणिना आवश्यकचूर्णि: पं. श्रीन्यायसागरगणिभ्यः प्रदत्ता । ४३
छह
आवश्यकचूर्णि के इस परिचय से स्पष्ट है कि चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर ने अपनी प्रस्तुति कृति में आवश्यक निर्युक्ति में निर्दिष्ट सभी विषयों का पूर्वक विवेचन किया है तथा विवेचन की सरलता, सरसता एवं स्पष्टता की दृष्टि से अनेक प्राचीन ऐतिहासिक एवं पौराणिक आख्यान उद्धृत किए हैं। इसी प्रकार विवेचन में यत्र-तत्र अनेक गाथाओं एवं श्लोकों का समावेश भी किया है। यह सामग्री भारतीय इतिहास की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। दशवैकालिकचूर्णि (जिनदासगणिकृत)
यह चूर्णि भी नियुक्ति का अनुसरण करते हुए लिखी गई है तथा द्रुमपुष्पिका आदि दस अध्ययन एवं दो चूलिकाएँइस प्रकार बारह अध्ययनों में विभक्त है। इसकी भाषा मुख्यतया प्राकृत है। प्रथम अध्ययन में एकक, काल, द्रुम, धर्म आदि पदों का निक्षेप पद्धति से विचार किया गया तथा शय्यंभववृत्त, दस प्रकार के श्रमणधर्म, अनुमान के विविध अवयव आदि का प्रतिपादन किया गया है। संक्षेप में प्रथम अध्ययन में धर्म की प्रशंसा का वर्णन किया गया है। द्वितीय अध्ययन का मुख्य विषय धर्म में स्थित व्यक्ति को धृति कराना है । चूर्णिकार इस
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जैन आगम एवं साहित्य
अध्ययन की व्याख्या के प्रारंभ में ही कहते हैं कि अध्ययन के चार अनुयोग द्वारों का व्याख्यान उसी प्रकार समझ लेना चाहिए जिस प्रकार आवश्यकचूर्णि में किया गया है। *५ इसके बाद श्रमण के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए पूर्व काम, पद, शीलांगसहस्र आदि पदों का सोदाहरण विवेचन किया गया है। तृतीय अध्ययन में दृढधृतिक के आचार का प्रतिपादन किया गया है। इसके लिए महत्, क्षुल्लक, आचार, दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार, अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा, मिश्रकथा, अनाचीर्ण, संयतस्वरूप आदि का विचार किया गया है। चतुर्थ अध्ययन की चूर्णि में जीव, अजीव, चारित्रधर्म, यतना, उपदेश, धर्मफल आदि के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। पंचम अध्ययन की चूर्णि में साधु के उत्तरगुणों का विचार किया गया है जिसमें पिण्डस्वरूप, भक्तपानैषणा, गमनविधि, गोचरविधि, पानकविधि, परिष्ठापन विधि, भोजनविधि, आलोचनविधि आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। बीच-बीच में कहीं-कहीं पर मांसाहार, मद्यपान आदि की चर्चा भी की गई है । ४६ षष्ठ अध्ययन में धर्म, अर्थ, काम, व्रतषट्क, कायषट्क आदि का प्रतिपादन किया गया है । इस अध्ययन की चूर्णि में आचार्य ने अपने संस्कृतव्याकरण के पाण्डित्य का भी अच्छा परिचय दिया है। सप्तम अध्ययन की चूर्णि में भाषासंबंधी विवेचन है। इसमें भाषा की शुद्धि, अशुद्धि, सत्य, मृषा सत्यमृषा, असत्यमृषा आदि का विचार किया गया है। अष्टम अध्ययन की चूर्णि में इंद्रियादि प्रणिधियों का विवेचन किया गया है। नवम अध्ययन की चूर्णि लोकोपचारविनय, अर्थविनय, कामविनय, भवविनय, मोक्षविनय आदि की व्याख्या की गई है। दशम अध्ययन में भिक्षुसंबंधी गुणों पर प्रकाश डाला गया है। चूलिकाओं की चूर्णि में रति, अरति, विहारविधि, गृहिवैयावृत्यनिषेध, अनिकेतवास आदि विषयों से संबंधित विवेचन है। चूर्णिकार ने स्थान-स्थान पर अनेक ग्रंथों के नामों का निर्देश भी किया है। ४७
३१
उत्तराध्ययनचूर्णि
यह चूर्णि भी निर्युक्त्यनुसारी है तथा संस्कृतिमिश्रित प्राकृत में लिखी गई है। इसमें संयोग, पुद्गलबन्ध, संस्थान, विनय, क्रोधवारण, अनुशासन, परीषह, धर्मविघ्न, मरण, निर्ग्रन्थपंचक, भयसप्तक ज्ञानक्रियैकान्त आदि विषयों पर सोदाहरण प्रकाश डाला गया है। स्त्रीपरीषह का विवेचन करते
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Moto
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य हुए आचार्य ने नारी-स्वभाव की कड़ी आलोचना की है और दशवैकालिकचूर्णि में कह दिया गया है। इस स्वरसाम्य को इस प्रसंग पर निम्नलिखित दो श्लोक भी उद्धृत किए हैं-- देखते हुए यह कथन अनुपयुक्त नहीं कि उत्तराध्ययन और एषा हसंति रुदंति च अर्थहेतोर्विश्वासयंति च परं न च विश्वसंति। दशवैकालिक की चूर्णियाँ एक ही आचार्य की कृतियाँ हैं तथा तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानसुमना इव वर्जनीयाः॥१॥ दशवैकालिकचूर्णि की रचना उत्तराध्ययनचूर्णि से पूर्व की है। समुद्रवीचीचपलस्वभावाः संध्याभ्ररेखेव मुहूर्तरागाः। स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थक, नीपीडितालक्त( क )वत् त्यति॥२॥ आचारागचूणि
-- उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. ६५. इस चूर्णि° में प्रायः उन्हीं विषयों का विवेचन है जो हरिकेशीय अध्ययन की चर्णि में आचार्य ने अब्राह्मण के
आचारांग नियुक्ति में है। नियुक्ति की गाथाओं के आधार पर ही
आचारागान लिए निषिद्ध बातों की ओर निर्देश करते हुए शूद्र के लिए निम्न
यह चूर्णि लिखी गई है अतः ऐसा होना स्वाभाविक है। इसमें श्लोक उद्धृत किया है--
वर्णित विषयों में से कुछ के नामों का निर्देश करना अप्रासंगिक
न होगा। प्रथम श्रुतस्कन्ध की चूर्णि में मुख्य रूप से निम्न न शूद्राय बलिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविः कृतम्। न चास्योपदिशेद्धर्म, न चास्य व्रतमादिशेत्।।
विषयों का व्याख्यान किया गया है-अनुप्रयोग, अंग, आचार,
ब्रह्म, वर्ण, आचरण, शस्त्र, परिज्ञा, संज्ञा, दिक्, सम्यक्त्व, योनि,
--वही, पृ. २०५. कर्म, पृथ्वी आदि काय, लोक, विजय, गुणस्थान, परिताप, चूर्णिकार ने चूर्णि के अंत में अपना परिचय देते हुए स्वयं विहार, रति, अरति, लोभ, जुगुप्सा, गोत्र, ज्ञाति, जातिमरण, को वाणिज्यकुलीन, कोटिकगणीय, वज्रशाखी, गोपालगणिज्रहत्तर एषणा, बंध-मोक्ष, शीतोष्णादि परीषह, तत्त्वार्थश्रद्धा, जीवरक्षा, का शिष्य बताया है। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं--
अचेलत्व, मरण, संलेखना, समनोज्ञत्व, यामत्रय, त्रिवस्त्रता, वाणिजकुलसंभूओ कोडियगणिओ उवयरसाहीतो।
वीरदीक्षा, देवदृत, सवस्त्रता। चूर्णिकार ने भी निक्षेपपद्धति का ही गोवालियमहत्तरओ, विक्खाओ आसि लोगंमि॥1॥ आधार लिया है। ससमयपरसमयविऊ, ओयस्सी दित्तिमं सुगंभीरो।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध की व्याख्या करते हुए चूर्णिकार ने मुख्य सीसगणसंपरिवुडो, वक्खाणरतिप्पिओ आसी।।2।।
रूप से निम्न विषयों का विवेचन किया है--अग्र, प्राणसंसक्त, तेसिं सीसेण इमं, उत्तरज्झयणाण चुण्णिखंडं तु।
पिण्डैषणा, शय्या, ईर्या, भाषा, वस्त्र, पात्र, अवग्रहसप्तक, सप्तसप्तक, रइयं अणुग्गहत्थं, सीसाणं मंदबुद्धीणं।।3।।
भावना, विमुक्ति। चूँकि आचारांग सूत्र का मल प्रयोजन श्रमणों के जं एत्थं वस्सुत्तं, अयाणमाणेण विरतितं हाज्जा।
आचार-विचार की प्रतिष्ठा करना है, अतः प्रत्येक विषय का तं अणुओगधरां मे, अणुचिंतेउं समारंतु।।4।।
प्रतिपादन इसी प्रयोजन को दृष्टि में रखते हुए किया गया है। वही, पृ. २८३.
प्राकृतप्रधान प्रस्तुत चूर्णि में यत्र-तत्र संस्कृत के श्लोक दशवैकालिकचर्णि भी नि:संदेह उन्हीं आचार्य की कृति है भी उदधत किए गए हैं। इनके मूल स्थल की खोज न करते हुए जिनकी उत्तराध्यनचूर्णि है। इतना ही नहीं, दशर्वकालिकचूणि उदाहरण के रूप में भी कछ श्लोक यहाँ उधत किए जाते हैं। उत्तराध्यनचूर्णि से पहले लिखी गई है। इसका प्रमाण आगम के पामाण्य की पति के लिए निम्न लोक उधत किया उत्तराध्ययनचूर्णि में मिलता है जो इस प्रकार है-षष्ठोपि चित्तो गया हैनानाप्रकारो प्रकीर्णतपोभिधीयते, तदन्यत्राभिहितं, शेषं
जिनेन्द्रवचनं सूक्ष्महेतुभिर्यदि गृह्यते। दशवैकालिकचूर्णौ अभिहितं...। यहां आचार्य ने स्पष्ट रूप से
आज्ञया तद्ग्रहीतव्यं, नान्यथावादिनो जिनाः।। लिखा है कि प्रकीर्णतप के विषय में अन्यत्र कह दिया गया है और शेष दशवैकालिकचूर्णि में कह दिया गया है। जिस स्वर में
आचारांगचूर्णि, पृ. २० 'आचार्य ने यह लिखा है कि इसके विषय में अन्यत्र कह दिया स्वजन से भी धन अधिक प्यारा होता है. इसका समर्थन गया है उसी स्वर में उन्होंने यह भी लिखा है कि शेष करते हुए कहा गया है---
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प्राणैः प्रियतराः पुत्राः पुत्रैः प्रियतरं धनम् । स तस्य हरते प्राणान् यो यस्य हरते धनम् ॥
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
अपरिग्रह की प्रशंसा करते हुए कहा गया है - तस्मै धर्मभृते देयं यस्य नास्ति परिग्रहः । परिग्रहे तु ये सक्ता, न ते तारयितुं क्षमाः ॥
वही, पृ. ५९.
कामभोग से व्यक्ति कभी तृप्त नहीं होता, इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा गया है-
नाग्निस्तुष्यति काष्ठानां, नापगानां महोदधिः । नान्तकृत्सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना ॥
वही. पृ. ७५.
साधु को किसी वस्तु का लाभ होने पर मद नहीं करना चाहिए तथा अलाभ होने पर खेद नहीं करना चाहिए। जैसा कि कहा गया है-
लभ्यते लभ्यते साधु, साधु एव न लभ्यते । अलब्धे तपसो वृद्धिर्लब्धे देहस्य धारणा ।
वही, पृ. ५५
-वही, पृ. ८१.
इसी प्रकार स्थान-स्थान पर प्राकृत गाथाएँ भी उद्धृत की गई हैं। इन उद्धरणों से विषय विशेष रूप से स्पष्ट होता है एवं पाठक तथा श्रोता की रुचि में वृद्धि होती है।
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नास्तिकमतचर्चा, सांख्यमतचर्चा, ईश्वरकर्तृत्वचर्चा, नियतिवादचर्चा, भिक्षुवर्णन, आहारचर्चा, वनस्पतिभेद, पृथ्वी कायादिभेद, स्याद्वाद, आजीविकमतनिरास, गोशालकमतनिरास, बौद्धमतनिरास, जातिवादनिरास इत्यादि ।
प्रस्तुत चूर्णि संस्कृतमिश्रित प्राकृत में लिखी गई है। इतना ही नहीं, चूर्णि को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें प्राकृत से भी संस्कृत का प्रयोग अधिक मात्रा में है। नीचे कुछ उद्धरण दिए जाते हैं जिन्हें देखने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि इसमें प्राकृत का कितना अंश है व संस्कृत का कितना ।
'एतदिति' यदुक्तमुच्यते वा सारं विद्धीति वाक्यशेषः, यत्किं ? उच्यते, जेण हिंसति किंचणं, किंचिदिति त्रसं स्थावरं वा, अहिंसा हि ज्ञानगतस्य फलं तथा चाह योऽधीत्य शास्त्रमखिलं ... एवं खु णाणिणां सारं.....।
-- सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. ६२
विउट्ठितो णाम विच्युतो यथा व्युत्थितोऽस्य विभवः संपत्व्युत्थिताः संयमप्रतिपन्न इत्यर्थः, पार्श्वस्थादीनामन्यतमेन वा क्वचिन्प्रमादाच्च कार्येण वा त्वरितं गच्छन् जहा तुज्झं ण...? -- वही, पृ. २८८.
सूत्रकृतांगचूर्णि
इस चूर्णि की शैली भी वही है जो आचारांगचूर्णि की है। इसमें निम्न विषयों पर प्रकाश डाला गया है- मंगलचर्चा, तीर्थसिद्धि, संघात, विरासाकरण, बन्धनादिपरिणाम, भेदादिपरिणाम, क्षेत्रादिकरण, आलोचना, परिग्रह, ममता, पंचमहाभूतिक, एकात्मकवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकात्मवाद, स्कन्धवाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद, कर्तृवाद, त्रिराशिवाद, लोकविचार, प्रतिजुगुप्सा (गोमांस, मद्य, लसुन, पलांडु आदि के प्रति अरुचि), वस्त्रादिप्रलोभन, शूरविचार, महावीरगुण, महावीरगुणस्तुति, कुशीलता, सुशीलता, वीर्यनिरूपण, समाधि, दानविचार, समवसरणविचार, वैनयिकवाद,
ট[ ३३ ]
लोगेवि भण्णइ - छिण्णसोता न दिंति, सुठु संजुत्ते सुसंजुत्ते, सुठु समिए सुसमिए, समभाव: सामायिकं सो भणई-सुट्टु सामाइए सुसामाइए, आतरापत्ते विऊत्ति अप्पणो वादो अत्तए वादो २ यथा अस्त्यात्मा नित्य: अमूर्त्तः कर्त्ता भोक्ता उपयोगलक्षणो य एवमादि आतप्पवादो...।' - वही, पृ. ३०७
अहावरे चउत्थे (सू.५) णितिया जाव जहा जहा मे एस धम्मे सुअक्खाए, करे ते धम्मे? णितियावादे, इह खलु दुवे पुरिसजाता एमे पुरिसे किरियामक्खंति, किरिया कर्म परिस्पन्द इत्यर्थः कस्यासौ किरिया ? पुरुषस्य, पुरुष एव गमनादिषु क्रियासु स्वतो अनुसन्धाय प्रवर्त्तते, एव भणित्तापि ते दोवि पुरिसा तुल्ला णियतिवसेण, तत्र नियतिवादी आत्मीय दर्शनं समर्थयन्निदमाहयः खलु मन्यते 'अहं करोमि इति' असावपि नियत्या एव कार्यते अहं करोमीति...? वही, पृ. ३२२-३
जीतकल्प- बृहच्चूर्णि
प्रस्तुत चूर्णि सिद्धसेनसूरि की कृति है। इस चूर्णि के
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ अतिरिक्त जीतकल्प सूत्र पर एक और चूर्णि लिखी गई है ऐसा प्रस्तुत चूर्णि के अध्ययन से ज्ञात होता है। यह चूर्णि अथ से इति तक प्राकृत में है। इसमें एक भी वाक्य ऐसा नहीं है जिसमें संस्कृत शब्द का प्रयोग हुआ हो। प्रारंभ में आचार्य ने ग्यारह गाथाओं द्वारा भगवान महावीर, एकादश गणधर, अन्य विशिष्ट ज्ञानी तथा सूत्रकार जिनभद्र क्षमाश्रमण इन सबको नमस्कार किया है। ग्रंथ में यत्र-तत्र अनेक गाथाएँ उद्धृत की गई हैं। इन गाथाओं को उद्धृत करते समय आचार्य ने किसी ग्रंथ आदि का निर्देश न करके 'तं जहा भणियं च'. सो... इमो' इत्यादि वाक्यों का प्रयोग किया है।५४ इसी प्रकार अनेक गद्यांश भी उद्धृत किए गए हैं।
जीतकल्पचूर्णि में भी उन्हीं विषयों का संक्षिप्त गद्यात्मक व्याख्यान है, जिनका जीतकल्पभाष्य में विस्तार से विवेचन किया गया है। सर्वप्रथम आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतव्यवहार का स्वरूप समझाया गया है। जीत का अर्थ इस प्रकार किया गया है-- जीयं ति वा करणिज्जं ति वा आयरणिज्जं ति वा एयटुं । जीवेइ वा तिविहे वि काले तेण जीयं । ५५ इसी प्रकार चूर्णिकार ने दस प्रकार के प्रायश्चित, नौ प्रकार के व्यवहार, मूलगुण, उत्तरगुण आदि का विवेचन किया है। अंत में पुनः सूत्रकार जिनभद्र को नमस्कार करते हुए निम्न गाथाओं के साथ चूर्णि समाप्त की है । ५६
इति जेण जीयदाणं साहूणऽइयारपंकपरिसुद्धिकरं । गाहाहिं फुडं रइयं महुरपयत्थाहिं पावणं परमहियं ॥ जिणभद्दखमासमणं निच्छियसुत्तत्थदायगामलचरणं । तमहं वंदे पयओ परमं परमोवगारकारिणमहग्घं ॥
दशवैकालिकचूर्णि (अगस्त्यसिंहकृत)
यह चूर्णि५७ जिनदासगणि की कही जाने वाली दशवैकालिकचूर्णि से भिन्न है। इसके लेखक हैं वज्रस्वामी की शाखा - परंपरा के एक स्थविर श्री अगस्त्य सिंह | यह प्राकृत में है । भाषा सरल एवं शैली सुगम है। इसकी व्याख्यानशैली के कुछ नमूने यहाँ प्रस्तुत करना अप्रासंगिक न होगा। आदि, मध्य और अन्त्य मंगल की उपयोगिता बताते हुए चूर्णिकार कहते हैं
आदिमंगलेण आरम्भप्पभितिं णिव्विसाया सत्थं पडिवज्जंति, मज्झमंगलेण अव्वासंगेण पारं गच्छंति, अवसाणमंगलेण सिस्स पसिस्ससंताणे पडिवाएंति । इमं पुण सत्थं संसारविच्छेयकरं ति
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जैन आगम एवं साहित्य
सव्वमेव मंगलं तहावि विसेसो दरिसिज्जति आदि मंगलमिह धम्मो मंगलमुक्कट्ठे (अध्य. १, गा. १) धारेति संसारे पडमाणमिति धम्मो, एतं च परमं समस्सासकारणं ति मंगलं । मज्झे धम्मत्थकामपढमसुत्तं णाणदंसणसंपण्णं संजमे य तवे रयं (अध्य. ६, गा. १ ) एवं सो चेव धम्मो विसेसिज्जति, यथा-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः (तत्त्वा. अ. १ - १ ) इति । अवसाणे आदिमज्झदिट्ठविसेसियस्स फलं दरिसिज्जति छिंदित्तु जातीमरणस्स बंधणं उवेति भिक्खू अपुणागमं गतिं (अध्य. १०, गा. २१) एवं सफलं सकलं सत्थं ति । ५८
दशकालिक, दशवैकालिक अथवा दशवैतालिक की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है-
दशकं अज्झयणाणं कालियं निरूत्तेण विहिणा ककारलोपे कृते दसकालियं । अहवा वेकालियं, मंगलत्थं पुव्वण्हे सत्थारंभो भवति, भगवया पुण अज्जसेज्जंवेणं कहमवि अवरहकाले उवयोगा कतो, कालातिवायविग्घपरिहारिणा य निज्जूढमेव, अतो विगते काले विकाले दसकमज्ज्ञयणाण कतमिति दसवेकालियं । चउपोरिसितो सज्झायकाले तम्मि विगते वि पढिज्जतीति विगयकालियं दसवेकालियं । दसमं वा वेतालियो पजाति वृत्तेहिं णियमितमज्झयणमिति दसवेतालियं । ५९
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षड्जीवनिका नामक चतुर्थ अध्ययन के अर्थाधिकार का विचार करते हुए चूर्णिकार कहते हैं-
जीवाजीवाहिगमो गाहा । पढमो जीवाहिगमो, अहियोपरिण्णाणं १ ततो अजीवाधिगमो २ चरित्तधम्मो ३ जयणा ४ उसो ५ धम्मफलं । तस्स चत्तारि अणओगद्दारा जहा आवस्सए । नामनिप्फण्णो भण्णति..६१
दशवैकालिक के अंत की दो चूलाओं-रतिवाक्यचूला और विविक्तचर्याचूला की रचना का प्रयोजन बताते हुए आचार्य कहते हैं-
धम्मे धितिमतो खुड्डियायारोत्थितस्स विदित्तछक्कायवित्थरस्स एसणीयादिधारितसरीरस्स समत्तायारावत्थितस्स वयणविभागकुसलस्स सुप्पणिहितजोगजुत्तस्स विणीयस्स दसमज्झयणोपवण्णितगुणस्स समत्तसकलभिक्खु भावस्स विसेसेण थिरीकरणत्थं विवित्तचरियोवदेसत्थं च उत्तरतं तमुपदिट्टं चूलितादुतं रतिवक्कं
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खवेत्तु
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - विवित्तचरिया चलिता या तत्थ धम्मे थिरीकरणत्था अध्ययन गाथा अगस्त्यसिंहकृत जिनदासकृत हरिभद्रकृत रतिवनकणामधेया पढमलचा भणिता। इदाणि
चूर्णि चूर्णि
चूर्णि विवित्तचरियोवदेसत्था बितिया चूला भाणिततव्वा।६२
मुक्का मुत्ता
मुत्ता 13 साहबो
साहुणो
साहुणो अन्त में चूर्णिकार ने अपनी शाखा का नाम, अपने गुरु
अहागडे हिं... अहाकडेसु.... अहागहेसु.... का नाम तथा अपना खुद का नाम बताते हुए निम्न गाथाएँ
पुप्फेहि पुप्फेहि
पुप्फे लिखकर चूर्णि की पूर्णाहुति की है--
कहं णु कुज्जा कतिहं कुज्जा कहं णु कुज्जा वीरवरस्स भगवतो तित्थे कोडीगणे सुविपुलम्मि।
कतिहं कुज्जा (पाठान्तर) कयाहं कुज्जा (पाठा.) कतिहं कुज्जा (पा.) गुणगणवइराभस्सा वेरसामिस्स साहाए।।1।।
कयाह कुज्जा ("" कहं णु कुज्जा (") कयाहं कुज्जा (") महरिसिसरिससभावा भावाऽभावाण मुणितपरमत्था
कह सकुज्जा (")
कथमहं (कहह)
2. 5 जिंदाहि रागं जिंदाहि दोसं रिसिगुत्तखमासमणो खमासमाणं निधी आसि।।2।
जिंदाहि दोस
विणए हि दोसं विणएज्ज राग विणएज्ज रागं तेसिं सीसेण इमा कलसभवमइंदणामधेज्जेणं।
संपुच्छणं संपुच्छणा
संपुच्छण दसकालियस्स चुण्णी पयाणरयणातो उवण्णत्था।3।
संपुच्छगो (पाठा.) 3 15
खवेत्ता
खवेत्ता रुयिरपदसंधिणियता छड्डियपुणरुत्तवित्थरपसंगा।
चित्तमंतमक्खा. चित्तमत्ता अक्खा चित्तमंत्तमक्खा बक्खाणमंतरेणावि सिस्समतिबोधणसमत्था॥4॥
(पाठा.) (पाठा.)
(पाठा.) ससमयपरसमयणयाण जंच ण समाधितं पमादेणं।
10 इच्छेतेहिं छहिं
इच्चेतेहिं छहिं इच्चेसि छहं
जीवनिकायेहि जीवनिकायेहि जीवनिकायाणं तं खमह पसाहेह य इय विण्णत्ती पवयणीणं।।5।।
5(प्र.उ.) 5 पाण-भूते य
पाण-भूते य पाणि-भूयाई चूर्णिकार का नाम कलशभवमृगेन्द्र अर्थात् अगस्त्यसिंह 5) ____13 अणातिले
अणाउले
अणाउले है। कलश का अर्थ है कुंभ, भव का अर्थ है उत्पन्न और मृगेंद्र 5(") जहाभागं
जहाभावं
जहाभागे का अर्थ है सिंह। कलशभव का अर्थ हुआ कुंभ से उत्पन्न होने
15 पाणियकम्मतं दगभवणाणि य दगभवणाणि च
इच्छेज्जा
य इच्छेज्जा वाला अगस्त्य। अगस्त्य के साथ सिंह जोड़ देने से अगस्त्यसिंह
गेण्हेज्जा 5(द्वि.उ.) 24 धारए
धारए
घावए बन जाता है। अगस्त्यसिंह के गुरु का नाम ऋषिगप्त है। ये
आयारभावदोसेण गाथा नहीं
आयारभावदोसनू कोटिगणीय वज्रस्वामी की शाखा के हैं।
गाथा नहीं गाथा है
गाथा नहीं प्रस्तुत प्रति के अंत में कुछ संस्कृत श्लोक है जिनमें मूल । - गाथा नहीं गाथा है
गाथा नहीं प्रति का लेखन कार्य सम्पन्न कराने वाली के रूप में शांतिमति ।
भवियवं
होयवयं के नाम का उल्लेख है--
9(प्र.उ.) 1 चिट्ठे
चिढे
सिक्खे चिट्टे (पाठा.) 9(दि.अ.) 1 साला
साला
साहा. सम्यक् शांतिमतिर्व्यलेखयदिदं मोक्षाय सत्पुस्तकम्।
9(तृ.उ.) 15 घुणिय
घुणिय
विहुय प्रस्तुत चूर्णि के मूल सूत्रपाठ, जिनदासगणिकृत चूर्णि के 9 (च.उ.) ॥ आरुहतिष्टहि आरहंतेहि
आरहंतेहिं मूल सूत्रपाठ तथा हरिभद्रकृत टीका के मूल सूत्रपाठ इन तीनों 10 दग
दग
तण में कहीं-कहीं थोड़ा-सा अंतर है। नीचे इनके कुछ नमूने दिए 10 10 विवज्जयित्ता विविंच धीर। विवज्जयित्ता जाते हैं जिनसे यह अंतर समझ में आ सकेगा। यही बात अन्य
-
1' 1 चूलिका 14 कुसीलं सकुसील
कुसिला ण प्पचलेंति
णो पयलेंति सूत्रों के व्याख्याग्रंथों के विषय में भी कही जा सकती है। '
नप्पचलेंति 2 " 3 निफेडो
निग्घाडो
उत्तारो दशवैकालिक सूत्र की गाथाओं के अंतर के कुछ नमूने इस ...
2 - 4 एवं
तम्हा प्रकार हैं--
dawondoniaidiodeomotorionidironidansooraM ३५idinabrandomsudasudiominironionidaidodasidar
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--- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य नियुक्तिगाथाओं की तो और भी विचित्र स्थिति है। नियुक्ति दुविहो लोगुत्तरिओ सुअधम्मो खलु चरित्तधम्मो । की ऐसी अनेक गाथाएँ हैं जो हरिभद्र की टीका में तो हैं किन्तु सुअधम्मो सज्झाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो।।43।। चूर्णियों में नहीं मिलती। हाँ, इनमें कुछ गाथाएँ ऐसी अवश्य हैं यह गाथा अर्थरूप से तो दोनों ही चूर्णियों में हैं, किन्तु जिनका चर्णियों में अर्थ अथवा आशय दे दिया गया है किन्तु गाथारूप से अधुरी या पूरी एक में भी नहीं है। जिन्हें गाथाओं के रूप में उद्धृत नहीं किया गया है। दूसरी बात
इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों चूर्णिकारों और टीकाकार यह है कि चूर्णियों में अधिकांश गाथाएँ पूरी की पूरी नहीं दी
हरिभद्र ने नियुक्ति-गाथाएँ समान रूप से उद्धृत नहीं की है। जाती हैं, अपितु प्रारंभ में कुछ शब्द उद्धृत कर केवल उनका
दोनों चूर्णिकारों में एतद्विषयक काफी समानता है, जबकि हरिभद्रसूरि निर्देश दिया जाता है। कुछ ही गाथाएँ ऐसी होती हैं जो पूरी
इन दोनों से इस विषय में बहुत भिन्न हैं। इस विषय पर अधिक उद्धृत की जाती हैं। हम यहां हरिभद्र की टीका में उपलब्ध कुछ
प्रकाश डालने के लिए विशेष अनशीलन की आवश्यकता है। नियुक्ति गाथाएँ उद्धृत कर यह दिखाने का प्रयत्न करेंगे कि उमें से कौन सी दोनों चूर्णियों में पूरी की पूरी है, कौन सी अपूर्ण निशोथ-विशेषचूर्णि अर्थात् संक्षिप्तरूप में है, किनका अर्थ रूप से निर्देश किया
जिनदासगणिकृत प्रस्तुत चूर्णि५ मूल सूत्र, नियुक्ति एवं गया है और किनका बिल्कुल उल्लेख नहीं है।
भाष्यगाथाओं के विवेचन के रूप में है। इसकी भाषा अल्प सिद्धिगइमुवगयाणं कम्मविसुद्धाण सव्वसिद्धाणं।
संस्कृत-मिश्रित प्राकृत है। प्रारंभ में पीठिका है जिसमें निशीथ नमिऊणं दसकालियणिज्जुतिं कित्तइस्सामि।।1।
की भूमिका के रूप में तत्संबद्ध आवश्यक विषयों का व्याख्यान यह गाथा न तो जिनदासगणि की चर्णि में है, न किया गया है। सर्वप्रथम चूर्णिकार ने अरिहंतादि को नमस्कार अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि में। इनमें इसका अर्थ अथवा संक्षिप्त किया है तथा निशीथचूला के व्याख्यान का संबंध बताया है-- उल्लेख भी नहीं है।
नमिऊणऽरहंताणं सिद्धाण य कम्मचक्कमुक्काणं। अपुहुत्तपुहुत्ताई निद्दसिउं एत्थ होइ अहिगारो।
सयणिसिनेहविमुक्काण सव्वसाहूण भावेण॥1॥ चरणकरणाणुजोगेण तस्स दारा इमे होंति॥4॥
सविसेसायरजुत्तं, काउ पणामं च अत्थदायिस्प।
पज्जुण्णखमासमणस्स, रण-करणाणुपालस्स।।2।। इस गाथा का अर्थ तो दोनों चूर्णियों में है किन्तु पूरी
एवं कयप्पणामो, पकप्पणामस्स विवरणं वन्ने। अथवा अपूर्ण गाथा एक भी नहीं है।
पुव्वायरियकयं चिय, अहं पि तं चेव उ विसेसा।।3।। णामं ठवणा दविए माउयपयसंगहेक्कए चेव।
भणिया विमुत्तिचूला, अहुणावसरो णिसीह चूलाए। पज्जव भावे य तहा सत्तेए एक्कगा होंति॥8॥
को संबंधो तस्सा, भण्णइ इणमो णिसामेहि।।4।। यह गाथा दोनों चूणियों में पूरी की पूरी उद्धृत की गई है। इन गाथाओं में अरिहंत, सिद्ध और साधुओं को सामान्य यह इन चूर्णियों की प्रथम नियुक्ति गाथा है जो हारिभद्रीय टीका रूप से नमस्कार किया गया है तथा प्रद्युम्न क्षमाश्रमण को की आठवीं नियुक्ति गाथा है
अर्थदाता के रूप में विशेष नमस्कार किया गया है। निशीथ का दव्वे अद्ध अहाउअ उवक्कमे देसकालकाले य दूसरा नाम प्रकल्प भी बताया गया है। तह य पमाणे वण्णे भावे पगयं तु भावेणं॥11॥
प्रारंभ में चूलाओं का विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने यह गाथा भी दोनों चूर्णियों में इसी प्रकार उपलब्ध है-- बताया है कि चूला छह प्रकार की होती है। उसका वर्णन जिस आयप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नत्ती।
प्रकार दशवैकालिक में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कर कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा।।16। लेना चाहिए?६६ इससे सिद्ध होता है कि निशीथचूर्णि
यह गाथा दोनों चूर्णियों में संक्षिप्त रूप से निर्दिष्ट है. पर्ण दशकालिकचूर्णि के बाद लिखी गई है। इसके बाद आचार का रूप में उद्धृत नहीं।
स्वरूप बताते हुए आचार्य ने आचारादि पाँच वस्तुओं की ओर didasonsidationsdadidndiansonsidustandinid6d[ ३६ /Hamridrinidiosariwariridwarsidaditariandidra
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चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य निर्देश किया है-आचार, अग्र, प्रकल्प, चलिका और निशीथा६७ स्त्यानर्द्धि निद्रा का स्वरूप बताते हए चर्णिकार कहते हैं इन सबका निक्षेप-पद्धति से विचार करते हुए निशीथ का अर्थ कि जिसमें चित्त थीण अर्थात् स्त्यान हो जाए-कठिन हो जाएइस प्रकार बताया गया है--निशीथ इति कोऽर्थः? निशीथ- जम जाए वह स्त्यानर्द्धि निद्रा है। इस निद्रा का कारण अत्यंत सद्दपट्ठीकरणत्थं वा भण्णति--
दर्शनावरण कर्म का उदय है -- इद्धं चित्तं तं थीणं जस्स जं होति अप्पगासं तं तु णिसीहं ति लोगसंसिद्ध।
अच्चंतदरिसणावरणकम्मोदया सो थीणद्धी भण्णति। तेण य जं अप्पगासधम्म, अण्णं पि तयं निशीधं ति।।
थीणेण ण सो किंचि उवलभति।७२ स्त्यानद्धि का स्वरूप विशेष
स्पष्ट करने के लिए आचार्य ने चार प्रकार के उदाहरण दिए हैंजमिति अणिदिटुं। होति भवति। अप्पगासमिति अंधकारं।
पुद्गल, मोदक, कुंभकार और हस्तिदंत। तेजस्काय आदि की जकारणिद्देसे तगारो होइ। सद्दस्स अवहारणत्थे तुगारो। अप्पगा
व्याख्या करते हुए चूर्णिकार ने 'अस्य सिद्धसेनाचार्यों व्याख्या सवयणल्स णिण्णयत्थे णिसीहंति। लोगे वि सिद्धं णिसीहं अप्पगासं। जहा कोइ पावासिओ पओसे आगओ, परेण बितिए
करोति, एतेषां सिद्धसेनाचार्यों व्याख्यां करोति, इमा पुण सागणिय
णिक्खितदाराण दोण्ह वि भद्दबाहुसामिकता प्रायश्चित्तव्याख्यानगाथा, दिणे पुच्छिओ कल्ले के वेलमागओ सि? भणति णिसीहे त्ति
एयस्स इमा भद्दबाहुसामिकता बक्खाणगाहा' आदि शब्दों के रात्रावित्यर्थः।८ निशीथ का अर्थ है अप्रकाश अर्थात् अंधकार।
साथ भद्रबाहु और सिद्धसेन के नामों का अनेक बार उल्लेख अप्रकाशित वचनों के निर्णय के लिए निशीथसूत्र है। लोक में भी
किया है। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय निशीथ का प्रयोग रात्रि-अंधकार के लिए होता है। इसी प्रकार
और त्रसकायसंबंधी यतनाओं, दोषों, अपवादों और प्रायश्चित्तों निशीथ के कर्मपंकनिषदन आदि अन्य अर्थ भी किए गए हैं। भावपंक
का प्रस्तुत पीठिका में अति विस्तृत विवेचन किया गया है। का निषदन तीन प्रकार का होता है--क्षय, उपशम और क्षयोपशम।
खान, पान, वसति, वस्त्र, हलन, चलन, शयन, भ्रमण, भाषण, जिसके द्वारा कर्मपंक शांत किया जाए वह निशीथ है।६९
गमन, आगमन आदि सभी आवश्यक क्रियाओं के विषय में __ आचार का विशेष विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने नियुक्ति
आचारशास्त्र की दृष्टि से सूक्ष्म विचार किया गया है। -गाथा को भद्रबाहु स्वामिकृत बताया है। इस गाथा में चार
प्राणातिपात आदि का व्याख्यान करते हुए चूर्णिकार ने मृषावाद प्रकार के पुरुष प्रतिसेवक बताए गए हैं जो उत्कृष्ट, मध्यम
के लौकिक और लोकोत्तर--इन दो भेदों का वर्णन किया है तथा अथवा जघन्य कोटि के होते हैं। इन पुरुषों का विविध भंगों के
लौकिक मृषावाद के अंतर्गत मायोपधि का स्वरूप बताते हुए चार साथ विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसी प्रकार स्त्री और
धूर्तों की कथा दी है। इस धूर्ताख्यान के चार मुख्य पात्रों के नाम नपुंसक प्रतिसेवकों का भी स्वरूप बताया गया है। यह सब
हैं-शशक, एलाषाढ, मूलदेव और खंडपाणा। इस आख्यान का निशीथ के व्याख्यान के बाद किए गए आचारविषयक प्रायश्चित्त के विवेचन के अंतर्गत है। प्रतिसेवक का वर्णन समाप्त करने
सार भाष्यकार ने निम्नलिखित तीन गाथाओं में दिया है-- के बाद प्रतिसेवना और प्रतिसेवितव्य का स्वरूप समझाया गया
सस-एलासाढ मूलदेव खंडा य जुण्णउज्जाणे। है। प्रतिसेवना के स्वरूप वर्णन में अप्रमादप्रतिसेवना, सहसात्करण,
सामत्थणे को भत्तं, अक्खातं जो ण सद्दहति॥294॥
चोरभया गावीओ, पोट्टलए बंधिऊण आणेमि। प्रमादप्रतिसेवना, क्रोधादि कषाय, विराधनात्रिक, विकथा, इंद्रिय, निद्रा और अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का प्रतिपादन किया गया
तिलअइरुढकुहाडे, वणगय मलणा य तेल्लोदा॥295।
वणगयपाटण कुंडिय, छम्मासा हत्थिलग्गणं पुच्छे। है। निद्रा-सेवन की मर्यादा की ओर निर्देश करते हए चर्णिकार
रायरयग मो वादे, जहिं पेच्छइ ते इमे वत्था।।296॥ ने एक श्लोक उद्धृत किया है जिसमें यह बताया गया है कि आलस्य, मैथुन, निद्रा, क्षुधा और आक्रोश-ये पाँचों सेवन करते
चूर्णिकार ने इन गाथाओं के आधार पर संक्षेप में धूर्तकथा रहने से बराबर बढ़ते जाते हैं-७१
देते हुए लिखा है कि शेष बातें धुत्तक्खाणग (धूर्ताख्यान) के
अनुसार समझ लेनी चाहिए--सेसं धुत्तक्खाणगानुसारेण पञ्च वर्धन्ति कौन्तेय! सेव्यमानानि नित्यशः।
णेयमिति। यहाँ तक लौकिक मृषावाद का अधिकार है। इसके आलस्यं मैथुनं निद्रा, क्षुधाऽऽक्रोशश्च पञ्चमः॥
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पेत्तेजए
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य - बाद लोकोत्तर मृषावाद का वर्णन है। इसी प्रकार अदत्तादान, किया गया है। व्याख्यानशैली सरल है। मूल सूत्रपाठ और मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन आदि का वर्णन किया गया है। यह चूर्णिसम्मत पाठ में कहीं-कहीं थोड़ा-सा अंतर दृष्टिगोचर होता वर्णन मुख्यरूप से दो भागों में विभाजित है। इनमें से प्रथम भाग है। उदाहरण के रूप में कुछ शब्द नीचे उद्धृत किए जाते हैं। ये दपिकासंबंधी है, दूसरा भाग कल्पिकासंबंधी। दर्पिकासंबंधी भाग शब्द आठवें अध्ययन कल्प के अंतर्गत है- ७७ में तत्तद्विषयक दोषों का निरूपण करते हुए उनके सेवन का
सूत्रांक सूत्रपाठ
चूर्णिपाठ निषेध किया गया है जबकि कल्पिकासंबंधी भाग में तत्तद्विषयक अपवादों का वर्णन करते हुए उनके सेवन का विधान किया गया
पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि पुव्वत्तावरत्तंसि है। ये सब मूलगुणप्रतिसेवना से संबद्ध हैं। इसी प्रकार आचार्य ने
मुइंग
मुरव उत्तरगुणप्रतिसेवना का भी विस्तार व्याख्यान किया है। उत्तरगुण ६१ पट्टेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं जिय पटेहिं णिउणेहिं जिय पिण्डविशुद्धि आदि अनेक प्रकार के हैं। इनका भी दर्पिका और ६२ उण्होदएहि य कल्पिका के भेद से विचार किया गया है।
१०७ पित्तिज्जे __पीठिका की समाप्ति करते हुए इस बात का विचार किया १२२ अंतरावास
अंतरवास गया है कि निशीथपीठिका का यह सूत्रार्थ किसे देना चाहिए
अंतगडे और किसे नहीं। अबहुश्रुत आदि निषिद्ध पुरुषों को देने से प्रवचन
२३२ पज्जोसवियाणं
पज्जोसविए घात होता है। अतः बहुश्रुत आदि सुयोग्य पुरुषों को ही
अणट्ठाबंधिस्स
अट्ठाणबंधिस्स निशीथपीठिका का यह सूत्रार्थ देना चाहिए।७५ यहाँ तक पीठिका
का अधिकार है। इसके आगे निशीथसत्र और भाष्यगाथाओं का इस प्रकार के पाठभेदों के अतिरिक्त सूत्र-विपर्यास भी विश्लेषण करते हुए उनकी विषयवस्तु का विवरण दिया गया है। देखने में आता है। उदाहरण के लिए इसी अध्ययन के सूत्र १२६ इस पर विशेष विवेचन हेतु पं. दलसुख भाई मालवणिया की और १२७ चूर्णि में विपरीत रूप में मिलते हैं। इसी प्रकार आचार्य पुस्तक निशीथ एक अध्ययन' देखनी चाहिए।
पृथ्वीचंद्रविरचित कल्पटिप्पनक में भी अनेक जगह पाठभेद
दिखाई देता है। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि यह चर्णि मुख्यतया प्राकत में है। कहीं-कहीं संस्कत -
पपूण शब्दों अथवा वाक्यों के प्रयोग भी देखने को मिलते हैं। चूर्णि यह चूर्णि - मूल सूत्र एवं लघु भाष्य पर है। इसकी भाषा का आधार मूल सूत्र एवं नियुक्ति है। प्रारंभ में चूर्णिकार ने संस्कृतमिश्रित प्राकृत है। प्रारंभ में मंगल की उपयोगिता पर परंपरागत मंगल की उपयोगिता का विचार किया है। तदनन्तर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत चूर्णि का प्रारंभ का यह अंश प्रथम नियुक्ति-गाथा का व्याख्यान किया है--
दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि के प्रारंभ के अंश से बहुत कुछ मिलतावंदामि भद्दबाई, पाईणं चरमसयलसुअनाणिं।
जुलता है। इन दोनों अंशों को यहाँ उद्धृत करने से यह स्पष्ट हो सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे अ ववहारे।।1।।
जाएगा कि उनमें कितना साम्य है-- भद्दबाहु नामेणं, पाईणो गोत्तेणं, चरिमो अपच्छिमो, सगला
__मंगलादीणिसत्थाणि मंगलमज्झाणि मंगलावसाणाणि। इंचोद्दसपुव्वाइं। किं निमित्तं नमोक्कारो तस्स कज्जति? उच्यते
मंगलपरिग्गहिया य सिस्सा सुत्तत्थाणं अवग्गहेहापायधारणासमत्था जेण सुत्तस्स कारओ ण अत्थस्स, अत्थो तित्थगरातो पसूतो।
भवंति। तानिचाऽऽदिमध्याऽवसानमंगलात्मकानि सर्वाणि लोके जेण भण्णति-अत्थं भासति अरहा...। इसके बाद श्रुत का वर्णन
विराजन्ति विस्तारं च गच्छन्ति। अनेन कारणेनादौ मंगलं मध्ये किया गया है। तदनन्तर दशाश्रतस्कन्ध के दस अध्ययनों के मगलमवसाने मगलमिति। आदि मंगलग्गहणेणं तस्स स सत्थस्स अधिकारों पर प्रकाश डालते हुए उनका क्रमशः व्याख्यान
- अविग्धेण लहुं पारं गच्छन्ति। मज्झमंगलगहणेणं तं सत्थं
आ
थिरपरिजियं भवइ। अवसाणमंगलग्गहणेणं तं सत्थं सिस्सranduardiarioudidroidroidroidnidasdroidroomindia-[ ३८ Hamirsionirodwordsradd-insubmiuoridiroinorbidroin
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- यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - पसिस्सेसु अव्वोच्छित्तिकरं भगइ। तत्रादौ मंगलं भाषाओं में पर्याय दिए हैं-सक्कयं जहा वृक्ष इत्यादि, पागतं जहा पापप्रतिपेधकत्वादिदं सूत्रम्...
रुक्खो इत्यादि। देशाभिधानं च प्रतीत्य अनेकाभिधानं भवति --बृहतकल्पचूर्णि, पृ.१.
जधा ओदणो मागधाणं कूरो लाडाणं चोरो दमिलाणं इडाकु
अंधाणं । संस्कृत में जिसे वृक्ष कहते हैं वही प्राकृत में रुक्ख, मंगलादीणि सत्थाणि मंगलमज्झाणि मंगलावसाणाणि
मगध देश में ओदण, लाट में कूर, दमिल-तमिल में चोर और मंगलपरिग्गहिता य सिस्सा अवग्गहेहापायधारणासमत्था अविग्घेण
अंध-आंध्र में इडाकु कहा जाता है। सत्थाणं पारगा भवंति। ताणि य सत्थाणि लोगे वियरंति वित्थारं च गच्छति। तत्थादिमंगलेण निव्विग्घेण सिस्सा सत्थस्स पारं
कर्म-बंध की चर्चा करते हुए एक जगह चूर्णिकार ने गच्छन्ति। मज्झमंगलेण सत्थं थिरपरिचिअंभवइ अवसाणमंगलेण
विशेषावश्यकभाष्य तथा कर्मप्रकृति का उल्लेख किया है-- सत्थं सस्स पसिस्सेसु परिचयं गच्छति। तत्थादिमंगलं.... -
वित्थरेण जहा विसेसावस्सगभासे सामित्तं चेव सव्वपगडीणं को दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि, पृ. १
केवतियं बंधइ खवेइ वा, कत्तियं को उत्ति जहा कम्मपगडीए।१
इसी प्रकार प्रस्तुत चूर्णि में महाकल्प और गोविंदनियुक्ति का इन दोनों पाठों में बहुत समानता है। ऐसा प्रतीत होता है
भी उल्लेख है - तत्थ नाणे महाकप्पसुयादीणं अट्ठाए। दंसणे कि दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि के पाठ के आधार पर बृहत्कल्पचूर्णिी
गोविन्दनिज्जुत्तादीण।८२ का पाठ लिखा गया है। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि का उपर्युक्त पाठ संक्षिप्त एवं संकोचशील है, जबकि बृहत्कल्पचूर्णि का पाठ
चूर्णि के प्रारंभ की भाँति अंत में भी चूर्णिकार के नाम का विशेष स्पष्ट एवं विकसित प्रतीत होता है। भाषा की दृष्टि से भी कोई उल्लेख अथवा निर्देश नहीं है। अंत में केवल इतना ही दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि बृहत्कल्पचर्णि से प्राचीन मालम होती है। उल्लेख है - कल्पचूर्णी समाप्ता। ग्रन्था ५३०० जितना बहत्कल्पचर्णि पर संस्कृत का प्रभाव है उतना प्रत्यक्षरगणनयानिणीतम्। ऐसी दशा में किसी अन्य निश्चित प्रमाण दशाश्रतस्कन्धचर्णि पर नहीं है। इन तथ्यों को देखते हए ऐसा के अभाव में चूर्णिकार के नाम का असंदिग्ध निर्णय करना प्रतीत होता है कि दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि बृहत्कल्पचूर्णि से पूर्व
अशक्य प्रतीत होता है। लिखी गई है और संभवत: दोनों एक ही आचार्य की कृतियाँ हैं।
सन्दर्भ __ प्रस्तुत चूर्णि में भी भाष्य के ही अनुसार पीठिका तथा छह १. आर्हत आगमोनी चूर्णिऔं अने तेनुं मुद्रण-सिद्धचक्र,, भा.९, उद्देश हैं। पीठिका के प्रारंभ में ज्ञान के स्वरूप की चर्चा करते हुए
अं.८, पृ. १६५ चूर्णिकार ने तत्त्वार्थाधिगम का एक सूत्र उद्धृत किया है। अवधिज्ञान के जघन्य और उत्कृष्ट विषय की चर्चा करते हुए २. आवश्यकचूर्णि (पूर्वभाग), पृ. ३४१ चूर्णिकार कहते हैं--
३. दशवैकालिकचूर्णि, पृ. ७१ जावतिए त्ति जहण्णेणं तिसमयाहारगसुहमपणगजीवावगाहणामेत्ते ४. उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. २७४ उक्कोसेणं सव्वबहुअगणिजीवपरिच्छित्तेपासइ दव्वादि आदिग्गहेणेणं वण्णादि तमिति खेत्तं ण पेच्छति यस्मादुक्तम् रूपिष्ववधेः
अनुयोगद्वारचूर्णि, पृ. १ (तत्त्वार्थ. 1-28 ) तच्चारूपि खेत्तं अतो ण पेच्छति।" ६. जैनग्रन्थावली, पृ. १२, टि. ५
अभिधान अर्थात् वचन और अभिधेय अर्थात् वस्तु इन ७. गणधरवाद, पृ. २११ दोनों के पारस्परिक संबंध की चर्चा करते हुए चूर्णिकार ने ८. गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. ३२-३३ भाष्याभिमत अथवा यह कहिए कि जैनाभिमत भेदाभेदवाद का प्रतिपादन किया है। अभिधान और अभिधेय को कथञ्चितभिन्न
९. जैन आगम, पृ. २७ और कञ्च त अभिन्न बताते हए आचार्य ने वक्ष शब्द के छह 10. a.A History of the CanonicalLiterature of the Jains,
P.191
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से.
- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य b. नन्दीसूत्रचूर्णि (प्रा.टे.सो.), पृ. ८३
३१. आवश्यक चूर्णि (उत्तर भाग), पृ. ९ ११. गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. ४४
३२. वही, पृ. २० १२. वही, वृद्धिपत्र, पृ. २११
३३. वही, पृ. २० १३. निशीथसूत्र (सन्मति ज्ञानपीठ), भा ४: प्रस्तावना, पृ. ३४ ३४. वही, पृ.५२
३५. वही १४. जैनग्रन्थावली, पृ. १२-१३, टि. ५
३६. वही, पृ. १२० १५. श्री विशेषावश्यकसत्का अमुतिगाथा: श्री नन्दीसूत्र चूर्णिः
३७. दस उद्देसकाला दसाण कप्पस्स “ति छच्चेव। दस चेव हारिभद्रीया वृत्तिश्च- श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर
ववहारस्स होंति सव्वेवि छब्बीसं।। पृ. १४८ संस्था, रतलाम, सन् १९६६
३८. वही, पृ. १५७-५८ १६. विशेषावश्यकभाष्य, गा. ३०८९ - ३१३५
३९. वही, पृ. २०२ १७. हरिभद्रकृतवृत्तिसहित - श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १९२८
४०. वही, पृ. २४६ १८. इमस्स सत्तस्स जहा नंदिचण्णीए वक्खाणं तथा इहषि वक्खाणं ४१. वही, पृ. २४८
दट्ठव्वं। अनुयोगद्वारचूर्णि, पृ. १-२ तुलना - नन्दीचूर्णि, पृ ४२. वही, पृ. २४९ १० और आगे
४३. वही, पृ. ३२५ १९. अनुयोगद्वारचूर्णि, पृ. ३
४४. श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी, श्वेताम्बर संस्था, २०. श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बरसंस्था, रतलाम, रतलाम, सन् १९३३ पूर्वभाग, सन् १९२८; उत्तरभाग सन् १९२९
४५. दशवैकालिकचूर्णि, पृ. ७१ २१. पूर्वभाग पृ. ३१, ३४१; उत्तरभाग, सन् १९२९
४६. वही, पृ. १८४, १८७, २०२, २०३ २२. आवश्यकचूर्णि (पूर्वभाग), पृ. ७९
४७. तरंगवती, पृ. १०६, ओघनियुक्ति - पृ. १७५, २३. वही, पृ. ८५
'पिण्डनियुक्ति, पृ. १७८ आदि २४. वही, पृ. ८७ - ९१
४८. श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम,
सन् १९३३ २५. वही, पृ. १२१ २६. देखिए - आवश्यकनियुक्ति, गा. १४०-१४१
४९. उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. २७४
५०. श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी, श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, २७. आवश्यकचूर्णि (पूर्वभाग), पृ. १४७
। सन् १९४१ २८. देखिए - आवश्यक नियुक्ति, गा. ३३५-४४०
५१. वही २९. आवश्यक चूर्णि (पूर्व भाग), पृ. २४५
५२. विषमपदव्याख्यालंकृतसिद्धसेनगणिसन्दृब्ध३०. वही, पृ. ४२७ (निहननाद के लिए देखिए - बृहच्चूर्णिसमन्वित जीतकल्पसूत्र, सम्पादकविशेषावश्यकभाष्य, गा. २३०६-२६०९)
मुनिजिनविजय, प्रकाशक - जैनसाहित्यसंशोधक-समिति,
अहमदाबाद, सन् १९२६ onioraduraridrowonodwebritoniorironoraminorinod४०idnirbronirodriwaridrotonirirdroidrordwordwordroid
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गायन कल्पसूत्रपाठ, निमलित है बेचरदास
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य ५३. अहवा बितियचुनिकाराभिपायेण चत्तारि.... जीतकल्पचूर्णि, ७१. वही, पृ.५४
७२. वही, पृ. ५५ ५४. वही, पृ. ३,४,२१
७३. वही, पृ. १०२ ५५. वही, पृ.४
७४. वही, पृ. १०५, आचार्य हरिभद्रकृत धूर्ताख्यान का आधार ५६. वही, पृ. ३०
यह प्राचीन कथा है। ५७. प्रस्तुत चूर्णि की हस्तलिखित प्रति श्री पुण्यविजय जी की ७५. वही, पृ. १६५-१६६
कृपा से प्राप्त हुई अतः लेखक मुनिश्री का अत्यन्त आभारी ७६. इस चर्णि की हस्तलिखित प्रति श्री पण्यविजयजी की कपा है। यह प्रति जैसलमेर ज्ञानभण्डार से प्राप्त प्राचीन प्रति की
से प्राप्त हुई अतः उनका अति आभारी हूँ। इसका आठवाँ प्रतिलिपि है।
अध्ययन कल्पसूत्र के नाम से अलग प्रकाशित हुआ है ५८. दशवैकालिकचूर्णि, पृ. २
जिसमें मूलसूत्रपाठ, नियुक्ति, चूर्णि और ५९. वही, पृ. ७-८
पृथ्वीचन्द्राचार्यविरचित टिप्पनक सम्मिलित हैं। सम्पादक
-- मुनि श्री पुण्यविजयजी, गुजराती भाषान्तर - पं. बेचरदास ६०. नियुक्तिगाथा - जीवाजीवाहिगमो चरित्तधम्मो तहेव जयणा
जीवराज दोसी, चित्रविवरण - साराभाई मणिलाल नवाब, य। उवएसो धम्मफलं छज्जीवणियाइ अहिगारा ।।
प्राप्तिस्थान - साराभाई मणिलाल नवाब, छीपा मावजीनी ६१. वही, पृ. १४६-४७
पोल, अहमदाबाद, सन् १९५२ ६२. वही, पृ. ४९७
७७. मुनि श्रीपुण्यविजयजी द्वारा स्वीकृत पाठ के आधार पर इन ६३. गाथा-संख्या का आधार मनिश्री पुण्यविजयजी द्वारा तैयार शब्दों का संग्रह किया गया है। की गई दशवैकालिक की हस्तलिखित प्रति है।
७८. इस चूर्णि की हस्तलिखित प्रति के लिए मुनि श्रीपुण्यविजयजी ६४. देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, ग्रंथांक - ४७
का कृतज्ञ हूँ जिन्होंने अपनी निजी संशोधित प्रति मुझे देने
की कृपा की। ६५. सम्पादक-उपाध्याय श्री अमरचन्द व मुनि श्रीकन्हैया लाल
जी, सन्मति ज्ञानपीठ,लोहामण्डी, आगरा, सन् १९५७-१९६० १. निशोथ: एक अध्ययन - पं. दलसख मालवणिया सन्मति ८०. वहा, पृ. २५ ज्ञानपीठ, आगरा, सन् १९५९ .
८१. वही, पृ. ३७ ६६. सा य छव्विहा - जहा दसवेयालिए भणिया तहा भाणियव्वा। ८२. वही, पृ. १३८३ प्रथम भाग, पृ. २
८३. वही, पृ. १६२० ६७. भाष्यगाथा - ३ ६८. निशीथविशेषचूर्णि, पृ. ३४
- जैन साहित्य के ६९. वही, पृ. ३४-३५
वृहद् इतिहास से साभार।
- सम्पादक ७०. एसा भइबाहुसामिकता गाहा -वही, पृ. ३८
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प्राचीन दिगम्बराचार्य और उनकी साहित्यसाधना
डॉ. रमेशचन्द्र जैन, जैन मन्दिर के पास, बिजनौर (उ.प्र.) २४६७०१.....)
आचार्य गुणधर
कषायपाहुड का दूसरा नाम पेज्जदोसपाहुड है। पेज्ज का द्वादशाङ्गश्रुत के बारहवें अङ्ग के जो पाँच भेद शास्त्रों में अर्थ राग है। यह ग्रंथ राग और द्वेष का निरूपण करता है। निरूपित हैं, उनमें से चौथे भेद पूर्वगत के चौदह भेदों में से दूसरे
क्रोधादि कषायों की राग-द्वेष परिणति और उनकी प्रकृति, स्थिति,
अनुभाग और प्रदेशबंध सम्बन्धी विशेषताओं का विवेचन ही अग्रायणीय पूर्व की १४ वस्तुओं में से पाँचवीं चयनलब्धि के २० प्राभृतों में से चौथे कर्म प्रकृति प्राभृत के २४ अनुयोग द्वारों
इस ग्रंथ का मूल वर्ण्य विषय है। यह ग्रंथ सूत्रशैली में निबद्ध है।
गुणधर ने गहन और विस्तृत विषय को अत्यन्त संक्षेप में प्रस्तुत में से भिन्न-भिन्न अनुयोग-द्वार एवं उनके अवान्तर अधिकारों से षट्खण्डागम के विभिन्न अङ्गों की उत्पत्ति हुई। पाँचवें ज्ञान
कर सूत्रपरम्परा का आरम्भ किया है। उन्होंने अपने ग्रंथ के
निरूपण की प्रतिज्ञा करते हुए गाथाओं को सुत्तगाहा कहा है।' प्रवाद पूर्व की दसवीं वस्तु के तीसरे पेज्जदोसपाहुडं से कषायपाहुड की उत्पत्ति हुई।
आचार्य धरसेन- भगवान महावीर के निर्वाण से ६८३ वर्ष
बीत जाने पर आचार्य धरसेन हुए। नन्दिसंघ की पट्टावली के गुणधराचार्य ने कषायपाहुड की रचना षटखण्डागम से
अनुसार धरसेनाचार्य का काल वीर-निर्वाण से ६१४ वर्ष पश्चात् पूर्व की। गणधरग्रथित जिस पेज्जदोसपाहुड में सोलह हजार मध्यम पद थे, अर्थात् जिनके अक्षरों का परिमाण दो कोटाकोटी
जान पड़ता है। इकसठ लाख सत्तावन हजार दो सौ बानवे करोड़, बासठ लाख
आचार्य धरसेन अष्टाङ्ग महानिमित्त के ज्ञाता थे, जिस आठ हजार था, इतने महान् विस्तृत ग्रंथ का सार २३३ गाथाओं प्रकार दीपक से दीपक जलाने की परम्परा चालू रहती है, उसी में आचार्य गुणधर (विक्रम की दूसरी शती का पूर्वार्द्ध) ने प्रकार आचार्य धरसेन तक भगवान महावीर की देशना आंशिक कषायपाहुड में निबद्ध किया। कषायपाहड पन्द्रह अधिकारों में रूप में पूर्ववत् धारा प्रवाह रूप से चली आ रही थी। आचार्य बँटा हुआ है - १. पेज्जदोसविभक्ति, २. स्थितिविभक्ति, ३. धरसेन काठियावाड़ में स्थित गिरिनगर (गिरिनार पर्वत) की अनुभागविभक्ति, ४. प्रदेशविभक्ति, झीणाझीणस्थित्यन्तिक, ५.
चन्द्रगुफा में रहते थे। जब वे वृद्ध हो गए और अपना जीवन बंधक, ६. वेदक, ७. उपयोग, ८. चतुः स्थान, ९. व्य जन, अत्यल्प अवशिष्ट देखा, तब उन्हें यह चिंता हुई कि अवसर्पिणी १०. दर्शनमोहोपशमना, ११. दर्शनमोहक्षपणा, १२. काल के प्रभाव से श्रुतज्ञान का प्रतिदिन हास होता जाता है। इस संयमासंयमलब्धि, १३. संयमलब्धि, १४. चारित्रमोहोपशमना. समय मुझे जो कुछ श्रुत प्राप्त है, उतना भी आज किसी को नहीं १५. चारित्रमोहक्षपणा।
है। यदि मैं अपना श्रुत दूसरे को नहीं दे सका, तो यह भी मेरे ही २३३ गाथाओं द्वारा सूचित अर्थ की सूचना यतिवृषभ ने
साथ समाप्त हो जाएगा। उस समय देशेन्द्र नामक देश में
वेणाकतटीपुर में महामहिमा के अवसर पर विशाल मुनि समुदाय ६००० श्लोकप्रमाण चूर्णिसूत्रों द्वारा दी और उनका व्याख्यान
विराजमान था। श्री धरसेनाचार्य ने एक ब्रह्मचारी के हाथ वहाँ उच्चारणाचार्य ने १२००० श्लोकप्रमाण उच्चारणवृत्ति के द्वारा
मुनियों के पास एक पत्र भेजा। उसमें लिखा था - किया। उसका आश्रय लेकर ६० हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका रची गई।
"स्वस्ति श्रीमत् इत्य जयन्ततटनिकटचन्द्रगुहावासाद्
धरसेनगणी वेणाकतटसमदितयतीन अभिवन्द्य कार्यमेवं rawitationsansarsanstarsansartoonsortal ४२ Moteicintionsansarsansationsansartandidation
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ निगदत्यस्माकमायुरवशिष्टम् । स्वल्प तस्मादस्मच्छुतस्य शास्त्रस्य व्युच्छित्तिः ॥ न स्यात्तथा तथा द्वौ यतीश्वरौ ग्रहणधारणसमर्थौ निशितप्रज्ञौ यूयं प्रस्थापयत ......
।।"
'स्वस्ति श्रीमान् ऊर्जयन्त तट के निकट स्थित चन्द्र गुहावास से धरसेनाचार्य वेणाक तट पर स्थित मुनिसमूहों की वन्दना करके इस प्रकार से कार्य को कहते हैं कि हमारी आयु अब अल्प ही अवशिष्ट रही है। इसलिए हमारे श्रुतज्ञानरूप शास्त्र का व्युच्छेद जिस प्रकार न हो, उसी तरह से आप लोग तीक्ष्ण बुद्धि वाले श्रुत को ग्रहण और धारण करने में समर्थ दो यतीश्वरों को मेरे पास भेजो।'
मुनिसंघ ने आचार्य धरसेन के श्रुतरक्षा सम्बन्धी अभिप्राय को जानकार दो मुनियों को गिरिनगर भेजा। वे मुनिविद्या ग्रहण करने में तथा उसका स्मरण रखने में समर्थ थे। अत्यन्त विनयी
तथा शीलवान् थे। उनके देश, कुल और जाति शुद्ध थे और वे समस्त कलाओं में पारङ्गत थे। जब वे दो मुनि गिरिनगर की ओर जा रहे थे, तब यहाँ श्री धरसेनाचार्य ने ऐसा शुभ स्वप्न देखा कि दो श्वेत वृषभ आकर उन्हें विनयपूर्वक वन्दना कर रहे हैं। उस स्वप्न से उन्होंने जान लिया कि आने वाले दोनों मुनि विनयवान एवं धर्मधुरा को वहन करने में समर्थ उनके मुख से 'जयउ सुयदेवदां' ऐसे आशीर्वादात्मक वचन निकले। दूसरे दिन दोनों मुनिवर आ पहुँचे और विनयपूर्वक उन्होंने आचार्य के चरणों में वन्दना की। दो दिन पश्चात् श्री धरसेनाचार्य ने उनकी परीक्षा की। एक को अधिक अक्षरों वाला और दूसरे को हीन अक्षरों वाला विद्यामंत्र देकर दो उपवास सहित उसे साधने को कहा। ये दोनों गुरु द्वारा दी गई विद्या को लेकर और उनकी आज्ञा से नेमिनाथ तीर्थंकर की सिद्धभूमि जाकर नियमपूर्वक अपनीअपनी विद्या की साधना करने लगे। जब उनकी विद्या सिद्ध हो गई, तब वहाँ पर उनके सामने दो देवियाँ आईं। उनमें से एक देवी के एक आँख थीं और दूसरी देवी के दाँत बड़े-बड़े थे।
जैन आगम एवं साहित्य
!
अपने-अपने मंत्रों को शुद्ध कर पुनः अनुष्ठान किया, जिसके फलस्वरूप देवियाँ अपने यथार्थ स्वरूप में प्रकट हुईं और बोलीं कि हे नाथ ! आज्ञा कीजिए। हम आपका क्या कार्य करें दोनों मुनियों ने कहा- देवियो ! हमारा कुछ भी कार्य नहीं है। हमने तो केवल गुरुदेव की आज्ञा से ही विद्या मंत्र की आराधना की है। यह सुनकर वे देवियाँ अपने स्थान को चली गईं।
पुष्पदन्त और भूतबलि- डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने पुष्पदन्त का समय ई. सन् ५०-८० माना है तथा भूतबलि का समय ई. सन् ६६-९० माना है। उपर्युक्त विवरण के अनुसार ये दोनों धरसेनाचार्य के शिष्य थे। पुष्पदन्त मुनिराज अपने भानजेको
मुनियों ने जब सामने देवियों को देखा, तो जान लिया कि पढ़ाने के लिए महाकर्म प्रकृति प्राभृत का छह खण्डों में उपसंहार मंत्रों में कोई त्रुटि है, क्योंकि देव विकृताङ्ग नहीं होते तब व्याकरण की दृष्टि से उन्होंने मंत्र पर विचार किया, जिसके सामने एक आँख वाली देवी आई थी, उन्होंने अपने मन्त्र में एक वर्ण कम पाया तथा जिसके सामने लम्बे दाँतों वाली देवी आई थी, उन्होंने अपने मंत्र में एक वर्ण अधिक पाया। दोनों ने
करना चाहते थे, अतः उन्होंने बीस अधिकार गर्भित सत्प्ररूपणा सूत्रों को बनाकर शिष्यों को पढ़ाया और भूतबलि मुनि का अभिप्राय जानने के लिए जिनपालित को यह ग्रंथ देकर उनके पास भेज दिया। इस रचना को और पुष्पदन्त मुनि के षट्खण्डागम रचना के अभिप्राय को जानकर एवं उनकी आयु भी अल्प है,
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मुनियों की इस कुशलता से गुरु ने जान लिया कि सिद्धांत का अध्ययन करने के लिए वे योग्य पात्र हैं। आचार्यश्री ने उन्हें सिद्धांत का अध्ययन कराया। वह अध्ययन आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन पूर्ण हुआ। उस दिन देवों ने दोनों मुनियों की पूजा की। एक मुनिराज के दाँतों की विषमता दूर कर देवों ने उनके दाँत कुन्दपुष्प के समान सुन्दर करके उनका पुष्पदंत यह नामकरण किया तथा दूसरे मुनिराज की भी भूत जाति के देवों ने तूर्यनाद, जयघोष, गंधमाला, धूप आदि से पूजा कर 'भूतबलि'
नाम से घोषित किया।
अनन्तर श्री धरसेनाचार्य ने विचार किया कि मेरी मृत्यु का समय निकट है। इन दोनों को संक्लेश न हो, यह सोचकर वचनों द्वारा योग्य उपदेश देकर दूसरे दिन ही वहाँ से कुरीश्वर देश की ओर विहार करा दिया। यद्यपि वे दोनों गुरु के चरण - सान्निध्य में कुछ समय रहना चाहते थे, तथापि गुरु के वचन अनुल्लङ्घनीय हैं, ऐसा विचार कर वे उसी दिन वहाँ से चल दिए और अंकलेश्वर (गुजरात) में आकर उन्होंने वर्षाकाल बिताया। वर्षाकाल व्यतीत कर पुष्पदन्त आचार्य तो अपने भानजे जिनपालित के साथ वनवास देश को चले गए और भूतबलि भट्टाख द्रविड़ देश को चले गए।
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - ऐसा समझकर भी भूतबलि आचार्य ने द्रव्यप्ररूपणा आदि अपेक्षा काल, ९. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर, १०. अधिकारों को बताया। इस तरह पूर्व के सूत्रों सहित छह हजार भागाभागानुगम और ११. अल्पबहुत्वानुगम। इन अनुयोग-द्वारों श्लोक प्रमाण में उन्होंने पाँच खण्ड बनाए और तीस हजार के प्रारम्भ में भूमिका के रूप में बंध के सत्त्व की प्ररूपणा की प्रमाण सूत्रों में महाबंध नाम का छठा खण्ड बनाया।
गई है और अंत में सभी अनुयोग-द्वारों को चूलिका रूप से छह खण्डों के नाम इस प्रकार हैं - जीव स्थान, क्षद्रक, अल्पबहुत्व महादण्डक दिया गया है। बंध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड और महाबन्ध। ३. बन्धस्वामित्वविचय भूतबलि आचार्य ने इस षट्खण्डागम सूत्रों को पुस्तकबद्ध किया
इस खण्ड में कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों का बंध करने और ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन चतुर्विधसंघ सहित कृतिकर्मपूर्वक
वाले स्वामियोंका विचय अर्थात् विचार किया गया है। महापूजा की। इसी दिन से इस पंचमी का 'श्रुतपंचमी' नाम प्रसिद्ध हो गया और तब से लेकर लोग श्रुतपंचमी के दिन श्रुत ४ वेदनाखण्ड की पूजा करते हैं। पुनः भूतबलि ने जिनपालित को षटखण्डागम
इसमें छह अनुयोग-द्वारों में वेदना नामक दूसरे अनुयोग ग्रंथ देकर पुष्पदन्त मुनि के पास भेजा। उन्होंने अपने चिंतित
का विस्तार से वर्णन किया गया है। कार्य को पूरा हुआ देकर महान् हर्ष व्यक्त किया और श्रुत के अनुराग से चातुर्वर्ण संघ के मध्य महापूजा की।
५. वर्गणाखण्ड षट्खण्डागम यथानाम छह खण्डों की रचना है। इन छह महाकर्मप्रकृति प्राभृत के २४ अनुयोग द्वारों में स्पर्श, कर्म खण्डों का विशेष परिचय इस प्रकार है -
और प्रकृति ये तीन अनुयोग द्वार स्वतंत्र हैं और भूतबलि आचार्य
ने इनका स्वतंत्र रूप से ही वर्णन किया है, तथापि छठे बंधन १. जीव स्थान
अनुयोग द्वार के अन्तर्गत बंधनीय का अवलम्बन लेकर पुद्गल इस खण्ड में गुणस्थान और मार्गणास्थान का आश्रय वर्गणाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है और आगे के लेकर सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अनयोग द्वारों का वर्णन आचार्य भूतबलि ने नहीं किया है, अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोग-द्वारों से तथा प्रकृतिसमुत्कीर्तना, इसलिए स्पर्श अनुयोग द्वार से लेकर बंधन अनुयोग द्वार तक का स्थान समुत्कीर्तना, तीन महादण्डक, जघन्य स्थिति, उत्कृष्ट स्थिति, वर्णित अंश वर्गणाखण्ड के नाम से प्रसिद्ध हआ। सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति-अगति इन नौ चूलिकाओं के द्वारा जीव की विविध अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। राग-द्वेष ६. महाबंध
और मिथ्यात्व भाव को मोह कहते हैं। मन-वचन. काय के । षट्खण्डागम के दूसरे खण्ड में कर्मबंध का संक्षेप में निमित्त से आत्मप्रदेशों के चंचल होने को योग कहते हैं। इन्हीं वर्णन किया गया है। अत: उसका नाम खुद्दाबंध या क्षुद्रबंध मोह और योग के दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप, आत्म गुणों की प्रसिद्ध हुआ, किन्तु छठे खण्ड में बंध की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग विकास रूप अवस्थाओं को गण-स्थान कहते हैं।
और प्रदेश रूप चारों प्रकार के बंधों का अनेक अनुयोग द्वारों से
विस्तारपूर्वक विवेचन किया है, इसलिए इसका नाम महाबंध २. खुद्दाबन्ध
रखा गया। इसमें कर्मबन्धक के रूप में जीव की प्ररूपणा इन ग्यारह अनुयोग-द्वारों द्वारा की गई है - १. एक जीव की अपेक्षा आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्ति स्वामित्व. २. एक जीव की अपेक्षा काल, ३. एक जीव की
ये दोनों आचार्य दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं अपेक्षा अन्तर, ४. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, ५. द्रव्य में प्रतिष्ठित हैं। धवला टीका में इन दोनों को महाश्रमण और प्रमाणानुगम, ६. क्षेत्रानुगम, ७. स्पर्शानुगम, ८. नाना जीवों की महावाचक लिखा गया है। जयधवला में आर्यमंक्षु और नागहस्ति
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-- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - जैन आगम एवं साहित्य - का उल्लेख करते हुए इन दोनों को आचार्य-परम्परा का अभिज्ञ स्वर्गस्थ हो गए, तब उनके अनन्यतम शिष्य जिनसेन ने ४० माना गया है। वहाँ कहा गया है कि विपुलाचल के ऊपर स्थित हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर एक अनुपम उदाहरण जगत् भगवान् महावीर रूपी दिवाकर से निकलकर गौतम, लोहार्य, के समक्ष रखा। अपने गुरु वीरसेनाचार्य की महिमा बतलाते हुए जम्बू स्वामी आदि आचार्य परम्परा से आकर गुणधराचार्य को जिनसेन स्वामी ने कहा है कि षट्खण्डागम में उनकी वाणी प्राप्त होकर वहाँ गाथा रूप से परिणमन करके पुनः आर्यभक्षु अस्खलित रूप से प्रवर्तित होती थी। उनकी सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक और नागहस्ति आचार्य के द्वारा आर्य यतिवृषभ को प्राप्त होकर प्रज्ञा को देखकर किसी भी बुद्धिमान् को सर्वज्ञ की सत्ता में चूर्णिसूत्ररूप से परिणत हुई दिव्यध्वनि किरण रूप से अज्ञान शंका नहीं रही थी। वीरसेन स्वामी की धवला टीका ने षटखण्डागम अंधकार को नष्ट करती है।
सूत्रों को चमका दिया। जिनसेन ने उन्हें कवियों का चक्रवर्ती इससे स्पष्ट है कि ये दोनों आचार्य अपने समय के कर्मसिद्धांत तथा अपने आपके द्वारा परलोक का विजेता कहा है। के महान् वेत्ता और आगम के पारगामी थे। आचार्य वीरसेन ने नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार भगवान् महावीर की लिखा है -
२९वीं पीढ़ी में अर्हदबलि मुनिराज हुए। तीसवीं पीढ़ी में माघनन्दी गुणहरवयणविणिग्गिय - गाहाणत्थोऽवहारियो सव्वो।
मनिराज हए। माघनन्दी स्वामी के दो शिष्य थे- १. जिनसेन, २. जेणज्जमखुणा सो सणागहत्थी वरं देऊ ॥7॥
धरसेन। जिनसेन स्वामी के शिष्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य और धरसेन जो अज्जयमुंखुसीसो अंतेवासी विणादगहत्थिस्स।
स्वामी के शिष्य श्री पुष्पदन्त और भूतबलि थे। इस हिसाब से सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो में वरं देऊ ॥8॥
धरसेन स्वामी तीर्थंकर वर्द्धमान की ३१वीं पीढ़ी में हुए और अर्थात् जिन आर्यभक्षु और नागहस्ति ने गणधराचार्य के कुन्दकुन्द स्वामी तथा पुष्पदन्त भूतबलि आचार्य ३२वीं पीढी में मुखकमल से विनिर्गत कसायपाहुड की गाथाओं के समस्त
हुए, इसलिए धरसेन स्वामी आचार्य कुन्दकुन्द के काका-गुरु होते अर्थ को सम्यक प्रकार ग्रहण किया, वे हमें वर प्रदान करें।
हैं। आचार्य कुन्दकुन्द तथा पुष्पदन्त एवं भूतबलि आचार्य गुरुभाई
होते हैं। षट्खण्डागम सूत्र पर जो अनेक टीकाएँ रची गई हैं, उनमें डॉ. ज्योतिप्रसाद जैनागहस्ति की तिथि ई. सन् १३०
सबसे पहली टीका परिकर्म है। परिकर्म की रचना कौण्डकौण्डपुर १३२ निर्धारित की है और आर्यभक्षु को नागहस्ति से पूर्ववर्ती में
___ में श्री पद्मनन्दि मुनि (आचार्य कुन्दकुन्द) ने की थी। मानकर उनका समय ई. सन् ५० माना है।
षटखण्डागम के छह खण्डों में से प्रथम तीन सीटों पर षट्खण्डागम के टीकाकार
परिकर्म नामक बारह हजार श्लोकप्रमाण टीका ग्रंथ की रचना विक्रम की ९वीं शताब्दी और शक संवत् की ८वीं शताब्दी
उन्होंने की। धवल-जयधवल टीका में वीरसेन स्वामी ने अपने में आचार्य वीरसेन जैनदर्शन के दिग्गज विद्वान् आचार्य थे।
कथन की पुष्टि के लिए कितने ही स्थानों पर परिकर्म के कथन षटखण्डागम ग्रंथ की रचना के आठ सौ वर्ष बाद आप ही एक
का उल्लेख किया है। षटखण्डागम में छह खण्ड हैं। उनमें छठे ऐसे अद्वितीय आचार्य हुए हैं कि षटर्खण्डागम पर धवला नामक
खण्ड का नाम महाबंध है, इसकी टीका खूब विस्तृत है और टीका लिखकर एक अद्वितीय कार्य किया। यह टीका बहत्तर
वही महाधवल के रूप में प्रसिद्ध है। इस महाबंध की भी ताड़ सोनारों वाली बाहों पत्र पर लिखी हुई प्रति मूडबिद्री के शास्त्रभण्डार में सुरक्षित है। पर लिखी हुई सुरक्षित है। कषाय प्राभृत के रचयिता गुणधर षट्खण्डागम और कषाय-प्राभृत दोनों सिद्धांत-ग्रंथों पर स्वामी हैं। यतिवृषभ स्वामी ने चूर्णिसूत्रों द्वारा उसे स्पष्ट किया अनेके टीकाएँ रची गई हैं, जिनमें षटखण्डागम की धवला है। आचार्य वीरसेन के गुरु का नाम एलाचार्य था।
टीका कषायप्राभृत के चूर्णिसूत्र एवं जयधवला टीका तथा महाबंध उनके पास ही उन्होंने सिद्धांतग्रंथों का अध्ययन किया पर महाधवला नामक टीका उपलब्ध है। अन्य टीकाएँ उपलब्ध था। कसायपाहड की जयधवला टीका लिखने के पश्चात वे नहीं हैं। इन टीकाओं का विवरण निम्नलिखित है -
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[ ४५Hamiriramiriramdaniramidniriramidnidhwaridwara
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४८००५
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य
इसके साक्षी बंध और संक्रम आदि अधिकार हैं। यतः टीका का नाम आचार्य श्लोक प्रमाण शताब्दी
महाबंध में चारों प्रकारों के बंधों का अतिविस्तृत विवेचन उपलब्ध परिकर्म आचार्य कुन्दकुन्द १२००० द्वितीय शताब्दी था, अतः उसे एक सूत्र में ही कह दिया कि यह चारों प्रकार का
बंध बहुशः प्ररूपित है, किन्तु संक्रमण सत्त्व उदय और उदीरणा पद्धति आचार्य शामकुण्ड १२००० तृतीय शताब्दी
का विस्तृत विवेचन उनके समय तक किसी ग्रंथ में निबद्ध नहीं चूडामणि आचार्य तुम्बुलूर ९१००० चौथी शताब्दी
हुआ था, अतएव उनका प्रस्तुत चूर्णि में बहुत विशद एवं विस्तृत चूडामणि समन्तभद्राचार्य
पंचम शताब्दी वर्णन किया है। इसी से यह ज्ञात होता है कि यतिवृषभ का
आगमिक ज्ञान कितना अगाध, गम्भीर और विशाल था। व्याख्याप्रज्ञप्ति वप्पदेवगुरु
८००० षष्ठ शताब्दी
- धवला
यतिवृषभ को आर्यभक्षु और नागहस्ति जैसे अपने समय आचार्य वीरसेन
आठवीं शताब्दी ७२०००
के महान् आगम वेत्ता और कषायपाहुड के व्याख्याता आचार्यो महाधवला आचार्य जिनसेन xxx नवम् शताब्दी
से प्रकृत विषय का विशिष्ट उपदेश प्राप्त था, तथापि उनके
सामने और भी कर्मविषयक आगमसाहित्य अवश्य रहा है, जिसके आचार्य यतिवृषभ
आधार पर वे अपनी प्रौढ़ और विस्तृत चूर्णि को सम्पन्न कर सके हैं जयधवलाकार के उल्लेखानुसार आचार्य यतिवृषभ ने और कषायपाहुड की गाथाओं में एक-एक पद के आधार पर आर्यभक्षु और नागहस्ति के पास कषायपाहुड की गाथाओं का एक-एक स्वतंत्र अधिकार की रचना करने में समर्थ हो सके हैं। सम्यक् प्रकार अर्थ अवधारण करके सर्वप्रथम उन चूर्णिसूत्रों आचार्य यतिवषभ की दूसरी कृति के रूप से तिलोयपण्णत्ती की रचना की। श्वेताम्बर-ग्रंथों में एक स्थान पर चूर्णिपद का
प्रसिद्ध है और वह सानुवाद मुद्रित होकर प्रकाशित है। कम्मपयडी लक्षण इस प्रकार दिया गया है -
की गाथाओँ को कषायपाहुड चूर्णि का आधार बनाया गया है। इस अत्थबहुलं महत्थं हेउ निवाओवसग्गगंभीरं।
आधार पर कम्मपयडी भी यतिवृषभ कृत मानी जाती है। इसी बहुपायमवोच्छिन्नं गम नय सुद्धं तु चुण्णपयं ॥ प्रकार सतक और सित्तरी के रचयिता यतिवृषभ कहे गए हैं।
अर्थात् जो अर्थ-बहुल हो, महान् अर्थका धारक या प्रतिपादक यतिवृषभ आचार्य पूज्यपाद से पूर्व हुए हैं। इसका कारण हो, हेत, निपात और उपसर्ग से युक्त हो, गम्भीर हो, अनेक पाद. यह है कि उन्होंने अपनी सर्वार्थसिद्धि में उनके एक मत विशेष समन्वित हो, अव्यवच्छिन्न हो अर्थात् जिसमें वस्तु का स्वरूप का उल्लेख किया है। धारा प्रवाह से कहा गया हो तथा जो अनेक प्रकार के जानने के
'अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेष नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया उपाय और नयों से शद्ध हो, उसे चूर्णि सम्बन्धी पद कहते हैं।
द्वादश भागा न दत्ता। चूर्णिसूत्रों की रचना संक्षिप्त होते हुए भी बहुत स्पष्ट, प्राजल और प्रौढ़ है, कहीं एक शब्द का भी निरर्थक प्रयोग नहीं हुआ है।
अर्थात् जिन आचार्यों के मन से सासादन गुणस्थानवर्ती कहीं-कहीं संख्यावाचक पद के स्थान पर गणनाड़ों का भी जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता है, उनके मत की अपेक्षा प्रयोग किया गया है, तो जयधवलाकार ने उसकी भी महत्ता और १२/१४ भाग स्पर्शन क्षेत्र नहीं कहा गया है। सार्थकता प्रकट की है। चूर्णिसूत्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सासादन गणस्थान वाला मरे तो कि चर्णिकार के सामने जो आगम सूत्र उपस्थित थे और उनमें नियम से देवों में उत्पन्न होता है। यह आचार्य यतिवषभ का मत जिन विषयों का वर्णन उपलब्ध था, उन विषयों को प्रायः है। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि आचार्य यतिवषभ आचार्य पज्यपाद यतिवृषभ ने छोड़ दिया है, किन्तु जिन विषयों का वर्णन उनके से पहले हए हैं। चूँकि पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि ने वि.सं. सामने उपस्थित आगमिक साहित्य में नहीं था और उन्हें जिनका
५२६ में द्रविड़ संघ की स्थापना की है और यतिवृषभ के मत विशेष ज्ञान गुरुपरम्परा से प्राप्त हुआ था, उनका उन्होंने प्रस्तुत ।
का पूज्यपाद ने उल्लेख किया है, अतः उनका वि.सं. ५२६ के चूर्णि में विस्तार से वर्णन किया है।
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अपने सुकी विधि
के लिए
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य पूर्व होना निश्चित है। इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि यति- के आचार्यरत्न माने जाते हैं। जैन-परम्परा में भगवान महावीर वृषभ का समय विक्रम की छठी शताब्दी का प्रथम चरण है। और गौतम गणधर के बाद कुन्दकुन्द का नाम लेना मङ्गलकारक
माना जाता है। उच्चारणाचार्य
मङ्गलं भगवान्वीरो मङ्गलं गौतमो गणी। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनका उपदेश
मङ्गलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोऽस्तुमङ्गलम् ॥ श्रुतकेवलियों के समय तक तो मौखिक ही चलता रहा, किन्तु उनके पश्चात् विविध अङ्गों और पूर्वो के विषयों का कुछ विशिष्ट
दिगम्बर जैन साधुगण स्वयं को कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा
का कहलाने में गौरव मानते हैं। भगवान् कुन्दकुन्द के शास्त्र आचार्यों ने उपसंहार करके गाथासूत्रों में निबद्ध किया। गाथा शब्द का अर्थ है - गाये जाने वाले गीत। सत्र का अर्थ है -
" साक्षात् गणधरदेव के वचनों जैसे ही प्रमाणभूत माने जाते हैं। उनके महान् और विशाल अर्थ के प्रतिपादक शब्दों की संक्षिप्त रचना,
अनन्तर हुए ग्रंथकार आचार्य स्वयं के किसी कथन को सिद्ध करने जिसमें संकेतित बीज पदों के द्वारा विवक्षित विषय का पूर्ण
के लिए कुन्दकुन्द आचार्य के शास्त्रों का प्रमाण देते हैं, जिससे समावेश रहता है। इस प्रकार के गाथासूत्रों की रचना करके
उनका कथन निर्विवाद सिद्ध होता है। विक्रम सम्वत् ९९० में हुए उनके रचयिता आचार्य अपने सुयोग्य शिष्यों को गाथा सूत्रों के
देवसेनाचार्य अपने दर्शनसार नामक ग्रंथ में कहते हैंद्वारा सूचित अर्थ के उच्चारण करने की विधि और व्याख्यान जद् पउमणंदिणाहो सीमंधर समिदिव्वणाणेण । करने का प्रकार बतला देते थे और वे लोग जिज्ञासुजनों के लिए
ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ।। गुरु-प्रतिपादित विधि से उन गाथा सूत्रों का उच्चारण और । "विदेह क्षेत्र के वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमन्धर स्वामी से व्याख्यान किया करते थे। इस प्रकार गाथा सूत्रों के उच्चारण या प्राप्त किए हुए दिव्य ज्ञान के द्वारा श्री पद्मनन्दिनाथ (आचार्य व्याख्यान करने वाले आचार्यों को उच्चारणाचार्य, व्याख्यानाचार्य कुन्दकुन्द ) ने बोध नहीं दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्ग को या वाचक कहा जाता था।
कैसे जानते ?" जयधवलाकार ने उच्चारण, मूल उच्चारणा, लिखित वन्यो विभु विन कैरिह कौण्डकुन्दः। कुम्दप्रभा प्रणयि उच्चारणा, वप्पदेवाचार्य -लिखित उच्चारणा और स्वलिखित कीर्तिविभूषिताशः। यश्चारु-चारण-कराम्बुजचञ्चरीक श्चक्रे उच्चारणा का उल्लेख किया है। इन विविध संज्ञाओं वाली श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम् ।। उच्चारणाओं के नामों पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि
(चन्द्रगिरि का शिलालेख) चूर्णिसूत्रों पर सबसे प्रथम जो उच्चारणा की गई, वह मूल उच्चारणा कहलाई। गुरु-शिष्य परम्परा कुछ दिनों तक उस मूल
कुन्द पुष्य की प्रभा को धारण करने वाली जिनकी कीर्ति. उच्चारणा के उच्चरित होने के अनन्तर जब समष्टि रूप से लिखी के द्वारा दिशायें विभूषित हुई हैं, जो चारण ऋद्धिधारी महामनियों गई, तो उसी का नाम लिखित उच्चारणा हो गया।
के हस्तकमलों के भ्रमर थे और जिस पवित्रात्मा ने भरत क्षेत्र में
श्रुत की प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किसके इस प्रकार उच्चारणा के लिखित हो जाने पर भी उच्चारणा.
द्वारा वन्द्य नहीं हैं ? कार्यों की परम्परा तो चालू ही थी, अतएव मौखिक रूप से भी वह प्रवाहित होती हुई प्रवर्तमान रही। तदनन्तर कुछ विशिष्ट
....", कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ।। व्यक्तियों ने अपने विशिष्ट गुरुओं से विशिष्ट उपदेश के साथ उस रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्य ऽपि संव्यञ्जयितुं यतीशः। उच्चारणा को पाकर व्यक्तिगत रूप से भी लिपिबद्ध किया और रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मत्ये चतुरंगुलं सः ॥ वह वप्पदेवाचार्य लिखित उच्चारणा, वीरसेन लिखित उच्चारणा
(विन्ध्यगिरि शिलालेख) आदि नामों से प्रसिद्ध हुई।
. यतीश्वर (श्री कुन्दुकुन्द स्वामी) रज: स्थान को-भूमितल द- आचार्य कुन्दकुन्द विक्रम की प्रथम शताब्दी को छोड़कर चार अंगुल ऊपर आकाश में चलते थे. उससे मैं
अ
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थतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - यह समझता हूँ कि वे अंतरङ्ग तथा बहिरङ्ग रज से (अपना) ज्ञान के आधार पर हुई होगी। कुन्दकुन्द के अष्टपाहुडों में से अत्यंत अस्पृष्टत्व व्यक्त करते थे (वे अंतरङ्ग में रागादि मल से कुछ में विषयवस्तु की व्याख्या बड़ी सुव्यवस्थित है, जैसे चरित्तऔर बाह्य में धूलि से अस्पष्ट थे)।
पाहुड तथा बोधपाहुड। सुत्तपाहुड तथा भावपाहुड में विषयवस्तु आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा निर्मित ग्रंथ निम्नलिखित हैं -
केवल सम्पादित प्रतीत होती है। भावपाहुड की विषय वस्तु
अपेक्षाकृत विविध है। उसमें जो पौराणिक संदर्भ पाए जाते हैं, वे १.नियमसार, २. पंचास्तिकाय ३. प्रवचनसार ४. समयसार
यह निर्देश करते हैं कि बहुत से जैन पौराणिक संदर्भो की उपस्थिति ५. बारस अणुवेक्खा ६. दंसणपाहुड ७. चरित्तपाहुड ८. सुत्तपाहुड
ईसा के प्रारंभ में प्रवाहित थी। इन पाहुडों का पश्चात्कालीन ९. बोधपाहुड १०. भावपाहुड ११. मोक्खपाहुड १२. सीलपाहुड
लेखकों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। पूज्यपाद ने अपने समाधिशतक १३. लिंगपाहुड १४ दसभत्ति संगहो। कहा जाता है कि आचार्य
की रचना अधिक व्यवस्थित रूप से सुदृढ़ वस्तुवैज्ञानिक कुन्दकुन्द ने चौरासी पाहुडों की रचना की थी।
अभिव्यक्तिशैली में की जो प्रमुखतः मोक्षपाहुड पर आधारित है। बारस अणवेक्खा के अंत में कुन्दकुन्द ने अपने नाम का अमृतचंद्राचार्य के बहुत से पद्य इन पाहुडों की गाथाओं को याद निर्देश किया है। धप्राभूत के अंत में हम पाते हैं कि इसकी दिलाते हैं, जिन्हें वे उद्धृत भी करते हैं। गुणभद्र ने अपने आत्मानुशासन रचना भद्रबाहु के शिष्य ने की। कुछ लोगों ने कुन्दकुन्द को में भावपाहुड आदि की गाथाओं का घनिष्ठता से अनुसरण किया है। भद्रबाहु का साक्षात् शिष्य न मानकर परम्पराशिष्य माना है। बारस अणुवेक्खा में बारह भावनाओं का विवेचन है। कर्मों के आचार्य कुन्दकुन्द की तीन कृतियाँ पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आस्रव को रोकने के लिए ये आवश्यक हैं। नियमसार में १८७ और समयसार सम्भवत: वेदान्त के प्रस्थानत्रय के साम्य पर गाथाएँ हैं। इस रचना के लेखक का उद्देश्य त्रिरत्न पर मूलत: विचार नाटकत्रय अथवा प्राभृतत्रय कहलाती हैं। इससे यह ध्वनित करना है, जो कि नियम रूप मोक्ष का मार्ग निर्मित करते हैं। होता है कि जैनों के लिए ये कृतियाँ उतनी ही पवित्र और
पंचास्तिकाय में समय को पांच अस्तिकाओं के रूप में आधिकारिक हैं, जितनी वेदान्तियों के लिए उपनिषद् ब्रह्मसूत्र .
परिभाषित किया गया है। पाँच अस्तिकायों में काल को मिलाकर और भगवद्गीता। उनके अधिकांश कथन साम्प्रदायिकता से परे
छह द्रव्य है। समयसार की रचना का उद्देश्य नैश्चयिक दृष्टि से शुद्ध हैं। उनके समयसार का अध्ययन दिगम्बर, श्वेताम्बर और
आत्मा का अनुभव कराना है। प्रत्येक मुमुक्षु को समस्त आसक्तियों स्थानकवासियों ने समानरूप से किया है तथा हजारों आध्यात्मिक
से ऊपर उठकर पूर्ण शुद्ध आत्मा का अनुभव करना चाहिए। व्रती पुरुषों तथा साधुओं ने कुन्दकुन्द से धार्मिक अभिप्रेरणा
प्रवचनसार एक शैक्षणिक धर्मग्रंथ तथा नवदीक्षित के लिए व्यावहारिक और आत्मिक सांत्वना प्राप्त की है।
नियमपुस्तिका है। पूरी कृति प्रौढ़ मस्तिष्क की स्वामित्वपूर्ण पकड़ कुन्दकुन्द के प्राभृत ग्रन्थ आध्यात्मिक उद्देश्य से निर्मित है। इसमें ज्ञान, द्रव्य, गुण, पर्याय, जीव, पुद्गल, सर्वज्ञ तथा या सम्पादित किए गए थे। ये परमात्मा को भक्तिपूर्ण भेंट हैं। स्याद्वाद आदि विषयों का अच्छा विवेचन है। जयसेन ने प्राभृत की व्याख्या करते हुए कहा है कि जैसे कोई
उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त रमणसार, तिरुक्कुरल, मूलाचार देवदत्त नामक पुरुष राजा के दर्शन के लिए कोई सारभूत वस्तु
भूतपन आदि कृतियाँ भी आचार्य कुन्दकुन्दकृत मानी जाती है। कहा राजा को देता है, वह सारभूत वस्तु प्राभृत कहलाती है। इसी ।
___जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने षट्खण्डागम पर परिकर्म प्रकार परमात्माराधक पुरुष के निर्दोष परमात्मराज के दर्शन के
नामक टीका लिखी थी। आचार्य कुन्दकुन्द की सर्वाधिक प्रसिद्ध लिए यह शास्त्र भी प्राभृत है।
कृति समयसार है। समयसार में लेखक का उद्देश्य पाठकों पर दसभक्तियाँ सशक्त मताग्रह तथा धार्मिक भूमिका के यह प्रभाव डालना है कि कर्म से सम्बद्धता के अज्ञान के फलस्वरूप साथ भक्तिपूर्ण प्रार्थनाएँ हैं। तित्थयरभक्ति दिगंबर तथा श्वेताम्बर अनेक आत्माओं के आत्म-साक्षात्कार में बाधा पड़ी हुई है। दोनों परंपराओं को मान्य है। दोनों परंपराओं ने इसे विरासत के अतः प्रत्येक मुमुक्षु को समस्त आसक्तियों से ऊपर उठकर पूर्ण रूप में पाया होगा। अवशिष्ट भक्तियों की रचना भी पारम्परिक शुद्ध आत्मा का अनुभव करना चाहिए। अज्ञानी आत्मा की
andraniwariramidditomidniwondwanoranbroridororanird- ४८randiridroddroiddondinorbivorironironirdword
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चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य विमत्र दूसरी वस्तुओं से एकता स्थापित करते हैं। उन्हें इस बात जो रचनावैशिष्टय, निरूपण की प्रांजलता तथा अध्यात्म का पुट की परवाह नहीं है कि ये सारी वस्तुएँ पुद्गल के रूप हैं, जिनसे है, वह मूलाचार में नहीं। प्रवचनसार के अंत में आगत मुनिधर्म यथार्थ में आत्मा का स्वरूप अलग है। जीव में पुद्गल के गुण के संक्षिप्त, किन्तु सारपूर्ण वर्णन से मूलाचार के किन्हीं वर्णनों नहीं है। इनका गुणस्थान और मार्गणास्थान से कोई प्रयोजन नहीं में उनके साथ एकरूपता भी नहीं है। मूलाचार के समयसाराधिकार है। ये सब कर्मजन्य अवस्था में हैं। संसारावस्था में ये जीव की में कुन्दकुन्द के समयसार ग्रंथ की छाया भी नहीं है ११॥ व्यवहार से कही जाती हैं। यदि इन सारी पौद्गलिक अवस्थाओं मलाचार की कछ गाथाएँ आवश्यकनिर्यक्ति पिण्डनिर्यक्ति. का जीव के साथ एकत्व हो तो जीव और पुद्गल के मध्य कोई जीवसमास तथा आतरप्रत्याख्यान में मिलती हैं। कछ गाथाओं भेदक रेखा ही न हो। जीव के भेद और संयोग नामकर्म की
का आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों की गाथाओं से भी साम्य है। इस निष्पत्तियाँ हैं। व्यक्ति को जीव और कर्मास्रव के भेद का अनुभव
आधार पर कुछ विद्वान् मूलाचार को संग्रहग्रंथ मानते हैं। यथार्थ में होना चाहिए तथा उसे क्रोधादि अवस्थाओं को छोड़ देना चाहिए।
ये गाथाएँ उस काल की हैं, जब दिगंबर और श्वेताम्बर भेद का उदय क्योंकि इन अवस्थाओं के रहते हुए जीव कर्मों से बँधा है। जब
नहीं हुआ था। अत: कुछ गाथाएँ बाद में दोनों संप्रदायों की सम्पत्ति अशुद्धता का खतरा जान लिया जाता है, तब आत्मा आस्रव के
बन गईं। इस प्रकार यह एक संग्रह-ग्रंथ नहीं कहा जा सकता। कारणों से अलग हो जाता है।
वट्टकेर आचार्य का मूल नाम न होकर उनके ग्राम का आचार्य वटेकर.आचार्य वट्टकेरकृत मूलाचार दिगंबर परंपरा नाम हो सकता है। दक्षिण में बेटकेरिया या बेटगेरि नाम वाले में आधाराङ्ग के रूप में माना जाता है। आचार्य वीरसेन (८-९
कुछ ग्राम अब भी हैं। इसमें संदेह नहीं कि मूलाचार बहुत पुराना वीं शती) ने षट्खण्डागम की धवला टीका (८१६ ई.) में मूलाचार
__ है। आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती में मूलाचार का उल्लेख को आचाराङ्ग के नाम से उल्लिखित करते हुए मूलाचार के पंचम किया है १२। मलाचार अपनी विषय-वस्त और भाषा आदि की अधिकार की गाथा संख्या २०२ इस प्रकार उद्धृत की है--
दृष्टि से तृतीय शती के आसपास का सिद्ध होता है १३। इसके पंचत्थिकाय छज्जीवणिकाये कालदव्वमण्णे य ।
बारह अधिकार इस प्रकार हैं--मूलगण, बृहत्प्रत्याख्यान संस्तरस्तव आणागेज्झे भावे आणाविचयेण विचिणादि ।
संक्षेपप्रत्याख्यान, सामाचार, पंचाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, आचार्य वसुनन्दि ने मूलाचार के मङ्गलाचरण की वृत्ति में द्वादशानुप्रेक्षा, अनगारभावना, समयसार, शीलगुण और पर्याप्ति। तथा आचार्य सकलकीर्ति ने अपने मलाचार ग्रंथ के प्रारंभ में
शिवार्य - भगवतीआराधना के रचयिता शिवार्य ने जो अपना यह उल्लेख किया है कि आचाराङ्ग ग्रंथ का उद्धार कर प्रस्तुत
परिचय दिया है, उससे इतना ही ज्ञात होता है कि आर्य जिननन्दि मूलाचार ग्रंथ की रचना की गई है।
गणि, सर्वगुप्त गणि और आचार्य मित्रनन्दि के पादमूल में सम्यक् कुछ लोग मूलाचार को आचार्य कुन्दकुन्द-कृत मानते हैं, रूप से श्रत और अर्थ को जानकर हस्तपट में आहार करने वाले क्योंकि मूलाचार-सवृत्ति नामक कर्नाटक टीका में मेघचन्द्राचार्य शिवार्य ने पूर्वाचार्यकृत रचना को आधार बनाकर यह आराधना तथा मुनिजनचिन्तामणि नामक एक कर्नाटक टीका में इसे रची। गाथा २१६० में वह 'ससत्तीए' अपनी शक्ति से पूर्वाचार्यआचार्य कुन्दकुन्द की रचना होने का उल्लेख किया गया है । निबद्ध रचना को उपजीवित करने की बात कहते हैं। उपजीवित मडबिी स्थित पं. लोकनाथ शास्त्री सरस्वती भंडार (जैनमठ) का अर्थ पनः जीवित करना होता है, अतः ऐसा भी अभिप्राय हो की मूलाचार की ताड़पत्रीय प्रतिसंख्या ५६ के अंत में आचार्य सकता है कि पर्वाचार्यनिबद्ध जो आराधना लुप्त थी, उसे उन्होंने वसनन्दी की टीका की समाप्ति में एक प्रशस्ति-पद्य दिया गया अपनी शक्ति से जीवित किया है।४ है, जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द रचित होने की सूचना है १०। पं.
जैन परंपरा की किसी पट्टावली आदि में न तो शिवार्य कैलाशचंद्र शास्त्री ने लिखा है- इसमें संदेह नहीं कि मूलाचार .
नाम ही मिलता है और न उनके गुरुजनों का नाम मिलता है। कुन्दकुन्द का ऋणी है, किन्तु कुन्दकुन्दरचित प्रतीत नहीं होता।।
भगवज्जिन सेनाचार्य ने अपने महापुराण के प्रारंभ में एक कुन्दकुन्दरचित नियमसार, प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रंथों में।
शिवकोटि नामक आचार्य का स्मरण किया है-- andaridrivarsansarsanirasdaridroidasibordorial ४९ /Horarilarinatomotoraamsudrinivariombidroidroiddioran
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाऽऽराध्य चतुष्टयम्।
यह अनुप्रेक्षा नामक ग्रंथ स्वामी कुमार ने श्रद्धापूर्वक मोक्षमार्ग स पायान्नः शिवकोटिमुनीश्वरः।। जिनवचन की प्रभावना तथा चंचल मन रोकने के लिए बनाया।
अर्थात जिनकी वाणी द्वारा चतुष्टयरूप (दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये बारह अनप्रेक्षाएं जिनागम के अनुसार कही गई हैं। जो और तप रूप) मोक्षमार्ग की आराधना करके जगत् शीतीभूत हो भव्य जीव इनको पढ़ता, सुनता और भावना करता है, वह शाश्वत रहा है, वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें।
सुख प्राप्त करता है। यह भावनारूप कर्त्तव्य अर्थ का उपदेशक है। इस पद्यमें में जो 'आराध्य चतष्टय' तथा 'शीतीभत' ये अतः भव्य जीवों को इन्हें पढ़ना, सुनना और विचारना चाहिए। दोनों पद शिव आर्य रचित भगवती आराधना की ही सूचना कुमारकाल में दीक्षा ग्रहण करने वाले वासुपूज्यजिन, करते प्रतीत होते हैं, क्योंकि उसी में चार आराधनाओं का कथन मल्लिजिन, नेमिनाथजिन. पार्श्वनाथजिन एवं वर्द्धमान इन पांचों
बाल यतियों का मैं सदैव स्तवन करता हूँ। भगवती-आराधना विक्रम की प्रारंभिक शताब्दी के उक्त प्रशस्ति से स्पष्ट है कि ग्रंथ के लेखक स्वामिकुमार आसपास की रचना होनी चाहिए। अतः उसे कुन्दकुन्द की रचनाओं हैं तथा ग्रंथ का नाम वारस अणुवेक्खा है। भट्टारक शुभचन्द्र ने के समकालीन माना जा सकता है।
इस पर संवत् १६१३ (ई. सन् १५५६) में संस्कृतटीका लिखी भगवती आराधना में आराधना का वर्णन है। दर्शन, ज्ञान, है। इस टीका में अनेक स्थानों पर ग्रंथ का नाम कार्तिकेयानुप्रेक्षा चारित्र और तप ये चार आराधनाएँ हैं। इनके प्रति आदरभाव दिया गया है और ग्रंथकार का नाम कार्तिकेय मुनि प्रकट किया व्यक्त करने के लिए भगवती विशेषण लगाया गया है। दर्शन. गया है। संभवतः कार्तिकेय शब्द कुमार या स्वामी कमार के ज्ञान, चारित्र और तप का वर्णन जिनागम में अन्यत्र भी है. किन्त पर्यायवाची के रूप में दिया गया है। वहाँ उन्हें आराधना शब्द से नहीं कहा गया है। इस ग्रंथ में मुख्य वारस अणुवेक्खा में कुल ४९६ गाथाएँ हैं। इनमें बारह रूप से मरणसमाधि का कथन है। मरते समय की आराधना ही अनप्रेक्षाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। आचार्य
उसी के लिए जीवनभर आराधना की जाती जगलकिशोर मख्तार ने वारस अणवेक्खा के समय के विषय में है। उस समय विराधना करने पर जीवन भर की आराधना निष्फल लिखा है -"मेरी समझ यह ग्रंथ उमास्वामि के तत्त्वार्थसत्र से हो जाती है और उस समय की आराधना से जीवनभर की आराधना अधिक बाद का नहीं, उसके निकटवर्ती किसी समय का होना सफल हो जाती है। अत: जो मरते समय आराधक होता है, यथार्थ चाहिए।" इस प्रकार स्वामी कुमार का समय विक्रम की दूसरी में उसी के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तीसरी शती होना चाहिए। तप की साधना को आराधना शब्द से कहा जाता है।
गृद्धपिच्छाचार्य कुमार या स्वामी कुमार अथवा कार्तिकेय
आचार्य वीरसेन (जिन्होंने शक सं. ७३८ में धवला टीका ऐसा माना जाता है कि स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा के कर्ता
समाप्त की थी) ने धवला टीका में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के रूप कार्तिकेय या स्वामी कार्तिकेय हैं। ग्रंथ के अंत में जो प्रशस्ति
में गृद्धपिच्छ आचार्य का उल्लेख किया है-- गाथाएँ दी गई हैं, वे निम्न प्रकार हैं--
तहगिद्धपिंछाइरियप्पयासिदतच्चन्यसते विवर्तमापरिणामक्रिया जिणवयणभावणटुं सामिकुमारेण परमसद्धाए।
परत्वापरत्वे च कालस्य इदि दव्वकालो परूविदो। रइया अणुवे हाओ चंचलमणरुंभणटुंच।। वारस अणुवेक्खाओ भणियाहु जिणागमाणुसारेण।
आचार्य विद्यानन्द ने श्लोकवार्तिक में आचार्य गृद्धपिच्छ जो पढइसुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं। को ही तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता माना है - तिहुयणपहाणसामि, कुमारकालेण तवियतवयरणं।
'गृहद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण' वसुपुज्जसुयं मल्लि चरमतियं संथुवे णिच्चं।
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- यतीन्द्रसरिस्मारक गन्ध - जैन आगम एवं साहित्य - श्रमणबेलगोला के एक अभिलेख में गृद्धपिच्छ नाम की कांच्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुजीम्बुशे पाण्डुपिण्डः। सार्थकता और कुन्दकुन्द के वंश में उनकी उत्पत्ति बतलाते हुए पुण्ड्रोण्डु शाक्यभिक्षुः दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट्। उनका उमास्वामि नाम भी दिया गया है। यथा -
वाराणस्याम बभूवं शशधवधवलः पाण्डुरागस्तपस्वी।
राजन् यस्याऽस्तिशक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी। अभूदुमास्वामि मुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन।।
मैं काञ्ची नगरी में दिगंबर साधु था। उस समय मेरा शरीर स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृद्धपक्षान्।
मलिन था। लम्बुशनगर में मैंने अपने शरीर में भस्म लगाई थी, तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्य शब्दोत्तरगृद्धपिच्छम्।
उस समय मैं पाण्डरङ्ग था। मैंने पुण्ड्र नगर में बौद्धभिक्षु का रूप आचार्य कुन्दकुन्द के पवित्र वंश में सकलार्थ के ज्ञाता ।
धारण किया था। दशपुर नगर में मिष्टान्न भोजी परिव्राजक बना।
वाराणसी में आकर मैंने चंद्र समान धवल कांतियुक्त शैव तपस्वी उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिनप्रणीत द्वादशांग वाणी को
का वेष धारण किया। हे राजन! मैं जैन निर्ग्रन्थ मुनि हूँ, जिसकी सूत्रों में निबद्ध किया। इन आचार्य ने प्राणिरक्षा हेतु गृद्धपिच्छों को धारण किया। तब से लेकर विद्वान इन्हें गद्धपिच्छाचार्य कहने लगे।
शक्ति हो, वह मेरे समक्ष आकर शास्त्रार्थ करे।
इस पद्य से ज्ञात होता है कि परिस्थितिवश आचार्य समन्तभद्र इस प्रकार दिगंबरसाहित्य तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता को
को भिन्न-भिन्न परम्पराओं के अनुसार साधुपद ग्रहण करना पड़ा, गृद्धपिच्छाचार्य अपरनाम उमास्वामि या उमास्वाति मानता है। ये
किन्तु उनकी यथार्थ श्रद्धा जैन धर्म के प्रति थी। यही कारण है आचार्य कुन्दकुन्द के शिष्य थे। कुछ पाठभेद के साथ श्वेताम्बर
कि उन्होंने गर्व के साथ अपने को कांची का नग्नाटक (नग्न परंपरा भी उमास्वाति की कृति तत्त्वार्थसूत्र को मानती है। इसमें
भ्रमण करने वाला) और जैन निर्ग्रन्थवादी कहा है। तत्त्वार्थ का सूत्र रूप में विवेचन है, अतः इसे तत्त्वार्थसूत्र कहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अर्थगाम्भीर्य को देखते इस पर अनेक टीकाएँ
आचार्य समन्तभद्र का सम्पूर्ण भारतवर्ष में परिभ्रमण हुआ लिखी गईं, जिनमें पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि.वाचक उमास्वातिकृत था। एक पद्य में उनके द्वारा कहलाया गया है कि पहले मैंने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, श्रीमद् भट्ट अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थवार्तिक, पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) नगर में (वाद के हेतु) भेरी बजायी, विद्यानंद आचार्यकृत तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, भास्करनंदीकृत पश्चात् मालवा, सिन्धु, ठक्क (पंजाब), कांचीपुर (कांजीवरम्) भास्करीटीका, श्रुतसागरकृत श्रुतसागरी टीका, द्वितीय श्रुतसागरकृत और वैदिश में भेरी-ताडन किया। इसके पश्चात् मैं विद्वानों तथा तत्त्वार्थसुखबोधिनी टीका, विबुधसेनाचार्यकृत तत्त्वार्थटीका, शूरवीरों से समलङ्कत करहाटक देश में गया। हे नरपति ! मैं योगीन्द्रदेवकृत तत्त्वप्रकाशिका टीका, गृहस्थाचार्य योगदेवकृत शास्त्रार्थ का इच्छुक हूँ। मैं सिंह के समान निर्भय होकर विचरण तत्त्वार्थवृत्ति, गृहस्थाचार्य लक्ष्मीदेव कृत तत्त्वार्थ टीका तथा करता हूँ। अभयनन्दसूरि कृत टीका विशेष प्रसिद्ध है। इन टीकाओं से ही इस विक्रम संवत् ८४० में समाप्ति को प्राप्त पुन्नाट -संघीय ग्रंथ की महत्ता का पता चलता है। प्रोफेसर ए. चक्रवर्ती ने आचार्य आचार्य जिनसेन ने आचार्य समन्तभद्र के विषय में लिखा है-- कुन्दकुन्द का समय अनेक प्रमाणों के आधार पर ईसा की प्रथम
जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम्। शताब्दी निश्चित किया है। अतः उमास्वामी का समय प्रथम शताब्दी
वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते। .का अंत या द्वितीय शताब्दी का प्रारंभ निश्चित होता है।
अर्थात् जिन्होंने जीवसिद्धि की रचना कर युक्त्यनुशासन आचार्य समन्तभद्र-स्वामी समन्तभद्र (विक्रम की दूसरी, बनाया। उन समन्तभद्र के वचन जिनेन्द्र भगवान् के वचनों के तीसरी शताब्दी) का जन्म क्षत्रियकल में हआ था। उनके पिता
समान वृद्धि को प्राप्त हैं। फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुर के राजा थे। उरगपुर पाण्ड्यदेश की राजधानी जान पड़ता है। श्री गोपालन ने इसकी पहचान उरैप्यूर
यहाँ समन्तभद्राचार्य के वचनों को भगवान महावीर के से की है। श्रवणबेलगोल के विन्ध्यगिरि पर मल्लिषेणरचित
वचनों के समान बतलाया है, इससे उनकी महत्ता सुस्पष्ट होती है।
व एक शिलालेख में कहा गया है१६ -
भगवज्जिनसेनाचार्य ने उन्हें कविब्रह्म कहकर नमस्कार సందరరరరరరరరరరwanand -
రురురురురురువారం
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य किया है--
उनका समय पूज्यपाद (विक्रम की छठी शती) और अकलङ्क नमः समन्तभद्राय महते कविवेधसे। यद्वचोवज्रपातेन
(विक्रम की ७वीं शती) का मध्यकाल अर्थात् विक्रम संवत् विभिन्निा: कुमताद्रयः ।। आदिपुराण १/४३
६२५ के आसपास माना जाता है। सिद्धसेन नाम के एक से
अधिक आचार्य हुए हैं। सन्मतिसूत्र और कल्याणमंदिर जैसे कवियों के ब्रह्मस्वरूप समन्तभद्र को नमस्कार हो, जिनकी
का ग्रंथों के रचियता सिद्धसेन दिगंबर संप्रदाय में हुए हैं। इनके साथ वाणी रूपी वज्रपात द्वारा कुमत रूपी पर्वत विभिन्न हो जाते हैं।
दिवाकर विशेषण नहीं है। दिवाकर विशेषण श्वेताम्बर संप्रदाय में कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि।
हुए सिद्धसेन के साथ पाया जात. है, जिनकी कुछ द्वात्रिंशिकाएँ, यशः समन्तभद्रीयं मूनि चूडामणीयते।।आदिपुराण १/४४।।
न्यायावतार आदि रचनाएँ हैं। इनका समय सन्मतिसूत्र के कर्ता समन्तभद्र का यश कवियों, गमकों, वादियों तथा वाग्मियों सिद्धसेन से भिन्न है। प्रो. सुखलाल संघवी ने दोनों को एक के मस्तक पर चूडामणि के सदृश शोभा को प्राप्त होता है। मानकर उनका काल विक्रम की पाँचवीं शताब्दी माना है।
जैन-परंपरा में तर्कयुग या न्याय की विचारणा की नींव जैनसाहित्य के क्षेत्र में दिनाग जैसे प्रतिभासम्पन्न विद्वान डालने वाले ये समर्थ आचार्य हुए, जिनकी उक्तियों को विकसित की आवश्यकता ने ही प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन को उत्पन्न किया है। कर भट्ट अकलंकदेव और विद्यानन्द जैसे आचार्यों ने जैन-न्याय आचार्य सिद्धसेन का समय विभिन्न दार्शनिकों के वादविवाद का की परंपरा का पोषण और संवर्द्धन किया। उनके व्यक्तित्व को समय था। उनकी दृष्टि में अनेकान्तवाद की स्थापना का यह श्रेष्ठ उजागर करने वाला यह आत्मपरिचयात्मक पद्य किंचित् भी। अवसर था। अतः उन्होंने सन्मतितर्क की रचना की। उनकी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं लगता, जिसमें वे कहते हैं -
विशेषता यह है कि उन्होंने तत्कालीन नाना वादों को सन्मतितर्क आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं
में विभिन्न नयवादों में समाविष्ट कर दिया। अद्वैतवादों को उन्होंने दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहं। द्रव्यार्थिक नय के संग्रहनय रूप प्रभेद में समाविष्ट किया। राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलायां क्षणिकवादी बौद्धों की दृष्टि को सिद्धसेन ने पर्यायनयान्तर्गत
आज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहं।। ऋजुसूत्रनयानुसारी बताया। सांख्यदृष्टि का समावेश द्रव्यार्थिक
हे राजन! इस समद्रवलय रूप पथ्वी पर मैं आचार्य कवि नय में किया और काणात र्शन को उभयनयाश्रित सिद्ध किया। वादिराट, पण्डित, दैवज्ञ, भिषक, मान्त्रिक, तांत्रिक, आज्ञासिद्ध
उनका तो यहाँ तक कहना है कि संसार में जितने वचनप्रकार हो और सिद्धसारस्वत हूँ। मैं आज्ञासिद्ध हूँ, जो आदेश देता हूँ, वही
सकते हैं, जितने दर्शन एवं नाना मतवाद हो सकते हैं, उतने ही होता है। मुझे सरस्वतीसिद्ध है।
नयवाद हैं। उन सबका समागम ही अनेकान्तवाद है१८१ सांख्य
की दृष्टि संग्रहनयावलंबी है, अभेदगामी है। अतएव वह वस्तु को आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रणीत रचनाएँ निम्नलिखित मानी
नित्य कहे, यह स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है और बौद्ध जाती हैं--
पर्यायानुगामी या भेद दृष्टि होने से वस्तु को क्षणिक या अनित्य ११. बृहत् स्वयम्भू स्तोत्र, २. स्तुतिविद्या जिनशतक
कहे, यह भी स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है, किन्तु वस्तु ३. देवागमस्तोत्र-आप्तमीमांसा ४. युक्त्यनुशासन
का सम्पूर्ण दर्शन न तो केवल द्रव्यदृष्टि में पर्यवसित है और न
पर्यायदृष्टि में अतएव सांख्य या बौद्ध को परस्पर मिथ्यावादी ५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ६ जीवसिद्धि ७. प्रमाणपदार्थ ।
कहने का स्वातंत्र्य नहीं है। ८. तत्त्वानुशासन ९. प्राकृत-व्याकरण १०. कर्मप्राभृत-टीका
श्रीदत्त - तपस्वी और प्रवादियों के विजेता के रूप में श्रीदत्त ११. गन्धहस्ति-महाभाष्य।
का उल्लेख आदिपुराण में किया गया है। ये वादी और दार्शनिक सिद्धसेन - विद्वानों ने अनेक प्रमाणों के आधार पर सन्मतिसूत्र विद्वान् था आचायाव
विद्वान् थे। आचार्य विद्यानन्द ने इनको ६३ वादियों को पराजित के कर्ता सिद्धसेन के समय निर्धारण का प्रयत्न किया है, तदनुसार करने वाला लिखा है। विक्रम की छठी शती के विद्वान् देवनन्दी
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य ने जैनेन्द्र-व्याकरण में, गुणे श्रीदत्तस्य स्त्रियाम् (१.४.३४) सूत्र प्रागल्भ्यधारी गुरुणा किल देवनन्दी बुद्ध्या पुनर्विपुलया स जिनेन्द्रबुद्धिः। में श्रीदत्त का उल्लेख किया है। इनका समय वि.सं. की ३-४ श्रीपूज्यपाद इति चैष बुधैः प्रचख्ये सत्पूजित: पदयुगे वनदेवताभिः। 4 शती होगा। इनके 'जल्पनिर्णय' नाम के एक ग्रंथ का उल्लेख इन शिलालेखों के अतिरिक्त अन्यत्र२५ भी पूज्यपाद का मिलता है।
अन्य नामों से पुण्यस्मरण किया गया है-- यशोभद्र - प्रखर तार्किक के रूप में जिनसेन ने इनका यशः कीर्तियशोनन्दी देवनन्दि महामतिः। स्मरण किया है २२। इनके सभा में पहुँचते ही वादियों का गर्व खर्व श्री पूज्यपादापराख्यो यः स गुणनन्दिगुणाकरः।। हो जाता है। जैनेन्द्र व्याकरण में क्व वृषिमृजां यशोभद्रस्य (२.१.९९)
श्री वादिराज कवि ने श्री पूज्यपाद देव का स्मरण करते सूत्र आया है। अतः जिनसेन द्वारा उल्लिखित यशोभद्र और देवनन्दी
हुए लिखा है - अचिन्त्यमहिमादेवः सोऽभिवन्द्योहितैषिणा। के जैनेन्द्र 'करण में निर्दिष्ट यशोभद्र एक ही हैं तो इनका समय
शब्दाश्च येन सिद्ध्यन्ते साधुत्वं प्रतिलम्भितः। विक्रम संवत् की छठी शताब्दी के पूर्व होना चाहिए २३ ।
इस प्रकार विदित्त होता है कि इनका नाम देव भी था। यह आचार्य पूज्यपाद
देवनन्दि का संक्षिप्त रूप ज्ञात होता है। भारतीय परंपरा में जो अपने समय के विख्यात दार्शनिक,
कवि, वैयाकरण एवं दार्शनिक इन तीनों व्यक्तित्वों का श्रेष्ठ वैयाकरण, लब्धप्रतिष्ठ तत्त्वदृष्टा शास्त्रकार हुए हैं, उनमें
आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि में अद्भुत समवाय था। कर्नाटक सारस्वताचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी अपरनाम देवनन्दि, जिनेन्द्रबुद्धि,
देश के कोले नामक ग्राम के माधवभट्ट नामक ब्राह्मण और यशः कीर्ति का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। इन्हें विद्वत्ता
धीदेवी ब्राह्मणी से पूज्यपाद का जन्म हुआ। ज्योतिषियों ने और प्रतिभा दोनों का समान रूप से वरदान प्राप्त था। अपने
बालक को त्रिलोकपूज्य बतलाया। इस कारण उनका नाम अतलस्पर्श ज्ञानगांभीर्य की अपूर्वता से वह बहुश्रुत की परिधि
पूज्यपाद रखा गया। पूज्यपाद के पिता ने अपनी पत्नी के आग्रह को पारकर सर्वश्रुत हो गए थे। वे सच्चे अर्थों में स्वपर हित
से जैनधर्म स्वीकार किया था। उन्होंने बचपन में ही एक बगीचे पुण्यात्मा साधु थे और भव्यात्माओं के लिए तारणतरण जहाज
में एक साँप के मुँह में फँसे हुए मेंढक को तड़पता देख वैराग्य थे। जैन-परंपरा में आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन की कोटि के
से ओतप्रोत होकर मुनिदीक्षा ले ली थी। उन्होंने अपने जीवनकाल सर्वश्रेष्ठ विद्वान् थे। इन्होंने अपने पीछे जो साहित्य छोड़ा है,
में गगनगामी लेप के प्रभाव से कई बार विदेह क्षेत्र की यात्रा की उसका प्रभाव दिगंबर और श्वेताम्बर दोनों परंपराओं में समान
थी। विदेह क्षेत्र में जाकर भगवान सीमंधर की दिव्यध्वनि सुनकर रूप से दिखाई देता है। यही कारण है कि उत्तरवर्ती प्रायः
उन्होंने अपना मानवजीवन पवित्र किया था। उनको तप के अधिकतर साहित्यकारों व इतिहासमर्मज्ञों ने इनकी महत्ता, विद्वत्ता
प्रभाव से औषधि व चारण ऋद्धि प्राप्त थी। श्रवणबेलगोल के और बहुज्ञता स्वीकार करते हुए इनके चरणों में श्रद्धा के सुमन
एक शिलालेख के आधार से यह भी कहा जा सकता है कि जिस अर्पित किए हैं। आदिपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन इन्हें
जल से उनके चरण धोए जाते थे, उनके स्पर्श से लोदा भी सोना बन कवियों में तीर्थंकर मानते हुए इनकी स्तुति में कहते हैं
जाता था। उनके चरण-स्पर्श से पवित्र हुई धूलि में पत्थर को सोना • कवीनां तीर्थकृद्देव: किंतरां तत्र वर्ण्यते।
बनाने की क्षमता थी।२६ पूज्यपाद मुनि बहुत समय तक योगाभ्यास विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थं यस्य वचोमयम्।।1/52
करते रहे। फिर एक देवविमान में बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थों की शिलालेखों तथा दूसरे प्रमाणों से विदित होता है कि इनका यात्रा की। मार्ग में एक जगह उनकी दृष्टि तिमिराच्छन्न हो गई थी, गुरु के द्वारा दिया हुआ दीक्षानाम देवनन्दि था, बुद्धि की प्रखरता जिसे उन्होंने शान्त्यष्टक का निर्माण कर दूर कर दिया। के कारण इन्हें जिनेन्द्रबुद्धि कहते थे और देवों के द्वारा इनके शांति: शांति जिनेन्द्र शान्तमनसा त्वत्पादपद्याश्रयात। चरणयुगल पूजे गए थे, इसलिए वे पूज्यपाद इस नाम से भी लोक में सम्प्राप्ताः पृथिवीतलेष बहवः शान्त्यर्थिनः प्राणिनः।। प्रख्यात थे। इस अर्थ को व्यक्त करने वाले उद्धरण ये हैं
कासायान्मम शाक्तिकस्य च विभो दृष्टिं प्रसन्नां कुरु।
ఆరుగురురురువారం సాగుతారు గురువారంరులో 43 గురువారం
/
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किया।
- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - त्वत्पादद्वयदैवतस्य गदतः शान्त्यष्टकं भक्तितः।।
जोइन्दु कवि के जीवन के संबंध में किसी भी साधन इस प्रकार स्तवन करते ही उनकी दृष्टि निर्मल हो गई, किन्तु
से कोई प्रामाणिक सूचना प्राप्त नहीं होती है। परमात्मप्रकाश में इस घटना का उनके ऊपर ऐसा प्रभाव पडा. जिससे उन्होंने तीर्थयात्रा बताया गया है कि यह ग्रंथ भट्ट प्रभाकर के निमित्त से लिखा से लौटकर अपने ग्राम में आकर समाधिमरण किया।
जा रहा है। ग्रंथकार ने लिखा है-- पूज्यपाद आचार्य का समय विक्रम की ५वीं शताब्दी के
इत्थुण लेवउ पंडियहिं गुणदोसु वि पुणरुत्तु। उत्तरार्द्ध से लेकर छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध के मध्य माना जाता
भट्ट पमायर कारणइं मई पुणु वि पउत्तु । है। उनके द्वारा निर्मित रचनाएँ निम्नलिखित हैं--
अर्थात् हे भव्यजीवो! इस ग्रंथ में पुनरुक्त नाम का दोष
पंडितजन ग्रहण नहीं करेंगे और न काला की दृष्टि से ही १. सर्वार्थसिद्धि, २. जैनेन्द्र-व्याकरण, ३. इष्टोपदेश, ४.
इसका परीक्षण करेंगे। यतः मैंने प्रभाकर भट्ट को संबोधित करने समाधितंत्र, ५. दशभक्ति, ६. शान्त्यष्टक, ७. सारसंग्रह, ८. चिकित्साशास्त्र, ९. जैनाभिषेध, १०. सिद्धिप्रियस्तोत्र, ११.
के लिए परमात्मतत्त्व का कथन किया है। इस कथन से यह जैनेन्द्रन्यास तथा १२. शब्दावतारन्यास।
निष्कर्ष निकलता है कि भट्ट प्रभाकर कोई मुमुक्षु था, जिसके
लिए इस ग्रंथ का प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रंथ मुख्य रूप पात्रकेसरी स्वामी पात्रकेसरी के समय की सीमा विक्रम की से मनियों को लक्ष्य कर लिखा गया है और इसके लेखक भा नवम शताब्दी से पूर्व निश्चित रूप से सिद्ध होती है, क्योंकि
क अध्यात्मरसिक मुनि ही हैं ३१॥
. महापुराण के प्रारंभ में जिनसेनाचार्य ने उनका उल्लेख किया है। दिङ्नाग के त्रैरूप्य हेतु के लक्षण का खंडन करने के लिए
. अंतिम मङ्गल के लिए आशीर्वाद रूप में नमस्कार करते उन्होंने त्रिलक्षण-कदर्थन नामक ग्रंथ लिखा, अत: पात्रकेसरी
हुए लिखा है कि इस लोक में विषयी जीव जिसे नहीं पा सकते, दिङ्नाग (ईसा की पाँचवीं शताब्दी) के पश्चात् होने चाहिए।
ऐसा यह परमात्मतत्त्व जयवन्त हो। विषयातीत वीतरागी मुनि त्रिलक्षण-कदर्थन विषयक उनका श्लोक निम्नलिखित है--
ही इस आत्मत्त्व को प्राप्त कर सकते हैं। जो मुनि भावपूर्वक इस
परमात्मप्रकाश का चिंतन करते हैं, वे समस्त मोह को जीतकर अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्।
परमार्थ के ज्ञाता होते हैं। अन्य जो भी भव्यजीव इस नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्।
परमात्मप्रकाश को जानते हैं, वे भी लोक और और अलोक का बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ने 'तत्त्वसंग्रह' के अनुमानपरीक्षा प्रकाश करने वाले ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं ३२। नामक प्रकरण में पात्रकेसरी के त्रिलक्षणकदर्थन नामक ग्रंथ से
जोइंदु का समय छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। कारिकाएँ उद्धृत कर उनकी आलोचना की है। अकलंकदेव
उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं--१. परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश), भी शांतरक्षित के पूर्व समकालीन थे, अतः उन्होंने भी उस ग्रंथ
२. नौकार श्रावकाचार (अपभ्रंश), ३. योगसार (अपभ्रंश), ४. को देखा होगा। न्यायशास्त्र के मुख्य अंग हेतु आदि के लक्षण
अध्यात्मसंदोह (संस्कृत), ५. सुभाषिततंत्र (संस्कृत) और ६. का उपपादन अवश्य ही पात्रकेसरी की देन है।
तत्त्वार्थटीका (संस्कृत)। सुमति - बौद्ध दार्शनिक शांतरक्षित ने अपने ग्रंथ तत्त्वसंग्रह के
परमात्मप्रकाश साक्षात् मोक्षमार्ग का प्रतिपादक है। जिस अंतर्गत स्याद्वादपरीक्षा (कारिका १२६२ आदि) और बहिरर्थ:
तरह आचार्य कुन्दकुन्द की नाटकत्रयी है, उसी प्रकार यह भी परीक्षा (कारिका १९४०) में सुमति नामक दिगंबराचार्य के मत
अध्यात्मविषय की परमसीमा है, क्योंकि ग्रंथकर्ता ने स्वयं इस की आलोचना की है। सुमति ने सिद्धसेन के सन्मतितर्क पर
ग्रंथ के पढ़ने का फल लिखा है, इसका सतत् अभ्यास करने विवृत्ति लिखी थी, ऐसा स्पष्ट उल्लेख मिलता है। यह उल्लेख
वालों का मोहकर्म दूर होकर केवलज्ञानपूर्वक मोक्ष अवश्य ही वादिराज सूरि के पार्श्वनाथचरित के प्रारंभ में है और श्रवणबेलगोल
हो सकता है। की मल्लिषेण-प्रशस्ति में उन्हें सुमतिसप्तक का रचयिता कहा गया है। सुमति का दूसरा नाम सन्मति भी था।
विमलसूरि - पउमचरिय और हरिवंस चरिय के लेखक के रूप
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- यतीन्दसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - में ख्यात आचार्य विमलसूरि यापनीय परंपरा के प्रसिद्ध आचार्य अनन्तर धरणीपुत्र सुधर्मा को प्राप्त हुआ, अनन्तर प्रभव को थे। पउमचरिय के उल्लेखानुसार पउमचरिय की रचना प्रथम प्राप्त हुआ, प्रभव के अनन्तर कीर्तिधर आचार्यों को प्राप्त हुआ। शताब्दी ई. में हुई थी। डा. हर्मन जैकोबी पउमचरिय को तृतीय कीर्तिधर आचार्य के अनन्तर अनुत्तरवाग्मी आचार्य को प्राप्त शताब्दी ईसवी से पहले का नहीं मानते।
हुआ तथा अनुत्तरवाग्मी आचार्य का लिखा हुआ प्राप्त कर यह विमलसूरि विजय के शिष्य थे। विजय नाइल कुलवंश के
रविषेण का प्रयत्न प्रकट हुआ है ३६ | ग्रंथ के अंतिम पर्व में इसी गौरव थे। वे राह के शिष्य थे। पष्पिका से सचित होता है कि
प्रकार का उल्लेख मिलता है ३६। तदनुसार समस्त संस्तर के पूर्व में वर्णित नारायण और बलदेव के चरित को सुनने के बाद द्वारा नमस्त
द्वारा नमस्कृत भी वर्द्धमान जिनेन्द्र ने पद्ममुनि का जो चरित विमलसरि ने राघवचरित लिखा। पष्पिका में विमलचरिय को कहा था, वही इंद्रभूति (गौतमगणधर) ने सुधर्मा और जम्बस्वामी
राहु का प्ररिय लिखा गया है। राहु नाइल वंश के यथार्थ सर्य के लिए कहा। वही जम्बूस्वामी के प्रशिष्य उत्तरवाग्मी आचार्य भाभी के द्वारा प्रकट हुआ। ये उत्तरवाग्मी कौन थे? इनके विषय में सूची में विमलसूरि का नाम नहीं हैं। श्वेताम्बर-परंपरा कहती है
अभी तक कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई। इनके द्वारा लिखित कि महावीर निर्वाण के बाद एक हजार वर्ष तक पूर्वधर होते रहे।
रामकथा भी आज उपलब्ध नहीं है। रविषण दिगंबर परंपरा के विमलसूरि के कुछ विश्वास दिगंबर परंपरासम्मत हैं, तो कुछ श्वेताम्बर
अनुयायी थे। इन्होंने पद्मचरित की रचना ७३४ विक्रम (६६७ ई.) सम्मत। इस आधार पर विद्वानों ने उन्हें यापनीय परंपरा का आचार्य
में पूर्ण की। जैन परंपरा में इक्ष्वाकुवंशी अयोध्याधिपति दाशरथि माना है। वेलगाँव के दोडवस्ती अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि
व रामचन्द्र का अपरनाम पद्म विशेष प्रसिद्ध रहा है। अतएव पद्मचरित
रामचन्द्र का अपरनाम' यापनीयों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा दिगंबरों द्वारा पूजी जाती थी। अतः का आशय रामचरित, रामकथा या रामायण से है। यह माना जा सकता है कि यापनीय संघ के आचार्य दिगंबरों में जटासिहनन्दी- जटाचार्य के नाम से भी इनका उल्लेख मिलता प्रतिष्ठित थे। विमलसूरि का हरिवंसचरिय वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। ये तपस्वी और कवि थे३९। इनका समाधिमरण कोप्पण में है। पउमचरिय महाकाव्य में जैनदृष्टि से रामकथा वर्णित है। हुआ था। कोप्पण के समीप 'पल्लवकीगुण्डु' नाम की पहाड़ी
रविषेण - अठारह हजार अनष्टप श्लोकप्रमाण पद्मचरित पर इनके चरणचिह्न अङ्कित हैं और नीचे दो पंक्तियों का परानी के कर्ता आचार्य रविषेण ने किसी संघ, गण, गच्छ का उल्लेख
कन्नड़ भाषा का एक अभिलेख उत्कीर्ण है। इनका समय विक्रम नहीं किया है और न स्थानादि की चर्चा की है। अपनी गुरुपरंपरा
संवत् की ७वीं शती है। इनकी एक रचना 'वरांगचरित' नामक के विषय में इन्होंने स्वयं लिखा है कि इंद्र गरु के शिष्य दिवाकर उपलब्ध है। यति थे, उनके शिष्य अर्हद यति थे, उनके शिष्य लक्ष्मण सेन काणभिक्ष- आचार्य जिनसेन ने काणभिक्ष का कथाग्रंथ रचयिता मुनि थे और उनका शिष्य मैं रविषेण हूँ२३। पं. नाथूराम प्रेमी ने के रूप में उल्लेख किया है। अतएव स्पष्ट है कि इनका कोई रविषेण के सेनान्त नाम से अनुमान लगाया है कि ये शायद सेन प्रथमानुयोग संबंधी ग्रंथ रहा है। जिनसेन द्वारा उल्लिखित होने संघ के हों और इनकी गुरुपरंपरा के पूरे नाम इंद्रसेन, दिवारकरसेन, के कारण इनका समय विक्रम संवत् की नवीं शती के पूर्व हैं । अर्हत्सेन और लक्ष्मणसेन हों । इनके निवासस्थान, माता
कलंक- भट्ट अकलंक प्राचीन भारत के अद्भुत विद्वान पिता आदि के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है।
तथा लोकोत्तर विवेचक ग्रंथकार एवं जैन वाङ्मयरूपी नक्षत्रलोक पद्मचरित की रचना के विषय में रविषेण ने लिखा है- के सबसे अधिक प्रकाशमान तारे हैं। अकलंक ने न्यायप्रमाणशास्त्र जिनसूर्य श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र के मोक्ष के बाद एक हजार दो सौ का जैन-परंपरा में जो प्राथमिक निर्माण किया, जो परिभाषाएँ, तीन वर्ष छह माह बीत जाने पर श्री पद्ममुनि(राम) का यह जो लक्षण व परीक्षण किया, जो प्रमाण, प्रमेय आदि का वर्गीकरण चरित लिखा गया है ३५ । पद्मचरित की कथावस्तु के आधार के किया और परार्थानुमान तथा वाद, कथा आदि परमत-प्रसिद्ध विषय में रविषेण ने लिखा है कि श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र के द्वारा वस्तुओं के संबंध में जो जैन-प्रणाली स्थिर की, अन्य परम्पराओं कहा हुआ यह अर्थ इंद्रभूति नामक गणधर को प्राप्त हुआ, में प्रसिद्ध तर्कशास्त्र के अनेक पदार्थों का जैनदृष्टि से जैन-परंपरा
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य को सात्मीभाव किया तथा आगमसिद्ध अपने मन्तव्यों को भी इनका स्मरण किया गया है। डा. ए.एन. उपाध्ये ने इनका जिस तरह दार्शनिकों के सामने रखने योग्य बनाया, वह सब परिचय देते हुए जैन-संदेश के शोधाङ्क १२ में लिखा है कि ये छोटे-छोटे ग्रंथों में विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्व का मूलगुण्ड नामक स्थान पर आत्मत्याग को स्वीकार करके तथा न्याय प्रमाण स्थापना युग का द्योतक है।
कोप्पणाद्रि पर ध्यानस्थ हो गए तथा समाधिपूर्वक मरण किया। अकलंक देव का समय ७२०-७८० सिद्ध होता है। वीरसेन आचार्य - ये उस मूलसंघ पञ्चस्तूपान्वय के उनके ग्रंथों में अन्य दर्शनों के आचार्यों के साथ बौद्ध आचार्य आचार्य थे. जो सेनसंघ के नाम से लोक में विश्रत हआ है। ये धर्मकीर्ति. प्रज्ञाकरगुप्त, धर्माकरदत्त (अर्चट),शांतभद्र, धर्मोत्तर, आचार्य चंद्रसेन के प्रशिष्य और आर्यनन्दी के शिष्य तथा महापराण कर्णकगोमि तथा शांतरक्षित के ग्रंथों का उल्लेख या प्रभाव आदि के कर्ता जिनसेन के गरु थे। ये षटखण्डागम पर बहत्तर दष्टिगोचर होता है। अकलंक जैन-न्याय के प्रतिष्ठाता माने जाते हजार श्लोकप्रमाण धवला टीका तथ. यप्राभूत पर बीस हैं। उनके पश्चात् जो जैन ग्रंथकार हुए, उन्होंने अपनी न्यायविषयक हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखकर दिवङ्गत हो गए। रचनाओं में अकलकंदेव का ही अनुसरण करते हुए जैन-न्याय जिनसेन ने इन्हें कवियों का चक्रवर्ती तथा अपने आपके द्वारा विषयक साहित्य की श्रीवृद्धि की और जो बातें अकलंक देव ने परलोक का विजेता कहा है। इनका समय विक्रम की ९वीं शती का अपने प्रकरणों में सूत्र रूप में कही थीं, उनका उपपादन तथा पर्वार्द्ध है।९। गणभद्राचार्य के उल्लेख से ज्ञात होता है कि वीरसेनाचार्य विश्लेषण करते हुए दर्शनान्तरों के विविध मन्तव्यों की समीक्षा द्वारा 'सिद्धभपद्धति' नामक ग्रंथ की रचना की गई थी। में बृहत्काय ग्रन्थ रचे, जिससे जैन न्याय रूपी वृक्ष पल्लवित और पुष्पित हुआ। अकलङ्कदेव की रचनाएँ निम्नलिखित हैं
जिनसेन प्रथम - हरिवंशपुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन
पुन्नाट संघ के थे। ये महापुराणादि के कर्ता जिनसेन से भिन्न हैं। १. तत्त्वार्थवार्तिक, २, अष्टशती, ३. लघीयस्त्रय सविवृत्ति,
इनके गुरु का नाम कीर्तिषेण और दादागुरु का नाम जिनसेन ४. न्याय विनिश्चय, ५. सिद्धिविनश्चय और ६. प्रमाणसंग्रह।
था। महापुराणादि के कर्ता जिनसेन के गरु वीरसेन और दादा वज्रसरि - ये देवनन्दी या पूज्यपाद के शिष्य द्राविड़ संघ के आर्यनन्दी थे। पन्नाट कर्नाटक का प्राचीन नाम है। इसलिए इस संस्थापक जान पड़ते हैं। हरिवंशपुराणकार जिनसेन प्रथम ने देश के मनिसंघ का नाम पन्नाट संघ था। जिनसेन का जन्मस्थान, इनके विचारों को प्रवक्ताओं या गणधर देवों के समान प्रमाणभूत माता-पिता तथा प्रारंभिक जीवन का कछ भी उल्लेख उपलब्ध बतलाया है और उनके किसी ऐसे ग्रन्थ की ओर संकेत किया है, नहीं है। जिनसेन बहश्रत विद्वान थे। हरिवंशपराण पराण तो है ही. जिसमें बंध और मोक्ष तथा उनके हेतुओं का विवेचन किया साथ ही इसमें जैन वाङमय के विविध विषयों का अच्छा निरूपण गया है। दर्शनसार के उल्लेखानुसार ये छठी शती के प्रारंभ के किया गया है। इसलिए यह जैन साहित्यका अनपम ग्रंथ है । विद्वान् ठहरते हैं ४६।
श्रीपाल - ये वीरसेन स्वामी के शिष्य और जिनसेन के महासेन - इन्हें जिनसेन प्रथम ने सुलोचनाकथा का कर्ता कहा है। सधर्मा समकालीन विद्वान् हैं। जिनसेन ने जयधवला को इनके शान्त - इनका पूरा नाम शान्तिषेण जान पड़ता है। इनकी द्वारा सम्पादित बतलाया है। इनका समय विक्रम की ९वीं शती है। उत्प्रेक्षा अलंकार से युक्त वक्रोक्तियों की प्रशंसा की गई है। जयसेन - ये उग्रतपस्वी प्रशांतमूर्ति, शास्त्रज्ञ और पण्डितजनों जिनसेन प्रथम ने अपनी गुरुपरंपरा का वर्णन करते हुए जयसेन में अग्रणी थे। हरिवंशपराण के कर्ता जिनसेन ने अमितसेन के के पूर्व एक शान्तिषेण नामक आचार्य का नामोल्लेख किया है। गरु जयसेन का उल्लेख किया है। इनका समय विक्रम की बहुत कुछ संभव है कि यह शान्त वही शन्तिषेण हों। आठवीं शती है। जयसेन के नाम से एक निमित्तज्ञान संबंधी कुमारसेनगुरु - चंद्रोदय ग्रन्थ के रचयिता प्रभाचंद्र के आप ग्रंथ भी प्राकृत भाषा में लिखा मिलता है, पर यह निश्चयपूर्वक गरु थे। आपका निर्मल सयश समदान्त विचरण करता था। नहीं कहा जा सकता कि आदिपुराणोल्लिखित जयसेन से वह इनका समय निश्चित नहीं है। चामुण्डरायपुराण के पद्य सं. १५ में आ
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य कवि परमेश्वर - आदिपराण में कवि परमेश्वर या परमेष्ठी को विद्यानन्द महोदय सम्प्रति अनुपलब्ध है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक वागर्थसंग्रह नामक पराण-ग्रंथ का रचयिता कहा गया है। की रचना तत्त्वार्थसूत्र पर भाष्य के रूप में मीमांसाश्लोकवार्तिक चामुण्डराय ने अपने पुराण में कवि परमेश्वर के नाम से अनेक के अनुकरण पर की गई। भट्टाकलङ्क की अष्टशती के गूढ़ रहस्य पद्य उद्धृत किए हैं। कन्नड-कवि आदिपम्प, अभिनव पम्प, को समझाने के लिए अष्टसहस्री की रचना की गई। इसके गौरव नयसेन, अग्गलदेव और कमलभव आदि ने आदरपर्वक कवि को आचार्य विद्यानन्द ने स्वयं इन शब्दों में व्यक्त किया हैपरमेश्वर का स्मरण किया है। आचार्य गणभद्र ने परमेश्वर के “हजार शास्त्रों के सुनने से क्या लाभ है, केवल इस अष्टसहस्री कथाकाव्य को छन्द, अलंकार और गढार्थ यक्त बतलाया है। को सुन लीजिए। इतने से ही स्वसिद्धान्त और परसिद्धांत का इनके इस कथा-ग्रंथ की रचना गद्य में बतलाई गई है।५२ ज्ञान हो जाएगा।" युक्त्यनुशासनालङ्कार आचार्य समन्तभद्र के
युक्त्यनुशासन की टीका है। आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा और जिनसन द्वितीय - पंचस्तूपान्वयी स्वामी वीरसेन के पट्टशिष्य सत्यशासनपरीक्षा परीक्षान्त ग्रंथ है. जो दिङनाग की आलंबनपरीक्षा सेनसंघी आचार्य जिनसेन के माता-पिता, जन्मस्थान आदि की।
और त्रिकालपरीक्षा, धर्मकीर्ति की संबंधपरीक्षा, धर्मोतर की कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। जयधवला टीका
प्रमाणपरीक्षा व लघुप्रमाणपरीक्षा तथा कल्याणरक्षित की की प्रशस्ति के अनुसार कर्णच्छेदन से भी पहले इन्होंने वीरसेन
श्रुतिपरीक्षा जैसे परीक्षान्त ग्रंथों की याद दिलाते हैं। विद्यानन्द स्वामी के संघ में रहना प्रारंभ कर दिया था। आसन्नभव्यता, को परीक्षान्त नाम रखने में इनसे प्रेरणा मिली हो, इसमें आश्चर्य मोक्षलक्ष्मी की समुत्सुकता और ज्ञानलक्ष्मी के वरण हेतु इन्होंने नहीं। पहले शास्त्रार्थो में जो पत्र दिए जाते थे. उनमें क्रियापद गढ बाल्यावस्था में ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया था। इनका रहते थे. जिनका आशय समझना कठिन होता था। उसी के विवेचन शारीरिक आकार अधिक सुंदर नहीं था और न ये अधिक चतुर
के लिए विद्यानन्द ने पत्रपरीक्षा नामक एक छोटे से प्रकरण की थे। श्री, शम और विनय उनके नैसर्गिक गुण थे, जिसके कारण ।
रचना की थी। जैन परंपरा में इस विषय की संभवतः यह प्रथम विद्वज्जन भी उनकी आराधना करते थे, क्योंकि गुणों के द्वारा और अंतिम रचना है। श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र की रचना अतिशयक्षेत्र कौन व्यक्ति आराधना को प्राप्त नहीं होता है। वे यद्यपि शरीर से
श्रीपुर के पार्श्वनाथ के प्रतिबिम्ब को लक्ष्य में रखकर की गई है। कृश थे, किन्तु तपोगुण से कृश नहीं थे। शरीर से दुर्बल व्यक्ति
अष्टसहस्री की अंतिम प्रशस्ति में बताया है कि कुमारसेन दुर्बल नहीं होता है, किन्तु जो व्यक्ति गुणों से दुर्बल है, वही वास्तव में दुर्बल है। ज्ञान की आराधना में इनका समय निरंतर
की युक्तियों के वर्द्धनार्थ ही यह रचना लिखी जा रही है। इससे
ध्वनित होता है कि कुमारसेन ने आप्तमीमांसा पर कोई विवृत्ति व्यतीत होता था, अतः तत्त्वदर्शी उन्हें ज्ञानमयपिण्ड कहा करते
या विवरण लिखा होगा। जिसका स्पष्टीकरण विद्यानन्द ने किया थे ५३। उनके द्वारा रचित कृतियाँ निम्नलिखित हैं
है। निश्चयतः कुमारसेन इनके पूर्ववर्ती हैं। कुमारसेन का समय १. आदिपुराण, २. पार्वाभ्युदय, ३. जयधवला टीका, जिनसेन ।
ई. सन् ७८३ के पूर्व माना गया है।५४ का काल ई. सन् की नवम शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है।
अनन्तवीर्य - जैन साहित्य में दो अनन्तवीर्यों का नाम मिलता विद्यानन्द - आचार्य विद्यानन्द ७७०-८४० ई. के विद्वान् है। इनमें से एक अनन्तवीर्य ने अकलंक के सिद्धिविनिश्चय पर माने जाते हैं। उन्होंने इतरदार्शनिकों के साथ नागार्जुन, वसुबन्धु, टीका लिखी है। प्रभाचंद्र ने न्यायकमदचन्द्र में इनका स्मरण दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर तथा धर्मात्तर इन बौद्धदार्शनिकों के किया है और प्रमेयरत्नमाला में अनन्तवीर्य ने प्रभाचंद्र का स्मरण ग्रंथों का सर्वाङ्गीण अभ्यास किया था। इसके साथ ही साथ जैन किया है। दो सिट है कि दोनों अनन्ततीर्य :
किया है। इससे सिद्ध है कि दोनों अनन्तवीर्य भिन्न हैं। उत्तरवर्ती दार्शनिक तथा आगमिक साहित्य भी उन्हें विपुल मात्रा में प्राप्त होने से प्रमेयरत्नमाला के रचयिता अनन्तवीर्य को लघ अनन्तवीर्य था। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ निम्नलिखित है--१. विद्यानन्द के नाम से भी कहा जाता है। अपने टिप्पण के प्रारंभ में टिप्पणकार महोदय, २ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ३. अष्टसहली, ४. नेहनका ला अनन्नती देव के नाम से उल्लेख किया है। यक्त्यनुशासनालङ्कार, ५. आप्तपरीक्षा, ६. प्रमाणपरीक्षा, ७. इन्होंने माणिक्यनन्दि के परीक्षामख सत्रों की संक्षिप्त किन्त पत्रपरीक्षा, ८. सत्यशासनपरीक्षा, ९. श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र।
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- यतीन्द्रसुरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - विशद व्याख्या की है, साथ ही चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, नामक टीका की लघुवृत्ति है। अंतिम ग्रन्थ शाकटायनन्यास के न्यायवैशेषिक, मीमांसा और वेदान्तदर्शन के कुछ विशिष्ट सिद्धांतों प्रभाचन्द्रकृत होने का अभी सर्वसम्मत निर्णय नहीं हो सका है।५९ का स्पष्ट विवेचन एवं निराकरण किया है। इससे इनके गंभीर पांडित्य
वादिराज - ये प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायककुमुचन्द्र के का पता चलता है। इनकी एक मात्र कृति प्रमेयरत्नमाला है। अनन्तवीर्य का समय विक्रम की बारहवीं शताब्दी माना जाता है।५५
रचयिता प्रभाचन्द्र के समकालीन और अकलंकदेव के ग्रन्थों
के व्याख्याता हैं। चालुक्यनरेश जयसिंह की राजसभा में इनका अनन्तकीर्ति - आचार्य अनन्तकीर्ति-रचित लघु सर्वज्ञसिद्धि बड़ा सम्मान था। इनका काल १०१० से १०६५ ई. माना जाता और बृहत् सर्वज्ञसिद्धि नाम से दो प्रकरण लघीयस्त्रयादि संग्रह है। इनके द्वारा निम्नलिखित ग्रन्थ प्रणीत हुए -१. पार्श्वनाथचरित, में छपे हैं। उनके अध्ययन से प्रकट होता है कि वे एक प्रख्यात २.यशोधरचरित, ३. एकीभावस्तोत्र, ४. न्यायविनिश्चय-विवरण, दार्शनिक थे। उन्होंने इन प्रकरणों में वेदों के अपौरुषेयत्व का ५. प्रमाण-निर्णय। इनमें से अंतिम दो दार्शनिक कृतियाँ हैं। खंडन करके आगम की प्रमाणता में सर्वज्ञ प्रणीतता को ही न्यायविनिश्चय-विवरण अकलंकदेव के न्यायविनिश्चय ग्रन्थ का कारण सिद्ध किया है। उन्होंने सर्वज्ञता के पूर्वपक्ष में जो श्लोक बीस हजार श्लोकप्रमाण भाष्य है। बौद्धमत समीक्षा में धर्मकीर्ति उद्धृत किए हैं, उनमें कुछ मीमांसाश्लोकवार्तिक के, कुछ के प्रमाणवार्तिक और प्रज्ञाकर के वार्तिकालंकार की प्रमाणवार्तिक के और कुछ तत्त्वसंग्रह के हैं। प्रभाचंद्र ने न्यायकुमुदचंद्र गहरी और विस्तृत आलोचना अन्यत्र देखने में नहीं आयी। और प्रमेयकमलमार्तण्ड के सर्वज्ञसाधक प्रकरणों में अनन्तकीर्ति वार्तिकालंकार का आधा भाग इसमें आलोचित है। इसके की बृहत्सर्वज्ञसिद्धि का शब्दपरक अनुकरण किया है.६ अतिरिक्त न्यायविनिश्चयविवरण में धर्मोत्तर शांतिभद्र, अर्चट आचार्य माणिक्यनन्दि - ये जैन-न्याय के आद्य सूत्रकार
आदि प्रमुख बौद्ध दार्शनिकों की समीक्षा है। प्रमाणनिर्णय एक
लघुकाय ग्रन्थ है। इसके चार प्रकरण हैं- १. प्रमाणनिर्णय, २. हैं। इनका समय ईसा की नौवीं शताब्दी है। इन्होंने अकलंक देव
प्रत्यक्षनिर्णय, ३. परोक्षनिर्णय, ४. आगमनिर्णय। के वचनरूपी अमृत का मंथन करके न्यायविद्या रूपी अमृत का उद्धार किया था। यद्यपि इनकी रचना परीक्षामुखसूत्र का गुणभद्र - जिनसेन द्वितीय के पट्टशिष्य आचार्य गुणभद्र थे, प्रधान आधार समन्तभद्र, सिद्धसेन और अकलंक के ही ग्रन्थ हैं, जिनका अमोघवर्ष तथा उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय दोनों ही सम्मान तथापि सूत्ररचना में विशेष रूप से हेतु के भेद-प्रभेदों के बतलाने करते थे। इन्हें अमोघवर्ष ने अपने पुत्र का शिक्षक नियुक्त में उन्होंने अपने पूर्ववर्ती बौद्धग्रन्थ न्यायविन्दु का भी भरपूर उपयोग किया था। इन्होंने गुरु द्वारा प्रारंभ किए गए महापुराण को संक्षेप किया है । दोनों ग्रन्थों की तुलना से यह बात स्पष्ट हो जाती है। में पूरा किया। इनके द्वारा लिखा गया भाग उत्तरपुराण कहलाता
है। इसके अतिरिक्त आत्मानुशासन, जिनदत्तचरित आदि ग्रन्थ प्रभाचन्द्र - आचार्य प्रभाचन्द्र का काल ९५० ई. से १०२०
भी उन्होंने रचे।६१ ई. के मध्य माना जाता है। वे एक बहुश्रुत विद्वान् थे। सभी दर्शनों के प्राय: सभी मौलिक ग्रन्थों का इन्होंने अभ्यास किया
देवसेन - आचार्य देवसेन स्वयं भी गणि थे, अर्थात् गण के था। इतर दर्शनों के ग्रन्थों के उद्धरण के साथ उन्होंने बौद्धों के नायक थे। ये विक्रम संवत् ९९० में हए हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थों अभिधर्मकोश, न्यायविन्दु, प्रमाणवार्तिक, माध्यमिकवृत्ति आदि में अपना परिचय नही दिया है आ
, वार्तिक मामिकतन आदि में अपना परिचय नहीं दिया है और न उन ग्रन्थों की रचना का ग्रंथों के उद्धरण दिए हैं। इनके द्वारा लिखित चार ग्रन्थ माने जाते समय बताया है। दर्शनसार ग्रन्थ के पढ़ने से यह बात स्पष्ट हो हैं--१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, २. न्यायकुमुदचन्द्र, ३. तत्त्वार्थवृत्ति,
३ तत्त्वार्थवत्ति जाती है कि वे मूलसंघ के आचार्य थे। दर्शनसार में उन्होंने काष्ठा
जा ४. शाकटायनन्यास। प्रमेयकमलमार्तण्ड माणिक्यनन्दि के संघ, द्राविड संघ, माथुर संघ और यापनीय संघ आदि सभी परीक्षामख नामक सत्र-ग्रन्थ का विस्तृत भाष्य है। अकलंकदेव दिगंबर संघों की उत्पत्ति बतलाई है और उन्हें मिथ्यात्वी कहा है. के लघीयस्त्रय तथा उसकी विवत्ति के व्याख्यानग्रन्थ का नाम परंतु मूल संघ के विषय में कुछ नहीं कहा है। अर्थात उनके न्यायकमदचन्द्र है। तत्त्वार्थवत्ति आचार्य पज्यपादकत सर्वार्थसिद्धि विश्वास के अनुसार यही मूल से चला आया है और यही वास्तविक
संघ है।६२ इनके द्वारा ये ग्रन्थ लिखे गए--१. दर्शनसार, dandramdroinodromirandirmironiorewormidniwarinition ५८ Hadmiriddindivariordaroristianitarorariwariyar
मंशा
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२. नयचक्र, ३. आलापपद्धति, ४. श्रुतभवनदीपक, ५. तत्त्वसार, ६. आराधना, ७ धर्मसंग्रह |
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
अमितगति प्रथम - ये देवसेन के शिष्य और नेमिषेण के गुरु थे। इनके साथ त्यक्तनिःशेषसङ्ग विशेषण प्राप्त होता है। इनका समय विक्रम सं. १००० माना जाता है। इनकी एकमात्र कृति योगसार प्राभृत मानी जाती है।
अमितगति द्वितीय- अमितगति की शिष्य परंपरा का ज्ञान अमरकीर्ति के 'छक्कम्मोवएस' से होता है। इस ग्रन्थ के अनुसार अमितगति (प्रथम) शान्तितिसेण अमरसेन (द्वितीय) श्रीसेन, चन्द्रकीर्ति और अमरकीर्ति इस प्रकार गुरु-शिष्य परंपरा प्राप्त होती है। अमितगति द्वितीय का काल विक्रम संवत् की ११वीं
शताब्दी माना जाता है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं
१. धर्मपरीक्षा, २. सुभाषितरत्नसन्दोह, ३. उपासकाचार, ४. पञ्चसंग्रह, ५. आराधना ६. भावनाद्वात्रिंशिका, ७. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ८. सार्द्धद्वयद्वीपप्रज्ञप्ति, ९. व्याख्याप्रज्ञप्ति ।
आचार्य अमृतचन्द्रसूरि - ये आचार्य कुन्दकुन्द के सुप्रसिद्ध ग्रंथ समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय के टीकाकार के रूप में विख्यात हैं। ये टीकाएँ बड़ी प्रौढ़, अर्थगाम्भीर्यपूर्ण तथा ग्रन्थकार के हार्द को अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं। इनका काल दशवीं शताब्दी का अंतिम भाग माना जाता है। इनकी रचनाओं में अध्यात्म और व्यवहार का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की टीकाएँ अध्यात्म प्रधान हैं तो उनके साथ व्यवहर का सुमेल स्थापित करने के लिए अपने तत्त्वार्थसार और पुरूषार्थसिद्धयुपाय का प्रणयन किया वे एक अच्छे स्तुतिकार भी थे। अनेकान्त शैली का आश्रय लेकर २५२५ छन्दों के २५ अधिकारों में उन्होंने तीर्थंकरों की स्तुति लिखी है। यहाँ वे आचार्य समन्तभद्र की शैली को अपनाते हुए दिखाई देते हैं। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में हिंसा-अहिंसा का जैसा सूक्ष्म वर्णन है, वैसा अन्यत्र विरल है । अमृतचन्द्रसूरि की निम्नलिखित रचनाएँ हैं -- १. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, २. तत्त्वार्थसार, ३ . समयसाकलश, ४. समयसारटीका, ५. प्रवचनसार टीका, ६. पंचास्तिकाय टीका और ७. लघुतत्त्वस्फोट |
आचार्य जयसेन ( प्रथम ) आचार्य जयसेन प्रथम लाडवागड संघ के आचार्य थे। इनकी गुरुपरंपरा इस प्रकार थी
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For Private
- धर्मसेन के शिष्य शन्तिषेण, शान्तिषेण के गोपसेन, गोपसेन के भावसेन और भावसेन के शिष्य जयसेन थे। इन्होंने अपने वंश को योगीन्द्रवंश कहा है। इनके एकमात्र ग्रन्थ धर्मरत्नाकर में पुरुषार्थसिद्धयुपाय के १२५ पद्य उद्धृत हैं। आचार्य सोमदेवसूरि के उपासकाध्ययन के भी अनेक पद्य इन्होंने उद्धृत किए हैं। एक पद्य रामसेन के तत्त्वानुशासन का भी उद्धृत है । धर्मरत्नाकर में उसका रचनाकाल विक्रम संवत् १०५५ दिया गया है। जयसेन (द्वितीय) आचार्य जयसेन कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय ग्रन्थों के सुप्रसिद्ध टीकाकार हैं। इनके गुरु का नाम सोमसेन और दादागुरु का नाम विद्वानों ने इनका समय ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध या बारहवीं वीरसेन था। इन्होंने त्रिभुवनचन्द्र गुरु को भी नमस्कार किया है।
शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना है। इनकी टीकाओं की शैली आचार्य अमृतचन्द्र से भिन्न है। प्रत्येक गाथा के पदों का शब्दार्थ स्पष्ट करते हुवे गाथा के अभिप्राय को सरल संस्कृत में अभिव्यक्त करते हैं। इनकी टीकाएँ निश्चय और व्यवहार का समन्वय लिए हुए हैं तथा पारिभाषिक शब्दों के अर्थ इन्होंने अच्छी तरह स्पष्ट किए हैं।
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आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती - आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अभयनन्दि, वीरनन्दि, इंद्रनन्दि और कनकनन्दि इन चार गुरुओं का स्मरण किया है। ये सभी सिद्धान्तसमुद्र के परगामी थे। बाहुबलिचरित के अनुसार जब चामुण्डाराय अपनी माता के साथ गोम्मटसार की मूर्ति के दर्शन के लिए पोदनपुर गए थे तो नेमिचन्द्र भी उनके साथ थे। नेमिचन्द्र आचार्य को ही यह स्वप्न आया था कि विन्ध्यगिरि पर गोम्मटेश्वर
मूर्ति है। उसके पश्चात् ही चामुण्डराय ने वहाँ मूर्ति की स्थापना की और नेमिचन्द्र के चरणों में चामुण्डराय ने मूर्ति की पूजा के निमित्त ग्राम अर्पित किए, जिनकी आय ९६००० द्रव्यप्रमाण थी। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती की तीन रचनाएं प्राप्त हैं-(१) गोम्मटसार, (२) लब्धिसार और (३) त्रिलोकसार । गोम्मटसार और त्रिलोकसार की रचना विक्रम सं. १०३७-४० में हुई है। नेमिचन्द्र देशियगण पुस्तकगच्छ से संबंधित थे। यह कुन्दकुन्दान्वय के नन्दिसंघ की शाखा थी । माधवचन्द्र त्रैविध्य - आचार्य नेमिचन्द्र के एक शिष्य माधवचंद्र त्रैविध्य थे। उन्होंने अपने गुरु के द्वारा निर्मित त्रिलोकसार ग्रंथ पर संस्कृत में टीका रची थी। उन्होंने अपनी टीकाकार प्रशस्ति
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्ध - जैन आगम एवं साहित्य - में कहा है कि अपने गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती को सम्मत आचार्य नरेन्द्रसेन - धर्मरत्नाकार की प्रशस्ति में धर्मसेन, अथवा ग्रन्थकर्ता नेमिचंद्र सिद्धान्तदेव के अभिप्राय का अनुसरण शान्तिषेण, गोपसेन और भावसेन आचार्यों के नाम क्रम से दिए करने वाली कुछ गाथाएँ माधवचन्द्र त्रैविध्य ने भी यहाँ वहाँ हैं। जयसेनाचार्य भावसेनाचार्य के शिष्य थे। जयसेनाचार्य ने रची हैं। माधवचन्द्र भी करणानुयोग के पंडित थे। इनकी गणितशास्त्र अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख करके धर्मरत्नाकर की प्रशस्ति में विशेष गति थी। इनके द्वारा सिद्ध गणित को त्रिलोकसार में निबद्ध
समाप्त की है। इस प्रशस्ति के आगे नरेन्द्रसेनाचार्य ने अपने किया गया है और यह गाथा में प्रयुक्त माधवचंदुद्धरिया पद से जो पर्ववर्ती ब्रह्मसेन, वीरसेन तथा गणसेन इन तीन और आचार्यों द्वयर्थक है. स्पष्ट होता है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में का उल्लेख किया है। नरेन्द्रसेन गणसेन आचार्य के शिष्य हाए हैं। योगमार्गणाधिकार में इनके मत का निर्देश है। अतः गुरुजनों के गणसेन आचार्य के नरेन्द्रसेन के समान गणसेन. उदयसेन और साथ शिष्यजन भी इस ग्रन्थरचना-गोष्ठी में सम्मिलित थे।६३
जयसेन जैसे अन्य तीन शिष्य थे। प्रथम गुणसेन के पट्ट पर ये इंद्रनन्दि - ये ९३९ ई. में लिखी गई ज्वालामालिनीकल्प के द्वितीय गुणसेन आरूढ़ होकर आचार्य पद भूषित करने लगे। रचनाकार माने जाते हैं। इनके द्वारा रचित श्रुतावतार ग्रन्थ भी आचार्य नरेन्द्रसेन की दो रचनाएँ प्राप्त होती हैं--(१) प्राप्त होता है।
सिद्धान्तसारसंग्रह और (२) प्रतिष्ठादीपक। सिद्धान्तसारसंग्रह में
रत्नत्रय तथा जीवादि सात तत्त्वों का स्वरूप विधिवत् समझाया कनकनन्दि - इनके द्वारा सत्त्वस्थान (विस्तार सत्तरिभङ्गी)
गया है। प्रतिष्ठासारदीपक में जिनमूर्ति, जिनमंदिर आदि के निर्माणों की रचना की गई थी।
में तिथि, नक्षत्र, योग आदि का विचार किया गया है। स्थाप्य, अभयनन्दि - ये विबुधगुणनन्दि के शिष्य और वीरनन्दी के गुरु थे। स्थापक और स्थापना इन तीन विषयों का इसमें वर्णन है। अजितसेन - नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के एक गुरु अजितसेन
पञ्चपरमेष्ठी तथा उनके पंचकल्याणक और जो जो पुण्य के हेतुभूत
हैं, वे स्थाप्य हैं। यजमान इन्द्र स्थापक हैं। मंत्रों से जो विधि की थे। ये सेनसंघ के आर्यसेन के शिष्य थे। ये चामुण्डराय के
जाती है, उसे स्थापना कहते हैं। तीर्थंकरों के पंचल्याणक जहाँ हए पारिवारिक गुरु थे। गङ्गराजा मारसिंह द्वितीय ने ९७४ ई. में
हैं, ऐसे स्थान तथा अन्य पवित्रस्थान, नदी तट, पर्वत, ग्राम, अजितसेन गुरु के सानिध्य में सल्लेखना ग्रहण की थी। अजितसेन
नगरादिकों के सुंदर स्थान में जिनमंदिर निर्माण करना चाहिए।६६ ने चामुण्डराय को श्रवणबेलगोला में विन्ध्यगिरि पर बाहुबली प्रतिमा की स्थापना की प्रेरणा दी थी। वे इस प्रतिमा के स्थापनासमारोह
आचार्य नरेन्द्रसेन का काल विक्रम संवत् की १२वीं शती के अधिष्ठाता थे। संभवत: नेमिचन्द्र इनके सहायक थे । का मध्यभाग सिद्ध होता है। वीरनन्दी - वीरनन्दी असाधारण विद्वान थे. ऐसा उनकी कति वादाभसिहसूरि - इनका जन्मनाम ओडयदेव, दीक्षानाम चन्द्रप्रभचरित के अध्ययन एवं अन्य उल्लेखों से जात होता है। अजितसेन और पाण्डित्योपार्जित उपाधि वादीभसिंह हैं। ये पष्पसेन चन्द्रप्रभचरित के क्रियापदों के देखने स्पष्ट है कि वीरनन्दी का मुनि के शिष्य थे। ये तर्क, व्याकरण, छन्द, काव्य, अलंकार व्याकरणशास्त्र पर पूर्ण अधिकार रहा। द्वितीय सर्ग (श्लो. ४४- और कोश आदि ग्रंथों के मर्मज्ञ थे। इनके वादित्वगुण की समाज ११०) यह सिद्ध करता है कि वीरनन्दी जैन व जैनेतर दर्शनों के में बड़ी प्रसिद्धि थी। इनका काल ८वीं शताब्दी माना जाता है। अधिकारी विद्वान् थे। तत्त्वोपप्लव-दर्शन की समीक्षा के संदर्भ इन्होंने क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि नामक दो काव्यग्रंथों में उन्होंने जो युक्तियाँ दी हैं, वे अष्टसहस्री आदि विशिष्ट दार्शनिक का प्रणयन किया। इनमें से प्रथम रचना पद्य में और द्वितीय गद्य ग्रन्थों में भी दृष्टिगोचर नहीं होती। अंतिम सर्ग वीरनन्दी की सिद्धान्त में है। श्रवणबेलगोल की मल्लिषेण-प्रशस्ति में इनके दो शिष्यों मर्मज्ञता को व्यक्त करता है। चन्द्रप्रभचरित के तत्तत्प्रसङ्गों में का उल्लेख पाया जाता है--(१) शान्तिनाथ और (२) पद्मनाभ। चर्चित राजनीति, गजवशीकरण और शकुनअपशकुन आदि संस्कृत-गद्यकारों में जो स्थान बाणभट्ट का है, वही स्थान जैनविषय उनकी बहुज्ञता को प्रमाणित करने में सक्षम हैं ६५। इनका संस्कृत-गद्य-लेखकों में आचार्य वादीभसिंह का है। उन्होंने
काल विक्रम की ग्यारहवीं शती का पूर्वार्द्ध सिद्ध होता है। गद्यचिन्तामणि काव्य लिखकर संस्कृत और जैन गद्यकाव्य को aortraitariandorovarioritibrobridroidonitor .orriddindiandidroidroiandidroidroid-didndramdaare
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - उत्कृष्टता प्रदान की है। क्षत्रचूडामणि जैसा सूक्तिकाव्य अद्वितीय जैन आचार्य महावीराचार्य ने ८५० ई. के लगभग किया था। है, जिसके प्रायः प्रत्येक पद्य में सूक्ति का प्रयोग किया गया है। आपके जन्मस्थान जन्मवर्ष दीक्षागुरु, दीक्षावर्ष तथा माता-पिता
आदि के संदर्भ में इतिहास पूर्णतः मौन है। पद्मनन्दी- इन्होंने पद्मनन्दिपबचविंशतिका के प्रत्येक प्रकरण में अपने नाममात्र का ही निर्देश किया है, इसके अतिरिक्त
गणितसारसंग्रह गणित की अनेक विशेषताओं को अपने इन्होंने अपना कोई विशेष परिचय नहीं दिया। इतना अवश्य है में समाहित किए हुए है। उसका क्षेत्रगणित व्यवहार अनेक कि इन्होंने दो स्थलों पर वीरनन्दी इस नामोल्लेख के साथ अपने विशिष्टताओं से परिपूर्ण है। आपने विविध प्रकार के त्रिभजों. गुरु के प्रति कृतज्ञता का भाव दिखलाते हुए अतिशय भक्ति चतुर्भुजों, वृत्त आदि के क्षेत्रफल ज्ञात करने के साथ ही दीर्घवृत्ति, प्रकट की है। इसके अतिरिक्त नामनिर्देश के बिना उन्होंने अनेक यवाकार, मुरजाकार, पणवाकार, वज्राकार, एकनिषेध क्षेत्र, स्थानों पर गरुरूप से उनका स्मरण करते हए उनके प्रति अत्यधिक उभयनिषेध क्षेत्र, तीन एवं चार संस्पर्शी वृत्तों से आबद्ध क्षेत्र. श्रद्धा का भाव व्यक्त किया है।
हस्तदंत क्षेत्र का क्षेत्रफल निकालने के नियम भारतीय गणित में श्री पद्मनन्दी मुनि द्वारा विरचित इन कृतियों के पढ़ने से
सर्वप्रथम प्रतिपादित किए हैं। दीर्घवृत्त के अतिरिक्त अन्य
आकृतियों की तो चर्चा भी सर्वप्रथम आपने ही की। मात्र वृत्त ज्ञात होता है कि वे मुनिधर्म का दृढ़ता से पालन करते थे। वे
ही नहीं, अपितु गोलीय खण्डों (नतोदर + उन्नतोदर) के आयतन मूलगुणों के परिपालन में थोड़ी सी भी शिथिलता को नहीं सह सकते थे। उनका दिगंबरत्व में विशेष अनुराग ही नहीं था, बल्कि
ज्ञात करने के सूत्र भी उपलब्ध हैं।६९ वे उसे संयम का एक आवश्यक अंग मानते थे। प्रमाद के परिहारार्थ मानतुङ्गसूरि - सुप्रसिद्ध भक्तामरस्तोत्र के प्रणेता मानतुङ्गसूरि उन्हें एकान्तवास अधिक प्रिय था। वे अध्यात्म के विशेष प्रेमी को कुछ इतिहासज्ञ विद्वानों ने हर्षवर्द्धन के समकालीन बतलाया थे। ये विक्रम सं. १०७५ के पश्चात् और १२४० के पूर्व हुए। है। सम्राट हर्ष का समय सातवीं शताब्दी है, अत: पं. पन्नालाल शाकटायन पाल्यकीर्मि - ये पाणिनि से १०० वर्ष पर्व साहित्याचार्य ने महापुराण की प्रस्तावना (पृ. २२) में आचार्य
मानतुङ्ग को ७वीं शताब्दी का लिखा है ६०। भक्तामरस्तोत्र के हुए प्रसिद्ध वैयाकरण शाकटायन से भिन्न हैं। इन्होंने स्वोपज्ञ
रचयिता मूलतः ब्राह्मणधर्मानुयायी और सुकवि थे। बाद में अमोघवृत्ति सहित शाकटायन शब्दानुशासन की रचना की है।
अनेक परिवर्तनों के बाद दिगंबर जैन साधु हो गए थे। उन्हीं ने अमोघवृत्ति के प्रारंभ में में शाकटायन नाम से ही इनका निर्देश
भक्तामर काव्य बनाया है।६१ भक्तामर स्तोत्र जैनों में अत्यधिक किया गया है। शाकटायन का एक अन्य नाम पाल्यकीर्ति भी
लोकप्रिय है। अनेक भाई-बहन तो प्रतिदिन भक्तामर का पाठ मिलता है। ये यापनीय संघ के आचार्य थे। वादिराज द्वारा निर्देश
करके ही आहार ग्रहण करते हैं। आधुनिक हिन्दी में इसके १०० होने के कारण इनका समय ई. सन १०२५ के पूर्व है। इनकी तीन
से अधिक पद्यानुवाद हो गए हैं। रचनाएँ प्राप्त होती हैं - १. अमोघवृत्तिसहित शाकटायन-शब्दानुशासन।
महासेनाचार्य २. स्त्रीमुक्ति
महासेन वाट-वर्गट य लाट-वागड़ संघ के आचार्य थे। ३. केवलिमुक्ति
प्रद्युम्नचरित की कारजा भंडार में प्राप्त प्रशस्ति से ज्ञात होता महावीराचार्य - मात्र भारतीय ही नहीं, अपित विश्व-इतिहास है कि लाट-वर्गट संघ में सिद्धान्तों के पारगामी जयसेन मुनि में आपकी विशिष्ट कीर्ति आपकी बहश्रत कति गणितसारसंग्रह हुए, उनके शिष्य गुणाकरसेन। इन गुणाकरसेन के शिष्य महासेन के कारण है। ज्योतिष के प्रभाव से पूर्णत: मक्त पाठ्यपस्तक सूरि हुए, जो राजा मुज द्वारा पूजित थे। सिन्धुराज या सिन्धुल की शैली में निबद्ध इस कति का प्रणयन मान्यखेट के शासक के महामात्य पर्पट ने जिनके चरणकमलों की पूजा की थी। इन्हीं राष्ट्रकूटवंशीय नृपतुंग अमोघवर्ष के राज्यकाल में संभवतः महासेन ने प्रद्युम्नचरित काव्य की रचना की और राजा के अनचर उनके ही राज्यक्षेत्र अथवा उसके समीप विहार करने वाले दि.
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विवेकवान् मन ने इसे लिखकर कोविदजनों को दिया। महासेन का समय दशवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है।
हरिषेण
जो
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य महान् बुद्धि के धारक महानुभाव के शिष्य नेमिदेव हुए, स्याद्वादसमुद्र के पारदर्शी थे और परवादियों के दर्परूपी वृक्षों के उच्छेदन के लिए कुठार के समान थे। जिस प्रकार खान में से अनेक रत्न निकलते हैं, उसी प्रकार उन तपोलक्ष्मीपति के बहुत से शिष्य हुए। उनमें सैकड़ों से छोटे श्री सोमदेव पण्डित हुए जो तप, शास्त्र और यश के स्थान थे। ये भगवान् सोमदेव समस्त विद्याओं के दर्पण, यशोधरचरित के रचयिता, स्याद्वादोपनिषद् के कर्ता तथा अन्य सुभाषितों के भी रचयिता हैं। समस्त महासामन्तों के मस्तकों की पुष्पमालाओं से जिनके चरण सुगन्धित हैं, जिनका यशकमल सम्पूर्ण विद्वज्जनों के कानों का आभूषण है, और सभी राजाओं के मस्तक जिनके चरणकमलों से सुशोभित होते हैं। यशस्तिलक का रचनाकाल विक्रम सं. १०६४ है । ७६ अतः सोमदेवसूरि का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है।
पद्मप्रभ मलधारिदेव
ये आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका के रचयिता हैं। इन्होंने अपने आपको सुकविजन रूपी कमलों के लिए सूर्यसमान, पञ्चेन्द्रियों के विस्तार से रहित तथा गात्रमात्रपरिग्रह कहा है। नियमसार के परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार के अंत में तथा ग्रन्थ के आदि में इन्होंने श्री वीरनन्दि नामक मुनिराज को नमस्कार किया है। मद्रास प्रांत के 'पटशिवपुरम' ग्राम में एक स्तम्भ पर पश्चिमी चालुक्य राजा त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वर के समय का शक सं. ११०७ का एक अभिलेख है, जबकि उसके मांडलिक त्रिभुवनमल्ल, भोगदेवचोल्ल हेजरा नगर पर राज्य कर रहे थे। उसी में यह लिखा है कि जब वह जैन मंदिर बनवाया गया था, तब श्री पद्मप्रभ मलधारिदेव और उनके गुरु श्री वीरनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती विद्यमान थे। अतएव इन प्रमाणों के आधार पर पद्मप्रभमलधारिदेव का समय ईसवी सन् की १२वीं शताब्दी सिद्ध होता है । ७७
इनके द्वारा रचित ९ पद्यों का पार्श्वनाथ स्तोत्र भी प्राप्त
हरिषेण नाम के कई आचार्य हुए। डा. एन. एन. उपाध्ये ने छह हरिषेण नाम के ग्रन्थकारों का निर्देश किया है। बृहत्कथाकोश के रचयिता इन सबसे भिन्न है। इन्होंने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में लिखा है-
यो बोधको भव्यकुमुद्वतीनां निःशेषराद्धान्तवचोमयूखैः । पुन्नाटसंघाम्बरसंनिवासी श्रीमौनिभट्टारकपूर्णचन्द्रः ॥ जैनालयव्रातविराजितान्ते चंद्रावदातद्युतिसौधजाले । कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्द्धमानाख्यपुरे वसन् सः ॥ सारागमाहितमतिर्विदुषां प्रपूज्यो नानातपोविधिविधानकरो विनेयः । तस्याभवद् गुणनिधिर्जनताभिवन्द्यः श्रीशब्दपूर्वपदको हरिषेणसंज्ञः ॥ 3
इससे स्पष्ट द्योतित होता है कि इनके गुरु का नाम मौनि भट्टारक था । ये पुन्नाट संघ के आचार्य थे। उनका निवास स्थान वर्द्धमानपुर था। इनके द्वारा रचित बृहत्कथाकोश, पद्यमय है। २५०० अनुष्टुप् श्लोकप्रमाण है। हरिषेण का समय ई. सन् की १०वीं शताब्दी माना जाता है।
सोमदेवसूरि
राजशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत के रचयिता श्रीमत्सोमदेवसूरि दिगंबर संप्रदाय में प्रसिद्ध देवसंघ के आचार्य थे। आचार्यप्रवर के प्रमुख ग्रन्थ यशस्तिलक तथा नीतिवाक्यामृत
अध्ययन, मुलवाड दानपत्र तथा राष्ट्रकूट- नरेश कृष्ण तृतीय के ताम्रपत्र से पर्याप्त जानकारी मिलती है। यशस्तिलक की प्रशस्ति के अनुसार शोमदेव के गुरु का नाम नेमिदेव तथा नेमिदेव के गुरु का नाम यसोदेव था । सोमदेव के गुरु नेमिदेव महान् दार्शनिक थे और उन्होंने शास्त्रार्थ में ९३ महावादियों को पराजित किया था । ७४ नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति के अनुसार सोमदेव महेन्द्रदेव भट्टारक के कनिष्ठ भ्राता थे और उन्हें अनेक गौरवसूचक उपाधियाँ प्राप्त थी, जिनमें स्याद्वादाचलसिंह तार्किकचक्रवर्ती, वादीभपंचानन, वाक्कल्लोलपयोनिधि आदि प्रमुख हैं । ७५
लैमुलवाड दानपत्र से विदित होता है कि श्रीगौड़ संघ में यशोदेव नामक आचार्य हुए जो मुनिमान्य थे और जिन्हें उग्रतप के प्रभाव से जैनशासन के देवताओं का साक्षात्कार था। इन
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होता है।
शुभचन्द्र शुभचन्द्र नाम के अनेक आचार्य, विद्वान् और भट्टारक हुए। एक शुभचंद्र आचार्य सागवाड़ा के पट्ट पर विक्रम संवत् १६०० (ई. सन् १५४४) में हुए हैं। इन्हें षड्भाषाकविचक्रवर्ती
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की उपाधि प्राप्त थी। पाण्डवपुराण, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत - टीका आदि अनेक ग्रन्थ इनके द्वारा बनाए हुए हैं। ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र का समय विक्रम संवत् की ११वीं शताब्दी माना जाता है। ज्ञानावर्णव के माहात्म्य के विषय में इन्होंने लिखा है
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
ज्ञानार्णवस्य माहात्म्यं चित्ते को वेत्ति तत्त्वतः । यज्ज्ञानात्तीर्यते भव्यैर्दुस्तरोऽपिभवार्णवः । । ४२ / ८८ ।।
भव्य जीव जिसके ज्ञान से ही अत्यंत कठिनता से पार करने योग्य संसाररूप समुद्र से पार हो जाते हैं, ऐसे ज्ञानार्णव ग्रंथ का माहात्म्य यथार्थरीति से कौन जानता है?
मुनिरामसेन - रामसेन नाम के अनेक व्यक्ति हुए हैं। मुनि रामसेन तत्त्वानुशासन नामक ग्रन्थ के कर्त्ता हुए हैं। इनका समय विक्रम की १०वीं शताब्दी है । ये नागसेन के शिष्य थे। इन्होंने वीरचन्द्र, शुभदेव, महेन्द्रदेव और विजयदेव से शास्त्रों का अध्ययन किया था। इनके ऊपर आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलङ्क और जिनसेन का विशेष प्रभाव पड़ा । तत्त्वानुशासन में ध्यान का विशेष विवेचन है।
माइल्लधवल मलवल ने अपने ग्रन्थ की अंतिम गाथाओं में आचार्य देवसेन को अपना गुरु घोषित किया है। उनकी एकमात्र कृति नयचक्र है। इस ग्रन्थ में द्रव्यसंग्रह तथा पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका के एकत्वसप्तति से कुछ उद्धरण प्रस्तुत किए गए हैं। इनका समय ११३६ से १२४३ ई. के मध्य का माना जाता है ६८ । नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव - नेमिचन्द्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं। एक नेमिचन्द्र वे हैं, जिन्होंने गोम्मटसार, त्रिलोकसार, लब्धिसार, क्षपणासार जैसे मूर्द्धन्य सिद्धान्त ग्रन्थों का प्रणयन किया है और जो सिद्धान्तचक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित थे।
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दूसरे नेमिचन्द्र, जिनका उल्लेख वसुनन्दि सिद्धान्तिदेव ने अपने उपासकाध्ययन में किया है और जिन्हें जिनागमरूप समुद्र की वेलातरङ्गों से धुले हुए हृदयवाला तथा सम्पूर्ण जगत् में विख्यात लिखा है।
तीसरे नेमिचन्द्र वे हैं, जिन्होंने प्रथम नंबर पर उल्लिखित नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के गोम्मटसार पर जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम की संस्कृत - टीका, जो अभयचन्द्र की मन्दप्रबोधिका और
केशवर्णी की संस्कृतमिश्रित कन्नड़ टीका जीवतत्त्वप्रदीपिका इन दोनों टीकाओं के आधार से रची गई है, लिखी है।
दूसरे नेमिचन्द्र ने ही लघुद्रव्यसंग्रह और बृहद्रव्यसंग्रह की रचना की है । द्रव्यसंग्रह के संस्कृत टीकाकार ब्रह्मदेव ने द्रव्यसंग्रह नेमिचन्द्र को सिद्धान्तिदेव उपाधि के साथ अपनी संस्कृत टीका के मध्य में तथा अधिकारों के अंतिम पुष्पिकावाक्यों में उल्लिखित किया है। वसुनन्दि और उनके गुरु नेमिचन्द्र भी सिद्धान्तिदेव की उपाधि से भूषित मिलते हैं। अतः असंभव नहीं कि ब्रह्मदेव के अभिप्रेत नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव और वसुनन्दि के गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव एक ही हों ९ ।
अनन्तकीर्ति
अनन्तकीर्ति नाम के अनेक विद्वान् आचार्य हुए हैं। इनमें से १० अनन्तकीर्तियों का परिचय डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपने ग्रन्थ 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा' में दिया है। बृहत्सर्वज्ञसिद्धि और लघुसर्वज्ञसिद्धि के कर्त्ता अनन्तवीर्य के वैदुष्य का प्रभाव शान्तिसूरि, अभयदेवसूरि तर्कपञ्चानन तथा प्रभाचंद्र आदि आचार्यों पर पड़ा है। आचार्य वादिराज ने पार्श्वनाथचरित में अनन्तकीर्ति का स्मरण निम्न प्रकार किया है।
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आत्मनेवाद्वितीयेन जीवसिद्धिनिबध्नता । अनन्तकीर्तिना मुक्ति रात्रिमार्गेव लक्ष्यते ।
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इनका समय विद्वानों ने ८४० से १०८२ विक्रम संवत् के बीच माना है।
मल्लिषेण - ग्यारहवीं शताब्दी ईसवी में हुए मल्लिषेण उभयभाषाकविचक्रवर्ती के रूप में विख्यात हैं। इनकी कवि और मन्त्रवादी के रूप में विशेष प्रसिद्धि है। इनकी निम्नलिखित . रचनाएँ प्राप्त हैं।
१. नागकुमार काव्य २. महापुराण
३. भैरवपद्मावतीकल्प
४. सरस्वतीमन्त्रकल्प ५. ज्वालिनीकल्प |
६. कामचाण्डालीकल्प |
महापुराण की रचना धारवाड़ जिले के मूलगुन्द नामक स्थान में की गई है।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
इन्द्रनन्दि - इन्द्रनन्दि नाम के अनेक विद्वान् आचार्य हो गए हैं। इन्द्रनन्दिसंहिता के रचयिता का नाम विशेष प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त ज्वालामालिनीकल्प के रचयिता एक अन्य इंद्रनन्दि ईसवी सन् की दशवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हो गए हैं। ये वासवनन्दि के प्रशिष्य और वप्पनन्दि के शिष्य थे ।
जिनचन्द्राचार्य - 'सिद्धान्तसार' नामक ग्रंथ के रचनाकार जिनचन्द्राचार्य की भास्करनन्दि के गुरु के रूप में पं. नाथूराम प्रेमी ने संभावना की है।" इनका उल्लेख श्रवणबेलगोल के ५५वें शिलालेख में किया गया है।
जिनचन्द्र नाम के एक और आचार्य हो गए हैं जो धर्मसंग्रह श्रावकाचार के कर्त्ता पं. मेधावी के गुरु थे और शुभचन्द्राचार्य के शिष्य थे। ये शुभचन्द्राचार्य पद्मनन्दि आचार्य के पट्टधर थे और पाण्डवपुराण आदि ग्रन्थों के कर्त्ता शुभचन्द्र से पहले हो गए हैं। श्रीधरसेन - सुप्रसिद्ध दिगंबर जैनाचार्य श्रीधरसेन जैन - वाङ्मय में कोशसाहित्य के रचयिता के रूप में चर्चित हैं। इसका दूसरा नाम मुक्तावलकोश भी है। ये नाना शास्त्रों के पारगामी विद्वान् होने के साथ ही बड़े-बड़े राजपुरुषों के द्वारा पूजित थे। विश्वलोचनकोश में २४५३ पद्य हैं, जो अनुष्टुप् छन्द में रचित हैं। नानार्थकोशों में यह सबसे बड़ा कोश है। इसके कर्त्ता का समय १३५० और १५५० ई. के मध्य अनुमानित किया जाता है।
श्रीधर नाम के अन्य अनेक आचार्य हो गए हैं। एक श्रीधराचार्य ईसवी सन् की आठवीं शती के अंतिम भाग या नवम शती के पूर्वार्द्ध में हुए । इनका उल्लेख भास्कराचार्य केशव, दिवाकर, देवज्ञ आदि ने किया है। इनके द्वारा चार ग्रन्थों की रचना की गयी -
१. गणितसार या त्रिंशतिका, २. ज्योतिर्ज्ञानविधि, ३. जातकतिलक और ४. बीजगणित ।
श्रीधराचार्य गणित और ज्योतिष के अच्छे विद्वान् थे। अन्य आचार्य - उपर्युक्त आचार्यों के अतिरिक्त दुर्गदेवाचार्य, मुनिपद्मकीर्ति, गणधरकीर्ति, भट्टवोसरि, उग्रादित्याचार्य, भावसेन त्रैविद्य, नयसेन, श्रुतमुनि, माघनन्दि, वज्रनन्दि, महासेन द्वितीय, सुमतिदेव, पद्मसिंह, नयनन्दि आदि अनेक दिगम्बर आचार्य हुए, जिन्होंने विविध विषयों पर साहित्य - सर्जना की।
दक्षिण भारत में दिगम्बर जैन आचार्यों ने द्रविड़ भाषा तमिल, तेलुगू और कन्नड़ के उत्थान में सेवाएँ समर्पित कीं । तोलकाघियम तमिल भाषा के सभी व्याकरण ग्रन्थों का मूल माना जाता है। इसे विद्वानों ने जैनग्रन्थ माना है। इसके कर्त्ता संस्कृत - व्याकरण में तथा साहित्य में निर्विवाद रूप से प्रवीण थे । तिरुक्कुरल एक तमिल नीति-ग्रन्थ है। इसे तमिलवेद भी कहा जाता है। इसके कर्त्ता एलाचार्य कुन्दकुन्द थे । नाडियार एक संग्रहग्रन्थ है, यह भी कुरल के समान समाहत है । शिलप्पदिकारम् चेल के युवराज, जो कि मुनि हो गए थे, की महत्त्वपूर्ण कृति है । यह तमिल के पाँच महाकाव्यों में परिगणित है। पंचमहाकाव्यों में तीन जैनग्रन्थ तथा दो बौद्धग्रन्थों की गणना होती है। अवशिष्ट दो जैन महाकाव्य वलैयापति और जीवकचिन्तामणि हैं। तमिल में पाँच लघुकाव्य भी अतिप्रसिद्ध हैं । ये हैं- यशोधरकाव्य, चूलामणि, उदयनकथै, नागकुमार काव्य और नीलकेशि। ये पाँचों ही जैन रचनाएँ हैं। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेरिच्चारम्, पलनोलि आदि नीतिग्रन्थ, मेरूमंदिरपुराणम्, श्रीपुराणम् आदि पुराण ग्रन्थ, यप्परंगुलक्करिकै, यप्परंगुलवृत्ति, नेमिनाथम्, नानूल आदि व्याकरणग्रन्थ, उच्चनंदिमालै आदि ज्योतिषग्रंथ भी जैन साहित्यकारों की तमिल में महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं"।
उपर्युक्त कृतियों के अतिरिक्त संस्कृत में भट्टारकों ने प्रभूत मात्रा में साहित्यनिर्माण किया। ये भट्टारक प्रारंभ में दिगम्बर मुनि ही हुआ करते थे। धीरे-धीरे इनमें शिथिलाचार बढ़ता गया और ये वस्त्रधारी हो गए तथा राजसी ठाठबाट से रहने लगे, किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं की इनके कारण जैन- संस्कृति और साहित्य दक्षिण में सुरक्षित रहा। इस प्रकार भारतीय साहित्य के क्षेत्र में दिगम्बर जैन आचार्यों का महान योगदान है।
सन्दर्भ
१.
२. 3. ४. 5.
६.
तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा, भाग - २, पृ. ३१
डॉ. रमेशचन्द्र जैन, जैन पर्व - पृ. ६६ - ६९
The Jain sources of the history of India, P. 114 कसायपाहुड़ - पञ्चम भाग, पृ. ३८८
The Jain sources of the History of ancient India. P. 116
कसायपाहुडसुत्त (पं. हीरालाल सद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - प्रस्तावना)
३०. परमात्मप्रकाश, दोहा २/११ ७. कसायपाहुड सुत्त (पं. हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित ३१. भगवान् महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा - भाग-२, प्रस्तावना, पृ. २६, २७)
पृ. २४५ मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. ४१
३२. परमात्मप्रकाश (रामचन्द्र शास्त्रमाला), दोहा - २/२११ इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः। कुन्दकुन्दाचार्य ३३. आसीदिन्द्रगुरोर्दिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनिः । प्रणीत-मूलाचाराख्यविवृतिः। कृतिरयं वसुनन्दिनः तस्माल्लक्ष्मणसेनसन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम्।। श्रीश्रमणस्य।। मूलाचारः। भाग २, पृ. ३२४
पद्मचरित १२३/१६८ १०. मूलचाराख्यशास्त्रं वृषभजिनवरोपज्ञमहत्प्रवाहादायातं
३४. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ८८ कुन्दकुन्दाहृयचरमलसच्चारणेसु प्रणीतम्।। तद्व्याख्यां
३५. पद्मचरित १२३/१२८
५ पटारित 2 वासुनन्दीमबुधविलिखनावाचनाना या मा सभक्त्या......
३६. वही १/४१-४२ संशोध्याध्यैतुमहमिकृतयति कृति.......।।२०५
३७. वही १२३/१६७ अनेकान्त वर्ष १३, किरण १, पृ. १८, जुलाई १९५४
३८. डॉ. रमेशचन्द्र जैन : पद्मचरित में प्रतिपादित भारतीय ११. आचार्य शान्तिसागर जन्मशताब्दी स्मृतिग्रन्थ, पृ. ७७-७८
संस्कृति १२. मूलाचार आइरिया एवं निउणं णिरुवेंति।।
३९. काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रबलवृत्तयः । अर्थान् १३. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. ४५
स्मानुवदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् ।। आदिपुराण १/५० १४. भगवती आराधना (पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित
४०. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ.८ प्रस्तावना) पृ. ४८
४१. आदिपुराण १/५१ १५. वही, पृ. ४८
४२. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ. ८ १६. श्रवणबेलगोल शिलालेख, सं. ५४
४३. दर्शन और चिन्तन, पृ. ३६५ १७. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ. २९६-२९७
४४. सिद्धिविनिश्चय टीका - प्र. भाग, प्रस्तावना, पृ. १५ १८. सन्मतितर्क, ३/४६-४९
४५. बौद्धदर्शन की शास्त्रीय समीक्षा, पृ. १०-११ १९. वही, १/१०-१२
४६. हरिवंश की पं. पन्नालाल साहित्याचार्य द्वारा लिखित २०. श्रीदत्ताय नमस्तस्यै तपः श्रीदीप्तमूर्तये। कण्ठीरवायितं येन प्रवादीभप्रभेदने।। आदिपुराण १/४५
प्रस्तावना, पृ. ७ २१. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ. ७
४७. वही, पृ.८ २२. आदिपुराण, १/४६
४८. वही, पृ. ८ २३. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : आदि पुराण में प्रतिपादित भारत, पृ. ७
४९. वही, पृ.८ २४. श्रवणबेलगोल शिलालेख, सं. १०५, वि. सं. १३२०
५०. वही, पृ.३ २५. नन्दिसंघ की पट्टावली
५१. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ. १० २६. पार्श्वनाथचरित, सर्ग - १, पद्य १८
५२. वही, पृ. १० २७. श्री पूज्यपाद मुनिरप्रतिमौषद्धिः। जीयात ५३. पाश्र्वाभ्युदय (डॉ. रमेश चन्द्र जैन द्वारा लिखित प्रस्तावना,
विदेहजिनदर्शनपूतगात्रः। यत्पादधौतजलसंस्पशप्रभावात्। पृ. २६-२७) कालायसं किल तदा कनकीचकार।।
५४. बौद्धदर्शन की शास्त्रीय समीक्षा शिलालेख १०८, शक सं. १३५५
५५. प्रमेयरत्नमाला (प्रस्तावना), पृ. ४४-४५ २८. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैनन्याय, पृ. २३-२४
५६. जैनन्याय, पृ. ३८ २९. जैनन्याय, पृ. २५
५७. प्रमेयरत्नमाला, पृ. ३-४
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - ५८. प्रमेयरत्नमाला (प्रस्तावना), पृ. ४०
जैन तथा डॉ. सुरेशचन्द्र अग्रवाल का लेख, पृ. ४१) ५९. बौद्धदर्शन की शास्त्रीय समीक्षा, पृ. १५
६९. वही, पृ. ४४ ६०. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा (भाग - ७०. मिलापचन्द कटारिया, रतनलाल कटारिया : जैन निबन्ध ३), पृ. ९१-९२
रत्नावली, पृ. ३३८ ६१. पार्वाभ्युदय (प्रस्तावना पृ. ३१)
७१. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन : भक्तामररहस्य की प्रस्तावना पृ. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन : भारतीय इतिहास - एक दृष्टि, द्वि. ३३८ सं., पृ. ३०२
७२. जैन-साहित्य और इतिहास, पृ. ४११ (द्वितीय संस्करण) ६२. भावसंग्रह (आचार्य देवसेन का पं. लालारामशास्त्री द्वारा ७३. बृहत्कथाकोश - सिंधी सीरीज, प्रशस्ति पद्य ३-५ लिखित परिचय, पृ. १-२
७४. यशस्तिलकचम्पू, आश्वास - २, पृ. ४१८ ६३. गोम्मटसार, जीवकाण्ड (पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित ७५. नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति, पृ. ४०६ प्रस्तावना, पृ. १०)
नीतिवाक्यामृत में राजनीति, पृ. १३ वही (डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन द्वारा लिखित प्रधान ७६. लेमुलवाड दानपत्र, श्लोक १५-१८ सम्पादकीय, पृ. ७)
७७. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा, भाग-३, चन्द्रप्रभचरितम् (पं. अमृतलाल शास्त्री द्वारा लिखित पृ. १४७ प्रस्तावना, पृ. ३०)
७८. नयचक्र, माइल्लधवलकृत - (General Editorial, P6-7) ६६. सिद्धान्तसार संग्रह (पं. जिनदास शास्त्री फडकुले द्वारा ७९. पं. दरबारी लाल कोठिया की द्रव्यसंग्रह - प्रस्तावना लिखित प्रस्तावना, पृ.८, १०)
८०. सिद्धान्तसारादिसंग्रह (पं. नाथूराम प्रेमी द्वारा लिखित ६७. पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका (प्रस्तावना, पृ. २७)
ग्रन्थकर्ताओं का परिचय, पृ. ७) ६८. अर्हत-प्रवचन, त्रैमासिक, सितम्बर १९८८ (डॉ. अनुपम ८१. महावीरजयन्ती स्मारिका, १९८४
६४.
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षट्प्रामृत का रचनाकार कौन और उसका रचनाकाल कौन-सा?
डॉ. के.आर. चंद्र
अहमदाबाद.....
-तुं ६
१. सिर्फ
डॉ. ए.एन. उपाध्ये साहब ने प्रवचनसार की प्रस्तावना में ध्वनि परिवर्तन षट्प्राभृत के रचनाकार के विषय में जो कुछ अभिप्राय व्यक्त
के साथ ६५
-तूण ९
-ऊण ३९ किया है, उसी को लेकर यह चर्चा की जा रही है। कुन्दकुन्दाचार्य
-ऊणं ७ के प्रवचनसार और षट्प्राभृत की भाषा का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए तो इन दोनों की भाषा के स्वरूप से ऐसा उपर्युक्त उदाहरणों से तुं और चुं प्रत्यय हेत्वर्थक के प्रत्यय लगता है कि ये दोनों कृतियाँ अलग-अलग काल की रचनाएँ हैं जिनका प्रयोग सं.भू. कृदन्त के लिए षट्प्राभृत में किया गया हैं, अतः किसी एक ही आचार्य की ये रचनाएँ नहीं है, ऐसा स्पष्ट है। यह प्रवृत्ति परवर्ती काल की है और अपभ्रंश काल के समीप प्रतीत होता है। इस तथ्य की स्पष्टता के लिए नमूने के रूप में ले जाती है। भाषिक प्रयोगों के कुछ उदाहरण इधर प्रस्तुत किए जा रहे हैं--
ऊपर के दोनों ग्रंथों के तुलनात्मक प्रत्ययों से स्पष्ट होता है
कि प्रवचनसार की शौरसेनी भाषा से षट्प्राभूत की भाषा महाराष्ट्री प्रवचनसार भाषिक विशेषताएँ षट्पाहुड प्राकृत के अधिक नजदीक है। वर्तमान काल __-इ,-ए प्रत्ययों की संख्या
६. इन प्रयोगों के सिवाय षट्प्राभृत में अपभ्रंश भाषा के -दि, -दे, का तृ.पु. एकवचन -दि, -दे से तीन गुणी है। सदृश प्रयोगों की बहुलता है। अनेक प्रयोगों में से कछ उदाहरण ही प्रयोग का प्रत्यय
नमूने के रूप में नीचे प्रस्तुत किए जा रहे हैं-- २. 'आदा' और 'आत्मन' शब्द 'आदा' और 'अप्पा' के
७. विभक्ति रहित मूल नाम शब्दों के प्रयोग तथा अन्य 'अप्पा' के विविध रूप सिवाय 'आया' भी जो परवर्ती
काल का रूप है।
अपभ्रंश प्रयोग ३. सिर्फ नपुंसक लिंग
-णि और-इं भी
क. प्रथमा एक वचन -णि विभक्ति शब्दों के लिए
अनुपात १:७.५ चेइय, ४.९०, अनुगृहण, २.१०, वुत्त, ३.२१, णिम्मम (स्त्रीलिंग) प्रथमा द्वितीया
४.४९ बहुचवचन की विभक्तियाँ ४. अनुपात सप्तमी एक
सिर्फ -ए और -म्मि ख. प्रथमा बहुवचन -ए, -म्हि, म्मि वचन के प्रत्यय
अनुपात ५:१
वड्डमाण, १.६, सिक्खावय, २.२२, णिठभय, ४.५० मुणि, ५.१५६ ४.५२:१
शौरसेनी का मुख्य प्रत्यय
ग. द्वि. ए. वचन, अप्पा, ३.१६, विणय ४.१७, गारव ५.१०४ ५. -दूण १ संबंधक
-दुण कसाय ६.२६, सेवा सद्धा २.१२ -च्चा ३ भूत कृदन्त
-च्चा घ. द्वि. ब. वचन सुपरीसह ५.९२ -इय १ के प्रत्ययों
-इय ४ -संस्कृत
च. षष्ठी ए.व. परिवार, १.१०
-त्ता २ का अनुपात
ध्वनि परिवर्तन वाला १ छ. सप्तमी एक वचन रहिय २.२०, सिवमग्ग ३.२, लेसा प्रत्यय वाला
-त्तु१ (स्त्री) ४.३३, दंसण, ४.२९ रूप मात्र
-तु २
ज. नपुं, ब.व. के प्रत्यय इ. वाले रूपों में इं को छन्द की दृष्टि से
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - गुरु के बदले लघु पढ़ना पड़ता है, अर्थात् यह ई. वास्तव में - भाषा में प्रयुक्त होने वाले रूप के जैसा है। इं प्रत्यय माना जाना चाहिए जो परवर्ती काल का और अधिकतर
ऊपर जितने भी प्रयोग दिए गए हैं वे अपभ्रंश भाषा के अपभ्रंश में प्रयुक्त हुआ है। उदाहरण चउदसपुव्वाइ ५.५२ रूपों के सदश हैं उनको यदि बदलकर शौरसेनी के रूपों के झ. दीर्घ स्वरान्त शब्दों का विभक्ति रहति ह्रस्व स्वरांत शब्दों के समान बना दिया जाए तो चूँकि यह कृति पद्यात्मक है, छन्द भंग रूप में प्रयोग--
हो जाता है। अतः इस ग्रंथ का समीक्षित संपादन किया जाने पर सील (शिलायाम्) स.ए.व. ४.५६
इसकी भाषा में परवर्ती काल की भाषा के जो तत्त्व मिलते हैं,
उनके स्थान पर यदि प्राचीन भाषा के प्रयोग रख दिए जाएँ तो वे दय (दयाम्) द्वि.ए.व. ५.१३१
अनुपयुक्त ही ठहरेंगे। एसण (एषणा) [(प्र.ए.व. (स्त्रीलिंग)] २.३६
इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि इस ग्रंथ की भाषा ञ. तृ.ए.व. के लिए -ए और इं. विभक्ति अर्थात् अपभ्रंश और प्रवचनसार की भाषा में बहुत ही अन्तर है। अतः न तो विभक्तियों के प्रयोग
इसकी रचना स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा की गई है और न ही इक्कि (एकेन) ६.२२. जिणे कहियं (जिनेन कथितम) कुन्दकुन्दाचार्य के पूर्व में प्रचलित गाथाओं का उन्होंने संकलन ४.६१, संखेवि (संक्षेपेन) ५.१२६
किया है। यदि इन दोनों संभावनाओं में से किसी एक को भी
मान्य रखा जाए जैसा कि डा. ए.एन. उपाध्ये का आग्रह-मन्तव्य ट. षष्ठी ए.व.या. ब.व. का रूप ताह (तस्य या तेषाम्) ३.२७,
-तर्क है तब फिर यह भी मानना पड़ेगा कि कुन्दकुन्दाचार्य का जाहु (यस्य) ३.२७
समय भी इतना प्राचीन नहीं है, जैसा डा. उपाध्ये ने साबित ठ. स.ए.व. की विभक्ति इ.
करने का विफल प्रयत्न किया है। ऐसी अवस्था में कुन्दकुन्दाचार्य निरइ (नरके) ६.२५
का समय भी पाँचवीं-छठी शताब्दी के बाद का मानने के लिए
बाध्य होना पड़ेगा। डा. उपाध्ये साहेब ने इस विषय में स्पष्ट ड. बिना अनुस्वार के अव्ययों का प्रयोग कह (कथम्) ३.२४ (कह)
अभिप्राय व्यक्त नहीं किया है। उन्होंने W. Denecke के मत को ढ. अपभ्रंश के समान अन्य शब्द रूपों के प्रयोग इक्क (एक) निराधार सिद्ध करने का कल प्रयत्न किया है जो ऐसे निष्कर्ष ६.२२, इत्तहे (एतस्मात्) २.३०
पर पहुँचे थे कि षट् प्राभृतकी भाषा कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार अट्ठारह (अष्टादश) ६.९०
की भाषा से परवर्ती काल की है। तेरहमे (त्रेयोदशे) ४.३२ (देखिए पिशल २४३, २४५, ४४१)
हमारे द्वारा किया गये भाषा के इस सूक्ष्म अध्ययन-विश्लेषण
से भी यही सिद्ध होता है कि प्रवचनसार और षट्-प्राभृत की ण. वर्तमान काल के तृ.ब.व. का प्रत्यय -हि लहहि (लभन्ते)
भाषा के स्वरूप के काल में बहुत बड़ा अंतर है तथा षट्प्राभृत ६.७७ चिट्ठहि (तिष्ठन्ति), ६.१०४,१०५ ।।
और प्रवचनसार के रचनाकार एक ही आचार्य कदापि हो ही त. आज्ञार्थ द्वि. प. ए.व. का प्रत्यय-इ भावि (भावय) ५.८०, नहीं सकते। ९४ (३ बार)
डा. ए.एन. उपाध्ये साहेब W. Denecke के इस मत को परिहरि (परिहर) २.६
कि षट्प्राभृत श्री कुन्दकुन्दाचार्य की रचना नहीं हो सकती और थ. सं.भू. कृदन्त के लिए एवि प्रत्यय लेवि (लात्वा) ६.२१, यह ग्रंथ कुन्दकुन्दाचार्य से परवर्ती काल का है, मान्य नहीं रखते चएवि (त्यक्त्वा ) ६.२८
और जो दिगंबर जैन परंपरा चली आ रही है उसे ही मान्य रखने
की सलाह देते हैं। उनका जो (Arguement) तर्क है, उसे उनके द. भू धातु का भूत कृदन्त
ही शब्दों में यहां पर उद्धृत (अंग्रेजी में) किया जा रहा है हुओ (भूतः) ४.६१ यह रूप तो आधुनिक भारतीय आर्य
"I am perfectly aware that it is only on the ground of
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - current tradition that Kundakunda is accepted as the author मापदंड से मान्य ठहरेगी नहीं। नमूने के रूप में कुछ ही ऐसे of these pahudas and no evidence is coming forth, nor there is anything in these texts, taken as a whole, which should सुधारे हुए उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जिनसे स्पष्ट हो जाएगा preclude us from taking Kundakunda as the author of these कि ऐसा साहस कहाँ तक उचित होगा? works. The texts of these pahudas as utilised by me, could not be claimed to be critical, so there is every probability of षट्प्राकृत में उपलब्ध प्रयोग और संशोधित प्रयोग दोनों omissions and commissions of gathas especially in such traditional texts: W. Denecke doubts Kundakunda's authorship.
में मात्राओं का अंतर और तब फिर संशोधित पाठ से छन्दोभंग but he gives no diefinite reasons. Dialactally he finds that six
का भय। pahudas are younger than samayasara etc; but this cannot be a safe guide, unless we are guided by critical editions. The reason for the presence of Apabhramsa forms in these
षट्प्राधृत के पाठ pahudas, as compared with pravacansara, It have explained in my dis ussion on the dialect of pravacansara. it is imagi
उपलब्ध मुद्रित पाठ और मात्राएँ संशोधित पाठ और मात्राएँ nable that traditionally compiled texts might be attributed to
(कल्पित समीक्षित पाठ) Kundakunda because of his literary reputation, but to prove this we must some strongevidence potentenough to cancel १. प्रथमा एक वचन
दुस्सील १.१६ (५) the current tradition. In conclusion I would say that these
दुस्सीलो (६) pahudas contain many ideas, phrases and sentences which are quite in tune with the spirit and phrasiology of गरहिड ३.१९ (४) गरहिओ (५) Pravacansar."
भणिय ४.५४ (३) भणिया (स्त्री.) (४) उपर्युक्त उद्धरण में उनका यह कहना कि षट्प्राभृत का २. प्रथमा बहवचन मणि ५.१५६ (२) संस्करण समीक्षित संपादन नहीं है और इसमें प्रवचनसार के
मुणी, मुणिणो, मुणीओ, समान ही Ideas, Phrases और Sentences प्राप्त हो रहे हैं,
मुणओ (३)(४) (५) (४) इसलिए उसे चालू परंपरा के विरुद्ध परवर्तीकाल की रचना
णिष्भय ४.५०
णिष्भया मानना उचित नहीं होगा। किसी भी परवर्तीकाल के ग्रंथ में पूर्ववर्ती काल के ग्रंथ के समान विषयवस्तु का और शैली का
साहु ६.१०४
साहुणो, साहवो, साहू, साहूओ पाया जाना एकान्ततः यह साबित नहीं करता कि ऐसी परवर्ती
(३)
(५) (५) (४) (६) काल की कृति अपने से पूर्ववर्ती काल की रचना के समय में
३. द्वितीया एक वचन ही रची गई होगी। उन दोनों की भाषा के स्वरूप पर भी विचार
झाण ५.११९
झाण (४) किया जाना चाहिए। षट्प्राभृत की समीक्षित आवृत्ति का क्या
मिच्छत्त ५.११५
मिच्छत्तं अर्थ होता है? क्या उसमें से ऐसी गाथाएं विक्षिप्त मानी जाएं जिनमें अपभ्रंश के स्पष्ट प्रयोग हैं या ऐसी गाथाओं की भाषा का
विरइ ६.१६
विरई मूल स्वरूप अपभ्रंश से प्रभावित नहीं था परंतु बाद में काल के
(३)
(४) प्रभाव से उसमें अपभ्रंश के प्रयोग घुस गए, यदि ऐसा माना जाए
मणु ५.१४० तो यह उपयुक्त नहीं है। षट्प्राभृत में सिर्फ पाँच-दस प्रयोग ही
(३) अपभ्रंश के हों ऐसा नहीं है। इसमें तो हरेक पाहुड में बीसों
४. तृतीया एक वचन प्रयोग अपभ्रंश के मिलते हैं और यदि उन अपभ्रंश प्रयोगों को
जिणे ४.६१
जिणेण, जिणेणं सुधारकर उन्हें शौरसेनी प्राकृतके अनुरूप (यानी समीक्षित आवृत्ति
(४) (५) बनाने का यही अर्थ होता हो तो?) बना दिया जाए तो सभी
५. आज्ञार्थ
भावय, भावसु, भावहि जगह गाथाओं में छन्दों भंग हो जाता है। किसी भी पद्यमय
भावि ५.१३१
(४) (४) (४) रचना में इस प्रकारकी क्षति समीक्षित आवृत्ति के shandard
(३)
मणं
(२)
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - ६. भूत कृदन्त हुड ४.३० हुओ, भूदो, भूओ
कल्पित किये गए हैं, वे किसी हस्तप्रति में मिल भी जाएँ तो (२) (३) (४) (४)
सर्वत्र छन्दोभंग होगा अतः ऐसी कल्पना करना कि अभी जो
अपभ्रंश रूप उपलब्ध हैं वे विश्वसनीय नहीं हो सकते, यह किस वुत्त (३).२१ वुत्तं (४)
आधार पर मान्य रक्खा जाए? ऐसी परिस्थिति में यही मानना ७. संबंधक भूत कृदन्त आरहत्ता, (आरिहिऊप-तूपदूण)
उपयुक्त होगा कि षट्प्राभूत में कितने ही ऐसे प्रयोग हैं, जो आरुहवि (५)
परवर्ती (प्रवचनसार की भाषा की तुलना में) काल के और
अपभ्रंश-भाषा संबंधी हैं, जिसके कारण षट्प्राभृत की रचना आरुहितुं दुं, उं
का काल अपभ्रंश युग में चला जाता है और इसलिए यह न तो झाएवि (६)
स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य की ही रचना है और न ही उनके द्वारा आइऊण तूण, दूण
प्रचलित प्राचीन गाथाओं का संकलन किया गया है। जैसी कि डा. ए.एन. उपाध्ये साहब की धारणा है।
सन्दर्भ आइत्ता, झाइत्तु
षट्प्राभूतादिसंग्रह, संपादक - पं. पन्नालाल सोनी, श्री (६) (६)
माणिक चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, वि.सं. १९७७ ८. अप्पय
(ई.सन् १९२२) जह ३.१८ जहा
२. इसके लिए आगे देखिए पृ. सं. ६९ (२)
देखिए प्रवचनसार, सम्पादक - ए.एन. उपाध्ये की प्रस्तावना ओ ६.८
पृ. सं. ३५ (श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, श्रीमद् तु या उ
राजचन्द्र आश्रम अगास, १९६४ (२) (१) (१)
४. वही, पृ ३५ अणुदिणु अणुदिणं
5. Introduction, P. 35 (४)
लगभग १५० से अधिक प्रयोग अपभ्रंश भाषा के सदृश इस तरह से समीक्षित या संशोधित आवृत्ति में जो पाठ
मिल रहे हैं।
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'यसुदेवहिण्डी' में वर्णित साध्वियाँ
विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव....
ज्ञान, तप, धर्म, प्रवचन तथा कुपथगामियों को सत्पथ के के शरीर में श्वेतकुष्ठ हो गया था। इसलिए, अपने पिता के साथ वे उपदेश के माध्यम से भारतीय लोकजीवन के उदात्तीकरण में सुधर्मा नामक साधु के निकट प्रव्रजित होकर, समाधिमरण साध्वियों या श्रमणियों की भूमिका सातिशय महत्त्वपूर्ण रही है। द्वारा कालधर्म प्राप्त करके रिष्टाभ विमान में ब्रह्म के सामानिक इसलिए, प्राकृत की बृहत्कथा 'वसुदेवहिण्डी' के प्रणेता लोकजयी वरुणदेव हो गई। फिर, स्थितिक्षय के कारण वहाँ से च्युत होकर कथाकार आचार्य संघदासगणी ने अपनी इस कथाकृति में वे दक्षिणार्द्धभरत के गजपुर नगर में शत्रुदमन राजा के रूप में साध्वियों की लोक-कल्याणकारी जीवनचर्या का साग्रह वर्णन उत्पन्न हुई। पुनः पुरुषभव में रहते हुए वे शत्रुघ्न नामक साधु के किया है।
निकट प्रव्रजित हो गई। (अट्ठारहवाँ प्रियंगुसुन्दरीलम्भ) वसुदेवहिण्डी (रचनाकाल : ईसा की तृतीय-चतुर्थ शती) ३. कण्टकार्या - साध्वी कण्टकार्या का दीक्षापूर्व नाम वसुदत्ता में कुल चौदह आर्याओं या साध्वियों की चर्चा हुई है, जिनके था। वे उज्जयिनी के गृहपति वसुमित्र की पुत्री थीं। उनका नाम हैं-अजितसेना, कनकमाला, कण्टकार्या, गुणवती, जिनदत्ता, विवाह कौशाम्बी के सार्थवाह धनदेव से हुआ था। उन्हें अपने प्रियदर्शना, ब्रह्मिलार्या, रक्षिता, विपुलमति, विमलाभा, सुप्रभा, स्वच्छन्द आचरण के कारण अनेक दारुण यातनाएँ झेलनी पड़ी सुव्रता, सुस्थितार्या और ह्रीमती। यहाँ प्रत्येक आर्या के संबंध थीं। फलतः उन्हें निर्वेद हो आया और अंत में उज्जयिनी-विहार में संक्षिप्त परिचर्चा उपन्यस्त है।
के लिए निकली सुव्रता साध्वी के चरणों में धर्मप्रवचन सुनकर १. अजितसेना - पुष्कर द्वीप के पश्चिमार्द्ध में शीतोदा नदी के अपने एक जीवनरक्षक पितृकल्प सार्थवाह की अनुमति से वे दक्षिण सलिलावती नाम का विजय था। वहाँ उज्ज्वल और प्रव्रजित हो गई। उसका दीक्षानाम कण्टकार्या रखा गया था। उन्नत प्राकारवाली बारह योजनलंबी और नौ योजन चौडी (धाम्मल्लचरित) वीतशोका नाम की नगरी थी। उस नगरी में चौदह रत्नों का ४. गणवती - आर्या गुणवती अतिशय विदुषी साध्वी थीं। अधिपति तथा नौ निधियों से समृद्ध कोषवाला रत्नध्वज नाम उन्होंने ग्यारह अंगों में पारगामिता प्राप्त की थी। जम्बुद्वीप स्थित का चक्रवर्ती (राजा) रहता था। उसके अतिशय दर्शनीय रूपवाली भारतवर्ष के वैताढ्य पर्वत की उत्तरश्रेणी के नित्यालोक नगर दो रानियाँ थी--कनकश्री और हेमामालिनी। कनकश्री के के विद्याधर राजा अरिसिंह और उसकी रानी श्रीधरा के गर्भ से कनकलता और पद्मलता नाम की दो पुत्रियाँ थीं तथा हेममालिनी उत्पन्न पुत्री यशोधरा (बाद में राजा सूर्यावर्त की रानी) को के पद्मा नाम की एक पुत्री थी। इसी पद्मा ने अजितसेना आर्या उन्होंने प्रव्रज्या प्रदान की थी। दीक्षा के बाद रानी यशोधरा आर्या के निकट धर्मोपदेश सुनकर कर्मक्षय के निमित्त व्रत स्वीकार गुणवती से ग्यारह अंगों में कुशलता प्राप्त करके तपोविद्या में किया और बासठ उपवास करके निदान (शुभानुष्ठान के फल लीन हो गई। (सोलहवाँ बालचन्द्रालम्भ) की अभिलाषा) के साथ मृत्यु को प्राप्त कर सौधर्म कल्प में ५.जिनदत्ता - साकेतनगर के राजा हरिवाहन की पत्नी सनन्दा महर्द्धिक (महावैभवशालिनी) देवी के रूप में उत्पन्न हुई।
की चार पुत्रियों-श्यामा, नन्दा, नन्दिनी और नन्दमती ने एक (इक्कीसवाँ केतुमतीलम्भ)
साथ जिनदत्ता साध्वी के सान्निध्य में प्रव्रज्या ली थी। आर्या २. कनकमाला - श्रमणी होने के पूर्व साध्वी कनकमाला जिनदत्ता को साकेतनगर में पर्याप्तजनसमादर प्राप्त था। (अट्ठारहवाँ सौधर्मकल्प से च्युत होकर मथुरा नगरी के निहतशत्रु राजा की प्रियंगुसुन्दरीलम्भ) रानी रत्नमाला की पुत्री के रूप में उत्पन्न हई थीं। उनके पुनर्भव
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- चतीन्द्र सूरि स्मारकालय - जैन आगम एवं साहित्य ६. प्रियदर्शना - गणिनी प्रियदर्शना गजपुर (हस्तिनापुर) की रहती थीं। वहाँ के जनसमादृत इभ्य ऋषभदत्त का पुत्र जम्बु लोकप्रतिष्ठ साध्वी थीं। गजपुर के युवराज अजितसेन (बाद में कुमार सुधर्मास्वामी (भगवान महावीर का पट्टधर शिष्य) से राजा) की पुत्री सुदर्शना ने (पूर्वजन्म में श्वायोनि में उत्पन्न) दीक्षित हुआ था और बाद में वह उनका जम्बुस्वामी के नाम से साध्वी प्रियदर्शना से प्रव्रज्या प्राप्त की थी और श्रामण्य का प्रमुख शिष्य हो गया था। जम्बुस्वामी की माता धारिणी और पालन करके देवलोक की अधिकारिणी हो गई थीं। साध्वी उनकी आठ पत्नियों (पद्मावती, कनकमाला, विनयश्री, धनश्री, प्रियदर्शना अपने नाम के अनुसार ज्ञानदीप्त ज्योतिर्मय रूप से कनकवती, श्रीसेना, ह्रीमती और जयसेना) ने एक साथ सुव्रता मण्डित थीं। (पीठिका)
का शिष्यत्व स्वीकार किया था। (कथोतात्ति) ९. ब्रह्मिलार्या - साध्वी ब्रह्मिलार्या इक्ष्वाकुवंश की कन्याओं (ख) पूर्वोक्त कण्टकार्या (साध्वी सं. ३) की दीक्षागुरु को दीक्षित करने की अधिकारिणी के रूप में सत्प्रतिष्ठ गणिनी का नाम सुव्रता था। वह जीवस्वामी ( जीवंतसामी) की थीं। उन्होंने दक्षिर्णाद्धभरत के पुष्पकेतु नगर के राजा पुष्पदन्त अनुयायिनी भिक्षुणी प्रमुख (गणिनी या गणनायिका) थीं। उज्जयिनी और रानी पुष्पचूला की विमलाभा तथा सुप्रभा नाम की पुत्रियों -विहार के क्रम में उन्होंने मार्गभ्रष्टा सार्थवाहपत्नी वसुदत्ता को को शिक्षित और दीक्षित किया था। दोनों ही अपने तपोबल से दीक्षित करके उसे कण्टकार्या, दीक्षानाम दिया था। भगवतीस्वरूपा हो गई थीं। (अट्ठारहवाँ प्रियंगुसुन्दरीलम्भ) (धम्मिल्लचरित) ८. रक्षिता - साध्वी रक्षिता सत्रहवें तीर्थंकर कुन्थुस्वामी की (ग) मथुरा जनपद में सुग्राम नाम का गाँव था। वहाँ शिष्या थीं। कुन्थुस्वामी के साठ हजार शिष्यों में जिस प्रकार सोम नाम का ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी सोमदत्ता थी। स्वयम्भू प्रमुख थे, उसी प्रकार उनकी साठ हजार शिष्याओं में उसकी पुत्री का नाम गंगश्री था, जो परमदर्शनीय रूपवती थी। आर्या रक्षिता प्रमुख थीं। (इक्कीसवाँ केतुमतीलम्भ)
वह निरंतर अर्हत्शासन में अनुरक्त रहती थी और कामभोग की ९. विपुलमति - जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में बहने वाली अभिलासा से विरक्त थी। सुग्राम में ही यक्षिल नाम का ब्राह्मण शीता महानदी के दक्षिणतट पर अवस्थित मंगलावती विजय रहता था। वह गात्रा
र रहता था। वह गंगश्री का वरण करना चाहता था, लेकिन गंगश्री की रत्नसंचयपुरी के राजा क्षेमंकर के पौत्र तथा राजा वज्रायुध ।
उसे नहीं चाहती थी। जब गंगश्री उसे नहीं मिली, तब उसने वरुण के पुत्र राजा सहस्रायुध की दो पुत्रवधुओं-कनकमाला और
नामक परिव्राजक के निकट परिव्राजकपद्धति से प्रव्रज्या ले ली। वसन्तसेना ने एक साथ साध्वी विपुलमति से प्रव्रज्या प्राप्त की
इधर गंगश्री भी सुव्रता आर्या के निकट प्रव्रजित हो गई। गंगश्री के थी। साध्वी विपुलमति हिमालय के शिखर पर रहती थीं। उनसे प्रव्रजित होने की सूचना मिलने पर यक्षिल ने भी जैन साधु की दीक्षित होने के बाद कनकमाला और वसन्तसेना निरंतर तप में
से पद्धति से प्रव्रज्या स्वीकार की। (अट्ठारहवाँ प्रियंगसन्दरीलम्भ)
पद्धात स उद्यत रहकर बहुजनपूज्या आर्या हो गईं। (इक्कीसवाँ केतमतीलम्भ) (घ) जम्बूद्वीप स्थित पूर्वविदेह के रमणीय विजय की १०.-११. विमलाभा और सप्रभा - जैसा पहले (साध्वी सं. सुभगा नगरी के युवराज बलदेव, अपर नाम अपराजित की ७ में) कहा गया, दक्षिणार्द्धभरत के पुष्पकेतु नगर के इक्ष्वाकुवंशी ।
विरता नाम की पत्नी से उत्पन्न सुमति नाम की पुत्री ने राजकुल राजा पुष्पदन्त और उसकी रानी पुष्पचूला से उत्पन्न दो पुत्रियों
की सात सौ कन्याओं के साथ सव्रता आर्या के निकट दीक्षा के नाम थे-विमलाभा और सुप्रभा। दोनों ही पुत्रियों ने साध्वी ग्रह
ग्रहण की थी। फिर, उसने तपः क्रम अर्जित करके केवल ज्ञान ब्रह्मिलार्या से दीक्षा ग्रहण की थी और बाद में दोनों ही प्रज्ञाप्रखर
प्राप्त किया और क्लेशकर्म का क्षय करके सिद्धि प्राप्त की। पण्डिता आर्याओं के रूप में लोकसमाद्रत हईं।
(इक्कीसवाँ केतुमतीलम्म) १२. सुव्रता - कथाकार आचार्य संघदास गणी ने सत्ता नाम १३. सुस्थितार्या - जम्बूद्वीप स्थित ऐरवतवर्ष के विन्ध्यपर की साध्वी की चार भिन्न संदों में चर्चा की है। जैसे
नगर में राजा नलिनकेतु राज्य करता था। उसकी रानी का नाम
था प्रभंकरा। एक दिन मेघपुंज को हवा में तितर-बितर होते देख (क) सुव्रता साध्वी मगध जनपद के राजगृह नगर में
राजा नलिनकेतु ने मेघ की भांति समृद्धि के उदय और विनाश
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ को अनित्य भावना से विचारते हुए राजर्द्धि का परित्याग कर दिया और वह क्षेमंकर जिनवर के निकट प्रव्रजित हो गया। तब उसकी प्रकृतिभद्र रानी प्रभंकरा भी मृदुता और ऋजुता से सम्पन्न होकर चांद्रायण और प्रौषध व्रत करके आर्या सुस्थिता के समीप दीक्षित हो गई। (इक्कीसवाँ केतुमतीलम्भ)
१४. ह्रीमती - सिंहपुर नगर के राजा सिंहसेन की पत्नी का नाम रामकृष्णा था। उसकी माता आर्या हीमती लोकसमादर प्राप्त साध्वी थीं। वे अपनी अनेक शिष्याओं के परिवार की अनुशासिका थीं। जब उनके जामाता राजा सिंहसेन की मृत्यु हो गई, तब उन्होंने अपनी पतिहीना पुत्री को जिन शब्दों में अनुशासित किया, वह अनुशासन जीव को उदात्त बनाने की दृष्टि से सदा मननीय है । हीमती ने कहा - " पुत्री ! धर्म के विषय में कभी प्रमाद न करो । मानव जीवन विनिपातों से भरा हुआ है- विनश्वर है । प्रियजन का संयोग अवश्य ही वियोगान्त है। ऋद्धियाँ सन्ध्याकालीन रंगीन मेघ की भाँति स्थिर ( देर तक टिकने वाली) नहीं हैं। देवलोकवासी देव भी जीवन मोह और विषय भोग से तृप्ति नहीं प्राप्त करते, जिनकी आयु पल्योपम और सागरोपम के बराबर सुदीर्घकालीन होती है, जो अपनी मति और रुचि के अनुसार मनोहर शरीर का विकुर्वण (प्रतिरचना) कर सकते हैं, सर्वत्र अप्रतिहत गति से आ जा सकते हैं और फिर विनय-प्रणत यथायोग्य आदेशों को पूरा करने वाली, सदा अनुकूल रहने वाली तथा सकल कला प्रसंगों की मर्मज्ञा देवियाँ बड़ी निपुणता से जिनकी
ট
जैन आगम एवं साहित्य
सेवा करती हैं। तो फिर मनुष्यों की क्या बिसात, जिनका शरीर केले के थम्भ और बाँस की तरह निस्सार होता है, विघ्नबहुल और अल्पजीवी होता है, जिनके वैभव को सामान्यतया राजा, चोर, आग और पानी का भय बराबर बना रहता है। साथ ही, जिनकी शारीरिक रचना पुरानी गाड़ी की नाईं ढीले जोड़ों वाली होती है, ऐसे पत्रचंचल शोभा वाले मनुष्य संकल्प-विकल्प के जल से परिपूर्ण मनोरथ - सागर के उस पार कैसे जा सकेंगे? विगतप्राण स्थावर जंगम जीवों के शरीरांग कार्य करने में असमर्थ होते हैं ऐसी स्थिति में मनुष्यभव प्राप्त करना प्रायश्चित के समान
जाता है। इस प्रकार का शरीर स्वभावतः अशुचि और परित्याज्य होता है। तो, शरीर जब तक निरातंक (नीरोग) है, तप और संयम के साधन की सहायता से अपने को परलोकहित के लिए अर्पित कर दो।"
इस प्रकार उपदेश देती हुई आर्या ह्रीमती के पैरों पर रानी रामकृष्णा गिर पड़ी और बोली “आपका कथन सुभाषित की तरह तथ्यपूर्ण है। मैं आपके उपदेश को सफल करूँगी। यह कहकर रानी ने गृहवास छोड़कर प्रव्रज्या ले ली और वह श्रमणी हो गई । ( सोलहवाँ बालचंद्रालम्भ ) ।
इस तरह साध्वियों के संबंध में उपर्युक्त आकलन से स्पष्ट है कि तत्कालीन सामाजिक जीवन को धर्म, दर्शन और आचार की दृष्टि से उन्नत करने तथा लोकजीवन को सही दिशा देने में जैन आर्याओं के योगदान का ततोऽधिक सांस्कृतिक मूल्य है।
G{ ७३ paG
frombimbing
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नियुक्तिसाहित्य : एक परिचय
डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी....
आगम-साहित्य के गुरु गंभीर रहस्यों के उद्घाटन के लिए १. मूलनियुक्ति अर्थात् जिसमें काल के प्रभाव से कुछ निर्मित व्याख्या-साहित्य में नियुक्तियों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भी मिश्रण न हुआ हो। जैसे - आचारांग और सूत्रकृतांग की स्थान है। जैन-आगम-साहित्य पर सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में जो नियुक्तियाँ। पद्यबद्ध टीकाएँ लिखी गई वे ही नियुक्तियों के नाम से विश्रुत हैं। २.वे निर्यक्तियाँ जिनमें मलभाष्यों का सम्मिश्रण हो गया निर्यक्तियों में मलग्रन्थ के पद पर व्याख्या न करके, मुख्य रूप है तथापि वे व्यवच्छेद्य हैं। जैसे - दशवैकालिक व से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है। नियुक्तियों की
आवश्यकनियुक्तियाँ। व्याख्या-शैली, निक्षेप-पद्धति की है। निक्षेप-पद्धति में किसी
३. वे नियुक्तियाँ जो आजकल भाष्य या बृहद्भाष्य में एक पद के संभावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण किया जाता
समाविष्ट हैं, इनके मूल और भाष्य में इतना सम्मिश्रण हो गया है है। यह पद्धति जैन-न्यायशास्त्र में अत्यधिक प्रिय रही है। इस
कि उन दोनों को पृथक् करना दुष्कर है। जैसे-निशीथ आदि की शैली का प्रथम दर्शन हमें अनुयोगद्वार में होता है। नियुक्तिकार
नियुक्तियाँ। भद्रबाहु ने नियुक्ति के लिए यही पद्धति प्रशस्त मानी है। नियुक्ति यह विभाजन वर्तमान में प्राप्त निर्यक्तिसाहित्य के आधार का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है - "एक ही शब्द के पर किया गया है। अनेक अर्थ होते हैं, कौन-सा अर्थ किस प्रसंग के लिए उपयुक्त रचनाकाल - निर्यक्तियों के काल निर्णय के सम्बन्ध में विद्वानों है. श्रमण महावीर के उपदेश के समय कौन-सा अर्थ किस शब्द में मतैक्य नहीं है. फिर भी उनका रचनाकाल विक्रम संवत से सम्बद्ध रहा है, प्रभृति बातों को लक्ष्य में रखकर अर्थ का ३०० से १०० के मध्य माना जाता है। सम्यक् रूप से निर्णय करना और उस अर्थ का मूलसूत्र के
नियुक्तिकार - जिस प्रकार महर्षि यास्क ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना नियुक्ति का कार्य है।
शब्दों की व्याख्या करने के लिए निघण्टुभाष्य रूप निरुक्त दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध
लिखा, उसी प्रकार जैनागमों के पारिभाषिक शब्दों के व्याख्यार्थ बताने वाली व्याख्या नियुक्ति है-- "सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं
आचार्यभद्रबाहु द्वितीय ने नियुक्तियों की रचना की। ध्यातव्य है सम्बन्धनं नियुक्ति:"३ अथवा निश्चय से अर्थ का प्रतिपादन
कि नियुक्तिकार आचार्यभद्रबाहु, चतुर्दशपूर्वधर, छेदसूत्रकार, करने वाली युक्ति को नियुक्ति कहते हैं।'
भद्रबाहु से पृथक् हैं, क्योंकि नियुक्तिकार भद्रबाहु ने अनेक प्रसिद्ध जर्मन-विद्वान् शान्टियर ने नियुक्ति की व्याख्या
स्थलों पर छेदसूत्रकार श्रुतकेवली भद्रबाहु को नमस्कार किया करते हुए लिखा है “नियुक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल
है। यदि छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार एक ही भद्रबाहु होते तो इंडेक्स का कार्य करती हैं - वे सभी विस्तारयुक्त घटनावलियों साल
नमस्कार का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि कोई भी समझदार का संक्षेप में उल्लेख करती हैं।
ग्रन्थकार अपने आपको नमस्कार नहीं करता है। इस संशय का अनुयोगद्वारसूत्र में नियुक्तियों के तीन प्रकार बताए गए हैं एक कारण यह भी है कि भद्रबाहु नाम के एक से अधिक - १. निक्षेपनिर्गक्ति, २. उपोदघातनिर्गक्ति . ३. आचार्य हुए हैं। श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार चतुर्दशपूर्वधर सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति। ये तीनों भेद विषय की व्याख्या पर आधारित आचार्यभद्रबाहु नेपाल में योगसाधना के लिए मये थे, जबकि हैं। डॉ. घाटगे ने नियुक्तियों को निम्न तीन भागों में विभाजित दिगम्बर मान्यता के अनुसार यही भद्रबाहु नेपाल में न जाकर किया है -
दक्षिण में गए थे। इन दोनों घटनाओं से यह अनुमान हो सकता है acroririrawhniwomowondwarorondomobrowbrowdniroinor-७४ Horomirironiroinomiadiomowondinirbird-ord-wariwariworar
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यतीन्द्र सूरि स्मारकगन्य - जैन आगम एवं साहित्य - कि ये दोनों भद्रबाहु भी भिन्न-भिन्न व्यक्ति थे, परन्तु नियुक्तिकार व्याख्या की गई है। इसके बाद की नियुक्तियों में उन विषयों की भद्रबाहु इन दोनों से भिन्न तीसरे व्यक्ति थे। ये चतुर्दशपूर्वधर संक्षिप्त चर्चा करते हुए विस्तृत व्याख्या के लिए आवश्यकनियुक्ति भद्रबाहु न होकर विक्रम की छठी शताब्दी में विद्यमान एक अन्य की ओर संकेत कर दिया गया है। इस दृष्टि से अन्य नियुक्तियों ही भद्रबाहु हैं जो प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वाराहमिहिर के भाई माने को समझने के लिए आवश्यकनियुक्ति का ज्ञान आवश्यक है। जाते हैं। नियुक्तियों में इतिहास की दृष्टि से भी अनेक ऐसी बातें जैन आगामिक साहित्य में आवश्यक-सूत्र का विशेष स्थान है। आई हैं जो श्रुतकेवली भद्रबाहु के बहुत काल बाद घटित हुई। इसमें छः अध्ययन है। प्रथम अध्ययन का नाम सामयिक है। अतः नियुक्तिकार भद्रबाहु द्वितीय हैं जो छेदसूत्रकार शेष पाँचों अध्ययनों के नाम चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, श्रुतकेवलीभद्रबाहु से भिन्न हैं। इनका समय विक्रम सं.५६२ के कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान है। आवश्यकनियुक्ति इसी सूत्र की लगभग है। ये अष्टांगनिमित्त मंत्रविद्या के पारगामी अर्थात् नैमित्तिक आचार्यभद्रबाहुकृत पद्यात्मक प्राकृतव्याख्या है। इसी व्याख्या के रूप में भी प्रसिद्ध हैं .इन्होंने अपने भाई के साथ धार्मिक के प्रथम अंश अर्थात् सामायिक अध्ययन से सम्बन्धित नियुक्ति स्पर्धाभाव रखते हुए “भद्रबाहु संहिता" एवं "उपसर्गहरस्तोत्र" की विस्तृत व्याख्या आचार्यजिनभद्र ने विशेषावश्यकभाष्य की रचना की। इन दो ग्रंथों के अतिरिक्त इन्होंने निम्न दस नाम से की है। इस भाष्य की भी अनेक व्याख्याएँ हुई हैं, जिनमें नियुक्तियों की रचना की - १. आवश्यकनियुक्ति, २. मलधारी हेमचन्द्रकृत व्याख्या विशेष प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त दशवैकालिकनियुक्ति, ३. उत्तराध्ययननियुक्ति, ४. आचारांगनियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति पर अनेक टीकाएँ लिखी गई हैं जो प्रकाशित ५. सूत्रकृतांगनियुक्ति, ६. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति, ७. कल्प- भी हैं। उनमें से मलयगिरिकृतवृत्ति, हरिभद्रकृतवृत्ति, मलधारी (बृहत्कल्प) नियुक्ति, ८. व्यवहारनियुक्ति, ९. सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति, हेचन्द्रकृत प्रदेशव्याख्या तथा चन्द्रसूरिकृत प्रदेशव्याख्याटिप्पण, १०. ऋषिभाषितनियुक्ति।
माणिक्यशेखरकृत आवश्यकनियुक्तिदीपिका, जिनदासगणि आचार्यभद्रबाहु की इन दस नियुक्तियों का रचनाक्रम
महत्तरकृतचूर्णि एवं विशेषावश्यक की जिनभद्र की स्वोपज्ञवृत्ति वही है, जिस क्रम में उन्होंने आवश्यकनियुक्ति में प्रमुख ह। नियुक्तिरचनाप्रतिज्ञा की है। नियुक्तियों में जो नाम, विषय उपोद्घात् - आवश्यकनियुक्ति के प्रारम्भ में उपोद्घात है, इसे आदि आए हैं, वे भी इस तथ्य को प्रकट करते हैं।'
इस ग्रन्थ की भूमिका कहा जा सकता है। इसमें ८८० गाथाएँ हैं। ___इन दस नियुक्तियों में से सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित की उपोद्घात में आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और नियुक्तियाँ अनुपलब्ध हैं। ओघनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति,
केवल इन पाँच प्रकार के ज्ञान, इनके अवान्तर भेद, प्रत्येक का पंचकल्पनिर्यक्ति और निशीथनियुक्ति क्रमश: आवश्यकनिर्यक्ति,
काल-प्रमाण, आभिनिबोधिक ज्ञान की निमित्तभूत पाँच इन्द्रियाँ, दशवैकालिकनियुक्ति, बृहत्कल्पनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति
आभिनिबोधिक ज्ञान के समानार्थक शब्द, अक्षर, संज्ञी, सम्यक्, की पूरक हैं। संसक्तनियुक्ति क्रमशः आवश्यक, दशवैकालिक,
सादिक,सपर्यवसित, गमिक, अंगप्रविष्ट, अनक्षर, असंज्ञी, मिथ्या, बृहत्कल्प और आचारांगनियुक्ति की पूरक है। संसक्तनियुक्ति
अनादिक, अपर्यवसित, अगमिक और अंगबाह्य° इन चौदह बाद के किसी आचार्य की रचना है। गोविन्दाचार्यप्रणीत
प्रकार के निक्षेपों के आधार पर श्रुतज्ञान, उसके स्वरूप व भेद गोविन्दानियुक्ति वर्तमान में अनुपलब्ध है।
एवं अवधि तथा मन:पर्ययज्ञानके स्वरूप व प्रकृतियों की विशद
विवेचना की गई है। इसे ज्ञानाधिकार भी कहते हैं। इसके बाद आवश्यक नियुक्ति
षडावश्यकों में से सामायिक को सम्पूर्णश्रुत के आदि में रखते आचार्यभद्रबाहु प्रणीत दस नियुक्तियों में आवश्यकनियुक्ति है। इसका कारण यह है कि
हैं। इसका कारण यह है कि श्रमण के लिए सामायिक का की रचना सर्वप्रथम हुई है। यही कारण है कि यह नियुक्ति अध्ययन सर्वप्रथम अनिवार्य है। सामायिक के अध्ययन के कथ्य, शैली आदि सभी दृष्टियों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस पश्चात् हा अन्य आगम साहित्य के पढ़ने का विध नियुक्ति में अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की विशद एवं व्यवस्थित
चारित्र का प्रारम्भ ही सामायिक से होता है, इसलिए चारित्र की पाँच भूमिकाओं में प्रथम सामायिक चारित्र की है।
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य ज्ञान और चारित्र के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा करते करते हुए आचार्य भद्रबाहु ने लोक शब्द की नाम, स्थापना, हुए, आचार्य ने यही सिद्ध किया है कि मुक्ति के लिए ज्ञान और काल, भाव, द्रव्य, क्षेत्र, भव और पर्याय१९ - इन आठ प्रकार के चारित्र दोनों अनिवार्य हैं। चारित्रविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन निक्षेपों से व्याख्या की है। इसके अतिरिक्त दो प्रकार के उद्योत२०, चारित्र एक-दूसरे से दूर आग से घिरे हुए अंधे और लँगड़े के श्रमणधर्म, धर्म के भेद एवं अवान्तर भेद, तीर्थ, जिन, अरिहन्त समान हैं, जो एक-दूसरे के अभाव में अपने मन्तव्य पर नहीं आदि शब्दों की व्याख्या करते हुए, अन्त में नियुक्तिकार ने पहुँच सकते।१२ अतः ज्ञान व चारित्र के संतुलित समन्वय से चौबीस तीर्थंकरों की निक्षेपपद्धति से व्याख्या कर उनके गुणों पर ही मोक्ष प्राप्ति होती है। इसके बाद आचार्य सामायिक के अधिकारी भी प्रकाश डाला है।२९ की पात्रता, उसका क्रमशः विकासक्रम, कर्मों के क्षयोपशम एवं
__ वन्दना - तृतीय अध्ययन का नाम वन्दना है। इस अध्ययन की मोक्ष-प्राप्ति कैसे होती है? आदि प्रश्नों, एवं तज्जनित शंकाओं के निर्यक्ति करते हुए सर्वप्रथम आचार्य ने वन्दना के वन्दनाकर्म. समाधान के साथ उपशम एवं क्षपक श्रेणी का विस्तृत वर्णन
चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म इन पाँच पर्यायों किया है। इसके पश्चात् आचार्य शिष्य की योग्यता के मापदंड
का उल्लेख किया है। इस अध्ययन में वन्दना का नौ द्वारों से
र का व्याख्यान - विधि से निरूपण करते हुए अपने मुख्य विषय . विचार किया गया है - १. वन्दना किसे करनी चाहिए? २. सामायिक का व्याख्यान प्रारम्भ किया है, जिसे उन्होंने उद्देश्य,
किसके द्वारा होनी चाहिए? ३. कब होनी चाहिए? ४. कितनीबार निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरुष, कारण, प्रत्यय आदि छब्बीस
होनी चाहिए? ५. वन्दना करते समय कितनी बार झुकना चाहिए? निक्षेपों के आधार पर व्याख्यायित किया है। इस क्रम में निर्गम
६. कितनी बार सिर झुकाना चाहिए? ७. कितने आवश्यकों से की चर्चा करते हुए भगवान महावीर के मिथ्यात्वादि से निर्गमन,
शुद्ध होना चाहिए? ८. कितने दोषों से मुक्त होना चाहिए? एवं उनके पूर्व भव, ऋषभदेव से पूर्व होने वाले कुलकर, ऋषभदेव
९. वन्दना किसलिए करनी चाहिए?२२ इन द्वारों का निर्देश करने के पूर्वभव, उनकी जीवनी एवं चारित्र का वर्णन करते हुए र
के बाद वन्द्यावन्द्य का भी सविस्तार विवेचना किया गया है। नियुक्तिकार ने भगवान महावीर के जन्म एवं उनके जन्म से
जो द्रव्य व भाव से सश्रमण है. वही वन्द्य है।२३ इस क्रम में ज्ञान,
ही सम्बन्ध रखने वाली तेरह घटनाओं - स्वप्न, गर्भापहार, अभिग्रह, दर्शन और चारित्र के विभिन्न अंगों का विचार करने के बाद जन्म, अभिषेक, वृद्धि, जातिस्मरणज्ञान, भयोत्पादन, अपत्य, दान,
आचार्य इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, सम्बोध और महाभिनिष्क्रमण१३ तथा उनके इन्द्रभूति आदि ग्यारह
तप, विनय आदि में हमेशा लगे रहते हैं, वही वन्दनीय हैं और गणधरों१४ का भी उल्लेख किया है।
उन्हीं से जिनप्रवचन का यश फैलता है।२४ वन्दना करने वाला __इसके पश्चात् आचार्य ने सामयिकसूत्र के प्रारम्भ में आने पंचमहाव्रती, आलस्यरहित, मानपरिवर्जितमति, संविग्न और वाले नमस्कार मंत्र की उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, निर्जरार्थी होता है।२५ वन्दना के मूलपाठ "इच्छामिखमासमणो" वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम प्रयोजन और फल.५ इन ग्यारह की सूत्रस्पर्शी व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने (१) इच्छा, (२) द्वारों से व्याख्या की है। पंचनमस्कार के बाद सामायिक किस अनुज्ञापना, (३) अव्याबाध, (४) यात्रा, (५) यापना और (६) प्रकार करनी चाहिए?९६ सामायिक का लाभ कैसे होता है?१७ अपराधक्षमणा इन छ: स्थानों की नियुक्ति निक्षेपों के आधार पर सामायिक का उद्देश्य क्या है?१८ आदि प्रश्रों का विशद विवेचन करकेवन्दनाध्ययनकी नियुक्ति को यहीं विश्राम दे दिया है। आचार्य ने किया है।
प्रतिक्रमण चतुर्विशतिस्तव - आवश्यक सूत्र का दूसरा अध्यायन चतुर्विंशतिस्तव है। चतुर्विशति शब्द की नाम, स्थापना, द्रव्य,
प्रतिक्रमण नामक यह चतुर्थ अध्ययन है। प्रतिक्रमण की क्षेत्र, काल और भाव इन छ: निक्षेपों एवं स्तव शब्द की चार
व्याख्या करते हुए आचार्य ने स्पष्ट किया है कि - प्रमाद के प्रकार के निक्षेपों से व्याख्या की गई है। चतुर्विंशतिस्तव के लिए
कारण आत्मभाव से जो आत्मा मिथ्यात्व आदि पर स्थान में आवश्यकसूत्र में “लोगस्सुज्जोयगरे" का पाठ है। इसकी नियुक्ति
चला जाता है, उसका पुनः अपने स्थान में आना प्रतिक्रमण . है।२७ प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा, शुद्धि२८
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- यतीन्द्र सूरिस्मारकगन्ध-जैन आगम एवं साहित्य - - ये प्रतिक्रमण के पर्याय हैं। प्रतिक्रमण पर तीन दृष्टियों से ने कायोत्सर्ग के भेद, परिमाण, गुण, ध्यान का स्वरूप एवं विचार किया गया है - (१) प्रतिक्रमणरूप क्रिया, (२) प्रतिक्रमण भेद३५, कायोत्सर्ग के विविध-अतिचार शुद्धि-उपाय, शठ एवं का कर्ता अर्थात् प्रतिक्रामक और (३) प्रतिक्रमितव्य अशुभयोग अशठ द्वार,कायोत्सर्ग की विधि२७, घोटकलत आदि उन्नीस रूप कर्म। जीव पापकर्मयोगों का प्रतिक्रामक है। इसलिए जो दोष, कायोत्सर्ग के अधिकारी एवं कायोत्सर्ग के परिणाम ध्यान आदि प्रशस्त योग हैं, उनका साधु को प्रतिक्रमण नहीं की विस्तृत विवेचना की है। करना चाहिए। प्रतिक्रमण, दैवसिक, रात्रिक, इत्वरिक,
प्रत्याख्यान - आवश्यक सूत्र का षष्ठ अध्ययन प्रत्याख्यान के यावत्कथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमार्थक आदि
रूप में है। आचार्यभद्रबाहु ने प्रत्याख्यान का निरूपण छः अनेक प्रकार का होता है। पंचमहाव्रत, रात्रिभुक्तिविरति,
दृष्टियों में किया है। (१) प्रत्याख्यान, (२) प्रत्याख्याता, (३) भक्तपरिज्ञा आदि ऐसे प्रतिक्रमण हैं, जो यावत्कायिक या जीवन
प्रत्याख्येय, (४) पर्षद, (५) कथनिविधि एवं (६) फल।१०
र भर के लिए हैं। सामान्यतः उच्चार-मूत्र, कफ, नसिकामल,
प्रत्याख्यान के छः भेद है - (१) नामप्रत्याख्यान, (२) आभोग- अनाभोग, सहसाकार आदि क्रियाओं के उपरान्त
स्थापनाप्रत्याख्यान, (३) द्रव्यप्रत्याख्यान, (४) प्रतिक्रमण आवश्यक है। इसके अतिरिक्त इस अध्ययन में
आदित्साप्रत्याख्यान, (५) प्रतिषेधप्रत्याख्यान एवं (६) आचार्य ने प्रतिषिद्ध विषयों का आचरण करने, विहित विषयों
भावप्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान से आस्रव का निरुन्धन एवं समता का आचरण न करने, जिनोक्त वचनों में श्रद्धा न रखने तथा ।
की सरिता में अवगाहन होता है। प्रत्याख्यातव्य, द्रव्य व भाव विपरीत प्ररूपणा करने पर प्रतिक्रमण करने का निर्देश देते हुए
रूप से दो प्रकार का होता है। अशनादि का प्रत्याख्यान प्रथम आलोचना निरपलाप आदि बत्तीस योगों की चर्चा की है।३१
द्रव्यप्रत्याख्यान है एवं अज्ञानादि का प्रत्याख्यान भावप्रत्याख्यातव्य तदनन्तर अस्वाध्यायिक की नियुक्ति, अस्वाध्याय के भेद
है। प्रत्याख्यान के अधिकारी को बताते हुए आचार्य ने कहा कि प्रभेद एवं तज्जनित परिणामों की चर्चा की गई है।
प्रत्याख्यान का वही अधिकारी है जो विनीत एवं अव्यक्षिप्तरूप कायोत्सर्ग - यह आवर का पुत्र का पाँचवाँ अध्ययन है। हो। अन्त में प्रत्याख्यान के फल की विवेचना की गई है। कायोत्सर्ग की नियुक्ति करन क पूर्व आचार्य ने प्रायश्चित्त के
आवश्यकनियुक्ति के इस विस्तृत विवेचन से सहज ही आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल,
अनुमान लगाया जा सकता है कि जैननियुक्ति ग्रन्थों में अनवस्थाप्य और पारांचिक इन दस भेदों का निरूपण किया है।
आवश्यकनियुक्ति का कितना महत्त्व है। श्रमणजीवन की साल कायोत्सर्ग एवं व्युत्सर्ग एकार्थक है। यहाँ कायोत्सर्ग का अर्थ
साधना के लिए अनिवार्य सभी प्रकार के विधि-विधानों का व्रणचिकित्सा है जो कायोत्थ और परोत्थ दो प्रकार की होती है।
संक्षिप्त, सुव्यवस्थित एवं मर्मस्पर्शी निरूपण आवश्यकनियुक्ति जैसा वण होता है. वैसी ही उसकी चिकित्सा होती है। कायोत्सर्ग की एक बहत बड़ी विशेषता है। में दो पद है - काय और उत्सर्ग। काय का निक्षेप बारह प्रकार से किया गया है। ये हैं -- (१) नाम, (२) स्थापना, (३) शरीर, २. दशवैकालिकनियुक्ति (४) गति, (५) निकाय, (६) आस्तिकाय, (७) द्रव्य, (८) इस नियुक्ति के आरम्भ में आचार्य ने सर्वसिद्धों को नमस्कार मातृका, (९) संग्रह, (१०) पर्याय, (११) भार एवं (१२) भाव। करके इसकी रचना की प्रतिज्ञा की है।४१ "दश' और "काल" उत्सर्ग का निक्षेप -- (१) नाम, (२) स्थापना (३) द्रव्य, (४) इन दो पदों से सम्बन्ध रखने वाले दशवकालिक की निक्षेपक्षेत्र, (५) काल और (६) भाव रूप से छः प्रकार का है। पद्धति से व्याख्या करते हए आचार्य ने बताया है कि "दश" का कायोत्सर्ग के चेष्टाकायोत्सर्ग एवं अभिभवकायोत्सर्ग नामक दो प्रयोग इसलिए किया गया है क्योंकि इसमें "दस" अध्ययन हैं विधान है। भिक्षाचर्या आदि में होने वाला चेष्टाकायोत्सर्ग एवं एवं "काल" का प्रयोग इसलिए है कि इस सत्र की रचना उस उपसर्ग आदि में होने वाला अभिभवकायोत्सर्ग है।३२ अभिभव समय हुई जबकि पौरुषी व्यतीत हो चकी थी अथवा जो दस कायोत्सर्ग की काल-मर्यादा अधिकतम एक वर्ष एवं न्यूनतम अध्ययन पर्वो से उदधत किए गए उनका सव्यवस्थित निरूपण अन्तर्मुहूर्त है। इसके अतिरिक्त इस अध्ययन में नियुक्तिकार సందరయతరగentertainmenor 90 రురరరరరరరరరరరmand
आवरण
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य विकाल अर्थात् अपराह्न में किया गया। इसीलिए इस सूत्र का -- गंधार, श्रावक, तोसलिपुत्र, स्थूलभद्र, कालक, स्कन्दपुत्र, नाम दशवैकालिक रखा गया। इस सूत्र की रचना मनक नामक पराशरऋषि, करकण्डु आदि प्रत्येकबुद्ध एवं हरिकेश मृगापुत्र शिष्य के हेतु आचार्य शयम्भव ने की।४२ दशवैकालिक में। आदि की कथाओं का संकेत है। इसके अतिरिक्त निह्नव, भद्रबाहु द्रुमपुष्पिका आदि दस अध्ययन हैं।
के चार शिष्यों एवं राजगृह के वैमार पर्वत की गुफा में शीतपरीषहों प्रथम अध्ययन में धर्म की प्रशंसा करते हए उसके लौकिक से एवं मच्छरों के घोर उपसर्ग से कालगत होने का भी वर्णन है। और लोकोत्तर ये दो भेद एवं उसके अवान्तर भेदों को बताया।
इसमें अनेक उक्तियाँ सक्तों के रूप में हैं। जैसे -- "भावाम्मिउ गया है।४३ द्वितीय अध्ययन में धृति की स्थापना की गई है।
पव्वज्जा आरम्भपरिग्गहच्चाओ५५ अर्थात् हिंसा व परिग्रह का तृतीय अध्ययन५ में क्षुल्लकाचार अर्थात् लघु-आचार कथा
त्याग ही भावप्रव्रज्या है। काव्यात्मक एवं मनोहारी स्थलों का का अधिकार है। चौथे अध्ययन ६ में आत्मसंयम के लिए भा अभाव इस नियुक्ति में नहीं है। जैसे-- षड्जीवरक्षा का उपदेश दिया गया है। पिण्डषणा नामक पंचम
अयिरुग्गयए सूरिए अध्ययन की नियुक्ति में आचार्य ने "पिण्ड" और "एषणा"
चइयथूम गय वायसे इन दो पदों की निक्षेपरूप से व्याख्या करते हुए भिक्षाविशुद्धि के
भित्ती गमए व आपने विषय में विशद विवेचना की है। छठे अध्ययन में वृहद् आचार कथा का प्रतिपादन है। सप्तम अध्ययन ९ वचन विभक्ति का
सहि सुहिओ हु जणो न वुज्झई।५६ अधिकार है। अष्टम अध्ययन प्राणिधान अर्थात् विशिष्ट चित्तधर्म
अर्थात् 'सूर्य का उदय हो चुका है, चैत्यस्तम्भ पर बैठसम्बन्धी है। नवम अध्ययन में विनय का एवं दसवें५२ अध्ययन बैठ कर काग बोल रहे हैं. सर्य का प्रकाश दीवारों पर चढ गया है में भिक्ष का अधिकार है। इन अध्ययनों के अतिरिक्त इस सूत्र किन्त फिर भी हे सखि । यह अभी सो ही रहे हैं।' में दो चूलिकाएँ हैं - प्रथम चूलिका में संयम में स्थिरीकरण का
और दूसरी में विवत्तचर्या का वर्णन है। दशवैकालिकनियुक्ति ४. आचारांगनियुक्ति पर अनेक टीकाएँ एवं चूर्णि लिखी गई हैं, जिनमें
उत्तराध्ययननियुक्ति के पश्चात् एवं सूत्रकृतांगनियुक्ति के । जिनदासगणिमहत्तर की चूर्णि अधिक प्रसिद्ध है।
पूर्व रचित यह नियुक्ति आचारांगसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों पर है। ३. उत्तराध्ययननियुक्ति
इसमें ३४७ गाथाएँ हैं। आचारांगानियुक्ति के प्रारम्भ में मंगलगाथा
है, जिसमें सर्वसिद्धों को नमस्कार कर इसकी रचना करने की दशवैकालिक की भाँति इस नियुक्ति में भी अनेक प्रतिज्ञा. संज्ञा और दिशा का निक्षेप किया गया है। पारभाषिक शब्दों की निक्षेपदृष्टि से व्याख्या की गई है।
आचारांग का प्रवर्तन सभी तीर्थकरों ने तीर्थ-प्रवर्तन के इसमें ६०७ गाथाएँ हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान जिनेन्द्र
आदि में किया एवं शेष ग्यारह अंगों का आनुपूर्वी से निर्माण
आदि में किया एवं शेष ग्याद्ध अंगों का . के उपदेश ३६ अध्ययनों में संग्रहीत हैं। उत्तराध्ययन के "उत्तर" ।
हुआ ऐसा आचार्य का मत है। आचारांग द्वादशांगों में प्रथम पद का अर्थ क्रमोत्तर बताकर अध्ययन पद का अर्थ बताते हुये
क्यों है, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि इसमें मोक्ष के कहा गया है कि जिससे जीवादि पदार्थों का अधिगम अर्थात् उपाय का प्रतिपादन किया गया है, जो कि सम्पूर्ण प्रवचन का सार परिच्छेद होता है या जिससे शीघ्र ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है।९। अंगों का सार आचारांग है, आचारांग का सार अव्याबाध है, है, वही अध्ययन है। चूँकि अध्ययनसे अनेक भवों से आते हुये जो साधक का अन्तिम ध्येय है। आचारांग में नौ ब्रह्ममचर्याभिधायी कर्मरज का क्षय होता है, इसलिएउसेभावाध्ययन कहते हैं। इसके अध्ययन, अठारह हजार पद एवं पाँच चूड़ाएँ है।। पश्चात् आचार्य ने श्रुतस्कंध ५४ का निक्षेप करते हुए विनयश्रुत,
नौ अध्ययनों में प्रथम का अधिकार जीव संयम है, द्वितीय परीषह, चतुरंगीय, असंस्कृत आदि छत्तीस अध्ययनों की विवेचना की है। इस नियुक्ति में शिक्षाप्रद कथानकों की बहुलता है। जैसे
का कर्मविजय, तृतीय का सुख-दुःखतितिक्षा, चतुर्थ का सम्यक्त्व की दृढ़ता पंचम का लोकसाररत्नत्रयाराधना, षष्ठ का नि:संगता,
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य
सप्तम का मोहसमत्थ परीषहोपसर्ग सहनता, अष्ठम् का निर्वाण अर्थात् अन्तक्रिया एवं नवम का जिनप्रतिपादित अर्थश्रद्धान है।
द्वितीय उद्देशक में पृथ्वी आदि का निक्षेप-पद्धति से विचार करते हुये उनके विविध भेद-प्रभेदों की चर्चाएँ की गई है । इसमें वध को कृत, कारित एवं अनुमोदित तीन प्रकार का बताते हुए अपकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय और वायुकाय जीवों की हिंसा के सम्बन्ध में चर्चा की गयी है।
द्वितीय अध्ययन लोकविजय है, जिसमें कषायविजय को ही लोकविजय कहा गया है । ६२
तृतीय अध्ययन शीतोष्णीय है, जिसमें शीत व उष्ण पदों का निक्षेप - विधि से व्याख्यान करते हुए स्त्री - परीषह एवं सत्कार परीषह को शीत एवं शेष बीस को उष्णपरीषह बताया गया है । ६३
सम्यक्त्व नामक चतुर्थ अध्ययन के चारों उद्देशकों में क्रमशः सम्यक् - दर्शन, सम्यक् - ज्ञान, सम्यक - तप एवं सम्यक् - चारित्र का विश्लेषण किया गया है । ६४
पंचम अध्ययन लोकसार के छः उद्देशकों में यह बताया गया है कि सम्पूर्ण लोक का सार धर्म, धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान का सार संयम और संयम का सार निर्वाण है । ६५
धूत नामक षष्ठ अध्ययन के पाँच उद्देशक हैं, जिसमें वस्त्रादि के प्रक्षालन को द्रव्य-धूत एवं आठ प्रकार के कर्मों के क्षय को भावधूत बताया गया है। सप्तम अध्ययन व्यवच्छिन्न है। अष्टम अध्ययन विमोक्ष के आठ उद्देशक हैं। विमोक्ष का नामादि छः प्रकार का निक्षेप करते हुए भावविमोक्ष के देशविमोक्ष व सर्वविमोक्ष दो प्रकार बताए गए हैं। साधु देशविमुक्त एवं सिद्ध सर्वविमुक्त है । ६७
नवम् अध्ययन उपधानश्रुत में नियुक्तिकार ने बताया है कि तीर्थंकर जिस समय उत्पन्न होता है, वह उस समय अपने तीर्थ में उपधानश्रुताध्ययन में तपः कर्म का वर्णन करता है । ६८ उपधान के द्रव्योपधान एवं भावोपधान दो भेद किए गए हैं।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध - प्रथम श्रुतस्कन्ध में जिन विषयों पर चिन्तन किया गया है, उन विषयों के सम्बन्ध में जो कुछ अवशेष रह गया था या जिनके समस्त विवक्षित अर्थ का अभिधान न किया जा सका, उसका वर्णन द्वितीय श्रुतस्कन्ध में है। इसे अग्रश्रुतस्कन्ध भी कहते हैं।
মটটমট[ ७९
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चूलिकाओं का परिमाण इस प्रकार है- “पिण्डैषणा " से लेकर “अवग्रहप्रतिमा” अध्ययन पर्यन्त सात अध्ययनों की प्रथम चूलिका, सप्तसप्ततिका नामक द्वितीय चूलिका, भावना नामक तृतीय, विमुक्ति नामक चतुर्थ एवं निशीथ नामक पंच चूलिका है । ६९
५. सूत्रकृतांगनियुक्ति
इस नियुक्ति में २०५ गाथाएँ हैं । प्रारम्भ में सूत्रकृतांग शब्द की व्याख्या के पश्चात् अम्ब, अम्बरीष, श्याम, शबल, रुद्र, अवरुद्र, काल, महाकाल, असिपल, धनु, कुम्भ, बालुक, वैतरणी, खरस्वर और महाघोष नामक पन्द्रह परमाधार्मिकों के नाम गिनाए गए हैं। गाथा ११९ में आचार्य ने ३६३ मतान्तरों का निर्देश किया है, जिसमें १८० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ६७ अज्ञानवादी और ३२ वैनयिक है। इसके अतिरिक्त शिष्य और शिक्षक के भेद-प्रभेदों की भी विवेचना की गई है । ७१
६. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति
यह निर्युक्ति दसाश्रुतस्कन्ध नामक छेदसूत्र पर है। प्रारम्भ में नियुक्तिकार ने दशा, कल्प और व्यवहार श्रुत के कर्त्ता सकल श्रुतज्ञानी श्रुतकेवली आचार्यभद्रबाहु को नमस्कार किया है । ७२ तदनन्तर दस अध्ययनों के अधिकारों का वर्णन किया है। प्रथम अध्ययन असमाधिस्थान की नियुक्ति में द्रव्य व भाव समाधि की विवेचना की गई है। द्वितीय अध्ययन शबल की नियुक्ति में चार निक्षेपों के आधार पर शबल की व्याख्या करते हुए आजार से भिन्न अर्थात् गिरे व्यक्ति को भावशबल कहा गया है।
तृतीय अध्ययन आशातना की नियुक्ति में मिथ्या प्रतिपादन सम्बन्धी एवं लाभ सम्बन्धी दो आशातना की चर्चा की गई है।
गणिसम्पदा नामक चतुर्थ अध्ययन में गणि एवं संपदा पदों की व्याख्या करते हुए "गणि" व "गुणी" को एकार्थक बताया गया है। आचार को प्रथम गणिस्थान दिया गया है, क्योंकि इसके अध्ययन से श्रमणधर्म का ज्ञान होता है। संपदा के द्रव्य व भाव दो भेद करते हुए आचार्य ने शरीरसंपदा को द्रव्यसंपदा एवं आचारसंपदा को भावसंपदा का नाम दिया है। ७३
चित्तसमाधिस्थान नामक पंचम अध्ययन की नियुक्ति में उपासक एवं प्रतिमा का निक्षेपपूर्वक विवेचन किया गया है। चित्त व समाधि की चार निक्षेपों के आधार पर व्याख्या करते
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यतीन्द्र सरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य हुए राग-द्वेषरहित चित्त के विशुद्ध धर्म-ध्यान में लीन होने की ८. व्यवहारनियुक्ति अवस्था को भावसमाधि कहा गया है।
बृहत्कल्प में श्रमणजीवन की साधना का जो शब्द-चित्र उपासकप्रतिमा नामक षष्ठ अध्ययन में "उपासक" और प्रस्तुत किया गया है एवं उत्सर्ग व अपवाद का जो विवेचन "प्रतिमा" का निक्षेपपूर्वक चिन्तन करते हुए उपासक के किया गया, उन्हीं विषयों पर व्यवहार में भी चिन्तन किया गया द्रव्योपासक. तदर्थोपासक. मोहोपासक एवं भावोपासक रूप है। यही कारण है कि व्यवहारनिर्यक्ति में अधिकतर उन्हीं अथवा चार भेदों एवं श्रमणोपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का निरूपण उसी प्रकार के विषयों का विवेचन है जो बृहकल्पनियुक्ति में किया गया है।
उपलब्ध हैं। अत: ये दोनों नियुक्तियाँ एक-दूसरे की पूरक हैं। सप्तम अध्ययन भिक्षुप्रतिमा का है। इसमें भाव-भिक्षु की
९. सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति एवं समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनप्रतिमा एवं एक विहारप्रतिमा का उल्लेख है।
१०. ऋषिभाषितनियुक्ति अनुपलब्ध हैं, जिनकी अन्य अष्टम अध्ययन की नियुक्ति में पर्दूषणाकल्प का व्याख्यान
नियुक्तियों के साथ संक्षिप्त परिचयात्मक चर्चा करेंगे। किया गया है। परिवसना, पर्युषणा, वर्षावास, प्रथमसमवरण
अन्य नियुक्तियाँ- उपलब्ध इन आठ नियुक्तियों के अतिरिक्त आदि को एकार्थक कहा गया है।
कुछ और नियुक्तियाँ भी हैं, जो निम्न हैं - नवम अध्ययन मोहनीय स्थान का है. जिसमें मोह नामादि संसक्तनियुक्ति - यह नियुक्ति किस आगम पर लिखी गई है, भेद से चार प्रकार का है। पाप, वैर, वर्ण्य, पंक, उत्साह, संग इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। कितने ही विद्वान् आदि मोह के पर्यायवाची हैं, ऐसा उल्लेख किया गया है। इसे भद्रबाहु की रचना मानते हैं, कितने उनके बाद के किसी
आचार्य की रचना मानते हैं। चौरासी आगामों में इसका भी अजातिस्थान नामक दशम अध्ययन में अजाति अर्थात्
उल्लेख है। जन्म-मरण से विमुक्ति-मोक्ष कैसे प्राप्त होता है, का विशद विवेचन किया गया है।
निशीथनिर्यक्ति - यह निर्यक्ति एक प्रकार से आचारांगनियुक्ति
का एक अंग है, क्योंकि आचारांगनियुक्ति के अन्त में स्वयं 6. बृहत्कल्पनियुक्ति
नियुक्तिकार ने लिखा है कि पंचमचूलिकानिशीथ की नियुक्ति यह नियुक्तिभाष्यमिश्रित अवस्था में मिलती है। सर्वप्रथम मैं बाद में करूँगा। यह नियुक्ति निशीथभाष्य में इस प्रकार से तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है।७४ तदपरान्त ज्ञान और समाविष्ट की गई है कि इसे अलग नहीं किया जा सकता, इसमें मंगल में कथंचित भेद-अभेद करते हए ज्ञान के विविध भेदों मुख्य रूप से श्रमणाचार का उल्लेख है। का निर्देश दिया गया है। मंगल के नाममंगल, स्थापनामंगल, गोविन्दनिर्यक्ति - इस नियुक्ति में दर्शन सम्बन्धी मन्तव्यों पर द्रव्यमंगल एवं भावमंगल की निक्षेप-पद्धति से व्याख्या करते ।
प्रकाश डाला गया है। आचार्य गोविन्द ने एकेन्द्रिय जीवों की हुए अनुयोग, उपक्रम, अनुगम और नय इन चार अनुयोगद्वारों संसिद्धि के लिए इसका निर्माण किया था। यह किसी एक आगम की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त नियुक्तिकार ने सपरिग्रह- पर न होकर स्वतन्त्र रचना है। बहकल्पभाष्य, आवश्यकचर्णि अपरिग्रह, जिनकाल्पिक एवं स्थविरकाल्पिक के आहार-विहार एवं निशीथचर्णि में इसका उल्लेख मिलता है। यह वर्तमान में की चर्चा करते हुए आर्यक्षेत्र के बाहर विचरण करने से लगने
उपलब्ध नहीं है। वाले दोषों का स्कन्दकाचार्य के दृष्टान्त के साथ दिग्दर्शन कराया
आराधनानियुक्ति - यह भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। चौरासी है। साथ ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र की रक्षा और वृद्धि के लिए
आगामों में “आराधनापताका" नामक एक आगम है, संभव है आर्यक्षेत्र के बाहर विचरण की आज्ञा एवं संप्रतिराज के दृष्टान्त से
यह नियुक्ति उसी पर हो। मूलाचार में वट्टकेरस्वामी ने इसका उसके समर्थन का भी उल्लेख मिलता है। यह नियुक्ति स्वतन्त्र
उल्लेख किया है। न रहकर बृहल्कल्पभाष्य में मिश्रित हो गई है
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१२.
यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य ऋतिभाषितनिर्युक्ति - चौरासी आगमों में ऋषिभाषित का भी नाम है। प्रत्येक बुद्ध द्वारा भाषित होने से यह ऋषिभाषित के नाम से विश्रुत है। इस पर भी भद्रबाहु ने नियुक्ति लिखी थीं पर वर्तमान में अनुपलब्ध हैं।
१३.
वही, गाथा ४५९
१४.
वही, गाथा ५९४
१५. वही, गाथा ८८१
१६. वही, गाथा १०२३-१०३४
१७.
१८.
१९.
२०.
२९.
२२ .
२३.
२४.
२५.
२६.
२७.
सूर्यज्ञप्तिनियुक्ति - यह भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, परन्तु आचार्य मलयगिरि की वृत्ति में इसका नाम - निर्देश हुआ है। इसमें सूर्य की गति आदि ज्योतिषशास्त्र सम्बन्धी तथ्यों का सुन्दर निरूपण हुआ है।
इनके अतिरिक्त पिण्डनिर्युक्ति, ओघनिर्युक्ति एवं पंचकल्पनिर्युक्ति स्वतन्त्र ग्रंथ न होकर क्रमश: दशवैकालिक, आवश्यक और बृहत्कल्पनिर्युक्ति की ही सम्पूरक हैं।
इस प्रकार जैन परम्परा के महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों की स्पष्ट व्याख्या जो नियुक्तिसाहित्य में हुई है वह अपूर्व है। इन्हीं व्याख्याओं के आधार पर बाद में भाष्यकार, चूर्णिकार एवं वृत्तिकारों ने अपने अभीष्ट ग्रन्थों का सृजन किया है। नियुक्तियों की रचना करके भद्रबाहु ने जैनसाहित्य की जो विशिष्ट सेवा की है वह जैन आगमिक क्षेत्र में सवर्था अविस्मरणीय है।
१.
२.
३.
४.
५.
6.
७.
सन्दर्भ-ग्रन्थ
अनुयोगद्वार, पृ. १८ और आगे
आवश्यक नियुक्ति, गाथा ८८
वही, गाथा ८३
निश्चयेन अर्थप्रतिपादिका युक्तिर्नियुक्ति : आचारांगनिर्युक्ति
१/२/१
उत्तराध्ययन की भूमिका, पृ. ५०-५१
D. Ghatge, Indian Historical Quarterly, Vol. 12, P. 270 वंदामि भद्रबाहुं पाईणं चरिमसगलसुयनाणिं ।
सुत्तस्स कारमिसि दयासु कप्पे य ववहारे ||
दशाश्रुतस्कंधनिर्युक्ति, १
आवश्यक नियुक्ति गाथा ७९-८६
८.
९.
गणधरवाद प्रस्तावना, पृ. १५-१६
१०. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा १७-१९
"
११. सामाइयमाइयाई एक्कारस्स अहिज्जइ । - अन्तः कृतदशांग प्रथमवर्ग ।
आवश्यक निर्युक्ति, गाथा ९४ - १०३
वही, गाथा १०३५
वही, गाथा १०५९
वही, गाथा १०६४
वही, गाथा १०६६-६८
वही, गाथा १०८७-८९
वही, गाथा ११०-११
वही, गाथा ११४५-४७
वही, गाथा १९६७-१२००
वही, गाथा १०२४
वही, गाथा १२२३
स्वस्थानात्यत्परस्थानं प्रमादस्य वशाद्गहः । तत्रैव क्रमणं
भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ।
Gâ{ <3 pardon
आवश्यक नियुक्ति, गाथा १२३६
२८. वही, गाथा १२३८
२९. वही, गाथा १२४४-४६
३०. वही, गाथा १२६८
३१.
वही, गाथा १२६९ - १२७३
३२.
वही, गाथा १४४७
३३.
वही, गाथा १४५३
३४.
वही, गाथा १४५४-५५
३५.
वही, गाथा १४५८
३६. वही, गाथा १५३६-३८
३७. वही, गाथा १५३९-४०
३८. वही, गाथा १५४१-४२
३९. वही, गाथा १५४५ ४०.
वही, गाथा १५५०
४१.
(क) दशवैकालिकनिर्युक्ति, हरिभद्रीयविवरणसहित : प्रकाशक- देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई,
१९१८
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चतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य (ख) नियुक्ति व मूल : सम्पादक E. Leumann Z DMG ५९. वही, गाथा ९ भाग ४६, पृ. ५८९-६६३
६०. वही, गाथा १६-१७ ४२. दशवैकालिक-नियुक्ति, गाथा १२-१५
६१. वही, गाथा ११ ४३. वही, गाथा २६-१४८
६२. वही, गाथा १७५ ४४. वही, गाथा १५२-१७७
६३. वही, गाथा १९७-२१३ ४५. वही, गाथा १७८-२१५
६४. वही, गाथा २१४-२१५ ४६. वही, गाथा २१६-२३१
६५. वही, गाथा २४४ ४७. वही, गाथा २३२-२४४
६६. वही, गाथा २४९-२५० ४८. वही, गाथा २४५-२६२
६७. वही, गाथा २५७-२५९ ४९. वही, गाथा २६९-२८६
६८. वही, गाथा २७५ ५०. वही, गाथा २८७-२९४
६९. वही, गाथा २९७ ५१. वही, गाथा ३०९-३२२
७०. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा १८-२० ५२. वही, गाथा ३२८-३४७
७१. वही, गाथा १२७-१३१ ५३. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ५-७
७२. दशाश्रुतनियुक्ति, १ ५४. वही, गाथा १२-२६
७३. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ३, पृ. १२१ ५५. शास्त्री विजयमुनि, आगम और व्याख्या साहित्य एक ७४. वृहत्कल्पनियुक्ति, गाथा १ परिशीलन, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा १९६४,पृ. ६०
७५. वही, गाथा ३-५ ५६. वही, पृ. ६१
७६. वही, गाथा ३२७१, ३२८९ ५७. आचारांगनियुक्ति, गाथा १
७७. पंचमचूलनिसीह तस्स स उगरि भणी हामि। ५८. वही, गाथा ८
आचारांगनियुक्ति, गाथा ३४७
DoorprisindidroidrsanitariuoroubrainboxinduindiabuloudM८२
drdasudministratimdubairandardnardwaraniuiridihiand
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भाष्यकार : एक परिशीलन
समणी कुसुमप्रज्ञा....
आगमों के व्याख्या-ग्रंथों में भाष्य का दूसरा स्थान है। बिंदुरूप या नवनीत रूप सार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । इस व्यवहारभाष्य,गाथा ४६९३ में भाष्यकार ने अपनी व्याख्या को उद्धरण से स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि के समक्ष तीनों छेदसूत्रों के भाष्य नाम से संबोधित किया है। नियुक्ति की रचना अत्यन्त भाष्य थे। उदधिसदृश विशेषण मूल सूत्रों के लिए प्रयुक्त नहीं हो संक्षिप्त शैली में है। उसमें केवल परिभाषिक शब्दों पर ही विवेचन सकता, क्योंकि वे आकार में इतने बड़े नहीं हैं। या चर्चा मिलती है। किन्तु भाष्य में मल आगम तथा नियुक्ति
जिन ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ नहीं हैं वे भाष्य मूल सूत्र की व्याख्या दोनों की विस्तृत व्याख्या की गई है।
ही करते हैं। जैसे जीतकल्प भाष्य आदि। कुछ भाष्य नियुक्ति पर वैदिक परंपरा में भाष्य लगभग गद्य में लिखा गया लेकिन भी लिखे गए हैं जैसे - पिंडनियुक्ति एवं ओघनियुक्ति आदि। जैन परंपरा में भाष्य प्रायः पद्यबद्ध मिलते हैं, जिस प्रकार
छेदसत्रों के भाष्यों में व्यवहारभाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान नियुक्ति के रूप में मुख्यतः १० नियुक्तियों के नाम मिलते हैं
है। प्रायश्चित्त निर्धारक ग्रन्थ होने पर भी इसमें प्रसंगवश समाज, वैसे ही भाष्य भी १० ग्रन्थों पर लिखे गए, ऐसा उल्लेख मिलता
अर्थशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का विवेचन है। वे ग्रन्थ ये हैं--
मिलता है। भाष्यकार ने व्यवहार के प्रत्येक सूत्र की विस्तृत १. आवश्यक', २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. व्याख्या प्रस्तुत की है। बिना भाष्य के केवल व्यवहारसूत्र को बृहत्कल्प', ५. पंचकल्प, ६. व्यवहार, ७. निशीथ, ८. जीतकल्प, पढ़कर उसके अर्थ को हृदयंगम नहीं किया जा सकता है। ९. ओघनियुक्ति, १०. पिंडनियुक्ति।
थाष्यकार ___ मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार व्यवहार और निशीथ पर
भाष्यकार के रूप में मख्यतः दो नाम प्रसिद्ध हैंभी वृहद्भाष्य लिखा गया पर आज वह अनुपलब्ध है। इनमें
१.जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, २. संघदासगणि। मुनिश्री पुण्यविजयजी बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ इन तीन ग्रन्थों के भाष्य गाथा
ने चार भाष्यकारों की कल्पना की है- १. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, परिमाण में वृहद् हैं। जीतकल्प, विशेषावश्यक एवं पंचकल्प
२.संघदासगणि, ३. व्यवहारभाष्य के कर्ता तथा ४.बृहदकल्पभाष्य परिमाण में मध्यम, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति पर लिखे गए
आदि के कर्ता। भाष्य अल्प तथा दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन इन दो ग्रन्थों के भाष्य ग्रन्थान में अल्पतम है।
विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता के रूप में जिनभद्रगणि का
नाम सर्वसम्मत है, लेकिन बृहत्कल्प, व्यवहार आदि भाष्यों के यह भी अनुसंधान का विषय है कि तीन छेदसत्रों पर ।
कर्ता के बारे में सभी का मतैक्य नहीं है। प्राचीनकाल में लेखक वृहद्भाष्य लिखे गए फिर दशाश्रुतस्कंध पर क्यों नहीं लिखा
बिना नामोल्लेख के कृतियाँ लिख देते थे। कालान्तर में यह गया, जबकि नियुक्ति चारों छेदसत्रों पर मिलती है। संभव है इस ग्रन्थ पर भी भाष्य लिखा गया हो पर वह आज प्राप्त नहीं है।
निर्णय करना कठिन हो जाता था कि वास्तव में मूल लेखक
कौन थे? कहीं-कहीं नामसाम्य के कारण भी मूल लेखक का उपर्यक्त दस भाष्यों में निशीथ, जीतकल्प एवं पंचकल्प को निर्णय करना कठिन होता है। संकलनप्रधान भाष्य कहा जा सकता है। क्योंकि इनमें अन्य भाष्यों एवं नियुक्तियों की गाथाएँ ही अधिक संक्रांत हुई हैं। जीतकल्प
बृहत्कल्प की पीठिका में मलयगिरि ने भाष्यकार का
नामोल्लेख न कर केवल "सुखग्रहणधारणाय भाष्यकारो भाष्यं भाष्य में तो जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण स्पष्ट लिखते हैं--कल्प, व्यवहार और निशीथ उदधि के समान विशाल हैं, अत: उन श्रतरत्नों का कृतवान्", इतना सा उल्लेख मात्र किया है। निशीथचूर्णि एवं
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• यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ.- जैन आगम एवं साहित्य व्यवहार की टीका में भी भाष्यकार के नाम के बारे में कोई टीकाकार ने इस गाथा के लिए 'सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिभणितमिदम् । संकेत नहीं मिलता।
का उल्लेख किया है। चूर्णिकार ने इस गाथा के लिए 'आयरिओ पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने निशीथपीठिका की भास
क भासं काउकामो आदावेव गाथासूत्रमाह' का उल्लेख किया है। भमिका में अनेक हेतओं से यह सिद्ध किया है कि निशीथ
पोश यहाँ प्राचीनता की दृष्टि से चूर्णिकार का मत सम्यक् लगता है। भाष्य के कर्ता सिद्धसेन होने चाहिए। उन्होंने यह भी संभावना
न
घाणकार 4
चूर्णिकार के मत की प्रासंगिकता का एक हेतु यह भी है कि व्यक्त की है कि बृहत्कल्पभाष्य के कर्ता भी सिद्धसेन है। अपने
व्यवहारभाष्य के अंत में भी 'कप्पव्ववहाराणं भासं का उल्लेख मत की पुष्टि के लिए वे कहते हैं कि अनेक स्थलों पर निशीथचूर्णि
मिलता है। अत: यह गाथा भाष्यकार की होनी चाहिए, जिसमें में जिस गाथा के लिए 'सिद्धसेणायरियो वक्खाणं करेति' का
उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि मैं कल्प और व्यवहार की व्याख्यानउल्लेख है, वही गाथा बृहत्कल्प-भाष्य में भाष्यकारो व्याख्यानयति' विधि प्रस्तुत करूंगा। वक्खाणविधि शब्द भी भाष्य की ओर ही के संकेतपूर्वक है। अतः निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार तीनों
___ संकेत करता है, क्योंकि नियुक्ति अत्यंत संक्षिप्त शैली में लिखी के भाष्यकर्त्ता सिद्धसेन हैं, यह स्पष्ट है। इसके साथ-साथ
गई रचना है। उसके लिए वक्खाणविहिं शब्द का प्रयोग नहीं उन्होंने और भी हेतु प्रस्तुत किए हैं।
होना चाहिए अत: यह नियुक्ति की गाथा नहीं, भाष्य की गाथा
होनी चाहिए। कप्पव्ववहाराणं भाष्यकार के इस उल्लेख से यह मुनि पुण्यविजयजी बृहत्कल्प के भाष्यकार के रूप में
स्पष्ट ध्वनित हो रहा है कि उन्होंने केवल बृहत्कल्प एवं व्यवहार संघदासगणि को स्वीकार करते हैं। उनके अभिमत से संघदास
पर ही भाष्य लिखा, निशीथ पर नहीं। गणि नाम के दो आचार्य हुए हैं। प्रथम संघदासगणि जो वाचकपद से विभूषित थे, उन्होंने वसुदेवहिंडी के प्रथम खण्ड की रचना
पंडित दलसुख भाई मालवणिया निशीथ- भाष्य के कर्ता की। द्वितीय संघदासगणि उनके बाद हुए, जिन्होंने बृहत्कल्प
सिद्धसेनगणि को स्वीकारते हैं, क्योंकि निशीथ-चूर्णिकार ने अनेक लघुभाष्य की रचना की। वे क्षमाश्रमण पद से अलंकृत थे।६
स्थलों पर 'अस्य सिद्धसेनाचार्यों व्याख्यां करोति' का उल्लेख
किया है। पर इस तर्क के आधार पर सिद्धसेन को भाष्यकर्ता आचार्य संघदासगणि भाष्य के कर्ता हैं इसकी पुष्टि में
मानना संगत नहीं लगता। क्योंकि चूर्णिकार ने ग्रन्थ के प्रारंभ सबसे बड़ा प्रमाण आचार्य क्षेमकीर्ति का निम्न उद्धरण है।
और अंतिम प्रशस्ति में कह । सिद्धसेन का उल्लेख नहीं किया उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है--
है। यदि सिद्धसेन भाष्यकर्ता होते तो अवश्य ही चूर्णिकार प्रारंभ कल्पेऽनल्पमनघु प्रतिपदमर्पयति योऽर्थनिकुरम्बम्।
में या ग्रन्थ के अंत में उनका नामोल्लेख अवश्य करते। इस श्रीसंघदासगणये, चिन्तामणये नमस्तस्मै।।
संबंध में हमारे विचार से निशीथ संकलित रचना होनी चाहिए, "अस्य च स्वल्पग्रन्थमहार्थतया दुःखबोधतया च सकल- जिसकी संकलना आचार्य सिद्धसेन ने की।अनेक स्थलों पर त्रिलोकीसुभगङ्करणक्षमाश्रमणनामधेयाभिधेयैः श्रीसंघदासगणिपूज्यैः निशीथ-नियुक्ति की गाथाओं को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने प्रतिपदप्रकटतिसर्वज्ञाज्ञाविराधनासमुद्भूतप्रभूतप्रत्यपायजालं व्याख्यान-गाथाएँ भी लिखीं। अतः निशीथ मौलिक रचना न निपुणचरणकरणपरिपालनोपायगोचरविचारवाचालं सर्वथा । होकर संकलित रचना ही प्रतीत होती है। यदि इसमें से अन्य दूषणकरणेनाप्यदूष्यं भाष्यं विरचयांचवे।"
ग्रन्थों की गाथाओं को निकाल दिया जाए तो मूल गाथाओं की इस उल्लेख के सन्दर्भ में मुनि पुण्यविजयजी का मत
संख्या बहुत कम रहेगी। दस प्रतिशत भाग भी मौलिक ग्रन्थ के
रूप में अवशिष्ट नहीं रहेगा। पंडित दलसुखभाई मालवणिया भी संगत लगता है कि बृहत्कल्प के भाष्यकार आचार्य संघदासगणि
इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहते हैं निशीथभाष्य के विषय होने चाहिए। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बृहत्कल्पभाष्य एवं व्यवहारभाष्य के कर्ता एक ही हैं, क्योंकि बृहत्कल्प
में कहा जा सकता है कि इन समग्र गाथाओं की रचना किसी -भाष्य की प्रथम गाथा में स्पष्ट निर्देश है कि 'कप्पव्ववहाराणं
एक आचार्य ने नहीं की। परंपरा से प्राप्त गाथाओं का भी यथास्थान वक्खाणविहिं पवक्खामि'।
भाष्यकार ने उपयोग किया है और अपनी ओर से नवीन गाथाएँ
बनाकर जोड़ी हैं। (निपीभू पृ. ३०, ३१) సాయం క రరరరరరసారం ..
antaranoramanananda
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
भाष्यकार ने इस ग्रन्थ की रचना कौशल देश में अथवा उसके पास के किसी क्षेत्र में की है, ऐसा अधिक संभव लगता है। भारत के १६ जनपदों में कौशल देश का महत्त्वपूर्ण स्थान था। प्रस्तुत भाष्य में कौशल देश से संबंधित दो-तीन घटनाओं का वर्णन है, इसके अतिरिक्त सबसे बड़ा प्रमाण यह है ग्रन्थकार जहाँ क्षेत्र के आधार पर मनोरचना का वर्णन कर रहे हैं, वहाँ कहते हैं 'कोसलएसु अपावं सतेसु एक्कं न पेच्छामो' अर्थात् कौशल देश में सैकड़ों में एक व्यक्ति भी पापरहित नहीं देखते हैं। यहाँ पेच्छामो क्रिया ग्रन्थकार द्वारा स्वयं देखे जाने की ओर इंगित करती है।
भाष्य का रचनाकाल
भाष्यकार संघदासगणि का समय भी विवादास्पद है। अभी तक इस दिशा में विद्वानों ने विशेष ऊहापोह नहीं किया है। संघदासगणि आचार्य जिनभद्र से पूर्ववर्ती हैं। इस मत की पुष्टि में अनेक हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं-
जिनभद्रगणि के विशेषणवती ग्रन्थ में निम्न गाथा मिलती हैसीहो चेव सुदाढो, जं रायगिहम्मि कविलबडुओ त्ति । सीसइ ववहारे गोयमोवसमिओ स णिक्खंतो।'
व्यवहार भाष्य में इसकी संवादी गाथा इस प्रकार मिलती हैसीहो तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कविलबडुग त्ति । जिणवीरकहणमणुवसम गोतमोवसम दिखाय । ०
विशेषणवती में 'ववहारे' शब्द निश्चित रूप से व्यवहारभाष्य के लिए प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि मूलसूत्र में इस कथा का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य जिनभद्रगणि के समक्ष व्यवहारभाष्य था ।
विशेषावश्यक भाष्य की रचना व्यवहारभाष्य के पश्चात् हुई इसका एक प्रबल हेतु यह है कि बृहत्कल्प एवं व्यवहारभाष्य कर्त्ता के समक्ष यदि विशेषावश्यक भाष्य होता तो वे अवश्य विशेषावश्यकभाष्य की गाथाओं को अपने ग्रन्थ में सम्मिलित करते, क्योंकि वह एक आकरग्रंथ है, जिसमें अनेक विषयों का सांगोपांग वर्णन प्राप्त है। जबकि व्यभा एवं वृभा में अन्य भाष्य पंचकल्प, निशीथ आदि की सैकड़ों गाथाएँ संवादी हैं । व्यवहारभाष्य की मणपरमोधपुलाए गाथा विभा में मिलती है । वह व्यवहारभाष्य की गाथा है और विशेषावश्यकभाष्य के कर्त्ता
ने उद्धृत की है, ऐसा प्रसंग से स्पष्ट प्रतीत होता है। अतः व्यवहारभाष्य विशेषावश्यकभाष्य से पूर्व की रचना है, ऐसा मानने में कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती ।
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व्यवहारभाष्य के कर्त्ता जिनभद्र से पूर्व हुए इसका एक प्रबल हेतु यह है कि जीतकल्प- चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख है कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि में प्रायश्चित्त का इतने विस्तार से निरूपण है कि पढ़ने वाले का मति- विपर्यास हो जाता है। शिष्यों की प्रार्थना पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने संक्षेप में प्रायश्चित्तों का वर्णन करने हेतु जीतकल्प की रचना की " । यहाँ कल्प, व्यवहार शब्द का मूलसूत्र से तात्पर्य न होकर उसके भाष्य की ओर संकेत होना चाहिए क्योंकि मूल ग्रन्थ परिमाण में इतने बृहद् नहीं हैं। दूसरी बात व्यवहारभाष्य की प्रायश्चित्त संबंधी अनेक गाथाएँ जीतकल्प में अक्षरशः उद्धृत हैं। जैसे-
जीतकल्प
व्यभा.
जीतकल्प
व्यभा.
११०
२२
११४
१११
३१,३२
तु. १०,११ निशीथभाष्य जिनभद्रगणि से पूर्व संकलित हो चुका था इसका एक प्रमाण यह है कि निभा में प्रमाद-प्रतिसेवना के सन्दर्भ में निद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है। स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदाहरण के रूप में निभा. (१३५) में 'पोग्गल मोयग दंते' गाथा मिलती है। यह गाथा विशेषावश्यक भाष्य (२३५) में भी है। लेकिन वहाँ स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि व्यञ्जनावग्रह के प्रसंग में विशेषावश्यक-भाष्यकार ने यह गाथा निभा. से उद्धृत की है। विभा में यह गाथा प्रक्षिप्त सी लगती है । कुछ अंतर के साथ यह गाथा वृभा. (५०१७) में भी मिलती है।
१८
१९
पंडित दलसुख भाई मालवणिया ने जिनभद्र का समय छठी-सातवीं शताब्दी सिद्ध किया है। अतः भाष्यकार संघदासगणि का समय पाँचवीं, छठी शताब्दी होना चाहिए ।
भाष्यग्रन्थों का रचनाकाल चौथी से छठी शताब्दी तक ही होना चाहिए। यदि भाष्य का रचनाकाल सातवीं शताब्दी माना जाए तो आगे के व्याख्याग्रन्थों के काल-निर्धारण में अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं। प्राचीनकाल में आज की भाँति मुद्रण की व्यवस्था नहीं थी, अतः हस्तलिखति किसी भी ग्रन्थ को प्रसिद्ध होने में कम से कम एक शताब्दी का समय तो लग ही
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1 64 Jan G
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - जाता था। सातवीं शताब्दी में भाष्य लिखे गए और आठवीं में भाष्यकार के समक्ष आवश्यक चूर्णि थी। हरिभद्र ने टीकाएँ लिखीं फिर चूर्णि के समय में अंतराल बहुत
इसी प्रकार जीतकल्प की चर्णि के बाद उसका भाष्य रचा कम रहता है।
गया क्योंकि चूर्णि केवल जीतकल्प की गाथाओं की ही व्याख्या नियुक्तिकार के रूप में हमने चतुर्दशपूर्वी प्रथम भद्रबाहु करती है। उसमें भाष्य का उल्लेख नहीं है। यदि चूर्णिकार के को स्वीकार किया है, जिनका समय वीरनिर्वाण की दूसरी शताब्दी समक्ष भाष्य-गाथाएँ होती तो वे अवश्य उनकी व्याख्या करते। है।३। भाष्य का समय विक्रम की चौथी-पाँचवीं, चूर्णि का चूर्णिकार ने व्यवहारभाष्य की अनेक गाथाओं को उद्धृत किया है। सातवीं तथा टीका का आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तर्कसम्मत
इस प्रसंग में निभा. ५४५ की उत्थानिका का उल्लेख भी एवं संगत लगता है।
विद्वानों को इस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करता है। वहाँ निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार इन तीन छेदसूत्रों के भाष्य स्पष्ट उल्लेख है कि 'सिद्धसेणायरिएण जा जयणा भणिया तं चेव के रचनाक्रम के बारे में पंडित दलसुख भाई मालवणिया का संखेवओ भद्दबाहू भण्णति' इस उद्धरण से स्पष्ट है कि यहाँ द्वितीय अभिमत है कि सबसे पहले बृहत्कल्पभाष्य रचा गया। उसके भद्रबाहु की ओर संकेत हैं। प्रथम भद्रबाहु तो सिद्धसेन की बाद निशीथभाष्य तथा अंत में व्यवहारभाष्य की रचना हुई। रचना की व्याख्या नहीं कर सकते, क्योंकि वे उनसे बहुत लेकिन हमारे अभिमत से निशीथभाष्य की रचना या संकलना प्राचीन हैं। बृहत्कल्पभाष्य (२६११) में भी इस गाथा के पूर्व सबसे बाद में हुई है। उसके कारणों की चर्चा हम पहले कर चुके टीकाकार उल्लेख करते हैं कि 'या भाष्यकृता सविस्तरं यतना
पूर्व बृहत्कल्प की रचना की, यह प्रोक्ता तामेव नियुक्तिकृदेकगाथया संगृह्याह।' यह उद्धरण विद्वानों बात उनकी प्रतिज्ञा से स्पष्ट है--कप्पव्ववहाराणं वक्खाणविहिं के चिंतन या ऊहापोह के लिए है। इसके आधार पर यह संभावना पवक्खामि। इसके अतिरिक्त व्यवहारभाष्य में अनेक स्थलों पर की जा सकती है कि सिद्धसेन द्वितीय भद्रबाहु से पूर्व पाँचवीं पुव्वुत्तो, वुत्तो, जह कप्पे, वण्णिया कप्पे आदि का उल्लेख मिलता शती के उत्तरार्द्ध में हो गए थे। द्वितीय भद्रबाहु के समक्ष नियुक्तियाँ है। व्यवहार-भाष्य की निम्न गाथाओं में बृहत्कल्प की ओर तथा उन पर लिखे गए कुछ भाष्य भी थे। संकेत हैं। इनमें कुछ उद्धरण बृहत्कल्प एवं कुछ बृहत्कल्पभाष्य मनि पण्यविजयजी ने दशवैकालिक की अगस्त्यसिंह चर्णि की ओर संकेत करते हैं--
को दशवैकालिकभाष्य से पूर्व की रचना माना है तथा उसके ११७२, १२२६, १३३९, १७४८, १८३३, १९३३,२१७१, कुछ हेतु भी प्रस्तुत किए हैं। २१७३, २२७९, २२९६, २५०९, २५२३, २६६२, २८०५, २८०६,
भाषा की दृष्टि से भी भाष्यरचना की प्राचीनता सिद्ध होती २८१७, २९२७,२९८३,३०६२,३२४७, ३३१३, ३३५०, ३८९६, है। अपभ्रंश की प्रवत्ति लगभग छठी शताब्दी से प्रारंभ होती है ४२३१ , ४३१४ आदि।
लेकिन भाष्यों में अपभ्रंश के प्रयोग ढूँढने पर भी नहीं मिलते। यह निश्चित है कि आगमों पर लिखे गए व्याख्याग्रन्थों का इसके अतिरिक्त महाराष्ट्री का प्रभाव भी कम परिलक्षित होता है। क्रम इस प्रकार रहा है--नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका। भाष्यसाहित्य में वर्णित विषयवस्तु मद्राएँ, घटनाप्रसंग एवं लेकिन अलग-अलग ग्रन्थोंके व्याख्या-ग्रन्थों को लिखने में सांस्कृतिक तथ्य भी इसके रचनाकाल को चौथी, पाँचवीं शताब्दी इस क्रम में व्यत्यय भी हुआ है। उदाहरण के लिए पंचकल्प- से पूर्व या आगे का सिद्ध नहीं करते। अतः भाष्यकार का समय भाष्य की निम्न गाथा को प्रस्तुत किया जा सकता है-- विक्रम की चौथी, पाँचवीं शताब्दी होना चाहिए।
परिजण्णेसा भणिता, सुविणा देवीए पुण्फचूलाए। . भाष्य में वर्णित विषय अन्य ग्रन्थों में भी संक्रांत हुए हैं। नरगाण दंसणेणं, पव्वज्जाऽऽवस्सए वुत्ता॥१४ . जैसे व्यवहार के भेद (आज्ञा, श्रुत आदि) पुरुषों के प्रकार एवं
पुष्पचूला की कथा विशेषावश्यक-भाष्य में नहीं है, किन्त आलोचना से संबंधित अनेक प्रकरण ठाणं एवं भगवती में प्राप्त आवश्यकचूर्णि में है। इससे सिद्ध होता है है कि पंचकल्प -
* होते हैं। ये सभी प्रकरण आगम-संकलनकाल में व्यवहार से prioritonirodwidnidironditoriuonitoriadminird-M८६ Haramiriibdiritoribivoritoririramidabaddinidiadra
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - संग्रहीत किए गए हैं, ऐसा पूर्वापर के प्रकरण से प्रतीत होता है। - जीतकल्पभाष्य, २६०५ भाष्यसाहित्य की अनेक गाथाएँ दिगंबर-ग्रन्थों में भी संक्रांत हुई
४. बृहत्कल्पपीठिका, टी.पृ. २ हैं। भगवती-आराधना एवं मूलाचार में भाष्य-साहित्य की अनेक गाथाएँ शब्दशः मिलती हैं। व्याख्याग्रन्थों में भाष्य-साहित्य का
५. निशीथपीठिका, भूमिका, पृ. २ महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं ६. बृभा. भाग - ६, भूमिका पृ. २० सांस्कतिक दृष्टि सेअनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य भाष्यसाहित्य में मिलते ७. अंगत्तरनिकाय, १.२१३ हैं। भाष्यसाहित्य का अनुशीलन एवं पर्यवेक्षण अनुसंधान के क्षेत्र में अनेक नई दिशाएँ खोलने वाला होगा, ऐसा प्रतीत होता है।
८. व्यभा. २९५९
९. विशेषणवती, गा. ३३ सन्दर्भ
१०. व्यभा. २६३८ १. आवश्यक पर तीन भाष्यों का उल्लेख मिलता है- मूलभाष्य, भाष्य एवं विशेषावश्यकभाष्य।
११. जीतकल्प चूर्णि, पृ. १,२
१२. द्वितीय भद्रबाहु ने नियुक्तियों में परिवर्तन एवं परिवर्धन भी २. बृहत्कल्प पर भी बृहद् एवं लघु भाष्य लिखा गया। बृहद्भाष्य
किया है, जिनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है। तीसरे उद्देशक तक मिलता है, वह भी अपूर्ण है।
१४. पंचकल्पभाष्य, ६०९ ३. कप्पव्वनहाराणं उदधिसरिच्छाण तह णिसीहस्स। सुतरयणबिन्दुणवणीतभूतसारेस 'णातव्यो ।।
१५. दशवैकालिक अगस्त्यसिंहचूर्णि, भूमिका, पृ. १५-१७
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छेदसूत्र : एक अनुशीलन
मुनि दुलहराज....
आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण अंग एवं पूर्व इन दो छेदसूत्रों में निशीथ अधिक प्रतिष्ठित हुआ है। व्यवहारभागों में मिलता है। आर्यरक्षित ने आगम साहित्य को चार भाष्य के पाँचवे-छठे उद्देशक में निशीथ की महत्ता में अनेक अनुयोगों में विभक्त किया। वे विभाग ये हैं - १. चरणकरणानुयोग तथ्य प्रतिपादित हैं। २. धर्मकथानुयोग ३. गणितानुयोग ४. द्रव्यानुयोग।' आगम- व्यवहारभाष्य में आगामों के सत्र और अर्थ की बलवत्ता संकलन के समय आगमों को दो वर्षों में विभक्त किया गया- के विमर्श में सत्र के अर्थ को बलवान माना है। उसी प्रसंग में अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य। नंदी में आगमों का विभाग काल की।
अन्यान्य आगमों के अर्थ के संदर्भ में छेदसूत्रों के अर्थ को दृष्टि से भी किया गया है। प्रथम एवं अंतिम प्रहर में पढ़े जाने
बलवत्तर माना है। इसका कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं वाले आगम 'कालिक' तथा सभी प्रहरों में पढ़े जाने वाले आगम कि चारित्र में स्खलना होने पर या दोष लगने पर छेदसत्रों के 'उल्कालिक' कहलाते हैं। सबसे उत्तरवती वगीकरण में आगम आधार पर विशद्धि होती है. अतः पर्वगत को छोड़कर अर्थ की के चार विभाग मिलते हैं - अंग, उपांग, मूल एवं छेद। वर्तमान
दृष्टि से अन्य आगमों की अपेक्षा छेदसत्र बलवत्तर हैं। में आगमों का यही वर्गीकरण अधिक प्रसिद्ध है।
निशीथभाष्य में छेद-सूत्रों को उत्तमश्रुत कहा है। निशीथछेदसूत्रों का महत्त्व
चूर्णिकार कहते हैं कि इनमें प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन है, इनसे जैन धर्म ने आचारशद्धि पर बहत बल दिया। आचार- चारित्र की विशोधि होती है इसलिए छेदसूत्र उत्तमश्रुत है।' पालन में उन्होंने इतना सूक्ष्म निरूपण किया कि स्वप्न में भी छेदसूत्रों के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं। उनको यदि हिंसा या असत्यभाषण हो जाए तो उसका भी प्रायश्चित्त आलोचना करने का अधिकार है। छेदसूत्रों के व्याख्याग्रन्थों का करना चाहिए। आगमों में प्रकीर्ण रूप से साध्वाचार का वर्णन भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जो बृहत्कल्प एवं व्यवहार की मिलता है। समय के अंतराल में साध्वाचार के विधि-निषेध- नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी है। परक ग्रन्थों की स्वतंत्र अपेक्षा महसूस की जाने लगी। द्रव्य, छेदसत्र रहस्य.सत्र है। योनिप्राभत आदि ग्रंथों की भाँति क्षेत्र, काल आदि के अनुसार आचार संबंधी नियमों में भी परिवर्तन
इनकी गोपनीयता का निर्देश है। इनकी वाचना हर एक को नहीं आने लगा। परिस्थिति के अनुसार कुछ वैकल्पिक नियम भी
दी जाती थी। निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख मिलता है बनाए गए, जिन्हें अपवादमार्ग कहा गया।
__ कि जहाँ मृग (बाल, अज्ञानी एवं अगीतार्थ) साधु बैठे हों, वहाँ छेदसूत्रों में साधु की विविध आचार संहिताएँ तथा प्रसंगवश इनकी वाचना नहीं देनी चाहिए। लेकिन सूत्र का विच्छेद न हो अपवाद-मार्ग आदि का विधान है। ये सूत्र साधु-जीवन का इस दृष्टि से द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के आधार पर अपात्र को भी संविधान ही प्रस्तुत नहीं करते, किन्तु प्रमादवश स्खलना होने पर वाचना दी जा सकती है, ऐसा उल्लेख भी मिलता है। दण्ड का विधान भी करते हैं। इन्हें लौकिक भाषा में दण्ड संहिता
पंचकल्पभाष्य के अनुसार छेदसूत्रों की वाचना केवल तथा अध्यात्म की भाषा में प्रायश्चित्त-सूत्र कहा जा सकता है।
परिणामक शिष्य को दी जाती थी, अतिपरिणामक एवं छेदसूत्रों में प्रयुक्त 'कप्पई' शब्द से मुनि के लिए करणीय अपरिणामक को नहीं। अपरिणामक आदि शिष्यों को छेदसत्रों आचार तथा 'नो कप्पइ से अकरणीय या निषिद्ध आचार का की वाचना देने से वे उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं, जैसे मिटी के ज्ञान होता है। बौद्ध-परम्परा में आचार, अनुशासन एवं प्रायश्चि
कच्चे घड़े या अम्लरसयुक्त घड़े में दूध नष्ट हो जाता है।५० संबंधी विकीर्ण वर्णन विनय पिटक में तथा वैदिक परम्परा में ,
अगीतार्थ-बहुल संघ में छेदसूत्र की वाचना एकान्त में अभिशय्या श्रौत्रसूत्र एवं स्मृतिग्रन्थों में मिलता है।
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- यतीन्द सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य या नैषेधिकी में दी जाती थी, क्योंकि अगीतार्थ साधु उसे सुनकर नि!हण भी प्रत्याख्यान पूर्व से हुआ। इसीलिए कालान्तर कहीं विपरिणत होकर गच्छ से निकल न जाएँ।११
में निर्यहणकर्ता के रूप में भद्रबाह का नाम निशीथ के छेदसूत्रों का कर्तृत्व
साथ भी जुड़ गया।
विंटरनिट्स ने निशीथ को अर्वाचीन माना है तथा इसे छेदसूत्र पूर्वो से निर्मूढ हुए अतः इनका आगम-साहित्य में ।
संकलित रचना के रूप में स्वीकृत किया है।२० महत्त्वपूर्ण स्थान है। दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ - इन चारों छेदसूत्रों का नि!हण प्रत्याख्यान पूर्व की
विद्वानों के द्वारा कल्पना की गई है कि निशीथ का निर्ग्रहण तृतीय आचारवस्तु से हुआ, ऐसा उल्लेख नियुक्ति एवं भाष्य
विशाखगणि द्वारा किया गया, जो भद्रबाहु के समकालीन थे। साहित्य में मिलता है।९२ दशाश्रुत, कल्प एवं व्यवहार का निर्ग्रहण दशाश्रुतस्कंध के नि!हण के बारे में भी एक प्रश्नचिन्ह भद्रबाहु ने किया, यह भी अनेक स्थानों पर निर्दिष्ट है।१३ किन्तु उपस्थित होता है कि इसमें महावीर का जीवन एवं स्थविरावलि निशीथ के कर्तृत्व के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ है, अतः यह पूर्वो से उद्धृत कैसे माना जा सकता है? इस प्रश्न विद्वान् निशीथ को भी भद्रबाहु द्वारा निर्मूढ मानते हैं, लेकिन यह के समाधान में संभावना की जा सकती है कि इसमें कुछ अंश बात तर्क-संगत नहीं लगती। निशीथ चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु बाद में जोड़ दिया गया हो। द्वारा नियूढ कृति नहीं है, इस मत का पुष्टि में कुछ हेतु प्रस्तुत छेदसत्रों का निर्यहण क्यों किया गया. इस विषय में भाष्य किए जा सकते हैं -
-साहित्य में विस्तृत चर्चा मिलती है। भाष्यकार के अनुसार दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति एवं पंचकल्प भाष्य में भद्रबाहु नौवाँ पूर्व सागर की भाँति विशाल है। उसकी सतत् स्मृति में की दशा, कल्प एवं व्यवहार - इन तीनों सूत्रों के कर्ता के रूप में बार-बार परावर्तन की अपेक्षा रहती है, अन्यथा वह विस्मृत हो वंदना की है, वहाँ आचारप्रकल्प निशीथ का उल्लेख नहीं है।१४ जाता है।२१ जब भद्रबाहु ने धृति, संहनन, वीर्य, शारीरिक बल, - व्यवहार-सत्र में जहाँ आगम-अध्ययन की काल-सीमा सत्त्व, श्रद्धा, उत्साह एवं पराक्रम की क्षीणता देखी तब चारित्र के निर्धारण का प्रसंग है, वहाँ भी दशाश्रुत, व्यवहार एवं
की विशुद्धि एवं रक्षा के लिए दशाश्रुतस्कंध, कल्प एवं व्यवहार कल्प का नाम एक साथ आता है।१५ आवश्यकसूत्र में
का नि!हण किया गया।२२ इसका दूसरा हेतु बताते हुए भाष्यकार भी इन तीन ग्रन्थों के उद्देशकों का ही एक साथ उल्लेख कहते हैं कि चरणकरणानुयोग के व्यवच्छेद होने से चारित्र का मिलता है।९६ निशीथ को इनके साथ न जोड़कर पृथक्
अभाव हो जाएगा, अतः चरणकरणानुयोग की अव्यवच्छित्ति एवं उल्लेख किया गया है।
चारित्र की रक्षा के लिए भद्रबाहु ने इन ग्रन्थों का निर्गृहण किया।२३ श्रुतव्यवहारी के प्रसंग में भाष्यकार ने कल्प और व्यवहार
चूर्णिकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि भद्रबाहु ने आयुबल, इन दो ग्रन्थों तथा इनकी निर्यक्तियों के ज्ञाता को धारणाबल आदि की क्षीणता देखकर दशा, कल्प एवं व्यवहार श्रुतव्यवहारी के रूप में स्वीकृत किया है। वहाँ निशीथ/ का नियूँहण किया, किन्तु आहार, उपाधि, कीर्ति या प्रशंसा आचारप्रकल्प का उल्लेख नहीं है।१८ निशीथ की महत्ता- आदि का
न आदि के लिए नहीं।२४ सूचक अनेक गाथाएँ व्यभा. में हैं, पर वे आचार्यों ने बाद निर्वृहण को प्रसंग को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए भाष्यकार में जोड़ी हैं, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि उत्तरकाल में कहते हैं - जैसे सुगंधित फूलों से युक्त कल्पवृक्ष पर चढ़कर निशीथ बहुत प्रतिष्ठित हुआ है। अन्यथा कल्प और व्यवहार फूल इकट्ठे करने में कुछ व्यक्ति असमर्थ होते हैं। उन व्यक्तियों
के साथ भाष्यकार अवश्य निशीथ का नाम जोड़ते। पर अनुकम्पा करके कोई शक्तिशाली व्यक्ति उस पर चढ़ता है . निशीथ का नि!हण भद्रबाहु ने किया, यह उल्लेख केवल और फूलों को चुनकर अक्षम लोगों को दे देता है। उसी प्रकार
पंचकल्पचर्णि में मिलता है।१९ इसका कारण संभवतः चतुर्दशपूर्व रूप कल्पवृक्ष पर भद्रबाह ने आरोहण किया और यह रहा होगा कि अन्य छेदग्रन्थों की भांति निशीथ का अनुकम्पावश छेदग्रन्थों का संग्रथन किया। इस प्रसंग में भाष्यकार
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यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य ने केशवभेरी एवं वैद्य के दृष्टान्त का भी उल्लेख किया है।२६
मिलता है।३२ पदविभाग और छेद ये दोनों शब्द एक ही अर्थ
के द्योतक हैं। छेदसूत्रों का नामकरण
छेदसूत्र में सभी सूत्र स्वतंत्र हैं। एक सूत्र का दूसरे सूत्र के नंदी में व्यवहार, बृहत्कल्प आदि ग्रंथों को कालिकश्रुत
साथ विशेष संबंध नहीं है तथा व्याख्या भी छेद या के अन्तर्गत रखा है। गोम्मटसार धवला एवं तत्त्वार्थसूत्र२९
विभाग दृष्टि से की गई है। इसलिए भी इनको छेदसूत्र कहा में व्यवहार आदि ग्रन्थों को अंगबाह्य में समाविष्ट किया है। ऐसा
जा सकता है। प्रतीत होता है कि जब भद्रबाहु ने नि!हण किया तब तक संभवत: छेदग्रन्थों जैसा विभाग इन ग्रन्थों के लिए नहीं हुआ था।
नामकरण के बारे में आचार्य तुलसी (वर्तमान गणाधिपति बाद में इन ग्रन्थों को विशेष महत्त्व देने हेत इनको एक नवीन तुलसी) ने एक नई कल्पना प्रस्तुत की है - "छेदसूत्र को वर्गीकरण के अन्तर्गत समाविष्ट कर दिया गया। फिर भी 'छेदसूत्र' उत्तमश्रु
उत्तमश्रुत माना है। 'उत्तम श्रुत' शब्द पर विचार करते समय एक नाम कैसे प्रचलित हुआ, इसका कोई पुष्ट प्रमाण प्राचीन साहित्य
कल्पना होती है कि जिसे हम 'छेयसुत्त' मानते हैं वह कहीं में नहीं मिलता। छेदसूत्र का सबसे प्राचीन उल्लेख
'छकश्रत' तो नहीं है? छेकश्रत अर्थात् कल्याणश्रत या उत्तम आवश्यकनियुक्ति में मिलता है।३०
श्रुत। दशाश्रुतस्कन्ध को छेदसूत्र का मुख्य ग्रन्थ माना गया है।३३
इससे 'छेयसुत्त' का 'छेकसूत्र' होना अस्वाभाविक नहीं लगता। _ विद्वानों ने अनुमान के आधार पर इसके नामकरण की दशवैकालिक (४/११) में 'जं छेयं तं समायरे' पद प्राप्त हैं। यौक्तिकता पर अनेक हेतु प्रस्तुत किए हैं। छेदसूत्रों के नामकरण इससे 'छेय' शब्द के 'छेक' होने की पुष्टि होती है।"३४ के बारे में निम्न विकल्पों को प्रस्तत किया जा सकता है -
जिससे नियमों में बाधा न आती हो तथा निर्मलता की शूबिंग के अनुसार प्रायश्चित्त के दस भेदों में 'छेद' और वृद्धि होती हो, उसे छेद कहते हैं।३५ पंचवस्तु की टीका में 'मूल' के आधार पर आगमों का वर्गीकरण 'छेद' और हरिभद्र द्वारा किए गए इस अर्थ के आधार पर यह अनुमान 'मूल' के रूप में प्रसिद्ध हो गया।३१ इस अनुमान की किया जा सकता है कि जो ग्रन्थ निर्मलता एवं पवित्रता कसौटी पर छेदसूत्र तो विषय-वस्तु की दृष्टि से खरे उतरते हैं। के वाहक हैं, वे छेदसूत्र हैं। अतः इन ग्रन्थों का छेद लेकिन वर्तमान में उपलब्ध मूलसूत्रों की 'मूल' प्रायश्चित्त से नामकरण सार्थक लगता है। कोई संगति नहीं बैठती।
वर्तमान में उपलब्ध चार छेदसूत्रों का नामकरण भी सार्थक सामयिक चारित्र स्वल्पकालिक है, अतः प्रायश्चित्त का
हुआ है। आयारदशा में साधुजीवन के आचार की विविध अवस्थाओं संबंध छेदोपस्थापनीय चारित्र से अधिक है। छेदसूत्र
का वर्णन है। यह दस अध्ययनों में निबद्ध है, अत: इसका नाम तत्चारित्र संबंधी प्रायश्चित्त का विधान करते हैं, संभवतः ।
'दशाश्रुतस्कंध' भी है। कल्प का अर्थ है - आचार। जिसमें विस्तृत
रूप में साधु के विधि-निषेध सूचक आचार का वर्णन है, वह इसीलिए इनका नाम 'छेदसूत्र' पड़ा होगा।
'बृहत्कल्प है। बृहत्कल्प नाम की सार्थकता का विस्तृत विवेचन दिगम्बर ग्रन्थ 'छेदपिंड' में प्रायश्चित्त के आठ पर्यायवाची मलयगिरि ने बृहत्कल्प-भाष्य की पीठिका में किया है।३६ नाम हैं। उनमें एक नाम 'छेद' है। श्वेताम्बर-परम्परा में
__ व्यवहार प्रायश्चित्त सूत्र है। इसमें पाँच व्यवहारों का मुख्य प्रायश्चित्त के दस भेदों में सातवाँ प्रायश्चित्त 'छेद' है। अंतिम
वर्णन होने के कारण इसका नाम 'व्यवहार' रखा गया। तीन प्रायश्चित्त साधवेश से मक्त होकर वहन किये जाते हैं। लेकिन श्रमण पर्याय में होने वाला अंतिम प्रायश्चित्त 'छेद'
आचारप्रकल्प में आचार के विविध प्रकल्पों का वर्णन है।
इसका दूसरा नाम निशीथ भी है। निशीथ का अर्थ है - अर्धरात्रि या है। स्खलना होने पर जो चारित्र के छेद-काटने का विधान
अंधकार। निशीथ भाष्य के अनुसार 'निशीथ' की वाचना अर्धरात्रि करते हैं, वे ग्रन्थ छेदसूत्र हैं।
या अप्रकाश में दी जाती थी इसलिए इसका नाम निशीथ प्रसिद्ध हो आवश्यक की मलयगिरि टीका में समाचारी के प्रकरण गया।३७ इसका संक्षिप्त नाम 'प्रकल्प' भी है। में छेदसूत्रों के लिए पदविभाग सामाचारी शब्द का प्रयोग
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य छेदसूत्रों की संख्या
किया गया है। जीतकल्प, पंचकल्प और महानिशीथ का उल्लेख छेदसूत्रों की संख्या के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। जीतकल्प. दिगम्बर-साहित्य में नहीं मिलता। चूर्णि में छेदसूत्रों के रूप में निम्न ग्रंथों का उल्लेख हुआ है -
समवाओ में दशाश्रत को छेदसूत्र में प्रथम स्थान दिया कल्प, व्यवहार, कल्पिकाकल्पिक, क्षुल्लकल्प, महाकल्प, गया है।६ चूर्णिकार ने छेदसूत्रों में दशाश्रुतस्कन्ध को प्रमुख निशीथ आदि।३८ आदि शब्द से यहाँ संभवतः दशाश्रतस्कंध रूप से स्वीकार किया है। इसको प्रमुखता देने का संभवत: यही ग्रन्थ का संकेत होना चाहिए। कल्पिकाकल्पिक, महाकल्प एवं कारण रहा होगा कि इसमें मुनि के लिए आचरणीय एवं अनाचरणीय क्षुल्लकल्प आदि ग्रन्थ आज अनपलब्ध हैं। पर इतना नि:संदेह तथ्यों का क्रमबद्ध वर्णन है। शेष तीन छेदसत्र इसी के उपजीवी हैं। कहा जा सकता है कि ये प्रायश्चित्त-सूत्र थे और इनकी गणना विंटरनिट्स के अनुसार व्यवहार बृहत्कल्प का पूरक है। छेदसूत्रों में होती थी।
बृहत्कल्प में प्रायश्चित्त-योग्य कार्यों का निर्देश है तथा व्यवहार आवश्यकनियुक्ति में छेदसूत्रों के साथ महाकाव्य का उसकी प्रयोग-भूमि है। अर्थात् उसमें प्रायश्चित्त निर्दिष्ट हैं। उनके उल्लेख मिलता है।३९ संभव है तब तक इस ग्रन्थ का अस्तित्व अनुसार निशीथ की रचना अर्वाचीन है। निशीथ में बहुत बड़ा भाग था। सामाचारी शतक में छेदसूत्रों के रूप में छह ग्रन्थों के नामों व्यवहार से तथा कुछ भाग प्रथम और द्वितीय चूला से लिया गया है। का उल्लेख मिलता है। दशाश्रुत, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ,
कुछ आचार्य दशाश्रुत, बृहत्कल्प एवं व्यवहार, इन तीनों जीतकल्प, महानिशीथ। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने जीतकल्प को एक श्रृतस्कंध ही मानते हैं तथा कुछ आचार्य दशाश्रत को के स्थान पर पंचकल्प को छेदसूत्रों के अन्तर्गत माना है। एक तथा कल्प और व्यवहार को दूसरे श्रुतस्कंध के रूप में
हीरालाल कापडिया के अनुसार पंचकल्प का लोप होने स्वीकार करते हैं।४८ के बाद जीतकल्प की परिगणना छेदसूत्रों में होने लगा। कुछ टपर किस शनयोग में ? मुनियों का कहना है कि पंचकल्प कभी बृहत्कल्पभाष्य का ही एक अंश था पर बाद में इसको अलग कर दिया गया जैसे अनुयोग विशिष्ट व्याख्या पद्धति है। उसके मुख्य चार भेद ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति को।४३ ।।
हैं- १. चरणकरण, २. धर्मकथा, ३. गणित, ४. द्रव्य। आर्यरक्षित
से पूर्व अपृथक्त्वानुयोग प्रचलित था। उसमें प्रत्येक आगम के वर्तमान में पंचकल्प अनुपलब्ध है। जैन -ग्रंथावली के
सूत्रों की व्याख्या चरणकरण, धर्म, गणित तथा द्रव्य की दृष्टि से अनुसार १७वीं शती के पूर्वार्द्ध तक इसका अस्तित्व था।
की जाती थी। वह प्रत्येक के लिए सुगम नहीं होती थी। आर्यरक्षित किन्तु निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि इसका लोप
ने इस जटिलता और स्मृतिबल की क्षीणता को देखकर कब हुआ? पंचकल्प भाष्य की विषयवस्तु देखकर ऐसा लगता
पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन कर दिया। उन्होंने विषयगत वर्गीकरण है कि किसी समय में पंचकल्प की गणना छेदसत्रों में रही होगी।
के आधार पर आगमों को चार अनुयोगों में बाँटा - १. विंटरनिट्स के अनुसार छेदसूत्रों के प्रणयन का क्रम इस चरणकरणानयोग, २. धर्मकथानयोग, ३. गणितानयोग, ४. द्रव्यानयोग। प्रकार है - कल्प, व्यवहार, निशीथ, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति
आचारप्रधान होने के कारण छेदसूत्रों का समावेश महानिशीथ।५ विंटरनिट्स ने छेदसूत्रों में जीतकल्प का समावेश
चरणकरणानुयोग में किया गया। इस सन्दर्भ में निशीथचूर्णि में नहीं किया। जीतकल्प की रचना नंदी के बाद हुई अत: उसमें
शिष्य आचार्य से प्रश्न पूछता है कि निशीथ आचारांग की पंचमचूला जीतकल्प का उल्लेख नहीं मिलता। पिंडनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति
होने के कारण उसका समावेश अंग में है तथा वह चरणकरणानुयोग साधु के नियमों का वर्णन करती हैं इसीलिए संभवत: विंटरनिट्स
के अन्तर्गत है, लेकिन छेद सूत्र अंगबाह्य हैं वे किस अनुयोग के ने इन दोनों का छेदसूत्रों के अन्तर्गत समावेश किया है।
अन्तर्गत होंगे? निशीथ-भाष्यकार ने छेदसूत्रों का समावेश दिगम्बर-साहित्य में कल्प, व्यवहार और निशीथ-इन तीन चरणकरणानयोग के अन्तर्गत किया है। ग्रन्थों का ही उल्लेख मिलता है, जिनका समावेश अंगबाह्य में
pootomorrorderdrobardwardroborderindiadrid-९१kidniridiroonbroideodworkedwidwobooranorambanda
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कहा जा सकता है कि आगम - साहित्य में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार में स्खलना होने पर ये ग्रन्थ नियमोंउपनियमों का निर्धारण करते हैं, अतः नीतिशास्त्र की दृष्टि से भी इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
सन्दर्भ
१. दशवैकालिक अगस्त्यसिंह, चूर्णि पृ. २
२.
नंदी सू. ७७, ७८
३.
व्यवहारभाष्य १८२९ : जम्हा तु होति सोधी, छेदसुयत्थेण
खलितचरणस्स |
४.
५.
६.
७.
८.
९.
यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ- जैन आगम एवं साहित्य
तम्हा छेदयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं ॥
निशीथभाष्य ६१८४, चू. पृ. २५३
निशीथभाष्य ६३९५, व्यभा. ३२०
व्यभा ४४३२-३५
निभा ५९-४७ चू. पृ. १९०, व्यभा. ६४६ । टी. प. ५८
निभा. ६२२७ चू. पृ. २६१
पंचकल्पभाष्य १२२३ : णाऊणं छेदसुतं, परिणामगे होतिं
दायव्वं ।
व्यभा- ४१००, ४१०१
१०.
११. व्यभा १७३९
१२
(क) व्यभा. ४१७३;
सव्वं पिय पच्छित्तं, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थुम्मि | तत्तो च्चिय निज्जूढं, पकप्पकप्पो य ववहारो ।।
(ख) पंकभा. २३ : आयारदसा कप्पो, ववहारो
नवमपुव्वणीसंदो।
(ग) आचारांगनिर्युक्ति २९१ :
आयारकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ । आयारनामधेज्जा, वीसइमा पाहुडच्छेदा।
१३. (क) दशाश्रुतस्कंधनिर्युक्ति
वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिमसगलसुयनाणीं । सुत्तस्स कारगमिसिं, दसांसु कप्पे य ववहारे । ।
(ख) पंकभा. १२ : तो सुत्तकारओ खलु, स भवति दसकप्पववहारे ।
१४. दश्रुनि १, पंकभा- १ ।
१५. व्यवहारसूत्र १०/२७ पंचवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ दसाकप्पववहारे उद्दिसित्तए ।
- ९२
For Private
१६. आवश्यकसूत्र, ८ छव्वीसाए दसाकप्पववहाराणं उद्देसणकाले हि ।
१७. व्यवहारसूत्र १० / २५ : तिवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारकप्पं नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए । १८. व्यभा ४४३२-४४३६
१९. पंचकल्पचूर्णि (अप्रकाशित)
२०. A History of ... p. 446.
२१.
व्यभा. १७३७
२२.
पंकभा. २६-२९
२३.
पंकभा. ४२
२४. दशाश्रुतस्कंधचूर्णि, पृ. ३
२५. पंकभा. ४३-४६
पंकभा. ४७, ४८
गोम्मटसार, जीवकाण्ड ३६७, ३६८
२६.
२७.
२८.
२९.
३०.
३१. कल्पसूत्र, भू. पृ. ८
३२. आवनि. ६६५ मटी पृ. ३४१: पदविभागसामाचारी
३३.
३४.
धवला पु. १, पृ. ९६
तत्त्वार्थसूत्र २/२०
आवश्यकनिर्युक्ति ७७७
३६.
३७.
३८.
निसीहज्झयणं, भूमिका पृ. ३, ४
३५. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भा. २, पृ. ३०६, बज्झाणुट्ठाणेणं,
जेण ण बहिज्ज तयं णियमा ।
३९.
४०.
छेदसूत्राणि ।
दश्रुचू. पृ. २। इमं पुण छेयसुत्तपमुहभूतं ।
संभव य परिसुद्धं । सो पुण धम्मम्मि छेउ त्ति ।।
बृहत्कल्पभाष्य- पीठिका, पृ. ४
निभा.६९
जीतकल्पचूर्णि पृ. १. कप्प - ववहार कप्पियाकप्पिय चुल्लकप्प - महाकप्पसुयं
निसीहाइएसु छेदसुत्तेसु अइवित्थेरेण पच्छित्तं भणियं ।
आवनि. ७७७, विभा. २२९५
जैनधर्म पृ. २५९
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४१. A History of the canonical Literature of the Jains, Page 37 42. A Hisotry of the canonical Literature of the Jains, Page 36 43. A History of the canonical Literature of the Jains, Page 36 44. A History... Page 464
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भाष्य और भाष्यकार
डॉ. मोहनलाल मेहता....
आगमों की प्राचीनतम पद्यात्मक टीकाएँ नियुक्तियों में ६४९० गाथाएँ हैं। पंचकल्प-महाभाष्य की गाथासंख्या २५७४ के रूप में प्रसिद्ध हैं। नियुक्तियों की व्याख्यान-शैली बहुत गूढ़ है। व्यवहारभाष्य में ४६२९ गाथाएँ हैं। निशीथभाष्य में लगभग एवं संकोचशील है। किसी भी विषय का जितने विस्तार से ६५०० गाथाएँ हैं। जीतकल्पभाष्य की गाथासंख्या २६०६ है। विचार होना चाहिए, उसका उसमें अभाव है। इसका कारण यही ओघनियुक्ति पर दो भाष्य हैं जिनमें से एक की गाथासंख्या ३२२ है कि उनका मुख्य उद्देश्य पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या तथा दूसरे की २५१७ है। पिण्डनियुक्ति-भाष्य में ४६ गाथाएँ हैं। करना है, न कि किसी विषय का विस्तृत विवेचन। यही कारण
थाष्यकार है कि नियुक्तियों की अनेक बातें बिना आगे की व्याख्याओं की सहायता के सरलता से समझ में नहीं आती। नियुक्तियों के
उपलब्ध भाष्यों की प्रतियों के आधार पर केवल दो गूढार्थ को प्रकट रूप में प्रस्तुत करने के लिए आगे के आचार्यों भाष्यकारों के नाम का पता लगता है। वे हैं आचार्य जिनभद्र ने उन पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखना आवश्यक समझा। इस और संघदासगणि। आचार्य जिनभद्र ने दो भाष्य लिखे -
विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पभाष्य। संघदासगणि के भी पद्यात्मक व्याख्याएँ लिखी गईं वे भाष्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। दो भाष्य हैं - बृहत्कल्प-लघुभाष्य और पंचकल्प-महाभाष्य। नियुक्तियों की भाँति भाष्य भी प्राकृत में ही हैं।
आचार्य जिनभद्र भाष्य
आचार्य जिनभद्र' का अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के कारण जिस प्रकार प्रत्येक आगम ग्रन्थ पर निर्यक्ति न लिखी जैन-परम्परा के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। इतना होते हुए जा सकी उसी प्रकार प्रत्येक निर्यक्ति पर भाष्य भी नहीं लिखा भी आश्चर्य इस बात का है कि उनके जीवन की घटनाओं के गया। निम्नलिखित आगम ग्रन्थों पर भाष्य लिखे गए हैं - १.
विषय में जैन-ग्रन्थों में कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। उनके आवश्यक २. दशवैकालिक ३. उत्तराध्ययन ४. बृहत्कल्प ५.
जन्म और शिष्यत्व के विषय में परस्पर विरोधी उल्लेख मिलते पंचकल्प ६. व्यवहार ७. निशीथ ८.जीतकल्प ९. ओघनिर्यक्ति हैं। ये उल्लेख बहुत प्राचीन नहीं है अपितु १५वीं या १६वीं १०. पिण्डनियुक्ति।
शताब्दी की पट्टावलियों में हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि
आचार्य जिनभद्र को पट्टपरंपरा में सम्यक् स्थान नहीं मिला। ___ आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य लिखे गए हैं - १. मूलभाष्य
उनके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों तथा उनके आधार पर लिखे गए विवरणों २. भाष्य और ३. विशेषावश्यकभाष्य। प्रथम दो भाष्य बहुत
को देखकर ही बाद के आचार्यों ने उन्हें उचित महत्त्व दिया तथा ही संक्षिप्त रूप में लिखे गए और उनकी अनेक गाथाएँ
आचार्य-परम्परा में सम्मिलित करने का प्रयास किया। चूंकि विशेषावश्यकभाष्य में सम्मिलित कर ली गईं। इस प्रकार विशेषावश्यकभाष्य को तीनों भाष्यों का प्रतिनिधि माना जा
इस प्रयास में वास्तविकता की मात्रा अधिक न थी अत: यह सकता है, जो आज भी विद्यमान है। यह भाष्य पूरे आवश्यकसूत्र
स्वाभाविक है कि विभिन्न आचार्यों के उल्लेखों में मतभेद हो। पर न होकर केवल उसके प्रथम अध्ययन सामयिक पर है।
यही कारण है कि उनके संबंध में यह भी उल्लेख मिलता है कि एक अध्ययन पर होते हुए भी इसमें ३६०३ गाथाएँ हैं। व
वे आचार्य हरिभद्र के पट्ट पर बैठे। दशवैकालिकभाष्य में ६३ गाथाएँ हैं। उत्तराध्ययनभाष्य भी बहुत आचार्य जिनभद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य की प्रति शक छोटा है। इसमें केवल ४५ गाथाएँ हैं। बृहकल्प पर दो भाष्य हैं संवत् ५३१ में लिखी गई तथा वलभी के एक जैन-मंदिर में - बृहत् और लघु। बृहद्भाष्य पूरा उपलब्ध नहीं है। लघुभाष्य समर्पित की गई। इस घटना से यह प्रतीत होता है कि आचार्य ఆరురురురురురువారం-ord Ramanananda
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यतीन्द्र सुरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य
जिनभद्र का वलभी से कोई संबंध अवश्य होना चाहिए । आचार्य जिनप्रभ लिखते हैं कि आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने मथुरा में देवनिर्मित स्तूप के देव की आराधना एक पक्ष की तपस्या द्वारा की और दीमक द्वारा खाए हुए महानिशीथ सूत्र का उद्धार किया । इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य जिनभद्र का संबंध वलभी के अतिरिक्त मथुरा से भी है ।
डॉ. उमाकांत प्रेमानंद शाह ने अंकोटक-अकोटा गाँव से प्राप्त हुई दो प्रतिमाओं के अध्ययन के आधार पर यह सिद्ध किया है कि ये प्रतिमाएँ ई. सन् ५५० से ६०० तक के काल की हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि इन प्रतिमाओं के लेखों में जिन आचार्य जिनभद्र का नाम है, वे विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता क्षमाश्रमण आचार्य जिनभद्र ही हैं। उनकी वाचना के अनुसार एक मूर्ति के पद्मासन के पिछले भाग में 'ॐ देवधर्मोयं निवृत्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य' ऐसा लेख है और दूसरी मूर्ति के आभामंडल में 'ॐ निवृत्तिकुले जिनभद्र वाचनाचार्यस्य' ऐसा लेख है। इन लेखों से तीन बातें फलित होती हैं । १. आचार्य जिनभद्र ने इन प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया होगा २. उनके कुल का नाम निवृत्तिकुल था ३. उन्हें वाचनाचार्य कहा जाता था। चूँकि ये मूर्तियाँ अंकोट्टक में मिली है, अतः यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय भड़ौच के आसपास भी जैनों का प्रभाव रहा होगा और आचार्य जिनभद्र ने इस क्षेत्र में भी विहार किया होगा । उपर्युक्त उल्लेखों में आचार्य जिनभद्र को क्षमाश्रमण न कहकर वाचनाचार्य इसलिए कहा गया है कि परम्परा के अनुसार वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर तथा वाचक एकार्थक शब्द माने गए हैं। " वाचक और वाचनाचार्य भी क हैं, अतः वाचनाचार्य और क्षमाश्रमण शब्द वास्तव में एक ही अर्थ के सूचक हैं।" इनमें से एक का प्रयोग करने से दूसरे का प्रयोजन भी सिद्ध हो ही जाता है।
आचार्य जिनभद्र निवृत्तिकल के थे। इसका प्रमाण उपर्युक्त लेखों के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं मिलता। यह निवृत्तिकुल कैसे प्रसिद्ध हुआ, इसके लिए निम्नांकित कथानक का आधार लिया जा सकता है।
भगवान महावीर के १७वें पट्ट पर आचार्य वज्रसेन हुए थे। उन्होंने सोपारक नगर के सेठ जिनदत्त और सेठानी ईश्वरी के चार पुत्रों को दीक्षा दी थी। उनके नाम इस प्रकार थे
नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर । आगे जाकर इनके नाम से भिन्न-भिन्न चार प्रकार की परम्पराएँ प्रचलिति हुईं और उनकी नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति तथा विद्याधर कुलों के रूप में प्रसिद्ध हुई । "
इन तथ्यों के अतिरिक्त उनके जीवन से संबंधित और कोई विशेष बात नहीं मिलती। हाँ, उनके गुणों का वर्णन अवश्य उपलब्ध होता है। जीतकल्पचूर्णि के कर्ता सिद्धसेनगण अपन चूर्णि के प्रारंभ में आचार्य जिनभद्र की स्तुति करते हुए उनके गुणों का इस प्रकार वर्णन करते हैं
-
'जो अनुयोगधर, युगप्रधान प्रधान ज्ञानियों से बहुमत, सर्व श्रुति और शास्त्र में कुशल तथा दर्शन - ज्ञानोपयोग के मार्गरक्षक हैं। जिस प्रकार कमल की सुगंध के वश में होकर भ्रमर कमल की उपासना करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूप मकरंद पिपासु मुनि जिनके मुखरूप निर्झर से प्रवाहित ज्ञानरूप अमृत का सर्वदा सेवन करते हैं।
स्व-समय तथा पर- समय के आगम, लिपि, गणित, छन्द और शब्दशास्त्रों पर किए गए व्याख्यानों से निर्मित जिनका अनुपम यशपटह दसों दिशाओं में बज रहा है। जिन्होंने अपनी अनुपम बुद्धि के प्रभाव ज्ञान, ज्ञानी, हेतु, प्रमाण तथा गणधरवाद का सविशेष विवेचन विशेषावश्यक में ग्रन्थनिबद्ध किया है। जिन्होंने छेदसूत्रों के अर्थ के आधार पर पुरुषविशेष के पृथक्करण के अनुसार प्रायश्चित्त की विधि का विधान करने वाले जीतकल्पसूत्र की रचना की है। ऐसे पर समय के सिद्धान्तों में निपुण, संयमशील श्रमणों के मार्ग के अनुगामी और क्षमाश्रमणों निधानभूत जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को नमस्कार हो । ७
इस वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि जिनभद्रगणि आगमों अद्वितीय व्याख्याता थे, 'युगप्रधान ' पद के धारक थे, तत्कालीन प्रधान श्रुतधर भी इनका बहुमान करते थे, श्रुत और अन्य शास्त्रों के कुशल विद्वान् थे। जैन- परम्परा में जो ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग का विचार किया गया है, उसके ये समर्थक थे। इनकी सेवा में अनेक मुनि ज्ञानाभ्यास करने के लिए सदा उपस्थित रहते थे। भिन्न-भिन्न दर्शनों के शास्त्र, लिपिविद्या, गणितशास्त्र, छंदः शास्त्र, शब्दशास्त्र आदि के ये अनुपम पंडित थे। इन्होंने विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पसूत्र की रचना की थी । ये पर- सिद्धान्त में निपुण, स्वाचारपालन में प्रवण और सर्व जैन श्रमणों में प्रमुख थे। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी आचार्य जिनभद्र
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ- जैन आगम एवं साहित्य
का बहुमानपूर्वक नामोल्लेख किया है इनके लिये भाष्यसुधाम्भोधि, भाष्यपीयूषपंथोधि, भगवान् भाष्यकार दुःषमान्धकारनिमग्नजिनवचनप्रदीपप्रतिम दलितकुवादिप्रवाद, प्रशस्य भाष्यशस्य काश्यपीकल्प, त्रिभुवनजनप्रथितवचनोप निषद्वेदी, सन्देहसन्दोहशैलश्रृंगभंगदम्भोलि आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है।
आचार्य जिनभद्र के समय के विषय में मुनि श्री जिनविजयजी का मत है कि उनकी मुख्य कृति विशेषावश्यकभाष्य की जैसलमेर स्थित प्रति के अंत में मिलने वाली दो गाथाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस भाष्य की रचना विक्रम संवत् ६६६ में हुई । वे गाथाएँ इस प्रकार हैं
पच सता इगतीसा सगणिवकालस्स वट्टमाणस्स । तो चेत्तपुण्णिमाए बुधदिण सातिंमि णक्खत्ते ॥ रज्जेणु पालणपरेसी (लाइ ) च्चम्मि णरवरिन्दम्मि । वलभीणगरीए इमं महवि... मि जिणभणे ॥
मुनि श्री जिनविजयजी ने इन गाथाओं का अर्थ इस प्रकार है - शक संवत् ५३१ (विक्रम संवत् ६६६) में वलभी में जिस समय शीलादित्य राज्य करता था उस समय चैत्र शुक्ला पूर्णिमा, बुधवार और स्वाति नक्षत्र में विशेषावश्यकभाष्य की रचना पूर्ण हुई।
पं. श्री दलसुख मालवणिया इस मत का विरोध करते हैं। उनकी मान्यता है कि उपर्युक्त मत मूल गाथाओं से फलित नहीं होता। उनके मतानुसार इन गाथाओं में रचनाविषयक कोई उल्लेख नहीं है। वे कहते हैं कि खंडित अक्षरों को हम यदि किसी मंदिर का नाम मान लें, तो इन दोनों गाथाओं में कोई क्रियापद नहीं रह जाता। ऐसी अवस्था में उसकी शक संवत् ५३१ में रचना हुई, ऐसी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अधिक संभव यह है कि वह प्रति उस समय लिखी जाकर उस मंदिर में रखी गई हो। इस मत की पुष्टि के लिए कुछ प्रमाण भी दिए जा सकते हैं
-
१. ये गाथाएँ केवल जैसलमेर की प्रति में ही मिलती हैं, अन्य किसी प्रति में नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि ये गाथाएँ मूलभाष्य की न होकर प्रति लिखी जाने तथा उक्त मंदिर में रखी जाने के समय की सूचक है। जैसलमेर की प्रति मंदिर में रखी गई प्रति के आधार पर लिखी गई होगी।
२. यदि इन गाथाओं को रचनाकालसूचक माना जाए, तो
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इनकी रचना आचार्य जिनभद्र ने की है, यह भी मानना ही पड़ेगा | ऐसी स्थिति में इनकी टीका भी मिलनी चाहिए, परन्तु बात ऐसी नहीं है । आचार्य जिनभद्र द्वारा प्रारंभ में की गई विशेषावश्यकभाष्य की सर्वप्रथम टीका में अथवा कोट्याचार्य और मलधारी हेमचन्द्र की टीकाओं में इन गाथाओं की टीका नहीं मिलती। इतना ही नहीं इन गाथाओं के अस्तित्व की सूचना तक नहीं है।
इन प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि ये गाथाएँ आचार्य जिनभद्र ने न लिखी हों अपितु उस प्रति की नकल करने-कराने वालों ने लिखी हों। ऐसी स्थिति में यह भी स्वतः सिद्ध है कि इन गाथाओं में निर्दिष्ट समय रचनासमय नहीं अपितु प्रतिलेखनसमय है। कोट्याचार्य के उल्लेख से यह भी निश्चित है कि आचार्य जिनभद्र की अंतिम कृति विशेषाश्यकभाष्य है । इस भाष्य की स्वोपज्ञ टीका उनकी मृत्यु हो जाने के कारण पूर्ण न हो सकी । "
यदि विशेषावश्यकभाष्य की जैसलमेर स्थित उक्त प्रति का लेखन समय तक संवत् ५३१ अर्थात् विक्रम संवत् ६६६ माना जाए, तो विशेषावश्यकभाष्य का रचना समय इससे पूर्व ही मानना पड़ेगा। यह भी हम जानते हैं कि विशेषावश्यक भाष्य आचार्य जिनभद्र की अंतिम कृति थी और उसकी स्वोपज्ञ टीका भी उनकी मृत्यु के कारण अपूर्ण रही, ऐसी दशा में यदि यह माना जाए कि जिनभद्र का उत्तरकाल विक्रम संवत् ६५०-६६० के आसपास रहा होगा, तो अनुचित नहीं है ।
आचार्य जिनभद्र ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है। विशेषावश्यकभाष्य ( प्राकृत पद्य ) २. विशेषावश्यक भाष्यस्वोपज्ञवृत्ति (अपूर्ण संस्कृत - गद्य) ३. बृहत्संग्रहणी ( प्राकृत पद्य) ४. बृहत्क्षेत्रसमास ( प्राकृत-पद्य ५. विशेषणवती (प्राकृत पद्य) ६. जीतकल्प ( प्राकृत पद्य) ७. जीत कल्पभाष्य (प्राकृत पद्य) ८. अनुयोगद्वारचूर्णि (प्राकृतगद्य ) ९ ९. ध्यानशतक ( प्राकृत पद्य) । अन्तिम ग्रन्थ अर्थात् ध्यानशतक के कर्तृत्व के विषय में अभी विद्वानों को संदेह है। संघदासगणि
संघदासगण भी भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके दो भाष्य उपलब्ध है- बृहत्कल्प- लघुभाष्य और पंचकल्प महाभाष्य । मुनि श्री पुण्यविजयजी के मतानुसार संघदासगणि नाम के दो आचार्य हुए हैं एक वसुदेवहिंडि प्रथम खण्ड के प्रणेता और ఏడురూపాదరసాని
१.
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य दुसरे बृहत्कल्प-लघुभाष्य तथा पंचकल्प-महाभाष्य के प्रणेता। के प्रणेता, जिनका नाम अभी तक अज्ञात है, बृहत्कल्पचूर्णिकार ये दोनों आचार्य एक न होकर भिन्न-भिन्न हैं, क्योंकि वसुदेवहिंडि- तथा बृहत्कल्पविशेषचूर्णिकार से भी पीछे हुए हैं। इसका कारण मध्यम खण्ड के कर्ता आचार्य धर्मसेनगणि महत्तर के कथनानुसार यह है कि बृहत्कल्पलघुभाष्य की १६६१वीं गाथा में प्रतिलेखना वसुदेवहिंडि-प्रथम खंड के प्रणेता संघदासगणि 'वाचक' पद से के समय का निरूपण किया गया है। उसका व्याख्यान करते विभूषित थे, जबकि भाष्यप्रणेता संघदासगणि 'क्षमाश्रमण' हुए चूर्णिकार और विशेषचूर्णिकार ने जिन आदेशांतरों का अर्थात् पदालंकृत हैं।१० आचार्य जिनभद्र का परिचय देते समय हमने प्रतिलेखना के समय से संबंध रखने वाली विविध मान्यताओं देखा है कि केवल पदवी-भेद से व्यक्ति-भेद की कल्पना नहीं का उल्लेख किया है, उनसे भी और अधिक नई-नई मान्यताओं की जा सकती। एक ही व्यक्ति विविध समय में विविध पदवियाँ का संग्रह बृहत्कल्प-बृहद्भाष्यकार ने उपर्युक्त गाथा से संबंधित धारण कर सकता है। इतना ही नहीं, एक ही समय में एक ही महाभाष्य में किया है, जो याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य श्री व्यक्ति के लिए विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न पदवियों का प्रयोग हरिभद्रसूरिविरचित पंचवस्तुक प्रकरण की स्वोपज्ञवृत्ति में उपलब्ध किया जा सकता है।
है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि बृहत्कल्प-बृहद्भाष्य के कभी-कभी तो कुछ पदवियाँ परस्पर पर्यायवाची भी बन
प्रणेता बृहत्कल्पचूर्णि तथा विशेषचूर्णि के प्रणेताओं से पीछे हुए जाती हैं। ऐसी दशा में केवल 'वाचक' और 'क्षमाश्रमण' पदवियों
हैं। ये आचार्य हरिभद्रसूरि के कुछ पूर्ववर्ती अथवा समकालीन के आधार पर यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि इन
हैं। अब रही बात व्यवहारभाष्य के प्रणेता की। इस बात का
र पदवियों को धारण करने वाले संघदासगणि भिन्न-भिन्न व्यक्ति
कहीं उल्लेख नहीं मिलता कि व्यवहारभाष्य के प्रणेता कौन हैं थे। मुनि श्री पुण्य विजयजी ने भाष्यकार तथा वसुदेवहिंडिकार ।
और वे कब हुए हैं? इतना होते हुए भी यह निश्चयपूर्वक कहा आचार्यों को भिन्न-भिन्न सिद्ध करने के लिए एक और हेतु दिया ।
जा सकता है कि व्यवहार-भाष्यकार जिनभद्र के भी पूर्ववर्ती है१२ है. जो विशेष बलवान है। आचार्य जिनभद्र ने अपने विशेषणवती
इसका प्रमाण यह है कि आचार्य जिनभद्र ने अपने विशेषणवती ग्रन्थ में वसुदेवहिंडि नामक ग्रन्थ का अनेक बार उल्लेख किया ।
ग्रन्थ, में व्यवहार के नाम के साथ जिस विषय का उल्लेख है। इतना ही नहीं अपितु वसुदेवहिंडि प्रथम खण्ड में चित्रित
किया है, वह व्यवहारसूत्र के छठे उद्देशक के भाष्य में उपलब्ध ऋषभदेव-चरित की संग्रहणी गाथाएँ बनाकर उनका अपने ग्रन्थ में
होता है।१३ इसे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि समावेश भी किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि वसुदेवहिंडि
व्यवहारभाष्यकार आचार्य जिनभद्र से भी पहले हुए हैं। प्रथम खण्ड के प्रणेता संघदागणि आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती
जैन साहित्य का वृहद इतिहास, हैं।१९ भाष्यकार संघदासगणि भी आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती ही हैं।
भाग ३ से साभार
अन्य भाष्यकार
सन्दर्भ आचार्य जिनभद्र और संघदासगणि को छोड़कर अन्य १. गणधरवाद : प्रस्तावना, पृ. २७-४५ भाष्यकारों के नाम का पता अभी तक नहीं लग पाया है। यह तो
२. विविधतीर्थकल्प, पृ. १९ निश्चित है कि इन दो भाष्यकारों के अतिरिक्त अन्य भाष्यकार भी हुए हैं, जिन्होंने व्यवहारभाष्य आदि की रचना की है। मनिश्री ३. जैन-सत्य-प्रकाश, अंक १९६ पुण्यविजयजी के मतानुसार कम से कम चार भाष्यकार तो हुए ४. वही ही हैं। उनका कथन है कि एक श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण,
५. पं. श्री दलसुख मालवणिया ने इन शब्दों की मीमांसा इस प्रकार दूसेर श्री संघदासगणि क्षमाश्रमण, तीसरे व्यवहारभाष्य आदि के ।
की है"प्रारम्भ में 'वाचक' शब्द शास्त्र-विशारद के लिए विशेष प्रणेता और चौथे बृहत्कल्प बृहद्भाष्य आदि के रचयिता - इस
प्रचलित था।....आचार्य जिनभद्र का युग क्षमाश्रमणों का युग रहा प्रकार सामान्यतया चार आगमिक भाष्यकार हुए हैं। प्रथम दो
होगा , अतः सम्भव है कि उनके बाद के लेखकों ने उनके लिये भाष्यकारों के नाम तो हमें मालूम ही हैं। बृहत्कल्प-बृहद्भाष्य
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ- जैन आगम एवं साहित्य 'वाचनाचार्य के स्थान पर 'क्षमाश्रमण' पद का उल्लेख किया हो।" १९. वही, पृ. २०-२१
-
गणधरवाद : प्रस्तावना, पृ. ३१
६. जैन गुर्जर कविओ, भा. २, पृ. ६६९
७. जीतककल्पचूर्णि, गा. ५-१० ( जीतकल्पसूत्र : प्रस्तावना, पृ. ६-७)
८. गणधरवाद : प्रस्तावना, पृ. ३२-३३
९. यह चूर्णि अनुयोगद्वार के अंगुल पद पर है जो जिनदास की चूर्णि तथा हरिभद्र की वृत्ति में अक्षरशः उद्धृत है।
१०. नियुक्तिलघुभाष्य - वृत्युपेत - बृहत्कल्पसूत्र (षष्ठ भाग) : प्रस्तावना, पृ. २०
१२. वही, पृ. २१-२२
१३. सीहो सुदाढ नागो आसग्गीवो य होइ अण्णेसिं । सिंहो मिगद्धओ त्ति य होइ वसुदेवचरियम्मि॥ सीहो चेव सुदाढो, जं रायगिहम्मि कविलबडुओ ति । सीसड् बवहारे गोयमोवसमिओ स णिक्खतो ।।
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-
सीहो तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कबलि बडुगत्ति । जिणवर कहममणुबसम गोयमोबसम दिक्खा य ।।
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विशेषणवती, ३३-३४.
व्यवहारभाष्य १९२
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कीर्तिकौमुदी में प्रयुक्त छन्द
___ डॉ. अशोक कुमार सिंह....
सामेश्वरदेवकृत कीर्तिकौमुदी' का ऐतिहासिक महाकाव्यों उदाहरण - श्रिये सन्तु सतामेते, चिरं चातुर्भुजा भुजाः। में महत्त्वपूर्ण स्थान है। गुजरात के बघेल राजवंश के राणक
यामिका इव धर्मस्य, चत्वारः स्फुरदायुधाः।।९/९ लवण प्रसाद और वीरधवल के पुरोहित सोमेश्वरदेव और चालुक्य
हर प्रासादसन्दोहमनोहरमिदं सरः। राजा भीमदेव के अमात्य सहोदर वस्तुपाल और तेजपाल में
राजते नगरं तच्च, राजहंसैरलकृताम्।।७६/९।। . प्रगाढ़ मित्रता थी। वस्तुपाल के अपने प्रति सौहार्द्र, उसके अप्रतिम
उपेन्द्रवजा ४ (उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ) इसके प्रत्येक चरण में पराक्रम, साहित्यिक प्रतिभा तथा यश से अभिभूत सोमेश्वर ने
क्रमशः जगण, तगण और जगण के पश्चात् दो गुरु होते हैं। वस्तुपाल के गुणों की प्रशस्तिरूप 'कीर्तिकौमुदी' नामक काव्य
उदाहरण ५-सशंखचक्रः प्रथितप्रभुतावतारशाली कमलाभिरामः। सहित कई प्रशस्तियों की रचना की। सोमेश्वरदेव उच्चकोटि के
स एव कासारशिरोवतंसः कंसप्रहर्तुः प्रतिमा विभर्ति।।७७/९।। प्रतिभाशाली कवि थे, कीर्तिकौमुदी उनकी उत्कृष्ट साहित्यिक रचना
उपजाति ६ - (अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावपजातयस्ताः) है। इसमें प्रतिपाद्य तथ्यों का भी विशेष महत्त्व है, क्योंकि इसका नायक काव्य-प्रणेता का समकालीन है, चिरपरिचित है, प्रगाढ़
अर्थात् जिसमें इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा का लक्षण मिला मित्र है। कवि और काव्यनायक के समकालीन होने से काव्य की हो, उसका नाम उपजाति छन्द है। इंद्रवज्रा छन्द का लक्षण होता ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिकता बढ़ जाती है।
है-स्यादिन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ अर्थात जिसके प्रत्येक चरण में कीर्तिकौमुदी में नौ सर्ग हैं और इसके श्लोकों की कुल
दो तगण, एक जगण और दो गुरु हों तो उसको इंद्रवज्रा कहते हैं। संख्या ७२२ है। इसके सर्गों का नाम क्रमश: नगरवर्णन, नरेन्द्रवंश
उदाहरण ७ वर्णन, मन्त्रप्रतिष्ठा, दूतसमागम, युद्धवर्णन, पुरप्रमोदवर्णन,
उपेन्द्रवज्रा
इंद्रवज्रा चन्द्रोदयवर्णन, परमार्थविचार और यात्रासमागमन है।
न मानसे माद्यति मानस में पम्पा न सम्पादयति प्रमोदम्। इंद्रवज्रा
उपेन्द्रवज्रा सर्गानुसार कीर्तिकौमुदी में प्रयुक्त छन्दों का लक्षणसहित
अच्छोदमच्छोदकमध्यसारं सरोवरे राजति सिद्धभर्तुः विवेचन इस प्रकार है। प्रथम सर्ग नगर वर्णन में ८१ श्लोक हैं। इसमें आरंभ के ७६ श्लोकों में अनुष्टप छन्द प्रयुक्त हुआ है। इसके
इस श्लोक के प्रथम और चतुर्थ चरण उपेन्द्रवज्रा में होने और पश्चात ७७ से ८१ श्लोकों में क्रमशः उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, पष्पिताग्रा, द्वितीय और तृतीय चरण इंद्रवज्रा में होने से इसमें उपजाति छन्द है। मालिनी तथा शार्दूलविक्रीडित छन्द प्रयुक्त हुए हैं। इन छन्दों का पुष्पिताग्रा' लक्षण एवं कीर्तिकौमुदी के अनुसार उदाहरण निम्नवत् है -
अयुजि नयुगरेफतो यकारो। युजि च न जौ जरगाश्च पुष्पिताग्रा॥ अनुष्टुभ् - श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्।
यदि विषम पादों में दो नगणों से परे एक रगण, एक यगण द्विचतुःपादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥
हो और सम पादों में एक नगण, दो जगण, एक रगण और अंत अर्थात् अनुष्टुप् में आठ वर्ण वाले चार चरण होते हैं।
में एक गुरु हो तो वह छन्द पष्पिताग्रा कहा जाता है। इसके अनेक प्रकार होते हैं। अनुष्टप् के प्रत्येक चरण का पाँचवाँ वर्ण लघु, और छठा गुरु होता है। प्रथम और तृतीय चरण का प्रतितटघटितामिघातजातप्रसृमरफेनकदम्बकच्छलेन। सातवाँ वर्ण गुरु और द्वितीय और चतुर्थ चरण का लघु होता है। हरहसितसितद्युतिं स्वकार्ति, दिशिदिशि कन्दलयत्ययं तडागः।।6।। शेष वर्ण या तो लघु या गुरु होते हैं।
जैसे
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मालिनी १०
(ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः) जिसके चारों चरणों में क्रमशः नगण, नगण, मगण तथा यगण, यगण हों तथा आठ और सात अक्षरों पर यति हो, उसको मालिनी छन्द कहते हैं।
यथा १९
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
अलघुलहरिलिप्तव्योमभागे तडागे, तरलतुहिनपिण्डापाण्डुडिण्डीरदम्भात्। तरुणतरणितापव्यापदापन्नमुच्चैरिह विहरति ताराचक्रवालंविशालं ।। ८० ।। शार्दूलविक्रीडित १२
-
सूर्याश्वैर्मसजास्तताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम्" अर्थात् जिसमें मगण, सगण, जगण, सगण और तगण तथा अन्त में एक गुरु हो और बारह, सात वर्णों पर यति हो तो उस छन्द का नाम शार्दूलविक्रीडित होता है।
जैसे १३ -
इस सर्ग में प्रयुक्त छन्दों में से वसन्ततिलका छन्द को छोड़कर अन्य छन्दों का लक्षण प्रथम सर्ग के विवरण के क्रम में दिया जा चुका है। इसका लक्षण एवं कीर्तिकौमुदी से इसका उदाहरण निम्नवत् है-
वसन्ततिलक १४
ज्ञेयं वसन्ततिलकं तभजा जगौ गः ।
एकत्र स्फुटदब्जराजिरजसा बभ्रुकृतः सुभ्रुवां, प्रभ्रश्यत्कुचकुम्भकुकुंमरसैरन्यत्र रक्तीकृतः । अन्यत्र स्मितनीलनीरजलदलच्छायेन नीलीकृतः, श्रेयः सिन्धुरवर्णकम्बलधुरां धत्ते सरः शेखरः ॥81॥
यौवनेऽपि मदनान्न विक्रिया, नो धनेऽपि विनयव्यतिक्रमः ।
शालिनी १८
द्वितीय सर्ग ‘नरेन्द्रवंशवर्णन' में ११५ श्लोक हैं। इसके दुर्जनेऽपि न मनागनार्जवं केन वामिति नवाकृतिः कृता ॥६१/३॥ प्रारंभ में ८१ श्लोक अनुष्टुप् में, अठारह श्लोक (८२ से ९९ ) उपजाति में, तीन (१०० से १०२ ) इन्द्रवज्रा में, बारह (१०३११४) वसन्ततिलका में और अंतिम ११५वाँ श्लोक मालिनी छन्द में हैं।
जिसके चारों चरणों में क्रमशः तगण, भगण, जगण और दो गुरुवर्ण हों उसको वसन्ततिलक नामक छन्द कहते हैं। जैसे १५ -
मुण्डेव, खण्डितनिरंतरवृक्षखण्डा, निष्कुष्डलेव दलितोज्ज्वलवृत्तवप्रा । दूरदपास्तविषया विधवेव दैन्यमभ्येभ्रम्येति गूर्जरधराधिपराजधानी ।। १०४ / २ । ।
मन्त्रप्रतिष्ठा नामक तृतीय सर्ग में श्लोकों की संख्या ७९ है। इस सर्ग में प्रथम ५० श्लोक अनुष्टुभ् में निबद्ध हैं। इसके २२ श्लोक (५१ से ७३) रथोद्धता में, दो (७४-७५ ) शालिनी में और श्लोकसंख्या ७६ वंशस्थ में, ७७ शिखरिणी में, ७८ मालिनी में और अंतिम ७९ पुष्पिताग्रा में निबद्ध है।
ऊपर प्रयुक्त छन्दों में से अनुष्टुप् मालिनी और पुष्पिताग्रा का परिचय दिया जा चुका है। अन्य छन्दों रथोद्धता, शालिनी, वंशस्थ और शिखरिणी का लक्षण और कीर्तिकौमुदी से उनके उदाहरण निम्नवत् हैं-
रथोद्धता १६
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रान्नरातिह रथोद्धता तगौ ।
अर्थात् रगण, नगण, रगण, एक लघु, एक गुरु हो तो उसका नाम रथोद्धता है
उदाहरण १७
शालिन्युक्ता तौ तौ गोऽब्धिलोकैः ॥
अर्थात् इस छन्द के प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण, दो तगण और दो गुरु होते हैं। चार तथा सात वर्णों पर यति होती है। उदाहरण १९
दृष्टिर्नष्टा भूपतीनां तमोभिस्ते लोभान्धान् साम्प्रतं कुर्वतेऽ । वर्त्मना तेन यत्र, श्रश्यन्त्याशु व्याकुलास्ते पिऽ तेऽपि । । ७५ । । ३ वंशस्थ २०
तौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ । ।
अर्थात् वंशस्थ के चारों चरणों में से प्रत्येक में जगण, तगण, रजगण और रगण होते हैं।
उदाहरण २१
न सर्वथा कश्चन् लोभवर्जितः करोति सेवामनुवासरं विभोः । तथापि कार्यः स तथा मनीषिभिः परत्र बाधा न यथाऽत्र वाच्यता । । ७६ / ३
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य शिखरिणी२२
नहीं है। संभवत: साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ के इस रसै रुद्रैश्छिन्ना यमनसभलागः शिखरिणी
मत के अनुरूप कि कोई सर्ग विविध वृत्तों से युक्त होना चाहिए
अर्थात् प्रधान छन्द से पृथक् छन्द में निबद्ध होना चाहिए।२६ अर्थात् जिसमें यगण, मगण, नगण, सगण, भगण, अंत में
सोमश्वर देव ने इसमें अनुष्टप् का प्रयोग नहीं किया है। इस सर्ग में क्रमशः एक लघु और एक गुरु हो तो उस छन्द को शिखरिणी
प्रथम ५५ श्लोक उपजाति में और अंतिम ५वाँ श्लोक प्रहर्षिणी में कहते हैं।
निबद्ध है। प्रहर्षिणी का लक्षण२७ एवं उदाहरण२८ इस प्रकार हैउदाहरण२३ -
म्नौ नौगस्त्रिदशयतिः प्रहर्षिणीयम्॥ पुरस्कृत्य न्यायं खलजनमनादृत्य सहजा नरीन्निर्जित्य श्रीपतिचरितमाश्रित्य च यदि।
प्रहर्षिणी के प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण, नगण, जगण, . समुद्धर्तुं धात्रीमभिलषसि तत् सैष शिरसा,
रगण और एक गुरु होता है। धृतो देवादेशः स्फुटमपरथा स्वस्ति भवते ।।७७/३।।
आशायामशिशिरधाम्नि पश्चिमायाचतुर्थ सर्ग 'दूतसभागम' में ९१ श्लोक हैं, जिनमें से प्रथम मायाते सुकृतवतामपश्चिमोऽसौ। ४१ श्लोक अनुष्टप में ४७ श्लोक (४२ से ८८) वसन्तमालिनी
तान् कृत्वा धनकनकैः कवीन् कृतार्था - या उपपूर्वा में, श्लोक संख्या ८९ वसन्ततिलका में, ९० शार्दूल
नावासं स्वमभिचचाल वस्तुपाल:।।56/6॥ विक्रीडित में और ९१ पुष्पिताग्रा में निबद्ध है।
चन्द्रोदयवर्णन नामक सप्तम सर्ग में ८३ श्लोक है, जिसमें प्रसरत्यथ मत्सरप्रबन्धे, द्रुतमेकेन रणोल्वणं कृपाण।
प्रारंभ के ५३ श्लोक अनुष्टुप् में है। ५४ से ५६ और ५९ से ७२ अपरेण सुतं करेण वीरं, सहसा संयति यान्तमेष दधे।।५४/४ उपजाति में, ५७, ५८ इंद्रवज्रा में तथा ७६, ८० एवं ८१ पुष्पिताग्रा में जगति ज्वलिताखिलप्रदेशः, प्रचुरीभूतमलिम्लुचप्रचारः। रचित हैं। ८२, ८३ शार्दूलविक्रीडित छन्द में,७३ वसन्ततिलक में, ७८ स परस्परविग्रहो ग्रहणमिव तेषामभवन्नरेश्वराणाम्।।६१/४।। प्रहर्षिणी में तथा ७४ और ७९ द्रुतविलम्बित छन्द में रचित हैं। ___ 'युद्धवर्णन' नामक पाँचवें सर्ग में ६८ श्लोक हैं। इनमें एक
इस ग्रन्थ में द्रुतविलम्बित छन्द का प्रयोग सातवें सर्ग में से ६२ श्लोक तक अनुष्टुप् में, ६३ से ६७ श्लोक तक अनुष्टुप् म, ६३ स ६७ श्लाक तक
ही पहल
ही पहली बार हुआ है, इसका लक्षण एवं उदाहरण इस प्रकार हैवसन्ततिलका में तथा अंतिम ६वाँश्लोक हरिणी छन्द में रचित है। इस सर्ग में, प्रयुक्त नए छन्द हरिणी का लक्षण एवं कीर्तिकौमुदी
द्रुतविलम्बितमाह नभौ भरौ का उक्त श्लोक निम्नलिखित है-- हरिणी२४ -
अर्थात् जिसके प्रत्येक चरण में क्रमश: नगण, भगण, पुनः रसयुगहयैन्सौ नौ स्लौ गो यदा हरिणी तदा।
भगण और अंत में एक रगण हो तो उसको द्रतविलम्बित कहते हैं।
उदाहरण..
अर्थात् जिसमें नगण, सगण, मगण, रगण, सगण एक लघु और गुरु हो तो उस छन्द का नाम हरिणी होता है। उदाहरण२५
प्रतिनृपतिभिर्भगनोत्साहैर्निमग्नमिव क्वचित् स च नरपतिर्वीरस्तीरं जगाम मृधाम्बुधेः दिशि दिशि यश:स्तोमान् सोमान्वयी समचारय च्चतुरकुरलीचाणक्योऽयं प्रियंकरणैर्गुणैः।।६८/५
निगदितुं विधिनापि न शक्यते, सुभटता कुचयोः कुटिलभूवाम् सुरतसंयति यौ प्रियपीडितावपि नतिं नगतौ च्युतकंचुकौ ।।७९/७।।
आठवें परमार्थविचार नामक सर्ग में ७१ श्लोक हैं। इस सर्ग के आरंभिक ५६ श्लोक अनुष्टप छन्द में हैं। आठवें सर्ग के शेष श्लोकों में से बारह (५७-६८) पुष्पिताग्रा में श्लोक ६९ वाँ शालिनी में.७०वाँ प्रहर्षिणी में और अंतिम ७१वाँ शार्दलविक्रीडित छन्द में रचित है।
परप्रमोद-वर्णन, शीर्षक छठे सर्ग में ५६ श्लोक हैं। इस सर्ग में काव्य के प्रधान छन्द अनष्टप में कोई भी श्लोक निबद्ध
indiarrianiadiwasidiardiarianiaasariwarta १००drandirmiretarsansartandardinsantarvarsanaras
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - कीर्तिकौमदी के नौवें एवं अंतिम सर्ग में ७८ श्लोक हैं। पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद, १९५३, पृ. ६ इसमें भी प्रस्तुत काव्य के प्रधान छन्द हैं अनुष्टुप् का प्रयोग नहीं ३. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ ३ हुआ है अपितु इसमें अधिकांश श्लोक उपजाति में निबद्ध हैं। ४. केदार भट्ट, वृत्तरत्नाकर, सं. नृसिंह देव शास्त्री, मेहरचंद उपजाति से भिन्न आठ श्लोक (संख्या २, ४, १५, २०, २४, ४३, लछमन दास, दिल्ली - ६, १९७१, पृष्ठ ६१ ४५ एवं ६५ इंद्रवज्रा में तथा ७४ से ७६ वसन्ततिलका में और ५. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ ६ ग्रन्थ के अंतिम दो श्लोक शार्दूलविक्रीडित छन्द में निबद्ध हैं। ६. वृत्तरत्नाकर शास्त्री, पृष्ठ ६२
___ इस प्रकार छन्द की दृष्टि से कीर्तिकौमदी का अध्ययन ७. कीर्तिकौमुदी, सिंधी पृष्ठ ६ करने पर ज्ञात होता है कि इसमें सर्वाधिक श्लोक अनुष्टुप् में
८. वृत्तरत्नाकर, शास्त्री, पृष्ठ १२२ प्रणीत हैं। संख्या की दृष्टि से अनुष्टप के उपरांत कवि के प्रिय
९. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ ६
. छन्द रहे हैं उपजाति और वसन्ततिलका।
१०. वृत्तरत्नाकर, शास्त्री, पृष्ठ ८६
११. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ ६ अनुष्टुप् छन्द का अधिक प्रयोग इस तथ्य की ओर इंगित
१२. वृत्तरत्नाकर, शास्त्री, पृष्ठ १०६ करता है कि सोमेश्वर देव ने इसे महाकाव्य का रूप देना चाहा है।
१३. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ ६ महाकाव्य के लक्षण के रूप में प्रदत्त कविराज विश्वनाथ १४. वृत्तरत्नाकर, शास्त्री, पृष्ठ ९२ के निम्न दो श्लोक प्रासंगिक हैं -
१५. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ ११ एकवृत्तमयैः पद्यैरवसानेऽन्यवृत्तकैः।
१६. वृत्तरत्नाकर, शास्त्री, पृष्ठ ६७ नातिस्वल्पा नातिदीर्घाः सर्गा अष्टाधिका इह॥६/३२०।। १७. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ १५ नानावृत्तमयः क्वापि सर्गः कश्चन् दृश्यते।
१८. वृत्तरत्नाकर, शास्त्री, पृष्ठ ६६ सर्गान्ते भाविसर्गस्य कथायाः सूचनं भवेत्।। ६/३२१।।
१९. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ १६ उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार महाकाव्य की रचना प्राय: एक २०. वृत्तरत्नाकर, शास्त्री, पृष्ठ ७३ छन्द में होती है। सर्ग के अंत में भिन्न छन्द प्रयुक्त होते हैं। साथ ही २१. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ १६ कोई सर्ग ऐसा भी होता है जिसमें प्रधान छन्द से भिन्न विविध छन्दों २२. वृत्तरत्नार, शास्त्री, पृष्ठ ९९ का प्रयोग रहता है। ऐसे सर्गविशेष में प्रधान छन्द के प्रयोग का २३. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ १६ अभाव रहता है। इस कसौटी पर कीर्तिकौमुदी के छठे और नौवें २४. वृत्तरत्नाकर, शास्त्री, पृष्ठ १०२ सर्ग खरे उतरते हैं। इन दोनों सों में अनुष्टुप् का प्रयोग नहीं हुआ है। २५. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ २५
इस प्रकार कहा जा सकता है कि सोमेश्वर देव ने २६. कविराज विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, पाण्डरंग जावजी कीर्तिकौमुदी में छन्दों का प्रयोग एक निश्चित योजना के अनुसार
निर्णयसागर प्रेस, बंबई १९३६, पृष्ठ ३७२ किया है और वे इसमें सफल रहे हैं।
२७. वृत्तरत्नाकर, शास्त्री, पृष्ठ ८८ सन्दर्भ
२८. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ२९
२९. वृत्तरत्नाकर, शास्त्री, पृष्ठ ७५ १. सोमेश्वर देव, कीर्तिकौमुदी, सम्पा. मुनि पुण्यविजयजी, सिंधी
३०. कीर्तिकौमुदी, सिंधी, पृष्ठ ३३ जैनग्रंथमाला ३२, भारतीय विद्याभवन, बंबई, १९६१
३१. साहित्यदर्पण, पाण्डुरंग, पृष्ठ ३७२-३७३ २. जी.के. भट्ट, आन मीटर्स एण्ड फिगर्स आव स्पीच, महाजन
ameramananananandamahanatograinురురరరరరరరరరరర
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जैन आगमों की मूलभाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी?
प्रो.(डॉ.,सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी...2
वर्तमान में 'प्राकृतविद्या' नामक शोधपत्रिका के बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित किया गया। अपने इस कथन माध्यम से जैनविद्या के विद्वानों का एक वर्ग आग्रह ह के पक्ष में वे श्वेताम्बर दिगंबर किन्ही भी आगमों का प्रमाण न प्रतिपादन कर रहा है कि जैन आगमों की मल भाषा शौरसेनी देकर प्रो. टाँटिया के व्याख्यान से कुछ अंश उद्धत करते हैं। प्राकत थी, जिसे कालान्तर में परिवर्तित करके अर्धमागधा डा. सुदीप जैन ने प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय बना दिया गया। इस वर्ग का यह भी दावा है कि शौरसेनी में उनके कथन को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है-- प्राकृत ही प्राचीनतम प्राकृत है और अन्य सभी प्राकृतें यथा - "हाल ही में लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सम्पन्न मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि इसी से विकसित हुई हैं, अतः द्वितीय आचार्य कुन्दकुन्दस्मृति व्याख्यानमाला में विश्वविश्रुत वे सभी शौरसेनी प्राकृत से परवर्ती भी हैं। इसी क्रम में दिगंबर - भाषाशास्त्री एवं दार्शनिक विचारक प्रो. नथमल जी टाँटिया ने परंपरा में आगमों के रूप में मान्य आचार्य कन्दकन्द के ग्रन्थों स्पष्ट रूप से घोषित किया कि श्रमण साहित्य का प्राचीनरूप, में निहित अर्धमागधी और महाराष्ट्री शब्द रूपों को परिवर्तित
चाहे वे बौद्धों के त्रिपिटक आदि हों, श्वेताम्बरों के आचारांगसूत्र,
दशवैकालिकसूत्र आदि हों अथवा दिगंबरों के षटखण्डागमसूत्र, कर उन्हें शौरसेनी में रूपान्तरित करने का एक सुनियोजित
समयसार आदि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत में ही निबद्ध थे। प्रयत्न भी किया जा रहा है। इस समस्त प्रचार-प्रसार के पीछे
उन्होंने आगे सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद में श्रीलंका मूलभूत उद्देश्य यह है कि श्वेताम्बर-मान्य आगमों को दिगंबर
में एक बृहत्संगीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध बौद्धसाहित्य परंपरा में मान्य आगम तुल्य ग्रंथों से अर्वाचीन और अपने .
का मागधीकरण किया और प्राचीन शौरसेनी निबद्ध बौद्ध-साहित्य शौरसेनी में निबद्ध आगम तुल्य ग्रंथों को प्राचीन सिद्ध किया
के ग्रंथों को अग्निसात् कर दिया। इसी प्रकार श्वेताम्बर जैन जाए। इस पारस्परिक विवाद का एक परिणाम यह भी हो रहा साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में ही था, जिसका है कि श्वेताम्बर-दिगंबर परंपरा के बीच कटुता की खाई गहरी रूप क्रमशः अर्धमागधी में बदल गया। यदि हम वर्तमान होती जा रही है और इस सब में एक निष्पक्ष भाषाशास्त्रीय अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल श्वेताम्बर आगम साहित्य अध्ययन को पीछे छोड़ दिया जा रहा है। प्रस्तुत निबंध में मैं मानने पर जोर देंगे, तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से पंद्रह इन सभी प्रश्नों पर श्वेताम्बर परंपरा में आगम रूप में मान्य ग्रंथों सौ वर्ष पहिले अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने के आलोक में चर्चा करने का प्रयत्न करूंगा।
आगम साहित्य को भी ५०० ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा।" क्या आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में
उन्होंने स्पष्ट किया कि आज भी आचारांगसूत्र आदि की
प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है, निबद्ध था ?
जबकि नए प्रकाशित संस्करणों में उन शब्दों का अर्धमागधीकरण यहाँ सर्वप्रथम मैं इस प्रश्न की चर्चा करना चाहूंगा कि हो गया है। उन्होंने कहा कि पक्षव्यामोह के कारण.ऐसे परिवर्तनों क्या जैन आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूल रूप खो रहे हैं। उन्होंने और उसे बाद में परिवर्तित करके अर्धमागधी रूप दिया गया? स्पष्ट शब्दों में कहा कि दिगंबर जैन साहित्य में ही शौरसेनी भाषा कछ जैन विद्या के विद्वानों की यह मान्यता है कि जैन आगम के प्राचीनरूप सरक्षित रूप में उपलब्ध हैं। साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हआ था और उसे
निस्संदेह प्रो. टाँटिया जैन और बौद्धविद्याओं के वरिष्ठतम హరహరహరహరుశారుగాంచారయగారురరరర
రరరరరరwronుగారుగారంలో
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य विद्वानों में एक हैं और उनके कथन का कोई अर्थ और आधार अवश्य हो रही है। डा. सुदीपजी प्राकृतविद्या जुलाई-सितंबर ९६ भी होगा। किन्तु ये कथन उनके अपने हैं या उन्हें अपने पक्ष की में डा. टाँटिया जी के उक्त व्याख्यानों के विचार-बिन्दुओं को पुष्टि हेतु तोड़-मोड़कर प्रस्तुत किया गया है, यह एक विवादास्पद अविकल रूप से प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि - 'हरिभद्र का प्रश्न है? क्योंकि एक ओर तुलसीप्रज्ञा के सम्पादक का कहना है सारा योगशतक धवला से है। कि टाँटिया जी ने इसका खण्डन किया है। वे तुलसीप्रज्ञा
इसका तात्पर्य है कि हरिभद्र ने योगशतक को धवला के (अप्रैल-जून ९३.खंड २२,अंक ४) में लिखते हैं कि "डा.
आधार पर बनाया है। क्या टाँटिया जी जैसे विद्वान् को नथमल टांटिया ने दिल्ली की एक पत्रिका में छपे और उनके
इतना भी इतिहास-बोध नहीं है कि योगशतक के कर्ता हरिभद्र नाम से प्रचारित इस कथन का खंडन किया है कि महावीरवाणी
सूरि और धवला के कर्ता में कौन पहले हुआ है? यह तो ऐतिहासिक शौरसेनी प्राकत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट मत प्रकट किया कि
सत्य है कि हरिभद्रसूरि का योगशतक (आठवीं शती) धवला आचारांग, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और दशवैकालिक में
(दसवीं शती) से पूर्ववर्ती है। मुझे विश्वास भी नहीं होता है कि अर्धमागधी भाषा का उत्कृष्ट रूप है।"
टाँटिया जैसा विद्वान् इस ऐतिहासिक सत्य को अनदेखा कर दे। दूसरी ओर प्राकृतविद्या के सम्पादक डा. सुदीपजी का कहीं न कहीं उनके नाम पर कोई भ्रम खड़ा किया जा रहा है। डा. कथन है कि उनके व्याख्यान की टेप हमारे पास उपलब्ध है टांटिया जी को अपनी चुप्पी तोड़कर भ्रम का निराकरण करना और हमने उसे अविकल रूप से यथावत दिया है। मात्र इतना चाहिए था। वस्तुतः यदि कोई भी चर्चा प्रमाणों के आधार पर ही नहीं डा. सुदीपजी का तो यह भी कथन है कि तुलसीप्रज्ञा के नहीं होती है तो उसे मान्य नहीं किया जा सकता है, फिर चाहे उसे खण्डन के बाद भी वे टाँटिया जी से मिले हैं और टाँटियाजी ने कितने ही बड़े विद्वान् ने क्यों नहीं कहा हो। यदि व्यक्ति का ही उनसे कहा है कि वे अपने कथन पर आज भी दृढ़ हैं।टाँटियाजी महत्त्व मान्य है तो अभी संयोग से टॉटिया जी से भी वरिष्ठ के इस कथन को उन्होंने प्राकृतविद्या जुलाई-सितंबर ९६ के अंतरराष्ट्रीय ख्याति के जैन बौद्ध विद्याओं के महामनीषी और अंक में निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया --
स्वयं टाँटिया जी के गुरु पद्म विभूषण पं. दलसुख भाई हमारे "मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तत तथ्यों बीच हैं, फिर तो उनके कथन को अधिक प्रमाणिक मानकर पर पर्णतया दृढ हँ तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट अवधारणा है . प्राकृतविद्या के सम्पादक को स्वीकार करना होगा। खैर ये सब जिससे विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।" (पृ. ९)
प्रास्तविक बातें थीं, जिनसे यह समझा जा सके कि समस्या क्या
है? कैसे उत्पन्न हुई और प्रस्तुत संगोष्ठी की क्या आवश्यकता है? यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों
हमें तो व्यक्तियों के कथनों या वक्तव्यों पर न जाकर तथ्यों के सम्पादकों के मध्य है, किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है और
प्रकाश में इसकी समीक्षा करनी है कि आगामों की मूलभाषा डा. टाँटिया का मूल मन्तव्य क्या है, इसका निर्णय तो तभी
क्या थी और अर्धमागधी और शौरसेनी में कौन प्राचीन है? संभव है, जब डा. टाँटिया स्वयं इस संबंध में लिखित वक्तव्य देते, किन्तु वे इस संबंध में मौन रहे हैं। मैंने स्वयं उन्हें पत्र लिखा आगमों की मूलभाषा अर्धमागधी था, किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। मैं डा. टाँटिया की
यह एक सुनिश्चित सत्य है कि महावीर का जन्मस्थान उलझन समझता हूँ एक ओर कुन्दकुन्द-भारती ने उन्हें कुन्दकुन्द- और कार्यक्षेत्र दोनों ही मख्य रूप से मगध और उसके समीपवर्ती व्याख्यान-माला में आमन्त्रित कर पुरस्कृत किया है, तो दूसरी
प्रदेश में ही था, अत: यह स्वाभाविक है कि उन्होंने जिस भाषा ओर वे जैन विश्वभारती की सेवा में हैं, जब जिस मंच से बोले
को बोला होगा वह समीपवर्ती क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी होंगे भावावेश में उनके अनुकूल वक्तव्य दे दिए होंगे और अब
अर्थात् अर्धमागधी रही होगी। व्यक्ति की भाषा कभी भी अपनी स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें? फिर भी मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार मातभाषा से अप्रभावित नहीं होती है। पनः श्वेताम्बर परम्परा में नहीं करती है कि डा. टाटिया जैसा गंभीर विद्वान् बिना प्रमाण मान्य जो भी आगम साहित्य आज उपलब्ध है. उसमें अनेक ऐसे के ऐसे वक्तव्य दे दे। कहीं न कहीं शब्दों की कोई जोड़-तोड़ संदर्भ है. जिनमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि महावीर ने ansaniduirdandiromabrdindidrionirdostonirominionia-[१०३ideredniaiduirdwordGrandirisordibandhronibidrivarta
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अपने उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिए थे।
इस संबंध में अर्धमागधी आगम साहित्य से कुछ प्रमाण प्रस्तुत किए जा रहे हैं यथा-
१. भगवं चणं अद्धमागहीए भासा धम्ममाइक्खइ । समवायांग, समवाय ३४, सूत्र २२
२. तए णं समणे भगवं महावीरे कुणिअस्स भंभसारपुतस्स अद्धमागहीए भासाए भासत्ति अरिहाधम्मं परिकहइ । औपपातिक सूत्र
३.
४.
• यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
५.
६.
गोयमा । देवाणं अद्धमागहीए भासाए भासंति सवि य णं अद्धमागंहा भासा भासिज्जमाणी विसज्जति । भगवई, लाडनूं शतक ५, उद्देशक ४, सूत्र ९३
तणं समणे भगवं महावीरे उसभदत्त माहणस्स देवाणंदा माहणीए तीसे य महति महलियाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए... सव्वा भासाणुगामणिए सरस्सईए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमगहाए भासाए भासइ धम्मं परिकहइ। भगवई लाडनूं शतक ९, उद्देशक ३३, सूत्र १४९ तए णं समणे भगवं महावीरे जामालिस्स खत्तियकुमारस्स... अद्धमागहाए भासाए भासइ धम्मं परिकहइ। भगवई लाडनूं शतक ९, उद्देशक ३३, सूत्र १६३ सत्तसत्तसमदरिसीहिं अर्द्धमागहाए भासाए सुत्तं उवदिट्ठ । आचारांग चूर्णि, जिनदासगणि, पृ. २५५
मात्र इतना ही नहीं, दिगंबर परंपरा में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ बोधपाहुड, जो स्वयं शौरसेनी में निबद्ध है, उसकी टीका में दिगंबर आचार्य श्रुतसागर जी लिखते हैं कि भगवान् महावीर ने अर्धमागधी भाषा में अपना उपदेश दिया। प्रमाण के लिए टीका के अनुवाद का वह अंश प्रस्तुत है । 'अध' मगध देश भाषात्मक और अर्ध सर्वभाषात्मक भगवान् की ध्वनि खिरती है। शंका- अर्धमागधी भाषा देवकृत अतिशय कैसे हो सकती है। क्योंकि भगवान की भाषा ही अर्धमागधी है? उत्तर-मगध देव के सान्निध्य से होने से आचार्य प्रभाचन्द्र ने नन्दीश्वर भक्ति के अर्थ में लिखा है "एक योजन तक भगवान् की वाणी स्वयमेव सुनाई देती है। उसके आगे संख्यात योजनों तक उस दिव्यध्वनि का विस्तार मगध जाति के देव करते हैं। अतः अर्धमागधी भाषा देवकृत है। (षट्प्राभृतम् चतुर्थ बोधपाहुड टीका, पृ. १७६ / २१ )
मात्र यही नहीं वर्तमान में भी दिगंबर परंपरा के महान संत एवं आचार्य विद्यासागर जी के प्रमुख शिष्य मुनि श्री प्रमाण सागरजी अपनी पुस्तक जैन-धर्मदर्शन (पृ. ४०) में लिखते हैं कि उन भगवान् महावीर का उपदेश सर्वग्राह्य अर्धमागधी भाषा में हुआ ।
वेताम्बर और दिगंबर दोनों ही परंपराएँ यह मानकर चल रही हैं कि भगवान का उपदेश अर्धमागधी में हुआ था और इसी भाषा में उनके उपदेशों के आधार पर आगमों का प्रणयन हुआ तो फिर शौरसेनी के नाम से नया विवाद खड़ा करके इस खाई को चौड़ा क्यों किया जा रहा है? यह तो आगमिक प्रमाण की चर्चा हुई। व्यावहारिक एवं ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं-
१. यदि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में दिए तो यह स्वाभाविक है कि गणधरों ने उसी भाषा में आगमों का प्रणयन किया होगा। अतः सिद्ध है कि आगमों की मूलभाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी अर्थात् अर्धमागधी रही है।
२. इसके विपरीत शौरसेनी आगम तुल्य मान्य ग्रन्थों में किसी एक भी ग्रन्थ में एक भी संदर्भ ऐसा नहीं है, जिससे यह प्रतिध्वनित भी होता हो कि आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी। उनमें मात्र यह उल्लेख है कि तीर्थंकरों की जो वाणी खिरती है, वह सर्वभाषारूप परिणत होती है। उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि उनकी वाणी जन साधारण को आसानी से समझ में आती थी। वह लोकवाणी थी । उसमें मगध के निकटवर्ती क्षेत्रों की क्षत्रीय बोलियों के शब्द-रूप भी होते थे और यही कारण था कि उसे मागधी न कहकर अर्धमागधी कहा गया था।
३. जो ग्रन्थ जिस क्षेत्र में रचित या सम्पादित होता है, उसका वहाँ की बोली से प्रभावित होना स्वाभाविक है। प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा - आचारांग, सूत्रकृतांग, इसि भासियाई (ऋषिभाषित), उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में रचित हैं उनमें इसी क्षेत्र के नगरों आदि की सूचनाएँ हैं। मूल आगमों में एक भी ऐसी सूचना नहीं है महावीर ने बिहार, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आगे विहार किया हो। अतः उनकी भाषा अर्धमागधी रही होगी ।
४. पुनः आगमों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में और दूसरी वाचना खण्डगिरि (उड़ीसा) में हुई, ये दोनों क्षेत्र मथुरा से
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्त्य - जैन आगम एवं साहित्य - पर्याप्त दूरी पर स्थित हैं, अत: कम से कम प्रथम और द्वितीय आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन : वाचना के समय तक अर्थात् ई.पू. दूसरी शती तक उनके शौरसेनी कब और कैसे? में रूपान्तरित होने का या उससे प्रभावित होने का प्रश्न ही नहीं
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि स्कंदिल की इस माथुरी वाचना उठता है।
के समय ही समानान्तर रूप से एक वाचना वलभी (गुजरात) यह सत्य है कि उसके पश्चात् जब जैन धर्म एवं विद्या का में नागार्जन की अध्यक्षता में हई थी और इसी काल में उन पर केन्द्र पाटलीपुत्र से हटकर लगभग ई. पू. प्रथम शती में मथुरा मदागी भाव भी आया क्योंकि उस क्षेत्र की प्राकत महाराष्ट्री बना तो उस पर शौरसेनी का प्रभाव आना प्रारंभ हुआ हो।
प्राकृत थी। इसी महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित आगम आज तक यद्यपि मथरा से प्राप्त दूसरी शती तक के अभिलेखों का शौरसेनी श्वेताम्बर परंपरा में मान्य हैं। अतः इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से के प्रभाव से मुक्त होना यही सिद्ध करता है, जैनागमों पर समझ लेना चाहिए कि आगमों के महाराष्टी प्रभावित और शौरसेनी का प्रभाव दूसरी शती के पश्चात् ही प्रारंभ हुआ होगा। शौरसेनी प्रभावित संस्करण जो लगभग ईसा की चतर्थ-पंचम सभवतः फल्गमित्र (दसरा शती) के समय या उसके भी पश्चात् शती में अस्तित्व में आए उनका मल आधार अर्धमागधी स्कंदिल (चतुर्थ शती) की माथुरी वाचना के समय उन पर आगम ही थे। यहाँ भी ज्ञातव्य है कि न तो स्कंदिल की माथरी शौरसेनी प्रभाव आया था, यही कारण है कि यापनीय परंपरा में
वाचना में और न नागार्जुन की वलभी वाचना में आगमों की
वाचना में और न नागार्जन की वला मान्य आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, निशीथ, कल्प आदि
भाषा में सोच-समझ पूर्वक कोई परिवर्तन किया गया था। जो आगम रहे हैं, वे शौरसेनी से प्रभावित रहे हैं। यदि डा. टॉटिया वास्तविकता यह है कि उस यग तक आगम कण्ठस्थ चले आ ने यह कहा है कि आचारांग आदि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी रहे थे और कोई भी कण्ठस्थ ग्रन्थ स्वाभाविक रूप से कण्ठस्थ प्रभावित संस्करण भी था, जो मथुरा क्षेत्र में विकसित यापनीय करने वाले व्यक्ति की क्षेत्रीय बोली से अर्थात उच्चारणशैली से परंपरा को मान्य था, तो उनका कथन सत्य है, क्योंकि भगवती
अप्रभावित नहीं रह सकता है, यही कारण था कि जो उत्तर आराधना की टीका में आचारांग उत्तराध्ययन, निशीथ आदि के ।
भारत का निर्ग्रन्थ संघ मथुरा में एकत्रित हुआ उसके आगमजो संदर्भ दिए गए हैं, वे शौरसेनी से प्रभावित है। किन्तु इसका
पाठ उस क्षेत्र की बोली, शौरसेनी से प्रभावित हुए और जो यह अर्थ कदापि नहीं है कि आगमों की रचना शौरसेनी में हुई थी पश्चिमी भारत का निर्ग्रन्थ संघ वलभी में एकत्र हआ उसके और वे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित किए गए। ज्ञातव्य है
आगम-पाठ उस क्षेत्र की बोली महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हुए। कि यह माथुरी वाचना स्कंदिल के समय महावीर-निर्वाण के
पुनः यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन दोनों वाचनाओं में लगभग आठ सौ वर्ष पश्चात् हुई थी और उसमें जिन आगमों की सम्पादित आगमों का मल आधार तो अर्धमागधी आगम ही थे, वाचना हुई, वे सभी उसके पूर्व अस्तित्व में थे। यापनीयों ने यही कारण कि औरसेनी आगमन तो शद शौरसेनी में हैं और
आगमों के इसी शौरसेनी प्रभावित संस्करण को मान्य किया था, न वलभी वाचना के आगम शद्ध महाराष्ट्री में है. उन दोनों में किन्तु दिगंबरों के लिए तो, वे आगम भी मान्य नहीं थे, क्योंकि अर्धमागधी के शब्द-रूप तो उपलब्ध होते ही हैं। उनके अनुसार तो इस माथुरी वाचना के लगभग दो सौ वर्ष पूर्व
शौरसेनी आगमों में तो अर्धमागधी के साथ-साथ महाराष्ट्री ही आगम साहित्य तो विलुप्त हो चुका था। श्वेताम्बर परंपरा में
प्राकृत के शब्द रूप भी बहुलता से मिलते हैं, यही कारण है कि मान्य आचारांग सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन
भाषाविद् उनकी भाषा को जैन-शौरसेनी और जैन - महाराष्ट्री दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि तो ई. पू. चौथी
कहते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि जिन शौरसेनी आगमों की दुहाई शती से दूसरी शती तक की रचनाएँ हैं, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने
दी जा रही है, उनमें से अनेक आगम ५० प्रतिशत से अधिक भी स्वीकार किया है। ज्ञातव्य है कि मथुरा का जैन-विद्या-केन्द्र
अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हैं। श्वेताम्बर और के रूप में विकास ई.पू. प्रथम शती से ही हुआ है और उसके
दिगंबर मान्य आगमों में प्राकृत के रूपों का जो वैविध्य है, पश्चात् ही इन आगमों पर शौरसेनी प्रभाव आया होगा।
उसके कारणों की विस्तृत चर्चा मैंने अपने लेख 'जैन आगमों में
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-चतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन : एक विमर्श' सागर जैन विद्याभारती क्षेत्रीय बोलियों का मिश्रण होता गया। उदाहरण के रूप में जब भाग-१ पृष्ठ २३९-२४३ में की है। प्रस्तुत प्रसंग में उसका निम्न पूर्व का भिक्षु पश्चिमी प्रेदशों में अधिक विहार करता है तो अंश दृश्य है--
उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम दोनों की ही बोलियों का प्रभाव जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्धमागधी तथा
आ जाता है, फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम के भाषिक शौरसेनी ग्रंथों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों हआ? इस स्वरूप की एकरूपता समाप्त हो गई। प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया जा सकता है। वस्तुतः इन ४. सामान्यतया बुद्ध के वचन बुद्ध के निर्वाण के २००ग्रन्थों में हुए भाषिक परिवर्तनों का कोई एक ही कारण नहीं है, ३०० वर्ष के अंदर ही अंदर लिखित रूप में आ गए। अतः उनके अपितु अनेक कारण हैं, जिन पर हम क्रमशः विचार करेंगे - भाषिक स्वरूप में उनके रचनाकाल के बाद बहुत अधिक १. भारत में वैदिक परंपरा में वेद-वचनों को मंत्र रूप में परिवर्तन नहीं आया, तथापि उनकी उच्चारण-शैली विभिन्न देशों
में भिन्न-भिन्न रही है। आज भी लंका, बर्मा, थाईलैंड आदि देशों मानकर उनके स्वर व्यंजन की उच्चारण योजना को अपरिवर्तनीय । बनाए रखने पर अधिक बल दिया गया, उनके लिए शब्द और
के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उच्चारण भिन्न-भिन्न होता है, फिर
भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता है। इसके ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण रही और अर्थ गौण रहा। यही कारण है कि
विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घकाल आज भी अनेक वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो वेदमंत्रों की उच्चारण
तक लिखित रूप में नहीं आ सका, वह गुरुशिष्य परंपरा से शैली, लय आदि के प्रति तो अत्यंत सतर्क रहते हैं, किन्तु वे
मौखिक ही चलता रहा, फलतः देशकालगत उच्चारण-भेद से उनके अर्थों को नहीं जानते हैं। यही कारण है कि वेद शब्दरूप
उनको लिपिबद्ध करते समय उनके भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन में यथावत् बने रहे। इसके विपरीत जैन परंपरा में यह माना गया
होता गया। मात्र यही नहीं, लिखित प्रतिलिपियों के पाठ भी कि तीर्थंकर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं। उनके वचनों को शब्दरूप
प्रतिलिपिकारों की असावधानी या क्षेत्रीय बोली से प्रभावित तो गणधर आदि के द्वारा दिया जाता है। अत: जैनाचार्यों के लिए
हुए। श्वेताम्बर आगमों की प्रतिलिपियाँ मुख्यतः गुजरात एवं अर्थ या कथन का तात्पर्य ही प्रमुख था, उन्होंने कभी भी शब्दों
राजस्थान में हुई, अतः उन पर महाराष्ट्री का प्रभाव आ गया। पर बल नहीं दिया। शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाए, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना चाहिए, यही जैन आचार्यों का प्रमुख
५. भारत में कागज का प्रचलन न होने से भोजपत्रों या
ताड़पत्रों पर ग्रन्थों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रखना जैन लक्ष्य रहा। शब्दरूपों की उनकी इस उपेक्षा के फलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते गए। इसी क्रम में ईसा की
-मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल था।
लगभग ई. सन् की ५वीं शती तक इस कार्य को पाप-प्रवृत्ति चतुर्थ शती में अर्धमागधी आगमों के शौरसेनी प्रभावित और ।
माना जाता था तथा इसके लिए दण्ड की व्यवस्था भी थी। महाराष्ट्री प्रभावित संस्करण अस्तित्व में आए।
फलतः महावीर के पश्चात् लगभग १००० वर्ष तक जैन साहित्य २. आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए उनका श्रत परंपरा पर ही आधारित रहा। श्रुतपरम्परा पर आधारित होने दूसरा कारण यह था कि जैन-भिक्षु - संघ में विभिन्न प्रदेशों के से आगमों के भाषिक स्वरूप में वैविध्य आ गया। भिक्षु गण सम्मिलित थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से
६. आगमिक एवं आगम तुल्य साहित्य में आज भाषिक प्रभावित होने के कारण उनकी उच्चारण-शैली में भी स्वाभाविक
रूपों का जो वैविध्य देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों भिन्नता रहती थी, फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम साहित्य
(प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है। प्रतिलिपिकार के भाषिक स्वरूप में भिन्नताएँ आ गईं।
जिस क्षेत्र का होता था, उस पर भी उस क्षेत्र की बोली, भाषा का ३. जैन भिक्षु सामान्यतया भ्रमणशील होते हैं, उनकी प्रभाव रहता था और वह असावधानी से अपनी प्रादेशिक बोली भ्रमणशीलता के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर भी अन्य के शब्दरूपों को लिख देता था। उदाहरण के रूप में चाहे प्रदेशों की बोलियों का प्रभाव भी पड़ता ही था, फलतः आगमों मूलपाठ में गच्छति लिखा हो लेकिन यदि उस क्षेत्र में प्रचलन में के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ और उनमें तत् तत् गच्छइ का व्यवहार है तो प्रतिलिपिकार गच्छइ रूप ही लिख देगा।
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य ७. जैन आगम एवं आगम तुल्य ग्रंथों में आए भाषिक खोखला है, यह सिद्ध हो जाता है। मात्र यही नहीं इससे यह भी परिवर्तनों का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं सिद्ध होता है कि शौरसेनी आगमतुल्य ग्रंथ न केवल अर्धमागधी प्रदेशों में सम्पादित होते रहे हैं। सम्पादकों ने उनके प्राचीन से प्रभावित हैं, अपितु उससे परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत से भी स्वरूप को स्थिर रखने का प्रयत्न नहीं किया, अपितु उन्हें सम्पादित प्रभावित हैं-- करते समय अपने युग एवं क्षेत्र की प्रचलित भाषा और व्याकरण
१. आत्मा के लिए अर्धमागधी में आता, अत्ता, अप्पा, के आधार पर उनमें परिवर्तन भी कर दिया। यही कारण है कि आदि शब्द-रूपों के प्रयोग उपलब्ध हैं. जबकि शौरसेनी में 'त' अर्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में संकलित एवं सम्पादित हुए तो उनका भाषिक स्वरूप अर्धमागधी की अपेक्षा
साथ-साथ अप्पा शब्दरूप जो कि अर्धमागधी का है अनेक बार शौरसेनी के निकट हो गया, और जब बलभी में सम्पादित किये
प्रयोग में आता है। केवल समयसार में ही नहीं, अपितु नियमसार गए तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया। यह अलग बात है कि
(१२०, १३२१, १८३) आदि में भी अप्पा शब्द का प्रयोग है। ऐसा परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उसमें अर्धमागधी के तत्त्व भी बने रहे। अतः अर्धमागधी और शौरसेनी आगमों में
२. श्रृत का शौरसेनी रूप सद बनता है। शौरसेनी आगमतुल्य भाषिक स्वरूप का जो वैविध्य है वह एक यथार्थता है, जिसे हमें
- ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर सुद सुदकेवली आदि शब्दरसों के प्रयोग स्वीकार करना होगा।
भा हुए हैं, जबकि समयसार (वर्णी ग्रंथमाला) गाथा ९ एवं १० में
स्पष्ट रूप से सुयकेवली, सुयणाण शब्दरूपों का भी प्रयोग मिलता क्या शौरसेनी आगमों के भाषिक स्वरूप में है। जबकि ये दोनों महाराष्ट्री शब्द-रूप हैं और परवती भी हैं। एकरुपता है?
अर्धमागधी में तो सदैव सुत शब्द का प्रयोग होता है। किन्तु डा. सुदीप जैन का दावा है कि “आज भी शौरसेनी ३. शौरसेनी में मध्यवर्ती 'त' का 'द' होता है साथ ही आगम साहित्य में भाषिक तत्त्व की एकरूपता है, जबकि उसमें लोप की प्रवृत्ति अत्यल्प है, अत: उसके क्रियारूप हवदि, अर्धमागधी आगम साहित्य में भाषा के विविध रूप पाये जाते होदि, कुणदि, गिण्हदि, परिणमदि, भण्णदि, पस्सदि आदि बनते हैं। उदाहरणस्वरूप शौरसेनी में सर्वत्र 'ण' का प्रयोग मिलता है. हैं। इन क्रिया-रूपों का प्रयोग उन ग्रन्थों में भी हुआ, किन्तु उन्हीं कहीं भी 'न' का प्रयोग नहीं है। जबकि अर्धमागधी में नकार के ग्रन्थों के क्रिया-रूपों पर महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक साथ-साथ णकार का प्रयोग भी विकल्पतः मिलता है। यदि प्रभाव है, इसे निम्न उदाहरणों से जाना जा सकता है - शौरसेनी-युग में नकार का प्रयोग आगमिक भाषा में प्रचलित
समयसार, वर्णी ग्रंथमाला (वाराणसी) - होता तो दिगम्बर साहित्य में कहीं तो विकल्प से प्राप्त होता हीं।" - प्राकृतविद्या जुलाई-सितंबर ९६,पृ. ७
जाणइ (१०), हवई (११, ३१५, ३८६, ३८४), मुणइ यहाँ डा. सुदीप जैन ने दो बातें उठाई हैं, प्रथम शौरसेनी
(३२), वुच्चइ (४५), कुव्वइ (८१, २८६, ३१९, ३२१, ३२५,
३४०) परिणमइ (७६,७९,८०) (ज्ञातव्य है कि समयसार के आगम साहित्य की भाषिक एकरूपता की और दूसरी णकार
इसी संस्करण की गाथा क्र. ७७, ७८, ७९ में परिगमदि रूप भी और नकार की। "क्या सुदीप जी ! आपने शौरसेनी आगम
मिलता है) इसी प्रकार के अन्य महाराष्ट्री प्राकृत के रूप जैसे साहित्य के उपलब्ध संस्करणों का भाषाशास्त्र की दृष्टि से कोई
वेयई (८४), कुणई (७१, ९६, २८९, २९३, ३२२, ३२६), होइ प्रमाणिक अध्ययन किया है? यदि आपने किया होता तो आप ऐसा खोखला दावा प्रस्तुत नहीं करते? आप केवल णकार का
(९४, ३०६,१९, ३४९, ३५८), करई (९४, २३७, २३८, ३२८,
३४८), हवई (१४१, ३२६, ३२९), जाणइ (१८५, ३१६, ३१९, ही उदाहरण क्यों देते हैं? वह तो महाराष्ट्री और शौरसेनी दोनों में ।
३२०,३६१), बहइ (१८९), सेवइ (१९७),मरइ (२५७,२९०), सामान्य है। दूसरे शब्दरूपों की चर्चा क्यों नहीं करते हैं? " नीचे २४
(जबकि गाथा २५८ में मरदि है)। पावइ (२९१, २९२), धिप्पइ मैं दिगंबर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों से ही कुछ उदाहरण दे रहा हूँ, जिनसे उनके भाषिकतत्त्व की एकरूपता का दावा कितना ।
(२९६), उप्पज्जइ (३०८), विणस्सइ (३१२, ३४५), दीसइ
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-- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य (३२३) आदि भी मिलते हैं। ये तो कुछ ही उदाहरण हैं-ऐसे जो दिगंबर जैन समाज द्वारा ही प्रकाशित हैअनेकों महाराष्ट्री प्राकृत के क्रियारूप समयसार में उपलब्ध हैं। १. हाथीगुफा बिहार का शिलालेख-प्राकृत, जैन सम्राट् खारवेल, न केवल समयसार अपितु नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार मौर्यकाल १६५वाँ. वर्ष पृ. ४ लेख क्रमांक २, 'नमो आदि की भी यही स्थिति है।
अरहंतानं, नमो सवसिधानं' . ___ बारहवीं शती में रचित वसुनन्दीकृत श्रावकाचार (भारतीय ३२. वैकुण्ठ स्वर्गपुरी गुफा, उदयगिरि, उड़ीसा, प्राकृत, मौर्यकाल ज्ञानपीठ संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के इन ग्रन्थों से भी
१६५ वाँ वर्ष लगभग ई. पू. दूसरी शती पृ. ११ ले.क. बदतर है, उसकी प्रारंभ की सौ गाथाओं में ४०% क्रियारूप महाराष्ट्री प्राकृत के हैं।
३. मथुरा, प्राकृत, महाक्षत्रप शोडाशके ८१ वर्ष का पृ. १२ इससे फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी आगमों
क्रमांक ५ 'नम अरहतो वधमानस्।' के भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा भी न
४. मथुरा, प्राकृत, काल निर्देश नहीं दिया है, किन्तु जे. एफ. केवल अधिक वैविध्य है, अपितु उस महाराष्ट्री प्राकृत का भी
फलीट के अनुसार लगभग १४-१३ ई. पूर्व प्रथम शती व्यापक प्रभाव है, जिसे सुदीप जी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे
का होनी चाहिए। हैं। यदि ये ग्रन्थ प्राचीन होते तो इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव कहाँ से आता ? प्रो. ए.एन. उपाध्ये ने प्रवचनसार
'अरहतो वर्धमानस्य की भूमिका में स्पष्टत: यह स्वीकार किया है कि उसकी भाषा ६. मथुरा,प्राकृत सम्भवतः १४-१३ ई.पू. प्रथमशती,पृ. १५ पर अर्धमागधी का प्रभाव है। प्रो. खड़बड़ी ने तो षटखण्डागम लेख क्र. १०, ‘मा अरहतपूजा' । की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं माना है।
७. मथुरा, प्राकृत,पृ. १७ क्र. १४ 'मा अरतानं श्रमणश्रविका' । नकार और णकार में कौन प्राचीन
८. मथुरा प्राकृत,पृ. १७ क्रमांक १५ 'नमो अरहंतानं', अब हम णकार और नकार के प्रश्न पर आते हैं। भाई ९. मथुरा प्राकृत,पृ. १८ क्र. १६ 'नमो अरहतो महाविरस' सुदीप जी आपका यह कथन सत्य है कि अर्धमागधी में नकार १०. मथुरा, प्राकृत,हुविष्क संवत् ३९, हस्तिस्तम्भ पृ. ३४, क्र. और णकार दोनों पाए जाते हैं। किन्तु दिगंबर शौरसेनी ४३, 'अयर्येन रुद्रादासेन अरहंतनं पजाये।' आगमतुल्यग्रंथों ने सर्वत्र णकार का पाया जाना यही सिद्ध करता ११. मथरा.प्राकृत भग्न वर्ष ९३.प्र. ४६, क्रमांक ६७ नमो है कि जिस शौरसेनी को आप अरिष्टनेमि के काल से प्रचलित
अर्हतो महाविरस्स' प्राचीनतम प्राकृत कहना चाहते हैं, उस णकारप्रधान शौरसेनी
१२. मथुरा प्राकृत वासुदेव सं. ९८, पृ. ४७ क्र. ६०, ‘नमो का जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी तक हुआ भी नहीं था। 'ण' ।
अरहतो महावीरस्स की अपेक्षा 'न' का प्रयोग प्राचीन है। ई.पू. तृतीय शती के अशोक के अभिलेख एवं ई.पू. द्वितीय शती के खारवेल के शिलालेख
१३. मथुरा, प्राकृत,पृ. ४८,क्र.७१ 'नमो अरहंताण सिहकस।' से लेकर मथुरा के शिलालेख (ई.पू. दूसरी शती से ईसा की १४. मथुरा प्राकृत, भग्न पृ. ४८.क्र.७२ 'नमो अरहंतान', दूसरी शती तक) इन लगभग ८० जैन शिलालेखों में एक भी १५. मथुरा, प्राकृत,भग्न पृ. ४८, क्र. ७३ 'नमो अरहंतान'. णकार का प्रयोग नहीं है। इनमें शौरसेनी प्राकृत के रूपों यथा १६. मथरा, प्राकृत भग्न पृ.४८ क्र.७५, अरहंतान वर्धमानस्य . णमो, अरिहंताणं और णमो वड्ढमाणं का सर्वथा अभाव है।
१७. मथुरा, प्राकृत,भग्न पृ.५१, क्र.८०, नमो अरहंतान...द्वन', यहाँ हम केवल उन्हीं प्राचीन शिलालेखों को उद्धृत कर रहे हैं, जिन न पालों का योग मारे जातोपी शरसेन प्रदेश, जहाँ से शौरसेनी प्राकृत का जन्म हुआ, अभिलेखीय साक्ष्य जैन शिलालेखसंग्रह. भाग-२ से प्रस्तत हैं. वहाँ के शिलालेखों में दूसरी तीसरी शती तक णकार एवंद के
प्रयोग का अभाव यही सिद्ध करता है कि दिगंबर आगमों एवं anohriranihriranianoonardoisonitorianoranciniawardM[१०८roniroraniroraniranitoriranioranirdroidnisonitorolind
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यतीन्द्र सूरि मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - नाटकों की शौरसेनी का जन्म ईसा की तीसरी शती के पूर्व का अवश्य है कि इनमें से कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित नहीं है, जबकि नकार प्रधान अर्धमागधी का प्रयोग तो अशोक संस्करण माथुरी वाचना लगभग चतुर्थ शती के समय अस्तित्व के अभिलेखों से अर्थात् ई.पू. तीसरी शती से सिद्ध होता है। में अवश्य आए थे, किन्तु इन्हें शौरसेनी आगम कहना उचित इससे यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम प्राचीन थे, नहीं होगा, वस्तुतः ये आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आगमों का शब्द-रूपान्तरण अर्धमागधी से शौरसेनी में हुआ है, ऋषिभाषित आदि श्वेताम्बर परंपरा में मान्य आगमों के ही न कि शौरसेनी से अर्धमागधी में हुआ है। दिगंबर मान्य आगमों शौरसेनी संस्करण थे, जो यापनीय परंपरा में मान्य थे और की वह शौरसेनी जिसकी प्राचीनता का बढ़-चढ़कर दावा किया जिनकी भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ भेदों को छोड़कर श्वेताम्बर जाता है, वह अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों से ही प्रभावित है मान्य आगमों से समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के संबंध में
और न केवल भाषायी स्वरूप के आधार पर वरन् अपनी विस्तृत चर्चा मैंने 'जैन धर्म का यापनीय संप्रदाय' नामक ग्रन्थ विषयवस्तु के आधार पर भी ईसा की चौथी-पाँचवीं शती के. के तीसरे अध्याय के प्रारंभ में की है। इच्छुक पाठक उसे वहाँ पूर्व की नहीं है।
देख सकते हैं। यदि शौरसेनी प्राचीनतम प्राकत है तो फिर सम्पर्ण देश में वस्तुतः आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से ईसा की तीसरी चौथी शती तक का एक भी अभिलेख शौरसेनी जानते हैं उनमें मुख्यतः निम्न ग्रन्थ आते हैं-- प्राकृत में क्यों नहीं मिलता है। अशोक के अभिलेख, खारवेल (अ) यापनीय आगम के अभिलेख, बलडी का अभिलेख और मथुरा के शताधिक भिलेख कोई भी तो शौरसेनी प्राक़त में नहीं है। इन सभी १. कषायपाहुड लगभग ईसा की चौथी शती. गणधर अभिलेखों की भाषा क्षेत्रिय बोलियों से प्रभावित मागधी ही है। २.षटखण्डागम, ईसा की पाँचवीं शती का उत्तरार्द्ध, पृष्पदंत अतः उसे अर्धमागधी तो कहा जा सकता है, किन्तु शौरसेनी और भूतबली कदापि नहीं कहा जा स है। अतः प्राकृतों में अर्धमागधी ही ३. भगवतीआराधना, ईसा की छठी शती, शिवार्य प्राचीन है, क्योंकि मथुरा का प्राचीन अभिलेखों में भी 'नमो अरहंतानं', 'नमो वधमानस' आदि अर्धमागधी शब्द-रूप मिलते हैं। श्वेताम्बर
४. मूलाचार, ईसा की छठी शती, वट्टकेर आगमों एवं अभिलेखों में आए 'अरहंतानं' पाठ को तो प्राकृतविद्या
ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थ मलतः यापनीय परंपरा के हैं में खोटे सिक्के की तरह बताया गया है. इसका अर्थ है कि यह पाठ और इनमें अनेकों गाथाएँ श्वेताम्बर-मान्य आगमों, विशेष रूप शौरसेनी का नहीं है (प्राकृतविद्या, अक्टूबर-दिसंबर ९४, पृ. १०- से नियुक्तियों और प्रकीर्णकों के समरूप हैं। ११) अतः शौरसेनी उसके बाद ही विकसित हुई है।
(ब) कुन्दकुन्द के ईसा की छठी शती के लगभग के ग्रन्थ शौरसेनी आगम और उनकी प्राचीनता
५. समयसार जब हम आगम की बात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट रूप से ६. नियमसार समझ लेना चाहिए कि आचारांग आदि द्वादशांगी जिन्हें श्वेताम्बर,
७. प्रवचनकार दिगंबर और यापनीय परंपरा आगम कहकर उल्लेखित करती
८. पंचास्तिकायसार हैं, वे सभी मूलत: अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर परंपरा में नन्दीसूत्र में उल्लेखित आगम हो, चाहे मूलाचार, भगवती
९. अष्टपाहुड (इनका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना संदिग्ध आराधना और उनकी टीकाओं या तत्त्वार्थ और उसकी दिगंबर है, क्योंकि इनकी भाषा में अपभ्रंश के शब्द-रूप भी हैं) टीकाओं में उल्लेखित आगम हो, अथवा अंगपण्णति एवं धवला (स) अन्य ग्रंथ-ईसा की छठी शती के पश्चात् के अंग और अंगबाह्य के रूप में उल्लेखित आगम हों, उनमें से
१०. तिलोयपण्णति-यतिवृषभ एक भी ऐसा नहीं जो शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था। हाँ, इतना anoraridwaraniwaridrowdnodrianirdwordrobraridwoM[१०९Haririwaririramidsranirandirirdriraniraniranitariand
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११. लोकविभाग
१२. जंबुद्वीपपण्णति
१३. अंगपण्णति
१४. क्षपणसार
विद
१५.
गोम्मटसार (दसवीं शती)
किन्तु इनमें से कसायपाहुड को छोड़कर कोई भी ग्रन्थ ऐसा नहीं है, जो पाँचवीं शती के पूर्व का हो। ये सभी ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धांत एवं सप्तभंगी की चर्चा अवश्य करते हैं और गुणस्थान की चर्चा जैन दर्शन में पाँचवीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनुपस्थित है। श्वेताम्बर आगमों में समवायांग और आवश्यक नियुक्ति में दो प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णतः अनुपस्थित है, जबकि षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द के ग्रंथों में इनकी चर्चा पाई जाती है, अतः ये सभी ग्रन्थ उनसे परवर्ती हैं। इसी प्रकार उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र मूल और उसके स्वोपज्ञ भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती टीकाएँ गुणस्थान की विस्तृत चर्चाएँ प्रस्तुत करती हैं । उमास्वाति का काल तीसरी-चौथी शती के लगभग हैं। अतः यह निश्चित है कि गुणस्थान का सिद्धांत पाँचवीं शती में अस्तित्व में आया है। अतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा है, ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व का नहीं है। प्राचीन शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में मात्र कसायपाहुड ही ऐसा है जो स्पष्टतः गुणस्थानों का उल्लेख नहीं करता है, किन्तु उसमें भी प्रकारान्तर से १२ गुणस्थानों की चर्चा उपलब्ध है, अतः यह भी आध्यात्मिक विकास की उन दस अवस्थाओं, जिनका उल्लेख आचारांगनिर्युक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में है, से परवर्ती और गुणस्थान सिद्धांत के विकास के संक्रमण काल की रचना है, अतः उसका काल भी चौथी से पाँचवीं शती के बीच सिद्ध होता है। शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला
शौरसेनी की प्राचीनता का गुणगान इस आधार पर भी किया जाता है कि यह नारायण कृष्ण और तीर्थंकर अरिष्टनेमि की मातृभाषा रही है, क्योंकि इन दोनों महापुरुषों का जन्म शूरसेन में हुआ था और ये शौरसेनी प्राकृत में ही अपना वाक्-व्यवहार
यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
Tomoro
करते थे। डा. सुदीप जी के शब्दों में इन दोनों महापुरुषों के प्रभावक व्यक्तित्व के महाप्रभाव से शूरसेन जनपद में जन्मी शौरसेनी प्राकृत भाषा को सम्पूर्ण आर्यावर्त में प्रसारित होने का सुअवसर मिला था। (प्राकृतविद्या जुलाई-सितंबर ९६, पृ. ६)
यदि हम एक बार उनके इस कथन को मान भी लें तो प्रश्न उठता कि अरिष्टनेमि के पूर्व नमि मिथिला में जन्म थे, वासुपूज्य चम्पा में जन्मे थे, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ और श्रेयांस काशी जनपद में जन्मे थे, यही नहीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या में जन्मे थे। ये सभी क्षेत्र तो मगध के ही निकटवर्ती क्षेत्र हैं, अतः इनकी मातृभाषा तो अर्धमागधी रही होगी। भाई सुदीप जी के अनुसार यदि शौरसेनी अरिष्टनेमि जितनी प्राचीन है, तो फिर अर्धमागधी तो ऋषभ जितनी प्राचीन सिद्ध होती है, अतः शौरसेनी से अर्धमागधी प्राचीन ही है।
११०
यदि शौरसेनी प्राचीन होती तो सभी प्राचीन अभिलेख और प्राचीन आगमिक ग्रन्थ शौरसेनी में मिलने थे, किन्तु ईसा की चौथी, पाँचवीं शती के पूर्व का कोई भी ग्रन्थ और अभिलेख शौरसेनी में उपलब्ध क्यों नहीं होता है?
नाटकों में शौरसेनी प्राकृत की उपलब्धता के आधार पर उसकी प्राचीनता का गुणगान किया जाता है, मैं विनम्रतापूर्वक पूछना चाहूँगा कि क्या इन उपलब्ध नाटकों में कोई भी नाटक ईसा की चौथी - पाँचवीं शती से पूर्व का है? फिर उन्हें शौरसेनी की प्राचीनता का आधार कैसे माना जा सकता है। मात्र नाटक ही नहीं, वे शौरसेनी प्राकृत एक भी ऐसा ग्रन्थ या अभिलेख दिखा दें जो अर्धमागधी आगमों और मागधी - प्रधान अशोक, खारवेल आदि के अभिलेखों से प्राचीन हो । अर्धमागधी के अतिरिक्त जिस महाराष्ट्री प्राकृत को वे शौरसेनी से परवर्ती बता रहे हैं, उसमें हाल की गाथा सप्तशती लगभग प्रथम शती में रचित है और शौरसेनी के किसी भी ग्रन्थ से प्राचीन है ।
पुनः मैं डा. सुदीप के निम्न कथन की ओर पाठकों का ध्यान दिलाना चाहूँगा, वे प्राकृतविद्या, जुलाई-सितंबर ९६ में लिखते हैं कि दिगंबरों के ग्रंथ उस शौरसेनी प्राकृत में है, जिससे मागधी आदि प्राकृतों का जन्म हुआ। इस संबंध में मेरा उनसे निवेदन है कि मागधी के संबंध में 'प्रकृतिः शौरसेनी' (प्राकृतप्रकाश ११ / २ ) इस कथन की वे जो व्याख्या कर रहे हैं, वह भ्रान्त है और वे स्वयं भी शौरसेनी के संबंध में 'प्रकृतिः संस्कृतम्'
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- यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य प्राकृतप्रकाश १२/२. इस सूत्र की व्याख्या में प्रकृति का जन्मदात्री, महाराष्ट्री में रूपान्तरित हुए न कि शौरसेनी आगम अर्धमागधी में यह अर्थ अस्वीकार कर चुके हैं। इसकी विस्तृत समीक्षा हमने रूपान्तरित हुए, अत: ऐतिहासिक तथ्यों की अवहेलना कर मात्र अग्रिम पृष्ठों में की है। इसके प्रत्युत्तर में मेरा दूसरा तर्क यह है कुतर्क करना कहाँ तक उचित है। कि यदि शौरसेनी प्राकृत ग्रंथों के आधार पर ही मागधी के
बुद्धवचनों की मूलभाषा मागधी थी, न कि शौरसेनी - प्राकृत आगमों की रचना हुई, तो उनमें किसी भी शौरसेनी प्राकृत के ग्रंथ का उल्लेख क्यों नहीं है। श्वेताम्बर आगमों में वे एक भी
शौरसेनी को मूलभाषा एवं मागधी से प्राचीन सिद्ध करने संदर्भ दिखा दें, जिसमें भगवती-आराधना, मूलाचार, षटखण्डागम, हेतु आदरणाय प्रा. नथमलजा टाटिय
हेतु आदरणीय प्रो. नथमलजी टाँटिया के नाम से यह भी प्रचारित तिलोयपण्णत्ति, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार आदि का ।
किया जा रहा है कि "शौरसेनी पालि भाषा की जननी है, यह उल्लेख हुआ हो। टीकाओं में भी मलयगिरि जी ने मात्र समयपाहुड मरा स्पष्ट चितन ह। पहल बाद्धा के ग्रथ शारसना म थ उनका का उल्लेख किया है, इसके विपरीत मूलाचार, भगवती-आराधना जला दिया गया और पालि में लिखा गया। प्राकृत विद्या.जलाईऔर षटखण्डागम की टीकाओं में एवं तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि. सितंबर ९६,पृ. १०। राजवार्तिक. श्लोकवार्तिक आदि सभी दिगंबर टीकाओं में इन टाँटियाजी जैसा बौद्धविद्या का प्रकाण्ड विद्वान ऐसी आगमों एवं नियुक्तियों के उल्लेख हैं। भगवतीआराधना की कपोलकल्पित बात कैसे कह सकता है? यह विचारणीय है। टीका में तो आचारांग, उत्तराध्ययन, कल्प तथा निशीथ से अनेक क्या ऐसा कोई भी अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध अवतरण भी दिए हैं। मूलाचार में न केवल अर्धमागधी आगमों है? जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल बद्ध - का उल्लेख है, अपितु उनकी सैकड़ों गाथाएँ भी हैं। मूलाचार में वचन शौरसेनी में थे। यदि हो तो आदरणीय टॉटिया जी या भाई आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, चंद्रवेध्यक, सुदीपजी उसे प्रस्तुत करें, अन्यथा ऐसी आधारहीन बातें करना उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि की अनेक गाथाएँ अपने शौरसेनी विद्वानों के लिए शोभनीय नहीं है। शब्द-रूपों में यथावत् पाई जाती हैं।
यह बात तो बौद्ध विद्वान् स्वीकार करते हैं कि मूल बुद्ध - दिगंबर परंपरा में जो प्रतिक्रमणसूत्र उपलब्ध है, उसमें वचन मागधी में थे और कालान्तर में उनकी भाषा को संस्कारित ज्ञातसत्र के उन्हीं १९ अध्ययनों के नाम मिलते हैं, जो वर्तमान में करके पालि में लिखा गया। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जिस श्वेताम्बर परंपरा में उपलब्ध ज्ञाताधर्मकथा में उपलब्ध हैं। तार्किक प्रकार मागधी और अर्धमागधी में किंचित् अन्तर है, उसी प्रकार दृष्टि से यह स्पष्ट है कि जो ग्रंथ जिन-जिन ग्रन्थों का उल्लेख मागधी और पालि में भी किंचित अन्तर है, वस्तुत: तो पालि करता है, वह उनसे परवर्ती ही होता है। पूर्ववर्ती कदापि नहीं। भगवान् बुद्ध की मूलभाषा मागधी का एक संस्कारित रूप है, शौरसेनी आगम या आगमतुल्य ग्रन्थों में यदि अर्धमागधी आगमों यही कारण है कि कुछ विद्वान पालि को गागधी का ही एक के नाम मिलते हैं तो फिर शौरसेनी और उसका रचित साहित्य प्रकार मानते हैं. दोनों में बहत अधिक अंतर नहीं है। पालि. अर्धमागधी आगमों से प्राचीन कैसे हो सकता है?
संस्कृत और मागधी की मध्यवर्ती भाषा है या मागधी का ही आदरणीय टाँटिया जी के माध्यम से यह बात भी उठाई साहित्यिक रूप है। यह तो प्रमाणसिद्ध है कि भगवान् बुद्ध ने गई है कि मलतः आगम शौरसेनी में रचित थे और कालान्तर में मागधी में ही अपने उपदेश दिए थे, क्योंकि बौद्ध - ग्रन्थों का उनका अर्धमागधीकरण (महाराष्ट्रीकरण) किया गया। यह एक स्पष्ट मन्तव्य है कि मागधी ही मूल भाषा है। इस संबंध में ऐतिहासिक सत्य है कि जैन धर्म का उद्भव मगध में हुआ और बुद्धघोष का निम्न कथन सबसे बड़ा प्रमाण है - वहीं से वह दक्षिणी एवं उत्तरपश्चिमी भारत में फैला। अत: सा मागधी मूल भासा नरायाय आदिकप्पिका। आवश्यकता हुई अर्धमागधी आगमों के शौरसेनी और महाराष्ट्री ब्रह्मणो च अस्सुतालापा संबुद्धा चापि भासरे। रूपान्तरण की, न कि शौरसेनी आगमों के अर्धमागधी रूपान्तर .
अर्थात् मागधी ही मूलभाषा है जो सृष्टि के प्रारंभ में उत्पन्न की। सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी या हई और न केवल ब्रह्मा (देवता) अपितु बालक और बुद्ध भी
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - इसी भाषा में बोलते हैं। (See-The preface to the childer's Pali - वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश। Dictionary)
ब. १. शेष शौरसेनीवत् ८।४।३०२ इससे यही फलित होता है कि मूल बुद्धवचन मागधी में .
मागध्यां यदुक्तं ततोअन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम्। थे। पालि उसी मागधी का संस्कारित साहित्यिक रूप है, जिसमें कालान्तर में बुद्धवचन लिखे गए। वस्तुतः पालि के रूप में २. शेषं शौरसेनीवत ८।४।३२३ मागधी का एक ऐसा संस्करण तैयार किया गया, जिसे संस्कृत
पैशाच्यां यदुक्तं, ततोअन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद के विद्वान और भिन्न-भिन्न प्रांतों के लोग भी आसानी से समझ
भवति। सकें। अत: बुद्धवचन मूलतः मागधी में थे, न कि शौरसेनी में। बौद्धत्रिपिटक की पालि और जैन आगमों की अर्धमागधी में ३. शेषं शौरसेनीवत् ८।४।४४६ कितना साम्य है, यह तो सुत्तनिपात और इसिभासियाई के
__ अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्य भवति। अपभ्रंशभाषायां तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन पालि-ग्रन्थों
प्रायः शौरसेनीभाषातुल्यं कार्यं जायते,शौरसेनी भाषायाः ये नियमाः की एवं प्राचीन अर्धमागधी आगमों की भाषा में अधिक दूरी
सन्ति, तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशभाषायामपि जायते। हेमचन्द्रकृत नहीं है। जिस समय अर्धमागधी और पालि में ग्रन्थरचना हो रही
प्राकृतव्याकरण। थी, उस समय तक शौरसेनी एक बोली थी, न कि एक साहित्यिक भाषा। साहित्यिक भाषा के रूप में उसका जन्म तो ईसा की
अत: इस प्रसंग में यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम इन तीसरी शताब्दी के बाद ही हआ है। संस्कृत के पश्चात सर्वप्रथम सूत्रों में प्रकृति शब्द का वास्तविक तात्पर्य क्या है, इसे समझें। साहित्यिक भाषा के रूप में यदि कोई भाषा विकसित हुई है तो यदि हम यहाँ प्रकृति का अर्थ उद्भव का कारण मानते हैं तो वे अर्धमागधी एवं पालि ही हैं, न कि शौरसेनी। शौरसेनी का निश्चित ही इन सूत्रों से यह फलित होता है कि मागधी या पैशाची कोई भी ग्रन्थ या नाटकों के अंश ईसा की तीसरी-चौथी शती का उद्भव शौरसेनी से हुआ, किन्तु शौरसेनी को एकमात्र प्राचीन से पूर्व के नहीं है, जबकि पालित्रिपिटक और अर्धमागधी भाषा मानने वाले तथा मागधी और पैशाची को उससे उदभत आगम साहित्य के अनेक ग्रन्थ ई.प. तीसरी-चौथी शती में
मानने वाले ये विद्वान् वररुचि के उस सूत्र को भी उद्धृत क्यों निर्मित हो चुके थे।
नहीं करते, जिसमें शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत बताई गई है यथा .
"शौरसेनी - १२/१- टीका शूरसेनानां भाषा शौरसेनी सा च 'प्रकृति : शौरसेनी' का सम्यक अर्थ
लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्पुटीकियते इति वेदितव्यम्। जो विद्वान् मागधी या अर्धमागधी को शौरसेनी से परवर्ती अधिकारसूत्रमेतदापरिच्छेदसमाप्ते: १२/१ प्रकृति: संस्कृतम १२/
पी से विकसित मानते हैं वे अपने कथन का आधार २ टीका-शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृतिः संस्कृतम्। प्राकृत प्रकाश वररुचि (लगभग ७वीं शती) के प्राकृतप्रकाश और हेमचन्द्र १२/२" अतः उक्त सूत्र के आधार पर हमें यह भी स्वीकार (लगभग १२वीं शताब्दी) के प्राकृतव्याकरण के निम्न सूत्रों को करना होगा कि शौरसेनी प्राकृत संस्कृत से उत्पन्न हुई। इस बताते हैं
प्रकार प्रकृति का अर्थ उद्गम स्थल करने पर उसी प्राकृतप्रकाश
के आधार पर यह भी मानना होगा कि मूलभाषा संस्कृत थी अ. १. प्रकृतिः शौरसेनी १०/२
और उसी से शौरसेनी उत्पन्न हुई। क्या शौरसेनी के पक्षधर इस अस्याः पैशाच्याः प्रकृतिः शौरसेनी। स्थितायां शौरसेन्यां सत्य को स्वीकार करने को तैयार हैं। भाई सुदीपजी जो शौरसेनी पैशाची-लक्षणं प्रवर्तयितव्यम्।
के पक्षधर हैं और प्रकृति : शौरसेनी के आधार पर मागधी को ।
शौरसेनी से उत्पन्न बताते हैं, वे स्वयं भी प्रकृतिः संस्कृतम्२. प्रकृतिः शौरसेनी ११(२१
प्राकृतप्रकाश १२/२ के आधार पर यह मानने को तैयार नहीं है अस्याः मागध्याः प्रकृतिः शौरसेनीति वेदितव्यम। कि प्रकृति का अर्थ उससे उत्पन्न हुई ऐसा है। वे स्वयं लिखते हैं
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- यतीन्द्र सूरि तारकग्रन्य जैन आगम एवं साहित्य ॐ - जितने भी प्राकृत-व्याकरणशास्त्र उपलब्ध हैं, वे सभी और उसके विभिन्न भेद अर्थात् विभिन्न साहित्यिक प्राकृतें हैं। संस्कृत भाषा में हैं एवं संस्कृत व्याकरण के माडल पर निर्मित सत्य यह है कि बोली के रूप में तो प्राकृतें ही प्राचीन हैं और हैं। अतएव उनमें प्रकृतिः संस्कृतम् जैसे प्रयोग देखकर कतिपयजन संस्कृत उनका संस्कारित रूप है, वस्तुतः संस्कृत विभिन्न प्राकृत ऐसा भ्रम करने लगते हैं कि प्राकृतभाषा संस्कृतभाषा से उत्पन्न बोलियों के बीच सेतु का काम करने वाली एक सामान्य साहित्यिक हुई, ऐसा अर्थ कदापि नहीं है। प्राकृतविद्या जुलाई-सितंबर ९६, भाषा के रूप में अस्तित्व में आई। पृ. १४। भाई सुदीपजी जब शौरसेनी की बारी आती है, तब
. यदि हम भाषा-विकास की दृष्टि से इस प्रश्न पर चर्चा करें आप प्रकृति का अर्थ आधार माडल करें और जब मागधी का
तो भी यह स्पष्ट है कि संस्कृत सुपरिमार्जित, सुव्यवस्थित और प्रश्न आए तब आप प्रकृतिः शौरसेनी का अर्थ मागधी शौरसेनी
व्याकरण के आधार पर सुनिबद्ध भाषा है। यदि हम यह मानते से उत्पन्न हुई ऐसा करें यह दोहरा मापदण्ड क्यों? क्या केवल
हैं कि संस्कृत से प्राकृतें निर्मित हुई हैं, तो हमें यह भी मानना
* शौरसेनी को प्राचीन और मागधी को अर्वाचीन बताने के लिए?
होगा कि मानव जाति अपने आदिकाल में व्याकरण शास्त्र के वस्तुतः प्राकृत और सस्कृत शब्द स्वय हा इस बात के प्रमाण है नियमों से संस्कारित संस्कत भाषा बोलती थी और उसी से कि उनमें मलभाषा कौन है? संस्कृत शब्द स्वयं ही इस बात का अपभ्रष्ट होकर शौरसेनी और शौरसेनी से अपभ्रष्ट होकर मागधी.. सूचक है कि संस्कृत स्वाभाविक या मूलभाषा न होकर एक
पैशाची, अपभ्रंश आदि भाषाएँ निर्मित हुई। इसका अर्थ यह भी संस्कारित कृत्रिम भाषा है। प्राकृत शब्दों एवं शब्दरूपों का नाम जातिको
होगा कि मानव जाति की मूल भाषा अर्थात् संस्कृत से अपभ्रष्ट व्याकरण द्वारा संस्कार करके जो भाषा निर्मित होती है, उसे ही होते-होते ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ, किन्तु मानव सस्कृत कहा जा सकता है। जिस सस्कारित न किया गया हो वह जाति और मानवीय संस्कृति के विकास का वैज्ञानिक इतिहास संस्कृत कैसे होगी? वस्तुतः प्राकृत स्वाभाविक या सहज भाषा है
इस बात को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। और उसी को संस्कारित करके संस्कृत भाषा निर्मित हुई है। इस दृष्टि से प्राकृत मूलभाषा है और संस्कृत उससे उद्भूत हुई है।
वह तो यही मानता है कि मानवीय बोलियों के संस्कार
द्वारा ही विभिन्न साहित्यिक भाषाएँ अस्तित्व में आई अर्थात् हेमचन्द्र के पूर्व नमिसाधु ने रुद्रट के काव्यालङ्कार की विभिन्न बोलियों से ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हआ है। वस्ततः टीका में प्राकृत और संस्कृत शब्द का अर्थ स्पष्ट कर दिया है।
इस विवाद के मूल में साहित्यिक भाषा और लोकभाषा अर्थात् वे लिखते हैं--
बोली के अंतर को नहीं समझ पाना है। वस्तुतः प्राकृतें अपने. सकल जगज्जन्तुनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो मूलस्वरूप में भाषाएँ न होकर बोलियाँ रही हैं। यहाँ हमें यह भी वचनव्यापार: प्रकृतिः तत्र भवं सैव वा प्राकृतम्। आरिसवयणे ध्यान रखना चाहिए कि प्राकृत कोई एक बोली नहीं अपितु सिद्धं, देवाणं अद्धमागहा वाणी इत्यादि,वचनाद्वा प्राक् पूर्वकृत् बोली-समूह का नाम है। जिस प्रकार प्रारंभ में विभिन्न प्राकृतों प्राकृतम्। बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिन्धनभूत अर्थात् बोलियों को संस्कारित करके एक सामान्य वैदिक भाषा वचनमुच्यते। मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च का निर्माण हुआ, उसी प्रकार कालक्रम में विभिन्न बोलियों को देशविशेषात्संस्कारकरणात् च समासादित विशेष सत् संस्कृतादुत्तर अलग-अलग रूप में संस्कारित करके उनसे विभिन्न साहित्यिक भेदोनाप्नोति। काव्यालंकार -टीका, नमिसाधु २/१२
प्राकृतों का निर्माण हुआ। अत: यह एक सुनिश्चित सत्य है कि अर्थात् जो संसार के प्राणियों का व्याकरण आदि संस्कार
बोली के रूप में प्राकृतें मूल एवं प्राचीन है और उन्हीं से संस्कृत से संहित सहज वचन व्यापार है उससे निःसत भाषा प्राकत है का विकास एक कामन भाषा के रूप में हुआ। प्राक़तें बोलियाँ जो बालक, महिला आदि के लिए भी सबोध है और पर्व में और संस्कृत भाषा है। बोली को व्याकरण से संस्कारित करके निर्मित होने से (प्राक + कृत) सभी भाषाओं की रचना का
___ एकरूपता देने से भाषा का विकास होता है। आधार है वह तो मेघ से निर्मुक्त जल की तरह सहज है उसी का भाषा से बोली का विकास नहीं होता है। विभिन्न प्राकृत देश-प्रदेश के आधार पर किया गया संस्कारित रूप संस्कृत बोलियों को आगे चलकर व्याकरण के नियमों से संस्कारित anitariasardarosamirmirandiindaindiandutorsrini११३dioidiosaritambarsamirsidasardaroramidarsrande
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - किया गया तो उनसे विभिन्न प्राकृतों का जन्म हुआ। जैसे श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए। अपितु मागधी बोली से मागधी प्राकृत का, शौरसेनी बोली से शौरसेनी इससे तो यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी प्राकृत का और महाराष्ट्र की बोली से महाराष्ट्री प्राकृत का विकास में रूपान्तरित हुए हैं। पुनः अर्धमागधी भाषा के स्वरूप के हुआ। प्राकृत के शौरसेनी, मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि भेद संबंध में दिगंबर विद्वानों में जो भ्रांति प्रचलित रही है उसका यहाँ तत्-तत् प्रदेशों की बोलियों से उत्पन्न हुए हैं न कि किसी प्राकृत स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। संभवतः ये विद्वान् अर्धमागधी विशेष से। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कोई भी प्राकृत व्याकरण और महाराष्ट्री के अंतर को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाए हैं तथा सातवीं शती से पूर्व का नहीं है। साथ ही उनमें प्रत्येक प्राकृत के सामान्यतः अर्धमागधी और महाराष्ट्री को पर्यायवाची मानकर लिए अलग-अलग मॉडल अपनाए गये हैं। वररुचि के लिए ही चलते रहे। यही कारण है कि उपाध्ये जैसे विद्वान् भी 'य' शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत है। जबकि हेमचन्द्र के लिए शौरसेनी श्रुति को अर्धमागधी का लक्षण बताते हैं। जबकि वह मूलतः
(महाराष्ट्री) प्राकृत है, अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण है, न कि अर्धमागधी का। अर्धमागधी या मॉडल है। अन्यथा हेमचन्द्र के शौरसेनी के संबंध में 'शेषं तोय' श्रुति प्रधान नहीं है। प्राकृतवत्' (८.४.२८६) का अर्थ होगा, शौरसेनी महाराष्ट्री से
यह सत्य है कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा में उत्पन्न हुई, जो शौरसेनी के पक्षधरों को मान्य नहीं होगा।
कालक्रम में परिवर्तन हुए हैं और उस पर महाराष्टी प्राकृत की य' क्या अर्धगामधी-आगम मूलतः शौरसेनी में थे? श्रुति का प्रभाव आया है, किन्तु यह मानना पूर्णतः मिथ्या है कि
श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरण हुआ ___प्राकृतविद्या, जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय में डॉ.
है। वास्तविकता यह है कि अर्धमागधी आगम ही माथरी और. सुदीप जैन ने प्रो. टाँटिया को यह कहते हुए प्रस्तुत किया है कि
वल्लभी वाचनाओं के समय क्रमशः शौरसेनी और महाराष्ट्री से "श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृतमय
प्रभावित हुए हैं। ही था, जिसका स्वरूप क्रमशः अर्धमागधी के रूप में बदल
टाँटिया जी जैसा विद्वान इस प्रकार की मिथ्या धारणा को गया।" इस संदर्भ में हमारा प्रश्न यह है कि यदि प्राचीन श्वेताम्बर आगम-साहित्य शौरसेनी प्राकृत में था, तो फिर वर्तमान उपलब्ध
प्रतिपादित करे कि शौरसेनी आगम ही अर्धमागधी में रूपान्तरित
हुए यह विश्वसनीय नहीं लगता है। यदि टाँटिया जी का यह पाठों में कहीं भी शौरसेनी का प्रभाव क्यों नहीं दिखाई देता। .
कथन, कि पाली त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम मलतः शौरसेनी इसके विपरीत हम यह पाते हैं कि दिगंबर परंपरा में मान्य
में थे और फिर पाली और अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए, सत्य शौरसेनी आगम साहित्य पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत
है तो उन्हें या सुदीप को इसके प्रमाण प्रस्तुत करने चाहिए। का व्यापक प्रभाव है, इस तथ्य की सप्रमाण चर्चा हम पूर्व में
वस्तुतः जब किसी बोली को साहित्यिक भाषा का रूप दिया कर चुके हैं। इस संबंध में दिगंबर परंपरा के शीर्षस्थ विद्वान् प्रो.
जाता है तो एकरूपता के लिए नियम या व्यवस्था आवश्यक ए.एन. उपाध्ये का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि प्रवचनसार की भाषा
होती है और यही नियम भाषा का व्याकरण बनाते हैं। विभिन्न पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का पर्याप्त प्रभाव है
प्राकृतों को जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया तो उनके और अर्धमागधी भाषा की अमेक विशेषताएँ उत्तराधिकार के लिए भी व्याकरण के नियम आवश्यक हए और ये व्याकरण के रूप में इस ग्रन्थ को प्राप्त हुई हैं। इसमें स्वरपरिवर्तन, मध्यवर्ती नियम मख्यत: संस्कृत से गृहीत किए गए। जब व्याकरणशास्त्र व्यंजनों के परिवर्तन 'य' श्रुति इत्यादि अर्धमागधी भाषा के समान में किसी भाषा की प्रकृति बताई जाती है तब वहाँ तात्पर्य होता है ही मिलते हैं। दूसरे वरिष्ठ दिगंबर विद्वान् प्रो. खड़बड़ी का कहना कि उस भाषा के व्याकरण के नियमों का मूल आदर्श किस है कि षट्खण्डागम की भाषा शुद्ध शौरसेनी नहीं है। इस प्रकार भाषा के शब्दरूप हैं? उदाहरण के लिए जब हम शौरसेनी के यहाँ एक ओर दिगंबर विद्वान इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार व्याकरण की चर्चा करते हैं तो हम यह मानते हैं कि उसके कर रहे हैं कि दिगम्बर आगमों पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी व्याकरण का आदर्श अपनी कुछ विशेषताओं को छोड़कर जिसकी भाषा का प्रभाव है वहाँ यह कैसे माना जा सकता है कि चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत के शब्दरूप हैं।
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यतीन्द्र सूरि स रकान्य - जैन आगम एवं साहित्य - किसी भी भाषा का जन्म बोली के रूप में पहले होता है प्रकृति कहा जाता है। मूलशब्द से जो शब्द रूप बना है वह पि.र बोली से साहित्यिक भाषा का जन्म होता है जब साहित्यिक तद्भव है। प्राकृत-व्याकरण संस्कृत शब्द से प्राकृत का तद्भव भाषा बनती है तब उसके लिए व्याकरण के नियम बनाए जाते शब्दरूप कैसा बना है, इसकी व्याख्या करता है। अतः यहाँ हैं, ये व्याकरण के नियम जिस भाषा के शब्दरूपों के आधार पर संस्कृत को प्रकृति कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि तद्भव उस भाषा के शब्दरूपों को समझाते हैं वही उसकी प्रकृति कहलाते शब्दों के संदर्भ में संस्कृत के शब्द को आदर्श मानकर या हैं।यह सत्य है कि बोली का जन्म पहले होता है, व्याकरण उसके माडल मानकर यह व्याकरण लिखा गया है। अतः प्रकृति का बाद बनता है। शौरसेनी अथवा प्राकृत की प्रकृति को संस्कृत अर्थ आदर्श या माडल है। संस्कृत शब्दरूप को मॉडल, आदर्श मानने का अर्थ इतना ही है कि इन भाषाओं के जो भी व्याकरण मानना, इसलिए आवश्यक था कि प्राकृत-व्याकरण संस्कृत के बने हैं वे संस्कृत शब्दरूपों के आधार पर बने हैं। यहाँ पर भी जानकार विद्वानों को दृष्टि में रखकर या उनके लिए ही लिखे गए ज्ञातव्य है कि प्राकृत का कोई भी व्याकरण प्राकृत के लिखने थे। जब डा. सुदीप जी शौरसेनी के संदर्भ में प्रकृति: संस्कृतम् या बोलने वालों के लिए नहीं बनाया गया, अपितु उनके लिए का अर्थ माडल या आदर्श करते हैं तो उन्हें मागधी, पैशाची बनाया गया जो संस्कृत में लिखते या बोलते थे। यदि हमें आदि के संदर्भ में 'प्रकृतिः शौरसेनी' का अर्थ भी यही करना किसी संस्कृत के जानकार व्यक्ति को प्राकृत के शब्द या शब्दरूपों चाहिए कि शौरसेनी को माडल या आदर्श मानकर इनका व्याकरण को समझाना हो तो हमें उसका आधार संस्कृत को ही बनाना होगा लिखा गया है, इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि मागधी आदि और उसी के आधार पर यह समझाना होगा कि संस्कृत के किस प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। हेमचन्द्र ने महाराष्ट्री शब्द से प्राकृत का कौन सा शब्दरूप कैसे निष्पन्न हआ है। प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, मागधी आदि प्राकृतों को इसलिए जो भी प्राकृत-व्याकरण निर्मित किए गए अपरिहार्य समा
समझाया है, अतः इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि महाराष्ट्री रूप से वे संस्कृत शब्दों या शब्दरूपों को आधार मानकर निर्मित
पर प्राचीन है या महाराष्ट्री से मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई। किए गए, अपरिहार्य रूप से वे संस्कृत शब्दों या शब्दरूपों को प्राचीन कौन? अर्धमागधी या शौरसेनी आधार मानकर प्राकृत शब्दों या शब्द रूपों की व्याख्या करते
इसी संदर्भ में टाँटिया जी के नाम से यह भी प्रतिपादित हैं। संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहने का इतना ही तात्पर्य है। इसी प्रकार जब मागधी, पैशाची या अपभ्रंश की प्रकृति शौरसेनी
किया गया है कि "यदि वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य को को कहा जाता है तो उसका तात्पर्य होता है कि प्रस्तुत व्याकरण ।
ही मूल आगम साहित्य मानने पर जोर देंगे तो इस अर्धमागधी के नियमों में इन भाषाओं के शब्दरूपों को शौरसेनी शब्दों को
भाषा का आज से १५०० वर्ष पहले अस्तित्व ही नहीं होने से इस आधार मानकर समझाया गया है। प्राकृतप्रकाश की टीका में
स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को ही ५०० ई. के परवर्ती वररुचि ने स्पष्टतः लिखा है 'शौरसेन्या ये शब्दास्तेषां प्रकृतिः
मानना पड़ेगा।" ज्ञातव्य है कि यहाँ भी महाराष्ट्री और अर्धमागधी संस्कृतम्' (१२/२) अर्थात् शौरसेनी के जो शब्द हैं उनकी
के अंतर को न समझते हुए एक भ्रांति को खड़ा किया किया प्रकृति या आधार संस्कृत शब्द हैं।
गया है। सर्वप्रथम तो यह समझ लेना चाहिए कि आगमों के
प्राचीन अर्धमागधी के 'त' श्रुति प्रधान पाठ चूर्णियों और अनेक यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृतों में तीन प्रकार के शब्द -
प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे हैं, उससे नि:संदेह यह सिद्ध रूपलिते हैं, तद्भव, तत्सम और देशज। देशज शब्द वे हैं जो ।
होता है कि मूल अर्धमागधी 'त' श्रुति प्रधान थी और उसमें लोप किसी देश-विशेष में किसी विशेष अर्थ में प्रयुक्त हैं। इनके
की प्रवृत्ति नगण्य ही थी और यह अर्धमागधी भाषा शौरसेनी अर्थ की व्याख्या के लिए व्याकरण की कोई आवश्यकता नहीं
और महाराष्ट्री से प्राचीन भी है यदि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से होती है। तद्भव शब्द वे हैं जो संस्कृत शब्दों से निर्मित हैं,
महाराष्ट्री जिसे दिगंबर विद्वान्, भ्रांति से अर्धमागधी कह रहे हैं, जबकि संस्कृत के समान शब्द तत्सम हैं। संस्कृत व्याकरण में
बदले गए तो फिर उनकी प्राचीन प्रतियों में 'त' श्रुति के स्थान पर दो शब्द प्रसिद्ध हैं- प्रकृति और प्रत्यय। इनमें मूल शब्दरूप का '' श्रति के पाठ क्यों उपलब्ध नहीं होते हैं जो शौरसेनी का andidnianbidnidrodromorrorrowdubaridriodrira[११५/ doorbonirbrdasranAGAGrdasdrsandidroximiririrande
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य विशेषता है। इस प्रसंग में डा. टाँटिया जी के नाम से यह भी एक भी ग्रन्थ है जो ई.पू. में लिखा गया हो? सत्य तो यह है कि कहा गया है कि आज भी आचारांग सूत्र आदि की प्राचीन ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पूर्व शौरसेनी में निबद्ध एक प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय भी ग्रन्थ नहीं था। जबकि मागधी के अभिलेख और अर्धमागधी. टाँटिया जी से और भाई सुदीप जी से साग्रह निवेदन करूँगा की के आगम ई.पू. तीसरी शती से उपलब्ध हो रहे हैं। पुनः यदि ये वे आचारांगऋषिभाषित सूत्रकृतांग आदि की किन्हीं भी प्राचीन लोग जिसे अर्धमागधी कह रहे हैं उसे महाराष्ट्री भी मान लें तो प्रतियों में 'द' श्रुति प्रधान पाठ दिखला दें। प्राचीन प्रतियों में जो उसके भी ग्रन्थ ईसा की प्रथम शताब्दी से उपलब्ध होते हैं। पाठ मिल रहे हैं, वे अर्धमागधी या आर्ष प्राकृत के हैं, न कि सातवाहन हाल की गाथासप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन शौरसेनी के हैं। यह एक अलग बात है कि कुछ शब्दरूप आर्ष ग्रन्थ है, जो इसी ई.पू. प्रथम शती से ईसा की प्रथम शती के अर्धमागधी और शौरसेनी में समान हैं।
मध्य रचित है। पुनः यह एक संकलन-ग्रन्थ है जिसमें अनेक वस्तुतः इन प्राचीन प्रतियों में न तो 'द' श्रति देखी जाती है।
ग्रन्थों से गाथाएँ संकलित की गई है इसका तात्पर्य यह हुआ कि और न 'न' के स्थान पर 'ण' की प्रवृत्ति देखी जाती है जिसे ।
इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रंथ रचे गए थे। कालिदास के व्याकरण में शौरसेनी की विशेषता कहा जाता है। सत्य तो यह नाटक जिनमें शौरसेनी का प्राचीनतम रूप मिलता है, भी ईसा है कि अर्धमागधी आगमों का ही शौरसेनी रूपान्तरण हुआ है न
की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ स्पष्ट रूप कि शौरसेनी आगमों का अर्धमागधी रूपान्तरण। यह सत्य है से न केवल अर्धमागधी आगमों से अपितु परवर्ती 'य' श्रति कि न केवल अर्धमागधी आगमों पर अपितु शौरसेनी आगमतुल्य
प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं, किसी भी स्थिति में ईसा की कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों पर भी महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का स्पष्ट ।
५वीं शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं। षटखण्डागम और प्रभाव है। जिसे हम पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं।
कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग ५वीं
शती में निर्मित अवधारणाओं की उपस्थिति उन्हें श्वेताम्बर आगमों क्या पंद्रह सौ वर्ष पूर्व अर्धमागधी भाषा एवं श्वेताम्बर और उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र (लगभग चतुर्थ शती) से परवर्ती अर्धमागधी आगमों का अस्तित्व नहीं था? ही सिद्ध करती है, क्योंकि इनमें ये अवधारणाएँ अनुपस्थित हैं।
इस संबंध में मैंने अपने न्थ 'गुणस्थानसिद्धांत-एक विश्लेषण' डा. संदीप जी द्वारा टाँटिया जी के नाम से उद्धृत यह
और 'जैन धर्म का यापनीसम्प्रदाय' में विस्तार से प्रकाश डाला कथन कि १५०० वर्ष पहले अर्धमागधी भाषा का अस्तित्व ही
है। इस प्रकार सत्य तो यह है कि अर्धमागधी भाषा या अर्धमागधी नहीं था पूर्णतः भ्रान्त है। आचारांग 'सूत्रकृतांग' ऋषिभाषित
आगम नहीं, अपितु शौरसेनी भाषा और शौरसेनी आगम ही ईसा जैसे, आगमों को पाश्चात्य विद्वानों ने एक स्वर से ई.पू. तीसरी
की ५वीं शती के पश्चात् अस्तित्व में आये। अच्छा होगा कि भाई चौथी शताब्दी या उससे भी पहले का माना है। क्या उस समय
सुदीप जी पहले मागधी और पाली तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री ये आगम अर्धमागधी भाषा में निबद्ध न होकर शौरसेनी में निबद्ध
के अंतर को एवं इनके प्रत्येक लक्षण को, तथा जैन आगमिक थे। ज्ञातव्य है कि 'द' श्रुति प्रधान और णकार की प्रवृत्ति वाली
साहित्य के ग्रन्थों के कालक्रम को और जैन इतिहास को तटस्थ शौरसेनी का जन्म तो उस समय हआ ही नहीं था अन्यथा अशोक
दृष्टि से समझ लें और फिर प्रमाण सहित अपनी कलम निर्भीक के अभिलेखों में और मथुरा (जो शौरसेनी की जन्मभूमि है) के
रूप से चलाएँ, व्यर्थ की आधारहीन भ्रांतियाँ खड़ी करके समाज अभिलेखों में कहीं तो इस शौरसेनी के वैशिष्ट्य वाले शब्दरूप
में कटुता के बीज न बोएँ। उपलब्ध होने चाहिए थे? क्या शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध ऐसा
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प्राकृत महाकाव्यों में ध्यनितत्त्य
विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव...
आचार्य विश्वनाथ कविराज ने अपने प्रसिद्ध रस की व्यंजना संभव ही नहीं है। रस अनिवार्यतः ध्वनिरूप है काव्यानुशासन साहित्यदर्पण में ध्वनितत्त्व से सम्पन्न काव्य को और रसध्वनि ही सर्वोत्तम ध्वनि है और वही काव्य की आत्मा उत्तम काव्य की संज्ञा दी है। वाच्यातिशायिनि व्यङ्ग्ये ध्वनिस्त है, 'काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति' ध्वन्यालोक। काव्यमुत्तमा: (अध्याय ४-कारिका १) अर्थात् वाच्य से अधिक
साहित्यशास्त्रियों के मतानुसार पाँच हजार तीन सौ पचपन चमत्कारजनक व्यंग्य को ध्वनि कहते है, और जिस काव्य में प्रकार की ध्वनियाँ होती हैं. परंत ध्वनि के शद्ध भेद कल इक्यावन ध्वनि की प्रधानता होती है। उसे ही उत्तम काव्य कहा जाता है।
ह! हैं। इनमें भी कुल अट्ठारह ध्वनियों के बारह भेदों के अतिरिक्त शेष वस्तुत: व्यंग्य ही ध्वनि का प्राण है। प्रसिद्ध ध्वनिप्रवर्तक आचार्य
___ छह इस प्रकार हैं--१.शब्दशक्त्युद्भव वस्तुध्वनि २. शब्दशक्त्युद्भव आनन्दवर्द्धन (नवीं शती) के अनुसार ध्वनि (ध्वन् + इ) काव्य
अलंकारध्वनि, ३. शब्दार्थशक्त्युद्भव वस्तुध्वनि, ४. की आत्मा है या वह एक ऐसा काव्यविशेष है, जहाँ शब्द और अर्थ
असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि तथा अविवक्षितवाच्य के दो भेद, ५. अपने मुख्यार्थ को छोड़ किसी विशेष अर्थ को व्यक्त करते हैं।
अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य एवं ६. अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि । वस्तुतः ध्वनि काव्य के सौंदर्यविधायक तत्त्वों में अन्यतम है।
प्राकृत के उत्तम महाकाव्यों में ये समस्त ध्वनिभेद गवेषणीय सभी विद्याएं व्याकरणमलक हैं, इसलिए ध्वनि का के
क है, इसालए ध्वान का हैं, क्योंकि उनमें ध्वनि तत्त्व की समायोजना विशेष रूप से हुई। आदिस्रोत वैयाकरणओं के स्फोट सिद्धांत में निहित है। ध्वन्यालोक
' है। तभी तो ध्वनिशास्त्रियों ने ध्वनितत्त्व की विवेचना के क्रम में की वृत्ति (१.१६) से स्पष्ट है कि साहित्यशास्त्रियों ने ध्वनि शब्द
प्राकृत गाथाओं को साग्रह संदर्भित किया है। आनन्दवर्द्धन और को वैयाकरणों से आयत्त किया है। वैयाकरणों के अनुसार
विश्वनाथ के लिए तो प्रसिद्ध प्राकृत काव्य गाहासत्तसई इस स्फोट को अभिव्यक्त करने वाले वर्गों को ध्वनि कहते हैं।
प्रसंग में विशेष उपजीव्य रहा है। प्रसिद्ध वैयाकरण आचार्य भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में कहा है कि वों में संयोग और वियोग, अर्थात् मिलने और हटने से जो
ईसवी की प्रथम शती के ख्यातनामा प्राकृतकवि राजा हाल स्फोट उत्पन्न होता है, शब्द या वर्ण जनित वही शब्द ध्वनि है ।
सातवाहन की प्रसिद्ध शतक-काव्यकृति 'गाहासत्तसई' शास्त्रीय और फिर स्फोट का परिचय या परिभाषा प्रस्तुत करने के क्रम
महाकाव्य की परिभाषा की सीमा में यद्यपि नहीं आती है, उसकी में परम प्रसिद्ध शब्दशास्त्री आचार्य भर्तहरि ने कहा है कि शब्द गणना प्राकृत मुक्तककाव्य में होती है, तथापि अपनी गणात्मक के दो भेदों प्राकृत और वैकृत में प्राकृत ध्वनि स्फोट के ग्रहण विशिष्ट
विशिष्टता से वह महाकाव्यत्व की गरिमा अवश्य ही आयत्त में कारण है। शब्द की अभिव्यक्ति से जो आवाज होती है, वह
करती है, जिस प्रकार महाकवि कालिदास का मेघदूत काव्य वैकृत ध्वनि है और वह भी स्फोटस्वरूप ही है। वस्तुतः ध्वनि
खण्डकाव्य होते हुए भी अपने रसात्मक गुणवैशिष्टय से महाकाव्यत्व और स्फोट में एकात्मता है।
के मूल का अधिकारी है, इसे महाकवि माघ के शिशुपालवध
की समकक्षता प्रदान कर कहा गया है, मेघे माघे गतं वयः। ध्वनिवादी आचार्य रस को ध्वनि का अंग मानते हैं। उन्होंने ध्वनि के मुख्यतः तीन भेदों का निर्देश किया है--
महाकवि की वाणी रूप काव्य में निहित उसके अंग रूप वस्तुध्वनि, अलंकारध्वनि और रसादिध्वनि। आनन्दवर्द्धन ने
अलंकार आदि में व्यंग्य या ध्वनि की स्थिति उसी प्रकार होती रस को व्यंग्य कहा है, अर्थात् रस तो ध्वनि रूप ही हो सकता है,
है, जिस प्रकार सुंदरियों के प्रत्यक्ष दृश्यमान अवयवों के सौंदर्य उसका कथन नहीं किया जा सकता। और फिर ध्वनि के बिना क आतारक्त उन अगा में माता के आब या छाया का तरलता wriraordinaroordaroranardiarosarorandirird ११७Harirandiriraniranirarorariridwararoranstarsuasini
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ की तरह चमकने वाला लावण्य या लुनाई कुछ और ही होती है। जिस प्रकार लुनाई प्रत्यक्ष न होकर प्रतीयमान होती है, उसी प्रकार ध्वनि या व्यंग्य की प्रतीति होती है-
प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् । यत्तत्प्रसिद्धावयवतिरिक्तं विभाति लावण्यमिवाङ्गनासु । ( ध्वन्यालोकः कारिका सं. ४ )
-
ध्वनिवादी साहित्यशास्त्रियों ने अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि के उदाहरण में गाहासत्तसई की इस गाथा को बहुशः संदर्भित किया है धम्म वीसत्थो सो सुणओ अज्ज मारिओ तेण । गोलानईकच्छकुडंगवासिणा दरिअसीहेण ।।
( शतक २- गाथा ७५ )
इस गाथा में किसी अभिसारिका नायिका के एकान्त संकेत स्थल, गोदावरी नदी के तटवर्ती कुंज में फूल चुनने के लिए पहुँचे हुए विघ्नस्वरूप किसी धार्मिक से वह नायिका कहती है। कि हे धार्मिक ! आप गोदावरी नदी के तटवर्ती कुंज में निर्भय भाव से भ्रमण करें, क्योंकि आज कुंज में रहने वाले मदमस्त सिंह ने आपको तंग करने वाले कुत्ते को मार डाला है। नायिका के इस कथन में कुत्ते से डरने वाले धार्मिक के लिए सिंह के मारे जाने का भय उत्पन्न करके कुंज में उसके भ्रमण का निषेध किया गया है। यहाँ विधिरूप वाच्य में प्रतिषेध रूप व्यंग्य का विनियोग हुआ है। इस गाथा में वाच्य या मुख्य अर्थ से व्यंग्य की सर्वथा भिन्नता के कारण ही वाक्यगत अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वनि की योजना हुई है।
गाहा सत्तसई में ही अत्यंततिरस्कृतवाच्य ध्वनि का एक और उदाहरण इस प्रकार है-
धरिणीए महाणसकम्मलग्नमसिमलिइएण हत्थेण । चित्तं मुहं हसिज्जइ चंदावत्थं गअं पइणा ।। (तत्रैव: शतक - १, गाथा सं. १३ )
इस गाथा में एक ऐसी नायिका का चित्रण है, जिसके हाथ रसोई के काम में लगे रहने के कारण मलिन हो गये हैं। उस नायिका ने उन्हीं मलिन कालिख लगे हाथों से अपने मुँह को छुआ है, जिससे उसके मुँह में कालिख लग गई है कालिख लगा तुम्हारा मुँह लांछन युक्त चंद्रमा के समान प्रतीत होता है । यहाँ विरूपता भी अलंकरण हो गई है, क्योंकि जिसका जो उचित
जैन आगम एवं साहित्य
कार्य है, उसके करने में विकृति प्रकृति बन जाती है। कुलस्त्रियों के लिए गृहकार्य से विमुख होना ही अनुचित है, यही यहाँ ध्वनि है, जो वाच्यार्थ से सर्वथा भिन्न या तिरस्कृत होने के कारण अत्यंततिरस्कृतवाच्य ध्वनि है। इसे वस्तु से वस्तुध्वनि या वाच्यार्थ का रूपान्तर होने से अर्थान्तर-संक्रमितवाच्यध्वनि भी कह सकते हैं।
For Private
घण्टा बजाने के बाद उससे निकली रनरनाहटी की जो सूक्ष्म आवाज गूँजती है, वही ध्वनि है। इसी प्रकार काव्य की ध्वनि वाच्य अर्थ से निकले भिन्न अर्थ में रहती है, जिसकी गूँज की प्रतीति सहृदयों को होती हैं। पाँचवीं शती के कूटस्थ प्राकृत महाकवि प्रवरसेन -प्रणीत सेतुबन्ध महाकाव्य के सागर वर्णन से संबद्ध इस गाथा में अलंकार से अनुरणित वस्तुध्वनि की मनोज्ञता द्रष्टव्य है-
उक्खदुमं व सेलं हिमहअकमलाअरं व लच्छिविमुक्कं । पीअमदूरं व चसअं बहुलपओसं व मुद्धचंदविरहिअं ॥
( आश्वास २ - गाथा ११ )
कवि की उत्प्रेक्षा है कि समुद्र उस पर्वत के समान लगता है, जिसके पेड़ उखाड़ लिए गए हैं। वह समुद्र उस श्रीहीन सरोवर जैसा प्रतीत होता है, जिसका कमलवन तुषार से आहत हो गया हो, वह उस प्याले के समान दिखाई पड़ता है, जिसकी मदिरा पी ली गई हो और वह उस अंधकारपूर्ण रात्रि की तरह मालूम होता है, जो मनोरम चंद्रमा से रहित हो।
से
समुद्र के संदर्भ में महाकवि की इस उत्प्रेक्षा (अलंकार) समुद्र के विराट और भयजनक रूप जैसी वस्तु ध्वनित या व्यंजित होती है।
इसी क्रम में महाकवि प्रवरसेन द्वारा आयोजित अलंकार से वस्तुध्वनि का एक और मनोरम चमत्कार इस गाथा में दर्शनीय बन पड़ा है
-
ववसाअरइपओसो रोसगइंददिढसिंखलापडिबंधो। कह कहवि दासरहिणो जअकेसरिपंजरोगओ घणसमओ ॥
( आश्वास १- गाथा १४ )
यहाँ राम के वर्षाकाल बिताने का वर्णन है । कविश्रेष्ठ प्रवसेन ने रूपक अलंकार के द्वारा यह निर्देश किया है कि वर्षाकाल का समय राम के पुरुषार्थ रूप सूर्य के लिए रात्रिकाल बन गया था, उनके रोष रूप महागज के लिए मजबूत जंजीर का
११८]
SHENAND
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रव्य - जैन आगम एवं साहित्य - बंधन हो गया था और उनके विजय रूप सिंह के लिए पिंजड़ा कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध वस्तु है। इसी कवि-कल्पित वस्तु में बन गया था। अर्थात्, वर्षावास की अवधि में राम न तो पुरुषार्थ मार्कण्डेयपुराण में वर्णित निद्रारूप में संस्थित भगवती दुर्गा की का प्रदर्शन कर सकते थे, न ही अपना रोष व्यक्त कर सकते थे स्तुति की ओर भी सहज संकेत हुआ है-'या देवी सर्वभूतेषु और न विजय के लिए अभियान ही कर सकते थे। अतएव निद्रारूपेण संस्थिता।' महाकवि के इस वर्णन में रूपक अलंकार के माध्यम से राम
वप्पइराअ के द्वारा उपस्थित वस्तु से वस्तु ध्वनि का एक की किंकर्तव्यविमूढता रूप वस्तु की व्यंजना हुई है, जो अलंकार
रमणीय उदाहरण द्रष्टव्य है-- से वस्तुध्वनि का उदाहरण है।
अद्रेण सरीरेण च्चिअणवर ससिसेहरस्स तं वससि। वाक्यतिराज (प्रा. वप्पइराअ) आठवीं शती के प्राकृत
हिअए उण से संकरितुह अविहाएण ओआसो।। महाकवियों में पांक्तेय हैं। इनके कालोत्तीर्ण महाकाव्य गउडवहो
____ (तत्रैव,गाथा २९२) में ध्वनि तत्त्वों का भूरिशः विनियोग, विविधता और बहुलता
इस गाथा में महाकवि के कथन का अर्थ यह है कि दोनों दृष्टियों से हुआ है। महाकवि के इस काव्य में अलंकार से
भगवती (विन्ध्यवासिनी) बाह्य रूप से भले ही अर्धनारीश्वर वस्तुध्वनि और वस्तु से अलंकार ध्वनि की विशेष आयोजना
शिव के आधे शरीर में वास करती है, परंतु उनके हृदय में तो वह की गई है। यहाँ अलंकार से अर्थशक्त्युद्भव वस्तुध्वनि से युक्त
समग्र रूप से निवास करती है। यहाँ हृदय में समग्रतया निवास एक गाथा उपन्यस्त है -
रूप वस्तु से 'शिव के प्रति भगवती का अनुरागधिक्य रूप गणवइणो सइ संगअगोरी हरपेम्म राअ विलिअस्स।
वस्तु ध्वनित होती है। इसमें वाच्यार्थ विवक्षित या वांछित होकर दंतो वाम मुहद्धंत पुंजिओ जउइ हासो व्व।।
अनुरागाधिक्य रूप व्यंग्यार्थ का बोधक है। इसलिए इसमें
विवक्षितान्यपरवाच्य ध्वनि है। इसमें वाच्यार्थ का न तो दूसरे यहाँ महाकवि ने निर्देश किया है कि सदा साथ रहने वाले अर्थ में संक्रमण हुआ है और न सर्वथा तिरस्कार वरन् वह अपने माता-पिता पार्वती और शिव के प्रेम और अनुराग से विवक्षित है। लजीले गणेश का दाँत उनके मनोहर मुख की कोर पर संचित या
कहना न होगा कि गउडवहो की विन्ध्यवासिनी-स्तुति में पूंजीभूत हास की तरह प्रतीत होता है। प्रस्तुत संदर्भ में हासोव्व
वाच्यातिशायी व्यंग्य की प्रधानता प्रायः प्रत्येक गाथा में परिलक्षित इस उपमा (अलंकार) द्वारा गणेश की सर्वांगगौरतारूप वस्तु होती है, जो गउडवहो में ध्वनितत्त्व के अनसन्धित्सओं को साग्रह ध्वनित है।
आमंत्रित करती है। इसी क्रम में महाकवि वप्पइराअ की वाक्यगत कवि -
ध्वनि तत्त्व की समृद्धि की दृष्टि से विक्रम की बारहवीं प्रौढोक्तिमात्रसिद्ध वस्तु से अलंकार ध्वनि की एक मनोहारी योजना
शती के महाकवि आचार्य हेमचन्द्र का द्वयाश्रय महाकाव्य इस गाथा में द्रष्टव्य है
कुमारबालचरियं तो सविशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ आचार्य णिद्दारूवेण पअंणिमेसि जण लोअणेसु तं चेअ।
महाकवि के द्वारा प्रस्तुत वाक्यगत कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध अलंकार पडिबोहे जेण सजावअ व्व लक्खिज्जए दिट्ठी।
से अलंकार ध्वनि का एक उदाहरण विन्यस्त है। (विन्ध्यवासिनी स्तुति- गाथा २९६)
जस्सि सकलंकं विहु रयणी रमणं कुणंति अकलंक। यहाँ, सोकर जागने पर दिखाई पड़ने वाली आँखों की
संखधर संख भंगोज्जलाओ भवणंसु भंगीओ।। लाली के बारे में कवि की कल्पना है कि आंखों में निद्रारूपी
(सर्ग १- गाथा, सं. १६) भगवती के महावर लगे पैर रखने से उनमें लालिमा आ गई है। इस प्रसंग में लाक्षारंजितचरणा निद्रा रूपी भगवती के पदक्षेप के
अर्थात्, राजा कुमारपाल की राजधानी अणहिलपुर के कारण ही आँखों के रंजित होने की उत्प्रेक्षा, वस्तु से अलंकार
___ भवनों में जड़े हुए रत्नों की कान्ति सकलंक चन्द्र को भी । ध्वनि का उदाहरण है और भगवती का नेत्र में प्रवेश वाक्यगत ।
निष्कलंक बनाती है। यहाँ वाक्यगत वर्णन में उपमान चन्द्र की Parivaridabrdairdrobraduardiadritonidroidniridroid[११९HAdmiridnirbiddroid-bbinabrdwordwardrobarbar
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य
अपेक्षा उपमेय रत्नकान्ति को श्रेष्ठ बताने वाले व्यतिरेक अलंकार के माध्यम से 'अणहिलपुर की समृद्धि का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन' रूप अतिशयोक्ति अलंकार ध्वनित है। साथ ही सकलंक चंद्र को निष्कलंक बनाने की बात कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध वस्तु है।
आचार्य महाकवि द्वारा आयोजित पदगत अत्यंततिरस्कृत या अविवक्षितवाच्य ध्वनि का हृदयावर्जक उदाहरण निम्नांकित गाथा में दर्शनीय है-
जत्थ भवणाण अवरं देवं नागेहिं विम्या दिट्ठो । रमइ मणोसिलगोरो मणसिललित्तो मयच्छिजणो ॥
( सर्ग १, गाथा सं. १३ )
यहाँ कवि के वक्तव्य का आशय यह है कि अणहिलनगर गनचुंबी भवनों के ऊपर क्रीडारत देवागंनास्वरूप चपलनयना सुंदरियों या राजवधुओं को देव और नागकुमार विस्मयान्वित होकर देख रहे थे। वे सुंदरियां' मैनसिल धातु की तरह गोरी थीं और उनका गोरा शरीर मैनसिल के विलेपन से युक्त था ।
इस प्रसंग में महाकवि द्वारा प्रयुक्त मयच्छिजणो (मृगादिजन: अथवा मदाक्षिजनः) शब्द या पद में अध्यवसित उपमेय चंचल या मदविह्वल आंखों का झटिति बोध हो जाता है। मयच्छि शब्द या पद के अपना मुख्य अर्थ छोड़कर हरिण की तरह चंचल या मद से घूर्णमान आँख का अर्थ देने से जहत्स्वार्था लक्षणा है। यहाँ अत्यंततिरस्कृतवाच्य से यह ध्वनि निकलती है कि सुंदरियों की मनोज्ञ आँखें हरिण की आँखों की तरह आयत एवं चंचल या फिर मदालय होने के कारण दर्शनीय है और मयच्छि में व्यंजना के गर्भित होने के कारण यह पदगत श्लेष की अलंकारध्वनि का भी उदाहरण है।
आचार्य हेमचंद्र द्वारा उपस्थित संलक्ष्यक्रम रसध्वनि का एक निदर्शन दर्शनीय है
-
जण गमेपि गमेपिणु जन्हवि गम्पि सरस्सइ गम्पिणु नम्मद । लोड अजाण जं जलिबुड्डु | नं पसु किं नीरइ सिव सम्मद ॥
(तत्रैव, ८.८० ) अर्थात् गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा आदि नदियों में स्नान करने से यदि शुद्धि हो तो महिष आदि पशुओं की भी शुद्धि
हो जानी चाहिए, क्योंकि वे भी इन नदियों में डुबकी लगाते ही रहते हैं। जो लोग अज्ञानतापूर्वक इन नदियों में स्नान तो करते हैं, पर अपने आचार-विचार को शुद्ध नहीं करते, उन्हें 'कुछ भी लाभ नहीं हो सकता।
प्रस्तुत प्रसंग में महाकवि की काव्यभाषिक उक्ति में व्यंग्य रूप से शान्तरस की प्रतीति होती है। और फिर, स्नान के बाद मुक्ति का क्रम भी यहाँ लक्षित रहा है, साथ ही वाच्यार्थ - बोधपूर्वक ध्वनिरूप में शान्तरस भी अभियंजित है।
नवीं दसवीं शती के प्रख्यात महाकवि कोऊहल ने अपने रोमानी अथवा कल्पनाप्रधान लीलावई महाकाव्य में ध्वनि तत्त्व के अनेक अनुशीलनीय आयामों की उपस्थापना की है। युद्ध राजा सातवाहन की प्रशस्ति में लिखित निम्नांकित गाथा में महाकवि द्वारा विनियुक्त अभिधामूलक, यानी विवक्षितान्य-परवाच्य रसध्वनि की मनोरमता अतिशय मोहक है-
णिय तेय पसाहिय मंडलस्स ससिणो व्व जस्स लोएन । अक्कंत जयस्स जए पट्टी न परेहि सच्चविया ॥ ( लीलावई - गाथा सं. ६९ ) महाकवि का कथन है कि उस प्रतापी राजा सातवाहन ने अपने पराक्रम से समस्त संसार को जीत लिया है, पर शत्रुओं ने उसकी पीठ उसी प्रकार नहीं देखी है, जिस प्रकार अपने तेज के प्रकाश से संसार को धवलित करने वाले चंद्रमा का पृष्ठभाग किसी से नहीं देखा है । यहाँ चंद्रमा का पृष्ठभाग उपमान है और राजा का पृष्ठभाग उपमेय । इसी प्रकार चंद्रमा और राजा के तेज में भी उपमानोपमेय भाव है। इस चारुतापूर्ण उपमान और उपमेय के आयोजन द्वारा महाकवि कोऊहल ने यहाँ राजा की अतिशय पराक्रमशीलता रूप वीररस की ध्वनि का विन्यास किया है। इसे उपमा अलंकार से राजा के शौर्य रूप वस्तु की ध्वनि, अर्थात् अलंकार से वस्तुध्वनि का उदाहरण भी माना जा सकता है। इसमें वाच्यार्थ विवक्षित या वांछित होकर अन्यपर अर्थात् व्यंग्यार्थ का बोधक है। इसके वाच्यार्थ का न तो दूसरे अर्थ में संक्रमण होता है, और न सर्वथा तिरस्कार, बल्कि वह विवक्षित रहता है, इसलिए यह अभिधामूलक या विवक्षितान्यपरवाच्य ध्वनि का उदाहरण है ।
'लीलावई कहा' में ध्वन्यात्मक, अलंकृत और रसमय वर्णनों का बाहुल्य है। निम्नांकित गाथा में भ्रांतिमान अलंकार
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य
से वस्तुध्वनि की आवर्जकता द्रष्टव्य है-
घर सिर पसुत्त कामिणि कवोल संकंत ससिकला वलयं । हंसेहि अहिलसिज्जइ मुणाल सद्धालुएहि जहिं ।।
गाथा सं. ६०)
यहाँ रससिद्ध कवि ने भवन की छत पर सोई हुई कामिनियों का चित्रण किया है, जिनके कपोलों में प्रतिबिम्बित चंद्रकला को मृणाल समझकर हंस उसे प्राप्त करना चाहता है। यहाँ हंस को चंद्रकला में मृणाल का भ्रम हो रहा है। अतः भ्रांतिमान अलंकार के माध्यम से कवि ने कामिनियों के कपोलों की सौंदर्यातिशयता रूप वस्तु संकेतित की है, जो अलंकार से वस्तु ध्वनि का उदाहरण है ।
इसी क्रम में व्यतिरेक अलंकार के माध्यम से वस्तु की ध्वनि का एक और मनोहारी उदाहरण द्रष्टव्य है-जस्स पिय बंधत्वेह व चउवयण विणिग्गएहिवेएहि । एक्क वदरणारविंदट्ठिएहिं बहुमण्णिओ अप्पा।
(गाथा नं. २१)
अर्थात् (बहुलादित्य के ) प्रिय बंधत्वों ने ब्रह्मा के चार मुखों से निकले चारों वेदों को उसके एक ही मुख में स्थित होने से अपने को कृतार्थ समझा ।
यहाँ ब्रह्मा के चार मुखों से निकले चारों वेदों की बहुलादित्य के एक ही मुख में अवस्थितिरूप व्यतिरेक अलंकार से उस वेदज्ञ की प्रकाण्ड विद्वत्ता रूप वस्तु ध्वनित है।
ध्वनियों के संकर और संसृष्टि का भी प्राकृत महाकाव्यों में प्राचुर्य है। जब एक ध्वनि में अन्य ध्वनियाँ नीर में क्षीर की भाँति मिल जाती है, तब ध्वनिसंकर होता है और जब तिल और तण्डुल की भाँति मिलती हैं, तब ध्वनि-संसृष्टि होती है। ध्वनिसंसृष्टि का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
अणकढि युद्ध सुइ जस पथाव धम्मट्टिआरिजसकुसुम । तुह गठिअवूहेणं विरोलिओ तस्स पुर जलही ।
(कुमारबालचरिय- ६.८१ )
इस गाथा में दशार्णपति-विजय के बाद प्रतापी राजा कुमार पाल की सेनाओं द्वारा उसकी नगरी को लूट लिए जाने का वर्णन है।
यहां, (क) कीर्ति का अमथित दुग्ध के समान श्वेत होना रूप कविप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु से राजा के निष्कलंक गुणों से मण्डित व्यक्तित्व रूप वस्तु की ध्वनि है। गौणी लक्षणा से इसका ध्वन्यर्थ होगा कि राजा के आचार और विचार सर्वतो विशुद्ध हैं। पुनः (ख) अचेतन तेज और प्रताप की उष्णता से अचेतन कीर्तिपुष्प का मुरझाना ( पचाव धम्मट्टिआरि जस कुसुम) सम्भव नहीं। यहाँ मुख्यार्थ बाधित है। गौणी लक्षणा से इसका ध्वन्यर्थ होगा कुमार पाल के रोब- रुआब के सामने दशार्णनरेश का रोब-रुआब बहुत घटकर है। और फिर (ग) नगर के समुद्र (पुर जलही) होने में मुख्यार्थ की बाधा है। इसका गौणी लक्षणा से अर्थ होगा दशार्णनृपति का नगर वहां के अतिशय धनाढ्य नागरिकों द्वारा संचित मणिरत्नों से परिपूर्ण है इसलिए वह नगर रत्नाकर या समुद्र के समान है, यही ध्वनि है। चूँकि इस वर्णन में महाकवि द्वारा आयोजित सभी ध्वनियाँ स्वतंत्र हैं, इसलिए ध्वनियों की संसृष्टि हुई है।
१ি२१
अंत में यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि प्राकृत के महाकवियों ने अपने उत्तम महाकाव्यों में ध्वनितत्त्व को आग्रहपूर्वक प्रतिष्ठित किया है। इसके लिए उन्होंने जिस काव्यभाषा को अपनाया है, उसमें पदे पदे अर्थध्वनि और भावध्वनि का चमत्कारक विनिवेश उपलब्ध हो जाता है। सच पूछिए तो प्राकृत महाकवियों की काव्यभाषा ही अपने विनियोग - वैशिष्ट्य से ध्वन्यात्मक बन गई है। चमत्कारी अर्थाभिव्यक्ति के कारण प्राकृत के प्रायः सभी महाकाव्य ध्वनिकाव्य में परिगणनीय हैं। विशेषतया सेतुबंध और द्वयाश्रय महाकाव्य कुमार वालचरिय आदि तो ध्वनितत्त्व के अनुशीलन और परिशीलन की दृष्टि से उपादेय आकरग्रन्थ हैं ।
वस्तुतः प्राचीन शास्त्रीय प्राकृत महाकाव्यों में प्रतिपादित ध्वनितत्त्व का अध्ययन एक स्वतंत्र शोधप्रबंध का विषय है। इस शोध निबंध में तो प्राकृत के प्रमुख शास्त्रीय महाकाव्यों में प्राप्य ध्वनित्तत्व की इंगिति मात्र प्रस्तुत की गई है।
सन्दर्भ
१. (क) योऽर्थः सहृदयश्लाघ्यः काव्यात्मेति व्यवस्थितः । ध्वन्यालोक, उद्योत १, कारिका - २
(ख) यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थी ।
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्ध - जैन आगम एवं साहित्य - व्यङ्क्तः काव्यविशेषः स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः। - स स्फोटः शब्दजः शब्दो ध्वनिरित्युच्यते बुधैः ।। - तत्रैव, कारिका १३
वाक्यपदीय, प्रथम काण्ड । २. प्रथमे हि विद्वांसो वैयाकरणाः व्याकरणमूलत्वात् ४. स्फोटस्य ग्रहणे हेतुः प्राकृतो ध्वनिरिष्यते । सर्वविद्यानाम्।। ते च श्रूयमाणेष वर्णेष ध्वनिरिति व्यवहरन्ति।
शब्दस्योर्ध्वमभिव्यक्तेर्वृत्तिभेदे तु वैकृताः ॥. - तत्रैव
ध्वनयः समुपोहन्ते स्फोटात्मा तैनभिद्यते ।। तत्रैव ३. यं संयोगवियोगाभ्यां करणैरुपजायते ।
५. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य - ध्वन्यालोक, द्वितीय उद्योत
तथा साहित्यदर्पण, चतर्थ परिच्छेद ।
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अर्धमागधी आगम-साहित्य : एक विमर्श
भारतीय संस्कृति में अति प्राचीनकाल से ही दो समानान्तर धाराओं श्रमण-परम्परा के साहित्य का प्रश्न है दुर्भाग्य से वह आज हमें उपलब्ध की उपस्थिति पाई जाती है- श्रमणधारा और वैदिकधारा। जैन-धर्म नहीं है, किन्तु वेदों में उस प्रकार की जीवन-दृष्टि की उपस्थिति के
और संस्कृति इसी श्रमणधारा का अङ्ग है। जहाँ श्रमणधारा निवृत्तिपरक सङ्केत यह अवश्य सूचित करते हैं कि उनका अपना कोई साहित्य रही, वहाँ वैदिकधारा प्रवृत्तिपरक। जहाँ श्रमणधारा में संन्यास का प्रत्यय भी रहा होगा, जो कालक्रम में लुप्त हो गया। आज आत्मसाधना-प्रधान प्रमुख बना, वहाँ वैदिकधारा में गृहस्थजीवन का। श्रमणधारा ने सांसारिक निवृत्तिमूलक श्रमणधारा के साहित्य का सबसे प्राचीन अंश यदि कहीं जीवन की दु:खमयता को अधिक अभिव्यक्ति दी और यह माना कि उपलब्ध है, तो वह औपनिषदिक साहित्य में है। प्राचीन उपनिषदों शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दु:खों का सागर, अत: उसने में न केवल वैदिक कर्म-काण्डों और भौतिकवादी जीवन-दृष्टि की शरीर और संसार दोनों से ही मुक्ति को अपनी साधना का लक्ष्य माना। आलोचना की गई है, अपितु आध्यात्मिक मूल्यों की जो प्रतिष्ठा हुई उसकी दृष्टि में जैविक एवं सामाजिक मूल्य गौण रहे और अनासक्ति, है, वह स्पष्टतया इस तथ्य का प्रमाण है कि वे मूलतः श्रमण जीवन-दृष्टि वैराग्य और आत्मानुभूति के रूप में मोक्ष या निर्वाण को ही सर्वोच्च के प्रस्तोता हैं। मूल्य माना गया। इसके विपरीत वैदिकधारा ने सांसारिक जीवन को यह सत्य है कि उपनिषदों में वैदिकधारा के भी कुछ सङ्केत उपलब्ध वरेण्य मानकर जैविक एवं सामाजिक मूल्यों अर्थात् जीवन के रक्षण है किन्तु यह नहीं भूलना चाहिये कि उपनिषदों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एवं पोषण के प्रयत्नों के साथ-साथ पारस्परिक सहयोग या सामाजिकता वैदिक नहीं, श्रमण है। वे उस युग की रचनायें हैं, जब वैदिकों द्वारा को प्रधानता दी। फलत: वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं श्रमण-संस्कृति के जीवन मूल्यों को स्वीकृत किया जा रहा था। वे पारस्परिक सहयोग हेतु प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखर हुए हैं, यथा- वैदिक संस्कृति और श्रमण-संस्कृति के समन्वय की कहानी कहते हैं। हम सौ वर्ष जीयें, हमारी सन्तान बलिष्ठ हो, हमारी गायें अधिक दूध ईशावास्योपनिषद् में समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से परिलक्षित दें, वनस्पति एवं अन्न प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हों, हममें परस्पर सहयोग होता है। उसमें त्याग और भोग, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, कर्म और हो आदि। ज्ञातव्य है कि वेदों में वैराग्य एवं मोक्ष की अवधारणा कर्म-संन्यास, व्यक्ति और समष्टि, अविद्या (भौतिक ज्ञान) और विद्या अनुपस्थित है, जबकि वह श्रमणधारा का केन्द्रीय तत्त्व है। इस प्रकार (आध्यात्मिक ज्ञान) के मध्य एक सुन्दर समन्वय स्थापित किया ये दोनों धाराएँ दो भिन्न जीवन-दृष्टियों को लेकर प्रवाहित हुई है। गया है। परिणामस्वरूप इनके साहित्य में भी इन्हीं भिन्न-भिन्न जीवन-दृष्टियों उपनिषदों का पूर्ववर्ती एवं समसामयिक श्रमण-परम्परा का जो का प्रतिपादन पाया जाता है।
अधिकांश साहित्य था, वह श्रमण-परम्परा की अन्य धाराओं के जीवित श्रमण-परम्परा के साहित्य में संसार की दुःखमयता को प्रदर्शित न रह पाने या उनके बृहद् हिन्दू-परम्परा में समाहित हो जाने के कारण कर त्याग और वैराग्यमय जीवन-शैली का विकास किया गया, जबकि या तो विलुप्त हो गया था या फिर दूसरी जीवित श्रमण परम्पराओं वैदिक साहित्य में ऐहिक जीवन को अधिक सुखी और समृद्ध बनाने अथवा बृहद् हिन्दू-परम्परा के द्वारा आत्मसात् कर लिया गया। किन्तु हेतु प्रार्थनाओं की और सामाजिक-व्यवस्था (वर्ण-व्यवस्था) और भौतिक । उसके अस्तित्व के सङ्केत एवं अवशेष आज भी औपनिषदिक साहित्य, उपलब्धियों हेतु विविध कर्मकाण्डों की सर्जना हुई। प्रारम्भिक वैदिक पालित्रिपिटक और जैनागमों में सुरक्षित है। प्राचीन आरण्यकों, साहित्य, जिसमें मुख्यत: वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ समाहित हैं, में लौकिक उपनिषदों, आचाराङ्ग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने वाली प्रार्थनाओं और कर्मकाण्डों इसिभासियाई, थेरगाथा, सुत्तनिपात और महाभारत में इन विलुप्त या का ही प्राधान्य है। इसके विपरीत श्रमण-परम्परा के प्रारम्भिक साहित्य समाहित श्रमण-परम्पराओं के अनेक ऋषियों के उपदेश आज भी पाये में संसार की दुःखमयता और क्षणभङ्गरता को प्रदर्शित कर उससे वैराग्य जाते हैं। इसिभासियाई, सूत्रकृताङ्ग और उत्तराध्ययन में उल्लिखित
और विमुक्ति को ही प्रधानता दी गई है। संक्षेप में श्रमणपरम्परा का याज्ञवल्क्य, नारद, असितदेवल, कपिल, पाराशर, आरुणि, उद्दालक, साहित्य वैराग्य-प्रधान है।
नमि, बाहुक, रामपुत्त आदि ऋषि वे ही हैं, जिनमें से अनेक के उपदेश श्रमणधारा और उसकी ध्यान और योग-साधना की परम्परा के एवं आख्यान उपनिषदों एवं महाभारत में भी सुरक्षित हैं। जैन-परम्परा अस्तित्व के सङ्केत हमें मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की संस्कृति के काल में ऋषिभाषित में इन्हें अर्हत् ऋषि एवं सूत्रकृताङ्ग में सिद्धि को प्राप्त से ही मिलने लगते हैं। यह माना जाता है कि हड़प्पा-संस्कृति वैदिक तपोधन महापुरुष कहा गया है और उन्हें अपनी पूर्व परम्परा से सम्बद्ध संस्कृति से भी पूर्ववर्ती रही है। ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ में व्रात्यों बताया गया है। पालित्रिपिटक दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में भी
और वातरशना मुनियों के उल्लेख भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं बुद्ध के समकालीन छह तीर्थङ्करों- अजितकेशकम्बल, प्रकुधकात्यायन, कि उस युग में श्रमणधारा का अस्तित्व था। जहाँ तक इस प्राचीन पूर्णकश्यप, सञ्जयवेलट्ठिपुत्त, मङ्खलिगोशालक एवं निग्गंठनातपुत्त की
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चीन्द्रसरिस्मारकालय - जैन आगम साहित। ... मान्यताओं का निर्देश हुआ है, फिर चाहे उन्हें विकृत रूप में ही प्रस्तुत ५८) में कहा गया है “यह जो द्वादश-अङ्ग या गणिपिटक है वह क्यों न किया गया हो। इसी प्रकार थेरगाथा, सुत्तनिपात आदि के अनेक ऐसा नहीं है कि यह कभी नहीं था, कभी नहीं रहेगा और न कभी थेर (स्थविर) भी प्राचीन श्रमण-परम्पराओं से सम्बन्धित रहे हैं। इस होगा। यह सदैव था, सदैव है और सदैव रहेगा। यह ध्रुव, नित्य सबसे भारत में श्रमणधारा के प्राचीनकाल में अस्तित्व की सूचना मिल शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है।'' इस प्रकार जैन-चिन्तक जाती है। पद्मभूषण पं० दलसुखभाई मालवणिया ने पालित्रिपिटक में एक ओर प्रत्येक तीर्थङ्कर के उपदेश के आधार पर उनके प्रमुख शिष्यों
अजित, अरक और अरनेमि नामक तीर्थङ्करों के उल्लेख को भी खोज के द्वारा शब्द-रूप में आगमों की रचना होने की अवधारणा को स्वीकार निकाला है। ज्ञातव्य है कि उसमें इन्हें “तित्थकरो कामेसु वीतरागो” करते हैं तो दूसरी ओर अर्थ या कथ्य की दृष्टि से समरूपता के आधार कहा गया है- चाहे हम यह माने या न मानें कि इनकी सङ्गति जैन पर यह भी स्वीकार करते हैं कि अर्थ-रूप से जिनवाणी सदैव थी परम्परा के अजित, अर और अरिष्टनेमि नामक तीर्थङ्करों से हो सकती और सदैव रहेगी। वह कभी भी नष्ट नहीं होती है। विचार की अपेक्षा है- किन्तु इतना तो मानना ही होगा कि ये सभी उल्लेख श्रमणधारा से आगमों की शाश्वतता और नित्यता मान्य करते हुए भी जैन-परम्परा के अतिप्राचीन अस्तित्व को ही सूचित करते हैं।
उन्हें शब्द-रूप से सृष्ट और विच्छिन्न होने वाला भी मानती है। अनेकान्त
की भाषा में कहें तो तीर्थङ्कर की अनवरत परम्परा की दृष्टि से आगम वैदिक साहित्य और जैनागम
शाश्वत और नित्य हैं, जबकि तीर्थङ्कर-विशेष के शासन की अपेक्षा वैदिक साहित्य में वेद प्राचीनतम हैं। वेदों के सन्दर्भ में भारतीय से वे सृष्ट एवं अनित्य हैं। दर्शनों में दो प्रकार की मान्यताएँ उल्लिखित हैं। मीमांसकदर्शन के वैदिक साहित्य और जैनागमों में दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह अनुसार वेद अपौरुषेय हैं अर्थात् किसी व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित है कि वेदों के अध्ययन में सदैव ही शब्द-रूप को महत्त्व दिया गया नहीं हैं। उनके अनुसार वेद अनादि-निधन हैं, शाश्वत हैं, न तो उनका और यह माना गया कि शब्द-रूप में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए, कोई रचयिता है और नहीं रचनाकाल। नैयायिकों की मान्यता इससे उसका अर्थ स्पष्ट हो या न हो। इसके विपरीत जैन-परम्परा में तीर्थङ्करों भिन्न है, वे वेद-वचनों को ईश्वर-सृष्ट मानते हैं। उनके अनुसार वेद । को अर्थ का प्रवक्ता माना गया और इसलिए इस बात पर बल दिया अपौरुषेय नहीं, अपितु ईश्वरकृत हैं। ईश्वरकृत होते हुए भी ईश्वर के गया कि चाहे आगमों में शब्द-रूप में भिन्नता हो जाय किन्तु उनमें अनादि-निधन होने से वेद भी अनादि-निधन माने जा सकते हैं, किन्तु अर्थ-भेद नहीं होना चाहिए। यही कारण था कि शब्द-रूप की इस जब उन्हें ईश्वरसृष्ट मान लिया गया है, तो फिर अनादि कहना उचित उपेक्षा के कारण परवर्तीकाल में आगमों में अनेक भाषिक परिवर्तन नहीं है, क्योंकि ईश्वर की अपेक्षा से तो वे सादि ही होंगे। हुए और आगम पाठो की एकरूपता नहीं रह सकी। यद्यपि विभिन्न
जहाँ तक जैनागमों का प्रश्न है उन्हें अर्थ-रूप में अर्थात् सङ्गीतियों के माध्यम से एकरूपता बनाने का प्रयास हुआ, लेकिन कथ्य-विषय-वस्तु की अपेक्षा से तीर्थङ्करों के द्वारा उपदिष्ट माना जाता उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। यद्यपि वह शब्द-रूप परिवर्तन है। इस दृष्टि से वे अपौरुषेय नहीं हैं। वे अर्थ-रूप में तीर्थङ्करों द्वारा भी आगे निर्बाध रूप से न चले, इसलिए एक ओर उन्हें लिपिबद्ध उपदिष्ट और शब्द-रूप में गणधरों द्वारा रचित माने जाते हैं, किन्तु करने का प्रयास हुआ तो दूसरी ओर आगमों में पद, अक्षर, अनुस्वार यह बात भी केवल अङ्ग आगमों के सन्दर्भ में है। अङ्गबाह्य आगम आदि में परिवर्तन करना भी महापाप बताया गया। इस प्रकार यद्यपि ग्रन्थ तो विभिन्न स्थविरों और पूर्वधर-आचार्यों की कृति माने ही जाते आगमों के भाषागत स्वरूप को स्थिरता तो प्रदान की गयी, फिर भी हैं। इस प्रकार जैन-आगम पौरुषेय (पुरुषकृत) हैं और काल विशेष शब्द की अपेक्षा अर्थ पर अधिक बल दिये जाने के कारण जैनागमों में निर्मित हैं।
का स्वरूप पूर्णतया अपरिवर्तित नहीं रह सका, जबकि वेद शब्द-रूप किन्तु जैन आचार्यों ने एक अन्य अपेक्षा से विचार करते हुए। में अपरिवर्तित रहे। आज भी उनमें ऐसी अनेक ऋचायें है- जिनका अङ्ग-आगमों को शाश्वत भी कहा है। उनके इस कथन का आधार । कोई अर्थ नहीं निकलता है (अनर्थका: हि वेद-मन्त्राः)। इस प्रकार यह है कि तीर्थङ्करों की परम्परा तो अनादिकाल से चली आ रही है वेद शब्द-प्रधान है जबकि जैन-आगम अर्थ-प्रधान है।
और अनन्तकाल तक चलेगी, कोई भी काल ऐसा नहीं, जिसमें तीर्थङ्कर वेद और जैनागमों में तीसरी भिन्नता उनकी विषय-वस्तु की अपेक्षा नहीं होते हैं। अत: इस दृष्टि से जैन-आगम भी अनादि-अनन्त सिद्ध से भी है। वेदों में भौतिक उपलब्धियों हेतु प्राकृतिक शक्तियों के प्रति
होते हैं। जैन मान्यता के अनुसार तीर्थङ्कर भिन्न-भिन्न आत्माएँ होती प्रार्थनाएँ ही प्रधान रूप से देखी जाती हैं साथ ही कुछ खगोल-भूगोल . हैं, किन्तु उनके उपदेशों में समानता होती है और उनके समान उपदेशों सम्बन्धी विवरण और कथाएँ भी हैं। जबकि जैन अर्धमागधी-आगम
के आधार पर रचित ग्रन्थ भी समान ही होते हैं। इसी अपेक्षा से नन्दीसूत्र साहित्य में आध्यात्मिक एवं वैराग्यपरक उपदेशों के द्वारा मन, इन्द्रिय में आगमों को अनादि-निधन भी कहा गया है। तीर्थङ्करों के कथन और वासनाओं पर विजय पाने के निर्देश दिये गये हैं। इसके साथ-साथ में चाहे शब्द-रूप में भिन्नता हो, किन्तु अर्थ-रूप में भिन्नता नहीं होती उसमें मुनि एवं गृहस्थ के आचार सम्बन्धी विधि-निषेध प्रमुखता से है। अत: अर्थ या कथ्य की दृष्टि से यह एकरूपता ही जैनागमों को वर्णित हैं तथा तप-साधना और कर्म-फल विषयक कुछ कथाएँ भी प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त सिद्ध करती है। नन्दीसूत्र (सूत्र हैं। खगोल-भूगोल सम्बन्धी चर्चा भी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि
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- वतीन्दमूरिस्मारकमान्य-जेन आम एवं साहित्य - ग्रन्थों में है। जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है उसका प्रारम्भिक रूप भिन्न थीं। यद्यपि विचार के क्षेत्र में महावीर और बुद्ध दोनों ही एकान्तवाद ही अर्धमागधी आगमों में उपलब्ध होता है।
के समालोचक थे, किन्तु जहाँ बुद्ध ने एकान्तवादों को केवल नकारा, वैदिक साहित्य में वेदों के पश्चात् क्रमश: ब्राह्मण-ग्रन्थों, आरण्यकों वहाँ महावीर ने उन एकान्तवादों का समन्वय किया। अत: दर्शन के और उपनिषदों का क्रम आता है। इनमें ब्राह्मण ग्रन्थ मुख्यतः यज्ञ-याग क्षेत्र में बुद्ध की दृष्टि नकारात्मक रही है, जबकि महावीर की सकारात्मक। सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। अत: उनकी शैली इस दर्शन और आचार के क्षेत्र में दोनों में जो भिन्नता थी, वह उनके और विषय-वस्तु दोनों ही अर्धमागधी आगम-साहित्य से भिन्न है। साहित्य में भी अभिव्यक्त हुई है। फिर भी सामान्य पाठक की अपेक्षा आरण्यकों के सम्बन्ध में मैं अभी तक सम्यक् अध्ययन नहीं कर से दोनों परम्परा के ग्रन्थों में क्षणिकवाद, अनात्मवाद आदि दार्शनिक पाया हूँ अत: उनसे अर्धमागधी आगम-साहित्य की तुलना कर पाना प्रस्थानों को छोड़कर एकता ही अधिक परिलक्षित होती है। मेरे लिये सम्भव नहीं है। किन्तु आरण्यकों में वैराग्य, निवृत्ति एवं वानप्रस्थ जीवन के अनेक तथ्यों के उल्लेख होने से विशेष तुलनात्मक आगमों का महत्त्व एवं प्रामाणिकता अध्ययन द्वारा उनमें और जैन-आगमों में निहित समरूपता को खोजा प्रत्येक धर्म-परम्परा में धर्म-ग्रन्थ या शास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान जा सकता है।
होता है, क्योकि उस धर्म के दार्शनिक सिद्धान्त और आचार-व्यवस्था जहाँ तक उपनिषदों का प्रश्न है उपनिषदों के अनेक अंश आचाराङ्ग, दोनों के लिए 'शास्त्र' ही एकमात्र प्रमाण होता है। हिन्दूधर्म में वेद इसिभासियाई आदि प्राचीन अर्धमागधी आगम-साहित्य में भी यथावत् का, बौद्धधर्म में त्रिपिटक का, पारसीधर्म में अवेस्ता का, ईसाईधर्म उपलब्ध होते हैं। याज्ञवल्क्य, नारद, कपिल, असितदेवल, अरुण, में बाइबिल का और इस्लाम धर्म में कुरान का जो स्थान है, वही उद्दालक, पाराशर आदि अनेक औपनिषदिक ऋषियों के उल्लेख एवं स्थान जैनधर्म में आगम-साहित्य का है। फिर भी आगम-साहित्य को उपदेश इसिभासियाई, आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग एवं उत्तराध्ययन में उपलब्ध न तो वेद के समान अपौरुषेय माना गया है और न बाइबिल या कुरान है। इसिभासियाइं में याज्ञवल्क्य का उपदेश उसी रूप में वर्णित है, के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश जैसा वह उपनिषदों में मिलता है। उत्तराध्ययन के अनेक आख्यान, ही, अपितु वह उन अर्हतों व ऋषियों की वाणी का सङ्कलन है, जिन्होंने उपदेश एवं कथाएँ मात्र नाम-भेद के साथ महाभारत में भी उपलब्ध अपनी तपस्या और साधना द्वारा सत्य का प्रकाश प्राप्त किया था। है। प्रस्तुत प्रसङ्ग में विस्तारभय से वह सब तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत जैनों के लिए आगम जिनवाणी है, आप्तवचन है, उनके धर्म-दर्शन करना सम्भव नहीं है। इनके तुलनात्मक अध्ययन हेतु इच्छुक पाठकों और साधना का आधार है। यद्यपि वर्तमान में जैनधर्म का दिगम्बर को अपनी इसिभारिया की भूमिका एवं 'जैन, बौद्ध और गीता के सम्प्रदाय उपलब्ध अर्धमागधी आगमों को प्रमाणभूत नहीं मानता है, आचार-दर्शनी का तु मक अध्ययन' खण्ड १ एवं २ देखने की। क्योंकि उसकी दृष्टि में इन आगमों में कुछ ऐसा प्रक्षिप्त अश है, अनुशंसा के साथ इस चर्चा को यहीं विराम देता हूँ।
जो उनकी मान्यताओं के विपरीत है। मेरी दृष्टि में चाहे वर्तमान में
उपलब्ध अर्धमागधी आगमों में कुछ प्रक्षिप्त अंश हों या उनमें कुछ पालित्रिपिटक और जैनागम
परिवर्तन-परिवर्धन भी हुआ हो, फिर भी वे जैनधर्म के अाणिक पालित्रिपिटक और जैनागम अपने उद्भव-स्रोत की अपेक्षा से दस्तावेज हैं। उनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध हैं। उनकेत: समकालिक कहे जा सकते हैं, क्योंकि पालित्रिपिटक के प्रवक्ता भगवान् अस्वीकृति का अर्थ अपनी प्रामाणिकता को ही नकारना है। श्वेताम्बरबुद्ध और जैनागमों के प्रवक्ता भगवान् महावीर समकालिक ही हैं। इसलिए मान्य इन अर्धमागधी आगमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये दोनों के प्रारम्भिक ग्रन्थों का रचनाकाल भी समसामयिक है। दूसरे ई०पू० पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवीं शती अर्थात् लाभग जैन-परम्परा और बौद्ध-परम्परा दोनों ही भारतीय संस्कृति की श्रमणधारा एक हजार वर्ष में जैन-संघ के चढ़ाव-उतार की एक प्रामाणिक कहानी के अङ्ग है अत: दोनों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एक ही है। इस तथ्य कह देते हैं। की पुष्टि जैनागमों और पालित्रिपिटक के तुलनात्मक अध्ययन से हो .जाती है। दोनों परम्पराओं में समान रूप से निवृत्तिपरक जीवन-दृष्टि अर्धमागधी आगमों का वर्गीकरण को अपनाया गया है और सदाचार एवं नैतिकता की प्रस्थापना के वर्तमान में जो आगम-ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न रूप में वर्गीकृत प्रयत्न किये गये हैं, अत: विषय-वस्तु की दृष्टि से भी दोनों ही परम्पराओं किया जाता हैके साहित्य में समानता है। उत्तराध्ययन, दशवैकालिक एवं कुछ प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ, सुत्तनिपात, धम्मपद आदि में मिल जाती ११ अङ्ग है। किन्तु जहाँ तक दोनों के दर्शन एवं आचार-नियमों का प्रश्न है, १. आयार (आचाराङ्गः), २. सूयगड (सूत्रकृताङ्गः), ३. ठाण वहाँ स्पष्ट अन्तर भी देखा जाता है। क्योंकि जहाँ भगवान् बुद्ध आचार (स्थानाङ्गः), ४. समवाय (समवायाङ्गः), ५. वियाहपन्नत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति: के क्षेत्र में मध्यममार्गी थे, वहाँ महावीर तप, त्याग और तितिक्षा पर या भगवती), ६. नायाधम्मकहाओ (ज्ञाताधर्मकथा:). ७. उवासगदसाओ अधिक बल दे रहे थे। इस प्रकार आचार के क्षेत्र में दोनों की दृष्टियाँ (उपासकदशाः), ८. अंतगडदसाओ (अन्तकृद्दशाः), ९. अनुत्तरोववाइय
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- यतीन्दसूरिस्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य दसाओ (अनुत्तरौपपातिकदशा:), १०. पण्हावागरणाई (प्रश्नव्याकरणानि), दशवैकालिक मान्य रहे हैं, अपितु यापनीय आचार्य अपराजित (नवीं ११. विवागसुयं (विपाकश्रुतम्), १२. दृष्टिवादः (दिट्ठिवाय), जो शती) ने तो दशवैकालिक की टीका भी लिखी थी। विच्छिन्न हुआ है।
६. छेदसूत्र १२ उपाङ्ग
छेदसूत्रों के अन्तर्गत वर्तमान में १. आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध), १. उववाइयं (औपपातिक), २. रायपसेणइजं (राजप्रसेनजित्क) २. कप्प (कल्प), ३. ववहार (व्यवहार), ४. निसीह (निशीथ), अथवा रायपसेणियं (राजप्रश्नीयं), ३. जीवाजीवाभिगम, ४. पण्णवणा ५. महानिशीथ और ६. जीयकप्प (जीतकल्प)- ये छह ग्रन्थ माने (प्रज्ञापना), ५. सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्तिः), ६. जम्बुद्दीवपण्णत्ति(जम्बूद्वीप- जाते हैं। इनमें से महानिशीथ और जीतकल्प को श्वेताम्बरों की तेरापन्थी प्रज्ञप्तिः), ७. चंदपण्णत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्तिः), ८-१२. निरयावलियासुयक्खंध और स्थानकवासी सम्प्रदायें मान्य नहीं करती हैं। वे दोनों मात्र चार (निरयावलिकाश्रुतस्कन्धः), ८. निरयावलियाओ (निरयावलिका:), ही छेदसूत्र मानते हैं। जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय उपर्युक्त ६ ९. कप्पवडिंसियाओ (कल्पावतंसिका:), १०. पुफियाओ (पुष्पिका:), छेदसूत्रों को मानता है। जहाँ तक दिगम्बर और यापनीय परम्परा का ११. पुप्फचूलाओ (पुष्पचूलाः), १२. वण्हिदसाओ (वृष्णिदशाः)। प्रश्न है उनमें अङ्गबाह्य ग्रन्थों में कल्प, व्यवहार और निशीथ का उल्लेख
मिलता है। यापनीय-सम्प्रदाय के ग्रन्थों में न केवल इनका उल्लेख जहाँ तक उपर्युक्त अङ्ग और उपाङ्ग ग्रन्थों का प्रश्न है। श्वेताम्बर- मिलता है, अपितु इनके अवतरण भी दिये गये हैं। आश्चर्य यह है परम्परा के सभी सम्प्रदाय इन्हें मान्य करते हैं। जबकि दिगम्बर-सम्प्रदाय कि वर्तमान में दिगम्बर-परम्परा में प्रचलित मूलत: यापनीय-परम्परा इन्हीं ग्यारह अङ्गसूत्रों को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि अङ्गसूत्र के प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थ "छेदपिण्डशास्त्र' में कल्प और व्यवहार वर्तमान में विलुप्त हो गये हैं। उपाङ्गसूत्रों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर-परम्परा के प्रामाण्य के साथ-साथ जीतकल्प का भी प्रामाण्य स्वीकार किया के सभी सम्प्रदायों में एकरूपता है, किन्तु दिगम्बर-परम्परा में बारह गया है। इस प्रकार दिगम्बर एवं यापनीय परम्पराओं में कल्प, व्यवहार, उपाङ्गों की न तो कोई मान्यता रही और न वे वर्तमान में इन ग्रन्थों निशीथ और जीतकल्प की मान्यता रही है, यद्यपि वर्तमान में दिगम्बर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति आचार्य इन्हें मान्य नहीं करते हैं। आदि नामों से उनके यहाँ कुछ ग्रन्थ अवश्य पाये जाते हैं। साथ ही सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी उनके द्वारा दृष्टिवाद १० प्रकीर्णक के परिकर्म विभाग के अन्तर्गत स्वीकार किया गया था।
इसके अन्तर्गत निम्न दस ग्रन्थ माने जाते हैं -
१. चउसरण (चतु:शरण), २. आउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान), ४ मूलसूत्र
३. भत्तपरित्रा (भक्तपरिज्ञा), ४. संथारय (संस्तारक), ५. तंडुलवेयालिय सामान्यतया (१) उत्तराध्ययन, (२) दशवैकालिक, (३) आवश्यक (तंदुलवैचारिक), ६. चंदवेज्झय (चन्द्रवेध्यक), ७. देविन्दत्थय और (४) पिण्डनियुक्ति-ये चार मूलसूत्र माने गये हैं। फिर भी मूलसूत्रों (देवेन्द्रस्तव), ८. गणिविज्जा (गणिविद्या), ९. महापच्चक्खाण की संख्या और नामों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर-सम्प्रदायों में एकरूपता (महाप्रत्याख्यान) और १० वीरत्थय (वीरस्तव)। नहीं है। जहाँ तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है इन्हें श्वेताम्बर-सम्प्रदायों में स्थानकवासी और तेरापंथी इन प्रकीर्णकों सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एक मत से मूलसूत्र माना को मान्य नहीं करते हैं। यद्यपि मेरी दृष्टि में इनमें उनकी परम्परा के है। समयसुन्दर, भावप्रभसूरि तथा पाश्चात्त्य विद्वानों में प्रो.ब्यूहलर, प्रो. विरुद्ध ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे इन्हें अमान्य किया जाये। इनमें शारपेन्टियर, प्रो. विन्टर्नित्ज़, प्रो.शुब्रिग आदि ने एक स्वर से आवश्यक से ९ प्रकीर्णकों का उल्लेख तो नन्दीसूत्र में मिल जाता है। अत: इन्हें को मूलसूत्र माना है, किन्तु स्थानकवासी एवं तेरापन्थी सम्प्रदाय · अमान्य करने का कोई औचित्य नहीं है। हमने इसकी विस्तृत चर्चा आवश्यक को मूलसूत्र के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। ये दोनों सम्प्रदाय आगम संस्थान, उदयपुर से प्रकाशित 'महापच्चक्खाण' की भूमिका आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति के स्थान पर नन्दी और अनुयोगद्वार को में की है। जहाँ तक दस प्रकीर्णकों के नाम आदि का प्रश्न है, श्वेताम्बरमूलसूत्र मानते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक-परम्परा में कुछ आचार्यों ने मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के आचार्यों में भी किंचित् मतभेद पाया जाता पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है। है। लगभग ९ नामों में तो एकरूपता है किन्तु भत्तपरित्रा, मरणविधि इस प्रकार मूलसूत्रों के वर्गीकरण और उनके नामों में एकरूपता का और वीरस्तव ये तीन नाम ऐसे हैं जो भिन्न-भिन्न आचार्यों के वर्गीकरण अभाव है। दिगम्बर-परम्परा में इन मूलसूत्रों में से दशवैकालिक, में भिन्न-भिन्न रूप से आये हैं। किसी ने भक्तपरिज्ञा को छोड़कर मरणविधि उत्तराध्ययन और आवश्यक मान्य रहे हैं। तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं का उल्लेख किया है तो किसी ने उसके स्थान पर वीरस्तव का उल्लेख में, धवला में तथा अङ्गपण्णत्ति में इनका उल्लेख है। ज्ञातव्य है कि किया है। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने 'पइण्णयसुत्ताई' के प्रथम भाग अङ्गपण्णत्ति में नन्दीसूत्र की भाँति ही आवश्यक के छह विभाग किये की भूमिका में प्रकीर्णक नाम से अभिहित लगभग २२ ग्रन्थों का उल्लेख गये हैं। यापनीय-परम्परा में भी न केवल आवश्यक, उत्तराध्ययन एवं किया है। इनमें से अधिकांश महावीर विद्यालय से पइण्णयसुत्ताई नाम
(२) दशा
ये
ख्या और
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- चीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - से २ भागों में प्रकाशित हैं। अङ्गविद्या का प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट स्थान पर पूर्वोक्त तीस प्रकीर्णक मानते हैं। इसके साथ दस नियुक्तियों सोसायटी की ओर से हुआ है। ये बाईस निम्नलिखित हैं- तथा यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, पाक्षिकसूत्र, क्षमापनासूत्र, वन्दित्तु,
१. चतुःशरण, २. आतुरप्रत्याख्यान, ३. भक्तपरिज्ञा, ४.संस्तारक, तिथि-प्रकरण, कवचप्रकरण, संशक्तनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य ५. तंदुलवैचारिक, ६. चन्द्रवेध्यक, ७. देवेन्द्रस्तव, ८. गणिविद्या, को भी आगमों में सम्मिलित करते हैं। ९. महाप्रत्याख्यान, १०. वीरस्तव, ११. ऋषिभाषित, १२. अजीवकल्प, इस प्रकार वर्तमानकाल में अर्धमागधी आगम- साहित्य को १३. गच्छाचार, १४. मरणसमाधि, १५. तित्थोगालिय, १६. आराध- अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र के रूप में वर्गीकृत नापताका, १७. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, १८. ज्योतिष्करण्डक, १९.अङ्गविद्या, किया जाता है, किन्तु यह वर्गीकरण पर्याप्त परवर्ती है। १२वीं शती २०. सिद्धप्राभृत, २१. सारावली और २२. जीवविभक्ति। से पूर्व के ग्रन्थों में इस प्रकार के वर्गीकरण का कहीं उल्लेख नहीं
इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध मिलता है। वर्गीकरण की यह शैली सर्वप्रथम हमें आचार्य श्रीचन्द होते हैं, यथा- “आउरपच्चक्खान" के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध की 'सुखबोधा समाचारी' (ई०सन् १११२) में आंशिक रूप से उपलब्ध होते हैं। उनमें से एक तो दसवीं शती के आचार्य वीरभद्र की होती है। इसमें आगम-साहित्य के अध्ययन का जो क्रम दिया गया कृति है।
है उससे केवल इतना ही प्रतिफलित होता है कि अङ्ग, उपाङ्ग आदि __इनमें से नन्दी और पाक्षिकसूत्र के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में की अवधारणा उस युग में बन चुकी थी। किन्तु वर्तमानकाल में जिस देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, प्रकार से वर्गीकरण किया जाता है, वैसा वर्गीकरण उस समय तक आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान ये सात नाम पाये जाते हैं और भी पूर्ण रूप से निर्धारित नहीं हुआ था। उसमें मात्र अङ्ग-उपाङ्ग, प्रकीर्णक कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ये दो नाम इतने ही नाम मिलते हैं। विशेषता यह है कि उसमें नन्दीसूत्र व पाये जाते हैं। इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र में नौ प्रकीर्णकों का अनुयोगद्वारसूत्र को भी प्रकीर्णकों में सम्मिलित किया गया है। उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक-समाज के कुछ सुखबोधासमाचारी का यह विवरण मुख्य रूप से तो आगम-ग्रन्थों के आचार्य जो ८४ आगम मानते हैं, वे प्रकीर्णकों की संख्या १० के अध्ययन-क्रम को ही सूचित करता है। इसमें मुनि-जीवन सम्बन्धी आचार स्थान पर ३० मानते हैं। इसमें पूर्वोक्त २२ नामों के अतिरिक्त निम्न नियमों के प्रतिपादक आगम-ग्रन्थों के अध्ययन को प्राथमिकता दी गयी ८ प्रकीर्णक और माने गये हैं-पिण्डविशुद्धि, पर्यन्त-आराधना, है और सिद्धान्त-ग्रन्थों का अध्ययन बौद्धिक परिपक्वता के पश्चात् योनिप्राभृत, अङ्गचूलिया, वङ्गचूलिया, वृद्धचतुःशरण, जम्बूपयन्ना और हो ऐसी व्यवस्था की गई है। कल्पसूत्र।
इसी दृष्टि से एक अन्य विवरण जिनप्रभ ने अपने ग्रन्थ जहाँ तक दिगम्बर-परम्परा एवं यापनीय-परम्परा का प्रश्न है, वे 'विधिमार्गप्रपा' में दिया है। इसमें वर्तमान में उल्लिखित आगमों के स्पष्टतः इन प्रकीर्णकों को मान्य नहीं करती हैं, फिर भी मूलाचार में नाम तो मिल जाते हैं, किन्तु कौन आगम किस वर्ग का है, यह उल्लेख आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान से अनेक गाथाएँ उसके संक्षिप्त नहीं है। मात्र प्रत्येक वर्ग के आगमों के नाम एक साथ आने के कारण प्रत्याख्यान और बृहत्-प्रत्याख्यान नामक अध्यायों में अवतरित की यह विश्वास किया जा सकता है कि उस समय तक चाहे अङ्ग, उपाङ्ग गई हैं। इसी प्रकार भगवतीआराधना में भी मरणविभक्ति, आराधनापताका आदि का वर्तमान वर्गीकरण पूर्णत: स्थिर न हुआ हो, किन्तु जैसा आदि अनेक प्रकीर्णकों की गाथाएँ अवतरित हैं। ज्ञातव्य है कि इनमें पद्मभूषण पं० दलसुखभाई का कथन है कि कौन ग्रन्थ किसके साथ अङ्ग-बाह्यों को प्रकीर्णक कहा गया है।
उल्लिखित होना चाहिए ऐसा एक क्रम बन गया था, क्योंकि उसमें
अङ्ग, उपाङ्ग, छेद, मूल, प्रकीर्णक एवं चूलिकासूत्रों के नाम एक ही २ चूलिकासूत्र
साथ मिलते हैं। विधिमार्गप्रपा में अङ्ग, उपाङ्ग ग्रन्थों का पारस्परिक चूलिकासूत्र के अन्तर्गत नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार-ये दो ग्रन्थ सम्बन्ध भी निश्चित किया गया था। मात्र यही नहीं एक मतान्तर का माने जाते हैं। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि स्थानकवासी उल्लेख करते हुए उसमें यह भी बताया गया है कि कुछ आचार्य परम्परा इन्हें चूलिकासूत्र न कहकर मूलसूत्र में वर्गीकृत करती है। फिर चन्द्रप्रज्ञप्ति एवं सूर्यप्रज्ञप्ति को भगवती का उपाङ्ग मानते हैं। जिनप्रभ भी इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर-परम्परा के सभी सम्प्रदायों ने इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम वाचनाविधि के प्रारम्भ में अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, को मान्य रहे हैं।
छेद और मूल- इन वर्गों का उल्लेख किया है। उन्होंने विधिमार्गप्रपा इस प्रकार हम देखते हैं कि ११ अङ्ग, १२ उपाङ्ग, ४ मूल, को ई० सन् १३०६ में पूर्ण किया था, अत: यह माना जा सकता ६ छेद, १० प्रकीर्णक, २ चूलिकासूत्र- ये ४५ आगम श्वेताम्बर- है कि इसके आस-पास ही आगमों का वर्तमान वर्गीकरण प्रचलन में मूर्तिपूजक-परम्परा में मान्य हैं। स्थानकवासी व तेरापन्थी इनमें से १० आया होगा। प्रकीर्णक, जीतकल्प, महानिशीथ और पिण्डनियुक्ति- इन १३ ग्रन्थों को कम करके ३२ आगम मान्य करते हैं।
आगमों के वर्गीकरण की प्राचीन शैली जो लोग चौरासी आगम मान्य करते हैं वे दस प्रकीर्णकों के अर्धमागधी आगम-साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन शैली इससे
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-चीन्दसूरिस्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य भिन्न रही है। इस प्राचीन शैली का सर्वप्रथम निर्देश हमें नन्दीसूत्र एवं ३. कल्प
३. चुल्लकल्पश्रुत पाक्षिकसूत्र (ईसवी सन् पाँचवीं शती) में मिलता है। उस युग में आगमों ४. व्यवहार
४. महाकल्पश्रुत को अङ्गप्रविष्ट व अङ्गबाह्य- इन दो भागों में विभक्त किया जाता ५. निशीथ
५. निशीथ था। अङ्गप्रविष्ट के अन्तर्गत आचाराङ्ग आदि १२ अङ्ग आते थे। शेष ८. महानिशीथ
६. राजप्रश्नीय ग्रन्थ अङ्गबाह्य कहे जाते थे। उसमें अङ्गबाह्यों की एक संज्ञा प्रकीर्णक ७. ऋषिभाषित
७. जीवाभिगम भी थी। अङ्गप्रज्ञप्ति नामक दिगम्बर-ग्रन्थ में भी अङ्गबाह्यों को प्रकीर्णक ८. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति
८. प्रज्ञापना कहा गया है। अङ्गबाह्य को पुन: दो भागों में बाँटा जाता था- ९. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति
९. महाप्रज्ञापना १. आवश्यक और २. आवश्यक-व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत १०. चन्द्रप्रज्ञप्ति
१०. प्रमादाप्रमाद सामायिक आदि छ: ग्रन्थ थे। ज्ञातव्य है कि वर्तमान वर्गीकरण में ११. क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति
११. नन्दी आवश्यक को एक ही ग्रन्थ माना जाता है और सामायिक आदि छ: १२. महल्लिकाविमानप्रविभक्ति १२. अनुयोगद्वार आवश्यक अङ्गों को उसके एक-एक अध्याय रूप में माना जाता है, १३. अङ्गचूलिका
१३. देवेन्द्रस्तव किन्तु प्राचीनकाल में इन्हें छः स्वतन्त्र ग्रन्थ माना जाता था। इसकी १४. वग्गचूलिका
१४. तन्दुलवैचारिक पुष्टि अङ्गपण्णत्ति आदि दिगम्बर-ग्रन्थों से भी हो जाती है। उनमें भी १५. विवाहचूलिका
१५. चन्द्रवेध्यक सामायिक आदि को छ: स्वतन्त्र ग्रन्थ माना गया है। यद्यपि उसमें १६. अरुणोपपात
१६. सूर्यप्रज्ञप्ति कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान के स्थान पर वैनयिक एवं कृतिकर्म नाम १७. वरुणोपपात
१७. पौरुषीमण्डल मिलते हैं। आवश्यक-व्यतिरिक्त के भी दो भाग किये जाते थे- १८. गरुडोपपात
१८. मण्डलप्रवेश १. कालिक और २. उत्कालिक। जिनका स्वाध्याय विकाल को छोड़कर १९. धरणोपपात
१९. विद्याचरण विनिश्चय किया जाता था, वे कालिक कहलाते थे, जबकि उत्कालिक ग्रन्थों के २०. वैश्रमणोपपात
२०. गणिविद्या अध्ययन या स्वाध्याय में काल एवं विकाल का विचार नहीं किया २१. वेलन्धरोपपात
२१. ध्यानविभक्ति जाता था। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र के अनुसार आगमों के वर्गीकरण २२. देवेन्द्रोपपात
२२. मरणविभक्ति की सूची निम्नानुसार है -
२३. उत्थानश्रुत
२३. आत्मविशोधि २४. समुत्थानश्रुत
२४. वीतरागश्रुत श्रुत (आगम) २५. नागपरिज्ञापनिका
२५. संलेखणाश्रुत २६. निरयावलिका
२६. विहारकल्प (क) अङ्गप्रविष्ट
(ख) अङ्गबाह्य २७. कल्पिका
२७. चरणविधि २८. कल्पावतंसिका
२८. आतुरप्रत्याख्यान १. आचाराङ्ग
२९. पुष्पिता
२९. महाप्रत्याख्यान २. सूत्रकृताङ्ग (क) आवश्यक (ख) आवश्यक व्यतिरिक्त ३०. पुष्पचूलिका ३. स्थानाङ्ग
३१. वृष्णिदशा ४. समवायाङ्ग १. सामायिक ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति २. चतुर्विंशतिस्तव
- इस प्रकार नन्दीसूत्र में १२ अङ्ग, ६ आवश्यक, ३१ कालिक ६. ज्ञाताधर्मकथा ३. वन्दना
एवं २९ उत्कालिक सहित ७८ आगमों का उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य ७. उपासकदशाङ्ग ४. प्रतिक्रमण
है कि आज इनमें से अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध है। ८. अन्तकृद्दशाङ्ग ५. कायोत्सर्ग ९. अनुत्तरौपपातिकदशांग६. प्रत्याख्यान
यापनीय और दिगम्बर-परम्परा में आगमों का वर्गीकरण १०. प्रश्नव्याकरण
यापनीय और दिगम्बर-परम्पराओं में जैन आगम-साहित्य के ११. विपाकसूत्र
वर्गीकरण की जो शैली मान्य रही है, वह भी बहुत कुछ नन्दीसूत्र १२. दृष्टिवाद
की शैली के ही अनुरूप है। उन्होंने उसे उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र
से ग्रहण किया है। उसमें आगमों को अङ्ग और अङ्गबाह्य ऐसे दो (क) कालिक
(ख) उत्कालिक
वर्गों में विभाजित किया गया है। इनमें अङ्गों की बारह संख्या का
स्पष्ट उल्लेख तो मिलता है, किन्तु अङ्गबाह्य की संख्या का स्पष्ट निर्देश १. उत्तराध्ययन
१. दशवकालिक
नहीं है। मात्र यह कहा गया है अङ्गबाह्य अनेक प्रकार के हैं। किन्तु २. दशाश्रुतस्कन्ध
२. कल्पिकाकल्पिक अपने तत्त्वार्थभाष्य (१/२०) में आचार्य उमास्वाति ने अङ्ग-बाह्य के
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- यतीन्द्रसूरि रकमान्य जन आम एवं साहित्य ..... अन्तर्गत सर्वप्रथम सामायिक आदि छः आवश्यकों का उल्लेख किया अङ्ग बाह्यों को आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त, ऐसे दो विभागों है उसके बाद दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा, कल्प-व्यवहार, निशीथ में बाँटा जाता था। आवश्यक-व्यतिरिक्त में भी कालिक और उत्कालिक
और ऋषिभाषित के नाम देकर अन्त में आदि शब्द से अन्य ग्रन्थों ऐसे दो विभाग सर्वमान्य थे। लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती के बाद का ग्रहण किया है। किन्तु अङ्गबाह्य में स्पष्ट नाम तो उन्होंने केवल से अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्णक, छेद, मूल और चूलिकासूत्र- यह वर्तमान बारह ही दिये हैं। इसमें कल्प-व्यवहार का एकीकरण किया गया है। वर्गीकरण अस्तित्व में आया है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर एक अन्य सूचना से यह भी ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थभाष्य में उपाङ्ग दोनों परम्पराओं में सभी अङ्गबाह्य आगमों के लिए प्रकीर्णक (पइण्णय) संज्ञा का निर्देश है। हो सकता है कि पहले १२ अङ्गों के समान ही नाम भी प्रचलित रहा है। १२ उपाङ्ग माने जाते हो। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलङ्क, विद्यानन्दी आदि दिगम्बर आचार्यों ने अङ्गबाह्य में न केवल उत्तराध्ययन, अर्धमागधी आगम-साहित्य की प्राचीनता एवं रचनाकाल दशवैकालिक आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है, अपितु कालिक एवं भारत जैसे विशाल देश में अतिप्राचीनकाल से ही अनेक बोलियों उत्कालिक ऐसे वर्गों का भी नाम निर्देश (१/२०) किया है। हरिवंशपुराण का अस्तित्व रहा है, किन्तु साहित्यिक दृष्टि से भारत में तीन प्राचीन एवं धवलाटीका में आगमों का जो वर्गीकरण उपलब्ध होता है उसमें भाषाएँ प्रचलित रही हैं- संस्कृत, प्राकृत और पालि। इनमें संस्कृत १२ अङ्गों एवं १४ अङ्गबाह्यों का उल्लेख है। उसमें भी अङ्गबाह्यों के दो रूप पाये जाते हैं- छान्दस् और साहित्यिक संस्कृत। वेद में सर्वप्रथम छ: आवश्यकों का उल्लेख है, तत्पश्चात् दशवैकालिक, छान्दस् संस्कृत में है, जो पालि और प्राकृत के निकट है। उपनिषदों उत्तराध्ययन, कल्प-व्यवहार, कप्पाकप्पीय (कल्पिकाकल्पिक), महाकप्पीय की भाषा छान्दस् की अपेक्षा साहित्यिक संस्कृत के अधिक निकट (महाकल्प), पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निशीथ का उल्लेख है। इस है। प्राकृत भाषा में निबद्ध जो साहित्य उपलब्ध है, उसमें अर्धमागधी प्रकार धवला में १२ अङ्ग और १४ अङ्गबाह्यों की गणना की गयी। आगम साहित्य प्राचीनतम है। यहाँ तक कि आचाराङ्ग का प्रथम श्रुतस्कन्ध इसमें भी कल्प और व्यवहार को एक ही ग्रन्थ माना गया है। ज्ञातव्य और ऋषिभाषित तो अशोककालीन प्राकृत अभिलेखों से भी प्राचीन है कि तत्त्वार्थभाष्य की अपेक्षा इसमें कप्पाकप्पीय, महाकप्पीय, पुण्डरीक है। ये दोनों ग्रन्थ लगभग ई०पू० पाँचवीं-चौथी शताब्दी की रचनाएँ
और महापुण्डरीक-ये चार नाम अधिक है। किन्तु भाष्य में उल्लिखित हैं। आचाराङ्ग की सूत्रात्मक औपनिषदिक शैली उसे उपनिषदों का दशा और ऋषिभाषित को छोड़ दिया गया है। इसमें जो चार नाम निकटवर्ती और स्वयं भगवान् महावीर की वाणी सिद्ध करती है। भाव, अधिक हैं- उनमें कप्पाकप्पीय और महाकप्पीय का उल्लेख भाषा और शैली तीनों के आधार पर यह सम्पूर्ण पालि और प्राकृतनन्दीसूत्र में भी है, मात्र पुण्डरीक और महापुण्डरीक ये दो नाम साहित्य में प्राचीनतम है। आत्मा के स्वरूप एवं अस्तित्व-सम्बन्धी विशेष हैं।
इसके विवरण औपनिषदिक विवरणों के अनुरूप हैं। इसमें प्रतिपादित दिगम्बर-परम्परा में आचार्य शुभचन्द्रकृत अङ्गप्रज्ञप्ति (अङ्गपण्णत्ति) । महावीर का जीवनवृत्त भी अलौकिकता और अतिशयता रहित है। ऐसा नामक एक ग्रन्थ मिलता है। यह ग्रन्थ धवलाटीका के पश्चात् का प्रतीत प्रतीत होता है कि यह विवरण भी उसी व्यक्ति द्वारा कहा गया है, होता है। इसमें धवलाटीका में वर्णित १२ अङ्गप्रविष्ट व १४ अङ्गबाह्य जिसने स्वयं उनकी जीवनचर्या को निकटता से देखा और जाना होगा। ग्रन्थों की विषय-वस्तु का विवरण दिया गया है। इसमें अङ्गबाह्य ग्रन्थों अर्धमागधी आगम-साहित्य में ही सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के की विषय-वस्तु का विवरण संक्षिप्त ही है। इस ग्रन्थ में और दिगम्बर छठे अध्याय, आचारङ्गचूला और कल्पसूत्र में भी महावीर की जीवनचर्या परम्परा के अन्य ग्रन्थों में अङ्गबाह्यों को प्रकीर्णक भी कहा गया है का उल्लेख है, किन्तु वे भी आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा (३.१०)। इसमें कहा गया है कि सामायिक प्रमुख १४ प्रकीर्णक परवर्ती हैं, क्योंकि उनमें क्रमश: अलौकिकता, अतिशयता और अङ्गबाह्य है। इसमें दिये गये विषय-वस्तु के विवरण से लगता है अतिरञ्जना का प्रवेश होता गया है। इसी प्रकार ऋषिभाषित की कि यह विवरण मात्र अनुश्रुति के आधार पर लिखा गया है, मूल साम्प्रदायिक अभिनिवेश से रहित उदारदृष्टि तथा भाव और भाषागत ग्रन्थों को लेखक ने नहीं देखा है। इसमें भी पुण्डरीक और महापुण्डरीक अनेक तथ्य उसे आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर सम्पूर्ण का उल्लेख है। इन दोनों ग्रन्थों का उल्लेख श्वेताम्बर-परम्परा में मुझे प्राकृत एवं पालिसाहित्य में प्राचीनतम सिद्ध करते हैं। पालिसाहित्य कहीं नहीं मिला। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा के सूत्रकृताङ्ग में एक अध्ययन में प्राचीनतम ग्रन्थ सुत्तनिपात माना जाता है, किन्तु अनेक तथ्यों के का नाम पुण्डरीक अवश्य मिलता है। प्रकीर्णकों में एक सारावली आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि ऋषिभाषित, सुत्तनिपात से भी प्रकीर्णक है। इसमें पुण्डरीक महातीर्थ (शत्रुञ्जय) की महत्ता का विस्तृत प्राचीन है। अर्धमागधी आगमों की प्रथम वाचना स्थूलिभद्र के समय विवरण है। सम्भव है कि पुण्डरीक सारावली प्रकीर्णक का ही यह अर्थात् ईसा पूर्व तीसरी शती में हुई थी, अत: इतना निश्चित् है कि दूसरा नाम हो। फिर भी स्पष्ट प्रमाण के अभाव में इस सम्बन्ध में उस समय तक अर्धमागधी आगम-साहित्य अस्तित्व में आ चुका था। अधिक कुछ कहना उचित नहीं होगा।
इस प्रकार अर्धमागधी आगम-साहित्य के कुछ ग्रन्थों के रचनाकाल इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रथम शती से लेकर दसवीं शती की उत्तर सीमा ई.पू. पाँचवीं-चौथी शताब्दी सिद्ध होती है, जो कि तक आगमों को नन्दीसूत्र की शैली में अङ्ग और अङ्गबाह्य- पुन: इस साहित्य की प्राचीनता को प्रमाणित करती है।
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चीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य , फिर भी हमें यह स्मरण रखना होगा कि सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम काल निर्धारित करते समय उनमें उपलब्ध सांस्कृतिक सामग्री, साहित्य न तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की। यह सत्य दार्शनिक-चिन्तन की स्पष्टता एवं गहनता, भाषा-शैली आदि सभी पक्षों है कि इस साहित्य को अन्तिम रूप वीरनिर्वाण सम्वत् ९८० में वलभी पर प्रामाणिकता के साथ विचार करना चाहिए। इस दृष्टि से अध्ययन में सम्पन्न हुई वाचना में प्राप्त हुआ। किन्तु इस आधार पर हमारे कुछ करने पर ही यह स्पष्ट बोध हो सकेगा कि अर्धमागधी-आगम-साहित्य विद्वान् मित्र यह गलत निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि अर्धमागधी-आगम का कौन सा ग्रन्थ अथवा उसका कौन सा अंश-विशेष किस काल साहित्य ईसवी सन् की पाँचवी शताब्दी की रचना है। यदि अर्धमागधी की रचना है। आगम ईसा की पाँचवी शती की रचना हैं, तो वलभी की इस अन्तिम अर्धमागधी-आगमों की विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश श्वेताम्बर वाचना के पूर्व भी वलभी, मथुरा, खण्डगिरि और पाटलीपुत्र में जो परम्परा में हमें स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, नन्दीसूत्र, नन्दीचूर्णि एवं वाचनायें हुई थीं उनमें सङ्कलित साहित्य कौन सा था? उन्हें यह स्मरण तत्त्वार्थभाष्य में तथा दिगम्बर- परम्परा में तत्त्वार्थ की टीकाओं के रखना चाहिए कि वलभी में आगमों को सङ्कलित, सुव्यवस्थित और साथ-साथ धवला, जयधवला में मिलते हैं। तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बरसम्पादित करके लिपिबद्ध (पुस्तकारूढ़) किया गया था, अत: यह किसी परम्परा की टीकाओं और धवलादि में उनकी विषय-वस्तु सम्बन्धी भी स्थिति में उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता है। सङ्कलन और निर्देश मात्र अनुश्रुतिपरक है, वे ग्रन्थों के वास्तविक अध्ययन पर सम्पादन का अर्थ रचना नहीं है। पुन: आगमों में विषय-वस्तु, भाषा आधारित नहीं हैं। उनमें दिया गया विवरण तत्त्वार्थभाष्य एवं परम्परा
और शैली की जो विविधता और भिन्नता परिलक्षित होती है, वह से प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा में स्थानाङ्ग, स्पष्टतया इस तथ्य की प्रमाण है कि सङ्कलन और सम्पादन के समवायाङ्ग, नन्दी आदि अर्धमागधी आगमों और उनकी व्याख्याओं समय उनकी मौलिकता को यथावत् रखने का प्रयत्न किया गया है, एवं टीकाओं में उनकी विषय-वस्तु का जो विवरण है वह उन ग्रन्थों अन्यथा आज उनका प्राचीन स्वरूप समाप्त ही हो जाता और के अवलोकन पर आधारित है क्योंकि प्रथम तो इस परम्परा में आगमों आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा और शैली भी परिवर्तित हो के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा आज तक जीवित चली आ रही जाती तथा उसके उपधानश्रुत नामक नवें अध्ययन में वर्णित है। दूसरे, आगम-ग्रन्थों की विषय-वस्तु में कालक्रम से क्या परिवर्तन महावीर का जीवनवृत्त अलौकिकता एवं अतिशयों से युक्त बन हुआ है, इसकी सूचना श्वेताम्बर-परम्परा के उपर्युक्त आगम-ग्रन्थों से जाता। यद्यपि यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु में कुछ प्रक्षिप्त ही प्राप्त हो जाती है। इनके अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है अंश हैं, किन्तु प्रथम तो ऐसे प्रक्षेप बहुत ही कम हैं और दूसरे उन्हें कि किस काल में किस आगम-ग्रन्थ में कौन सी सामग्री जुड़ी और स्पष्ट रूप से पहचाना भी जा सकता है। अत: इस आधार पर सम्पूर्ण अलग हुई है। आचाराङ्ग में आचारचूला और निशीथ के जुड़ने और अर्धमागधी - आगम-साहित्य को परवर्ती मान लेना सबसे बड़ी पुन: निशीथ के अलग होने की घटना, समवायाङ्ग और स्थानाङ्ग में भ्रान्ति होगी।
समय-समय पर हुए प्रक्षेप, जाताधर्मकथा के द्वितीय वर्ग में जुड़े हुए अर्धमागधी -आगम-साहित्य पर कभी-कभी महाराष्ट्री प्राकृत के । अध्याय, प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु में हुआ सम्पूर्ण परिवर्तन, प्रभाव को देखकर भी उसकी प्राचीनता पर संदेह किया जाता है। किन्तु । अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक एवं विपाक के अध्ययनों में हुए आंशिक प्राचीन हस्तप्रतों के आधार पर पाठों के तुलनात्मक अध्ययन से यह परिवर्तन- इन सबकी प्रामाणिक जानकारी हमें उन विवरणों का स्पष्ट हो जाता है कि अनेक प्राचीन हस्तप्रतों में आज भी उनका 'त' तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन करने से मिल जाती है। इनमें श्रुतिप्रधान अर्धमागधी स्वरूप सुरक्षित है। आचाराङ्ग के प्रकाशित प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु का परिवर्तन ही ऐसा है, जिसके वर्तमान संस्करणों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि परवर्तीकाल __ स्वरूप की सूचना केवल नन्दीचूर्णि (ईस्वी सन् सातवीं शती) में मिलती में उसमें कितने पाठान्तर हो गये हैं। इस साहित्य पर जो महाराष्ट्री है। वर्तमान प्रश्नव्याकरण लगभग ईस्वी सन् की पाँचवीं-छठी शताब्दी प्रभाव आ गया है वह लिपिकारों और टीकाकारों की अपनी भाषा में अस्तित्व में आया है। इस प्रकार अर्धमागधी आगम-साहित्य लगभग के प्रभाव के कारण है। उदाहरण के रूप में सूत्रकृताङ्ग का 'रामपुत्ते' एक सहस्र वर्ष की सुदीर्घ अवधि में किस प्रकार निर्मित, परिवर्धित, पाठ चूर्णि में 'रामाउत्ते' और शीलाङ्क की टीका में 'रामगुत्ते' हो गया। परिवर्तित एवं सम्पादित होता रहा है इसकी सूचना भी स्वयं अर्धमागधी अत: अर्धमागधी-आगमों में, महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर आगम-साहित्य और उसकी टीकाओं से मिल जाती है। उनकी प्राचीनता पर सन्देह नहीं करना चाहिये। अपितु उन ग्रन्थों की वस्तुत: अर्धमागधी-आगम विशेष या उसके अंश विशेष के विभिन्न प्रतों एवं नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं के आधार पर रचनाकाल का निर्धारण एक जटिल समस्या है, इस सम्बन्ध में पाठों के प्राचीन स्वरूपों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करना चाहिये। विषय-वस्तु सम्बन्धी विवरण, विचारों का विकासक्रम, भाषा-शैली वस्तुत: अर्धमागधी-आगम-साहित्य में विभिन्न काल की सामग्री आदि अनेक दृष्टियों से निर्णय करना होता है। उदाहरण के रूप में सुरक्षित है। इसकी उत्तर सीमा ई०पू० पाँचवीं-चौथी शताब्दी और स्थानाङ्ग में सात निह्नवों और नौ गणों का उल्लेख मिलता है जो कि निम्न सीमा ई०सन् की पाँचवीं शताब्दी है। वस्तुतः अर्धमागधी वीरनिर्वाण सं० ६०९ अथवा उसके बाद अस्तित्व में आये, अत: आगम-साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों का या उनके किसी अंश-विशेष का विषय-वस्तु की दृष्टि से स्थानाङ्ग के रचनाकाल की अन्तिम सीमा
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- तीन्द्रसरिग्म ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य वीरनिर्वाण सम्वत् ६०९ के पूर्व अर्थात् ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी आगमों का रचनाकाल ई.सन् की पाँचवीं शताब्दी नहीं माना जा सकता। का उत्तरार्ध या द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होती है। इसी प्रकार डॉ. हर्मन याकोबी ने यह निश्चित किया है कि आगमों का प्राचीन आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की विषय-वस्तु एवं भाषा-शैली आचाराङ्ग अंश ई.पू. चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर ई.पू. तीसरी शताब्दी के रचनाकाल को अर्धमागधी-आगम-साहित्य में सबसे प्राचीन सिद्ध के पूर्वार्द्ध के बीच का है। न केवल अङ्ग-आगम अपितु दशाश्रुतस्कन्ध, करती है। अर्धमागधी-आगम के काल-निर्धारण में इन सभी पक्षों पर बृहत्कल्प और व्यवहार भी, जिन्हें आचार्य भद्रबाहु की रचना माना विचार अपेक्षित है।
जाता है याकोबी और शुबिंग के अनुसार ई.पू. चतुर्थ शती के उत्तरार्द्ध इस प्रकार न तो हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों की यह दृष्टि समुचित से ई.पू. तीसरी शती के पूर्वार्द्ध में निर्मित हैं। पं. दलसुखभाई आदि है कि अर्धमागधी आगम देवर्द्धिगणि की वाचना के समय अर्थात् ईसा की मान्यता है कि आगमों का रचनाकाल प्रत्येक ग्रन्थ की भाषा, की पाँचवी शताब्दी में अस्तित्व में आये और न कुछ श्वेताम्बर आचार्यों छन्दयोजना, विषय-वस्तु और उपलब्ध आन्तरिक और बाह्य साक्ष्यों का यह कहना ही समुचित है कि सभी अङ्ग-आगम अपने वर्तमान के आधार पर ही निश्चित किया जा सकता है। आचाराङ्ग का प्रथम स्वरूप में गणधरों की रचना हैं और उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन, श्रुतस्कन्ध अपनी भाषा-शैली, विषय-वस्तु, छन्दयोजना आदि की दृष्टि परिवर्धन, प्रक्षेप या विलोप नहीं हुआ है। किन्तु इतना निश्चित है कि से महावीर की वाणी के सर्वाधिक निकट प्रतीत होता है। उसकी कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर अर्धमागधी-आगम-साहित्य शौरसेनी आगम- औपनिषदिक शैली भी यही बताती है कि वह एक प्राचीन ग्रन्थ है। साहित्य से प्राचीन है। शौरसेनी-आगम-साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ उसका काल किसी भी स्थिति में ई.पू. चतुर्थ शती के बाद का नहीं कसायपाहुडसुत्त भी ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शताब्दी से प्राचीन हो सकता। उसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रूप में जो 'आयारचूला' जोड़ी नहीं है। उसके पश्चात् षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवतीआराधाना, गयी है, वह भी ई.पू. दूसरी या प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। सूत्रकृताङ्ग तिलोयपण्णत्ति, पिण्डछेदशास्त्र, आवश्यक (प्रतिक्रमणसूत्र) आदि का भी एक प्राचीन आगम है उसकी भाषा, छन्दयोजना एवं उसमें विभिन्न क्रम आता है, किन्तु पिण्डछेदशास्त्र और आवश्यक (प्रतिक्रमण) के दार्शनिक परम्पराओं तथा ऋषियों के जो उल्लेख मिले हैं उनके आधार अतिरिक्त इन सभी ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त आदि की उपस्थिति पर यह कहा जा सकता है कि वह भी ई.पू. चौथी-तीसरी शती से से यह फलित होता है कि ये सभी ग्रन्थ पाँचवीं शती के पश्चात् के बाद का नहीं हो सकता, क्योंकि उसके बाद विकसित दार्शनिक हैं। दिगम्बर आवश्यक (प्रतिक्रमण) एवं पिण्डछेदशास्त्र का आधार मान्यताओं का उसमें कही कोई उल्लेख नहीं है। उसमें उपलब्ध वीरस्तुति भी क्रमश: श्वेताम्बर मान्य आवश्यक और कल्प-व्यवहार, निशीथ आदि में भी अतिरञ्जनाओं का प्राय: अभाव ही है। अङ्ग आगमों में तीसरा छेदसूत्र ही रहे हैं। उनके प्रतिक्रमणसूत्र में भी वर्तमान सूत्रकृताङ्ग क्रम स्थानाङ्ग का आता है। स्थानाङ्ग, बौद्ध-आगम अङ्गत्तरनिकाय की के तेईस एवं ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययनों का विवरण है तथा शैली का ग्रन्थ है। ग्रन्थ-लेखन की यह शैली भी प्राचीन रही है। स्थानाङ्ग पिण्डछेदशास्त्र में जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त देने का निर्देश में नौ गणों और सात निह्नवों के उल्लेख को छोड़कर अन्य ऐसा है। ये यही सिद्ध करते हैं कि प्राकृत-आगम-साहित्य में अर्धमागधी- कुछ भी नहीं है जिससे उसे परवर्ती कहा जा सके। हो सकता है कि आगम ही प्राचीनतम हैं चाहे उनकी अन्तिम वाचना पाँचवीं शती के जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण ये उल्लेख उत्तरार्ध (ई.सन् ४५३) में ही सम्पन्न क्यों न हुई हो?
उसमें अन्तिम वाचना के समय प्रक्षिप्त किये गये हों। उसमें जो दस इस प्रकार जहाँ तक आगमों के रचनाकाल का प्रश्न है उसे ई.पू. दशाओं और उसमें प्रत्येक के अध्यायों के नामों का उल्लेख है, वह पाँचवीं शताब्दी से ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक लगभग एक हजार भी उन आगमों की प्राचीन विषय-वस्तु का निर्देश करता है। यदि वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्याप्त माना जा सकता है क्योंकि उपलब्ध वह वलभी के वाचनाकाल में निर्मित हुआ होता तो उसमें दस दशाओं आगमों में सभी एक काल की रचना नहीं हैं। आगमों के सन्दर्भ में की जो विषय-वस्तु वर्णित है वह भिन्न होती। अत: उसकी प्राचीनता और विशेष रूप से अङ्ग-आगमों के सम्बन्ध में परम्परागत मान्यता में सन्देह नहीं किया जा सकता। समवायाङ्ग, स्थानाङ्ग की अपेक्षा एक तो यही है कि वे गणधरों द्वारा रचित होने के कारण ई.पू. पाँचवीं परवर्ती ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में द्वादश अङ्गों का स्पष्ट उल्लेख है। शताब्दी की रचना हैं। किन्तु दूसरी ओर कुछ विद्वान् उन्हें वलभी में साथ ही इसमें उत्तराध्ययन के ३६, ऋषिभाषित के ४४, सूत्रकृताङ्ग सङ्कलित एवं सम्पादित किये जाने के कारण ईसा की पाँचवीं शती के २३, सूत्रकृताङ्ग प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६, आचाराङ्ग के चूलिका की रचना मान लेते हैं। मेरी दृष्टि में ये दोनों ही मत समीचीन नहीं सहित २५ अध्ययन, दशा, कल्प, व्यवहार के २६ अध्ययन आदि हैं। देवर्धि के सङ्कलन, सम्पादन एवं ताडपत्रों पर लेखन-काल को का उल्लेख होने से इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ इसमें निर्दिष्ट उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता। अङ्ग-आगम तो प्राचीन ही आगमों के स्वरूप के निर्धारित होने के पश्चात् ही बना होगा। पुन: है। ईसा पूर्व चौथी शती में पाटलीपुत्र की वाचना में जिन द्वादश अङ्गों इसमें चतुर्दश गुणस्थानों का जीवस्थान के रूप में स्पष्ट उल्लेख मिलता की वाचना हुई थी, वे निश्चित रूप से उसके पूर्व ही बने होंगे। यह है। यह निश्चित है कि गुणस्थान का यह सिद्धान्त उमास्वाति के पश्चात् सत्य है कि आगमों में देवर्धि की वाचना के समय अथवा उसके बाद अर्थात् ईसा की चतुर्थ शती के बाद ही अस्तित्व में आया है। यदि भी कुछ प्रक्षेप हुए हों, किन्तु उन प्रक्षेपों के आधार पर सभी अङ्ग- इसमें जीवठाण के रूप में चौदह गुणस्थानों के उल्लेख को बाद में
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– વતીન્દ્ર-ર ક્લારપ્રેન્ચ નૈત 3નામ હવે મરત્વ - प्रक्षिप्त भी मान लिया जाय तो भी अपनी भाषा-शैली और विषय-वस्तु उल्लिखित इसके दस अध्यायों की चर्चा होती रही है। हो सकता है की दृष्टि से इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की ३-४ शती से पहले का कि इसकी माथुरी वाचना में ये दस अध्ययन रहे होंगे। नहीं है। हो सकता है उसके कुछ अंश प्राचीन हों, लेकिन आज उन्हें बहुत कुछ यही स्थिति अनुत्तरौपपातिकदशा की है। स्थानाङ्गसूत्र खोज पाना अति कठिन कार्य है। जहाँ तक भगवतीसूत्र का प्रश्न है, की सूचना के अनुसार इसमें निम्न दस अध्ययन कहे गये हैविद्वानों के अनुसार इससे अनेक स्तर हैं। इसमें कुछ स्तर अवश्य १. ऋषिदास, २. धन्य, ३. सुनक्षत्र, ४. कार्तिक, ५. संस्थान, ही ई.पू. के हैं, किन्तु समवायाङ्ग की भाँति भगवती में भी पर्याप्त ६.शालिभद्र, ७. आनन्द, ८. तेतली, ९. दशार्णभद्र, १०. अतिमुक्ति। प्रक्षेप हुआ है। भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर जीवाजीवाभिगम, उपलब्ध अनुत्तरौपपातिकदशा में तीन वर्ग हैं, उसमें द्वितीय वर्ग में प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, नन्दी आदि परवर्ती आगमों का निर्देश हुआ ऋषिदास, धन्य और सुनक्षत्र ऐसे तीन अध्ययन मिलते हैं इनमें भी है। इनके उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि इसके सम्पादन के समय धन्य का अध्ययन ही विस्तृत है। सुनक्षत्र और ऋषिदास के विवरण इसमें ये और इसी प्रकार की अन्य सूचनायें दे दी गयी हैं। इससे ___ अत्यन्त संक्षेप में ही हैं। स्थानाङ्ग में उल्लिखित शेष सात अध्याय यह प्रतिफलित होता है कि वल्लभी वाचना में इसमें पर्याप्त रूप से वर्तमान अनुत्तरौपपातिकसूत्र में उपलब्ध नहीं होते। इससे यह प्रतीत परिवर्धन और संशोधन अवश्य हुआ है, फिर भी इसके कुछ शतकों होता है कि यह ग्रन्थ वलभी वाचना के समय ही अपने वर्तमान स्वरूप की प्राचीनता निर्विवाद है। कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान् इसके में आया होगा। प्राचीन एवं परवर्ती स्तरों के पृथक्करण का कार्य कर रहे हैं। उनके जहाँ तक प्रश्नव्याकरणदशा का प्रश्न है इतना निश्चित है कि वर्तमान निष्कर्ष प्राप्त होने पर ही इसका रचनाकाल निश्चित किया जा प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु न केवल स्थानाङ्ग में उल्लिखित सकता है।
विषय-वस्तु से भिन्न है, अपितु नन्दी और समवायाङ्ग की उल्लिखित उपासकदशा आगम-साहित्य में श्रावकाचार का वर्णन करने वाला। विषय-वस्तु से भी भिन्न है। प्रश्नव्याकरण की वर्तमान आस्रव और प्रथम ग्रन्थ है। स्थानाङ्गसूत्र में उल्लिखित इसके दस अध्ययनों और संवर द्वार वाली विषय-वस्तु का सर्वप्रथम निर्देश नन्दीचूर्णि में मिलता उनकी विषय-वस्तु में किसी प्रकार के परिवर्तन होने के सङ्केत नहीं है। इससे यह फलित होता है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरणसूत्र नन्दी के मिलते हैं। अत: मैं समझता हूँ कि यह ग्रन्थ भी अपने वर्तमान स्वरूप पश्चात् ई.सन् की पाँचवीं-छठी शती के मध्य ही कभी निर्मित हुआ में ई.पू. की ही रचना है और इसके किसी भी अध्ययन का विलोप है। इतना तो निश्चित है कि नन्दी के रचयिता देववाचक के सामने नहीं हुआ है। श्रावकव्रतों को अणुव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में वर्गीकृत यह ग्रन्थ अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं था। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा, करने के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्टतः इसका अनुसरण देखा जाता अन्तकृद्दशा और अनुत्तरौपपातिकदशा में जो परिवर्तन हुए थे, वे है। अत: यह तत्त्वार्थ से अर्थात् ईसा की तीसरी शती से परवर्ती नहीं नन्दीसूत्रकार के पूर्व हो । थे, क्योंकि वे उनके इस परिवर्तित स्वरूप हो सकता है। ज्ञातव्य है कि अनुत्तरौपपातिक में उपलब्ध वर्गीकरण का विवरण देते हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपने एक स्वतन्त्र परवर्ती है, क्योंकि उसमें गुणव्रत की अवधारणा आ गयी है। लेख में की है जो 'जैन ...म-साहित्य', सम्पादक डॉ. के.आर. चन्द्रा,
अङ्ग-आगम-साहित्य में अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु का उल्लेख अहमदाबाद, से प्रकाशित है।* हमें स्थानाङ्ग सूत्र में मिलता है। इसमें इसके निम्न दस अध्याय उल्लिखित इसी प्रकार जब हम उपाङ्ग-साहित्य की ओर आते हैं तो उसमें हैं- नमि, मातङ्ग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, जमालि, भगालि, रायपसेणियसुत्त में राजा पसेणीय द्वारा आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध किंकिम, पल्लतेतिय, फाल अम्बडपुत्र। इनमें से सुदर्शन सम्बन्धी कुछ में जो प्रश्न उठाये गये हैं उनका विवरण हमें पालित्रिपिटक में भी उपलब्ध
अंश को छोड़कर वर्तमान अन्तकृद्दशासूत्र में ये कोई भी अध्ययन नहीं होता है। इससे यह फलित होता है कि औपपातिक का यह अंश मिलते हैं। किन्तु समवायाङ्ग और नन्दीसूत्र में क्रमश: इसके सात और कम से कम पालित्रिपिटक जितना प्राचीन तो है ही। जीवाजीवाभिगम आठ वर्गों के उल्लेख मिलते हैं। इससे यह प्रतिफलित होता है कि के रचनाकाल को निश्चित रूप से बता पाना तो कठिन है, किन्तु इसकी स्थानाङ्ग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा का प्राचीन अंश विलुप्त हो गया विषय-वस्तु के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वह ग्रन्थ ई.पू. है। यद्यपि समवायाङ्ग और नन्दी में क्रमश: इसके सात एवं आठ वर्गों की रचना होनी चाहिये। उपाङ्ग-साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को तो स्पष्टत: का उल्लेख होने से इतना तय है कि वर्तमान अन्तकृद्दशा समवायाङ्ग आर्य श्याम की रचना माना जाता है। आर्य श्याम का आचार्यकाल और नन्दी की रचना के समय अस्तित्व में आ गया था। अत: इसका वी.नि.सं. ३३५-३७६ के मध्य माना जाता है। अत: इसका रचनाकाल वर्तमान स्वरूप ईसा की चौथी-पाँचवीं शती का है। उसके प्राचीन दस ई.पू. द्वितीय शताब्दी के लगभग निश्चित होता है। अध्यायों के जो उल्लेख हमें स्थानाङ्ग में मिलते हैं, उन्हीं दस अध्ययनों इसी प्रकार उपाङ्ग वर्ग के अन्तर्गत वर्णित चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति के उल्लेख दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में यथा अकलङ्क और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति- ये तीन प्रज्ञप्तियाँ भी प्राचीन ही हैं। वर्तमान के राजवार्तिक, धवला, अङ्गप्रज्ञप्ति आदि में भी मिलते हैं। इससे यह में चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दिखाई देता है। किन्तु फलित होता है कि इस अङ्ग-आगम के प्राचीन स्वरूप के विलुप्त सूर्यप्रज्ञप्ति में ज्योतिष सम्बन्धी जो चर्चा है वह वेदाङ्ग-ज्योतिष के हो जाने के पश्चात् भी माथुरी वाचना की अनुश्रुति से स्थानाङ्ग में
१. इस ग्रन्थ में भी यह लेख प्रकाशित है।
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-- यतीन्द्रसरि मारकमान्य जैन आगम एवं साहित्य समान है, इससे इसकी प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है। यह ग्रन्थ किसी भी संघ-भेद या सम्प्रदाय-भेद के पूर्व की रचना हैं। अत: इनकी प्राचीनता भी स्थिति में ई.पू. प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। इन तीनों प्रज्ञप्तियों में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। 'आवश्यक' श्रमणों की दैनन्दिन को दिगम्बर-परम्परा में भी दृष्टिवाद के एक अंश--- परिकर्म के अन्तर्गत क्रियाओं का ग्रन्थ था अत: इसके कुछ प्राचीन पाठ तो भगवान् महावीर माना जाता है। अत: यह ग्रन्थ भी दृष्टिवाद के पूर्ण विच्छेद एवं सम्प्रदाय के समकालिक ही माने जा सकते हैं। चूँकि दशवकालिक, उत्तराध्ययन भेद के पूर्व का ही होना चाहिये।
और आवश्यक के सामायिक आदि विभाग दिगम्बर और यापनीय परम्परा छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार को स्पष्टत: भद्रबाहु में भी मान्य रहे हैं, अत: इनकी प्राचीनता असंदिग्ध है। प्रथम की रचना माना गया है। अत: इसका काल ई.पू. चतुर्थ-तृतीय प्रकीर्णक-साहित्य में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में है। शताब्दी के बाद का भी नहीं हो सकता है। ये सभी ग्रन्थ अचेल-परम्परा अत: ये सभी नन्दीसूत्र से तो प्राचीन हैं ही, इसमें सन्देह नहीं किया में भी मान्य रहे हैं। इसी प्रकार निशीथ भी अपने मूल रूप में तो जा सकता। पुन: आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि आदि आचाराङ्ग की ही एक चूला रहा है, बाद में उसे पृथक् किया गया प्रकीर्णको की सैंकड़ों गाथाएँ यापनीय-ग्रन्थ मूलाचार और भगवतीआराधना है। अत: इसकी प्राचीनता में भी सन्देह नहीं किया जा सकता। याकोबी, में पायी जाती हैं, मूलाचार एवं भगवतीआराधना भी छठी शती से शुबिंग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने एकमत से छेदसूत्रों की प्राचीनता परवर्ती नहीं हैं। अत: इन नौ प्रकीर्णकों को तो ई.सन् की चौथी-पाँचवीं स्वीकार की है। इस वर्ग में मात्र जीतकल्प ही ऐसा ग्रन्थ है जो निश्चित शती के परवर्ती नहीं माना जा सकता। यद्यपि वीरभद्र द्वारा रचित कुछ ही परवर्ती है। पं० दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार यह आचार्य प्रकीर्णक नवीं-दसवीं शती की रचनाएँ हैं। इसी प्रकार चूलिकासूत्रों जिनभद्र की कृति है। ये जिनभद्र विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता हैं। इनका के अन्तर्गत नन्दी और अनुयोगद्वार सूत्रों में भी अनुयोगद्वार को कुछ काल अनेक प्रमाणों से ई.सन् की सातवीं शती निश्चित है। अत: विद्वानों ने आर्यरक्षित के समय का माना है। अत: वह ई.सन् की जीतकल्प का भी काल वही होना चाहिये। मेरी दृष्टि में पं. दलसुखभाई प्रथम शती का ग्रन्थ होना चाहिए। नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक देवर्धि की यह मान्यता निरापद नहीं है, क्योंकि दिगम्बर-परम्परा में इन्द्रनन्दि से पूर्ववर्ती हैं अत: उनका काल भी पाँचवीं शताब्दी से परवर्ती नहीं के छेदपिण्डशास्त्र में जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त देने का विधान हो सकता। किया गया है, इससे फलित होता है कि यह ग्रन्थ स्पष्ट रूप से इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध आगमों में प्रक्षेपों को छोड़कर सम्प्रदाय-भेद से पूर्व की रचना होनी चाहिये। हो सकता है इसके कर्ता अधिकांश ग्रन्थ तो ई.पू. के हैं। यह तो एक सामान्य चर्चा हुई, अभी जिनभद्र विशेषावश्यक के कर्ता जिनभद्र से भिन्न हों और उनके पूर्ववर्ती इन ग्रन्थों में से प्रत्येक के काल-निर्धारण के लिए स्वतन्त्र और सम्प्रदायभी हों। किन्तु इतना निश्चित है कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में जो निरपेक्ष दृष्टि से अध्ययन की आवश्यकता बनी हुई है। आशा है जैनआगमों की सूची मिलती है उसमें जीतकल्प का नाम नहीं है। अत: विद्वानों की भावी पीढ़ी इस दिशा में कार्य करेगी। यह उसके बाद की ही रचना होगी। इसका काल भी ई.सन् की पाँचवीं शती का उत्तरार्द्ध होना चाहिये। इसकी दिगम्बर और यापनीय परम्परा आगमों की वाचनाएँ में मान्यता तभी सम्भव हो सकती है जब यह स्पष्ट रूप से संघभेद यह सत्य है कि वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बर-मान्य अर्धमागधी के पूर्व निर्मित हुआ हो। स्पष्ट संघ-भेद पाँचवीं शती के उत्तरार्ध में आगमों के अन्तिम स्वरूप का निर्धारण वलभी वाचना में वी.नि.संवत् अस्तित्व में आया है। छेदवर्ग में महानिशीथ का उद्धार आचार्य हरिभद्र ९८० या ९९३ में हुआ किन्तु उसके पूर्व भी आगमों की वाचनाएँ ने किया था, यह सुनिश्चित है। आचार्य हरिभद्र का काल ई.सन् की तो होती रही हैं। जो ऐतिहासिक साक्ष्य हमें उपलब्ध हैं उनके अनुसार आठवीं शती माना जाता है। अत: यह ग्रन्थ उसके पूर्व ही निर्मित अर्धमागधी आगमों की पाँच वाचनाएँ होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। हुआ होगा। हरिभद्र इसके उद्धारक अवश्य हैं, किन्तु रचयिता नहीं। मात्र इतना माना जा सकता है कि उन्होंने इसके त्रुटित भाग की रचना प्रथम वाचना की हो। इस प्रकार इसका काल भी आठवीं शती से पूर्व का ही है। प्रथम वाचना महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् हुई।
मूलसूत्रों के वर्ग में दशवैकालिक को आर्य शय्यंभव की कृति परम्परागत मान्यता तो यह है कि मध्यदेश में द्वादशवर्षीय भीषण अकाल माना जाता है। इनका काल महावीर के निर्वाण के ७५ वर्ष बाद का के कारण कुछ मुनि काल-कवलित हो गये और कुछ समुद्र के तटवर्ती है। अत: यह ग्रन्थ ई.पू. पाँचवीं-चौथी शताब्दी की रचना है। उत्तराध्ययन प्रदेशों की ओर चले गये। अकाल की समाप्ति पर वे मुनिगण वापस यद्यपि एक सङ्कलन है, किन्तु इसकी प्राचीनता में कोई शंका नहीं लौटे तो उन्होंने यह पाया कि उनका आगम-ज्ञान अंशत: विस्मृत एवं है। इसकी भाषा-शैली तथा विषय-वस्तु के आधार पर विद्वानों ने इसे विशृङ्खलित हो गया है और कहीं-कहीं पाठभेद हो गया है। अत: उस ई.पू. चौथी-तीसरी शती का ग्रन्थ माना है। मेरी दृष्टि में यह पूर्व युग के प्रमुख आचार्यों ने पाटलीपुत्र में एकत्रित होकर आगमज्ञान को प्रश्नव्याकरण का ही एक विभाग था। इसकी अनेक गाथाएँ तथा कथानक व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। दृष्टिवाद और पूर्व साहित्य का कोई पालित्रिपिटक साहित्य, महाभारत आदि में यथावत् मिलते हैं। दशवैकालिक विशिष्ट ज्ञाता वहाँ उपस्थित नहीं था। अत: ग्यारह अङ्ग तो व्यवस्थित और उत्तराध्ययन यापनीय और दिगम्बर परम्परा में मान्य रहे हैं, अत: ये किये गये, किन्तु दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्निहित साहित्य को व्यवस्थित
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नहीं किया जा सका, क्योंकि उसके विशिष्ट ज्ञाता भद्रबाहु उस समय नेपाल में थे। संघ की विशेष प्रार्थना पर उन्होंने स्थूलभद्र आदि कुछ मुनियों को पूर्व साहित्य की वाचना देना स्वीकार किया। स्थूलिभद्र भी उनसे दस पूर्वो तक का ही अध्ययन अर्थ सहित कर सके और शेष चार पूर्वों का मात्र शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर पाये ।
इस प्रकार पाटलीपुत्र की वाचना में द्वादश अङ्गों को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया, किन्तु उनमें एकादश अङ्ग ही सुव्यवस्थित किये जा सके। दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्भुक्त पूर्व साहित्य को पूर्णतः सुरक्षित नहीं किया जा सका और उसका क्रमशः विलोप होना प्रारम्भ हो गया। फलतः उसकी विषय-वस्तु को लेकर अङ्गबाह्य ग्रन्थ निर्मित किये जाने लगे।
चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
द्वितीय वाचना
आगमों की द्वितीय वाचना ई.पू. द्वितीय शताब्दी में महावीर के निर्वाण के लगभग ३०० वर्ष पश्चात् उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर सम्राट् खारवेल के काल में हुई थी। इस वाचना के सन्दर्भ में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है— मात्र यही ज्ञात होता है कि इसमें श्रुत के संरक्षण का प्रयत्न हुआ था। वस्तुतः उस युग में आगमों के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा गुरु-शिष्य के माध्यम से मौखिक रूप में ही चलती थी। अतः देशकालगत प्रभावों तथा विस्मृति दोष के कारण उसमें स्वाभाविक रूप से भिन्नता आ जाती थी। अतः वाचनाओं के माध्यम से उनके भाषायी स्वरूप तथा पाठभेद को सुव्यवस्थित किया जाता था। कालक्रम में जो स्थविरों के द्वारा नवीन ग्रन्थों की रचना होती थी, उस पर भी विचार करके उन्हें इन्हीं वाचनाओं में मान्यता प्रदान की जाती थी। इसी प्रकार परिस्थितिवश आचार-नियमों में एवं उनके आगमिक सन्दर्भों की व्याख्या में जो अन्तर आ जाता था, उसका निराकरण भी इन्हीं वाचनाओं में किया जाता था। खण्डगिरि पर हुई इस द्वितीय वाचना में ऐसे किन विवादों का समाधान खोजा गया थाइसकी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
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तृतीय वाचना
आगमों की तृतीय वाचना वी. नि. संवत् ८२७ अर्थात् ई.सन् की तीसरी शताब्दी में मथुरा में आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में हुई। इसलिए इसे माथुरी वाचना या स्कन्दिली वाचना के नाम से भी जाना जाता है। माथुरी वाचना के सन्दर्भ में दो प्रकार की मान्यताएँ नन्दीचूर्णि में है। प्रथम मान्यता के अनुसार सुकाल होने के पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में शेष रहे मुनियों की स्मृति के आधार पर कालिकसूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया है। अन्य कुछ का मन्तव्य यह है कि इस काल में नष्ट नहीं हुआ था किन्तु अनुयोगधर स्वर्गवासी हो गये थे। अतः एक मात्र जीवित स्कन्दिल ने अनुयोगों का पुनः प्रवर्तन किया।
सूत्र
चतुर्थ वाचना
चतुर्थ वाचना तृतीय वाचना के समकालीन ही है जिस समय
Princi
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उत्तर, पूर्व और मध्य क्षेत्र में विचरण करने वाला मुनि संघ मथुरा में एकत्रित हुआ, उसी समय दक्षिण-पश्चिम में विचरण करने वाला मुनि संघ वल्लभी (सौराष्ट्र) में आर्य नागार्जुन के नेतृत्व में एकत्रित हुआ। इसे नागार्जुनीय वासना भी कहते हैं।
आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी वाचना समकालिक हैं। नन्दीसूत्र स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन के मध्य आर्य हिमवन्त का उल्लेख है। इससे यह फलित होता है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन समकालिक ही रहे होंगे। नन्दी स्थविरावली में आर्य स्कन्दिल के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि उनका अनुयोग आज भी दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में प्रचलित है। इसका एक तात्पर्य यह भी हो सकता है कि उनके द्वारा सम्पादित आगम दक्षिण भारत में प्रचलित थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ-संघ के विभाजन के फलस्वरूप जिस यापनीय सम्प्रदाय का विकास हुआ था उसमें आर्य स्कन्दिल के द्वारा सम्पादित आगम ही मान्य किये जाते थे और इस यापनीय सम्प्रदाय का प्रभाव क्षेत्र मध्य और दक्षिण भारत था। आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने तो स्त्री- निर्वाण प्रकरण में स्पष्ट रूप से मथुरागम का उल्लेख किया है। अतः यह स्पष्ट है कि यापनीय सम्प्रदाय जिन आगमों को मान्य करता था, वे माथुरी वाचना के आगम थे । मूलाचार, भगवतीआराधना आदि यापनीय आगमों में वर्तमान में श्वेताम्बर मान्य आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, संग्रहणीसूत्रों, नियुक्तियों आदि की सैकड़ों गाथाएँ आज भी उपलब्ध हो रही हैं। इससे यही फलित होता है कि यापनीयों के पास माथुरी वाचना के आगम थे। हम यह भी पाते हैं कि यापनीय प्रन्थों में जो आगमों की गाथाएँ मिलती हैं वे न तो अर्धमागधी में हैं, न महाराष्ट्री प्राकृत में, अपितु वे शौरसेनी में है मात्र यही नहीं अपराजित की भगवती आराधना की टीका में आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, कल्पसूत्र, निशीथ आदि से जो अनेक अवतरण दिये गये हैं वे सभी अर्धमागधी में न होकर शौरसेनी में हैं।
इससे यह फलित होता है कि स्कंदिल की अध्यक्षता वाली माथुरी वाचना में आगमों की अर्धमागधी भाषा पर शौरसेनी का प्रभाव आ गया था। दूसरे माथुरी वाचना के आगमों के जो भी पाठ भगवती आराधना की टीका आदि में उपलब्ध होते हैं, उनमें वल्लभी वाचना के वर्तमान आगमों से पाठभेद भी देखा जाता है। साथ ही अचेलकत्व की समर्थक कुछ गाथाएँ और गद्यांश भी पाये जाते हैं। कुन्दकुन्द के अन्थों में अनुयोगद्वारसूत्र, प्रकीर्णकों, निर्युक्ति आदि की कुछ गाथाएँ क्वचित् पाठभेद के साथ मिलती हैं- सम्भवतः उन्होंने ये गाथाएँ यापनीयों के माथुरी वाचना के आगमों से ही ली होगीं ।
एक ही समय में आर्य स्कन्दिल द्वारा मथुरा में और नागार्जुन द्वारा वल्लभी में वाचना किये जाने की एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि दोनों में किन्हीं बातों को लेकर मतभेद थे। सम्भव है कि इन मतभेदों में वस्त्र पात्र आदि सम्बन्धी प्रश्न भी रहे हों। पं. कैलाशचन्द्रजी ने जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका (पू. ५००) में माधुरी वाचना की समकालीन वल्लभी वाचना के प्रमुख रूप में देवर्धिगणि
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varmaan 838 maromana
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- तीन्द्रमरिमारक ग्रनय जैन आम एवं साहित्य - का उल्लेख किया है, यह उनकी भ्रान्ति है। वास्तविकता तो यह है की वाचना के समय द्वादश अङ्गों को ही व्यवस्थित करने का प्रयत्न कि माथुरी वाचना का नेतृत्व आर्य स्कन्दिल और वल्लभी की हुआ था। उसमें एकादश अङ्ग सुव्यवस्थित हुए और बारहवें दृष्टिवाद, प्रथम वाचना का नेतृत्व आर्य नागार्जुन कर रहे थे और ये दोनों जिसमें अन्य दर्शन एवं महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ की परम्परा का साहित्य समकालिक थे, यह बात हम नन्दीसूत्र के प्रमाण से पूर्व में ही कह समाहित था, इसका सङ्कलन नहीं किया जा सका। इसी सन्दर्भ में चुके हैं। यह स्पष्ट है कि आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन की वाचना । स्थूलिभद्र के द्वारा भद्रबाहु के सान्निध्य में नेपाल जाकर चतुर्दश पूर्वो में मतभेद था।
के अध्ययन की बात कही जाती है। किन्तु स्थूलिभद्र भी मात्र दस पं०कैलाशचन्द्रजी ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि वल्लभी वाचना । पूर्वो का ही ज्ञान अर्थ सहित ग्रहण कर सके, शेष चार पूर्वो का केवल नागार्जुन की थी तो देवर्धि ने वल्लभी में क्या किया? साथ ही उन्होंने शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर सके। इसका फलितार्थ यही है कि पाटलीपुत्र यह भी कल्पना कर ली कि वादिवेतालशान्तिसूरि वल्लभी की वाचना । की वाचना में एकादश अङ्गों का ही सङ्कलन और सम्पादन हुआ था। में नागार्जुनीयों का पक्ष उपस्थित करने वाले आचार्य थे। हमारा यह किसी भी चतुर्दश पूर्वविद् की उपस्थिति नहीं होने से दृष्टिवाद के दुर्भाग्य है कि दिगम्बर-विद्वानों ने श्वेताम्बर- साहित्य का समग्र एवं सङ्कलन एवं सम्पादन का कार्य नहीं किया जा सका। निष्पक्ष अध्ययन किये बिना मात्र यत्र-तत्र उद्धृत या अंशत: पठित उपाङ्ग-साहित्य के अनेक ग्रन्थ जैसे प्रज्ञापना आदि, छेदसूत्रों अंशों के आधार पर अनेक भ्रान्तियाँ खड़ी कर दी। इसके प्रमाण के में आचारदशा, कल्प, व्यवहार आदि तथा चूलिकासूत्रों में नन्दी, रूप में उनके द्वारा उद्धृत मूल गाथा में ऐसा कहीं कोई उल्लेख ही अनुयोगद्वार आदि- ये सभी परवर्ती कृति होने से इस वाचना में नहीं है कि शान्तिसूरि वल्लभी वाचना के समकालिक थे। यदि हम सम्मिलित नहीं किये गये होंगे। यद्यपि आवश्यक, दशवकालिक, आगमिक व्याख्याओं को देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि अनेक वर्षों उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थ पाटलीपुत्र की वाचना के पूर्व के हैं, किन्तु तक नागार्जुनीय और देवर्धि की वाचनाएँ साथ-साथ चलती रही हैं, इस वाचना में इनका क्या किया गया, यह जानकारी प्राप्त नहीं है। क्योंकि इनके पाठान्तरों का उल्लेख मूल ग्रन्थों में कम और टीकाओं हो सकता है कि सभी साधु-साध्वियों के लिये इनका स्वाध्याय आवश्यक में अधिक हुआ है।
होने के कारण इनके विस्मृत होने का प्रश्न ही न उठा हो।
पाटलीपुत्र-वाचना के बाद दूसरी वाचना उड़ीसा के कुमारी पर्वत पञ्चम वाचना
(खण्डगिरि) पर खारवेल के राज्य-काल में हुई थी। इस वाचना के वी.नि. के ९८० वर्ष पश्चात् ई. सन् की पाँचवीं शती के उत्तरार्द्ध सम्बन्ध में मात्र इतना ही ज्ञात है कि इसमें भी श्रुत को सुव्यवस्थित में आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आर्य नागार्जुन की वल्लभी करने का प्रयत्न किया गया था। सम्भव है कि इस वाचना में ई.पू. वाचना के लगभग १५० वर्ष पश्चात् देवर्धिगणिक्षमाश्रमण की अध्यक्षता प्रथम शती से पूर्व रचित ग्रन्थों के सङ्कलन और सम्पादन का कोई में पुनः वल्लभी में एक वाचना हुई। इस वाचना में मुख्यत: आगमों प्रयत्न किया गया हो। को पुस्तकारुढ़ करने का कार्य किया गया। ऐसा लगता है कि इस जहाँ तक माथुरी वाचना का प्रश्न है, इतना तो निश्चित है कि वाचना में माथुरी और नागार्जुनीय दोनों वाचनाओं को समन्वित किया उसमें ई.सन् की चौथी शती तक के रचित सभी ग्रन्थों के सङ्कलन गया है और जहाँ मतभेद परिलक्षित हुआ वहाँ “नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' एवं सम्पादन का प्रयत्न किया गया होगा। इस वाचना के कार्य के ऐसा लिखकर नागार्जुनीय पाठ को भी सम्मिलित किया गया है। सन्दर्भ में जो सूचना मिलती है, उसमें इस वाचना में कालिकसूत्रों
प्रत्येक वाचना के सन्दर्भ में प्राय: यह कहा जाता है कि मध्यदेश को व्यवस्थित करने का निर्देश है। नन्दिसूत्र में कालिकसूत्र को अङ्गबाह्य, में द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण श्रमणसंघ समुद्रतटीय प्रदेशों की आवश्यक व्यतिरिक्त सूत्रों का ही एक भाग बताया गया है। कालिकसूत्रों
ओर चला गया और वृद्ध मुनि, जो इस अकाल में लम्बी यात्रा न के अन्तर्गत उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार, कर सके कालगत हो गये। सुकाल होने पर जब मुनिसंघ लौटकर निशीथ तथा वर्तमान में उपाङ्ग के नाम से अभिहित अनेक ग्रन्थ आते आया तो उसने यह पाया कि इनके श्रुतज्ञान में विस्मृति और विसंगति हैं। हो सकता है कि अङ्ग सूत्रों की जो पाटलीपुत्र की वाचना चली आ गयी है। प्रत्येक वाचना से पूर्व अकाल की यह कहानी मुझे बुद्धिगम्य आ रही थी वह मथुरा में मान्य रही हो, किन्तु उपाङ्गों में से कुछ नहीं लगती है। मेरी दृष्टि में प्रथम वाचना में श्रमण-संघ के विशृङ्खलित। को तथा कल्प आदि छेदसूत्रों को सुव्यवस्थित किया गया हो। किन्तु होने का कारण अकाल की अपेक्षा मगध राज्य में युद्ध से उत्पन्न अशांति यापनीय-ग्रन्थों की टीकाओं में जो माथुरी वाचना के आगमों के उद्धरण और अराजकता ही थी क्योंकि उस समय नन्दों के अत्याचारों एवं मिलते हैं, उन पर जो शौरसेनी का प्रभाव दिखता है, उससे ऐसा चन्द्रगुप्त मौर्य के आक्रमण के कारण मगध में अशांति थी। उसी के लगता है कि माथुरी वाचना में न केवल कालिक सूत्रों का अपितु फलस्वरूप श्रमण-संघ सुदूर समुद्रीतट की ओर या नेपाल आदि पर्वतीय उस काल तक रचित सभी ग्रन्थों के सङ्कलन का काम किया गया क्षेत्र की ओर चला गया था। भद्रबाहु की नेपाल-यात्रा का भी सम्भवतः था। ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना अचेलता की पोषक यापनीययही कारण रहा होगा।
परम्परा में भी मान्य रही है। यापनीय-ग्रन्थों की व्याख्याओं एवं टीकाओं जो भी उपलब्ध साक्ष्य हैं उनसे यह फलित होता है कि पाटलिपुत्र में इस वाचना के आगमों के अवतरण तथा इन आगमों के प्रामाण्य
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--- चीन्दसिमाकाय जैन आगम एवं साहित्य -- के उल्लेख मिलते हैं। आर्य शाकटायन ने अपने स्त्री-निर्वाण प्रकरण का ही उल्लेख मिलता है। प्राचीन ग्रन्थों में द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस एवं अपने व्याकरण की स्वोपज्ञटीका में न केवल मथुरा-आगम का वर्गों का कहीं कोई निर्देश नहीं है। उल्लेख किया है, अपितु उनकी अनेक मान्यताओं का निर्देश भी किया इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा है तथा अनेक अवतरण भी दिये हैं। इसी प्रकार भगवतीआराधना पर के सन्दर्भ में स्थानाङ्ग में जो दस-दस अध्ययन होने की सूचना है अपराजित की टीका में भी आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, निशीथ के अवतरण उसके स्थान पर इनमें भी जो वर्गों की व्यवस्था की गई वह देवर्धि भी पाये जाते हैं, यह हम पूर्व में कह चुके हैं।
की ही देन है। उन्होंने इनके विलुप्त अध्यायों के स्थान पर अनुश्रुति से आर्य स्कंदिल की माथुरी वाचना वस्तुत: उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ- प्राप्त सामग्री जोड़कर इन ग्रन्थों को नये सिरे से व्यवस्थित किया था। संघ के सचेल-अचेल दोनों पक्षों के लिये मान्य थी और उसमें दोनों यह एक सुनिश्चित सत्य है कि आज प्रश्नव्याकरण की आस्रव-संवर ही पक्षों के सम्पोषक साक्ष्य उपस्थित थे। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक द्वार सम्बन्धी जो विषय-वस्तु उपलब्ध है वह किसके द्वारा सङ्कलित रूप से उठता है कि यदि माथुरी वाचना उभय पक्षों को मान्य थी व सम्पादित है यह निर्णय करना कठिन कार्य किया गदि हम . तो फिर उसी समय नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में वाचना करने यह मानते हैं कि नन्दीसूत्र के रचयिता देवरितवाचक की क्या आवश्यकता थी। मेरी मान्यता है कि अनेक प्रश्नों पर स्कंदिल हैं, जो देवर्धि से पूर्व के हैं तो यह कल्पना भी की जा सकती है
और नागार्जुन में मतभेद रहा होगा। इसी कारण से नागार्जुन को स्वतन्त्र कि देवर्धि ने आस्रव व संवर द्वार सम्बन्धी विषय-वस्तु को लेकर वाचना करने की आवश्यकता पड़ी।
प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषय-वस्तु का जो विच्छेद हो गया था, उसकी इस समस्त चर्चा से पं. कैलाशचन्द्रजी के इस प्रश्न का उत्तर । पूर्ति की होगी। इस प्रकार ज्ञाताधर्म से लेकर विपाकसूत्र तक के छ: भी मिल जाता है कि वल्लभी की दूसरी वाचना में क्या किया गया? अङ्ग-आगमों में जो आंशिक या सम्पूर्ण परिवर्तन हुए हैं, वे देवर्धि एक ओर मुनि श्री कल्याणविजयजी की मान्यता यह है कि वल्लभी के द्वारा ही किये हुए माने जा सकते हैं। यद्यपि यह परिवर्तन उन्होंने में आगमों को मात्र पुस्तकारूढ़ किया गया तो दूसरी ओर पं. कैलाशचन्द्रजी किसी पूर्व परम्परा या अनुश्रुति के आधार पर ही किया होगा यह यह मानते हैं कि वल्लभी में आगमों को नये सिरे से लिखा गया, विश्वास किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त देवर्धि ने एक यह महत्त्वपूर्ण किन्तु ये दोनों ही मत मुझे एकाङ्गी प्रतीत होते हैं। यह सत्य है कि कार्य भी किया कि जहाँ अनेक आगमों में एक ही विषय-वस्तु का वल्लभी में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ़ किया गया, अपितु उन्हें विस्तृत विवरण था वहाँ उन्होंने एक स्थल पर विस्तृत विवरण रखकर सङ्कलित एवं सम्पादित भी किया गया किन्तु यह सङ्कलन एवं सम्पादन अन्यत्र उस ग्रन्थ का निर्देश कर दिया। हम देखते हैं कि भगवती आदि निराधार नहीं था। न तो दिगम्बर-परम्परा का यह कहना उचित है कुछ प्राचीन स्तरों के आगमों में भी, उन्होंने प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार कि वल्लभी में श्वेताम्बरों ने अपनी मान्यता के अनुरूप आगमों को जैसे परवर्ती आगमों का निर्देश करके आगमों में विषय-वस्तु के नये सिरे से रच डाला और न यह कहना ही समुचित होगा कि वल्लभी पुनरावर्तन को कम किया। इसी प्रकार जब एक ही आगम में कोई में जो आगम सङ्कलित किये गये वे अक्षुण्ण रूप से वैसे ही थे जैसे- विवरण बार-बार आ रहा था तो उस विवरण के प्रथम शब्द के बाद पाटलीपुत्र आदि की पूर्व वाचनाओं में उन्हें सङ्कलित किया गया था। 'जाव' शब्द रखकर अन्तिम शब्द का उल्लेख कर उसे संक्षिप्त बना यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु के साथ-साथ अनेक आगम- दिया। इसके साथ ही उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ जो यद्यपि ग्रन्थ भी कालक्रम में विलुप्त हुए हैं। वर्तमान आगमों का यदि सम्यक् परवर्तीकाल की थीं, उन्हें भी आगमों में दे दिया जैसे स्थानाङ्गसूत्र प्रकार से विश्लेषण किया जाय तो इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। में सात निह्नवों और सात गणों का उल्लेख। इस प्रकार वल्लभी की आज आचाराङ्ग का सातवाँ अध्ययन विलुप्त है। इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, वाचना में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ़ किया गया, अपितु उनकी अनुत्तरौपपातिक व विपाकदशा के भी अनेक अध्याय आज अनुपलब्ध विषय-वस्तु को सुव्यवस्थित और सम्पादित भी किया गया। सम्भव हैं। नन्दीसूत्र की सूची के अनेक आगम-ग्रन्थ आज अनुपलब्ध हैं। है कि इस सन्दर्भ में प्रक्षेप और विलोपन भी हुआ होगा, किन्तु यह इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हमने आगमों के विच्छेद की चर्चा के सभी अनुश्रुति या परम्परा के आधार पर किया गया था अन्यथा आगमों प्रसङ्ग में की है। ज्ञातव्य है कि देवर्धि की वल्लभी वाचना में न केवल को मान्यता न मिलती। आगमों को पुस्तकारूढ़ किया गया है, अपितु उन्हें सम्पादित भी किया सामान्यतया यह माना जाता है कि वाचनाओं में केवल अनुश्रुति गया है। इस सम्पादन के कार्य में उन्होंने आगमों की अवशिष्ट उपलब्ध से प्राप्त आगमों को ही सङ्कलित किया जाता था, किन्तु मेरी दृष्टि विषय-वस्तु को अपने ढङ्ग से पुन: वर्गीकृत भी किया था और परम्परा में वाचनाओं में न केवल आगम-पाठों को सम्पादित एवं सङ्कलित या अनुश्रुति से प्राप्त आगमों के वे अंश जो उनके पूर्व की वाचनाओं। किया जाता था, अपितु उनमें नवनिर्मित ग्रन्थों को मान्यता भी प्रदान में समाहित नहीं थे, उन्हें समाहित भी किया। उदाहरण के रूप में की जाती थी और जो आचार और विचार सम्बन्धी मतभेद होते थे ज्ञाताधर्मकथा में सम्पूर्ण द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्ग और अध्ययन उन्हें समन्वित या निराकृत भी किया जाता था। इसके अतिरिक्त इन इसी वाचना में समाहित किये गये हैं, क्योंकि श्वेताम्बर, यापनीय एवं वाचनाओं में वाचना-स्थलों की अपेक्षा से आगमों के भाषिक स्वरूप दिगम्बर-परम्परा के प्रतिक्रमणसूत्र एवं अन्यत्र उसके उन्नीस अध्ययनों में भी परिवर्तन हुआ है।
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तीन्दसूरिस्मारकान्य - जैन आगम एवं साहिल -..उदाहरण के रूप में आगम पटना अथवा उड़ीसा के कुमारी पर्वत हो। फिर भी देवर्धि को जो आगम-परम्परा से प्राप्त थे, उनका और (खण्डगिरि) में सुव्यवस्थित किये गये थे, उनकी भाषा अर्धमागधी माथुरी वाचना के आगमों का मूलस्रोत तो एक ही था। हो सकता ही रही, किन्तु जब वे आगम मथुरा और वल्लभी में पुन: सम्पादित है कि कालक्रम में भाषा एवं विषय-वस्तु की अपेक्षा दोनों में क्वचित् किये गये तो उनमें भाषिक परिवर्तन आ गये। माथुरी वाचना में जो अन्तर आ गये हों। अत: यह दृष्टिकोण भी समुचित नहीं होगा कि आगमों का स्वरूप तय हुआ था, उस पर व्यापक रूप से शौरसेनी देवर्धि की वल्लभी वाचना के आगम माथुरी वाचना के आगमों से का प्रभाव आ गया था। दुर्भाग्य से आज हमें माथुरी वाचना के आगम नितान्त भिन्न थे। उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु इन आगमों के जो उद्धृत अंश उत्तर भारत की अचेल-धारा यापनीय-संघ के ग्रन्थों में और उनकी टीकाओं में यापनीयों के आगम उद्धृत मिलते हैं, उनमें हम यह पाते हैं कि भावगत समानता के होते यापनीय-संघ के आचार्य आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, हुए भी शब्द-रूपों और भाषिक स्वरूप में भिन्नता है। आचाराङ्ग दशवैकालिक, कल्प, निशीथ, व्यवहार, आवश्यक आदि आगमों को उत्तराध्ययन, निशीथ, कल्प, व्यवहार आदि से जो अंश भगवतीआराधना मान्य करते थे। इस प्रकार आगमों के विच्छेद होने की जो दिगम्बर की टीका में उद्धृत हैं वे अपने भाषिक स्वरूप और पाठभेद की अपेक्षा मान्यता है, वह उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। यापनीय-आचार्यों द्वारा निर्मित से वल्लभी के आगमों से किञ्चित् भिन्न हैं।
किसी भी ग्रन्थ में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि अङ्गादि-आगम अत: इन वाचनाओं के कारण आगमों में न केवल भाषिक परिवर्तन । विच्छिन्न हो गये हैं। वे आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, दशवैकालिक, हुए, अपितु पाठान्तर भी अस्तित्व में आये हैं। वल्लभी की अन्तिम उत्तराध्ययन, निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, कल्प आदि को अपनी वाचना में वल्लभी की ही नागार्जुनीय वाचना के पाठान्तर तो लिये परम्परा के ग्रन्थों के रूप में उद्धृत करते थे। इस सम्बन्ध में आदरणीय गये, किन्तु माथुरी वाचना के पाठान्तर समाहित नहीं हैं। यद्यपि कुछ पं.नाथूराम प्रेमी (जैन-साहित्य और इतिहास, पृ. ९१) का यह कथन विद्वानों की मान्यता है कि वल्लभी की देवर्धि-वाचना का आधार माथुरी __द्रष्टव्य है- "अक्सर ग्रन्थकार किसी मत का खण्डन करने के लिए वाचना के आगम थे और यही कारण था कि उन्होंने नागार्जुनीय वाचना उसी मत के ग्रन्थों का हवाला दिया करते हैं और अपने सिद्धान्त के पाठान्तर दिये हैं। किन्तु मेरा मन्तव्य इससे भिन्न है। मेरी दृष्टि को पुष्ट करते हैं। परन्तु इस टीका (अर्थात् भगवती-आराधना की में उनकी वाचना का आधार भी परम्परा से प्राप्त नागार्जुनीय वाचना विजयोदया टीका) में ऐसा नहीं है, इसमें तो टीकाकार ने अपने ही के पूर्व के आगम रहे होंगे, किन्तु जहाँ उन्हें अपनी परम्परागत वाचना आगमों का हवाला देकर अचेलता सिद्ध की है।" का नागार्जुनीय वाचना से मतभेद दिखायी दिया, वहाँ उन्होंने नागार्जुनीय आगमों के अस्तित्व को स्वीकार कर उनके अध्ययन और स्वाध्याय वाचना का उल्लेख कर दिया, क्योंकि माथुरी वाचना स्पष्टत: शौरसेनी सम्बन्धी निर्देश भी यापनीय-ग्रन्थ मूलाचार में स्पष्ट रूप से उपलब्ध से प्रभावित थी, दूसरे उस वाचना के आगमों के जो भी अवतरण होते हैं। मूलाचार (५/८०-८२) में चार प्रकार के आगम-ग्रन्थों का आज मिलते हैं उनमें कुछ वर्तमान आगमों की वाचना से मेल नहीं उल्लेख है- १ गणधर कथित, २. प्रत्येकबुद्ध कथित, ३. श्रुतकेवलिखाते हैं। उनसे यही फलित होता है कि देवर्धि की वाचना का आधार कथित और ४. अभिन्न दशपूर्वी कथित। स्कंदिल की वाचना तो नहीं रही है। तीसरे माथुरी वाचना के अवतरण इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि संयमी पुरुषों एवं स्त्रियों आज यापनीय ग्रन्थों में मिलते हैं, उनसे इतना तो फलित होता है अर्थात् मुनियों एवं आर्यिकाओं के लिए अस्वाध्यायकाल में इनका कि माथुरी वाचना के आगमों में भी वस्त्र-पात्र सम्बन्धी एवं स्त्री की स्वाध्याय करना वर्जित है, किन्तु इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ऐसे ग्रन्थ तद्भव मुक्ति के उल्लेख तो थे, किन्तु उनमें अचेलता को उत्सर्ग-मार्ग हैं जिनका अस्वाध्यायकाल में पाठ किया जा सकता है, जैसे---आराधना माना गया था। यापनीय ग्रन्थों में उद्धृत, अचेलपक्ष के सम्पोषक कुछ (भगवती आराधना या आराधनापताका), नियुक्ति , मरणविभक्ति, संग्रह अवतरण तो वर्तमान वल्लभी वाचना के आगमों यथा आचाराङ्ग के (पंचसंग्रह या संग्रहणीसूत्र), स्तुति (देविंदत्यु), प्रत्याख्यान (आउरपच्चक्खाण प्रथम श्रुतस्कन्ध आदि में मिलते हैं, किन्तु कुछ अवतरण वर्तमान एवं महापच्चक्खाण), धर्मकथा (ज्ञाताधर्मकथा) तथा ऐसे ही अन्य ग्रन्थ। वाचना में नहीं मिलते हैं। अत: माथुरी वाचना के पाठान्तर वल्लभी यहाँ पर चार प्रकार के आगम-ग्रन्थों का जो उल्लेख हुआ है, की देवर्धि की वाचना में समाहित नहीं हुए हैं, इसकी पुष्टि होती है। उस पर थोड़ी विस्तृत चर्चा अपेक्षित है, क्योंकि मूलाचार की मूलगाया मुझे ऐसा लगता है कि वल्लभी की देवर्धि की वाचना का आधार में मात्र इन चार प्रकार के सूत्रों का उल्लेख हुआ है। उसमें इन ग्रन्थों माथुरी वाचना के आगम न होकर उनकी अपनी ही गुरु-परम्परा से का नाम-निर्देश नहीं है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि न तो यापनीय प्राप्त आगम रहे होंगे। मेरी दृष्टि में उन्होंने नागार्जुनीय वाचना के ही परम्परा से सम्बद्ध थे और न उनके सम्मुख ये ग्रन्थ ही थे। अत: पाठान्तर अपनी वाचना में समाहित किये- क्योंकि दोनों में भाषा इस प्रसंग में उनकी प्रत्येक-बुद्धकथित की व्याख्या पूर्णत: भ्रान्त ही एवं विषय-वस्तु दोनों ही दृष्टि से कम ही अन्तर था। माथुरी वाचना है। मात्र यही नहीं, अगली गाथा की टीका में उन्होंने “थुदि" के आगम या तो उन्हें उपलब्ध ही नहीं थे अथवा भाषा एवं विषय-वस्तु “पच्चक्खाण' एवं "धम्मकहा" को जिन ग्रन्थों से समीकृत किया दोनों की अपेक्षा भिन्नता अधिक होने से उन्होंने उसे आधार न बनाया है वह तो और भी अधिक भ्रामक है। आश्चर्य है कि वे "थुदि" से
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
देवागमस्तोत्र और परमेष्ठिस्तोत्र को समीकृत करते हैं, जबकि मूलाचार का मन्तव्य अन्य ही है। जहाँ तक गणधरकथित ग्रन्थों का प्रश्न है वहाँ लेखक का तात्पर्य आचारांग सूत्रकृतांग आदि अंग-अन्यों से है, प्रत्येकयुद्धकथित ग्रन्थों से तात्पर्य प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन, शषिभाषित आदि से है, क्योंकि ये ग्रन्थ प्रत्येकबुद्धकथित माने जाते हैं। ये ग्रन्थ प्रत्येकबुद्धकथित है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख भी समवायांग, उत्तराध्ययननियुक्ति आदि में है। श्रुतकेवलिकथित ग्रन्थों से तात्पर्य आचार्य शब्यम्भवरचित दशवैकालिक, आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) रचित बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध (आयारदसा), व्यवहार आदि से है तथा अभिन्न दशपूर्वीकथित ग्रन्थों से उनका तात्पर्य कम्मपयडी आदि "पूर्व" साहित्य के ग्रन्थों से है। यहाँ स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि यदि यापनीय परम्परा में ये ग्रन्थ विच्छिन्न माने जाते, तो फिर इनके स्वाध्याय का निर्देश लगभग ईसा की छठी शताब्दी के ग्रन्थ मूलाचार में कैसे हो पाता। दिगम्बरपरम्परा के अनुसार तो वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा की दूसरी शती में आचारांग धारियों की परम्परा भी समाप्त हो गई थी फिर वीरनिर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् भी आचारांग आदि के स्वाध्याय करने का निर्देश देने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। ज्ञातव्य है कि मूलाचार की यही गाथा कुन्दकुन्द के सुत्तपाहुड में भी मिलती है, किन्तु कुन्दकुन्द आगमों के उपर्युक्त प्रकारों का उल्लेख करने के पश्चात् उनकी स्वाध्याय - विधि के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहते हैं। जबकि मूलाचार स्पष्ट रूप से उनके स्वाध्याय का निर्देश करता है । मात्र यही नहीं मूलाचार में आगमों के अध्ययन की उपधान-विधि अर्थात् तपपूर्वक आगमों के अध्ययन करने की विधि का भी उल्लेख है । आगमों के अध्ययन की यह उपधान - विधि श्वेताम्बरों में आज भी प्रचलित है। विधिमार्गप्रपा ( पृ० ४९-५१) में इसका विस्तृत उल्लेख है। इससे यह भी स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है कि मूलाचार आगमों को विच्छिन्न नहीं मानता था । यापनीय परम्परा में ये अंग आगम और अंगबाह्य आगम प्रचलन में थे, इसका एक प्रमाण यह भी है कि नवीं शताब्दी में यापनीय आचार्य अपराजित भगवती आराधना की टीका में न केवल इन आगमों से अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं, अपितु स्वयं दशवेकालिक पर टीका भी लिख रहे हैं। मात्र यही नहीं, यापनीय पर्युषण के अवसर पर कल्पसूत्र की वाचना भी करते थे, ऐसा निर्देश स्वयं दिगम्बराचार्य कर रहे हैं।
क्या यापनीय आगम वर्तमान श्वेताम्बर - आगमों से भिन्न थे?
इस प्रसंग में यह विचारणीय है कि यापनीयों के ये आगम कौन से थे? क्या वे इन नामों से उपलब्ध वेताम्बर- परम्परा के आगमों से भिन्न थे या यही थे? हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों ने यह कहने का अतिसाहस भी किया है कि ये आगम वर्तमान श्वेताम्बर आगमों से सर्वथा भिन्न थे । प० कैलाशचन्द्रजी (जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका, पृ० ५२५) ने ऐसा ही अनुमान किया है। वे लिखते है "जैन परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर के समान एक यापनीय - संघ भी था। यह संघ यद्यपि नग्रता का पक्षधर था, तथापि श्वेताम्बरी
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आगमों को मानता था। इस संघ के आचार्य अपराजितसूरि की संस्कृत टीका भगवती आराधना नामक प्राचीन ग्रन्थ पर है, जो मुद्रित भी हो चुकी है उसमें नग्नता के समर्थन में अपराजितसूरि ने आगम-प्रन्थों से अनेक उद्धरण दिये हैं, जिनमें से अनेक उद्धरण वर्तमान आगमों में नहीं मिलते। आदरणीय पंडितजी ने यहाँ जो "अनेक" शब्द का प्रयोग किया है वह भ्रान्ति उत्पन्न करता है। मैंने अपराजितसूरि की टीका में उद्धृत आगमिक सन्दर्भों की श्वेताम्बर-आगमों से तुलना करने पर स्पष्ट रूप से यह पाया है कि लगभग ९० प्रतिशत सन्दर्भों में आगमों की अर्धमागधी प्राकृत पर शौरसेनी - प्राकृत के प्रभाव के फलस्वरूप हुए आंशिक पाठभेद को छोड़कर कोई अन्तर नहीं है । जहाँ किंचित् पाठभेद है वहाँ भी अर्थ भेद नहीं है। आदरणीय पंडितजी ने इस ग्रन्थ में भगवती आराधना की विजयोदया टीका ( पृ० ३२०३२७) से एक उद्धरण दिया है, जो वर्तमान आचारांग में नहीं मिलता है। उनके द्वारा प्रस्तुत वह उद्धरण निम्नस्थ है
तथा चोक्तमाचाराने सुदं आउस्सत्तो भगवदा एवमक्खादा इह खलु संयमाभिमुख दुविहा इत्थी पुरिसा जादा हवंति। तं जहा सव्वसमण्णगदे णो सव्वसमण्णागेद चैव तत्थ जे सव्वसमण्णागदे चिणा हत्थपायणीपादे सव्विंदिय समण्णागदे तस्स णं णो कप्पदि एगमवि वत्थ धारिउं एवं परिहिउं एवं अण्णत्थ एगेण पडिलेहगेण इति ।
निश्चय ही उपर्युक्त सन्दर्भ आचारांग में इसी रूप में शब्दश: नहीं है, किन्तु " सव्वसमन्नागय" नामक पद और उक्त कथन का भाव आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में आज भी सुरक्षित है । अतः इस आधार पर यह कल्पना करना अनुचित होगा कि यापनीयपरम्परा का आचारांग, वर्तमान में श्वेताम्बर - परम्परा में उपलब्ध आचारांग से भिन्न था। क्योंकि अपराजितसूरि द्वारा उद्धृत आचारांग के अन्य सन्दर्भ आज भी श्वेताम्बर - परम्परा के इसी आचारांग में उपलब्ध हैं। अपराजित ने आचारांग के "लोकविचय' नामक द्वितीय अध्ययन के पंचम उद्देशक का उल्लेखपूर्वक जो उद्धरण दिया है, वह आज भी उसी अध्याय के उसी उद्देशक में उपलब्ध है। इसी प्रकार उसमें "अहं पुण एवं जाणेज्ज उपातिकते हेमंते... ठविज्ज' जो यह पाठ आचारांग से उद्धृत है - वह भी वर्तमान आचारांग के अष्टम अध्ययन के चतुर्थ, उद्देशक में है। उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग कल्प आदि के सन्दर्भों की भी लगभग यही स्थिति है। अब हम उत्तराध्ययन के सन्दर्भों पर विचार करेंगे। आदरणीय पंडितजी ने जैन साहित्य की पूर्वपीठिका में अपराजित की भगवती आराधना की टीका की निम्र दो गाथाएं उद्धृत की हैपरिचतेसु वत्थे या पुणो बेलमादिए। अबेलपवरे भिक्खु जिणरूपधरे सदा।
सचलगो सुखी भवदि असुखी वा वि अबेलगो। अहं तो सचेलो होक्खामि इदि भिक्खु न चिंतए । । पंडितजी ने इन्हें उत्तराध्ययन की गाथा कहा है और उन्हें वर्तमान उत्तराध्ययन में उपलब्ध भी बताया है। किन्तु जब हमने स्वयं पंडितजी द्वारा ही सम्पादित एवं अनुवादित भगवती आराधना की टीका देखी तो उसमें इन्हें स्पष्ट रूप से उत्तराध्ययन की गाथाएँ नहीं कहा गया
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चन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
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है उसमें मात्र "इमानि च सूत्राणि अचलता दर्शयन्ति" कहकर इन्हें उद्धृत किया गया है। आदरणीय पंडितजी को यह भ्रान्ति कैसे हो गई, हम नहीं जानते। पुनः ये गाथाएँ भी चाहे शब्दशः उत्तराध्ययन में न हो, किन्तु भावरूप से तो दोनों ही गाथाएँ और शब्द रूप से इनके आठ चरणों में से चार चरण तो उपलब्ध ही हैं। उपर्युक्त उद्धृत गाथाओं से तुलना के लिए उत्तराध्ययन की ये गाथाएँ प्रस्तुत हैं"परिजुष्णेहि वत्येहिं होक्खामि ति अबेलए। अदुवा "सचेलए होक्ख" इदं भिक्खु न चिन्तए । "एगया अचेलए होइ सचेले यावि एगया। " एवं धम्महियं वच्चा नाणी तो परिदेवए ।
उत्तराध्ययन, २ / १२-१३
जिस प्रकार श्वेताम्बर - परम्परा में ही चूर्णि में आगत पाठों और शीलांक या अभयदेव की टीका में आगत पाठों में अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत की दृष्टि से पाठभेद रहा है, उसी प्रकार यापनीय-परम्परा के आगम के पाठ माथुरी वाचना के होने के कारण शौरसेनी प्राकृत से युक्त रहे होंगे। किन्तु यहाँ यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि प्राचीन स्तर के सभी आगम ग्रन्थ मूलतः अर्धमागधी के रहे हैं। उनमें जो महाराष्ट्री या शौरसेनी के शब्द रूप उपलब्ध होते हैं, वे परवर्ती हैं। विजयोदया में आचारांग आदि के सभी आगमिक सन्दर्भों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूर्णतः शौरसेनी प्रभाव से युक्त है। मूलतः आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगम तो निश्चित ही अर्धमागधी में रहे हैं। यहाँ दो सम्भावनाएँ हो सकती हैं, प्रथम यही है कि माथुरी वाचना के समय उन पर शौरसेनी का प्रभाव आया हो और यापनीयों ने उसे मान्य रखा हो। दूसरे यह है कि यापनीयों द्वारा उन आगमों का शौरसेनीकरण करते समय श्वेताम्बर - परम्परा में मान्य आचारांग आदि से उनमें पाठभेद हो गया हो, किन्तु इस आधार पर भी यह कहना उचित नहीं होगा कि यापनीय और श्वेताम्बर- परम्परा के आगम भिन्न थे। ऐसा पाठभेद तो एक ही परम्परा के आगमों में भी उपलब्ध है स्वयं पं० कैलाशचन्द्रजी ने अपने ग्रन्थ जैन-साहित्य का इतिहासपूर्वपीठिका में अपराजितमूरि की भगवती आराधना की टीका से आचारांग का जो उपर्युक्त पाठ दिया है, उसमें और स्वयं उनके द्वारा सम्पादित भगवती - आराधना की अपराजितसूरि की टीका में उद्धृत पाठ में ही अन्तर है-एक में "क्षीण" पाठ है--दूसरे में "थीरांग" पाठ है, जिससे अर्थ-भेद भी होता है। एक ही लेखक और सम्पादक की कृति में भी पाठभेद हो तो भिन्न परम्पराओं में किंचित् पाठभेद होना स्वाभाविक है, किन्तु उससे उनकी पूर्ण मित्रता की कल्पना नहीं की जा सकती है। पुनः यापनीय परम्परा द्वारा उद्धृत आचारांग, उत्तराध्ययन आदि के उपर्युक्त पाठों की अचेलकत्व की अवधारणा का प्रश्न है, वह श्वेताम्बर - परम्परा के आगमों में आज भी उपलब्ध है।
इसी प्रसंग में उत्तराध्ययन की जो अन्य गाथाएँ उद्धृत की गई हैं, वे आज भी उत्तराध्ययन के २३वें अध्ययन में कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध हैं। आराधना की टीका में उद्धृत इन गाथाओं पर भी शौरसेनी का स्पष्ट प्रभाव है। यह भी स्पष्ट है कि मूल उत्तराध्ययन
अर्धमागधी की रचना है। इससे ऐसा लगता है कि यापनीयों ने अपने समय के अविभक्त परम्परा के आगमों को मान्य करते हुए भी उन्हें शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करने का प्रयास किया था, अन्यथा अपराजित की टीका में मूल आगमों के उद्धरणों का शौरसेनी रूप न मिलकर अर्धमागधी रूप ही मिलता। इस सम्बन्ध में पं० नाथूरामजी प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ६०) का निम्न वक्तव्य विचारणीय है
'श्वेताम्बर - सम्प्रदाय मान्य जो आगम-ग्रन्थ हैं, यापनीय संघ शायद उन सभी को मानता था, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि दोनों के आगमों में कुछ पाठभेद था और उसका कारण यह हो कि उपलब्ध वल्लभी वाचना के पहले की कोई वाचना (संभवतः माथुरी वाचना) यापनीयसंघ के पास थी, क्योंकि विजयोदया टीका में आगमों के जो उद्धरण हैं वे श्वेताम्बर-आगमों में बिल्कुल ज्यों के त्यों नहीं बल्कि कुछ पाठभेद के साथ मिलते हैं। यापनीय के पास स्कंदिल की माथुरी वाचना के आगम थे यह मानने में एक बाधा आती है, वह यह कि स्कंदिल की वाचना का काल वीरनिर्वाण ८२७- ८४० अर्थात् ईसा की तृतीय शती का अन्त और चतुर्थ शती का प्रारम्भ है, जबकि संघभेद उसके लगभग २०० वर्ष पहले ही घटित हो चुका था।" किन्तु पं० नाथूरामजी की यह शंका इस आधार पर निरस्त हो जाती है कि वास्तविक सम्प्रदाय भेद ईसवी सन् की द्वितीय शताब्दी में न होकर पांचवीं शती में हुआ यद्यपि यह माना जाता है कि फल्गुमित्र की परम्परा की कोई वाचना थी, , किन्तु इस वाचना के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश कहीं भी उपलब्ध नहीं है।
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- निष्कर्ष यह है कि यापनीय आगम वही थे, जो उन नामों से आज श्वेताम्बर - परम्परा में उपलब्ध हैं। मात्र उनमें किंचित् पाठभेद था तथा भाषा की दृष्टि से शौरसेनी का प्रभाव अधिक था। यापनीय ग्रन्थों में आगमों के जो उद्धरण मिलते हैं उनमें कुछ तो वर्तमान श्वेताम्बरपरम्परा के आगमों में अनुपलब्ध हैं, कुछ पाठान्तर के साथ उपलब्ध हैं। जो अनुपलब्ध हैं, उनके सम्बन्ध में दो विकल्प हैं- प्रथम यह कि मूलागमों के वे अंश बाद के श्वेताम्बर आचार्यों ने अगली वाचना में निकाल दिये और दूसरा यह कि वे अंश यापनीय-मान्यता के प्रक्षिप्त अंश हो किन्तु प्रथम विकल्प में इसलिए विश्वास नहीं होता कि यदि परवर्ती वाचनाओं में वे सब बातें, जो उस युग के आचार्यों को मान्य नहीं थीं या उनकी परम्परा के विरूद्ध थीं, निकाल दी गई होती तो वर्तमान श्वेताम्बर-आगमों में अचेलता के समर्थक सभी अंश निकाल दिये जाने चाहिए थे। मुझे ऐसा लगता है कि आगमों की वाचनाओं ( संकलन ) के समय केवल वे ही अंश नहीं आ पाये थे जो विस्मृत हो गये थे अथवा पुनरावृत्ति से बचने के लिए "जाव" पाठ देकर वहाँ से हटा दिये गये थे। मान्यता भेद के कारण कुछ अंश जानबूझकर निकाले गये हों, ऐसा कोई भी विश्वसनीय प्रमाण हमें नहीं मिलता है। किन्तु यह हो सकता है कि वे अंश किसी अन्य गण की वाचना के रहे हों, जिनके प्रतिनिधि उस वाचना में सम्मिलित नहीं थे। कुछ ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि विभिन्न गणों में वाचना-भेद या पाठभेद होता था ।
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- तीन्द्रसरि मारवायत आजमाएवं साहित्य - आगमों में पाठभेद एवं प्रक्षेप
हैं, क्योंकि इनके कारण अनेक यापनीय-ग्रन्थों का यापनीय स्वरूप विभिन्न गणों के निर्माण का एक कारण वाचना-भेद भी माना ही विकृत हो गया है। हमारे दिगम्बर-विद्वान् श्वेताम्बर-ग्रन्थों में प्रक्षेपण गया है। यह कहा जाता है कि महावीर के ग्यारह गणधरों की नौ की बात तो कहते हैं, किन्तु वे इस बात को विस्मृत कर जाते हैं वाचनाएँ थीं अर्थात् महावीर के काल में भी वाचना-भेद था क्योंकि कि स्वयं उन्होंने यापनीय और अपने ग्रन्थों में भी किस प्रकार हेरप्रत्येक वाचनाचार्य की अध्यापन-शैली भिन्न होती थी। ज्ञातव्य है कि फेर किये हैं। इस सम्बन्ध में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर दिगम्बरजैन-परम्परा में शब्द के स्थान पर अर्थ पर बल दिया जाता था, तीर्थङ्कर विद्वानों का मत प्रस्तुत करना चाहूँगा। को अर्थ का प्रवर्तक माना गया था जबकि वैदिक परम्परा शब्द प्रधान पं० कैलाशचन्द्रजी स्व-सम्पादित "भगवती-आराधना" की थी। यही कारण है कि जैनों ने यह माना कि चाहे शब्द-भेद हो, पर प्रस्तावना (पृ० ९) में लिखते हैं- "विजयोदया के अध्ययन से प्रकट अर्थ-भेद नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि वाचना-भेद बढ़ते गये। होता है कि उनके सामने टीका लिखते समय जो मूलग्रन्थ उपस्थित हमें यापनीय-ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक उद्धरणों से वर्तमान आगमों था, उसमें और वर्तमान मूल (ग्रन्थ) में अन्तर है। अनेक गाथाओं. के पाठों का जो पाठभेद मिलता है उनका कारण वाचना-भेद है,अर्थ- में वे शब्द नहीं मिलते जो टीकाओं में हैं।" भेद नहीं, क्योंकि ऐसे अनुपलब्ध अंशों या पाठभेदों में विषय-प्रतिपादन इससे स्पष्ट होता है कि जब दिगम्बर आचार्यों ने इस यापनीयकी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है। किन्तु इस सम्भावना से पूरी ग्रन्थ को अपने में समाहित किया होगा तो इसकी मूल गाथाओं के तरह इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्वयं यापनीयों ने भी अपनी शब्दों में भी हेर-फेर कर दिया होगा। यदि पं० कैलाशचन्द्रजी ने उन मान्यता की पुष्टि के लिए कुछ अंश जोड़े हों अथवा परिवर्तित किये सभी स्थलों का जहाँ उन्हें पाठभेद प्रतीत हुआ, निर्देश किया होता हों। श्वेताम्बर परम्परा में भी वल्लभी वाचना में या उसके पश्चात् भी तो सम्भवत: हम अधिक प्रामाणिकता से कुछ बात कह सकते थे। आगमों में कुछ अंश जुड़ते रहे हैं--इस तथ्य से इन्कार नहीं किया टीका और मूल के सारे अन्तरों को हम भी अभी तक खोज नहीं जा सकता। हम पण्डित कैलाशचन्द्रजी (जैन-साहित्य का इतिहास पाये हैं। अत: अभी तो उनके मत को ही विश्वसनीय मानकर संतोष पूर्वपीठिका, पृ० ५२७) के इस कथन से सहमत हैं कि वल्लभी वाचना करेगे। स्वयंभू के रिट्ठनेमिचरिउ (हरिवंशपुराण) में भी इसी प्रकार की के समय और उसके बाद भी आगमों के स्वरूप में कुछ परिवर्तन छेड़-छाड़ हुई थी। इस सन्दर्भ में पं० नाथूरामजी प्रेमी (जैन-साहित्य हुए हैं। किन्तु उनके द्वारा प्रयुक्त “बहुत' शब्द आपत्तिजनक है। और इतिहास, पृ० २०२) लिखते हैं-"इसमें तो संदेह नहीं है कि फिर भी ध्यान रखना होगा कि इनमें प्रक्षेप ही अधिक हुआ है, विस्मृति इस अन्तिम अंश में मुनि जसकित्ति (यशकीर्ति) का भी हाथ है, परन्तु को छोड़कर जान-बूझकर निकाला कुछ नहीं गया है।
यह कितना है यह निर्णय करना कठिन है। बहुत कुछ सोच-विचार किन्तु ऐसा प्रक्षेप मात्र श्वेताम्बरों ने किया है और दिगम्बरों तथा के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि मुनि जसकित्ति को इस ग्रन्थ यापनीयों ने नहीं किया है--यह नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि की कोई ऐसी जीर्ण-शीर्ण प्रति मिली थी जिसके अन्तिम पत्र नष्ट-भ्रष्ट यापनीय-परम्परा. ने भी आगमों में अपने अनुकूल कुछ अंश प्रक्षिप्त थे और शायद अन्य प्रतियाँ दुर्लभ थी, इसलिए उन्होंने गोपगिरि किये हों। मूलाचार, भगवती-आराधना आदि ग्रन्थों को देखने से ऐसा (ग्वालियर) के समीप कुमरनगरी के जैन-मन्दिर में व्याख्यान करने स्पष्ट लगता है कि उन्होंने अर्धमागधी आगम-साहित्य की ही सैकड़ों के लिए इसे ठीक किया अर्थात् जहाँ-जहाँ जितना अंश फट गया गाथाएँ शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करके अपने इन ग्रन्थों की रचना था या नष्ट हो गया था, उसको स्वयं रचकर जोड़ दिया और जहाँकी है, मूलाचार का लगभग आधा भाग प्रकीर्णकों, नियुक्तियों एवं जहाँ जोड़ा, वहाँ-वहाँ अपने परिश्रम के एवज में अपना नाम भी जोड़ आगमों की गाथाओं से निर्मित है। यह तो निश्चित है कि प्राचीन आगम- दिया। इससे स्पष्ट है कि कुछ दिगम्बर-आचार्यों ने दूसरों की रचनाओं साहित्य अर्धमागधी में था। यापनीय-ग्रन्थों में उपलब्ध आगमिक सन्दर्भ को भी अपने नाम पर चढ़ा लिया। के सदैव शौरसेनी रूप ही मिलते हैं, जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ति में भी पर्याप्त रूप से मिलावट हुई हैं कि उन्होंने अर्धमागधी आगम-साहित्य को शौरसेनी में अपने ढंग है। जहाँ “तिलोयपण्णत्ति' का ग्रन्थ-परिमाण ८००० श्लोक बताया से रूपान्तरित करने का प्रयत्न किया होगा और इस प्रयत्न में उन्होंने गया है वहाँ वर्तमान तिलोयपण्णत्ति का श्लोक-परिमाण ९३४० है अपने मत की पुष्टि का भी प्रयास किया होगा।
अर्थात् लगभग १३४० श्लोक अधिक हैं। पं० नाथूरामजी प्रेमी के अत: इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यापनीय । शब्दों में- “ये इस बात के संकेत देते हैं कि पीछे से इसमें मिलावट आचार्यों ने भी मूल आगमों के साथ छेड़छाड़ की थी और अपने की गयी है।" इस सन्दर्भ में पं० फूलचन्द्रशास्त्री के, जैन-साहित्यमत की पुष्टि हेतु उन्होंने उनमें परिवर्धन और प्रक्षेप भी किये। भास्कर, भाग ११, अंक प्रथम में प्रकाशित “वर्तमान तिलोयपण्णनि
मात्र श्वेताम्बर और यापनीय ही आगमों के साथ छेड़छाड़ करने और उसके रचनाकार का विचार'' नामक लेख के आधार पर वे लिखते के दोषी नहीं हैं, बल्कि दिगम्बर-आचार्य और पण्डित भी इस दौड़ हैं- "उससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ अपने असल रूप में नहीं में पीछे नहीं रहे हैं। यापनीय-ग्रन्थों में दिगम्बर-परम्परा के द्वारा जो रहा है। उसमें न केवल बहुत सा लगभग एक अष्टमांश प्रक्षिप्त है, प्रक्षेपण और परिवर्तन किये गये है वे तो और भी अधिक विचारणीय बल्कि बहुत-सा परिवर्तन और परिशोध भी किया गया है, जो मूल
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- यतीन्दरिमारकग्रन्य - जैन आगम एकसाहित्य - ग्रन्थ कर्ता के अनुकूल नहीं है।' इसी प्रकार कसायपाहुडसुत्त की मूल की, वहाँ यापनीयों ने श्वेताम्बर- मान्य आगमों और आगमिक गाथाएँ १८० थी, किन्तु आज उसमें २३३ गाथाएँ मिलती हैं---- अर्थात् व्याख्याओं से और दिगम्बरों ने यापनीय-परम्परा के ग्रन्थों से ऐसी उसमें ५३ गाथाएँ परवर्ती आचार्यों द्वारा प्रक्षिप्त हैं। यही स्थिति कुन्दकुन्द ही छेड़-छाड़ की। के समयसार, वट्टकेर के मूलाचार आदि की भी है। प्रकाशित संस्करणों निष्कर्ष यह है कि इस प्रकार की छेड़-छाड़ प्राचीन काल से में भी गाथाओं की संख्याओं में बहुत अधिक अन्तर है। समयसार लेकर वर्तमान काल तक होती रही है। कोई भी परम्परा इस सन्दर्भ के ज्ञानपीठ के संस्करण में ४१५ गाथाएँ हैं तो अजिताश्रम संस्करण में पूर्ण निर्दोष नहीं कही जा सकती। अत: किसी भी परम्परा का अध्ययन में ४३७ गाथाएँ। मूलाचार के दिगम्बर जैनग्रन्थमाला के संस्करण में करते समय यह आवश्यक है कि हम उन प्रक्षिप्त अथवा परिवर्धित १२४२ गाथाएँ हैं। तो फलटण के संस्करण में १४१४ गाथायें हैं, अंशों पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें, क्योंकि इस छेड़-छाड़ में कहीं अर्थात् १६२ गाथायें अधिक है, यह सब इस बात का प्रमाण है कि कुछ ऐसा अवश्य रह जाता है, जिससे यथार्थता को समझा जा सकता है। दिगम्बर- परम्परा के आचार्यों ने श्वेताम्बरों और यापनीयों की अपेक्षा परिवर्धनों और परिवर्तनों के बावजूद भी श्वेताम्बर-आगमों की बहुत अधिक प्रक्षेप एवं परिवर्तन किया है। इन उल्लेखों के अतिरिक्त एक विशेषता है, वह यह कि वे सब बातें भी जिनका उनकी परम्परा वर्तमान में भी इस प्रकार के परिवर्तनों के प्रयास हुए हैं, जैसे “धवला" से स्पष्ट विरोध है, उनमें यथावत् रूप से सुरक्षित हैं। यही कारण के सम्पादन के समय मूल ग्रन्थ षटखण्डागम से "संजद” पद को है कि श्वेताम्बर-आगम जैन धर्म के प्राचीन स्वरूप की जानकारी देने हटा देना, ताकि उस ग्रन्थ के यापनीय स्वरूप या स्त्री-मुक्ति के समर्थक में आज भी पूर्णतया सक्षम है। आवश्यकता है निष्पक्ष भाव से उनके होने का प्रमाण नष्ट किया जा सके। इस सन्दर्भ में दिगम्बर-समाज । अध्ययन की। क्योंकि उनमें बहुत कुछ ऐसा मिल जाता है, जिसमें में कितनी ऊहापोह मची थी और पक्ष-विपक्ष में कितने लेख लिखे जैनधर्म के विकास और उसमें आये परिवर्तनों को समझा जा सकता गये थे, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। यह भी सत्य है कि अन्त है। यही बात किसी सीमा तक यापनीय और दिगम्बर ग्रन्थों के सन्दर्भ में मूलप्रति में "संजद' पद पाया गया। तथापि ताम्रपत्र वाली प्रति में भी कही जा सकती है, यद्यपि श्वेताम्बर-साहित्य की अपेक्षा वह में वह पद नहीं लिखा गया, सम्भवत: भविष्य में वह एक नई समस्या अल्प ही है। प्रक्षेप और परिष्कार के बाद भी समग्र जैन-साहित्य में उत्पन्न करेगा। इस सन्दर्भ में भी मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर बहुत कुछ ऐसा है, जो सत्य को प्रस्तुत करता है, किन्तु शर्त यही दिगम्बर-परम्परा के मान्य विद्वान् पं० कैलाशचन्द्रजी के शब्दों को ही है कि उसका अध्ययन ऐतिहासिक और सम्प्रदाय-निरपेक्ष दृष्टि से हो, उद्धृत कर रहा हूँ। ५० बालचन्द्रशास्त्री की कृति 'षट्खण्डागम- तभी हम सत्य को समझ सकेंगे। परिशीलन' के अप.. सम्पादकीय में वे लिखते हैं-"समूचा ग्रन्थ प्रकाशित होन से पूरे हा एक और विवाद उठ खड़ा हुआ। प्रथम जैन-आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी? भाग के सूत्र ९३ में जा पाठ हमें उपलब्ध था, उसमें अर्थ-संगति की वर्तमान में 'प्राकृत-विद्या' नामक शोध पत्रिका के माध्यम से जैन दृष्टि से "संजदासंजद' के आगे "संजद'' पद जोड़ने की आवश्यकता विद्या के विद्वानों का एक वर्ग आग्रहपूर्वक यह मतं प्रतिपादित कर प्रतीत हुई, किन्तु इससे फलित होने वाली सैद्धान्तिक व्यवस्थाओं से रहा है "जैन आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी, जो कालान्तर कुछ विद्वानो के मन आलोडित हुए और वे “संजद" पद को जोड़ना में परिवर्तित करके अर्धमागधी बना दी गई। इस वर्ग का यह भी एक अनधिकार चेष्टा कहने लगे। इस पर बहुत बार मौखिक शास्त्रार्थ दावा है कि शौरसेनी प्राकृत ही प्राचीनतम प्राकृत है और अन्य सभी भी हुए और उत्तर-प्रत्युत्तर रूप लेखों की श्रृंखलाएँ भी चल पड़ी, प्राकृतें यथा- मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि इसी से विकसित जिनका संग्रह कुछ स्वतंत्र ग्रन्थों में प्रकाशित भी हुआ। इसके मौखिक हुई है, अत: वे सभी शौरसेनी प्राकृत से परवर्ती भी हैं। इसी क्रम समाधान हेतु जब सम्पादकों ने ताड़पत्रीय प्रतियों के पाठ की सूक्ष्मता में दिगम्बर परम्परा में आगमों के रूप में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द के से जाँच करायी तब पता चला कि वहाँ की दोनों भिन्न प्रतियों में हमारा ग्रन्थों में निहित अर्धमागधी और महाराष्ट्री शब्दरूपों को परिवर्तित सुझाया गया 'संजद' पद विद्यमान है। इससे दो बातें स्पष्ट हुईं- कर उन्हें शौरसेनी में रूपान्तरित करने का एक सुनियोजित प्रयत्न भी एक तो यह कि सम्पादकों ने जो पाठ-संशोधन किया है, वह गम्भीर किया जा रहा है। इस समस्त प्रचार-प्रसार के पीछे मूलभूत उद्देश्य चिन्तन और समझदारी पर आधारित है और दूसरी यह कि मूल प्रतियों यह है कि श्वेताम्बर मान्य आगमों को दिगम्बर परम्परा में मान्य आगमतुल्य से पाठ मिलान की आवश्यकता अब भी बनी हुई है, क्योंकि जो ग्रन्थों से अर्वाचीन और अपने शौरसेनी में निबद्ध आगमतुल्य ग्रन्थों पाठान्तर मूडबिद्री से प्राप्त हुए थे और तृतीय भाग के अन्त में समाविष्ट को प्राचीन सिद्ध किया जाये। इस पारस्परिक विवाद का एक परिणाम किये गये थे उनमें यह संशोधन नहीं मिला।"
यह भी हो रहा है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा के बीच कटुता की मेरे उपर्युक्त लेखन का तात्पर्य किसी की भावनाओं को ठेस खाई गहरी होती जा रही है और इन सब में एक निष्पक्ष भाषाशास्त्रीय पहुँचाना नहीं है, किन्तु मूलग्रन्थों के साथ ऐसी छेड़-छाड़ करने के अध्ययन को पीछे छोड़ दिया जा रहा है। प्रस्तुत निबन्ध में मैं इन लिए श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय सभी समानरूप से दोषी हैं। जहाँ सभी प्रश्नों पर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में ग्रन्थों श्वेताम्बर ने अपने ही पूर्व अविभक्त परम्परा के आगमों से ऐसी छेड़-छाड़ के आलोक में चर्चा करने का प्रयत्न करूंगा।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ क्या आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था?
कुछ
यहाँ सर्वप्रथम मैं इस प्रश्न की चर्चा करना चाहूँगा कि क्या जैन आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था और उसे बाद में परिवर्तित करके अर्धमागधी रूप दिया गया? जैन विद्या के विद्वानों की यह मान्यता है कि जैन आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुआ था और उसे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित किया गया। अपने इस कथन के पक्ष में वे क्षेताम्बर दिगम्बर किन्हीं भी आगमों का प्रमाण न देकर प्रो. टॉटिया के व्याख्यान से कुछ अंश उद्धृत करते हैं। डॉ. सुदीप जैन ने 'प्राकृत विद्या', जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय में उनके कथन को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है—
" हाल ही में श्री लालबहादुरशास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सम्पन्न द्वितीय आचार्य कुन्दकुन्दस्मृति व्याख्यानमाला में विश्वविश्रुत भाषाशास्त्री एवं दार्शनिक विचारक प्रो० नथमल जी टॉटिया ने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि "श्रमण- साहित्य का प्राचीन रूप. चाहे वे बौद्धों के त्रिपिटक आदि हों, श्वेताम्बरों के आचाराङ्गसूत्र, दशवैकालिकसूत्र आदि हों अथवा दिगम्बरों के षट्खण्डागमसूत्र, समयसार आदि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत में ही निबद्ध थे। उन्होंने आगे सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद में श्रीलंका में एक बृहत्सङ्गीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध बौद्धसाहित्य का मागधीकरण किया और प्राचीन शौरसेनी में निबद्ध बौद्धसाहित्य के ग्रन्थों को अग्निसात् कर दिया। इसी प्रकार श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में ही था, जिसका रूप क्रमशः अर्धमागधी में बदल गया। यदि हम वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल श्वेताम्बर आगम- साहित्य मानने पर जोर देंगे, तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से पन्द्रह सौ वर्ष के पहिले अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को भी ५०० वर्ष ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा।" उन्होंने स्पष्ट किया कि आज भी आचाराङ्गसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है, जबकि नये प्रकाशित संस्करणों में उन शब्दों का अर्द्धमागधीकरण हो गया है। उन्होंने कहा कि पक्षव्यामोह के कारण ऐसे परिवर्तनों से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूलरूप खो रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि दिगम्बर जैन साहित्य में ही शौरसेनी भाषा के प्राचीनरूप सुरक्षित उपलब्ध हैं।"
निस्संदेह प्रो०टॉटिया जैन और बौद्ध विद्याओं के वरिष्ठतम विद्वानों में एक हैं और उनके कथन का कोई अर्थ और आधार भी होगा। किन्तु ये कथन उनके अपने हैं या उन्हें अपने पक्ष की पुष्टि हेतु तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है, यह एक विवादास्पद प्रश्न है ? क्योंकि एक ओर तुलसीप्रज्ञा के सम्पादक का कहना है कि टॉटिया जी ने इसका खण्डन किया है। वे तुलसीप्रज्ञा (अप्रैल-जून १६, खण्ड २२, अंक ४) में लिखते हैं कि- "डॉ. नथमल टॉटिया ने दिल्ली की एक पत्रिका में छपे और उनके नाम से प्रचारित इस कथन का खण्डन किया है कि महावीरवाणी शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट मत प्रकट किया कि आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, सूत्रकृताङ्ग और दशवैकालिक में अर्धमागधी भाषा का उत्कृष्ट रूप है। "
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जैन आगम एवं साहित्य
दूसरी ओर प्राकृत विद्या के सम्पादक डॉ. सुदीप जी का कथन है कि उनके व्याख्यान की टेप हमारे पास उपलब्ध है और हमने उसे अविकल रूप से यथावत् दिया है। मात्र इतना ही नहीं डॉ. सुदीपजी का तो यह भी कथन है कि तुलसीप्रज्ञा के खण्डन के बाद भी टॉटिया जी से मिले हैं और टॉटिया जी ने उन्हें कहा है कि वे अपने कथन पर आज भी दृढ़ हैं। टॉटिया जी के इस कथन को उन्होंने प्राकृत विद्या जुलाई-सितम्बर ९६ के अहू में निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया
"मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तुत तथ्यों पर पूर्णतया दृढ़ हूँ तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट अवधारणा है जिससे विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है" । (पृ. ९)
यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों सम्पादकों के मध्य है, किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है और उसका मूल मन्तव्य क्या है, इसका निर्णय तो तभी सम्भव है जब डॉ. टॉटिया स्वयं इस सम्बन्ध में लिखित वक्तव्य दें, किन्तु वे इस सम्बन्ध में मौन हैं। मैंने स्वयं उन्हें पत्र लिखा था, किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। मैं डॉ. टॉटिया की उलझन समझता हूँ। एक ओर कुन्दकुन्दभारती ने उन्हें कुन्दकुन्द व्याख्यानमाला में आमन्त्रित कर पुरस्कृत किया है तो दूसरी और वे जैन विश्वभारती की सेवा में है, जब जिस मञ्च से बोले होंगे भावावेश में उनके अनुकूल वक्तव्य दे दिये होंगे और अब स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें? फिर भी मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार नहीं करती है कि डॉ. टॉटिया जैसे गम्भीर विद्वान बिना प्रमाण के ऐसे वक्तव्य दें। कहीं न कहीं शब्दों की जोड़-तोड़ अवश्य हो रही है। डॉ. सुदीपजी प्राकृत विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६ में डॉ० टॉटिया जी के उक्त व्याख्यानों के विचार बिन्दुओं को अविकल रूप से प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि - "हरिभद्र का सारा योगशतक धवला से है।"
इसका तात्पर्य है कि हरिभद्र के योगशतक को धवला के आधार पर बनाया गया है। क्या टॉटिया जी जैसे विद्वान् को इतना भी इतिहास बोध नहीं है कि योगशतक के कर्ता हरिभद्रसूरि और धवला के कर्ता में कौन पहले हुआ है? यह तो ऐतिहासिक सत्य है कि हरिभद्रसूरि का योगशतक (आठवीं शती), धवला (१०वीं शती) से पूर्ववर्ती है । मुझे विश्वास ही नहीं होता है, कि टॉटिया जी जैसा विद्वान् इस ऐतिहासिक सत्य को अनदेखा कर दे। कहीं न कहीं उनके नाम पर कोई भ्रम खड़ा किया जा रहा है। डॉ. टॉटिया जी को अपनी चुप्पी तोड़कर इस भ्रम का निराकरण करना चाहिए। वस्तुतः यदि कोई भी चर्चा प्रमाणों के आधार पर नहीं होती है तो उसको कैसे मान्य किया जा सकता है, फिर चाहे उसे कितने ही बड़े विद्वान् ने क्यों न कहा हो ? यदि व्यक्ति का ही महत्त्व मान्य है, तो अभी संयोग से टॉटिया जी से भी वरिष्ठ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जैन, बौद्ध विद्याओं के महामनीषी और स्वयं टॉटिया जी के गुरु पद्मविभूषण पं. दलसुखभाई मालवणिया हमारे बीच हैं, फिर तो उनके कथन को अधिक प्रामाणिक मानकर प्राकृत-विद्या के सम्पादक को स्वीकार करना होगा। खैर यह सब
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- तीन्द्रसूरि मारकगृत्य - जैन आगम एवं साहित्य प्रास्ताविक बातें थीं, जिससे यह समझा जा सके कि समस्या क्या अर्थ में लिखा है- “एक योजन तक भगवान् की वाणी स्वयमेव है, कैसे उत्पन्न हुई और प्रस्तुत स्पष्टीकरण की क्या आवश्यकता है? सुनाई देती है। उसके आगे संख्यात योजनों तक उस दिव्यध्वनि का हमें तो व्यक्तियों के कथनों या वक्तव्यों पर न जाकर तथ्यों के प्रकाश विस्तार मगध जाति के देव करते हैं। अत: अर्धमागधी भाषा देवकृत में इसकी समीक्षा करनी है कि आगमों की मूलभाषा क्या थी और है। (षट्प्राभृतम्, चतुर्थ बोध गाथा ३२, पाहुडटीका, पृ०१७६)। अर्धमागधी और शौरसेनी में कौन प्राचीन है?
मात्र यही नहीं वर्तमान में भी दिगम्बर परम्परा के महान् संत
एवं आचार्य विद्यासागर जी के प्रमुख शिष्य मुनि श्री प्रमाणसागरजी आगमों की मूलभाषा अर्धमागधी
अपनी पुस्तक 'जैनर्धमदर्शन' में लिखते हैं कि 'उन भगवान महावीर यह एक सुनिश्चित सत्य है कि महावीर का जन्मक्षेत्र और कार्यक्षेत्र का उपदेश सर्वग्राह्य अर्धमागधी भाषा में हुआ। दोनों ही मुख्य रूप से मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में ही था, अत: जब श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ यह मानकर चल यह स्वाभाविक है कि उन्होंने जिस भाषा को बोला होगा वह समीपवर्ती रही हैं कि भगवान् का उपदेश अर्धमागधी में हुआ था और इसी भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी अर्थात् अर्धमागधी ही रही होगी। में उनके उपदेशों के आधार पर आगमों का प्रणयन हुआ तो फिर व्यक्ति की भाषा कभी भी अपनी मातृभाषा से अप्रभावित नहीं होती शौरसेनी के नाम से नया विवाद खड़ा करके इस खाई को चौड़ा क्यों है। पुनः श्वेताम्बर परम्परा में मान्य जो भी आगम साहित्य आज उपलब्ध किया जा रहा है? है, उनमें अनेक ऐसे सन्दर्भ हैं, जिनमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है यह तो आगमिक प्रमाणों की चर्चा हुई। व्यावहारिक एवं कि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिये थे। ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं -
इस सम्बन्ध में अर्धमागधी आगम-साहित्य से कुछ प्रमाण प्रस्तुत १. यदि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में दिये तो यह स्वाभाविक किये जा रहे हैं यथा -
है कि गणधरों ने उसी भाषा में आगमों का प्रणयन किया होगा। १. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। - समवायाङ्ग, अत: सिद्ध है कि आगमों की मूल भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित समवाय ३४, सूत्र २२।
मागधी अर्थात् अर्धमागधी रही है, यह मानना होगा। २. तए णं समणे भगवं महावीरे कुणिअस्स भंभसारपुत्तस्स अद्धमागहीए २. इसके विपरीत शौरसेनी आगमतुल्य मान्य ग्रन्थों में से किसी एक
भासाए भासत्ति अरिहाधम्म परिकहइ। - औपपातिकसूत्र। भी ग्रन्थ में एक भी सन्दर्भ ऐसा नहीं है, जिससे यह प्रतिध्वनित ३. गोयमा! देवाणं अदमागहीए भासाए भासंति सवियणं अद्धमागहा भी होता हो कि आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी। उनमें
भासा भामिना सज्जति।- भगवई, लाडनूं : शतक ५, मात्र यह उल्लेख है कि तीर्थङ्करों की जो वाणी खिरती है, वह उद्देशक ४, सूत्र ।
सर्वभाषारूप परिणत होती है। उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है ४. तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तमाहणस्स देवाणंदा माहणीए कि उनकी वाणी जनसाधारण को आसानी से समझ में आती
तीसे य महति महलियाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए.... थी। वह लोकवाणी थी। उसमें मगध के निकटवर्ती क्षेत्रों की क्षेत्रीय सव्व भासणुगामणिए सरस्सईए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमगहाए बोलियों के शब्द रूप भी होते थे और यही कारण था । उसे भासाइ धम्म परिकहइ। - भगवई लाडनूं, शतक ९, उद्देशक मागधी न कहकर अर्धमागधी कहा गया था। ३३, सूत्र १४९।
३. जो ग्रन्थ जिस क्षेत्र में रचित या सम्पादित होता है, उसका वहाँ ५. तए णं समणे भगवं महावीरे जामालिस्स खत्तियकुमारस्स.... की बोली से प्रभावित होना स्वाभाविक है। प्राचीन स्तर के जैन
अद्धमगाहाए भासाए भासइ धम्म परिकहइ। -भगवई, लाडनूं आगम यथा आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग इसिभासियइं (ऋषिभाषित), : शतक ९, उद्देशक ३३, सूत्र १६३।
उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र सव्वसत्तसमदरिसीहिं अद्धमागहीए भासाए सुत्तं उवदि→। - में रचित हैं और उनमें इसी क्षेत्र के नगरों आदि की सूचनाएँ आचाराङ्गचूर्णि, जिनदासगणि, पृ० २५५ ।
हैं। मूल आगमों में एक भी ऐसी सूचना नहीं है कि महावीर मात्र इतना ही नहीं, दिगम्बर परम्परा में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द ने बिहार, बङ्गाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आगे विहार किया के ग्रन्थ बोधपाहुड, जो स्वयं शौरसेनी में निबद्ध है, उसकी टीका हो। अतः उनकी भाषा अर्धमागधी ही रही होगी। में दिगम्बर आचार्य श्रुतसागर जी लिखते हैं कि भगवान् महावीर ४. पुन: आगमों की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में और दूसरी खण्डगिरि ने अर्धमागधी भाषा में अपना उपदेश दिया। प्रमाण के लिये उस (उड़ीसा) में हुई, ये दोनों क्षेत्र मथुरा से पर्याप्त दूरी पर स्थित टीका के अनुवाद का वह अंश प्रस्तुत है – अर्ध मगध देश हैं, अत: कम से कम प्रथम और द्वितीय वाचना के समय तक भाषात्मक और अर्ध सर्वभाषात्मक भगवान् की ध्वनि खिरती है। अर्थात् ई.पू. दूसरी शती तक उनके शौरसेनी में रूपान्तरित होने शङ्का- अर्धमागधी भाषा देवकृत अतिशय कैसे हो सकती है, का या उससे प्रभावित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। क्योंकि भगवान् की भाषा ही अर्धमागधी है? उत्तर- मगध देव यह सत्य है कि उसके पश्चात् जब जैन धर्म एवं विद्या का केन्द्र के सान्निध्य से होने से आचार्य प्रभाचन्द्र ने नन्दीश्वर भक्ति के पाटलिपुत्र से हटकर लगभग ई.पू. प्रथम शती में मथुरा बना तो उस
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रनय - जैन आगम एवं साहित्य - पर शौरसेनी का प्रभाव आना प्रारम्भ हुआ। यद्यपि मथुरा से प्राप्त दूसरी है, यही कारण था कि जो उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ मथुरा में एकत्रित शती तक के अभिलेखों का शौरसेनी के प्रभाव से मुक्त होना यही हुआ उसके आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली-शौरसेनी से प्रभावित हुए सिद्ध करता है कि जैनागमों पर शौरसेनी का प्रभाव दूसरी शती के और जो पश्चिमी भारत का निर्ग्रन्थ संघ वलभी में एकत्रित हुआ उसके पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ होगा। सम्भवतः फल्गुमित्र (दूसरी शती) के आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हुए। पुन: समय या उसके भी पश्चात् स्कंदिल (चतुर्थ शती) की माथुरी वाचना यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन दोनों वाचनाओं में सम्पादित के समय उन पर शौरसेनी प्रभाव आया था, यही कारण है कि यापनीय आगमों का मूल आधार तो अर्धमागधी आगम ही थे, यही कारण परम्परा में मान्य आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, निशीथ, कल्प है कि शौरसेनी आगम न तो शुद्ध शौरसेनी में हैं और न वलभी वाचना आदि जो आगम रहे हैं, वे शौरसेनी से प्रभावित रहे हैं। यदि डॉ० के आगम शुद्ध महाराष्ट्री में हैं, उन दोनों में अर्धमागधी के शब्द रूप टॉटिया ने यह कहा है कि आचाराङ्ग आदि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी तो उपलब्ध होते ही हैं। शौरसेनी आगमों में तो अर्धमागधी के साथ-साथ प्रभावित संस्करण भी था जो मथुरा क्षेत्र में विकसित यापनीय परम्परा महाराष्ट्री प्राकृत के शब्द रूप भी बहुलता से मिलते है, यही कारण. को मान्य था, तो उनका कथन सत्य है, क्योंकि भगवती आराधना है कि भाषाविद् उनकी भाषा को जैन शौरसेनी और जैन महाराष्ट्री की टीका में आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, निशीथ आदि के जो सन्दर्भ दिये कहते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि जिन शौरसेनी आगमों की दुहाई दी जा गये हैं वे सभी शौरसेनी से प्रभावित हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि रही है, उनमें से अनेक ५० प्रतिशत से अधिक अर्धमागधी और महाराष्ट्री नहीं है कि आगमों की रचना शौरसेनी में हुई थी और बाद में वे प्राकृत से प्रभावित है। श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य आगमों में प्राकृत अर्धमागधी में रूपान्तरित किये गये। ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना के रूपों का जो वैविध्य है उसके कारणों की विस्तृत चर्चा मैंने अपने स्कंदिल के समय महावीर निर्वाण के लगभग आठ सौ वर्ष पश्चात् लेख “जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन' में की है। हुई थी और उसमें आगमों की वाचना हुई, वे सभी उसके पूर्व अस्तित्व में थे। यापनीयों ने आगमों के इसी शौरसेनी प्रभावित संस्करण को क्या शौरसेनी आगमों के भाषिक स्वरूप में एकरूपता है? मान्य किया था, किन्तु दिगम्बरों को तो वे आगम भी मान्य नहीं थे, किन्तु डॉ. सुदीप जैन का दावा है कि- “आज भी शौरसेनी क्योंकि उनके अनुसार तो इस माथुरी वाचना के लगभग दो सौ वर्ष आगम-साहित्य में भाषिक तत्त्व की एकरूपता है, जबकि अर्धमागधी पूर्व ही आगम साहित्य विलुप्त हो चुका था। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम-साहित्य में भाषा के विविध रूप पाये जाते हैं। उदाहरणस्वरूप आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, शौरसेनी में सर्वत्र “ण” का प्रयोग मिलता है, कहीं भी 'न' का प्रयोग व्यवहार, निशीथ आदि तो ई.पू. चौथी शती से दूसरी शती तक की नहीं है, जबकि अर्धमागधी में नकार के साथ-साथ णकार का प्रयोग रचनाएँ हैं, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। ज्ञातव्य । भी विकल्पतः मिलता है। यदि शौरसेनी युग में नकार का प्रयोग अलग है कि मथुरा का जैन विद्या के केन्द्र के रूप में विकास ई.पू. प्रथम भाषा में प्रचलित होता तो दिगम्बर साहित्य में कहीं तो विकल्प से शती से ही हुआ है और उसके पश्चात् ही इन आगमों पर शौरसेनी प्राप्त होता।" (प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर, ९६, पृ.७)। प्रभाव आया होगा।
यहाँ डॉ. सुदीप जैन ने दो बाते उठाई है- प्रथम शौरसेनी
आगम साहित्य की भाषिक एकरूपता की और दूसरी 'ण' कार और आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन कब और कैसे? 'न' कार की। क्या सुदीप जी, आपने शौरसेनी आगम साहित्य के
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि स्कंदिल की इस माथुरी वाचना के उपलब्ध संस्करणों का भाषाशास्त्र की दृष्टि से कोई प्रामाणिक अध्ययन समय ही समानान्तर रूप से एक वाचना वल्लभी (गुजरात) में नागार्जुन किया है? यदि आपने किया होता तो आप ऐसा खोखला दावा प्रस्तुत की अध्यक्षता में हुई थी और इसी काल में उन पर महाराष्ट्री प्रभाव नहीं करते? आप केवल 'ण' कार का ही उदाहरण क्यों देते हैंभी आया क्योंकि उस क्षेत्र की प्राकृत महाराष्ट्री प्राकृत थी। इसी महाराष्ट्री वह तो महाराष्ट्री और शौरसेनी दोनों में सामान्य है। दूसरे शब्द रूपों प्राकृत से प्रभावित आगम आज तक श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं। की चर्चा क्यों नहीं करते हैं? नीचे मैं दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य अत: इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आगमों ग्रन्थों से ही कुछ उदाहरण दे रहा हूँ, जिनसे उनके भाषिकतत्त्व की के महाराष्ट्री प्रभावित और शौरसेनी प्रभावित संस्करण जो लगभग ईसा एकरूपता का दावा कितना खोखला है यह सिद्ध हो जाता है। मात्र की चतुर्थ-पञ्चम शती में अस्तित्व में आये, उनका मूल आधार यही नहीं इससे यह भी सिद्ध होता है कि शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थ अर्धमागधी आगम ही थे। यह भी ज्ञातव्य है कि न तो स्कंदिल की न केवल अर्धमागधी से प्रभावित हैं, अपितु उससे परवर्ती महाराष्ट्री माथुरी वाचना में और न नागार्जुन की वलभी वाचना में आगमों की प्राकृत से भी प्रभावित हैं - भाषा में सोच-समझ पूर्वक कोई परिवर्तन किया गया था। वास्तविकता १. आत्मा के लिये अर्धमागधी में आता, अत्ता, अप्पा आदि शब्द यह है कि उस युग तक आगम कण्ठस्थ चले आ रहे थे और कोई रूपों का प्रयोग उपलब्ध है, जबकि शौरसेनी में "द' श्रुति के भी कण्ठस्थ ग्रन्थ स्वाभाविक रूप से कण्ठस्थ करने वाले व्यक्ति की कारण “आदा' रूप बनता है। समयसार मे "आदा'' के साथ-साथ क्षेत्रीय बोली से अर्थात् उच्चारण शैली से अप्रभावित नहीं रह सकता "अप्पा'' शब्द रूप जो कि अर्धमागधी का है अनेक बार प्रयोग
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- पतीन्द्रमरिकनन्य जैन आगम एवं साहित्य - में आया है। केवल समयसार में ही नहीं, अपितु नियमसार (१२०, 'न' कार और 'ण' कार में कौन प्राचीन १२१,१८३) आदि में भी “अप्पा' शब्द का प्रयोग है।
अब हम णकार और नकार के प्रश्न पर आते हैं। भाई सूदीप २. श्रुत का शौरसेनी रूप "सुद' बनता है। शौरसेनी आगमतुल्य जी आपका यह कथन सत्य है कि अर्धमागधी में नकार और णकार
ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर “सुद" "सुदकेवली' शब्द के प्रयोग दोनों पाये जाते हैं। किन्तु दिगम्बर शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में सर्वत्र भी हुए हैं, जबकि समयसार (वर्णी ग्रन्थमाला, गाथा ९ एवं १०) णकार का पाया जाना यही सिद्ध करता है कि जिस शौरसेनी को आप में स्पष्ट रूप में "सुयकेवली'' “सुयणाण' शब्दरूपों का भी प्रयोग अरिष्टनेमि के काल से प्रचलित प्राचीनतम प्राकृत कहना चाहते हैं, मिलता है और ये दोनों महाराष्ट्री शब्द रूप हैं तथा परवर्ती भी उस णकार प्रधान शौरसेनी का जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी तक
हैं। अर्धमागधी में तो सदैव ‘सुत' शब्द का प्रयोग होता है। हुआ भी नहीं था। “ण” की अपेक्षा न का प्रयोग प्राचीन है। ई.पू. ३. शौरसेनी "द' श्रुतिप्रधान है साथ ही उसमें "लोप" की प्रवृत्ति तृतीय शती के अशोक के अभिलेख एवं ई.पू. द्वितीय शती के खारवेल
अत्यल्प है, अत: उसके क्रिया रूप “हवदि, होदि, कुणदि, के शिलालेख से लेकर मथुरा के शिलालेख (ई.पू. दूसरी शती से गिण्हदि, कुव्वदि, परिणमदि, भण्णदि, पस्सदि आदि बनते हैं। ईसा की दूसरी शती तक) इन लगभग ८० जैन शिलालेखों में एक इन क्रिया रूपों का प्रयोग उन ग्रन्थों में हुआ भी है, किन्तु उन्हीं भी णकार का प्रयोग नहीं है। इनमें शौरसेनी प्राकृत के रूपों यथा ग्रन्थों के क्रिया रूपों पर महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक प्रभाव “णमो'' "अरिहंताणं” और “णमो वड्डमाणं' का सर्वथा अभाव है। है, इसे निम्न उदाहरणों से जाना जा सकता है –
यहाँ हम केवल उन्हीं प्राचीन शिलालेखों को उद्धृत कर रहे हैं, जिनमें जाणइ (गाथा सं. १०), हवई (११,३१५,३८६,३८४), मुणइ इन शब्दों का प्रयोग हुआ है- ज्ञातव्य है कि ये सभी अभिलेखीय (३२), वुच्चइ (४५), कुव्वइ (८१,२८६,३१९,३२१,३२५,३४०), साक्ष्य जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ से प्रस्तुत हैं, जो दिगम्बर जैन परिणमइ (७६,७९,८०), (ज्ञातव्य है कि समयसार के इसी संस्करण समाज द्वारा ही प्रकाशित हैं - की गाथा क्रमांक ७७,७८,७९, में परिणमदि रूप भी मिलता है)। १. हाथीगुंफा बिहार का शिलालेख- प्राकृत, जैन सम्राट् खारवेल, इसी प्रकार के अन्य महाराष्ट्री प्राकृत के रूप, जैसे वेयई (८४), कुणई मौर्यकाल १६५वाँ वर्ष, पृ.४ लेख क्रमाङ्क २- नमो अरहंतानं, (७१,९६,२८९,२९३,३२२,३२६), होइ (९४,१९७,३०६,३४९, नमो सवसिधानं ३५८), करेई (९४,२३७,२३८,३२८,३४८), हवई (४१,३२६, २. बैकुण्ठ स्वर्गपुरी गुफा, उदयगिरि बिहार, प्राकृत, मौर्यकाल ३२९), जाणई (१८५,३१६,३१९,३२०,३६१), बहइ (१८९), १६५वॉ वर्ष लगभग ई.पू. दूसरी शती पृ.११, ले. क्र. सेवइ (१९७), मरइ (२५७,२९०), (जबकि गाथा २५८ में मरदि 'अरहन्तपसादन'। है), पावइ (२९१,२९२), धिप्पइ (२९६), उप्पज्जइ (३०८), ३. मथुरा, प्राकृत महाक्षत्रप शोडाशके ८१ वर्ष का पृ.१२, क्रमाङ्क विणस्सइ (३१२,३४५), दीसइ (३२३), आदि भी मिलते हैं ५, 'नम अरहतो वधमानस'। (समयसार वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी)। ये तो कुछ ही उदाहरण हैं- ४. मथुरा, प्राकृत काल निर्देश नहीं दिया है, किन्तु जे.एफ.फ्लीट ऐसे अनेक महाराष्ट्री प्राकृत के क्रिया रूप समयसार में उपलब्ध हैं। के अनुसार लगभग १४-१३ ई.पूर्व का होना चाहिए, पृ. १५, न केवल समयसार अपितु नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार क्रमाङ्क ८, 'अरहतो वर्धमानस्य'। आदि की भी यही स्थिति है।
५. मथुरा, प्राकृत सम्भवत: १४-१३, ई.पू. प्रथमशती, पृ.१५, लेख बारहवीं शती में रचित वसुनन्दिकृत श्रावकाचार (भारतीय ज्ञानपीठ क्रमाङ्क १०, 'मा अरहतपूजा'। संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के इन ग्रन्थों से भी बदतर है, ६. मथुरा, प्राकृत पृ.१७, क्रमाङ्क १४, ‘मा अहतानं श्रमणश्रविका'। उसकी प्रारम्भ की सौ गाथाओं में ४० प्रतिशत क्रिया रूप महाराष्ट्री ७. मथुरा, प्राकृत पृ.१७, क्रमाङ्क १५, 'नमो अरहंतानं'। प्राकृत के है।
८. मथुरा, प्राकृत पृ. १८, क्रमाङ्क १६, 'नमो अरहतो महाविरस'। इससे फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी आगमों के ९. मथुरा, प्राकृत हुविष्क संवत् ३९- हस्तिस्तम्भ, पृ.३४, क्रमाङ्क भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की अपेक्षा भी न केवल ४३, 'अयर्येन रुद्रदासेन' अरहंतनं पुजाये। पधिक वैविध्य है, अपितु उस महाराष्ट्री प्राकृत का भी व्यापक प्रभाव १०. मथुरा, प्राकृत भग्न वर्ष ९३, पृ.४६, क्रमाङ्क ६७, 'नमो अर्हतो है, जिसे सुदीप जी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे हैं। यदि ये ग्रन्थ महाविरस्य'। प्राचीन होते तो इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव कहाँ से ११. मथुरा, प्राकृत वासुदेव सं.९८, पृ.४७, क्रमाङ्क ६०, 'नमो अरहतो आता? प्रो. ए. एन. उपाध्ये ने प्रवचनसार की भूमिका में स्पष्टतः महावीरस्य'। स्वीकार किया है कि उसकी भाषा पर अर्धमागधी का प्रभाव है। १२. मथुरा, प्राकृत पृ.४८, क्रमाङ्क ७१, 'नमो अरहंतानं सिहकसं'। प्रो.खड़बड़ी ने तो षटखण्डागम की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं १३. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८, क्रमाङ्क ७२, 'नमो अरहंतान'। माना है।
१४. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८, क्रमाङ्क ७३, 'नमो अरहंतान'।
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भूतबली
- चीन्दसूरिस्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य १५. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.४८, क्रमाङ्क ७५, 'अरहंतान वधमानस्य'। के ही शौरसेनी संस्करण थे, जो यापनीय परम्परा में मान्य थे और १६. मथुरा, प्राकृत भग्न, पृ.५१, क्रमाङ्क८० 'नमो अरहंतान..द्वन"। जिनकी भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ भेदों को छोड़कर श्वेताम्बर
शूरसेन प्रदेश, जहाँ से शौरसेनी प्राकृत का जन्म हुआ, वहाँ मान्य आगमों से समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में के शिलालेखों में दूसरी-तीसरी शती तक णकार एवं 'द' श्रुति के विस्तृत चर्चा मैंने "जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ के प्रयोग का अभाव यही सिद्ध करता है कि दिगम्बर आगमों एवं नाटकों तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में की है। इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख की शौरसेनी का जन्म ईसा की दूसरी शती के पूर्व का नहीं है, जबकि सकते हैं। नकार प्रधान अर्धमागधी का प्रयोग तो अशोक के अभिलेखों से अर्थात् वस्तुत: आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से जानते है ई.पू. तीसरी शती से सिद्ध होता है। इससे यही फलित होता है कि उनमें मुख्यत: निम्न ग्रन्थ आते हैं - अर्धमागधी आगम प्राचीन थे, आगमों का शब्द रूपान्तरण अर्धमागधी से शौरसेनी में हुआ है, न कि शौरसेनी से अर्धमागधी में। दिगम्बर अ. यापनीय मान्य आगमों की शौरसेनी की जिस प्राचीनता का बढ़-चढ़ कर १. कसायपाहुड, लगभग ईसा की चौथी शती, गुणधर दावा किया जाता है, वह अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों से ही २. षखण्डागम, ईसा की पाँचवीं शती का उत्तरार्ध, पुष्पदंत और प्रभावित है और न केवल भाषायी स्वरूप के आधार पर अपितु विषय-वस्तु के आधार पर भी ईसा की चौथी-पाँचवी शती के पूर्व ३. भगवतीआराधना, ईसा की छठी शती, शिवार्य का नहीं है।
४. मूलाचार, ईसा की छठी शती, वट्टकेर यदि शौरसेनी प्राचीनतम प्राकृत है, तो फिर सम्पूर्ण देश में ईसा ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थ मूलत: यापनीय परम्परा के हैं और की तीसरी-चौथी शती तक एक भी अभिलेख शौरसेनी प्राकृत में क्यों इनमें अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य आगमों, विशेष रूप से नियुक्तियों नहीं मिलता है। अशोक के अभिलेख, खारवेल के अभिलेख, बलडी और प्रकीर्णकों के समरूप है। के अभिलेख और मथुरा के शताधिक अभिलेख कोई भी तो शौरसेनी प्राकृत में नहीं हैं। इन सभी अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय बोलियों से ब. कुन्दकुन्द द्वारा रचित ईसा की लगभग छठी शती के ग्रन्थ प्रभावित मागधी ही है। अत: उसे अर्धमागधी तो कहा जा सकता है, ५. समयसार किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है। अतः प्राकृतों में ६. नियमसार अर्धमागधी ही प्राचीन है, क्योंकि मथुरा के प्राचीन अभिलेखों में भी ७. प्रवचनसार 'नमो अरहंतानं', 'नमो वधमानस' आदि अर्धमागधी शब्द रूप मिलते ८. पञ्चास्तिकायसार हैं। श्वेताम्बर आगमों एवं अभिलेखों में आये 'अरहंतानं' पाठ को तो ९. अष्टपाहुड (इनका कुन्द द्वारा रचित होना सन्दिग्ध है, क्योंकि प्राकृत-विद्या में खोटे सिक्के की तरह बताया गया है, इसका अर्थ इसकी भाषा में अपभ्रश के शब्द भी पाये जाते हैं)। है कि यह पाठ शौरसेनी का नहीं है (प्राकृत-विद्या, अक्टूबर-दिसम्बर ९४, पृ.१०-११)। अत: शौरसेनी उसके बाद ही विकसित हुई है। स अन्य ग्रन्थ, ईसा की छठी शती के पश्चात्
१०.तिलोयपण्णत्ति-यतिवृषभ शौरसेनी आगम और उनकी प्राचीनता
११. लोकविभाग जब हम आगम की बात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट रूप से समझ १२. जम्बूद्वीपपण्णत्ति लेना चाहिए कि आचाराङ्ग आदि द्वादशाङ्गी जिन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर १३.अङ्गपण्णत्ति
और यापनीय परम्परा आगम कहकर उल्लेख करती हैं, वे सभी मूलत: १४.क्षपणसार अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर परम्परा में नन्दीसूत्र में १५.गोम्मटसार (दसवीं शती) उल्लिखित आगम हो, चाहे मूलाचार, भगवती आराधना और उनकी किन्तु इनमें से कषायपाहुड को छोड़कर कोई भी ग्रन्थ ऐसा टीकाओं में या तत्त्वार्थ और उसकी दिगम्बर टीकाओं में उल्लिखित नहीं है, जो पाँचवीं शती के पूर्व का हो। ये सभी ग्रन्थ गुणस्थान आगम हो, अथवा अङ्गपण्णत्ति एवं धवला के अङ्ग और अङ्ग बाह्य सिद्धान्त एवं सप्तभङ्गी की चर्चा अवश्य करते हैं और गुणस्थान की के रूप में उल्लिखित आगम हो, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो चर्चा जैन दर्शन में पांचवीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनुपस्थित है। शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध रहा हो। हाँ इतना अवश्य है कि इनमें से । श्वेताम्बर आगमों में समवायाङ्ग और आवश्यकनियुक्ति की दो प्रक्षिप्त कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित संस्करण माथुरी वाचना के लगभग गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णतः अनुपस्थित है, जबकि चतुर्थ शती के समय अस्तित्व में अवश्य आये थे, किन्तु इन्हें शौरसेनी षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द आगम कहना उचित नहीं होगा, वस्तुत: ये आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, के ग्रन्थों में इनकी चर्चा पायी जाती है, अत: ये सभी ग्रन्थ उनसे दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों परवर्ती हैं। इसी प्रकार उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र मूल और उसके स्वोपज्ञ
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- चतीन्द्रसरि जारकान्य - जैन आगम एवं साहित्य - भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती का एक भी ऐसा ग्रन्थ या अभिलेख दिखा दें, जो अर्धमागधी आगमों टीकाएँ गुणस्थान की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत करती हैं। उमास्वाति का और मागधी प्रधान अशोक, खारवेल, आदि के अभिलेखों से प्राचीन काल तीसरी-चौथी शती के लगभग है। अत: यह निश्चित है कि गुणस्थान हो। अर्धमागधी के अतिरिक्त जिस महाराष्ट्री प्राकृत को वे शौरसेनी का सिद्धान्त पाँचवीं शती में अस्तित्व में आया है। अत: शौरसेनी से परवर्ती बता रहे हैं, उसमें सातवाहन नरेश हाल की गाथा सप्तशती प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा लगभग प्रथम शती में रचित है और शौरसेनी के किसी भी ग्रन्थ से है. ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व का नहीं है। प्राचीन शौरसेनी आगमतुल्य प्राचीन है। ग्रन्थों में मात्र कसायपाहुड ही ऐसा है जो स्पष्टत: गुणस्थानों का पुन: मैं डॉ.सुदीप के निम्न कथन की ओर पाठकों का ध्यान उल्लेख नहीं करता है, किन्तु उसमें भी प्रकारान्तर से १२ गुणस्थानों दिलाना चाहूँगा, वे प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६ में लिखते हैं की चर्चा उपलब्ध है, अत: वह भी आध्यात्मिक विकास की उन दस कि दिगम्बरों के ग्रन्थ उस शौरसेनी प्राकृत में हैं, जिससे 'मागधी' अवस्थाओं, जिनका उल्लेख आचाराङ्गनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में है, आदि प्राकृतों का जन्म हुआ, इस सम्बन्ध में मेरा उनसे निवेदन है से परवर्ती और गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के संक्रमण काल की कि मागधी के सम्बन्ध में 'प्रकृतिः शौरसेनी' (प्राकृतप्रकाश, ११/२) रचना है, अत: उसका काल भी चौथी से पाँचवीं शती के बीच सिद्ध इस कथन की वे जो व्याख्या कर रहे हैं वह भ्रान्त है और वे स्वयं होता है।
भी शौरसेनी के सम्बन्ध में 'प्रकृति: संस्कृतम्' (प्राकृतप्रकाश, १२/
२), इस सूत्र की व्याख्या में प्रकृति:' का जन्मदात्री यह अर्थ अस्वीकार शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला
कर चुके हैं। इसकी विस्तृत समीक्षा हमने अग्रिम पृष्ठों में की है। शौरसेनी की प्राचीनता का गुणगान इस आधार भी किया जाता इसके प्रत्युत्तर में मेरा दूसरा तर्क यह है कि यदि शौरसेनी प्राकृत है कि यह नारायण कृष्ण और तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि की मातृभाषा रही ग्रन्थों के आधार पर ही मागधी के प्राकृत आगमों की रचना हुई, तो है, क्योकि इन दोनों महापुरुषों का जन्म शूरसेन जनपद में हुआ था उनमें किसी भी शौरसेनी प्राकृत के ग्रन्थ का उल्लेख क्यों नहीं है? और ये शौरसेनी प्राकृत में ही अपना वाक् व्यवहार करते थे। डॉ.सुदीप श्वेताम्बर आगमों में वे एक भी सन्दर्भ दिखा दें, जिनमें भगवतीआराधना, जी के शब्दों में “इन दोनों महापुरुषों के प्रभावक व्यक्तित्व के महाप्रभाव मूलाचार, षट्खण्डागम, तिलोयपण्णत्ति, प्रवचनसार, समयसार, से शूरसेन जनपद में जन्मी शौरसेनी प्राकृत भाषा को सम्पूर्ण आर्यावर्त नियमसार आदि का उल्लेख हुआ हो। टीकाओं में भी मलयगिरि (तेरहवीं में प्रसारित होने का सुअवसर मिला था।" (प्राकृतविद्या-जुलाई-सितम्बर शती) ने मात्र 'समयपाहुड' का उल्लेख किया है। इसके विपरीत ९६, पृ.६)।
मूलाचार, भगवतीआराधना और षट्खण्डागम की टीकाओं में एवं यदि हम एक बार उनके इस कथन को मान भी लें, तो प्रश्न तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि सभी उठता है अरिष्टनेमि के पूर्व नमि मिथिला में जन्मे थे, वासुपूज्य चम्पा दिगम्बर टीकाओं में इन आगमों एवं नियुक्तियों के उल्लेख हैं। में जन्मे थे, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ और श्रेयांस काशी जनपद में जन्मे थे, भगवतीआराधना की टीका में तो आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, कल्प तथा यही नहीं प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव और मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या निशीथ से अनेक अवतरण भी दिये गये हैं। मूलाचार में न केवल में जन्मे थे। ये सभी क्षेत्र तो मगध के ही निकटवर्ती हैं, अत: इनकी अर्धमागधी आगमों का उल्लेख है, अपितु उनकी सैकड़ों गाथाएँ भी मातृभाषा तो अर्धमागधी रही होगी। भाई सुदीप जी के अनुसार यदि हैं। मूलाचार में आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, शौरसेनी अरिष्टनेमि जितनी प्राचीन है, तो फिर अर्धमागधी तो ऋषभ चन्द्रवेध्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि की अनेक गाथाएँ अपने जितनी प्राचीन सिद्ध होती है, अत: शौरसेनी से अर्धमागधी प्राचीन शौरसेनी शब्द रूपों में यथावत् पायी जाती हैं।
दिगम्बर परम्परा में जो प्रतिक्रमणसूत्र उपलब्ध हैं, उसमें ज्ञातासूत्र यदि शौरसेनी प्राचीन होती तो सभी प्राचीन अभिलेख और प्राचीन के उन्हीं १९ अध्ययनों के नाम मिलते हैं, जो वर्तमान में श्वेताम्बर आगमिक ग्रन्थ शौरसेनी में मिलते, किन्तु ईसा की चौथी, पाँचवीं परम्परा में उपलब्ध ज्ञाताधर्मकथा में उपलब्ध हैं। तार्किक दृष्टि से यह 'शती से पूर्व का कोई भी जैन ग्रन्थ और अभिलेख शौरसेनी में उपलब्ध स्पष्ट है कि जो ग्रन्थ जिन-जिन ग्रन्थों का उल्लेख करता है, वह उनसे क्यों नहीं होता है? पुन: नाटकों में भी भास के समय से अर्थात् परवर्ती ही होता है, पूर्ववर्ती कदापि नहीं। शौरसेनी आगम या आगमतुल्य ईसा की दूसरी शती से ही शौरसेनी के प्रयोग (वाक्यांश) उपलब्ध ग्रन्थों में यदि अर्धमागधी आगमों के नाम मिलते हैं तो फिर शौरसेनी होते हैं।
और उसका रचित साहित्य अर्धमागधी आगमों से प्राचीन कैसे हो नाटकों में शौरसेनी प्राकृत की उपलब्धता के आधार पर उसकी सकता है? प्राचीनता का गुणगान किया जाता है, मैं विनम्रतापूर्वक पूछना चाहूँगा आदरणीय टॉटिया जी के माध्यम से यह बात भी उठायी गयी कि क्या इन उपलब्ध नाटकों में कोई भी नाटक ईसा की दूसरी-तीसरी कि मूलत: आगम शौरसेनी में रचित थे और कालान्तर में उनका शती से पूर्व का है? फिर उन्हें शौरसेनी की प्राचीनता का आधार अर्धमागधीकरण (महाराष्ट्रीकरण) किया गया। यह एक ऐतिहासिक सत्य कैसे माना जा सकता है। मात्र नाटक ही नहीं, वे शौरसेनी प्राकृत है कि जैनधर्म का उद्भव मगध में हुआ और वहीं से वह दक्षिणी
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- चतीन्द्रसूरिस्मारकाव्य - जैन आगम एवं साहिल एवं उत्तरपश्चिमी भारत में फैला। अतः आवश्यकता हुई अर्धमागधी प्रान्तों के लोग भी आसानी से समझ सकें। अत: बुद्धवचन मूलतः आगमों के शौरसेनी और महाराष्ट्री रूपान्तरण की, न कि शौरसेनी मागधी में थे, न कि शौरसेनी में। बौद्ध त्रिपिटक की पालि और जैन आगमों के अर्धमागधी रूपान्तरण की। सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगमों की अर्धमागधी में कितना साम्य है, यह तो सुत्तनिपात और आगम ही शौरसेनी या महाराष्ट्री में रूपान्तरित हुए न कि शौरसेनी इसिभासियाई के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन आगम अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए। अत: ऐतिहासिक तथ्यों की पालि ग्रन्थों एवं प्राचीन अर्धमागधी आगमों की भाषा में अधिक दूरी अवहेलना कर मात्र कुतर्क करना कहाँ तक उचित है?
नहीं है। जिस समय अर्धमागधी और पालि में ग्रन्थ रचना हो रही
थी, उस समय तक शौरसेनी एक बोली थी, न कि एक साहित्यिक बुद्ध वचनों की मूल भाषा मागधी थी, न कि शौरसेनी भाषा। साहित्यिक भाषा के रूप में उसका जन्म तो ईसा की तीसरी
शौरसेनी को मूलभाषा एवं मागधी से प्राचीन सिद्ध करने हेतु शताब्दी के बाद ही हुआ है। संस्कृत के पश्चात् सर्वप्रथम साहित्यिक आदरणीय प्रो. नथमल जी टाटिया के नाम से यह भी प्रचारित किया भाषा के रूप में यदि कोई भाषा विकसित हुई है तो वे अर्धमागधी. जा रहा है कि “शौरसेनी पालि भाषा की जननी है- यह मेरा स्पष्ट एवं पालि ही हैं, न कि शौरसेनी। शौरसेनी का कोई भी ग्रन्थ या चिन्तन है। पहले बौद्धों के ग्रन्थ शौरसेनी में थे, उनको जला दिया नाटकों के अंश ईसा की दूसरी-तीसरी शती से पूर्व का नहीं हैगया और पालि में लिखा गया।” (प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६, जबकि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम-साहित्य के अनेक ग्रन्थ पृ.१०।)
ई.पू. तीसरी-चौथी शती में निर्मित हो चुके थे। ___टॉटिया जी जैसा बौद्ध-विद्या का प्रकाण्ड विद्वान् ऐसी कपोलकल्पित बात कैसे कह सकता है? यह विचारणीय है। क्या ऐसा कोई 'प्रकृतिः शौरसेनी' का सम्यक् अर्थ भी अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध है, जिसके आधार पर जो विद्वान् मागधी को शौरसेनी से परवर्ती एवं उसी से विकसित यह कहा जा सकता है कि मूल बुद्धवचन शौरसेनी में थे। यदि हो मानते हैं वे अपने कथन का आधार वररुचि (लगभग ७वीं शती) के तो आदरणीय टॉटिया जी या भाई सुदीप जी उसे प्रस्तुत करें, अन्यथा प्राकृतप्रकाश और हेमचन्द्र (लगभग १२वीं शताब्दी) के प्राकृतव्याकरण ऐसी आधारहीन बातें करना विद्वानों के लिये शोभनीय नहीं है। यह के निम्न सूत्रों को बताते हैं - बात तो बौद्ध विद्वान् स्वीकार करते हैं कि मूल बुद्धवचन 'मागधी' अ. १. प्रकृति: शौरसेनी ।।१०/२।। में थे और कालान्तर में उनकी भाषा को संस्कारित करके पालि में
अस्याः पैशाच्याः प्रकृतिः शौरसेनी। स्थितायां शौरसेन्यां लिखा गया। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार मागधी और पैशाचीलक्षणं प्रवर्तितव्यम् । अर्धमागधी में किञ्चित् अन्तर है, उसी प्रकार 'मागधी' और 'पालि' २. प्रकृति: शौरसेना ।।११/२।। में भी किञ्चित् अन्तर है, वस्तुत: 'पालि' भगवान् बुद्ध की मूल भाषा
अस्याः मागध्या "कृति: शौरसेनीति वेदितव्यम् । 'मागधी' का एक संस्कारित रूप ही है। यही कारण है कि कुछ विद्वान्
वररुचिकृत 'प्राकृत प्रकाश'। पालि को मागधी का ही एक प्रकार मानते हैं, दोनों में बहुत अधिक ब. १. शेषं शौरसेनीवत् ।।८/४/३०२।। अन्तर नहीं है। पालि, संस्कृत और मागधी की मध्यवर्ती भाषा है या
मागध्या यदुक्तं, ततोऽन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम् । मागधी का ही साहित्यिक रूप है। यह तो प्रमाणसिद्ध है कि भगवान् २. शेषं शौरसेनीवत् ।।८/४/३२३।। बुद्ध ने मागधी में ही अपने उपदेश दिये थे- क्योकि उनकी जन्मस्थली
पैशाच्यां यदुक्तं, तओअन्यच्छेषं पैशाच्या शौरसेनीवद् भवति। और कार्यस्थली दोनों मगध और उसका निकटवर्ती प्रदेश ही था। ३. शेषं शौरसेनीवत् ।।८/४/४४६।। बौद्ध विद्वानों का स्पष्ट मन्तव्य है कि मागधी ही मूल भाषा है। इस
अपभ्रंशो प्राय: + शौरसेनीवत् कार्य भवति। सम्बन्ध में बुद्धघोष का निम्न कथन सबसे बड़ा प्रमाण है -
अप्रभंशभाषायां प्राय: शौरसेनीभाषातुल्यकार्य जायते; शौरसेनीसा मागधी मूलभासा नरायाय आदिकप्पिका।
भाषायाः ये नियमाः सन्ति, तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशभाषायामपि ब्रह्मणो च अस्सुतालापा संबुद्धा चापि भासरे ।।
जायते। - हेमचन्द्रकृत 'प्राकृतव्याकरण'। अर्थात् मागधी ही मूलभाषा है, जो सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न अतः इस प्रसङ्ग में तो यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम इन हुई और न केवल ब्रह्मा (देवता) अपितु बालक और बुद्ध भी इसी सूत्रों में 'प्रकृति' शब्द का वास्तविक तात्पर्य क्या है, इसे समझे। यदि भाषा में बोलते हैं - (See-The preface to the Childer's Pali हम यहाँ प्रकृति का अर्थ उद्भव का कारण मानते हैं, तो निश्चित ही Dictionary).
इन सूत्रों का यह ‘फलित होता है कि मागधी या पैशाची का उद्भव इससे यही फलित होता है मूल बुद्धवचन मागधी में थे। पालि शौरसेनी से हुआ, किन्तु शौरसेनी को एकमात्र प्राचीन भाषा मानने उसी मागधी का संस्कारित साहित्यिक रूप है, जिसमें कालान्तर में वाले तथा मागधी और पैशाची को उससे उद्भूत मानने वाले ये विद्वान् बुद्धवचन लिखे गये। वस्तुत: पालि के रूप में मागधी का एक ऐसा वररुचि के उस सूत्र को भी उद्धृत क्यों नहीं करते, जिसमें शौरसेनी संस्करण तैयार किया गया, जिसे संस्कृत के विद्वान् और भिन्न-भिन्न की प्रकृति संस्कृत बताई गयी है यथा- "शौरसेनी-१२/१ टीका
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---नीन्दसरिरमारकगत्य जैन आगम एवं साहित्य - शूरसेनानां भाषा शौरसेनी सा च लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्फुटीक्रियते इति उसी का देश-प्रदेश के आधार पर किया गया संस्कारित रूप संस्कृत वेदितव्यम्। अधिकारसूत्रमेतदापरिच्छेदसमाप्तेः १२/१, प्रकृतिः और उसके विभिन्न भेद, अर्थात् विभिन्न साहित्यिक प्राकृतें हैं। सत्य संस्कृतम्-१२/२। टीका- शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृति: संस्कृतम्।। यह है कि बोली के रूप में तो प्राकृतें ही प्राचीन हैं और संस्कृत प्राकृतप्रकाश के उक्त सूत्र के आधार पर हमें यह भी स्वीकार करना उनका संस्कारित रूप हैं- वस्तुत: संस्कृत विभिन्न प्राकृत बोलियों होगा कि शौरसेनी प्राकृत संस्कृत से उत्पन्न हुई। इस प्रकार प्रकृति के बीच सेतु का काम करने वाली एक सामान्य साहित्यिक भाषा के का अर्थ उद्गम स्थल करने पर उसी प्राकृतप्रकाश के आधार पर यह रूप में अस्तित्व में आई। भी मानना होगा कि मूलभाषा संस्कृत थी और उसी से शौरसेनी उत्पन्न यदि हम भाषा-विकास की दृष्टि से इस प्रश्न पर चर्चा करें तो हुई। क्या शौरसेनी के पक्षधर इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार भी यह स्पष्ट है कि संस्कृत सुपरिमार्जित; सुव्यवस्थित और व्याकरण हैं? भाई सुदीप जी, जो शौरसेनी के पक्षधर हैं और 'प्रकृति: शौरसेनी' के आधार पर सुनिबद्ध भाषा है। यदि हम यह मानते हैं कि संस्कृत के आधार पर मागधी को शौरसेनी से उत्पन्न बताते हैं, वे स्वयं भी से प्राकृतें निर्मित हुई हैं, तो हमें यह भी मानना होगा कि मानव जाति 'प्रकृति कृतम् – प्राकृतप्रकाश १२/२' के आधार पर यह मानने अपने आदिकाल में व्याकरणशास्त्र के नियमों से संस्कृत भाषा बोलती को तैयार नहीं हैं कि प्रकृति का अर्थ उससे उत्पन्न हुई ऐसा है। वे थी और उसी से अपभ्रष्ट होकर शौरसेनी और शौरसेनी से अपभ्रष्ट स्वयं लिखते हैं “आज जितने भी प्राकृत व्याकरणशास्त्र उपलब्ध हैं, होकर मागधी, पैशाची, अपभ्रंश आदि भाषाएँ निर्मित हुईं। इसका वे सभी संस्कृत भाषा में हैं एवं संस्कृत व्याकरण के मॉडल पर निर्मित अर्थ यह भी होगा कि मानव जाति की मूल भाषा अर्थात् संस्कृत से है। अतएव उनमें 'प्रकृति: संस्कृतम्' जैसे प्रयोग को देखकर कतिपयजन अपभ्रष्ट होते-होते ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ, किन्तु मानव ऐसा भ्रम करने लगते हैं कि प्राकृतभाषा संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुई, जाति और मानवीय संस्कृति के विकास का वैज्ञानिक इतिहास इस ऐसा अर्थ कदापि नहीं है- 'प्राकृत-विद्या, जुलाई-सितम्बर ९६, बात को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। पृ.१४। भाई सुदीप जी, जब शौरसेनी की बारी आती है, तब आप वह तो यही मानता है कि मानवीय बोलियों के संस्कार द्वारा प्रकृति का अर्थ आधार मॉडल करें और जब मागधी का प्रश्न आये ही विभिन्न साहित्यिक भाषाएँ अस्तित्व में आईं अर्थात् विभिन्न बोलियों तक आप 'प्रकृतिः शौरसेनी' का अर्थ मागधी शौरसेनी से उत्पन्न हुई से ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ है। वस्तुतः इस विवाद के मूल ऐसा करें- यह दोहरा मापदण्ड क्यों? क्या केवल शौरसेनी को प्राचीन में साहित्यिक भाषा और लोक भाषा अर्थात् बोली के अन्तर को नहीं
और मागधी को आर्वाचीन बताने के लिये। वस्तुत: प्राकृत और संस्कृत समझ पाना है। वस्तुत: प्राकृतें अपने मूलस्वरूप में भाषाएँ न होकर शब्द स्वयं ही इस बात के प्रमाण हैं कि उनमें मूलभाषा कौन बोलियाँ रही हैं। यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्राकृत कोई सी है?
एक बोली नहीं अपितु बोली समूह का नाम है। जिस प्रकार प्रारम्भ संस्कृत शब्द स्वयं ही इस बात का सूचक है कि संस्कृत स्वाभाविक में विभिन्न प्राकृतों अर्थात् बोलियों को संस्कारित करके एक सामान्य या मूल भाषा न होकर एक संस्कारित कृत्रिम भाषा है। प्राकृत शब्दों वैदिक भाषा का निर्माण हुआ, उसी प्रकार कालक्रम में विभिन्न बोलियों एवं शब्द रूपों का व्याकरण द्वारा संस्कार करके जो भाषा निर्मित होती को अलग-अलग रूप में संस्कारित करके उनसे विभिन्न साहित्यिक है, उसे ही संस्कृत कहा जा सकता है, जिसे संस्कारित न किया गया प्राकृतों का निर्माण हुआ। अत: यह एक सुनिश्चित सत्य है कि बोली हो वह संस्कृत कैसे होगी? वस्तुतः प्राकृत स्वाभाविक या सहज भाषा । के रूप में प्राकृतें मूल एवं प्राचीन हैं और उन्हीं से संस्कृत का विकास है और उसी को संस्कारित करके संस्कृत भाषा निर्मित हुई है। इस एक 'कामन' (Common) भाषा के रूप में हुआ। प्राकृतें बोलियाँ हैं दृष्टि से प्राकृत मूल भाषा है और संस्कृत उससे उद्भूत हुई है। और संस्कृत भाषा। बोली को व्याकरण से संस्कारित करके एकरूपता
हेमचन्द्र के पूर्व थारापद्रगच्छीय नमिसाधु ने रुद्रट के काव्यालङ्कार देने से भाषा का विकास होता है। भाषा से बोली का विकास नहीं की टीका में प्राकृत और संस्कृत शब्द का अर्थ स्पष्ट कर दिया है। होता है। विभिन्न प्राकृत बोलियों को आगे चलकर व्याकरण के नियमों वे लिखते हैं -
से संस्कारित किया गया तो उनसे विभिन्न प्राकृतों का जन्म हुआ। सकल जगज्जन्तेनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो वचनव्यापारः जैसे मागधी बोली से मागधी प्राकृत का, शौरसेनी बोली से शौरसेनी प्रकृति: तत्र भवं सैव वा प्राकृतम्। आरिसवयणे सिद्ध, देवाणं अद्धमागहा प्राकृत का और महाराष्ट्र की बोली से महाराष्ट्री प्राकृत का विकास वाणी इत्यादि, वचनाद्वा प्राक् पूर्वकृतं प्राकृतम्- बालमहिलादि सुबोधं हुआ। प्राकृत के शौरसेनी, मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि भेद तत्-तत् सकलभाषानिबन्धनभूतवचनमुच्यते। मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव प्रदेशों की बोलियों से उत्पन्न हुए हैं न कि किसी प्राकृत विशेष से। च देशविशेषात् संस्कारकरणात् च समासादितविशेष सत् संस्कृतादुत्तर- यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कोई भी प्राकृत व्याकरण सातवीं शती भेदानाप्नोति। - काव्यालङ्कार टीका नमिसाधु, २/१२।
से पूर्व का नहीं है। साथ ही उनमें प्रत्येक प्राकृत के लिये अलग-अलग अर्थात् जो संसार के प्राणियों का व्याकरण आदि के लिये भी मॉडल अपनाये गये हैं। वररुचि के लिये शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत सुबोध है और पूर्व में निर्मित होने से (प्राक्कृत) सभी भाषाओं की है, जबकि हेमचन्द्र के लिये शौरसेनी की प्रकृति (महाराष्ट्री) प्राकृत रचना का आधार है वह तो मेघ से निर्मुक्त जल की तरह सहज है, है, अत: प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है। अन्यथा हेमचन्द्र के
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- यतीन्द्रसरिस्मारकग्रन्थ -- जैन आगम एवं साहित्य ___ यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृतों में तीन प्रकार के शब्दरूप से और भाई सुदीपजी से साग्रह निवेदन करूँगा की वे आचाराङ्ग, मिलते हैं- तद्भव, तत्सम और देशज। देशज शब्द वे हैं जो किसी ऋषिभाषित, सूत्रकृताङ्ग आदि को किन्हीं भी प्राचीन प्रतियों में 'द' देश विशेष में किसी विशेष अर्थ में प्रयुक्त हैं। इनके अर्थ की व्याख्या श्रुति प्रधान पाठ दिखला दें। प्राचीन प्रतियों में जो पाठ मिल रहे हैं, के लिये व्याकरण की कोई आवश्यकता नहीं होती है। तद्भव शब्द वे अर्धमागधी या आर्ष प्राकृत के हैं, न कि शौरसेनी के। यह एक वे हैं जो संस्कृत शब्दों से निर्मित हैं जबकि संस्कृत के समान शब्द अलग बात है कि कुछ शब्दरूप आर्ष अर्धमागधी और शौरसेनी में तत्सम हैं। संस्कृत व्याकरण में दो शब्द प्रसिद्ध हैं- प्रकृति और समान हैं। प्रत्यय। इनमें मूल शब्दरूप को प्रकृति कहा जाता है। मूल शब्द से वस्तुतः इन प्राचीन प्रतियों में न तो 'द' श्रुति देखी जाती है जो शब्दरूप बना है वह तद्भव है। प्राकृत-व्याकरण संस्कृत शब्द और न "न" के स्थान पर "ण' की प्रवृत्ति देखी जाती है, जिसे से प्राकृत का तद्भव शब्दरूप कैसे बना है, इसकी व्याख्या करता व्याकरण में शौरसेनी की विशेषता कहा जाता है। सत्य तो यह है है। अत: यहाँ संस्कृत को प्रकृति कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि कि अर्धमागधी आगमों का ही शौरसेनी रूपान्तरण आहैन कि शौरसेनी तद्भव शब्दों के सन्दर्भ में संस्कृत शब्द को आदर्श मानकर या मॉडल आगमों का अर्धमागधी रूपान्तरण। यह सत्य है कि अर्धमागधी मानकर यह व्याकरण लिखा गया है। अत: प्रकृति का अर्थ आदर्श आगमों पर अपितु शौरसेनी आगमतुल्य कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों पर या मॉडल है। संस्कृत शब्द रूप को मॉडल/आदर्श मानना इसलिये भी महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का स्पष्ट प्रभाव है जिसे हम पूर्व में सिद्ध आवश्यक था कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के जानकार विद्वानों को कर चुके हैं। दृष्टि में रखकर या उनके लिये ही लिखे गये थे। जब डॉ. सुदीपजी क्या पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व अर्धमागधी भाषा एवं श्वेताम्बर अर्धमागधी शौरसेनी के सन्दर्भ में 'प्रकृति: संस्कृतम्' का अर्थ मॉडल या आदर्श आगमों का अस्तित्व नहीं था? करते हैं तो उन्हें मागधी, पैशाची आदि के सन्दर्भ में प्रकृतिः शौरसेनी डॉ.सुदीपजी द्वारा टॉटियाजी के नाम से उद्धृत यह कथन कि का अर्थ भी यही करना चाहिए कि शौरसेनी को मॉडल या आदर्श १५०० वर्ष पहले अर्धमागधी भाषा का अस्तित्व ही नहीं था' पूर्णत: मानकर इनका व्याकरण लिखा गया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता भ्रान्त है। आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, ऋषिभाषित जैसे आगमों को पाश्चात्य है कि मागधी आदि प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। हेमचन्द्र विद्वानों ने एक स्वर से ई.पू. तीसरी-चौथी शताब्दी या उससे भी पहले ने महाराष्ट्री प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, मागधी आदि प्राकृतों का माना है। क्या उस समय से आगम अर्धमागधी भाषा में निबद्ध को समझाया है। इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि महाराष्ट्री प्राचीन न होकर शौरसेनी में निबद्ध थे। ज्ञातव्य है कि 'द' श्रुति प्रधान और है या महाराष्ट्री से मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई।
'ण' कार की प्रवृत्ति वाली शौरसेनी का जन्म तो उस समय हुआ ही
नहीं था, अन्यथा अशोक के अभिलेखों में और मथुरा (जो शौरसेनी प्राचीन कौन? अर्धमागधी या शौरसेनी
की जन्मभूमि है) के जैन अभिलेखों में कहीं तो इस शौरसेनी के वैशिष्ट्य इसी सन्दर्भ में टॉटिया जी के नाम से यह भी प्रतिपादित किया वाले शब्द रूप उपलब्ध होने चाहिए थे? क्या शौरसेनी प्राकृत में गया है कि “यदि वर्तमान अर्धमागधी आगम-साहित्य को ही मूल निबद्ध ऐसा एक भी ग्रन्थ है जो ई०पू० में रचा गया हो? सत्य तो आगम-साहित्य मानने पर जोर देंगे तो इस अर्धमागधी भाषा का आज यह है कि भास (ईसा की दूसरी शती) के नाटकों के अतिरिक्त ईसा से १५०० वर्ष पहले अस्तित्व ही नहीं होने से, इस स्थिति में हमें की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पूर्व शौरसेनी में निबद्ध एक भी ग्रन्थ अपने आगम साहित्य को ही ५०० ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा।" नहीं था। जबकि मागधी के अभिलेख और अर्धमागधी के आगम ई०पू० ज्ञातव्य है कि यहाँ भी महाराष्ट्री और अर्धमागधी के अन्तर को न तीसरी शती से उपलब्ध हो रहे हैं। पुनः यदि ये लोग जिसे अर्धमागधी समझते हुए एक भ्रान्ति को खड़ा किया गया है। सर्वप्रथम तो यह कह रहे हैं उसे महाराष्ट्री भी मान लें तो उसके भी ग्रन्थ ईसा की समझ लेना चाहिए कि आगमों के प्राचीन अर्धमागधी के 'त' श्रुति प्रथम शताब्दी से उपलब्ध होते हैं। सातवाहन नरेश हाल की गाथा प्रधान पाठ चूर्णियों और अनेक प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे सप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन ग्रन्थ है, जो ई०पू० प्रथम शती हैं। उससे निःसन्देह यह सिद्ध होता है कि मूल अर्धमागधी 'त' श्रुति से ईसा की प्रथम शती के मध्य रचित है। यह एक संकलन ग्रन्थ प्रधान थी और उसमें लोप की प्रवृत्ति नगण्य ही थी और यह अर्धमागधी है जिसमें अनेक ग्रन्थों से गाथाएँ संकलित की गई हैं। इसका तात्पर्य भाषा शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्राचीन भी है। यदि श्वेताम्बर आगम यह हुआ कि इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ रचे गये थे। शौरसेनी से महाराष्ट्री में जिसे दिगम्बर विद्वान् भ्रान्ति से अर्धमागधी कालिदास के नाटक, जिनमें शौरसेनी का प्राचीनतम रूप मिलता कह रहे हैं, बदले गये तो फिर उनकी प्राचीन प्रतियों में 'त' श्रुति है, भी ईसा की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ के स्थान पर 'द' श्रुति के पाठ क्यों उपलब्ध नहीं होते हैं जो शौरसेनी स्पष्ट रूप से न केवल अर्धमागधी आगमों से, अपितु परवर्ती 'य' की विशेषता है। इस प्रसङ्ग में डॉ. टॉटियाजी के नाम से यह भी श्रुति प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं, किसी भी स्थिति में ईसा कहा गया है कि आज भी आचाराङ्गसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में की पाँचवीं, छठी शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं। षट्खण्डागम शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय टॉटियाजी और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग ५ वी
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पतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ शौरसेनी के सम्बन्ध में 'शेषं प्राकृतवत्' (८/०४/२८६) का अर्थ होगा शौरसेनी महाराष्ट्री से उत्पन्न हुई, जो शौरसेनी के पक्षधरों को मान्य नहीं होगा।
क्या अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे?
"
प्राकृत विद्या, जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय में डॉ. सुदीप जैन ने प्रो. टॉटिया को यह कहते हुए प्रस्तुत किया है कि "श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृतमय ही था, जिसका स्वरूप क्रमशः अर्धमागधी के रूप में बदल गया"। इस सन्दर्भ में हमारा प्रश्न यह है कि यदि प्राचीन श्वेताम्बर आगम साहित्य शौरसेनी प्राकृत में तो फिर वर्तमान उपलब्ध पाठों में कहीं भी शौरसेनी की 'द' श्रुति का प्रभाव क्यों नहीं दिखाई देता। इसके विपरीत हम यह पाते हैं कि दिगम्बर परम्परा में मान्य शौरसेनी आगम साहित्य पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत का व्यापक प्रभाव है, इस तथ्य की सप्रमाण चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के शीर्षस्थ विद्वान् प्रो. ए. एन. उपाध्ये का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि प्रवचनसार की भाषा पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का पर्याप्त प्रभाव है और अर्धमागधी भाषा की अनेक विशेषताएँ उत्तराधिकार के रूप में इस ग्रन्थ को प्राप्त हुई हैं।
इसमें स्वर परिवर्तन, मध्यवर्ती व्यञ्जनों के परिवर्तन, 'य' श्रुति इत्यादि अर्धमागधी भाषा के समान ही मिलते हैं। दूसरे वरिष्ठ दिगम्बर विद्वान् प्रो. खडबडी का कहना है कि षट्खण्डागम की भाषा शुद्ध शौरसेनी नहीं है। इस प्रकार जहाँ एक ओर दिगम्बर विद्वान् इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर रहे हैं कि दिगम्बर आगमों पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का प्रभाव है वहाँ यह कैसे माना जा सकता है कि क्षेताम्बर आगम शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए। अपितु इससे तो यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी में रूपान्तरित हुए हैं। पुनः अर्धमागधी भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में दिगम्बर विद्वानों में जो भ्रांति प्रचलित रही है उसका स्पष्टीकरण भी आवश्यक है । सम्भवतः ये विद्वान् अर्धमागधी और महाराष्ट्री के अन्तर को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाये हैं तथा सामान्यतः अर्धमागधी और महाराष्ट्री को पर्यायवाची मानकर ही चलते रहे हैं। यही कारण है कि डॉ. ए. एन. उपाध्ये जैसे विद्वान् भी 'य' श्रुति को अर्धमागधी का लक्षण बताते है। जबकि वह मूलतः महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण है, न कि अर्धमागधी का । अर्धमागधी तो 'त' श्रुति प्रधान है।
यह सत्य है कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा में कालक्रम में परिवर्तन हुए हैं और उस पर महाराष्ट्री प्राकृत की 'य' श्रुति का प्रभाव आया है, किन्तु यह मानना पूर्णत: मिथ्या है कि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरण हुआ है। वास्तविकता यह है कि अर्धमागधी आगम ही माधुरी और वलभी वाचनाओं के समय क्रमशः शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्रभावित
हुए हैं।
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જૈન સાગત દ્યું ર્ગાદ
टॉटिया जी जैसा विद्वान् इस प्रकार की मिथ्या धारणा को प्रतिपादित करे कि शौरसेनी आगम ही अर्धमागधी में रूपान्तरित हुएयह विश्वसनीय नहीं लगता है। यदि टॉटिया जी का यह कथन कि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे और फिर पालि और अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए' सत्य है, तो उन्हें या सुदीप जी को इसका प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए ।
वस्तुतः जब किसी बोली को साहित्यिक भाषा का रूप दिया जाता है तो एकरूपता के लिये नियम या व्यवस्था आवश्यक होती है और यही नियम भाषा का व्याकरण बनाते हैं। विभिन्न प्राकृतों को जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया तो उनके लिये भी व्याकरण के नियम आवश्यक हुए और ये व्याकरण के नियम मुख्यतः संस्कृत से गृहीत किये गये। जब व्याकरणशास्त्र में किसी भाषा की प्रकृति बताई जाती है तब वहाँ तात्पर्य होता है कि उस भाषा के व्याकरण के नियमों का मूल आदर्श किस भाषा के शब्द रूप हैं? उदाहरण के रूप में जब हम शौरसेनी के व्याकरण की चर्चा करते हैं तो हम यह मानते हैं कि उसके व्याकरण का आदर्श अपनी कुछ विशेषताओं को छोड़कर जिसकी चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत के शब्द रूप हैं।
किसी भी भाषा का जन्म बोली के रूप में पहले होता है फिर बोली से साहित्यिक भाषा का जन्म होता है। जब साहित्यिक भाषा बनती है तब उसके लिये व्याकरण के नियम बनाये जाते हैं, ये व्याकरण के नियम जिस भाषा के शब्दरूपों के आधार पर उस भाषा के शब्दरूपों को समझाते हैं वही भाषा की किसी प्रकृति कहलाते है। यह सत्य है कि बोली का जन्म पहले होता है, व्याकरण उसके बाद बनता है। शौरसेनी अथवा प्राकृत की प्रकृति को संस्कृत मानने का अर्थ इतना ही है कि इन भाषाओं के जो भी व्याकरण बने है वे संस्कृत शब्द रूपों के आधार पर बने हैं। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृत का कोई भी व्याकरण प्राकृत के लिखने या बोलने वालों के लिये नहीं बनाया गया, अपितु उनके लिये बनाया गया जो संस्कृत में लिखते या बोलते थे। यदि हमें किसी संस्कृत के जानकार व्यक्ति को प्राकृत के शब्द या शब्दरूपों को समझाना हो तो हमें उसका आधार संस्कृत को ही बनाना होगा और उसी के आधार पर यह समझाना होगा कि संस्कृत के किसी शब्द से प्राकृत का कौन सा शब्दरूप कैसे निष्पत्र हुआ है इसलिये जो भी प्राकृत व्याकरण निर्मित किये गये अपरिहार्य रूप से वे संस्कृत शब्दों या शब्दरूपों को आधार मानकर प्राकृत शब्द या शब्दरूपों की व्याख्या करते हैं । संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहने का इतना ही तात्पर्य है । इसी प्रकार जब मागधी, पैशाची या अपभ्रंश की 'प्रकृति' शौरसेनी को कहा जाता है तो उसका तात्पर्य होता है, प्रस्तुत व्याकरण के नियमों में इन भाषाओं के शब्दरूपों को शौरसेनी शब्दों का आधार मानकर समझाया गया है। 'प्राकृतप्रकाश' की टीका में वररुचि ने स्पष्टतः लिखा है— शौरसेन्या ये शब्दास्तेषां प्रकृति संस्कृतम् (१२/२) अर्थात् शौरसेनी के जो शब्द है उनकी प्रकृति या आधार संस्कृत शब्द हैं।
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- यतीन्दरिमारकग्रन्य जैन आगम एवं साहित्य शती में निर्मित अवधारणाओं की उपस्थिति उन्हें श्वेताम्बर आगमों और का सृजन हुआ है। पैशाची प्राकृत के प्रभाव से युक्त मात्र एक ग्रन्थ उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र (लगभग चतुर्थ शती) से परवर्ती ही सिद्ध प्राकृत धम्मपद मिला है। इन्हीं जन-बोलियों को जब एक साहित्यिक करती हैं, क्योंकि इनमें ये अवधारणाएँ अनुपस्थित हैं। इस सम्बन्ध भाषा का रूप देने का प्रयत्न जैनाचार्यों ने किया, तो उसमें भी आधारगत में मैंने अपने ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' और 'जैन विभिन्नता के कारण शब्द-रूपों की विभिन्नता रह गई। सत्य तो यह धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में विस्तार से प्रकाश डाला है। इस प्रकार है कि विभिन्न बोलियों पर आधारित होने के कारण साहित्यिक प्राकृतों सत्य तो यह है कि अर्धमागधी भाषा या अर्धमागधी आगम नहीं, अपितु में भी शब्द रूपों की यह विविधता रह जाना स्वाभाविक है। शौरसेनी भाषा ईसा की दूसरी शती के पश्चात् और शौरसेनी आगम विभिन्न बोलियों की लक्षणगत विशेषताओं के कारण ही प्राकृत ईसा० की ५ वीं शती के पश्चात् अस्तित्व में आये। अच्छा होगा कि भाषाओं के विविध रूप बने हैं। बोलियों के आधार पर विकसित इन भाई सुदीप जी पहले मागधी और पालि तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृतों के जो मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री पर लाने हैं, उनमें के अन्तर एवं इनके प्रत्येक के लक्षणों तथा जैन आगमिक साहित्य भी प्रत्येक में वैकल्पिक शब्द-रूप पाये जाते हैं, अत: उन सभी में के ग्रन्थों के कालक्रम और जैन इतिहास को तटस्थ दृष्टि से समझ व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण एकरूपता का अभी भी भाषाविदों लें और फिर प्रमाण सहित अपनी कलम निर्भीक रूप से चलायें, व्यर्थ ने व्याकरण के नियमों के आधार पर उनकी कुछ लक्षणगत विशेषताएं की आधारहीन भ्रान्तियाँ खड़ी करके समाज में कटुता के बीज न बोयें। मान ली हैं जैसे मागधी में "स" के स्थान पर "श", "र" के स्थान
पर “ल'' का उच्चारण होता है। अत: मागधी में “पुरुष" का "पुलिश' जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन
और "राजा" का "लाजा' रूप पाया जाता है, जबकि महाराष्ट्री में जैन आगम मूलत: प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं, किन्तु प्राकृत एक "पुरिस' और “राया' रूप बनता है। जहाँ अर्द्धमागधी में "त" श्रुति भाषा न होकर, भाषा-समूह है। प्राकृत के इन अनेक भाषिक रूपों की प्रधानता है और व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति अल्प है, वहीं शौरसेनी का उल्लेख हेमचन्द्र प्रभृति प्राकृत-व्याकरणविदों ने किया है। प्राकृत में “द" श्रुति की और महाराष्ट्री में “य' श्रुति की प्रधानता पायी के जो विभिन्न भाषिक रूप उपलब्ध हैं, उन्हें निम्न भाषिक वर्गों में जाती है तथा लोप की प्रवृत्ति अधिक है। दूसरे शब्दों में अर्द्धमागधी विभक्त किया जाता है.--- मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, जैन-शौरसेनी, में "त" यथावत् रहता है, शौरसेनी में "त" के स्थान पर “द" और महाराष्ट्री, जैन-महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड, चूलिका, ढक्की आदि। इन महाराष्ट्री में लुप्त-व्यंजन के बाद शेष रहे "अ" का "य" होता है। विभिन्न प्राकृतों से ही आगे चलकर अपभ्रंश के विविध रूपों का प्राकृतों में इन लक्षणगत विशेषताओं के बावजूद भी धातु रूपों एवं विकास हुआ और जिनसे कालान्तर में असमिया, बंगला, उड़िया, शब्द-रूपों में अनेक वैकल्पिक रूप तो पाये ही जाते हैं। यहाँ यह भोजपुरी या पूर्वी हिन्दी, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि भी स्मरण रहे कि नाटकों में प्रयुक्त विभिन्न प्राकृतों की अपेक्षा जैन भारतीय भाषाएँ अस्तित्व में आयीं। अत: प्राकृतें सभी भारतीय भाषाओं ग्रन्थों में प्रयुक्त इन प्राकृत भाषाओं का रूप कुछ भित्र है और किसी की पूर्वज हैं और आधुनिक हिन्दी का विकास भी इन्हीं के आधार सीमा तक उनमें लक्षणगत बहुरूपता भी है। इसीलिए जैन-आगमा पर हुआ।
में प्रयुक्त मागधी को अर्द्धमागधी कहा जाता है, क्योंकि उसमें मागधी - प्राकृत के सन्दर्भ में हमें एक दो बातें और समझ लेना चाहिए। के अतिरिक्त अन्य बोलियों के प्रभाव के कारण मागधी से भिन्न लक्षण प्रथम तो यह कि प्राकृत भाषा की आधारगत बहुविधता का कारण भी पाये जाते हैं। जहाँ तब अभिलेखीय प्राकृतों का प्रश्न है उनमें शब्द यह है कि उसका विकास विविध बोलियों से हुआ है और बोलियों रूपों की इतनी अधिक विविधता या भिन्नता है कि उन्हें व्याकरण में विविधता होती है। साथ ही उनमें देश कालगत प्रभावों और की दृष्टि से व्याख्यायित कर पाना सम्भव ही नहीं है क्योंकि उनकी मुख-सुविधा (उच्चारण-सुविधा) के कारण परिवर्तन होते रहते हैं। प्राकृत प्राकृत साहित्यिक प्राकृत न होकर स्थानीय बोलियों पर आधारित है। निर्झर की भाँति बहती भाषा है उसे व्याकरण में आबद्ध कर पाना यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में जिस भाषा का प्रयोग सम्भव नहीं है। इसीलिए प्राकृत को “बहुल' अर्थात् विविध वैकल्पिक हुआ है, वह जैन-शौरसेनी कही जाती है। उसे जैन-शौरसेनी इसलिये रूपों वाली भाषा कहा जाता है।
कहते हैं कि उसमें शौरसेनी के अतिरिक्त अर्द्धमागधी के भी कुछ लक्षण वस्तुत: प्राकृते अपने मूल रूप में भाषा न होकर बोलियाँ ही पाये जाते हैं। उस पर अर्द्धमागधी- का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता रहीं हैं। यहाँ तक कि साहित्यिक नाटकों में भी इनका प्रयोग बोलियों है क्योंकि इसमें रचित ग्रन्थों का आधार अर्धमागधी आगम ही थे। के रूप में ही देखा जाता है और यही कारण है कि मृच्छकटिक जैसे इसी प्रकार श्वेताम्बर-आचार्यों ने प्राकृत के जिस भाषायी रूप को अपनाया नाटक में अनेक प्राकृतों का प्रयोग हुआ है, उसके विभिन्न पात्र भिन्न-भिन्न वह जैन-महाराष्ट्री कही जाती है। इसमें महाराष्ट्री के लक्षणों के अतिरिक्त प्राकृतें बोलते हैं। इन विभिन्न प्राकृतों में से अधिकांश का अस्तित्व कहीं-कहीं अर्द्धमागधी और शौरसेनी के लक्षण भी पाये जाते हैं, क्योंकि मात्र बोली के रूप में ही रहा, जिनके निदर्शन केवल नाटकों और इसमें रचित ग्रन्थों का आधार भी मुख्यतः अर्द्धमागधी और अंशतः अभिलेखों में पाये जाते हैं। मात्र अर्द्धमागधी, जैन-शौरसेनी और शौरसेनी साहित्य रहा है। जैन-महाराष्ट्री ही ऐसी भाषायें हैं, जिनमें जैनधर्म के विपुल साहित्य अत: जैन-परम्परा में उपलब्ध किसी भी ग्रन्थ की प्राकृत का
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तीन्द्रसरि मारकचत्य - जैन आगम एवं साहित्य स्वरूप निश्चित करना एक कठिन कार्य है, क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर कहीं क्रिया रूपों में भी "त" श्रुति उपलब्ध होती है और कहीं उसके दोनों परम्पराओं में कोई भी ऐसा ग्रन्थ नहीं मिलता, जो विशुद्ध रूप लोप की प्रवृत्ति देखी जाती है। प्राचीन आगमों में हुए इन भाषिक से किसी एक प्राकृत का प्रतिनिधित्व करता हो। आज उपलब्ध विभिन्न परिवर्तनों से उनके अर्थ में भी कितनी विकृति आयी, इसका भी डॉ. श्वेताम्बर-अर्द्धमागधी-आगमों में चाहे प्रतिशतों में कुछ भिन्नता हो, चन्द्रा ने अपने लेखों के माध्यम से संकेत किया है तथा यह बताया किन्तु व्यापक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है। आचारांग है कि अर्द्धमागधी “खेतत्र" शब्द किस प्रकार "खेयन्त्र" बन गया
और ऋषिभाषित जैसे प्राचीन स्तर के आगमों में अर्द्धमागधी के लक्षण और उसका जो मूल "क्षेत्रज्ञ" अर्थ था वह बदलकर "खेदज्ञ' हो प्रमुख होते हुए भी कहीं-कहीं आंशिक रूप से महाराष्ट्री का प्रभाव गया। इन सब कारणों से उन्होंने पाठ-संशोधन हेतु एक योजना प्रस्तुत आ ही गया है। इसी प्रकार दिगम्बर-परम्परा के शौरसेनी ग्रन्थों में की और आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के प्रथम एक ओर अर्द्धमागधी का तो दूसरी ओर महाराष्ट्री का प्रभाव देखा उद्देशक की भाषा का सम्पादन कर उसे प्रकाशित भी किया है। इसी जाता है। कुछ ऐसे ग्रन्थ भी हैं जिनमें लगभग ६० प्रतिशत शौरसेनी क्रम में मैंने भी आगम-संस्थान उदयपुर के डॉ. सुभाष कोठारी एवं एवं ४० प्रतिशत महाराष्ट्री पायी जाती है— जैसे वसुनन्दी के श्रावकाचार डॉ. सुरेश सिसोदिया द्वारा आचारांग के विभिन्न प्रकाशित संस्करणों का प्रथम संस्करण। ज्ञातव्य है कि इसके परवर्ती संस्करणों में से पाठान्तरों का संकलन करवाया है। इसके विरोध में पहला स्वर शौरसेनीकरण अधिक है। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी यत्र-तत्र महाराष्ट्री श्री जौहरीमल जी पारख ने उठाया है। श्वेताम्बर-विद्वानों में आयी इस का पर्याप्त प्रभाव देखा जाता है। इन सब विभिन्न भाषिक रूपों के चेतना का प्रभाव दिगम्बर-विद्वानों पर भी पड़ा और आचार्य श्री विद्यानन्द पारस्परिक प्रभाव या मिश्रण के अतिरिक्त मुझे अपने अध्ययन के दौरान जी के निर्देशन में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को पूर्णत: शौरसेनी एक महत्त्वूपर्ण बात यह मिली कि जहाँ शौरसेनी-ग्रन्थों में जब अर्द्धमागधी में रूपान्तरित करने का एक प्रयत्न प्रारम्भ हुआ है, इस दिशा में प्रथम आगमों के उद्धरण दिये गये, तो वहाँ उन्हें अपने अर्द्धमागधी रूप कार्य बलभद्र जैन द्वारा सम्पादित समयसार, नियमसार आदि का में न देकर उनका शौरसेनी-रूपान्तरण करके दिया गया है। इसी प्रकार कुन्दकुन्द भारती से प्रकाशन है। यद्यपि दिगम्बर-परम्परा में ही पं. महाराष्ट्री के ग्रन्थों में अथवा श्वेताम्बर-आचार्यों द्वारा लिखित ग्रन्थों खुशालचन्द गोरावाला, पद्मचन्द्र शास्त्री आदि दिगम्बर-विद्वानों ने इस में जब भी शौरसेनी के ग्रन्थ का उद्धरण दिया गया, तो सामान्यतया प्रवृत्ति का विरोध किया। उसे मूल शौरसेनी में न रखकर उसका महाराष्ट्री-रूपान्तरण कर दिया आज श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में आगम या आगम रूप गया। उदाहरण के रूप में भगवती-आराधना की टीका में जो उत्तराध्ययन, में मान्य ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप के पुनः संशोधन की जो चेतना आचारांग आदि के उद्धरण पाये जाते हैं, वे उनके अर्द्धमागधी रूप जागृत हुई है, उसका कितना औचित्य है, इसकी चर्चा तो मैं बाद में न होकर शौरसेनी रूप में ही मिलते हैं। इसी प्रकार हरिभद्र ने में करूँगा। सर्वप्रथम तो इसे समझना आवश्यक है कि इन प्राकृत शौरसेनी प्राकृत के “यापनीय-तन्त्र' नामक ग्रन्थ से "ललितविस्तरा" । आगम-ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में किन कारणों से और किस प्रकार में जो उद्धरण दिया, वह महाराष्ट्री प्राकृत में ही पाया जाता है। के परिवर्तन आये हैं। क्योंकि इस तथ्य को पूर्णत: समझे बिना केवल
इस प्रकार चाहे अर्द्धमागधी-आगम हो या शौरसेनी-आगम, उनके एक-दूसरे के अनुकरण के आधार पर अथवा अपनी परम्परा को प्राचीन उपलब्ध संस्करणों की भाषा न तो पूर्णत: अर्द्धमागधी है और न ही सिद्ध करने हेतु किसी ग्रन्थ के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन कर देना शौरसेनी। अर्द्धमागधी और शौरसेनी दोनों ही प्रकार के आगमों पर सम्भवत: इन ग्रन्थों के ऐतिहासिक क्रम एवं काल निर्णय एवं इनके महाराष्ट्री का व्यापक प्रभाव देखा जाता है जो कि इन दोनों की अपेक्षा पारस्परिक प्रभाव को समझने में बाधा उत्पन्न करेगा और इससे कई परवर्ती है। इसी प्रकार महाराष्ट्री प्राकृत के कुछ ग्रन्थों पर परवर्ती अपभ्रंश प्रकार के अन्य अनर्थ भी सम्भव हो सकते है। का भी प्रभाव देखा जाता है। इन आगमों अथवा आगम-तुल्य ग्रन्थों किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि जैनाचार्यों एवं के भाषिक स्वरूप की विविधता के कारण उनके कालक्रम तथा पारस्परिक जैन-विद्वानों ने अपने भाषिक व्यामोह के कारण अथवा प्रचलित भाषा आदान-प्रदान को समझने में विद्वानों को पर्याप्त उलझनों का अनुभव के शब्द रूपों के आधार पर प्राचीन स्तर के आगम-ग्रन्थों के भाषिक होता है, मात्र इतना ही नहीं कभी-कभी इन प्रभावों के कारण इन स्वरूप में परिवर्तन किया है। जैन-आगमों की वाचना को लेकर जो ग्रन्थों को परवर्ती भी सिद्ध कर दिया जाता है।
मान्यताएँ प्रचलित हैं, उनके अनुसार सर्वप्रथम ई.पू. तीसरी शती में आज आगमिक साहित्य के भाषिक स्वरूप की विविधता को वीर-निर्वाण के लगभग एक सौ पचास वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में प्रथम दूर करने तथा उन्हें अपने मूल स्वरूप में स्थिर करने के कुछ प्रयत्न वाचना हुई। इसमें उस काल तक निर्मित आगम-ग्रन्थों, विशेषत: अंगभी प्रारम्भ हुए हैं। सर्वप्रथम डॉ. के. ऋषभचन्द्र ने प्राचीन अर्द्धमागधी आगमों का सम्पादन किया गया। यह स्पष्ट है कि पटना की यह वाचना आगम जैसे- आचारांग, सूत्रकृतांग में आये महाराष्ट्री के प्रभाव को मगध में हुई थी और इसलिए इसमें आगमों की भाषा का जो स्वरूप दूर करने एवं उन्हें अपने मूल स्वरूप में लाने के लिये प्रयत्न प्रारम्भ निर्धारित हुआ होगा, वह निश्चित ही मागधी रहा होगा। इसके पश्चात् किया है क्योंकि एक ही अध्याय या उद्देशक में "लोय" और "लोग' लगभग ई.पू. प्रथम शती में खारवेल के शासन काल में उड़ीसा में या “आया" और "आता' दोनों ही रूप देखे जाते हैं। इसी प्रकार द्वितीय वाचना हुई। यहाँ पर इसका स्वरूप अर्द्धमागधी रहा होगा,
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- यतीन्द्रसरिस्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - किन्तु इसके लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् स्कंदिल और आर्य नागार्जुन उपलब्ध है, उसमें अर्द्धमागधी का सर्वाधिक प्रतिशत इसी ग्रन्थ में की अध्ययक्षता में क्रमश: मथुरा व वलभी में वाचनाएँ हुई। सम्भव पाया जाता है। है कि मथुरा में हुई इस वाचना में अर्द्धमागधी आगमों पर व्यापक जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्द्धमागधी तथा शौरसेनी रूप से शौरसेनी का प्रभाव आया होगा। वलभी की वाचना वाले आगमों ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों हुआ? इस प्रश्न का उत्तर में नागार्जुनीय पाठों के तो उल्लेख मिलते हैं, किन्तु स्कंदिल की वाचना अनेक रूपों में दिया जा सकता है। वस्तुत: इन ग्रन्थों में हुए भाषिक के पाठ-भेदों का कोई निर्देश नहीं है। स्कंदिल की वाचना सम्बन्धी परिवर्तनों का कोई एक ही कारण नहीं है, अपितु अनेक कारण हैं, पाठभेदों का यह अनुल्लेख विचारणीय है। नन्दीसूत्र में स्कंदिल के जिन पर हम क्रमश: विचार करेंगे। सम्बन्ध में यह कहा गया है कि उनके अनुयोग (आगम-पाठ) ही दक्षिण १. भारत में जहाँ वैदिक परम्परा में वेद-वचनों को मंत्र मानकर भारत क्षेत्र में आज भी प्रचलित हैं। सम्भवतः यह संकेत यापनीय- उनके स्वर-व्यंजन की उच्चारण योजना को अपरिवर्तनीय बनाये रखने आगमों के सम्बन्ध में होगा। यापनीय-परम्परा जिन आगमों को मान्य पर अधिक बल दिया गया, उनके लिये शब्द और ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण कर रही थी, उसमें व्यापक रूप से भाषिक परिवर्तन किया गया था रही और अर्थ गौण। आज भी अनेक वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो और उन्हें शौरसेनी रूप दे दिया गया था। यद्यपि आज प्रमाण के वेद-मंत्रों के उच्चारण, लय आदि के प्रति अत्यन्त सतर्क रहते हैं, अभाव में निश्चित रूप से यह बता पाना कठिन है कि यापनीय-आगमों किन्तु वे उनके अर्थों को नहीं जानते हैं। यही कारण है कि वेद शब्द की भाषा का स्वरूप क्या था, क्योकि यापनीयों द्वारा मान्य और रूप में यथावत् बने रहे। इसके विपरीत जैन-परम्परा में यह माना व्याख्यायित वे आगम उपलब्ध नहीं हैं। यद्यपि अपराजित के द्वारा गया कि तीर्थङ्कर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं उनके वचनों को शब्द रूप दशवैकालिक पर टीका लिखे जाने का निर्देश प्राप्त होता है, किन्तु तो गणधर आदि के द्वारा दिया जाता है। जैनाचार्यों के लिये कथन वह टीका भी आज प्राप्त नहीं है। अत: यह कहना तो कठिन है कि का तात्पर्य ही प्रमुख था, उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल नहीं दिया। यापनीय-आगमों की भाषा कितनी अर्द्धमागधी थी और कितनी शौरसेनी। शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाय, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना किन्तु इतना तय है कि यापनीयों ने अपने ग्रन्थों में आगमों, प्रकीर्णको चाहिये, यही जैन-आचार्यों का प्रमुख लक्ष्य रहा। शब्द-रूपों की उनकी एवं नियुक्तियों की जिन गाथाओं को गृहीत किया है अथवा उद्धृत इस उपेक्षा के फलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते किया है वे सभी आज शौरसेनी रूपों में ही पायी जाती हैं। यद्यपि गये। आज भी उन पर बहुत कुछ अर्द्धमागधी का प्रभाव शेष रह गया है। २. आगम-साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए उसका दूसरा चाहे यापनीयों ने सम्पूर्ण आगमों के भाषायी स्वरूप को अर्द्धमागधी कारण यह था कि जैनभिक्षु-संघ में विभिन्न प्रदेशों के भिक्षुगण सम्मिलित से शौरसेनी में रूपान्तरित किया हो या नहीं, किन्तु उन्होंने आगम- थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी साहित्य से जो गाथाएँ उद्धृत की हैं, वे अधिकांशत: आज अपने शौरसेनी उच्चारण-शैली में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती, फलत: आगम-साहित्य स्वरूप में पायी जाती हैं। याफ्नीय-आगमों के भाषिक स्वरूप में यह के भाषिक स्वरूप में भिन्नता आ गयी। परिवर्तन जानबूझकर किया गया या जब मथुरा जैनधर्म का केन्द्र बना ३. जैनभिक्षु सामान्यतया भ्रमणशील होते हैं, उनकी भ्रमणशीलता तब सहज रूप में यह परिवर्तन आ गया था, यह कहना कठिन है। के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर भी अन्य प्रदेशों की बोलियों जैनधर्म सदैव से क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाता रहा और यही कारण का प्रभाव पड़ता ही है। फलत: आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हो सकता है कि श्रुतपरम्परा से चली आयी इन गाथाओं में या तो या मिश्रण हो गया। उदाहरण के रूप में जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी सहज ही क्षेत्रीय प्रभाव आया हो या फिर उस क्षेत्र की भाषा को ध्यान प्रदेशों में अधिक विहार करता है तो उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम में रखकर उसे उस रूप में परिवर्तित किया गया हो।
दोनों ही बोलियों का प्रभाव आ ही जाता है। अत: भाषिक स्वरूप यह भी सत्य है कि वलभी में जो देवर्धिगणि की अध्यक्षता में की एकरूपता समाप्त हो जाती है। वी.नि.सं. ९८० या ९९३ में अन्तिम वाचना हुई, उसमें क्षेत्रगत महाराष्ट्री ४. सामान्यतया बुद्धवचन बुद्ध-निर्वाण के २००-३०० वर्ष के प्राकृत का प्रभाव जैन-आगमों पर विशेषरूप से आया होगा, यही अन्दर ही अन्दर लिखित रूप में आ गए। अत: उनके भाषिक स्वरूप कारण है कि वर्तमान में श्वेताम्बर-मान्य अर्द्धमागधी आगमों की भाषा में उनके रचनाकाल के बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया, तथापि का जो स्वरूप उपलब्ध है, उस पर महाराष्ट्री का प्रभाव ही अधिक उनकी उच्चारण-शैली विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही और वह आज है। अर्द्धमागधी आगमों में भी उन आगमों की भाषा महाराष्ट्री से अधिक भी है। थाई, बर्मा और श्रीलंका के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उच्चारण प्रभावित हुई है, जो अधिक व्यवहार या प्रचलन में रहे। उदाहरण भिन्न-भिन्न होता है, फिर भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता के रूप में उत्तराध्ययन और दशवैकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगम है। इसके विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घ महाराष्ट्री से अधिक प्रभावित हैं। जबकि ऋषिभाषित जैसा आगम काल तक लिखित रूप में नहीं आ सका, वह गुरुशिष्य परम्परा से महाराष्ट्री के प्रभाव से बहुत कुछ मुक्त रहा है। उस पर महाराष्ट्री प्राकृत मौखिक ही चलता रहा, फलत: देशकालगत उच्चारण-भेद से उनके का प्रभाव अत्यल्प है। आज अर्द्धमागधी का जो आगम-साहित्य हमें भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया।
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- पतीन्दसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - भारत में कागज का प्रचलन न होने से ग्रन्थ भोजपत्रों या ताड़पत्रों वाचक हो गया। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने उसे गुप्तशासक पर लिखे जाते थे। ताड़पत्रों पर ग्रन्थों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रामगुप्त मान लिया है और उसके द्वारा प्रतिष्ठापित विदिशा की जिन रखना जैन-मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल मूर्तियों के अभिलेखों से उसकी पुष्टि भी कर दी। जबकि वस्तुत: वह था। लगभग ई. सन् की ५ वीं शती तक इस कार्य को पाप-प्रवृत्ति निर्देश बुद्ध के समकालीन रामपुत्र नामक श्रमण-आचार्य के सम्बन्ध माना जाता था तथा इसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था भी थी। फलतः में था, जो ध्यान एवं योग के महान् साधक थे और जिनसे स्वयं महावीर के पश्चात् लगभग १००० वर्ष तक जैन-साहित्य श्रुत-परम्परा भगवान् बुद्ध ने ध्यान प्रक्रिया सीखी थी। उनसे सम्बन्धित एक अध्ययन पर ही आधारित रहा। श्रुत-परम्परा के आधार पर आगमों के भाषिक ऋषिभाषित में आज भी है, जबकि अंतकृद्ददशा में उनसे सम्बन्धित स्वरूप को सुरक्षित रखना कठिन था। अत: उच्चारण-शैली का भेद जो अध्ययन था, वह आज विलुप्त हो चुका है। इसकी विस्तृत चर्चा आगमों के भाषिक स्वरूप के परिवर्तन का कारण बन गया। Aspects of Jainology, Vol. II में मैंने अपने एक स्वतन्त्र लेख में
५. आगमिक एवं आगम-तुल्य साहित्य में आज भाषिक रूपों की है। इसी प्रकार आचारांग एवं सूत्रकृतांग में प्रयुक्त “खेत्तत्र" शब्द, का जो परिवर्तन देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों जो "क्षेत्रज्ञ" (आत्मज्ञ) का वाची था, महाराष्ट्री के प्रभाव से आगे (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है। प्रतिलिपिकार जिस क्षेत्र चलकर “खेयण्ण" बन गया और उसे “खेदज्ञ" का वाची मान लिया के होते थे, उन पर भी उस क्षेत्र की बोली/भाषा का प्रभाव रहता गया। इसकी चर्चा प्रो. के. आर. चन्द्रा ने श्रमण १९९२ में प्रकाशित था और असावधानी से अपनी प्रादेशिक बोली के शब्द रूपों को लिख अपने लेख में की है। अतः स्पष्ट है कि इन परिवर्तनों के कारण अनेक देता था। उदाहरण के रूप में चाहे मूल पाठ में “गच्छति' लिखा स्थलों पर बहुत अधिक अर्थभेद भी हो गये हैं। आज वैज्ञानिक रूप हो लेकिन प्रचलन में “गच्छई" का व्यवहार है, तो प्रतिलिपिकार से सम्पादन की जो शैली विकसित हुई है उसके माध्यम से इन समस्याओं "गच्छई" रूप ही लिख देगा।
के समाधान की अपेक्षा है। जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया था ६. जैन-आगम एवं आगम-तुल्य ग्रन्थ में आये भाषिक परिवर्तनों कि आगमिक एवं आगम-तुल्य ग्रन्थों के प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में सम्पादित के लिए श्वेताम्बर परम्परा में प्रो. के.आर. चन्द्रा और दिगम्बर-परम्परा होते रहे हैं। सम्पादकों ने उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर रखने का में आचार्य श्री विद्यानन्द जी के सानिध्य में श्री बलभद्र जैन ने प्रयत्न प्रयत्न नहीं किया अपितु उन्हें सम्पादित करते समय अपने युग एवं क्षेत्र प्रारम्भ किया है। किन्तु इन प्रयत्नों का कितना औचित्य है और इस के प्रचलित भाषायी स्वरूप के आधार पर उनमें परिवर्तन कर दिया। सन्दर्भ में किन-किन सावधानियों की आवश्यकता है, यह भी विचारणीय यही कारण है कि अर्द्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में है। यदि प्राचीन रूपों को स्थिर करने का यह प्रयत्न सम्पूर्ण सावधानी संकलित एवं सम्पादित हुए तो उनका भाषिक स्वरूप अर्द्धमागधी की और ईमानदारी से न हुआ तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। अपेक्षा शौरसेनी के निकट हो गया और जब वलभी में लिखे गये प्रथमतः, प्राकृत के विभिन्न भाषिक रूप लिये हुए इन ग्रन्थों में तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया। यह अलग बात है कि ऐसा पारस्परिक प्रभाव और पारस्परिक अवदान को अर्थात् किसने किस परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उसमें अर्द्धमागधी के तत्त्व परम्परा से क्या लिया है, इसे समझने के लिए आज जो सुविधा है, भी बने रहे।
वह इनमें भाषिक एकरूपता लाने पर समाप्त हो जायेगी। आज नमस्कार सम्पादन और प्रतिलिपि करते समय भाषिक स्वरूप की एकरूपता मंत्र में "नमो” और “णमो" शब्द का जो विवाद है, उसका समाधान पर विशेष बल नहीं दिए जाने के कारण जैन-आगम एवं आगमतुल्य और कौन सा शब्दरूप प्राचीन है इसका निश्चय, हम खारवेल और साहित्य अर्द्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री की खिचड़ी ही बन गया मथुरा के अभिलेखों के आधार पर कर सकते हैं और यह कह सकते
और विद्वानों ने उनकी भाषा को जैन-शौरसेनी और जैन-महाराष्ट्री ऐसे हैं कि अर्द्धमागधी का “नमो" रूप प्राचीन है, जबकि शौरसेनी और नाम दे दिये। न प्राचीन संकलन कर्ताओं ने उस पर ध्यान दिया और महाराष्ट्री का “णमो' रूप परवर्ती है, क्योंकि ई. की दूसरी शती तक न आधुनिक काल के सम्पादनों, प्रकाशनों में इस तथ्य पर ध्यान दिया अभिलेखों में कहीं भी “णमो' रूप नहीं मिलता। जबकि छठी शती गया। परिणामत: एक ही आगम के एक ही विभाग में “लोक", "लोग", से दक्षिण भारत के जैन-अभिलेखों में "णमो” रूप बहुतायत से मिलता "लोअ" और "लोय" ऐसे चारों ही रूप देखने को मिल जाते हैं। है। इससे फलित यह निकलता है कि णमो रूप परवर्ती है और जिन
यद्यपि सामान्य रूप से तो इन भाषिक रूपों के परिवर्तनों के ग्रन्थों में "न" के स्थान पर “ण” की बहुलता है, वे ग्रन्थ भी परवर्ती कारण कोई बहुत बड़ा अर्थ-भेद नहीं होता है, किन्तु कभी-कभी इनके हैं। यह सत्य है कि “नमो' से परिवर्तित होकर ही “णमो" रूप बना कारण भयंकर अर्थ-भेद भी हो जाता है। इस सन्दर्भ में एक दो उदाहरण है। जिन अभिलेखों में "णमो" रूप मिलता है वे सभी ई. सन् की देकर अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूँगा। उदाहरण के रूप में सूत्रकृतांग चौथी शती के बाद के ही हैं। इसी प्रकार से नमस्कार-मंत्र की अन्तिम का प्राचीन पाठ “रामपुत्ते" बदलकर चूर्णि में "रामाउत्ते' हो गया, गाथा में- एसो पंच नमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च किन्तु वही पाठ सूत्रकृतांग की शीलांक की टीका में “रामगुत्ते" हो सव्वेसिं पढमं हवा मंगलं- ऐसा पाठ है। इनमें प्रयुक्त प्रथमाविभक्ति गया। इस प्रकार जो शब्द रामपुत्र का वाचक था, वह रामगुप्त का में "एकार" के स्थान पर "ओकार" का प्रयोग तथा "हवति' के
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-- तीन्द्रसूरि स्मारकाव्य - जैन आगम एक साहित्य - स्थान पर “हवइ" शब्द रूप का प्रयोग यह बताता है कि इसकी रचना होते हुए भी महाराष्ट्री रूप "खेयन्न" बनाये रखना उचित नहीं होगा। अर्द्धमागधी से महाराष्ट्री के संक्रमणकाल के बीच की है और यह अंश जहाँ तक अर्द्धमागधी आगम-ग्रन्थों का प्रश्न है उन पर परवर्तीकाल नमस्कार-मंत्र में बाद में जोड़ा गया है। इसमें शौरसेनी रूप "होदि" में जो शौरसेनी या महाराष्ट्री प्राकृतों का प्रभाव आ गया है, उसे दूर या "हवदि" के स्थान पर महाराष्ट्री शब्द रूप "हवई" है जो यह करने का प्रयत्न किसी सीमा तक उचित माना जा सकता है, किन्तु बताता है कि यह अंश मूलत: महाराष्ट्री में निर्मित हुआ था और वहीं इस प्रयत्न में भी निम्न सावधानियाँ अपेक्षित हैंसे शौरसेनी में लिया गया है।
१. प्रथम तो यह कि यदि मूल हस्तप्रतियों में कहीं भी वह शब्द इसी प्रकार शौरसेनी आगमों में भी इसके "हवई" शब्द रूप रूप नहीं मिलता है, तो उस शब्द रूप को किसी भी स्थिति में परिवर्तित की उपस्थिति भी यही सूचित करती है कि उन्होंने इस अंश को परवर्ती न किया जाये। किन्तु प्राचीन अर्द्धमागधी शब्द-रूप जो किसी भी महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थों से ही ग्रहण किया है। अन्यथा वहाँ मूल मूल हस्तप्रति में एक-दो स्थानों पर भी उपलब्ध होता है, उसे अन्यत्र शौरसेनी का "हवदि” या “होदि" रूप ही होना था। आज यदि किसी परिवर्तित किया जा सकता है। यदि किसी अर्द्धमागधी के प्राचीन ग्रन्थ को शौरसेनी का अधिक आग्रह हो, तो क्या वे नमस्कार-मंत्र के इस में “लोग' एवं “लोय" दोनों रूप मिलते हो तो वहाँ अर्वाचीन रूप "हवई" शब्द को “हवदि" या "होदि" रूप में परिवर्तित कर देंगे? “लोय' को प्राचीन रूप "लोग' में रूपान्तरित किया जा सकता है जबकि तीसरी-चौथी शती से आज तक कहीं भी “हवइ" के अतिरिक्त किन्तु इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि एक पूरा अन्य कोई शब्द-रूप उपलब्ध नहीं है।
का पूरा गद्यांश या पद्यांश महाराष्ट्री में है और उसमें प्रयुक्त शब्दों प्राकृत के भाषिक स्वरूप के सम्बन्ध में दूसरी कठिनाई यह है के वैकल्पिक अर्द्धमागधी रूप किसी एक भी आदर्श प्रति में नहीं मिलते कि प्राकृत का मूल आधार क्षेत्रीय बोलियाँ होने से उसके एक ही हैं तो उन अंशों को परिवर्तित न किया जाये, क्योंकि सम्भावना यह काल में विभिन्न रूप रहे हैं। प्राकृत-व्याकरण में जो “बहुलं' शब्द हो सकती है कि वह अंश परवर्ती काल में प्रक्षिप्त हुआ हो। अत: है वह स्वयं इस बात का सूचक है कि चाहे शब्द-रूप हो, चाहे धातु- उस अंश के प्रक्षिप्त होने का आधार जो उसका भाषिक स्वरूप है, रूप हो, या उपसर्ग आदि हो, उनकी बहुविधता को अस्वीकार नहीं उसको बदलने से आगमिक शोध में बाधा उत्पन्न होगी। उदाहरण के किया जा सकता। एक बार हम मान भी लें कि एक क्षेत्रीय बोली रूप में आचारांग के प्रारम्भ में "सुयं मे आउसंतेण भगवया एयं में एक ही रूप रहा होगा, किन्तु चाहे वह शौरसेनी, अर्द्धमागधी या अक्खायं" के अंश को ही लें, जो सामान्यतया सभी प्रतियों में इसी महाराष्ट्री प्राकृत हो, साहित्यिक भाषा के रूप में इनके विकास के रूप में मिलता है। यदि हम इसे अर्द्धमागधी में रूपान्तरित करके "सुतं मूल में विविध बोलियाँ रही हैं। अत: भाषिक एकरूपता का प्रयत्न । मे आउसन्तेणं भगवता एवं अक्खाता" कर देगें तो इसके प्रक्षिप्त प्राकृत की अपनी मूल प्रकृति की दृष्टि से कितना समीचीन होगा, होने की जो सम्भावना है वह समाप्त हो जायेगी। अत: प्राचीनस्तर यह भी एक विचारणीय प्रश्न है।
के आगमों में किस अंश के भाषिक स्वरूप को बदला जा सकता पुनः चाहे हम एक बार यह मान भी ले कि प्राचीन अर्द्धमागधी है और किसको नहीं, इस पर गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। का जो भी साहित्यिक रूप रहा वह बहुविध नहीं था और उसमें व्यंजनों इसी सन्दर्भ में ऋषिभाषित के एक अन्य उदाहरण पर भी विचार के लोप, उनके स्थान पर "अ" या "य" की उपस्थिति अथवा "न" कर सकते हैं। इसमें प्रत्येक ऋषि के कथन को प्रस्तुत करते हुए के स्थान पर “ण” की प्रवृत्ति नहीं रही होगी और इस आधार पर सामान्यतया यह गद्यांश मिलता है- 'अरहता इसिणा बुइन्तं, किन्तु आचारांग आदि की भाषा का अर्द्धमागधी स्वरूप स्थिर करने का हम देखते हैं कि इसके ४५ अध्यायों में से ३७ में “बुइन्तं” पाठ प्रयत्न उचित भी मान लिया जाये, किन्तु यह भी सत्य है कि जैन- है, जबकि ७ में “बुइयं' पाठ है। ऐसी स्थिति में यदि इस "बुइयं" परम्परा में शौरसेनी का आगम-तुल्य साहित्य मूलत: अर्द्धमागधी पाठ वाले अंश के आस-पास अन्य शब्दों के प्राचीन अर्द्धमागधी रूप आगम-साहित्य के आधार पर और उससे ही विकसित हुआ, अत: मिलते हो तो “बुइय" को बुइन्तं में बदला जा सकता है। किन्तु यदि उसमें जो अर्द्धमागधी या महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है, उसे पूर्णतः किसी शब्द रूप के आगे-पीछे के शब्द-रूप भी महाराष्ट्री प्रभाव वाले निकाल देना क्या उचित होगा? यदि हमने यह दुःसाहस किया भी हों, तो फिर उसे बदलने के लिए हमें एक बार सोचना होगा। तो उससे ग्रन्थों के काल-निर्धारण आदि में और उनकी पारस्परिक कुछ स्थितियों में यह भी होता है कि ग्रन्थ की एक ही आदर्श प्रभावकता को समझने में, आज जो सुगमता है, वह नष्ट हो जायेगी। प्रति उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में जब तक उनकी प्रतियाँ उपलब्ध ___यही स्थिति महाराष्ट्री प्राकृत की भी है। उसका आधार भी न हों, तब तक उनके साथ छेड़-छाड़ करना उचित नहीं होगा। अत: अर्द्धमागधी और अंशत: शौरसेनी आगम रहे हैं। यदि उनके प्रभाव अर्द्धमागधी या शौरसेनी के भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के किसी को निकालने का प्रयत्न किया गया तो वह भी उचित नहीं होगा। निर्णय से पूर्व सावधानी और बौद्धिक ईमानदारी की आवश्यकता है। 'खेयण्ण' का प्राचीन रूप'खेतन' है। महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थ में एक इस सन्दर्भ में अन्तिम रूप से एक बात और निवेदन करना आवश्यक बार 'खेत्तन्त्र' रूप प्राप्त होता है तो उसे हम प्राचीन शब्द रूप मानकर है, वह यह कि यदि मूलपाठ में किसी प्रकार का परिवर्तन किया भी रख सकते हैं, किन्तु अर्द्धमागधी के ग्रन्थ में "खेतन" रूप उपलब्ध जाता है, तो भी इतना तो अवश्य ही करणीय होगा कि पाठान्तरो
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चतीन्द्रसरि स्मारकवन्य- जैन आगम एवं साहित्य
के रूप में अन्य उपलब्ध शब्द रूपों को भी अनिवार्य रूप से रखा जाय, साथ ही भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के लिए जो प्रति आधार रूप में मान्य की गयी हो उसकी मूल प्रतिछाया को भी प्रकाशित किया जाय, क्योंकि छेड़-छाड़ के इस क्रम में जो साम्प्रदायिक आग्रह कार्य करेंगे, उससे प्रन्थ की मौलिकता को पर्याप्त धक्का लग सकता है।
आचार्य शान्तिसागर जी और उनके समर्थक कुछ दिगम्बर-विद्वानों द्वारा षट्खण्डागम ( १/१/९३) में से "संजद" पाठ को हटाने की एवं श्वेताम्बर - परम्परा में मुनि श्री फूलचन्द जी द्वारा परम्परा के विपरीत लगने वाले कुछ आगम के अंशों को हटाने की कहानी अभी हमारे सामने ताजा ही है। यह तो भाग्य ही था कि इस प्रकार के प्रयत्नों को दोनों ही समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने स्वीकार नहीं किया और इस प्रकार से सैद्धान्तिक संगति के नाम पर जो कुछ अनर्थ हो सकता था, उससे हम बच गये। किन्तु आज भी " षट्खण्डागम' के ताम्रपत्रों एवं प्रथम संस्करण की मुद्रित प्रतियों में 'संजद' शब्द अनुपस्थित है। इसी प्रकार फूलचन्द जी द्वारा सम्पादित अंग सुत्ताणि में कुछ आगमपाठों का जो विलोपन हुआ है वे प्रतियां तो भविष्य में भी रहेंगी, अतः भविष्य में तो यह सब निश्चय ही विवाद का कारण बनेगा। इसलिये ऐसे किसी भी प्रयत्न से पूर्व पूरी सावधानी एवं सजगता आवश्यक है। मात्र "संजद" पद हट जाने से उस ग्रन्थ के यापनीय होने की जो पहचान है, वही समाप्त हो जाती और जैन परम्परा के इतिहास के साथ अनर्थ हो जाता। उपर्युक्त समस्त मेरा प्रयोजन यह नहीं है कि अर्द्धमागधी आगम एवं आगम-तुल्य शोरसनी ग्रन्थों के भाषायी स्वरूप की एकरूपता एवं उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर करने का कोई प्रयत्न ही न हो। मेरा दृष्टिकोण मात्र यह है कि उसमें विशेष सतर्कता की आवश्यकता है। साथ ही इस प्रयत्न का परिणाम यह न हो कि जो परवर्ती ग्रन्थ प्राचीन अर्द्धमागधी आगम-साहित्य के आधार पर निर्मित हुए हैं, उनकी उस रूप में पहचान ही समाप्त कर दी जाये और इस प्रकार आज ग्रन्थों के पौर्वापर्य के निर्धारण का जो भाषायी आधार है वह भी नष्ट हो जाये। यदि प्रश्नव्याकरण, नन्दीसूत्र आदि परवर्ती आगमों की भाषा को प्राचीन अर्द्धमागधी में बदला गया अथवा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का या मूलाचार और भगवती आराधना का पूर्ण शौरसेनीकरण किया गया तो यह उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे उनकी पहचान और इतिहास ही नष्ट हो जायेगा।
जो लोग इस परिवर्तन के पूर्णतः विरोधी हैं उनसे भी मैं सहमत नहीं हूँ। मैं यह मानता हूँ आचारांग, ऋषिभाषित एवं सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन आगमों का इस दृष्टि से पुनः सम्पादन होना चाहिए। इस प्रकिया के विरोध में जो स्वर उभर कर सामने आये हैं उनमें जौहरीमल जी पारख का स्वर प्रमुख है। वे विद्वान् अध्येता ओर श्रद्धाशील दोनों ही हैं। फिर भी तुलसी प्रज्ञा में उनका जो लेख प्रकाशित हुआ है उसमें उनका वैदुष्य श्रद्धा के अतिरेक में दब सा गया है। उनका सर्वप्रथम तर्क यह है कि आगम सर्वज्ञ के वचन हैं, अतः उन पर व्याकरण
के नियम थोपे नहीं जा सकते कि वे व्याकरण के नियमों के अनुसार ही बोलें। यह कोई तर्क नहीं, मात्र उनकी श्रद्धा का अतिरेक ही है। प्रथम प्रश्न तो यही है कि क्या अर्द्धमागधी आगम अपने वर्तमान स्वरूप में सर्वज्ञ की वाणी है? क्या उनमें किसी प्रकार का विलोपन, प्रक्षेप या परिवर्तन नहीं हुआ है? यदि ऐसा है तो उनमें अनेक स्थलों पर अन्तर्विरोध क्यों है? कहीं लोकान्तिक देवों की संख्या आठ है तो कहीं नौ क्यों है? कहीं चार स्थावर और दो त्रस हैं, कहीं तीन त्रस और तीन स्थावर कहे गये, तो कहीं पाँच स्थावर और एक त्रस । यदि आगम शब्दश: महावीर की वाणी है, तो आगमों और विशेष रूप से अंग- आगमों में महावीर के तीन सौ वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुए गणों के उल्लेख क्यों है? यदि कहा जाय कि भगवान सर्वज्ञ थे और उन्होंने भविष्य की घटनाओं को जानकर यह उल्लेख किया तो प्रश्न यह कि वह कथन व्याकरण की दृष्टि से भविष्यकालिक भाषा रूप में होना था वह भूतकाल में क्यों कहा गया। क्या भगवती में गोशालक के प्रति जिस अशिष्ट शब्दावली का प्रयोग हुआ है क्या वह अंश वीतराग भगवान महावीर की वाणी हो सकती है? क्या आज प्रश्नव्याकरणदशा, अन्तकृदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा की विषयवस्तु वही है, जो स्थानांग में उल्लिखित है? तथ्य यह है कि यह सब परिवर्तन हुआ है, आज हम उससे इंकार नहीं कर सकते हैं।
आज ऐसे अनेक तथ्य हैं, जो वर्तमान आगमसाहित्य को अक्षरश: सर्वज्ञ के वचन मानने में बाधक हैं। परम्परा के अनुसार भी सर्वज्ञ तो अर्थ ( विषयवस्तु ) के प्रवक्ता हैं— शब्द रूप तो उनको गणधरों या परवर्ती स्थविरों द्वारा दिया गया है। क्या आज हमारे पास जो आगम हैं, वे ठीक वैसे ही हैं जैसे शब्द रूप से गणधर गौतम ने उन्हें रचा था? आगम-ग्रन्थों में परवर्तीकाल में जो विलोपन, परिवर्तन, परिवर्धन आदि हुआ और जिनका साक्ष्य स्वयं आगम हो दे रहे हैं, उससे क्या हम इन्कार कर सकते हैं? स्वयं देवर्धि ने इस तथ्य को स्वीकार किया है तो फिर हम नकारने वाले कौन होते हैं। आदरणीय पारखजी लिखते है- "पण्डितों से हमारा यही आग्रह रहेगा कि कृपया बिना भेल-सेल के वही पाठ प्रदान करें जो तीर्थकरों ने अर्थरूप में प्ररुपित और गधणरों ने सूत्ररूप में संकलित किया था । हमारे लिये वही शुद्ध है। सर्वज्ञों को जिस अक्षर, शब्द, पद, वाक्य या भाषा का प्रयोग अभीष्ट था, वह सूचित कर गये, अब उसमें असर्वज्ञ फेर बदल नहीं कर सकता।" उनके इस कथन के प्रति मेरा प्रथम प्रश्न तो यही है कि आज तक आगमों में जो परिवर्तन होता रहा वह किसने किया? आज हमारे पास जो आगम हैं उनमें एकरूपता क्यों नहीं है? आज मुर्शिदाबाद, हैदराबाद, बम्बई, लाडनूं आदि के संस्करणों में इतना अधिक पाठ भेद क्यों है ? इनमें से हम किस संस्करण को सर्वज्ञ वचन मानें और आपके शब्दों में किसे भेल सेल कहें? मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि क्या आज. पण्डित आगमों में कोई भेल सेल कर रहे हैं या फिर वे उसके शुद्ध स्वरूप को सामने लाना चाहते हैं? किसी भी पाश्चात्य संशोधक दृष्टि सम्पन्न विद्वान ने आगमों में कोई भेल सेल किया? इसका एक भी उदाहरण हो तो हमें बतायें। दुर्भाग्य यह है कि शुद्धि के प्रयत्न को
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य भेल-सेल का नाम दिया जा रहा है और व्यर्थ में उसकी आलोचना नहीं है। की जा रही है। पुन: जहाँ तक मेरी जानकारी है डॉ. चन्द्रा ने एक वर्तमान में उपलब्ध आगमों के संस्करणों में लाडनूं और महावीर भी ऐसा पाठ नहीं सुझाया है, जो आदर्श-सम्मत नहीं है। उन्होंने मात्र विद्यालय के संस्करण अधिक प्रामाणिक माने जाते है, किन्तु उनमें यही प्रयत्न किया है कि जो भी प्राचीन शब्द रूप किसी भी एक आदर्शप्रत भी "त" श्रुति और "य" श्रुति को लेकर या मध्यवर्ती व्यंजनों के में एक-दो स्थानों पर भी मिल गये, उन्हें आधार मानकर अन्य स्थलों ___ लोप सम्बन्धी जो वैविध्य है, वह न केवल आश्चर्यजनक है, अपितु पर भी वही प्राचीन रूप रखने का प्रयास किया है। यदि उन्हें भेल-सेल विद्वानों के लिए चिन्तनीय भी है। करना होता तो वे इतने साहस के सभी पूज्य मुनिजनों एवं विद्वानों यहाँ महावीर विद्यालय से प्रकाशित स्थानांगसूत्र के ही एक-दो के विचार जानने के लिये उसे प्रसारित नहीं करते। फिर जब पारख उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ - जी स्वयं यह कहते हैं कि कुल ११६ पाठभेदों में केवल १ “आउसंतेण" चत्तारिवत्था पन्नत्ता, तंजहा-सुती नामंएगे सुती, सुईनाम एगे असुई, को छोड़कर शेष ११५ पाठभेद ऐसे हैं कि जिनसे अर्थ में कोई फर्क चउभंगो। नहीं पड़ता- तो फिर उन्होंने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया जिससे एवामेव वत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तंजहा सुती णाम एगे सुती, उनके श्रम की मूल्यवत्ता को स्वीकार करने के स्थान पर उसे नकारा चउभंगो। जा रहा है? आज यदि आचारांग के लगभग ४० से अधिक संस्करण - (चतुर्थ) स्थान, प्रथम उद्देशक, सूत्रक्रमांक २४१, पृ० ९४) हैं- और यह भी सत्य है कि सभी ने आदर्शों के आधार पर ही इस प्रकार यहाँ आप देखेंगे कि एक ही सूत्र में "सुती' और पाठ छापे हैं तो फिर किसे शुद्ध और किसे अशुद्ध कहें? क्या सभी “सुई" दोनों रूप उपस्थित है। इससे मात्र शब्द-रूप में ही भेद नहीं को समान रूप से शुद्ध मान लिया जायेगा। क्या हम ब्यावर, जैन होता है, अर्थ-भेद भी हो सकता है, क्योकि “सुती" का अर्थ है विश्वभारती, लाडनूं और महावीर विद्यालय वाले संस्करणों को समान सूत से निर्मित, जबकि “सुई' (शुचि) का अर्थ है पवित्र। इस प्रकार महत्त्व का समझें? भय भेल-सेल का नहीं है, भय यह है कि अधिक इसी सूत्र में “णाम" और "नाम" दोनों शब्द रूप एक ही साथ उपस्थित प्रामाणिक एवं शुद्ध संस्करण के निकल जाने से पूर्व संस्करणों की हैं। इसी स्थानांगसूत्र से एक अन्य उदाहरण लीजिए- सूत्र क्रमांक सम्पादन में रही कमियाँ उजागर हो जाने का और यही खीज का मूल ४४५, पृ० १९७ पर "निम्रन्थ' शब्द के लिए प्राकृत शब्दरूप “नियंठ" कारण प्रतीत होता है। पुन: क्या श्रद्धेय पारखजी यह बता सकते हैं प्रयुक्त है तो सूत्र ४४६ में “निग्गंथ" और पाठान्तर में “नितंठ" रूप कि क्या कोई भी ऐसी आदर्श प्रति है, जो पूर्णतः शुद्ध है- जब भी दिया गया है। इसी ग्रन्थ में सूत्र -संख्या ४५८, पृ. १९७ पर आदर्शों में भिन्नता और अशुद्धियाँ हैं, तो उन्हें दूर करने के लिये धम्मत्थिकातं, अधम्मत्थिकातं और आगासस्थिकायं- इस प्रकार विद्वान् व्याकरण के अतिरिक्त किसका सहारा लेगे? क्या आज तक "काय" शब्द के दो भिन्न शब्द-रूप 'काय'और कातं' दिये गये हैं। कोई भी आगम-ग्रन्थ बिना व्याकरण का सहारा लिये मात्र आदर्श के यद्यपि “त' श्रुति प्राचीन अर्द्धमागधी की पहचान है, किन्तु प्रस्तुत आधार पर छपा है। प्रत्येक सम्पादक व्याकरण का सहारा लेकर ही। सन्दर्भ में सुती, निठंत और कातं में जो "त" का प्रयोग है वह मुझे आदर्श की अशुद्धि को ठीक करता है। यदि वे स्वयं यह मानते हैं परवर्ती लगता है। लगता है कि "य" श्रुति को "त" श्रुति में बदलने कि आदर्शों में अशुद्धियाँ स्वाभाविक हैं, तो फिर उन्हें शुद्ध किस के प्रयत्न भी कालान्तर में हुए और इस प्रयत्न में बिना अर्थ का विचार आधार पर किया जायेगा? मैं भी यह मानता हूँ कि सम्पादन में आदर्श किये "य" को "त" कर दिया गया है। शुचि का सुती, निर्ग्रन्थ का प्रति का आधार आवश्यक है। किन्तु न तो मात्र आदर्श से और न नितंठ और काय का कातं किस प्राकृत व्याकरण के नियम से बनेगा, मात्र व्याकरण के नियमों से समाधान होता है, उसमें दोनों का सहयोग मेरी जानकारी में तो नहीं है। इससे भी अधिक आश्चर्यजनक एक उदाहरण आवश्यक है। मात्र यही नहीं अनेक प्रतों को सामने रखकर तुलना हमें हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित नियुक्तिसंग्रह में करके एवं विवेक से भी पाठ शुद्ध करना होता है। जैसा कि आचार्य ओघनियुक्ति के प्रारम्भिक मंगल में मिलता हैश्री तुलसी जी ने मुनि श्री जम्बूविजय जी को अपनी सम्पादन-शैली नमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, का स्पष्टीकरण करते हुए बताया था।
णमो लोए सव्यसाहूणं, आदरणीय पारखजी एवं उनके द्वारा उद्धृत मुनि श्री जम्बूविजयजी एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं का यह कथन कि आगमों में अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ प्रायः हवा मंगलं।।१।। नहीं मिलते हैं, स्वयं ही यह बताता है कि क्वचित् तो मिलते हैं। यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ नमो अरिहंताणं में प्रारम्भ में "न' पुन: इस सम्बन्ध में डॉ. चन्द्रा ने आगमोदय समिति के संस्करण, रखा गया जबकि णमो सिद्धाणं से लेकर शेष चार पदों में आदि का टीका तथा चूर्णि के संस्करणों से प्रमाण भी दिये हैं। वस्तुत: लेखन "न" "ण' कर दिया गया है। किन्तु "एसो पंचनमुक्कारो" में पुन: की सुविधा के कारण ही अनुनासिक परसवर्ण वाले पाठ आदर्शों में "न" उपस्थित है। हम आदणीय पारखजी से इस बात में सहमत कम होते गये हैं। किन्तु लोकभाषा में वे आज भी जीवित हैं। अतः हो सकते हैं कि भिन्न कालों में भिन्न व्यक्तियों से चर्चा करते हुए प्राकृत चन्द्रा जी के कार्य को प्रमाणरहित या आदर्शरहित कहना उचित भाषा के भिन्न शब्द-रूपों का प्रयोग हो सकता है। किन्तु ग्रन्थ-निर्माण
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- यतीन्द्रसरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य के समय और वह भी एक ही सूत्र या वाक्यांश में दो भिन्न रूपों वे जो कार्य कर रहे हैं वह न केवल करणीय है बल्कि एक सही का प्रयोग तो कभी भी नहीं होगा, पुन: यदि हम यह मानते हैं कि दिशा देने वाला कार्य है। हम उन्हें सुझाव तो दे सकते हैं लेकिन आगम सर्वज्ञ-वचन हैं, तो जब सामान्य व्यक्ति भी ऐसा नहीं करता अनधिकृत रूप से येन-केन प्रकारेण सर्वज्ञ और शास्त्र-श्रद्धा की दुहाई है, तो फिर सर्वज्ञ कैसे करेगा? इस प्रकार की भिन्नता के लिए लेखक देकर उनकी आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं रखते। क्योंकि नहीं, अपितु प्रतिलिपिकार ही उत्तरदायी होता है। अत: ऐसे पाठों वे जो भी कार्य कर रहे हैं वह बौद्धिक ईमानदारी के साथ, निर्लिप्त का शुद्धीकरण अनुचित नहीं कहा जा सकता। एक ही सूत्र में "सुती' भाव से तथा सम्प्रदायगत आग्रहों से ऊपर उठकर कर रहे हैं, उनकी और “सुई" "नाम" और "णाम", "नियंठ" और "निग्गंथ", "कातं' । नियत में भी कोई शंका नहीं की जा सकती। अत: मैं जैन-विद्या और "कायं' ऐसे दो शब्द-रूप नहीं हो सकते। उनका पाठ-संशोधन के विद्वानों से नम्र निवेदन करूँगा कि वे शान्तचित्त से उनके प्रयत्नों आवश्यक है। यद्यपि इसमें भी यह सावधानी आवश्यक है कि “त' की मूल्यवत्ता को समझें और अपने सुझावों एवं सहयोग से उन्हें इस श्रुति की प्राचीनता के व्यामोह में कहीं सर्वत्र "य" का "त" नहीं दिशा में प्रोत्साहित करें। दूसरी ओर मैं प्रो. चन्द्रा से भी निवेदन कर दिया जावे, जैसे शुचि-सुइ का "सुती", निग्गंथ का "नितंठ" करूँगा कि वे बिना प्रमाण के ऐसा कोई परिशोधन न करें। अथवा कार्य का “कातं" पाठ महावीर विद्यालय वाले संस्करण में है। हम पारखजी से इस बात में सहमत हैं कि कोई भी पाठ आदर्श आगमों के विच्छेद की अवधारणा में उपलब्ध हुए बिना नहीं बदला जाय, किन्तु “आदर्श' में उपलब्ध आगम के विच्छेद की यह अवधारणा जैनधर्म के श्वेताम्बर एवं होने का यह अर्थ नहीं है कि "सर्वत्र" और सभी "आदर्शों' में उपलब्ध दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में उल्लिखित है। दिगम्बर-परम्परा में आगमों हो। हाँ यदि आदर्शों या आदर्श के अंश में प्राचीन पाठ मात्र एक- के विच्छेद की यह अवधारणा तिलोयपण्णत्ति, षट्खण्डागम की दो स्थलों पर ही मिलें और उनका प्रतिशत २० से भी कम हो तो धवलाटीका, हरिवंशपुराण, आदिपुराण आदि में मिलती है। इन सब वहाँ उन्हें प्राय: न बदला जाय। किन्तु यदि उनका प्रतिशत २० से ग्रन्थों में तिलोयपण्णत्ति अपेक्षाकृत प्राचीन है। तिलोयपण्णत्ति का अधिक हो तो उन्हें बदला जा सकता है- शर्त यही हो कि आगम रचनाकाल विद्वानों ने ईसा की छठी-सातवीं शती के लगभग माना का वह अंश परवर्ती या प्रक्षिप्त न हो-जैसे आचारांग का दूसरा श्रुतस्कन्ध है। इसके पश्चात् षट्खण्डागम की धवला टीका, हरिवंशपुराण, या प्रश्नव्याकरण। किन्तु एक ही सूत्र में यदि इस प्रकार के भिन्न रूप आदिपुराण आदि ग्रन्थ आते हैं जो लगभग ई. की नवीं शती की आते हैं तो एक स्थल पर भी प्राचीन रूप मिलने पर अन्यत्र उन्हें रचनाएँ हैं। हरिवंश पुराण में आगम-विच्छेद की चर्चा को कुछ विद्वानों परिवर्तित किया जाता है।
ने प्रक्षिप्त माना है, क्योंकि वह यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ है और पाठ शुद्धीकरण में दूसरो सावधानी यह आवश्यक है कि आगमों यापनीयों में नवीं-दसवीं शताब्दी तक आगमों के अध्ययन और उन में कहीं-कहीं प्रक्षिप्त अंश हैं अथवा संग्रहिणियों और नियुक्तियों की पर टीका लिखने की परम्परा जीवित रही है। सम्भव यह भी है कि अनेकों गाथाएँ भी अवतरित की गयीं, ऐसे स्थलों पर पाठ-शुद्धिकरण जिस प्रकार श्वेताम्बरों में आगमों के विच्छेद की चर्चा होते हार भी करते समय प्राचीन रूपों की उपेक्षा करनी होगी और आदर्श में उपलब्ध आगमों की परम्परा जीवित रही उसी प्रकार यापनीयों में भी श्रुत-विच्छेद पाठ को परवर्ती होते हुए भी यथावत् रखना होगा।इस तथ्य को हम की परम्परा का उल्लेख होते हुए भी श्रुत के अध्ययन एवं उन पर इस प्रकार भी समझा सकते हैं कि यदि एक अध्ययन, उद्देशक या टीका आदि के लेखन की परम्परा जीवित रही है। पुनः हरिवंशपुराण एक पैराग्राफ में यदि ७० या ८० प्रतिशत प्रयोग महाराष्ट्री या “य" में भी मात्र पूर्व एवं अंग ग्रन्थ के विच्छेद की चर्चा है, शेष ग्रन्थ श्रुति के हैं और मात्र १० प्रतिशत प्रयोग प्राचीन अर्द्धमागधी के हैं तो थे ही। तो वहाँ पाठ के महाराष्ट्री रूप को रखना ही उचित होगा। सम्भव इन ग्रन्थों के अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् गौतम, है कि वह प्रक्षिप्त रूप हो, किन्तु इसके विपरीत उनमें ६० प्रतिशत सुधर्मा (लोहार्य) और जम्बू ये तीन आचार्य केवली हुए, इन तीनों प्राचीन रूप हैं और ४० प्रतिशत अर्वाचीन महाराष्ट्री के रूप हैं, तो का सम्मिलित काल ६२ वर्ष माना गया है। तत्पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, वहाँ प्राचीन रूप रखे जा सकते हैं।
अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच आचार्य चतुर्दश पूर्वो के पुन: आगम-संपादन और पाठ-शुद्धीकरण के इस उपक्रम में दिये धारक श्रुतकेवली हुए। इन पाँच आचार्यों का सम्मिलित काल १०० जाने वाले मूलपाठ को शुद्ध एवं प्राचीन रूप में दिया जाय, किन्तु वर्ष है। इस प्रकार भद्रबाहु के काल तक अंग और पूर्व की परम्परा पाद-टिप्पणियों में सम्पूर्ण पाठान्तरों का संग्रह किया जाय। इसका अविच्छिन्न बनी रही। उसके बाद प्रथम पूर्व साहित्य का विच्छेद प्रारम्भ लाभ यह होगा कि कालान्तर में यदि कोई संशोधन कार्य करें तो हुआ। भद्रबाहु के पश्चात् विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, उसमें सुविधा हो।
धृतिसेन, विजय बुद्धिल, धर्मसेन और गंगदेव- ये ग्यारह आचार्य प्रो. के.आर चन्द्रा अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद भी आगमों दस पूर्वो के धारक हुए। इनका सम्मिलित काल १८३ वर्ष माना गया के पाठ-संशोधन का जो यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और श्रमसाध्य कार्य है। इस प्रकार वीरनिर्वाण के पश्चात् ३४५ वर्ष तक पूर्वधरों का अस्तित्व कर रहे हैं, उसकी मात्र आलोचना करना कथमपि उचित नहीं है, क्योंकि रहा। इसके बाद पूर्वधरों के विच्छेद के साथ ही पूर्व ज्ञान का विच्छेद
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चीन्द्रसूरि स्मारकनत्य - जैन आगम एवं साहित्य - हो गया। इनके पश्चात् नक्षत्र, यशपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस- तित्थोगालिय एवं अन्य ग्रन्थों के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि ये पाँच आचार्य एकादश अंगों के ज्ञाता हुए। इनका सम्मिलित काल श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हुए। २२० वर्ष माना गया। इस प्रकार भगवान् महावीर-निर्वाण के ५६५ आर्य भद्रबाहु के स्वर्गवास के साथ ही चतुर्दश पूर्वधरों की परम्परा वर्ष पश्चात् आचारांग को छोड़कर शेष अंगों का भी विच्छेद हो गया। समाप्त हो गयी। इनका स्वर्गवास-काल वीरनिर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् इनके बाद सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य- ये चार आचार्य ___ माना जाता है। इसके पश्चात् स्थूलिभद्र दस पूर्वो के अर्थ सहित और आचारांग के धारक हुए। इनका काल ११८ वर्ष रहा।इस प्रकार शेष चार पूर्वो के मूल मात्र के ज्ञाता हुए। यथार्थ में तो वे दस पूर्वो वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के के ही ज्ञाता थे। तित्थोगालिय में स्थूलिभद्र को दस पूर्वधरों में प्रथम पूर्णज्ञाता आचार्यों की परम्परा समाप्त हो गई। इनके बाद आचार्य कहा गया है। उसमें अन्तिम दसपूर्वी सत्यमित्र (पाठभेद से सर्वमित्र) धरसेन तक अंग और पूर्व के एकदेश ज्ञाता (आंशिकज्ञाता) आचार्यों ___ को बताया गया है, किन्तु उनके काल का निर्देश नहीं किया गया की परम्परा चली। उसके बाद पूर्व और अंग-साहित्य का विच्छेद हो है। उसके बाद उस ग्रन्थ में यह उल्लिखित है कि अनुक्रम से भगवान्. गया। मात्र अंग और पूर्व के आधार पर उनके एकदेश ज्ञाता आचार्यों महावीर के निर्वाण के १००० वर्ष पश्चात् वाचक वृषभ के समय में द्वारा निर्मित ग्रन्थ ही शेष रहे। अंग और पूर्वधरों की यह सूची हमने पूर्वगत श्रुत का विच्छेद हो जायगा। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार दस हरिवंशपुराण के आधार पर दी है। अन्य ग्रन्थों एवं श्रवणबेलगोला। पूर्वधरों के पश्चात् भी पूर्वधरों की परम्परा चलती रही है, श्वेताम्बरों के कुछ अभिलेखों में भी यह सूची दी गयी है, किन्तु इन सभी सूचियों में अभिन्न-अक्षर दसपूर्वधर और भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर, ऐसे दो प्रकार में कहीं नामों में और कहीं क्रम में अन्तर है, जिससे इनकी प्रामाणिकता के वर्गों का उल्लेख है। जो सम्पूर्ण दस पूर्वो के ज्ञाता होते थे, वे संदेहास्पद बन जाती है। किन्तु जो कुछ साहित्यिक और अभिलेखीय अभिन्न अक्षर दसंपूर्वधर कहे जाते थे और जो आंशिक रूप से दस साक्ष्य उपलब्ध हैं उन्हें ही आधार बनाना होगा, अन्य कोई विकल्प पूर्वो के ज्ञाता होते थे, उन्हें भिन्न-अक्षर दसपूर्वधर कहा जाता था। भी नहीं है। यद्यपि इन साक्ष्यों में भी एक भी साक्ष्य ऐसा नहीं है, इस प्रकार हम देखते हैं कि चतुर्दश पूर्वधरों के विच्छेद की जो सातवीं शती से पूर्व का हो। इन समस्त विवरणों से हम इस इस चर्चा में दोनों परम्परा में अन्तिम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु को ही माना निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि दिगम्बर-परम्परा में श्रुत विच्छेद की गया है। श्वेताबर-परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् इस चर्चा का प्रारम्भ लगभग छठी-सातवीं शताब्दी में हुआ और उसमें और दिगम्बर-परम्परा के अनुसार १६२ वर्ष पश्चात् चतुर्दश पूर्वधरों अंग एवं पूर्व साहित्य के ग्रन्थों के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा का विच्छेद हुआ। यहाँ दोनों परम्पराओं में मात्र आठ वर्षों का अन्तर
है। किन्तु दस पूर्वधरों के विच्छेद के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं में श्वेताम्बर-परम्परा में पूर्व-ज्ञान के विच्छेद की चर्चा तो नियुक्ति, कोई समरूपता नहीं देखी जाती है। श्वेताम्बर-परम्परानुसार आर्य सर्वमित्र भाष्य, चूर्णि आदि आगामिक व्याख्या-ग्रन्थों में हुई है। किन्तु और दिगम्बर-परम्परा के अनुसार आर्य धर्मसेन या आर्य सिद्धार्थ अन्तिम अंग-आगमों के विच्छेद की चर्चा मात्र तित्थोगालिय प्रकीर्णक के दस पूर्वी हुए हैं। श्वेताम्बर-परम्परा में आर्य सर्वमित्र को अन्तिम दस अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है। तित्थोगालिय प्रकीर्णक को देखने पूर्वधर कहा गया है। दिगम्बर- परम्परा में भगवतीआराधना के कर्ता से लगता है कि यह ग्रन्थ लगभग छठी-सातवीं शताब्दी में निर्मित शिवार्य के गुरुओं के नामो में सर्वगुप्तगणि और मित्रगणि नाम आते हुआ है। इसका रचना-काल और कुछ विषय-वस्तु भी तिलोयपण्णत्ति हैं किन्तु दोनों में कोई समरूपता हो यह निर्णय करना कठिन है। से समरूप ही है। इस प्रकीर्णक का उल्लेख नन्दीसूत्र की कालिक दिगम्बर-परम्परा में दस पूर्वधरों के पश्चात् एकदेश पूर्वधरों का उल्लेख
और उत्कालिक ग्रन्थों की सूची में नहीं है, किन्तु व्यवहारभाष्य (१०/ तो हुआ है, किन्तु उनकी कोई सूची उपलब्ध नहीं होती। अत: इस ७०४) में इसका उल्लेख हुआ है। व्यवहारभाष्य स्पष्टत: सातवीं शताब्दी सम्बन्ध में किसी प्रकार की तुलना कर पाना सम्भव नहीं है। की रचना है। अन्तत: तित्थोगालिय पाँचवीं शती के पश्चात् तथा सातवीं पूर्व साहित्य के विच्छेद की चर्चा के पश्चात् तित्थोगालिय में शती के पूर्व अर्थात् लगभग ईस्वी सन् की छठी शताब्दी में निर्मित अंग-साहित्य के विच्छेद की चर्चा हुई है। जो निम्नानुसार हैहुआ होगा। यही काल तिलोयपण्णत्ति का भी है। इन दोनों ग्रन्थों में उसमें उल्लिखित है कि वीरनिर्वाण के १२५० वर्ष पश्चात् ही सर्वप्रथम श्रुत के विच्छेद की चर्चा है। तित्थोगालिय में तीर्थङ्करों विपाकसूत्र सहित छ: अंगों का विच्छेद हो जायेगा, इसके पश्चात् की माताओं के चौदह स्वप्न, स्त्री-मुक्ति तथा दस आश्चर्यों का उल्लेख वीरनिर्वाण सं. १३०० में समवायांग का, वीरनिर्वाण सं. १३५० होने से एवं नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार तथा आवश्यकनियुक्ति से इसमें में स्थानांग का, वीरनिर्वाण सं. १४०० में कल्प-व्यवहार का, वीरनिर्वाण अनेक गाथाएँ अवतरित किये जाने से यही सिद्ध होता है कि यह सं. १५०० में आयारदशा का, वीरनिर्वाण सं. १९०० में सूत्रकृतांग श्वेताम्बर ग्रन्थ है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रकीर्णक रूप में इसकी आज का और वीरनिर्वाण सं. २००० में निशीथसूत्र का विच्छेद होगा। ज्ञातव्य भी मान्यता है। इस ग्रन्थ की गाथा ८०७ से ८५७ तक में न केवल है कि इसके पश्चात् लगभग अठारह हजार वर्ष तक विच्छेद की कोई पूर्वो के विच्छेद की चर्चा है, अपितु अंग-साहित्य के विच्छेद की चर्चा नहीं है। फिर वीरनिर्वाण सं. २०,००० में आचारांग का, भी चर्चा है।
वीरनिर्वाण सं. २०५०० में उत्तराध्ययन का, वीरनिर्वाण सं. २०९००
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- चीन्द्रररिरिकग्रन्य- जैन आगम एवं साहित्य में दशवैकालिक मूल का और वीरनिर्वाण सं. २१,००० में दशवैकालिक थे। इनके बाद अंग एवं पूर्व के एकदेश ज्ञाता आचार्यों की परम्परा के अर्थ का विच्छेद होगा- यह कहा गया है।
भी समाप्त हो गयी हो, ऐसा उल्लेख हमें किसी भी दिगम्बर-ग्रन्थ ज्ञातव्य है कि पण्डित दलसुखभाई ने जैन-साहित्य के बृहद् में नहीं मिला। यही कारण है कि पं. दलसुखभाई मालवणिया (वही, इतिहास की भूमिका (पृ. ६१) में आचारांग का विच्छेद वीरनिर्वाण पृ० ६२) आदि कुछ विद्वान् इन उल्लेखों को श्रुतधरों के विच्छेद के २३०० वर्ष पश्चात् लिखा है किन्तु मूल गाथा से कहीं भी यह का उल्लेख मानते हैं न कि श्रुत के विच्छेद का। पुन: इस चर्चा में अर्थ फलित नहीं होता। उन्होंने किस आधार पर यह अर्थ किया यह मात्र पूर्व और अंग साहित्य के विच्छेद की ही चर्चा हुई है। कालिक हम नहीं जानते हैं। हो सकता हैं कि उनके पास इस गाथा का कोई और उत्कालिक सूत्रों के अथवा छेदसूत्रों के विच्छेद की कहीं कोई दूसरा पाठान्तर रहा हो।
चर्चा दिगम्बर-परम्परा में नहीं उठी है। दुर्भाग्य यह है कि दिगम्बर - इस प्रकार हम देखते है कि अंग-आगमों के विच्छेद की चर्चा विद्वानों ने श्रुतधरों के विच्छेद को ही श्रुत का विच्छेद मान लिया श्वेताम्बर-परम्परा में भी चली है, किन्तु इसके बावजूद भी श्वेताम्बर और कालिक, उत्कालिक आदि आगमों के विच्छेद की कोई चर्चा परम्परा ने अंग-साहित्य को, चाहे आंशिक रूप से ही क्यों न हो, न होने पर भी उनका विच्छेद स्वीकार कर लिया। यह सत्य है कि सुरक्षित रखने का प्रयास किया है।
जब श्रुत के अध्ययन की परम्परा मौखिक हो तो श्रुतधर के विच्छेद प्रथम तो प्रश्न यह है कि क्या विच्छेद का अर्थ तत्-तत् ग्रन्थ से श्रुत का विच्छेद मानना होगा, किन्तु जब श्रुत लिखित रूप में भी का सम्पूर्ण रूप से विनाश है? मेरी दृष्टि में विच्छेद का अर्थ यह हो, तो श्रुतधर के विच्छेद से श्रुत का विच्छेद नहीं माना जा नहीं कि उस ग्रन्थ का सम्पूर्ण लोप हो गया। मेरी दृष्टि में विच्छेद सकता। दूसरे मौखिक परम्परा से चले आ रहे श्रुत में विस्मृति आदि का तात्पर्य उसके कुछ अंशों का विच्छेद ही मानना होगा। यदि हम के कारण किसी अंश-विशेष के विच्छेद को पूर्ण विच्छेद मानना भी निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर-परम्परा में समीचीन नहीं है। विच्छेद की इस चर्चा का तात्पर्य मात्र यही है कि भी जो अंग-साहित्य आज अवशिष्ट हैं वे उस रूप में तो नहीं हैं महावीर की यह श्रुत-सम्पदा अक्षुण्ण नहीं रह सकी और उसके कुछ जिस रूप में उनकी विषय-वस्तु का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, अंश विलुप्त हो गये। अत: आंशिक रूप में जिनवाणी आज भी है, नन्दीसूत्र आदि में हुआ है। यह सत्य है कि न केवल पूर्व साहित्य इसे स्वीकार करने में किसी को कोई विप्रतिपत्ति नहीं होनी चाहिये। का अपितु अंग-साहित्य का भी बहुत कुछ अंश विच्छिन्न हुआ है। आज आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का सातवाँ महापरिज्ञा नामक अध्याय अर्धमागधी आगमों की विषय-वस्तु सरल है अनुपलब्ध है। भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक, अर्धमागधी आगम-साहित्य की विषय-वस्तु मुख्यत: उपदेशपरक, प्रश्नव्याकरण, विपाकदशा आदि ग्रन्थों की भी बहुत कुछ सामग्री आचारपरक एवं कथापरक है। भगवती के कुछ अंश, प्रज्ञापना, विच्छिन्न हुई है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। स्थानांग में दस अनुयोगद्वार, जो कि अपेक्षाकृत परवर्ती हैं, को छोड़कर उनमें प्रायः दशाओं की जो विषय-वस्तु वर्णित है, वह उनकी वर्तमान विषय-वस्तु । गहन दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक चर्चाओं का अभाव है। विषय-प्रतिपादन से मेल नहीं खाती है। उनमें जहाँ कुछ प्राचीन अध्ययन विलुप्त हुए सरल, सहज और सामान्य व्यक्ति के लिए भी बोधगम्य है। वह मुख्यत: हैं, वहीं कुछ नवीन सामग्री समाविष्ट भी हुई है। अन्तिम वाचनाकार विवरणात्मक एवं उपदेशात्मक है। इसके विपरीत शौरसेनी-आगमों देवर्धिगणि ने स्वयं भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मुझे जो । में आराधना और मूलाचार को छोड़कर लगभग सभी ग्रन्थ दार्शनिक भी त्रुटित सामग्री मिली है, उसको ही मैंने संकलित किया है। अत: एवं सैद्धान्तिक चर्चा से युक्त हैं। वे परिपक्व दार्शनिक विचारों के आगम ग्रन्थों के विच्छेद की जो चर्चा है, उसका अर्थ यही लेना चाहिये परिचायक हैं। गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त की वे गहराइयाँ, जो शौरसेनीकि यह श्रुत-संपदा यथावत् रूप में सुरक्षित नहीं रह सकी। वह आंशिक आगमों में उलब्ध हैं, अर्धमागधी आगमों में उनका प्रायः अभाव ही रूप से विस्मृति के गर्भ में चली गई। क्योंकि भगवान महावीर के है। कुन्दकुन्द के समयसार के समान उनमें सैद्धान्तिक दृष्टि से निर्वाण के पश्चात् लगभग एक हजार वर्ष तक यह साहित्य मौखिक अध्यात्मवाद के प्रतिस्थापन का भी कोई प्रयास परिलक्षित नहीं होता। रहा और मौखिक परम्परा में विस्मृति स्वाभाविक है। विच्छेद का क्रम यद्यपि ये सब उनकी कमी भी कही जा सकती है, किन्तु चिन्तन के तभी रुका जब आगमों को लिखित रूप दे दिया गया।
विकास-क्रम की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट रूप से यह फलित दिगम्बर-परम्परा में श्रुत-विच्छेद सम्बन्धी जो चर्चा है उसके सम्बन्ध होता है कि अर्धमागधी आगम-साहित्य प्राथमिक स्तर का होने से में यह बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि उसमें श्रुतधरों के अर्थात् प्राचीन भी है और साथ ही विकसित शौरसेनी आगमों के लिए श्रुत के ज्ञाता आचार्यों के विच्छेद की चर्चा हुई है न कि श्रुत ग्रन्थों आधार-भूत भी। समवायांग में जीवस्थानों के नाम से १४ गुणस्थानों के विच्छेद की चर्चा हुई है। दूसरे यह कि पूर्व और अंग के इस का मात्र निर्देश है, जबकि षट्खण्डागम जैसा प्राचीन शौरसेनी आगम विच्छेद की चर्चा में भी पूर्व और अंगों के एकदेश-ज्ञाता आचार्यों भी उनकी गम्भीरता से चर्चा करता है। मूलाचार, भगवतीआराधना, का अस्तित्व तो स्वीकार किया ही गया है। धरसेन के सम्बन्ध में कुन्दकुन्द के ग्रन्थ और गोम्मटसार आदि सभी में गुणस्थानों की विस्तृत भी मात्र यह कहा गया है कि वे अंग और पूर्वो के एकदेश-ज्ञाता चर्चा है। चूँकि तत्त्वार्थ में गुणस्थानों की चर्चा का एवं स्याद्वाद-सप्तभंगी
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ का अभाव है, अतः वे सभी रचनाएँ तत्त्वार्थ के बाद की कृतियों मानी जा सकती हैं। इसी प्रकार कषायप्राभूत, षट्खण्डागम, गोम्मटसार आदि शौरसेनी आगम-ग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त की जो गहन चर्चा है, वह भी अर्धमागधी आगम - साहित्य में अनुपलब्ध है। अतः शौरसेनी आगमों की अपेक्षा अर्धमागधी आगमों की सरल, बोधगम्य एवं प्राथमिक स्तर की विवरणात्मक शैली उनकी प्राचीनता की सूचक है।
जैन आगम एवं साहित्य
के पन्द्रहवें शतक में मंखली गोशाल की समालोचना भी की गई है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जैन-परम्परा में अन्य परम्पराओं के प्रति उदारता का भाव कैसे परिवर्तित होता गया और साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढमूल होते गये, इसका यथार्थ चित्रण उनमें उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, आचारचूला, दशवैकालिक, निशीय आदि छेदसूत्र तथा उनके भाष्य और चूर्णियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार में कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुआ है। इसी प्रकार ऋषिभाषित उत्तराध्ययन, भगवती, ज्ञाताधर्म कथा आदि के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पार्श्वापत्यों का महावीर के संघ पर क्या प्रभाव पड़ा और दोनों के बीच सम्बन्धों में कैसे परिवर्तन होता गया। इसी प्रकार के अनेक प्रश्न जिनके कारण आज का जैन समाज साम्प्रदायिक कटघरों में बन्द है, अर्धमागधी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन के माध्यम से सुलझाये जा सकते हैं। शौरसेनी आगमोंमें मात्र मूलाचार और भगवती आराधना को जो अपनी विषय-वस्तु के लिये अर्धमागधी आगम साहित्य के ऋणी हैं, इस कोटि में रखा जा सकता है, किन्तु शेष आगमतुल्य शौरसेनी ग्रन्थ जैनधर्म को सीमित घेरों में आबद्ध ही करते हैं।
तथ्यों का सहज संकलन
अर्धमागधी आगमों में तथ्यों का सहज संकलन किया गया है। अतः अनेक स्थानों पर सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें भिन्नताएं भी पायी जाती हैं। वस्तुतः ये ग्रन्थ अकृत्रिम भाव से रचे गये हैं और उनके सम्पादन काल में भी संगतियुक्त बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। एक ओर उत्सर्ग की दृष्टि से उनमें अहिंसा की सूक्ष्मता के साथ पालन करने के निर्देश हैं तो दूसरी ओर अपवाद की अपेक्षा से ऐसे अनेक विवरण भी हैं जो इस सूक्ष्म अहिंसक जीवनशैली के अनुकूल नहीं हैं। इसी प्रकार एक ओर उनमें मुनि की अचेलता का प्रतिपादन समर्थन किया गया है, तो दूसरी ओर वस्त्र पात्र के साथ-साथ मुनि के उपकरणों की लम्बी सूची भी मिल जाती है। एक ओर केशलोच का विधान हैं तो दूसरी ओर क्षुर-मुण्डन की अनुशा भी है। उत्तराध्ययन में वेदनीय के भेदों में क्रोध- वेदनीय आदि का उल्लेख है, जो कि कर्मसिद्धान्त के अन्थों में यहाँ तक कि स्वयं उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति नामक अध्ययन में भी अनुपलब्ध है। उक्त साक्ष्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्धमागधी आगम-साहित्य जैन संघ का निष्पक्ष इतिहास प्रस्तुत करता है। तथ्यों का यथार्थ रूप में प्रस्तुतीकरण उसकी अपनी विशेषता है। वस्तुतः तथ्यात्मक विविधताओं एवं अन्तर्विरोधों के कारण अर्धमागधी आगम- साहित्य के ग्रन्थों के काल-क्रम का निर्धारण भी सहज हो जाता है।
अर्धमागधी आगम: शौरसेनी आगम और परवर्ती महाराष्ट्री व्याख्यासाहित्य के आधार
अर्धमागधी- आगम शौरसेनी आगम और महाराष्ट्री- आगमिक व्याख्या - साहित्य के आधार रहे हैं। अर्धमागधी आगमों की व्याख्या के रूप में क्रमशः निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टब्बा आदि लिखे गये हैं. ये सभी जैनधर्म एवं दर्शन के प्राचीनतम स्रोत है। यद्यपि शौरसेनी आगम और व्याख्य माहित्य में चिन्तन के विकास के साथ-साथ देश, काल और सहगामा परम्पराओं के प्रभाव से बहुत कुछ ऐसी सामग्री भी है, जो उनकी अपनी मौलिक कही जा सकती है फिर भी अर्धमागधी आगमों को उनके अनेक ग्रन्थों के मूलस्रोत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। मात्र मूलाचार में ही तीन सौ से अधिक गाथाएँ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आवश्यकनियुक्ति, जीवसमास, आतुरप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक (चन्दावेज्झय) आदि में उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकार भगवती आराधना में भी अनेक गायाएँ अर्धमागधी आगम और विशेष रूप से प्रकीर्णकों (पहचा) से मिलती है। षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में भी जो समानताएँ परिलक्षित होती हैं, उनकी विस्तृत चर्चा पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने (प्रो. ए. एन. उपाध्ये व्याख्यानमाला में) की है। नियमसार की कुछ गाथाएँ अनुयोगद्वार एवं इतर आगमों में भी पाई जाती हैं, जबकि समयसार आदि कुछ ऐसे शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थ भी हैं, जिनकी मौलिक रचना का श्रेय उनके कर्ताओं को ही है। तिलोयपत्रत्ति का प्राथमिक रूप विशेष रूप से आवश्यकनियुक्ति तथा कुछ प्रकीर्णकों के आधार पर तैयार हुआ था, यद्यपि बाद में उसमें पर्याप्त रूप से परिवर्तन और परिवर्धन किया गया है। इस प्रकार शौरसेनी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनका मूल आधार अर्धमागधी आगम साहित्य ही रहा है तथापि १६२]
अर्थमागधी आगमों में जैनसंघ के इतिहास का प्रामाणिक रूप
यदि हम अर्धमागधी आगमों का समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन करें, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन- परम्परा के आचार एवं विचार में देश-कालगत परिस्थितियों के कारण कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुए इसको जानने का आधार अर्धमागधी आगम ही है, क्योंकि इन परिवर्तनों को समझने के लिए उनमें उन तथ्यों के विकास क्रम को खोजा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जैनधर्म में साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढ़-मूल होता गया इसकी जानकारी ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग और भगवती के पन्द्रहवें शतक के समीक्षात्मक अध्ययन से मिल जाती है। ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल, असितदेवल, नारायण, याज्ञवल्क्य, बाहुक आदि ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। उत्तराध्ययन में भी कपिल, नमि, करकण्डु, नागति, गर्दभाली, संजय आदि का सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया और सूत्रकृतांग में इनमें से कुछ को आचारभेद के बावजूद भी परम्परा सम्मत माना गया। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा में नारद की और भगवती
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यतीन्द्रसूरि नरकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य उनमें जो सैद्धान्तिक गहराइयों और विकास परिलक्षित होते हैं, वे उनके रचनाकारों की मौलिक देन हैं।
अर्धमागधी आगमों का कर्तृत्व अज्ञात
अर्धमागधी आगमों में प्रज्ञापना, दशवैकालिक और छेदसूत्रों के कर्तृत्व को छोड़कर शेष के रचनाकारों के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती है। यद्यपि दशवैकालिक आर्य शय्यम्भवसूरि की, तीन छेदसूत्र आर्यभद्रबाहु की और प्रज्ञापना श्यामाचार्य की कृति मानी जाती है, महानिशीथ का उसकी दीमकों से भक्षित प्रति के आधार पर आचार्य हरिभद्र ने समुद्धार किया था, यह स्वयं उसी में उल्लिखित है, तथापि अन्य आगमों के कर्ताओं के बारे में हम अन्धकार में ही हैं। हैं। सम्भवतः उसका मूल कारण यह रहा होगा कि सामान्यजन में इस बात का पूर्ण विश्वास बना रहे कि अर्धमागधी आगम गणधरों अथवा पूर्वधरों की कृति है, इसलिये कर्ताओं ने अपने नाम का उल्लेख नहीं किया यह वैसी ही स्थिति है जैसी हिन्दू-पुराणों के कर्ता के रूप में केवल वेद व्यास को जाना जाता है। यद्यपि वे अनेक आचार्यों की और पर्याप्त परवर्तीकाल की रचनाएँ है।
इसके विपरीत शौरसेनी आगमों की मुख्य विशेषता यह है कि उनमें सभी प्रन्थों का कर्तृत्व सुनिश्चित है। यद्यपि उनमें भी कुछ परिवर्तन और प्रक्षेप परवर्ती आचार्यों ने किये हैं। फिर भी इस सम्बन्ध में उनकी स्थिति अर्धमागधी आगम की अपेक्षा काफी स्पष्ट है। अर्धमागधी आगमों में तो यहाँ तक भी हुआ है कि कुछ विलुप्त कृतियों के स्थान पर पर्याप्त परवर्ती काल में दूसरी कृति ही रख दी गई इस सम्बन्ध में प्रश्नव्याकरण की सम्पूर्ण विषय-वस्तु के परिवर्तन की चर्चा पूर्व में ही की जा चुकी है। अभी-अभी अंगचूलिया और बंगचूलिया नामक दो विलुप्त आगमों का पता चला, ये भोगीलाल लेहरचन्द भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर में उपलब्ध हैं, जब इनका अध्ययन किया गया तो पता चला कि वे लोकाशाह के पश्चात् अर्थात् सोलहवीं या सत्रहवीं शताब्दी में किसी अज्ञात आचार्य ने बनाकर रख दिये हैं। यद्यपि इससे यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल लेना चाहिए कि यह स्थिति सभी अर्धमागधी आगमों की है। सत्य तो यह है कि उनके प्रक्षेपों और परिवर्तनों को आसानी से पहचाना जा सकता है, जबकि शौरसेनी आगमों में हुए प्रक्षेपों को जानना जटिल है।
आगमों की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में जिस अतिशयता की चर्चा परवर्ती आचार्यों ने की है, वह उनके कथन की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न उपस्थित करती है। हमारी श्रद्धा और विश्वास चाहे कुछ भी हो किन्तु तर्कबुद्धि और गवेषणात्मक दृष्टि से तो ऐसा प्रतीत होता है। कि आगम - साहित्य की विषय-वस्तु को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया । यह कहना कि आचारांग के आगे प्रत्येक अंग-ग्रन्थ की श्लोक संख्या एक दूसरे से क्रमश: द्विगुणित रही थी अथवा १४ वें पूर्व की विषय-वस्तु इतनी थी कि उसे चौदह हाथियों के बराबर स्याही से लिखा जा सकता था, आस्था की वस्तु हो सकती है, किन्तु बुद्धिगम्य नहीं है ।
अन्त में विद्वानों से मेरी यह अपेक्षा है कि वे आगमों और विशेष रूप से अर्धमागधी आगमों का अध्ययन श्वेताम्बर दिगम्बर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी या तेरापंथी दृष्टि से न करें अपितु इन साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर उठकर करें, तभी हम उनके माध्यम से जैनधर्म के प्राचीन स्वरूप का यथार्थ दर्शन कर सकेगें और प्रामाणिक रूप से यह भी समझ सकेगें कि कालक्रम में उनमें कैसे और क्या परिवर्तन हुए हैं। आज आवश्यकता है पं. बेचरदास जी जैसी निष्पक्ष एवं तटस्थ बुद्धि से उनके अध्ययन की अन्यथा दिगम्बर को उसमें वस्त्रसम्बन्धी उल्लेख प्रक्षेप लगेगे, तो श्वेताम्बर सारे वस्त्रपात्र के उल्लेखों को महावीरकालीन मानने लगेगा और दोनों ही यह नहीं समझ सकेंगे कि वस्त्र पात्र का क्रमिक विकास किन परिस्थितियों में और कैसे हुआ है? इस सम्बन्ध में नियुक्ति, भाष्य चूर्णि और टीका का अध्ययन आवश्यक है क्योंकि ये इनके अध्ययन की कुंजियाँ हैं। शौरसेनी और अर्धमागधी आगमों का तुलनात्मक अध्ययन भी उनमें निहित सत्य को यथार्थ रूप से आलोकित कर सकेगा। आशा है युवा विद्वान् मेरी इस प्रार्थना पर ध्यान देगें।
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जैन आगम साहित्य का परिचय देने के उद्देश्य से सम्प्रतिकाल में अनेक प्रयत्न हुए हैं। सर्वप्रथम पाश्चात्य विद्वानों में हर्मन जैकोबी शुबिंग, विण्टरनित्ज आदि ने अपनी भूमिकाओं एवं स्वतन्त्र निबन्धों में इस पर प्रकाश डाला। इस दिशा में अंग्रेजी में सर्वप्रथम हीरालाल रसिकलाल कापड़िया ने 'A History of the Cononical Literature of the Jainas' नामक पुस्तक लिखी। यह ग्रन्थ अत्यन्त शोधपरक दृष्टि से लिखा गया और आज भी एक प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में मान्य किया जाता है। इसके पक्षात् प्रो. जगदीशचन्द्र जैन का ग्रन्थ 'प्राकृतसाहित्य का इतिहास' भी इस क्षेत्र में दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान द्वारा 'जैन साहित्य का बृहद इतिहास' योजना के अन्तर्गत प्रकाशित प्रथम तीनों खण्डों में प्राकृत आगम साहित्य का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। इसी दिशा में आचार्य देवेन्द्रमुनिशास्त्री की पुस्तक 'जैनागम मनन और मीमांसा' भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। मुनि नगराजजी की पुस्तक 'जैनागम और पाली - त्रिपिटक' भी तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। पं. कैलाशचन्द्र जी द्वारा लिखित 'जैन - साहित्य के इतिहास की पूर्व पीठिका' में अर्धमागधी आगम साहित्य का और उसके प्रथम भाग में शौरसेनी आगम साहित्य का उल्लेख हुआ है। किन्तु उसमें निष्पक्ष दृष्टि का निर्वाह नहीं हुआ है और अर्धमागधी आगम साहित्य के मूल्य और महत्त्व को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा गया है।
पूज्य आचार्य श्री जयन्तसेनसूरि जी ने 'जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन' कृति की सर्जना जनसाधारण को आगम साहित्य की विषय-वस्तु का परिचय देने के उद्देश्य की है, फिर भी उन्होंने पूरी प्रामाणिकता के साथ संशोधनात्मक दृष्टि का भी निर्वाह किया है।
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आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान, महत्त्व, रचनाकाल
एवं रचयिता
आगम-साहित्य में प्रकीर्णकों का स्थान
आचार्य जिनप्रभ के विधिमार्गप्रपा (लगभग ईसा की तेरहवीं शती) में किसी भी धार्मिक परम्परा का आधार उसके धर्मग्रन्थ होते हैं, मिलता है। इससे यह फलित होता है कि तेरहवीं शती से पूर्व आगमों जिन्हें वह प्रमाणभूत मानकर चलती है। जिस प्रकार मुसलमानों के के वर्गीकरण में कहीं भी प्रकीर्णक वर्ग का स्पष्ट निर्देश नहीं है, किन्तु लिये कुरान, ईसाइयों के लिये बाइबिल, बौद्धों के लिये त्रिपिटक और इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिये कि उसके पूर्व न तो हिन्दुओं के लिये वेद प्रमाणभूत ग्रन्थ हैं, उसी प्रकार जैनों के लिये प्रकीर्णक साहित्य था और न ही इनका कोई उल्लेख था। आगम प्रमाणभूत ग्रन्थ हैं। सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र, नन्दीसूत्र और अंग-आगमों में सर्वप्रथम समवायांगसूत्र में प्रकीर्णक का उल्लेख पाक्षिकसूत्र में आगमों का वर्गीकरण अंगबाह्य के रूप में किया गया हुआ है। उसमें कहा गया है कि भगवान् ऋषभदेव के चौरासी हजार है। परम्परागत अवधारणा यह है कि तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट और गणधरों शिष्यों द्वारा रचित चौरासी हजार प्रकीर्णक थे। परम्परागत अवधारणा द्वारा रचित ग्रन्थ अंगप्रविष्ट आगम कहे जाते हैं। इनकी संख्या बारह यह है कि जिस तीर्थङ्कर के जितने शिष्य होते हैं, उसके शासन में है, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से स्वीकृत उतने ही प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना होती है। सामान्यतया प्रकीर्णक है। इन अंग-आगमों के नाम हैं-१. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, शब्द का तात्पर्य होता है-विविध ग्रन्थ। मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५.व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञाताधर्मकथांग, में आगमों के अतिरिक्त सभी ग्रन्थ प्रकीर्णक की कोटि में माने जाते ७. उपासकदशांग, ८. अन्तकृद्दशांग, ९. अनुत्तरौपपातिकदशा थे। अंग-आगमों से इतर आवश्यक, आवश्यक-व्यतिरिक्त, कालिक १०. प्रश्नव्याकरणदशा, ११. विपाकदशा और १२. दृष्टिवाद। इनके एवं उत्कालिक के रूप में वर्गीकृत सभी ग्रन्थ प्रकीर्णक कहलाते थे। नाम और क्रम के सम्बन्ध में भी दोनों परम्पराओं में एकरूपता है। मेरे इस कथन का प्रमाण यह है कि षट्खण्डागम की धवला टीका मूलभूत अन्तर यह है कि जहाँ श्वेताम्बर-परम्परा आज भी दृष्टिवाद में बारह अंग-आगमों से भिन्न अंगबाह्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक नाम दिया के अतिरिक्त शेष ग्यारह अंगों का अस्तित्व स्वीकार करती है, वहाँ गया है। उसमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि को भी दिगम्बर-परम्परा आज मात्र दृष्टिवाद के आधार पर निर्मित कसायपाहुड, प्रकीर्णक ही कहा गया है। यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णक नाम से षटखण्डागम आदि के अतिरिक्त इन अंग-आगमों को विलुप्त मानती है। अभिहित अथवा प्रकीर्णव वर्ग में समाहित सभी ग्रन्थों के नाम के
अंगबाह्य वे ग्रन्थ हैं जो जिनवचन के आधार पर स्थविरों के अन्त में प्रकीर्णक शब्द ना मिलता है। मात्र कुछ ही ग्रन्थ ऐसे हैं द्वारा लिखे गए हैं। नन्दीसूत्र में अंग-बाह्य आगमों को भी प्रथमतः जिनके नाम के अन्त में पर्णक शब्द का उल्लेख हुआ है। फिर दो भागों में विभाजित किया गया है-१. आवश्यक और २. आवश्यक भी इतना निश्चित है कि प्रकीर्णकों का अस्तित्व अति प्राचीन काल व्यतिरिक्त। आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना में भी रहा है, चाहे उन्हें प्रकीर्णक नाम से अभिहित किया गया हो प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान- ये छ: ग्रन्थ सम्मिलित रूप अथवा न किया गया हो। नन्दीसूत्रकार ने अंग-आगमों को छोड़कर से आते हैं, जिन्हें आज आवश्यकसूत्र के नाम से जाना जाता है। आगम रूप में मान्य सभी ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहा है। अत: 'प्रकीर्णक' इसी ग्रन्थ में आवश्यक-व्यतिरिक्त आगम-ग्रन्थों को भी पुनः दो भागों शब्द आज जितने संकुचित अर्थ में है उतना पूर्व में नहीं था। उमास्वाति में विभाजित किया गया है-१. कालिक और २. उत्कालिक। आज और देववाचक के समय में तो अंग-आगमों के अतिरिक्त शेष सभी प्रकीर्णकों में वर्गीकृत नौ ग्रन्थ इन्हीं दो विभागों के अन्तर्गत उल्लिखित आगमों को प्रकीर्णक में ही समाहित किया जाता था। इससे जैन-आगमहैं। इसमें कालिक के अन्तर्गत ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, इन साहित्य में प्रकीर्णक का क्या स्थान है, यह सिद्ध हो जाता है। प्राचीन दो प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है, जबकि उत्कालिक के अन्तर्गत दृष्टि से तो अंग-आगमों के अतिरिक्त सम्पूर्ण जैन-आगमिक साहित्य देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक , चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, आतुरप्रत्याख्यान, प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत आता है। महाप्रत्याख्यान और मरणविभक्ति इन सात प्रकीर्णकों का उल्लेख है। वर्तमान में प्रकीर्णक-वर्ग के अन्तर्गत दस ग्रन्थ मानने की जो
प्राचीन आगमों में ऐसा कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि अमुक- परम्परा है, वह न केवल अर्वाचीन है अपितु इस सन्दर्भ में श्वेताम्बरअमुक ग्रन्थ प्रकीर्णक के अन्तर्गत आते हैं। नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र आचार्यों में परस्पर मतभेद भी है कि इन दस प्रकीर्णकों में कौन दोनों में ही आगमों के विभिन्न वर्गों में कहीं भी प्रकीर्णक-वर्ग का से ग्रन्थ समाहित किये जाएँ। प्रद्युम्नसूरि ने विचारसारप्रकरण (चौदहवीं उल्लेख नहीं है। यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों में आज हम जिन्हें प्रकीर्णक शताब्दी) में पैंतालीस आगमों का उल्लेख करते हुए कुछ प्रकीर्णकों मान रहे हैं, उनमें से अनेक का उल्लेख कालिक एवं उत्कालिक आगमों का उल्लेख किया है। आगम-प्रभाकर मुनिपुण्यविजयजी ने चार के अन्तर्गत हुआ है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आगमों का अंग, अलग-अलग सन्दर्भो में प्रकीर्णकों की अलग-अलग सूचियाँ प्रस्तुत उपांग, छेद, मूल, चूलिका और प्रकीर्णक के रूप में उल्लेख सर्वप्रथम की हैं।"
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- चीन्दरिमारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - अत: दस प्रकीर्णक के अन्तर्गत किन-किन ग्रन्थों को समाहित प्रकीर्णक में मुख्य रूप से चतुर्विध संघ के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए करना चाहिये, इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर-आचार्यों में कहीं भी एकरूपता जैन-साधना का परिचय दिया गया है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, देखने को नहीं मिलती है। इससे यह फलित होता है कि प्रकीर्णक मरणसमाधि, संस्तारक, आराधनापताका, आराधनाप्रकरण, भक्तप्रत्याख्यान ग्रन्थों की संख्या दस है, यह मान्यता न केवल परवर्ती है अपितु उसमें आदि प्रकीर्णक जैन-साधना के अन्तिम चरण समाधिमरण की पूर्व तैयारी एकरूपता का भी अभाव है। भिन्न-भिन्न श्वेताम्बर आचार्य भिन्न-भिन्न और उसकी साधना की विशेष विधियों का चित्रण प्रस्तुत करते हैं। इस सूचियाँ प्रस्तुत करते रहे हैं उनमें कुछ नामों में तो एकरूपता होती प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों का समावेश हुआ है, किन्तु सभी नामों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है। जहाँ है, जो जैन-साहित्य के क्षेत्र में उनके मूल्य और महत्त्व को स्पष्ट कर देता है। तक दिगम्बर-परम्परा का प्रश्न है उसमें तत्त्वार्थभाष्य का अनुसरण करते हुए अंग-आगमों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक कहने की ही प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल परम्परा रही है। अत: प्रकीर्णकों की संख्या अमुक ही है, यह कहने जहाँ तक प्रकीर्णकों की प्राचीनता का प्रश्न है उनमें से अनेक का कोई माणिक आधार नहीं है। वस्तुतः अंग-आगम साहित्य के प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से वे उससे प्राचीन सिद्ध हो अतिरक्ति सम्पूर्ण अंगबाह्य आगम-साहित्य प्रकीर्णक के अन्तर्गत आते जाते हैं। मात्र यही नहीं प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों में से अनेक हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य जैन-आगम-साहित्य के अति विशाल तो अंग-आगमों की अपेक्षा प्राचीन स्तर के रहे हैं, क्योंकि ऋषिभाषित भाग का परिचायक है और उनकी संख्या को दस तक सीमित करने का स्थानांग एवं समवायांग में उल्लेख है। ऋषिभाषित आदि कुछ का दृष्टिकोण पर्याप्त रूप से परवर्ती और विवादास्पद है। ऐसे प्रकीर्णक हैं जो भाषा-शैली, विषय-वस्तु आदि अनेक आधारों
पर आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष आगमों की अपेक्षा प्रकीर्णक साहित्य का महत्त्व
भी प्राचीन हैं। ऋषिभाषित उस काल का ग्रन्थ है, जब जैनधर्म सीमित यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी सीमाओं में आबद्ध नहीं हुआ था वरन् उसमें अन्य परम्पराओं के श्रमणों सम्प्रदाय प्रकीर्णकों को आगमों के अन्तर्गत मान्य नहीं करते हैं, किन्तु को भी आदर पूर्वक स्थान प्राप्त था। इस ग्रन्थ की रचना उस युग प्रकीर्णकों की विषय-वस्तु का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि में सम्भव नहीं थी, जब जैनधर्म भी सम्प्रदाय के क्षुद्र घेरे में आबद्ध अनेक प्रकीर्णक अंग-आगमों की अपेक्षा भी साधना की दृष्टि से हो गया। लगभग ई० पू० तीसरी शताब्दी से जैनधर्म में जो साम्प्रदायिक महत्त्वपूर्ण हैं। यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य वीरभद्र द्वारा ईसा की अभिनिवेश दृढ़ हो रहे थे, उसके संकेत सूत्रकृतांगसूत्र और भगवतीसूत्र दसवीं शती में रचित कुछ प्रकीर्णक अर्वाचीन है, किन्तु इससे सम्पूर्ण जैसे प्राचीन आगमों में भी मिल रहे हैं। भगवतीसूत्र में जिस मंखलिपुत्र प्रकीर्णकों की अर्वाचीनता सिद्ध नहीं होती। विषय-वस्तु की दृष्टि से गोशालक की कटु आलोचना है, उसे ऋषिभाषित अर्हत् ऋषि कहता प्रकीर्णक साहित्य में जैनविद्या के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, तंदुलवैचारिक, मरणविभक्ति है। जहाँ तक देवेन्द्रस्तव और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक का प्रश्न है, आदि प्रकीर्णक साहित्य के ऐसे ग्रन्थ हैं-जो सम्प्रदायगत आग्रहों वे मुख्यतः जैन खगोल और भूगोल की चर्चा करते हैं। इसी प्रकार से मुक्त हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में ऋषिभाषित के अनेक ऋषियों का तित्थोगाली प्रकीर्णक में भी जैन-काल-व्यवस्था का चित्रण विभिन्न सम्मानपूर्वक उल्लेख और उन्हें अर्हत् परम्परा द्वारा सम्मत माना जाना भौगोलिक क्षेत्रों के सन्दर्भ में हुआ है। ज्योतिष्करण्डक और गणिविद्या- भी यही सूचित करता है कि ऋषिभाषित इन अंग-आगमों से भी प्राचीन प्रकीर्णक का सम्बन्ध मुख्यतया जैन-ज्योतिष से है। तित्थोगाली प्रकीर्णक है। पुन: ऋषिभाषित जैसे कुछ प्राचीन प्रकीर्णकों की भाषा का अर्धमागधी मुख्यरूप से प्राचीन जैन-इतिहास को प्रस्तुत करता है। श्वेताम्बर-परम्परा स्वरूप तथा आगमों की अपेक्षा उनकी भाषा में महाराष्ट्री भाषा की में तित्थोगाली ही एकमात्र ऐसा प्रकीर्णक है जिसमें आगमज्ञान के क्रमिक अल्पता भी यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ प्राचीन स्तर के हैं। नन्दीसूत्र उच्छेद की बात कही गई है। सारावली प्रकीर्णक में मुख्य रूप से में प्रकीर्णक के नाम से अभिहित नौ ग्रन्थों का उल्लेख भी यही सिद्ध शत्रुञ्जय महातीर्थ की कथा और महत्त्व उल्लिखित है। तंदुलवैचारिक करता है कि कम से कम ये नौ प्रकीर्णक तो नन्दीसूत्र से पूर्ववर्ती प्रकीर्णक जैन-जीवविज्ञान का सुन्दर और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता हैं। नन्दीसूत्र का काल विद्वानों ने विक्रम की पाँचवीं शती माना है, है। इसी प्रकार अंगविद्या नामक प्रकीर्णक मानव-शरीर के अंग-प्रत्यंगों अत: ये प्रकीर्णक उससे पूर्व के हैं। इसी प्रकार समवायांगसूत्र में स्पष्ट के विवरण के साथ-साथ उनके शुभाशुभ लक्षणों का भी चित्रण करता रूप से प्रकीर्णकों का निर्देश भी यही सिद्ध करता है कि समवायांगसूत्र है और उनके आधार पर फलादेश भी प्रस्तुत करता है। इस प्रकार के रचनाकाल अर्थात् विक्रम की तीसरी शती में भी अनेक प्रकीर्णकों इस ग्रन्थ का सम्बन्ध शरीर-रचना एवं फलित ज्योतिष दोनों विषयों का अस्तित्व था। से है। गच्छाचार प्रकीर्णक में जैन-संघ-व्यवस्था का चित्रण उपलब्ध इन प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव के रचनाकार ऋषिपालित हैं। कल्पसूत्र होता है, जबकि चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध एवं स्थविरावली में ऋषिपालित का उल्लेख है। इनका काल ईसा-पूर्व प्रथम शिक्षा- सम्बन्धों का निर्देश है। वीरस्तव प्रकीर्णक में महावीर के विविध शती के लगभग है। इसकी विस्तृत चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव (देविंदत्थओ) विशेषण के अर्थ की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या की गई है। चतुःशरण की प्रस्तावना में की है" (इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं)।
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चतीन्द्रसरिरमारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य अभी-अभी 'सम्बोधि' पत्रिका में श्री ललित कुमार का एक शोध-लेख की रचना के पश्चात् लगभग पाँचवीं-छठी शती में अस्तित्व में आया प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने पुरातात्त्विक आधारों पर यह सिद्ध है। चूँकि मूलाचार और भगवती-आराधना दोनों ग्रन्थों में गुणस्थान किया है कि देवेन्द्रस्तव की रचना ई०पू० प्रथम शती में या उसके का उल्लेख मिलता है, अत: ये ग्रन्थ पाँचवीं शती के बाद की रचनाएँ भी कुछ पूर्व हुई होगी। प्रकीर्णकों में निम्नलिखित प्रकीर्णक वीरभद्र हैं जबकि आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि का उल्लेख की रचना कहे जाते हैं-चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा और नन्दीसूत्र में होने से ये ग्रन्थ पाँचवीं शती के पूर्व की रचनाएँ हैं। आराधनापताका। आराधनापताका की प्रशस्ति में 'विक्कमनिवकालाओ २. मूलाचार में संक्षिप्तप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक अट्ठत्तरिमे-समासहस्सम्मि' या पाठभेद से अट्ठभेद से समासहस्सम्मि' अध्ययन बनाकर उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक के उल्लेख के अनुसार इनका रचनाकाल ई० सन् १००८ या १०७८ दोनों ग्रन्थों को समाहित किया गया है। इससे यही सिद्ध होता है सिद्ध होता है। इस प्रकार प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों में जहाँ कि ये ग्रन्थ पूर्ववर्ती हैं और मूलाचार परवर्ती है। ऋषिभाषित ई० पू० पाँचवीं शती की रचना है, वहीं आराधनापताका ३. भगवती-आराधना में भी मरणविभक्ति को अनेक गाथाएँ समान - ई० सन् की दसवीं या ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध की रचना है। इस रूप से मिलती हैं। वर्ण्य-विषय की समानता होते हुए भी भगवतीप्रकार प्रकीर्णक साहित्य में समाहित ग्रन्थ लगभग पन्द्रह सौ वर्ष की आराधना में जो विस्तार है, वह मरणविभक्ति में नहीं है। प्राचीन स्तर सुदीर्घ अवधि में निर्मित होते रहे हैं, फिर भी चउसरण, परवर्ती के ग्रन्थ मात्र श्रुतपरम्परा से कण्ठस्थ किये जाते थे, अत: वे आकार आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारग और आराहनापडाया को में संक्षिप्त होते थे ताकि उन्हें सुगमता से याद रखा जा सके, जबकि छोड़कर शेष प्रकीर्णक ई० सन् की पाँचवी शती के पूर्व की रचनाएँ लेखन-परम्परा के विकसित होने के पश्चात् विशालकाय ग्रन्थ निर्मित हैं। ज्ञातव्य है कि महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित होने लगे। मूलाचार और भगवती-आराधना दोनों विशाल ग्रन्थ हैं, 'पइण्णयसुत्ताई' में आउरपच्चक्खाण के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध अत: वे प्रकीर्णकों से अपेक्षाकृत परवर्ती हैं। वस्तुतः प्रकीर्णक साहित्य होते हैं, इनमें वीरभद्र रचित आउरपच्चक्खाण परवर्ती है, किन्तु नन्दीसूत्र के वे सभी ग्रन्थ जो नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में उल्लिखित हैं और में उल्लिखित आउरपच्चक्खाण तो प्राचीन ही है।
वर्तमान में उपलब्ध हैं, निश्चित ही ईसा की पाँचवीं शती पूर्व के है। यहाँ पर यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर- प्रकीर्णकों में ज्योतिष्करण्डक नामक प्रकीर्णक का भी महत्त्वपूर्ण मान्य अंग-आगमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र जैसे प्राचीन स्तर स्थान है। इसमें श्रमण गन्धहस्ती और प्रतिहस्ती का उल्लेख मिलता के आगम ग्रन्थों में भी पायी जाती हैं। गद्य अंग-आगमों, में पद्यरूप है। इसमें यह भी कहा गया है कि जिस विषय का सूर्यप्रज्ञप्ति में में इन गाथाओं की उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है कि उनमें ये विस्तार से विवेचन है, उसी को संक्षेप में यहाँ दिया गया है। तात्पर्य गाथाएँ प्रकीर्णकों से अवतरित हैं। यह कार्य वलभीवाचना के पूर्व हुआ यह है कि यह प्रकीर्णक सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर निर्मित किया गया है, अत: फलित होता है कि नन्दीसूत्र में उल्लिखित प्रकीर्णक है। इसमें कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य का भी स्पष्ट उल्लेख हुआ वलभीवाचना के पूर्व रचित हैं। तंदुलवैचारिक का उल्लेख दशवैकालिक है। पादलिप्ताचार्य का उल्लेख नियुक्ति-साहित्य में भी उपलब्ध होता की प्राचीन अगस्त्यसिंह चूर्णि में है। इससे उसकी प्राचीनता सिद्ध है (लगभग ईसा की प्रथम शती)। इससे यही फलित होता है कि हो जाती है। यह चूर्णि अन्य चूर्णियों की अपेक्षा प्राचीन मानी गयी है। ज्योतिष्करण्डक का रचनाकाल भी ई० सन् की प्रथम शती है। अंगबाह्य
दिगम्बर-परम्परा में मूलाचार, भगवती-आराधना और कुन्दकुन्द आगमों में सूर्यप्रज्ञप्ति, जिसके आधार पर इस ग्रन्थ की रचना हुई, के ग्रन्थों में प्रकीर्णकों की सैकड़ों गाथाएँ अपने शौरसेनी रूपान्तरण एक प्राचीन ग्रन्थ है क्योंकि इसमें जो ज्योतिष सम्बन्धी विवरण हैं, में मिलती हैं। मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान वह ईसवी पूर्व के हैं, उसके आधार पर भी इसकी प्राचीनता सिद्ध नामक अध्यायों में तो आतुरप्रत्याख्यान एवं महाप्रत्याख्यान इन दोनों होती है। साथ ही इसकी भाषा में अर्धमागधी रूपों की प्रचुरता भी प्रकीर्णकों की लगभग सत्तर से अधिक गाथाएँ हैं। इसी प्रकार इसे प्राचीन ग्रन्थ सिद्ध करती है। मरणविभक्ति प्रकीर्णक की लगभग शताधिक गाथाएँ भगवती-आराधना अतः प्रकीर्णकों के रचनाकाल की पूर्व सीमा ई०पू० चतुर्थ-तृतीय में मिलती हैं। इससे यही फलित होता है कि ये प्रकीर्णक ग्रन्थ मूलाचार शती से प्रारम्भ होती है। परवर्ती कुछ प्रकीर्णक जैसे कुशलानुबंधि एवं भगवती-आराधना से पूर्व के हैं। मूलाचार एवं भगवती-आराधना अध्ययन, चतुःशरण, भक्तपरिज्ञा आदि वीरभद्र की रचना माने जाते के रचनाकाल को लेकर चाहे कितना भी मतभेद हो, किन्तु इतना हैं, वे निश्चित ही ईसा की दसवीं शती की रचनाएँ हैं। इस प्रकार निश्चित है कि ये ग्रन्थ ईसा की छठी शती से परवर्ती नहीं हैं। प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल ई०पू० चतुर्थ शती से प्रारम्भ होकर
यद्यपि यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि प्रकीर्णक में ये गाथाएँ ईसा की दसवीं शती तक अर्थात् लगभग पन्द्रह सौ वर्षों की सुदीर्घ इन यापनीय/अचेल परम्परा के ग्रन्थों से ली गयी होंगी, किन्तु अनेक अवधि तक व्याप्त है। प्रमाणों के आधार पर यह दावा निरस्त हो जाता है। जिनमें से कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं
प्रकीर्णकों के रचयिता १. गुणस्थान सिद्धान्त उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और आचारांगनियुक्ति प्रकीर्णक साहित्य के रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार करते हुए
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- यतीन्दसूरिरमारकन्य-जेन आगम एवं साहित्य - हमने यह पाया है कि अधिकांश प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिता के सन्दर्भ सौ वर्षों की सुदीर्घ अवधि में प्रकीर्णक साहित्य लिखा जाता रहा है। में कहीं कोई उल्लेख नहीं है। प्राचीन स्तर के प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित, किन्तु इतना निश्चित है कि अधिकांश महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ईसा की पाँचवींचन्द्रवेध्यक, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, गणिविद्या, छठी शताब्दी तक लिखे जा चुके थे। वे सभी प्रकीर्णक जो नन्दीसूत्र संस्तारक आदि में लेखक के नाम का कहीं भी निर्देश नहीं है। मात्र में उल्लिखित हैं, वस्तुत: प्राचीन हैं और उनमें जैनों के सम्प्रदायगत देवेन्द्रस्तव और ज्योतिष्करण्डक दो ही प्राचीन प्रकीर्णक ऐसे हैं, जिनकी विभेद की कोई सूचना नहीं है। मात्र तित्थोगाली, सारावली आदि कुछ अन्तिम गाथाओं में स्पष्ट रूप से लेखक के नामों का उल्लेख हुआ परवर्ती प्रकीर्णकों में प्रकारान्तर से जैनों के साम्प्रदायिक मतभेदों की है। देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में ऋषिपालित और ज्योतिष्करण्डक किञ्चित् सूचना मिलती है। प्राचीन स्तर के इन प्रकीर्णकों में से अधिकांश के कर्ता के रूप में पादलिप्ताचार्य के नामों का उल्लेख कल्पसूत्र । मूलत: आध्यात्मिक साधना और विशेष रूप से समाधिमरण की साधना स्थविरावली में महावीर की पट्टपरम्परा में तेरहवें स्थान पर आता है के विषय में प्रकाश डालते हैं। ये ग्रन्थ निवृत्तिमूलक जीवनदृष्टि के
और इस आधार पर वे ई० पू० प्रथम शताब्दी के लगभग के सिद्ध प्रस्तोता हैं। यह हमारा दुर्भाग्य है कि जैन-परम्परा के कुछ सम्प्रदायों होते हैं। पसूत्र स्थविरावली में इनके द्वारा कोटिकगण की में विशेष रूप से दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में ऋषिपालित शाखा प्रारम्भ हुई, ऐसा भी उल्लेख है। इस सन्दर्भ में इनकी आगम रूप में मान्यता नहीं है, किन्तु यदि निष्पक्ष भाव से
और विस्तार से चर्चा हमने देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक की भूमिका में की इन प्रकीर्णकों का अध्ययन किया जाय तो इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है। १२ देवेन्द्रस्तव के कर्ता ऋषिपालित का समय लगभग ई० पू० प्रथम है जो इन परम्पराओं की मान्यता के विरोध में जाता हो। आगम-संस्थान, शताब्दी है। इस तथ्य की पुष्टि श्री ललित कुमार ने अपने एक शोध-लेख उदयपुर द्वारा इन प्रकीर्णकों का हिन्दी में अनुवाद करके जो महत्त्वपूर्ण में की है, जिसका निर्देश भी हम पूर्व में कर चुके हैं। ज्योतिष्करण्डक कार्य किया जा रहा है, आशा है, उसके माध्यम से ये ग्रन्थ उन परम्पराओं के कर्ता पादलिप्ताचार्य का उल्लेख हमें नियुक्ति-साहित्य में उपलब्ध । में भी पहुंचेंगे और उनमें इनके अध्ययन और पठन-पाठन की रुचि होता है। १३ आर्यरक्षित के समकालिक होने से वे लगभग ईसा की विकसित होगी। वस्तुत: प्रकीर्णक साहित्य की उपेक्षा प्राकृत साहित्य प्रथम शताब्दी के ही सिद्ध होते हैं। उनके व्यक्तित्व के सन्दर्भ में भी के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष की उपेक्षा है। इस दिशा में आगम-संस्थान, चूर्णि-साहित्य और परवर्ती प्रबन्धों में विस्तार से उल्लेख मिलता है। उदयपुर ने साम्प्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठकर इनके अनुवाद को __कुसलाणुबंधि अध्ययन और भक्तपरिज्ञा के कर्ता के रूप में भी प्रकाशित करने की योजना को अपने हाथ में लिया और इनका प्रकाशन आचार्य वीरभद्र का ही उल्लेख मिलता है। १४ वीरभद्र के काल के सम्बन्ध । करके अपनी उदारवृत्ति का परिचय दिया है। प्रकीर्णक साहित्य के में अनेक प्रवाद प्रचलित हैं जिनकी चर्चा हमने गच्छाचार प्रकीर्णक समीक्षात्मक अध्ययन के उद्देश्य को लेकर इनके द्वारा प्रकाशित 'प्रकीर्णक की भूमिका में की है। हमारी दृष्टि में वीरभद्र ईसा की दसवीं शताब्दी साहित्य : अध्ययन एवं समीक्षा' नामक पुस्तक प्रकीर्णकों के विषय के उत्तरार्द्ध और ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के आचार्य हैं। में विस्तृत जानकारी देती है। आशा है सुधीजन संस्था के इन प्रयत्नों
इस प्रकार निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि ईस्वी पूर्व को प्रोत्साहित करेंगे, जिसके माध्यम से प्राकृत-साहित्य की यह अमूल्य चतुर्थ शताब्दी से लेकर ईसा की दसवीं शताब्दी तक लगभग पन्द्रह निधि जन-जन तक पहुँचकर उनके आत्म-कल्याण में सहायक बनेगी।
सन्दर्भ १. 'अंगबाहिरचोद्दसपइण्णयज्झाया'-धवला, पुस्तक १३, खण्ड ५, २ भाग ५,सूत्र ४८, पृ० २६७, उद्धृत-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश,
पृ०७०। वही, पृ० ७०।
नन्दीसूत्र, सम्पा०-मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, - १९८२, सूत्र ८१। ।
उद्धृत-पइण्णयसुत्ताई, सम्पा०-मुनि पुण्यविजय, महावीर जैन
विद्यालय, बम्बई, १९८४, भाग १, प्रस्तावना, पृ०२१। ५. वही,प्रस्तावना, पृ० २०-२१।। छक). स्थानाङ्गसूत्र, सम्पा०-मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर,
१९८१, स्थान १०, सूत्र ११६। (ख) समवायाङ्गसूत्र, सम्पा०-मुनि मधुकर, आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर, १९८२, समवाय ४४, सूत्र २५८। ७. देविदत्थओ (देवेन्द्रस्तव), आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत
संस्थान, उदयपुर, १९८८, भूमिका, पृ० १८-२२। ८. Sambodhi, L.D. Institute of Indology, Ahmedabad,
Vol. XVIII, Year 1992-93, pp. 74-76 ९. आराधनापताका (आचार्य वीरभद्र), गाथा ९८७। १०. दशवैकालिक चूर्णि, पृ० ३, पं०१२-उद्धृत पइण्णयसुत्ताई, भाग
१, प्रस्तावना, पृ०१९।। ११. (क) देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णक, गाथा ३१०।
(ख) ज्योतिष्करण्डक प्रकीर्णक, गाथा ४०३-४०६। १२. देविंदत्थओ, भूमिका, पृ० १८-२२। १३. पिंडनियुक्ति, गाथा ४९८। १४. (क) कुसलाणुबंधि अध्ययन प्रकीर्णक, गाथा ६३।
(ख) भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक, गाथा १७२। १५. गच्छायार पइण्णय (गच्छाचार-प्रकीर्णक), आगम,अहिंसा-समता एवं
प्राकृत संस्थान, उदयपुर, १९९४, भूमिका, पृ०२०-२१॥
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नियुक्ति-साहित्य : एक पुनर्चिन्तन
जिस प्रकार वेदों के शब्दों की व्याख्या के रूप में सर्वप्रथम निरुक्त सा अर्थ किस प्रसंग में उपयुक्त है, यह निर्णय करना आवश्यक होता लिखे गये, सम्भवत: उसी प्रकार जैन-परम्परा में आगमों की व्याख्या है। भगवान् महावीर के उपदेश के आधार पर लिखित आगमिक ग्रन्थों के लिए सर्वप्रथम नियुक्तियाँ लिखने का कार्य हुआ। जैन-आगमों की में कौन से शब्द का क्या अर्थ है, इसे स्पष्ट करना ही नियुक्ति का व्याख्या के रूप में लिखे गये ग्रन्थों में नियुक्तियाँ प्राचीनतम हैं। आगमिक प्रयोजन है।" दूसरे शब्दों में नियुक्ति जैन-परम्परा के पारिभाषिक शब्दों व्याख्या-साहित्य मुख्य रूप से निम्न पाँच रूप में विभक्त किया जा का स्पष्टीकरण है। यहाँ हमें स्मरण रहे कि जैन-परम्परा में अनेक सकता है-१. नियुक्ति २. भाष्य ३. चूर्णि ४. संस्कृत-वृत्तियाँ एवं शब्द अपने व्युत्पत्तिपरक अर्थ में गृहीत न होकर अपने पारिभाषिक टीकाएँ और ५. टब्बा अर्थात् आगमिक शब्दों को स्पष्ट करने के लिए अर्थ में गृहीत हैं, जैसे-अस्तिकायों के प्रसंग में 'धर्म' एवं 'अधर्म' प्राचीन मरु-गुर्जर में लिखा गया आगमों का शब्दार्थ। इनके अतिरिक्त शब्द, कर्म सिद्धान्त के सन्दर्भ में प्रयुक्त ‘कमायवा स्याद्वाद सम्प्रति आधुनिक भाषाओं यथा हिन्दी, गुजराती एवं अंग्रेजी में भी में प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द। आचारांग में 'दंसण' (दर्शन) राय का जो आगमों पर व्याख्याएँ लिखी जा रही हैं।
अर्थ है, उत्तराध्ययन में उसका वही अर्थ नहीं है। दर्शनावरण में दर्शन सुप्रसिद्ध जर्मन-विद्वान् शान्टियर उत्तराध्ययनसूत्र की भूमिका शब्द का जो अर्थ होता है वही अर्थ दर्शनमोह के सन्दर्भ में नहीं होता में नियुक्ति की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि 'नियुक्तियाँ है। अत: आगम ग्रन्थों में शब्द के प्रसंगानुसार अर्थ का निर्धारण करने मुख्य रूप से केवल विषयसूची का काम करती हैं। वे सभी विस्तारयुक्त में नियुक्तियों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। घटनाओं को संक्षेप में उल्लिखित करती हैं।'
नियुक्तियों की व्याख्या-शैली का आधार मुख्य रूप से जैन-परम्परा अनुयोगद्वारसूत्र में नियुक्तियों के तीन विभाग किये गये है.--- में प्रचलित निक्षेप-पद्धति रही है। जैन-परम्परा में वाक्य के अर्थ का
१. निक्षेप नियुक्ति- इसमें निक्षेपों के आधार पर पारिभाषिक निश्चय नयों के आधार पर एवं शब्द के अर्थ का निश्चय निक्षेपों के शब्दों का अर्थ स्पष्ट किया जाता है।
आधार पर होता है। निक्षेप चार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। २. उपोद्घात नियुक्ति- इसमें आगम में वर्णित विषय का । इन चार निक्षेपों के आधार पर एक ही शब्द के चार भिन्न अर्थ हो पूर्वभूमिका के रूप में स्पष्टीकरण किया जाता है।
सकते हैं। निक्षेप-पद्धति में शब्द के सम्भावित विविध अर्थों का उल्लेख ३. सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति- इसमें आगम की विषय-वस्तु का । कर उनमें से अप्रस्तुत अर्थ का निषेध करके प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण उल्लेख किया जाता है।
किया जाता है। उदाहरण के रूप में आवश्यकनियुक्ति के प्रारम्भ में प्रो. घाटगे ने 'इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली,' खण्ड १२, अभिनिबोध ज्ञान के चार भेदों के उल्लेख के पश्चात् उनके अर्थों को पृ० २७० में नियुक्तियों को निम्न तीन विभागों में विभक्त किया है- स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि अर्थों (पदार्थो) का ग्रहण अवग्रह
१. शुद्ध नियुक्तियाँ- जिनमें काल के प्रभाव से कुछ भी मिश्रण है एवं उनके सम्बन्ध में चिन्तन ईहा है। इसी प्रकार नियुक्तियों में न हुआ हो, जैसे आचारांग और सूत्रकृतांग की नियुक्तियाँ। किसी एक शब्द के पर्यायवाची अन्य शब्दों का भी संकलन किया
२. मिश्रित किन्तु व्यवच्छेद्य नियुक्तियाँ- जिनमें मूलभाष्यों का गया है, जैसे- आभिनिबोधिक शब्द के पर्याय हैं- ईहा, अपोह, संमिश्रण हो गया है, तथापि वे व्यवच्छेद्य हैं, जैसे दशवैकालिक और विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति एवं प्रज्ञा। नियुक्तियों आवश्यकसूत्र की नियुक्तियाँ।
की विशेषता यह है कि जहाँ एक ओर वे आगमों के महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक ३. भाष्य मिश्रित-नियुक्तियाँ-वे नियुक्तियाँ जो आजकल भाष्य शब्दों के अर्थों को स्पष्ट करती हैं, वहीं आगमों के विभिन्न अध्ययनों या बृहद्भाष्य में ही समाहित हो गयी हैं और उन दोनों को पृथक्- और उद्देशकों का संक्षिप्त विवरण भी देती हैं। यद्यपि इस प्रकार की पृथक् करना कठिन है जैसे निशीथ आदि की नियुक्तियाँ। प्रवृत्ति सभी नियुक्तियों में नहीं है, फिर भी उनमें आगमों के पारिभाषिक
नियुक्तियाँ वस्तुतः आगमिक परिभाषिक शब्दों एवं आगमिक शब्दों के अर्थ का तथा उनकी विषय-वस्तु का अति संक्षिप्त परिचय विषयों के अर्थ को सुनिश्चित करने का एक प्रयत्न हैं। फिर भी नियुक्तियाँ प्राप्त हो जाता है। अति संक्षिप्त हैं, इनमें मात्र आगमिक शब्दों एवं विषयों के अर्थ-संकेत ही हैं, जिन्हें भाष्य और टीकाओं के माध्यम से ही सम्यक प्रकार से प्रमुख नियुक्तियाँ समझा जा सकता है। जैन-आगमों की व्याख्या के रूप में जिन नियुक्तियों आवश्यकनियुक्ति में लेखक ने जिन दस निर्यक्तियों के लिखने का प्रणयन हुआ, वे मुख्यत: प्राकृत गाथाओं में हैं। आवश्यकनियुक्ति की प्रतिज्ञा की थी, वे निम्न हैं:में नियुक्ति शब्द का अर्थ और नियुक्तियों के लिखने का प्रयोजन बताते १. आवश्यकनियुक्ति हुए कहा गया है-“एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, अत: कौन २. दशवैकालिकनियुक्ति
यकसूत्र कात-नियुक्तिवादी हैं और उन
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य ३. उत्तराध्ययननियुक्ति
पिण्डनियुक्ति, ओधनियुक्ति एवं आराधनानियुक्ति को भी समाविष्ट किया ४. आचारांगनियुक्ति
जाता है, किन्तु इनमें से पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति कोई स्वतन्त्र ५. सूत्रकृतांगनियुक्ति
ग्रन्थ नहीं है। पिण्डनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का एक भाग है और ६. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति
ओघनियुक्ति भी आवश्यकनियुक्ति का एक अंश है। अत: इन दोनों ७. बृहत्कल्पनियुक्ति
को स्वतन्त्र नियुक्ति ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि वर्तमान में ८. व्यवहारनियुक्ति
ये दोनों नियुक्तियाँ अपने मूल ग्रन्थ से अलग होकर स्वतन्त्र रूप में ९. सूर्य प्रज्ञप्तिनियुक्ति
ही उपलब्ध होती हैं। आचार्य मलयगिरि ने पिण्डनियुक्ति को १०. ऋषिभाषितनियुक्ति
दशवैकालिकनियुक्ति का ही एक विभाग माना है, उनके अनुसार वर्तमान में उपर्युक्त दस में से आठ ही नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं, दशवैकालिक के पिण्डैषणा नामक पाँचवें अध्ययन पर विशद नियुक्ति अन्तिम दो अनुपलब्ध हैं। आज यह निश्चय कर पाना अति कठिन होने से उसको वहाँ से पृथक् करके पिण्डनियुक्ति के नाम से एक है कि ये अन्तिम दो नियुक्तियाँ लिखी भी गयीं या नहीं? क्योंकि स्वतन्त्र ग्रन्थ बना दिया गया। मलयगिरि स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हमें कहीं भी ऐसा कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता, जिसके आधार जहाँ दशवैकालिक नियुक्ति में लेखक ने नमस्कारपूर्वक प्रारम्भ किया, पर हम यह कह सकें कि किसी काल में ये नियुक्तियाँ रहीं और बाद वहीं पिण्डनियुक्ति में ऐसा नहीं है, अत: पिण्डनियुक्ति स्वतन्त्र ग्रन्थ में विलुप्त हो गयीं। यद्यपि मैंने अपनी ऋषिभाषित की भूमिका में नहीं है। दशवैकालिकनियुक्ति तथा आवश्यकनियुक्ति से इन्हें बहुत पहले यह सम्भावना व्यक्त की है कि वर्तमान 'इसीमण्डलत्थु' सम्भवतः ही अलग कर दिया गया था। जहाँ तक आराधनानियुक्ति का प्रश्न है, ऋषिभाषितनियुक्ति का परवर्तित रूप हो, किन्तु इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर-साहित्य में तो कहीं भी इसका उल्लेख नहीं है। प्रो० ए० निर्णयात्मक रूप से कुछ भी कहना कठिन है। इन दोनों नियुक्तियों एन० उपाध्ये ने बृहत्कथाकोश की अपनी प्रस्तावना (पृ०३१) में के सन्दर्भ में हमारे सामने तीन विकल्प हो सकते हैं
मूलाचार की एक गाथा पर वसुनन्दी की टीका के आधार पर इसी १. सर्वप्रथम यदि हम यह मानें कि इन दसों नियुक्तियों के लेखक नियुक्ति का उल्लेख किया है, किन्तु आराधनानियुक्ति की उनकी यह एक ही व्यक्ति हैं और उन्होंने इन नियुक्तियों की रचना उसी क्रम में कल्पना यथार्थ नहीं है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दी स्वयं एवं प्रो० की है, जिस क्रम से इनका उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में है, तो ए० एन० उपाध्ये जी मूलाचार की उस गाथा के अर्थ को सम्यक् ऐसी स्थिति में यह सम्भव है कि वे अपने जीवन-काल में आठ नियुक्तियों प्रकार से समझ नहीं पाये हैं। की ही रचना कर पायें हों तथा अन्तिम दो की रचना नहीं कर वह गाथा निम्नानुसार हैपायें हों।
"आराहण णिज्जुत्ति मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ। २. दूसरे यह भी सम्भव है कि ग्रन्थों के महत्त्व को ध्यान में पच्चक्खाणावसय धम्मकहाओ य एरिसओ।" रखते हुए प्रथम तो लेखक ने यह प्रतिज्ञा कर ली हो कि वह दसों
(मूलाचार, पंचाचाराधिकार, २७९) आगम-ग्रन्थों पर नियुक्ति लिखेगा, किन्तु जब उसने इन दोनों आगम- अर्थात् आराधना, नियुक्ति, मरणविभक्ति, संग्रहणीसूत्र, स्तुति ग्रन्थों का अध्ययन कर यह देखा कि सूर्य प्रज्ञप्ति में जैन-आचार मर्यादाओं (वीरस्तुति), प्रत्याख्यान (महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान), आवश्यकसूत्र, के प्रतिकूल कुछ उल्लेख हैं और ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल धर्मकथा तथा ऐसे अन्य ग्रन्थों का अध्ययन अस्वाध्याय-काल में किया आदि उन व्यक्तियों के उपदेश संकलित हैं जो जैन-परम्परा के लिए जा सकता है। वस्तुत: मूलाचार की इस गाथा के अनुसार आराधना विवादास्पद हैं, तो उसने इन पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित एवं नियुक्ति ये अलग-अलग स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। इसमें आराधना से तात्पर्य कर दिया हो।
आराधना नामक प्रकीर्णक अथवा भगवती आराधना से तथा नियुक्ति ३. तीसरी सम्भावना यह भी है कि उन्होंने इन दोनों ग्रन्थों पर से तात्पर्य आवश्यक आदि सभी नियुक्तियों से है। नियुक्तियाँ लिखी हों किन्तु इनमें भी विवादित विषयों का उल्लेख होने अतः आराधनानियुक्ति नामक नियुक्ति की कल्पना अयथार्थ है। से इन नियुक्तियों को पठन-पाठन से बाहर रखा गया हो और फलतः इस नियुक्ति के अस्तित्व की कोई सूचना अन्यत्र भी नहीं मिलती है अपनी उपेक्षा के कारण कालक्रम में वे विलुप्त हो गयी हों। यद्यपि और न यह ग्रन्थ ही उपलब्ध होता है। इन दस नियुक्तियों के अतिरिक्त यहाँ एक शंका हो सकती है कि यदि जैन-आचार्यों ने विवादित होते आर्य गोविन्द की गोविन्दनियुक्ति का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु हुए भी इन दोनों ग्रन्थों को संरक्षित करके रखा, तो उन्होंने इनकी यह भी नियुक्ति वर्तमान में अनुपलब्ध है। इनका उल्लेख नन्दीसूत्र', नियुक्तियों को संरक्षित करके क्यों नहीं रखा?
व्यवहारभाष्य', आवश्यकचूर्णि१०, एवं निशीथचूर्णि' में मिलता है। ४. एक अन्य विकल्प यह भी हो सकता है कि जिस प्रकार इस नियुक्ति की विषय-वस्तु मुख्य रूप से एकेन्द्रिय अर्थात् पृथ्वी, दर्शनप्रभावक ग्रन्थ के रूप में मान्य गोविन्दनियुक्ति विलुप्त हो गई पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि में जीवन की सिद्धि करना था। है, उसी प्रकार ये नियुक्तियाँ भी विलुप्त हो गई हों।
इसे गोविन्द नामक आचार्य ने बनाया था और उनके नाम के आधार नियुक्ति-साहित्य में उपर्युक्त दस नियुक्तियों के अतिरिक्त पर ही इसका नामकरण हुआ है। कथानकों के अनुसार ये बौद्ध-परम्परा miritirovincinianiamitamirmirmirmiromanivirail[१६९himiratarciniamadhorimooirrorrowiroinovaravoria
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चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य से आकर जैन-परम्परा में दीक्षित हुए थे। मेरी दृष्टि में यह नियुक्ति ३. आवश्यकनियुक्ति के बाद दशवैकालिकनियुक्ति और फिर आचारांग के प्रथम अध्ययन और दशवैकालिक के चतुर्थ षड्- उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हुई, यह तो पूर्व चर्चा से सिद्ध हो चुका जीवनिकाय नामक अध्ययन से सम्बन्धित रही होगी और इसका उद्देश्य है। इन तीनों नियुक्तियों की रचना के पश्चात् आचारांगनियुक्ति की रचना बौद्धों के विरुद्ध पृथ्वी, पानी आदि में जीवन की सिद्धि करना रहा हुई है, क्योंकि आचारांगनियुक्ति की गाथा ५ में कहा गया है- 'आयारे होगा। यही कारण है कि इसकी गणना दर्शन-प्रभावक ग्रन्थ में की अंगम्मि य पुव्बुद्दिट्ठा चउक्कयं निक्खेवो'-आचार और अंग के निक्षेपों गयी है। संज्ञी-श्रुत के सन्दर्भ में इसका उल्लेख भी यही बताता है।१२ का विवेचन पहले हो चुका है। २२ दशवैकालिकनियुक्ति में दशवैकालिकसूत्र
इसी प्रकार संसक्तनियुक्ति३ नामक एक और नियुक्ति का उल्लेख के क्षुल्लकाचार अध्ययन की नियुक्ति (गाथा ७९-८८) में 'आचार' मिलता है। इसमें ८४ आगमों के सम्बन्ध में उल्लेख है। इसमें मात्र शब्द के अर्थ का विवेचन२२ तथा उत्तराध्ययननियुक्ति में उत्तराध्ययनसूत्र ९४ गाथाएँ हैं। ८४ आगमों का उल्लेख होने से विद्वानों ने इसे पर्याप्त के तृतीय 'चतुरंग' अध्ययन की नियुक्ति करते हुए गाथा १४३-१४४ परवर्ती एवं विसंगत रचना माना है। अत: इसे प्राचीन नियुक्ति-साहित्य में 'अंग' शब्द का विवेचन किया है।२३ अत: यह सिद्ध होता है कि में परिगणित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार वर्तमान नियुक्तियाँ आवश्यक, दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन के पश्चात् ही आचारांगनियुक्ति दस नियुक्तियों में समाहित हो जाती हैं। इनके अतिरिक्त अन्य किसी का क्रम है। नियुक्ति नामक ग्रन्थ की जानकारी हमें नहीं है।
इसी प्रकार आचारांग की चतुर्थ विमुक्तिचूलिका की नियुक्ति में
'विमुक्ति' शब्द की नियुक्ति करते हुए गाथा ३३१ में लिखा है कि दस निर्बुक्तियों का रचनाक्रम
'मोक्ष' शब्द की नियुक्ति के अनुसार ही 'विमुक्ति' शब्द की नियुक्ति यद्यपि दसों नियुक्तियाँ एक ही व्यक्ति की रचनायें हैं, फिर भी भी समझना चाहिए।२४ चूँकि उत्तराध्ययन के अट्ठाईसवें अध्ययन की इनकी रचना एक क्रम में हुई होगी। आवश्यकनियुक्ति में जिस क्रम नियुक्ति (गाथा ४९७-९८) में मोक्ष शब्द की नियुक्ति की जा चुकी से इन दस नियुक्तियों का नामोल्लेख है। उसी क्रम से उनकी रचना थी।२५ अत: इससे यही सिद्ध हुआ कि आचारांगनियुक्ति का क्रम हुई होगी, विद्वानों के इस कथन की पुष्टि निम्न प्रमाणों से होती है- उत्तराध्ययन के पश्चात् है। आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति,
१. आवश्यकनियुक्ति की रचना सर्वप्रथम हुई है, यह तथ्य स्वतः । उत्तराध्ययननियुक्ति एवं आचारांगनियुक्ति के पश्चात् सूत्रकतांगनियुक्ति सिद्ध है, क्योंकि इसी नियुक्ति में सर्वप्रथम दस नियुक्तियों की रचना का क्रम आता है। इस तथ्य की पुष्टि इस आधार पर भी होती है करने की प्रतिज्ञा की गयी है और उसमें भी आवश्यक का नामोल्लेख कि सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा ९९ में यह उल्लिखित है कि 'धर्म' सर्वप्रथम हुआ है।५ पुनः आवश्यकनियुक्ति से निह्नववाद से सम्बन्धित शब्द के निक्षेपों का विवेचन पूर्व में हो चुका है (धम्मो पुबुद्दिट्ठो)।२६ सभी गाथाएँ (गाथा ७७८ से ७८४ तक) ६ उत्तराध्ययननियुक्ति (गाथा दशवैकालिकनियुक्ति में दशवैकालिकसूत्र की प्रथम गाथा का विवेचन १६४ से १७८ तक) में ली गयी हैं। इससे भी यही सिद्ध होता करते समय 'धर्म' शब्द के निक्षेपों का विवेचन हुआ है। इससे यह है कि आवश्यकनियुक्ति के बाद ही उत्तराध्ययननियुक्ति आदि अन्य सिद्ध होता है कि सूत्रकृतांगनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति, के बाद नियुक्तियों की रचना हुई है। आवश्यकनियुक्ति के बाद सबसे पहले निर्मित हुई है। इसी प्रकार सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा १२७ में कहा दशवैकालिकनियुक्ति की रचना हुई है और उसके बाद प्रतिज्ञागाथा है 'गंथोपुबुद्दिट्ठो'।२८ हम देखते हैं कि उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा के क्रमानुसार अन्य नियुक्तियों की रचना की गई। इस कथन की पुष्टि २६७-२६८ में ग्रन्थ शब्द के निक्षेपों का भी कथन हुआ है। २९ इससे आगे दिये गये उत्तराध्ययननियुक्ति के सन्दर्भो से होती है। सूत्रकृतांग नियुक्ति भी दशवैकालिकनियुक्ति एवं उत्तराध्ययननियुक्ति से
२. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा २९ में 'विनय' की व्याख्या करते परवर्ती ही सिद्ध होती है। हुए यह कहा गया है 'विणओ पुव्बुद्दिट्ठा' अर्थात् विनय के सम्बन्ध ४. उपर्युक्त पाँच नियुक्तियों के यथाक्रम से निर्मित होने के पश्चात् में हम पहले कह चुके हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययननियुक्ति ही तीन छेद सूत्रों यथा—दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प एवं व्यवहार सूत्र की रचना से पूर्व किसी ऐसी नियुक्ति की रचना हो चुकी थी, जिसमें पर नियुक्तियाँ भी उनके उल्लेख क्रम से ही लिखी गयीं हैं, क्योंकि विनय सम्बन्धी विवेचन था। यह बात दशवैकालिकनियुक्ति को देखने दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति के प्रारम्भ में ही प्राचीनगोत्रीय सकल श्रुत के ज्ञाता से स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि दशवैकालिकनियुक्ति में विनय-समाधि और दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प एवं व्यवहार के रचयिता भद्रबाहु को नामक नवें अध्ययन की नियुक्ति (गाथा ३०९ से ३२६ तक) में 'विनय' नमस्कार किया गया है। इसमें भी इन तीनों ग्रन्थों का उल्लेख उसी शब्द की व्याख्या है। इसी प्रकार उत्तराध्ययननियुक्ति (गाथा २०७) क्रम से है जिस क्रम से नियुक्ति-लेखन की प्रतिज्ञा में है। अत: में 'कामापुव्वुद्दिट्ठा' कहकर यह सूचित किया गया है कि काम के यह कहा जा सकता है कि इन तीनों ग्रन्थों की नियुक्तियाँ इसी क्रम विषय में पहले विवेचन किया जा चुका है।२० यह विवेचन भी हमें में लिखी गयी होगी। उपर्युक्त आठ नियुक्तियों की रचना के पश्चात् दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा १६१ से १६३ तक में मिल जाता ही सूर्यप्रज्ञप्ति एवं इसिभासियाइं की नियुक्ति की रचना होनी थी। इन है।२९ उपर्युक्त दोनों सूचनाओं के आधार पर यह बात सिद्ध होती है दोनों ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ लिखी भी गयीं या नहीं, आज यह निर्णय कि उत्तराध्ययननियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति के बाद ही लिखी गयी। करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि पूर्वोक्त प्रतिज्ञा-गाथा के अतिरिक्त
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-- यतीन्द्रसरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य हमें इन नियुक्तियों के सन्दर्भ में कहीं भी कोई भी सूचना नहीं मिलती विशेषावश्यक-मलधारिहेमचन्द्रसूरिकृत, टीका-पत्र १. है। अतः इन नियुक्तियों की रचना होना संदिग्ध ही है। या तो इन ५. “साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं नियुक्तियों के लेखन का क्रम आने से पूर्व ही नियुक्तिकार का स्वर्गवास व्यवहारसूत्रं चाकारि, उभयोरपि च सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिः।" हो चुका होगा या फिर इन दोनों ग्रन्थों में कुछ विवादित प्रसंगों का बृहत्कल्पपीठिका,मलयगिरिकृत,टीका-पत्र २. उल्लेख होने से नियुक्तिकार ने इनकी रचना करने का निर्णय ही स्थगित ६. “इह श्रीमदावश्यकादिसिद्धान्तप्रतिबद्धनियुक्तिशास्त्रसंसूत्रणसूत्रधारः.... कर दिया होगा।
श्रीभद्रबाहुस्वामी....कल्पनामधेयमध्ययनं नियुक्तियुक्तं नियूंढवान्।" अत: सम्भावना यही है कि ये दोनों नियुक्तियाँ लिखी ही नहीं बृहत्कल्पपीठिका, श्रीक्षेमकीर्तिसूरिअनुसन्धिता,टीका-पत्र १७७। गईं, चाहे इनके नहीं लिखे जाने के कारण कुछ भी रहे हों। प्रतिज्ञा- इन समस्त सन्दर्भो को देखने से स्पष्ट होता है कि श्रुतकेवली गाथा के अतिरिक्त सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा १८९ में ऋषिभाषित का चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु प्रथम को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में मान्य नाम अवश्य आया है।" वहाँ यह कहा गया है कि जिस-जिस सिद्धान्त करने वाला प्राचीनतम सन्दर्भ आर्यशीलांक का है। आर्यशीलांक का या मत में जिस किसी अर्थ का निश्चय करना होता है उसमें पूर्व कहा समय लगभग विक्रम संवत् की ९ वीं-१०वीं सदी माना जाता है। गया अर्थ ही मान्य होता है, जैसे कि-ऋषिभाषित में। किन्तु यह । जिन अन्य आचार्यों ने नियुक्तिकार के रूप में भद्रबाहु प्रथम को माना उल्लेख ऋषिभाषित मूल ग्रन्थ के सम्बन्ध में ही सूचना देता है न है, उनमें आर्यद्रोण, मलधारि हेमचन्द्र, मलयगिरि, शान्तिसूरि तथा कि उसकी नियुक्ति के सम्बन्ध में।
क्षेमकीर्ति सूरि के नाम प्रमुख हैं, किन्तु ये सभी आचार्य विक्रम की
दसवीं सदी के पश्चात् हुए हैं। अत: इनका कथन बहुत अधिक प्रामाणिक नियुक्ति के लेखक और रचना-काल
नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने जो कुछ भी लिखा है, वह मात्र अनुश्रुतियों नियुक्तियों के लेखक कौन हैं और उनका रचना काल क्या है के आधार पर लिखा है। दुर्भाग्य से ८-९वीं सदी के पश्चात् चतुर्दश ये दोनों प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। अत: हम उन पर अलग-अलग पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु और वराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु विचार न करके एक साथ ही विचार करेंगे।
के कथानक, नामसाम्य के कारण एक-दूसरे में घुल-मिल गये और परम्परागत रूप से अन्तिम श्रुतकेवली, चतुर्दशपूर्वधर तथा दूसरे भद्रबाहु की रचनायें भी प्रथम के नाम चढ़ा दी गई। यही कारण छेदसूत्रों के रचयिता आर्यभद्रबाहु प्रथम को ही नियुक्तियों का कर्ता रहा कि नैमित्तिक भद्रबाहु को भी प्राचीनगोत्रीय श्रुतकेवली चतुर्दश माना जाता है। मुनि श्री पुण्यविजय जी ने अत्यन्त परिश्रम द्वारा श्रुतकेवली पूर्वधर भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया गया है और दोनों के जीवन की भद्रबाहु को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में स्वीकार करने वाले निम्न घटनाओं के इस घाल-मेल से अनेक अनुश्रुतियाँ प्रचलित हो गईं। साक्ष्यों को संकलित करके प्रस्तुत किया है। जिन्हें हम यहाँ अविकल इन्हीं अनुश्रुतियों के परिणामस्वरूप नियुक्ति के कर्ता के रूप में चतुर्दश रूप से दे रहे हैं।
पूर्वधर भद्रबाहु की अनुश्रुति प्रचलित हो गयी। यद्यपि मुनि श्री पुण्यविजय १. "अनुयोगदायिनः - सुधर्मस्वामिप्रभृतयः यावदस्य भगवतो जी ने बृहत्कल्पसूत्र (नियुक्ति, लघुभाष्य-वृत्त्युपेतम्) के षष्ठ विभाग
नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योऽतस्तान के आमुख में यह लिखा है कि नियुक्तिकार स्थविर आर्य भद्रबाहु हैं, सर्वानिति।।"
इस मान्यता को पुष्ट करने वाला एक प्रमाण जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण - आचारांगसूत्र, शीलाङ्काचार्यकृत,टीका-पत्र ४. के विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञ टीका में भी मिलता है। यद्यपि २. "न च केषांचिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालादाक्कालाभाविता उन्होंने वहाँ उस प्रमाण का सन्दर्भ सहित उल्लेख नहीं किया है। मैं
इत्यन्योक्तत्वमाशङ्कनीयम्, स हि भगवाँश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली इस सन्दर्भ को खोजने का प्रयत्न कर रहा हूँ, किन्तु उसके मिल जाने कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशङ्का? इति।" पर भी हम केवल इतना ही कह सकेंगे कि विक्रम की लगभग सातवीं उत्तराध्ययनसूत्र, शान्तिसूरिकृता, पाइयटीका-पत्र १३९. शती से नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं, ऐसी "गुणाधिकस्य वन्दनं कर्तव्यं न त्वधमस्य, यत उक्तम् - अनुश्रुति प्रचलित हो गयी थी। "गुणाहिए वंदणयं"। भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरत्वाद् नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं अथवा दशपूर्वधरादीनां च न्यूनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति? इति। नैमित्तिक (वराहमिहिर के भाई) भद्रबाहु हैं, ये दोनों ही प्रश्न विवादास्पद अत्रोच्यते- गुणाधिका एव ते, अव्यवच्छित्तिगुणाधिक्यात्, अतो हैं। जैसा कि हमने संकेत किया है नियुक्तियों को प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश
न दोष इति।" ओघनियुक्ति द्रोणाचार्यकृत, टीका-पत्र ३. पूर्वधर आर्य भद्रबाहु की मानने की परम्परा आर्यशीलांक से या उसके ४. "इह चरणकरणक्रियाकलापतरुमूलकल्पं सामायिकादिषडध्ययनात्मक- पूर्व जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण से प्रारम्भ हुई है। किन्तु उनके इन उल्लेखों
श्रुतस्कन्धरूपमावश्यकतावदर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतस्तु गणधरैर्विरचितम्।। में कितनी प्रामाणिकता है यह विचारणीय है, क्योंकि नियुक्तियों में अस्य चातीव गम्भीरार्थतां सकलसाधु-श्रावकवर्गस्य नित्योपयोगितां ही ऐसे अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जिनसे नियुक्तिकार पूर्वधर भद्रबाह च विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुनैतयाख्यानरूपा" हैं, इस मान्यता में बाधा उत्पन्न होती है। इस सम्बन्ध में मुनिश्री आभिणिबोहियनाणं०" इत्यादिप्रसिद्धग्रन्थरूपा नियुक्तिः कृता।" पुण्यविजय जी ने अत्यन्त परिश्रम द्वारा वे सब सन्दर्भ प्रस्तुत किये
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વર્તાત્ર ગ્નાસ્થિ જૈન ઉપામ 14 ચાટ – हैं, जो नियुक्तिकार पूर्वधर भद्रबाहु हैं, इस मान्यता के विरोध में जाते आठवें बोटिक मत की उत्पत्ति का उल्लेख हुआ है। अन्तिम सातवाँ हैं। हम उनकी स्थापनाओं के हार्द को ही हिन्दी भाषा में रूपान्तरित निह्नव वीरनिर्वाण संवत् ५८४ में तथा बोटिक मत की उत्पत्ति वीरनिर्वाण कर निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं
संवत् ६०९ में हुई। ये घटनाएँ चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु १. आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६२ से ७७६ तक में वज्रस्वामी के लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् हुई हैं। अत: उनके द्वारा रचित नियुक्ति के विद्यागुरु आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्रस्वामी, तोषलिपुत्र, आर्यरक्षित, में इनका उल्लेख होना सम्भव नहीं लगता है। वैसे मेरी दृष्टि में बोटिक आर्य फल्गुमित्र, स्थविर भद्रगुप्त जैसे आचार्यों का स्पष्ट उल्लेख है।३४ मत की उत्पत्ति का कथन नियुक्तिकार का नहीं है- निर्यक्ति में सात ये सभी आचार्य चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु से परवर्ती हैं और तोषलिपुत्र निह्नवों का ही उल्लेख है। निह्नवों के काल एवं स्थान सम्बन्धी गाथाएँ को छोड़कर शेष सभी का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है। यदि भाष्य गाथाएँ है— जो बाद में नियुक्ति में मिल गई हैं। किन्तु नियुक्तियों नियुक्तियाँ चतुर्दश पूर्वधर आर्यभद्रबाहु की कृति होती तो उनमें इन। में सात निहवों का उल्लेख होना भी इस बात का प्रमाण है कि नियुक्तियाँ नामों के उल्लेख सम्भव नहीं थे।
प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु की कृतियाँ नहीं हैं। २. इसी प्रकार पिण्डनियुक्ति की गाथा ४९८ में पादलिप्ताचार्य३५ ८. सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा १४६ में द्रव्य-निक्षेप के सम्बन्ध का एवं गाथा ५०३ से ५०५ में वज्रस्वामी के मामा समितसूरि ६ में एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे तीन आदेशों का उल्लेख है साथ ही ब्रह्मदीपकशाला का उल्लेख भी है—ये तथ्य का उल्लेख हुआ है।४७ ये विभिन्न मान्यताएँ भद्रबाहु के काफी पश्चात् यही सिद्ध करते हैं कि पिण्डनियुक्ति भी चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय आर्य सुहस्ति, आर्य मंक्षु आदि परवर्ती आचार्यों के काल में निर्मित भद्रबाहु की कृति नहीं है, क्योंकि पादलिप्तसूरि, समितसूरि तथा हुई हैं। अत: इन मान्यताओं के उल्लेख से भी नियुक्तियों के कर्ता ब्रह्मदीपकशाखा की उत्पत्ति, ये सभी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु से चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु हैं, यह मानने में बाधा परवर्ती हैं।
आती है। ३. उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा १२० में कालकाचार्य की मुनि श्री पुण्यविजय जी ने उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्त्याचार्य, कथा का संकेत है। कालकाचार्य भी प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु से जो नियुक्तिकार के रूप में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु को मानते हैं, की लगभग तीन सौ वर्ष पश्चात् हुए हैं।
इस मान्यता का भी उल्लेख किया है कि नियुक्तिकार त्रिकालज्ञानी हैं। ४. ओघनियुक्ति की प्रथम गाथा में चतुर्दश पूर्वधर, दश पूर्वधर अत: उनके द्वारा परवर्ती घटनाओं का उल्लेख होना असम्भव नहीं एवं एकादश- अंगों के ज्ञाताओं को सामान्य रूप से नमस्कार किया है।४८ यहाँ मुनि पुण्यविजय जी कहते हैं कि हम शान्त्याचार्य की इस गया है,३९ ऐसा द्रोणाचार्य ने अपनी टीका में सूचित किया है। यद्यपि बात को स्वीकार कर भी लें, तो भी नियुक्तियों में नामपूर्वक वज्रस्वामी मुनि श्री पुण्यविजय जी सामान्य कथन की दृष्टि से इसे असंभावित को नमस्कार आदि किसी भी दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। नहीं मानते हैं, क्योंकि आज भी आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि नमस्कारमंत्र वे लिखते हैं यदि उपर्युक्त घटनाएँ घटित होने के पूर्व ही नियुक्तियों में अपने से छोटे पद और व्यक्तियों को नमस्कार करते हैं। किन्तु में उल्लिखित कर दी गयीं हों तो भी अमुक मान्यता अमुक पुरुष मेरी दृष्टि में कोई भी चतुर्दश पूर्वधर दशपूर्वधर को नमस्कार करे, द्वारा स्थापित हुई यह कैसे कहा जा सकता है। यह उचित नहीं लगता। पुन: आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६९ में पुन: जिन दस आगम-ग्रन्थों पर नियुक्ति लिखने का उल्लेख दस पूर्वधर वज्रस्वामी को नाम लेकर जो वंदन किया गया है,४१ वह आवश्यकनियुक्ति में है, उससे यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु के समय तो किसी भी स्थिति में उचित नहीं माना जा सकता है।
आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अतिविस्तृत एवं परिपूर्ण थे। ऐसी स्थिति ५. पुन: आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६३ से ७७४ में यह । में उन आगमों पर लिखी गयी नियुक्ति भी अतिविशाल एवं चारों कहा गया है कि शिष्यों की स्मरण शक्ति के ह्रास को देखकर आर्य अनुयोगमय होनी चाहिए। इसके विरोध में यदि नियुक्तिकार भद्रबाहु रक्षित ने, वज्रस्वामी के काल तक जो आगम अनुयोगों में विभाजित थे, ऐसी मान्यता रखने वाले विद्वान् यह कहते हैं कि नियुक्तिकार नहीं थे, उन्हें अनुयोगों में विभाजित किया,४२ यह कथन भी एक परवर्ती तो भद्रबाहु ही थे और वे नियुक्तियाँ भी अतिविशाल थीं, किन्तु बाद घटना को सूचित करता है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियों में स्थविर आर्यरक्षित ने अपने शिष्य पुष्यमित्र की विस्मृति एवं भविष्य के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हैं, अपितु आर्यरक्षित में होने वाले शिष्यों की मंद बुद्धि को ध्यान में रखकर जिस प्रकार के पश्चात् होने वाले कोई भद्रबाहु हैं।
आगमों के अनुयोगों को पृथक किया, उसी प्रकार नियुक्तियों को भी ६. दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा ४ एवं ओघनियुक्ति की व्यवस्थित एवं संक्षिप्त किया। इसके प्रत्युत्तर में मुनि श्री पुण्यविजय गाथा २ में चरणकरणानुयोग की नियुक्ति कहूँगा'ऐसा उल्लेख है। यह जी का कथन है- प्रथम, तो यह कि आर्यरक्षित द्वारा अनुयोगों के भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि नियुक्ति की रचना अनुयोगों के पृथक् करने की बात तो कही जाती है, किन्तु नियुक्तियों को व्यवस्थित विभाजन के बाद अर्थात् आर्यरक्षित के पश्चात् हुई है।
करने का एक भी उल्लेख नहीं है। स्कंदिल आदि ने विभिन्न वाचनाओं ७. आवश्यकनियुक्ति५ की गाथा ७७८-७८३ में तथा में 'आगमों' को ही व्यवस्थित किया, नियुक्तियों को नहीं। ५० उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा १६४ से १७८ तक में ७ निह्नवों और दूसरे, उपलब्ध नियुक्तियाँ उन अंग-आगमों पर नहीं है जो भद्रबाहु
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प्रथम के
चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य युग में थे। परम्परागत मान्यता के अनुसार आर्यरक्षित के युग में भी आचारांग एवं सूत्रकृतांग उतने ही विशाल थे, जितने भद्रबाहु के काल में थे। ऐसी स्थिति में चाहे एक ही अनुयोग का अनुसरण करके नियुक्तियाँ लिखी गयी हों, उनकी विषयवस्तु तो विशाल होनी चाहिए थी। जबकि जो भी नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं वे सभी माथुरीवाचना द्वारा या वलभी वाचनाद्वारा निर्धारित पाठ वाले आगमों का ही अनुसरण कर रही हैं। यदि यह कहा जाय कि अनुयोगों का पृथक्करण करते समय आर्यरक्षित ने नियुक्तियों को भी पुनः व्यवस्थित किया और उनमें अनेक गाथाएँ प्रक्षिप्त भी कीं, तो प्रश्न होता है कि फिर उनमें गोष्ठामाहिल और बोटिक मत की उत्पत्ति सम्बन्धी विवरण कैसे आये, क्योंकि इन दोनों की उत्पत्ति आर्यरक्षित के स्वर्गवास के पश्चात् ही हुई है।
यद्यपि इस सन्दर्भ में मेरा मुनिश्री से मतभेद है। मेरे अध्ययन की दृष्टि से सप्त निह्नवों के उल्लेख वाली गाथाएँ तो मूल गाथाएँ हैं, किन्तु उनमें बोटिक मत के उत्पत्ति-स्थल रथवीरपुर एवं उत्पत्तिकाल वीर नि.सं. ६०९ का उल्लेख करने वाली गाथाएँ बाद में प्रक्षिप्त हैं। वे नियुक्ति की गाथाएँ न होकर भाष्य की हैं, क्योंकि जहाँ निह्नवों एवं उनके मतों का उल्लेख है वहाँ सर्वत्र सात का ही नाम आया है जबकि उनके उत्पत्तिस्थल एवं काल को सूचित करने वाली इन दो गाथाओं में यह संख्या आठ हो गयी।५१ आश्चर्य यह है कि आवश्यक नियुक्ति में बोटिकों की उत्पत्ति की कहीं कोई चर्चा नहीं है और यदि बोटिकमत के प्रस्तोता एवं उनके मन्तव्य का उल्लेख मूल आवश्यक नियुक्ति में नहीं है, तो फिर उनके उत्पत्ति स्थल एवं उत्पत्ति काल का उल्लेख नियुक्ति में के लकता है? वस्तुतः भाष्य की अनेक गाथाएँ नियुक्तियों में मिल गई है। अतः ये नगर एवं काल सूचक गाथाएँ भाष्य की होनी चाहिये । यद्यपि उत्तराध्ययननियुक्ति के तृतीय अध्ययन के अन्त में इन्हीं सप्त निह्नवों का उल्लेख होने के बाद अन्त में एक गाथा में शिवभूति का रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में आर्यकृष्ण से विवाद होने का उल्लेख है । ५२ किन्तु न तो इसमें विवाद के स्वरूप की चर्चा है और न कोई अन्य बात, जबकि उसके पूर्व प्रत्येक निह्नव के मन्तव्य का आवश्यकनियुक्ति की अपेक्षा विस्तृत विवरण दिया गया है। अतः मेरी दृष्टि में यह गाथा भी प्रक्षिप्त है। यह गाया वैसी ही है जैसी कि आवश्यकमूलभाष्य में पायी जाती है। पुनः वहाँ यह गाया बहुत अधिक प्रासंगिक भी नहीं कही जा सकती मुझे स्पष्ट रूप से लगता है कि उत्तराध्ययननियुक्ति में भी निवों की चर्चा के बाद यह गाथा प्रक्षिप्त की गयी है।
यह मानना भी उचित नहीं लगता कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु के काल में रचित नियुक्तियों को सर्वप्रथम आर्यरक्षित के काल में व्यवस्थित किया गया और पुनः उन्हें परवर्ती आचार्यों ने अपने युग की आगमिक वाचना के अनुसार व्यवस्थित किया। आश्चर्य तब और अधिक बढ़ जाता है कि इस सब परिवर्तन के विरुद्ध भी कोई स्वर उभरने की कहीं कोई सूचना नहीं है। वास्तविकता यह है कि आगमों में जब भी कुछ परिवर्तन करने का प्रयत्न किया गया तो उसके विरुद्ध स्वर उभरे है और उन्हें उल्लिखित भी किया गया है।
उत्तराध्ययननियुक्ति में उसके 'अकाममरणीय' नामक अध्ययन की नियुक्ति में निम्न गाथा प्राप्त होती है
" सव्वे ए ए दारा मरणविभत्तीए वण्णिआ कमसो । सगलणिउणे पयत्थे जिण चउदस पुष्वि भासंति" ।। २३२ ।। (ज्ञातव्य है कि मुनिपुण्यविजय जी ने इसे गाया २३३ लिखा है किन्तु निर्युक्तिसंग्रह में इस गाथा का क्रम २३२ ही है ।)
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इस गाथा में कहा गया है कि "मरणविभक्ति में इन सभी द्वारों का अनुक्रम से वर्णन किया गया है, पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से तो जिन अथवा चतुर्दश पूर्वधर ही जान सकते हैं।" यदि नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वधर होते तो वे इस प्रकार नहीं लिखते। शान्त्याचार्य ने स्वयं इसे दो आधारों पर व्याख्यायित किया। प्रथम चतुर्दश पूर्वधरों में आपस में अर्थज्ञान की अपेक्षा से कमी अधिकता होती है, इसी दृष्टि से यह कहा गया हो कि पदार्थों का सम्पूर्ण स्वरूप तो चतुर्दशपूर्वी ही बता सकते हैं अथवा द्वार गाथा से लेकर आगे की ये सभी गाथाएँ भाष्यगाथाएँ हों । ५३ यद्यपि मुनि पुण्यविजय जी इन्हें भाष्य-गाथाएँ स्वीकार नहीं करते हैं। चाहे ये गाथाएँ भाष्यगाथा हों या न हों किन्तु मेरी दृष्टि में आत्याचार्य ने नियुक्तियों में भाष्य-गाथा मिली होने की जो कल्पना की है, वह पूर्णतया असंगत नहीं है।
पुन: जैसा पूर्व में सूचित किया जा चुका है, सूत्रकृतांग के पुण्डरीक अध्ययन की नियुक्ति में पुण्डरीक शब्द की नियुक्ति करते समय उसके द्रव्य - निक्षेप से एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम - गोत्र ऐसे तीन आदेशों का नियुक्तिकार ने स्वयं ही संग्रह किया है । ५४ बृहत्कल्पसूत्रभाष्य (प्रथमविभाग, पृ. ४४-४५) में ये तीनों आदेश आर्यसुहस्ति, आर्य मंगु एवं आर्यसमुद्र की मान्यताओं के रूप में उल्लिखित हैं। इतना तो निश्चित है कि ये तीनों आचार्य पूर्वर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु (प्रथम) से परवर्ती हैं और उनके मतों का संग्रह पूर्ववर भद्रबाहु द्वारा सम्भव नहीं है।
५५
दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति के प्रारम्भ में निम्न गाथा दी गयी है"वंदामिमहवा पाईणं चरिमसवलसुयनाणिं ।
सुत्तस्स कारमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे।।" इसमें सफलश्रुतज्ञानी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु का न केवल वंदन किया गया है, अपितु उन्हें दशाश्रुतस्कंध कल्प एवं व्यवहार का रचयिता भी कहा है, यदि नियुक्तियों के लेखक पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु होते तो, वे स्वयं ही अपने को कैसे नमस्कार करते? इस गाथा को हम प्रक्षिप्त या भाष्य गाथा भी नहीं कह सकते, क्योंकि प्रथम तो यह अन्य की प्रारम्भिक मंगल गाथा है, दूसरे चूर्णिकार ने स्वयं इसको नियुक्तिगाथा के रूप में मान्य किया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नियुक्तिकार चतुर्दश पूर्वघर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हो सकते।
इस समस्त चर्चा के अन्त में मुनि जी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परम्परागत दृष्टि से दशाश्रुतस्कंध, कल्पसूत्र व्यवहारसूत्र एवं निशीध ये चार छेदसूत्र, आवश्यक आदि दस नियुक्तियों, उवसग्गहर एवं भद्रबाहु सहिता ये सभी चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु स्वामी की कृति माने जाते हैं, किन्तु इनमें से ४ छेद सूत्रों के रचयिता तो १७३]
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - चतुर्दश पूर्वधर आर्य भद्रबाहु ही हैं। शेष दस नियुक्तियों, उवसग्गहर गई है।६२ गोविन्दनियुक्ति के रचयिता वही आर्यगोविन्द होने चाहिए एवं भद्रबाहु संहिता के रचयिता अन्य कोई भद्रबाहु होने चाहिए और जिनका उल्लेख नन्दीसूत्र में अनुयोगद्वार के ज्ञाता के रूप में किया सम्भवत: ये अन्य कोई नहीं, अपितु वाराहसंहिता के रचयिता वराहमिहिर गया है। स्थविरावली के अनुसार ये आर्य स्कंदिल की चौथी पीढ़ी के भाई, मंत्रविद्या के पारगामी नैमित्तिक भद्रबाहु ही होने चाहिए।५५ में हैं।६३ अत: इनका काल विक्रम की पाँचवीं सदी निश्चित होता है।
मुनिश्री पुण्यविजय जी ने नियुक्तियों के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु अत: मुनि श्रीपुण्यविजय जी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि नन्दीसूत्र ही थे, यह कल्पना निम्न तर्कों के आधार पर की है
एवं पाक्षिकसूत्र में नियुक्ति का जो उल्लेख है वह आर्य गोविन्द की १. आवश्यकनियुक्ति की गाथा १२५२ से १२७० तक में गंधर्व नियुक्ति को लक्ष्य में रखकर किया गया है। इस प्रकार मुनि जी दसों नागदत्त का कथानक आया है। इसमें नागदत्त के द्वारा सर्प के विष नियुक्तियों के रचयिता के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को ही स्वीकार उतारने की क्रिया का वर्णन है।५७ उवसग्गहर (उपसर्गहर) में भी सर्प करते हैं और नन्दीसूत्र अथवा पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्ति का उल्लेख के विष उतारने की चर्चा है। अत: दोनों के कर्ता एक ही हैं और है उसे वे गोविन्द-नियुक्ति का मानते हैं। वे मन्त्र-तन्त्र में आस्था रखते थे।
हम मुनि श्रीपुण्यविजय जी की इस बात से पूर्णत: सहमत नहीं २. पुन: नैमित्तिक भद्रबाहु ही नियुक्तियों के कर्ता होने चाहिए हो सकते हैं, क्योंकि उपर्युक्त दस नियुक्तियों की रचना से पूर्व चाहे इसका एक आधार यह भी है कि उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा गाथा में सूर्यप्रज्ञप्ति आर्यगोविन्द की नियुक्ति अस्तित्व में हो, किन्तु नन्दीसूत्र एवं पाक्षिक पर नियुक्ति लिखने की प्रतिज्ञा की थी।५८ ऐसा साहस कोई ज्योतिष सूत्र में नियुक्ति सम्बन्धी जो उल्लेख हैं, वे आचारांग आदि आगमका विद्वान् ही कर सकता था। इसके अतिरिक्त आचारांगनियुक्ति में ग्रन्थों की नियुक्ति के सम्बन्ध में हैं, जबकि गोविन्दनियुक्ति किसी आगमतो स्पष्ट रूप से निमित्त विद्या का निर्देश भी हुआ है।५९ अत: मुनिश्री ग्रन्थ पर नियुक्ति नहीं है। उसके सम्बन्ध में निशीथचूर्णि आदि में जो पुण्यविजय जी नियुक्ति के कर्ता के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को स्वीकार उल्लेख हैं वे सभी उसे दर्शनप्रभावक ग्रन्थ और एकेन्द्रिय में जीव करते हैं।
की सिद्धि करने वाला ग्रन्थ बतलाते हैं।६४ अत: उनकी यह मान्यता यदि हम नियुक्तिकार के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को स्वीकार कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में नियुक्ति के जो उल्लेख हैं, वे करते हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि नियुक्तियाँ विक्रम की छठी गोविन्दनियुक्ति के सन्दर्भ में हैं, समुचित नहीं है। वस्तुत: नन्दीसूत्र सदी की रचनाएँ हैं, क्योंकि वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ के अन्त में एवं पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्तियों के उल्लेख हैं वे आगम-ग्रन्थों की शक संवत् ४२७ अर्थात् विक्रम संवत् ५६६ का उल्लेख किया है।६० नियुक्तियों के हैं। अत: यह मानना होगा कि नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र नैमित्तिक भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई थे, अत: वे उनके समकालीन की रचना के पूर्व अर्थात् पाँचवी शती के पूर्व आगमों पर नियुक्ति हैं। ऐसी स्थिति में यही मानना होगा कि नियुक्तियों का रचनाकाल लिखी जा चुकी थी। भी विक्रम की छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध है।
२. दूसरे, इन दस नियुक्तियों में और भी ऐसे तथ्य हैं जिनसे यदि हम उपर्युक्त आधारों पर नियुक्तियों को विक्रम की छठी इन्हें वराहमिहिर के भाई एवं नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम संवत् ५६६) सदी में हुए नैमित्तिक भद्रबाहु की कृति मानते हैं, तो भी हमारे सामने की रचना मानने में शंका होती है। आवश्यकनियुक्ति की सामायिक कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं
नियुक्ति में जो निह्नवों के उत्पत्ति स्थल एवं उत्पत्तिकाल सम्बन्धी गाथायें १. सर्वप्रथम तो यह कि नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में नियुक्तियों हैं एवं उत्तराध्ययननियुक्ति के तीसरे अध्ययन की नियुक्ति में जो शिवभूति के अस्तित्व का स्पष्ट उल्लेख है
का उल्लेख है, वह प्रक्षिप्त है। इसका प्रमाण यह है कि उत्तराध्ययनचूर्णि, "संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जा संगहणीओ" । जो कि इस नियुक्ति पर एक प्रामाणिक रचना है, में १६७ गाथा तक
- (नन्दीसूत्र, सूत्र सं. ४६) की ही चूर्णि दी गयी है। निह्नवों के सन्दर्भ में अन्तिम चूर्णि 'जेठ्ठा "स सत्ते सत्ये सगंथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए" सुदंसण' नामक १६७ वी गाथा की है। उसके आगे निह्नवों के वक्तव्य
- (पाक्षिकसूत्र, पृ. ८०) को सामायिकनियुक्ति (आवश्यकनियुक्ति) के आधार पर जान लेना इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ विक्रम की छठी सदी के चाहिए, ऐसा निर्देश है।६५ ज्ञातव्य है कि सामायिकनियुक्ति में बोटिकों पूर्व निर्मित हो चुके थे। यदि नियुक्तियाँ छठी सदी उत्तरार्द्ध की रचना का कोई उल्लेख नहीं है। हम यह भी बता चुके हैं कि उस नियुक्ति हैं तो फिर विक्रम की पाँचवीं शती के उत्तरार्द्ध या छठी शती के पूर्वार्द्ध में जो बोटिक-मत के उत्पत्तिकाल एवं स्थल का उल्लेख है, वह प्रक्षिप्त के ग्रन्थों में छठी सदी के उत्तरार्द्ध में रचित नियुक्तियों का उल्लेख है एवं वे भाष्य-गाथाएँ हैं। उत्तराध्ययनचूर्णि में एक संकेत यह भी कैसे संभव है? इस सम्बन्ध में मुनिश्री पुण्यविजय जी ने तर्क दिया मिलता है कि उसमें निह्नवों की कालसूचक गाथाओं को नियुक्तिगाथाएँ है कि नन्दीसूत्र में जो नियुक्तियों का उल्लेख है, वह गोविन्दनियुक्ति न कहकर आख्यानक संग्रहणी की गाथा कहा गया है।६६ इससे मेरे आदि को ध्यान में रखकर किया गया होगा।६१ यह सत्य है कि उस कथन की पुष्टि होती है कि आवश्यकनियुक्ति में जो निहवों के गोविन्दनियुक्ति एक प्राचीन रचना है क्योंकि निशीथचूर्णि में गोविन्दनियुक्ति उत्पत्तिनगर एवं उत्पत्तिकाल की सूचक गाथाएँ हैं वे मूल में नियुक्ति के उल्लेख के साथ-साथ गोविन्दनियुक्ति की उत्पत्ति की कथा भी दी की गाथाएँ नहीं हैं, अपितु संग्रहणी अथवा भाष्य से उसमें प्रक्षिप्त
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की गयी हैं क्योंकि इन गाथाओं में उनके उत्पत्ति-नगरों एवं उत्पत्ति समय दोनों की संख्या आठ-आठ है। इस प्रकार इनमें बोटिकों के उत्पत्तिनगर और समय का भी उल्लेख है— आश्चर्य यह है कि -आश्चर्य यह है कि ये गाथाएँ सप्त निह्नवों की चर्चा के बाद दी गईं जबकि बोटिकों की उत्पत्ति का उल्लेख तो इसके भी बाद में है और मात्रा एक गाथा में है। अत: ये गाथाएँ किसी भी स्थिति में नियुक्ति की गाथाएँ नहीं मानी जा सकती हैं।
पुनः यदि हम बोटिक -निह्नव सम्बन्धी गाथाओं को भी नियुक्ति गाथाएँ मान लें तो भी नियुक्ति के रचनाकाल की अपर सीमा को वीरनिर्वाण संवत् ६१० अर्थात् विक्रम की तीसरी शती के पूर्वार्ध से आगे नहीं ले जाया जा सकता है, क्योंकि इसके बाद के कोई उल्लेख हमें नियुक्तियों में नहीं मिले। यदि नियुक्ति नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम की छठी सदी उत्तरार्द्ध) की रचनाएँ होतीं तो उनमें विक्रम की तीसरी सदी से लेकर छठी सदी के बीच के किसी न किसी आचार्य एवं घटना का उल्लेख भी, चाहे संकेत रूप में ही क्यों न हो, अवश्य होता । अन्य कुछ नहीं तो माथुरी एवं वलभी वाचना के उल्लेख तो अवश्य ही होते, क्योंकि नैमित्तिक भद्रबाहु तो उनके बाद ही हुए हैं। बलभी बाचना के आयोजक देवर्द्धिगणि के तो वे कनिष्ठ समकालिक हैं, अतः यदि वे नियुक्ति के कर्त्ता होते तो वलभी वाचना का उल्लेख नियुक्तियों में अवश्य करते ।
३. यदि नियुक्तियाँ नैमित्तिक भद्रबाहु (छठी सदी उत्तरार्द्ध) की कृति होती तो उसमें गुणस्थान की अवधारणा अवश्य ही पाई जाती। छठी सदी के उत्तरार्द्ध में न की अवधारणा विकसित हो गई। थी और उस काल में लिखी गई कृतियों में प्रायः गुणस्थान का उल्लेख मिलता है किन्तु जहाँ तक मुझे ज्ञात है, निर्युक्तियों में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का कहीं भी उल्लेख नहीं है। आवश्यक नियुक्ति की जिन दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नामों का उल्लेख मिलता है, " वे मूलतः नियुक्ति-गाथाएं नहीं हैं। आवश्यक मूल पाठ में चौदह भूतग्रामों (जीव-जातियों) का ही उल्लेख है, गुणस्थानों का नहीं। अतः नियुक्ति तो भूतग्रामों की ही लिखी गयी। भूतग्रामों के विवरण के बाद दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नाम दिये गये हैं। यद्यपि यहाँ गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं है। ये दोनों गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि हरिभद्र (आठवीं सदी) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में "अधुनामुनैव गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार : " कहकर इन दोनों गाथाओं को संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया है।" अतः गुणस्थान सिद्धान्त के स्थिर होने के पश्चात् संग्रहणी की ये गाथाएँ नियुक्ति में डाल दी गई हैं। नियुक्तियों में गुणस्थान की अवधारणा की अनुपस्थिति इस तथ्य का प्रमाण है कि उनकी रचना तीसरी-चौथी शती के पूर्व हुई थी। इसका तात्पर्य यह है कि नियुक्तियाँ नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना नहीं है।
४. साथ ही हम देखते हैं कि आचारांगनिर्युक्ति में आध्यात्मिक विकास की उन्हीं दस अवस्थाओं का विवेचन है जो हमें सत्त्वार्थसूत्र में भी मिलती है" और जिनसे आगे चलकर गुणस्थान की अवधारणा
विकसित हुई है तत्त्वार्थसूत्र तथा आचारांगनियुक्ति दोनों ही विकसित गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में सर्वथा मौन हैं, जिससे यह फलित होता है कि निर्बुक्तियों का रचनाकाल तत्त्वार्थसूत्र के सम-सामयिक (अर्थात् विक्रम की तीसरी चौथी सदी) है अतः वे छठी शती के उत्तरार्ध में होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना तो किसी स्थिति में नहीं हो सकतीं। यदि वे उनकी कृतियाँ होती तो उनमें आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं के चित्रण के स्थान पर चौदह गुणस्थानों का भी चित्रण होता।
५. नियुक्ति गाथाओं का नियुक्ति-गाथा के रूप में मूलाचार में उल्लेख तथा अस्वाध्याय-काल में भी उनके अध्ययन का निर्देश यही सिद्ध करता है कि नियुक्तियों का अस्तित्व मूलाचार की रचना और यापनीय-सम्प्रदाय के अस्तित्व में आने के पूर्व का था। यह सुनिश्चित है कि यापनीय-सम्प्रदाय ५ वीं सदी के अन्त तक अस्तित्व में आ गया था। अतः नियुक्तियाँ ५ वीं सदी से पूर्व की रचना होनी चाहिएऐसी स्थिति में भी वे नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम की छठी सदी उत्तरार्द्ध) की कृति नहीं मानी जा सकती हैं।
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पुनः नियुक्ति का उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आवश्यक शब्द की नियुक्ति करते हुए नियमसार गाथा १४२ में किया है। आश्चर्य यह है कि यह गाथा मूलाचार के षडावश्यक नामक अधिकार में भी यथावत् मिलती है। इसमें आवश्यक शब्द की नियुक्ति की गई है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियाँ कम से कम मूलाचार और नियमसार की रचना के पूर्व अर्थात् छठी शती के पूर्व अस्तित्व में आ गई थीं।
६. नियुक्तियों के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु नहीं हो सकते, क्योंकि आचार्य मल्लवादी (लगभग चौथी पांचवीं शती) ने अपने अन्य नयचक्र में नियुक्तिगाथा का उद्धरण दिया है— नियुक्ति लक्षणमाह- "वत्वूर्ण संक्रमणं होति अवत्थूणये समभिरूडे"। इससे यही सिद्ध होता है कि वलभी वाचना के पूर्व नियुक्तियों की रचना हो चुकी थी । अतः उनके रचयिता नैमित्तिक भद्रबाहु न होकर या तो काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त है या फिर गीतमगोत्रीय आर्यभद्र है।
७. पुनः वलभी वाचना के आगमों के गद्यभाग में नियुक्तियों और संग्रहणी की अनेक गाथाएं मिलती है, जैसे ज्ञाताधर्मकथा में मल्ली अध्ययन में जो तीर्थङ्कर-नाम-कर्म-बन्ध सम्बन्धी २० बोलों की गाथा है, वह मूलतः आवश्यकनियुक्ति (१७९-१८१ ) की गाथा है। इससे भी यही फलित होता है कि वलभी वाचना के समय निर्बुक्तियों और संग्रहणीसूत्रों से अनेक गाथाएँ आगमों में डाली गई हैं। अतः नियुक्तियाँ और संग्रहणियाँ बलभी वाचना के पूर्व की हैं अतः ये नैमितिक भद्रबाहु के स्थान पर लगभग तीसरी-चौथी शती के किसी अन्य भद्र नामक आचार्य की कृतियाँ हैं ।
८. नियुक्तियों की सत्ता वलभी वाचना के पूर्व थी, तभी तो नन्दीसूत्र में आगमों की नियुक्तियों का उल्लेख है। पुनः अगस्त्यसिंह की दशवैकालिकचूर्णि के उपलब्ध एवं प्रकाशित हो जाने पर यह बात -पुष्ट हो जाती है कि आगमिक व्याख्या के रूप में नियुक्तियाँ बलभी १७५]
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चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य वाचना के पूर्व लिखी जाने लगी थीं। इस चूर्णि में प्रथम अध्ययन आराधना में नियुक्तियों की अनेक गाथाओं की नियुक्ति-गाथा के उल्लेख की दशवैकालिकनिर्यक्ति की ५४ गाथाओं की भी चूर्णि की गई है। पूर्वक उपस्थिति, यही सिद्ध करती है कि नियुक्ति के कर्ता उस अविभक्त यह चूर्णि विक्रम की तीसरी-चौथी शती में रची गई थी। इससे यह परम्परा के होने चाहिए जिससे श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों का तथ्य सिद्ध हो जाता है कि नियुक्तियाँ भी लगभग तीसरी-चौथी शती विकास हुआ है। कल्पसूत्र-स्थविरावली में जो आचार्य-परम्परा प्राप्त की रचना है।
होती है, उसमें भगवान् महावीर की परम्परा में प्राचीनगोत्रीय श्रुत-केवली ज्ञातव्य है कि नियुक्तियों में भी परवर्ती काल में पर्याप्त रूप भद्रबाहु के अतिरिक्त दो अन्य 'भद्र' नामक आचार्यों का उल्लेख प्राप्त से प्रक्षेप हुआ है, क्योंकि दशवकालिक के प्रथम अध्ययन की होता है- १. आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्र और अगस्त्यसिंहचूर्णि में मात्र ५४ नियुक्ति गाथाओं की चूर्णि हुई है, जबकि २. आर्य कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। वर्तमान में दशवैकालिकनियुक्ति में प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में १५१ संक्षेप में कल्पसूत्र की यह आचार्य-परम्परा इस प्रकार हैगाथाएँ हैं। अत: नियुक्तियाँ आर्यभद्रगुप्त या गौतमगोत्रीय आर्यभद्र की महावीर, गौतम, सुधर्मा, जम्बू, प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, संभूति, रचनाएँ हैं।
विजय, भद्रबाहु (चतुर्दशपूर्वधर), स्थूलिभद्र (ज्ञातव्य है कि भद्रबाहु इस सम्बन्ध में एक आपत्ति यह उठाई जा सकती है कि नियुक्तियाँ एवं स्थूलिभद्र दोनों ही संभूतिविजय के शिष्य थे।), आर्य सुहस्ति, वलभी वाचना के आगमपाठों के अनुरूप क्यों हैं? इसका प्रथम उत्तर सुस्थित, इन्द्रदिन, आर्यदिन्नं, आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्र, आर्य वज्रसेन, तो यह है कि नियुक्तियों का आगम-पाठों से उतना सम्बन्ध नहीं है, आर्यरथ, आर्य पुष्यगिरि, आर्य फल्गुमित्र, आर्य धनगिरि, आर्यशिवभूति, जितना उनकी विषयवस्तु से है और यह सत्य है कि विभिन्न वाचनाओं आर्यभद्र (काश्यपगोत्रीय), आर्यकृष्ण, आर्यनक्षत्र, आर्यरक्षित, आर्यनाग, में चाहे कुछ पाठ-भेद रहे हों किन्तु विषयवस्तु तो वही रही है और आर्यज्येष्ठिल, आर्यविष्णु, आर्यकालक, आर्यसंपलित, आर्यभद्र नियुक्तियाँ मात्र विषयवस्तु का विवरण देती हैं। पुन: नियुक्तियाँ मात्र (गौतमगोत्रीय), आर्यवृद्ध, आर्य संघपालित, आर्यहस्ती, आर्यधर्म, प्राचीन स्तर के और बहुत कुछ अपरिवर्तित रहे आगमों पर हैं, सभी आयसिंह, आर्यधर्म, षाण्डिल्य (सम्भवतः स्कंदिल, जो माथुरी वाचना आगम-ग्रन्थों पर नहीं है और इन प्राचीन स्तर के आगमों का के वाचनाप्रमुख थे) आदि। गाथाबद्ध जो स्थविरावली है उसमें इसके स्वरूप-निर्धारण तो पहले ही हो चुका था। माथुरीवाचना या वलभी बाद जम्बू, नन्दिल, दुष्यगणि, स्थिरगुप्त, कुमारधर्म एवं देवर्द्धिक्षपकश्रमण वाचना में उनमें बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। आज जो नियुक्तियाँ के पाँच नाम और आते हैं।७३ हैं वे मात्र आचारांग, सूत्रकृतांग, आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ज्ञातव्य है कि नैमित्तिक भद्रबाहु का नाम जो विक्रम की छठी दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प पर हैं। ये सभी ग्रन्थ विद्वानों की शती के उत्तरार्ध में हुए हैं, इस सूची में सम्मिलित नहीं हो सकता दृष्टि में प्राचीन स्तर के हैं और इनके स्वरूप में बहुत अधिक परिवर्तन है। क्योंकि यह सूची वीर निर्वाण सं. ९८० अर्थात् विक्रम सं. ५१० नहीं हुआ है। अत: वलभीवाचना से समरूपता के आधार पर नियुक्तियों में अपना अन्तिम रूप ले चुकी थी। को उससे परवर्ती मानना उचित नहीं है।
इस स्थविरावली के आधार पर हमें जैन-परम्परा में विक्रम की उपर्युक्त समग्र चर्चा से यह फलित होता है कि नियुक्तियों के छठी शती के पूर्वार्ध तक होने वाले भद्र नामक तीन आचार्य के नाम कर्ता न तो चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हैं और न वाराहमिहिर के मिलते हैं- प्रथम प्राचीनगोत्रीय आर्य भद्रबाह, दूसरे आर्य शिवभूति भाई नैमित्तिक भद्रबाहु। यह भी सुनिश्चित है कि नियुक्तियों की रचना के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्य भद्रगुप्त, तीसरे आर्य विष्णु के प्रशिष्य छेदसूत्रों की रचना के पश्चात् हुई है। किन्तु यह भी सत्य है कि नियुक्तियों और आर्यकालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। इनमें वराहमिहिर का अस्तित्व आगमों की देवर्द्धि के समय हुई वाचना के पूर्व था। के भ्राता नैमित्तिक भद्रबाहु को जोड़ने पर यह संख्या चार हो जाती अत: यह अवधारणा भी भ्रान्त है कि नियुक्तियाँ विक्रम की छठी सदी है। इनमें से प्रथम एवं अन्तिम को तो नियुक्तिकर्ता के रूप में स्वीकार के उत्तरार्द्ध में निर्मित हुई हैं। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र की रचना के नहीं किया जा सकता है, इस निष्कर्ष पर हम पहुँच चुके हैं। अब पूर्व आगमिक नियुक्तियाँ अवश्य थीं।
शेष दो रहते हैं-१. शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त और दूसरे अब यह प्रश्न उठता है कि यदि नियुक्तियों के कर्ता श्रुत केवली आर्यकालक के शिष्य आर्यभद्र। इनमें पहले हम आर्य धनगिरि के पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु तथा वाराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु प्रशिष्य एवं आर्य शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त के सम्बन्ध में विचार दोनों ही नहीं थे, तो फिर वे कौन से भद्रबाहु हैं जिनका नाम नियुक्ति करेगें कि क्या वे नियुक्तियों के कर्ता हो सकते हैं? के कर्ता के रूप में माना जाता है। नियुक्ति के कर्ता के रूप में भद्रबाहु की अनुश्रुति जुड़ी होने से इतना तो निश्चित है कि नियुक्तियों का क्या आर्यभद्रगुप्त नियुक्तियों के कर्ता हैं? सम्बन्ध किसी "भद्र" नामक व्यक्ति से होना चाहिए और उनका अस्तित्व नियुक्तियों को शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की लगभग विक्रम की तीसरी-चौथी सदी के आस-पास होना चाहिए। रचना मानने के पक्ष में हम निम्न तर्क दे सकते हैंक्योंकि नियमसार में आवश्यक की नियुक्ति, मूलाचार में नियुक्तियों १. नियुक्तियाँ उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ से विकसित के अस्वाध्याय-काल में भी पढ़ने का निर्देश तथा उसमें और भगवती- श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों सम्प्रदायों में मान्य रही है, क्योंकि यापनीय -
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अन्य मूलाचार में न केवल शताधिक नियुक्ति-गाथाएँ उदधृत हैं, अपितु उसमें अस्वाध्याय-काल में नियुक्तियों के अध्ययन न करने का निर्देश भी है। इससे फलित होता है कि नियुक्तियों की रचना मूलाचार से पूर्व हो चुकी थी । ७४ यदि मूलाचार को छठी सदी की रचना भी मानें तो उसके पूर्व नियुक्तियों का अस्तित्व तो मानना ही होगा, साथ ही यह भी मानना होगा कि नियुक्तियाँ मूलरूप में अविभक्त धारा में निर्मित हुई थीं। चूँकि परम्परा-भेद तो शिवभूति के पश्चात् उनके शिष्यों कौडिन्य और कोट्टवीर से हुआ है। अतः नियुक्तियाँ शिवभूति के शिष्य भद्रगुप्त की रचना मानी जा सकती है, क्योंकि वे न केवल अविभक्त धारा में हुए अपितु लगभग उसीकाल में अर्थात् विक्रम की तीसरी शती में हुए हैं, जो कि नियुक्ति का रचना काल है।
२. पुनः आचार्य भद्रगुप्त को उत्तर भारत की अचेल - परम्परा का पूर्वपुरुष दो-तीन आधारों पर माना जा सकता है। प्रथम तो कल्पसूत्र की पट्टावली के अनुसार आर्यभद्रगुप्त आर्यशिवभूति के शिष्य हैं और ये शिवभूति वही हैं जिनका आर्यकृष्ण से मुनि की उपाधि (वस्त्र पात्र) के प्रश्न पर विवाद हुआ था और जिन्होंने अचेलता का पक्ष लिया था। कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्य कृष्ण और आर्यभद्र दोनों को आर्य शिवभूति का शिष्य कहा है। चूँकि आर्यभद्र ही ऐसे व्यक्ति हैं - जिन्हें आर्यवग्र एवं आर्यरक्षित के शिक्षक के रूप में श्वेताम्बरों में और शिवभूति के शिष्य के रूप में यापनीय परम्परा में मान्यता मिली है। पुनः आर्यशिवभूति के शिष्य होने के कारण आर्यभद्र भी अचलता के पक्षधर होंगे और इसलिए उनकी कृतियाँ यापनीय परम्परा में मान्य रही होंगी। ३. विदिशा से जो एक अभिलेख प्राप्त हुआ है उसमें भद्रान्वय एवं आर्यकुल का उल्लेख है
शमदमवान चीकरत् (11) आचार्य भद्रान्वयभूषणस्य शिष्यो सावाकुलोद्गतस्य (1) आचार्य गोश (जै.शि.सं. २, पृ० ५७)
सम्भावना यही है कि भद्रान्वय एवं आर्यकुल का विकास इन्हीं आर्यभद्र से हुआ हो । यहाँ के अन्य अभिलेखों में मुनि का 'पाणितलभोजी' ऐसा विशेषण होने से यह माना जा सकता है कि यह केन्द्र अचेल धारा का था अपने पूर्वज आचार्य भद्र की कृतियों होने के कारण नियुक्तियां यापनीयों में भी मान्य रही होगी। ओषनियुक्ति या पिण्डनियुक्ति में भी जो कि परवर्ती एवं विकसित हैं, दो चार प्रसंगों के अतिरिक्त कहीं भी वस्त्र-पत्र का विशेष उल्लेख नहीं मिलता है। यह इस तथ्य का भी सूचक है कि नियुक्तियों के काल तक वस्त्र - पात्र आ का समर्थन उस रूप में नहीं किया जाता था, जिस रूप में परवर्ती श्वेताम्बर - सम्प्रदाय में हुआ। वस्त्र पात्र के सम्बन्ध में नियुक्ति की मान्यता भगवती आराधना एवं मूलाधार से अधिक दूर नहीं है। आचारांगनियुक्ति में आचारांग के वस्त्रैषणा अध्ययन की नियुक्ति केवल एक गाथा में समाप्त हो गयी है और पारंषणा पर कोई नियुक्ति गाया ही नहीं है। अतः वस्त्र पात्र के सम्बन्ध में नियुक्तियों के कर्ता आर्यभद्र की स्थिति भी मथुरा के साधु- -साध्वियों के अंकन से अधिक भिन्न नहीं है। अतः नियुक्तिकार के रूप में आर्य भद्रगुप्त को स्वीकार करने में नियुक्तियों
impriméi
में वस्त्र - पात्र के उल्लेख अधिक बाधक नहीं हैं।
४. चूँकि आर्यभद्र के निर्यापक आर्यरक्षित माने जाते हैं। नियुक्ति और चूर्णि दोनों से ही यह सिद्ध है कि आर्यरक्षित भी अचलता के ही पक्षधर थे और उन्होंने अपने पिता को, जो प्रारम्भ में अचेल - दीक्षा ग्रहण करना नहीं चाहते थे, योजनापूर्वक अचेल बना ही दिया था। चूर्णि में जो कटिपट्टक की बात है, वह तो श्वेताम्बर पक्ष की पुष्टि हेतु डाली गयी प्रतीत होती है।
भद्रगुप्त को नियुक्ति का कर्ता मानने के सम्बन्ध में निम्न कठिनाइयाँ
है
१. आवश्यकनियुक्ति एवं आवश्यकचूर्णि के उल्लेखों के अनुसार आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक (समाधिमरण कराने वाले) माने गये। आवश्यकनिर्मुक्ति न केवल आर्यरक्षित की विस्तार से चर्चा करती है. अपितु उनका आदरपूर्वक स्मरण भी करती है। भद्रगुप्त आर्यरक्षित से दीक्षा में ज्येष्ठ हैं, ऐसी स्थिति में उनके द्वारा रचित नियुक्तियों में आर्यरक्षित का उल्लेख इतने विस्तार से एवं इतने आदरपूर्वक नहीं आना चाहिए। यद्यपि परवर्ती उल्लेख एकमत से यह मानते हैं कि आर्यभद्रगुप्त की निर्यापना आर्यरक्षित ने करवायी, किन्तु मूल गाथा को देखने पर इस मान्यता के बारे में किसी को सन्देह भी हो सकता है. मूल गाया निम्नानुसार है
"निजवण महगुते वीसुं पडणं च तस्स पुव्वगवं । पव्यायिओ य भाया रक्खिअखमणेहिं जाओ अ" ।। आवश्यकनियुक्ति, ७७६ /
यहाँ "निज्जवण भद्दगुत्ते" में यदि 'भद्दगुत्ते' को आर्ष प्रयोग मानकर कोई प्रथमाविभक्ति में समझे तो इस गाथा के प्रथम दो चरणों का अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है— भद्रगुप्त ने आर्यरक्षित की निर्यापना की और उनसे समस्त पूर्वगत साहित्य का अध्ययन किया।
गाथा के उपर्युक्त अर्थ को स्वीकार करने पर तो यह माना जा सकता है कि नियुक्तियों में आर्यरक्षित का जो बहुमान पूर्वक उल्लेख है. वह अप्रासंगिक नहीं है क्योंकि जिस व्यक्ति ने आर्थरक्षित की निर्यापना करवायी हो और जिनसे पूर्वो का अध्ययन किया हो, वह उनका अपनी कृति में सम्मानपूर्वक उल्लेख करेगा ही । किन्तु गाथा का इस दृष्टि से किया गया अर्थ चूर्णि में प्रस्तुत कथानकों के साथ एवं निर्बुक्ति गाथाओं के पूर्वापर प्रसंग को देखते हुए किसी भी प्रकार संगत नहीं माना जा सकता है। चूर्णि में तो यही कहा गया है कि आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना करवायी और आर्यवज्र से पूर्वसाहित्य का अध्ययन किया। यहाँ दूसरे चरण में प्रयुक्त "तस्स" शब्द का सम्बन्ध आर्यवज्र से है, जिनका उल्लेख पूर्व गाथाओं में किया गया है। साथ ही यहाँ 'भहगुते' में सप्तमी का प्रयोग है, जो एक कार्य को समाप्त कर दूसरा कार्य प्रारम्भ करने की स्थिति में किया जाता है। यहाँ सम्पूर्ण गाथा का अर्थ इस प्रकार होगा - आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना (समाधिमरण) करवाने के पश्चात् (आर्यवज्र से) पूर्वों का समस्त अध्ययन किया है और अपने भाई और पिता को दीक्षित किया। यदि आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक हैं और वे
१७७minimin
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चनीन्दसूरिस्मारक प्रत्य जैन आगम एवं साहित्य से बच सकते है, जो प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु काश्यपगोत्रीय आशा है जैन-विद्या के निष्पक्ष विद्वानों की अगली पीढ़ी इस आर्यभद्रगुप्त और वराहमिहिर के भ्राता नैमित्तिक भद्रबाहु को नियुक्तियों दिशा में और भी अन्वेषण कर नियुक्ति-साहित्य सम्बन्धी विभिन्न का कर्ता मानने पर आती हैं। हमारा यह दुर्भाग्य है कि अचेलधारा समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करेगी। प्रस्तुत लेखन में मुनि श्री में नियुक्तियाँ संरक्षित नहीं रह सकी, मात्र भगवती-आराधना, मूलाचार पुण्यविजय जी का आलेख मेरा उपजीव्य रहा है। आचार्य हस्तीमल
और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उनकी कुछ गाथाएँ ही अवशिष्ट हैं। इनमें जी ने जैनधर्म के मौलिक इतिहास के लेखन में भी उसी का अनुसरण भी मूलाचार ही मात्र ऐसा ग्रन्थ है जो लगभग सौ नियुक्ति-गाथाओं किया है। किन्तु मैं उक्त दोनों के निष्कर्षों से सहमत नहीं हो सका। का नियुक्ति-गाथा के रूप में उल्लेख करता है। दूसरी ओर सचेल- यापनीय-सम्प्रदाय पर मेरे द्वारा ग्रन्थ-लेखन के समय मेरी दृष्टि में धारा में जो नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं, उनमें अनेक भाष्यगाथाएँ मिश्रित कुछ नई समस्याएँ और समाधान दृष्टिगत हुए और उन्हीं के प्रकाश हो गई है, अत: उपलब्ध नियुक्तियों में से भाष्य-गाथाओं एवं प्रक्षिप्त- में मैंने कुछ नवीन स्थापनाएँ प्रस्तुत की हैं, वे सत्य के कितनी निकट गाथाओं को अलग करना एक कठिन कार्य है, किन्तु यदि एक बार हैं, यह विचार करना विद्वानों का कार्य है। मैं अपने निष्कर्षों को अन्तिम . नियुक्तियों के रचनाकाल, उसके कर्ता तथा उनकी परम्परा का निर्धारण सत्य नहीं मानता हूँ, अत: सदैव उनके विचारों एवं समीक्षाओं से हो जाये तो यह कार्य सरल हो सकता है।
लाभान्वित होने का प्रयास करूंगा। सन्दर्भ १. (अ) निज्जुत्ता ते अत्था, जं बद्धा तेण होइ णिज्जुत्ती। ११. गोविंदो... पच्छातेण एगिदिय जीव साहणं गोविंद निज्जुतिकया।
- आवश्यकनियुक्ति, गाथा ८८। निशीथभाष्य, गाथा ३६५६, निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ० २६०, (ब) सूत्रार्थयोः परस्परनिर्योजन सम्बन्धनं नियुक्तिः
भाग-४, पृ० ९६। - आवश्यकनियुक्ति,टीका-हरिभद्र, गाथा ८३ की टीका। १२. नन्दीसूत्र, (सं. मधुकरमुनि) स्थविरावली,गाथा ४१॥ २. अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह विआलणं इहं।
१३. (अ) प्राकृतसाहित्य का इतिहास, डॉ. जगदीश चन्द्र जैन, पृ० १९०।
- आवश्यकनियुक्ति, ३। (ब) जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, डॉ. मोहनलाल मेहता, पार्श्वनाथ ३. ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा।
विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, भाग ३, पृ०६। सण्णा सई मई पण्णा सव्वं आभिनिबोहियं।।
१४. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ८४-८५
- वही, १२। १५. वही, ८४। आवस्सगस्स दसकालिअस्स तह उत्तरज्झमायारे।
१६. बहुरय पएस अव्वत्तसमुच्छादुर तग अबद्धिया चेव। सूयगडे निज्जुत्तिं बुच्छामि तहा दसाणं च।।
सत्तेए णिण्हणा खलु तिला वद्धमाणस्स।। कप्पस्स य निज्जुतिं ववहारस्सेव परमणि णस्स।
बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा ये तीसगुत्ताओ। सूरिअपण्णत्तीए वुच्छं इसिभासियाणं च।।
अव्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ।। - वही, ८४-८५।
गंगाओ दोकिरिया छलुगा तरासियाण उप्पत्ती। इसिभासियाई (प्राकृत-भारती, जयपुर), भूमिका, सागरमल जैन,
थेराय गोट्ठमाहिलपुट्ठमबद्धं परुविंति।। पृ० ९३।
सावत्थी उसभपुर सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं। बृहत्कथाकोष (सिंघी जैन-ग्रन्थमाला) प्रस्तावना, ए.एन.उपाध्ये, पुरमिंतरंजि दसपुर-रहवीरपुरं च नगराई।। पृ०३१॥
चोद्दस सोलस वासा चोद्दसवीसुत्तरा य दोण्णि सया। आराधना... तस्या नियुक्तिराधनानियुक्तिः। -मूलाचार, पंचाचाराधिकार, अट्ठावीसा य दुवे पंचेव सया उ चोयाला।। गा. २७९ की टीका (भारतीय ज्ञानपीठ, १९८४)
पंच सया चुलसीया छच्चेव सया णवोत्तरा होति। ८. गोविन्दाणं पि नमो अणुओगे विउलधारणिंदाणं।
णाणुपत्तीय दुवे उप्पणा णिव्वुए सेसा।। - नन्दिसूत्र-स्थविरावली, गा. ४१।
एवं एए कहिया ओसप्पिणीए उ निण्हवा सत्त। ९. व्यवहारभाष्य, भाग ६, गा. २६७-२६८।
वीरवरस्स पवयणे सेसाणं पव्वयणे णत्थि।। १०. सो य हेउगोवएसो गोविन्दनिज्जुत्तिमादितो...।
- वही, ७७८-७८४। दरिसणप्पभावगाणि सत्थाणि जहा गोविंदनिज्जुत्तिमादी।
१७. बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। - आवश्यकचूर्णि,भाग१, पृ. ३१ एवं ३५३ भाग२, पृ० २०१,
अव्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ।। ३२२।
गंगाए दोकिरिया छलुगा तेरासिआण उप्पत्ती।
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यतीन्द्रसूरि रमाकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - है नियुक्तियों के कर्ता भी हैं, तो फिर नियुक्तियों में आर्यरक्षित द्वारा प्रशिष्य एवं आर्यकालक-के शिष्य हैं तथा इनके शिष्य के रूप में निर्यापन करवाने के बाद किये गये कार्यों का उल्लेख नहीं होना था। आर्यवृद्ध का उल्लेख है। यदि हम आर्यवृद्ध को वृद्धवादी मानते हैं, किन्तु ऐसा उल्लेख है, अत: नियुक्तियाँ काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की तो ऐसी स्थिति में ये आर्यभद्र, सिद्धसेन के दादा-गुरु सिद्ध होते कृति नहीं हो सकती हैं।
है। यहाँ हमें यह देखना होगा कि क्या ये आर्यभद्र भी स्पष्ट संघभेद २. दूसरी एक कठिनाई यह भी है कि कल्पसूत्र स्थविरावली अर्थात् श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर सम्प्रदायों के नामकरण के के अनुसार आर्यरक्षित आर्यवज्र से ८ वीं पीढ़ी में आते हैं। अत: पूर्व हुए हैं? यह सुनिश्चित है कि सम्प्रदाय-भेद के पश्चात् का कोई यह कैसे सम्भव हो सकता है कि ८ वीं पीढ़ी में होने वाला व्यक्ति भी आचार्य नियुक्ति का कर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि नियुक्तियाँ यापनीय अपने से आठ पीढ़ी पूर्व के आर्यवज्र से पूर्वो का अध्ययन करे। इससे और श्वेताम्बर दोनों में मान्य हैं। यदि वे एक सम्प्रदाय की कृति होती कल्पसूत्र-स्थविरावली में दिये गये क्रम में संदेह होता है, हालाँकि तो दूसरा सम्प्रदाय उसे मान्य नहीं करता। यदि हम आर्य विष्णु को कल्पसूत्र-स्थविरावली एवं अन्य स्रोतों से इतना तो निश्चित होता है दिगम्बर पट्टावली में उल्लिखित आर्यविष्णु समझें तो इनकी निकटता कि आर्यभद्र आर्यरक्षित से पूर्व में हुए हैं। उसके अनुसार आर्यरक्षित अचेल-परम्परा से देखी जा सकती है। दूसरे विदिशा के अभिलेख आर्यभद्रगुप्त के प्रशिष्य सिद्ध होते हैं। यद्यपि कथानकों में आर्यरक्षित में जिस भद्रान्वय एवं आर्य-कुल का उल्लेख है उसका सम्बन्ध इन को तोषलिपुत्र का शिष्य कहा गया है। हो सकता है कि तोषलिपुत्र । गौतमगोत्रीय आर्यभद्र से भी माना जा सकता है, क्योंकि इनका काल आर्यभद्रगुप्त के शिष्य रहे हों। स्थविरावली के अनुसार आर्यभद्र के भी स्पष्ट सम्प्रदाय-भेद एवं उस अभिलेख के पूर्व है। दुर्भाग्य से इनके शिष्य आर्यनक्षत्र और उनके शिष्य आर्यरक्षित थे। चाहे कल्पसूत्र की। सन्दर्भ में आगमिक व्याख्या-साहित्य में कहीं कोई विवरण नहीं मिलता, स्थविरावली में कुछ अस्पष्टताएँ हों और दो आचार्यों की परम्परा को । केवल नाम-साम्य के आधार पर हम इनके नियुक्तिकार होने की सम्भावना कहीं एक साथ मिला दिया गया हो, फिर भी इतना तो निश्चित है व्यक्त कर सकते हैं। कि आर्यभद्र आर्यरक्षित से पूर्ववर्ती या ज्येष्ठ समकालिक हैं। ऐसी इनकी विद्वत्ता एवं योग्यता के सम्बन्ध में भी आगमिक उल्लेखों स्थिति में यदि नियुक्तियाँ आर्यभद्रगुप्त के समाधिमरण के पश्चात् की का अभाव है, किन्तु वृद्धवादी जैसे शिष्य और सिद्धसेन जैसे प्रशिष्य आर्यरक्षित के जीवन की घटनाओं का विवरण देती हैं, तो उन्हें शिवभूति के गुरु विद्वान् होंगे, इसमें शंका नहीं की जा सकती। साथ ही इनके के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त की कृति नहीं माना जा सकता। प्रशिष्य सिद्धसेन का आदरपूर्वक उल्लेख दिगम्बर और यापनीय आचार्य
यदि हम आर्यभद्र को ही नियुक्ति के कर्ता के रूप में स्वीकार भी करते हैं, अत: इनकी कृतियों को उत्तर भारत की अचेल-परम्परा करना चाहते हैं तो इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है कि हम में मान्यता मिली हो, ऐसा माना जा सकता है। ये आर्यरक्षित से पाँचवीं आर्यरक्षित, अन्तिम निह्नव एवं बोटिकों का उल्लेख करने वाली पीढ़ी में माने गये हैं। अत: इनका काल इनके सौ-डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् नियुक्ति-गाथाओं को प्रक्षिप्त मानें। यदि आर्यरक्षित आर्यभद्रगुप्त के ही होगा अर्थात् ये भी विक्रम की तीसरी सदी के उत्तरार्द्ध या चौथी निर्यापक हैं तो ऐसी स्थिति में आर्यभद्र का स्वर्गवास वीर के पूर्वार्द्ध में कभी हुए होगें। लगभग यही काल माथुरीवाचना का निर्वाण सं. ५६० के आस-पास मानना होगा, क्योंकि प्रथम तो भी है। चूँकि माथुरीवाचना यापनीयों को भी स्वीकृत रही है, इसलिए आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना अपने युवावस्था में ही इन कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र को नियुक्तियों का कर्ता करवायी थी और दूसरे तब वीर निर्वाण सं. ५८४ (विक्रम की द्वितीय मानने में काल एवं परम्परा की दृष्टि से कठिनाई नहीं है। शताब्दी) में स्वर्गवासी होने वाले आर्यवज्र जीवित थे। अत: नियुक्तियों यापनीय और श्वेताम्बर दोनों में नियुक्तियों की मान्यता के होने में अन्तिम निह्रव का कथन भी सम्भव नहीं लगता, क्योंकि अबद्धिक के प्रश्न पर भी इससे कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि ये आर्यभद्र नामक सातवाँ निहव वीरनिर्वाण के ५८४ वर्ष पश्चात् हुआ है। अतः आर्य नक्षत्र एवं आर्य विष्णु की ही परम्परा के शिष्य हैं। सम्भव है हमें न केवल आर्यरक्षित सम्बन्धी अपितु अन्तिम निह्रव एवं बोटिकों कि दिगम्बर-परम्परा में आर्यनक्षत्र और आर्यविष्णु की परम्परा में हुए सम्बन्धी विवरण भी नियुक्तियों में प्रक्षिप्त मानना होगा। यदि हम यह जिन 'भद्रबाहु' के दक्षिण में जाने के उल्लेख मिलते हैं, जिनसे अचेलस्वीकार करने को सहमत नहीं हैं, तो हमें यह स्वीकार करना होगा धारा में भद्रान्वय और आर्यकुल का आविर्भाव माना जाता है, वे ये कि काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त भी नियुक्तियों के कर्ता नहीं हो सकते ही आर्यभद्र हों। यदि हम इन्हें नियुक्तियों का कर्ता मानते हैं, तो इससे हैं। अत: हमें अन्य किसी भद्र नामक आचार्य की खोज करनी नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्तियों के उल्लेख है वे भी युक्तिसंगत
बन जाते हैं।
अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नियुक्तियों के कर्ता क्या गौतमगोत्रीय आर्यभद्र नियुक्तियों के कर्ता हैं?
आर्य नक्षत्र की परम्परा में हुए आर्य विष्णु के प्रशिष्य एवं आर्य संपालित काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त के पश्चात् कल्पसूत्र-पट्टावली में हमें के गुरु-भ्राता गौतमगोत्रीय आर्यभद्र ही है। यद्यपि मैं अपने इस निष्कर्ष गौतमगोत्रीय आर्यकालक के शिष्य और आर्य संपालित के गुरुभाई को अन्तिम तो नहीं कहता, किन्तु इतना अवश्य कहूँगा कि इन आर्यभद्र आर्यभद्र का भी उल्लेख मिलता है। यह आर्यभद्र आर्यविष्णु के को नियुक्ति का कर्ता स्वीकार करने पर हम उन अनेक विप्रतिपत्तियों
होगी।
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. यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्य-जैन आगम एवं साहित्य थेरा य गुट्ठमाहिलपुट्ठबद्धं परुविंति।।
२९. उत्तराध्ययननियुक्ति, २६७-२६८। जिट्ठा सुदंसण जमालि अणुज्ज सावत्थि तिंदुगुज्जाणे।
३०. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति, गाथा १। पंच सया य सहस्सं ढकेण जमालि मुत्तूर्ण।।
३१. तहवि य कोई अत्थो उप्पज्जति तम्मि तंमि समयंमि। रायगिहे गुणसिलए वसु चउदसपुवि तीसगुत्ताओ।
पुव्वभणिओ अणुमतो अ होइ इसिभासिएसु जहा।। आमलकप्पा नयरि मित्तसिरी कूरपिंडादि।।
___ -सूत्रकृतांगनियुक्ति, १८९२। सियवियपोलासाढे जोगे तद्दिवसहिययसूले य।
३२क. बृहत्कल्पसूत्रम्, षष्ठ विभाग, प्रकाशक- श्री आत्मानन्द जैन सभा सोहम्मि नलिणगुम्मे रायगिहे पुरिय बलभद्दे।।
भावनगर, प्रस्तावना, पृ० ४,५ मिहिलाए लच्छिघरे महगिरि कोडिन आसमित्तो ।
३३. वही आमुख, पृ० २ णेउणमणुप्पवाए रायगिहे खंडरक्खा य।।
३४(क)मूढणइयं सुयं कालियं तु ण णया समोयरंति इहं। नइखेडजणव उल्लग महगिरि धणगुत्त अज्जगंगे य।
अपुहुत्ते समोयारो, नस्थि पहत्ते समोयारो।। किरिया दो रायगिहे महातवो तीरमणिनाए।।
जावंति अज्जवइरा, अपुहुत्तं कालियाणुओगे य। पुरिमंतरंजि भुयगुह बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुतते या
तेणाऽऽरेण पुहुतं, कालियसुय दिट्ठिवाए य।। परिवाय पुट्टसाले घोसण पडिसेहणा वाए।।
- आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७६२-७६३ । विच्छुय सप्पे मूसग मिगी वराही य कागि पोयाई।
(ख) तुंबवणसन्निवेसाओ, निग्गयं पिउसगासमल्लीणं। एयाहिं विज्जाहिं सो उ परिव्वायगो कुसलो।।
छम्मासियं छसु जयं, माऊय समन्नियं वंदे।। मोरिय नउलि बिराली वग्घी सीही य उलुगि ओवाइ।
जो गुज्झएहिं बालो, निमंतिओ भोयणेण वासंते। एयाओ विज्जाओ गिण्ह परिव्वायमहणीओ।।
णेच्छइ विणीयविणओ, तं वइररिसिं णमंसामि।। दसपुरनगरुच्छुघरे अज्जरक्खिय पुसमित्तत्तियगं च।
उज्जेणीए जो जंभगेहिं आणक्खिऊण थुयमहिओ। गुट्ठामाहिल नव अट्ठ सेसपुच्छा य विंझस्स।।
अक्खीणमहाणसियं सीहगिरिपसंसियं वंदे।। पुट्ठो जहा अबद्धो कंचुइणं कंचुओ समन्नेइ।
जस्स अणुण्णाए वायगत्तणे दसपुरम्मि णयरम्मि। एवं पुट्ठमबद्धं जीवं कम्मं समन्नेइ।।
देवेहिं कया महिमा, पयाणुसारिं णमंसामि।। पच्चक्खाणं सेयं अपरिमाणेण होइ कायव्वं ।
जो कनाइ घणेण य,
पिओ जुव्वणम्मि गिहवइणा। जेसिं तु परीमाणं तं दु8 होइ आसंसा।।
नयरम्मि कुसुमनामे, तं बदररिसिं णमंसामि।। रहवीरपुरं नयरं दीवगमुज्जाण अज्जकण्हे अ।
जणुद्धारआ विज्जा, आगनमा महारिण्णाओ। सिवभूइस्सुवहिमि पुच्छा थेराण कहणा य।।
वंदामि अज्जवइरं, अपच्छिमो जो सुयहराणं।। - उत्तराध्ययननियुक्ति, १६५-१७८।
- वही, गाथा ७६४-७६९। १८. वही, २९।
(ग) अपहुत्ते अणुओगो, चत्तारि दुवार भासई एगो। १९. दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा ३०९-३२६ ।
पुहुताणुओगकरणे, ते अत्थ तओ उ वोच्छिन्ना।। २०. उत्तराध्ययननियुक्ति, २०७।
देविंदवंदिएहिं, महाणुभागेहिं रक्खिअज्जेहिं। २१. दशवैकालिकनियुक्ति, १६१-१६३।
जुगमासज्ज विभत्तो, अणुओगो तो कओ चउहा।। २२. आचारांगनियुक्ति, गाथा ५।
माया य रुद्दसोमा, पिया य नामेण सोमदेव ति। २३. (अ) दशवैकालिकनियुक्ति, ७९-८८।
भाया य फग्गुरक्खिय, तोसलिपुत्ता य आयरिआ।। (ब) उत्तराध्ययननियुक्ति, १४३-१४४।
णिज्जवणभद्त्ते, वीसं पढणं च तस्स पुव्वगयं। २४. जो चेव होइ मुक्खो सा उ विमुत्ति पगयं तु भावेणं।
पव्वाविओ य भाया, रक्खिअखमणेहि जणओ य।। देसविमुक्का साहू सव्वविमुक्का भवे सिद्धा।।
- वही, गाथा ७७३-७७६। - आचारांगनियुक्ति, ३३१॥ ३५. जह जह पएसिणी जाणुगम्मि पालितओ भमाडेइ। २५. उत्तराध्ययननियुक्ति, ४९७-९२।
तह तह सीसे वियणा, पणस्सइ मुरुंडरायस्स।। २६. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा ९९।
-पिण्डनियुक्ति, गाथा- ४९८। २७. दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा ३।
३६. नइ कण्ह-वित्र दीवे, पंचसया तावसाण णिवसंति। २८. सूत्रकृतांगनियुक्ति, १२७।
__ पव्वदिवसेसु कुलवइ, पालेवुत्तार सक्कारे।।
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...... यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य जण सावगाण खिंसण, समियक्खण माइठाण लेवेण।
अट्ठावीसो य दुवे पंचेव सया उ चोयाला।। सावय पयत्तकरणं, अविणय लोए चलण धोए।।
- आवश्यकनियुक्ति, गाथा ८१-८२ पडिलाभिय वच्चंता, निव्वुड निइकूलमिलण समियाओ। ५२. रहवीरपुरं नयरं दीवगमुज्जाण अज्जकण्हे अ। विम्हिय पंच सया तावसाण पध्वज साहा य।।
सिवभूइस्सुवहिमि पुच्छा थोराण कहणा य।। -पिण्डनियुक्ति, गाथा ५०३-५०५।
- उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा १७८ ३७. (अ) वही, गाथा ५०५
५३. स्वयं चतुर्दशपूर्वित्वेऽपि यच्चतुर्दशपूर्व्यपादानं तत् तेषामपि (ब) नन्दीसूत्र-स्थविरावली,गाथा, ३६
षट्स्थानपतितत्वेन शेषमाहात्म्यस्थापनपरमदुष्टमेव, भाष्यगाथा वा (स) मथुरा के अभिलेखों में इस शाखा का उल्लेख ब्रह्मदासिक शाखा
द्वारगाथाद्वयादारभ्य लक्ष्यन्त इति प्रेर्यानवकाश एवेति।। के रूप में मिलता है।
- उत्तराध्ययन-टीका, शान्त्याचार्य, गाथा २३३ ३८. - गेणी कालखमणा सागरखमणा सुवण्णभूमीए।
५४. एगभविए य बद्धाउए य अभिमुहियनामगोए य। इंदो आउयसेसं, पुच्छइ सादिव्वकरणं च।।
एते तिन्निवि देसा दव्वंमि य पांडरीयस्स।। - उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ११९।
- सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा १४६ ३९. अरहते वंदिता चउदसपुची तहेव दसपुवी।
५५. ये चादेशा: यथा-आर्यमङ्गराचार्यस्त्रिविधं शङ्खमिच्छति- एकभविकं एक्कारसंगसुत्तत्यधारए सव्वसाहू य।।
बद्धायुष्कमभिमुखनामगोत्रं च, आर्यसमुद्रो द्विविधम्- बद्धायुष्कम- ओघनियुक्ति, गाथा १ ।
भिमुखनामगोत्रं च, आर्यसुहस्ती एकम्- अभिमुखनाम गोत्रमिति; ४०. श्रीमती ओघनियुक्ति, संपादक- श्रीमद्विजयसूरीश्वर, प्रकाशन- जैन
- बृहत्कल्पसूत्रम्, भाष्य भाग१, गाथा १४४ ग्रन्थमाला, गोपीपुरा, सूरत, पृ० ३-४
५६. वही, षष्ठविभाग, पृ० सं. १५-१७। ४१. जेणुद्धरिया विज्जा आगासगमा महापरिनाओ।
५७. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १२५२-१२६० । वंदामि अज्जवइरं अपच्छिमो जो सुअहराणं।।
५८. वही, गाथा ८५। -आवश्यकनियुक्ति गाथा. ७६९ ५९. जत्थ य जो पण्णवओ कस्सवि साहइ दिसास य णिमित्तं। ४२. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७६३-७७४।
जत्तोमुहो य ढाई सा पुव्वा पच्छवो अवरा।। ४३. अपहत्तपत्ताइं निद्दिसिउं एत्थ होइ अहिगारो।
- आचारांगनियुक्ति, गाथा ५१ चरणकरणाणुओगेण तस्स दारा इमे हुति।।
६०. सप्ताश्विवेदसंख्य, शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ। -दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा ४
अर्धास्तमिते भानौ, यवनपुरे सौम्यदिवसाये।। ४४. ओहेण उ निज्जुत्तिं वुच्छं चरणकरणाणुओगाओ।
- पंचसिद्धान्तिका, उद्धृत बृहत्कल्पसूत्रम्, भाष्य षष्ठविभाग, अप्पक्खरं महत्थं अणुग्गहत्थं सुविहियाणं।।
प्रस्तावना, पृ० १७ -ओघनियुक्ति, गाथार
६१. बृहत्कल्पसूत्रम्, षष्ठविभाग, प्रस्तावना, पृ० १८ ४५. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७७८-७८३।
६२. गोविंदो नाम भिक्खू...
पच्छा तेण एगिदियजीवसाहणं गोविंदनिज्जुत्ती कया।। एस नाणतेणो।। ४६. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा १६४-१७८। ४७. एगभविए य बद्धाउए । अभिमुहियनामगोए य।
-निशीथचूर्णि, भाग ३, उद्देशक ११, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, पृ०
२६०॥ एते तित्रिवि देसा दव्वंमि य पोंडरीयस्स।।
६३. (अ) गोविंदाणं पि नमो, अणुओगे विउलधारणिंदाणं। - सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा १४६।
णिच्चं खंतिदयाणं परूवणे दुल्लभिंदाणं।। ४८. उत्तराध्ययन रीका,शान्त्याचार्य, उद्धृत बृहत्कल्पसूत्रम् भाष्य, षष्ठ विभाग प्रस्तावना, पृ० १२।
- नन्दीसूत्र, गाथा ८१ ४९. वही, पृ० २।
(ब) आर्य स्कंदिल ५०. बृहत्कल्पसूत्रम्, भाष्य षष्ठविभाग, आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर,
आर्य हिमवंत पृ०, ११। ५१. सावत्थी उसभपर सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं।
आर्य नागार्जुन पुदिमंतरंजि दसपुर रहवीरपुरं च नगराई।। चोद्दस सोलस बासा चोद्दसवीसुत्तरा य दोण्णि सथा।
आर्य गोविन्द
సారసాగరంలో గురువురుగుమందుతాగసాగూగవారు
దుండగుడు చందువారు గురువారం సాగుతుందని
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चतीन्द्रसृरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - ... -- देखें,नन्दीसूत्र-स्थविरावली, गाथा ३६-४१ ।
मोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंङ्ख्येयगुण निर्जराः।। ६४. पच्छा तेण एगिदियजीवसाहणं गोविंदणिज्जुत्ती कया। एस णाणतेणो।
-- तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वाति),सुखलाल संघवी, ९.४७। एव दंसणपभावगसत्थट्ठा।
७१अ.णिज्जुत्ती णिज्जुत्ती एसा कहिदा मए समासेण। , - निशीथचूर्णि, पृ० २६०
अह वित्थार पंसगोऽणियोगदो होदि णादव्वो।। ६५. निण्हयाण वत्तव्यया भाणियव्वा जहा सामाइयनिज्जुत्तीए।
आवासगणिज्जुत्ती एवं कधिदा समासओ विहिणा। -उत्तराध्ययनचूर्णि, जिनदासगणिमहत्तर, विक्रम संवत् १९८९, णो उवजुंजदि णिच्चं सो सिद्धिं, जादि विसुद्धप्पा।। . पृ० ९५।
-- मूलाचार (भारतीय ज्ञानपीठ),६९१-६९२॥ ६६. इदाणिं एतेसिं कालो भण्णति 'चउद्दस सोलस वीसा' गाहाउ दो,
एसो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्झाए। इदाणिं भण्णति
आराहणा णिज्जुत्ति मरणविमत्ती य संगहत्युदिओ। 'चोद्दस वासा तइया' गाथा अक्खाणयसंगहणी। वही, पृ० ९५।
पच्चक्खाणावसय धम्मकहाओ एरिस ओ . ६७. मिच्छद्दिट्ठी सासायणे य तह सम्ममिच्छदिट्ठी य।
-- मूलाचार, २७८-२७९। अविरयसम्मद्दिट्ठी विरयाविरए पमत्ते य।।
(ब) ण वसो अवसो अवसस्सकम्ममावस्सयंति बोधव्वा। तत्तो य अप्पमत्तो नियट्ठि अनियट्ठि बायरे सुहुमे।
जुत्ति ति उवाअंत्ति ण णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती।। उवसंत खीणमोहे होइ सजोगी अजोगी य।।
. - मूलाचार, ५१५। - आवश्यकनियुक्ति, (नियुक्तिसंग्रह, पृ० १४०)
७२. ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधव्वा। ६८. आवश्यकनियुक्ति (हरिभद्र) भाग २, प्रकाशक-श्री भेरुलाल कन्हैया
जुत्ति त्ति उवाअंति य णिरवयवो होदि णिजुत्ती।। लाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई, वीर सं. २५०८, पृ० १०६
-नियमसार, गाथा १४२, लखनऊ, १९३१। १०७।
७३. देखें-- कल्पसूत्र, स्थविरावली विभाग। सम्मत्तुपत्ती सावए य विरए अणंतकम्मसे। दसणमोहक्खवए उवसामंते य उवसते।।
७४. देखें-मूलाचार,षडावश्यक-अधिकार। खवए य खीणमोहे जिणे अ सेढी भवे असंखिज्जा।
७५. थेरस्स णं अज्ज विन्हुस्स माढरस्सगुत्तस्स अज्जकालए थेरे अंतेवासी
गोयमसगुत्ते थेरस्सणं अज्जकालस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दुवे थेरा तव्विवरीओ कालो संखज्जगुणाइ सेढीए।।
अंतेवासी गोयमसगुत्ते अज्ज संपलिए थेरे अज्जभद्दे, एएसि दुन्हवि -आचारांगनियुक्ति, गाथा २२२-२२३ (नियुक्तिसंग्रह, पृ०४४१)
गोयमसगुत्ताणं अज्ज बुढे थेरे। ७०. सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त
- कल्पसूत्र (मुनि प्यारचन्दजी, रतलाम)-स्थविरावली, पृ० २३३।
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आचारांगसूत्र एक विश्लेषण :
आचारांगसूत्र जैन आगम साहित्य का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है, यह अर्धमागधी में लिखा गया है, किन्तु इसके प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कत्थ की भाषा एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न है जहाँ प्रथम श्रुतस्कन्ध में अर्धमागधी का प्राचीनतम रूप परिलक्षित होता है वहाँ द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा भाषा की दृष्टि से परवर्ती और विकसित लगता है। यद्यपि आचारांग मूलतः अर्धमागधी प्राकृत का ग्रन्थ है किन्तु उस पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव आ गया है फिर भी प्रश्रुतस्कन्ध में यह प्रभाव नगण्य ही है। मेरी दृष्टि में इस प्रभाव का कारण मूलतः एक लम्बी अवधि तक इसका मौखिक बना रहना है। यह भी सम्भव है कि जो अंश स्पष्ट रूप से और सम्पूर्ण रूप से महाराष्ट्री के हैं वे बाद में जोड़े गये हो। यद्यपि इस सम्बन्ध में निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कह पाना कठिन है। फिर भी भाषा सम्बन्धी इस प्रभाव का कारण उपर्युक्त दोनों विकल्पों में से ही है। प्रथम श्रुतस्कन्ध मूलतः औपनिषदिक सूत्रात्मक शैली में लिखा गया है जबकि दूसरा मुख्य रूप से विवरणात्मक और पद्यरूप में है। प्रथम श्रुतस्कन्ध की जो भाषा है यह गद्य और पद्य दोनों से भिन्न है। यद्यपि प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी पद्म कुछ आ गये हैं फिर भी उसकी सूत्रात्मक शैली दूसरे श्रुतस्कन्ध की शैली से भिन्न है। हमें तो ऐसा लगता है कि प्राकृत-ग्रन्थों की रचना में सर्वप्रथम आचारांग की प्रथम श्रुतस्कन्ध की सूत्रात्मक शैली का विकास हुआ, फिर सहज पद्य लिखे जाने लगे, फिर उसके बाद विकसित स्तर के गद्य लिखे गये। भाषा और शैली के विकास की दृष्टि से आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों में लगभग तीन शताब्दियों का अन्तर तो अवश्य रहा होगा। आचारांग में आचार के सिद्धान्तों और नियमों के लिये जिस मनोवैज्ञानिक आधारभूमि और मनोवैज्ञानिक दृष्टि को अपनाया गया है, वह तुलनात्मक अध्ययन के लिये अद्भुत आकर्षण का विषय है।
आचारांगसूत्र का प्रतिपाद्य विषय श्रमण-आचार का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष है। चूँकि मानवीय आचार मन और बुद्धि से निकट रूप से जुड़ा हुआ है, अतः यह स्वाभाविक है कि आचार के सम्बन्ध में कोई भी प्रामाणिक चिन्तन मनोवैज्ञानिक सत्यों को नकार कर आगे नहीं बढ़ सकता है। हमें क्या होना चाहिये यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं और क्या हो सकते हैं? हमारी क्षमताएँ एवं सम्भावनाएँ क्या है? आचरण के किसी साध्य और सिद्धान्त का निर्धारण साधक की मनोवैज्ञानिक प्रकृति को समझे बिना सम्भव नहीं है हमें यह देखना है कि आचारांग में आचार के सिद्धान्तों एवं नियमों के प्रतिपादन में किस सीमा तक इस दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि का परिचय दिया गया है।
परिचय मिल जाता है। सूत्र का प्रारम्भ ही अस्तित्व सम्बन्धी मानवीय जिज्ञासा से होता है। पहला ही प्रश्न है
अस्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए। के अ आसी के वा इओ चुओ इ पेच्छा भविस्सामि ।।
१/१/१/३
इस जीवन के पूर्व मेरा अस्तित्व था या नहीं अथवा इस जीवन के पश्चात् मेरी सत्ता बनी रहेगी या नहीं? मैं क्या था और मृत्यु के उपरान्त किस रूप में होऊँगा? यही अपने अस्तित्व का प्रश्न मानवीय जिज्ञासा और मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न है, जिसे सूत्रकार ने सर्व प्रथम उठाया है। मनुष्य के लिये मूलभूत प्रश्न अपने अस्तित्व या सत्ता का ही है। धार्मिक एवं नैतिक चेतना का विकास भी इसी अस्तित्वबोध या स्वरूप बोध पर आधारित है मनुष्य की जीवन-दृष्टि क्या और कैसी होगी, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अपने अस्तित्व, अपनी सत्ता और स्वरूप के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या है? पाप और पुण्य अथवा धर्म और अधर्म की सारी मान्यताएँ अस्तित्व की धारणा पर ही खड़ी हुई हैं इसीलिये सूत्रकार ने कहा है कि जो इस " अस्तित्व" या स्व-सत्ता को जान लेता है वही आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है (सोहं से आयाबाई लोगाबाई कम्मवाई किरियाबाई १।१।१।४-५) व्यक्ति के लिये मूलभूत और सारभूत तत्व उसका अपना अस्तित्व ही है, और सत्ता या अस्तित्व के इस मूलभूत प्रश्न को उठाकर ग्रन्थकार ने अपनी मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। आधुनिक मनोविज्ञान में भी जिजीविषा और जिज्ञासा मानव की मूल प्रवृत्तियों मानी गयी हैं।
अस्तित्व सम्बन्धी जिज्ञासा मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न आचारांगसूत्र के उत्थान में ही हमें उसकी दार्शनिक दृष्टि का
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सत्य की खोज में सन्देह (दार्शनिक जिज्ञासा) का स्थान
यह कितना आश्चर्यजनक है कि आचारांग श्रद्धा के स्थान पर संशय को सत्य की खोज का एक आवश्यक चरण मानता है। सम्भवतया ऐसा प्रतीत होता है कि जैनधर्म के आरम्भिक काल में श्रद्धा का तत्त्व इतना प्रमुख नहीं था। आचारांग में " णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पत्राणमंताणं इह मुत्तिमग्र्ग" (१।६।१) कहकर समाधि एवं प्रज्ञा के रूप में जिस मुक्ति-मार्ग का विधान हुआ है, वह स्वयं इस बात का संकेत करता है कि उस समय तक दर्शन या सम्यग्दर्शन शब्द श्रद्धा का सूचक नहीं था। यद्यपि आचारांग में दंसण और सम्मतदंसी शब्दों का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु मेरी दृष्टि में कहीं भी इसका प्रयोग श्रद्धा के अर्थ में नहीं हुआ है। अधिक से अधिक ये शब्द "दृष्टिकोण" या "सिद्धान्त" के अर्थ में प्रयुक्त हुये हैं, जैसे- एवं पासगस्स दंसणं ( १ | ३ | ४) । वस्तुतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किसी भी धार्मिक आन्दोलन में श्रद्धा का तत्त्व उसके परवर्ती युग में जबकि वह कुछ विचारों एवं मान्यताओं से आबद्ध हो जाता है, अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
आचारांग में संशय का जो स्थान स्वीकार किया गया है वह दार्शनिक दृष्टि से काफी उपयोगी है। मानवीय जिज्ञासावृत्ति को महत्व देते हुए तो यहाँ तक कहा गया है कि "संसय परिआगओ संसारे परित्रये (१।५।१) " अर्थात् संशय के ज्ञान से ही संसार का ज्ञान होता है। आज समस्त वैज्ञानिक ज्ञान के विकास में संशय (जिज्ञासा) की पद्धति को आवश्यक माना गया है। संशय की पद्धति को आज एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में मान्यता प्राप्त है। ज्ञान के क्षेत्र में प्रगति का यही एकमात्र मार्ग है, जिसे सूत्रकार ने पूरी तरह समझा है। ज्ञान के विकास की यात्रा सन्देह ( जिज्ञासा) से ही प्रारम्भ होती है, क्योंकि संशय के स्थान पर श्रद्धा आ गयी तो विचार का द्वार ही बन्द हो जाएगा, वहाँ ज्ञान की प्रगति कैसे होगी? संशय विचार के द्वार को उद्घाटित करता है विचार या चिन्तन से विवेक जागृत होता है, ज्ञान के नये आयाम प्रकट होने लगते हैं। आचारांग ज्ञान की विकास यात्रा के मूल में सन्देह को स्वीकार करके चलता है मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जो यात्रा सन्देह से प्रारम्भ होती है, अन्त में श्रद्धा तक पहुँच जाती है। अपना पाने पर सन्देह की परिणति श्रद्धा में हो सकती है। इससे ठीक विपरीत समाधान-रहित अन्धश्रद्धा की परिणति सन्देह में होगी जो सन्देह से चलेगा अन्त में सत्य को पाकर श्रद्धा तक पहुँच जाएगा, जबकि जो श्रद्धा से प्रारम्भ करेगा वह या तो आगे कोई प्रगति ही नहीं करेगा या फिर उसकी श्रद्धा खण्डित होकर सन्देह में परिणत हो जायगी। यह है आचारांग की दार्शनिक दृष्टि का परिचय |
आत्मा के स्वरूप का विश्लेषण
आत्मा के स्वरूप या स्वभाव का विवेचन करते हुए सूत्रकार ने स्पष्ट रूप से कहा है— जे आया से विनाया, जे वित्राया से आया।
वियाण से आया। तं पडुच्च पडिसंखाये - १।५।५ । इस प्रकार वह ज्ञान को आत्म-स्वभाव या आत्म-स्वरूप बताता है। जहाँ आधुनिक मनोविज्ञान चेतना के ज्ञान, अनुभूति और संकल्प ऐसे तीन लक्षण बताता है, वहाँ आचारांग केवल आत्मा के ज्ञान - लक्षण पर बल देता है। स्थूल दृष्टि से देखने पर यही दोनों में अन्तर प्रतीत होता है, किन्तु अनुभूति (वेदना) और संकल्प यह दोनों लक्षण शरीराश्रित बद्धात्मा के हैं, अतः ज्ञान ही प्रथम लक्षण सिद्ध होता है। वैसे आचारांगसूत्र में तथा परवर्ती जैन-ग्रन्थों में भी मनोविज्ञान सम्मत इन तीनों लक्षणों को देखा जा सकता है, फिर भी आचारांगसूत्र का आत्मा के विज्ञाता स्वरूप पर बल देने का एक विशिष्ट मनोवैज्ञानिक कारण है, क्योंकि आत्मा की अनुभूत्यात्मक एवं संकल्पात्मक अवस्था में पूर्णतः समभाव या समाधि की उपलब्धि सम्भव नहीं है, जब तक सुख-दुःखात्मक वेदना की अनुभूति है या संकल्प-विकल्प का चक्र चल रहा है, आत्मा पर भाव में स्थित होता है, चित्त समाधि नहीं रहती है। आत्मा का स्वरूप या स्वभाव धर्म तो समता है, जो केवल उसके ज्ञाता-द्रष्टा रूप में स्वरूपतः उपलब्ध होता है। वेदक और कर्ता रूप में वह स्वरूपतः उपलब्ध नहीं है।
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मन का ज्ञान साधना का प्रथम चरण
निर्ग्रन्थ साधक के लक्षणों का विवेचन करते हुए सूत्रकार कहता है - जो मणं परिजाणई से निग्गंथे जे मणे अपावए - २।१५।४५ । जो मन को जानता है और उसे अपवित्र नहीं होने देता है, वही निर्ग्रन्थ है, इस प्रकार निर्ग्रन्थ श्रमण की साधना का प्रथम चरण है मन को जानना और दूसरा चरण है मन को अपवित्र नहीं होन देना। मन की शुद्धि भी स्वयं मनोवृत्तियों के ज्ञान पर निर्भर है। मन को जानने का मतलब है अन्दर झाँककर अपनी मनोवृत्तियों को पहचानना, मन की ग्रन्थियों को खोजना, यही साधना का प्रथम चरण है। रोग का ज्ञान और उसका निदान उससे छुटकारा पाने के लिये आवश्यक है। आधुनिक मनोविज्ञान की मनोविश्लेषण विधि में भी मन से मुक्त होने के लिये उनको जानना आवश्यक माना गया है। अन्तदर्शन और मनोविश्लेषण आधुनिक मनोविज्ञान की महत्त्वपूर्ण विधियाँ है, आचारांग में उन्हें निर्ग्रन्थ साधना का प्रथम चरण बताया गया है। वस्तुतः आचारांग की साधना अप्रमत्तता की साधना है और यह अप्रमत्तता अपनी चित्तवृत्तियों के प्रति सतत् जागरूकता है । चित्तवृत्तियों का दर्शन सम्यग्दर्शन है, स्वस्वभाव में रमना है आधुनिक मनोविज्ञान जिस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिये मनोप्रन्थियों को तोड़ने की बात कहता है उसी प्रकार जैन-दर्शन भी आत्मशुद्धि के लिए ग्रंथि-भेद की बात कहता है। ग्रन्थि, ग्रन्थि-भेद और निर्मन्य शब्दों के प्रयोग स्वयं आचारांग की मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं। वस्तुतः ग्रन्थियों से मुक्ति ही साधना का लक्ष्य है— गंथेहिं विवत्तेहिं आउकालस्स पारए - ११८१८| ११ | जो ग्रन्थियों से रहित है वही निर्मन्य है। निर्मन्य होने का अर्थ है, राग-द्वेष या आसक्ति रूपी गाँठ का खुल जाना जीवन में अन्दर और बाहर से एकरूप हो जाना, मुखौटों की जिन्दगी से दूर हो जाना, क्योंकि ग्रन्थि का निर्माण होता है रागभाव से आसक्ति से मायाचार या मुखौटों की जिन्दगी से इस प्रकार आचारांग एक मनोवैज्ञानिक सत्य को प्रस्तुत करता है। आचारांग के अनुसार बन्धन और मुक्ति के तत्त्व बाहरी नहीं, आन्तरिक हैं। वह स्पष्ट रूप से कहता है कि - 'बंधप्पमोक्खो तुज्झ अज्झत्येव" १|५|२| बन्धन और मोक्ष हमारे अध्यवसाय किंवा मनोवृत्तियों पर निर्भर हैं। मानसिक बन्धन ही वास्तविक बन्धन है। वे गाँठें जिन्होंने हमें बाँध रखा है, वे हमारे मन की ही गाँठे हैं। वह स्पष्ट उद्घोषणा करता है कि "कामेसु गिद्धा निचयं करेति " १।३।२। कामभागों के प्रति आसक्ति से ही बन्धन की सृष्टि होती है। वह गाँठ जो हमें बाँधती है, आसक्ति की गाँठ है, ममत्व की गाँठ है, अज्ञान की गाँठ है। इस आसक्ति से प्रत्युत्पन्न हिंसा व्यक्ति की और संसार की सारी पीड़ाओं का मूल स्रोत है। यही जीवन में नरक की सृष्टि करती है, जीवन को नारकीय बनाती है। एस खलु गंधे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए१।१।२। आचारांग के अनुसार विषय भोग के प्रति जो आतुरता है, वहीं समस्त पीड़ाओं की जननी है (आता परितावेति- १।१।२३) यहाँ हमें स्पष्ट रूप से विश्व की समस्त पीड़ाओं का एक मनोवैज्ञानिक
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----- नातीन्दगरिमारक जन आम एवं यानि .. विश्लेषण प्राप्त होता है। सूत्रकार स्पष्ट रूप से कहता है कि-"आसं वह मोह (अविद्या) को देख लेता है, और जो मोह को देखता है च छंदं च विगिंच धीरे। तुमंच चेव तं सल्लमाहट्ट-१२।४। हे धीर वह गर्भ (भावी जन्म) को देखता है और जो गर्भ को देखता है वह पुरुष! विषय भोगों की आकांक्षा और तत्संबंधी संकल्प-विकल्पों का जन्म-मरण की प्रक्रिया को देख लेता है। इस प्रकार एक कषाय का परित्याग करो। तुम स्वयं इस काँटे को अपने अन्त:करण में रखकर सम्यक् विश्लेषण उससे संबंधित अन्य कषायों का तथा उनके दुःखी हो रहे हो। इस प्रकार आचारांग बन्धन, पीड़ा या दुःख के परिणामों और कारणों का सम्यक् बोध करा देता है (१।३।४); प्रति एक आत्मनिष्ठ एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। वह क्योंकि सभी मनोवृत्तियाँ परस्पर सापेक्ष होकर रहती हैं। जहाँ मोह कहता है-जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा, ते आसवा (१।४।२) होता है वहाँ राग-द्वेष होते हैं, वहाँ लोभ होता ही है। जहाँ लोभवृत्ति अर्थात् बाहर में जो बन्धन के निमित्त हैं वे भी कभी मुक्ति के निमित्त होती है वहाँ माया या कपटाचार आ ही जाता है। जहाँ कपटाचार बन जाते हैं। इसका आशय यही है कि बन्धन और मुक्ति का सारा होता है वहाँ उसके पीछे मान या अहंकार का प्रश्न जुड़ा रहता खेल साधक के अंतरंग भावों पर आधारित है। यदि इसी प्रश्न पर है और जहाँ मान या अहंकार होता है उसके साथ क्रोध जुड़ा रहता हम आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि है। राग के बिना द्वेष का और द्वेष के बिना राग का टिकाव नहीं आधुनिक मनोविकृतियों के कारणों का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट रूप है। इसी प्रकार क्रोध का टिकाव अहंकार पर और अहंकार का टिकाव से यह बताया गया है कि आकांक्षाओं का उच्चस्तर ही मन में कुण्ठाओं मायाचार पर, मायाचार का टिकाव लोभ पर निर्भर करता है। कोई को उत्पन्न करता है और उन कुण्ठाओं के कारण मनोग्रन्थियों की रचना भी कषाय दूसरी कषाय से पूरी तरह निरपेक्ष होकर नहीं रह सकती होती है, जो अन्ततोगत्वा व्यक्ति में मनोविकृतियों को उत्पन्न है, अत: किसी एक कषाय का समग्र भाव से विजेता सभी करती है।
कषायों का विजेता बन जाता है और एक का द्रष्टा सभी का द्रष्टा
बन जाता है। मनोवृत्तियों की सापेक्षता
आचारांगसूत्र में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग (प्रेम), द्वेष, मोह कषाय-विजय का उपाय : द्रष्टा या साक्षीभाव आदि की परस्पर की सापेक्षता को सूचित करते हुए यह बताया गया आचारांग में मुनि और अमुनि का अन्तर स्पष्ट करते हुए है कि जो इनमें से किसी एक को भी सम्यक् प्रकार जान लेता है बताया गया है कि जो सोता है, वह अमुनि है, जो जागता है वह वह अन्य सभी को जान लेता है और जो एक पर पूर्ण विजय प्राप्त मुनि है। यहाँ जागने का तात्पर्य है अपने प्रति, अपनी मनोवृत्तियों कर लेता है, वह अन्य सभी पर विजय प्राप्त कर लेता है। के प्रति सजग होना या अप्रमत्तचेता होना है। प्रश्न हो सकता है कि (जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एग जाणइ, जे अप्रमत्तचेता या सजग होना क्यों आवश्यक है? वस्तुतः जब एगं नामे से बहुं नामे जे बहुं नामे से एगं नामे-११३१४) आश्चर्य व्यक्ति अपने अन्तर में झाँककर अपनी वृत्तियों का द्रष्टा बनता है तो यही है कि अभी तक इन सूत्रों के तत्त्वमीमांसीय या ज्ञानमीमांसीय दुर्विचार और दुष्प्रवृत्तियाँ स्वयं विलीन होती जाती हैं। जब घर का अर्थ लगाये गये और इनके मनोवैज्ञानिक सन्दर्भ को ओझल किया मालिक जागता है तो चोर प्रवेश नहीं करते हैं, उसी प्रकार जो गया, जबकि ये सूत्र विशुद्ध रूप से मनोवैज्ञानिक हैं, क्योंकि इस साधक सजग है, अप्रमत्त हैं, तो उनमें कषायें पनप नहीं सकतीं, उद्देशक का सम्पूर्ण सन्दर्भ कषायों से सम्बन्धित है, जो मनोविज्ञान क्योंकि कषाय स्वयं प्रमाद है, तथा प्रमाद और अप्रमाद एक साथ का विषय है। इन कषायों के दुश्चक्र से वही मुक्त हो सकता है, जो नहीं रह सकते हैं। अत: अप्रमाद होने पर कषाय पनप नहीं अप्रमत्त चेता है, क्योंकि जैसे ही व्यक्ति इनके प्रति सजग बनता है, सकते। आचारांगसूत्र में बार-बार कहा गया है,–'तू देख' 'तू देख इनके कारणों और परिणामों को देखने लगता है, वह मनोवृत्तियों के (पास! पास!)। यहाँ देखने का तात्पर्य है अपने प्रति या अपनी वृत्तियों पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट होते हुए पाता है। जब व्यक्ति क्रोध को देखता के प्रति सजग होना। क्योंकि जो द्रष्टा है, वही निरुपाधिक दशा को है, तो क्रोध के कारणभूत द्वेषभाव और द्वेष के कारणभूत रागभाव प्राप्त हो सकता है (किमत्थि उवाही पासगस्स, ण विज्जइ? नत्थि को भी देख लेता है। जब वह अहं या मान का द्रष्टा बनता है, तो १।३।४)। अहं की तुष्टि के लिये मायावी मुखौटों का जीवन भी उसके सामने वस्तुत: आत्मा जब अपने शुद्ध ज्ञाता-स्वरूप में अवस्थित होती स्पष्ट हो जाता है। सूत्रकार ने पूरी स्पष्टता के साथ इस बात को प्रस्तुत है, संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियाँ किया कि किस प्रकार किसी एक मनोवृत्ति (कषाय) का द्रष्टा दूसरी और मनोभाव भी उसे 'पर' (स्व से भिन्न) प्रतीत होते हैं। जब वह सभी सापेक्ष रूप में रही हुई मनोवृत्तियों का द्रष्टा बन जाता है। वह 'पर' को 'पर' के रूप में जान लेता है और उससे अपनी पृथकृता कहता है-जो क्रोध को देखता है, वह मान (अंहकार) को देख लेता का बोध कर लेता है तब वह अपने शुद्ध शायक स्वरूप को जानकर है। जो मान को देखता है वह माया (कपटवृत्ति) को देख लेता है। उसमें अवस्थित हो जाता है। यही वह अवसर होता है, जब मुक्ति जो माया को देखता है वह लोभ को देख लेता है। जो लोभ को का द्वार उद्घाटित होता है, क्योंकि जिसने 'पर' को 'पर' के रूप देखता है वह राग-द्वेष को देख लेता है। जो राग-द्वेष को देखता है, में जान लिया है उसके लिए ममत्व या राग के लिए कोई स्थान ही
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---- यतीन्दरिमारग्रदय जैन आमा साहि नहीं रहता है। राग के गिर जाने पर वीतरागता का प्रकटन होता है, में अहिंसा को शाश्वत, नित्य और शुद्ध धर्म कहा गया है, (सव्वे और मुक्ति का द्वार खुल जाता है।
भूया, सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा---एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए
समिच्च लोये खेयण्णेहिं पवेइए-१।४।१) और प्रथम श्रुतस्कन्ध के मन के पवित्रीकरण की मनोवैज्ञानिक विधि
आठवें अध्याय के तीसरे उद्देशक में समता को धर्म कहा गया है, चित्त को अपवित्र नहीं होने देने के लिये मन की वृत्तियों को समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए (१८।३) वस्तुतः धर्म की ये दो देखना जरूरी है, क्योंकि यह मन को दुष्प्रवृत्तियों से बचाने की एक व्याख्याएँ दो दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अहिंसा व्यावहारिक मनोवैज्ञानिक पद्धति है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मन एक समाज-सापेक्ष धर्म है, जबकि वैयक्तिक एवं आन्तरिक दृष्टि से समभाव ही समय में द्रष्टा और कर्ता की दो भूमिकाओं का निर्वाह नहीं कर ही धर्म है। सैद्धांतिक दृष्टि से अहिंसा और समभाव में अभेद है, सकता है। उदाहरण के लिए वह अपने क्रोध का कर्ता एवं द्रष्टा एक किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से वे अलग है। समभाव की बाह्य अभिव्यक्ति साथ नहीं हो सकता। मन जब कर्ता से द्रष्टा की भूमिका में आता अहिंसा बन जाती है और यही अहिंसा जब स्वकेन्द्रित (स्वदया) होती है तो मनोविकार स्वयं विलीन होने लगते हैं। मन तो स्वत: ही वासना है तो समभाव बन जाती है।
और विकार से मुक्त हो जाता है। इसलिये कहा गया है-अप्पमत्तो कामेहिं उवरतो-१।२।१। सव्वतो पमत्तस्स भयं-अप्पमत्तस्स नत्थि समत्व या समता धर्म क्यों? भयं-१३।४। जो अप्रमत्त है वह कामनाओं से और पाप कर्मों से यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि समता को धर्म उपरत है, प्रमत्त को ही विषय-विकार में फँसने का भय है अप्रमत्त क्यों माना जावे? जैन-परम्परा के परवर्ती ग्रन्थों में धर्म की व्याख्या को नहीं। अप्रमत्तता या सम्यग्द्रष्टा की अवस्था में पाप-कर्म असम्भव 'वत्थु-सहावो धम्मो' के रूप में की गई है, अत: समता को तभी हो जाता है, इसीलिये कहा गया है-सम्मत्तदंसी न करेइ पावं- धर्म माना जा सकता है जबकि वह प्राणीय स्वभाव सिद्ध हो जावे, ११३१२ अर्थात् सम्यग्द्रष्टा कोई पाप नहीं करता है। आचारांग में मन जरा इस प्रश्न पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें। को जानने अथवा अप्रमत्त चेतना की जो बात बार-बार कही गई है, जैन-दर्शन में मानव-प्रकृति एवं प्राणी- प्रकृति का गहन विश्लेषण वह मन को वासनामुक्त करने का या मन के पवित्रीकरण का एक किया गया है। महावीर से जब यह पूछा गया कि आत्मा क्या है? ऐसा उपाय है जिसकी प्रामाणिकता आधुनिक मनोविज्ञान के प्रयोगों आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है? तब महावीर ने इस प्रश्न का से सिद्ध हो चुकी है। जब साधक अप्रमत्त चेतना से युक्त होकर द्रष्टाभाव जो उत्तर दिया था वह आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है। महावीर में स्थित होता है तब सारी वासनायें और सारे आवेग स्वत: शिथिल ने कहा था-आत्मा समत्व रूप है और समत्व ही आत्मा का साध्य हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र यह कहकर कि “आयंकदंसी न करेइ है (आयाए सामाइए आया सामाइस्स अट्ठ-भगवतीसूत्र)। वस्तुतः पावं -१३।२।" पुन: एक मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया जहाँ भी जीवन है, चेतना है, वहाँ समत्व के संस्थापन के अनवरत गया है। जो अपनी पीड़ा या वेदना को देख लेता है उसके लिये प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य विषमताओं को दूर कर समत्व के पापकर्म में फँसना एक मनोवैज्ञानिक असम्भावना बन जाती है। जब लिये प्रयासशील बने, यह जीवन या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक व्यक्ति पापकर्म या हिंसा जनित पीड़ा का स्वयं आत्मनिष्ठ रूप में अनुभव एवं मानसिक स्तर पर समत्व का संस्थापन ही जीवन का लक्षण है। करता है, हिंसा करना उसके लिये असम्भव हो जाता है। इस प्रकार डा० राधाकृष्णन् के शब्दों में 'जीवन गतिशील सन्तुलन है ' (जीवन हम देखते हैं कि सूत्रकार पाप से विरत होने के लिए मनोवैज्ञानिक । की आध्यात्मिक दृष्टि, पृ० २५९)। स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में सत्यों पर अधिष्ठित पद्धति प्रस्तुत करता है।
निहित तथ्य जीवन के संतुलन को भंग करते रहते है और जीवन
अपनी क्रियाशीलता के द्वारा पुन: इस संतुलन को बनाने का प्रयास धर्म की मनोवैज्ञानिक व्याख्या
करता है। यह संतुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है (फर्स्ट आचारांग में अहिंसा, समाधि और प्रज्ञा को मोक्षमार्ग कहा गया । प्रिंसिपल्स-स्पेन्सर, पृ०६६)। विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्व है। इसमें अहिंसा को पूर्ण स्थान दिया गया है। यहाँ साधना का क्रम । के लिये संघर्ष कहा है, किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इसे अस्तित्व के अन्दर से बाहर की ओर न होकर बाहर से अन्दर की ओर है, जो लिये संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के संस्थापन का प्रयास कहना अधिक मनोवैज्ञानिक है। अहिंसा की साधना के द्वारा जब तक परिवेश ही अधिक उचित है। समत्व के संस्थापन एवं समायोजन की प्रक्रिया एवं चित्तवृत्ति निराकुल नहीं बनेगी, समाधि नहीं होगी और जब तक ही जीवन का महत्त्वपूर्ण लक्षण है। समाधि नहीं आएगी प्रज्ञा का उदय नहीं होगा। इस सन्दर्भ में आचारांग इस प्रकार जैन-दर्शन में समभाव या वीतराग दशा को ही के दृष्टिकोण में और परवर्ती जैन-दर्शन के दृष्टिकोण में स्पष्ट अन्तर नैतिक जीवन का आदर्श माना गया है। यह बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। वह आचार-शुद्धि से विचार-शुद्धि की ओर बढ़ता है। से भी सही उतरती है। संघर्ष नहीं, अपितु समत्व ही जीवन का आदर्श
आचारांग में धर्म क्या है? इसके दो निर्देश हमें उपलब्ध होते हो सकता है, क्योंकि यही हमारा स्वभाव है और जो स्व स्वभाव हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ है वही आदर्श है। स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ है।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक्रयदय जैन आगम एवं साहित्य - स्पेन्सर, डार्विन एवं आर्सा प्रभृति कुछ पाश्चात्य विचारक संघर्ष को को स्थापित किया है। यद्यपि मेकेंजी ने "भय" को अहिंसा का आधार ही जीवन का स्वभाव मानते हैं, लेकिन यह एक मिथ्या धारणा है। माना है, किन्तु उसकी यह धारणा गलत है, क्योंकि भय के सिद्धान्त आधुनिक विज्ञान के अनुसार वस्तु का स्वभाव वह होता है, जिसका को यदि अहिंसा का आधार बनाया जायेगा तो व्यक्ति केवल सबल निराकरण नहीं किया जा सकता। जैन-दर्शन के अनुसार नित्य और की हिंसा से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं। भय को आधार निरपवाद वस्तुधर्म ही स्वभाव है। यदि हम इसे कसौटी पर कसें तो मानने पर तो जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी, संघर्ष एवं तनाव जीवन का स्वभाव सिद्ध नहीं होता है। द्वन्द्वात्मक जबकि आचारांग तो प्राणियों के प्रति यहाँ तक कि वनस्पति, जल भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य-स्वभाव संघर्ष है, मानवीय इतिहास और पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात करता वर्ग-संघर्ष की कहानी है। संघर्ष ही जीवन का नियम है। किन्तु यह है। अत: आचारांग में अहिंसा को भय के आधार पर नहीं, अपतुि एक मिथ्या धारणा है।यदि संघर्ष ही जीवन का नियम है, तो फिर जिजीविषा और सुखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद संघर्ष का निराकरण क्यों करना चाहता है, संघर्ष अधिष्ठित किया गया है। पुन: अहिंसा को इन मनोवैज्ञानिक सत्यों मिटाने के लिए होता है। जो मिटाने की, निराकरण करने की वस्तु के साथ-साथ तुल्यता-बोध के बौद्धिक सिद्धान्त पर खड़ा किया गया। है, क्या उसे स्वभाव कहा जा सकता है? संघर्ष यदि मानव-इतिहास वहाँ कहा गया है कि 'जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ-..-एयं का एक तथ्य है तो वह उसके दोषों का इतिहास है, उसके स्वभाव तुल्लमन्नेसिं'-१।१७। जो अपनी पीड़ा को जान पाता है वही तुल्यताका इतिहास नहीं। मानव-स्वभाव संघर्ष नहीं, संघर्ष का निराकरण या बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है। यह समत्व की साधना है, क्योंकि युगों से मानवीय प्रयास उसी के लिए प्राणीय पीड़ा की तुल्यता के बोध के आधार पर होने वाला आत्मसंवेदन हो रहे हैं।
ही अहिंसा का आधार है। सूत्रकार तो अहिंसा के इस सिद्धान्त को संघर्ष अथवा समत्व से विचलन जीवन में पाये जाते हैं, लेकिन अधिक गहराई तक अधिष्ठित करने के प्रयास स्वरूप यहाँ तक कह वे जीवन के स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि जीवन की प्रक्रिया उनको समाप्त देता है कि जिसे तू मारना चाहता है, पीड़ा देना चाहता है, सताना करने की दिशा में ही प्रयासशील है। समता की उपलब्धि ही मनोवैज्ञानिक चाहता है, वह तू ही है (आचारांग, ११५।५)। आगे कहता है कि दृष्टि से जीवन का साध्य है। कामना, आसक्ति, राग-द्वेष, वितर्क आदि जो लोग (लोक) का अपलाप करता है वह स्वयं अपनी आत्मा का सभी मानसिक असंतुलन एवं तनाव की अवस्था को अभिव्यक्त करते अपलाप करता है (आचारांग, ११३)। यहाँ अहिंसा को अधिक है। अत: आचारांग में इन्हें अशुभ माना गया है। इसके विपरीत गहन मनोवैज्ञानिक आधार देने के प्रयास में वह जैन-दर्शन के आत्मा वासनाशून्य, वितर्कशून्य, निष्काम, अनासक्त, वीतराग अवस्था ही सम्बन्धी अनेकात्मवाद के स्थान पर एकात्मवाद की बात करता सा जीवन का आदर्श है क्योंकि वह समत्व की स्थिति है। राग और द्वेष प्रतीत होता है, क्योंकि यहाँ वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य को देख रहा की वृत्तियाँ हमारे चेतन समत्व को भंग करती हैं, अत: उनसे ऊपर है कि केवल आत्मभाव में हिंसा असम्भव हो सकती है। जब तक उठकर वीतरागता की अवस्था को प्राप्त कर लेना ही सच्चे समत्व दूसरे के प्रति पर बुद्धि है, परायेपन का भाव है, तब तक हिंसा की की अवस्था है। वस्तुत: समत्व की उपलब्धि आचारांग और आधुनिक सम्भावनाएँ उपस्थित हैं। व्यक्ति के लिए हिंसा तभी असम्भव हो सकती मनोविज्ञान दोनों की दृष्टि से मानव जीवन का साध्य मानी जा सकती है जब उसमें प्राणी-जगत् के प्रति अपनत्व या आत्मीय दृष्टि जागृत है और जो जीवन का साध्य एवं स्वभाव हो, वही धर्म कहा जा सकता हो। अहिंसा की स्थापना के लिए जो मनोवैज्ञानिक भूमिका अपेक्षित है। आचारांग स्पष्ट रूप से कहता है कि जो समता को जानता है थी उसे प्रस्तुत करने में सूत्रकार ने आत्मा की वैयक्तिकता की धारणा वही मुनि-धर्म को जानता है।
का भी अतिक्रमण कर उसे अभेद की धारणा पर स्थापित करने का
प्रयास किया है। हिंसा के निराकरण के प्रयास में भी सूत्रकार ने एक आचारांग में अहिंसा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
और इस मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया है कि हिंसा से हिंसा आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर या घृणा से घृणा का निराकरण सम्भव नहीं है। वह तो स्पष्ट रूप . ही स्थापित करने का प्रयास किया गया है। अहिंसा को अर्हत्-प्रवचन से कहता है-शस्त्रों के आधार पर या भय और हिंसा के आधार का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है।
पर शान्ति की स्थापना सम्भव नहीं है, क्योंकि एक शस्त्र का प्रतिकार सर्वप्रथम हमें विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना दूसरे शस्त्र के द्वारा सम्भव है। शान्ति की स्थापना तो अहिंसा या जावे। सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है। वह प्रेम द्वारा ही सम्भव है, क्योंकि अशस्त्र से बढ़कर कुछ अन्य नहीं कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को है (आचारांग, १।३।४)। सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है (सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुक्खपडिकूला–११२।३), अहिंसा का अधिष्ठान यही आचारांग में मानवीय व्यवहार के प्रेरक तत्त्व मनोवैज्ञानिक सत्य है। अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव सामान्यतया राग और द्वेष ये दो कर्म-बीज माने गये हैं, किन्तु है। जैन विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा इनमें भी राग ही प्रमुख तथ्य है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि
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आधुमबन्ध में कोई निश्चित
ही एकमात्र मूल अरमानी है।
चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य आसक्ति ही कर्म का प्रेरक तथ्य है (१।३।२)। आचारांग और आधुनिक की दृष्टि से इन्द्रिय व्यापारों का निरोध एक अस्वाभाविक तथ्य है। मनोविज्ञान दोनों ही इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि मानवीय व्यवहार आँख के समक्ष जब उसका विषय प्रस्तुत होता है तो वह उसके सौन्दर्यका मूलभूत प्रेरक तत्त्व वासना या काम है। फिर भी आचारांग और दर्शन से वंचित नहीं रह सकती। भोजन करते समय स्वाद को अस्वीकार आधुनिक मनोविज्ञान दोनों में वासना के मूलभूत प्रकार कितने हैं, नहीं किया जा सकता। अत: यह विचारणीय प्रश्न है कि इन्द्रिय-दमन इस सम्बन्ध में कोई निश्चित संख्या नहीं मिलती है। पाश्चात्य मनोविज्ञान के सम्बन्ध में क्या आचारांग का दृष्टिकोण आधुनिक मनोवैज्ञानिक में जहाँ फ्रायड काम या राग को ही एकमात्र मूल प्रेरक मानते हैं, दृष्टिकोण से सहमत है? आचारांग इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यही वहीं दूसरे विचारकों ने मूलभूत प्रेरकों की संख्या सौ तक मानी है। बात कहता है कि इन्द्रिय-व्यापारों के निरोध का अर्थ इन्द्रियों को अपने फिर भी पाश्चात्य मनोविज्ञान में सामान्यतया निम्न १४ मूल प्रवृत्तियाँ विषयों से विमुख करना नहीं, वरन् विषय-सेवन के मूल में जो निहित मानी गई हैं
राग-द्वेष हैं उन्हें समाप्त करना है। इस सम्बन्ध में उसमें जो मनोवैज्ञानिक १. पलायनवृत्ति (भय) २. घृणा, ३. जिज्ञासा, ४. आक्रामकता दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है, वह विशेष रूप से द्रष्टव्य है। उसमें (क्रोध), ५. आत्मगौरव (मान), ६. आत्महीनता, ७. मातृत्व की कहा गया है कि यह शक्य नहीं कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या. संप्रेरणा, ८. समूह-भावना, ९. संग्रहवृत्ति, १०. रचनात्मकता, ११. बुरे शब्द सुने न जाएँ, अतः शब्दों का नहीं, शब्दों के प्रति जगने भोजनान्वेषण, १२. काम, १३, शरणागति और १४. हास्य (आमोद)। वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं कि आँखों आचारांगसूत्र में भय, जिज्ञासा, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, के सामने वाला अच्छा या बुरा रूप न देखा जाये अत: रूप का नहीं, आत्मीयता, हास्य आदि का यत्र-तत्र बिखरा हुआ उल्लेख उपलब्ध अपितु रूप के प्रति जागृत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। है। इसके अतिरिक्त हिंसा के कारणों का निर्देश करते हुए कुछ कर्म- यह शक्य नहीं है कि नासिका के समक्ष आयी हुई सुगन्ध सूंघने में प्रेरकों का उल्लेख उपलब्ध है। यथा जीवन जीने के लिये, प्रशंसा न आए अतः गन्ध की नहीं, किन्तु गन्ध के प्रति आने वाले राग
और मान-सम्मान पाने के लिए,जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए द्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि जीभ तथा शारीरिक एवं मानसिक दुःखों की निवृत्ति-हेतु प्राणी हिंसा करता । पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आये। अतः रस का है (१।१।४)।
नहीं किन्तु रस के प्रति जागने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिये।
यह शक्य नहीं है कि शरीर से सम्पर्क होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श आचारांग का सुखवादी दृष्टिकोण
की अनुभूति न हो। अत: स्पर्श नहीं, किन्तु स्पर्श के प्रति जागने आधुनिक मनोविज्ञान हमें यह भी बताता है कि सुख सदैव अनुकूल वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिये (आचारांग २।१५।१०१-१०५)। इसलिए होता है कि उसका जीवन-शक्ति को बनाये रखने की दृष्टि उत्तराध्ययन में भी इसकी पुष्टि की गई है। उसमें कहा गया है कि से दैहिक मूल्य है और दुःख इसलिए प्रतिकूल होता है कि वह जीवन इन्द्रियों के मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ विषय आसक्त व्यक्ति के लिए शक्ति कास करता है। यही सुख-दुःख का नियम समस्त प्राणीय राग-द्वेष के कारण नहीं होते हैं। ये विषय रागी पुरुषों के लिए ही व्यवहार का चालक है। आचारांग भी प्राणीय व्यवहार के चालक के दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं, वीतरागियों के बन्धन या दुःख का रूप में इसी सुख-दुःख के नियम को स्वीकार करता है (आचारांग, कारण नहीं हो सकते हैं। काम-भोग न किसी को बन्धन में डालते १।२।३)। अनुकूल के प्रति आकर्षण और प्रतिकूल के प्रति विकर्षण, हैं और न किसी को मुक्त ही कर सकते हैं, किन्तु जो विषयों में राग-द्वेष यह इन्द्रिय स्वभाव है। अनुकूल विषयों की ओर प्रवृत्ति, प्रतिकूल विषयों करता है, वही राग-द्वेष से विकृत होता है (उत्तराध्ययन ३२॥ से निवृत्ति यह एक नैसर्गिक तथ्य है, क्योंकि सुख अनुकूल और दुःख १००-१०१)। प्रतिकूल होता है। वस्तुतः प्राणी सुख को प्राप्त करना चाहता है और जैन-दर्शन के अनुसार साधना का सच्चा मार्ग औपशमिक नहीं दुःख से बचना चाहता है। वासना ही अपने विधानात्मक रूप में सुख वरन् क्षायिक है। औपशमिक मार्ग का अर्थ वासनाओं का दमन है।
और निषेधात्मक रूप में दुःख का रूप ले लेती है, जिससे वासना इच्छाओं के निरोध का मार्ग औपशमिक मार्ग है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक की पूर्ति हो वही सुख और जिससे वासना की पूर्ति न हो अथवा की दृष्टि में यह दमन का मार्ग है, जबकि क्षायिक मार्ग वासनाओं वासना-पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो वह दुःख। इस प्रकार वासना से ही के निरसन का मार्ग है। वह वासनाओं से ऊपर उठाता है। यह दमन सुख-दुःख के भाव उत्पन्न होकर प्राणीय व्यवहार का नियमन करने नहीं, अपितु चित्त-विशुद्धि है। दमन तो मानसिक गन्दगी को ढकने लगते है।
मात्र में है और जैन-दर्शन इस प्रकार के दमन को स्वीकार नहीं करता।
जैन-दार्शनिकों ने गुणस्थान प्रकरण में यह स्पष्ट रूप से बताया है दमन का प्रत्यय और आचारांग
कि वासनाओं को दबाकर आने वाली साधना विकास की अग्रिम कक्षाओं सामान्यतया आचारांग में इन्द्रिय-संयम पर काफी बल दिया गया से अनिवार्यतया पदच्युत हो जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि है। वह तो शरीर को सुखा डालने की बात भी कहता है। लेकिन जैन-दर्शन भी आधुनिक मनोवैज्ञानिक के समान ही दमन को साधना प्रश्न यह है कि क्या पूर्ण इन्द्रिय-निरोध सम्भव है? आधुनिक मनोविज्ञान का सच्चा मार्ग नहीं मानता है। उसके अनुसार साधना का सच्चा मार्ग
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य वासनाओं का दमन नहीं, अपतुि उनसे ऊपर उठ जाना है। वह इन्द्रिय. करता है। निग्रह नहीं, अपितु ऐन्द्रिक अनुभूतियों में भी मन की वीतरागता या . अत: हम कह सकते हैं कि संक्षेप में आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म, समत्व की अवस्था है।
बन्धन, आश्रृंव, संवर, निर्जरा और मुक्ति इन सब अवधारणाओं को अत: यह स्पष्ट है कि आचारांगसूत्र अपनी विवेचनाओं में चाहे संक्षेप में ही क्यों न सही, स्वीकार करके चलता है। फिर भी मनोवैज्ञानिक आधारों पर खड़ा हुआ है। उत्तम आचार के जो नियम- उपर्युक्त विवेचन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि आचारांग, दर्शन के उपनियम बनाये गये हैं, वे भी उसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक सम्बन्ध में केवल उन्हीं तथ्यों को रखना चाहता है जो उसके आचार-शास्त्र हैं, किन्तु यहाँ उन सबकी गहराइयों में जाना सम्भव नहीं है। यद्यपि की पूर्व मान्यता के लिए अपरिहार्य हैं। जैनधर्म का जो विकसित इस सम्पूर्ण विवेचना का यह अर्थ भी नहीं है कि आचारांग में जो तत्त्वज्ञान है उसका उसमें अभाव ही देखा जाता है, जीव और पुद्गल कुछ कहा गया, वह सभी मनोवैज्ञानिक सत्यों पर आधारित है। अहिंसा, को छोड़कर आकाश, धर्म, अधर्म और काल की उसमें कोई स्वतन्त्र समता और अनासक्ति के जो आदर्श उसमें प्रस्तुत किये गए हैं, वे व्याख्या नहीं। चाहे मनोवैज्ञानिक आधारों पर अधिष्ठित हों, किन्तु उनकी जीवन में पूर्ण उपलब्धि की संभावनाओं पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ही प्रश्न-चिह्न आचारांग के आचार-नियम भी लगाया जा सकता है। ये आदर्श के रूप में चाहे कितने ही सुहावने जहाँ तक आचारांग में प्रतिपादित आचार-नियमों का प्रश्न है मूलतः हों, किन्तु मानव-जीवन में इनकी व्यावहारिक सम्भावना कितनी है, वे सभी नियम अहिंसा का केन्द्र में रखकर बनाये गये हैं। आचारांग यह विवाद का विषय बन सकता है। फिर भी मानवीय-दुर्बलता के के आचार-नियमों का केन्द्रबिन्दु अहिंसा का परिपालन ही है। जीवन आधार पर उनसे विमुख होना उचित नहीं होगा। क्योंकि इनके द्वारा में अहिंसा और अनासक्ति को किस चरमसीमा तक अपनाया जा सकता ही न केवल मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होगा, अपतुि लोक मंगल है इसका आदर्श हमें आचारांग में देखने को मिल सकता है। आचारांग की भावना भी साकार बन सकेगी।
के दो श्रुतस्कन्धों में जहाँ प्रथम श्रुतस्कन्ध आचार के सामान्य सिद्धान्तों
को प्रस्तुत करता है वहाँ द्वितीय श्रुतस्कन्ध उसके व्यवहार-पक्ष को आचारांग में प्रतिपादित तत्त्वज्ञान
स्पष्ट करने का प्रयास करता है। विद्वानों ने आचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध जैसा कि हम संकेत कर चुके हैं कि आचारांग मूलत: दर्शन को प्रथम श्रुतस्कन्ध की व्यावहारिक व्याख्या ही माना है। प्रथम श्रुतस्कन्ध का ग्रन्थ न होकर आचार-शास का ग्रन्थ है फिर भी ऐसा नहीं कहा में मूलत: अहिंसा, अनासक्ति तथा कषायों और वासनाओं के विजय जा सकता है कि उसमें दर्शन के तत्वों का पूर्णत: अभाव है। आचारांग का सूत्र रूप में संकेत किया गया है। जबकि दूसरे श्रुतस्कन्ध में इनसे का प्रारम्भ ही एक पारिणामिक नित्य आत्मा की अवधारणा से होता ऊपर उठकर कैसा जीवन जिया जा सकता है इसका चित्रण किया है। आचारांग आत्मा और पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार करके गया है। दूसरा श्रुतस्कन्ध मूलतः मुनि-जीवन में भोजन, वस्त्र, पात्र चलता है। वह कर्म की अवधारणा को भी स्वीकार करता है तथा आदि सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार की जाये इसका यह मानता है कि कर्म ही बन्धन के कारण हैं। यदि हम सूक्ष्मता से । विस्तार से विवेचन करता है। इस श्रुतस्कन्ध का अन्तिम भाग जहाँ देखें तो उसमें कर्म को पौद्गलिक मानकर कर्म-शरीर का भी उल्लेख एक ओर महावीर का जीवनवृत्त प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी ओर वह किया गया है, और साधक को कहा गया है कि वह कर्म शरीर का इन्द्रिय-विजय की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालता है। ही विधूनन करे। इसी प्रकार आचारांग में आश्रव, संवर और प्रकारान्तर यद्यपि आचारांग का आचारपक्ष व्यावहारिक दृष्टि से कठोर कहा जा से निर्जरा की व्यवस्थायें भी उपलब्ध हो जाती हैं। आचारांग मुक्तात्मा सकता है, किन्तु उसमें साधना के जिस आदर्श स्वरूप का चित्रण के अनिर्वचनीय स्वरूप की भी औपनिषदिक शैली में व्याख्या है, उसके मूल्य को नकारा नहीं जा सकता।
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रामपुत्त या रामगुप्त सूत्रकृताङ्ग के सन्दर्भ में ?
सूत्रकृताङ्ग के तृतीय अध्ययन में कुछ महापुरुषों के नामों का उल्लेख पाया जाता है। उनमें रामगुप्त (रामपुत्त) का भी नाम आता है।" डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' ने 'सम एथिकल ऐस्पेट्स ऑफ महायान बुद्धिज्म ऐज डिपिक्टेड इन सूत्रकृताङ्ग' नामक अपने निबन्ध में सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त की पहचान समुद्रगुप्त के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में की है। समुद्रगुप्त के ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त ने चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त एवं पद्मप्रभ की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई थीं, इस तथ्य की पुष्टि विदिशा के पुरातात्विक संग्रहालय में उपलब्ध इन तीर्थकरों की मूर्तियों से होती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि रामगुप्त एक जैन नरेश था, जिसकी हत्या उसके ही अनुज चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने कर दी थी। किन्तु सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त की पहचान गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त के पुत्र रामगुप्त से करने पर हमारे सामने अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं सबसे प्रमुख प्रश्न तो यह है कि इस आधार पर सूत्रकृताङ्ग की रचना तिथि ईसा की चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं पाँचवीं शती के पूर्वार्द्ध तक चली जाती है, जबकि भाषा, शैली एवं विषयवस्तु सभी आधारों पर सूत्रकृताङ्ग ईसा पूर्व की रचना सिद्ध होता है । ४
सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त की पहचान समुद्रगुप्त के पुत्र से करने पर या तो हमें सूत्रकृताङ्ग को परवर्ती रचना मानना होगा अथवा फिर यह स्वीकार करना होगा कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र रामगुप्त न होकर कोई अन्य रामगुप्त है। हमारी दृष्टि में यह दूसरा विकल्प ही अधिक युक्तिसङ्गत है । इस बात के भी यथेष्ट प्रमाण हैं कि उक्त रामगुप्त की पहचान इसिभासियाई के रामपुत अथवा पालि साहित्य के उदकरामत से की जा सकती है, जिनका उल्लेख हम आगे करेंगे।
सर्वप्रथम हमें सूत्रकृताङ्ग में जिस प्रसङ्ग में रामगुप्त का नाम आया है, उस सन्दर्भ पर भी थोड़ा विचार कर लेना होगा । सूत्रकृताङ्ग में नमि, बाहुक, तारायण (नारायण), असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि ऋषियों की चर्चा के प्रसङ्ग में ही रामगुप्त का नाम आया है।" इन गाथाओं में यह बताया गया है कि नमि ने आहार का परित्याग करके, रामगुप्त ने आहार करके, बाहुक और नारायण ऋषि ने सचित्त जल का उपभोग करते हुए तथा देवल, द्वैपायन एवं पाराशर ने वनस्पति एवं बीजों का उपभोग करते हुए मुक्तिलाभ प्राप्त किया। साथ ही यहाँ इन सबको पूर्वमहापुरुष एवं लोकसम्मत भी बताया गया है। वस्तुतः यह समग्र उल्लेख उन लोगों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है, जो इन महापुरुषों का उदाहरण देकर अपने शिथिलाचार की पुष्टि करना चाहते हैं। इस सन्दर्भ में "इह सम्मता"" शब्द विशेष द्रष्टव्य हैं।
यदि हम “इह सम्मता” का अर्थ - जिन प्रवचन या अर्हत्-प्रवचन में सम्मत — ऐसा करते हैं, तो हमें यह भी देखना होगा कि अर्हत्-प्रवचन
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में इनका कहाँ उल्लेख है और किस नाम से उल्लेख है? इसिमासियाई में इनमें से अधिकांश का उल्लेख है, किन्तु हम देखते हैं कि वहाँ रामगुप्त न होकर रामपुत्त शब्द है। इससे यह सिद्ध होता है कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुत्त समुद्रगुप्त का पुत्र न होकर रामपुत्त नामक कोई अर्हत् ऋषि था। यहाँ यह भी प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठाया जा सकता है कि यह रामपुत्त कौन था? पालि साहित्य में हमें रामपुत्त का उल्लेख उपलब्ध होता है। उसका पूरा नाम 'उदकरामपुत्त' है। महावस्तु एवं दिव्यावदान में उसे उद्रक कहा गया है। अङ्गतरनिकाय के वस्सकारसूत्र में राजा इल्लेय के अङ्गरक्षक यमक एवं मोग्गल को रामपुत्त का अनुयायी बताया गया है।" मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय और दीघनिकाय में भी उदकमपुत का उल्लेख है।" जातक में उल्लेख है कि बुद्ध ने उदकरामपुत से ध्यान की प्रक्रिया स्त्रीखी थी। यद्यपि उन्होंने उसकी मान्यताओं की समालोचना भी की है फिर भी उनके मन में उसके प्रति बड़ा आदर था और ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्हें धर्म के उपदेश योग्य मानकर उनकी तलाश की थी, किन्तु तब तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी। १० इन सभी आधारों से यह स्पष्ट है कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामपुत्त (रामगुत्त) वस्तुतः पालि साहित्य में वर्णित उदकरामपुत्त ही है— अन्य कोई नहीं। उदकमपुत्त की साधना-पद्धति ध्यान प्रधान और मध्यमार्गी थी, ऐसा भी पालि साहित्य से सिद्ध होता है।" सूत्रकृताङ्ग में भी उन्हें आहार करते हुए मुक्ति प्राप्त करने वाला बताकर इसी बात की पुष्टि की गई है कि वह कठोर तप साधना का समर्थक न होकर मध्यममार्ग का समर्थक था। यही कारण था कि बुद्ध का उसके प्रति झुकाव था । पुनः सूत्रकृताङ्ग में इन्हें पूर्वमहापुरुष कहा गया है। यदि सूत्रकृताङ्ग के रामगुप्त की पहचान समुद्रगुप्त के पुत्र रामगुप्त से करते हैं तो सूत्रकृताङ्ग की तिथि कितनी भी आगे ले जायी जाय, किन्तु किसी भी स्थिति में वह उसमें पूर्वकालिक ऋषि के रूप में उल्लिखित नहीं हो सकता। साथ ही साथ यदि सूत्रकृताङ्ग का रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र रामगुप्त है तो उसने सिद्धि प्राप्ति की ऐसा कहना भी जैन दृष्टि से उपयुक्त नहीं होगा, क्योंकि ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी तक जैनों में यह स्पष्ट धारणा बन चुकी थी कि जम्बू के बाद कोई भी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सका है, जबकि मूल गाया में 'सिद्धा' विशेषण स्पष्ट है।
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पुनः रामगुप्त का उल्लेख बाहुक के पूर्व और नमि के बाद है, इससे भी लगता है कि रामगुप्त का अस्तित्व इन दोनों के काल के मध्य ही होना चाहिए बाहुक का उल्लेख इसिभासियाई में है और इसिमासियाई किसी भी स्थिति में ईसा पूर्व की ही रचना सिद्ध होता है। अतः सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र नहीं हो सकता । पालि साहित्य में भी हमें 'बाहिय' या 'बाहिक' का उल्लेख उपलब्ध होता है, जिसने बुद्ध से चार स्मृति-प्रस्थानों का उपदेश प्राप्त कर उनकी साधना के द्वारा अर्हत् पद को प्राप्त किया था। पालि-त्रिपिटक [ १९० ]
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से यह भी सिद्ध होता है कि बाहिय या बाहिक पूर्व में स्वतन्त्र रूप से साधना करता था। बाद में उसने बुद्ध से दीक्षा ग्रहण कर अर्हत्-पद प्राप्त किया था। चूंकि बाहिक बुद्ध का समकालीन था, अतः बाहिक से थोड़े पूर्ववर्ती रामपुत्त थे। पुनः रामगुत्त, बाहुक, देवल, द्वैपायन, पाराशर आदि जैन- परम्परा के ऋषि नहीं रहे हैं, यद्यपि नमि के वैराग्य- प्रसङ्ग का उल्लेख उत्तराध्ययन में है। इसिभासियाई में जिनके विचारों का सङ्कलन हुआ है, उनमें पार्श्व आदि के एक दो अपवादों को छोड़कर शेष सभी ऋषि निर्ग्रन्थ-परम्परा (जैन-धर्म) से सम्बन्धित नहीं हैं। इसिभासियाइं और सूत्रकृताङ्ग दोनों से ही रामगुत्त ( रामपुत्त) का अजैन होना ही सिद्ध होता है, न कि जैन। जबकि समुद्रगुप्त का ज्येष्ठपुत्र रामगुप्त स्पष्ट रूप से एक जैन धर्मावलम्बी नरेश है।
सम्भवतः डॉ० भागचन्द्र अपने पक्ष की सिद्धि इस आधार पर करना चाहें कि सूत्रकृतान की मूल गाथाओं में "पुत" शब्द न होकर "गुप्त" शब्द है और सूत्रकृतान के टीकाकार शीला ने भी उसे रामगुप्त ही कहा है, रामपुक्त नहीं, साथ ही उसे राजर्षि भी कहा गया है, अतः उसे राजा होना चाहिए। किन्तु हमारी दृष्टि से ये तर्क बहुत सवल नहीं है। प्रथम तो यह कि राजर्षि विशेषण नमि एवं रामगुप्त (रामपुर) दोनों के सम्बन्ध में लागू हो सकता है और यह भी सम्भव है कि
संदर्भ
१.
२.
३.
४.
५.
६.
यतीन्द्रसूरि स्मारक राज्य जैन आगम एवं साहित्य
आहंसु महापुरिसा पुव्विं तत्ततवोधणा । उदएण सिद्धिमावन्ना तत्थ मंदो विसीयति । । अभुंजिया नमी विदे य भुंजिया बाहुए उदगं भोच्या तहा नारायणे रिसी आसिले देविले चैव दीवायण महारिसी पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य ।
सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/१-३। Some Ethical Aspects of Mahayana Buddhism as depicted in the Sūtrakrtänga, Page 2 (यह लेख All India Seminar on Early Buddhism and Mahayana--Deptt. of Pali and Buddhist Studies, BHU. Nov. 10 13, 1984 में पढ़ा गया था। ) भगवतोऽर्हतो चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेयं कारिता
महाराजाधिराज श्री रामगुप्तेन उपदेशात् । जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास भाग- १. पू. ५१-५२ तथा सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, भाग-२२, प्रस्तावना, पृ० ३१ ।
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सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/२-३ ।
एते पुव्वं महापुरिसा अहिता इह सम्मता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा इति मेयमणुस्सुअ ।।
- वही, १/३/४/४1 ७. रामपुत्तेण अरहता इसिणं बुझतं । इसिभासियाई, २३।
नमि के समान रामपुत्त भी कोई राजा रहा हो, जिसने बाद में श्रमणदीक्षा अङ्गीकार कर ली है।
पुनः हम यदि चूर्ण की ओर जाते हैं, जो शाला के विवरण की पूर्ववर्ती है, उसमें स्पष्ट रूप से 'रामाउते ऐसा पाठ है, न कि 'रामगते' इस आधार पर भी रामपुत्त (रामपुत्र) की अवधारणा सुसङ्गत बैठती है। इसिभासियाई की भूमिका में भी सूत्रकृताङ्ग के टीकाकार शीलाङ्क ने जो रामगुप्त पाठ दिया है, उसे असङ्गत बताते हुए शुब्रिङ्ग ने 'रामपुत्त' इस पाठ का ही समर्थन किया है। १३ यद्यपि स्थानाङ्गसूत्र के अनुसार अन्तकृद्ददशा के तीसरे अध्ययन का नाम 'रामगुत्ते' है। किन्तु प्रथम तो वर्तमान अन्तकृद्दशाङ्ग में उपलब्ध अध्ययन इससे भिन्न है, दूसरे यह भी सम्भव है कि किसी समय यह अध्ययन रहा होगा और उसमे रामपुत्त से सम्बन्धित विवरण रहा होगा यहाँ भी टीकाकार की भ्रान्तिवश ही 'पुत' के स्थान पर गुप्त हो गया है। टीकाकारों ने मूल पाठों में ऐसे परिवर्तन किये हैं।
इन सब आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामपुत (रामगुप्त) समुद्रगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त न होकर पालि त्रिपिटक साहित्य में एवं इसिमासियाई में उल्लिखित रामपुत्त ही है, जिससे बुद्ध ने ध्यान प्रक्रिया सीखी थी।
८.
९.
ये समणे रामपुते अभिपन्ना- अङ्गुत्तरनिकाय, ४/१९/७ मज्झिमनिकाय, २/४/५ संयुत्तनिकाय, ३४/२/५/१०/ १०. अथ खो भगवतो एतदहोसि "कस्स नु खो अहं पठा देसैय्यं? को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती' ति? अथ खां भगवतो एतदहोसि - "अयं खो उद्दको रामपुत्तो पण्डितो ब्यो मेधावी दीघरत अप्परजक्खजातिको यन्त्रनाहं उदकस्स रामपु पठमं धम्मं देसेय्यं, सो इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सतीति । अप खो अन्तरहिता देवता भगवतो आरोचेसि “अभियोगकालं भन्ते, उद्दको रामपुत्तोति । भगवतो पि खो जणं उदपादि "अभिदोसकालंकतो उदको रामपुो ति
११.
मज्झिमनिकाय, २/४/५, २/५/१०/ सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/२।
१२.
१३. Isibhasiyair ( A Jaina Text of Early Period), Introduction,
[१९१]
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p. 4 (L.D. Institute of Indology, Ahmedabad). १४. अंतगड़दसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा
नमि मातंगे सोमिले, रामगुले सुदंसणे चेव । जमाली य भगाली य, किंकिमे पल्लए इ य ।। १ ।। फाले अंबइपुते य, एमेए दस आहिया
महावग्ग १ / ६ /१०/२/
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स्थानाङ्गसूत्र, स्थान १० / ७५५ ।
Gomorra
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अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु : एक पुनर्विचार
अन्तकृद्दशा जैन अंग-आगमों का अष्टम अंगसूत्र है। स्थानांगसूत्र अन्तकृदशा की विषयवस्तु-सम्बन्धी प्राचीन उल्लेख में इसे दश दशाओं में एक बताया गया है। अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु स्थानांग में 'हमें सर्वप्रथम अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु का से सम्बन्धित निर्देश श्वेताम्बर-आगम-साहित्य में स्थानांग, समवायांग उल्लेख प्राप्त होता है। इसमें अन्तकृद्दशा के ये दस अध्ययन एवं नन्दीसूत्र में तथा दिगम्बर- परम्परा में राजवार्तिक, धवला तथा बताये गये हैं-नमि, मातंग, सोमिल, रामगुप्त (रामपुत्त), जयधवला में उपलब्ध है।
सुदर्शन, जमाली, भयाली, किंकम, पल्लतेतीय और फालअम्बपुत्र'।
यदि हम वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा को देखते हैं तो उसमें अन्तकृदशा का वर्तमान स्वरूप
उपर्युक्त दस अध्ययनों में केवल दो नाम सुदर्शन और किंकम वर्तमान में जो अन्तकृद्दशा उपलब्ध है उसमें आठ वर्ग हैं। प्रथम उपलब्ध हैं। वर्ग में गौतम, समुद्र, सागर, गम्भीर, स्तिमित, अचल, काम्पिल्य, समवायांग में अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु का विवरण देते हुए अक्षोभ,प्रसेनजित और विष्णु ये दस अध्ययन उपलब्ध हैं। द्वितीय कहा गया है कि इसमें अन्तकृत जीवों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, वर्ग में आठ अध्ययन है। श्रुतस्कन्ध इनके नाम हैं--अक्षोभ, सागर, राजा, माता-पिता,समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक और समुद्र, हिमवन्त, अचल, धरण, पूरण और अभिचन्द्र। तृतीय वर्ग में परलोक की ऋद्धि विशेष, भोग और उनका परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुतज्ञान निम्न तेरह अध्ययन हैं--(१) अनीयस कुमार, (२) अनन्तसेन कुमार, का ध्यान, तप तथा क्षमा आदि बहुविध प्रतिमाओं, सत्रह प्रकार के (३) अनिहत कुमार, (४) विद्वत् कुमार, (५) देवयश कुमार, (६) संयम, ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य, समिति, गुप्ति, अप्रमाद, योग, स्वाध्याय शत्रुसेन कुमार, (७) सारण कुमार, (८) गज कुमार, (९) सुमुख कुमार, और ध्यान सम्बन्धी विवरण हैं। आगे इसमें बताया गया है कि इसमें (१०) दुर्मुख कुमार, (११) कूपक कुमार, (१२) दारुक कुमार और उत्तम संयम को प्राप्त करने तथा परिग्रहों के जीतने पर चार कर्मो (१३) अनादृष्टि कुमार। इसी प्रकार चतुर्थ वर्ग में निम्र दस अध्ययन । के क्षय होने से केवलज्ञान की प्राप्ति किस प्रकार से होती है, इसका हैं--(१) जालि कुमार, (२) मयालि कुमार, (३) उवयालि कुमार, उल्लेख है साथ ही उन मुनियों की श्रमण-पर्याय, प्रायोपगमन, अनशन, (४) पुरुषसेन कुमार, (५) वारिषेण कुमार, (६) प्रद्युम्न कुमार, तम और रजप्रवाह से मुक्त होकर मोक्षसुख को प्राप्त करने सम्बन्धी (७) शाम्ब कुमार, (८) अनिरुद्ध कुमार, (९) सत्यनेमि कुमार और उल्लेख है। समवायांग के अनुसार इसमें एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन (१०) दृढनेमि कुमार। पंचम वर्ग में दस अध्ययन हैं जिनमें आठ और सात वर्ग बतलाये गये हैं। जबकि उपलब्ध अन्तकृद्दशा में आठ कृष्ण की प्रधान पत्नियों और दो प्रद्युम्न की पत्नियों से सम्बन्धित हैं। वर्ग हैं अतः समवायांग में वर्तमान अन्तकृद्दशा की अपेक्षा एक वर्ग प्रथम वर्ग से लेकर पाँचवें वर्ग तक के अधिकांश व्यक्ति कृष्ण के कम बताया गया है। ऐसा लगता है कि समवायांगकार ने स्थानांग परिवार से सम्बन्धित हैं और अरिष्टनेमि के शासन में हुए हैं। छठे, की मान्यता और उसके सामने उपलब्ध ग्रन्थ में एक समन्वय बैठाने सातवें और आठवें वर्ग का सम्बन्ध महावीर के शासन से है। छठे का प्रयास किया है। ऐसा लगता है कि समवायांगकार के सामने स्थानांग वर्ग के निम्न १६ अध्ययन बताये गये हैं-(१) मकाई, (२) किंकम, में उल्लिखित अन्तकृद्दशा लुप्त हो चुकी थी और मात्र उसमें १० (३) मुद्गरपाणि, (४) काश्यप, (५) क्षेमक (६) धृतिधर, (७) कैलाश, अध्ययन होने की स्मृति ही शेष थी तथा उसके स्थान पर वर्तमान (८) हरिचन्दन, (९) वारत्त, (१०) सुदर्शन, (११) पुण्यभद्र, उपलब्ध अन्तकृद्दशा के कम से कम सात वर्गों का निर्माण हो (१२) सुमनभद्र, (१३) सुप्रतिष्ठित, (१४) मेघकुमार, (१५) अतिमुक्त चुका था। कुमार और (१६) अलक्क (अलक्ष्य) कुमार। सातवें वर्ग में १३ नन्दीसूत्रकार अन्तकृद्दशा के सम्बन्ध में जो विवरण प्रस्तुत करता अध्ययनों के नाम निम्न हैं-(१) नन्दा, (२) नन्दवती, (३) नन्दोत्तरा, है वह बहुत कुछ तो समवायांग के समान ही है, किन्तु उसमें स्पष्ट (४) नन्दश्रेणिका, (५) मरुता, (६) सुमरुता, (७) महामरुता, (८) रूप से इसके आठ वर्ग होने का उल्लेख प्राप्त है। समवायांगकार मरुद्देवा, (९) भद्रा, (१०) सुभद्रा, (११) सुजाता, (१२) सुमनायिका जहाँ अन्तकृद्दशा के दस समुद्देशन कालों की चर्चा करता है वहाँ और (१३) भूतदत्ता। आठवें वर्ग में काली, सुकाली, महाकाली, कृष्ण नन्दीसूत्रकार उसके आठ उद्देशन कालों की चर्चा करता है। इस प्रकार
और सुकृष्णा, महाकृष्णा, वीरकृष्णा, रामकृष्णा, महासेनकृष्णा और यह स्पष्ट है कि वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की रचना समवायांग महासेनकृष्णा इन दस श्रेणिक की पत्नियों का उल्लेख है। उपर्युक्त के काल तक बहुत कुछ हो चुकी थी और वह अन्तिम रूप से नन्दीसूत्र सम्पूर्ण विवरण को देखने से लगता है कि केवल किंकम और सुदर्शन की रचना के पूर्व अपने अस्तित्व में आ चुका था। श्वेताम्बर-परम्परा ही ऐसे अध्याय हैं जो स्थानांग में उल्लिखित विवरण से नाम-साम्य में उपलब्ध तीनों विवरणों से हमें यह ज्ञात होता है कि स्थानांग में रखते हैं, शेष सारे नाम भिन्न हैं।
उल्लिखित अन्तकृद्दशा प्रथम संस्करण की विषयवस्तु किस प्रकार से
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- વર્તન અના- tત્વ ઉપામ - ૨૫ पसे अलग कर दी गई और नन्दीसूत्र के रचना-काल तक उसके अन्तकृद्दशा का सातवाँ अध्ययन भयाली (भगाली) है। 'भगाली मेतेज्ज' स्थान पर नवीन संस्करण किस प्रकार अस्तित्व में आ गया। ऋषिभाषित के १३ वें अध्ययन में उल्लिखित है। स्थानांग की सूची
यदि हम दिगम्बर-साहित्य की दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करें में अन्तकृद्दशा के आठवें अध्ययन का नाम किंकम या किंकस है। तो हमें सर्वप्रथम तत्त्वार्थवार्तिक में अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु से वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा में छठे वर्ग के द्वितीय अध्याय का सम्बन्धित विवरण उपलब्ध होता है। उसमें निम्न दस अध्ययनों की नाम किंकम है, यद्यपि यहाँ तत्सम्बन्धी विवरण का अभाव है। स्थानांग सूचना प्राप्त होती है-नमि, मातंग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, में अन्तकृद्दशा के ९वें अध्ययन का नाम चिल्वक या चिल्लवाक है। यमलीक, वलीक, किष्कम्बल और पातालम्बष्ठपुत्र(४) यदि हम स्थानांग कुछ प्रतियों में इसके स्थान पर 'पल्लेतीय' ऐसा नाम भी मिलता है। में उल्लिखित अन्तकृद्दशा के दस अध्ययनों से इनकी तुलना करते इसके सम्बन्ध में भी हमें कोई विशेष जानकारी नहीं हैं। दिगम्बर आचार्य हैं तो इसके यमलिक और वलिक ऐसे दो नाम हैं, जो स्थानांग के अकलंकदेव भी इस सम्बन्ध में स्पष्ट नहीं है। स्थानांग में दसवें अध्ययन उल्लेख से भिन्न है। वहाँ इनके स्थान पर जमाली, मयाली (भगाली) का नाम फालअम्बडपुत्त बताया है, जिसका संस्कृतरूप पालअम्बष्ठपुत्र ऐसे दो अध्ययनों का उल्लेख है। पुन: चिल्वक का उल्लेख हो सकता है। अम्बड संन्यासी का उल्लेख हमें भगवतीसूत्र में विस्तार तत्त्वार्थवार्तिककार ने नहीं किया है। उसके स्थान पर पाल और अम्बष्ठपुत्र से मिलता है। अम्बड के नाम से एक अध्ययन ऋषिभाषित में भी ऐसे दो अलग-अलग नाम मान लिये हैं। यदि हम इसकी प्रामाणिकता है। यद्यपि विवाद का विषय यह हो सकता है कि जहाँ ऋषिभाषित की चर्चा में उतरें तो स्थानांग का विवरण हमें सर्वाधिक प्रामाणिक और भगवती उसे अम्बड परिव्राजक कहते हैं, वहाँ उसे अम्बडपुत्त लगता है।
कहा गया है। स्थानांग में अन्तकृद्दशा के जो दस अध्याय बताये गये हैं उनमें ऐतिहासिक दृष्टि से गवेषणा करने पर हमें ऐसा लगता है कि नमि नामक अध्याय वर्तमान में उत्तराध्ययनसूत्र में उपलब्ध है। यद्यपि स्थानांग में अन्तकृद्दशा के जो १० अध्ययन बताये गये हैं वे यह कहना कठिन है कि स्थानांग में उल्लिखित 'नमि' नामक अध्ययन यथार्थ व्यक्तियों से सम्बन्धित रहे होंगे क्योंकि उनमें से अधिकांश के और उत्तराध्ययन में उल्लिखित 'नमि' नामक अध्ययन की विषय-वस्तु उल्लेख अन्य स्रोतों से भी उपलब्ध हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे है एक थी या भिन्न-भिन्न थी। नमि का उल्लेख सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध जिनका उल्लेख बौद्ध-परम्परा में मिल जाता है यथा-रामपुत्त, सोमिल, होता है। वहाँ पाराशर, रामपुत्त आदि प्राचीन ऋषियों के साथ उनके मातंग आदि। नाम का भी उल्लेख हआ है। स्थानांग में उल्लिखित द्वितीय 'मातंग' अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु के सम्बन्ध में विचार करते समय नामक अध्ययन ऋषिभाषित के २६वें मातंग नामक अध्ययन के रूप हम सुनिश्चितरूप से इतना कह सकते हैं कि इन सबमें स्थानांग में आज उपलब्ध है। यद्यपि विषय-वस्तु की समरूपता के सम्बन्ध सम्बन्धी विवरण अधिक प्रामाणिक तथा ऐतिहासिक सत्यता को मे यहाँ भी कुछ कह पाना कठिन है। सोमिल नामक तृतीय अध्ययन लिये हुए है। समवायांग में एक ओर इसके दस अध्ययन बताये गये का नामसाम्य ऋषिभाषित के ४२वें सोम नाम अध्याय के साथ देखा हैं तो दूसरी ओर समवायांगकार सात वर्गों की भी चर्चा करता है। जा सकता है। रामपुत्त नामक चतुर्थ अध्ययन भी ऋषिभाषित के तेईसवें इससे ऐसा लगता है कि समवायांग के उपर्युक्त विवरण लिखे अध्ययन के रूप में उल्लिखित है। समवायांग के अनुसार द्विगृद्धिदशा जाने के समय स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु के एक अध्ययन का नाम भी रामपुत्त था। यह भी सम्भव है कि बदल चुकी थी, किन्तु वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा का पूरी तरह अन्तकृद्दशा, इसिभासियाई और द्विगृद्धिदशा के रामपुत्त नामक अध्ययन निर्माण भी नहीं हो पाया था। केवल सात ही वर्ग बने थे। वर्तमान की विषय-वस्तु भिन्न हो चाहे व्यक्ति वही हो। सूत्रकृतांगकार ने रामपुत्त में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की रचना नन्दीसूत्र में तत्सम्बन्धी विवरण लिखे का उल्लेख अर्हत्-प्रवचन में एक सम्मानित ऋषि के रूप में किया जाने के पूर्व निश्चित रूप से हो चुकी थी क्योंकि नन्दीसूत्रकार उसमें है। रामपुत्त का उल्लेख पालित्रिपिटक-साहित्य में हमें विस्तार से मिलता १० अध्ययन होने का कोई उल्लेख नहीं करता है। साथ ही वह है। स्थानांग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा का पाँचवाँ अध्ययन सुदर्शन आठ वर्गों की चर्चा करता है। वर्तमान अन्तकृद्दशा के भी आठ वर्ग है। वर्तमान अन्तकृद्दशा में छठे वर्ग के दशवें अध्ययन का नाम सुदर्शन ही हैं। है। स्थानांग के अनुसार अन्तकृद्दशा का छठा अध्ययन जमाली है। उपर्युक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि वर्तमान अन्तकृद्दशा में सुदर्शन का विस्तृत उल्लेख अर्जुन मालाकार के अध्ययन में उपलब्ध अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु नन्दीसूत्र की रचना के कुछ में भी है। जमाली का उल्लेख हमें भगवतीसूत्र में भी उपलब्ध होता समय पूर्व तक अस्तित्व में आ गई थी। ऐसा लगता है कि वल्लभीहै। यद्यपि भगवतीसूत्र में जमाली को भगवान् महावीर के क्रियमाणकृत वाचना के पूर्व ही प्राचीन अन्तकृद्दशा के अध्यायों की या तो उपेक्षा के सिद्धान्त का विरोध करते हुए दर्शाया गया है। श्वेताम्बर-परम्परा कर दी गयी या उन्हें यत्र-तत्र अन्य ग्रन्थों में जोड़ दिया गया था और जमाली को भगवान् महावीर का जामातृ भी मानती है। परवर्ती साहित्य इस प्रकार प्राचीन अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु के स्थान पर नवीन नियुक्ति, भाष्य और चूर्णियों में भी जमाली का उल्लेख पाया जाता विषयवस्तु रख दी गयी। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न है और उन्हें एक निह्नव बताया गया है। स्थानांग की सूची के अनुसार हो सकता है कि ऐसा क्यों किया गया। क्या विस्मृति के आधार पर
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प्राचीन अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु लुप्त हो गयी अथवा उसकी प्राचीन विषयवस्तु सप्रयोजन वहाँ से अलग कर दी गई।
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
मेरी मान्यता यह है कि विषयवस्तु का यह परिवर्तन विस्मृति के कारण नहीं, परन्तु सप्रयोजन ही हुआ है। अन्तकृदशा की प्राचीन विषयवस्तु में जिन दस व्यक्तित्वों के चरित्र का चित्रण किया गया था उनमें निश्चित रूप से मातंग, अम्बड, रामपुत्त, भयाली (भगाली), जमाली आदि ऐसे हैं जो चाहे किसी समय तक जैन - परम्परा में सम्मान्यरूप से रहे हों, किन्तु अब वे जैन परम्परा के विरोधी या बाहरी मान लिये गये थे। जिनप्रणीत, अंगसूत्रों में उनका उल्लेख रखना समुचित नहीं माना गया अतः जिस प्रकार प्रश्नव्याकरण से ऋषिभाषित को ऋषियों के उपदेशों से सप्रयोजन अलग किया गया उसी प्रकार अन्तकृद्दशा से इनके विवरण को भी सप्रयोजन अलग किया। यह भी सम्भव है कि जब जैन- परम्परा में श्रीकृष्ण को वासुदेव के रूप में स्वीकार कर लिया गया तो उनके तथा उनके परिवार से सम्बन्धित कथानकों को कहीं स्थान देना आवश्यक था। अतः अन्तकृद्दशा की प्राचीन विषयवस्तु को बदल कर उसके स्थान पर कृष्ण और उनके परिवार से सम्बन्धित पाँच वर्गों को जोड़ दिया गया।
अन्तकृदशा की विषयवस्तु की चर्चा करते हुए सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने यह आता है कि दिगम्बर- परम्परा में अन्तकृदशा की जो विषयवस्तु तत्त्वार्थवार्तिक में उल्लिखित है वह स्थानांग की सूची से बहुत कुछ मेल खाती है। यह कैसे सम्भव हुआ? दिगम्बर परम्परा जहाँ अङ्ग आगमों के लोप की बात करती है तो फिर तत्त्वार्थवार्तिककार को उसकी प्राचीन विषयवस्तु के सम्बन्ध में जानकारी कैसे हो गई मेरी ऐसी मान्यता है कि श्वेताम्बर आगम साहित्य के सम्बन्ध में दिगम्बर- परम्परा में जो कुछ जानकारी प्राप्त हुई है वह यापनीय परम्परा के माध्यम से प्राप्त हुई है और इतना निश्चित है कि
सन्दर्भ
१.
स्थानाङ्ग (सं० मधुकर मुनि) दशम स्थान, सूत्र ११० एवं ११३ दस दसाओ पण्णताओ, तं जहा कम्मविवागदसाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, आयारदसाओ, पण्हावागरण- दसाओ, बंधदसाओ, दोगिदिसाओ, दीहदसाओ, संखेवियदसाओ।
एवं अंतगडदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहाणमि मातंगे सोमिले, रामगुत्ते सुदंसणे चेव । जमाली य भगाली य किंकमे चिल्लएतिय। फाले अंबडपत्ते य एमेते दस आहिता ॥
समवायाङ्ग (सं० मधुकरमुनि) प्रकीर्णक समवाय सूत्र, ५३९ ५४० । से किं तं अतंगडदसाओ ? अन्तगडदसासु णं अन्तगडाणं नगराई उज्जाणाई चेहयाई वणसंडाई रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इडिविसेसा
यापनीय और श्वेताम्बरों का भेद होने तक स्थानांग में उल्लिखित सामग्री अन्तकृद्दशा में प्रचलित रही हो और तत्सम्बन्धी जानकारी अनुश्रुति के माध्यम से तत्त्वार्थवार्तिककार तक पहुँची हो तत्त्वार्यवार्तिककार को भी कुछ नामों के सम्बन्ध में अवश्य ही भ्रान्ति है, अगर उसके सामने मूलमन्थ होता तो ऐसी प्रान्ति की सम्भावना नहीं रहती। जमाली का तो संस्कृत रूप यमलीक हो सकता है, किन्तु भगाली या भयाली का संस्कृत रूप वलीक किसी प्रकार नहीं बनता। इसी प्रकार किंकम का किष्कम्बल रूप किस प्रकार बना यह भी विचारणीय है चिल्वक या पल्लतेत्तीय के नाम का अपलाप करके पाल अम्बष्ठपुत्त को भी अलगअलग कर देने से ऐसा लगता है कि वार्तिककार के समक्ष मूल ग्रन्थ नहीं है, केवल अनुश्रुति के रूप में ही वह उनकी चर्चा कर रहा है। जहाँ श्वेताम्बर चूर्णिकार और टीकाकार विषयवस्तु सम्बन्धी दोनों ही प्रकार की विषयवस्तु से अवगत हैं वहाँ दिगम्बर आचार्यों को (मात्र प्राचीन संस्करण) उपलब्ध अन्तकृदशा की विषयवस्तु के सम्बन्ध में जो कि छठी शताब्दी में अस्तित्व में आ चुकी थी, कोई जानकारी नहीं थी अतः उनका आधार केवल अनुश्रुति या प्रन्थ नहीं जब कि श्वेताम्बर - परम्परा के आचार्यों का आधार एक ओर ग्रन्थ था तो दूसरी ओर स्थानांग का विवरण। धवला और जयधवला में अन्तकृद्दशा - सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध है वह निश्चित रूप से तत्त्वार्थवार्तिक पर आधारित है। स्वयं धवलाकार वीरसेन 'उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये' कहकर उसका उल्लेख करता हैं ।" इससे स्पष्ट है कि धवलाकार के समक्ष भी प्राचीन विषयवस्तु का कोई ग्रन्थ उपस्थित नहीं था ।
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अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि प्राचीन अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु ईसा की चौथी पाचवीं शताब्दी के पूर्व ही परिवर्तित हो चुकी थी और छठी शता के अन्त तक वर्तमान अन्तकृद्दशा अस्तित्व में आ चुकी थी ।
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भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई पडिमाओ बहुविहाओ, खमा अज्जवं मद्दवं च सोअं च सच्चसहियं सत्तरसविहो य संजमो, उत्तमं च बंभ आकिंचणया तवो चियाओ समिइगुतीओ चेव, तह अपप्मायजोगो, सज्झायज्झाणाण य उत्तमाण दोणहंपि लक्खणाई ।
"
पत्ताण व संजमुत्तमं जियहणं चव्विहकम्मखयम्मि जह केवलस्स लंभो, परियाओ जतिओ य जह पालिओ मुणिहि पायोवग्ओ य जो जहिं, जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरो तमरयोघविप्पमुक्को, मोक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता । एए अण्णे य एवमाइ वित्थारेण परूवेई ।
अंतगडदसासु णं पस्ति वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ। से णं अंगद्वयाए अद्रुमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा सत्त वग्गा दस उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला संखेज्जाइं पवसयसहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जा अवखरा, अनंता गमा
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यतीन्द्रसरिस्मारग्रस्य - जैन आगम एवं साहित्य अणंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा भावा आघविजंति, पन्नविज्जति, परूविजंति, दंसिज्जंति णिकाइया जिणपण्णत्ताभावा आधविज्जति पण्णा विजंति निदंसज्जंति, उवदंसिज्जति। परूविजंति दंसिज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति।
से एवं आया, एवं नाया, एवं विनाया, एवं चरणकरणपरूवणा से एवं आया एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरण-करण
आघविज्जइ। से तं अंतगडदसाओ। परूवणया आघविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जंति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति। सेत्तं अंतगडदसाओ।
तत्त्वार्थवार्तिक- पृष्ठ ५१।
संसारस्यान्तः कृतो यैस्तेऽन्तेकृतः नमिमतंगसोमिलरामपुत्रसुदर्शन नन्दीसूत्र (सं० मधुकरमुनि) सूत्र ५३, पृ०१८३
समवांमीकवलोकनिष्वंबलपालम्बष्टपुत्रा इत्येते दश से किं तं अंतगडदसाओ?
वर्धमानतीर्थङ्करतीथें।। अंतगडदसासु णं अंतगडाणं नगराई, उज्जाणाई , चेइआई, वणसंडाई समोसरणाई, रायाणो, अम्मा-पियरो, धम्मायरिया, षट्खण्डागम धवला १/१/२, खण्ड एक, भाग एक, पुस्तक धम्मकहाओ, इहलोइअ-परलोइआ, इविविसेसा, भोगपरिच्चाया एक- पृष्ठ १०३-४।। पव्वज्जाओ, परिआगा, सुअपरिग्गहा, तवोवहाणाई संलेहणाओ, अंतयडदसा णाम अंगं तेवीस लक्ख-अट्ठावीस-सहस्स-पदेहि भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाइं अंतकिरिआओ आघविज्जन्ति। २३२८०० एक्केक्कमिह य तित्ये दारुणे बहुविहोवसग्गे अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा, संखिज्जा अणुओगदारा, सहिऊण पाडिहरं लक्ष्ण णिव्वागं गदे दस दस वण्णेदि। उक्तं संखेज्जावेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, च तत्त्वार्थभाष्ये- संसारस्यान्तःकृतो यैस्तेऽन्तकृत: नमि-मतङ्ग संखेज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ।।
सोमिल-रामपुत्र-सुदर्शन- यमलीक-वलीककिष्कंविल पालम्बष्टपुत्रा से णं अंगट्ठयाए अट्ठमे अंगे, एगे सुअखंधे अट्ठ वग्गा, अट्ठ इति एते दश वर्द्धमानतीर्थङ्करतीर्थे। एवमृषभादीनां उद्देसणकाला, वट्ठ समुद्देसणकाला संखेज्जा पयसहस्सा पयग्गेणं, त्रयोविंशतेस्तीर्थेष्वन्येऽन्ये, एवं दश दशानगारा: दारुणानुपसंखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, सर्गान्निर्जित्य कृत्स्नकर्मक्षयावस्तकृतो दशास्यां वर्ण्यन्त इति अणता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइआ जिणपण्णत्ता अन्तकृद्दशा।
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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ यह स्वीकार करती नाम 'वागरण' (व्याकरण) ही था। ऋषिभाषित में इसका इसी नाम हैं कि प्रश्नव्याकरणसूत्र (पण्हवागरण) जैन अंग-आगम-साहित्य का से उल्लेख है। प्राचीनकाल में तात्त्विक व्याख्या को व्याकरण कहा दसवाँ अंग-ग्रन्थ है, किन्तु दिगम्बर- परम्परा के अनुसार अंग-आगम जाता था। साहित्य का विच्छेद (लुप्त) हो जाने के कारण वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बर-परम्परा अंग-साहित्य का विच्छेद नहीं मानती प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु है। अत: उसके उपलब्ध आगमों में प्रश्नव्याकरण नामक ग्रन्थ आज प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों में जो भी पाया जाता है। किन्तु समस्या यह है कि क्या श्वेताम्बर- परम्परा निर्देश है- उससे वर्तमान प्रश्नव्याकरण निश्चय ही भिन्न है। यह परिवर्तन के वर्तमान प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु वही है जिसका निर्देश अन्य किस रूप में हुआ है, यही विचारणीय है। यदि हम ग्रन्थ के कालक्रम श्वेताम्बर प्राचीन आगम-ग्रन्थों में है अथवा यह परिवर्तित हो चुकी को ध्यान में रखते हुए प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में है। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बन्धी प्राचीन निर्देश श्वेताम्बर-परम्परा उपलब्ध विवरणों को देखें, तो हमें उसकी विषयवस्तु में हुए परिवर्तनों के स्थानांग (ठाणंग), समवायांग, अनुयोगद्वार एवं नन्दीसूत्र में और की स्पष्ट सूचना उसमें मिल जाती है। दिगम्बर-परम्परा के राजवार्तिक, धवला एवं जयधवला नामक टीका (अ) स्थानांग- प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में ग्रन्थों में उपलब्ध है। इनमें स्थानांग और समवायांग लगभग ३री-४थी प्राचीनतम उल्लेख स्थानांगसूत्र में मिलता है। इसमें प्रश्नव्याकरण की शती एवं नन्दी लगभग ५वीं-६ठी शताब्दी, राजवार्तिक ८वीं शताब्दी गणना दस दशाओं में की गई है तथा उसके निम्न दस अध्ययन बताये तथा धवला एवं जयधवला १०वीं शताब्दी के ग्रन्थ स्वीकार किये गये हैंगये हैं।
१. उपमा, २. संख्या, ३. ऋषिभाषित, ४. आचार्यभाषित, ५.
महावीरभाषित, ६. क्षोभिकप्रश्न, ७. कोमलप्रश्न, ८. आदर्शप्रश्न प्रश्नव्याकरण' नाम क्यों?
(आद्रकप्रश्न), ९. अंगुष्ठप्रश्न, १०. बाहुप्रश्न । इससे फलित होता _ 'प्रश्नव्याकरण' इस नाम को लेकर प्राचीन टीकाकारों एवं विद्वानों है कि सर्वप्रथम यह दस अपात्रों का ग्रन्थ था। दस अध्यायों के में यह धारणा बन गयी थी कि जिस ग्रन्थ में प्रश्नों के समाधान किये ग्रन्थ दसा (दशा) कहे जाते थे। गये हों, वह प्रश्नव्याकरण है। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्राचीन (ब) समवायांग- स्थान . के पश्चात् प्रश्नव्याकरणसूत्र की संस्करण की विषयवस्तु प्रश्नोत्तरशैली में नहीं थी और न वह प्रश्न-विद्या विषयवस्तु का अधिक विस्तृत विवेचन करने वाला आगम समवायांग अर्थात् निमित्तशास्त्र से ही सम्बन्धित थी। गुरु-शिष्य सम्वाद की प्रश्नोत्तर- है। समवायांग में उसकी विषयवस्तु का निर्देश करते हुए कहा गया शैली में आगम-ग्रन्थ की रचना एक परवर्ती घटना है- भगवती या है कि प्रश्नव्याकरण सूत्र में १०८ प्रश्नों, १०८ अप्रश्नों और १०८ व्याख्या-प्रज्ञप्ति इसका प्रथम उदाहरण है। यद्यपि समवायांग एवं नन्दीसूत्र प्रश्नाप्रश्नों की विद्याओं के अतिशयों (चमत्कारों) का तथा नागों-सुपर्णों में यह माना गया है कि प्रश्नव्याकरण में १०८ पूछे गये, १०८ नहीं के साथ दिव्य संवादों का विवेचन है। यह प्रश्नव्याकरण दशा पूछे गये और १०८ अंशत: पूछे गये और अंशत: नहीं पूछे गये स्वसमय-परसमय के प्रज्ञापक एवं विविध अर्थों वाली भाषा के प्रवक्ता प्रश्नों के उत्तर हैं। किन्तु यह अवधारणा काल्पनिक ही लगती है। प्रत्येकबुद्धों के द्वारा भाषित अतिशय गुणों एवं उपशमभाव के धारक प्रश्नव्याकरण की प्राचीनतम विषयवस्तु प्रश्नोत्तर रूप में थी या उसमें तथा ज्ञान के आकर आचार्यों के द्वारा विस्तार से भाषित और जगत् प्रश्नों का उत्तर देने वाली विद्याओं का समावेश था- समवायांग और के हित के लिए वीर महर्षि के द्वारा विशेष विस्तार से भाषित है। नन्दीसूत्र के उल्लेखों के अतिरिक्त आज इसका कोई प्रबल प्रमाण उपलब्ध यह आदर्श (अद्दाग), अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, क्षौम (वस्त्र) एवं नहीं है। प्राचीनकाल में ग्रन्थों को प्रश्नों के रूप में विभाजित करने आदित्य (के आश्रय से) भाषित है। इसमें महाप्रश्न विद्या, मनप्रश्नविद्या, की परम्परा थी। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण आपस्तम्बीय धर्मसूत्र देवप्रयोग आदि का उल्लेख है। इसमें सब प्राणियों के प्रधान गुणों है। जिसकी विषयवस्तु को दो प्रश्नों में विभक्त किया है। इसके प्रथम के प्रकाशक, दुर्गुणों को अल्प करने वाले, मनुष्यों की मति को विस्मित प्रश्न में ११ पटल और द्वितीय प्रश्न में ११ पटल हैं। यह सम्पूर्ण करने वाले, अतिशयमय कालज्ञ एवं शमदम से युक्त उत्तम तीर्थंकरों ग्रन्थ प्रश्नोत्तर रूप में भी नहीं है। इसी प्रकार बौधायन धर्मसूत्र की के प्रवचन में स्थित करने वाले, दुरभिगम, दुरवगाह, सभी सर्वज्ञों विषयवस्तु भी प्रश्नों में विभक्त है। अत: प्रश्नोत्तर शैली में होने के के द्वारा सम्मत सभी अज्ञजनों को बोध कराने वाले प्रत्यक्ष प्रतीतिकारक, कारण या प्रश्नविद्या से सम्बन्धित होने के कारण इसे प्रश्नव्याकरण विविधगुणों से और महान् अर्थों से युक्त जिनवर प्रणीत प्रश्न (वचन) नाम दिया गया था, यह मानना उचित नहीं होगा। वैसे इसका प्राचीन कहे गये हैं।
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प्रश्नव्याकरण अंग की सीमित वाचनायें हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ है, संख्यात वेव हैं, संख्यात श्लोक संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात समहणियों है।
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
प्रश्नव्याकरण अंगरूप से दसवाँ अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, पैंतालीस उद्देशन काल है, पैतालीस समुद्देशन काल है, पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं, इसमें शाश्वत कृत, निबद्ध निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है।
(स) नन्दीसूत्र- नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जो उल्लेख है वह समवायांग के विवरण का मात्र संक्षिप्त रूप है। उसके भाव और भाषा दोनों ही समान है। मात्र विशेषता यह है कि इसमें प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन बताये गये हैं, जबकि समवायांग में केवल ४५ समुदेशन कालों का उल्लेख है, ४५ अध्ययन का उल्लेख समवायांग में नहीं है।"
(द) तत्त्वार्थवार्तिक तत्त्वार्थवार्तिक में प्रश्नव्याकरण की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि आक्षेप और विक्षेप के द्वारा हेतु और नय के आश्रय से प्रश्नों के व्याकरण को प्रश्नव्याकरण कहते है। इसमें लौकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया जाता है। "
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(इ) धवला - धवला में प्रश्नव्याकरण की जो विषयवस्तु बताई गई है वह तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपादित विषय वस्तु से किंचित् विभिन्नता रखती है। उसमें कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण में आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन है। उसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि आक्षेपणी कथा परसमयों (अन्य मतों) का निराकरण कर ६ द्रव्यों और नव तत्त्वों का प्रतिपादन करती है। विक्षेपणी कथा परसमय के द्वारा स्वसमय पर लगाये गये आक्षेपों का निराकरण कर स्वसमय की स्थापना करती है। संवेदनी कथा पुण्यफल की कथा है। इसमें तीर्थङ्कर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि का विवरण है। निवेंदनी कथा पाप-फल की कथा है, इसमें नरक, तिर्यच, जरा-मरण, रोग आदि सांसारिक दुःखों का वर्णन किया जाता है। उसमें यह भी कहा गया है कि प्रश्नव्याकरण प्रश्नों के अनुसार हत, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित, मरण, जय पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्या निरूपण करता है। " इस प्रकार प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में प्राचीन उल्लेखों में एकरूपता नहीं है।
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प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बन्धी विवरणों की समीक्षा
मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु के तीन संस्कार हुए होंगे। प्रथम एवं प्राचीनतम संस्कार, जो 'वागरण' कहा जाता था,
में ऋषिभाषित आचार्यभाषित और महावीरभाषित ही इसकी प्रमुख विषयवस्तु रही होगी। ऋषिभाषित में 'वागरण प्रन्थ का एवं उसकी विषयवस्तु की ऋषिभासित से समानता का उल्लेख है।" इससे प्राचीनकाल ( ई०पू० ४थी या ३री शताब्दी) में उसके अस्तित्त्व की सूचना तो मिलती ही है साथ ही प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित का सम्बन्ध भी स्पष्ट होता है।
स्थानांगसूत्र में प्रश्नव्याकरण का वर्गीकरण दस दशाओं में किया है । सम्भवतः जब प्रश्नव्याकरण के इस प्राचीन संस्करण की रचना हुई होगी तब ग्यारह अंगों अथवा द्वादश गणिपिटिक की अवधारणा भी स्पष्ट रूप से नहीं बन पायी थी। अंग-आगम साहित्य के ५ ग्रन्थ उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, प्रश्नव्याकरणदशा, अनुत्तरीपपातिक दशा तथा कर्मविपाकदशा (विपाकदशा) दस दशाओं में ही परिगणित किये जाते थे। आज इन दशाओं में उपर्युक्त पाँच तथा आचारदशा, जो आज दशाश्रुतस्कन्ध के नाम से जानी जाती है, को छोड़कर शेष चारबन्धदशा, द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा और संक्षेपदशा - अनुपलब्ध हैं। उपलब्ध छह दशाओं में भी उपासकदशा और आयारदशा की विषयवस्तु स्थानांग में उपलब्ध विवरण के अनुरूप है। कर्मविपाक और अनुतपपातिकदशा की विषयवस्तु में कुछ समानता है और कुछ भिन्नता है। जबकि प्रश्नव्याकरणदशा और अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु पूरी तरह बदल गई है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण की जो विषयवस्तु सूचित की गई है वही इसका प्राचीनतम संस्करण लगता है, क्योंकि यहाँ तक इसकी विषयवस्तु में नैमित्तिक विद्याओं का अधिक प्रवेश नहीं देखा जाता है। स्थानांग प्रश्नव्याकरण के जिन दश अध्ययनों का निर्देश करता है, उनमें भी मेरी दृष्टि में इसिभासियाई, आयरियभासियाइं और महावीरभासियाई ये तीन प्राचीन प्रतीत होते हैं 'उवमा' और 'संखा' की सामग्री क्या थी ? कहा नहीं जा सकता । यद्यपि मेरी दृष्टि में 'उवमा' में कुछ रूपकों के द्वारा धर्म-बोध कराया गया होगा। जैसा कि ज्ञाताधर्मकथा में कर्म और अण्डों के रूपकों द्वारा क्रमशः यह समझाया गया है कि जो इन्द्रिय-संयम नहीं करता है वह दुःख को प्राप्त होता है और जो साधना में अस्थिर चित्त रहता है वह फल को प्राप्त नहीं करता है। इसी प्रकार 'संखा' में स्थानांग और समवायांग के समान संख्या के आधार पर वर्णित सामग्री हो यद्यपि यह भी संभव है कि संखा नामक अध्ययन का सम्बन्ध सांख्य दर्शन से रहा हो। क्योंकि अन्य परम्पराओं के विचारों को प्रस्तुत करने की उदारता इस ग्रन्थ में थी। साथ ही प्राचीन काल में सांख्य- श्रमणधारा का ही दर्शन था और जैन दर्शना से उसकी निकटता थी ऐसा प्रतीत होता है कि अागपरिणाई, बाहुपसिणाई आदि अध्यायों का सम्बन्ध भी निमित्तशास्त्र से न होकर इन नामवाले व्यक्तियों की तात्त्विक परिचर्चा से रहा हो जो क्रमशः आर्द्रक और बाहुक नामक ऋषियों की तत्त्वचर्चा से सम्बन्धित रहे होंगे। अद्दागपसिणाई की टीकाकारों ने 'आदर्श प्रश्न' ऐसी जो संस्कृत-छाया की है वह भी उचित नहीं है उसकी संस्कृत छाया 'आर्द्रक प्रश्न' ऐसी होना चाहिए। आर्द्रक से हुए प्रश्नोत्तरों की चर्चा सूत्रकृतांग में मिलती है साथ ही वर्तमान ऋषिभाषित में भी 'अदाएण'
Ansomstraad 1910 poin
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Kvinn
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प्रतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य (आर्द्रक) और बाहु (बाहुक) नामक अध्ययन उपलब्ध हैं। हो सकता है कि कोमल और खोम-क्षोम भी कोई ऋषि रहे हैं। सोम का उल्लेख भी ऋषिभाषित में है फिर भी यदि हम यह मानने को उत्सुक ही हों कि ये अध्ययन निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित थे तो हमें यह मानना होगा कि यह सामग्री उसमें बाद में जुड़ी है, प्रारम्भ में उसका अंग नहीं थी क्योंकि प्राचीनकाल में निमित्तशास्त्र का अध्ययन जैन भिक्षु के लिए वर्जित था और इसे पापश्रुत माना जाता था।"
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स्थानांग और समवायांग दोनों में प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो विवरण हैं, वे भी एक काल के नहीं हैं। समवायांग का विवरण परवर्ती है, क्योंकि उस विवरण में मूल तथ्य सुरक्षित रहते हुए भी निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण काफी विस्तृत हो गया है। स्थानांग में प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययन बताये गये हैं जबकि समवायांग उसमें ४५ उद्देशक होने की सूचना देता है 'उवमा' और 'संखा' नामक स्थानांग में वर्णित प्रारम्भिक दो अध्ययनों का यहाँ निर्देश ही नहीं है। हो सकता है कि 'उवमा' की सामग्री ज्ञाताधर्मकथा में और 'संखा' की सामग्री – यदि उसका सम्बन्ध संख्या से था तो स्थानांग या समवायांग में डाल दी गई हो। 'कोमलपसिणाई' का भी उल्लेख नहीं है। इन तीनों के स्थान पर 'असि' 'मणि' और आदित्य' ये तीन नाम नये जुड़ गये हैं, पुनः इनका उल्लेख भी अध्ययनों के रूप में नहीं है। समवायांग का विवरण स्पष्टरूप से यह बताता है कि प्रश्नव्याकरण का वर्ण्य विषय चमत्कारपूर्ण विविध विद्याओं से परिपूर्ण है। यहाँ इसिभासियाई आयरियभासियाई और महावीरभासियाई इन तीन अध्ययनों का विलोप कर यह निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण इनके द्वारा कथित है- यह कह दिया गया है।
वस्तुतः समवायांग का विवरण हमें प्रश्नव्याकरण के किसी दूसरे परिवर्धित संस्करण की सूचना देता है जिसमें नैमित्तशास्त्र से सम्बन्धित विवरण जोड़कर प्रत्येक बुद्धभाषित (ऋषिभाषित), आचार्यभाषित और वीरभाषित (महावीरभाषित ) भाग अलग कर दिये गये थे और इस प्रकार इसे शुद्धरूप से एक निमित्तशास्त्र का ग्रन्थ बना दिया गया था। उसे प्रामाणिकता देने के लिए यहाँ तक कह दिया गया कि ये प्रत्येक बुद्ध, आचार्य और महावीरभाषित हैं।
तत्त्वार्थकार्तिक में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जो विवरण उपलब्ध है वह इतना अवश्य सूचित करता है कि ग्रन्थकार के सामने प्रश्नव्याकरण की कोई प्रति नहीं थी उसने प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में जो विवरण दिया है, वह कल्पनाश्रित ही है । यद्यपि धवला में प्रश्नव्याकरण के सम्बन्ध में जो निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित कुछ विवरण है, वह निश्चय ही यह बताता है कि ग्रन्थकार ने उसे अनुश्रुति के रूप में श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा से प्राप्त किया होगा। धवला में वर्णित विषयवस्तु वाला कोई प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में भी रहा होगा, यह कहना कठिन है।
जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं कि समवायांग का प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बन्धी विवरण स्थानांग की अपेक्षा परवर्ती काल का है । फिर भी इसमें कुछ तथ्य ऐसे अवश्य हैं जो हमारी इस धारणा को पुष्ट करते हैं कि प्रश्नव्याकरण की मूलभूत विषयवस्तु ऋषिभाषित
आचार्यभाषित और महारवीरभाषित ही थी और जिसका अधिकांश भाग आज भी ऋषिभाषित आदि के रूप में सुरक्षित है। क्योंकि समवायांग मैं भी प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु को प्रत्येकबुद्धभाषित, आचार्यभाषित, महर्षिवीरभाषित कहा गया है। स्थानांग में जहाँ ऋषिभाषित शब्द है वहां समवायांग में प्रत्येकबुद्धभाषित शब्द है। यह स्पष्ट है कि ऋषिभाषित के प्रत्येक ऋषि को आगे चलकर जैनाचार्यों ने प्रत्येकबुद्ध के रूप में स्वीकार किया हैं" और यह शब्द-परिवर्तन उसी का सूचक है। यही कारण है कि इसमें ऋषिभाषित के स्थान पर प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। हमारे कथन की पुष्टि का दूसरा आधार यह है कि समवायांग में प्रश्नव्याकरण के एक श्रुतस्कन्ध और ४५ अध्याय माने गये हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि समवायांग के प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु सम्बन्धी इस विवरण के लिखे जाने तक भी यह अवधारणा अचेतनरूप में अवश्य थी कि प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु प्रत्येकबुद्धों, धर्माचायों और महावीर के उपदेशों से निर्मित थी, यद्यपि इस काल तक ऋषिभाषित को उससे अलग कर दिया गया होगा और उसके ४५ अध्ययनों के स्थान पर निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विद्याएँ समाविष्ट कर दी गई होंगी। यद्यपि निमित्तशास्त्र के विषय जोड़ने का ही ऐसा कुछ प्रयत्न सीमितरूप में स्थानांग में प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी विवरण लिखे जाने के पूर्व भी हुआ होगा। मेरी धारणा यह है कि प्रश्नव्याकरण में प्रथम निमित्तशास्त्र का विषय जुड़ा और फिर ऋषिभाषित वाला अंश अलग हुआ तथा बीच का कुछ काल ऐसा रहा जब वही विषयवस्तु दोनों में समनान्तर बनी रही। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि जहाँ स्थानांग में प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययन होने का उल्लेख है, वहाँ समवायांग में इसके ४५ उद्देशन काल और नन्दी में ४५ अध्ययन होने का उल्लेख है यह आकस्मिक नहीं है। यह उल्लेख प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की किसी साम्यता का संकेतक है। वर्तमान प्रश्नव्याकरण में दस अध्ययन होना भी सप्रयोजन है— स्थानाङ्ग के पूर्व विवरण से संगति बैठाने के लिए ही ऐसा किया गया होगा। दस और पैंतालीस के इस विवाद को सुलझाने के दो ही विकल्प हैप्रथम सम्भावना यह हो सकती है कि प्राचीन संस्करण में दस अध्याय रहे हों और उसके ऋषिभाषित वाले अध्याय के ४५ उद्देशक रहे हों अथवा मूल प्रश्नव्याकरण में वर्तमान ऋषिभाषित के ४५ अध्याय ही हों क्योंकि इनमें भी ऋषिभाषित के साथ महावीरभाषित और आचार्यभाषित का समावेश हो ही जाता है। यह भी सम्भव है कि वर्तमान ऋषिभाषित के ४५ अध्यायों में से कुछ अध्याय ऋषिभाषित के अन्तर्गत और कुछ आचार्यभाषित एवं कुछ महावीरभाषित के अन्तर्गत उद्देशकों के रूप में वर्गीकृत हुए हों। महत्त्वपूर्ण यह है कि समवायांग में प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन न कहकर ४५ उद्देशन काल कहा गया है, किन्तु प्रश्नव्याकरण से अलग करने के पश्चात् उन्हें एक ही ग्रन्थ के अन्तर्गत ४५ अध्यायों के रूप में रख दिया गया हो। एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि समवायांग में ऋषिभाषित के ४४ अध्ययन कहे गये हैं जबकि वर्तमान ऋषिभाषित में ४५ अध्ययन हैं। क्या वर्धमान नामक अध्ययन पहले इसमें सम्मिलित नहीं था। क्योंकि इसे
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वस्तु सुरक्षित है।
र द्वितीय संस्कारमा महत्त्वपूर्ण
- चीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - महावीरभाषित में परिगणित नहीं किया गया था या अन्य कोई कारण क्या प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु सुरक्षित है? था, हम नहीं कह सकते। यह भी सम्भव है कि उत्कटवादी अध्याय यहा यह चर्चा भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या प्रश्नव्याकरण के प्रथम में किसी ऋषि का उल्लेख नहीं है, साथ ही यह अध्याय चार्वाक-दर्शन और द्वितीय संस्कारों की विषयवस्तु पूर्णत: नष्ट हो गई है या वह का प्रतिपादन करता है। अत: इसे ऋषिभाषित में स्वीकार नहीं किया आज भी पूर्णत: या आंशिक रूप में सुरक्षित है। गया हो। समवायांग और नन्दीसूत्र के मूलपाठों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्रथम संस्करण में ऋषिभाषित, यह है कि नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन हैं- ऐसा स्पष्ट आचार्यभाषित और महावीरभाषित के नाम से जो सामग्री थी वह आज पाठ है१२ जबकि समवायांग में ४५ अध्ययन, ऐसा पाठ न होकर ४५ भी ऋषिभाषित, ज्ञाताधर्मकथा, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन में बहुत उद्देशन काल है, मात्र यही पाठ है। हो सकता है कि समवायांग के कुछ सुरक्षित है। ऐसा लगता है कि ईसवी सन् के पूर्व ही उस सामग्री रचना-काल तक वे उद्देशक रहे हों, किन्तु आगे चलकर वे अध्ययन को वहाँ से अलग कर इसिभासियाई के नाम से स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप कहे जाने लगे हों। यदि समवायांग के काल तक ४५ अध्ययनों की में सुरक्षित कर लिया गया था। जैन-परम्परा में ऐसे प्रयास अनेक अवधाः होती तो समवायांगकार उसका उल्लेख अवश्य करते क्योंकि ___ बार हुए हैं जब चूला या चूलिका के रूप में ग्रन्थों में नवीन सामग्री समवायांग में अन्य अंग-आगमों की चर्चा के प्रसंग में अध्ययनों का जोड़ी जाती रही अथवा किसी ग्रन्थ की सामग्री को निकालकर उससे स्पष्ट उल्लेख है।
एक नया ग्रन्थ बना दिया। उदाहरण के रूप में किसी समय निशीथ इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या निमित्तशास्त्र को आचारांग की चूला के रूप में जोड़ा गया और कालान्तर में उसे एवं चामत्कारिक विद्याओं से युक्त कोई प्रश्नव्याकरण बना भी था या वहाँ से अलग कर निशीथ नामक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया। इसी यह सब कल्पना की उड़ानें हैं? यह सत्य है कि प्रश्नव्याकरण की प्रकार आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) के आठवें अध्याय (पर्युषणकल्प) पद-संख्या का समवायांग, नन्दी, नन्दीचूर्णि और धवला में जो उल्लेख की सामग्री से कल्पसूत्र नामक एक नया ग्रन्थ ही बना दिया गया। है, वह काल्पनिक है। यद्यपि समवायांग और नन्दी, प्रश्नव्याकरण अत: यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि पहले प्रश्नव्याकरण में के पदों की निश्चित संख्या नहीं देते हैं-मात्र संख्यात-शत-सहस्र- इसिभासियाई के अध्याय जुड़ते रहे हों और फिर अध्ययनों की सामग्री ऐसा उल्लेख करते हैं, किन्तु नन्दीचूर्णि एवं समवायांगवृत्ति में उसके को वहाँ से अलग कर इसिभासियाई नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ अस्तित्व पदों की संख्या ९२१६००० और धवला' में ९३१६००० बतायी में आया हो। मेरा यह कथन निराधार भी नहीं है। प्रथम तो दोनों गई है, जो मुझे तो काल्पनिक ही अधिक लगती है।
नामों की साम्यता तो है ही। साथ ही समवायांग में यह भी स्पष्ट मेरी अवधारणा यह है कि स्थानांग, समवायांग, नन्दी, तत्त्वार्थ, उल्लेख है कि प्रश्नव्याकरण में स्वसमय और परसमय के प्रज्ञापक राजवार्तिक, धवला एवं जयधवला में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु प्रत्येकबुद्धों के कथन हैं। (पण्हावागरणदसासुणं ससमय-परसमय का जिस रूप में उल्लेख है वह पूर्णत: काल्पनिक चाहे न हो, किन्तु पण्णवय-पत्तेअबुद्ध .......भासियाइणं, समवायांग ५४७)। इसिभासियाई उसमें सत्यांश कम और कल्पना का पुट अधिक है। यद्यपि निमित्तशास्त्र के सम्बन्ध में यह स्पष्ट मान्यता है कि उसमें प्रत्येकबुद्धों के वचन के विषय को लेकर कोई प्रश्नव्याकरण अवश्य बना होगा, फिर भी हैं। मात्र यही नहीं समवायांग स-समय-पर समय पण्णवय पत्तेअबुद्ध-अर्थात् उसमें समवायांग और धवला में वर्णित समग्र विषयवस्तु एवं चामत्कारिक स्वसमय एवं परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येक बुद्ध का उल्लेख कर इसकी विद्याएँ रही होंगी यह कहना कठिन ही है।।
पुष्टि भी कर देता है कि वे प्रत्येक बुद्ध मात्र जैन-परंपरा के नहीं हैं, इसी सन्दर्भ में समवायांग के मूलपाठ 'अद्दागंगट्ठबाहुअसिमणि अपितु अन्य परम्पराओं के भी है। इसिभासियाइं में मंखलिगोशाल, खोमआइच्चभासियाणं१५ के अर्थ के सम्बन्ध में भी यहाँ हमें पुनर्विचार देवनारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, उद्दालक आदि से सम्बन्धित करना होगा। कहीं अदाग, अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, खोम (क्षोम) अध्याय भी इसी तथ्य को सूचित करते हैं। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण और आदित्य व्यक्ति तो नहीं हैं- क्योंकि इनके द्वारा भाषित कहने का प्राचीनतम अधिकांश भाग आज भी इसिभासियाई में तथा कुछ का क्या अर्थ है? स्थानाङ्ग के विवरण की समीक्षा करते हुए जैसी भाग सूत्रकृतांग, ज्ञाताधर्मकथा और उत्तराध्ययन के कुछ अध्यायों के कि मैंने सम्भावना प्रकट की है कि कहीं अदाग-आईक, बाहु-बाहुक, रूप में सुरक्षित है। प्रश्नव्याकरण का इसिभासियाई वाला अंश वर्तमान खोम-सोम नामक ऋषि तो नहीं है, क्योंकि ऋषिभाषित में इनके उल्लेख । इसिभासियाई (ऋषिभाषित), महावीरभासियाई में तथा आयरियभासियाई हैं। आदित्य भी कोई ऋषि हो सकते हैं। केवल अंगुट्ठ, असि और का कुछ अंश उत्तराध्ययन के अध्यनों में सुरक्षित है। ऋषिभाषित के मणि ये तीन नाम अवश्य ऐसे हैं, जिनके व्यक्ति होने की सम्भावना तेत्तलिपुत्र नामक अध्याय की विषय-सामग्री ज्ञाताधर्मकथा के १४वें धूमिल है।
तेत्तलिपुत्र नामक अध्याय में आज भी उपलब्ध है। इस समग्र चर्चा का फलित तो मात्र यही है कि प्रश्नव्याकरण उत्तराध्ययन के अनेक अध्याय प्रश्नव्याकरण के अंश थे, इसकी की विषयवस्तु समय-समय पर बदलती रही है।
पुष्टि अनेक आधारों से की जा सकती है। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन नाम ही इस तथ्य को सूचित करता है कि यह किसी ग्रन्थ के उत्तर-अध्ययनों
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से बना हुआ ग्रन्थ है। इसका तात्पर्य है कि इसकी विषय-सामग्री पूर्व में किसी ग्रन्थ का उत्तरवर्ती अंश रही होगी। इस तथ्य की पुष्टि का दूसरा किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह है कि उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा ४ में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि उत्तराध्ययन का कुछ भाग अंग-साहित्य से लिया गया है। उत्तराध्ययननियुक्ति की इस गाथा का तात्पर्य यह है कि बन्धन और मुक्ति से सम्बन्धित जिनभाषित और प्रत्येकबुद्ध के संवादरूप इसके कुछ अध्ययन अंग ग्रन्थों से लिये गये है। निर्मुक्तिकार का यह कथन तीन मुख्य बातों पर प्रकाश डालता है। प्रथम तो यह कि उत्तराध्ययन के जो ३६ अध्ययन हैं, उनमें कुछ जिनभाषित (महावीरभाषित) और कुछ प्रत्येकबुद्धों के संवाद रूप हैं तथा अंग साहित्य से लिये गये हैं। अब यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि वह अंग-ग्रन्थ कौन सा था, जिससे उत्तराध्ययन के ये भाग लिये गये? कुछ आचार्यों ने दृष्टिवाद से इसके परिषह आदि अध्यायों को लिये जाने की कल्पना की है, किन्तु मेरी दृष्टि में इसका कोई आधार नहीं है। इसकी सामग्री उसी ग्रन्थ से ली जा सकती है जिसमें महावीरभाषित और प्रत्येकबुद्ध - भाषित विषयवस्तु हो। इसप्रकार विषयवस्तु प्रश्नव्याकरण की ही थी अतः उससे ही इन्हें लिया गया होगा। यह बात निर्विवाद रूप से स्वीकार की जा सकती है कि चाहे उत्तराध्ययन के समस्त अध्ययन तो नहीं, किन्तु कुछ अध्ययन तो अवश्य ही महावीरभाषित हैं। एक बार हम उत्तराध्ययन के ३६वें अध्ययन एवं उसके अन्त में दी हुई उस गाथा को जिसमें उसका महावीरभाषित होना स्वीकार किया गया है. परवर्ती एवं प्रक्षिप्त मान भी लें, किन्तु उसके १८ वें अध्ययन की २४ वीं गाथा जो न केवल इसी गाथा के सरूप है, अपितु भाषा की दृष्टि से भी उसकी अपेक्षा प्राचीन लगती है- प्रक्षिप्त नहीं कही जा सकती। यदि उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन जिनभाषित एवं कुछ प्रत्येकबुद्धों के सम्वादरूप हैं तो हमें यह देखना होगा कि वे किस अंग ग्रन्थ के भाग हो सकते हैं। प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु का निर्देश करते हुए स्थानांग, समवायांग और नन्दीसूत्र में उसके अध्यायों को महावीरभाषित एवं प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन के अनेक अध्याय पूर्व में प्रश्नव्याकरण के अंश रहे हैं। उत्तराध्ययन के अध्यायों के वक्ता के रूप में देखें तो स्पष्टरूप से उनमें नमिपव्वज्जा, कापिलीय, संजयीया आदि जैसे कई अध्ययन प्रत्येक बुद्धों के सम्वादरूप मिलते हैं। जबकि विनयसुत्त परिषह विभक्ति, संस्कृत, अकाममरणीय, क्षुल्लक निर्मन्धीय, दुमपत्रक, बहुश्रुतपूजा जैसे कुछ अध्याय महावीरभाषित हैं और केसी गौतमीय, गहमीय आदि कुछ अध्याय आचार्यभाषित कहे जा सकते हैं। अतः प्रश्नव्याकरण के प्राचीन संस्कार की विषय - सामग्री से इस उत्तराध्ययन के अनेक अध्यायों का निर्माण हुआ है।
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यद्यपि समवायांग एवं नन्दीसूत्र में उत्तराध्ययन का नाम आया है, किन्तु स्थानांग में कहीं भी उत्तराध्ययन का नामोल्लेख नहीं है। जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके है स्थानाङ्ग ही ऐसा प्रथम ग्रन्थ है जो जैन आगम साहित्य के प्राचीनतम स्वरूप की सूचना देता है।
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मुझे ऐसा लगता है कि स्थानांग में प्रस्तुत जैन साहित्य-विवरण के पूर्व तक उत्तराध्ययन एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में अस्तित्व में नहीं आया था, अपितु वह प्रश्नव्याकरण के एक भाग के रूप में था।
पुनः उत्तराध्ययन का महावीरभाषित होना उसे प्रश्नव्याकरण के अधीन मानने से ही सिद्ध हो सकता है। उत्तराध्ययन की विषयवस्तु का निर्देश करते हुए यह भी कहा गया है कि ३६ अपृष्ट का व्याख्यान करने के पश्चात् ३७वें प्रधान नामक अध्ययन का वर्णन करते हुए भगवान परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु की चर्चा करते हुए उसमें पृष्ट, अपृष्ट और पृष्ट प्रश्नों का विवेचन होना बताया गया है। इससे भी यह सिद्ध हास कि प्रश्नव्याकरण और उत्तराध्ययन की समरूपता है और उत्तराध्ययन में अपृष्ट प्रश्नों का व्याकरण है।
हम यह भी सुस्पष्ट रूप से बता चुके हैं कि पूर्व में ऋषिभाषित ही प्रश्नव्याकरण का एक भाग था। ऋषिभाषित को परवर्ती आचार्यों ने प्रत्येकबुद्धभाषित कहा है। उत्तराध्ययन के भी कुछ अध्ययनों को प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययन एवं ऋषिभाषित एक दूसरे से निकटरूप से सम्बन्धित थे और किसी एक ही ग्रन्थ के भाग थे। हरिभद्र (८वीं शती) आवश्यकनियुक्ति की वृत्ति (८/५) में ऋषभाषित और उत्तराध्ययन को एक मानते हैं। तेरहवीं शताब्दी तक भी जैन आचार्यों में ऐसी धारणा चली आ रही थी कि ऋषिभाषित का समावेश उत्तराध्ययन में हो जाता है। जिनप्रभसूरि की विधिमार्गप्रपा में, जो १४ वीं शताब्दी की एक रचना है— स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि कुछ आचार्यों के मत में ऋषिभाषित का अन्तर्भाव उत्तराध्ययन में हो जाता है। यदि हम उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित को समग्र रूप में एक ग्रन्थ मानें तो ऐसा लगता है कि उस ग्रन्थ का पूर्ववर्ती भाग ऋषिभाषित और उत्तरवर्ती भाग उत्तराध्ययन कहा
जाता था।
यह तो हुई प्रश्नव्याकरण के प्राचीनतम प्रथम संस्करण की बात । अब यह विचार करना है कि प्रश्नव्याकरण के निमित्तशास्त्र प्रधान दूसरे संस्करण की क्या स्थिति हो सकती है- क्या वह भी किसी रूप में सुरक्षित है?
जहाँ तक निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित प्रश्नव्याकरण के दूसरे संस्करण के अस्तित्व में होने का प्रश्न है— मेरी दृष्टि में वह भी पूर्णतया विलुप्त नहीं हुआ है, अपितु मात्र हुआ यह है कि उसे प्रश्नव्याकरण से पृथक् कर उसके स्थान पर आश्रयद्वार और संवरद्वार नामक नई विषयवस्तु डाल दी गई है। श्री अगरचन्द जी नाहटा ने जिनवाणी, दिसम्बर १९८० में प्रकाशित अपने लेख में प्रश्नव्याकरण नामक कुछ अन्य ग्रन्थों का संकेत किया है। 'प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड' के नाम से एक ग्रन्थ मुनि जिनविजयजी ने सिंघी जैन ग्रन्थमाला के ग्रन्थ क्रमांक ४३ में संवत् २०१५ में प्रकाशित किया है। । यह ग्रन्थ एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति के आधार पर प्रकाशित किया गया है । ताड़पत्रीय प्रति खरतरगच्छ के आचार्य शाखा के ज्ञानभण्डार mancanariant poo pricing
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जैसलमेर से प्राप्त हुई थी और यह विक्रम संवत् १३३६ की लिखी हुई थी । ग्रन्थ मूलत: प्राकृत भाषा में हैं और उसमें ३७८ गाथाएँ हैं। उसके साथ संस्कृत टीका भी है। यह प्रकाशित ग्रन्थ पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी के पुस्कालय में है। अन्य का विषय निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित है। इसी प्रकार जिनरत्नकोश में भी शान्तिनाथ भण्डार खंभात में उपलब्ध जयपाहुड प्रश्नव्याकरण, नामक ग्रन्थ की सूचना उपलब्ध होती है। १५ यद्यपि इसकी गाथा संख्या २२८ बताई गई है। एक अन्य प्रश्नव्याकरण नामक ग्रन्थ की सूचना हमें नेपाल के महाराजा की लायब्रेरी से प्राप्त होती है। श्री अगरचन्द जी नाहटा की सूचना के अनुसार इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि तेरापन्थ धर्मसंघ के आचार्य मुनिश्री नथमलजी ने प्राप्त कर ली है। इस लेख के प्रकाशन के पूर्व श्री जोहरीमल जी पारख, रावटी, जोधपुर के सौजन्य से इस ग्रन्थ की फोटो कॉपी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान को प्राप्त हो गई है। इसे अभी पूरा पढ़ा तो नहीं जा सका है, किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर ज्ञात हुआ कि इसकी मूलगाथाएँ तो सिंधी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित कृति के समान ही है, किन्तु टीका भिन्न है इसकी एक अन्य फोटो कॉपी लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद से भी प्राप्त हुई है। एक अन्य प्रश्नव्याकरण की सूचना हमें पाटन ज्ञान भण्डार की सूची से प्राप्त होती है। यह ग्रन्थ भी चूड़ामणि नामक टीका के साथ है और टीका का प्रन्थांक २३०० श्लोक परिमाण बताया गया है। यह प्रति भी काफी पुरानी हो सकती है।
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इन सब आधारों से ऐसा लगता है कि प्रश्नव्याकरण का निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित संस्करण भी पूरी तरह विलुप्त नहीं हुआ होगा, अपितु उसे उससे अलग करके सुरक्षित कर लिया गया हो। यदि कोई विद्वान् इन सब प्रन्थों को लेकर उनकी विषयवस्तु का समवायांग, नन्दीसूत्र एवं धवला में प्रश्नव्याकरण की उल्लिखित विषय सामग्री के साथ मिलान करे तो यह पता चल सकेगा कि प्रश्नव्याकरण नामक जो अन्य ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे प्रश्नव्याकरण के द्वितीय संस्करण के ही अंश हैं या अन्य हैं। यह भी सम्भव है कि समवायांग और नन्दी के रचनाकाल में प्रश्नव्याकरण नामक कई ग्रन्थ वाचना-भेद से प्रचलित हों और उनमें उन सभी विषयवस्तु को समाहित किया गया हो। इस मान्यता का एक आधार यह है कि ऋषिभाषित, समवायांग, नन्दी एवं अनुयोगद्वार में वागरणगंधा एवं पण्हावागरणाई' ऐसे बहुवचनप्रयोग मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि इस काल में वाचनाभेद से या अन्य रूप अनेक प्रश्नव्याकरण उपस्थित रहे होंगे।
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इन प्रश्नव्याकरणों की संस्कृत टीका सहित ताड़पत्रीय प्रतियाँ मिलना इस बात का अवश्य सूचक है कि ईसा की ४-५ वीं शती में ये ग्रन्थ अस्तित्व में थे, क्योंकि ९-१०वीं शताब्दी में जब इनकी टीकाएँ लिखी गईं, तो उसके पूर्व भी ये ग्रन्थ अपने मूल रूप में रहे होंगे।
सम्भवतः ईसा की लगभग २- ३री शताब्दी में प्रश्नव्याकरण में निमित्तशास्त्र सम्बन्धी सामग्री जोड़ी गई हो और फिर उसमें से ऋषिभाषित का हिस्सा अलग किया गया और उसे विशिष्ट रूप से एक निमित्तशास्त्र
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का ग्रन्थ बना दिया गया। पुनः लगभग ७वीं शताब्दी में यह निमित्तशास्त्र वाला हिस्सा अलग किया गया और उसके स्थान पर पाँच आस्रव तथा पाँच संवरद्वार वाला वर्तमान संस्करण रखा गया। जैसा कि मैंने सूचित किया कि प्रश्नव्याकरण के पूर्व के दो संस्करण भी चाहे उससे पृथक कर दिये गये हों किन्तु वे ऋषिभाषित उत्तराध्ययन और प्रश्नव्याकरण नामक अन्य निमित्तशास्त्र के ग्रन्थों के रूप में अपना अस्तित्व रख रहे हैं। आशा है, इस सम्बन्ध में विद्वद्वर्ग आगे और मन्थन करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा।
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प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की विषयवस्तु की समरूपता का
प्रमाण
ऋषिभाषित और प्राचीन प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तुओं की एकरूपता का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण हमें ऋषिभाषित के पार्श्व नामक ३१ वें अध्ययन में मिल जाता है। इसमें पार्थ की दार्शनिक अवधारणाओं की चर्चा है। इस चर्चा के प्रसंग में ग्रन्थकार ने स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया है कि व्याकरणप्रभृति ग्रन्थों में समाहित इस अध्ययन का ऐसा दूसरा पाठ भी मिलता है यह मूलपाठ इस प्रकार हैवागरणगंथाओं पभिति सामित्तं
इमं अायणं ताव इमो बीओ पाढो दिस्सति"
इसका तात्पर्य तो यह है कि ऋषिभाषित की विषयवस्तु प्रश्नव्याकरण में भी सामहित थी । यद्यपि यह एक विवादास्पद प्रश्न होगा कि प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु से ऋषिभाषित का निर्माण हुआ या ऋषिभाषित की विषयवस्तु से प्रश्नव्याकरण का लेकिन यह सुस्पष्ट है कि किसी समय प्रश्नव्याकरण और ऋषिभाषित की विषयवस्तु समान थी और उनमें कुछ पाठान्तर भी थे अतः वर्तमान ऋषिभाषित में प्राचीन प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का होना निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है। साथ ही यह भी सिद्ध हो जाता है कि मूल प्रश्नव्याकरण में पार्श्व आदि प्राचीन अर्हत् ऋषियों के दार्शनिक विचार एवं उपदेश निहित थे।
प्रश्नव्याकरण और जयपायड की विषयवस्तु की आंशिक समानता
'प्रश्नव्याकरणाख्य जयपायड' नामक जिस ग्रन्थ का हमने उल्लेख किया है, उसकी विषय सामग्री निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित है। पुनः उसमें कर्ता ने तीसरी गाथा में 'पण्हं जयपायडं वोच्छं' कहकर के प्रश्नव्याकरण और जयपायड की समरूपता को स्पष्ट किया है। २० प्रस्तुत ग्रन्थ की इसी गाथा की टीका में ग्रन्थ की विषयवस्तु को स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि इसमें 'नष्टमुष्टिचिन्तालाभालाभसुखदुःखजीवनमरण' आदि सम्बन्धी प्रश्न हैं। इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि धवलाकार ने प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जिस रूप में उल्लेख किया है। उसकी इससे बहुत कुछ समानता है। २१ प्रस्तुत ग्रन्थ के विषयों में मुष्टिविभाग प्रकरण, नष्टिका चक्र, संख्या प्रमाण, लाभ प्रकरण, अस्वविभाग प्रकरण आदि ऐसे हैं जिनकी विषयवस्तु समवायांग में प्रश्नव्याकरण के वर्णित विषयों के यत्किचित् समान हो सकती है। २१
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- चतीन्द्रसूरि रमारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - दुर्भाग्य यह है कि प्रकाशित होते हुए भी विद्वानों को इस ग्रन्थ की था। किन्तु जब परवर्ती आचार्यों ने इसका दुरुपयोग होते देखा होगा जानकारी नहीं है। यह जैन निमित्तशास्त्र का प्राचीन एवं प्रमुख ग्रन्थ है। और मुनिवर्ग को साधना से विरत होकर इन्हीं नैमित्तिक विद्याओं की __ग्रन्थ की भाषा को देखकर सामान्यतया यह अनुमान किया जा उपासना में रत देखा होगा तो उन्होंने यह नैमित्तिक विद्याओं से युक्त सकता है कि यह ईसवी सन् की चौथी-पाँचवी शताब्दी की हो सकती विवरण उससे अलग कर उसमें पांच आस्रवद्वार और पांच संवरद्वार है। ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त पायड या पाहुड शब्द से भी यह फलित वाला विवरण रख दिया। प्रश्नव्याकरण के टीकाकार अभयदेव एवं होता है कि यह ग्रन्थ लगभग पाँचवी शताब्दी के आसपास की रचना ज्ञानविमल ने भी विषय-परिवर्तन के लिए यही तर्क स्वीकार होना चाहिए, क्योंकि कसायपाहुड एवं कुन्दकुन्द के पाहुड ग्रन्थ इसी किया है। २२ । कालावधि के कुछ पूर्व की रचनाएँ हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति में भी विषयों का प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु कब उससे अलग कर दी वर्गीकरण पाहुडों के रूप में हुआ है। अत: यह सम्भावना हो सकती गई और उसके स्थान पर पाँच आश्रवद्वार और पाँच संवरद्वार रूप है कि जयपायड प्रश्नव्याकरण के द्वितीय संस्करण का कोई रूप हो, नवीन विषयवस्तु रख दी गई, यह प्रश्न भी विचारणीय है। अभयदेवसूरी यद्यपि इस सम्बन्ध में अन्तिमरूप से तभी कुछ कहा जा सकता है ने अपनी स्थानांग और समवायांग की टीका में भी यह स्पष्ट निर्देश जब प्रश्नव्याकरण के नाम से मिलने वाली सभी रचनाएँ हमारे समक्ष किया है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण में इनमें सूचित विषयवस्तु उपलब्ध उपस्थित हों और इनका प्रामाणिक रूप से अध्ययन किया जाये। नहीं है।२४ मात्र यही नहीं, उन्होंने पाँच आश्रवद्वार और पाँच संवरद्वार
वाले वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण पर ही टीका लिखी है। अतः विषय-सामग्री में परिवर्तन क्यों?
वर्तमान संस्करण की निम्नतम सीमा अभयदेव के काल अर्थात् ईसवी यद्यपि यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविकरूप से उठता है कि प्रथम सन् १०८० से पूर्ववर्ती होना चाहिए। पुन: अभयदेव ने प्रश्नव्याकरण ऋषिभाषित, आचार्यभाषित, महावीरभाषित आदि भाग को हटाकर उसमें में एक श्रुतस्कन्ध है या दो श्रुतस्कन्ध है इस समस्या को उठाते हुए निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण रखना और फिर निमित्तशास्त्र सम्बन्धी अपनी वृत्ति की पूर्वपीठिका में अपने से पूर्ववर्ती आचार्य का मत उद्धृत विवरण हटाकर आस्रवद्वार और संवरद्वार सम्बन्धी विवरण रखना- यह किया है- 'दो सुयसंघा पण्णत्ता आसवदारा य संवरदारा य-।' अभयदेव सब क्यों हुआ? सर्वप्रथम ऋषिभाषित आदि भाग क्यों हटाया गया? ने पूर्वाचार्य की मान्यता को अस्वीकार भी किया है और यह भी कहा मेरी दृष्टि में इसका कारण यह है कि ऋषिभाषित में अधिकांशत: अजैन- है कि यह दो श्रुतस्कन्धों की मान्यता रूढ़ नहीं है। सम्भवतः उन्होंने परम्परा के (ऋषियों कोउपदेश एवं विचार संकलित थे- इसके पठन- अपना एक श्रुतस्कन्ध सम्बन्धी मत समवायांग और नन्दी के आधार पाठन से एक उदार दृष्टिकोण का विकास तो होता था, किन्तु जैनधर्म- पर बनाया हो। इसका अर्थ यह भी है कि अभयदेव के पूर्व भी संघ के प्रति अटूट श्रद्धा खण्डित होती थी तथा परिणामस्वरूप संघीय प्रश्नव्याकरण के वर्तमान संस्करण पर प्राकृत भाषा में ही कोई व्याख्या व्यवस्था के लिए अपेक्षित धार्मिक कट्टरता और आस्था टिक नहीं लिखी गई थी, जिसमें दो श्रुतस्कन्ध की मान्यता को पुष्ट किया गया पाती थी। इससे धर्मसंघ को खतरा था। पुन: यह युग चमत्कारों द्वारा था। उसका काल अभयदेव से २-३ शताब्दी पूर्व अर्थात् ईसा की लोगों को अपने धर्मसंघ के प्रति आकर्षित करने और उनकी धार्मिक ८ वीं शताब्दी के लगभग अवश्य रहा होगा। पुन: आचार्य जिनदासगणि श्रद्धा को दृढ़ करने का था- चूंकि तत्कालीन जैन-परम्परा के साहित्य महत्तर ने नन्दीसूत्र पर शक संवत् ५९८ अर्थात् ईसवी सन् ६७६ में इसका अभाव था, अत: उसे जोड़ना जरूरी था। समवायांग में ई० में अपनी चूर्णि समाप्त की थी।२५ उस चूर्णि में उन्होंने प्रश्नव्याकरण प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध हैं उससे भी इस तथ्य । में पंचसंवरादि की व्याख्या होने का स्पष्ट निर्देश किया है।२६ इससे की पुष्टि होती है- उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि लोगों को ___ भी यह सिद्ध हो जाता है कि ईसवी सन् ६७६ के पूर्व प्रश्नव्याकरण जिनप्रवचन में स्थित करने के लिए, उनकी मति को विस्मित करने का पंचसंवरद्वारों से युक्त संस्करण प्रसार में आ गया था, अर्थात् आगमों के लिए सर्वज्ञ के वचनों में विश्वास उत्पन्न करने के लिए इसमें- के लेखनकाल के पश्चात् लगभग सौ वर्ष की अवधि में वर्तमान महाप्रश्नविद्या, मनःप्रश्नविद्या, देवप्रयाग आदि का उल्लेख किया गया प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में अवश्य आ गया था। प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण है। यद्यपि यह आश्चर्यजनक है कि एक ओर निमित्तशास्त्र को पापसूत्र । की प्रथम गाथा, जिसमें 'वोच्छामि' कहकर ग्रन्थ के कथन का निश्चय कहा गया, किन्तु संघहित के लिए दूसरी ओर उसे अंग-आगम में सूचित किया गया है, की रचना शेष सभी अंग-आगमों के प्रारम्भिक सम्मिलित कर लिया गया, क्योंकि जब तक उसे अंग-साहित्य का कथन से बिलकुल भिन्न है। यह ५वीं-६ठी शताब्दी में रचित ग्रन्थों भाग बनाकर जिनप्रणीत नहीं कहा जाता तब तक लोगों की आस्था की प्रथम प्राक्कथन-गाथा के समान ही है। अत: प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण उस पर टिक नहीं पाती और जिनप्रवचन की अतिशयता प्रकट नहीं रचनाकाल ईसा की छठी शताब्दी माना जा सकता है। होती। अत: प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु में परिवर्तन करने का दोहरा इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वह प्रश्नव्याकरण जिसमें उसकी लाभ था एक ओर अन्यतीर्थिक ऋषियों के वचनों को उससे अलग विषयवस्तु ऋषिभाषित की विषयवस्तु के समरूप थी, प्राचीनतम किया जा सकता था और दूसरी ओर उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी नई संस्करण है जो लगभग ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की रचना होगी। सामग्री जोड़कर उसकी प्रामाणिकता को भी सिद्ध किया जा सकता फिर ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य विवरण जुड़े जिनकी सूचना उसके स्थानांग के विवरण से मिलती तक प्रश्नव्याकरण के उपर्युक्त दो प्राचीन लुप्त संस्करणों की है। इसके पश्चात् ईसा की चौथी शताब्दी में ऋषिभाषित आदि भाग विषयवस्तु का प्रश्न है, उसमें से प्रथम संस्करण की विषयवस्तु अलग किये गये और उसे निमित्तशास्त्र का ग्रन्थ बना दिया, समवायांग अधिकांश रूप से एवं कुछ परिवर्तनों के साथ वर्तमान में उपलब्ध का विवरण इसका साक्षी है। इस काल में प्रश्नव्याकरण के नाम से ऋषिभाषित (इसिमासियाई), उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग एवं ज्ञाताधर्मकथा वाचनाभेद से अनेक ग्रन्थ अस्तित्व में थे ऐसी भी सूचना हमें आगम- में समाहित है। द्वितीय निमित्तशास्त्र सम्बन्धी संस्करण की विषयवस्तु, साहित्य से मिल जाती है। लगभग ईसा की ६ वी शताब्दी के उत्तरार्ध जयपायड और प्रश्नव्याकरण के नाम से उपलब्ध अन्य निमित्तशास्त्रों में इन ग्रन्थों के स्थान पर वर्तमान प्रश्नव्याकरण सूत्र का आश्रृंव एवं के ग्रन्थों में हो सकती है। यद्यपि इस सम्बन्ध में विशेषरूप से संवर के विवेचन से युक्त वह संस्करण अस्तित्व में आया है जो वर्तमान शोध की आवश्यकता है। आशा है विद्वद्जन इस दिशा में ध्यान में हमें उपलब्ध है। यह प्रश्नव्याकरण का अन्तिम संस्करण जहाँ देंगे।
सन्दर्भ
पण्हावागरणेसु अद्भुत्तरं पसिणसयं अद्भुत्तरं अपसिणसय अठ्ठत्तरं बाहुपसिणाई अद्दागपसिणाई, अनेवि विचित्ता विज्जाइसया, नाग-सुवण्णेहिं पसिणापसिणसयं विज्जाइसया नाग-सुबन्नेहिं सद्धिं दिव्च संवाया
सद्धिं दिव्या संवाया आघविज्जन्ति। आधविज्जति। -समवायांगसूत्र, ५४६।
पण्हावागरणाणं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा वागरणगंथाओ पभिति............! इसिभासियाई-३१।
वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जतीओ, संखेज्जाओ, पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-उवमा, संख, संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ। इसिभासियाई, आयरियभासियाई, महावीरभासियाई, खोमगपसिणइं, से णं अंगठ्ठयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंघे, पणयालीसं अज्झयणा, कोमलपसिणाई, अद्दागपसिणाई, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई। ---- पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाई स्थानांगसूत्र, १०/११६
पयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता से किं तं पण्हावागरणाणि? पण्हावागरणेसु अत्तरं पसिणसयं पज्जवा, परित्ता तसा, अणन्ता थावरा, सासयकडनिबद्धनिकाइया अट्ठत्तरं अपसिणसयं, अद्रुत्तरं सिणापसिणसयं विज्जाइसया नाग-सुवनेहि जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जन्ति, पण्णविज्जन्ति, परूविज्जन्ति, सद्धिं दिव्चा संवाया आघविज्जंति।
दंसिज्जन्ति, निदंसिज्जन्ति, उवदंसिज्जन्ति । पण्हावागरणदसासु णं ससमय-परसमय पण्णवय-पत्तेअबुद्ध- से एवं आया, एवं नाया एवं विण्णाया, एवं चरणकरणपरूवणा विविहत्थभासा-भासियाणं अइसयगुण-उवसम-णाणप्पगार
आधविज्जई, सत्तं पण्हावागरणाई। -नन्दीसूत्र,५४। आयरियभासियाणं वित्थरेणं, वीरमहेसीहिं विविहवित्थरभासियाणं च आक्षेपविक्षेपैहेंतुनयाश्रितानां प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम्, जगहियाणं अद्दागंगुट्ठ-बाहु-असि-मणि-खोम-आइच्चभासियाणं तस्मिल्लौकिकवैदिकानामर्थानां निर्णयः। - तत्वार्थवार्तिक, १/२० विविहमहापसिणविज्जा-मणपसिणविज्जा-देवयपयोग-पहाण-गुणप्पगासियाणं
(पृ० ७३-७४)। सब्भूयदुगुणप्पभाव-नरगणमइविम्हयकराणं अइसयमईयकालसमय
अक्खेवणी विक्खेवणी -संवेयणी णिव्वेयणी चेदि चउविहाओ दम-सम-तित्थकरुत्तमस्स ठिइकरणकारणाणं दुरहिगम-दुरवगाहस्स
कहाओ वण्णेदि तत्थ अक्खेवणी नाम छद्दव्व-णव पयत्थाणं सरूवं सव्वसनत्रुसम्मअस्स अबुह-जण-विबोहणकरस्स पच्चक्खयपच्चयकराणं
दिगंतरसमयांतर-णिराकरणं मुद्धिं करेंती परूवेदि। पण्हाणं विविहगुणमहत्या जिणवरप्पणीया आघविज्जति।
विवखेवणी णाम परसमएण ससमयं दूसंती पच्छा दिगंतरसुद्धिं करती पण्हावागरणेसु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ
ससमयं थावंती छद्दव्वा-णवपयत्थे परूवेदि। पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ
संवेयणी णाम पुण्णफलसंकहा। काणि पुण्णफलाणि? तित्ययरनिज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ।
गणहर-रिसि-चक्कवट्टि-बलदेव-सुर-विज्जाहररिद्धीओ। सेणं अंगट्ठयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, पणयालीसं उद्देसणकाला,
णिव्वेयणी णाम पावफलसंकहा। काणि पावफलाणि? णिरय-तिरियपणयालीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाणि पयसपसहस्साणि पयग्गेणं
कुमाणुसजोणीसु जाइ-जरा-मरण-वाहि-वेयणा- दालिद्दादीणि। पण्णत्ताई। संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता
संसारसरीरभोगेसु वेरग्गुप्पाहणी णिव्वेयणीणा........। तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जंति परूविज्जति निदंसिअति उवदंसिज्जंति।
पण्हाओ हद-नट्ठ-मुट्ठि-चिंता-लाहालाह-सुह-दुक्ख-जीविय- मरणसे एवं आया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया
जय-पराजय-णाम-दव्वासु-संखं च परूवेदि। आघविज्जति। से तं पाहावागरणाई १०१
--धवला, पुस्तक १, भाग१, पृ० १०७-८। -समवायांगसूत्र, ५४६-५४९। ८.
वागरणगंथाओ पभिति जाव सामित्तं इमं अज्झयणं ताव इमो बीओ ५. से किं तं पण्हावागरणाई? पण्हावागरणेसु णं-अट्ठत्तरं पसिणसयं,
पाढो दिस्सति, तंजहा: अद्भुत्तरं अपसिणसयं. अद्रुत्तर पसिणापणिसयं, तंजहा-अंगुट्ठपसिणाई,
- इसिभासियाई, अध्याय ३१। twitamindaridrianitarianoramidstimonitor- २०३ -dramaroharirikardiotaridroriandorkaritoriarokaran
७.
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ- जैन आगम एवं साहित्य नवविहे पावसुयपसंगे पण्णते, तं जहा
१९. इसिभासियाई (शुब्रिग) अध्याय ३१, पृ०६९ उप्पाए, नेमित्तए, मत्ते, आइक्खए, तिगिच्छीए।
२०. महमाहप्युप्पायं, भुवणमंतरपवंत (वत्त) वावार।। कलावरण-अन्नाणे, मिच्छापावयणत्तिय।। - स्थानोंग, स्थान ९ अइसयपुण्ण णाणं, पण्हं जयपायडं बोच्छं।। १०. पत्तेयबुद्धमिसिणो बीसं तित्थे अरिठ्ठणेमिस्स।
-प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम् ३। पासस्स य पण्णरस वीरस्स विलीणमोहस्स।।
२१. नष्टमुष्टिचिन्ता-लाभालाभ-सुख-दुःख-जीवित-मरणाभिव्यजंकत्वम्। - इसिभासियाई, पढमा संग्रहणी, गाथा, १
-प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्, टीका। ११. चोयलीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगच्या भासिया पणत्ता। तुलनीय- पण्हादो हद-नट्ठ-पुट्ठि-चिंता-लाहालाहसुह-दुक्ख-जीविय
-समवायांगसूत्र, ४४/२५८ मरण-जथ-णाम-दव्वायु-संखं च परूवेदि। १२. अंगट्ठाए दसमे अंगे, एगे सुअखंधे, पणयालीसं अज्झयणा।
-धवला, भाग १, पृ० १०७-८ _नन्दीसत्र-५४। २२. प्रश्नव्याकरणाख्यं जयपाहुडनाम निमित्तशास्त्रम्। - प्रकरण १४, १३. (क) पदग्गं बाणउतिंलक्खा सोलस य सहस्सा।
१७, २१,३८
-नन्दीचर्णि. प०७०। २३. (अ) अतिशयानां पूर्वाचारदंयुगीनानामपुष्टालम्बनप्रतिषेविपरुषापेक्ष(ख) द्विनवतिलक्षाणि षोडश च सहस्राणि।
योतारितत्वादिति। - प्रश्नव्याकरणवृत्ति (अभयदेव) प्रारम्भ। - समवायांगवृत्ति
(ब) पूर्वाचायैरदंयुगीनपुरुषाणां तथाविधहीनहीनतरपाण्डित्यबलबुद्धिवीयपिक्षया १४. पण्हवायरणो णाम अंग तेणउदिलक्ख-सोलससहस्सपदेहि।
पुष्टालम्बनमुद्दिश्य प्रश्नादिविधास्थाने पंचाश्रव-संवररूपं समुत्तारितम्।
-प्रश्नव्याकरण टीका (ज्ञानविमल), प्रारम्भ। -धवला, भाग १, पृ० १०४ ।।
२४. (अ) प्रश्नानां विद्याविशेषाणां यानि व्याकरणानि तेषां प्रतिपादनपरा १५. समवायांग, ५४७
दशा दशाध्ययनप्रतिबद्धाः ग्रन्थपद्धतय इति प्रश्नव्याकरणदशाः। अयं १६. समवायांग, ५४७
च व्युत्पत्त्यर्थोऽस्य पूर्वकालेभूत्। इदानीं त्वाश्रवपंचकसंवरापंचकव्या१७. प्रश्नव्याकरण, जयप्राभृत, (ग्रन्थ० २२८), जैन- ग्रन्थावली, कृतेरेवेहोपलभ्यते। - प्रश्नव्याकरण वृत्ति (अभयदेव) प्रारम्भ। पृ०३५५।
(ब) प्रश्नाः अंगुष्ठादिप्रश्नविद्या व्याक्रियन्ते अभिधीयन्ते अस्मित्रिति (अ) चूडामणिवृत्ति (ग्रन्थ २३००), पाटन केटलोग, भाग १, पृ० ८ प्रश्नव्याकरणम् एतादृशं पूर्वकालेऽभूत। इदानीं तु आश्रव-संवर(ब) लीलावती टीका, पाटन केटलोग, भाग १, पृ०८ एवं इन्ट्रोडक्शन, पंचकव्याकृतिरेव लभ्यते।
-प्रश्नव्याकरण टीका (ज्ञानविमल) प्रारम्भ। (स) प्रदर्शनज्योतिर्वृत्ति, पाटन केटलोग, भाग १, पृ० ८ एवं २५. शकराज्ञो पंचसु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनवतेषु नंद्यध्ययनचूर्णी इन्ट्रोडक्शन, पृ०६।
समाप्ता।। बृहद्वृत्तिटिप्पणिका (जैन-साहित्य-संशोधक, पूना १९:५, क्रमांक
-नन्दीचूर्णि (प्राकृत-टेक्स्ट-सोसायटी)। ५६०), जैन-ग्रन्थावली, पृ० ३५५।
पाठान्तर-सकराक्रान्तेषु पंचसु वर्षशतेषु नन्धध्ययनचूणी समाप्ता।। -जिनरत्नकोश, पृ० २७४
-नन्दीचूर्णि (ऋषभदेव केशरीमल, रतलाम)। १८. जिनरत्नकोश, पृ० २७४।
२६. तम्हि पाहावागरणे अंगे पंचासवदाराई वा व्याख्येयाः परप्पवादिणो य।
-णंदीसुत्तचूण्णि, पृ०६९।।
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जैन दर्शन
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जैनयोग का तत्त्वमीमांसीय आधार
डा. सुधा जैन प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी...
दर्शन के प्रमुख तीन पक्ष होते हैं-तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा अद्वैत वेदान्त में तत्त्वमीमांसा कहती है - 'ब्रह्म सत्यं और आचारमीमांसा। ये एक-दूसरे के अनुकूल तथा पूरक होते जगत् मिथ्या' अर्थात् ब्रह्म ही मात्र सत् है और जो जगत् के रूप हैं। इनकी अनुकूलता से ही ज्ञात होता है कि ये एक-दूसरे को में दिखाई पड़ता है, वह मिथ्या है, भ्रम है। भ्रम माया के कारण प्रभावित भी करते हैं। यदि ऐसा नहीं हो तो कोई भी दर्शन होता है। माया अज्ञान है, अविद्या है। आत्मा स्वतंत्र है, मुक्त है, आत्मघाती सिद्ध होगा। इसी बात की स्पष्टता के लिए भारतीय किन्तु माया से आच्छादित हो जाने के कारण जीव के नाम से दर्शन की कुछ शाखाओं को देखा जा सकता है--
जाना जाता है, और बंधन-भागी हो जाता है। संसार व्यवहार चार्वाक दर्शन में सिर्फ भौतिक तत्त्वों को ही मान्यता रूप है, जो असत् है, सिर्फ परमार्थ या ब्रह्म ही सत् है। जब तक प्राप्त है। उसमें ईश्वर आदि आध्यात्मिक तत्त्व नहीं हैं।
जीव व्यवहार में घुला मिला होता है, तब तक वह बंधन में होता उसमें आध्यात्मिक तत्त्वों को अस्वीकार किया गया है, अत:
है और व्यवहार से ऊपर उठकर जब वह परमार्थ से मिल जाता वह केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। क्योंकि भौतिक
है तब उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अतः अद्वैत की तत्त्वों का प्रत्यक्षीकरण होता है। इतना ही नहीं वह मानता है कि
आचारमीमांसा यह बताती है कि संसार को मिथ्या मानो और शरीर के नष्ट होते ही उसके साथ रहने वाली चेतना समाप्त हो
__ अपनी तथा ब्रह्म की एकता को पहचानो। जो तुम वही ब्रह्म है, जाती है. शेष कछ नहीं रह जाता। अतः वर्तमान जन्म के जो ब्रह्म है वहीं तुम हो। यहा द्वत नहीं सिर्फ अद्वत है। अतिरिक्त पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। जैन दर्शन में भी ऐसी ही प्रक्रिया देखी जाती है अर्थात् मरने वाले व्यक्ति के लिए न मोक्ष, न स्वर्ग और न नरक होता उसमें भी तत्त्वमीमांसा से ज्ञानमीमांसा और ज्ञानमीमांसा से है। जो कुछ है वह वर्तमान जीवन ही है, वर्तमान शरीर ही है। आचारमीमांसा। फिर धर्म के क्षेत्र में आया जाता है। जैन दर्शन
अतः चार्वाक दर्शन अपनी आचारमीमांसा के क्षेत्र में सुखवादी में द्रव्य परम तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। द्रव्य के · तथा तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में भौतिकवादी हो जाता है। उसका प्रधानतः दो भेद होते हैं-अस्तिकाय और अनस्तिकाय। अस्तिकाय मानना है कि जब तक जीओ, सुखपूर्वक जीओ, ऋण लेकर भी के पुनः दो विभाग देखे जाते हैं-जीव और अजीव। जीव स्वभावत: घी मिल सके तो बिन संकोच के पीओ ताकि शरीर पुष्ट हो, स्वप्रकाशित और पर प्रकाशक होता है। जीव स्वतंत्र होता है। स्वस्थ हो और तुम्हें दैहिक सुख मिले, क्योंकि शरीर नष्ट हो जाने वह अनन्त चतुष्टय का धारक होता है । सभी जीव समान होते हैं वाला है, इसका फिर आना-जाना संभव नहीं है। चूंकि चार्वाक तो फिर अनेक प्रकार के जीव क्यों होते हैं? कोई जीव विकसित दर्शन की तत्त्वमीमांसा भौतिकवादी है, इसलिए उस पर आधारित रूप में होता है तो कोई अविकसित रूप में ऐसा क्यों? इसका प्रमाणमीमांसा प्रत्यक्षवादी तथा आचारमीमांसा सुखवादी है। उत्तर जैन आचारमीमांसा देती है। जीवों में जो अंतर देखे जाते हैं
पातंजल योग की तत्त्वमीमांसीय व्याख्या में चित्त एवं वे कर्मानुसार होते हैं। कर्मानुसार ही कोई छोटा शरीर पाता है तो उसकी वृत्तियों पर चिंतन हुआ है। चित्त की वृत्तियाँ होती हैं
कोई बड़ा शरीर पाता है। जैन आचारमीमांसा अहिंसा का प्रबल
समर्थन करती है। कहा जाता है-'अहिंसा परमो धर्मः।' ऐसा क्लिष्ट तथा अक्लिष्ट। क्लिष्ट वृत्तियाँ अविद्या तथा अज्ञान उत्पन्न करती हैं, जिससे बंधन होता है। अत: आचारमीमांसा में योग को
क्यों? चूँकि हिंसा से कष्ट होता है। आचारांग सूत्र में कहा गया प्रधानता देते हुए कहा गया है-'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः।' अर्थात् चित्त
है-सभी जीव सुख चाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता, सभी जीना वृत्ति को रोकना योग है। योग से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। चंकि हमें कष्ट होता है, जब diariandiardia-siandiardiandiardianslaturdustandar १ ]-roomirararasworstudioindiasiardiardiardiariaaran
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हई है
यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - कोई किसी प्रकार से हम पर घात करता है तो हमें भी समझना प्रत्येक वस्तु नित्य नहीं है, बल्कि नष्ट होती है, किन्तु नष्ट होकर चाहिए कि यदि हम किसी पर घात करेंगे तो उसको भी वैसा ही पनः जन्म लेती है। इस मान्यता में शाश्वतवाद तथा उच्छेदवा कष्ट होगा जैसा हमें होता है। क्योंकि सभी जीव समान है यह दोनों का खंडन किया गया है, क्योंकि शाश्वतवाद मानता है कि तत्त्वमीमांसा बताती है।
जो नित्य है वह समाप्त नहीं होता और उच्छेदवाद मानता है कि बौद्ध दर्शन में तत्त्वमीमांसीय समस्याओं की अवहेलना वस्तु नष्ट होती है पर फिर उत्पन्न नहीं होती है।
बुद्ध ने उन लोगों को नासमझ कहा जो अपने को जैन एवं बौद्ध दोनों ही दर्शनों में ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार तत्त्वमीमांसीय समस्याओं में उलझा लेते हैं। उनका कहना है किया गया है। इसलिए दोनों ही अपनी आचारमीमांसा में यह कि तत्त्वमीमांसा से कोई निश्चित ज्ञान प्राप्त नहीं होता और न मानते हैं कि व्यक्ति अपनी साधना, तपस्या तथा त्याग के पूर्ण ज्ञान होता है। जिस प्रकार अंधों को हाथी का आंशिक ज्ञान आधार पर देवत्व की ऊंचाई तक पहुंच सकता है। वह सर्वज्ञ हो प्राप्त होता है, क्योंकि वे हाथी के किसी एक अंग को ही छू पाते सकता है, केवली हो सकता है। ईश्वरवाद में ईश्वर ऊपर से हैं, संपूर्ण हाथी को एक साथ नहीं छू पाते, उसी प्रकार अवतरित होता है या उतरता है किन्तु जैन एवं बौद्ध दर्शनों में मानव तत्त्वमीमांसक आंशिक ज्ञान में ही उलझे रहते हैं। तत्त्वमीमांसा कर्म के बल पर ऊपर की ओर ईश्वर की ऊँचाई तक चढ़ता है। यदि एक जाल है जिसमें व्यक्ति प्रतिदिन फँसता जाता है, उससे तत्त्वमीमांसा में इन दोनों दर्शनों ने ईश्वर की सत्ता स्वीकार कर ली निकल नहीं पाता। उनके इस विचार की अभिव्यक्ति, ब्रह्मजाल होती तो इनका मानव इतना समर्थ नहीं बन सकता था। सुत्त में देखी जाती है। एक बार श्रावस्ती के जेतवन में विहार के अवसर पर मालुक्य पुत्र ने बुद्ध से लोक के शाश्वत - अशाश्वत,
तत्त्वमीमांसीय आधार अन्तवान् होने तथा जीवदेह की भिन्नता-अभिन्नता के विषय में साधक की अर्हता, पात्रता आदि उसकी तात्त्विक एवं दस मेण्डक प्रश्नों को पूछा था जिसे बुद्ध ने अव्याकृत कहकर मनोवैज्ञानिक संभावनाओं के संदर्भ में देखी जाती है। अतः उसकी जिज्ञासा को शान्त कर दिया था। इसी प्रकार पोट्ठपाद योग की साधना में तत्त्वमीमांसीय आधार को समझना अति परिव्राजक ने जब ऐसे ही प्रश्न किए तब बुद्ध ने बड़े ही स्पष्ट आवश्यक है। जैन तत्त्वमीमांसा का आधारभूत सिद्धांत सत् या शब्दों में कहा था न यह अर्थयुक्त है, न धर्मयुक्त है, न निरोध के द्रव्य का विवेचन है। लिए है, न उपशम के लिए है, न अभिज्ञा के लिए है, न संबोधि। (परमार्थ ज्ञान) के लिए है और न निर्वाण के लिए है। इसलिए मैंने इसे अव्याकृत कहा है तथा मैंने व्याकृत किया है दःख के जैन दर्शन में सत् तत्त्व द्रव्या पदार्थ आदि शब्द लगभग हेतु को, दु:ख के निरोध को तथा दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद एक ही अर्थ में व्यवहृत हुए देखे जाते हैं। सत् या तत्त्व(Reality) को। इस प्रकार हम देखते हैं कि बद्ध ने आर्यसत्य यानी के विषय में दर्शनों में मतैक्य नहीं है। बौद्ध दर्शन में सत को आचारमीमांसा से अपना चिंतन प्रारंभ किया है। किन्तु जब वे निरन्वय क्षणिक माना गया है। सांख्य के अनुसार चेतन तत्त्व दूसरे आर्यसत्य का प्रतिपादन करते हैं तो उसमें प्रतीत्यसमत्पाद रूप पुरुष कूटस्थ नित्य तथा अचेतन तत्त्व रूप प्रकृति परिणामी आ जाता है जो बताता है कि एक के बाद दूसरा कारण उत्पन्न नित्य अर्थात् नित्यानित्य है। वेदान्त मात्र ब्रह्म को सत्य मानता होता है। उससे परिवर्तनशीलता का बोध होता है। आगे चलकर है। जैन दर्शन ने तत्त्व को सापेक्षतः नित्य-अनित्य, सामान्यपरिवर्तनशीलता क्षणिकवाद का रूप ले लेती है अर्थात् हर क्षण विशेष, कूटस्थ तथा परिवर्तनशील माना है। यह अनन्त धर्मों परिवर्तन होता है। फिर अनात्मवाद तथा शून्यवाद के सिद्धान्त वाला होता है। इन अनन्त धर्मों में से कुछ स्थायी होते हैं, जो आ जाते हैं। इस तरह तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त प्रस्फटित होते हैं. सदा वस्तु के साथ होते हैं। उन्हें गुण कहते हैं। कुछ धर्म ऐसे जो बौद्धाचार को प्रभावित करते हैं। निर्वाण की व्याख्या पर होते हैं जो बदलते रहते हैं, उन्हें पर्याय कहते हैं। सोने में सोनापन पूर्णत: बौद्ध तत्त्वमीमांसा का प्रभाव है। मध्यममार्ग को अपनाने गुण तथा अंगूठी या कर्णफूल आदि बाह्यरूप पर्याय हैं। पर्याय की बात इसलिए है कि प्रतीत्यसमत्पाद में बताया गया है कि अस्थायी होते हैं। एक पर्याय नष्ट होती है तो दूसरी पर्याय उत्पन्न
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- तीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन होती है। इसी आधार पर सत् को परिभाषित करते हुए उमास्वाति द्रव्य के कुल छः भेद हो जाते हैं--जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, ने कहा है सत्, उत्पाद, व्यय या विनाश और स्थिरता युक्त होता आकाश और काल ३। इनमें प्रथम पाँच अस्तिकाय द्रव्य कहलाते है। आगे चलकर इसे ही दूसरे रूप में परिभाषित किया गया है- हैं तथा काल अनस्तिकाय द्रव्य कहलाता है। 'गुण और पर्याय वाला द्रव्य है। जिसमें उत्पाद और व्यय के .
जीव द्रव्य स्थान पर पर्याय आ गया और ध्रौव्य के स्थान पर गुण। उत्पाद और व्यय परिवर्तन का सूचक है तथा ध्रौव्य नित्यता की सूचना तत्त्वार्थसूत्र में जीव का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि देता है। परन्तु उत्पाद एवं व्यय के बीच एक प्रकार की स्थिरता उपयोग जीव का लक्षण है। उपयोग का अर्थ होता है - रहती है जो न तो कभी नष्ट होती है और न उत्पन्न ही। इस बोधगम्यता। अर्थात् जीव में बोधगम्यता होती है और बोधगम्यता स्थिरता को ध्रौव्य एवं तद्भावाव्यय भी कहते हैं। यही नित्य वहीं देखी जाती है जहाँ चेतना होती है। अतः कहा जा सकता है का लक्षण है। आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य की व्याख्या कछ इस कि चेतना जीव का लक्षण है। यदि उपयोग शब्द का व्यावहारिक प्रकार की है-- जो अपरित्यक्त स्वभाव वाला है, उत्पाद, व्यय लक्षण लें तो भी यही ज्ञात होता है कि चेतना जीव का लक्षण है।
और ध्रौव्ययुक्त है, गुण और पर्यायुक्त है वही द्रव्य है। यहां जिसमें चेतना नहीं होगी वह भला किसी चीज की उपयोगिता यह स्पष्ट कर देना उचित जान पडता है कि कहीं-कहीं द्रव्य और को क्या समझेगा? उपयोग में ज्ञान और दर्शन सन्निहित होते सत् को एक-दूसरे से भिन्न माना गया है। अनुयोगद्वार सूत्र में हैं।१५ उपयोग के दो प्रकार होते हैं--ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग। तत्त्व को सामान्य लक्षण द्रव्य माना गया है और विशेष लक्षण ज्ञान सविकल्प होता है और दर्शन निर्विकल्प होता है। अतः के रूप में जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य माने गए हैं।१० इसका पहले दर्शन होता है फिर इसका समाधान ज्ञान में होता है। अभिप्राय यह है कि द्रव्य और तत्त्व कमोवेश अलग-अलग अर्थात् विषयवस्तु क्या है? यह प्रश्न उपस्थित होता है तत्पश्चात् तथ्य नहीं है। इस संदर्भ में डा. मोहनलाल मेहता के विचार इस उसका समाधान होता है। प्रकार हैं- जैन आगमों में सत शब्द का प्रयोग द्रव्य के लक्षण के
ज्ञानोपयोग के दो प्रकार माने गए हैं, स्वभाव ज्ञान तथा रूप में नहीं हुआ है। वहाँ द्रव्य को ही तत्त्व कहा गया है और सत् विभाव ज्ञान१६ | विभाव ज्ञान के पनः दो विभाग होते हैं-- के स्वरूप का सारा वर्णन द्रव्य-वर्णन के रूप में रखा गया है।
सम्यक् ज्ञान तथा मिथ्या ज्ञान। इसी प्रकाश दर्शनोपयोग के भी द्रव्य के भेद
दो भेद होते हैं--स्वभावदर्शन तथा विभावदर्शन। विभावदर्शन
के पुनः तीन भेदोहते हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन तथा अवधिदर्शन। द्रव्य के वर्गीकरण को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है।
इसके आगे सम्यक् ज्ञान, मिथ्याज्ञान आदि के भी भेद किए गए परंतु प्रायः सभी विद्वान् मुख्य रूप से द्रव्य के दो भेद मानते हैं
हैं. लेकिन यहाँ उनका वर्णन करना उपयुक्त नहीं जान पड़ता। जीव और अजीव१२। चैतन्य धर्मवाला जीव कहलाता है तथा उसके विपरीत धर्मवाला अजीव। इस तरह सम्पूर्ण लोक दो जीव का स्वरूप भागों में विभक्त हो जाता है। चतन्य लक्षण वाले द्रव्य जाव
जैन मान्यता के अनसार सभी वस्तुओं में गण आर पयाय विभाग के अंतर्गत आ जाते हैं और जिनमें चैतन्य नहीं है उनका होते हैं। जीव में भी गण और पर्याय होते हैं। चेतना जीव का गण समावेश अजीव-विभाग के अंतर्गत हो जाता है। परंतु जीव- है और जीव जो विभिन्न रूपों में दिखाई पड़ता है. उसके पर्याय अजीब के भेद-प्रभेद करने पर द्रव्य के छः भेद हो जाते हैं। जीव हैं। पर्याय की विभिन्न अवस्थाएँ भाव कही जाती हैं। इन्हें जीव द्रव्य अरूपी है अर्थात् जिसे इंद्रियों से न देखा जा सके वह अरूपी का स्वरूप कहते हैं। जीव के पाँच भाव इस प्रकार है-- है, अत: जीव या आत्मा अरूपी है। अजीव के दो भेद होते हैं-- रूपी और अरूपी। रूपी अजीवद्रव्य के अंतर्गत पुद्गल आ जाता
औपशमिक - उपशम का अर्थ होता है दब जाना। जब सत्तागत है। अरूपी अजीवद्रव्य के पुनः चार भेद होते हैं-धर्मास्तिकाय,
कर्म दब जाते हैं, उनका उदय रुक जाता है और उसके फलस्वरूप
जो आत्मशुद्धि होती है, वह औपशमिक भाव कहलाता है। अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय, अद्धासमय (काल)। इस प्रकार
यथापानी में मिली हुई गंदगी का बर्तन की तली में बैठ जाना।
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क्षायिक
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन क्षय से क्षायिक बना है। कर्मों के पूर्णतः क्षय हो जाने से जो आत्मशुद्धि होती है, वह क्षायिक भाव कहलाता है। जिस प्रकार पानी से गंदगी पूर्णतः दूर हो जाती है और पानी स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार कर्मों के सर्वांशतः क्षय हो जाने से आत्मा पूर्णरूपेण शुद्ध हो जाती है। उस स्थिति को क्षायिक भाव कहते हैं।
त्रस जीवों के चार प्रकार होते हैं--दो इन्द्रिय वाले जीव, तीन इन्द्रिय वाले जीव, चार इन्द्रिय वांले जीव तथा पाँच इन्द्रिय वाले जीव । दो इन्द्रिय वाले जीव को स्पर्श के साथ रस का भी बोध होता है। तीन इन्द्रियप्राप्त जीवों को स्पर्श, रस तथा गंध का बोध होता है। चार इन्द्रिय वाले जीवों को स्पर्श, रस, गन्ध तथा रूप का बोध होता है । पाँच इन्द्रिय प्राप्त जीवों को स्पर्श, रस, गंध, रूप, दृष्टि तथा ध्वनि का बोध होता है। इसके अन्तर्गत मनुष्य, पशु-पक्षी, देव आदि आते हैं।
जीव के जन्मभेद
जीव की चार गतियाँ होती हैं-मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और नारक तथा तीन जन्म होते हैं- सम्मूर्धन, गर्भ तथा उपपात । मातापारिणामिक स्वाभाविक ढंग से द्रव्य के परिणमन से जो पिता के बिना ही उत्पत्तिस्थान में स्थित औदारिक पुद्गलों को भाव बनता है, वह पारिणामिक भाव कहलाता है।
उपर्युक्त पाँचों भाव ही जीव के स्वरूप हैं। जीव के सभी पर्याय इन भावों में से किसी न किसी भाव वाले होते हैं। लेकिन पाँचों भाव सभी जीवों में एक साथ नहीं हो सकते हैं। जीव के विभाग
पहले-पहल शरीर रूप में परिणत करना सम्मूर्धन जन्म कहलाता है। उत्पत्तिस्थान में शुक्र और शोणित पुद्गलों को पहले-पहल शरीर के लिए ग्रहण करना गर्भ जन्म कहलाता है । उत्पत्तिस्थान में स्थित वैक्रिय पुद्गलों को पहले पहल शरीर रूप में परिणत करना उपपात जन्म कहलाता है। जरायुज, अण्डज, पोतज प्राणियों का गर्भ जन्म होता है, नारक और देवों का उपपात जन्म होता है। शेष सभी प्राणियों का सम्मूर्धन जन्म होता है। अजीव
क्षायोपशमिक - क्षय और उपशम के संयोग से क्षायोपशमिक भाव बनता है। कुछ कर्मों का क्षय हो जाना तथा कुछ कर्मों का दब जाना क्षायोपशमिक भाव कहलाता है।
हुए कर्मों का उदित हो जाना औदयिक भाव
औदयिक कहलाता है।
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जीव को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जाता है संसारी तथा मुक्त " । जो जीव शरीर धारण कर कर्मबंधन के कारण नाना योनियों में भ्रमण करता है, वह सांसारिक जीव कहलाता है और जो सभी प्रकार के कर्मबंधनों से छूट जाता है, वह मुक्त जीव कहलाता है । संसारी जीव शरीर से भिन्न नहीं होता । यथा दूध में पानी, तिल में तेल आदि ये एक से प्रतीत होते हैं ठीक वैसे ही संसारदशा में जीव और शरीर एक लगते हैं। लेकिन ये संसारी आत्माएँ कर्मबद्ध होने के कारण अनेक योनियों में परिभ्रमण करती हैं और उनका फल भोगती है १९ । मुक्त आत्माओं का इन सबसे कोई सम्बन्ध नहीं होता है। उनका शरीर, शरीरजन्य क्रिया तथा जन्म और मृत्यु कुछ भी नहीं होता। वे आत्मस्वरूप हो जाते हैं। अतएव उन्हें शत् - चित्-आनन्द कहा जाता है।
संसारी जीव को पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है- त्रस तथा स्थावर २१ । जिसमें गति होती है वह त्रस जीव कहलाता है। जिसमें गति नहीं होती है वह स्थावर जीव कहलाता है । स्थावर जीवों में जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी तथा वनस्पति आते हैं। इन सबमें एकेन्द्रिय स्पर्श बोध होता है। इसी तरह
जिसमें बोधगम्यता, चेतना आदि का अभाव होता है वह अजीव कहलाता है। अजीव शब्द से ही प्रतीत होता है कि जो कुछ जीव में है, उसका अभाव होना । अजीव के चार प्रकार होते हैं--धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ।
धर्म - जो जीव पुद्गल आदि की गति में सहायता प्रदान करता है, उसे धर्म तत्त्व कहते हैं । जैसे मछली पानी में स्वतः तैरती है, किन्तु पानी के अभाव में वह कदापि नहीं तैर सकती । यदि उसे उस स्थान पर रख दिया जाए। जहाँ पानी न हो तो निश्चित ही उसकी गति रुक जायेगी। पानी स्वयं मछली को तैरने के लिए तैयार नहीं करता फिर भी पानी के अभाव में मछली तैर नहीं सकती । यही गति तत्त्व है।
और
अधर्म -- अगति तथा स्थिति में सहायक होता है २५ । जीव पुद्गल जब स्थिति की दशा में पहुँचने वाले होते हैं तब अधर्म उनकी सहायता करता है। इसके बिना स्थिति नहीं हो
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[ ४ काले काले कम क
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - सकती, जिस प्रकार धर्म के बिना गति नहीं हो सकती। चलता कि कर्मवाद में कहीं पर व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता के उपयोग हुआ पथिक छाया देखकर विश्राम करने लगता है। छाया पथिक का भी अवसर मिलता है अथवा वह मशीन की तरह पूर्व कर्मों को बुलाती नहीं है फिर भी छाया देखकर पथिक विश्राम करता है। के फल को भोगता हुआ तथा नए कर्मबंधों को प्राप्त करता इसलिए यहाँ छाया स्थिति का या अगति का कारण बनती है। हुआ गतिशील रहता है। यदि प्राणी को कहीं कोई स्वतंत्रता न हो
और वह मशीन की तरह ही कर्म के द्वारा चालित हो तब तो आकाश- अवगाह या अवकाश देने वाला तत्त्व आकाश कहलाता है। इसमें जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म तथा काल
कर्मवाद और नियतिवाद तथा पुरुषवाद में अन्तर क्या होगा? आश्रय पाते हैं। आकाश का काम अन्य सभी को आश्रय देना
किन्तु इच्छा-स्वातंत्र्य का जिस रूप में निरूपण जैन परंपरा में है। इसके दो भाग हैं--लोकाकाश तथा अलोकाकाश। आकाश
हुआ वह इस प्रकार है-- के जिस भाग में धर्म-अधर्म तथा पुण्य एवं पाप के फल होते हैं, (१) किए गए कमों का फल कर्ता को भोगना पड़ता है। उसे लोकाकाश कहते हैं और जिस भाग में धर्म-अधर्म तथा (२) पर्वकत कर्मो के फल को वह शीघ्र या देर से भोग सकता है। पुण्य एवं पाप के फल नहीं होते उसे अलोकाकाश कहते हैं। (३) बाह्य परिस्थितियों एवं अपनी आन्तरिक शक्ति को ध्यान
पुद्गल - अन्य दर्शन जिसे भौतिक तत्त्व के नाम से में रखते हुए प्राणी नये कर्मों का उपार्जन रोक सकता है। पुकारते हैं, बौद्ध दर्शन जिसका प्रयोग चैत्तसिक सत्ता के लिए (४) किन्तु ऐसा भी नहीं है कि प्राणी के मन में जो आए वही करता है, वह जैन दर्शन में पुद्गल कहलाता है। इसके चार धर्म करे। इन बातों से ऐसा लगता है कि कर्मवाद में इच्छा होते हैं--स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण।
स्वातांत्र्य तो है, किन्तु सीमित है। नियतिवाद में बँधे हुए स्पर्श के आठ प्रकार होते हैं -मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण,
व्यक्ति की तरह कर्मवादी पूर्णरूपेण परतन्त्र नहीं होता। स्निग्ध तथा रूक्षा
कर्म का स्वरूप रस के पाँच प्रकार होते हैं--तिक्त, कटु, अम्ल, मधुर और कषाय।
जैन परंपरा में कर्म को पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड माना गन्ध के दो प्रकार होते हैं--सुरभिगन्ध तथा दुरभिगन्ध। गया है। आचारांग सूत्र में आया है कि कर्म वह है जिसके कारण वर्ण के पाँच प्रकार होते हैं--नील, पीत, शक्ल, कृष्ण तथा लोहित। साधन तुल्य होने पर भी फल का तारतम्य अथवा अन्तर मानव
जगत् में दृष्टिगत होता है। उस तारतम्य अथवा विविधता के काल - परिवर्तन का जो कारण हो वह अद्धासमय या
कारण का नाम कर्म है। प्रत्येक प्राणी का सुख-दुःख तथा काल कहलाता है। तत्त्वार्थराजवर्तिक में काल की व्याख्या दो
तत्सम्बन्धी अन्यान्य अवस्थाएँ उसके कर्म की विचित्रता एवं दृष्टियों से की गई है-- व्यवहार की दृष्टि से एवं परमार्थ की दृष्टि
विविधता पर आधारित होती है। सम्पूर्ण लोक कर्मवर्गणा तथा से। प्रत्येक द्रव्य परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तनों के होते हुए
नो कर्मवर्गणा इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है। जीव भी उसकी जाति का विनाश नहीं होता। इस प्रकार के परिवर्तन
अपने मन वचन और काय की प्रवृत्तियों से इन परमाणुओं को परिणाम कहलाते हैं। इन परिणामों का जो कारण है, वह काल है।
ग्रहण करता रहता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ तभी यह व्यावहारिक दृष्टि से काल की व्याख्या है। इसी प्रकार प्रत्येक
होती है जब जीव के साथ कर्म संबद्ध हो तथा जीव के साथ द्रव्य और पर्याय की प्रतिक्षण भावी स्वसत्तानुभूति वर्तना है। इस
कर्म तभी संबद्ध होता है जब मन, वचन और काय की प्रवृत्ति वर्तना का कारण काल है। यह काल की पारमार्थिक व्याख्या है। होती है। इस प्रकार प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की कर्मसिद्धान्त
परंपरा अनादिकाल से चली आ रही है। कर्म और प्रवृत्ति के इस
कार्य-कारणभाव को दृष्टि में रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के । कर्मवाद का एक सामान्य नियम है--पूर्वकृत कर्मों के पिण्ड रूप कर्म को द्रव्यकर्म तथा राग - द्वेषादि रूप प्रवृत्तियों फल को भोगना तथा नए कर्मों का उपार्जन करना। इसी परंपरा को भावकर्म कहा गया है। द्रव्यकर्म और भावकर्म का कार्यमें बँधा हुआ प्राणी जीवन व्यतीत करता है। किन्तु प्रश्न उठता है कारणभाव मुर्गी और अण्डे के समान अनादि है। roinూరగారసాగరసారంగపారmod 4 Jabarimantram
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन कर्मबन्ध के हेतु
विवेचित किया जाता है। यह स्वभाव व्यवस्था है। स्वभाव या
कार्य भेद के कारण कर्मों के आठ भाग बनते हैं--ज्ञानवरणीय आत्मा और कर्म में सम्बन्ध होता है जिसके फलस्वरूप आत्मा में परिवर्तन होता है, वही बन्ध कहलाता है। आत्मा कर्म
कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयुष्य से सम्बन्धित होता है, किन्तु क्यों दोनों के बीच संबंध स्थापित
कर्म, नामक़र्म, गोत्रकर्म तथा अन्तरायकर्म। होता है? इसके लिए दर्शनों में मतभेद हैं। बौद्धदर्शन वासना या
स्थितिबन्ध - यह कर्म की काल-मर्यादा को इंगित करता संस्कार को कर्मबन्ध का कारण बताता है? न्याय-वैशेषिक ने है। कोई भी कर्म अपनी काल-मर्यादा के अनुसार ही किसी जीव मिथ्याज्ञान को कर्मबंध का हेतु माना है। इसी तरह सांख्य ने यह के साथ रहता है। जब उसका समय समाप्त हो जाता है, तब वह माना है कि प्रकृति और पुरुष को अभिन्न समझने का ज्ञान, जीव से अलग हो जाता है। यही कर्मबंध की स्थिति होती है। कर्मबंध बनाता है। वेदान्त दर्शन में अविद्या को कर्मबंध का अनभागबन्ध - यह कर्मफल की व्यवस्था है। कषायों कारण बताया गया है। जैन दर्शन में कर्मबंध के निम्न कारण की तीव्रता और मन्दता के अनकल ही कर्मों के फल भी प्राप्त स्वीकार किए गए हैं--
होते हैं। कषायों की तीव्रता से अशुभ कर्मफल अधिक एवं मिथ्यात्व - अतत्त्व को तत्त्व समझना
बलवान होते हैं। कषायों की मन्दता से शुभ कर्म फल अधिक अविरति - दोषों में लगे रहना, उससे विरत न होना।
एवं बलवान होते हैं। - कर्तव्य, अकर्तव्य के विषय में असावधानी। प्रमाद
कर्म बंध की ये चार अवस्थाएँ साथ ही होती हैं किन्तु
आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए प्रदेश बंध कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ से ग्रसित रहना।
को पहला स्थान दिया गया है, क्योंकि जब तक कर्म और योग - मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों का होना।
आत्मा सम्बन्धित नहीं होंगे तब तक अन्य व्यवस्थायें सम्भव शरीर धारण करने वाला जीव ही प्रमाद और योग के नहीं हो पाएगी। कारण बन्ध में आता है। अतः प्रमाद और योग बंधन के कारण हैं। इसी तरह स्थानांग और प्रज्ञापना में कषाय यानी, क्रोध,
कर्म की विविध अवस्थाएँ मान, माया और लोभ को कर्मबन्ध का कारण माना गया है। कर्म के बन्धन, परिवर्तन, सत्ता, उदय, क्षय इत्यादि के
आधार पर कर्म की ग्यारह अवस्थाएँ मानी गई हैं-- कर्मबन्ध की प्रक्रिया
(१) बन्धन - कर्म और आत्मा का मिलकर एकरूप हो जाना लोक में सर्वत्र कर्म के पदगल होते हैं, ऐसी जैन दर्शन की
बंधन कहा जाता है। मान्यता है। जब जीव मन, वचन और काय से किसी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तो उसके अनुकूल कर्म-पुदगल उसकी ओर
(२) सत्ता - बद्ध कर्म-परमाणु उस समय तक आत्मा के
साथ रहते हैं, जबतक निर्जरा या कर्मक्षय की स्थिति न आ आकर्षित होते हैं। उसकी प्रवृत्ति में जितनी तीव्रता और मन्दता
जाए। कर्म का इस प्रकार आत्मा के साथ रहना सत्ता है। होती है, उसके अनुसार ही पुद्गलों की संख्या अधिक या कम होती है। कर्म-बन्ध भी चार प्रकार से होते हैं--
(३) उदय - कर्म की वह अवस्था, जब वह अपना फल देता
है, उदय के नाम से जाना जाता है। प्रदेशबन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किए गए कर्म-पुद्गलों
) उदीरणा - नियत समय से पहले कर्मफल देना उदीरणा का उसके साथ कर्म के रूप में बद्ध हो जाना प्रदेशबंध कहलाता है। इसको कर्म का निर्माणक माना गया है।
(५) उर्द्धवर्तना - कषायों की तीव्रता या मन्दता के कारण .. प्रकृतिबंध - प्रदेशबंध में कर्म - परमाणुओं के परिणाम
उसके फल बनते हैं, किन्तु स्थिति-विशेष के कारण पर विचार किया जाता है, किन्तु प्रकृतिबंध में कर्म के
फल में वृद्धि हो जाना उर्द्धवर्तना कहलाता है। स्वाभावानुकूल जीव में जितने प्रकार के परिवर्तन होते हैं, उन्हें andramodmornoonironidanandwanidroidna६ Horroraniramidrowondarororanirdowanorariorirand
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
( ६ ) अपवर्तना - यह अवस्था उर्द्धवर्तना के विपरीत है। स्थितिविशेष के कारण कर्मफल में कमी आ जाना अपवर्तना कहलाता है।
(७) संक्रमण - एक प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति जब दूसरे प्रकार के कर्मपुद्गलों की स्थिति में परिवर्तित हो जाती है, तब संक्रमण काल कहलाता है।
(८) उपशमन - कर्म की वह अवस्था जिसमें उदय तथा उदीरणा, संभव नहीं होती, उपशमन कहलाता है । उपशमन में कर्म दबा हुआ रहता है।
( ९ ) निधत्ति - इस अवस्था में यद्यपि उर्द्धवर्तना या अपवर्तना की असम्भावना नहीं रहती, फिर भी उदीरणा और संक्रमण का अभाव रहता है।
( १० ) निकाचन - कर्म जिस रूप में बद्ध हुआ उसी रूप में उसे अनिवार्य रूप से भोगना निकाचन कहलाता है।
( ११ ) अबाध - कर्मबन्ध के बाद किसी समय तक कर्मों का फल न देना अबाध समझा जाता है।
कर्मबन्ध का छूटना
कर्मबन्ध, जीव के प्रयास करने पर छूट भी जाता है । इसके लिए जैन दर्शन में रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकृचारित्रका प्रतिपादन किया गया है, जिसे त्रिविध योग की संज्ञा से विभूषित किया गया है। सम्यक् दर्शन सामान्यतः सात तत्त्वों का या विशेष रूप से आत्म-अनात्म का यथार्थ बोध है। या, यों कह सकते हैं कि सात तत्त्वों के प्रति श्रद्धा का होना सम्यक् दर्शन है। सम्यक् दर्शन जैन आचार व्यवस्था की आधारशिला है। सम्यक् दृष्टि, तत्त्वरुचि, तत्त्वश्रद्धा, क्रोध, विश्वास, प्रतीति, रुचि आदि इसके अनेक पर्याय हैं। बिना यथार्थ दृष्टिकोण
साधना नहीं हो सकती और वह यथार्थ दृष्टिकोण तत्त्वमीमांसा को भली प्रकार से जानने के उपरांत ही प्राप्त हो सकता है। साधक को वस्तुतत्त्व के प्रति दृष्टिकोण की यथार्थता जिन माध्यमों से प्राप्त होती है, वे दो प्रकार के हैं-- (१) व्यक्ति या तो स्वयं तत्त्वसाक्षात्कार करे या (२) उन ऋषियों के कथनों का श्रवण करे जिन्होंने तत्त्वसाक्षात्कार किया है।
तत्त्वश्रद्धा तो एक विकल्प के रूप में जाना जाता है, क्योंकि वह तत्त्व साक्षात्कार का एक सोपान है। पं. सुखलाल
संघवी के शब्दों में तत्त्वश्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तो तत्त्वसाक्षात्कार है । तत्त्वश्रद्धा तो तत्त्वसाक्षात्कार का एक सोपान है। वह सोपान दृढ़ हो तभी यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्वसाक्षात्कार होता है । इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि बिना सम्यक् दर्शन के सम्यक् ज्ञान नहीं होता और सम्यक् ज्ञान के अभाव में सदाचार नहीं आता और सदाचार के अभाव में कर्मावरण से मुक्ति संभव नहीं होती तथा कर्मावरण से जकड़े प्राणी का निर्वाण नहीं होता। सदाचरण एवं असदाचरण का निर्धारण कर्ता के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। भले ही व्यक्ति विद्वान् है, भाग्यवान है, पराक्रमी भी है, लेकिन उसका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका दान, तप आदि समस्त पुरुषार्थ फलाकांक्षा होने से अशुद्ध ही होगा। वह उसे मुक्ति की ओर न अग्रसर करके बन्धन की ओर प्रेरित करेगा, क्योंकि असम्यक्दर्शी होने के कारण वह सराग दृष्टिवाला होगा और आसक्ति या फलाशा से निष्पन्न होने के कारण उसके सभी कार्य सकाम होंगे और सकाम होने से उसके बंधन के कारण होंगे। अतः असम्यक्दृष्टि का सारा पुरुषार्थ अशुद्ध हो जाएगा, क्योंकि वह उसकी मुक्ति में बाधक होगा। लेकिन इसके विपरीत सम्यक् दृष्टि या वीतराग दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य फलाशा से रहित होने से शुद्ध होंगे।
अतः सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र रूपी त्रिविध योग के द्वारा जीव कर्मों का क्षय करता है । और मोक्ष की उपलब्धि करता है। कर्मबन्ध की दो स्थितियाँ होती हैं आस्रव और बंध। कर्मपुद्गलों का जीव के पास आना आस्रव है तथा जीव को प्रभावित कर देना बन्धन है । किन्तु इसके बाद की दो स्थितियाँ मोक्ष से सम्बन्धित हैं- संवर और निर्जरा। जो रत्नत्रय के आधार जीव में आते हुए नए कर्मों को रोकता है। उसे संवर कहते हैं और आए हुए कर्मों को भोगकर समाप्त करना अर्थात् क्षय करना निर्जरा कहलाती है। जीव इस अवस्था में कैवल्य प्राप्त करके सर्वज्ञ हो जाता है। यह जीवन की अवस्था है। इस अवस्था में कुछ कर्म रह जाते हैं जिनके कारण जीव का शरीर उसके साथ रहता है। जब शरीर भी नष्ट हो जाता है तब जीव विदेह मुक्त या पूर्णमुक्त हो जाता है। उसका कर्म से सम्बन्ध सदा-सदा के लिए छूट जाता
कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। जो अनादि होता है उसका अन्त नहीं होता । फिर कर्मबंध
mensamsad v porns
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-तीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शत से आत्मा किस प्रकार छूटता है, इस समस्या का समाधान ९. अपरिच्चत्तसहावेणुप्पा दव्वधुवक्तसंजुत्त। गुणवं च सपज्जायं, करते हुए मुनि नथमल कहते हैं--अनादि का अंत नहीं होता यह सामुदायिक नियम है और जाति से सम्बन्ध रखता है। व्यक्ति १०. अविसेसिए दव्वे, विसेसिए जीव दव्वे या अनुयोगद्वार - १२३। विशेष पर लाग नहीं होता। प्रागभाव अनादि है, फिर भी उसका ११.जैन-धर्म-दर्शन- डा. मोहनलाल मेहता, पृ. १२०
अन्त होता है। स्वर्ण और मृत्तिका, घी और दूध का संबंध अनादि है फिर भी वे पृथक् होते हैं। ऐसे ही आत्मा और कर्म के अनादि ।
१२. विसेसिए जीवदव्वे अजीव दव्वे य। अनुयोगद्वार-सूत्र १२३। सम्बन्ध का अंत होता है, परन्तु यह ध्यान देने की बात है कि १३. भगवता-सूत्र १५/२/४ इसका सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा अनादि है, व्यक्तिश: नहीं। १४. तत्त्वार्थसूत्र १५/२/४
इस तरह जैन चिन्तकों ने जीव और अजीव इन दो मौलिक १५. वहा २।९ तत्त्वों के बीच संबंध माना है। यही सम्बन्ध जीव का और उसके १६. णाणुवओगो दुविहो, सहावणाणं विभावणाणंति। नियमसार १० अनन्त चतुष्टयरूप रूप का घात करते हैं। फलतः वह बन्धन में १७. औपशमिकक्षायिकौ भागौ मिश्रश्च जीवस्य आ जाता है। कर्म पुद्गल से युक्त जीव मनसा, वाचा, काया स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च। तत्त्वार्थ सूत्र - २/१ कर्मणा करते हैं और निरंतर कर्मपुद्गलों का बन्धन करते रहते १८. संसारिणा मुक्ताश्च। वही २/१० हैं। योग के द्वारा इस संबंध की प्रक्रिया को रोककर पुनः शुद्ध १९. आत्मरहस्य--रतनलाल जैन. प. ३० मन को प्राप्त किया जा सकता है। कर्मबंध को रोकना एवं ।
२०. जैन दर्शन: मनन और मीमांसा-मुनि नथमल, पृ. २५२ कर्मक्षय की प्रक्रिया को अपनाना तभी सम्भव है, जब व्यक्ति
२१.संसारिणस्त्रसस्थावरा। तत्त्वार्थ २/१२ उपर्यक्त अवधारणों को भली भाँति समझ सके।
२२. स्याद्वादमञ्जरी-२०, षड्दर्शनसमुच्चय (गुणरत्न की टीका) ४९ सन्दर्भ
२३. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलाल संघवी) पृ. ६७ १. यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य
२४. तत्त्वार्थ राजवर्तिक ५/१/१९ देहस्य पुनरागमनं कुतः।।
२५.नियमसार-३० २. आचारांगसूत्र-- आत्मारामजी , प्रथम श्रुतस्कंध, चतुर्थ अध्ययन, उद्देशक ।
२६. आकाशस्यावगाहः। तत्त्वार्थसूत्र ५/१८ सूत्रकृतांग-संपा-पं.अ. ओझा, प्रथम श्रुतस्कंध, तृतीय खण्ड,
२७. स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः। वही ५/२३ अध्ययन ११। प्रथम खण्ड, गाथा ९-१०।
२८. भगवतीसूत्र १२/५/४ ३. भारतीय दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त, डा. बी.एन. सिन्हा, पृ. ११८।
२९. जैन-धर्म-दर्शन, डा. मोहनलाल मेहता, पृ. ४४५ ४. चूलमालुक्यसुत ६३, मज्झिम निकाय (अनु.) पृ. २५१-५३।
३०. स्थानांग ४/९२ ५. पोट्ठपाद सुत्त - १/९, दीर्घनिकाय (अनु.) पृ. ७१।
३१. जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। ६. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थसूत्र ५/२९।
३२. जैन धर्म के प्राण, पृ. २४ ७. गुणपर्यायवद् द्रव्यम्। वही ५/३७
३३. उत्तराध्ययन २८/३० ८. सद्भावाव्ययं नित्यम्। वही ५/३०
३४. जैन बौद्ध और गीता का साधना मार्ग, डा. सागरमल जैन, पृ.५२
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जैन दर्शन का परमाणुवाद
प्रो. डॉ. लालचन्द्र जैन....
जैन दर्शन के अहिंसावाद, अपरिग्रहवाद, कर्मवाद, तीर्थंकरों के उपदेश जिस पुस्तक में निबद्ध किए गए, वे आगम अनेकान्तवाद, स्याद्वावाद, अध्यात्मवाद और परमाणुवाद मूलभूत कहलाते हैं। आगमों में अन्य सिद्धान्तों की तरह परमाणुवाद भी सिद्धान्त हैं। इनमें से कतिपय सिद्धान्तों का तुलनात्मक विवेचन उपलब्ध रहा। इस प्रकार सिद्ध है कि जैन परमाणुवाद अत्यधिक किया गया है। परमाणुवाद भी इसकी अपेक्षा रखता है। परमाणुवाद प्राचीन है। जैन वाङ्मय में परमाणु के स्वरूप, भेद आदि का
जैन दर्शन की भारतीय दर्शन को एक महत्त्वपूर्ण और अनुपम देन सूक्ष्म विवेचन उपलब्ध होता है। इस प्रकार का विवेचन अन्यत्र है। विश्व के सामने सर्वप्रथम भारतीय चिन्तकों ने यह सिद्धान्त अर्थात् भारतीय और पाश्चात्य वाङ्मय में नहीं हो सका है। प्रस्तुत किया था। अब प्रश्न यह उठता है कि भारत में सर्वप्रथम और
जैन दर्शन में परमाणु का स्वरूप - परिभाषाएँ किस निकाय के मनीषियों ने परमाण सिद्धान्त प्रस्तुत किया? जैकोबि ने इस पर गहराई से विचार करके इसका श्रेय जैन
परमाणु शब्द परम + अणु के मेल से बना है। परमाणु का मनीषियों को दिया है। इसके बाद वैशेषिक दार्शनिक कणाद इस अर्थ हुआ सबसे उत्कृष्ट सूक्ष्मतम अणु। द्रव्यों में जिससे छोटा परंपरा में आते हैं। एम. हिरियन्ना ने भी भारतीय दर्शन की रूपरेखा दूसरा द्रव्य नहीं होता है, वह अणु कहलाता है। अतः अणु का में यही कहा है। ऐटम का संस्कत पर्याय अण उपनिषदों में अर्थ सूक्ष्म है। अणुओं में जो अत्यंत सूक्ष्म होता है वह परमाण पाया जाता है, लेकिन वेदान्त के लिए अण सिद्धान्त बाहरी है। जैसा कहलाता है। श्वेताम्बर आगमों में भगवतीसूत्र में जैन परमाणुवाद कि हम देखेंगे, भारतीय दर्शन के शेष सम्प्रदायों में से एक से अधिक का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। दिगम्बर परंपरा में बारहवें इसे मानते हैं और जैन दर्शन में शायद इसका रूप प्राचीनतम है। अंग दृष्टिवाद का दोहन करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों
में परमाणु का सर्वप्रथम विवेचन हुआ है, जिसका अनुकरण पाश्चात्य देशों में जो दार्शनिक विचारधारा उपलब्ध है,
अन्य दिगम्बर आचायों ने किया है। * उसका बीजारोपण सर्वप्रथम यूनान (ग्रीस) में ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हुआ था। ग्रीकदर्शन के प्रारंभिक दार्शनिकों को वैज्ञानिक आचार्य कुन्दकुन्द कहना अधिक उपयुक्त समझा गया है। इनमें इन्पेडोवलीज के
आचार्य कुन्दकुन्द ने परमाणु की निम्नांकित परिभाषा दी है-- समकालीन ईसा से पूर्व पाँचवीं शताब्दी में होने वाले ल्यूसीयस और डिमाक्रिप्स का सिद्धान्त परमाणुवाद के नाम से प्रसिद्ध है।
(क) परमाणु पुद्गल द्रव्य कहलाता है। इनके इस सिद्धान्त की जैनों के परमाणवाद के साथ तलना (ख) पुद्गल द्रव का वह सबसे छोटा भाग, जिसको पुनः विभाजित प्रस्तुत की जाएगी ताकि अनेक प्रकार की भ्रान्तियों और आशंकाओं
नहीं किया जा सकता है, परमाणु कहलाता है।' का निराकरण हो सके।
(ग) स्कन्धों (छह प्रकार के स्कन्धों) का अंतिम भेद (अर्थात् भगवान ऋषभदेव जैन-धर्म-दर्शन के इस युग के प्रवर्तक अति सूक्ष्म) जो शाश्वत, शब्दहीन, एक अविभागी और सिद्ध हो चुके हैं। जैन धर्म में इन्हें तीर्थंकर कहा जाता है। इस मूर्तिक है, परमाणु कहलाता है।' प्रकार के तीर्थंकर जैन धर्म में चौबीस हो चुके हैं। भगवान (घ) जो आदेशमात्र से (गुण-गुणी के संज्ञादि भेदों से) मूर्तिक तीर्थंकर अंतिम तीर्थंकर थे। ऋषभदेव की परंपरा से प्राप्त जैन है, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार धातुओं का धर्म - दर्शन के सिद्धान्तों को ई.पू. ५४० में भगवान महावीर ने कारण है, परिणाम स्वभाव वाला है, स्वयं अशब्दरूप है, संशोधित व परमार्जित करके नये रूप में प्रस्तुत किया था।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
नित्य है, न अनवकाशी है, न सावकाशी है, एक प्रदेशी है, स्कन्धों का कर्त्ता है, कालसंख्या का भेद करने वाला है ' जिसमें एक रूप, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्श होते हैं, शब्द का कारण है, स्वयं शब्दरहित है और स्कन्धों से जो भिन्न द्रव्य है वह परमाणु कहलाता है । "
(ङ) जो स्वयं ही आदि है, स्वयं ही मध्य है, स्वयं ही अन्त है, चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा जिसे नहीं ग्रहण किया जा सकता है और जो अविभागी है, वह परमाणु कहलाता है । "
(च) जो पृथ्वी आदि चार धातुओं का कारण है, वह कारण परमाणु और जो स्कन्धों के टूटने (विभाज्य अंश) से बनता है, वह कार्य परमाणु कहलाता है । "
आचार्य उमा स्वामी
उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में प्रदेशरहित द्रव्य को अर्थात् जिससे मात्र एक प्रदेश होता है, उसे अणु कहा है। "
(क) अणुओं की उत्पत्ति स्कन्धों के टूटने से होती है १ । (ख) श्वेताम्बर मत में मान्य, उमास्वामी ने अपने, भाष्य में कहा है, कि परमाणु आदि मध्य और प्रदेश से रहित होता है" ।
(ग) भाष्य में यह भी कहा गया है कि परमाणु कारण ही है,
अन्त्य है (उसके अनन्तर दूसरा कोई भेद नहीं है) सूक्ष्म है, नित्य है, स्पर्श रस, गन्ध तथा वर्ण गुणवाला है, कार्यलिङ्ग है अर्थात् परमाणुओं के कार्यों को देख कर . उसके अस्तित्व का बोध होता है २ ।
(घ) परमाणु अबद्ध हैं, अर्थात् वे परस्पर में अलग-अलग असंश्लिष्ट अवस्था में रहते हैं १३ ।
पूज्यपादाचार्य
'तत्त्वार्थसूत्र के सर्वप्रथम टीकाकार आचार्य पूज्यपाद ने स्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थसूत्र की टीका में परमाणु की निम्नांकित परिभाषाएँ दी हैं-
(क) अणु प्रदेशरहित अर्थात् प्रदेशमात्र होता है। क्योंकि अणु के अतिरिक्त अन्य कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो अणु से भी अधिक अल्प परिमाणवाली अर्थात् छोटी हो । अतः पूज्यपाद ने प्रदेश और अणु को एकार्थ माना है" ।
(ख) प्रदेशमात्र में होने वाले स्पर्शादि पर्याय को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रूप से जो अत्यंत अर्थात् शब्दों के द्वारा कहे जाते हैं, वे अणु कहलाते हैं।१७
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(ग) अणु अत्यंत सूक्ष्म है। यही कारण है कि वही आदि है, वही मध्य और वही अन्त है" ।
भट्ट अकलंकदेव
परमाणु के स्वरूप का विवेचन करते हुए सर्वप्रथम अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में परमाणु की सत्ता सिद्ध करना आवश्यक समझा है।
(१) परमाणु अप्रवेशी होते हुए भी खर- विषाण की तरह अस्तित्वहीन नहीं है, क्योंकि अप्रवेशी कहने का अर्थ प्रदेशों का सर्वथा अभाव नहीं है । अप्रदेशी का अर्थ है कि परमाणु एक प्रदेशी है। जिसके प्रदेश नहीं होते हैं उनका अस्तित्व नहीं होता है, जैसे- खरविषाण । परमाणु के एक प्रदेश होता है इसलिए उसका अस्तित्व है १९ ।
(२) परमाणु की सत्ता सिद्ध करने के लिए दूसरा तर्क यह दिया है कि जिस प्रकार विज्ञान का आदि मध्य और अन्त नहीं होता है, फिर भी उसकी सत्ता सभी स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार आदि, मध्य और अन्त से रहित परमाणु की भी सत्ता है । अतः आदि, मध्य और अन्त रहित परमाणु की सत्ता न मानना ठीक नहीं है" ।
इस प्रकार भट्ट अकलंकदेव ने परमाणु का अस्तित्व सिद्ध किया है। ग्रीक और वैशेषिक दर्शन में परमाणु की स्वतंत्र सत्ता सिद्ध करने के लिए उक्त प्रकार के प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं। जहाँ भट्ट अकलंकदेव ने पूज्यपादाचार्य का अनुकरण करते हुए परमाणु के स्वरूप का विवेचन किया है २२ । वहीं amanGramsan ? o movimóniam
(३) परमाणु का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए तीसरा कारण दिया है कि परमाणु की सत्ता है, क्योंकि उसका कार्य दिखलाई पड़ता है | शरीर, इन्द्रिय, महाभूत आदि परमाणु के कार्य हैं, क्योंकि परमाणुओं के संयोग से उनकी स्कन्ध रूप में रचना हुई है। कार्य बिना कारण के नहीं होता है। यह सर्वमान्य सिद्धान्त है। अतः कार्यलिंग के कारण के रूप में परमाणु का अस्तित्व सिद्ध होता है" । तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में भी यह तर्क दिया गया है।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शद - उन्होंने श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में मान्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के भट्ट अकलंकदेव ने अनेकान्त सिद्धान्त के आधार पर भाष्य में दिया गया परमाणु के स्वरूप का निराकरण भी किया है परमाणु का स्वरूप प्रतिपादित किया है। परमाणु द्वयणुक आदि जो यहाँ प्रस्तुत है--
स्कन्धों की उत्पत्ति होती है, इसलिए परमाणु स्यात्कारण है। (१) परमाणु कथाञ्चित् कारण और कथञ्चित कार्य __परमाणु स्यात्कार्य है, क्योंकि स्कन्ध के भेदन करने से स्वरूप है - तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में परमाणु कारण ही है उत्पन्न होता है, और वह स्निग्ध, रूक्ष आदि कार्यभूत गुणों का ऐसा कहा गया है। भट्ट अकलंकदेव कहते हैं कि परमाणु को आधार है। कारणमेव अर्थात् कारण ही है, ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि
परमाणु से छोटा कोई भेद नहीं है, इसलिए परमाणु स्यात् परमाण एकान्तरूप से कारण ही नहीं है, बल्कि कार्य भी है। अन्त्य है। यद्यपि परमाण में प्रदेशभेद नहीं होता है. लेकिन गणउमास्वामी ने स्वयं बतलाया है कि परमाणु स्कन्धों के टूटने से भेद होता है, इसलिए परमाणु नान्त्य है। बनते हैं। अतः परमाणु कथञ्चित् कारण और कथञ्चित् कार्यस्वरूप है।
परमाणु सूक्ष्म परिगमन करता है, इसलिए वह स्यात् सूक्ष्म है।
परमाणु में स्थूल कार्य करने की योग्यता होती है, अतः (२) परमाणु नित्य और अनित्य स्वरूप है - कुछ जैन, वैशेषिक और ग्रीक दार्शनिकों ने परमाण को एकान्त रूप से परमाणु स्यात् स्थूल हा नित्य ही माना है। भट्ट अकलंक कहते हैं कि परमाणु को नित्य परमाणु द्रव्य रूप से नष्ट नहीं होता है, इसलिए वह स्यात् ही मानना ठीक नहीं है, क्योंकि स्नेह आदि गुण परमाणु में नित्य है। विद्यमान रहने के कारण परमाणु अनित्य भी है। ये स्नेह, रस
परमाणु स्यात् अनित्य भी है, क्योंकि वह बन्ध और भेद आदि गण परमाणु में उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं। परमाणु रूप पर्याय को प्राप्त होता है और उसके गणों का विपरिणमन द्रव्य की अपेक्षा नित्य और स्नेह रूक्ष रस, गंध आदि गुणों के होता है। उत्पन्न विनष्ट होने की अपेक्षा अनित्य भी है। इसलिए परमाणु को सर्वथा नित्य-नित्य कहना ठीक नहीं है। दूसरी बात है कि
अप्रदेशी होने से परमाणु में एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण
और दो अविरोधी रस होते हैं, अनेक प्रदेशी स्कन्ध रूप परिणमन परमाणु परिणामी होते हैं। कोई भी पदार्थ अपरिमाणी नहीं होता।
करने की शक्ति परमाणु में होती है, इसलिए परमाणु अनेक है। इसलिए परमाणु कथञ्चित् अनित्य भी है।
रसादि वाला भी है। (३) परमाणु सर्वथा अनादि नहीं है - परमाणु को कुछ दार्शनिक अनादि मानते हैं, अकलंकदेव ने इस कथन.का खण्डन
परमाणु कार्यलिङ्ग है, क्योंकि कार्यलिङ्ग से अनुमेय है,
किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होने से परमाणु कार्यलिङ्ग नहीं भी है। किया है। उनका कहना है कि परमाणु को सर्वथा अनादि मानने से उससे कार्य नहीं हो सकेगा। यदि अनादिकालीन परमाण से इस प्रकार अकलंकदेव भट्ट ने अनेकान्त प्रक्रिया के द्वारा संघात आदि कार्यों का होना माना जाएगा तो उसका स्वभाव नष्ट परमाणु का लक्षण निर्धारित किया है। हो जाएगा। अतः कार्य के अभाव में वह कारण रूप भी नहीं हो जैन-परमाणुवाद की विशेषताएँ और ग्रीक एवं सकेगा। अतः परमाणु अनादि नहीं है। दूसरी बात यह है कि अणु भेदपूर्वक होते हैं, ऐसा तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है।
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर जैन परमाणुवाद की (४) परमाणु निरवमय है - भट्ट अकलंकदेव ने भी परमाणु निम्नांकित विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं-- को निरवमय कहा है, क्योंकि उसमें एक रस, एक रूप और एक ग्रंथ होती है। अत: द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा ही अकलंकदेव
(१) जैन दर्शन में परमाणु एक भौतिक द्रव्य है - भौतिक ने परमाणु को निरवमय बतलाया है।
द्रव्य जैन दर्शन में पुद्गल कहलाता है। इसका मूल स्वभाव लड़ना, गलना और मिलना है। परमाणु भी पिण्डों (स्कन्धों) की
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - तरह मिलते-गलते हैं। भट्ट अकलंकदेव ने परमाणु को पुद्गल माने गए हैं। परमाणु पुद्गल द्रव्य का अन्तिम भाग है, इसलिए द्रव्य सिद्ध करते हुए कहा है कि गुणों की अपेक्षा परमाणु में इसमें एक रस (अम्ल, मधुर, कटु, कषाय और तिक्त में से पुद्गलपन की सिद्धि होती है। परमाणु रूप, रस, गन्ध और स्पर्श कोई एक) एक वर्ण, (कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत में से से युक्त होते हैं। उनमें एक, दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय कोई एक) एक गन्ध (सुगन्ध और दुर्गन्ध में कोई एक विरोधी) और अनन्त गुणरूप हानि-वृद्धि होती रहती है। अतः उनमें भी दो स्पर्श, (शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु और कठोर पूरणगलन व्यवहार मानने में कोई विरोध नहीं है। में से कोई दो) इस प्रकार परमाणु में पाँच गुण पाये जाते हैं। ये
पुदगल द्रव्य की दूसरी परिभाषा की जाती है कि पुरुष गुण परमाणुओं के कार्य में स्पष्ट दिखलाई पड़ते हैं। यहाँ ध्यातव्य अर्थात् जीव, शरीर, असहार, विषयदइंद्रिय उपकरण के रूप में
है कि जैन दर्शन में द्रव्य और गुण वैशेषिकों की तरह भिन्न न निगलते हैं गहण करते हैं वे पदाल कहलाते हैं। परमाणओं को होकर अभिन्न माने गए हैं। इसलिए परमाणु का जो प्रदेश है. वही भी जीव स्कन्ध दशा में निगलते हैं। अतः परमाणु पुद्गल द्रव्य ।
स्पर्श का और वही वर्ण का है। इसलिए वैशेषिकों का यह हैं। देवसेन ने अणु को ही वास्तव में पुद्गल द्रव्य कहा है।
कहना युक्तिसंगत नहीं है कि पृथ्वी के परमाणु में सर्वाधिक
चारों गुण; जल के परमाणुओं में रूप, रस और स्पर्श; अग्नि के ___ जैन दर्शन की तरह वैशेषिक और ग्रीक दर्शन में भी परमाणु
परमाणुओं के रूप और स्पर्श और वायु के परमाणुओं में स्पर्श भौतिक द्रव्य माना गया है।
गुण होता है। वैशेषिकों का उपर्युक्त कथन इसलिए ठीक नहीं (२) परमाणु अविभाज्य है - जैन दर्शन में परमाणु को है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर गुण से अभिन्न अप्रदेशी परमाणु अविभागी कहा गया है। जैन आचार्यों ने बताया है कि पुद्गल ही नष्ट हो जाएगा। जैनदर्शन में किन्हीं भी गुणों की न्यूनाधिकता द्रव्य का विभाजन करते-करते एक अवस्था ऐसी अवश्य आती नहीं मानी गई है। पृथ्वी आदि चारों धातुओं में परमाणु के है जब उसका विभाजन नहीं हो सकता है। यह अविभागी अंश उपर्युक्त चारों गण मुख्य और गौण रूप से रहते हैं--पृथ्वी में परमाणु कहलाता है।
स्पर्श आदि चारों गुण मुख्य रूप से जल में गंध गुण गौण रूप से ग्रीक और वैशेषिक दार्शनिकों ने भी परमाणु को जैन शेष मुख्य रूप से, अग्नि में गंध और रस की गौणता और शेष दार्शनिकों की तरह अविभाज्य माना है।
की मुख्यता और वायु में स्पर्श गुण की मुख्यता और शेष तीन
की गौणता रहती है। (३) परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म है - जैन दार्शनिकों ने बतलाया है कि पदगल द्रव्य के छह प्रकार के भेदों में परमाण सक्ष्म-सक्ष्म (६) परमाणु नित्य है - जैन, वैशेषिक एवं ग्रीक दर्शन में अर्थात् अत्यंत सूक्ष्म होता है।इससे सूक्ष्म दूसरा कोई द्रव्य नहीं है। परमाणु नित्य माना गया है। लेकिन जैन-परमाणुवाद की यह विशेषता ___ अन्य परमाणुवादियों ने भी परमाणु को अत्यन्त सूक्ष्म
है कि परमाणु की उत्पत्ति और विनाश होता है, जबकि ग्रीक और
वैशेषिक दार्शनिक परमाणु को उत्पत्ति विनाश-रहित मानते हैं। माना है।
जैन-परमाणुवाद के अनुसार द्रव्यदृष्टि से परमाण नित्य हैं, (४) परमाणु अप्रत्यक्ष है - परमाणु अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा अग्राह्य होता है। ग्रीक और वैशेषिक लेकिन पर्याय की अपेक्षा वे अनित्य हैं। दार्शनिक भी जैनों की उपर्युक्त बात से सहमत हैं। लेकिन जैनों । परमाणु एक ही प्रकार के हैं - ने परमाणु को केवल ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष माना है। वैशेषिक दर्शन में भी परमाणु योगियों द्वारा प्रत्यक्ष माना गया है। ग्रीक
जैन दर्शन के अनुसार परमाणु एक ही जाति के हैं उनमें दर्शन में इस प्रकार के प्रत्यक्ष की कल्पना नहीं की गई है।
गुणभेद नहीं है। ग्रीक दार्शनिक भी यह मानते हैं कि सभी
परमाणु एक ही जड़ तत्त्व से बने हैं। लेकिन वैशेषिक परमाणवाद (५) परमाण सगुण है - जैन दर्शन और वैशेषिक दर्शन में के अनसार चार प्रकार के हैं--पृथ्वी के परमाण जल के परमाण. परमाण सगुण माना गया , इसके विपरीत ग्रीक दार्शनिकों ने वाय के परमाण और अग्नि के परमाण। जैन परमाणवाद के परमाणु को निर्गुण माना है। जैन दर्शन में परमाण के बीस गण
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - अनुसार पृथ्वी आदि चार धातुओं की उत्पत्ति एक जाति के को जड़ और अचेतन कहा गया है। ग्रीक और वैशेषिक परमाणु से हुई है।
परमाणुवादियों का भी यही मत है। परमाणु गोल है - जैन और वैशेषिक दर्शन में परमाणु परमाणु एक ही भौतिक द्रव्य है - जैन दर्शन में परमाणु का आकार गोल बताया गया है, लेकिन ग्रीक परमाणुवादियों एक ही प्रकार के भौतिक द्रव्य पुदगल के माने गए हैं। ग्रीक का मत है कि परमाणुओं का आकार निश्चित नहीं होता है। अतः परमाणवादियों का भी यही मत है। लेकिन वैशेषिक ने चार आकार की अपेक्षा उनमें भेद है।
प्रकार के भौतिक द्रव्य के परमाणु माने हैं। सभी परमाण एक ही तरह के हैं - जैन दर्शन में सभी परमाण सावयव और निरवयव है- जैन परमाणवाद परमाणुओं को एक ही तरह का माना गया है। ग्रीक दार्शनिको के अनसार परमाण सावयव और निरवयव है। परमाणु सावयव के मतानुसार परमाणुओं में मात्रागत, आकारगत तौल, स्थान,
इसलिए है कि उसके प्रदेश होते हैं। ऐसा कोई द्रव्य ही नहीं हो क्रम और बनावट की अपेक्षा भेद माना गया है। जैन दर्शन की
सकता जो सर्वथा शून्य हो। दूसरी बात यह है कि परमाणु का यह भी विशेषता है कि उसमें परमाणुओं में गुण 'मात्रा' आकार
कार्य सावयव होता है। यदि परमाणु सावयव न होता तो उसका आदि किसी भी प्रकार का भेद नहीं माना गया है।३९
कार्य भी सावयव नहीं होना चाहिए। अतः स्कन्धों को सावयव परमाण आदि मध्य और अंतहीन है - जैन दर्शन में देखकर ज्ञात होता है कि परमाणु सावयव है। परमाणुओं को आदि, मध्य और अंतहीन बतलाया गया है। ग्रीक
परमाणु निरवयव भी हैं, क्योंकि परमाणु प्रदेशी मात्र है। दर्शन में परमाणुओं को ऐसा नहीं माना गया है। ग्रीक दर्शन में कुछ
जिस प्रकार अन्य द्रव्यों के अनेक प्रदेश होते हैं, उस प्रकार परमाणुओं को छोटा और कुछ को बड़ा बतलाया गया है।
परमाणु के नहीं होते हैं। यदि परमाण के एक से अधिक प्रदेश परमाणु गतिहीन और निष्क्रिय नहीं है - जैन और
(प्रदेशप्रचय) हों तो वह परमाणु ही नहीं कहलाएगा। परमाणु ग्रीक दर्शन में परमाणु को वैशेषिक की तरह गतिहीन और के अवयव पथक-पथक नहीं पाये जाते हैं। इसलिए भी परमाण निष्क्रिय नहीं माना गया है। जैन - ग्रीक दार्शनिकों ने परमाणु को
। स्वभावत: गतिशील और सक्रिय कहा है। वैशेषिकों ने परमाणुओं में गति का कारण ईश्वर माना है जबकि जैन और ग्रीक दार्शनिकों
अतः जैन परमाणुवादियों ने अनेकान्त सिद्धान्त के द्वारा
परमाणु को सावयव और निरवयव बताया है। द्रव्यार्थिक नय को ऐसी कल्पना नहीं करनी पड़ी है।
की अपेक्षा परमाणु निरवयव है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा परमाणु कार्य और कारणरूप है - जैन दार्शनिकों ने
सावयव है। इसके विपरीत ग्रीक और वैशेषिक परमाणुवादी परमाणु को स्कन्धों का कार्य माना है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति
दार्शनिकों ने परमाणु को निरवयव ही माना है। स्कन्धों के तोड़ने से होती है। इसी प्रकार परमाणु स्कन्धों का कारण भी है। लेकिन वैशेषिक और ग्रीक दर्शन में परमाणु केवल परमाणु काल-संख्या का भेदक है - जैन दर्शन के कारण रूप ही है कार्य रूप नहीं।
अनुसार परमाणु काल-संख्या का भेद करने वाला है। आकाश के भौतिक परमाणु आत्मा का कारण नहीं है - ग्रीक
एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जाने में समय रूप जो काल लगता परमाणुवादियों के अनुसार आत्मा का निर्माण परमाणुओं से
है उसका भेद करने के कारण परमाणु काल अंश का कर्ता कहलाता हुआ है। लेकिन जैन और वैशेषिक परमाणुवादी ऐसा नहीं मानते
है। अन्य परमाणुवादियों ने ऐसा नहीं माना है। हैं। जैनपरमाणुवाद के अनुसार परमाणु शरीर, वचन, द्रव्य मान, . परमाणु शब्दरहित और शब्द का कारण है - जैन प्राणायान, सुख-दुःख, जीवन, मरण आदि के कारण हैं। भौतिक परमाणुवादियों ने परमाणु को शब्दरहित और शब्द का कारण परमाणु अभौतिक आत्मा के कारण नहीं हैं।
बतलाया है। परमाणु अशब्दमय इसलिए है, क्योंकि वह एक परमाणु अचेतन है - परमाण भौतिक और अचेतन प्रदशा है। शब्द स्कन्धों से उत्पन्न होता है। परमाण शब्द का अर्थात् अजीव के कारण होने के कारण जैन दर्शन में परमाणओं कारण इसलिए है क्योंकि शब्द जिन स्कन्धों के परस्पर स्पर्श से trorarivariorstandariramilaritrodrirandirdroid [१३Hindiriraminisanitariandiarinitarianbidairandaridra
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- वतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन उत्पन्न होता है, वे परमाणुओं के मिलने से बने हुए हैं। अन्य ही जघन्य गुण वाले हों। यदि उन दोनों में से कोई एक परमाणु परमाणुवादी वैशेषिकों और ग्रीक दार्शनिकों ने ऐसा नहीं माना है। जघन्य गुणवाला और दूसरा अजघन्य (उत्कृष्ट) गुण वाला होगा . जैन-परमाणुवाद के अनुसार परमाणु जघन्य और उत्कृष्ट तो बन्ध हो जाएगा। की अपेक्षा दो प्रकार होता है। पंचास्तिकाय तात्पर्यवृद्धि में तीसरे नियम के संबंध में भी दिगम्बरों की मान्यता है कि द्रव्य परमाणु और भाव परमाणु की अपेक्षा परमाणु दो प्रकार दो परमाणुओं में चाहे वे सदृश (समान जातीय ) हों या विसदृश का और भगवतीसूत्र में द्रव्य परमाणु, क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु (असमान जातीय ) हों बन्ध तभी होगा जबकि एक की अपेक्षा और भाव परमाणु की अपेक्षा चार प्रकार का बतलाया गया है। दूसरे में स्निग्ध या रूक्षत्व दो गुण अधिक हों। तीन-चार, पाँचग्रीक और वैशेषिक परमाणुवाद में इस प्रकार के भेद दृष्टिगोचर संख्यात-असंख्यात अधिक गुण वालों के साथ कभी भी बन्ध नहीं होते हैं।
नहीं होगा। इसके विपरीत श्वेताम्बर मत में केवल एक अंश परमाणओं का परस्पर संयोग - जैन-परमाणवाद के अधिक होने पर दो परमाणुओं में बन्ध का अभाव बतलाया अनुसार दो या दो से अधिक परमाणुओं का परस्पर बन्ध
गया है। दो, तीन, चार आदि अधिक गुण होने पर दो सदृश (संयोग) होता है। यह संयोग स्वयं होता है. इसके लिए वैशेषिकों परमाणुआ मे बन्ध हो जाता है। की तरह ईश्वर जैसे शक्तिमान की कल्पना नहीं की गई है। जैन जैन-परमाणुवाद में इस शंका का भी समाधान उपलब्ध परमाणुवादियों ने परमाणु-संयोग के लिए एक रासायनिक प्रक्रिया है कि परमाणुओं का परस्पर संयोग होने के बाद किस परमाण प्रस्तुत की है, जो निम्नांकित है--
का किस में विलय हो जाता है? दूसरे शब्दों में कौन परमाणु (१) पहली बात यह है कि स्निग्ध या रूक्ष परमाणओं किसको अपने अनुरूप कर लेता है? इस विषय में उमा स्वाति का परस्पर में बन्ध होता है।
का मत है कि परमाणुओं का परस्पर बन्ध होने के बाद अधिक
गुण वाला कम गुण वाले परमाणु को अपने स्वभाव अनुरूप (२) दूसरी बात यह है कि जघन्य अर्थात् एक स्निग्ध या
कर लेता है५२। रूक्ष गुण वाले परमाणु का एक, दो, तीन आदि स्निग्ध, रूक्ष वाले परमाणु के साथ बंध नहीं होता है।
उपर्युक्त मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों
में मान्य है। लेकिन दोनों में एक भेद यह है कि श्वेताम्बर परंपरा (३) समान गुण वाले सजातीय परमाणुओं का परस्पर
में मान्य सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र.३ में इस विषय में एक बन्ध नहीं होता है, जैसे दो स्निग्ध गुण वाले परमाणु का दो
यह भी नियम बतलाया गया है-- स्निग्ध गुण वाले परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता है। इसी प्रकार रूक्ष गुणवाले परमाणुओं के बन्ध का नियम है।
(१) श्वेताम्बर मत में गुणगत-विसदृश परमाणुओं का
भी बंध माना गया है। अतः जब दो परस्पर बंध वाले परमाणुओं (४) चौथी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दो गुण अधिक
__ में गुण-गत विसदृशता रहती है तो कोई भी सम परमाणु दूसरे सजातीय अथवा विजातीय परमाणुओं का परस्पर में बन्ध हो ।
सम वाले परमाण को अपने अनुरूप कर सकता है। अकलंकभट्ट५४ जाता है। दो से कम और दो से अधिक परमाणु का परस्पर में
ने इस नियम को आगम विरुद्ध बतलाकर निराकरण किया है।
र बंध नहीं होता है।
उपर्युक्त तुलनात्मक विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दार्शनिकों उपर्युक्त परमाणुओं की परस्पर संयोग-प्रक्रिया के संबंध .
और चिन्तकों ने परमाणु का जितना सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत में जैन दर्शन की दिगंबर और श्वेताम्बर परंपराएं ५१ एकमत किया उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। वैज्ञानिकों का परमाणुवाद नहीं हैं। दिगम्बर परंपरा की मान्यता है कि यदि दो परमाणुओं में
- भी बहुत कुछ जैन-परमाणुवाद से साम्य रखता है। इस पर और से कोई एक भी परमाणु जघन्य गुण अर्थात् निकृष्ट गुणवाला है
भी तुलनात्मक शोध आवश्यक है। तो उनमें कभी भी बन्ध नहीं होगा। इसके विपरीत श्वेताम्बर मत में दो परमाणुओं में परस्पर में संयोग तभी नहीं होगा जब वे दोनों
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन -
१६. प्रदिश्यन्त इति प्रदेशां परमाणवः। वही-२/३८, पृ. १३८
१७. प्रदेशमात्रमाविस्पर्शादिपर्याय प्रसवसामर्थ्य नाण्यन्ते शब्द्यन्त सन्दर्भ
इत्यणवः। वही, ५/२५, पृ. २२० १. (अ) देवेन्द्रमुनि शास्त्री : जैन दर्शन
१८. सौम्यादात्मादयः आत्ममध्या आत्मान्ताश्च। वही, ५/२५, स्वरूप और विश्लेषण, पृ. १६४-१६५
पृ. २२० (ब) भा.द. रूपरेखा पृ. १६३
१९. प्रदेशमात्रोऽणुः न खरविषाणवदप्रदेश इति। तत्त्वार्थवार्तिक, २. पोग्गल देवं उच्चइ परमाणू णिच्छएण नियमसार, गाथा-२० ५.११.४, पृष्ठ ४५४ ३. परमाणु चेव अविभागी, कुन्दकुन्दाचार्य पंचास्तिकाय, गाथा-७५ २०.यथा विज्ञानमादिमध्यान्तव्यपदेशभावेऽप्यस्ति तथाऽणुरपि ४. सव्वेसिं खंघाणं जो अंतो तं वियाणं परमाण सो सस्सददो इति। वही, ५.११.५, पृ. ४५४ असद्दो अविभागी मूत्तिभवो। वही, गाथा ७७
२१. तेषामणूतामस्तित्वं कार्यलिंगत्वादवगन्तव्यम्। कार्यलिंग हि आदेशमत्तमुत्तो धादुचदुकस्स कारणं जो दु।
कारणम् । नाऽसत्सु परमाणुषु शरीरेन्द्रिय महाभूतादिलक्षणस्य सो णेओ परमाणू परिणामगुणो सयमसद्धो।।
कार्यस्य प्रादुर्भाव इति। वही, ५.२५.१५ पृ. ४९२ णिच्चो णाणंवकासो ण सावकासो पदेसदो भेत्ता।
२२. भेदादणुः। तत्त्वार्थसूत्र, ५/२७ । खंधाणं पियकत्तापविहत्ता कालसंसाणं।।
२३. कारणेमेव तदन्त्यमित्यसमीक्षिताभिधानम् कथञ्चित् वही, गाथा-७८ और ८०
कार्यत्वात्। तत्त्वार्थवार्तिक, ५.२५. ५ पृ. ४९ ६. (क) एयरसं वण्णगंधं दो फासं सद्दकारणमसइं।
२४. नित्य इति चायुक्तस्नेहादि भावेनानित्यत्वात् स्नेहादयो हि संघतरिदं दव्वं परमाणूं तं वियाणेहि। वही, गाथा-८१ ।। गुणाः परमाणौ प्रादुर्भनन्ति नियन्तिच्च (ख) एयरसरूवगंध दो फासं तं हवे सहावगुणं ...।। आ. ततस्तत्पूर्वकमस्यानित्यत्त्वमिति। वही, ५.२५, ७ पृ. ४९२ कुंदकुंद, नियमसार, गाथा२६
२५. नित्यवचनमनादि परमाण्वर्थमिति, तन्न किं कारणम् तस्यापि अत्तादि अत्तमज्झे अत्तंतं णेव इंदिए गेजझं।
स्नेहादिविपरिणामाभ्युपगमात्। न हि निष्परिणामः अविभागी जं दव्वं परमाणू तं विणाणाहि। आ. कुंदकुंद,
कश्चिदर्थोस्ति। वही ५.२५.११ पृ. ४९२ नियमसार, गाथा-२६
न चानादि परमाणु म कश्चिदस्ति भेदादणः इतिवचनात्। ८. धाउचउवकस्स पुणो जं हेऊ कारणतिं तं णेयो।
वही ५.२५.१०, पृ. ४९२ खंधाणां अवसाणो णादवो कज्ज परमाण। नियमसार, गाथा-२५
२६.निरवयश्चाणुरत एकरसवर्णगंधः। वही, ५/२५/१३, पृ. ४९२ ९. नाणोः तत्त्वार्थसूत्र ५/११
२७. तत्त्वार्थवार्तिक, ५/२५/१६ पृ. ४९२-४९३ १०. भेदादणुः। वही, ५/२७
२८. वही, ५/२५/१६, पृ. ४९२-४९३ ११. अनादिरमध्योऽप्रदेशी हि परमाणुः।
२९. तत्त्वार्थवार्तिक ५/१/२५, पृ. ४३४ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, ५/११, पाँ. २५६
३०.देवसेनः नयचक्र, गाथा १०१ १२. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः।
३१.डब्लू. टी. स्टेटस: ग्रीक फिलोसफी पृ. ८८ एकरसगन्धवर्णोद्विः स्पर्शः कार्यलिंगश्च। वही ५/२४ पृ. २७४
३२. वही १३. इति तत्राणवो बद्धाः स्कन्धास्तु बद्धा एवेति। वही।
३३. भारतीय दर्शन, सम्पादक-डा.न.कि. देवराज, पृ. ३५३ १४. अणो प्रदेशो न संततिः प्रदेशमात्रत्वात्। सर्वार्थसिद्धि, ५
३४. प्रो. हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ. २६८ ११, पृ. २०५
३५. आचार्य अमृतचंद्र-तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति, गाथा ७८, पृ. १३३ १५. किञ्च ततोऽल्पपरिमाणाभावात्।
३६. वही न ह्यणोरल्पीयानन्योस्ति। वही
३७. डब्लु. टी. स्टेटस-ग्रीक फिलोसफी, पृ. ८८
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन दर्शन
४९. द्रष्टव्य-तत्त्वार्थसूत्र, ५/३३-३६ - उपाध्याय बलदेव-भारतीय दर्शन, पृ. २४४
५०. पूज्यपादाचार्य-सर्वार्थसिद्धि, पृ. २२१-२२९ ३९. प्रो. हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा-भा.द. रूपरेखा, पृ. २६८ ५१. डा. मोहनलाल मेहता-जैन दर्शन, पृ. १८५-१८६ ४०. डब्लू. टी. स्टेटस, ग्रीक फिलोसफी, पृ. ८८-८० ५२. बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च। तत्त्वार्थसूत्र ५/३७ ४१. वीरसेन-धवला, पृ. १३, खण्ड ५, भाग ३, सूत्र १८, पृ. १८ ५३. बन्धे समाधिको पारिणामिकौ, ५/३६ ४२. द्रष्टव्य पूज्यपाद-सर्वार्थसिद्धि, ५/११
बंधे सति समगुणस्य समगुणः पारिणामिको भवति, अधिक४३. वीरसेन धवला, पृ. १३, खण्ड ५, पु. ३, सूत्र ३२, पृ. २३
गुणो हीनस्येति। वही ४४. गोम्मटसार जीवप्रदीपका टीका, भा. ५६४, पृ. १००९ ५४. भट्ट अकलंक देव-तत्त्वार्थवार्तिक, ५/३६/४-५ ४५. पंचास्तिकाय तत्त्वप्रदीपिका टीका गाथा ७०, पृ. १३७ ___ * लेखक के दिगंबर परंपरा से संबद्ध होने के कारण उस ४६. सद्दोखधंप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंघादो पुढेसु तेसु जायादि
परंपरा के ग्रंथों के आधार पर ही परमाणुवाद का विवरण सद्दो उप्पादगो णियदो। पंचास्तिकाय, गाथा-७९
दिया। श्वेताम्बर आगमों एवं आगमेतर साहित्य में भी ४७. पदमप्रभ, नियमसार, तारर्ण्यवृत्ति, गा. २५
परमाणुवाद का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। ४८. भगवतीसूत्र, २०/५/१२
- सम्पादक
ఆరురురురురురురురురురురురురురురువారసాదరంగురువారం సాగుతారు
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जैन-परमाणुवाद और विज्ञान
डॉ. रज्जन कुमार प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी...
परमाणुवाद एक सनातन सिद्धान्त है। इस सृष्टि की चिंतकों ने भी परमाणुवाद को अपने चिंतन का महत्त्वपूर्ण पक्ष परिकल्पना के साथ परमाणुवाद का उदय माना जाता है। सृष्टि स्वीकार किया है। सांख्य योग इस हेतु प्रकृति तत्त्व को अपना क्या है? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका समाधान सहज नहीं है। आधार बनाता है वहीं न्याय-वैशेषिक एवं मीमांसक जड़ द्रव्य क्योंकि इस प्रश्न के गर्भ में अनगिनत प्रतिप्रश्न छिपे हैं। प्रश्न- के आधार पर परमाणुवाद का विवेचन करते हैं। अद्वैतवाद के प्रतिप्रश्न, उत्तर-प्रत्युत्तर के क्रम ने विविध प्रकार के नए-नए आचार्य शंकर माया एवं विशिष्टाद्वैत के समर्थक श्री रामानुज सत्यों एवं तथ्यों को उद्घाटित किया। तथ्यों का यह उद्घाटन अचित्५ को अपने परमाणुवाद की विवेचना करने वाला तथ्य मनुष्य की विविध जिज्ञासाओं को शान्त करने के साथ-साथ स्वीकार करते हैं। अवैदिक दार्शनिक बौद्ध-परमाणुवाद की व्याख्या उसके मन में नितांत नवीन जिज्ञासाओं का भी भाव भरता गया। हेतु रूप का आश्रय लेता है। वहीं दूसरी तरफ जैन चिंतक फलस्वरूप मनुष्य निरंतर इनके समाधान हेतु उद्यम करता रहा। इसके लिए पुद्गल द्रव्य की प्रतिष्ठापना करते हैं। वैज्ञानिक उसके इस उद्यम का ही परिणाम है कि हम आज काल्पनिक परमाणुवाद की व्याख्या हेतु अणु-परमाणु को अपने चिंतन तथ्य को भी सत्य रूप में न केवल देख रहे हैं, बल्कि उसका का आधार बनाते हैं। उपयोग भी कर रहे हैं। परमाणुवाद भी मनुष्य के मन में उत्पन्न
उपर्युक्त समस्त चिंतनों का मन्तव्य कमोवेश एक ही हुई जिज्ञासा का एक परिणाम है। यह सिद्धान्त दार्शनिक दृष्टि से
था-जगत् के भौतिक स्वरूप की व्याख्या। यह जगत् चेतनमहत्त्वपूर्ण तो है ही विज्ञान के लिए भी आश्चर्य का विषय है। जैन
अचेतन तत्वों से परिपूर्ण है तथा यहाँ पिण्ड आदि के रूप में दार्शनिकों ने परमाणुवाद का विश्लेषण अत्यन्त सूक्ष्म ढंग से
ठोस, द्रव्य एवं गैसादि (वायु) पदार्थ भी पाए जाते हैं। पिण्डों का किया है जो दार्शनिक विशिष्टताओं से युक्त होने के साथ-साथ ।
विभाजन भी होता है तथा विभिन्न तत्त्वों के संयोग से नए पिण्डों आधुनिक वैज्ञानिक-मतों से कम महत्त्व नहीं रखता है।
का निर्माण भी होता रहता है। संयोग और वियोग की इस क्रिया परमाणुवाद क्या है?
को मानव युगों से देखता आ रहा था। वह इस दिशा में निरंतर
चिंतन करता रहता था। क्योंकि मानव-मन सर्वदा से जिज्ञासु जैनपरमाणुवाद की व्याख्या करने के पूर्व हमें यह जान
रहा है। मानव के अवलोकन एवं चिंतन की प्रवृत्ति ने ही शनैःलेना होगा कि परमाणुवाद क्या है? यह ब्रह्माण्ड भौतिक तत्त्वों
शनैः परमाणुवाद की आधारशिला रख दी। क्योंकि वह संयोग से निर्मित है। इन्हीं भौतिक तत्त्वों के संबंध में जानना एवं इनके
और वियोग की क्रिया का समाधान चाहता था। वस्तुतः विविध स्वरूप को समझना परमाणुवाद है। परमाणुवाद अचित्त
परमाणुवाद इसी समस्या के समाधान का एक परिणाम है जो जगत् की विचित्रताओं से मनुष्य को अवगत कराता है। भारतीय
आज इतना अधिक विकसित हो चुका है कि इसे कुछ शब्दों में चिंतकों ने इसे विविध नामों से व्याख्यायित करने का प्रयत्न
व्यक्त कर पाना शायद ही संभव हो। किया है। चार्वाक जो अपने भौतिकतावादी चिंतन के लिए प्रसिद्ध है उसने परमाणुवाद की व्याख्या भूत तत्त्व के आधार पर करने परमाणुवाद और मूलकण का प्रयत्न किया? इसने इसी भूत को चेतन एवं अचेतन दोनों
परमाणुवादी चिंतन का प्रारंभ मूलकण अथवा मूलतत्त्व ही को सृष्ट करने वाला तथ्य स्वीकार किया।
की अवधारणा से संबद्ध है। प्रायः मानव के समक्ष यह प्रश्न उठ आत्मवादी चिंतकों में सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसा. खड़ा होता है कि यह ब्रह्माण्ड क्या है? इस ब्रह्माण्ड की जितनी वेदान्त आदि वैदिक दार्शनिकों के साथ-साथ जैन एवं बौद्ध वस्तुएँ हैं, वे सब किन तत्त्वों से मिलकर बनी हैं? तत्त्व क्या है?
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• यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन क्या तत्व का सबसे छोटा अंश भी है? अगर छोटा अंश है तो क्या वही मूलतत्त्व या मूलकण है? अगर किसी तत्त्व का सबसे छोटा भाग मूलतत्त्व है तो वह किस प्रकार वस्तुओं का निर्माण करता है? ये कैसे एक-दूसरे के साथ परस्पर जुड़े रहते हैं? वस्तुओं की भिन्नता का कारण क्या है? क्या यही मूलकण भिन्न-भिन्न वस्तुओं के स्वरूप का निर्धारण करता है ? इत्यादि अनेकों प्रश्न हैं, जो परमाणुवाद की नींव हैं। दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों ने इस दिशा में पर्याप्त ऊहापोह किया और विविध प्रकार के मन्तव्य प्रकाश में आए।
प्रायः दार्शनिकों ने जगत् को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश का एक संघात माना है। कुछ दार्शनिकों ने मात्र ४ तथ्यों को ही इसके लिए उत्तरदायी माना और आकाश को इससे अलग रखा। लेकिन इस संघात के पीछे मूलरूप से कौन कार्य करता है, तथा किसे मूलतत्त्व स्वीकार किया जाए, इस संदर्भ को लेकर दार्शनिकों के बीच एक मत नहीं रहा। किसी ने मात्र भूतों को ही इसके लिए प्रभावी माना तो किसी ने अचेतन प्रकृति को इसका श्रेय दिया। किसी ने ब्रह्म अथवा चरम सत्ता को इसका कारण माना तो कोई परमशक्ति को ही मूलतत्व मान बैठा । सचमुच मूलतत्त्व का प्रश्न भी अत्यंत गूढ़ एवं रहस्यमय बनता गया। लेकिन इसका महत्त्व कभी कम नहीं हुआ। यह अभी भी दार्शनिकों के समक्ष एक ज्वलंत समस्या बना हुआ है जिस पर निरंतर चिंतन हो रहा है। विस्तारभय से बचने के लिए हम इस दार्शनिक चिंतन पर यहीं विराम लगाते हैं।
मूलकण और विज्ञा
विज्ञान के समक्ष भी मूलकण का प्रश्न उपस्थित हुआ । इसके लिए यह मात्र चिंतन का ही विषय नहीं रहा, बल्कि एक व्यवहारिक समस्या भी रही । विज्ञान अपने प्रयोग एवं निरीक्षण के लिए प्रसिद्ध रहा है और इस हेतु उसे चिंतन के धरातल के साथ-साथ व्यवहारिक प्रयोग के क्षेत्र में भी प्रयाण करना पड़ता है। मूलकण के संबंध में भी वैज्ञानिकों ने इसी नीति का अनुपालन किया। सर्वप्रथम उसने मूलकण के स्वरूप का निर्धारण किया और यह मत व्यक्त किया- किसी भी तत्त्व का सबसे छोटा भाग जो पुनः विभाजित नहीं हो सकता मूलकण कहलाता है। प्रारंभ में इसे अणु (Molecule) कहा गया। लेकिन अणु का भी विभाजन हो गया और इस विभाजित कण को परमाणु (Atom)
[ १८
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कहा गया। बहुत दीर्घ अवधि तक परमाणु को मूलभूत कण
माना जाता रहा।
वैज्ञानिक इस दिशा में निरंतर प्रयोग एवं निरीक्षणों का अभ्यास करते रहे और उनके साथ मूलभूत कण के सन्दर्भ में नए-नए तथ्य प्रकाशित होते रहे। वैज्ञानिकों का मूलकण इससे अछूता नहीं रहा और परमाणु भी विभाजित हो गया। इसका श्रेय थामसन नामक वैज्ञानिक को मिला और उसने परमाणु को दो भागों में बाँटकर इसे इलेक्ट्रॉन (Electron) और प्रोटॉन (Proton) नाम दिया। इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन को विद्युत आवेश से युक्त माना गया । विद्युत आवेश दो प्रकार का होता है - ऋणावेश (Negative Charge) एवं धनावेश (Postitive Charge) । इलेक्ट्रॉन ऋणावेशित होता है, जबकि प्रोटॉन धनावेशित होता है" । पुनः इस दिशा में और अधिक अन्वेषण हुआ और परमाणु तीन भागों में विभाजित हो गया । यह तीसरा भाग न्यूट्रॉन (Neutron) कहलाया । यह प्रोटॉन का आवेशरहित भाग है १३ ।
प्रोटॉन का यह विभाजन यहीं नहीं रुका। वैज्ञानिक शोधों ने इस दिशा में प्रगति का क्रम निरंतर बनाए रखा। फलतः नए
मूलभूत कणों की अवधारणा विकसित होती गई और मनुष्य न्यूट्रीनो (Nuetrino), बीटाकण (Beta Particles), पॉजीट्रान (Positron) जैसे सूक्ष्म कणों से अवगत होता रहा। फोटॉन (Photon) और फोनॉन (Phonan) जैसे सूक्ष्मतम कणों की खोज ने वैज्ञानिकों के समक्ष मूलभूत कण के संदर्भ में एक नया मापदण्ड प्रस्तुत किया। लेकिन वैज्ञानिक प्रगति का क्रम यहीं अवरुद्ध नहीं हुआ। यहाँ होने वाले प्रायोगिक अन्वेषणों के परिणामस्वरूप मेसॉन (Meson), ग्लूकॉन (Glucon), स्ट्रेंज (Strange) आदि के रूप में १०० से अधिक सूक्ष्म कण प्राप्त हो गए हैं, जिन्हें वैज्ञानिक मूलकण स्वीकार करते हैं। लेकिन विज्ञान ने सूक्ष्मकण अथवा प्रारंभिक कण के संदर्भ में अपनी खोज का क्रम गतिमान रखा तथा क्वार्क (Quark) के रूप में एक ऐसे मूलभूत कण को प्राप्त कर लिया है, जिसका प्रायः और अधिक विभाजन संभव नहीं है ९५ ।
परमाण्विक संरचना
परमाणु चाहे कितने ही भागों में विखण्डित क्यों न हो जाए, इसका अस्तित्व अथवा इसकी संरचना तीन कणों पर आधारित होती है। ये तीन कण हैं--इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और
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- चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्ध - जैन दर्शन न्यूटॉन। ये तीनों किस अवस्था में किस प्रकार स्थित होते हैं मानव जगत् में मूलभूत परिवर्तन का कारण बन गयी। परमाणुवाद जिससे कि वे एक परमाणु की रचना करते हैं, फिर परमाणुओं के साथ ऊर्जा संप्रत्यय अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। के मिलने से अणु और अणुओं के संयोग से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड रेडियोधर्मिता भी परमाणुवादी सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय निर्मित हो जाता है। वैज्ञानिकों ने इस दिशा में मात्र चिंतन ही नहीं है जो ऊर्जा-प्राप्ति का एक आश्चर्यजनक अक्षय भंडार है। यह किया वरन् विभिन्न प्रकार के प्रयोगों द्वारा इसे निर्धारित करने अनायास मनुष्य के हाथ लग गया और मानव इसका प्रयोग का प्रयत्न भी किया। इस कोटि में कई वैज्ञानिकों का नाम रखा उपयोगी और दुरुपयोगी दोनों प्रकार के हित साधन-हेतु कर जा सकता है। लेकिन संभवतः थामसन, जे.जे. ने परमाणु संरचना रहा है। बोर द्वारा प्रतिपादित परमाण्विक मॉडल प्रायः अधिसंख्य के संबंध में जो मॉडल प्रस्तुत किया वह परमाणु संरचना का तत्त्वों के परमाणुओं को निर्दिष्ट करता है, लेकिन इस जगत् में दिग्दर्शन कराने वाला प्रथम मॉडल माना जा सकता है। कुछ ऐसे भी तत्त्व हैं जिन्हें भारी तत्त्व (Heavy element) कहा थामसन ने परमाणु को गोल तरबूज के समान माना तथा
जाता है। इनके परमाणुओं में निरंतर परिवर्तन होता रहता है और यह मत प्रस्तुत किया कि तरबूज के बीज की भाँति इलेक्टॉन इस परिवर्तन के कारण तत्त्व की अवस्था में तो परिवर्तन होता परमाणु के अंदर चारों तरफ बिखरे रहते हैं। प्रोटॉन गदे की भाँति ही है उसके गुणधर्म भी प्रायः बदल जाते हैं। इन्हें रेडियोधर्मी बीच में स्थित रहता है।६। परमाण की इस संरचना ने वैज्ञानिकों तत्व (Redio active Element) कहा जाता है। को एक नया चिंतन दिया। वे इस दिशा में निरंतर कार्य करते रेडियोधर्मी तत्त्व के परमाण अस्थायी अवस्था में रहते हैं। रहे। रदरफोर्ड नामक वैज्ञानिक ने परमाणु-आकृति का एक परमाणु स्थायी अवस्था में आने के लिए निरंतर प्रयत्नशील दूसरा मॉडल प्रस्तुत किया। इन्होंने केन्द्रक (Nucleus) को परमाणु रहते हैं, क्योंकि इनमें समायोजन (Re-adjust) की प्रवृत्ति रहती संरचना के साथ संबंधित किया। इनके अनुसार धनावेशित है। अतएव अस्थायी परमाणु में तब तक परिवर्तन का क्रम बना प्रोटॉन परमाणु के केन्द्र में स्थित रहता है, जो केन्द्रक (Nucleus) रहता है, जब तक ये स्थायी अवस्था को प्राप्त न कर लें। कहलाता है। इसी के साथ न्यूट्रॉन भी रहता है। इलेक्ट्रॉन परमाणुओं की स्थायी एवं अस्थायी अवस्था का कारण केन्द्रक केन्द्रक के चारों तरफ समान रूप से बिखरा रहता है। में उपस्थित कणों एवं प्रतिकणों के बीच पाए जाने वाले आकर्षण परमाणु संबंधी रदरफोर्ड का यह मॉडल एक नई जिज्ञासा
बल हैं। छोटी तथा बड़ी द्रव्यमान संख्या वाले केन्द्र को की उत्पन्न करने वाला माना गया। क्योंकि इसने यह मत प्रस्तुत
प्रतिकण बंधन-ऊर्जा कम ही होती है, फलस्वरूप ये केन्द्रक किया कि इलेक्ट्रॉन केन्द्रक के चारों तरफ समान रूप से बिखरे
कम स्थायी रहते हैं। रेडियम एक रेडियोधर्मी तत्त्व है, जिसका रहते हैं, लेकिन इसने यह नहीं बताया कि इलेक्ट्रॉन का यह
परमाणुभार २२६ है। केंद्रक में परमाणु का लगभग संपूर्ण भार समान बिखराव किस रूप में होता है। बोर (Bohr) नामक वैज्ञानिक
__ और धन-आवेश निहित रहता है। अतः परमाणु भार केन्द्रक ने अपना ध्यान इस दिशा में केन्द्रित किया और उसने परमाण की का सूचक माना जाता है। आकृति का एक नया मॉडल प्रस्तुत किया। इनके मॉडल की परमाणुओं का यह अवस्था परिवर्तन असीमित मात्रा में विशेषता थी--इलेक्ट्रॉन केन्द्रक के चारों तरफ समान रूप से ऊर्जा उत्पन्न करता है, अथवा ऊर्जा-क्षय का कारण बनता है। बिखरे नहीं रहते हैं, बल्कि ये केंद्रक के चारों तरफ एक नियत ऊर्जा का यह क्षय केन्द्रक से नि:सृत होता है। प्रायः इससे कक्षा में परिभ्रमण करते रहते हैं। बाद में यह परमाण्विक संरचना निकली हुई ऊर्जा-किरणों को वैज्ञानिकों ने एल्फा (३) बीटा, (b) भी विवाद का विषय बन गयी, लेकिन यह परमाणु-संरचना का एवं गामा (1) नाम दिया है। प्रत्येक किरण का अपना अलगअध्ययन करने वालों के लिए अभी भी महत्त्वपूर्ण मॉडल है। अलग तरंगदैर्घ्य (Wave length) होता है। यही इनकी विशेषता है
जो विभिन्न प्रकार से उपयोगी बन जाती है। भारी तत्त्वों के रेडियोधर्मिता, ऊर्जा एवं परमाणुवाद
नाभिकों के इस क्षय के परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म परमाणुवाद अपनी नवीन संकल्पनाओं के लिए सर्वदा
कणों की उत्पत्ति होती है। इनमें से कुछ विद्युतीय आवेश से प्रसिद्ध रहा है। रेडियोधर्मिता परमाणुवाद की एक ऐसी देन है जो
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - युक्त होते हैं तो कुछ में संहति (Mass) नहीं पाई जाती है, परंतु परमाणुओं, अणुओं में विद्युत आवेश संग्रहीत रहता है। इनकी इनमें ऊर्जा की बहुत अधिक मात्रा संग्रहीत रहती है। सचमुच चक्रण गति उनके चुम्बकीय आघूर्ण (Magnetic Moment) का भारी तत्त्वों की खोज एवं उनके नाभिकीय विखंडन की प्रक्रिया ___ कारण बनने की क्षमता रखते हैं। क्योंकि यह माना गया है कि ने परमाण्विक अध्ययन के क्षेत्र में एक सर्वथा नवीन मार्ग का इलेक्ट्रॉन अपने आप में एक सूक्ष्म चुम्बक(Micro Magnet) है, उद्घाटन किया। यह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण बन गया कि इस अत: यह मान लेने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि नाभिकीय पर अलग से अध्ययन एवं शोध हेतु नाभिकीय विज्ञान (Nu- क्षेत्र के आसपास विद्युत चुंबकीय क्षेत्र बन जाते होंगे और ऐसा clear Science) नामक विज्ञान की एक नई शाखा बन गई। होता भी है। परमाणु - विखण्डन एवं सूक्ष्म कण
विद्युत चुम्बकीय तरंगों की ऊर्जा का वितरण नियमित न
होकर अनियमित ढंग से होता है। मैक्स फ्लैंक नामक वैज्ञानिक मूलभूत अथवा सूक्ष्मतम कणों के संबंध में पूर्व में उल्लेख
ने इस दिशा में काफी शोध किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा हो चुका है। यहाँ हम परमाणु विखण्डन अथवा नाभिकीय
कि एक स्थान से दूसरे स्थान तक विद्युत चुम्बकीय तरंगों की विखण्डन के समय उत्पन्न होने वाले कुछ सूक्ष्मकणों के संबंध
ऊर्जा का स्थानान्तरण क्वाण्टम के रूप में होता है। क्वाण्टम में भी विचार प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। ये कण हैं२२
__ऊर्जा की छोटी से छोटी इकाई. है। फोटॉन विद्युत चुम्बकीय न्यूट्रानो (Neutrino), फोटॉन (Photon), फोनॉन (Phonan), मेसॉन
ऊर्जा के क्वाण्टम का संवाहक है। फोटॉन का एक निश्चित (Meson) आदि। प्राय: ये सभी कण अल्फा, बीटा, गामा के ।
• संवेग होता है, लेकिन उसमें न तो संहति होती है और न ही क्षय के समय या उसी प्रक्रिया के क्रम में उत्पन्न होते हैं।
विद्युत आवेश। परन्तु इसमें ऊर्जा पाई जाती है। इसी तरह एक न्यूटीनो बहुत ही कम द्रव्यमान वाले तथा आवेशहीन और सक्ष्म कण फोनॉन (Phonan) है जो यांत्रिकीय तरंगों की कण होते हैं। इन कणों की अभिकल्पना, रेडियोएक्टिव विकिरण ऊर्जा का वाहक माना जाता है। में इलेक्ट्रॉन तथा पाजीट्रॉन कणों के उत्सर्जन के समय होने
इसी अनुक्रम में मेसॉन (Meson) नामक एक नए सूक्ष्म वाले ऊर्जा-परिवर्तनों के कारण बताने के लिए की गई थी।
कण की खोज हुई। यह अंतरिक्षीय विकिरणों द्वारा उत्पन्न होते न्यूट्रीनो, इलेक्ट्रॉनों से संबद्ध रहते हैं तथा इलेक्ट्रॉनों को ऊर्जा
हैं। इसमें न तो इलेक्ट्रॉन पाए गए न ही पॉजीट्रॉन (Positron) या बाँटते हैं। अपने सूक्ष्म परिमाण के कारण प्रायः ये दूसरे कणों से
फोटॉन (Photon)। अंतरिक्ष में होने वाले विकिरण से उत्पन्न प्रभावित नहीं होते हैं। इसी अनुक्रम में हम एन्टीन्यूट्रीनो
होकर ये वायुमण्डल में बहुत अधिक दूर तक अंतर्पविष्ट हो (Antineutrino) नामक सूक्ष्म कण का भी उल्लेख करना आवश्यक
जाते हैं। इस कार्य हेतु इनका अत्यन्त तीव्र गति से युक्त होना समझते हैं जिसे वैज्ञानिक पॉजीदान से संबद्ध तथा इनकी ऊर्जा
आवश्यक है तथा इनका शीघ्र ही क्षय भी हो जाता है।२५ बाँटने वाला कण स्वीकार करते हैं।२३
उपर्युक्त विवेचित अधिकांश कण अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं भारी नाभिकों से निकलने वाली गामा किरणें अधिक
और प्रायः इनकी उत्पत्ति परमाण्विक विखण्डन की क्रिया के ऊर्जा-सम्पन्न विद्युत चुंबकीय तरंगें होती हैं। विद्युत, चुम्बकत्व,
कारण ही संभव होती है। अतः ऐसे सूक्ष्म कणों को मूलकण भी ताप आदि ऊर्जा के विविध रूप हैं। ऊर्जा के ये विविध रूप
माना जा सकता है अथवा मूलकण के समकक्ष भी रखा जा तरंगों के रूप में संचरित होते हैं। प्रायः ऊर्जा के ये विविध रूप
सकता है, परंतु ये मूलकण जैन दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित मूलकण एक-दूसरे के प्रतिरूपों में रूपान्तरित हो सकते हैं। जैसे ताप
की भाँति वस्तुतः मूलकण ही हैं, यह नहीं कहा जा सकता। प्रकाश-ऊर्जा में, प्रकाश ताप-ऊर्जा में, विद्युत-ताप प्रकाश,
क्योंकि दार्शनिक उन्हें ही मूलकण स्वीकार करते हैं जिनका और ध्वनि आदि विविध रूपों में। प्रायः ऊर्जा रूपान्तरण में कुछ नई
विभाजन नहीं हो सकता। संभव है यह अभी तक एक विचार स्थिति-परिस्थिति बन जाती है। विज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि
मात्र प्रतीत हो रहा हो, लेकिन शायद भविष्य में विज्ञान के हाथ विद्युत आवेश की गति से चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है।
भी कोई ऐसा कण लग जाए जिसका और अधिक विभाजन
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य -- जैन दर्शन - संभव न हो। ऐसा मूलकण सचमुच में विज्ञान और दर्शन दोनों कुंदकुंद लिखते हैं२८ - सर्व स्कंधों का अन्तिम भाग परमाणु है। का मौलिक कण बन जाएगा।
यह अविभागी, एक, शाश्वत, मूर्तिप्रभव है। परमाणु, संहति और ऊर्जा
वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिष्ठापित परमाण जैनों की भाँति शाश्वत
नहीं है। परमाण्विक संरचना के कारण इसमें परिवर्तन एवं परिवर्द्धन क्या परमाणु में कोई द्रव्यमान होता है? अगर यह प्रश्न
होता ही रहता है। यही कारण है कि वैज्ञानिकों ने परमाणुकिसी वैज्ञानिक से किया जाए तो सामान्यतः वह यही कहेगा
विखण्डन के द्वारा कई तरह के सूक्ष्म कण प्राप्त कर लिए हैं और कि परमाणु द्रव्यमान-रहित होता है। लेकिन यह द्रव्यमान रहित
भविष्य में भी शायद करते रहें। इस सन्दर्भ में जैनों का यह परमाणु अपने अंदर कुछ ऊर्जा संजोए रखता है, जिसकी मात्रा
चिन्तन अवलोकनीय है२९ - अनादि काल से अबतक परमाणु प्रायः निश्चित रहती है। विज्ञान का यह कथन सामान्य जनों को
की अवस्था में ही रहने वाला कोई अणु नहीं है। तात्पर्य यह है आश्चर्य में डाल देता है। क्योंकि वह यह सोचने पर विवश हो
कि जैनों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि विज्ञान का जाता है कि द्रव्यमान - रहित परमाणु से बने तत्त्वों में द्रव्यमान
परमाणु, परमाणु न होकर अणु है। क्योंकि अणु परमाणुओं से कहाँ से आ जाता है। क्योंकि यह सामान्य जिज्ञासा है कि जो है
मिलकर बनते हैं। इसी सन्दर्भ में हम जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुत इस नहीं वह कहाँ से आ सकता है। वैज्ञानिकों के समक्ष भी यह प्रश्न
कथन पर भी विचार करें ऐसे परमाणु अनन्त पड़े हुए हैं जो उठा। उन्होंने भी समाधान का मार्ग खोजा और इसके लिए उन्होंने
आज तक स्कंधरूप नहीं हुए और आगे भी नहीं होंगे। कहने का परमाणु में निहित निश्चित मात्रा की ऊर्जा को उत्तरदायी माना।
अर्थ यह है कि मूलकण अनन्त हो सकते हैं, लेकिन मूलकण तो इस सन्दर्भ में हम आइन्स्टीन द्वारा प्रतिस्थापित सिद्धान्त मूलकण ही रहेंगे। उनमें विभाजन का प्रश्न ही नहीं उठता। क्योंकि का अवलोकन कर सकते हैं, जिसमें यह कहा गया है कि ऊर्जा जो विभाजित हो गया वह मूलकण कहाँ रहा। तथा द्रव्यमान पदार्थ के ही गुण हैं। ऊर्जा को द्रव्यमान में तथा
परमाणु मूर्तिक होते हैं अर्थात् इन्हें आकार प्रदान किया संहति को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। आइन्स्टीन जा सकता है। मर्तिक होने के लिए वस्त में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण का यह मत नि:संदेह विविध प्रकार की जिज्ञासाओं को शान्त होना चाहिए। प्रत्येक परमाण में कम से कम एक रस एक वर्ण. कर देता है। यह ठीक है कि ऊर्जा और संहति का यह परिवर्तन एक गंध तथा दो स्पर्श अवश्य पाया जाता है।३१ इन्हीं गुणों की एक सामान्य अवस्था में संभव नहीं है, लेकिन यह प्रक्रिया तीव्रता एवं मंदता के आधार पर भी परमाणु के अनन्त भेद हो गतिमान रहती है। अतः द्रव्यमान-रहित परमाणु, जिसमें एक सकते हैं। वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित मूलकण अथवा सूक्ष्मकणों निश्चित मात्रा में ऊर्जा रहती है, उससे निर्मित तत्त्वों में संहति का में ऊर्जा की मात्राएँ निहित रहती हैं। ऊर्जा की ये मात्राएँ सभी पाया जाना कोई आश्चर्यजनक सत्य नहीं है।
कणों में अलग-अलग लेकिन निश्चित रहती हैं। इसी. ऊर्जा
संचयन के कारण विज्ञान के मूलकण भी विविध प्रकार के माने मूलभूत कण एवं जैनमत
गए हैं। यह तथ्य प्रयोगसिद्ध है। मूलभूत कण उसे कहा जाता है जो एक अन्तिम कण हो
परमाणु-संरचना और जैन-मत जिसका विभाग संभव नहीं हो। यद्यपि विज्ञान के समक्ष अभी तक क्वार्क के रूप में ऐसा कण उपलब्ध हुआ है, लेकिन इसके पदार्थों का निर्माण अणुओं से और अणुओं की उत्पत्ति सम्बन्ध में वह कोई निश्चित अवधारणा नहीं बना पाया है। परमाणुओं से मानी गई है। प्रत्येक परमाण में एक केन्द्र होता है. क्वार्क के सम्बन्ध में जो अवधारणा है वह संभवत: विचारों जो धनावेशित होता है। अतः केन्द्र के चारों तरफ ऋणावेशित तक ही सीमित मानी जाती है। जैनों ने मूलभूत कण के रूप में इलेक्ट्रॉन अपनी नियत कक्षा में निरंतर भ्रमण करते रहते हैं। परमाणु की परिकल्पना की है। परमाणु के सम्बन्ध में अपना ऋणावेशित एवं धनावेशित तत्त्व एक दूसरे को आकर्षित करते मत व्यक्त करते हुए आचार्य उमास्वाति कहते हैं कि परमाण के हैं क्योंकि इन दोनों परस्पर विरोधी आवेशों का यही गुण माना प्रदेश नहीं होते ।२७ पंचास्तिकाय में इसे स्पष्ट करते हए आचार्य गया है। इस आकर्षण के फलस्वरूप एक बल उत्पन्न होता है,
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन जिनके कारण इलेक्ट्रॉन लगातार अपनी कक्षीय गति को बनाए अवस्थाओं में इस (जल) यौगिक का संघटक समान रहता है, रखता है। परमाणुओं के द्वारा अणु एवं अणुओं के द्वारा विभिन्न अर्थात् दो भाग हाइड्रोजन एवं एक भाग ऑक्सीजन। यही इसकी प्रकार के तत्त्वों के निर्माण में यही ऋणावेश एवं धनावेश आण्विक संरचना (Molecular Form) है। जल के अणु की यह प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं।
संरचना अपरिवर्तनशील रहती है चाहे वह बर्फ रूप में रहे जैनाचार्यों ने परमाण्विक संरचना के संबंध में विज्ञान -
अथवा जलरूप में अथवा वाष्प रूप में। यही नौव्यता की प्रतिपादित नियमों का ही उल्लेख अपने चिंतन में किया है।
स्थिति है। इस अवस्था-परिर्वतन में कई कारक सक्रिय होते हैं, आचारसार में कहा गया है कि अणु पुदगल है, अभेद्य है, निरवयव
जैसे तापक्रम आदि। परंतु यहाँ यह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है, बंधने की शक्ति से युक्त होने के कारण कण है।३२ बंधन की है। महत्त्वपूर्ण यहाँ यह है कि क्या जल की जो विभिन्न अवस्थाएं शक्ति परमाणुओं में पाए जाने वाले स्निग्ध एवं रूक्ष गुणों के
हैं, वे वास्तव में जल के विविध पर्याय मात्र हैं अथवा उनसे कारण संभव है।३३ ये स्निग्ध और रूक्ष गुण क्रमशः ऋण एवं
नितांत भिन्न तत्त्व। जैनों ने तो इसे एक ही तत्त्व के भिन्न-भिन्न धन आवेश के समानार्थक माने गए हैं। इलेक्ट्रॉन निरंतर गतिशील
रूप माना है, अर्थात् इनमें मात्र.पर्यायगत भिन्नता है, द्रव्यगत रहता है और इस कारण विज्ञान का परमाणु भी सदैव गतिशील ।
सवानिशील नहीं। यद्यपि विज्ञान ने भी जल के उदाहरण में इस मत को ही माना जाता है। क्योंकि इलेक्ट्रॉन परमाण का अभिन्न भाग है।
स्वीकार किया है, परंतु क्या वह प्रत्येक अवस्था में यह मानने इसी के अनुरूप जैनों का यह कथन यहाँ संदर्भ के रूप में प्रस्तुत
को विवश है? कर रहे हैं-३४ पुद्गल निष्क्रिय नहीं रहते। यद्यपि यह कथन महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के पूर्व यह मान्यता प्रचलित सिद्धों के निष्क्रियता को निर्धारित करने के लिए व्यवहृत हुआ थी कि द्रव्य(Matter) और ऊर्जा (Energy) दो विभिन्न तथ्य हैं। है, परंतु एक सिद्ध निष्क्रिय क्यों होता है, अगर हम इस संदर्भ में यह सिद्धांत भी स्वीकृत था कि पदार्थ को न तो ऊर्जा में बदला चिंतन करें, तो हम पाते हैं कि वह पुद्गल-निरपेक्ष होता है। जा सकता है और न ही ऊर्जा को पदार्थ में। परंतु जैसा कि हमने पुद्गल-की प्रकृति सक्रिय मानी गई है। .
पूर्व में देखा कि यह परिवर्तन संभव है। अतः हम यहाँ यह
मानने को विवश हैं कि पदार्थ और ऊर्जा एक ही द्रव्य के दो ऊर्जा : पुदगल-पर्याय अथवा स्वतंत्र तत्त्व
रूप अर्थात् पर्याय हैं। यद्याप विज्ञान- जगत् में यह चिंतन एक जैनों ने इस विश्व को षड्द्रव्यों का संघात माना है और इन्हें नवीन एवं क्रांतिकारी मत के रूप में प्रसिद्ध हुआ जो कि अपेक्षाकृत दान कहा है। सत् के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आचार्य उमास्वाति बहुत अधिक प्राचीन नहीं है। लेकिन जैन दार्शनिकों ने अपने कहते हैं- जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनों गुणों को धारण परमाणुवादी चिंतन के अनुक्रम में इस सत्य को बहुत पहले ही करता है, वह सत् है। अपनी मूल जाति का त्याग किए बिना नवीन उदघाटित कर दिया था। अतः हम कह सकते हैं कि ऊर्जा पर्याय की प्राप्ति उत्पाद है। पूर्व पर्याय का त्याग व्यय है। द्रव्य में पुद्गल-पर्याय से इतर एक स्वतंत्र तत्त्व नहीं है। इस संदर्भ में मूल तत्त्वों का स्थापन ज्यों का त्यों बना रहना ध्रौव्य है। पानी हम यहाँ यह जैन-विचार प्रस्तुत करना चाहेंगे- विभिन्न प्रकार अथवा जल की तीन अवस्थाएँ हैं--ठोस (बर्फ), द्रव (जल), की ऊर्जा--गर्मी, प्रकाश, विद्युत आदि पुद्गल के पर्याय हैं।२६ वायु (जलवाष्प)। द्रव जल की प्राकृतिक अवस्था है, लेकिन यह ठोस भी बन जाता है और वाष्प का रूप भी ग्रहण कर लेता है। बर्फ क्वाण्टम गातका एव जनमत जब गल कर पानी बनता है तो जल रूपी पर्याय उत्पन्न होता है। क्वाण्टम-गतिकी परमाणवाद का एक अत्यन्त संवेदनशील इस प्रक्रिया में बर्फ रूपी पर्याय का व्यय होता है। परंतु इन दोनों विचार है। यह परमाणु के अनिवार्य भाग इलेक्ट्रॉन के तरंग अवस्थाओं में पुद्गल द्रव्य अविनष्ट रहता है। यही ध्रौव्यता है। स्वभाव पर आधारित है। इलेक्ट्रॉन में दो प्रकार के गुण पाए
जल हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन नामक दो गैसीय तत्त्वों जाते हैं- आंशिक तरंग एवं आंशिक द्रव्य। तरंग से हमारा के मिलने से बनता है। पानी, बर्फ तथा भाप इन तीनों की बनानी
तापय इलक्ट्रान तात्पर्य इलेक्ट्रॉन के कम्पायमान स्वरूप से है। यह कम्पायमान तरंग .. (Vibrating waves) है। द्रव्यमान रूप (Particle borm) आंशिक
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रदय - जैन दर्शन द्रव्य का बोधक है। प्रायः पदार्थ कणात्मक रूप (Particle हैं। एक अनुमान के अनुसार १ रज्जु लगभग १.५४x (१०)२१ form) में पाया जाता है, जबकि ऊर्जा कम्पायमान रूप में। द्रव्य मील के बराबर होता है।४१ को ऊर्जा रूप में एवं ऊर्जा को द्रव्य रूप में एक विशिष्ट वातावरण
" परमाण्विक व्यतीकरण एवं समाप्सीकरण में परिवर्तित किया जा सकता है। यह प्रयोगसिद्ध तथ्य है।
जैन चिंतकों ने यह स्पष्ट किया है कि परमाणु में परमाणु का ऋणात्मक अथवा तरंगात्मक स्वरूप इलेक्ट्रॉन
सूक्ष्मपरिणामावगाहन शक्ति है। इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य की गतिशीलता पर आधारित है। अगर हम किसी गतिशील कण
- पूज्यपाद कहते हैं।२ - सूक्ष्म रूप से परिणत हुए पुद्गल परमाणु की सही स्थिति का पता करना चाहें तो एक साथ गति एवं स्थिति की सही अवस्था को पता नहीं नहीं कर सकते। क्योंकि
आकाश के एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त ठहर सकते हैं। विविध कारणों से इनकी अवस्था एवं स्वरूप आदि में परिवर्तन
कहने का तात्पर्य यह है कि परमाणु में प्रचय एवं संकोच की आता रहता है। हाइजेनबर्क ने स्पष्ट रूप से यह मत प्रतिपादित
अत्यंत व्यापक क्षमता है जिनके कारण थोड़े से परमाणु एक
विस्तृत आकाश खण्ड को घेर लेते हैं, वहीं दूसरी तरफ कभी किया है।८ - इलेक्ट्रॉन के समान गतिशील कण की सही-सही स्थिति तथा संवेग (या वेग) दोनों एक साथ पता लगाना संभव
कभी वे परमाणु घनीभूत होकर बहुत छोटे आकाश देश में समा नहीं है। हाँ, उसके अधिकतम संभव (Probability) स्वरूप को
जाते हैं। परमाणुओं का यह संकोच एवं प्रचय क्रमशः समासीकरण अवश्य पता किया जा सकता है।
एवं व्यतीकरण कहलाता है। वैज्ञानिकों ने भी इस क्षेत्र में अनुसंधान
किए हैं और उन्होंने कुछ ऐसी निविड (भारी) वस्तुओं अथवा . चूँकि इलेक्ट्रॉन तरंग रूप में गतिमान रहता है और प्रत्येक
तत्त्वों का पता लगाया है जो परमाणुओं के संकोच करने की तरंग की गति एक विशेष रूप में चलती है। कभी यह महत्तम
क्षमता को प्रदर्शित करता है। वेग को प्राप्त कर महत्तम अवस्था में पहँच जाती है तो दूसरी तरफ आवर्ती क्रम में यह दूसरी दिशा में उसी तल के निम्नतम
सामान्यतया सोना, शीशा, प्लेटनिम, पारा आदि भारी पदार्थ
माने जाते हैं। समान माप के इन तत्त्वों के टकडे और लकडी के भाग तक पहुँच जाती है। कहने का अर्थ यह है कि इलेक्ट्रॉन की
टुकड़े के भार में कितना अंतर पाया जाता है इस तथ्य से हम भली गति अधिकतम एवं न्यूनतम दोनों रहती है। इस गति का मापन भी वैज्ञानिकों ने किया है जो अत्यंत जटिल एवं उत्कृष्ट संवेदनशील
भांति विदित हैं। इसका कारण परमाणुओं की सघनता, उनकी
निविडता है। जितने आकाश खण्ड को उस लकड़ी के छोटे से यंत्रों द्वारा संभव है। इसे मात्र विचार रूप में व्यक्त कर देना
परमाणुओं ने घेरा, उतने ही आकाश खण्ड में अधिकाधिक परमाणु विज्ञान की महानता को न्यून करना मात्र ही होगा। परमाणु की
एकत्रित होकर धात्विक पदार्थो-सोना, प्लेटनिम आदि के रूप में गति के संबंध में हम जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित विचारों को
रह सकते हैं। इसी तरह अन्य ठोस पदार्थों के बारे में जाना जा उद्धृत करना चाहेंगे।
सकता है जो अपनी सघनता से एक छोटे से आकाश खण्ड में जैनों के अनुसार परमाणु की स्वाभाविक गति सरल रेखा रहते हैं और अपने अंदर असीमित मात्रा में परमाणुओं को संग्रहीत में और वैभाविक गति वक्र रेखा में होती है। परमाणु कम से कम किए रहते हैं। परमाणुओं का यह असीमित संग्रह उसे इतना अधिक एक समय में एक प्रदेश का अवगाहन कर सकता है और भार प्रदान करता है जिसके संबंध में मनुष्य परिकल्पना नहीं कर अधिक से अधिक उसी समय में सम्पूर्ण लोकाकाश का।३९ सकता। आज वैज्ञानिकों ने एक ऐसे छोटे तारे की खोज की है समय काल की सबसे छोटी इकाई है जबकि प्रदेश आकाश के जिसके एक क्यूबिक इंच का वजन १६७४० मन है। छोटे से छोटे अविभागी अंश का नाम है। लोकाकाश आकाश जहाँ तक व्यतीकरण का प्रश्र है. इस संदर्भ में हम जैनाचार्यो का वह भाग है, जिसमें धर्म, अधर्म, पुद्गल, काल, जीव सभी के इस कथन पर विचार कर सकते हैं.३-- जीव असंख्यात पाए जाते हैं। दूसरे शब्दों में हम इसे षड्द्रव्यों का समवाय कह प्रदेशी होने पर भी संकोच विस्तारशील होने से कर्म के अनुसार सकते हैं। संपूर्ण लोकाकाश १४ रज्जु परिमाण वाला है। रज्जु प्राप्त छोटे या बड़े शरीर में तत्प्रमाण होकर रहता है। लेकिन जैनों का एक माप है जिसके संबंध में कई तरह की अवधारणाएँ समुद्घात-काल में इसकी लोकपूरण अवस्था होती है। आचार्य
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- यतीन्दगरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - नेमिचन्द्र के अनुसार" - मूल शरीर को न छोड़कर तैजस ८. अनु. मार्टिन ग्रीण्डलिंजर- मॉलेकूल्स, मीर पब्लिशर्स, कार्मण रूप उत्तर देह के साथ-साथ जीव प्रदेशों के शरीर से मास्को १९८६, पृ. १४ । बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं। यद्यपि यह सन्दर्भ जीव सतीशचन्द्र चट्टोपाध्याय एवं धीरेन्द्र मोहन दत्त- भारतीय तत्त्व से जुड़ा है, जबकि हमारा विवेचन अजीव तत्त्व से संबंधित दर्शन, पुस्तक भंडार, पटना पृ. ३९, १५८-१५९, १३३ है। अत: यहाँ कुछ विरोधाभास हो सकता है, लेकिन उसे दूर १०. मॉलेकूल्स, पृ. १४ करने के लिए हम इतना ही कहना चाहेंगे कि व्यतीकरण की ११. संपा. डेक्स्टर एस किम्बल द बुक ऑफ पॉपुलर साइंस, पराकाष्ठा को समझने के लिए इससे अच्छा सन्दर्भ शायद उपलब्ध
I, द ग्रोलियर सोसाइटी इक्लेटा, न्यूयार्क १९५१, पृ. ३०८ न हो, शायद यह भी एकपक्षीय मत ही हो, परंतु विवादास्पद
१२. पुरी एवं शर्मा- प्रिंस्पल्स ऑफ इनआर्गेनिक केमिस्ट्री, पृ. नहीं। वैज्ञानिकों ने भी इस दिशा में प्रयोग किए। यद्यपि इनका
१-४ चिंतन और प्रयोग इतना ज्यादा व्यापक नहीं है लेकिन परमाण्विक
१३. वही, पृ.४
१४. द बुक ऑफ पापुलर साइंस I, पृ. ३१२-३१३ विखण्डन तथा इसी तरह के अन्यान्य प्रकल्पों के माध्यम से
१५. ए.पी. कोवी- ऑक्सफोर्ड एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी, जो वैज्ञानिक तथ्य प्रकाश में आ रहे हैं वे वस्तुत: परमाणुओं के .
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नवम संस्करण, पृ. १०२३ व्यतीकरण के सिद्धांत को ही संपुष्टि प्रदान करते प्रतीत होते हैं।
१६. द बुक ऑफ पॉपुलर साइंस ।- पृ. ३०८ इस प्रकार जैन एवं वैज्ञानिक परमाणुवादी अवधारणा को १७. लीवर लॉज- एटम्स एंड रेज-अरनेस्ट बेन लि. लंदन कुछ मान्यताओं के आधार पर तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत करने १९२४, पृ. ४० का एक प्रयास किया गया है। कहीं-कहीं यह तुलना अत्यन्त १८. पुरुषोत्तम भट्ट चक्रवर्ती- परमाणु-संरचना, म.प्र. हिंदी सार्थक प्रतीत होती है, तो किसी क्षण इसमें अल्प व्यतिक्रम भी ग्रंथ अकादमी, भोपाल १९७३ पृ. ३८, एटम्स एण्ड रेज आया है जो स्वाभाविक भी है। उस अंतर का मुख्य कारण पृ. १०० परंपरा एवं प्रणालीगत व्यवस्था है।
फिजिकल साइंस- मैन्स कन्क्वेस्ट ऑफ मैटर एण्ड
स्पेश, ओडम्स प्रेस लि., लॉग आर्क, लंदन, पृ. ८९ सन्दर्भ
२०. परमाणु-संरचना, ३. १९, ३१ १. तत्वोपप्लवसिंह (जयराशि)- सम्पा.- पं.सुखलालजी, २१.
२१. फिजिकल साइंस-मैन्स कन्क्वेस्ट ऑफ मैटर एण्ड स्पेश, गायकवाड़ ओरियण्टल इंस्टीट्यूट, बड़ौदा १९४०, पृ.१ पृ. ९०, परमाणु संरचना, पृ. ३१ सांख्यकारिका (ईश्वरकृष्ण)- सम्पा. हरिदत्त शर्मा, द. २२. डिफिनिशनल डिक्शनरी-केमेस्टी केन्द्रीय हिन्दी ओरियण्टल बुक एजेंसी, पूना १९३३, ३.१०.१६
डायरेक्टोरेट, दिल्ली यूनिवर्सिटी १९७८, पृ. ४२५ तत्त्वकौमुदी- सम्पा.-कृष्णनाथ न्याय पंचानन, कलकत्ता, २३. परमाणु-सरंचना, पृ. ११ ३.१०.१६
२४. डिफिनिशनल डिक्शनरी-मॉर्डन फिजिक्स, केंद्रीय हिन्दी वैशेषिकसूत्र (कणाद)- सम्पा. नंदलालसिंह, इंडियन प्रेस
डाइरेक्टोरेट, दिल्ली यूनिवर्सिटी १९७८, पृ. १५८-१६० इलाहाबाद, १.१.५
द बुक ऑफ पॉपुलर साइंस, पृ. ३१२ प्रभाकर मीमांसा- संपा. गंगानाथ झा, इलाहाबाद, पृ. ३५-३६ २५. परमाणु संरचना, पृ.८-९ ४. ब्रह्मसूत्र-शंकरभाष्य- निर्णयसागर प्रेस, बंबई १.४३
२६. फिजिकल साइंस-मैन्स कन्क्वेस्ट ऑफ मैटर एण्ड स्पेश, ५. श्रीभाष्य रामानुज- संस्कृत बुक डिपो, मद्रास १९३७, १.४३ __ पृ. ९८-९९, आपेक्षिकता के सिद्धांत, पृ. ६९ ६. अभिधर्मकोश वसुबन्धु- सम्पा. आचार्य नरेन्द्रदेव, २७. तत्त्वार्थसत्र (उमास्वाति), ५/११ हिन्दस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद १९५९, १.२४
२८. सव्वेसिं खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाण। तत्त्वार्थसूत्र उमास्वाति- विवे. सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभावो। १७७१, विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९९३, ५.१०.११
पंचास्तिकाय, मूल परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई,
१९.
ఆరుగురువారం సాయeroin Road
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -- जैन दर्शन प्र.सं. वि. १९७२
४०. धम्मो, अधम्मो अगासं कालो पुग्गल जन्तवो। २९. न चानादि परमाणु म कश्चिदस्ति भेदादणुः- ५/२५/१०/
एस लोगोत्ति पन्नत्तो. जिणेहिं बरदसिहिं।। २८/७१ उत्तराध्यनसूत्र, ४९२/११ राजवार्तिकम् भारतीय ज्ञानपीठ, प्र.सं. वि.सं.
संपा. साध्वी चंदना, वीरायतन प्रेस, आगरा २००८ ३०. श्लोक वार्तिक, २/१/१२/८४, कुन्थुसागर ग्रन्थमाला शोलापर ४१. चोद्दसरज्जुपमाणो उच्छेहो होदि सयललोगस्स। १/१५०. ३१. स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ५/२३, तत्त्वार्थसूत्र,
तिलोयपन्नति जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर वि.सं. १९९९ पंचास्तिकाय, मू. गाथा-८१
जैनेन्द्र सिद्धांतकोश, भाग ३, क्षु. जिनेन्द्र वर्णी, पृ. ४१५, ३२. अणुश्च पुद्गलोऽभेद्यावयवः प्रचयशक्तिः । कायश्च भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १९७२ स्कन्धभेदोत्थ....१३/१३, आचारसार
परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकैकस्मिन्नप्याकाश ३३. पुद्गलस्य बन्धहेतुभूतस्निग्धरूक्षगुणधर्मस्वाच्च। १३६,
प्रदेशेऽनन्तानन्ताः अवतिष्ठन्ते। ५/१०/२७५, सर्वार्थसिद्धि, प्रवचनसार
भारतीय ज्ञानपीठ १९५५ ३५. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ५/२९, तत्त्वार्थसूत्र ३६. शब्दबन्धसौक्ष्म्यरस्थौल्यसंस्थानभेदतम श्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च।
अल्पेऽधिकरणे महदद्रव्यं नावतिष्ठते इति...प्रत्यविशेषः, ५/२४ वही.।
संघातविशेषः-इत्यर्थः। ५/१०/२७५, वही. ३७. परमाणुसंरचना, पृ. ५८
४३. यदा तु लोकपूरणं भवति...१५/८/४/४४९/३३ राजवार्तिकम्। ३८. वही, पृ.५७
४४. मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपिंडस्स। निग्गमणं देहादो ३९. एकस्य परमाणोरेकत्रैव आकाशप्रदेशेऽवगाहः..लोकाकाशे
होदि समुग्धादणामं तु। १६६८, गोम्मटसार (जीवकाण्ड), अवस्थानं प्रत्येतव्यम्, ५/१४/२/४५६/३२, राजवार्तिकम्
प्रका. जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता।
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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र में प्रत्यक्ष प्रमाण
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र-भाष्य वाचक उमास्वाति (ई. सन् ३६५ - ४००) द्वारा रचित स्वोपज्ञ कृति है । तत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैन आगमिक- दार्शनिक साहित्य का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। पूरे जैन वाङ्मय में यदि कोई एक ग्रन्थ चुनना हो जो जैनदर्शन के लगभग प्रत्येक आयाम पर प्रकाश डालता हो तो वह वाचक उमास्वाति-रचित तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ही है, जिसे जैन वाङ्मय का प्रथम संस्कृत ग्रन्थ होने का गौरव भी प्राप्त है। सूत्रशौली में निबद्ध दशाध्यायात्मक इस लघुकाय ग्रन्थ में आचार्य उमास्वाति ने समस्त जैन- तत्त्वज्ञान को संक्षेप में गागर में सागर की तरह भर दिया है जो उनकी असाधारण प्रज्ञा, क्षमता एवं उनके विशाल ज्ञानभंडार का परिचायक है। जैन परंपरा के सभी संप्रदायों में इस ग्रन्थ को समानरूप से महत्त्वपूर्ण माना जाता है | श्वेताम्बर एवं दिगंबर दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों ने इस ग्रन्थ पर भाष्य वृत्तियाँ एवं टीकाएँ लिखीं तथा सूत्रों का अवलम्बन लेकर अपने-अपने अभीष्ट मतप्रदर्शक कतिपय सिद्धान्त प्रतिफलित किए। परंतु इस सबके बावजूद एक वस्तु निर्विवाद रही है और वह है ग्रन्थ की लोकप्रियता ।
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का संकलन आगमिक दृष्टि से जितना अधिक सुंदर और आकर्षक हुआ है, उसके रचयिता के विषय में उतना ही अधिक विवाद है। यही कारण है कि आज भी इस ग्रन्थ के रचियता उमास्वाति हैं या उमास्वामी या गृध्रपिच्छ इसको लेकर विवाद कायम है। उसी प्रकार तत्त्वार्थाधिगम सूत्रभाष्य रचना को लेकर भी विवाद के बादल पूर्ववत् छाये हुए हैं।
तत्त्वार्थाधिमगसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के कर्ता के रूप में उमास्वाति का नाम सामान्यतया श्वेताम्बर परंपरा में सर्वमान्य है । किन्तु पं. फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री प्रभृति दिगम्बर विद्वानों ने तत्त्वार्थ के कर्ता के रूप में उमास्वाति के स्थान पर गृध्रपिच्छाचार्य को स्वीकार किया है। उनके शब्दों में वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगम की रचना की थी किन्तु यह नाम तत्त्वार्थसूत्र का न होकर तत्त्वार्थ के भाष्य का है। इस सन्दर्भ में उन्होंने षट्खण्डागम की धवलाटीका में वीरसेन ( ९वीं शती
डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय
प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी...
सूत्र,
उत्तरार्द्ध) द्वारा उद्धृत तत्त्वार्थ के एक ' तहगिद्धपिंछाइरियाप्पयासिद तच्चत्थसुत्तेवि वर्तना परिणामक्रियाः 'परत्वा परत्वे च कालस्य', विद्यानन्द (९वीं शती उत्तरार्द्ध) द्वारा उनके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' में 'एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्त मुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता' के आधार पर तत्त्वार्थ के कर्ता के रूप में 'गृध्रपिच्छ' का उल्लेख एवं वादिराजसूरि द्वारा पार्श्वनाथ चरित में गृध्रपिच्छ नतोऽस्मि किए गए इन तीन उल्लेखों को अपना आधार बनाया है। इनमें दो प्रमाण नवीं शती के उत्तरार्द्ध एवं एक प्रमाण ग्यारहवीं शती का है। परंतु जहाँ दिगंबर परंपरा में तत्त्वार्थ के कर्ता के रूप में ९ वीं शती के उत्तरार्द्ध से गृध्रपिच्छाचार्य के और १३वीं शती से 'गृध्रपिच्छ उमास्वाति' ऐसे उल्लेख मिलते हैं, वहाँ श्वेताम्बर परंपरा में तत्त्वार्थभाष्य (तीसरी - चौथी शती) तथा सिद्धसेनगणि (८वीं शती) और हरिभद्र (८वीं शती) की प्राचीन टीकाओं में भी उसके कर्ता के रूप में उमास्वाति का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। यही नहीं, उनके वाचक वंश और उच्चैर्नागर शाखा का भी उल्लेख है, जिसे श्वेताम्बर परंपरा अपना मानती है। तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति ही हैं और गृध्रपिच्छ उनका विशेषण है इस बात को दिगम्बर विद्वान् पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने भी स्वीकार किया है। पं. नाथूराम प्रेमी जैसे तटस्थ विद्वानों ने भी तत्त्वार्थभाष्य को स्वोपज्ञ मानकर उसके कर्त्ता के रूप में उमास्वाति को ही स्वीकार किया है। पं. फूलचंद शास्त्री संभवतः इस भय के कारण कि तत्त्वार्थ के कर्ता उमास्वाति को स्वीकार करने पर कहीं भाष्य को भी स्वोपज्ञ न मानना पड़े, उसके कर्त्ता के रूप में गृध्रपिच्छाचार्य का उल्लेख किया है। अतः यह स्पष्ट है कि तत्त्वार्धाधिगमसूत्रभाष्य वाचक उमास्वाति द्वारा रचित प्रस्तुत शास्त्र पर उन्हीं की स्वोपज्ञ कृति है ।
चूँकि हमारा मुख्य विवेच्य ग्रन्थ का कर्ता और उसका समय नहीं है, इसलिए इन विवादों में न पड़कर अपने मूल विवेच्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण का विवेचन करेंगे।
दार्शनिक चिंतनधारा में प्रमाण को एक अत्यंत विचारगर्भ विषय माना गया है। इसीलिए सभी दार्शनिक निकायों में प्रमाण [ २६ টট6টफট6ট66 টটট টি
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शदा को लेकर विस्तृत विचार हुआ है। 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' प्रमाण है, इन्दियाँ नहीं, क्योंकि हेय या उपादेय वस्तु के त्याग जिसके द्वारा प्रमा (अज्ञाननिवृत्ति) हो वह प्रमाण है। प्रमाण शब्द या ग्रहण करने का अतिशय साधन ज्ञान ही है अतः वही प्रमाण की इस व्युत्पत्ति के अनुसार ही न्यायदर्शन के भाष्यकार है। इस प्रकार बौद्ध ज्ञान को प्रमाण मानते हैं किन्तु उनके अनुसार वात्स्यायन ने ज्ञानोपलब्धि के साधनों को प्रमाण कहा है। ज्ञान के दो भेद हैं--निर्विकल्पक और सविकल्पक। बौद्ध मत इसकी व्याख्या करने वालों में मतभेद हैं। न्यायवार्तिककार में प्रत्यक्षरूप ज्ञान निर्विकल्पक होता है और अनुमानरूप ज्ञान उद्योतकर अर्थ की उपलब्धि में सन्निकर्ष को साधकतम मानकर सविकल्पक। ये दो ही प्रमाण बौद्ध मानते हैं, क्योंकि उनके उसे ही प्रमाण मानते हैं। उनके अनुसार अर्थ का ज्ञान कराने में अनुसार विषय भी दो प्रकार का होता है- (१) स्वलक्षणरूप सबसे अधिक साधक सन्निकर्ष हैं। क्योंकि चक्षु का घट के एवं (२) सामान्यलक्षणरूप। स्वलक्षण का अर्थ है वस्तु का साथ संयोग होने पर ही घट का ज्ञान होता है, जिस अर्थ का स्वरूप जो शब्द आदि के बिना ही ग्रहण किया जाता है। इन्द्रिय के साथ सन्निकर्ष नहीं होता, उसका ज्ञान नहीं होता। सामान्यलक्षण का अर्थ है--अनेक वस्तुओं के साथ गृहीत नैयायिक संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, वस्तु का सामान्य रूप जिसमें शब्द का प्रयोग होता है। स्वलक्षण समवेतसमवाय और विशेषणविशेष्यभाव इन छह प्रकार के प्रत्यक्ष का विषय है और सामान्यलक्षण अनुमान का। जो सन्निकर्षों के आधार पर प्रमाण की व्याख्या करते हैं। इसके कल्पना से रहित निर्धान्त ज्ञान होता है, उसे बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष अतिरिक्त नैयायिक कारक-साकल्य को भी प्रमा का कारण कहा गया है। मानते हैं। जो साधकतम होता है वह करण है और अर्थ का
__ जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के संबंध में उक्त मतों को व्याभिचाररहित ज्ञान कराने में जो करण है, वह प्रमाण है। उनकी
अस्वीकार किया है। जैनों के अनुसार नैयायिकों द्वारा मान्य मान्यता है कि ज्ञान किसी एक कारक से नहीं होता अपितु समग्र
सन्निकर्षादि को प्रमाण नहीं माना जा सकता। क्योंकि उक्त कारकों के होने पर नियम से होता है। इसलिए कारक-साकल्य
कल्य सन्निकर्षादि (जड़) अज्ञानरूप हैं और अज्ञान से अज्ञाननिवृत्ति ही ज्ञान की उत्पत्ति में करण है, अत: वही प्रमाण है।
रूप प्रमा संभव नहीं है। अज्ञान निवृत्ति में अज्ञान का विरोधी सांख्य अर्थ की प्रमिति में इन्द्रिय-वृत्ति को साधकतम मानते ज्ञान ही कारण हो सकता है, जिस प्रकार अंधकार की निवृत्ति में हुए उसे ही प्रमाण मानता है। इन्द्रियाँ जब विषय के आकार परिणमन अंधकार का विरोधी प्रकाश। इन्द्रियसन्निकर्षादि ज्ञान की उत्पत्ति करती हैं तभी वे अपने प्रतिनियत शब्द आदि का ज्ञान कराती में साक्षात् कारण हो सकते हैं पर प्रमा में साधकतम तो ज्ञान ही हैं। इंद्रियों की विषयाकार-परिणित वृत्ति ही प्रमाण है। हो सकता है। दूसरे, जिसके होने पर ज्ञान हो और नहीं होने पर न मीमांसक ज्ञातृव्यापार को प्रमाण मानते हैं। उनका मानना
हो, वह उसमें साधकतम माना जाता है। जबकि सन्निकर्ष में ऐसी
बात नहीं है। कहीं-कहीं सन्निकर्ष के होने पर भी ज्ञान नहीं होता. है कि ज्ञातृव्यापर के बिना पदार्थ ज्ञान नहीं हो सकता। कारक तभी कारक कहा जाता है, जब उसमें क्रिया होती है। इसलिए
जैसे घट की तरह आकाश आदि के साथ भी चक्ष का संयोग क्रिया से यक्त द्रव्य को कारक कहा गया है. जैसे-रसोई पकाने रहता है, फिर भी आकाश का ज्ञान नहीं होता। एक ज्ञान ही है जो के लिए चावल, पानी, आग आदि अनेक कारक जो पहले से
बिना किसी व्यवधान के अपने विषय का बोध कराता है। अतः तैयार होते हैं, उनके मेल से रसोई होती है, उसी प्रकार आत्मा,
वही प्रमिति में साधकतम है और इसलिए वही प्रमाण है, मन, इन्द्रिय और पदार्थ इन चारों का मेल होने पर ज्ञाता का
सन्निकर्षादि नहीं। तीसरे, यदि सत्रिकर्षादि को प्रमाण माना जाए व्यापार होता है, जो पदार्थ के ज्ञान में साधकतम कारण है। तो सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों के साथ इन्द्रियों का अतः ज्ञातृव्यापार ही प्रमाण है।
संबंध न होने से उनके द्वारा उन पदार्थों का ज्ञान असंभव है,
___ फलतः सर्वज्ञता का अभाव हो जाएगा। इसके अतिरिक्त इन्द्रियाँ बौद्धों के अनुसार प्रमाण का लक्षण है--अर्थसारूप्य। वे
अल्प - केवल स्थूल, वर्तमान और आसन्न विषयक हैं और ज्ञेय मानते हैं कि अर्थ के साथ ज्ञान का जो सादृश्य होता है, वही
सूक्ष्म अपरिमिति है। ऐसी स्थिति में इंद्रियों और सत्रिकर्ष से प्रमाण है। उनके सारूप्य लक्षण प्रमाण का तात्पर्य है कि बुद्धि
समस्त ज्ञेयों का ज्ञान कभी नहीं हो सकता। चक्ष और मन ये
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- चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन दोनों अप्राप्यकारी होने के कारण सभी इंद्रियों का पदार्थों के सुप्त और जाग्रत् अवस्था में कोई अंतर नहीं रहेगा। यदि वृत्ति साथ सन्निकर्ष भी संभव नहीं। चक्षु स्पृष्ट का ग्रहण न करने और को इन्द्रिय से भिन्न मानें तो इन्द्रिय वृत्ति की ही उपपत्ति नहीं हो योग्य दूर स्थित अस्पृष्ट का ग्रहण करने से अप्राप्यकारी है। यदि पाती तो फिर उसे प्रमाण कैसे माना जा सकता है। चक्ष प्राप्यकारी हो तो उसे स्वयं में लगे अंजन को भी देख लेना बौदों के निर्विकल्पक ज्ञान को भी प्रमाण नहीं माना जा चाहिए। अत: सन्निकर्ष और इंद्रियादि प्रमाण नहीं हो सकते।
सकता, क्योंकि निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानने पर विकल्प उसी प्रकार कारक-साकल्य को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता।
के आधार पर जाने वाले लोक - व्यवहार आदि संभव नहीं कारक - साकल्य को प्रमाण मानने पर प्रश्न उठता है कि कारक
हो सकेंगे। यदि बौद्ध यह कहें कि निर्विकल्पक ज्ञान में साकल्य मुख्य रूप से प्रमाण है या उपचार से। वह मुख्य रूप से
सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति है, अत: वह प्रवर्तक है प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि कारक-साकल्य अज्ञान रूप है और प्रवर्तक होने से प्रमाण है. तो प्रश्न उठता है कि जो स्वयं
और जो अज्ञान रूप है, वह स्व और पर की प्रमिति में मुख्य निर्विकल्पक है वह विकल्प को कैसे उत्पन्न कर सकता है. रूपेण साधकतम नहीं हो सकता। प्रमिति में मुख्य साधकतम तो
क्योंकि निर्विकल्पक होने और विकल्प उत्पन्न करने की सामर्थ्य अज्ञान का विरोधी ज्ञान ही हो सकता है। क्योंकि ज्ञान और का परस्पर विरोध है। यदि कहा जाए कि विकल्प वासना की प्रमिति के बीच में किसी दूसरे का व्यवधान नहीं है। ज्ञान के अपेक्षा लेकर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष विकल्पक को उत्पन्न कर होते ही पदार्थ की प्रमिति हो जाती है। किन्तु कारक - साकल्य
सकता है, तो विकल्पवासना सापेक्ष अर्थ ही विकल्प को उत्पन्न में यह बात नहीं है। कारक - साकल्य ज्ञान को उत्पन्न करता है,
कर देगा, दोनों के बीच में एक निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की तब पदार्थ की प्रमिति या जानकारी होती है। अतः कारक -
आवश्यकता ही क्या है और यदि निर्विकल्पक, विकल्प को साकल्य और प्रमिति के बीच में ज्ञान का व्यवधान होने से
उत्पन्न नहीं करता तो बौद्धों का यह कथन कि-- कारक - साकल्य को मुख्य रूप से प्रमाण नहीं माना जा सकता।
"यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता'' सांख्यों की इन्द्रियवृत्ति को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि इन्द्रियवृत्ति अचेतन है और जो अचेतन है, वह पदार्थ के
अर्थात्, जिस विषय में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सविकल्पक ज्ञान में साधकतम नहीं हो सकता। इन्द्रियवृत्ति क्या है? इन्द्रियों
हो बुद्धि को उत्पन्न कर सकता है, उसी विषय में वह प्रमाण है, का पदार्थ के पास जाना, पदार्थ की ओर अभिमुख होना अथवा
उनकी ही मान्यता के विरोध में आता है। फिर भी यदि सविकल्पक पदार्थों के आकार का हो जाना। प्रथम पक्ष ठीक नहीं है,
बुद्धि को उत्पन्न करने पर ही निर्विकल्पक का प्रामाण्य अभीष्ट है क्योंकि इन्द्रियों पदार्थ के पास नहीं जातीं अन्यथा दूर से ही
तो सविकल्पक को ही बौद्ध प्रमाण क्यों नहीं मान लेते, क्योंकि
वह संवाहक है, अर्थ की प्राप्ति में साधकतम है और अनिश्चित किसी पदार्थ के ज्ञान की उपपत्ति नहीं हो जाएगी। दूसरा पक्ष भी
अर्थ का निश्चायक है। अत: निर्विकल्पक ज्ञान को भी सत्रिकर्ष ठीक नहीं है, क्योंकि इन्द्रियों का पदार्थ की ओर अभिमुख होना ज्ञान की उत्पत्ति में कारण होने से उपचार से प्रमाण हो सकता है की तरह प्रमाण नहीं माना जा सकता। वास्तव में तो प्रमाण ज्ञान ही है। तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, उसी प्रकार मीमांसकों के ज्ञातृव्यापार को भी प्रमाण नहीं क्योंकि इन्द्रियों का पदार्थ के आकार का होना प्रतीतिविरुद्ध है। माना जा सकता। क्योंकि ज्ञातृव्यापार की सत्ता प्रत्यक्ष अनुमानादि जैसे दर्पण पदार्थ के आकार को अपने में धारण करता है. वैसे किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकती। फिर भी यदि ज्ञातव्यापार श्रोत्र आदि इन्द्रियाँपदार्थ के आकार को धारण करते नहीं देखी का अस्तित्व मानें तो प्रश्न उठता है कि वह कारकों से जन्य है या जातीं। फिर भी यदि इन्द्रियवृत्ति होती है ऐसा मान भी लिया जाए अजन्य। अजन्य तो हो नहीं सकता, क्योंकि वह एक व्यापार है। तो प्रश्न उठता है कि वृत्ति इन्द्रिय से भिन्न है या अभिन्न। यदि व्यापार तो कारकों से ही जन्य हुआ करता है। यदि जन्य है तो अभिन्न है तो उसे इन्द्रिय ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि तब वह भावरूप है या अभावरूप। अभावरूप हो नहीं सकता, इन्द्रिय और उनकी वृत्ति एक ही हुई। परंतु निद्रावस्था में यदि क्योंकि यदि अभावरूप ज्ञातृव्यापार से भी पदार्थों का बोध हो इन्द्रिय और उसके व्यापार या वृत्ति की अभिन्नता मानी जाए तो जाता है तो उसके लिए कारकों की खोज करना ही व्यर्थ है।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन पुनः ज्ञातृरूप व्यापार, ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप। यदि वह ज्ञानरूप निर्विवाद रूप से चले आ रहे हैं। यदि हम प्रमाण भेद की चर्चा को है तो अत्यंत परोक्ष नहीं हो सकता जैसा कि मीमांसक मानते हैं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखें तो आगमिक साहित्य में स्थानांगरे३
और यदि जातरूप व्यापार अज्ञानरूप है. तो वह घट-पट की और भगवतीसत्र में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो प्रमाणों का उल्लेख तरह प्रमाण नहीं हो सकता।
मिलता है, जिनमें इन दो मुख्य प्रमाणों के अंतर्गत ही पञ्चज्ञानों की उपर्यक्त सभी समस्याओं के समाधान हेत जैन दार्शनिक योजना की गई है, परंतु साथ ही इनमें चार प्रमाणों का भी उल्लेख ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। 'प्रमीयतेऽस्तैिरिति प्रमाणानि'१६
मिलता है। इसमें ऐसा प्रतीत होता है कि प्रमाणों के ये दो भेद इन अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों को भली प्रकार से जाना जाए, वह
दोनों ग्रन्थों में नियुक्तिकार भद्रबाहु के बाद ही दाखिल हुए होंगे, प्रमाण है। इस व्यत्पत्ति के आधार पर आचार्य उमास्वाति ने क्योकि आवश्यकनियुक्ति जो भद्रबाहुकृत मानी जाती है और सम्याज्ञान को प्रमाण कहा है। उन्होंने मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय
जिसका आरंभ ही ज्ञान-चर्चा से होता है, उसमें मति, श्रुत आदि और केवल इन पाँच ज्ञानों को सम्यक् ज्ञान कहकर उन्हें स्पष्टतया
विभाग से ज्ञानचर्चा तो है परंतु प्रत्यक्षादि प्रमाणभेद की चर्चा का प्रमाण प्रतिपादित किया है। उमास्वाति के परवर्ती आचार्य ।
सूचन तक नहीं होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि नियुक्ति के समय समन्तभद्र (ई. सन् ५७५-६२५) ने अपने प्रमाण की परिभाषा .
तक जैनाचार्य ज्ञानचर्चा करते थे तो पञ्चज्ञान के ही रूप में, किन्तु में उमास्वाति का ही आधार ग्रहण करते हुए तत्त्वज्ञान को प्रमाण
अन्यदर्शनों में प्रतिष्ठित प्रमाण चर्चा से पूर्णतः अनभिज्ञ भी नहीं थे। माना है। प्रमाण को उन्होंने दो भागों में विभक्त किया है--(१)
इसका प्रमाण हमें उसी भद्रबाहुकृत दशवैकालिकनियुक्ति में मिल युगपत्सर्वभासी (२) क्रमभासी जो स्याद्वाद नय से सुसंस्कृत
जाता है जिसमें परार्थानुमान की चर्चा की गई है, यद्यपि वह अवयवांश होता है। यदि ध्यान दिया जाए तो उमास्वाति और समन्तभद्र के
न में अन्य दर्शनों की परार्थानुमान शैली से अनोखी है। प्रमाण लक्षणों में शब्दभेद को छोड़कर कोई मौलिक अर्थभेद संभवतः सबसे पहले अनुयोगद्वार में न्यायसम्मत प्रत्यक्ष, प्रतीत नहीं होता क्योंकि सम्यक्त्व और तत्त्व का एक ही अर्थ है अनुमानादि चार प्रमाणों को दाखिल किया गया। इससे पूर्व तो सत्य - यथार्थ । आचार्य समन्तभद्र ने तत्त्वज्ञान को अन्यत्र जैनाचार्यों की मुख्य विचार-दिशा प्रमाणद्वय विभाग की ओर ही 'स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुविबुद्धिलक्षणम्' कहकर रही है। इसी परंपरा के अनुसार आचार्य उमास्वाति ने स्वपरावभासक ज्ञान के रूप में उपन्यस्त किया है। वस्तुतः तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दो प्रमाणों की ही स्वपरावभासक ज्ञान का अभिप्राय भी सम्यग्ज्ञान ही है, क्योंकि चर्चा की है और प्रमाणचतुष्टय विभाग जो मूलतः न्यायदर्शन२९ ज्ञान का सामान्य धर्म ही है अपने स्वरूप को जानते हुए परपदार्थ का है, को 'नयवादान्तरेण३० कहकर प्रमाणद्वय विभाग को ही को जानना। समन्तभद्र की इस परिभाषा में न्यायावतारकर्ता जैन परंपरा सम्मत माना है। उन्होंने इन दो प्रमाणों में ही दर्शनान्तरीय (न्यायवतार के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर नहीं हैं)१८ ने बाधविवर्जित अन्य प्रमाणों को भी अन्तर्भूत माना है। पद जोड़कर 'प्रमाणं स्वपरभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम्१९' कहा।
भारतीय दर्शन के अन्य दार्शनिक निकायों में चार्वाक एक किन्तु बाधविवर्जित पद विशेषण से जिस अर्थ की उत्पत्ति होती है,
मात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है। बौद्ध और वैशेषिक प्रत्यक्ष उसका संकेत आचार्य उमास्वाति ने सम्यग्ज्ञान में प्रयुक्त
और अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं। सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान और 'सम्यक्शब्द' के द्वारा ही कर दिया था। उमा स्वाति के सम्यग्ज्ञान
शब्द इन तीन प्रमाणों को मानता है। नैयायिक सांख्य के तीन भेदों प्रमाण की उपर्युक्त परिभाषा को ही आधार मानकर सर्वार्थसिद्धिकार में उपमान को जोडकर चार भेद स्वीकार करते हैं। मीमांसकों में पूज्यपाद, २० भट्टअकलंक २१ (७वीं शती), विद्यानन्दि (वि. १०वीं
प्रभाकरानुयायी चार भेदों में अर्थापत्ति को जोड़कर पाँच एवं शती), माणिक्यनंदी २२ (वि.१०वीं शती), हेमचन्द्र तथा अनंतवीर्य
कुमारिल भट्टानुयायी और वेदान्ती प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, आदि परवर्ती आचार्यों ने भी अपनी प्रमाण संबंधी परिभाषाएँ दीं।
अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ये छह प्रमाण मानते हैं। पौराणिक प्रमाण के प्रकार
लोग सम्भव और एतिह्य को मिलाकर आठ एवं तांत्रिक इसमें चेष्टा
नामक एक प्रमाण जोड़कर नौ प्रमाणों को स्वीकार करते हैं। प्राचीनकाल से ही प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद
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- यतीन्द्रसूरि मारrict - जैन दर्शन - उमास्वाति ने इन सारे प्रमाणों का अन्तर्भाव जैन दर्शन के प्रत्यक्ष व रहित केवल आत्मा के प्रति जो नियत है या जो ज्ञान बाह्य परोक्ष इन दो प्रमाणों में ही माना है।
इन्द्रियादि की अपेक्षा न होकर केवल क्षयोपशमवाले या परोक्ष- आचार्य उमास्वाति ने मति श्रत अवधि मनःपर्याय और आवरणरहित आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। केवल इन पाँच ज्ञानों में 'आद्ये परोक्षम्'३३ कहकर आदि के
'अक्षं प्रतिनियतिमिति परापेक्षा निवृत्तिः' अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष प्रमाण माना है। इनको परोक्ष न को पोशासन
पर
पर की अपेक्षा नहीं होती। प्रमाण क्यों कहते हैं? इसके उत्तर में उनका कहना है कि ये दोनों ही आचार्य उमास्वाति ने इसी आधार पर आत्मसापेक्ष और ज्ञान निमित्त की अपेक्षा रखते हैं, इसलिए ये परोक्ष हैं। परोक्ष ज्ञान में इन्द्रियादि की अपेक्षा के बिना होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा इन्द्रिय और मन इन दोनों को निमित्त माना गया है।
है। तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में उन्होंने इन्द्रिय और मन के निमित्त प्रत्यक्ष - प्रत्यक्षशब्द की व्युत्पत्ति दो शब्दों से मिलकर हुई है -
से होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहा है और मतिज्ञान और श्रुत ज्ञान प्रति + अक्ष = प्रत्यक्ष। अक्ष शब्द की व्युत्पत्ति अश् धातु से ।
को छोड़कर अवधि, मनःपर्याय और केवल को प्रत्यक्ष कहा होती है जिसका अर्थ व्याप्त होना है।
है।९। बाद के सभी जैनाचार्यों ने उमास्वाति की इसी परिभाषा को
आधार बनाकर प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण का विवेचन किया है। इस प्रकार 'अश्नुते व्याप्नोति विष यान् स्ववृत्त्या संयोगेन वा अक्ष स' पद प्राप्त होता है जिसका अर्थ है जो ज्ञान रूप से
न्यायवतारकर्ता ने अपरोक्ष रूप से ग्रहण किए जाने वाले सभी वस्तओं में व्याप्त या विद्यमान होता है अर्थात जीव। ज्ञान का प्रत्यक्ष कहा ह अश् धातु से भी अक्ष शब्द की उत्पत्ति संभव है। अश् का
अपरोक्षतयाऽर्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम्। अर्थ है भोजन करना। चूँकि जीव सभी पदार्थों का भोक्ता है,
प्रत्यक्षमितिरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया।४० इसलिए व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ के अनुसार भी अक्ष का अर्थ आत्मा परोक्ष क्या है, असाक्षादर्थग्राहकं ज्ञानं परोक्षमिति १ अर्थात् ही हुआ।
असाक्षात् अर्थ का ग्राहक परोक्ष है, एवं जो अपरोक्ष अर्थात् अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय भी किया जाता है। न्यायदर्शन साक्षात् अर्थ का ग्राहक है वह प्रत्यक्ष है। में प्रत्यक्ष की जो परिभाषा दी गई है, उसमें प्रयुक्त अक्ष शब्द भट्ट अकलंक के अनुसार 'इन्द्रिय और मन की अपेक्षा के इन्द्रिय अर्थ का ही द्योतक है- 'अक्षस्याऽक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः बिना जो व्यभिचार रहित साकार ग्रहण होता है, उसे प्रत्यक्ष प्रत्यक्षम्।' यहां अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय और वृत्ति का अर्थ कहते हैं' ४२, न्यायविनिश्चय में उन्होंने 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं है सन्निकर्ष अर्थात् इन्द्रिय का अर्थ के साथ संबंध होने पर उत्पन्न साकारमञ्जसा'४३ कहकर प्रत्यक्ष को परिभाषित किया है, अर्थात् ज्ञान प्रत्यक्ष है, ऐसा न्यायदर्शन३५ का मत है।
जो ज्ञान स्पष्ट है वही प्रत्यक्ष है। इस परिभाषा में उपर्युक्त परिभाषा - जैन परंपरा अक्ष शब्द का अर्थ जीव या आत्मा करती में आए साकार पद के साथ अञ्जसा पद भी आया है। है और तदनुसार इन्द्रिय निरपेक्ष और केवल आत्मपरोक्ष ज्ञान ।
साकार का अर्थ है सविकल्पकंज्ञान क्योंकि निर्विकल्पकज्ञान को ही प्रत्यक्ष मानती है और इंद्रियाश्रित ज्ञान को परोक्ष। कहीं
को जैन दर्शन में प्रमाण नहीं माना गया है। अजसा पद कहीं अक्ष शब्द का इन्द्रिय अर्थ लेकर भी व्युत्पत्ति का आश्रयण ।
पारमार्थिक दृष्टि का सूचक है। प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए यह आवश्यक किया गया है, पर वह दर्शनान्तर प्रसिद्ध परंपरा तथा लोक
है कि वह परमार्थ में भी विशद हो। वैशद्य का लक्षण करते हुए व्यवहार के संग्रह की दृष्टि से। पूज्यपाद अक्ष शब्द की व्याख्या '
लघीयत्रय में उन्होंने कहा है कि--- करते हुए लिखते हैं कि 'अक्ष्णोति व्याप्नोति जानतीत्यक्ष आत्मा'३७। अनुमानाद्यति रेकेण विशेषप्रतिभासनम। अक्ष, व्याप और ज्ञा ये धातुएँ एकार्थक हैं, इसलिए अक्ष का अर्थ
तद्वैशद्यं मतं बुद्धेरवैशद्यमत: परम्।।" आत्मा होता है और 'तमेवप्राप्तवृक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा
अर्थात् अनुमानादि से अधिक नियत देश, काल और प्रतिनियतं वा प्रत्यक्षम३८' अर्थात् क्षमोपशम वाले या आवरण ,
__ आकार रूप में प्रचुरतर विशेषों के प्रतिभासन को वैशद्य कहते
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- चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन हैं। दूसरे शब्दों में जिस ज्ञान में किसी अन्य ज्ञान की सहायता बिना किसी अन्य प्रमाण के होता है, या यह इदन्तया प्रतिभासित अपेक्षित न हो वह ज्ञान विशद कहलाता है। अनुमान में लिंगादि होता है उसे वैशद्य कहते हैं। 'प्रमाणान्तरान्पेक्षेदन्तया प्रतिभासो की आवश्यकता पड़ती है, परंतु प्रत्यक्ष में किसी अन्यज्ञान की वा वैशद्यम्' अर्थात् प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं होने का कथन आवश्यकता नहीं होती।
माणिक्यनन्दी एवं प्रभाचन्द्र का अनुसरण प्रतीत होता है, किन्तु अवधेय है कि बौद्ध दार्शनिक भी विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष
इदन्तया प्रतिभास प्रत्यक्ष में ही होता है, अनुमानादि में नहीं मानते हैं४५ परंत वे केवल निर्विकल्पक जान को ही प्रत्यक्ष की अतः विशदता की यह नई विशेषता कही जा सकती है। प्रश्न सीमा में रखते हैं ४६ । प्रत्यक्ष की उनकी परिभाषा है 'कल्पनापोढम्
उठता है कि जैन दर्शन में इन्द्रिय व्यापार से जनित ज्ञान को भ्रान्तं प्रत्यक्षम्' अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान को कल्पना स्वभाव, और ।
अन्य भारतीय दार्शनिकों की भांति प्रत्यक्ष एवं व्यापार से रहित किसी भी प्रकार के विपर्यय या भ्रांति से रहित होना चाहिए।
ज्ञान को परोक्ष क्यों नहीं कहा गया? पूज्यपाद ने जैन ज्ञान जैनदार्शनिक परंपरा को बौद्धों का उक्त निर्विकल्पक या
मीमांसा के आधार पर इसका समाधान प्रस्तुत किया है। जैन कल्पनापोढ प्रत्यक्ष लक्षण मान्य नहीं है। भट्ट अकलंक, विद्यानन्दी,
दर्शन में सर्वज्ञ आप्तपुरुष प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों को प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्राचार्य तथा अभिनवभूषण ने बौद्धों के
जानता है। यदि सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष इन्द्रिय के निमित्त से हो तो उक्त प्रत्यक्ष काखण्डन किया है। कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्पक
सर्वज्ञ समस्त पदार्थों को प्रत्यक्षपूर्वक नहीं जान सकेगा, अर्थात् प्रत्यक्ष यदि सर्वथा कल्पनापोढ है तो प्रमाण ज्ञान है, प्रत्यक्ष
उसकी सर्वज्ञता सिद्ध नहीं हो सकेगी, किन्तु आप्तपुरुष सर्वज्ञ है कल्पनापोढ है, इत्यादि कल्पनाएँ भी उसमें नहीं की जा सकेंगी
तथा वह समस्त पदार्थों का प्रतिक्षण प्रत्यक्ष करता है। उसकी और इस प्रकार उसके अस्तित्व आदि की कल्पना भी नहीं की यह
यह प्रत्यक्षता तभी सिद्ध हो सकती है, जब वह मात्र आत्मा द्वारा जा सकेगी। उसका 'अस्ति' इस प्रकार से भी सद्भाव सिद्ध नहीं ।
समस्त अर्थों को जानता हो। पूज्यपाद के समाधान को अकलंक होगा, एवं यदि उसमें इन कल्पनाओं का सद्भाव माना जाता है ने भी विस्तृतरूपेण प्रस्तुत कर पुष्ट किया है। तो वह स्ववचन-व्याघात है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन्द्रियादि के बिना आत्मा को अत: जैन दार्शनिक सविकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानकर
बाह्यार्थों का प्रत्यक्ष किस प्रकार होता है? अकलङ्क ने इसका विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष की कोटि में रखते हैं। विशदता और समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जिस प्रकार रथ का निश्चयता विकल्प का अपना धर्म है और वह ज्ञानावरण के
निर्माता तपोविशेष के प्रभाव से ऋद्धिविशेष प्राप्त करके बाह्य क्षयोपशम के अनुसार इसमें पाया जाता है। अत: जिन विकल्प
उपकरणादि के बिना भी रथ का निर्माण करने में सक्षम होता है, ज्ञानों का विषयभूत पदार्थ बाह्य में नहीं मिलता वे विकल्पाभास उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष हैं, प्रत्यक्ष नहीं। मणिक्यनन्दी, वादिदेवसूरि तथा हेमचन्द्र ने
अथवा सम्पूर्णक्षय से इंद्रियादि बाह्यसाधनों के बिना ही बाह्यार्थों प्रत्यक्ष को क्रमश: निम्नप्रकार से परिभाषित किया है--
को जानने में सक्षम होता है। (क)विशदं प्रत्यक्षमिति
संक्षेप में यह कहा जा सकता है आगमिक परंपरा के
अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण आत्माश्रित है तथा ज्ञानावरण कर्म के ... (ख)स्पष्टं प्रत्यक्षं
क्षयोपशम अथवा क्षय से बाहयार्थों का ज्ञान होता है, इसमें (ग) विशदः प्रत्यक्षं
इन्द्रियादि के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती है। माणिक्यनन्दी विशद की व्याख्या करते हुए कहते हैं--
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्यक्ष प्रमाण का मुख्य लक्षण प्रतीत्यन्नराव्यवधानेन विशेषणतया या प्रतिभासनं 'आत्मसापेक्ष एवं विशद या स्पष्ट ज्ञान' ही जैन परंपरा में मान्य है। वैशद्यमिति'अर्थात् वह ज्ञान जो अन्यजन के व्यवधान से रहित प्रत्यक्ष के प्रकार-- होता है तथा जो विशेषणों के साथ प्रतिभासित होता है, उसे वैशद्य कहते हैं। हेमचन्द्रचार्य के अनुसार जिसका प्रतिभासन
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में उमास्वाति ने प्रत्यक्ष प्रमाण में tooardwariyanararianardaridratariwarodrividi३ १ dmirikardinianiramidnidaridaridrbarsaarddada
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन अवधि, मनःपर्याय एवं केवल इन तीनों ज्ञानों का ही समावेश उमास्वाति ने जो यथायोग्य ५४ शब्द का निर्देश किया है उसका किया है और इन्हीं की व्याख्या प्रत्यक्ष के रूप में की है। 'अक्ष' तात्पर्य है कि सभी देव अथवा नारकियों का अवधिज्ञान समान शब्द का अर्थ आत्मा मान लेने पर एवं तदनुसार केवल आत्म नहीं होता। जिसमें जितनी योग्यता है उसके अनुसार उन्हें उतना -सापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष मान लेने पर लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष ही होता है। अवधेय है कि तीर्थंकरों को जन्म से अवधि ज्ञान रूप से प्रसिद्ध इन्द्रिय-प्रत्यक्ष मानस - प्रत्यक्ष की समस्या के होने पर भी उनके अवधिज्ञान को भवप्रत्यय नहीं मानते, क्योंकि समन्वय हेतु उमास्वाति के उत्तरवर्ती आचार्यों ने प्रत्यक्ष के उक्त अवधि में तीर्थंकर की आत्मा के गुण कारणभूत हैं। सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष एवं पारमार्थिक-प्रत्यक्ष ये दो भेद किए।
प्रश्न उठता है कि देवों तथा नारकों को उस भव में जन्मग्रहण इन दोनों भेदों का कोई सूचन तत्त्वार्थाधिगमसूत्र या भाष्य में समान अवधिनात पाप्त हो जाता है उन्हें नियमाटि नहीं मिलता। उमास्वाति ने स्पष्ट रूप से इन्द्रियादि निमित्त से
पालन करने की आवश्यकता नहीं होती, तो मनुष्यादि को इसके होने वाले ज्ञान को परोक्ष की संज्ञा दी है, प्रत्यक्ष की नहीं। ऐसा ।
लिए प्रयास क्यों करना पड़ता है? प्रतीत होता है कि बाद के आचार्यों ने कमोबेश नैयायिकों से प्रभावित होकर अपनी प्रमाणमीमांसा में इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का
वस्तुत: क्षयोपशम तो सभी के लिए आवश्यक है। अंतर समावेश किया और उमास्वाति के बताए अवधि, मन:पर्याय
साधन में है। जो जीव केवल जन्म मात्र से क्षयोपशम कर सकते एवं केवल को पारमार्थिक प्रत्यक्ष की संज्ञा दी। अत: हम प्रथमतया
हैं, उनका अवधिज्ञान भवप्रत्यय है एवं जिन्हें इसके लिए विशेष अवधि, मनःपर्यय की और केवल की ही विवेचना करेंगे एवं
प्रयत्न करना पड़ता है, उनका अवधिज्ञान क्षयोपशम निमित्तक
या गुणप्रत्यय है। उमास्वाति 'देवनारकाणाम्' पद से सम्यग्दृष्टियों यथास्थान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की भी संक्षिप्त व्याख्या करेंगे।
का ग्रहण करते हैं, क्योंकि सूत्र में अवधिपद का ग्रहण है। (१) अवधिज्ञान
मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान विभंगज्ञान कहलाता है। अतः उमास्वाति अवधि का अर्थ है - सीमा या मर्यादा, अर्थात् वह
यह मानते हैं कि देव व नारकियों में भी उन्हीं को भव के प्रथम मर्यादित ज्ञान जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा इन्द्रिय
समय में अवधिज्ञान होता है, जो सम्यग्दृष्टि होते हैं। मिथ्यादृष्टियों और मन की सहायता के बिना केवल रूपी पदार्थों को स्पष्ट रूप
को विभंगज्ञान होता है।६।। से जानता है, अवधिज्ञान है। यह ज्ञान अवधिज्ञानावरण के (२) गुण प्रत्यय (क्षयोपशमनिमित्तक)- क्षयोपशमनिमित्तक क्षयोपशम से उत्पन्न होता है।
ज्ञान शेष दो गतिवाले जीव तिर्यञ्च और मनुष्य को होता है। .. अवधिज्ञान दो प्रकार का हैं५१- (१) भवप्रत्यय (२) गुण
अवधिज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्पर्धकों का उदय रहते हुए
सर्वघाती स्पर्धकों का उदयभावी क्षय और अनुदय प्राप्त इन्हीं के प्रत्यय (क्षयोपशमनिमित्तिक)
सद्वस्थारूप उपशम इन दोनों के निमित्त से जो होता है वह (१) भवप्रत्यय- नारक और देवों को जो अवधिज्ञान होता है,
क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान है। तिर्यञ्च और मनुष्य को उसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं५२। भव कहते हैं--आयुनाम
होने वाला यह गुण प्रत्यय अवधिज्ञान सबको नहीं होता, उनमें कर्म के उदय का निमित्त पाकर होने वाली जीव की पर्यायों को
भी जिनको सामर्थ्य है उन्हीं को होता है। असंज्ञी और अपर्याप्तकों और प्रत्यय शब्द का अर्थ है - हेतु अथवा निमित्त कारण। अतः
को यह सामर्थ्य नहीं है। संज्ञी और पर्याप्तकों में भी सबको यह भव ही जिसमें निमित्त हो, वह भवप्रत्यय है। नारक और देवों के
सामर्थ्य नहीं होती केवल उनको, जिनके सम्यग्दर्शनादि निमित्तों अवधिज्ञान में उस भव में उत्पन्न होना ही कारण माना गया है।
के मिलने पर अवधिज्ञानावरण कर्म शांत एवं क्षीण हो गया जैसे पक्षियों का आकाश में गमन करना स्वभाव से या उस भव
हो५९। क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान छह प्रकार का होता है
। में जन्म लेने मात्र से ही आ जाता है, उसके लिए शिक्षा या तप कारण नहीं है, उसी प्रकार जो जीव नरकगति या देवगति को
(१) अनानुगामी (२) आनुगामी (३) हीयमानक (४) प्राप्त होते हैं, उन्हें अवधिज्ञान भी स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।३। '
१३ वर्धमानक (५) अनवस्थित और (६) अवस्थित। आचार्य
उमास्वाति ने इन छह ज्ञानों को इसी क्रम में रखा है। पूज्यपाद
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- यतीन्दसूरि स्मारकास जैन दर्शन एवं भट्टअकलंक ने क्रमशः सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक केवल ज्ञान की प्राप्ति न हो जाए या उसका वर्तमान मनुष्यजन्म में इसे भिन्न क्रम में रखा है यथा - अनुगामी, अननुगामी, छूटकर उसे भवान्तर की प्राप्ति न हो जाए, अवस्थित अवधिज्ञान वर्धमान, हीयमान, अवस्थित एवं अनवस्थित।
कहलाता है। अर्थात् जिसे अवस्थित अवधिज्ञान होता है, उससे (१) अनानगामी६३- जो अवधिज्ञान केवल अपने उत्पत्ति वह तब तक नहीं छूटता जब तक कि उसको केवलज्ञानादि की स्थल में ही योग्य विषयों को जानता है-अनानुगामी अवधिज्ञान
प्राप्ति न हो जाए क्योंकि केवल ज्ञान क्षायिक है, उसके साक्ष: है। जैसे किसी ज्योतिषी या निमित्तज्ञानी आदि के विषय में देखा
क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता। यदि उसी जन्म में केवल जाता है कि वह एक निश्चित स्थान पर ही प्रश्नों का उत्तर दे शान
ज्ञान हो, तो वह जन्मान्तर में भी उस जीव के साथ ही जाता है। सकता है सर्वत्र नहीं। उसी प्रकार अनानुगामी अवधिज्ञान जिस गोम्मटसार में अवधिज्ञान के सामान्य से तीन भेद किए स्थान पर उत्पन्न होता है उससे अन्यत्र वह काम नहीं कर पाता। गए हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि। भवप्रत्यय-अवधि (२) आनुगामी६४- जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्ति-स्थल और ।
ना आरमान और नियम से देशावधि ही होता है तथा परमावधि एवं सर्वावधि स्थानान्तर दोनों ही जगह अपने योग्य विषयों को जानता है, वह
नियम से क्षयोपशमनिमित्तक या गणप्रत्यय ही होते हैं। गोम्मटसार आनुगामी अवधिज्ञान है। जैसे सूर्य पूर्व दिशा के साथ-साथ
में द्रव, क्षेत्र, काल और भाव को लेकर भी अवधि ज्ञान का अन्य दिशाओं को भी प्रकाशित करता है।
विवेचन मिलता है जिसके अनुसार जघन्य भेद से लेकर उत्कृष्ट
भेद पर्यन्त अवधिज्ञान के जो असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं वे (३) हीयमानक५ - असंख्यात द्वीप समुद्र, पृथ्वी, विमान
सब ही द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की अपेक्षा से प्रत्यक्षतया रूपी और तिर्यक, ऊपर अथवा नीचे जितने क्षेत्र का प्रमाण लेकर
द्रव्य को ही ग्रहण करते हैं तथा उसके संबंध में संसारी जीव उत्पन्न हुआ है, क्रम से उस प्रमाण से घटते-घटते जो अवधिज्ञान
द्रव्य को भी जानते हैं किन्तु सर्वावधिज्ञान में जघन्य उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण तक के क्षेत्र को विषय करने
आदि भेद नहीं हैं। वह निर्विकल्प एक प्रकार का है। वाला रह जाए तो उसे हीयपालक अवधिज्ञान कहते हैं। जैसे
आवश्यकनियुक्ति में अवधिज्ञान को क्षेत्र, संस्थान, अवस्थित, अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाने पर भी यदि उससे योग्य ईंधन आदि
तीव्र, मंद इत्यादि चौदह दृष्टकोणों से विवेचित किया गया है। न मिल तो धीरे-धीरे बुझने या कम होने लगती है।
विशेषावश्यकभाष्य में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव (४) वर्धमानक ६ - जो अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यातवें एवं भव इन सात निक्षेपों के माध्यम से अवधिज्ञान को विश्लेषित भाग आदि के बराबर प्रमाण लेकर उत्पन्न हुआ हो और उस किया गया है। प्रमाण से बढ़ता ही चला जाए तो उसे वर्धमानक अवधिज्ञान ,
२) मन:पर्यायज्ञान तत्वार्थाधिगम सूत्र भाष्य के अनुसार कहते हैं।
मनःपर्याय ज्ञान के संबंध में जैन दार्शनिकों में दो मत हैं-प्रथममत (५) अनवस्थित ७- जो अवधिज्ञान एक रूप न रहकर अनेक नन्दीसूत्र, आवश्यकनियुक्ति एवं तत्त्वार्थाधिगम मूल भाष्य पर रूप धारण करे वह अनवस्थित अवधिज्ञान है। यह अवधिज्ञान आधारित है, जिसके अनुसार मनः पर्याय ज्ञान के द्वारा दूसरे के उत्पन्न प्रमाण से कभी घटता है, कभी बढ़ता है और कभी छूट मन में चिंत्यमान अर्थों को जाना जाता है, दूसरा मत भी जाता है। जैसे किसी जलाशय की लहरें वायुवेग का निमित्त विशेषावश्यकभाष्य नन्दीचूर्णि आदि पर आधारित है, जिसके पाकर कभी ऊँची-नीची या नष्टोत्पन्न हुआ करती हैं उसी प्रकार अनुसार मनः पर्याय ज्ञान द्वारा मात्र दूसरे की मन की पर्ययों को शुभ अथवा अशुभरूप जैसे भी परिणामों का इसको निमित्त जाना जाता है और उसमें चिंत्यमान पदार्थों का ज्ञान अनुमान के मिलता है उसके अनुसार इस अवधिज्ञान की हानि, वृद्धि आदि द्वारा होता है। जीव के द्वारा ग्रहीत और मन के आकार में परिणत अनेक अवस्थाएँ हुआ करती हैं।
द्रव्यविशेषरूप मनोवर्गणाओं के आलंबन से विचाररूप पर्यायों (६) अवस्थित८ - वह अवधिज्ञान जो जितने प्रमाण क्षेत्र के को बिना इन्द्रियादि साधनों के साक्षात् जान लेना मनःपर्यय ज्ञान विषय में उत्पन्न हो. उससे वह तब तक नहीं छटता जब तक कि है। संपूर्ण प्रमादों से रहित और जिसे मनःपर्याय ज्ञानावरण का
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- चीन्द्रसरि स्मारकग्रन्यय जैन दर्शन क्षयोपशम प्राप्त हो चुका है उसे ही यह अत्यंत विशिष्ट अवधिज्ञान और मनः पर्यायज्ञान में अंतर - क्षायोपशमिक किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है। जिससे वह मनुष्य लोकवर्ती मनःपर्याप्ति धारण करने वाले पंचेन्द्रिय
उमास्वाति ने इन दोनों ज्ञानों में विशुद्धिकृत, क्षेत्रकृत, स्वामीकृत प्राणिमात्र के त्रिकालवी मनोगत विचारों को बिना इन्द्रिय और और विषयकृत इन चार भेदों का उल्लेख किया है-- मन की सहायता से ही जान सकता है। आवश्यकनियुक्ति५ के (१) विशुद्धिकृत - विशुद्धि का अर्थ निर्मलता है। अवधिज्ञान अनसार मन:पर्याय ज्ञान का अधिकारी केवल मनुष्य ही होता की अपेक्षा मन:पर्यायज्ञान की विशद्धि या निर्मलता अधिक है और मनुष्यों में भी वह चरित्रवान होता है। नन्दीसूत्र में द्रव्य, होती है, क्योंकि वह अपने विषय को अवधिज्ञान से अधिक क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से मनः पर्यायज्ञान का विवेचन करते हुए कहा गया है कि द्रव्यादि की दृष्टि से मन:पर्यायज्ञान के अंतर्गत वे पुद्गल द्रव्य जो मन के रूप में परिवर्तित होते हैं, आते
(२) क्षेत्रकृत - दोनों में क्षेत्रकृत विशेषता यह है कि अवधिज्ञान
। हैं, क्षेत्र की दृष्टि से यह मनुष्यक्षेत्र में पाया जाता है. काल की का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर संपूर्ण लोक पर्यंत दृष्टि से यह असंख्यात काल तक स्थित रहता है और भाव की
है। जबकि मनःपर्यायज्ञान का क्षेत्र मनुष्यलोक प्रमाण है, वह उतने दृष्टि से इनमें मनोवर्गणाओं की अनन्त अवस्थाएं देखी जा सकती
क्षेत्र के भीतर ही संज्ञी जीवों की मनोगत पर्यायों को जानता है। हैं। संयम की विशुद्धता मनः पर्यायज्ञान का बहिरंग कारण है (३) स्वामीकृत - अवधिज्ञान संयमी, साधु, असंयमी जीव और मनःपर्यायज्ञानावरण का क्षयोपशम अंतरंग कारण है। इन।
तथा संयतासंयत श्रावक इन सभी को हो सकता है तथा चारों दोनों कारणों के मिलने पर उत्पन्न होने वाला ज्ञान इंद्रिय अनिन्द्रिय
ही गति वाले जीवों को हो सकता है, जबकि मनःपर्यायज्ञान सहायता के बिना मनुष्य के मनोगत विचारों को जान लेता है।
प्रमत्त संयत से लेकर क्षीणकषाय-गुणस्थान तक के उत्कृष्ट विषयभेद की अपेक्षा से इस ज्ञान के दो भेद हैं - चारित्र से युक्त जीवों में ही पाया जाता है। (१) ऋजुमति (२) विपुलमति७७
(४) विषयकृत - ज्ञान द्वारा जो पदार्थ जाना जाए उसे ज्ञेय ऋजुमति, जीव के द्वारा ग्रहण में आई हुई और मन के अथवा विषय कहते हैं। विषय की दृष्टि से अवधिज्ञान रूपी आकार में परिणत द्रव्य विशेष रूप मनोवर्गणाओं के अवलंबन द्रव्यों८२ एवं उसकी असंपूर्ण पर्यायों को जानता है परंतु अवधि से विचार रूप पर्यायों को इंद्रिय और अनिन्द्रिय की अपेक्षा के के विषय का अनन्तवाँ भाग मनःपर्याय का विषय है.३ अत: बिना ही जानता है। ऋजुमति, ऋजु-सामान्य दो तीन एवं केवल अवधि की अपेक्षा मन:पर्यायज्ञान का विषय अति सूक्ष्म है। वर्तमान पर्यायों को ही ग्रहण करता है। जबकि विपुलमति
(३) केवलज्ञान केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष ज्ञान है। मोह मन:पर्याय ज्ञान त्रिकालवर्ती, मनुष्य के द्वारा चिंतित, अचिंतित
ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय कर्म के क्षय से यह ज्ञान एवं अर्द्धचिंतित ऐसे तीनों प्रकार की पर्यायों को जान सकता है।
प्रकट होता है। केवलज्ञान का विषय संपूर्ण द्रव्य और उनकी ये दोनों ही प्रकार के ज्ञान दर्शनपूर्वक नहीं हुआ करते जबकि
सभी पर्यायें हैं। जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और अवधिज्ञान प्रत्यक्ष होकर भी दर्शनपूर्वक होता है।
काल इन सभी द्रव्यों की पृथक्-पृथक् तीनों कालों में होने मन:पर्याय ज्ञान के इन दोनों भेदों में उमास्वाति ने दो वाली अनंतानन्त पर्यायें हैं। अत: जो ज्ञान इन सबको जानता है विशेषताएँ और बताई हैं--(१) विशुद्धकृत (२) अप्रतिपातकृत वह केवल ज्ञान है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विशिष्ट तथा
ऋजुमति-मन:पर्यायज्ञान की अपेक्षा विपुलमति पर्यायज्ञान उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त सभी पदार्थों को ग्रहण करता है और अधिक विशुद्ध हुआ करता है तथा विपुलमति अप्रतिपाती है। संपूर्ण लोक-अलोक को विषय करता है। इससे उत्कृष्ट और क्योंकि ऋजुमति मन:पर्यायज्ञान उत्पन्न होकर छूट भी जाता है, कोई भी ज्ञान नहीं है और न ही कोई ऐसा ज्ञेय है जो केवलज्ञान
और एक ही बार नहीं अनेक बार उत्पन्न होकर छूट जाता है, परंतु का विषय न हो। केवल ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् व्यक्ति को विपुलमति अप्रतिपाती होने से उत्पन्न होने के अनंतर जब तक कुछ भी जानना शेष नहीं रहता, अत: उसे सर्वज्ञ कहा जाता है। केवल ज्ञान प्रकट न हो तब तक नहीं छूटता।
सर्वज्ञ विश्व के समस्त पदार्थों के तीनों कालों की समस्त पर्यायों
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- गतीन्द्रसूरि स्मारकग्रत्य - जैन दर्शन - को जानता है। इसे केवल, परिपूर्ण, समग्र, असाधारण, निरपेक्ष, तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्९ कहकर इसे मतिज्ञान की श्रेणी में विशुद्ध, सर्वभावज्ञापक लोकालोक विषय और अनन्तपर्यायज्ञान रखा है और इसे प्रत्यक्ष न मानकर परोक्ष ज्ञान कहा है। इन्द्रिय भी कहते हैं। यह अपनी तरह का अकेला ज्ञान है इसलिए इसे निमित्तक और अनिन्द्रिनिमित्तक ज्ञानरूप मतिज्ञान के ४ भेद९० केवल ज्ञान कहते हैं।
किए गए हैं--(१) अवग्रह, (२) ईहा, (३) अवाय (अपाय) सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक - प्रत्यक्ष-उमास्वामि ने प्रत्यक्ष आर (४) धारणा। के अंदर अवधि, मन:पर्याय एवं केवल इन तीन आत्म सापेक्ष इन्द्रिय और अर्थ के संबंधित होने पर जो सामान्यज्ञान होता एवं इन्द्रिय अनिन्द्रिय की सहायता के बिना होने वाले ज्ञानों को है, जिसमें कोई विशेषण, नाम या विकल्प नहीं होता उसे अवग्रह ही लिया है। बाद में जब आगमिक विचार प्रक्रिया में तार्किकता कहते हैं। यह दो प्रकार का है - व्यञ्जना अवग्रह एवं अर्थावग्रह। का प्रवेश हुआ तो ऐसा महसूस किया जाने लगा कि लोकव्यवहार ईहा - अवग्रह द्वारा गहीत जान को विशेष रूप से जानने में प्रसिद्ध इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्ष की समस्या के समन्वय
की इच्छा ईहा है। हेतु इन्हें भी प्रत्यक्ष में शामिल किया जाना चाहिए। नन्दीसूत्रकार ५ ने संभवतः सबसे पहले इन दोनों ज्ञानों को प्रत्यक्ष में शामिल
अवाय (अपाय) - ईहा के द्वारा जाने हुए पदार्थ के कर प्रत्यक्ष के इंद्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष नामक दो
विषय में निर्णयात्मक ज्ञान अवाय है। विभाग किए। इसके बाद जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने धारणा - अवाय से जिस अर्थ का बोध होता है, उसका
अतिविस्तृत भाष्य में द्विविध प्रमाण विभाग में आगमिक पञ्चज्ञान अधिक काल तक स्थिर रहना या स्मृतिरूप हो जाना धारणा है। विभाग (मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्याय, केवल) का तर्कपुरःसर (२) पारमार्थिक या मख्य प्रत्यक्ष - पारमार्थिक प्रत्यक्ष समावेश किया और अनुयोगद्वारकर्ता एवं नंदीकार द्वारा स्वीकृत पर्णरूपेण विशद होता है। जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में मात्र आत्मा इंद्रियजन्य एवं नोइन्द्रियजन्यरूप से विविध प्रत्यक्ष के वर्णन में के ही व्यापार की अपेक्षा रखता है. मन और इन्द्रियों की सहायता आने वाले उस विरोध का परिहार सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक जिसमें अपेक्षित नहीं है. वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष हे५२। प्रत्यक्ष ऐसे दो नाम देकर सर्वप्रथम करने का प्रयास किया जिसे
पारमार्थिक प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं--(१) अवधि, (२) भट्टअकलंक ६, हेमचन्द्राचार्य८७ आदि परवर्ती विद्वानों ने भी
मनः पर्याय और (३) केवल जिसका विवेचन हम पूर्व पृष्ठों में अपनी प्रमाणमीमांसा में स्थान दिया। इन दोनों प्रत्यक्षों का संक्षिप्त
कर चुके हैं। परिचय यहां अप्रासंगिक नहीं होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र में (१) सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष - बाधारहित प्रवृत्ति-निवृत्ति और
प्रत्यक्षप्रमाण की जो व्याख्या आचार्य उमास्वाति ने की है, उसका लोगों का बोलचाल रूप व्यवहार संव्यवहार कहलाता है। इस
मुख्य आधार आगमिक परंपरा-मान्य प्रमाणद्वय ही रहा है, संव्यवहार के लिए जो प्रत्यक्ष माना जाए वह सांव्यवहारिक
इसीलिए उन्होंने प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही भेद किए। प्रत्यक्ष है। यह अपरमार्थिक प्रत्यक्ष पाँच इन्द्रियों एवं मन की
प्रत्यक्ष के अंतर्गत उन्होंने सीधे आत्मा से होने वाली अवधि, सहायता से उत्पन्न होता है। यह दो प्रकार का है--
मनःपर्याय एवं केवल इन तीन ज्ञानों को ही लिया और इन्द्रिय - (१) इंद्रियज (२) अनिन्द्रियज।
तथा मन की सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष की कोटि में चक्षु आदि इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले को इन्द्रियज और रखा। परवर्ती आचार्यों ने इंद्रिय और मनसापेक्ष को सांव्यवहारिक मनोजनित को अनिन्द्रियज कहते हैं। ध्यातव्य है कि इन्द्रियजनित प्रत्यक्ष की संज्ञा दी एवं अवधि, मनःपर्याय और केवल को ज्ञान में भी मन का व्यापार होता है तथापि मन वहाँ साधारण पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा। देखा जाए तो यह इंद्रिय मन-प्रत्यक्ष कारण एवं इन्द्रिय असाधारण कारण होने से उसे इन्द्रियज या भी अनुमान के समान परोक्ष ही है, क्योंकि उमें संशय, विपर्यय इन्द्रियसांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की और अनध्यवसाय हो सकते हैं जैसे असिद्ध, विरुद्ध और सहायता से होने वाले ज्ञान को आचार्य उमास्वाति ने अनेकान्तिक अनुमान। जैसे शब्द-ज्ञान संकेत की सहायता से
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन होता है और अनुमान व्याप्ति के स्मरण से उत्पन्न होता है, अतएव (५) सागरमल जैन, तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परंपरा, पार्श्वनाथ - वे परोक्ष हैं उसी प्रकार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन शोधपीठ, वाराणसी १९९४, पृ. ४
तथा आत्मव्यापार की सहायता से उत्पन्न होता है अतः वह भी (६) प्रमाणपरीक्षा, सम्पा. दरबारीलाल कोठिया, वीरसेवा मंदिर परोक्ष ही है। संभवत: उमास्वाति को इन तथ्यों का ज्ञान था
ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी १९७७, पृ. ९ इसलिए उन्होंने इंद्रिय और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को
(अ) प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणं 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्'कहकर उसे परोक्ष की कोटि रखा।
पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, १/१०, पृ. ७० भट्ट अकलंक, हेमचन्द्र आदि आचार्य जिन्होंने इंद्रियमनोनिमित्तक
(ब) प्रमीयन्तेऽयस्तैरिति प्रमाणानि प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की संज्ञा दी उन पर नन्दीसूत्रकार के इन्द्रिय अनिन्द्रिय रूप से किए गए प्रत्यक्ष विभाग तथा नैयायिकों
उमास्वाति, सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, श्रीमद् . के 'इंद्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि
राजचंद्र आश्रम अगास १९३२, १/१२ व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्'९३ रूप से की गई प्रत्यक्ष की परिभाषा (७) न्यायभाष्य, सम्पा. आचार्य ढुंढिराज शास्त्री, चौखम्भा का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। ऐसा नहीं था कि संस्कृत संस्थान, वाराणसी वि.सं. २०३९, पृ. १८ उमास्वाति नैयायिकों की प्रमाणमीमांसा से परिचित नहीं थे, (८ ) न्यायमञ्जरी, जयंत भट्ट, संपा. के.एस. वरदाचार्य, क्योंकि नयवादान्तरेण९४ कहकर तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष के ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यू ९६९, पृ. १२ अतिरिक्त अनुमान उपमानादि प्रमाणों को नैयायिकों का कहकर,
(९) न्यायबिन्दु, चौखम्भा सिरीज काशी, पृ. १३ उन सारे प्रमाणों को इन्हीं दो मुख्य प्रमाणों में अंतर्भूत माना है,
(१०) अर्थसंनिकर्षे प्रमाणे सति इन्द्रिये वा को दोषः। यदि सन्निकर्षः पर यह जरूर था कि उनसे वे प्रभावित नहीं थे। फिर उमास्वाति
प्रमाणम. सक्ष्मव्यवहितप्रकष्टानामर्थानाम ग्रहणप्रसंगः। की प्रत्यक्ष की परिभाषा में ऐसा कोई दोष परिलक्षित नहीं होता
सर्वार्थसिद्धि, १/१०, पृ. ६९. जिसका परिहार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को मान लेने मात्र से हो गया हो। क्योंकि परवर्ती आचार्य भी अवधि, मनःपर्याय और र
(११) सर्वार्थसिद्धि- १/१९ । केवल को पारमार्थिक प्रत्यक्ष तो मानते ही हैं। अतः उमास्वाति (१
२) जैनन्याय, सम्पा. पं.कैलाशचंद्र शास्त्री, श्री गणेशवर्णी द्वारा प्रत्यक्षप्रमाण-विवेचन जो तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में हुआ
दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी १९८८, पृ. २७ है, वह अपने आप में पूर्ण है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
नोट : संदर्भ १३ से २९ तक अप्राप्त ।
(३०) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्र- १/६ सन्दर्भ
(३१) (अ) वैशेषिकसूत्र, सम्पा. आचार्य ढुंढिराज शास्त्री, चौखंभा (१) सर्वार्थसिद्धि सम्पा. पं. फूलचंद सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय
संस्कृत संस्थान, वाराणसी १९७७, ९/२/३ ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली १९९१, प्रस्तावना पृ. ६२
(ब) संख्यकारिका, ईश्वरकृष्ण, सम्पा. रमाशंकर त्रिपाठी, (२) षट्खण्डागम (धवला टीका एवं हिन्दी अनुवाद सहित)
भदैनी, वाराणसी १९७८, कारिका-४ पुष्पदन्त भूतबलि, जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय,
(स) न्यायसूत्र १/१/३ अमरावती, प्रथम आवृत्ति १९५९।
(द) प्रकरणपंचिका-शालिकनाथ संस्कृत सिरीज, वाराणसी, (३) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, सम्पा श्री विद्यानंद मनोहरलाल शा.,
पृ. ४४ रामचंद्र नथरंगजी गांधी, मांडवी, बंबई १९१८, पृ.६
(य) शास्त्रदीपिका, सम्पा. पार्थसारथि मिश्र, निर्णयसागर, (४) पं. जुगलकिशोर मुख्तार, जैन साहित्य और इतिहास पर
बंबई, प्रथम संस्करण, १९१५, पृ. २४६ विशद् प्रकाश, वीरसेवा मंदिर सरसावा, सहारनपुर १९५६,
(३२)सर्वाण्येतानिमतिश्रुतयोरन्तर्भूतानीन्द्रियार्थसन्निकर्षनिमितत्त्वात्। पृ. २०२
सभाष्यतत्त्वार्थधिगमसूत्र- १/१२.
गिन
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(३३) वही, १/११
(३४) न्यायदर्शनम् (वात्स्यायनभाष्य), सम्पा. आचार्य ढूंढिराज शास्त्री, चौखंभा संस्कृत संस्थान, वाराणसी वि.सं. २०३९,
१/१/३.
(३५) इंद्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञान... प्रत्यक्षम् । न्यायदर्शनम् १/
१/४
(३६) (अ) सर्वार्थसिद्धि १/१२
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
(ब) 'जीवो अक्खो अत्थव्वावणभोयण गुणण्णिओ जेण' विशेषावश्यक भाष्य सम्पा. पं. दलसुख मालवणिया एवं पं. बेचरदास दोसी, ला. द.मा.सं.वि. मंदिर, अहमदाबाद १९६८, पृ. ८९
(स) तथा च भगवान भद्रबाहु जीवो अक्खो तं पई जं वट्टइ तं तु होइपच्चक्खं न्यायावतार टि. पृ. ९५.
(द) अक्ष्णोति व्याप्नोति जानाति वेति अक्ष आत्मा । तत्त्वार्थवार्तिक १ / १२
(३७) सर्वार्थसिद्धि - १/१२
(३८) वही १ / १२
(३९) सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र १ / १२
(४०) न्यायावतार- कारिका-४
(४१) न्यायावतारविवृत्ति ४, पृ. ३
(४२) इंद्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम्। तत्त्वार्थवार्तिक, सिंधी जैन ग्रंथमाला, अहमदाबाद, कलकत्ता १९३९, १/१२
(४३) न्यायविनिश्चय, श्लोक-३
(४४) लघीयस्त्रय, सम्पा न्यायकुमुदचंद्र, सिंधी जैन ग्रंथमाला, अहमदाबाद, कलकत्ता १९३९, ४
(४५) प्रत्यक्षं कल्पनापोढं वेद्यतेऽति परिस्फुटम् । तत्त्वसंग्रह, कमलशीत, सम्पा. द्वारिकादास शास्त्री, बौद्ध भारती, वाराणसी प्रथम संस्करण, १९६८, कारिका १२३४. (४६) तच्च ज्ञानरूपवेदनमात्मनः साक्षात्कारि निर्विकल्पं अभ्रांतं च। ततः प्रत्यक्षं। न्यायबिन्दु, सम्पा. पी.आई. तर्कस, नूतन मुद्रणालय, अकोला १९५२, १ / १०
(४७) परीक्षामुख - २-३
EmEm
(४८) प्रमाण -नय-तत्त्वालोक, अनुवादक पं. शोभाचंद्र भारिल्ल, न्यायतीर्थ, आत्मजागृति कार्यालय, ब्यावर १९४२, २.२ (४९) प्रमाणमीमांसा, हेमचन्द्राचार्य, सम्पा. जिनविजयजी, सिंधी जैन ज्ञानपीठ, अहमदाबाद, कलकत्ता १९३९, १/१/१३. (५०) (अ) प्रमाणान्तरमपेक्षते इत्येकं वैशद्यलक्षणम् । इदन्तया प्रतिभासो वा इति इदन्तया विशेषनिष्ठतया यः प्रतिभासः सम्यगर्थनिर्णयस्य सोऽपि वैशद्यम्-
For Private
प्रमाणमीमांसा १/१/१४
(ब) तत्त्वार्थाधि । १/२८
(५१) द्विविधोऽवधिः । सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र १/२१ (५२) नारकाणां देवानां च यथात्वं भवप्रत्ययमवधिज्ञानं भवति । वही १/२२
(५३) वही १/२२
(५४) यथास्वं भवप्रत्ययमवधिज्ञानं भवति । वही १/२२ (५५) देवानामपि यद् यस्य सम्भवति तच्च यथास्वमिति विज्ञेयम् भवप्रत्ययं भवकारणं अधोऽधो विस्तृतविषयमवधिज्ञानं भवति । तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर सिद्धर्षिटीका - सेठ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रंथांक ६७ - बंबई १९२६, भाग - १, १/२२, पृ. ९६
এটটট३७
(५६) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र १ / ३२
(५७) शेषाणमिति नारक देवेभ्यः शेषाणां तिर्यग्योनिजानां मनुष्याणां च। सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, १/२३
(५८) सर्वार्थसिद्धि १/२२, पृ. ९०
(५९) यथोक्त सम्यग्दर्शनादिमित्तसंनिधाने सति शांतक्षीण कर्मणां तस्योपलब्धिर्भवति । वही -१/२२, पृ. ९०
(६०) तद्यथा अनानुगामिकं, आनुगामिकं, हीयमानकं, वर्धमानकं, अनवस्थितम्,अवस्थितमिति सभाष्यतत्त्वार्थाधि. १/ २३ (६१) सर्वार्थसिद्धि १/२२
(६२) तत्त्वार्थवार्तिक १/२२
(६३) सभाष्यतत्त्वार्थाधि. १/२२
(६४) वही. १/२२
(६५) वही. १/२२
(६६) वही.१ / २२
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-चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शद (६७) वही. १/२२
(८२) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र. १/२८ (६८) वही. १/२२
(८३) तद्दन्तभागेमनःपर्यायस्य। वही-१/२९. (६९) देसोही, परमोही, सव्वोहि ति य तिघा ओही।
(८४) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र-१/३०. गोम्मटसार जीवकाण्ड ३७२ श्रीपरमश्रुत प्रभावक मंडल (८५) नन्दीसूत्र-३ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास वि.सं. २०४१
(८६) एगन्तेण परोक्खं लिंगिय मोहाइयं च पच्चक्खं। इंद्रिय (७०) गोम्मटसार, जीवकांड - ३७६
मणोमवं जं तं संववहार पच्चक्खं।। विशेषावश्यकभाष्य (७१) आवश्यकनियुक्ति श्री भेरूलाल कन्हैयालाल कोठारी गा. ९५.
धार्मिक ट्रस्ट मुंबई, वि.सं. २०३८, २६-२८.७६. (८७) (अ) तत्र सांव्यावहारिक इन्द्रियानिन्द्रियम् प्रत्यक्षं। (७२) विशेषावश्यकभाष्य, गा. ५७८
लघीयस्त्रय-४ (७३) सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र १/२४, पृ. ४२
(ब) मुख्यसांव्यवहारिकभेदेन द्वैविध्यं प्रत्यक्षस्य .... प्रमाण (७४) आहारसरीरिंदियपज्जत्ती आणपाणभास माणो। गोम्मटसार मीमांसा-१/१४ जीवकाण्ड ११८.
(स) प्रत्यक्षं द्विविधं-सांव्यवहारिकं पारमार्थिकं चेति। जैन (७५) आवश्यकनियुक्ति-७६।
तर्कभाषा, सम्पा. पं. सुखलालजी संघवी, सरस्वती पुस्तक (७६) नन्दीसूत्र (नन्दीसूत्र अनुयोगदाराई) २३-२५.
भंडार, अहमदाबाद १९९३, पृ. ४
(८८) एतच्च द्विविधं इंद्रियजम, अनिन्द्रियजं च। जैनतर्कभाषा. (७७) ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
पृ.५ (७८) गोम्मटसार-जीवकाण्ड-४४०.
(८९) सभाष्यतत्त्वार्थाधि. १/१४. (७९) सर्वार्थसिद्धि १/९, तत्त्वार्थराजवार्तिक-१.२६.
(९०) अवग्रहेहापायधारणा भेदाच्चतुर्विधम्-जैनतर्कभाषा-पृ. ६.
(९१) प्रमाणनयतत्त्वालोक-२.८ (८०) विशेषावश्यकभाष्य-८४
(९२) स्वोत्पत्तावात्मव्यापारमात्रापेक्षं पारमार्थिक। जैनतर्कभाषा-पृ. २९१ । (८१) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र-१/२६.
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ज्ञान के प्रमाणों में प्रत्यक्ष के बाद अनुमान का ही स्थान है। परोक्ष प्रमाणों में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। भारतीय दर्शन में मात्र चार्वाक को छोड़कर अन्य सभी शाखाओं ने इसे मान्यता दी है। मुनि नथमलजी के शब्दों में-"अनुमान तर्क का कार्य है। तर्क द्वारा निश्चित नियम के आधार पर यह उत्पन्न होता है । .... तर्कशास्त्र के बीज का विकास अनुमानरूपी कल्पतरु के रूप में होता है।
'अनु' और 'मान' के मिलने से अनुमान शब्द बनता है। 'अनु' का अर्थ होता है 'पश्चात्', 'बाद' तथा 'मान' का अर्थ होता है 'ज्ञान'। इस प्रकार किसी पूर्व ज्ञान के बाद होने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं। महर्षि गौतम ने इसीलिए कहा है--'तत्पूर्वकम् ' तत्' से तात्पर्य है - प्रत्यज्ञ ज्ञान। जो ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान के बाद उत्पन्न हो उसे अनुमान कहते हैं।
पहाड़ पर अग्नि है
क्योंकि पहाड़ पर धूम है
जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि है
जैन- तर्क में अनुमान
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इसलिए उस पहाड़ पर अग्नि है।
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धूम के साथ अग्नि का प्रत्यक्ष ज्ञान पहले से प्राप्त है और उसी आधार पर धूम को पहाड़ पर देखकर यह अनुमान किया जा रहा है कि वहाँ अग्नि भी है। अनुमान शब्द की यह व्युत्पत्ति दो रूपों में मानी जाती है-- (१) अनुमिति: अनुमान् तथा (२) अनुमीयते अनेन अति इनुमानम् । प्रथम प्रक्रिया में अनुमान शब्द भाव रूप में अनुमिति प्रमाण के लिए आता है तथा द्वितीय प्रक्रिया में वह करण रूप में होता है और अनुमान प्रमाण के लिए आता है।
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है - ज्ञात से अज्ञात की ओर जाना (To go From Known Unknown)। अनुमान को पाश्चात्य तर्कशास्त्र में ऐसा महस दिया गया है कि पूरे तर्कशास्त्र पर यही छाया हुआ है।
अंग्रेजी में अनुमान के लिए इन्फेरेन्स (Inference) शब्द आता है। इन्फर (Infer) से इन्फेरेन्स शब्द बनता है। इन्फर का अर्थ होता है - अनुमान करना, तर्क करना, निर्णय करना, निर्णय पर आना आदि। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में अनुमान से समझा जाता মটমট ३९]
डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा, वाराणसी...."
अनुमान के संबंध में एक समस्या उठ खड़ी होती है. प्रत्यक्ष के अतिरिक्त स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि जितने भी ज्ञान हैं, वे सभी प्रत्यक्ष के बाद ही प्राप्त होते हैं, फिर भी इन्हें भिन्न-भिः। नामों से संबोधित किया जाता है। इन्हें भी अनुमान की संज्ञा क्यों नहीं दी जाती है? आखिर वह कौन सा पूर्व ज्ञान है जिसक कारण कुछ ज्ञान तो अनुमान की कोटि में रखे जाते हैं और अन्य के लिए विभिन्न नाम प्रस्तुत किए जाते हैं । वात्स्यायन । अनुमान पर प्रकाश डालते हुए कहा है मितेन लिंगे। लिंगिनोऽर्थस्य पश्चान्मानमनुमान् । अर्थात् प्रत्यक्ष से प्राप्त लिंग और लिंगी के ज्ञान के बाद जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे अनुमान कहते हैं। इससे इतनी जानकारी होती है कि लिंग--दर्शन और फिर लिंगी को समझना ही वह ज्ञान है जिससे अनुमान होता वह ऐसा पूर्व ज्ञान है जिसके कारण अनुमान किया जाता है। यह बात जैनाचार्य वादिराज के द्वारा अनुमान प्रतिपादन से स्मार होती है ।
'अनु व्याप्तिनिर्णयस्य पश्चाद्भाविमानमनुमानम् । '
इसी के आधार पर डा. कोठिया ने कहा है-
यद्यपि पारम्पर्य से उन्हें (लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण तथा पक्षधर्म ॥ ज्ञान को भी अनुमान का जनक माना जा सकता है पर अनुमान अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञान व्याप्तिनिश्चय ही है, क्योंकि उन्हें अव्यवि उत्तरकाल में नियम से अनुमान आत्मलाभ करता है ।
जैन परंपरा में प्रतिपादित अनुमान को अच्छी तरह समझन के लिए अन्य परंपराओं द्वारा विवेचित अनुमान को समझना ॥ उचित जान पड़ता है, क्योंकि इससे विषय को स्पष्टता प्राप्त होती है, तुलनात्मक दृष्टि से समानता-असमानता का बोध होता है । अतः पहले भारतीय दर्शन की जैनेतर शाखाओं की अनुमान की परिभाषा संबंधी मान्यताओं को देखें-
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन वैशेषिक - भारतीय दर्शन में सर्वप्रथम अनुमान की परिभाषा है। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि उस व्याप्तिज्ञान से महर्षि कणाद के द्वारा वैशेषिक सूत्र में प्रस्तुत की गई है-अस्येदं जो व्याप्तिज्ञानत्व धर्म से अविच्छिन्न है, उत्पन्न होने वाला ज्ञान कार्यकारणं संयोगिविरोधिसमवायि चेति लैङ्गिकम् अर्थात् कार्य, अनुमिति है १२। कारण, संयोगी, विरोधी तथा समवायी लिङ्गों को देखने के बाद
बौद्ध - बौद्धाचार्य दिङ्नाग ने अनुमान पर प्रकाश डालते उनसे संबंधित जो ज्ञान होता है, उसे अनुमान कहते हैं।
हए कहा है१३ - नान्तरीयकार्थदर्शनं तद्विदोऽनुमानम् इति। न्याय - प्राचीन न्याय में महर्षि गौतम ने अनुमान को जिस रूप अविनाभाव संबंध जो ज्ञात है उसके आधार पर नान्तरीयक अर्थ में परिभाषित किया है उसे अभी अनुमान के शब्दार्थ को समझते का दर्शन होना ही अनुमान है१४ | एक वस्तु का जब दूसरे के समय हम लोगों ने देखा है। नव्य न्याय के चिंतक गंगेश उपाध्याय अभाव में भाव नहीं होता है, तब उनके संबंध को नान्तरीयक ने लिखा है - तत्र व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मता ज्ञानजन्यं ज्ञानमनुमितिः कहते हैं। धर्मकीर्ति ने बहुत ही सरल ढंग से अनुमान को परिभाषित तत्करामनुमानं तच्च लिङ्गपरामर्शो न तु परामृश्यमानं लिङ्गमिति किया है। उनके अनुसार धर्मी के संबंध में जो ज्ञान परोक्ष रूप से वक्ष्यते। जो ज्ञान व्याप्ति विशिष्ट पक्षधर्मता से उत्पन्न होता है, उसे किसी संबंधी के धर्म के कारण होता है उसे अनुमान कहते हैं १५॥ अनुमिति कहते हैं तथा जो अनुमिति का कारण होता है, उसे अनुमान कहते हैं। अनुमान लिङ्ग विषयक परामर्श होता है,
पाश्चात्य तर्क किन्तु वह परामृश्यमान लिङ्ग नहीं हो सकता।
प्राचीनकाल के ग्रीक दार्शनिक अरस्तु ने तर्क की निगमन सांख्य - महर्षि कपिल ने अनमान का निरूपण करते।
(Deductive) पद्धति पर अनुमान प्रतिष्ठित किया। आधुनिक हुए कहा है -
युग के बुद्धिवादी तथा अनुभववादी दार्शनिकों ने क्रमशः निगमन
तथा आगमन पद्धतियों को अपने-अपने चिंतन का आधार प्रतिबन्धदृशः प्रतिबद्धज्ञानमनुमानम्
बनाया। काण्ट ने अपनी ज्ञानमीमांसा में दोनों पद्धतियों को प्रतिबन्ध दर्शन अर्थात लिङ्ग को देखकर प्रतिबद्ध को समन्वित किया है। निगमन-पद्धति सामान्य से विशेष की ओर जानना अनुमान है।
बढ़ती है तथा आगमन-पति विशेषों के आधार पर सामान्य योग- योगसूत्र के भाष्यकार के अनुसार
का निर्धारण करती है। आ के वे दार्शनिक जो विज्ञान से
-- अनुमान करने योग्य वस्तु समान जातियों से युक्त करने वाला तथा भिन्न
प्रभावित हैं, आगमन पद्धति को ही अपनाते हैं। अनुमान के जातियों से पृथक् करने वाला जो संबंध है, तद्विषयक सामान्य
संबंध में प्रसिद्ध दार्शनिक मिल का विचार है१६ - अनुमान का रूप से निश्चय करने वाली प्रधान वत्ति को अनमान कहते हैं। मूल रूप है- एक विशिष्ट तथ्य से (या बहुत से विशिष्ट तथ्यों जैसे-चन्द्रमा, तारागण आदि गतिशील हैं. देशान्तर की प्राप्ति से) दूसरे विशिष्ट तथ्य (या तथ्यों) की ओर जाना। हम विशिष्ट होने से, चैत्र पुरुष के समान तथा देशान्तर प्राप्ति होने वाला न तथ्यों के प्रेक्षण से प्रारंभ करते हैं, और तब प्रेक्षित एवं अप्रेक्षित होने के कारण विन्ध्याचल पर्वत गतिमान नहीं है।
तथ्यों को सम्मिलित करने वाला एक सामान्य कथन करते हैं। - मीमांसा - मीमांसासत्र पर भाष्य लिखते हुए शबर स्वामी प्रस्तुत परिभाषाओं के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है ने कहा है१० - अनुमानं ज्ञातसंबंधस्यैकदेशदर्शनादेक- कि निम्नलिखित स्थितियों में ही कोई व्यक्ति अनुमान कर देशान्तरेऽसंनिकृष्टेऽर्थेबुद्धिः।
सकता है - . अर्थात् ज्ञातसंबंध यानी व्याप्ति के संबंधियों में से एक (१) पहले से कुछ ज्ञात हो। को जान लेने के बाद दूसरे के असनिकृष्ट अर्थ को जान लेना ही (२) ज्ञात और जिसे हम जानना चाहते हैं के बीच व्याप्ति अनुमान है।
या अविनाभाव संबंध हो। वेदान्त- वेदान्त-परिभाषा में कहा गया है ११ - अनुमिति इसी को कणाद ने और अधिक स्पष्ट रूप से कहा है कि करणम् अनुमान्। अर्थात् अनुमिति का जो करण है वह अनुमान देखने के बाद ही अनुमान संभव है। मिल के द्वारा दी गई
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन परिभाषा अनुमान की संपूर्ण पृष्ठभूमि पर प्रकाश नहीं डालती है। अभ्रान्त होता है यानी उसमें किसी प्रकार की भ्रान्ति या आशंका यह सिर्फ इतना बताती है कि आगमन-पद्धति को अपनाकर हम नहीं रहती है। इसीलिए अनुमान को साध्य-निश्चायक भी कहते अनुमान कैसे कर सकते हैं।
हैं। न्यायावतार के हिन्दी अनुवादक पं. विजयमूर्तिजी ने लिखा
है अनुमान की परिभाषा में 'साध्याविनाभु' अर्थात् सांध्य के जैन परंपरा
बिना न होने वाले विशेषण को लाकर आचार्य ने दूसरे वादियों अनुमान का प्राचीन रूप - जैन विद्वानों ने ऐसा माना है के द्वारा प्रणीत लिङ्ग के लक्षणों का निराकरण किया है। कि अनुमान का प्रारंभिक रूप अभिनिबोध ज्ञान में मिलता है।
अकलंक - जैन न्याय के प्रतीक अकलंक ने अनुमान को तत्त्वार्थ सूत्र में यद्यपि उमास्वाति ने अनुमान की चर्चा नहीं की
परिभाषित करते हुए कहा है२०- साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्...। है फिर भी उनके द्वारा प्रतिपादित अभिनिबोध से अनुमान का
अर्थात् साधन से साध्य के विषय में जो ज्ञान होता है उसे संकेत मिलता है। अकलंक, विद्यानंद, श्रुतसागर आदि जैनाचार्यों
अनुमान कहते हैं। यह ज्ञान लिड्ग ग्रहण और व्याप्तिस्मरण के के मत में इस धारणा को समर्थन प्राप्त है। अकलंक की उक्ति
बाद होता है। चूँकि यह ज्ञान अविशद होता है इसलिए परोक्ष है - चिंता अभिनिबोधस्य अनुमानादेः। इससे इसकी पुष्टि होती
माना जाता है। किन्तु अपने विषय में यह अविसंवादी है तथा है कि प्राचीनकाल में अनुमान अभिनिबोधरूप में ही था।
संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि समारोपों का निराकरण अनुमान का प्रचलित रूप - अनेक जैनाचार्यों ने अपनी- करने में समर्थ होता है, इसलिए इसे प्रमाण की कोटि में स्थान अपनी रचनाओं में स्पष्ट अथवा अस्पष्ट रूप से अनुमान के प्राप्त होता है। लघीयस्त्रय में अकलंक ने कहा है-- विवेचन किये हैं जिन्हें विस्तारपूर्वक यहाँ प्रस्तुत करना संभव
लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात् नहीं है, किन्तु प्रमुख चिंतकों के विचार को जानना-समझना तो
लिङ्गधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः। सर्वथा आवश्यक है।
साध्य का वह ज्ञान जो साध्य-अविनाभूत लिङ्ग के द्वारा समन्तभद्र - आप्तमीमांसा समन्तभद्र की प्रसिद्ध रचना
प्राप्त होता है उसे अभिनिबोध या अनुमान कहते हैं और हान है। उसमें यद्यपि उनके द्वारा दी गई अनमान की कोई परिभाषा तो -
आदि ज्ञान उसके फल होते हैं। यहाँ भी अनुमान के प्राचीन नाम उपलब्ध तो नहीं है फिर भी उनकी बहुत सी सूक्तियाँ मिलती हैं
पर प्रकाश पड़ता है। जिनमें किसी न किसी रूप में अनुमान की झलक मिलती है। उनके संबंध में डा. कोठिया ने स्पष्टत: लिखा है--जिन उपादानों से अनुमान
विद्यानन्द - प्रमाण संबंधी अपनी प्रसिद्ध रचना प्रमाणनिष्पन्न एवं संपूर्ण होता है उन उपादानों का उल्लेख भी उनके द्वारा
परीक्षा में अनुमान को परिभाषित करते हुए विद्यानन्द ने कहा है२२ - इसमें किया गया है। उदाहरणार्थ - हेतु, साध्य, प्रतिज्ञा, सधर्मा,
साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्। अविनाभाव, सपक्ष साधर्म्य, वैधर्म्य, दृष्टान्त जैसे अनुमानोपकरणों
इस परिभाषा में मात्र अकलंक के द्वारा दी गई अनुमान का निर्देश इसमें (आप्तमीमांसा में) किया गया है।
की परिभाषा की पुनरावृत्ति है। किन्तु अकलंक के विचार को सिद्धसेन दिवाकर - जैन-न्याय में अनुमान की स्पष्ट ही वे तत्त्वश्लोकवार्तिक में प्रस्तुत करते हैं तो उनके कथन से परिभाषा सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर की रचना में मिलती है। अकलंक के मत का पिष्ट-पेषण ही नहीं होता है बल्कि उसमें उन्होंने अनुमान को इन शब्दों में प्रतिपादित किया है
उनके अपने भी विचार व्यक्त होते हैं२३-- साध्याविनाभुवों लिङ्गात्साध्यनिश्चायकं स्मृतम्।
साध्यभावासम्भवनियम लक्षणात् साधनादेव शक्याभिप्रेता अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत्।। प्रसिद्धत्वलक्षणस्य साध्यस्यैव यद्विज्ञानं तदनुमानम् आचार्या विदुः।
अर्थात् साध्य के बिना न होने वाले लिङ्ग से साध्य के आचार्य का कथन है कि उस साधन से जो साध्य के संबंध में निश्चित जानकारी देने वाला जो ज्ञान है उसे ही अनमान अभाव में संभव नहीं है, के द्वारा होने वाला शक्य, अभिप्रेत कहते हैं। वह अनुमान प्रमाण होने के कारण प्रत्यक्ष की तरह तथा अप्रसिद्ध साध्य का विज्ञान ही अनुमान है। ये आचार्य यानी aroorionitorionidmoonsansarbadroomidnirala-G४१]iwarirdivorrowroorbordNGrGorbandrod6d6
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. यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन अकलंक के वचन हैं, इसे विद्यानंद स्वीकार करते हैं। किन्तु इन धर्मभूषण तथा यशोविजय - इन लोगों ने भी क्रमशः वचनों का विवेचन वे अपने ढंग से करते हैं और यह घोषित न्यायदीपिका तथा जैनतर्कभाषा में अनुमान-संबंधी विवेचन करते हैं कि साधनज्ञान तथा साध्यज्ञान में समग्रता का भाव विश्लेषण प्रस्तुत किए हैं। इन लोगों के विचार भी अपने पूर्वगामी होना चाहिए। अर्थात् साधन और साध्य में सब तरह से संबंधत आचार्यों की तरह ही है। हो तभी अनुमान सही हो सकता है। प्रकारता की दृष्टि से साधन
इस प्रकार ज्ञात होता है कि अनुमान को परिभाषित करने और साध्य में एकता होनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार
वाले आचार्यों की एक लंबी कतार है, किन्तु सबने बारी-बारी का साध्य हो उसी प्रकार का साधन होना चाहिए और जिस प्रकार
से अकलंक के द्वारा दी गई परिभाषा को ही परिष्कृत करने का का साधन हो उसी प्रकार का साध्य भी होना चाहिए।
भरपूर प्रयास किया है। माणिक्यनन्दी - इन्होंने भी अकलंक का ही अनुगमन
यदि अनुमान के मूलरूप को देखें तो न्याय आदि जैनेतर किया और कहा है२५ -
परंपराएँ तथा जैनपरंपरा में भी साधन, साध्य और अविनाभाव साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम ।।१०।। अर्थात् साधन से संबंध से ही अनुमान का निर्माण होता है। साध्य के विषय में प्राप्त ज्ञान को अनुमान कहते हैं।
___ अवयव - अवयव क्या है? इसके सामान्य अर्थ होते ___ इस कथन में कोई नवीनता दिखाई नहीं पड़ती है किन्तु हैं--अंग, अंश आदि। अनुमान के क्षेत्र में भी इसके ये ही अर्थ विवेचनकर्ता ने इसमें कुछ अपनी विशेषता एवं सार्थकता दिखाने होते हैं। जिनके सहयोग से अनुमान निरूपित होता है, उसे अवयव का प्रयास किया है--यदि अनुमान का लक्षण यह किया जाता कहते हैं। वात्स्यायन ने अवयव को परिभाषित करते हुए कहा कि प्रमाण से जो विज्ञान होता, वह अनुमान है तो आगम आदि है साधनीयार्थस्य यावतिशब्दसमूहे सिद्धिः परिसमाप्यते तस्य से व्यभिचार आता है, अत: उसके निवारण के लिए साध्य के पञ्चावयाः प्रतिज्ञादयः समूहापेक्षयाऽवयवा उच्यते। अर्थात् जो ज्ञान को अनुमान कहा। फिर भी प्रत्यक्ष से व्यभिचार आता, साधनीय अर्थ है उसे निश्चित करने के लिए शब्दसमूह के रूप में
अत: उसके निवारणार्थ साधन से यह पद दिया है। इस प्रकार वाक्यों का प्रयोग करना आवश्यक होता है तथा प्रतिज्ञादि जिन लिङ्ग से साध्यरूप लिङ्गी का जो ज्ञान होता है, उसे प्रमाण वाक्यों के आधार पर साध्य की सिद्धि होती है, उन्हें समूह की कहते हैं। जैसे धूम देखकर अग्नि का ज्ञान करना।२६
अपेक्षा से अवयव कहते हैं। हेमचंद्र - इन्होंने प्रमाणमीमांसा में कहा है -
अनुमान के अवयवों की संख्या के विषय में विद्वानों के
विभिन्न मत मिलते हैं-- साधनात्साध्यविज्ञानम् अनुमानम्।।७।। इसका विवेचन करते हुए वे आगे कहते हैं....दृष्टादुपदिष्टाद्वा
न्यायसूत्र२८ - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन। साधनात् यत् साध्यास्य विज्ञानम् सम्यगर्थनिर्णयात्मक न्यायभाष्य - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, तदनुमीयतेऽनेनेति अनुमानम् लिङ्गग्रहणसंबंधस्मरणयोः पश्चात् जिज्ञासा, संशय, शक्य, प्राप्ति, प्रयोजन तता संशयव्युढास। परिच्छेदनम्।।७।।
वैशेषिक भाष्य - प्रतिज्ञा, अपदेश, निदर्शन, अनुसंधान ___ वह अर्थात् साध्य का वह सम्यगर्थ निर्णायक ज्ञान जो तथा प्रत्याम्नाय। अपने द्वारा देखे हुए अथवा अन्य व्यक्ति के कहे हुए साधन के
सांख्य २० - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन। आधार पर होता है, उसे अनुमान कहते हैं। जिससे अनुमिति हो शाजा भीतीत कधी पन अवयवों के प्रयोग। वह अनुमान है, यानी साधन के प्राप्त होने पर तथा अविनाभाव संबंध के याद आने के बाद होने वाला विज्ञान ही अनुमान के
मीमांसा - पक्ष, हेतु, उदाहरण तथा उपनय। किन्तु
शालिकानाथ, नारायणभट्ट, पार्थसारथि आदि कुछ मीमांसक नाम से जाना जाता है।
तीन ही अवयव मानते हैं--प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टांत ।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन वेदान्त३२ - उदाहरण तथा उपनय।
अग्नि है, यह प्रतिज्ञा के रूप में जाना जाता है। महर्षि गौतम ने बौद्धदर्शन - दिनाथ आदि प्रारंभिक विचारकर३ -
प्रतिज्ञा को परिभाषित करते हुए कहा है२८ - साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा।" पक्ष, हेतु तथा दृष्टांत किन्तु धर्मकीर्ति तथा उनके बाद वाले
जिसके द्वारा साध्य का उल्लेख हो उसे प्रतिज्ञा कहते हैं। उदाहरण एवं उपनय ।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है - जैनमत - अवयव पर प्रकाश डालते हुए डा. मेहता ने साध्याभ्युपगमः पक्षः प्रत्यक्षाधिनिराकृतः। लिखा है२५ – अवयव का अर्थ होता है-दूसरों को समझाने के तत्प्रयोगोऽत्र कर्तव्यो हेतोर्गोचरदीपकः।।१४।। लिए जो अनुमान का प्रयोग किया जाता है, उसके हिस्से। किस
जिसका प्रत्यक्षादि से निराकरण संभव नहीं है ऐसे साध्य ढंग से वाक्यों की संगति बैठानी चाहिए? अधिक से अधिक
को ग्रहण करना, मान्यता देना पक्ष है। ऐसे पक्ष का प्रयोग कितने वाक्य होने चाहिए? कम से कम कितने वाक्यों का।
परार्थानुमान के संदर्भ में अपेक्षित है, क्योंकि यह हेतु का दीपक प्रयोग होना चाहिए, इत्यादि बातों का विचार अवयवचर्चा में।
यानी प्रकाशक होता है। किया जाता है।
पक्ष के संबंध में माणिक्यनंदी की उक्ति है - ___ आगमों से अनुमान के अवयव के संबंध में कोई
साध्यधर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मो।।२।। जानकारी नहीं प्राप्त होती है। अवयवों की संख्या तथा प्रयोग के विषय में आचार्य भद्रबाहु की उक्ति है ३६--कत्थइ
पक्ष इति यावत्।।२२।। पंचावयवयं दसहा वा सव्वहा ण पडिकुत्थंति। वे मानते थे अनुमान में कभी तो धर्म साध्य होता है और कभी धर्म कि आवश्यकता के अनुसार दो से लेकर तीन, पाँच तथा दस विशिष्ट धर्मी। उस धर्मी को ही पक्ष कहते हैं। तक अवयवों की संख्या हो सकती है
जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है। जहाँ दो-प्रतिज्ञा तथा उदाहरण।
अग्नि नहीं होती है। वहाँ धूम नहीं होता। इसमें अग्निरूप धर्म तीन--प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण।
साध्य है। इस पर्वत में अग्नि है, क्योंकि वह धूमवाला है। जहां
जहाँ धुम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है। इसमें अग्नि रूप पांच-प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टांत, उपसंहार, निगमन।
धर्म से विशिष्ट पर्वत (कभी) साध्य है। आचार्य हेमचन्द्र ने (क) दस--प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविशुद्धि, हेतु, हेतुविशुद्धि, दृष्टांत, गौतम की तरह ही सरल और संक्षिप्त रूप में कहा है - दृष्टांतविशुद्धि, उपसंहार, उपसंहारविशुद्धि, निगमन और निगमन
साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा--जिस वाक्य से साध्य का निर्देश -विशुद्धि।
होता है, उसे प्रतिज्ञा कहते हैं। (ख) दस--प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविभक्ति, हेतु, हेतुविभक्ति,
हेतु (हेऊ)-लक्षण-वैशेषिक-सूत्र में कणाद ने कहा हैविपक्ष, प्रतिषेध, दृष्टांत, आशंका, तत्प्रतिषेध और निगमन।
हेतुपरदेशोलिङ्गप्रमाणकरणमित्यनर्थान्तरम्।।९/२/४ इन अवयवों के प्रयोग के विषय में जैन विचारक ऐसा मानते हैं कि जो व्यक्ति विवेकी हैं, उन्हें समझाने के लिए दो,
___अर्थात्, हेतु, अपदेश, लिङ्ग, प्रमाण, करण के अर्थ में मन्द बुद्धि वालों के लिए दस तथा सामान्य लोगों को समझाने काई अतर नहीं है। ये पर्यायवाची हैं, ऐसा समझा जा सकता है। के लिए पाँच अवयवों के प्रयोग की आवश्यकता होती है।
अपदेश के विषय में उनकी उक्ति है। - प्रतिज्ञा (पहन्ना) - जिसे हम सिद्ध करना चाहते हैं, उसे
'प्रसिद्धिपूर्वकत्वादपदेशस्य।' साध्य कहते हैं और साध्य के प्रथम निर्देश के लिए प्रतिज्ञा शब्द अर्थात् - अपदेश प्रसिद्धिपूर्वक होता है। प्रसिद्धि से मतलब आता है। प्रतिज्ञा को जानते ही हमारा उद्देश्य प्रकाशित हो जाता है व्याप्ति। इससे यह ज्ञात होता है कि अपदेश व्याप्तिपूर्वक है। इस साध्यनिर्देश के लिए दूसरा नाम पक्ष भी है। पर्वत में होता है। जिसमें प्रसिद्ध या व्याप्ति नहीं होती है उसे अनपदेश
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन कहते हैं४३ - अप्रसिद्धोऽनपदेशः। हेतु के लक्षण के संबंध में कारण। पर्वत में धूम है अत: वह पक्षधर्मत्व से युक्त हैं। धर्म नहीं गौतम ने कहा है-४४--उदाहरणसाधात्साध्यसाधनं हेतः। तथा रहने पर जो हेत्वाभास होता है उसे असिद्धहे त्वाभास कहते हैं। वैधात। अर्थात् उदाहरण के साधर्म्य एवं वैधर्म्य के द्वारा साध्य सपनसत्व - हेत या लिङग के लिए सपक्ष में रहना भी को प्रमाणित करना हेतु है। इसके आधार पर हेतु को दो तरह के
उतना ही आवश्यक है जितना कि पक्ष में रहना। हेतु सभी सपक्षों प्रयोगों में देखा जाता है-साधर्म्य तथा वैधर्म्य।
में रहे अथवा किसी एक सपक्ष में, किन्तु उसका रहना जरूरी सिद्धसेन दिवाकर ने हेतु के लक्षण का निरूपण करते हुए है। पर्वत अग्नियुक्त है, धूमयुक्त होने से जैसे महानस आदि। कहा है।५ -
विपक्षासत्व - हेतु का पक्ष एवं सपक्ष में रहना ही उसे 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्।' अन्यथानुपपन्नत्व सार्थक नहीं बनाता बल्कि विपक्ष में उसका अभाव होना चाहिए। अर्थात् साध्य के बिना उपपन्न न होना हेतु का लक्षण है। साध्य जहाँ-जहाँ नहीं हो वहाँ-वहाँ हेतु को भी नहीं रहना चाहिए।
विद्यानन्द ने भी हेतुसंबंधी न्यायदर्शन की मान्यता को खण्डित जहाँ-जहाँ अग्नि नहीं है, वहाँ-वहाँ धूम नहीं है जैसे तालाब। करते हुए कहा है-अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं पंचभिः कृतम्।
अबाधितविषयत्व - बाधितविषय से समझना चाहिए नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं पंचभिः कृतम्।।
बाधित साध्य। हेतु का साध्य जब प्रत्यक्ष अथवा आगम से
बाधित होता है तब उसे बाधितविषय कहते हैं। अग्नि शीतल जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व न हो वहाँ पर पंचरूपता व्यर्थ है।
है कृतक होने से। यहाँ प्रत्यक्ष से अग्नि की शीतलता बाधित इस उक्ति से यह स्पष्ट होता है कि विद्यानंद ने भी अन्यथानुपपन्नत्व
है। अतः कृतक हेतु नहीं माना जा सकता। किन्तु जब कहते
। को ही हेतु का लक्षण माना है। इसी तरह अन्य जैनाचार्यों ने भी
हैं कि पर्वत अग्नियुक्त है, धुमयक्त होने से तो यह प्रत्यक्षादि हेत के संबंध में विचार किए हैं। किन्तु हेमचन्द्र ने हेतु को बहुत से बाधित नहीं होता। ही सरल ढंग से समझाया है। उनके अनुसार हेतु की परिभाषा इस प्रकार है--साधनत्वाभिव्यञ्जकाविभक्त्यन्तं साधनवचनं
असत्प्रतिपक्षत्व - हेतु का विरोधी जब विद्यमान रहता है, हेतुः -२/१२ वह साधन कथन जिसके अंत में साधनत्व को तब उसे सत्प्रतिपक्ष कहते हैं। सत्प्रतिपक्षता के कारण हेत सार्थक व्यक्त करने वाली विभक्ति लगी हो उसे हेतु कहते हैं। यहाँ नहाह
नहीं हो सकता। अत: उसे असत्प्रतिपक्ष होना चाहिए। जब कहते हैं समस्या आती है कि वैसी कौन-कौन सी विभक्तियाँ हैं? इसके ।
कि पर्वत अग्नियुक्त है, धूमयुक्त होने से तो ऐसी कोई भी जगह उत्तर में वे पनः कहते हैं४८--साधनत्वाभिव्यञ्जिकाविभक्तिः नहीं होनी चाहिए जो धूमयुक्त तो हो पर अग्नियुक्त नहीं हो।५० पञ्चमी, तृतीया, वा तदन्तम् साधनस्य उक्तलक्षणस्य वचनम् बौद्धदर्शन - बौद्धाचार्य अर्चट ने न्याय द्वारा प्रतिपादित हेतुः। साधनत्व को व्यक्त करने वाली विभक्तियाँ पंचमी और हेतु के पांच रूपों में से प्रथम तीन को स्वीकार किया है तथा तृतीया होती है। इनके साथ समाप्त होने वाले साधन वाचक शेष दो को अनावश्यक बताया है। वचन हेतु होते हैं। हिन्दी में ऐसी अभिव्यक्ति क्योंकि, चूँकि
पक्षसत्व - जहां अग्नि का संदेह है, पक्ष में धूम का आदि शब्दों के सहयोग से होती है। उस पर्वत पर अग्नि है, अस्तित्व५१ क्योंकि वह धूमयुक्त है। साध्य के साथ जिसकी व्याप्ति नहीं।
सपक्षसत्व - अग्नि के अस्तित्व में धम का अस्तित्व। होती है, वह हेतु नहीं हो सकता है। हेतु का स्वरूप - न्याय दर्शन में हेतु को पाँच रूपों
विपक्ष-असत्व - अग्नि जहाँ नहीं है वहाँ धूम नहीं है। वाला माना गया है ४९ -- पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व, विपक्षव्यावृत्ति शेष दो के संबंध में बौद्धमत जो कहता है उसे महेन्द्र अबाधितविषयत्व तथा असत्प्रतिपक्षत्व।
. कुमार जैन के शब्दों में हम अच्छी तरह समझ सकते हैं। पक्षधर्मत्व - हेतु के धर्म के जो पक्ष में रहता है उसे त्रैरूप्यवादी बौद्ध त्रैरूप्य को स्वीकार करके अबाधित पक्षधर्मत्व कहते हैं। पर्वत अग्नियुक्त है, धूमयुक्त होने के विषयत्व को पक्ष के लक्षण से ही अनुगत कर लेते हैं, क्योंकि
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पक्ष के लक्षण में प्रत्यक्षाद्यनिराकृत पद दिया गया है। अपने साध्य के साथ निश्चित त्रैरूप्य वाले हेतु में समबल वाले किसी प्रतिपक्षी हेतु की संभावना ही नहीं की जा सकती, अतः असत्प्रतिपक्षत्व अनावश्यक हो जाता है।
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जैन दर्शन बौद्धचिंतक धर्मकीर्ति, अर्चट आदि ने न्याय तथा मीमांसा दर्शनों में हेतु के छह रूपों के प्रतिपादन की बात कही है५३ षड्लक्षणे हेतुरित्यपरे नैयायिकमीमांसकादयो मन्यन्ते...। ये षड्लक्षण इस प्रकार हैं-- (१) पक्षधर्मत्व, (२) सपक्षसत्व, (३) विपक्षासत्व, (४) अबाधितविषयत्व, (५) विपक्षितैकसंख्यत्व तथा (६) ज्ञातत्त्व । किन्तु इन षलक्षणों के विषय में किसी प्रकार की मान्यता, जैसा कि डा. कोठिया की राय है, न्याय तथा मीमांसा दर्शनों में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती । उसी तरह से जैनाचार्य वादिराज ने हेतु के षड्लक्षणों को प्रस्तुत किया है*५ । (१) अन्यथानुपपन्नत्व (२) ज्ञातत्त्व (३) अबाधितविषयत्व, (४) असत्प्रतिपक्षत्व तथा (५,६) पक्षधर्मत्वादि । यहाँ डा. कोठिया ने है कि वादिराज ने यह स्पष्टतः प्रकाशित नहीं किया है कि ये षड्लक्षण किनके द्वारा प्रतिपादित हैं।
कहा
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
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वास्तव में जैन तर्क में हेतु के एक ही रूप को माना गया है । वह है अविनाभाव । अविनाभाव = अ + विनाभाव ।
विनाभाव = किसी के अभाव में किसी का अस्तित्व । अविनाभाव किसी के अभाव में किसी के अस्तित्व का निषेध जैसे अग्नि के अभाव में धूम के अस्तित्व का निषेध । यदि अविनाभाव संबंध है साधन और साध्य के बीच तो अनुमान के लिए अन्य किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं होती है। अविनाभाव के अभाव में त्रैरूप्य भी हेतु नहीं बन सकता और यदि अविनाभाव है तो त्रैरूप्य के न रहने पर भी हेतु का निरूपण हो जाता है। इसके लिए निम्नलिखित उदाहरण दिए जाते हैं
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(१) त्रैरूप्य के अभाव में भी हेतु एक मुहूर्त के बाद शकट नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि कृत्तिका का उदय है । कृत्तिका के उदय के बाद शकट का उदय होता है, यह निश्चित है। यद्यपि कृत्तिका के उदय होने तथा शकट के उदय होने में कोई भी त्रैरूप्य नहीं बनता फिर भी यहाँ अविनाभाव संबंध है, जिसके आधार पर अनुमान बनता है।
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(२) त्रैरूप्टा होने पर भी हेतु का अभाव (क) गीता का वह पुत्र जो अभी गर्भ में है, श्याम रंग का होगा । (ख) क्योंकि वह गीता का पुत्र है।
(ग) जो भी गीता के पुत्र हैं वे श्याम रंग वाले हैं।
यहाँ वे तीन रूप हैं जिन्हें बौद्ध विचारकों ने मान्यता दी है, किन्तु गीता का पुत्रत्व जिसे हेतु माना जा रहा है वह अभी गर्भ में है। श्याम होने का आधार गीता का पुत्रत्व ही है। अतः रूप्य होने पर भी अविनाभाव के न रहने से हेतु का निरूपण नहीं हो सकता । विद्यानंद ने बौद्धतर्क में प्रतिपादित अनुमान का खण्डन करते हुए स्पष्ट कहा है५७
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यर्थानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।।
विद्यानंद से पूर्व सिद्धसेन दिवाकर, पात्रस्वामी, अकलंक आदि जैनाचार्यों के द्वारा इस मत को समर्थन प्राप्त हुआ है, तथा विद्यानंद के परवर्ती जैन-चिंतकों ने भी मात्र अविनाभाव को ही हेतु रूप में स्वीकार किया है। हेतु त्रिरूप या पंचरूप किसी भी अवस्था में हो, किन्तु अविनाभाव के न रहने पर वह हेतु कहलाने के योग्य नहीं होता ।
हेतु के प्रकार वैशेषिक - इस दर्शन में हेतु के पाँच प्रकारों को मान्यता मिली है*" । कार्य, कारण, संयोगी, समवायी तथा विरोधी । किन्तु अन्य जगहों पर हेतु के ये प्रकार बताए गए हैं" - अभूत, भूतकाभूत - अभूत का और भूत-भूत का ।
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न्याय - इसके संबंध में डा. शर्मा ने बड़े ही संक्षिप्त और सरल ढंग से विवेचन प्रस्तुत किया है--न्याय परंपरा में महर्षि गौतम ने हेतु के साधर्म्य और वैधर्म्य ये दो भेद प्रदर्शित किए हैं, जिसका समर्थन वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पतिमिश्र एवं जयंत भट्ट आदि सभी दार्शनिकों ने किया है। उदयन ने उद्योतकर प्रणीत अनुमान भेद निरूपण में प्रयुक्त हेतु के अन्वयी, व्यतिरेकी एवं अन्वयव्यतिरेकी इन तीन भेदों को आधार मानकर इसके तीन भेद प्रस्तुत किए हैं -- (१) केवलान्वयी हेतु (२) केवलव्यतिरेकी हेतु तथा (३) अन्वयव्यतिरेकी हेतु । बाद में सभी नैयायिकों ने इनका ही अनुकरण किया है।
४५] 6 ট66
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन बौद्ध - धर्मकीर्ति ने हेत के तीन प्रकारों को प्रस्तत किया निषेध-विधि - साध्य का असदभाव और साधन क है ६१ - (१) स्वभाव (२) कार्य तथा (३) अनुपलब्धि। सद्भाव हो तो हेतु निषेध-विधि के रूप में समझा जाता है।
स्वभाव - यह अग्नि है। क्योंकि यह उष्ण है। इसमें जैसे - यहाँ उष्णता है, क्योंकि शीतलता नहीं है। अग्नि साध्य है जिसे सिद्ध होने के लिए उष्णता की अपेक्षा है षट्खण्डागम - इसके मूल सूत्र में हेतु के भेद-प्रभेद अथवा अग्नि का स्वभाव है। अतः ऐसे हेतु को स्वभाव हेतु आदि की कोई चर्चा नहीं मिलती है। किन्तु इसके व्याख्याकार कहते हैं।
वीरसेन ने हेतुवाद (जिसका उल्लेख षटखण्डागम में प्राप्त होता कार्यहेतु - यहाँ अग्नि है, क्योंकि यहां धूम है। इसमें है) का विश्लेषण करते हुए यह बताया है कि हेतु के दो भेद होते साध्य अग्नि है और धूम हेतु है। किन्तु धूम अग्नि से पैदा होता हैं -(१) साधन-हेतु तथा (२) दूषण-हेतु। है। अत: साध्य से उत्पन्न होने वाले हेतु को कार्यहेतु कहते हैं। सिद्धसेन दिवाकर - हेतु के दो प्रकार एवं प्रयोग के
__ अनुपलब्धिहेतु - जो हेतु उपलब्धि को न बताकर संबंध में सिद्धसेन दिवाकर की निम्नलिखित उक्ति हैं६५ - अनुपलब्धि को बताए उसे अनुपलब्धिहेतु कहते हैं। किन्तु यह हेतोस्तथोपपत्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यथापि वा उसकी अनुपलब्धि बताता है जिसमें उपलब्धि की योग्यता है,
द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति।।१७।। अर्थात् जो वस्तु उपलब्धि-लक्षण प्राप्त है। घट में उपलब्धि लक्षण है फिर भी इसकी अनुपलब्धि ज्ञात होती है तो जिस
अर्थात् हेतु के दो प्रकार हैं--(१) तथोपपत्ति--साध्य के कारण से अनुपलब्धि ज्ञात हो रही है उसे अनपलब्धिहेत कहते हान पर हा हाना। हैं। प्रमाणवार्तिक में अनुलपब्धि के चार विभाग बताए गए हैं-- (२) अन्यथानुपपत्ति - साध्य के अभाव में कभी भी न (१) विरुद्धोपलब्धिा (२) विरुद्धकार्योपलब्धि (३) होना इन भेदों का स्पष्टीकरण न्यायावतार के भाष्यकार सिद्धर्षिगणि कारणानुपलब्धि तथा (४) स्वभावानुपलब्धि। परंतु न्यायबिंदु के द्वारा होता है। वे इनके लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं ६६ - में इनके अलावा और सात भेद बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं
तथोपपत्ति - यहाँ अग्नि है, धूम की अग्नि के द्वारा ही -(१) स्वभावविरुद्धोपलब्धि (२) कार्यानुपलब्धि (३)
उत्पत्ति होने से। विरुद्धव्याप्तोलब्धि (४) व्यापकनिरुद्धोपलब्धि (५) कारणविरुद्धोपलब्धि (६) कार्यविरुद्धोपलब्धि (७) कारण
अन्यथानुपपति- यहाँ अग्नि है. क्योंकि अग्नि के अभाव विरुद्धकार्योपलब्धि।
में धूम की उत्पत्ति संभव नहीं है। जैनमत - स्थानाङ्गसूत्र में हेतु के चार प्रकार बताए गए
अकलंक - अकलंक ने मुख्य रूप से हेतु के दो ही भेद हैं ६३--(१) विधि-विधि (२) निषेध-निषेध (३) विधि- बताए हैं-विधि और निषेध अर्थात् उपलब्धि और अनुपलब्धि। निषेध और (४) निषेध-विधि--
पुनः उन्होंने उपलब्धि तथा अनुलपब्धि के छह-छह भेद किए हैंविधि-विधि - हेतु और साध्य दो के ही सद्भाव रूप हों उपलब्धि-(१) स्वभावोपलब्धि (२) स्वभावतो उसे विधि-विधि हेतु कहते हैं, जैसे-यहाँ अग्नि है, क्योंकि कार्योपलब्धि (३) स्वभावकारणोपलब्धि (४) सहचरोपलब्धि यहाँ धूम है।
(५) सहचरकार्योपलब्धि तथा (६) सहचरकारणोपलब्धि। निषेध-निषेध - जब साध्य और साधन दोनों के ही अनुलपब्धि-असद्व्यवहारसाधक - (१) स्वभावानुपअसदभाव रूप हों तब उस हेतु का निषेध-निषेध रूप होता है। लब्धि, (२) कार्यानुपलब्धि, (३) कारणानुपलब्धि (४) जैसे-यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि यहाँ अग्नि नहीं है।
स्वभावसहचरानुपलब्धि (५) सहचरकारणानुपलब्धि और विधि-निषेध - साध्य का सदभाव तथा साधन का सहचरकायानुपलब्धि। असद्भाव रहने पर हेतु विधि-निषेध कहा जाता है। राम रोग सद्व्यवहारनिषेधक -(१) स्वभावविरुद्धोपलब्धि (२) ग्रस्त है, क्योंकि उसमें स्वस्थ चेष्टा का अभाव है।
कार्यविरुद्धोपलब्धि (३) कारणविरुद्धोपलब्धि।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन माणिक्यनन्दी - अकलंक के द्वारा प्रतिपादित हेतु तथा (३) विरुद्धकारणोपलब्धि - इस व्यक्ति में सुख नहीं है उसके विभागों का स्पष्टीकरण माणिक्यनन्दी ने किया। उन्होंने कारण हृदय में घाव है। हेतु को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया है-उपलब्धि
(४) विरुद्धपूर्वचरोपलब्धि - एक महूर्त के बाद रोहिणी तथा अनुलपब्धि। पुनः दोनों के दो-दो भेद किए गये।
का उदय होना संभव नहीं है कारण अभी रेवती का उदय हो रहा है। उपलब्धि के दो भेद - (१) अविरुद्धोपलब्धि और
(५) विरुद्धोत्तरचरोपलब्धि - एक महर्त पहले भरणी का (२) विरुद्धोपलब्धि।
उदय नहीं हुआ है, पुष्य के उदय हो जाने से। अनुपलब्धि के दो भेद - (१) अविरुद्धानपलब्धि और
(६) विरुद्धसहचरोपलब्धि - इस दीवार में उस ओर के (२) विरुद्धानुपलब्धि।
भाग का अभाव नहीं है, क्योंकि इस और का भाग दिखाई पड इतना ही नहीं बल्कि इन भेदों के प्रभेदों की भी माणिक्यनन्दी रहा है। ने प्रतिष्ठा की। उन्होंने कहा
अविरुद्धानुपलब्धि - अविरुद्धानुपलब्धिः - प्रतिषेधे अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा-व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तर सप्तधा - स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तर सहचरभेदात ।।५५।। अर्थात् अविरुद्धोपलब्धि के छह भेद हैं- सहचरानुपलम्भभेदात्।।७४।।
(१) अविरुद्धव्याप्योपलब्धि - शब्द परिणामी है, क्योंकि अर्थात् जो प्रतिषेध (अभाव) को सिद्ध करती है उस वह कृतक है।
अविरुद्धानुपलब्धि के सात प्रकार हैं--(१) (२) अविरुद्धकार्योपलब्धि - इस शरीरधारक प्राणी में अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि--इस भूतल पर घट नहीं होगा, क्योंकि बुद्धि है, क्योंकि वचन आदि बुद्धि के कार्य हैं।
वह अनुपलब्ध है, यद्यपि उसमें उपलब्धि लक्षण है। (३) अविरुद्धकारणोपलब्धि - वे उसमें हैं, यहाँ छाया है, (२) अविरुद्धाव्यापकानुपलब्धि - यहां शीशम नहीं है, चूँकि यहाँ छत्र है।
क्योंकि यहां वृक्ष अनुलपब्ध है। (४) अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धि - एक महर्त के बाद रोहिणी (३) अविरुद्धाकार्यानुपलब्धि - यहाँ अप्रतिबद्ध सामर्थ्य का उदय होगा, चूंकि इस समय कृत्तिका उदित है।
रखने वाली अग्नि नहीं है, क्योंकि धूम अनुलपब्ध है। (५) अविरुद्धोत्तरचरोपलब्धि - एक मुहूर्त पहले भरणी (४) अविरुद्धकारणानुपलब्धि - यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि का उदय हो चुका है, क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय है। अग्नि नहीं है।
(६) अविरुद्धसहचरोपलब्धि - मातुलिङ्ग अर्थात् विजौरा (५) अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि--एक मुहूर्त के बाद रूपवान है, क्योंकि रसवान है।
रोहिणी का उदय संभव नहीं है, क्योंकि अभी कृत्तिका का विरुद्धोपलब्धि - इसके विषय में माणिक्यनंदी ने कहा उदय नहीं हुआ है।
(६) अविरुद्धोत्तरचरानुपलब्धि--एक मुहूर्त पहले भरणी विरुद्धतदुपलब्धिप्रतिषेधे तथा ।।६७।। उदित नहीं हुआ है क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय नहीं है। अर्थात् विरुद्धोपलब्धि के भी छह प्रकार होते हैं--
(७) अविरुद्धसहचरानुपलब्धि--इस तराजू का एक पलडा (१) विरुद्धव्याप्योपलब्धि - यहाँ शीतलता नहीं है कारण नीचा नहीं है, क्योंकि दूसरा पलड़ा ऊँचा नहीं है। यहां उष्णता है।
विरुद्धानुपलब्धि७२ --विरुद्धानुपलब्धिर्विधौ त्रेधा(२) विरुद्धकार्योपलब्धि - यहाँ शीतलता नहीं है कारण विरुद्धकार्यकारणस्वभावानुपलब्धिभेदात्।।८२।. यहाँ धूप है।
अर्थात् विरुद्धानपलब्धि के तीन प्रकार हैं -
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - (१) विरुद्धकार्यानुपलब्धि--यह व्यक्ति व्याधिग्रस्त है, देखा जाता। सिद्धसेन, दिवाकर ने दृष्टांत, अकलंक ने दृष्टांत और क्योंकि इसकी चेष्टाएँ स्वस्थ जैसी नहीं हैं।
निदर्शन, माणिक्यनंदी ने दृष्टांत, निदर्शन और उदाहरण तथा हेमचंद्र _(२) विरुद्धकारणानुपलब्धि--इस व्यक्ति में दःख है, ने दृष्टांत और उदाहरण के प्रयोग किए हैं। क्योंकि इष्ट संयोग नहीं है।
दृष्टान्त के प्रकार - ब्राह्मण परंपरा के अक्षपाद ने दृष्टांत (३) विरुद्धस्ववानुपलब्धि--वस्तु अनेकान्तात्मक
या निदर्शन के दो भेद माने हैं - साधर्म्य एवं वैधर्म्य १। इसी तरह
जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने दृष्टांत के दो प्रकारों साधर्म्य और क्योंकि एकान्त स्वरूप उपलब्ध नहीं होता है।वादिदेवसूरि ने
वैधर्म्य पर प्रकाश डाला है। २ माणिक्यनंदी ने उन्हीं दृष्टांत के भेदों अकलंक और माणिक्यनंदी के हेतु संबंधी विचारों का समर्थन
को अन्वय और व्यतिरेक के रूपों में व्यक्त किया है। इसी प्रकार किया है, किन्तु माणिक्यनंदी ने विरुद्धोपलब्धि के छह तथा
आचार्य हेमचन्द्र ने दृष्टान्त के प्रकारों को साधर्म्य तथा वैधर्म्य और विरुद्धानुपलब्धि के तीन भेद किए हैं। और वादिदेवसूरि ने
आचार्य धर्मभूषण ने अन्वय व व्यतिरेक की संज्ञा दी है ५। विरुद्धोपलब्धि का एक भेद स्वभावविरुद्धोपलब्धि अधिक तथा . विरुद्धानुपलब्धि के दो भेद विरुद्धव्यापकानुपलब्धि तथा
दृष्टांत की सीमा - दृष्टांत की आवश्यकता को व्यक्त विरुद्धसहचरानुपलब्धि अधिक बताया है।
करते हुए आचार्य अकलंक ने यह कहा है कि सभी स्थलों पर
दृष्टांत अनिवार्यतः प्रस्तुत किया ही जाए ऐसी बात नहीं देखी जाती आचार्य हेमचन्द्र ने कणाद, धर्मकीर्ति तथा विद्यानंद की
है। पदार्थों की क्षीणता सिद्ध करने में किसी पदार्थ को दृष्टांत के तरह हेतुओं का विभाजन किया है, लेकिन इनके द्वारा किए गए
रूप में प्रस्तुत करना संभव नहीं है। यदि अमुक पदार्थ दृष्टांत के वर्गीकरण में अनुपलब्धि विधि साधक रूप में नहीं है। धर्मभूषण रूप में हमारे सामने है तो हम उसे क्षणिक कैसे कह सकते हैं। विद्यानंद के हेत संबंधी विचारों से सहमत देखे जाते हैं। इससे यह जाहिर होता है कि दृष्टांत की आवश्यकता सीमित है। यह यशोविजय का वर्गीकरण विद्यानंद, माणिक्यनंदी, देवसूरि और विषयवस्तु को स्पष्ट करने में सहायक है किन्तु सर्वत्र नहीं। धर्मभूषण के वर्गीकरणों के आधार पर हुआ है। विशेषतः
उपनय (उपसंहार)- साध्य का उपसंहार उपनय के देवसूरि और धर्मभूषण का प्रभाव उस पर लक्षित होता है।
नाम से जाना जाता है दृष्टांत (दिईत) - न्यायसूत्रकार गौतम ने दृष्टान्त को
उदाहरण की अपेक्षा से यह उपसंहार दो तरह से होता है। परिभाषित करते हुए कहा है कि - लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे
महर्षि गौतम ने जैसा प्रतिपादन किया है। उपसंहार इस प्रकार बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः।
होता है-'तथा इति' उसी प्रकार यह भी वैसा है अथवा न तथा, अर्थात् जिसमें लौकिक तथा परीक्षक की बुद्धि समान उसी प्रकार यह भी वैसा नहीं है। उपसंहार एक प्रकार का पुनर्कथन रूप से पाई जाए उसे दृष्टांत कहते हैं।
होता है। उपसंहार या उपनय में व्याप्ति उसी अनुपात में देखी
जाती है जिस अनुपात में वह साध्य और साधन के बीच दृष्टांत जयंत भट्ट ने लौकिक और परीक्षक के स्थान पर वादी
में होती है। न्याय तथा वैशेषिकों दर्शनों में चूँकि पञ्च अवयवों तथा प्रतिवादी शब्दों के प्रयोग किए हैं, और उन्होंने वादीप्रतिवादी
को मान्यता मिली है, इसलिए उपनय भी उनमें आ ही जाता है। की समान बुद्धि के विषयभूत पदार्थ को दृष्टान्त कहा है।
भट्ट-मीमांसकों ने अवयवों को दो प्रकार से उपयोगी साबित न्यायावतार के भाष्यकार सिद्धर्षिगणि ने कहा है कि जिसमें किया है--प्रतिज्ञा-हेत-उदाहरण तथा उदाहरण-उपनय-निगमन। साध्य साधन रहे वह दृष्टांत है। दृष्टांत के लिए उदाहरण तथा यहाँ उपनय की स्थिति को इस प्रकार समझा जा सकता है-- निदर्शन शब्दों के प्रयोग भी मिलते हैं। इसीलिए हेमचन्द्र ने कहा
उदाहरण - जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ-वहाँ अग्नि है जैसेहै --दृष्टांतवचनमुदाहरणम्।
पाकगृह। अर्थात् दृष्टांतवचन उदाहरण है। दृष्टांत, उदाहरण तथा निदर्शन
उपनय - वह पर्वत भी धमयक्त है। के प्रयोग सभी आचार्यों के द्वारा समान रूप से हए हों ऐसा नहीं
निगमन - अतः पर्वत अग्नियुक्त है।
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बौद्धपरंपरा के धर्मकीर्ति तथा उनके परवर्ती आचार्यों ने उदाहरण और उपनय को तर्क में स्थान दिया धर्मकीर्ति ने भी उदाहरण तथा उपनय को हेतु के साधर्म्य तथा वैधर्म्य में ही अन्तर्निहित माना है ।
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
जैनपरंपरा में उपनय की चर्चा अकलंक के तर्कप्रतिपादन से देखी जाती है। उनके विचारों में उपनयादिसमम्" तो मिलता है, किन्तु उपनय का कोई स्पष्टीकरण नहीं होता है। माणिक्यनंदी ने बड़े ही सरल ढंग से उपनय को परिभाषित किया है-हेतोरुपसंहारः उपनयः । १०
अर्थात् पक्ष में हेतु की पुनरुक्ति उपनय है। प्रभाचंद्र ने उपनय का निरूपण करते हुए कहा है कि साध्यधर्मी यानी पक्ष में कोई विशेष हेतु जब अविनाभाव से दर्शित होता है उसे उपनय की संज्ञा दी जाती है"। उन्होंने उपनय को उपमान भी कहा है। उपनयउपमानम् दृष्टांतधर्मिसाध्यधर्मिणोः सादृश्यात् ९२ । । उपनय के प्रकार
उपनय के दो प्रकार माने जाते हैं--साधर्म्य तथा वैधर्म्य | जिससे यह व्यक्त होता है- 'वैसा ही यह है' उसे साधर्म्य कहते हैं और जिससे यह ज्ञात होता है 'वैसा यह नहीं है' उसे वैधर्म्य कहते हैं। सिद्धसेन दिवाकर के प्रसिद्ध ग्रन्थ न्यायावतार से यह ज्ञात होता है कि जिसका धर्म सदृश हो वह साधर्म्य तथा जिसका धर्म विसदृश हो वह वैधर्म्य होता है।
SimSSS
उद्योतकर, वाचस्पतिमिश्र, जयंतभट्ट, भासर्वज्ञ आदि आचायों ने भी माना है। वैशेषिक दर्शन के प्रशस्तपाद ने न्याय - दर्शन द्वारा प्रतिपादित पञ्चावयव को स्वीकार किया है किन्तु कुछ रद्दोबदल के साथ। उन्होंने जिन पञ्चावयवों को स्वीकार किया है। वे इस प्रकार हैं--प्रतिज्ञा, अपदेश, निदर्शन, अनुसंधान तथा प्रत्याम्नाय । जिसे गौतम ने निमगन कहा है उसी को प्रशस्तशाद ने प्रत्याम्नाय कहा है। मीमांसा - सूत्र और और शांकरभाष्य एवं कुमारिल तथा प्रभाकर के ग्रन्थो में अनुमान के स्वार्थ- परार्थ भेद उपलब्ध न होने के कारण अवयव - लक्षणों का स्पष्ट विवेचन नहीं किया गया है"। चूँकि निगमन परार्थानुमान का अंतिम भाग होता है, इसलिए इसका प्रतिपादन मीमांसादर्शन में नहीं हुआ है ऐसा ही मानना चाहिए। बौद्ध दर्शन के धर्मकीर्ति ने भी निगमन को कोई महत्त्व नहीं दिया है, बल्कि इसे असाधना कहा है।
For Private
जैन - प्रमाण में निगमन का प्रारंभ माणिक्यनंदी से होता है। उन्होंने निगमन को परिभाषित करते हुए कहा है"
उपनय की उपयोगिता - जैनाचार्यों में ऐसे भी लोग हैं जो उपनय को उपयोगितारहित मानते हैं । इस संबंध में वादिदेवसूरि ने स्पष्ट कहा है कि जब धर्मी में सिर्फ साध्य-साधन के कहने से ही साध्य निश्चित हो जाता है तब उपनयय का प्रयोग तो सिर्फ दुहराना मात्र है। चूँकि ये उपनय और निगमन साध्य को प्रभावित करने में सक्षम नहीं है इसलिए प्रतिज्ञा और हेतु को अवयव में मान्यता मिलनी चाहिए" । अर्थात् उपनय और निगमन उपयोगी नहीं हैं।
निगमन ( निगमण ) महर्षि गौतम ने कहा है ९५ - हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम्।
अर्थात् हेतु के कथन द्वारा प्रतिज्ञा का उपसंहारवाक्य निगमन है। इसमें प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण तथा उपनय को एकत्र करके सूत्रबद्ध करने की क्षमता होती है। निगमन के इस निरूपण को
[ ४९
'प्रतिज्ञायास्तु निगमनम् ।' अर्थात् प्रतिज्ञा का पुनर्कथन निगमन है। जो कुछ प्रतिज्ञा के रूप में हम घोषित करते हैं, उसी को निगमन के रूप में फिर स्पष्टतः प्रस्तुत करते हैं। इसे ऐसे भी कह सकते कि जिस कथन की प्रतिज्ञा की जाती है उसे प्रमाणित करके निगमन की संज्ञा देते हैं । वादिदेवसूरि ने निगमन को इस प्रकार प्रकाशित किया है ९९.
-
साध्यधर्मस्य पुनर्निगमनम् । यथानस्मादग्निर्न ।
अर्थात्, साध्य को दुहराना निगमन है। जो साध्य है, जिसको हम सिद्ध करना चाहते हैं, जिसे प्रमाणित करना चाहते हैं उसी को उपसंहार के रूप में दुबारा प्रस्तुत करना निगमन है। आचार्य है०००। प्रभाचंद्र ने कहा है कि प्रतिज्ञा हेतु, उदाहरण और उपय हेमचन्द्र का मत भी माणिक्यनंदी के विचार से मिलता हुआ को एकबद्ध करने वाला निगमन होता है। यह उक्ति न्याय दर्शन से प्रभावित जान पड़ती है, क्योंकि न्यायभाष्य में भी निगमन को ऐसा बताया गया है। किन्तु अनन्तवीर्य ने निगमन के संबंध में इस प्रकार कहा है१०२
'प्रतिज्ञायाः उपसंहारः - - साध्यधर्मविशिष्टत्वेनप्रदर्शनं निगमनम्। '
निगमन प्रतिज्ञा का पुनर्कथन है इसमें कोई शक नहीं, किन्तु वह कथनविशेष रूप से प्रतिपादित होता है । निगमन के संबंध में डा. कोठिया की उक्ति इस प्रकार है १०३ -
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन ऐसा प्रतीत होता है कि अंतिम दो अवयवों पर जैन तार्किकों व्याप्ति और पक्षधर्मिता को समझे बिना अनुमान का ज्ञान होना ने उतना बल नहीं दिया है। यही कारण है कि माणिक्यनंदी से मुश्किल है। इसलिए इन दोनों के संबंध में विभिन्न आचार्यों के पूर्व इन पर विवेचन प्राप्त नहीं होता।
मतों को जानने का प्रयास करेंगे। व्याप्ति शब्द की उत्पत्ति वि + शुद्धियाँ-विभक्तियाँ -
आप्ति से होती है। वि का अर्थ विशेष माना जाता है तथा आप्ति
का प्रयोग सबंध के लिए होता है। विशेष संबंध उसे कहते हैं जो अवयवों की संख्या निर्धारित करते समय भद्रबाह ने कहा
अपवादशून्य या व्याभिचाररहित होता है जैसे सूर्य और उसकी है कि आवश्यकता को देखते हुए अनुमान में दो, तीन, पाँच
किरणों के बीच का संबंध। जब भी सर्य होगा उसकी किरणें तथा दस अवयवों का प्रयोग हो सकते हैं। किन्तु दस अवयवों
होंगी और किरणें होंगी तो सूर्य भी होगा। हेतु का पक्ष में पाया के संबंध में भी उनका एक निश्चित विचार नहीं है। दस अवयवों
जाना पक्षधर्मता के नाम से जाना जाता है। पर्वत पर अग्नि है, के भी दो वर्ग हैं
क्योंकि पर्वत पर धूम है। पर्वत है और चूँकि पर्वत पर धूम है प्रथमवर्ग - प्रतिज्ञा - प्रतिज्ञाविशुद्धि
इसलिए वहाँ भी अग्नि होगी ऐसा अनुमान किया जाता है। धूम हेतु हेतुविशुद्धि
का पर्वत पर होना ही पक्षधर्मता है। जहाँ व्याप्ति होती है वहाँ
एक व्याप्य होता है और दूसरा व्यापक होता है। दृष्टान्त
दृष्टान्तविशुद्धि उपसंहार - उपसंहारविशुद्धि
व्युत्पत्ति के अनुसार वि पूर्वक अप धातु से कर्म अर्थ में
ण्यत् प्रत्यय करने पर व्याप्य तथा कर्ता अर्थ में ण्वुल् प्रत्यय निगमन - निगमनविशुद्धि
करने पर व्यापक शब्द सिद्ध होता है। व्याप्ति क्रिया द्वारा जिस यहाँ प्रत्येक अवयव में विशद्धि मिलाकर उसे एक से दो
विषय की सिद्धि की जाती है, वह व्याप्य और जिसके द्वारा कर दिया गया है। यह विशुद्धि क्या है? और क्यों यह अवयवों
उसको व्याप्त किया जाता है, उसे व्यापक कहते हैं। के साथ लग जाती है? इन प्रश्नों के उत्तर में ऐसा यदि प्रतिज्ञा, हेत आदि पंचावयवों के स्वरूप में कोई दोष हो. कोई आशंका व्याप्ति का लक्षण हो तो उन्हें शुद्ध या विशुद्ध करने से ही सही रूप में अनुमान की व्याप्ति के लिए अन्य शब्दों के प्रयोग भी हए हैं। अतः प्रतिष्ठा हो सकेगी। अन्यथा अनुमान में दोष आने की आशंका व्याप्ति को समझने के लिए हमें उन्हीं शब्दों के संदर्भ में अध्ययन होगी। इसलिए किसी भी अवयव का एक सामान्य रूप हो करना होगा। सकता है और दूसरा विशुद्ध रूप। ऐसा मान सकते हैं कि सामान्य
वैशेषिकदर्शन - महर्षि कणाद ने व्याप्ति के लिए प्रसिद्धि रूप में दोष की आशंका रहती है किन्तु विशुद्ध रूप में किसी
शब्द को काम में लिया है। उनके अनुसार प्रसिद्धि के आधार प्रकार का दोष या आशंका नहीं पाई जाती है।
पर ही हेतु अनुमति का बोधक होता है। यदि प्रसिद्धि न हो तो दूसरावर्ग - प्रतिज्ञा - प्रतिज्ञाविभक्ति
हेतु किसी काम का नहीं रह जाता। उन्होंने कहा है ०५ हेतुविभक्ति
'प्रसिद्धिपूर्वकत्वादपदेशस्य।' अर्थात् जो हेतु प्रसिद्धिपूर्वक है वही विपक्ष विपक्षप्रतिषेध
सद्हेतु है और उसी से ज्ञान होता है। यदि किसी हेतु में प्रसिद्धि
नहीं है तो वह अनपदेश हो जाता है - 'अप्रसिद्धोऽनपदेशः।' दृष्टान्त दृष्टान्तविभक्ति
अनपदेश से मतलब है हेत्वाभास। हेत्वाभास ज्ञानदायक नहीं आशंका - आशंकाप्रतिषेध
होता है। वह आभासमात्र होता है, क्योंकि उसमें व्याप्ति नहीं निगमन- निगमन विभक्ति।
होती है। इस तरह प्रसिद्धि और व्याप्ति समानार्थक शब्द हैं ऐसा अनुमान का आधार
ज्ञात होता है। सामान्य चिंतन के आधार पर भी हम ऐसा कह अनुमान व्याप्ति तथा पक्षधर्मिता पर आधारित होता है। सकते हैं कि प्रसिद्धि उसी की होती है जिसमें व्यापकता होती है
हेतु
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - और जिसमें व्यापकता होती है उसकी प्रसिद्धि होती है। श्रीधराचार्य वेदान्त दर्शन - वेदान्त परिभाषा में व्याप्ति के संबंध में के अनुसार-किसी एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ स्वभावतः ऐसी उक्ति मिलती है१०९--व्याप्तिश्चाशेषसाधनाश्रयाश्रिता जो संबंध अवधारित किया जाता है, वही उपाधिशून्य व नियत साध्यसामानाधिकरण्यरूपा। इसमें तीन बातें प्रस्तुत की गई हैंहोने के कारण नियम अर्थात् व्याप्ति कहलाता है१६६। इसका -(१) साध्य के साथ हेतु के संबंध को व्याप्ति कहते हैं जो मतलब है कि व्याप्ति को उपाधिशून्य होना चाहिए किन्तु प्रश्न अशेष यानी सकल, साधनों में रहने वाला हो। इस तरह यह कहा उठता है कि उपाधि क्या है? इसके संबंध में नव्यन्याय के गंगेश जा सकता है कि सकल साधनों में रहने वाले साध्य के साथ उपाध्याय का मत है कि जिससे व्याभिचार ज्ञान होता है वह हेतु का सामान्याधिकरण्य ही व्याप्ति है। उपाधि है। इसकी उपस्थिति में व्याप्ति की कोई निश्चित जानकारी
बौद्ध-दर्शन - दिङ्नाग ने सद्हेतु पर प्रकाश डाला है नहीं हो सकती है। धूम और अग्नि के बीच संबंध बताया जाता उसी से हेत और साध्य के बीच देखी जाने वाली व्याप्ति की भी है और धूम को देखकर आग्नि का अनुमान किया जाता है। जानकारी हो जाती है। किन्त कर्णगोमिनं व्याप्तिः को स्पष्टतः किन्तु धूम और अग्नि के बीच स्वाभाविक संबंध नहीं है। जहाँ
व्यक्त करने का प्रयास किया है। उन्होंने व्याप्ति के लिए धूम है वहाँ अग्नि होती है, किन्तु जहाँ अग्नि होती है, यह
अविनाभाव शब्द का प्रयोग किया है। एक के अभाव में दूसरे आवश्यक नहीं है कि वहाँ धूम हो ही। गर्म लोहे में अग्नि तो का भी अभावअविनाभाव संबंध होता है. साध्य-धर्म के अभाव होती है, किन्तु ध्म नहीं होता है। यदि धूम और अग्नि में स्वाभाविक में कार्य स्वभाव लिङगों (चिन्हों) का न पाया जाना अविनाभाव संबंध होता तो दोनों सर्वदा साथ रहते। धूम इसलिए होता है कि
___ या व्याप्ति है।१०। इसको यदि दूसरे शब्दों में कहना चाहें तो कह लकड़ी में गीलापन होता है। यह गीलापन ही धूम का कारण है
सकते हैं कि साध्य के अभाव में साधन का अभाव या साधन अथवा अग्नि और धूम का संबंध बताने वाली उपाधि है।
के अभाव में साध्य का अभाव अविनाभाव है जिसे व्याप्ति या मीमांसा - प्रभाकर के अनुसार दो वस्तुओं के बीच जो अव्यभिचरित एवं नियत कार्य-कारण-भाव संबंध होते हैं, उन्हीं जैन-दर्शन - जैन प्रमाण में व्याप्ति के लिए अविनाभाव को सद्हेतु या व्याप्ति कहते हैं।
तथा अन्यथानुपपत्ति शब्द भी आए हैं। व्याप्ति के संबंध में सांख्य - व्याप्ति को परिभाषित करते हुए महर्षि कपिल माणिक्यनन्दी ने कहा है१११ - इयमस्मिन् सत्येव भवत्यसति तु ने कहा है१०७ - नियतधर्मसाहित्यमुभयोरेकतरस्य वा व्याप्ति अर्थात् न भवत्येव। नियतधर्मसाहचर्य ही व्याप्ति है। अर्थात् साध्य और साधन के
यथाऽग्नावेव धूमस्तदभावे न भवत्येवेति च।। बीच पाया जाने वाला संबंध यदि नियत और व्यभिचार-रहित है तो उसी को व्याप्ति के नाम से जानते हैं।
अर्थात् अमुक के होने पर ही अमुक होता है और नहीं
होने पर नहीं होता है उसे अविनाभाव या व्याप्ति कहते हैं, जैसे योग - इस दर्शनपद्धति में व्याप्ति के लिए संबंध शब्द अग्नि के होने पर ही धम होता है और अग्नि के नहीं रहने पर का प्रयोग हुआ है और वह संबंध क्या है उस पर प्रकाश डालते
धूम नहीं होता है। यदि साध्य के अभाव में साधन अथवा साधन हुए कहा गया है१०४--अनुमेयस्यतुल्यजातीयेस्वनुवृत्तौ के अभाव में साध्य हो तो दोनों में व्याप्ति नहीं हो सकती, भले भिन्नजातीयेभ्यो व्यावृत्तः संबंधः अनुमेयः अर्थात् जिसका हम ही उसका आभास क्यों न ज्ञात हो। देवसूरि ने व्याप्ति को अनुमान कर रहे हैं, के साथ समान जाति में अनुवृत्ति तथा भिन्न त्रिकोणवर्ती कहा है अर्थात् यह भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों जाति में व्यावृत्ति रखता हो उसे संबंध कहते हैं। अनुवृत्ति अनुकूलता ही के लिए होती है। ऐसा नहीं देखा जाता कि कोई व्याप्ति को दर्शाती है तथा व्यावृत्ति प्रतिकूलता को। इससे यह स्पष्ट होता भतकाल में तो थी किन्त वर्तमान में नहीं है अथवा वर्तमान में है कि व्याप्ति स्वजातीय में अनुकूलता तथा विजातीय में है किन्त भविष्य में इसके होने की आशा नहीं है। व्याप्ति के प्रतिकूलता का बोध कराती है।
संबंध में आचार्य हेमचंद्र के विचार को डा. कोठिया ने बड़े ही
स्पष्ट शब्दों में रखा है---व्याप्ति. व्याप्य और व्यापक दोनों का triandramdandramodorandurbarmovindiamoromowoanivaard-५ १ dminirominiududhudumorondrainirodutoudvaratra
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - धर्म है। जब व्यापक (गम्य) का धर्म व्याप्ति विवक्षित हो तब अकलंक के इस विवेचन से स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष और व्यापक का व्याप्य के होने पर होना ही व्याप्ति है और जब अनुपलम्भपूर्वक सर्वदेश और सर्वकाल के उपसंहाररूप व्याप्य (गमक) का धर्म व्याप्ति अभिप्रेत हो तब व्याप्य का अविनाभाव (व्याप्ति) का निश्चय करने वाला ज्ञान तर्क है और व्यापक के होने पर ही होना व्याप्ति है।१२। धर्मभूषण ने व्याप्ति वह प्रमाण है। तर्कशास्त्र का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है, क्योंकि को सर्वोपसंहावती कहा है अर्थात् व्याप्ति सर्वदेशिक तथा यह सन्निहित असन्नहित, नियत-अनियत, देशकाल में रहने सर्वकालिक होती है। यदि यह कहा जाता है कि जहाँ-जहाँ धूम वाले साध्य-साधन के अविनाभाव को अपना विषय बनाता है, वहाँ-वहाँ अग्नि है तो धूम के साथ अग्नि का भी होना सभी है।१४। अकलंक के बाद में आने वाले जैनाचार्य जैसे विद्यानंद. देश एवं सभी काल के लिए होता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता माणिक्यनन्दी, प्रभा चन्द्र, देवसूरि, हेमचन्द्र, धर्मभूषण आदि कि आज धूम के होने पर अग्नि है और कल धूम के होने पर भी सभी उन्हीं का समर्थन करते हैं। ये लोग भी तर्क को ही व्याप्ति अग्नि नहीं होगी। यह भी मान्य नहीं है कि वाराणसी में तो धूम को ग्रहण करने वाला मानते हैं। के साथ अग्नि है, किन्तु प्रयाग में धूम के बिना अग्नि नहीं देखी व्याप्ति के प्रकार - अन्वय व्याप्ति व्यतिरेक व्याप्ति - व्याप्ति जा सकता है। तात्पर्य है कि व्याप्ति देश और काल की सीमाओं
के इस विभाजन पर सर्वप्रथम प्रशस्तपाद ने बल दिया है१९५। के अंतर्गत नहीं आती है।
साधन और साध्य के बीच की अनुकूलता या भावात्मक रूप व्याप्ति ग्रहण
को अन्वय व्याप्ति कहते हैं और साधन साध्य की प्रतिकूलता
या अभावात्मक रूप को व्यतिरेक व्याप्ति कहते हैं। व्याप्ति के 'न्याय-दर्शन में व्याप्तिग्रहण का आधार प्रत्यक्ष को माना
इस वर्गीकरण को जयन्त भट्ट, गंगेश, केशव मिश्र आदि तथा गया है। प्रत्यक्ष से लिङ्ग दर्शन होता है फिर लिङ्ग और
बौद्ध-दर्शन के धर्मकीर्ति, अर्चट आदि ने मान्यता दी है। लिङ्ग संबंध का बोध होता है उसके बाद लिङ्गस्मृति होती है। इस तरह से अनुमान होता है यह (लिङ्ग-लिङ्गी) संबंधदर्शन
समव्याप्ति-विषमव्याप्ति - दो के बीच समान व्याप्ति ही व्याप्ति-दर्शन है। वैशेषिक दर्शन में व्याप्ति-ग्रहण के लिए रहती है, उसे समव्याप्ति रहती है जैसे अभिधेय तथा ज्ञेय के अन्वय तथा व्यतिरेक को महत्त्व दिया गया है। यानी अन्वय बीच समव्याप्ति पाई जाती हैं। जो अभिधेय है वह ज्ञेय है और और व्यतिरेक के माध्यम से ही कोई व्यक्ति व्याप्ति को समझ
जो ज्ञेय है वह अभिधेय है। धूम और अग्नि के बीच विषमव्याप्ति सकता है। सांख्य-दर्शन में व्याप्ति-ग्रहण के लिए प्रत्यक्ष को
है, क्योंकि धूम के रहने पर अग्नि होती है, परंतु सभी परिस्थितियों आधार माना गया है। अनुकूल तर्क से भी व्याप्ति जानी जा
में अग्नि के रहने पर धूम नहीं होता। मीमांसादर्शन के कुमारिल सकती है ऐसा विज्ञानभिक्षु मानते हैं। मीमांसादर्शन के प्रभाकर । विमानभिमानी
ने व्याप्ति का ऐसा विभाजन किया है। ने माना है कि जिस प्रमाण से साधन :- संबंध विशेष ग्रहण होता तथोपपत्तिव्याप्ति तथा अन्यथानुपपत्ति - व्याप्ति का यह है उसी प्रमाण से साधन का व्याप्ति संबंध भी जाना जाता है। विभाजन जैन-तार्किकों के द्वारा हुआ है। तथोपपत्ति व्याप्ति धूम और अग्नि के संबंध का प्रत्यक्षीकरण ही दोनों के बीच वहाँ देखी जाती है जहाँ साध्य के रहने पर साधन देखा जाता है। पाई जाने वाली व्याप्ति पर भी प्रकाश डाल देता है। इसे किन्तु साध्य की अनुपस्थिति में ही साधन का पाया जाना असकृद्दर्शन कहते हैं, यही व्याप्तिग्रहण होता है। वेदान्त-दर्शन अन्यथानुपत्ति है। इसके अतिरिक्त जैन-तार्किकों ने एक और में भी व्याप्तिग्रहण के माध्यम के रूप में प्रत्यक्ष को ही स्वीकार वर्गीकरण किया है, जिसके अंतर्गत ये सब नाम आते हैं-- किया गया है। बौद्धदर्शन के धर्मकीर्ति ने यह माना है कि
बहिर्व्याप्ति--सपक्ष में जब साध्य और साधन के बीच व्याप्तिग्रहण करने के दो मार्ग हैं--तदुत्पत्ति तथा तादात्म्य। कारण व्याप्ति होती है. उसे बहिर्व्याप्ति कहते हैं। कार्य संबंध को तदुत्पत्ति कहते हैं तथा व्याप्यव्यापक संबंध को तादात्म्य। जैन-दर्शन के प्रमाण-व्यवस्थापक अकलंक ने तर्क
सकलव्याप्ति--पक्ष तथा सपक्ष दोनों में ही साध्य और
साधन के बीच देखी जाने वाली व्याप्ति को सकल व्याप्ति को ही व्याप्ति-ग्राहक माना है। डा. कोठिया के शब्दों में११३
कहते हैं। dridrowdnironirbnorariadridorariwaroorironiriranid५२ d irowondiriwariwariwaridnirordGirironirandionorarta
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– यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन अन्तर्व्याप्ति--पक्ष, सपक्ष तथा हेतु के न रहने पर भी वैशेषिक-दर्शन - वैशेषिकसत्र में अनुमान के प्रकारों साध्य और साधन के बीच पाई जाने वाली व्याप्ति अन्तर्व्याप्ति पर प्रकाश नहीं डाला गया है। किन्तु प्रशस्तपाद ने अपने भाष्य होती है।
में लिखा है११७--तत्तद्विविधम्। दृष्टं एवं सामान्यतोदृष्टं। अनुमान
के दो भेद हैं--दृष्ट एवं सामान्यतोदृष्ट। प्रसिद्ध साध्य एवं अनुमेय अनुमान के प्रकार -
इन दोनों में जातितः अत्यंत अभिन्न होने पर (सजातीय होने भारतीय प्रमाणशास्त्र में अनुमान के तीन वर्गीकरण मिलते पर) जो अनुमान किया जाता है, दृष्ट अनुमान कहलाता है। हेतु हैं--(१) पूर्ववत्, शेषवत् तथा सामान्यतोदृष्ट।
के साथ पहले से ज्ञात रहने वाला साध्य प्रसिद्ध साध्य और जिस (२) स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान।
साध्य की सिद्धि अभी अभिप्रेत है वह अनुमेय कहा जाता है।
जैसे पूर्व में किसी स्थान विशेष अर्थात् नगरनिष्ठ गाय में ही (३) केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी।
केवल सास्ना को देखकर अन्य किसी स्थान अर्थात् वन में इन वर्गों की मान्यता दर्शन की किसी खास शाखा तक ही सास्ना को देखने के पश्चात गायविषयक जो प्रतीति (अनुमिति) सीमित है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। एक ही शाखा के कुछ होती है वह दृष्ट अनमान है११८ ॥ आचार्य प्रथम वर्गीकरण को मानते हैं, तो अन्य कुछ द्वितीय या
व्योमशिव आदि आचार्यों ने स्वनिश्चयार्थ (स्वार्थानुमान) तृतीय विभाजन को अंगीकार करते हैं।
तथा परार्थानुमान निरूपित किए हैं। किन्तु सप्तपदाथों में न्याय दर्शन - न्याय सूत्रकार गौतम ने अनुमान के भेद केवलान्वयी केवलव्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी की चर्चा पर विचार करते हुए कहा है११६ - अथं तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं मिलती है११९। पूर्वच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टम् अर्थात् अनुमान के तीन भेद हैं-पूर्ववत्,
मीमांसा - शबर स्वामी ने अनुमान के प्रकारों को बताते आकाश में बादल को देखकर वर्षा होने का अनुमान करना।
हुए प्रत्यक्षतो दृष्ट-संबंध तथा सामान्यतोदृष्ट-संबंध पर प्रकाश शेषवत-नदी की बाढ को देखकर ऐसा अनुमान करना कि वषा हुइ डाला है। प्रभाकर ने अनुमान के जो दो भेद माने है, व इस है। सामान्यतोदृष्ट--एक साथ पाई जाने वाली दो वस्तुओं में से
प्रकार हैं-दृष्टस्वलक्षण और अदृष्टस्वलक्षण। किसी एक को देखकर दूसरी का अनुमान करना, जैसे किसी पशु के सींग को देखकर उसकी पूँछ का अनुमान करना।
सांख्या - सांख्यकारिका में कहा गया है ५२० -
त्रिविधमनुमानमाख्यातम्। उसी के आधार पर आचार्य माठर ने भासवर्ग, केशव मिश्र आदि ने अनुमान को स्वार्थानुमान
बताया कि अनुमान के तीन प्रकार होते हैं--पूर्ववत्, शेषवत्, तथा परार्थानुमान के रूप में विभाजित किया है। जब हम स्वयं
सामान्यतोदृष्ट। सांख्यतत्त्वकौमुदी में पहले वीत और अवीत के कुछ समझने के लिए अनुमान करते हैं तो उसे स्वार्थानुमान (स्व
रूप में अनुमान का विभाजन हुआ है फिर वीत के दो भेद किए + अर्थ+ अनुमान) कहते हैं और जब पर-उपदेश के लिए अनुमान
गए हैं-पूर्ववत् तथा सामान्यतोदृष्ट। करते हैं तो उसे परार्थानुमान (पर + अर्थ + अनुमान) कहते हैं।
वेदान्त - वेदान्तपरिभाषा में अनुमान के दो भेद बताए . उद्योतकर ने अनुमान का वर्गीकरण अन्वयी, व्यतिरेकी
गए हैं--स्वार्थानुमान तथा परार्थानमान। इसी को अर्थदीपिका एवं अन्वय-व्यतिरेकी के रूप में किया है। इन्हीं तीन प्रकारों
में कहा गया है कि जो अनुमान अपनी समस्या को सुलझाने में को उदयन ने केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी
सहायक होता है वह स्वार्थानुमान तथा जो अन्य की समस्या कहा है। जो अनुमान केवल अन्वय पर आधारित हो उसे केवलान्वयी ।
को सुलझाने में सहायक होता है, वह परार्थानुमान है। कहते हैं, जो मात्र व्यतिरेक पर आधारित हो उसे केवलव्यतिरेकी तथा जो अन्वय और व्यतिरेक दोनों पर आधारित हो उसे अन्वय
बौद्धदर्शन - दिङ्नाग ने अनुमान को दो प्रकारों में व्यतिरेकी कहते हैं। इसे गंगेश ने अच्छी तरह विवेचित किया है। विभाजित किया है--स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान। धर्मकीर्ति
के द्वारा भी इस विभाजन को समर्थन प्राप्त है। असंग ने अनुमान
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चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
को पाँच प्रकार का बताया है-
(१) लिङ्ग पर आधारित अनुमान, जैसे धूम से अग्नि का अनुमान ।
(२) स्वभाव पर आधारित अनुमान, जैसे- एक चावल को देखकर हंडे के संपूर्ण चावलों के पकने का अनुमान ।
(३) कर्म पर आधारित अनुमान, जैसे-सूँघने से नाक का अनुमान ।
(४) गुण पर आधारित अनुमान, जैसे- अनित्य वस्तु से दुःख का अनुमान ।
(५) कार्य कारण पर आधारित अनुमान -- जैसे अधिक भोजन से पेट भरने का अनुमान या पेट भरने से अधिक भोजन खाने का अनुमान |
जैन- दर्शन - अनुयोगद्वारसूत्र १२१ में अनुमान के प्रकारों का विवेचन करते हुए कहा गया है अनुमान तीन प्रकार के होते हैं -- पूर्ववत्, शेषवत् तथा सामान्यतोदृष्ट । पूर्ववत् - - पहले से जाने हुए हेतु को देखकर जो अनुमान किया जाता है उसे पूर्ववत् अनुमान कहते हैं। इसे समझने के लिए सूत्रकार ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसमें पुत्र संबंधी एक माँ के द्वारा किया गया अनुमान विवेचित है - किसी माँ का पुत्र छोटी अवस्था में घर छोड़कर अन्य किसी स्थान पर चला गया और वह उस समय लौटा जब युवा हो गया था । किन्तु माँ अपने पुत्र की देह के विभिन्न चिन्हों को देखकर पहचान गई। उसने चिन्हों के आधार पर अनुमान करते हुए कहा - यह मेरा पुत्र है १२२ ।
शेषवत् - उन दो पदार्थों में से किसी एक को देखकर दूसरे का अनुमान करना, जो एक-दूसरे से संबंधित होते हैं तथा साथ रहते हैं। शेषवत् अनुमान के पाँच प्रकार बताए गए हैं-
(क) कार्येण - अर्थात् कार्य को देखकर कारण का अनुमान करना ध्वनि से शंख का, ताडन से भेरी का, ढक्कित ध्वनि सुनकर बैल का, केकायित सुनकर मोर का, हिनहिनाना सुनकर घोड़े का, चिंघाड़ना सुनकर हाथी का तथा घणघणाना सुनकर रथ का अनुमान करना आदि कार्यतः अनुमान है।
(ख) कारणेन -- कारण को देखकर कार्य का अनुमान करना । तन्तु को देखकर वस्त्र का अनुमान करना क्योंकि तन्तु वस्त्र कारण है, वस्त्र तन्तु का कारण नहीं है। मिट्टी के पिण्ड को
টটট
देखकर घट का अनुमान करना क्योंकि मिट्टी, पिण्ड घट का कारण है। घट मिट्टी के पिण्ड का कारण नहीं है। इस तरह से बादल को देखकर वृष्टि का अनुमान करना, चंद्रमा के उदित होने से समुद्र में तूफान तथा सूर्य को उगते हुए देखकर कमल के खिलने का अनुमान आदि कारणतः अनुमान है।
(ग) गुणेन -- गुण के आधार पर गुणी का अनुमान करना । कसौटी से. स्वर्ण का बोध, गंध से फूल का बोध, रस से स्वाद का बोध, सुगंध से मदिरा का बोध, छूने से वस्त्र का बोध करना गुणतः अनुमान है।
(घ) अवयवेन -- अवयव के आधार पर अवयवी का अनुमान करना । अवयव को देखकर अवयवी का या अंग को देखकर अवयवी का अनुमान करना। सींगों को देखकर भैंस का ज्ञान करना, चोटी को देखकर मुर्गे का, दाँतों को देखने के बाद हाथी का, दाढ़ देखकर सूअर का, मोर का पंख देखकर मोर का, खुर देखकर घोड़े का, नखों को देखकर बाघ का बोध करना आदि अवयवतः अनुमान है।
(ङ) आश्रितेन -- आश्रित रहने वाली वस्तु को देखकर आश्रय का अनुमान करना, जैसे धूम को देखकर अग्नि का अनुमान करना । ये सभी आश्रयतः अनुमान है। दृष्टसाधर्म्यवत् - इसके दो प्रकार हैं -
(१) सामान्यतोदृष्ट-- किसी एक व्यक्ति को देखकर उसके देश (तद्देशीय) के या उसकी जाति के अन्य लोगों का अनुमान करना सामान्यतोदृष्टअनुमान है।
(२) विशेषतोदृष्ट-- विशेष गुण को देखकर किसी व्यक्ति या वस्तु का अनुमान करना विशेषतोदृष्ट अनुमान है, जैसे अनेक व्यक्तियों में से किसी एक को अलग करके उसकी विशेषता पर प्रकाश डालना। कोई व्यक्ति जनसमूह में अपने मित्र को उसकी विशेषता के आधार पर पहचान लेता है।
काल के आधार पर अनुमान के भेद--इसके आधार पर अनुमान के तीन भेद किए गए हैं-
(१) अतीतकाल - ग्रहण, (२) प्रत्युत्पन्नकाल- ग्रहण तथा (३) अनागतकाल-ग्रहण |
सिद्धसेन दिवाकर इन्होंने कहा है १२३ - जब व्यक्ति अपने ही समान दूसरे को भी निश्चय करवाता है तो उसे ही
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - विद्वान् लोग परार्थमान कहते हैं। यहाँ पर दो बातें कही गई हैं-- होता है। किन्तु अंकर से ही आगे चलकर बीज भी बनता है। (क) स्वनिश्चय अर्थात् स्वयं को ज्ञान देना इसे स्वार्थानुमान इसलिए बीज के आधार पर अंकुर तथा अंकुर के आधार पर कहा जाता है। (ख) परार्थमान अर्थात् परार्थानुमान का अर्थ है बीज के अनुमान किए जा सकते हैं१२७।। जान। आगे इन्होंने परार्थानमान को परिभाषित किया है१२४ - माणिक्यनन्दी - माणिक्यनन्दी१२८ ने अनमान के दो उस हेत का जो साध्य के अभाव में कभी भी नहीं होता, प्रातपादन भेदों को प्रकाशित किया है. करने वाला वचन परार्थानुमान के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार सिद्धसेन ने अनुमान के दो प्रकारों पर प्रकाश डाला है।
(क) स्वार्थानुमान--साधन के आधार पर साध्य के संबंध
__ में ज्ञान कराने वाला जो अनुमान है, उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। अकलंक - अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों के द्वारा अनुमान भेद के संबंध में दिए गए विचारों का अकलंक ने खण्डन किया
(ख) परार्थानुमान---जो ज्ञान स्वार्थानुमान के विषयबोध है। उन्होंने अनुमान के त्रिविध, चतुर्विध तथा पंच विध रूपों को १
का प्रतिपादन करने वाले वचनों से होता है उसे परार्थानमान गलत बताया है। क्योंकि उनमें अव्याप्ति अथवा अतिव्याप्तिदोष
कहते हैं। देखे जाते हैं। अकलंक के विचार का अध्ययन करने के बाद वादिराज - वादिराज ने अनुमान का वर्गीकरण अपने डा. कोठिया ने कहा है--निष्कर्ष यह है कि ढंग से किया है। जो अन्य आचार्यों के द्वारा किए गए वर्गीकरणों अन्यथानुपपन्नत्वविशिष्ट ही एक हेतु अथवा अनुमान है। वह न से भिन्न है। पहले उन्होंने अनुमान को दो वर्गों में विभाजित किया त्रिविध है न चतुर्विध आदि। अत: अनुमान का त्रैविध्य और है१२९ - चातुर्विध्य उक्त प्रकार से अव्याप्त एवं अतिव्याप्त है। अकलंक
गौण - जो अनुमान के कारण होते हैं। के इस विवेचन से प्रतीत होता है कि अन्यथानुपपनत्व की अपेक्षा से हेतु एक ही प्रकार का है और तब अनुमान भी एक ही
मुख्य - साधन और साध्य के अविनाभावी संबंध के तरह का संभव है१२५।
आधार पर साध्य के संबंध में होने वाला ज्ञान। विद्यानन्द - विद्यानन्द के अनुसार अनुमान के तीन भेद हैं १२६
पुनः गौण अनुमान को वादिराज ने तीन भागों में विभाजित
किया है--स्मरण, प्रत्यभिज्ञा तथा तर्क। चूँकि ये अनुमान के __ (क) वीतानुमान--वह अनुमान जो विधि रूप अर्थ का कारण होते हैं. इसलिए इन्हें भी अनमान कहा जा सकता है, परिचायक है शब्द अनित्य है क्योंकि उत्पन्न होना इसका धर्म है। किन्त ये गौण अनमान ही कहे जा सकते हैं मख्य अनमान नहीं।
(ख) अवीतानुमान--वह अनुमान जो निषेध रूप अर्थ इस संबंध में अन्य तार्किकों ने यह आशंका व्यक्त की है कि का बोध कराता है जैसे जीवित शरीर को आत्मविहीन नहीं कह यदि स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को अनुमान मान लिया जाए, सकते, क्योंकि उसमें प्राण का संचार होता है।
क्योंकि ये अनुमान के कारण हैं तो प्रत्यक्ष को भी अनुमान ही (ग) वीतावीतानुमान--जो विधि और निषेध दोनों ही
क्यों नहीं माना जाए। प्रत्यक्ष भी तो अनुमान का कारण है। रूपों में ज्ञान प्रदान करता है। वह पर्वत अग्नि युक्त है, निरग्नि
इससे लगता है कि वादिराज द्वारा प्रतिपादित अनुमान का वर्गीकरण नहीं है, क्योंकि धूमयुक्त है।
अन्य आचार्यों को स्वीकार्य नहीं है। इसके अतिरिक्त विद्यानन्द ने अनुमान के त्रिविध रूपों
प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, देवसूरि, हेमचन्द्र इन सभी ने अनुमान पूर्ववत्, शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट को अव्यापक मानते हुए
को स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान के रूपों में ही विभाजित चौथे अनुमान का भी प्रतिपादन किया है जिसे उन्होंने
किया है।३०। अनुमान के भेदों के संबंध में आचार्य हेमचन्द्र ने कारणकार्योभयानुमान की संज्ञा दी है। इसमें कारण से कार्य
कहा है-- और कार्य से कारण का अनुमान किया जाता है-बीज और तद् द्विधा स्वार्थ परार्थच। अंकुर। बीज कारण है और अंकुर कार्य, क्योंकि बीज से अंकुर स्वार्थस्वनिश्चितसाध्याविनाभावैकलक्षणात् साधनात् साध्यज्ञानम् १३१।।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन इस विवेचन में स्वार्थानुमान के लक्षण में एक विशेष क्योंकि इसके सींग हैं। किन्तु सींग वाले अनेक ऐसे पशु होते हैं, बात बढ़ा दी गई है, वह है स्वनिश्चित। परार्थानुमान का लक्षण जो अश्व नहीं होते। जैसे - गाय, भैंस आदि। अत: सींग वाला वही है, जो पूर्ववर्ती आचार्यों ने प्रतिपादित किया हैं।
पशु अश्व होता है। ऐसी कोई प्रसिद्धि नहीं है, फिर तो अनुमान अनुमानाभास - अनुमानाभास (अनुमान + आभास) भा गल
भी गलत है। का अर्थ होता है दोषपूर्ण अनुमान। अनुमान का आभास हो किन्तु (२) असद - जो हेत असत हो, जिसकी सत्ता न हो, जो सही अर्थ में अनुमान न हो। जो अनुमान साध्य के विषय में गलत सिद्ध न हो। यदि कोई गधे को अश्व कहता है, यह हेतु दिखाकर बोध कराए वही अनुमानाभास है। यह तब होता है जब अनुमान के कि वह सींग वाला है, तो ऐसा हेत सिद्ध भी नहीं है, क्योंकि गधे आधार पर या अनुमान के अवयवों में दोष होता है। आधार की के सींग होता है, ऐसा किसी ने नहीं देखा है। दृष्टि से विचार करने पर ऐसा माना जा सकता है कि जब हेतु की
तो उसके द्वारा दिया गया हेत संदिग्ध है। क्योंकि जितने व्याप्ति एवं पक्ष की पक्षधर्मता में दोष होता है तब अनुमानाभास
भी सींग वाले पशु हैं, वे गाय ही नहीं होते। अतः निश्चित रूप होता है। अवयव की दृष्टि से विचार करने पर हम कह सकते हैं कि
से यह नहीं कहा जा सकता कि सींग वाले पशु गाय हैं। पञ्चावयव-प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टांत, उपनय तथा निगमन में जब दोष पाए जाएँगे तब अनुमानाभास होगा। इसमें आभास होने पर ही
न्याय दर्शन - अनुमानाभास होता है। दोष होने पर प्रतिज्ञा- प्रतिज्ञाभास, हेतु
इस दर्शन में पांच प्रकार के हेत्वाभास माने गए हैं।१३४ हेत्वाभास, दृष्टान्त-दृष्टान्ताभास, उपनय-उपनयाभास तथा निगमनिगमनाभास हो जाते हैं। इन सब की वजह से पूरा अनुमान ही (१) सव्यभिचार - दो विरोधी वस्तुओं में हेतु का रहना अनुमानाभास हो जाता है। इनमें से कोई भी एक आभास यदि व्यभिचार होता है। साध्य और साध्याभाव दो विरोधी पक्ष हैं। घटित होगा तो अनुमान सही नहीं हो सकता है।
यदि हेतु किसी रूप में दोनों में बताया जाए, तो यह व्यभिचार वैशेषिक दर्शन - सामान्यतः अनुमान के पांच अवयव
होगा। व्यभिचार युक्त व्यवस्था या व्यभिचार वाले हेतु को माने गए हैं किन्तु उनमें हेतु को अधिक प्रधानता दी गई है। सव्यभिचार कहते हैं। इसलिए बहुत से दार्शनिकों ने अनुमानाभास पर विचार करते (२) विरुद्ध - स्वीकार किए गए सिद्धान्त के विरोध में हुए केवल हेत्वाभास पर ही ध्यान दिया है। महर्षि कणाद ने भी आने वाला हेतु विरुद्ध कहा जाता है। प्रतिज्ञाभास, दृष्टान्ताभास आदि पर प्रकाश नहीं डाला है। उन्होंने
(३) प्रकरणसम - "निर्णय के लिए, अपदिष्ट होने पर सिर्फ हेत्वाभास का विवेचन किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से (कथन करने पर) भी, जिसमें प्रकरणचिन्ता बनी रहती है, उसे हेत्वाभास पर विचार करने वाले वे प्रथम व्यक्ति माने जाते हैं, न्यायसत्रकार ने प्रकरणसम कहा है।"१३५ क्योंकि उनसे पहले भारतीय न्याय शास्त्र में किसी ने हेत्वाभास
(४) साध्यसम - जो हेतु सिद्ध न हो बल्कि स्वयं साध्य पर विचार नहीं किया है। उन्होंने कहा है१३२
की तरह ही साध्य हो उसे साध्यसम कहते हैं। शब्द भी बताता है "प्रसिद्धिपूर्वक त्वादपदेशस्य।"
(साध्य + सम) कि जो साध्य के बराबर हो। जो हेतु प्रसिद्धि पूर्वक होता है यानी जिसमें व्याप्ति होती (५) कालातीत - साधन और साध्य को एक ही काल है, उसे ही अपदेश या सद्हेतु कहते हैं। जिस हेतु में प्रसिद्धि नहीं में होना चाहिए। जो हेतु साध्य की सिद्धि के लिए उस समय होती या जिसकी प्रसिद्धि संदिग्ध होती है, उसे असद् या असिद्ध प्रस्तुत किया जाए, जब उसका समय व्यतीत हो चुका हो, तो हेत्वाभास मानते हैं।१३३ इस प्रकार कणाद ने हेत्वाभास के तीन उसे ही कालातीत हेत्वाभास कहते हैं। प्रकार माने हैं -
मीमांसा एवं वेदान्त - मीमांसासूत्र में हेत्वामास की (१) अप्रसिद्ध - जिस हेतु की प्रसिद्धि न हो। कोई चर्चा नहीं मिलती। 'शांकरभाष्य' ने भी इस पर कोई प्रकाश नहीं व्यक्ति गधे को दूर से देखकर कहता है - यह पशु अश्व है, डाला है किन्त कमारिल के विमर्श में असिद्ध अनैकान्तिक एवं Madaaraansaansorsasaraordarsanaroromotoroof ५ ६]ooranslationsansarsawaaridwardindiansudra
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - बाध हेत्वभासों को देखा जाता है।१३६ वेदान्त दर्शन में न्याय दर्शन प्रतिपाद्यसिद्ध पक्षाभास है। जो पक्ष किसी कारण से बाधित हो द्वारा प्रतिपादित हेत्वाभासों का खंडन प्राप्त होता है। १३७ जाए उसे बाधित पक्षाभास कहते हैं। इसके चार भेद होते हैं - बौद्ध दर्शन - नागार्जन ने हेत्वामास के आठ प्रकार
(१) प्रत्यक्षबाधित- जो प्रत्यक्ष से बाधित है। जैसे - बताए हैं - १३८ (१) वाक्छल, (२) सामान्यछल, (३) संशयसम,
स्वलक्षण निरंश है। (४) कालातीत, (५) प्रकरणसम, (६) वर्ण्यसम, (७) व्यभिचार
(२) अनुमानबाधित - जो अनुमान से बाधित है। जैसे तथा (८) विरुद्ध।
- सर्वज्ञ नहीं है।
(३) लोकबाधित - जो लोक द्वारा बाधित है। जैसे - असङ्ग के मत में हेत्वाभास दो हैं१३९ - अनिश्चित अथवा
माता गम्य है। अनैकान्तिक तथा साध्यसम।
(४) स्ववचनबाधित - जो अपने वचन के कारण वसुबन्धु के अनुसार हेत्वाभास तीन हैं १४० - असिद्ध, बाधित है। जैसे - सब भाव नहीं हैं। अनिश्चित तथा विरुद्ध
हेत्वाभास - जैन दर्शन -
"अन्यथानपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम । समन्तभद्र जैनतर्क में हेत्वाभास की स्पष्ट व्याख्या तो सिद्धसेन तत्प्रतीतिसंदेह विपर्यासैस्तदामता।।११४३ दिवाकर की रचना में मिलती है किन्तु उनके पूर्ववर्ती आचार्य
अन्यथानुपपन्नत्व हेतु का लक्षण है, अर्थात् साध्य के समन्तभद्र ने विज्ञानाद्वैत के खंडन के सिलसिले में प्रतिज्ञाभास
बिना उत्पन्न न होना किन्तु जब इस बात का अभाव होता है, तथा हेत्वाभास की चर्चा की है। उनके विचार को डॉ. कोठिया
यानी साध्य के न होने पर भी साधन या हेतु का होना हेत्वाभास इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं १४१ -
होता है। "विज्ञप्तिमात्रता की सिद्धि यदि साध्य और साधन के ज्ञान
हेत्वाभास के तीन प्रकार हैं - असिद्ध, विरुद्ध तथा से की जाती है, तो अद्वैत की स्वीकृति के कारण न साध्य संभव है
अनैकान्तिक। और न हेत्, अन्यथा प्रतिज्ञादोष और हेतदोष प्राप्त होंगे।"
"असिद्धस्त्वप्रतीतो यो योऽन्ययैवोपपद्यते। इससे यह कहा जा सकता है कि समन्तभद्र ने प्रतिज्ञादोष
विरुद्धो योन्यथाप्यत युक्तोऽनैकान्तिकः स तु।।''१४४ यानी प्रतिज्ञाभास तथा हेतु दोष यानी हेत्वामास को माना है।
असिद्ध - जिसकी प्रतीति अन्यथानुपपन्नत्व से नहीं होती है। सिद्धसेन दिवाकर -
विरुद्ध - जो साध्य के न होने पर ही उत्पन्न होता है, यानी सिद्धसेन दिवाकर ने तीन प्रकार के आभासों को मान्यता विपक्ष में उत्पन्न होता है, उसे विरुद्ध कहते हैं। दी है और उनके विवेचन-विश्लेषण किए हैं - (१) पक्षामास
अनैकान्तिक - साध्य तथा साध्यविपर्यय दोनों ही के (२) हेत्वाभास तथा (३) दृष्टान्ताभास।
साथ जो हो, उसे अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं। पक्षाभास - जो पक्ष के स्थान पर आता है किन्तु पक्ष
दृष्टान्तामास - का काम नहीं करता, जो पक्ष जैसा लगता है, उसे पक्षाभास कहते हैं।
"साधर्म्यणात दृष्टान्तदोषा न्यायविदीरिता।
अपलक्षणहेतूत्याः साध्यादि विकलादयः।।' १५४५ "प्रतिपाद्यस्य यः सिद्धः पक्षामासोऽक्षलिङ्गतः। लोकस्ववचनाभ्याम् च बाधितोऽनेकधा मतः।।'१४२
जिन हेतुओं में हेतु के लक्षण नहीं हैं, उनसे उत्पन्न होने के पक्षामास के दो प्रकार होते हैं - (१) प्रतिपाद्यसिद्ध पक्षाभास
कारण दृष्टान्त आभास हो जाता है। जो दृष्टान्त दोष साधर्म्य के तथा (२) बाधित पक्षामास। प्रतिवादी को सिद्ध होने वाला
द्वारा होता है उसे साधर्म्य दृष्टान्ताभास कहते हैं। इसके छह भेद होते हैं।१४६
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - (१) साध्यविकल - अनुमान भ्रान्त है, क्योंकि प्रमाण (४) संदिग्धसाध्यव्यतिरेकी - साध्य का अभाव संशय है. जैसे - प्रत्यक्षा यहाँ दृष्टान्त प्रत्यक्ष है। साध्य भ्रान्तता है। यक्त हो। किन्तु भ्रान्तता प्रत्यक्ष में नहीं है। यदि प्रत्यक्ष भ्रांत होगा, तो (५) संदिग्धसाधनव्यतिरेकी - साधन के अभाव में सभी प्रकार के व्यवहार रुक जाएँगे, क्योंकि न कोई प्रमाण होगा संशय। और न प्रमेय ही। अत: ऐसा दृष्टान्त दोषपूर्ण है। इसे साध्य -
(६) संदिग्धसाध्यसाधनव्यतिरेकी - जहाँ साध्य तथा विकल कहते हैं। यह सकल नहीं है।
साधन के दोनों के ही अभाव संदिग्ध हों। (२) साधनविकल - जागने की स्थिति का संवेदन
जब भी अनुमान संबंधी कोई विवेचन होता है, तब भारतीय भ्रान्त है, क्योंकि प्रमाण है। जैसे - स्वप्नसंवेदन। जाग जाने पर
परम्परा में न्याय दर्शन में व्याख्यायित अनुमान तथा पाश्चात्य स्वप्नसंवेदन नहीं होता। इसलिए इसमें प्रमाणता साधन नहीं हो
परम्परा में ग्रीक दार्शनिक अरस्तू के द्वारा प्रतिपादित निगमन सकती है।
तर्क (Deductive Logic) के उल्लेख सामने आते हैं किन्तु जैन (३) उभयविकल - सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से
न्याय जिसे कभी-कभी अकलंक-न्याय के नाम से जाना जाता उपलब्ध नहीं होता। घड़े की तरह इसलिए साध्य नहीं है। घड़ा
है, में विवेचित अनुमान आदि किसी से कम नहीं हैं। अनुमान
लेनिन । प्रत्यक्ष से उपलब्ध है, इसलिए इसमें साधन नहीं है।
मूलतः साध्य-साधन अविनाभाव संबंध पर आधारित होता है। (४) संदिग्धसाध्यधर्म - जिसमें साध्य धर्म संदिग्ध दस बात से तो सभी सहमत देखे जाते हैं लेकिन अनमान की हो। यह वीतरागी है, क्योंकि इसमें मृत्युधर्म है। जैसे राह पर सरलता एवं स्पष्टता के लिए मान्य उसके विभिन्न अवयवों की चलने वाला पुरुष। यह संदिग्ध है कि राह पर चलने वाला संख्या के संबंध में मतैक्य नहीं पाया जाता है। किसी ने अवयवों व्यक्ति वीतरागी हो।
की संख्या दो तो किसी ने तीन तो किसी ने पाँच बताई है। न्याय (५) संदिग्धसाधनधर्म - साधन धर्म की संदिग्धता भाष्य में अवयवों की संख्या दस है। इस संबंध में जैन-अनुमान जिसमें हो, यह व्यक्ति मरणशील है, क्योंकि रागुयक्त है, जैसे की अपनी विशेषता है। इसने अवयवों की संख्या दो, तीन, पाँच राह पर चलने वाला व्यक्ति। किन्तु राह पर चलने वाला वीतराग और दस मानी है और इसकी सार्थकता भी बताई है। जैन चिन्तकों भी हो सकता है।
के अनुसार बुद्धिमान व्यक्तियों के लिए दो तथा मंद बुद्धिवालों के (६) संदिग्धोभयधर्म - जिसमें साध्य-साधन दोनों ही लिये दस अवयवों की आवश्यकता होती है। बीच वाले यानी संदिग्ध हों। यह व्यक्ति असर्वज है. रागी होने से पथिक की सामान्य लोगों को अनुमान के लिए तीन या पाँच अवयवों की तरह। किन्तु पथिक में साध्य-साधन दोनों ही संदिग्ध हैं। ही आवश्यकता होती है। इस तरह अनुमान की उपयोगिता को
सरल बनाने का प्रयास जैन-न्याय की अपनी विशेषता है। "वैधयेणात्र दृष्टान्तदोषा न्यायविदीरिताः। साध्यसाधनयुग्मानामनिवृन्तेश्च संशयात् ।।'१४७
सन्दर्भ वैर्धम्य दृष्टान्तामास तब बनता है, जब साध्य-साधन तथा (१) जैनदर्शन-मनन और मीमांसा, पृष्ठ ५९१ साध्य-साधन दोनों के अभाव हों। ये दोष छह प्रकार के होते हैं - (२) न्यायसत्र- १/१/५
(१) साध्यव्यतिरेकी - जहाँ साध्य का अभाव सिद्ध न (३) न्यायभाष्य- १/१/३ हो सके।
(४) न्या. वि.वि. भा. २/१ (२) साधनव्यतिरेकी - जिसमें साधन का अभाव
(५) जैनतर्कशास्त्र में अनुमान-विचार-पृष्ठ ९० सिद्ध न हो।
(६) वैशेषिकसूत्र-९/२/१ (३) साध्य-साधनव्यतिरेकी - जहाँ न साध्य और न
(७) तत्त्वचिन्तामणि- पृष्ठ २४ साधन किसी का अभाव प्रमाणित न हो।
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धनीन्द्रसरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - (८) सांख्यसूत्र-१/१००
(३२) वेदान्तपरिभाषा, पृष्ठ १८४-१८९ (९) योगभाष्य-पृष्ठ ११ तथा
(३३) न्याय प्रवेश, पृष्ठ १ भारतीय-दर्शन में अनुमान-डॉ. बृजनारायण शर्मा, पृष्ठ २४ (३४) वही (१०) मीमांसासूत्र, भाष्यकार-शबरस्वामी, पृष्ठ, ३६
(३५) जैन-धर्म-दर्शन, डा. मोहनलाल मेहता, पृष्ठ ३०३ (११) वेदान्तपरिभाषा, पृष्ठ १५९
(३६) दशवैकालिकनियुक्ति ५० (१२) आनुमितिश्च व्याप्तिज्ञानत्वेन व्याप्तिज्ञानजन्या-वेदान्त - (३७) जैन-धर्म-दर्शन, पृष्ठ ३२८ परिभाषा, पृष्ठ १६१
(३८) न्यायसूत्र - १/१/३३ तथा भारतीयदर्शन, अनु. पृष्ठ २४
(३९) न्यायावतार, कारिका-१४ (१३) प्रमाणवार्तिक-२/६२
(४०) प्रमेयरत्नमाला, तृतीय समुद्देश (१४) प्रमाण समुच्चय-अध्याय २ तथा
(४१) प्रमाणमीमांसा-२/१/११ भारतीय दर्शन में अनुमान, डा. बृजनारायण शर्मा, पृष्ठ २६ (४२) वैशेषिक-सूत्र ३/१/१४ (१५) प्रमाणवार्तिक
(४३) वही - ३/१/१५ (१६) आधुनिक तर्कशास्त्र की भूमिका-डॉ. संकटाप्रसाद सिंह, (४४) न्यायसूत्र - १/१/३४-३५ पृष्ठ १८६
(४५) न्यायावतार, कारिका - २२ (१७) लघीयस्त्रये स्वो. कृति, कारिका-१०
(४६) प्रमाणपरीक्षा - ११६, ११७ (१८) आप्तमीमांसा, कारिका १६-१९, २६,२७ आदि
(४७) प्रमाणमीमांसा, द्वितीयोऽध्यायः तथा जैनतर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृष्ठ ९१
(४८) १२वें सूत्र का विवेचन (१९) न्यायावतार, कारिका-५
(४९) न्यायवार्तिक, पृष्ठ १४४-१४५ तथा न्यायावतार, अनु. पं. विजयमूर्ति शास्त्राचार्य, पृष्ठ ४९ ।।
(५०) प्रमाणवार्तिक - ३/२ (२०) न्यायविनिश्चय, श्लोक १७० (द्वितीयः अनुमानप्रस्ताव:)
(५१) हेतुबिन्दुटीका, पृष्ठ २०४-२१३ (२१) जैन-दर्शन, डा. महेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ २३४
(५२) जैनदर्शन, डा. महेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ २४२ (२२) प्रमाणपरीक्षा, १०९ अनुमानस्य प्रमाण्य-निरूपणम्।।
(५३) हेतुबिन्दुटीका, पृष्ठ २०५ (२३) श्लोकवार्तिक १/१३/१२९
(५४) जैनतर्कशास्त्र में अनुमान, पृष्ठ १९२ (२४) जैनतर्कशास्त्र में अनुमान, पृष्ठ ९४
(५५) न्यायविनिश्चयवृत्ति - २/१५५ (२५) परीक्षामुख सूत्र-१०, तृतीयः समुद्देशः
(५६) जैनतर्कशास्त्र में अनुमान, पृष्ठ १९४ (२६) प्रमेयरत्नमाला, व्याख्याकार-पं. हीरालाल जैन, पृष्ठ १४०
(५७) प्रमाणपरीक्षा, सम्पादक-डा. कोठिया, पृष्ठ ४९ (२७) न्यायभाष्य, पृष्ठ ४७
(५८) वैशेषिक-सूत्र ९/२/१ (२८) न्यायसूत्र, १/१/३२
(५९) जैनदर्शन, डा. महेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ २४५ (२९) अवयवाः पुनः प्रतिज्ञापदेशनिदर्शनानुसन्धान प्रत्याम्नायाः- (६०) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ ५६ प्रशस्तपादभाष्य, पृष्ठ ३३५
(६१) प्रमाणवार्तिक-३/२ (३०) पञ्चावयवयोगात्, सुखसंवित्ति: ५/२७ सांख्यसूत्र
(६२) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृ. ६३-६४ (३१) जैनतर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृष्ठ ४६
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन (६३) स्थानांगसूत्र, पृष्ठ ३०९, ३१०
(९२) वही - ३/३७ (६४) भूतबली, पुष्पदन्त, षट्खण्डागम ५/५/५१
(९३) परीक्षामुख - ३/४० . तथा जैनतर्कशास्त्र में अनुमानविचार, पृष्ठ २०६, २०७ (९४) स्याद्वादरत्नाकर, पृष्ठ ६३ (६५) न्यायावतार, कारिका-१७
(९५) न्यायसूत्र-१/१/३९ (६६) न्यायावतार, पृ.७०
(९६) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ २८५ (६७) प्रमाण-संग्रह, चतुर्थ प्रस्ताव, कारिका २९-३० (९७) जैन-तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृष्ठ १८५ (६८) प्रमेय-रत्नमाला, ३/५४, पृष्ठ १७८
((९८) परीक्षामुख-३/५१ (६९) वही, ३/५५
(९९) प्रमाणनयतत्त्वालोक - ३/५१-५२ (७०) वही, ३/६७
(१००) प्रमाणमीमांसा - २/१/१५ (७१) वही, ३/७४
(१०१) प्रमेयकमलमार्तण्ड - ३/५१ (७२) वही, ३/८२
(१०२) प्रमेयरत्नमाला - ३/४७ (७३) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ ६८
(१०३) जैन-तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृष्ठ १८६ (७४) प्रमाणमीमांसा १/२/१२ तथा
(१०४) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ ७५ जैन-तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृष्ठ २२०
(१०५) वैशेषिकसूत्र - ३/१/१४-१५ (७५) न्यायदीपिका, पृष्ठ ९५-९९
(१०६) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ ८७ (७६) जैन-तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृष्ठ २२०
(१०७) सांख्यसूत्र - ५/२९ (७७) न्यायसूत्र १/१/२५
(१०८) योगभाष्य, पृष्ठ ११ (७८) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ २८०
(१०९) वेदान्तपरिभाषा, पृष्ठ १७२ (७९) न्यायावतार, अनु. विजयमूर्ति शास्त्राचार्य, पृष्ठ ७१ (११०) कार्यस्य स्वभावस्य च लिङ्गस्थाविनाभावः साध्यधर्म(८०) प्रमाणमीमांसा २/१/१३
विना न भाव इत्यर्थः, भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ २२० (८१) न्यायसूत्र - १/१/२५, १/१/३६, ३७
(१११) परीक्षामुख - ३/१२, १३ (८२) न्यायावतार - १८
(११२) जैन-तर्कशास्त्र में अनुमान, पृष्ठ १५१ (८३) वही- १९
(११३) जैन-तर्कशास्त्र में अनुमान, पृष्ठ १४८ (८४) परीक्षामुख-१३/४७
(११४) वही, पृष्ठ १४९ (८५) प्रमाणमीमांसा - १/२/२०-२३
(११५) प्रशस्तपादभाष्य, पृष्ठ १०२ (८६) न्याय-दीपिका - ३८१
(११६) न्यायसूत्र १/१/५ (८७) न्यायसूत्र - १/१/३८
(११७) प्रशस्तपादभाष्य, पृष्ठ ३०४ (८८) जैन-तर्कशास्त्र में अनुमान, पृ. ५५, १८२
(११८) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ २२९ (८९) प्र.स., का. ५१, अकलंक ग्रन्थ, पृष्ठ १११
(११९) सप्तपदार्थी - ३४ (९०) परीक्षामुख - ३/५०
(१२०) सांख्यकारिका ५ (९१) प्रमेयकमलमार्तण्ड - ३/५०, पृष्ठ ३७७
(१२१) अनुयोगद्वारसूत्र
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन (१२२) माया पुत जहा नटुं, जुवाणं पुणरागयं।
(१३४) न्यायसार, पृष्ठ ३५ काई पच्चभिजाजेज्जा पव्वलिंगेण केणई।।
(१३५) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ ३३४ तथा (१२३) न्यायावतार - १०
न्यायसूत्र - १/२/७ (१२४) वही - १३
(१३६) भारतीय दर्शन में अनुमान, पृष्ठ ३५३ (१२५) साधनं प्रकृतभावेऽनुपपन्नं ततो परे।
(१३७) खण्डनखण्डखाद्य, पृष्ठ ३७५-७८ विरुद्धसिद्धसंदिग्धअकिंचित्करविस्तराः।
(१३८) उपायहृदय, पृष्ठ १४-१७ न्या.वि-२/१०१, १०२, पृष्ठ १०२, १२७
(139) Buddhist Logic before Dinnag, Page 480 (१२६) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - १/१३/२०२ तथा
(140) bid, Page 481 प्रमाणपरीक्षा, पृष्ठ २०८
(१४१) जैन-तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृष्ठ २२६ तथा (१२७) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १/१३/२०३, २०४
साध्यसाधनविज्ञप्तेर्यदि विज्ञप्तिमात्रता। (१२८) परीक्षामुख - ३/५२-५६
न साध्यं न च हेतुश्च प्रतिज्ञाहेतुदोषत: ८०
आप्तमीमांसा (१२९) प्रमाणनिर्णय, पृष्ठ ३३, ३६ (१३०) (क) प्रमेयकमलमार्तण्ड - ३/५२-५६
(१४२) न्यायावतार - २१ (ख) प्रमेयरत्नमाला - ३/४८-५२
(१४३) वही - २२ (ग) प्रमाणनयतत्त्वालोक - ३/९, १०, २३ (१४४) वही - २३ (१३१) प्रमाणमीमांसा - १/२ ८,९
(१४५) न्यायावतार - २४ (१३२) वैशेषिकसूत्र - ३/१/१४
(१४६) वही, पृष्ठ ८० (१३३) वैशेषिकसूत्र - ३/१/१५
(१४७) न्यायावतार - २५
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जैन दर्शन में मानववादी चिंतन
डॉ. विजयकुमार पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी....)
दर्शन-जगत् में दो परंपराएँ प्राचीनकाल से प्रवाहित होती स्पष्ट होता है कि मानव की प्रतिष्ठा तथा अधिकारों के लिए आ रही हैं-प्रकृतिवादी और निरपेक्षवादी। प्रकृतिवाद जो प्रकृति सम्मान, व्यक्ति के रूप में उसके मूल्य, लोगों का मंगलको ही एकमात्र अंतिम सत्य तथा स्वयंभू मानता है, वहीं कल्याण उनके चहुंमुखी विकास, मनुष्य के लिए सामाजिक निरपेक्षवाद, प्रकृति को एक अंतिम सत्य की बाह्य अभिव्यक्ति जीवन की परिस्थितियों के निर्माण के लिए चिंता को अभिव्यक्त मानता है। किन्तु मानववाद, जो मानव की हो ही एकमात्र महत्त्व करने वाले विचारों की समग्रता ही मानववाद का लक्ष्य है। देता है, को प्रकृतिवाद और निरपेक्षवाद का विरोधी माना जाता वस्तुतः मानव-स्वतंत्रता ही मानववाद है। जैसा कि जे. मैक्यूरी है। क्योंकि मानववाद का मुख्य उद्देश्य मानव अनुभूति की ने कहा है -- मनुष्य के ऊपर किसी भी उच्चतर सत्ता का व्याख्या करना है। यह मनुष्य को बौद्धिक जगत के केन्द्र में अस्तित्व नहीं देखा जाता है, इसलिए मनुष्य आवश्यक रूप से रखता है तथा विज्ञान को मानव जीवन से संबंधित करता है। अपने मूल्य की सृष्टि करता है, अपना मापदण्ड एवं लक्ष्य एक प्रकृतिवादी की दृष्टि में मानव अधिक से अधिक एक बनाता है, अपने मोक्ष के लिए कार्यक्रम बनाता है। मनुष्य की प्राकृतिक वस्तु है। उसका उतना ही महत्त्व हो सकता है जितना अपनी शक्ति एवं बुद्धि से परे कुछ भी नहीं है, इसलिए अपनी कि अन्य प्राकृतिक वस्तुओं का। इसी प्रकार एक निरपेक्षवादी सहायता के लिए अपने से बाहर नहीं देख सकता, इसी रूप में के अनुसार मानव भी अंतिम सत्य की अभिव्यक्ति मात्र है, उसे अपने या समाज के बाहर किसी भी निर्णय के प्रति समर्पण अपने स्वरूप तथा नियति का निर्माता नहीं। अत: स्वाभाविक है करने की आवश्यकता नहीं है। अत: मानव-स्वतंत्रता मानववाद कि मानववाद इन दोनों सिद्धान्तों से भिन्न होगा। बाल्डविन की का आधार है, क्योंकि ईश्वर या ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास डिक्शनरी ऑफ फिलॉसफी एण्ड साइकोलोजी में मानववाद करने पर मानव सुखी नहीं रह सकता। इतना ही नहीं ईश्वर या को परिभाषित करते हुए कहा गया है -- यह विचार विश्वास ईश्वर में विश्वास मनुष्य के उत्तरदायित्व को भी समाप्त कर देता अथवा कर्म संबंधी वह पद्धति है जो ईश्वर का परित्याग करके है। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य ही अपने मूल्यों का निर्धारण मनुष्य तथा सांसारिक वस्तुओं पर ही केन्द्रित रहती है। पाश्चात्य करता है। कैपलेस्टन ने अपनी पुस्तक में दार्शनिक कोर्लिस लामोण्ट के अनुसार मानववाद समस्त मानव सर्वप्रथम अस्तित्व देखा जाता है और तभी वह अपने को जाति का विश्व-दर्शन है जो विभिन्न जातियों और संस्कृतियों के परिभाषित करता है। वह अपनी स्वतंत्र इच्छाओं द्वारा स्वयं को व्यक्तियों और उनकी असंख्य संतानों के दार्शनिक एवं नैतिक निर्मित करता है। वह सिर्फ उसी के लिए उत्तरदायी होता है मार्गदर्शन में समर्थ हो सकता है। ऐनसाइक्लोपीडिया ऑफ जिसका निर्माण वह स्वयं करता है। मनुष्य मूल्यों का सृष्टा भी ह्यूमिनिटीज (Encyclopaedia of Humanities) में लिखा है कि है और दृष्टा भी है। निरपेक्ष मूल्यों का कोई अस्तित्व नहीं है। मानवजीवन की समस्याओं को महत्त्व प्रदान करने की प्रवृत्ति सार्वभौम और आवश्यक नैतिक नियम का भी कोई अस्तित्व मानववाद है, विश्व में मानव को सर्वोत्तम स्थान देने की प्रवृत्ति नहीं है। मनुष्य अपने मूल्य का चयन स्वयं करता है। मानववाद है'। इसी में आगे कहा गया है कि यह वह विचारधारा उपर्यक्त मानववादी दार्शनिक परंपरा में जैन-दर्शन का है जो मानवीय मूल्यों और मानवीय आदर्शा का प्राधान्य स्वीकार भी नाम आता है। संपर्ण भारतीय दर्शन में एक जैन दर्शन ही है, करती है, यह वह विचारधारा है जो मानव प्रकृति के उस पक्ष
जो पूर्ण मानव स्वतंत्रता की बात करता है। यह वह दर्शन है जो पर बल देती है जो प्रेम, दया, सहयोग और प्रगति में व्यक्त होता
मानव कल्याण, मानव की कर्त्तव्य-परायणता, मानव-समता, है न कि कठोरता, स्वार्थ या आक्रमणशीलता पर। इससे यह
मानव की महत्ता, उसकी चारित्रिक शुद्धि, सर्वमंगल की भावना, "
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- चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन - अहिंसक प्रवृत्ति, सुदृढ़ एवं स्वच्छ आर्थिक व्यवस्था, आध्यात्मिक, कर्मों के फल को भोगता हुआ तथा नवीन कर्मों का बंध करता सामाजिक एवं नैतिक मूल्य, विश्वबंधुत्व की भावना तथा ईश्वर का हुआ गतिशील रहता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता बल्कि कर्म मानवीयकरण आदि मानववादी चिंतनों को अपने में समेटे हुए है। सिद्धान्त के अंतर्गत इच्छा-स्वातंत्र्य को स्थान दिया गया है। वह
इस रूप में कि पूर्वकृत कर्मों का फल किसी न किसी रूप में मानव की महत्ता
अवश्य भोगना पड़ता है, किन्तु नए कर्मों का उपार्जन करने में मानव की महत्ता को न केवल जैनागमों में बल्कि वैदिक वह किसी सीमा तक स्वतंत्र है। यह सत्य है कि कृतकर्म का ग्रन्थों एवं बौद्ध साहित्य में भी स्वीकार किया गया है। महाभारत भोग किए बिना जीव को मुक्ति नहीं मिल सकती, किन्तु यह के शांतिपर्व में कहा गया है-न मानुषात श्रेष्ठतरं हि किञ्चित। अनिवार्य नहीं है कि प्राणी अमुक समय में अमक कर्म ही अर्थात् मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। धम्मपद में कहा गया उपार्जित करे। वह बाह्य परिस्थिति एवं अपनी आंतरिक शक्ति है- किच्चे मणुस्स पटिलाभो अर्थात् मनुष्य जन्म दर्लभ है। को ध्यान में रखते हुए नए कर्मों का उपार्जन रोक सकता है। इन गोस्वामी तुलसीदास ने भी मानव की दुर्लभता को बताते हुए
बातों से स्पष्ट होता है कि कर्मवाद में इच्छा-स्वातंत्र्य तो है किन्तु कहा है- बड़े भाग मानुस तन पाना। सच, सुकर्मों के
सीमित है। क्योंकि कर्मवाद के अनुसार प्राणी अपनी शक्ति एवं परिणामस्वरूप ही यह मानव तन प्राप्त होता है। उत्तराध्ययन ।
बाह्य परिस्थितियों की अवहेलना करके कोई कार्य नहीं कर सूत्र में मानव की गरिमा को बताते हुए कहा गया है-जब अशुभ
सकता, जिस प्रकार वह परिस्थितियों का दास है उसी प्रकार उसे कर्मों का विनाश होता है, तब आत्मा शुद्ध, निर्मल और पवित्र
अपने पराक्रम की सीमा का भी ध्यान रखना पड़ता है। जैन होती है और तभी उसे मानवजन्म की प्राप्ति होती है। कितनी
विद्वान् पद्मनाभ जैनी के अनुसार -जैनधर्म मनुष्य को पूर्ण ही योनियों में भटकने के बाद यह मानव का शरीर आकार रूप
धार्मिक स्वतंत्रता देने में हर अन्य धर्म से बढ़कर है। जो कुछ को प्राप्त करता है। तभी तो महावीर ने कहा है-- चिरकाल तक
कर्म हम करते हैं और उनके जो फल हैं उनके बीच कोई
हस्तक्षेप नहीं कर सकता। एक बार कर लिए जाने पर कृत कर्म इधर-उधर भटकने के पश्चात् बड़ी कठिनाई से सांसारिक जीवों को मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है. सहज नहीं है। दष्कर्म का ।
हमारे प्रभु बन जाते हैं और उनके फल भोगने ही पड़ते हैं। मेरा
स्वातंत्र्य जितना बड़ा है उतना ही बड़ा मेरा दायित्व भी है। मैं फल बड़ा भयंकर होता है। अतएव हे गौतम! क्षणभर के लिए
स्वेच्छानुसार चल सकता हूँ, किन्तु मेरा चुनाव अन्यथा नहीं हो भी प्रमाद मत करो। इतना ही नहीं जैन-चिंतन में मानव को
सकता और उसके परिणामों से मैं बच नहीं सकता। कर्म के अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्त आनंदवाला
आधार पर व्यक्ति देवत्व को प्राप्त करता है। अर्थात् मानव माना गया है। प्रत्येक मनुष्य में देवत्व प्राप्त करने की जन्मजात
स्वयं अपना भाग्य विधाता है। क्षमता होती है। प्रत्येक वर्ण एवं वर्ग का व्यक्ति इस पूर्णता की प्राप्ति का अधिकारी है।
जैनकर्मसिद्धान्त की ही भाँति मानववाद भी इच्छास्वातंत्र्य
को मानता है। इच्छा-स्वातंत्व्य का यह अभिप्राय नहीं है कि जो मानववाद और कर्मवाद
मन में आये, वही करें। ऐसे इच्छा-स्वातंत्र्य के लिए न तो कर्म के विषय में जितनी विस्तत और सक्षम व्याख्या जैन मानववाद में कोई स्थान है और न ही जैन-कर्मवाद में। जिस दर्शन में की गई है, उतनी शायद ही किसी अन्य दर्शन में की।
प्रकार जैन-कर्मवाद यह स्वीकार करता है कि मानव स्वयं गई हो। कर्मवाद का एक सामान्य नियम है कि पूर्व में किए गए
अपना भाग्य विधाता है उसी प्रकार मानववाद भी मानता है कि कर्मों के फल को भोगना तथा नए कर्मों का उपार्जन करना और
व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के बल पर बिना किसी दैविक शक्ति के इसी पूर्वकृत कर्मों के भोग और नवीन कर्मों के उपार्जन की
ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है। साथ ही मानववाद कर्म के
औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण समाज पर उसके परिणाम परम्परा में प्राणी जीवन व्यतीत करता रहता है। किन्तु प्रश्न उठता है कि कर्मवाद में कहीं पर व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता के
के आधार पर करता है। इसी प्रकार जैन-दर्शन व्यवहार दृष्टि से
कर्म-परिणाम को और निश्चय-दृष्टि से कर्मप्रेरक को औचित्य उपयोग का भी अवसर प्राप्त होता है या मशीन की भाँति पूर्वकृत
और अनौचित्य के निर्णय का आधार मानता है।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
मानववाद और अपरिग्रहवाद
मानववाद आर्थिक समानता में विश्वास करता है । मानववादी दृष्टिकोण में आर्थिक क्रियाएँ समस्त मानवीय चिंतन और प्रगति की केन्द्रबिंदु हैं। वस्तुतः मानववाद के अनुसार आर्थिक विषमता ही सामाजिक विषमता का मूल कारण है। इस आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए ही जैन दर्शन ने अपरिग्रह का सिद्धान्त दिया है। परिग्रह, जिसे संग्रहवृत्ति भी कहा जाता है, एक प्रकार की सामाजिक हिंसा है। यह परिग्रहवृत्ति आसक्ति से उत्पन्न होती है। आसक्ति का दूसरा नाम लोभ है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि लोभ समग्र सद्गुणों का विनाशक है १ २ । तृष्णा के स्वरूप को बताते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है। • यदि सोने और चाँदी के कैलाशपर्वत के समान असंख्य पर्वत भी खड़े कर दिए जाएँ तो भी यह दुष्पूर्ण तृष्णा शांत नहीं हो सकती, क्योंकि धन चाहे कितना भी हो वह सीमित ही है तृष्णा अनन्त और असीम है, अतः सीमित साधनों से इस असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की जा सकती। अतः जैन आचारदर्शन के अनुसार व्यक्ति आसक्ति की भावना का त्याग करके अनासक्ति को जीवन में उतारने का प्रयत्न करे। क्योंकि उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप में कहा गया है कि जो समविभाग और समवितरण नहीं करता उसकी मुक्ति संभव नहीं है। ऐसा व्यक्ति पापी है १४ । अतः व्यक्ति को उतना ही संग्रह करना चाहिए जितने की उसको आवश्यकता है। आवश्यकता से तात्पर्य है - जो जीवन को बनाए रखे और व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को कुण्ठित न करे। इस प्रकार जैन दर्शन न केवल आवश्यकता का परिसीमन करता है, बल्कि यह भी बताता है कि हमें जीवन की अनिवार्यताओं और तृष्णा के अंतर को जानना एवं समझना चाहिए। तृष्णा अनन्तता है तो अनिवार्यता सीमितता । संग्रह और शोषण की दुष्प्रवृत्तियों के फलस्वरूप आर्थिक एवं वर्ग संघर्ष का जन्म होता है । इस वर्ग संघर्ष को दूर करने का एकमात्र उपाय है- अपरिग्रह का सिद्धान्त । साधक हो या गृहस्थ, उसे अपरिग्रह के मार्ग पर चलने को जैन आचार-दर्शन में आवश्यक माना गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मानववाद और जैन-चिंतन दोनों ही मानव मात्र की समानता में विश्वास करते हैं। दोनों के अनुसार संग्रह और वैयक्तिक परिग्रह सामाजिक जीवन के लिए अभिशाप है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को जीने का समान अधिकार है।
मानववाद और अनैकान्तिक दृष्टि
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सामाजिक विषमता का एक प्रमुख कारण वैचारिक भिन्नता भी है। अनेकान्तवाद इस वैचारिक भिन्नता को दूर करता है । अनेक से तात्पर्य है अनेक धर्म (लक्षण), अनेक सीमाएँ, अनेक अपेक्षाएँ, अनेक दृष्टियाँ आदि। जो किसी एक धर्म, एक सीमा, एक अपेक्षा तथा एक दृष्टि को सत्य मानता है और अन्य दृष्टियों को गलत कहता है, वह एकान्तवादी कहलाता है तथा जो अनेक धर्मों या अपेक्षाओं को मान्यता प्रदान करता है, वह अनेकान्तवादी कहलाता है। 'अनन्तधर्मात्मकं वस्तु' अर्थात् वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं। उन अनन्त धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय-समय पर कथन करता है। वस्तु के उन अनन्त धर्मों के दो प्रकार होते हैं--गुण और पर्याय। जो धर्म वस्तु के स्वरूप का निर्धारण करते हैं अर्थात् जिनके बिना वस्तु का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता, उन्हें गुण कहते हैं, जैसे मनुष्य में मनुष्यत्व सोना में सोनापन । मनुष्य में यदि मनुष्यत्व न हो तो वह और कुछ हो सकता है मनुष्य नहीं। इसी प्रकार यदि सोने में सोनापन न हो तो वह अन्य कोई द्रव्य हो सकता है। सोना नहीं। गुण वस्तु में स्थायी रूप से रहता है, जबकि पर्याय बदलते रहते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन स्थायित्व और अस्थायित्व का समन्वय करते हुए कहता है कि वस्तु गुण की दृष्टि से ध्रुव है, स्थायी है तथा पर्याय की दृष्टि से अस्थायी है। भगवतीसूत्र ५ में कहा गया है- हम, जो अस्ति है उसे अस्ति कहते हैं, जो नास्ति है उसे नास्ति कहते हैं । प्रत्येक पदार्थ है भी और नहीं भी। अपने निजस्वरूप से है और परस्वरूप से नहीं है। अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता, पिता रूप में सत् है और पररूप की अपेक्षा से पिता, पिता रूप में असत् है । यदि पर पुत्र की अपेक्षा से पिता ही है तो वह सारे संसार का पिता हो जाएगा, जो असंभव है। इसे और भी सरल भाषा में हम इस प्रकार कह सकते हैं - गुड़िया चौराहे पर खड़ी है। एक ओर से छोटा बालक आता है, वह उसे माँ कहता है। दूसरी ओर से एक वृद्ध आता है, वह उसे पुत्री कहता है। इसी प्रकार कोई उसे ताई, कोई मामी तो कोई फूफी कहता है। सभी एक ही व्यक्ति को विभिन्न नामों से संबोधित करते हैं तथा परस्पर संघर्ष करते हैं कि यह माँ ही है, पुत्री ही है, पत्नी ही है आदि। इस संघर्ष का समाधान अनेकान्तवाद करता है। वह कहता है कि यह तुम्हारे लिए माँ है, क्योंकि तुम इसके हो अन्य लोगों के लिए यह माँ नहीं है । वृद्ध से कहता है कि
पुत्र
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चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
यह पुत्री भी है, आपकी अपेक्षा से सब लोगों की अपेक्षा से नहीं । इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं। तात्पर्य यह है कि हम जो कुछ भी कहते हैं उसकी सार्थकता एवं . सत्यता एक विशेष सन्दर्भ में तथा एक विशेष दृष्टिकोण से ही हो सकती है। केवल अपनी ही बात को सत्य मानकर उस पर अड़े रहना तथा दूसरों की बात को कोई महत्त्व न देना एक मानसिक संकीर्णता है और इस मानसिक संकीर्णता के लिए मानववाद में कोई स्थान नहीं है।
मानववाद और अहिंसावाद
अहिंसा का सामान्य अर्थ होता है हिंसा न करना । आचारांगसूत्र में अहिंसा को परिभाषित करते हुए कहा गया हैसब प्राणी, सब भूत, सब जीव और तत्त्वों को नहीं मारना चाहिए, न अन्य व्यक्ति द्वारा मरवाना चाहिए, न बलात् पकड़ाना चाहिए, न परिताप देना चाहिए, न उन पर प्राणहार उपद्रव करना चाहिए। यह अहिंसा-धर्म ही शुद्ध है । सूत्रकृतांग में कहा गया है-ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करें। अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है। बस, इतनी बात ध्यान में रखनी चाहिए। किन्तु अहिंसा की पूर्ण परिभाषा आवश्यकसूत्र में प्राप्त होती है। उसमें कहा गया है कि किसी भी जीव की तीन योग और तीन करण से हिंसा नहीं करनी चाहिए, यही अहिंसा है" । मन, वचन और कर्म तीन योग कहलाते हैं तथा करना, करवाना और अनुमोदन करना तीन करण कहलाते हैं । इस तरह नौ प्रकार से हिंसा नहीं करना ही अहिंसा है। अहिंसा के दो रूप होते हैं - निषेधात्मक और विधेयात्मक। इन्हें निवृत्ति और प्रवृत्ति भी कहा जाता है। दया, दान आदि अहिंसा के प्रवृत्यात्मक रूप है । यहाँ अहिंसा की विस्तृत व्याख्या न करके इतना कहना आवश्यक है कि जैन परंपरा में हर गतिशील वस्तु, चाहे वह जल, वायु, ग्रह, नक्षत्र ही क्यों न हो या पत्थर, वृक्ष जैसी गतिशून्य वस्तु ही क्यों न हो, उसमें भी जीवन शक्ति को स्वीकार किया गया है। यहाँ पर शंका उपस्थित हो सकती है कि जैन दर्शन पूर्ण जीव- दयावाद या पूर्ण अहिंसा में विश्वास करता है, फिर वह मानववादी कैसे हो सकता है? यह सच है कि जैन दर्शन पूर्ण अहिंसा में विश्वास करता है और इस दृष्टि से वह यहाँ मानवतावादी (Humanitarianistic) हो जाता है, लेकिन मात्र इस आधार पर जैन-दर्शन का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है,
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क्योंकि कई सन्दर्भों में तो वह मानववाद से भी आगे है। यद्यपि जैन धर्म अहिंसा के निषेधात्मक रूप पर ही विशेष बल देता है । पूर्वकाल में जैनाचार्यों ने अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को ही प्रस्तुत किया है और आज भी श्वेताम्बर तेरापंथी जैन समाज अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को ही मानता है। अहिंसा के विधेयात्मक पक्ष दया, दान आदि में उसका विश्वास नहीं है। जो जैन परंपरा के मानववादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है।
मानववाद और जैन-दर्शन की विश्वदृष्टि
लामोण्ट एक प्रजातांत्रिक मानववादी हैं। उनके अनुसार मानववाद मानवजाति का विश्वदर्शन है। यही एक दर्शन है जो बीसवीं शताब्दी की आत्मा और उसकी आवश्यकताओं के लिए उपयोगी है। यही वह दर्शन है जो मानवजीवन और उसके अस्तित्व का सामान्यीकरण है जो प्रायः सभी देशों और जातियों को समष्टिपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है। जैन-धर्मदर्शन भी लोकमंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ता है। अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का सिद्धान्त उसकी विश्वदृष्टि ही तो है। अहिंसा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया हैं। यह अहिंसा भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों के लिए आकाशगमन के समान प्यासों को पानी के समान, भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है ९९ । तीर्थंकर - नमस्कार सूत्र में लोकनाथ, , लोक-हितकर, लोकप्रदीप, अभयदाता आदि विशेषण तीर्थंकर के लिए प्रयुक्त हुए हैं, जो जैन दर्शन की विश्वदृष्टि को प्रस्तुत करते हैं । विश्व -कल्याण की भावना के अनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही तो तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैनाचार्यों ने सदा ही आत्महित की अपेक्षा लोक कल्याण को महत्त्व दिया यह भावना आचार्य समन्तभद्र की इस उक्ति से स्पष्ट होती है। हे भगवन्, आपकी यह संघव्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अंत करने वाली और सबका कल्याण करने वाली है" । संघधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म, कुलधर्म आदि का स्थानांगसूत्र २२ में उल्लेख होना यह प्रमाणित करता है कि जैन-धर्मदर्शन, लोकहित तथा लोकल्याण की भावना से ओतप्रोत है।
GâmbànSa
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- चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन मानववाद और जैन-दर्शन का समतावादी दृष्टिकोण मानववाद और जैन-ईश्वरवाद
मानववाद और जैन-दर्शन दोनों ही समतावाद में विश्वास ईश्वरवादियों की यह मान्यता है है कि ईश्वर इस जगत् का करते हैं। दोनों की मान्यता है कि समाज में विभिन्न वर्ग और सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता है। जीवों को नाना योनियों विचारधारा के लोग रहते हैं, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं में उत्पन्न करना, उनकी रक्षा करना और अपने-अपने कर्म के है कि मानव, मानव से अलग है। दोनों ही मनुष्य हैं, दोनों में अनुसार फल देना ईश्वर का कार्य है। वही जीवों का भाग्यमनुष्यता का वास है। व्यक्ति न तो जन्म से और न ही जाति से विधाता है। वह अपने भक्त की स्तुति या पूजा से प्रसन्न होकर ऊँचा-नीचा है,बल्कि सब कर्म के आधार पर होते हैं। कर्म के उसके सारे अपराधों को क्षमा कर देता है। द्वारा ही वह उच्च पद को प्राप्त करता है और कर्म के द्वारा ही जैन-दर्शन में उपर्यक्त ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं पतन की ओर अग्रसर होता है। जैन-परंपरा में इस तरह के कई
किया गया है। जैन-दर्शन का ईश्वर न तो किसी की स्तुति से उदाहरण मिलते हैं। जैन मुनि हरिकेशबल जन्म से चाण्डाल कुल प्रसन्न होता है और न नाराज ही होता है। क्योंकि वह वीतरागी के थे, जिसके कारण उन्हें चारों ओर से भर्त्सना और घृणा के है। जैन-दर्शन न तो ईश्वर के सष्टिकर्तत्व में विश्वास करता है और सिवा कुछ न मिला। वे जहाँ भी गए, वहाँ उन्हें अपमान रूप
मान रूप न ही उसके अनादि सिद्धत्व में। और न ही उसके अनुसार ईश्वर
से विष का प्याला ही मिला, लेकिन जब उन्होंने जीवन की पवित्रता
एक है। जैन-मान्यता के अनुसार प्राणी स्वयं अपने कर्मों द्वारा का सही मार्ग अपना लिया तो वही वन्दनीय और पूजनीय हो
सुख-दुःख को प्राप्त करता है तथा बिना किसी दैवी-कृपा के गए। भगवान महावीर ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा है--
स्वयं अपने प्रयत्न से अपना विकास करके ईश्वर बन सकता कम्मुणा बंमणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। है। ईश्वर पद किसी व्यक्ति विशेष के लिए सुरक्षित नहीं है, वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मणा।।२३ बल्कि सभी आत्माएँ समान हैं और सब अपना विकास करके
अर्थात कर्म से ही व्यक्ति बाह्मण होता है। कर्म से ही सर्वज्ञता और ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक आत्मा में क्षत्रिय। कर्म से ही वैश्य और शुद्र होता है। अतः श्रेष्ठता और अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्त वीर्य होता है। पवित्रता का आधार जाति नहीं बल्कि मनष्य का अपना कर्म अतः गुण की दृष्टि से आत्मा अर्थात् साधारण जीव और ईश्वर में है। मुनि चौथमलजी के मतानुसार एक व्यक्ति दुःशील अज्ञानी
कोई अंतर नहीं होता। अंतर है तो गुणों की प्रसुप्तावस्था का और और प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक वर्ण वाले के घर में ।
उनकी विकासावस्था का। जैन-मान्यता के अनुसार ईश्वर के जन्म लेने के कारण समाज में पज्य आदरणीय प्रतिष्ठित और स्वरूप को निर्धारित-करते हुए श्री ज्ञानमुनिजी ने लिखा है --- यह ऊँचा समझा जाए, और दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी और सतोगुणी
सत्य है कि जैन-दर्शन वैदिक दर्शन की तरह ईश्वर को जगत् का होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म लेने के कारण नीच और
कर्ता, भाग्यविधाता, कर्मफलदाता तथा संसार का सर्वेसर्वा नहीं तिरस्करणीय माना जाए, यह व्यवस्था समाजघातक है। जैन
की और मानता है। जैन-दर्शन का विश्वास है कि ईश्वर सत्यस्वरूप है, ज्ञान विचारणा में इस विषमता के लिए कोई स्थान नहीं है। वस्ततः स्वरूप है, आनन्दस्वरूप है, वीतराग हैं, सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है। सभी व्यक्ति जन्मतः समान हैं। उनमें धनी अथवा निर्धन उच्च उसका दृश्य या अदृश्य जगत् के विषय में प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई अथवा निम्न का कोई भेद नहीं है। आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा
हस्तक्षेप नहीं है। वह जगत् का निर्माता नहीं है, भाग्यविधाता नहीं है, गया है कि साधनामार्ग का उपदेश सभी के लिए समान है। जो कर्मफल का प्रदाता नहीं है तथा वह अवतार लेकर मनुष्य या उपदेश एक धनवान या उच्चकुल के व्यक्ति के लिए है. वही किसी अन्य पशु आदि के रूप में संसार में आता भी नहीं है। उपदेश गरीब या निम्न कुलोत्पन्न व्यक्ति के लिए है। इस प्रकार इस प्रकार जैन-दर्शन और मानववाद (Humanism) दोनों जैन-धर्म-दर्शन ने जातिगत आधार पर ऊँचनीच का भेद अस्वीकार ही ईश्वर की सत्ता को स्वीकार न करके मानव अस्तित्व और कर मानव मात्र की समानता पर बल दिया।
उसके पुरुषार्थ में विश्वास करते हैं। दोनों ही मानते हैं कि मानव में ईश्वरत्व को प्राप्त करने की क्षमता निहित है।
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१/४/१
- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है जैन - १५. नो खलु वयं देवाणुप्पिया अस्थिभावं नत्थि त्ति वयामो, दर्शन एक मानववादी दर्शन है। जिस मानववादी दर्शन का नत्थिभावं अत्थि त्ति वयामो, अम्हे णं देवाणुप्पिया। सव्वं सूत्रपात पाश्चात्य जगत् में प्रोटागोरस ने ई.पू. पाँचवीं-छठी शती अत्थिभावं अत्थि त्ति वयामो, सव्वं नत्थिभावं नत्थि त्ति में मैन इज दि मीजर ऑफ ऑल थिंग्स (Man is the measure of वयामो।। भगवतीसूत्र, ७/१०/१ all things) कहकर किया था। वह मानववादी दर्शन हमारी भारतीय १६. सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, परंपरा के जैन-दर्शन में उसके पूर्व से विद्यमान था, जो हमारे न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिधितव्वा, लिए गौरव का विषय है।
न परियावेयव्वा, न उद्देवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे। आचारंगसूत्र सन्दर्भ
१७. एवं खलु नाणिरणो सारं जं न हिंसइ किंचण। Humanism in Philosophy is opposed to Naturalism and Abosolutism, it disignates the philos phic attitude which
अहिंसा समय चेव एतावंतं वियाणिया ।।सूत्रकृतांग १/ regards the, interpratation of human experience of the
१/४/१० primary concern of philosophizing, and asserts the adequacy othuman knowledge for the purpose. Ency- १८. करेमि भंते सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि clopaedia of Ethics & Religion, Vol-VI, P. 830
जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए, काएणं न The Philosophy of Humanism, P.8
करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणु जाणामि। तस्स Encyclopaedia of Humanities (Philosophy) P. 97 Ibid.
भंते। पडिक्कमामि, निंदामि गरिठामि अप्पाणं वोसिरामि। God and Secularity, P. 103-104
आवश्यकसूत्र १/१ 6. Philosopher's and Philosophies, P. 165-166
१९. एसा सा भगवई अहिंसा जा सा भीयाण विव सरणं, पक्खीणं ७. शांतिपर्व (महाभारत), २९९/२०
विव गमणं, तिसियाणं विव सलिलं.खहियाणं विव असणं, ८. किच्चे मणुस्स पटिलाभो। धम्मपद, १८२
समुद्दमज्झे व पोयवहणं, चउप्पयाणं व आसमपयं, ९. कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुव्वी कयाइउ।
दुहट्ठियाणं व ओसहिबलं अइवीमज्झे व सत्थगमणं एतो जीवो सोहिमणुप्पत्ता आययंति मणुस्सयं।। उत्तराध्यन, ३७
विसिट्ठतरिया अहिंसा जा सा.। प्रश्रव्याकरण २/१/१०८ १०. दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं।
नमोत्थुणं अरहंताणं...लोगुत्तमाणं लोकनाहाणं लोगहियाणं गाढा य विवाग कम्मुणो, सयमं गोयम। मापमायए ।। वही १०/४ लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं...णमो जिणाणं 11. Outlines of Jainism. P 3-4
जियभयाणं। पहली किरण, साध्वीश्री राजीमतीजी, पृ. ३०-३१ १२. कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो।
२१. सर्वोदयदर्शन, आमुख पृ. ६ माया मित्ताणि नासेइ, लोमो सव्वविणासणो ॥
२२. दसविधे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा गामधम्मे पागरधम्मे, रट्ठधम्मे, दशवैकालिक - ८/३८
पासंडधम्मे, कुलधम्मे, गणधम्मे, संघधम्मे, सुयधम्मे, १३. सुवण्ण रुप्पस्स उपव्वया भवे सियाहु केलाससमा असंखया चरित्तधम्मे अस्थिकायधम्मे। स्थानांगसूत्र १०/१३५ - नरस्स लुद्धस्स्नतेहिं किंचिंइच्छाउ आगाससमा अणन्तिया २३. उत्तराध्ययन, २५/३३ उत्तराध्ययन ९/४८
२४. मरुधरकेसरी अभिनंदनग्रन्थ, जोधपुर १९६८, द्वितीय खण्ड, १४. असंविभागी अचियत्ते। वही १७/११
पृ.७७
२०.
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आचार्य कुन्दकुन्द का मौलिक चिन्तन
डॉ. ऋषभचन्द्र जैन 'फौजदार'
व्याख्याता, प्राकृत एवं जैन शास्त्र प्राकृत, जैनशाला और अहिंसा शोध संस्थान,
वैशाली-८४४१२८ (बिहार)...
आचार्य कुन्दकुन्द का जैन श्रमण परंपरा में महत्त्वपूर्ण और व्यवहारनय को माध्यम बनाया गया है। सम्यग्ज्ञान, स्थान है। श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों ही परंपराओं में उन्हें समान सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को व्यवहारनय से नियत अर्थात् आदर प्राप्त है। दिगम्बर परंपरा में तो तीर्थंकर महावीर और मोक्षमार्ग कहा है। निश्चयनय से नियम को परिभाषित करते हुए गौतम गणधर के साथ उनका स्मरण किया जाता है। वे इतने कुन्दकुन्द कहते हैं-- यशस्वी थे कि उनके नाम पर कुन्दकुन्दान्वय ही प्रसिद्ध हो।
सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा। गया। आज भी दिगम्बर परंपरा के जैन श्रमण स्वयं को
अप्पाणं जो झायादि तस्सदुणियमं हवे णियमा।। नियम-१२० कुन्दकुन्दान्वयी कहने में गौरव का अनुभव करते हैं।
अर्थात् शुभ और अशुभ वचनों की रचना तथा रागादिभावों कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने ८४ पाहुडों - ग्रंथों का निवारण करके आत्मा का ध्यान करना. नियम से नियम हे की रचना की थी, किन्तु अभी तक उनके समयापाहुड,प्रवचनसार, अर्थात निश्चनय से नियम है। पंचास्तिकाय संग्रह, नियमसार, अष्टपाहड, रयणसार, बारस
उक्त गाथा की संस्कृत टीका में पद्मप्रभमलधारिदेव ने अणुवेक्खा और प्राकृत भक्तियां ग्रन्थ ही खोजे जा सके हैं। उनके ग्रन्थों में केवलियों और श्रुतकेवलियों द्वारा कथित विषय
भी कहा है-- वस्तु प्रस्तुत हुई है। ऐसा वे स्वयं ही नियमसार की मंगल गाथा
वचनरचनां त्यक्त्वा भव्यः शुभाशुभलक्षणां, में कहते हैं। उनके ग्रन्थों में अध्यात्म और दर्शन संबंधी अनेक
सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्पुटम्। मौलिक विचार प्रस्तुत हुए हैं। यहाँ उन पर संक्षेप में विचार
परमयमिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं, किया जा रहा है --
भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम्।
नियम-टीका,श्लोक-१९१ नियम --
अर्थात् जो भव्य जीव शुभ-अशुभरूप वचनरचना को 'नियमसार' ग्रंथ में नियमसार नाम की सार्थकता बताते हुए छोड़कर नित्य ही स्फुटरूप से सहज परमात्मा का सम्यक् प्रकार कहा गया है कि जो नियम से करने योग्य कार्य है, वह नियम है। से अनुभव करता है, उस ज्ञानस्वरूप परम संयमी के नियम से यह वह नियम ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शन, नियम होता है, जो मुक्तिसुंदरी (मोक्ष) के सुख का कारण है। मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का निषेध करने के लिए 'सार' पद
अर्धमागधी एवं शौसेनी आगमों, प्राकृत के अन्य पारंपरिक कहा गया है। यह कथन करने वाली मूल गाथा इस प्रकार है-- ग्रन्थों तथा संस्कत ग्रन्थों में कहीं भी रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के लिए
णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं। नियम शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं होता है। इससे स्पष्ट है कि विवरीय परिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।। नियम-३ आचार्य कुन्दकुन्द ने नियम शब्द का विशेष अर्थ में प्रयोग किया है। कुन्दकुन्द ने यहाँ नियम शब्द से सम्यक्ज्ञान, सम्यग्दर्शन
कुन्दकुन्द ने दंसणपाहुड में कहा है कि ज्ञान, दर्शन, चरित्र और सम्यकचारित्र रूप मोक्षमार्ग का ग्रहण किया है। ग्रन्थकार
और तप इन चारों का समागम होने पर मोक्ष होता है। सम्यक्त्व का उद्देश्य भी नियमरूप मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करना है,
सहित इन चारों के समागम से ही जीव सिद्ध हुए हैं, इसमें संदेह जिसका फल निवाण है। उक्त मार्ग का कथन करने में निश्चयनय नहीं है। इससे जात होता है कि कन्दकन्द के काल तक चतर्विध
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मोक्षमार्ग की परंपरा मौजूद थी। उनके समय में त्रिविध मोक्षमार्ग का विचार भी होने लगा था। संभवत: इसीलिए उन्होंने चतुर्विध मोक्षमार्ग का तो केवल उल्लेख ही किया, किन्तु अपने ग्रन्थों में त्रिविध मोक्षमार्ग का विस्तार से कथन किया।
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निश्चय और व्यवहारनय --
आचार्य कुन्दकुन्द ने आध्यात्मिक दृष्टि से प्रधान कथन किया और इसके लिए नय को माध्यम बनाया। उनके ग्रन्थों में नय के निश्चय और व्यवहार भेद पाये जाते हैं। इनका उल्लेख भगवतीसूत्र में भी मिलता है । कुन्दकुन्द से पूर्व किसी भी ग्रंथकार ने नयों को निश्चय और व्यवहार नाम नहीं दिया । कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निश्चयनय द्रव्यार्थिकनय के समान तथा व्यवहारनय पर्यायार्थिक नय के समान है। वे निश्चयनय को परमार्थ शुद्ध और भूतार्थ कहते हैं। व्यवहारनय को अभूतार्थ और अशुद्ध कहते हैं। कुन्दकुन्द के टीकाकारों एवं उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने उक्त नयों के अनेक भेद-प्रभेद किए हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार और नियमसार में निश्चयनय और व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मस्वरूप का विवेचन किया है। उनके अनुसार गुण - पर्यायों से रहित आत्मा के त्रैकालिक शुद्धस्वभाव का कथन करने वाला निश्चयनय और कर्म के निमित्त से होने वाली आत्मा की विभिन्न परिणतियों का कथन करने वाला व्यवहारनय है।
नियमसार में जीवादि बाह्य तत्त्वों को हेय और अपने आत्मा को उपादेय बताया गया है। निश्चयनय से जीव का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि जीव के स्वभाव स्थान, मानापमानभाव स्थान, हर्षभाव स्थान, अहर्षभाव स्थान, स्थिति बंध स्थान, प्रकृतिबंध स्थान, प्रदेशबंध स्थान, अनुभागबंध स्थान, उदयस्थान, क्षायिकभाव स्थान, क्षयोपशमभाव स्थान, औदायिक भाव स्थान, उपशमस्वभाव स्थान, चतुर्गति में परिभ्रमण, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान नहीं है। जीव, (आत्मा) निर्दण्ड, निर्द्वन्द्व, निर्मम, निष्कल, निरालम्ब, नीराग, निर्दोष, निर्मूढ, निर्भय, निर्ग्रथ, निःशल्य, समस्त दोषों से रहित निष्काम, निष्क्रोध, निर्मान और निर्मद है। वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि पर्यायें सभी संस्थान और संहनन, ये सब जीव में नहीं है । वह जीव अरस,
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अरूप, अगंध, अव्यक्त, चेतनागुणयुक्त, अशब्द, अलिंगग्रहण (लिंग हेतु से नहीं ग्रहण करने योग्य) और अनिर्दिष्ट संस्थान (जिसका कोई संस्थान - आकार नहीं कहा जा सकता) है, ऐसा जानो। यह सब निश्चयनय का कथन है। व्यवहारनय से उपर्युक्त सभी भाव जीव के कहे जाते । अर्थात् व्यवहारनय से जीव का स्वभाव और विभाव दोनों प्रकार का परिणमन होता है।
तत्त्वार्थ-
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नियमसार में विविध गुणों और पर्यायों से संयुक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों को तत्त्वार्थ कहा गया है। मूल गाथा इस प्रकार है-
जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं । तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता । नियम - ९
इस गाथा में इन्हें 'द्रव्य' नाम नहीं दिया गया है, किन्तु बाद की गाथाओं में जीवादीदव्वाणं और एदे छद्दव्वाणि कहकर इनका द्रव्य नाम से उल्लेख हुआ है। यहां तत्त्वार्थ या द्रव्य को परिभाषित नहीं किया गया है। छह द्रव्यों में से काल को छोड़कर शेष पाँच अस्तिकाय कहे गए हैं, क्योंकि ये बहुप्रदेशी और कायवान् है, इसलिए अस्तिकाय हैं । काल द्रव्य कायवान् नहीं हैं, क्योंकि वह एक प्रदेशी है, इसलिए उसे अस्तिकाय स्वीकार नहीं किया गया।
प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में छह द्रव्यों का विस्तृत विवरण उपलब्ध है, वहाँ द्रव्य का स्वरूप भी कहा गया है। प्रवचनसार में 'अत्थो खलु दव्वमओ' (२/१) अर्थात् अर्थ (पदार्थ) द्रव्यमय है, ऐसा कहा है। 'पंचास्तिकायसंग्रह' कुन्दकुन्द का पंचास्तिकाय और षद्रव्य प्रतिपादक स्वतंत्र ग्रन्थ है । उसकी एक सौ दो गाथाओं में अस्तिकायों और द्रव्यों का कथन करने के उपरान्त वे कहते हैं कि इस प्रकार जो प्रवचन के सारभूत पंचास्तिकायसंग्रह को जानकर राग-द्वेष को छोड़ता है, वह संसार के दुःखों से छुटकारा पा लेता है। आगे 'मुणिऊण एतदट्ठे' (गाथा १०४ ) में अस्तिकायों और द्रव्यों के लिए अट्ठ शब्द का प्रयोग किया गया है। पुनः गाथा १६० में 'धम्मादी सद्दहणं सम्मत्तं कहकर धर्मादि द्रव्यों के श्रद्धान को सम्यक्तत्व कहा है।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य लोकव्यवस्था के आधार हैं। विविध गुणों और पर्यायों सहित जिनमें अस्ति स्वभाव है, वे अस्तिकाय कहलाते हैं। वे ही अस्तिकाय त्रैकालिक भावरूप में परिणमित होते हैं तथा नित्य हैं और परिवर्तन लिंग से युक्त काल सहित द्रव्यभाव को प्राप्त होते हैं । इन्हीं से त्रैलोक्य निष्पन्न है | नियमसार में तत्त्वार्थ के रूप में द्रव्यों का व्याख्यान इस तथ्य की ओर संकेत है कि प्राचीन परंपरा में पंचास्तिकाय औरषद्रव्य को तत्त्वार्थ कहा जाता है। इसलिए नियमसार में इन्हीं का श्रद्धान सम्यक्त्व कहा गया है। पंचास्तिकाय संग्रह से भी इस तथ्य का समर्थन होता है।
तत्त्व या पदार्थ बंध-मोक्ष के आधार हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के समय तक इन तत्त्वों, पदार्थों की मान्यता विकसित हो चुकी थी। इसलिए उन्होंने समयसार में विस्तृत रूप से तत्त्वों या पदार्थों का व्याख्यान किया। पंचास्तिकाय संग्रह के उत्तरार्द्ध में भी नौ पदार्थों का कथन किया है। इससे यह सिद्ध है कि कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में प्राचीन और समकालीन दोनों ही परंपराओं को अपनाया है।
आत्मत्रय
आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मस्वरूप को व्यक्त करते हुए आत्मा के परमात्मा, अंतरात्मा और बहिरात्मा ये तीन भेद किए हैं | नियमसार में सम्यग्दर्शन के प्रसंग में कहा गया है कि क्षुधा, तृषा आदि समस्त दोषों से रहित और केवल ज्ञान, केवल दर्शन, केवल वीर्य और केवल सुखरूप अनन्त चतुष्टय से युक्त आत्मा ही परमात्मा कहलाता है, इससे विपरीत परमात्मा नहीं हो सकता । अरिहंत और सिद्ध परमेष्ठी परमात्मा कहलाते हैं। चार घातिया कर्मों से रहित, केवल ज्ञानादि विशेष गुणों और चौतीस अतिशयों से युक्त, अरिहंत होते हैं तथा चार घातिया और चार अघातिया ऐसे आठ कर्मों का नाश करने के कारण आठ महागुणों से युक्त परम, नित्य, लोकाग्र अर्थात् सिद्धशिला पर स्थित रहने वाले, सिद्धपरमात्मा है।
जो श्रमण आवश्यकों से युक्त, अंतः और बाह्य जल्पों से रहित, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान में संलग्न होता है, वह अंतरात्मा कहा गया है। आवश्यकों से हीन, अंततः और बाह्य जल्पों में प्रवृत्त तथा ध्यान से रहित श्रमण, बहिरात्मा है" । मोक्खपाहुड में
भी इनका स्वरूप कहा गया है। इनमें से बहिरात्मा को हेय और अंतरात्मा एवं परमात्मा को उपादेय बताया गया है। उत्तरवर्ती कुमार कार्तिकेय पूज्यपाद, योगीन्दु प्रभृत्ति अनेक आचार्यों ने कुन्दकुन्द का अनुकरण किया है।
स्वभाव-विभाव पर्याय -
द्रव्यों का परिणमन पर्याय रूप में होता है। आचार्य कुन्दकुन्द सर्वप्रथम पर्याय के स्वभाव और विभावरूप परिणमन का कथन किया है, जिसे पश्चात्कालीन अधिकांश दार्शनिकों ने अपनाया है। कुन्दकुन्द कहते हैं कि कर्मजन्य उपाधियों से रहित जीव की जो निरपेक्ष शुद्ध पर्याय है, वह स्वभाव पर्याय है और कर्मफल के कारण जीव की जो नर नारक, तिर्यंच और देव रूप पर्याय होती है, वह विभाव पर्याय है। अन्य निरपेक्ष परमाणु पुद्गल की स्वभाव पर्याय है और पुद्गल का स्कन्ध रूप परिणमन विभाव पर्याय है ४ । जीव और पुद्गल को छोड़कर शेष धर्मादि चार द्रव्यों की केवल स्वभाव पर्याय होती है, क्योंकि उनका विभाव परिणमन नहीं होता है १५ ।
पुद्गल परमाणु
पुद्गल द्रव्य के प्रसंग में कुंदकुंद ने परमाणु का स्वरूप इस प्रकार कहा है-
अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदिए गेज्झ । अविभागी जं दव्वं परमाणु तं विआणाहि । । नियमसार २६
अर्थात् स्वयं परमाणु ही जिसका आदि, मध्य और अंत है, जो इंद्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है तथा जो अविभागी द्रव्य है। उसे परमाणु जानो ।
उन्होंने परमाणु के दो भेद किए हैं-- १. कारण परमाणु और २. कार्य परमाणु" । जो पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चारों धातुओं का कारण है, वह कारण परमाणु है। इन धातुओं का निर्माण अनेक परमाणुओं के मेल से होता है, इसलिए ये स्कन्धरूप हैं। इन स्कन्धों के निर्माण में जो परमाणु कारण होता है, उसे कारण परमाणु कहा गया है। स्निग्ध और रूक्ष गुणों के कारण परमाणुओं का बन्ध होता है, उनके इस गुण का ह्रास होने के कारण स्कन्धों में विघटन होता है। इस विघटन क्रिया से
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन निष्पन्न परमाणु कार्य परमाणु है। निश्चयनय से परमाणु को ही व्यवहारनय से अशुभोपयोग को हेय और शुभोपयोग को पुद्गल द्रव्य कहा जाता है तथा परमाणु ही पुद्गल द्रव्य की उपादेय कहा गया है, क्योंकि शुभोपयोग आत्मा के विकासोन्मुख स्वभाव पर्याय है। पंचास्तिकाय में स्कन्धों के अंतिम विभाग होने की अवस्था है। निश्चयनय से संसार का हेतु होने के कारण को परमाणु कहा गया है। यह नित्य, अशुद्ध, एक, अविभागी, शुभपयोग भी हेय है, केवल शुद्धोपयोग ही यहाँ उपादेय है। मूर्त स्कन्ध से उत्पन्न और मूर्तस्कन्ध का कारण होता है।
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के ज्ञान और परमाणु का इतना सूक्ष्म और स्पष्ट विवेचन कुन्दकुन्द की विशेषता
दर्शन द्विविध उपयोग का कथन किया। पुनः उसके विकास है, जिसे बाद के ग्रन्थकारों ने भी स्वीकार किया है।
क्रम का सम्यग्ज्ञान कराने के लिए उन्होंने अशुभ, शुभ और उपयोग --
शुद्धरूप त्रिविध उपयोग का भी प्रतिपादन किया। त्रिविध उपयोग
कथन का श्रेय भी कुन्दकुन्द को प्राप्त होता है। पश्चातकालीन जीव उपयोगमय कहा गया है। उपयोग ज्ञान और दर्शन के
आचार्यों ने उनका अनुकरण किया है। भेद से दो प्रकार का होता है। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने ज्ञानोपयोग के स्वभाव और विभाव भेद किए हैं। इंद्रियों की षडावश्यक - सहायता से रहित, असहाय केवल ज्ञान स्वभावज्ञान है। विभाव
आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में षडावश्यकों का विस्तार ज्ञान भी संज्ञान (सम्यग्ज्ञान) और अज्ञान (मिथ्याज्ञान) के भेद से विवेचन किया है। उन्होंने उनका क्रम इस प्रकार रखा है-१. से दो प्रकार का होता है। संज्ञान के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान प्रतिक्रमण, २. प्रत्याख्यान. ३. आलोचना. ४. प्रायश्चित्त. ५. और मनः पर्यायज्ञान ये चार भेद हैं। अज्ञान कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान समाधि और पराशक्ति नियमसार के टीकाकार ने और कुअवधिज्ञान या विभंगज्ञान के भेद से तीन-तीन प्रकार
उक्त नामों से स्वतंत्र अधिकार बनाए हैं। का बताया गया है।
प्रतिक्रमण में अतीतकालीन दोषों का निराकरण होता है। इसी प्रकार दर्शनोपयोग के भी स्वभाव और विभाव दो भेद .
। प्रत्याख्यान में अनागत दोषों का विचार किया जाता है। वर्तमान है। इन्द्रिय निरपेक्ष, असहाय केवलदर्शन को स्वभाव दर्शन तथा दोषों की आलोचना की जाती है। इन तीनों में दोषों का विचार चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शन को विभाव दर्शन कहा गया है। होता है। उसके बाद प्रायश्चित्त लिया जाता है, जिसमें तपश्चरण
___ चारित्रिक विकास के सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द उपयोग प्रमुख है। घोर तपश्चरण में ही कायोत्सर्ग समाहित है। इस के शुद्ध और अशुद्ध ये दो भेद करते हैं। प्रवचनसार में कहा गया परमसमाधि और परमभक्ति होती है। इनमें सामायिक और ध्यान है कि जीवादि पदार्थों तथा उनका कथन करने वाले शास्त्र का ही प्रमुख क्रियाएं हैं। सम्यक् ज्ञान, संयम एवं तप से युक्त आचरण, विगत राग और
आवश्यकों का विवरण देने के बाद कुन्दकुन्द कहते हैं सुख-दुःख में समता भाव रखना, शुद्धोपयोग है। ऐसा आचरण
कि जो अन्य के वश नहीं होता है, उसके कार्य को आवश्यक
र करने वाला श्रमण शुद्धोपयोगी कहा जाता है। शुद्धोपयोगी जीव कहते हैं। यह कर्म विनाशक और निवत्ति का मार्ग है। यह चार घातिया कर्मों को नष्ट करके केवली और स्वयंभू हो जाता है
__ आवश्यक की निरुक्ति है। जो अन्य के वश में नहीं है, वह और निर्वाण सुख प्राप्त करता है। अशुद्धोपयोग भी दो प्रकार
अवश है, अवश का कार्य आवश्यक जानना चाहिए। यह का है--१. शुभोपयोग और २. अशुभोपयोग। जीव का शुभरूप निरवयव यक्ति और उपाय है। जो श्रमण अशुभ भाव, शुभ परिणन शुभोपयोग तथा अशुभरूप परिणमन अशुभोपयोग
भाव और द्रव्यगुणपर्याय में चित्त को लगाता है, वह अन्यवश कहलाता है। धर्म का आचरण करता हुआ शुभोपयोग से
श्रमण है, उसके आवश्यक कार्य नहीं होता। जो श्रमण परभाव युक्त जीव स्वर्गसुख प्राप्त करता है२३ । अशुभोपयोग रूप परिणमन
को छोड़कर निर्मलस्वभावी आत्मा का ध्यान करता है, वह करने वाला जीव खोटा मनुष्य और नारकी होकर हजारों दुःखों
आत्मवश होता है, उसी के आवश्यक कार्य होता है। आगे कहा को भोगता हुआ अनंत संसार में घूमता रहता है।
गया है कि यदि आवश्यक करना चाहते हो तो आत्मस्वभाव में
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन अपने भावों को स्थिर करो, उससे जीव का श्रामण्य गुण पूर्ण अर्थात् जिस प्रकार सूर्य के ताप और प्रकाश एक साथ होता है। सभी पुराणपुरुष इस प्रकार आवश्यक कार्य करके प्रकट होते हैं। उसी प्रकार केवलज्ञानी के ज्ञान और दर्शन एक अप्रमत्त आदि स्थानों को प्राप्त करके केवली हुए हैं। आवश्यक साथ होते हैं। कुन्दकुन्द के इसी उदाहरण को बाद के दार्शनिकों श्रमण और श्रावक दोनों के लिए करणीय है।
ने अपनाया है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि छद्मस्थ संसारी मुलाचार तथा आवश्यकसत्र में सामायिक, चतविंशति जीवों के दर्शन पूर्वक ही ज्ञान होता है, क्योंकि उनके दो उपयोग स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कार्योत्सर्ग ये छह एक साथ नहीं होते। आवश्यकों के नाम बताए गए हैं और इनका क्रम भी यही रखा
आत्मा, ज्ञान और दर्शन का स्वपरप्रकाशकत्व गया है, जो कुन्दकुन्द से भिन्न है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि
नियमसार में आत्मा के स्वपर-प्रकाशक स्वरूप का स्पष्ट कुन्दकुन्द-कथित आवश्यकों की परंपरा प्राचीन है और वह
विवेचन हुआ है। इसी सन्दर्भ में कहा गया है कि यदि कोई ज्ञान उनके समय तक विद्यमान थी। बाद में अन्य ग्रन्थकारों ने उसे परिमार्जित और संशोधित किया। परंपरा इस समय प्रचलित है।
को परप्रकाशक, दर्शन को आत्मप्रकाशक और आत्मा को
स्वपरप्रकाशक मानता है तो ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान परप्रकाशक केवली(सर्वज्ञ'
है तो ज्ञान से दर्शन भिन्न हुआ, इसलिए दर्शन परद्रव्यगत नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने जैन दर्शन की सर्वज्ञता विषयक आत्मा परप्रकाशक है तो आत्मा से दर्शन भिन्न होगा, इसलिए अवधारणा को निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टि से स्पष्ट करते दर्शन परद्रव्यगत् नहीं है। व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशक है, हुए कहा है कि--
इसलिए दर्शन भी परप्रकाशक है तथा व्यवहारनय से आत्मा जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं।।
परप्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी परप्रकाशक है। निश्चयनय से केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं।।
ज्ञान आत्म (स्व) प्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी आत्म. (स्व). नियमसार-१५९
प्रकाशक है तथा निश्चयनय से आत्मा स्वप्रकाशक है, इसलिए
दर्शन भी स्वप्रकाशक है। अर्थात् केवली भगवान (सर्वज्ञ) व्यवहारनय से सब कुछ जानते और देखते हैं, किन्तु निश्चय से वह केवल अपने आत्मा
आगे और भी कहते हैं कि केवली भगवान आत्मस्वरूप को को ही जानते और देखते हैं।
देखते हैं, लोकालोक को नहीं, यदि कोई ऐसा कहता है तो उसका
क्या दोष है? और यदि कोई ऐसा कहे कि केवली भगवान लोकालोक सर्वज्ञता विषयक विचार कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
को जानते हैं, अपने को नहीं जानते हैं, तो भी कोई दोष नहीं है। सर्वज्ञ तीनों लोकों और तीनों कालों के समस्त द्रव्यों की सभी पर्यायों को एक साथ देखता और जानता है। षट्खण्डागम सूत्र
ज्ञान जीव का स्वरूप है इसलिए आत्मा अपने आत्मस्वरूप
को जानता है यदि ज्ञान अपने आत्मा को नहीं जानता है तो वह में भी ऐसा ही कहा गया है। इसलिए निश्चयनय का यह कथन कि वास्तव में वह अपने को ही जानता है, विरोधी प्रतीत होता
आत्मा से अलग हो जाएगा। आत्मा को ज्ञान जानो, ज्ञान को है, किन्तु कुन्दकुन्द के ज्ञान-ज्ञेय विषयक अवलोकन से इसका
आत्मा जानो, इसमें संदेह नहीं है। इसलिए ज्ञान तथा दर्शन समाधान प्राप्त हो जाता है। प्रवचनसार में केवलज्ञान का विस्तृत
स्वपर-प्रकाशक है। कुन्दकुन्द ऐसे पहले आचार्य हैं, जिन्होंने विवेचन उपलब्ध है। निश्चय और व्यवहारनय से सर्वज्ञ के ज्ञान
परंपरा से प्राप्त आत्मा, ज्ञान और दर्शन के स्वपर-प्रकाशत्व और दर्शन का कथन कुन्दकुन्द से पूर्व उपलब्ध नहीं है।
का स्पष्ट विवरण दिया है। उत्तरकालीन सभी दार्शनिकों के लिए केवली के ज्ञान और दर्शन युगपत् होते हैं। इसे कुन्दकुन्द
कुन्दकुन्द का उक्त विचार अनुकरणीय रहा है। ने निम्न प्रकार कहा है --
सप्तभंगी - जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा।
जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु को अनन्त धर्मात्मक मानता है, दिणयरपयासतावं जह वट्टा तह मुणेयव्वं ।।
इसलिए इसके वस्तुस्वरूप-प्रतिपादक सिद्धान्त को अनेकान्त नियमसार--१६०
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन या अनेकान्तवाद कहते हैं। वस्तु के अनन्तधर्मों का पृथक- ५. वही, गाथा, ३३-३४ पृथक एवं सापेक्ष निरूपण स्याद्वाद के द्वारा होता है। स्याद्वाद के ६. वही, गाथा-३४ सापेक्ष कथन के लिए सप्तभंगी को अपनाया गया है, क्याकि ७ पंचास्तिकाय गाथाजिज्ञासा की अपेक्षा से एक वस्तु में सात प्रश्न ही संभव है।
८. वही, गाथा--५-६ सर्वप्रथम कुन्दकुन्द ने ही सात भंगों का उल्लेख किया है--
९. मोक्खपाहुड, गाथा--४ सिय अस्थि णत्थि उद्यं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं।
१०. नियमसार, गाथा--६-७ दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि।। पंचास्तिकाय-१४ .
११. वही, गाथा -- ७१-७२ विवक्षावश द्रव में सात भंग ही संभव हैं। १. स्यादस्ति
१२. वही, गाथा -- १४९-१५१ किसी प्रकार है। २. स्यान्नास्ति-किसी प्रकार नहीं है। ३.स्यादभयम-किसी प्रकार अस्तिनास्ति दोनों रूप है। ४ १३. वहा, गाथा - १५ स्यादवक्तव्यम्-किसी प्रकार अवक्तव्य है। ५. स्यादस्ति
१४. वही, गाथा २८ अवक्तव्यम्-किसी प्रकार अस्तिस्वरूप होकर अवक्तव्य है। १५. वही, गाथा-३३ ६. स्यानास्ति अवक्तव्यम् - किसी प्रकार नास्तिरूप होकर १६. वही, गाथा-२५ अवक्तव्य है। ७. स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यम् - किसी प्रकार
१७. वही, गाथा-२८-२९ अस्ति नास्ति दोनों रूप होकर अवक्तव्य है।
१८. सव्वेसिं खंधाणं जो अंतो त वियाण परमाण। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि कुन्दकुन्द के
सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो।। पंचास्तिकाय, ग्रन्थों में जैन दर्शन की प्राचीन पारंपरिक सामग्री प्रचरता में
गाथा-७७ उपलब्ध है। वहाँ तत्त्वार्थ एवं आवश्यक जैसे सिद्धान्तों की
१९. नियमसार, गाथा १०-१२ प्राचीन परंपरा का स्पष्ट विवरण प्राप्त होता है। जैन दर्शन के
२०. वही, गाथा -- १३-१४ अनेक विचार सर्वप्रथम कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में व्यक्त किए हैं. इसलिए उनके चिंतन की मौलिकता स्वयं प्रमाणित है। २१. प्रवचनसार, १/१२, १४-१६ परंपरा के अनेक मौलिक विषयों को सरक्षित रखने का श्रेय उन्हें २२. वही, गाथा १/९ प्राप्त है। उक्त तथ्यों पर यहाँ संक्षेप में ही विचार किया जा सका २३. वही, गाथा १/११ है। उनकी तुलनात्मक समीक्षा अपेक्षित है, जिसे यथावसर प्रस्तुत २४. वही, गाथा १/१२ करने का प्रयत्न रहेगा।
२५. नियमसार, गाथा ८३-१४०, सन्दर्भ
२६. वही, गाथा - १४१-१४७, १. दंसणपाहुड, गाथा-३०,३२
२७. वही, गाथा-१५८ २. नियमसार, गाथा-३८-४५
२८. द्रव्यसंग्रह, गाथा-४४ ३. वही, ४६ समयसार-४९, भावपाहुड-६४ आदि।
२९. नियमसार, गाथा - १६१-१६५ ४. वही, ४९
३०. वही, गाथा - १६६-१७१
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जैन-आचार में उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद-मार्ग
उत्सर्ग और अपवाद
स्थविरकल्प में यह अनिवार्य हो गया कि जितना “प्रतिषेध" का पालन जैन आचार्यों ने आचार सम्बन्धी जो विभिन्न विधि-निषेध प्रस्तुत आवश्यक है, उतना ही आवश्यक "अनुज्ञा" का आचरण भी है। किये हैं वे निरपेक्ष नहीं हैं। देश-काल और व्यक्ति के आधार पर उनमें बल्कि परस्थितिविशेष में "अनुज्ञा" के अनुसार आचण नहीं करने परिवर्तन सम्भव हो सकता है। आचार के जिन नियमों का विधि-निषेध पर प्रायश्चित्त का भी विधान करना पड़ा है। जिस प्रकार प्रतिषेध का जिस सामान्य स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है उसमें वे आचार भंग करने पर प्रायश्चित्त है उसी प्रकार अपवाद का आचरण नहीं करने के विधि-निषेध यथावत् रूप में पालनीय माने गये हैं, किन्तु देश-काल, पर भी प्रायश्चित्त है अर्थात् “प्रतिषेध" और "अनुज्ञा' उत्सर्ग और परिस्थिति अथवा वैयक्तिक परिस्थितियों की भिन्नता में उनमें परिवर्तन अपवाद दोनों ही समबल माने गये हैं। दोनों में ही विशुद्धि है। किन्तु भी स्वीकार किया गया है। व्यक्ति और देश-कालगत सामान्य यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उत्सर्ग राजमार्ग है, जिसका अवलम्बन परिस्थितियों में जिन नियमों का पालन किया जाता है वे उत्सर्ग-मार्ग साधक के लिए सहज है, किन्तु अपवाद, यद्यपि आचरण में सरल कहे जाते हैं किन्तु जब देशकालगत और वैयक्तिक विशेष परिस्थितियों है, तथापि सहज नहीं है।" में उन सामान्य विधि-निषेधों को शिथिल कर दिया जाता है तो उसे वस्तुत: जीवन में नियमों-उपनियमों की जो सर्व सामान्य विधि अपवाद-मार्ग कहा जाता है। वस्तुत: आचार के सामान्य नियम उत्सर्ग- होती है वह उत्सर्ग और जो विशेष विधि है वह अपवाद-विधि है। मार्ग कहे जाते हैं और विशिष्ट नियम अपवाद-मार्ग कहे जाते हैं। उत्सर्ग सामान्य अवस्था में आचरणीय होता है और अपवाद विशेष दोनों की व्यावहारिकता परिस्थिति-सापेक्ष होती है। जैन आचार्यों की संकटकालीन अवस्था में। यद्यपि दोनों का उद्देश्य एक ही होता है मान्यता रही है कि सामान्य परिस्थितियों में उत्सर्ग-मार्ग का अवलम्बन कि साधक का संयम सुरक्षित रहे। समर्थ साधक के द्वारा संयम-रक्षा किया जाना चाहिए किन्तु देशकाल, परिस्थिति अथवा व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है वह उत्सर्ग है और असमर्थ साधक एवं क्षमता में किसी विशेष परिवर्तन के आ जाने पर अपवाद-मार्ग के द्वारा संयम की रक्षा के लिए ही उत्सर्ग से विपरीत जो अनुष्ठान का अवलम्बन किया जा सकता है। यहाँ इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप किया जाता है वह अपवाद है। अनेक परिस्थितियों में यह स्थिति से समझ लेना चाहिए कि अपवाद-मार्ग का सम्बन्ध केवल आचरण उत्पन्न हो जाती है कि व्यक्ति उत्सर्ग-मार्ग के प्रतिपालन के द्वारा संयम सम्बन्धी बाह्य विधि-निषेधों से होता है और आपवादिक परिस्थिति और ज्ञानादि गुणों की सुरक्षा नहीं कर पाता तब उसे अपवाद-मार्ग में किये गये सामान्य नियम के खण्डन से न तो उस नियम का मूल्य का ही सहारा लेना होता है। यद्यपि उत्सर्ग और अपवाद परस्पर विरोधी कम होता है और न सामान्य रूप से उसके आचरणीय होने पर कोई प्रतीत होते हैं किन्तु लक्ष्य की दृष्टि से विचार करने पर उनमें वस्तुतः प्रभाव पड़ता है। जहाँ तक आचार के आन्तरिक पक्ष का प्रश्न है, विरोध नहीं होता है। दोनों ही साधना की सिद्धि के लिए होते है, जैनाचार्यों ने उसे सदैव निरपेक्ष या उत्सर्ग के रूप में स्वीकार किया उसकी सामान्यता एवं सार्वभौमिकता खण्डित होती है। उत्सर्गमार्ग को है। हिंसा का विचार या हिंसा की भावना किसी भी परिस्थिति में नैतिक सार्वभौम कहने का तात्पर्य भी यह नहीं है कि अपवाद का कोई स्थान या आचरणीय नहीं मानी जाती। जिस सम्बन्ध में अपवाद की चर्चा नहीं है। उसे सार्वभौम कहने का तात्पर्य इतना ही है कि सामान्य की जाती है वह अहिंसा के बाह्य विधि-निषेधों से सम्बन्धित होता परिस्थितियों में उसका ही आचरण किया जाना चाहिए। उत्सर्ग और है। मान लीजिए कि हम किसी निरपराध प्राणी का जीवन बचाने के अपवाद दोनों की आचरणीयता परिस्थिति-सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। लिए अथवा किसी स्त्री का शील सुरक्षित रखने के लिए हिंसा अथवा यह उस परिस्थिति पर निर्भर होता है कि व्यक्ति उसमें उत्सर्ग का असत्य का सहारा लेते हैं तो इससे अहिंसा या सत्यसम्भाषण का अवलम्बन ले या अपवाद का। कोई भी आचार, परिस्थिति निरपेक्ष सामान्य नैतिक आदर्श समाप्त नहीं हो जाता। अपवाद-मार्ग न तो नहीं हो सकता। अत: आचार के नियमों के परिपालन में परिस्थिति कभी मौलिक एवं सार्वभौमिक नियम बनता है और न अपवाद आचरण के विचार को सम्मिलित किया गया है। फलत: अपवाद-मार्ग की का कारण माना जाता है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् अपवाद- आवश्यकता स्वीकार की गई है। मार्ग पर चलने पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए। जैन-संघ में अपवाद-मार्ग का कैसे विकास हुआ? इस सम्बन्ध यदि ऐसा न माना जाता तब तो एकमात्र उत्सर्ग-मार्ग पर ही चलना में पं० दलसुख भाई मालवणिया का कथन है कि आचारांग में निर्ग्रन्थ अनिवार्य हो जाता, फलस्वरूप अपवाद-मार्ग का अवलम्बन करने के और निर्ग्रन्थी संघ के कर्तव्य और अकर्तव्य के मौलिक उपदेशों का लिए कोई भी किसी भी परिस्थिति में तैयार ही न होता। परिणाम संकलन है किन्तु देश-काल अथवा क्षमता आदि के परिवर्तित होने यह होता कि साधना-मार्ग में केवल जिनकल्प को ही मानकर चलना से उत्सर्ग-मार्ग पर चलना कठिन हो जाता है। अस्तु ऐसी स्थिति पड़ता। किन्तु जब से साधकों के संघ एवं गच्छ बनने लगे, तब से में आचारांग की ही निशीथ नामक चूला में उन आचार-नियमों के केवल औत्सर्गिक मार्ग अर्थात् जिनकल्प संभव नहीं रहा। अतएव विषय में जो वितथकारी हैं उनका प्रायश्चित्त बताया गया है। अपवादों
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
का मूल सूत्रों में कोई विशेष निर्देश नहीं है। किन्तु निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि में स्थान-स्थान पर विस्तृत वर्णन है। जब एक बार यह स्वीकार कर लिया जाता है कि आचार के नियमों की व्यवस्था के सन्दर्भ में विचारणा को अवकाश है तब परिस्थिति को देखकर मूलसूत्रों के विधानों में अपवादों की सृष्टि करना गीतार्थ आचार्यों के लिए सहज हो जाता है। उत्सर्ग और अपवाद के बलाबल के सम्बन्ध में विचार करते हुए पं० जी पुनः लिखते हैं कि "संयमी पुरुष के लिए जितने भी निषिद्ध कार्य न करने योग्य कहे गये है, वे सभी "प्रतिषेध" के अन्तर्गत आते हैं और जब परिस्थितिविशेष में उन्हीं निषिद्ध कार्यों को करने की "अनुशा" दी जाती है, तब वे ही निषिद्धं कर्म "विधि" बन जाते हैं। परिस्थिति विशेष में अकर्तव्य भी कर्तव्य बन जाता है, किन्तु प्रतिषेध को विधि में परिणत कर देने वाली परिस्थिति का औचित्य और परीक्षण करना, साधारण साधक के लिए सम्भव नहीं है। अतएव ये "अपवाद", "अनुज्ञा" या "विधि" सब किसी को नहीं बताये जाते। यही कारण है कि "अपवाद" का दूसरा नाम "रहस्य" (नि००गा०४९५) पड़ा है। इससे यह भी फलित हो जाता है कि जिस प्रकार "प्रतिषेध" का पालन करने से आचरण विशुद्ध माना जाता है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् अपवाद - मार्ग पर चलने पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए (देखें निशीय एक अध्ययन, पृ० ५४) प्रशमरति में उमास्वाति स्पष्ट रूप से कहते हैं कि परिस्थितिविशेष में जो भोजन, शय्या, वस्त्र, पात्र एवं औषधि आदि ग्राह्य होती है वही परिस्थिति विशेष में अग्राह्म हो जाती है और जो अग्राहा होती है वही पाह्य हो जाती है, निशांध भाष्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जो द्रव्यादि निषिद्ध माने जाते हैं वे असमर्थ साधक के लिए आपवादिक स्थिति में ग्राह्य हो जाते हैं। सत्य यह है कि देश, काल, रोग आदि के कारण कभी-कभी जो अकार्य होता है वह कार्य बन जाता है और जो कार्य होता है वह अकार्य बन जाता है। उदाहरण के रूप में सामान्यतया ज्वर की स्थिति में भोजन निषिद्ध माना जाता है किन्तु वात, श्रम, क्रोध, शोक और कामादि से उत्पन्न ज्वर में लंघन हानिकारक माना जाता है।
उत्सर्ग और अपवाद की इस चर्चा में स्पष्ट रूप से एक बात सबसे महत्त्वपूर्ण है वह यह कि दोनों ही परिस्थिति- सापेक्ष हैं और इसलिए दोनों ही मार्ग हैं, उन्मार्ग कोई भी नहीं है। यद्यपि यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि यह कैसे निर्णय किया जाये कि किस व्यक्ति को उत्सर्ग मार्ग पर चलना चाहिए और किसको अपवाद मार्ग पर इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों की दृष्टि यह रही है कि साधक को सामान्य स्थिति में उत्सर्ग का अवलम्बन करना चाहिए, किन्तु यदि वह किसी विशिष्ट परिस्थिति में फँस गया है जहाँ उसके उत्सर्ग के आलम्बन से स्वयं उसका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है तो उसे अपवादमार्ग का सेवन करना चाहिए फिर भी यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि अपवाद का आलम्बन किसी परिस्थितिविशेष में ही किया जाता है और उस परिस्थितिविशेष की समाप्ति पर साधक को पुनः उत्सर्ग
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मार्ग का निर्धारण कर लेना चाहिए। परिस्थितिविशेष उत्पन्न होने पर जो अपवाद मार्ग का अनुसरण नहीं करता उसे जैन आचार्यों ने प्रायश्चित का भागी बताया है किन्तु जिस परिस्थिति में अपवाद का अवलम्बन लिया गया था उसके समाप्त हो जाने पर भी यदि कोई साधक उस उपवाद मार्ग का परित्याग नहीं करता है तो वह भी प्रायश्चित का भागी होता है। कब उत्सर्ग का आचरण किया जाये और कब अपवाद का ? इसका निर्णय देश-कालगत परिस्थितियों अथवा व्यक्ति के शरीर-सामर्थ्य पर निर्भर होता है। एक बीमार साधक के लिए अकल्प्य आहार एषणीय माना जा सकता है किन्तु उसके स्वस्थ हो जाने पर वही आहार उसके लिए अनैषणीय हो जाता है।
यहाँ यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि साधक कब अपवाद मार्ग का अवलम्बन करे? और इसका निश्चय कौन करे? जैनाचार्यों ने इस सन्दर्भ में गीतार्थ की आवश्यकता अनुभव की और कहा कि गीतार्थ को ही यह अधिकार होता है कि वह साधक को उत्सर्ग या अपवाद किसका अवलम्बन लेना है, निर्णय दे। जैन-परम्परा में गीतार्थ उस आचार्य को कहा जाता है जो देश, काल और परिस्थिति को सम्यक् रूप से जानता हो और जिसने निशीथ, व्यवहार, कल्प आदि छेदसूत्रों का सम्यक् अध्ययन किया हो । साधक को उत्सर्ग और अपवाद में किसका अनुसरण करना है? इसके निर्देश का अधिकार गीतार्थ को ही है। जहाँ तक उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों में कौन श्रेय है और कौन अश्रेय अथवा कौन सबल है और कौन निर्बल है? इस समस्या के समाधान का प्रश्न है, जैनाचार्यों के अनुसार दोनों ही अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार श्रेय व सबल हैं। आपवादिक परिस्थिति में अपवाद को श्रेय और सबल माना गया है किन्तु सामान्य परिस्थिति में उत्सर्ग को श्रेय एवं सबल कहा गया है। बृहत्कल्पभाष्य' के अनुसार ये दोनों (उत्सर्ग और अपवाद) अपने-अपने स्थानों में श्रेय व सबल होते हैं। इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए बृहत्कल्पभाष्य' की पीठिका में कहा गया है कि जो साधक स्वस्थ एवं समर्थ है उसके लिए उत्सर्ग स्वस्थान है और अपवाद परस्थान है। जो अस्वस्थ एवं असमर्थ है उसके लिए अपवाद स्वस्थान है और उत्सर्ग परस्थान है। वस्तुतः जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं। यह सब व्यक्ति की सामर्थ्य एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि कब आचरणीय अनावरणीय एवं अनावरणीय आचरणीय हो जाता है। कभी उत्सर्ग का पालन उचित होता है तो कभी अपवाद का । वस्तुतः उत्सर्ग और अपवाद की इस समस्या का समाधान उन परिस्थितियों में कार्य करने वाले व्यक्ति के स्वभाव का विश्लेषण कर किये गये निर्णय में निहित है। वैसे तो उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में भी कोई सीमा रेखा निश्चित कर पाना कठिन है, फिर भी जैनाचायों ने कुछ आपवादिक परिस्थितियों का उल्लेख कर यह बताया है कि उनमें किस प्रकार का आचरण किया जाये।
सामान्यतया अहिंसा को जैन साधना का प्राण कहा जा सकता है। साधक के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा भी वर्जित मानी गई है। किन्तु जब कोई विरोधी व्यक्ति आचार्य या संघ के वध के लिए तत्पर
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--- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन हो, किसी साध्वी का बलपूर्वक अपहरण करना चाहता हो और वह के कारण शीलभंग करे तो इस स्थिति में शीलभंग करने वाले भिक्षु उपदेश से भी नहीं मानता हो तो ऐसी स्थिति में भिक्षु, आचार्य, संघ के मनोभावों को लक्ष्य में रखकर ही प्रायश्चित्त का निर्धारण किया अथवा साध्वी की रक्षा के लिए पुलाकलब्धि का प्रयोग करता हुआ जाता है। भी साधक संयमी माना गया है।
जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर सर्वाधिक बल दिया। इसलिए सामान्यतया श्रमण साधक के लिए वानस्पतिक जीवों अथवा उन्होंने न केवल मैथुन-सेवन का निषेध किया अपितु भिक्षु के लिए अप्कायिक जीवों के स्पर्श का भी निषेध है किन्तु जीवन-रक्षा के लिए नवजात कन्या का और भिक्षुणी के लिए नवजात शिशु का स्पर्श भी इन नियमों के अपवाद स्वीकार किये गये है। जैसे पर्वत से फिसलते वर्जित कर दिया। आगमों में उल्लेख है कि भिक्षुणी को कोई भी समय भिक्षु वृक्ष की शाखा या लता आदि का सहारा ले सकता है। पुरुष चाहे वह उसका पुत्र या पिता ही क्यों न हो, स्पर्श नहीं करे जल में बहते हुए साधु या साध्वी की रक्षा के लिए नदी आदि में किन्तु अपवाद रूप में यह बात स्वीकार की गई कि नदी में डूबती उतर सकता है।
हुई या विक्षिप्त-चित्त भिक्षुणी को भिक्षु स्पर्श कर सकता है। इसी . इसी प्रकार उत्सर्ग-मार्ग में स्वामी की आज्ञा-बिना भिक्षु के लिए प्रकार सर्पदंश या काँटा लग जाने पर उसकी चिकित्सा का कोई अन्य एक तिनका भी अग्राह्य है। दशवैकालिक के अनुसार श्रमण अदत्तादान उपाय न रह जाने पर भिक्षु या भिक्षुणी परस्पर एक दूसरे की सहायता को न स्वयं ग्रहण कर सकता है, न दूसरों से ग्रहण करवा सकता कर सकते हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि उक्त अपवाद ब्रह्मचर्य है और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन ही कर सकता है। के खण्डन से सम्बन्धित न होकर स्त्री-पुरुष के परस्पर स्पर्श से सम्बन्धित परन्तु परिस्थितिवश अपवाद-मार्ग में भिक्षु के लिए अयाचित स्थान है। निशीथ भाष्य और बृहत्कल्पभाष्य के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता आदि ग्रहण के उल्लेख हैं। जैसे भिक्षु भयंकर शीतादि के कारण या है कि जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर कितनी गहराई से विचार हिंसक पशुओं का भय होने पर स्वामी की आज्ञा लिए बिना ही ठहरने किया। जैनाचार्यों ने इस प्रश्न पर भी विचार किया कि एक ओर व्यक्ति योग्य स्थान पर ठहर जाए तत्पश्चात् स्वामी की आज्ञा प्राप्त करने का शीलभंग नहीं करना चाहता किन्तु दूसरी ओर वासना का आवेग इतना प्रयत्न करे।
तीव्र होता है कि वह अपने पर संयम नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति जहाँ तक ब्रह्मचर्य सम्बन्धी अपवादों का प्रश्न है उस पर हमें में क्या किया जाये? दो दृष्टियों से विचार करना है। जहाँ अहिंसा, सत्य आदि व्रतों में ऐसी स्थिति में जैनाचार्यों ने सर्वनाश की अपेक्षा अर्द्ध-विनाश अपवाद-मार्ग का सेवन करने पर बिना तप-प्रायश्चित के भी विशुद्धि की नीति को भी स्वीकार किया है। इसी प्रसंग में जैनाचार्यों ने यह सम्भव मानी गई है वहाँ ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में तप-प्रायश्चित्त के बिना उपाय भी बताया है कि ऐसे भिक्षु अथवा भिक्षुणी को अध्ययन, लेखन, विशुद्धि को सम्भव नहीं माना गया है। ऐसा क्यों किया गया इस वैयावृत्य आदि कार्यों में इतना व्यस्त कर दिया जाये कि उसके पास सम्बन्ध में जैनाचार्यों का तर्क है कि हिंसा आदि में राग-द्वेषपूर्वक और काम-वासना जगने का समय ही न रहे। इस प्रकार उन्होंने काम-वासना रागद्वेष रहित दोनों ही प्रकार की प्रतिसेवना सम्भव है और यदि प्रतिसेवना पर विजय प्राप्त करने के उपाय भी बताए। रागद्वेष से रहित है तो उसके लिए विशेष प्रायश्चित नहीं है किन्तु सामान्यतया भिक्षु के लिए परिग्रह के पूर्णत: त्याग का विधान मैथुन का सेवन राग के अभाव में नहीं होता, अत: ब्रह्मचर्य व्रत की है और इसी आधार पर अचेलता की प्रशंसा की गई है। सामान्यतः स्खलना में तप-प्रायश्चित्त अपरिहार्य है। जिस स्खलना पर तप-प्रायश्चित्त आचारांग आदि सूत्रों में भिक्षु के लिए अधिकतम तीन वस्त्र और अन्य का विधान हो उसे अपवाद-मार्ग नहीं कहा जा सकता। निशीथ भाष्य परिमित उपकरण रखने की अनुमति है किन्तु यदि हम मध्यकालीन के आधार पर पं० दलसुख भाई मालवणिया का कथन है कि यदि जैन-साहित्य का और साधु-जीवन का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हिंसा आदि दोषों का सेवन संयम के रक्षण हेतु किया जाय तो तप लगता है कि धीरे-धीरे भिक्षु-जीवन में रखने योग्य वस्तुओं की संख्या प्रायश्चित्त नहीं होता किन्तु अबह्मचर्य सेवन के लिए तो तप या छेद बढ़ती गई है। अन्य भी आचार सम्बन्धी कठोरतम नियम स्थिर नहीं प्रायश्चित्त आवश्यक है।
रह सके हैं। अत: आपवादिक रूप में कई अकरणीय कार्यों का करना यद्यपि ब्रह्मचर्य व्रत की स्खलना पर प्रायश्चित्त का विधान होने भी विहित मान लिया गया है जो सामान्यतया निन्दित माने जाते थे। से ब्रह्मचर्य का कोई अपवाद स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु अपवाद-मार्ग के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा निशीथ भाष्य एवं निशीथइसका तात्पर्य यह नहीं है कि जैनाचार्यों ने उन सब परिस्थितियों पर चूर्णि आदि में उपलब्ध हैं। साथ ही पं० दलसुखभाई मालवणिया ने विचार नहीं किया है जिनमें कि जीवन की रक्षा अथवा संघ की प्रतिष्ठा अपने ग्रन्थ “निशीथःएक अध्ययन"" में एवं उपाध्याय अमरमुनिजी को सुरक्षित रखने के लिए शीलभंग हेतु विवश होना पड़े। निशीथ ने निशीथ चूर्णि१२ के तृतीय भाग की भूमिका में इसका विस्तार से
और बृहत्कल्पभाष्य में यह उल्लेख है कि यदि ऐसा प्रसंग उपस्थित विवेचन किया है। इसी प्रकार निशीथ सूत्र हिन्दी विवेचन में भी उत्सर्ग हो जहाँ शीलभंग और जीवन-रक्षण में से एक ही विकल्प हो तो और अपवाद मार्ग का स्वरूप समझाया गया है।" जिज्ञासु पाठक उसे ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ तो यही है कि व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार करे और वहाँ देख सकते हैं। शीलभंग न करे किन्तु जो मृत्यु को स्वीकार करने में असमर्थ होने
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन १. पं० दलसुख मालवणिया, निशीथ : एक अध्ययन, सन्मति ज्ञानपीठ ७. व्यवहारसूत्रउद्देशक, संपा० मुनि कन्हैलाल जी 'कमल', ८। आगरा, प्रथम संस्करण, पृ० ५४।
८. निशीथ : एक अध्ययन, पृ० ६८। प्रशमरति-उमास्वाति, श्लोक १४५।।
९. निशीथभाष्य, गाथा ३६६-३६७। निशीथभाष्य, (निशीथ चूर्णि) - संपा० उपाध्याय अमरमुनि, १०. बृहत्कल्पभाष्य गाथा ४९४६-४९४७। सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १७५७, ५२४५।।
११. पं० दलसुखभाई मालवणिया- निशीथ : एक अध्ययन बृहत्कल्पभाष्य, संपा० पुण्यविजयजी, आत्मानन्द जैन सभा, पृ०५३-७०। भावनगर, १९३३, पीठिका, गा. ३२२।
१२. निशीथसूत्रचूर्णि, तृतीय भाग, भूमिका पृ० ७-२८। वही गा. ३२३-३२४।
१३. छेदसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, दशवैकालिक, संपा० मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, पृष्ठ ७४-७५ (राज०), ६, १४।
जैन-धर्म में प्रायश्चित्त एवं दण्ड-व्यवस्था
प्रायश्चित्त और दण्ड
प्रायश्चित्त शब्द का अर्थ जैन आचार्यों ने न केवल आचार के विधि-निषेधों का प्रतिपादन प्रायश्चित्त शब्द की आगमिक व्याख्या-साहित्य में विभिन्न परिभाषाएँ किया अपितु उनके भङ्ग होने पर प्रायश्चित्त एवं दण्ड की व्यवस्था भी प्रस्तुत की गई हैं। जीतकल्पभाष्य के अनुसार जो पाप का छेदन करता की। सामान्यतया जैन-आगम ग्रन्थों में नियम-भङ्ग या अपराध के लिए है, वह प्रायश्चित्त है।' यहाँ “प्रायः" शब्द को पाप के रूप में तथा प्रायश्चित्त का ही विधान किया गया और दण्ड शब्द का प्रयोग सामान्यतया “चित्त' शब्द को शोधक के रूप में परिभाषित किया गया है। हरिभद्र "हिंसा' के अर्थ में हुआ है। अत: जिसे हम दण्ड-व्यवस्था के रूप ने पञ्चाशक में प्रायश्चित्त के दोनों ही अर्थ मान्य किये हैं। वे मूलतः में जानते हैं, वह जैन-परम्परा में प्रायश्चित्त-व्यवस्था के रूप में ही “पायच्छित्त" शब्द की व्याख्या उसके प्राकृत रूप के आधार पर ही मान्य है। सामान्यतया दण्ड और प्रायश्चित्त पर्यायवाची माने जाते हैं, करते हैं। वे लिखते हैं कि जिसके द्वारा पाप का छेदन होता है, वह किन्तु दोनों में सिद्धान्ततः अन्तर है। प्रायश्चित्त में अपराध-बोध की प्रायश्चित्त है। इसके साथ ही वे दूसरे अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते भावना से व्यक्ति में स्वत: ही उसके परिमार्जन की अन्त:प्रेरणा उत्पन्न हैं कि जिसके द्वारा चित्त का पाप से शोधन होता है, वह प्रायश्चित्त होती है। प्रायश्चित्त अन्तःप्रेरणा से स्वयं ही किया जाता है, जबकि है। प्रायश्चित्त शब्द के संस्कृत रूप के आधार पर "प्रायः" शब्द को दण्ड अन्य व्यक्ति के द्वारा दिया जाता है। जैन-परम्परा अपनी प्रकर्ष के अर्थ में लेते हुए यह भी कहा गया है कि जिसके द्वारा चित्त आध्यात्मिक-प्रकृति के कारण साधनात्मक जीवन में प्रायश्चित्त का ही प्रकर्षता अर्थात् उच्चता को प्राप्त होता है वह प्रायश्चित्त है। विधान करती है। यद्यपि जब साधक अन्तःप्रेरित होकर आत्मशुद्धि दिगम्बर टीकाकारों ने "प्रायः" शब्द का अर्थ अपराध और चित्त के हेतु स्वयं प्रायश्चित्त की याचना नहीं करता है तो संघ-व्यवस्था के शब्द का अर्थ शोधन करके यह माना है कि जिस क्रिया के करने लिए उसे दण्ड देना होता है।
से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है। एक अन्य व्याख्या में यद्यपि हमें यह स्मरण रखना होगा कि दण्ड देने से साधक की “प्रायः" शब्द का अर्थ "लोक" भी किया गया है। इस दृष्टि से यह आत्मशुद्धि नहीं होती। चाहे सामाजिक या संघ-व्यवस्था के लिए दण्ड माना गया है कि जिस कर्म से साधुजनों का चित्त प्रसन्न होता है वह आवश्यक हो किन्तु जब तक उसे अन्त:प्रेरणा से स्वीकृत नहीं किया प्रायश्चित्त है। मूलाचार में कहा गया है कि प्रायश्चित्त वह तप है जिसके जाता तब तक वह आत्मविशुद्धि करने में सहायक नहीं होता। जैन- द्वारा पूर्वकृत पापों की विशुद्धि की जाती है। इसी ग्रन्थ में प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त व्यवस्था में परिहार, छेद, मूल, पाराञ्चिक आदि बाह्यत: तो के पर्यायवाची नामों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जिसके दण्डरूप हैं, किन्तु उनकी आत्मविशुद्धि की क्षमता को लक्ष्य में रखकर द्वारा पूर्वकृत कर्मों की क्षपणा, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धावन, पुंछण, ही ये प्रायश्चित्त दिये जाते हैं।
निराकरण, उत्क्षेपण एवं छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त है।
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यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन प्रायश्चित्त के प्रकार
नाम भी वे ही हैं। इसप्रकार जहाँ धवला श्वेताम्बर-परम्परा से सगति श्वेताम्बर-परम्परा में विविध प्रायश्चित्तों का उल्लेख स्थानाङ्ग, रखती है, वहाँ मूलाचार और तत्त्वार्थ कुछ भित्र हैं। सम्भवतः ऐसा निशीथ, बृहत्कल्प, व्यवहार, जीतकल्प आदि ग्रन्थों में मिलता है। प्रतीत होता है कि जीतकल्प सूत्र के उल्लेखानुसार जब अनवस्थाप्य किन्तु जहाँ समवायाङ्ग में प्रायश्चित्तों के प्रकारों का मात्र नामोल्लेख और पारांचिक इन दोनों प्रायश्चित्तों को भद्रबाहु के बाद व्युच्छिन्न मान है वहाँ निशीथ आदि ग्रन्थों में प्रायश्चित्त-योग्य अपराधों का भी विस्तृत लिया गया या दूसरे शब्दों में इन प्रायश्चित्तों का प्रचलन बन्द कर विवरण उपलब्ध होता है। प्रायश्चित्त सम्बन्धी विविध सिद्धान्तों और दिया गया५ तो इन अन्तिम दो प्रायश्चित्तों के स्वतन्त्र स्वरूप को समस्याओं का स्पष्टतापूर्वक विवेचन बृहत्कल्पभाष्य, निशीथभाष्य, लेकर मतभेद उत्पन्न हो गया और उनके नामों में अन्तर हो गया। व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि, जीतकल्पभाष्य एवं जीतकल्पचूर्णि में मूलाचार के अन्त में परिहार का जो उल्लेख है वह अनवस्थाप्य उपलब्ध होता है। जहाँ तक प्रायश्चित्त के प्रकारों का प्रश्न है, इन प्रकारों से कोई भिन्न नहीं कहा जा सकता, किन्तु उसमें श्रद्धान प्रायश्चित्त का उल्लेख श्वेताम्बर-आगम स्थानाङ्ग, बृहत्कल्प, निशीथ और जीतकल्प का क्या तात्पर्य है यह न तो मूल ग्रन्थ से और न उसकी टीका में, यापनीय-ग्रन्थ मूलाचार में, दिगम्बर - ग्रन्थ जयधवला में तथा से ही स्पष्ट होता है। यह अन्तिम प्रायश्चित्त है, अत: कठोरतम होना तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं चाहिये। इसका अर्थ यह माना जा सकता है कि ऐसा अपराधी जो में मिलता है।
श्रद्धान से सर्वथा रहित है अत: संघ से पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया स्थानाङ्गसूत्र में प्रायश्चित्त के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख हुआ है, जाये किन्तु टीकाकार वसुनन्दी ने श्रद्धान का अर्थ तत्त्वरुचि एवं उसके तृतीय स्थान में ज्ञान-प्रायश्चित्त, दर्शन-प्रायश्चित्त और चारित्र- क्रोधादि-त्याग किया है। इन प्रायश्चित्तों में जो क्रम है वह सहजता प्रायश्चित्त ऐसे तीन प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है। इसी तृतीय स्थान से कठोरता की ओर है। अत: अन्त में श्रद्धान नामक सहज प्रायश्चित्त में अन्यत्र आलोचना, प्रतिक्रमण और तदुभय ऐसे प्रायश्चित्त के तीन को रखने के लिए कोई औचित्य नहीं है। वस्तुत: जिन-प्रवचन के रूपों का भी उल्लेख हुआ है। इसी आगम-ग्रन्थ में अन्यत्र छ:, प्रति श्रद्धा का समाप्त हो जाना ही वह अपराध है, जिसका दण्ड आठ और नौ प्रायश्चित्तों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ये सभी प्रायश्चित्तों मात्र संघ-बहिष्कार है। अत: ऐसे श्रमण की श्रद्धा जब तक सम्यक् के प्रकार उसके दशम स्थान में जहाँ दशविध प्रायश्चित्तों का विवरण नहीं है तब तक उसे संघ से बहिष्कृत रखना ही इस प्रायश्चित्त का दिया गया है उसमें समाहित हो जाते हैं। अत: हम उनकी स्वतन्त्र तात्पर्य है। रूप से चर्चा न करके उसमें उपलब्ध दशविध प्रायश्चित्ते की चर्चा प्रायश्चित्त का सर्वप्रथम रूप वह है जहाँ साधक को स्वयं ही करेंगे
अपने मन में अपराधबोध के परिणामस्वरूप आत्मग्लानि का भाव स्थानाङ्ग, जीतकल्प और धवला में प्रायश्चित्त के निम्न दस प्रकार उत्पन्न हो। वस्तुत: आलोचना का अर्थ है- अपराध को अपराध माने गये हैं
के रूप में स्वीकार कर लेना। आलोचना शब्द का अर्थ-देखना, (१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) उभय, (४) विवेक, अपराध को अपराध के रूप में देख लेना ही आलोचना है। (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) मूल, (९) अनवस्थाप्य सामान्यतया वे अपराध जो हमारे दैनन्दिन व्यवहार में असावधानी
और (१०) पारांचिक।१२ यदि हम इन इसे नामों की तुलना यापनीय (प्रमाद) या बाध्यतावश घटित होते हैं, आलोचना नामक प्रायश्चित्त ग्रन्थ मूलाचार और तत्त्वार्थसूत्र" से करते हैं तो मूलाचार में प्रथम के विषय माने गये हैं। अपने द्वारा हुए अपराध या नियमभङ्ग को आठ नाम तो जीतकल्प के समान ही हैं किन्तु जीतकल्प के अनवस्थाप्य आचार्य या गीतार्थ मुनि के समक्ष निवेदित करके उनसे उसके प्रायश्चित्त के स्थान पर परिहार और पारांचिक के स्थान पर 'श्रद्धान' का उल्लेख की याचना करना ही आलोचना है। सामान्यतया आलोचना करते हुआ है। मूलाचार श्वेताम्बर-परम्परा से भिन्न होकर तप और परिहार समय यह विचार आवश्यक है कि अपराध क्यों हुआ? उसका प्रेरक को अलग-अलग मानता है। तत्वार्थसूत्र में तो इनकी संख्या नौ मानी तत्त्व क्या है? गई है। इसमें सात नाम तो जीतकल्प के समान ही हैं किन्तु मूल के स्थान पर उपस्थापन और अनवस्थाप्य के स्थान पर परिहार का अपराध क्यों और कैसे? उल्लेख हुआ है। पारांचिक का उल्लेख तत्त्वार्थ में नहीं है। अतः अपराध या व्रतभङ्ग क्यों और किन परिस्थितियों में किया जाता वह नौ प्रायश्चित्त ही मानता है। श्वेताम्बर आचार्यों ने तप और परिहार है? इसका विवेचन हमें स्थानाङ्ग सूत्र के दशम स्थान में मिलता है। को एक माना है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में तप और परिहार दोनों स्वतन्त्र उसमें दस प्रकार की प्रतिसेवना का उल्लेख हुआ है। प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त माने गये हैं, अत: तत्त्वार्थ में परिहार का अर्थ अनवस्थाप्य तात्पर्य है गृहीत व्रत के नियमों के विरुद्ध आचरण करना अथवा भोजन ही हो सकता है। इस प्रकार तत्त्वार्थ और मूलाचार दोनों तप और आदि ग्रहण करना। वस्तुतः प्रतिसेवना का सामान्य अर्थ व्रत या नियम परिहार को अलग-अलग मानते हैं और दोनों में उनका अर्थ अनवस्थाप्य के प्रतिकूल आचरण करना ही है। यह व्रतभङ्ग क्यों, कब और किन के समान है। यद्यपि दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थ धवला १७ में स्थानाङ्ग परिस्थितियों में होता है इसे स्पष्ट करने हेतु ही स्थानाङ्ग में दस
और जीतकल्प के समान ही १० प्रायश्चित्तों का वर्णन है और उनके प्रतिसेवनाओं का उल्लेख है।६।। worrorwardwordwardroiwariwaroranirdwordwordworldwid७८]-6woridwiridwordrobrowdndroidnirdwordwaranitrotakar
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - (१) दर्प-प्रतिसेवना- आवेश अथवा अहकार के वशीभूत एक विचारणीय प्रश्न है। योग्य और गम्भीर व्यक्ति के अतिरिक्त किसी होकर जो हिंसा आदि करके व्रत-भङ्ग किया जाता है वह दर्प- अन्य व्यक्ति के समक्ष आलोचना करने का परिणाम यह होता है कि प्रतिसेवना है
वह आलोचना करने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचा सकता (२) प्रमाद-प्रतिसेवना-प्रमाद एवं कषायों के वशीभूत होकर है तथा उसे अपयश का भागी बनना पड़ सकता है। अत: जैनाचार्यों जो व्रत भङ्ग किया जाता है, वह प्रमाद-प्रतिसेवना है।
ने माना कि आलोचना सदैव ऐसे व्यक्ति के समक्ष करनी चाहिये जो (३) अनाभोग-प्रतिसेवना-स्मृति या सजगता के अभाव में आलोचना सुनने योग्य हो, उसे गोपनीय रख सकता हो और उसका अभक्ष्य या नियम-विरुद्ध वस्तु का ग्रहण करना अनाभोग- अनैतिक लाभ न ले। स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार जिस व्यक्ति के सामने प्रतिसेवना है।
आलोचना की जाती है उसे निम्नलिखित दस गुणों से युक्त होना (४) आतुर-प्रतिसेवना-भूख-प्यास आदि से पीड़ित होकर चाहिएकिया जाने वाला व्रत-भङ्ग आतुर-प्रतिसेवना है।
(१) आचारवान्-सदाचारी होना, आलोचना देने वाले व्यक्ति (५) आपात-प्रतिसेवना- किसी विशिष्ट परिस्थिति के का प्रथम गुण है, क्योंकि जो स्वयं दुराचारी है वह दूसरों के अपराधों उत्पन्न होने पर व्रत-भङ्ग या नियम-विरुद्ध आचरण करना आपात- की आलोचना सुनने का अधिकारी नहीं है। जो अपने ही दोषों को प्रतिसेवना है।
शुद्ध नहीं कर सका वह दूसरों के दोषों को क्या दूर करेगा? (६) शशित-प्रतिसेवना-शङ्का के वशीभूत होकर जो नियम- (२) आधारवान्-अर्थात् उसे अपराधों और उसके सम्बन्ध में भङ्ग किया जाता है, उसे शङ्कित-प्रतिसेवना कहते हैं, जैसे यह व्यक्ति नियत प्रायश्चित्तों का बोध होना चाहिए, उसे यह भी ज्ञान होना चाहिए हमारा अहित करेगा, ऐसा मानकर उसकी हिंसा आदि कर देना। कि किस अपराध के लिए किस प्रकार का प्रायश्चित्त नियत है।
(७) सहसाकार-प्रतिसेवना- अकस्मात् होने वाले व्रतभङ्ग या (३) व्यवहारवान्- उसे आगम, श्रुत, जिनाज्ञा, धारणा और नियम-भङ्ग को सहसाकार-प्रतिसेवना कहते हैं।
जीत इन पाँच प्रकार के व्यवहारों को जानने वाला होना चाहिए क्योंकि (८) भय-प्रतिसेवना-भय के कारण जो व्रत या नियम-भङ्ग सभी अपराधों एवं प्रायश्चित्तों की सूची आगमों में उपलब्ध नहीं है किया जाता है वह भय-प्रतिसेवना है।
अत: आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिये जो स्वविवेक (९) प्रदोष-प्रतिसेवना-द्वेषवश किसी प्राणी की हिंसा अथवा । से ही आगमिक आधारों पर किसी कर्म के प्रायश्चित्त का अनुमान उसका अहित करना प्रदोष-प्रतिसेवना है।
कर सके। (१०) विमर्श-प्रतिसेवना-शिष्यों की क्षमता अथवा उनकी (४) अपनीडक-आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए श्रद्धा आदि के परीक्षण के लिए व्रत या नियम का भङ्ग करना कि आलोचना करने वाले की लज्जा छुड़ाकर उसमें आत्म-आलोचन विमर्श-प्रतिसेवना है। दूसरे शब्दों में किसी निश्चित उद्देश्य के लिए की शक्ति उत्पन्न कर सके। विचारपूर्वक व्रतभङ्ग करना या नियम के प्रतिकूल आचरण करना विमर्श (५) प्रकारी-आचार्य अथवा आलोचना सुनने वाले में यह या प्रतिसेवना है।
सामर्थ्य होना चाहिए कि वह अपराध करने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व इस प्रकार हम देखते हैं कि अपराध व्यक्ति केवल स्वेच्छा से को रूपान्तरित कर सके। जानबूझकर ही नहीं करता अपितु परिस्थतिवश भी करता है। अत: (६) अपरिश्रावी-उसे आलोचना करने वाले के दोषों को दूसरे उसे प्रायश्चित्त देते समय यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अपराध के सामने प्रगुट नहीं करना चाहिये, अन्यथा कोई भी व्यक्ति उसके क्यों और किन परिस्थितियों में किया गया है?
सामने आलोचना करने में संकोच करेगा। आलोचना करने का अधिकारी कौन?
(७) निर्यापक-आलोचना सुनने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए आलोचना कौन व्यक्ति कर सकता है? इस सम्बन्ध में भी कि वह प्रायश्चित्त-विधान इस प्रकार करे कि प्रायश्चित्त करने वाला व्यक्ति स्थानाङ्गसूत्र में पर्याप्त चिन्तन किया गया है। इसके अनुसार निम्न घबराबर उसे आधे में ही न छोड़ दे। उसे प्रायश्चित्त करने वाले का दस गुणों से युक्त व्यक्ति ही आलोचना करने के योग्य होता है- सहयोगी बनना चाहिए।
(१) जाति सम्पन्न, (२) कुल सम्पन्न, (३) विनय सम्पन्न, (८) अपायदर्शी- अर्थात् उसे ऐसा होना चाहिए कि वह (४) ज्ञान सम्पन्न, (५) दर्शन सम्पत्र, (६) चारित्र सम्पन्न, (७) क्षान्त आलोचना करने अथवा न करने के गुण-दोषों की समीक्षा कर सके। (क्षमासम्पत्र),(८) दान्त (इन्द्रिय-जयी), (९) अमायावी (मायाचार-रहित) (९) प्रियधर्मा-अर्थात् आलोचना सुनने वाले व्यक्ति की धर्म-मार्ग
और (१०) अपश्चात्तापी (आलोचना करने के बाद उसका पश्चात्ताप न में अविचल निष्ठा होनी चाहिए। करने वाला)
(१०) धर्मा-उसे ऐसा होना चाहिए कि वह कठिन से कठिन
समय में भी धर्म-मार्ग से विचलित न हो सके। आलोचना किसके समक्ष की जाये?
जिसके समक्ष आलोचना की जा सकती है उस व्यक्ति की इन आलोचना किस व्यक्ति के समक्ष की जानी चाहिए? यह भी सामान्य योग्यताओं का निर्धारण करने के साथ-साथ यह भी माना
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन
गया है कि किसी गीतार्थ, बहुश्रुत एवं आगमज्ञ के समक्ष ही आलोचना की जानी चाहिए। साथ ही इनके पदक्रम और वरीयता पर विचार करते हुए यह कहा गया है कि जहाँ आचार्य आदि उच्चाधिकारी उपस्थित हों, वहाँ सामान्य साधु या गृहस्य के समक्ष आलोचना नहीं करनी चाहिए। आचार्य के उपस्थित होने पर उसी के समक्ष आलोचना की जानी चाहिए। आचार्य की अनुपस्थिति में उपाध्याय के समक्ष, उपाध्याय की अनुपस्थिति में सांभोगिक साधर्मिक साधु के समक्ष और उनकी अनुपस्थिति में अन्य सांभोगिक साधन साधु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। यदि अन्य सांभोगिक साधर्मी साधु भी उपलब्ध न हो तो ऐसी स्थिति में बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ समान वेश धारक साधु के समक्ष आलोचना करे उसके उपलब्ध न होने पर यदि पूर्व में दीक्षा पर्याय को छोड़ा हुआ बहुश्रुत और आगमज्ञ श्रमणोपासक उपस्थित हो तो उसके समक्ष आलोचना करे। उसके अभव में सम्यक्त्व- भावित अन्तःकरण वाले के समक्ष अर्थात् सम्यक्त्वी जीव के समक्ष आलोचना करे। यदि सम्यक्त्वभावी अन्तःकरण वाला भी न हो तो ग्राम या नगर के बाहर जाकर पूर्व या उत्तर दिशा में अभिमुख होकर अरिहन्त और सिद्ध की साक्षीपूर्वक आलोचना करे।"
आलोचना-सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसङ्ग में यह भी तथ्य ध्यान देने योग्य है कि आलोचना दोषमुक्त हो । स्थानाङ्ग, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में आलोचना के दस दोषों का उल्लेख हुआ है।
(१) आकम्पित दोष- आचार्य आदि को उपकरण आदि देकर अपने अनुकूल बना लेना आकम्पित दोष है। कुछ विद्वानों के अनुसार आकम्पित दोष का अर्थ है काँपते हुए आलोचना करना, जिससे प्रायश्चित्तदाता कम से कम प्रायश्चित्त दे।
(२) अनुमानित दोष - भय से अपने को दुर्बल, रोगग्रस्त आदि दिखाकर आलोचना करना अनुमानित दोष है ऐसा 'अल्प प्रायश्चित्त मिले' इस भावना से किया जाता है।
(३) अद्रष्ट - गुरु अथवा अन्य किसी ने जो अपराध देख लिया हो उसकी तो आलोचना करना और अद्रष्ट दोषों की आलोचना न करना यह अद्रष्ट दोष है।
(४) बादर दोष-बड़े दोषों की आलोचना करना और छोटे दोषों की आलोचना न करना बादर दोष है।
(५) सूक्ष्म दोष छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना और बड़े दोषों को छिपा लेना सूक्ष्म दोष है।
(६) छन दोष- आलोचना इस प्रकार से करना कि गुरु उसे पूरी तरह सुन ही न सके, यह छत्र दोष है कुछ विद्वानों के अनुसार आचार्य के समक्ष मैंने यह दोष किया, यह न कहकर किसी बहाने से उस दोष का प्रायश्चित्त ज्ञात कर स्वयं ही उसका प्रायश्चित्त ले लेना छत्र दोष है।
(७) शब्दाकुलित दोष कोलाहलपूर्ण वातावरण में आलोचना करना जिससे आचार्य सम्यक् प्रकार से सुन न सके, यह शब्दाकुलित दोष है। दूसरे शब्दों में भीड़-भाड़ अथवा व्यस्तता के समय गुरु के
सामने आलोचना करना दोषपूर्ण माना गया है।
(८) बहुजन दोष एक ही दोष की अनेक लोगों के समक्ष आलोचना करना और उनमें से जो सबसे कम दण्ड या प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करना बहुजन दोष है।
(९) अव्यक्त दोष- दोषों को पूर्णरूप से स्पष्ट न कहते हुए उनकी आलोचना करना अव्यक्त दोष है।
(१०) तत्सेवी दोष- जो व्यक्ति स्वयं ही दोषों का सेवन करने वाले हैं उनके सामने दोषों की आलोचना करना तत्सेवी दोष है। क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं दोष का सेवन करने वाला है उसे दूसरे को प्रायश्चित देने का अधिकार ही नहीं है। दूसरे, ऐसा व्यक्ति उचित प्रायश्चित्त भी नहीं दे पाता।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्यों ने आलोचना के सन्दर्भ में उसके स्वरूप, आलोचना करने व सुनने की पात्रता और उसके दोषों पर गहराई से विचार किया है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा निशीथ आदि में पायी जाती है। पाठकों से उसे वहाँ देखने की अनुशंसा की जाती है।
आलोचना- योग्य कार्य
जीतकल्प के अनुसार जो भी करणीय अर्थात् आवश्यक कार्य हैं, वे तीर्थङ्करों द्वारा सम्पादित होने पर तो निर्दोष होते हैं, किन्तु छद्मस्थ श्रमणों द्वारा सम्पादित इन कर्मों की शुद्धि केवल आलोचना से ही मानी गयी है। जीतकल्प में कहा गया है कि आहार आदि का ग्रहण, गमनागमन, मल-मूत्र विसर्जन, गुरुवन्दन आदि सभी क्रियाएँ आलोचना के योग्य हैं। इन्हें आलोचना योग्य मानने का तात्पर्य यह है कि साधक इस बात का विचार करे कि उसने इन कार्यों का सम्पादन सजगतापूर्वक अप्रमत्त होकर किया या नहीं। क्योंकि प्रमाद के कारण दोष लगना सम्भव है। इसी प्रकार आचार्य से सौ हाथ की दूरी पर रहकर जो भी कार्य किये जाते हैं, वे भी आलोचना के विषय माने गये हैं। इन कार्यों की गुरु के समक्ष आलोचना करने पर ही साधक निर्दोष होता है। गुरु को यह बताये कि उसने गुरु से दूर रहकर क्या-क्या कार्य किस प्रकार सम्पादित किये है? इसके साथ ही किसी कारणवश या अकारण ही स्व-गण का परित्याग कर पर गण में प्रवेश करने को अथवा उपसम्पदा, विहार आदि कार्यों को भी आलोचना का विषय माना गया है। ईर्ष्या आदि पाँच समितियों और तीन गुप्तियों में लगे हुए दोष सामान्यतया आलोचना के विषय हैं। यद्यपि हमें स्मरण रखना चाहिए कि ये सभी दोष जो आलोचना के विषय हैं, मे देश काल परिस्थिति और व्यक्ति के आधार पर प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, परिहार, छेद आदि प्रायश्चित्त के भी योग्य हो सकते हैं।
प्रतिक्रमण
प्रायश्चित्त का दूसरा प्रकार प्रतिक्रमण है। अपराध या नियमभङ्ग को अपराध के रूप में स्वीकार कर पुनः उससे वापस लौट आना
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-- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - अर्थात् भविष्य में उसे नहीं करने की प्रतिज्ञा करना ही प्रतिक्रमण है। करना प्रस्रवण प्रतिक्रमण है। (३) इत्वर प्रतिक्रमण- स्वल्पकालीन दूसरे शब्दों में आपराधिक-स्थिति से अनपराधिक-स्थिति में लौट आना (दैवसिक, रात्रिक आदि) प्रतिक्रमण करना इत्वर प्रतिक्रमण है। ही प्रतिक्रमण है। आलोचना और प्रतिक्रमण में अन्तर यह है कि (४) यावत्कथिक प्रतिक्रमण- सम्पूर्ण जीवन के लिए पाप से निवृत्त आलोचना में अपराध को पुन: सेवन न करने का निश्चय नहीं होता, होना यावत्कथिक प्रतिक्रमण है। (५) यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमणजबकि प्रतिक्रमण में ऐसा करना आवश्यक है।
सावधानीपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए भी प्रमाद अथवा असावधानी मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया जाता है, से किसी भी प्रकार का असंयमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों के द्वारा आचरित भूल को स्वीकार कर लेना, "मिच्छामि दुक्कडं' ऐसा उच्चारण करना पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, इन सबकी निवृत्ति के और उसके प्रति पश्चात्ताप करना यत्किचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण है। लिए कृत-पापों की समीक्षा करना और पुन: नहीं करने की प्रतिज्ञा (६) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण-विकार-वासना रूप कुस्वप्न देखने पर करना प्रतिक्रमण है। आचार्य हेमचन्द्र प्रतिक्रमण का निर्वचन करते उसके सम्बन्ध में पश्चात्ताप करना स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण है।२४ यह हुए लिखते हैं कि शुभयोग से अशुभ योग की ओर गये हुए अपने विवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से सम्बन्धित है। आचार्य आपको पुन: शुभयोग में लौटा लाना प्रतिक्रमण है।२२ आचार्य हरिभद्र भद्रबाहु ने जिन-जिन बातों का प्रतिक्रमण करना चाहिए इसका ने प्रतिक्रमण की व्याख्या में इन तीन अर्थों का निर्देश किया है- निर्देश आवश्यक नियुक्ति में किया है।२५ उनके अनुसार (१) मिथ्यात्व, (१) प्रमादवश स्वस्थान से परस्थान (स्वधर्म से परधर्म) में गये हुए (२) असंयम, (३) कषाय एवं (४) अप्रशस्त कायिक, वाचिक एवं साधक का पुन: स्वस्थान पर लौट आना यह प्रतिक्रमण है। अप्रमत्त मानसिक व्यापारों का प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रकारान्तर से आचार्य चेतना का स्व-चेतना केन्द्र में स्थित होना स्वस्थान है, जबकि चेतना ने निम्न बातों का प्रतिक्रमण करना भी अनिवार्य माना है- (१) गृहस्थ का बहिर्मुख होकर पर-वस्तु पर केन्द्रित होना पर-स्थान हैं। इस प्रकार एवं श्रमण उपासक के द्वारा निषिद्ध कार्यों का आचरण कर लेने पर, बाह्यदृष्टि से अन्तर्दृष्टि की ओर आना प्रतिक्रमण है। (२) क्षायोपशमिक (२) जिन कार्यों के करने का शास्त्रों में विधान किया गया है उन भाव से औदयिक भाव में परिणत हुआ साधक पुन: औदयिक भाव विहित कार्यों का आचरण न करने पर, (३) अश्रद्धा एवं शङ्का के से क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है, तो यह भी प्रतिकूल गमन उपस्थित हो जाने पर और (४) असम्यक् एवं असत्य सिद्धान्तो का के कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। (३) अशुभ आचरण से निवृत्त होकर प्रतिपादन करने पर प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। मोक्षफलदायक शुभ आचरण में नि:शल्य भाव से पुन: प्रवृत्त होना जैन परम्परा के अनुसार जिनका प्रतिक्रमण किया जाना चाहिए, प्रतिक्रमण है। २३
उनका संक्षिप्त वर्गीकरण इस प्रकार हैआचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम दिये (अ) २५ मिथ्यात्वों, १४ ज्ञानातिचारों और १८ पापस्थानों का हैं- (१) प्रतिक्रमण- पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर प्रतिक्रमण सभी को करना चाहिए। आत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौट आना। (२) प्रतिचरण- हिंसा, असत्य (ब) पञ्च महाव्रतो, मन, वाणी और शरीर के असंयम तथा गमन, आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में अग्रसर भाषण, याचना, ग्रहण-निक्षेप एवं मलमूत्र-विसर्जन आदि से सम्बन्धित होना। (३) परिहरण- सब प्रकार की अशुभ प्रवृत्तियों एवं दुराचरणों दोषों का प्रतिक्रमण श्रमण साधकों को करना चाहिए। का त्याग करना। (४) वारण- निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति (स) ५ अणुव्रतों, ३ गुणव्रतों, ४ शिक्षाव्रतों में लगने वाले ७५ नहीं करना। बौद्ध-धर्म में प्रतिक्रमण के समान की जाने वाली क्रिया अतिचारों का प्रतिक्रमण व्रती श्रावकों को करना चाहिए। को प्रवारणा कहा गया है। (५) निवृत्ति- अशुभ भावों से निवृत्त (द) सल्लेखना के पाँच अतिचारों का प्रतिक्रमण उन साधकों होना। (६) निन्दा- गुरुजन, वरिष्ठजन अथवा स्वयं अपनी ही आत्मा के लिए जिन्होंने सल्लेखना व्रत ग्रहण किया हो। की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ आचरणों को बुरा समझना तथा उसके श्रमण-प्रतिक्रमण सूत्र और श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र में सम्बन्धित लिये पश्चात्ताप करना। (७) गर्हा- अशुभ आचरण को गर्हित समझना, सम्भावित दोषों की विवेचना विस्तार से की गई है। इसके पीछे मूल उससे घृणा करना। (८) शुद्धि- प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि दृष्टि यह है कि उनका पाठ करते हुए आचरित सूक्ष्मतम दोष भी के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है, इसलिए विचार-पथ से ओझल न हो। उसे शुद्धि कहा गया है।
प्रतिक्रमण के भेद प्रतिक्रमण किसका?
साधकों के आधार पर प्रतिक्रमण के दो भेद है- (१) श्रमण -- स्थानाङ्गसूत्र में इन छह बातों के प्रतिक्रमण का निर्देश है- प्रतिक्रमण और (२) श्रावक-अतिक्रमण। कालिक आधार पर प्रतिक्रमण (१) उच्चार प्रतिक्रमण- मल आदि का विसर्जन करने के बाद ईर्या के पाँच भेद हैं- (१) दैवसिक- प्रतिदिन सायंकाल के समय पूरे (आने-जाने में हुई जीवहिंसा) का प्रतिक्रमण करना उच्चार प्रतिक्रमण दिवस में आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना दैवसिक है। (२) प्रस्रवण प्रतिक्रमण- पेशाब करने के बाद ईर्या का प्रतिक्रमण - प्रतिक्रमण है। (२) रात्रिक- प्रतिदिन प्रात:काल के समय सम्पूर्ण
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• यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन रात्रि के आचरित पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना करना रात्रिक प्रसङ्ग में व्युत्सर्ग और कायोत्सर्ग पर्यायवाची के रूप में ही प्रयुक्त प्रतिक्रमण है। (३) पाक्षिक- पक्ष के अन्तिम दिन अर्थात् अमावस्या हुए हैं। एवं पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण पक्ष में आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है। (४) चातुर्मासिक- तप-प्रायश्चित्त कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा एवं आषाढ़ी पूर्णिमा को चार महीने सामान्य दोषों के अतिरिक्त विशिष्ट दोषों के लिए तप-प्रायश्चित्त के आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना चातुर्मासिक का विधान किया गया है। किस प्रकार के दोष का सेवन करने पर प्रतिक्रमण है। (५) सांवत्सरिक- प्रत्येक वर्ष में संवत्सरी महापर्व किस प्रकार के तप का प्रायश्चित्त करना होता है। उसका विस्तारपूर्वक (ऋषि पञ्चमी) के दिन वर्षभर के पापों का चिन्तन कर उनकी आलोचना विवेचन निशीथ, बृहत्कल्प और जीतकल्प में तथा उनके भाष्यों में करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है।
मिलता है। निशीथ सूत्र में तप-प्रायश्चित्त के योग्य अपराधों की विस्तृत
सूची उपलब्ध है। उसमें तप-प्रायश्चित्त के विविध प्रकारों की चर्चा करते " तदुभय
हुए मासलघु, मासगुरु, चातुर्मासलघु, चातुर्मासगुरु से लेकर षट्मासलघु तदुभय प्रायश्चित्त वह है जिसमें अलोचना और प्रतिक्रमण दोनों और षट्मासगुरु प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है। जैसा कि हमने किये जाते हैं। अपराध या दोष को दोष के रूप में स्वीकार करके पूर्व में सङ्केत किया है मासगुरु या मासलघु आदि इनका क्या तात्पर्य फिर उसे नहीं करने का निश्चय करना ही तदुभय प्रायश्चित्त है। जीतकल्प है, यह इन ग्रन्थों के मूल में कहीं स्पष्ट नहीं किया गया है किन्तु में निम्न प्रकार के अपराधों के लिए तदुभय प्रायश्चित्त का विधान किया इन पर लिखे गये भाष्य-चूर्णि आदि में इनके अर्थ को स्पष्ट करने गया है- (१) भ्रमवश किये गये कार्य, (२) भयवश किये गये कार्य, का प्रयास किया गया है, मात्र यही नहीं लघु की लघु, लघुतर और (३) आतुरतावश किये गये कार्य, (४) सहसा किये गये कार्य, लघुतम तथा गुरु की गुरु, गुरुतर और गुरुतम ऐसी तीन-तीन कोटियाँ (५) परवशता में किये गये कार्य, (६) सभी व्रतों में लगे हुए निर्धारित की गई हैं। अतिचार।
कहीं-कहीं गुरुक, लघुक और लघुष्वक ऐसे तीन भेद भी किये
गये हैं और फिर इनमें से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये विवेक
तीन-तीन भेद किये गये हैं। व्यवहारसूत्र की भूमिका में अनुयोगकर्ता विवेक शब्द का सामान्य अर्थ यह है कि किसी कर्म के औचित्य मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य प्रत्येक एवं अनौचित्य का सम्यक् निर्णय करना और अनुचित कर्म का के भी तीन-तीन विभाग किये हैं। यथा- उत्कृष्ट के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, परित्याग कर देना। मुनि जीवन में आहारादि के ग्राह्य और अग्राह्य उत्कृष्टमध्यम और उत्कृष्टजघन्य ये तीन विभाग हैं। ऐसे ही मध्यम अथवा शुद्ध और अशुद्ध का विचार करना ही विवेक है। यदि अज्ञात और जघन्य के भी तीन-तीन विभाग किये गये हैं। इस प्रकार तप रूप से सदोष आहार आदि ग्रहण कर लिया हो तो उसका त्याग करना प्रायश्चित्तों के ३४३४३=२७ भेद हो जाते हैं। उन्होंने विशेष रूप से ही विवेक है। वस्तुत: सदोष क्रियाओं का त्याग ही विवेक है। मुख्य जानने के लिए व्यवहारभाष्य का सङ्केत किया है किन्तु व्यवहारभाष्य रूप से भोजन, वस्त्र, मुनि-जीवन के अन्य उपकरण एवं स्थानादि मुझे उपलब्ध न होने के कारण मैं इस चर्चा के प्रसङ्ग में उनके ववहारसुत्तं प्राप्त करने में जो दोष लगते हैं उनकी शुद्धि विवेक-प्रायश्चित्त द्वारा के सम्पादकीय का ही उपयोग कर रहा हूँ। उन्होंने इन सम्पूर्ण २७ मानी गयी है।
भेदों और उनसे सम्बन्धित तपों का भी उल्लेख नहीं किया है। अत: इस सम्बन्ध में मुझे भी मौन रहना पड़ रहा है। इन प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित
मास, दिवस एवं तपों की संख्या का उल्लेख हमें बृहत्कल्पभाष्य गाथा व्युत्सर्ग का तात्पर्य 'परित्याग' या 'विसर्जन' है। सामान्यतया ६०४१-६०४४ में मिलता है। उसी आधार पर निम्न विवरण इस प्रायश्चित्त के अन्तर्गत किसी भी सदोष-आचरण के लिए प्रस्तुत हैशारीरिक व्यापारों का निरोध करके मन की एकाग्रतापूर्वक देह के प्रति रहे हुए ममत्व का विसर्जन किया जाता है। जीतकल्प के अनुसार प्रायश्चित्त का नाम तप का स्वरूप एवं काल गमनागमन, विहार, श्रुत-अध्ययन, सदोष स्वप्न, नाव आदि के द्वारा नदी को पार करना, भक्त-पान, शय्या-आसन, मलमूत्र-विसर्जन, काल
यथागुरु
छह मास तक निरन्तर पाँच-पाँच उपवास व्यतिक्रम, अर्हत् एवं मुनि का अविनय आदि दोषों के लिए व्युत्सर्ग
गुरुतर
चार मास तक निरन्तर चार-चार उपवास प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। जीतकल्प में इस तथ्य का भी
एक मास तक निरन्तर तीन-तीन उपावास(तेले) उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार के दोष के लिए कितने समय
१० बेले १० दिन पारणे (एक मास तक या श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग किया जाना चाहिए। प्रायश्चित्त के
निरन्तर दो-दो उपवास)।
व्युत्सर्ग
गुरु
लघु
nodrowonoranoraniwaridnoraniromowonoranoraniordNG[८२ ]ordNiroraniritonironironirandirorombonitoriandoriander
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - लघुतर
२५ दिन तक निरन्तर एक दिन उपवास और में आहारादि रखना, धर्म की निन्दा और अधर्म की प्रशंसा करना, एक दिन भोजन।
अनन्तकाय युक्त आहार खाना, आचार्य की अवज्ञा करना, लाभालाभ यथालघु
२० दिन तक निरन्तर आयम्बिल (रूखा-सूखा का निमित्त बताना, किसी श्रमण-श्रमणी को बहकाना, किसी दीक्षार्थी भोजन)।
को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना आदि क्रियाएँ गुरुचातुर्मासिक लघुष्वक
१५ दिन तक निरन्तर एकासन (एक समय प्रायश्चित्त के योग्य हैं।
भोजन)। लघुष्वकतर
१० दिन तक निरन्तर दो पोरसी अर्थात् १२ तप और परिहार का सम्बन्ध बजे के बाद भोजन ग्रहण।
जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है, तत्त्वार्थ और यापनीय यथालघुष्वक पाँच दिन तक निरन्तर निर्विकृति (घी, दूध परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार में परिहार को स्वतन्त्र प्रायश्चित्त माना गया आदि से रहित भोजन)।
है। जबकि श्वेताम्बर-परम्परा के आगमिक ग्रन्थों में और धवला में इसे
स्वतन्त्र प्रायश्चित्त न मानकर इसका सम्बन्ध तप के साथ जोड़ा गया लघुमासिक-योग्य अपराध
है। परिहार शब्द का अर्थ बहिष्कृत करना अथवा त्याग करना होता दारुदण्ड का पादपोंछन बनाना, पानी निकलने के लिए नाली है। श्वेताम्बर-आगम ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा पश्चात् दाता की प्रशंसा करना, गर्हित अपराधों को करने पर भिक्षु या भिक्षुणी को न केवल तप रूप निष्कारण परिचित घरों में दुबारा प्रवेश करना, अन्यतीर्थिक अथवा प्रायश्चित्त दिया जाता था अपितु उसे यह कहा जाता था कि वे भिक्षु-सङ्घ गृहस्थ की संगति करना, शय्या अथवा आवास देने वाले मकान-मालिक या भिक्षुणी-संघ से पृथक् होकर निर्धारित तप पूर्ण करें। निर्धारित तप के यहाँ का आहार-पानी ग्रहण करना, आदि क्रियाएँ लघुमासिक प्रायश्चित्त ___ को पूर्ण कर लेने पर उसे पुनः संघ में सम्मिलित कर लिया जाता के कारण हैं।
था। इस प्रकार परिहार का तात्पर्य था कि प्रायश्चित्त रूप तप की निर्धारित
अवधि के लिए सङ्घ से भिक्षु का पृथक्करण। परिहार तप की अवधि गुरुमासिक-योग्य अपराध
में वह भिक्षु भिक्षुसङ्घ के साथ रहते हुए भी अपना आहार-पानी अलग अङ्गादान का मर्दन करना, अङ्गादान के ऊपर की त्वचा दूर करना, करता था। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि परिहार प्रायश्चित्त में तथा अङ्गादान को नली में डालना, पुष्पादि सूंघना, पात्र आदि दूसरों से ___अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त में मूलभूत अन्तर था। अनवस्थाप्य साफ करवाना, सदोष आहार का उपभोग करना आदि क्रियायें गुरुमासिक प्रायश्चित्त में जहाँ उसे गृहस्थ-वेष धारण करवाकर के ही उपस्थापन प्रायश्चित्त के कारण हैं।
किया जाता था, वहाँ परिहार में ऐसा कोई विधान न था। यह केवल
प्रायश्चित्त की तपावधि के लिए मर्यादित पृथक्करण था। सम्भवतः लघु चातुर्मासिक-योग्य अपराध
प्राचीनकाल में तप नामक प्रायश्चित्त दो प्रकार से दिया जाता रहा होगा। प्रत्याख्यान का बार-बार भङ्ग करना, गृहस्थ के वस्त्र, शय्या आदि परिहारपूर्वक और परिहाररहित। इसी आधार पर आगे चलकर जब का उपयोग करना, प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्तों का प्रचलन समाप्त कर दिया तक रखना, अर्धयोजन अर्थात् दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, गया। तब प्रायश्चित्तों की इस संख्या को पूर्ण करने के लिए यापनीय विरेचन लेना अथवा अकारण औषधि का सेवन करना, वाटिका आदि परम्परा में तप और परिहार की गणना अलग-अलग की जाने लगी। सार्वजनिक स्थानों में मल-मूत्र डालकर गन्दगी करना, गृहस्थ आदि परिहार नामक प्रायश्चित्त की अधिकतम अवधि छ: मास ही है। परिहार को आहार-पानी देना, समान आचार वाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को स्थान का छेद प्रायश्चित्त से अन्तर यह है कि जहाँ छेद प्रायश्चित्त दिये जाने आदि की सुविधा न देना, गीत-गाना, वाद्य-यन्त्र बजाना, नृत्य करना, पर भिक्षुणी सङ्घ में वरीयता बदल जाती थी वहाँ परिहार प्रायश्चित्त अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के काल से उसकी वरीयता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। मूलाचार में परिहार में स्वाध्याय न करना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना, योग्य को शास्त्र को जो छेद और मूल के बाद स्थान दिया गया है, वह उचित प्रतीत न पढ़ाना, मिथ्यात्व-भावित अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को शास्त्र पढ़ाना नहीं होता क्योंकि कठोरता की दृष्टि से छेद और मूल की अपेक्षा अथवा उससे पढ़ना आदि क्रियायें लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त की परिहार प्रायश्चित्त कम कठोर था। वसुनन्दी की मूलाचार की टीका में कारण हैं।
परिहार की 'गण से पृथक् रहकर अनुष्ठान करना' ऐसी जो व्याख्या
की गई है वह समुचित एवं श्वेताम्बर-परम्परा के अनुरूप ही है। फिर गुरुचातुर्मासिक-योग्य अपराध
भी यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा में मूलभूत अन्तर इतना तो अवश्य मैथुन सम्बन्धी अतिचार या अनाचारों का सेवन करना, राजपिण्ड है कि श्वेताम्बर-परम्परा परिहार को तप से पृथक् प्रायश्चित्त के रूप ग्रहण करना, आधाकर्मी आहार ग्रहण करना, रात्रिभोजन करना, रात्रि में स्वीकार नहीं करती है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - दिगम्बर- परम्परा यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम की धवला टीका दर्शन और चारित्र की विराधना होने पर मूल प्रायश्चित्त दिया जा सकता परिहार को पृथक् प्रायश्चित्त नहीं मानती है। उसमें श्वेताम्बर-परम्परा- है, परन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से ज्ञान और दर्शन की विराधना होने सम्मत दस प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है जिसमें परिहार का उल्लेख पर मूल प्रायश्चित्त दिया भी जा सकता है और नहीं भी दिया जा सकता नहीं है।
है परन्तु चारित्र की विराधना होने पर तो मूल प्रायश्चित्त दिया ही जाता
है। जो तप के गर्व से उन्मत्त हों अथवा जिन पर सामान्य प्रायश्चित्त छेद प्रायश्चित्त
या दण्ड का कोई प्रभाव ही न पड़ता हो, उनके लिए मूल प्रायश्चित्त जो अपराधी शारीरिक दृष्टि से कठोर तप-साधना करने में असमर्थ __का विधान किया गया है। है अथवा समर्थ होते हुए भी तप के गर्व से उन्मत्त है और तप प्रायश्चित्त से उसके व्यवहार में सुधार सम्भव नहीं होता है और तप अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त करके पुन:-पुन: अपराध करता है, उसके लिए छेद प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति को पद से च्युत कर देना का विधान किया गया है। छेद प्रायश्चित्त का तात्पर्य है भिक्षु या भिक्षुणी है या अलग कर देना है। इस शब्द का दूसरा अर्थ है- जो सङ्घ के दीक्षा-पर्याय को कम कर देना, जिसका परिणाम यह होता है कि में स्थापना अर्थात् रखने योग्य नहीं है। वस्तुत: जो अपराधी ऐसे अपराधी का श्रमण सङ्घ में वरीयता की दृष्टि से जो स्थान है, वह अपराध करता है जिसके कारण उसे सङ्घ से बहिष्कृत कर देना अपेक्षाकृत निम्न हो जाता है अर्थात् जो दीक्षा-पर्याय में उससे लघु आवश्यक होता है वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है वे उससे ऊपर हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में उसकी वरिष्ठता है। यद्यपि परिहार में भी भिक्षु को सङ्घ से पृथक् किया जाता है किन्तु (सीनियरिटी) कम हो जाती हैं और उसे इस आधार पर जो भिक्षु वह एक सीमित रूप में होता है और उसका वेष-परिवर्तन उससे कभी कनिष्ठ रहे हैं उनको उसे वन्दन आदि करना होता है। आवश्यक नहीं माना जाता। जबकि अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य किस अपराध में कितने दिन का छेद प्रायश्चित्त आता है इसका स्पष्ट भिक्षु को सङ्घ से निश्चित अवधि के लिए बहिष्कृत कर दिया जाता उल्लेख मुझे देखने को नहीं मिला। सम्भवतः यह परिहारपूर्वक तप है और उसे तब तक पुन: भिक्षु-सङ्घ में प्रवेश नहीं दिया जाता है प्रायश्चित्त का एक विकल्प है। अर्थात् जिसके अपराध के लिए मास जब तक कि वह प्रायश्चित्त के रूप में निर्दिष्ट तप-साधना को पूर्ण या दिन के लिए तप निर्धारित हो, उस अपराध के करने पर कभी नहीं कर लेता है और सङ्घ इस तथ्य से आश्वस्त नहीं हो जाता है उतने दिन का दीक्षा छेद का प्रायश्चित्त दिया जाता है। जैसे जो अपराध कि वह पुन: अपराध नहीं करेगा। जैन-परम्परा में बार-बार अपराध षाण्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं, उनके करने पर कभी उसे छह करने वाले आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए यह दण्ड प्रस्तावित मास का छेद प्रायश्चित्त भी दिया जाता है। दूसरे शब्दों में उसकी किया गया है। स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार साधर्मियों की चोरी करने वरीयता छह मास कम कर दी जाती है। अधिकतम तप की अवधि वाला, अन्य धर्मियों की चोरी करने वाला तथा डण्डे, लाठी आदि ऋषभदेव के समय में एक वर्ष, अन्य बाईस तीर्थङ्करों के समय में से दूसरे भिक्षुओं पर प्रहार करने वाला भिक्षु अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आठ मास और महावीर के समय में छह मास मानी गई है। अत: के योग्य माना जाता है। अधिकतम एक साथ छह मास का ही छेद प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। सामान्यतया पार्श्वस्थ, अवसत्र, कुशील और संसक्त भिक्षुओं को पारांचिक प्रायश्चित्त छेद प्रायश्चित्त दिये जाने का विधान है।
वे अपराध जो अत्यन्त गर्हित हैं और जिनके सेवन से न केवल
व्यक्ति अपितु सम्पूर्ण जैनसङ्घ की व्यवस्था धूमिल होती है, वे पारांचिक मूल प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं। पारांचिक प्रायश्चित्त का अर्थ भी भिक्षु-सङ्घ मूल प्रायश्चित्त का अर्थ होता था, पूर्व की दीक्षा-पर्याय को पूर्णत: से बहिष्कार ही है। वैसे जैनाचार्यों ने यह माना है कि पारांचिक अपराध समाप्त कर नवीन दीक्षा प्रदान करना। इसके परिणामस्वरूप ऐसा भिक्षु करने वाला भिक्षु यदि निर्धारित समय तक निर्धारित तप का अनुष्ठान उस भिक्षुसङ्घ में जिस दिन उसे यह प्रायश्चित्त दिया जाता था वह सबसे पूर्ण कर लेता है तो उसे एक बार गृहस्थवेष धारण करवाकर पुनः कनिष्ठ बन जाता था। मूल प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य और पारांचिक सङ्घ में प्रविष्ट किया जा सकता है। बौद्ध-परम्परा में भी पारांचिक प्रायश्चित्तों से अर्थ में भिन्न था कि इसमें अपराधी भिक्षु को गृहस्थवेष अपराधों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ऐसा अपराध करने धारण करना अनिवार्य न था। सामान्यतया पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा वाला भिक्षु सदैव के लिए सङ्घ से बहिष्कृत कर दिया जाता है। जीतकल्प एवं मैथुन सम्बन्धी अपराधों को मूल प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता के अनुसार अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त भद्रबाहु के काल से है। इसी प्रकार जो भिक्षु मृषावाद, अदत्तादान और परिग्रह सम्बन्धी बन्द कर दिया गया है। इसका प्रमुख कारण शारीरिक क्षमता की कमी दोषों का पुन:-पुन: सेवन करता है वह भी मूल प्रायश्चित्त का पात्र हो जाना है। स्थानाङ्ग सूत्र में निम्न पाँच अपराधों को पारांचिक प्रायश्चित्त माना गया है। जीतकल्प भाष्य के अनुसार निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान, के योग्य माना गया है।
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन (१) जो कुल में परस्पर कलह करता हो।
है। स्व-गण के आचार्य आदि से भी प्रायश्चित्त लिया जा सकता है। (२) जो गण में परस्पर कलह करता हो।
किन्तु अन्य गण के आचार्य तभी प्रायश्चित्त दे सकते हैं जब उनसे (३) जो हिंसा-प्रेमी हो अर्थात् कुल या गण के साधुओं का घात करना इस सम्बन्ध में निवेदन किया जाये। जीतकल्प के अनुसार स्वलिङ्गी चाहता हो।
अन्य गण के आचार्य या मुनि की अनुपस्थिति में छेदसूत्र का अध्येता (४) जो छिद्रप्रेमी हो अर्थात् जो छिद्रान्वेषण करता हो।
गृहस्थ जिसने दीक्षा-पर्याय छोड़ दिया हो वह भी प्रायश्चित्त दे सकता (५) जो प्रश्न-शास्त्र का बार-बार प्रयोग करता हो।
है। इन सब के अभाव में साधक स्वयं भी पापशोधन के लिए स्वविवेक स्थानाङ्ग सूत्र में ही अन्यत्र अन्योन्य-मैथुनसेवी भिक्षुओं को से प्रायश्चित्त का निश्चय कर सकता है। पारांचिक प्रायश्चित्त के योग्य बताया गया है। यहाँ यह विचारणीय है कि जहाँ हिंसा करने वाले को, स्त्री से मैथुन सेवन करने वाले को क्या प्रायश्चित्त सार्वजनिक रूप में दिया जाये? मूल प्रायश्चित्त के योग्य बताया, वहाँ हिंसा की योजना बनाने वाले इस प्रश्न के उत्तर में जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अन्य परम्पराओं एवं परस्पर मैथुन-सेवन करने वालों को पारांचित प्रायश्चित्त के योग्य से भिन्न है। वे प्रायश्चित्त या दण्ड को आत्मशुद्धि का साधन तो मानते क्यों बताया? इसका कारण यह है कि जहाँ हिंसा एवं मैथुन-सेवन हैं लेकिन प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त के विरोधी हैं। उनकी दृष्टि में दण्ड करने वाले का अपराध व्यक्त होता है और उसका परिशोध सम्भव केवल इसलिए नहीं दिया जाता है कि उसे देखकर अन्य लोग होता है वह मूल प्रायश्चित्त के योग्य है किन्तु इन दूसरे प्रकार के व्यक्तियों अपराध करने से भयभीत हों। अत: जैन-परम्परा सामूहिक रूप में, का अपराध बहुत समय तक बना रह सकता है और सङ्घ के समस्त । खुले रूप में दण्ड की विरोधी है। इसके विपरीत बौद्ध-परम्परा में परिवेश को दूषित बना देता है। वस्तुत: जब अपराधी के सुधार की दण्ड या प्रायश्चित्त को सङ्घ के सम्मुख सार्वजनिक रूप से देने की सभी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं तो उसे पारांचिक प्रायश्चित्त के परम्परा है। बौद्ध-परम्परा में प्रवारणा के समय साधक भिक्षु को सङ्घ योग्य माना जाता है। जीत कल्प के अनुसार तीर्थङ्कर के प्रवचन अर्थात्, के सम्मुख अपने अपराध को प्रकट कर सङ्घ-प्रदत्त प्रायश्चित्त या दण्ड श्रुत, आचार्य और गणधर की आशातना करने वाले को भी पारांचिक को स्वीकार करना होता है। वस्तुत: बुद्ध के निर्वाण के बाद किसी प्रायश्चित्त का दोषी माना गया है। दूसरे शब्दों में जो जिन-प्रवचन का सङ्घप्रमुख की नियुक्ति को आवश्यक नहीं माना गया, अत: प्रायश्चित्त अवर्णवाद करता हो वह सङ्घ में रहने के योग्य नहीं माना जाता। या दण्ड देने का दायित्व सङ्घ पर आ पड़ा। किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि जीतकल्पभाष्य के अनुसार कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, राजा के वध की से सार्वजनिक रूप से दण्डित करने की यह प्रक्रिया उचित नहीं है, इच्छा करने वाला, राजा की अग्रमहिषी से संभोग करने वाला भी क्योंकि इससे समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा गिरती है, तथा कभी-कभी पारांचिक प्रायश्चित्त का अपराधी माना गया है। वैसे परवर्ती आचार्यों सार्वजनिक रूप से दण्डित किये जाने पर व्यक्ति विद्रोही बन के अनुसार पारांचिक अपराध का दोषी भी विशिष्ट तप-साधना के जाता है। पश्चात् सङ्घ में प्रवेश का अधिकारी मान लिया गया है। पारांचिक प्रायश्चित्त का कम से कम समय छह मास, मध्यम समय १२ मास और अधिकतम अपराध की समानता पर दण्ड की समानता का प्रश्न समय १२ वर्ष माना गया है। कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर प्रायश्चित्तों की चर्चा के प्रसङ्ग में यह भी विचारणीय है कि क्या को आगमों का संस्कृत भाषा में रूपान्तरण करने के प्रयत्न पर १२ जैन-सङ्घ में समान अपराधों के समान दण्ड की व्यवस्था है या एक वर्ष का पारांचिक प्रायश्चित्त दिया गया था। विभिन्न पारांचिक प्रायश्चित्त ही समान अपराध के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग दण्ड दिया के अपराधों और उनके प्रायश्चित्तों का विवरण हमें जीतकल्प भाष्य जा सकता है। जैन विचारकों के अनुसार एक ही प्रकार के अपराध की गाथा २५४० से २५८६ तक मिलता है। विशिष्ट विवरण के । के लिए सभी प्रकार के व्यक्तियों को एक ही समान दण्ड नहीं दिया इच्छुक विद्वद्जनों को वहाँ उसे देख लेना चाहिए।
जा सकता। प्रायश्चित्त के कठोर और मृद होने के लिए व्यक्ति की
सामाजिक स्थिति एवं वह विशेष परिस्थिति भी विचारणीय है जिसमें प्रायश्चित्त देने का अधिकार
कि वह अपराध किया गया है। उदाहरण के लिए एक ही प्रकार के सामान्यतः प्रायश्चित्त देने का अधिकार आचार्य या गणि का माना अपराध के लिए जहाँ सामान्य भिक्षु या भिक्षुणी को अल्प दण्ड की गया है। सामान्य व्यवस्था के अनुसार अपराधी को अपने अपराध व्यवस्था है। वहीं श्रमण-सङ्घ के पदाधिकारियों को अर्थात् प्रवर्तिनी, के लिए आचार्य के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और । प्रवर्तक, गणि, आचार्य आदि को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था है। आचार्य को भी परिस्थिति और अपराध की गुरुता का विचार कर उसे पुन: जैन आचार्य यह भी मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति स्वत: प्रेरित प्रायश्चित्त देना चाहिए। इस प्रकार दण्ड या प्रायश्चित्त देने का सम्पूर्ण होकर कोई अपराध करता है और कोई व्यक्ति परिस्थितियों से बाध्य अधिकार आचार्य, गणि या प्रवर्तक को होता है। आचार्य या गणि होकर अपराध करता है तो दोनों के लिए अलग-अलग प्रकार के प्रायश्चित्त की अनुपस्थिति में उपाध्याय, उपाध्याय की अनुपस्थिति में प्रवर्तक की व्यवस्था है। यदि हम मैथुन सम्बन्धी अपराध को लें तो जहाँ अथवा वरिष्ठ मुनि जो छेद-सूत्रों का ज्ञाता हो, प्रायश्चित्त दे सकता बलात्कार की स्थिति में भिक्षुणी के लिए किसी दण्ड की व्यवस्था
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्ध - जैन दर्शन नहीं है किन्तु उस स्थिति में भी यदि वह सम्भोग का आस्वादन लेती से विचार किया गया है कि कठोर अपराध को करने वाला व्यक्ति है तो उसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था है। अत: एक ही प्रकार के भी यदि रुग्ण हो, अतिवृद्ध हो, विक्षिप्त चित्त हो, उन्माद या उपसर्ग अपराध हेतु दो भिन्न व्यक्तियों व परिस्थितियों में अलग-अलग प्रायश्चित्त से पीड़ित हो, उसे भोजन-पानी आदि सुविधापूर्वक न मिलता हो अथवा का विधान किया गया है। यही नहीं जैनाचार्यों ने यह भी विचार किया मुनि-जीवन की आवश्यक सामग्री से रहित हो तो ऐसे भिक्षुओं को है कि अपराध किसके प्रति किया गया है। एक सामान्य साधु के प्रति तत्काल सङ्घ से बहिष्कृत करना अथवा बहिष्कृत करके शुद्धि के लिए किए गये अपराध की अपेक्षा आचार्य के प्रति किया गया अपराध कठोर तप आदि की व्यवस्था देना समुचित नहीं है। अधिक दण्डनीय है। जहाँ सामान्य व्यक्ति के लिए किये गये अपराध को मृदु या अल्प दण्ड माना जाता है वहीं श्रमण-सङ्घ के आधुनिक दण्ड-सिद्धान्त और जैन प्रायश्चित्त-व्यवस्था किसी पदाधिकारी के प्रति किये गये अपराध को कठोर दण्ड के योग्य जैसा कि हमने प्रारम्भ में ही स्पष्ट किया है कि दण्ड और प्रायश्चित्त माना जाता है।
की अवधारणाओं में एक मौलिक अन्तर है। जहाँ प्रायश्चित्त अन्त:प्रेरणा इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन प्रायश्चित्त-विधान या दण्ड-प्रक्रिया से स्वतः लिया जाता है, वहाँ दण्ड व्यक्ति को बलात् दिया जाता में व्यक्ति या परिस्थति के महत्त्व को ओझल नहीं किया है और माना है। अत: आत्मशुद्धि तो प्रायश्चित्त से ही सम्भव है, दण्ड से नहीं। है कि व्यक्ति और परिस्थति के आधार पर सामान्य और विशेष व्यक्तियों दण्ड में तो प्रतिशोध, प्रतिकार या आपराधिक प्रवृत्ति के निरोध का को अलग-अलग प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, जबकि सामान्यतया दृष्टिकोण ही प्रमुख होता है। बौद्ध-परम्परा में इस प्रकार के विचार का अभाव देखते हैं। हिन्दू-परम्परा पाश्चात्य विचारकों ने दण्ड के तीन सिद्धान्त प्रतिपादित यद्यपि प्रायश्चित्त के सन्दर्भ में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का मूल्याङ्कन किये हैं - करती है किन्तु उसका दृष्टिकोण जैन-परम्परा से बिल्कुल विपरीत दिखाई (१) प्रतिकारात्मक सिद्धान्त, (२) निरोधात्मक सिद्धान्त, देता है। जहाँ जैन-परम्परा उसी अपराध के लिए प्रतिष्ठित व्यक्तियों (३) सुधारात्मक सिद्धान्त। प्रथम प्रतिकारात्मक सिद्धान्त यह मानकर एवं पदाधिकारियों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था करती है वहीं चलता है कि दण्ड के समय अपराध की प्रतिशत की जाती है। अर्थात् हिन्दू-परम्परा आचार्यों, ब्राह्मणों आदि के लिए मृदु-दण्ड की व्यवस्था अपराधी ने दूसरे की जो क्षति की है उसकी परिपूर्ति करना या उसका करती है। उसमें एक समान अपराध करने पर भी शूद्र को कठोर दण्ड बदला देना ही दण्ड का मुख्य उद्देश्य है। "आँख के बदले आँख" दिया जाता है और ब्राह्मण को अत्यन्त मृदु-दण्ड दिया जाता है। दोनों और “दाँत के बदले दाँत", ही इस दण्ड सिद्धान्त की मूलभूत अवधारणा परम्पराओं में यह दृष्टिभेद विशेष रूप से द्रष्टव्य है। बृहत्कल्पभाष्य है। इस प्रकार की दण्ड-व्यवस्था से न तो समाज के अन्य लोग की टीका में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि जो पद जितना आपराधिक प्रवृत्तियों से भयभीत होते हैं और न उस व्यक्ति का जिसने उत्तरदायित्वपूर्ण होता है उस पद के धारक व्यक्ति को उतना ही कठोर अपराध किया है, कोई सुधार ही होता है। दण्ड दिया जाता था। उदाहरण के रूप में भिक्षुणियों का नदी-तालाब अपराध का दूसरा निरोधात्मक सिद्धान्त मूलत: यह मानकर चलता के किनारे ठहरना, वहाँ स्वाध्याय आदि करना निषिद्ध है। उस नियम है कि अपराधी को दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि उसने अपराध का उल्लङ्घन करने पर जहाँ स्थविर को मात्र षट्लघु, भिक्षुणी कोषट्गुरु किया है अपितु इसलिए दिया जाता है कि दूसरे लोग अपराध करने प्रायश्चित्त दिया जाता है, वहाँ गणिनी को छेद और प्रवर्तिनी को मूल का साहस न करें। समाज में आपराधिक प्रवृत्ति को रोकना ही दण्ड प्रायश्चित्त देने का विधान है। सामान्य साधु की अपेक्षा आचार्य के का उद्देश्य है। इसमें छोटे अपराध के लिए भी कठोर दण्ड की व्यवस्था द्वारा वही अपराध किया जाता है तो आचार्य को कठोर दण्ड दिया होती है। किन्तु इस सिद्धान्त में अपराध करने वाले व्यक्ति को समाज जाता है।
के दूसरे व्यक्तियों को आपराधिक प्रवृत्ति से भयभीत करने के लिए
साधन बनाया जाता है। अत: दण्ड का यह सिद्धान्त न्यायसङ्गत नहीं बार-बार अपराध या दोष-सेवन करने पर अधिक दण्ड कहा जा सकता। इसमें दण्ड का प्रयोग साध्य के रूप में नहीं अपितु
जैन-परम्परा में प्रथम बार अपराध करने की अपेक्षा दूसरी बार साधन के रूप में किया जाता है। या तीसरी बार उसी अपराध को करने पर कठोर प्रायश्चित्त की व्यवस्था दण्ड का तीसरा सिद्धान्त सुधारात्मक सिद्धान्त है, इस सिद्धान्त की गई है। यदि कोई भिक्षु या भिक्षुणी एक नियम का बार-बार अतिक्रमण के अनुसार अपराधी भी एक प्रकार का रोगी है अत: उसकी चिकित्सा करता है तो उस नियम के अतिक्रमण की संख्या में जैसे-जैसे वृद्धि अर्थात् उसे सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार होती जाती है प्रायिश्चत्त मास लघु से बढ़ता हुआ छेद एवं नई दीक्षा दण्ड का उद्देश्य व्यक्ति का सुधार होना चाहिए। वस्तुत: कारागृहों को तक बढ़ जाता है।
सुधारगृहों के रूप में परिवर्तित किया जाना चाहिए ताकि अपराधी
के हृदय को परिवर्तित कर उसे सभ्य नागरिक बनाया जा सके। प्रायश्चित्त देते समय व्यक्ति की परिस्थिति का विचार
यदि हम इन सिद्धान्तों की तुलना जैन-प्रायश्चित्त-व्यवस्था से जैन-दण्ड या प्रायश्चित्त-व्यवस्था में इस बात पर भी पर्याप्त रूप करते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जैन विचारक अपनी
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन प्रायश्चित्त या दण्ड व्यवस्था में न तो प्रतिकारात्मक सिद्धान्त को और तब तक वह आपराधिक प्रवृत्तियों से विमुख नहीं होगा। यद्यपि इस न निरोधात्मक सिद्धान्त को अपनाते हैं अपितु सुधारात्मक सिद्धान्त आत्मग्लानि या अपराधबोध का तात्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति जीवन मे सहमत होकर यह मानते हैं कि व्यक्ति में स्वत: ही अपराधबोध भर इसी भावना से पीड़ित रहे अपितु वह अपराध या दोष को दोष की भावना उत्पन्न करा सकें एवं आपराधिक प्रवृत्तियों से दूर रखकर के रूप में देखे और यह समझे कि अपराध एक संयोगिक घटना अनुशासित किया जाये। वे यह भी स्वीकार करते हैं कि जब तक है और उसका परिशोधन कर आध्यात्मिक-विकास के पथ पर आगे व्यक्ति में स्वत: ही अपराध के प्रति आत्मग्लानि उत्पत्र नहीं होगी बढ़ा जा सकता है।
सन्दर्भ : १. जीतकल्पभाष्य, जिनभद्रगणि, सं० पुण्यविजयजी, अहमदाबाद,
वि०सं० १९९४। २. पंचाशक (हरिभद्र, सं० डॉ० सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ,
वाराणसी १९९७), १६/३ (प्रायश्चित्तपंचाशक)। वही। अभिधानराजेन्द्र कोष, पञ्चम भाग, पृ०८५५। तत्त्वार्थवार्तिक ९/२२/१, पृ० ६२०। वही। मूलाचार, सं०५० पन्नालाल माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला,
बम्बई, वि०सं० १९७७, ५/१६४। ८. वही, ५/१६६। ९. स्थानाङ्ग, सं० मधुकरमुनि, ब्यावर, ३/४७०। १०. वही, ३/४४८। ११. वही, १०/७३। १२. (अ) स्थानाङ्ग, १०/७३।
(ब) जीतकल्पसूत्र, ४, जीतकल्पभाष्य,गाथा ७१८-७२९। (स) धवला, १३/५, २६/६३/१।
१३. मूलाचार, ५/१६५। १४. तत्वार्थसूत्र, उमास्वाति, ९/२२। १५. जीतकल्पभाष्य २५८६, जीतकल्प, १०२। १६. स्थानाङ्ग, १०/६९। १७. स्थानाङ्ग, १०/७१। १८. स्थानाङ्ग, १०/७२। १९. व्यवहारसूत्र, १/१/३३। २०. (अ) स्थानाङ्ग, १०/७०।
(ब) मूलाचार, ११/१५। २१. जीतकल्प ६, देखें- जीतकल्पभाष्य,गाथा ७३१-७५७। २२. योगशास्त्र-स्वोपज्ञवृत्ति, ३। २३. आवश्यक टीका, उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ० ८७। २४. स्थानाङ्ग सूत्र, ६/५३८ । २५. आवश्यकनियुक्ति, १२५०-१२६८।
सूचना-यापनीय परम्परा में पिण्डछेदशास्त्र और छेदशास्त्र ऐसे दो ग्रन्थ है जिनमें प्रायश्चित्तों का विवेचन है।
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नीति के मानवतावादी सिद्धान्त और जैन आचार दर्शन
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'मानवतावाद' सामान्य रूप से स्वाभाविक इच्छाओं का सर्वथा दमन उचित नहीं मानता, वरन् उनका संयमन आवश्यक मानता है। वह संयम का पक्षधर है, दमन का नहीं। उसके अनुसार सच्चा नैतिक जीवन इच्छाओं के दमन में नहीं, अपितु उसके नियमन या नियन्त्रण में है।
मानवतावाद में नैतिकता का प्रत्यय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, यही कारण है कि मानवतावाद को आचारशास्त्रीय धर्म कहा जाता है। मानवतावादी सिद्धान्त नैतिकता को मानव की सांस्कृतिक चेतना के विकास में देखते हैं। सांस्कृतिक चेतना का विकास ही नैतिकता का आधार है। सांस्कृतिक विकास एवं नैतिक जीवन मानवीय गुणों के विकास में हैं। मानवतावादी चिन्तन में मनुष्य ही नैतिक मूल्यों का मापदण्ड है और मानवीय गुणों का विकास ही नैतिकता है मानवतावादी विचारकों की एक लम्बी परम्परा है। प्लेटो और अरस्तू से लेकर लेमान्ट, जाकमारिता तथा समकालीन विचारकों में रसल, वारनर फिटे, सी०बी० गर्नेट और इस्राइल लेविन प्रभृति विचारक इस परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। यद्यपि उपरोक्त सभी विचारक मानवीय गुणों के विकास के संदर्भ में ही नैतिकता के प्रत्यय को देखते हैं फिर भी प्राथमिक मानवीय गुण क्या है, इस सम्बन्ध में उनमें मतभेद है। समकालीन मानवतावादी विचारकों में इसी प्रश्न को लेकर प्रमुख रूप से तीन वर्ग हैं, जिन्हें क्रमश: आत्मचेतनतावाद, विवेकवाद और आत्मसंयमवाद कहा जा सकता है। इन तीनों ही मान्यताओं का जैनदर्शन के साथ निकट सम्बन्ध देखा जा सकता है, लेकिन इसके पहले कि हम इनके साथ जैन दर्शन की तुलना करें, मानवतावाद की कुछ सामान्य प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में जैन दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है।
सर्वप्रथम मानतावादी विचार - परम्परा सहानुभूति के प्रत्यय को ही नैतिकता का आधार बनाती है। मानवतावाद के अनुसार मनुष्य का परम प्राप्तव्य इसी जगत् में केन्द्रित हैं और इसीलिए वह अपने नैतिक दर्शन को किसी पारलौकिक सुख-कामना पर आधृत नहीं करता। उसके अनुसार नैतिक होने के लिए किसी पारलौकिक आदर्श या साध्य के प्रति निष्ठा की आवश्यकता नहीं है, वरन् मनुष्य में निहित सहानुभूति का तत्त्व ही उसे नैतिकता के प्रति आस्थावान् बनाये रखने के लिए पर्याप्त है। वह नैतिकता को प्रलोभन और भय के आधार पर खड़ा नहीं कर, मानव में निहित सहानुभूति के तत्त्व पर खड़ा करता है। उसके अनुसार नैतिक होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम किसी पारलौकिक सत्ता (ईश्वर) अथवा कर्म के नियम जैसे किसी सिद्धान्त पर आस्था रखें। उसके अनुसार मानवीय प्रकृति में निहित सहानुभूति का तत्त्व ही नैतिक होने के लिए पर्याप्त है।
यदि हम इस प्रश्न पर जैन दर्शन का दृष्टिकोण जानना चाहें
तो जैन दर्शन भी प्राणी में निहित सहानुभूति के तत्त्व को स्वीकार करता है (परस्परोपग्रहो जीवानाम् तत्त्वार्थ, ५/२१) तथापि वह कर्मनियम पर भी अपनी आस्था प्रकट करके चलता है। इस सहानुभूति के तत्त्व के साथ-साथ कर्म सिद्वान्त को भी नैतिकता का आधार बनाता है।
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मानवतावाद सांसारिक हित साधन पर बल देता है और पारलौकिक सुख-कामना को व्यर्थ मानता है, यद्यपि वह मनुष्य को स्थूल सुखों तक सीमित नहीं रखता है, किन्तु कला, साहित्य, मैत्री और सामाजिक सम्पर्क के सूक्ष्म सुखों को भी स्थान देता है। लेमान्ट परम्परावादी और मानतावादी आधार दर्शन में निषेधात्मक और विधानात्मक दृष्टि से भेद स्पष्ट करता है उसके अनुसार परम्परावादी नैतिक दर्शन में वर्तमान के प्रति उदासीनता और परलोक में सुख प्राप्त करने की जो इच्छा होती है, वह निषेधात्मक है। इसके विपरीत मानवतावाद इस जीवन के प्रति आस्था रखता है और उसे सुखी बनाना चाहता है, यह विधायक है।
तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करते समय हम यह पाते हैं कि यद्यपि जैन दर्शन पारलौकिकता के प्रत्यय को स्वीकार करता है और भावी जीवन के अस्तित्व में आस्था भी रखता है, लेकिन इस आधार पर उसे निषेधात्मक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह वर्तमान जीवन के प्रति उदासीनता नहीं रखता है। जैन दार्शनिक स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि नैतिक साधना का पारलौकिक सुख की कामना से कोई सम्बन्ध नहीं है, वरन् पारलौकिक सुख-कामना के आधार पर किया गया नैतिक कर्म दूषित है। वे नैतिक साधना को न ऐहिक सुखों के लिए और न पारलौकिक सुखों के लिए मानते हैं वरन् उनके अनुसार तो नैतिक साधना का एकमात्र साध्य आत्म-विकास या आत्मपूर्णता है। बुद्ध ने भी स्पष्ट रूप से यह बताया है कि नैतिक जीवन का साध्य पारलौकिक सुख की कामना नहीं है। गीता में भी फलाकांक्षा के रूप में पारलौकिक सुख की कामना को अनुचित ही कहा गया है।
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जैन- विचारणा नैतिक जीवन के लिए अपनी दृष्टि वर्तमान पर ही केन्द्रित करती है और कहती है कि
गत वस्तु सोचे नहीं आगत वांछा नाय । वर्तमान में वर्ते सही सो ज्ञानी जग माय ।
आलोचना पाठ जो भूत के सम्बन्ध में कोई शोक नहीं करता और भविष्य के सम्बन्ध में जिसकी कोई अपेक्षाएँ नहीं हैं, जो मात्र वर्तमान में ही अपने जीवन को जीता है, वही सच्चा ज्ञानी है। विशुद्ध वर्तमान में जीवन जीना जैन- परम्परा का नैतिक आदर्श रहा है। अतः वह वर्तमान के प्रति उदासीन नहीं है, फिर भी इस अर्थ में वह मानवतावादी विचारकों
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
के साथ भी है और वह परलोक के प्रत्यय से इन्कार नहीं करती। भगवान् बुद्ध ने भी अजातशत्रु को यही बताया था कि मेरे धर्म की साधना का केन्द्र पारलौकिक जीवन नहीं, वरन् यही जीवन है।
मानवतावाद सामान्य रूप से स्वाभाविक इच्छाओं का सर्वथा दमन उचित नहीं मानता वरन् उसका संयमन आवश्यक मानता है। वह संयम का समर्थक है, दमन का नहीं उसके अनुसार सच्चा नैतिक जीवन इच्छाओं के दमन में नहीं वरन् उनके संयमन में है ।
तुलनात्मक दृष्टि से यदि हम इस पर विचार करें तो यह पाते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शन भी दमन के प्रत्यय को स्वीकार नहीं करते हैं। उनमें भी इच्छाओं का दमन अनुचित माना गया है। जैन दर्शन में क्षायिक एवं औपशमिक साधना की दो श्रेणियाँ मानी गयी हैं। इनमें भी केवल क्षायिक श्रेणी का साधक ही आत्मपूर्णता को प्राप्त कर सकता है; उपशम श्रेणी का साधक तो साधना की ऊँचाई पर पहुंचकर भी पतित हो जाता है। इस प्रकार वह भी दमन को अस्वीकार करता है और केवल संयम को स्थान देता है। इस अर्थ में वह मानववादी विचारणा के साथ है।
मानवतावाद कर्म के औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण समाज पर उसके परिणाम के आधार पर करता है लेमान्ट के अनुसार कर्म-प्रेरक और कर्म में विशेष अन्तर नहीं है। कोई भी क्रिया बिना प्रेरणा के नहीं होती है और जहाँ प्रेरणा होती है, वहाँ कर्म भी होता है । तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार करते समय हम यह पाते हैं कि बौद्ध दर्शन और गीता स्पष्ट रूप से कर्म के औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण कर्मप्रेरक के आधार पर करते हैं, कर्म-परिणाम के आधार पर नहीं और इस आधार पर वे मानवतावाद से कोई साम्य नहीं रखते। जहाँ तक जैन दर्शन का प्रश्न है, वह व्यवहार दृष्टि से कर्म- परिणाम को और निक्षय दृष्टि से कर्म-प्रेरक को औचित्य अनौचित्य के निर्णय का आधार बनाता है। इस प्रकार उसकी मानवतावाद से इस सम्बन्ध में आंशिक समानता है।
मानवतावाद मनुष्य को ही समग्र मूल्यों का मानदण्ड स्वीकार करता है। इस प्रकार वह मानवीय जीवन को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करता है। यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न को देखें तो हमें यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना होगा कि भारतीय परम्परा भी मानवीय जीवन के महत्त्व को स्वीकार करती है। जैन आगमों में मानव जीवन को दुर्लभ बताया गया है। आचार्य अमितगति ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जीवन में मनुष्य का जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है 'धम्मपद' में भगवान् बुद्ध ने भी मनुष्य जन्म को दुर्लभ बताया है । 'महाभारत' में व्यास ने भी यही कहा है कि यदि कोई रहस्यमय बात है तो वह यह है कि मनुष्य से श्रेष्ठ और कोई नहीं है। तुलसीदासजी ने इसी तथ्य को यह कहकर प्रकट किया है कि- 'बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रन्यन्हिं गावा'। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय चिन्तन में भी मनुष्य जीवन के सर्वोच्च मूल्य को स्वीकार किया गया है यहाँ हम पाते हैं कि मानवतावादी विचार परम्परा की जैन दर्शन से तथा सामान्य रूप से भारतीय दर्शन से निकटता है। समकालीन
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मानवतावादी विचारणा में प्राथमिक मानवीय गुण के प्रश्न को लेकर प्रमुख रूप से तीन विचारधाराएँ प्रचलित है। जैन आचार-दर्शन के साथ इनका तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए हम इन तीनों पर अलग-अलग विचार करेंगे।
आत्मचेतनावादी दृष्टिकोण और जैनदर्शन
मानवतावादी विचारकों में आत्मचेतनता या आत्मजागृति को ही नैतिकता का आधार और प्राथमिक मानवीय गुण मानने वाले विचारकों में वारनरफिटे प्रमुख हैं। वारनरफिटे नैतिकता को आत्मचेतनता का सहगामी मानते हैं उनकी दृष्टि में नैतिकता का परिभाषक उस समय सामाजिक प्रक्रिया में नहीं है, जिसमें मनुष्य जीवन जीता है, वरन् आत्मचेतना की उस मानवीय प्रक्रिया में है, जो व्यक्ति के जीवन में रही हुई है। वस्तुतः नैतिकता आत्मचेतन जीवन जीने में है उनका कथन है कि जीवन के समग्र मूल्य जीवन की चेतना में निहित है। यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जो जीवन के किन्ही भी मूल्यों की अवधारणा कर सकता है। चेतना के नियंत्रण में जो जीवन है, वही सच्चा जीवन है। नैतिक होने का अर्थ यह जानना है कि हम क्या कर रहे हैं? जागृत चेतना नैतिकता है और प्रसुप्त चेतना अनैतिकता है। शुभ एवं उचित कार्य यह नहीं, जिसमें आत्मविस्मृति होती है। वरन् वह है जिसमें आत्मचेतना होती है।"
नैतिकता का यह आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण जैन आचार दर्शन के अति निकट है। वारनरफिटे की नैतिक दर्शन की यह मान्यता अति स्पष्ट रूप में जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों में उपलब्ध है। फिटे जिसे आत्मचेतना कहते हैं, उसे जैन दर्शन में अप्रमत्तता या आत्मजागृति कहा गया है। जैन दर्शन के अनुसार प्रमाद आत्मविस्मृति की अवस्था है। जैन दर्शन में प्रमाद को अनैतिकता का प्रमुख कारण माना गया है। जो भी क्रियाएँ प्रमाद के कारण होती हैं या प्रमाद की अवस्था में की जाती हैं वे सभी अनैतिक मानी गयी हैं। 'आचारांग' में महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो प्रसुप्त चेतना वाला है। वह अमुनि (अनैतिक) है और जो जाग्रत चेतना वाला है वह मुनि (नैतिक) है। 'सूत्रकृतांग' में प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहकर यही बताया गया है कि जो क्रियाएं आत्मविस्मृति लाती हैं, वे बन्धनकारक हैं और इसलिए अनैतिक भी है।" इसके विपरीत जो क्रियाएँ अप्रमत्त चेतना की अवस्था में सम्पन्न होती हैं, वे अबन्धकारक होती हैं और इस रूप में पूर्णतया विशुद्ध और नैतिक होती हैं। इस प्रकार हम देखते है कि वारनर फिटे का आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण जैन दर्शन के अति निकट है।
न केवल जैनदर्शन में वरन् श्रद्धदर्शन में भी आत्मचेतनता को नैतिकता का प्रमुख आधार माना गया है। 'धम्मपद' में बुद्ध स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अप्रमाद अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का । ६ बौद्धदर्शन में अष्टांग साधना मार्ग में सम्यक् स्मृति भी इसी बात को स्पष्ट करती है कि आत्मस्मृति या जागृत चेतना ही नैतिकता का आधार है, जबकि आत्मविस्मृति या प्रसुप्त चेतना अनैतिकता का आधार है। [ ८९
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन बुद्ध नन्द को उपदेश देते हुए कहते हैं कि जिसके पास स्मृति नहीं गनेंट ने आचरण में विवेक के लिए उन समग्र परिस्थितियों एवं है उसे आर्यसत्य कहाँ से प्राप्त होगा। इसलिए चलते हुए 'चल रहा सभी पक्षों का विचार आवश्यक माना है जिनमें कर्म किया जाना है। हैं', खड़े होते हुए 'खड़ा हो रहा हूँ' एवं इसी प्रकार दूसरे कार्य करते वह कर्म के सभी पक्षों पर विचार आवश्यक मानता है, जिसे हम समय अपनी स्मृति बनाये रखो। इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध जैन-दर्शन के अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के द्वारा सम्यक् प्रकार से भी आत्मचेतनता को नैतिक जीवन का केन्द्र स्वीकार करते हैं। स्पष्ट कर सकते हैं। जैन-दर्शन की अनेकान्तवादी धारणा भी यही
गीता में भी सम्मोह से, स्मृति-विनाश और स्मृतिविन्यास से। निर्देश देती है कि विचार के क्षेत्र में हमें एकांगी दृष्टिकोण रखकर बुद्धि-नाश कहकर यही बताया गया है कि आत्मचेतना नैतिक जीवन
निर्णय नहीं लेना चाहिए वरन् एक सर्वांगीण दृष्टिकोण रखना चाहिए। के लिए एक आवश्यक तथ्य है।
इस प्रकार गर्नेट का सभी पक्षों के विचार का प्रत्यय जैन-दर्शन के
अनेकान्तवादी सर्वांगीण दृष्टिकोण से अधिक दूर नहीं है। विवेकवाद' और जैनदर्शन ।
मानवतावादी विचारकों में दूसरा वर्ग विवेक को प्राथमिक मानवीय आत्मसंयम का सिद्धान्त और जैनदर्शन गुण स्वीकार करता है। सी०बी०गर्नेट और इस्राइल लेविन के अनुसार मानवतावादी नैतिक दर्शन के तीसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व इरविंग नैतिकता विवेकपूर्ण जीवन जीने में है। गर्नेट के अनुसार विवेक-संगति बबिट करते हैं। १९ बबिट के अनुसार मानवता एवं नैतिक जीवन का नहीं वरन् जीवन में कौशल या चतुराई का होना है। बौद्धिकता या सार न तो आत्मचेतन जीवन जीने में है और न विवेकपूर्ण जीवन तर्क उसका एक अंग हो सकता है समग्र नहीं। गर्नेट, अपनी पुस्तक में, वरन् वह संयमपूर्ण जीवन या आत्म-अनुशासन में है। बबिट "विज्डम आफ कन्डक्ट" में प्रज्ञा को ही सर्वोच्च सद्गुण मानते हैं आधुनिक युग के संकट का कारण यह बताते हैं कि हमने परम्परागत
और प्रज्ञा या विवेक से निर्देशित जीवन जीने में नैतिकता के सार- कठोर वैराग्यवादी धारणाओं को तोड़ दिया और उनके स्थान पर ठीक तत्त्व की अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके अनुसार नैतिकता की सम्यक् रूप से आदिम भोगवाद को ही प्रस्तुत किया है। वर्तमान युग के विचारकों एवं सार्थक व्याख्या शुभ-उचित कर्तव्य आदि नैतिक प्रत्ययों की व्याख्या ने परम्परागत धारणाओं के प्रतिवाद में एक ऐसी गलत दिशा का चयन में नहीं वरन आचरण में विवेक के सामान्य प्रत्यय में है। आचरण किया है. जिसमें मानवीय हितों को चोट पहुँची है। उनका कथन है में विवेक एक ऐसा तत्त्व है जो नैतिक परिस्थिति के अस्तित्ववान कि मनष्य में निहित वासना रूपी पाप को अस्वीकत करने का अर्थ पक्ष अर्थात् चरित्र, प्रेरणाएँ, आदत, रागात्मकता, विभेदीकरण, उस बराई को ही दृष्टि से ओझल कर देना है, जिसके कारण मानवीय मल्य-निर्धारण और साध्य को दृष्टिगत रखता है। इन सभी पक्षों को सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। मानवीय वासनाएँ पाप पूर्णतया दृष्टि में रखे बिना जीवन में विवेक पूर्ण आचरण की आशा हैं, अनैतिक हैं, इस बात को भूलकर हम मानवीय सभ्यता का ही ही नहीं की जा सकती। आचरण में विवेक एक ऐसी लोचपूर्ण दृष्टि विनाश करेंगे, जबकि उसके प्रति जागृत रहकर हम मानवीय सभ्यता है जो परिस्थितियों के सभी पक्षों की सम्यक् विचारणा के साथ खोज का विकास कर सकेंगे। बबिट बहुत ही ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं करती हुई सुयोग्य चुनावों को करती है। लेविन ने आचरण में विवेक कि हम में जैविक प्रवेग तो बहुत हैं, आवश्यकता है जैविक नियंत्रण का तात्पर्य एक समायोजनात्मक क्षमता से माना है। उसके अनुसार की। हमें अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करना चाहिए। केवल सहानुभूति नैतिक होने का अर्थ मानव की मूलभूत क्षमताओं की अभिव्यक्ति है। के नाम पर सामाजिक एकता नहीं आ सकती। मनुष्यों को सहानुभूति
गर्नेट और लेविन के इन दृष्टिकोणों की तुलना जैन आचार-दर्शन के सामान्य तत्त्व के आधार पर नहीं वरन् अनुशासन के सामान्य तत्त्व के साथ करने पर हम पाते हैं कि आचरण में विवेक का प्रत्यय जैन. के आधार पर ही एक दूसरे के निकट लाया जा सकता है। सहानुभूति विचारणा एवं अन्य सभी भारतीय विचारणाओं में भी स्वीकृत रहा के विस्तार का नैतिक दर्शन केवल भावनात्मक मानवतावाद की स्थापना है। जैन विचारकों ने सम्यग्ज्ञान के रूप में जो साधना-मार्ग बताया करता है, जबकि आवश्यकता ऐसे ठोस मानवतावाद की है जो है वह केवल तार्किक ज्ञान नहीं है वरन् एक विवेकपूर्ण दृष्टि है। जैन- अनुशासन पर बनता है। परम्परा में आचरण में विवेक के लिए या विवेकपूर्ण आचरण के लिए तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए हम यह पाते हैं कि सभी 'यतना' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'दशवैकालिक सूत्र' में स्पष्ट रूप समालोच्य आचार-दर्शन संयम के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं। जैनसे यह बताया गया है कि जो जीवन की विभिन्न क्रियाओं को विवेक दर्शन नैतिक पूर्णता के लिए संयम का आवश्यक मानता है। उसके या सावधानीपूर्वक सम्पादित करता है वह अनैतिक आचरण नहीं करता त्रिविध साधना-पथ में सम्यक् आचारण को भी वही मूल्य है जो विवेक है। बौद्ध-परम्परा में भी यही दृष्टिकोण स्वीकृत रहा है। बुद्ध ने भी और भावना का है। 'दशवैकालिकसूत्र' में धर्म को अहिंसा, संयम 'अङ्गत्तरनिकाय' में महावीर के समान ही इसे प्रतिपादित किया है। और तपोमय बताया है। वस्तुत: अहिंसा और तप भी संयम के गीता में कर्म-कौशल को ही योग कहा गया है जो कि विवेक-दृष्टि पोषक ही हैं और इस अर्थ में संयम ही एक महत्त्वपूर्ण अंग है। का सूचक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समालोच्य आचार-दर्शनों जैन भिक्षु-जीवन और गृहस्थ-जीवन में संयम या अनुशासन को सर्वत्र में भी आचरण में विवेक का प्रत्यय स्वीकृत रहा है।
ही महत्त्व दिया गया है। महावीर के सम्पूर्ण उपदेश का सार असंयम
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से निवृत्ति और संयम में प्रवृति है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि बबट का यह दृष्टिकोण जैन दर्शन के अति निकट है। उसका यह कहना कि वर्तमान युग में संकट का कारण संयमात्मक मूल्यों का हास है, जैन दर्शन को स्वीकार है। वस्तुतः आत्मसंयम और अनुशासन आज के युग की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है, जिसे इन्कार नहीं किया जा सकता।
न केवल जैन दर्शन में वरन् बौद्ध और वैदिक दर्शन में भी संयम और अनुशासन के प्रत्यय को आवश्यक माना गया है। भारतीय नैतिक चिन्तन में संयम का प्रत्यय एक ऐसा प्रत्यय है जो सभी आचार- दर्शनों में और सभी कालों में स्वीकृत रहा है संयमात्मक जीवन भारतीय संस्कृति की विशेषता रहा है बबिट का यह विचार भारतीय चिन्तन के लिए कोई नया नहीं है।
सन्दर्भ :
१.
२.
४. ५.
देखिये
(अ) समकालीन दार्शनिक चिन्तन, डॉ० हृदयनारायण मिश्र, पृ०
-
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन दर्शन
३००-३२५।
(4) कन्टेम्परेरि एथिकल थ्योरीज, पृ० १७७-१८८१
(अ) माणुस्सं सुदुल्ल उत्तराध्ययनसूत्र ।
(ब) भवेषु मानुष्यभव: प्रधानम् । अमितगति । (स) किच्चे पटिलाभो । मणुस्स (द) गुहां तदिदं ब्रवीमि ।
धम्मपद, १८२ ।
न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् ।
आचाराङ्ग, ११/३| सूत्रकृताङ्ग, १/८/३।
-
महाभारत शान्तिपर्व, २९९/२० ।
समकालीन मानवतावादी विचारकों के उपरोक्त तीनों सिद्धान्त यद्यपि भारतीय चिन्तन में स्वीकृत रहे हैं तथापि भारतीय विचारकों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने इन तीनों को समवेत रूप में स्वीकार किया है। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रूप में, बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप में तथा गीता में श्रद्धा, ज्ञान और कर्म के रूप में प्रकारान्तर से इन्हें स्वीकार किया गया है। फिर भी गीता की श्रद्धा को आत्मचेतनता नहीं कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन के इस विविध साधना पथ में समाधि आत्मचेतनता का, प्रज्ञा विवेक का और शील संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी प्रकार जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन आत्मचेतनता का, सम्यग्ज्ञान विवेक का और सम्यक्चरित्र संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं।
६.
७.
८.
९.
१०.
११.
१२. १३.
धम्मपद, २/१ 1
सौन्दरनन्द, १४/४३-४५ ।
२/६३ ।
गीता,
देखिये
(अ) कण्टेम्परेरि एथिकल थ्योरीज़ पृ० १८१-१८४।
सी० बी० गर्नेट ।
(ब) विज़डम ऑफ कण्डक्ट
दशवैकालिक, ४/८/
बबिट के दृष्टिकोण के लिए देखिये
(अ) कण्टेम्परेर एथिकल थ्योरीज, पृ० १८५ १८६४
(ब) दि ब्रेकडाउन ऑफ इण्टरनेशनलिज्म ।
दशवैकालिक, १ / १ ।
उत्तराध्ययन, ३१ / २।
[ ९९ ] mnan
·
प्रकाशित 'दि नेशन' खण्ड स (८) १९१५ ।
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जैन-आचार में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
निम्रन्थ-परम्परा में सचेलकत्व और अचेलकत्व का प्रश्न अति- किया है। शौरसनी आगम-साहित्य में कसायपाहुड ही एकमात्र ऐसा प्राचीन काल से ही विवाद का विषय रहा है। वर्तमान में जो श्वेताम्बर ग्रन्थ है, जो अपेक्षाकृत प्राचीन स्तर का है, किन्तु दुर्भाग्य से इसमें ।
और दिगम्बर सम्प्रदाय हैं, उनके बीच भी विवाद का प्रमुख बिन्दु यही वस्त्र-पात्र सम्बन्धी कोई भी विवरण उपलब्ध नहीं है। शेष शौरसेनी है। पहले भी इसी विवाद के कारण उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ विभाजित आगम-ग्रन्थों में भगवती-आराधना, मूलाचार और षखण्डागम मूलतः हुआ था और यापनीय सम्प्रदाय अस्तित्व में आया था। दूसरे शब्दों यापनीय-परम्परा के हैं। साथ ही गुणस्थान-सिद्धान्त आदि की परवर्ती में इसी विवाद के कारण जैनों में विभिन्न सम्प्रदाय अर्थात् श्वेताम्बर, अवधारणाओं की उपस्थिति के कारण ये ग्रन्थ भी विक्रम की छठी दिगम्बर और यापनीय निर्मित हुए हैं। यह समस्या मूलत: मुनि-आचार शती के पूर्व के नहीं माने जा सकते हैं, फिर भी प्रस्तुत चर्चा में से ही सम्बन्धित है, क्योकि गृहस्थ उपासक, उपासिकाएँ और साध्वियाँ इनका उपयोग इसलिये आवश्यक है कि अचेल पक्ष को प्रस्तुत करने । तो तीनों ही सम्प्रदायों में सचेल (सवस्त्र) ही मानी गई हैं। के लिये इनके अतिरिक्त अन्य कोई प्राचीन स्रोत-सामग्री हमें उपलब्ध
मुनियों के सम्बन्ध में दिगम्बर-परम्परा की मान्यता यह है कि नहीं है। जहाँ तक कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का प्रश्न है, उनमें सुत्तपाहुड मात्र अचेल (नग्र) ही मुनि पद का अधिकारी है। जिसके पास वस्त्र एवं लिंगपाहुड को छोड़कर यह चर्चा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है। है, चाहे वह लँगोटी मात्र ही क्यों न हो, वह मुनि नहीं हो सकता ये ग्रन्थ भी छठी शती के पूर्व के नहीं हैं। दुर्भाग्य यह है कि अचेल है। इसके विपरीत श्वेताम्बरों का कहना है कि मुनि अचेल (नग्न) परम्परा के पास सचेलकत्व और अचेलकत्व की इस परिचर्चा के लिये
और सचेल (सवस्त्र) दोनों हो सकते हैं। साथ ही वे यह भी मानते छठी शती के पूर्व की कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं है। यद्यपि हैं कि वर्तमान काल की परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिसमें मुनि का अचेल दिगम्बर-परम्परा इन ग्रन्थों का काल प्रथम-द्वितीय शताब्दी नहीं (नग्र) रहना उचित नहीं है। इन दोनों परम्पराओं से भिन्न यापनीयों मानती है। की मान्यता यह है कि अचेलता ही श्रेष्ठ मार्ग है, किन्तु आपवादिक जहाँ तक अन्य परम्पराओं के प्राचीन स्रोतों का प्रश्न है, वेदों स्थितियों में मुनि वस्त्र रख सकता है। इस प्रकार जहाँ दिगम्बर परम्परा में नग्न श्रमणों या व्रात्यों के उल्लेख तो मिलते है, किन्तु वे स्पष्टत: एकान्त रूप से अचेलकत्व को ही मुनि-मार्ग या मोक्ष-मार्ग मानती निर्ग्रन्थ (जैन) परम्परा के हैं, यह कहना कठिन है। यद्यपि अनेक हिन्दू है, वहाँ श्वेताम्बर परम्परा वर्तमान में जिनकल्प (अचेल-मार्ग) का उच्छेद पुराणों में नग्न जैन श्रमणों के उल्लेख हैं, किन्तु अधिकांश हिन्दू-पुराण दिखाकर सचेलता पर ही बल देती है। यापनीय-परम्परा का दृष्टिकोण तो विक्रम की पाँचवीं-छठी शती या उसके भी बाद के हैं, अत: उनमें इन दोनों अतिवादियों के मध्य समन्वय करता है। वह मानती है कि उपलब्ध साक्ष्य अधिक महत्त्व के नहीं हैं। दूसरे उनमें सवस्त्र और सामान्यतया तो मुनि को अचेल या ना ही रहना चाहिये, क्योंकि निर्वस्त्र दोनों प्रकार के जैन मुनियों के उल्लेख मिल जाते हैं, अत: वस्त्र भी परिग्रह ही है, किन्तु आपवादिक स्थितियों में संयमोपकरण उन्हें इस परिचर्चा का आधार नहीं बनाया जा सकता है। के रूप में वस्त्र रखा जा सकता है। उसकी दृष्टि में अचेलकत्व (नग्नत्व) इस दृष्टि से पालित्रिपिटक के उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और उत्सर्ग-मार्ग है और सचेलकत्व अपवाद-मार्ग है।
किसी सीमा तक सत्य के निकट भी प्रतीत होते हैं। इस परिचर्चा प्रस्तुत परिचर्चा में सर्वप्रथम हम इस विवाद को इसके ऐतिहासिक के हेतु जो आधारभूत प्रामाणिक सामग्री हमें उपलब्ध होती है, वह परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न करेंगे कि यह विवाद क्यों, कैसे और है मथुरा से उपलब्ध प्राचीन जैन मूर्तियाँ और उनके अभिलेख। प्रथम किन परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ?
तो यह सब सामग्री ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी की है। दूसरे इसमें
किसी भी प्रकार के प्रक्षेप आदि की सम्भावना भी नहीं है। अत: यह प्रस्तुत अध्ययन की स्रोत-सामग्री
प्राचीन भी है और प्रामाणिक भी क्योकि इसकी पुष्टि अन्य साहित्यिक इस प्रश्न पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने हेतु हमारे पास स्रोतों से भी हो जाती है। अत: इस परिचर्चा में हमने सर्वाधिक उपयोग जो प्राचीन स्रोत-सामग्री उपलब्ध है, उसमें प्राचीन स्तर के अर्धमागधी इसी सामग्री का किया है। आगम, पालित्रिपिटक और मथुरा से प्राप्त प्राचीन जिन-प्रतिमाओं की पाद-पीठ पर अंकित मुनि-प्रतिमाएँ ही मुख्य हैं। श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा महावीर के पूर्व निर्धन्य-संघ में वस की स्थिति मान्य अर्धमागधी आगमों में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और जैन-अनुश्रुति के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में भगवान् महावीर दशवकालिक ही ऐसे ग्रन्थ हैं जिन्हें इस चर्चा का आधार बनाया जा से पूर्व तेईस तीर्थङ्कर हो चुके थे। अतः प्रथम विवेच्य बिन्दु तो यही सकता है, क्योंकि प्रथम तो ये प्राचीन (ई०पू० के) हैं और दूसरे है कि अचेलता के सम्बन्ध में इन पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों की क्या मान्यताएँ इनमें हमें सम्प्रदायातीत दृष्टिकोण उपलब्ध होता है। अनेक पाश्चात्य थीं? यद्यपि सम्प्रदाय-भेद स्थिर हो जाने के पश्चात् निर्मित ग्रन्थों में विद्वानों ने भी इनकी प्राचीनता एवं सम्प्रदाय-निरपेक्षता को स्वीकार जहाँ दिगम्बर-ग्रन्थ एक मत से यह उद्घोष करते हैं कि सभी जिन
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन अचेल होकर ही दीक्षित होते है, वहाँ श्वेताम्बर -ग्रन्थ यह कहते हैं कि सभी जिन एक देवदृष्य वस्त्र लेकर ही दीक्षित होते हैं। मेरी दृष्टि में ये दोनों ही दृष्टिकोण साम्प्रदायिक अभिनिवेश से युक्त हैं वेताम्बर और यापनीय परम्परा के अपेक्षाकृत प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख मिलता है कि प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर की आचार व्यवस्था मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों की आचार-व्यवस्था से भिन्न थी । " यापनीय ग्रन्थ मूलाचार प्रतिक्रमण आदि के सन्दर्भ में उनकी इस भिन्नता का तो उल्लेख करता है किन्तु मध्यवर्ती तीर्थर सचेल धर्म के प्रतिपादक थे, यह नहीं कहता है जबकि श्वेताम्बर आगम उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से यह भी उल्लेख है कि अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर ने अचेल धर्म का प्रतिपादन किया, जबकि तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने सचेल धर्म का प्रतिपादन किया था।" यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि बृहत्कल्पभाष्य में प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर को अचेल धर्म और मध्यवर्ती बाईस तीर्थरों को सचेल अचेल धर्म का प्रतिपादक कहा गया है।" यद्यपि उत्तराध्ययन स्पष्टतया पार्श्व के धर्म को 'सचेल' अथवा सान्तरोत्तर (संतरुत्तर) ही कहता है, सचेल अचेल नहीं । 'मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के शासन में भी अचेल मुनि होते थे', बृहत्कल्पभाष्य की यह स्वीकारोक्ति उसकी सम्प्रदाय निरपेक्षता की ही सूचक है। यद्यपि दिगम्बर और यापनीय परम्परा श्वेताम्बर मान्य आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं के इन कथनों को मान्य नहीं करती हैं, किन्तु हमें श्वेताम्बर आगमों के इन कथनों में सत्यता परिलक्षित होती है, क्योंकि अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से भी इन कथनों की बहुत कुछ पुष्टि हो जाती है।
यहाँ हमारा उद्देश्य सम्प्रदायगत मान्यताओं से ऊपर उठकर मात्र प्राचीन ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ही इस समस्या पर विचार करना है अतः इस परिचर्चा में हम परवर्ती अर्थात् साम्प्रदायिक मान्यताओं के दृढ़ीभूत होने के बाद के ग्रन्थों को आधार नहीं बना रहे हैं।
महावीर से पूर्ववर्ती तीर्थदूरों में मात्र ऋषभ, अरिष्टनेमि और पार्श्व के कथानक ही ऐसे है, जो ऐतिहासिक महत्त्व के है यद्यपि इनमें भी ऋषभ और अरिष्टनेमि के कथानक प्रागैतिहासिक काल के हैं। वेदों से भी हमें इनके सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी (नामोल्लेख के अतिरिक्त) नहीं मिलती है वेदों में भी ये नाम किस सन्दर्भ में प्रयुक्त हुए हैं, और किसके वाचक हैं, यह तथ्य आज भी विवादास्पद ही है। । इन दोनों के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में जंन एव जैनेतर स्रोतों से भी जो सामग्री उपलब्ध होती है वह ईसा की प्रथम शती के पूर्व की नहीं है।
वेदों एवं ब्राह्मण-ग्रन्थों में व्रात्यों एवं वातरशना मुनियों के जो उल्लेख हैं, उनसे इतना तो अवश्य फलित होता है कि प्रागैतिहासिक काल में नग्न अथवा मलिन एवं जीर्णवस्त्र धारण करने वाले श्रमणों की एक परम्परा अवश्य थी। सिन्धुघाटी सभ्यता की मोहन जोदड़ो एवं हड़प्पा से जो नग्न योगियों के अंकन वाली सीलें प्राप्त हुई हैं।
उनसे भी इस तथ्य की ही पुष्टि होती है कि नग्न एवं मलिन वस्त्र धारण करने वाले श्रमणों/ योगियों / व्रात्यों की एक परम्परा प्राचीन भारत में अस्तित्व रखती थी। उस परम्परा के अग्र पुरुष के रूप में ऋषभ या शिव को माना जा सकता है। किन्तु यह भी ध्यातव्य है कि इन सीलों में उस योगी को मुकुट और आभूषणों से युक्त दर्शाया गया है जिससे उसके नग्न निर्ग्रन्थ मुनि होने के सम्बन्ध में बाधा आती है।" ये अंकन वेताम्बर तीर्थङ्कर मूर्तियों से आंशिक साम्यता रखते हैं, क्योंकि वे अपनी मूर्तियों को आभूषण पहनाते हैं।
ऋषभ का अचेल धर्म
प्राचीन स्तर के अर्धमागधी - आगम उत्तराध्ययन में ऋषभ के नाम का उल्लेख मात्र है, उनके जीवन के सन्दर्भ में कोई विवरण नहीं है इससे अपेक्षाकृत परवर्ती कल्पसूत्र एवं जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में हो सर्वप्रथम उनका जीवनवृत्त मिलता है, फिर भी इनमें उनकी साधना एवं आचार व्यवस्था का कोई विशेष विवरण नहीं है। परवर्ती श्वेताम्बर, दिगम्बर- ग्रन्थों में और उनके अतिरिक्त हिन्दू पुराणों तथा विशेषरूप से भागवत में ऋषभदेव के द्वारा अचेलकत्व के आचरण के जो उल्लेख मिलते हैं, उन सबके आधार पर यह विश्वास किया जा सकता है कि ऋषभदेव अचेल परम्परा के पोषक रहे होंगे।" ऋषभ अचेल धर्म के प्रवर्तक थे, यह मानने में सचेल श्वेताम्बर - परम्परा को भी कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि उसकी भी मान्यता यही है कि ऋषभ और महावीर दोनों ही अचेल धर्म के सम्पोषक थे । १२
ऋषभ के पश्चात् और अरिष्टनेमि के पूर्व मध्य के २० तीर्थङ्करों के जीवनवृत्त एवं आचार-विचार के सम्बन्ध में छठी शती के पूर्व अर्थात् सम्प्रदायों के स्थिरीकरण के पूर्व की कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं है। अर्धमागधी आगमों में मात्र समवायांग में और शौरसेनी के आगम-तुल्य ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति में उनके नाम, माता-पिता, जन्म-मरण आदि सम्बन्धी छिटपुट सूचनाएँ हैं, जो प्रस्तुत चर्चा की दृष्टि से उपयोगी नहीं हैं।
इस प्रकार मध्यवर्ती बाईसवें अरिष्टनेमि एवं सेईसवें पार्श्व ही ऐसे हैं जिनसे सम्बन्धित सूचनाएँ उत्तराध्ययन के क्रमश: बाईसवें एवं तेईसवें अध्ययन में मिलती हैं, किन्तु उनमें भी बाईसवें अध्ययन में अरिष्टनेमि की आचार व्यवस्था का और विशेष रूप से वस्त्र - ग्रहण सम्बन्धी परम्परा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। उत्तराध्ययन के बाईसवें अध्ययन में राजीमति के द्वारा गुफा में वर्षा के कारण भीगा हुआ अपना वस्त्र सुखाने का उल्लेख होने से केवल एक ही तथ्य की पुष्टि होती है कि अरिष्टनेमि की परम्परा में साध्वियों सवस्त्र होती थीं। उस गुफा में साधना में स्थित रथनेमि सबस्त्र थे या निर्वस्त्र ऐसा कोई स्पष्ट संकेत इसमें नहीं है अतः वख सम्बन्धी विवाद में केवल पार्श्व एवं महावीर इन दो ऐतिहासिक काल के तीर्थरों के सम्बन्ध में ही जो कुछ साक्ष्य उपलब्ध होते हैं, उनके आधार पर ही चर्चा की जा सकती है।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - पार्श्व का सचेल-धर्म
तो नग्न ही थे, किन्तु पास में वस्त्र रखते थे, जिसे आवश्यकता होने ___ पार्श्व के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ हमें उपलब्ध हैं उनमें भी प्राचीनता पर ओढ़ लेते थे। किन्तु पण्डितजी की यह व्याख्या युक्तिसंगत नहीं की दृष्टि से ऋषिभाषित (लगभग ई०पू० चौथी-पाँचवीं शती), सूत्रकृतांग है क्योंकि संतरुत्तर से नग्नता किसी भी प्रकार फलित नहीं होती है। (लगभग तीसरी-चौथी शती), उत्तराध्ययन (ई०पू० दूसरी शती), वस्तुत: संतरुत्तर शब्द का प्रयोग आचारांग में तीन वस्त्र रखने वाले आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध (ई०पू० दूसरी शती) एवं भगवती (ई०पू० साधुओं के सन्दर्भ में हुआ है और उन्हें यह निर्देश दिया गया है कि दूसरी शती से लेकर ईसा की दूसरी शती तक) के उल्लेख महत्त्वपूर्ण ग्रीष्म ऋतु के आने पर वे एक जीर्ण-वस्त्र को छोड़कर संतरुत्तर अर्थात् हैं। इनमें भी ऋषिभाषित और सूत्रकृतांग में पार्श्व की वस्त्र-सम्बन्धी दो वस्त्र धारण करने वाले हो जायें। अत: संतरुत्तर होने का अर्थ मान्यताओं की स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं होती। उत्तराध्ययन का तेईसवाँ अन्तरवासक और उत्तरीय ऐसे दो वस्त्र रखना है। अन्तरवस्त्र आजकल अध्ययन ही एकमात्र ऐसा आधार है,जिसमें महावीर के धर्म को अचेल का अंडरवियर अर्थात् गुह्यांग को ढकने वाला वस्त्र है। उत्तरीय शरीर एवं पार्श्व के धर्म को सचेल या संत्तरुत्तर कहा गया है। इससे यह के ऊपर के भाग को ढकने वाला वस्त्र है। 'संतरुत्तर' की शीलांक. स्पष्ट है कि वस्त्र के सम्बन्ध में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भिन्न की यह व्याख्या भी हमें यही बताती है कि उत्तरीय कभी ओढ़ लिया थीं। उत्तराध्ययन की प्राचीनता निर्विवाद है और उसके कथन को जाता था और कभी पास में रख लिया जाता था, क्योंकि गर्मी में अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता। पुन: नियुक्ति, भाष्य आदि परवर्ती सदैव उत्तरीय ओढ़ा नहीं जाता था। अत: संतरुत्तर का अर्थ कभी सचेल आगमिक व्याख्याओं से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है, अतः इस हो जाना और कभी वस्त्र को पास में रखकर अचेल हो जाना नहीं कथन की सत्यता में सन्देह करने का कोई स्थान शेष नहीं रहता है। है। यदि संतरुत्तर होने का अर्थ कभी सचेल और कभी अचेल (नग्न) किन्तु पार्श्व की परम्परा के द्वारा मान्य 'सांतरुत्तर' शब्द का क्या अर्थ होना होता तो फिर अल्पचेल और एकशाटक होने की चर्चा इसी प्रसंग है- यह विचारणीय है। सांतरुत्तर शब्द का अर्थ परवर्ती श्वेताम्बर में नहीं की जाती। तीन वस्त्रधारी साधु एक जीर्ण वस्त्र का त्याग करने आचार्यों ने विशिष्ट, रंगीन एवं बहुमूल्य वस्त्र किया है। उत्तराध्ययन पर सांतरुत्तर होता है। एक जीर्ण वस्त्र का त्याग और दूसरे जीर्ण वस्त्र की टीका में नेमिचन्द्र लिखते हैं- सान्तर अर्थात् वर्धमान स्वामी के जीर्ण भाग को निकालकर अल्प आकार का बनाकर रखने पर की अपेक्षा परिमाण और वर्ण में विशिष्ट तथा उत्तर अर्थात् महामूल्यवान् अल्पचेल, दोनों जीर्ण वस्त्रों का त्याग करने पर एकशाटक अथवा होने से प्रधान, ऐसे वस्त्र जिस परम्परा में धारण किये जायें वह धर्म ओमचेल और तीनों वस्त्रों का त्याग करने पर अचेल होता है। वस्तुतः सान्तरोत्तर है। किन्तु सान्तरोत्तर (संतरुत्तर) शब्द का यह अर्थ समुचित आज भी दिगम्बर - परम्परा का क्षुल्लक सान्तरोत्तर है और ऐलक नहीं है। वस्तुतः जब श्वेताम्बर आचार्य अचेल का अर्थ कुत्सितचेल एकशाटक तथा मुनि नग्न (अचेल) होता है। अत: पार्श्व की सचेल या अल्पचेल करने लगे६, तो यह स्वाभाविक था कि सान्तरोत्तर का सान्तरोततर परम्परा में मुनि दो वस्त्र रखते थे- अधोवस्त्र और उत्तरीय। अर्थ विशिष्ट, महामूल्यवान् रंगीन वस्त्र किया जाए, ताकि अचेल के उत्तरीय आवश्यकतानुसार शीतकाल आदि में ओढ़ लिया जाता था परवर्ती अर्थ में और संतरुत्तर के अर्थ में किसी प्रकार से संगति स्थापित और ग्रीष्मकाल में अलग रख दिया जाता था। की जा सके। किन्तु संतरुत्तर का यह अर्थ शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि आचारांग के नवें उपधानश्रुत नामक अध्याय में महावीर का से उचित नहीं है। इससे इन टीकाकारों की अपनी साम्प्रदायिक जीवनवृत्त वर्णित है। ऐतिहासिक दृष्टि से महावीर की जीवन-गाथा मानसिकता ही प्रकट होती है। संतरुत्तर के वास्तविक अर्थ को आचार्य के सम्बन्ध में इससे प्राचीन एवं प्रामाणिक अन्य कोई सन्दर्भ हमें उपलब्ध शीलांक ने अपनी आचारांग टीका में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया नहीं है। आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र, भगवती और बाद है।१७ ज्ञातव्य है कि संतरुत्तर शब्द उत्तराध्ययन के अतिरिक्त आचारांग के सभी महावीर के जीवन-चारित्र सम्बन्धी ग्रन्थ इससे परवर्ती हैं और के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी आया है।८ आचारांग में इस शब्द का प्रयोग उनमें महावीर के जीवन के सथ जुड़ी अलौकिकताएँ यही सिद्ध करती उन निम्रन्थ मुनियों के सन्दर्भ में हुआ है, जो दो वस्त्र रखते थे। उसमें हैं कि वे महावीर की जीवन-गाथा का अतिरंजित चित्र ही उपस्थित तीन वस्त्र रखने वाले मुनियों के लिये कहा गया है कि हेमन्त के करते हैं। इसलिये महावीर के जीवन के सम्बन्ध में जो भी तथ्य हमें बीत जाने पर एवं ग्रीष्म ऋतु के आ जाने पर यदि किसी भिक्षु के उपलब्ध हैं, वे प्रामाणिक रूप में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के वस्त्र जीर्ण हो गये हों तो वह उन्हें स्थापित कर दे अर्थात् छोड़ दे इसी उपधानश्रुत में उपलब्ध हैं। इसमें महावीर के दीक्षित होने का और सांतरोत्तर अथवा अल्पचेल (ओमचेल) अथवा एकशाटक अथवा जो विवरण है उससे यह ज्ञात होता है कि वे एक वस्त्र लेकर दीक्षित अचेलक हो जाये।१९ यहाँ संतरुत्तर की टीका करते हुए शीलांक कहते हुए थे और लगभग एक वर्ष से कुछ अधिक समय के पश्चात् उन्होंने हैं कि अन्तर-सहित है उत्तरीय (ओढ़ना) जिसका, अर्थात् जो वस्त्र उस वस्त्र का भी परित्याग कर दिया और पूर्णत: अचेल हो गये।२२ को आवश्यकता होने पर कभी ओढ़ लेता है और कभी पास में रख महावीर के जीवन की यह घटना ही वस्त्र के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जैनलेता है।
परम्परा के दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देती है। इसका तात्पर्य इतना ही पं० कैलाशचन्द्रजी ने संतरुत्तर की शीलांक की उपर्युक्त व्याख्या है कि महावीर ने अपनी साधना का प्रारम्भ सचेलता से किया, किन्तु से यह प्रतिफलित करना चाहा है कि पार्श्व की परम्परा के साधु रहते कुछ ही समय पश्चात् उन्होंने पूर्ण अचेलता को ही अपना आदर्श माना।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
परवर्ती आगम ग्रन्थों में एवं उनकी व्याख्याओं में महावीर के एक वर्ष पश्चात् वस्त्र त्याग करने के सन्दर्भ में अनेक प्रवाद या मान्यतायें प्रचलित है। यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना और श्वेताम्बर आगमिक व्याख्याओं में इन प्रवादों या मान्यताओं का उल्लेख है।" यहाँ हम उन प्रवादों में न जाकर केवल इतना ही बता देना पर्याप्त समझते हैं कि प्रारम्भ में महावीर ने वस्त्र लिया था और बाद में वस्त्र का परित्याग कर दिया। वह वस्त्र त्याग किस रूप में हुआ यह अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है।
यदि हम महावीर की समकालीन अन्य श्रमण परम्पराओं की वस्त्र ग्रहण सम्बन्धी अवधारणाओं पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि उस युग में सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों प्रकार की श्रमण परम्पराएँ प्रचलित थीं। उनमें से पार्श्व के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन और उसके परवर्ती साहित्य में जो कुछ सूचनाएं उपलब्ध हैं, उन सबसे एक मत से पार्श्व की परम्परा, सवस्त्र परम्परा सिद्ध होती है। स्वयं उत्तराध्ययन का तेईसवाँ अध्ययन इस बात का साक्षी है कि पार्श्व की परम्परा सचेल परम्परा थी। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा भी सचेल थी। दूसरी ओर आजीवक सम्प्रदाय पूर्णतः अचेलता का प्रतिपादक था। यह सम्भव है कि महावीर ने अपने वंशानुगत पार्श्वापत्यीय परम्परा के प्रभाव से एक वस्त्र ग्रहण करके अपनी साधना - यात्रा प्रारम्भ की हो। कल्पसूत्र में उनके दीक्षित होते समय आभूषण- त्याग का उल्लेख है वस्त्र त्याग का नहीं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि महावीर उत्तर - बिहार के वैशाली जनपद में शीत ऋतु के प्रथम मास (मार्गशीर्ष) में दीक्षित हुए थे। उस क्षेत्र की भयंकर सर्दी को ध्यान में रखकर परिवार के लोगों के अति आग्रह के कारण सम्भवतः महावीर ने दीक्षित होते समय एक वस्त्र स्वीकार किया हो। मेरी दृष्टि में इसमें भी पारिवारिक आग्रह ही प्रमुख कारण रहा होगा। महावीर ने सदैव ही परिवार के वरिष्ठजनों को सम्मान दिया था। यही कारण रहा कि माता-पिता के जीवित रहते उन्होंने प्रव्रज्या नहीं ली। पुनः बड़े भाई के आग्रह से दो वर्ष और गृहस्थावस्था में रहे। सम्भवतः शीत ऋतु में दीक्षित होते समय भाई या परिजनों के आग्रह से उन्होंने वह एक वस्त्र लिया हो। सम्भव है कि विदाई की उस बेला में परिजनों के इस छोटे से आग्रह को ठुकराना उन्हें उचित न लगा हो । किन्तु उसके बाद उन्होंने कठोर साधना का निर्णय लेकर उस वस्त्र का उपयोग शरीरादि ढकने के लिये नहीं करूँगा, ऐसा निश्चय किया और दूसरे वर्ष के शीतकाल की समाप्ति पर उन्होंने उस वस्त्र का भी परित्याग कर दिया। आचारांग से इन सभी तथ्यों की पुष्टि होती है। उसके पश्चात् वे आजीवन अचेल ही रहे, इस तथ्य को स्वीकार करने में श्वेताम्बर वापनीय और दिगम्बर तीनों में से किसी को भी कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। तीनों ही परम्पराएँ एक मत से यह स्वीकार करती है कि महावीर अचेल धर्म के ही प्रतिपालक और प्रवक्ता थे। महावीर का सचेल दीक्षित होना भी स्वैच्छिक नहीं था, वस्त्र उन्होंने लिया नहीं, अपितु उनके कन्धे पर डाल दिया गया था । यापनीय - आचार्य अपराजितसूरि ने इस प्रवाद का उल्लेख किया है— वे कहते हैं कि यह तो उपसर्ग हुआ, सिद्धान्त नहीं। आचारांग में उनके वस्त्र - ग्रहण
को 'अनुधर्म' कहा गया है, अर्थात् यह परम्परा का अनुपालन मात्र था। हो सकता है कि उन्होंने मात्र अपनी कुल परम्परा अर्थात् पार्श्वापत्यपरम्परा का अनुसरण किया हो। श्वेताम्बर आचार्य उसकी व्याख्या में इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र ग्रहण करने की बात कहते हैं। यह मात्र परम्परागत विश्वास है, इस सम्बन्ध में कोई प्राचीन उल्लेख नहीं है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का उपधानश्रुत मात्र वस्त्र ग्रहण की बात कहता है। वह वस्त्र इन्द्र द्वारा प्रदत्त देवद्ष्य था, ऐसा उल्लेख नहीं करता मेरी दृष्टि में इस 'अनुधर्म' में 'अन्' शब्द का अर्थ यही है जो अणुव्रत में 'अणु' शब्द का है अर्थात् आंशिक न्यासग । वस्तुतः महावीर का लक्ष्य तो पूर्ण अचलता का था, किन्तु प्रारम्भ में उन्होंने वस्त्र का आंशिक त्याग ही किया था। जब एक वर्ष की साधना से उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो गया कि वे अपनी काम वासना पर पूर्ण विजय प्राप्त कर चुके हैं और दो शीतकालों के व्यतीत हो जाने से उन्हें यह अनुभव हो गया कि उनका शरीर उस शीत को सहने में पूर्ण समर्थ है, तो उन्होंने वस्त्र का पूर्ण त्याग कर दिया । २४ ज्ञातव्य है कि महावीर ने दीक्षित होते समय मात्र सामायिक चारित्र ही लिया था, महाव्रतों का ग्रहण नहीं किया था । श्वेताम्बर - आगमों का कथन है कि सभी तीर्थङ्गर एक देवदृष्य लेकर सामायिक चारित्र की प्रतिज्ञा से ही दीक्षित होते हैं । २५ यह इसी तथ्य को पुष्ट करता है कि सामायिक चारित्र से दीक्षित होते समय एक वस्त्र ग्रहण करने की परम्परा रही होगी।
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निष्कर्ष यह है कि महावीर की साधना का प्रारम्भ सचेलता से हुआ किन्तु उसकी परिनिष्पत्ति अचेलता में हुई। महावीर की दृष्टि में सचेलता अणुधर्म था और अचेलता मुख्य धर्म था। महावीर द्वारा वस्त्र ग्रहण करने में उनके कुलधर्म अर्थात् पार्श्वापत्य परम्परा का प्रभाव हो सकता है किन्तु पूर्ण अचेलता का निर्णय या तो उनका स्वतःस्फुर्त था या फिर आजीवक परम्परा का प्रभाव। यह सत्य है कि महावीर पार्श्वापत्य परम्परा से प्रभावित रहे हैं और उन्होंने पार्थापत्य परम्परा के दार्शनिक सिद्धान्तों को ग्रहण भी किया है, किन्तु वैचारिक दृष्टि से पार्श्वापत्यों के निकट होते हुए भी आचार की दृष्टि से वे उनसे सन्तुष्ट नहीं थे। पार्श्वापत्यों के शिथिलाचार के उल्लेख और उसकी समालोचना जैनधर्म की सचेल और अचेल दोनों परम्पराओं के साहित्य में मिलती है। यही कारण था कि महावीर ने पार्श्वापत्यों की आचार-व्यवस्था में व्यापक सुधार किये। सम्भव है कि अचलता के सम्बन्ध में वे आजीवकों से प्रभावित हुए हो हर्मन जैकोबी आदि पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस सन्दर्भ में महावीर पर आजीवकों के प्रभाव होने की सम्भावना को स्वीकार किया है।
हमारे कुछ दिगम्बर विद्वान् यह मत रखते हैं कि महावीर की अचेलता से प्रभावित होकर आजीवकों ने अचेलता (नग्नता) को स्वीकार किया, किन्तु यह उनकी भ्रान्ति है और ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य भी नहीं है। चाहे गोशालक महावीर के शिष्य के रूप में उनके साथ लगभग छः वर्ष तक रहा हो, किन्तु न तो गोशालक से प्रभावित होकर महावीर नग्न हुए और न महावीर की नग्नता का प्रभाव गोशालक के माध्यम
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से आजीवकों पर ही पड़ा, क्योंकि गोशालक महावीर के पास उनके दूसरे नालन्दा चातुर्मास के मध्य पहुँचा था, जबकि महावीर उसके आठ मास पूर्व ही अचेल हो चुके थे दूसरे यह कि आजीवकों की परम्परा गोशालक के पूर्व भी अस्तित्व में थी, गोशालक आजीवक परम्परा का प्रवर्तक नहीं था। न केवल भगवतीसूत्र में, अपितु पालित्रिपटक में भी गोशालक के पूर्व हुए आजीवक सम्प्रदाय के आचार्यों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। यदि आजीवक सम्प्रदाय महावीर के पूर्व अस्तित्व में था तो इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि उसकी अचेलता आदि कुछ आचार-परम्पराओं ने महावीर को प्रभावित किया हो। अतः पार्श्वापत्य परम्परा के प्रभाव से महावीर के द्वारा वस्त्र का ग्रहण करना और आजीवक परम्परा के प्रभाव से वस्त्र का परित्याग
करना मात्र काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। उसके पीछे ऐतिहासिक एवं मनोवैज्ञानिक आधार है महावीर का दर्शन पार्थापत्यों से और आचार आजीवकों से प्रभावित रहा है।
जहाँ तक महावीर की शिष्य परम्परा का प्रश्न है यदि गोशालाक को महावीर का शिष्य माना जाए, तो वह अचेल रूप में ही महावीर के पास आया था और अचेल ही रहा जहाँ तक गौतम आदि गणधरों और महावीर के अन्य प्रारम्भिक शिष्यों का प्रश्न है मुझे ऐसा लगता है कि उन्होंने जिनकल्प अर्थात् भगवान् महावीर की अचलता को ही स्वीकार किया होगा, क्योंकि यदि गणधर गौतम सचेल होते या सचेत परम्परा के पोषक होते तो श्रावस्ती में हुई परिचर्चा में केशी उनसे सचलता और अचेलता के सम्बन्ध में कोई प्रश्न ही नहीं करते। अतः श्रावस्ती में हुई इस परिचर्चा के पूर्व महावीर का मुनि संघ पूर्णतः अचेल ही रहा होगा। उसमें वस्त्र का प्रवेश क्रमशः किन्हीं विशेष परिस्थितियों के आधार पर ही हुआ होगा। महावीर के संघ में सचेलता के प्रवेश के निम्नलिखित कारण सम्भावित है
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
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१. सर्वप्रथम जब महावीर के संघ में स्त्रियों को प्रव्रज्या प्रदान की गई तो उन्हें सवस्त्र ही दीक्षित किया गया क्योंकि लोक लज्जा, मासिक धर्म आदि शारीरिक कारणों से उन्हें नग्न रूप में दीक्षित किया जाना उचित नहीं था। अचेलता की सम्पोषक दिगम्बर- परम्परा भी इस तथ्य को स्वीकार करती है कि महावीर के संघ में आर्यिकाएँ सवस्व ही होती थीं जब एक बार आर्थिकाओं के संदर्भ में विशेष परिस्थिति में वस्त्र ग्रहण की स्वीकृति दी गई तो इसने मुनि संघ में भी आपवादिक परिस्थिति में जैसे भगन्दर आदि रोग होने पर वस्त्र ग्रहण का द्वार उद्घाटित कर दिया। सामान्यतया तो वस्त्र परिग्रह ही था किन्तु स्त्रियों के लिये और अपवादमार्ग में मुनियों के लिये उसे संयमोपकरण मान लिया गया।
२. पुनः जब महावीर के संघ में युवा दीक्षित होने लगे होंगे तो महावीर को उन्हें भी सवस्ख रहने की अनुमति देनी पड़ी होगी, क्योंकि उनके जीवन में लिंगोत्थान और वीर्यपात की घटनाएँ सम्भव थी। ये ऐसी सामान्य मनोदेहिक घटनाएँ हैं जिनसे युवा मुनि का पूर्णतः बच पाना असम्भव है। मनोदैहिक दृष्टि से युवावस्था में चाहे कामवासना पर नियन्त्रण रखा जा सकता हो किन्तु उक्त स्थितियों का पूर्ण निर्मूलन
सम्भव नहीं होता है। निर्मन्य संघ में युवा मुनियों में ये घटनाएं घटित होती थीं, ऐसे आगमिक उल्लेख है यदि ये घटनाएँ अरण्य में घटित हों, तो उतनी चिन्तनीय नहीं थीं किन्तु भिक्षा, प्रवचन आदि के समय स्त्रियों की उपस्थिति में इन घटनाओं का घटित होना न केवल उस मुनि की चारित्रिक प्रतिष्ठा के लिये घातक था, बल्कि सम्पूर्ण निर्मन्थ मुनि संघ की प्रतिष्ठा पर एक प्रश्न चिह्न खड़ा करता था। अतः यह आवश्यक समझा गया कि जब तक वासना पूर्णतः मर न जाय, तब तक ऐसे युवा मुनि के लिये नग्न रहने या जिनकल्प धारण करने की अनुमति न दी जाय श्वेताम्बर मान्य आगमिक व्याख्याओं में तो यह स्पष्ट निर्देश है कि ३० वर्ष की वय के पूर्व जिनकल्प धारण नहीं किया जा सकता है सत्य तो यह है कि निर्मन्थ संघ में सचेल और अचेल ऐसे दो वर्ग स्थापित हो जाने पर यह व्यवस्था दी गई कि युवा मुनियों को छेदोपस्थापनीय चारित्र न दिया जाकर मात्र सामायिक चारित्र दिया जाय, क्योंकि जब तक व्यक्ति सम्पूर्ण परिग्रह त्याग करके अचेल नहीं हो जाता, तब तक उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं दिया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि महावीर ने ही सर्वप्रथम सामायिक चारित्र एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र (महाव्रतारोपण) ऐसे दो प्रकार के चारित्रों की व्यवस्था की जो आज भी श्वेताम्बर- परम्परा में छोटी दीक्षा और बड़ी दीक्षा के नाम से प्रचलित हैं। युवा मुनियों के लिये 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग किया गया और उसके आचार-व्यवहार के हेतु कुछ विशिष्ट नियम बनाये गये, जो आज भी उत्तराध्ययन और दशवैकालिक के क्षुल्लकाध्ययनों में उपस्थित हैं। महावीर ने छेदोपस्थापनीय चारित्र की व्यवस्था उन प्रौढ़ मुनियों के लिये की, जो अपनी वासनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त कर चुके थे और अचेल रहने में समर्थ थे। 'छेदोपस्थापना' शब्द का तात्पर्य भी यही है कि पूर्व दीक्षा पर्याय को समाप्त (छेद) कर नवीन दीक्षा (उपस्थापन) देना। आज भी श्वेताम्बर परम्परा में छेदोपस्थापना के समय ही महाव्रतारोपण कराया जाता है और तभी दीक्षित व्यक्ति की संघ में क्रम-स्थिति अर्थात् ज्येष्ठता / कनिष्ठता निर्धारित होती है और उसे संघ का सदस्य माना जाता है। सामायिक चारित्र ग्रहण करने वाला मुनि संघ में रहते हुए भी उसका सदस्य नहीं माना जाता है। इस चर्चा से यह फलित होता है कि निर्ग्रन्थ मुनि संघ में सचेल (क्षुल्लक) और अचेल (मुनि) ऐसे दो प्रकार के वर्गों का निर्धारण महावीर ने या तो अपने जीवन काल में ही कर दिया होगा या उनके परिनिर्वाण के कुछ समय पश्चात् कर दिया गया होगा। आज भी दिगम्बर- परम्परा में साधक की क्षुल्लक (दो वस्त्रधारी), ऐलक (एक वस्त्रधारी) और मुनि (अचेल) ऐसी तीन व्यवस्थाएँ हैं। अतः प्राचीनकाल में भी ऐसी व्यवस्था रही होगी, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि इन सभी सन्दर्भों में वस्त्र ग्रहण का कारण लोक-लज्जा या लोकापवाद और शारीरिक स्थिति ही था।
३. महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र के प्रवेश का तीसरा कारण सम्पूर्ण उत्तर भारत, हिमालय के तराई क्षेत्र तथा राजस्थान में शीत का तीव्र प्रकोप होना था महावीर के निर्धन्य संघ में स्थित वे मुनि जो या तो वृद्धावस्था में ही दीक्षित हो रहे थे या वृद्धावस्था की ओर [ १६ ]
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - अग्रसर हो रहे थे, उनका शरीर इस भयंकर शीत के प्रकोप का सामना कुछ मुनियों ने तो महावीर की परम्परा में सम्मिलित होते समय करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा था। ऐसे सभी मुनियों के द्वारा अचेलकत्व ग्रहण किया, किन्तु कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अचेलता यह भी सम्भव नहीं था कि वे संथारा ग्रहण कर उन शीतलहरों का को ग्रहण नहीं किया। सम्भव है कुछ पापित्यों को सचेल रहने की सामना करते हुए अपने प्राणोत्सर्ग कर दें। ऐसे मुनियों के लिये अपवाद अनुमति देकर सामायिक चारित्र के साथ महावीर के संघ में सम्मिलित मार्ग के रूप में शीत-निवारण के लिये एक ऊनी वस्त्र रखने की अनुमति किया गया होगा। इस प्रकार महावीर के जीवनकाल में या उसके कुछ दी गई। ये मुनि रहते तो अचेल ही थे, किन्तु रात्रि में शीत-निवारणार्थ पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ में सचेल-अचेल दोनों प्रकार की एक मिली-जुली उस ऊनी-वस्त्र (कम्बल) का उपयोग कर लेते थे। यह व्यवस्था स्थविर ___ व्यवस्था स्वीकार कर ली गयी थी और पार्श्व की परम्परा में प्रचलित या वृद्ध मुनियों के लिये थी और इसलिये इसे 'स्थविरकल्प' का नाम सचेलता को भी मान्यता प्रदान कर दी गयी। दिया गया। मथुरा से प्राप्त ईस्वी सन् प्रथम-द्वितीय शती की निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि महावीर के निर्ग्रन्थ संघ जिन-प्रतिमाओं की पाद-पीठ पर या फलकों पर जो मुनि प्रतिमाएँ में प्रारम्भ में तो मुनि की अचेलता पर ही बल दिया गया था, किन्तु अंकित हैं वे नग्न होकर भी कम्बल और मुखवत्रिका लिये हुए हैं। कालान्तर में लोक-लज्जा और शीत-परीषह से बचने के लिये मेरी दृष्टि में यह व्यवस्था भी आपवादिक ही थी।
आपवादिक रूप में वस्त्र-ग्रहण को मान्यता प्रदान कर दी गयी। हम देखते हैं कि महावीर का जो मुनि-संघ दक्षिण भारत या श्वेताम्बर-मान्य आगमों और दिगम्बरों द्वारा मान्य यापनीय-ग्रन्थों दक्षिण मध्य-भारत में रहा उसमें अचेलता सुरक्षित रह सकी, किन्तु में आपवादिक स्थितियों का भी उल्लेख है, जिनमें मुनि वस्त्र-ग्रहण जो मुनि-संघ उत्तर एवं पश्चिमोत्तर भारत में रहा उसमें शीत-प्रकोप कर सकता था। की तीव्रता की देश-कालगत परिस्थितियों के कारण वस्त्र का प्रवेश श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा मान्य स्थानांगसूत्र (३/३/३४७) में वस्त्रहो गया। आज भी हम देखते हैं कि जहाँ भारत के दक्षिण और ग्रहण के निम्नलिखित तीन कारणों का उल्लेख उपलब्ध होता हैदक्षिण-मध्य क्षेत्र में दिगम्बर-परम्परा का बाहुल्य है, वहाँ पश्चिमोत्तर १. लज्जा के निवारण के लिये (लिंगोत्थान होने पर लज्जित भारत में श्वेताम्बर परम्परा का बाहुल्य है। वस्तुत: इसका कारण जलवायु न होना पड़े, इस हेतु)। ही है। दक्षिण में जहाँ शीतकाल में आज भी तापमान २५-३० डिग्री २. जुगुप्सा (घृणा) के निवारण के लिये (लिंग या अण्डकोष सेल्सियस से नीचे नहीं जाता, वहाँ नग्न रहना कठिन नहीं है किन्तु विद्रूप होने पर लोग घृणा न करें, इस हेतु)। हिमालय के तराई क्षेत्र, पश्चिमोत्तर भारत एवं राजस्थान जहाँ तापमान ३. परीषह (शीत-परीषह) के निवारण के लिये। शून्य डिग्री से भी नीचे चला जाता है, वहाँ शीतकाल में अचेल रहना स्थानांगसूत्र में वर्णित उपर्युक्त तीन कारणों में प्रथम दो का समावेश कठिन है। पुनः एक युवा साधक को शीत सहन करने में उतनी कठिनाई लोक-लज्जा में हो जाता है, क्योंकि जुगुप्सा का निवारण भी एक नहीं होती जितनी कि वृद्ध तपस्वी साधक को। अत: जिन क्षेत्रों में प्रकार से लोक-लज्जा का निवारण ही है। दोनों में अन्तर यह है कि · शीत की अधिकता थी उन क्षेत्रों में वस्त्र का प्रवेश स्वाभाविक हो लज्जा का भाव स्वतः में निहित होता है और घृणा दूसरों के द्वारा
था। आचारांग में हमें ऐसे मुनियों के उल्लेख उपलब्ध हैं जो शीतकाल की जाती है, किन्तु दोनों का उद्देश्य लोकापवाद से बचना है। में सर्दी से थर-थर काँपते थे। जो लोग उनके आचार (अर्थात् आग इसी प्रकार दिगम्बर-परम्परा में मान्य, किन्तु मूलत: यापनीयजलाकर शीत-निवारण करने के निषेध) से परिचित नहीं थे, उन्हें यह ग्रन्थ भगवती-आराधना (७६) की टीका में निम्नलिखित तीन शंका भी होती थी कि कहीं उनका शरीर कामावेग में तो नहीं काँप आपवादिक स्थितियों में वस्त्र-ग्रहण की स्वीकृति प्रदान की गयी है--- रहा है। यह ज्ञात होने पर कि इनका शरीर सर्दी से काँप रहा है, १. जिसका लिंग (पुरुष-चिह्न) एवं अण्डकोष विद्रूप हो। कभी-कभी वे शरीर को तपाने के लिये आग जला देने को कहते २. जो महान् सम्पत्तिशाली अथवा लज्जालु हो। थे, जिसका उन मुनियों को निषेध करना होता था। इस प्रकार यह ३. जिसके स्वजन मिथ्यादृष्टि हों। स्पष्ट है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र-प्रवेश के लिये उत्तर यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में निर्ग्रन्थ संघ में मुनि के लिये भारत की भयंकर सर्दी भी एक मुख्य कारण रही है।
वस्त्र-ग्रहण एक आपवादिक व्यवस्था ही थी। उत्सर्ग या श्रेष्ठ मार्ग ४. महावीर के निम्रन्थ-संघ में वस्त्र के प्रवेश का चौथा कारण तो अचेलता को ही माना गया था। श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा मान्य आचारांग, पार्श्व की परम्परा के मुनियों का महावीर की परम्परा में सम्मिलित होना स्थानांग और उत्तराध्ययन में न केवल मुनि की अचेलता के प्रतिपादक भी है। यह स्पष्ट है कि पार्श्व की परम्परा के मुनि सचेल होते थे। सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं अपितु अचेलता की प्रशंसा भी उपलब्ध होती वे अधोवस्त्र और उत्तरीय दोनों ही धारण करते थे। हमें सूत्रकृतांग, है। उनमें भी वस्त्र-ग्रहण की अनुमति मात्र लोक-लज्जा के निवारण उत्तराध्ययन, भगवती, राजप्रश्नीय आदि में न केवल पार्श्व की परम्परा और शीत-निवारण के लिये ही है। आचारांग में चार प्रकार के मुनियों के मुनियों के उल्लेख मिलते हैं अपितु उनके द्वारा महावीर के संघ के उल्लेख हैं-१. अचेल, २. एक वस्त्रधारी, ३. दो वस्त्रधारी, में पुन: दीक्षित होने के सन्दर्भ भी मिलते हैं। इन सन्दर्भो का सूक्ष्मता ४. तीन वस्त्रधारी। से विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि पार्श्व की परम्परा के १. इनमें अचेल तो सर्वथा नग्न रहते थे। ये जिनकल्पी
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन कहलाते थे।
हैं उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि वस्त्र का ग्रहण एक मनोदैहिक २. एक वस्त्रधारी भी दो प्रकार के होते थे
एवं सामाजिक आवश्यकता है और उससे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों (अ) कुछ एक वस्त्रधारी रहते तो अचेल ही थे, किन्तु अपने ही परम्पराएँ प्रभावित हुई हैं। दिगम्बर- परम्परा में ऐलक और क्षुल्लक पास एक ऊनी वस्त्र रखते थे, जिसका उपयोग नगरादि में प्रवेश के की व्यवस्था तो इस आवश्यकता की सूचक है ही, किन्तु इसके साथ समय लोक-लज्जा के निवारण के लिये और सर्दियों की रात्रियों में ही साथ उनमें जो सवस्त्र भट्टारकों की परम्परा का विकास हुआ, उसके शीत-निवारण के लिये करते थे। ये स्थविरकल्पी कहलाते थे। पीछे भी उपरोक्त मनोदैहिक कारण और लौकिक परिस्थितियाँ ही मुख्य
(ब) कुछ एक वस्त्रधारी मात्र अधोवस्त्र धारण करते थे, जैसे रहीं। क्या कारण था कि अचेलता की समर्थक इस परम्परा में भी वर्तमान में दिगम्बर परम्परा के ऐलक धारण करते हैं। ऐलक एक- लगभग १००० वर्षों तक नग्न मुनियों का अभाव रहा। आज दिगम्बरचेलक (वस्त्रधारी) का ही अपभ्रंश रूप है। इसे आगम में एकशाटक परम्परा में शान्तिसागरजी से जो नग्न मुनियों की परम्परा पुनः जीवित कहा गया है।
हुई है, उसका इतिहास तो १०० वर्ष से अधिक का नहीं है। लगभग ३. दो वस्त्रधारी, जिन्हें सान्तरोत्तर भी कहा गया है, एक अधोवस्त्र ग्यारहवीं शती से उन्नीसवीं शती तक दिगम्बर मुनियों का प्राय: अभाव व एक उत्तरीयवस्त्र रखते थे, जैसे वर्तमान में क्षुल्लक रखते हैं- ही रहा है। अधोवस्त्र लोक-लज्जा हेतु और उत्तरीय शीत-निवारण हेतु।।
आज इन दोनों परम्पराओं में सचेलता और अचेलता के प्रश्न ४. तीन वस्त्रधारी साधु अधोवस्त्र और उत्तरीय के साथ-साथ पर जो इतना विवाद खड़ा कर दिया गया है, वह दोनों की आगमिक शीत-निवारणार्थ एक ऊनी कम्बल भी रखते होंगे। यह व्यवस्था आज व्यवस्थाओं और जीवित परम्पराओं के सन्दर्भ में ईमानदारी से विचार के श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधुओं में है।
करने पर नगण्य ही रह जाता है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम अपने आचारांग स्पष्ट रूप से यह उल्लेख करता है कि वस्त्रधारी मुनि मताग्रहों से न तो आगमिक व्यवस्थाओं को देखने का प्रयत्न करते वस्त्र के जीर्ण होने पर एवं ग्रीष्मकाल के आगमन पर जीर्ण वस्त्रों का है और न उन कारणों का विचार करते हैं, जिनसे किसी आचार-व्यवस्था त्याग करते हुए अचेलता की दिशा में आगे बढ़े। तीन वस्त्रधारी क्रमशः में परिवर्तन होता है। दुर्भाग्य है कि जहाँ श्वेताम्बर-परम्परा ने जिनकल्प अपने परिग्रह को कम करते हुए सान्तरोत्तर अथवा एक शाटक अथवा के विच्छेद के नाम पर उस अचेलता का अपलाप किया, जो उसके अचेल हो गए। हम देखते हैं कि आचारांग में वर्णित वस्त्र-सम्बन्धी पूर्वज आचार्यों के द्वारा लगभग ईसा की दूसरी शती तक आचरित यह व्यवस्था अचेलता का अति-आग्रह रखने वाली दिगम्बर-परम्परा रही और जिसके सन्दर्भ उनके आगमों में आज भी हैं। वहीं दूसरी में भी मुनि, ऐलक और क्षुल्लक के रूप में आज भी प्रचलित है। ओर दिगम्बर-परम्परा में सचेल मुनि ही नहीं होता है, यह कहकर उसका क्षुल्लक आचारांग का सान्तरोत्तर है, ऐलक एकशाटक तथा न केवल महावीर की मूल-भूत अनेकान्तिक दृष्टि का उल्लंघन किया मुनि अचेल है।
गया, अपितु अपने ही आगमों और प्रचलित व्यवस्थाओं को नकार श्वेताम्बर परम्परा में परवर्ती काल में भी जो वस्त्र-पात्र का विकास दिया गया। हम पूछते हैं कि क्या ऐलक और क्षुल्लक गृहस्थ हैं और हुआ और वस्त्र-ग्रहण को अपरिहार्य माना गया उसके पीछे मूल में यदि ऐसा माना जाय तो इनके मूल अर्थ का ही अपलाप होगा। परिग्रह या संचय वृत्ति न होकर देशकालगत परिस्थितियाँ, संघीय जीवन यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो निर्ग्रन्थ-संघ में प्राचीनकाल की आवश्यकताएँ एवं संयम अर्थात् अहिंसा की परिपालना ही प्रमुख से ही क्षुल्लकों (युवा-मुनि) और स्थविरों (वृद्ध-मुनियों) के लिये थी। निर्ग्रन्थ संघ में जब अपरिग्रह महाव्रत के स्थान पर अहिंसा के वस्त्र-ग्रहण की परम्परा मान्य रही है। क्षुल्लक लोक-लज्जा के लिये महाव्रत की परिपालना पर अधिक बल दिया गया तो प्रतिलेखन या और स्थविर (वृद्ध) दैहिक आवश्यकता के लिये वस्त्र-ग्रहण करता पिच्छी से लेकर क्रमश: अनेक उपकरण बढ़ गये। श्वेताम्बर-परम्परा __है। 'क्षुल्लक मुनि नहीं हैं' यह उद्घोष केवल एकान्तता का सूचक के मान्य कुछ परवर्ती आगमों में मुनि के जिन चौदह उपकरणों का __ है। 'क्षुल्लक' शब्द अपने आप में इस बात का सूचक है कि वह उल्लेख मिलता है उनमें अधिकांश पात्र-पोछन, पटल आदि के कारण प्रारम्भिक स्तर का मुनि है, गृहस्थ नहीं, क्योकि 'क्षुल्लक' का अर्थ होने वाली जीव हिंसा से बचने के लिये ही है। ओघनियुक्ति (६९१) छोटा होता है। वह छोटा मुनि ही हो सकता है, गृहस्थ नहीं। प्राचीन में स्पष्ट उल्लेख है कि जिनेन्द्र देव ने षट्काय जीवों के रक्षण के आगमों में वस्त्रधारी युवा मुनि के लिये ही 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग लिये ही पात्र-ग्रहण की अनुज्ञा दी है।
हुआ है। आचारांग तथा अन्य पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो __शारीरिक सुख-सुविधा और प्रदर्शन की दृष्टि से जो वस्त्रादि जाता है कि निम्रन्थ-संघ में या तो महावीर के जीवनकाल में या निर्वाण उपकरणों का विकास हुआ है वह बहुत ही परवर्ती घटना है और के कुछ ही समय पश्चात् सचेल-अचेल मुनियों की एक मिली-जुली प्राचीन स्तर के मान्य आगमों से समर्थित नहीं है और मुनि-आचार व्यवस्था हो गई थी। यह भी सम्भव है कि ऐसी दोहरी व्यवस्था मान्य का विकृत रूप ही है और यह विकार यति-परम्परा के रूप में श्वेताम्बरों करने पर परस्पर आलोचना के स्वर भी मुखरित हुए होंगे। यही कारण और भट्टारक-परम्परा के रूप में दिगम्बरों, दोनों में आया है। है कि आचारांग में स्पष्ट रूप से यह निर्देश दिया गया कि अचेल
किन्तु जो लोग वस्त्र के सम्बन्ध में आग्रहपूर्ण दृष्टिकोण रखते मुनि, एकशाटक, सान्तरोत्तर अथवा तीन वस्त्रधारी मुनि परस्पर एक wordrowwwindiworionitorionitorinodroid ९८]-owdnirmwowinionitorionisirironidroranirdoorband
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दूसरे की निन्दा न करें । ज्ञातव्य है कि संघ भेद का कारण यह मिली-जुली व्यवस्था नहीं थी, अपितु इसमें अपनी-अपनी श्रेष्ठता का मिथ्या अहंकार ही आगे चलकर संघ-भेद का कारण बना है। जब सचेलकों ने अचेलकों की साधना सम्बन्धी विशिष्टता को अस्वीकार किया और अचेलकों ने सचेलक को मुनि मानने से इन्कार किया तो संघ भेद होना स्वाभाविक ही था।
ऐतिहासिक सत्य तो यह है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् - जो निर्ग्रन्थ मुनि दक्षिण बिहार, उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश के रास्ते से तमिलनाडु और कर्नाटक में पहुँचे, वे वहाँ की जलवायुगत परिस्थितियों के कारण अपनी अचेलता को यथावत कायम रख सके, क्योंकि वहाँ सर्दी पड़ती ही नहीं है। यद्यपि उनमें भी क्षुल्लक और ऐलक दीक्षाएँ होती रही होंगी, किन्तु अचेलक मुनि को सर्वोपरि मानने के कारण उनमें कोई विवाद नहीं हुआ। दक्षिण भारत में अचेल रहना सम्भव था, इसलिये उसके प्रति आदरभाव बना रहा। फिर भी लगभग पाँचवीं छठी शती के पश्चात् वहाँ भी हिन्दू मठाधीशों के प्रभाव से सवस्व भट्टारकं परम्परा का क्रमिक विकास हुआ और धीरे-धीरे दसवीं ग्यारहवीं शती से व्यवहार में अचेलता समाप्त हो गयी। केवल अचेलता के प्रति सैद्धान्तिक आदर भाव बना रहा। आज वहाँ जो दिगम्बर हैं, वे इस कारण दिगम्बर नहीं हैं कि वे नग्न रहते हैं अपितु इस कारण हैं कि अचेलता / दिगम्बरत्व के प्रति उनमें आदर भाव है।
महावीर का जो निर्मन्थ-संघ बिहार से पश्चिमोत्तर भारत की ओर आगे बढ़ा, उसमें जलवायु तथा मुनियों की बढ़ती संख्या के कारण वस्त्र - पात्र का विकास हुआ। प्रथम शक, हूण आदि विदेशी संस्कृति के प्रभाव से तथा दूसरे जलवायु के कारण से इस क्षेत्र में नग्नता को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा, जबकि दक्षिण भारत में नग्नता के प्रति हेय भाव नहीं था। लोक-लज्जा और शीत-निवारण के लिये एक वस्त्र रखा जाने लगा। प्रारम्भ में तो उत्तर भारत का यह निर्ग्रन्थ- संघ रहता तो अचेल ही था, किन्तु अपने पास एक वस्त्र रखता था जिसका उपयोग नगरादि में प्रवेश करते समय लोक-लज्जा के निवारण के लिये और शीत ऋतु में सर्दी सहन न होने की स्थिति में ओढ़ने के लिये किया करता था। मथुरा से अनेक ऐसे अचेल जैन मुनियों की प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं जिनके हाथ में यह वस्त्र (कम्बल) इस प्रकार प्रदर्शित है कि उनकी नग्नता छिप जाती है। उत्तर भारत में निर्मन्थों, मुनियों की इस स्थिति को ही ध्यान में रखकर सम्भवतः पालित्रिपिटक में निर्मन्थों को एकशाटक कहा गया है। हमें प्राचीन अर्थात् ईसा की पहली-दुसरी शती के जो भी साहित्यिक और पुरातात्विक प्रमाण मिलते है उनसे यही सिद्ध होता है कि उत्तर भारत के निर्धन्य संघ में शीत और लोक-लज्जा के लिये वस्त्र ग्रहण किया जाता था । श्वेताम्बर- मान्य आगमिक व्याख्याओं से जो सूचनाएं उपलब्ध होती हैं, उनसे भी यह ज्ञात होता है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र का प्रवेश होते हुए भी महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग छः सौ वर्षों तक अचेलकत्व उत्सर्ग या श्रेष्ठमार्ग के रूप में मान्य रहा है।
श्वेताम्बर आगमिक व्याख्या साहित्य से ही हमें यह भी सूचना
मिलती है कि उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ के अनेक आचार्यों ने समय-समय पर वस्त्र ग्रहण की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के विरोध में अपने स्वर मुखरित किये थे आर्य भद्रबाहु के पश्चात् भी उत्तर भारत के निर्मन्य संघ में आर्य महागिरि, आर्य शिवभूति, आर्य रक्षित आदि ने वस्त्रवाद का विरोध किया था। ज्ञातव्य है कि इन सभी को श्वेताम्बर परम्परा अपने पूर्वाचार्यों के रूप में ही स्वीकार करती है। मात्र यही नहीं, इनके द्वारा वस्त्रवाद के विरोध का उल्लेख भी करती है। इस सबसे यही फलित होता है कि उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा में आगे चलकर वस्त्र को जो अपरिहार्य मान लिया गया और वस्त्रों की संख्या में जो वृद्धि हुई यह एक परवर्ती घटना है और वही संघ भेद का मुख्य कारण भी है।
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जैन साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के अतिरिक्त निर्मन्थ मुनियों के द्वारा वस्त्र ग्रहण करने के सम्बन्ध में यथार्थ स्थिति का ज्ञान जैनेतर साक्ष्यों से भी उपलब्ध होता है, जो अति महत्त्वपूर्ण है। इनमें सबसे प्राचीन सन्दर्भ पालित्रिपिटक का है। पालित्रिपिटक में प्रमुख रूप से दो ऐसे सन्दर्भ है जहाँ निर्मन्य की वस्त्र सम्बन्धी स्थिति का संकेत मिलता है। प्रथम सन्दर्भ तो निर्ग्रन्थ का विवरण देते हुए स्पष्टतया यह कहता है कि निर्ग्रन्थ एकशाटक थे, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध के समय या कम से कम पालित्रिपिटक के रचनाकाल अर्थात् ई० पू० तृतीय चतुर्थ शती में निर्ग्रन्थों में एक वस्त्र का प्रयोग होता था, अन्यथा उन्हें एकशाटक कभी नहीं कहा जाता। जहाँ आजीवक सर्वथा नग्न रहते थे, वहाँ निर्मन्ध एक वस्त्र रखते थे। इससे यही सूचित होता है कि वस्त्र ग्रहण की परम्परा अति प्राचीन है । पुनः निर्ग्रन्थ के एकशाटक होने का यह उल्लेख पालित्रिपिटक में ज्ञातृपुत्र महावीर की चर्चा के प्रसंग में हुआ है। अतः सामान्य रूप से इसे पार्श्व की परम्परा कह देना भी ठीक नहीं होगा। फिर भी यदि इसमें चातुर्याम की अवधारणा के उल्लेख के आधार पर इसे पार्श्व की परम्परा से सम्बन्धित मानें तो भी इतना अवश्य है कि महावीर के संघ में पार्श्वापत्यों के प्रवेश के साथ-साथ वस्त्र का प्रवेश हो गया था। चाहे निर्ग्रन्थपरम्परा पार्श्व की रही हो या महावीर की। यह निर्विवाद है कि निर्मन्य संघ में प्राचीनकाल से ही वस्त्र के सम्बन्ध में वैकल्पिक व्यवस्था मान्य रही है, फिर चाहे वह अपवाद मार्ग के रूप में हो या स्थविर कल्प के रूप में ही क्यों न हो।
पालित्रिपिटक के एक अन्य प्रसंग में महावीर के स्वर्गवास के पश्चात् निर्धन्य संघ के पारस्परिक कलह और उसके दो भागों में विभाजित होने का निम्न उल्लेख मिलता है— वे एक-दूसरे की आलोचना करते हुए कहते थे, "तू इस धर्म-विनय को नहीं जानता। मैं इस धर्म-विनय को जानता हूँ। तू क्या इस धर्म-विनय को जानेगा? आदि-आदि। इस विवाद के सम्बन्ध में विद्वानों में दो प्रकार के मत है। मुनि कल्याणविजय जी आदि कुछ विद्वानों के अनुसार यह विवरण महावीर के जीवन काल में ही उनके और गोशालक के बीच हुए उस विवाद का सूचक है, जिसके कारण महावीर के निर्वाण का प्रवाद भी प्रचलित हो गया था। भगवतीसूत्र" में हमें इस विवाद का विस्तृत
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन उल्लेख मिलता है। इसमें वस्त्रादि के सन्दर्भ में कोई चर्चा नहीं है। टीकाकार अपराजित ने यहाँ उत्सर्गलिंग का अर्थ स्पष्ट करते हुए सकल मात्र महावीर पर यह आरोप है कि वे पहले अकेले वन में निवास परिग्रहत्यागरूप अचेलकत्व के ग्रहण को ही उत्सर्गलिंग कहा है। इसी करते थे, अब संघ सहित नगर या गाँव के उपान्त में निवास करते प्रकार अपवाद की व्याख्या करते हुए कारणसहित परिग्रह को हैं और तीर्थङ्कर न होकर भी अपने को तीर्थङ्कर कहते हैं। किन्तु इस अपवादलिंग कहा है। अगली गाथा की टीका में उन्होंने स्पष्ट रूप विवाद के प्रसंग में, जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, वह यह कि से सचेललिंग को अपवादलिंग कहा है। इसके अतिरिक्त आराधनाकार पालित्रिपिटक में इसका सम्बन्ध धर्म-विनय से जोड़ा गया है और औदात्त शिवार्य एवं टीकाकार अपराजित ने यह भी स्पष्ट किया है कि जिनका अर्थात् श्रेष्ठ-वस्त्र धारण करने वाले निर्ग्रन्थ श्रावकों को इस विवाद पुरुष-चिह्न अप्रशस्त हो अर्थात् लिंग चर्मरहित हो, अतिदीर्घ हो, से उदासीन बताया गया है। इससे इतना तो अवश्य प्रतिफलित अण्डकोष अतिस्थूल हो तथा लिंग बार-बार उत्तेजित होता हो तो उन्हें होता है कि विवाद का मूलभूत विषय धर्म-विनय अर्थात् श्रमणाचार सामान्य दशा में तो अपवादलिंग अर्थात् सचेललिंग ही देना होता से ही सम्बन्धित रहा होगा। अत: उसका एक पक्ष वस्त्र-पात्र रखने है, किन्तु ऐसे व्यक्तियों को भी संलेखना के समय एकान्त में उत्सर्गलिंग । या न रखने से सम्बन्धित हो सकता है।
अर्थात् अचेलकत्व प्रदान किया जा सकता है। किन्तु उसमें सभी इस समस्त चर्चा से यह प्रतिफलित होता है कि सचेलता और अपवादलिंगधारियों को संलेखना के समय अचेललिंग ग्रहण करना अचेलता की समस्या निम्रन्थ संघ की एक पुरानी समस्या है और इसका आवश्यक नहीं माना गया है। आगे वे स्पष्ट लिखते हैं कि जिनके आविर्भाव पार्श्व और महावीर के निम्रन्थ संघ के सम्मेलन के साथ स्वजन महान् सम्पत्तिशाली, लज्जाशील और मिथ्यादृष्टि अर्थात् जैनहो गया था। साथ ही यह भी सत्य है कि जहाँ एक ओर आजीवकों धर्म को नहीं मानने वाले हों, ऐसे व्यक्तियों के लिये न केवल सामान्य की अचेलता ने महावीर के निर्ग्रन्थ-संघ में स्थान पाया, वहीं पार्श्व दशा में अपितु संलेखना के समय भी अपवादलिंग अर्थात् सचेलता की सचेल-परम्परा ने भी उसे प्रभावित किया। परिणामस्वरूप वस्त्र ही उपयुक्त है। के सम्बन्ध में महावीर के निर्ग्रन्थ-संघ में एक मिली-जुली व्यवस्था इस समग्र चर्चा से स्पष्टतः यह फलित होता है कि यापनीय स्वीकार की गई। उत्सर्ग-मार्ग में अचेलता को स्वीकार करते हुए भी सम्प्रदाय उन व्यक्तियों को, जो समृद्धिशाली परिवारों से हैं, जो लज्जालु आपवादिक स्थितियों में वस्त्र-ग्रहण की अनुमति दी गयी। पालित्रिपिटक । हैं तथा जिनके परिजन मिथ्यादृष्टि हैं अथवा जिनके पुरुषचिह्न अर्थात् में आजीवकों को सर्वथा अचेलक और निर्ग्रन्थ को एकशाटक कहा लिंग चर्मरहित हैं, अतिदीर्घ हैं, अण्डकोष स्थूल हैं एवं लिंग बार-बार गया है और इसी आधार पर वे आजीवकों और निम्रन्थ में अन्तर उत्तेजित होता है, को आपवादिक लिंग धारण करने का निर्देश करता भी करते हैं। आजीवकों के लिये 'अचेलक' शब्द का भी प्रयोग करते है। इस प्रकार वह यह मानता है कि उपर्युक्त विशिष्ट परिस्थितियों हैं। धम्मपद की टीका में बुद्धघोष कहते हैं कि कुछ भिक्षु अचेलकों में व्यक्ति सचेल लिंग धारण कर सकता है। अत: हम कह सकते की अपेक्षा निर्ग्रन्थ को वरेण्य समझते हैं क्योंकि अचेलक तो सर्वथा हैं कि यापनीय परम्परा यद्यपि अचेलकत्व पर बल देती थी और यह नग्न रहते हैं, जबकि निम्रन्थ प्रतिच्छादन रखते हैं। ३२ बुद्धघोष के इस भी मानती थी कि समर्थ साधक को अचेललिंग ही धारण करना चाहिए उल्लेख से भी यह प्रतिफलित होता है कि निर्ग्रन्थ नगर-प्रवेश आदि किन्तु उसके साथ-साथ वह यह मानती थी कि आपवादिक स्थितियों के समय जो एक वस्त्र (प्रतिच्छादन) रखते थे, उससे अपनी नग्नता में सचेल लिंग भी धारण किया जा सकता है। यहाँ उसका श्वेताम्बरछिपा लेते थे। इस प्रकार मूल त्रिपिटक में निर्ग्रन्थ को एकशाटक कहना, परम्परा से स्पष्ट भेद यह है कि जहाँ श्वेताम्बर-परम्परा जिनकल्प का बुद्धघोष द्वारा उनके द्वारा प्रतिच्छादन रखने का उल्लेख करना और विच्छेद बताकर अचेललिंग का निषेध कर रही थी, वहाँ यापनीय-परम्परा मथुरा से प्राप्त निर्ग्रन्थ मुनियों के अंकन में उन्हें एक वस्त्र से अपनी समर्थ साधक के लिये हर युग में अचेलता का समर्थन करती है। नग्नता छिपाते हुए दिखाना—ये सब साक्ष्य यही सूचित करते हैं कि जहाँ श्वेताम्बर-परम्परा वस्त्र-ग्रहण को सामान्य नियम या उत्सर्ग-मार्ग उत्तर भारत में निर्ग्रन्थ-संघ में कम से कम ई० पू० चौथी-तीसरी शताब्दी मानने लगी वहाँ यापनीय परम्परा उसे अपवाद मार्ग के रूप में ही में एक वस्त्र रखा जाता था और यह प्रवृत्ति बुद्धघोष के काल तक । स्वीकार करती रही। अत: उसके अनुसार आगमों में जो वस्त्र-पात्र अर्थात् ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी तक भी प्रचलित थी। सम्बन्धी निर्देश हैं, वे मात्र आपवादिक स्थितियों के हैं। दुर्भाग्य से
मुझे यापनीय- ग्रन्थों में इस तथ्य का कहीं स्पष्ट निर्देश नहीं मिला वस के सम्बन्ध में यापनीय-दृष्टिकोण
कि आपवादिक लिंग में कितने वस्त्र या पात्र रखे जा सकते थे। यापनीय-परम्परा का एक प्राचीन ग्रन्थ भगवतीआराधना है। इसमें यापनीय-ग्रन्थ भगवतीआराधना की टीका में यापनीय आचार्य दो प्रकार के लिंग बताये गये हैं-१. उत्सर्गलिंग (अचेल) और २. अपराजित सूरि लिखते हैं कि चेल (वस्त्र) का ग्रहण, परिग्रह का उपलक्षण अपवादलिंग (सचेल)। आराधनाकार स्पष्ट रूप से कहता है कि संलेखना है, अत: समस्त प्रकार के परिग्रह का त्याग ही आचेलक्य है। आचेलक्य ग्रहण करते समय उत्सर्गलिंगधारी अचेल श्रमण का तो उत्सर्गलिंग के लाभ या समर्थन में आगे वे लिखते हैंअचेलता ही होता है, अपवादलिंगधारी सचेल श्रमण का भी यदि लिंग १. अचेलकत्व के कारण त्याग धर्म (दस धर्मों में एक धर्म) प्रशस्त है तो उसे भी उत्सर्गलिंग अर्थात् अचेलकत्व ग्रहण करना चाहिये। में प्रवृत्ति होती है।
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२. जो अचेल होता है, वही अकिंचन धर्म के पालन में तत्पर होता है।
३. परिग्रह (वस्त्रादि) के लिये हिंसा (आरम्भ) में प्रवृत्ति होती है, जो अपरिग्रही है, वह हिंसा (आरम्भ) नहीं करता है। अतः पूर्ण अहिंसा के पालन के लिये अचेलता आवश्यक है।
४. परिग्रह के लिये ही झूठ बोला जाता है। बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के अभाव में झूठ बोलने का कोई कारण नहीं होता, अतः अचेल मुनि सत्य ही बोलता है।
५. अचेल में लाघव भी होता है।
६. अचेलधर्म का पालन करने वाले का अदत्त-त्याग भी सम्पूर्ण होता है क्योंकि परिग्रह की इच्छा होने पर ही बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है।
७. परिग्रह के निमित्त क्रोध कषाय होता है, अतः परिग्रह के • अभाव में क्षमा-भाव रहता है।
८. अचेल को सुन्दर या सम्पन्न होने का मद भी नहीं होता, अतः उसमें आर्जव (सरलता) धर्म भी होता है।
९. अचेल में माया (छिपाने की प्रवृत्ति) नहीं होती, अतः उसके आर्जव (सरलता) धर्म भी होता है।
१०. अचेल शीत, उष्ण, दंश, मच्छर आदि परीषहों को सहता है, अतः उसे घोर तप भी होता है।
पुनः वे अचेलकत्व की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं
१. अचेलता से शुद्ध संयम का पालन होता है, पसीना, धूल और मैल से युक्त वस्त्र में उसी योनि वाले और उसके आश्रय से रहने वाले त्रस जीव तथा स्थावर जीव उत्पन्न होते है। वस्त्रधारण करने से उन्हें बाधा भी उत्पन्न होती है जीवों से संसक्त वस्त्रधारण करने वाले के द्वारा उठने, बैठने, सोने, वस्त्रको फाड़ने, काटने, बाँधने, धोने, कूटने, धूप में डालने से जीवों को बाधा (पीड़ा) होती है, जिससे महान् असंयम होता है।
२. अचेलता से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है। जिस प्रकार सर्पों से युक्त जंगल में व्यक्ति बहुत सावधान रहता है उसी प्रकार जो अचेल होता है वह इन्द्रियों (कामवासना) पर विजय प्राप्त करने में पूर्णतया सावधान रहता है। क्योंकि ऐसा नहीं करने पर शरीर में विकार ( कामोत्तेजना ) उत्पन्न होने पर लज्जित होना पड़ता है।
३. अचेलता का तीसरा गुण कषायरहित होना है, क्योंकि वस्त्र के सद्भाव में उसे चोरों से छिपाने के लिये मायाचार करना होता है। वस्त्र होने पर‘मेरे पास सुन्दर वस्त्र ऐसा अहंकार भी हो सकता है, वस्त्र के छीने जाने पर क्रोध तथा उसकी प्राप्ति में लोभ भी हो सकता है, जबकि अचेलक में ऐसे दोष उत्पन्न नहीं होते हैं।
४. सवस्त्र होने पर सुई, धागा, वस्त्र आदि की खोज में तथा उसके सीने, धोने, प्रतिलेखना आदि करने में ध्यान और स्वाध्याय का समय नष्ट होता है । अचेल को ध्यान स्वाध्याय में बाधा नहीं होती । ५. जिस प्रकार बिना छिलके (आवरण) का धान्य नियम से शुद्ध होता है, किन्तु छिलकेयुक्त धान्य की शुद्धि नियम से नहीं होती,
वह भाज्य होती है, उसी प्रकार जो अचेल है उसकी शुद्धि निश्चित होती है, किन्तु सचेल की शुद्धि भाज्य है (एवमचेलवतिनियमादेव, भाज्या सचेले भगवती आराधना ४२३ पर विजयोदया टीका, पृ० ३२२), अर्थात् सचेल की शुद्धि हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। यहाँ दिगम्बर- परम्परा और यापनीय परम्परा का अन्तर स्पष्ट है। दिगम्बर- परम्परा यह मानती है कि सचेल मुक्त (शुद्ध) नहीं हो सकता, चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों न हो जबकि यापनीय परम्परा यह मानती है कि स्त्री, गृहस्थ और अन्यतैर्थिक सचेल हेकर भी मुक्त हो सकते हैं। यहाँ भाग्य (विकल्प) शब्द का प्रयोग यापनीयों की उदार और अनेकान्तिक दृष्टि का परिचायक है।
६. अचेलता में राग-द्वेष का अभाव होता है। राग-द्वेष बाह्य द्रव्य के आलम्बन से होता है। परिग्रह के अभाव में आलम्बन का अभाव होने से राग-द्वेष नहीं होते, जबकि सचेल को मनोज्ञ वस्त्र के प्रति राग भाव हो सकता है।
७. अचेलक शरीर के प्रति उपेक्षा भाव रखता है, तभी तो यह शीत और ताप के कष्ट सहन करता है।
८. अचेलता में स्वावलम्बन होता है और देशान्तर गमन में किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं होती। जिस प्रकार पक्षी अपने पंखों के सहारे चल देता है, वैसे ही वह भी प्रतिलेखन (पीछी) लेकर चल देता है।
९. अचेलता में चित्त-विशुद्धि प्रकट करने का गुण है लंगोटी आदि से ढकने से भाव शुद्धि का ज्ञान नहीं होता है।
१०. अचेलता में निर्भयता है, क्योंकि चोर आदि का भय नहीं
रहता।
११. सर्वत्र विश्वास भी अचेलता का गुण है। न तो वह किसी पर शंका करता है और न कोई उस पर शंका करता है।
१२. अचेलता में प्रतिलेखना का अभाव होता है। चौदह प्रकार का परिग्रह रखने वालों को जैसी प्रतिलेखना करनी होती है वैसी अचेल को नहीं करनी होती।
१३. सचेल को लपेटना, छोड़ना, सीना, बाँधना, धोना, रँगना आदि परिकर्म करने होते हैं जबकि अचेल को ये परिकर्म नहीं करने होते ।
१४. तीर्थङ्करों के अनुरूप आचरण करना (जिनकल्प का आचरण) भी अबेलता का एक गुण है क्योंकि संहनन और बल से पूर्ण सभी तीर्थङ्कर अचेल थे और भविष्य में भी अचेल ही होंगे जिनप्रतिमा और गणधर भी अचेल होते हैं और उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं जो सवत्र है वह जिन के अनुरूप नहीं है अर्थात् जिनकल्प का पालन नहीं करता है।
१५. अचेल ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है। यदि अपने शरीर को वस्त्र से वेष्टित करके भी अपने को निर्धन्य कहा जा सकता है, तो फिर अन्य परम्परा के साधु निर्मन्थ क्यों नहीं कहे जायेंगे अर्थात् उन्हें भी निर्धन्य मानना होगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय परम्परा स्पष्ट रूप से {१०१ ]in
YORDA
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - अचेलकत्व की समर्थक है। किन्तु उनके सामने एक समस्या यह थी कारण अंगों के ग्लानियुक्त होने पर देह के मुंगित (वीभत्स) होने पर कि वे श्वेताम्बर-परम्परा में स्वीकृत उन आगमों की माथुरी वाचना को अथवा परीषह (शीतपरीषह) सहन करने में असमर्थ होने पर वस्त्र धारण मान्य करते थे, जिनमें वस्त्रपात्रादि ग्रहण करने के स्पष्ट उल्लेख थे। करे। पुनः आचारांग" में यह भी कहा गया है, यदि ऐसा जाने की अत: उनके समक्ष दो प्रश्न थे-एक ओर अचेलकत्व का समर्थन शीतऋतु (हेमन्त) समाप्त हो गयी है तो जीर्ण वस्त्र प्रतिस्थापित कर करना और दूसरी ओर आगमिक उल्लेखों की अचेलकत्व के सन्दर्भ दे अर्थात् उनका त्याग कर दे। इस प्रकार (आगमों में) कारण की में सम्यक् व्याख्या करना। अपराजित सूरि ने इस सम्बन्ध में अपेक्षा से वस्त्र का ग्रहण कहा है। जो उपकरण कारण की अपेक्षा भगवतीआराधना की विजयोदया टीका में जो सम्यक् दृष्टिकोण प्रस्तुत से ग्रहण किया जाता है उसके ग्रहण करने की विधि और गृहीत किया है वह अचेलकत्व के आदर्श के सम्बन्ध में यापनीयों की यथार्थ- उपकरण का त्याग अवश्य कहा जाता है। अत: आगम में वस्त्र-पात्र दृष्टि का परिचायक है।
की जो चर्या बतायी गयी है वह कारण की अपेक्षा से अर्थात् ___अपराजित ने सर्वप्रथम आगमों के उन सन्दर्भो को प्रस्तुत किया आपवादिक है। है, जिनमें वस्त्र-पात्र सम्बन्धी उल्लेख हैं, फिर उनका समाधान प्रस्तुत इस प्रकार हम देखते हैं कि यापनीय-संघ मात्र आपवादिक स्थिति किया है। वे लिखते हैं-'आचारप्रणिधि' अर्थात् दशवैकालिक के में वस्त्र-ग्रहण को स्वीकार करता था और उत्सर्ग-मार्ग अचेलता को आठवें अध्याय में कहा गया है कि पात्र और कम्बल की प्रतिलेखना ही मानता था। आचारांग के 'भावना' नामक अध्ययन में महावीर के करनी चाहिए। यदि पात्रादि नहीं होते तो उनकी प्रतिलेखना का कथन एक वर्ष तक वस्त्रयुक्त होने के उल्लेख को वह विवादास्पद मानता क्यों किया जाता? पुन: आचारांग२५ के 'लोक-विचय' नामक दूसरे था। अपराजित ने इस सम्बन्ध में विभिन्न प्रवादों का उल्लेख भी किया अध्ययन के पाँचवें उद्देशक में कहा गया है कि प्रतिलेखन (पडिलेहण), है५- जैसे कुछ कहते हैं कि वह छ: मास में काँटे, शाखा आदि पादपोंछन (पायपुच्छन), अवग्रह (उग्गह), कटासन (कडासण), चटाई से छिन हो गया। कुछ कहते हैं कि एक वर्ष से कुछ अधिक होने
आदि की याचना करे। पुनः उसके 'वस्यैषणा'२६ अध्ययन में कहा गया पर उस वस्त्र को खण्डलक नामक ब्राह्मण ने ले लिया। कुछ कहते है कि जो लज्जाशील है वह एक वस्त्र धारण करे, दूसरा वस्त्र प्रतिलेखना हैं कि वह वस्त्र वायु से गिर गया और भगवान् ने उसकी उपेक्षा कर हेतु रखे। जुंगित (देश-विशेष) में दो वस्त्र धारण करे और तीसरा दी। कोई कहते हैं कि विलम्बनकारी ने उसे जिन के कन्धे पर रख प्रतिलेखना हेतु रखे, यदि शीत परीषह सहन नहीं हो तो तीन वस्त्र दिया आदि। इस प्रकार अनेक विप्रतिपत्तियों के कारण अपराजित की धारण करे और चौथा प्रतिलेखना हेतु-रखे। पुन: उसके पात्रैषणारे दृष्टि में इस कथन में कोई तथ्य नहीं है। पुन: अपराजित ने आगम में कहा गया है कि लज्जाशील, मुंगित अर्थात् जिसके लिंग आदि . से अचेलता के समर्थक अनेक सूत्र भी उद्धृत किये है६, यथाहीनाधिक हो तथा पात्रादि रखता हो उसे वस्त्र रखना कल्पता है। पुनः “वस्त्रों का त्याग कर देने पर भिक्षु पुनः वस्त्र-ग्रहण नहीं करता तथा उसमें कहा गया है तुम्बी का पात्र, लकड़ी का पात्र अथवा मिट्टी का अचेल होकर जिन-रूप धारण करता है। भिक्षु यह नहीं सोचे कि सचेलक पात्र यदि जीव, बीजादि से रहित हो तो ग्राह्य है। यदि वस्त्र-पात्र ग्राह्य सुखी होता है और अचेलक दुःखी होता है, अतः मैं सचेलक हो नहीं होते तो फिर ये सूत्र आगम में क्यों आते? पुनः आचारांग८ जाऊँ। अचेल को कभी शीत बहुत सताती है, फिर भी वह धूप का के 'भावना' नामक अध्ययन में कहा गया है कि भगवान् एक वर्ष विचार न करे। मुझ निरावरण के पास कोई छादन नहीं है, अत: मैं तक चीवरधारी रहे, उसके बाद अचेल हो गये। साथ ही सूत्रकृतांगरेर अग्नि का सेवन कर लूँ, ऐसा भी नहीं सोचे।" इसी प्रकार उन्होंने के 'पुण्डरीक' नामक अध्ययन में कहा गया है कि भिक्षु, वस्त्र और उत्तराध्ययन के २३ वें अध्ययन की गाथायें उद्धृत करके यह बताया पात्र के लिये धर्मकथा न कहे। निशीथ में कहा गया है कि जो भिक्षु कि पार्श्व का धर्म सान्तरुत्तर था। महावीर का धर्म तो अचेलक ही अखण्ड-वस्त्र और कम्बल धारण करता है उसे मास-लघु (प्रायश्चित्त था। पुनः दशवैकालिक में मुनि को नग्न और मुण्डित कहा गया है। का एक प्रकार) प्रायश्चित्त आता है। इस प्रकार आगम में वस्त्र-ग्रहण इससे भी आगम में अचेलता ही प्रतिपाद्य है, यह सिद्ध होता है। की अनुज्ञा होने पर भी अचेलता का कथन क्यों किया जाता है? इस समग्र चर्चा के आधार पर यापनीय-संघ का वस्त्र-सम्बन्धी इसका समाधान करते हुए स्वयं अपराजितसूरि कहते हैं कि आगम दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है। उनके इस दृष्टिकोण को संक्षेप में निम्न में कारण की अपेक्षा से आर्यिकाओं को वस्त्र की अनुज्ञा है, यदि रूप में प्रस्तुत किया जा सकता हैभिक्षु लज्जालु है अथवा उसकी जननेन्द्रिय त्वचारहित हो या अण्डकोष १. श्वेताम्बर-परम्परा, जो जिनकल्प के विच्छेद की घोषणा के लम्बे हों अथवा वह परीषह (शीत) सहन करने में अक्षम हो तो उसे द्वारा वस्त्र आदि के सम्बन्ध में महावीर की वैकल्पिक व्यवस्था को वस्त्रधारण करने की अनुज्ञा है। आचारांगारे में ही कहा गया है कि समाप्त करके सचेलकत्व को ही एक मात्र विकल्प बना रही थी, यह संयमाभिमुख स्त्री-पुरुष दो प्रकार के होते हैं-सर्वश्रमणागत और बात यापनीयों को मान्य नहीं थी। नो-सर्वश्रमणागता। उनमें सर्वश्रमणागत स्थिरांग वाले पाणि-पात्र भिक्षु २. यापनीय यह मानते थे कि जिनकल्प का विच्छेद सुविधावादियों को प्रतिलेखन के अतिरिक्त एक भी वस्त्र धारण करना या छोड़ना की अपनी कल्पना है। समर्थ साधक इन परिस्थितियों में या इस युग नहीं कल्पता है। बृहत्कल्पसूत्र में भी कहा गया है कि लज्जा के में भी अचेल रह सकता है। उनके अनुसार अचेलता (नग्नता) ही
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - जिन का आदर्श मार्ग है, अत: मुनि को अचेल या नग्न ही रहना गृहस्थ नहो। यद्यपि यापनीय और दिगम्बर दोनो ही अचेलकत्व के चाहिये।
समर्थक हैं, फिर भी वस्त्र के सम्बन्ध में यापनीयों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत ३. यापनीय आपवादिक स्थितियों में ही मुनि के लिये वस्त्र की। उदार एवं यर्थाथवादी रहा है। आपवादिक स्थिति में वस्त्र-ग्रहण, सचेल ग्राह्यता को स्वीकार करते थे, उनकी दृष्टि में ये आपवादिक स्थितियाँ की मुक्ति की सम्भावना, सचेल स्त्री और पुरुष दोनों में श्रमणत्व या निम्नलिखित थीं
मुनित्व का सद्भाव-उन्हें अचेलता के प्रश्न पर दिगम्बर-परम्परा से (क) राज-परिवार आदि अतिकुलीन घराने के व्यक्ति जन-साधारण भिन्न करता है, जबकि आगमों में वस्त्र-पात्र के उल्लेख मात्र आपवादिक के समक्ष नग्नता छिपाने के लिये वस्त्र रख सकते हैं।
स्थिति के सूचक हैं और जिनकल्प का विच्छेद नहीं हैं, यह बात उन्हें (ख) इसी प्रकार वे व्यक्ति भी जो अधिक लज्जाशील हैं अपनी श्वेताम्बरों से अलग करती है। नग्नता को छिपाने के लिये वस्त्र रख सकते हैं।
(ग) वे नवयुवक मुनि जो अभी अपनी काम-वासना को पूर्णत: जिनकल्प एवं स्थविरकल्प विजित नहीं कर पाये हैं और जिन्हें लिंगोत्तेजना आदि के कारण निर्ग्रन्थ अचेलकत्व एवं सचेलकत्व सम्बन्धी इस चर्चा के प्रसंग में संघ में और जनसाधारण में प्रवाद का पात्र बनना पड़े, अपवाद रूप जिनकल्प और स्थाविरकल्प की चर्चा भी अप्रासंगिक नहीं होगी। श्वेताम्बरमें वस्त्र रख सकते हैं।
मान्य आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं में जिनकल्प और स्थविरकल्प (घ) वे व्यक्ति जिनके लिंग और अण्डकोष विद्रप हैं, वे संलेखना। की जो चर्चा मिलती है, उससे यह फलित होता है कि प्रारम्भ में के अवसर को छोड़कर यावज्जीवन वस्त्रधारण करके ही रहें। अचेलता अर्थात् नग्नता को जिनकल्प का प्रमुख लक्षण माना गया
(ङ) वे व्यक्ति जो शीतादि परीषह-सहन करने में सर्वथा असमर्थ था, किन्तु कालान्तर में जिनकल्प शब्द की व्याख्या में क्रमश: परिवर्तन हैं, अपवाद रूप में वस्त्र रख सकते हैं।
हुआ है। जिनकल्पी की कम से कम दो उपधि (मुखवस्त्रिका और (च) वे मुनि जो अर्श, भगन्दर आदि की व्याधि से ग्रस्त हों, रजोहरण) मानी गई किन्तु ओघनियुक्ति के लिये जिनकल्प शब्द का बीमारी की स्थिति में वस्त्र रख सकते हैं।
सामान्य अर्थ तो जिन के अनुसार आचरण करना है। जिनकल्प की ४. जहाँ तक साध्वियों का प्रश्न था यापनीय संघ में स्पष्ट रूप बारह उपधियों का भी उललेख है। कालान्तर में श्वेताम्बर आचार्यों से उन्हें वस्त्र रखने की अनुज्ञा थी। यद्यपि साध्वियाँ भी एकान्त में ने उन साधुओं को जिनकल्पी कहा जो गच्छ का परित्याग करके एकाकी संलेखना के समय जिन-मुद्रा अर्थात् अचेलता धारण कर सकती थीं। विहार करते थे तथा उत्सर्ग-मार्ग के ही अनुगामी होते थे। वस्तुतः
इस प्रकार यापनीयों का आदर्श अचेलकत्व ही रहा, किन्तु अपवाद- जब श्वेताम्बर-परम्परा में अचेलता का पोषण किया जाने लगा तो जिनकल्प मार्ग में उन्होंने वस्त्र-पात्र की ग्राह्यता भी स्वीकार की। वे यह मानते की परिभाषा में भी अन्तर हुआ। निशीथचूर्णि में जिनकल्प और हैं कि कषायत्याग और रागात्मकता को समाप्त करने के लिये सम्पूर्ण स्थविरकल्प की परिभाषा देते हुए कहा है कि जिनकल्प में मात्र उत्सर्ग परिग्रह का त्याग, जिसमें वस्त्र-त्याग भी समाहित है, आवश्यक है, मार्ग का ही अनुसरण किया जाता है। अत: उसमें कल्पप्रतिसेवना किन्तु वे दिगम्बर-परम्परा के समान एकान्त रूप से यह घोषणा नहीं और दर्पप्रतिसेवना दोनों का अर्थात् किसी भी प्रकार के अपवाद के करते हैं कि वस्त्रधारी चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों नहीं हो, मुक्त नहीं । अवलम्बन का ही निषेध है जबकि स्थविरकल्प में उत्सर्ग और अपवाद हो सकता। वे सवस्त्र में भी आध्यात्मिक विशुद्धि और मुक्ति की दोनों ही मार्ग स्वीकार किये गए हैं। यद्यपि अपवाद-मार्ग में भी मात्र भजनीयता अर्थात् सम्भावना को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार वे कल्पप्रतिसेवना को ही मान्य किया गया है। दर्पप्रतिसेवना को किसी अचेलकत्व सम्बन्धी मान्यता के सन्दर्भ में दिगम्बर-परम्परा के निकट भी स्थिति में मान्य नहीं किया गया है। खड़े होकर भी अपना भिन्न मत रखते हैं। वे अचेलकत्व के आदर्श श्वेताम्बर-परम्परा में मान्य आगमों में प्रारम्भ में तो भगवान् महावीर को स्वीकार करके भी सवस्त्र मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार करते के समान नग्नता को ग्रहण कर, कर-पात्र में भोजन ग्रहण करते हुए हैं। पुन: मुनि के लिये अचेलकत्व का पुरजोर समर्थन करके भी वे अपवादरहित जो मुनिधर्म की कठिन साधना की जाती है, उसे ही यह नहीं कहते हैं कि जो आपवादिक स्थिति में वस्त्र धारण कर रहा जिनकल्प कहा गया है किन्तु कालान्तर में इस परिभाषा में परिवर्तन हुआ। है, वह मुनि नहीं है। जहाँ हमारी वर्तमान दिगम्बर-परम्परा मात्र लँगोटधारी यापनीय-परम्परा में जिनकल्प का उल्लेख हमें भगवतीआराधना ऐलक, एक चेलक या दो वस्त्रधारी, क्षुल्लक को मुनि न मानकर उत्कृष्ट और उसकी विजयोदया टीका में मिलता है। उसमें कहा गया है कि श्रावक ही मानती है, वहाँ यापनीय-परम्परा ऐसे व्यक्तियों की गणना "जो राग-द्वेष और मोह को जीत चुके हैं, उपसर्ग को सहन करने मुनिवर्ग के अन्तर्गत ही करती है। अपराजित आचारांग का एक सन्दर्भ में समर्थ हैं, जिन के समान एकाकी विहार करते हैं, वे जिनकल्पी देकर, जो वर्तमान आचारांग में नहीं पाया जाता है, कहते हैं कि ऐसे कहलाते हैं" क्षेत्र आदि की अपेक्षा से विवेचन करते हुए उसमें आगे व्यक्ति नो-सर्वश्रमणागत हैं। तात्पर्य यह है कि सवस्त्र मुनि अंशत: कहा गया है कि जिनकल्पी सभी कर्मभूमियों और सभी कालों में होते श्रमणभाव को प्राप्त हैं। इस प्रकार यापनीय आपवादिक स्थितियों में हैं। इसी प्रकार चारित्र की दृष्टि से वे सामायिक और छेदोपस्थापनीय परिस्थितिवश वस्त्र-ग्रहण करने वाले श्रमणों को श्रमण ही मानते हैं, चारित्र वाले होते हैं। वे सभी तीर्थङ्करों के तीर्थ में पाए जाते हैं और
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन जन्म की अपेक्षा से ३० वर्ष की वय और मुनि-जीवन की अपेक्षा किया गया है उनमें मात्रक और चूलपट्टक ये दो उपधि जिनकल्पी से १९ वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाले होते हैं। ज्ञान की दृष्टि से नव-दस नहीं रखते हैं। पूर्व-ज्ञान के धारी होते हैं। वे तीनों शुभ लेश्याओं से युक्त होते हैं यापनीयों की दूसरी विशेषता यह है कि वे श्वेताम्बरों के समान और वज्रऋषभ-नाराच-संहनन के धारक होते हैं।
जिनकल्प का विच्छेद नहीं मानते। उनके अनुसार समर्थ साधक सभी अपराजित के अतिरिक्त जिनकल्प और स्थाविरकल्प का कालों में जिनकल्प को धारण कर सकते हैं, जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार उल्लेख यापनीय आचार्य शाकटायन के स्त्रीमुक्तिप्रकरण में भी है। जिनकल्पी केवल तीर्थङ्कर की उपस्थिति में ही होते हैं। यद्यपि यापनीयों इससे यह प्रतीत होता है कि जिनकल्प की अवधारणा श्वेताम्बर एवं की इस मान्यता में उनकी ही व्याख्यानुसार एक अन्तर्विरोध आता यापनीय दोनों परम्पराओं में लगभग समान ही थी। मुख्य अन्तर यह है, क्योंकि उन्होंने अपनी जिनकल्पी की व्याख्या में यह माना है कि है कि यापनीय-परम्परा में जिनकल्पी के द्वारा वस्त्र-ग्रहण का कोई जिनकल्पी नौ-दस पूर्वधारी और प्रथम संहनन के धारक होते हैं। चूंकि उल्लेख नहीं है, क्योंकि उसमें मुनि के लिये वस्त्र-पात्र की स्वीकृति उनके अनुसार भी वर्तमान में पूर्वो का ज्ञान और प्रथम संहनका केवल अपवाद-मार्ग में है, उत्सर्ग-मार्ग में नहीं और जिनकल्पी उत्सर्ग- (वज्र-ऋषभ- नाराच-संहनन) का अभाव है, अत: जिनकल्प सर्वकालों मार्ग का अनुसारण करता है। अत: यापनीय-परम्परा के अनुसार वह में कैसे सम्भव होगा? इन दो-तीन बातों को छोड़कर यापनीय और किसी भी स्थिति में वस्त्र-पात्र नहीं रख सकता। वह अचेल ही रहता श्वेताम्बर परम्परा में जिनकल्प के सम्बन्ध में विशेष अन्तर नहीं है। है और पाणि-पात्री होता है। जबकि श्वेताम्बर-परम्परा के मान्य ग्रन्थों विशेष जानकारी के लिये भगवती-आराधना की टीका और बृहत्कल्पशष्य के अनुसार जिनकल्पी अचेल भी होता है और सचेल भी। वे पाणि-पात्री के तत्सम्बन्धी विवरणों को देखा जा सकता है। भी होते हैं और सपात्र भी होते हैं। ओघनियुक्ति (गाथा ७८-७९) ज्ञातव्य है कि दिगम्बर-ग्रन्थ गोम्मटसार और यापनीय -ग्रन्थ में उपधि (सामग्री) के आधार पर जिनकल्प के भी अनेक भेद किये भगवतीआराधना की टीका में जिनकल्प को लेकर एक महत्त्वपूर्ण अन्तर
परिलक्षित होता है, वह यह कि जहाँ गोम्मटसार में जिनकल्पी मुनि इसी प्रकार निशीथभाष्य में भी जिनकल्पी की उपधि को लेकर को मात्र सामायिक चारित्र माना गया है, वहाँ भगवतीआराधना में उनमें विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। उसमें सर्वप्रथम यह बताया गया । सामायिक और छेदोपस्थापनीय ऐसे दो चारित्र माने गए हैं। वस्तुतः है कि पात्र की अपेक्षा से जिनकल्पी दो प्रकार के होते हैं-पाणिपात्र यह अन्तर इसलिये आया कि जब दिगम्बर परम्परा में छेदोपस्थापनीय अर्थात् बिना पात्र वाले और पात्रधारी। इसी प्रकार वस्त्र की अपेक्षा चारित्र का अर्थ महाव्रतारोपण से भिन्न होकर प्रायश्चित रूप पूर्व-दीक्षा से भी उसमें जिनकल्पियों के दो प्रकार बताए गए हैं-अचेलक और पर्याय के छेद के अर्थ में लिया गया, तो जिनकल्पी में प्रायश्चित्त रूप सचेलक। पुन: इनकी उपधि की चर्चा करते हुए कहा गया है कि छेदोपस्थापनीय चारित्र का निषेध मानना आवश्यक हो गया, क्योंकि अचेलक और पाणिपात्रभोजी जिनकल्पी होते हैं वे रजोहरण और जिनकल्पी की साधना निरपवाद होती है। हमें जिनकल्प और स्थविरकल्प मुखवस्त्रिका ये दो उपकरण रखते हैं। जो सपात्र और सवस्त्र होते हैं का उल्लेख प्राय: श्वेताम्बर एवं यापनीय-परम्परा में ही देखने को मिला उनकी उपधि की संख्या कम से कम तीन और अधिक से अधिक है। दिगम्बर-परम्परा में यापनीय-प्रभावित ग्रन्थों को छोड़कर प्राय: इस बारह होती है। स्थाविरकल्पी की जिन चौदह उपधियों का उल्लेख चर्चा का अभाव ही है।
सन्दर्भ
सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, सूरत, १९३५. १. णिच्चेलपाणिपत्तं उवइ8 परमजिण वरिदेहि।
(ब) सव्वेऽवि एगदूसेण, निग्गया जिनवरा चउव्वीसं। एक्को वि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे।। - सूत्रप्राभृत,१०। -आवश्यकनियुक्ति २२७, हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, लाखाबावल, एगयाऽ चेलए होइ सचेले यावि एगया। --- उत्तराध्ययन, २/१३। शांतिपुरी (सौराष्ट्र), १९८९। उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव।
६. (अ) आवश्यकनियुक्ति, गाथा १२५८। अववादियलिंगस्स वि पसत्थमुवसग्गियं लिंग।।
(ब) वही, १२६०।
- भगवतीआराधना, ७६। ७. अचेलगो य जो धम्मो जो इमोसंतरुत्तरो। ४. णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो।
देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा।। णग्गो विमोक्ख मग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे।।
-उत्तराध्यययन, २३/२९ - सूत्रप्राभृत, २३। ८. वही, २३/२४। (अ) से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य आगमेस्सा अरहंता ९. मुनयो वातरशना पिशङ्गा वसते मला:। भगवंतो जे य पव्वयंति जे उन पव्वइस्संति सव्वे ते सोवही धम्मो वातस्यानु धाजिम यति यद्देवासो अविक्षत।। देसिअव्वोत्ति कट्ट तित्थधम्मत्थाए एसाएणुधम्मिग ति एवं देवदूसमायाए
- ऋग्वेद, १०/१३६/२। पव्वइंसु वा पव्वयंति वा पव्वइसंति वा।
१०. ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचाएँ : एक अध्ययन, डॉ० - आचारांग १/९/१-१ (शीलांक टीका), भाग, पृ० २७३, सागरमल जैन, संधान, अंक ७, राष्ट्रीय मानव संस्कृति शोध Poironirombrarianidnidentionsansorbonidmirabad१०४]nirbroard-irowondiwoodrowoninionorarioritonironiorar
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यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन संस्थान, वाराणसी, १९९३, पृ० २२।
अपरे वदन्ति विलम्बनकारिणा जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति। ११. श्रीमद्भागवत, २/७/१०।
- भगवतीआराधना, गाथा ४२३ की विजयोदया टीका, सम्पादक १२. (अ) उत्तराध्ययनसूत्र, २३/२६।
पं० कैलाशचन्द्रजी, भाग १, पृ० ३२५-३२६. (ब) यथोक्तम्-पुरिमं पच्छिमाणं अरहताणं भगवंताणं अचेलये पसत्थे (ब) तच्च सुबर्णवालुकानदीपूराहतकण्टकावलग्नं धिग्जातिना गृहीतमिति। भवइ। उत्तराध्ययन-नेमिचन्द की टीका, आत्मवल्लभ, ग्रन्थांक
- आचारांग, शीलांकवृत्ति, १/९/१/४-की वृत्ति। २२, बालापुर, १९३७, २/१३, पृ० २२ पर उद्धृत। (स) तहावि सुवण्णबालुगानदीपूरे अवहिते कंटराएग्गं...। किमिति वुच्चति १३. उत्तराध्ययन, २२/३३-३४।
चिरधरियत्ता सहसा व लज्जता थंडिले चुतं णवित्ति विप्पेण केणति १४. वही, २३/२९॥
दिटुं..। १५. 'जो इमो ति यश्चायं सान्तराणि वर्धमानस्वामियत्यपेक्षयामानवर्णविशेषतः - आचारांगचूर्णि,ऋषभदेव केसरीमल संस्था, रतलाम, पृ०३००।
सविशेषाणि उत्तराणि- महामूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमाद् वस्त्राणि (द) सामी दक्खिणवाचालाओ उत्तरवाचालं वच्चति, तत्थ सुव्वण्णकुलाए यस्मिन्नसौ सान्तरोत्तरो धर्मः पार्श्वेन देशित इतीहाऽप्यपेक्ष्यते।
वुलिणे तं वत्थं कंटियाए लग्गं ताहे तं थितं सामी गतो पुणो य - उत्तराध्ययन, नेमिचन्दकृत सुखबोधावृत्ति सहित, पृ० २९५, अवलोइतं, किं निमित्तं? केती भणंति - जहा ममत्तीए अन्ने भणंति बालापुर, २३/१२, वीर-नि० सं० २४६३
मा अत्थंडिले पडितं, अवलोइतं सुलभ वत्थं पत्तं सिस्साणं १६. परिसुद्धं जुण्णं कुच्छितं थोवाणियत ऽण्ण भोगभोगेहि मुणयो भविस्सति? तं च भगवता य तेरसमासे अहाभावेणं धारियं ततो मुच्छारहिता संतेहि अचेलया होति।।
वोसरियं पच्छा अचेलते। तं एतेण पितुवंतस धिज्जातितेण गहितं। विशेषावश्यकभाष्य, पं० दलसुख मालवणिया, लालभाई दलपतभाई - आवश्यकचूर्णि, भाग १, ऋषभदेव केसरीमल संस्थान, रतलाम,
भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद, गाथा ३०८२, १९६६। पृ० २७७। १७. अहपुण एवं जाणिज्जा- उवाइक्कंते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने इससे यह फलित होता है कि उनके वस्त्रत्याग के सम्बन्ध में जो विभिन्न
अहापरिजुन्नाइं वत्थाई परिठ्ठविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले प्रवाद प्रचलित थे—उनका उल्लेख न केवल यापनीय अपितु श्वेताम्बर अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले। अपगते शीते वस्त्राणि त्याज्यानि आचार्य भी कर रहे थे। अथवा क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरितुलनार्थ २४. आचारांग, शीलांकवृत्ति, १/९/१/१-४, पृ० २७३। शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत् सान्तरमुत्तरं - प्रावरणीयं यस्य स २५. (अ) सव्वेऽवि एगदूसेण, निग्गया जिणवरा चउव्वीसं। तथा, क्वचित्पावृणोति क्वचित्पार्श्ववर्ति बिभर्ति, शीताशङ्कया नाद्यापि न य नाम अण्णलिंगे, नो गिहिलिंगे कुलिंगे वा।। परित्यजति, अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात्, द्विकल्पधारीत्यर्थः
-आवश्यकनियुक्ति, २२७. अथवा शनैः-शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयमपि कल्पं परित्यजेत् (ब) बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवइसंति। तत् एकशाटकः संवृत्तः अथवा ऽऽत्यन्तिके शीताभावे तदपि छेओवट्ठावणयं पुण वयंति उसभो य वीरो य।। परित्यजेदतोऽचेलो भवति।
-आवश्यकनियुक्ति, १२६०. - आचारांग (शीलांकवृत्ति), सं० जम्बूविजय, १/८/४, सूत्र २६. (अ) एवमेगे उ पासत्था। सूत्रकृतांग, १/३/४/९ २१२, पृ० २७७।
(ब) पासत्थादीपणयं णिच्चं वज्जेह सव्वधा तुम्हे। १८. देखें, उपर्युक्त।
हंदि हु मेलणदोसेण होइ पुरिसस्स तम्मयदा।। १९. देखें, उपयुक्त।
-भगवतीआराधना, गाथा ३४१. २०. देखें, उपर्युक्त।
२७. छक्कायरक्खणट्ठा पायग्गहणं जिणेहिं पन्नत्तं २१. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास (पूर्वपीठिका), जे य गुणा संभोए हवंति ते पायगहणेवि।। गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, वी०नि० सं० २४८९,
-ओघनियुक्ति, ६९१. पृ० ३९९।
२८. निग्गंथा एक साटका। मज्झिमनिकाय-महासिहनादसुत्त,१/१/२। २२. णो चेविमेण वत्येण पिहिस्सामि तंसि हेमंते।
२९. देखें-दीघनिकाय, अनु० भिक्षु राहुल सांकृत्यायन एवं भिक्षु से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स।।
जगदीश कश्यप, महाबोधि सभा, बनारस १९३६, पासादिकसुत्त ३/ संवच्छरं साहियं मासं जं ण रिक्कासि वत्थगं भगवं।
६, पृ० २५२। अचेलए ततो चाई तं वोसज्ज वत्थमणगारे।।
३०. भगवई, पन्नरसं सतं, १०१-१५२, सं० मुनि नथमल, जैन
-आयारो, १/९/१/२ एवं ३ विश्वभारती लाडनूं, वि० सं० २१३१, पृ० ६७७-६९४। २३. (अ) यच्च भावनायामुक्तं- वरिसं चीवरधारी तेण परमचेलगो ३१. देखें- दीघनिकाय, पासादिकसुत्तं, ३/६, पृ० २५२।
जिणोत्ति- तदुक्तं विप्रतिपत्तिबहुलत्वात्। कथं केचिद्वदन्ति तस्मिन्नेव ३२. धम्मपद, अट्टकथा, तृतीय भाग, गाथा ४८९। दिने तद्वस्त्रं वीरजिनस्य विलम्बनकारिणा गृहीतमिति। अन्ये षण्मासाच्छिन्नं ३३. भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, सं० कैलाशचन्द्र तत्कण्टकशाखादिभिरिति। साधिकेन वर्षेण तद्वस्त्रं खण्डलकबाह्मणेन सिद्धान्तशास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९३८, गृहीतमिति केचित्कथयन्ति। केचिद्वातेन पतितमपेक्षितं जिनेनेति। पृ०३२४।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - ३४. धुवं च पडिलेहेज्जा जोगसा पायकंबलं।
निशीसूत्र, २/२३, उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, सेज्जमुच्चारभूमिं च संथारं अदुवासण।।
गाथा ४२३, पृ० ३२४. दशवैकालिक, ८/१७, नवसुत्ताणि, सं० युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन ४१. भगवती-आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४. विश्वभारती, लाडनूँ, १९६७, पृ० ६८.
४२. भगवती-आराधना में उल्लिखित प्रस्तुत सन्दर्भ वर्तमान आचारांग में ३५. आचारांग, १/५/८९, सं० युवाचार्य मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन अनुपलब्ध है। उसमें मात्र स्थिरांग मुनि के लिये एक वस्त्र और एक समिति, व्यावर।
पात्र से अधिक रखने की अनुज्ञा नहीं है। सम्भवतः यह परिवर्तन ३६. (अ) एसेहिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज पडिलेहणगं विदियं तत्थ एसे परवर्ती -काल में हुआ है। जुग्नि देसे दुवे वत्थाणि धारिज्ज पडिलेहणगं तदियं।
४३. (अ) हिरिहेतुकं व होइ देहदगंछंति देहे जुग्गिदगे। आचारांग, वस्त्रैषणा-उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, धारेज्ज सिया वत्थं परिस्सहाणं च ण विहासीति।। गाथा ४२३, पृ० ३२४.
कल्पसूत्र से उद्धृत-भगवती-आराधना, विजयोदया टीका. गाथा जे णिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके विरसंघयणे, से एग वत्थं ४२३, पृ० ३२४. धारेज्जा, णो बितियं।
प्रस्तुत सन्दर्भ उपलब्ध बृहत्कल्पसूत्र में प्राप्त नहीं होता है। यद्यपि -आचारचूला, द्वितीयश्रुतस्कन्ध, २/५/१/२, पृ० १६१। वस्त्र धारण करने के इन कारणों का उल्लेख स्थानांगसूत्र, स्थान ३ ३७. (अ) हिरिमणे वा जुग्गिदे चावि अण्णगे वा तस्स णं कप्पदि वत्थादिकं में निम्न रूप में मिलता है- कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पादचारित्तए इति।
तओ वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तंजहा- जंगिए, भंगिए, - वही, गाथा ४२३, पृ० ३२४॥
खोमिए। (ब) जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं पायं
-ठाणांग, ३/३४५। धारेज्जा, णो बीयं।
४४. आचारांग, शीलांकवृत्ति, १/७/४, सूत्र, २०९, पृ० २५१। -आचारांगसूत्र, आचारचूला, २/६/१/२। ४५.- (अ) भगवती-आराधना, विजयोदया टीका, पृ० ३२५-३२६. ३८. संवच्छरं साहियं मास, जं ण रिक्कासि वत्थगं भगवं।
तुलनीय आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० २७६. अचेलए ततो चाई, तं वोसज्ज वत्थमणगारे।।
(ब) आवश्यकसूत्रं (उत्तरभागं) चूर्णि सहित, ऋषभदेव केशरीमल
-आचारांग, १/९/१/४। श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, १९२९. ३९. (अ) ण कहेज्जो धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदुमिति।।
४६. भगवती-आराधना, विजयोदया टीका, पृ० ३२६-३२७, पालित्रिपिटक, - सूत्रकृतांग, पुंडरीक अध्ययन, उद्धृत भगवती आराधना, कन्कोडेंन्स, पृ० ३४५. विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४.
४७. भगवती-आराधना, भाग १ (विजयोदया टीका), गाथा १५७ की (ब) णो पाणस्स (पायस्स) हेउ धम्ममाइक्खेज्जा। णो वत्थस्स हेउं टीका, पृ० २०५.
धम्माइक्खेज्जा। - सूत्रकृताङ्ग, २/१/६८, पृ० ३६६. ४८. (अ) शाकटायन व्याकरणम्, स्त्री-मुक्तिप्रकरणम् ७, सम्पादक ४०. (अ) कसिणाई वत्थकंबलाइं जो भिक्खू पडिग्गहिदि आपज्जदि पं० शम्भुनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, मासिगं लहुगं।
१९७१, पृ० १। -- निशीथसूत्र, २/२३, उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया (ब) बृहत्कल्पसूत्र ६/९, सम्पादक मधुकर मुनि, ब्यावर, १९९२। टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४.
४९. (अ) बृहत्कल्पसूत्र ६/२०. (ब) जे भिक्खू कसिणाई वत्थाई धरति, धरेतं वा सातिज्जति।
(ब) पञ्चकल्पभाष्य (आगमसुधासिन्धु), ८१६-८२२।
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जैन नीति-दर्शन की सामाजिक सार्थकता
जैनधर्म को जिन आधारों पर सामाजिक जीवन से कटा हुआ व्यक्ति के नैतिक विकास के परिणामस्वरूप जो सामाजिक जीवन फलित माना जाता है, वे दो हैं- एक वैयक्तिक मुक्ति को प्रमुखता और दूसरा होगा, वह सुव्यवस्था और शान्ति से युक्त होगा, उसमें संघर्ष और निवृत्ति-प्रधान आचार-मार्ग का प्रस्तुतीकरण। यह सत्य है कि जैन-धर्म तनाव का अभाव होगा। जब तक व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति नहीं निवृत्तिपरक है और वैयक्तिक मोक्ष को जीवन का परम साध्य स्वीकार आती, तब तक सामाजिक जीवन की प्रवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकती। करता है, किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि उसके नीतिदर्शन अपने व्यक्तिगत जीवन का शोधन करने के लिये राग-द्वेष के मनोविकारों की कोई सामाजिक सार्थकता नहीं है, क्या एक भ्रांति नहीं होगी? और असत् कर्मों से निवृत्ति आवश्यक है। जब व्यक्तिगत जीवन में यद्यपि यह सही है कि वह वैयक्तिक चरित्रनिर्माण पर बल देता है निवृत्ति आयेगी, तो जीवन पवित्र और निर्मल होगा, अंतःकरण विशुद्ध किन्तु वैयक्तिक चरित्र के निर्माण हेतु उसने जिस मार्ग का प्रस्तुतीकरण होगा और तब जो भी सामाजिक प्रवृत्ति फलित होगी वह लोकहितार्थ किया है, वह सामाजिक मूल्यों से विहीन नहीं है। प्रस्तुत निबन्ध में और लोकमंगल के लिये होगी। जब तक व्यक्तिगत जीवन में संयम हम इन्हीं मूल प्रश्नों के सन्दर्भ में यह देखने का प्रयास करेंगे कि और निवृत्ति के तत्त्व नहीं होंगे, तब तक सच्चा सामाजिक जीवन फलित जैन नीतिदर्शन की सामाजिक उपादेयता क्या है?
ही नहीं होगा। जो व्यक्ति अपने स्वार्थों और अपनी वासनाओं का
नियंत्रण नहीं कर सकता, वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता। क्या निवृत्ति सामाजिक विमुखता की सूचक है?
उपाध्याय अमरमुनि के शब्दों में जैनदर्शन की निवृत्ति का मर्म यही सर्वप्रथम यह माना जाता है कि जो आचार-दर्शन निवृत्ति परक है कि व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति और सामाजिक जीवन में प्रवृत्ति। हैं, वे व्यक्ति-परक हैं। जो आचार दर्शन प्रवृत्ति-परक हैं, वे समाजपरक लोकसेवक या जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों एवं द्वन्द्वों से दूर रहे, हैं। पं.सुखलालजी भी लिखते हैं कि प्रवर्तक धर्म का संक्षेप सार यह यह जैन-दर्शन की आचार-संहिता का पहला पाठ है। अपने व्यक्तिगत है कि जो और जैसी समाज-व्यवस्था हो, उसे इस तरह नियम और जीवन में मर्यादाहीन भोग और आकांक्षाओं से निवृत्ति लेकर ही कर्तव्यबद्ध करना कि जिससे समाज का प्रत्येक सदस्य अपनी-अपनी समाज-कल्याण के लिये प्रवृत्त होना जैनदर्शन का पहला नीति-धर्म स्थिति और कक्षा के अनुरूप सुख-लाभ करे। प्रवर्तक धर्म समाजगामी है।' सामाजिक नैतिकता और व्यक्तिगत नैतिकता परस्पर विरोधी नहीं है, इसका मतलब यह है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर सामाजिक हैं। बिना व्यक्तिगत नैतिकता को उपलब्ध किये सामाजिक नैतिकता कर्तव्यों का, जो ऐहिक जीवन से संबध रखते हैं, पालन करे। निवर्तक की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक धर्म व्यक्तिगामी है। निवर्तक धर्म समस्त सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों जीवन के लिये घातक ही होगा। अतः हम कह सकते हैं कि जैनसे बद्ध होने की बात नहीं मानता है। उसके अनुसार व्यक्ति के लिये दर्शन में निवृत्ति का जो स्वर मुखर हुआ है, वह समाजविरोधी नहीं मुख्य कर्तव्य एक ही है और वह यह कि जिस तरह भी हो आत्मसाक्षात्कार है, वह सच्चे अर्थों में सामाजिक जीवन का साधक है। चरित्रवान् व्यक्ति का और उसमें रुकावट डालने वाली इच्छा के नाश का प्रयत्न करे। और व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठे हुए व्यक्ति ही किसी आदर्श समाज 'यद्यपि जैन धर्म निवर्तक-परम्परा का हामी है, लेकिन उसमें सामाजिक का निर्माण कर सकते हैं। वैयक्तिक स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो भावना से पराङ्मुखता नहीं दिखाई देती है। वह यह तो अवश्य मानता संगठन या समुदाय बनते हैं, वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो सकता नहीं हैं। क्या चोर, डाकू और शोषकों का समाज, समाज कहलाने है, किन्तु साथ ही वह यह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त का अधिकारी है? समाज जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में भी होना चाहिए। व्यक्ति अपने और पराये के भाव से तथा अपने व्यक्तिगत क्षुद्र महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है। बारह वर्षों तक एकाकी स्वार्थी से ऊपर उठे, चूँकि जैन नीति-दर्शन हमें इन्हीं तत्त्वों की शिक्षा साधना करने के पश्चात् वे पुन: सामाजिक जीवन में लौट आए और देता है, अतः वह सच्चे अर्थों में सामाजिक है, असामाजिक नहीं है। चतुर्विध संघ की स्थापना की एवं उसको जीवन भर मार्गदर्शन देते जैन-दर्शन का निवृत्तिपरक होना सामाजिक विमुखता का सूचक नहीं रहे। वस्तुत: उनकी निवृत्ति उनके द्वारा किये जानेवाले सामाजिक-कल्याण है। अशुभ से निवृत्ति ही शुभ में प्रवृत्ति का साधन बन सकती है। में साधक ही बनी है, बाधक नहीं। वैयक्तिक जीवन के नैतिक स्तर महावीर की नैतिक शिक्षा का सार यही है। वे 'उत्तराध्ययनसूत्र' में का विकास लोकजीवन या सामुदायिक जीवन की प्राथमिकता है। महावीर कहते हैं-एक ओर से निवृत्त होओ और एक ओर प्रवृत्त होओ। असंयम सामाजिक-सुधार और सामाजिक-सेवा की आवश्यकता तो मानते थे से निवृत्त होओ, संयम में प्रवृत्त होओ।' वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति किन्तु वे व्यक्ति-सुधार से समाज-सुधार की दिशा में बढ़ना चाहते थे। ही सामाजिक प्रवृत्ति का आधार है। संयम ही सामाजिक जीवन का शक्ति समाज की प्रथम इकाई है, वह सुधरेगा तो ही समाज सुधरेगा। आधार है।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्ध - जैन दर्शन सर्वहित और लोकहित के सन्दर्भ में जैन-दृष्टि
साधना मार्ग में आता है और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त यद्यपि जैन-दर्शन में आत्मकल्याण और वैयक्तिक मुक्ति को कर लेने के पश्चात् भी लोकहित में लगा रहता है। सर्वहित, सर्वोदय जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। किन्तु इस आधार पर भी उसे और सर्वलोक का कल्याण ही उसके जीवन का ध्येय बन जाता हैं। असामाजिक नहीं कहा जा सकता है। जिस करुणा और लोकहित की २.गणधर-सहवर्गीय हित के संकल्प को लेकर साधना-क्षेत्र अनुपम भावना से अर्हत्-प्रवचन का प्रस्फुटन होता है, उसे नहीं झुठलाया ____में प्रविष्टि पानेवाले और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेने जा सकता है।
के पश्चात् भी सहवर्गियों के हित एवं कल्याण के लिये प्रयत्नशील जैनाचार्य समन्तभद्र जिन-स्तुति करते हुए कहते हैं-भगवन! रहनेवाले साधक गणधर कहलाते हैं। समूह-हित या गण-कल्याण गणधर आपकी यह संघ (समाज) व्यवस्था सभी प्राणियों के सर्व दुःखों का के जीवन का ध्येय होता है।।५। अन्त करनेवाली और सबका कल्याण (सर्वोदय) करने वाली है। इससे ३. सामान्य केवली-अत्मकल्याण को ही जिसने अपनी साधना बढ़कर लोक-आदर्श और लोकमंगल की कामना क्या हो सकती है? का ध्येय बनाया है और जो इसी आधार पर साधना-मार्ग में प्रवृत्त प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है- भगवान् का यह सुकथित होता हुआ आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि करता है, वह सामान्य प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिये है।५ केवली कहलाता है।१२ जैन-साधना लोकमंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ती है। उसी साधारण रूप में विश्व-कल्याण, वर्ग-कल्याण और वैयक्तिक-कल्याण सूत्र में आगे यह भी बताया गया है कि जैन साधना के पाँचों महाव्रत की भावानओं को लेकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही साधकों सर्वप्रकार से लोकहित के लिये ही हैं। अहिंसा-विवेचना करते हुए की ये कक्षाएँ निर्धारित की गई हैं। जिनमें विश्वकल्याण के लिए प्रवृत्ति कहा गया है कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी करने के कारण ही तीर्थकर को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। जिस प्राणियों का कल्याण करने वाली है। यह भगवती अहिंसा प्राणियों प्रकार बौद्ध-विचारणा में बोधिसत्व और अर्हत के आदर्शों में भिन्नता के लिये निर्बाध रूप से हितकारिणी है। यह प्यासों को पानी के समान, है, उसी प्रकार जैन-साधना में तीर्थकर और सामान्य केवली के आदर्शों भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के में तारतम्य है। लिए ओषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है'। इन सबके अतिरिक्त जैन-साधना में संघ (समाज) को सर्वोपरि
तीर्थङ्कर-नमस्कारसूत्र (नमोत्थुणं) में तीर्थंकर के लिए लोकनाथ, माना गया है। संघहित समस्त वैयक्तिक साधनाओं से भी ऊपर है, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभय के दाता आदि जिन विशेषणों का विशेष परिस्थितियों में तो संघ के कल्याण के लिये वैयक्तिक साधना प्रयोग हुआ है वे भी जैन-दृष्टि की लोक मंगलकारी भावना को स्पष्ट का परित्याग करना भी आवश्यक माना गया है। जैन-साहित्य में आचार्य करते हैं। तीर्थंकरों का प्रवचन एवं धर्म-प्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह भद्रबाहु एवं कालक की कथा इसका उदाहरण है। १३ के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए। यदि ऐसा माना स्थानांगसूत्र में जिन दस धर्मों (कर्तव्यों)" का निर्देश दिया गया जाय कि जैन-साधना केवल आत्महित या आत्म-कल्याण की बात है, उनमें संघधर्म, गणधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म और कुलधर्म कहती है तो फिर तीर्थंकर के द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन या संघ-संचालन का की उपस्थिति इस बात का सबल प्रमाण है कि जैन-दृष्टि न केवल कोई अर्थ ही नहीं रह जाता; क्योकि कैवल्य की उपलब्धि के बाद आत्महित या वैयक्तिक विकास तक सीमित है, वरन् उसमें लोकहित उन्हें अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता है। अतः या लोक-कल्याण का अजस्र प्रवाह भी प्रवाहित हो रहा है। मानना पड़ेगा कि जैनसाधना का आदर्श मात्र आत्मकल्याण ही नहीं, यद्यपि जैनाचारदर्शन लोकहित, लोकमंगल की बात कहता है, वरन् लोककल्याण भी है।
लेकिन उसकी एक शर्त है कि परार्थ के लिये स्वार्थ का विसर्जन जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित की श्रेष्ठता । किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं। उसके अनुसार वैयक्तिक को सदैव ही महत्त्व दिया है। जैन-विचारणा के अनुसार साधना की भौतिक उपलब्धियों को लोक-कल्याण के लिये समर्पित किया जा सकता सर्वोच्च उँचाई पर स्थित सभी जीवन्मुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि है और किया भी जाना चाहिए, क्योंकि वे हमें जगत् से ही मिली से यद्यपि समान ही होते हैं, फिर भी जैन विचारकों ने उनकी हैं वे वस्तुत: संसार की हैं, हमारी नहीं, सांसारिक उपलब्धियाँ संसार आत्महितकारिणी और लोकहितकारिणी दृष्टि के तारतम्य को लक्ष्य के लिए हैं, अतः उनका लोकहित के लिये विसर्जन किया जाना चाहिए। में रखकर उनमें उच्चावच्च अवस्था को स्वीकार किया है। एक सामान्य लेकिन उसे यह स्वीकार नहीं है कि आध्यात्मिक विकास या वैयक्तिक केवली (जीवन्मुक्त) और तीर्थकर में आध्यात्मिक पूर्णताएँ तो समान नैतिकता को लोकहित के नाम पर कुंठित किया जाये। ऐसा लोकहित, हो होती हैं, फिर भी तीर्थंकर को उसकी लोकहित की दृष्टि के कारण जो व्यक्ति के चरित्र के पतन अथवा आध्यात्मिक कुंठन से फलित होता सामान्य केवली की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है। जीवन्मुक्तावस्था को हो, उसे स्वीकार नहीं है। लोकहित और आत्महित के संदर्भ में उसका प्राप्त कर लेने वाले व्यक्तियों के, उनकी लोकोपकारिता के आधार स्वर्णिम सूत्र है 'आत्महित करो और यथाशक्ति लोकहित भी करो, लेकिन पर, तीन वर्ग होते हैं- १.तीर्थंकर, २. गणधर और ३.सामान्य केवली। जहाँ आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और आत्महित के कंउन
१. तीर्थकर-तीर्थंकर वह है जो सर्वहित के संकल्प को लेकर पर ही लोकहित फलित होता हो तो वहाँ आत्मकल्याण ही है। anoranoranoramionarianoonioritdoodmoromiraroord-१०८]-6amrorandiriwariwondardnirodroombromishridwordarni
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - आत्महित स्वार्थ ही नहीं है - यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए था कि आपकी भक्ति करने वाले तथा वृद्ध, ग्लान एवं रोगी की सेवा कि जैन-धर्म का यह आत्महित स्वार्थवाद नहीं है। आत्म-काम वस्तुतः करने वाले में कौन श्रेष्ठ है? तो महावीर का उत्तर था कि सेवा करने निष्काम होता है, क्योंकि उसकी कोई कामना नहीं होता है, अतः वाला ही श्रेष्ठ है। जैन-समाज के द्वारा आज भी जन-सेवा और प्राणी-सेवा उसका स्वार्थ भी नहीं होता है। आत्मार्थी कोई भौतिक उपलब्धि नहीं के जो अनेक कार्य किये जा रहे हैं, वे इसके प्रतीक हैं। फिर भी चाहता है। वह तो उसका विसर्जन करता है। स्वार्थी तो वह है जो यह एक ऐसा स्तर है जहाँ हितों का संघर्ष होता है। एक का हित यह चाहता है कि सभी उसकी भौतिक उपलब्धियों के लिये कार्य करें। दूसरे के अहित का कारण बन जाता है। अतः द्रव्य-लोकहित एकान्त स्वार्थ और आत्मकल्याण में मौलिक अन्तर यह है कि स्वार्थ की साधना रूप से आचरणीय भी नहीं कहा जा सकता है। यह सापेक्ष नैतिकता में राग और द्वेष की वृत्तियाँ काम करती हैं। जबकि आत्मकल्याण का क्षेत्र है। भौतिक स्तर पर स्वहित की पूर्णतया उपेक्षा भी नहीं की का प्रारम्भ ही राग-द्वेष की वृत्तियों की क्षणिकता से होता है। राग-द्वेष जा सकती है। यहाँ तो स्वहित और परहित में उचित समन्वय बनाना, से युक्त होकर आत्मकल्याण की सम्भावना ही नहीं रहती। यथार्थ यही अपेक्षित है। पाश्चात्य नैतिक विचारणा के परिष्कारित स्वार्थवाद, आत्महित में रागद्वेष का अभाव है। स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष की बौद्धिक परार्थवाद और सामान्य शुभतावाद का विचार-क्षेत्र लोकहित सम्भावना भी तभी तक है जबतक उनमें कहीं राग-द्वेष की वृत्ति निहित का यह भौतिक स्वरूप ही है। हो। रागुदि भाव या स्वहित की वृत्ति से किया जानेवाला परार्थ भी २. भाव-लोकहित - यह लोकहित भौतिक स्तर से ऊपर स्थित सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है। जिस प्रकार शासन है, यहाँ पर लोकहित के जो साधन हैं वे ज्ञानात्मक या चैतसिक होते के द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाज-कल्याण-अधिकारी वस्तुतः लोकहित हैं। इस स्तर पर परार्थ और स्वार्थ में संघर्ष की सम्भावना अल्पतम का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए लोकहित करता है। उसी होती है। मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ की भावनाएँ इस स्तर प्रकार राग से प्रेरित होकर लोकहित करने वाला भी सच्चे अर्थों में की अभिव्यक्ति करती हैं। लोकहित का कर्ता नहीं है, उसके लोकहित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति, ३.पारमार्थिक लोकहित-यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है, प्रतिष्ठा की रक्षा, यश: अर्जन की भावना या भावी-लाभ की प्राप्ति जहाँ स्वहित और परहित में कोई संघर्ष नहीं रहता, द्वैत नहीं रहता। के हेतु ही होते हैं। ऐसा परार्थ वस्तुतः स्वार्थ ही है। सच्चा आत्महित यहाँ पर लोकहित का रूप होता है- यथार्थ जीवनदृष्टि के सम्बन्ध
और सच्चा लोकहित, राग-द्वेष से शून्य अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित में मार्गदर्शन। यहाँ इसका रूप स्वयं अहित नहीं करना और अहित होता है लेकिन उस अवस्था में न तो अपना रहता है न पराया क्योंकि करने वाले का हृदय-परिवर्तन कर उसे सामाजिक अहित से विमुख जहाँ राग है वहीं 'मेरा है' और जहाँ मेरा हैं वहीं पराया है। राग की करना है। शून्यता होने पर अपने और पराये का विभेद ही समाप्त हो जाता है। ऐसी राग-शून्यता की भूमि पर स्थित होकर किया जाने वाला युगीन सामाजिक परिस्थितियों में जैन नीतिदर्शन का योगदान आत्महित भी लोकहित होता है और लोकहित आत्महित होता है। जैन आचार-दर्शन ने न केवल अपने युग की समस्याओं का दोनों में कोई संघर्ष नहीं है, कोई द्वैत नहीं है। उस दशाने तो सर्वत्र समाधान किया है वरन् वह वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान आत्म-दृष्टि होती है जिसमें न कोई अपना है, न कोई पराया है। में भी पूर्णतया सक्षम है। वस्तुस्थिति यह है कि चाहे प्राचीन युग हो स्वार्थ-परार्थ जैसी समस्या यहाँ रहती ही नहीं है।
या वर्तमान युग, मानव-जीवन की समस्यायें सभी युगों में लगभग जैन- विचारणा के अनुसार स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी समान रही हैं। मानव-जीवन की समस्याएँ विषमता-जनित है। वस्तुतः अवस्थाओं में संघर्ष रहे, यह आवश्यक नहीं। व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक विषमता ही समस्या है और समता ही समाधान हैं। ये विषमताएँ अनेक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे रूपों में अभिव्यक्त होती हैं। प्रमुख रूप से वर्तमान मानव-जीवन की स्वार्थ एवं परार्थ का संघर्ष भी समाप्त होता जाता है। जैन विचारकों विषमताएँ निम्न हैं- १. सामाजिक वैषम्य, २. आर्थिक वैषम्य, ३. ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने हैं।
वैचारिक वैषम्य और ४. मानसिक वैषम्य। अब हमें विचार यह करना . १.द्रव्य-लोकहित, २.भाव लोकहित और ३.पारमार्थिक लोकहिता है कि क्या जैन आचार-दर्शन इन विषमताओं का निराकरण कर
१.द्रव्य-लोकहिता- यह लोकहित का भोतिक स्तर है। भौतिक समत्व का संस्थापन करने में समर्थ है? नीचे हम प्रत्येक प्रकार की उपादानों जैसे भोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक सेवा के विषमताओं के कारणों का विश्लेषण और जैन-दर्शन द्वारा प्रस्तुत उनके द्वारा लोकसेवा करना द्रव्य लोकहित है। यह दान और सेवा का क्षेत्र समाधानों पर विचार करेंगे। है। पुण्य के नव प्रकारों में आहारदान, वस्त्रदान, औषधिदान आदि १. सामाजिक विषमता- व्यक्ति को चेतन जगत् के अन्य का उल्लेख यह बताता है कि जैनदर्शन दान और सेवा के दर्शन को प्राणियों के साथ जीवन जीना होता है। यह सामुदायिक जीवन है। स्वीकार करता है। तीर्थंकर द्वारा दीक्षा के पूर्व दिया जाने वाला दान सामुदायिक जीवन का आधार सम्बन्ध है और नैतिकता उस सम्बन्धों जैन-दर्शन में सामाजिक सेवा और सहयोग का क्या स्थान है, इसे की शुद्धि का विज्ञान है। पारस्परिक सम्बन्ध निम्न प्रकार के हैं
स्पष्ट कर देता है। मात्र यहीं नहीं, महावीर से जब यह पूछा गया १. व्यक्ति और परिवार, २. व्यक्ति और जाति, ३. व्यक्ति और समाज, anoraridwardrobrowondiwonilonorambromidnironiroranira[१०]nditorinironirodoodnirandirduirirdwardrobordoranirand
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - ४. व्यक्ति और राष्ट्र, ५. व्यक्ति और विश्व। इन सम्बन्धों की विषमता ही होगा। के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है। सामान्यतया राग-द्वेष दूसरे इस सामाजिक सम्बन्ध में व्यक्ति का अहं-भाव भी बहुत का सहगामी होता है। जब तक सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर खड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना होता है, तब तक इन सम्बन्धों में विषमता स्वाभाविक रूप से उपस्थित इसके प्रमुख तत्त्व हैं। इनके कारण भी सामाजिक जीवन में विषमता रहती है। जब राग का तत्त्व द्वेष का सहगामी होकर काम करने लगता उत्पन्न होती है। शासक और शासित अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि है तो पारस्परिक सम्बन्धों में संघर्ष और टकराहट प्रारम्भ हो जाती की श्रेष्ठता के मूल में यही कारण है। वर्तमान युग में बड़े राष्ट्रों में है। राग के कारण 'मेरा' या ममत्व का भाव उत्पन्न होता है। मेरे सम्बन्धी, जो अपने प्रभावक क्षेत्र बनाने की प्रवृत्ति है, उसके मूल में भी अपने मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र, ये विचार विकसित होते हैं। राष्ट्रीय अहं की पुष्टि का प्रयत्न है। स्वतंत्रता के अपहार का प्रश्न परिणामस्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद । इसी स्थिति में होता है। जब व्यक्ति में आधिपत्य की वृत्ति या शासन का जन्म होता है। आज के हमारे सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में ये की भावना होती है तो वह दूसरे के अधिकारों का हनन करता है। ही तत्त्व सबसे अधिक बाधक हैं। ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, जैन आचार-दर्शन अहं के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठने नहीं देते हैं। यही में परतंत्रता को समाप्त करता है। दूसरी ओर जैन-दर्शन का अहिंसा आज की सामाजिक-विषमता के मूल कारण हैं।
सिद्धांत भी सभी प्राणियों के समान अधिकारों को स्वीकार करता है। अनैतिकता का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा है। व्यक्ति जिसे । अधिकारों का हनन एक प्रकार की हिंसा है। अत: अहिंसा का सिद्धांत अपना मानता है, उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया। स्वतंत्रता के साथ जुड़ा हुआ है। जैन एवं बौद्ध आचार-दर्शन जहाँ मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है। सामाजिक जीवन में शोषण, एक ओर अहिंसा के सिद्धांत के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का क्रूर-व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते है, जिन्हें समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर वर्णभेद, जातिभेद एवं ऊँच-नीच हम अपना नहीं मानते हैं। यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है। हम अपनी की भावना को समाप्त करते हैं। रागात्मकता या ममत्व वृत्ति का पूर्णतया विसर्जन किये बिना अपेक्षित यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता के नैतिक एवं सामाजिक जीवन का विकास नहीं कर सकते। व्यक्ति का कारणों का विश्लेषण करें तो यह पाते हैं कि उसके मूल में रागात्मकता 'स्व' चाहे वह व्यक्तिगत-जीवन या पारिवारिक-जीवन या राष्ट्र की सीमा ही है। यही राग एक ओर अपने और पराये के भेद को उत्पन्न कर तक विस्तृत हो, हमें स्वार्थ-भावना से ऊपर नहीं उठने देता। स्वार्थवृत्ति सामाजिक सम्बन्धों को अशुद्ध बनाता है तथा दूसरी ओर अहं भाव चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से नैतिकता का प्रत्यय उत्पन्न कर सामाजिक जीवन में ऊँच नीच की भावनाओं एवं सामाजिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है। उसके होते हुए सच्चा का निर्माण करता है। इस प्रकार राग का तत्त्व ही मान के रूप में नैतिक एवं सामाजिक जीवन फलित नहीं हो सकता। मुनि नथमलजी एक दूसरी दिशा ग्रहण कर लेता है जो सामाजिक विषमता को उत्पन्न लिखते हैं कि 'परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप जैसे जाति या करता है। यही राग की वृत्ति ही संग्रह (लोभ) और कपट की भावनाओं राष्ट्र के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता का नियमन नहीं करता, को भी विकसित करती है। इस प्रकार सामाजिक जीवन में विषमता वैसे ही जाति या राष्ट्र के प्रति ममत्व अन्ताराष्ट्रीय अनैतिकता का के उत्पन्न होने के चार मूलभूत कारण होते हैं- १. संग्रह (लोभ) नियामक नहीं होता। मुझे लगता है कि राष्ट्रीय अनैतिकता की अपेक्षा २. आवेश (क्रोध) ३. गर्व (बड़ा मानना) और ४. माया (छिपाना)। अन्ताराष्ट्रीय अनैतिकता कहीं अधिक है। जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक जिन्हें चार कषाय कहा जाता है। ये ही चारों अलग-अलग रूप में सच्चाई है, प्रामाणिकता है, वे भी अन्ताराष्ट्रीय क्षेत्र में सत्य-निष्ठ और सामाजिक जीवन में विषमता, संघर्ष एवं अशान्ति के कारण बनते प्रामाणिक नहीं हैं। १८ इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति का जीवन हैं। १. संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रमाणिकता, जब तक राग या ममत्व से ऊपर नहीं उठता, तब तक नैतिकता का स्वार्थपूर्ण-व्यवहार, क्रूर-व्यवहार, विश्वासघात आदि विकसित होते हैं। सद्भाव सम्भव ही नहीं होता। रागयुक्त नैतिकता, चाहे उसका आधार २. आवेश की मनोवृत्ति के कारण संघर्ष, युद्ध, आक्रमण एवं हत्याएँ राष्ट्र ही क्यों न हो, सच्चे अर्थों में नैतिक नहीं हो सकती। सच्चा आदि होते हैं। ३. गर्व की मनोवृत्ति के कारण घृणा, अमैत्रीपूर्ण व्यवहार नैतिक जीवन वीतराग अवस्था में ही सम्भव हो सकता है और जैन और क्रूर व्यवहार होता है। ४. इसी प्रकार माया की मनोवृत्ति के कारण आचार-दर्शन इसी वीतराग जीवन-दृष्टि को ही अपनी नैतिक साधना अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है।१९ इस प्रकार हम का आधार बनाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह सामाजिक देखते हैं कि जैन-दर्शन में जिन्हें चार कषाय कहा जाता है, उन्हीं जीवन के लिए एक वास्तविक आधार प्रस्तुत करता है। यही एक के कारण सारा सामाजिक जीवन दूषित होता है। जैन-दर्शन इन्हीं ऐसा आधार है जिस पर सामाजिक नैतिकता को खड़ा किया जा सकता कषायों के निरोध को अपनी नैतिक साधना का आधार बनाता है। है और सामाजिक जीवन के वैषम्यों को समाप्त किया जा सकता है। अतः यह कहना उचित ही होगा कि जैन-दर्शन अपने साधना-मार्ग सराग नैतिकता कभी भी सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण नहीं के रूप में सामाजिक विषमताओं को समाप्त कर, सामाजिक-समत्व कर सकती है। स्वार्थों के आधार पर खड़ा सामाजिक जीवन अस्थायी की स्थापना का प्रयत्न करता है।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - २. आर्थिक वैषम्य-आर्थिक वैषम्य व्यक्ति और भौतिक जगत नहीं करता है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य में स्वत: के सम्बन्धों से उत्पन्न हुई विषमता है। चेतना का जब भौतिक जगत ही त्याग की वृत्ति का उदय हो और वह स्वेच्छा से ही सम्पत्ति के से सम्बन्ध होता है तो उसे अनेक वस्तएँ अपने प्राणमय जीवन के विसर्जन की दिशा में आगे आवे। भारतीय परंपरा और विशेषकर जैनलिए आवश्यक प्रतीत होती हैं। यही आवश्यकता जब आसक्ति में परंपरा न केवल सम्पत्ति के विसर्जन की बात करती है वरन् उसके बदल जाती है तो एक ओर संग्रह होता जाता है, दूसरी ओर संग्रह सम-वितरण पर भी जोर देती है। हमारे प्राचीन साहित्य में दान के की लालसा बढ़ती जाती है, इसीसे सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता स्थान पर संविभाग शब्द का ही अधिक प्रयोग हुआ है। जो यह बताया के बीज का वपन होता है। जैसे-जैसे एक ओर संग्रह बढ़ता है, दूसरी है कि जो कुछ हमारे पास है, उसका समविभावजन करना है। महावीर ओर गरीबी बढ़ती है और परिणामस्वरूप आर्थिक वैषम्य बढ़ता जाता का यह उद्घोष कि 'असंविभागी णहु तस्स मोक्खो' स्पष्ट बताता है है। आर्थिक वैषम्य के मूल में संग्रह-भावना ही अधिक है। कहा यह कि जैन आचार-दर्शन आर्थिक विषमता के निराकरण के लिये समवितरण जाता है कि अभाव के कारण संग्रह की चाह उत्पन्न होती है लेकिन की धारणा को प्रतिपादित करता है। जैन-दर्शन के इन सिद्धांतों को वस्तुस्थिति कुछ और ही है। स्वाभाविक अभाव की पूर्ति सम्भव है यदि उन्हें युगीन सन्दर्भो में नवीन दृष्टि से उपस्थित किया जाय तो
और शायद विज्ञान हमें इस दिशा में सहयोग दे सकता है लेकिन समाज की आर्थिक समस्याओं का निराकरण खोजा जा सकता है। कृत्रिम अभाव की पूर्ति सम्भव नहीं। उपाध्याय अमरमुनि जी लिखते
वर्तमान युग में भ्रष्टाचार के रूप में समाज के आर्थिक क्षेत्र में हैं कि “गरीबी स्वयं में कोई समस्या नहीं, किन्तु पहाड़ों की असीम जो बुराई पनप रही है, उसके मूल में भी या तो व्यक्ति की संग्रहेच्छा ऊँचाईयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्डे पैदा कर दिये हैं। पहाड़ है या भोगेच्छा। भ्रष्टाचार केवल अभावजनित बीमारी नहीं है, वरन् टूटेंगे, तो गड्ढे अपने आप भर जायेंगे, सम्पत्ति का विसर्जन होगा, वह एक मानसिक बीमारी है, जिसके मूल में संग्रहेच्छा एवं भोगेच्छा तो गरीबी अपने आप दूर हट जाएगी।''२० वस्तुत: आवश्यकता इस के कीटाणु हैं। वस्तुत: वह आवश्यकताओं के कारण नहीं वरन् तृष्णा बात की है कि व्यक्ति में परिग्रह के विसर्जन की भावना उद्भूत हो। के कारण उत्पन्न होती है। आवश्यकताओं का निराकरण पदार्थों को परिग्रह के विसर्जन से ही आर्थिक वैषम्य समाप्त किया जा सकता।
उपलब्ध करके किया जा सकता है, लेकिन इस तृष्णा का निराकरण है। जब तक संग्रह की वृत्ति समाप्त नहीं होती, आर्थिक-समता नहीं पदार्थों के द्वारा संभव नहीं है। इसलिए जैन-दर्शन ने अनासक्ति की आ सकती।
वृत्ति को नैतिक जीवन में प्रमुख स्थान दिया है। तृष्णाजनित विकृतियाँ आर्थिक-वैषम्य का निराकरण असंग्रह की वृत्ति से ही सम्भव । केवल अनासक्ति द्वारा ही दूर की जा सकती हैं। हमारे वर्तमान युग है और जैन-दर्शन अपने अपरिग्रह के सिद्धांत के द्वारा इस आर्थिक की प्रमुख कठिनाई यह नहीं है कि हमें सामान्य जीवन जीने के साधन वैषम्य के निराकरण का प्रयास करता है। जैन आचार- दर्शन में गृहस्थ उपलब्ध नहीं हैं अथवा उनका अभाव है, वरन् कठिनाई यह है कि जीवन के लिये भी जिस परिग्रह एवं उपभोग-परिभोग के सीमांकन आज का मानव तृष्णा से इतना अधिक ग्रसित है कि वह एक अच्छा का विधान किया गया है, वह आर्थिक वैषम्य के निराकरण का एक सुखद एवं शांतिपूर्ण जीवन नहीं जी सकता है। मनुष्य की वासनाएँ प्रमुख साधन हो सकता है। आज हम जिस समाजवाद एवं साम्यवाद ।
ही उसे अच्छे जीवन जीने में बाधक हैं। यदि किसी सीमा तक हम की चर्चा करते हैं, उसका दिशा-संकेत महावीर ने अपने व्रत-विधान यह भी मान लें कि अभाव के कारण आर्थिक-भ्रष्टाचार का जन्म होता में किया था। जैन-दर्शन सम्पदा के उत्पादन पर नहीं. अपित उसके है तो जहाँ तक कृत्रिम अभाव का प्रश्न है वह कुल व्यक्तियों के द्वारा अपरिमित संग्रह और उपभोग पर नियंत्रण लगाता है।
किये गये अवैध संग्रह का परिणाम है। किन्तु जैन नीति-दर्शन ने आर्थिक वैषम्य का निराकरण अनासक्ति और अपरिग्रह की साधना गृहस्थ साधक के अनर्थदण्ड-विरमण व्रत में उपभोग के पदार्थो के के द्वारा ही संभव है। यदि हम सामाजिक जीवन में आर्थिक समानता अनावश्यक संग्रह को निषिद्ध ठहराया है। यदि अभाव वास्तविक हो की बात करना चाहते हैं तो हमें व्यक्तिगत उपभोग एवं सम्पत्ति की तो उसे उपभोग का नियंत्रण करके दूर किया जा सकता है जिसके सीमा का निर्धारण करना ही होगा। परिग्रह का विसर्जन ही आर्थिक लिए उपभोग-परिभोग मर्यादा नामक व्रत का विधान है। इस प्रकार जीवन में समत्व का सजन कर सकता है। जैन-दर्शन का अपरिग्रह जैन-दर्शन परिग्रह और उपभोग के परिसीमन के द्वारा समाज में व्याप्त सिद्धांत इस संबंध में पर्याप्त सिद्ध होता है। वर्तमान युग में मार्क्स आर्थिक विषमता की समाप्ति का सूत्र प्रस्तुत करता है। ने आर्थिक वैषम्य को दूर करने का जो सिद्धांत साम्यवादी समाज ३. वैचारिक वैषम्य-विभिन्न वाद और उनके कारण उत्पन्न की रचना के रूप में प्रस्तत किया. वह यद्यपि आर्थिक विषमताओं वैचारिक-संघर्ष भी सामाजिक जीवन का एक बड़ा अभिशाप है। वर्तमान के निराकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है, लेकिन उसकी मुलभूत युग में राष्ट्रों के जो संघर्ष हैं, उनके मूल में आर्थिक और राजनैतिक कमी यही है कि वह मानव-समाज पर ऊपर से थोपा जाता है, उसके प्रश्न इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितनी कि वैचारिक साम्राज्यवाद की अन्त: से सहज उभारा नहीं जाता है। जिस प्रकार बाह्य दबाबों से स्थापना। वर्तमान युग में न तो राजनैतिक अधिकार लिप्सा से उत्पन्न वास्तविक नैतिकता प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार केवल कानन के साम्राज्यवाद की भावना पाई जाती है और न आर्थिक साम्राज्यों की बल पर लाया गया आर्थिक साम्य सच्चे आर्थिक समत्व का प्रकटन स्थापना का प्रश्न ही महत्त्वूपर्ण है, वरन् वर्तमान युग में बड़े राष्ट्र
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यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - अपने वैचारिक साम्राज्यों की स्थापना के लिए प्रयत्नशील देखे जाते सुखी हो। लेकिन मानव-मन की अशान्ति एवं उसके अधिकांश दुःख हैं। जैन आचार-दर्शन अपने अनेकान्तवाद और अनाग्रह के सिद्धांत कषाय चतुष्क-जनित हैं। अत: शान्त और सुखी जीवन के लिये मानसिक के आधार पर इन वैचारिक संघर्षों का निराकरण प्रस्तुत करता है। तनावों एवं मनोवेगों से मुक्ति पाना आवश्यक है। क्रोधादि कषायों अनेकांत का सिद्धांत वैचारिक-आग्रह के विसर्जन की बात करता है पर विजय-लाभ करके समत्व के सृजन के लिये हमें मनोवेगों से ऊपर और वैचारिक क्षेत्र में दूसरे के विचारों एवं अनुभूतियों को भी उतना उठना होगा। जैसे-जैसे हम मनोवेगों या कषाय चतुष्क से ऊपर उठेगे ही महत्त्व देता है, जितना कि स्वयं के विचारों एवं अनुभूतियों को। वैसे-वैसे सच्ची शान्ति का लाभ प्राप्त करेंगे।
उपर्युक्त तीनों प्रकार की विषमताएँ हमारे सामाजिक जीवन से इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार-दर्शन सामाजिक जीवन सम्बन्धित हैं। जैन आचार-दर्शन उपर्युक्त तीनों विषमताओं के निराकरण से विषमताओं के निराकरण और समत्व के सृजन के लिए एक ऐसी के लिए अपने आचार दर्शन में तीन सिद्धांत प्रस्तुत करता है। सामाजिक आचार-विधि प्रस्तुत करता है जिसके सम्यक् परिपालन से सामाजिक वैषम्य के निराकरण के लिये उसने अहिंसा एवं सामाजिक समता का और वैयक्तिक दोनों ही जीवन में सच्ची शान्ति और वास्तविक सुख सिद्धांत प्रस्तुत किया हैं। आर्थिक वैषम्य के निराकरण के लिए उसने का लाभ प्राप्त किया जा सकता है। उसने सामाजिक जीवन में सम्बन्धों परिग्रह एवं उपभोग के परिसीमन का सिद्धांत प्रस्तुत किया है। इसी के शुद्धिकरण पर अधिक बल दिया है। यही कारण है कि उसके प्रकार बौद्धिक एवं वैचारिक संघर्षों के निराकरण के लिए अनाग्रह द्वारा प्रस्तुत सामाजिक आदेश अपनी प्रकृति में निषेधात्मक अधिक
और अनेकांत के सिद्धांत प्रस्तुत किये गये हैं। ये सिद्धांत क्रमश: प्रतीत होते हैं यद्यपि विधायक सामाजिक आदेशों का उसमें पूर्ण अभाव सामाजिक समता, आर्थिक समता और वैचारिक समता की स्थापना नहीं है। उसके कुछ प्रमुख सामाजिक आदेश निम्न हैंकरते हैं। लेकिन ये सभी नैतिकता के बाह्य एवं सामाजिक आधार हैं। नैतिकता का आन्तरिक आधार तो हमारा मनोजगत् ही है। जैन निष्ठा-सूत्र आचार-दर्शन मानसिक तनावों एवं विक्षोभों के निराकरण के लिये १. सभी आत्मायें स्वरूपतः समान हैं, अत: सामाजिक जीवन में भी विशेष रूप से विचार करता है क्योकि यदि व्यक्ति का मानस विक्षोभ ऊँच-नीच के वर्गभेद या वर्णभेद खड़े मत करो।। एवं तनावयुक्त है तो सामाजिक जीवन भी अशांत होगा।
२. सभी आत्मायें समान रूप से सुखाभिलाषी हैं, अत: दूसरे के ४. मानसिक-वैषम्य-मानसिक वैषम्य मनोजगत् में तनाव की हितों का हनन, शोषण या अपहरण करने का अधिकार किसी अवस्था का सूचक है। जैन आचार-दर्शन ने राग-द्वेष एवं चतुर्विध को नहीं है। सभी के साथ वैसा व्यवहार करो जैसा तुम उनसे कषायों को मनोजगत् के वैषम्य का मूल कारण माना है। क्रोध, मान, स्वयं के प्रति चाहते हो। माया और लोभ ये चारों आवेग या कषाय हमारे मानसिक समत्व ३. संसार में प्राणियों के साथ मैत्री भाव रखो, किसी से भी घृणा को भंग करते हैं। यदि हम व्यक्तिगत जीवन के विघटनकारी तत्त्वों एवं विद्वेष मत रखो। का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करें तो हम उनके मूल में कहीं ४. गुणीजनों के प्रति आदर भाव और दुष्टजनों के प्रति उपेक्षा भाव न कहीं जैन-दर्शन में प्रस्तुत कषायों एवं नौ-कषायों (आवेगों और रखो। उप-आवेगों) की उपस्थिति ही पाते हैं। जैन आचार दर्शन कषाय-त्याग ५. संसार में जो दुःखी एवं पीड़ित जन हैं, उनके प्रति करुणा और के रूप में हमें मनोजगत् के तनावों के निराकरण का संदेश देता है। वात्सल्य भाव रखो और अपनी स्थिति के अनुरूप उन्हें सेवा वह बताता है कि हम जैसे-जैसे इन कषायों के ऊपर विजय-लाभ और सहयोग प्रदान करो। करते हुए आगे बढ़ेंगे वैसे ही हमें व्यक्तित्व की पूर्णता का प्रकटन भी होगा। जैन-दर्शन में साधकों की चार श्रेणियाँ मानी गई हैं, जो व्यवहार-सूत्र इन पर क्रमिक विजय को प्रकट करती हैं। इनके प्रथम तीव्रतम रूप १. किसी निर्दोष-प्राणी को बन्दी मत बनाओ अर्थात् सामान्यजनों पर विजय पाने पर साधक में सम्यक् दृष्टिकोण का उद्भव होता है। की स्वतंत्रता में बाधक मत बनो। द्वितीय मध्यम रूप पर विजय प्राप्त करने से साधक श्रावक या किसी का वध या अंगभेद मत करो, किसी से भी मर्यादा से गृहस्थ-उपासक की श्रेणी में जाता है। तृतीय रूप पर विजय करने अधिक काम मत लो। पर वह श्रमणत्व का लाभ करता है और उनके सम्पूर्ण विजय पर ३. किसी की आजीविका में बाधक मत बनो। वह आत्मपूर्णता को प्रकट कर लेता है। कषायों की पूर्ण समाप्ति पर ४. पारस्परिक विश्वास को भंग मत करो। न तो किसी की अमानत एक पूर्ण व्यक्तित्व का प्रकटन हो जाता है। इस प्रकार जैन आचार- हड़पो और न तो किसी के रहस्यों को प्रकट करो। दर्शन राग-द्वेष एवं कषाय के रूप में हमारे मानसिक तनावों का कारण ५. सामाजिक जीवन में गलत सलाह मत दो, अफवाह मत फैलाओ प्रस्तुत करता है और कषाय-जय के रूप में मानसिक-समता के निर्माण और दूसरों के चरित्र-हनन का प्रयास मत करो। दी धारणा को स्थापित करता है।
६. अपने स्वार्थ की सिद्धि के हेतु असत्य घोषणा मत करो। प्रत्येक व्यक्ति यह अपेक्षा करता है कि उसका जीवन शान्त एवं ७. न तो स्वयं चोरी करो, न चोर को सहयोग दो, चोरी का माल
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आधक
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - भी मत खरीदो।
परनिन्दा, काम-कुचेष्टा शस्त्र-संग्रह आदि मत करो। ८. व्यवसाय के क्षेत्र में नाप-तौल में अप्रमाणिकता मत रखो और १५. यथासम्भव अतिथियों की, संतजनों की, पीड़ित एवं असहाय वस्तुओं में मिलावट मत करो।
व्यक्तियों की सेवा करो। अत्र, वस्त्र, आवास, औषधि आदि ९. राजकीय नियमों का उल्लंघन और राज्य के करों का अपवंचन के द्वारा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करो। मत करो।
१६. क्रोध मत करो, सबसे प्रेम-पूर्ण व्यवहार करो। १०. अपने यौन सम्बन्धों में अनैतिक आचरण मत करो। परस्त्री-संसर्ग, १७. अहंकार मत करो अपितु विनीत बनो, दूसरों का आदर
वेश्यावृत्ति एवं वेश्यावृत्ति के द्वारा धन-अर्जन मत करो। ११. अपनी सम्पत्ति का परिसीमन करो और उसे लोकहितार्थ व्यय १८. कपटपूर्ण व्यवहार मत करो वरन् व्यवहार में निश्छल एवं करो।
प्रामाणिक रहो। १२. अपने व्यवसाय के क्षेत्र को सीमित करो और वर्जित व्यवसाय १९. अविचारपूर्वक कार्य मत करो। मत करो।
२०. तृष्णा मत रखो। १३. अपनी उपभोग-सामग्री की मर्यादा करो और उसका अति-संग्रह उपर्युक्त और अन्य कितने ही आचार नियम ऐसे हैं जो जैनमत करो।
नीति की सामाजिक सार्थकता को स्पष्ट करते हैं।२५ आवश्यकता इस १४. वे सभी कार्य मत करो, जिनसे तुम्हारा कोई हित नहीं होता बात की है हम आधुनिक संदर्भ में उनकी व्याख्या एवं समीक्षा करें
है किन्तु दूसरों का अहित सम्भव हो अर्थात् अनावश्यक गपशप, तथा उन्हें युगानुकूल बनाकर प्रस्तुत करें।
करो।
सन्दर्भ : १. जैनधर्म का प्राण, पं० सुखलालजी, सस्ता साहित्य मण्डल, देहली,
पृ० ५६-५९ २. अमरभारती, अप्रैल १९६६, पृ० २१
उत्तराध्ययन, ३१/२ सर्वोदय-दर्शन, आमुख, पृ० ६ पर उद्धृत । प्रश्नव्याकरणसूत्र २/१/२२ प्रश्नव्याकरण १/१/२१
वही, १/१/३ ८. वही, १/२/२२
सूत्रकृतांग (टीका) १/६/४ १०. योगबिन्दु, आचार्य हरिभद्र, २८५-२८८
११. योगबिन्दु २८९ १२. योगबिन्दु २९० १३. निशीथचूर्णि, सं० अमरमुनि, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, भाष्य गा०,
२८६० १४. स्थानांग, १०/७६० १५. उद्धृत, आत्मसाधना संग्रह, पृ० ४४१ १६. अभिधान-राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ०६९७ . १७. अभिधान-राजेन्द्र, खण्ड ५, पृ०६९७ १८. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृष्ठ ३-४ १९. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० २ २०. जैन-प्रकाश, ८ अप्रैल १९६९, पृ० १ २१. देखिए- श्रावक के बारह व्रत, उनके अतिचार और मार्गानुसारी गुण।
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श्रावक-आचार की प्रासङ्गिकता का प्रश्न
गृहस्थ-वर्ग का उत्तरदायित्व
यहाँ तक कह दिया गया है कि चाहे सभी सामान्य गृहस्थों की अपेक्षा जैन-धर्म श्रमण-परम्परा का धर्म है। दूसरे शब्दों में वह निवृत्तिमार्गी श्रमणों को श्रेष्ठ मान लिया जाये किन्तु कुछ गृहस्थ ऐसे भी हैं, जो या संन्यासमार्गी धर्म है। यह बात भी निस्संकोच रूप से स्वीकार की श्रमणों की अपेक्षा संयम के परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं। बात स्पष्ट जा सकती है कि वैदिक-परम्परा के विपरीत इसमें संन्यास को ही और साफ है कि आध्यात्मिक साधना का सम्बन्ध न केवल वेश से जीवन का चरम आदर्श स्वीकार किया गया है; किन्तु इस आधार है और न केवल आचार के बाह्य नियम से। यद्यपि समाज या पर यह निष्कर्ष निकाल लेना कि जैनधर्म में गृहस्थ या उपासक वर्ग संघ-व्यवस्था की दृष्टि में बाह्य आचार-नियमों का पालन आवश्यक का महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है, अनुचित ही होगा। चाहे जैनधर्म के प्रारम्भिक है। उत्तराध्ययनसूत्र (३६/४९) में स्पष्ट रूप से यह बात भी स्वीकार . युग में संन्यास को अधिक महत्ता मिली हो, किन्तु आगे चलकर कर ली गयी है कि गृहस्थ जीवन से भी निर्वाण को प्राप्त किया जा जैन-परम्परा में गृहस्थ-धर्म को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। सकता है। इस सम्बन्ध में मरुदेवी और भरत के उदाहरण लोकविश्रुत जैन-धर्म में जो चतुर्विध सङ्घ व्यवस्था हुई उसमें साधु-साध्वियों के हैं। यदि गृहस्थ धर्म से श्री परिनिर्वाण या मुक्ति सम्भव है तो इस साथ ही साथ श्रावकों और श्राविकाओं को भी स्थान दिया गया। मात्र विवाद का कोई अधिक मूल्य नहीं रह जाता कि मुनि धर्म और गृहस्थ यही नहीं, श्रावक और श्राविकाओं को श्रमणों और श्रमणियों के धर्म में साधना का कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। वस्तुत: आध्यात्मिक विकास माता-पिता के रूप में स्वीकार किया गया। दूसरे शब्दों में उन्हें के क्षेत्र में श्रेष्ठता और निम्नता का आधार आध्यात्मिक जागरूकता, साधु-साध्वियों का संरक्षक मान लिया गया। वैदिक परम्परा में भी अप्रमत्तता और निराकुलता है, जिसने अपनी विषय-वासनाओं और गृहस्थ आश्रम को सभी आश्रमों का मूल बताया गया था। प्रकारान्तर कषायों पर नियन्त्रण पा लिया है, जिसका चित्त निराकुल और शान्त से इसे जैन-परम्परा में गृहस्थ वर्ग को श्रमण वर्ग का संरक्षक एवं हो गया है, जो अपने कर्तव्यपथ पर पूरी ईमानदारी से चल रहा है, आधार मानकर स्वीकार कर लिया गया। जैन-परम्परा में गृहस्थ उपासक फिर चाहे वह गृहस्थ हो या मुनि, उसकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता में कोई न केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण था कि वह श्रमणों के भोजन, स्थान आदि अन्तर नहीं पड़ता। आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में न तो वेश महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति करता था अपितु उसे श्रमण साधकों के चारित्र है और न बाह्य आचार, अपितु उसमें महत्त्वपूर्ण है 'अन्तरात्मा की का प्रहरी भी मान लिया गया। कुछ समय पूर्व तक श्रावक वर्ग की निर्मलता और विशुद्धता'। अन्त:करण की निर्मलता ही साधना का यह महत्ता अक्षुण्ण थी। उसे यह अधिकार प्राप्त था कि यदि कोई मूलभूत आधार है। साधु या साध्वी श्रमण-मर्यादाओं का सम्यकपेण पालन नहीं करता है तो वह उनका वेश लेकर उन्हें श्रमण संघ से पृथक् कर दे। इसी गृहस्थ-धर्म की श्रेष्ठता का प्रश्न प्रकार मुनि एवं आर्यिका वर्ग में प्रवेश के लिए भी श्रावक-संघ की गृहस्थधर्म और मुनिधर्म में यदि साधना की दृष्टि से हम श्रेष्ठता अनुमति आवश्यक थी।
की बात करें तो भी वस्तुतः गृहस्थ जीवन ही अधिक श्रेष्ठ प्रतीत ___ वर्तमान युग में साधु-साध्वियों के आचार में जो शिथिलता होती होगा। वीतरागता की साधना के लिए संन्यास एक निरापद मार्ग है, जा रही है, उसका एकमात्र कारण यही है कि गृहस्थवर्ग मुनि आचार क्योकि गृहस्थ जीवन में रहकर वीतरागता की साधना करना अधिक से अवगत न रहने के कारण अपने उपर्युक्त कर्तव्य को भूल गया कठिन है। क्योंकि साधक-जीवन में विघ्नों से दूर रहकर निर्दोष चरित्र है। आज हमें इस बात को बहुत स्पष्ट रूप से समझ लेना होगा कि का पालन करना उतना कठिन नहीं है, जितना कि विघ्नों के बीच जैनधर्म और संस्कृति की रक्षा का दायित्व मुनिवर्ग की अपेक्षा गृहस्थ रहकर उसका पालन करना। संन्यास-मार्ग एक ऐसा मार्ग है, जिसमें वर्ग पर ही अधिक है और यदि वह अपने इस दायित्व की उपेक्षा अनासक्ति या वीतरागता की साधना के लिए विघ्न-बाधाओं की सम्भावना करेगा, तो अपनी संस्कृति एवं धर्म की सुरक्षा करने में असफल रहेगा। कम होती है। संन्यासमार्ग की साधना कठोर होते हुए भी सुसाध्य
यह तो हुआ केवल समाज या संघ व्यवस्था की दृष्टि से श्रावक है, जबकि गृहस्थ-मार्ग की साधना व्यावहारिक दृष्टि से सुसाध्य प्रतीत वर्ग का महत्त्व एवं उत्तरदायित्व। किन्तु न केवल सामाजिक दृष्टि से होते हुए भी दुःसाध्य है, क्योंकि आध्यात्मिक विकास के लिए जिस अपितु आध्यात्मिक एवं साधनात्मक दृष्टि से भी गृहस्थ का स्थान उतना अनासक्त चेतना की आवश्यकता है, वह संन्यस्त जीवन में सहज प्राप्त निम्न नहीं है, जितना कि सामान्यतया मान लिया जाता है। सूत्रकृतांग हो जाती है, उसमें चित्त-विचलन के अवसर अतिन्यून होते हैं, जब (२/२/३९) में स्पष्ट रूप से निर्देश है कि 'आरम्भ नो आरम्भ' कि गृहस्थ जीवन में चित्त-विचलन के अवसर अत्यधिक हैं। गिरि-कन्दरा (गृहस्थधर्म) का यह स्थान भी आर्य है तथा समस्त दुःखों का अन्त में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन उतना कठिन नहीं है, जितना कि नारियों करने वाला मोक्षमार्ग है। यह जीवन भी पूर्णतया सम्यक् एवं साधु (सुन्दरियों) के मध्य रहकर उसका पालन करना। प्रेमिका वेश्या के
है। मात्र यही नहीं, उत्तराध्ययनसूत्र (५/२०) में तो स्पष्ट रूप से घर में चातुर्मास के लिए स्थित होकर ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले anoranstonironoraridonorarianbarobrowarrioria-[११४]6sanirhombridroomiraroraniriramidniromidnidroiand
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - स्थूलभद्र को उन सैकड़ों-हजारों मुनियों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ समझा जाने लगा है कि धर्म और संस्कृति का संरक्षण तथा आध्यात्मिक माना गया, जो गिरिकन्दराओं में रहकर मुनिधर्म की साधना कर रहे साधना सभी कुछ साधुओं का काम है। गृहस्थ तो मात्र उपासक है, थे। क्या विजय सेठ और सेठानी को ब्रह्मचर्य की कठोर साधना की उसके कर्तव्य की इतिश्री साधु-साध्वियों को दान देने तक ही है। आज तुलना किसी गृहस्थ जीवन का परित्याग करने वाले मुनि की हमें इस बात का अहसास करना होगा कि जैन धर्म की संघ-व्यवस्था ब्रह्मचर्य साधना से की जा सकती है? राग-द्वेष, आसक्ति और ममत्व में हमारा क्या और कितना गरिमामय स्थान है? खाट के चार पायों के प्रसंगों की उपस्थिति गृहस्थ जीवन में अधिक होती है। उन प्रसंगों में अगर एक चरमराता और टूटता है तो दूसरों का अस्तित्व निरापद में भी जो अपने को निराकुल और नियंत्रित रख सकता है, वह नहीं रह सकता। यदि श्रावक वर्ग अपने कर्तव्यों, दायित्वों एवं अपनी महान् है।
गरिमा को विस्मृत करता है तो संघ के शेष घटकों का अस्तित्व भी संन्यास-मार्ग में तो इन प्रसंगों की उपस्थिति के अवसर ही अत्यल्प निरापद नहीं रह सकता। आज के साधुवर्ग और श्रावकवर्ग की स्थिति होते है। अत: संन्यास-मार्ग निरापद और सरल है। गृहस्थ धर्म से को देखकर यह शेर बरबस याद आ जाता हैआध्यात्मिक विकास की ओर जाने वाला मार्ग फिसलन भरा है, जिसमें हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे। कदम-कदम पर सजगता की आवश्यकता है। यदि साधक एक क्षण आज वास्तविक स्थिति यह है कि हमारा श्रमण और के लिए भी वासना के आवेगो में नहीं संभला तो उसका पतन हो श्रमणी वर्ग भी शिथिलाचार में आकण्ठ डूबता जा रहा है। यदि कोई जाता है। वासनाओं के बवण्डर के मध्य रहते हुए भी उनसे अप्रभावित उसके अन्दर झांक कर देखता है तो उसके अन्दर रही हुयी रहना सरल नहीं है। अत: कह सकते हैं कि गृहस्थ-जीवन की साधना सडाँध से अपना मुँह नफ़रत से फेर लेता है। आज जिन्हें हम आदर्श मुनि जीवन की साधना की अपेक्षा अधिक दुःसाध्य है और जो ऐसे और वन्दनीय मान रहे हैं, उनके जीवन में छल, छद्य, दुराग्रह एवं साधना-पथ पर चलकर आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त करता है वह अहं के पोषण की प्रवृत्तियाँ और वासनामय जीवन के प्रति ललक मुनियों की अपेक्षा कई गुना श्रेष्ठ है।
को देखकर मन पीड़ा से भर उठता है, किन्तु उनके इस पतन का . वस्तुतः गृहस्थ धर्म का पालन इसलिए अधिक दुःसाध्य है कि उत्तरदायी दूसरा कोई नहीं, श्रावक वर्ग ही है। या तो हमने उन्हें इस उसमें काजल की कोठरी में रहकर भी अपनी चरित्र रूपी चादर को पतन के मार्ग की ओर ढकेला है या फिर कम से कम उनके सहभागी बेदाग रखना होता है। काजल की कोठरी से बाहर रहकर तो कोई बने हैं। साधु-साध्वियों में शिथिलाचार हमारे प्रश्रय से बढ़ता है, यह भी चरित्र रूपी चादर को बेदाग रख सकता है, किन्तु कोठरी में रहते सत्य है कि आज श्रावक, उनमें भी विशेष रूप से सम्पन्न श्रावक-वर्ग हुए उसे बेदाग रख पाना अधिक सजगता और आत्मनियन्त्रण की अपेक्षा धर्म के नाम पर होने वाले बाह्याडम्बरों में अधिक रुचि ले रहा हैरखता है। फिसलन भरे रास्ते में चलकर जो साधना की ऊँचाइयों उनकी और उनके तथाकथित गुरुओं दोनों की रुचि धर्म के नाम पर तक पहुँचता है, उसकी महत्ता तो कुछ और है। संसाररूपी और अपने-अपने अहं का पोषण करने की है। वही साधु और वही श्रावक वासनारूपी कर्दम में रहकर भी कमलपत्र के समान अलिप्त रहना निश्चय अधिक प्रतिष्ठित होता है, जो जितनी भीड़ इकट्ठी करता है। जो मजमा ही एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
जमाने में जितना अधिक कुशल है, वही उतना अधिक प्रतिष्ठित है। यद्यपि मेरे यह सब कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि मैं मुनि इन सब में साधना-प्रिय साधु और श्रावक तो कहीं ओझल हो गये जीवन की महत्ता और गरिमा को नकार रहा हूँ, इस विषय-वासनारूपी हैं। मैं यह सब जो कुछ कह रहा हूँ उसका कारण मुनिवर्ग के प्रति काजल की कोठरी से निकलकर उन पर नियन्त्रण कर लेना भी कम मेरी दुर्भावना नहीं है, अपितु उस यथार्थता को देखकर मन में जो महत्वूपर्ण नहीं है। मुनि जीवन की अपनी साधनागत गरिमा और महत्ता एक पीड़ा और व्यथा है, उसी का प्रकटन है। बाल्यकाल से लेकर है, उसे मैं अस्वीकार नहीं करता। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि जीवन की इस प्रौढ़ावस्था तक मैंने जैन मुनि-संघ को अति निकट जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी साधना की उन्हीं आध्यात्मिक ऊँचाइयों से देखा और परखा है एवं उस निकटता में मैंने जो कुछ अनुभव को छू लेता है, जिसे एक मुनि छूता है तो वह गृहस्थ मुनि से श्रेष्ठ किया है, उसी यथार्थता की बात कह रहा हूँ। हो सकता है कि इसके हैं। उत्तराध्ययन में गृहस्थ को मुनि की अपेक्षा जो श्रेष्ठ कहा गया कुछ अपवाद हों, लेकिन सामान्य स्थिति यही है। जीवन का दोहरापन है, वह इसी अपेक्षा से कहा गया है।
आज मुनिवर्ग का यथार्थ बनता जा रहा है, लेकिन इस सबके लिए
मैं अपने को और अपने साथ ही गृहस्थ वर्ग को अधिक उत्तरदायी अपनी अस्मिता को पहचाने
मानता हूँ। गृहस्थ धर्म की इस महत्ता के प्रतिपादन का एकमात्र उद्देश्य यही आज गृहस्थ वर्ग न केवल अपने संरक्षक होने के दायित्व को है कि हम अपने पद की महत्ता और गरिमा को समझे। वर्तमान संदर्भो भूला है, अपितु वह स्वयं अपनी अस्मिता को खोकर चारित्रिक पतन में इस महत्ता और गरिमा का प्रतिपादन इसलिए आवश्यक है कि की ओर तेजी से गिरता जा रहा है। जब हम ही नहीं सँभलेंगे तो आज का श्रावक वर्ग न केवल अपने कर्तव्यों और दायित्वो को भूल दूसरों को सँभालने की बात क्या करेंगे। आज का गृहस्थ वर्ग जिस बैठा है, अपितु वह अपनी अस्मिता को भी खो बैठा है। आज ऐसा पर जैन धर्म और संस्कृति के संरक्षण का दायित्व है, उसका ज्ञान
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
और आचारण दोनों ही दिशाओं में तेजी से पतन हुआ है। आज हमारी स्थिति यह है कि हमें न तो भ्रमण जीवन के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का बोध है और न हम गृहस्थ जीवन के आवश्यक कर्तव्यों और दायित्वों के सन्दर्भ में भी कोई जानकारी रखते हैं। आगम-ज्ञान तो बहुत दूर की बात है, हमें श्रावक - जीवन के सामान्य नियमों का भी बोध नहीं है। दूसरी ओर जिन सप्त व्यसनों से बचना आवक जीवन की सर्वप्रथम भूमिका है और आध्यात्मिक साधना का प्रथम चरण है और जिनके आधार पर वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक सुख-शान्ति निर्भर है, वे दुर्व्यसन तेजी से समाज में प्रविष्ट होते जा रहे हैं और वे जितनी तेजी से व्याप्त होते जा रहे हैं यह हमारे धर्म और संस्कृति के अस्तित्व के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। जैन परिवारों में प्रविष्ट होता हुआ मद्यपान और सामिष आहार क्या हमारी सांस्कृतिक गरिमा के मूल पर ही प्रहार नहीं है? किसी भी धर्म और संस्कृति का टिकाव और विकास उसके ज्ञान और चरित्र के दो पक्षों पर निर्भर करता है, किन्तु आज का गृहस्थ वर्ग इन दोनों ही क्षेत्रों में तेजी से पतन की ओर बढ़ रहा है। आज स्थिति यह है कि धर्म केवल दिखावे में रह गया है। वह जीवन से समाप्त होता जा रहा है। किन्तु हमें यह याद रखना होगा कि धर्म यदि जीवन में नहीं बचेगा तो उसका बाह्य कलेवर बहुत अधिक दिनों तक कायम नहीं रह पायेगा। जिस प्रकार शरीर से चेतना के निकल जाने के बाद शरीर सड़ांध मारने लगता है, वही स्थिति आज धर्म की हो रही है। कुछ व्यक्तिगत उदाहरणों को छोड़कर यदि सामान्य रूप से कहूँ तो आज चाहे वह मुनि वर्ग हो या गृहस्थ-वर्ग, जीवन से धर्म की आत्मा निकल चुकी है। हमारे पास केवल धर्म का कलेवर शेष बचा है और हम उसे ढो रहे हैं। यह सत्य है कि विगत कुछ वर्षों में धर्म के नाम पर शोर-शराबा बढ़ा है, भीड़ अधिक इकडी होने लगी है. मजमे जमने लगे है। किन्तु मुझे ऐसा लगता है कि यह सब धर्म के कलेवर की अन्त्येष्टि की तैयारी से अधिक कुछ नहीं है।
सम्भवतः अब हमें सावधान हो जाना चाहिए, अन्यथा हम अपने अस्तित्व को खो चुके होंगे। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा इस सबके लिए अन्तिम रूप से कोई भी उत्तरदायी ठहराया जायेगा तो वह गृहस्थवर्ग ही होगा जैनधर्म में गृहस्थ वर्ग की भूमिका दोहरी है। वह साधक भी है और साधकों का प्रहरी भी। आज जब हम श्रावक धर्म की प्रासंगिकता की चर्चा करना चाहते हैं तो हमें पहले उस यथार्थ की भूमिका को देख लेना होगा, जहाँ आज का श्रावक वर्ग जी रहा है। श्रावक जीवन के जो आदर्श और नियम हमारे आचार्यों ने प्रस्तुत किये हैं, उनकी प्रासंगिकता तो आज भी उतनी ही है; जितनी उस समय थी, जबकि उनका निर्माण किया गया होगा। क्या सप्त दुर्व्यसनों के त्याग, मार्गानुसारी गुणों के पालन एवं श्रावक के अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षात्रतों की उपयोगिता और प्रासंगिकता को कभी भी नकारा जा सकता है? वे तो मानव-जीवन के शाश्वत मूल्य हैं, उनके अप्रासंगिक होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है ।
सम्यग्दर्शन : गृहस्थ धर्म का प्रवेशद्वार
श्रावक-धर्म की भूमिका को प्राप्त करने के पूर्व सम्यग्दर्शन की प्राप्ति आवश्यक मानी गई है। जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन के अर्थ में एक विकास देखा जाता है। सम्यग्दर्शन का प्राथमिक अर्थ आय और व्यामोह से रहते, यथार्थ दृष्टिकोण रहा है, वह यथार्थ वीतराग जीवन दृष्टि था। कालान्तर में वह जिनप्रणीत तत्त्वों के प्रति निश्चल श्रद्धा के रूप में प्रचलित हुआ। वर्तमान सन्दर्भों में सम्यक् दर्शन का अर्थ देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा है। सामान्यतया वीतरागी को देव, निर्ग्रन्थ मुनि को गुरु और अहिंसा को धर्म मानने को सम्यक् दर्शन कहा गया है। यह सत्य है कि साधना के क्षेत्र में बिना अटल श्रद्धा या निश्चल आस्था के आगे बढ़ना सम्भव नहीं है। 'संशयात्मा विनश्यति' की उक्ति सत्य है। जब तक साधक में श्रद्धा का विकास नहीं होता, तब तक वह साधना के क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता, न केवल धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा की आवश्यकता है अपितु हमारे व्यावहारिक जीवन में भी वह आवश्यक है। वैज्ञानिक गवेषणा का प्रारम्भ बिना किसी परिकल्पना (Hypothesis) की स्वीकृति के नहीं होता है। गणित के अनेक सवालों को हल करने के लिए प्रारम्भ में हमें मानकर ही चलना होता है। कोई भी व्यवसायी बिना इस बात पर आस्था रखे कि ग्राहक आयेंगे और माल बिकेगा, अपने व्यवसाय का प्रारम्भ नहीं कर सकता। कोई भी पथिक अपने गन्तव्य को जाने वाले मार्ग के प्रति आस्थावान् हुए बिना उस दिशा में कोई गति नहीं करता । लोक-जीवन और साधना सभी क्षेत्रों में आस्था और विश्वास अपेक्षित हैं, किन्तु हमें आस्था (श्रद्धा) और अन्धश्रद्धा में भेद करना होगा। जैन आचार्यों ने गृहस्थोपासक के लिए जिस सम्यक् श्रद्धा की आवश्यकता बताई, वह विवेक-समन्वित श्रद्धा है। आचार्य समन्तभद्र ने अपने श्रावकाचार में धर्म के नाम पर प्रचलित लौकिक मूढ़ताओं से बचने का स्पष्ट निर्देश किया है किन्तु वर्तमान सन्दर्भों में हमारा सम्यक् दर्शन स्वयं इन मूढ़ताओं से आक्रान्त होता जा रहा है। आज सम्यक दर्शन को, जो कि एक आन्तरिक आध्यात्मिक अनुभूति से फलित उपलब्धि है, लेन-देन की वस्तु बना दिया गया है। आज हमारे तथाकथित गुरुओं के द्वारा सम्यक्त्व दिया और लिया जा रहा कहा जाता है कि "अमुक गुरु का सम्यक्त्व वोसरा दो (छोड़ दो ) और हमारा सम्यक्त्व ग्रहण कर लो" यह तो सत्य है कि गुरुजन साधक को देव, गुरु और धर्म का यथार्थ स्वरूप बता सकते हैं, किन्तु सम्यक्त्व भी कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी को दिया और लिया जा सकता है। मेरी तुच्छ बुद्धि में यह बात समझ में नहीं आती है कि सम्यक्त्व क्या कोई बाहरी वस्तु है, जिसे कोई दे या ले सकता है। सम्यक्त्व परिवर्तन के नाम पर आज जो साम्प्रदायिक घेराबन्दी की जा ही है, वह मिध्यात्व के पोषण के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। उसके आधार पर श्रावकों में दरार डाली जा रही है और लोगो के मन में यह बात बैठायी जा रही है कि हम ही केवल सच्चे गुरु हैं और हम जो कह रहे हैं. वह वीतराग की वाणी है। सम्यक्त्व के
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन यथार्थ स्वरूप से अनभिज्ञ हम गुरुडमवाद के दलदल में फँसते चले नहीं होता है। श्रावक धर्म के पालन के लिए उपर्युक्त चतुर्विध कषायों जा रहे है।
पर नियन्त्रण की क्षमता का विकास आवश्यक है। जब तक व्यक्ति आज वीतरागता के प्रति हमारी श्रद्धा कितनी जर्जर हो चुकी अपने क्रोध, मान, माया, लोभ-इन चार कषायों पर किसी भी प्रकार है, इसका प्रमाण यही है कि आज सामान्य मुनिजनों, आचार्यों से का नियन्त्रण कर पाने में अक्षम होता है, तब तक वह श्रावक-धर्म लेकर गृहस्थ उपासक तक सभी लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए की साधना नहीं कर सकता। क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृत्तियों वीतराग की निष्काम भक्ति को भूलकर तीर्थङ्कर या देवी-देवताओं की पर नियन्त्रण कर लेने की क्षमता का विकसित हो जाना ही श्रावक सकाम-भक्ति में लगे हुए हैं। आज वीतराग तीर्थङ्कर देव के स्थान पर धर्म की उपलब्धि का प्रथम चरण है। पद्मावती, चक्रेश्वरी, भौमिया जी, घंटाकर्ण महावीर और नाकोड़ा भैरव वर्तमान सन्दों में इन चारों अशुभ आवेगों के नियन्त्रण की अधिक महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। हमारे अधिकांश साधु-साध्वी ही नहीं, उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। जैनागमों के अनुसार आचार्य तक यक्षों और देवियों की साधना में लगे हुए हैं। वीतरागता क्रोध का तत्त्व पारस्परिक सौहार्द (प्रीति) को समाप्त करता है और के उपासक इस धर्म में आज यन्त्र-मन्त्र व जादू-टोना सभी कुछ प्रविष्ट सौहार्द के अभाव में एक दूसरे के प्रति सन्देह और आशंका होती होते जा रहे हैं। वीतरागता के साधक कहे जाने वाले मुनिजन भी है। यह स्पष्ट है कि सामाजिक जीवन में पारस्परिक अविश्वास और अपनी चमत्कार-शक्ति का बड़े गौरव के साथ बखान करते हैं। जिस आशंकाओं के कारण असुरक्षा का भाव पनपता है और फलत: हमें धर्म की उत्पत्ति लौकिक मूढ़ताओं और अन्ध-श्रद्धाओं को समाप्त करने अपनी शक्ति का बहुत कुछ अपव्यय करना पड़ता है। आज अन्तर्राष्ट्रीय के लिए हुई हो, वही आज अन्ध-विश्वासों में आकण्ठ डूबता जा रहा क्षेत्र में जो शस्त्र-संग्रह और सैन्य-बल बढ़ाने की प्रवृत्ति परिलक्षित है। हमारी आस्थाएँ वीतरागता के साथ न जुड़कर लौकिक-एषणाओं हो रही है और जिस पर अधिकांश राष्ट्रों की राष्ट्रीय आय का ५० की पूर्ति के लिए जुड़ रही हैं। आज महावीर के पालने की अपेक्षा प्रतिशत के अधिक व्यय हो रहा है, वह सब इस पारस्परिक अविश्वास लक्ष्मी जी का स्वप्न महँगा बिकता है। अगर हमारी आस्थाएँ धर्म के का परिणाम है। आज धार्मिक और सामाजिक जीवन में जो असहिष्णुता नाम पर लौकिक एषणाओं की पूर्ति तक ही सीमित हैं, तब फिर हमारा है, उसके मूल में घृणा, विद्वेष एवं आक्रोश का तत्त्व ही है। यह वीतराग के उपासक होने का दावा करना व्यर्थ है। आज जब हम ठीक है कि व्यक्ति जब तक परिवार, समाज एवं राष्ट्र से जुड़ा है, गृहस्थ धर्म की प्रासंगिकता की चर्चा करना चाहते हैं, हमें इस यथार्थ उसमें किसी सीमा तक क्रोध या आक्रोश होना आवश्यक है, अन्यथा स्थिति को समझ लेना होगा। जीवन में या साधना के क्षेत्र में सम्यक् उसका अस्तित्व ही खतरे में होगा, किन्तु उसे नियन्त्रण में होना चाहिये श्रद्धा की कितनी आवश्यकता है? यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है, और अपरिहार्य स्थिति में ही उसका प्रकटन होना चाहिये। किन्तु श्रद्धा के नाम पर अन्धविश्वासों का जो एक दुश्चक्र हम पर हावी हमारे पारस्परिक सामाजिक सम्बन्धों में दरार का दूसरा महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है, उससे कैसे बचा जाय? यही आज का महत्त्वपूर्ण __कारण व्यक्ति का अहंकार या घमण्ड है। एक गृहस्थ के लिए यह प्रश्न है। वस्तुत: इस सबका मूल कारण यह है कि आज श्रावक-वर्ग आवश्यक है कि वह अपनी अस्मिता एवं स्वाभिमान का बोध रखे, को धर्म के यथार्थ स्वरूप का कोई बोध नहीं रह गया है। हमारी श्रद्धा किन्तु उसे अपने अहंकार पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। समाज समझपूर्वक स्थिर नहीं हो रही है, श्रद्धा का तत्त्व व्यक्ति का आध्यात्मिक में जो विघटन या टूटन पैदा होती है, उसका मुख्य कारण समाज विकास कर सकता है, लेकिन वह तभी सम्भव है जब श्रद्धा ज्ञानसम्मत के कर्णधारों, फिर चाहे वे गृहस्थ हों या मुनि, का अहंकार ही है। हो और हमारी विवेक की आँखें खुली हों। आज हम उस उक्त को अहंकार पारस्परिक विनय एवं सम्मान में भी बाधक होता है। इससे भूल गये हैं, जिसमें कहा गया है कि 'पण्णा समिक्खए धम्मो' अर्थात् दूसरों के अहं पर चोट पहुँचती है और उसके परिणाम स्वरूप सामाजिक धर्म के स्वरूप की प्रज्ञा के द्वारा समीक्षा करो।
सम्बन्धों में दरार पड़ने लगती है। अहंकार पर चोट लगते ही व्यक्ति
अपना अलग अखाड़ा जमा लेता है, जिसके परिणाम स्वरूप धार्मिक कषाय-जय : गृहस्थ-धर्म की साधना की आधार- भूमि एवं साम्प्रदायिक संघर्ष होते हैं। सभी साम्प्रदायिक अभिनिवेशों के
श्रावक-धर्म और उसकी प्रासंगिकता की चर्चा करते समय हमें पीछे कुछ व्यक्तियों के अपने अहं के पोषण की भावना के अतिरिक्त श्रावक-आचार के मूलभूत नियमों की वर्तमान युग में क्या उपयोगिता अन्य कोई कारण नहीं है। कपट-वृत्ति या दोहरा-जीवन वर्तमान है? इस पर विचार कर लेना होगा। जैन-धर्म के अनुसार श्रावकत्व सामाजिक जीवन का एक सबसे बड़ा अभिशाप है। झूठे अहं के पोषण की भूमिका को प्राप्त करने के लिए सर्व प्रथम व्यक्ति को क्रोध, मान, के निमित्त अथवा अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को साधने के लिए जो छल-छद्म माया और लोभ-इन चार कषायों की अतितीव्र, अनियन्त्रित, नियन्त्रित सामाजिक जीवन में बढ़ रहे हैं, उनका मूलभूत कारण कपट-वृत्ति (माया)
और अत्यल्प इन चार अवस्थाओं में से प्रथम दो अवस्थाओं पर ही है। विजय-प्राप्ति अपरिहार्य मानी गयी है। साधक जब तक अपने क्रोध, इस प्रकार अनियन्त्रित लोभ संग्रह-वृत्ति का विकास करता है मान. माया और लोभ पर नियन्त्रण रखने की क्षमता को विकसित और उसके कारण शोषण पनपता है और परिणाम स्वरूप समाज में नहीं कर लेता, तब तक श्रावकत्व की भूमिका को प्राप्त करने योगय गरीब और अमीर की खाई बढ़ती जाती है। पूँजीपति और श्रमिकों
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चतीन्द्रसूरि स्मारक में मध्य होने वाला वर्ग संघर्ष इसी लोभवृत्ति या संग्रह वृत्ति का परिणाम है। आज जैन समाज में अपरिग्रह की अवधारणा का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है। उसे केवल मुनियों के सन्दर्भ में ही समझा जाने लगा है। जैन-धर्म में गृहस्थोपासक के लिए धनार्जन का निषेध नहीं किया गया, पर यह अवश्य कहा गया है कि व्यक्ति को एक सीमा से अधिक संचय नहीं करना चाहिए। उसकी संचयवृत्ति या लोभ पर नियन्त्रण होना चाहिए। आज समाज में जो आर्थिक वैषम्य बढ़ता जा रहा है, उसके पीछे अनियन्त्रित लोभ या संग्रह - वृत्ति ही मुख्य है। यदि धनार्जन के साथ ही व्यक्ति की अपने भोग की वृत्ति पर अकुंश होता है और संग्रह-वृति का परिसीमन होता है, तो वह अर्जित धन का प्रवाह लोक-मंगल के कार्यों में बहता है, जिससे सामाजिक सौहार्द और सहयोग बढ़ता है तथा धनवानों के प्रति अभावग्रस्तों के मन में सद्भाव उत्पन्न होता है। जैन धर्म के इतिहास में ऐसे अनेक श्रावक - रत्नों के उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी समग्र सम्पत्ति को समाज हित में समर्पित कर दी, आज उसी आदर्श के पुनर्जागरण की आवश्यकता है।
संक्षेप में सामाजिक जीवन में जो भी विषमता और संघर्ष वर्तमान में हैं, उन सबके पीछे कहीं न कहीं अनियन्त्रित आवेश, अहंकार, छल छ (कपट-वृत्ति) तथा संग्रह वृत्ति है। इन्हीं अनियन्त्रित कषायों के कारण सामाजिक जीवन में विषमता और अशान्ति उत्पन्न होती है। आवेश या अनियन्त्रित क्रोध के कारण पारस्परिक संघर्ष, आक्रमण, युद्ध एवं हत्याएँ होती हैं। आवेशपूर्ण व्यवहार दूसरों के मन में अविश्वास उत्पन्न करता है। और फलतः सामान्य जीवन में जो सौहार्द होना चाहिए, वह भंग हो जाता है। वर्ग या अहंकार की मनोवृत्ति के कारण ऊंच-नीच का भेद-भाव, पारस्परिक घृणा और विद्वेष पनपते हैं। सामाजिक जीवन में जो दरारें उत्पन्न होती हैं, उनका आधार अहंकार ही होता है। माया या कपट की मनोवृत्ति भी जीवन को छल छदा से युक्त बनाती है। इससे जीवन में दोहरापन आता है तथा अन्तः - बाह्य की एकरूपता समाप्त हो जाती है। फलतः मानसिक एवं समाजिक शांति भंग होती है। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण और व्यावसायिक जीवन में अप्रमाणिकता फलित होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्रावक जीवन में कषाय-चतुष्टय पर जो नियन्त्रण लगाने की बात कही गई है, वह सौहार्द एवं सामञ्जस्यपूर्ण जीवन एवं मानसिक तथा सामाजिक शान्ति के लिये आवश्यक है। उसकी प्रासंगिकता कभी भी नकारी नहीं जा सकती है।
सप्त दुर्व्यसन त्याग और उसकी प्रासंगिकता
सप्त दुर्व्यसनों का त्याग गृहस्थ धर्म की साधना का प्रथम चरण है । उनके त्याग को गृहस्थ- आचार के प्राथमिक नियम या मूल गुणों के रूप में स्वीकार किया गया है। 'वसुनन्दिश्रावकाचार में सप्त दुर्व्यसनों के त्याग का विधान किया है। आज भी दुर्व्यसन त्याग गृहस्थ धर्म का प्राथमिक एवं अनिवार्य चरण माना जाता है। सप्त दुर्व्यसन निम्न है
जैन दर्शन
१. द्यूत-क्रीड़ा (जुआ), २. मांसाहार, ३ मद्यपान, ४. वेश्यागमन, ५. परस्त्रीगमन ६. शिकार और ७. चौर्यकर्म 1
उपर्युक्त सप्त दुर्व्यसनों के सेवन से व्यक्ति का कितना चारित्रिक पतन होता है, इसे हर कोई जानता है।
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१. द्यूतक्रीड़ा वर्तमान युग में सट्टा लाटरी आदि घृत-क्रीड़ा के विविध रूप प्रचलित हो गये हैं। इनके कारण अनेक परिवारों का जीवन संकट में पड़ जाता है अतः इस दुर्व्यसन के त्याग को कौन अप्रासंगिक कह सकता है। द्यूत-क्रीड़ा के त्याग की प्रासंगिकता के सम्बन्ध में कोई भी विवेकशील मनुष्य दो मत नहीं हो सकता। वस्तुतः वर्तमान युग में घृत क्रीड़ा के जो विविध रूप हमारे सामने उधर कर आये हैं, उनका आधार केवल मनोरंजन नहीं है, अपितु उसके पीछे बिना किसी श्रम के अर्थोपार्जन की दुष्प्रवृत्ति है। सट्टे के व्यवसाय का प्रवेश जैन परिवारों में सर्वाधिक हुआ है। व्यक्ति जब इस प्रकार के धन्धे में अपने को नियोजित कर लेता है, तो श्रमपूर्वक अर्थोपार्जन के प्रति उसकी निष्ठा समाप्त हो जाती है ऐसी स्थिति में चोरी, ठगी आदि दूसरी बुराइयों पनपती हैं। आज इसके प्रकट अप्रकट विविध रूप हमारे समक्ष आ रहे हैं। उनसे सतर्क रहना आवश्यक है, अन्यथा हमारी भावी पीढ़ी में श्रमपूर्वक अर्थोपार्जन की निष्ठा समाप्त हो जायेगी। यद्यपि इस दुर्गुण का प्रारम्भ एक मनोरंजन के साधन के रूप मे होता है, किन्तु आगे चलकर यह भयंकर परिणाम उपस्थित करता है। जैनसमाज के सम्पन्न परिवारों में और विवाह आदि के प्रसंगों पर इसका जो प्रचलन बढ़ता जा रहा है, उसके प्रति हमें एक सजग दृष्टि रखनी हागी, अन्यथा इसके दुष्परिणामों को भुगतना होगा; आज का युवावर्ग जो इन प्रवृत्तियों में अधिक रस लेता है, इसके दुष्परिणामों को जानते हुए भी अपनी भावी पीढ़ी को इससे रोक पाने में असफल रहेगा। २. मांसाहार विश्व में यदि शाकाहार का पूर्ण समर्थक कोई धर्म है, तो वह मात्र जैन-धर्म है जैनधर्म में गृहस्थोपासक के लिए मांसाहार सर्वथा त्याज्य माना गया है। किन्तु आज समाज में मांसाहार के प्रति एक ललक बढ़ती जा रही है और अनेक जैन परिवारों में उसका प्रवेश हो गया है। अतः इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करना अति आवश्यक है।
मांसाहार के निषेध के पीछे मात्र हिंसा और अहिंसा का प्रश्न ही नहीं, अपितु अन्य दूसरे भी कारण हैं। यह सत्य है कि मांस का उत्पादन बिना हिंसा के सम्भव नहीं है और हिंसा क्रूरता के बिना सम्भव नहीं है। यह सही है कि मानवीय आहार के अन्य साधनों में भी किसी सीमा तक हिंसा जुड़ी हुई है, किन्तु मांसाहार के निमित्त जो हिंसा या वध किया जाता है, उसके लिए वध कर्ता का अधिक क्रूर होना अनिवार्य है। क्रूरता के कारण दया, करुणा, आत्मीयता जैसे कोमल गुणों का ह्रास होता हैं और समाज में भय, आतंक एवं हिंसा का ताण्डव प्रारम्भ हो जाता हैं। यह अनुभूत सत्य है कि वे सभी देश एवं कौमें जो मांसाहारी है और हिंसा जिनके धर्म का एक अंग मान लिया गया है, उनमें होने वाले हिंसक ताण्डव को देखकर आज भी दिल दहल उठता है। मुस्लिम राष्ट्रों में आज मनुष्य के जीवन का
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थतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन मूल्य गाजर और मूली से अधिक नहीं रह गया है। केवल व्यक्तिगत ने तो इस दुष्प्रवृत्ति को रोकने के लिए अपने पंचशीलों में अपरिग्रह हितों के लिए ही धर्म और राजनीति के नाम पर वहाँ जो कुछ हो के स्थान पर मद्यपान-निषेध को स्थान दिया था। यह एक ऐसी बुराई रहा है, वह हम सभी जानते हैं। यदि हम यह मानते हैं कि मानव-जीवन है, जो मानव-समाज के गरीब और अमीर दोनों ही वर्गों में हावी से क्रूरता समाप्त हो और कोमल गुणों का विकास हो, तो हमें उन है। जैन-परम्परा में मद्यपान का निषेध न केवल इसलिए किया गया कारणों को भी दूर करना होगा, जिनसे जीवन में क्रूरता आती है। कि वह हिंसा से उत्पादित है, अपितु इसलिए कि इससे मानवीय मांसाहार और क्रूरता पर्यायवाची हैं। यदि दया, करुणा, वात्सल्य का विवेक कुण्ठित होता है और जब मानवीय विवेक ही कुण्ठित हो जाएगा विकास करना है, तो मांसाहार का त्याग अपेक्षित है।
तो दूसरी सारी बुराइयाँ व्यक्ति के जीवन में स्वाभाविक रूप से प्रविष्ट दूसरे, मांसाहार की निरर्थकता को मानव-शरीर की संरचना के हो जावेंगी। आर्थिक और चारित्रिक सभी प्रकार के दुराचरणों के मूल आधार पर भी सिद्ध किया जा सकता है। मानव-शरीर की संरचना में नशीले पदार्थों का सेवन है। सामान्यतया यह कहा जा सकता है उसे निरामिष प्राणी ही सिद्ध करती है। मांसाहार मानव-स्वास्थ्य के कि मादक द्रव्यों के सेवन से मनुष्य अपनी मानसिक चिन्ताओं को लिए कितना हानिकारक है, यह बात अनेक वैज्ञानिक अनुसन्धानों भूल कर अपने तनावों को कम करता है, किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा से प्रमाणित हो चुका है। इस लघु निबन्ध में उस सबकी चर्चा कर ही है। तनाव के कारण जीवित रखकर केवल क्षण भर के लिए अपने पाना तो सम्भव नहीं है, किन्तु यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मांसाहार विवेक को खो कर विस्मृति के क्षणों में जाना, तनावों के निराकरण शरीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और मनुष्य स्वभावतः एक । एवं परिमार्जन का सार्थक उपाय नहीं है। मद्यपान को सभी दुर्गुणों शाकाहारी प्राणी है।
का द्वार कहा गया है। वस्तुत: उसकी समस्त बुराइयों पर विचार करने मांसाहार के समर्थन में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि के लिए एक स्वतन्त्र निबन्ध आवश्यक होगा। यहाँ केवल इतना कहना बढ़ती हुई मानव-जाति की आबादी को देखते हुए भविष्य में मांसाहार ही पर्याप्त है कि सारी बुराईयाँ विवेक के कुण्ठित होने पर पनपती के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रहेगा, जिससे मानव-जाति हैं और मद्यमान विवेक को कुण्ठित करता है। अत: मनुष्य के मानवीय की क्षुधा को शान्त किया जा सके। किन्तु उसके विपरीत कृषि के गुणों को जीवित रखने के लिए इसका त्याग आवश्यक है। क्षेत्र में भी ऐसे अनेक वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं और हो रहे हैं जो स्पष्ट मनुष्य और पशु के बीच यदि कोई विभाजक रेखा है। तो वह रूप से यह प्रतिपादित करते हैं कि मनुष्य को अभी शताब्दियों तक विवेक ही है। और जब विवेक ही समाप्त हो जायेगा तो मनुष्य और निरामिष भोजी बनाकर जिलाया जा सकता है। अनेक आर्थिक सर्वेक्षणों पशु में कोई अन्तर ही नहीं रह जाएगा। मादक द्रव्यों का सेवन मनुष्य में यह भी प्रमाणित हो चुका है कि शाकाहार मांसाहार की अपेक्षा को मानवीय स्तर से गिराकर उसे पाशविक स्तर पर पहुँचा देता है। अधिक सुलभ और सस्ता है। अतः मनुष्य की स्वाद-लोलुपता के यह भी एक सुविदित तथ्य है कि जब यह दुर्व्यसन गले लग जाता अतिरिक्त और कोई तर्क ऐसा नहीं है, जो मांसाहार का समर्थक हो है तो अपनी अति पर पहुँचाए बिना समाप्त नहीं होता। वह न केवल सके। शक्तिदायक आहार के रूप में मांसाहार के समर्थन का एक खोखला विवेक को ही समाप्त करता है अपितु आर्थिक और शारीरिक दृष्टि दावा है। यह सिद्ध हो चुका है कि मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारी से व्यक्ति को जर्जर बना देता है। आज जैन-समाज के सम्पन्न परिवारों अधिक शक्ति-सम्पन्न होते हैं और उनमें अधिक काम करने की क्षमता में यह दुर्व्यसन भी प्रवेश कर चुका है। मैं ऐसे अनेक परिवारों को होती है। शेर आदि मांसाहारी प्राणी शाकाहारी प्राणियों पर जो विजय जानता हूँ जो धर्म के क्षेत्र में अग्रणी श्रावक माने जाते हैं किन्तु इस प्राप्त कर लेते हैं, उसका कारण उनकी शक्ति नहीं बल्कि उनके नख, दुर्व्यसन से मुक्त नहीं हैं। आज हमें इस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार दाँत आदि क्रूर शारीरिक अङ्ग ही हैं।
करना होगा कि समाज को इससे किस प्रकार बचाया जाए। जैन-समाज जैन-समाज के लिए आज यह विचारणीय प्रश्न है कि वह समाज ने जो चारित्रिक गरिमा, आर्थिक सम्पन्नता तथा समाज में प्रतिष्ठा अर्जित में बढ़ती जा रही सामिष-भोजन की ललक को कैसे रोकें? आज की थी उसका मूलभूत आधार इन दुर्व्यसनों से मुक्त रहना ही था। आवश्यकता इस बात की है कि हमें मांसाहार और शाकाहार के गुण-दोषों इन दुर्व्यसनों के प्रवेश के साथ हमारी चारित्रिक उच्चता और सामाजिक की समीक्षा करते हुए तुलनात्मक विवरण से युक्त ऐसा साहित्य प्रकाशित प्रतिष्ठा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। और तब एक दिन ऐसा करना होगा, जो आज के युवक को तर्क-संगत रूप से यह अहसास भी आएगा जब हम अपनी आर्थिक सम्पन्नता से हाथ धो बैठेंगे। यदि करवा सके कि मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार एक उपयुक्त भोजन है। हम सजग नहीं हुए तो भविष्य हमें क्षमा नहीं करेगा। दूसरे समाज में जो मांसाहार के प्रति ललक बढ़ती जा रही है, उसका ४. वेश्यागमन-श्रावक के सप्त दुर्व्यसन-त्याग के अन्तर्गत कारण समाज-नियन्त्रण का अभाव तथा मांसाहारी समाज में बढ़ता वेश्यागमन के त्याग का भी विधान किया गया है। यह सुनिश्चित सत्य हुआ घनिष्ठ परिचय है, जिस पर किसी सीमा तक अंकुश लगाना है कि वेश्यागमन न केवल सामाजिक दृष्टि से आवांछनीय है, अपितु आवश्यक है।
आर्थिक एवं शारीरिक-स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अवांछनीय माना गया ३. मद्यपान-तीसरा दुर्व्यसन मद्यपान माना गया है और है। उसके अनौचित्य पर यहाँ कोई विशेष चर्चा करना आवश्यक प्रतीत गृहस्थोपासक को इसके त्याग का स्पष्ट निर्देश दिया गया है। बुद्ध नहीं होता। सामाजिक सदाचार और पारिवारिक सुख-शान्ति के लिए andbariridwarnirbrowbandwidtimidnidroincidnirbinird-[१९९-didatrordindabredibordondvodrowondirbronowindoornard
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन दर्शन
वेश्यागमन का त्याग उचित ही है। यह एक शुभ संकेत ही है कि न केवल जैन समाज में अपितु समग्र भारतीय समाज में वेश्यागमन की प्रवृत्ति और वेश्यावृत्ति धीरे-धीरे क्षीण होती जा रही है। यद्यपि इस प्रवृत्ति के जो दूसरे रूप सामने आ रहे हैं वे उसकी अपेक्षा अधिक चिन्तनीय हैं, यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि चाहे खुले रूप में वेश्यावृत्ति पर कुछ अंकुश लगा हो, किन्तु छद्मरूप में यह प्रवृत्ति बढ़ी ही है। जैन समाज के सम्पन्न वर्ग में इन छद्म रूपों के प्रति ललक बढ़ती जा रही है, जिस पर अंकुश लगाना आवश्यक है।
५. परस्त्रीगमन - परस्त्रीगमन परिवार एवं समाज व्यवस्था का घातक है, इसके परिणाम स्वरूप न केवल एक ही परिवार का पारिवारिक जीवन दूषित एवं अशान्त बनता है, अपितु अनेक परिवारों के जीवन अशान्त बन जाते हैं। वेश्यावृत्ति की अपेक्षा यह अधिक दोषपूर्ण है। क्योंकि इसमें छल-छा और जीवन का दोहरापन भी जुड़ जाता है। अतः सामाजिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा अपराध है। आज कामवासना की तृप्ति का यह छद्म रूप अधिक फैलता जा रहा है। पाश्चात्य देशों की वासनात्मक उच्छृंखलता का प्रभाव हमारे देश में भी हुआ है। क्लबों और होटलों के माध्यम से यह विकृति अधिक तेजी से व्याप्त होती जा रही है। जैन समाज का भी कुछ सम्पन्न एवं धनी वर्ग इसकी गिरफ्त में आने लगा है। यद्यपि अभी समाज का बहुत बड़ा भाग इस दुर्गुण से मुक्त है किन्तु धीरे-धीरे फैल रही विकृति के प्रति सजग होना आवश्यक है।
६. शिकार- मनोरंजन के निमित्त अथवा मांसाहार के लिए जंगल के प्राणियों का वध करना शिकार कहा जाता है। यह व्यक्ति को क्रूर बनाता है। यदि मनुष्य को मानवीय कोमल गुणों से युक्त बनाये रखना है तो इस वृत्ति का त्याग अपेक्षित है। आज शासन द्वारा भी वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए शिकार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा रहा है। अतः इस प्रवृत्ति के त्याग का औचित्य निर्विवाद है। आज हम इस बात को गौरव से कह सकते हैं कि जैन समाज इस दुर्गुण से मुक्त है, किन्तु आज सौन्दर्य-प्रसाधनों, जिनका उपभोग समाज में धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है, इस निमित्त अव्यक्त रूप से हो रही हिंसा के प्रति सजग रहना आवश्यक है। क्योंकि उनका उत्पादन उपभोक्ताओं के निमित्त हो होता है और यदि हम उनका उपयोग करते हैं तो उस हिंसा एवं क्रूरता से अपने को बचा नहीं सकते हैं। सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण एवं परीक्षण के निमित्त हिंसा के जो क्रूरतम रूप अपनाए जाते हैं वे जैन पत्र-पत्रिकाओं में बहुचर्चित रहे हैं। अतः उन सब पर यहाँ विचार करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता। किन्तु इस सन्दर्भ में हमें सजग अवश्य रहना चाहिए कि हम क्रूरता के भागी न बनें।
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७. चौर्यकर्म - दूसरों की सम्पत्ति या दूसरों के अधिकार की वस्तुओं को उनकी बिना अनुमति के ग्रहण करना चोरी है। अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह और संचय को भी चोरी कहा जा सकता है। जैनाचार्यों ने व्यावसायिक अप्रमाणिकता कर- अपवंचन तथा राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कार्य करना आदि को भी चोरी के अन्तर्गत माना है। यद्यपि सामान्यतया जैन-परिवार इस दुर्व्यसन से मुक्त कड़े जा सकते
हैं किन्तु जैनाचार्यों ने इसकी जो सूक्ष्म व्याख्या की है, उस आधार पर आज का गृहस्थ वर्ग इस दुर्व्यसन से कितना मुक्त है, यह कहना कठिन है। व्यावसायिक अप्रमाणिकता और कर अपवंचन आज सामान्य हो गये हैं। व्यावसायिक अप्रमाणिकता के इस युग में इसकी प्रासंगिकता को नकारा तो नहीं जा सकता किन्तु वर्तमान युग में कौन इससे कितना बच सकेगा, इस पर व्यावहारिक दृष्टि से विचार करना अपेक्षित है।
गृहस्थ जीवन की व्यावहारिक नीति
गृहस्थ जीवन में कैसे जीना चाहिए? इस सम्बन्ध में थोड़ा निर्देश आवश्यक है। गृहस्थ उपासक का व्यावहारिक जीवन कैसा हो, इस सम्बन्ध में जैन आगमों में यत्र-तत्र बिखरे हुए कुछ निर्देश मिल जाते हैं। लेकिन बाद के जैन विचारकों ने कथा साहित्य, उपदेश साहित्य एवं आचार सम्बन्धी साहित्य में इस सन्दर्भ में एक निश्चित रूप-रेखा प्रस्तुत की है। यह एक स्वतन्त्र शोध का विषय है। हम अपने विवेचन को आचार्य नेमिचन्द्र के प्रवचनसारोद्धार, आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र तथा पं० आशाधरजी के सागारधर्मामृत तक ही सीमित रखेंगे।
सभी विचारकों की यह मान्यता है कि जो व्यक्ति जीवन के सामान्य व्यवहारों में कुशल नहीं है, वह आध्यात्मिक जीवन की साधना में आगे नहीं बढ़ सकता। धार्मिक या आध्यात्मिक होने के लिए व्यावहारिक या सामाजिक होना पहली शर्त है। व्यवहार से ही परमार्थ साधा जा सकता है। धर्म की प्रतिष्ठा के पहले जीवन में व्यवहारपटुता एवं सामाजिक जीवन जीने की कला का आना आवश्यक है। जैनाचार्यों ने इस तथ्य को बहुत पहले ही समझ लिया था। अतः अणुव्रत-साधना के पूर्व ही इन योग्यताओं का सम्पादन आवश्यक है।
आचार्य हेमचन्द्र ने इन्हें " मार्गानुसारी" गुण कहा है। धर्म-मार्ग का अनुसारण करने के लिए इन गुणों का होना आवश्यक है। उन्होंने योगशास्त्र के द्वितीय एवं तृतीय प्रकाश में निम्न ३५ मार्गानुसारी गुणों का विवेचन किया है: (१) न्याय नीतिपूर्वक ही धनोपार्जन करना। (२) समाज में जो ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध शिष्टजन है, उनका यथोचित सम्मान करना, उनसे शिक्षा ग्रहण करना और उनके आचार की प्रशंसा करना। (३) समान कुल और आचार-विचार वाले, स्वधर्मी किन्तु भिन्न गोत्रोत्पन्न जनों की कन्या के साथ विवाह करना (४) चोरी, परस्त्रीगमन, असत्यभाषण आदि पापकर्मों का ऐहिक पारलौकिक कटुक-विपाक जानकर, पापाचार का त्याग करना। (५) अपने देश के कल्याणकारी आचार-विचार एवं संस्कृति का पालन करना तथा संरक्षण करना। (६) दूसरों की निन्दा न करना। (७) ऐसे मकान में निवास करना जो न अधिक खुला और न अधिक गुप्त हो, जो सुरक्षा वाला भी हो और जिसमें अव्याहत वायु एवं प्रकाश आ सके। (८) सदाचारी जनों की संगति करना। ( ९ ) माता-पिता का सम्मान सत्कार करना, उन्हें सब प्रकार से सन्तुष्ट रखना। (१०) जहाँ वातावरण शान्तिप्रद न हो, जहाँ निराकुलता के साथ जीवन यापन करना कठिन हो, ऐसे ग्राम या नगर में निवास न करना (११) देश, जाति एवं कुल से विरुद्ध कार्य न करना, जैसे मदिरापान आदि । (१२) देश और काल के अनुसार [१०]
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन वस्त्राभूषण धारण करना। (१३) आय से अधिक व्यय न करना और (परोपकारी) और (२१) लब्धलक्ष्य (जीवन के साध्य का ज्ञाता)। अयोग्य क्षेत्र में व्यय न करना। आय के अनुसार वस्त्र पहनना। (१४) पं० आशाधर जी ने अपने ग्रंथ सागार-धर्मामृत में निम्न गुणों धर्मश्रवण की इच्छा रखना, अवसर मिलने पर श्रवण करना, शास्त्रों का निर्देश किया है:-(१) न्यायपूर्वक धन का अर्जन करने वाला, का अध्ययन करना, उन्हें स्मृति में रखना, जिज्ञासा से प्रेरित होकर (२) गुणीजनों को माननेवाला, (३) सत्यभाषी, (४) धर्म, अर्थ और शास्त्रचर्चा करना, विरुद्ध अर्थ से बचना, वस्तुस्वरूप का परिज्ञान प्राप्त काम (त्रिवर्ग) का परस्पर विरोधरहित सेवन करनेवाला, (५) योग्य करना और तत्त्वज्ञ बनना बुद्धि के इन आठ गुणों को प्राप्त करना। स्त्री, (६) योग्य स्थान (मोहल्ला), (७) योग्य मकान से युक्त, (८). (१५) धर्मश्रवण करके जीवन को उत्तरोत्तर उच्च और पवित्र बनाना। लज्जाशील, (९) योग्य आहार, (१०) योग्य आचरण, (११) श्रेष्ठ (१६) अजीर्ण होने पर भोजन न करना, यह स्वास्थ्यरक्षा का मूल पुरुषों की संगति, (१२) बुद्धिमान्, (१३) कृतज्ञ, (१४) जितेन्द्रिय, मन्त्र है। (१७) समय पर प्रमाणोपेत भोजन करना, स्वाद के वशीभूत (१५) धर्मोपदेश श्रवण करने वाला, (१६) दयालु, (१७) पापों से हो अधिक न खाना। (१८) धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का इस डरने वाला-ऐसा व्यक्ति सागारधर्म (गृहस्थ धर्म) का आचरण करे। प्रकार सेवन करना कि जिससे किसी में बाधा उत्पन्न न हो। धनोपार्जन पं० आशाधर जी ने जिन गुणों का निर्देश किया है उनमें से अधिकांश के बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता और गृहस्थ काम-पुरुषार्थ का का निर्देश दोनों पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा किया जा चुका है। भी सर्वथा त्यागी नहीं हो सकता, तथापि धर्म को बाधा पहुँचा कर उपर्युक्त विवेचना से जो बात अधिक स्पष्ट होती है, वह यह अर्थ-काम का सेवन न करना चाहिए। (१९) अतिथि, साधु और दीन है कि जैन-आचार-दर्शन मनुष्य जीवन के व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा जनों को यथायोग्य दान देना। (२०) आग्रहशील न होना। (२१) करके नहीं चलता। जैनाचार्यों ने जीवन के व्यावहारिक पक्ष को गहराई सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य आदि गुणों को प्राप्त करने के लिए से परखा है और उसे इतना सुसंस्कृत बनाने का प्रयास किया है कि प्रयत्नशील होना। (२२) अयोग्य देश और अयोग्य काल में गमन जिसके द्वारा व्यक्ति इस जगत् में भी सफल जीवन जी सकता है। न करना। (२३) देश, काल, वातावरण और स्वकीय सामर्थ्य का यही नहीं, इन सद्गुणों में से अधिकांश का सम्बन्ध हमारे सामाजिक विचार करके ही कोई कार्य प्रारम्भ करना। (२४) आचारवृद्ध और जीवन से है। वैयक्तिक जीवन में इनका विकास सामाजिक जीवन के ज्ञानवृद्ध पुरुषों को अपने घर आमन्त्रित करना, आदरपूर्वक बिठलाना, मधुर सम्बन्धों का सृजन करता है। ये वैयक्तिक जीवन के लिए जितने सम्मानित करना और उनकी यथोचित सेवा करना। (२५) माता-पिता, उपयोगी है, उससे अधिक सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। पत्नी, पुत्र आदि आश्रितों का यथायोग्य भरण-पोषण करना, उनके जैनाचार्यों के अनुसार ये आध्यात्मिक साधना के प्रवेशद्वार हैं। साधक विकास में सहायक बनना। (२६) दीर्घदर्शी होना। किसी भी कार्य इनका योग्य रीति से आचरण करने के बाद ही अणुव्रतों और महाव्रतों को प्रारम्भ करने के पूर्व ही उसके गुणावगुण पर विचार कर लेना। की साधना की दिशा में आगे बढ़ सकता है। (२७) विवेकशील होना। जिसमें हित-अहित, कृत्य-अकृत्य का विवेक नहीं होता, उस पशु के समान पुरुष को अन्त में पश्चात्ताप करना पड़ता श्रावक के बारह व्रतों की प्रासंगिकता है। (२८) गृहस्थ को कृतज्ञ होना चाहिए। उपकारी के उपकार को जैनधर्म में श्रावक के निम्न बारह व्रत हैंविस्मरण कर देना उचित नहीं। (२९) अहंकार से बचकर विनम्र होना। (१) अहिंसा-अणुव्रत (३०) लज्जाशील होना। (३१) करुणाशील होना। (३२) सौम्य होना। (२) सत्य-अणुव्रत (३३) यथाशक्ति परोपकार करना। (३४) काम, क्रोध, मोह, मद और (३) अचौर्य-अणुव्रत मात्सर्य, इन आन्तरिक रिपुओं से बचने का प्रयत्न करना और (३५) (४) स्वपत्नी-संतोषव्रत इन्द्रियों को उच्छंखल न होने देना। इन्द्रियविजेता गृहस्थ ही धर्म की (५) परिग्रह-परिमाण व्रत आराधना करने की पात्रता प्राप्त करता है।
(६) दिक्-परिमाण व्रत आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनसारोद्धार में भिन्न रूप से श्रावक के (७) उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत २१ गुणों का उल्लेख किया है और यह माना है कि इन २१ गुणों (८) अनर्थदण्ड-विरमण व्रत को धारण करने वाला व्यक्ति ही अणुव्रतों की साधना का पात्र होता (९) सामायिक व्रत है। आचार्य द्वारा निर्देशित श्रावक के २१ गुण निम्न हैं:-(१) अक्षुद्रपन (१०) देशावकासिक व्रत (विशाल-हृदयता), (२) स्वस्थता, (३) सौम्यता, (४) लोकप्रियता, (११) प्रोषधोपवास व्रत (५) अक्रूरता, (६) पापभीरुता, (७) अशठता, (८) सुदक्षता (१२) अतिथि-संविभाग व्रत (दानशीलता), (९) लज्जाशीलता, (१०) दयालुता, (११) गुणानुरागता, अहिंसा-अणुव्रत-गृहस्थोपासक संकल्पपूर्वक त्रसप्राणियों (चलने (१२) प्रियसम्भाषण या सौम्यदृष्टि, (१३) माध्यस्थवृत्ति, (१४) फिरने वाले) की हिंसा का त्याग करता है। हिंसा के चार रूप हैंदीर्घदृष्टि, (१५) सत्कथक एवं सुपक्षयुक्त, (१६) नम्रता, (१७) १. आक्रामक (संकल्पी), २. सुरक्षात्मक (विरोधजा), ३. औद्योगिक
विशेषज्ञता, (१८) वृद्धानुगामी, (१९) कृतज्ञ, (२०) परहितकारी (उद्योगजा), ४. जीवन-यापन के अन्य कार्यों में होने वाली (आरम्भजा)। anorandiraniraniwaridriorwariwariwarorandirord-ord-[१२१]owondridriodridrowdnidancinianitoridoraniranorande
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - हिंसा के ये चारों रूप भी दो वर्गों में विभाजित किये गये हैं- ३. भूमि आदि के स्वामित्व के सम्बन्ध में असत्य जानकारी १. हिंसा की जाती है और २. हिंसा करनी पड़ती है। इसमें आक्रामक देना। में हिंसा की जाती है, जबकि सुरक्षात्मक, औद्योगिकी और आरम्भजा ४. किसी धरोहर को दबाने या अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध में हिंसा करनी पड़ती है। सुरक्षात्मक, औद्योगिक और आरम्भजा हिंसा करने हेतु असत्य बोलना। में हिंसा का निर्णय तो होता है, किन्तु वह निर्णय विवशता में लेना ५. झूठी साक्षी देना। होता है, अत: उसे स्वतन्त्र ऐच्छिक निर्णय नहीं कह सकते हैं। इन इस अणुव्रत के पाँच अतिचार या दोष निम्न हैंस्थितियों में हिंसा की नहीं जाती, अपितु करनी पड़ती है। सुरक्षात्मक १. अविचारपूर्वक बोलना या मिथ्या-दोषारोपण करना। हिंसा और औद्योगिक हिंसा में त्रस जीवों की हिंसा भी करनी पड़ २. गोपनीयता भंग करना। सकती है, यद्यपि औद्योगिक हिंसा में भी त्रस जीवों की हिंसा केवल ३. स्वपत्नी या मित्र के गुप्त रहस्यों का प्रकट करना। सुरक्षात्मक दृष्टि से ही करनी पड़ती है। इसके अतिरिक्त हिंसा का ४. मिथ्या-उपदेश अर्थात् लोगों को बहकाना। एक रूप वह है, जिसमें हिंसा हो जाती है, जैसे-कृषिकार्य करते ५. कूट-लेखकरण अर्थात् झूठे दस्तावेज तैयार करना, नकली हए सावधानी के बावजूद हो जाने वाली त्रस-हिंसा। जीवनरक्षण एवं मुद्रा (मोहर) लगाना या जाली हस्ताक्षर करना। आजीविकोपार्जन में होने वाली हिंसा से उसका व्रत दूषित नहीं माना उपर्युक्त सभी निषेधों की प्रासंगिकता आज भी निर्विवाद है। गया है। सामान्यतया यह कहा जाता है कि जैनधर्म में अहिंसा का वर्तमान युग में भी ये सभी दूषित प्रवृत्तियाँ प्रचलित हैं तथा शासन पालन जिस सूक्ष्मता के साथ किया जाता है, वह उसे अव्यावहारिक और समाज इन पर रोक लगाना चाहता है। बना देता है किन्तु यदि हम गृहस्थ उपासक के अहिंसा-अणुव्रत के ३. अस्तेयाणुव्रत-वस्तु के स्वामी की अनुमति के बिना किसी उपर्युक्त विवेचन को देखते हैं तो यह निस्संकोच कहा जा सकता है वस्तु का गहण करना चोरी है। गृहस्थ साधक को इस दुषित प्रवृत्ति कि अहिंसा की जैन-अवधारणा किसी भी स्थिति में अप्रासंगिक और से बचने का निर्देश दिया गया है। इसकी विस्तृत चर्चा हम सप्त दुर्व्यसन अव्यावहारिक नहीं है। वह न तो व्यक्ति या राष्ट्र के आत्म-सुरक्षा के के संदर्भ में कर चुके हैं, अतः यहाँ केवल इसके निम्न अतिचारों प्रयत्न में बाधक है और न उसकी औद्योगिक प्रगति में। उसका विरोध की प्रासंगिकता की चर्चा करेंगेहै तो मात्र आक्रामक हिंसा से और आज कोई भी विवेकशील प्राणी १. चोरी की वस्तु खरीदना। या राष्ट्र आक्रामक हिंसा का समर्थक नहीं हो सकता है।
२. चौर्यकर्म में सहयोग देना। गृहस्थ उपासक के अहिंसाणुव्रत के जो पाँच अतिचार (दोष) ३. शासकीय नियमों का अतिक्रमण तथा कर-अपवंचन। बताये गये हैं वे भी पूर्णतया व्यावहारिक और प्रासंगिक हैं। इन अतिचारों ४. माप-तौल की अप्रमाणिकता। की प्रासंगिक व्याख्या निम्न है
५. वस्तुओं में मिलावट करना। १. बन्धन-प्राणियों को बंधन में डालना। आधुनिक सन्दर्भ उपर्युक्त पाँचों दुष्प्रवृत्तियाँ आज भी अनुचित एवं शासन द्वारा में अधीनस्थ कर्मचारियों को निश्चित समयावधि से अधिक रोककर दण्डनीय मानी जाती हैं। अत: इनका निषेध अप्रासंगिक या कार्य लेना अथवा किसी की स्वतन्त्रता का अपहरण करना भी इसी अव्यावहारिक नहीं है। वर्तमान युग में ये दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही कोटि में आता है।
हैं, अत: इन नियमों का पालन अपेक्षित है। २. वध-अंगोपांग का छेदन और घातक प्रहार करना।
४. स्वपत्नी-संतोष व्रत-गृहस्थोपासक की काम-प्रवृत्ति पर ३. वृत्तिच्छेद–किसी की आजीविका को छीनना या उसमें बाधा अंकुश लगाने के हेतु इस व्रत का विधान किया है। यह यौन-सम्बन्धों डालना।
को नियन्त्रित एवं परिष्कारित करता है और इस संदर्भ में सामाजिक ४. अतिभार-प्राणी की सामर्थ्य से अधिक बोझ लादना या व्यवस्था को सुदृढ़ करता है। स्वपत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध कार्य लेना।
रखना जैन-श्रावक के लिये निषिद्ध है। पारिवारिक एवं सामाजिक शान्ति ५. भक्त-पान-निरोध-अधीनस्थ पशुओं एवं कर्मचारियों की एवं सुव्यवस्था की दृष्टि से इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यह समय पर एवं आवश्यक भोजन-पानी की व्यवस्था न करना। उपर्युक्त व्रत पति-पत्नी के मध्य एक-दूसरे के प्रति आस्था जागृत करता है अनैतिक आचरणों की प्रासंगिकता आज भी यथावत् है। शासन ने और उनके पारस्परिक प्रेम एवं समर्पणभाव को सुदृढ़ करता है। जब इनकी प्रासंगिकता के आधार पर इन्हें रोकने हेतु नियम बनाये हैं जबकि भी इस व्रत का भंग होता है, पारिवारिक जीवन में अशांति एवं दरार जैनाचार्यों ने दो हजार वर्ष पूर्व इन नियमों की व्यवस्था कर दी थी। पैदा हो जाती है।
२. सत्थाणुव्रत-गृहस्थ को निम्न पाँच कारणों से असत्य-भाषण इस व्रत के निम्न पाँच अतिचार या दोष माने गये हैंका निषेध किया गया है
१. अल्पवय की विवाहिता स्त्री से अथवा समय-विशेष के लिए १. वर-कन्या के सम्बन्ध में असत्य जानकारी देना। ग्रहण की गई स्त्री से अर्थात् वेश्या आदि से सम्भोग करना।
२. पशु आदि के क्रय-विक्रय हेतु असत्य जानकारी देना। २. अविवाहिता स्त्री-जिसमें परस्त्री और वेश्या भी समाहित हैं, diranirdoironiorandiwanironoraniramidnidroraniraranird१२२]oroniritonirodridrodrowdeodirirandionoramodriandard
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वतीन्द्ररिमारकंद - जैन दर्शन - से यौन सम्बन्ध स्थापित करना।
कार्यक्षेत्र सीमित हो जावेगा किन्तु जो वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति से ३. अप्राकृतिक साधनों से काम-वासना को सन्तुष्ट करना, जैसे- अवगत हैं, वे यह भली प्रकार जानते हैं कि आज कोई भी राष्ट्र विदेशी हस्त-मैथुन, गुदा-मैथुन, समलिंगी-मैथुन आदि।
व्यक्ति को अपने यहाँ पैर जमाने देना नहीं चाहता है, दूसरे यदि हम ४. पर-विवाहकरण अर्थात् स्व-सन्तान के अतिरिक्त दूसरों के अन्तर्राष्ट्रीय शोषण को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें इस बात से विवाह सम्बन्ध करवाना। वर्तमान संदर्भ में इसकी एक व्याख्या यह सहमत होना होगा कि व्यक्ति के धनोपार्जन की गतिविधि का क्षेत्र भी हो सकती है कि एक पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना। सीमित हो। अत: इस व्रत को अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता है। ५. काम-भोग की तीव्र अभिलाषा।
७. उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत-व्यक्ति की भोगवृत्ति पर उपर्युक्त पाँच निषेधों में कोई भी ऐसा नहीं है, जिसे अव्यावहारिक अंकुश लगाना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इस व्रत के अन्तर्गत और वर्तमान संदर्भो में अप्रासंगिक कहा जा सके।
श्रावक को अपने दैनंदिन जीवन के उपभोग की प्रत्येक वस्तु की संख्या, ५. परिग्रह-परिमाण व्रत-इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक मात्रा आदि निर्धारित करनी होती है-जैसे वह कौन सा मंजन करेगा, से यह अपेक्षा की गई है कि वह अपनी सम्पत्ति अर्थात् जमीन-जायदाद, किस प्रकार के चावल, दाल, सब्जी, फल-मिष्ठात्र आदि का उपभोग बहुमूल्य धातुएँ, धन-धान्य, पशु एवं अन्य वस्तुओं की एक सीमा-रेखा करेगा, उनकी मात्रा क्या होगी, उसके वस्त्र, जूते, शय्या आदि किस निश्चित करे और उसका अतिक्रमण नहीं करे। व्यक्ति में संग्रह की प्रकार के और कितने होंगे। वस्तुत: इस व्रत के माध्यम में उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है और किसी सीमा तक गृहस्थ-जीवन में संग्रह भोग-वृत्ति को संयमित कर उसके जीवन को सात्विक और सादा बनाने आवश्यक भी है, किन्तु यदि संग्रह-वृत्ति को नियन्त्रित नहीं किया जावेगा का प्रयास किया गया है, जिसकी उपयोगिता को कोई भी विचारशील तो समाज में गरीब और अमीर की खाई अधिक गहरी होगी और व्यक्ति अस्वीकार नहीं करेगा। आज जब मनुष्य उद्दाम भोग-वासना वर्ग-संघर्ष अपरिहार्य हो जावेगा। परिग्रह-परिमाणव्रत या इच्छा- में आकण्ठ डूबता जा रहा है, इस व्रत का महत्त्व स्पष्ट है। परिमाणव्रत इसी संग्रह-वृत्ति को नियन्त्रित करता है और आर्थिक वैषम्य जैन-आचार्यों ने उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत के माध्यम से यह का समाधान प्रस्तुत करता है। यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों में इस सम्बन्ध भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि गृहस्थ उपासक को किन साधनों में कोई सीमा-रेखा नियत नहीं की गई है, उसे व्यक्ति के स्व-विवेक के द्वारा अपनी अजीविका का उपार्जन करना चाहिए और किन साधनों पर छोड़ दिया गया था, किन्तु आधुनिक संदर्भ में हमें व्यक्ति की से आजीविका का उपार्जन नहीं करना चाहिए। गृहस्थ उपासक के लिए आवश्यकता और राष्ट्र की सम्पन्नता के आधार पर सम्पत्ति या परिग्रह निम्नलिखित पन्द्रह प्रकार के व्यवसायों के द्वारा आजीविका अर्जित की कोई अधिकतम सीमा निर्धारित करनी होगी, यही एक ऐसा उपाय करना निषिद्ध माना गया हैहै जिससे गरीब और अमीर के बीच की खाई को पाटा जा सकता १. अङ्गारकर्म-जैन-आचार्यों ने इसके अन्तर्गत आदमी को अग्नि है। यह भय निरर्थक है कि अनासक्ति और अपरिग्रह के आदर्श से प्रज्ज्वलित करके किये जाने वाले सभी व्यवसायों को निषिद्ध बताया
आर्थिक-प्रगति प्रभावित होगी। जैन-धर्म अर्जन का उसी स्थिति में है; जैसे-कुम्भकार, स्वर्णकार, लौहकार आदि के व्यवसाय। किन्तु विरोधी है, जब कि उसके साथ हिंसा और शोषण की बुराइयाँ जुड़ती मेरी दृष्टि में इसका तात्पर्य जंगल में आग लगाकर कृषियोग्य भूमि हैं। हमारा आदर्श है- सौ हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों तैयार करना है। से बाँट दो। गृहस्थ अर्थोपार्जन करे, किन्तु वह न तो संग्रह के लिये २. वनकर्म-जंगल कटवाने का व्यवसाय। हो और न स्वयं के भोग के लिये, अपितु उसका उपयोग लोक-मंगल ३. शकटकर्म-बैलगाड़ी, रथ आदि बनाकर बेचने का व्यवसाय। के लिये और दीन-दुःखियों की सेवा में हो; वर्तमान सन्दर्भ में इस ४. भाटककर्म-बैल, अश्व आदि पशुओं को किराये पर चलाने व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यदि आज हम स्वेच्छा से नहीं अपनाते का व्यवसाय। हैं तो या तो शासन हमें इसके लिये बाध्य करेगा र अभावग्रस्त ५. स्फोटिकर्म-खान खोदने का व्यवसाय। वर्ग हमसे छीन लेगा, अतः हमें समय रहते सम्हल जाना चाहिये। ६. दन्तवाणिज्य-हाथी-दाँत आदि हड़ी का व्यवसाय। उपलक्षण
६.दिक-परिमाणव्रत-तृष्णा असीम है, धन के लोभ में मनुष्य से चमड़े तथा सींग आदि के व्यवसायी भी इसमें सम्मिलित हैं। कहाँ-कहाँ नहीं भटका है। राज्य की तृष्णा ने साम्राज्यवाद को जन्म ७. लाक्षा-वाणिज्य-लाख का व्यवसाय। दिया, तो धन-लोभ में व्यावसायिक उपनिवेश बने। अर्थ-लोलुपता ८. रस-वाणिज्य-मद्य, मांस, मधु आदि का व्यापार। तथा विषय-वासनाओं की पूर्ति के निमित्त आज भी व्यक्ति देश-विदेश ९. विष-वाणिज्य-विभिन्न प्रकार के विषों का व्यापार। में भटकता है। दिक्-परिमाणवत मनुष्य की इसी भटकन को नियन्त्रित १०. केष-वाणिज्य--बालों एवं रोमयुक्त चमड़े का व्यापार । करता है। गृहस्थ उपासक के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने ११. यन्त्रपीडनकर्म-यन्त्र, साँचे, कोल्हू आदि का व्यापार। अर्थोपार्जन एवं विषय-भोग का क्षेत्र सीमित करे। इसीलिए उसे विविध उपलक्षण से अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार भी इसी में सम्मिलित है। दिशाओं में अपने आवागमन का क्षेत्र मर्यादित कर लेना होता है। १२. नीलाच्छनकर्म-बैल आदि पशुओं को नपुंसक बनाने का यद्यपि वर्तमान संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि इससे व्यक्ति का व्यवसाय।
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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन १३. दावाग्निदापन-जंगल में आग लगाने का व्यवसाय। तनावों की स्थिति में जी रहा है, सामायिक व्रत की साधना की उपयोगिता १४. तालाब, झील और सरोवर आदि को सुखाना। सुस्पष्ट हो जाती है। वर्तमान में मात्र वेशपरिवर्तन करके कुछ समय
१५. व्यभिचार-वृत्ति के लिए वेश्या आदि को नियुक्त कर उनके के लिए बाह्य हिंसक प्रवृत्तियों से दूर हो जाना सामायिक का बाह्य द्वारा धनोपार्जन करवाना। उपलक्षण से दुष्कर्मों के द्वारा आजीविका रूप तो हो सकता है, किन्तु वह उसकी अन्तरात्मा नहीं है। आज का अर्जन करना।
हमारी सामायिक की साधना में समभावरूपी अन्तरात्मा मृतप्राय होती । आधुनिक सन्दर्भ में उपर्युक्त निषिद्ध व्यवसायों की सूची में जा रही है और वह एक रूढ़-क्रिया मात्र बन कर रह गयी है। सामायिक परिमार्जन की आवश्यकता प्रतीत होती है। आज व्यवसायों के ऐसे से मानसिक तनावों का निराकरण और चित्तवृत्ति को शान्त और निराकुल बहुत से रूप सामने आये हैं, जो अधिक अनैतिक और हिंसक हैं। बनाने के लिए कोई उपयुक्त पद्धति विकसित की जाये, यह आज अत: इस सन्दर्भ में पर्याप्त विचार-विमर्श करके निषिद्ध व्यवसायों के युग की महती आवश्यकता है। की एक नवीन तालिका बनायी जानी चाहिए।
१०. देशावकासिक व्रत-इस व्रत का मुख्य उद्देश्य आंशिक ८. अनर्थदण्ड-परित्याग-मानव अपने जीवन में अनेक ऐसे रूप से गृहस्थ-जीवन से निवृत्ति प्राप्त करना है। मनुष्य स्वाभाविक पापकर्म करता है, जिनके द्वारा उसका अपना कोई हित-साधन नहीं रूप से परिवर्तनप्रिय है। घर-गृहस्थी के कोलाहलपूर्ण और अशान्त होता। इन निष्प्रयोजन किये जाने वाले पाप-कर्मों से गृहस्थ उपासक जीवन से निवृत्ति लेकर एक शान्त जीवन का अभ्यास एवं आस्वाद को बचाना इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। निष्पयोजन हिंसा और करना ही इसका लक्ष्य है। वैसे भी हम सप्ताह में एक दिन अवकाश असत्य-सम्भाषण की प्रवृत्तियाँ मनुष्य में सामान्य रूप से पायी जाती मनाते हैं। देशावकासिक व्रत इसी साप्ताहिक अवकाश का आध्यात्मिक हैं। जैसे, स्नान में आवश्यकता से अधिक जल का अपव्यय करना, साधना के क्षेत्र में उपयोग है और इस दृष्टि से इसकी सार्थकता को भोजन में जूठन छोड़ना, सम्भाषण में अपशब्दों का प्रयोग करना, स्वास्थ्य अस्वीकार नहीं किया जा सकता। के लिए हानिकर मादक द्रव्यों का सेवन करना, अश्लील और कामवर्द्धक ११. प्रौषाधोपवास- यह व्रत भी मुख्य रूप से निवृत्तिपरक साहित्य का पढ़ना, आदि। निरर्थक प्रवृत्तियाँ अविवेकी और अनुशासनहीन जीवन की साधना के निमित्त है। उपवासपूर्वक विषयवासनाओं पर जीवन की द्योतक हैं। इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक से यह नियन्त्रण रखना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इसे हम एक दिन अपेक्षा की जाती है कि वह अशुभचिन्तन, पापकर्मोपदेश, हिंसक के लिए ग्रहण किया हुआ श्रमण-जीवन भी कह सकते हैं। इसकी उपकरणों के दान तथा प्रमादाचरण से बचे। इस व्रत के निम्नलिखित सार्थकता वैयक्तिक साधनात्मक जीवन की दृष्टि से ही आँकी जा पाँच अतिचार माने गये हैं
सकती है। १. कामवासना को उत्तेजित करने वाली चेष्टाएँ करना।
१२. अतिथि-संविभाग व्रत-अतिथि-संविभाग व्रत गृहस्थ के २. हाथ, मुँह, आँख आदि से अभद्र चेष्टाएँ करना। सामाजिक दायित्व का सूचक है। अपने और अपने परिजनों के उदरपोषण ३. अधिक वाचाल होना या निरर्थक बात करना।
के साथ-साथ गृहस्थ पर निवृत्त-साधकों और समाज के असहाय एवं ४. अनावश्यक रूप से हिंसा के साधनों का संग्रह करना और अभावग्रस्त व्यक्तियों के भरण-पोषण का दायित्व भी है। प्रस्तुत व्रत उन्हें दूसरों को देना।
का उद्देश्य गृहस्थ में सेवा और दान की वृत्ति को जागृत करना है। ५. आवश्यकता से अधिक उपभोग की सामग्री का संचय करना। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमारा जीवन पारस्परिक सहयोग और
यदि हम उपर्युक्त व्रत और उसके दोषों के सन्दर्भ में विचार करें सहभागिता के आधार पर ही चलता है। दूसरों के सुख-दुःख में सहभागी तो वर्तमान युग में इसकी सार्थकता स्पष्ट हो जाती है। मानव-समाज बनना और अभावग्रस्तों, पीड़ितों और दीन-दुःखियों की सेवा करनामें आज भी ये सभी चारित्रिक विकृतियाँ विद्यमान हैं और एक सभ्य यह गृहस्थ का अनिवार्य धर्म है। यद्यपि आज इस प्रवृत्ति को भिक्षावृत्ति समाज के निर्माण के लिए इनका परिमार्जन आवश्यक है। को प्रोत्साहन देने वाली मानकर अनुपयुक्त कहा जाता है, किन्तु जब
श्रावक के उपर्युक्त पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों का बहुत तक समाज में अभावग्रस्त, पीड़ित और रोगी व्यक्ति हैं-सेवा और कुछ सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन से है और हमने जब उनकी सहकार की आवश्यकता अपरिहार्य रूप से बनी रहेगी और यदि शासन प्रासंगिकता की कोई चर्चा की है तो वह सामाजिक दृष्टि से ही की इस दायित्व को नही सम्भालता है तो यह प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य है। गृहस्थ उपासक के शेष चार शिक्षाव्रतों में सामायिक, देशावकासिक, है कि वह दान और सेवा के मूल्यों को जीवित बनाये रखे। यह प्रश्न प्रौषधोपवास का सम्बन्ध विशिष्ट रूप से वैयक्तिक जीवन से है। यद्यपि मात्र दया या करुणा का नहीं है, अपितु दायित्व-बोध का है। अतिथि-संविभाग व्रत की व्याख्या पुन: सामाजिक सन्दर्भ में की जा सकती है।
उपसंहार ९. सामायिक व्रत- सामायिक समभाव की साधना है। जैन-धर्म के श्रावक-आचार की उपर्युक्त समीक्षा करने के पश्चात् सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय में चित्तवृत्ति का समत्व ही यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन-श्रावकों के लिए प्रतिपादित आचार सामायिक है। आज के युग में जब मनुष्य मानसिक विक्षोभों और के नियम वर्तमान सामाजिक सन्दर्भो में भी प्रासंगिक सिद्ध होते हैं।
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- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन श्रावक-आचार के विधि-निषेधों में युगानुकूल जो छोटे-मोटे परिवर्तन जमीकन्द-खाना चाहिए या नहीं खाना चाहिए, ऐसे छोटे-छोटे प्रश्न अपेक्षित हैं, उन पर विचार किया जा सकता है और युगानुकूल श्रावक उठा लिये जाते हैं, किन्तु श्रावक-आचार की मूलभूत दृष्टि क्या हो? धर्म की आचार-विधि आगमिक नियमों को यथावत् रखते हुए बनायी और उसके लिए युगानुकूल सर्वसामान्य आचार-विधि क्या हो? इस जा सकती है। आज हमारा दुर्भाग्य यही है कि हम जैन-मुनि के बात पर हमारी कोई दृष्टि नहीं जाती। यह एक शुभ संकेत है कि आचार-नियमों पर तो अभी भी गम्भीर चर्चाएँ करते है, किन्तु श्रावक अखिल भारतीय जैन-विद्वत्-परिषद् ने इस प्रश्न को लेकर एक धर्म की आचार-विधि पर कोई गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया जाता। विचार-गोष्ठी आयोजित की। यद्यपि यह एक प्रारम्भिक बिन्दु है किन्तु आज यह मान लिया गया है कि आचार सम्बन्धी विधि-निषेध मुनियों मुझे विश्वास है कि यह प्राथमिक प्रयास भी कभी बृहद् रूप लेगा और के सन्दर्भ में ही हैं। गृहस्थों की आचार-विधि ऐसी है या ऐसी होनी हम अपने श्रावक-वर्ग को एक युगानुकूल आचारविधि दे पाने में चाहिए, इस बात पर हमारा कोई ध्यान नहीं जाता। यद्यपि कभी-कभी सफल होंगे।
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जन धर्म
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णमो समणस्स भगवओ सिरी महावीरस्स श्रीनमस्कारमहामन्त्र
श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीशशिष्य मुनि देवेन्द्रविजय "साहित्य प्रेमी"
नमस्कारसमो मन्त्रः,शत्रुजयसमो गिरिः।
"तहेव च तदत्याणुगिमयं इक्कारस पय परिच्छिन्नं ति वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति ।।१।।
आलावगतित्तीखडक्ख परिमाणं 'एसो पंच नमुक्कारो, जिस प्रकार वैदिक समाज में वैदिक मंत्रों तथा गायत्री
सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ।।१।। मंत्रों का पारसी और ईसाइयों में प्रार्थना का महत्त्व है; उसी
इय चूलं ति अहिज्जंति त्ति" तत्र प्रकृत् तदेवम्, हवइ मंगलं
२ प्रकार श्री जैन-शासन में श्री नमस्कार महामंत्र का महत्त्वपूर्ण
इत्यस्य साक्षादागमे भणितत्वात् प्रभु श्री वज्रस्वामीप्रभृतिसुबहुश्रुत
इ स्थान माना गया है। धर्मोपासक कोई भी प्राणी हो, फिर वह
सुविहितसंविग्नपूर्वाचार्यसम्मतत्वाच्च 'हवइ मंगलं' इति पाठेन अवस्था से बाल हो, वृद्ध हो अथवा तरुण हो, सब प्रत्येक
अष्टषष्ठ्यक्षरप्रमाण एव नमस्कारः पठनीयः।" समय नमस्कार-महामंत्र का श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। जिनेन्द्र (श्रीअभिधानराजेन्द्रकोश, भाग ४, पृष्ठ १८३६) -शासन में इस मंत्राधिराज के समान दूसरा कोई मंत्र अथवा
इस पाठानुसार अड़सठ अक्षरप्रमाण श्रीनमस्कारमंत्र का विधान नहीं है। आत्मिक साधना हो या व्यावहारिक कार्य हो, -
स्मरण करना चाहिए, जो इस प्रकार है : व्यापार हो अथवा परदेशगमन हो, मूलबात छोटे-बड़े सब कार्यों
"णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो में सर्वप्रथम महामंगलकारी श्री आदिमंत्र (नवकार) का ही स्मरण किया जाता है। पूर्वाचार्यों ने जितने भी आश्चर्यजनक कार्य किए
उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं। हैं, जिन्हें सुनकर हम विस्मित हो जाते हैं। उन सबमें भी नमस्कारमंत्र एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। की आराधना का ही फल सन्निहित है। पंचमांग श्री व्याख्याप्रज्ञप्ति
मंगलाणंच सव्वेसिं, पढम हवइ मंगलं ।।१।। (भगवती) सूत्र का प्रारम्भ नमस्कारमंत्र से मंगलाचरण करने के इसके अड़सठ अक्षरों की गणना इस प्रकार है : पश्चात् ही किया गया है। श्री महानिशीथसूत्र में भी लिखा है :
सत्त पय सत्त-सत्त य नव अट्ठ य अट्ट नव पहुंति । "ताव न जायइ चित्तेण, चिन्तियं पत्थियं च वायाए।
इय पय अक्खरसंखा असहू पूरेई अडसट्ठी ।। काएण समाढत्तं, जाव न तरिओ नमुक्कारो ।।"
(श्रीअभिधानराजेन्द्रकोश, भाग ४, पृ. १८३६) चित्त से चिंतित, वचन से प्रार्थित और काया से प्रारम्भ प्रथम पद के सात, दूसरे पद के पाँच, तीसरे पद के सात, कार्य वहीं तक सिद्धि को प्राप्त नहीं होते, जब तक कि नमस्कारमंत्र चौथे पद के सात, पाँचवें पद के नव, छठे पद के आठ, सातवें का स्मरण नहीं किया जाता।
पद के आठ, आठवें पद के आठ और नवम पद के नौ। इस इस प्रकार महानिशीथसत्र ही नहीं, अपित अनेक सत्र-ग्रन्थों प्रकार यह पदाक्षर संख्या जोड़ने से (७+५+७+७+९ तथा पूर्वाचार्यों ने इस चौदह पूर्व के सारभूत नमस्कार महामंत्र की +८+८+८+९=६८) अड़सठ अक्षर होते हैं। शास्त्रीयमहत्ता दिखलाई है। ऐसे महा-महिमावन्त नमस्कार का उच्चारण आज्ञानुसार ६८ अक्षरप्रमाण नमस्कार का पठन होना ही चाहिए, करते समय किस पद में कितने और कौन-से अक्षर होना चाहिए? इसलिए लिखा है : नमस्कार-मंत्र का ही स्मरण क्यों करना चाहिए? यह दिखलाना ही "त्रयस्त्रिंशदक्षर प्रमाण चूलिका सहितो नमस्कारो मननीय इत्युक्तं भवति।" । यहाँ हमारा ध्येय है। श्री महानिशीथसूत्र के :
(श्रीअभिधानराजेन्द्रकोश, भा. ४, पृ. १८३६)
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म अर्थात् ३३ अक्षरप्रमाण चूलिकासहित नमस्कारमंत्र का णमो उबज्झायाणं। इनमें से प्रथम शुद्ध और दूसरा अशुद्ध है। स्मरण करना चाहिए। जो लोग ऐसा कहते हैं कि ३५ अक्षर उच्चारण भी प्रथम पद का ही होता है। न कि दूसरे पद का। प्रमाण ही नमस्कारमंत्र पठनीय है, उनको उक्त प्रमाण का तात्पर्य महानिशीथसूत्र में तथा भगवतीसूत्र में 'णमो उवज्झायाणं' ही समझना चाहिए।
लिखा है। नमस्कार मंत्र का संक्षिप्त अर्थ :
पाँचवाँ पद ‘णमो लोए सव्व साहूणं' है। इस पद को णमो अरिहंताणं : नमस्कार हो अरिहंतों के लिए।
अनेक मनुष्य 'णमो लोये सब्ब साहणं' ऐसे लिखते तथा बोलते णमो सिद्धाणं : नमस्कार हो सिद्धों के लिए।
हैं, जो अशुद्ध है। वास्तव में ‘णमो लोए सव्व साहूणं' ही लिखना णमो आयरियाणं : नमस्कार हो आचार्य महाराज के लिए। तथा बोलना चाहिए। महानिशीथसूत्र में यही पद प्राप्त है। . णमो उवज्झायाणं : नमस्कार हो उपाध्यायजी महाराज के लिए।
इन पाँचों पदों के आदि में णमो आता है, यह भी दो प्रकार णमो लोए सव्व साहूणं : नमस्कार हो ढाई द्वीप प्रमाण लोक में विचरने वाले समस्त साधु-मुनिराजों के लिए।
से लिखा जाता है - णमो और नमो ये दोनों शुद्ध हैं ; क्योंकि एसो पंच नमुक्कारो : यह पाँचों को किया हुआ नमस्कार।
नमो के नकार का 'वाऽऽदौ' ।८।१।२२९। सूत्र के विकल्प से सव्व पावप्पणासणो : सब पापों का नाश करने वाला है।
णकार होता है। विकल्प का मतलब है कि एक पक्ष में होता है मंगलाणं च सव्वेसिं : और सब मंगलों में,
अथवा नहीं भी होता है, किन्तु नमस्कार मंत्र प्राकृत होने से नमो पढमं हवइ मंगलं : प्रथम मंगल है।
के स्थान पर णमो लिखना ठीक है। किस पद में कौन से अक्षर
सिद्धहेमव्याकरण (प्राकृत) नमस्कार-मंत्र के नौ पद और अडसठ अक्षर हैं। इसके
यद्यपि प्राकृत-कल्पलतिका, प्राकृत-प्रकाश, षड्भाषाप्रथम पद को तीन प्रकार से लिखा जाता है - णमो अरिहताणं, चन्द्रिका, प्राकृतमंजरी और प्राकृतलक्षण आदि अनेक प्राकृतणमो अरहंताणं और णमो अरुहंताणं। इनमें से अरहताणं और व्याकरणें प्राप्त हैं। तथापि जिस सरलतम प्रकार से कलिकाल अरुहंताणं नहीं, अपितु वास्तुव में “अरिहंताणं" ही लिखना चाहिए। -सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने श्री सिद्धहेम - श्रीमहानिशीथसूत्र और श्री भगवतीसूत्र में “अरिहंताणं" ही शब्दानुशासन के अष्टमाध्याय में विस्तारपूर्वक प्राकृत भाषा के लिखा है। श्री आवश्यकसूत्र में तथा श्री विशेषावश्यकभाष्य में
व्याकरण को समझाया है, वैसे अन्य वैयाकारणों ने नहीं। अतः श्री भद्रबाह स्वामी और श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'अरिहंताणं'
यहाँ जहाँ-जहाँ भी शब्दों की संस्कृत में सिद्धि की गई है, वहाँ
वहाँ श्री सिद्धहेम-प्राकत-व्याकरण के सत्रों को ही लिया है। इस पद को ही व्याख्या की है।
संस्कृतसिद्धि लघुसिद्धान्तकौमुदी (पाणिनीय व्याकरण) के अनुसार दसरा पद "णमो सिद्धाणं" है। यह सर्वत्र एक समान ही
म
सवत्र एक समान हा की है; क्योंकि मेरा प्रवेश (अध्ययन) पाणिनि-व्याकरण का है। लिखा मिलता है। इसमें किसी प्रकार का विकल्प नहीं है।
यहाँ हम क्रमश: अरिहंत सिद्धादि पाँचों पदों का पूर्वाचार्य तीसरा पद “णमो आयरियाणं" है। इस पद को 'आयरियाणं,
-सम्मत अर्थ चाल में और पाँचों पदों की प्रक्रिया यथास्थान आयरीयाणं, आइरियाणं और आइरीयाणं' इस प्रकार चार तरह
पादटिप्पणियों में लिख रहे हैं। से लिखा जाता है, परन्तु वास्तव में 'आयरियाणं' ही लिखना चाहिए, न कि आयरीयाणं, आइरियाणं या आइरीयाणं। श्री ओरहत का अर्थ: महानिशीथसूत्र के तीसरे अध्याय में और भगवतीसूत्र में
'अरिहंत'३ शब्द का अर्थ श्रीभद्रबाहु स्वामी ने 'आयरियाणं' ही आलेखित है।
आवश्यकनियुक्ति में इस प्रकार किया है : चौथा पद 'णमो उवज्झायाणं' है। लेखन-दोष के कारण
"इन्दिय विसय कसाये, परिसहे वेयणा उवसग्गे। यह पद दो प्रकार से लिखा मिलता है - णमो उवज्झायाणं और एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण उच्चति ।।"
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - "अट्ठविहं पि य कम्मं, अरिभूयं होइ सव्व जीवाणं । अनुत्तर विमान में मध्यभव करके पुनः मनुष्यलोक में शुभकर्मा तंकम्ममरिहंता, अरिहंता तेण वुच्चंती।।
माता-पिता के यहाँ जन्म लेकर जिनका सुरासुरेन्द्रों ने च्यवन, अरिहंति वंदण नमसणाणि अरिहंति पूय सस्कारं ।
जन्म, दीक्षा, कल्याणक-महोत्सव मनाया है, ऐसा चारित्र धर्म सिद्धि गमणंच अरिहा, अरिहंता तेण वुच्चंति ।।
अंगीकार करके आत्मा के जो शानावरणीयादि आभ्यन्तर शत्र हैं, देवासुरमणुए सुय, अरिहा पुया सुरुत्तमा जम्हा ।
उनको निजबल-पराक्रम से परास्त करके केवलज्ञान-केवलदर्शन आरिणो हंता अरिहंता, अरिहंता तेण वच्चंति ।।"
प्राप्त करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग बनती हैं, जिन्हें हम अरिहंत, अप्रशस्त भावों में रमण करती इन्द्रियों द्वारा काम-भोगों जिन, जिनेन्द्र आदि अनेक गुण-निष्पन्न नामों से पहचानते हैं। की चाहना को तथा क्रोध, मान, माया और लोभादि कषायों, ऐसे श्री तीर्थंकर-अरिहंतों के चार मुख्य अतिशय, आठ क्षुधा, तृषादि बाईस परीषहों, शारीरिक और मानसिक वेदनाओँ महाप्रातिहार्य, चौंतीस अतिशय तथा उनकी वाणी के पैंतीस के उपसर्गों का नाश करने वाले, सब जीवों के शत्रुभूत उत्तर अतिशय होते हैं, जो क्रमशः इस प्रकार हैं : प्रकृतियों सहित ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का नाश करने वाले, वन्दन और नमस्कार, पूजा और सत्कार के योग्य हों और सिद्धि
चार मूल (मुख्य) अतिशय - (मोक्ष)-गमन के योग्य हों, सुरासुरनरवासवपूजित तथा आभ्यन्तर १. ज्ञानातिशय - अरिहंत भगवान जन्म से ही मतिश्रत अरियों को मारने वाले जो हों, वे अरिहंत कहलाते हैं।
और अवधिज्ञान से युक्त होते हैं। दीक्षा ग्रहण करते ही चौथा श्रीमद् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भी विशेषावश्यकभाष्य में ।
मन:पर्याय ज्ञान और घनघाती कर्मों का क्षय होने पर केवल लिखते हैं कि:
ज्ञान प्राप्त हो जाता है, जिससे विश्व के सब पदार्थों को देखकर, "रागद्दोस कसाए य, इन्दियाणी पंच वि परिसहे ।
भूत, भविष्य और वर्तमान के समस्त भावों को यथावत् जानना उवसग्गे नामयंता, नमोऽरिहा तेण वुच्चंति ।।''
तथा उनका यथार्थ व्याख्यान करना ज्ञानातिशय है।
२. वचनातिशय - सुर, मनुष्य, तिर्यंचादि समस्त जीवों राग-द्वेष और चार कषाय, पाँचों इन्द्रियाँ तथा परीषहों को
के समग्र संशयों को एक साथ दूर करने वाली परम मधुर शांतिप्रद झुकाने वाले अर्थात् इनके सामने स्वयं न झुकने वाले, अपितु
उपादेय तत्त्वों से युक्त ऐसी वाणी, जिसके श्रवण से कर्मों से इन्हें ही झुकाने वाले अरिहंत कहलाते हैं। उनको नमस्कार हो।
सन्त्रस्त जीव परम आह्लाद एवं सुख को बिना परिश्रम प्राप्त "सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः ।
कर सकते हैं, यानी सब प्रकार से उत्तम तथा जो जिस भाषा का यथास्थितार्थवादी च, देवोऽर्हन् परमेश्वरः ।।४।।"
भाषी हो, उसको अपनी उसी भाषा में समझ पड़ जाए, ऐसी जो जो सर्वज्ञ हैं, जिन्होंने रागादि दोषों को जीता है, जो त्रैलोक्य
भगवद् वाणी उसके अतिशय को वचनातिशय कहते हैं। पूजित हैं, जो पदार्थ जैसे हैं, उनका यथार्थ विवेचन करते हैं, वे
३. पूजातिशय - सुरासुर, नर और उनके स्वामी (इन्द्र देव "अर्हन्" परमेश्वर कहलाते हैं।
राजा) जिन की पूजा करके अपने पाप धोते हैं। वह पूजातिशय है। (श्रीमद् हेमचन्द्रसूरि - योगशास्त्र, द्वि. प्र.) - इस प्रकार बहुश्रुत पूर्वाचायों ने विविध प्रकार से अरिहंत
४. अपायापगमातिशय - श्री अरिहंत भगवान जहाँशब्द का अर्थ अनेक ग्रन्थों में किया है। अरिहंत बनने वाली
जहाँ विचरण करते हैं, वहाँ-वहाँ से प्रायः सवा सौ योजन तक आत्मा पर्वभवों में अपने जैसी ही सामान्य आत्मा होती है. किसी को किसी प्रकार के कष्ट प्राप्त न हों और जो हों वे भी नष्ट परन्तु अरिहंत बनने से पूर्व यों तो अनेक भवों से वे आत्म - हो जाएँ तथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि एवं परचक्र भयादि समस्त साधना में मग्न रहती हैं। तथापि अरिहंत वीतराग बनने से तीसरे उपद्रव दूर होते हैं। वह अपायापगमातिशय है। पर्वभव में विंशतिस्थानक महातप की आराधना करके तीर्थंकर शाळपातिहार्य. नामकर्म निकाचित रूप से बाँधकर देवलोक. ग्रैवेयक अथवा
__ अशोकवृक्षःसुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरमासनञ्च ।
सात हा
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम्।। १३. दुर्भिक्ष न होना। १४ स्वचक्र और १५. परचक्र का भय न अशोकवृक्ष देवताओं के द्वारा पञ्चवर्ण सगंधित फूलों की हाना। य ग्यारह आतशय छ
की होना। ये ग्यारह अतिशय घनघाति चार (ज्ञानावरणीय, वर्षा, दिव्यध्वनि, देवों द्वारा चँवग का ढोना. सिंहासन, भामण्डल. दर्शनावरणीय, वेदनीय और मोहनीय) कर्मों का क्षय होने से होते दुन्दुभि और छत्र, ये आठ प्रातिहार्य जिनेश्वरों के होते हैं।
हैं। १६. आकाश में धर्म का चलन। १७. देवों द्वारा अहर्निश
चामरों का ढोना। १८. उज्ज्वल तथा परमशोभा से युक्त पादपीठ चौतीस अतिशय :
सहित सिंहासन का रहना। १९ मस्तक पर छत्रत्रय रहना। २० "तेषाम् च देवोऽद्भुतरूपगन्धो निरामय: स्वेदमलोज्झितश्च ।
रत्नमय धर्मध्वज साथ रहना। २१. विहार में चलते समय देवों श्वासोप्यगन्धोरुधिरामिषं तु गोक्षीरधाराधवलंह्यविस्त्रम् ।।५७।।
द्वारा चरणों के नीचे स्वर्ण कमलों की रचना करना। २२. त्रिगढ़ आहारानीहारविधिस्त्वदृश्यश्चत्वार एतेऽतिशया सहोत्थाः।
का होना। २३ पद्मवरवेदिका पर विराजित भगवान का चारों क्षेत्रेस्थितिर्योजनमात्रकेऽपि, नृदेवतिर्यग्जनकोटिकोटेः ।।५८।।
दिशाओं में समान रूप से दिखना। २४. अशोक वृक्ष की छाया वाणीनृतिर्यक्सुरलोकभाषा, संवादिनी योजनगामिनी च।
का निरंतर रहना। २५. काँटों का अधोमुख हो जाना। २६. वृक्षों भामण्डलं चारु च मौलिपृष्ठे, विडम्बिताहर्पतिमण्डलथि ।।५९।।
का ऐसे झुक जाना कि मानो वे भगवान् को नमस्कार करते हों। साग्रे च गव्यूतिशतद्वये,रुजावैरेतयोमार्यति वृष्टय-वृष्टयः । दुर्भिक्षमन्यस्वकचक्रतो भयं, स्यान्नैत एकादशकर्मघातजाः ।।६।।
२७. देवों द्वारा भुवनव्यापी देवदुन्दुभि (वाद्य विशेष) की ध्वनि खेधर्मचक्रचमरा: सपादपीठं, मृगेन्द्रासनमष्ट्रज्ज्वलंच।
करना। २८. अनुकूल हवा चलना। २९. पक्षियों द्वारा प्रभु को छत्रत्रयं रत्नमयध्वजोऽङिघ्रन्यासेच चामीकरपङ्कजानि ।।६१।।
वन्दन करना। ३०. सुगंधयुक्त जल की वर्षा होना। ३१. बहुवप्रत्रयं चारु चतुर्मुखाङ्गता, चैत्यद्रुमोऽधोवदनाश्वकण्टकाः ।
वर्णफूलों की वृष्टि होना। ३३. बाल, दाढ़ी और मूंछ नखादि का गुमानतिदुन्दुभिनाद उच्चकैर्वातानुकूला शकुनाः प्रदक्षिणाः ।।६२।। वर्धन न होना। ३४ कम से कम करोड़ देवों का सदैव भगवान गन्धाम्बुवर्ष बहुवर्णपुष्पवृष्टिः, कचश्मश्रुनखाप्रवृद्धिः ।
के साथ रहना। ३४. छहों ऋतुओं का अनकल होना। ये (४+११+१९ चतुर्विधामय॑निकाय कोटिर्जघन्यभावादपि पार्श्वदेशे ।।६३।।
= ३४) चौतीस अतिशय अरिहंत भगवान के होते हैं। समवायांगसूत्र ऋतूनामिन्द्रियार्थानामनुकूल त्वमित्यमी।
की ३५वीं समवाय में भी अतिशयों का वर्णन है। एकोनविंशतिर्दिव्याश्चतुस्त्रिंशच्च मीलिताः ।।६४।।
भगवान के चार मूल अतिशयों में से जो वचनातिशय है, (श्रीअभिधानचिन्तामणि, देवाधिदेवकाण्ड)
वह पैंतीस गुणों से युक्त होता है। वाणी के गण इस प्रकार हैं - १. लोकोत्तर तथा अद्भुत रूपवाला, मल और स्वेद से रहित शरीर। २. कमलों की सौरभ के समान परम सुगंधवाला,
संस्कारवत्वमौदात्यमुपचारपरीतता ।
मेघगम्भीरघोषत्वं, प्रतिनादविधायिता ।।६५।। श्वासोच्छ्वास। ३. रक्त और माँस दोनों दूध के समान श्वेत।
दक्षिणत्वमुपनितरागत्वं च महार्थता । ४. आहार और नीहार-विधि का चर्मचक्षवालों को नहीं दिखना।
अव्याहतत्वं शिष्टत्वं, संशयानामसंभवाः ।।६६।। ये चार अतिशय जन्म से ही होते हैं। ५. योजन प्रमाण क्षेत्र में
निराकृतान्योत्तरत्वं, हृदयङ्गमतापि च । देवों तथा देवेन्द्रों द्वारा रचित समवसरण (व्याख्यानसभा) में
मिथः साकांक्षता, प्रस्तावौचित्यं तत्त्वनिष्ठता ।।६७।। असंख्य देवों, मनुष्यों और तिर्यंचों का बिना किसी कष्ट के अप्रकीर्णप्रसृतत्वमस्वश्लाघान्यनिन्दिता । समावेश हो जाना। ६. मनुष्य, देव तथा तिर्यंच सब को निज
आभिजात्यमतिस्निग्धमधुरत्वं प्रशस्यता ।।६८।। निज भाषा में योजन प्रमाण भूमि में समान रूप से सुखपूर्वक अमर्मवेधितौदालें, धर्मार्थप्रतिबद्धता । सुनाई देना। ७. मस्तक के पृष्ठभाग में अपने मनोहर सौन्दर्य से कारकाद्यविपर्यासो, विभ्रमादिवियुक्तता ।।६९।। सूर्य की शोभा की भी विडम्बना करने वाले भामण्डल का चित्रकृत्वमद्भुतत्वं, तथानतिविलम्बिता । रहना। ८. सवा सौ योजन-प्रमाण क्षेत्र में उपद्रव न होना। ९.
अनेकजातिवैचित्र्यमारोपितविशेषता ।।७।। समस्त प्रकार की ईतियों का शमन। १०. मारी आदि महाभयंकर
सत्वप्रधानता वर्णपदवाक्यविविक्तता। रोगों का शमन। ११. अतिवृष्टि न होना। १२. अनावृष्टि न होना।
अव्यच्छित्तिरखेदित्वं पंचत्रिंशच्च वाग्गुणा ।।७१।।
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१. संस्कारवत्व
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म व्याकरणीय नियमों से युक्त (भाषा की दृष्टि से सब प्रकार के दोषों से रहित ) । २. औदात्य - उच्च स्वर से उच्चारित। ३. उपचारपरीतता - ग्रामीण दोषों से रहित । ४. मेघगम्भीरघोषत्व - मेघ के जैसे गम्भीर घोषयुक्त । ५. प्रतिनादविधायिता-प्रतिध्वनि से युक्त (चारों ओर दूर तक गुंजित होने वाली )। ६. दक्षिणत्व - सरलतायुक्त । ७. उपनीतरागत्व मालकोशादि रागों से युक्त अर्थात् संगीत की प्रधानता वाली । ये सात अतिशय शब्द की अपेक्षा से होते हैं । ८. महार्थता दीर्घार्थ वाली । ९. अव्याहतत्व - पूर्वापर विरोध से रहित (पहले कहा तथा बाद में कहा - उसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं होना) । १०. शिष्टत्व - अभिमत सिद्धांत-प्रतिपादक और वक्ता की शिष्टता की सूचक । ११. संशयानामसम्भवः - जिसके श्रवण से श्रोताजनों का संशय पैदा ही न हो। १२. निराकृतोऽन्योत्तरत्व - किसी भी प्रकार के दोष से रहित (जिस कथन में किसी प्रकार का दूषण न हो और न भगवान् को वही दूसरी बार कहना पड़े । १३. हृदयंगमता - श्रोता के अंतःकरण को प्रमुदित करने वाली । १४. मिथः साकांक्षता पदों और वाक्यों की सापेक्षता से युक्त । १५. प्रस्तावौचित्य - यथावसर देशकाल भाव के अनुकूल । १६. तत्त्वनिष्ठता तत्त्वों के वास्तविक स्वरूप को धारण करने वाली । १७ अपकीर्णप्रसृतत्व बहु विस्तार और विषयान्तर दोष से रहित । १८. अस्वश्लाघान्यनिन्दिता
अपनी प्रशंसा और दूसरों क निन्दा इत्यादि दुर्गुणों से रहित १९. आभिजात्य - प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप भूमिकानुसारी । २०. अस्तिस्निग्ध-मधुरत्व घृतादि के समान स्निग्ध और शर्करादि के समान मधुर । २१. प्रशस्यता - प्रशंसा के योग्य। २२. अमवेधिता - दूसरों के मर्म अथवा गोप्य को न प्रकाशित करने वाली । २३. औदार्य - प्रकाशनयोग्य अर्थ को योग्यता से प्रकाशित करने वाली । २४. धर्मार्थप्रतिबद्धता धर्म और अर्थ से युक्त । २५. कारकाद्यविपर्यास कारक, काल, लिंग, वचन और क्रिया आदि के दोषों से रहित । २६. विभ्रमादिवियुक्तता विभ्रम विक्षेप आदि चित्त के दोषों से रहित । २७. चित्रकृत्व श्रोताजनों में निरंतर आश्चर्य पैदा करने वाली । २८. अद्भुतत्व अश्रुतपूर्व । २९. अनतिविलम्बिता अति विलम्ब दोष से रहित । ३०. अनेकजातिवैचित्र्य - नाना प्रकार के पदार्थों का विविध प्रकार से निरूपण करने वाली । ३१. आरोपित विशेषता - अन्य के वचनों की अपेक्षा विशेषता दिखलाने वाली । ३२
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सत्वप्रधानता - सत्वप्रधान एवं साहसिकपन से युक्त । ३३. वर्णपदवाक्यविविक्तता - वर्ण, पद, वाक्यों का विवेक (पृथक्पृथ्क्) करने वाली । ३४. अव्युच्छित्ति-प्रतिपाद्य विषय को अपूर्ण न रखने वाली । ३५. अखेदित्व किसी भी प्रकार के मानसिक, वाचिक अथवा कायिक खेद से रहित । इस प्रकार भगवान् चार मूलातिशय, आठ प्रातिहार्य, चौतीस अतिशयों से और पैंतीस वाणी के अतिशयों से युक्त होते हैं।
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अरिहंत भगवान् की उक्त लोकोत्तर एवं चित्त को चमत्कृत करने वाली विभूतियों के विषय में हमको यह आशंका हो सकती है कि वीतराग अरिहंत भगवान् इतनी विभूतियों से युक्त थे, ऐसा कैसे मान लिया जाए ? इसका निराकरण है कि हम लोग कर्मावरण से आवरित होने से अपने स्वयं के ही बलपराक्रम को नहीं समझते हुए ऐसी बातों को सुनकर आश्चर्यान्वित हो चट से कह देते हैं कि ये तो असम्भव है, परन्तु परम योगीन्द्रों में इतनी विभूतियाँ होना असम्भव नहीं है। जिस प्रकार हम विषय-वासना के दास और स्वार्थ में मग्न हैं, वैसे वे नहीं होते। अतः उन्हें विषय-वासना अपनी ओर नहीं खींच सकती। वे मेरु के समान अप्रकम्प्य होते हैं। उनके पास उक्त विभूतियों का होना कोई आश्चर्य नहीं है। वर्तमान युग में भी सामान्य योगसांधना के साधक भी हमको आश्चर्यान्वित करने वाली महिमा वाले होते हैं। तो भला जो आत्मा की सर्वोच्चतम दशा को प्राप्त हो गए हैं, जिनके निकट किसी प्रकार की वासना नहीं है, उनके समीप ऐसी आश्चर्यजन्य विभूतियों का होना कोई असम्भव बात नहीं है।
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प्रश्न- ऐसे महिमाशाली अरिहंतों को अरि यानी शत्रुओ को और हंताणं यानी मारने वाले इस सम्बोधन से क्यों सम्बोधित किया जाता ? यदि अपने शत्रुओं को मारने वाले को अरिहंत कहा जाता है, तो संसार के सब जीव इस संज्ञा को प्राप्त होंगे और जो डाकू तथा चोर आदि जितने भी अत्याचारी हैं, वे सब
के सब भी इस संज्ञा को प्राप्त क्यों नहीं होंगे ? क्योंकि वे भी तो अपने शत्रुओं का ही संहार करते हैं और मित्रों का पालन करते हैं। अत: इस हिसाब से उन्हें भी हमारी समझ से तो अरिहंत इस संज्ञा से ही सम्बोधित करना चाहिए ।
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उत्तर - धन्यवाद महोदय, आपका एवं आपके सोचने के प्रकार का अभिनन्दन। आपने तो ऐसी बात करके अपनी बुद्धि
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म का प्रदर्शन ही कर डाला। क्या शत्रुओं का नाश करने वाला का ही प्रयोग है, नमस्कार के उपधान के अधिकार में। अरहंत अत्याचारी भी अरिहंत संज्ञा को प्राप्त होगा? पर वास्तव में और अरुहंत का अर्थ इस प्रकार है - आपके द्वारा प्रदर्शित यह अर्थ अरिहंत से निकलता ही नहीं है।
'अर्हन्ति देवादिकृतां पूजामित्यहन्तः' हमने आगे जो श्रीआवश्यकनियुक्ति और श्रीविशेषावश्यक की
अरहंत यानी देवादि द्वारा पूजित। गाथाएँ उद्धृत की हैं। उनमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मा न रोहति भूयः संसारे समुत्पद्यते इत्यरुः, संसारकारकानां के कर्म रूप जो शत्रु उनका अत्यंताभाव करने वाले (पराजय कर्मणां निर्मूलः कर्षितत्वात्। अजन्मनि सिद्धे। करने वाले) को अरिहंत कहा जाता है। उनको हम नमस्कार
संसार में पुनः जो उत्पन्न नहीं होते हैं, उन्हें अरुह कहते हैं करते हैं। कहाँ आम और कहाँ आक ? क्या कभी आक भी आम्र कहलाएगा? कहाँ सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग अरिहंत और
- कर्मों का समूल नाश करने से उनका पुनर्जन्म नहीं होता। कहाँ अत्याचारी आताताई डाकू ? चिंतामणि और पाषाण को
उक्त दोनों पाठों से यह सिद्ध होता है कि अरहंत यानी एक समान कैसे गिना जा सकता है ? जो लोग इस प्रकार पूजा के योग्य और जिन्होंने समस्त कर्मों को निर्मल कर दिया मनचाहा अर्थ लिखकर अपना अभिमत सिद्ध करने के लिए
है, वे अरुह यानी सिद्ध हैं। यहाँ जरा ममत्व को छोड़कर सोचो बेकार का भ्रम खडा करते हैं वे ज्ञात होता है. ममत्व के झठे मोह कि जो आत्मा कुछ काल पूर्व हमारे जैसे ही सकर्मा एवं संसारी में कर्मों का बंध ही प्राप्त करते हैं। श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी,
आत्मा थी। वही पूजा के योग्य कैसे बन गई ? तब हम इसके श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, विद्वशिरोमणि श्री हरिभद्रसूरि,
उत्तर में झट कह देंगे कि - अनादिकाल से आत्मा के साथ जो वृत्तिकार श्री मलयगिरीजी आदि अनेक पूर्वाचार्यों ने भी अरिहंत
कर्मों का मैल था, यानी आत्मा के गुणों के घातक जो कर्म थे, का यही अर्थ किया है। क्या वह असत्य है ? नहीं वह असत्य
उनको सम्यग् क्रियानुष्ठानों द्वारा आत्मा से दूर कर दिया गया,
जिससे वे पूजन के योग्य हो जाती हैं। कर्म आत्मा के दुश्मन नहीं सत्य है। हम अपने अभिमत की पुष्टि करने के लिए जो कपोलकल्पित अर्थ करते हैं, वह अप्रामाणिक है। जो लोग थोड़े ही हैं, जो उनका हनन किया जाता है ? अरिहंत शब्द का मनमाना अर्थ कर उसमें अपने अवास्तविक ।
क्या हम आत्मा के ज्ञानादि गुणों के घातक कों को तकों का क्षेपन करते हैं। उनको पूर्वाचार्यों के शास्त्रों का मनन घातक नहीं मानते ? जो कह दिया जाता है कि कर्म आत्मा के करना चाहिए। मनन करते समय ममत्व और दष्टिराग का पटल दुश्मन नहीं है। कैसे नहीं हैं ? शास्त्रकारों ने तो कर्मों को आत्मा आँखों से हटा लेना चाहिए, क्योंकि कामराग और स्नेहराग को
के दुश्मन कहा ही है, क्योंकि कर्म आत्मा के ज्ञानादि गुणों को हटाना तो सरल है, परन्तु दृष्टिराग बड़ी कठिनता से दूर होता है। अवतरित जो करते हैं। शास्त्रों में लिखा है कि - तभी तो श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी ने वीतरागस्तोत्र में लिखा है कि - "कम्मरिवु जएण सामाइयं लब्भति" कामरागस्नेहरागानीषत्करनिवारणौ।
श्रीआवश्यकसूत्रचूर्णि १:अ. दृष्टिरागस्तु पापीयान्, दुरुच्छेदः सतामपि ।।१०।। "कामक्रोधलोभमानमोहाख्ये आन्तरशत्रषट्के" यदि उक्त स्थिति वाले होकर सत्य का अवलोकन किया
श्रीसूयगडांगसूत्र। जाए, तो अवश्य ही सत्य की प्राप्ति हो जाती है।
"रागद्वेष कषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गघातिकर्मशत्रून् जितयन्तो जिनः" प्रश्र - अरिहंत, अरुहंत और अरहंत ऐसे तीन पद व्याकरण
श्री जीवाभिगमसूत्र , २ प्रतिपत्ति, से 'अर्ह' धातु से बनते हैं, तो फिर उन तीनों में से यहाँ अरिहंत । निघ्नन्परीषहचमूमुपसर्गान् प्रतिक्षिपन्। ही क्यों लिया? अरहंत और अरुहंत क्यों नहीं लिए? प्रासोऽसि शमसौहित्य, महतां कापि वैदुषी ।।१।।
उत्तर - अरहंत और अरुहंत इन दो पदों का पाठभेद के अरक्ता भुक्तवान्मुक्तमाद्वष्टा हतवाान्द्वषः रूप में कहीं-कहीं उपयोग हुआ है, परन्तु वह अन्य अर्थों में। न
अहो? महात्मनां कोऽपि, महिमा लोकदुर्लभः ।।२।।
। कि इस अर्थ में और नवकार में। महानिशीथसूत्र में अरिहंताणं
श्रीवीतरागस्तोत्र ११वा प्रकाश। dadiramidaidowdriandirandiraniramidnind ६ Hariridiodustarsansaroriandidatabasinidian
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म यदि हमारे यहाँ कर्म आत्मा के शत्रु नहीं माने जाते, तो गया है। सिद्ध भगवान् अशरीरी होने से लोकाग्र पर जाकर उक, प्रमाण आते कहाँ से? इन शत्रुओं को पराजित करने वाली विराजमान हो गए हैं, अतः वे हमको किसी प्रकार का उपदेश आत्मा को हम अरिहंत कहते हैं। जो आत्मा कभी संसार में नहीं देते, अतः हम सिद्ध भगवंतों से पहले अरिहंत भगवान् को उत्पन्न होने वाली नहीं है। जिसने संसार के कारण भूत कर्मों को नमस्कार करते हैं। इसमें सिद्ध भगवन्तों की किसी प्रकार से निर्मूल कर दिया है, वह अजन्मा अर्थात् सिद्ध है। यानी अरुह आशातना भी नहीं होती। है। अरुह यह नाम सिद्ध भगवान का होने से अघनघाति चार
प्रश्न - श्रीअरिहंत भगवान कैसे होते हैं? कर्म शेष हैं जिनके, ऐसे अरिहंत का यह नाम नहीं हो सकता। नाम गुणनिष्पन्न होना चाहिए। अतः इसी नियमानुसार अरिहंतों
उत्तर - श्रीअरिहंत भगवान ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, का अरिहंत यह नाम गुणनिष्पन्न और सार्थक होने से नमस्कार
वेदनीय और मोहनीय इन चार घनघाती कमों का नाश करके मंत्र के आदि के पद में यही आया है न कि अरहंताणं और
केवलदर्शन - केवलज्ञान को प्राप्त कर सर्वज्ञ बने हए। तीर्थ अरुहंताणं।
का प्रवर्तन करने वाले, द्वादश गुणों से विराजित, चौंतीस
अतिशयवंत। पैंतीस गुणयुक्त वाणी के प्रकाशक, भव्य जीवों प्रश्न - अरिहंतों की अपेक्षा सिद्ध भगवान आठों कर्मों पर ।
को ज्ञानश्रद्धा रूप चक्षु के देने वाले। प्रशस्त मार्ग दिखलाने विजय करके चरम आदर्श को प्राप्त कर चुके हैं। अतः अरिहंतों
वाले। स्वयं कों को जीतने वाले और दूसरों को जिताने वाले से पहले सिद्धों को नमस्कार करना चाहिए? तो फिर अरिहंतों
श्री अरिहंत भगवान होते हैं। श्रीमद्हरिभद्रसूरीशकृत अष्टक प्रकरण को पहले नमस्कार क्यों किया गया ?
की श्रीअभयदेव सूरिकृत टीका के पृ. २ पर लिखा है - उत्तर - सिद्ध भगवन्तों से पहले अरिहंत भगवान् को
रागोङ्गनासङ्गमनानुमेयो द्वेषोद्विषद्दारण हेतुगम्यः। नमस्कार करने का मतलब यह है कि - श्रीअरिहंत भगवान् का
मोहः कुवृत्तागम दोषसाध्यो नो यस्य देवः सतुसत्यामर्हन् ।। उपकार सिद्ध भगवान् की अपेक्षा अधिक है। श्रीअरिहंत भगवान ही हमको सिद्ध भगवान की पहचान करवाते हैं। सिद्ध भगवान
जिस देव को स्त्री संग से अनमान करने योग्य राग नहीं है, आठों कर्मों का सर्वथा क्षय करके मोक्ष में (लोकाग्र पर) जाकर
जिस देव को शत्रु के नाश करने वाले शस्त्र के संग अनुमान विराजमान हो गए हैं और अरिहंत भगवान सशरीरी अवस्था में ।
करने योग्य द्वेष नहीं है, जिस देव को दुश्चरित्र दोष से अनुमान विचरण कर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, जिसके द्वारा कमों से
करने योग्य मोह नहीं है, वह ही सच्चा देव अर्हन (अरिहंत) है। संतप्त प्राणी वीतराग शासन को प्राप्त कर आत्म कल्याण साधते
अर्थात् राग-द्वेष और मोह से जो रहित है. वही देव बनने योग्य है। हैं। अतः सर्वप्रथम अरिहंतों को नमस्कार किया गया है। अरिहंतों श्री अरिहंत भगवान के स्वरूप का विशेष विवरण श्री को नमस्कार करने के पश्चात् सिद्धों को नमस्कार किया जाना आवश्यकसूत्र श्रीविशेषावश्यकभाष्य और श्रीवीतरागस्तोत्र आदि इस रहस्य का द्योतक है कि पहले अरिहंतों को नमस्कार करके से जानना चाहिए। वे शेष रहे अघनघाति चार कर्मों (आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय) अरिहंत के नाम - का क्षय करके जिस अवस्था को प्राप्त होने वाले हैं, उस
अर्हन जिनः पारगतस्त्रिकालविद सिद्धावस्था को नमस्कार किया जाता है।
क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ठ्यधीश्वरः।। श्री अरिहंत भगवान् संसारी जीवों के लिए धर्म-सार्थवाह
शम्भुः स्वयम्भूर्भगवान् जगत्प्रभुहैं, यानी जिस प्रकार सार्थवाह अपने साथ के लोगों को उनकी स्तीर्थङ्करस्तीर्थकरो जिनेश्वरः ।।२४।। आजीविकोपार्जन के लिए समस्त प्रकार की सुविधाएँ जुटा देता स्याद्वाद्यमयदसार्वाः सर्वज्ञः सर्वदर्शि केवलिनौ। है। उसी प्रकार संसार में निज आत्म-साधना से जो च्युत हो गए देवाधिदेववोधिद पुरुषोत्तमवीतरागाप्ताः ।।२५।। हैं. उन्हें आत्मसाधना में लगा देते हैं। वे संसार से तिरते हैं और अर्हन जिन. पारगत. त्रिकालविद. क्षीणाष्टकर्मा, परमेष्ठि. दसरों को तिराते हैं। अत: उन्हें तिन्नाणं-तारयाणं विशेषण दिया
॥ अधीश्वर, शम्भु, स्वयंभू, भगवान्, जगत्प्रभु, तीर्थंकर, तीर्थकर,
आधी didnidiromidnironidairdroidroidmirandibindrana ७ Fodariwaariwariwarorandioudiradaridrordarora
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म जिनेश्वर, स्याद्वादि, अभयद, सार्व, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, केवली, क्षय करके सम्पूर्णरूपेण मुक्तात्मा हैं। उनके आठ गुण इस देवाधिदेव, बोधिद, पुरुषोत्तम, वीतराग और आप्त।
प्रकार हैं - ऐसे परम महिमावन्त श्री अरिहंत भगवान की महिमा का नाणं च दसणं चिय अव्वाराह तहेव सम्मतं। गान करते हुए जैनाचार्यवर्य श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज अक्खय ठिइ अरुवी अगुरुलहुवीरियं हवइ ।। ने श्री सिद्धचक्र-पूजा में लिखा है -
१. अनन्तज्ञान : - ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय तित्थयरं नाम पसिद्धिजायं, णरामरहिं पणयं हि पायं। होने पर आत्मा को केवल ज्ञान प्राप्त होता है, जिससे वह संसार संपुण्णनाणं पयडं विसुद्धं, नमामि सोहं अरिहन्तबुद्धं ।।१।। के समस्त चराचर पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जान सकता (तीर्थकरनाम्ना प्रसिद्धि प्राप्तं नरामरैः यस्य प्रणतं हि पादम। है। जो अप्रतिपातिज्ञान भी कहलाता है। सम्पूर्णज्ञानयुक्तं विशुद्धं नमामि सोऽहमरिहन्तं बुद्धम्।।)
२. अनन्तदर्शन - पाँचों प्रकतियों सहित दर्शनावरणीय तीर्थंकर इस नाम से जो प्रसिद्ध को प्राप्त हुए हैं, जिनके कर्म का क्षय होने पर आत्मा को केवल दर्शन प्राप्त होता है. चरणकमलों को मनुष्य और देवता प्रणाम करते हैं। जो सम्पूर्ण जिससे वह लोक के समस्त पदार्थों को देख सकता है। ज्ञानी हैं, स्वयं विशुद्ध हैं, वे ही अरिहंत बुद्ध हैं। उन्हीं को मैं
३. अनन्त अव्याबाध सख - वेदनीय कर्म का सर्वथैव नमस्कार करता हूँ।
प्रकारेण क्षय होने से आत्मा अनिर्वचनीय अनन्त सुख प्राप्त सिद्ध : -
करती है। उसे अनन्त अव्याबाध सुख कहा जाता है। यानी जो
सुख पौद्गलि संयोग से मिलता है, उसको सांयोगिक सुख कहा घ्यातं सितं येन पुराणकर्म यो वा गतो निवृत्तिसौधमूनि
जाता है। इसमें किसी न किसी प्रकार की विघ्न-परम्परा का ख्यातोनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे ।। आना हो सकता है, किन्तु जो सुख पौद्गलिक संयोग के बिना
जिसने बहुत भवों के परिभ्रमण से बाँधे हुए पुराने कर्म प्राप्त हुआ है, उसमें कदापि किसी प्रकार के विघ्नों का आना भस्मीभूत किए हैं, जो मुक्ति रूप महल के उच्च भाग पर जा सम्भव ही नहीं होने से वह अनन्त अव्याबाध सुख कहा जाता है। चुके हैं या जो प्रख्यात हैं, शास्ता हैं, कृतकृत्य हैं, वे सिद्ध मुझे ४.अनन्त चारित्र - दर्शन-मोहनीय और चारित्र-मोहनीय मंगलकारी हों।
(जो कि आत्मा के तत्त्वश्रद्धान गुण और वीतरागत्व-प्राप्ति में जिन्होंने संसार-भ्रमण-मूलक समस्त कर्म पराजित कर विघ्न रूप हैं) के क्षय होने पर आत्मा अनन्त चारित्र को प्राप्त दिए हैं। जो मोक्ष को प्राप्त हो गए हैं, जिनका पुनर्जन्म नहीं होता, करती है। उसको अनन्त चारित्र कहते हैं। वे सिद्ध कहे गए हैं। ऐसे सिद्ध भगवान नमस्कार मंत्र के द्वितीय
५. अक्षय स्थिति - आयुष्य-कर्म की स्थिति का पूर्ण पद पर विराजित हैं। श्रीआवश्यकनियुक्ति में ग्यारह प्रकार के रूप से क्षय होने पर सिद्ध जीवों का जन्म एवं मरण नहीं होने से सिद्ध इस प्रकार गिनाए गये हैं -
वे सदा स्वस्थिति में ही रहते हैं। उसे अक्षय स्थिति कहते हैं। कम्म सिप्पे य विज्जाए, मन्ते जोगे य आगमे।
६. अगुरुलघुत्व - गोत्रकर्म का अंत होने पर आत्मा में अत्थ जत्ता अभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय ।। न गुरुत्व और न लघुत्व ही रहता है। इसलिए उसे अगुरुलघ
१. कर्मसिद्ध, २. शिल्पसिद्ध, ३. विद्यासिद्ध, ४. मंत्र- कहते हैं। सिद्ध, ५. योगसिद्ध, ६. आगमसिद्ध, ७. अर्थसिद्ध, ८. यात्रा -
७. अरूपित्व - नामकर्म का अंत होने पर आत्मा सब सिद्ध, ९. अभिप्रायसिद्ध, १०. तपसिद्ध और ११ कर्मक्षय- पका के स्थल और सभापों से मस्त टोका अमो सिद्ध। इन सब सिद्धों में से यहाँ कर्मक्षयसिद्ध ही लिये गये हैं। जाती है। अपिल
करती है। अरूपित्व अतीन्द्रिय यानी इन्द्रियाँ जिसे ग्रहण करने न कि कर्मसिद्धादि अन्य। सिद्ध भगवान ज्ञानावरणीयादि चार में असमर्थ रहती हैं ऐसी अग्राह्य वस्त को अरूपी कहते हैं। घनघाति और आयु आदि चार अघनघाति कर्मों का सर्वथा
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- यतीन्द्रसूरि रमारक ग्रन्थ : जैन-धर्म ८. अनन्तवीर्य - विघ्न रूप अन्तराय कर्म का क्षय होने (उनके पालनार्थ उत्सर्गापवादादि विधिमागों के गढार्थों को से आत्मा अनन्तवीर्य प्राप्त करती है। . प्रयत्नपूर्वक समझाने) वाले 'आचार्य'९९ महाराज कहलाते हैं।
इन आठ गुणों से युक्त आत्मा सिद्ध कहलाती है। अरिहंत भगवान के द्वारा प्रकाशित तत्त्वों का जनता में सिद्धात्माओं का संसार में पुनरागमन नहीं होता, क्योंकि संसार कशलतापूर्वक प्रसार करना, संघ को उनके दिखलाए मार्ग पर भ्रमण के कारणभूत आठों कर्मों का आत्मा से सर्वथा जुदापन चलाना, आत्मसाधक मनिवरों को सारणा. वारणा, चोयणा व जो हो गया है। वाचकमुख्य श्रीमद् उमास्वातिजी महाराज ने पडिचोयणा द्वारा शिक्षा देना यह कार्य आचार्य महाराज का होता तत्त्वार्थाधिगमसत्र के स्वोपज्ञभाष्य के अंत में जो करिकाएँ लिखी है। आचार्य महाराज स्व-पर सिद्धांतनिपण समयज्ञ आचारवान हैं, उन्हीं में फरमाया है -
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के ज्ञाता और प्रकृति से सौम्य होते हैं। दग्धे बीजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः।
सांसारिक प्राणियों के लिए आचार्य महाराज भाव-वैद्य हैं। जिस कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ।।
प्रकार भयंकर से भयंकर रोगों से आक्रांत रोगी कुशल वैद्य से
रोग की उपशमनकर्ता औषधि लेकर पथ्यापथ्य का जैसा वैद्य जिस आत्मा ने एक बार कर्ममल से मुक्त होकर मोक्ष .
ने कहा, वैसा पालन कर आहार-विहार में सावधानता रखकर प्राप्त कर लिया है, वह पुनः संसार में कैसे आ सकती है ? जिस
थोड़े समय में ही रोग से मुक्त होता है। उसी प्रकार मिथ्यात्व प्रकार धान्यकण दग्ध होने पर पुनः वह नहीं उगता, उसी प्रकार
रूप भयंकर रोग से आक्रांत प्राणियों को भाववैद्य आचार्य महाराज कर्मबीज के भस्म होने पर आत्मा भी पुनः उत्पत्ति और नाश को
सम्यक्त्व रूप औषध, धर्मरूप (जिनवचन रूप) धारोष्ण दूध में यानी जन्म-मरण को नहीं करती। आवश्यकनियुक्ति में सिद्ध।
मिलाकर देते हैं। राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया और लोभ से भगवान का वर्णन इस प्रकार आया है -
बचने रूप पथ्य दिखला कर उन्हें कर्म रूप रोग से मुक्त करतेनिच्छिन्न सव्व दुक्खा जाइजरामरणबंध विमुक्का। करवाते हैं। कर्मों के आवरण से आवरित सांसारिक प्राणियों अव्वाबाहं सुक्खं अणु हवंती सासयं सिद्धा।।
को जिन-वीतराग-भाषित तत्त्व रूप दीपक देकर सन्मार्गगामी
बनाते हैं। जीवन में जहाँ कटुता, कलह, विकार, ईर्ष्या द्रोहादि सब दुःखों का नाश करके, जन्म-जरामरण और कर्मबन्ध
घुस कर महानतम अनर्थों का जाल फैलाते हैं, वहाँ आचार्य से मुक्त हुए तथा किसी भी प्रकार की बाधाओं से रहित शाश्वत
महाराज इन विचारों के द्वारा उत्पन्न अशान्ति की ज्वाला को सुख का अनुभव करने वाले सिद्ध कहलाते हैं।
वीतरागप्रकाशित तत्त्वौषध देकर शांत करते हैं। ऐसे सिद्धों के नाम -
जिनेन्द्रवचनानुसार चारित्र धर्म के पालक सद्धर्म के निर्भय वक्ता, सिद्धि त्ति य बद्ध त्ति य, पारगय त्ति य परंपरगय ति। समयज्ञ एवं स्व-पर समयनिपुण आचार्य को श्री गच्छाचार उम्मुक्क कम्म कवया, अजरा अमरा असंगाय ।।
पयन्ना में तीर्थंकर की उपमा दी गई है -
'तित्थयर समो सूरि, सम्मं जो जिणमयं पयासेड़' सिद्ध, बुद्ध, पारगत, परम्परागत कर्मविचोन्मुक्त, अजर, अमर और असंगत ये नाम सिद्ध भगवन्तों के हैं। आचार्य :- यानी जो आचार्य भली प्रकार से जिनेन्द्रधर्म की प्ररूपणा चरमंश्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक-सूत्रनियुक्ति । करता है, वह तीर्थंकर के समान है। महानिशीथसूत्र के पाँचवें में आचार्य का लक्षण लिखा है - .
अध्ययन में इसी आशय का कथन आया है - पंच विहं आयारं, आयरमाणा तहा पभाया संता।
से भयवं ? किं तित्थयर संतियं आणं नाइक्कमिज्जा आयारं दंसंता, आयरिया तेण वुच्चन्ति ।।
उदाह आयरिय संतियं ? गोयमा ? चउविंहा आयरिया भवन्ति, पाँच प्रकार के आचार का स्वयं पालन करने वाले,
तं जहा - नामायरिया, ठवणायरिया, दव्वायरिया, भावायरिया
तत्थ णं जे ते भावायरिया ते तित्थयर समाचेव दट्ठव्वा, तेसिं प्रयत्नपूर्वक दूसरों के सामने उन आचारों को प्रकाशित करने
संतिय आणं नाइक्कमेज्ज ति'। वाले तथा श्रमणों को उन पाँच प्रकार के आचारों को दिखलाने
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म हे भगवन् ? तीर्थंकर-सम्बन्धी आज्ञा का उल्लंघन नहीं प्रश्र - आचार्य सर्वज्ञ नहीं हैं, फिर भी उनको 'तित्थयर करता कि आचार्य सम्बन्धी? गौतम? नामाचार्य, स्थापनाचार्य, समो सूरि' कहकर तीर्थंकर की उपमा क्यों दी गई है? क्या यह द्रव्याचार्य और भावाचार्य इस प्रकार चार प्रकार के आचार्य अनुचित नहीं है? कहे गये हैं। उनमें से भावाचार्य तीर्थंकरसमान होने से उनकी
उत्तर - श्रमण भगवान महावीर देव ने श्री गौतम स्वामी आज्ञा का कदापि उल्लंघन नहीं करना।
के प्रश्न के उत्तर में जो भावाचार्य को तीर्थंकर के समान कहा है, इस प्रकार आचार्य शासन के आधारस्तम्भ एवं परम वह अनचित नहीं, अपित उचित है, क्योंकि भावाचार्य आगमज्ञ माननीय हैं। आचार्य महाराज के छत्तीस गुण शास्त्रों में इस प्रकार एवं समयज्ञ होते हैं। प्रत्येक प्रकार की आचरणा का आचरण वे आये हैं -
आगमानुसार ही कहते हैं। आगमोक्त वस्तु तत्व को निर्भयतापूर्वक पंचिंदिय - संवरणो, तह नवविह बम्भचेर गत्तिधरो।
जनता में तर्कयुक्त रीति से प्रकाशित करते हैं। कर्म रोग से चउविह कसाय मुक्को, इअ अठ्ठारस गुणेहिं संजुत्तो ।।१।।
आक्रांत जीवों को जिनेन्द्रशरण देकर शुद्ध देव गुरु और धर्म रूप पंच महव्वय जुत्तो, पंचविहायार पालण समत्थो।
उपास्यत्रयी, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यग् चरित्र रूप पंच समिओ ति गुत्तो, छत्तीस गुणो गुरु मज्झ ।।२।। तत्त्वत्रयी का दर्शन कराकर जीवनोत्कर्ष का मार्ग दिखलाते हैं।
अतः वे अपने लिए तो तीर्थंकर के समान ही हैं। इसी से उन ___पाँचों इन्द्रियों को वश में रखने वाले अर्थात् स्पर्शेन्द्रिय,
भावाचार्य महाराज को यह उपमा दी गई है। शेष नामाचार्य, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय इन पाँचों को
द्रव्याचार्य और स्थापनाचार्य को नहीं। आचार्यवर्य श्रीमद् २२ विकारों से संवृत करने वाले, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य-गुप्ती
राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने भी नवपदपूजा में लिखा है - के धारक। चारों कषायों से मुक्त। इन अठारह गणों से युक्त
जिणाण आणम्मि मणं हि जस्स णमो णमो सूरि दिवायरस्स। तथा सर्वतः प्राणातिपात-विरमण, सर्वत: मृषावाद-विरमण, सर्वतः
छत्तीस वग्गेण गुणायरस्स, आयारमग्गं सुपयासयस्स ।। अदत्तादान-विरमण, सर्वतः मैथुन-विरमण और सर्वतः परिग्रह
सूरिवरा तित्थयरा सरीसा, जिणिन्दमग्गं मिणयंति सिस्सा। -विरमण इन पाँचों महाव्रतों से युक्त पाँच प्रकार के आचारों का
सुतत्थ भावाण समं पयासी, ममं मणंसी वसियो णिरासी ।। पालन करने में समर्थ पाँच समितियों तथा तीन गुप्तियों से युक्त इस प्रकार छत्तीस गुणों के धारक गुरु अर्थात् आचार्य महाराज
(जिनस्य आज्ञायां यस्य मनो वर्तते तस्मै सूरिदिवाकराय नमो नमः हमारे गुरु हैं।
षत्रिशद्वर्गेण गुणाकराय आचारमार्गस्य सुप्रकाशकाय - १४४४ ग्रन्थ-प्रणेता जैन-शासन-नभोमणि आचार्य-वर्य सूरिवराछः तीर्थंकराः सदृशाः जिनेन्द्रमार्गं वहन्ति शिरसा। श्रीमद हरिभद्र सरिजी महाराज ने संबोध प्रकरण में आचार्य के सूत्रार्थ भावानां सममेव प्रकाशकः मम मनसि वसितोऽनिराशी।) ३६ गुणों का वर्णन अनेक प्रकार से तथा गुरुपद का विवेचन जिन का अन्तःकरण जिनेश्वरों की आज्ञा में रत है। उन भी विस्तारपूर्वक किया है। गच्छाचार पयन्ना में भी आचार्य के आचार्यवयों को बार-बार नमस्कार हो जो आचार्य छत्तीस गुणों अतिशयों तथा योग्यायोग्यत्व पर विस्तृत विवेचन किया है। के धारक हैं। आचारका मार्ग जिन्होंने दिखलाया है । वे आचार्य
प्रश्न - नमो आयरियाणं के स्थान पर नमो आइरियाणं तीर्थंकर के समान है, जो जिनेन्द्र भगवान के शासन को शिरसा क्यों नहीं बोला जाता है ?
वहन करते हैं। जो सूत्रों के अर्थ को एवं मर्म को जनता के सामने
रखते हैं। ऐसे आचार्य महाराज मेरे (हमारे) हृदय में वास करें। उत्तर - महानिशीथ-सूत्र के तीसरे अध्ययन में, पंचमांग भगवतीसूत्र के मंगलाचरण में, आवश्यकसूत्रनियुक्ति और उपाध्याय गच्छाचार पयन्ना आदि अनेक आगमग्रन्थों में आयरियाणं ही श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यकनियुक्ति में कहा है - लिखा है। न कि आइरियाणं। अर्थशुद्धि की दृष्टि से भी आयरियाणं बार संगो जिणक्खाओ, सज्झाओ कहियो बहेहिं। ही लिखना ठीक है।
तं उवइ सन्ति जम्हा, उवज्झाया तेण वुञ्चति।।
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
श्री जिनेश्वर भगवान द्वारा प्ररूपित बारह अंगों (द्वादशांगी) को पण्डित पुरुष स्वाध्याय कहते हैं। उनका उपदेश करने वाले उपाध्याय कहलाते हैं। अर्थात् "उप समीपे अधि वसनात् श्रुतस्यायो लाभो भवति येभ्यस्ते उपाध्यायाः " यानी जिनके पास निवास करने से श्रुत (ज्ञान) का आय यानी लाभ हो उन्हें उपाध्याय १२ कहते हैं।
श्री श्रमण-संघ में आचार्य महाराज के पश्चात् महत्त्वपूर्ण स्थान श्रीउपाध्यायजी महाराज का होता है। वे संघस्थ मुनियों को द्वादशांगी का मूल से अर्थ से और भावार्थ से ज्ञान करवाते हैं। श्रमणों को आचार-विचार में प्रवीण करते और चरित्र - पालन के समस्त पहलुओं तथा उत्सर्ग-अपवाद का ज्ञान कराते हैं। यौं तो श्रीउपाध्यायजी महाराज साधु होने से . के सत्ताईस गुणों के धारक हैं ही, साधु तथापि उनके पच्चीस गुण इस प्रकार दिखलाए गये हैं
आचारांग, सूत्रकृतांगादि ग्यारह अंग, औपपातिकादि बारह अंग, इन तेईस आगमों के मर्म को जानने वाले तथा उनका विधिपूर्वक मुनिवरों को अध्ययन कराने वाले और चरण - सित्तरी तथा करण - सित्तरी इन पच्चीस गुणों के धारक श्रीउपाध्यायजी महाराज होते हैं। ११ अंग और १२ उपांगों का वर्णन अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग की प्रस्तावना में आया है । वहीं देखना चाहिये। चरण- सित्तरी और करण - सित्तरी इस प्रकार हैंचरण- सित्तरी :
वय समण संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तिओ । नाणाइ तियं तब कोहं, निग्गहाई चरणमेयं ॥
५ महाव्रत, १० प्रकार (क्षमा, मार्दव, आर्जव, निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचन और ब्रह्मचर्य ) का यतिधर्म, १७ प्रकार का संयम, १० प्रकार का वैयावृत्य, ९ प्रकार का ब्रह्मचर्य, ३ प्रकार का ज्ञान, १२ प्रकार का तप तथा ४ कषायनिग्रह | इस प्रकार सत्तर भेद चरण- सित्तरी के होते हैं। करण - सित्तरी :
पिंडविसोहि समिई, भावय पड़िमाय इन्दिय निरोहो । पsिहण गुत्तिओ अभिग्गहं चेव करणं तु ।।
४ पिंडविशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना, १२ प्रतिमा, ५ इन्द्रियों का निग्रह, २५ पडिलेहण, ३ गुप्ति तथा ४ अभिग्रह । इस प्रकार सत्तर भेद करण- सित्तरी के होते हैं।
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चरण- सित्तरी और करण - सित्तरी को श्रीउपाध्यायजी महाराज स्वयं पालते हैं और श्रमण संघ को पलावाते हुए विचरण करते हैं। कोई श्रमण यदि चरित्र - पालन में शिथिल होता है, तो उसे सारणा, वारणा, चोयणा और पडिचोयणा द्वारा समझा कर पुनः उसे अंगीकृत संयम धर्मपालन में प्रयत्नशील करते हैं। यदि कोई परसमय का पण्डित किसी प्रकार की चर्चा - वार्ता करने के लिए आता है, तो उसे आप अपने ज्ञान-बल से निरुत्तर करते हैं और स्वसमय के महत्त्व को बढ़ाते हैं । ऐसे अनेक गुणसम्पन्न श्री उपाध्यायजी महाराज के गुणों का स्मरण - वन्दन करते हुए, आचार्यप्रवर श्रीमद्राजेन्द्रसूरिजी महाराज ने श्रीसिद्धिचक्र (नवपद) पूजन में फरमाया है -
सुत्ताण पाठं सुपरंपराओ, जहागयं तं भविणं चिराओ । जे साहगा ते उवझाय राया, नमो नमो तस्स पदस्स पाया ।। १ ।। यता जस अवस्स अत्थि, विहार जेसिं सुय वज्जणत्थि । उस्सग्गियरेण समग्गभासी, दिंतु सुहं वायगणाण रासी ।। २ ।। (सूत्राणां पाठं सुपरंपरातः यथागतं तं भव्यानां निवेदयन्ति । ये साधकाः ते उपाध्यायराजाः नमो नमः तेषां पद्भ्यः ।। गीतार्थता यस्यावश्यमस्ति विचाराः येषां श्रुतवर्जिताः न सन्ति । उपसर्गापवादाभ्याम् सन्मार्गप्रकाशी ददातु सुखं वाचकगणानां राशिः । । )
जो परम्परा से आए हुए सूत्रों के अर्थ को यथार्थ रूप से भव्य जनों को कहते हैं। जो साधक हैं, वे उपाध्याय राजा हैं, उन्हीं के चरण-कमलों में बार-बार नमस्कार हो । गीतार्थता जिनके वश में है। जिनके आचार-विचार शास्त्रानुगामी हैं । जो उत्सर्ग और अपवाद को ध्यान में रखकर सन्मार्ग का बोध देते हैं। वे उपाध्याय महाराज हम को सब सुख ।
साधु :
११
:
श्री नमस्कार - मंत्र के पाँचवें पद पर श्रीसाधु महाराज विराजमान हैं। संसार के समस्त प्रपंचों को छोड़कर पापजन्य क्रियाकलापों का त्याग करके, पाँच महाव्रत पालन रूप वीर प्रतिज्ञा कर समस्त जीवों पर सम भाववृत्ति धारण करने वाले, सब को निजात्मवत् समझ कर किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो, इस प्रकार से चलने वाले, मनसा वाचा कर्मणा किसी का भी अनिष्ट नहीं चाहने वाले एवं समभाव - साधना में संलग्न, भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त दशा में रहने वाले, प्रमाद स्थानों असमाधि स्थानों तथा कषायों के आगमन कारणों
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - से सर्वथा परे रहने वाले। उनके लिए यदि किसी ने कुछ भी और लोभ राग-द्वेषादि आभ्यन्तर शत्रुओं को परास्त करने के बनाया, तो उसका त्याग करने वाले, चित्त से भी उसकी चाहना कार्य में लगे, भूमंडल पर विचरण कर संसारी जीवों को सन्मार्गारूढ़ नहीं करने वाले, मधुकरी-वृत्ति से भिक्षा ग्रहण करने वाले, छोटी- कर मोक्षनगर जाने के लिए धर्म रूप मार्ग का पाथेय देने वाले, बड़ी सब स्त्रियों को माँ-बहन समझने वाले, ब्रह्मचर्यव्रत के बाधक पापाश्रमों का त्याग करने वाले, अंगीकृत महाव्रतों का समस्त स्थानों का त्याग करने वाले। बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों का निर्दोषतापूर्वक पालन करने वाले मुनिराज की आदरणीय एवं त्याग करने वाले मुनिराज को साधु अथवा श्रमण कहते हैं। प्रशंसनीय साधुवृत्ति को नमस्कार करते हुए श्रीमद् मुनिसुन्दर श्रीनमस्कारमंत्र के पाँचवें पद पर ऐसी अनुमोदनीय - वन्दनीय सूरीश्वरजी महाराज ने श्री आध्यात्म-कल्पद्रुम में लिखा है - साधुता के धारक बाईस परीषहों को जीतने वाले तथा शास्त्रों के ये तीर्णा भववारिधि मनिवरास्तेभ्यो नमस्कर्महे । अर्थों के चिंतन-मनन व अध्ययन-अध्यापन में जीवन-यापन येषां नो विषयेषु गृघ्यति मनो नो वा कषायैः युतम् ।। करने वाले मुनिराज को नमस्कार किया गया है। अन्तिम श्रुतकेवली राग-द्वेषविमुकप्रशान्तकलुषं साम्याप्तशर्माद्वयं । भगवान् श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यकनियुक्ति में लिखा है - नित्यं खेलति चात्मसंयमगुणा क्रीडे भजद्भावना ।।१।। निव्वाण साहए जोगे, जम्हा साहन्ति साहुणो ।
जिन महामुनिवरों का मन इन्द्रियों के विषयों में आसक्त समा य सव्व भूयेसु, तम्हा वे भाव साहुणो ।।
नहीं होता, कषायों से व्याप्त नहीं होता, जो राग-द्वेष से मुक्त निर्वाण-साधक योगों की क्रियाओं को जो साधते हैं और
रहते हैं, पाप-कर्मों (व्यापारों) का त्याग किया है जिन्होंने। समता
द्वारा अखिलानन्द प्राप्त किया है, जिन्होंने और जिनका मन सब प्राणियों पर समभाव धारण करते हैं, वे भावसाधु हैं।१३ ।
आत्मसंयम रूप उद्यान में खेलता है। संसार से तिर जाने वाले दशाश्रुतस्कन्धसूत्र में साधु का व्युत्पत्यर्थ तीन प्रकार से ऐसे मुनिराजों को हम नमस्कार करते हैं। श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी किया गया है -
महाराज भी श्रीनवपद-पूजा में लिखते हैं - "साधयति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधुः"
संसार छंडी द्दढ मुक्ति मंडी, कपक्ष मोडी भव पास तोडी। "समतां च सर्वभूते ध्यायतीति निरुक्तन्यायात् साधुः" निग्गंथ भावे जसु चित्त आत्थि, णमो भवि ते साहु जणत्थि ।।१।। , "सहायको वा संयमकारिणं साधयतीति साधुः"
जे साहगा मुक्ख पहे दमीणं, णमो णमो हो भविते मुणिणं । जो ज्ञान, दर्शन इत्यादि शक्तियों से मोक्ष की साधना
मोहे नही जेह पडंति धीरा, मुणिण मज्झे गुणवंत वीरा ।।२।। करते हैं या सब प्राणियों के विषय में समता का चिंतन करते हैं जैसा कि ऊपर लिखा जा चका है कि नमस्कार-मंत्र में दो अथवा संयम पालने वाले के सहायक होते हैं, वे साधु हैं। विभाग हैं, नमस्कार और नमस्कार-चूलिका। 'नमो लोए सव्व
साहूणं' यहाँ तक के पदों से पञ्चपरमेष्ठी को अलग-अलग ऐसी अनुमोदनीय एवं स्तुत्य साधुता के धारक मुनिवरों
नमस्कार किया गया है। "एसो पञ्च (पंच) नमुक्कारो सव्व के सत्ताईस गुण होते हैं, जो इस प्रकार हैं - सर्वतः प्राणातिपात
पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं" यह विरमणादि पाँच महाव्रत और रात्रिभोजन-विरमण व्रत ६,
चूलिका नमस्कार फल दर्शक है। जो नमस्कार-मंत्र के आदि के पृथ्वीकायादि षट्काय के संरक्षण ६, इन्द्रियनिग्रह ५, भावविशुद्धि
पाँच पदों के साथ नित्य स्मरणीय है। कुछ लोग कहते हैं कि १, कषायनिग्रह ४, अकुशल मन, वचन और काया का निरोध
चूलिका नित्य पठनीय नहीं, अपितु जानने योग्य है, परन्तु उनका ३, परीषहों का सहन १ और उपसर्गों में समता १ ये २७ गुण
समता १ य २७ गुण यह कथन तत्थ्यांशहीन है। शास्त्राकारों की आज्ञा है कि - अथवा बाह्याभ्यन्तर तप १२, निर्दोष आहार-ग्रहण १, अतिक्रमादि
'त्रयस्त्रिंशदक्षरप्रमाणचूलासहितो नमस्कारो भणनीयः' दोष-त्याग ४, द्रव्यादि अभिग्रह ४ और व्रत ६ आदि २७ गुण हैं।
(अभिधानराजेन्द्रकोश, भा. ४, पृष्ठ १८३६) भावदया जिन के हृदपद्म में विराजमान है, ऐसे साधु मुनिराज
अतः पैंतीस अक्षरप्रमाण मंत्र और तेंतीस अक्षर चूला नित्य आत्म-साधना करते हुए 'कर्म से संत्रस्त जीव किस ।
दोनों को मिलाकर अड़सठ अक्षरप्रमाण श्री नमस्कार-मंत्र का प्रकार से बचें ?' इस उपाय को सोचते हुए क्रोध, मान, माया
स्मरण करना चाहिए, न्यूनाधिक पढ़ना दोषमूलक है।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - प्रश्न - नमस्कारमंत्र में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय चौथा नमस्कार श्री उपाध्यायजी महाराज को किया गया और साधु यह नमस्कार का क्रम क्यों रखा गया है?
है। इसका मतलब है कि- तीर्थ के निर्माता श्री अरिहंत भगवान् उत्तर - श्री अरिहंत भगवान को सर्वप्रथम नमस्कार इसलिए कहा
ना के द्वारा उच्चारित तथा गणधर भगवन्तों के द्वारा सूत्र रूप में किया जाता है कि वे हमारे सर्वश्रेष्ठ उपकारक हैं। श्रीसिद्ध ग्राथत श्रुत का यागाद्वहनपूर्वक
ग्रथित श्रुत का योगोद्वहनपूर्वक और परमकारुणिक श्री पूर्वाचार्यवयों भगवन्तों की अपेक्षा अरिहंत भगवन्तों का उपकार निकट का
4 से सम्बद्ध शास्त्रों का स्वयं अध्ययन करके संघस्थ छोटे-बड़े
स जो है, क्योंकि श्री अरिहंत भगवान तीर्थ के प्रवर्तक होते हैं। तीर्थ मुनि
मन मुनियों को, जो जिसके योग्य है, उसे उसी का अभ्यास करवा के द्वारा धर्ममार्ग की प्रवृत्ति होती है। अत: तीर्थ के निर्माता सर्वज्ञ
कर स्वाध्यायध्यान का प्रशस्त मार्ग बताने वाले चारित्र-पालन सर्वदर्शी भगवान् वीतराग श्री अरिहंत को ही सर्वप्रथम नमस्कार
की विधियों-प्रकारों के दर्शक श्री उपाध्यायजी महाराज होते हैं। किया जाता है। अरिहंत भगवान् ही हमको सिद्ध भगवन्तों की
आगमों का रहस्य जिन्होंने पाया है ऐसे श्री उपाध्यायजी महाराज स्थिति आदि समझाते हैं और उनके द्वारा ही हम सिद्ध भगवान
को चौथा नमस्कार किया गया है। को जानते हैं। अतः सर्वप्रथम नमस्कार अरिहंत भगवान को पाँचवाँ नमस्कार साधु महाराज को किया गया है, जिसका किया जाता है, जो योग्य ही है।
हेतु यह है कि-आचार्य और उपाध्याय महाराज से सर्वज्ञ सर्वदर्शी दसरा नमस्कार जो आठों कर्मों का सर्वथा क्षय करके वीतराग भगवान् श्री अरिहंत देव द्वारा प्ररूपित धर्ममार्ग का लोकाग्र पर विराजमान हो गए हैं, उन श्रीसिद्ध भगवन्तों को श्रवण करक उस आत्माहतकर जान कर अगाकार करक चारित्रकिया जाता है। जिसका तात्पर्य है कि - अरिहंतों को नमस्कार
धर्म के प्रतिपालन में दत्तचित्त मुनिराजों को नमस्कार करके हम करने के पश्चात् वे (अरिहंत) चार अघनघाती कर्मों का क्षय (नमस्क
(नमस्कारकर्ता), भी समता को प्राप्त कर, ममता को त्याग करके जिस सिद्धावस्था को प्राप्त होने वाले हैं उसे दूसरा नमस्कार
कर, कर्मों के ताप से आत्मा को शांत कर सकें, इसीलिए पाँचवें किया जाता है। यद्यपि कर्मक्षय की अपेक्षा से श्री सिद्ध भगवान
पद से साधु-मुनिराजों को नमस्कार किया गया है।
पद स साधु-मुनिराज अरिहंतों की अपेक्षा अधिक महत्तावन्त हैं, तथापि व्यावहारिक प्रश्न - इन पाँचों को नमस्कार करने से क्या लाभ होता है ? दृष्टि से सिद्धों की अपेक्षा अरिहंत गिने जाते हैं, क्योंकि परोक्ष
उत्तर - पञ्च परमेष्ठी को नमस्कार करने से हम को श्रीसिद्ध भगवान का ज्ञान अरिहंत ही करवाते हैं। अत: व्यावहारिक
सम्यग्दर्शन - ज्ञान और चारित्र का लाभ होता है तथा वीतराग दृष्टि को ध्यान में रखकर ही प्रथम नमकार अरिहंत को और
और वीतरागोपासक श्रमणवरों की वन्दना करने से हम भी दूसरा नमस्कार सिद्धों को किया जाता है।
वीतरागदशा प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं। जब हमारी भावना तीसरा नमस्कार छत्तीस गुणों के धारक प्रकृतिसौम्य भाव वीतरागोपासना की ओर प्रवाहित होती है, तब हम अच्छे और -वैद्य भावाचार्य भगवान् आचार्य महाराज को किया गया है। खराब का विवेक प्राप्त करके आस्रवद्वारों का अवरोध करके जिसका रहस्य है कि - श्री अरिहंतों के द्वारा प्रवर्तित धर्ममार्ग संवर और निर्जरा भावना को प्राप्त करके, आत्म-साधना में का, तत्त्वमार्ग का, जीवनोत्कर्षमार्ग का एवं आचारमार्ग का यथार्थ प्रवृत्त होते हैं तथा अन्त में ईप्सित की प्राप्ति भी कर सकने में प्रकार से जनता में प्रकाशन कर स्वयं आत्मसाधना में लगे रहते समर्थ हो जाते हैं। यह लोकोत्तर लाभ हमको सकलागमरहस्यभूत हैं और दूसरों को बोध देकर आत्मसाधना में लगाते हैं। तीर्थ का श्रीनमस्कारमंत्र का स्मरण करने से प्राप्त होता है। तैंतीस अक्षररक्षण करते हैं, करवाते हैं। श्रीसंघ की यथा प्रकार से उन्नति का प्रमाण नमस्कार-चूलिका में यही तो दिखलाया गया है। मार्ग प्रदर्शित करते हैं। साधना से विचलित साधकों को साधना
प्रश्र - "नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधभ्यः" और की उपादेयता समझाकर संयम-मार्ग में प्रवृत्त करते हैं। ऐसे
___ "अ-सि-आ-उ-सा-य नमः" ये मंत्र क्या हैं?
, महदुपकारी शासन के आधारस्तम्भ मुनिजन मानससरहंस आचार्य महाराज को इसलिए तीसरा नमस्कार किया गया है।
उत्तर - तार्किक-शिरोमणि आचार्यप्रवर श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी महाराज द्वारा किया गया नमस्कार-मंत्र का
indihotsvirovarovarovardarorarotoraviordindinboxia १३/6dowirordinovodeoraditoriandrodairagonomiamiride
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म संक्षिप्तीकरण "नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः" है और अरिहंत का अ, अशरीरी सिद्ध का अ, आचार्य का आ, अ-सि-आ-उ-सा-य नमः" यह मंत्र अरिहंत का 'अ सिद्ध' की उपाध्याय का उ और मुनि का म इन सबको परस्पर मिलाने से 'सि' आचार्य का 'आ' उपाध्याय का 'उ' साधु का 'सा' ये सब ॐकार निष्पन्न होता है, जो पंच परमेष्ठी का वाचक है - अ+ मिलकर 'असि-आ-उ-सा-य नमः' यह अत्यन्त संक्षिप्त स्वरूप अ = आ, आ + आ = आ, आ + उ = ओ, ओ+ म् = ओम् भी नमस्कारमंत्र का ही है। जो आदरणीय एवं स्मरणीय है। (ॐ) इस प्रकार ॐ पंच परमेष्ठी का वाचक है ही और अर्हम् कितने ही लोग ऐसे होते हैं कि जिन्हें "कौड़ी की कमाई नहीं की भी महिमा अपरम्पार है। श्रीहेमचन्द्रसूरिजी म. ने
और क्षण मात्र का समय नहीं" उनके लिए थोड़ा समय लगने सिद्धहेमशब्दानुशासन की वृहद् वृत्ति में लिखा है - वाले पद स्मरणीय हैं। जिन्हें समय बहुत मिलता है, परन्तु वे
अर्थमित्येतदक्षरं परमेश्वरस्य परमेष्टिनो वाचर्क आलस्य के कारण ऐसे लघु मंत्रों का स्मरण करते हैं। उन्हें तो।
सिद्धचक्रस्यादिबीजं सकलागमोपनिषद्भुतमशेषविघ्न प्रमाद को छोड़कर मूल मंत्र का ही स्मरण करना चाहिए।
विघातनिघ्नमखिलदृष्टादृष्ट संकल्पकल्पद्रुमोपमं, प्रश्न - श्री नमस्कार-मंत्र का जाप किस प्रकार से करना शास्त्राध्ययनाध्यापनावधिप्रणिधयम्।" चाहिए?
'अर्हम्' ये अक्षर परमेश्वर परमेष्ठी के वाचक हैं। सिद्धचक्र उत्तर - कलिकाल-सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के आदि बीज हैं। सकलागमों के रहस्यभूत हैं, सब विघ्न - ने योगशास्त्र में श्रीनमस्कारमंत्र के जाप का विधान विस्तारपूर्वक सम्हों का नाश करने वाले हैं। सब दृष्ट यानी राज्यादि सुख और बतलाया है। अतः इस विषय के लिए योगशास्त्र के आठवें अदृष्ट यानी संकल्पित अपवर्ग-सुख का अभिलषित फल देने प्रकाश का ही अवलोकन करना चाहिए। श्रीमद् पादलिप्तसूरिजी में कल्पद्रम के समान हैं। शास्त्रों के अध्ययन और अध्यापन के ने श्री निर्वाणकलिका में जाप के भाष्य, उपांशु और मानस, ये आदि में इसका प्राणिधान करना चाहिए। अर्हत् का महत्व दिखलाते तीनों प्रकार दिखलाये हैं। जो इस प्रकार हैं - नमस्कार स्मरण हुए आचार्यश्री ने योगशास्त्र में भी फरमाया है - करने वालों से अन्य लोग भली प्रकार से सुन सकें, वैसे स्पष्ट
अकारादिहकारान्तं, रेफमध्यं सविन्दुकम् । उच्चारणपूर्वक, जो जाप होता है, उसे 'भाष्य'१४ जाप कहते हैं। तदेव परमं तत्त्वं, यो जानाति सतत्त्व वित् ।। भाष्य जाप की सिद्धि हो जाने पर स्मरण करने वाला
महातत्त्वमिदं योगी,यदैव ध्यायति स्थिरः । कण्ठगता वाणी से दूसरे लोग सुन तो न सकें परन्तु उनको यह
तदैवानन्दसंपद्मूमुक्तिश्रीरुपतिष्ठते ।। ज्ञात हो जाय कि जापकर्ता जाप कर रहा है; जो जाप करता है जिसके आदि में अकार है। जिसके अंत में हकार है। उसे उपांशजाप१५ कहते हैं।
बिन्दु सहित रेफ जिसके मध्य में है। ऐसा अर्हम् मंत्र-पद है। उपांशुजाप की सिद्धि हो जाने पर जाप करने वाला स्वयं
वही परम तत्त्व है। उसको जो जानता है - समझता है, वही ही अनभव करता है परन्त दसरों को ज्ञात नहीं हो सकता. उस तत्त्वज्ञ है। जब योगी स्थिरचित्त होकर इस महातत्त्व का ध्यान जाप को 'मानस६' जाप कहते हैं।
करता है, तब पूर्ण आनन्दस्वरूप उत्पत्तिस्थान रूप मोक्ष - विभूति
उसके आगे आकर प्राप्त होती है। इस प्रकार भाष्य, उपांशु और मानस जाप करने वालों में
वाचकप्रवर श्रीमद्यशोविजयजी भी फरमाते हैं - कोई सम्पूर्ण नवकार का और कोई अ-सि-आ-सा-उ -य
अर्हमित्यक्षरं यस्य चित्ते स्फुरति सर्वदा । नमः का तो कोई नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुम्यः का तो
परं ब्रह्म ततः शब्दब्राह्मणः सोऽधिगच्छति ।।२७।। कोई ॐ अर्हन्नमः इस अत्यन्त संक्षिप्त परमेष्ठी-मंत्र का स्मरण
परः सहस्त्राः शरदां, परे योगमुपासताम् । करते हैं।
हन्तार्हन्तमनासेव्य, गन्तारो न परं पदम् ।।२८।। ॐ अर्हन्नमः मंत्र में पंच परमेष्ठि का समावेश इस प्रकार होता है -
आत्मायमहतो ध्यानात् परमात्मत्वमश्नुते । अरिहंता असरीरा आयरिया उवज्झाया तहा मुणिणो ।
रसविद्धं यथातानं स्वर्णत्वमधिगच्छति ।।२९।। पढक्खर निप्फण्णो ॐकारो पंच परमिट्ठी ।।
(द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका)
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म अर्हम् पद के अक्षर जिसके चित्त में हमेशा स्फुरायमान रहते हैं। वह इस शब्दब्रह्म से परब्रह्म (मोक्ष) की प्राप्ति कर सकता है। हजारों वर्षों पर्यन्त योग की उपासना करने वाले इतर जन वास्तव में अरिहंत की सेवा लिए बिना परम पद की प्राप्ति नहीं कर सकते। जिस प्रकार रस से लिप्त ताँबा सोना बनता है। उसी प्रकार अरिहंत के ध्यान से अपनी आत्मा परमात्मा बनती है।
कितने ही लोग 'नमो अरिहंताणं' यह सप्ताक्षरी मंत्र और कितने ही लोग अरिहंत, सिद्ध, आयरिय उवज्झाय साहू इस षोडशाक्षरी मंत्र का स्मरण करते हैं। सप्ताक्षरी (नमो अरिहंताणं) के लिए योगशास्त्र के आठवें प्रकाश में लिखा है -
यदीच्छेद् भवदावाग्नेः समुच्छेदं क्षमादपि । स्मरेत्तदादिमंत्रस्य वर्णसप्तकमादिमम् ।।
यदि संसार रूप दावानल का क्षण मात्र में उच्छेद करने की इच्छा हो, तो आदि मंत्र (नमस्कार) के आदि के सात अक्षर ( नमो अरिहंताणं) का स्मरण करना चाहिए।
षोडशाक्षरी मंत्र की महत्ता के विषय में कहा गया है -
यदुच्चारणमात्रेण, पापसंघ: प्रलीयते । आत्मादेयः शिरोदेयः न देयः षोडशाक्षरी ||
शरीर का नाश कर देना, मस्तक दे देना, परन्तु जिसके उच्चारण मात्र से ही पापों का संघ (समूह) नष्ट हो जाता है, ऐसा षोडशाक्षरी मंत्र किसी को भी नहीं देना चाहिए ।
मेरी सभी चाहनाएँ पूर्ण हो जाएँ । मुनिराज बहुत समझाते हैं, परन्तु वे नहीं समझते। वे मंत्रों के लोभ से लुब्ध मुग्ध जीव यह नहीं जानते कि क्या ये देवी-देवता हमारे पूर्वकृत कर्मों को मिटा सकने में समर्थ हैं ? वे भी तो कर्मपाश में बँधे हैं। स्वयं बँधा हुआ दूसरे को बंधनों से कैसे छुड़ा सकता है ? देवी-देवता हमको धन - पुत्र कलत्रादि देकर सुखी कर देंगे। उनकी प्रसन्नता से हमारा सारा का सारा कार्य चुटकी बजाते ही हो जाएगा। इस भ्रांत धारणा ने हमको पुरुषार्थहीन बना दिया है। जरा-सा दुःख आया अरिहंत याद नहीं आते, अपितु ये सकामी देवी-देवता याद आते हैं। मुझे आश्चर्य तो तब होता है जब ऐसे लोग चिकित्सकों के औषधोपचार से रोगमुक्त होते हैं तथा अकस्मात् कहीं या किसी ओर से कुछ लाभ होता है, तो चट से ऐसा कहे जाते सुनता हूँ, - "मैंने अमुक देव की या देवी की मानता ली थी, उन्होंने कृपा करके मुझे रोग से मुक्त कर दिया, मेरा यह काम सफल कर दिया। यदि उन की कृपा नहीं होती, तो मैं रोग से मर जाता । मेरा यह काम सफल नहीं होता। अब उनके स्थान पर जायेंगे, उन्हें तेल-सिन्दूर चढ़ायेंगे, जुहार करेंगे। अब की बार पूजा अच्छी तरह करेंगे, तो फिर कभी वे हमारा काम झट कर देंगे या प्रार्थना करने पर स्वप्न में आकर फीचर का अंक बता
को
देंगे, तो हम लखपति हो जायेंगे।” ऐसे भ्रामक एवं वृथाप्रलाप सुनकर मैं सोचता हूँ, 'हा ? क्या अज्ञान की लीला है। इन भ्रांत धारणाओं के बर्तुल में फँस कर हम अपने जीवन को कलंकित करते हैं। प्राप्त धन एवं शक्ति का अपव्यय करते हैं। आत्म-साधना से भी वंचित रहते हैं । वीतराग को अपना आराध्य मानने वालों एवं सुदेव, सुगुरु और सुधर्म को मानने वालों की यह विचारधारा ! आश्चर्य ? महदाश्चर्य ??"
इस प्रकार के महामहिमाशाली सकल श्रुतागम-रहस्यभूत श्रीमंत्राधिराज महामंत्र नमस्कार को प्राप्त करके भी नाम तो जैन रखते हैं और अत्यंत लाभप्रदाता मंत्र को छोड़कर अन्य मंत्रों के लिए इधर-उधर भटकते देखे जाते हैं। मंत्रों के लोभ से लुब्ध होकर भटकने वाले इज्जत, धन एवं धर्म तक से हाथ धोते देखे गए हैं। सब ओर से लुट जाने के पश्चात् वे मंत्रेच्छु साधुओं के पास उनसे मंत्र प्राप्त कर बिना मेहनत के श्रीमंत बनने की इच्छा से आते हैं। उनकी सेवासुश्रूषा करते हैं। अकारण दयावान् वे मुनिराज उन्हें महामंगलकारी श्रीनवकार मंत्र देते हैं। तो वे कहते हैं- महाराज ? इसमें क्या धरा है। यह तो हमारे नन्हे-मुन्ने बच्चों को भी आता है। इसका स्मरण करके कितने ही वर्ष पूरे हो गए, परन्तु कुछ भी नहीं मिला कृपा कर के अन्य देवी-देवता की आराधना बतलाइए, जिसके साधन - स्मरण से
पनिले कमिले तो १५
हम मंत्रों के लिए तथाकथित मंत्रवादियों से प्रार्थना करने से पहले उन मंत्रवादियों के जीवन का अवलोकन करेंगे, तो उनका जीवन इन भ्रामक ढकोसलों से पपतित हुआ ही दिखेगा। वे उदरपोषण के लिए कष्टपूर्वक अन्न जुटाते होंगे। पाँच-दस रुपयों में भक्तों को मंत्र-यंत्र देने वाले वे भक्तों के शत्रुओं को परास्त करने की वृथा डींग हाँकते हैं। भक्तों को धनधान्य से प्रमुदित करने वाले वे क्यों पाँच-दस रुपयों के मूल्य में मंत्र बेचते हैं ? उन्हें क्या आवश्यकता है, पाँच-दस की ? क्यों न वे मंत्रों के बल से आकाश से सोना बरसाते हैं ? क्यों वे रोगों से आक्रांत होते हैं ?
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म उक्त प्रश्रों के उचित एवं संतोषप्रद उत्तर मंत्रवादियों के रे मानव ? देख यह कथन हम जैसे व्यक्ति का नहीं, पास नहीं है। यदि हम ही स्वयमेव इन प्रश्नों का समाधान प्राप्त किन्तु जिसने अपनी आत्मशक्ति के आधार पर ही अवलम्बित करने की प्रवृत्ति करते हैं तो हमको चिन्तन का नवनीत यही होकर आत्मविकास किया है, उस सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग का मिलेगा कि जो बल, जो श्रद्धा, जो सामर्थ्य हमारी भावना में है, है। 'वीतरागप्रवचन' में कहा गया है कि मानव यदि प्रयत्न करता वह किसी में भी नहीं। हम सोचते रहे जगभर की बुराई तो हमारी है, तो वह धन, पुत्र तो क्या केवलज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। भलाई होगी कैसे ? समुद्र के विशालकाय मत्स्यों की भोंहों में स्वर्ग के सुखों में आकण्ठ डूबे हुए, अविरति-भोगासक्त देवया कानों पर चावलों के दाने जितनी काया वाला तन्दुल नाम देवी कुछ भी प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं। तीर्थकर, चक्रवर्ती का अति छोटा मत्स्य होता है। वह अपने नन्हे से जीवन में आदि भी तो मनुष्य ही थे, उन्होंने कभी किसी की ओर आशा रत्तीभर माँस नहीं खाता और न खुन की एक बँद पीता है। वह रखकर देखा हो, ऐसा हुआ ही नहीं। श्रीपाल जी ने कब सिद्धचक्र किसी को किसी प्रकार का दुःख भी नहीं देता, परन्तु उन को छोड़कर अन्य की आराधना की थी? नवपदाराधन से ही विशालकाय मत्स्यों की भोंहों पर बैठा, वह हिंस्र विचारों मात्र से उनके सब कार्य सिद्ध हुए थे। विमलेश्वर देव स्वत: ही उनकी ही नरक जैसा महाभयंकर यातना-स्थान प्राप्त हो, वैसा बंध सेवा के लिए आया था। वे भी तो मानव थे और हम भी मानव प्राप्त करता है और अन्तर्मुहूर्त का जीवन समाप्त कर उस स्थान हैं। मानव के द्वारा अमानवीय कार्य होना स्वयं के हाथों स्वयं को प्राप्त भी हो जाता है। हमारे शास्त्रकारों ने तभी तो उद्घोषणा का अपमान है। प्रश्न हो सकता है कि देवी-देवता हमारे विघ्नों की है कि - "अप्पा कत्ता विकत्ता य" यानी आत्मा ही कर्ता है को दूर करते हैं। अतः हम उनकी आराधना करते हैं। समाधान
और आत्मा ही भोक्ता है और "यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति भी तैयार है। अच्छा भाई, माना कि वे हमारे विघ्नों को दूर करते तादृशी"। अपने ही हाथों ही अपने पैर को काटकर सोचना कि हैं, अतः हम उनकी आराधना करते हैं। इसके साथ यह भी तो पीड़ा का अनुभव कोई अन्य करे, यह कैसे सम्भव हो सकता है? सर्वसत्य है कि - कहीं फूलों की और कहीं कंक की बरसात जिसने जैसे कर्म किए हैं, उसको तदनुसार ही फल प्राप्त होता है। हो, तो आराधकों के मत से ये देवी-देवता आ जाते हैं, परन्तु खेद का विषय है कि हम शास्त्रों और शास्त्रकारों द्वारा
जब परधर्मी लोग धर्म के जूनून से उन्मत्त होकर उपासकों पर निर्दिष्ट मार्ग को छोड़कर जिस प्रकार पागल वास्तविक को
हमला करते हैं, उनका धन लूटते हैं, मंदिर और मूर्तियों के टुकड़े
करते हैं और उनके सामने ही उनकी माँ-बहनों की इज्जत पर छोड़कर अवास्तविक की ओर जाता है, वैसे ही उन्मार्गगामी होते
हाथ डालते हैं। उन आतताइयों को शिक्षा देने के लिए ये देवीजा रहे हैं, किन्तु याद रखो असली हीरा देखने में भले भद्दा हो
देवता क्यों नहीं आते ? न जाने किस गह्वर में घुस जाते हैं, जब और काँच का टुकड़ा देखने में सुन्दर हो, किन्तु मूल्य तो हीरे का
उनकी जीवनपर्यन्त सेवा करने वालों पर हमला होता है। समझ ही होगा काँच का नहीं। परन्तु ! शास्त्रकारों के कथन में हमको
में नहीं आता, अनन्त शक्ति का भंडार मानव इस भ्रांत धारणा विश्वास नहीं और न श्रद्धा ही है। हमको तो चाहिए मात्र धन और
के प्रवाह में कैसे बह जाता है ? भ्रम से भूले लोग कहते हैं - धन। सदैव इस विचारणा में रहकर जीवन नष्ट कर दिया। भले
"जीवन को प्रगतिशील बनाने के लिए यंत्र-मंत्र और तंत्र एक लोग समझाते हैं, किन्तु अक्ल नहीं आती। आये कहाँ से धन
महत्त्वपूर्ण आलम्बन है और हमारे पूर्वाचार्यों ने अमुक-अमुक संचय का भूत जो सवार है।
राजाओं को देवी-देवताओं की आराधना के बल पर जैन बना इस प्रकार के मांत्रिक और मंत्रेच्छुओं को सोचना चाहिए कि दिया. मंत्रीश्वर विमल शाह ने अम्बिका की आराधना करके - "हमने किसी महत्पुण्योदय से यह मनुष्यावतार पाया, जिनेन्द्र संसार को आश्चर्यान्वित करने वाले आबू के प्रसिद्ध मन्दिरों का धर्म भी पाया और तत्त्व-स्वरूप भी समझा है ? तो फिर हम क्यों निर्माण करवा दिया।" ऐसी सब बातें वृथा हैं। उससे पराङ्मुख हैं? वीतराग-प्रवचन में मानव को महान् शक्ति
लोग स्वयं भूल करते हैं और उसे अपने पूर्वाचार्यों पर का स्वामी, देवों का प्रिय तथा देवों का वन्दनीय भी कहा गया है।
लादने का विफल प्रयास करते हैं। श्रीजम्बुकुमार ने किसका "देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो"
स्मरण करके प्रभव चोर को हतप्रभ किया था ? श्रीसिद्धसेन
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म दिवाकरसूरि ने किस देव की आराधना करके श्रीपार्श्वनाथ भगवान् सूरि ने श्रीभक्तामरस्तोत्र के दसवें पद्य में इसी आशय को प्रकाशित की प्रतिमा को प्रकट किया था? श्री मानतुंगसूरीश्वर ने किसकी किया हैस्तुति करके शरीर की (४४) चवालीस बेड़ियों को तोड़ा था? नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ, भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । श्रीहीरविजय सूरि ने किसके प्रभाव से अकबर को प्रभावित तुतया भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।।१०।। किया था ? बालक नागकेतु ने कब धरणेन्द्र का स्मरण किया
हे जगद्भूषण, हे प्राणियों के स्वामी भगवान् ? आपके था? बालक अमर कुमार ने किसका स्मरण कर अपने आपको सत्य और महान गणों की स्तति करने वाले मनुष्य आपके ही मृत्यु के मुख से बचाया था ? श्रष्ठिप्रवर सुदर्शन ने शूली पर समान हो जाते हैं। इसमें कछ भी आश्चर्य नहीं है, क्योंकि यदि किसका स्मरण किया था ? सती सुभद्रा ने किसका स्मरण कोई स्वामी अपने उपासक को अपने समान नहीं बना लेता तो करके चम्पा के द्वार खोले थे?
उसके स्वामीपन से क्या लाभ? अर्थात् कुछ नहीं। इन सब प्रश्रों का उत्तर मात्र इतना ही है कि सबने किसी हाँ तो अन्य देवी-देवता सकामी सक्रोधी लोभी एवं रागदेवी अथवा देव की आराधना नहीं की थी, अपितु उन्होंने श्रीवीतराग देष से यक्त हैं और वीतराग इनसे रहित। अन्य देवी-देवताओं का अवलम्बन लेकर श्रीनवकार मंत्र का आराधन किया अथवा की उपासना से हमको वही प्राप्त होगा. जो उनमें है यानी कामअन्य प्रकार से वीतराग की आराधना की थी। हमारे पूर्वाचार्यों ने क्रोध, लोभ, राग-द्वेषादि ही प्राप्त होंगे और वीतराग की उपासना देवी-देवताओं के बल पर शासन प्रभावना नहीं की, किन्तु
से उपासक काम-क्रोध, माना-माया और राग द्वेषादि से दूर पूर्वाचार्य भगवन्तों ने अपनी विद्वत्ता एवं चारित्रिक बल के द्वारा
क द्वारा होकर वीतरागत्व को प्राप्त करके स्वयं भी वीतराग बन जाएगा। ही शासन-प्रभावना की है। यदि आज भी श्रद्धापूर्वक वीतराग
मुनिप्रवर श्रीयशोविजयी ने भी कहा है - भगवान् का अवलम्बन लेकर श्रीनमस्कार मंत्र की आराधना
इलिका भ्रमरीध्यानात, भ्रमरीत्वं यथा श्रुते । की जाए, तो अवश्य ही इच्छित की प्राप्ति में किसी प्रकार का
तथा ध्यायन् परमात्मानं, परमात्मत्वमाप्नुयात् ।। अवरोध नहीं आ सकता।
भँवरी का निरंतर ध्यान करने से जिस प्रकार इलिकाएँ प्रश्र - आपने अन्य प्रत्यक्ष देवी-देवताओं की आराधना
भ्रमरीत्व को प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार परमात्मा (वीतराग) का का निषेध कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग की ही उपासना को योग्य
निरंतर ध्यान करने से आत्मा भी परमात्मा बन जाती है। कहा, किन्तु वीतराग देव तो कृतकृत्य हो गए हैं। वे न तो भक्त अनुराग करते हैं और न शत्रु से द्वेष। ऐसे वीतराग की उपासना से
वीतराग की सम्यक् उपासना करने से जब हमारी आत्मा हमको क्या लाभ प्राप्त होने की आशा है? जो हम उनकी वीतरागत्व को भी प्राप्त कर लेती है, तो अन्य सामान्य वस्तुओं उपासना करें?
का प्राप्त होना कोई आश्चर्य का कारण नहीं है। अतः सब
प्रपंचों का त्याग कर श्रीवीतराग की उपासना के बीजभूत उत्तर - वीतराग अवश्य ही राग-द्वेषजन्य प्रपंचों से पर
सकलागम-रहस्यभूत महामंत्राधिराज श्रीनमस्कार महामंत्र का हैं। तभी तो उनका नाम वीतराग है। वे न तो कुछ देते हैं और न
निष्काम भक्ति से स्मरण करना ही हमारे लिए लाभप्रद है। भक्त से राग और शत्रु से द्वेष ही करते हैं, किन्तु श्रीवीतराग की उपासना करने से हम उपासकों को वीतरागत्व की प्राप्ति होती अन्त में, निबंध में यदि कुछ भी अयुक्त लिखा गया हो, है. क्योंकि जैसे उपास्य की उपासना की जाती है. वैसा ही फल तो उसके लिए त्रिकरण-त्रियोग-से मिथ्या दुष्कृत्य की चाहना उपासक को प्राप्त होता है। उपास्य यदि क्रोध, मान, माया और करते हुए वाचकों से निवेदन है कि अपने हाथों अपनी शक्ति लोभ से युक्त हो और उपासक उससे अपनी पर्यपासना के और समय का वृथा साधनाओं में व्यय न करते हए सत्य की बदले में वीतरागत्व की प्राप्ति की आशा रखे. तो वह वथा है। निष्पक्ष भाव से गवेषणा करके तथा उसको सत्य मान कर मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है कि उपास्य जैसा हो. उसकी उपासना आत्मसाधना के मार्ग में आगे बढ़ें यही आशा है। इत्यलम् विस्तरेण।
से उपासक भी वैसा ही हो जाना चाहिए। आचार्यप्रवर श्रीमानतुंग aro
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१.
२.
३.
६.
• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
सन्दर्भ
अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग २, पृष्ठ १०५०
अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग ४, पृष्ठ १८३५
'अह्' धातु से वर्तमानकालीन कर्ता अर्थ में शतृ प्रत्यय लगाने से संस्कृत - व्याकरणानुसार 'अर्हत्' शब्द इस प्रकार बनता है : अर्ह + शतृ । 'लशक्वतद्धिते' १।३४८ सूत्र के शतृ के श की इत् संज्ञा और 'तस्यलोपः ' १।३ ।९ सूत्र से शकार का लोप हुआ। तब अर्ह + अतृ रहा। यहाँ 'उपदेशेऽजनुनासिक इत् १।३।२ सूत्र से ऋकार की इत् संज्ञा और 'तस्यलोपः' सूत्र से ऋकार का लोप होने पर 'अर्ह + अत् रहा। 'अज्झीनं परेण संयोज्यम् न्याय से सबका सम्मेलन करने पर अर्हत्' यह रूप सिद्ध होता है।
'अर्हत्' का प्राकृतरूप 'अरिहंताणं' इस प्रकार बनता है :
अर्हत् शब्द को 'उच्चार्हति ८।२।१११ सूत्र से हकार से पूर्व 'इत्' हुआ तब अहत् बना, रेफ में इकार को मिलाने पर अरिहत् बना। उगिदचांसर्वनामस्थाने धातोः ७।११७० (पाणिनि के) सूत्र से नुम् होकर अनुबंध का लोप होने पर 'अरिहन्त' रहा। 'ङ अणनो व्यञ्जने' १८ | १ | २५ | सूत्र से नकार का अनुस्वार और प्राकृत में स्वररहित व्यञ्जन नहीं रहता। अतः अन्त्य हल् तकार में अकार आया, तब बना अरिहंत ।
'शक्तार्तवषड्नमः स्वस्तिस्वाहास्वधामिः ' २।२।२५ सूत्र से नमः के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। अतः यहाँ भी नमः के योग में चतुर्थी बहुवचन का प्रत्यय भ्यस् आया, तब अरिहंत + भ्यस् बना। 'चतुः षष्ठीः ८।३।१३१ सूत्र से षष्ठी बहुवचन का प्रत्यय आम् आया तब अरिहंत + आम् बना 'जस्स्वसितोदो द्वामि दीर्घः ८। ३ । १२ सूत्र से अजन्ताङ्ग को दीर्घ हुआ। 'टा आमोर्णः ' ८।३।६ सूत्र से आम् के आकाण तथा 'मोऽनुस्वारः | ८ | १ | २३ | सूत्र से मकार का अनुस्वार होने पर अरिहंताणं यह रूप सिद्ध हुआ। ४-५ तेषामेव स्वस्वभाषापरिणाममनोहरम् ।
अप्येकरूपं वचनं, यत्ते धर्मावबोधकृत् ||३|| साऽग्रेपि योजनशते, पूर्वोत्पन्ना गदाम्बुदाः । यदश्चसा विलीयनो त्यहारानिलोर्मिभिः ॥४॥ (वीतरागस्तोत्र, तृतीयप्रकाश)
कम समझ वाले लोग यह पूछ बैठते हैं कि "भगवान् के मांस और रक्त किस प्रकार से सफेद हो सकते हैं? यह तो भगवान् की महत्ता का वैशिष्ट्य दिखलाने के लिए उक्ति मात्र है। इसमें कोई तथ्यांश दिखाई ही नहीं देता।" इसका समाधान है कि परमकरुणामूर्ति भगवान के रक्त और मांस का सफेद होना कोई आश्चर्य एवं उनका वैशिष्ट्य सिद्ध करने के लिए कही गई उक्ति मात्र नहीं है। जैनशासन में जो वस्तु जैसी है, वैसी ही कही गई है अस्तु हम देखते हैं कि
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जिस प्रकार एक माता का वात्सल्य अपने पुत्र पर होने से पुत्र बहुत वर्षो के पश्चात् जब माता के पास आकर उसे नमस्कार करता है, तब स्नेह के वश माता के स्तनों से दूध झरता है अथवा स्तनों में दूध आता है। यदि उसी माता के सामने अन्य के पुत्र को लाया जाता तो उसके स्तनों में कदापि दूध न तो आयेगा ही और न झरेगा ही। उसी प्रकार जिनकी आत्मा में सारे जगत् के जीवों के लिए इस प्रकार वात्सल्य का सागर लहराता हो, मानो समुद्र में जल। तो भला सोचिए क्यों न, उनके शरीर का रक्त और मांस दुग्धवत् श्वेत होगा ? अवश्य होगा। इसमें संदेह को लेशमात्र भी स्थान नहीं है। अभिधानराजेन्द्रकोश, तृतीय, भाग, पृ. ३४१ अभिधानराजेन्द्रकोश, प्रथम भाग, पृ. ७६१
अभिधानराजेन्द्रकोश, चौथा भाग, पृ. १४५९ ।
१०. सिधू धातु से निष्ठा ३।२।१०२ । सूत्र से क्त प्रत्यय आने पर सिंध् + क्त बना। लशक्वतद्धिते । १।६।८। सूत्र से ककार की इत् संज्ञा तथा तस्य लोपः सूत्र से ककार का लोप होने पर सिध + त रहा। झषस्तथोर्धोर्धः १८ | २|४० | सूत्र से तकार का धकार तथा झलां जश् झशि ८।४।५३ सूत्र से शक्तार्थवषड् नमः स्वस्तिस्वाहास्वाधाभिः | २|२| २५ | सूत्र से नमः के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है अतः चतुर्थी का भ्यस् प्रत्यय आया और चतुर्थ्याः षष्ठी ८|३ | १३१ से भ्यस् के स्थान पर आम् आया सिद्ध + आम जस्स्ङसित्तोदो द्वामि दीर्घः ८। ३ । १२ सूत्र से अजन्तांग को दीर्घ तथा टा आमोर्णः सूत्र से अकार का णकार तथा मोऽनुस्वारः । ८ । १ । २३ । से मकार का अनुस्वार होने पर सिद्धाणं बनता है।
११.
१. आयरियाणं (आचार्येभ्यः )
चर् धातु से आङ् उपसर्ग लगने पर आङ् + चर् बना। लशक्वताद्विते सूत्र से की इत् संज्ञा और 'तस्यलोपः' सत्रसे का लोप 'ङ् आ + चर् बना। 'ऋहलोर्ण्यत् ३।१।२२४ सूत्र से ण्यत् प्रत्यय हुआ आचर् + ण्यत् बना। 'चुटू' ११३१७ से ण् की इत् संज्ञा तथा तू की "हलन्त्यतम्" ७२।११६ सूत्र से वृद्धि होने पर तथा सबका सम्मेलन करने पर 'जलतुम्बिकान्यायेन रेफस्योर्ध्वगमनम्' न्याय से रेफ् का ऊर्ध्वगमन होने पर सिद्ध रूप आचार्य बनता है।
“स्याद् भव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात्" ८।२।१०७ सूत्र से यकार से पूर्व इत् का आगम तथा अनुबन्ध का लोप होने पर इको रेफ् में मिलाने से आचारिय बना। “क-ग-च-ज-त-द पयवां प्रायो लुक् " ८।१।१७७ सूत्र शे चकारका लोप "आचार्येचोच्च" ८।१।७३ सूत्र से आ के लोप होने पर शेष रहे आ के स्थान पर अत् । अवर्णोयः श्रति ८ । १ । १८० सूत्र से अ के स्थान पर यकार होने पर आयरिय बनता है। फिर नमः के योग में 'शक्तार्थबषड् नमः स्वस्ति स्वाता स्वधामिः २।२।२५ | सूत्र से चतुर्थी का भ्यस् आया और चतुर्थ्याः षष्ठी सूत्र से भ्यस् के स्थान पर आम् आया आयरिय+ आम् हुआ।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - जस-शस्-ङसित्तो-दो-द्वानि दीर्घः। सूत्र से अजन्तांग को दीर्घ। टा आमोर्णः १३. 'नमो लोए सव्व साहूणं' लोक शब्द से सप्तमी एकवचन का सूत्र से आम् के आ का ण और मोऽनुस्वारः से मकार का अनुस्वार होने पर प्रत्यय ङि आया। लोक + ङि बना। लशक्वतद्धिते सूत्र से की इत्संज्ञा और आयरियाणं सिद्ध होता है।
तस्यलोप: सूत्र से लोप होने पर लोक + इ रहा। तब आद्गुणः ६।१८६ सूत्र से १२. उवज्झायाणं (उपाध्यायेभ्यः) सभीपाथीं उप और अधि पर्वं में पूर्व-पर के स्थान में गुणादेश होने पर लोके बना। फिर कगचजतदपयवां प्रायो लक है जिसके ऐसे इङ् (अध्ययने धातोः) धातु से धब् प्रत्यय होने पर उप + ८।१।१७७ सूत्र से ककार का लोप होने पर लोए यह प्राकृत रूप बना। अधि + इ + घञ् बना। उप + अधि में अकः सवर्णे दीर्घः ६।१।१०१ सूत्र सर्व शब्द से प्रथमा बहुवचन का प्रत्यय जस् आया जसः शी ७।१।१७ से पूर्व-पर के स्थान में दीर्घादेश होने पर उपाधि + इ + धञ् बना। धञ् की सूत्र से जस् के स्थान पर शी हुआ। शकार की लशक्वतद्धिते सूत्र से इत् संज्ञा लशक्वतद्धिते सूत्र से इत् संज्ञा व ञ् की हलन्त्यम् सूत्र से इत्संज्ञा और और तस्यलोपः सूत्र से शकार का लोप होने से सर्व+ इ रहा। आद्गुणः सूत्र तस्यलोपः सूत्र से लोप हुआ। तब उपाधि + इ + अ रहा। अचोणिति से पूर्व-पर के स्थान पर ए गुणादेश होने पर सर्वे बना। उसको सर्वत्र लव ७।२।११५ सूत्र से अजतांग को वृद्धि। उपाधि + ह + अ बना। इको यणचि रामचन्द्रे ८।२।७९ सूत्र से रेफ् का लोप तथा वकार का द्वित्व होने से सव्व सूत्र से यण। उपाध्यै+ आ एचोऽयवायावः६।१७८ सूत्र से ऐ के स्थान पर सिद्ध होता है। आय हुआ आ मिला ध्य् में य मिला धञ् के शेष रहे अ में तब बना साधू संसिध्धौ धातु से कृदन्त के क्रियादिभ्यो उण् सूत्र से उण् प्रत्यय उपाध्याय। उपाध्याय का उवज्झायाणं इस प्रकार बनता है -
आया, तब साधु + उण् बना । वुढू ।१।३।७। सूत्र से ण् की इत् संज्ञा होकर पोवः ८।१।२३१ सूत्र से पकार का बकार हुआ। साध्यसध्यह्यां झः तस्यलोप: सूत्र से लोप होने पर पूर्व-पर को मिलाने पर साधु सिद्ध होता है। ८।२।२६ सूत्र से ध्या के स्थान पर ज्झा हुआ तब उवज्झाय बना। उवज्झाय
साध का खघथघभाम् ।८।१।१८७। सूत्र से धकार के स्थान पर से नमः के योग से शक्तार्थवष्ड नमः स्वस्तिस्वाहा-स्वधामि: २।२।२५ सूत्र हकार हआ तब साह बना। साह शब्द के शक्तार्थ वषडनमः से चतुर्थी का भ्यस् का भ्यस् प्रत्यय आया। चतुर्थ्याः षष्ठीः। सूत्र से भ्यस् के स्वस्तिस्वाहास्वधाभिः सूत्र से नम: के योग में चतुर्थी बहुवचन का प्रत्यय स्थान पर आम आया। उवज्झाय + आम् जस्-शस-ङसि-त्तो-दो-द्वामि भ्यस आया। चताः षष्ठी सत्र से भ्यस के स्थान पर आम आया। तब साह दीर्घः। सूत्र से अजन्तांग को दीर्घ हुआ 'टा आमोर्णः' सत्र से आम् के आकार + आम्। जस्-शस्-ङसित्तोदोद्वामि दीर्घः सूत्र से अजन्तांग को दीर्घ। टा का ण और अन्त्य मकार का मोऽनुस्वार ८।१२३ से अनुस्वार होने पर आमोण: सत्र से आम के आकार का ण हुआ और मोऽनुस्वारः सूत्र से अन्त्य उवज्झायाणं बनता है।
हल् मकार का अनुस्वार हुआ, तब बना साहूणं। सब को क्रमशः लिखा, तब बना णमो लोए सव्व साहूणं।
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जैन धर्म में तीर्थंकर : एक विवेचना
१. जैनधर्म में तीर्थंकर का स्थान
जैनधर्म में तीर्थंकर को धर्मतीर्थ का संस्थापक कहा गया है। 'नमोत्थुणं' नामक प्राचीन प्राकृत स्तोत्र में तीर्थंकर को धर्म की आदि करने वाला, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाला, धर्म का प्रदाता, धर्म का उपदेशक, धर्म का नेता, धर्ममार्ग का सारथी और धर्मचक्रवर्ती कहा गया है। जैनाचार्यों ने एकमत से यह माना है कि समय-समय पर धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु तीर्थंकरों का जन्म होता रहता है। जैनधर्म का तीर्थंकर गीता का अवतार के समान धर्म का संस्थापक तो है किन्तु दुष्टों का दमन एवं सज्जनों की रक्षा करने वाला नहीं है। जैनधर्म में तीर्थंकर लोककल्याण Share मात्र धर्ममार्ग का प्रवर्तन करते हैं किन्तु अपनी वीतरागता, कर्मसिद्धान्त की सर्वोपरिता एवं अहिंसक साधना की प्रमुखता के कारण हिन्दूधर्म के अवतार की भाँति वे अपने भक्तों के कष्टों को दूर करने हेतु दुष्टों का दमन नहीं करते हैं।
जैन-धर्म में तीर्थंकर का कार्य है स्वयं सत्य का साक्षात्कार करना और लोकमंगल के लिए उस सत्यमार्ग या सम्यक् मार्ग का प्रवर्तन करना । वे धर्ममार्ग के उपदेष्टा और धर्म मार्ग पर चलने वालों के मार्गदर्शक हैं। उनके जीवन का लक्ष्य होता है, स्वयं को संसार चक्र से मुक्त करना, आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करना और दूसरे प्राणियों को भी इस मुक्ति और आध्यात्मिक पूर्णता के लिए प्रेरित करना और उनकी साधना में सहयोग प्रदान करना । तीर्थंकर को संसार समुद्र से पार होने वाला और दूसरों को पार कराने वाला कहा गया है।' वे पुरुषोत्तम हैं। उन्हें सिंह के समान शूरवीर, पुण्डरीक कमल के समान वरेण्य और गंधहस्ती के समान श्रेष्ठ माना गया है। वे लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक के हितकर्ता तथा दीपक के समान लोक को प्रकाशित करने वाले कहे गये हैं।
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२. तीर्थंकर शब्द का अर्थ और इतिहास
धर्मप्रवर्तक के लिए जैन परंपरा में सामान्यतया अरहंत, जिन, तीर्थंकर - इन शब्दों का प्रयोग होता रहा है। जैन परंपरा
डॉ. रमेशचन्द्र गुप्त.......
में तीर्थंकर शब्द कब अस्तित्व में आया, यह कहना तो कठिन है किन्तु निःसंदेह यह ऐतिहासिक काल में प्रचलति था । बौद्ध साहित्य में अनेक स्थानों पर 'तीर्थंकर' शब्द प्रयुक्त हुआ है, दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त में छह अन्य तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है । ३
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जैनागमों में उत्तराध्ययन, आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध, स्थानांग, समवायांग और भगवती में तीर्थंकर शब्द का प्रयोग हुआ है। संस्कृत में तीर्थ शब्द घाट या नदी के तीर का सूचक है। वस्तुतः जो किनारे से लगाए वह तीर्थ है। धार्मिक जगत् में भवसागर से किनारे लगाने वाला या पार कराने वाला तीर्थ कहा जाता है। तीर्थ शब्द का एक अर्थ धर्मशासन है। इसी आधार पर संसार - समुद्र से पार कराने वाले एवं धर्मतीर्थ (धर्मशासन) की स्थापना करने वाले को तीर्थंकर कहते हैं।
भगवतीसूत्र एवं स्थानांग में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह धर्मों का पालन करने वाले साधकों के चार प्रकार बताए गए हैं।
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श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका - इस चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा जाता है तथा इस चतुर्विध संघ के संस्थापक को तीर्थंकर कहते है ।" वैसे जैन साहित्य में तीर्थंकर का पर्यायवाची प्राचीन शब्द 'अरहंत' (अर्हत्) है। प्राचीनतम जैनागम आचारांग में इसी शब्द का प्रयोग हुआ है।
विशेषावश्यकभाष्य में तीर्थ की व्याख्या करते हुए बतलाया गया है कि 'जिसके द्वारा पार हुआ जाता है, उसको तीर्थ कहते हैं।' इस आधार पर जन-प्रवचन को तथा ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न संघ को भी तीर्थ कहा गया है । पुनः तीर्थ के ४ विभाग किए गए
१. नामतीर्थ २. स्थापनातीर्थ ३. द्रव्यतीर्थ ४. भावतीर्थ ।
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म तीर्थ नाम से सम्बोधित किए जाने वाले स्थान आदि नाम मूर्ख (जड़) होते हैं और अन्तिम (तीर्थंकर) के वक्र जड़ होते -तीर्थ कहे जाते हैं। जिन स्थानों पर भव्य आत्माओं का जन्म, हैं. जबकि मध्यम के ऋज और प्राज्ञ होते हैं। इस गाथा से ऐसा मक्ति आदि होती है और उनकी स्मृति में मंदिर, प्रतिमा आदि लगता है कि उत्तराध्ययन के २३वें अध्याय के रचनाकाल तक स्थापित किए जाते हैं, वे स्थापनातीर्थ कहलाते हैं। जल में तीर्थंकर की अवधारणा बन चकी होगी। इस गाथा से इतना डूबते हुए व्यक्ति को पार कराने वाले, मनुष्य की पिपासा को अवश्य फलित होता है कि उस यग तक महावीर को अन्तिम शान्त करने वाले और मनुष्य-शरीर के मल को दूर करने वाले तथा पार्श्व को उनका पूर्ववर्ती तीर्थंकर और ऋषभ को प्रथम द्रव्यतीर्थ कहलाते हैं। जिनके द्वारा मनुष्य के क्रोध आदि मानसिक तीर्थंकर माना जाने लगा होगा। वैसे तीर्थंकर की विकसित विकास दूर होते हैं तथा व्यक्ति भवसागर से पार होता है, वह अवधारणा हमें मात्र समवायांग और भगवती में ही मिलती है। निर्ग्रन्थ-प्रवचन भावतीर्थ कहा जाता है। भावतीर्थ पूर्व संचित समवायांग में भी यह सारी चर्चा उसके अंत में जोडी गई है। कर्मा को दूर कर तप, संयम आदि के द्वारा आत्मा को शुद्धि इससे इसकी परिवर्तिता निश्चित रूप से सिद्ध होती है। नन्दी में करने वाला होता है। तीर्थंकरों के द्वारा स्थापित चतुर्विध संघ भी समवायांग की विषय-वस्त की चर्चा में प्रकीर्णक समवाय का संसाररूपी समुद्र से पार कराने वाला होने से भावतीर्थ कहा उल्लेख ही नहीं है। सम्भवतः आचारांग के प्रथम श्रतस्कंध के जाता है। इस भावतीर्थ के संस्थापक ही तीर्थंकर कहे जाते हैं।६।। रचनाकाल तक न तो तीर्थंकरों की २४ की संख्या निश्चित हुई तीर्थंकर शब्द का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, भगवती
और न यह निश्चित हुआ था कि ये तीर्थंकर कौन-कौन हैं। ज्ञाताधर्मकथा, प्रश्रव्याकरण, विपाकसूत्र में उपलब्ध होता है
स्थानांग में ऋषभ, पार्श्व और वर्धमान के अतिरिक्त वारिषेण किन्तु कालक्रम की दृष्टि से ये सभी आगम परवर्ती माने गए हैं। का उल्लेख हुआ है, किन्तु वर्तमान में २४ तीर्थंकरों की प्राचीन स्तर के आगमों में आचारांग १, सूत्रकृतांग १, उत्तराध्ययन, अवधारणा में वारिषेण का उल्लेख नहीं मिलता है। सम्भावना है दशवैकालिक और ऋषिभाषित आते हैं किन्तु इन आगम-ग्रंथों कि आगे वारिषेण के स्थान पर अरिष्टनेमि को समाहित किया में केवल उत्तराध्ययन में ही त्थियर' शब्द मिलता है। अन्य गया होगा, क्योंकि मथुरा में जो मूर्तियाँ मिली हैं, उनमें ऋषभ, किसी भी प्राचीन स्तर के ग्रन्थ में यह शब्द उपलब्ध नहीं है। अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर का उल्लेख है। पार्श्व और महावीर आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और की ऐतिहासिकता तो सुनिश्चित ही है। अरिष्टनेमि और ऋषभ उत्तराध्ययन में अरहंत शब्द का प्रयोग ही अधिक हुआ है। की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में भी कुछ आधार मिल सकते तीर्थंकर की अवधारणा का विकास मुख्य रूप से अरहंत की हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में अरिष्टनेमि को भगवान लोकनाथ और अवधारणा से हुआ है। आचारांग के प्रथम श्रतस्कन्ध में भतकाल दमीश्वर की उपाधि दी गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि और भविष्यत्काल के अर्हन्तों की अवधारणा मिलती है। फिर जैन-परम्परा के साहित्य में जिन आगमिक ग्रंथों को द्वितीय भी इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि उस युग में यह विचार दृढ स्तर का माना गया है, उनमें ही तीर्थंकर की अवधारणा का हो गया था कि भूतकाल में कुछ अहँत् हो चुके हैं, वर्तमान में विकसित रूप देखा जाता है। साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक आधारों कुछ अहंत हैं और भविष्यकाल में कुछ अहँत होंगे। संभवतः से ज्ञात होता है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में २४ यही वर्तमान, भूत और भावी तीर्थकरों की अवधारणा के विकास का आधार रहा होगा। सूत्रकतांग में भी हमें 'अरह' शब्द मिलता
ता ३. तीर्थंकर की अवधारणा है, तीर्थंकर शब्द नहीं मिलता। प्राचीन ग्रन्थों में सबसे पहले हमें उत्तराध्ययन में 'तित्थयर' शब्द मिलता है। इसके २३ वें अध्याय पूर्वकाल में तीर्थंकर का जीव भी हमारी तरह ही क्रोध, में अर्हत पार्श्व और भगवान वर्धमान को धर्म-तीर्थकर (धम्म मान, माया, लोभ, इन्द्रियसुख आदि जागतिक प्रलोभनों में फँसा ....तित्थयरे) यह विशेषण दिया गया है। उत्तराध्ययन के इसी हुआ था। पूर्व जन्मों में महापुरुषों के सत्संग से उसके ज्ञान-नेत्र २३वें अध्याय की २६वीं एवं २७वीं गाथा में कहा गया है कि खुलते हैं, वह साधना के क्षेत्र में प्रगति करता है और तीर्थंकर पहले (तीर्थंकर) के साधु ऋजु जड़ अर्थात् सरलचित्त और wordarodukrabrdworansarorandednoramidnirorandird-२१HAirirandirooridododmrodwidwidwaridwoard
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म नाम-कर्म का उपार्जन कर तीर्थंकर बनने की योग्यता प्राप्त कर ४. तीर्थंकर और अरिहंत लेता है।१९ अन्तिम जीवन (भव) में स्वयं सत्य का अनावरण
यद्यपि प्राचीन आगमों में अरिहंत और तीर्थंकर पर्यायवाची कर केवल ज्ञान प्राप्त करता है। जैनधर्म में स्पष्ट रूप से कहा
रहे हैं। परन्तु परवर्ती जैन विद्वानों ने उनमें अंतर किया है। उन्होंने गया है कि कोई भी भव्य जीव तप और साधना के द्वारा
शरीर सहित मुक्त-अवस्था के दो भेद किए हैं। वे अरिहंत' जिनके तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन कर सकता है और जिस भव
विशेष पुण्य के कारण कल्याणक महोत्सव मनाए जाते हैं, तीर्थंकर (जन्म) में तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करता है, उसके तृतीय
कहलाते हैं। शेष सामान्य अर्हन्त कहलाते हैं। केवलज्ञान अर्थात् भव में वह नियमतः तीर्थंकर बनता है।१२ जैन-मान्यता के
सर्वज्ञत्व से युक्त होने के कारण इन्हें केवली भी कहते हैं। ५३ अनुसार पूर्व भव में तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करने वाली आत्मा जब वर्मतान भव में साधना के माध्यम से ज्ञानावरणीय,
उपाध्याय अमरमुनिजी तीर्थंकर और अर्हत् का भेद स्पष्ट दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय कर्म नष्ट करके केवल
करते हुए लिखते हैं कि 'अनेक लोकोपकारी सिद्धियों के स्वामी ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त करती है और साधु, साध्वी,
तीर्थंकर होते हैं, जबकि दूसरे मुक्त होने वाले आत्मा ऐसे नहीं
होते अर्थात् न तो वे तीर्थंकर जैसे महान् धर्म-प्रचारक ही होते हैं श्रावक, श्राविका रूप धर्मतीर्थ की स्थापना करती है, तब वह
और न ही इतनी अलौकिक योगसिद्धियों के स्वामी ही। साधारण वस्तुतः तीर्थंकर कहलाती है।
मुक्त जीव अपना आत्मिक विकास का लक्ष्य अवश्य प्राप्त तीर्थंकर की अवधारणा वैदिक अवतारवाद की अवधारणा
कर लेते हैं, परन्तु जनता पर अपना चिरस्थायी एवं अक्षुण्ण से बिल्कुल भिन्न है। हिन्दू-धर्म में ईश्वर मानव के रूप में आध्यात्मिक प्रभत्व नहीं जमा पाते। यही एक विशेषता है, जो अवतरित होता है या जन्म लेता है। हिन्दू-धर्म के दृष्टिकोण में तीर्थंकर और अन्य मक्त-आत्माओं में भेद करती है। १४ ईश्वर मानव रूप ग्रहण कर सकता है किन्तु मानव ईश्वर नहीं
अस्तु अर्हत् (सामान्य केवली) और तीर्थंकरों में अंतर बन सकता, क्योंकि वह तो उसका अंश या सेवक माना गया है।
केवल इतना ही है कि अर्हत् स्वयं अपनी मुक्ति की कामना जबकि जैन-धर्म के अनुसार कोई भी आत्मा अपनी आध्यात्मिक
करते हैं और तीर्थंकर संसार-सागर से स्वयं पार होने के साथऊँचाई पर चढ़ते हुए तीर्थंकर पद को प्राप्त कर सकती है। एक
साथ दूसरों को भी पार कराते हैं। इसी विशेष गुण के कारण वे आत्मा एक ही बार तीर्थंकर पद को प्राप्त करती है और फिर मुक्त
तीर्थंकर कहलाते हैं। हो जाती है। तीर्थंकर बन जाने के पश्चात् वह दूसरा जन्म ग्रहण नहीं करती। जैनों के अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर पुन: जीवात्मा नहीं बनता। ५.तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवली का अन्तर वह सिद्धावस्था प्राप्त करने पर पुनः संसार में नहीं लौटता है।
तीर्थंकर और सामान्य केवली के आदशों के इस द्विविध तीर्थंकर की अवधारणा उत्तरण की अवधारणा है। उत्तरण वर्गीकरण के अतिरिक्त आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ योगबिन्दु में मानव तप एवं साधना के द्वारा अपनी राग-द्वेष एवं मिथ्यात्व में स्वहित और लोकहित के आदर्शों के आधार पर एक त्रिविध की अवस्था से ऊपर उठकर वीतराग अवस्था को प्राप्त करता वर्गीकरण प्रस्तुत किया है - है और अंत में कर्मों से पूर्णतया मुक्त होकर सिद्ध अवस्था प्राप्त
तीर्थंकर - जो करुणा से युक्त है और सदैव परार्थ को करता है। सिद्ध-अवस्था की प्राप्ति के बाद जीव पुन: संसार में
__ ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाता है, सत्वों के कल्याण की नहीं आता। इस प्रकार उत्तारवाद में मानव अपने विकारी जीवन
कामना ही जिसका एकमात्र कर्तव्य है, जो अपनी आध्यात्मिक से ऊपर उठकर परमात्मतत्त्व को प्राप्त करता है।
पूर्णता को प्राप्त करने के पश्चात् ही सत्वहित के लिए धर्मतीर्थ अत: जैनों में तीर्थंकर की जो अवधारणा है, वह उत्तारवाद की स्थापना करता है, तीर्थंकर कहलाता है।१५। की अवधारणा है, अवतारवाद की अवधारणा नहीं है। तीर्थंकरत्व
गणधर - वे साधक जो सहवर्गीय हित के संकल्प को की प्राप्ति एक विकास-प्रक्रिया का परिणाम है,
लेकर साधना के क्षेत्र में कार्य करते हैं और अपने सहवर्गीय
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यतीन्द्रसर स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म हित और कल्याण के लिए प्रयत्नशील होते हैं, गणधर कहे जाते अद्दालअ ३६. तारायण ३७. सिरिगिरिमाहणपरिव्वाय ३८. हैं। समूहहित या गणकल्याण ही उनके (गणधर के) जीवन का सातिपुत्तबुद्ध ३९. संजए ४०. दीवायणं ४१. इंदनाग ४२. सोम आदर्श होता है।१६
४३. जम ४४. वरुण ४५. वेसमण। सामान्य केवली - जो साधक आत्म-कल्याण को ही जैन-परम्परा के अनुसार वे साधक जो कैवल्य या वीतराग अपना लक्ष्य बनाता है और इसी आधार पर साधना करते हुए दशा की उपलब्धि के लिए न तो अन्य किसी के उपदेश की आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करता है, वह सामान्य केवली अपेक्षा रखते हैं और न संघीय जीवन में रहकर साधना करते हैं कहा जाता है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में उसे 'मुण्डकेवली' वे प्रत्येकबुद्ध कहलाते हैं। प्रत्येकबुद्ध किसी निमित्त को पाकर भी कहते हैं।७
स्वयं ही बोध को प्राप्त होता है तथा अकेला ही प्रव्रजित होकर यद्यपि आध्यात्मिक पूर्णता और सर्वज्ञता की दृष्टि से तीर्थंकर साधना करता है। वीतराग अवस्था और केवल्य प्राप्त करके गणधर और सामान्य केवली समान ही होते हैं किन्तु लोकहित
भी एकाकी ही रहता है। ऐसा एकाकी आत्मनिष्ठ साधक प्रत्येकबुद्ध के उद्देश्य को लेकर इन तीनों में भिन्नता होती है। तीर्थंकर,
कहा जाता है। प्रत्येकबुद्ध और तीर्थंकर दोनों को ही अपने लोकहित के महान् उद्देश्य से प्रेरित होता है, जबकि गणधर का
अन्तिम भव में किसी अन्य से बोध प्राप्त करने की आवश्यकता परहित-क्षेत्र सीमित होता है और सामान्य केवली का उद्देश्य तो
नहीं होती, वे स्वयं ही सम्बुद्ध होते हैं। यद्यपि जैनाचार्यों के मात्र आत्मकल्याण होता है।
अनुसार जहाँ तीर्थंकर को बोध हेतु किसी बाह्य निमित्त की
अपेक्षा नहीं होती, वहाँ प्रत्येकबुद्ध को बाह्य निमित्त की आवश्यकता ६. सामान्य केवली और प्रत्येकबुद्ध
होती है। यद्यपि जैन-कथा-साहित्य में ऐसे भी उल्लेख हैं, जहाँ कैवल्य को प्राप्त करने की विधि की भिन्नता के आधार
तीर्थंकरों को भी बाह्य निमित्त से प्रेरित होकर विरक्त होते दिखाया पर सामान्य केवली वर्ग के भी दो विभाग किये गए हैं -
गया है, यथा- ऋषभ का नीलाञ्जना नामक नर्तकी की मृत्यु
से विरक्त होना। प्रत्येकबुद्ध किसी भी सामान्य घटना से बोध १. प्रत्येकबुद्ध
को प्राप्त कर प्रव्रजित हो जाता है। जैन-परम्परा में उत्तराध्ययन २. बुद्धबोधित
और ऋषिभाषित में प्रत्येकबुद्धों के उपदेश संकलित हैं किन्तु प्रत्येकबद्ध - जैनागमों में समवायांग १८ में प्रत्येकबद्ध इन ग्रंथों में प्रत्येकबुद्ध शब्द नहीं मिलता है। प्रत्येकबुद्ध शब्द का शब्द का प्रयोग मिलता है। उत्तराध्ययन में वर्णित करकण्डू, सर्वप्रथम उल्लेख स्थानांग, समवायांग और भगवती में मिलता दुर्मुख, नमि और नग्गति को प्रत्येकबुद्ध कहा गया है।१९ इसी । है। यद्यपि तीनों ही आगम ग्रन्थ परवर्तीकाल के ही माने जाते हैं। प्रकार इसिभासियाई के निम्न ४५ ऋषियों को भी प्रत्येकबुद्ध ऐसा लगता है कि जैन और बौद्ध परम्पराओं में प्रत्येकबुद्धों की कहा गया है२० -
अवधारणा का विकास परवर्तीकाल में ही हुआ है। वस्तुत: उन
विचारकों और आध्यात्मिक साधकों को जो इन परम्पराओं से १. देवनारद २. वज्जियपुत्त ३. असितदेवल ४. अंगिरस
सीधे रूप में जुड़े हुए नहीं थे किन्तु उन्हें स्वीकार कर लिया गया भारद्वाज ५. पुष्फसालपुत्त ६. वागलचीरी ७. कुम्मापुत्त ८. केतलीपुत्त ९. महाकासव १०. तेत्तलिपुत्त ११. मंखलीपुत्त १२.
था, प्रत्येकबुद्ध कहा गया। जण्णवक्क (याज्ञवल्क्य) १३. भयाली मेतेज्ज १४. बाहुक १५. बुद्धबाधित- बुद्धबाधित व साधक ह, जा अपन आन्तम मधुरायण १६. सोरियायण १७. विदुर १८. वरिसव कण्ह जन्म में भी किसी अन्य से उपदेश या बोध को प्राप्त कर (वारिषेणकृष्ण) १९. आरियायण २०. उक्कल २१. गाहावतिपुत्त
प्रव्रजित होते हैं और साधना करते हैं। सामान्य साधक बुद्धबोधित
प्रव्राजत हात ह तरुण २२. दगभाल २३. रामपुत्त २४. हरिगिरि २५. अंबड, २६. होते हैं। मातंग २७. वारत्तए २८. अद्दएण २९. वद्धमाण ३०. वायु ३१. जैनधर्म में तीर्थंकर को गणधर, प्रत्येकबुद्ध और पास ३२. पिंग ३३. महासालपुत्तअरुण ३४. इसिगिरिमाहण ३५. सामान्यकेवली से पृथक करके एक अलौकिक पुरुष के रूप में
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
ही स्वीकार किया गया है और उसकी अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया गया है। तीर्थंकर की इन अलौकिकताओं में पंचकल्याण, चौंतीस अतिशय, पैंतीस वचनातिशय आदि महत्त्वपूर्ण हैं, हम अगले पृष्ठों में क्रमशः इनकी चर्चा करेंगे। ७. तीर्थंकर की अलौकिकता
जैन - परम्परा में यद्यपि तीर्थंकर को एक मानवीय व्यक्तित्व के रूप में ही स्वीकार किया गया, फिर भी उनके जीवन के साथ क्रमशः अलौकिकताओं को जोड़ा जाता रहा है। जैनपरम्परा के प्राचीनतम ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में तीर्थंकर महावीर के जीवनवृत्त के संबंध में कुछ उल्लेख मिलता है किन्तु उसमें उन्हें एक उग्र तपस्वी के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उनके जीवन के साथ किसी अलौकिकता को नहीं जोड़ा गया किन्तु उसी ग्रन्थ के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में और कल्पसूत्र में महावीर के जीवन के साथ अनेक अलौकिकताएँ जोड़ी गई हैं। तीर्थंकर की माता उनकी गर्भावक्रान्ति के समय श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार १४ और दिगम्बर परम्परा के अनुसार १६ शुभ स्वप्न देखती है। आचारांग में तीर्थंकर के गर्भ कल्याण का उल्लेख मिलता है, फिर भी वह किस प्रकार मनाया जाता है, इसका विशेष विवरण तो टीका ग्रन्थों एवं परवर्ती साहित्य में ही उपलब्ध होता है। यह भी मान्यता है कि तीर्थंकर माता की जिस योनि में विकसित होते हैं, वह योनि अशुभ पदार्थो से रहित होती है। वे अशुचि से रहित निर्मल रूप से ही जन्म लेते हैं तथा देवता उनका जन्मोत्सव मनाते हैं। तीर्थंकर के जन्म के समय परिवेश शान्त रहता है, सुगन्धित वायु बहने लगती है, पक्षी कलरव करते हैं, उनके जन्म के साथ ही समस्त लोक में प्रकाश व्याप्त हो जाता है आदि। यह भी मान्यता है कि तीर्थंकरों के दीक्षा - महोत्सव और कैवल्य - महोत्सव का सम्पादन भी देवता करते हैं। उनके दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व देवता अपार धनराशि उनके कोषागार में डाल देते हैं और वे प्रतिदिन एक करोड़ बावन लाख स्वर्णमुद्राओं का दान करते हैं। सर्वज्ञता की प्राप्ति के पश्चात् देवता उनके लिए एक विशिष्ट समवसरण ( धर्मसभा - स्थल) बनाते हैं, जिसमें बैठकर वे लोक-कल्याण हेतु धर्ममार्ग का प्रवर्तन करते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि अति प्राचीन जैन-ग्रन्थों यथा-आचारांग के प्रथम श्रुत स्कन्ध में महावीर के जीवन के संबंध में किन्हीं अलौकिकताओं की चर्चा नहीं है । सूत्रकृतां की वीर - स्तुति में
भी मात्र उनकी कुछ विशेषताओं का चित्रण है२१ किन्तु उन्हें अलौकिक नहीं बताया गया है किन्तु आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में और कल्पसूत्र में महावीर एवं कुछ अन्य तीर्थंकरों के जन्मकल्याणक आदि की कुछ अलौकिकताओं के संबंध में सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। फिर परवर्ती आगम-साहित्य तथा कथासाहित्य में तो तीर्थंकर को पूर्णतया लोकोत्तर व्यक्ति बना दिया गया है, जिसकी हम क्रमशः चर्चा करेंगे।
(अ) तीर्थंकरों के पंचकल्याणक
तीर्थंकर और सामान्यकेवली में जैन- परम्परा जिस आधार पर अन्तर करती है, वह पंचकल्याणक की अवधारणा है। जहाँ तीर्थंकर के पंचकल्याणक महोत्सव होते हैं, वहाँ सामान्यकेवली के पंचकल्याणक महोत्सव नहीं होते २४ । तीर्थंकरों के पंचकल्याणक निम्नांकित हैं
१. गर्भकल्याणक - तीर्थंकर जब भी माता के गर्भ में अवतरित होते हैं तब श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार माता १४ और दिगम्बर परम्परा के अनुसार १६ स्वप्न देखती हैं तथा देव और मनुष्य मिलकर उनके गर्भावतरण का महोत्सव मनाते हैं । २५
२. जन्मकल्याणक
जैन - मान्यतानुसार जब तीर्थंकर का जन्म होता है, तब स्वर्ग के देव और इन्द्र पृथ्वी पर आकर तीर्थंकर का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाते हैं और मेरु पर्वत पर ले जाकर वहाँ उनका जन्माभिषेक करते हैं । २६
३. दीक्षाकल्याणक - तीर्थंकर के दीक्षाकाल के उपस्थित होने के पूर्व लोकान्तिक देव उनसे प्रव्रज्या लेने की प्रार्थना करते हैं। वे एक वर्ष तक करोड़ों स्वर्णमुद्राओं का दान करते हैं। दीक्षा तिथि के दिन देवेन्द्र अपने देवमंडल के साथ आकर उनका अभिनिष्क्रमण - महोत्सव मनाते हैं। वे विशेष पालकी में आरूढ़ होकर वनखंड की ओर जाते हैं, जहाँ अपने वस्त्राभूषण का त्यागकर तथा पंचमुष्टिलोच कर दीक्षित हो जाते हैं। नियम यह है कि तीर्थंकर स्वयं ही दीक्षित होता है, किसी गुरु के समीप नहीं । २७
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४. कैवल्यकल्याणक - तीर्थंकर जब अपनी साधना द्वारा कैवल्य ज्ञान प्राप्त करते हैं, उस समय भी स्वर्ग से इन्द्र और देवमंडल आकर कैवल्य - महोत्सव मनाते हैं। उस समय देवता तीर्थंकर की धर्मसभा के लिए समवसरण की रचना करते हैं । २८
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५. निर्वाणकल्याणक तीर्थंकर के परिनिर्वाण प्राप्त होने पर भी देवों द्वारा उनका दाहसंस्कार कर परिनिर्वाणोत्सव मनाया जाता है। २८
(ब) अतिशय
इस प्रकार जैनपरम्परा में तीर्थंकरों के उपर्युक्त पंचकल्याणक माने गए हैं।
उल्लेख किया है।
सामान्यतया जैनाचार्यों ने तीर्थंकरों के चार अतिशयों का
१. ज्ञानातिशय
२. वचनातिशय
३. अपायापगमातिशय
४. पूजातिशय
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१. ज्ञानातिशय केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञता की उपलब्धि ही तीर्थंकर का ज्ञानातिशय माना गया है। दूसरे शब्दों में तीर्थंकर सर्वज्ञ होता है, वह सभी द्रव्यों की भूतकालिक, वर्तमानकालिक तथा भावी पर्यायों का ज्ञाता होता है। दूसरे शब्दों में वह त्रिकालज्ञ होता है। तीर्थंकर का अनन्तज्ञान से युक्त होना ही ज्ञानातिशय है।
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
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२. वचनातिशय - अबाधित और अखण्डनीय सिद्धान्त का प्रतिपादन तीर्थंकर का वचनातिशय कहा गया है। प्रकारान्तर से वचनातिशय के ३५ उपविभाग किए गए हैं।
क.
ख.
ग.
३. अपायापगमातिशय समस्त मलों एवं दोषों से रहित होना अपायापगमातिशय है। तीर्थंकर को रागद्वेषादि १८ दोषों से रहित माना गया है।
४. पूजातिशय- देव और मनुष्यों द्वारा पूजित होना तीर्थंकर का पूजातिशय है। जैनपरम्परा के अनुसार तीर्थंकर को देवों एवं इन्द्रों द्वारा पूजनीय माना गया है।
টটি ট
-
तीर्थंकरों के अतिशयों को जैनाचार्यों ने निम्न तीन भागों में भी विभाजित किया है
सहज अतिशय
कर्मक्षयज अतिशय
देवकृत अतिशय
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उक्त तीन अतिशयों के चौंतीस उत्तरभेद किए गए हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सहज अतिशय के चार, कर्मक्षयज अतिशय के ग्यारह और देवकृत अतिशय के उन्नीस भेद स्वीकार किए गए हैं।
(क) सहज अतिशय
१. सुन्दर रूप, सुगन्धित, नीरोग, पसीनारहित एवं मलरहित शरीर ।
२.
कमल के समान सुगन्धित श्वासोछ्वास ।
३.
गौ के दुग्ध के समान स्वच्छ, दुर्गन्धरहित माँस और रुधिर । ४. चर्मचक्षुओं से आहार और नीहार का न दिखना ।
(ख) कर्मक्षयज अतिशय
१. योजन मात्र समवसरण में क्रोडाक्रोडी मनुष्य, देव और तिर्यञ्चों का समा जाना।
२. एक योजन तक फैलने वाली भगवान की अर्धमागधी वाणी को मनुष्य, तिर्यञ्च और देवताओं द्वारा अपनी-अपनी भाषा में समझ लेना ।
३.
४.
सूर्यप्रभा से भी तेज सिर के पीछे प्रभामंडल का होना । सौ योजन तक रोग का न रहना ।
वैर का न रहना।
५.
६. ईति अर्थात् धान्य आदि को नाश करने वाले चूहों आदि
का अभाव।
७.
८.
९.
महामारी आदि का न होना ।
अतिवृष्टि न होना ।
अनावृष्टि न होना ।
१०.
दुर्भिक्ष न पड़ना।
११. स्वचक्र और परचक्र का भय न होना ।
(ग) देवकृत अतिशय
१. आकाश में धर्मचक्र का होना ।
२. आकाश में चमरों का होना ।
३. आकाश में पादपीठ सहित उज्ज्वल सिंहासन ।
४. आकाश में तीन छत्र ।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म ५. आकाश में रत्नमय धर्मध्वज।
९. स्फटिकमणि के बने हुए पादपीठ सहित उनका स्वच्छ ६. सुवर्ण कमलों पर चलना।
सिंहासन होता है। ७. समवसरण में रत्न, सुवर्ण और चाँदी के तीन परकोटे। १०. उनके आगे हमेशा अनेक लघुपताकाओं से वेष्टित एक ८. चतुर्मुख उपदेश।
इंद्रध्वज पताका चलती है। ९. चैत्य वृक्ष।
११. जहाँ-जहाँ अरिहन्त भगवान ठहरते हैं अथवा बैठते हैं,
वहाँ-वहाँ यक्षदेव सछत्र, सघट, सपताक तथा पत्र-पुष्पों १०. कण्टकों का अधोमुख होना।
से व्याप्त अशोक वृक्ष का निर्माण करते हैं। ११. वृक्षों का झुकना।
१२. उनके मस्तक के पीछे दशों दिशाओं को प्रकाशित करने १२. दुन्दुभि बजना।
वाला तेज-प्रभामंडल होता है। १३. अनुकूल वायु।
साथ ही जहाँ भगवान का गमन होता है, वहाँ निम्नलिखित १४. पक्षियों का प्रदक्षिणा देना।
परिवर्तन हो जाते हैं - १५. गन्धोदक की वृष्टि।
१३. भूमिभाग समान तथा सुन्दर हो जाता है। १६. पाँच वर्णो के पुष्पों की वृष्टि।
१४. कण्टक अधोमुख हो जाते हैं। १७. नख और केशों का नहीं बढ़ना।
१५. ऋतुएँ सुखस्पर्श वाली हो जाती हैं। १८. कम से कम एक कोटि देवों का पास में रहना।
१६. समवर्तक वायु के द्वारा एक योजन तक के क्षेत्र की शुद्धि १९. ऋतुओं का अनुकूल होना।
हो जाती है। दिगम्बर परम्परानुसार १० सहज अतिशय, १० कर्मक्षयज १७. मेघ द्वारा उपचित बिन्दुपात से रज और रेणु का नाश हो अतिशय और १४ देवकृत अतिशय माने गए हैं।
जाता है। समवायांगसत्र में बद्ध (तीर्थंकर) के निम्न चौबीस अतिशय १८. पंचवर्णवाला सुन्दर पुष्प-समुदाय प्रकट हो जाता है। या विशिष्ट गुण माने गए हैं३१ । समवायांग के टीकाकार अभयदेव १९. (अ) भगवान् के आसपास का परिवेश अनेक प्रकार की सूरि ने बुद्ध शब्द का अर्थ तीर्थंकर किया है।३२ समवायांग की धूप के धुंए से सुगन्धित हो जाता है। इस सूची में पूर्वोक्त विविध वर्गीकरणों के उप-प्रकार समाहित हैं। (ब) अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध का अभाव १. तीर्थंकरों के सिर के बाल, दाढ़ी तथा मूंछ एवं रोम और
हो जाता है। नख बढते नहीं है. हमेशा एक ही स्थिति में रहते हैं। २०. (अ) भगवान के दोनों ओर आभूषणों से सुसज्जित यक्ष २. उनका शरीर हमेशा रोग तथा मल से रहित होता है।
चमर डुलाते हैं। ३. उनका माँस तथा खून गाय के दूध के समान श्वेत वर्ण का
(ब) मनोज्ञ शब्दादि का प्रादुर्भाव हो जाता है। होता है।
२१. उपदेश करने के लिए अरिहन्त भगवान् के मुख से एक ४. उनका श्वासोच्छ्वास कमल के समान सुगन्धित होता है। योजन का उल्लंघन करने वाला हृदयंगम स्वर निकलता है। ५. उनका आहार और नीहार (मूत्रपुरीषोत्सर्ग) दृष्टिगोचर नहीं २२. भगवान् का भाषण अर्द्धमागधी भाषा में होता है। होता।
२३. भगवान् द्वारा प्रयुक्त भाषा, आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद ६. वे धर्म-चक्र का प्रवर्तन करते हैं।
आदि समस्त प्राणिवर्ग की भाषा के रूप में परिवर्तित हो
जाती है। ७. उनके ऊपर तीन छत्र लटकते रहते हैं। ८. उनके दोनों ओर चमर लटकते हैं।
२४. बद्ध-वैर वाले देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, गंधर्व आदि aroranayamirariramidnirandirindranatomidniromiraramir २६iwarioudnirodroidrodroportirorandeindianGrandmotion
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म भगवान् के पादमूल में प्रशान्तचित्त होकर धर्म-श्रवण ७. उपनीतरागत्व - यथोचित् राग-रागिनी से युक्त होना। करते हैं।
उपर्युक्त अतिशय शब्द-सौंदर्य की अपेक्षा से जाने जाते हैं २५. अन्य तीर्थ वाले प्रावचनिक (विद्वान्) भी भगवान को एवं शेष अतिशय अर्थ-गौरव की अपेक्षा से जाने जाते हैं। नमस्कार करते हैं।
८. महार्थत्व - वचनों का महान् अर्थ होना। २६. अन्य तीर्थवाले विद्वान् भगवान के पादमूल में आकर निरुत्तर ९. अव्याहतपौर्वापर्यत्व - पूर्वापर अविरोधी वाक्य वाला होना। हो जाते हैं।
१०. शिष्टत्व - वक्ता की शिष्टता का सूचक होना। साथ ही जहाँ भगवान् का विहार होता है, वहाँ पच्चीस
११. असन्दिग्धत्व - सन्देहरहित निश्चित अर्थ का प्रतिपादक योजन तक निम्न बातें नहीं होती -
होना। २७ ई. अर्थात् धान्य को नष्ट करने वाले चूहे आदि प्राणियों
१२. अपहृतान्योत्तरत्व - अन्य पुरुषों के दोषों को दूर करने की उत्पत्ति नहीं होती।
वाला होना। २८. महामारी (संक्रामक बीमारी) नहीं होती।
१३. हृदयग्राहित्व - श्रोताओं के हृदय को आकृष्ट करने वाले २९. अपनी सेना उपद्रव नहीं करती।
वचन वाला होना। ३०. दूसरे राजा की सेना उपद्रव नहीं करती।
१४. देश-कालाव्ययीतत्व - देशकाल के अनुकूल वचन होना। ३१. अतिवृष्टि नहीं होती।
१५. तत्त्वानुरूपत्व - विवक्षित वस्तुस्वरूप के अनुरूप वचन होना। ३२. अनावृष्टि नहीं होती।
१६. अप्रकीर्णप्रसृतत्व - निरर्थक विस्तार से रहित सुसम्बद्ध ३३. दुर्भिक्ष नहीं होता।
वचन होना। ३४. भगवान् के विहार से पूर्व उत्पन्न हुई व्याधियाँ भी शीघ्र ही १७. अन्योन्यप्रगृहीतत्व - परस्पर अपेक्षा रखने वाले पदों एवं
शान्त हो जाती हैं और रुधिरवृष्टि तथा ज्वरादि का प्रकोप वाक्यों से युक्त होना। नहीं होता।
१८. अभिजातत्व - वक्ता कुलीनता और शालीनता के सूचक (स) वचनातिशय
होना। जैन आगामों में पैंतीस वचनातिशयों के उल्लेख मिलते १
अतिस्निग्धमधुरत्व - अत्यन्त स्नेह एवं मधुरता से युक्त हैं३३। संस्कृत-टीकाकारों ने प्रकारान्तर से ग्रन्थों में प्रतिपादित
होना। वचन के पैंतीसगणों का उल्लेख किया है। यही पैंतीस वचनातिशय २०. अपरममवाधत्व- ममवधा न होना। कहलाते हैं, जो निम्नांकित हैं -
२१. अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व - अर्थ और धर्म के अनुकूल होना। १. संस्कारत्व - वचनों का व्याकरण-सम्मत होना।
२२. उदारत्व - तुच्छतारहित और उदारतायुक्त होना। २. उदात्तत्व- उच्च स्वर से परिपूर्ण होना।
२३. परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व - पराई निंदा और अपनी
प्रशंसा से रहित होना। उपचारोपेतत्व - ग्रामीणता से रहित होना। ४. गम्भीरशब्दत्व - मेघ के समान गम्भीर शब्दों से युक्त
२४. उपगतश्लाघत्व - जिन्हें सुनकर लोग प्रशंसा करें, ऐसे
वचन होना। होना।
२५. अनपनीतत्व - काल, कारक, लिंग-व्यत्यय आदि व्याकरण ५. अनुनादित्व - प्रत्येक शब्द का यथार्थ उच्चारण से युक्त
के दोषों से रहित होना। होना।
२६. उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलत्व - अपने विषय में श्रोताजनों ६. दक्षिणत्व - वचनों का सरलता से युक्त होना।
में लगातार कौतूहल उत्पन्न करने वाला होना।
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करती. उन
प्रकार से वर्णनीय
वर्णन करने वा
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - २७. अद्भुतत्व - आश्चर्यजनक अद्भुत नवीनताप्रदर्शक वचन श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में तीर्थंकरों को जिन होना।
दोषों से रहित माना गया है उनमें मूलभूत अन्तर यह है कि जहाँ २८. अनतिविलम्बित्व - अतिविलम्ब से रहित धाराप्रवाह से।
सनिली . अतिविलास रहित धारापवाद से दिगम्बर-परम्परा तीर्थंकर में क्षुधा और तृषा का अभाव मानती बोलना।
है, वहाँ श्वेताम्बर-परम्परा तीर्थंकर में इनका अभाव नहीं मानती २९. विभ्रमविक्षेपकिलकिञ्चितादिविमुक्तत्व - मन की भ्रान्ति,
है, क्योंकि श्वेताम्बर-परम्परा में केवली का कवलाहार (भोजनविक्षेप और रोष, भयादि से रहित वचन होना।
ग्रहण) माना गया है, जबकि दिगम्बर-परम्परा इसे स्वीकार नहीं
करती, उनके अनुसार केवली भोजन ग्रहण नहीं करता है। शेष ३०. अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्व - अनेक प्रकार से वर्णनीय
बातों में दोनों में समानता है। वस्तु-स्वरूप के वर्णन करने वाले वचन होना। ३१. आहितविशेषत्व - सामान्य वचनों से कुछ विशेषतायुक्त ९. तीर्थंकर बनने की योग्यता वचन होना.
तीर्थंकर पद की प्राप्ति के लिए जीव को पूर्व जन्मों से ३२. साकारत्व - पृथक्-पृथक् वर्ण, पद, वाक्य के आकार से विशिष्ट साधना करनी होती है। जैनधर्म में इस हेत जिन विशिष्ट युक्त वचन होना।
साधनाओं को आवश्यक माना गया है उनकी संख्या को लेकर ३३. सत्वपरिगृहीत्व - साहस से परिपूर्ण वचन होना।
जैनधर्म के सम्प्रदायों में मतभेद है। तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के ३४. अपरिखेदित्व - खेद-खिन्नता से रहित वचन होना। आधार पर दिगम्बर सम्प्रदाय तीर्थंकर नामकर्म-उपार्जन हेतु ३५. अव्युच्छेदित्व - विवक्षित अर्थ की सम्यक् सिद्धि वाले निम्नस्थ सोलह बातों की साधना को आवश्यक मानता है३७वचन होना।
१. दर्शनविशुद्धि - वीतरागकथित तत्त्वों में निर्मल और दृढ़ ८. तीर्थंकर : निर्दोष व्यक्तित्व
रुचि। जैन-परम्परा में तीर्थंकर को निम्नस्थ १८ दोषों से रहित २. विनयसम्पन्नता - मोक्षमार्ग और उसके साधकों के प्रति माना गया है३४ - १. दानान्तराय २. लाभान्तराय ३. वीर्यान्तराय ४. भोगान्तराय ५. उपभोगान्तराय ६. मिथ्यात्व ७. अज्ञान ८. ३. शीलवतानतिचार - अहिंसा, सत्यादि मूलव्रत तथा उनके अविरति ९. कामेच्छा १०. हास्य, ११. रति १२. अरति १३. पालन में उपयोगी अभिग्रह आदि दूसरे नियमों का प्रमाद - शोक १४. भय १५. जुगुप्सा १६. राग १७. द्वेष और १८. निद्रा। रहित होकर पालन करना।
श्वेताम्बर-परम्परा में प्रकारान्तर से उन्हें निम्नांकित १८ ४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग - तत्त्वविषयक ज्ञान-प्राप्ति में सदैव दोषों से भी रहित कहा गया है :३५
प्रयत्नशील रहना। १. हिंसा २. मृषावाद ३. चोरी ४. कामक्रीडा ५. हास्य ६. रति ७. ५. अभीक्ष्ण संवेग - सांसारिक भोगों से जो वास्तव में सुख के अरति ८. शोक ९. भय १०. क्रोध ११. मान १२. माया १३. लोभ स्थान पर दुःख के ही साधन बनते हैं, डरते रहना। १४. मद १५. मत्सर १६. अज्ञान १७. निद्रा और १८. प्रेमा
यथाशक्ति त्याग- अपनी शक्त्यनरूप आहारदान. अभयदान. दिगम्बर-परम्परा के ग्रंथ नियमसार में तीर्थंकर को ज्ञानदान आदि विवेकपूर्वक करते रहना। निम्नांकित १८ दोषों से रहित कहा गया है३६ -
७. यशाशक्ति तप - शक्त्यनुरूप विवेकपूर्वक तप-साधना १. क्षुधा २. तृषा ३. भय ४. रोष (क्रोध) ५. राग ६. मोह ७. करना। चिन्ता ८. जरा ९. रोग १०. मृत्यु १२. स्वेद १२.खेद १३. मद १४. ८. संघ-साधु-समाधिकरण - चतुर्विधसंघ और विशेषकर रति १५. विस्मय १६. निद्रा १७. जन्म १८. उद्वेग (अरति)। साधुओं को समाधि-सुख पहुँचाना अर्थात् ऐसा व्यवहार
फिर का
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म करना, जिससे उन्हें मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा न पहुँचे। १०. तीर्थंकरों से संबंधित विवरण का विकास ९. वैयाकृत्यकरण - गुणीजनों अथवा ऐसे लोगों की, जिन्हें
तीर्थंकरों की संख्या एवं उनके जीवनवृत्त आदि को लेकर सहायता की अपेक्षा है, सेवा करना।
सामान्यतया जैनसाहित्य में बहुत कुछ लिखा गया किन्तु यदि १०-१३. चतुःभक्ति - अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत और शास्त्र इन
हम ग्रंथों पर कालक्रम की दृष्टि से विचार करें, तो प्राचीनतम चारों में शुद्ध निष्ठापूर्वक अनुराग रखना।
जैन-आगम आचारांग में महावीर के संक्षिप्त जीवनवृत्त को
छोड़कर हमें अन्य तीर्थंकरों के संदर्भ में कोई जानकारी नहीं १४.आवश्यकापरिहाण - सामायिक आदि षडावश्यकों के
मिलती। यद्यपि आचारांग सामान्यरूप से भूतत्कालिक, अनुष्ठान सदैव करते रहना।
वर्तमानकालिक और भविष्यत्कालिक अरिहंतों का बिना किसी १५.मोक्षमार्ग-प्रभावना - अभिमान को त्यागकर मोक्षमार्ग की नाम के निर्देश अवश्य करता है। रचनाकाल की दृष्टि से इसके
साधना करना तथा दूसरों को उस मार्ग का उपदेश देना। पश्चात कल्पसत्र का क्रम आता है, उसमें महावीर के जीवनवृत्त १६. प्रवचनवात्सल्य - जैसे गाय बछड़े पर स्नेह रखती है, वैसे के साथ-साथ पार्श्व, अरिष्टनेमि और ऋषभदेव के संबंध में भी ही सहधर्मियों पर निष्काम स्नेह रखना।
किंचित् विवरण मिलता है, शेष तीर्थंकरों का केवल नामनिर्देश श्वेताम्बर परम्परा में ज्ञाताधर्मकथा के आधार पर तीर्थंकर
ही है। इसके पश्चात् तीर्थंकरों के संबंध में जानकारी देने वाले नामकर्म के उपार्जन हेतु निम्नांकित (२०) बीस साधनाओं
___ ग्रंथों में समवायांग और आवश्यकनियुक्ति का काल आता है। को आवश्यक माना गया है३८ -
समवायांग और आवश्यकनियुक्ति संक्षिप्त शैली में ही सही
किन्तु वर्तमान, भूतकालिक और भविष्यत्कालिक तीर्थंकरों के १-७. अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत एवं तपस्वी ।
संबंध में विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं। दिगम्बर परम्परा में इन सातों के प्रति वात्सल्य-भाव रखना।
ऐसा ही विवरण यतिवृषभ की तिलोयपण्णति में मिलता है। ८. अनवरत ज्ञानाभ्यास करना।
श्वेताम्बर आगम-ग्रंथ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ऋषभ के संबंध में और ९. जीवादि पदार्थों के प्रति यथार्थ श्रद्धारूप शुद्ध सम्यक्त्व का होना।
ज्ञाताधर्मकथा मल्लि के संबंध में विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते
हैं। तिलोयपण्णति के बाद दिगम्बर-परम्परा में पुराणों का क्रम १०. गुरुजनों का आदर करना।
आता है। पुराणों में तीर्थंकरों के जीवनवृत्त के संबंध में विपुल ११.प्रायश्चित्त एवं प्रतिक्रमण द्वारा अपने अपराधों की सामग्री उपलब्ध है। श्वेताम्बर-परम्परा में स्थानांग, समवायांग, क्षमायाचना करना।
कल्पसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, आवश्यकनिर्मुक्ति, १२. अहिंसादि व्रतों का अतिचार-रहित योग्य रीति से पालन करना।
विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यकचूर्णि, चउपन्नमहापुरिसचरियं एवं
त्रिषष्टिशलाका-पुरुषचरित्र और कल्पसूत्र पर लिखी गई परवर्ती १३. पापों की उपेक्षा करते हुए वैराग्यभाव धारण करना।
टीकाएँ तीर्थंकरों -का विवरण देने वाले महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं। १४. बाह्य एवं आभ्यन्तर तप करना।
समवायांग में उपलब्ध विवरण १५. यथाशक्ति त्यागवृत्ति को अपनाना।
ऐसा लगता है कि तीर्थंकर-संबंधी विवरणों में समय१६. साधुजनों की सेवा करना।
समय पर वृद्धि होती रही है। हमारी जानकारी में २४ तीर्थंकरों १७. समता भाव रखना।
की अवधारणा और तत्संबंधी विवरण सर्वप्रथम श्वेताम्बर - १८. ज्ञान-शक्ति को निरंतर बढ़ाते रहना।
परम्परा में समवायांग और विमलसूरि के पउमचरियं में प्राप्त
होता है। यद्यपि स्थानांग एवं समवायांग की गणना अंग-आगमों १९. आगमों में श्रद्धा रखना।
में की जाती है किन्तु समवायांग में २४ तीर्थंकर संबंधी जो २०. जिन-प्रवचन का प्रकाश रखना।
विवरण है, वह उसके परिशिष्ट के रूप में है और ऐसा लगता है
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भगवती
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म कि बाद में जोड़ा गया है। इस प्रकीर्णक समवाय में तीर्थंकरों के विद्वानों ने ज्ञाताधर्मकथा के इस मल्लि नामक अध्याय को अपेक्षाकृत पिता, उनकी माता, उनके पूर्वभव, उनकी शिविकाओं के नाम, परवर्तीकाल का माना है। इसमें मल्लि को स्त्री-तीर्थंकर मानकर उनके जन्म एवं दीक्षा नगर का उल्लेख मिलता है। मान्यता यह श्वेताम्बर-परम्परा की स्त्रीमुक्ति की अवधारणा को पुष्ट किया गया है कि ऋषभ और अरिष्टनेमि को छोड़कर सभी तीर्थंकरों ने है। इसी आधार पर कुछ दिगम्बर विद्वान् इसे श्वेताम्बर-दिगम्बर अपनी जन्मभूमि में दीक्षा ग्रहण की थी। सभी तीर्थंकर एक परम्परा के विभाजन के पश्चात् का मानते हैं। इसके मल्लि नामक देवदुष्य वस्त्र लेकर दीक्षित हुए। इसके साथ-साथ प्रत्येक तीर्थंकर अध्याय में ही तीर्थंकर-नाम-गोत्र-कर्म-उपार्जन की साधना-विधि ने कितने व्यक्तियों को साथ लेकर दीक्षा ली, इसका भी उल्लेख का उल्लेख है। मल्लि संबंधी यह विवरण निश्चित ही समवायांग इसमें मिलता है। इसी क्रम में समवायांग में दीक्षा लेते समय के का समकालीन या अपेक्षाकृत कुछ परवर्ती है। व्रत, प्रथम भिक्षादाता, प्रथम भिक्षा कब मिली इसका भी उल्लेख है। इसमें तीर्थंकरों के प्रथम शिष्य और शिष्याओं का भी
अन्य अंग आगम उल्लेख है। समवायांग में सर्वप्रथम २४ तीर्थंकरों के चैत्यवृक्षों जहाँ तक उपासकदशा का प्रश्न है इसमें महावीर के काल का भी उल्लेख हुआ है।
के १० श्रावकों का विवरण है, इसी प्रसंग में महावीर के कुछ उपदेश भी इसमें उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु इसमें २४ तीर्थंकरों
की अवधारणा का स्पष्ट रूप से कोई संकेत नहीं है। इसी प्रकार अंग-आगमों के क्रम की दृष्टि से समवायांग के पश्चात् । अंतकृद्दशा में यद्यपि महावीर और अरिष्टनेमि के काल के कुछ भगवतीसूत्र का क्रम आता है, यद्यपि स्मरण रखना होगा कि साधकों के विवरण मिलते हैं किन्तु इसमें अरिष्टनेमि और विद्वानों द्वारा रचनाकाल की दृष्टि से भगवती को समवायांग की कृष्ण-संबंधी जो विवरण दिए गए हैं, वे लगभग ५वीं शताब्दी के अपेक्षा पूर्ववर्ती माना गया है। भगवतीसूत्र भगवान् महावीर के पश्चात् के ही हैं, क्योंकि अंतकृद्दशा की प्राचीन विषयवस्तु, संबंध में समवायांग की अपेक्षा अधिक जानकारी प्रस्तुत करता जिसका विवरण स्थानांग में है, कृष्ण से संबंधित किसी विवरण है। इसमें देवानन्दा को महावीर की माता कहा गया है। महावीर का कोई संकेत नहीं देती है। प्रश्नव्याकरण की वर्तमान विषयवस्तु और गोशालक के पारस्परिक संबंध को लेकर इसमें विस्तार के लगभग ७वीं शताब्दी के आसपास की है। यद्यपि इसमें तीर्थंकरों साथ चर्चा हुई है तथापि विद्वानों ने इस अंश को परवर्ती और के प्रवचन आदि का उल्लेख है किन्तु स्पष्ट रूप से तीर्थंकरों के प्रक्षिप्त माना है। भगवती में महावीर और जामालि के विवाद संबंध में कोई भी विवरण इसमें नहीं मिलता है। यही स्थिति को भी स्पष्ट किया गया है, फिर भी इसमें महावीर के अतिरिक्त औपपातिक और विपाकसूत्र की भी है। अन्य तीर्थंकरों के संबंध में नामों के उल्लेख के अतिरिक्त हमें विस्तार से कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। महावीर से उपाय आगम साहित्य पावापत्यों (पार्श्व के अनुयायियों) के मिलने एवं चर्चा करने उपांग साहित्य में राजप्रश्नीयसूत्र में पार्खापत्य केशी का का उल्लेख तो इसमें है किन्तु पार्श्व के जीवनवृत्त का भी उल्लेख है किन्तु इसमें २४ तीर्थंकरों की अवधारणा को लेकर अभाव ही है। इससे निश्चित ही ऐसा लगता है कि समवायांग के विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। तीर्थंकरों के जीवनवृत्त तीर्थंकर-संबंधी विवरण भगवती की अपेक्षा परवर्तीकाल के हैं। की दृष्टि से उपांग साहित्य की जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को महत्वपूर्ण
माना जा सकता है, क्योंकि इसमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी ज्ञाताधर्मकथा
के कालचक्र का विवेचन करते हुए, उसमें होने वाले तीर्थंकरों ज्ञाताधर्मकथा यद्यपि अन्य तीर्थंकरों के संबंध में तो विशेष का उल्लेख किया गया है। इसमें द्वितीय और तृतीय वक्षस्कार सूचनाएँ नहीं देता है किन्तु ११वें तीर्थंकर मल्लि के संबंध में इसमें अर्थात् अध्याय में क्रमशः ऋषभदेव एवं भरत के जीवनवृत्त का विस्तर से विवरण उपलब्ध है। संभवतः इतना विस्तृत विवरण भी विस्तृत उल्लेख मिलता है। इसमें ऋषभ के एक वर्ष तक अन्य किसी तीर्थंकर के संबंध में अंग-आगमों में उपलब्ध नहीं है। चीवरधारी और बाद में नग्न होने की बात कही गई है।
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - उपांग-साहित्य के 'वृष्णीदशा' में कृष्ण के परिजनों से आवश्यकनियुक्ति में तीर्थंकरों के पूर्वभव का भी सांकेतिक संबंधित उल्लेख हैं किन्तु तीर्थंकर की अवधारणा और तीर्थंकरों उल्लेख हुआ है। आवश्यकनियुक्ति तीर्थंकरों की जन्मतिथि के जीवनवृत्तों का इसमें भी अभाव है।
का भी निर्देश करती है। इसमें तीर्थंकरों के वर्षीदान का उल्लेख
है साथ ही यह भी बताया गया है कि किस तीर्थंकर ने कौमार्य - मूल आगम ग्रन्थ
अवस्था में दीक्षा ली और किसने बाद में। इसमें तीर्थंकरों के मूलसूत्रों में उत्तराध्ययन, अपेक्षाकृत प्राचीन माना जाता निर्वाण-तप तथा निर्वाण-तिथियों का भी उल्लेख मिलता है। है, इसमें केवल पाव, महावीर, अरिष्टनेमि और नमि के संबंध तीर्थंकरों के शरीर की ऊँचाई आदि का उल्लेख स्थानांग एवं
ल्लेख मिलते हैं। यद्यपि इन उल्लेखों में उनके जीवनवृत्तों समवायांग में भी उपलब्ध है किन्तु वह एकीकृत रूप में न होकर की अपेक्षा उसके उपदेशों और मान्यताओं पर ही अधिक बल बिखरा हआ है, जबकि आवश्यकनियुक्ति में उसे एकीकृत रूप दिया गया है, तथापि इतना निश्चित है कि उत्तराध्ययन के ये में प्रस्तुत किया गया है। यथा - आवश्यकनियुक्ति के अनुसार उल्लेख समवायांग की अपेक्षा प्राचीन हैं। उत्तराध्ययन के २२वें सभी तीर्थंकर स्वयं ही बोध प्राप्त करते हैं, लोकान्तिक देव तो
और २३वें अध्याय में क्रमशः अरिष्टनेमि और पार्श्व के संबंध उन्हें व्यवहार के कारण प्रतिबोधित करते हैं, सभी तीर्थंकर एक में जानकारी उपलब्ध होती है। उत्तराध्ययन का २२वाँ रथनेमि वर्ष तक दान देकर प्रव्रजित होते हैं। महावीर, अरिष्टनेमि, पार्श्व, नामक अध्याय यद्यपि मूलत: रथनेमि और राजीमती (राजुल) मल्लि और वासुपूज्य को छोड़ अन्य सभी तीर्थंकरों ने राज्यलक्ष्मी के घटना-प्रसंग को लेकर लिखा गया है किन्तु इस अध्याय में का भोग करने के पश्चात् ही दीक्षा ली थी, जबकि अवशिष्ट अरिष्टनेमि के विवाह-प्रसंग का भी उल्लेख है। २३वें अध्याय पाँच कौमार्य-अवस्था में दीक्षित हुए थे। शान्ति, कुंथु और अर में मुख्य रूप से तीर्थंकर पार्श्व और महावीर की आचार-संबंधी ये तीन तीर्थंकर चक्रवर्ती थे, शेष सामान्य राजा। महावीर अकेले, विभिन्नताओं के उल्लेख मिलते हैं किन्तु उत्तराध्ययन में किसी पार्श्व और मल्लि ३०० व्यक्तियों, वासुपूज्य-६०० व्यक्तियों, तीर्थंकर का जीवनवृत्त नहीं दिया गया है। दशवैकालिक, ऋषभ-४००० व्यक्तियों एवं शेष सभी १००० व्यक्तियों के अनुयोगद्वार और नन्दी में भी तीर्थंकरों के जीवनवृत्त नहीं हैं। साथ दीक्षित हुए थे। सुमति ने बिना किसी व्रत के साथ दीक्षा
ग्रहण की, वासुपूज्य ने उपवास के साथ दीक्षा ग्रहण की, पार्श्व कल्पसूत्र
और मल्लि ने ३ उपवास के साथ दीक्षा ली और शेष सभी ने २ तीर्थंकरों के जीवनवृत्त को सूचित करने वाले आगामिक दिन के उपवास के साथ दीक्षा ली। ऋषभ वनिता से. अरिष्टनेमि ग्रंथों में कल्पसूत्र महत्त्वपूर्ण है। कल्पसूत्र अपने आपमें कोई द्वारका से और अन्य अपनी-अपनी जन्मभूमि में दीक्षित हुए थे। स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है। यह दशाश्रुतस्कन्ध नामक छेदसूत्र का ऋषभ ने सिद्धार्थवन में, वासपज्य ने विहारगृह (वन) में, धर्मनाथ अष्टम अध्याय ही है किन्तु इसके जिनचरित्र नामक खण्ड में नेवप्पग्राम में. मनि समति ने नीलगुफा में, पार्श्व ने आम्रवन में, महावीर के साथ-साथ पार्श्व, अरिष्टनेमि और ऋषभ के जीवनवृत्तों महावीर ने ज्ञातवन में तथा शेष सभी तीर्थंकरों ने सहस्त्रआम्रवन का भी संक्षिप्त विवरण मिलता है। अरिष्टनेमि से लेकर ऋषभ में दीक्षा ग्रहण की। पार्श्व, अरिष्टनेमि, श्रेयांस, सुमति और मल्लि तक के बीच के तीर्थंकरों के नाम एवं उनके बीच की कालावधि पूर्वाह्न में दीक्षित हुए। ऋषभ, नेमि, पार्श्व और महावीर ने अनार्य का भी इसमें उल्लेख है।
भूमि में भी विहार किया, शेष सभी ने मगध, राजगृह आदि
आर्य-भूमि में ही विहार किया। नियुक्ति एवं भाष्य
प्रथम तीर्थंकर को १२ अंग और शेष को ११ अंग का। श्वेताम्बर-परम्परा के इन आगामिक ग्रंथों के अतिरिक्त
श्रुतलाभ रहा। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने पंचयाम का और आवश्यकनियुक्ति एवं विशेषावश्यकभाष्य में भी तीर्थंकरों शेष ने चातर्याम का उपदेश दिया। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के संबंध में और उनके माता-पिता आदि के बारे में सूचनाएँ में सामायिक और छेदोस्थापनीय ऐसे दो चारित्रों का विकल्प मिलती हैं।
होता है , जबकि शेष में सामायिक चारित्र ही होता है। इसमें २४
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म तीर्थंकरों के केवलज्ञान की तिथियों. नक्षत्रों एवं स्थलों को भी के पश्चात् तीर्थंकरों के जीवनवृत्त पर स्वतंत्र रूप से अनेक दिया गया है। २३ तीर्थंकरों को पाह्न में और महावीर को चरितकाव्य लिखे गए हैं, जिनकी चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है। अपराह्न में ज्ञान प्राप्त हुआ। ऋषन को पुरिमताल में, महावीर को ऋजपालिका नदी के किनारे और शेष ने जिस उद्यान में दगम्बर-आगमन्यन्य दीक्षा ली, उसी में केवल ज्ञान प्राप्त किया। पार्श्व, मल्लि और दिगम्बर-परम्परा के आगम-साहित्य में षटखण्डागम, अरिष्टनेमि को तीन उपवास की तपस्या में, वासुपूज्य को एक कषायपाहुड, मूलाचार, भगवतीआराधना, तिलोयपण्णति एवं उपवास में और शेष तीर्थंकरों को दो उपवास में ज्ञान प्राप्त आचार्य कंदकुंद के ग्रंथ समाहित हैं। इनमें मुख्य रूप से मूलाचार हआ।महावीर ने दूसरे समवसरण में तीर्थ की स्थापना की, और भगवतीआराधना यथाप्रसंग तीर्थंकरों के संबंध में कुछ जबकि शेष तीर्थंकरों ने प्रथम समवसरण में तीर्थ की स्थापना सचनाएँ देते हैं किन्त इनमें सव्यवस्थति रूप से तीर्थंकरों से क.। २४ तीर्थंकरों में से २३ तीर्थंकरों के, जितने गण थे, उतने संबंधित विवरण उपलब्ध नहीं हैं। सर्वप्रथम हमें तिलोयपण्णति ही गणधर भी थे, परन्तु महावीर के गणों की संख्या ९ एवं में तीर्थंकरों की अवधारणा एवं जीवन-संबंधी सचनाएँ मिलती गणों की संख्या ११ थी। इसके अतिरिक्त आवश्यकनियुक्ति हैं। तिलोयपण्णत्ति में तीर्थंकरों के नाम, च्यवनस्थल, पर्वभव, में २८ तीर्थंकरों के माता-पिता के नाम, जन्मभूमि, वर्ण, प्रथम
माता-पिता का नाम, जन्मतिथि और नक्षत्र, कुलनाम (धर्मनाथ, शिक्षादाता, प्रथम भिक्षास्थल, छद्मस्थ काल, श्रावक-संख्या,
अरहनाथ और कुंथुनाथ - कुरुवंश में, पार्श्वनाथ - उग्रवंश में, कुमार-कल, शरीर की ऊँचाई एवं आयुप्रमाण आदि का भी
महावीर - ज्ञातृवंश में, मुनिसुमति एवं नेमिनाथ - यादववंश में विवरण त किया गया है। आवश्यकचूर्णि में नियुक्ति
और शेष इक्ष्वाकुवंश में हुए हैं) जन्मकाल, आयु, कुमार-काल, विवरणों के अतिरिक्त महावीर और ऋषभ का जीवनवृत्त भी
शरीर की ऊँचाई, वर्ण, राज्यकाल, चिह्न, वैराग्य के कारण, विस्तार से तारित है।
दीक्षास्थल, (नेमिनाथ द्वारका और शेष अपने जन्म स्थान), आगमेतर -साहित्य
दीक्षातिथि, दीक्षाकाल, दीक्षातप, प्रथम भिक्षा में मिले पदार्थ, श्वेताम्बर परम्परा में २४ तीर्थंकरों के संबंध में विस्तृत
छद्मस्थकाल, केवल ज्ञान (तिथि, नक्षत्र और स्थल), समवसरण जानकारी प्रदान वाले आगमेतर ग्रंथों में वसुदेवहिण्डी, विमलसरि
का रचनाविन्यास, किसी वृक्ष के नीचे हुए केवल ज्ञान, उत्पन्नत
यक्ष-यक्षिणी, कैवल्यकाल, गणधरों की संख्या, साधु-साध्वियों का पउमचरियं, २ क का चउप्पन्नमहापुरिसचरियं और हेमचन्द्र
की संख्या, अवधिज्ञानी, केवलज्ञानी और वैकिय ऋद्धिधारक का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र उल्लेखनीय है। इनमें वसुदेवहिण्डी और पउमचरियं व मुख्य विषय तीर्थंकर-चरित्र नहीं है।
एवं वादियों की संख्या, प्रमुख आर्यिकाएँ, निर्वाणतिथि, नक्षत्र,
स्थल, तीर्थंकरों का शासनकाल, तीर्थंकरों का अन्तराल आदि श्वेताम्बर-पः परा में तीर्थंकरों के जीवनवृत्त का विस्तृत
त्त का विस्तृत का विवरण सुव्यवस्थित रूप से उपलब्ध है। तुलनात्मक दृष्टि
मा विवेचन करने वाले ग्रं में चउपन्नमहापुरिसचरियं का महत्त्वपूर्ण ।
से विचार करने पर तिलोयपण्णति की विवरणशैली स्थान है। शीलांक की यह कृति लगभग ईसा की नवीं शताब्दी
आवश्यकनियुक्ति के समान है। इसमें आवश्यकनियुक्ति के
आवयन में लिखी गई है। संभवत: ५ लाम्बर-जैन-परम्परा में तीर्थंकरों
समान ही तीर्थंकरों के माता-पिता आदि का विवरण मिलता है। का विस्तृत विवरण देने वाला यह प्रथम ग्रंथ है। यद्यपि इसमें
यद्यपि यह आवश्यकनियुक्ति की अपेक्षा परवर्ती है। भी मुख्य रूप से तो ऋषभ, शान्ति, मल्लि, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर के कथानक विस्तार से वर्णित हैं शेष तीर्थंकरों के पुराण-साहित्य जीवनवत्त तो सामान्यतया एक-दो पृष्ठों में ही समाप्त हो जाते हैं। यद्यपि दिगम्बर-परम्परा में तीर्थंकरों के जीवनवत्त को इसके पश्चात् तीर्थंकरों के जीवनवृत्त का विवरण देने वाले ग्रंथों बताने वाले आगमिक साहित्य का अभाव है किन्त उसमें पराणों में हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र भी महत्त्वपूर्ण माना के रूप में अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं. इनमें तीर्थंकरों के जीवनवत्त जाता है। चउप्पन्नमहापुरिसचरियं एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र विस्तार से वर्णित हैं। इन पुराणों में जिनसेन और गुणभद्र की
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म कृति महापुराण प्रसिद्ध है। इसका पूर्वभाग आदिपुराण और शेष की अपेक्षा महावीर का जीवनवृत्त विस्तार से उल्लेखित नहीं भाग उत्तरपुराण के नाम से भी जाना जाता है। आदिपुराण में करती है, फिर भी २४ तीर्थंकरों-संबंधी सुव्यवस्थित जो वर्णन ऋषभ का और उत्तरपुराण में शेष सभी तीर्थंकरों का वर्णन है। उसमें मिलता है, उससे ऐसा लगता है कि इसकी रचना कल्पसूत्र दिगम्बर आचार्यों द्वारा रचित पुराण-ग्रंथ अनेक हैं, किन्तु यहाँ की अपेक्षा परवर्तीकाल की है। इतना निश्चित है कि ईसा की उन सबकी चर्चा करना संभव नहीं है।
दूसरी शताब्दी से २४ तीर्थंकरों की सुव्यवस्थित अवधारणा
उपलब्ध होने लगती है। यद्यपि तीर्थंकरों के जीवनवृत्तों का जैनसाहित्य में उपलब्ध तीर्थंकर की अवधारणा
विकास बाद में भी हुआ। संभवतः ईसा की ७वीं शताब्दी में का सर्वेक्षण
सर्वप्रथम तीर्थंकरों के सुव्यवस्थित जीवनवृत्त लिखने के प्रयत्न तीर्थंकर की अवधारणा के संबंध में ऐतिहासिक दृष्टि से किए गए, संभव है तत्संबंधित कुछ अवधारणाएँ पूर्व में भी विचार करने पर हम यह पाते हैं कि लगभग ईसा की चौथी प्रचलित रही हों। आवश्यकचूर्णि (७वीं शती) महावीर और शताब्दी तक ऐसा कोई भी साहित्य हमें उपलब्ध नहीं होता है कि ऋषभ का विस्तृत विवरण देती है। जिसमे २४ ताथकरा का अवधारणा का विकासत रूप उपलब्ध दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में लगभग होता हो। संभवतः सर्वप्रथम ईसा पूर्व तीसरी, दूसरी शताब्दी से ईसा की ९वीं शताब्दी से ही हमें २४ तीर्थंकरों के सुव्यवस्थित हमें तीर्थंकरों की अवधारणा में अलौकिकता संबंधी कुछ विवरण जीवनवत्त मिलने लगते हैं। यद्यपि इस काल के लेखकों के उपलब्ध होते हैं किन्तु व्यवस्थित रूप से २४ तीर्थंकरों की
सामने कुछ पूर्व परम्पराएँ अवश्य रही होंगी, जिस आधार पर कल्पना का कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं होता उन्होंने
उन्होंने इन चरित्रों का विकास किया। वस्तुतः ईसा की दूसरी है। हमें ऐसा लगता है कि जैन-परम्परा में २४ तीर्थंकरों की
शताब्दी से ९वीं शताब्दी के बीच का काल ही ऐसा है, जिसमें सुव्यवस्थित अवधारणा और उनका नामकरण ईसवी सन् की
२४ तीर्थंकरों-संबंधी अवधारणा का क्रमिक विकास हुआ। प्रथम शताब्दी के आसपास ही हुआ होगा, यद्यपि २४ तीर्थंकरों आश्चर्यजनक यह है कि बौद्ध परम्परा में २४ बद्धों और हिन्द - के नामोल्लेख करने वाले विवरण भगवती, समवायांग आदि में
परम्परा के २४ अवतारों और उनके जीवनवृत्तों को भी सुव्यवस्थित उपलब्ध हैं किन्तु विद्वान् इन्हें ईसा की प्रथम शताब्दी या इनके रूप इसी काल में दिया गया है जो तलनात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण परवर्तीकाल का ही मानते है। यदि हम अन्य तीर्थंकरों के
है। हिन्दू-परम्परा में अवतार की अव्यवस्थित अवधारणा हमें
नि जीवनवृत्तों को एक ओर रख दें, तो भी स्वयं महावीर के जीवनवृत्त
भागवतपुराण में मिलती है। इतिहासविदों ने भागवतपुराण का में एक विकास देखा जा सकता है। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध
काल लगभग ९वीं शताब्दी माना है, यही काल शीलांक के के उपधान नामक नौवें अध्याय में वर्णित महावीर का चरित्र,
चउपन्नमहापुरिसचरियं एवं दिगम्बर-परम्परा के महापुराण आदि सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के वीरस्तव नामक षष्ठ अध्याय
का है। यह एक सुनिश्चित सत्य है कि २४ तीर्थंकरों, २४ बुद्धों में कुछ विकसित हुआ है। फिर वह कल्पसूत्र में हमें अधिक
और २४ अवतारों की अवधारणा कालक्रम से विकसित होकर विकसित रूप में मिलता है। कल्पसूत्र की अपेक्षा भी आचारांग सनिश्चित हई है। इसी प्रसंग में अतीत एवं अनागत तीर्थंकरों के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १५वें अध्याय में वर्णित महावीरचरित्र
___ और बुद्धों की कल्पना विकसित हुई, जो तुलनात्मक अध्ययन अधिक विकसित है, ऐसा डॉ. सागरमल जैन की मान्यता है। की दष्टि से महत्त्वपर्ण कही जा सकती है। उनकी मान्यता का आधार कल्पसूत्र की अपेक्षा आचारांग के महावीरचरित्र में अधिक अलौकिक तत्त्वों का समावेश है।
अब हम ग्रंथ की सीमा को देखते हुए भूतकालीन और भगवतीसूत्र में महावीर के जीवनवृत्त से संबंधित कुछ घटनाएँ,
आगामी तीर्थंकरों के नाम निर्देश के साथ वर्तमान अवसर्पिणी उल्लेखित हैं यथा - देवानंदा, जामालि तथा गोशालक-संबंधी काल के तीर्थंकरों के जीवनवृत्त के संबंध में संक्षिप्त रूप से घटनाएँ उसमें गोशालक संबंधी विवरण को जैन-विद्वानों ने प्रकाश डालेगे। प्रक्षिप्त एवं परवर्ती माना है। आवश्यकनियुक्ति यद्यपि कल्पसूत्र
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म तीर्थंकरों की संख्या - वर्तमान, अतीत और अनागत दिगम्बर-ग्रंथ जपसेनप्रतिष्ठापाठ के नामों में कुछ भिन्नता काल के तीर्थंकर
है, उसमें इन २४ तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है - यद्यपि भागवत में विष्णु के अनन्त अवतार बताए गए
१. निर्वाण २. सागर ३. महासाधु ४. विमलप्रभ ५. हैं३९फिर भी वैष्णवों में चौबीस अवतार की अवधारणा प्रसिद्ध
शुद्धाभदेव ६. श्रीधर ७. श्रीदत्त ८. सिद्धाभदेव ९. अमलप्रभ
१०. उद्धारदेव ११. अग्निदेव १२. संयम १३. शिव १४. पुष्पांजलि है। उसी प्रकार जैन-ग्रंथ महापुराण में यद्यपि भूत और भविष्य
१५. उत्साह १६. परमेश्वर १७. ज्ञानेश्वर १८. विमलेश्वर १९. की अनन्त चौबीसियों के आधार पर अनन्त जिनों की कल्पना
यशोधर २०. कृष्णमति २१. ज्ञानमति २२. शुद्धमति २३. श्रीभद्र की गई है। फिर भी जैनों में चौबीस तीर्थंकरों की अवधारणा
२४. अनन्तवीर्य। ही अधिक प्रचलति रही है तथा विविध क्षेत्रों और कालों की अपेक्षा से अनन्त चौबीसियों की कल्पना की गई।
श्वेताम्बरग्रंथ प्रवचनसारोद्धार और दिगम्बरग्रंथ
जयसेनप्रतिष्ठापाठ में भरतक्षेत्र के उत्सर्पिणी-काल के अतीत जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में वर्तमान अवसर्पिणी-काल के
तीर्थंकरों - निर्वाण, सागर जिन, विमल, श्रीधर, दत्त, शिवगति, चौबीस तीर्थंकर इस प्रकार है४१ -
शद्धमति के नामों में समानता दिखाई देती है एवं अन्य तीर्थंकरों १. ऋषभ २. अजित ३. संभव ४. अभिनन्दन ५. समति के नामों में दोनों ग्रंथों में भिन्नता है। ६. पद्मप्रभ ७. सुपार्श्व ८. चन्द्रप्रभ ९. सुविधि-पुष्पदन्त १०. ऐरावत क्षेत्र के अवसर्पिणी-काल के अतीत तीर्थंकरों के शीतल ११. श्रेयांस १२. वासुपूज्य १३. विमल १४. अनंत १५. संबंध में हमें कोई जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है। धर्म १६. शान्ति १७. कुन्थु १८. अर ११. मल्लि २०. मुनिसुव्रत
जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में आगामी उत्सर्पिणी-काल में २१. नमि २२. नेमि २३. पार्श्व और २४. वर्धमान।
होने वाले चौबीस तीर्थंकर५ ये हैं - जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र के वर्तमान अवसर्पिणी-काल
१. महापद्म २. सूरदेव ३. सुपार्श्व ४. स्वयंप्रभ ५. में निम्नांकित चौबीस तीर्थंकर हुए हैं -
सर्वानुभूति ६. देवश्रुत ७. उदय ८. पेढालपुत्र ९. प्रोष्ठिल १०. १. सुचन्द्र २. अग्निसेन ३. नन्दिसेन ४. ऋषिदत्त ५. शतकीर्ति ११. मुनिसुव्रत १२. सर्वभाववित १३. अमम १४. सोमचन्द्र ६. युक्तिसेन ७. अजितसेन ८. शिवसेन ९. बुद्ध १०. निष्कषाय १५. निष्पुलाक १६. निर्मम १७. चित्रगुप्त १८. देवशर्म ११. निक्षिप्तशस्त्र (श्रेयांस) १२. असंज्वल १३. समाधिगुप्त १९. संवर २०. अनिवृत्ति २१. विजय २२. विमल जिनवृषभ १४. अमितज्ञानी अनन्त १५. उपशान्त १६. गुप्तिसेन २३. देवोपपात और २४. अनन्तविजय। १७. अतिपार्श्व १८. सुपार्श्व १९. मरुदेव २०. धर २१. श्यामकोष्ठ
उपर्युक्त तीर्थंकर आगामी उत्सर्पिणी काल में भरत क्षेत्र २२. अग्निसेन २३. अग्निपुत्र २४. वारिषेण।
में धर्मतीर्थ की देशना करेंगे। समवायांग में तो जम्बूद्वीप के भरत-क्षेत्र में उत्सर्पिणी काल
जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणी काल में के अतीत तीर्थंकरों का विवरण उपलब्ध नहीं है, परन्तु प्रवचनसारोद्धार चौबीस तीर्थंकर होंगे४६ में निम्नांकित २४ तीर्थंकरों का विवरण उपलब्ध होता है।३ -
१.सुमंगल २.सिद्धार्थ ३.निर्वाण ४. महायश५. धर्मध्वज १. केवलज्ञानी २. निर्वाणी ३. सागरजिन ४. महायश ५. ६. श्रीचन्द्र ७. पुष्पकेत ८. महाचन्द्र केवली ९.सतसागर अर्हन विमल ६. नाथसुतेज (सानुभूति) ७. श्रीधर ८. दत्त ९. दामोदर १०. सिद्धार्थ ११. पर्णघोष १२. महाघोष केवली १३. सत्यसेन १०.सुतेज ११. स्वामिजिन १२.शिवाशी (मुनिसुव्रत) १३. सुमति
अर्हन् १४. सूरसेन अर्हन् १५. महासेन केवली १६. सर्वानन्द १४. शिवगति १५. अवाध (अस्ताग) १६. नाथनेमीश्वर १७.
१७. देवपुत्र अर्हन् १८. सुपार्श्व १९. सुव्रत अर्हन् २०. सुकोशल आनल १८. यशाधर १९. जिनकृताथ २०. धमाश्वर (जिनश्वर) अर्हन २१. अनन्तविजय अर्हन् २२. विमल अर्हन् २३. महाबल २१. शुद्धमति २२. शिवकरजिन २३. स्यन्दन २४. सम्प्रतिजिन। अर्हन और २४. देवानन्द अर्हन ।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म उपरोक्त चौबीस तीर्थंकर ऐरावत क्षेत्र में आगामी उत्सर्पिणी ऋषभदेव को है। इस प्रकार इन्हें भारतीय सभ्यता और संस्कृति काल में धर्मतीर्थ की देशना करने वाले होंगे।
का आदि पुरुष माना जाता है। यह भी मान्यता है कि इन्होंने जिस प्रकार बौद्धों में सुखावतीव्यूह में सदैव बुद्धों की उपस्थिति
सामाजिक जीवन में सर्वप्रथम योगलिक परम्परा को समाप्त मानी गई है उसी प्रकार जैनों में महाविदेह क्षेत्र में सदैव बीस तीर्थंकरों की उपस्थिति मानी है। यद्यपि उनमें से प्रत्येक तीर्थकर अनुसार इनके शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष और आय ८४ लाख अपनी आय मर्यादा पर्ण होने पर सिद्ध हो जाता है अर्थात निर्वाण पूर्व वर्ष मानी गई है। ये ८३ लाख पूर्व वर्ष सांसारिक अवस्था में को प्राप्त कर लेता है किन्तु जिस समय वह निर्वाण प्राप्त करता है,
रहे और इन्होंने १/२ लाख पूर्व वर्ष तक संयम का पालन किया। उस समय उसी नाम का दूसरा तीर्थंकर कैवल्य प्राप्तकर तीर्थंकर
अपने जीवन की संध्यावेला में इन्होंने चार हजार लोगों के साथ पद प्राप्त कर लेता है, इस प्रकार क्रम सदा चलता रहता है।
संन्यास लिया। इन्हें एक वर्ष के कठोर तप की साधना के महाविदेह क्षेत्र के बीस तीर्थंकर निम्नलिखित हैं-४७
पश्चात् पुरिमताल उद्यान में बोधि प्राप्त हुई थी। जैनों की ऐसी
मान्यता है कि ऋषभदेव के साथ संन्यास धर्म को अंगीकार १. सीमन्धर २. युगन्धर ३. बाहु ४. सुबाहु ५. संजात ६.
करने वाले अधिकांश व्यक्ति उनके समान कठोर आचरण का स्वयंप्रभ७. ऋषभानन ८. अनन्तवीर्य ९.सूरिप्रभ १०.विशालप्रभ
पालन न कर पाए और परिणामस्वरूप उन्होंने अपनी-अपनी ११. वज्रधर १२. चन्द्रानन १३. चन्द्रबाहु १४. भुजंगम १५.
सुविधाओं के अनुसार विभिन्न श्रमण-परम्पराओं को जन्म दिया। ईश्वर १६. नेमिप्रभु १७. वीरसेन १८. महाभद्र १९. देवयश २०.
उनके पौत्र मारीचि द्वारा त्रिदंडी संन्यासियों की परम्परा प्रारंभ अजितवीर्य।
हुई। जैनों की मान्यता है कि ऋषभदेव के संघ में ८४ गणों में जैनों की कल्पना है कि समस्त मनुष्यलोक (अढाई द्वीप) विभक्त ८४ गणधरों के अधीन ८४ हजार श्रमण थे, ब्राह्मी के विभिन्न क्षेत्रों में एक साथ अधिकतम १७० और न्यूनतम प्रमुख तीन लाख आर्यिकाएँ थीं। तीन लाख पचास हजार श्रावक २० तीर्थंकर सदैव वर्तमान रहते हैं। इन न्यूनतम और अधिकतम और पाँच लाख चौवन हजार श्राविकाएँ थीं। संख्या का अतिक्रमण नहीं होगा, फिर भी एक तीर्थंकर का
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में ऋषभदेव के १२ पूर्व भवों दूसरे तीर्थंकर से कभी मिलाप नहीं होता।
का उल्लेख है। इसके साथ ही साथ उसमें उनके जन्म-महोत्सव, १. ऋषभदेव
नामकरण, रूप-यौवन, विवाह, गृहस्थजीवन, सन्तानोत्पनि,
राज्याभिषेक, कलाओं की शिक्षा, वैराग्य, गृहत्याग और दीक्षा, ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर
साधनाकाल के उपसर्ग, इक्षुरस से पारण, केवलज्ञान, समवसरण, माने जाते हैं।४९ इनके पिता नाभि और इनकी माता मरुदेवी
संघस्थापना और उपदेश आदि का विस्तार से वर्णन है। थीं। ये इक्ष्वाकु कुल के काश्यप गोत्र में उत्पन्न हुए थे। इनका जन्मस्थान कोशल जनपद के अयोध्या नगर में माना जाता है।
ऋषभदेव का उल्लेख अन्य परम्पराओं में भी मिलता है। इनकी दो पत्नियाँ थीं - सुनन्दा और सुमंगला। भरत, बाहुबलि वैदिक परम्परा में वेदों से लेकर पुराणों तक इनके नाम का आदि उनके १०० पुत्र और ब्राह्मी-सुन्दरी दो पत्रियाँ थीं५१) उल्लेख पाया जाता है। ऋग्वेद में अनेक रूपों में इनकी स्तति
की गई है। यद्यपि आज यह कहना कठिन है कि ऋग्वेद में ऋषभदेव उस काल में उत्पन्न हुए थे, जब मनुष्य प्राकृतिक वर्णित ऋषभदेव वही हैं, जो जैनों के प्रथम तीर्थंकर हैं, क्योंकि जीवन से निकलकर ग्रामीण एवं नगरीय जीवन में प्रवेश कर
इनके पक्ष एवं विपक्ष में विद्वानों ने अपने तर्क दिए हैं। तांड्य रहा था। माना जाता है कि ऋषभदेव ने पुरुष को ७२ और ब्राह्मण और शतपथ ब्राह्मण में नाभिपत्र ऋषभ और ऋषभ के स्त्रियों को ६४ कलाओं की शिक्षा दी थी, उन्होंने अपनी पुत्री पत्र भारत का उल्लेख है।५३ उत्तरकालीन हिन्द-परम्परा के ग्रंथों ब्राह्मी को लिपिज्ञान तथा सुन्दरी को गणित विषय में पारंगत श्रीमदभागवत.मार्कण्डेयपराण, कर्मपराण, अग्निपुराण, वायपराण, बनाया था। जैन-मान्यता के अनुसार असि (सैन्यकर्म), मसि गरम
, मास गरुडपुराण, विष्णुपुराण और स्कन्दपुराण में भी ऋषभदेव के (वाणिज्य) और कृषि को व्यवस्थित रूप देने का श्रेय भी andaridridadidasardarariandiar३५Harihariridesidiariwarisardaridrianardan
ना
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म उल्लेख मिलते हैं।५४ श्रीमद्भागवत और परवर्ती पुराणों में से दर्शन करते हैं और उनकी ज्ञानज्योति मात्र ज्ञानरूप ही है।५६ अधिकांश में ऋषभदेव का वर्णन उपलब्ध है, जो जैन-परम्परा ऋग्वेद में एक अन्य स्थल पर केशी और ऋषभ का एक साथ से बहुत साम्य रखता है।
वर्णन हुआ है।५७ श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव के केशधारी अवधूत ऋग्वेद के १०वें मण्डल के सूत्र १३६/२ में वातरशना
के रूप में परिभ्रमण करने का उल्लेख मिलता है। जैनमूर्तिकला शब्द का प्रयोग हुआ है।५५ व्युत्पत्ति की दृष्टि से वातरशन शब्द
में भी ऋषभदेव के वक्रकेशों की परम्परा अत्यन्त प्राचीनकाल के दो अर्थ हो सकते हैं - (१) वात+अशन अर्थात वायु ही
से पायी जाती है। तीर्थंकरों में मात्र ऋषभदेव की मूर्ति के सिर
पर ही कुटिल (वक्र) केश देखने को मिलते हैं, जो कि उनका जिनका भोजन है, उन्हें वातरशन कहा जा सकता है। (२)
एक लक्षण माना जाता है। पद्मपुराण'९ एवं हरिवंशपुराणप° में वात+रशन रशन वेष्ठन परिचायक वस्तु ही जिनका वस्त्र है इस
भी उनकी लंबी जटाओं के उल्लेख पाए जाते हैं। अत: उपर्युक्त दृष्टि से यह नग्न मुनि का परिचायक हो सकता है। तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार वातरशना का अर्थ नग्न होता है। जैनाचार्य
साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि ऋषभदेव का ही जिनसेन ने वातरशना का अर्थ दिगम्बर किया है और उसे ।
दूसरा नाम 'केशी' रहा होगा। ऋषभदेव का विशेषण बताया है। सायण ने वातरशना का अर्थ
पुरातात्त्विक स्त्रोतों से भी ऋषभदेव के बारे में सूचनाएँ वातरशन का पत्र किया है किन्तु उसका अर्थ वातरशन के प्राप्त हुई हैं। डॉ. राखलदास बनर्जी द्वारा सिन्धुघाटी की सभ्यता अनुयायी करना अधिक उचित है, क्योंकि श्रीमदभागवत में भी की खोज में प्राप्त सील (मुहर) सं.४४९ पर चित्रलिपि में कछ यह कहा गया है कि ऋषभदेव ने वातरशना श्रमणों के धर्म का लिखा हुआ है। इसे श्री प्राणनाथ विद्यालंकार ने जिनेश्वर: 'जिनउपदेश दिया । जैन पराण श्रीमदभागवत में वातरशना को जो इ-इ-सरः' पढ़ा है। रामबहादुर चन्दा का कहना है कि सिन्धु ऋषभदेव के साथ जोडने का प्रयत्न किया गया है. समचित तो घाटी से प्राप्त मुहरों में एक मूर्ति मथुरा के ऋषभदेव की प्रतीत होता ही है. साथ ही यह भी सचित करता है कि ऋग्वैदिक खड्गासन मूर्ति के समान त्याग और वैराग्य के भाव प्रदर्शित काल में ऋषभ की परम्परा प्रचलित थी।
करती है। इस सील में जो मूर्ति उत्कीर्ण है उसमें वैराग्य भाव तो ऋग्वेद में 'शिश्नदेवा' शब्द आया है। 'शिश्नदेव' के ऋग्वेद
स्पष्ट है ही, साथ ही साथ उसके नीचे के भाग में ऋषभदेव के
प्रतीक बैल का सदभाव भी है।५१ में दो उल्लेख हैं - प्रथम (७/२१/५) में तो कहा गया है कि वे हमारे यज्ञ में विघ्न न डालें और दूसरे (१०/९९/३) में इन्द्र द्वारा डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने सिन्धु-सभ्यता का अध्ययन शिश्नदेवों को मारकर शतद्वारों वाले दुर्ग की निधि पर कब्जा करते हुए लिखा कि फलक १२ और ११८ आकृति ७ (मार्शल करने का उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि कृत मोहनजोदड़ो) कार्यात्सर्ग मुद्रा में खड्गासन में खड़े हुए शिश्नदेव (नग्नदेव) के पूजक वैदिक परम्परा के विरोधी और देवताओं को सूचित करती है। यह मुद्रा जैन तीर्थंकरों की मर्तियों आर्थिक दृष्टि से संपन्न थे। शिश्नदेवा के दो अर्थ हो सकते हैं। से विशेष रूप से मिलती है। जैसे - मथुरा से प्राप्त तीर्थंकर इसका एक अर्थ है शिश्न को देवता मानने वाले, दसरा शिश्नयक्त ऋषभ की मूर्ति। मुहर संख्या एफ.जी.एच. फलक दो पर अंकित अर्थात् नग्न देवता को पूजने वाले। इन दोनों अर्थों में से भले ही देवमूर्ति एक बैल ही बना है। संभव है कि यह ऋषभ का प्रतीक किसी भी अर्थ को ग्रहण करें किन्त इससे इतना तो स्पष्ट है कि रूप हो। यदि ऐसा हो, तो शैव-धर्म की तरह जैन धर्म का मल ऋग्वेद के काल में एक परम्परा थी, जो नग्न देवताओं की पजा भी ताम्रयुगीन सिन्धुसभ्यता तक चला जाता है।६२ करती थी और यह भी सत्य है कि ऋषभ की परम्परा नग्न डॉ. विंसेन्ट ए. स्मिथ का कहना है कि मथुरा-संबंधी श्रमणों की परम्परा थी।
खोजों से यह फलित होता है कि जैन-धर्म के तीर्थंकरों की ऋग्वेद में केशी की स्तति किए जाने का उल्लेख मिलता अवधारणा ई. सन् के पूर्व में विद्यमान थी। ऋषभादि २४ तीर्थंकरों है। केशी साधनायक्त कहे गए हैं तथा अग्नि, जल पथ्वी और की मान्यता सुदूर प्राचीनकाल में पूर्णतया प्रचलित थी।६३ इस स्वर्ग को धारण करते हैं। साथ ही सम्पूर्ण विश्व के तत्त्वों का प्रकार ऋषभदेव की प्राचीनता इतिहास के साहित्यिक एवं
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - पुरातात्त्विक दोनों साक्ष्यों से सिद्ध है। डॉ. एन.एन. बसु का मन्तव्य जैन और वैदिक परम्परा में प्राचीनकाल से ही उनकी है कि ब्राह्मीलिपि का प्रथम आविष्कार संभवतः ऋषभदेव ने ही उपस्थिति का जो संकेत मिलता है, वह इस बात का भी सूचक किया था। अपनी पुत्री के नाम पर इसका ब्राह्मी नाम रखा। भागवत है कि वे एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे और महावीर तथा पार्श्व के में वे विष्णु के अष्टम अवतार के रूप में प्रख्यात हुए हैं।६४ पूर्व उनकी श्रमण-परम्परा जीवित थी। संभव है कि महावीर के
सम्मुख ऋषभ और पार्श्व दोनों की परम्परा जीवित रही हो तथा ऋषभ और शिव
महावीर ने पार्श्व की परम्परा की अपेक्षा ऋषभ की परम्परा को सिन्धु घाटी में मिली मूर्तियों और सीलों की देवमूर्ति का अधिक महत्त्व दिया हो। समीकरण चाहे हम शिव से करें या ऋषभ से करें बहुत अंतर
आज हमारे पास आजीवक सम्प्रदाय का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। ऋषभ और शिव के संदर्भ में जो कथाएँ मिलती हैं,
नहीं है, फिर भी इतना निश्चित है कि आजीवकों की परम्परा उनसे इतना स्पष्ट होता है कि दोनों वैदिक कर्म-काण्ड के
महावीर और गोशालक के पूर्व भी प्रचलति थी, संभव है कि विरोधी थे। दिगम्बर-विद्वान पं. कैलाशचन्द्रजी ने शिव और
आजीवकों की यह परम्परा ऋषभ की परम्परा रही हो। परवर्ती वृषभ में समीकरण खोजने का प्रयत्न किया है।
जैन-ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि प्रथम और अंतिम तीर्थंकर महाभारत में महादेव के नामों में शिव और ऋषभ दोनों के धर्म में समानता होती है, वह आकस्मिक नहीं है। तार्किक का उल्लेख हुआ है। अथर्ववेद के १५वें व्रात्य नामक काण्ड में आधार पर हम इतना ही कह सकते हैं कि महावीर ने पार्श्व की एकव्रात्य को महादेव भी कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि परम्परा की अपेक्षा आजीवकों के रूप में जीवित ऋषभ की। व्रात्यों, वातरशना मुनियों और शिश्नदेवों की कोई एक परम्परा नग्नतावादी परम्परा को ही प्राथमिकता दी और स्वीकार किया। थी, जो वैदिक काल में भी प्रचलित थी और यह परम्परा निश्चित
जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि पं. कैलाशचन्द्रजी ही वेद-विरोधी श्रमण-धारा की थी। व्रात्य शब्द का अर्थ भी
आदि कुछ जैन-विद्वानों ने इन सब उल्लेखों के आधार पर व्रतों का पालन करने वाला, 'गी या घुमक्कड़ होता है। ये
ऋषभ एक ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध करने का प्रयास किया है सभी बातें श्रमणों में पाई जाती ह। पनः अथर्ववेद में व्रात्यों को
और उनकी समरूपता शिव के साथ भी स्थापित की गई है। मागध कहा गया है, इससे भी यही सिद्ध होता है कि वे श्रमण ,
जिसके आधार निम्नलिखित हैं - परम्परा के ही लोग थे। यह सुनिश्चित सत्य है कि मगध श्रमणों का केन्द्र स्थल था। इन सब आधारों पर ऐसा लगता है कि
प्रथम तो ऋषभ और शिव दोनों ही दिगम्बर हैं। शिव का श्रमणों की यही परम्परा विकसित होकर हिन्द धर्म में शैवों वाहन नन्दी (वृषभ) है, तो वृषभ का लांछन भी वृषभ है। दोनों अर्थात् शिव के उपासकों के रूप में और श्रमण-परम्परा में ___ध्यान, साधना और योग के प्रवर्तक माने जाते हैं।६५ जहाँ शिव ऋषभ के अनुयायियों के रूप में विकसित हुई। हिन्दू-पुराणों में को कैलाशवासी माना गया है, वहाँ ऋषभ का निर्वाण भी कैलाश मार्कण्डेय पुराण, कूर्म पुराण, अग्नि पुराण, वायु पुराण, गरुड पर्वत (अष्टापद) पर बताया गया है। इसी प्रकार दोनों वैदिक पुराण, ब्रह्मांड पुराण, विष्णु पुराण, स्कन्द पुराण और श्रीमद्भागवत कर्मकाण्ड के विरोधी, निवृत्तिमार्गी और ध्यान एवं योग के में जो ऋषभदेव का वर्णन उपलब्ध होता है, उससे इतना तो प्रस्तोता हैं। यद्यपि दोनों में बहुत कुछ समानताएँ खोजी जा निश्चित ही सिद्ध हो जाता है कि ऋषभ निश्चित ही एक ऐतिहासिक सकती हैं, फिर भी परवर्ती साहित्य में वर्णित दोनों के जीवनवृत्तों पुरुष रहे हैं।
के आधार पर आज यह कहना कठिन ही है कि वे अभिन्न ___जैनपरम्परा में ऋषभदेव की मूर्तियाँ तथा पूजा के प्रमाण
व्यक्ति हैं या अलग-अलग व्यक्ति हैं; परन्तु इस समग्र चर्चा से हमें ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी से मिलने लगते हैं। इस आधार पर
इतना निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि ऋषभ को भारतीय हम यह कह सकते हैं कि ईसा पूर्व में भी ऋषभदेव जैनपरम्परा
समाज और संस्कृति में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। यही के तीर्थंकर माने जाते थे।
कारण है कि हिन्दू-परम्परा उन्हें भगवान् के चौबीस अवतारों में
प्रथम मानवीय अवतार के रूप में स्वीकार करती है। merciariandiaaidrosarokariwarstardarovarinidr ३ ७ Haririamiricardiansarswamirsiandiardiarosarokaridra
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
बौद्ध-साहित्य में धम्मपद में 'उसभं परवं वीरं (४२२) के रूप में ऋषभ का उल्लेख है, यद्यपि यह शब्द ब्राह्मण का एक विशेषण है अथवा ऋषभ नामक तीर्थंकर को सूचित करता है, यह विवादास्पद ही है। मञ्जुश्रीमूलकल्प में भी नाभिपुत्र ऋषभ और उनके पुत्र भरत का उल्लेख उपलब्ध है । ६६ २. अजित
अजित जैन - परम्परा के दूसरे तीर्थंकर माने जाते हैं । ६७ इनके पिता का नाम जितशत्रु और माता का नाम विजया था तथा इनका जन्मस्थान अयोध्या माना गया है । ६८ इनका शरीर ४०० धनुष ऊँचा और काञ्चन वर्ण बताया गया है। इन्होंने भी अपने जीवन के अन्तिम चरण में संन्यास ग्रहण कर १२ वर्ष तक कठिन तपस्या की, तत्पश्चात् सर्वज्ञ बने । अपनी ७२ लाख पूर्व वर्ष की सर्व आयु में इन्होंने ७१ लाख पूर्व वर्ष गृहस्थ धर्म और १ लाख पूर्व वर्ष संन्यास धर्म का पालन किया । ७१ इनके संघ में १ लाख मुनि और ३ लाख ३० हजार साध्वियाँ थीं। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके पूर्वभवों का उल्लेख है और इन्हें सागर चक्रवर्ती का चचेरा भाई बताया गया है।
बौद्ध परम्परा में अजित थेर का नाम मिलता है किन्तु इनकी तीर्थंकर अजित से कोई समानता परिलक्षित नहीं होती है । इसी प्रकार बुद्ध के समकालीन तीर्थंकर कहे जाने वाले ६ व्यक्तियों में एक अजितकेशकम्बल भी हैं किन्तु ये महावीर के समकालीन हैं, जबकि दूसरे तीर्थंकर अजित महावीर के बहुत पहले हो चुके हैं। डॉ. राधाकृष्णन की सूचनानुसार ऋग्वेद में भी अजित का नाम आता है - ये प्राचीन हैं अतः इनकी तीर्थंकर अजित से एकरूपता की कल्पना की जा सकती है किन्तु यहाँ भी मात्र नाम की एकरूपता के अतिरिक्त अन्य कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
३. संभव
संभव वर्तमान अवसर्पिणी काल के तीसरे तीर्थंकर माने गए हैं। इनके पिता का नाम जितारि एवं माता का नाम सेनादेवी था तथा इनका जन्म स्थान श्रावस्ती नगर माना गया है । ४ इनके शरीर की ऊँचाई ४०० धनुष, वर्ण काञ्चन और आयु ६० लाख पूर्व वर्ष मानी गई है । ७५ इन्होंने भी अपने जीवन की संध्या-वेला में संन्यास ग्रहण किया और १४ वर्ष की कठोर
साधना के पश्चात् साल वृक्ष के नीचे इन्हें केवज्ञान प्राप्त हुआ। इन्होंने सम्मेतशिखर पर निर्वाण प्राप्त किया । ७७ इनकी शिष्यसम्पदा में २ लाख भिक्षु और ३ लाख ३६ हजार भिक्षुणयाँ थीं। अन्य परम्पराओं में इनका उल्लेख हमें कहीं नहीं मिलता है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों का उल्लेख है। ४. अभिनन्दन
अभिनन्दन जैन - परम्परा के चौथे तीर्थंकर माने जाते हैं। इनके पिता का नाम संवर एवं माता का नाम सिद्धार्था था तथा इनका जन्मस्थान अयोध्या माना गया है । ७९ इनके शरीर की ऊँचाई ३५० धनुष और वर्ण सुनहरा बताया गया है।" इन्होंने जीवन के अन्तिम चरण में १००० मनुष्यों के साथ संन्यास ग्रहण किया और कठिन तपस्या के बाद सम्मेतपर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया । " इन्होंने अपनी ५० लाख पूर्व वर्ष की आयु में साढ़े बारह लाख पूर्व वर्ष कुमार अवस्था में, साढ़े छत्तीस लाख पूर्व वर्ष गृहस्थ जीवन में और एक लाख पूर्व वर्ष में संन्यास धर्म पालन किया। इनको प्रिअंक वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त हुआ था।
इनके ३ लाख मुनि और ३० हजार साध्वियाँ थीं । ८२ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों - महाबल राजा और अनुत्तर स्वर्ग के देव का उल्लेख हुआ है।
५. सुमति
सुमति वर्तमान अवसर्पिणी काल के पाँचवें तीर्थंकर माने गए हैं।८३ इनके पिता का नाम मेघ एवं माता का नाम मंगला तथा इनका जन्म स्थान विनय नगर माना गया है । ४ इनके शरीर की ऊँचाई ३०० धनुष और वर्ण काञ्चन माना गया है । ५ इन्होंने जीवन की अन्तिम संध्यावेला में संन्यास ग्रहण किया था और १२ वर्ष की कठोर साधना के पश्चात् प्रियंगु वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त किया था। ६ इन्होंने अपनी ४० लाख पूर्व वर्ष की आयु में १० लाख पूर्व कुमारावस्था, २९ लाख पूर्व वर्ष गृहस्थ जीवन और १ लाख पूर्व वर्ष संन्यास धर्म का पालन किया।८७ इनकी शिष्यसम्पदा में ३ लाख २० हजार भिक्षु और लाख ३० हजार भिक्षुणियाँ थीं। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों- पुरुषसिंह राजकुमार और ऋद्धिशाली देव का उल्लेख हुआ
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है।
अन्य परम्पराओं में हमें इनका कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
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५. पद्मप्रभ
जैनपरम्परा में पद्मभ्रम छठे तीर्थंकर के रूप में माने जाते हैं। इनके पिता का नाम धर एवं माता का नाम सुसीमा था तथा इनका जन्मस्थान कौशाम्बी नगर माना गया है। इनके शरीर की ऊँचाई २५० धनुष एवं वर्ण लाल बताया गया है । " इन्होंने कठिन तपश्चरण कर छत्रांग वृक्ष के नीचे केवल - ज्ञान प्राप्त किया था । ११ इन्होंने अपनी ३० लाख पूर्व वर्ष की आयु साढ़े इक्कीस लाख पूर्व वर्ष गृहस्थ धर्म और एक लाख पूर्व वर्ष तक मुनि धर्म का पालन किया । १२
में
यतीन्द्रसार स्मारक ग्रन्थ :
इनके संघ में ३ लाख ३० हजार मुनि एवं ४ लाख २० हजार साध्वियाँ थीं । ९३ अन्य परम्पराओं में इनका भी कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है। वैसे पद्म राम का एक नाम है किन्तु इनकी राम से कोई समरूपता नहीं दिखाई देती है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों- अपराजित महाराजा और ग्रैवेयक देव का उल्लेख हुआ है।
७. सुपार्श्व
सुपार्श्व वर्तमान अवसर्पिणी काल के सातवें तीर्थंकर माने गए हैं । ९४ इनका जन्म वाराणसी के राजा प्रतिष्ठ की रानी पृथ्वी की कुक्षि से माना गया है। १५ इनके शरीर की ऊँचाई २०० धनुष और वर्ण स्वर्णिम माना गया है । ९६ इन्हें ९ माह की कठिन तपस्या के पश्चात् शिरीष वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त हुआ" और २० लाख पूर्व वर्ष की आयु पूर्ण करने के पश्चात् सम्मेतशिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। १८
इनके संघ में ३ लाख मुनि और ४ लाख ३० हजार साध्वियाँ थीं।९९ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों नन्दिसेन राजा और अहमिन्द्र देव का उल्लेख हुआ है।
८. चन्द्रप्रभ
जैन - परम्परा में वर्तमान अवसर्पिणी काल के आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ माने जाते हैं। १०० इनके पिता का नाम महासेन और माता का नाम लक्षणा था तथा इनका जन्मस्थान चन्द्रपुर था । १०९ इनके शरीर की ऊँचाई १५० धनुष मानी गई है । १०२ इनके शरीर का वर्ण चन्द्रमा के समान श्वेत बताया गया है । १०३ इनको नागवृक्ष के नीचे बोधिज्ञान प्राप्त हुआ था । १०४ इनकी
जैन-धर्म शिष्य-सम्पदा में ढाई लाख भिक्षु और ३ लाख ८० हजार भिक्षुणियाँ थीं।१०५ त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों - पद्म राजा और अहमिन्द्र देव का उल्लेख मिलता है।
अन्य परम्पराओं में इनका कहीं भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है।
९. सुविधि या पुष्पदन्त
सुविधिनाथ जैन- परम्परा के नवें तीर्थंकर माने गए हैं। १०६ इनका जन्म काकन्दी नगरी के राजा सुग्रीव के यहाँ हुआ था और इनकी माता का नाम रामा था । १०७ इनके शरीर की ऊँचाई १०० धनुष बताई गई है। १०८ इनके शरीर का वर्ण चमकते हुए चन्द्रमा के समान बताया गया है। १०९ इनको काकन्दी नगरी के बाहर उद्यान में मल्लिका वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त हुआ था ११० तथा २ लाख पूर्व वर्ष आयु व्यतीत करने के पश्चात् निर्वाण लाभ हुआ था। १११ इनके संघ में २ लाख साधु एवं ३ लाख साध्वियाँ थीं । ११२ अन्य परम्पराओं में इनका भी उल्लेख नहीं मिलता है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों महापद्म राजा और अहमिन्द्र देव का वर्णन हुआ है।
१०. शीतल
शीतल वर्तमान अवसर्पिणी काल के दसवें तीर्थंकर माने गए हैं । ११३ इनके पिता का नाभ दृढ़रथ और माता का नाम नन्दा था तथा इनका जन्मस्थान भद्दिलपुर माना गया है । ९९४ इनके शरीर की ऊँचाई ९० धनुष ११५ और वर्ण स्वर्णिम ११६ बताया गया है । इन्होंने भी अपने जीवन के अंतिम चरण में संन्यास ग्रहण कर ३ माह की कठिन तपस्या के पश्चात् पीपल वृक्ष के नीचे बोधि- ज्ञान प्राप्त किया११७ तथा सम्मेतशिखर पर निर्वाण प्राप्त किया। ११८ इनकी शिष्यसम्पदा में एक लाख साधु और एक लाख २० हजार साध्वियाँ थीं । ११९ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों - पद्मोत्तर राजा और प्रणित स्वर्ग में बीस सागर की वाले देव के रूप में जन्म ग्रहण करने का उल्लेख है।
इनका भी उल्लेख अन्य परम्पराओं में देखने को नहीं मिलता है।
११. श्रेयांस
जैन - परम्परा में श्रेयांस को ग्यारहवें तीर्थंकर के रूप में माना गया है।१२० इनका जन्म सिंहपुर के राजा विष्णु के यहाँ
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म हुआ बताया जाता है। इनकी माता विष्णु देवी थीं।१२१ इनके १४. अनन्त शरीर की ऊँचाई ८० धनुष तथा वर्ण स्वर्णिम बताया गया है।१२२
अनन्त जैन-परम्परा के चौदहवें तीर्थंकर माने गए हैं।५३८ इन्होंने २ माह की कठिन तपस्या के बाद तिन्दुक वृक्ष के नीचे
इनके पिता का नाम सिंहसेन एवं माता का नाम सुयशा और बोधि-ज्ञान प्राप्त किया था।१२३ इनको भी सम्मेत शिखर पर
जन्मस्थल अयोध्या माना गया है। १३९ इनके शरीर की ऊँचाई निर्वाण प्राप्त हुआ था।१२४ इनके संघ में ८४ हजार भिक्षु और १
५० धनुष और वर्ण काञ्चन बताया गया है।१४० इनको अशोक लाख ६ हजार भिक्षुणियाँ थीं।२२५ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में
वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त हुआ था।१४१ इन्होंने ३० लाख वर्ष इनके दो पूर्वभवों - नलिनीगुल्म राजा और ऋद्धिमान देव का
की आयु पूर्ण कर निर्वाण प्राप्त किया।१४२ इनकी शिष्यसम्पदा उल्लेख हुआ है।
में ६६ हजार भिक्षु और एक लाख आठ सौ भिक्षुणियों के होने अन्य परम्पराओं में इनका भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है। का उल्लेख है।१४३ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों
- पद्मरथ राजा और पुष्पोत्तर विमान में बीस सागरोपम की १२. वासुपूज्य
स्थिति वाले देव का उल्लेख है। वासुपूज्य वर्तमान अवसर्पिणी काल के बारहवें तीर्थंकर
इनका उल्लेख हमें अन्य परम्पराओं में नहीं मिलता है। माने जाते हैं।१२६ इनके पिता का नाम वसुपूज्य एवं माता का नाम जया था तथा इनका जन्मस्थान चम्पा माना गया है।१२७ १५. धर्म इनके शरीर की ऊँचाई ७० धनुष बताई गयी है।१२८ इनके शरीर
धर्म वर्तमान अवसर्पिणी काल के पंद्रहवें तीर्थंकर माने का वर्ण लाल बताया गया है।१२९ इन्होंने भी तपश्चरण कर
गए हैं।१४४ इनके पिता का नाम भानु एवं माता का नाम सुवृता पाटला वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त किया था।१३० इनकी
और जन्मस्थान रत्नपुर माना गया है।४५ इनके शरीर की ऊँचाई शिष्य-सम्पदा में ७२ हजार भिक्षु और एक लाख ३ हजार
४५ धनुष और वर्ण स्वर्णिम बताया गया है।१४६ इन्होंने जीवन भिक्षणियाँ थीं।१३९ त्रिषष्टिशलाकापरुषचरित्र में इनके दो पर्वभवों
की सान्ध्यवेला में कठिन र पाया कर दधिपर्ण वृक्ष के नीचे - पद्मोत्तर राजा और ऋद्धिमानदेव का उल्लेख मिलता है।
केवलज्ञान प्राप्त किया।१४७ इन्होंने एक लाख पूर्व वर्ष की आयु अन्य परम्पराओं में इनका भी उल्लेख नहीं मिलता है।
पूर्ण कर निर्वाण प्राप्त किया। जन-ग्रंथों के अनुसार इनके संघ १३. विमल
में ६४ हजार साधु एवं ६२ हजार ४ सौ साध्वियाँ थीं। १४८
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों - दृढरथ राजा जैन-परम्परा में विमल को तेरहवाँ तीर्थंकर माना गया और अहमिन्द्रदेव का वर्णन उपलब्ध है। है।९३२ इनके पिता का नाम कृतवर्मा एवं माता का नाम श्यामा
अन्य परम्पराओं में इनका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। और जन्मस्थान काम्पिल्यपुर माना गया है।१३३ इनके शरीर की ऊँचाई ६० धनुष और रंग काञ्चन बताया गया है।१३४ इन्होंने भी १६. शान्ति अपने जीवन के अंतिम चरण में कठिन तपस्या की और जम्बू
जैनपरम्परा में शान्तिनाथ की सौलहवाँ तीर्थंकर माना वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया।२३५ अपनी साठ लाख वर्ष की
गया है।१४९ इनके पिता का नाम विश्वसेन एवं माता का नाम आयु पूर्ण कर अंत में सम्मेतशिखर पर निर्वाण प्राप्त किया।१३६
अचिरा और जन्मस्थान हस्तिनापुर माना गया है।१५० इनके शरीर इनके संघ में ६८ हजार साधु एवं एक लाख एक सौ आठ
की ऊँचाई ४० धनुष और वर्ण स्वर्णिम कहा गया है।५१ इन्होंने साध्वियों के होने का उल्लेख प्राप्त होता है। १३७
एक वर्ष की कठिन तपस्या के बाद नन्दी वृक्ष के नीचे बोधिज्ञान त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों - पद्मसेन राजा।
या केवलज्ञान प्राप्त किया।१५२ अपनी एक लाख वर्ष की आयु और ऋद्धिमान देव का उल्लेख हुआ है।
पूर्ण करने के पश्चात् इन्होंने सम्मेतशिखर पर निर्वाण प्राप्त इनका भी उल्लेख अन्य परम्पराओं में उपलब्ध नहीं है। किया।१५३ इनकी शिष्यसम्पदा में ६२ हजार भिक्षु और ६१
arodrowonodranoramidnoransarowaroonironirmward-[४
Hororobaroramoonawanirominodranitariwrotariimar
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- यतीन्द्रसूर स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म हजार , सौ भिक्षुणियाँ थीं, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। १५४. राजा शिवि ने कबूतर से पूछा कि वह बाज कौन था? तो त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों - मेघरथ राजा कबूतर ने कहा - 'वह बाज साक्षात् इन्द्र थे और मैं अग्नि हूँ। और सर्वार्थसिद्धि विमान में देव बनने का उल्लेख हुआ है। राजन् ! हम दोनों आपकी साधुता देखने के लिए यहाँ आए थे।'
यद्यपि शान्तिनाथ का उल्लेख बौद्ध एवं वैदिक परम्पराओं इन दोनों कथाओं का जब तुलनात्मक दृष्टि से विचार में नहीं मिलता है किन्तु 'मेघरथ' के रूप में इनके पूर्वभव की करते हैं, तो दिखाई देता है कि दोनों में ही जीवहिंसा को पाप कथा हिन्दू-पुराणों में महाराज शिवि के रूप में मिलती है। बताया गया है और अहिंसा के पालन पर जोर दिया गया है। भगवान शान्ति अपने पूर्वभव में राजा मेघरथ थे। उस
यद्यपि इन दोनों कथाओं में कथानायक राजा मेघरथ और राजा समय जब वे ध्यान-चिन्तन में लीन थे, एक भयातुर कपोत
शिवि के नामों में भिन्नता है किन्तु कथा की विषयवस्तु और
प्रयोजन अर्थात प्राणिरक्षा दोनों में समान है। उनकी गोद में गिरकर उनसे अपने प्राणों की रक्षा के लिए प्रार्थना करता है। जैसे ही राजा ने उसे अभयदान दिया, उसी समय एक १७. कन्थ बाज उपस्थित होता है और राजा से प्रार्थना करता है कि कपोत मेरा भोज्य है, इसे छोड़ दें क्योंकि मैं बहुत भूखा हूँ।
कुन्थुनाथ को जैन-परम्परा में सत्रहवाँ तीर्थंकर माना गया
है।१५५ इनके पिता का नाम सूर्य, माता का नाम श्री और जन्मस्थान राजा उस बाज से कहते हैं कि उदर-पूर्ति के लिए हिंसा
गजपुर अर्थात् हस्तिनापुर माना गया है।१५६ इनके शरीर की ऊँचाई करना घोर पाप है, अब तुम्हें इस पापसे से विरत रहना चाहिए।
३५ धनुष और वर्ण काञ्चन बताया गया है।१५७ इनको तिलक शरणागत की रक्षा करना मेरा धर्म है। किन्तु बाज पर इस उपदेश
वृक्ष के नीचे कठिन तपस्या के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त हुआ का कोई असर नहीं हुआ। अंत में बाज, कबूतर के बराबर माँस
था।१५८ अपनी ९५ हजार वर्ष की आयु पूर्ण करने के बाद इन्होंने मिलने पर कबूतर को छोड़ देने पर राजी हो गया। राजा मेघरथ ।
भी सम्मेतशिखर पर निर्वाण प्राप्त किया।१५९ इनके संघ में ६० ने तराजू के एक पलड़े में कबूतर को और दूसरे पलड़े में अपनी हजार साध एवं ६० हजार ६ सौ साध्वियों के होने का उल्लेख शरीर से मांस के टुकड़ों को रखना शुरू कर दिया। परन्तु कबूतर है।१६० त्रिषष्टिशलाकापरुषचरित्र में इनके दो पर्वभवों - सिंहावह वाला पलड़ा भारी पड़ता रहा, अंत में ज्यों ही राजा उस पलड़े में
रा पड़ता रहा, अत म ज्या हा राजा उस पलड़ म राजा और अहमिन्द्र देव का उल्लेख है। बैठने को तत्पर हुए उसी समय एक देव प्रकट हुआ और उनकी प्राणिरक्षा की वृत्ति की प्रशंसा की। कबूतर एवं बाज अदृश्य हो
इनके विषय में अन्य परम्पराओं में कोई उल्लेख नहीं गए। राजा पहले की तरह स्वस्थ हो गए।
मिलता है। इसी तरह की कथा महाभारत के वनपर्व में राजा शिवि १८. अरनाथ की उल्लेखित है। राजा शिवि अपने दिव्य सिंहासन पर बैठे हुए अरनाथ वर्तमान अवसर्पिणी काल के अट्ठारहवें तीर्थंकर थे, एक कबूतर उनकी गोद में गिरता है और अपने प्राणों की
माने गए हैं।१६९ इनके पिता का नाम सुदर्शन, माता का नाम रक्षा के लिए प्रार्थना करता है - 'महाराज बाज मेरा पीछा कर ।
श्रीदेवी और जन्मस्थान हस्तिनापुर माना गया है।९६२ इनके शरीर रहा है, मैं आपकी शरण में आया हूँ' इतने में बाज भी उपस्थित
की ऊँचाई ३० धनुष और रंग स्वर्णिम बताया गया है।६३ इन्होंने हो जाता है और कहता है कि 'महाराज कपोत मेरा भोज्य है, इसे
जीवन के अंतिम चरण में संन्यास ग्रहण कर तीन वर्ष तक आप मुझे दें राजा ने कपोत देने से मना कर दिया और बदले में अपना माँस देना स्वीकार किया। तराजू के एक पलड़े में
कठोर तपस्या की, तत्पश्चात् सर्वज्ञ बने।१६४ इनको केवलज्ञान कपोत और दूसरे में राजा शिवि अपने दायीं जांघ से माँस काट
आम्र वृक्ष के नीचे प्राप्त हुआ।१६५ अपनी ८४ हजार वर्ष की काटकर रखने लगे, फिर भी कपोत वाला पलड़ा भारी ही पड़ता
आयु पूर्ण कर इन्होंने भी सम्मेतशिखर पर निर्वाण प्राप्त रहा। अत: स्वयं राजा तराजू के पलड़े पर चढ़ गए। ऐसा करने पर
किया।९६६इनकी शिष्य-सम्पदा में ५० हजार साधु एवं ६० हजार तनिक भी उन्हें क्लेश नहीं हुआ। यह देखकर बाज बोल उठा - 'हो ।
साध्वियाँ थीं, ऐसा उल्लेख है।१६७ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में गई कबूतर की रक्षा' और वह अन्तर्धान हो गया।
इनके दो पूर्वभवों - धनपति राजा और महर्द्धिक देव का उल्लेख
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म हुआ है।
१९. मल्लि पं. दलसुख भाई मालवणिया ने 'जैन-साहित्य का वृहद् "मल्लि" को इस अवसर्पिणी काल का १९वाँ तीर्थंकर इतिहास' की भूमिका में अर की बौद्धपरम्परा के अरक बुद्ध से माना गया है।१७१ इनके पिता का नाम कुंभ और माता का नाम समानता दिखाई है। बौद्ध-परम्परा में अरक नामक बुद्ध का प्रभावती था। मल्लि की जन्मभूमि विदेह की राजधानी मिथिला उल्लेख प्राप्त होता है। भगवान बुद्ध ने पूर्वकाल में होने वाले मानी गई है।९७२ इनके शरीर की ऊँचाई २५ धनुष और रंग साँवला सात शास्ता वीतराग तीर्थंकरों की बात कही है। आश्चर्य यह है माना गया है।९७३ सम्भवतः जैन-परम्परा के अंग-साहित्य में कि उसमें भी इन्हें तीर्थंकर (तित्थकर) कहा गया है।१६८ इसी महावीर के बाद यदि किसी का विस्तृत उल्लेख मिलता है, तो प्रसंग में भगवान् बुद्ध ने अरक का उपदेश कैसा था, इसका वह मल्लि का है। ज्ञाताधर्मकथा में मल्लि के जीवन वृत्त का वर्णन किया है। उनका उपदेश था कि सूर्य के निकलने पर जैसे विस्तार से उल्लेख उपलब्ध है। जैनधर्म की श्वेताम्बर और घास पर स्थित ओसबिन्दु तत्काल विनष्ट हो जाते हैं, वैसे ही दिगम्बर परम्पराएँ मल्लि के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में विशेष तौर मनुष्य का यह जीवन भी मरणशील होता है, इस प्रकार ओस से इस बात को लेकर कि वे पुरुष थे या स्त्री मतभेद रखती है। बिन्दु की उपमा देकर जीवन की क्षणिकता१६९ बताई गई है। दिगम्बर परम्परा की मान्यता है कि मल्लि पुरुष थे, जबकि उत्तराध्ययन में भी एक गाथा इसी तरह की उपलब्ध है - श्वेताम्बर परम्परा उन्हें स्त्री मानती है। सामान्यतया जैन-परम्परा 'कुसग्गे जह ओसबिन्दुए थोवं चिट्ठइ लंबमणिए।
में यह माना गया है कि पुरुष ही तीर्थंकर होता है, किन्तु श्वेताम्बर एवं मणयाण जीवियं समयं गोयम मा पमायए।। '१७०
आगम-साहित्य में यह भी उल्लेख है कि इस कालचक्र में जो
विशेष आश्चर्यजनक १० घटनाएँ हुईं, उनमें महावीर का गर्भापहरण इसमें भी जीवन की क्षणिकता के बारे में कहा गया है।
और मल्लि का स्त्री रूप में तीर्थंकर होना विशेष महत्त्वपूर्ण है। अतः भगवान् बुद्ध द्वारा वर्णित अरक का हम जैनपरम्परा के अटठारहवें तीर्थंकर अर के साथ कछ मेल बैठा सकते हैं या श्वेताम्बर-आगम ज्ञाताधर्मकथा के अनुसार मल्लि के नहीं, यह विचारणीय है। जैनशास्त्रों के आधार से अर की आयु ।
सौंदर्य पर मोहित होकर साकेत के राजा प्रतिबुद्ध, चम्पा के राजा ८४००० वर्ष मानी गई है और उनके बाद होने वाले मल्लि चन्द्रछाग, कुणाल के राजा रुक्मि, वाराणसी के राजा शंख, तीर्थकर की आय ५५ हजार वर्ष है। अतएव पौराणिक दष्टि से हस्तिनापुर के राजा अदीनशनु और कम्पिलपुर के राजा जितशत्र. विचार किया जाए, तो अरक का समय अर और मल्लि के बीच । ठहरता है। इस आयु के भेद को न माना जाए, तो इतना कहा ही
छहों को समझाकर वैराग्य के मार्ग पर लगा दिया। इन सभी ने
छहा का र जा सकता है कि अर या अरक नामक कोई महान् व्यक्ति
मल्लि के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। मल्लि ने जिस दिन संन्यास प्राचीन पुराणकाल में हुआ था, जिनसे बौद्ध और जैन दोनों ने ग्रहण किया, उसी दिन उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। मल्लि के तीर्थंकर का पद दिया है। दूसरी बात यह भी ध्यान देने योग्य है ४० हजार श्रमण, ५० हजार श्रमणियाँ और १ लाख ८४ हजार कि इस अरक से भी पहले बद्ध के मत से अरनेमि नामक एक गृहस्थ उपासक तथा ३ लाख ६५ हजार गृहस्थ उपासिकाएं थीं।७४ तीर्थंकर हुए हैं। बौद्ध-परम्परा में बताए गए अरनेमि और जैन
जैन-परम्परा के अनुसार इन्होंने सम्मेतशिखर पर निर्वाण तीर्थंकर अर का भी कोई संबंध हो सकता है, यह विचारणीय प्राप्त किया।१७५ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवोंहै। नामसाम्य तो आंशिक रूप से है ही और दोनों की पौराणिकता महाबल राजा और अहमिन्द्र देव का उल्लेख हुआ है। भी मान्य है। हमारी दृष्टि में अरक का संबंध अर से और अरनेमि का संबंध अरिष्टनेमि से जोड़ा जा सकता है। बौद्ध-परम्परा में २०. मुनिसुव्रत अरक का जो उल्लेख हमें प्राप्त होता है, उसे हम जैन-परम्परा जैन-परम्परा में बीसवें तीर्थंकर मुनि सव्रत माने गए हैं।१७६ के अरतीर्थंकर के काफी समीप पाते हैं।
इनके पिता का नाम सुमित्र, माता का नाम पद्मावती और जन्मस्थान
राजगृह माना गया है।७७ इनके शरीर की ऊँचाई २० धनुष और ravirariabeshiorestriariwariwaridroidrowardrowini ४ २odmonitorinsionidiodominiromidnirdestoribards
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म वर्ण गहरा नीला माना गया है।९७८ इन्होंने जीवन की संध्यावेला में माने गए हैं।१८८ ये पार्श्व के पूर्ववर्ती तीर्थकर तथा कृष्ण के चम्पक वृक्ष के नीचे कठोर तपस्या कर केवलज्ञान प्राप्त किया ७९ समकालीन माने गए हैं। इनके पिता का नाम समुद्रविजय और
और अपनी ३० हजार वर्ष की आयु पूर्ण कर निर्वाण को प्राप्त माता का नाम शिवादेवी कहा जाता है। इनका जन्मस्थान शौरीपुर किया।२८० इनके संघ में ३० हजार मुनियों एवं ५० हजार साध्वियों के माना गया है।८९ इनकी ऊँचाई १० धनुष और वर्ण साँवला होने का उल्लेख है।१८१ त्रिषष्टिकालपुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों- था।१९० त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके नौ पूर्वभवों का उल्लेख सुरश्रेष्ठ राजा और अहमिन्द्र देव का उल्लेख है।
हुआ है - धनकुमार, अपराजित आदि। इनके एक भाई रथनेमि इनके विषय में अन्य परम्पराओं में कोई उल्लेख नहीं है।
थे१९९ जिनका विशेष उल्लेख उत्तराध्ययन के २२वें अध्याय में
उपलब्ध होता है। राजीमती के साथ इनका विवाह निश्चित हो २१. नमि
गया था, किन्तु विवाह के समय जाते हुए इन्होंने मार्ग में अनेक नमिनाथ वर्तमान अवसर्पिणी काल के इक्कीसवें तीर्थंकर पशु-पक्षियों को एक बाड़े में बंद देखा, तो इन्होंने अपने सारथि माने गए हैं।२८२ इनका जन्म मिथिला के राजा विजय की रानी से जानकारी प्राप्त की कि ये सब पशु-पक्षी किसलिए बाडे में वप्रा की कुक्षि से माना गया है।१८३ इनके शरीर की ऊँचाई १५ बंद कर दिए गए हैं। सारथि ने बताया कि ये आपके विवाहोत्सव धनष और वर्ण काञ्चन माना गया है।१८४ इन्होंने वोरसली वक्ष के के भोज में मारे जाने के लिए इस बाड़े में बंद किए गए हैं। नीचे कठिन तपस्या कर केवलज्ञान प्राप्त किया।१८५ अपनी १० अरिष्टनेमि को यह जानकर बहुत धक्का लगा कि मेरे विवाह के हजार वर्ष की आय व्यतीत कर इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।१८६ निमित्त इतने पशु-पक्षियों का वध होगा. अतः वे बारात से बिना इनकी शिष्य-सम्पदा में २० हजार भिक्षु और ४१ हजार भिक्षुणियाँ
विवाह किए ही वापस लौट आए तथा विरक्त होकर कुछ थीं, ऐसा उल्लेख है।१८७ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो
समय के पश्चात् संन्यास ले लिया। इनको संन्यास ग्रहण करने पूर्वभवों का उल्लेख है - सिद्धार्थ राजा और अपराजित विमान
के ५४ दिन पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त हुआ। राजीमती, जिससे में ३३ सागर की आयु वाले देव।
उनका विवाह सम्बन्ध तय हो गया था, ने भी उनका अनुसरण
करते हुए संन्यास ग्रहण कर लिया। बौद्ध एवं हिन्दू परम्पराओं में इनका उल्लेख उपलब्ध है। बौद्ध-परम्परा में नमि नामक प्रत्येकबुद्ध का और हिन्दू-परम्परा
अरिष्टनेमि के १८ हजार भिक्षु और ४० हजार भिक्षुणियाँ में मिथिला के राजा के रूप में नमि का उल्लेख है।
थीं। १९२ इनको निर्वाणलाभ उर्जयन्त शिखर पर हुआ
था।१९३अरिष्टनेमि महाभारत के काल में हुए थे। महाभारत का उत्तराध्ययनसूत्र के ९वें अध्ययन 'नमिप्रवज्या' में नमि के
काल ई.पू. १००० के लगभग कहा जाता है। महाभारत के काल उपदेश विस्तार से संकलित हैं। सूत्रकृतांग में अन्य परम्परा के
के सम्बन्ध में मतभेद हो सकता है, किन्तु यह सत्य है कि कृष्ण ऋषियों के रूप में तथा उत्तराध्ययन के १८वें अध्ययन में
महाभारत-काल में हुए थे और अरिष्टनेमि या नेमिनाथ उनके प्रत्येकबुद्ध के रूप में भी नमि का उल्लेख है। यद्यपि तीर्थंकर
चचेरे भाई थे। डॉ. फुहरर (Fuhrer) ने जैनों के २२वें तीर्थंकर नमि और इन ग्रंथों में वर्णित नमि एक ही हैं, यह विवादास्पद है।
नेमिनाथ को ऐतिहासिक व्यक्ति माना है। १९४ अन्य विद्वानों ने जैनाचार्य इन्हें भिन्न-भिन्न व्यक्ति मानते हैं - किन्तु हमारी दृष्टि
भी नेमिनाथ को ऐतिहासिक पुरुष माना है। प्रो. प्राणनाथ में वे एक ही व्यक्ति हैं, वस्तुत: नमि की चर्चा उस युग में
विद्यालंकार ने काठियावाड़ में प्रभासपट्टन नामक स्थान से प्राप्त सर्वसामान्य थी - अतः जैनों ने उन्हें आगे चलकर तीर्थंकर के
एक ताम्रपत्र को पढ़कर बताया है कि वह बाबुल देश (Babylonia) रूप में मान्य कर लिया। उत्तराध्ययन के 'नमि' तीर्थंकर नमि ही हैं, क्योंकि दोनों का जन्मस्थान भी मिथिला ही है।
के सम्राट नेबुशदनेजर ने उत्कीर्ण कराया था, जिनके पूर्वज रेवानगर
के राज्याधिकारी भारतीय थे। सम्राट् नेबुशदनेजर ने भारत में २२. अरिष्टनेमि
आकर गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ भगवान् की वन्दना की थी। अरिष्टनेमि वर्तमान अवसर्पिणी काल के बाईसवें तीर्थंकर ।
इससे नेमिनाथ की ऐतिहासिकता स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाती है।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म . जैन-परम्परा के अनुसार अरिष्टनेमि कृष्ण के चचेरे भाई से अधिक प्राचीन नहीं है। मौर्यकालीन अभिलेखों में निर्ग्रन्थों थे। अंतकृद्दशांग के अनुसार कृष्ण के अनेक पुत्रों और पत्नियों का तो उल्लेख है, किन्तु पार्श्व का कोई उल्लेख नहीं है। ने अरिष्टनेमि के समीप संन्यास ग्रहण किया था। जैन-आचार्यो परम्परागत मान्यताओं के आधार पर पार्श्वनाथ मौर्यकाल ने इनके जीवनवृत्त के साथ-साथ कृष्ण के जीवनवृत्त का भी से ४०० वर्ष पर्व हए हैं. किन्त इनके सम्बन्ध में अभिलेखीय काफी विस्तार के साथ उल्लेख किया है। जैन-हरिवंशपुराण में
साक्ष्य ईसा की प्रथम शताब्दी का उपलब्ध है।२०० मथुरा के तथा उत्तरपुराण में इनके और श्रीकृष्ण के जीवनवृत्त विस्तार के
अभिलेख (संख्या ८३) में स्थानीय कुल के गणि उग्गहीनिय के साथ उल्लेखित हैं। ऋग्वेद में अरिष्टनेमि के नाम का उल्लेख
शिष्य वाचक घोष द्वारा अर्हत् पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा को है। किन्तु नाम उल्लेख मात्र से यह निर्णय कर पाना अत्यंत स्थापित करने का उल्लेख है। डा जेकोबी ने बौद्ध-साहित्य कठिन है कि वेदों में उल्लिखित अरिष्टनेमि जैनों के २२वें के उल्लेखों के आधार पर निर्ग्रन्ध सम्प्रदायका अस्तित्व प्रमाणित तीर्थंकर हैं या कोई और। जैन-परम्परा अरिष्टनेमि को श्रीकृष्ण का करते हए लिखा है कि "बौद्ध निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय को एक प्रमुख गुरु मानती है। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने छान्दोग्य उपनिषद् में सम्प्रदाय मानते थे, किन्तु निर्ग्रन्थ अपने प्रतिद्वंद्वी अर्थात् बौद्धों देवकीपत्र कृष्ण के गुरु घोर अंगिरस के साथ अरिष्टनेमि की साम्यता की उपेक्षा करते थे। इससे हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि बुद्ध बताने का प्रयास किया है। धर्मानन्द कोशाम्बी का मन्तव्य है कि के समय निग्रंथ-सम्प्रदाय कोई नवीन स्थापित सम्प्रदाय नहीं अंगिरस भगवान नेमिनाथ का ही नाम था।१९६ यह निश्चित ही था। यही मत पिटकों का भी जान पड़ता है।" २०२ सत्य है कि अरिष्टनेमि और घोर अंगिरस दोनों ही अहिंसा के प्रबल
डॉ. हीरालाल जैन ने लिखा है - "बौद्ध-ग्रन्थ समर्थक हैं किन्तु इस अरिष्टनेमि की नाम -साम्यता बौद्ध परम्परा
'अंगुत्तरनिकाय' 'चतुक्कनिपात' (वग्ग ५) और उसकी 'अट्ठकथा' के अरनेमि बुद्ध से भी देखी जाती है, जो विचारणीय है।
में उल्लेख है कि गौतम बुद्ध का चाचा (वप्प शाक्य) निग्रंथ २३. पार्श्वनाथ
श्रावक था।२०३ अब यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ये
निर्ग्रन्थ कौन थे? ये महावीर के अनुयायी तो हो नहीं सकते, पार्श्व को वर्तमान अवसर्पिणी काल का तेईसवाँ तीर्थंकर
क्योंकि महावीर बुद्ध के समसामयिक हैं। इससे इस बात की माना गया है।९० महावीर के अतिरिक्त जैन-तीर्थंकरों में पार्श्व
पुष्टि होती है कि महावीर और बुद्ध से पहले निर्ग्रन्थों की कोई ही एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिनको असन्दिग्ध रूप से ऐतिहासिक
परम्परा अवश्य रही होगी, जिसका अनुयायी बुद्ध का चाचा था। व्यक्ति माना जा सकता है। इनके पिता का नाम अश्वसेन, माता
अतः हम कह सकते हैं कि बुद्ध और महावीर के पूर्व पार्वापत्यों का नाम वामा और जन्मस्थान वाराणसी माना गया है। १९८
की परम्परा रही होगी। पालि त्रिपिटक साहित्य में पार्श्वनाथ की इनके शरीर की ऊँचाई नौ रत्नि अर्थात् नौ हाथ तथा वर्ण श्याम
परम्परा का एक और प्रमाण यह है कि सच्चक का पिता निर्ग्रन्थ माना गया है। १९९ इनके पिता वाराणसी के राजा थे। जैन-कथा -
श्रावक था। सच्चक द्वारा महावीर को परास्त करने का आख्यान साहित्य में हमें उनके दो नाम उपलब्ध होते हैं - अश्वसेन और
भी मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि सच्चक और महावीर हयसेन। महाभारत में वाराणसी के जिन राजाओं का उल्लेख
4 समकालीन थे। अस्तु सच्चक के पिता का निर्ग्रन्थ श्रावक होना उपलब्ध है, उनमें से एक नाम हर्यअश्व भी है, सम्भावना की
यह सिद्ध करता है कि महावीर के पूर्व भी कोई निर्ग्रन्थ-परम्परा जा सकता है कि हयअश्व और अश्वसेन एक ही व्यक्ति रह हा। थी. जो पार्श्वनाथ की ही परम्परा रही होगी।२०४ पार्श्व की ऐतिहासिकता - डॉ. सागरमल जैन के अनुसार
मज्झिमनिकाय के 'महासिंहनादसत्त' में बुद्ध ने अपने किसी भी व्यक्ति की ऐतिहासिकता सिद्ध करने के लिए प्रारम्भिक कठोर तपस्विजीवन का वर्णन करते हए तप के चार अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों को महत्त्वपूर्ण माना जाता प्रकार बतलाए हैं - तपस्विता. रूक्षता. जगप्सा और प्रविविकता। है। पार्श्व की ऐतिहासिकता के विषय में अभी तक ईसा पूर्व का जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया और पीछे उनका परित्याग कोई अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं हुआ है। भारत में प्राप्त कर दिया था।२०५ इन चारों तपों का महावीर एवं उनके अनुयायियों अभी तक पढ़े जा सकने वाले प्राचीनतम अभिलेख मौर्यकाल
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन धर्म ने पालन किया था। बुद्ध के दीक्षा लेने के समय तक महावीर और उसकी आकृति हिन्दू-परम्परा के गणेश के समान मानी के निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय का प्रवर्तन नहीं हुआ था। अतः यह निश्चित गई है, जो कि विघ्नहारी देवता हैं। पार्श्वनाथ का विहार-क्षेत्र रूप से कहा जा सकता है कि यह निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय अवश्य ही अमलकप्पा, श्रावस्ती, चम्पा, नागपुर, साकेत, अहिच्छत्र, मथुरा, महावीर के पूर्वज पार्श्वनाथ का रहा होगा।
काम्पिल्य, राजगृह, कौशाम्बी, हस्तिनापुर आदि रहा है। जैनयह सम्भव है कि प्रथम महावीर ने पापित्यों की परम्परा मान्यता के अनुसार इन्होंने सम्मेत शिखर पर्वत पर सौ वर्ष की का अनुसरण कर एक वस्त्र ग्रहण किया हो, किन्त आगे चलकर आयु में परिनिर्वाण प्राप्त किया था। आज भी सम्मेत शिखर आजीवक परम्परा के अनुरूप अचेलता का अनुगमन कर पार्श्वनाथ पहाड़ के नाम से जाना जाता है। पार्श्वनाथ के सोलह लिया हो। उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से महावीर को अचेल धर्म हजार भिक्षु और अड़तीस हजार भिक्षुणियाँ थीं। त्रिषष्टिशलाका
और पापर्यनाथ को सचेलक धर्म का प्रतिपादक कहा गया -पुरुषचरित्र में इनके १० पूर्व भवों का उल्लेख है। यह माना है।२०६ सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि में मिलने वाले जाता है कि महावीर ने पार्श्वनाथ की परम्परा की मान्यताओं को पापित्यों के उल्लेखों से और उनके द्वारा महावीर की परम्परा देश और काल के अनुसार संशोधित कर नये रूप में प्रस्तुत स्वीकार करने सम्बन्धी विवरणों से निर्विवाद रूप से यह सिद्ध किया। प्राचीन जैन-साहित्य को देखने पर यह भी ज्ञात होता है होता है कि पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे, काल्पनिक कि प्रारम्भ में पार्श्वनाथ और महावीर की परम्परा में मतभेद नहीं। पार्श्व एवं उनकी परम्परा की ऐतिहासिकता तथा उनकी रहा, किन्तु आगे चलकर पार्श्वनाथ की परम्परा महावीर की दार्शनिक और धार्मिक मान्यताओं के सन्दर्भ में पंडित सुखलालजी परम्परा में विलीन हो गई। ने अपने ग्रंथ 'चार तीर्थंकर' में, पंडित दलसखभाई ने 'जैन - सत्यप्रकाश में प्रकाशित पार्श्व पर लिखे अपने शोध लेख में पाश्व का अवदान श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने अपने ग्रन्थ 'भगवान् पार्श्व एक समीक्षात्मक भारतीय संस्कृति में श्रमण-धारा का आवश्यक घटक अध्ययन' में और डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'अर्हत तप एवं त्याग को माना गया है और यही इसकी प्रतिष्ठा का पार्श्व और उनकी परम्परा' में पर्याप्त रूप से प्रकाश डाला है। कारण रहा है। पार्श्वनाथ इसी श्रमण-परम्परा के प्रतिपादक हैं। विद्वान् पाठकगण उसे वहाँ देख सकते हैं।
भारतीय संस्कृति को पार्श्व के अवदान की चर्चा करते हुए डॉ. । यद्यपि यह आश्चर्यजनक है कि हिन्द और बौद्ध-साहित्य सागरमल जैन लिखते हैं कि यद्यपि श्रमणों ने वैदिकों के हिंसक में कहीं भी पार्श्व के नाम का उल्लेख नहीं है, जबकि प्राचीन यज्ञों का विरोध किया ही, साथ ही उनकी कर्मकाण्डीय प्रथा का जैन-आगमसाहित्य के अनेक ग्रंथ यथा-ऋषिभाषित, सत्रकतांग, भी बहिष्कार किया था, फिर भी श्रमण-धारा में कर्मकाण्ड भगवती, उत्तराध्ययन, कल्पसत्र आदि में पार्श्व और उनके प्रविष्ट कर ही गया था, क्योंकि उनके तप और त्याग विवेक अनुयायियों के उल्लेख मिलते हैं। ऋषिभाषित तो ईसा पूर्व प्रधान न रहकर रूढ़िवादी कर्म-काण्डीय प्रथा के अनुरूप बन तीसरी शताब्दी की रचना है। उसमें इनका उल्लेख इनकी गए थे। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पार्श्वनाथ के युग में श्रमण ऐतिहासिकता को प्रमाणित करता है। बौद्ध पालि-त्रिपिटक- -धारान्तर्गत तप और त्याग के साथ कर्म-काण्ड पूरी तरह जड साहित्य में भी जिन चातर्यामों का उल्लेख मिलता है. उनका गया था और तप देह-दण्डन और बाह्याडम्बर मात्र रह गया। सम्बन्ध पार्श्वनाथ की परम्परा से है। पार्श्वनाथ ने विशेष रूप कठोरतम देह-दण्डन द्वारा लोक में प्रतिष्ठा पाना श्रमणों और से देह-दण्डन की प्रक्रिया की आलोचना की तथा जान सम्बन्धी संन्यासियों का एकमात्र उद्देश्य बन गया था। सम्भवतः उपनिषदों और विवेकयुक्त तप को ही श्रेष्ठ बताया।
की ज्ञानमार्गी धारा अभी पूर्णतया विकसित नहीं हो पाई थी, जैन-परम्परा में पुरुषादानीय के रूप में इनका बड़े आदर
तदर्थ पार्श्वनाथ ने देह-दण्डन और कर्मकाण्ड दोनों का विरोध के साथ उल्लेख पाया जाता है। जैन-परम्परा में पार्श्व को महावीर
किया। कमठ तापस के देह-दंडन की आलोचना करते हुए
उन्होंने कहा - 'तुम्हारी इस साधना में आध्यात्मिक आनन्दानुभूति से भी अधिक महत्त्व प्राप्त है। उन्हें विघ्न-हरण करने वाला बतलाया गया है। उनके यक्ष का नाम पार्श्व बतलाया गया है
कहाँ हैं ? इसमें न तो स्वहित ही है और न परहित अथवा
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. यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म लोकहित ही। एक ओर तो तुम स्वयं अग्नि द्वारा अपने शरीर को प्रकार की कर्म-ग्रंथि का सृजन नहीं करता है और फलत: नारक, झुलसा रहे हो, तो दूसरी ओर अनेक छोटे-बड़े जीव-जन्तुओं देव, मनुष्य और पशु गति को प्राप्त नहीं होता है। ऋषिभाषित में को भी जला रहे हो, मात्र यही नहीं, इस लक्कड़ के टुकड़े में उपलब्ध पार्श्व के उपदेशों से ऐसा लगता है कि जैन-दर्शन की नाग-युगल भी जल रहा है।' उनकी इस बात की पुष्टि हेतु लक्कड़ पंचास्तिकाय की अवधारणा, अष्टकर्म का सिद्धांत और चातुर्यामको चीरकर नाग-युगल के प्राणों की रक्षा की गई। इससे यह धर्म का पालन, ये पार्श्व की मूलभूत मान्यताएँ थीं। पार्श्व के दर्शन बोध होता है कि पार्श्व के अनुसार वह साधना जो आत्मपीडन और चिंतन के कुछ रूप हमें पार्श्व के अनुयायियों की महावीर और परपीडन से जुड़ी हो सच्चे अर्थों में साधना नहीं कही जा और उनके शिष्यों के साथ हुई परिचर्चा से प्राप्त हो जाते हैं। सकती। साधना में ज्ञान और विवेक का होना आवश्यक है।
भगवती, उत्तराध्ययन आदि में उपलब्ध पार्श्व की परम्परा देह-दण्डन, जिसमें ज्ञान और विवेक के तत्त्व नहीं है, आत्म- के चिंतन के आधार पर हम कह सकते हैं कि पार्श्व की परम्परा पीड़न से अधिक कुछ नहीं है। देह को पीड़ा देना साधना नहीं है।
___ में तप, संयम, अस्रव और निर्जरा की सुव्यवस्थित अवधारणा साधना से तो मनोविकारों में निर्मलता आती है एवं आत्मा में
__ थी। पार्श्व की अन्य समस्त अवधारणाओं के सन्दर्भ में डॉ सहज आनन्द की अनुभूति होती है। पार्श्वनाथ की यह शिक्षा,
सागरमल जैन ने अपने ग्रंथ 'अर्हत् पार्श्व और उनकी परम्परा' हो सकता है कि कर्मठ जैसे तापसों को अच्छी नहीं लगी हो, किन्तु में विस्तार से विचार किया है. वे लिखते हैं - "सत का उत्पादइसमें एक सत्य निहित है। धर्म-साधना को न तो आत्म-पीडन के
व्यय-ध्रौव्यात्मक होना, पंचास्तिकाय की अवधारणा, अष्ट प्रकार साथ जोड़ना चाहिए और न पर-पीडन के साथ। वासना एवं
की कर्म ग्रंथियाँ, शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ विपाक, कर्मविपाक विकारों से मुक्ति ही वास्तविक अर्थ में मुक्ति है।२०७
के कारण चारों गतियों में परिभ्रमण तथा सामायिक, संवर, ऐसा प्रतीत होता है कि पार्श्वनाथ ने अपने युग में एक प्रत्याख्यान, निर्जरा, व्युत्सर्ग आदि सम्बन्धी अवधारणाएँ महत्त्वपूर्ण क्रांति के द्वारा साधना को सहज बनाकर ज्ञान और पापित्य-परम्परा में स्पष्ट रूप से उपस्थित थीं।"२०८ विवेक के तत्त्व को प्रतिष्ठित किया होगा। इस प्रकार पार्श्व ने धर्म और साधना को पर-पीडन और आत्म-पीडन से मक्त २४. वधमान महावीर करके आत्म-शोधन या निर्विकारता की साधना के साथ जोड़ने महावीर वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीसवें और अंतिम का प्रयास किया है और उनकी यही शिक्षा भारतीय संस्कृति तीर्थंकर माने जाते हैं।२०९ इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता और श्रमण-परम्परा को सबसे बड़ा अवदान कहा जा सकता है। का नाम त्रिशला कहा जाता है, इनका जन्म-स्थान कुण्डपुर ग्राम
बताया जाता है।२९० महावीर के जीवनवृत्त को लेकर जैनों की पार्श्व का धर्म एवं दर्शन
श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में अनेक बातों में मतभेद हैं। ऋषिभाषित (ई.प. तीसरी-चौथी शती) में पार्श्व के श्वेताम्बर-परम्परा के अनसार महावीर का जीव सर्वप्रथम दार्शनिक मान्यताओं और धार्मिक उपदेशों का उल्लेख उपलब्ध ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ में आया था और उसके पश्चात इन्द्र हो जाता है। हम उसी अध्याय के आधार पर उनके धर्म एवं के द्वारा उनका गर्भापहरण कराकर उन्हें सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला दर्शन को संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं - पार्श्व ने लोक को की कक्षि में प्रस्थापित किया गया।२११ दिगम्बर-परम्परा इस पारिमाणिक नित्य माना है। उनके अनुसार लोक अनादि काल कल्पना को सत्य नहीं मानती है। महावीर के विवाह-प्रसंग को से है, यद्यपि उसमें परिवर्तन होते रहते हैं। उनके अनुसार जीव लेकर भी श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में मतभेद है। श्वेताम्बरऔर पदगल दोनों ही परिवर्तनशील हैं। पुद्गल में परिवर्तन परम्परा के अनसार महावीर का विवाह हआ था। उनकी पत्री स्वाभाविक होते हैं, जबकि जीव में परिवर्तन कर्मजन्य होते हैं। प्रियदर्शना थी. जिसका विवाह जामालि से हुआ था। वे यह भी कहते हैं कि व्यक्ति हिंसा, असत्य आदि पाप-कर्मों के
दोनों परम्पराओं के अनुसार उनके शरीर की ऊँचाई सात माध्यम से अष्ट प्रकार की कर्म-ग्रंथियों का सृजन करता है। इसके
हाथ तथा वर्ण स्वर्ण के समान माना गया है।२९२ दोनों परम्पराएँ विपरीत जो व्यक्ति चातुर्याम-धर्म का पालन करता है, वह अष्ट
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
में
इस बात में भी सहमत हैं कि महावीर ने तीस वर्ष की आयु संन्यास ग्रहण किया था, यद्यपि उनके संन्यास ग्रहण करते समय उनके माता-पिता जीवित थे या मृत्यु को प्राप्त हो गए थे, इस बात को लेकर पुनः मतभेद हैं, श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार महावीर ने गर्भस्थकाल में की गई अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् ही अपने भाई नन्दी से आज्ञा लेकर संन्यास ग्रहण किया, २९३ परन्तु दिगम्बर- परम्परा के अनुसार महावीर ने अपने माता-पिता की आज्ञा से संन्यास ग्रहण किया था। महावीर का साधना-काल अत्यन्त दीर्घ रहा, उन्होंने बारह वर्ष, छह माह तपस्या करके वैशाख शुक्ला दशमी को बयालीस वर्ष की अवस्था में कैवल्यज्ञान प्राप्त किया था । २१४ वे कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् लगभग ३० वर्ष तक अपना धर्मोपदेश देते रहे और अंत में ७२ वर्ष की अवस्था में मध्यम - पावा में निर्वाण को प्राप्त हुए । उनके संघ में १४००० श्रमण तथा ३६०० श्रमणियाँ थीं । २१५
महावीर के जीवनवृत्त - सम्बन्धी प्राचीनतम उल्लेख हमें आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के उपधान सूत्रनामक नवें अध्ययन में तथा द्वितीय श्रुत-स्कन्ध के भावना नामक अध्ययन में मिलता
में
पुनः महावीर के जीवनवृत्त का विस्तृत उल्लेख कल्पसूत्र उपलब्ध होता है। इसके पश्चात् आवश्यकचूर्णि और परवर्ती महावीर - चरित्रों में मिलता है। महावीर के जीवनवृत्तों को हम कालक्रम में देखें, तो ऐसा लगता है कि प्राचीन ग्रंथों में उनके जीवन के साथ बहुत अधिक अलौकिकताएँ नहीं जुड़ी हुई हैं, किन्तु क्रमशः उनके जीवनवृत्त में अलौकिकताओं का प्रवेश होता गया, जिसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। महावीर की ऐतिहासिकता -
महावीर की ऐतिहासिकता निर्विवाद है। महावीर के जन्मस्थल कुण्डग्राम को आजकल वसुकुण्ड कहते हैं, जो कि आज भी गण्डक नदी के पूर्व में स्थित है। बसाढ़ की खुदाई से प्राप्तं सिक्के और मिट्टी की सीलें ईसा पूर्व लगभग तीसरी शताब्दी की कही जाती हैं। सिक्कों पर अंकित - 'वसुकुण्डे जन्मे वैशालिये महावीर' से महावीर की ऐतिहासिकता सिद्ध होती है। वर्धमान महावीर को बौद्ध पिटक -ग्रंथों में 'निगंठ- नातपुत्त' कहा गया है । २१६ निर्ग्रन्थ- परम्परा का होने के कारण सम्भवतः महावीर को निगंठ (निर्ग्रन्थ) तथा ज्ञातृवंशीय क्षत्रिय होने के कारण नातपुत्त कहा गया हो ।
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दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं ने महावीर को 'कुण्डग्राम के राजा सिद्धार्थ का पुत्र माना है । दिगम्बर-ग्रन्थों तिलोयपण्णत्ति, देशभक्ति और जयधवला में सिद्धार्थ को 'णाह' वंश या नाथ वंश का क्षत्रिय कहा गया है२९७ और श्वेताम्बरग्रन्थ सूत्रकृतांग में 'णाय' कुल का उल्लेख है । २१८ इसी कारण से महावीर को णायकुलचन्द और णायपुत्त कहा गया है।
णाह, णाय, णात शब्द एक ही अर्थ के वाचक प्रतीत होते हैं। इसीलिए 'बुद्धचर्या में श्री राहुलजी ने नाटपुत्त का अर्थ - ज्ञातृपुत्र और नाथपुत्र दोनों किया है।
४ ७
अस्तु यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि बौद्ध ग्रंथों के निग्रंथ 'नाटपुत्त' कोई और न होकर महावीर ही थे, जिस प्रकार शाक्यवंश में जन्म होने के कारण बुद्ध के अनुयायी 'शाक्यपुत्रीय श्रमण' कहे जाते थे । २१९ इस तरह महावीर के अनुयायी 'ज्ञातृपुत्रीय निर्ग्रन्थ' कहे जाते थे । २२०
श्री बुहलर ने अपनी पुस्तक 'इण्डियन सेक्ट ऑफ दी "बौद्ध जैनास्' में इस विषय पर प्रकाश डालते हुए लिखा है२२१
- पिटकों का सिंहली संस्करण सबसे प्राचीन माना जाता है। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में उसको अंतिम रूप दिया गया, ऐसा विद्वानों का मत है। उसमें बुद्ध के विरोधी रूप में निगंठों का उल्लेख है। संस्कृत में लिखे गए उत्तरकालीन बौद्ध-साहित्य में भी निर्ग्रन्थों को बुद्ध का प्रतिद्वंद्वी बतलाया गया है।
उन निगंठों या निर्ग्रन्थों के प्रमुख को पालि में नाटपुत्त और संस्कृत में ज्ञातृपुत्र कहा गया है। इस प्रकार यह सुनिश्चित हो जाता है कि नापुत्त या ज्ञातृपुत्र तथा जैनसम्प्रदाय के अंतिम तीर्थंकर वर्धमान एक ही व्यक्ति हैं । २२२
बौद्ध त्रिपिटक और अन्य बौद्ध साहित्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध के प्रतिद्वंद्वी वर्धमान (नाटपुत्त) बहुत ही प्रभावशाली थे और उनका धर्म काफी फैल चुका था । २२३
महावीर-युग की धार्मिक मान्यताएँ
ईसा पूर्व छठी - पाँचवीं शताब्दी धार्मिक आन्दोलन का युग था। उस समय भारत में ही नहीं, सम्पूर्ण एशिया में पुरानी धार्मिक मान्यताएँ खण्डित हो रही थीं और नए-नए मतों या सम्प्रदायों का उदय हो रहा था। चीन में लाओत्से और
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - कन्फ्यूसियस, ग्रीस में पाइथागोरस, सुकरात और प्लेटो तथा आचारांग में भी महावीर के समकालीन चार वादों का ईरान और परसिया में जरथुस्त्र आदि अपनी नई-नई दार्शनिक उल्लेख भिन्न प्रकार से उपलब्ध है - 'आयावादी, लोयावादी, विचारधाराएँ प्रस्तुत कर रहे थे। ऐसे समय में जबकि प्रत्येक मत कम्मावादी और किरियावादी।२३१ निशीथचूर्णि में महावीर के 'सयं सयं पसंसत्ता गरहंता परं वयं' अर्थात् अपने पंथ एवं मान्यताओँ युग के निम्नांकित दर्शन एवं दार्शनिकों का उल्लेख है।२३२ को श्रेष्ठ बताकर दूसरों की निन्दा कर रहा था, उस समय
१. आजीवक, २. ईसरमत, ३. उलूग, ४. कपिलमत, ५. विभिन्न मतों के आपसी वैमनस्य को दूर करने के लिए वर्धमान
कविल, ६. कावाल, ७. कावालिय, ८. चरग, ९. तच्चन्निय, महावीर ने अनेकांत दर्शन की विचारधारा प्रस्तुत की थी।
१०. परिव्वायग, ११. पंडुरंग, १२. बोडित, १३. भिच्छुग, १४. बौद्ध-ग्रंथ 'सत्तनिपात' में उल्लेख है कि उस समय ६३ भिक्खू, १५. वेद। १६. सक्क, १७. सरक्ख, १८. सुतिवादी, श्रमण-सम्प्रदाय विद्यमान थे।२२४ जैनग्रन्थ सूत्रकृतांग, स्थानांग १९. सेयवड, २०. सेयभिक्खू, २१. शाक्यमत, २२. हदुसरख। और भगवती में भी उस युग के धार्मिक मतवादों का उल्लेख
बौद्ध-सम्प्रदाय में बुद्ध के समकालीन निम्नांकित छह श्रमण उपलब्ध है।२२५ सूत्रकृतांग में उन सभी वादों का वर्गीकरण
-सम्प्रदायों एवं उनके प्रतिपादक आचार्यों का उल्लेख है।२३३ निम्नांकित चार प्रकार के समवसरण में किया गया है२२६ -
१. अक्रियावाद - पूरणकाश्यप १. क्रियावाद, २. अक्रियावाद, ३. विनयवाद, ४. अज्ञानवाद।
२. नियतिवाद - मक्खलिगोशालक क्रियावाद - क्रियावादियों का कहना है कि आत्मा पाप-पुण्य
३. उच्छेदवाद - अजितकेशकंबल आदि का कर्ता है।
४. अन्योन्यवाद - प्रकुधकात्यायन अक्रियावाद - सूत्रकृतांग में अनात्मवाद, आत्मा के अकर्तृत्ववाद, मायावाद और नियतिवाद को अक्रियावाद कहा ५. चातुर्यामसंवरवाद - निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र गया है।२२७
६. विक्षेपवाद - संजय बेलट्ठिपुत्र विनयवाद - विनयवादी बिना भेदभाव के सबके साथ विनयपूर्वक
बौद्ध-साहित्य में अंकित उपर्युक्त ६ आचार्यों को तीर्थंकर व्यवहार करता है, अर्थात् सबकी विनय करना ही उसका सिद्धान्त है। कहा गया है। इनके एक निगण्ठनाटपुत्त स्वयं महावार ही है।३० अज्ञानवाद - अज्ञानवादियों का कहना है कि पूर्ण ज्ञान किसी को
महावीर के उपदेश और उनका शैशिष्ट्य होता नहीं है और अपूर्ण ज्ञान ही भिन्न मतों का जनक है, अर्थात् ज्ञानोपार्जन व्यर्थ है और अज्ञान में ही जगत् का कल्याण है।
जैनों के अनुसार तीर्थंकर महावीर ने किसी न) दर्शन या
धर्म की स्थापना नहीं की, अपितु पार्श्वनाथ की निर्ग्रन्थ-परम्परा सूत्रकृतांग के अनुसार अज्ञानवादी तर्क करने में कुशल
में प्रचलित दार्शनिक मान्यताओँ और आचार सम्बन्धी व्यवस्थाओं होने पर भी असम्बद्ध-भाषी हैं, क्योंकि वे स्वयं संदेह से परे नहीं हो सके हैं।२२८
को किञ्चित् संशोधित कर प्रचारित किया। विद्वानों की यह ।
मान्यता है कि महावीर की परम्परा में धर्म और दर्शन सम्बन्धी जैन-आगम-ग्रन्थ उत्तराध्ययन में कहा गया है कि क्रियावाद
विचार जहाँ पार्श्वनाथ की परम्परा से गृहीत हुए, वहीं आचार ही सच्चा पुरुषार्थवाद है, वही धीर पुरुष है, जो क्रियावाद में
और साधना-विधि को मुख्यतया आजीवक-परम्परा से गृहीत विश्वास रखता है और अक्रियावाद का वर्णन करता है।२२९ ।।
किया गया। जैन-ग्रन्थों से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जैन-दर्शन को सम्यक् क्रियावादी इसलिए कहा गया है, महावीर ने पार्श्वनाथ की आचार-परम्परा में कई संशोधन किए क्योंकि वह एकांत दृष्टि नहीं रखता है। आत्मा आदि तत्त्वों में थे। सर्वप्रथम उन्होंने पार्श्वनाथ के चातुर्याम-धर्म में ब्रह्मचर्य विश्वास करने वाला ही क्रियावाद (अस्तित्ववाद) का निरूपण को जोड़कर पंच महाव्रतों या पंचयाम-धर्म का प्रतिपादन किया। कर सकता है।२३०
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - की परम्परा में स्त्री को परिग्रह मानकर परिग्रह के पजा एवं सत्कार के लिए नहीं। जैनधर्म में यद्यपि तीर्थंकर को त्याग में ही स्त्री का त्याग भी समाहित मान लिया जाता था, लोकहित करने वाला बताया गया है, फिर भी उनका उद्देश्य किन्तु आगे चलकर पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणों ने उसकी स्वजनों का संरक्षण एवं दुष्टों का विनाश नहीं है, क्योंकि यदि वे गलत ढंग से व्याख्या करना शुरू किया और कहा कि परिग्रह दुष्टों का विनाश करते हैं, तो उनके द्वारा प्रदर्शित अहिंसा का के त्याग में स्त्री का त्याग तो हो जाता है, किन्तु बिना विवाह के चरमादर्श खण्डित होता है, साथ ही सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के बंधन में बंधे स्त्री का भोग तो किया जा सकता है और उसमें विनाश के प्रयत्न निवृत्तिमार्गी साधना-पद्धति के अनुकूल नहीं कोई दोष नहीं है। अतः महावीर ने स्त्री के भोग के निषेध के है। लोकपरित्राण अथवा लोककल्याण तीर्थंकरों के जीवन का लिए ब्रह्मचर्य की स्वतंत्र व्यवस्था की। महावीर ने पार्श्व की लक्ष्य अवश्य रहा है, किन्तु मात्र सन्मार्ग के उपदेश के द्वारा, न परम्पराओं में अनेक सुधार किए, जैसे उन्होंने मुनि की नग्नता कि भक्तों के मंगल हेतु दुर्जनों का विनाश करके। तीर्थंकर धर्म पर बल दिया। दुराचरण के परिशोधन के लिए प्रातःकालीन और -संस्थापक होते हुए भी सामाजिक कल्याण के सक्रिय भागीदार सायंकालीन प्रतिक्रमण की व्यवस्था की। उन्होंने कहा - चाहे नहीं हैं। वे सामाजिक घटनाओं के मात्र मूकदर्शक ही हैं। अपराध हुआ हो या न हुआ हो, प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल
यद्यपि आचारांग में तीर्थंकरों ने 'आणाये मामगं धम्म' अपने दोषों की समीक्षा तो करनी चाहिए। इसी प्रकार औददेशिक
कहकर अपनी आज्ञा के पालन में ही धर्म की उद्घोषणा की है, आहार का निषेध, चातुर्मासिक व्यवस्था और नवकल्प विहार
फिर भी उनका धर्मशासन बलात् किसी पर थोपा नहीं जाता है, आदि ऐसे प्रश्न थे, जिन्हें महावीर की परम्परा में आवश्यक रूप
आज्ञापालन ऐच्छिक है। जैन-धर्म में तीर्थंकर को सभी पापों का से स्वीकार किया गया था। इस प्रकार महावीर ने पार्श्वनाथ की
नाश करने वाला भी कहा गया है। एक गुजराती जैन कवि ने ही परम्परा को संशोधित किया था। महावीर के उपदेशों की
कहा है२३६ -"चाहे पाप का पुञ्च मेरु के आकार के समान ही विशिष्टता यही है कि उन्होंने ज्ञानवाद की अपेक्षा भी आचार
क्यों न हो, प्रभु के नाम रूपी अग्नि से यह सहज ही विनष्ट हो शुद्धि पर अधिक बल दिया है और किसी नये धर्म या सम्प्रदाय
जाता है।" इस प्रकार जैन-धर्म में तीर्थंकर के नाम-स्मरण एवं की स्थापना के स्थान पर पूर्व प्रचलित निर्ग्रन्थ-परम्परा को ही
उपासना से कोटि जन्मों के पापों का प्रक्षालन सम्भव माना गया देश और काल के अनुसार संशोधनों के साथ स्वीकार कर
है, फिर भी जैन तीर्थंकर अपनी ओर से ऐसा कोई आश्वासन
के लिया। महावीर के उपदेशों में रत्नत्रय की साधना में पंचमहाव्रतों
नहीं देता कि तुम मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा। का पालन, प्रतिक्रमण, परिग्रह का सर्वथा त्याग, कठोर तप -
वह तो स्पष्ट रूप से कहता है कि कृतकों के फलभोग के साधना आदि कुछ ऐसी बातें हैं, जो निर्ग्रन्थ-परम्परा में महावीर
बिना मुक्ति नहीं होती है।२३७ प्रत्येक व्यक्ति को अपने शुभाशुभ के योगदान को सूचित करती हैं। इस प्रकार महावीर पार्श्व की
कर्मों का लेखा-जोखा स्वयं ही पूरा करना है। चाहे तीर्थंकर के निर्ग्रन्थ परम्परा में देश और काल के अनुसार नवीन संशोधन
नाम रूपी अग्नि से पापों का प्रक्षालन होता हो, किन्तु तीर्थंकर में करने पूर्व प्रचलित निर्ग्रन्थ-परम्परा के संशोधक या सुधारक हैं।
ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वह अपने भक्त को पीडाओं से ११. तीर्थंकर और लोककल्याण
उबार सके, उसके दुःख कम कर सके, उसके पापों से मुक्ति
दिला सके। इस प्रकार तीर्थंकर अपने भक्त का त्राता नहीं है। जैन-धर्म में तीर्थंकर के लिए लोकनाथ, लोकहितकारी,
वह स्वयं निष्क्रिय होकर भक्त को प्रेरणा देता है कि तू सक्रिय लोकप्रदीप तथा अभयदाता आदि विशेषण प्रयुक्त हुए हैं।
हो, तेरा उत्थान एवं पतन मेरे हाथ में नहीं, तेरे ही हाथ में निहित जैनाचार्यों ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया है कि समय- है।२३८ इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि तीर्थंकर लोककल्याण या समय पर धर्मचक्र का प्रवर्तन करने हेतु तीर्थंकरों का जन्म होता लोकहित की कामना को लेकर मात्र धर्म-प्रवचन करता है, ताकि रहता है। सूत्रकृतांग-टीका में कहा गया है कि तीर्थंकरों का व्यक्ति उन धर्माचरणों पर चलकर अपना आध्यात्मिक विकास प्रचलन एवं धर्मप्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह के लिए होता है, कर सके और स्वयं भी उसी तीर्थंकर पद का अधिकारी बन सके।
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२३४
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म सन्दर्भ
(अ) उत्तराध्ययन - २३/१, २३/४
(ब) आचारांग, द्वितीयश्रुतस्कन्ध १५/११, १५/२६/६ नमोत्तुणं अरिहंताणं भगवंताणं आइयराणं, तित्थगराणं,
(स) स्थानांग - ९/६२/१, १/२४९-५०,२/४३८-४४५, ३/५३५, ५/ सयंसंबुद्धाण....धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं,
२३४ धम्मवर-चाउरंत-चक्कवट्टीणं जिणाणं जावयाणं, तिन्नाणं, तारयाणं,
(द) समवायांग - १/२, १९/५, २३/३, ४, २५/१, ३४/४, ५४/१ बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं।
(इ) भगवती - ९/१४५ कल्पसूत्र-१६ (प्राकृतभारती, जयपुर)
'तिथ्यं पुण चाउवन्ने समणसंघे - समणा, समणीओ, सावया, परिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं पुरिसववरपुंडरीयाणं पुरिसवर-गंधहत्थीणं।
सावियाओ।' लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहियाणं, लोक-पईवाणं, लोग
भगवतीसूत्र, शतक २० उ. ८ सूत्र ७४ पज्जीयगराणं।
'तित्थंति पुव्वभणियं संघो जो नाणचरणसंघाओ। कल्पसूत्र-१६
इह पवयणं पि तित्थं, तत्तोऽणत्यंतरं जेण।। दीर्घनिकाय पृ. १७-१८ (हिन्दी-अनुवाद) में छह तीर्थंकरों का उल्लेख
विशेषावश्यकभाष्य, १३८० मिलता है - १. पूर्ण काश्यप २. मक्खलि गोशाल ३. अजितकेश
आचारांग १।४।११ कम्बल ४. प्रबुद्ध कात्यायन ५. संजयबेलट्ठिपुत्त ६. निगण्ठ नातपुत्त।
पुरिमा उज्जुजडा उ, वंकजडा या पच्छिमा। (अ) उत्तराध्ययन - २३/१, २३/४
मज्झिमा उज्ज पन्ना य, तेण धम्मे दुहा कए ।। (ब) आचारांग, द्वितीयश्रुतस्कन्ध-१५/११; १५/२६/६
- उत्तराध्ययन २३।२६ (स) स्थानांग - ९/६२/१, १/२४९-५०,२/४३८-४४५, ३/५३५, ५/
स्थानांग ४/३३९ (द) समवायांग - १/२, १९/५, २३/३, ४, २५/१, ३४/४, ५४/१
भगवं अरिट्ठनेमि ति लोगनाहे दमीसरे। (इ) भगवती - ९/१४५
उत्तराध्ययन २२/४ 'तिथ्यं पुण चाउवन्ने समणसंधे - समणा, समणीओ, सावया, 'इमेहि य' णं वीसाए कारणेहिं आसेविय - बहुलीकएहिं तित्थयरनाममोयं सावियाओ।'
कम्मं निव्वत्तिंसु, तं जहा - । भगवतीसूत्र, शतक २० उ. ८ सूत्र ७४
पारद्धतितित्थयरनामबंधभवाओ 'तित्थंति पुव्वभणियं संघो जो नाणचरणसंघाओ।
तदियभवये तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमणणियमादो। आचारांग १।४।१।१
__ - धवला ८/३, ३८/७५/१ पुरिमा उज्जुजडा उ, वंकजडा या पच्छिमा।
जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग १, पृ. १४०, भाग २, पृ. १५७ मज्झिमा उज्ज पन्ना य, तेण धम्मे दुहा कए ।
जैनत्व की झाँकी, (उपाध्याय अमरमुनिजी) पृ. ५३ - उत्तराध्ययन २३।२६
१५. करुणादिगुणोपेतः, परार्थव्यसनी सदा। इह पवयणं पि तित्थं, वत्तोऽणत्यंतरं जेण।।
तथैव चेष्टते धीमान् , वर्धमान् महोदयः।
तत्तत्कल्याणयोगेन, कुर्वन्सत्वार्थमेव सः। विशेषावश्यकभाष्य, १३८०
तीर्थकृत्वमवाप्नोति, परं सत्वार्थसाधनम् ।। स्थानांग ४/३३९
योगबिन्दु २८७-२८८ भगवं अरिट्ठनेमि ति लोगनाहे दमीसरे।
१६.
चिन्तयत्येवमेवैतत् स्वजनादिगतं तु यः। उत्तराध्ययन २२/४
तथानुष्ठानतः सोऽपि धीमान् गणधरो भवेत् ।। 'इमेहि य' णं कारणेहिं आसेविय - बहुलीकएहिं तित्थयरनाममोयं कम्म
योगबिन्दु, २८९ निव्वत्तिंसु, तं जहा - ।
१७. संविग्नो भव निर्वेदादात्मनि:सरणं तु यः। जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग १, पृ. १४०, भाग २, पृ. १५७
आत्मार्थसम्प्रवृत्तोऽसौ सदा स्यान्मुण्डकेवली।। जैनत्व को झांकी, (उपाध्याय अमरमुनिजी) पृ. ५३
वही, २९० करुणादिगुणोपेतः, परार्थव्यसनी सदा।
१८. पण्हावागरणदसासु णं ससमय परसमय पण्णयवय-पत्तेयबुद्ध। तथैव चेष्टते धीमान् , वर्धमान् महोदयः।
समवायांग, (सं. मधुकरमुनि) ५४७ तत्तत्कल्याणयोंगेन, कुर्वन्सत्वार्थमेव सः।
१९. उत्तराध्ययनचूर्णि १८/६
सावया,
११.
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२०.
२२.
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म पत्तेयबुद्धमिसिणो वीसं तित्थे अरिटुणेमिस्स।
जुत्तफुसिएणं मेहेण य निहयरयरेणूयं किज्जइ १७, जलपासस्य य पण्णरस वीरस्स विलीणमोहस्स ।। १ ।।
थलयभासुरपभूतेणं विटट्ठाइणा दसद्धण्णेणं कुसुमेण णारत-वज्जिय-पुत्ते असिते अंगरिसि-पुप्फसाले य।
जाणुस्सेहप्पमाणमित्ते पुष्फोवयारे किज्जइ १८, अमणुण्णाणं सद्दवक्कलकुम्मा केवलि कासव तह तेतलिसुत्ते य ॥२॥
फरिस-रस-रूव-गंधाणं अवकिरसो भवइ १९, मणुण्णाणं सद्दमंखली जण्णभयालि बाहुय महु सोरियाण विदूविंपू।
फरिस-रस-रूव-गंधाणं पाउब्भावो भवइ २०, पच्चाहरओ वि य णं वरिसकण्हे आरिय उक्कलवादी य तरुणे य ।। ३ ।।
हिययगमणीओ जोयणनीहारी सरो २१, भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए गद्दभ रामे य तहा हरिगिरि अम्बड मयंग वारत्ता।
धम्ममाइक्खइ २२, सा वि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं तंसो य अद्द य वद्धमाणे वा तीस तीमे ।। ४ ।।
सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पअ-मिय-पसु-पक्खिपासे लिंगे अरुणे इसिगिरि अद्दालए य वित्तेय।
सरीसिवाणं अप्पणो हिय-सिव-सुहय-भासत्ताए परिणमइ २३, सिरिगिरि सातियपुत्ते संजय दीवायणे चेव ।। ५ ।।
पुव्वबद्धवेरा वि य णं देवासुर-नाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किंनरतत्तो य इंदणागे सोम यमे चेव होइ वरुणे य।
किंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगा अरहओ पायमूले पसंत-चित्तमाणसा वेसमणे य महप्पा चत्ता पंचेव अक्खाए ।। ६ ।।
धम्मं निसामंति २४, अण्णउत्थियपावयणिया वि यं ण आगया वंदति इसिभासियाई-संगहिणी गाथा-परिशिष्ट १, पृ. २९७
२५, आगया समाणा अरहओ पायमूले निप्पलिवयणा हवंति २६, जओ सूत्रकृतांग, १/६
जओ वि यं ण अरहंतो भगवंतो विहरंति तओ तओ वि यं ण जोयणदेखें - आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन १५ में वर्णित महावीर -
पणवीसाएणं ईती न भवइ २७, मारी न भवइ २८, सचक्कं न भवइ चरित्र
२९, परचक्कं न भवइ ३०, अटवुट्ठी न भवइ ३१, अणावुट्ठी न
भवइ ३२, दुभिक्खं न भवइ ३३, पुव्वुप्पण्णा वि यंण उप्पाइया वाहीओ देखें - कल्पसूत्र में वर्णित महावीरचरित्र
खिप्पमेव उवसंमति ३४। (अ) पंच महाकल्लाणा सव्वेसि जिणाण हवंति नियमेण।
- समवायांग सूत्र (सं. मधुकर मुनि) समवाय ३४ पंचासक (हरिभद्र) ४२४ (ब) 'जस्स कम्ममुदएण जीवो पंचमहाकल्लाणाणि पाविद्ण तित्थ
समवायांग टीका, अभयदेव सूरि, पृ. ३५ . दुवालसंग कुणदि तं तित्थयरणाम।
पणीतीसं सच्चवयणाइसेसां पण्णत्ता - समवायांगसूत्र, समवाय ३५। - धवला १३/५,१०१/३६६/७
पंचव अंतराया, मिच्छत्तमनाणमविरई कामो। - गोम्मटसार, जीवकाण्ड, टीका ३८१/६
हासछग रागदोसा, निद्दाऽट्ठारस इमे दोसा ।। १९२ ।। कल्पसूत्र १५-७१
अभिधानराजेन्द्रकोश, पृ. २२४८ वही ९६, आचारांग २/१५/११,२/१५/२६-२९
'हिंसाऽऽइतिंग कोला, हासऽऽइपंचगं च चउकसाया। वही ११०-११४, आचारांग २/१५/१-६
मयमच्छर अन्नाणा, निद्दा पिम्मं इअ व दोसा ।। १९३ ।। देखें - आचारांग २/१५/१४०-४२, कल्पसूत्र २११
अभिधानराजेन्द्रकोश, पृ. २२४८
'छुहतण्हभीरुरोसो रागो, मोहो चिंताजरा रुजामिच्चू। कल्पसूत्र १२४
स्वेदं खेदं मदो रइ विण्हियाणिद्दाजणुव्वेगो।' 'अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्यसिद्धान्तममर्त्यपूज्यम् ।'
नियमसार, ६ अन्ययोगव्यवच्छेदिका १ (हेमचन्द्र)
३७. तत्त्वार्थसूत्र, ६-२३, पृ. १६२ चोत्तीसं बुद्धाइसेसा पण्णता। तं जहा-अवट्ठिए केस-मंसु-रोम-नहे १, ज्ञाताधर्मकथा, १/८/१८/ निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी २, गोक्खीरपंडुरे मंससोणिए ३,
भागवत १/२/५; २/६/४१-४५ पउमुप्पलगंधिए उस्सासनिस्सासे ४, पच्छन्ने आहार-नीहारे अदिस्से
णाइ णन्तु भाविणिहि णिरुतउ, एहउ वीरजिणिदेवतउ। मंसचक्खुणा ५, आगासगयं चक्कं ६, आगासगयं छत्तं ७, आगासगयाओ
पढ़तु समाससि कालु अणाइउ, सो अणन्तु जिणणाणि जाइउ ।। सेयवरचामराओ ८, आगासफालिआमयं सपायपीढं सीहासणं ९,
- महापुराण २/४ आगासगओ कुडभीसहस्सपरिमंडिआभिराओ इंदज्झओ पुरओ गच्छइ
जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउबीसं तित्थगरा १०, जत्थ जत्थ वि य णं अरहंता भगवंतो चिट्ठति वा निसीयंति वा
होत्था। तं जहां-उसभे१, अजिये २, संभवे ३, अभिणंदणे ४, सुमई ५, तत्थ तत्थ वि यणं जक्खा देवा संछन्नपत्तपुष्फ-पल्लवसमाउलो सच्छत्तो
पउमप्पपहे ६, सुपासे ७, चंदप्पभे ८, सुविहि-पुष्पंदते ९, सीयले सज्झओ सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायइ ११, ईसिं
१०, सिज्जंसे ११, वासुपुज्जे १२, विमले १३, अणंते १४, धम्मे १५, पिट्ठओ मउडठाणंमि तेयमंडलं अभिसंजाइ, अंधकारे वि य णं दस दिसाओ पभासेइ १२, बहुसमरमणिज्जे भूमिमागे १३, अहोसिरा कंटया
संती १६, कुंथू १७, अरे १८, मल्ली १९, मणिसुव्वए २०, णमी २१,
णेमी २२, पासे २३, वड्ढमाणो २४।-समवायांग, श्री मधुकर मुनि, भवंति १४, उउविवरीया सुहफासा भवंति १५, सीयलेणं सुहफासेणं
प्रकीर्णक समवाय ६३५/ सुरभिणा मारुएणं जोयणपरिमंडलं सव्वओ समंतासंपमज्जिज्जइ १६,
३५.
३०.
३१.
४१.
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________________
४३.
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म ४२. जंबुद्दीवे (णं दीवे) एरवए वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउव्वीसं तित्थयरा ४७. जयसेनप्रतिष्ठापाठ ५४५-६४ । होत्था। तं जहां --
४८. वीसं वि सयले खत्ते सत्तरिसय वरदो।" - त्रिलोकसार ६८१ । चंदाणणं सुचंदं अग्गीसेणं च नंदिसेणं च।
कल्पसूत्र २१० । इसिदिण्णं वयहारि वंदिमी सोमचंदं च।। वंदामि जुत्तिसेणं अजियसेणं तहेव सिवसेणं।
वही २०५-८१; आवश्यकनियुक्ति १७०, ३८५, ३८७; समवायांग १५७ । बुद्धं च देवसम्म सययं निक्खित्तसत्थं च।।
कल्पसूत्रवृत्ति २३६, २३१ (विनय-विजय); आवश्यकचूर्णि भाग १, असंजलं जिणवसहं वंदे यं अणंतयं अमियणाणिं।
पृ. १५२-३। उवसंतं च धुयरयं वंदे खलु गुत्तिसेणं च।।
'एवा बभ्रो वृषभ चेकितान यथा देव न हृणीषे न हंसि।' अतिपासं च सुपासं देवेसरवंदियं च मरुदेव।
- ऋग्वेद २/३३/१५ निव्वाणमयं च धरं खीणदुहं सामकोठं च।।
(अ) 'ऋषभो वा पशुनामधिपतिः।' - तांड्य ब्राह्मण १४/२/५ जियरागमग्गिसेणं वंदे खीणरयमग्गिउत्तं च। वोक्कसियपिज्जदोसं वारिसेणं गयं सिद्धि।।
(ब) 'ऋषभो वा पशूनां प्रजापतिः'। - शतपथ ब्राह्मण ५/२/५/१० - समवायांग (सं. श्रीमधुकरमुनि) प्रकीर्णक समवाय ६६४
अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जातं उरुक्रमः। प्रवचनसारोद्धार ७, गा. २८८-२९०
दर्शयन् वर्त्म धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतम् ।।
- भागवत १/३/१३ जयसेनप्रतिष्ठापाठ, ४७०-४९३
नाभेरसावृषभ आस सुदेविसूनुर्यो वै चचार समदृग्जडयोगचर्याम् । जंबुद्दीवेणं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा
यत् पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्ग । भविस्संति। तं जहा -
भागवत २/७/१० महापउमे सूरदेवे सूपासे य सयंपभे।
देखें- मार्कण्डेयपुराण अध्यायं ५०,३९-४२, कूर्मपुराण अध्याय ४१, सण्वाणुभूई अरहा देवस्सुए य होक्खइ।।
३७-३८, अग्निपुराण, १०,१०-११, वायुपुराण ३३/५०-५२, गरुडपुराण उदए पेढालपुत्ते य पोटिटले सत्तकित्ति य।
१, ब्रह्माण्डपुराण १४, ६१ विष्णुपुराण २/१/२७, स्कन्धपुराण मुणिसुव्वए य अरहा सव्वभावविऊ जिणे।।
कुमारखण्ड, ३७/५७।। अममे णिक्कसाए य निप्पुलाए य निम्ममे।
मुनयो वातरशनाः पिशग्ङा वसते मला। चित्तउत्ते समाही य आगमिस्सेण होक्खइ।।
वातस्यानु ब्राजि यन्ति यद्देवासो अविक्षत।। संवरे अणियट्टी य विजए विमले ति य। देवोववाए अरहा अणंतविजए इ य।
ऋग्वेद १०/१३६/१ । एए वुत्ता चउव्वीसं भरहे वासम्मि केवली।
५७. ऋग्वेद १०/१०२/६ । आगमिस्सेणं होक्खंति धम्मतित्थस्स देसगा।।
श्रीमद्भागवत ५/५/२८-३१ । - समवायांग (सं. श्रीमधुकरमुनि) प्रकीर्णक समवाय ६६७
पद्मपुराण ३/२८८ । जंबुद्दीवे (णं दीवे) एरवए वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चउव्वीसं
हरिवंशपुराण ९/२०४ । तित्थकरा भविस्संति। तं जहा-- सुमंगले य सिद्धत्थे णिव्वाणे य महाजसे।
डॉ. नेमिचन्द्रशास्त्री, तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा (सागर, धम्मज्झए य अरहा आगमिस्साण होक्खई।।
१९७४), पृ. १४ । सिरिचंदे पुप्फकेऊ महाचंदे य केवली।
हिन्दू-सभ्यता (नई दिल्ली, १९५८) पृ. २३ । सुयसागरे य अरहा आगमिस्साण होक्खई।।
द जैन स्तूप - मथुरा, प्रस्तावना पृ. ६ । सिद्धत्थे पुण्णघोसे य महाघोसे य केवली।
हिन्दूविश्वकोश, जिल्द १, पृ. ६४ तथा जिल्द ३, पृ. ४०४ । सच्चसेणे य अरहा आगमिस्साण होक्खई।।
'भगवान् ऋषभदेवो योगेश्वरः।' - भागवत ५/५/९ । सूरसेणे य अरहा महासेणे य केवली।
'नानायोगचर्याचरणो भगवान् कैवल्यपति: ऋषभः। - वही ५/५/३५ सव्वाणंदे य अरहा देवउत्ते य होक्खई।।
'योगिकल्पतरूं नौमि देवदेवं वृषध्वजम् ।' - ज्ञानार्णव १/२. सुपासे सुव्वए अरहा अरहे य सुकोसले।
'प्रजापतेः सुतोनाभि तस्यापि आगमुच्यति। अरहा अणंतविजए आगमिस्साण होक्खई।।
नाभिनो ऋषभ पुत्रो वै सिद्ध कर्म दृढव्रतः।। विमले उत्तरे अरहा अरहा य महाबले।
आर्यमजश्रीमूलकल्प ३९० देणाणंदे य अरहा आगमिस्साण होक्खई।। एए वुत्ता चउव्वीसं एरवयम्मि केवली।
नन्दीसूत्र १८ । आगमिस्साण होक्खंति धम्मतित्थस्स देसगा।।
६८. सम. १५७; आवश्यकनियुक्ति ३२३, ३८५, ३८७ । समवायांग (सं. श्रीमधुकरमुनि) प्रकीर्णक समवाय ६७४।
६९. समवायांग, गाथा १०७; आवश्यकनि. ३७८, ३७६ । సాగర తరుగురురురురురురువారం 4
Rదురుశారుగురుశారశాంతసారసాదుసారుసారంగారరసాలో
५५.
मुन
६२.
६५.
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________________
७०.
७१.
७२.
७३.
७४.
७५.
७६.
७७.
७८.
७९.
८०.
८१.
८२.
८३.
८४.
८५.
८६.
८७.
८८.
८९.
९०.
९१.
९२.
९३.
९४.
९५.
९६.
९७.
९८.
९९.
१००.
१०१.
१०२.
१०३.
१०४.
१०५.
१०६.
ि
आवश्यकवृत्ति २०५-७ ।
आवश्यकनियुक्ति २७२, २७८, ३०३ ।
वही, २५६, २६० ।
समावायांग गा. १५७; नन्दीसूत्र १८; विशेषावश्यकभाष्य १७५८ ।
वही, १५७; आवश्यकनियुक्ति ३८५ ।
वही, १०६, ५९; आवश्यकनिर्युक्ति ३७८, ३७६, २७८ ।
वही, १५७; आवश्यकनियुक्ति २५४, ३०२ ।
कल्पसूत्र २०२; आवश्यकनियुक्ति ३०३, ३०७, ३११ ।
समवायांग गा. १५७; आवश्यकनियुक्ति २५६, २६० ।
वहाँ १५७ आवश्यकनियुक्ति ३८२ ।
आवश्यक नियुक्ति ३७६
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
१०७.
१०८.
१०९.
११०.
१११.
११२.
११३.
वही २२५, २८०, ३०३ ।
वही २५६, २६० ।
समवायांग गा. १५७; विशेषावश्यकभाष्य १६६४, १७५८ ।
वही, १०४, १५७; आवश्यकनियुक्ति ३८३, ३८५, ३८७ ।
आवश्यक नियुक्ति ३०५३७८
समवायांग गा. १५७ ।
आवश्यकनियुक्ति ३०३, ३०७, ३११, २७२-३०५ । कल्पसूत्र १९९: आवश्यक्ति १०८९ ।
समवायांग गा. १५७; आवश्यकनिर्युक्ति ३८२-३८७ ॥
वही १०३; आवश्यकनियुक्ति ३७६, ३७८ ।
वही १५७ ।
आवश्यकनियुक्ति ३०२-३०६ ।
वही २५६ - २६६, २७२- ३०५ ।
समवायांग गाथा १५७; विशेषावश्यकभाष्य १७५८; आवश्यक नियुक्ति
५०९० ।
कही १५७ आवश्यकनियुक्ति ३८२ ३८५ ३८७।
वही १०१; आवश्यकनियुक्ति ३७६ ।
समवायांग, गाथा १५७ ।
आवश्यक नियुक्ति ३०३ ३०७, ३०९
वही २५७, २६१ ।
कल्पसूत्र १९७; आवश्यकनियुक्ति १०९० ।
समवायांग, गाथा १५७; आवश्यकनिर्युक्ति ३८३, ३८५, ३८७ ।
वही, गा. १०१ आवश्यकनियुक्ति ३७८ ।
आवश्यक नियुक्ति ३७६
समवायांग, गाथा १५७; स्थानांग ७३५; आवश्यकनियुक्ति २७२-३०७ ।
वही, गा. ९३ आवश्यकनियुक्ति २५७ २६६
कल्पसूत्र १९६; आवश्यकनियुक्ति १०९१ ।
११४.
११५.
११६.
११७.
११८.
११९.
१२०.
१२१.
१२२.
१२३.
१२४.
१२५.
१२६.
१२७.
१२८.
१२९.
१३०.
१३१.
१३२.
१३३.
१३४.
१३५.
१३६.
१३७.
१३८.
१३९.
१४०.
१४१.
43 Jan
समवायांग, गाथा १५७; आवश्यकनिर्युक्ति ३८५, ३८८ । वही, गा. १००; आवश्यकनियुक्ति ३८५, ३८८ । आवश्यकनियुक्ति ३७६ ।
समवायांग, गाथा १५७ ।
आवश्यकनियुक्ति ३०३, ३०७ ।
वही २५७, २६१ ।
समवायांग, गाथा १५७, विशेषावश्यकभाष्य १७५८, १०९१, १११२; आवश्यक विक्ति ३००
समवायांग, गाथा १५७; आवश्यकनिर्युक्ति ३८३, ३८५, ३८८ ।
वही, गा. ९०; आवश्यकनियुक्ति ३७९ ।
आवश्यक नियुक्ति ३७६
समवायांग, गा. १५७ ।
आवश्यक नियुक्ति ३०७ ।
वही २५७, २६१ ।
समवायांग, गाथा १५७; विशेषावश्यकभाष्य १७५१, १६६९, १७५८;
आवश्यक नियुक्ति ३७०, ४२०, १०९२ ।
समवायांग, गाथा १५७; आवश्यकनिर्युक्ति ३८३, ३८५, ३८८ ।
वही, गा. ८०; आ.नि. ३७९ ।
वही, गा. १५७ ।
आवश्यक नियुक्ति ३०४, ३०७ ।
वही २५७, २६१ ।
समवायांग, गाथा १५७: विशेषावश्यकभाष्य १६५७, १७५८ आ. नि.
३७०, १०९२ ।
वही १५७; आवश्यकनियुक्ति ३८३, ३८५, ३८८ ।
वही, गा. ७० आवश्यकनियुक्ति ३७९ ।
आवश्यक नियुक्ति ३७७ ॥
समवायांग, गाथा १५७ ।
वही १५७; आवश्यकनियुक्ति २५७, २६१ ।
समवायांग, गाथा १५७; वि. आ.भा. १७५८; आ.नि. ३७१, १०९३ ।
वही १५७; आ.नि. ३८२, ३८८ ।
वही ६०; आ.नि. ३७९, ३७६ ।
समवायांग, गाथा १५७ ।
कल्पसूत्र १९२ आवश्यकनियुक्ति २७२-३२५, ३२६ ॥ समवायांग गाथा १५७ ।
वही १५७, विशेषावश्यकभा. १७५८ ।
वही १५७; आ.नि. ३८६, ३८८ ।
वही ५० आवश्यकनियुक्ति ३०९ ३७०
वही १५७ ।
स
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________________
१९०.
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म १४२. आवश्यकनियुक्ति २७२-३०५ ।
१७५. वही २७२-३०५, ३०७। १४३. वही २५६ ।
१७६. समवायांग, गा. १५७, स्थानांग ४११, वि.आ.भा. १७५९ । १४४.
समवायांग, गाथा १५७, विशेषावश्यकभाष्य १७५९, आ.नि. १०९४ । १७७. वही १५७, आ.नि. ३८३ । १४५. वही १५७, आ.नि. ३८३, ३८६, ३८८ ।
१७८. वही २०, आवश्यक नियुक्ति २७७, २७९ । १४६. वही ४५, आ.नि. ३७७, ३७९ ।
१७९. वही १५७। वही १५७ ।
१८०. वही ३०५, ३२५। १४८. आ.नि. २५६ ।
१८१. वही २५९, २७८, समवायांग, गा. ५० । १४९. समवायांग, गाथा १५७, उत्तराध्यय १८/३३, वि.भा. १७५९ ।
समवायांग ३०,४१, १५८, कल्पसूत्र १८४, स्था. ४११, आ.नि. ३७१, १५०. वही १५८, आ.नि. ३८३, ३९८, ३९९ ।
४१९ वि.आ.भा. १७५९। १५१. वही ४०, आ.नि. ३७७, ३९२, ३७९
१८३. समवायांग १५७, आ.नि. ३८६, ३८९ ।। १५२. वही १५७ ।
१८४. वही १५७, आ.नि. ३८०, ३७७ । १५३. कल्पसूत्र, आ.नि. २७२-३०४, ३०७, ३०९ ।
१८५. वही १५७ । १५४. समवायांग, गाथा १५७, आ.नि. २५८, २६०, २६२ ।
१८६. स्थानांग ७३५, आ.नि. २७२-३०५ । १५५. समवायांग, गाथा १५७, १५८ आ.नि. ३१, ३७४, ३८४, ३९, ३९९,
आवश्यकनियुक्ति २५८। ४१८, विशेषावश्यकभाष्य १७५९ ।
१८८. समवायांग, गा. १५७, उत्त.नि., पृ. ४९६। १५६. समवायांग १५८ ।
१८९. उत्तराध्ययन, अ. २२, समवायांग १५७, आ.नि. ३८६। १५७. वही ३५, आ.नि. ३८०, ३७७ ।
समवायांग, गा. १०, आ.नि., गा. ३८०, ३७७। १५८. वही १५७ ।
१९१. (अ) उत्तराध्ययन, अध्याय २२, (ब) उत्तराध्ययन नियुक्ति, पृ. ४९६। १५९. वही ९५, आ.नि. २७२-३०५, ३७ ।
(स) दशवैकालिकचूर्णि, पृ. ८७ । १६०. आ.नि. २५८ ।
१९२. आवश्यकनियुक्ति, २५८। १६१. समावायांग १५७, स्थानांग ४११, वि.भा. १७५९ , आ.नि. ३७१, ४१८,
१९३.
तिलोयपण्णत्ति ४।११८५-१२०८ । ४२१, १०९५ ।
१९४. एपिग्राफिका इण्डिका, जिल्द १, पृ. ३८९। १६२. समवायांग, गाथा १५७-१५८, आ.नि. ३८३, ३९८-९९ ।
ऋग्वेद १/१४/८९/६, १/२४/१८०/१०,३/४/५३/१७, १०/१२/१७८/१ । १६३. वही ३०, आ.नि. ३८०, ३९३ ।
१९६. छान्दोग्योपनिषद ३/१७/४-६ । १६४. आवश्यकनियुक्ति २२४, २३८ ।
१९७. समवायांग, गाथा २४ । १६५. समवायांग, गाथा १५७ ।
१९८. कल्पसूत्र १५०, समवायांग गा. १५७, आवश्यकनियुक्ति, गा. ३८४-८९। १६६. कल्पसूत्र १८७, आ.नि. २५८-२६३, ३०५, ३०७ ।
१९९. समवायांग, गा. ९ आवश्यकनियुक्ति, गा. ३८०, ३७७ । १६७. आवश्यकनियुक्ति २५८ ।
२००. अर्हत् पार्श्व और उनकी परम्परा, पृ.१ । १६८. 'भूपपुव्वं भिक्खवे सुनेत्तो नाम सत्था अहोसितित्थकरो कामेसु
२०१. जैन-शिलालेख-संग्रह, भाग ३, लेखसंख्या ८३। वीतरागो....मुगपक्ख...अरनेमि....कुद्दालक....हत्थिपाल....ओतिपाल....अरको
Indian Autiquary, Vol. 9th, Page 160. नाम सत्था अहोसि तित्थकरो कामेसु वीतरागो। अरकस्स सोपन, भिक्खवे सत्थुनो अनेकानि सावकसतानि अहेतु।'
२०३. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, मध्यप्रदेश शासन-साहित्य
परिषद्, भोपाल, सन् १९६२, पृ. २१ । अंगुत्तरनिकाय, भा. ३, पृ. २५६-२५७
२०४. अर्हत् पार्श्व और उनकी परम्परा पृ. ४ । १६९. अंगुत्तर निकाय, भाग ३, अरकसुत्त, पृ. २५७-५८ ।
२०५. जैनसाहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ. २०२-२१३। १७०. उत्तराध्ययन, अ. १० ।
२०६. उत्तराध्ययन २३/२५-३०। १७१. समवायांग १५७, विशेष. भा. १७५९ ।
२०७. समवायांग १५७, आ.नि. ३८६ ।
अर्हत् पार्श्व और उनकी परम्परा, पृ. २१ । १७२.
२०८. इसिभासियाई, अध्याय ३१ । १७३. समवायांग, गा. २५, ५५ आवश्यकनियुक्ति ३७७, ३८०। १७४. आवश्यकनियुक्ति २५८ ।
२०९. समवायांग, गा. २४, १५७।
.
५८ ।
२०२.
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________________
२२९.
२३०.
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - २१०. कल्पसूत्र २१ ।
२२४. यानि च तीणि यानि च सट्ठि। सुत्तनिप समियसुत्त। २११. वही २१-२६।
२२५. (अ) स्थानांग ४।४।३४५। (ब) भगवती ३०।११८२४। २१२. समवायांग, गा. ७, आवश्यकनियुक्ति ३७७।
२२६. किरियं अकिरियं विणियंति तइय अन्नणामहंसु च उत्थमेव। -सूत्रकृतांग २१३. कल्पसूत्र ११०, ११२, आवश्यकचूर्णि, प्रथम भाग, पृ. २४९, आ.नि.गा.
१।१२।१। २९९।
२२७. सूत्रकृतांग १।१२।४-८। २१४. कल्पसूत्र १२०॥
वही १।१२।२। २१५. वही १३४-१४७।
उत्तराध्ययन १८१३३ । २१६. (अ) संयुत्तनिकाय, नानातित्थिय सुत्त २।३।१० ।
सूत्रकृतांग १।१०।१७ । (ब) संयुत्तनिकाय, संखसुत्त ४०१८॥
आचारांग सटीक श्रु. १, अ. १, उद्दे. १, पत्र २० । (स) अंगुत्तरनिकाय, पंचकनिपात ५।२८।८।१७।
निशीथसूत्र सभाष्य, चूर्णि भाग १, पृ. १५ । (द) मज्झिमनिकाय, उपातिसुत्त २।१६ ।
२३३. दीघनिकाय, सामञफलसुत्त । (अ) कुण्डपुरवरिस्सरसिद्धत्थक्खत्तियस्य णाह कुले। तिसिलाए देवीए देवीसदसेवमाणाए ।।२३।। - जयधवला, भा. १, पृ. ७८ ।।
२३४. वही (हिन्दी अनुवाद), पृ. २१ का सार । (ब) 'णाहोग्गवंसेस वि वीर पासा' ।।५५०।। तिलोयपण्णत्ति, अ. ४। २३५. सूत्रकृतांग-टीका १।६।४। (स) 'उग्रनाथौ पार्श्ववीरौ' – देशभक्ति, पृ. ४८।
२३६. पाप पराल को पुञ्ज वण्यो, मानो मेरु आकारो । २१८. 'णातपुत्ते महावीरे एवमाह जिणुत्तमे' - सूत्रकृतांग १ श्रु., अ., १ उ.। ते तुम नाम हुताशन तेसी सहज ही प्रजलत सारो ॥ २१९. बुद्धचर्या, पृ. ५५१ ।
"कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थिा " - उत्तराध्ययन, ४।३ । २२०. वही, पृ. ४८१ ।
"पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि?" - आचारांग २२१. इण्डियन सेक्ट ऑफ दी जैनास्, पृ. २९ ।
१।३।३।
"पुसि ! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पसुच्चसि। २२२. वही, पृ. ३६ ।
- वही, १।३।३। २२३. सूत्रकृतांग १।१।२।२३ ।
- तीर्थंकर, बुद्ध और अवतार से साभार
WWW WWWW WWWM 73
२१७.
३७.
३८.
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________________
जैन-तीर्थकरों के लांछन
मुनि ऋषभचन्द्रविजयजी 'विद्यार्थी'...."
लांछन संस्कृतशब्द है और इसका अर्थ होता है कार्य नहीं है। जहाँ समान देहाकृति हो वहाँ किसी लक्षणविशेष निशानी अथवा चिह्न । प्राकृत और अपभ्रंश में इसे हम लंछण की अपेक्षा अधिक रहती है। के नाम से पढ़ते या सुनते हैं। लांछन के लिए 'मषतिलकादिके
वर्तमान समय में शरीर के विशिष्ट लक्षणचिह्नों द्वारा एवं चिह्ने' और 'लंछन अंकों चिंधं' इत्यादि उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में फोटोग्राफ के द्वारा अनजान व्यक्ति को पहचानना सरल हो मिलता है। लक्षण शब्द से भी लांछन शब्द का अर्थबोध होता है। जाता है। पासपोर्ट के लिए और पलिस स्टेशन (थाने) के
कितने ही शब्दों के अर्थ में उतार-चढाव आते हैं। अर्थ - रिकार्ड के लिए अनेक मनुष्यों के फोटो के उपरांत उनके प्रत्यक्ष विस्तार और अर्थसंकोच की प्रक्रिया शब्दों के विषय में होती में दिखने वाले विशिष्ट लक्षणों की जानकारी रखने में आती है। रहती है। कितने ही प्रकार समीचीन शालीनता के सूचक श्रेष्ठ दो मनुष्यों की हाथ-पैर की रेखाओं में समानता नहीं होती है। शब्द अधम अर्थों में भी प्रयक्त होने लगते हैं. अर्थात उनके यह कहा जाता है कि दुनिया में किन्हीं भी दो मनुष्यों के हाथ के अर्थ में विनिपात की क्रिया भी होती है। जैसे कि जैन-परंपरा में अंगूठे की रेखाओँ की छाप कभी भी एक सी नहीं होती है। इन लांछन शब्द का प्रयोग तीर्थकरों के श्रेष्ठ चिन्हों का बोध कराने
रेखाओं में अनन्त वैविध्य रहता हुआ है। प्रत्येक मनुष्य के शरीर के लिए किया जाता है। परन्तु वर्तमान समय में लोकव्यवहार
में ऐसा लक्षण होता है जो उसका स्वयं का विशिष्ट अकेले का ही की भाषा में लांछन शब्द का अर्थ कलंक अथवा दाग है।
होता है। ऐसे एक लक्षण के द्वारा अथवा अन्य लक्षणों के द्वारा व्यक्ति की पहचान के लिए उसके लांछन-चिह्न उपयोगी होते
मनुष्य को पहचानना सरल हो जाता है। शरीर के विविध अंगों हैं। कितने ही लांछन अच्छे होते हैं और कितने ही खराब होते हैं।
के अवलोकन से मानवजाति ने स्वयं के अनुभव के आधार पर
कितने लक्षणों को उत्तम प्रकार का कितने ही को मध्यमप्रकार का आँख से काना, हाथ से लूला, पैर से लँगड़ा, सफेद दाग वाला - ऐसे खराब चिह्न वाला मनुष्य तुरंत पहचान लिया जाता है। पुण्यशाली ।
on एवं कितने ही को जघन्य (हीन) प्रकार का निरूपित किया है। व्यक्ति अथवा भाग्यवान् व्यक्तियों की विशिष्टता का बोध कराने शरीर के अवययों में रहने वाले उत्तम लक्षणों में से जिसमें के लिए उनके शारीरिक असामान्य शुभ चिह्नों को देखा जाता है ३२ उत्तम लक्षण हों वह बत्तीसलक्षणा पुरुष कहलाता है। वह और उन्हें अधिक महत्त्व दिया जाता है, इसी प्रकार तीर्थकरों की पुरुष भाग्यशाली व शकुनवालों में गिना जाता है। भारतीय पहचान के लिए लांछनों का उपयोग किया जाता है।
सामुद्रिक-शास्त्र में मानव-शरीर के विभिन्न लक्षणों का बहुत
सूक्ष्म रीति से अध्ययन किया जाता है। उसके द्वारा जो शुभाशुभ अनजान व्यक्ति की पहचान के लिए उसकी शारीरिक
अनुमान कर सार निरूपित करने में आया है वह विश्व के अन्य स्थिति, ऊँचाई, आँखों का रंग, चमड़ी का रंग काला-गोरा इत्यादि
किसी भी साहित्य में देखने को नहीं मिलता है। शरीर व उसके लक्षण काम आते हैं। सामान्य देहलक्षण रूपवर्णन में सहायक
विविध अंगों का भी लक्षण व्यंजन (मसा, तिल आदि गुण) होते हैं। एक ही वर्ण वाले व्यक्ति एक से अधिक हों तो उसमें
मान (पानी से नाप) उन्मान (वजन से) प्रमाण (अंगुलीमाप) असमंजस होना संभव हो जाता है, परन्तु प्रत्येक मनुष्य के की दष्टि से जाँच कर उसके उत्तम मध्यम और कनिष्ठ प्रकार अंगोपांग में-मस्तिष्क, चेहरे, हाथ, पैर अथवा शरीर के किसी में आते है। भावा पटानी शरीर का तापी अन्य भाग में कोई विशिष्ट निशानी हो तो इसके द्वारा उस व्यक्ति ।
कल्पसूत्र में इस प्रकार दर्शाया गया है - भगवान् महावीर हीनतारहित की तरंत पहचान हो जाती है। तिल, मसा, लहसुन, घाव के पाँचों इंद्रियों से परिपर्ण तथा लक्षण और व्यंजन गणों से यक्त मान. निशान आदि भरी नीली आँखें सिर पर सफेद बाल या गंजापन उन्मान व प्रमाण से परिपर्ण सजात और सर्वांगसन्दर शरीर वाले थे। इत्यादि लक्षणों से अनजान व्यक्ति की पहचान कोई मुश्किल ordionianoramidnidiariorridoranidaridrinidiM५६Hdmirmiriimsardaridrinidiadridoranardan
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म मनुष्य के बत्तीस उत्तम लक्षणों की गणना में विभिन्न ग्रंथों लक्षणों की दृष्टि से तीर्थंकरों का शरीर श्रेष्ठ माना जाता है। में थोड़ा अंतर है। गुण की दृष्टि से इस प्रकार ३२ लक्षण गिनने में शुभकर्म के उदय से वे उत्तम लक्षण प्राप्त करते हैं। आत हैं। गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने अभिधानराजेन्द्रकोष
बत्तीसा अट्ठसयं, अट्ठसहस्सं व बहुतराईं च। के छठे भाग में पृष्ठ ५९५ पर लिखा है
देहेसु देहीणं लक्खणाणि सुभकम्म जाणिताणि। इह भवति सप्तरक्तः षडुन्नत : पञ्चसूक्ष्मदीर्घश्च।
ये सब देह के बाह्य लक्षण हैं, स्वभाव अथवा प्रकृति के त्रिविपुललघुगम्भीरो, द्वात्रिंशल्लक्षणः स पुमान्।
लक्षण आभ्यंतर लक्षण हैं। इनकी विविधता का कोई पार नहीं है। तत्र सप्त रक्तानि- १. नख २. चरण ३. हस्त ४. जिह्वा ५. ओष्ठ ६. तालु,
दुविहा या लक्खणा खलु अब्भंतर बाहिर उ देहीणम्। ७. नेत्रान्ताः । षडुब्रतानि- १. कक्षा २. हृदयं ३. ग्रीवा ४. नासा ५. नखा ६. मुखं च।
बाहिया सुर वण्णाइ अंतो सब्भाव सत्ताई। पञ्चसूक्ष्माणि- १. दन्ता २. त्वक् ३. केशा ४. अंगुलिपर्वाणि ५. नखाश्च
बाह्य लक्षणों के अंगभूत और अंगबाह्य ये दो प्रकार होते पञ्चदीर्घाणि- १. नयने २. हृदयम्. ३. नासिका ४. भुजौ च
हैं। शरीर में रहे हुए और सामान्य रीति से जिन्हें निकाला न जा त्रीणि विस्तीर्णानि- १.भालम् २. उरः ३. वदनं च। त्रीणि लघुनि- १.ग्रीवा २. जंघा ३.मेहनं च।
सके ऐसे लक्षण अंगभूत हैं तथा वस्त्राभूषण इत्यादि द्वारा दृष्ट त्रीणि गम्भीराणि १.सत्वम् २. स्वरः ३. नाभिश्च।
लक्षण अंगबाह्य कहलाते हैं। सेना के सैनिकों, साधु सन्यासियों, १. नख २. हाथ. ३. पैर, ४. जीभ ५. ओठ.६. तालु ७. अस्पताल के डाक्टर, नसों आदि का परिचय उनके गणवेश - नेत्र के कोण ये सात लाल वर्ण के; ८. कांख, ९.वक्षस्थल, १० लक्षणों से हो जाता है, परन्तु वे बदले या निकाले जा सकते हैं गर्दन, ११. नासिका, १२. नख, १३ मूंछ ये छः ऊँचे; १४. दाँत, ऐसे लक्षण हैं। मूंछ, दाढ़ी, नख, मस्तक के बाल आदि अंगभूत १५. त्वचा, १६. बाल १७. अंगुलि के टेरवे १८. नाखून ये पाँच लक्षणों में भी फेरबदल हो सकता है। छोटे व पतले; १९. आंखें, २०. हृदय . २१. नाक, २२-२३ भुजा तीर्थंकर का सर्वश्रेष्ठ अंगभूत अर्थ, भाव तथा जीवन की -द्वय ये पाँच लम्बे; २४. ललाट, २५ छाती २६. मुख ये तीन दष्टि से सर्वथा अनरूप ऐसा कोई एक लक्षण लांछन के नाम से विशाल; २७, डोक, २८. जाँघ, २९. पुरुषचिह्न ये तीन लघु और
जाना जाता है। सभी लक्षणों को लांछन के रूप में नहीं देखा जा ३० सत्व ३१. स्वर, ३२. नाभि ये तीन गंभीर हों तो ऐसे बत्तीस
सि सकता है।
का लक्षणों वाला पुरुष श्रेष्ठ व भाग्यशाली माना जाता है।
अभिधानचिंतामणि की स्वोपज्ञ टीका में श्री हेमचन्द्राचार्य शरीर के अंगोपांगों में स्थित बत्तीस मंगल आकृतियों से
सूरि द्वारा बताये अनुसार तीर्थकरों के लांछन शरीर के दक्षिण बत्तीसलक्षणा पुरुष कहलाता है। वे इस प्रकार हैं - १. छत्र २. (दायें) भाग में होते हैं। आवश्यकनियुक्ति में गाथा १०८० में कमल ३. धनुष ४. रथ ५. वज्र ६. कछुआ, ७. अंकुश, ८. कहा गया है कि ऋषभदेव भगवान की दोनों जंघाओं पर वृषभ बावड़ी, ९.स्वस्तिक, १०. तोरण ११. सरोवर, १२. पंचानन, १३ का चित था इसलिए वे वषजिन के नाम से जाने जाते हैं और वृक्ष, १४. शंख, १५, चक्र, १६.हाथी, १७.समुद्र, १८. कलश,
उनकी माता को प्रथम वृषभ के दर्शन हुए थे। १९. महल, २०. मत्स्य-युगल, २१. जव २२. यज्ञ स्तंभ,
तीर्थकर की देह पर लांछन उनके नामकर्मानुसार होते हैं। २३ स्तूप, २४. कमंडलु, २५. पर्वत २६.चामर, २७.दर्पण,
तदुपरांत वह लांछन उनकी प्रकृति को बताने वाले प्रतिनिधि के २८. उक्षा २९. पताका, ३०. लक्ष्मी ३१. माला, ३२.मोर।
रूप में गिना जाता है। लांछन बैल, हाथी, घोड़ा, सिंह, मगरमच्छ, शरीर के अंगोपांगों में जितने अधिक उत्तम लक्षण हों. बंदर. महिष, गैंडा, हिरन आदि पशुओं के; क्रौंच, बाज, बगैरह उतना वह भाग्यशाली माना जाता है। अधिकतम १००८ उत्तम
पक्षियों के; सूर्य-चंद्र जैसे ज्योतिष्कों के स्वस्तिक नन्दावर्त, लक्षणों की गणना की जाती है। ऐसे उत्तम लक्षण जिसमें होते हैं
कमल, कलश, शंख आदि मंगल रूप माने जाने वाले प्रतीकों वह व्यक्ति श्रेष्ठतर, श्रेष्ठतम गिना जाता है। जैसे मान्यतानुसार
आदि विविध प्रकार के होते हैं। इन समस्त लांछनों का स्वयं का बलदेवों वासुदेवों में १०८ और चक्रवर्ती और तीर्थकरों में ।
कोई उत्कृष्ट गुण होता है। यह उत्कृष्ट गुण अनंत गुणधारक तीर्थंकर १००८ उत्तम लक्षण होते हैं।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म परमात्मा के जीवन में उत्कृष्ट रूप में देखने को मिलता है। माता १४. अनंतनाथ- वज्र के देख हुए स्वप्न, स्वयं शरीर का वर्ण अथवा अन्यरूप लक्षण १५. धर्मनाथ- वज भी लांछन के साथ अर्थात् उसके गुण से जुड़ा हुआ होता है, जैसे १६. शांतिनाथ-हिरन पद्मप्रभु की कांति अथवा प्रभा पद्म के समूह के समान थी। १७. कुंथुनाथ - बकरा उनका शरीर पद्म के समान रक्तवर्ण था, उनकी माता को पद्म १८. अरनाथ- नंदावर्त की शैय्या में सोने का दोहद उत्पन्न हुआ था। माता ने स्वप्न में १९. मल्लिनाथ- कुंभ पद्मसरोवर देखा था और स्वयं भगवान् के शरीर पर पद्म का २०. मुनिसुव्रत- कछुआ लांछन भी था। इसी प्रकार चन्द्रप्रभु की कांति चन्द्रमा जैसी थी, २१. नमिनाथ- नीलकमल उनकी माता को चन्द्रमा का पान करने इच्छा की इच्छा हुई थी। २२. नेमिनाथ- शंख उनकी माता ने चौदह स्वप्नों में चंद्र का स्वप्न भी देखा और २३. पार्श्वनाथ - सर्प भगवान् के शरीर पर लांछन भी था। पार्श्वनाथ भगवान् के गर्भ में २४. महावीर-सिंह आने के बाद माता को एक अँधेरी रात में अँधेरे में ही सर्प दिखा
चौबीस तीर्थकारों के लांछनों को अनुक्रम से बताते हुए था जो उनके पिता अश्वसेन को नहीं दिखा। वह गर्भ में रहने वाले
श्री हेमचन्द्राचार्य ने अभिधानचिंतामणि में इसी प्रकार लिखा है पुत्र का ही चमत्कार था। भगवान् के शरीर पर सर्प का लांछन
तथा लांछन के लिए ध्वज शब्द का प्रयोग किया है। गुरुदेव प्रभु भी था। इस तरह लांछन मात्र चिन्ह न होकर तीर्थंकर के समग्र
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी म.सा. ने अभिधानराजेन्द्रकोष के चतुर्थ जीवन में अर्थ और भाव की दृष्टि से विविध प्रकार से जुड़ा हुआ
प्रकार स जुड़ा हुआ भाग में लांछन के लिए चिह्न शब्द का प्रयोग किया हैदेखने को मिलता है। जैन-मान्यतानुसार इस अवसर्पिणीकाल में भरतक्षेत्र में २४ तीर्थंकर हुए। प्रत्येक तीर्थंकर का पृथक् लांछन
वसह गय तुरय वानर कुंचो कमल व सत्थिओ चन्दो। है जैसे कि बैल ऋषभदेव प्रभु का लांछन है, हाथी अजितनाथ
मयर सिविवच्छ गंडय महिष वराहो सेणो य।।। भगवान् का लांछन है, सर्प पार्श्वनाथ का लांछन है, सिंह भगवान्
वज्ज हरिणो छगतो नन्दावत्तो य कलस कुम्भो य
नीलुप्पल संख फणी, सीहो अजिणाण चिण्हाई।। महावीर का लांछन है।
तीर्थकरों की माताओं को आने वाले स्वप्न के बारे में वर्तमान चौबीसी के तीर्थंकरों के लांछन इस प्रकार हैं
जिस प्रकार दिगम्बर-श्वेताम्बर परंपरा के बीच थोड़ा भेद है, १. ऋषभदेव - बैल
उसी प्रकार तीर्थंकरों के लांछनों को लेकर भी थोड़ा भेद देखने २. अजितनाथ -हाथी
को मिलता है। जैसे पाँचवें सुमतिनाथ का लांछन श्वेताम्बर ३. संभवनाथ - अश्व
परम्परानुसार कौञ्च पक्षी है और दिगम्बर परम्परा के अनुसार ४. अभिनन्दन - बंदर
चक्रवाक पक्षी है। दसवें शीतलनाथ तीर्थंकर का लांछन ५. सुमतिनाथ- क्रौञ्च
श्वेताम्बरानुसार श्रीवत्स एवं दिगम्बरानुसार कल्पवृक्ष है। चौदहवें ६. पद्मप्रभु- कमल
तीर्थकर अनन्तनाथ का लांछन श्वेताम्बरों के अनुसार वज्र है, ७. सुपार्श्वनाथ- स्वस्तिक
दिगम्बरों के अनुसार वज्रदण्ड है एवं इक्कीसवें नमिनाथ भगवान् ८. चन्द्रप्रभुजी- चन्द्रमा
का लांछन श्वेताम्बरों के अनुसार नीलकमल है जबकि दिगम्बरों ९. सुविधिनाथ - मगर
के अनुसार रक्तकमल है। १०. शीतलनाथ- श्रीवत्स
प्रत्येक तीर्थंकर के शरीर पर अद्वितीय सर्वथा पृथक ही ११. श्रेयांसनाथ- गैंडा
लांछन हो ऐसा नहीं है। वर्तमान चौबीसी के तीर्थकरों के लांछन १२. वासुपूज्य-महिष १३. विमलनाथ - सूअर
अलग-अलग हैं। परन्तु बीस विहरमाण जिनेश्वरों में वृषभ, हाथी, सूर्य, चन्द्र, कमल जैसे लांछन एक से अधिक तीर्थंकरों के हैं।
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म महाविदेह क्षेत्र में वर्तमान विचरते बीस विहरमान तीर्थंकरों के बीस विहरमान तीर्थंकरों में बहुत से लांछन एक समान लांछन इस प्रकार हैं
है। परन्तु पृथक्-पृथक् पाँच महाविदेहों के कारण पृथक् गिने १. सीमंधर स्वामी - वृषभ
जाते हैं। वर्तमान चौबीसी के द्वितीय तीर्थंकर भगवान् अजितनाथ २. युगंधर स्वामी- हाथी
के समय से पाँचों भरत, पाँचों एरवत, पाँचों महाविदेह क्षेत्र में ३. बाहुजिन- हिरण
कुल मिलाकर १७० तीर्थंकर एक ही समय में विचरण करते थे। ४. सुबाहु-बंदर
तब उन सब तीर्थकरों के लांछन अलग-अलग नहीं थे, अर्थात्
कुल १७० लांछन अलग-अलग ही थे ऐसा नहीं है। यद्यपि इन ५. सुजात- सूर्य
सभी तीर्थंकरों के लांछनों की सम्पूर्ण जानकारी देखने को नहीं ६. स्वयंप्रभ- चन्द्र
मिलती है। परन्तु बीस विहरमान तीर्थंकरों के लांछनों में से ऊपर ७. ऋषभानन- सिंह
बताये अनुसार कितने ही लांछन एक से अधिक तीर्थंकरों के हैं। ८. अनन्तवीर्य- हाथी
इससे स्पष्ट है कि सभी काल के लिए प्रत्येक तीर्थंकर के लांछन ९.सुरप्रभ- अश्व
सर्वथा पृथक् होना कोई जरूरी नहीं है। अपने-अपने क्षेत्रानुसार १०. विशाल- सूर्य
अन्यान्य भी होते हैं। ११. वज्रधर- शंख
आनेवाली चौबीस तीर्थकर-परंपरा के चिह्न-विलोमक्रम से १२. चन्द्रानन- वृषभ
होंगे, अर्थात् प्रथम तीर्थंकर पद्मनाभप्रभु को सिंह का लांछन होगा १३. चन्द्रबाहु- कमल
जो वर्तमान में चौबीसवें तीर्थंकर महावीरस्वामी का लांछन है। १४. भुजंग- कमल
ऋषभ, चंद्रानन, वर्धमान और वारिषेण ये चार तीर्थंकर १५. ईश्वर- चन्द्र
शाश्वत माने जाते हैं। अर्थात् इनमें जो कोई तीर्थंकर निर्वाण प्राप्त १६. नेमिपुत्र- सूर्य
होते हैं कि तुरंत इन नामों में से उस नाम वाले तीर्थंकर होते हैं। १७. वारिषेण- वृषभ
इन चार तीर्थकरों के लांछन भी शाश्वत हैं, ऐसी मान्यता है, इस १८. महाभद्र- हाथ
विषय में ज्ञानी ज्ञातार्थ गुरु भगवंतों से विशेष जानकारी की १९. चन्द्रयश- चन्द्र
जिज्ञासा रखें, क्योंकि शाश्वत प्रतिमाओं के लांछन में भी कहीं२०. अज्ञितवीर्य- स्वस्तिक
कहीं अन्तर नजर आता है।
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क्रान्तदर्शी शलाकापुरुष : भगवान् महावीर
विद्यावाचस्पति - डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव भिखना पहाड़ी, पटना.....
भगवान् महावीर प्रगतिशील वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न अवतार शब्द का प्रयोग न करके जन्मकल्याणक शब्द का क्रान्तदर्शी पुरुष थे। वे ज्ञान,दर्शन और चरित्र के सम्यक्त्व की व्यवहार करती है। इसलिए कि अवतार शब्द में मानवेतर अलौकिक उपलब्धि से संवलित प्रसिद्ध पुरुष होने के कारण धन्यतम तिरेसठ सृष्टि का भाव निहित है, किन्तु मानववादी जैनदृष्टि मनुष्य से इतर शलाकापुरुषों में अन्यतम माने जाते थे। महावीर शलाका पुरुष किसी अलौकिक शक्ति को मूल्य देकर मानव-अस्मिता के थे, इसलिए वे ईर्या (शरीरगति) की विलक्षणता और ऊर्जा अवमूल्यन की पक्षधर नहीं है। (मनोगति) की विचक्षणता से विभूषित थे। वे उत्तम शरीर के ईसा-पूर्व छठी शती (५९९ वर्ष) में चैत्र शक्ला त्रयोदशी धारक थे। उनका शरीर वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन से युक्त की आधी रात को महावीर ने जन्म लिया था। विदेह जनपद की था। अर्थात् उनका शरीरबंध वज्र की तरह अतिशय कठोर, वैशाली में कण्डपर नाम का नगर था, जिसके दो भाग थे। वृषभ की तरह अत्यधिक बलशाली और लौहमय बाण की तरह क्षत्रिय कण्डग्राम और ब्राह्मण कुण्डग्राम। महावीर का जन्म अतिशय सुदृढ़ था। सम्पूर्ण सुलक्षणों से संपन्न उनका शरीरसंस्थान ब्राह्मण कुण्डग्राम से गर्भान्तरण के बाद क्षत्रिय कण्डग्राम में या शारीरिक संघटन समचतुरस्त्र अर्थात् सुडौल था जो अपनी
हुआ था। श्रुति-परम्परा यह भी है कि महावीर पहले ब्राह्मणी के श्रेष्ठ तप्त स्वर्ण जैसी चमक से आँखों को चकमका देने वाला था। गर्भ में प्रतिष्ठित हुए थे, किन्तु तीर्थंकरों के क्षत्रिया के गर्भ से यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति के अनुसार महावीर के रूप में गुणों का उत्पन्न होने की परम्परा रही थी, इसलिए महावीर को भी ब्राह्मणी मणिकांचन संयोग हआ था। वे रूप के आगार और गुणों के निधान थे। के गर्भ से निकालकर क्षत्रिया के गर्भ में प्रतिष्ठित किया गया
महावीर का चरित्र परम अद्भुत है। वे किसी निश्चित या था। गर्भाहरण की इस घटना को ठाणं (स्थानांगसूत्र) में दस पूर्व परम्परित साध्य की पूर्ति के लिए नहीं जन्मे थे। जन्म लेना आश्चर्यक पद (अच्छेरग पद) में परिगणित किया गया है (द्र. चूँकि संसारचक्र की अनिवार्यता है, इसलिए सामान्य मानव की स्थान. १० सूत्र-१६०)। तरह उन्होंने भी इस अनिवार्यता को मूल्य दिया था। संसार रूप महावीर की माता रानी त्रिशला क्षत्रियाणी थीं और पिता जए को जन्म और मरण रूप दो बैल खींचते हैं। इस संसार का राजा सिद्धार्थ क्षत्रिय थे। वे दोनों पार्श्वनाथ की परम्परा के दसरा पहल मक्ति है, जहाँ जन्म और मरण दोनों नहीं हैं। मुक्ति श्रमणोपासक थे। रानी त्रिशला वैशाली गणराज्य के प्रमुख चेटक अमतत्त्व की साधना का साध्य है। जिस मनुष्य का जैसा विवेक की बहन थी। सिद्धार्थ क्षत्रिय कुण्डग्राम के अधिपति थे। होता है, उसका वैसा ही साध्य होता है और वैसी ही साधना भी आचारचला (१५.२०) तथा आवश्यकचर्णि (पूर्वभाग) के होती है। प्रत्येक मनुष्य अपनी योग्यता के अनुकूल अपना साध्य अनुसार महावीर के आदरणीय अग्रज का नाम नन्दिवर्धन था, निर्धारित करता है। महावीर जन्मना ततोऽधिक विवेकी थे। इसलिए जिनका विवाह चेटक की पत्री ज्येष्ठा के साथ हआ था, जो उन्होंने मुक्ति को अपनी अमृतत्त्व-साधना का साध्य निश्चित नन्दिनवर्धन की ममेरी बहन थी। उस समय ममेरे भाई-बहन में किया था
विवाह की प्रथित परम्परा को सामाजिक मूल्य प्राप्त था। महावीर महावीर दुःषम-सुषमाकाल, अर्थात् अवसर्पिणीकाल की के काका का नाम सुपार्श्व और बड़ी बहन का नाम सदर्शना था। छह स्थितियों में चौथी स्थिति और इसी प्रकार छह स्थितियों महावीर जब त्रिशला के गर्भ में आये, तब कुण्डग्राम की वाले उत्सर्पिणी काल की तीसरी स्थिति में उत्पन्न हुए थे। वस्तुतः सम्पदाओं में वद्धि हई. इसलिए माता-पिता ने उनका नाम वर्धमान यह दःख और सुख का सन्धिकाल था। ब्राह्मणों में किसी युगपुरुष रखा। वे ज्ञात (ज्ञात) नामक क्षत्रियवंश में उत्पन्न हए इसलिए के जन्म-ग्रहण को अवतार कहने की परम्परा है, किन्तु श्रमणदृष्टि वंश के आधार पर उन्हें ज्ञातृपुत्र (णायपुत्त) भी कहा गया।
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– यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - अपनी साधना के दीर्घकाल में उन्होंने अनेक भीषण उपसर्गों महावीरस्स भज्जा जसोया कोडिण्णागोत्तेणं (आचारचूला (विघ्नों)का वीरता से सामना किया और कभी अपने लक्ष्य से १५.२२)। उनके प्रियदर्शना नाम की एक कन्या हुई, जिसका विचलित नहीं हुए। इसलिए वे वीर और महावीर की संज्ञा में विवाह उनकी बड़ी बहन सुदर्शना के पुत्र, भानजे जमाली के अभिहित हुए। आत्मा बहुत दुर्दम होता है (अप्पा हु खलु दुद्दमो- साथ हुआ। महावीर के शेषवर्ती (अपरनाम यशस्वती) नाम की उत्तराध्ययन सूत्र)। उसे कोई महान वीर ही अपने वश में कर दौहित्री (नातिन) हुई। सकता है। दुर्दम आत्मा को आत्माधीन करने के कारण ही उन्हें महावीर अट्राईस वर्ष की अवस्था में मातपितविहीन हो महावीर की सार्थक आख्या प्राप्त हुई। अवश्य ही वे आत्मजयी गये। उन्होंने तत्काल श्रमण बनने की इच्छा जाहिर की पर अपने तीर्थंकर थे। उनके उक्त सभी नामों में महावीर नाम ही पहले अग्रज नन्दिवर्द्धन के आग्रह पर रुक गये। अन्ततः तीसवें वर्ष में जनजिह्वा पर, बाद में इतिहास के पृष्ठों में अंकित हुआ। राजा उन्होंने महाभिनिष्क्रमण किया। वे अमृतत्व की साधना के लिए सिद्धार्थ काश्यपगोत्रीय क्षत्रिय थे। पिता के गोत्रानुसार ही महावीर निकल गये। मक्ति उनके जीवन का साध्य बन गयी। आत्मिक भी काश्यपगोत्रीय क्षत्रिय के गौरव बने।
शांति और वैचारिक क्रांति की मनोभावना के साथ उन्होंने बारह बालक्रीड़ा की अवधि में महावीर ने अपनी अनेक अद्भुत वर्षों से भी अधिक दिनों तक कठिन तपस्वी-जीवन बिताया जो बाललीलाओं से अपने को अपूर्व वीर बालक प्रमाणित किया आपने आप में एक बेमिसाल इतिहास है। एक वीतराग राजकुमार
और यह सिद्ध किया कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात। का वैराग्य श्रृंगार और शांत के संघर्ष में शान्त के, याकि हलाहल जैनागमम की मान्यता के अनुसार तीर्थंकर गर्भकाल से ही अवधिज्ञानी और अमृत के संघर्ष में अमृत के विजय की अमरगाथा बन गया। (भूत-भविष्य-वर्तमान के जानकर त्रिकालदर्शी) होते हैं। महावीर साधना की सिद्धि के बाद महावीर भगवान हो गये। भगवान भी अवधिज्ञानी थे। अध्यापक उन्हें जो पढ़ाना चाहता था वह की परिभाषा में कहा गया है - उनके लिए पूर्वज्ञात था। अन्त में अध्यापक को कहना पड़ा- 'आप
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये। स्वयंसिद्ध हैं। आपको पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। भगवान बुद्ध
बन्धं मोक्षं च यो वेत्ति स वाच्यो भगवानिति। के ज्ञान की, विशेषतः गणितज्ञान की अपारता देख उनके आचार्य
अर्थात् मन की प्रवृत्ति और निवृत्ति को, कर्त्तव्याकर्त्तव्य अर्जुन गणक महामात्य ने भी उनसे प्रायः यही कहा था -
को, भय से मुक्त होकर निर्भयता प्राप्त करने के उपाय को और ईदृशी ह्यस्य प्रज्ञेयं बुद्धिर्ज्ञानं स्मृतिर्मतिः
फिर बन्ध तथा मोक्ष को जो जानता है, उसे ही भगवान् कहते हैं। अद्यापि शिक्षते चायं गणितं ज्ञानसागरः। (ललितविस्तर)
कहना न होगा कि महावीर ने अपनी तपस्साधना से उक्त द्वंद्वों अर्थात् ज्ञान के समुद्रस्वरूप इनकी (बुद्ध की) विस्मय- को सम्यक रूप से जान लिया था, इसलिए उन्हें भगवान कहा कारिणी प्रज्ञा, बुद्धि, ज्ञान, स्मृति (स्मरणशक्ति) और मति जाने लगा। भगवान महावीर ने परम्परागत अहिंसा-धर्म को (मननशक्ति) है, फिर भी आज इन्हें गणित सिखाया जा रहा है, सामाजिक संदर्भ में सर्वथा नये ढंग से परिभाषित किया और यह आश्चर्य ही है। युवा होने पर महावीर का विवाह हुआ। सहज उसे जनजीवन की नैत्यिक जीवनधारा से जोडा। उन्होंने अहिंसाव्रत विरक्ति के कारण विवाहेच्छा न रहने पर भी माता-पिता के को इसी के अन्य चार रूप-परिणामों-सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अरमान और आग्रह को मूल्य देने के लिए उन्होंने विवाह किया। और अपरिग्रह से सम्बद्धकर पाँच व्रतों के रूप में उपस्थित किया। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार, महावीर ने विवाह प्रस्ताव-को भगवान महावीर द्वारा प्रवर्तित धर्म में हित है, अहित नहीं है। यथार्थवाद ठुकराकर अविवाहित रहना स्वीकार किया था। श्वेताम्बर-परम्परा है, अर्थवाद नहीं है (विशेष दृष्टव्य : मनन और मीमांसा, मुनिनथमल के अनुसार महावीर ने स्वदारसन्तोषित्व रूप ब्रह्मचर्य का पालन युवाचार्य महाप्रज्ञ)। श्रमण, ब्राह्मण, गृहस्थ या श्रावक और किया था। परवर्ती काल में स्वदारसन्तोषित्वं ब्रह्मचर्य सूत्र ही अन्यान्य दार्शनिक महावीर के इस धर्मसिद्धांत को कुतूहल के। 'एकनारी ब्रह्मचारी' कहावत के रूप में लोकप्रतिष्ठ हो गया। साथ सनने-अपनाने लगे। महावीर के धर्म-दर्शन के सिद्धांत
श्वेताम्बर-साहित्य के अनुसार महावीर का विवाह कौण्डिन्य अधिकतर उनके पट्टधर शिष्य सुधर्मास्वामी और उनके शिष्य -गोत्रीय क्षत्रियकन्या यशोदा से हुआ था, समणस्स णं भगवओ अंतिम केवली जम्बूस्वामी के प्रश्नोत्तर के रूप में निबद्ध हए हैं। tidndidadridadddddddresariwaririrani६ १/6droidminiidndidaidaddurindiamsimilarsvarodity
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म भगवान् महावीर ब्रह्माग्नि से दीप्त ऋषिकल्प महामानव अनन्तदर्शन, अनन्त आनंद और अनन्त तीर्थ के धारक बन गये थे। थे। इसलिए उनके चिन्तन में ज्ञान की बातें अधिक है। शास्त्र उनका अन्तःकरण सतत् क्रियाशील और आत्मान्वेषी हो गया था। की बातें कम। वे स्वयं ज्ञानावतार थे। ज्ञाता और ज्ञेय से परे। साधना की सिद्धि के बाद भगवान महावीर सर्वलोक ज्ञान प्रज्ज्वलित अग्नि की तरह है और शास्त्र ज्ञानाग्नि के बुझ और सर्वभाव जानने-देखने लगे थे। उनका साधनाकाल समाप्त जाने के बाद अवशिष्ट राख की तरह। ज्ञान की अग्नि सभी कोई हो गया था। अब वे सिद्धिकाल की मर्यादा में पहँच गये थे। सह नहीं पाते। शास्त्र की बात तो सभी संभाल लेते हैं। भगवान तपोजीवन के तेरहवें वर्ष के सातवें दिन वे केवली बन गये थे। महावीर ने शास्त्र की बातें नहीं की हैं। ज्ञान की बातें कही हैं, भगवान ने अपना पहला प्रवचन देव-परिषद में किया जिनका सम्बन्ध दुःखतप्त प्राणियों के आर्तिनाश से जुड़ा है।
था। अति विलासी तथा व्रत-संयम के अवमूल्यनकारी देवों की ज्ञान के अंगार से जूझना जितना असाधारण है, शास्त्र की राख ।
सभा में उनका पहला प्रवचन निष्फल हो गया। भगवान् जृम्भक को अपनाना उतना ही साधारण। शास्त्र की राख को मानव
ग्राम (जंभियगाम) से विहार कर मध्यम पावापुरी पधारे। वहाँ बदल सकता है, किन्तु ज्ञान की आग तो उसी को बदल देगी।
सोमिल नामक ब्राह्मण ने एक विराट् यज्ञ का आयोजन किया रूपान्तरित कर डालेगी। ज्ञान सत्य का ही पर्याय है, इसलिए
था। जिसकी पूर्ति के लिए वहाँ इंद्रभूति प्रमुख ग्यारह वेदविद् तीखा होता है, चुभने वाला। सत्य सदा अपराजित रहता है, किन्तु ।
ब्राह्मण आये हुए थे। धर्म के नव्य व्याख्याता भगवान् महावीर के नियति यह है कि सत्य के पक्षधरों को आजीवन असत्य के विरोध
पधारने की बात सुनकर उन ब्राह्मणों में पाण्डित्य का भाव उद्ग्रीव से जूझना पड़ता है। भगवान् महावीर भी यही नियति रही।
हुआ। इन्द्रभूति उठे और पराजित करने की भावना से अपने सभी भगवान् महावीर ऐसे अप्रतिम महाप्राज्ञ थे, जिनके हाथ शिष्यों के साथ वे महावीर के समवसरण में आये। में ज्ञान था, शास्त्र नहीं। शास्त्र यदि कीचड़ के समान है, तो ज्ञान
इंद्रभूति को जीव के बारे में संदेह था जिसे मनःपर्याय - कीचड़ में उत्पन्न कमल की तरह। महावीर ने अपने को शास्त्र
ज्ञानी भगवान ने उनके समक्ष रखा गया। इंद्रभूति विस्मित रह की कीचड़ से निकालकर कमल की तरह रूपान्तरित किया था।
गये। वे सहम गये। उन्हें अपने सर्वथा प्रच्छन्न विचार के भगवान्
सहा गये। उन्हें अपने सार ग्रहण करने के बाद भूसे की तरह ग्रन्थ का त्याग कर वह
द्वारा प्रकाशित किये जाने पर घोर आश्चर्य हुआ। उनकी अन्तरात्मा निर्ग्रन्थ हो गये थे। इसके अतिरिक्त वे भावविशुद्ध होने के
भगवान् के चरणों में झुक गयी। जीव और आत्मा को एक दूसरे कारण मन से भी निर्ग्रन्थ हो गये थे और बाहर से भी निर्ग्रन्थ या
का पर्याय मानने वाले भगवान् ने उनका संदेह-निवर्तन किया। अचेलप्राय हो गये थे। इस प्रकार, वे शास्त्र, मन और शरीर, तीनों
इंद्रभूतिप्रमुख (जिनमें अग्निभूति, वायभूति आदि वेदविदों ही स्तरों पर अपरिग्रही हो गये थे। इतना ही नहीं, उनकी ज्ञानाग्नि
के नाम उल्लेखनीय हैं) ग्यारहों ब्राह्मणविद् उठे, भगवान को के चतुर्दिक उठने-बैठने वाले भी उनसे अपने को रूपान्तरित
नमस्कार किया और उनके शिष्य बन गये। भगवान ने उन्हें छह करने की प्रेरणा प्राप्त करते थे। किन्तु हैरानी की बात यह है कि
जीवनिकाय (पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, त्रसकायिक) जिस प्रकार धर्म का विरोध अधार्मिक नहीं करते वरन् तथाकथित
पाँच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) धार्मिक करते हैं। उसी प्रकार महावीर का विरोध सच्चे ज्ञानियों
तथा पच्चीस भावनाओं (पच्चीस प्रकार के आत्मपर्यवेक्षण) से नहीं, तथाकथित ज्ञानियों, यानी शास्त्र की राख के पूजकों ने
का उपदेश दिया। गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति जैनवाङ्मय में गौतम किया। किन्तु विस्मय की बात यह है कि भगवान् महावीर का
नाम से प्रतिष्ठित हुए। वहीं भगवान् के प्रथम गणधर और ज्येष्ठ विरोध ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, उनके धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्त
शिष्य बने। भगवान् के साथ इनके संवाद और प्रश्नोत्तर इनके विस्तार पाते चले गये। बाईस परीषहों को सहन करने वाले
इसी नाम से उपलब्ध होते हैं। भगवान् महावीर प्रकृतिविजेता हो गये थे। बारह वर्ष और साढे छह मास तक कठोर चर्या का पालन करते हुए वे आत्मसमाधि में
भगवान् महावीर की तपःपूत वाणी ने श्रमणों को तो लीन रहे। भगवान् साधनाकाल में समाहित हो गये थे, अपने-आप
आकृष्ट किया ही अनेक ब्राह्मणों अन्यतीर्थिक संन्यासियों और में केवली एकमेक हो गये थे। वे अनन्त चतुष्टय, अनन्तज्ञान,
परिव्राजकों को भी आवर्जित किया। वे भगवान् पार्श्वनाथ की
चातुर्यामिक धर्मपरम्परा के श्रमण, भगवान् महावीर के शिष्य ఆరుసారంగారరరరరరరరరరర
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म बनकर उनके पाञ्चयामिकतीर्थ में सम्मिलित हो गये। महावीर हुआ। वैशाली गणराज्य के अट्ठारह सदस्य-राजाओं में नौ मल्लि थे ने पार्श्वनाथ के अहिंसा, सत्य अस्तेय, अपरिग्रहमूलक चातुर्यामिक और नौ लिच्छवि। वे सभी महावीर-धर्म के उपासक थे। धर्म में ब्रह्मचर्य को जोड़कर पाञ्चयामिक धर्म का प्रवर्तन किया उस युग में शासक-सम्मत धर्म को अधिक मूल्य मिलता था। अपरिग्रह को स्वच्छन्द यौनाचार से जोड़कर उसकी व्याख्यान था। इसलिए राजाओं का धर्म के प्रति आकृष्ट होना स्वाभाविक करने वाले 'वक्रजड़' लोगों से समाज को बचाने के लिए था। जैन धर्म ने समाज को अपना अनगामी बनाने के यत्न के भगवान् ने ब्रह्मचर्य को व्रत के रूप में स्वीकार किया। साथ ही उसे व्रतनिष्ठ बनाने पर भी बल दिया। तत्कालीन जैन
धर्म के संघीय प्रयोगों के तहत भगवान् महावीर ने सम्यक् श्रावक सत्य की आराधना के साथ ही सामाजिक दोषों से भी श्रद्धा पर बल दिया। उनकी मान्यता थी कि सम्यक् श्रद्धा से बचने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। भगवान् महावीर ने समाज सम्यक्-असम्यक् सभी प्रकार के तत्त्व सम्यक् हो जाते हैं। के नैतिक, चारित्रिक और मानसिक स्वरूप के उत्कर्ष की जो उन्होंने स्त्रियों के साध्वी होने और मोक्ष पाने के अधिकार की आचारसंहिता दी है, उसका ऐतिहासिक और शाश्वत महत्त्व है। घोषणा करके अपने विशिष्ट मनोबल का परिचय दिया था। भगवान महावीर ने अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की। उनके शिष्यों में चौदह हजार साधु और छत्तीस हजार साध्वियाँ त्रिपटी पर अपने धर्म को विन्यस्त करके निश्चय ही समन्वयवादी थीं। साध्वियों का नेतृत्व महासती चंदनबाला को सौंपा गया था। या वर्ग-वर्णभेद से रहित समतावादी समाज की स्थापना पर दिगम्बर सम्प्रदाय वाले स्त्रियों को मोक्ष की अधिकारिणी नहीं बल दिया था। उन्होंने अहिंसा के द्वारा सामाजिक क्रांति, अपरिग्रह मानते। पुरुष-योनि में आने पर ही उनका मोक्ष पाना संभव है। के द्वारा आर्थिक क्रांति एवं अनेकान्त के द्वारा वैचारिक क्रांति
भगवान महावीर धर्म और चारित्र के जीवित प्रतिरूप थे। का उद्घोष किया था। अवश्य ही ये उनके सामाजिक तथ्यान्वेषण उनके अनुत्तर संयम को देखकर मगध-सम्राट श्रेणिक (बिम्बिसार) के युगान्तरकारी परिणाम हैं। कोई भी आत्मसाधक युगपुरुष उनका उपासक बन गया। सम्राट अपने जीवन के पूर्वकाल में सामाजिक व्यवस्था के आधारभूत तथ्यों की उपेक्षा नहीं कर भगवान् बुद्ध का उपासक था। उसकी पट्टमहिषी चेलना भी सकता। महावीर ने पददलित लोगों को सामाजिक सम्मान देकर महावीर की उपासिका बन गयी। सम्राट ने रानी को बौद्ध और उनमें आत्मभिमान की भावना को उबुद्ध किया। उन्होंने हरिकेशी रानी ने सम्राट को जैन बनाने के प्रयत्न किये। पर दोनों अपने जैसे चाण्डाल को गले लगाया, तो स्त्रियों को पुरुषों के समकक्ष सिद्धान्त पर अविचल रहे। अन्त में सम्राट को झुकना पड़ा। वे प्रतिष्ठा की अधिकारिणी घोषित किया। जैन बन गये (उत्तराध्ययन-२०)।
भगवान महावीर ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के वैशाली अट्ठारह देशों या जनपदों का समेकित गणराज्य लिए तत्कालीन जनभाषा प्राकृत का माध्यम स्वीकार किया। थी, जिसके प्रमुख महाराजा चेटक थे। वे भगवान् महावीर के यह उनकी जनतांत्रिक दृष्टि के विकास का प्रबल परिचायक पक्ष मामा थे। जैन-श्रावकों में उनका विशिष्ट स्थान था। वे बारह है। भगवान् महावीर का युग क्रियाकाण्डों का युग था। महाभारत व्रतों (पाँच अणुव्रत एकदेशीय अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य की विनाशलीला का प्रभाव अभी जनमानस पर बना हुआ था। और अपरिग्रहव्रत; तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) का अनुपालन जनता त्राण खोज रही थी। अनेक दार्शनिक उसे परमात्मा की करने वाले श्रावक थे। उनके सात कन्याएँ थी। वे जैनश्रावक के शरण में ले जा रहे थे। समर्पण या आत्मनिवेदन का सिद्धान्त सिवा किसी अन्य के साथ अपनी कन्याओं का विवाह नहीं बल पकड़ रहा था। श्रमण-परम्परा इसका विरोध कर रही थी। करते थे। राजा श्रेणिक ने चेलना के साथ कूटनीतिक ढंग से भगवान् पार्श्वनाथ के निर्वाण के बाद किसी शक्ति-शाली नेताविवाह किया था। चेटक के सभी जामाता प्रारंभ से ही जैन थे। पुरुष का अभाव बना रहा, इसलिए उसका स्वर जनजीवन का श्रेणिक भी बाद में जैन बन गया।
ध्यानाकर्षण नहीं कर सका। क्रांतदर्शी शलाकापुरुष भगवान् अपने दौहित्र कणिक (अजातशत्र) के साथ चेटक का भीषण महावीर ने उस स्वर को पुनः तीव्रता प्रदान कर उसे ततोऽधिक यद्ध हआ था। संग्रामभूमि में भी चेटक अपने व्रतों का पालन करते जनसम्प्रेषणीय बनाया। इसलिए आज उनके सदियी सिद्धान्त थे। उनके समय वैशाली गणराज्य में जैनधर्म का प्रभत प्रचार राष्ट्रकल्याण की दृष्टि से अधिक प्रासंगिक हो गये हैं। tamansamanariramidddddrianarsidasar६३-diriduniramidnidadidasriramidaiaasantansard
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म ऋषभनाथ : श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतियों के समन्यय-सेतु
विद्यावाचस्पति डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव भिखना पहाड़ी, पटना.....
तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव मलतः वैदिक परम्परा के 'ऋषभ' या 'वृषभ' शब्द का भी ऋग्वेद में भरिश: उल्लेख प्रतिष्ठित प्रागैतिहासिक शलाकापुरुष हैं। वे इसी परम्परा से पाया जाता है, जिसका अर्थ बल-वीर्य से सम्पन्न देवता है। श्रमण-परम्परा में प्रस्थित हुए हैं। उनकी तीर्थयात्रा की पदचाप एक मन्त्र इस प्रकार है - ब्राह्मण-परम्परा से श्रमण-परम्परा तक समभाव से अनुगृजित यः सप्तरश्मिभिर्वृषभस्तविस्मान, है। जैन-परम्परा ऋषभदेव से ही अपने धर्म का उदभव मानती।
अवासृजत् सर्त्तवे सिन्धून् । (२.१२.१२) है। वैदिक साहित्य के तहत ऋग्वेद में जिस ऋषभदेव का यहां. 'वृषभ' का अर्थ मेघ की शक्ति को रोकने वाला देवता है। उल्लेख मिलता है, वही जैनधर्म के ऋषभनाथ हैं। ऋषभदेव पुनः दूसरा मन्त्र है - ब्राह्मण-धर्म और श्रमण-धर्म के समन्वय-बिन्दु के रूप में त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति। (४.५८.३) लोकादृत तीर्थपुरुष हैं।
यहाँ 'वृषभ' शब्द का अर्थ सुख बरसाने वाला है। ऋग्वेद प्राच्य वाङ्मय में 'आहत' और 'बार्हत' शब्द दो सांस्कृतिक के ही अंगभूत तैत्तिरीय आरण्यक में 'ऋषभ' शब्द का महा या धार्मिक परम्पराओं के लिए उपलब्ध होते हैं। 'आर्हत' अर्हत् बलशाली के अर्थ में स्पष्ट उल्लेख हआ है : 'ऋषभं वाजिनं के उपासक थे और 'बार्हत' वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानोंके आराधक वयं पर्णमासं यजामहे।' (३.७.५.१३) अर्थात महाबलशाली. थे। 'बहती' वेद का वाचक है। बृहती के उपासक ही 'बार्हत' हैं। वेगवान पूर्णमास की हम पूजा करते हैं। बार्हत वैदिक यज्ञकार्य को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। आर्हतों और बार्हतों
अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में भी 'ऋषभ' शब्द का स्पष्ट अथवा श्रमण-परम्परा और ब्राह्मण-परम्परा के बीच किसी
उल्लेख उपलब्ध होता है - 'वैश्वानरं विभ्रती भूमिरग्निमिन्द्र प्रकार की ऐतिहासिक विभाजन-रेखा खींचना निश्चित तौर पर ।
ऋषभा द्रविणे नो दधातु।' (१२.१.६) यहाँ विश्वम्भरा वसुमती सम्भव नहीं है। दोनों ही परम्पराएँ समानान्तर विकसित हैं।
पृथ्वी को 'ऋषभा' कहा गया है। 'अर्हत्' शब्द के ही समानांतर 'अहं' और 'अर्हणा' शब्द
इस प्रकार ऋग्वेद तथा अन्य वेदों में पूज्यतासूचक अर्ह ऋग्वेद में मिलते हैं, जो पूज्य और श्रेष्ठ के वाचक हैं। जैसे
(अर्हत्) तथा 'ऋषभ' (बलशाली देवता) के उल्लेख से अनुमान नृचक्षसो अनिमिषन्तो 'अर्हणा' बृहददेवासो अमृतत्वैमानशः।
औ
र (ऋक्. 10.63.4) अंक हिन्दी के 1,2,3.....रखें से ही प्रारम्भ हो गई थी, जिसका पूर्णतम विकास महाभारत - यहाँ 'अर्हणा' शब्द पूजा या सम्मान का द्योतक है। शाब्दिक कालवा उपनिषद्का
काल या उपनिषद् काल में परिलक्षित होता है। 'वृषभ' और 'ऋषभ' अर्थ है - पूज्य। इसी प्रकार ऋग्वेद का एक मन्त्रांश है -
शब्द यद्यपि विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, तथापि उनका केन्द्रीय
भाव बलशाली देवता ही है। कहीं उनका वर्णन बैल, साँड (वृषभो यदर्यो अर्हाद' द्युमद् विभाति क्रतुमद् जनेषु।
न तिग्मश्रृङगोऽन्तप॒थेषु रोरुवत - ऋक्. १०.८६.१५, 'बृहन्तं (2.23.15)
चिदृहते रन्धयानि वयद्वत्सो वृषभं शूशुवानः। तत्रैव १०.२८.९) यहाँ भी 'अर्ह शब्द योग्य और आदरणीय या पज्य अर्थ
मेघ ('अभ्रादिव प्र स्तनयन्ति वृष्टयः सिन्धुर्यदेति वृषभो का ही वाचक है।
न रोरुवत् -' ऋक् १०.७५.३) और अग्नि के रूप में हुआ है,
तो कई जगह कामनाओं की पूर्ति या कामनाओं की वर्षा करने imramramramorintramosiombrambirambirambirambiramo namoral et pastraminismo moramo vamseriens sentimoriam riservations
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
वाले के अर्थ में। ऋषभ ही रुद्र हैं और परमात्मा भी । ब्राह्मणों के शिव ही श्रमणों के ऋषभ हैं।
ज्ञातव्य है कि जैनागमों में ऋषभदेव को धर्म का आदि प्रवर्तक कहा गया है, तो श्रीमद्भागवत् में ऋषभदेव के अवतार को रहस्य या अभिप्राय के सन्दर्भ में बताया गया है कि उनके आविर्भाव का उद्देश्य वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म का विवेचन करना था। इस सन्दर्भ का मूल रूप इस प्रकार है.
-
"इति निशामयन्त्या मेरुदेव्याः पतिमभिधायान्तर्दधे भगवान्। बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त - भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान्दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्व मन्थिनां शुक्लया तनुवावततार " । ( ५.४.२० )
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श्रीमद्भागवत् में ऋषभदेव को भगवान् माना गया है। और उनकी प्रार्थना में सादर यह श्लोक कहा गया है
-
नित्यानुभूतनिजलाभनिवृत्ततृष्णः, श्रेयस्यतद्रचनया चिरसुप्रबुद्धेः । लोकस्य यः करुणया भयमात्मलोकमाख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ।। ( ५.७.१९ )
अर्थात् निरंतर विषय-भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को, जिन्होंने करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश किया और जो स्वयं निरंतर अनुभव होने वाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति के कारण सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार है।
इससे स्पष्ट है कि श्रमण और ब्राह्मण दोनों परम्पराओं में विशुद्धचरित ऋषभदेव का समान आदर था। दोनों परम्पराओं ने उन्हें पूज्य माना है। ऋषभदेव जैनों के आदि तीर्थंकर हैं, तो वैदिकों के लिए साक्षात् विष्णु के अवतार हैं। 'अर्ह' या अर्हत् का एक अर्थ विष्णु भी है (दे. आप्टे का कोश ) । शिवपुराण के अनुसार अट्ठाईस योगावतारों में ऋषभदेव की भी गणना हुई है। श्रीमद्भागवत् के ही अनुसार ऋषभदेव ने पश्चिमी भारत (बृह्मावर्त) में आर्हत धर्म का प्रचार किया था। वे महान् योगेश्वर थे। एक बार इन्द्र ने ईर्ष्यावश उनके राज्य (अजनाभखण्ड) में अवृष्टि की स्थिति उत्पन्न कर दी, किन्तु उन्होंने योगबल से वृष्टि करा दी ( ५.४.४) । उन्होंने अपने शरीर का त्याग योगियों को देहत्याग की विधि सिखाने के लिए ही किया था ) अथैवमखिललोकपालललामोऽपि विलक्षण
For Private
जडवदवधूतवेषभाषाचारितैरविलक्षितभगवत्प्रभावो योगिनां साम्परायविधिमनुशिक्षयन् स्वकलेवरं जिहा
सुरात्मन्यात्मानमसंख्यवहितमनर्थान्तरभावेनान्वीक्षमाण उपरतानुवृत्तिरूपरराम।" तत्रैव ५.६.६)
'श्रीमद्भागवत् के उल्लेखानुसार भगवान् ऋषभदेव का अवतार रजोगुण से लिप्त लोगों को मोक्षमार्ग की शिक्षा देने के लिए ही हुआ था 'अयमवतारो रजसोपप्लुतकैवल्योप
शिक्षणार्थ : (५.६.१२) ।
इस प्रसंग से और फिर भागवत में वर्णित ऋषभदेव की अन्य विशेषताओं से तत्त्वार्थ सूत्र का यह मंगलश्लोक तुलनीय हैमोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ।।
ऋषभदेव ने अपने नाम की सार्थकता के बारे में स्वयं
कहा है
इदं शरीरं मम दुर्विभाव्यं, सत्त्वं हि मे हृदयं यत्र धर्मः ।
पृष्ठे कृतो मे यद धर्म आराद्,
अतो हि मामृषभं प्राहुरार्याः ।। (५.५.१९ )
अर्थात् मेरे इस अवतार - शरीर का रहस्य साधारण जनों लिए बुद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध सत्त्व ही मेरा हृदय है और उसी में धर्म की स्थिति है। मैंने अधर्म को बहुत दूर पीछे धकेल दिया है, इसी बलशालिता के कारण सत्पुरुष मुझे ऋषभ पुरुष कहते हैं।
श्रीमद्भागवत् के अनुसार ऋषभदेव आत्मतत्त्व की जिज्ञासा (परामवस्तावदबोधजातो- ५ . ५. ५) तथा अध्यात्म-शास्त्र के अनुशीलन (अध्यात्मयोगेन विविक्तसेवया - ५.५.१२) को सर्वाधिक मूल्य देते थे, किन्तु परवर्तीकाल के आर्हतों ने अवतारवाद और ईश्वरतत्त्व का अवमूल्यन कर दिया। वे अवश्य ही अर्हतों के उपासक थे, आत्मा को ही सर्वश्रेष्ठ मानने वाली अध्यात्मवादी परम्परा को स्वीकारते थे, पर अवतार या ईश्वर को मूल्य नहीं देते थे। इस प्रकार अवतार और ईश्वर को मूल्य न देने पर भी श्रमणों और ब्राह्मणों का आत्मतत्त्व मूलक केन्द्रीय भाव एक ही था।
ऋषभ शब्द की तरह 'वातरशना' का भी उल्लेख ऋग्वेद में आया है -
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मलाः।
है। केशी ही प्रकाशमान (ज्ञानमय) ज्योति (केवल-ज्ञानी) है। वातस्थानुधााजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत् ।।
वातरशना मुनि से सम्बद्ध इस सूक्त में कुल सात मन्त्र हैं, उन्मदिता मौनेयेन वातां आ तस्थिमा वयम्।
जिनमें छठा और सातवाँ मन्त्र भी केशी की स्तुति से ही सम्बद्ध शरीरदेस्माकं यूयं मासो अभि पश्यथ ।।
है। ऋग्वेदोक्त केशी देवता ऋषभदेव का ही पर्याय है। (१०.१३६.२-३)
ऋषभदेव का केशी विशेषण इस अर्थ में सार्थक है कि अर्थात् अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते
उनके केश बड़े खूबसूरत और धुंघराले हैं। उनका रूप-सौंदर्य
हो हैं या वे मलिन प्रकाश वाले हैं। इसी कारण वे पिंगलवर्ण के हैं। कामदेव के भी दर्प को चर करने वाला था। भागवत में उपलब्ध जब वे प्राणोपासना द्वारा वाय की गति धारण करते हैं, तब प्राणायाम
उनके नखशिख का वर्णन सौन्दर्य-शास्त्रियों के अध्ययन का रूप तप की महिमा से दीप्त देवत्व को प्राप्त कर लेते हैं।
उपजीव्य बन सकता है : 'अतिसुकुमारकरचरणोर:स्थलविपुल सब प्रकार के लोक-व्यवहार का त्याग कर हम मौनवृत्ति -बाह्रसगलवदनाद्यवयवविन्यासः प्रकृतिसुन्दरस्वभावहाससुमुखो से या मननशील अन्तःकरण से अतिशय हर्षित होते हैं और नवनलिनदलायमानशिशिरतारारुणायतनयनरुचिर: वायु पर आधृत हो जाते हैं, यानी देहाभिमान से मुक्त घ्यानवृत्ति सदृशसुभगकपोलकर्णकण्ठनासो विगूढस्मितवदनमहोत्सवेन में स्थित हो जाते हैं। फलतः तुम साधारण मनुष्य हमारे केवल पुरवनितानां मनसि कुसुमशरासनमुपदधानः परागलम्बमान बाह्य शरीर मात्र को ही देख पाते हो। सच्चे आभ्यन्तर स्वरूप कुटिलजटिलकपिशकेशभूरिभारो ...।" (५.६.३१) को नहीं (ऐसा वातरशना मनि कहते हैं)।
अर्थात ऋषभदेव के हाथ-पैर. छाती. लम्बी-लम्बी बाँहें, ऋग्वेद में वर्णित वातरशना मुनि वे ही हैं, जिन्हें भागवत् कंधे, गले और मुख आदि अंगों की बनावट बड़ी सुकुमार थी, के अनुसार ऋषभदेव ने उपदेश दिया था। भागवत् में यह भी उनका स्वभावतः सुन्दर मुख, स्वाभाविक मधुर मुस्कान से उल्लेख है कि अपने पुत्र भरत को राज्याभिषिक्त करने के बाद और भी मनोहर जान पड़ता था, नेत्र नवीन कमलदल के समान स्वयं ऋषभदेव भी वातारशना मुनि की भाँति अवधूत हो गए थे : बड़े सुहावने, विशाल और कुछ लाली लिए हुए थे, जिनकी
___. भरतं धरणिपालनायाभिषिच्य स्वयं भवनण्वोर्वरित पुतलियाँ शीतल और संतापहारिणी थीं। अपने सभग नेत्रों के शरीरमात्रपरिशद उन्मान व धान रिण कारण वे बड़े रूप-मनोरम प्रतीत होते थे। उनके कपोल, कान आत्मन्यारोपिताहवनीयो ब्रह्मावर्तात्प्रवव्राज। जडान्धमूकबधिर
___ और नासिका आकृत्या समान और सुन्दर थे। उनके अस्फुट सोलोसिसमा हास्य-रंजित मनोहारी मुखारविन्द की शोभा देखकर पुरनारियों के गृहीतमौनव्रतस्तूष्णीं बभूव (५.५.२९)।
चित्त में कामदेव का संचार हो जाता था। उनके मनोज्ञ मुख के आगे
भरे रंग की लम्बी-लम्बी घंघराली लटें लटकी रहती थीं ...." इस प्रकार ऋग्वेद में संकेतित वातरशना मनियों के उपदेशक ऋषभदेव स्वयं भी वातरशना मुनियों के प्रमुख प्रमाणित होते हैं।
भगवान् ऋषभदेव के कुंचित केशों की परम्परा ऋग्वेद साथ ही ऋग्वेदवर्णित वातरशना मुनियों के लक्षण भागवत् के
में, वातरशना मुनियों के वर्णन के क्रम में, केशी नाम में प्राप्त ऋषभदेव में भी परिलक्षित होते हैं।
होती है और फिर यही वर्णन-परम्परा कुटिल-जटिल-कपिश
केशभूरिभारो श्रीमद्भागवत में भी मिलती है। जैन-परम्परा में ऋग्वेद के उक्त सूक्त में ही 'केशी' की स्तुति उपलब्ध होती है।
ऋषभदेव की मूर्तियों के सिरों पर कुंचित केशों की अंकनप्रथा यह 'केशी और कोई नहीं, वरन् ऋषभदेव ही हैं। मंत्र इस प्रकार है
प्राचीनकाल से चली आई है, जो आज भी कायम है। यह केश्यग्नि केशी विषं केशी विभर्ति रोदसी।
ऋषभदेव का विशेष अभिज्ञान है। केसर, केश और जटा तीनों केशी विश्वं स्वर्द्वशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ।।(१०.१३६.१)
एक ही अर्थ के वाचक हैं। ऋषभदेव को 'केसरियानाथ' भी केशी अग्नि, जल, स्वर्ग (आकाश) और पृथ्वी को धारण कहते हैं। सिंह भी अपने केशों या केसरों के कारण ही केसरी करता है। केशी समस्त जगत् को व्यापकता के साथ दृष्टिगत कराता कहलाता है। शब्दसाम्य के कारण केसरियानाथ पर केसर चढ़ाने
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
की प्रथा अवश्य चल पड़ी हो, परन्तु ऋषभदेव के 'केसरियानाथ' नाम का उनके कुंचित केशभार के कारण प्रचलित होना अधिक युक्तिसंगत है। 'वसुदेवहिण्डी' के वर्णनानुसार ऋषभ स्वामी के केश दक्षिणावर्त यानी दाईं ओर से घुँघराले और काले थे, जिससे उनका सिर छत्र के समान सुशोभित था : 'उसभसामी पत्त जोव्वणो या छत्तसरिससिरो पयाहिणावत्तकसिण सिरोओ।' (द्र. इन पंक्तियों के लेखक द्वारा अनूदित - सम्पादित संस्करण, १९८९ ई., पृ. ४९७)
कई विद्वान् वेदों का रचनाकाल ईसा से पाँच हजार वर्ष या इससे भी अधिक पूर्व मानते हैं, किन्तु इतिहासवेत्ताओं का एक ऐसा भी वर्ग है, जो वेदों की रचना ईसा से सिर्फ १५०० वर्ष पहले की बताता है। इससे स्पष्ट है कि ऋषभदेव इससे भी प्राचीन हैं, तभी तो वेदों में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। इस प्रकार जैन-धर्म या जैन विषयक सन्दर्भ ऋग्वेदकालीन ही नहीं, ऋग्वेद-पूर्ववर्ती हैं।
उक्त साक्ष्य-सन्दर्भों से स्पष्ट है कि ऋग्वेद के वातरशना मुनियों और भागवत के वातरशना श्रमण ऋषियों में सहज समानान्तरता है। इनके ही अधिनायक ऋषभदेव का जैन - साहित्य
में और श्रीमद्भागवत में एक जैसा ही वर्णन मिलता है। इससे यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि जैन परम्परा की तरह जैनेतर परम्परा में भी ऋषभदेव की मान्यता थी और उनकी पूजा - प्रार्थना या आराधना - उपासना दोनों परम्पराओं में समान भाव से प्रचलित थी ।
इस प्रकार यह सिद्ध है कि समस्त आर्य जाति में समान रूप से ऋषभदेव की न्यूनाधिक मान्यता अति प्राचीनकाल से ही विद्यमान रही है। इससे इस धारणा को भी बल मिलता है कि ऋषभ समग्र आर्यप्रजा के अर्हणीय देव हैं, साथ ही वे ब्राह्मण और श्रमण दोनों संस्कृतियों के समन्वय के सेतु-पुरुष हैं।
१.
२.
सन्दर्भ
ऋषभ देव के दिव्य चरित के अनुशीलन के लिए श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कन्ध के अध्याय तीन से छः द्रष्टव्य हैं।
विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य महावीर : व्यक्तित्व, उपदेश और आचारमार्ग : रिषभदास राँका प्र. भारत जैन महामण्डल, बम्बई, पृ.
१२-१३
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जैन साधना
एव आचार
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ब्रह्मचर्य-तपोत्तमम्
परमपूज्य व्याख्यानवाचस्पति आचार्यदेव श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज....y
भारतीय स्वर्णयुग के पावन प्रभात की प्रथम किरण ने जब माहात्म्य से आज कई शास्त्र भरे पड़े हैं, उन्होंने एक स्वर से वसुन्धरा के अंचल को अपनी चित्र-विचित्र रेखाओं से अलंकृत इसकी प्रशंसा कर अपनी शास्त्रीय सार्थकता सम्पादित की है। किया, तो उसके आलोक से आलोकित होकर परमोच्च पदासीन ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता हैअमरराज ने भी अपने देवताओं सहित स्वनामधन्य पुण्यप्रधान
कायेन मनसा वाचा, सर्वावस्थासु सर्वदा। इस भारत देश की मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी। उस समय हमारा
सर्वत्र मैथुनत्यागो, ब्रह्मचर्य प्रचक्षते।। यह देश कितना महत्त्वशाली एवं समृद्धि-वैभव वाला होगा, यह
शरीर, मन और वचन से सब आस्थाओं में सर्वदा और कल्पनातीत है? निम्नांकित पद्य से आज भी हम इस कथन को
सर्वत्र मैथुन-(संभोग)-त्याग को ब्रह्मचर्य कहते हैं। उपर्युक्त मत सत्य के अत्यधिक समीप पाते हैं।
से कायिक मानसिक और वाचिक ये तीन प्रकार के ब्रह्मचर्य होते गायन्ति देवाः किल गीतकानि,
हैं। इन तीनों से ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे।
ब्रह्मचारी होने योग्य हैं। विविध ब्रह्मचर्य में मानसिक ब्रह्मचर्य ही स्वर्गापवर्गस्य च हेतुभूते,
सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि इसका पालन करने पर कायिक और वाचिक भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।।
ब्रह्मचर्य का स्वभावतः पालन हो जाता है। प्रायः बहुत से मनुष्य वस्तत: है भी यह ऐसा ही देश, जिसकी प्रशंसा में देवता मनोविज्ञान का महत्त्व न जानकर मानसिक ब्रह्मचर्य की अवहेलना गेत गाकर यह कहें कि स्वर्गापवर्ग को प्रदान करने वाली इस करते हैं। वे वास्तव में मूर्खता करते हैं। उन्हें यह मालूम नहीं कि भारतभूमि में वे ही धन्य हैं, जो देवता से पुनः पुरुष हो, इस भूमि मन की प्रेरणा से ही पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ प्रवृत्ति करती हैं। पर निवास करते हैं। इसकी महत्ता का एकमात्र कारण यही था ।
कहा गया भी है - कि हमारे देश के उस गौरव-गरिमामय वैभव-विकास के आश्रयभूत परम स्वार्थत्यागी एवं त्रिकालदर्शी मुनि, महर्षि तथा
यन्मनसा मनुते तद्वाचा वदति, महात्माओं ने सामाजिक जीवन को नियमबद्ध करने, ईश्वरीय
यद्वाचा वदति तत्कर्मणा करोति,
यत्कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते। सत्ता को स्थिर रखने तथा मानवीय सृष्टि को कुमार्गगामिनी होने से बचाने के उद्देश्य से अनेकानेक शास्त्रों की रचना के साथ वे जिसका मन में चिंतन किया जाता है, वही वाणी से निकलता अमूल्य, उच्च तथा स्वाभाविक विधान निर्मित किए जिनका है। जो कुछ वाणी से निकलता है, वही कर्म किया जाता है और जैसा अनुकरण कर हमारा यह देश सहज ही में वह गौरवमय परमोच्चपद कुछ कर्म किया जाता है वैसा उसका फल भी मिलता है। अतः मन प्राप्त कर सकता था। प्राचीन महर्षियों के प्रणीत सत्सैद्धान्तिक की स्पष्ट रूप से प्रधानता सिद्ध है। जो मनुष्य मन पर अधिकार नहीं विधानों में ब्रह्मचर्य को प्रथम और सर्वश्रेष्ठ स्थान मिला। संसार
कर सकता। वह किसी भी प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर
कर सकता। वह किसा भा प्रकार के की प्राथमिक अवस्था में यह उनकी अपूर्व योग्यता थी, जिसके
सकता। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। गीता में कहा फलस्वरूप कई शताब्दियों तक ब्रह्मचर्य-प्रथा का प्रचार धार्मिक
भी गया है कि 'मन एवं मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः।' प से भारत में ही नहीं समस्त भूमंडल में उत्तरोत्तर बढ़ता ही जिसकी मनःसाधना सिद्ध हो गई, वह दूसरे विषयों पर ग और ब्रह्मचर्यव्रतधारी तपोनिष्ठ भारत के गुरुतम गौरव को सहज ही अधिकार कर सकता है। अतः मानसिक ब्रह्मचर्य का माते रहे। अतएव यह निर्विवाद सिद्ध है कि भारत देश के पालन करना सर्वश्रेष्ठ है। एक पौराणिक शिक्षाप्रद कथा भी है - भारतीय गौरव का मूलतत्त्व ही ब्रह्मचर्य है। इसके महिमाशाली
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार किसी समय ब्रह्माजी तपोवन में तपस्या कर रहे थे। तपस्या जिन अज्ञानियों का यह मन्तव्य है कि "अपुत्रस्य गति स्ति, करते-करते उन्हें लगभग ३०० वर्ष बीत गए। यह देखकर इंद्र स्वर्ग नैव च नैव च" अर्थात पुत्ररहित पुरुष को मुक्ति नहीं को अत्यंत भय पैदा हुआ कि ऐसा न हो कि इनकी तपस्या मिलती। और स्वर्ग तो उसे कभी मिल ही नहीं सकता। यह सिद्ध होने पर मेरे इंद्रासन की मर्यादा लुप्त हो जाए? अतः इन्द्र ने कथन केवल अज्ञानमूलक है, क्योंकि प्राचीन समय में अनेक तिलोत्तमा अप्सरा को तपोभंग करने के लिए ब्रह्माजी के पास महर्षि, हनुमान, भीष्म पितामह आदि के पुत्र नहीं थे, परन्तु वे भेजा। उसने तपोवन में आकर अपने आकर्षक हाव-भाव तथा मुक्तिगामी हुए हैं। उन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य का परिपालन करके कटाक्षों द्वारा ब्रह्माजी पर अपना जादू डाला और उसका ऐसा मुक्ति प्राप्ति की है। पौराणिक कथन भी है कि 'स्वर्गं गच्छन्ति असर हुआ कि ब्रह्माजी अपने आपको अधिक न सँभाल सके। ते सर्वे, ये केचिद् ब्रह्माचारिणः' जो पूर्ण ब्रह्मचारी हैं वे सभी स्वर्ग अप्सरा जिस ओर अपने पाँव रखती, ब्रह्माजी उसी ओर वासनापूर्ण में जाते हैं, उनमें कतिपय में मोक्ष भी प्राप्त करते हैं। कामदृष्टि से टकटकी लगाकर निहारते रहे। अप्सरा थोड़े ही पत्रप्राप्ति होने से ही कोई मनष्य मोक्षाधिकारी या समय में इंद्र के पास लौट आई और ब्रह्माजी अपनी मानसिक
स्वर्गाधिकारी नहीं बन सकता। पुत्र यदि असदाचारी और लम्पट विह्वलता से यों ही तरसते रहे, वे अपनी तीन हजार वर्ष तक
हुआ तो उसकी चिंता से पिता के उभय लोक बिगड़ जाते हैं। की हुई तपस्या के फल से क्षण भर में हाथ धो बैठे। इसलिए
वह इस लोक में अशुभ गतियों का पात्र बन जाता है। इसी प्रकार सर्वप्रथम कायिक और वाचिक ब्रह्मचर्य के मूलभूत मानसिक
व्याभिचारी का पुत्र कभी सुयोग्य और सदाचारी नहीं बन सकता। ब्रह्मचर्य का पालन करना उचित एवं हितकर है। ब्रह्मचर्य के ।
वह अपने कुत्सित आचरणों द्वारा अपने विशुद्ध कुल को भी भेदोपभेद जानकर उसके महत्त्वतथा प्रभाव की ओर ध्यान देना
कलंकित किए बिना नहीं रहता। ब्रह्माचारी के पुत्र प्रतापी 'सदाचारी अनुचित एवं अप्रासंगिक न होगा।
और सदुपदेशशील होते हैं। किंवदन्ती भी है कि पारस के प्रसंग ब्रह्मचर्य की महिमा अपार है, वाणी या लेखनी से उसका से लोहा सोना बन जाता। अखण्ड ब्रह्मचारी पारस के समान है। वर्णन करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। ब्रह्मचर्य वह जिसके संसर्ग में अबोध व्यक्ति भी सुवर्ण सदृश गुणवान और उग्रव्रत है, जिसकी साधना से मनुष्य नर से नारायण (परमात्मा) जनपूज्य बन जाता है। ब्रह्मचर्य में कितनी शक्ति है? यह अब बनता है और वह सबका पूज्य होता है।
भलीभाँति समझ में आ सकता है। आचार्य देवश्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज लिखते हैं
ब्रह्मचर्य का पालन साधु, मुनि या संन्यासी ही कर सकता चिरायुषः सुसंस्थानां दृढ़संहनना नराः।
है, गृहस्थ नहीं' ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। ब्रह्मचर्य तो साधु तेजस्विनो महावीर्याः भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः।
और गृहस्थ दोनों का अमूल्य अलंकार है। केवल योग्यता और प्राणभूतं चरित्रस्य परब्रहैक कारणम्।
शक्ति के तारतम्य का ध्यान रखते हुए गृहस्थ एवं साधु की समाचरन् ब्रह्मचर्यं पूजितैरपि पूज्यते॥
ब्रह्मचर्य-मर्यादा में कुछ भेद है। गृहस्थ को अपनी विवाहिता जो मनुष्य विधिवत् ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वे चिरायु,
पत्नी के अतिरिक्त संसार की अन्य समस्त महिलाओं को माता सुंदर शरीर, दृढ़संहननी, तेजस्वितापूर्ण और बडे पराक्रमी होते व भगिनी की दृष्टि से देखना चाहिए। स्त्री-प्रसंग करते समय भी हैं। ब्रह्मचर्य सच्चरित्रता का प्राणस्वरूप है और परब्रह्मप्राप्ति ऋतुकालाभिगामा हाकर अपना मयादा का ध्यान रखना चाहिए। का मुख्य कारण है। इसका पालन करता हुआ मनुष्य पूज्य जो गृहस्थ त्रिधा (मन, वचन और काया) योग से अखण्ड लोगों के द्वारा भी पूजा जाता है।
ब्रह्मर्य का पालन करते हैं और कभी भी किसी प्रकार से इस प्रकार कई महर्षि, मुनि और शास्त्रों ने ब्रह्मचर्य की।
विकाराधीन नहीं होते, उनका यह व्रत असिधाराव्रत कहलाता महिमा गाई है और इसकी साधना से अमोघ सिद्धियाँ प्राप्त की
है। दिनकरी टीकाकार ने लिखा है कि एकस्यामेव शय्यायां मध्ये हैं। यहाँ तक कि अनन्त सुखमय मोक्षपद भी इसी से मिलता है।
खड्गं विधाय स्त्री पुंसौ यत्र ब्रह्मचर्येण स्वपितः तदसिधारा व्रतम् अर्थात् स्त्री पुरुष दोनों एक ही शय्या पर जहाँ ब्रह्मचर्य से शयन
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार करते हैं, कभी मन, वचन, काया को विकृत नहीं होने देते उसका दूसरे तप कुछ भी नहीं है, ब्रह्मचर्य ही सर्वोत्तम तप है। का असिधाराव्रत है। संसार में ऐसे स्त्री-पुरुष विरले ही हैं। जिसने अपने वीर्य को वश में कर लिया वह मनुष्य नहीं देवता जैन-शास्त्रों में इसके विषय में विजय सेठ-सेठानी का उदाहरण है। यह जानकर अमोघ फल प्रदान करने वाले ब्रह्मचर्य तप की विद्यमान है। शास्त्रकार इस प्रकार के ब्रह्मचारियों के विषय में साधना करनी चाहिए। स्पष्ट कहते हैं -
___ पुरुषों के समान महिलाओं लिए भी अपने शील की देव दाणव गंधबा, जक्ख रक्खस किन्नरा।
सर्वप्रकार से रक्षा करना अत्यावश्यक है। स्त्रियाँ भी तीन प्रकार बंभयारी नमस्संति, दुक्करं जे करेंति ते॥
की होती हैं। उत्तम, मध्यम और जघन्य। जो स्त्रियाँ अपने पति जो मनुष्य असिधारा व्रत के समान ब्रह्मचर्य का पालन के अनकल रहकर अपने शीलव्रत का अखंड रूप से पालन करते हैं उनको देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किनर आदि करती हैं. मन, वचन और काया से कभी परपरुष का स्मरण सभी नमस्कार करते हैं। काल के प्रभाव से उस सुवर्ण-युग का
नहीं करतीं और न उसे देखने में अभिलाषा रखती हैं। परिचित अन्त हो गया और वह किरण भी प्रायः सदा के लिए अस्त हो
या अपरिचित अन्य पुरुषों के साथ एकान्त स्थल में न कभी गई। तभी तो आज सर्वत्र असदाचार व व्यभिचार आदि का घोर
वार्तालाप करती हैं और न किसी प्रकार का संपर्क रखती हैं। अंधकार छाया हुआ है। इसी अंधकार में साधु और गृहस्थ
अपने पति से संतुष्ट रहकर उसके चित्त में कभी उद्वेग पैदा नहीं अज्ञानी एवं कामी बनकर अपने कर्तव्य से च्युत हो गए। जहाँ
होने देती। यदि पैदा हुआ भी तो उसको दूर करने का प्रयत्न गृहस्थ को केवल स्वदारा संतोष-व्रत का अधिकार था, वहाँ वह अपनी वासनापूर्ति के लिए कई अन्य अबलाओं का सतीत्व
करती हैं। पति एवं कुटुम्बियों को सदाचाररत बनाती हैं और नष्ट करने में नहीं चूकता। इसी प्रकार जहाँ साधु को एकान्तवासी
अपनी होशियारी से कभी उनको कमार्गगामी नहीं होने देती हैं, बनकर मानसिक ब्रह्मचर्य-तप की सर्वोत्तम साधना करनी थी. वे स्त्रिया उत्तम स्त्रियाँ हैं। वहाँ वह बिना किसी व्यवधान के सुन्दरियों से प्रेमालाप और जो स्त्रियाँ अपने पति को तो किसी प्रकार का सन्ताप नहीं उनके सम्पर्क में पकड़कर अपने अमूल्य ब्रह्मचर्य को दूषित देती और अपने शील को भी खण्डित नहीं होने देती. परन्त करने में भी नहीं हिचकता। यह है विषम दशा आज के देश और
बार अपने कुटुम्ब को अनुकूल नहीं बना सकती। कभी-कभी
अपने काम्ब: समाज की जिसे देखकर हृदय आन्तरिक वेदना से सन्तप्त हुए
कौटुम्बिक वातावरण अशान्त बनाकर अपने पति के सन्ताप
और बिना नहीं रहता। अतएव आत्मोन्नति और लोकोपकार के लिए
का कारण बन जाती है। अपने स्वार्थ के लिए घरं की परिस्थिति प्रत्येक गृहस्थ एवं साधु को
को लक्ष्य में न रखकर हठाग्राह या मनमुटाव का, चिंता या न तपस्तप इत्याहुब्रह्मचर्यं तपोत्तमम्।
परेशानी का कारण बनी रहती है। ऊर्ध्वरेता भवेद् यस्तु स देवो न तु मानवः।।
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ब्रह्मचर्य : स्वरूप एवं साधना
राष्ट्रसन्त उपाध्याय अमर मुनि......)
ब्रह्मचर्य की प्रशंसा कौन नहीं करता? हमारे शास्त्र ब्रह्मचर्य किसी पात्र को जंग लग गई है, किसी धातु के बरतन की चमक की महिमा का गान करते हुए कहते हैं -
कम हो गई है, तो चमक लाने के लिए माँजने वाला उसे घिसता
है, उसे साफ करता है। तो ऐसा करके वह कोई नई चमक उसमें देवदाणवगंधव्वा, जक्खरवखसकिन्नरा। वंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेन्ति तं॥
पैदा नहीं करता है। उस बरतन में जो चमक विद्यमान है और जो जो महान् पुरुष दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, समस्त
बाह्य वातावरण से दब गई या छिप गई है, उसे प्रकट कर देना ही दैवी शक्तियाँ उनके चरणों में सिर झुका कर खड़ी हो जाती है।
माँजने वाले का काम है। सोना, कीचड़ में गिर गया है और देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर ब्रह्मचारी के चरणों
उसकी चमक छिप गई है। उसे साफ करने वाला सोने में कोई में लोटते हैं।
नई चमक बाहर से नहीं डाल रहा है, सोने को सोना नहीं बना
रहा है, सोना तो वह हर हालत में है ही। जब कीचड़ में नहीं पड़ा परन्तु हमें यह जानना है कि ब्रह्मचर्य कैसे प्राप्त किया
था, तब भी सोना था और जब कीचड़ से लथपथ हो गया, तब जाता है और किस प्रकार उसकी रक्षा हो सकती है?
भी सोना ही है और जब साफ कर लिया गया, तब भी सोने का इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए एक बात पहले समझ सोना ही है। उसमें चमक पहले भी थी और बाद में भी है। बीच लेनी चाहिए। वह यह है कि ब्रह्मचर्य का भाव बाहर से नहीं में, जब वह कीचड़ में लथपथ हो गया, तो उसकी चमक दब लाया जाता है। वह तो अन्तर में ही है, किन्तु विकारों ने उसे दबा गई थी। माँजने वाले ने बाहर से लगी हुई कीचड़ को साफ कर रक्खा है।
दिया, आए हुए विकार को हटा दिया तो सोना अपने असली जैन-धर्म ने यही कहा है कि बाह्य में ऐसी कोई भी नई रूप में आ गया। चीज नहीं है, जो इस पिण्ड में न हो। केवल ज्ञान और केवल आत्मा के जो अनन्त गुण हैं, उनके विषय में भी जैन-धर्म दर्शन की जो महान् ज्योति मिलती है, उसके विषय में कहने को की यही धारणा है। जैन-धर्म कहता है कि गुण बाहर से नहीं तो कहते हैं कि वह अमुक दिन और अमुक समय मिल गई, आते हैं, वे अन्दर ही रहते हैं। परन्तु आत्मिक विकार उनकी
कोई नवीन चीज नहीं मिलती है। हम केवल चमक को दबा देते हैं। साधक का यही काम है कि वह उन ज्ञान, केवल दर्शन और दूसरी आध्यात्मिक शक्तियों के लिए विकारों को हटा दे। विकार हट जाएँगे तो आत्मा के गुण अपनी आविर्भाव शब्द का प्रयोग करते हैं। वस्तुत: केवल ज्ञान आदि असली आभा को लेकर चमकने लगेंगे। शक्तियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, आविर्भूत होती हैं। उत्पन्न होने का हिंसामय विकार को साफ करेंगे तो अहिंसा चमकने लगेगी। अर्थ नई चीज का बनना है, और आविर्भाव का अर्थ है - असत्य का सफाया करेंगे तो सत्य चमकने लगेगा। इसी प्रकार विद्यमान वस्तु का, आवरण हटने पर सामने आ जाना। स्तेय-विकार को हटाने पर अस्तेय और विषय-वासना को दूर
जैनधर्म प्रत्येक शक्ति के लिए आविर्भाव शब्द का प्रयोग करने पर संयम की ज्योति हमें नजर आने लगती है। जब क्रोध करता है, क्योंकि किसी वस्तु में कोई भी अभूतपूर्व शक्ति को दूर किया जाता है तो क्षमा प्रकट हो जाती है और लोभ को उत्पन्न नहीं होती है।
हटाया जाता है तो सन्तोष गुण प्रकट हो जाता है। अभिमान को तो आत्मा की जो शक्तियाँ हैं, वे अन्तर में विद्यमान हैं दूर करना हमारा काम है, किन्तु नम्रता पैदा करने का कोई काम किन्तु वासनाओं के कारण दबी रहती हैं। हमारा काम उन
नहीं। वह तो आत्मा में मौजूद ही है। इसी प्रकार माया को हटाने वासनाओं को दूर करना है। इसी को साधना कहते हैं। जैसे के लिए हमें साधना करनी है, सरलता को उत्पन्न करने के लिए
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं है। सरलता तो आत्मा का ऐसी कुभावना से क्या लाभ। स्वभाव ही है। माया के हटते ही वह उसी प्रकार प्रकट हो प्रत्येक वासना हिंसा है. ज्वाला है और वह आत्मा को जाएगी, जैसे कीचड़ धुलते ही सोने में चमक आ जाती है। जलाती है। अपने विकारों द्वारा हम तो नष्ट हो ही जाते हैं; फिर
जैन-धर्म में आध्यात्मिक दृष्टि से गुणस्थान का बड़ा ही दूसरों को हानि पहुँचे या न पहुँचे। वातावरण अनुकूल मिल सुन्दर और सूक्ष्म विवेचन किया गया है। एक-एक गुणस्थान, गया तो दूसरों को हानि पहुँचा दी और न मिला तो हानि न पहँचा उस महान् प्रकाश की ओर जाने का सोपान है । किन्तु उन सके। किन्तु अपनी हानि तो हो ही गई। दूसरों की परिस्थितियाँ गुणस्थानों को पैदा करने की कोई बात नहीं बतलाई है। यही और दूसरों का भाग्य हमारे हाथ में नहीं है। अगर वह अच्छा है बताया है कि अमुक विकार को दूर किया तो अमुक गुणस्थान तो उन्हें हानि कैसे पहुँच सकती है? उन्हें कैसे जलाया जा सकता आ गया। मिथ्यात्व को दूर किया तो सम्यक्त्व की भूमिका पर है? परन्तु दूसरे को जलाने का विचार करने वाला स्वयं को आ गए और अविरति को हटाया तो पाँचवे-छठे गुणस्थान को जरूर जला लेता है। प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार ज्यों-ज्यों विकार दूर होते जाते हैं,
इस कारण हमारा ध्येय अपने विकारों को दूर करना है। गुणस्थान की उच्चतर श्रेणी प्राप्त होती जाती है।
प्रत्येक विकार हिंसा रूप है और यह नहीं भूलना चाहिए कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, विरक्ति आदि आत्मा के मूलभाव हैं। बाहर चाहे हिंसा हो या न हो, पर विकार आने पर अन्तर में हिंसा ये मूल भाव जब आते हैं तो कोई बाहर से खींच कर नहीं लाए हो ही जाती है। अतएव साधक का दृष्टिकोण यही होना चाहिए जाते। उन्हें तो सिर्फ प्रकट किया जाता है। हमारे घर में जो कि वह अपने विकारों से निरन्तर लड़ता रहे और उन्हें परास्त खजाना गढ़ा हुआ है, उसे खोद लेना मात्र हमारा काम है; उस पर करता चला जाए। लदी हुई मिट्टी को हटाने की ही आवश्यकता है। मिट्टी हटाई
विकारों को परास्त किया कि ब्रह्मचर्य हमारे सामने आ और खजाना हाथ लग गया। विकार को दूर किया और आत्मा गया। इस विवेचना से एक बात और समझ में आ जानी चाहिए का मूल भाव हाथ आ गया।
कि ब्रह्मचर्य की साधना के लिए आवश्यक है कि हम दूसरी इस प्रकार जैन-धर्म की महान् साधना का एकमात्र उद्देश्य इन्द्रियों पर भी संयम रखें, अपने मन को भी काबू में रखें। विकारों से लड़ना और उन्हें दूर करना ही है।
आप ब्रह्मचर्य की साधना तो ग्रहण कर लें, किन्तु आँखों विकार किस प्रकार दूर किए जा सकते हैं, इस सम्बन्ध में पर अंकुश न रखें और बुरे से बुरे दृश्य देखा करें तो क्या लाभ? भी जैन-धर्म ने निरूपण किया है। आचार्यों ने कहा है कि यदि आँखों में जहर भरता रहे और संसार में रंगीन दृश्यों का मजा अहिंसा के भाव समझ में आ जाते हैं तो दूसरे भाव भी समझ में बाहर से तो लिया जाता रहे और ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखने का आ जायेंगे। इसके लिए कहा गया है कि बाहर चाहे हिंसा हो मंसूबा भी किया जाय यह असंभव है। अथवा न हो, हिंसा का भाव आने पर अन्तर में हिंसा हो ही
इस कारण भगवान महावीर का मार्ग कहता है कि ब्रह्मचर्य जाती है। इसी प्रकार जो असत्य बोलता है, वह आत्महिसा की साधना के लिए समस्त इन्द्रियों पर अंकुश रखना चाहिए। करता है और जब चोरी करता है तो अपनी चोरी तो कर ही लेता
हम अपने कानों को इतना पवित्र बनाए रखने का प्रयत्न करें कि है। इस रूप में मनुष्य जब वासना का शिकार होता है तो अन्तर जहाँ गाली-गलौज़ का वातावरण हो और बरे शब्द सनने को में भी और बाहर भी हिंसा हो जाती है। कोई विकार, चाहे बाहर
मिल रहे हों, वहाँ हमें सावधान रहना चाहिए अथवा उस वातावरण हिसा न करे, किन्तु अन्तर मे हिसा अवश्य करता है। दियासलाई से अलग रहना चाहिए। यदि शक्ति है तो उस वातावरण को जब रगडी जाती है, तो वह पहले तो अपने आपको ही जला
बदल दें और यदि शक्ति नहीं है तो उससे अलग रहना ही देती है, और जब वह दूसरों को जलाने जाती है तो सम्भव है कि
श्रेयस्कर है। हमें कानों के द्वारा कोई भी विकारोत्तेजक शब्द मन बीच में ही बुझ जाए और दूसरों को न जलाने पाए। मगर दूसरा में प्रवेश नहीं होने देने चाहिए। को जलाने के लिए पहले स्वयं को तो जलाना पड़ता ही है। तो
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-चतीन्द्र सूरि मारकग्रन्थ -- जैन-साधना एवं आचार जब गन्दे शब्द मन में प्रवेश पा जाते हैं तो वहाँ वे जड़ भी की है? उनकी साधनाओं ने अगर कोई आध्यात्मिक चेतना जमा सकते हैं। वे मन के किसी भी कोने में जम सकते हैं और उत्पन्न की, तो वह कहाँ गायब हो जाती है? इससे तो यही धीरे-धीरे पनप भी सकते हैं, क्योंकि मन जल्दी भूलता नहीं है निष्कर्ष निकलता है कि उनकी वर्षों की साधनाएँ ऊपर-ऊपर
और जो शब्द उसके भीतर गूंजते रहते हैं, अवसर पाकर अनजाने की हैं, वे आईं और तैर गईं, उन्होंने जीवन को कोई संस्कार नहीं में ही वे जीवन को आक्रान्त कर देते हैं। अतएव ब्रह्मचर्य के दिया। यह निष्कर्ष भले ही कटु है, पर मिथ्या नहीं है, साथ ही साधक को अपने कान पवित्र रखने चाहिए। वह जब भी सुने, हमारी आँखें खोल देने वाला भी है। पवित्र बात ही सुने और जब कभी प्रसंग आए तो पवित्र बात ही यह समझना गलत है कि वे भद्दे गीत क्षणिक और मन सनने को तैयार रहे । गन्दी बातों का डटकर विरोध करना चाहिए- की तरंग मात्र है। जलाशय में जल की तरंग उठती है. पर तभी मन के भीतर भी और समाज के प्रांगण में भी। घरों में गाये जाने उठती है. जब उसमें जल जमा होता है। जहाँ जल ही न होगा. वाले गन्दे गीत तुरन्त ही बंद कर देने की आवश्यकता है। वहाँ जलतरंग नहीं उठेगी। इसी प्रकार जिस मन में अपवित्रता
मुझे मालूम हुआ है कि विवाह-शादियों के अवसर पर और गंदगी के कुसंस्कार न होंगे, उस मन में अपवित्र गीत गाने बहत सी बहिनें गन्दे गीत गाती हैं। जहाँ विवाह का पवित्र वातावरण
की तरंग भी नहीं उठनी चाहिए। अतएव यही अनुमान किया जा है, आदर्श है, और जब दो साथी अपने गृहस्थ-जीवन का
सकता है कि मन में विकार जमे बैठे थे, प्रसंग आया तो बाहर मंगलाचरण करते हैं, उस अवसर पर गन्दे गीत उस पवित्र वातावरण निकल आए। को कलुषित करते हैं और मन में दुर्भाव उत्पन्न करते हैं।
बहुत से लोग बात-बात में गालियाँ बकते हैं। उनकी जिस समाज में इस प्रकार का गन्दा वातावरण है. बरे गालियाँ उनकी असंस्कारिता और फूहड़पन को सचित करती विचार हैं और कलुषित भावनाएँ सहसा पैदा हो जाती हैं, उस
हैं, परन्तु यहीं उनके दुष्परिणाम का अन्त नहीं हो जाता है। समाज की उदीयमान प्रजा किस प्रकार सुसंस्कारों और उज्ज्वल
उनकी गालियाँ समाज में कलुषित वायुमंडल का निर्माण करती चरित्र वाली बन सकेगी? जो समाज अपने बालकों और
हैं। उनकी देखादेखी छोटे-छोटे बच्चे भी गालियाँ बोलना सीख बालिकाओं के हृदय में, कानों द्वारा जहर उँड़ेलता रहता है, उस
जाते हैं। जिन फूलों को खिलोने पर सुगन्ध देनी चाहिए, उनसे समाज में पवित्र चारित्र और सत्त्वगणी व्यक्तियों का परिपक्व
जब हम अभद्र शब्दों और गालियों की बदबू निकलती देखते हैं,
तो दिल मसोस कर रह जाना पड़ता है। मगर बालकों की उन होना कितना कठिन है।
गालियों के पीछे वे बड़े हैं, जो विचारहीनता के कारण अपशब्दों ___आश्चर्य होता है जिन्होंने प्रतिदिन, वर्षों तक, सामयिक
का प्रयोग करते रहते हैं। की, आगामों का प्रवचन सुना, वीतराग प्रभु और महान् आचार्यों
जिस समाज में इस प्रकार की विचारधारा बह रही हो, उस की वाणी सुनी और सन्तों की संगति और उपासना की, उनके
समाज की अगली पीढ़ियाँ देवता का रूप लेकर नहीं आने मुख से किस प्रकार अश्लील और गन्दे गाने निकलते हैं? शिष्ट
वाली हैं। अगर आपके जीवन में से राक्षसी वृत्तियाँ नहीं निकली और कुलीन परिवार किस हद तक इन गीतों को बर्दाश्त करते
हैं तो आपकी सन्तान में दैवी वृत्तियों का विकास किस प्रकार हो हैं? और कोई भी शीलवान् व्यक्ति कैसे ऐसे गीतों को सुनता है?
सकता है? देवता की सन्तान देवता बनेगी, राक्षसों की सन्तान अश्लील गीत समाज के होनहार कुमारों और कुमारिओं देवता नहीं बन सकती। के हृदय में वासना की आग भड़काने वाले हैं, कुलीनता और
. ये बातें छोटी मालूम होती हैं परन्तु छोटी-छोटी बातें भी शिष्टता के लिए चुनौती हैं और समग्र वायुमंडल को विषमय
समय पर बड़ा भारी असर पैदा करती हैं। एक प्राचीन दार्शनिक बनाने वाले हैं।
आचार्य ने परमात्मा से बड़ी सुन्दर याचना करते हुए कहा है - मैं नहीं समझ पाता कि जो पुरुष और नारियाँ ऐसे अवसर
भद्रं कर्णाभ्याम, शृणुयाम: शरदः शतम् । पर इतनी नीचाई पर पहुँच जाते हैं, उन्होंने वर्षों की साधना क्यों
भद्रमक्षिण्यपि पश्यामः शरदः शतम् ॥
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-- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार प्रभो! मैं अपने जीवन के सौ वर्ष पूर्ण करूँ तो अपने कानों अमिट छाप लिए बैठा है। तीर्थंकरों की जीवनियों को देखिए। से भद्दी बातें न सुनूँ। भद्र बातें ही सुनूँ। अच्छी-अच्छी और सुन्दर जब तक वे सर्वज्ञता और वीतरागता नहीं प्राप्त कर लेते, आत्मा बातें ही सुनूँ। मेरे कानों में पवित्रता का प्रवाह सर्वदा बहता रहे। के विकास की उच्चतम श्रेणी पर नहीं पहुँच जाते, उस समय कभी अभद्र संगीत, गाली अथवा कहावत कानों से न सनँ। तक जगत् के उद्धार करने के प्रपंच से दूर ही रहते हैं। और जब हमारे दार्शनिक और हमारे आचार्य इस प्रकार की भावना
वे यह स्थिति प्राप्त कर लेते हैं तो कृतकृत्य और कृतार्थ होकर हमारे समक्ष रखना चाहते हैं।
जगत् का उद्धार करने में लग जाते हैं। जो बात कानों के विषय में कही गई है, वही आँखों के
इसलिए आचार्य प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हम आँखों विषय में भी कही गई है। कोई भी मनष्य अपनी आँखों पर पर्दा से सौ वर्ष तक भद्र रूपों को ही देखें, सन्तों के ही दर्शन करें। जो डाल कर नहीं चल सकता। आँखें हैं तो उनके सामने संसार अभद्र रूप हैं, वे हमारी दृष्टि से ओझल ही रहें। . आएगा, फिर भी हमें उस महान् जीवन के अनुरूप विचार करना यह प्रार्थना कर आचार्य आगे चल कर कहते हैं - जो है कि जब भी कोई अभद्र हमारे सामने आए और हम देखें कि कानों से भद्र शब्द ही सुनेगा और आँखों से भद्र रूप ही देखेगा हमारे मन में विकारों का बहाव आ रहा है तो आँखें बन्द कर लें और अभद्र शब्दों और रूपों से विमुक्त होकर रहेगा, उसका या अपनी निगाह दूसरी ओर कर लें। आँखों के द्वारा अमृत भी जीवन इतना सुन्दर बन जाएगा कि वह दीर्घ आयु प्राप्त करेगा आ सकता है और जहर भी आ सकता है, किन्तु हमें तो अमृत और शतजीवी होगा। ही लेना है। संसार में बैठे हैं तो क्या हुआ, लेंगे तो अमृत ही लेंगे। तो यही कानों और आँखों का ब्रह्मचर्य है और इसी से
एक वृक्ष है। उसमें फूल भी हैं और काँटें भी हैं। माली अन्दर के ब्रह्मचर्य को पार किया जा सकता है। कोई कानों और उसमें से फूल लेता है, काँटें नहीं लेता। हमें भी माली की तरह आँखों को खुला छोड़ दे, उन पर अंकुश न रखे, फिर चाहे कि संसार के फूल ही लेने हैं, उसके काँटे नहीं। संसार की अभद्रता उसमें आध्यात्मिक शक्तियाँ उत्पन्न हो जाएँ, तो यह असंभव है। हमारे लिए काँटा स्वरूप है, वह त्याज्य है। कोई चाहे कि सारा इसी कारण हमारे यहाँ नौ बाड़ों का वर्णन आया है और वह संसार अच्छा बन जाए तो मैं भी अच्छा बन जाऊँ - यह संभव वर्णन बड़े ही सुन्दर रूप में है। नहीं है। दुनिया में दो रंग सर्वदा ही रहेंगे। अतएव हमें इस बात
हमारे शरीर में जीभ भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है। मनुष्य का का ध्यान सर्वदा ही रहना चाहिए कि संसार अच्छा बने या न शरीर कदाचित ऐसा बना होता कि उसे भोजन की आवश्यकता बने. हमें तो अपने जीवन को अच्छा बना ही लेना है। यह नहीं ही न होती और यों ही कायम रह जाता तो मैं समझता हूँ. नौ सौ कि हजारों दिवालिए दिवाला निकाल रहे हैं, तो एक साहूकार निन्यानवे संघर्ष कम हो जाते। किन्तु ऐसा नहीं है। शरीर आखिर भी क्यों न दीवाला निकाल दे? हाँ, संसार के कल्याण की शरीर ही है और उसकी कछ न कछ क्षतिपर्ति करनी ही पड़ती है। कामना करो, संसार के कल्याण के लिए अपनी शक्तियों का इस दृष्टि से जीभ का काम बडा ही महत्त्वपूर्ण है। प्रयोग भी करो, मगर संसार के सुधार तक अपने जीवन के
संसार में भोजन की अच्छी-बुरी बहुत सी चीजें मौजूद हैं। सुधार को मत रोको। संसार की बातें संसार पर छोड़ो और
कोई भी चीज हाथ से उठाई और मुँह में डाल ली। अब वह पहले अपनी ही बात लो। आप अपना सुधार कर लेते हैं तो वह
__ अच्छी है या बुरी है, इसका निर्णय कौन करे? उसकी परीक्षा संसार के सुधार का ही एक अंग है। आत्मसुधार के बिना संसार
कौन करे? यह सत्य कौन प्रकट करे? यह जीभ का काम है। को सुधारने की बात करना एक प्रकार की हिमाकत है, अपने
वह वस्तु की सरसता और नीरसता का और अच्छेपन बुरेपन आपको और संसार को ठगना है। जो स्वयं को नहीं सुधार
का अनुभव करती है और उसे दूसरों पर प्रकट करती है। तो सकता, वह संसार को क्या सुधारेगा।
जिह्वा का काम वस्तुओं की परख करना और बोलना है। किन्तु यह एक ऐसा तथ्य है जिसमें कभी विपर्यास नहीं हो आज उसका काम पेटपूर्ति करना ही बन गया है। चीज अच्छी है सकता। जैन-इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ पर यह सत्य अपनी या नहीं, परिणाम में सुखद है या नहीं, शरीर के लिए उपयोगी है
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पतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - या अनुपयोगी, जीवन को बनाने वाली है या बिगाड़ने वाली, लड़ाइयाँ मची रहती हैं, संघर्ष होते हुए देखे जाते हैं। इसका कोई विचार नहीं। बस, जीभ को अच्छी लगनी चाहिए।
यह स्थिति देखकर विचार होता है कि साठ-सत्तर वर्ष की जीभ को जो अच्छा लगा, सो गटक लिया। इस प्रकार खाने की ।
| जिन्दगी में मनुष्य ने क्या सीखा है? कभी-कभी पुराने सन्तों को न कोई सीमा रही है, न मर्यादा रही है।
भी हम जिह्वाशवर्ती देखते हैं? आहार आया और उनके सामने खाने के लिए जीना, धर्म का लक्षण नहीं है। खाने का रख दिया। वे कहते हैं - क्या लाए? कुछ भी तो नहीं लाए। अर्थ है - शरीर की क्षति और दुर्बलता की पूर्ति करना और बुढ़ापे में भी जिसकी यह वृत्ति हो, उसने जीवन के बहुमूल्य जीवन-निर्माण के लिए आवश्यक शारीरिक शक्ति प्राप्त करना। सत्तर वर्ष व्यतीत करने के बाद भी क्या पाया है? रोटी आई है, जहाँ यह दृष्टि है, वहाँ ब्रह्मचर्य की शुद्धि रहती है। जहाँ यह दृष्टि दाल-शाक आया है, फिर भी कहते हैं -कुछ नहीं आया। इसका नहीं रहती, वहाँ जीभ निरंकुश होकर रहती है, मिर्च-मसालों की अर्थ यह है कि पेट के लिए तो सब कुछ आया है, पर जीभ के
ओर लपकती है। इसीलिए कभी-कभी सीमा से अधिक खा लिए कुछ नहीं आया। लिया जाता है। ऐसा करने से शरीर का रक्त खौलने लगता है तो इस चार अंगल की जीभ पर नियंत्रण न कर सकने के और शरीर में गर्मी आ जाती है। शरीर में गर्मी आ जाने पर मन में
मनम कारण ही कभी-कभी मुसीबत का सामना करना पड़ता है। भी गर्मी आ जाती है। मन में गर्मी आ जाती है तो साधक भान जीभमान में विचार करते है तो बात यांटा भूल जाता है और जब भान भूल जाता है तो दुनिया भर की जाती है। चीजें खाने को तैयार हो जाता है।
समर्थ गुरु रामदास वैष्णव सन्त थे। उन्होंने एक जगह आज का चौका देखो तो मालूम होता है कि घर के लोग चौमासा किया। आप जानते हैं कि जहाँ नामी गरु आते हैं, वहाँ खाने के सिवाय और कुछ भी नहीं जानते हैं। दुनिया भर का भक्त भी पहँच ही जाते हैं। एक यवक व्यापारी था और अच्छे अगड़म-बगड़म वहाँ मौजूद रहता है। ऐसे मौके भी देखने में घर का लड़का था। वह और उसकी पत्नी रामदासजी के भक्त आए हैं कि यदि सन्त वहाँ पहुँच गए और आग्रह स्वीकार कर हो गए और उनकी आध्यात्मिक बातें सनने लगे। इधर आध्यात्मिक लिया तो उन चीजों को लेने-देने में आधा घण्टा लग गया। बातें सनते थे और उधर यह हाल था कि खाने के लिए रोज
अभिप्राय यह है कि मनुष्य ने स्वाद के लिए अनेक- लड़ाई होती थी। किसी दिन रोटी सख्त हो गई तो कहा - 'रोटी अनेक आविष्कार कर लिए हैं। भोजन के भाँति-भाँति के रूप क्या है, पत्थर है।' और जरा नरम रह गई तो बोले - 'आज तो तैयार कर लिए हैं। यह पेट के लिए नहीं, जीभ के लिए, स्वाद कच्चा आटा ही घोल कर रख दिया है।' के लिए तैयार किए हैं। यह चार अंगुल का मांस का जो टुकड़ा इस प्रकार पति-पत्नी में प्रतिदिन संघर्ष मचा रहता। तो (जीभ) है. उसका फैसला ही नहीं हो पाता। नाना प्रयत्न करने एक दिन उस यवक ने कहा - इससे तो साध बन जाना ही के पश्चात् भी जीभ तृप्त नहीं हो पाती। जीभ की आराधना के अच्छा । लिए मनुष्य जितना पचता है और प्रयत्न करता है, उसका आधा
युवक ने जब ऐसी बात कही तो उसकी पत्नी डर गई। प्रयत्न भी अगर वह परमात्मा की आराधना के लिए करे तो
उसे ख्याल आया, कहीं सचमुच ही यह साधु न बन जाए। उसका कल्याण हो जाए। मगर इतना प्रयत्न करने पर भी वह कहाँ सन्तुष्ट होता है। वह तो जब देखो तब लार टपकाती रहती
किन्तु भोजन के प्रश्न पर उन दोनों में एक दिन कहा-सुनी है, अतृप्त ही बनी रहती है। मनुष्य मांस के इस टुकड़े के पीछे ही गई। युवक ने क्रोध में आकर थाली को ऐसी ठोकर अपनी सारी जिन्दगी को बर्बाद कर देता है।
लगाई कि रोटी कहीं और दाल कहीं जाकर गिरी । फिर वह बचपन के दिन निकल जाते हैं, जवानी भी आकर चली।
है बोला - बस, भोग चुके गृहस्थी का सुख। हाथ जोड़े इस घर
को। अब तो साधु ही बन जाना है। जाती है और बुढ़ापे के दिन आ जाते हैं, तब भी बचपन की । वृत्तियों से छुटकारा नहीं मिलता है। बुढ़ापे में भी खाने के लिए इस प्रकार कहकर वह घर से निकला और सीधा बाजार
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यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार -- का रास्ता नाप कर हलवाई की दुकान पर पहुँचा। वहाँ उसने है। आज आहार नहीं लाना है, व्रत रखेंगे। पेट भर खाना खा लिया। मगर स्त्री के लिए यह समस्या कितनी
गुरु का उत्तर सुन कर युवक विचार में पड़ गया। फिर कठिन थी? युवक ने तो अपना पेट भर लिया, मगर स्त्री बेचारी
उसने कहा - गृहस्थ धर्म से मैं ऊब गया, महाराज। अब मैं क्या करती? वह उसके बिना खाना कैसे खाती? उसे भूखा
साधु-धर्म का पालना करना चाहता हूँ। आज्ञा दो महाराज। रहकर ही दिन गुजारना पड़ा।
गुरु बोले - मिल जाएगी आज्ञा। । दूसरी बार फिर इसी प्रकार की घटना घटी। संयोगवश समर्थ गुरु रामदास भी वहाँ पहुँच गए। उन्हें देख कर स्त्री ने
मगर युवक के लिए तो एक-एक पल, पहर की तरह कट सोचा - कहीं इन्हीं के पास न मड जाएँ और वह जोर-जोर से रहा था। उसने कहा - गुरुदेव, भूख के मारे मेरी तो आतं रोने लगी।
कुलबुला रही हैं। गरु विचार में पड़ गए। स्त्री फफक-फफक कर रो रही
गुरु - अच्छा, नीम के पत्ते संत लाओ और उन्हें पीसकर थी और जब उन्होंने रोने का कारण पूछा तो वह और ज्यादा रोने गाल बना ली। लेगी। गुरु ने कहा - आखिर बात क्या है? घर में तुम दो प्राणी उसने ऐसा ही किया। नीम के पत्ते पीस कर गोले बना हो और वर्षों से साथ-साथ रह रहे हो। फिर भी दृष्टिकोण में मेल लिये। नहीं बैठा सके।
फिर वह सोचने लगा- यह खाने की चीज नहीं है, किन्तु तब स्त्री ने कहा - इनको मेरे हाथ का बना खाना अच्छा गुरु जादूगर हैं तो उनके प्रभाव से यह गोले मीठे बन जाएँगे। नहीं लगता है और कहते हैं कि साधु बन जायेंगे।
गोले तैयार हो गए देख गुरु ने कहा - अब तुम्हें जितना गुरु ने यह बात सुनी तो कहा - तुम्हें यह डर है तो उसे खाना हो सो खा लो। निकाल दो, क्योंकि मियाँ की दौड़ मस्जिद तक ही है। साध
युवक ने ज्योंही एक गोला मुँह में डाला तो वह जहर था। बनने के लिए आएगा तो मेरे पास ही। मैं देख लूँगा कि वह कैसा
उसे वमन हो गया। जब वमन हो गया तो गुरु ने कहा - दूसरा साधु बनने वाला है। तुझे धमकी दे तो तू कह देना कि साधु
उठाकर खाओ। और फिर वमन किया तो इस डंडे को देख बनना है तो बन क्यों नहीं जाते। इतना कहकर गुरु लौट गए।
रखो। यहाँ तो रोज यही खाने को मिलेगा। ___ एक दिन जब फिर वैसा ही प्रसंग आया, तो युवक ने
युवक ने कहा - महाराज, इसे आदामी तो नहीं खा सकता। कहा - अच्छा तो मैं साधु बन जाऊँगा। स्त्री ने कह दिया - रोज-रोज साधु बनने का डर दिखलाने
तब समर्थ रामदास ने एक लड्डू उठाया और झटपट खा से क्या लाभ है? आपको साधु बनने में ही सुख मिलता हो तो आप साधु बन जाइए। मुझे जीवन चलाना है तो किसी तरह युवक - आप तो खा गये, पर मुझसे तो नहीं खाया जा। चला लूँगी।
गुरु -तेरी वाणी पर साधुपन आया है, अन्दर नहीं आया। - युवक ने भी भड़क कर कहा- अच्छा, यह बात है। तो अरे मूर्ख, उस लड़की को क्यों तंग किया करता है? साधु बनने अब जरूर साधु बन जाऊंगा।
का ढोंग क्यों करता है? साधु बनकर भी क्या करेगा? साधु बन
गया और बाद में गड़बड की तो ठीक नहीं होगा। यह कह कर वह घर से निकल पड़ा। मन में सोचा - साधु ही बनना है। और वह समर्थ रामदास के पास जाकर बैठ अब युवक की अक्ल ठिकाने आई। वह घर लौट आया। गया। बहुत देर तक बैठा रहा। बातचीत करने के बाद उसने गुरु फिर उसने यह देखना बन्द कर दिया कि रोटी सख्त है, या नरम से कहा - आज आहार लेने नहीं पधारे?
है. कच्ची है या पक्की है, चुपचाप शान्त भाव से वह लगा। गुरु ने कहा - आज चेला आया है, इस कारण हमें प्रसन्नता जिनके घर में खाने-पीने के लिए ही महाभारत का अध्याय androidroraniwandraridrorditor-ordinatorrord-6-९ idroridororanirbrowdnironiriranditaniudwidwidhwar
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ बँचा करता है, वे ऊँचे जीवन की साधना को कैसे प्राप्त कर सकते हैं? अतएव जो साधना करना चाहते हैं, उन्हें खान-पान की लोलुपता को त्याग देना चाहिए और वास्तविक आवश्यकता से अधिक नहीं खाना चाहिए ।
हे मनुष्य ! तू खाने के लिए नहीं बना है, किन्तु खाना तेरे लिए बना है। तुझे भोजन के लिए नहीं जीना है, जीने के लिए भोजन करना है। भोजन तेरे जीवन विकास का साधन होना चाहिए। कहीं वह जीवन-विनाश का साधन न बन जाए।
इस प्रकार कान और आँख के साथ-साथ जो जीभ पर भी पूरी तरह अंकुश रखते हैं, वही ब्रह्मचर्य की साधना कर सकते हैं। जो अपनी जीभ पर अंकुश नहीं रखेगा और स्वाद - लोलुप होकर चटपटे मसाले आदि उत्तेजक वस्तुओं का सेवन करेगा, जो राजस और तामस भोजन करेगा, उसका ब्रह्मचर्य निश्चय ही खतरे में पड़ जाएगा।
ब्रह्मचर्य की साधना जितनी उच्च और पवित्र है, उतनी ही उस साधना में सावधानी की आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए इन्द्रियनिग्रह की आवश्यकता है और मनोनिग्रह की भी आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य के साधक को फूँक-फूँक कर पैर रखना पड़ता है। यही कारण है कि हमारे यहाँ, शास्त्रकारों ने, ब्रह्मचारी के लिए अनेक मर्यादाएँ बतलाई हैं। शास्त्र में कहा गया है. आओ थीजणाइण्णो, थी - कहा य मणोरमा । सथवो चेव नारीणं, तेंसिमिन्दिय - दंसणं ॥ कूइयं रुइयं गीअं, हांस भुत्तासिआणि य । पणीअं भत्तयाण च, अइमायं पाण भोयणं ॥
-
स्त्रीजनों से युक्त मकान में रहना और बहुत आवागमन रखना, स्त्रियों के सम्बन्ध को लेकर मनोमोहक बातें करना, स्त्री के साथ एक आसन पर बैठना, बहुत घनिष्ठता रखना, उनके अंगोपांगों की ओर देखना, उनके कूजन, रुदन और गायन को मन लगा कर सुनना, पूर्व-भुक्त भोगोपभोगों का स्मरण किया करना । उत्तेजक आहार- पानी का सेवन करना और परिमाण से अधिक भोजन करना, ये सब बातें ब्रह्मचारी के लिए विष के समान हैं। और यही बात ब्रह्मचारिणी को भी समझना चाहिए।
अभिप्राय यह है कि कान, आँख जीभ तथा मन जो जितना काबू पा सकेगा, वह उतनी ही दृढ़ता के साथ ब्रह्मचर्य की
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Fami
जैन-साधना एवं आचार
साधना के पथ पर अग्रसर हो सकेगा। इस रूप में जो जीवन को सीधा-साधा बनाएगा, उसमें पवित्रता की लहर पैदा हो जाएगी और वह अपने जीवन को कल्याणमय बना सकेगा । तब सारी जड़ और जीव प्रकृति पर उसका निष्कटंक शासन स्थापित हो जाएगा । - ब्रह्मचर्यदर्शन से साभार
ब्रह्मचर्य - सूत्र -
अबम्भ चरियं घोरं, पमायं दुरहिट्ठियं । नायरन्ति मुणी लोए, भेयाय यण वज्जिणो ॥1 ॥
जो मुनि संयम-घातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक में भी दुःसेव्य, प्रमादस्वरूप और भयंकर अब्रह्मचर्य का कभी सेवन नहीं करते ।
रहते हुए
विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीर - परिमंडणं । बंभर रओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए ॥2 ॥
ब्रह्मचर्य - रत भिक्षु को शृंगार के लिए शरीर की शोभा और सजावट का कोई भी शृंगारी काम नहीं करना चाहिए ।
जहाँ दवग्गी परिन्धणे वणे, समारुओ नोवसमं उवे । एविन्दियग्गी वि पगाम भोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥3॥
जैसे बहुत ज्यादा ईंधन वाले जंगल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि शान्त नहीं होती, उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन करने वाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती। अधिक भोजन किसी के लिए भी हितकर नहीं होता ।
मागिद्धि भवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्सन्तगं गच्छई वीयरागो ॥4॥
देवलोक सहित समस्त संसार के शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःख का मूल एक मात्र काम-भोगों की वासना ही है। जो साधक इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता है, वह शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःखों से छूट जाता है ।
देव दाणव गन्धव्वा, जक्ख रक्खस किन्नरा । भयारि नम॑सन्ति, दुक्करं जे करेन्ति तं ॥ 5 ॥
जो मनुष्य इस प्रकार दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी नमस्कार करते हैं।
ট[१०]বটটটটकी
महावीरवाणी মট টি টি মিট
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ब्रह्मचर्य
परम पूज्य आगमज्ञाता साहित्याचार्य मुनिराज
श्री देवेन्द्र विजयी
महाराज के शिष्य मुनिराज नरेन्द्र विजयजी 'नवल'
विश्व में दो प्रकार की विचारधाराएँ प्रचलित हैं- भौतिक अर्थात् असंयम से निवृत्ति करें और संयम में प्रवृत्ति करें। आवआध्यात्मिक। मार्ग भी दो हैं - प्रेयस और श्रेयस । पुदगल, संसार में सभी धर्मों का सार संयम है, सत्य है और सभी उत्तम शरीर, इन्द्रिय-विषयभोग पोषण का मार्ग प्रेयस् है, जबकि
धर्मों का समावेश इसमें हो जाता है। देवता भी उसे नमस्कार
धा का समावश इसम हा ज आत्मकल्याण के लिए त्याग-वैराग्य का मार्ग श्रेयस् हैं। एक
__ करते हैं, जो संयम धर्म का पालन करता है। स्वयं भगवान् ने भोगप्रधान है तो दूसरा त्याग-प्रधान है। एक आत्मा का पतन
कहा है कि अहिंसा, तप और संयम रूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है करने वाला है तो दूसरा उत्थान। इन दोनों को भलीभाँति समझकर
और देवता भी उसे नमस्कार करते हैं जो इस धर्म का पालन आत्मार्थी संयम का मार्ग अपनाते हैं. जबकि भोगलोलप करते हैं। समस्त ज्ञान का भी सार यही है। कहा गया हैविषयकषाय के दलदल में फँसकर संसार-समुद्र में गोते खाते एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणं। रहते हैं।
अहिंसा संयम चेव, एयावंत वियाणिया।। ब्रह्मचर्य शब्द 'ब्रह्म+चर्' से बना है। ब्रह्म का अर्थ है ज्ञानी के ज्ञान सीखने का सार यही है कि वह किसी प्राणी आत्मा और चर् का अर्थ है चलना, रमण करना। अतः ब्रह्मचर्य की हिंसा न करे। अहिंसा का सिद्धान्त ही सर्वोपरि है। यही का अर्थ है आत्मा में रमण करना। श्रेयोमार्गी ही आत्मा में रमण विज्ञान है। कर सकता है कहा भी गया है
ब्रह्मचर्य और संयम पर्यायवाची शब्द हैं। जो ब्रह्मचर्य का शरीर है तो प्राण है।
पालन करेगा वही संयम से रह सकेगा। जो संयम पालन करेगा शील है तो शान है।।
वही आत्मा में रमण कर सकेगा। संयम का अर्थ है, सं+यम सं 'नवल' आत्मा से बात करो
= अच्छी तरह से और यम अर्थात मन, वचन, काया के योगों विनय है तो वरदान है।।
पर नियंत्रण। अर्थात् समतापूर्वक यम में प्रवृत्त होना। जाग्रत यदि ब्रह्मचर्य का पालन करना है तो बादाम, काजू खाना साधक को ही मुनि कहा जाता है। पाप-प्रवेश का कारण ही छोड़ना पड़ेगा, उसके स्थान पर त्याग के मेवे खाने पड़ेंगे- अजागृति है, असावधानी है। वृहत्कल्पभाष्य में कहा गया हैमेवे खाओ त्याग के, जो चाहो आराम।
'जागरण णरा णिच्चं।'
जो सोवत है वह खोवत है। इन भोगों में क्या रखा, नकली आम बादाम।।
जो जागत है वह पावत है।। जैन-धर्म शुद्ध सनातन होने से संयममार्ग की विशेष प्रेरणा
जागृत साधक को ही मुनि कहते हैं। आचारांग में भी उल्लेख हैदेता है। किन्तु वह मात्र निवृत्तिप्रधान ही नहीं, अपितु उसमें प्रवृत्ति को भी स्थान है, किन्तु किससे निवृत्त हों और किसमें "सुत्ता अमुणि, मुणिणो सया जागरंति।" प्रवृत्ति करें, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है
जो सोते हैं वे अमुनि हैं, मुनि जो सदैव जाग्रत ही रहते हैं। एगे औनियत्तिणं एगे ओ पवत्तेणं।
असंयमी पापबुद्धि प्राणी का सोते रहना ही अच्छा है। अपने असंजमे विवत्ति च, संजमे य पवत्तेणं।
तन, मन इंद्रियों और कामनाओं पर विजय प्राप्त करना ही संयम
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है।
- यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार है। यह तभी संभव है, जब संयमी सजग रहे, एक कवि ने क्या ग्वाले ने महावीर के कानों में कीलें मारी थीं। कर्म किसी को ही ही सुंदर कहा है
छोड़ता, चाहे वह तीर्थकर ही क्यों न हो। कर्म को कोई शर्म नहीं काँटे हों या फूल, फर्क क्या पड़ता है बोलो। कुटिया हो या महल, आँख भीतर की खोलो।।
आप लोग व्यावहारिक बातों में तो जाग्रत रहते है, किन्तु माटी हो या स्वर्ण, जागना तो भीतर है।
धर्म के विषय में अजाग्रत रहते हैं। घी खरीदते हैं, तो सूंघ कर, जो भीतर से जगा, कौन उससे बढ़कर है।।
परीक्षा करके लेते हैं। एक घड़ा खरीदते हैं तो उसे बजाकर देख आपको जैसा सर्प का भय है, वैसा पाप का भय है क्या?
लेते हैं, कहीं फूटा न हो। कभी चखकर, कभी सूंघकर, कभी घर में सर्प कुंडली मार कर बैठा हो तो नींद आयेगी क्या?
बजाकर माल लेते हैं, किन्तु अपने जीवन में कहीं गुण के बदले __ कभी नहीं। दिमाग में भय का भत सवार रहेगा। इसी अवगुण तो गुण का रूप लेकर प्रवेश नहीं कर रहे हैं। इस बात प्रकार अपने अन्तर्कक्ष में विविध पाप रूपी सर्प कंडली मारकर का विचार नहीं करते। आजकल बाहर का प्रकाश बढ़ा है। अंदर बैठे हैं। उन्हें हटाने का कभी विचार भी आता है क्या? जैसे सर्प
का विचार-प्रकाश मंद हो रहा है। भरतजी की भाँति जागृति से डरकर जागते रहते हैं वैसे ही पाप से डर कर अंदर से जाग्रत
करनी चाहिये। उन्होंने तो वृद्ध श्रावकों को नियुक्त कर दिया था रहेंगे तो आत्मा में स्वस्थता, शांति और निश्चिन्तता आयेगी।
कि अन्तर्जागरण का संदेश देते रहें। मोटर-डायवर को मोटर चलाने का लायसेंस तभी मिलता तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है, 'कषाय-योग-निग्रहः संयमः।' है. जब वह जाग्रत. सावधान और ठीक ढंग से गाडी चलाने की अर्थात्, कषाय और मन, वचन, काया के योगों का निग्रह परीक्षा दे देता है। ड्रायवर को आगे, पीछे दायें, बायें सब तरफ
करना संयम है। जिस प्रमाण में निग्रह हो उसी प्रमाण में संयम से देखना होता है। ऐसे ही हमने यदि अपने जीवन की गाडी को है। गृहस्थ का निग्रह कम हो जाता है अतः वह अल्पसंयमी है. पाप की दर्घटना से क्षतिग्रस्त कर दिया तो मोटर चालक की जो-पूर्ण निग्रह कर लेते हैं, वे अनुत्तर संयमी हैं। धवला टीका में भाँति अपना ही मनुष्य-जीवन का लायसेंस छीन लिया जायेगा।
कहा गया है- संयमनं संयमः।' अर्थात् उपयोग को पर-पदार्थों फिर निकट भविष्य में मोक्ष दिलाने वाला मनुष्य - भव मिलना
से हटाकर आत्मसम्मुख करना, अपने में सीमित करना संयम कठिन हो जायेगा।
है। उपयोग में स्वसम्मुखता-स्वलीनता ही संयम है। सम्यकज्ञान
के आधार से स्वयं का स्वयं पर अनुशासन करना संयम है। अन्तर्जागरण के अभाव में दुष्प्रवृत्ति हो जाती है। भगवान् महावीर अपने पूर्व भव में त्रिपृष्ठ वासुदेव थे। उत्तम कुल था,
'आत्मनं प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।' जो स्वयं की वासुदेव का पद था, पर पद का अहंकार और राजसत्ता का मद ।
आत्मा के प्रतिकूल हो ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ नहीं करना उन्माद में ले गया। वे कर्णप्रिय संगीत के रसिक बने। शय्या चाहिये। अग्रेजी में भी कहावत हैपालक को आज्ञा दी कि जब मुझे नींद आ जाये तो संगीत बंद Do unto others, as you would have others do unto you. करवा देना। पर शय्यापालक स्वयं संगीत में इतना बेभान हो अर्थात् आप जैसा व्यवहार अन्य से चाहते हैं, वैसा ही गया कि उसे पता ही न रहा कि महाराज कब सो गये हैं। सूर्योदय व्यवहार स्वयं भी अन्य के साथ करें। तक संगीत चलता रहा। जब महाराज जागे तो शय्यापालक से।
संयम दो प्रकार का है- इन्द्रियसंयम और मनसंयम। पाँचों पूछा कि संगीत बंद क्यों नहीं करवाया? उसने निवेदन किया कि ,
इंद्रियों को विशेषकर स्पर्श इंद्रिय को नियंत्रण में रखना, उन्हें वह संगीत में इतना बेभान हो गया था कि उसे महाराज के
विषयों में न जाने देना इंद्रियसंयम है। किसी ने कहा है
। निद्राधीन हो जाने का ध्यान ही न रहा।
इंद्रियों के न घोड़े, विषयों में अड़ें। महाराज को इतना क्रोध आया कि शय्यापालक के कानों
जो अड़ें भी तो संयम के कोड़े पड़ें। में उबलता हुआ शीशा डलवा दिया। उसी कर्म के विपाक स्वरूप तन के रथ को सुपथ पर चलाते रहें। . dansarsansarsansarsansarsansarsasdaridra-[१ २ arovidinaldastarsidadira d dhasadmaa
सयम
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन-साधना एवं आचार
सिद्ध अरिहंत मन में रमाते चलें ॥
संयत इंद्रियाँ जीवन में सुखशांति और असंयत इंद्रियाँ अशांति का सृजन करती हैं। स्वामी शंकराचार्य ने तो इंद्रियों को चोर से बढ़कर कहा हैं। चोर जिस घर में रहता है, उसमें चोरी नहीं करता। किन्तु ये इंद्रियाँ तो आत्मा के आश्रित रहकर भी आत्मा को ही धोखा देती है और सुख के स्थान पर उसे दुःखों में ला पटकती हैं। अत: इंद्रियों को सदैव संयमित रखना चाहिये । मन का संयम बड़ा दुष्कर है, क्योंकि मन बड़ा चंचल है। दस चंचल इस प्रकार हैं
मनो मधुकरो मेघो, मानिनी मदनो मरुत् । मा मदो मर्कटो मत्स्यो, मकारा दश चंचलाः ॥ योगी आनंदघनजी ने भी मन के विषय में कहा हैकुन्थु जिन । मनड़ो किम ही न बाजे । ज्यों-ज्यों जतन करीने राखुं, त्यों-त्यों अधिको भाजे ॥ रजनी बासर बसती उजड़, गयन पयाले जाय। साँप खायने मुखड़ो, थोथो, ए उखाणो न्याय ॥ मैं जाणु ए लिंग नपुसंक, सकल मरद ने ठेले । धीजी बातां समरथ के नर, एह ने कोई न ठेले ।
अर्थात हे ! कुन्थुनाथ प्रभो ! मन वश में नही होता है । जितना यत्न करता हूँ उतना ही अधिक भागता है यह रात-दिन बस्ती, उजाड़, आकाश, पाताल सर्वत्र जाता है । सर्प खाता है तो भी उसका मुँह खाली ही रहता है। वैसे ही यह मन है । मैं जानता हूँ कि मन नपुंसक है, फिर भी यह सभी पुरुषों को हराने वाला है। अन्य बातों में पुरुष समर्थ होते हैं, पर इसको कोई पराजित नहीं कर सकता।
किसी तांत्रिक ने एक भूत को वश में कर लिया। वह भूत निरंतर काम चाहता था । यदि उसे काम न बताये तो उस तंत्रवादी पर आक्रमण कर सकता था। उसे जो भी काम बताया जाता वह क्षण भर में पूरा कर देता। तब उसने से भूत एक लंबा बाँस गाड़ने को कहा। फिर भूत से कहा कि जब तक दूसरी आज्ञा न दूँ तब तक इसी पर चढ़ो और उतरो । हमारा मन भी भूत है । उसे निरंतर कुछ काम चाहिये । उसे खाली रखोगो तो वह शैतान हो जायेगा। उसे सदैव ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय में लगाये रखें।
चम्पानगर में एक जिनदास श्रावक था। वह घोड़े पर पौषधशाला जाता, प्रवचन के बाद घर आता, फिर दुकान जाता और शाम को घर लौट आता । घोड़ा इतना सध गया था कि पहली ए लगाते ही पौषधशाला, दूसरी में घर, तीसरी में दुकान और चौथी में वापस घर आ जाता। एक बार रात में चोर ने घोड़ा चुराने के लिए खूँटे से खोलकर उस पर सवार होकर एड़ लगाई तो वह पौषधशाला और दूसरी एड़ लगाई तो घर आ गया। फिर एड लगायी तो दुकान चला गया। चौथी एड़ में घर आ गया। चोर ने बहुत प्रयत्न किया पर घोड़ा तो पौषधशाला, दुकान और घर के ही चक्कर काटता रहा। आखिर घोड़े को छोड़कर चोर को भागना पड़ा। हमारा मन भी घोड़ा है। इसे इतना साध लें वह कुसंगति में जाये नहीं। मन को वश में करने से सब वश में हो जाते हैं। कहा भी गया है
भाषा तो संयत भली, संयत भला शरीर । जो मन को वश में करे, वही संयमी वीर । ।
संयम के चार भेद हैं- मनसंयम, वचनसंयम, कायसंयम और उपकरणसंयम । मनसंयम बता चुके हैं।
वचनसंयम का भी बड़ा महत्त्व है। जीभ एक है पर इसके काम तीन हैं। बोलना, खाना तथा स्पर्श करना। कहीं इसका दुरुपयोग न हो इसलिए इसे ३२ दाँतों के परकोटे में बंद करके रखा गया है फिर भी जीभ कहती है
तुम बत्तीस अकेली मैं, तुम में आऊँ जाऊँ मैं । एक बात जो ऐसी कह दूँ, बत्तीसी तुड़वाऊँ मैं ।।
तीन इंच की जीभ छह फुट के आदमी को मरवाने की ताकत रखती है । द्रौपदी के एक वाक्य ने महाभारत करवा दिया था। अतः वाणी पर संयम रखना अत्यावश्यक है। कहावत है'बोलना न सीखा तो सारा सीखा गया धूल में' कैसे बोलना चाहिये? इसका उत्तर ज्ञानियों ने यों दिया है
'सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात् मा ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।'
अर्थात् सत्य बोले, प्रिय बोले, किन्तु जो सत्य होकर भी अप्रिय है, उसे न बोले । श्रावक को वाणी के आठ गुण ध्यान में रखने चाहये।
अल्प आवश्यक मीठा चतुरा, मयनकारी, भाषा बोले । श्रावक सूत्र सिद्धांत न्याय से, सर्वहितैषी भाषा बोले ।। దూరమోదందనించనిd ? ?]రని
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' के अनुसार शरीर धर्म- घर जाकर भूल गया और मुनि रात भर वहीं खड़े रहे। प्रातः मुनि साधन का महत्त्वपूर्ण निमित्त है। संयम से शरीर नीरोग रहता है। को वहाँ खड़ा देखकर हलवाई मुनि के चरणों में गिर पड़ा। मुनि डाक्टरों का मत है कि अधिक खाने से और अधिक विषय- की संयम में दृढ़ता से कांधला जैनियों में प्रसिद्ध हो गया। भोग भोगने से अधिक लोग मरते हैं, बीमारी से कम मरते हैं। निर्ग्रन्थों की अपेक्षा से संयम के पाँच भेद हैं। जो मलगण कामभोग ही अनेक बीमारियों का घर है। प्रायः देखा जाता है और उत्तरगण में परिपर्ण न होने पर भी वीतराग-प्रणीत आगम कि परस्त्रीगामी और वेश्यागामी को जननेन्द्रिय संबंधी रोग लग।
से कभी अस्थिर नहीं होते, उन्हें पलाक संयमी कहते है। जो जाते हैं। शरीर अशक्त हो जाता है, जिससे वह रोगों का अवरोध ।
शरीर की विभूषा करे, सिद्धि यश कीर्ति चाहे, सुखाकांक्षी हो नहीं कर पाता।
और अतिचार दोषों से युक्त हो वह बकुश संयमी होता है। ब्रह्मचर्य-पालन के लिए सात्विक अल्प आहार आवश्यक इंद्रियों व मंद कषाय के वश में होकर जो उत्तरगुण में दोष है। भगवान् बुद्ध ने भी कहा है कि एक बार खाने वाला लगाये, विषयभोग में रुचि रखे वह कुशील संयमी, जिसके राग महात्मा, दो बार खाने वाला बुद्धिमान और दिन भर खाने वाला -द्वेष इतने मंद हों कि श्रेणी चढ़ते अन्तर्मुहूर्त में केवली होने पशु है।' ब्रह्मचारी का आहार कैसा होना चाहिये इस विषय में वाला हो, विषयों से सर्वथा मुक्त और पूर्ण जाग्रत हो वह निर्ग्रन्थ ओघनियुक्ति में उल्लेख है
संयमी और जोहियाहारी मियाहारी, अप्पाहारी य जे नरा।
जाणिए सव्वहि जीव जग जागा, न ते विज्जाभिगच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छंगा।।
सव्वहि विषय विलास विरागा। . जो हित मित और अल्प आहार करनेवाले हैं, उन्हें डाक्टर
जो सर्व जीवों की सर्व पर्यायों को जानते हों, जो सर्व के पास नहीं जाना पड़ता। संयमी शरीर से भी पुण्य कमाता विषय-विलास से मुक्त हो चुके हों, वे सर्वज्ञ स्नातक संयमी है और निर्जरा का भी उपार्जन करता है। तुलसीदासजी ने भी कहलाते हैं। कहा है
मार्ग आदि देखकर प्रवृत्ति करने को प्रेक्ष्य संयम कहते हैं। तुलसी काया खेत है, मनसा भया किसान।
अशुभ को रोककर शुभ में प्रवृत्ति करने को उपेक्ष्य संयम कहते पुण्य पाप दोउ बीज है, बुवै सो लुणे निदान।।
हैं। संयम में सहायक वस्त्र, पात्र आदि के अतिरिक्त जो अन्य यह शरीर खेत है और मन किसान है, इसमें ब्रह्मचर्य, सबका त्याग करे. उसे असहाय संयम कहते हैं। मार्ग आदि को समय या अब्रहम का जैसा पुण्य-पाप का बीज बोओगो वैसा सविधि पूज कर काम में ले उसे प्रमज्य संयम कहते हैं। ही फल मिलेगा। संयम-साधन की वस्तुओं कटासन, चारवला,
हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँचों अस्त्रवों माला आदि का संयम रखें और उन पर ममत्व न रखें इसे
का त्याग, पाँच इंद्रियों पर विजय, चार कषायों का त्याग और उपकरण-संयम कहते हैं।
तीनों योगों का संयम (मन, वचन काया का) यों संगम के कुल संयम-पालकों की दृष्टि से भी संयम के चार भेद हैं। मोम जैसा, लाख जैसा, लकड़ी जैसा और मिट्टी के गोले जैसा। उत्तम
निर्दोष संयम पालने के लिए कछुए का दृष्टान्त बहुत ही संयमी मिट्टी के गोले के समान संयम में दृढ़ रहता है। कांधला
उपयोगी है। उसे जब भी कुछ खतरा लगता है तब वह तुरन्त की एक घटना है। एक मुनि विहार करते हुए सूर्यास्त के समय
अपने सभी अंगों को संकुचित कर खोल में छिपा लेता है, वहाँ पहुँचे। एक हलवाई दुकान बंद करके जा रहा था। मुनि ने
खतरा टल जाने पर वापस बाहर निकाल लेता है। इसी तरह उसे छप्पर के नीचे रात में रहने के लिए पूछा। हलवाई ने कहा
साधक को भी जब-जब आवश्यक हो, तब-तब इंद्रियों और कि मैं घर से वापस आकर आज्ञा दूँगा। मुनि ने कहा- कोई बात
मन को गुप्ति रूपी खोल में गोपित कर लेना चाहिये। नहीं आप घर होकर आ जायें तब तक मैं यहीं खड़ा हूँ। हलवाई
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार - संयम का क्या फल है, इसके उत्तर में उत्तराध्ययनसूत्र में वह इस प्रकार कि पहला अहिंसा अणुव्रत लेने से निरपराध कहा गया है
त्रस जीवों की हिंसा का त्याग हो जाता है, जिससे मात्र स्थावर 'संजमेण अणण्हयत्तं जणयइ।'
जीवों की १० प्रतिशत हिंसा का पाप ही शेष रह जाता है। फिर
छठा दिशिव्रत ग्रहण करने से उससे भी आधी मात्र ५ प्रतिशत संयम से आस्रव के पाप का निवारण होता है। संयम का
क्रिया रह जाती है। सातवाँ भोगोपभोग व्रत ग्रहण करने से पाँच पालन कितना कठिन है। इस संबंध में भी उतराध्ययन में आया
की भी आधी २.५ प्रतिशत क्रिया रह जाती है। अन्त में आठवाँ
अनर्थदण्ड व्रत ग्रहण करने से उससे भी आधी १.२५ प्रतिशत जहा अग्गिसिहादित्ता, पाउं होइ सुदक्करा। क्रिया का पापास्रव शेष रह जाता है। यों आंशिक व्रतग्रहण से तहा दुक्कर करेउं जे, तारुण्णे समणत्तणं।। भी सहज में ही महापाप से निवृत्ति हो जाती है।
अर्थात जैसे प्रदीप्त अग्निशिखा को पीना कठिन है, वैसे श्रमणसत्र में कहा गया है कि बिना संयम के तप भी ही युवावस्था में संयम का पालन कठिन है। और भी कहा गया निरर्थक है
नाणं चरित्तहीनं, लिंगगहणं च दंसणविहीणं। बालुवा कवले चेव, णिरस्साए उ संजमे।
संजमहीणं च तवं, जो चरई निरत्थ य तस्स।। असि धारा गमण चेव, दुक्कर चरिउं तवो।।
अर्थात् बिना चारित्र के ज्ञान, बिना सम्यग्दर्शन के साधअर्थात्
वेष और बिना संयम के तप व्यर्थ है। संयम का महत्त्व तप से बालू रेत सम संयम होत है स्वादहीन।
अधिक है। तप और संयम में संयम ज्येष्ठ है। बिना संयम का समझो इस तलवार धार, चलना होत अति कठिन।। तप ताप होता है। शास्त्रकार कहते हैं कि तप वही श्रेष्ठ है, जो
संयम जीवन रूपी गाडी का ब्रेक है। जैसे लाखों रुपये के अहिंसा और संयम से युक्त हो। मूल्य वाली गाड़ी भी ब्रेक के बिना बैठने योग्य नहीं होती, वैसे संयम का फल दान से भी अधिक है। महादानी भी एक ही जीवन भी संयम के बिना बेकार है।
आंशिक संयमी के समकक्ष नहीं हो सकता। शास्त्रकार उत्तराध्ययन अंग्रेजी में भी कहावत है -
सूत्र में कहते हैं"If Money is lost nothing is lost, if health is lost some
जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवंदए। thing is lost, but if character is lost everything is lost.'
तस्सावि संजमो सेओ, अदित्तस्सऽकिंचण।। अर्थात् धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ
अर्थात्गया, किन्तु यदि चरित्र गया तो सब कुछ गया।
दस लाख गाय जो मास-मास, देता संयम से हो सूना। जो भी महापुरुष होते हैं वे सब संयमी और त्यागी होते हैं। दे दान नहीं कुछ भी पर है, संयम का मूल्य सदा दूना। उनका बाह्य जीवन कैसा भी क्यों न हो, पर वे अन्तरंग में दस लाख गायों का दान प्रतिमाह देने वाला भी एक संयमी होते हैं। संयम से आस्रव का समुद्र भी बूंद जितना कम संयमी साधु से, जो कुछ भी नहीं देता, श्रेष्ठ क्यों है? क्योंकि हो जाता है। त्याग-प्रत्याख्यान के बिना विश्व के समस्त जीव दानी तो कुछ जीवों का अभयदान कुछ समय के लिए ही दे
और अजीव पदार्थों की क्रिया के पाप-आस्रव से सभी अव्रती पाता है, वे भी कालान्तर में कसाई के पास पहुँच सकते हैं पर जीव निरन्तर भारी होते रहते हैं। जो सर्व संयमी (साधु) होते हैं। साधु तो सर्व जीवों को सदैव के लिए अभयदान देता है। वे सर्वथा पाप आस्रव से निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु जो गृहस्थ संयम के लिए तो देवता और देवेन्द्र भी पश्चात्ताप करते हैं श्रावक आंशिक संयमी होते हैं उनकी भी २० प्रतिशत पापक्रिया
था कि उन्होंने मनुष्यभव पाकर भी विशेष श्रुत नहीं पढ़ा, अधिक में मात्र १.२५ प्रतिशत पापक्रिया शेष रह जाती है।
संयम नहीं पाला और विशुद्ध चारित्र का स्पर्श नहीं किया।
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार भावपूर्वक संयम की सम्यग, आराधना से जीव सर्वार्थसिद्धि से हैं और न सेठ-सेनापति सुखी हैं। मात्र वीतरागी संयमी साधु ही भी अधिक अनुत्तर सुख को प्राप्त कर सकता है। संसार में जो सुखी हैं। जितना संयमी है। वह उतना ही सच्चे सुख को प्राप्त करता है।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी
अहिंसा, संयमपालन से ही सुख में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होती है। भगवतीसूत्र व्रतों का पालन संयम से ही संभव है। संयम नहीं होने से खानेके आधार से 'ज्ञानसंसार' ग्रंथ में कहा गया है कि एक माह के पीने. चलने-फिरने में हिंसा हो सकती है। संयम नहीं होने से संयम वाला वाणव्यन्तर के सुख में, दो माह के संयम वाला इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए झूठ बोला जा सकता है। भवनपति के सुख में, तीन माह के संयम वाला असुरकुमार के
संयम नहीं होने से अधिक धन कमाने के लोभ में चोरी का सुख में, चार माह का संयमी ग्रह-नक्षत्रों के देवों के सुख में,
माल भी खरीदा जा सकता है। संयम नहीं होने से परस्त्री से भोग पाँच माह वाला सूर्य-चंद्र के देवों के सुख में, छह माह वाला भोगने की इच्छा भी जाग्रत हो सकती है और संयम नहीं होने से संयमी पहले-दूसरे देवलोक के सुख में यों उत्तरोत्तर बढ़ते हुए इच्छा पर कोई अंकश नहीं रहेगा जिससे अनावश्यक वस्तुओं बारह माह का संयमी अनुत्तर देवों के सुखों का भी उल्लंघन कर
का संग्रह होना असंभव है। अतः धर्मपालन के लिए पहली शर्त देता है। एक वर्ष से अधिक का संयमी सदेह मुक्ति के सुखों का संयम है। शरीर के पोषण का विधान भी संयम के लिए ही है। अनुभव करता है। कहा भी गया है
संयम हेतु देहो, धारिज्जई सो कओ उ तद्भावे। जीवन का क्या है पता, कब तक है कब जाय।
संजममाइनिमित्तं, देह परिपालण?।। मुक्तिनगर पाथेय हित, संयम सुखद उपाय।।
संयम-पालन के लिए ही शरीर धारण करना और उसका बिन संयम मिलता नहीं, कभी मोक्ष का द्वार।
पोषण करना चाहिए, क्योंकि बिना शरीर के संयम का पालन संयम बिन कोई जतन, करे न बेड़ा पार।।
नहीं हो सकता। इस संबंध में एक पौराणिक कथा है। एक बार एक महात्मा के चार भक्तों ने अपने-अपने दुःख दूर करने के लिए चार
ज्ञानी कहते हैं कि संयम से पापी का भी उद्धार हो जाता अलग-अलग वरदान माँगे। पहले ने धन, दूसरे ने रूपवती स्त्री, तीसरे ने पुत्र और चौथे ने यश-कीर्ति का वरदान माँगा। योगी ने दीक्षा-संयम के प्रभाव से, पापी पावन बनता है। चारों को उनकी इच्छानुसार वर दे दिया। कुछ वर्षों बाद चारों ही सेवक जग स्वामी बन जाता, मरख ज्ञानी बनता है। भक्त वापस महात्मा से मिले, तब महात्मा ने पूछा कि अब तो
विश्व में जितनी भी सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक, खाद्य वे सुखी हैं? इस पर पहले ने कहा कि धन तो मिल गया पर
ता मिल गया पर संबंधी, स्वास्थ्य संबंधी तथा प्रदूषण संबंधी समस्याएँ है उन
मी उसकी रक्षा में रात-दिन दुःखी रहता हूँ। दूसरे ने कहा कि
. सबका सरल व उत्तम समाधान संयमवृत्ति को अपनाना है। रूपवती स्त्री तो मिल गयी और उसके भोग से ऐसा रोग लग
ज्यों-ज्यों असंयम बढ़ रहा है, त्यों-त्यों जनसंख्या बढ़ती जा रही गया है कि जीना मुश्किल हो गया है। तीसरे ने कहा कि पुत्र तो है और विश्व में रोग भखमरी. प्रदषण एवं यद्ध आदि बढ़ रहे हैं। अनेक हो गये हैं पर आज्ञाकारी एक भी नहीं। चौथे ने कहा कि जनसंख्या को सीमित करने के लिए अप्राकतिक साधनों के उपयोग यशकीर्ति तो खूब फैल रही है पर ईर्ष्या की अग्नि से जल रहा
के बजाय ब्रह्मचर्य का पालन ही सर्वश्रेष्ठ है। महात्मा गाँधी ने भी हँ। तब महात्मा ने कहा कि सुख बाह्य पदार्थों में नहीं है, सुख तो जनसंख्या पर नियंत्रण के लिए ब्रह्मचर्य पर ही जोर दिया है। आत्मा में ही है, जो संयम-पालन से प्राप्त होता है। इसलिए कहा
जैन-संस्कृति संयम प्रधान संस्कृति है। लोक का सार भी गया है
संयम कहा गया हैनवि सुही देवता देवलोए, नवि सुही पुढवी पइराया। नवि सुही सेठ सेनावइये, एगंत सुही साहु वीयरागी।।
लोगस्सं सारं धम्मो,धस्मं पिय नाण सारियं बिंति।
नाणं संजम- सारं संजमसारं च निव्वाणं।। न तो देवता देवलोक में सुखी हैं, न पृथ्वीपति राजा सुखी
యుదురురురురువారసాదరంగా గురువారందరరసారశాంతరవాత
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ- जैन-साधना एवं आचार - वास्तव में संयम सुख का, आत्मोत्थान का व कल्याण जन्म-मरण का दुःख मिटावे, होवे परम कल्याण। का शाश्वत मार्ग है, जबकि असंयम दःख और पतन का मार्ग है। हो संयम सुखकारी॥१॥ श्रीमद् रामचन्द्र ने तो स्पष्ट कहा है
परम औषधि संयम जाणो, तीन लोक का सार पिछाणो। देखकर नव यौवना, लेश न विषय निदान।
शुद्ध संयम हिरदे में धारो, अनुपम सुख की खान। गिने काठ की पतली, वह भगवान समान।। हो संयम सुखकारी॥२॥
एक बार एक गृहस्थ ने एक ज्ञानी महात्मा से पूछा, काम-कषाय को तजै हुकमाई, निंदा विकथादि छिटकाई। 'महात्माजी! मैं संसार के विषय-प्रपंचों में इतना अधिक उलझा तप संयम में लीन सदा ही, धन्य तेहनो अवतार। हूँ कि मुझे धर्म सुनने का अवसर ही नहीं मिलता। मुझे कोई हो संयम सुखकारी।।३।। छोटी सी ऐसी बात बतायें कि जिससे दुःख मिट कर सुख
संयम के स्वरूप और माहात्म्य को समझ कर यह ध्यान बढ़ता रहे और आत्मा का कल्याण भी हो जाये। तब महात्मा ने
में रखना चाहिये कि सम्यग्ज्ञानदर्शन हमारे पथ-प्रदर्शक हैं, जो बहुत सोचने के बाद उसे यह श्लोक बताया
संयम हमारे बायाभ्यन्तर शत्रुओं से हमारी रक्षा करने वाला आपदा कथितो पंथा, इंद्रियाणामसंयमः। हमारा अद्वितीय अंगरक्षक है। जिस प्रकार युद्ध में कवच योद्धा तज्जयो सम्पदामार्गः, प्रथितः पुरुषोत्तमैः।। का रक्षक होता है, उसी प्रकार साधक के न सिर्फ बाह्य शत्रुओं
अर्थात् इंद्रियों को वश में करना, सुख का मार्ग तथा उन्हें के लिए भी अपितु मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद व अशुभ बिना अंकुश के छोड़ देना दःख का मार्ग है। अंग्रेजी में भी एक योग आदि महाप्रबल आन्तरिक शत्रुओं से आत्मा की रक्षा करने कहावत है कि
के लिए संयम उत्तम अमोघ कवच है। जो भी इसे धारण करेगा
उसके ज्ञान, दर्शन, चारित्र तपरूपी अनमोल रत्न सुरक्षित रहेंगे। Character is property. A man is known by what he loves friends, places , books, thoughts, good or bad from उसकी आत्मा कर्म रूपी प्रबल शत्रओं को पराजित कर निकट these his character is told.
भविष्य में ही मोक्षलक्ष्मी प्राप्त करेगी। अर्थात् संयम ही धन है। मनुष्य कैसे मित्र रखता है? कैसे अनन्त पुण्योदय से तन, मन, वचन और धन रूपी चार स्थानों पर जाता है? कैसी पुस्तकें पढ़ता है? कैसे विचार रखता उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं, पर इन चारों के पीछे चार चोर लगे है, अच्छे या बुरे? इन्हीं से उसका चरित्र जाना जा सकता है। हुए हैं। तन के पीछे व्याधि, रसना के पीछे स्वाद, धन के पीछे संयम पर एक अनुपम पर याद आ रहा है। उसके कुछ अंश प्रस्तत हैं- उपाधि और मन के पीछे तृष्णा। इन चारों से बचने का एक मात्र संयम सुखकारी, हो जिन आज्ञानुसार संयम सुखकारी।
उपाय है समाधि। यह समाधि संयम से प्राप्त होती है। सचमुच, सुखकारी, मंगलकारी, धन्य पाले जो नर-नारी।
संयय ही जीवन का सौंदर्य है, मन का माधुर्य है और धर्म का
मंगल प्रवेश-द्वार है, जो इसका पालन करेंगे वे यहाँ भी और हो संयम सुखकारी।
परभव में भी सुख प्राप्त करेंगे। कर्म-मैल को शीघ्र हटावे, आत्मा के गुण सब प्रगटावे।
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मन्त्र की साधकता : एक विश्लेषण
नन्दलाल जैन, जैन केन्द्र, रीवा...
न शास्त्रों में मंत्रविद्या विद्यानुप्रवाद एवं प्राणावाय पूर्वो कुछ प्रमुख मन्त्र का महत्त्वपूर्ण अंग रही है। इसका ७२ कलाओं में भी उल्लेख
भारतीय धर्म-परम्परा में मंत्र-जप एक पुण्यकारी अनुष्ठान है। इस विद्या के बल पर ही भूतकाल में अनेक आचार्यों ने
माना जाता है। यद्यपि इनका विकास मुख्यतः आध्यात्मिक जैन-तंत्र को सुरक्षित, संरक्षित एवं संवर्धित किया है। फलतः
और पारलौकिक उद्देश्य से हुआ होगा, पर इनसे आनुषंगिक यह प्राचीन विद्या है, जो महावीर के युग से पूर्व भी लोकप्रिय रही
फल के रूप में इहलौकिक उद्देश्य और भौतिक सिद्धियाँ भी होगी। शास्त्रों में इसका विवरण.११ दृष्टिकोणों और नौ अनुयोग
प्राप्त होती हैं। फलतः प्रमुख उद्देश्य के अनुरूप मंत्र भी अनेक द्वारों से दिया गया है। इसका लक्ष्य आत्मकल्याण और इहलौकिक
प्रकार के होते हैं। कुछ मंत्र आध्यात्मिक होते हैं, कुछ भौतिक कल्याण दोनों है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में यह विद्या
कामनापरक होते हैं और कुछ तांत्रिक (विष दूर करना आदि) गोपनीय रही होगी। इसमें गुरु का अपूर्व महत्त्व था। ऐतिहासिक
होते हैं। अनेक वर्षों के विशिष्ट सामर्थ्य से भी ये तथ्य प्रकट दृष्टि से इस विद्या के उत्थान-पतन के युग आए, पर ७वीं शती
होते हैं। उदाहरणार्थ - 'म' में सिद्धि और संतान का सामर्थ्य के बाद शक्तिवाद और तंत्रविद्या के विकास के साथ इसको
होता है, 'व' एवं 'ब' में रोगादि अनिष्ट-निवारण की क्षमता होती पुनर्जीवन मिला और अब तो यह विद्या वैज्ञानिक युग में योग -
है और 'न और द' आत्म-शक्ति जागृत करते हैं। इन विशिष्ट ध्यान के एक अंग के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है और व्यक्तिगत
उद्देश्य वाले मंत्रों की तुलना में, कुछ मंत्र ऐसे होते हैं, जो सभी तथा सार्वजनिक कल्याण की वाहक बनती जा रही है।
प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। इन्हें हम मूल-मंत्र भी कह मंत्र शब्द के अनेक अर्थ हैं। मूलत: यह मन की प्रवृत्तियों सकते हैं। हम इसी कोटि के केवल चार मंत्रों की यहाँ चर्चा को नियंत्रित करता है, उन्हें बहुदिशी के बदले एक-दिशी बनाता करेंगे। है। यह भौतिक और आध्यात्मिक दोनों उद्देश्यों की पूर्ति में ओम-जैनों के अनुसार, यह सभी मंत्रों का मूल है। यह मनोकामना पूर्ति एवं आत्मानुभूति के लिए अन्तः शक्ति जागरण
पंचपरमेष्ठियों के प्रथम अक्षरों के संयोग से बना है, अत: पूज्य में सहायक होता है। मंत्रों का स्वरूप विशिष्ट अक्षर रचना, विन्यास
पुरुषों और उनके गुणों का स्मरण कराता है। यह दर्शन, ज्ञान एवं विशिष्ट ध्वनि-समूह के रूप में होता है, जिसके बारम्बार
तथा चारित्र के त्रिरत्नों का भी प्रतीक है। इसमें तीन अक्षर हैं 'अ, उच्चारण से ऊर्जा का उद्भव और विकास होता है, जो हमारे उ और माये क्रमशः निर्माण, संरक्षण तथा विनाश की प्रक्रियाओं जीवन को सुख और शक्तिमय बनाती है। वस्तुतः मंत्रों की के प्रतीक हैं। यह मंत्र दिव्य ऊर्जा का प्रतीक है। इसे अन्य साधकता के अनेक आयाम होते हैं - (१) ये हमारे अशुभ एवं परम्पराओं में भी माना गया है। 'आमेन' इसका पश्चिमी रूप ऋणात्मक कर्मों का नाश कर उन्हें सकारात्मक या आध्यात्मिक है। यह (१) तीन लोक, (२) सत-चित्-आनन्द की त्रयी, (३) रूप प्रदान करते हैं, (२) ये हमारे भौतिक एवं आध्यात्मिक पथ सत्व-रज-तम की त्रिगुणी, (४) वेदत्रयी, (५) देवत्रयी एवं त्रिको प्रशस्त करते हैं, (३) ये हमारे व्यक्तित्व को विकसित करते ब्रह्मवाद (सर्वव्यापक) आदि का प्रतीक है। यह अनंत और हैं और हमारे चारों ओर के आभा-मण्डल या लेश्या रूपों को शन्य (वृत्त) का भी प्रतीक है। इसके विशिष्ट वर्णों का उच्चारण प्रशस्तता देते हैं और (४) ये हमारे लिए चिकित्सक का काम । सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करता है और साध्य सिद्धि में उपयोगी कर हमें स्वस्थ बनाते हैं।
होता है।
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन-साधना एवं आचार णमोकार मन्त्र - जैनों में यह मंत्र महामंत्र कहलाता है और इसके जप के प्रभावों से न केवल अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हैं, अपितु वर्तमान में भी इससे अनेक कथानक जुड़ते रहते हैं। यह मंत्र अर्थतः अनादि है, पर शब्दतः प्रथम द्वितीय शती में उद्घाटित हुआ है। यह खारबेल-युगीन द्विपदी से पंचपदी में विकसित हुआ है। इसके विषय में अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं । ३५ अक्षरों वाला यह मंत्र निम्नांकित है
णमो अरिहंताणं
आई बो टू एनलाइटेंड्स
णमो सिद्धाणं
आई बो टू साल्वेटेड्स
णमो आयरियाणं
आई बो टू मिनिस्टर्स
आई बो टू प्रीसेप्टर्स
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं आई बो टू सेन्ट्स आफ आल दी वर्ल्ड धवला टीका के अनुसार, इसका निम्न अर्थ है - मैं लोक के सभी बोधि प्राप्त पूज्य पुरुषों को नमस्कार करता हूँ । मैं लोक के सभी सिद्धि प्राप्त सर्वज्ञों को नमस्कार करता हूँ । मैं लोक के सभी धर्माचार्यों को नमस्कार करता हूँ। मैं लोक के सभी उपाध्यायों (पाठकों) को नमस्कार करता हूँ। लोक के सभी साधुओं (अध्यात्म मार्ग के पथिकों) को नमस्कार करता हूँ।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में पाँच की संख्या का बड़ा महत्त्व था। इसीलिए पंचभूत, पंचप्राण, पंचरंग, पंच आचार, पाँच अणु/महाव्रत, पाँच समिति और पाँच आकृतियाँ स्वीकृत किए गए। इनमें से कुछ को णमोकार मंत्र के विविध पदों से सह-सम्बन्धित किया गया है ( सारणी - १ ) :
सारणी - १ : णमोकार मंत्र के पदों के अन्य पंचकों से सह-सम्बन्ध क्र. पद रंग भूत प्राण आकृति प्रभाव १. णमो अरिहंताणं
सफेद
समान
अर्धचन्द्र विनाशक
२. णमो सिद्धाणं
लाल
उदान
त्रिकोण संरक्षक
३. णमो आयरियाणं
पीला
व्यान
वर्ग विनाशक
४. णमो उवज्झायाणं नीला
वायु
प्राण
षट्कोण निर्मायक
५. णमो लोए सव्वसाहूणं धूमकाला आकाश अपान वृत
विनाशक
సోర
-
जल
अग्नि
पृथ्वी
इस प्रकार इस मंत्र में ऋणात्मक गुणों को नष्ट कर सकारात्मक गुणों के विकास का गुण है। यह स्पष्ट है कि इसमें नकारात्मक गुणों के नाश के प्रतीक तीन पद हैं। इसका अर्थ यह है कि इन गुणों के नाश में बहुत अधिक ऊर्जा लगती है। नकारात्मक गुणों में राग-द्वेष, मोह, तनाव, व्याधियाँ, पाप आदि माने जाते हैं। सकारात्मक गुण इनके विपरीत और प्रशस्त होते हैं। इस मंत्र की विशेषता यह है कि यह व्यक्ति या दिव्य शक्ति आधारित नहीं है, यह पुरुषार्थवादी मंत्र है। यह गुण - विशेषित मंत्र है। फलतः यह सार्वदेशिक एवं त्रैकालिक मंत्र है। यह वैज्ञानिक युग के भी अनुरूप है। इस मंत्र का अंग्रेजी अनुवाद भी यहाँ दिया गया है। इसके आधार पर अंग्रेजी के णमोकार मंत्र की साधकता भी विश्लेषित की गई है।
गायत्री मन्त्र - जैनों के णमोकार मंत्र के समान हिन्दुओं में गायत्री मंत्र का प्रचलन है। इस मंत्र को मातामंत्र कहा जाता है। यह भक्तिवादी मंत्र है, जिसमें परमात्मा से सद्बुद्धि देने एवं सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने की प्रार्थना की गई है। मुख्यतः पुनरावृत्ति छोड़कर २४ अक्षरों वाले इस मंत्र में २९ वर्ण हैं, जिनके आधार पर इसकी साधकता विश्लेषित की गई है। यह मंत्र निम्नांकित है
ओम् भुर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । इसका अर्थ निम्नलिखित है
मैं उस परमात्मा (शिव) को अंतरंग में धारण करता हूँ, जो भू-लोक भुवनलोक एवं स्वर्गलोक में व्याप्त है, जो सूर्य के समान तेजस्वी एवं श्रेष्ठ है और जो देवतास्वरूप है। वह मेरी बुद्धि को सन्मार्ग में लगाए ।
गायत्री परिवार ने युगनिर्माण योजना के माध्यम से इस मंत्र को अत्यंत लोकप्रियता प्रदान की है। इसको जपने वालों की संख्या ३ करोड़ तक बताई जाती है। इस परिवार का मुख्य कार्यालय शांतिकुंज, हरिद्वार है, जहाँ मंत्र जप के प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। नई पीढ़ी के लिए यह बहुत बड़ा आकर्षण है। एक जैन साधु ने णमोकार मंत्र से सम्बन्धि एक आन्दोलन एवं रतलाम के एक सज्जन ने उसके प्रचार का काम चालू किया था, पर उसकी सफलता के आँकड़े प्रकाशित नहीं हुए हैं। मंत्र जप की प्रक्रिया को वैज्ञानिकतः प्रभावी बनाने
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- यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार. के लिए उन्होंने किसी प्रयोग-शाला की स्थापना की भी बात शरीर-विद्युत उत्पन्न करते हैं। यह धनात्मक होती है और तंत्र में नहीं की है।
विद्यमान ऋणात्मक तत्त्वों को नष्ट कर प्रशस्तता प्रदान करती यह गायत्री मंत्र दिव्य शक्ति के अस्तित्व पर आधारित जो मनोवैज्ञानिकत: सामान्य जन को प्रभावित करता है। इसके - मंत्र ध्वनि-ध्वनि ऊर्जा (प्राण, मन) - शरीर विद्युत् नकारात्मकता नाश-प्रशस्तता। विपर्यास में, णमोकार मंत्र अधिक वैज्ञानिक होने पर भी जैनों
इनकी उच्चारणशक्ति से आकाश में भी, वीचि-तरंग न्याय के क्षेत्र से आगे नहीं बढ़ पाया है।
से, कम्पन उत्पन्न होते हैं, जहाँ इनका विस्तार एवं सूक्ष्मकरण त्रिशरण मन्त्र - जैनों और हिन्दुओं के समान बौद्ध धर्म होता है। इन ऊर्जीकृत कम्पनों का पुंज अपने उद्भव केन्द्र पर के अनुयायियों का भी एक मंत्र है, जिसेत्रिशरण-मंत्र कहते हैं - लौटने तक पर्याप्त शक्तिशाली हो जाता है और यही शक्ति बुद्धं शरणं गच्छामि मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ।
मंत्र-साधक की शक्ति कहलाती है। हमारे शरीरतंत्र में इस शक्ति
के अवशोषण, संग्रहण एवं संचारण की क्षमता होती है। यह धम्मं शरणं गच्छामि मैं बुद्ध के उपदेशित धर्म की शरण लेता हूँ।।
शरीरतंत्र की विद्युत् ऊर्जा को प्रवलित करती है। यह शक्ति संघशरणं गच्छामि मैंबुद्ध-संघ की शरण लेता हूँ।
मनुष्य में भूकम्प-सा ला देती है। इस शक्ति के अनेक रूप यह भी व्यक्ति-विशेषित भक्तिवादी मंत्र है। बौद्धों की सम्भव हैं। योगिजन अपनी दृष्टि, मंत्रोच्चारण, स्पर्श तथा विचारों विशिष्ट विपश्यना ध्यान-पद्धति भी है, जिसमें इस मंत्र का पारायण के माध्यम से इस शक्ति को दूसरों के हिताहित-सम्पादन में होता है। बुद्ध को सामान्यतः यथार्थवादी एवं व्यवहारवादी माना संचारित करते हैं। जाता है और उसमें भी पुरुषार्थ को महत्त्व दिया गया है, फिर भी . ऊर्जा के कम्पनों के अनेक रूप होते हैं - (१) विद्यत. यह व्यक्ति-आधारित है और मनोवैज्ञानिकतः प्रभावी है। यहाँ (२) प्रकाश और रंग, (३) प्राण, (४) नाडी. (५) ध्वनि आदि। बुद्ध को दिव्यशक्ति-सम्पन्न मान लिया गया है। इसीलिए बुद्ध- इनका सामान्य गण कम्पन होता है। कछ कम्पन स्वैच्छिक होते धर्म भी संसार के अनेक भागों में फैला है और अनुयायियों की हैं और कछ उत्पन्न किए जाते हैं (वचन, यंत्रवादन आदि)। कछ दृष्टि से यह विश्व में तीसरा धर्म माना जाता है, जबकि हिन्दू धर्म सहज ही होते रहते हैं। इन कम्पनों के विषय में भारतीय विद्याओं अब चौथे स्थान पर चला गया है। इस मंत्र में २४ वर्ण हैं, जिनके के 'नादयोग' तंत्र में 'आहत और अनाहत' के रूप में विवरण आधार पर इसकी साधकता विश्लेषित की गई है।
मिलता है। इसके अनुसार १० प्रकार (मेघ, घंटा, भ्रमरी, तंत्री मन्त्रों की प्रभावकता की व्याख्या
आदि) की ध्वनियाँ होती हैं। ये ध्वनि कम्पन अपने विशिष्ट
तरंग-दैर्ध्य एवं आवृत्तियों से पहचाने जाते हैं। ये कम्पन हमारे मंत्र विशिष्ट ध्वनियों एवं वर्गों के समूह हैं। इनके उच्चारण
कान के माध्यम से मस्तिष्कतंत्र में जाते हैं, वहाँ से सारे शरीर में से ध्वनि-शक्ति उत्पन्न होती है। बारम्बार उच्चारण से इस फैलकर सारे वातावरण में विसरित होते रहते हैं। ये कम्पन शक्ति में तीव्रता आती है। यह तीव्रता ही अनेक प्रभाव उत्पन्न ।
हमारी मानसिक एवं विद्युत् ऊर्जा को भी प्रभावित करते हैं - करती है। इसलिए मंत्रों को ध्वनि-शक्ति की लीला-स्थली ही
मंत्र के माध्यम से उसे संवर्धित एवं एकदिशी बनाते रहते हैं। इन कहना चाहिए। यह ध्वनि शरीर-तंत्र के अनेक अवयवों, स्वर -
कम्पनों की ऊर्जा हमारी प्रसुप्त या कर्म-आवृत्त ऊर्जा को तंत्र एवं मन के कार्यकारी होने पर कण्ठ, तालु आदि में होने
उत्तेजित करती है और उसे अभिव्यक्ति करने में सहायक होती वाले विशिष्ट कम्पनों के माध्यम से उत्पन्न होकर अभिव्यक्त
__ है। कम्पन-ऊर्जा का प्रहार जितना ही तीव्र होगा, हमारी आंतरिक होती है। अतएव ध्वनि को कम्पन-ऊर्जा भी कहते हैं। जैन
ऊर्जा की अभिव्यक्ति भी उतनी ही उन्नतिमुखी होगी। शास्त्रों के अनुसार ध्वनि ऊर्जामंय सूक्ष्म पौद्गलिक कण हैं, जो अपने उच्चारण के समय तीव्रगामी मन और प्राण से संयोग कर
प्रत्येक वर्ण की ध्वनि विशिष्ट होती है, अत: उसके कम्पन उनकी ही गति प्राप्त कर और भी शक्ति-सम्पन्न हो जाते हैं और
. भी विशिष्ट होते हैं। ये कम्पन ही वर्ण की ऊर्जा को निरूपित
मा
करते हैं, क्योंकि कम्पन ऊर्जा के समानुपाती होते हैं। यही नहीं, morrordnidroidrodariwariwarsanawardGidad-२०idnirodnirodroidrodwhonloodwidnirdoorsmombrarar
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - मंत्र-शास्त्रियों ने वर्णो-स्वर (१६), व्यंजन (३३) और अर्द्धस्वरों परिवर्तनों का ज्ञान प्रयोगगम्य है और ध्यान की प्रयोगशालाओं को मातृकाक्षर (अ-क्ष) एवं बीजाक्षर (क-ह) के रूप में विभाजित में अनुभव किया जा सकता है। वैज्ञानिक-युग के पूर्व के शास्त्रों किया है। प्रत्येक मंत्र में इन दोनों के अतिरिक्त पल्लव (लिंग, में इन परिवर्तनों का (स्थिरता, भाव, शुद्ध एवं शांति के प्रभावों नमः, स्वाहा आदि) शब्दों का भी समावेश होता है। इस प्रकार के रूप में) परोक्षत: ही उल्लेख माना जा सकता है। प्रत्येक मंत्र इन तीनों प्रकार के घटकों का विशिष्ट समुच्चय
शास्त्रीय युग में मंत्रों के प्रभावों के प्रति विश्वास एवं होता है। प्रत्येक वर्ण की विशिष्ट, अपरिमित तथा दिव्य शक्ति
आकर्षण उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक था कि उनकी होती है। यह प्रशस्त, अप्रशस्त एवं उदासीन - किसी भी कोटि
समग्र शक्ति या प्रभाविता को उनमें विद्यमान वर्गों की समग्र की हो सकती है। इन वर्ण ध्वनियों की शक्ति ही मंत्र में काम
शक्ति के रूप में माना जाए, फलतः प्रत्येक मंत्र की शक्ति का आती है। इस शक्ति का पूर्ण साक्षात्कार ही मंत्र-साधना का
साधना का निर्धारण उसमें विद्यमान वर्णों की शक्ति के आधार पर किया लक्ष्य होता है। यह ध्वनिशक्ति शरीर, मन, विश्व, ग्रह तथा
गया है। अनुभव के आधार पर प्रत्येक वर्ण की विशिष्ट शक्ति अग्नि से अन्योन्य-सम्बन्धित है। यह शक्ति हमारे सात चक्रों
या सामर्थ्य निर्धारित की गई है। यह संकलित शक्ति ही मंत्र की (मूलाधार से सहस्रार तक) और चैतन्य के विविध स्तरों (चेतन,
साधक-क्षमता एवं उद्देश्य-पूर्ण क्षमता को व्यक्त करती है। अवचेतन और अचेतन) को प्रभावित करती है। मंत्र-सम्बन्धी
फलतः वों के शक्ति-उदघाटन के ज्ञान की प्रक्रिया 'मातृका विज्ञान'
मंत्र के प्रत्येक वर्ण की शक्ति का योग = मंत्र की साधक-क्षमता कहलाती है।
इस लेख में वर्णों की शक्ति के आधार पर मंत्रों की मातृका शब्द वस्तुतः 'मात्रा' (उच्चारण के समय का परिमाण) शब्द से व्युत्पन्न है। यह पाया गया है कि यदि स्वर
साधक क्षमता को विश्लेषित करने का प्रयत्न किया गया है। के उच्चारण में 'अ' समय की मात्रा लगती है, तो 'व्यंजन के गोविन्द शास्त्री, नेमिचन्द्र शास्त्री और सुशील मुनि ने विभिन्न उच्चारण में प्राय: 'अ/२' समय की मात्रा लगती है (स्वरों से वर्गों के सामर्थ्य का परम्परा-प्राप्त संकलन दिया है। उसके आधी)। इनके उच्चारण के समय घटाए-बढ़ाए जा सकते हैं - आधार पर सारणी २,३ व ४ तैयार की गई हैं। इनका तुलनात्मक हृस्वध्वनि, दीर्घध्वनि, प्लुतध्वनि, विस्तारित ध्वनि आदि। विश्लेषण सारणी -६ में दिया गया है। इन सारणियों में जैनों के उच्चारण-समयों से कम्पनों की प्रकृति पर अंतर पड़ता है। इसी णमोकार मंत्र, हिन्दुओं के गायत्री मंत्र और बौद्धों के त्रिशरण मंत्र कारण अनेक धर्मशास्त्र शब्दशक्ति को आदिशक्ति ही कहते हैं। तथा ओम् मंत्र को आधार बनाया गया है। साथ ही, यह विश्लेषण
सभी मंत्रों में ३५ अक्षर मानकर किया गया है, जिससे सार्थक मन्त्र की शक्ति का निर्धारण
तुलना हो सके। इस तुलना से एक रोचक और उत्साहवर्द्धक यह विशिष्ट वर्ण-समूहों से निर्मित मंत्रों की ऊर्जा का गुणात्मक तथ्य प्रकट होता है कि यदि पूर्वोक्त मंत्रों में ३५ अक्षर मान विवरण शास्त्रों में पाया जाता है। इस ऊर्जा के अनेक भौतिक लिए जाएँ, तो सभी की साधक-क्षमता लगभग समान होती है।
और आध्यात्मिक लाभ भी वहाँ बताए गए हैं। इस ऊर्जा को हाँ. ओम नामक प्रणव बीज मंत्र इसका अपवाद होगा, पर परिमाणात्मक रूप देना किंचित् दुरूह कार्य है, फिर भी यह तो उसकी क्षमता, उसकी जप-संख्या बढ़ाकर सहज ही बढ़ाई जा माना ही जा सकता है कि मौन या वाचिक मंत्रोच्चारण के सकती है। समय, ध्यान के समान, हमारे मस्तिष्क की तरंगों की प्रकृति में अंग्रेजी में अनूदित मन्त्र की साधकता का विश्लेषण अंतर पड़ता है। वे बीटा-रूप से एल्फा-रूप में परिणत होने
आजकल विभिन्न धर्मों के विश्वीयकरण की चर्चा जोरों लगती हैं, जो मानसिक स्थिरता की प्रतीक हैं। मस्तिष्क के तरंग रूप में परिवर्तन के साथ उसके चारों ओर विद्यमान आभामंडल।
पर है। इसके लिए संस्कृत-प्राकृत भाषा के मंत्रों का अन्य के रंग में भी परिवर्तन होता है, जो काले से सफेद की ओर बढ़ता
भाषान्तरण आवश्यक है। इस हेतु अंग्रेजी सर्वाधिक लोकप्रियता
प्राप्त है। अनेक सत्रों से णमोकार मंत्र का अंग्रेजी-अनुवाद हुआ हुआ प्रशस्त मनोवृत्ति की ओर सूचना देता है। इन दोनों ही andranardnodwebmirrordwordroidroidarbirdwoodword[२१Hiroriridwarararidabraiduirindridward-orditoided
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- यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार है, पर वह मंत्र में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों के समरूप शब्दों सारणी - ५ : णमोकार मंत्र के अंग्रेजी-अनुवाद की की विविधता के कारण अंग्रेजी-मंत्र नहीं माना जा सकता। साधकता का विवरण - लेखक का विचार है कि जब मूल-मंत्र एक है, तो उसका आ धन,आशा आ धन,आशा आ धन,आश आ धन,आशा . भाषान्तरण भी एक ही शब्दावली में होना चाहिए। लेखक ने
. इ मुटुकारीसाधक इ मृदुकारीसाधक इ मुटुकारीसाधक इ मुटुकारीसाधक अंग्रेजी की सरल शब्दावली का उपयोग कर इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न किया है कि अंग्रेजी में मंत्र की साधक-क्षमता ब विघ्न-विनाश ब विघ्न-विनाश ब विन-विनाश ब विघ्न विनाश कैसी होगी? सारणी-५ से पता चलता है कि अंग्रेजी में अनूदित ओ अनुदात्त ओ अनुदात्त ओ अनुदात्त ओ अनुदात्त मंत्र का सामर्थ्य संस्कृत-प्राकृत मंत्रों की तुलना में प्रायः ६० ट अति ट अशति ट अतिट अति प्रतिशत ही आता है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि अंग्रेजी
ऊ विघटन ऊ विघटन ऊ विघटन ऊ विघटन में 'ट' (टी), ओ आदि वर्गों के कारण तथा णकार के समान प्रशस्त वर्णों के अभाव के कारण उसमें व्यक्त मंत्रों की वर्णित ए निश्चल स सर्वसाधक म सिद्धि,संतान प सहयोगी साधक-क्षमता में कमी होती है। इस अनुवाद में कुछ शब्दों को न् आत्मसिद्धि आ धन, आशा इ मुटुकारीसाधक र शक्ति, वृद्ध बदलकर (जैसे 'आई बो' के बदले 'बोइंग्स') साधक क्षमता में ल लक्ष्मी कल्याण ल लक्ष्मी, कल्याण न आत्मसिद्धि ई अल्पशक्ति कुछ सुधार सम्भव है, पर इच्छित सामर्थ्य कठिन ही प्रतीत होता .
आ धन,आशा व विघ्न विनाश इ मृदुकारीसाधक स सर्वसाधक है। फलतः यह कमी मंत्र-जप की संख्या को बढ़ाकर ही पूरी की जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस मंत्र के समान ही इ मुटुकारीसाधक ए निश्चलस निश्चल ए सर्वसाधक अन्य मंत्रों के अंग्रेजी-अनुवाद की साधक-क्षमता भी इसीट अति ट अति ट अशांति प सहयोगी प्रकार की होगी।
ए निश्चल ए निश्चल र शक्ति, वृद्धि र शक्ति, वृद्धि सारणी -२ : णमोकार मंत्र की साधकता का विवरण न् आत्म सिद्धि ड शति-विरोधी स सर्वसाधक स सर्वसाधक ण शति, शसि ण शांति,शक्ति ण शति,शक्ति ण शति, शक्ति उ शति विरोधी स सर्वसाधक म सिद्धि, संतान म सिद्धि, संतान म सिद्धि, संतान म सिद्धि,संतान सारणी - २ (अविरत) सारणी - ५ (अविरत) ओ अनुदात्त ओ अनुदात्त ओ अनुदात्त ओ अनुदात्त ण शांति, शक्ति
आ धन, आशा अ सर्वशक्ति स सर्वसाधक आ धन,आशा उ अद्भुत शक्ति म सिद्धि. संतान
मृदुकारी साधक र शक्ति, वृद्ध इ मृदुकारीसाधक य शांत, सिद्धि व विपत्ति-निवारक
ओ अनुदात्त
विघ्न-विनाश इ मूदुकारीसाधक द् आत्मशक्ति र शक्ति, वृद्ध ज् रोगनाश,सिद्धि
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अनुदात्त ह मंगलसाधक ध सहयेगी इ मूदुकारीसाधक झ शक्ति-संचार
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार . ह मंगल-साधक
शांतिविरोधी र शक्ति, वृद्धि
प् सहयोगी ऊ विघटन
सर्वसाधक
व विपत्तिनिवारक र शक्ति, वृद्धि ण शांति, शक्ति
निश्चल र शक्ति वृद्धि
च खण्डशक्ति म् सिद्धि, संतान
आत्मसिद्धि ए निश्चल
ओ अनुदात्त अशांति
ण शांति, शक्ति द आत्मशक्ति सर्वसाधक
य शांति, सिद्धि य शांति, सिद्धि सारणी - ३ : गायत्रीमंत्र की साधकता का विवरण म् सिद्धि, संतान आ धन, आशा ओ अनुदात्त ग साधक
भ सात्विक विरोधी त् सर्व सिद्धि म् सिद्धि, संतान ओ अनुदात्त
र शक्ति, वृद्धि
-- भ् सात्विक विरोधी द आत्मशक्ति ऊ विघटन ए निश्चल
सारणी - 4:त्रिशरण मंत्र की साधकता का विवरण र शक्ति, वृद्धि व विपत्तिनिवारक
ब विपत्तिनिवारक ध सहयोगी स सर्वसाधक भ सात्विक विरोधी स् सर्वसाधक
उ अद्भुत शक्ति म् सिद्धि, संतान म् सिद्धि, संतान उ अद्भुत शक्ति य शांति, सिद्धि
द् आत्मशक्ति म सिद्धि, संतान घ स्तम्भन व विपत्तिनिवारक ध मंगलसाधक
ध सहयोगी म् सिद्धि, संतान म् सिद्धि, संतान ह मंगलसाधक ई अल्प शक्ति
म् सिद्धि संतान स सर्वसाधक म सिद्धि, संतान
श निरर्थक श निरर्थक श निरर्थक व विपत्तिनिवारक ह मंगलसाधक
र शक्ति, वृद्धि र शक्ति, वृद्धि र शक्ति, वृद्धि ह मंगलसाधक इ मृदुकारी साधक
ण शांति, शक्ति ण शांति, शक्ति ण शांति, शक्ति त सर्वसिद्धि ध मंगलसाधक
म् सिद्धि, संतान म् सिद्धि, संतान म् सिद्धि, संतान त् सर्वसिद्धि इ मृदुकारी साधक
ग साधक ग साधक ग साधक स सर्वसाधक य शांति, सिद्धि
च् खण्डशक्ति च् खण्डशक्ति च् खण्डशक्ति व विपत्तिनिवारक ओ अनुदात्त
छ शक्ति, विध्वंस छ शक्ति, विध्वंस छ शक्ति, इ मृदुकारी साधक य शांति, सिद्धि
आ धन, आशा आ धन, आशा आ धन, आशा त सर्वसिद्धि ओ अनुदात्त
म सिद्धि, संतान म सिद्धि, संतान म सिद्धि, संतान उ अद्भुत शक्ति न आत्मसिद्धि
इ मृदुकारी साधक इ मृदुकारी साधकइ मृदुकारी साधक ह मंगलसाधक
రసాయుగురురురురురురురురురురురువారం సాయ
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सन्दर्भ
यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारसारणी-६ : विभिन्न मंत्रों की साधकता का तुलनात्मक विवरण अ. फल णमोकार मंत्र ओम्यंत्र गायत्रीमंत्र त्रिशरण वर्ण ।
१. जैन, प्रकाशचन्द्र : जैन शास्त्रों में मंत्रवाद, ज.मो.ला. शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ, प्राकृत अंग्रेजी मंत्र
रीवा, १९८९ पृष्ठ १९८ १. शांति, शक्ति, सामर्थ्य ११ - १ २. सर्वशक्ति ७
२. शास्त्री, नेमचन्द्र : णमोकार मंत्र, एक अनुशीलन, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली ८ -
१९६७ पृ.८-१२ ३. सिद्धि, संतान
३. शास्त्री, गोविंद : मंत्रदर्शन, सर्वार्थसिद्धि प्रकाशन, दिल्ली, १९८० ४, मंगल साधक ५. लक्ष्मी, कल्याण
४. सरस्वती, ब्रह्मानन्द : नादयोग,आनन्द-आश्रम,मुनरो, अमरीका, १९८९ . ६. विघ्न/विपत्तिनिवारक ३
५.------- : गायत्री चालीसा, शांतिकुंज, हरिद्वार, १९९० ७. सर्वसिद्धि/साधक ४
६. मुनि, सुशील : सांग आफ दी सोल,सिद्धाचलम् पब्लिशर्स, ब्लेयर्स टाउन, ८. आत्म सिद्धि/शक्ति २
अमरीका, १९८७ ९. शक्ति वृद्धि/सर्वशक्ति २
७.------- : योग विद्या, बिहार योग विद्यालय, मुगेर, १९८२-८३ के १०. शति/सिद्धि
अनेक अंक ११. निश्चल १ ६ -
८. जैन, मू. शांता : लेश्या और मनो विज्ञान, जैन विश्वभारती, लाडनूं, १९९६ १२. शक्ति संचार/अद्भुतशक्ति २- १
९. जैन, एन.एल. : ग्लासरी आव जैन टर्स, जैन इन्टरनेशनल, अहमदाबाद, १३. धन, आशा ३ ८
१९९५ १४. मृदशक्तिसहयोगी १ २ - १ २ १५. शक्ति विध्वंश
१६. स्तम्भन
योग
३
५२ २
५१ -
४५/४७ ३४५
३७/५७
के
मंत्राक्षर ३५
ब. विराधक फल
क NH
१. अनुदान २. अशांति ३. विघटन ४, शांतिविरोधी ५. अल्पशक्ति ६. खण्डशक्ति ७. सात्विक विरोधी ८. निरर्थक
योग
Fr
-
-
-
३
-
५१-७-०४ ५१-२३= २८ ४७-७= ४०५७ - ९= ४८
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भारतीय चिंतन में दान की महिमा
बाबूलाल जैन 'उज्ज्वल' बम्बई सम्पादक - समग्र जैन चातुर्मास-सूची जैनएकता-संदेश...
भारत के समस्त धर्मों में, इस तथ्य में किसी भी प्रकार देने वाला भी दबाव से ही देता है। आज के समाज की स्थिति का विवाद नहीं है कि 'दान' एक महान् धर्म है। दान की भेद- ही इस प्रकार की हो गई है कि लेना भी पड़ता है और देना भी प्रभेद व्याख्या एवं परिभाषा चाहे विभिन्न हो सकती है, परन्तु पड़ता है। न लेने वाला प्रसन्न है और न देने वाला ही। यही 'दान' एक प्रशस्त धर्म है, इस सत्य में जरा-भी अन्तर नहीं है। कारण है कि 'दान' शब्द से पूर्व कुछ विशेषण जोड़ दिए गए हैं - दान-धर्म उतना ही पुराना है, जितनी मानवजाति है। दान का जैसे - 'करुणादान', 'अनुकम्पादान' एवं 'कीर्तिदान' आदि। पर्व रूप सहयोग ही रहा होगा। सह-अस्तित्व के लिए परस्पर वैदिक षडदर्शनों में दानमीमांसा - सहयोग आवश्यक भी था। समाज में सभी प्रकार के व्यक्ति । होते थे - दर्बल भी और सबल भी। अशक्त मनष्य अपने जीवन वैदिक परम्परा में षड्दर्शनों में सांख्य-दर्शन और वेदांत को कैसे धारण कर सकता है? जीवन धारण करने के लिए भी दर्शन ज्ञान प्रधान रहे हैं। दोनों में ज्ञान को अत्यंत महत्त्व मिला शक्ति की आवश्यकता है। शक्तिमान मनुष्य ही अपने जीवन है। वहाँ आचार को गौण स्थान मिला है। वेदमूलक षड्दर्शनों में को सचारू रूप से चला सकता था और वह दर्बल साथी का एक मीमांसादर्शन को छोड़कर शेष पाँच दर्शनों में दान का कोई सहयोग भी कर सकता था। यह सहयोग समानता के आधार पर महत्त्व नहीं है, न उसका विधान है, न उसकी व्याख्या ही की गई किया जाता था और यह किसी प्रकार की शर्त के किया जाता है। था। न तो सहयोग देने वाले में अहंभाव होता था और न सहयोग श्रमण-परम्परा में दानमीमांसा पाने वाले में दैन्य-भाव होता था। भगवान महावीर ने अपनी भाषा में परस्पर के इस सहयोग को 'संविभाग' कहा था। संविभाग
वेदविरुद्ध श्रमणपरम्परा में तीन सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं - का अर्थ है - सम्यक रूप से विभाजित करना। जो कछ तम्हें
जैनबौद्ध और आजीवक। आजीवक-परम्परा का प्रवर्तक उपलब्ध हआ है वह सब तम्हारा अपना ही नहीं तो गौशालक था। वह नियतिवादी के रूप में भारतीय दर्शनों में साथी, पड़ौसी का भी उसमें, सहभाव था सहयोग रहा है।
बहुचर्चित एवं विख्यात था। उसकी मान्यता थी कि जो भाव महावीर के इस 'संविभा' में न अहं का भाव है और न ही
नियत हैं, उन्हें बदला नहीं जा सकता। आज के इस वर्तमान युग दीनता का भाव। इसमें एकमात्र समत्व भाव ही विद्यमान है। में आजीवक-सम्प्रदाय का एक भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, अतः लेने वाले के मन में जरा भी ग्लानि नहीं है, क्योंकि वह अपना
दान के सम्बन्ध में गौशालक के क्या विचार थे, कुछ भी कहा ही हक ग्रहण कर रहाहै और देने वाला भी यही समझ रहा है कि
नहीं जा सकता। उसके नियतिवादी सिद्धांत के अनुसार तो उसकी मैं यह देकर कोई उपकार नहीं कर रहा हूँ। लेने वाला मेरा।
विचारधारा में दान का कोई फल नहीं है। अपना ही भाई है, कोई दूसरा नहीं है।
बौद्ध-परम्परा में आचार की प्रधानता रही है। इस परम्परा बाद में आया 'दान' शब्द। इसमें न सहयोग की सहृदयता
में शील को प्रधानता दी गई है। मनुष्य-जीवन में उत्थान के लिए है और न संविभाग की व्यवस्था एवं दार्शनिकता ही है। आज
जितने भी प्रकार के सत्कर्म है, वे सब शील में समाहित हो जाते के युग में 'दान' शब्द काफी बदनाम हो चुका है। देने वाला दान ।
हैं। बुद्ध ने शील को बहुत ही महत्त्व दिया है। दान भी एक देता है अहंकार में रहकर और लेने वाला ग्रहीता लेता है, सिर
सत्कर्म है, अत: यह भी शील की ही सीमा के अंदर आ जाता नीचा करके। देने वाला अपने को उपकारी मानता है और लेने हा वाला अपने को उपकृत। लेने वाला बाध्य होकर लेता है और बौद्ध धर्म में बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए जिन दस oriwordarbaridwardrowdrawbridwardwordwardwari M २५ideorardwaridwardwidwardririonitonitonitoridabrand
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- पतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार --- पारमिताओं का वर्णन किया गया है, उनमें से एक पारमिता दान भी कल्याण हो और ग्रहीता का भी कल्याण हो। दाता स्वार्थ - को भी माना गया है। दान के सम्बन्ध में बुद्ध ने 'दीघनिकाय' में रहित होकर दे और पात्र भी स्वार्थशून्य होकर ग्रहण करे। वह कहा है कि 'सत्कारपूर्वक दान दो, अपने हाथ से दान दो, मन से दान, जिसके देने से दाता के मन में अहं-भाव न हो और लेने दान दो, दोषरहित पवित्र दान दो' इस प्रकार के दान को पवित्र वाले के मन में दैन्यभाव न हो। इस प्रकार का दान विशुद्ध दान दान कहा गया है। बुद्ध ने कहा है कि श्रद्धा से दिया गया दान है। यह दान ही वस्तुतः मोक्ष का कारण है। न देने वालों पर प्रशस्त दान है। यदि दान में श्रद्धा-भाव नहीं है, तो वह दान तुच्छ किसी प्रकार का भार और न लेने वालों को किसी प्रकार की दान है। धर्म का दान सब दानों से बढ़कर है। धर्म का रस सब ग्लानि। यह भव बंधन काटने वाला दान है। यह भव-परम्परा रसों से श्रेष्ठ है।
का अंत करने वाला दान है। जैन-परम्परा में भी दान को एक सत्कर्म माना गया है। इसी प्रकार ब्राह्मण और आरण्यक-साहित्य में भी दान जैन-धर्म न एकांत क्रियावादी है न एकांत ज्ञानवादी है और न को विशेष महत्त्व दिया गया है। रामायण, महाभारत एवं संस्कृत एकांत श्रद्धावादी ही है। श्रद्धा, ज्ञान और आचरण इन तीनों के महाकाव्यों में भी दान के विषयों में काफी विस्तार से वर्णन करते समन्वय से ही मोक्ष की संप्राप्ति होती है, फिर भी जैन धर्म को हुए दान की महिमा का उल्लेख किया है। सभी ने दान को उत्कृष्ट आचार-प्रधान कहा जा सकता है। ज्ञान कितना भी ऊँचा हो, दान कहा है। कवि कालिदास, तुलसी, कबीर, रहीम आदि कवियों यदि साथ में उसका आचरण नहीं है, तो जीवन का उत्थान नहीं ने भी दान की महिमा सुन्दर ढंग से कही है। हो सकता। जैन परम्परा में सम्यग् दर्शन सम्यग् ज्ञान और
भारत के धर्मों के समान बाहर से आने वाल धर्मों -
भारत के धर्मों के समान ब सम्यग चारित्र को मोक्ष-मार्ग कहा गया है। दान का सम्बन्ध ईसाई और मस्लिम धर्मों में भी दान का बडा ही महत्त्व माना चरित्र से ही माना गया है। आहारदान, औषधिदान और अभयदान
गया है। इन धर्मों में दान की महिमा का ही वर्णन नहीं किया आदि अनेक प्रकार के दानों का वर्णन विविध ग्रंथों में उपलब्ध
गया, बल्कि दान पर बल भी दिया गया है। दान के अभाव में होता है। भगवान महावीर ने 'सूत्रकृतांग' में अभयदान को सबसे
ईसा मनुष्य का कल्याण नहीं मानते। बाइबिल में दान के विषय श्रेष्ठ दान कहा है।
में कहा गया है कि तुम्हारा दायाँ हाथ जो देता है, उसे बायाँ हाथ 'अभयदान' ही सर्वश्रेष्ठ दान है। दूसरे के प्राणों की रक्षा ही न जान सके, ऐसा दान दो। कुरआन में दान के सम्बन्ध में बहुत अभयदान है। आज की भाषा में इसे ही जीवनदान कहा गया है। ही सुन्दर कहा गया है कि प्रार्थना ईश्वर की तरफ आधे रास्ते भगवान महावीर ने कहा है कि 'मेघ चार प्रकार के होते हैं - एक तक ले जाती है। उपवास महल के द्वार तक पहुँचा देता है और गर्जना करता है, पर वर्षा नहीं करता। दूसरा वर्षा करता है, पर दान से हम अन्दर प्रवेश करते हैं । जिसमें दान देने की शक्ति है। गर्जना नहीं करता। तीसरा गर्जना भी करता है और वर्षा भी उसके पास देने को कुछ भी नहीं और जिसमें देने की शक्ति न करता है। चौथा न गर्जना करता है और न ही वर्षा करता है। मेघ हो, वह सब कुछ देने को तैयार रहता है। अत: दान देना उतना के समान मनुष्य भी चार प्रकार के होते हैं - कुछ बोलते हैं, देते सरल नहीं है, जितना समझ लिया जाता है। दान से बढ़कर नहीं। कुछ देते हैं, किन्तु कभी बोलते नहीं। कुछ बोलते भी हैं और अन्य कोई पवित्र धर्म नहीं है। एक कवि ने बहुत ही सुन्दर कहा देते भी हैं। कुछ न बोलते हैं, न देते ही हैं। इस कथन से दान की है कि दान से सभी प्राणी वश में हो जाते हैं, दान से शत्रुता का महिमा एवं गरिमा स्पष्ट हो जाती है। जैनपरम्परा में धर्म के चार नाश हो जाता है। दान से पराया भी अपना हो जाता है। दान अंग स्वीकार किए गये हैं - दानशील, तप एवं भाव। इनमें दान ही महिमा सभी विपत्तियों का नाश कर देता है। इस प्रकार समस्त मुख्य एवं प्रथम है। 'सुखविपाकसूत्र' में दान का ही गौरव गाया साहित्य दान से भरा पड़ा है। दान की परम्परा संसार में भूतकाल में गया है।
भी थी। वर्तमान में भी है और भविष्य में भी हमेशा विद्यमान रहेगी। भगवान महावीर ने बहुत सुन्दर शब्दों का प्रयोग किया है। जैन-परम्परा में आचार्य अमितगति के द्वारा लिखा गया 'मधादायी' और 'मधाजीवी'। दान वही श्रेष्ठ है, जिससे दाता का एक ग्रंथ 'अमितगति-श्रावकाचार' में बड़े विस्तार के साथ दान
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - की मीमांसा की गई है। ग्रंथ में लिखा है कि दान, पूजा, शील दान के फल के सम्बन्ध में आचार्य ने बहुत सुन्दर कहा और उपवास भवरूप को भस्म करने के लिए ये चारों ही आग है, जैसे - मेघ से गिरने वाला जल एकरूप होकर भी नीचे के समान है। पूजा का अर्थ है जिनदेव की भक्ति। भाव के आधार को पाकर अनेक रूपों में परिणत हो जाता है, वैसे ही स्थान पर पूजा का प्रयोग आचार्य ने किया है। दाता के कुछ एक ही दाता से मिलने वाला दान विभिन्न - उत्तम, मध्यम और विशेष गणों का भी आचार्य ने अपने ग्रंथ में उल्लेख किया है - जघन्य पात्रों को पाकर विभिन्न फल वाला हो जाता है। अपात्र विनीत हो, भोगों से नि:स्पृह हो, समदर्शी हो, परीषहसही हो, को दिए गए दान के बारे में कहा गया है कि जिस तरह कच्चे प्रियवादी हो, मत्सररहित हो, संघवत्सल हो और सेवापरायण भी घड़े में डाला गया जल अधिक देर तक नहीं टिक पाता और होना चाहिए। दान की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य ने घड़ा भी फूट जाता है, वैसे ही गुणहीन अर्थात् अपात्र को दिया कहा है कि जिस घर में से योगी को भोजन न दिया गया हो। उस गया दान भी निष्फल हो जाता है और लेने वाला नष्ट हो जाता गृहस्थ के भोजन से क्या प्रयोजन? कुबेर की निधि भी उसे मिल है। जाए, तो क्या?
आचार्य ने अपने ग्रंथ में चार प्रकार के दानों का वर्णन योगी की शोभा ध्यान से होती है, तपस्वी की शोभा संयम किया है - अभयदान, अन्नदान, औषधदान एवं शास्त्रदान। से होती है, राजा की शोभा सत्यवचन से होती है और गृहस्थ की वस्तुतः देने योग्य जो वस्तु हैं, वे चार ही होती हैं। अभय को शोभा दान से होती है। जो भोजन करने से पूर्व साधु के आगमन सबसे श्रेष्ठ दान कहा गया है। मंगलपाठ में भी दान की महिमा की प्रतीक्षा करता है, साधु का लाभ न मिलने पर भी वह दान का वर्णन किया गया है - का भागी है।
"भवि भावन भाविये, भावे कीजे दान । दान के चार भेद कहे हैं - अभयदान, अन्नदान, औषधदान
भावे धर्म आराधिये, पावे केवल ज्ञान ॥" एवं ज्ञानदान। अन्नदान को आहारदान भी कहा जाता है और
दान से आज पूरे भारत की सभी तरह की संस्थाएँ जीवित ज्ञान-दान को शास्त्रदान भी कहते हैं। पंचमहाव्रत-साधु को हैं. जिस दिन दान देने की प्रवत्ति बंद हो जाएगी. उस दिन संसार उत्तम पात्र कहा गया है। देशव्रतधारक श्रावक को मध्यम पात्र में कछ नहीं बचेगा। दान भकाल में भी दिया जाता था. वर्तमान कहा है। अविरतसम्यग दृष्टि को जघन्य पात्र कहा गया है। में भी दिया जाता है और भविष्य में भी दिया जाता रहेगा। कबीर
विधिपूर्वक दिया गया थोड़ा दान भी महाफल प्रदान करता ने कहा भी है - है, जिस प्रकार धरती में बोया गया छोटा-सा वट-बीज भी समय चिड़ी चोंच भर ले गयी, नदी न घटियो नीर, पर एक विशाल वृक्ष के रूप में चारों ओर फैल जाता है, जिसकी दान देने से धन न घटे, कह गए दास कबीर । छाया में हजारों प्राणी सुख भोग करते हैं, उसी प्रकार विधि-सहित
दान की महिमा सर्वोपरि है,सभी दानों में अभयदान सर्वोपरि छोटा-सा दान भी महाफल देता है।
जय जिनेन्द्र
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भावना : एक चिन्तन
डॉ. रज्जन कुमार पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान, वाराणसी...
जैन धर्म अपने मौलिक सिद्धान्त के लिए प्रसिद्ध रहा है। विचार पर सामग्री मिलती है। आज विश्व में कर्म सिद्धान्त. पनर्जन्म, अहिंसाविचार, स्यादवाद,
जहाँ तक भावना के महत्त्व की बात है तो इसकी पुष्टि नय-निक्षेप आदि कोई नया सिद्धांत नहीं है। जैनों का इन सब
'प्राकृतसक्तिसरोज' के भावनाधिकार में उल्लिखित इस तथ्य पर जो चिंतन हुआ है वह सब मानव को इस संसार रूपी
से हो जाती है - दान, शील, तप एवं भावना के भेद से धर्म चार । महासमुद्र से पार होने का रास्ता बताता है। जैनपरंपरा में भावना
प्रकारका होता है, परंतु इन चतुर्विध धर्मों में भावना ही या अणुप्रेक्षा के रूप में एक विचार का प्रतिपादन किया गया है।
महाप्रभावशाली है। तात्पर्य यह है कि संसार में जितने भी भावना या अणुप्रेक्षा व्यक्ति के शुभ विचारों की द्योतक है और
सकृत्य हैं, धर्म हैं उनमें केवल भावना ही सर्वप्रधान है। जैनाचार्यों को यह विश्वास है कि इसके चिंतन से वह सांसारिक
भावनाविहीन धर्म, धर्म नहीं, बल्कि शून्यता का द्योतक है। बंधन को कमजोर करता है तथा मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर वास्तव में भावना ही परमार्थस्वरूप है। भाव ही धर्म का साधक होता है।
है और महान तीर्थंकरों ने भाव को ही सम्यक्त्व का मूल मंत्र मानव-मन सदैव चिंतन करता रहता है। चिंतन की इस बताया है। आगे सूक्ति-संग्रह में कहा गया है कि कोई व्यक्ति स्थिति में उसके मन में नाना प्रकार के भाव उठते रहते हैं। इन कितने ही दान करे चाहे समग्र जिन-प्रवचन को कण्ठस्थ कर भावों में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के विचार होते हैं। सामान्य ले, उग्र से उग्र तपस्या करे, भूमि पर शयन करे, दीर्घकाल तक रूप से शुभ विचारों से व्यक्ति का इष्ट एवं अशुभ विचारों से मुनि धर्म का पालन करे, लेकिन यदि उसके मानस में भावनाओं अनिष्ट होता है। दार्शनिक या धार्मिक दृष्टि से जो विचार व्यक्ति की उद्भावना नहीं होती तो उसकी समस्त प्रक्रियाएँ उसी प्रकार के संसार-मोहभंग में सहायक होते हैं शुभ हैं तथा इसके विपरीत निष्फल होती हैं, जिस प्रकार धान्य के छिलके का बोना निष्फल अशुभ। शुभ और अशुभ के निर्धारण का यही एक मानदण्ड होता है। तात्पर्य यह है कि खेत में धान की जगह अगर उसके नहीं है। इसके अन्य कई मानदण्ड हो सकते हैं, परंतु यहाँ हम इन छिलके को बोया जाएगा तो फसल उत्पन्न नहीं होगी, ठीक उसी समस्याओं की उलझन में न पड़कर जैन-दर्शन में प्रतिपादित प्रकार मनुष्य की समस्त सद्भावनाएं भावना के अभाव में 'भावना-विचारणा' पर प्रकाश डालेंगे।
उपयोगी नहीं रह जाती हैं। भावना जिन-दर्शन की नैतिक विचारणा का एक महत्त्वपूर्ण भावना के संबंध में दिगंबर - आचार्य श्री कुंदकुंदजी का तथ्य है। मुख्य रूप से यह साधना के क्षेत्र से जुड़ी है, लेकिन मानना है कि व्यक्ति चाहे श्रमण हो अथवा गृहस्थ, भाव ही इसका धार्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि से भी महत्त्व है। जैनों का उसके विकास में कारणभूत होता है। भावरहित श्रवण एवं ऐसा मानना है कि यह मन का वह भावात्मक पहलू है जो अध्ययन करने से तब तक कोई लाभ नहीं होता, जब तक साधक को उसकी वस्तुस्थिति का बोध कराता है। जैन-आचार कि उनका भाव पूर्ण रूप से समझ में नहीं आए। ३ अर्थात् का प्रतिपादन करने वाले महत्त्वपूर्ण ग्रंथों यथा-आचारांग, भाव को समझे बिना किसी तरह का प्रयास करना व्यर्थ है। दशवैकालिक, मूलाचारादि में इस पर व्यापक चिंतन किया गया जैन-आचार्यों की दृष्ट में भावनाएँ मोक्ष या कैवल्य प्राप्ति में है। बारसअणुवेक्खा, कार्तिकेयाणुप्रेक्षा, तत्त्वार्थसूत्र, ज्ञानार्णव सहायक होती है और वे व्यक्ति को मोक्षपथ की ओर बढ़ने जैसे महत्त्वपूर्ण दिगंबर-ग्रंथों में इस पर अलग से चिंतन किया में सोपान का कार्य करती हैं। गया है। श्वेताम्बर-परंपरा में प्रचलित प्रकीर्णकों में भी भावना - anitariandiariandidacidiardiadriedrsaririramid-२८iddroiddnirdeshariramdramdastiradarshasansar
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार भावना की उक्त चर्चा के बाद हमारे समक्ष एक प्रश्न उठ उत्तराध्ययन में लिखा है कि मनुष्य का यह शरीर अनित्य खडा होता है. कि भावना का यह चिंतन जैन - परंपरा में है, अपवित्र है और अशुचि से इसकी उत्पत्ति हुई है। इसमें जीव प्रतिपादित चार भावनाओं से है या बारह भावनाओं से। समाधान का निवास भी अशाश्वत है। यह शरीर दुःख एवं क्लेशों का के रूप में यही निवेदन किया जा रहा है कि हमारा यह चिंतन भाजन है अर्थात् यह शरीर स्वभाव से ही अनित्य है। इस अनित्य बारह भावनाओं का है। वैसे भी प्रारंभ में हमने इस बात का शरीर की अपेक्षा से ही नित्य और शाश्वस्त जीव अनित्य एवं उल्लेख किया है कि जैन-परंपरा में भावना या अणुप्रेक्षा का बहुत अशाश्वत जान पड़ता है। शारीरिक एवं मानसिक जितने भी महत्त्व है। अणुप्रेक्षा से तात्पर्य बारह भावनाओं से है चार भावनाओं क्लेश हैं, वे सब इस शरीर के आश्रय से ही हैं। तात्पर्य यह है से नहीं। अब जब चार प्रकार की भावनाओं का प्रसंग उठा है तो कि क्लेश उत्पन्न करने वाले शरीर के प्रति व्यक्ति को किसी इसका उल्लेख करना समीचीन जान पड़ता है, लेकिन यहाँ इतना प्रकार का ममत्व नहीं रखना चाहिए, क्योंकि इससे व्यक्ति की
बारह भावना और चार भावना दोनों भिन्न- सांसारिक वासनाओं के प्रति आस्था दृढ होती है और वह अपने भिन्न अवधारणाएँ हैं।
कर्मबंधन को ज्यादा मजबूत बनाता है। जैन-ग्रंथों में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन संसार की सभी वस्तुएँ अनित्य हैं। एक क्षण ये किसी से चारों को भावना कहा गया है। यह मानव-मन की अवस्था है जडती हैं तो दसरे क्षण उससे अलग भी हो जाती हैं। मरणविभत्ति
और इसे मानवता का गुण भी कहा जा सकता है, लेकिन जैनाचार्यों में कहा गया है कि देव सर असर सिद्धि ऋद्धि. माता पिता. द्वारा प्रतिपादित बारह प्रकार की भावनाएँ अलग तथ्य हैं। ये
पुत्र, पत्नी, बंधु, मित्र, भवन, उपवन, यान, वाहन, बल, वीर्य, मानव के गुण नहीं बल्कि उसके चिंतन या साधनात्मक अवस्था
नया साधनात्मक अवस्था रूप, यौवन, देहादि सब कुछ अनित्य है। मनुष्य का यह शरीर की परिचायक हैं। ये बारह भावनाएँ इस प्रकार हैं- १. अनित्य
जिस पर वह अभिमान करता है तथा जिसे सबसे अधिक प्रेम भावना, २. अशरण-भावना, ३. संसारभावना, ४. एकत्वभावना,
वना, करता है वह भी क्षणिक है, अनित्य है। आचार्य शिवार्य अपनी ५. अन्यत्व-भावना, ६. अशुचिभावना, ७. आस्रव-भावना, ८.
कृति भगवतीआराधना में व्यक्ति के शरीर की उपमा फेन के संवरभावना, ९. निर्जराभावना, १०. लोकभावना, ११. धर्म ।
- बुलबुले से करते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार फेन के भावना एवं १२.बोधि-भावना। इन बारह भावनाओं का जैनाचार्यों
बुलबुले बनते और नष्ट होते हैं ठीक उसी प्रकार यह मानवने उल्लेख किया ही है साथ ही साथ जैनेतर परंपराओं में भी इन
शरीर उत्पन्न होता है एवं विनाश को प्राप्त करता है। फेन के पर चिंतन हुआ है । यथाप्रसंग उन्हें भी प्रस्तुत करने का हर
बुलबुले में हवा और पानी दोनों होते हैं। बुलबुले के अंदर हवा संभव प्रयास किया जाएगा।
रहती है और जब तक इसका दाब बाहरी वायुमंडल के दाब के १. अनित्य-भावना - संसार के सभी पदार्थों को अनित्य, बराबर रहता है. बलबले का अस्तित्व बना रहता है। जब यह नाशवान्, क्षणभंगुर मानना ही अनित्य-भावना है। धन संपत्ति, दाब वायमंडलीय दाब से अधिक हो जाता है, तब बलबला फट अधिकार-वैभव ये सब क्षणभंगर हैं। कालक्रम से संसार के
जाता है और विनष्ट हो जाता है। बलबले के विनाश की प्रक्रिया समस्त पदार्थों में परिवर्तन होता रहता है। पदार्थ-का जो स्वरूप
अत्यल्प समयावधि में सम्पन्न हो जाती है। ठीक इसी प्रकार प्रात:काल था, वह मध्याह्नकाल में नहीं रहता है और जो मध्याह्नकाल
मानव-शरीर भी अत्यंत सीमित अवधि में समाप्त हो जाता है। में था वह अपराह्नकाल में नहीं रहता है।
अतः व्यक्ति को अत्यल्प समय में नष्ट होने वाले शरीर के प्रति जैनाचार्यों का कहना है कि समग्र सांसारिक वैभव, इंद्रियाँ, न तो अभिमान करना चाहिए और न ही किसी प्रकार का राग - रूप, यौवन, बल, आरोग्यादि सभी इंद्रधनुष के समान क्षणिक भाव ही रखना चाहिए। हैं, संयोगजन्य है। यही कारण है कि वे व्यक्ति को समग्र सांसारिक
यह शरीर नष्ट होने वाला है ऐसा जानकार जीव को किसी उपलब्धियों में आसक्त नहीं रहने का संदेश देते हैं, क्योंकि जो
तरह का प्रमाद नहीं करना चाहिए। अपने जीवनकाल में उसे वस्तु अनित्य है, उसके प्रति राग या द्वेष का भाव रखने में कोई ।
यह चिंतन करते रहना चाहिए कि हमारे शरीर की स्थिति यहाँ लाभ नहीं होता है। సాగరగరుంగారశారురురురువారందరయతాయుగాలుగుసారసాగరుగారు
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तीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन-साधना एवं आचार
कुछ समय के लिए है, जब इसका प्रयोजन पूर्ण हो जाएगा तब नष्ट हो जाएगा या कहीं और स्थानान्तरित भी हो सकता है। भावनायोग में इस भाव को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार पक्षी सुबह होने पर वृक्ष को छोड़कर अपने रास्ते की तरफ निकल पड़ता है, उसी प्रकार प्राणी भी अपनी आयु पूर्ण होने पर अपनेअपने कर्मों के अनुसार अन्यान्य योनियों में उत्पन्न होता है । "
जैन-दर्शन में प्रतिपादित चतुर्गति रूप नारक-तिर्यंच- मनुष्य देव भी अनित्य भावना पर प्रकाश डालते हैं। जीव अपने कर्मों के अनुसार इन चारों गतियों में भ्रमण करता रहता है। कभी वह दुःख का अनुभव करता है तो कभी उसे सुख की प्राप्ति होती है। शरीर जब नाना प्रकार के रोगों से युक्त होता है, जरा - बुढ़ापा जब शरीर पर आक्रमण करना प्रारंभ कर देता है, तब जीव को दुःख का भान होता है, यद्यपि यौवनावस्था में स्वस्थ देह से युक्त होने पर उसे सुख की प्राप्ति सी होती है" लेकिन ये सामान्य ज्ञान की बातें हैं क्योंकि व्यक्ति न तो निरंतर यौवनावस्था में स्थिर रहता है और न ही सदैव स्वस्थ ही । जरा एवं बुढ़ापा शरीर को प्राप्त होता ही है और उसे रोगक्रांत भी होना पड़ता है। सुख-दुःख, जरा, रोग आदि भी जीव को अनित्यता का पाठ पढ़ाते हैं।
जैनेतर परंपराओं में भी अनित्य भावना का उल्लेख मिलता है। महाभारत में अनित्य भावना का विवरण इस प्रकार गया है - यह जीवन अनित्य है, पता नहीं इसका कब नाश हो जाए अत: इस अनित्य जीवन के प्रति किसी प्रकार का राग नहीं रखना चाहिए और जीवन को सफल बनाने वाले धर्म का आचरण युवावस्था में ही कर लेना चाहिए । १ जीवन में सुख और दुःख भी अनित्य भावना पर प्रकाश डालते हैं १२ ।
जैनों के समान बौद्ध परंपरा में भी अनित्य - भावना पर चिंतन हुआ है । जिस प्रकार जैनों ने शरीर को अनित्य माना है और व्यक्ति को इसके प्रति राग-द्वेष भाव नहीं रखने का संदेश दिया है कमोबेश वही स्थिति बौद्ध धर्म में भी है। संयुक्त निकाय में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध भिक्षुओं को अनित्य भावना के बारे में बताते हुए कहते हैं- भिक्षुओ ! चक्षु अनित्य है, क्षोत्र अनित्य है, घ्राण अनित्य है, जिह्वा अनित्य है, काया अनित्य है, मन अनित्य है। जो अनित्य है वह दुःख है १३ । धम्मपद में कहा गया है कि संसार के सब पदार्थ अनित्य हैं, इस
३.
तरह जब बुद्धिमान पुरुष जान जाता है, तब वह दुःख नहीं पाता। यही मार्ग विशुद्धि का है । अर्थात् अनित्यता को जानकर व्यक्ति दुःखों से मुक्त हो जाता है । दुःख से मुक्त होने का तात्पर्य यह है किं वह निर्वाण या मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है।
वर्तमान में व्यक्ति अनित्य - भावना को नहीं समझने के कारण ही व्यामोह में फँसा हुआ है। वह निरंतर अपने कर्मरजों को संचित कर रहा है और बंध को मजबूत करता जा रहा है। धन, ऐश्वर्य, हित, मित्र आदि के लिए चिंतित है। दूसरे शब्दों में कहें कि व्यक्ति की स्थिति आश्चर्यजनक एवं दयनीय है। उसका शरीर नित्य प्रतिदिन जीर्ण-शीर्ण होता चला जा रहा है, किन्तु उसकी आशाएँ बढ़ती ही जा रही हैं। आयुजल छीज रहा है किन्तु विचार मलिन होते चले जा रहे हैं। मोह-क्षेत्र अत्यंत रुचिकर बना हुआ है, परंतु आत्महित का ध्यान तक नहीं है।
धर्माचार्यों, दर्शनाचार्यों आदि ने अनित्यता के बारे में जो कुछ बताया है, उसे जानकर, समझकर जीव को यह विचार करना चाहिए कि अगर वे अपना कल्याण चाहते हैं तो शीघ्र ही प्रयास आरंभ कर दें, अन्यथा पश्चात्ताप के अतिरिक्त हाथ कुछ नहीं लगेगा, क्योंकि जो समय बीत चुका है, वह वापस नहीं आ सकता है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को अनित्य सुख का परित्याग करके नित्य सुख को धारण करने की अभिलाषा एवं प्रयास करना चाहिए। इस संबंध में मुनिप्रवर श्री आत्मारामजी का कहना है कि पर्याय रूप से सभी पदार्थ अनित्यता से युक्त हैं तथा अनित्यता का संदेश दे रहे हैं अतएव व्यक्ति को मोक्षगत नित्यसुख की अभिलाषा करनी चाहिए तथा पौद्गलिक अनित्य सुखों का त्याग करके आत्मिक नित्य सुख में प्रवेश कर सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी का पद ग्रहण करते हुए निर्वाण पद को प्राप्त कर लेना चाहिए । अर्थात् विद्या तथा चारित्र द्वारा निष्कर्म होते हुए जन्म मरण से रहित होकर सिद्ध पद को प्राप्त कर लेना चाहिए १५ ।
इस तरह हम देखते हैं कि अनित्य - भावना साधना का एक ऐसा सोपान है जिस पर आरूढ़ होकर साधक सिद्ध पद को प्राप्त कर सकता है। जैनों की मान्यता के अनुसार सिद्ध जन्म मरण से मुक्त होते हैं, अतः साधक भी जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर परमसुख की अवस्था में रमण करता है।
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार सन्दर्भ
सुर-असुर नराईणं रिद्धिविसेसा सुहाई वा।। मरणविभत्ति ५१६ १. प्राकृतसूक्तिसरोज, भावनाधिकार, ३/१६
८. लोगो विलीयदि इमो फेणोव्व सदेव माणुसतिरिक्खो। २. सक्तिसंग्रह, ४१, वि.द्र. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार - रिद्धिओ सव्वाओ सुविणयसंदेसणसमाओ।। भगवतीदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२, डॉ. सागरमल
आराधना १७ जैन, पृ. ४२३
९. प्रातस्तकं परित्यज्य यथेते यान्ति पत्रिणः। . ३. भावपाहुड ६६
स्वकर्मवशगाः शश्वत्तयेते क्वापि देहिनः।। भावनायोग ५ ४. तत्त्वार्थसूत्र ७/६, योगशतक ७९, योगशास्त्र ४/११७ १०. वपुर्विद्धि रुजाक्रान्तं जराक्रान्तं च यौवनम्। अद्धवमसरणमेगप्तभण्णसंसारलोपमसइत्तं।
ऐश्वर्यं च विनाशान्तं, मरणान्तं च जीवितम्। ज्ञानार्णव १ आसवसंवरणिज्जरधम्मबोधिं च चितिज्ज।। भगवती
११. महाभारत, शांतिपर्व १७५/१६ आराधना १७१०
१२. वाधनालक्षणं दुःखम्। न्यायसूत्र २१ ६. इदं शरीरमनित्यम् अशुच्यशुचिसंभवम्।
१३. संयुत्तनिकाय ३४/१/१/१, पृष्ठ ४५१ (भाग-२) अशाश्वतावासमिदं, दुःखक्लेशानां भाजनम्।। उत्तराध्यनसूत्र
१४. धम्मपद २७७ १९/१३
१५. भावनायोग पृ. ११ ७. सव्वट्ठणाइं असासयाइं इह चेव देवलोगे च
కాదశరుదురురురురురురురురులోeninnanandురురురురంగారంలో
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'जैनयोग में अनुप्रेक्षा'
समणी नियोजिका मंगलप्रज्ञा....
यह संसार शब्द एवं अर्थमय है। शब्द अर्थ के बोधक साहित्य में अनुप्रेक्षा/भावना के सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण एवं विशद होते हैं। अर्थ व्यंग्य एवं शब्द व्यंजक होता है। साधना के क्षेत्र में विवरण प्राप्त है। मोक्षमार्ग में वैराग्य की अभिवृद्धि के लिए शब्द एवं अर्थ दोनों का ही उपयोग होता है। साधक शब्द के बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन प्रसिद्ध है। इन्हें बारह वैराग्यमाध्यम से अर्थ तक पहुँचता है तथा अंततः अर्थ के साथ भावना भी कहते हैं। इनके अनुचिंतन से व्यक्ति भोगों से निर्विण्ण उसका तादात्म्य स्थापित होता है। अर्थ से तादात्म्य स्थापित होकर साम्य-भाव में स्थित हो सकता है। होने से ध्येय, ध्यान एवं ध्याता का वैविध्य समाप्त होकर उनमें
ध्यान की परिसम्पन्नता के पश्चात् मन की मूर्छा को एकत्व हो जाता है। उस एकत्व की अनुभूति में योग परिपूर्णता तोडने वाले विषयों का अनचिंतन करना अनप्रेक्षा है। ४ अन एवं को प्राप्त होता है। इस एकत्व की अवस्था में चित्रवृत्तियों का
प्र उपसर्ग सहित ईक्ष् धातु के योग से अनुप्रेक्षा शब्द निष्पन्न हुआ
- सर्वथा निरोध हो जाता है। पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार है. जिसका शाब्दिक अर्थ है - पनः पनः चिन्तन करना। विचार यह निरोध ही योग है। पूर्ण समाधि की अवस्था है।
करना। प्राकृत में अनुप्रेक्षा के लिए अणुप्पेहा, अणुपेहा, अणुवेक्खा, जैन दर्शन में योग शब्द का अर्थ है - प्रवृत्ति। मन, वचन अणुवेहा, अणुप्पेक्खा आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। इन एवं काया की प्रवृत्ति को योग कहा गया है। जैनतत्त्वमीमांसा सबका संस्कृत रूपान्तरण अनुप्रेक्षा है। आचार्य पूज्यपाद ने में शुभयोग, अशुभयोग आदि शब्द प्रचलित हैं किन्तु प्रस्तुत शरीर आदि के स्वभाव के अनुचिंतन को अनुप्रेक्षा कहा है। प्रसंग में जैनयोग शब्द का प्रयोग इस प्रवृत्त्यात्मक योग के लिए स्वामी कुमार के अभिमतानुसार सुतत्त्व का अनुचिंतन अनुप्रेक्षा नहीं हुआ है। यहाँ योग शब्द जैनसाधनापद्धति के अर्थ में प्रयुक्त है। अनित्य, अशरण आदि स्वरूप का बार-बार चिन्तनहै। आगम-उत्तरवर्ती जैन-साहित्य में योग का तत्त्वमीमांसीय अर्थ स्मरण करना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा तत्त्व चिंतनात्मक है। ध्यान प्रवृत्यात्मकता तो स्वीकृत रहा ही साथ में साधना के अर्थ में भी में जो अनुभव किया है, उसके परिणामों पर विचार करना अनुप्रेक्षा इसका प्रयोग होने लगा। जैन आचार्यों ने साधनापरक ग्रंथों के नाम है। योगशास्त्र आदि रखे एवं योग का साधनात्मक नाम सर्वमान्य हो अध्यात्म के क्षेत्र में अनपेक्षा का महत्वपर्ण स्थान है। गया।
अनुप्रेक्षा के विविध प्रयोगों से व्यक्ति की बहिर्मुखी चेतना आत्मा का सिद्धान्त स्थिर हुआ तब आत्म-विकास के अंतर्मुखी बन जाती है। चेतना की अंतर्मुखता ही अध्यात्म है। साधनों का अन्वेषण किया गया। आत्मविकास के उन साधनों जीवन का अभीष्ट लक्ष्य है। अनुप्रेक्षा के महत्त्व को प्रकट करते को एक शब्द में मोक्षमार्ग या योग कहा गया है। वस्तुत: जैन हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि - जितने भी भूतकाल में साधनापद्धति का नाम मोक्षमार्ग है। आचार्य हरिभद्र ने कहा - श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं एवं भविष्य में होंगे, वह भावना का ही "मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो"३ वह सारा महत्त्व है। आचार्य पद्मनन्दि बारह अनुप्रेक्षा के अनुचिंतन की धार्मिक व्यापार योग है, जो व्यक्ति को मुक्ति से जोड़ता है। योग प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि बारह भावना महान् पुरुषों के द्वारा या मोक्षमार्ग केवल पारलौकिक ही नहीं है किन्तु वर्तमान जीवन में सदा ही अनुप्रेक्षणीय है। उनकी अनुचिंतना कर्मक्षय का कारण भी जितनी शांति, जितना चैतन्य स्फुरित होता है, वह सब मोक्ष है। है। शुभचन्द्राचार्य कहते हैं कि भावना के अभ्यास से कषायाग्नि शांति एवं चैतन्य की स्फरणा के लिए जैन-साहित्य में
शांत, राग नष्ट एवं अंधकार विलीन हो जाता है तथा पुरुष के
शात, राग नष्ट एव अधकार विल अनेक उपायों का निर्देश है। उन उपायों में एक महत्त्वपर्ण उपाय हृदय में ज्ञान रूपी दीपक उद्भासित हो जाता है। तत्त्वार्थसत्र. है - अनप्रेक्षा। जैन-आगम. तत्त्वमीमांसीय एवं साधनापरक कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रंथों में अनुप्रेक्षा को संवर धर्म का विशेष anddodiodododotdodcordirdwordworidwara-[३२daridwaridwardroidswiriraroraniraordinarorand
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ-जैन-साधना एवं आचार हेतु माना गया है।१९
स्वाध्याय के पाँच भेदों में अनुप्रेक्षा भी एक है।६ सूत्र के आगम में एक साथ बारह अनप्रेक्षा का उल्लेख नहीं है अथ का विस्मृति न हो इसलिए अर्थ का बार-बार चिन्तन किन्त उत्तरपर्वी साहित्य में उनका एक साथ वर्णन है। वारस- किया जाता है। अर्थ का बार-बार चिन्तन ही अनप्रेक्षा है।२७ अणुवेक्खा, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, शान्त-सधारस-भावना आदि ग्रंथों अनुप्रेक्षा में मानसिक परावर्तन होता है, वाचिक नहीं होता। का निर्माण तो मुख्य रूप से इन अनप्रेक्षाओं के लिए ही हुआ है। धर्म्य-ध्यान एवं शुक्लध्यान की भी चार-चार अनुप्रेक्षा बताई तत्त्वार्थसूत्र आदि में भी इनका पर्याप्त विवेचन उपलब्ध है। गई है। स्वाध्यायगत अनुप्रेक्षा, ध्यानगत अनुप्रेक्षा एवं बारह शान्त-सुधारस आदि कछ ग्रंथों में इन बारह भावनाओं के साथ अनुप्रेक्षा में अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु संदर्भ के मैत्री आदि चार भावनाओं को जोड़कर सोलह भावनाओं का अनुकूल उनके तात्पर्यार्थ में कथंचित् भिन्नता है। विवेचन किया गया है। जैन-साहित्य में बारह भावनाओं का प्राचीन ग्रंथों में अनुप्रेक्षा का तत्त्व-चिंतनात्मक रूप उपलब्ध उल्लेख बहुलता से प्राप्त है। अनित्य आदि अनुप्रेक्षा के पृथक्- है। यद्यपि धर्म्य एवं शुक्ल ध्यान की अनुप्रेक्षाओं का भी उल्लेख पृथक् प्रयोजन का भी वहाँ पर उल्लेख है। आसक्ति-विलय के है किंतु उनका भी चिंतनात्मक रूप ही उपलब्ध है। प्रेक्षाध्यान के लिए अनित्य अनुप्रेक्षा, धर्म-निष्ठा के विकास के लिए अशरण प्रयोगों में अनुप्रेक्षा के चिंतनात्मक स्वरूप के साथ ही उसके अनुप्रेक्षा, संसार से उद्वेग-प्राप्ति हेतु संसार-भावना एवं स्वजन- ध्येय के साथ तादात्म्य के रूप को भी स्वीकार किया गया है। मोह-त्याग के लिए एकत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया जाता अनुप्रेक्षा का प्रयोग सुझाव-पद्धति का प्रयोग है। आधुनिक विज्ञान है। इसी प्रकार अन्य अनुप्रेक्षाओं का विशिष्ट प्रयोजन है। की भाषा में इसे सजेस्टोलॉजी कहा जा सकता है। स्वभाव__उत्तराध्ययन-सूत्र में अनुप्रेक्षा के परिणामों का बहुत सुंदर
बदन दर परिवर्तन का अनुप्रेक्षा अमोघ उपाय है। अनुप्रेक्षा के द्वारा जटिलतम वर्णन उपलब्ध है। अनुप्रेक्षा से जीव क्या प्राप्त करता है, गौतम
आदतों को बदला जा सकता है। प्रेक्षा-ध्यान में स्वभाव-परिवर्तन के इस प्रश्न के समाधान में भगवान महावीर ने अनुप्रेक्षा के लाभ
के सिद्धान्त के आधार पर अनेक अनुप्रेक्षाओं का निर्माण किया बताए हैं। वहाँ पर अनुप्रेक्षा के छह विशिष्ट परिणामों का उल्लेख
गया है एवं उनके प्रयोगों से वाञ्छित परिणाम भी प्राप्त हुए हैं।
स्वभाव-परिवर्तन के लिए प्रतिपक्ष भावना का प्रयोग (१) कर्म के गाढ़ बंधन का शिथिलीकरण।
बहुत लाभदायी है। प्रतिपक्ष की अनुप्रेक्षा से स्वभाव, व्यवहार
और आचरण को बदला जा सकता है। मोह कर्म के विपाक पर (२) दीर्घकालीन कर्मस्थिति का अल्पीकरण।
प्रतिपक्ष भावना का निश्चित प्रभाव होता है। दशवैकालिक में (३) तीव्र कर्मविपाक का मंदीकरण।
इसका स्पष्ट निर्देश प्राप्त है। उपशम की भावना से क्रोध मृदुता (४) प्रदेश-परिमाण का अल्पीकरण।
से अभिमान, ऋजुता से माया और संतोष से लोभ के भावों को
बदला जा सकता है। आचारांगसूत्र में भी ऐसे निर्देश प्राप्त हैं। (५) असाता वेदनीय कर्म के उपचय का अभाव।
जो पुरुष अलोभ से लोभ को पराजित कर देता है, वह प्राप्त (६) संसार का अल्पीकरण।१३
कामों में निमग्न नहीं होता। . अनुप्रेक्षा चिन्तनात्मक होने से ज्ञानात्मक है। ध्यानात्मक अध्यात्म के क्षेत्र में प्रतिपक्ष भावना का सिद्धान्त अनुभव नहीं है। अनित्य आदि विषयों के चिन्तन में जब चित्त लगा की भूमिका में सम्मत है। जैन-मनोविज्ञान के अनुसार मौलिक रहता है, तब वह अनुप्रेक्षा और जब चित्त उन विषयों में एकाग्र मनोवृत्तियाँ चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । यह मोहनीय हो जाता है, तब वह धर्म्यध्यान कहलाता है। ध्यानशतक में कर्म की औदयिक अवस्था है। प्रत्येक प्राणी में जैसे मोहनीय स्थिर अध्यवसाय को ध्यान एवं अस्थिर अध्यवसाय को चित्त कर्म का औदयिक भाव होता है वैसे ही क्षायोपशमिक भाव भी कहा गया है। और वह चित्त भावना, अनप्रेक्षा अथवा चिंतनात्मक होता है। प्रतिपक्ष की भावना के द्वारा औदयिक भावों को निष्क्रिय रूप होता है।५
पर क्षायोपशमिक भाव को सक्रिय कर दिया जाता है। महर्षि
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ पतञ्जलि ने भी प्रतिपक्ष भावना के सिद्धान्त को मान्य किया है। उनका अभिमत है कि अविद्या आदि क्लेश प्रतिपक्ष भावना से उपहत होकर तनु हो जाते है २ । क्लेश प्रतिप्रसव (प्रतिपक्ष ) के द्वारा य है। अनुप्रेक्षा के प्रयोग क्लेशों को तनु करते हैं ।
अनुप्रेक्षा संकल्पशक्ति प्रयोग है। अनुप्रेक्षा के प्रयोग से संकल्पशक्ति को बढ़ाया जा सकता है। व्यक्ति जैसा संकल्प करता है, जिन भावों में आविष्ट होता है तदनुरूप उसका परिणाम होना लगता है। जं जं भावं आविसइ तंतं भावं परिणमइ १४। संकल्पशक्ति के द्वारा मानसिक चित्र का निर्माण हो गया तो उस घटना को घटित होना ही होगा। संकल्य वस्तु के साथ तादात्म्य हो जाने से पानी भी अमृतवत् विषापहारक बन जाता है। आचार्य सिद्धसेन ने कल्याणमंदिर में इस तथ्य को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया है२५। तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि व्यक्ति जिस वस्तु का अनुचिंतन करता है वह तत् सदृश गुणों को प्राप्त कर लेता है। परमात्मस्वरूप को ध्यानाविष्ट करने से परमात्मा, गरुड़रूप को ध्यानाविष्ट करने से गरुड़ एवं कामदेव के स्वरूप को ध्यानाविष्ट करने से कामदेव बन जाता है २६ । पातञ्जल योग-दर्शन में भी यही निर्देश प्राप्त है। हस्तिबल में संयम करने पर हस्ति सदृश बल हो जाता है। गरुड़ एवं वायु आदि पर संयम करने पर ध्याता तत्सदृश बन जाता है २७ ।
अनुप्रेक्षा ध्यान की पृष्ठभूमि का निर्माण कर देती है। अनुप्रेक्षा का आलम्बन प्राप्त हो जाने पर ध्याता ध्यान में सतत् गतिशील बना रहता है। अनुप्रेक्षा भावना आत्म-सम्मोहन की प्रक्रिया है । अर्हम् की भावना करने वाले में अर्हत् होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। ध्येय के साथ तन्मयता होने से ही तद्गुणता प्राप्त होती है। इसलिए आचारांग में कहा गया है कि साधक ध्येय के प्रति दृष्टि नियोजित करे, तन्मय बने, ध्येय को प्रमुख बनाये, उसकी स्मृति में उपस्थित रहे, उसमें दत्तचित्त रहे।
बौद्ध एवं पातञ्जल साधना पद्धति में भी भावनाओं का प्रयोग होता है। पातञ्जल योग सूत्र में अनित्य, अशरण आदि भावनाओं का तो उल्लेख प्राप्त नहीं है, किन्तु मैत्री, करुणा एवं मुदिता इनका उल्लेख किया है। उपेक्षा को इन्होंने भावना नहीं माना है, उनका अभिमत है कि पापियों में उपेक्षा करना भावना नहीं है अतः उसमें समाधि नहीं होती है।
जैन-साधना एवं आचार
में
बौद्ध- साहित्य में अनुपश्यना शब्द का प्रयोग हुआ है जो अनुप्रेक्षा के अर्थ को ही अभिव्यक्त करता है। अभिधम्मत्थ संगहो में अनित्यानुपश्यना, दुःखानुपश्यना, अनात्मानुपश्यना, अनिमित्तानुपश्यना आदि का उल्लेख प्राप्त है। विशुद्धिमग्ग में ध्यान के विषयों (कर्म - स्थान) के उल्लेख के समय दस प्रकार की अनुस्मृतियों एवं चार ब्रह्मविहार का वर्णन किया है। उनसे अनुप्रेक्षा की आंशिक तुलना हो सकता है। मरण-स्मृति कर्मस्थान शव को देखकर मरण की भावना पर चित्त को लगाया जाता है जिससे चित्त में जगत् की अनित्यता का भाव उत्पन्न होता है। कायगतानुस्मृति अशौचभावना के सदृश है। मैत्री, करुणा, मुदिता एवं उपेक्षा को बौद्ध दर्शन में ब्रह्मविहार कहा गया है। ये मैत्री आदि ही जैन - साहित्य में मैत्री, करुणा आदि भावना के रूप में विख्यात हैं। आधुनिक चिकित्सा के क्षेत्र में भी अनुप्रेक्षा का बहुत प्रयोग हो रहा है। मानसिक संतुलन बनाये रखने के लिए भी यह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । "माइन्ड स्टोर" नामक प्रसिद्ध पुस्तक के लेखक Jack Black ने मानसिक संतुलन एवं मानसिक फिटनेस के प्रोग्राम में इस पद्धति का बहुत प्रयोग किया है, उनकी पूरी पुस्तक ही इस पद्धति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती है।
ध्यान के द्वारा ज्ञात सच्चाइयों की व्यावहारिक परिणति अनुप्रेक्षा के प्रयोग से सहजता से हो जाती है। अनुप्रेक्षा, संकल्पशक्ति, स्वभाव परिवर्तन, आदत-परिवर्तन एवं व्यक्तित्व निर्माण का महत्त्वपूर्ण उपक्रम है। चिकित्सा के क्षेत्र में इसका बहुमूल्य योगदान हो सकता है। अनुप्रेक्षा के माध्यम से आधि, व्याधि एवं उपाधि की चिकित्सा हो सकती है। प्रेक्षा ध्यान के शिविरों में विभिन्न उद्देश्यों से अनुप्रेक्षों के प्रयोग करवाये जाते हैं। उनका लाभ भी सैकड़ों सैकड़ों व्यक्तियों ने प्राप्त किया है अतः आज अपेक्षा इसी बात की है कि अनुप्रेक्षा के बहु-आयामी स्वरूप को हृदयंगम करके स्व-पर कल्याण के कार्यक्रम में उसे नियोजित किया जाये।
सन्दर्भ-स्थल
१. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः, पा.यो.सू. १ / २
२. काय वाङ् - मनो- व्यापारो योगः, जै. सि. दीपिका ४/२५ ३. योगविंशिका, श्लो. १
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - ४. अमूर्त्तचिंतन, पृ. १
गा. २ ५. शरीरादीनां स्वभावानुचिंतनमनुप्रेक्षा । सर्वार्थसिद्धि ९/२ १६. ठाणं ५/२२० ६. सुतत्तचिंता अणुप्पेहा । कार्तिकेयानुप्रेक्षा श्लो. ९७ १७.सूत्रवदर्थेऽपि संभवति विस्मरमतः सोऽपि परिभावनीय ७. अनु पुनः पुनः प्रेक्षणं चिंतनं स्मरणनित्यादिस्वरूपाणामित्यनुप्रेक्षा इत्यनुप्रेक्षा । उत्तरा शा. वृ., पृ. ५८४ । कार्तिकय, पृ.१
१८. अणुप्पेहा नाम जो मणसा परियट्टेइ णो वायाए । दशवै. जि. ८. किं पलवियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले। सिज्झिहहि . चूर्णि, पृ. २९
जे वि भविया तज्जाणह तस्समाहप्पं।। वारस अणुवेक्खा, १९. ठाणं ४/६८,७२ गा. ९०
२०. उवसमेण हणे कोहं माणं मद्दवया सिणे। ९. द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्ममिः ।
मायं चज्जवभावेण लोहं संतोसओ जिणे । दशवै ८/३८ तद् भावना भवत्येव कर्मणां क्षयकारणम् ।। पदा. २१.लोभं अलोभं दुर्गछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ । आचारांग पंचविंशतिका, श्लो. ४२
२/३६ १०. विध्याति कषायाग्नि विगलित रागो विलीयते ध्वान्तम् ।। २२. प्रतिपक्षभावनोपहताः क्लेशास्तनवो भवन्ति । पात. यो.
उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यसात् ।। ज्ञानार्णव, सू. २/१० या. अ. १९२
२४. जं जं भावं आविसइ...... ११. (क) स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचरित्रैः तत्त्वार्थसूत्र २५. कल्याणमंदिर, श्लो. १७ ९/२
२६. यदा ध्यान-बलाद् ध्याता शून्यीकृत्य स्वविग्रहम् । (ख) गुत्ती समिदी धम्मो
ध्येयस्वरूपविष्टत्वात्तादृक सम्पद्यते स्वयम्।। अणुवेक्खा...........संवरहेदूविसेसेणा । कार्तिकेयानुप्रेक्षा ९६
तदा तथा विधध्यानसंवित्तिध्वस्तकल्पनः। १२. (क) संगविजयणिमित्तमणिच्चताणुप्पेहं आरभते ।
स एव परमात्मा स्याद्वैनतेयश्च मन्मथः।। (ख) धम्मे थिरताणिमित्तं असरणतं चिंतयति ।
तत्त्वानुशासन, श्लोक १३५-३६ (ग) संसारुव्वेगकरणं संसाराणप्पेहा ।
२७. बलेषु हस्तिबलादीनि । पात यो. सू. ३/२४ (घ) संबंधिसंगविजतायएगत्तमणुपेहेति । दशवै. अग. चूर्णि.
२८. तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तन्निवेसणे । आचारांग पृ. १८
५/११० १३. उत्तराध्ययन २९/२३
२९. मैत्रीकरूणामुदितेति तिस्त्रो भावनाः पा.यो.सू.या. ३/२३ १४. तत्त्वार्थराजवार्तिक ९/३६/१३
३०. अभिधम्मत्थ संगहो, ९ वां अध्याय । . १५.जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं ।
३१. विशुद्धिभग्ग, परिच्छेद ७-८ पृ. १३३-२०० । तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता।। ध्यान शतक,
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जैन-आचारसंहिता
डॉ. सुधा जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी...."
धर्मसाधना का आधार आचार होता है, क्योंकि आचार हैं। परन्तु ध्यान का स्थिरीकरण मन की स्थिरता पर निर्भर करता से ही साधक के संयम में वृद्धि होती है, समता का विकास है, जिस साधक ने मन को अपने अधीन कर लिया, उसके लिए होता है। फलतः साधक आध्यात्मिक ऊँचाइयों को छू पाता है। संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जिसे वश में न किया जा योग के लिए चारित्र एक आवश्यक अंग है। हमारी भारतीय सके। अत: मन को वश में करना ही सम्यक् योग का प्रथम परम्परा में यह कहा गया है कि व्यक्ति का जैसा आचार होता सोपान है। कहा भी गया है - मन की समाधि योग का हेतु तथा है, वैसा ही उसका विचार भी होता है। आचार और विचार दोनों तप का निदान है, क्योंकि मन को केन्द्रित करने के लिए तप एक-दूसरे के पूरक हैं, इसलिए इन दोनों के परिपालन से ही आवश्यक है। तप शिवशर्म का मोक्ष का मूल कारण है। सम्यक् चारित्र का उत्कर्ष होता है। लेकिन जब तक मन वासनाओं
ध्यान और मन का संबंध अत्यन्त घनिष्ठ है। ध्यान का से निवृत्त नहीं हो जाता, तब तक न चित्त की स्थिरता प्राप्त हो
स्थिरीकरण मन की स्थिरता पर ही निर्भर करता है। आचार्य सकती है, न धर्म-ध्यान हो सकता है और न योग हो सकता है।
हेमचन्द्र ने मन की चार अवस्थाओं का वर्णन किया है - १. मन के कारण ही इन्द्रियाँ चंचल होती हैं, जिससे रागादि प्रकृतियों विक्षिप्त मन २. यातायात मन ३. श्लिष्ट मन और ४. सलीन की वृद्धि होती है तथा कर्म-प्रकृतियों का बंधन होता है। चंचल
मना प्रथम दो अवस्थाओं में अर्थात् विक्षिप्त और यातायात में मन को सर्वथा स्थिर करना योग का प्रथम कार्य है, क्योंकि मन स्वभाव से चंचल होता है। दोनों में अंतर इतना ही है कि चंचल मन द्वारा किया गया कार्य चाहे पुण्य-प्रकृति का हो या प्रथम अवस्था में चंचलता अधिक होती है और द्वितीय अवस्था पापप्रकृति का, दोनों में ही संसारबंधन होता है। इसलिए वासनाओं
में चंचलता प्रथमावस्था की अपेक्षा थोड़ी कम होती हैं। अत: से विमुक्ति अथवा ब्रह्मचर्य को योग में आवश्यक माना गया
- इन दोनों की शान्ति के लिए अभ्यास आवश्यक है। इसी प्रकार है। अतः सम्यक् योग साधना के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक
श्लिष्ट मन की अवस्था यातायात के बाद प्रारंभ होती है। श्लिष्ट है कि मन को स्थिर कर चित्त को शुद्ध किया जाए।
अवस्था में मन का विरोध होने से चित्तवृत्तियाँ शांत हो जाती हैं जैन-दर्शन में सम्यक् चारित्र को योग-साधना का मूल तथा साधक को आंतरिक शक्ति का आभास होने लगता है। आधार माना गया है। योगशास्त्र में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान अंत में सुलीनावस्था में साधक आत्मलीन हो जाता है तथा उसे तथा सम्यक् चारित्र को मोक्ष का कारण कहा गया है। जिनमें परमानंद की स्वानुभूति होने लगती है। चारित्र का स्थान प्रमुख है, क्योंकि चारित्र ज्ञान और दर्शन की
मन या चित्त की शुद्धि के उपाय - जैन-ग्रन्थ षोडशक में
जा सिद्धि का कारण है। सम्यक् चारित्र के स्वरूप को स्पष्ट करते
चित्तशुद्धि के पाँच प्रकारों का वर्णन आया है। चित्तशुद्धि के हुए कहा गया है कि संसार के कारणभूत राग-द्वेषादि की निवृत्ति
बिना साधक साधना में संलग्न हो ही नहीं सकता। अतः योग के लिए कृतसंकल्प विवेकी पुरुष का शरीर, वचन की बाह्य
साधना के आधारभूत तत्त्व के रूप में चित्तशुद्धि की आवश्यकता क्रियाओं से एवं आभ्यन्तर मानस क्रिया से विरक्त होकर
पर बल दिया गया है। वे पाँच प्रकार निम्नांकित हैं - स्वरूपावस्थिति प्राप्त करना सम्यक् चारित्र है। चारित्र की दृढ़ता एवं संपन्नता के लिए जैन-दर्शन में विभिन्न व्रतों, क्रियाओं, विधियों, १. प्रा
१. प्रणिधान - आचार-विचार को संतुलित रखते हुए निम्न नियमों-उपनियमों का विधान किया गया है, जिसके अंतर्गत
कोटि के जीवों के प्रति राग-द्वेष की भावना का न रखना प्रणिधान तप, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि प्रमुख
कहलाता है।
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२. प्रवृत्ति
यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ निर्दिष्ट व्रत नियमों या अनुष्ठानों का एकाग्रता पूर्वक सम्यक् पालन करना प्रवृत्ति है ।
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३. विध्नजय - यम-नियम आदि का पालन करते समय उपस्थित बाह्य एवं आंतरिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना विघ्नजय कहलाता है।
४. सिद्धि - सिद्धि से चित्त शुद्धि में साधक को सम्यक् दर्शनादि की प्राप्ति होती है और वह आत्मानुभव में किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं करता । उसकी कषाय से उत्पन्न सारी चंचलता नष्ट हो जाती है और वह निम्नवर्ती जीवों के प्रति दया, आदर-सत्कार आदि का ख्याल रखने लगता है।
५.
विनियोग - इस अवस्था में साधक में धार्मिक वृत्तियों की क्षमता आ जाती है तथा निरंतर आत्मिक विकास होने लगता है। फलतः साधक में परोपकार, कल्याण आदि भावनाओं की वृद्धि होती है । वृद्धि की यही अवस्था विनियोग कहलाती है। "
इनके अतिरिक्त विभिन्न व्रतों, क्रियाओं, विधियों, नियमउपनियमों आदि का विधान किया गया है, जिनमें आसन, प्राणायाम, धारणा, प्रत्याहार, ध्यान आदि प्रमुख माने गाए हैं। कहा भी गया है कि ध्यानादि उत्तरोत्तर चित्त की शुद्धि करते हैं, इसलिए ये चारित्र ही हैं। "
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जैन-साधना एवं आचार
परम्परा में दो आचार-संहिताओं का विधान किया गया है। एक का नाम है - श्रावकाचार, तो दूसरी का नाम है - श्रमणाचार । श्रावकों की आचार संहिता
सामान्य भाषा में गृहस्थ के लिए श्रावक शब्द का प्रयोग होता है। जैनागमों में श्रावक के लिए विभिन्न शब्दों के प्रयोग देखने को मिलते हैं। यथा- देश - संयमी, गृहस्थ, श्राद्ध, उपासक, अणुव्रती, देशविरत, आगारी आदि । १९ श्रावकों के प्रकारों को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कोई श्रावकों के दो भेदों को मानते हैं, तो कोई तीन और कोई चार | जैसे धर्मामृत में श्रावक के तीन प्रकार बताए गए हैं - १. पाक्षिक २. नैष्ठिक और ३. साधक । १२ चारित्रसार में श्रावक को ब्रह्मचर्य २. गृहस्थ ३. वानप्रस्थ और ४. संन्यास - इन चार आश्रमों के रूप में प्रस्तुत किया गया है । १२ इसी प्रकार धर्मबिन्दु में आचार्य हरिभद्र ने १. सामान्य और २. विशेष के रूप में श्रावकों के दो भेद बताए हैं । १४
जैन - परम्परा दो प्रकार की आचार संहिताओं का विधान करती है। एक श्रावकों के लिए और दूसरी श्रमणों के लिए। क्योंकि दोनों की साधनाभूमि अथवा जीवनव्यवहार अलगअलग हैं। मुनि जहाँ बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्यागी होती है, वहीं श्रावक कुछ परिग्रहों का त्यागी होता है। इसलिए दोनों के लिए अलग-अलग आचारों का विधान किया गया है । श्रमणों की तुलना में श्रावकों को परिस्थिति एवं काल की अपेक्षा से मर्यादित व्रत-नियमों का पालन करना पड़ता है, फिर भी योग-साधना के लिए उसे पूरी छूट है। मुनि या श्रमण तो पूर्ण विरक्त या गृह-त्यागी होता है, जिससे वह योग-साधना करने में सक्षम होता है, लेकिन एक श्रावक के सर्वत्यागी बनने में शंका उपस्थित होती है, क्योंकि जीवकोपार्जन के लिए उसे विविध उद्योग आदि का आलंबन लेना पड़ता है। ऐसे श्रमण की भाँति वह भी सम्पूर्ण परिग्रह से मुक्त होकर योगसाधना से संपन्न हो सकता है। इन्हीं दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए जैन
Gটমট[ ३७
श्रावकधर्म के विषय में भी जैनाचार्य एकमत नहीं हैं। जैसा कि डॉ. मोहनलाल मेहता ने अपनी पुस्तक 'जैन आचार'
में उल्लेख किया है - उपासकदशांग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डक श्रावकाचार आदि में संलेखना सहित बारह व्रतों के आधार पर श्रावकधर्म का प्रतिपादन किया गया है। वहीं आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र - प्राभृत, स्वामी कार्तिकेय ने द्वादश अनुप्रेक्षा में एवं आचार्य वसुनन्दि ने वसुनन्दि - श्रावकाचार में ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावक धर्म का निरूपण किया है। १५ श्रावक के बारह व्रत - योगशास्त्र में श्रावक के बारह व्रत इस प्रकार कहे गए हैं पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत। १६ आचार्य कुन्दकुन्द ने ग्यारह प्रतिमाओं के साथ ही बारह व्रतों का उल्लेख किया है । १७ परन्तु कहीं-कहीं पाँच अणुव्रतों को मूलगुण भी माना गया है और इनके साथ मद्य, माँस एवं मधु का त्याग भी मूलगुण के अंतर्गत रखा गया है।" इसी प्रकार कहीं अणुव्रतों के साथ जुआ, मद्य एवं माँस के त्याग को भी मूलगुण माना गया है । १९
-
अणुव्रत जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण के लिए पाँच महाव्रतों का विधान किया गया है, उसी प्रकार श्रावक के लिए पाँच अणुव्रतों का विधान किया है। या यों कहा जा सकता है कि जैसे महाव्रतों के अभाव में श्रमण का श्रामण्य निर्जीव-सा प्रतीत
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार होता है, वैसे ही अणुव्रतों के अभाव में श्रावक-धर्म निष्प्राण उसकी शक्ति से ज्यादा काम लेना या बोझा लाद देना अतिभार है। लगता है। यही कारण है कि अणुव्रतों को श्रावक का मूलगुण
(ङ) अन्नापाननिरोध - नौकर आदि को समय पर कहा जाता है। महाव्रतों का पालन तीन योग यानी मन, वचन,
खाना न देना, पूरा खाना न देना, अपने पास संग्रह होने पर भी काया तथा तीन करण यानी करना, करवाना और अनुमोदन
आवश्यकता के समय किसी की सहायता न करना आदि अन्नापान करना, से पालन किया जाता है। जबकि अणुव्रतों का पालन
-निरोध कहलाता है। तीन योग तथा दो करण (करना, करवाना) से किया जाता है।२५ श्रावक के मूलगुण रूपी पाँच अणुव्रतों का विवरण इस
२. स्थूल मृषावाद - असत्य या झूठे व्यवहार का त्याग करना प्रकार है -
स्थल मृषावाद है। जैसे हिंसा को न करना प्राणातिपात विरमण
है और उससे साधक को बचना आवश्यक है। उसी प्रकार १. स्थूल प्राणातिपातविरमण - गृहस्थ साधक स्थूल हिंसा
स्थूल मृषावाद यानी झूठ से बचना भी शक्य है। अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा से विरत होता है। इसलिए इस अणुव्रत का नाम स्थूल प्राणातिपात-विरमण रखा गया है।२२
उपासकदशांग में कहा गया है कि मैं स्थूल मृषावाद का इसे अहिंसाणुव्रत भी कहा जाता है। जैसा कि उपासक-दशांगसूत्र
यावत् जीवन के लिए मन, वचन और काम से त्याग करता हूँ, में कहा गया है कि मैं किसी भी निरपराध-निर्दोष स्थूल त्रस
मैं न स्वयं मृषा भाषण करूँगा न अन्य से करवाऊँगा।२६ झूठ प्राणी की जानबूझकर संकल्पपूर्वक मन, वचन और कर्म से न
बोलने के कारणों का उल्लेख करते हुए श्रावक-प्रतिक्रमण में तो स्वयं हिंसा करूँगा और न करवाऊँगा।२३ आचार्य हेमचन्द्र ने
पाँच प्रकार के स्थूल मृषा का निरूपण किया गया है।२७ जो इस तो यहाँ तक कहा है - 'अहिंसा धर्म का ज्ञाता और मुक्ति का
प्रकार हैंअभिलाषी श्रावक स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा नहीं (१) पुत्र-पुत्रियों के विवाह के निमित्त सामने वाले पक्ष के करे।२४
सम्मुख झूठी प्रशंसा करना-करवाना आदि। श्रावक द्वारा सावधानीपूर्वक व्रत का पालन करते हुए भी (२) पशु-पक्षियों के क्रय-विक्रय में मिथ्या प्रशंसा का आश्रय कभी-कभी प्रमादवश दोष लगने की संभावना रहती है। अतः लेना। निम्नलिखित दोषों से साधक को बचना चाहिए।२५।
(३) भूमि के संबंध में झूठ बोलना-बुलवाना। (क) बन्ध - किसी भी त्रस प्राणी को कठिन बंधन से
(४) झूठी गवाही देना-दिलवाना और
।। बाँधना या उसे किसी भी इष्ट स्थान पर जाने से रोकना। अपने अधीनस्थ व्यक्तियों को निश्चित समय से अधिक काल तक
(५) रिश्वत खाना-खिलाना आदि। रोकना, उनसे निर्दिष्ट समय के उपरान्त कार्य लेना आदि बंध है। इसी को आचार्य हेमचन्द्र ने कन्यालीक, गो-अलीक, (ख) वध - किसी भी प्राणी को मारना वध है। इनके ।
भूमिअलीक, न्यासापहार तथा कूट-साक्षी आदि के रूप में अतिरिक्त निर्दयतापूर्वक क्रोध में अपने आश्रित किसी भी
निरूपित किया है और कहा है कि ये सभी लोक-विरुद्ध हैं, व्यक्ति को मारना-पीटना, गाय, भैंस, घोड़ा, बैल आदि को
विश्वासघात के जनक हैं तथा पुण्य-नाशक हैं, इसलिए श्रावकों लकड़ी, चाबुक, पत्थर आदि से मारना, किसी का अनैतिक ढंग
को स्थूल असत्य से बचना चाहिए।२८ साधक कितनी भी से शोषण कर अपनी स्वार्थपूर्ति करना आदि वध के अंतर्गत ही
सावधानीपूर्वक स्थूल मृषावाद-विरमण का पालन करे, फिर आते हैं।
भी दोषों की संभावना बनी रहती है। उपासकदशांग में इन्हीं
दोषों से बचने के लिए पाँच प्रकार बताए गये हैं२९ - (ग) छविच्छेद - किसी भी प्राणी का अंगोपांग काटना
(क) सहसा - अभ्याख्यान - बिना सोचे-समझे किसी छविच्छेद कहलाता है।
पर झूठा आरोप लगा देना, किसी के प्रति लोगों में गलत धारणा (घ) अतिभार - प्राणियों से आवश्यकता से अधिक, पैदा करना, सज्जन को दुर्जन कहना आदि सहसा-अभ्याख्यान
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - के अंतर्गत आता है।
(ङ) तत्प्रतिरूपक व्यवहार - वस्तुओं में मिलावट करना (ख) रहस्य-आख्यान - किसी की गोपनीय बात को तत्प्रतिरूपक व्यवहार है। किसी अन्य के सामने प्रकट कर देना रहस्य-आख्यान कहलाता ४. स्वदार-संतोष - अपनी पत्नी के अतिरिक्त शेष समस्त
स्त्रियों के साथ मैथुन-सेवन का मन, वचन व कायपूर्वक त्याग (ग) स्वदार अथवा स्वपतिमंत्रभेद - पति-पत्नी की
करना स्वदार-संतोष व्रत कहलाता है। उपासकदशांग में वर्णन गुप्त बातों को किसी के सामने प्रकट कर देना स्वदार या।
आया है कि मैं स्वपत्नी-संतोषव्रत ग्रहण करता हूँ, पत्नी के स्वपतिमंत्रभेद कहलाता है।
अतिरिक्त अवशिष्ट मैथुन का त्याग करता हूँ।३१ अन्य व्रतों की
भाँति स्वदार-संतोष के भी पाँच अतिचार बतलाए गए हैं, जिनसे (घ) मृषा-उपदेश - किसी भी व्यक्ति को सच-झूठ
श्रावक को बचना चाहिए।३२ समझाकर कुमार्ग की ओर प्रेरित करना मृषा-उपदेश है।
(क) इत्वरिक-परिगृहीता-गमन - इत्वरिक का अर्थ होता (C) कट-लेखकरण - झूठे लेख लिखना, झूठे - अल्पकाल. परिग्रहण का अर्थ होता है - स्वीकार करना, दस्तावेज तैयार करना, झूठे हस्ताक्षर करना, झूठे सिक्के गमन का अर्थ होता है - काम-भोग-सेवन अर्थात् अल्पकाल तैयार करना आदि कूट-लेखकरण अतिचार कहलाता
के लिए स्वीकार की गई स्त्री के साथ काम-भोग का सेवन ३. स्थूल अदत्तादान-विरमण - अदत्तादान का अर्थ ही होता करना। श्रावक के लिए ऐसे मैथुन का निषेध किया गया है। है बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण (आदान)। श्रावक के लिए ऐसी
(ख) अपरिगृहीतागमन - वह स्त्री, जिस पर किसी प्रकार चोरी का त्याग अनिवार्य है, जिसके करने से राजदण्ड भोगना
का अधिकार न हो, अर्थात् वेश्या, कुलटा, वियोगिनी आदि का पड़े, समाज में अविश्वास उत्पन्न हो, प्रामाणिकता नष्ट हो, प्रतिष्ठा
उपभोग करना आदि अपरिगृहीता-गमन कहलाता है। को धक्का लगे। इस प्रकार की चोरी का त्याग ही जैन आचार शास्त्र में स्थल अदत्तादान-विरमण व्रत के नाम से प्रसिद्ध है। (ग) अनंगक्रीड़ा - प्राकृतिक रूप से कामवासनाओं की पर्ति न योगशास्त्र में कहा गया है कि बना किसी की आज्ञा के किसी करक अप्राकृतिक रूप
करके अप्राकृतिक रूप से वासना की पूर्ति करना अनंगक्रीडा वस्तु को ले लेने पर मन में अशान्ति उत्पन्न हो जाती है, दिन
कहलाता है, यथा - हस्तमैथुन, समलैंगिक मैथुन, कृत्रिम साधनों रात, सोते-जागते, चौर्यकर्म की चुभन होती रहती है।३० उपासक
द्वारा कामाचार का सेवन करना आदि। -दशांग में निम्नलिखित पाँच अतिचारों से बचने का निर्देश दिया (घ) परविवाहकरण - कन्यादान में पुण्य समझकर अथवा गया है -
रागादि के कारण दूसरों के लिए लड़के, लडकियाँ ढूँढना, उनकी (क) स्तेनाहत - चोरी की वस्तु खरीदना या बेचना स्तेनाहत
शादियाँ कराना आदि कर्म परविवाहकरण अतिचार है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थ साधक को स्वसंतान एवं परिजनों के अतिरिक्त
अन्य व्यक्तियों के विवाह-संबंध कराने का निषेध है। (ख) तस्कर-प्रयोग - चोरी करने की प्रेरणा देना, चोर को सहायता देना, तस्कर को शरण देना आदि तस्कर प्रयोग कहलाता
(ङ) कामभोग-तीव्राभिलाषा - कामरूप एवं भोगरूप विषयों में अत्यन्त आसक्ति रखना अर्थात् इनकी अत्यधिक
आकांक्षा करना कामभोग तीव्राभिलाषा अतिचार है। (ग) राज्यादिविरुद्ध कर्म - राजकीय नियमों का उल्लंघन करना राज्यादिविरुद्ध कर्म कहलाते हैं।
५.इच्छा-परिमाण- इच्छाएँ अनंत होती हैं। इन अनंत इच्छाओं
की मर्यादा निर्धारित करना या नियंत्रित करना ही इच्छा-परिमाण (घ) कटतौल-कटमान - वस्तु के लेन-देन में न्यून या है। अर्थात गहस्थ को परिग्रहासक्ति से बचने के लिए परिग्रह की अधिक का प्रयोग करना कूटतौल-कूटमान कहलाता है।
सीमा-रेखा निश्चित की गई है। धन-धान्यादि के संग्रह से ममत्व
घटाना अथवा लोभ-कषाय को कम करके संतोषपूर्वक वस्तुओं రురురురురురురురతరతరతరం
రంగురంగురంగురువారూరురురువారం
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का आवश्यकताभर उपयोग करना परिग्रह परिमाण - व्रत है । ३३ इस व्रत के भी पाँच अतिचार बताए गए हैं, जिनसे श्रावक साधकों को बचना चाहिए । ३४
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(क) क्षेत्रवस्तु - परिमाण अतिक्रमण
तथा खेतों की मर्यादा को किसी भी बहाने से बढ़ाना । (ख) हिरण्य - सुवर्ण परिमाण अतिक्रमण आदि के परिमाण को भंग करना ।
(ग) धन-धान्य- परिमाण अतिक्रमण आदि की मर्यादा को भंग करना ।
मकानों, दुकानों
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(घ) द्विपद-चतुष्पद-परिमाण अतिक्रमण दास-दासी, नौकर, कर्मचारी आदि के परिमाण का उल्लंघन करना । (ङ) कुव्य - परिमाण अतिक्रमण दैनिक व्यवहार में आने वाली वस्त्र, पात्र, आसन आदि वस्तुओं के लिए परिमाण का उल्लंघन करना ।
सोने-चाँदी
मुद्रा, जवाहरात
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गुणव्रत - अणुव्रतों की रक्षा एवं विकास के लिए जैनाचार में गुणव्रतों की व्यवस्था की गई है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि अणुव्रतों की भावनाओं की दृढ़ता के लिए जिन विशेष गुणों की आवश्यकता होती है, उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। धर्मामृत (सागर) में इसके तीन भेद बताए गए हैं- दिग्व्रत, अनर्थदण्ड और भोगोपभोग परिमाणव्रत । ३५
१. दिग्वत जिस व्रत में उसके द्वारा दिशाओं की सीमा निर्धारित की जाती है, उसे दिग्व्रत कहते हैं । २६ अनंत इच्छाओं की त्यागवृत्ति के द्वारा मर्यादा निश्चित करना दिग्व्रत है। इसलिए इसे दिशापरिमाण के नाम से भी जाना जाता है। इसके भी पाँच अतिचार हैं
(क) उर्ध्वदिशा - परिमाण अतिक्रमण - ऊँची दिशा के निश्चित परिमाण का उल्लंघन करने पर लगने वाले दोष का नाम उर्ध्वदिशा परिमाण अतिक्रमण है।
(ख) अधोदिशा परिमाण अतिक्रमण - नीचे की दिशा के परिमाण का उल्लंघन करने पर लगने वाला दोष अधोदिशा परिमाण अतिक्रमण - कहलाता है।
(ग) तिर्यक दिशा-परिमाण अतिक्रमण - उत्तर-दक्षिण, पूर्वपश्चिम तथा उनके कोणों में गमनागमन की मर्यादा के उल्लंघन
से लगने वाला दोष तिर्यक्परिमाणअतिक्रमण कहलाता
(घ) क्षेत्रवृद्धि - मनमाने ढंग से क्षेत्र की मर्यादा को बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि अतिचार है।
(ङ) स्मृत्यन्तर्धा - सीमा का स्मरण न रहने पर लगने वाला दोष स्मृत्यन्तर्धा अतिचार कहलाता है।
२. अनर्थदण्डव्रत - बिना किसी प्रयोजन के हिंसा करना अनर्थदण्ड कहलाता है और हिंसापूर्ण व्यापार-व्यवसाय के अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना अनर्थदण्ड विरमण व्रत है। इस व्रत में पापपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। जैसे
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(क) अपध्यान - आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग, क्योंकि इससे श्रावक के अंदर अशुभ चिन्तन की क्रिया होती रहती है। (ख) प्रमादाचरण आलस्य का सेवन करना प्रमादाचरण है। प्रमादाचरण वाले व्यक्ति की शुभ में प्रवृत्ति नहीं होती, यदि होती भी है, तो असावधानी पूर्वक करता है।
( ग ) हिंसादान - व्यक्ति अथवा राष्ट्र को हिंसक शस्त्र आदि देकर हिंसा की संभावना को बढ़ावा देना भी अनर्थदण्ड है। (घ) पापकर्मोपदेश - जिस उपदेश के सुनने से व्यक्ति पाप कर्म में प्रवृत्त हो, वैसा उपदेश देना पापकर्मोपदेश कहलाता है।
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अहिंसादि व्रतों के सम्यक् पालन के लिए तथा आत्मविशुद्धि के लिए अनर्थदण्ड का त्याग करना चाहिए। यह त्यागरूपव्रत ही अनर्थदण्ड व्रत है। इसके भी पाँच अतिचार बताए गए हैं. (क) संयुक्ताधिकरण - जिन उपकरणों के संयोग से हिंसा की संभावना बढ़ जाती है, उन्हें संयुक्त रखना संयुक्ताधिकरण अतिचार कहलाता है।
(ख) उपभोग परिभोगातिरिक्त उपभोग एवं परिभोग की उपभोगपरिभोगातिरिक्त अतिचार है।
आवश्यकता से अधिक सामग्री संग्रह रखना
For Private Personal Use Only
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(ग) मौखर्य - असम्बद्ध एवं अनावश्यक वचन बोलना मौखर्य
है।
(घ) कौत्कुच्य - विकारवर्धक चेष्टाएँ करना या देखना कौत्कुच्य है।
४0 Jo
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--यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन साधना एवं आचार(ङ) कन्दर्प - विकारवर्धक वचन बोलना या सुनना कंदर्प है। (ग) शरीर से सावध क्रिया करना।
३. भोगोपभोग परिमाण व्रत - एक बार भोगने योग्य (घ) सामायिक के प्रति अनादर भाव रखना। आहार आदि भोग कहलाते हैं और जिन्हें बार-बार भोगा जा
। (ङ) समय पूरा किए बिना ही सामायिक पूरी कर लेना। सके, ऐसे सब वस्त्र, पात्र आदि परिभोग या उपभोग कहलाते
२. प्रोषधोपवास - आत्म चिन्तन के निमित्त सर्व सावद्य हैं। इन पदार्थों को काम में लाने की मर्यादा बांध लेना उपभोगपरिभोग परिमाण है। इसके भी पाँच अतिचार बताए गए हैं३९
क्रिया का त्याग कर शान्तिपूर्ण स्थान में बैठकर उपवासपूर्वक .
समय व्यतीत करना प्रोषधोपवास है। योगशास्त्र में कहा गया है (क) सचित्ताहार - जो वस्तु मर्यादा के बाहर है, उसे आहार
कि कषायों को त्यागकर प्रत्येक चतुदर्शी एवं अष्टमी के दिन रूप में ग्रहण करना सचित्ताहार अतिचार है।
उपवास करके तप, ब्रह्मचर्यादि धारण करना प्रोषधोपवास (ख) सचित्तप्रतिबद्धाहार - सचित्त वस्तु से संसक्त अर्थात् कहलाता है।४२ इस व्रत के भी पाँच दोष हैं, जिनसे साधकों को लगी हुई उचित वस्तु का आहार करने पर सचित्त प्रतिबद्धाहार बचना चाहिए।४३ दोष लगता है।
(क) अप्रतिलेखित - दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक - (ग) अपक्वाहार - बिना अग्नि के पके आहार का सेवन बिना देखे हुए शय्या आदि का उपयोग करना। करने पर अपक्वाहार दोष लगता है।
(ख) अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तारक - अप्रमार्जित (घ) दुष्पक्वाहार - अनेक द्रव्यों से संयोग से निर्मित सुरा, शय्यादि का प्रयोग करना। मदिरा आदि का सेवन करने अथवा दुष्ट रूप से पके पदार्थों को (ग) अपतिलेखित-टपतिलेखित उच्चारप्रस्त्र वण भमिग्रहण करने पर दुष्पक्वाहार दोष लगता है।
ठीक-ठीक बिना देखे हुए शौच या लघुशंका के स्थानों का (ङ) तुच्छोषधिभक्षण - जो वस्तु खाने के काम में कम आए उपयोग करना।
और फैंकने में अधिक जाए, ऐसी वस्तु का सेवन करने पर (घ) अप्रमार्जित-दष्प्रमार्जित उच्चारप्रसा मण भमि - तुच्छोषधिभक्षण दोष लगता है।
अप्रमार्जित शौच या लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना। शिक्षाव्रत - जैनाचार्यों के अनुसार शिक्षा का अर्थ अभ्यास
(ङ) प्रोषधोपवास-सम्यगननुपालनता- शय्या प्रोषधापवास
गोवार होता है। अतः कहा जा सकता है कि जिस प्रकार विद्यार्थी पुनः ।
का सम्यक् रूप से पालन नहीं करना यानी प्रोषध में निंदा, पन: विद्या का अभ्यास करता है, ठीक उसी प्रकार श्रावक को विकषा. प्रमादादि का सेवन करना। कुछ व्रतों का बार-बार अभ्यास करना पड़ता है। बार-बार यही
३. देशावकाशिक व्रत - देश यानी क्षेत्र का एक अंश अभ्यास शिक्षाव्रत कहलाता है। अणुव्रत और गुणव्रत जीवन भर के लिए ग्रहण किया जाता है और शिक्षाव्रत कुछ समय के
और अवकाश अर्थात् स्थान दिशा परिमाण व्रत जीवनभर के लिए। शिक्षाव्रत के मुख्यत: चार भेद हैं - सामायिक, प्रोषधोपवास,
__ लिए मर्यादित दिशाओं के दिन एवं रात्रि में यथोचित कुछ घंटों देशावकाशिक और अतिथि संविभाग।
या दिनों के लिए संक्षेपण करना देशावकाशिक व्रत कहलाता
है।४ इनके भी पाँच अतिचार हैं - १. सामायिक - सामायिक अर्थात् समत्व का अभ्यास।
(क) आनयन प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र के बाहर से वस्तु लाना या सामायिक आत्मा का वह भाव अथवा शरीर की वह क्रिया विशेष है, जिसमें मनुष्य को सम्मान की प्राप्ति होती है। इसके ।
मँगवाना। भी पाँच अतिचार हैं, जिनसे सामायिक व्रत दूषित होते हैं। १ ।। (ख) प्रेष्य प्रयोग - मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना या ले (क)मन से सावध भावों का चिन्तन करना।
जाना। (ख)वाणी से सावध वचन बोलना।
(ग) शब्दानुपात - निर्धारित क्षेत्र के बाहर किसी को खड़ा rinaridroid-dardarodaradardarbrobrarianda-[ ४ १ dividminiororandaridroiviondardwaniindiarda
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देखकर शब्द संकेत करना ।
(घ) रूपानुपात - हाथ, मुँह, सिर आदि से संकेत करना । (ङ) पुद्गलप्रक्षेप - बाहर खड़े हुए व्यक्ति को अपना अभिप्राय जताने के लिए कंकड़ आदि फेंकना ।
४. अतिथि- संविभाग - अपने निमित्त बनाई हुई अपने अधिकार की वस्तु का अतिथि के लिए समुचित विभाग करना अतिथिसंविभाग है। अन्य व्रतों की भाँति इसके भी पाँच अतिचार हैं । ४५ जिनसे साधकों को बचना चाहिए
यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ- जैन-साधना एवं आचार
(क) सचित्त निक्षेप - सचित्त पदार्थों से आहारादि को ढकना ताकि श्रमण आदि उसे ग्रहण न कर सकें।
(ग) कालातिक्रम
बनाना।
(ख) सचित्त पिधान - आहारादि वस्तु को सचित्त वस्तु के ऊपर रख देना।
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-
भिक्षा का समय बीत जाने पर भोजन
(घ) परव्यपदेश - न देने की भावना से अपनी वस्तु को दूसरों की बताना ।
(ङ) मात्सर्य - ईर्ष्यापूर्वक दान देना मात्सर्य है।
ग्यारह प्रतिमाएँ - प्रतिमाएँ आत्म-विकास के क्रमिक सोपान हैं, जिनके सहारे श्रावक अपनी शक्ति के अनुरूप मुनिदीक्षा ग्रहण करने की स्थिति में पहुँचता है। प्रतिमा का अर्थ होता है - प्रतिज्ञा विशेष, व्रत विशेष, तप विशेष अथवा अभिग्रह विशेष । ४६ जैनागमों में प्रतिमाओं की संख्या ग्यारह मानी गई है । परन्तु श्वेताम्बर और दिगम्बर- परम्पराओं में प्रतिमा के विषय में अंतर देखने को मिलता है। श्वेताम्बर - परम्परा में प्रतिमाओं के नाम इस प्रकार मिलते हैं- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, नियम, ब्रह्मचर्य, सचित्त-त्याग, आरंभ-त्याग, प्रेष्य- परित्याग, उद्दिष्ट त्याग एवं श्रमणभूत। जबकि दिगम्बर परम्परा में दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त-त्याग, रात्रि भुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभ-त्याग, परिग्रह- त्याग, अनुमति-त्याग एवं उदिदष्ट-त्याग का वर्णन मिलता है । ४१ दोनों परम्पराओं में प्रतिमा के प्रकारों को देखने से ऐसा लगता है कि दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं है।
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४
दर्शनप्रतिमा - अध्यात्म मार्ग की यथार्थता के संबंध में दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा का होना दर्शनप्रतिमा है। व्रत- प्रतिमा गृहस्थ जीवन के पाँच अणुव्रतों, तीन व्रतों का निर्दोष रूप से पालन करना व्रत - प्रतिमा है। सामायिक प्रतिमा - समत्व के लिए किया जाने वाला प्रयास सामायिक कहलाता है। श्रावक साधक को नियमित रूप से तीनों संध्याओं में मन, वचन और कर्म से निर्दोष रूप में समत्व
की आराधना करनी होती है।
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प्रोषधोपवास- प्रतिमा प्रत्येक माह की अष्टमी और चतुर्दशी को गृहस्थी के समस्त क्रिया-कलापों से अवकाश पाकर उपवास सहित शुद्ध भावना के साथ आत्मसाधना में रत रहना प्रोषधोपवास प्रतिमा है।
नियम - प्रतिमा- इसमें पूर्वाक्त प्रतिमाओं का पालन करते हुए पाँच विशेष नियमों के व्रत लिए जाते हैं - स्नान नहीं करना, रात्रि भोजन नहीं करना, धोती की एक लाँग नहीं बांधना, दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना तथा रात्रि में मैथुन की मर्यादा निश्चित करना और अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिन रात्रि पर्यन्त देहासक्ति त्यागकर कायोत्सर्ग करना ।
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ब्रह्मचर्य - प्रतिमा- इसमें श्रावक दिन की भाँति रात्रि में भी ब्रह्मचर्य का पालन करता है।
सचित्त आहारवर्जन प्रतिमा श्रावक साधक सभी प्रकार के सचित्त आहार का त्याग कर देता है, लेकिन आरंभी हिंसा का त्याग नहीं करता है ।
आरंभत्यागप्रतिमा काम से कृषि सेवा, व्यापार कर देता है किन्तु दूसरों से
करता ।
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श्रावक साधक मन, वचन एवं आदि को आरंभ करने का त्याग आरंभ करवाने का त्याग नहीं
परिग्रह त्याग - प्रतिमा श्रावक उस सम्पत्ति पर से भी अपना अधिकार हटा लेता है तथा निवृत्ति की दिशा में एक कदम आगे बढ़कर परिग्रह विरत हो जाता है।
अनुमति - विरत- प्रतिमा - गृहस्थ साधक ऐसे आदेशों और उपदेशों से दूर रहता है, जिनके कारण किसी भी प्रकार की स्थावर या त्रस हिंसा की संभावना होती है।
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन-साधना एवं आचार उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा इसमें साधक गृहस्थ होते हुए दिगम्बर- परम्परा ५२ भी साधु की भाँति आचरण करता है।
पंच महाव्रत
पंचेन्द्रियों का संयम
पंच समितियाँ
इस प्रकार प्रतिमाएँ तपसाधना की क्रमशः बढ़ती हुई अवस्थाएँ हैं, अतः उत्तर- उत्तर प्रतिमाओं में पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं स्वत: ही समाविष्ट होते जाते हैं। फलतः साधक निवृत्ति की दिशा में क्रमिक प्रगति करते हुए अंत में पूर्ण निवृत्ति के आदर्श को प्राप्त करता है।
षडावश्यक - षडावश्यक जिसे श्रावक के छह आवश्यक कर्म भी कहा जाता है, ५० श्रावक - जीवन के आवश्यक कर्म हैं। जो इस प्रकार हैं
१. देवपूजा अरिहंत प्रभु की प्रतिमाओं का पूजन अथवा उनके आदर्श स्वरूप का चिन्तन एवं गुणगान करना ।
२. गुरुसेवा भक्तिपूर्वक गुरु की वंदना करना, उनका सम्मान करना तथा उनके उपदेशों का श्रवण करना ।
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३. स्वाध्याय आत्म-स्वरूप का चिन्तन-मनन करना। ४. संयम वासनाओं और तृष्णाओं पर अंकुश रखना।
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1
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५. तप तप के द्वारा इन्द्रियों का दमन किया जाता है, जिससे शारीरिक प्राकृतिक या अन्यकृत पीड़ा को सहन करने में समर्थ हो सकें।
६. दान प्रतिदिन भ्रमण, स्वधर्मी बंधुओं और असहायों को कुछ न कुछ दान करना ।
श्रमण
श्रमणाचार या श्रमणों की आचार संहिता के व्रत महाव्रत कहलाते हैं, क्योंकि साधु या निर्ग्रन्थ हिंसादि का पूर्णत: त्याग करता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह योग-सिद्धि के मूल साधन हैं। साधु समाचारी के विषय में कहा गया है कि गुरु के समीप बैठना, विनय करना, निवास स्थान की शुद्धि रखना, गुरु के कार्यों में शांतिपूर्वक सहयोग करना, गुरु आज्ञा को निभाना, त्याग में निर्दोषता, भिक्षावृत्ति से रहना, आगम का स्वाध्याय करना एवं मृत्यु आदि का सामना करना आवश्यक है । ५१ दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में साधु के क्रमशः २८ एवं २७ मूलगुण माने गए हैं, जो इस प्रकार हैं
-
[४३
षडावश्यक
केशलुंचन
नग्नता
अस्नान
भूशयन
३.
४.
4.
६.
७.
अदन्तधावन
खड़े होकर भोजन ग्रहण करना
तीन गुप्ति
एक समय भोजन करना आदि।
सहनशलीता, संलेखना आदि ।
मूलगुणों के संबंध में जहाँ दिगम्बर- परम्परा बाह्य तत्त्वों पर अधिक बल देती है, वहीं श्वेताम्बर परम्परा आंतरिक विशुद्धि को अधिक महत्त्व देती है।
८.
९.
पंच महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच व्रतों को पंच महाव्रत के नाम से जाना जाता है।
श्वेताम्बर - परम्परा"
पंच महाव्रत पंचेन्द्रियों का संयम अरात्रि भोजन
आंतरिक पवित्रता
भिक्षु - उपाधि की पवित्रता
क्षमा
१. अहिंसा - किसी भी जीव की तीन योग और तीन करण से हिंसा न करना अहिंसा है । ५४ तीन योग और तीन करण से हिंसा न करना को इस प्रकार समझ सकते हैं
-
-
१.
२.
अनासक्ति
मन, वचन और काय की
सत्यता
-
छह प्रकार के प्राणियों का संयम
मन से हिंसा न करना ।
मन से हिंसा न करवाना।
मन से हिंसा का अनुमोदन न करना ।
वचन से हिंसा न करना।
वचन से हिंसा न करवाना।
वचन से हिंसा का अनुमोदन न करना ।
काय से हिंसा न करना ।
काय से हिंसा न करवाना।
काय से हिंसा का अनुमोदन न करना ।
from Gronin
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार - इन नौ प्रकारों से प्राणी का घात न करना ही अहिंसा है। (१) श्रोत्रेन्द्रिय के विषय शब्द के प्रति रागद्वेष-राहित्य। अहिंसा के पालन से मनुष्य में निर्भयता, वीरता, क्षमा, दया ।
(२) चक्षुरिन्द्रिय के विषय रूप से अनासक्त भाव रखना। आदि आत्मिक शक्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। अहिंसा व्रत की
(३) ध्राणेन्द्रिय के विषय गंध के प्रति अनासक्त भाव रखना। पाँच भावनाएँ हैं -
(४) रसनेन्द्रिय के विषय रस के प्रति अनासक्त भाव रखना। (१) ई र्या समिति (२) भाषा समिति (३) एषणा समिति (४) आदान समिति (५) मनः समिति।
(५) स्पर्शेन्द्रिय के विषय स्पर्श के प्रति अनासक्त भाव रखना। २. सत्य - असत्य का परित्याग करना तथा यथाश्रुत गुप्ति एवं समिति - जैन-परम्परा में तीन गप्तियों तथा वस्तु के स्वरूप का कथन सत्य कहलाता है। इसका भी तीन पाँच समितियों का विधान है। गुप्तियाँ, मन, वचन और काय योग और तीन करण से श्रमण को पालन करना होता है। इस की अशुभ प्रवृत्तियों को रोकती हैं और समितयाँ चारित्र की महाव्रत की भी पाँच भावनाएँ हैं५५
प्रवृत्ति के लिए हैं।५९ कहा भी गया है कि योग का अच्छी प्रकार (१) विवेक-विचारपूर्वक बोलना।
से निग्रह करना ही गुप्ति है। गुप्तियाँ श्रमण-साधना का निषेधात्मक
रूप प्रस्तुत करती हैं, जबकि समितियाँ साधना की विधेयात्मक (२) क्रोध से बचना।
रूप से व्यक्त करती हैं। ये आठ गुण श्रमण - जीवन का (३) लोभ से सर्वथा दूर रहना।
संरक्षण उसी प्रकार करते हैं, जिस प्रकार माता अपने पुत्र की (४) भय से अलग रहना।
करती है। इसलिए इन्हें अष्टप्रवचन-माता भी कहा जाता है।६० (५) हास-परिहास से अलग रहना।
गुप्ति - गुप्तियाँ तीन हैं - मनोगुप्ति, वचन गुप्ति और ३. अस्तेय - बिना दिए हुए परवस्तु का ग्रहण स्तेय काय गुप्ति। कहलाता है। अतः मन, वचन और काम से चोरी न करना, मनोगप्ति - राग-देषादि कषायों से मन को निवन करना : करवाना और न करने वालों का अनुमोदन करना ही अस्तेय है।
मनोगुप्ति है। इस व्रत की भी पाँच भावनाएँ ६
२. वचनगुप्ति - अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा का प्रयोग न (१) अनुवीचि ग्रहयाचन (२) अभीक्ष्य अवग्रहयाचन
करना वचन गुप्ति है। उत्तराध्ययनसूत्र में अशुभ प्रवृत्तियों में (३) अवग्रहधारण (४) साधार्मिक अवग्रहयाचन (५) अनुज्ञापित
जाते हुए वचन का निरोध करने को वचनगुप्ति कहा जाता है।११ पान भोजन।
३. कायगुप्ति - शारीरिक क्रियाओं द्वारा होने वाली हिंसा से ४. ब्रह्मचर्य - मन, वचन और काय से किसी भी काल
बचना कायगुप्ति है। में मैथन न करना ब्रह्मचर्य व्रत है। इस की भी पाँच भावनाएँ हैं ५७
समिति - समितियाँ पाँच हैं - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान (१) स्त्री-कथा-त्याग (२) मनोहर क्रियावलोकन-त्याग
और मनःसमिति। (३) पूर्वरति-विलास-स्मरण-त्याग (४) प्रणीतरस-भोजन-त्याग
१.ईर्या समिति - आने-जाने, उठने-बैठने आदि प्रवृत्ति के लिए (५) शयनासन-त्याग।
चर्चा करते समय छोटे या बड़े जीव के प्रति क्लेशकारक प्रवृत्ति ५. अपरिग्रह - संसार के समस्त विषयों के प्रति राग
का बचाव करना। तथा ममता का परित्याग कर देना ही अपरिग्रह है। मूलाचार में
२. भाषा समिति - बोलते अपरिग्रह व्रत के पालन का निर्देश देते हुए कहा गया है कि ग्राम,
समय क्रोध, मान, माया, लोभ,
हास्य, भय आदि से मुक्त हितमित सत्य और मधुर वचन नगर, अरण्य, स्थूल, सचित्त तथा स्थूलादि से उल्टे सूक्ष्म अचित्य
बोलना। स्तोक जैसे अंतरंग-बहिरंग परिग्रह को मन, वचन और काय द्वारा छोड़ दें।५८ इनकी भी पाँच भावनाएँ हैं - anwirorariwaridroraridrionidrodrowdrionirirdrob-[४४dmiridinodniudridwidarbromidnidroidrbadridwar
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-- चतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार ३. एषणा समिति - आहार, वस्त्र, शय्या आदि की पूर्ति के लिए जीवन व्यतीत करते हुए यदि कोई संकट उपस्थित हो जाता है, उत्तेजित करने वाली वस्तुओं के स्थान पर सात्विक भोजन, वस्त्र तो उसे सहन करना पड़ता है। परीषहों की संख्या बाईस बतायी एवं पात्र ग्रहण करना।
गई है-६५ ४. आदान समिति - रोजमर्रा की आवश्यकताओं की वस्तुओं १. क्षुधा परीषह २. तृषा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंशमशक, ६. के लेन-देन, उनके रख-रखाव आदि में सावधानी रखना। अचेल, ७. अरति, ८. स्त्री, ९. चर्या, १०. निषधा, ११. शय्या, नारसो १२. आक्रोश, १३. वध, १४. याचना, १५. अलाभ, १६. रोग, प्राणों के घातक विचार भी हो सकते हैं। जिन्हें मन से हटाना १७. तृण, १८. मल, १९.सत्कार, २०. प्रज्ञा २१. अज्ञान तथा साधु के लिए आवश्यक है।
२२. दर्शन परीषह। बारह अनुप्रेक्षाएँ - अनुप्रेक्षा का अर्थ होता है गहन
इन परीषहों को जीतना साधक के लिए आवश्यक है. चिन्तन करना। आत्मा द्वारा विशुद्ध चिन्तन होने के कारण इनमें
क्योंकि-परीषह विजय के बिना चित की चंचलता समाप्त नहीं सांसारिक वासना-विकारों का कोई स्थान नहीं रहता है, फलतः
होगी, मन एकाग्र नहीं हो पायेगा, फलत: न सम्यक् ध्यान होगा
और न कर्मों का क्षय ही हो पायेगा। साधक विकास करता हुआ मोक्षाधिकारी होने में समर्थ होता है। जब आत्मा में शुभ विचारों का उदय होता है, तब अशुभ विचारों इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन वाङ्मय में श्रमण-जीवन का आना बंद हो जाता है। राग-द्वेषादि भावों पर विजय प्राप्त की आचारसंहिता का मूलभूत आधार पंच महाव्रत रहा है। श्रमण करने के लिए ही अनुप्रेक्षाओं का विधान किया गया है, जिसके चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर । पंच महाव्रतों के पालन में किसी अंतर्गत जीवों को विरक्त कराने के लिए संसार की अनित्यता प्रकार की विप्रतिपत्ति दृष्टिगोचर नहीं होती है। यद्यपि महाव्रतों का विभिन्न प्रकार से विचार करने पर बल दिया गया है। अनुप्रेक्षाओं की व्याख्या और उसकी चर्या-पद्धति में विरूपताएँ परिलक्षित को वैराग्य की जननी भी कहा जाता है।६२ अनुप्रेक्षाएँ बारह हैं। होती हैं किन्तु उनका मौलिक आधार एक ही है। इसी प्रकार इन्हें भावना के नाम से भी जाना जाता है। अनुप्रेक्षाएँ निम्न हैं -६३ श्रावक की आचारसंहिता का वर्णन मुख्यत: दो रूपों में प्राप्त १. अनित्यानुप्रेक्षा २. अशरणानुप्रेक्षा ३. संसारानुप्रेक्षा
होता है जिनमें प्रथम प्रकार में ग्यारह प्रतिमाएँ तथा दूसरे प्रकार ४. एकत्वानुप्रेक्षा ५. अन्यत्वानुप्रेक्षा ६. अशुचित्वानुप्रेक्षा
में बारह व्रतों की चर्चा होती है। श्रावक-प्रतिमाओं के प्रयोग का
क्रम वर्तमान में भी प्रचलित है। इनमें से कछ प्रतिमाएँ श्रावक ७. आस्रवानुपेक्षा ८. संवरानुप्रेक्षा ९. निर्जरानुपेक्षा १०. धर्मानुप्रेक्षा ११. लोकानुप्रेक्षा १२. बोधिदुर्लभानुपेक्षा।
के लिए हर समय, तो कुछ सीमित समय के लिए और कुछ
बार-बार पुनरावृत्त की जाती हैं। प्रतिमाधारी श्रावक का समाज इस प्रकार उपर्युक्त बारह अनुप्रेक्षाओं के पालन में साधक
में विशेष स्थान होता है। संसार-संबंधी दुःख, सुख, पीड़ा, जन्म-मरण आदि का चिन्तनमनन करता हुआ अंतर्मुखी वृत्ति को प्राप्त करता है और उसकी
सन्दर्भ रागद्वेषादि की भावना क्षीण होती है, वह आत्मशुद्धि की प्राप्ति योगशास्त्र १४१५
२. तत्त्वार्थवार्तिक १/१ करता है।
३. वही १/१
४. योगप्रदीप ७९ परीषह - समभावपूर्वक सहन करना परीषह कहलाता
५. अध्यात्मकल्पद्रुम ९/१५ ६. योगशास्त्र १२/२ है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार मार्ग से च्यत न होने और कर्मों के क्षयार्थ जो सहन करने योग्य हों, वे परीषह हैं।६४
७. वही १२/४
८. षोडशक ३/६ ९. वही ३/७-११
१०. योगबिन्दु ३७१ यद्यपि तपश्चर्या में भी कष्टों को सहन करना पड़ता है, लेकिन तपश्चर्या में स्वेच्छा से कष्ट सहन किया जाता है, जबकि
११. जैन-आचार - डॉ. मोहनलाल मेहता, पृ.८३ परीषह में स्वेच्छा से कष्ट सहन नहीं किया जाता है, बल्कि श्रमण १२. धर्मामृत (सागर) १/२० १३. चारित्रसार - पृ. २० darivarivarianitariedodowdroidrodrowdrivanirioria-[ ४५Haririramirsidadridiadriminaristianoraduatar
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१४. धर्मबिन्दु १/२ १६ योगशास्त्र २/१ १८. धर्मामृत २/२ २०. दशवैकालिक ४/७ २२. धर्मबिन्दु ३/१६ २४. योगशास्त्र २/२१ २६. वही १/१४
- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार १५. जैनआचार, पृ. ८३-८४ ४२. योगशास्त्र ३/८५ ४३. वही ३/११७ १७. प्राभृतसंग्रह पृ., ५९ | ४४. वही ३/८४
४५. वही ३/११८ १९. चारित्रसार, पृ. १५ ४६. जैन-धर्म-दर्शन - डॉ. मेहता, पृ. ५६० २१. योगशास्त्र २/१८
४७. धर्मामृत (सागर) ३/२-३४८. दशाश्रुतस्कन्ध ६-७ २३. उपाशकदशांग १-१३ ४९. वसुनन्दी, श्रावकाचार २०१-३०१ २५. उपाशकदशांग १/४१ ५०. उपासकाध्ययन ४६/९११ ५१. योगशतक ३३-३५ २७. श्रावक प्रतिक्रमण - दूसरा ५२. मूलाचार १/२-३ ५३. बोलसंग्रह, भाग -६ पृ. २२८ । अणुव्रत
५४. जैनधर्म में अहिंसा, डॉ. सिन्हा, पृ. १८४ २९. उपासकदशांग १/४२
५५. मूलाचारगाथा २९० ५६. तत्त्वार्थसूत्र, पृ. १६९ ३१. उपासकदशांग १/४४
५७.आचारांगसूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्याय १५, पृ. १४४५-१४४६
५८. मूलाचार - गाथा २१३ ५९. उत्तराध्ययन - २४/२६ ३५. धर्मामृत (सागर) ५/१ ६०. योगशास्त्र १/४५ ६१. उत्तराध्ययन २४/२३ ३७. धर्मामृत (सागर) ५/६ ६२. छह ढाला ५/१ ६३. योगशास्त्र ४/५५-५६ ३९. वही ५/२०
६४. तत्त्वार्थसूत्र ९/८ ६५. तत्त्वार्थसूत्र ९/९ ४१. उपासकदशांग १/४९
२८. योगशास्त्र २/५४ ३०. योगशास्त्र २/७० ३२. योगशास्त्र ३/९३ ३४. तत्त्वार्थसूत्र ७/२४ ३६. योगशास्त्र ३/१ ३८. वही ३/५ ४०. तत्त्वार्थसूत्र, पृ. १८२
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जैन-न्याय में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क
डॉ. वशिष्ठ नारायण सिन्हा
वाराणसी...
जैन एवं जैनेतर-दर्शनों में-स्मृति संबंधी अनेक जाने के बाद भी उसके मानस-पटल पर पूर्व अनुभव की रेखाएँ चर्चाएँ मिलती हैं। व्यवहार में भी स्मृति एक परिचित विषय के बनी रहती हैं और वह कह बैठता है- दह। दह शब्द उसके पूर्व रूप में देखी जाती है। किन्तु यह ज्ञान का प्रमाण बन सकती है अनुभव को सूचित करता है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी कहा है - अथवा नहीं? इसके संबंध में विभिन्न मत देखे जाते हैं। किसी ने
'वासनोदबोधहेतुका तदित्याकारा स्मृतिः। इसे प्रमाण माना है तो किसी ने इसे प्रमाण मानना दोषपूर्ण कहा
वह ज्ञान जो वासना के उद्बोध के कारण उत्पन्न होता है है। कहीं-कहीं दृष्टिकोण-भेद से दोनों बातें मानी गई हैं, अर्थात् सेस्पति कहते हैं। संस्कार और वासना दोनों ही शब्द उस छाप एक दृष्टि से यह प्रमाण हो सकती है, परतु दूसरी दृष्टि से यह को इंगित करते हैं जो व्यक्ति पर पर्व अनभव के फलस्वरूप अप्रमाण है। इस प्रकार स्मृति एक समस्याजनक विषय है। पड़ी होती है। कोई व्यक्ति आगरा जाता है और ताजमहल देखता
जैन-दर्शन में परोक्ष प्रमाण के पाँच भाग माने गए हैं- है। उसके मन पर ताजमहल के रूप-रंग, आकार-प्रकार की स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान तथा आगम। किन्तु एक छाप पड़ जाती है, जिसके फलस्वरूप अपने घर आने पर, वादिराजसूरि के द्वारा परोक्ष प्रमाण का जो विभाजन प्रस्तुत किया यद्यपि ताजमहल उसके सामने नहीं होता है, वह अपने पड़ोसियों गया है वह कुछ भिन्न है। उसके अनुसार - अनुमान के दो भेद को उसके विषय में सभी बातें सुनाता है। दो वर्ष, चार वर्ष या होते हैं-मुख्य तथा गौण। गौण अनुमान के तीन प्रकार होते हैं- उससे भी अधिक समय व्यतीत होने पर जब भी वह आगरा की स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क। इसके अलावा उन्होंने यह भी चर्चा सुनता है उसके मानस पर ताजमहल की रूपरेखा चमक माना है कि स्मृति प्रत्यभिज्ञान का कारण है, प्रत्यभिज्ञान तर्क का उठती है। उसे लगता है, जैसे ताजमहल उसके सामने खड़ा है। कारण है और तर्क अनुमान का कारण है। संभवतः इसीलिए यही संस्कारगत या वासनागत ज्ञान है। जिसे स्मृति कहते हैं। सूरिजी ने इन्हें भी अनुमान की कोटि में रखा है। उन्होंने आचार्य आधुनिक मनोविज्ञान में भी इसका विश्लेषण प्राप्त होता है।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रत्यक्ष अनुभव की धारणा, प्रत्यस्मरण उन पर अकलंक का प्रभाव रहा हो, ऐसा संभव है। ऐसा ही तथा प्रत्यभिज्ञा के माध्यम से स्मृति की प्रक्रिया सम्पन्न होती सोचते हुए उनकी प्रमाण-विभाजन-प्रक्रिया के संबंध में पं. है। जैन-दर्शन स्मृति के कारण स्वरूप, संस्कार या वासना पर कैलाशचंद्र शास्त्री ने लिखा है-२ न्यायविनिश्चय के तीन परिच्छेदों अधिक बल देता है जिसका उद्बोध समानता, विरोध, में अकलंक ने क्रम से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण का आवश्यकता आदि विभिन्न कारणों से ही है। ही कथन किया है। अत: वादिराजसूरि ने परोक्ष के अनुमान
राक्ष क अनुमान स्मृति के रूप--भारतीय दर्शन में स्मृति के दो रूप देखे जाते हैंऔर आगम भेद करके शेष तीन परोक्ष प्रमाणों को अनुमान में
१. ग्रन्थरूप-वैदिक साहित्य में श्रुति और स्मृति को गर्भित कर लिया प्रतीत होता है।
प्रमुख स्थान प्राप्त है। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति आदि ऐसे आचार्य माणिक्यनन्दी ने स्मृति को परिभाषित करते हुए
ग्रन्थ है जिनके अध्ययन के बिना वैदिक धर्मदर्शन का ज्ञान कहा है - संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः। संस्कार
अधूरा ही रह जाता है। अतः इनके संबंध में भी यह समस्या के उद्बोधित होने पर प्राप्त होने वाला ज्ञान स्मृति है। भूतकाल
उठती है कि इन्हें प्रमाण की कोटि में रखा जाए अथवा अप्रमाण में व्यक्ति को जो अनुभव प्राप्त होते हैं वे उस पर अपना संस्कार
की कोटि में? चूँकि यह समाज के सामने खुले रूप में है, इसलिए अंकित कर जाते हैं जिसके कारण अनुभव-काल समाप्त हो
इसे यदि स्मृति का सामाजिक रूप कहें तो अनुचित न होगा। did=6andsonsionsanskosdasionardandinidad ४७idroid-indostosdadrindiadrirasad- Sadridrd
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-- यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार२. अनुभवरूप-यह स्मृति का वह रूप है, जिसके संबंध के कारण प्रमाण है तथा स्मृति आप्तोक्त होने के कारण प्रमाण में माणिक्यनन्दी, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने परिभाषाएँ प्रस्तुत की कोटि में आती है। की हैं। यह हमारे अनुभव का विषय है। यह व्यक्ति के अनुभव न्याय तथा भाट मीमांसक--अनभव रूपी स्मति के पर आधारित होता है, इसलिए इसे स्मृति का वैयक्तिक रूप कह संबंध में उनके विचार इस प्रकार हैं-- सकते हैं।
१. स्मृति यदि यथार्थ अनुभव को उपस्थित करती है तो वह जैनेतर मान्यताएँ वैदिक - स्मृति प्रमाण है कि नहीं?
प्रमाण है। इसका समाधान करते समय पहले ग्रन्थ रूप स्मृति सामने आती है। इसके संबंध में डॉ. महेन्द्रकुमार जैन की उक्ति है--वैदिक
२. स्मृति यदि अयथार्थ अनुभव को प्रस्तुत करती है तब वह
अप्रमाण है। परंपरा में स्मृति को स्वतंत्र प्रमाण न मानने का एक ही कारण है। यदि एक जगह भी उसका प्रामाण्य स्वीकार किया जाता है, तो ३. स्मृति यदि यथार्थ अनुभव की अन्यथा उपस्थिति है तो वह वेद की अपौरूषेयता और उसका कर्म विषयक निर्बाध अंतिम प्रमाण नहीं हो सकती। प्रामाण्य समाप्त हो जाता है।
प्राभाकर मीमांसक-इनके अनुसार कोई भी ज्ञान अयथार्थ इस कथन से तो ऐसा लगता है कि स्मृति सर्वथा अप्रमाण नहीं होता। स्मरण आदि ज्ञान भी अयथार्थ नहीं होते। है। किन्तु आगे वे यह भी प्रस्तुत करते हैं कि स्मृतियाँ जहाँ तक
बौद्ध-यह क्षणभंगवाद का प्रतिपादन करता है। इसके श्रुतियों का अनुगमन करती है वहाँ तक प्रमाण है अन्यथा अनुसार कोई भी वस्तु एक क्षण से अधिक नहीं रहती। स्मृति अप्रमाण है। दरअसल स्मृति की प्रमाणता-अप्रमाणता संबंधी भूत की याद दिलाती है। यह बौद्धदर्शन के अनुसार संभव नहीं चार कोटियां बनती हैं जो इस प्रकार है--
है। क्योंकि जिस समय वस्तु का प्रत्यक्षीकरण होता है वह क्षणभर १. स्मृति यदि वेदानुगमन करती है तो वह प्रमाण है।
बाद ही समाप्त हो जाती है और जो कुछ भी हमें ज्ञान होता है,
वह अनुमान के रूप में होता है अथवा अनुमान के माध्यम से २. स्मृति में यदि कोई सिद्धान्त प्रतिपादित है किन्तु वेद में वह
होता है। अतः स्मृति अलग प्रमाण नहीं बन सकती। नहीं है तो भी वह प्रमाण की कोटि में आ सकती है।
स्मृति के संबंध में यह समस्या आती है कि यह अनुभूत ३. स्मृति में प्रतिपादित सिद्धान्त वेद में है अथवा नहीं, किन्तु
ज्ञान को प्रस्तुत करती है अथवा ज्ञानमात्र इसका विषय है। यदि उससे वेद का किसी प्रकार से विरोध नहीं हो रहा है तो उसे
यह अनुभूत विषय को प्रस्तुत करती है तो ऐसा देखा जाता है प्रमाण कहेंगे।
कि एक ही वस्तु या विषय की अनुभूति दो व्यक्तियों को होती ४. वेद में जो कुछ कहा गया है उसका विरोध यदि स्मृति के है। ऐसी स्थिति में एक ही विषय किसकी स्मति के रूप में
द्वारा हो रहा है तो ऐसी स्थिति में स्मृति प्रमाण नहीं मानी प्रस्तत होगा। यदि स्मति ज्ञान मात्र को ग्रहण करती है तब स्मति जाएगी।
के सिवा अन्य कोई प्रमाण हो ही नहीं सकता। स्मृति ग्रन्थ रूप में प्रमाण है उसकी जानकारी इस मान्यता
जैनमत-स्मृति प्रमाण है। इस बात को मात्र जैन दर्शन ही के आधार पर भी होती है--
मानता है। इसके लिए जैनशास्त्र में अनेक विवेचन मिलते हैं। वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। समकालीन जैन-विद्वान पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री ने स्मृति को यतत् चतुर्विधम् प्राहुः साक्षात् धर्मस्य लक्षणम्।।
प्रमाण सिद्ध करने के लिए इस पर संभावित सभी आरोपों को अर्थात्, वेद, स्मृति, सदाचार तथा आत्मा को जो प्रिय सामन रखा ह आर उनका खडन किया है। स्मृति प्रमाण नहीं है, लगे, ये चार धर्म के साक्षात लक्षण हैं।यहाँ पर स्मति को वेद के क्योंकि इसमें निम्नलिखित दोषों की संभावनाएँ हैं-- समान ही मान्यता दी गई है। इसके अलावा वेद ईश्वरोक्त होने (१) गृहीतग्राही ज्ञान का निरूपण-यह कोई नया ज्ञान नहीं
aniraniranirantarbadnaanird6d6dmiranirdsrid-id[४८Hamriduridwaraniramidniardwardwordwordwordabrand
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ देती है । भूतकाल में जो ज्ञान प्राप्त हो चुके हैं उन्हीं को प्रस्तुत करती है। इसलिए इसे प्रमाण की कोटि में नहीं रखा जा सकता। (२) विशेष विषय का अभाव- इसमें कोई विशेष विषय नहीं होता, ऐसा भी दोषारोपण इस पर हुआ है।
(३) अतीत की वस्तु को विषय बनाना - अतीत की वस्तु जिसे वर्तमान में असत् माना जाता है, स्मृति ग्रहण करती है। जिसकी सत्ता नहीं है उसे ग्रहण कैसे किया जा सकता है ? (४) अर्थ से उत्पन्न नहीं होना - जिस समय स्मृति होती है, उस समय कोई उत्पादक वस्तु नहीं होती। यह भी एक दोष इसके बताया किया गया है।
(५) स्मृति भ्रान्तिपूर्ण है- क्योंकि इससे कोई निश्चित ज्ञान नहीं होता है।
(६) संशयदोष के खण्डन की असमर्थता - यह किसी संशय को मिटाने में समर्थन नहीं होती है।
(७) प्रयोजनहीनता- इससे किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है, ऐसा भी वे लोग मानते हैं जो इसे अप्रमाण की कोटि में रखते हैं। स्मृति प्रमाण है
९. गृहीत - ग्राही होना अप्रमाणता का लक्षण नहीं माना जा सकता। यदि गृहीत-ग्राही ज्ञान की अप्रमाणता का लक्षण माना जाएगा तब तो अनुमान भी अप्रमाण की कोटि में आ जाएगा। क्योंकि अनुमान भी पूर्व ज्ञान पर ही आधारित होता है । पूर्व ज्ञान के आधार पर ही धूम और अग्नि का संबंध माना जाता जिसके कारण हम धूम को देखकर अग्नि का अनुमान करते हैं।
२. स्मृति का कोई विषय नहीं होता, ऐसा कहना भी कोई अर्थ नहीं रखता। क्योंकि पूर्व अनुभूत वस्तु ही स्मृति का विषय बनती है।
३. अतीत की वस्तु जिसे स्मृति अपना विषय बनाती है, भले ही वर्तमानकाल में नहीं रहती, लेकिन भूतकाल में तो रहती है, अन्यथा उसका अनुभव कैसे होता । यदि भूतकाल की वस्तुको प्रमाण का कारण अथवा आधार नहीं माना जाएगा त तो प्रत्यक्ष प्रमाण भी प्रमाण की कोटि में नहीं आ सकता । क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण जिस वस्तु को बताता है वह एक क्षण के
जैन-साधना एवं आचार
बाद ही समाप्त हो गई रहती है। जैसा कि बौद्धदर्शन मानता है ।
४. स्मृति पर यह दोषारोपण करके कि यह किसी अर्थ से उत्पन्न नहीं होती, इसे अप्रमाण की कोटि में रखना भी गलत है। क्योंकि बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष ज्ञान का अर्थ भी तो क्षणभर में समाप्त हो जाता है। वर्तमान काल में वह नहीं देखा जाता। स्मृति को भी अप्रमाण तो नहीं कहा जा सकता है. यदि प्रत्यक्ष को प्रमाण माना जाता है तो ।
५. स्मृति का जो अपना विषय है उसमें किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं है। यदि किसी को स्मृति में कोई भ्रान्ति दिखाई पड़ती है तो वह उसे स्मृति का आभास कह सकता है। उस भ्रान्ति के आधार पर वह स्मृति को प्रमाण की कोटि से निकाल नहीं सकता ।
६. स्मृति संशय को दूर नहीं करती, यह भी गलत आरोप है। स्मृति यदि बलवती है तो वहाँ पर संशय अथवा विपरीत आरोप का प्रश्न ही नहीं आता ।
७. स्मृति से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती, ऐसा कहना तो मात्र दलील है। इसमें कोई बल नहीं है, क्योंकि स्मृति के आधार पर ही हमारे नाना प्रकार के व्यवहार होते हैं।
स्मृति पर जो विभिन्न आरोप हैं उनमें प्रधान है वर्तमान में उसके आधार का अभाव। वर्तमान में उसका कोई आधार नहीं है, इसलिए वह प्रमाण नहीं है । किन्तु इसके विरोध में जैनाचार्यो ने स्पष्ट रूप से माना है कि ज्ञान का प्रामाण्य उसकी वर्तमानता पर नहीं बल्कि यथार्थता पर निर्भर करता है। वस्तु भूत, वर्तमान या भविष्य किसी भी काल की क्यों न हो यदि ज्ञान उसे यथार्थ रूप में ग्रहण करता है तो वह प्रमाण है ' । स्मृति को अप्रमाण मानने वालों ने दूसरे ढंग से प्रस्तुत किया है कि स्मृति उस वस्तु को अपना स्रोत मानती है जो नष्ट हो चुकी है, जैसा कि ऊपर देखा गया है। इस संबंध में डा. मेहता ने लिखा है ।
'जैन दर्शन पदार्थ को ज्ञानोत्पत्ति का अनिवार्य कारण नहीं मानता...। ज्ञान अपने कारणों से उत्पन्न होता है। पदार्थ अपने कारणों से उत्पन्न होता है। ज्ञान में ऐसी शक्ति है कि वह पदार्थ को अपना विषय बना सकता है। पदार्थ का ऐसा स्वभाव है कि वह ज्ञान का विषय बन सकता है। पदार्थ और ज्ञान में कारण और कार्य का संबंध नहीं है। उनमें ज्ञेय और ज्ञाता, प्रकाश्य और प्रकाशक व्यवस्थाप्य और व्यवस्थापक का संबंध है। इन
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-यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - सब तथ्यों को देखते हुए स्मृति को प्रमाण मानना युक्ति संगत की सादृश्यता का वर्णन भूतकाल से स्मृति के रूप में आता है।
इस संकलन में सादृश्यता आधार है। इस तरह जैन-विचारकों ने सब तरह से स्मृति को प्रमाण (३) वैसादृश्य-घोड़े से हाथी विलक्षण होता है। ऐसा माना है। भले ही इसे प्रत्यक्ष प्रमाण की कोटि में न रखकर जानने के बाद कोई व्यक्ति जब पशुशाला में जाता है और घोड़े परोक्ष प्रमाण की ही कोटि में क्यों न रखा जाए।
के अतिरिक्त वह कुछ ऐसे पशुओं को भी देखता है जो घोड़े से
विलक्षण मालूम पड़ते हैं तो वह तुरंत समझ जाता है कि प्रत्यभिज्ञान
विलक्षण दिखाई देने वाला हाथी ही है। इस संकलन-ज्ञान में ___संकलन-ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। इसमें प्रत्यक्ष वैसादृश्यता आधार है। और अतीत से प्राप्त ज्ञानों का संकलन होता है। इसे परिभाषित
(४) प्रतियोगी-अभी किसी ने वाराणसी से इलाहाबाद कहते हुए माणिक्यनन्दी ने कहा है--
की दूरी पार की है। बहुत पहले वह वाराणसी से कलकत्ता गया "दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानम्" 3/5
था, जिसकी दूरी अधिक है और इस समय याद आ रही है। अर्थात् दर्शन और स्मरण के कारण जो ज्ञान संकलित।
अतः वह कहता है वह इससे दूर है अर्थात् कलकत्ता से वाराणसी रूप में प्राप्त होता है वही प्रत्यभिज्ञान है। यहाँ दर्शन से मतलब की दूरी वाराणसी से इलाहाबाद की दूरी से अधिक है। यह है प्रत्यक्ष बोध। इस संकलन-ज्ञान के मुख्यतः चार प्रकार होते. उससे छोटा है अथवा यह उससे बड़ा है-ऐसा भी. हम कहते हैं।
इन सभी में प्रतियोगिता को आधार माना गया है। 'तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि-'3/5
मुनि नथमलजी ने लिखा है।४-- 'प्रत्यभिज्ञान में दो अर्थों
का संकलन होता है और उसके तीन रूप होते हैं--(१) प्रत्यक्ष अर्थात्, एकत्व, सादृश्य, वैसादृश्य, प्रतियोगी आदि
तथा भूतकालीन ज्ञान की स्मृति (२) दो प्रत्यक्ष बोधों का प्रत्यभिज्ञान के प्रकार के रूप में जाने जाते हैं। प्रमाण-मीमांसा
संकलन तथा (३) दो स्मृतियों का संकलन। ये रूप इस प्रकार में भी कहा गया है १३-- दर्शनस्मरणसंभवतदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्वादिसंकलनं प्रत्यभिज्ञानम्'
__ अर्थात्, आचार्य हेमचन्द्र ने माणिक्यनन्दी के प्रत्यभिज्ञान १. प्रत्यक्ष-स्मृति-संकलन-- संबंधी विचार को अक्षरशः मान लिया है।
(क) यह वही व्यक्ति है। प्रत्यभिज्ञान के प्रकार--
(ख) यह उसके समान है।
(ग) यह उससे विलक्षण है, अर्थात् उसके समान नहीं है। (१) एकत्व-यह वही लड़का है, जिसे कालेज में देखा था। यह वर्तमान में प्राप्त होने वाले प्रत्यक्ष ज्ञान को इंगित
(घ) यह उससे छोटा अथवा मोटा है। करता है तथा वही अतीत काल में ग्रहण होने वाले ज्ञान की २. प्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष संकलन-- याद दिलाता है। इस प्रकार इसमें वर्तमान ज्ञान तथा भूतज्ञान का
(क) यह कलम इस कलम के समान है। एकत्व देखा जाता है।
(ख) यह जानवर इस जानवर से विलक्षण है। (२) सादृश्य-गाय की तरह ही नीलगाय होती है। इस जानकारी के बाद जब कोई व्यक्ति जंगल में जाता है और वहाँ (ग) यह लड़का इस लड़के से छोटा है। एक ऐसे पशु को देखता है जो गाय की तरह है तो वह समझ ३. स्मृति-स्मृति संकलन-- जाता है कि यह नीलगाय है। यहाँ पर देखा जाने वाला पशु
(क) वह कपड़ा उस कपडे जैसा है। प्रत्यक्ष अर्थात वर्तमान का ज्ञान देता है और गाय और नीलगाय Anitarianitariandedministraridabrdamiridi[५ ०6dmiriramidionorariandiridnironidadidnianitoria
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ- जैन-साधना एवं आचार
(ख) वह जानवर उस जानवर से विलक्षण है। (ग) वह व्यक्ति उस व्यक्ति से छोटा है।
इन रूपों में प्रथम जिसमें प्रत्यक्ष और स्मृति के संकलन हैं पूर्व मान्यता का समर्थन करता है, किन्तु अन्य दो रूप जिनमें क्रमशः प्रत्यक्ष के साथ प्रत्यक्ष के तथा स्मृति के साथ स्मृति के संकलन हैं, पूर्व मान्यता से भिन्न प्रतीत होते हैं। ऐसा लगता है कि इन दोनों रूपों में संकलित होने वाले दो ज्ञानों के बीच मात्र पूर्व और पर को ही विचार के अंतर्गत रखा गया है।
जैनेतर मान्यताएँ
जैनदर्शन के अतिरिक्त बौद्ध, न्याय, मीमांसा आदि दर्शनों में भी प्रत्यभिज्ञान पर किसी न किसी रूप में विचार किया गया है, जो इस प्रकार है
बौद्ध दर्शन - इस दर्शन में क्षणभंगवाद की जो मान्यता है उससे हम लोग परिचित हैं। जब प्रत्येक वस्तु हर क्षण बदलती रहती है तो यह वही है इसे कैसे ग्रहण किया जा सकता है। इसके अलावा यह और वह दो ज्ञानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह वर्तमान के प्रत्यक्ष ज्ञान को बताता है तथा वह भूतकालीन ज्ञान को इंगित करता है। ये दोनों ज्ञान के अलग-अलग प्रकार हैं। फिर दोनों को संकलित करके एक नाम के अंतर्गत कैसे लाया जा सकता है ?
न्याय तथा मीमांसा-ये दोनों ही दर्शन प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण के अंतर्गत स्थान देते हैं। यह वही है। इसमें यह वर्तमान को बताता है तथा वह भूत को प्रस्तुत करता है । किन्तु दोनों के बीच जो एकत्व है वह स्मरण के संयोग से जाना जाता है। उस एकत्व का बोध भी तो इंद्रिय से ही होता है। अतः यह प्रत्यक्ष बोध है। यद्यपि जयंत भट्ट ने यह माना है कि स्मरण और प्रत्यक्ष के बीच जो एकत्व का संकलन करता है वह एक स्वतंत्र मानस ज्ञान है, किन्तु उन्होंने भी इसे अलग से प्रमाण नहीं माना है । १५
उसी को सजा दी जाती है, जो बंधन में था वही साधना करके मुक्त होता है। इन सब व्यवहारों में भूत और वर्तमान का एकत्व ज्ञान होता है। ये व्यवहार प्रत्यभिज्ञान के समर्थक माने जा सकते हैं।
न्याय और मीमांसा ने प्रत्यभिज्ञान में संकलित भूत और वर्तमान के एकत्व को इंद्रियजन्य मानकर उसे मात्र प्रत्यक्ष का विषय माना है १६ । इंद्रियाँ केवल अपने विषय को ग्रहण करती हैं। इंद्रियों का विषय अलग-अलग होता है। किसी के सहयोग से कोई भी इंद्रिय किसी अविषय को ग्रहण नहीं कर सकती है। स्मरण की सहायता से नेत्र गन्ध को ग्रहण नहीं कर सकता, त्वचा से रस का बोध नहीं हो सकता। अतः न्याय तथा मीमांसा का यह मानना कि प्रत्यभिज्ञान मात्र प्रत्यक्ष है गलत है। जयंत भट्ट ने तो इसे एक स्वतंत्र मानस ज्ञान माना ही है । ९७
इतना ही नहीं बल्कि न्याय और मीमांसा दोनों ने ही उपमान को एक स्वतंत्र प्रमाण माना है" । गाय की तरह नीलगाय होती है ऐसी जानकारी के बाद कोई व्यक्ति जंगल में जाता है और ऐसा कोई जानवर वह देखता है जो गाय की तरह ही है तो वह समझ जाता है यह नीलगाय है। जैनमत में यह सादृश्यप्रत्यभिज्ञान है। यदि न्याय तथा मीमांसा दर्शन सादृश्य- प्रत्यभिज्ञान को स्वतंत्र प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित कर सकतें हैं तो उनका प्रत्यभिज्ञान के अन्य प्रकारों के प्रति भी कोई विरोध नहीं होना चाहिए | किन्तु प्रत्यभिज्ञान ज्ञान के सभी प्रकारों को अलगअलग नामों से निरूपित करने के बजाय अच्छा है कि सबको एक नाम के अंतर्गत मान्यता दी जाए और प्रत्यभिज्ञान को एक स्वतंत्र प्रमाण मान लिया जाए।
तर्क
जैनमत- जैन-दर्शन उन विचारों का खण्डन करता है जो प्रत्यभिज्ञान के विरोध में दिए गए हैं। बौद्ध दर्शन ने क्षणभंगवाद को मानने के कारण प्रत्यभिज्ञान का खंण्डन किया है। किन्तु इसके लिए जैन-चिंतकों का कथन है कि मात्र क्षणभंगवाद को मानकर चलने से कोई भी व्यवहार संभव नहीं है। जिसने कर्ज लिया था, उसी से कर्ज वसूली होती है। जिसने गलती की थी,
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तर्क (तर्क + अच्) शब्द के लिए प्रायः युक्ति, वादविवाद, संदेह, आकांक्षा, कारण आदि शब्द प्रयोगदेखे जाते हैं। अभिधानराजेन्द्र कोष में तर्क, तर्कना, विचार, विमर्श, पर्यावलोचना आदि शब्दों को पर्यायवाची बताया गया है। हलायुधकोष में तर्क, आकांक्षा, हेतु, ज्ञान आदि शब्दों को समानार्थक समझा गया है। उपनिषद्, मनुस्मृति, महाभारत, आचारांग आदि प्राचीन ग्रंथों में तर्क शब्द के प्रयोग मिलते हैं। कठोपनिषद् - " -- नैषा तर्केण मतिपनेया ति। ।.... द्वितीयावल्ली। ' मनुस्मृति 22 -- आर्षधर्मोपदेशं च वेदशास्त्र विरोधिना ।
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - यस्तर्केणनुसन्धते स धर्मं वेद नेतरम्॥12/106
मीमांसा-इस दर्शन में तर्क के लिए ऊह शब्द का प्रयोग जो मनुष्य ऋषिदृष्ट वेद तथा तन्मलक स्मतिशास्त्रों को हुआ है।" ऊह के तीन प्रकार होते हैं--(१) मंत्र-संबंधी. (२)
साम-संबंधी तथा (३) संस्कारसंबंधी। न्यायदर्शन की तरह वेदानुकूल तर्क से विचारता है, वह धर्मज्ञ है, दूसरा नहीं।
मीमांसादर्शन भी मानता है कि ऊहकी गणना प्रमाणों में नहीं हो महाभारत३- शुष्कतर्क परित्यज्य आश्रयस्व श्रुति सकती, यद्यपि यह प्रमाणों का सहायक है। तर्क के विषय में -स्मृति म्--
जयन्त भट्ट ने कहा है कि दो विरोधी पक्षों में से एक को शिथिल -शुष्क तर्क को त्यागकर श्रुति एवं स्मृति का अनुगमन करके दूसरे को अनुकूल कारण के आधार पर सुदृढ़ बनाना ही करना चाहिए।
तर्क का काम है २९। जैन-ग्रन्थ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में भी ऊह
शब्द का प्रयोग हुआ है। उसमें कहा गया है२०- ईहा ऊहः तर्कः आचारांग -- तक्का जत्थ व विज्जई।
परीक्षा विचारणा जिज्ञासा इत्यनर्थान्तरम्। १/१५ कठोपनिषद् की उक्ति से ऐसा लगता है कि तर्कवाद
अर्थात्-ईहा, ऊह, तर्क, परीक्षा, विचारणा तथा जिज्ञासा विवाद है जिसके आधार पर किसी मत का खंडन हो सकता है,
ह, में कोई भी अंतर नहीं है। उसे त्यागा जा सकता है। स्मृति में उस तर्क को मान्यता दी गई है जो वेदानुकूल हो। महाभारत में जो कुछ भी कहा गया है उससे
पाश्चात्य दर्शन-पाश्चात्य दर्शन में तर्क के लिए लॉजिक यह जात होता है कि जो विचार या तर्क व्यक्ति को अति और (Logic) शब्द आया है। तर्क को शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित करने स्मृति से अलग रखता है वह शुष्क है और त्याज्य है।
का श्रेय ग्रीक दार्शनिक अरस्तू को प्राप्त है। तर्क को बुद्धि का
विज्ञान (Science of Reasoning) अथवा चिंतन की विधियों बौद्ध दर्शन - इसके अनुसार तर्क प्रमाण की कोटि में ।
का विज्ञान (Science of the Lows of Thought) कहते हैं । नहीं आता, क्योंकि वह प्रत्यक्षपृष्ठभावी है। यद्यपि वह व्याप्तिग्राहक
अरस्तु के अनुसार तर्क का प्रमुख सिद्धान्त है - निगमन (Deहोता है, किन्तु प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण किए हुए ज्ञान को ग्रहण करता
ductive) है। इसलिए प्रमाण नहीं माना जा सकता।२५
जैनदर्शन-तर्क को परिभाषित करते हुए आचार्य न्याय - न्याय-दर्शन ने अपनी तत्त्वमीमांसा में सोलह
माणिक्यनन्दी तथा आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है३२ - पदार्थों को मान्यता दी है। उनमें से आठवाँ पदार्थ तर्क है। इसके
उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानसमूहः। उपलम्भ तथा विषय में कहा गया है--तर्क उस उक्ति को कहते हैं जिसमें
अनुपलम्भ के निमित्त से जो व्याप्तिज्ञान प्राप्त होता है, उसे किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्धि के लिए उसकी विपरीत कल्पना
तर्क कहते हैं। उसकी दूसरी संज्ञा ऊह भी है। के दोष दिखलाए जाते हैं। यह एक प्रकार का ऊह (कल्पना) है। इसलिए यह प्रमाणों के अंदर नहीं आता। लेकिन यथार्थ
(१) उपलम्भ-लिंग के सद्भाव से साध्य का सद्भाव। ज्ञान की प्राप्ति में यह बडा सहायक होता है २६ । न्यायभाष्य में धूम लिग है तथा अग्नि साध्य। धूम के होने से अग्नि का होना स्पष्ट लिखा है--
जाना जाता है। अर्थात् धूम देखने से अग्नि का ज्ञान होता है। 'तर्को न प्रमाणसंगृहीतो न प्रमाणान्तरं प्रभाणानामनुग्राहकस्तत्वज्ञानाय कल्पते' 27-1/1/9 (२) अनुपलम्भ-साध्य के असद्भाव से लिंग का
असद्भाव। अग्नि के न रहने पर धूम का न रहना। अर्थात्, तर्क प्रमाण में संग्रहीत नहीं है और न तो इसे प्रमाणान्तर ही मान सकते हैं, बल्कि यह प्रमाणों का अनुग्राहक
अविनाभावः-दो वस्तुओं के बीच जो अविनाभाव संबंध है और तत्त्वज्ञान के लिए उपयोगी है। तर्क प्रमाणों का अनग्राहक होता है, उसे तर्क ग्रहण करता है। अविनाभाव पर प्रकाश डालते इसलिए माना जाता है कि इससे ही अनुमान आदि प्रमाणों की हुए आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है - भूमिका तैयार होती है।
सहक्रमभाविनो सहक्रभावनियमोऽविनाभाव:ऊहात्
तन्निश्चयः -२/१०-११- अर्थात् दो वस्तुओं में जो.सहभाव और redadarsansarodaisarowaridroidrodarod ५ २drinidinsioritorioritoriridroidsraordinarooran
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार क्रमभाव होते हैं उन्हें ही अविनाभाव कहते हैं। सहभाव उसे व्याप्ति और प्रत्यक्ष - व्याप्ति संबंध को प्रत्यक्ष से ग्रहण कह. हैं जब दो वस्तुएँ हमेशा एक साथ देखी जाती हैं और क्रमभाव उसे कहते हैं जब दो घटनाएँ हमेशा ही क्रम में देखी करता है। इसका संबंध वर्तमान से होता है। किन्तु व्याप्ति सार्वकालिक जाती हैं अर्थात् एक के होने पर दूसरी उसके बाद अवश्य घटती होती है। इसलिए व्याप्ति का प्रत्यक्षीकरण नहीं हो सकता। है। सहभाव के दो प्रकार होते हैं--(१) सहकारी संबंध-जैसे .
व्याप्ति और अनुमान-अनुमान से भी व्याप्ति का बोध
ती रूप रस का एक साथ पाया जाना। (२) व्यापत और व्यापक नहीं हो सकता. क्योंकि अनमान तो स्वयं तर्क पर आधारित संबंध जैसे छात्रत्व और मनुष्यत्व।
होता है। तर्क द्वारा प्रतिष्ठित व्याप्ति-संबंध ही अनुमान की क्रमभाव के भी दो प्रकार होते हैं--(१) पूर्ववर्ती और आधारशिला है। परवर्ती के बीच का क्रमभाव जैसे- रविवार के बाद सोमवार
अतः तर्क को प्रत्यक्ष और अनुमान के अंतर्गत समाहित का आना। (२) कार्य-कारण संबंध जैसे धूम और अग्नि का नहीं किया जा सकता. यह एक स्वतंत्र प्रमाण है. ऐसा जैन संबंध।
चिंतक मानते हैं। जैन विचारकों के मत में तर्क का कौन सा व्याप्ति-व्याप्तिज्ञान को जैनदर्शन में तर्क कहा गया है स्वरूप है और कितना इसका महत्त्व है, उसे हम संक्षिप्त में डा. ३४। अत: यह समस्या उठती है कि व्याप्ति क्या है। व्याप्य और सागरमल जैन के शब्दों में समझ सकते हैं व्यापक के बीच पाया जाने वाला संबंध व्याप्ति के नाम से "वस्तुत: तर्क को अन्तर्बोधात्मक ज्ञान अर्थात् प्रातिभज्ञान जाना जाता है। इसके संबंध में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है ५-- कहना इसलिए आवश्यक है कि उसकी प्रकति इंद्रियानभावात्मक व्याप्तिापकस्य व्याप्ये सतिभाव एव, व्याप्यस्य वा तत्रैव भावः।
ज्ञान अर्थात् लौकिक प्रत्यक्ष (Empirical Knowledge or व्याप्य के रहने पर व्यापक का रहना तथा व्यापक के Pereception) से और बौद्धिक निगमनात्मक (Deductive inरहने पर ही व्याप्य का रहना ही व्याप्ति-संबंध है। धूम और ference) दोनों से भिन्न है। तर्क अतीन्द्रिय (Non-Empirical) अग्नि में व्याप्य और व्यापक का संबंध है। अतः जब धूम रहता और अति बौद्धिक (Super Rational) है क्योंकि वह अतीन्द्रिय है तो अग्नि रहती है और जब अग्नि रहती है तो धूम रहता है। एवं अमूर्त संबंधों (Non-empirical Relations) को अपने ज्ञान धूम के बिना अग्नि के नहीं हो सकता यद्यपि कभी-कभी अग्नि का विषय बनाता है। उसके विषय हैं--जाति-उपजाति संबंध, होती है पर धूम नहीं होता। किन्तु धूम होने का मतलब ही होता जाति-व्यक्ति संबंध, सामान्य-विशेष संबंध, कार्य-कारण संबंध है कि अग्नि है।
आदि। वह आपादान (Implication), अनुवर्तिता (Entailment), इस प्रकार उपलम्भ, अनुपलम्भ, अविनाभाव तथा व्याप्ति वग सदस्यता (Class-Membership), कार्य-कारणता (Cauसंबंध एक ही है, यद्यपि समझने, समझाने में इन्हें विभिन्न नामों sality) और सामान्यता (Universality) का ज्ञान है।" से प्रस्तुत किया जाता है। ये ही तर्क अथवा तर्क के विषय हैं। जैन दर्शन में तर्क तथा व्याप्ति की एक और विशेषता यह यह व्याप्ति सार्वकालिक तथा सार्वलौकिक होती है। धूम और बताई गई है-"व्याप्ति ग्रहण करने वाले योगीव प्रमाता।" अग्नि के संबंध को यद्यपि कोई व्यक्तिविशेष किसी समय
अर्थात् जिस समय प्रमाता व्याप्ति का बोध करता है, वह अथवा स्थान विशेष पर देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करता है, ,
___ योगी के समान हो जाता है, क्योंकि सार्वकालिक और किन्तु यह संबंध तब से है जबसे धूम और अग्नि हैं और जहाँ
सार्वलौकिक वस्तु को योगी के सिवा अन्य कोई ग्रहण नहीं कर कहीं भी धूम तथा अग्नि होगी वहाँ यह संबंध देखा जाएगा।
सकता। अतः व्याप्ति-ग्रहण की अवस्था योगावस्था है। अत: यह सभी समय और सभी स्थान के लिए है। इसे किसी समय विशेष तथा स्थान विशेष के अंतर्गत सीमित नहीं कर
समीक्षा-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तथा तर्क-संबंधी विभिन्न
विचार-विमर्शों को देखने के बाद जैन-दर्शन के संबंध में जो सकते।
सामान्य धारणा बनती है, वह इस प्रकार है--अन्य दर्शन स्मृति
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५ ३Hariridriodmonitorioniridwardwardwardwordsrandi
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - को प्रमाण की कोटि में नहीं रखते हैं। किन्तु जैन-दर्शन इसे ८. जैनधर्मदर्शन- डा. मोहनलाल मेहता, पृ. ३१९ प्रमाण मानता है। अपने मत की पष्टि के लिए जैन-दर्शन जो ९. वही कुछ कहता है उसमें व्यावहारिकता भी एक है। व्यवहार में १०. जैनधर्मदर्शन, पृष्ठ ३२० स्मृति को अच्छा स्थान प्राप्त है। स्मृति के बिना व्यवहार नहीं
११. परीक्षामुख- माणिक्यनन्दी, ३/५ चल सकता और जो सिद्धान्त व्यवहार को छोड़कर चलेगा, वह
१२. वही- ३/५
१३. प्रमाणमीमांसा-आचार्य हेमचन्द्रसूत्र, १/२/४ निश्चित ही कमजोर होगा। अतः स्मृति की प्रामाणिकता की
१४. जैनदर्शन : मनन और मीमांसा-मुनि नथमल, पृष्ट ५८० सिद्धि के लिए व्यवहार को आधार मानना उचित जान पड़ता है।
न्यायावतार, तात्पर्यटीका, पृष्ठ १३९ . प्रत्यभिज्ञान भी एक स्वतंत्र प्रमाण है। इसकी आंशिक पुष्टि तो १६. न्यायमञ्जरी पप ४ER न्याय, मीमांसा आदि करते ही हैं। जब वे उपमान को प्रमाण
१७. जैनदर्शन--महेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ २२८ मान लेते हैं। विवेचन के आधार पर यह ज्ञात होता है कि १८. प्रसिद्धार्थसाधार्थ साध्यसाधनमुपमानम्प्रत्यभिज्ञान का ही सादृश्य लक्षण उपमान के नाम से जैनेतर -न्यायसूत्र १/१/६। दर्शनों में प्रतिष्ठित है। अतः प्रयभिज्ञान को पूर्णरूपेण प्रमाण १९. अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग-४, पृ. २१६९ मानना गलत नहीं कहा जा सकता। तर्क के विषय में जैन एवं २०. हलायुधकोश-जयशंकर जोशी, पृ. ३२२ जैनेतर सभी दर्शन अधिक जागरुक मालम पड़ते हैं। जैनमत में २१. कठोपनिषद्-द्वितीयावल्ली-९ व्याप्तिज्ञान ही तर्क है। व्याप्तिज्ञान की प्राप्ति के समय ज्ञानी
२२. मनुस्मृति-१२/१०६ योगी की तरह हो जाता है। ऐसा कहकर, जैन विचारकों ने तर्क
२३. महाभारत ३/१९९/१०८
२४. आचारांगसूत्र-- को ज्ञान और प्रमाण के सामान्य धरातल से ऊपर उठा दिया है।
२५. जैनदर्शन-महेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ २३२ प्रमाण की आवश्यकता साधारण व्यक्तियों के लिए होती है।।
२६. भारतीय दर्शन-चट्टोपाध्याय एवं दत्त, पृष्ठ १७५ योगज ज्ञान और योगियों के लिए नहीं। यदि इस रूप में ही तक २७. न्यायदर्शन (भाष्य) - १/१/९ को प्रमाण मानना है तब तो वह न्याय-दर्शन का योगज प्रत्यक्ष २८. मीमांसा दर्शन-शाबभाष्य- ९/१/१ है ही। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि जैन-विचारकों ने तर्क या २९. न्यायमञ्चरी, पृष्ठ ५८६ व्याप्ति-ज्ञान को योगज स्तर पर लाकर इसके साथ न्याय नहीं ३०. तत्वार्थाधिगमभाष्य-१/१५ किया है।
३१. Elementary Lessoons in Logic - W.S. Jevons, Page-1 संदर्भ सूची
३२. परीक्षामुख- ३/११ तथा प्रमाणमीमांसा- १/२/५ प्रमाणनिर्णय, पृष्ठ ३३१
३३. प्रमाणमीमांसा--आचार्य हेमचन्द्र- २/१०-११ जैनन्याय- पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ. १९३
३४. जैनधर्मदर्शन- डा. मोहनलाल मेहता, पृ. ३२३ ३. परीक्षामुख- ३/३
३५. प्रमाणमीमांसा- १/२/६ प्रमाणमीमांसा-आचार्य हेमचन्द्र-१/२/३
३६. (अ) जैनदर्शन में तर्कप्रमाण का आधुनिक सन्दर्भो में
मूल्यांकन- डा. सागरमल जैन, दार्शनिक त्रैमासिक, ५. आधुनिक मनोविज्ञान, लालजी राम शुक्ल ६. जैन-दर्शन- डॉ. महेन्द्रकुमार जैन, पृष्ठ २२४
वर्ष २४, अक्टूबर १९७८, अंक-४, पृ. १९३-१९४, जैनन्याय- पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ १९४-१९६
A modern Introduction of Indian logic-SS Barlinga Page-123-125
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जैन-धर्म का त्रिविध साधनामार्ग
जैन-दर्शन में मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधनामार्ग बताया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को मोक्षमार्ग कहा गया । उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप ऐसे चतुर्विध मोक्षमार्ग का भी विधान है, किन्तु जैन आचार्यों ने तप का अंतर्भाव चारित्र में करके इस त्रिविध साधनामार्ग को ही मान्य किया है।
त्रिविध साधनामार्ग ही क्यों?
संभवतः यह प्रश्न हो सकता है कि त्रिविध साधनामार्ग काही विधान क्यों किया गया है? वस्तुतः त्रिविध साधनामार्ग के विधान में जैन आचार्यों की एक गहन मनोवैज्ञानिक सूझ रही है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पहलू माने गए हैं-- १. ज्ञान, २. भाव और ३. संकल्प । चेतना के इन तीनों पक्षों के विकास के लिए त्रिविध साधनामार्ग के विधान का प्रावधान किया गया है। चेतना के भावात्मक पक्ष को सही दिशा में नियोजित करने के लिए सम्यक् दर्शन, ज्ञानात्मक पक्ष के सही दिशा में नियोजन के लिए ज्ञान और संकल्पात्मक पक्ष के सही दिशा में नियोजन के लिए सम्यक् चारित्र का प्रावधान किया गया है।
अन्य दर्शनों में त्रिविध साधनामार्ग
जैन-दर्शन के समान ही बौद्ध दर्शन में भी त्रिविध साधनामार्ग का विधान है। बौद्ध दर्शन का अष्टांग मार्ग भी त्रिविध साधनामार्ग ही अंतर्भूत है। बौद्ध दर्शन के इस त्रिविध साधनामार्ग के तीन अंग हैं- १ शील, २. समाधि और ३. प्रज्ञा । वस्तुतः बौद्ध-दर्शन
का यह त्रिविध साधनामार्ग जैन-दर्शन के त्रिविध साधनामार्ग का समानार्थक ही है । तुलनात्मक दृष्टि से शील को सम्यक् चरित्र से, समाधि को सम्यक् दर्शन से और प्रज्ञा को सम्यक् ज्ञान से तुलनीय माना जाता है। सम्यक् दर्शन समाधि से इसलिए तुलनीय है कि दोनों में चित्त विकल्प नहीं होते हैं।
गीता में भी ज्ञान, कर्म और भक्ति के रूप में त्रिविध साधनामार्ग का उल्लेख है। हिन्दू धर्म में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग भी त्रिविध साधनामार्ग का ही एक रूप है। हिन्दू परंपरा में परम सत्ता के तीन पक्ष, सत्य, सुंदर और शिव माने गए हैं। इन तीनों पक्षों की उपलब्धि के लिए ही उन्होंने भी त्रिविध साधनामार्ग का विधान किया है। सत्य की उपलब्धि के लिए ज्ञान, सुंदर की उपलब्धि के लिए भाव या श्रद्धा और शिव की उपलब्धि के लिए सेवा या कर्म माने गए हैं। गीता में प्रसंगान्तर से त्रिविध साधनामार्ग के रूप में प्रणिपात, परिप्रश्र और सेवा का भी उल्लेख है। इनमें प्रणिपात श्रद्धा का परिप्रश्न ज्ञान का और सेवा कर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं। उपनिषदों में श्रवण, मनन और निदिध्यासन के रूप में भी त्रिविध साधनामार्ग का प्रस्तुतीकरण हुआ है। यदि हम गहराई से देखें तो इनमें श्रवण श्रद्धा के, मनन ज्ञान और निदिध्यासन कर्म के अंतर्भूत हो सकते हैं।
पाश्चात्य परंपरा में भी तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैं -- १. स्वयं को जानो ( Know Thyself), २. स्वयं को स्वीकारो (Accept Thyself) और ३. स्वयं ही बन जाओ (Be Thyself पाश्चात्य चिंतन के ये तीन नैतिक आदेश ज्ञान, दर्शन और चारित्र के ही समकक्ष हैं। आत्मज्ञान में ज्ञान का तत्त्व, आत्मस्वीकृति में श्रद्धा का तत्त्व और आत्मनिर्माण में चरित्र का तत्त्व उपस्थित है। जैनदर्शन बौद्धदर्शन गीता उपनिषद् पाश्चात्य दर्शन
सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शन सम्यक् चारित्र
प्रज्ञा समाधि शील
डॉ. सागरमल जैन,
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी....
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ज्ञान, परिप्रश्न
श्रद्धा, प्रणिपात
कर्म, सेवा
Know Thyself
Accept Thyself
त्रिविध साधनामार्ग और मुक्ति
कुछ भारतीय विचारकों ने इस त्रिविध साधनामार्ग के किसी एक ही पक्ष को मोक्ष की प्राप्ति का साधन मान लिया है। आचार्य शंकर मात्र ज्ञान से और रामानुज मात्र भक्ति से मुक्ति की संभावना को स्वीकार करते हैं। लेकिन जैन दार्शनिक ऐसी
मनन श्रवण
निदिध्यासन Be Thyself
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ किसी एकान्तवादिता में नहीं पड़ते हैं। उनके अनुसार तो ज्ञान, कर्म और भक्ति की समवेत साधना ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। इनमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र 'के अनुसार दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के अभाव में आचरण सम्यक् नहीं होता है और सम्यक् आचरण के अभाव में मुक्ति भी नहीं होती है । इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति के लिए तीनों ही अंगों का होना आवश्यक है। सम्यक दर्शन का अर्थ
जैन आगमों में दर्शन शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है और इसके अर्थ के संबंध में जैन परंपरा में काफी विवाद रहा है। दर्शन शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है।" नैतिक जीवन की दृष्टि से दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ भी लिया गया है।' दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। जैन आगमों में दर्शन शब्द का एक अर्थ तत्त्व श्रद्धा भी माना गया है। परवर्ती जैनसाहित्य में दर्शन शब्द को देव गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया है। १° इस प्रकार जैनपरंपरा में सम्यक् दर्शन तत्त्व - साक्षात्कार, आत्मसाक्षात्कार, अंतर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने में समेटे हुए है।
सम्यक् दर्शन शब्द के इन विभिन्न अर्थों पर विचार करने से पहले हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौन सा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से प्रथम था और किन-किन ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ । प्रथमतः हम यह देखते हैं कि बुद्ध और महावीर के युग में प्रत्येक धर्मप्रवर्तक अपने सिद्धान्त को सम्यक् दृष्टि और दूसरे
सिद्धान्त को मिथ्या दृष्टि कहता था, लेकिन यहाँ पर मिथ्या दृष्टि शब्द मिथ्या श्रद्धा के अर्थ में नहीं वरन् गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है । जीवन और जगत् के संबंध में अपने से भिन्न दूसरों के दृष्टिकोणों को ही मिथ्या दर्शन कहा जाता है। प्रत्येक धर्मप्रवर्तक आत्मा और जगत् के स्वरूप के विषय में अपने दृष्टिकोण को सम्यक् दृष्टि और अपने विरोधी के दृष्टिकोण को मिथ्या दृष्टि कहता है । सम्यक् दर्शन शब्द अपने दृष्टिकोण के अर्थ के बाद तत्त्वार्थ- श्रद्धान के अर्थ में भी अभिरूढ़ हुआ ।
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जैन-साधना एवं आचार तत्त्वार्थ- श्रद्धान के अर्थ में भी सम्यक् दर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नहीं हुआ था, यद्यपि उसकी दिशा बदल चुकी थी । उसमें श्रद्धा का तत्त्व प्रतिष्ठित हो गया था। यद्यपि यह श्रद्धा तत्व के स्वरूप की मान्यता के सन्दर्भ में ही थी । वैयक्तिक श्रद्धा का विकास बाद की बात थी । यह श्रद्धा बौद्धिक श्रद्धा थी। लेकिन जैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ उसका प्रभाव श्रमण परंपराओं पर भी पड़ा । तत्त्वार्थ श्रद्धा अब बुद्ध और जिन पर केन्द्रित होने लगी। वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वैयक्तिक से वैयक्तिक बन गई। जिसने जैन और बौद्धपरंपराओं में भक्ति के तत्त्व का वपन किया । यद्यपि यह सब कुछ आगम एवं पिटक -ग्रंथों के संकलन एवं उनके लिपिबद्ध होने तक हो चुका था । फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सम्यक् दर्शन का दृष्टिकोणपरक अर्थ भाषाशास्त्रीय विश्लेषण की दृष्टि से उसका प्रथम एवं मूल अर्थ है । तत्त्व- श्रद्धापरक अर्थ एक परवर्ती अर्थ है। यद्यपि ये परस्पर विपरीत नहीं है। आध्यात्मिक साधना के लिए दृष्टिकोण की यथार्थता अर्थात् राग-द्वेष से पूर्ण विमुक्त दृष्टि का होना आवश्यक है, किन्तु साधक अवस्था में राग द्वेष से पूर्ण विमुक्ति संभव नहीं है। अतः जब तक वीतराग दृष्टि या यथार्थ दृष्टि उपलब्ध नहीं होती तब तक वीतराग के वचनों पर श्रद्धा आवश्यक है।
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सम्यक् दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कह या तत्त्वार्थ श्रद्धान उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अंतर नहीं होता है। अंतर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में । एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन कर वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है किन्तु दूसरा व्यक्ति ऐसे वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है । यद्यपि यहाँ दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने उसे स्वानुभूति में पाया है, दूसरे ने उसे श्रद्धा के माध्यम से एक ने तत्त्व - साक्षात्कार किया है तो दूसरे ने तत्त्व श्रद्धा । फिर भी हमें यह मान लेना चाहिए कि तत्त्व - श्रद्धा मात्र उस समय तक के लिए एक अनिवार्य विषय है; जब तक कि तत्त्व साक्षात्कार नहीं होता। पंडित सुखलालजी के शब्दों में तत्त्व - श्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तत्त्व साक्षात्कार या स्वानुभूति ही है और यही सम्यक् दर्शन का वास्तविक अर्थ है ।। "
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार सम्यक ज्ञान का अर्थ
ज्ञेय नहीं बन सकता, लेकिन अनात्म तत्व तो ऐसा है जिसे हम ___ ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन
ज्ञाता और ज्ञेय के द्वैत के आधार पर जान सकते हैं। सामान्य कौन सा ज्ञान मुक्ति के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है।
व्यक्ति भी अपने साधारण जान के द्वारा इतना तो ज्ञान ही सकता जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान के दो रूप पाए जाते हैं। सामान्य दृष्टि
है कि उसके ज्ञान के विषय क्या हैं? और जो उसके ज्ञान के
विषय हैं वे उसके स्वस्वरूप नहीं हैं, वे अनात्म हैं। सम्यक ज्ञान से सम्यक् ज्ञान अनेकान्त या वैचारिक अनाग्रह है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन दर्शन के अनुसार एकान्त
आत्मज्ञान है, किन्तु आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही मिथ्यात्व है क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप
पहचाना जा सकता है। अनात्म के स्वरूप को जानकर अनात्म करता है। एकान्त या आग्रह की उपस्थिति में व्यक्ति सत्य को
से आत्म का भेद करना यही भेद विज्ञान है और यही जैन दर्शन सम्यक प्रकार से नहीं समझ सकता है। जब तक आग्रह बुद्धि है
में सम्यक् ज्ञान का मूल अर्थ है। तब तक वीतरागता संभव ही नहीं है और जब तक वीतराग दृष्टि इस प्रकार जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान आत्म-अनात्म का नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञान भी असंभव है। जैन दर्शन के विवेक है। आचार्य अमृतचंद्रसूरि के अनुसार जो कोई सिद्ध हुए अनुसार सत्य के अनंत पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त हैं वे इस आत्म-अनात्म के विवेक या भेद विज्ञान से ही सिद्ध दृष्टि सम्यक ज्ञान है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह अपने में हुए हैं और जो बंधन में है, वे इसके अभाव के कारण ही हैं।१३ निहित छद्म राग के कारण सत्य को रंगीन कर देता है इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इस भेद विज्ञान का अत्यंत एकान्त या आग्रह सत्य के साक्षात्कार में बाधक है। परम सत्य गहन विवेचन किया है। आचार्य कुन्दकुन्द का यह विवेचन अनेक को अपने संपूर्ण रूप से आग्रह बुद्धि नहीं देख सकती। जब तक बार हमें बौद्ध त्रिपिटकों की याद दिला देता है जिसमें अनात्म का आंखों पर राग, द्वेष, आसक्ति या आग्रह का रंगीन चश्मा है, विवेचन इतनी ही अधिक गंभीरता से किया गया है।१४ अनावृत्त सत्य का साक्षात्कार संभव नहीं है। वैचारिक आग्रह न केवल व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को कुण्ठित करता है,
सम्यक चारित्र का अर्थ वरन् सामाजिक जीवन में भी विग्रह और वैमनस्य के बीज बो
जैन परंपरा में सम्यक चारित्र के दो रूप माने गए हैं - देता है। सम्यक् ज्ञान एक अनाग्रही दृष्टि है। वह उस भ्रांति का १- व्यवहार और २. निश्चय चरित्र। आचरण का बाह्य पक्ष या भी निराकरण करता है कि सत्य मेरे ही पास है, वरन वह हमें आचरण के विधि विधान व्यवहार चरित्र कहे जाते हैं। जबकि बताता है कि सत्य हमारे पास भी हो सकता है और दूसरों के
आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चरित्र कही जाती है। जहाँ तक पास भी। सत्य न मेरा है न पराया, जो भी उसे मेरा और पराया नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का प्रश्न है अथवा व्यक्ति करके देखता है वह उसे ठीक प्रकार से समझ ही नहीं सकता। के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मक चारित्र ही सूत्रकृतांग में कहा गया है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा उसका मूलभूत आधार है। लेकिन जहाँ तक सामाजिक जीवन और दूसरे मत की निंदा करने में अपना पांडित्य दिखाते हैं वे का प्रश्न है चारित्र का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है। एकान्तवादी संसार चक्र में भटकते फिरते हैं।१२ अतः जैन निश्चय दृष्टि से चारित्र--निश्चयदृष्टि से चारित्र का सच्चा अर्थ साधना की दृष्टि से वीतरागता को उपलब्ध करने के लिए समभाव या समत्व की उपलब्धि है।५ मानसिक या चैत्तिसिक वैचारिक आग्रह का परित्याग और अनाग्रही दृष्टि का निर्माण जीवन में समत्व की उपलब्धि ही चारित्र का पारमार्थिक या आवश्यक है और यही सम्यक ज्ञान भी है।
नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुतः चारित्र का यह पक्ष आत्म-स्मरण की एक अन्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान आत्म-अनात्म का विवेक स्थिात ह।
म का विवेक स्थिति है। नैश्चयिक चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था है। यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया में ही होता है। अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने वाले सभी जा सकता है, उसे ज्ञाता ज्ञेय के द्वैत के आधार पर नहीं जाना जा कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में राग, द्वेष, कषाय और सकता है क्योंकि वह स्वयम् ज्ञान स्वरूप है, ज्ञाता है और ज्ञाता वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शान्त हो जाती तभी. सच्चे नैतिक
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एवम् धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। अप्रमत्त चेतना जो कि नैश्चयिक चारित्र का आधार है। राग, द्वेष, कषाय, विषय वासना, आलस्य और निद्रा से रहित अवस्था है। साधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्म- जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता है तभी वह सच्चे अर्थो में नैश्चयिक चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। यही नैश्चयिक चारित्र मुक्ति का सोपान कहा गया है।
यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ- जैन-साधना एवं आचार
व्यवहार चारित्र -- व्यवहार चारित्र का संबंध हमारे मन, वचन और कर्म की शुद्धि तथा उस शुद्धि के कारणभूत नियमों से है । सामान्यतया व्यवहार चारित्र में पंच महाव्रत, तीन गुप्ति, पंच समिति आदि का समावेश है।
सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान का पूर्वापर सम्बन्ध
ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा में काफी विवाद रहा । कुछ आचार्य दर्शन को प्राथमिक मानते हैं तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनों का यौगपद्य ( समानान्तरता ) स्वीकार किया है। आचार मीमांसा की दृष्टि से दर्शन की प्राथमिकता का प्रश्न ही प्रबल रहा है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । १६ इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा दर्शन को प्राथमिकता दी गई है । तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी ने भी अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान और चरित्र के पहले स्थान दिया है। १७ आचार्य कुन्दकुन्द दर्शन पाहुड में कहते हैं कि धर्म (साधनामार्ग) दर्शनप्रधान है। १८
लेकिन दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐसे भी हैं जिनमें ज्ञान की प्राथमिकता भी देखने को मिलती है। उत्तराध्ययन सूत्र में उसी अध्याय में मोक्षमार्ग की विवेचना में जो क्रम है उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम है। वस्तुतः इस विवाद में कोई ऐकान्तिक निर्णय ना अनुचित ही होगा ।
हमारे अपने दृष्टिकोण में इनमें से किसे प्रथम स्थान दिया जाए इसका निर्णय करने के पूर्व हमें दर्शन शब्द का क्या अर्थ है, इसका निश्चय कर लेना चाहिए। दर्शन शब्द के दो अर्थ हैं-१. यथार्थ दृष्टिकोण और २. श्रद्धा । यदि हम दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ लेते हैं तो हमें साधनामार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना चाहिए। क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही
గొర
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मिथ्या है, अयथार्थ है तो, न तो उसका ज्ञान सम्यक् (यथार्थ ) होगा और न चारित्र ही । यथार्थ दृष्टि के अभाव में यदि ज्ञान और चारित्र सम्यक् प्रतीत भी हों तो भी वे सम्यक् नहीं कहे जा सकते, वह तो संयोगिक प्रसंग मात्र है, ऐसा साधक भी दिग्भ्रांत हो सकता है। जिसकी दृष्टि ही दूषित है, वह क्या सत्य को जानेगा और क्या उसका समाचरण करेगा? दूसरी ओर यदि हम सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ लेते हैं तो उसे ज्ञान के पश्चात् ही स्थान देना चाहिए। क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद ही उत्पन्न हो सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ करते समय ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है ग्रन्थकार कहते हैं कि ज्ञान से पदार्थ (तत्त्व) स्वरूप को जानें और दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करें। १९ व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) के पश्चात् ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसमें जो स्थायित्व होता है, वह स्थायित्व ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा में नहीं हो सकता । ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती है, उसमें संशय होने की संभावना हो सकती है ऐसी श्रद्धा वास्तविक श्रद्धा नहीं वरन् अन्ध श्रद्धा ही हो सकती है। जिन-प्रणीत तत्त्वों में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवम् तार्किक परीक्षण के पश्चात् हो सकती है । यद्यपि साधनामार्ग के आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्त्व है, लेकिन वह ज्ञानप्रसूत होना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है " धर्म की समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करें, तर्क के तत्त्व का विश्लेषण करें।"२० इस प्रकार यथार्थ दृष्टिपरक अर्थ में सम्यक् दर्शन को ज्ञान पूर्व लेना चाहिए और श्रद्धापरक अर्थ में ज्ञान के पश्चात् ।
५८
न केवल जैन-दर्शन में अपितु बौद्ध दर्शन और गीता में भी ज्ञान और श्रद्धा के संबंध का प्रश्न बहुचर्चित रहा है। चाहे बुद्ध ने आत्मदीप एवम् आत्मशरण के स्वर्णिम सूत्र का उद्घोष किया हो, किन्तु बौद्ध-दर्शन में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान सभी युगों में मान्य रहा है । सुत्तनिपात में आलवक यक्ष के प्रति स्वयं बुद्ध कहते हैं मनुष्य का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है । २१ गीता में भी श्रद्धा या भक्ति एक प्रमुख तथ्य है मात्र इतना ही नहीं, अपितु गीता और बौद्ध दर्शन दोनों में ही ऐसे सन्दर्भ हैं जिनमें ज्ञान के पूर्व श्रद्धा को स्थान दिया गया है। ज्ञान की उपलब्धि के साधन के रूप में श्रद्धा को स्वीकार करके बुद्ध गीता की विचारणा के अत्यधिक निकट आ जाते हैं। गीता के समान ही बुद्ध सुत्तनिपात में आलवक यक्ष से कहते हैं निर्वाण की ओर ले जाने वाले अर्हतों के धर्म में श्रद्धा रखने वाला अप्रमत्त और विचक्षण पुरुष प्रज्ञा को प्राप्त
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - करता है। श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं' और 'सद्दहानो लभते पञ्जा' का ज्ञान और आचरण को सही दिशा - निर्देश दे सकता है। मध्ययुग शब्दसाम्य दोनों आचार-दर्शनों में निकटता देखने वाले विद्वानों के जैन आचार्य भद्रबाहु आचारांगनियुक्ति में कहते हैं कि के लिए विशेष रूप से द्रष्टव्य है।२२ लेकिन यदि हम श्रद्धा को सम्यक् दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल होते हैं।२७ आस्था के अर्थ में ग्रहण करते हैं तो बुद्ध की दृष्टि में प्रज्ञा प्रथम आध्यात्मिक संत आनन्दघनजी दर्शन की महत्ता को सिद्ध करते है और श्रद्धा द्वितीय स्थान पर। संयुक्त निकाय में बुद्ध कहते हैं हुए अनन्त जिन-स्तवन में कहते हैं - श्रद्धा पुरुष की साथी है और प्रज्ञा उस पर नियंत्रण करती है।२३
शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी, इस प्रकार श्रद्धा पर विवेक का स्थान स्वीकार किया गया है।
छार (राख) पर लीपणुं तेह जाणो रे बुद्ध कहते हैं 'श्रद्धा से ज्ञान बड़ा है।' २४ लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि बुद्ध मानवीय प्रज्ञा को श्रद्धा से पूर्णतया निर्मुक्त सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र की पूर्वापरता कर देते हैं। बुद्ध की दृष्टि में ज्ञान-विहीन श्रद्धा मनुष्य के स्वविवेक जहाँ तक ज्ञान और चरित्र का संबंध है, जैन-विचारकों ने रूपी चक्ष को समाप्त कर उसे अंधा बना देती है और श्रद्धाविहीन चरित्र को ज्ञान के बाद ही स्थान दिया है। दशवैकालिक-सूत्र में । ज्ञान मनुष्य को संशय और तर्क के मरुस्थल में भटका देता है। कहा गया है कि जो जीव और अजीव के स्वरूप को नहीं इस मानवीय प्रकृति का विश्लेषण करते हुए विसुद्धिमग्ग में जानता ऐसा जीव और अजीव के विषय में अज्ञानी साधक क्या कहा गया है कि बलवान श्रद्धावाला किन्तु मन्द प्रज्ञावाला धर्म (संयम) का आचरण करेगा?२८ उत्तराध्ययन-सूत्र में भी व्यक्ति बिना सोचे समझे हर कहीं विश्वास कर लेता है और यही बताया गया है कि सम्यक् ज्ञान के अभाव में सदाचरण बलवान प्रज्ञा किन्तु मन्द श्रद्धावाला व्यक्ति कुतार्किक (धूर्त) नहीं होता।२९ इस प्रकार जैन-दर्शन में आचरण के पूर्व सम्यक् हो जाता है। वह औषधि से उत्पन्न होने वाले रोग के समान ही ज्ञान का होना आवश्यक है फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते असाध्य होता है। २५ 'इस प्रकार बुद्ध श्रद्धा और विवेक के मध्य हैं कि अकेला ज्ञान ही मुक्ति का साधन हो सकता है। यद्यपि एक समन्वयवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। जहाँ तक गीता का आचार्य अमतचन्द्र सरि ज्ञान की चरित्र से पूर्वता को सिद्ध करते प्रश्न है निश्चय ही उसमें ज्ञान की अपेक्षा श्रद्धा की ही प्राथमिकता हुए एक चरम सीमा का स्पर्श कर लेते हैं वे अपनी समयसार । सिद्ध होती है, क्योंकि गीता में श्रद्धेय को इतना समर्थ माना गया टीका में लिखते हैं कि ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है क्योंकि ज्ञान का है कि वह अपने उपासक के हृदय में ज्ञान की आभा को प्रकाशित ___ अभाव होने से अज्ञानियों में अंतरंग व्रत, नियम, सदाचरण और कर सकता है।
तपस्या आदि की उपस्थिति होते हुए भी मोक्ष का अभाव है।
क्योंकि अज्ञान ही बंध का हेतु है। इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र सम्यक् दर्शन और सम्यक चारित्र का
बहुत कुछ रूप में ज्ञान को प्रमुख मान लेते हैं। उनका यह पूर्वा पर सम्बन्ध -
दृष्टिकोण जैन-दर्शन को शंकराचार्य के निकट खड़ा कर देता चरित्र और ज्ञान दर्शन के संबंध की पूर्वापरता को लेकर है। फिर भी यह मानना कि जैन-दृष्टि में ज्ञान ही मात्र मुक्ति का जैन-विचारणा में कोई विवाद नहीं है। जैन आगमों में चारित्र से साधन है जैन-विचारणा के मौलिक मन्तव्य से दूर होना है। दर्शन की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यक् दर्शन साधना-मार्ग में ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित साधना के अभाव में सम्यक् चरित्र नहीं होता। भक्त-परिज्ञा में कहा पथ का उपदेश दिया गया है। सूत्रकृतांग में महावीर कहते हैं कि गया है कि दर्शन से भ्रष्ट (पतित) ही वास्तविक रूप में भ्रष्ट है, मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो अथवा अनेक शास्त्रों का चरित्र से भ्रष्ट भ्रष्ट नहीं है, क्योंकि जो दर्शन से युक्त है वह संसार जानकार हो यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने में अधिक परिभ्रमण नहीं करता जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति कृत्य कर्मों के कारण दुःखी ही होगा।३१ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा संसार से मुक्त नहीं होता है। कदाचित् चरित्र से रहित सिद्ध भी गया है कि अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को हो जाए लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नहीं होता।२६ शरणभूत नहीं होता। दूराचरण में अनुरक्त अपने आपको पंडित वस्तुतः दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्त्व है जो व्यक्ति के मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही हैं। वे केवल वचनों से ही nirankarivariwarniwanidiromiditoriandiraniwari- ५९ daridrimarindiadroominatandaridrordiaritaram
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यतीन्द्र सूरि स्मारक ग्रन्थ अपनी आत्मा को आश्वासन देते हैं " आवश्यक नियुक्ति में ज्ञान और आचरण के पारस्परिक संबंध का विवेचन अत्यंत विस्तृत रूप से किया गया है। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि आचरणविहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसारसमुद्र से पार नहीं होते। ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक संबंध को लोक प्रसिद्ध अंध- पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता है या अकेला अंधा अथवा अकेला पंगु इच्छित साध्य को नहीं पहुंचते वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती, अपितु दोनों के सहयोग से ही मुक्ति होती है। जैन दर्शन का यह दृष्टिकोण हमें उपनिषद् और बौद्ध परंपरा में भी प्राप्त होता है बुद्ध कहते हैं 'जो ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित है वही देवताओं और मनुष्यों में श्रेष्ठ है ।' ३४
उद्धरण
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
तत्त्वार्थसूत्र 1/1 उत्तराध्ययनसूत्र 28/2 सुत्तनिपात 28/8
गीता 4/34, 4/39
Psychology and Morals, P. 180 उत्तराध्ययन 28/30
Some problems of jain psychology P. 32 अभिधानराजेन्द्र कोष खंड 5 पृ. 2425 तत्त्वार्थ 1/2, उत्तराध्ययन 28/35
जैन-साधना एवं आचार
10.
11.
12.
13.
14.
15.
16.
17
18
19.
20.
21
22. 23.
सामायिकसूत्र - सम्यक्त्व पाठ जैनधर्म का प्राण पृ. 24 सूत्रकृतांग 1/1/2/23 समयसारटीका 132
देखिये - समयसार 392-407 नियमसार 75-81
तुलनीय संयुक्तनिकाय 34/1/1/1-12 प्रवचनसार 1/7, पंचास्तिकायसार 107
उत्तराध्ययन 28/30
तत्त्वार्थसूत्र 1/1
दर्शनपाहुड 2
29.
30.
31.
32.
33.
उत्तराध्ययनसूत्र 28/35 उत्तराध्ययन 23/35
सुत्तनिपात 10/2
सुत्तनिपात 10/6, तुलनीयगीता 4/36 संयुक्तनिकाय 1/1/59
24. संयुक्तनिकाय 4/41/8
25. विसुद्धिभग्ग 4/47
26. भक्तपरिज्ञा 65-66 27. आचारांगनिर्युक्ति 221 28. दशवैकालिक 4/12
उत्तराध्ययन 28/30
समयसारटीका 153 तुलनीय गीता, शांकरभाष्य, अध्याय 5 की पीठिका
सूत्रकृतांग 2/1/7
उत्तराध्ययन 6/9-11 आवश्यकनियुक्ति 95-102
तुलनीय - - नृसिंह पुराण 61/9/11 34. मज्झिमनिकाय 2/3/5
scovered go pomeni
ਗਿੱਧੇ ਅਤੇ
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जैन-आगमों में समाधिमरण की अवधारणा
अर्धमागधी आगम-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा का है। इस सम्बन्ध में जो स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, उन्हें अर्धमागधी अति विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। पौर्वात्य एवं पाश्चात्य विद्वानों ने आगम-साहित्य में प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत रखा गया है। प्रकीर्णकों अर्धमागधी आगम-साहित्य के गन्थों का जो कालक्रम निर्धारित किया में आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, संस्तारक, आराधनाहै, उसके आधार पर समाधिमरण से सम्बन्धित आगमों को हम निम्न पताका, मरणविभक्ति, मरणसमाधि एवं मरणविशुद्धि प्रमुख हैं। वर्तमान क्रम में रख सकते हैं। अति प्राचीन स्तर के आगम-ग्रन्थों में आचाराङ्गसूत्र में जो मरणविभक्ति के नाम से प्रकीर्णक उपलब्ध हो रहा है, उसमें एवं उत्तराध्ययनसूत्र ये दो ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें समाधिमरण के सम्बन्ध मरणविभक्ति सहित मरणविशुद्धि, मरणसमाधि, संलेखनासूत्र, भक्तपरिज्ञा, में विस्तृत विवरण मिलता है। आचाराङ्गसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,आराधना पताका इन आठ ग्रन्थों को 'विमोक्ष' नामक अष्टम अध्ययन समाधिमरण के तीन प्रकारों- भक्त- समाहित कर लिया गया है। यद्यपि भक्तपरिज्ञा, आतुरप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण एवं प्रायोपगमन की विस्तृत चर्चा करता है। महाप्रत्याख्यान, संलेखनासूत्र, संस्तारक, आराधनापताका आदि ग्रन्थ इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र का पञ्चम “अकाम-मरणीय" अध्ययन भी स्वतन्त्र रूप से भी उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त तन्दुल- वैचारिक नामक अकाम-मरण और सकाम-मरण (समाधिमरण) की चर्चा से सम्बन्धित प्रकीर्णक के अन्त में भी समाधिमरण का विस्तृत विवरण पाया जाता है। इसके साथ ही किंचित् परवर्ती माने गये उत्तराध्ययन के ३६वें है। यद्यपि श्वेताम्बर-परम्परा में समाधिमरण का विस्तृत विवरण एवं अध्ययन में भी समाधिमरण की विस्तृत चर्चा है। इसमें समयावधि उपदेश देने वाले संस्कृत एवं प्राकृत के परवर्ती आचार्यों के अनेक की दृष्टि से उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य ऐसे तीन प्रकार के समाधिमरणों ग्रन्थ हैं, किन्तु प्रस्तुत विवेचन में हम अपने को मात्र अर्धमागधी आगमका उल्लेख है। प्राचीन स्तर के अर्धमागधी आगमों में दशवैकालिक साहित्य तक ही सीमित रखेंगे। शौरसेनी आगम-साहित्य में समाधिमरण का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके आठवें 'आचार-प्रणिधी' नामक का विवरण प्रस्तुत करने वाले आगमतुल्य जो ग्रन्थ हैं, उनमें मूलाचार अध्ययन में समाधिमरण के पूर्व की साधना का उल्लेख हुआ है। इसमें एवं भगवती-आराधना नामक यापनीय-परम्परा के दो ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। कषायों को अल्प करने या उन पर विजय प्राप्त करने का निर्देश है। इनमें मूलाचार समाधिमरण का विवरण प्रस्तुत करने के साथ ही मुनि
इसके अतिरिक्त कालक्रम की दृष्टि से किंचित् परवर्ती माने गये आचार के अन्य पक्षों पर भी प्रकाश डालता है। यद्यपि इसके संक्षिप्त अर्धमागधी आगमों में तृतीय अङ्ग-आगम स्थानाङ्गसूत्र के द्वितीय प्रत्याख्यान एवं बृहत् प्रत्याख्यान नामक अध्यायों में आतुरमहाअध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में मरण के विविध प्रकारों की चर्चा के प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णकों की शताधिक गाथाएँ प्रसङ्ग में समाधिमरण के विविध रूपों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। यथावत् अपने शौरसेनी रूपान्तर में मिलती है। इसी प्रकार इसमें चतुर्थ अङ्ग-आगम समवायाङ्ग में मरण के सत्रह भेदों की चर्चा है। आवश्यकनियुक्ति की भी शताधिक गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति के नाम ज्ञातव्य है कि नाम एवं क्रम के कुछ अन्तरों को छोड़कर मरण के से ही मिलती हैं। इन सत्रह भेदों की चर्चा भगवती आराधना में भी मिलती है। इसमें जहाँ तक भगवती-आराधना का प्रश्न है, उसमें भी र्धमागधी बालमरण, बाल- पण्डितमरण, पण्डितमरण, भक्त-प्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण, आगम-साहित्य की विशेष रूप से समाधिमरण से सम्बन्धित प्रकीर्णकों प्रायोपगमन आदि की चर्चा है। इसी प्रकार पाचवें अङ्ग-आगम की शताधिक गाथाएँ उपलब्ध होती हैं। ज्ञातव्य है कि भगवती-आराधना भगवतीसूत्र में अम्बड संन्यासी एवं उसके शिष्यों के द्वारा गङ्गा की का मूल प्रतिपाद्य समाधिमरण है और यह ग्रन्थ अनेक दृष्टियों से बालू पर अदत्त जल का सेवन नहीं करते हुए समाधिमरण करने का मरणसमाधि, अपरनाम मरणविभक्ति और आराधनापताका से तुलनीय उल्लेख पाया जाता है। सातवें अङ्ग उपासकदशसूत्र में भगवान् महावीर है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि आराधनापताका नामक ग्रन्थ श्वेताम्बर के १० गृहस्थ उपासकों के द्वारा लिये गये समाधिमरण और उसमें आचार्य वीरभद्र के द्वारा भवगती आराधना का अनुकरण करके लिखा उपस्थित विघ्नों की विस्तृत चर्चा मिलती है! आठवें अङ्ग-आगम गया है। यद्यपि यह अभी शोध का विषय है। इसमें भक्तपरिज्ञा, अन्तकृतदशासूत्र एवं नवें अङ्ग-आगम अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र में भी पिण्डनियुक्ति और आवश्यकनिर्यक्ति की भी सैकड़ों गाथाएँ उद्धृत अनेक श्रमणों एवं श्रमणियों के द्वारा लिये गये समाधिमरण का उल्लेख की गयी हैं। इसमें कुल १११० गाथाएँ हैं। मिलता है। अन्तकृत्दशासूत्र की विशेषता यह है कि उसमें समाधिमरण इस प्रकार मरणविभक्ति और संस्तारक में समाधिमरण ग्रहण करने लेने वालों की समाधिमरण के पूर्व की शारीरिक स्थिति कैसी हो गई वालों के जो विशिष्ट उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे ही उल्लेख भगवतीथी, इसका सुन्दर विवरण उपलब्ध है।
आराधना में भी बहुत कुछ समान रूप से मिलते हैं। आज मरणविभक्ति उपाङ्ग-साहित्य में मात्र औपपातिकसूत्र और रायप्रश्रीयसूत्र में आदि प्रकीर्णकों का भगवती-आराधना से तुलनात्मक अध्ययन बहुत समाधिमरण ग्रहण करने वाले कुछ साधकों का उल्लेख है, किन्तु इनमें ही अपेक्षित है, क्योंकि यह ग्रन्थ यापनीय-परम्परा में निर्मित हुआ समाधिमरण की अवधारणा के सम्बन्ध में कोई विवेचन उपलब्ध नहीं है और यापनीय अर्धमागधी आगमों को मान्य करते थे। अत: दोनों
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन साधना एवं आचारपरम्पराओं में काफी कुछ आदान-प्रदान हुआ है। इसी प्रकार यापनीय- का रक्षण वरेण्य नहीं है। उसमें कहा गया है कि जब साधक यह परम्परा के ग्रन्थ बृहद्कथाकोश में भी मरणविभक्ति, भक्तपरिज्ञा, संस्तारक जाने कि वह निर्बल और मरणान्तक रोग से आक्रान्त हो गया है, आदि की अनेक कथाएँ संकलित हैं। मेरी दृष्टि में बृहद्कथाकोश की नियम या मर्यादा पूर्वक आहार आदि प्राप्त करने में असमर्थ है, कथाओं का मूल स्रोत चाहे प्रकीर्णक ग्रन्थ रहे हों, किन्तु ग्रन्थकार तो वह आहारादि का परित्याग कर शरीर के पोषण के प्रयत्नों को ने भगवती आराधना की कथाओं का अनुकरण करके ही यह ग्रन्थ बन्द कर दे। इससे देह के प्रति निर्ममत्व की साधना पूर्ण लिखा है। आज आवश्यकता है-दोनों परम्पराओं के समाधिमरण होती है। सम्बन्धी इन ग्रन्थों एवं उनकी कथाओं का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत २. जब व्यक्ति को लगे कि अपनी वृद्धावस्था अथवा असाध्य करने की।
रोग के कारण उसका जीवन पूर्णत: दूसरों पर निर्भर हो गया है, वह ' यद्यपि मैं इस आलेख में तुलनात्मक अध्ययन को प्रस्तुत करना संघ के लिए भार-स्वरूप बन गया है तथा अपनी साधना करने में चाहता था, किन्तु समय-सीमा को ध्यान में रखकर वर्तमान में यह भी असमर्थ हो गया है तो ऐसी स्थिति में वह आहारादि का त्याग . सम्भव नहीं हो सका है।
करके देह के प्रति निर्ममत्व की साधना करते हुए देह का विसर्जन समाधिमरण की यह अवधारणा अति प्राचीन है। भारतीय संस्कृति कर सकता है। की श्रमण और ब्राह्मण- इन दोनों परम्पराओं में इसके उल्लेख मिलते ३. इसी प्रकार साधक को जब यह लगे कि सदाचार या ब्रह्मचर्य हैं, जिसकी विस्तृत चर्चा हमनें 'समाधिमरण (मृत्युवरण) : एक का खण्डन किए बिना जीवन जीना सम्भव नहीं है, अर्थात् चरित्रनाश तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन' नामक लेख में की है। वस्तुतः और जीवित रहने में एक ही विकल्प सम्भव है तो वह तत्काल भी यहाँ हमारा विवेच्य मात्र अर्धमागधी-आगम है। इनमें आचाराङ्गसूत्र प्राचीन ___श्वास-निरोध आदि करके अपना देहपात कर सकता है। ज्ञातव्य है एवं प्रथम अङ्ग-आगम है। आचाराङ्गसूत्र के अनुसार समत्व या वीतरागता कि यहाँ मूल-पाठ में शीत-स्पर्श है, जिसका टीकाकारों ने ब्रह्मचर्य की साधना ही धर्म का मूलभूत प्रयोजन है। आचाराङ्गकार की दृष्टि के भङ्ग का अवसर ऐसा अर्थ किया है, किन्तु मूल-पाठ और पूर्वप्रसङ्ग में समत्व या वीतरागता की उपलब्धि में बाधक तत्त्व ममत्व है। इस को देखते हुए इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि जिस मुनि ने ममत्व का घनीभूत केन्द्र व्यक्ति का अपना शरीर होता है। अतः अचेलता को स्वीकार कर लिया है, वह शीत सहन न कर पाने की आचाराङ्गकार निर्ममत्व की साधना हेतु देह के प्रति निर्ममत्व की साधना स्थिति में चाहे देह त्याग कर दे, किन्तु नियम भङ्ग न करे। को आवश्यक माना है। समाधिमरण देह के प्रति निर्ममत्व की साधना इससे यह फलित होता है कि आचाराङ्गकार न तो जीवन को का ही प्रयास है। यह न तो आत्महत्या है और न जीवन से भागने अस्वीकार ही करता और न वह जीवन से भागने की बात कहता है। का प्रयत्न। अपितु जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही अपरिहार्य बनी वह तो मात्र यह प्रतिपादित करता है कि जब मृत्यु जीवन के द्वार मृत्यु का स्वागत है। वह देह के पोषण के प्रयत्नों का त्याग करके पर दस्तक दे रही हो और आचार-नियम अर्थात् ली गई प्रतिज्ञा भङ्ग देहातीत होकर जीने की एक कला है।
किए बिना जीवन जीना सम्भव नहीं है, तो ऐसी स्थिति में मृत्यु का
वरण करना ही उचित है। इसी प्रकार दूसरों पर भार बनकर जीना आधाराङ्गसूत्र और समाधिमरण
अथवा जब शरीर व्यक्तिगत साधना अथवा समाज-सेवा दोनों के लिए आचाराङ्गसूत्र में जिन परिस्थितियों में समाधिमरण की अनुशंसा सार्थक नहीं रह गया हो, ऐसी स्थिति में भी येनकेन-प्रकारेण शरीर की गयी है, वे विशेष रूप से विचारणीय हैं। सर्वप्रथम तो आचाराङ्ग को बचाने के प्रयत्न की अपेक्षा मृत्यु का वरण ही उचित है। जब में समाधिमरण का उल्लेख उसके प्रथम श्रुतस्कन्ध के विमोक्ष नामक साधक को यह लगे कि सदाचार और मुनि आचार के नियमों का अष्टम अध्ययन में हुआ है। यह अध्ययन विशेष रूप से शरीर, आहार, भङ्ग करके आहार एवं औषधि के द्वारा तथा शीतनिवारण के लिए वस्त्र आदि के प्रति निर्ममत्व एवं उनके विसर्जन की चर्चा करता है। वस्त्र अथवा अग्नि आदि के उपयोग द्वारा ही शरीर को बचाया जा इसमें वस्त्र एवं आहार के विजर्सन की प्रक्रिया को समझाते हुए ही सकता है अथवा ब्रह्मचर्य को भङ्ग करके ही जीवित रहा जा सकता अन्त में देह-विसर्जन की साधना का उल्लेख हुआ है। आचाराङ्गसूत्र है तो उसके लिए मृत्यु का वरण ही उचित है। समाधिमरण किन स्थितियों में लिया जा सकता है, इसकी संक्षिप्त आचाराङ्गकार ने नैतिक मूल्यों के संरक्षण और जीवन के संरक्षण किन्तु महत्त्वपूर्ण विवेचना प्रस्तुत करता है। इसमें समाधिमरण स्वीकार में उपस्थित विकल्प की स्थिति में मृत्यु के वरण को ही वरेण्य माना करने की तीन स्थितियों का उल्लेख है
है। ऐसी स्थिति में वह स्पष्ट निर्देश देता है कि ऐसा व्यक्ति मृत्यु १. जब शरीर इतना अशक्त व ग्लान हो गया हो कि व्यक्ति का वरण कर ले। यह उसके लिए काल-मृत्यु ही है, क्योंकि इसके संयम के नियमों का पालन करने में असमर्थ हो और मुनि के आचार- द्वारा वह संसार का अन्त करने वाला होता है। वह स्पष्ट रूप से कहता नियमों को भंग करके ही जीवन बचाना सम्भव हो, तो ऐसी स्थिति है कि यह मरण विमोह आयतन, हितकर, सुखकर, कालोचित, निःश्रेयस में यह कहा गया है कि आचार-नियमों के उल्लंघन की अपेक्षा देह और भविष्य के लिए कल्याणकारी होता है। आचाराङ्गसूत्र में समाधिमरण का विसर्जन ही नैतिक है। आचार-मर्यादा का उल्लंघन करके जीवन के तीन रूपों का उल्लेख हुआ- भक्तप्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण,
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारप्रायोपगमन। उसमें समाधिमरण के लिए दो तथ्य आवश्यक माने गए समाधिमरण ग्रहण करे इसका उल्लेख करते हुए आचाराङ्गकार कहता हैं- पहला कषायों का कृशीकरण और दूसरा शरीर का कृशीकरण। है कि ऐसे भिक्षु ग्राम, नगर, कर्वट, आश्रम आदि में जाकर घास इसमें भी मुख्य उद्देश्य तो कषायों का कृशीकरण है। भक्तपरिज्ञा में की याचना करे और उसे प्राप्त कर गाँव के बाहर एकांत में जाकर प्रथम तो मुनि के लिए कल्प का विचार किया गया है और उसके जीव-जन्तु, बीज, हरित आदि से रहित स्थान को देखकर घास का अन्त में यह बताया गया है कि अकल्प का सेवन करने की अपेक्षा बिस्तर तैयार करे और उस पर स्थित होकर इत्वरिक अनशन अथवा शरीर का विसर्जन कर देना ही उचित है। उसमें कहा गया है कि प्रायोपगमन स्वीकार करे। जब भिक्षु को यह अनुभव हो कि मेरा शरीर अब इतना दुर्बल अथवा ज्ञातव्य है कि आचाराङ्गकार भक्तप्रत्याख्यान, इङ्गितिमरण और रोग से आक्रान्त हो गया है कि गृहस्थों के घर भिक्षा हेतु परिभ्रमण प्रायोपगमन ऐसे तीन प्रकार के समाधिमरण का उल्लेख करता है। करना मेरे लिए सम्भव नहीं है, साथ ही मुझे गृहस्थ के द्वारा मेरे सम्मुख भक्तप्रत्याख्यान में मात्र आहारादि का त्याग किया जाता है, किन्तु लाया गया आहार आदि ग्रहण करना योग्य नहीं है। ऐसी स्थिति में शारीरिक हलन-चलन और गमनागमन की कोई मर्यादा निश्चित नहीं एकाकी साधना करने वाले जिनकल्पी मुनि के लिए आहार का त्याग की जाती है। इङ्गितमरण में आहार-त्याग के साथ ही साथ शारीरिक करके संथारा ग्रहण करने का विधान है। यद्यपि आचाराङ्गसूत्र के हलन-चलन और गमनागमन का एक क्षेत्र निश्चित कर लिया जाता अनुसार संघस्थ मुनि की बीमारी अथवा वृद्धावस्थाजन्य शारीरिक है और उसके बाहर गमनागमन का त्याग कर दिया जाता है। प्रायोपगमन दुर्बलता की स्थिति में आहारादि से एक-दूसरे का उपकार अर्थात् सेवा या पादोपगमन में आहार आदि के त्याग के साथ-साथ शारीरिक क्रियाओं कर सकते हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में भी चार विकल्पों का उल्लेख का निरोध करते हुए मृत्यु-पर्यन्त निश्चल रूप से लकड़ी के तख्ने के हुआ है -
समान स्थिर पड़े रहना पड़ता है। इसीलिए आचाराङ्गकार ने प्रायोपगमन १. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं (साधर्मिक भिक्षुओं के संथारे के प्रत्याख्यान में स्पष्ट रूप से यह लिखा है कि काय, योग लिए) आहार आदि लाऊँगा और (उनके द्वारा) लाया हुआ स्वीकार एवं ईर्या का प्रत्याख्यान करे। वस्तुतः यह तीनों संथारे की क्रमिक भी करूंगा।
अवस्थाएँ हैं। अथवा २. कोई यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं (दूसरों के लिए) आहार आदि आचाराणसूत्र में समाधिमरण का विवरण नहीं लाऊँगा, किन्तु (उनके द्वारा) लाया हुआ स्वीकार करूँगा। क्रम से निर्ममत्व की स्थिति को प्राप्त धैर्यवान्, आत्मनिग्रही और अथवा
गतिमान साधक इस अद्वितीय समाधिमरण की साधना हेतु तत्पर हो। ३. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं (दूसरों के लिए) आहार वह धर्म के पारगामी ज्ञानपूर्वक अनुक्रम से दोनों ही प्रकार के आरम्भ आदि लाऊँगा, किन्तु उनके द्वारा लाया स्वीकार नहीं करूंगा। का (हिंसा का) परित्याग कर दे। वह कषायों को कृश करते हुए आहार अथवा
की मात्रा को भी अल्प करे और परिषहों को सहन करे। इस प्रकार ४. कोई भिक्षु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं न तो (दूसरों के लिए) करते हुए जब अति ग्लान हो जाय तो आहार का भी त्याग कर दे।
आहार आदि लाऊँगा और न (उनके द्वारा) लाया हुआ स्वीकार ऐसी स्थिति में न तो जीवन की आकांक्षा रखे और न मरण की, करूँगा।
अपितु जीवन एवं मरण दोनों में ही आसक्त न हो। वह निर्जरापेक्षी उपरोक्त चार विकल्पों में से जो भिक्षु प्रथम दो विकल्प स्वीकार मध्यस्थ समाधि-भाव का अनुपालन करे तथा राग-द्वेष आदि आन्तरिक करता है, वह आहारादि के लिए संघस्थ मुनियों की सेवा ले सकता परिग्रह और शरीर आदि बाह्य परिग्रह का त्याग कर शुद्ध अध्यात्म है। किन्तु जो अन्तिम दो विकल्प स्वीकार करता है, उसके लिए आहारादि का अन्वेषण करे।। के लिये दूसरों की सेवा लेने में प्रतिज्ञा-भङ्ग का दोष आता है। ऐसी यदि उसे अपने साधनाकाल में किसी भी रूप में आयुष्य के स्थिति में आचाराङ्गकार का मन्तव्य यही है कि प्रतिज्ञा भङ्ग नहीं करनी विनाश का कोई कारण जान पड़े, तो वह शीघ्र ही समाधिमरण का चाहिये, भले ही भक्तप्रत्याख्यान कर देह त्याग करना पड़े। आचाराङ्गकार प्रयत्न करे। ग्राम अथवा अरण्य में जहाँ हरित एवं प्राणियों आदि का के अनुसार ऐसी स्थिति में जब भिक्षु को यह संकल्प उत्पन्न हो कि अभाव (अल्पता) हो, उस स्थण्डिल भूमि पर तृण का बिछौना तैयार मैं इस समय संयम-साधना के लिए इस शरीर को वहन करने में ग्लान करे और वहाँ निराहार होकर शान्त भाव से लेट जाये। मनुष्य कृत (असमर्थ) हो रहा हूँ, तब वह क्रमशः आहार का संवर्तन (संक्षेप) अथवा अन्य किसी प्रकार के परीषह से आक्रान्त होने पर भी मर्यादा करे। आहार का संक्षेप कर कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) का उल्लङ्घन न करे तथा परिषहों को समभावपूर्वक सहन करे। आकाश को कृश करे। कषायों को कृश कर समाधिपूर्ण भाव वाला शरीर और में विचरण करने वाले पक्षी एवं रेंगने वाले प्राणी यदि उसके शरीर कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु फल का वस्थित हो का मांस नोंचें, रक्त पीयें तो भी न उन्हें मारे और न उनका निवारण समाधिमरण के लिए उत्थित (प्रयत्नशील) होकर शरीर का उत्सर्ग करे। करे तथा न उस स्थान से उठकर अन्यत्र जाये, अपितु यह विचार
संथारा ग्रहण करने का निश्चय कर लेने के पश्चात् वह किस प्रकार करे कि ये प्राणी मेरे शरीर का ही नाश कर रहे हैं, मेरे ज्ञानादि गुणों
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन साधना एवं आचारका नहीं। वह आस्रवों से रहित एवं आत्मतुष्ट हो उस पीड़ा को समभाव के समय भय से संत्रस्त होता है और हारने वाले धूर्त जुआरी की से सहन करे। प्रन्थियों अर्थात् अन्तर-बाह्य परिग्रह से रहित मृत्यु के तरह शोक करता अकाम-मरण को अर्थात् निष्प्रयोजन मरण को प्राप्त अवसर पर पारङ्गत भिक्षु के इस समाधिमरण को संयमी जीवन के होता है, जबकि सकाम-मरण पण्डितों को प्राप्त होता है। संयत जितेन्द्रिय लिए अधिक श्रेष्ठ माना गया है।
पुण्यात्माओं को ही अति प्रसन्न अर्थात् निराकुल एवं आघातरहित यह भक्तप्रत्याख्यान के अतिरिक्त समाधिमरण का एक रूप इङ्गितिमरण मरण प्राप्त होता है। ऐसा मरण न तो सभी भिक्षुओं को मिलता है, बताया है। इसमें साधक दूसरों से सेवा लेने का त्रिविध रूप से परित्याग न सभी गृहस्थों को। जो भिक्षु हिंसा आदि से निवृत्त होकर संयम कर देता है, ऐसा भिक्षु हरियाली पर नहीं सोए अपितु जीवों से रहित का अभ्यास करते हैं, उन्हें ही ऐसा सकाम-मरण प्राप्त होता है। स्थण्डिल भूमि पर ही सोए। वह अनाहार भिक्षु देह आदि के प्रति उत्तराध्ययनसूत्र यह स्पष्ट निर्देश देता है कि मेधावी साधक ममत्व का विसर्जन करके परीषहों से आक्रान्त होने पर उन्हें समभाव बालमरण व पण्डितमरण की तुलना करके सकाम-मरण को स्वीकार से सहन करे। इन्द्रियों के ग्लान हो जाने पर वह मुनि समितिपूर्वक कर मरण-काल में क्षमा और दया-धर्म से युक्त हो, तथाभूत आत्मभाव ही अपने हाथ-पैर आदि का संकोच-विस्तार करे, क्योंकि जो अचल में मरण करे। जब मरण-काल उपस्थित हो तो जिस श्रद्धा से प्रव्रज्या एवं समभाव से युक्त होता है वह निन्दित नहीं होता। वह जब लेटे-लेटे स्वीकार की थी, उसी श्रद्धा व शान्त भाव से शरीर के भेद अर्थात् या बैठे-बैठे थक जाय तो शरीर के संधारण के लिए थोड़ा गमनागमन देहपात की प्रतिज्ञा करे। मृत्यु का समय आने पर तीन प्रकार के एक करे या हाथ-पैरों को हिलाए, किन्तु सम्भव हो तो अचेतनवत् निश्चेष्ट से एक श्रेष्ठ समाधिमरणों से शरीर का परित्याग करे। हो जाये। इस अद्वितीय मरण पर आसीन व्यक्ति उन काष्ठ-स्तम्भों इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र के पञ्चम अध्याय या फलक आदि का सहारा न ले, जो दीमक आदि से युक्त हो अथवा में भी उन्हीं तीनों प्रकार के समाधिमरणों का उल्लेख है जिसकी चर्चा वर्जित हो। जो साधक इङ्गितिमरण से भी उच्चतर प्रायोपगमन या हम आचाराङ्गसूत्र के सम्बन्ध में कर चुके हैं। फिर भी ज्ञातव्य है कि पादोपगमन संथारे को ग्रहण करता है, वह सभी अङ्गों का निरोध करके उत्तराध्ययनसूत्र का यह विवरण समाधिमरण के हेतु प्रेरणा प्रदान करने अपने स्थान से चलित नहीं होता है- यह प्रायोपगमन, भक्त प्रत्याख्यान की ही दृष्टि से है। दूसरे शब्दों में यह मात्र उपदेशात्मक विवरण है। और इङ्गितिमरण की अपेक्षा उत्तम स्थान है। ऐसा भिक्षु जीव-जन्तु इसमें किन परिस्थतियों में समाधिमरण ग्रहण किया जाय इसकी चर्चा से रहित भूमि को देखकर वहाँ निश्चेष्ट होकर रहे और वहाँ अपने शरीर नहीं है। मात्र यत्र-तत्र समाधिमरण के कुछ सङ्केत ही हैं। उत्तराध्ययनसूत्र को स्थापित कर यह विचार करे कि जब शरीर ही मेरा नहीं है तो में समाधिमरण या संलेखना के काल आदि के सम्बन्ध में और उसकी फिर मुझे परीषह या पीड़ा कैसी? वह संसार के सभी भोगों को नश्वर प्रक्रिया के सम्बन्ध में जो उल्लेख है वह उसके ३६वें अध्याय में जानकर, उनमें आसक्त न हो। देवों द्वारा निमन्त्रित होने पर वह देव- इस प्रकार से वर्णित हैमाया पर श्रद्धा न करे। सभी भोगों में अमूर्च्छित होकर मृत्यु के अवसर अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन करके मुनि इस अनुक्रम का पारगामी वह तितिक्षा को ही परम हितकर जानकर निर्ममत्वभाव से आत्मा की संलेखना के विकारों को क्षीण करे। उत्कृष्ट संलेखना को अन्यतम साध्य माने।
बारह वर्ष की होती है, मध्यम एक वर्ष की और जघन्य छह मास
की होती है। प्रथम चार वर्षों में दुग्ध आदि विकृतियों का नि!हण-त्याग उत्तराध्ययनसूत्र और समाधिमरण
करे, दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार के तप करे, फिर दो वर्षों तक इस प्रकार हम देखते हैं कि आचाराङ्गसूत्र में समाधिमरण के एकान्तर तप (एक दिन उपवास और फिर एक दिन भोजन) करे। प्रकार, उसकी प्रक्रिया तथा उसे किन स्थितियों में ग्रहण किया जा भोजन के दिन आचाम्ल करे। उसके बाद ग्यारहवें वर्ष में पहले छह सकता है, इसकी विस्तृत चर्चा है। आचाराङ्गसूत्र के पश्चात् प्राचीन महिनों तक कोई भी अतिविकृष्ट (तेला, चौला आदि) तप न करे। स्तर के अर्धमागधी-आगम उत्तराध्ययन में भी समाधिमरण का विवरण उसके बाद छह महीने तक विकृष्ट तप करे। इस पूरे वर्ष में परिमित उसके ५वें एवं ३६वें अध्याय में उपलब्ध होता है। उसके पाँचवें अध्याय (पारणों के दिन) आचाम्ल करे। बारहवें वर्ष में एक वर्ष तक कोटि में सर्वप्रथम मृत्यु के दो रूपों की चर्चा है- १. अकाम-मरण और सहित अर्थात् निरन्तर, आचाम्ल करके फिर मुनि पक्ष या एक मास २. सकाम-मरण। उसमें यह बताया गया है कि अकाम-मरण बार-बार का आहार से तप अर्थात् अनशन करे। कादी, अभियोगी, किल्बिषिकी, होता है- जबकि सकाम-मरण एक ही बार होता है। ज्ञातव्य है कि मोही और आसुरी भावनाएँ दुर्गति देने वाली हैं। ये मृत्यु के समय यहाँ अकाम-मरण का तात्पर्य कामना से रहित मरण न होकर आत्म- में संयम की विराधना करती हैं। अतः जो मरते समय मिथ्या-दर्शन पुरुषार्थ से रहित निरुद्देश्य या निष्प्रयोजनपूर्वक मरण से है। इसी प्रकार में अनुरक्त है, निदान से युक्त है और हिंसक है, उसे बोधि बहुत सकाम-मरण का तात्पर्य पुरुषार्थ या साधना से युक्त सोद्देश्यमरण या दुर्लभ है। जो सम्यग्दर्शन में अनुरक्त है, निदान से रहित है, शुक्ल-लेश्या मुक्ति के प्रयोजनपूर्वक मरण से है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार में अवगाढ़- प्रविष्ट है, उसे बोधि सुलभ है। जो जिन-वचन में अनुरक्त अकाम-मरण करने वाला व्यक्ति संसार में आसक्त होकर अनाचार का है, जिन-वचनों का भावपूर्वक आचरण करता है, वह निर्मल और सेवन करता है और काम-भोगों के पीछे भागता है, ऐसा व्यक्ति मृत्यु रागादि से असंक्लिष्ट होकर परीत संसारी (परिमित संसार वाला) होता है।
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारअन्य अङ्ग-आगम और समाधिमरण
उपासकदशासूत्र में भगवान् महावीर के आनन्द, कामदेव, सकडालपुत्र, आचारागसूत्र व उत्तराध्ययनसूत्र के पश्चात् अर्धमागधी में चुलिनीपिता आदि दश गृहस्थ उपासकों द्वारा समाधिमरण ग्रहण करने स्थानाङ्गसूत्र और समवायाङ्गसूत्र में समाधिमरण से सम्बन्धित मात्र कुछ और उनमें विघ्नों के उपस्थित होने तथा आनन्द को इस अवस्था में सङ्केत हैं। स्थानाङ्गसूत्र (२/४) में दो-दो के वर्गों में विभाजित करते विस्तृत अवधिज्ञान उत्पन्न होने, गौतम के द्वारा आनन्द से क्षमा-याचना हुए श्रमण भगवान् महावीर द्वारा अनुमोदित मरणों का उल्लेख है। करने आदि के उल्लेख हैं। इसी प्रकार अन्तकृत्दशासूत्र में कुछ श्रमणों महावीर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के मरण कभी भी वर्णित, और आर्यिकाओं द्वारा समाधिमरण स्वीकार करने और उस दशा में कीर्तित, उक्त, प्रशंसित और अनुमोदित नहीं किये हैं- वलन्मरण कैवल्य एवं मोक्ष प्राप्त करने के निर्देश हैं। किन्तु विस्तार-भय से और वशार्तमरण। इसी प्रकार निदानमरण और तद्भवमरण, गिरिपतन इन सबकी चर्चा में जाना हम यहाँ आवश्यक नहीं समझते। इतना और तरुपतनमरण, जलप्रवेशमरण और अग्निप्रवेशमरण, विषभक्षणमरण अवश्य ज्ञातव्य है कि इनमें से कुछ कथाओं के निर्देश श्वेताम्बर-परम्परा
और शास्त्रावपातनमरण। ये दो-दो प्रकार के मरण श्रमण-निर्ग्रन्थों के में मरणविभक्ति में तथा अचेल-परम्परा के भगवती-आराधना में भी लिए श्रमण भगवान् महावीर ने कभी भी वर्णित, कीर्तित, उक्त, प्रशंसित पाये जाते हैं। यहाँ हम केवल अन्तकृत्दशासूत्र (वर्ग८, अध्याय१)
और अनुमोदित नहीं किये हैं। किन्तु कारण-विशेष होने पर वैहायस का वह उल्लेख करना चाहेंगे जिसमें साधक किस स्थिति में समाधिमरण (वैरवानस) और गृद्धपृष्ठ ये दो मरण अनुमोदित किये हैं। श्रमण महावीर ग्रहण करता था, इसका सुन्दर चित्रण किया गया है - ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के मरण सदा वर्णित, कीर्तित, “तत्पश्चात् काली आर्या, उस उराल-प्रधान, विपुल, दीर्घकालीन, उक्त, प्रशंसित और अनुमोदित किये हैं- प्रायोपगमनमरण और भक्त- विस्तीर्ण, सश्रीक-शोभासम्पन्न, गुरु द्वारा प्रदत्त अथवा प्रयत्नसाध्य, प्रत्याख्यानमरण। प्रायोपगमनमरण दो प्रकार का कहा गया है-निर्हारिम बहुमानपूर्वक गृहीत, कल्याणकारी, नीरोगता-जनक, शिव-मुक्ति के और अनि रिम। प्रायोपगमनमरण नियमत: अप्रतिकर्म होता है। कारण-भूत, धन्य, माङ्गल्य, पापविनाशक, उदग्र-तीव्र, उदार-निष्काम भक्तप्रत्याख्यानमरण दो प्रकार का कहा गया है- निर्हारिम और । होने के कारण औदार्य वाले, उत्तम, अज्ञान अन्धकार से रहित और अनि रिम। भक्तप्रत्याख्यानमरण नियमत: सप्रतिकर्म होता है। महान् प्रभाव वाले, तप-कर्म से शुष्क, नीरस शरीर वाली, रुक्ष, मांस
समवायाङ्गसूत्र (समवाय १७) में मरण के निम्न सनह प्रकारों रहित और नसों से व्याप्त हो गयी थी। जैसे कोई कोयलों से भरी का उल्लेख हुआ है -
गाड़ी हो, सूखी लकड़ियों से भरी गाड़ी हो, पत्तों से भरी गाड़ी हो, १. आवीचिमरण, २. अवधिमरण, ३. आत्यान्तिकमरण, धूप में डालकर सुखाई हो अर्थात् कोयला, लकड़ी पत्ते आदि खूब ४. वलन्मरण, ५. वशार्तमरण, ६. अन्त:शल्यमरण, ७. तद्भव मरण, सूखा लिये गये हों और फिर गाड़ी में भरे गये हों, तो वह गाड़ी ८. बालमरण, ९. पण्डितमरण, १०. बालपण्डितमरण, ११. छद्मस्थ- खड़-खड़ आवाज करती हुई चलती है और ठहरती है, उसी प्रकार मरण, १२. केवलिमरण, १३. वैखानसमरण, १४. गृद्धपृष्टमरण, काली आर्या हाड़ों की खड़-खड़ाहट के साथ चलती थी और १५. भक्तप्रत्याख्यानमरण, १६. इङ्गितिमरण एवं १७. पादोपगमनमरण। खड़-खड़ाहट के साथ ठहरती थी। वह तपस्या से तो उपचित-वृद्धि
इनमें से बालपण्डितमरण, पण्डितमरण, छद्मस्थमरण, केवलीमरण, को प्राप्त थी, मगर मांस और रुधिर से अपचित-ह्रास को प्राप्त हो भक्तप्रत्याख्यानमरण, इङ्गितिमरण व प्रायोपगमनमरण का सम्बन्ध गयी थी। भस्म के समूह से आच्छादित अग्नि की तरह तपस्या के समाधिमरण से है। किन्हीं स्थितियों में वैखानसमरण, गृद्धपृष्टमरण तेज से देदीप्यमान वह तपस्तेज की लक्ष्मी से अतीव शोभायमान हो को जैन-परम्परा में भी उचित माना गया है। किन्तु ये दोनों अपवादिक रही थी। स्थिति में ही उचित माने गये हैं, जैसे जब ब्रह्मचर्य के पालन और एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में काली आर्या के हृदय में स्कन्दमुनि जीवन के संरक्षण में एक ही विकल्प हो, तो ऐसी स्थिति में वैखानसमरण के समान यह विचार उत्पन्न हुआ— “इस कठोर तपसाधना के कारण द्वारा शरीर-त्याग को उचित माना गया है। ज्ञातव्य है कि भगवती मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गया है। तथापि जब तक मेरे इस शरीर आराधना में भी समवायाङ्ग के समान ही मरण के उपर्युक्त सत्रह प्रकारों । में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार-पराक्रम है, मन में श्रद्धा, का उल्लेख है। यद्यपि कहीं-कहीं उनके नाम एवं क्रम में अन्तर दिखायी धैर्य एवं वैराग्य है तब तक मेरे लिये उचित है कि कल सूर्योदय देता है। उदाहरणार्थ समवायाङ्ग में छद्मस्थमरण का उल्लेख है जबकि होने के पश्चात् आर्या चन्दना से पूछकर, उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर, भगवती-आराधना में इसका उल्लेख नहीं है। इसके स्थान पर उसमें संलेखना झूषणा का सेवन करती हुई भक्तपान का त्याग करके, मृत्यु
ओसत्रमरण का उल्लेख है। समवायाङ्गसूत्र के पश्चात् ज्ञाताधर्मकथासूत्र, के प्रति निष्काम होकर विचरण करूँ।" ऐसा सोचकर वह अगले दिन उपासकदशासूत्र, अन्तकशासूत्र, अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र तथा विपाकदशा- सूर्योदय होते ही जहाँ आर्या चन्दना थीं वहाँ आई और वन्दना-नमस्कार सूत्र, आदि अङ्ग आगमों में जीवन के अन्तिम काल में संलेखना द्वारा कर इस प्रकार बोली- “हे आयें! आपकी आज्ञा हो तो मैं संलेखना शरीर त्यागने वाले साधकों की कथाएँ हैं। इसमें भगवतीसूत्र में अम्बड़ झूषणा करती हुई विचरना चाहती हूँ।" आर्या चन्दना ने कहा- "हे संन्यासी और उसके ५०० शिष्यों के द्वारा अदत्त जल का सेवन नहीं देवानुप्रिये! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो। सत्कार्य में विलम्ब न करो।" करते हुए गङ्गा की बालू पर समाधिमरण लेने का उल्लेख है। तब आर्या चन्दना की आज्ञा पाकर काली आर्या संलेखना झूषणा ग्रहण రురురురురురరరరరరర
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ करके यावत् विचरने लगी। काली आय ने आर्या चन्दना के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अनों का अध्ययन किया और पूरे आठ वर्ष तक चारित्रधर्म का पालन करके एक मास की संलेखना से आत्मा को झोषित कर साठ भक्त का अनशन पूर्ण कर, जिस हेतु से संयम ग्रहण किया था यावत् उसको अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक पूर्ण किया तथा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गई।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अन्तकृत् दशा में जब शरीर पूर्णतया ग्लान हो जाय, ऐसी स्थिति में ही समाधिमरण लेने का उल्लेख है।
प्रकीर्णक और समाधिमरण
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श्वेताम्बर परम्परा में समाधिमरण से सम्बन्धित जो ग्रन्थ लिखे गये हैं, उनमें चन्द्रवेयक आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, संस्तारक, भक्तपरिज्ञा और मरणविभक्ति आदि प्रमुख हैं । चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक का अन्तिम लक्ष्य तो समाधिमरण का निरूपण ही है, किन्तु उसकी पूर्व भूमिका के रूप में विनय गुण, आचार्य गुण, विनयनिग्रह गुण, ज्ञान गुण और चरण गुणद्वार नामक प्रथम पाँच द्वारों में समाधिमरण से सम्बन्धित विषयों का विवरण दिया गया है और अन्त में छठा समाधिमरण द्वार है। इस प्रकीर्णक में १७५ गाथाएँ हैं, किन्तु कुछ प्रतियों में ७५ गाथाएँ और भी मिलती है, जिनमें से अधिकांश गाथायें आतुरप्रत्याख्यान में यथावत् उपलब्ध होती हैं। ग्रन्थ के अन्त में मरण गुणद्वार नामक सप्तम द्वार में सबसे अधिक ५८ गाथाएँ हैं। इसमें अकृतयोगी और कृतत-योग के माध्यम से यह बताया गया है कि जो व्यक्ति विषय-वासनाओं के वशीभूत होकर जीवन जीता है, वह अकृत योग है तथा जो इसके विपरीत वासनाओं एवं कषायों पर नियन्त्रण कर जीवन जीता है वह कतयोगी है और जो कृतयोगी है, उसी का मरण सार्थक है या समाधिमरण है। इसमें किस प्रकार की जीवनदृष्टि व आचार-विचार का पालन करते हुए व्यक्ति समाधिमरण को प्राप्त कर सकता है, इसका विस्तृत विवेचन है। इसमें कहा गया है कि जो सम्यक्त्व से युक्त लब्धबुद्धि साधक आलोचना करके मरण को प्राप्त होता है, उसका मरण शुद्ध होता है इसके विपरीत जो इन्द्रिय सुखों की ओर दौड़ता है वह अकृत परिक्रम जीव आराधना-काल में विचलित हो जाता है। जिस प्रकार लक्ष्य-भेद का साधक अपना ध्यान बाह्य विषयों की ओर न लगाकर केवल लक्ष्य की ओर रखता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति राग-द्वेष का निग्रह करता है, त्रिदण्ड और चार कषायों से अपनी आत्मा को लिप्त नहीं होने देता, पाँचों इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है, वह छह जीव निकाय की हिंसा एवं सात भयों से रहित मार्दव भाव से युक्त होता है, आठ मदों से रहित होकर नी प्रकार से ब्रह्मचर्य का पालन करता है तथा दस धर्म का पालन करते हुए शुक्ल ध्यान के अभिमुख होता है और वही व्यक्ति मरणकाल में कृतयोगी होता है। जो व्यक्ति जिन उपदिष्ट समाधिमरण की आराधना करता है, वह धूत-क्लेश होकर भावशल्यों का निवारण करके शुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है। जिस प्रकार सकुशल वैद्य भी अपनी व्याधि को अन्य से कहकर उसकी चिकित्सा करवाता है, उसी प्रकार साधु
जैन साधना एवं आचार
भी गुरु के समीप अपने दोषों की आलोचना करके मृत्यु के समय शुद्ध अवस्था को प्राप्त होता है। जो साधु मरणकाल में आसक्त नहीं होता, वही आराधक है। इस प्रकार चन्द्रवेध्यक मुख्य रूप से समाधिमरण करने वाले साधक की जीवन दृष्टि कैसी होनी चाहिए, इसकी चर्चा करता है।
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चन्द्रवेध्यक के पश्चात् जो प्रकीर्णक ग्रन्थ पूर्णतः समाधिमरण की अवधारणा को ही अपना विषय बनाते हैं, उनमें आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान प्रमुख हैं । ज्ञातव्य है कि आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान की लगभग एक सौ गाथाएँ मूलाचार के संक्षिप्त प्रत्याख्यान और बृहद् - प्रत्याख्यान नामक अध्ययनों में उपलब्ध होती हैं। आतुरप्रत्याख्यान के नाम से तीन प्रकीर्णक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। एक आतुरप्रत्याख्यान में तीस गाथाएँ और कुछ गद्य-भाग हैं, जबकि दूसरे में चौतीस गाथाएँ हैं और तीसरे में एकहत्तर गाथाएँ हैं। वैसे इन सभी आतुरप्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णकों का विषय समाधिमरण ही है। प्रथम आतुरप्रत्याख्यान में पञ्चमङ्गल के पश्चात् अरिहंत आदि से क्षमा याचना और उत्तम अर्थ अर्थात् समाधिमरण की आराधना के लिए १८ पाप-स्थानों का और शरीर के संरक्षण का परित्याग तथा अन्त में सागार एवं निरागार समाधिमरण के प्रत्याख्यान की चर्चा है। इसके अन्त में संसार के सभी प्राणियों से क्षमा याचना के सन्दर्भ में १३ गाथाएँ हैं और अन्त में एकत्व भावना का उल्लेख है। जिसमें कहा गया है कि "ज्ञान-दर्शन से युक्त एक मेरी आत्मा ही शाश्वत है, शेष सभी बाह्य पदार्थ सांयोगिक है। सांयोगिक पदार्थों के प्रति ममत्व ही दुःख-परम्परा का कारण है। अतः त्रिविध रूप से संयोग का परित्याग कर देना चाहिए।” ज्ञातव्य है कि ये गाथाएं भगवती आराधना एवं मूलाचार के साथ-साथ कुंदकुंद के ग्रन्थों में भी यथावत् रूप में उपलब्ध होती हैं। आतुरप्रत्याख्यान नामक दूसरे ग्रन्थ में अविरति का प्रत्याख्यान, ममत्वत्याग, देव के प्रति उपालम्भ, शुभ भावना, अरहंत आदि का स्मरण तथा समाधिमरण के अङ्गों की चर्चा है। इसी नाम के तृतीय प्रकीर्णक में एकहत्तर गाथाएं हैं। इसमें मुख्य रूप से बालपण्डितमरण और पण्डितमरण ऐसे दो प्रकार के समाधिमरणों की चर्चा की गयी है। इसमें प्रथम चार गाथाओं में देशव्रती श्रावक के लिए बालपण्डितमरण का विधान है। जबकि मुनि के लिए पण्डितमरण का विधान है। इसमें उत्तम अर्थ समाधिमरण की प्राप्ति के लिए किस प्रकार के ध्यानों (विचारों) की आवश्यकता है, इसकी चर्चायें हैं। इसके पश्चात् सब पापों के प्रत्याख्यान के साथ आत्मा के एकत्व की अनुभूति की चर्चा भी है। अन्त में आलोचनादायक और आलोचना ग्राहक के गुणों की चर्चा करते हुए तीन प्रकार के मरणों की चर्चा की गई है- बालमरण, वालपण्डितमरण, पण्डितमरण इसके पश्चात् असमाधिमरण के फल की चर्चा की गयी है और फिर यह बताया गया है कि बालमरण और पण्डितमरण क्या है? शस्त्र ग्रहण, विष - भक्षण, जल-प्रवेश, अग्नि प्रवेश आदि द्वारा मृत्यु को प्राप्त करना बालमरण है तथा इसके विपरीत अनशन द्वारा देहासक्ति का त्याग कर कषायों को क्षीण करना पण्डितमरण है। अन्त में पण्डितमरण की
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन साधना एवं आचारभावनाएँ और उसकी विधि की चर्चा है।
समाधिमरण से सम्बन्धित प्राचीन आठ ग्रन्थों के आधार पर निर्मित महाप्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णक में १४२ गाथाएँ हैं। इसमें बाह्य हुआ एक सङ्कलन-ग्रन्थ है। यद्यपि इसमें इन आठ ग्रन्थों की गाथाएँ एवं आभ्यन्तर परिग्रह का परित्याग, सर्वजीवों से क्षमा-याचना, कहीं शब्द रूप में, तो कहीं भाव रूप से ही गृहीत हैं। फिर भी समाधिमरण आत्मालोचन, ममत्व का छेदन, आत्मस्वरूप का ध्यान, मूल एवं उत्तर सम्बन्धित सभी विषयों को एक स्थान पर प्रस्तुत करने की दृष्टि से गुणों की आराधना, एकत्व भावना, संयोग सम्बन्धों के परित्याग आदि यह ग्रन्थ अति महत्त्वपूर्ण है। इसमें ६६३ गाथाएँ हैं। यह ग्रन्थ संक्षिप्त की चर्चा करते हुए आलोचक के स्वरूप का भी विवरण दिया गया होते हुए भी भगवती-आराधना के समान ही अपने विषय को समग्र है। इसी प्रसङ्ग में पाँच महाव्रतों एवं समिति, गुप्ति के स्वरूप की रूप से प्रस्तुत करता है। विस्तार-भय से यहाँ इसकी समस्त विषय-वस्तु चर्चा भी है। साथ ही साथ तप के महत्त्व को बताया गया है। फिर का प्रतिपादन कर पाना सम्भव नहीं है। इसमें १४ द्वार अर्थात् अध्ययन अकृत-योग एवं कृत-योग की चर्चा करके पण्डितमरण की प्ररूपणा हैं। इस ग्रन्थ में भी संस्तारक के समान ही पण्डित-मरणपूर्वक मुक्ति की गयी है। इसी प्रसङ्ग में ज्ञान की प्रधानता का भी चित्रण हुआ प्राप्त करने वाले साधकों के दृष्टान्त हैं। जिनमें से अधिकांश भगवतीहै। अन्त में संसारतरण एवं कर्मों से विस्तार पाने का उपदेश देते आराधना एवं संस्तारक में मिलते हैं। इसी ग्रन्थ में अनित्य आदि बारह हुए आराधना रूपी पताका को फहराने का निर्देश है। साथ ही पाँच भावनाओं का भी विवेचन है। प्रकार की आराधना व उनके फलों की चर्चा करते हुए धीरमरण इसके अतिरिक्त आराधनापताका नामक एक ग्रन्थ और है। यह (समाधिमरण) की प्रशंसा की गयी है।
ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। कुछ विद्वानों का ऐसा कहना है कि संस्तारक प्रकीर्णक का विषय भी समाधिमरण ही है। इस प्रकीर्णक ___ यह ग्रन्थ यापनीय ग्रन्थ भगवती-आराधना के आधार पर आचार्य वीरभद्र में १२२ गाथाएँ हैं। प्रारम्भ में मङ्गल के साथ-साथ कुछ श्रेष्ठ वस्तुओं द्वारा निर्मित हुआ है, किन्तु इस ग्रन्थ में भक्तपरिज्ञा, पिण्डनियुक्ति
और सद्गुणों की चर्चा है। इसमें कहा गया है कि समाधिमरण परमार्थ, और आवश्यकनियुक्ति की अनेकों गाथाएँ भी हैं। अत: यह किस ग्रन्थ परम-आयतन, परमकल्प और परमगति का साधक है। जिस प्रकार के आधार पर निर्मित हुआ है, यह शोध का विषय है। पर्वतों में मेरुपर्वत एवं तारागणों में चन्द्र श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सुविहित इसी प्रकार श्वेताम्बर-परम्परा में समाधिमरण से सम्बन्धित अनेक जनों के लिए संथारा श्रेष्ठ है। इसी में आगे १२ गाथाओं में संस्तारक ग्रन्थ परवर्ती श्वेताम्बराचार्यों द्वारा भी लिखे गये हैं, जिनमें पूर्ण विस्तार के स्वरूप का विवेचन है। इस प्रसङ्ग में यह बताया गया है कि कौन के साथ समाधिमरण सम्बन्धी विवरण है, किन्तु ये ग्रन्थ परवर्तीकाल व्यक्ति समाधिमरण को ग्रहण कर सकता है? यह ग्रन्थ क्षपक के लाभ के हैं और हम अपने विषय को अर्धमागधी आगम साहित्य तक ही एवं सुख की चर्चा करता है। इसमें संथारा ग्रहण करने वाले कुछ सीमित रखने के कारण इनकी विशेष चर्चा यहाँ नहीं करना चाहेंगे। व्यक्तियों के उल्लेख हैं, यथा- सुकोशल ऋषि, अवन्ति-सुकुमाल, यह समस्त चर्चा भी हमने सङ्केत रूप में ही की है। विद्वानों से अनुरोध कार्तिकेय, पाटलीपुत्र के चंदक-पुत्र (सम्भवत: चन्द्रगुप्त) तथा चाणक्य है कि वे इस तुलनात्मक अध्ययन को आगे बढ़ायें। इस सम्बन्ध में आदि।
अनेक आगमिक व्याख्या-ग्रन्थ जैसे आचाराङ्गनियुक्ति, सूत्रकृताङ्गनियुक्ति, ज्ञातव्य है कि इसकी अधिकांश कथाएँ यापनीय-ग्रन्थ भगवती- आवश्यकनियुक्ति, निशीथभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि आराधना में भी उपलब्ध होती हैं। विद्वानों से अनुरोध है कि संस्तारक आदि भी उनके उपजीव्य हो सकते हैं। इसी प्रकार आगमों की शीलाङ्क एवं मरणविभक्ति में वर्णित इन कथाओं की बृहत्कथाकोश तथा आराधना और अभयदेव की वृत्तियाँ भी बहुत कुछ सूचनायें प्रदान कर सकती कोश से तुलना करें। अन्त में संस्तारक की भावनाओं का चित्रण है। हैं। उदाहरण के रूप में क्षपक अर्थात् संलेखना लेने वाले श्रमण के इसकी अनेक गाथाएँ आतुरप्रत्याख्यान एवं चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में मरणोपरान्त देह को किस प्रकार विसर्जित किया जाये, इसकी चर्चा भी मिलती हैं।
भगवती-आराधना और निशीथचूर्णि में समान रूप से मिलती है। आशा श्वेताम्बर आगम-साहित्य में समाधिमरण के सम्बन्ध में सबसे है विद्वानों की आगामी पीढ़ी इस तुलनात्मक चर्चा को पूर्णता प्रदान विस्तृत ग्रन्थ मरणविभक्ति है। वस्तुत: मरणविभक्ति एक ग्रन्थ न होकर करेंगी।
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जैन धर्म में स्वाध्याय का अर्थ एवं स्थान
जैन-साधना का लक्ष्य समभाव (सामायिक) की उपलब्धि है और समभाव की उपलब्धि हेतु स्वाध्याय और सत्साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। सत्साहित्य का स्वाध्याय मनुष्य का एक ऐसा मित्र है, जो अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों स्थितियों में उसका साथ निभाता है और उसका मार्ग-दर्शन कर उसके मानसिक विक्षोभों एवं तनावों को समाप्त करता है। ऐसे साहित्य के स्वाध्याय से व्यक्ति को सदैव ही आत्मतोष और आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होती है, मानसिक तनावों से मुक्ति मिलती है। यह मानसिक शान्ति का अमोघ उपाय है।
स्वाध्याय का महत्त्व
सत्साहित्य-स्वाध्याय का महत्त्व अति प्राचीन काल से ही स्वीकृत रहा है। औपनिषदिक चिन्तन में जब शिष्य अपनी शिक्षा पूर्ण करके गुरु के आश्रम से बिदाई लेता था, तो उसे दी जाने वाली अन्तिम शिक्षाओं में एक शिक्षा होती थी. स्वाध्यायान् मा प्रमदः अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद मत करना। स्वाध्याय एक ऐसी वस्तु है जो गुरु की अनुपस्थिति में भी गुरु का कार्य करती थी। स्वाध्याय से हम कोईन कोई मार्ग दर्शन प्राप्त कर ही लेते हैं। महात्मा गांधी कहा करते थे कि “जब भी मैं किसी कठिनाई में होता हूँ, मेरे समाने कोई जटिल समस्या होती है, जिसका निदान मुझे स्पष्ट रुप से प्रतीत नहीं होता है। मैं गीता माता की गोद में चला जाता हूँ, वहाँ मुझे कोई-न-कोई समाधान अवश्य मिल जाता है।" यह सत्य है कि व्यक्ति कितने ही तनाव में क्यों न हो, अगर वह ईमानदारी से सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करता है तो उसे उनमें अपनी पीड़ा से मुक्ति का मार्ग अवश्य ही दिखाई देता है।
जैन परम्परा में जिसे मुक्ति कहा गया है, वह वस्तुतः राग-द्वेष से मुक्ति है, मानसिक तनावों से मुक्ति है और ऐसी मुक्ति के लिए पूर्व कर्म - संस्कारों का निर्जरण या क्षय आवश्यक माना गया है। निर्जरा का अर्थ है मानसिक ग्रन्थियों को जर्जरित करना अर्थात् मन की राग-द्वेष, अहंकार आदि की गाँठों को खोलना इसे ग्रन्थि भेद करना भी कहते हैं। निर्जरा एक साधना है। वस्तुतः वह तप की ही साधना है। जैन परम्परा में तप साधना के जो १२ भेद माने गए है, उनमें स्वाध्याय की गणना आन्तरिक तप के अन्तर्गत होती है। इस प्रकार स्वाध्याय मुक्ति का मार्ग है, जैन-साधना का एक आवश्यक अंग है।
उत्तराध्ययनसूत्र में स्वाध्याय को आन्तरिक तप का एक प्रकार बताते हुए उसके पाँचों अंगों एवं उनकी उपलब्धियों की विस्तार से चर्चा की गई है। बृहत्कल्पभाष्य में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है। कि "नवि अस्थि न वि अ होही, सज्झाय समं तवोकम्मं" अर्थात् स्वाध्याय के समान दूसरा तप न अतीत में कोई था, न वर्तमान में
कोई है और न भविष्य में कोई होगा। इस प्रकार जैन-परम्परा में स्वाध्याय को आध्यत्मिक साधना के क्षेत्र में विशेष महत्व दिया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि स्वाध्याय से ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है, जिससे समस्त दुःखों का क्षय हो जाता है। वस्तुतः स्वाध्याय ज्ञान-प्राप्ति का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। कहा भी है
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नाणस्स सव्वरस पगासणाए, अन्त्राण- मोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स व संखएणं, एगन्तसोक्खं समुवेई मोक्खं ।। तरसेस मग्गो गुरु-विद्धसेवा, वज्जणा बालजणस्स दूरा। सज्झाय एगन्तनिसेवणा य, सुत्तत्वसंचिन्तणया पिई य ।। अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार से, राग-द्वेष के पूर्ण क्षय से जीव एकान्त सुखरूप मोक्ष को प्राप्त करता है। गुरुजनों की और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के सम्पर्क से दूर रहना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना स्वाध्याय करना और धैर्य रखना यही दुःखों से मुक्ति का उपाय है।
स्वाध्याय का अर्थ
स्वाध्याय शब्द का सामान्य अर्थ है-स्व का अध्ययन। वाचस्पत्यम् में स्वाध्याय शब्द की व्याख्या दो प्रकार से की गयी है— १. स्व अधि इण्, जिसका तात्पर्य है स्व का अध्ययन करना। दूसरे शब्दों में स्वाध्याय आत्मानुभूति है, अपने अन्दर झाँक कर अपने आप को देखना है वह स्वयं अपना अध्ययन है मेरी दृष्टि में अपने विचारों, वासनाओं व अनुभूतियों को जानने व समझने का प्रयत्न ही स्वाध्याय है। वस्तुतः वह अपनी आत्मा का अध्ययन ही है, आत्मा के दर्पण में अपने को देखना है। जब तक स्व का अध्ययन नहीं होगा, व्यक्ति अपनी वासनाओं एवं विकारों का द्रष्टा नहीं बनेगा तब तक वह उन्हें दूर करने का प्रयत्न भी नहीं करेगा और जब तक वे दूर नहीं होंगे, तब तक आध्यात्मिक पवित्रता या आत्म-विशुद्धि सम्भव नहीं होगी और आत्म-विशुद्धि के बिना मुक्ति असम्भव है। यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि जो गृहिणी अपने घर की गन्दगी को देख पाती है, वह उसे दूर कर घर को स्वच्छ भी रख सकती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी मनोदैहिक विकृतियों को जान लेता है और उनके कारणों का निदान कर लेता है, वही सुयोग्य वैद्य के परामर्श से उनकी योग्य चिकित्सा करके अन्त में स्वास्थ्य लाभ करता है। यही बात हमारी आध्यात्मिक विकृतियों को दूर करने की प्रक्रिया में भी लागू होती है जो व्यक्ति स्वयं अपने अन्दर झाँककर अपनी चैतसिक विकृतियों अर्थात् कषायों को जान लेता है, वही योग्य गुरु के सानिध्य में उनका निराकरण करके आध्यात्मिक विशुद्धता को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार स्वाध्याय अर्थात् स्व का अध्ययन आत्म-विशुद्धि की एक अनुपम साधना सिद्ध होती है। हमें स्मरण रखना होगा स्वाध्याय का मूल अर्थ जो,
स्वयं
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारमें झाँकने की प्रक्रिया है। स्वयं को जानने और पहचानने की वृत्ति के स्पष्टीकरण के निमित्त प्रश्न-उत्तर करना। के अभाव से सूत्रों या ग्रन्थों के अध्ययन का कोई भी लाभ नहीं होता। ३. पूर्व पठित ग्रन्थ की पुनरावृत्ति या पारायण करना, यह अन्तर्चक्षु के उन्मीलन के बिना ज्ञान का प्रकाश सार्थक नहीं बन पाता परावर्तना है। है। कहा भी है
४.पूर्व पठित विषय के सन्दर्भ में चिन्तन-मनन करना सुबहुंपि सुयमहीयं, किं काही? चरणविप्पहीणस्स।
अनुप्रेक्षा है। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्स कोडिवि ।।
५. इसी प्रकार अध्ययन के माध्यम से जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, अप्पंपि सुयमहीयं, पयासयं होई चरणजुत्तस्स।
उसे दूसरों को प्रदान करना या धर्मोपदेश देना धर्मकथा है। इक्को वि जह पईवो, सचक्खुअस्स पयासेई ।।
यहाँ यह भी स्मरण रखना है कि स्वाध्याय के क्षेत्र में इन पाँच अर्थात् जैसे अंधे व्यक्ति के लिए करोड़ों दीपकों का प्रकाश भी अवस्थाओं का एक क्रम है। इनमें प्रथम स्थान वाचना का है। अध्ययन व्यर्थ है, किन्तु आँख वाले व्यक्ति के लिए एक भी दीपक का प्रकाश किए गए विषय के स्पष्ट बोध के लिए प्रश्नोत्तर के माध्यम से शंका सार्थक होता है, उसी प्रकार जिसके अन्तर्चक्षु खुल गये हैं, जिसकी का निवारण करना, इसका क्रम दूसरा है, क्योंकि जब तक अध्ययन अन्तर्यात्रा प्रारम्भ हो चुकी है, ऐसे आध्यात्मिक साधक के लिए स्वल्प नहीं होगा तब तक शंका आदि भी नहीं होगें। अध्ययन किए गए अध्ययन भी लाभप्रद होता है, अन्यथा आत्म-विस्मृत व्यक्ति के लिए विषय के स्थिरीकरण के लिए उसका पारायण आवश्यक है। इससे करोड़ों पदों का ज्ञान भी निरर्थक है। स्वाध्याय में अन्तर्चक्षु का खुलना, एक ओर स्मृति सुदृढ़ होती है तो दूसरी ओर क्रमश: अर्थ-बोध में आत्मद्रष्टा बनना, स्वयं में झाँकना, पहली शर्त है तथा शास्त्र का पढ़ना । स्पष्टता का विकास होता है। इसके पश्चात् अनुप्रेक्षा या चिन्तन का या अध्ययन करना उसका दूसरी शर्त है।
क्रम आता है। चिन्तन के माध्यम से व्यक्ति पठित विषय को न केवल स्वाध्याय शब्द की दूसरी व्याख्या सु+आ+अधिईङ्- इस रूप स्थिर करता है, अपितु वह उसके अर्थबोध की गहराई में जाकर स्वतः में भी की गई है। इस दृष्टि से स्वाध्याय की परिभाषा होती है- की अनुभूति के स्तर पर उसे समझने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार शोभनोऽध्यायः स्वाध्यायः अर्थात् सत्साहित्य का अध्ययन करना ही चिन्तन एवं मनन के द्वारा जब विषय स्पष्ट हो जाय, तो व्यक्ति को स्वाध्याय है। स्वाध्याय की इन दोनों परिभाषाओं के आधार पर एक धर्मोपदेश देने या अध्ययन कराने का अधिकार मिलता है। बात जो उभर कर सामने आती है वह यह कि सभी प्रकार का पठन- . पाठन स्वाध्याय नहीं है। आत्म-विशुद्धि के लिए किया गया अपनी स्वाध्याय के लाभ स्वकीय वृत्तियों, भावनाओं व वासनाओं अथवा विचारों का अध्ययन उत्तराध्ययनसूत्र में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि स्वाध्याय या निरीक्षण तथा ऐसे सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन, जो हमारी चैत्तसिक से जीव को क्या लाभ होता है? इसके उत्तर में कहा गया है कि विकृतियों के समझने और उन्हें दूर करने में सहायक हों, ही स्वाध्याय स्वाध्याय से ज्ञानावरणकर्म का क्षय होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा के अन्तर्गत आता है। विषय-वासनावर्द्धक, भोगाकांक्षाओं को उदीप्त मिथ्याज्ञान का आवरण दूर करके सम्यग्ज्ञान का अर्जन करता है। करने वाले, चित्त को विचलित करने वाले तथा आध्यात्मिक शान्ति स्वाध्याय के इस सामान्य लाभ की चर्चा के साथ उत्तराध्ययनसूत्र में
और समता को भंग करने वाले साहित्य का अध्ययन स्वाध्याय की स्वाध्याय के पाँचों अंगों-वाचना, प्रतिपृच्छना, धर्मकथा आदि के कोटि में नहीं आता है। उन्हीं ग्रन्थों का अध्ययन ही स्वाध्याय की अपने-अपने क्या लाभ होते हैं इसकी भी चर्चा की गयी है, जो निम्न कोटि में आता है जिससे चित्तवृत्तियों की चंचलता कम होती हो, मन रूप में पायी जाती हैप्रशान्त होता हो और जीवन में सन्तोष की वृत्ति विकसित भन्ते! वाचना (अध्ययन) से जीव को क्या प्राप्त होता है? होती हो।
वाचना से जीव कर्मों की निर्जरा करता है, श्रुतज्ञान की आशातना
के दोष से दूर रहने वाला वह तीर्थ-धर्म का अवलम्बन करता है तथा स्वाध्याय का स्वरूप
गणधरों के समान जिज्ञासु शिष्यों को श्रुत प्रदान करता है। तीर्थ-धर्म . स्वाध्याय के अन्तर्गत कौन सी प्रवृत्तियाँ आती हैं, इसका का अवलम्बन लेकर कर्मों की महानिर्जरा करता है और महापर्यवसान विश्लेषण जैन-परम्परा में विस्तार से किया गया है। स्वाध्याय के पाँच (संसार का अन्त) करता है। अंग माने गये हैं- १. वाचना २. प्रतिपृच्छना ३. परावर्तन ४. अनुप्रेक्षा भन्ते! प्रतिपृच्छना से जीव को क्या प्राप्त होता है? और ५. धर्मकथा।
प्रतिपृच्छना (पूर्वपठित शास्त्र के सम्बन्ध में शंका निवृत्ति के लिए १. गुरु के सानिध में सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना वाचना है। प्रश्न करना) से जीव सूत्र, अर्थ और तदुभय अर्थात् दोनों से सम्बन्धित वर्तमान सन्दर्भ में हम किसी सग्रन्थों के पठन-पाठन एवं अध्ययन कांक्षामोहनीय (संशय) का निराकरण करता है। को वाचना के अर्थ में गहित कर सकते हैं।
भन्ते! परावर्तना से जीव को क्या प्राप्त होता है? २. प्रतिपृच्छना का अर्थ है पठित या पढ़े जाने वाले ग्रन्थ के परावर्तना से अर्थात् पठित पाठ के पुनरावर्तन से व्यंजन (शब्दअर्थबोध में सन्देह आदि की निवृत्ति हेतु जिज्ञासावृत्ति से, या विषय पाठ) स्थिर होता है और जीव पदानुसारिता आदि व्यंजना-लब्धि को
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मानाप
कर, ता
-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारप्राप्त होता है।
स्वाध्याय का साधक-जीवन में स्थान भन्ते! अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है?
स्वाध्याय का जैन-परम्परा में कितना महत्त्व रहा है, इस सम्बन्ध अनुप्रेक्षा अर्थात् सूत्रार्थ के चिन्तन-मनन से जीव आयुष्यकर्म में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर उत्तराध्ययनसूत्र के माध्यम से को छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन ही अपनी बात को स्पष्ट करूंगा। उसमें मुनि की जीवन-चर्या की चर्चा को शिथिल करता है। उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करता करते हुए कहा गया हैहै। उनके तीव्र रसानुभाव को मन्द करता है। बहुकर्म-प्रदेशों को अल्प- दिवसस्स चउरो भागे कुज्जा भिक्खू वियक्खणो। प्रदेशों में परिवर्तित करता है। आयुष्यकर्म का बन्ध कदाचित् करता तओ उत्तरगुणे कुज्जा दिणभागेसु चउसु वि ।। है, कदाचित् नहीं भी करता है। असातावेदनीयकर्म का पुन:-पुन: उपचय पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं झियायई। नहीं करता है। जो संसार अटवी अनादि एवं अनन्त है, दीर्घमार्ग तइयाए भिक्खाचरियं पुणो चउत्थीए सज्झायं ।। से युक्त है, जिसके नरकादि गतिरूप चार अन्त (अवयव) हैं, उसे रत्तिं पि चउरो भागे भिक्खू कुज्जा वियक्खणो। शीघ्र ही पार करता है।
तओ उत्तरगुणे कुज्जा राइभाएसु चउसु वि ।।भन्ते! धर्मकथा (धर्मोपदेश) से जीव को क्या प्राप्त होता है? पढम पोरिसि सज्झायं बीयं झियायई।
धर्मकथा से जीव कर्मों की निर्जरा करता है और प्रवचन तइयाए निद्दमोक्खं तु चउत्थी भुन्जो वि सज्झायं ।। (शासन एवं सिद्धान्त) की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना
-उत्तराध्ययनसूत्र, २६/११,१२,१७,१८ करने वाला जीव भविष्य में शुभ फल देने वाले पुण्य कर्मों का बन्ध मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे प्रहर में ध्यान करता है।
करे, तीसरे में भिक्षा-चर्या एवं दैहिक आवश्यकता की निवृत्ति का इसी प्रकार स्थानांगसूत्र में भी शास्त्राध्ययन से क्या लाभ हैं? कार्य करे। पुनः चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय करे। इसी प्रकार रात्रि के इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें कहा गया है कि सूत्र की वाचना प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में निद्रा व चौथे में से पाँच लाभ हैं-१. वाचना से श्रुत का संग्रह होता है अर्थात् यदि पुन: स्वाध्याय का निर्देश है। इस प्रकार मुनि प्रतिदिन चार प्रहर अर्थात् अध्ययन का क्रम बना रहे तो ज्ञान की वह परम्परा अविच्छिन्न रूप १२ घंटे स्वाध्याय में रत रहे। दूसरे शब्दों में साधक-जीवन का से चलती रहती है। २. शास्त्राध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति से शिष्य आधा भाग स्वाध्याय के लिये नियत था। इससे यह स्पष्ट हो जाता का हित होता है, क्योंकि वह उसके ज्ञान की प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण है कि जैन-परम्परा में स्वाध्याय का महत्त्व प्राचीन काल से ही सुस्थापित साधन है। ३. शास्त्राध्ययन अर्थात् अध्यापन की प्रवृत्ति बनी रहने से रहा है, क्योंकि यही एक ऐसा माध्यम था जिसके द्वारा व्यक्ति के अज्ञान ज्ञानावरण कर्म की निर्जरा होती है अर्थात् अज्ञान का नाश होता है। का निवारण तथा आध्यात्मिक विशुद्धि सम्भव थी। ४. अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति के जीवित रहने से उसके विस्मृत होने की सम्भावना नहीं रहती है। ५. जब श्रुत स्थिर रहता है तो उसकी सत्साहित्य के अध्ययन की दिशायें । अविच्छिन्न परम्परा चलती रहती है।
सत्साहित्य के पठन के रूप में स्वाध्याय की क्या उपयोगिता
है? यह सुस्पष्ट है। वस्तुत: सत्साहित्य का अध्ययन व्यक्ति की जीवनस्वाध्याय का प्रयोजन
दृष्टि को ही बदल देता है। ऐसे अनेक लोग हैं जिनकी सत्साहित्य स्थानांगसूत्र में स्वाध्याय क्यों करना चाहिए इसकी चर्चा उपलब्ध के अध्ययन से जीवन की दिशा ही बदल गयी। स्वाध्याय एक ऐसा होती है। इसमें यह बताया गया है कि स्वाध्याय के निम्न पाँच प्रयोजन माध्यम है, जो एकान्त के क्षणों में हमें अकेलापन महसूस नहीं होने होने चाहिए
देता और एक सच्चे मित्र की भाँति सदैव साथ देता है तथा मार्ग-दर्शन १. ज्ञान की प्राप्ति के लिये २. सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये करता है। ३. सदाचरण में प्रवृत्ति हेतु ४. दुराग्रहों और अज्ञान का विमोचन करने वर्तमान युग में यद्यपि लोगों में पढ़ने-पढ़ाने की रुचि विकसित के लिये ५. यथार्थ का बोध करने के लिए या अवस्थित भावों का हुई है, किन्तु हमारे पठन की विषय-वस्तु सम्यक् नहीं है। आज के ज्ञान प्राप्त करने के लिए।
व्यक्ति के पठन-पाठन का मुख्य विषय पत्र-पत्रिकाएँ हैं। इनमें मुख्य आचार्य अकलंक ने स्वाध्याय के निम पाँच प्रयोजनों की भी रूप से वे ही पत्रिकाएँ अधिक पसन्द की जा रही हैं जो चर्चा की है
वासनाओं को उभारने वाली तथा जीवन के विपित पक्ष को यथार्थ १. बुद्धि की निर्मलता, २. प्रशस्त मनोभावों की प्राप्ति, के नाम पर प्रकट करने वाली हैं। आज समाज में नैतिक मूल्यों का ३. जिनशासन की रक्षा, ४. संशय की निवृत्ति, ५. परवादियों की जो पतन है उसका कारण हमारे प्रसार माध्यम भी हैं। इन माध्यमों शंका का निरसन, ६. तप-त्याग की वृद्धि और अतिचारों (दोषों) में पत्र-पत्रिकाएँ तथा आकाशवाणी एवं दूरदर्शन प्रमुख हैं। आज स्थिति की शुद्धि।
ऐसी है कि ये सभी अपहरण, बलात्कार, गबन, डकैती, चोरी, हत्या
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार. इन सबकी सूचनाओं से भरे पड़े होते हैं और हम उनको पढ़ने इन विकृत परिस्थितियों में यदि मनुष्य के चरित्र को उठाना है तथा देखने में अधिक रस लेते हैं। इनके दर्शन और प्रदर्शन से हमारी और उसे सन्मार्ग एवं नैतिकता की ओर प्रेरित करना है तो हमें अपने जीवनदृष्टि ही विकृत हो चुकी है, आज सच्चरित्र व्यक्तियों एवं उनके अध्ययन की दृष्टि को बदलना होगा। आज साहित्य के नाम पर जो जीवन-वृत्तान्तों की सामान्य रूप से, इन माध्यमों के द्वारा उपेक्षा की भी है वह पठनीय है, ऐसा नहीं है। आज यह आवश्यक है कि सत्जाती है। अत: नैतिक मूल्यों और सदाचार से हमारी आस्था उठती साहित्य का प्रसारण हो और लोगों में उसके अध्ययन की अभिरुचि जा रही है।
जागृत हो। यही सच्चे अर्थ में स्वाध्याय है।
लाल दोशी, ३२/२-३५. कोठारी
५. ६.
१. उत्तराध्ययनसूत्र- संपा०- रतनलाल दोशी, प्रका०- श्रमणोपासक जैन
पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, ३२/२-३। २. आवश्यकनियुक्ति (हरिभद्रीय वृत्ति), संपा०- बी० के० कोठारी,
प्रका०-रिलीजियस ट्रस्ट, बम्बई, १९८१, ८८-८९। ३. उत्तराध्ययनसूत्र, २९/२०-२४। ४. स्थानांगसूत्र, संपा०-मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८१, ५/३/२२३। वही-५/३/२२४। तत्त्वार्थराजवार्तिक, संपा०- डॉ० महेन्द्रकुमार जैन, प्रका०- भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५७, ९/२५। उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०-रतनलाल दोशी, प्रका०- श्रमणोपासक जैन पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० २४७८, २६/११,१२,१७,१८।
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जैन साधना का आधार सम्यग्दर्शन
सामान्यतया जैनागमों में अज्ञान और अयथार्थ ज्ञान दोनों के को सम्यक्-रूप से नहीं जान पाता है। बुद्ध कहते हैं- "आस्वाद दोष लिए मिथ्यात्व शब्द का प्रयोग हुआ है। यही नहीं किन्हीं सन्दर्भो में और मोक्ष को यथार्थत: नहीं जानता है, यही अविद्या है।'६ मिथ्या अज्ञान, अयथार्थ ज्ञान, मिथ्यात्व और मोह समानार्थक रूप में प्रयुक्त भी स्वभाव को स्पष्ट करते हुए बुद्ध कहते हैं 'जो मिथ्यादृष्टि है- मिथ्या हुए हैं। यहाँ पर हम अज्ञान शब्द का प्रयोग एक विस्तृत अर्थ में कर रहे समाधि है। इसी को मिथ्या स्वभाव कहते हैं।"७ मिथ्यात्व को हम एक हैं जिसमें उसके उपर्युक्त सभी अर्थ समाहित हैं। नैतिक दृष्टि से अज्ञान ऐसा दृष्टिकोण कह सकते हैं जो सत्यता की दिशा से विमुख है। संक्षेप नैतिक-आदर्श के अज्ञान का अभाव और शुभाशुभ विवेक की कमी को में मिथ्यात्व असत्याभिरुचि है, राग और द्वेष के कारण दृष्टिकोण का अभिव्यक्त करता है। जब तक प्राणी को स्व-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं विकृत हो जाना है। होता है अर्थात् मैं क्या हूँ? मेरा आदर्श क्या है? या मुझे क्या प्राप्त करना है? तब तक वह नैतिक जीवन में प्रविष्ट ही नहीं हो सकता। जैन जैन-दर्शन में मिथ्यात्व के प्रकार विचारक कहते हैं कि जो आत्मा के स्वरूप को नहीं जानता, जड़ पदार्थों आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने मिथ्यात्व को उत्पत्ति की दृष्टि से के स्वरूप को नहीं जानता, वह क्या संयम की आराधना (नैतिक दो प्रकार का बताया है: साधना) करेगा?१
१. नैसर्गिक (अनर्जित)- जो मिथ्यात्व मोहकर्म के उदय से ऋषिभाषितसूत्र में तरुण साधक अर्हत् गाथापतिपुत्र कहते होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यात्व है। हैं-अज्ञान ही बहुत बड़ा दुःख है। अज्ञान से ही भय का जन्म होता २. परोपदेशपूर्वक- जो मिथ्या धारणा वाले लोगों के हैं। समस्त देहधारियों के लिए भव-परम्परा का मूल विविध रूपों में उपदेश से स्वीकार किया जाता है। अत: यह अर्जित या परोपदेशपूर्वक व्याप्त अज्ञान ही है जन्म-जरा और मृत्यु, भय-शोक, मान और मिथ्यात्व है। अपमान सभी जीवात्मा के अज्ञान से उत्पन्न हुए हैं। संसार का प्रवाह यह अर्जित मिथ्यात्व चार प्रकार का है(संतति) अज्ञानमूलक है।
(अ) क्रियावादी- आत्मा को कर्ता मानना भारतीय नैतिक चिन्तन में मात्र कर्मों की शुभाशुभता पर ही (ब)अक्रियावादी-आत्मा को अकर्ता मानना विचार नहीं किया गया वरन् यह भी जानने का प्रयास किया गया कि
(स) अज्ञानी- सत्य की प्राप्ति को सम्भव नहीं मानना कर्मों की शुभाशुभता का कारण क्या है। क्यों एक व्यक्ति अशुभ- (द) वैनयिक- रूढ़-परम्पराओं को स्वीकार करना। कृत्यों की ओर प्रेरित होता है और क्यों दूसरा व्यक्ति शुभकृत्यों की स्वरूप की दृष्टि से जैनागमों में मिथ्यात्व पाँच प्रकार का भी
ओर प्रेरित होता है? गीता में अर्जुन यह प्रश्न उठाता है कि हे कृष्ण! माना गया है।"८ नहीं चाहते हुएभी किसकी प्रेरणा से प्रेरित हो, वह पुरुष पापकर्म में
१. एकान्त- जैनतत्त्वज्ञान में वस्तुतत्व को अनन्तधर्मात्मक नियोजित होता है? ३
माना गया है। उसमें समान जाति के अनन्त गुण ही नहीं होते हैं वरन् जैन-दर्शन के अनुसार इसका जो प्रत्युत्तर दिया जा सकता है, विरोधी गुण भी समाहित होते हैं। अतः वस्तु तत्व का एकांगी ज्ञान वह यह है कि मिथ्यात्व ही अशुभ की ओर प्रवृत्ति करने का कारण है। उसके सन्दर्भ में पूर्ण सत्य को प्रकट नहीं करता, वह आंशिक सत्य बुद्ध का भी कथन है कि मिथ्यात्व ही अशुभाचरण और सम्यग्दृष्टि ही होता है, पूर्ण सत्य नहीं। आंशिक सत्य को जबपूर्ण सत्य मान लिया सदाचरण का कारण है।५ गीता का उत्तर है- रजोगुण से उत्पन्न काम ही जाता है तो वह मिथ्यात्व हो जाता है। न केवल जैन-विचारणा वरन् बौद्धज्ञान को आवृत कर व्यक्ति को बलात् पापकर्म की ओर प्रेरित करता है। विचारणा में भी ऐकान्तिक ज्ञान को मिथ्या कहा गया है। बुद्ध कहते हैंइस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध, जैन और गीता के आचार-दर्शन इस "भारद्वाज! सत्यानुरक्षक विज्ञ पुरुष को एकांश से ऐसी निष्ठा करना सम्बन्ध में एकमत हैं- अनैतिक आचरण के मार्ग में प्रवृत्ति का कारण योग्य नहीं है कि यही सत्य और बाकी सब मिथ्या है।" बुद्ध इस सारे व्यक्ति का मिथ्या दृष्टिकोण ही है।
कथानक में इसी बात पर बल देते हैं कि सापेक्षिक कथन के रूप में ही
सत्यानुरक्षक होता है अन्य प्रकार से नहीं । उदान में भी बुद्ध ने कहा हैमिथ्यात्व क्या है?
जो एकांतदर्शी हैं वे ही विवाद करते है १०। इस प्रकार बुद्ध ने भी एकांत जैन विचारकों की दृष्टि में वस्तुतत्त्व का अपने यथार्थ स्वरूप को मिथ्यात्व माना है। का बोध नहीं होना ही मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व लक्ष्य-विमुखता है, २. विपरीत- वस्तुतत्त्व का उसके स्व-स्वरूप के रूप में तत्त्वरुचि का अभाव है, सत्य के प्रति जिज्ञासा या अभीप्सा का अभाव ग्रहण नहीं कर उसके विपरीत रूप में ग्रहण करना भी मिथ्यात्व है। प्रश्न है। बुद्ध ने अविद्या को वह स्थिति माना है जिसके कारण व्यक्ति परमार्थ हो सकता है कि जब वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है और उसमें विरोधी
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारधर्म भी रहे हुए हैं तो सामान्य व्यक्ति जिसका ज्ञान अंशग्राही है, इस आत्मा विनाश को ही प्राप्त होता है।१५ विपरीत ग्रहण के दोष से बच नहीं सकता, क्योंकि उसने वस्तुतत्त्व के
५. अज्ञान- जैन विचारकों ने अज्ञान को पूर्वाग्रह, विपरीत जिस पक्ष को ग्रहण किया उसका विरोधी धर्म भी उसमें उपस्थित है। ग्रहण, संशय और ऐकान्तिक ज्ञान से पृथक् माना है। उपरोक्त चारों अत: उसका समस्त ग्रहण विपरीत ही होगा; लेकिन इस विचार में एक मिथ्यात्व के विधायक पक्ष कहे जा सकते हैं, क्योंकि इनमें ज्ञान तो भ्रान्ति है और वह यह है कि यद्यपि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है लेकिन यह उपस्थिति है लेकिन वह अयथार्थ है। इनमें ज्ञानाभाव नहीं वरन् ज्ञान की तो निरपेक्ष कथन है। एक अपेक्षा की दृष्टि से या जैन पारिभाषिक दृष्टि अयथार्थता है; जबकि अज्ञान ज्ञानाभाव है। अत: वह मिथ्यात्व का से कहें तो एक ही नय से वस्तुतत्त्व में दो विरोधी धर्म नहीं होते हैं, निषेधात्मक पक्ष प्रस्तुत करता है। अज्ञान नैतिक साधना का सबसे बड़ा उदाहरणार्थ-एक ही अपेक्षा से आत्मा को नित्य और अनित्य नहीं माना बाधक तत्त्व है क्योंकि ज्ञानाभाव में व्यक्ति को अपने लक्ष्य का भान नहीं जाता है। आत्मा द्रव्यार्थिक-दृष्टि से नित्य है तो पर्यायार्थिक-दृष्टि से हो सकता है, न वह कर्तव्याकर्तव्य का विचार कर सकता है। शुभाशुभ अनित्य है। अत: आत्मा को पर्यायार्थिक दृष्टि से भी नित्य मानना, यह में विवेक करने की क्षमता का अभाव अज्ञान ही है। ऐसे अज्ञान की विपरीत-ग्रहण मिथ्यात्व है। बुद्ध ने भी विपरीत-ग्रहण को मिथ्या दृष्टित्व अवस्था में नैतिक आचरण सम्भव नहीं होता। माना है और विभिन्न प्रकार के विपरीत-ग्रहणों को स्पष्ट किया है।११ गीता में भी विपरीत-ग्रहण को अज्ञान कहा गया है। अधर्म को धर्म और मिथ्यात्व के २५ प्रकार धर्म को अधर्म के रूप में मानने वाली बुद्धि को गीता में तामस कहा गया मिथ्यात्व के २५ भेदों का विवेचन हमें प्रतिक्रमणसूत्र में प्राप्त है (१८/३२)
होता है जिसमें से १० भेदों का विवेचन स्थानांगसूत्र में है, मिथ्यात्व के ३. वैनयिक- बिना बौद्धिक गवेषणा के परम्परागत तथ्यों, शेष भेदों का विवेचन मूलागम ग्रन्थों में यत्र-तत्र बिखरा हुआ मिलता है। धारणाओं, नियमोपनियमों को स्वीकार कर लेना वैनयिक मिथ्यात्व है। (१) धर्म को अधर्म समझना। यह एक प्रकार की रूढ़िवादिता है। वैनयिक मिथ्यात्व को बौद्ध-परम्परा (२) अधर्म को धर्म समझना। की दृष्टि से शीलव्रत परामर्श भी कहा जा सकता है। इसे क्रियाकाण्डात्मक (३) संसार (बन्धन) के मार्ग को मुक्ति का मार्ग समझना। मनोवृत्ति भी कहा जा सकता है। गीता में इस प्रकार के केवल रूढ़ (४) मुक्ति के मार्ग को बन्धन का मार्ग समझना। व्यवहार की निन्दा की गई है। वह कहती है- ऐसी क्रियाएँ जन्म-मरण जड़ पदार्थों को चेतन (जीव) समझना। को बढ़ाने वाली और त्रिगुणात्मक होती है। १२
आत्मतत्त्व (जीव) को जड़ पदार्थ (अजीव) समझना। ४. संशय- संशयावस्था को भी जैन-विचारणा में मिथ्यात्व (७) असम्यक् आचरण करने वालों को साधु समझना। माना गया है। यद्यपि जैन दार्शनिकों की दृष्टि में संशय को नैतिक (८) सम्यक् आचरण करने वालों को असाधु समझना। विकास की दृष्टि से अनुपादेय माना गया है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं (९) मुक्तात्मा को बद्ध मानना। है कि जैन विचारकों ने संशय को इस कोटि में रखकर उसके मूल्य को (१०) राग-द्वेष से युक्त को मुक्त समझना१६। भुला दिया है। जैन विचारक भी आज के वैज्ञानिकों की तरह संशय को (११) आभिग्रहिक मिथ्यात्व-परम्परागत रूप में प्राप्त धारणाओं को ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते हैं। प्राचीनतम जैनागम आचारांगसूत्र बिना समीक्षा के अपना लेना अथवा उनसे जकड़े रहना। में कहा गया है “जो संशय को जानता है वही संसार के स्वरूप का (१२) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व- सत्य को जानते हुए भी उसे स्वीकार परिज्ञाता होता है, जो संशय को नहीं जानता वह संसार के स्वरूप का नहीं करना अथवा सभी मतों को समान मूल्य वाला समझना। भी परिज्ञाता नहीं हो सकता१३। लेकिन जहाँ तक साधनात्मक जीवन का (१३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व-अभिमान की रक्षा के निमित्त असत्य प्रश्न है हमें संशय से ऊपर उठना होगा। जैन विचारक आचार्य आत्मारामजी
मान्यता को हठपूर्वक पकड़े रहना। महाराज आचारांगसूत्र की टीका में लिखते हैं- "संशय ज्ञान कराने में (१४) सांशयिक मिथ्यात्व-संशयशील बने रहकर सत्य का निश्चय सहायक है परन्तु यदि वह जिज्ञासा की सरल भावना का परित्याग करके नहीं कर पाना। केवल सन्देह करने की कुटिल वृत्ति अपना लेता है, तो वह पतन का (१५) अनाभोग मिथ्यात्व-विवेक अथवा ज्ञानक्षमता का अभाव। कारण बन जाता है।"१४ संशयावस्था वह स्थिति है जिसमें प्राणी सत् (१६) लौकिक मिथ्यात्व-लोक रूढ़ि में अविचारपूर्वक बँधे रहना।
और असत् की कोई निश्चित धारणा नहीं रखता है। सांशयिक अवस्था (१७) लोकोत्तर मिथ्यात्व-पारलौकिक उपलब्धियों के निमित्त स्वार्थवश अनिर्णय की अवस्था है। सांशयिक ज्ञान सत्य होते हुए भी मिथ्या ही धर्म-साधना करना। होगा। नैतिक दृष्टि से ऐसा साधक कब पथ-भ्रष्ट हो सकता है यह नहीं (१८) कुप्रवचन मिथ्यात्व-मिथ्या दार्शनिक विचारणाओं को स्वीकृत कहा जा सकता। वह तो लक्ष्योन्मुखता और लक्ष्यविमुखता के मध्य
करना। हिण्डोले की भाँति झूलता हुआ अपना समय व्यर्थ करता है। गीता भी (१९) न्यून मिथ्यात्व-पूर्ण सत्य अथवा तत्त्व स्वरूप को आंशिक यही कहती है कि संशय की अवस्था में लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। संशयी सत्य समझ लेना अथवा न्यून मानना।
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार
(२१)
(२०) अधिक मिथ्यात्व-आंशिक सत्य को उससे अधिक अथवा पूर्ण अयोग्य कहना। सत्य समझ लेना।
प्रायश्चित्त के अयोग्य (अप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित्त के विपरीत मिथ्यात्व-वस्तुतत्त्व को उसके विपरीत रूप में समझना। योग्य (सप्रतिकर्म) कहना। (२२) अक्रिया मिथ्यात्व-आत्मा को ऐकान्तिक रूप से अक्रिय
मानना अथवा सिर्फ ज्ञान को महत्त्व देकर आचरण के प्रति गीता में अज्ञान : उपेक्षा रखना।
गीता के मोह, अज्ञान या तामसिक ज्ञान भी मिथ्यात्व कहे जा (२३) अज्ञान मिथ्यात्व-ज्ञान अथवा विवेक का अभाव। सकते हैं। इस आधार पर विचार करने से गीता में मिथ्यात्व का निम्न (२४) अविनय मिथ्यात्व-पूज्य वर्ग के प्रति समुचित सम्मान स्वरूप उपलब्ध होता है
प्रकट न करना अथवा उनकी आज्ञाओं का परिपालन १. परमात्मा लोक का सर्जन करने वाला, कर्म का कर्ता एवं कर्मों नहीं करना। पूज्यबुद्धि और विनीतता का अभाव अविनय- के फल का संयोग करने वाला है अथवा वह किसी के पाप-पुण्य मिथ्यात्व है।
को ग्रहण करता है, यह मानना अज्ञान है (५-१४, १५)। (२५) आसातना मिथ्यात्व-पूज्य वर्ग की निन्दा और आलोचना करना। २. प्रमाद, आलस्य और निद्रा अज्ञान है (१४-८), धन परिवार
अविनय और आसातना को मिथ्यात्व इसलिए कहा गया है एवं दान का अहंकार करना अज्ञान है (१६-१५), विपरीत कि इनकी उपस्थिति से व्यक्ति गुरुजनों का यथोचित सम्मान नहीं ज्ञान के द्वारा क्षणभंगुर नाशवान् शरीर में आत्म-बुद्धि रखना करता है और फलस्वरूप उनसे मिलने वाले यथार्थता के बोध से व उसमें सर्वस्व की भाँति आसक्त रहना, जो कि तत्त्व-अर्थ से वंचित रहता है।
रहित और तुच्छ है, तामसिक ज्ञान है (१८-१२)। इसी
प्रकार असद् का ग्रहण, अशुभ आचरण (१६-१०) और बौद्ध-दर्शन में मिथ्यात्व के प्रकार
संशयात्मकता को भी गीता में अज्ञान कहा गया है। महात्मा बुद्ध ने सद्धर्म का विनाश करने वाली कुछ धारणाओं का विवेचन अंगुत्तरनिकाय१० में किया है जो कि जैन-विचारणा के पाश्चात्य दर्शन में मिथ्यात्व का प्रत्यय मिथ्यात्व की धारणा के बहुत निकट है। तुलना की दृष्टि से हम उनकी मिथ्यात्व यथार्थता के बोध का बाधक तत्त्व है। वह एक ऐसा संक्षिप्त सूची प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसके आधार पर यह जाना जा सके रंगीन चश्मा है जो वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को आवृत कर व्यक्ति के कि दोनों विचार-परम्पराओं का इस सम्बन्ध में कितना अधिक साम्य है। समक्ष उसका अयथार्थ किंवा प्रान्त स्वरूप ही प्रकट करता है। भारत ही अधर्म को अधर्म बताना।
नहीं, पाश्चात्य देशों के विचारकों ने भी यथार्थता या सत्य के जिज्ञासु को धर्म को धर्म बताना।
मिथ्या धारणाओं से परे रहने का संकेत किया है। पाश्चात्य दर्शन के भिक्षु अनियम (अविनय) को भिक्षुनियम (विनय) बताना। नवयुग के प्रतिनिधि फ्रांसिस बेकन शुद्ध और निर्दोष ज्ञान की प्राप्ति के भिक्षु नियम को अनियम बताना।
लिए मानस को निम्न चार मिथ्या धारणाओं से मुक्त रखने का निर्देश तथागत (बुद्ध) द्वारा अभाषित को तथागत भाषित कहना। करते हैं, चार मिथ्या धारणाएँ निम्न हैंतथागत द्वारा भाषित को अभाषित कहना।
(१) जातिगत मिथ्या धारणाएँ (Idola Tribus)-सामाजिक संस्कारों तथागत द्वारा अनाचरित को आचरित कहना।
से प्राप्त मिथ्या धारणाएँ। तथागत द्वारा आचरित को अनाचरित कहना।
बाजारू मिथ्या विश्वास (Idola Fori)- असंगत अर्थ आदि। तथागत द्वारा नहीं बनाए हुए (अप्रज्ञप्त) नियम को प्रज्ञप्त कहना। व्यक्तिगत मिथ्या विश्वास (Idola Speces)- व्यक्ति के द्वारा तथागत द्वारा प्रज्ञप्त (बनाए हुए नियम) को अप्रज्ञप्त बताना।
बनाई गयी मिथ्या धारणाएँ (पूर्वाग्रह) अनपराध को अपराध कहना।
रंगमंच की भ्रान्ति (Idola Theatri)- मिथ्या सिद्धान्त या अपराध को अनपराध कहना।
मान्यताएँ। लघु अपराध को गुरु अपराध कहना।
वे कहते हैं- 'इन मिथ्या विश्वासों (पूर्वाग्रहों) से मानस को मुक्त गुरु अपराध को लघु अपराध कहना।
करके ही ज्ञान को यथार्थ और निर्दोष रूप में ग्रहण करना चाहिए। १८ गम्भीर अपराध को अगम्भीर कहना। अगम्भीर अपराध को गम्भीर कहना।
जैन-दर्शन में अविद्या का स्वरूप निर्विशेष अपराध को सविशेष कहना।
जैन-दर्शन में अविद्या का पर्यायवाची शब्द मोह भी है। मोह १८. सविशेष अपराध को निर्विशेष कहना।
आत्मा को सत् के सम्बन्ध में यथार्थ दृष्टि को विकृत कर उसे गलत १९. प्रायश्चित्त-योग्य (सप्रतिकर्म) आपत्ति को प्रायश्चित के मार्ग-दर्शन करता है और असम्यक् आचरण के लिए प्रेरित करता है।
(४)
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारपरमार्थ और सत्य के सम्बन्ध में जो अनेक प्रान्त धारणाएँ आती हैं एवं जन्म-मरण की परम्परा और दुःख की मूल यही अविद्या है। जिस प्रकार असदाचरण होता है उनका आधार यही मोह है। मिथ्यात्व, मोह या जैन-दर्शन में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती, उसी प्रकार अविद्या के कारण व्यक्ति की दृष्टि दूषित होती है और परिणामस्वरूप बौद्ध-दर्शन में भी अविद्या की पूर्वकोटि नहीं जानी जा सकती है। यह व्यक्ति की परम मूल्यों के सम्बन्ध में प्रान्त धारणाएँ बन जाती हैं। वह एक ऐसी सत्ता है जिसको समझ सकना कठिन है। हमें बिना अधिक उन्हें ही परम मूल्य मान लेता है जो कि वस्तुत: परम मूल्य या सर्वोच्च गहराइयों में उतरे इसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेना पड़ेगा। अविद्या मूल्य नहीं होते हैं।
समस्त जीवन की पूर्ववर्ती आवश्यक अवस्था है, इसके पूर्व कुछ नहीं; जैन-दर्शन में अविद्या और विद्या का अन्तर करते हुए समयसार क्योंकि जन्म-मरण की प्रक्रिया का कहीं आरम्भ नहीं खोजा जा सकता में आचार्य कुन्दकुन्द बताते हैं कि जो पुरुष अपने से अन्य पर-द्रव्य है; लेकिन दूसरी ओर इसके अस्तित्व से इन्कार भी नहीं किया जा सचित्त स्त्री-पुत्रादिक, अचित्त धनधान्यादिक, मिश्र ग्रामनगरादिक-इनको सकता है। स्वयं जीवन या जन्म-मरण की परम्परा इसका प्रमाण है कि ऐसा समझे कि मेरे हैं, ये मेरे पूर्व में थे, इनका मैं पहले भी था तथा ये अविद्या उपस्थित है अविद्या का उद्भव कैसे होता है, यह नहीं बताया जा मेरे आगामी होंगे; मैं भी इनका आगामी होऊँगा ऐसा झूठा आत्म विकल्प सकता है। अश्वघोष के अनुसार-'तथता' से ही अविद्या का जन्म होता करता है वह मूढ़ है और जो पुरुष परमार्थ को जानता हुआ ऐसा झूठा है।२० डा. राधाकृष्णन् की दृष्टि में बौद्ध-दर्शन में अविद्या उस परम विकल्प नहीं करता है, वह मूढ़ नहीं है, ज्ञानी है।१९
सत्ता, जिसे आलयविज्ञान, तथागतधर्म, शून्यता, धर्मधातु एवं तथता जैन-दर्शन में अविद्या या मिथ्यात्व केवल आत्मनिष्ठ (Sub- कहा गया है, की वह शक्ति है, जो विश्व के भीतर से व्यक्तिगत जीवनों jective) ही नहीं है, वरन् वह वस्तुनिष्ठ भी है। जैन-दर्शन में की श्रृंखला को उत्पन्न करती है। यह यथार्थ सत्ता ही अन्दर विद्यमान मिथ्यात्व का अर्थ है- सम्यक् ज्ञान का अभाव या विपरीत ज्ञान। उसमें निषेधात्मक तत्त्व है हमारी सीमित बुद्धि इसकी तह में इससे अधिक और एकान्तिक दृष्टिकोण मिथ्याज्ञान है। दूसरे जैन-दर्शन में मिथ्यात्व प्रवेश नहीं कर सकती।२१ अकेला ही बन्धन का कारण नहीं है। वह बन्धन का प्रमुख कारण
सामान्यतया अविद्या का अर्थ चार आर्यसत्यों का ज्ञानाभाव है। होते हुए भी उसका सर्वस्व नहीं है। मिथ्या-दर्शन के कारण ज्ञान माध्यमिक एवं विज्ञानवादी विचारकों के अनुसार इन्द्रियानुभूति के विषय दूषित होता है और ज्ञान के दूषित होने से आचरण या चारित्र दूषित इस जगत् की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है या परतंत्र एवं सापेक्षित है, इसे होता है। इस प्रकार मिथ्यात्व अनैतिक जीवन का प्रारम्भिक बिन्दु है यथार्थ मान लेना ही अविद्या है। दूसरे शब्दों में, अयथार्थ अनेकता को
और अनैतिक आचरण उसकी अन्तिम परिणति है। नैतिक जीवन के यथार्थ मान लेना यही अविद्या का कारण है, इसी में से वैयक्तिक अहं लिए मिथ्यात्व से मुक्त होना आवश्यक है, क्योंकि जब तक दृष्टि का प्रादुर्भाव होता है और यहीं से तृष्णा का जन्म होता हैं। बौद्ध-दर्शन दूषित है, ज्ञान भी दूषित होगा और जब तक ज्ञान दूषित है तब तक के अनुसार भी अविद्या और तृष्णा (अनैतिकता) में पारस्परिक कार्यआचरण भी सम्यक् या नैतिक नहीं हो सकता। नैतिक जीवन में कारण सम्बन्ध है। अविद्या के कारण तृष्णा और तृष्णा के कारण अविद्या प्रगति के लिए प्रथम शर्त है-मिथ्यात्व से मुक्त होना।
उत्पन्न होती है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में मोह के दो कार्य दर्शन-मोह जैन दर्शनिकों की दृष्टि में मिथ्यात्व की पूर्वकोटि का पता नहीं और चारित्र-मोह-हैं उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में अविद्या के दो कार्यलगाया जा सकता, वह अनादि है, फिर भी वह अनन्त नहीं माना गया ज्ञेयावरण एवं क्लेशावरण हैं। ज्ञेयावरण की तुलना दर्शन-मोह से और है। जैन-दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो भव्य जीवों की क्लेशावरण की तुलना चारित्र-मोह से की जा सकती है। जिस प्रकार अपेक्षा से मिथ्यात्व अनादि और सान्त है और अभव्य जीवों की अपेक्षा वैदिक-परम्परा में माया को अनिर्वचनीय माना गया है उसी प्रकार बौद्धसे वह अनादि और अनन्त है। आत्मा पर अविद्या या मिथ्यात्व का परम्परा में भी अविद्या को सत् और असत् दोनों ही कोटियों से परे माना आवरण कब से है यह पता नहीं लगाया जा सकता है, यद्यपि अविद्या गया है। विज्ञानवाद एवं शून्यवाद के सम्प्रदायों की दृष्टि में नानारूपात्मक या मिथ्यात्व से मुक्ति पाई जा सकती है। एक ओर मिथ्यात्व का कारण जगत् को परमार्थ मान लेना अविद्या है। मत्रेयनाथ ने अभूतपरिकल्प अनैतिकता है तो दूसरी ओर अनैतिकता का कारण मिथ्यात्व है। इसी (अनेकता का ज्ञान) की विवेचना करते हुए बताया कि उसे सत् और प्रकार सम्यक्त्व का कारण नैतिकता और नैतिकता का कारण सम्यक्त्व असत् दोनों ही नहीं कहा जा सकता है। वह सत् इसलिए नहीं है क्योंकि है। नैतिक आचरण के परिणामस्वरूप सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण का परमार्थ में अनेकता या द्वैत का कोई अस्तित्व नहीं है और वह असत् उद्भव होता है और सम्यक्त्व या यथार्थ दृष्टिकोण के कारण नैतिक इसलिए नहीं है कि उसके प्रहाण से निर्वाण का लाभ होता है।२२ इस आचरण होता है।
प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध-दर्शन के परवर्ती सम्प्रदायों में अविद्या का
स्वरूप बहुत कुछ वेदान्तिक माया के समान बन गया है। बौद्ध-दर्शन में अविद्या का स्वरूप
बौद्ध-दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रथम कड़ी अविद्या ही समीक्षा मानी गयी है। अविद्या से उत्पन्न व्यक्तित्व ही जीवन का मूलभूत पाप है। बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद और शून्यवाद के सम्प्रदायों में
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारअविद्या का जो स्वरूप बताया गया है वह आलोचना का विषय ही रहा प्रति आसक्ति एवं मिथ्या दृष्टिकोण है और माया एक ऐसी शक्ति है है। विज्ञानवादी और शून्यवादी विचारक अपने निरपेक्ष दृष्टिकोण के जिससे यह अनेकतामय जगत् अस्तित्ववान् प्रतीत होता है। माया इस आधार पर इन्द्रियानुभूति के विषयों को अविद्या या वासना का काल्पनिक नानारूपात्मक जगत् का आधार है और अविद्या हमें उससे बाँधे हुए प्रत्यय मानते हैं। दूसरे, उनके अनुसार अविद्या आत्मनिष्ठ (Subjec- रखती है। वेदान्तिक दर्शन में माया अद्वय अविकार्य परमसत्ता की tive) है। जैन दार्शनिकों ने उनकी इस मान्यता को अनुचित ही माना है नानारूपात्मक जगत् के रूप में प्रतीति हैं। वेदान्त में माया न तो सत् है क्योंकि प्रथमत: अनुभव के विषयों को अनादि अविद्या के काल्पनिक और असत् है उसे चतुष्कोटिविनिर्मुक्त कहा गया है।२७ वह सत् इसलिए प्रत्यय मानकर इन्द्रियानुभूति के ज्ञान को असत्य बताया गया है। जैन नहीं है कि उसका निरसन किया जा सकता है। वह असत् इसलिए नहीं दार्शनिकों की दृष्टि में इन्द्रियानुभूति के विषयों को असत् नहीं माना जा है कि उसके आधार पर व्यवहार होता है। वेदान्तिक दर्शन में माया जगत् सकता, वे तर्क और अनुभव दोनों को ही यथार्थ मानकर चलते हैं। की व्याख्या और उसकी उत्पत्ति का सिद्धान्त है, जबकि अविद्या वैयक्तिक उनके अनुसार तार्किक ज्ञान (बौद्धिक ज्ञान) और अनुभूत्यात्मक ज्ञान- आसक्ति है। दोनों ही यथार्थता का बोध करा सकते हैं। बौद्ध-दार्शनिकों की यह धारणा कि 'अविद्या केवल आत्मगत है' जैन दार्शनिकों को स्वीकार नहीं समीक्षा है। वे अविद्या का वस्तुगत आधार भी मानते हैं। उनकी दृष्टि में बौद्ध वेदान्त-दर्शन में माया एक अर्ध सत्य है जबकि तार्किक दृष्टिकोण एकांगी ही सिद्ध होता है। बौद्ध-दर्शन कोअविद्या की विस्तृत दृष्टि से माया या तो सत्य हो सकती है या असत्य। जैन-दार्शनिकों समीक्षा आदरणीय श्री नथमल टाटिया ने अपनी पुस्तक 'स्टडीज इन के अनुसार सत्य सापेक्षिक अवश्य हो सकता है लेकिन अर्ध सत्य जैन फिलॉसफी' में की है।२३ हमें विस्तार भय से और अधिक गहराई में (Half Truth) ऐसी कोई अवस्था नहीं हो सकती है। यदि अद्वय उतरना आवश्यक नहीं लगता है।
परमार्थ को नानारूपात्मक मानना यह अविद्या है तो जैन दार्शनिकों गीता में अविद्या, अज्ञान और माया शब्द का प्रयोग हमें को यह दृष्टिकोण स्वीकार नहीं है। यद्यपि जैन, बौद्ध और वैदिक मिलता है। गीता में अज्ञान और माया सामान्यतया दो भिन्न-भिन्न अर्थों परम्पराएँ अविद्या की इस व्याख्या में एकमत हैं कि अविद्या या मोह में ही प्रयुक्त हुए हैं। अज्ञान वैयक्तिक है जबकि माया एक ईश्वरीय शक्ति का अर्थ अनात्म में आत्मबुद्धि है। है। गीता में अज्ञान का अर्थ परमात्मा के उस वास्तविक स्वरूप के ज्ञान का अभाव है जिस रूप में वह जगत् में व्याप्त होते हुए भी उससे परे उपसंहार है। गीता में अज्ञान विपरीत ज्ञान, मोह, अनेकता को यथार्थ मान लेना अज्ञान, अविद्या या मोह की उपस्थिति ही हमारी सम्यक आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। ज्ञान के सात्त्विक, राजस और प्रगति का सबसे बड़ा अवरोध है। हमारे क्षुद्र व्यक्तित्व और परमात्मतत्व तामस प्रकारों का विवेचन करते हुए गीता में यह स्पष्ट बताया गया है के बीच सबसे बड़ी बाधा है। उसके हटते ही हम अपने को अपने में ही कि अनेकता को यथार्थ मानने वाला दृष्टिकोण या ज्ञान राजस है। इसी उपस्थित कर परमात्मा के निकट खड़ा फते हैं। फिर भी प्रश्न है कि इस प्रकार यह मानना कि परम तत्त्व मात्र इतना ही है, यह ज्ञान तामस है।२४ अविद्या या मिथ्यात्व से मुक्ति कैसे हो? वस्तुत: अविद्या से मुक्ति के यद्यपि गीता में माया को व्यक्ति के दुःख एवं बन्धन का कारण माना गया लिए यह आवश्यक नहीं कि हम अविद्या या अज्ञान को हटाने का प्रयत्न है। क्योंकि यह एक भ्रान्त आंशिक चेतना का पोषण करती है और उस करें क्योंकि उसके हटाने के सारे प्रयास वैसे ही निरर्थक होंगे जैसे कोई रूप में पूर्ण यथार्थता का ग्रहण सम्भव नहीं होता। फिर भी हमें यह अन्धकार को हटाने के प्रयत्न करे। जैसे प्रकाश के होते ही अन्धकार स्मरण रखना चाहिए कि गीता में माया ईश्वर की ऐसी कार्यकारी शक्ति स्वयं ही समाप्त हो जाता है उसकी प्रकार ज्ञान रूप प्रकाश या सम्यक् भी है जिसके माध्यम से परमात्मा इस नानारूपात्मक जगत् में अपने को दृष्टि के उत्पन्न होते ही अज्ञान या अविद्या का अन्धकार समाप्त हो जाता अभिव्यक्त करता है। वैयक्तिक दृष्टि से माया परमार्थ का आवरण कर हैं। आवश्यकता इस बात की नहीं है कि हम अविद्या या मिथ्यात्व को व्यक्ति को उसके यथार्थ ज्ञान से वंचित करती है, जबकि परमसत्ता को हटाने का प्रयत्न करें वरन् आवश्यकता इस बात की है कि हम अपेक्षा से वह उसकी एक शक्ति ही सिद्ध होती है।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की ज्योति को प्रज्वलित करें ताकि अविद्या वेदान्त दर्शन में अविद्या का अर्थ अद्वय परमार्थ में अनेकता या अज्ञान का तमिस्र समाप्त हो जाये। की कल्पना है। बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है कि जो अद्वय में अनेकता का दर्शन करता है वह मृत्यु को प्राप्त होता है।२५ इसके सम्यक्त्व विपरीत अनेकता में एकता का दर्शन यह सच्चा ज्ञान है। ईशावास्योपनिषद्
जैन-परम्परा में सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्व या सम्यग्दृष्टित्व शब्दों में कहा गया है कि जो सभी को परमात्मा में और परमात्मा में सभी को का प्रयोग समानार्थक रूप में हुआ है। यद्यपि आचार्य जिनभद्र ने स्थित देखता है, उस एकत्वदर्शी को न विजुगुप्सा होती है और न उसे विशेषावश्यकभाष्य में सम्यक्त्व और सम्यग्दर्शन के भिन्न-भिन्न अर्थों का कोई मोह या शोक होता है।२६ वेदान्तिक परम्परा में अविद्या जगत् के निर्देश किया है।२८ अपने भिन्न अर्थ में सम्यक्त्व वह है जिसकी
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारउपस्थिति से श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते हैं। सम्यक्त्व का ग्रन्थकर्ता की दृष्टि में यद्यपि सम्यक्त्व यथार्थता की अभिव्यक्ति करता है अर्थ-विस्तार सम्यग्दर्शन से अधिक व्यापक है, फिर भी सामान्यतया लेकिन यथार्थता जिस ज्ञानात्मक तथ्य के रूप में उपस्थित होती है, सम्यग्दर्शन और सम्यक्त्व शब्द एक ही अर्थ में प्रयोग किए गए हैं। वैसे उसके लिए सत्याभीप्सा या रुचि आवश्यक है। सम्यक्त्व शब्द में सम्यकदर्शन निहित ही है।
दर्शन का अर्थ सम्यक्त्व का अर्थ
दर्शन शब्द भी जैनागमों में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। सबसे पहले हमें इसे स्पष्ट कर लेना होगा कि सम्यक्त्व या जीवादि पदाथों के स्वरूप को देखना, जानना, श्रद्धा करना दर्शन कहा सम्यक् शब्द का क्या अभिप्राय है। सामान्य रूप में सम्यक् या सम्यक्त्व जाता है।३० सामान्यतया दर्शन शब्द देखने के अर्थ में व्यवहार किया शब्द सत्यता या यथार्थता का परिचायक है, उसे हम उचितता भी कह जाता है लेकिन यहाँ पर दर्शन शब्द का अर्थ मात्र नेत्रजन्य बोध नहीं है। 'सकते हैं। सम्यक्त्व का अर्थ तत्त्वरुचि२९ भी है। इस अर्थ में सम्यक्त्व उसमें इन्द्रियबोध, मनबोध और आत्मबोध सभी सम्मिलित हैं। दर्शन
सत्याभिरुचि या सत्य की अभीप्सा है। दूसरे शब्दों में, इसको सत्य के शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जैन-परम्परा में काफी विवाद रहा है। दर्शन प्रति जिज्ञासावृत्ति या मुमुक्षुत्व भी कहा जा सकता है। अपने दोनों ही शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध और अर्थों में सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है।३१ नैतिक जीवन की दृष्टि से विचार करने जैन-नैतिकता का चरम आदर्श आत्मा के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि है, पर दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ किया गया है।३२ दर्शन शब्द के लेकिन यथार्थ की उपलब्धि भी तो यथार्थता से सम्भव होगी, अयथार्थ स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग, उसके दृष्टिकोणपरक अर्थों का द्योतक से तो यथार्थ पाया नहीं जा सकता। यदि साध्य यथार्थता की उपलब्धि है है। प्राचीन जैन-आगमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग तो साधना भी यथार्थ ही चाहिए। जैन-विचारणा साध्य और साधना की बहुलता से देखा जाता है। तत्त्वार्थसूत्र३३ और उत्तराध्ययनसूत्र ३४ में एकरूपता में विश्वास करती है। वह यह मानती है कि अनुचित साधना दर्शन शब्द का अर्थ तत्त्वश्रद्धा माना गया है। परवर्ती जैन-साहित्य में से प्राप्त किया लक्ष्य भी अनुचित ही है, वह उचित नहीं कहा जा सकता। दर्शन शब्द का देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी सम्यक् को सम्यक् से ही प्राप्त करना होता है। असम्यक् से जो भी व्यवहार किया गया है।३५ इस प्रकार जैन-परम्परा में सम्यक् दर्शन तत्त्वमिलता है, पाया जाता है, वह असम्यक् ही होता है। अत: आत्मा के साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि के लिए उन्होंने जिन साधनों का विधान आदि अर्थों को अपने में समेटे हुए हैं। इन पर थोड़ी गहराई से विचार किया उनका सम्यक् होना आवश्यक माना गया। वस्तुत: ज्ञान, दर्शन करना अपेक्षित है।
और चारित्र का नैतिक मूल्य उनके सम्यक होने में समाहित है। जब ज्ञान; दर्शन और चारित्र सम्यक् होते हैं तो वे मुक्ति या निर्वाण के साधन बनते क्या सम्यग्दर्शन के उपर्युक्त अर्थ परस्पर विरोधी हैं हैं। लेकिन यदि वे ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र मिथ्या होते हैं तो बन्धन सम्यग्दर्शन शब्द के विभिन्न अर्थों पर विचार करने से पहले का कारण बनते हैं। बन्धन और मुक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र पर निर्भर हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौन-सा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से नहीं वरन् उनकी सम्यक्तताऔर मिथ्यात्व पर आधारित हैं। सम्यक्ज्ञान, प्रथम था और उसके पश्चात् किन-किन ऐतिहासिक परिस्थितियों के सम्यग्दर्शन और सम्यक्-चारित्र मोक्ष का मार्ग है जबकि मिथ्याज्ञान, कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थों में प्रयुक्त हुआ। प्रथमतः हम देखते मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र ही बन्धन का मार्ग है।
हैं कि बुद्ध और महावीर के अपने समय में प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक अपने आचार्य जिनभद्र की धारणा के अनुसार यदि सम्यक्त्व का सिद्धान्त को सम्यग्दृष्टि और दूसरे के सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था। अर्थ तत्त्वरुचि या सत्याभीप्सा करते हैं तो सम्यक्त्व का नैतिक साधना बौद्धागमों में ६२ मिथ्यादृष्टियों एवं जैनागम सूत्रकृतांग में६३ मिथ्यादृष्टियों में महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। नैतिकता की साधना आदर्शोन्मुख का विवेचन मिलता है। लेकिन वहाँ पर मिथ्यादृष्टि शब्द अश्रद्धा अथवा गति है लेकिन जिसके कारण वह गति है, साधना है, वह तो सत्याभीप्सा मिथ्याश्रद्धा के अर्थ में नहीं वरन् गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त ही है। साधक में जब तक सत्याभीप्सा या तत्वावि नागत नहीं होती तब हुआ है। बाद में जब यह प्रश्न उठा कि गलत दृष्टिकोण को किस सन्दर्भ तक वह नैतिक प्रगति की ओर अग्रसर ही नहीं हो सकता। सत्य की चाह में माना जाय, तो कहा गया कि जीव (आत्मतत्त्व) और जगत के या सत्य की प्यास ही ऐसा तत्त्व है जो उसे साधना-मार्ग में प्रेरित करता सम्बन्ध में जो गलत दृष्टिकोण है, वही मिथ्यादर्शन या मिथ्यादृष्टि है। है। जिसे प्यास नहीं, वह पानी की प्राप्ति का क्यों प्रयास करेगा? जिसमें इस प्रकार मिथ्यादृष्टि से तात्पर्य हुआ आत्मा और जगत के विषय में सत्य की उपलब्धि की चाह (तत्त्वरुचि) नहीं वह क्यों साधना करने गलत दृष्टिकोण। उस युग में प्रत्येक धर्म-मार्ग का प्रवर्तक आत्मा और लगा? प्यासा ही पानी की खोज करता है। तत्त्वरुचि या सत्याभीप्सा से जगत् के स्वरूप के विषय में अपने दृष्टिकोण को सम्यक दृष्टिकोण युक्त व्यक्ति ही आदर्श की प्राप्ति के निमित्त साधना के मार्ग पर आरूढ़ अथवा सम्यग्दर्शन और अपने विरोधी के दृष्टिकोण को मिथ्यादृष्टि होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में दोनों अर्थों को समन्वित कर दिया गया है। अथवा मिथ्यादर्शन कहता था। बाद में प्रत्येक सम्प्रदाय जीवन और
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन साधना एवं आचार
जगत् सम्बन्धी अपने दृष्टिकोण पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहने लगा और जो लोग उसकी मान्यताओं के विपरीत मान्यता रखते थे उनको मिथ्यावादी कहने लगा और उनकी मान्यता को मिथ्यादर्शन। इस प्रकार सम्यग्दर्शन शब्द तत्वार्थश्रद्धान् (जीव और जगत् के स्वरूप की) के अर्थ में अभिरूत हुआ। लेकिन तत्त्वार्थश्रद्धान के अर्थ में भी सम्यग्दर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नहीं हुआ था। यद्यपि उसकी भावना में दिशा बदल चुकी थी, उसमें श्रद्धा का तत्त्व प्रविष्ट हो गया था लेकिन वह श्रद्धा थी तत्त्व के स्वरूप की मान्यता के सन्दर्भ में वैयक्तिक श्रद्धा का विकास बाद की बात थी । श्रमण परम्परा में सम्यग्दर्शन का दृष्टिकोणपरक अर्थ ही ग्राह्य था जो बाद में तत्त्वार्थश्रद्धान् के रूप में विकसित हुआ यहाँ तक तो श्रद्धा में बौद्धिक पक्ष निहित था, श्रद्धा ज्ञानात्मक थी। लेकिन जैसे-जैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ, उसका प्रभाव जैन और बौद्ध श्रमण परम्पराओं पर भी पड़ा। तत्वार्थ की श्रद्धा जब 'बुद्ध' और 'जिन' पर केन्द्रित होने लगी- वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वैयक्तिक से वैयक्तिक बन गई जिसने जैन और बौद्ध परम्पराओं में भक्ति के तत्व का वपन किया । ३६ मेरी अपनी दृष्टि में आगम एवं पिटक ग्रन्थों के संकलन एवं लिपिबद्ध होने तक यह सब कुछ हो चुका था। अतः आगम और पिटक ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन का भाषाशास्त्रीय विवेचन पर आधारित यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ ही उसका प्रथम एवं मूल अर्थ है, लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र वीतराग पुरुष का ही हो सकता है, जहाँ तक व्यक्ति राग और द्वेष से युक्त है उसका दृष्टिकोण यथार्थ नहीं हो सकता। इस अर्थ को स्वीकार करने पर यथार्थ दृष्टिकोण तो साधनावस्था में सम्भव नहीं होगा, क्योंकि साधना की अवस्था सरागता की अवस्था है। साधक- आत्मा में तो राग और द्वेष दोनों की उपस्थिति होती है, साधक तो साधना ही इसलिए कर रहा है कि यह इन दोनों से मुक्त हो, इस प्रकार यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र सिद्धावस्था में होगा। लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण की आवश्यकता तो साधक के लिए है, सिद्ध को तो वह स्वाभाविक रूप में प्राप्त है। यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव में व्यक्ति का व्यवहार एवं साधना सम्यक् नहीं हो सकती अथवा अयथार्थ दृष्टिकोण ज्ञान और जीवन के व्यवहार को सम्यक् नहीं बना सकता है। यहाँ एक समस्या उत्पन्न होती है यथार्थ दृष्टिकोण का साधनात्मक जीवन में अभाव होता है और बिना यथार्थ दृष्टिकोण के साधना हो नहीं सकती। यह समस्या हमें ऐसी स्थिति में डाल देती कि जहाँ हमें साधना मार्ग की सम्भावना को ही अस्वीकृत करना होता है । यथार्थ दृष्टिकोण के बिना साधना सम्भव नहीं और यथार्थ दृष्टिकोण साधना काल में हो नहीं सकता ।
लेकिन इस धारणा में एक भ्रान्ति है, वह यह कि साधना मार्ग के लिए, दृष्टिकोण की यथार्थता के लिए, राग-द्वेष से पूर्ण विमुक्त दृष्टि का होना आवश्यक नहीं है, मात्र इतना आवश्यक है कि व्यक्ति अययार्थता को जाने और उसके कारण को जाने ऐसा साधक यथार्थता को नहीं जानते हुए भी सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि वह असत्य मानता है और उसके कारण को जानता है अतः वह भ्रान्त नहीं है, असत्य
के
कारण को जानने के कारण वह उसका निराकरण कर सत्य को पा सकेगा। यद्यपि पूर्ण यथार्थ दृष्टि तो एक साधक व्यक्ति में सम्भव नहीं है, फिर भी उसकी राग-द्वेषात्मक वृत्तियों में जब स्वाभाविक रूप से कमी हो जाती है तो इस स्वाभाविक परिवर्तन के कारण पूर्वानुभूति और पश्चानुभूति में अन्तर ज्ञात होता है और इस अन्तर के कारण के चिन्तन में उसे दो बातें मिल जाती हैं- एक तो यह कि उसका दृष्टिकोण दूषित है और उसकी दृष्टि की दूषितता का अमुक कारण है। यद्यपि यहाँ सत्य तो प्राप्त नहीं होता लेकिन अपनी असत्यता और उसके कारण का बोध हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप उसमें सत्याभीप्सा जाग्रत हो जाती है। यही सत्याभीप्सा उसे सत्य या यथार्थता के निकट पहुंचती है और जितने अंश में वह यथार्थता के निकट पहुँचाता है उतने ही अंश में उसका ज्ञान और चारित्र शुद्ध होता जाता है। ज्ञान और चारित्र की शुद्धता से पुनः राग और द्वेष में क्रमशः कमी होती है और उसके फलस्वरूप उसके दृष्टिकोण में और अधिक यथार्थता आ जाती है। इसी प्रकार क्रमशः व्यक्ति स्वत: ही साधना की चरम स्थिति में पहुँच जाता है। आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि जल जैसे-जैसे स्वच्छ होता जाता है वैसे-वैसे द्रष्टा उसमें प्रतिबिम्बित रूपों को स्पष्टतया देखने लगता है, उसी प्रकार अन्तर में ज्यों-ज्यों तत्त्वरुचि जाग्रत होती है त्यों-त्यों तत्त्व-ज्ञान प्राप्त होता जाता है इसे जैन परिभाषा में प्रत्येकबुद्ध (स्वतः ही यथार्थता को जानने वाले) का साधना मार्ग कहते हैं।
लेकिन प्रत्येक सामान्य साधक यथार्थ दृष्टिकोण को इस प्रकार प्राप्त नहीं करता है और उसके लिए यह सम्भव नही है; सत्य की स्वानुभूति का मार्ग कठिन है सत्य को स्वयं जानने की विधि की अपेक्षा दूसरा सहज मार्ग है और वह यह कि जिन्होंने स्वानुभूति से सत्य को जानकर उसका जो भी स्वरूप बताया है, उसको मानकर चलना । इसे ही जैनशाखकारों ने तत्त्वार्थश्रद्धान् कहा है अर्थात् यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त वीतराग ने अपने यथार्थ दृष्टिकोण में सत्ता का जो स्वरूप प्रकट किया है, उसे स्वीकार कर लेना। मान लीजिए कोई व्यक्ति पित्त विकार से पीड़ित है, अब ऐसी स्थिति में यह किसी श्वेत वस्तु के यथार्थ ज्ञान से वंचित होगा। उसे वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करने के दो मार्ग हो सकते है पहला मार्ग यह है कि उसकी बीमारी में स्वाभाविक रूप से जब कुछ कमी हो जाये और वह अपनी पूर्व और पश्चात् की अनुभूति में अन्तर पाकर अपने रोग को जाने और प्रयासों द्वारा उसे शान्त कर वस्तु के यथार्थस्वरूप का बोध पा जाये दूसरी स्थिति में जब किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा उसे यह बताया जावे कि वह श्वेत वस्तु को पीत वर्ण की देख रहा है। यहाँ पर इस स्वस्थ दृष्टि वाले व्यक्ति की बात को स्वीकार कर लेने पर भी उसे अपनी रुग्णावस्था या अपनी दृष्टि की दूषितता का ज्ञान हो जाता है और साथ ही वह वस्तुतत्त्व को यथार्थ रूप में जान भी लेता है। सम्यग्दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थश्रद्धान् उनमें वास्तविकता की दृष्टि से अन्तर नहीं होता है अन्तर होता है उनको उपलब्धि की विधि में। एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी
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सत्य का उद्घाटन करता है और वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता होने से शुद्ध होंगे। इस प्रकार जैन-विचारणा यह बताती है कि सम्यग्दर्शन हैं दूसरा व्यक्ति वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्व के के अभाव से विचार-प्रवाह सराग, सकाम या फलाशा से युक्त होता है यथार्थ स्वरूप को जानता है। दोनों दशाओं में व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ और यही कर्मों के प्रति रही हुई फलाशा बन्धन का कारण होने से ही कहा जायेगा, यद्यपि दोनों की उपलब्धि-विधि में अन्तर है। एक ने पुरुषार्थ को अशुद्ध बना देती है, जबकि सम्यग्दर्शन की उपस्थिति से उसे तत्त्व-साक्षात्कार या स्वत: की अनुभूति में पाया, तो दूसरे ने श्रद्धा विचार-प्रवाह वीतरागता, निष्कामता और अनासक्ति की ओर बढ़ता है, के माध्यम से।
फलाकांक्षा समाप्त हो जाती है अतः सम्यग्दृष्टि से युक्त सारा पुरुषार्थ वस्तुतत्त्व के प्रति दृष्टिकोण की यथार्थता जिन माध्यमों से परिशुद्ध होता है।४२ प्राप्त की जा सकती है, वे दो हैं- या तो व्यक्ति स्वयं तत्त्व-साक्षात्कार करे अथवा उन ऋषियों, साधकों के कथनों पर श्रद्धा करे जिन्होंने तत्त्व- बौद्ध-दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान साक्षात्कार किया है। तत्त्वश्रद्धा तो मात्र उस समय तक के लिए एक बौद्ध-दर्शन में सम्यग्दर्शन का क्या स्थान है, यह बुद्ध के अनिवार्य विकल्प है जब तक साधक तत्त्व-साक्षात्कार नहीं कर लेता। निम्न कथन से स्पष्ट हो जाता है। अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध कहते हैं किअन्तिम स्थिति तो तत्त्व-साक्षात्कार की ही है। इस सम्बन्ध में पं० भिक्षुओ! मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता जिससे सुखलाल जी लिखते हैं- “तत्त्वश्रद्धा ही सम्यग्दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अनुत्पन्न अकुशल-धर्म उत्पन्न होते हों तथा उत्पन्न अकुशल-धर्मों में अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तो तत्त्व-साक्षात्कार है। तत्त्वश्रद्धा तो वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओ! मिथ्या-दृष्टि। तत्त्व-साक्षात्कार का एक सोपान मात्र है। वह सोपान दृढ़ हो तभी भिक्षुओ! मिथ्यादृष्टि वाले में अनुत्पन्न अकुशल-धर्म पैदा हो यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्व का साक्षात्कार होता है।"३८
जाते हैं, उत्पन्न अकुशल-धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं।
भिक्षुओ! मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता जिससे जैन-आचार-दर्शन में सम्यग्दर्शन का स्थान
अनुत्पत्र कुशल-धर्म उत्पन्न हों तथा उत्पन्न कुशल-धर्मों में वृद्धि होती सम्यग्दर्शन जैन आचार-व्यवस्था का आधार है। नन्दीसूत्र में हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओ! सम्यग्दृष्टि। सम्यग्दर्शन को संघ रूपी सुमेरु पर्वत की अत्यन्त सुदृढ़ और गहन भिक्षुओ! सम्यग्दृष्टि वाले में अनुत्पन्न कुशल-धर्म उत्पन्न हो जाते भूपीठिका (आधारशिला) कहा गया है जिस पर ज्ञान और चारित्र रूपी हैं, उत्पन्न कुशल-धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं। ४३ इस उत्तम धर्म की मेखला अर्थात् पर्वतमाला स्थित रही हुई है।३९ जैन- प्रकार बुद्ध सम्यग्दृष्टि को नैतिक जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं। उनकी आचार-दर्शन में सम्यग्दर्शन को मुक्ति का अधिकार-पत्र कहा जा सकता दृष्टि में मिथ्यादृष्टिकोण इधर (संसार) का किनारा है और सम्यग्दृष्टिकोण है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सम्यग्दर्शन के बिना उधर (निर्वाण) का किनारा है।४४ बुद्ध के ये वचन यह स्पष्ट कर देते हैं कि सम्यग्ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के अभाव में आचरण में यथार्थता बौद्ध-दर्शन में सम्यग्दृष्टि का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है। या सचारित्रता नहीं आती और सचारित्रता के अभाव में कर्मावरण से मुक्ति सम्भव नहीं और कर्मावरण से जकड़े हुए प्राणी का निर्वाण नहीं वैदिक-परम्परा एवं गीता में सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) का स्थान होता।४० आचारांगसूत्र में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि पापाचरण नहीं वैदिक-परम्परा में भी सम्यग्दर्शन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता।४१ जैन-विचारणा के अनुसार आचरण का सत् अथवा असत् है। जैनदर्शन के समान ही मनुस्मृति में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि सम्पन्न होना कर्ता के दृष्टिकोण (दर्शन) पर निर्भर है। सम्यग्दृष्टित्व से परिनिष्पत्र व्यक्ति कर्म के बन्धन में नहीं आता है, लेकिन सम्यग्दर्शन से विहीन होने वाला आचरण सदैव सत् होगा और मिथ्यादृष्टि से परिनिष्पन्न होने व्यक्ति संसार में परिभ्रमित होता रहता है। वाला आचरण सदैव असत् होगा, इसी आधार पर सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्ट गीता में यद्यपि सम्यग्दर्शन शब्द का अभाव है फिर भी रूप से कहा गया है कि व्यक्ति प्रबुद्ध है, भाग्यवान है और पराक्रमी भी सम्यग्दर्शन को श्रद्धापरक अर्थ में लेने पर गीता में उसका महत्त्वपूर्ण है, लेकिन यदि उसका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका समस्त दान, स्थान सिद्ध हो जाता है। श्रद्धा गीता के आचार-दर्शन के केन्द्रीय तत्त्वों तप आदि पुरुषार्थ फलयुक्त होने के कारण अशुद्ध ही होगा। वह उसे में से एक है। 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानं" कहकर गीता में उसके महत्त्व को मुक्ति की ओर नहीं ले जाकर बन्धन की ओर ही ले जायेगा, क्योंकि स्पष्ट कर दिया है। गीता यह भी स्वीकार करती है कि व्यक्ति की जैसी असम्यग्दर्शी होने के कारण वह आसक्त (सराग) दृष्टि वाला होगा और श्रद्धा होती है, उसका जीवन के प्रति जैसा दृष्टिकोण होता है, वैसा ही आसक्त या फलाशापूर्ण विचार से परिनिष्पत्र होने के कारण उसके सभी वह बन जाता है।४५ गीता में श्रीकृष्ण ने यह कहकर कि यदि दुराचारी कार्य भी फलयुक्त होंगे और फलयुक्त होने से उसके बन्धन के कारण व्यक्ति भी मुझे भजता है अर्थात् मेरे प्रति श्रद्धा रखता है तो वह शीघ्र ही होंगे। अतः असम्यग्दर्शी व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ अशुद्ध ही कहा धर्मात्मा होकर चिरशांति को प्राप्त हो जाता है, इस कथन में सम्यग्दर्शन जायेगा, क्योंकि वह उसकी मुक्ति में बाधक होगा। लेकिन इसके विपरीत या श्रद्धा के महत्त्व को स्पष्ट कर दिया है।४६ गीता का यह कथन सम्यग्दृष्टि या वीतरागदृष्टिसम्पन्न व्यक्ति के सभी कार्य फलाशा से रहित आचारांग के उस कथन से कि 'सम्यग्दर्शी कोई पाप नहीं करता' काफी
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारअधिक साम्यता रखता है। आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य में भी उनकी यथार्थता पर श्रद्धा करना, यह विस्ताररुचि सम्यक्त्व है। सम्यग्दर्शन के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “सम्यग्दर्शननिष्ठ (८) क्रियारुचि सम्यक्त्व- प्रारम्भिक रूप से साधक-जीवन पुरुष संसार के बीज रूप अविद्या आदि दोषों का उन्मूलन नहीं कर सके की विभिन्न क्रियाओं के आचरण में रुचि हो और उस साधनात्मक ऐसा कदापि सम्भव नहीं हो सकता अर्थात् सम्यग्दर्शनयुक्त पुरुष निश्चितरूप अनुष्ठान के फलस्वरूप यथार्थता का बोध हो, वह क्रियारुचि से निर्वाण-लाभ करता है।"४७ आचार्य शंकर के अनुसार जब तक सम्यक्त्व है। सम्यक्दर्शन नहीं होता तब तक राग (विषयासक्ति) का उच्छेद नहीं होता (९) संक्षेपरुचि सम्यक्त्व- जो वस्तुतत्त्व का यथार्थ स्वरूप और जब तक राग का उच्छेद नहीं होता, मुक्ति सम्भव नही होती। नहीं जानता है और जो आर्हत् प्रवचन (ज्ञान) में प्रवीण भी नहीं है
सम्यग्दर्शन आध्यात्मिक जीवन का प्राण है। जिस प्रकार लेकिन जिसने अयथार्थ (मिथ्यादृष्टिकोण) को अंगीकृत भी नहीं किया, चेतना से रहित शरीर शव है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति जिसमें यथार्थ ज्ञान की अल्पता होते हुए भी मिथ्या (असत्य) धारणा चलता-फिरता शव है। जिस प्रकार शव लोक में त्याज्य होता है वैसे ही नहीं है ऐसा सम्यक्त्व संक्षेपरुचि कहा जाता है। आध्यात्मिक-जगत में यह चल-शव त्याज्य होता है।४८ वस्तुत: सम्यग्दर्शन (१०) धर्मरुचि सम्यक्त्व- तीर्थंकरदेव-प्रणीत धर्म में बताए एक जीवन-दृष्टि है। बिना जीवन-दृष्टि के जीवन का कोई अर्थ नहीं रह गए द्रव्य-स्वरूप, आगम-साहित्य एवं नैतिक नियम (चारित्र) पर जाता। व्यक्ति की जीवन-दृष्टि जैसी होती है उसी रूप में उसके चरित्र का आस्तिक्य भाव रखना, उन्हें यथार्थ मानना यह धर्मरुचि सम्यक्त्व है।५१ निर्माण हो जाता है। गीता में कहा गया है कि व्यक्ति श्रद्धामय है, जैसो श्रद्धा होती है वैसा ही वह बन जाता है।४९ असम्यग्जीवनदृष्टि पतन की सम्यक्त्व का त्रिविधि वर्गीकरण५२
ओर और सम्यग्जीवन-दृष्टि उत्थान की ओर ले जाती है इसलिए यथार्थ अपेक्षाभेद से सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण भी जैनाचार्यों ने जीवनदृष्टि का निर्माण जिसे भरतीय परम्परा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्दृष्टि किया है इस वर्गीकरण के अनुसार सम्यक्त्व के कारक, रोचक और या श्रद्धा कहा गया है, आवश्यक है।
दीपक ऐसे तीन भेद किय गये : यथार्थ जीवनदृष्टि क्या है? यदि इस प्रश्न पर हम गम्भीरतापूर्वक जिस यथार्थ दृाष्टकोण (सम्यक्त्व) के होने पर व्यक्ति सदाचरण विचार करें तो हम पाते हैं कि समालोच्य सभी आचार-दर्शनों में या सम्यक्-चारित्र की साधना में अग्रसर होता है, वह 'कारक-सम्यक्त्व' अनासक्त एवं वीतराग जीवनदृष्टि को ही यथार्थ जीवनदृष्टि माना गया है। है। कारक सम्यक्त्व ऐसा यथार्थ दृष्टिकोण है जिसमें व्यक्ति आदर्श की
उपलब्धि के हेतु सक्रिय एवं प्रयासशील बन जाता है। नैतिक दृष्टि से सम्यग्दर्शन का वर्गीकरण
कहें तो 'कारक-सम्यक्त्व' शुभाशुभ विवेक की वह अवस्था है जिसमें उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन के, उसकी उत्पत्ति के आधार व्यक्ति जिस शुभ का निश्चय करता है, उसका आचरण भी करता है। यहाँ पर, दस भेद किये गये हैं, जो निम्नानुसार है
ज्ञान और क्रिया में अभेद होता है। सुकरात का यह वचन कि 'ज्ञान ही (१) निसर्ग (स्वभाव) रुचि सम्यक्त्व- जो यथार्थ दृष्टिकोण व्यक्ति सद्गुण है' इस अवस्था में लागू होता है। में स्वत: ही उत्पन्न हो जाता है, वह निसर्गरुचि सम्यक्त्व कहा जाता है।
२. रोचक सम्यक्त्व सत्यबोध की वह अवस्था है जिसमें (२) उपदेशरुचि सम्यक्त्व-दूसरे व्यक्ति से सुनकर जो यथार्थ व्यक्ति शुभ को शुभ और अशुभ को अशुभ के रूप में जानता है और दृष्टिकोण या तत्त्वश्रद्धान् होता है, वह उपदेशरुचि सम्यक्त्व है। शुभ की प्राप्ति की इच्छा भी करता है, लेकिन उसके लिए प्रयास नहीं
(३) आज्ञारुचि सम्यक्त्व- वीतराग महापुरुषों के नैतिक आदेशों करता। सत्यासत्यविवेक होने पर भी सत्य का आचरण नहीं कर पाना, को मानकर जो यथार्थ दृष्टिकोण उत्पन्न होता है अथवा जो तत्त्वश्रद्धा यह रोचक सम्यक्त्व है। जैसे कोई रोगी अपनी रुग्णावस्था को भी होती है, उसे आज्ञारुचि सम्यक्त्व कहा जाता है।
जानता है, रोग की औषधि भी जानता है और रोग से मुक्त होना भी (४) सूत्ररुचि सम्यक्त्व- अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य ग्रन्थों के चाहता है लेकिन फिर भी औषधि को ग्रहण नहीं कर पाता वैसे ही रोचक अध्ययन के आधार पर जो यथार्थ दृष्टिकोण या तत्त्वश्रद्धान् होता है, वह सम्यक्त्व वाला व्यक्ति संसार के दुःखमय यथार्थ स्वरूप को जानता है, सूत्ररुचि सम्यक्त्व कहा जाता है।
उससे मुक्त होना भी चाहता है, उसे मोक्ष-मार्ग का भी ज्ञान होता है फिर (५) बीजरुचि सम्यक्त्व- यथार्थता के स्वल्पबोध को स्वचिन्तन वह सम्यक्-चारित्र-पालन (चारित्रमोहकर्म के उदय के कारण) नहीं कर के द्वारा विकसित करना, बीजरुचि सम्यक्त्व है।
पाता है। इस अवस्था को महाभारत के उस वचन के समकक्ष माना जा (६) अभिगमरुचि सम्यक्त्व- अंगसाहित्य एवं अन्य ग्रन्थों का सकता है, जिसमें कहा गया है कि धर्म को जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति अर्थ एवं विवेचना सहित अध्ययन करने से जो तत्त्व-बोध एवं तत्व- नहीं होती ओर अधर्म को जानते हुए भी उससे निवृत्ति नहीं होती है।५३ श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह अभिगमरुचि सम्यक्त्व है।
(७) विस्ताररुचि सम्यक्त्व- वस्तुतत्त्व (षट् द्रव्यों) के अनेक ३. दीपकसम्यक्त्व पक्षों का विभिन्न अपेक्षाओं (दृष्टिकोणों) एवं प्रमाणों से अवबोध कर वह अवस्था जिसमें व्यक्ति अपने उपदेश से दूसरों में तत्त्वजिज्ञासा
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्ध-जैन साधना एवं आचारउत्पन्न कर देता है और उसके परिणामस्वरूप होने वाले यथार्थबोध का
औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका में सम्यक्त्व कारण बनता है, दीपक-सम्यक्त्व कहलाती है। दीपक-सम्यक्त्व वाला के रस का पान करने के पश्चात् जब साधक पुन: मिथ्यात्व की ओर व्यक्ति वह है जो दूसरों को सन्मार्ग पर लगा देने का कारण तो बन जाता लौटता है तो लौटने की इस क्षणिक समयावधि में वान्त सम्यक्त्व का है लेकिन स्वयं कुमार्ग का ही पथिक बना रहता है। जैसे कोई नदी के किंचित् संस्कार अवशिष्ट रहता हैं जैसे वमन करते समय वमित पदार्थों तीर पर खड़ा हुआ व्यक्ति किसी नदी के मध्य में थके हुए तैराक का का कुछ स्वाद आता है वेसे ही सम्यक्त्व को वान्त करते समय सम्यक्त्व उत्साहवर्धन कर उसके पार लगने का कारण बन जाता है यद्यपि न तो का भी कुछ आस्वाद रहता है। जीव की ऐसी स्थिति सास्वादन सम्यक्त्व स्वयं तैरना जानता है और न पार ही होता है।
कहलाती है। सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण एक अन्य प्रकार से भी
साथ ही जब जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की भूमिका से किया गया है-जिसमें कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम के आधार पर क्षायिक सम्यक्त्व की प्रशस्त भूमिका पर आगे बढ़ता है और इस विकासउसके भेद किये हैं। जैन-विचारणा में अनन्तानुबंधी (तीव्रतम) क्रोध, क्रम में जब वह सम्यक्त्वमोहनीय कर्मप्रकृति के कर्मदलिकों का अनुभव मान, माया (कप), लोभ तथा मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह कर रहा होता है तो उसके सम्यक्त्व की यह अवस्था वेदक सम्यक्त्व' ये सात कर्म-प्रकृतियाँ सम्यक्त्व (यथार्थबोध) की विरोधी मानी गयी कहलाती है। वेदक सम्यक्त्व के अनन्तर जीव क्षायिक सम्यक्त्व को हैं, इसमें सम्यक्त्वमोहनीय को छोड़ शेष छह कर्म-प्रकृतियाँ उदय प्राप्त कर लेता है। होती हैं तो सम्यक्त्व का प्रकटन नहीं हो पाता। सम्यक्त्वमोह मात्र वस्तुत: सास्वादन सम्यक्त्व और वेदक सम्यक्त्व सम्यक्त्व सम्यक्त्व की निर्मलता और विशुद्धि में बाधक होता है। कर्मप्रकृतियों की मध्यान्तर अवस्थायें है। पहली सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर गिरते की तीन स्थितियाँ हैं
समय और दूसरी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व की ओर १. क्षय, २. उपशम, और ३. क्षयोपशम।
बढ़ते समय होती है। ___ इसी आधार पर सम्यक्त्व का यह वर्गीकरण किया गया है जिसमें सम्यक्त्व तीन प्रकार का होता है
सम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण १. औपशमिक सम्यक्त्व २. क्षायिक सम्यक्त्व, और
सम्यक्त्व का विश्लेषण अनेक अपेक्षाओं से किया गया है ३.क्षायोपशमिक सम्यक्त्व
ताकि उसके विविध पहलुओं पर समुचित प्रकाश डाला जा सके।
सम्यक्त्व का विविध वर्गीकरण चार प्रकार से किया गया हैऔपशमिक सम्यक्त्व
द्रव्य सम्यक्त्व और भाव सम्यक्त्व __उपर्युक्त (क्रियामाण) कर्मप्रकृतियों के उपशमित (दबाई हुई) १. द्रव्यसम्यक्त्व- विशुद्ध रूप से परिणत किये हुए मिथ्यात्व हो जाने से जिस समक्त्व गुण का प्रकटन होता है वह औपशमिक के कर्मपरमाणु द्रव्य सम्यक्त्व कहलाते हैं। सम्यक्त्व कहलाता है। औपशमिक सम्यक्त्व में स्थायित्व का अभाव २. भाव सम्यक्त्व- उपर्युक्त विशुद्ध पुद्गल वर्गणा के निमित्त होता है। शास्त्रीय विवेचना के अनुसार यह एक अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिट) से होने वाली तत्त्वश्रद्धा भाव सम्यक्त्व कहलाती है। से अधिक नहीं टिक पाता है। उपशमित कर्मप्रकृतियाँ (वासनाएँ) पुन: (ब) निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्त्व जाग्रत होकर इसे विनष्ट कर देती हैं।
१. निश्चय सम्यक्त्व- राग-द्वेष और मोह का अत्यल्प हो
जाना, पर-पदार्थों से भेदज्ञान एवं स्व-स्वरूप में रमण, देह में रहते हुए क्षायिक सम्यक्त्व
देहाध्यास का छूट जाना, यह निश्चय सम्यक्त्व के लक्षण हैं। मेरा शुद्ध उपर्युक्त सातों कर्मप्रकृतियों के क्षय हो जाने पर जिस सम्यक्त्व स्वरूप अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तआनन्दमय है। पर-भाव या रूप यथार्थबोध का प्रकटन होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है। आसक्ति ही मेरे बन्धन का कारण, और स्व-स्वभाव में रमण करना ही यह यथार्थबोध स्थायी होता है और एक बार प्रकट होने पर कभी भी मोक्ष का हेतु है। मैं स्वयं ही अपना आदर्श हूँ, देव-गुरु और धर्म यह विनष्ट नहीं होता है। शास्त्रीय भाषा में यह सादि एवं अनन्त होता है। मेरी आत्मा ही है। ऐसी दृढ़ श्रद्धा का होना ही निश्चय सम्यक्त्व है। दूसरे
शब्दों में आत्मकेन्द्रित होना यही निश्चय सम्यक्त्व है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व
२. व्यवहार सम्यक्त्व- वीतराग में देवबुद्धि (आदर्श बुद्धि), मिथ्यात्वजनक उदयगत (क्रियमाण) कर्मप्रकृतियों के क्षय हो जाने पाँच महाव्रतों के पालन करने वाले मुनियों में गुरुबुद्धि और जिनप्रणीत पर और अनुदित (सत्तावान या संचित) कर्मप्रकृतियों के उपशम हो जाने पर धर्म में सिद्धान्तबुद्धि रखना, यह व्यवहार सम्यक्त्व है। जिस सम्यक्त्व का प्रगटन होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। यद्यपि सामान्य दृष्टि से यह अस्थायी ही है फिर भी एक लम्बी समयावधि (स) निसर्गजसम्यक्त्व और अधिगमजसम्यक्त्व५६ (छयासठ सागरोपम से कुछ अधिक) तक अवस्थित रह सकता है।
१. निसर्गज सम्यक्त्व-जिस प्रकार नदी के प्रवाह में पड़ा
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ- जैन साधना एवं आचार
हुआ पत्थर अप्रयास ही स्वाभविक रूप से गोल हो जाता है उसी प्रकार संसार में भटकते हुए प्राणी को अनायास ही जब कर्मावरण के अल्प होने पर यथार्थता का बोध हो जाता है तो ऐसा सत्यबोध निसर्गज (प्राकृतिक) होता है। बिना किसी गुरु आदि के उपदेश के स्वाभाविक रूप में स्वतः उत्पन्न होने वाला ऐसा सत्य बोध निसर्गज सम्यक्त्व कहलाता है।
२. अधिगमज सम्यक्त्व - गुरु आदि के उपदेशरूप निमित्त से होने वाला सत्यबोध या सम्यक्त्व अधिगमज सम्यक्त्व कहलाता है। इस प्रकार जैन दार्शनिक न तो वेदान्त और मीमांसा दर्शन के अनुसार सत्य के नित्य प्रकटन को स्वीकार करते हैं और न न्याय-वैशेषिक और योगदर्शन के समान यह मानते हैं कि सत्य का प्रकटन ईश्वर के द्वारा होता है वरन वे तो यह मानते हैं कि जीवात्मा में सत्यबोध को प्राप्त करने की स्वाभाविक शक्ति है और वह बिना किसी दूसरे की सहायता के सत्य का बोध प्राप्त कर सकता है यद्यपि किन्ही विशिष्ट आत्माओं (तीर्थंकर) द्वारा सत्य का प्रकटन एवं उपदेश भी किया जाता है। ५७
सम्यक्त्व के पाँच अंग
सम्यक्त्व यथार्थता है, सत्य है; इस सत्य की साधना के लिए जैन विचारकों ने पाँच अंगों का विधान किया है। जब तक साधक इन्हें नहीं अपना लेता है वह यथार्थता या सत्य की आराधना एवं उपलब्ध में समर्थ नहीं हो पाता। सम्यक्त्व के निम्न पाँच अंग हैं :
कीतीव्रतम आकांक्षा। क्योंकि जिसमें सत्याभीप्सा होगी वही सत्य को पा सकेगा, सत्याभीप्सा से ही अज्ञान से ज्ञान की ओर प्रगति होती है। यही कारण है कि उत्तराध्ययनसूत्र में संवेग का प्रतिफल बताते हुए महावीर कहते हैं कि संवेग से मिथ्यात्व की विशुद्धि होकर यथार्थ दर्शन की उपलब्धि (आराधना) होती है। ५८
३. निर्वेद इस शब्द का अर्थ होता है उदासीनता, वैराग्य, अनासक्ति । सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन भाव रखना, क्योंकि इसके अभाव में साधना मार्ग पर चलना सम्भव नहीं होता। वस्तुतः निर्वेद निष्काम भावना या अनासक्त दृष्टि के उदय का आवश्यक अंग है।
४. अनुकम्पा - इस शब्द का शाब्दिक निर्वचन इस प्रकार हैअनुकम्पा अनु का अर्थ है तदनुसार, कम्प का अर्थ है धूजना या कम्पित होना अर्थात् किसी अन्य के अनुसार कम्पित होना। दूसरे शब्दों में कहें तो अन्य व्यक्ति के दुःखित या पीड़ित होने पर तदनुकूल अनुभूति हमारे अन्दर उत्पन्न होना ही अनुकम्पा है दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना यही अनुकम्पा का अर्थ है। परोपकार के नैौतिक सिद्धान्त का आधार यही अनुकम्पा है। इसे सहानुभूति भी कहा जा सकता है।
५. आस्तिक्य- आस्तिक्य शब्द आस्तिकता का द्योतक है। जिसके मूल में अस्ति शब्द है, जो सत्ता का वाचक है। आस्तिक किसे कहा जाए इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया गया है। कुछ ने कहाजो ईश्वर के अस्तित्व या सत्ता में विश्वास करता है, वह आस्तिक है। दूसरों ने कहा- जो वेदों में आस्था रखता है, वह आस्तिक है। लेकिन जैन- विचारणा में आस्तिक और नास्तिक के विभेद का आधार इससे भिन्न है। जैन दर्शन के भिन्न है। जैन दर्शन के अनुसार जो पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्म - सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह आस्तिक है।
जैन विचारकों की दृष्टि में यथार्थता या सम्यक्त्व के निम्न पाँच दूषण (अतिचार) माने गये हैं जो सत्य या यथार्थता को अपने विशुद्ध स्वरूप में जानने अथवा अनुभूत करने में बाधक होते हैं। अतिचार वह दोष है जिससे व्रत भंग तो नहीं होता लेकिन उससे सम्यक्त्व प्रभावित होता है। सम्यक दृष्टिकोण की यथार्थता को प्रभावित करने वाले ३ दोष हैं- १. चल, २. मल, और ३. अगाढ़। चल दोष से तात्पर्य यह है कि यद्यपि व्यक्ति अन्तःकरणपूर्वक तो यथार्थ दृष्टिकोण
१. सम- सम्यक्त्व का पहला लक्षण है सम। प्राकृत भाषा का यह 'सम' शब्द संस्कृत भाषा में तीन रूप लेता है- १. सम, २. शम, ३. श्रम इन तीनों शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं। पहले 'सम' शब्द के ही दो अर्थ होते है। पहले अर्थ में यह सहानुभूति या तुल्यता है अर्थात् सभी प्राणियों को अपने समान समझना है। इस अर्थ में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के महान् सिद्धान्त की स्थापना करता है जो अहिंसा विचार-प्रणाली का आधार है। दूसरे अर्थ में इसे सम- मनोवृत्ति या समभाव कहा जा सकता है अर्थात् सुख-दुःख, हानि-लाभ एवं अनुकूल और प्रतिकूल दोनों स्थितियों में समभाव रखना, चित्त को विचलित नहीं होने देना। यह चित्तवृत्ति संतुलन हैं संस्कृत के 'शम' रूप के आधार पर इसका अर्थ होता है शांत करना अर्थात् कषायाग्नि या वासनाओं को शांत करना। संस्कृत के तीसरे रूप 'श्रम' के आधार पर इसका निर्वचन होता है- प्रयास, प्रयत्न या पुरुषार्थ करना।
२. संवेग संवेग शब्द का शाब्दिक विश्लेषण करने पर उसका निम्न अर्थ ध्वनित होता है-सम्+ वेग, सम्यक् उचित, वेग गति अर्थात् सम्यगति। सम् शब्द आत्मा के अर्थ में भी आ सकता है। इस उनकी यथार्थता के प्रति संदेहात्मक दृष्टिकोण रखना। प्रकार इसका अर्थ होगा आत्मा की ओर गति । दूसरे, सामान्य अर्थ में संवेग शब्द अनुभूति के अर्थ में भी प्रयुक्त होता हैं यहाँ इसका तात्पर्य होगा स्वानुभूति, आत्मानुभूति अथवा आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति। तीसरे, आकांक्षा की तीव्रतम अवस्था को भी संवेग कहा जाता है। इस प्रसंग में इसका अर्थ होगा सत्याभीप्सा अर्थात् सत्य को जानने
२. आकांक्षा- स्वधर्म को छोड़कर पर धर्म की इच्छा करना, आकांक्षा करना अथवा नैतिक एवं धार्मिक आचरण के फल की आकांक्षा करना । फलासक्ति भी साधना-मार्ग में बाधक तत्त्व मानी गयी है।
३. विचिकित्सा- नैतिक अथवा धार्मिक आचरण के फल के प्रति संशय करना कि मेरे इस सदाचरण का प्रतिफल मिलेगा या नहीं।
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प्रति दृढ़ रहता है लेकिन कभी-कभी क्षणिक रूप में बाह्य आवेगों से प्रभावित हो जाता है। मल वे दोष हैं जो यथार्थ दृष्टिकोण की निर्मलता को प्रभावित करते हैं। मल निम्न पाँच है
१. शंका वीतराग या अर्हत् के कथनों पर शंका करना,
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जैन-विचारणा में फलापेक्षा एवं फल-संशय दोनों को ही अनुचित माना साध्य, साधक और साधना-पथ तीनों पर अविचल श्रद्धा चाहिए। साधक गया है। कुछ जैनाचार्यों के अनुसार इसका अर्थ घृणा भी लगाया गया में जिस क्षण भी इन तीनों में से एक के प्रति भी सन्देहशीलता उत्पन्न है।५९ मुनिजन, रोगी एवं ग्लान व्यक्तियों के प्रति घृणा रखना घृणाभाव होती है, वह साधना के क्षेत्र में च्युत हो जाता है। यही कारण है कि जैनव्यक्ति को सेवापथ से विमुख बनाता है।
विचारणा साधनात्मक जीवन के लिए नि:शंकता को आवश्यक मानती ४. मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा- जिन लोगों का दृष्टिकोण है। नि:शंकता की इस धारणा को प्रज्ञा और तर्क का विरोधी नहीं मानना सम्यक नहीं है ऐसे अयथार्थ दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों अथवा संगठनों की चाहिए। संशय ज्ञान के विकास में साधन हो सकता है लेकिन उसे साध्य प्रशंसा करना।
मान लेना अथवा संशय में ही रुक जाना साधनात्मक-जीवन के उपयुक्त ५. मिथ्यादृष्टियों से अति परिचय- साधनात्मक अथवा नहीं हैं। मूलाचार में निःशंकता को निर्भयता माना गया है।६३ नैतिकता नैतिक जीवन के प्रति जिनका दृष्टिकोण अयथार्थ है, ऐसे व्यक्तियों से के लिए पूर्ण निर्भय जीवन आवश्यक है, भय पर स्थित नैतिकता सच्ची घनिष्ठ सम्बन्ध रखना। संगति का असर व्यक्ति के जीवन पर काफी नैतिकता नहीं है। अधिक होता है। चारित्र के निर्माण एवं पतन दोनों में ही संगति का
२. निःकांक्षता- स्वकीय आनन्दमय परमात्मस्वरूप में निष्ठावान प्रभाव पड़ता है अत: अनैतिक आचरण करने वाले लोगों से अतिपरिचय रहना और किसी भी परभाव की आकांक्षा या इच्छा नहीं करना ही या घनिष्ठ सम्बन्ध रखना उचित नहीं माना गया है।
नि:कांक्षता है। साधनात्मक जीवन में भौतिक वैभव अथवा ऐहिक तथा पं० बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में सम्यक्त्व के अतिचारों पारलौकिक सुख को लक्ष्य बना लेना, जैनदर्शन के अनुसार 'कांक्षा' की एक भिन्न सूची प्रस्तुत की है। उनके अनुसार सम्यग्दर्शन के निम्न है।६४ किसी भी लौकिक और पारलौकिक कामना को लेकर साधनात्मक पाँच अतिचार हैं
__ जीवन में प्रविष्ट होना, जैन-विचारणा को मान्य नहीं है; वह ऐसी साधना १. लोकभय २. सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति ३. भावी को वास्तविक साधना नहीं कहती है, क्योंकि वह आत्म-केन्द्रत नहीं है। जीवन में सांसारिक सुखों के प्राप्त करने की इच्छा ४. मिथ्याशास्त्रों की भौतिक सुखों और उपलब्धियों के पीछे भागने वाला साधक चमत्कार प्रशंसा एवं ५. मिथ्या-मतियों की सेवा६०
और प्रलोभन के पीछे किसी भी क्षण लक्ष्यच्युत हो सकता है। इस प्रकार अगाढ़ दोष वह दोष है जिसमें अस्थिरता रहती है। जिस प्रकार जैन साधना में यह माना गया है कि साधक को साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट हिलते हुए दर्पण में यथार्थ रूप तो दिखता है लेकिन वह अस्थिर होता होने के लिए नि:कांक्षित अथवा निष्काम भाव से युक्त होना चाहिए। है, उसी प्रकार अस्थिर चित्त में सत्य का प्रकटन तो होता है लेकिन वह आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में नि:कांक्षता का अर्थ ऐकान्तिक भी अस्थिर होता है। स्मरण रखना चाहिए कि जैन-विचारणा के अनुसार मान्याताओं से दूर रहना किया है।६५ इस आधार पर अनाग्रहयुक्त उपर्युक्त दोषों की सम्भावना क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में होती है- उपशम दृष्टिकोण सम्यक्त्व के लिए आवश्यक माना गया है। सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व में नहीं होती है, क्योंकि उपशम ३. निर्विचिकित्सा- निर्विचिकित्सा के दो अर्थ माने गये हैं: सम्यक्त्व की समयावधि ही इतनी क्षणिक होती है कि दोष होने का (अ) मैं जो धर्म-साधना कर रहा हूँ इसका फल मुझे अवश्य अवकाश ही नहीं रहता और क्षायिक सम्यक्त्व पूर्ण शुद्ध होता है अतः मिलेगा या नहीं, मेरी यह साधना व्यर्थ तो नहीं चली जायेगी, ऐसी उसमें दोषों की सम्भावना नहीं रहती है।
आशंका रखना 'विचिकित्सा' कहलाती हैं। इस प्रकार साधना और
नैतिक क्रिया के फल के प्रति शंकित बने रहना विचिकित्सा है। शंकित सम्यग्दर्शन के आठ अंग
हृदय से साधना करने वाले साधक में स्थिरता और धैर्य का अभाव होता उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन की साधना के आठ अंग प्रस्तुत है और उसकी साधना सफल नहीं हो पाती है। अत: साधक के लिए यह किये गये हैं जिनका समाचरण साधक के लिए अपेक्षित है। दर्शनविशुद्धि आवश्यक है कि वह इस प्रतीति के साथ नैतिक आचरण का प्रारम्भ करे के संवर्द्धन और संरक्षण के लिए इनका पालन आवश्यक माना गया है। कि क्रिया और फल का अविनाभावी सम्बन्ध है और यदि चरण किया उत्तराध्ययन में वर्णित यह आठ प्रकार का दर्शनाचार निम्न है- जायेगा तो निश्चित रूप से उसका फल प्राप्त होगा ही। इस प्रकार क्रिया
१. नि:शंकित २. नि:कांक्षित ३. निर्विचिकित्सा ४. अमूढ़दृष्टि के फल के प्रति सन्देह नहीं होना ही निर्विचिकित्सा है। ५. उपबृंहण ६. स्थिरीकरण ७. वात्सल्य, और ८. प्रभावना।६१
(ब) कुछ जैनाचार्यों के अनुसार तपस्वी एवं संयमपरायण १. निःशंकता- संशयशीलता का अभाव ही नि:शंकता हैं मुनियों के दुर्बल एवं जर्जर शरीर अथवा मलिन वेशभूषा को देखकर मन जिनप्रणीत तत्त्व-दर्शन में शंका नहीं करना-उसे यथार्थ एवं सत्य मानना, में ग्लानि लाना विचिकित्सा है। अत: साधक की वेशभूषा एवं शरीरादि ही नि:शंकता है।६२ संशयशीलता साधनात्मक जीवन के विकास का बाह्य रूप पर ध्यान नहीं देकर उसके साधनात्मक गुणों पर विचार करना विधायक तत्त्व है। जिस साधक की मनःस्थिति संशय के हिंडोले में झूल चाहिए। वेशभूषा एवं शरीर आदि बाह्य सौन्दर्य पर दृष्टि को केन्द्रित नहीं रही हो, वह भी इस संसार में झूलता रहता है (परिभ्रमण करता रहता है) करके आत्म-सौन्दर्य की ओर उसे केन्द्रित करना यही सच्ची निर्विचिकित्सा और अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता। साधना के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए है। आचार्य समन्तभद्र का कथन है-शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है
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उसकी पवित्रता तो सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय के सदाचरण से वाले व्यक्तियों को धर्म-मार्ग में पुन: स्थिर करना यह साधक का कर्तव्य ही होती है। अतएव गुणीजनों के शरीर से घृणा न कर उनके गुणों से माना गया है। इस पतन के दो प्रकार होते हैप्रेम करना निर्विचिकित्सा है।६६ ।।
१. दर्शन-विकृति अर्थात दृष्टिकोण की विकृतता ४. अमूढ़दृष्टि- मूढ़ता का अर्थ है अज्ञान। हेय और उपादेय, २. चारित्र-विकृति अर्थात धर्म-मार्ग या सदाचरण से च्युत योग्य और अयोग्य के मध्य निर्णायक क्षमता का अभाव ही अज्ञान है, होना। दोनों ही स्थितियों में उसे यथोचित बोध देकर स्थिर करना मूढ़ता है। जैन-साहित्य में विभिन्न प्रकार की मूढ़ताओं का वर्गीकरण तीन चाहिए।६९ दिगम्बर-परम्परा के श्रावकाचार विषयक ग्रन्थों में स्थिरीकरण' भागों में किया गया है
के स्थान पर 'स्थितिकरण' शब्द मिलता है। १. देवमूढ़ता,२. लोकमूढ़ता, और ३. समयमूढ़ता
७. वात्सल्य- धर्ममार्ग में समाचरण करने वाले समान शील (अ) देवमूढ़ता- साधना का आदर्श कौन है? उपास्य बनने अर्थात् सहधर्मियों के प्रति प्रेमभाव रखना वात्सल्य है। आचार्य समन्तभद्र की क्षमता किसमें है? ऐसे निर्णायक ज्ञान का अभाव ही देवमूढ़ता है, के अनुसार 'स्वधर्मियों एवं गुणियों के प्रति निष्कपट भाव से प्रीति जिसके कारण साधक अपने लिए गलत आदर्श बनने की योग्यता नहीं रखना और उनकी यथोचित सेवा - शुश्रूषा करना वात्सल्य है। वात्सल्य है उसे उपास्य बना लेना देवमूढ़ता है। काम-क्रोधादि विकारों के पूर्ण का प्रतीक गाय और गोवत्स (बछड़े) का प्रेम है। जिस प्रकार गाय बिना विजेता, वीतराग एवं अविकल ज्ञान और दर्शन से युक्त परमात्मा को ही किसी प्रतिफल की अपेक्षा के गोवत्स को संकट में देखकर अपने प्राणों अपना उपास्य और आदर्श बनाना, यही देव के प्रति अमूढ़दृष्टि है। को भी जोखिम में डाल देती है, ठीक उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि साधक का
(ब) लोकमूढ़ता- लोक प्रवाह और रूढ़ियों का अन्धानुकरण भी यह कर्तव्य है कि वह धार्मिकजनों के सहयोग और सहकार के लिए यही लोक मूढ़ता है। आचार्य समन्तभद्र लोकमूढ़ता की व्याख्या करते कुछ भी उठा नहीं रखे। वात्सल्य संघ, धर्म या सामाजिक भावना का हुए कहते हैं कि 'नदियों एवं सागर में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि केन्द्रीय तत्त्व है। मानना, पत्थरों का ढेर कर उसे मुक्ति समझना अथवा पर्वत से गिरकर ८. प्रभावना- साधना के क्षेत्र में स्व-पर-कल्याण की भावना या अग्नि में जलकर प्राण विसर्जन करना आदि लोकमूढ़ताएँ हैं। ६७ होती है। जैसे पुष्प अपने सुवास से स्वयं भी सुवासित होता है और
(स) समयमूढ़ता- समय का अर्थ सिद्धान्त या शास्त्र भी माना दूसरों को भी सुवासित करता है वैसे ही साधक सदाचरण और ज्ञान की गया है। इस अर्थ में सैद्धान्तिक ज्ञान या शास्त्रीय ज्ञान का अभाव सौरभ से स्वयं भी सुरभित होता है, साथ ही जगत् को भी सुरभित करता समयमूढ़ता है।
है। साधना, सदाचरण और ज्ञान की सुरभि द्वारा जगत् के अन्य प्राणियों ५. उपबृंहण- बृहि धातु के साथ 'उप' उपसर्ग लगाने से को धर्ममार्ग में आकर्षित करना, यही प्रभावना है। उपबृंह शब्द निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है वृद्धिकरना, पोषण प्रभावना के आठ प्रकार माने गये हैंकरना। अपने आध्यात्मिक गुणों का विकास करना यह उपबृंहण है। १. प्रवचन, २. धर्म, ३. पाद, ४. नैमित्तिक, ५. तप, ६. सम्यक् आचरण करने वाले गुणीजनों की प्रशंसा आदि करके उनके विद्या, ७. प्रसिद्ध व्रत ग्रहण करना और ८. कवित्वशक्ति । सम्यक् आचरण की वृद्धि में योग देना उपबृंहण है।
६. स्थिरीकरण- साधनात्मक जीवन में कभी-कभी ऐसे सम्यग्दर्शन की साधना के ६ स्थान अवसर उपस्थित हो जाते है जब साधक भौतिक प्रलोभन एवं साधनात्मक जिस प्रकार बौद्धदर्शन में दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख से जीवन की कठिनाइओं के कारण पथच्युत हो जाता है। अत: ऐसे निवृत्ति हो सकती है, और दुःख निवृत्ति का मार्ग है, इन चार आर्यसत्यों की अवसरों पर स्वयं को पथच्युत होने से बचाना और पथच्युत साधकों को स्वीकृति सम्यग्दृष्टित्व है उसी प्रकार जैन-साधना के अनुसार निम्न षट्स्थानकों७१ धर्ममार्ग में स्थिर करना, यह स्थिरीकरण है। सम्यग्दृष्टिसम्पन्न साधक को (छ: बातों ) की स्वीकृति सम्यग्दृष्टित्व हैन केवल अपने विकास की चिन्ता करनी होती है वरन उसका यह भी १- आत्मा है। कर्तव्य है कि वह ऐसे साधकों को जो धर्ममार्ग से विचलित या पतित हो २- आत्मा नित्य है। गये हैं, उन्हें मार्ग में स्थिर करे। जैनदर्शन यह मानता है कि व्यक्ति या ३- आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है। समाज की भौतिक सेवा सच्ची सेवा नहीं है, सच्ची सेवा तो है उसे ४- आत्मा कृतकर्मों के फल का भोक्ता है। धर्ममार्ग में स्थिर करना। जैनाचार्यों का कथन है कि व्यक्ति अपने शरीर ५- आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है। के चमड़े के जूते बनाकर अपने माता-पिता को पहनाये अर्थात् उनके ६- मुक्ति का उपाय या मार्ग है। प्रति इतना अधिक आत्मोत्सर्ग का भाव रखे तो भी वह उनके ऋण से
जैन तत्त्व विचारणा के अनुसार उपर्युक्त षट्स्थानकों पर दृढ़ उऋण नहीं हो सकता, वह माता-पिता के ऋण से उऋण तभी माना प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है। दृष्टिकोण की जाता है जब वह उन्हें धर्ममार्ग में स्थिर करता है । दूसरे शब्दों में, उनके विशुद्धता एवं सदाचरण दोनों ही इन पर निर्भर हैं। यह षट्स्थानक जैन साधनात्मक जीवन में सहयोग देता है। अतः धर्म-मार्ग से पतित होने नैतिकता के केन्द्र बिन्दु हैं।
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बौद्ध-दर्शन में सम्यक-दर्शन का स्वरूप
आवश्यक समझते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति बुद्धधर्म और संघ के प्रति जैसा कि हमने पूर्व में देखा बौद्ध-परम्परा में जैन-परम्परा के निष्ठावान रहे। बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से समन्वित करके चलते हैं। मज्झिमनिकाय सम्यक्दर्शन के स्थान पर सम्यक् समाधि; श्रद्धा या चित्त का विवेचन में बुद्ध यह स्पष्ट कर देते हैं कि समीक्षा के द्वारा ही उचित प्रतीत होने उपलब्ध होता है। बुद्ध ने अपने त्रिविध साधना-मार्ग में कहीं शील, पर धर्म का ग्रहण करना चाहिए।७२ विवेक और समीक्षा यह सदैव ही समाधि और प्रज्ञा, कहीं शील, चित्त और प्रज्ञा और कहीं शील, श्रद्धा बुद्ध को स्वीकृत रहे हैं। बुद्ध भिक्षुओं को सावधान करते हुए कहते थे
और प्रज्ञा का विवेचन किया है। इस आधार पर हम देखते है कि बौद्ध- कि भिक्षुओ, क्या तुम शास्ता के गौरव से तो हाँ नहीं कह रहे हो? परम्परा में समाधि, चित्त और श्रद्धा का प्रयोग सामान्यतया एक ही अर्थ भिक्षुओ, जो तुम्हारा अपना देखा हुआ, अपना अनुभव किया हुआ है में हुआ है। वस्तुत: श्रद्धा चित्त-विकल्प की शून्यता की ओर ही ले जाती क्या उसी को तुम कह रहे हो।७३ इस प्रकार बुद्ध श्रद्धा को प्रज्ञा से है। श्रद्धा के उत्पन्न हो जाने पर विकल्प समाप्त हो जाते हैं। उसी प्रकार समन्वित कर देते हैं। सामान्यतया बौद्ध-दर्शन में श्रद्धा को प्रथम और समाधि की अवस्था में भी चित्त विकल्प नहीं होते हैं। अत: चित्त, समाधि प्रज्ञा को अन्तिम स्थान दिया गया है। साधना-मार्ग की दृष्टि से श्रद्धा
और श्रद्धा एक ही अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं। यद्यपि अपेक्षा भेद से पहले आती है और प्रज्ञा उसके पश्चात् उत्पन्न होती है। श्रद्धा के कारण इनके अर्थों में भिन्नता भी रही हुई है। श्रद्धा बुद्ध, संघ और धर्म के प्रति ही धर्म का श्रवण, ग्रहण, परीक्षण और वीर्यारम्भ होता है। नैतिक जीवन अनन्य निष्ठा है तो समाधि चित्त की शांत अवस्था है।
के लिए श्रद्धा कैसे आवश्यक होती है इसका सुन्दर चित्रण बौद्ध-परम्परा बौद्ध-परम्परा में सम्यग्दर्शन का अर्थसाम्य बहुत कुछ सम्यग्दृष्टि के सौन्दरनन्द नामक ग्रन्थ में किया जाता है। उसमें बुद्ध नन्द के प्रति से है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन तत्त्वश्रद्धा है उसी प्रकार कहते हैं कि पृथ्वी के भीतर जल है यह श्रद्धा जब मनुष्य को होती है तब बौद्धदर्शन में सम्यक्दृष्टि चार आर्यसत्यों के प्रति श्रद्धा है। जिस प्रकार प्रयोजन होने पर पृथ्वी को प्रयत्नपूर्वक खोदता है। भूमि से अन्न की उत्पत्ति जैन-धर्म में सम्यक् दर्शन का अर्थ देव, गुरु और धर्म के प्रति निष्ठा होती है, यदि यह श्रद्धा कृषक में न हो तो वह भूमि में बीज ही नहीं बोयेगा। माना गया है उसी प्रकार बौद्धदर्शन में श्रद्धा का अर्थ बुद्ध, धर्म एवं संघ धर्म की उत्पत्ति में श्रद्धा उत्तम कारण मानी गई है। जब तक मनुष्य तत्त्व को के प्रति निष्ठा है। जिस प्रकार जैन-दर्शन में देव के रूप में अरिहंत को देख या सुन नहीं लेता तब तक उसकी श्रद्धा स्थिर नहीं होती। साधना के साधना-आदर्श स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा में क्षेत्र में प्रथम अवस्था में श्रद्धा एक परिकल्पना के रूप में ग्रहण होती है और साधना-आदर्श के रूप में बुद्ध और बुद्धत्व को स्वीकार किया जाता है। वही अन्त में तत्त्वसाक्षात्कार बन जाती है। बुद्ध ने श्रद्धा और प्रज्ञा अथवा साधना-मार्ग के रूप में दोनों ही धर्म के प्रति निष्ठा का आवश्यक बताते दूसरे शब्दों में जीवन के बौद्धिक और भावात्मक पक्षों में एक समन्वय किया हैं। जहाँ तक साधना के पथ-प्रदर्शक का प्रश्न है जैन-परम्परा में पथ- है। यह एक ऐसा समन्वय है जिसमें न तो श्रद्धा अन्धश्रद्धा बनती है और प्रदर्शक के रूप में गुरु को स्वीकार किया गया है, जबकि बौद्ध-परम्परा न प्रज्ञा केवल बौद्धिक या तर्कात्मक ज्ञान बन कर रह जाती है। उसके स्थान पर संघ को स्वीकार करती है।
जिस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यकदर्शन के शंकाशीलता, आकांक्षा, जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया, जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन विचिकित्सा आदि दोष माने गए हैं उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी पाँच के दृष्टिकोणपरक और श्रद्धापरक ऐसे दो अर्थ स्वीकृत रहे हैं। बौद्ध- नीवरण माने गाये हैं। जो इस प्रकार हैंपरम्परा में श्रद्धा और सम्यग्दृष्टि दो भिन्न भिन्न तथ्य माने गये हैं। दोनों १. कामच्छन्द (कामभोगों की चाह) समवेत रूप से जैन-दर्शन के सम्यग्दर्शन शब्द के अर्थ को बौद्ध-दर्शन २. अव्यापाद (अविहिंसा) में स्पष्ट कर देते हैं।
३. स्त्यानगृद्ध (मानसिक और चैतसिक आलस्य) जैन-परम्परा में सम्यग्दर्शन को तत्त्वदृष्टि या तत्त्वश्रद्धान् से
४. औद्धत्य-कौकृत्य (चित्त की चंचलता), और भिन्न श्रद्धापरक अर्थ में भी लिया जाता हैं। बौद्ध परम्परा में उसकी तुलना ५. विचिकित्सा (शंका)७४ | श्रद्धा से की जा सकती है। बौद्ध-परम्परा में श्रद्धा पाँच इन्द्रियों में प्रथम तुलनात्मक दृष्टि से अगर हम देखें तो बौद्ध-परम्परा का • इन्द्रिय, पाँच बलों में अन्तिम बल और स्रोतापत्र अवस्था के चार अंगों कामच्छन्द जैन-परम्परा के कांक्षा नामक अतिचार के समान है। इसी में प्रथम अंग मानी गई है। बौद्ध-परम्परा में श्रद्धा का अर्थ चित्त की प्रकार विचिकित्सा को भी दोनों ही दर्शनों में स्वीकार किया गया हैं। प्रसादमयी अवस्था माना गया है। श्रद्धा जब चित्त में उत्पन्न होती है तो जैन-परम्परा में संशय और विचिकित्सा दोनों अलग-अलग माने गए है वह चित्त को प्रीति और प्रामोद्य से भर देती है और चित्तमलों को नष्ट कर लेकिन बौद्ध-परम्परा दोनों का अन्तर्भाव एक में ही कर देती है। इस देती है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बौद्ध-परम्परा में श्रद्धा प्रकार कुछ सामान्य मतभेदों को छोड़ कर जैन और बौद्ध दृष्टिकोण अन्धविश्वास नहीं वरन् एक बुद्धिसम्मत अनुभव है। यह विश्वास करना एक-दूसरे के निकट ही आते हैं। नहीं वरन् साक्षात्कार के पश्चात् उत्पन्न हुई तत्त्वनिष्ठा है। बुद्ध एक ओर यह मानते हैं कि धर्म का ग्रहण स्वयं के द्वारा जानकर ही करना चाहिए। गीता में श्रद्धा का स्वरूप एवं वर्गीकरण कलामासुत्त में उन्होंने इसे सविस्तार स्पष्ट किया है। दूसरी ओर वे यह भी जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया कि गीता में सम्यग्दर्शन
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के स्थान पर श्रद्धा का प्रत्यय ग्राह्य है। जैन परम्परा में सामान्यतया सम्यग्दर्शन दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार हुआ है और अधिक से अधिक उसमें यदि श्रद्धा का तत्व समाहित है तो वह तत्त्वश्रद्धा ही है लेकिन गीता में श्रद्धा शब्द का अर्थ प्रमुख रूप से ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठा ही माना गया है। अतः गीता में श्रद्धा के स्वरूप पर विचार करते समय हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि जैन दर्शन में श्रद्धा का जो अर्थ है वह गीता में नहीं है।
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यद्यपि गीता भी यह स्वीकार करती है नैतिक जीवन के लिए संशयरहित होना आवश्यक है। श्रद्धारहित यज्ञ, तप, दान आदि सभी नैतिक कर्म निरर्थक ही माने गये हैं । ७५ गीता में श्रद्धा तीन प्रकार की मानी गई है - १. सात्विक, २. राजस और ३. तामस । सात्विक श्रद्धा सतोगुण से उत्पन्न होकर देवताओं के प्रति होती है राजस श्रद्धा यक्ष और राक्षसों के प्रति होती है। इसमें रजोगुण की प्रधानता होती है। तामस श्रद्धा भूत प्रेत आदि के प्रति होती है।७६
जिस प्रकार जैन दर्शन में शंका या सन्देह को सम्यग्दर्शन का दोष माना गया है उसी प्रकार गीता में भी संशयात्मकता को दोष माना गया है। ७७ जिस प्रकार जैन दर्शन में फलाकांक्षा भी सम्यग्दर्शन का अतिचार (दोष) मानी गई है उसी प्रकार गीता में भी फलाकांक्षा को दोष ही माना गया है। गीता के अनुसार जो फलाकांक्षा से युक्त होकर श्रद्धा रखता है अथवा भक्ति करता है वह साधक निम्न श्रेणी का ही है। फलाकांक्षायुक्त श्रद्धा व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से आगे नहीं ले जाती है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं जो लोग विवेक ज्ञान से रहित होकर तथा भोगों की प्राप्ति विषयक कामनाओं से युक्त हो मुझ परमात्मा को छोड़ अन्यान्य देवताओं की शरण ग्रहण करते हैं, मैं उन लोगों की श्रद्धा उनमें स्थिर कर देता हूं और उस श्रद्धा से युक्त होकर वे उन देवताओं की आराधना के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं लेकिन उन अल्पबुद्धि लोगों का वह फल नाशवान होता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। लेकिन मुझ परमात्मा की भक्ति करने वाला मुझे ही प्राप्त होता है । ७८
गीता में श्रद्धा या भक्ति अपने आधारों की दृष्टि से चार प्रकार की मानी गई है
१. ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् होने वाली श्रद्धा या भक्ति परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने के पश्चात् उनके प्रति जो निष्ठा होती है वह एक ज्ञानी की निष्ठा मानी गई है।
२. जिज्ञासा की दृष्टि से परमात्मा पर श्रद्धा रखना। यह श्रद्धा या भक्ति का दूसरा रूप है। इसमें यद्यपि श्रद्धा तो होती है लेकिन वह पूर्णतया संशयरहित नहीं होती जबकि प्रथम स्थिति में होने वाली श्रद्धा पूर्णतया संशयरहित होती है। संशयरहित श्रद्धा तो साक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है । जिज्ञासा की अवस्था में संशय बना ही रहता है अतः श्रद्धा का यह स्तर प्रथम की अपेक्षा निम्न ही माना गया है।
३. तीसरे स्तर की श्रद्धा आर्त व्यक्ति की होती है। कठिनाई में फँसा हुआ व्यक्ति जब स्वयं अपने को उससे उबरने में असमर्थ पाता है और
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इसी दैन्य भाव से किसी उद्धारक के प्रति अपनी निष्ठा को स्थित करता है तो उसकी यह श्रद्धा या भक्ति एक दुःखी या आर्त व्यक्ति की भक्ति होती है। श्रद्धा या भक्ति का यह स्तर पूर्वोक्त दोनों स्तरों से निम्न होता है।
४. श्रद्धा या भक्ति का चौथा स्तर वह है जिसमें श्रद्धा का उदय स्वार्थ के वशीभूत होकर होता है। यहाँ श्रद्धा कुछ पाने के लिए की जाती है, यह फलाकांक्षा की पूर्ति के लिए की जाने वाली श्रद्धा अत्यन्त निम्न स्तर की मानी गई है। वस्तुतः इसे श्रद्धा केवल उपचार से ही कहा जाता है। अपनी मूल भावनाओं में तो यह एक व्यापार अथवा ईश्वर को ठगने का एक प्रयत्न है। ऐसी श्रद्धा या भक्ति नैतिक प्रगति में किसी भी अर्थ में सहायक नहीं हो सकती है। नैतिक दृष्टि से केवल ज्ञान के द्वारा अथवा जिज्ञासा के लिए की गई श्रद्धा का ही कोई अर्थ और मूल्य हो सकता है। ७९
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तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते समय हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गीता में स्वयं श्रीकृष्ण के द्वारा अनेक बार यह आश्वासन दिया गया है कि जो मेरे प्रति श्रद्धा रखेगा वह बन्धनों से छूट कर अन्त में मुझे ही प्राप्त हो जायेगा। गीता में भक्त के योगक्षेम की जिम्मेदारी स्वयं श्रीकृष्ण ही वहन करते है जबकि जैन और बौद्ध दर्शनों में ऐसे आश्वासनों का अभाव है गीता में वैयक्तिक ईश्वर के प्रति जिस निष्ठा का उद्बोधन है वह सामान्यतया जैन और बौद्ध दर्शनों में ऐसे आश्वासनों का अभाव है। गीता में वैयक्तिक ईश्वर के प्रति जिस निष्ठा का उद्बोधन है वह सामान्यतया जैन और बौद्ध परम्पराओं में अनुपलब्ध ही है।
उपसंहार
सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा का जीवन में क्या मूल्य है, इस पर भी विचार अपेक्षित है यदि हम सम्यग्दर्शन को दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार करते हैं, तो उसका हमारे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। सम्यग्दर्शन जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है, वह अनासक्त जीवन जीने की कला का केन्द्रीय तत्त्व है। हमारे चरित्र या व्यक्तित्व का निर्माण इसी जीवन-दृष्टि के आधार पर होता है। गीता में इसी तथ्य को यह कहकर बताया है कि पुरुष जिसकी श्रद्धा जैसी होती है वैसा ही वह बन जाता है। हम अपने को जैसा बनाना चाहते हैं, अपनी जीवन-दृष्टि का निर्माण भी उसी के अनुरूप करें। क्योंकि व्यक्ति की जैसी दृष्टि होती है वैसा ही उसका जीवन जीने का ढंग होता है और जैसा उसका जीवन जीने का ढंग होता है वैसा ही उसका चरित्र बन जाता है। और जैसा उसका चरित्र होता है वैसा ही उसके व्यक्तित्व का उभार होता है। अतः एक यथार्थ दृष्टिकोण का निर्माण जीवन की सबसे प्राथमिक आवश्यकता है।
संदर्भ
१.
२.
८६
दशवैकालिक, ४/११
इसिभासियाई सुत्तं, गहावइज्जं नामज्झणं
Surro
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारगीता, ३/३६
४३. अंगुत्तरनिकाय, १/१७ ४. इसिभासियाई सुत्तं, २१/३
४४. वही, १०/१२ अंगुत्तरनिकाय, १/१७
४५. मनुस्मृति, ६/७४ संयुत्तनिकाय, २१/३/३/८
४६. वही, १७/३ संयुत्तनिकाय, ४३/३/१
४७. वही, ९/३०-३१ तत्त्वार्थ० सर्वार्थसिद्धि टीका-(पूज्यपाद) ८/१
४८. वही, (शां०) १८/१२ मज्झिमनिकाय, चंकिसुत्त उद्धृत महायान, पृ० १२५, ४९. भावपाहुड, १४३ १०. उदान, ६/४
५०. गीता, १७/३ ११. अंगुत्तरनिकाय, १/११
५१. उत्तराध्ययन, २८/१६ १२. गीता, २/४२-४५
५२. विशेषावश्यकभाष्य, २६७५ १३. आचारांग, १/५/१/१४४
५३. देखिए-पंचदशी ६/१७६ उद्धृत-भारतीय-दर्शन, पृ० १२ १४. आचारांग, हिन्दी टीका, प्रथम भाग, पृ० ४०९
५४. वही, (टीका) १४९/९४२ १५. गीता, ४/४०
५५. प्रवचनसारोद्धार (टीका) १४९/९४२ १६. स्थानांग, स्थान १०। तुलना कीजिए-अंगुत्तरनिकाय १/१०- ५६. स्थानांगसूत्र, २/१/७० १२
५७. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २६८ १७. अंगुत्तरनिकाय, १/१०-१२
५८. उत्तराध्ययन, २९/१ १८. हिस्ट्री आफ फिलॉसफी (थिली), पृ० २८७
५९. देखिए गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गाथा २९ की अंग्रेजी टीका, १९. समयसार, २१-२२।
जे० एल० जैन, पृष्ठ २२ २०. उद्धृत-जैन स्टडीज, पृ० १३६
६०. नाटक समयासार, १३/३८ २१. भारतीय दर्शन, पृ० ३८२-३८३
६१. उत्तराध्ययन, २८/३१ २२. उद्धृत-जैन स्टडीज, पृ० १३२-१३३
६२. आचारांग, १/५/५/१६३ २३. विस्तृत विवेचना के लिए देखिए जैन स्टडीज, पृ० १२६- । ६३. मूलाचार, २/५२-५३ १२७ एवं २०१-२१५
६४. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, १२ २४. गीता, १८/२१-२२
६५. पुरुषार्थ०, २४ २५. बृहदारण्यकोपनिषद्, ४/४/१९
६६. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, १३ २६. ईशावास्योपनिषद्, ६-७
६७. वही, १४ २७. विवेकचूड़ामणि-मायानिरूपण, १११
६८. पुरुषार्थ०, २७ २८. विशेषावश्यकभाष्य, १७८७-९०
६९. रत्नकरण्ड श्रावकाचार १६ २९. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ५, पृष्ठ २४२५
७०. पुरुषार्थ०, ३० ३०. वही, खण्ड ५, पृष्ठ २४२५
७१. आत्मा छे, ते नित्य छे, छे कर्ता निजकर्म। ३१. सम प्राब्लम्स इन जैन-साइकोलाजी, पृष्ठ ३२
छे भोक्ता वली मोक्ष छे, मोक्ष उपाय दुधर्म।। ३२. अभि० रा०, खण्ड ५, पृ० २४२५
-आत्मसिद्धिशास्त्र (श्रीमद् राजचन्दभाई) ३३. तत्त्वार्थसूत्र १/२
७२. मज्झिमनिकाय, १/५/७ ३४. उत्तराध्ययन २८/३५ .
७३. वही, १/४/८ ३५. सामायिक सूत्र-सम्यक्त्व पाठ
७४. विसुद्धिग्ग, पृ० (भाग-१) ३६. देखिए स्थानांग, ५/२ उद्धृत-आत्म-साधना संग्रह, पृ० १४३ ७५. वही, १७/१५ ३७. आवश्यकनियुक्ति, ११६३
७६. वही, १७/२-४ ३८. जैनधर्म का प्राण, पृ० २४
७७. वही, ४/४० ३९. नन्दीसूत्र, १/१२
७८. वही, ७/२१-२३ ४०. उत्तराध्ययन, २८/३०
७९. वही, ७/१६ ४१. आचारांग, १/३/२
८०. वही, १८/६५-६६ ४२. सूवकृतांग, १/८/२२-२३
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जैन-साधना में ध्यान
भारतीय अध्यात्मवादी परम्परा में ध्यान-साधना का अस्तित्व साथ-साथ जैन और बौद्ध परम्पराओं में मिल जाते हैं। अति प्राचीनकाल से ही रहा है। यहाँ तक कि अति प्राचीन नगर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से खुदाई में, जो सीलें आदि उपलब्ध हुई हैं, जैन-धर्म और ध्यान उनमें भी ध्यानमुद्रा में योगियों के अंकन पाये जाते हैं। इस प्रकार श्रमण परम्परा की निर्ग्रन्थधारा, जो आज जैन-परम्परा के नाम ऐतिहासिक अध्ययन के जो भी प्राचीनतम स्रोत हमें उपलब्ध हैं, वे सभी से जानी जाती है, अपने अस्तित्व काल से ध्यान-साधना से जुड़ी हुई भारत में ध्यान की परम्परा के अति प्राचीनकाल से प्रचलित होने की है। प्राकृत-साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथों आचारांग उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित पुष्टि करते हैं उनसे यह भी सिद्ध होता है कि भारत में ध्यानमार्ग की (इसिभासियाई) में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शरीर में जो स्थान . परम्परा प्राचीन है और उसे सदैव ही आदरपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। मस्तिष्क का है, साधना में वही स्थान ध्यान का है। उत्तराध्ययनसूत्र में
श्रमण-जीवन की दिनचर्या का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि श्रमणधारा और ध्यान
प्रत्येक श्रमणसाधक को दिन और रात्रि के दूसरे प्रहर में नियमित रूप से औपनिषदिक और उसकी सहवर्ती श्रमण-परम्पराओं में साधना ध्यान करना चाहिए। आज भी जैन-श्रमण को निद्रात्याग के पश्चात्, की दृष्टि से ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। औपनिषदिक ऋषिगण भिक्षाचर्या एवं पदयात्रा से लौटने पर गमनागमन एवं मलमत्र आदि के और श्रमण-साधक अपनी दैनिक जीवनचर्या में ध्यान-साधना को स्थान विसर्जन के पश्चात् तथा प्रात:कालीन और सायंकालीन प्रतिक्रमण करते देते रहे हैं - यह एक निर्विवाद तथ्य है। तान्त्रिक साधना में ध्यान को जो समय ध्यान करना होता है। उसके आचार और उपासना के साथ स्थान मिला है, वह मूलत: इसी श्रमणधारा की देन है। महावीर और बुद्ध कदम-कदम पर ध्यान की प्रक्रिया जुड़ी हुई है। के पूर्व भी अनेक ऐसे श्रमण साधक थे, जो ध्यान-साधना की विशिष्ट
जैन-परम्परा में ध्यान का कितना महत्त्व है- इसका सबसे बड़ा विधियों के न केवल ज्ञाता थे, अपितु अपने सान्निध्य में अनेक साधकों प्रमाण तो यह है कि जैन-तीर्थंकरों की प्रतिमायें चाहे वे खड्गासन में हो को उन ध्यान-साधना की विधियों का अभ्यास भी करवाते थे। इन या पद्मासन में सदैव ही ध्यानमुद्रा में उपलब्ध होती हैं। आज तक कोई आचार्यों की ध्यान-साधना की अपनी-अपनी विशिष्ट विधियाँ थीं, ऐसे भी जिन-प्रतिमा ध्यान-मुद्रा के अतिरिक्त किसी भी अन्य मुद्रा में उपलब्ध संकेत भी मिलते हैं। बुद्ध अपने साधनाकाल में ऐसे ही एक ध्यानसाधक ही नहीं हुई है। यद्यपि तीर्थकर या जिन-प्रतिमाओं के अतिरिक्त बुद्ध की श्रमण आचार्य रामपुत्त के पास स्वयं ध्यान-साधना के अभ्यास के लिए भी कुछ प्रतिमायें ध्यानमुद्रा में उपलब्ध हुई हैं किन्तु बुद्ध की अधिकांश गये थे। रामपुत्त के संबंध में त्रिपिटक साहित्य में यह भी उल्लेख मिलता प्रतिमायें तो ध्यानेतर मुद्राओं- यथा अभयमुद्रा, वरदमुद्रा और उपदेशमुद्रा है कि स्वयं भगवान् बुद्ध ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् भी अपनी साधना की में ही मिलती हैं। इसी प्रकार शिव की कुछ प्रतिमायें भी ध्यानमुद्रा में उपलब्धियों को बताने हेतु उनसे मिलने के लिए उत्सुक थे, किन्तु तब मिलती हैं- किन्तु नृत्यमुद्रा आदि में भी शिव-प्रतिमायें विपुल परिमाण तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी।२ इन्ही रामपुत्त का उल्लेख जैन-आगम में उपलब्ध होती हैं। इस प्रकार जहाँ अन्य परम्पराओं में अपने आराध्य साहित्य में भी आता है। प्राकृत आगमों में सूत्रकृतांग में उनके नाम के देवों की प्रतिमायें ध्यानेतर मुद्राओं में भी बनती रहीं, वहाँ तीर्थंकर या निर्देश के अतिरिक्त अन्तकृद्दशा ऋषिभाषित आदि में तो उनसे जिनप्रतिमायें मात्र ध्यानमुद्रा में भी बनती रहीं। जिनप्रतिमाओं के निर्माण संबंधित स्वतंत्र अध्याय भी रहे थे दुर्भाग्य से अन्तकृद्दशा का वह का दो सहस वर्ष का इतिहास इस बात का साक्षी है कि कभी भी कोई अध्याय तो आज लुप्त हो चुका है, किन्तु ऋषिभाषित में उनके भी जिन-प्रतिमा/तीर्थंकर-प्रतिमा ध्यान-मुद्रा के अतिरिक्त किसी अन्य उपदेशों का संकलन आज भी उपलब्ध है।
मुद्रा में नहीं बनाई गयी। इससे जैन-परम्परा में ध्यान का क्या स्थान रहा बुद्ध और महावीर को ज्ञान का जो प्रकाश उपलब्ध हुआ वह है-यह सुस्पष्ट हो जाता है। जैनाचार्यों ने ध्यान को साधना का मस्तिष्क उनकी ध्यान-साधना का परिणाम ही था, इसमें आज किसी प्रकार का माना है। जिस प्रकार मस्तिष्क के निष्क्रिय हो जाने पर मानव-जीवन का वैमत्य नहीं है। किन्तु हमारा यह दुर्भाग्य है कि प्राचीन साहित्य में भी कोई अर्थ नहीं रह जाता है उसी प्रकार ध्यान के अभाव में जैन-साधना ध्यान-साधना की इन पद्धतियों के विस्तृत विवरण आज उपलब्ध नहीं का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। हैं, मात्र यत्र-तत्र विकीर्ण निर्देश ही हमें मिलते हैं। फिर भी जो सूचनायें उपलब्ध हैं, उनके आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि ध्यान-साधना की आवश्यकता
औपनिषदिक ऋषिगण और श्रमण साधक अपने आध्यात्मिक विकास के मानव-मन स्वभावतः चंचल माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में लिए ध्यान-साधना की विभिन्न पद्धतियों का अनुसरण करते थे। उनकी मन को दुष्ट अश्व की संज्ञा दी गई है, जो कुमार्ग में भागता है।१० गीता ध्यान-साधना-पद्धतियों के कुछ अवशेष आज भी हमें योग-परम्परा के में मन को चंचल बताते हुए कहा गया है कि उसको निगृहीत करना वायु
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार
को रोकने के समान अति कठिन है।११ चंचल मन में विकल्प उठते रहते प्रथमत: मानव-मन की गतिशीलता को नियंत्रित कर उसकी हैं- इन्ही विकल्पों के कारण चैतसिक आकुलता या अशान्ति का जन्म गति की दिशा बदलनी होती है। ज्ञान या विवेकरूपी लगाम के द्वारा उस होता है। यह आकुलता ही चेतना में उद्विग्नता या तनाव की उपस्थिति मन रूपी दुष्ट अश्व को कुमार्ग से सन्मार्ग की दिशा में मोड़ा जाता है। की सूचक है, चित्त की यह उद्विग्न या तनावपूर्ण स्थिति ही असमाधि या इससे उसकी सक्रियता एकाएक समाप्त तो नहीं होती, किन्तु उसकी दुःख है। इसी चैतसिक पीड़ा या दुःख से विमुक्ति पाना समग्र आध्यात्मिक दिशा बदल जाती है, ध्यान में भी यही करना होता है। ध्यान में सर्वप्रथम साधना-पद्धतियों का मूलभूत लक्ष्य है। इसे ही निर्वाण या मुक्ति कहा मन को वासना रूपी विकल्पों से मोड़कर धर्म-चिन्तन में लगाया जाता गया है।
है। अन्त में एक ऐसी स्थिति आ जाती है जब मन पूर्णतः निष्क्रिय हो, मनुष्य में दुःख-विमुक्ति की भावना सदैव ही रही है। यह उसकी भागदौड़ समाप्त हो जाती है। ऐसा मन, मन न रहकर 'अमन' हो स्वाभाविक है, आरोपित नहीं है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति तनाव या जाता है। मन हो 'अमन' बना देना ही ध्यान है। उद्विग्नता की स्थिति में जीना नहीं चाहता है। उद्विग्नता चेतना की
इस प्रकार चैतसिक तनावों या विक्षोभों को समाप्त करने के विभावदशा है। विभावदशा से स्वभाव में लौटना ही साधना है। पूर्व या लिए अथवा निर्विकल्प और शान्त चित्त-दशा की उपलब्धि के लिए पश्चिम की सभी अध्यात्मप्रधान साधना-विधियों का लक्ष्य यही रहा है कि ध्यान-साधना आवश्यक है। उसके द्वारा संकल्प-विकल्पों में विभक्त चित्त चित्त को आकुलता, उद्विग्नता या तनावों से मुक्त करके, उसे निराकुल, को केन्द्रित किया जाता है। विविध वासनाओं आकांक्षाओं और इच्छाओं अनुद्विग्नता या तनावों से मुक्त करके, उसे निराकुल, अनुद्विग्न चित्तदशा के कारण चेतना-शक्ति अनेक रूपी में विखण्डित होकर स्वतः में ही या समाधिभाव में स्थित किया जाये। इसलिये साधना-विधियों का लक्ष्य संघर्षशील हो जाती है।१५ उस शक्ति का यह बिखराव ही हमारा निर्विकार और निर्विकल्प समतायुक्त चित्त की उपलब्धि ही है इसे ही आध्यात्मिक पतन है। ध्यान इस चैतसिक विघटन को समाप्त कर चेतना समाधि-सामायिक (प्राकृत-समाहि) कहा गया है। ध्यान इसी समाधि या को केन्द्रित करता है। चूंकि वह विघटित चेतना को संगठित करता है निर्विकल्प चित्त की उपलब्धि का अभ्यास है। यही कारण है कि वे सभी इसलिए वह योग (Unifications) है। ध्यान चेतना के संगठन की साधना-पद्धतियाँ जो व्यक्ति को अनुद्विग्न, निराकुल, निर्विकार और कला है। संगठित चेतना ही शक्तिस्रोत हैं, इसीलिए यह माना जाता है निर्विकल्प या दूसरे शब्दों में समत्वयुक्त बनाना चाहती हैं, ध्यान को कि ध्यान से अनेक आत्मिक लब्धियों या सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। अपनी साधना में अवश्य स्थान देती हैं।
चित्तधारा जब वासनाओं, आकाक्षाओं, के मार्ग से बहती है
तो वह वासनाओं, आकांक्षाओं इच्छाओं की स्वाभाविक बहुविधता के ध्यान का स्वरूप एवं प्रक्रिया
कारण अनेक धाराओं में विभक्त होकर निर्बल हो जाती है। ध्यान इस जैनाचार्यों ने ध्यान को 'चित्तनिरोध' कहा है।१२ चित्त का विभक्त एवं निर्बल चित्तधारा को एक दिशा में मोड़ने का प्रयास है। निरोध हो जाना ध्यान है। दूसरे शब्दों में यह मन की चंचलता को जब ध्यान की साधना या अभ्यास से चित्तधारा एक दिशा में बहने समाप्त करने का अभ्यास है। जब ध्यान सिद्ध हो जाता है तो चित्त की लगती है, तो न केवल वह सबल होती है, अपितु नियंत्रित होने से चंचलता स्वत: ही समाप्त हो जाती है। योगदर्शन में 'योग' को परिभाषित उसकी दिशा भी सम्यक होती है। जिस प्रकार बाँध विकीर्ण जलधाराओं करते हुए भी कहा गया है कि चित्तवृत्ति का निरोध ध्यान से ही सम्भव को एकत्रित कर उन्हें सबल और सुनियोजित करता है। जिस प्रकार बांध है। अत: ध्यान को साधना का आवश्यक अंग माना गया है। द्वारा सुनियोजित जल-शक्ति का सम्यक् उपयोग सम्भव हो पाता है उसी
गीता में मन की चंचलता के निरोध को वायु को रोकने के प्रकार ध्यान द्वारा सुनियोजित चेतनशक्ति का सम्यक् उपयोग सम्भव है। समान अति कठिन माना गया है। १३ उसमें उसके निरोध के दो उपाय संक्षेप में आत्मशक्ति के केन्द्रीकरण एवं उसे सम्यक् दिशा में बताये गये हैं- १. अभ्यास, २. वैराग्य। उत्तराध्ययन में मन रूपी दुष्ट नियोजित करने के लिए ध्यान-साधना आवश्यक है। वह चित्त-वृत्तियों अश्व को निगृहीत करने के लिए श्रुत रूपी रस्सियों का प्रयोग आवश्यक की निरर्थक भागदौड़ को समाप्त कर हमें मानसिक विक्षोभों एवं विकारों बताया गया है।१४ चंचल चित्त की संकल्प-विकल्पात्मक तरंगें या से मुक्त रखता है। परिणामत: वह आध्यात्मिक शान्ति और निर्विकल्प वासनाजन्य आवेग सहज ही समाप्त नहीं हो जाते हैं। पहले उनकी भाग- चित्त की उपलब्धि का अन्यतम साधन है। दौड़ को समाप्त करना होता है। किन्तु यह वासनोन्मुख सक्रिय-मन या विक्षोभित चित्त निरोध के संकल्प मात्र से नियन्त्रित नहीं हो पाता है। पुनः ध्यान के पारम्परिक लाभ यदि उसे बलात् रोकने का प्रयत्न किया जाता है तो वह अधिक विक्षुब्ध ध्यानशतक (झाणाज्झयन) में ध्यान से होने वाले पारम्परिक होकर मुनष्य को पागलपन के कगार पर पहुँचा देता है, जैसे तीव्र गति एवं व्यावहारिक लाभों की विस्तृत चर्चा हैं। उसमें कहा गया हैं कि धर्म से चलते हुए वाहन को यकायक रोकने का प्रयत्न भयंकर दुर्घटना का ध्यान से शुभास्रव, संवर, निर्जरा और देवलोक के सुख प्राप्त होते हैं। ही कारण बनता है, उसी प्रकार चित्त की चंचलता का एकाएक निरोध शुक्ल ध्यान के भी प्रथम दो चरणों का परिणाम शुभास्रव एवं अनुत्तर विक्षिप्तता का कारण बनता है।
देवलोक के सुख हैं, जबकि शुक्ल ध्यान के अन्तिम दो चरणों का फल
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मोक्ष या निर्वाण है। यहाँ यह स्मरण रखने योग्य है कि जब तक ध्यान ध्यान के व्यावहारिक लाभ में विकल्प है, आकांक्षा है, चाहे वह प्रशस्त ही क्यों न हों, तब तक वह
आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग, जो ध्यान-साधना की अग्रिम शुभास्रव का कारण तो होगा ही। फिर भी यह शुभास्रव मिथ्यात्व के स्थिति है, के लाभों की चर्चा करते हुए आवश्यकनियुक्ति में लिखा है अभाव के कारण संसार की अभिवृद्वि का कारण नही बनता है।१६ कि कायोत्सर्ग के निम्न पाँच लाभ हैं-२२ १. देह जाड्य शुद्धि- श्लेष्म
पुनः ध्यान के लाभों की चर्चा करते हुए उसमें कहा गया है एवं चर्बी के कम हो जाने से देह की जड़ता समाप्त हो जाती है। कि जिस प्रकार जल वस्त्र के मल को धोकर उसे निर्मल बना देता है, कायोत्सर्ग से श्लेष्म, चर्बी आदि नष्ट होते हैं, अत: उनसे उत्पन्न होने उसी प्रकार ध्यानरूपी जल आत्मा के कर्मरूपी मल को धोकर उसे वाली जड़ता भी नष्ट हो जाती है। २. मति जाड्य शुद्धि- कायोत्सर्ग में निर्मल बना देता है। जिस प्रकार अग्नि लोहे के मैल को दूर कर देती मन की वृत्ति केन्द्रित हो जाती है, उससे बौद्धिक जड़ता क्षीण होती है। है,१७ जिस प्रकार वायु से प्रेरित अग्नि दीर्घकाल से संचित काष्ठ को ३. सुख-दुःख-तितिक्षा (समताभाव) ४. कायोत्सर्ग स्थित व्यक्ति जला देती है, उसी प्रकार ध्यानरूपी वायु से प्रेरित साधनारूपी अग्नि अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का स्थिरतापूर्वक अभ्यास कर सकता है। ५. पूर्वभवों के संचित कर्म-संस्कारों को नष्ट कर देती है। उसी प्रकार ध्यान-कायोत्सर्ग में शुभ ध्यान का अभ्यास सहज हो जाता है। इन लाभों ध्यानरूपी अग्नि आत्मा पर लगे हुए कर्मरूपी मल को दूर कर देती में न केवल आध्यात्मिक लाभों की चर्चा है अपितु मानसिक और है।१८ जिस प्रकार वायु से ताडित मेघ शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं शारीरिक लाभों की भी चर्चा है। वस्तुत: ध्यान-साधना की वह कला है उसी प्रकार ध्यानरूपी वायु से ताडित कर्मरूपी मेघ शीघ्र विलीन हो जो न केवल चित्त की निरर्थक भाग-दौड़ को नियंत्रित करती है, अपितु जाते हैं।१९ संक्षेप में ध्यान-साधना से आत्मा, कर्मरूपी मल एवं वाचिक और कायिक (दैहिक) गतिविधियों को भी नियंत्रित कर व्यक्ति आवरण से मुक्त होकर अपनी शुद्ध निर्विकार ज्ञाता-द्रष्टा अवस्था को को अपने आप से जोड़ देती है। हमें एहसास होता है कि हमारा अस्तित्व प्राप्त हो जाता है।
चैतसिक और दैहिक गतिविधियों से भी ऊपर है और हम उनके केवल
साक्षी हैं, अपितु नियामक भी हैं। ध्यान और तनावमुक्ति
ध्यान-आत्मसाक्षात्कार की कला ध्यान के इस चार अलौकिक या आध्यात्मिक लाभों के मनुष्य के लिये, जो कुछ भी श्रेष्ठतम और कल्याणकारी है, अतिरिक्त ग्रन्थकार ने उसके ऐहिक, मनोवैज्ञानिक लाभों की भी चर्चा वह स्वयं अपने को जानना और अपने में जीना है। आत्मबोध से की है, वह कहता है कि जिसका चित्त ध्यान में संलग्न है, वह महत्त्वपूर्ण एवं श्रेष्ठतम अन्य कोई बोध है ही नहीं। आत्मसाक्षात्कार या क्रोधादि कषायों से उत्पन्न होने वाले ईर्ष्या, विषाद, आदि मानसिक आत्मज्ञान भी साधना का सारतत्त्व है। साधना का अर्थ है अपने आप के दुःखों से पीड़ित नहीं होता है।२० ग्रन्थकार के इस कथन का रहस्य प्रति जागना। वह 'कोऽहं' से 'सोऽहं' तक की यात्रा है। साधना की इस यह है कि जब ध्यान में आत्मा अप्रमत्तचेता होकर ज्ञाता-द्रष्टा भाव यात्रा में अपने आप के प्रति जागना सम्भव होता है। ध्यान में ज्ञाता में स्थिति होता है, तो उस अप्रमत्तता की स्थिति में न तो कषाय ही अपनी ही वृत्तियों, भावनाओं, आवेगों और वासनाओं को ज्ञेय बनाकर क्रियाशील होते हैं और न उनसे उत्पन्न ईर्ष्या, द्वेष, विषाद आदि भाव वस्तुतः अपना ही दर्शन करता है। यद्यपि यह दर्शन तभी संभव होता है, ही उत्पन्न होते हैं। ध्यानी व्यक्ति पूर्व संस्कारों के कारण उत्पन्न होने जब हम इनका अतिक्रमण कर जाते हैं, अर्थात्, इनके प्रति कर्ताभाव से वाले कषायों के विपाक को मात्र देखता है, किन्तु उन भावों में मुक्त होकर साक्षी भाव जगाते हैं। अत: ध्यान आत्मा के दर्शन की कला परिणित नहीं होता है। अत: काषायिक भावों की परिणति नहीं होने है। ध्यान ही वह विधि है, जिसके द्वारा हम सीधे अपने ही सम्मुख होते से उसके चित्त के मानसिक तनाव समाप्त हो जाते हैं। ध्यान मानसिक हैं, इसे ही आत्मसाक्षात्कार कहते हैं। ध्यान जीव में 'जिन' का, आत्मा तनावों से मुक्ति का अन्यतम साधन है। ध्यानशतक (झाणाज्झयण) से परमात्मा का दर्शन कराता है। के अनुसार ध्यान से न केवल आत्मविशुद्धि और मानसिक तनावों ध्यान की इस प्रक्रिया में आत्मा के द्वारा परमात्मा (शुद्धात्मा) से मुक्ति मिलती है, अपितु शारीरिक पीड़ायें भी कम हो जाती हैं। के दर्शन के पूर्व सर्वप्रथम तो हमें अपने 'वासनात्मक स्व' (id) का उसमें लिखा है कि जो चित्त ध्यान में अतिशय स्थिरता प्राप्त कर साक्षात्कार होता है- दूसरे शब्दों में हम अपने ही विकारों और वासनाओं चुका है, वह शीत, उष्ण आदि शारीरिक दुःखों से भी विचलित नहीं के प्रति जगाते हैं। जागरण के इस प्रथम चरण में हमें उनकी विद्रूपता का होता है। उन्हें निराकुलतापूर्वक सहन कर लेता है।२१ यह हमारा बोध होता है। हमें लगता है कि ये हमारे विकार भाव हैं-विभाव हैं, व्यावहारिक अनुभव है कि जब हमारी चित्तवृत्ति किसी विशेष दिशा क्योंकि हममें ये 'पर' के निमित्त से होते हैं। यही विभाव दशा का बोध में केन्द्रित होती है तो हम शारीरिक पीड़ाओं को भूल जाते हैं; जैसे साधना का दूसरा चरण है। साधना के तीसरे चरण में साधक विभाग से एक व्यापारी व्यापार में भूख-प्यास आदि को भूल जाता है। अतः रहित शुद्ध आत्मदशा की अनुभूति करता है- यही परमात्मदर्शन है, ध्यान में दैहिक पीड़ाओं का एहसास भी अल्पतम हो जाता है। स्वभावदशा में रमण है। यहाँ यह विचारणीय है कि ध्यान इस आत्मदर्शन
में कैसे सहायक होता है?
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार
ध्यान में शरीर को स्थिर रखकर आँख बन्द करनी होती है। सूत्र में कहा गया है "आत्मा तप से परिशुद्ध होती है।२४ सम्यक्-ज्ञान जैसे ही आँख बन्द होती है-व्यक्ति का सम्बन्ध बाह्य जगत् से टूटकर से वस्तु-स्वरूप का यथार्थ बोध होता है। सम्यग्दर्शन से तत्त्व-श्रद्धा अन्तर्जगत् से जुड़ता है, अन्तर का परिदृश्य सामने आता है, अब उत्पन्न होती है। सम्यग्चारित्र आस्रव का निरोध करता है। किन्त इन हमारी चेतना का विषय बाह्य वस्तुएँ न होकर मनोसृजनाएँ होती हैं। जब तीनों से भी मुक्ति सम्भव नहीं होती, मुक्ति का अन्तिम कारण तो निर्जरा व्यक्ति इस मनोसृजनाओं (संकल्प-विकल्पों) का द्रष्टा बनता है, उसे है। सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाना ही मुक्ति है और कर्मों की तप से एक ओर इनकी पर-निमित्तता (विभावरूपता) का बोध होता है तथा ही निर्जरा होती है। अत: ध्यान तप का एक विशिष्ट रूप है, जो दूसरी ओर अपने साक्षी स्वरूप का बोध होता है। आत्म-अनात्म का आत्मशुद्धि का अन्यतम कारण है। विवेक या स्व-पर के भेद का ज्ञान होता है। कर्ता-भोक्ता भाव के विकल्प
वैसे यह भी कहा जाता है कि आत्मा व्युपरत क्रिया-निवृत्ति क्षीण होने लगते हैं। एक निर्विकल्प आत्म-दशा की अनुभूति होती है। नामक शुक्ल ध्यान में आरूढ़ होकर ही मुक्ति को प्राप्त होता है। अत: दूसरे शब्दों में मन की भाग-दौड़ समाप्त हो जाती है। मनोसृजनाएँ या हम यह कह सकते हैं कि जैन साधना-विधि में ध्यान मुक्ति का अन्तिम संकल्प-विकल्प विलीन होने लगते हैं। चेतना की सभी विकलताएँ कारण है। ध्यान एक ऐसी अवस्था है जब आत्मा पूर्ण रूप से 'स्व' में समाप्त हो जाती हैं। मन आत्मा में विलीन हो जाता है। सहज-समाधि स्थिति होती है और आत्मा का 'स्व' में स्थित होना ही मुक्ति या निर्वाण प्रकट होती है। इस प्रकार आकांक्षाओं, वासनाओं, संकल्प-विकल्पों एवं की अवस्था है। अत: ध्यान ही मुक्ति बन जाता है। तनावों से मुक्त होने पर एक अपरिमित निरपेक्ष आनन्द की उपलब्धि योग-दर्शन में ध्यान को समाधि का पूर्ण चरण माना गया है। होती है, आत्मा अपने चिदानन्द स्वरूप में लीन रहता है। इस प्रकार उसमें भी ध्यान से ही समाधि की सिद्धि होती है। ध्यान जब अपनी ध्यान आत्मा को परमात्मा या शुद्धात्मा से जोड़ता है। अत: वह पूर्णता पर पहुँचता है तो वही समाधि बन जाता है। ध्यान की इस आत्मसाक्षात्कार या परमात्मा के दर्शन की एक कला है।
निर्विकल्प दशा को न केवल जैन दर्शन में, अपितु सम्पूर्ण श्रमण
परम्परा में और न केवल सम्पूर्ण श्रमण-परम्परा में अपितु सभी धर्मों की ध्यान मुक्ति का अन्यतम कारण
साधन-विधियों में मुक्ति का अंतिम उपाय माना गया है। जैन-धर्म में ध्यान मुक्ति का जन्म कारण माना जा सकता है योग चाहे चित्त-वृत्तियों के निरोध में निर्विकल्प समाधि हो या जैन दार्शनिकों ने आध्यात्मिक विकास को जिन १४ सोपानों (गुणस्थानों) आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला हो, वह ध्यान ही है। का उल्लेख किया है, उनमें अन्तिम गुणस्थान को अयोगी केवली गुणस्थान कहा गया है। अयोगी केवली गुणस्थान वह अवस्था है जिसमें ध्यान और समाधि वीतराग-आत्मा अपने काययोग, वचनयोग, मनोयोग अर्थात् शरीर, सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में समाधि के स्वरूप को वाणी और मन की गतिविधियों का निरोध कर लेता है और उनके निरुद्ध स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार कोष्ठागार में लगी हुई आग होने पर वह मुक्ति या निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। यह प्रक्रिया सम्भव को शान्त करना आवश्यक है, उसी प्रकार मुनिजीवन के शीलवतों में है शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण व्युपरत क्रिया निवृत्ति के द्वारा। अत: ध्यान लगी हुई वासना या आकांक्षारूपी अग्नि का प्रशमन करना भी आवश्यक मोक्ष का अन्यतम कारण है। जैन-परम्परा में ध्यान में स्थित होने के पूर्व है। यही समाधि है।२५ धवला में आचार्य वीरसेन ने ज्ञान, दर्शन और जिन पदों का उच्चारण किया जाता है, वे निम्न हैं
चारित्र में सम्यक अवस्थिति को ही समाधि कहा है।२६ वस्तुत: चित्तवृत्ति ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि२३
का उद्वेलित होना ही असमाधि है और उसकी इस उद्विग्नता का समाप्त अर्थात् "मैं शरीर से स्थिर होकर, वाणी से मौन होकर, मन हो जाना ही समाधि है। उदाहरण के रूप में जब वायु के संयोग से जल को ध्यान में नियोजित कर शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग करता हूँ।" तरंगायित होता है तो उस तरंगित जल में रही हुई वस्तुओं का बोध नहीं यहाँ हमें स्मरण रखना चाहिए कि 'अप्पाणं वोसिरामि' का अर्थ, आत्मा होता, उसी प्रकार तनावयुक्त उद्विग्न चित्त में आत्मा के शुद्ध स्वरूप का का विसर्जन करना नहीं है, अपितु देह के प्रति अपनेपन के भाव का साक्षात्कार नहीं होता है। चित्त की इस उद्विग्नता का या तनावयुक्त स्थिति विसर्जन करना है। क्योंकि विसर्जन या परित्याग आत्मा का नहीं अपनेपन का समाप्त होना ही समाधि है। ध्यान भी वस्तुत: चित्त की वह निष्पकम्प के भाव अर्थात् ममत्वबुद्धि का होता है। जब कायिक, वाचिक और अवस्था है जिसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षी होता है। वह मानसिक क्रियाओं पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो जाता है, तभी ध्यान की चित्त की समत्वपूर्ण स्थिति है। अत: ध्यान और समाधि समानार्थक हैं; सिद्धि होती है और जब ध्यान सिद्ध हो जाता है तो आत्मा अयोगदशा फिर भी दोनों में एक सूक्ष्म अन्तर है। वह अन्तर इस रूप में है कि ध्यान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अत: यह स्पष्ट है कि ध्यान मोक्ष का समाधि का साधन है और समाधि साध्य है। योगदर्शन के अष्टांग योग अन्यतम कारण है।
में समाधि का पूर्व चरण ध्यान माना गया है। ध्यान जब सिद्ध हो जाता जैन-परम्परा में ध्यान आन्तरिक तप का एक प्रकार है। इस है, तब वह समाधि बन जाता है। वस्तुतः दोनों एक ही हैं।२७ ध्यान की आन्तरिक तप को आत्मविशुद्धि का कारण माना गया है। उत्तराध्ययन पूर्णता समाधि में है। यद्यपि दोनों में ही चित्तवृत्ति की निष्पकंपता या
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समत्व की स्थिति आवश्यक है। एक में उस निष्पकम्पता या समत्व का अर्थात देह-त्याग। लेकिन जब तक जीवन है तब तक शरीर का त्याग अभ्यास होता है और दूसरे में वह अवस्था सहज हो जाती है। तो संभव नहीं है। अत: कायोत्सर्ग का मतलब है- देह के प्रति ममत्व का
त्याग, दूसरे शब्दों में शारीरिक गतिविधियों का कर्ता न बनकर द्रष्टा बन ध्यान और योग
जाना। वह शरीर की मात्र ऐच्छिक गतिविधियों का नियन्त्रण है। शारीरिक यहाँ ध्यान का योग से क्या संबंध है? यह भी विचारणीय है। गतिविधियाँ भी दो प्रकार ही होती हैं-एक स्वचालित और दूसरी ऐच्छिक। जैन-परम्परा में सामान्यतया मन, वाणी और शरीर की गतिशीलता को कायोत्सर्ग में स्वचालित गतिविधियों का नहीं, अपितु ऐच्छिक गतिविधियों योग कहा जाता है।२८ उसके अनुसार सामान्य रूप से समग्र साधना का नियन्त्रण किया जाता है। कायोत्सर्ग करने से पूर्व जो आगारसूत्र का
और विशेष रूप से ध्यान-साधना का प्रयोजन योग-निरोध ही है। पाठ बोला जाता है उसमें श्वसन-प्रक्रिया, छींक, जम्हाई आदि स्वचालित वस्तुतः मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रियाओं में जिन्हें जैन-परम्परा शारीरिक गतिविधियों का निरोध नहीं करने का भी स्पष्ट उल्लेख है।३२ में योग कहा गया है, मन की प्रधानता होती है। वाचिक योग और अत: कायोत्सर्ग ऐच्छिक शारीरिक गतविधियों के निरोध का प्रयत्न है। . कायिकयोग, मनोयोग पर ही निर्भर करते हैं। जब मन की चंचलता यद्यपि ऐच्छिक गतिविधियों का केन्द्र मानवीय मन अथवा चेतना ही है। समाप्त होती है तो सहज ही शारीरिक और वाचिक-क्रियाओं में शैथिल्य अत: कायोत्सर्ग की प्रक्रिया ध्यान की प्रक्रिया के साथ अपरिहार्य रूप से आ जाता है, क्योंकि उनके मूल में व्यक्त या अव्यक्त मन ही है। अत: जुड़ी हुई है। मन की सक्रियता के निरोध से ही योग-निरोध संभव है। योग-दर्शन भी, एक अन्य दृष्टि से कायोत्सर्ग को देह के प्रति निर्ममत्व की जो योग पर सर्वाधिक बल देता है, यह मानता है कि चित्तवृत्तियों का साधना भी कहा जा सकता है। वह देह में रहकर भी कर्ताभाव से अर निरोध ही योग है।२९ वस्तुत: जहाँ चित्त की चंचलता समाप्त होती है, उठकर द्रष्टाभाव में स्थित होना है। यह भी स्पष्ट है कि चित्तवृत्तियों के वहीं साधना की पूर्णता है और वही पूर्णता ध्यान है। चित्त की चंचलता विचलन में शरीर भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। हम शरीर अथवा मन की भाग दौड़ को समाप्त करना ही जैन-साधना और योग- और इन्द्रियों के माध्यम से ही बाह्य विषयों से जुड़ते हैं और उनकी साधना दोनों का लक्ष्य है। इस दृष्टि से देखें तो जैन-दर्शन में ध्यान की अनुभूति करते हैं इस अनुभूति का अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव हमारी जो परिभाषा दी जाती है वही परिभाषा योग-दर्शन में योग की दी जाती चित्तवृत्ति पर पड़ता है, जो चित्त विचलन का या राग-द्वेष का कारण है। इस प्रकार ध्यान और योग पर्यायवाची बन जाते हैं।
होता है। 'योग' शब्द का एक अर्थ जोड़ना (Unification) भी है।३० इस दृष्टि से आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला को योग कहा गया चित्त (मन) और ध्यान है और इसी अर्थ से योग को मुक्ति का साधन माना गया है। अपने इस
जैन-दर्शन में मन की चार अवस्थाएँ- जैन, बौद्ध और दूसरे अर्थ में भी योग शब्द ध्यान का समानार्थक ही सिद्ध होता है, वैदिक परम्पराओं में चित्त या मन ध्यान-साधना की आधारभूमि है, अत: क्योंकि ध्यान ही साधक को अपने में ही स्थित परमात्मा (शुद्धात्मा) या चित्त की विभिन्न अवस्थाओं पर व्यक्ति के ध्यान-साधना के विकास को मुक्ति से जोड़ता है। वस्तुत: जब चित्तवृत्तियों की चंचलता समाप्त हो आँका जा सकता है। जैन-परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र ने मन की चार जाती है, चित्त प्रशान्त और निष्पकम्प हो जाता है, तो वही ध्यान होता अवस्थाएँ मानी हैं- १. विक्षिप्त मन, २. यातायात मन, ३. श्लिष्ट मन है, वही समाधि होता है और उसे ही योग कहा जाता है। किन्तु जब और ४. सुलीन मन।३३ कार्य-कारण भाव अथवा साध्य-साधना की दृष्टि से विचार करते हैं, तो १. विक्षिप्त मन- यह मन की अस्थिर अवस्था है, इसमें ध्यान साधना होता है, समाधि साध्य होती है। साधन से साध्य की चित्त चंचल होता है, इधर-उधर भटकता रहता है, इसके आलम्बन उपलब्धि ही योग कही जाती है।
प्रमुखतया बाह्य विषय ही होते हैं, इसमें संकल्प-विकल्प या विचारों की
भाग-दौड़ मची रहती है, अत: इस अवस्था में मानसिक शान्ति का ध्यान और कायोत्सर्ग
अभाव होता है। यह चित्त पूरी तरह बहिर्मुखी होती है। जैन-साधना में तप के वर्गीकरण में आभ्यन्तर तप के जो छ: २. यातायात मन- यातायात मन कभी बाह्य विषयों की ओर प्रकार बतलाए गये हैं, उनमें ध्यान और कायोत्सर्ग इन दोनों का अलग- जाता है तो कभी अपने में स्थिर होने का प्रयत्न करता है। यह योगाभ्यास अलग उल्लेख किया गया है।३१ इसका तात्पर्य यह है कि जैन आचार्यों के प्रारम्भ की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त अपने पूर्वाभ्यास के की दृष्टि से ध्यान और कायोत्सर्ग दो भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। ध्यान कारण बाहरी विषयों की ओर दौड़ता रहता है, वैसे थोड़े बहुत प्रयत्न से चेतना को किसी विषय पर केन्द्रित करने का अभ्यास है तो कायोत्सर्ग उसे स्थिर कर लिया जाता है। कुछ समय उस पर स्थिर रहकर पुन: बाह्य शरीर के नियन्त्रण का एक अभ्यास। यद्यपि यहाँ काया (शरीर) व्यापक विषयों के संकल्प-विकल्प में उलझ जाता है। जब-जब कुछ स्थिर होता अर्थ में गृहीत है। स्मरण रहे कि मन और वाक् ये शरीर के आश्रित ही है तब मानसिक शान्ति एवं आनन्द का अनुभव करने लगता है। हैं। शाब्दिक दृष्टि से कायोत्सर्ग शब्द का अर्थ होता है 'काया' का उत्सर्ग यातायात चित्त कथंचित् अन्तर्मुखी और कथंचित् बहिर्मुखी होता है।
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३. श्लिष्ट मन- यह मन की स्थिरता की अवस्था है। इस या ध्यान की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त किसी विषय पर विचार अवस्था में चित्त की स्थिरता का आधार या आलम्बन विषय होता है। या ध्यान करता रहता है। इसलिए इसमें भी सभी चित्तवृत्तियों का निरोध इसमें जैसे-जैसे स्थिरता आती है, आनन्द भी बढ़ता जाता है। नहीं होता, तथापि यह योग की पहली सीढ़ी है।
४. सुलीन मन- यह मन की वह अवस्था है जिसमें संकल्प- ५. निरुद्ध चित्त- इस अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का विकल्प एवं मानसिक वृत्तियों का लय हो जाता है। इसको मन की (ध्येय विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक निरुद्धावस्था भी कहा जा सकता है। यह परमानन्द है, क्योंकि इसमें स्थिर शांत अवस्था में आ जाता है। सभी वासनाओं का विलय हो जाता है।
जैन, बौद्ध और योग दर्शन में मन की इन विभिन्न अवस्थाओं बौद्ध-दर्शन में चित्त की चार अवस्थाएँ- अभिधम्मत्थसंगहो के नामों में चाहे अन्तर हो, लेकिन उनके मूलभूत दृष्टिकोण में कोई के अनुसार बौद्ध-दर्शन में भी चित्त (मन) चार प्रकार का है- १. अन्तर नहीं है, जैसा कि निम्न तालिका से स्पष्ट है। कामावचर, २. रूपावचर, ३. अरूपावचर और ४. लोकोत्तर।३४ १. कामावचर चित्त- यह चित्त की वह अवस्था है जिसमें जैन-दर्शन बौद्ध-दर्शन
योग-दर्शन कामनाओं और वासनाओं का प्राधान्य होता है। इसमें वितर्क एवं विचारों विक्षिप्त
कामावचर
क्षिप्त एवं मूढ़ की अधिकता होती है। मन सांसारिक भोगों के पीछे भटकता रहता है। यातायात
रूपावचर
विक्षिप्त २. रूपावचर चित्त- इस अवस्था में वितर्क-विचार तो होते श्लिष्ट
अरूपावचर
एकाग्र हैं, लेकिन एकाग्रता का प्रयत्न भी होता है। चित्त का आलम्बन बाह्य सुलीन
लोकोत्तर
निरुद्ध स्थूल विषय ही होते हैं। यह योगाभ्यासी चित्त की प्राथमिक अवस्था है। जैन-दर्शन का विक्षिप्त मन, बौद्ध दर्शन का कामावचर चित्त
३. अरूपावचर चित्त- इस अवस्था में चित्त का आलम्बन और योगदर्शन के क्षिप्त और मूढ़ चित्त समानार्थक हैं, क्योंकि सभी के रूपवान बाह्य पदार्थ नहीं है। इस स्तर पर चित्त की वृत्तियों में स्थिरता अनुसार इस अवस्था में चित्त में वासनाओं एवं कामनाओं की बहुलता होती है लेकिन उसकी एकाग्रता निर्विषय नहीं होती। उसके विषय होती है। इसी प्रकार जैन-दर्शन का यातायात मन, बौद्ध-दर्शन का अत्यन्त सूक्ष्म जैसे अनन्त आकाश, अनन्त विज्ञान या अकिंचनता रूपावचर चित्त और योग-दर्शन का विक्षिप्त चित्त भी समानार्थक हैं, होते हैं।
सामान्यतया सभी के अनुसार इस अवस्था में चित्त में अल्पकालिक ४. लोकोत्तर चित्त- इस अवस्था में वासना-संस्कार, राग- स्थिरता होती है तथा वासनाओं के वेग में थोड़ी कमी अवश्य हो जाती द्वेष एवं मोह का प्रहाण हो जाता है। चित्त विकल्पशून्य हो जाता है। इस है। इसी प्रकार जैन-दर्शन का श्लिष्ट मन, बौद्ध-दर्शन का अरूपावचर अवस्था की प्राप्ति कर लेने पर निश्चित रूप से अर्हत् पद एवं निर्वाण की चित्त और योग-दर्शन का एकाग्रचित भी समान ही है। सभी ने इसको प्राप्ति हो जाती है।
मन की स्थिरता की अवस्था कहा है। चित्त की अन्तिम अवस्था जिसे योग-दर्शन में चित्त की पाँच अवस्थाएँ- योगदर्शन में जैन-दर्शन में सुलीन मन, बौद्ध-दर्शन में लोकोत्तर चित्त और योग-दर्शन • चित्तभूमि (मानसिक अवस्था) के पाँच प्रकार हैं। १. क्षिप्त, २. मूढ़, ३. में निरुद्ध चित्त कहा गया है, समान अर्थ के द्योतक हैं। इसमें वासना, विक्षिप्त, ४. एकाग्र और ५. निरुद्धा३५
संस्कार एवं संकल्प-विकल्प का पूर्ण अभाव हो जाता है। ध्यान-साधना १. क्षिप्त चित्त- इस अवस्था में चित्त रजोगुण के प्रभाव में का लक्ष्य चित्त की इस वासना-संस्कार एवं संकल्प-विकल्प से रहित रहता है और एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है। स्थिरता अवस्था को प्राप्त करना है। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि क्रम से नहीं रहती है। यह अवस्था योग के अनुकूल नहीं है क्योंकि इसमें मन अभ्यास बढ़ाते हुए अर्थात् विक्षिप्त से यातायात चित्त का, यातायात से और इन्द्रियों पर संयम नहीं रहता।
श्लिष्ट का और श्लिष्ट से सुलीन चित्त का अभ्यास करना चाहिए। इस २. मूढ़ चित्त- इस अवस्था में तन की प्रधानता रहती है और तरह अभ्यास करने से निरालम्बन ध्यान होने लगता है। निरालम्बन इसमें निद्रा, आलस्य आदि का प्रादुर्भाव होता है। निद्रावस्था में चित्त की ध्यान से समत्व प्राप्त करके परमानन्द का अनुभव करना चाहिए। योगी वृत्तियों का कुछ काल के लिए तिरोभाव हो जाता है, परन्तु यह अवस्था को चाहिए कि वह बहिरात्मभाव का त्याग करके अन्तरात्मा के साथ योगावस्था नहीं है, क्योंकि इसमें आत्मा साक्षी भाव में नहीं होता है। सामीप्य स्थापित करे और परमात्ममय बनने के लिए निरन्तर परमात्मा
३. विक्षिप्त चित्त- विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए का ध्यान करे।३६ एक विषय पर लगता है, पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर दौड़ जाता इस प्रकार चित्त-वृत्तियों या वासनाओं का विलयन ही समालोच्य है और पहला विषय छूट जाता है। यह चित्त की आंशिक स्थिरता की ध्यान परम्पराओं का प्रमुख लक्ष्य रहा है, क्योंकि वासनाओं द्वारा ही मन अवस्था है।
क्षोभित होता है, जिससे चेतना का समत्व भंग होता है। ध्यान इसी ४. एकाग्र चित्त- यह वह अवस्था है, जिसमें चित्त देर तक समत्व या समाधि को प्राप्त करने की साधना है। एक विषय पर लगा रहता है। यह किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीकरण
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ध्यान का सामान्य अर्थ
अवस्था है, वह ध्यान है।४३ इस गाथा में पण्डित बालचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री 'ध्यान' शब्द का सामान्य अर्थ चेतना का किसी एक विषय ने “दसणणाणसमग्गं" का अर्थ सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से परिपूर्ण या बिन्दु पर केन्द्रित होना है।३७ चेतना जिस विषय पर केन्द्रित होती है किया है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह अर्थ उचित नहीं है। दर्शन और ज्ञान वह प्रशस्त या अप्रशस्त दोनों ही हो सकता है। इसी आधार पर ध्यान की समग्र (समग्गं) का अर्थ है ज्ञान का भी निर्विकल्प अवस्था में होना। के दो रूप निर्धारित हुए- १. प्रशस्त और २. अप्रशस्त। उसमें भी सामान्यतया ज्ञान विकल्पात्मक होता है और दर्शन निर्विकल्प। किन्तु अप्रशस्त ध्यान के पुन: दो रूप माने गये १. आर्त और ३. रौद्र। प्रशस्त जब ज्ञान चित्त की विकल्पता से रहित होकर दर्शन से अभिन्न हो जाता ध्यान के भी दो रूप माने गये १. धर्म और २. शुक्ला जब चेतना राग है, तो वही ध्यान हो जाता है। इसीलिए अन्यत्र कहा भी है कि ज्ञान से या आसक्ति में डूब कर किसी वस्तु और उसकी उपलब्धि की आशा पर ही ध्यान की सिद्धि होती है।४४ ध्यान शब्द की इन परिभाषाओं में हमें केन्द्रित होती है तो उसे आर्तध्यान कहा जा सकता है। अप्राप्त वस्तु की स्पष्ट रूप से एक विकासक्रम परिलक्षित होता है। फिर भी मूल रूप में प्राप्ति की आकांक्षा या प्राप्त वस्तु के वियोग की संभावना की चिन्ता में ये परिभाषाएँ एक दूसरे की विरोधी नहीं हैं। चित्त का विधि- विकल्पों से । चित्त का डूबना आर्तध्यान है।३८ आर्तध्यान चित्त के अवसाद/विषाद की रहित होकर एक विकल्प पर स्थिर हो जाना और अन्त में निर्विकल्प हो अवस्था है।
जाना ही ध्यान है क्योंकि ध्यान की अन्तिम अवस्था में सभी विकल्प ___ जब कोई उपलब्ध अनुकूल विषयों के वियोग का या अप्राप्त समाप्त हो जाते हैं। अनुकूल विषयों की उपलब्धि में अवरोध का निमित्त बनता है तो उस पर आक्रोश का जो स्थायीभाव होता है, वही रौद्रध्यान है।३६ इस प्रकार ध्यान का क्षेत्र आर्तध्यान रागमूलक होता है और रौद्रध्यान द्वेषमूलक होता है। राग-द्वेष ध्यान-साधना के दो प्रकार माने गये हैं- एक बहिरंग और के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण ये दोनों ध्यान संसार के जनक हैं, दूसरा अन्तरंग। ध्यान के बहिरंग साधनों में ध्यान के योग्य स्थान (क्षेत्र), अत: अप्रशस्त माने गये हैं। इनके विपरीत धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान आसन, काल आदि का विचार किया जाता है और अन्तरंग साधनों में प्रशस्त माने गये हैं। मेरी दृष्टि में स्व-पर के लिये कल्याणकारी विषयों ध्येय विषय और ध्याता के संबंध में यह विचार किया जाता है कि ध्यान पर चित्तवृत्ति का स्थिर होना धर्मध्यान है। यह लोकमंगल और आत्मविशुद्धि के योग्य क्षेत्र कौन से हो सकते हैं। आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं कि 'जो का साधक होता है। चूंकि धर्म ध्यान में भोक्ताभाव होता है, अत: यह स्थान निकृष्ट स्वभाव वाले लोगों से सेवित हो, दुष्ट राजा से शासित हो, शुभ आस्रव का कारण होता है। जब आत्मा की चित्त-वृत्तियाँ साक्षीभाव पाखण्डियों के समूह से व्याप्त हो, जुआरियों, मद्यपियों और व्यभिचारियों या ज्ञाता द्रष्टा भाव में अवस्थित होती हैं, तब साधक न तो कर्ताभाव से से युक्त हो, जहाँ का वातवरण अशान्त हो, जहाँ सेना का संचार हो रहा जुड़ता है और न भोक्ताभाव से जुड़ता है, यही साक्षीभाव की अवस्था ही हो, गीत वादन आदि के स्वर गूंज रहे हों, जहाँ जन्तुओं तथा नपुंसक शुक्ल ध्यान है। इसमें चित्त शुभ-अशुभ दोनों से ऊपर उठ जाता है। आदि निकृष्ट प्रकृति के जनों का विचरण हो, वह स्थान ध्यान के योग्य
नहीं है। इस प्रकार काँटे, पत्थर, कीचड़, हड्डी, रुधिर आदि से दूषित 'ध्यान' शब्द की जैन-परिभाषाएँ
तथा कौवे, उल्लू, शृगाल, कुत्तों आदि से सेवित स्थान भी ध्यान के सामान्यतया अध्यवसायों (चित्तवृत्ति) का स्थिर होना ही ध्यान योग्य नहीं होते हैं।४५ । कहा गया है। दूसरे शब्दों में मन की एकाग्रता को प्राप्त होना ही ध्यान यह बात स्पष्ट है कि परिवेश का प्रभाव हमारी चित्तवृत्तियों पर है। इसके विपरीत जो मन चंचल है उसे भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता पड़ता है। धर्म स्थलों एवं नीरव साधना-क्षेत्रों आदि में जो निराकुलता कहा जाता है।४० इस प्रकार ध्यान वह स्थिति है जिसमें चित्त की होती है तथा उनमें जो एक विशिष्ट प्रकार की शान्ति होती है, वह चंचलता समाप्त हो जाती है और वह किसी एक विषय पर केन्द्रित हो ध्यान-साधना के लिए उपयुक्त होती है। अत: ध्यान करते समय साधक जाती है। तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि को क्षेत्र का विचार करना आवश्यक है। संयमी साधक को समुद्र तट, अनेक अर्थों का आलम्बन देने वाली चिन्ता का निरोध ध्यान है'।४१ नदी तट, अथवा सरोवर के तट, पर्वत-शिखर अथवा गुफा किंवा दूसरे शब्दों में जब चिन्तन को अन्यान्य विषयों से हटा कर किसी एक प्राकृतिक दृष्टि से नीरव और सुन्दर प्रदेशों को अथवा जिनालय आदि ही वस्तु पर केन्द्रित कर दिया जाता है तो वह ध्यान बन जाता है। यद्यपि धर्म स्थानों को ही ध्यान के क्षेत्र रूप में चुनना चाहिए। ध्यान की दिशा भगवती-आराधना में एक ओर चिन्ता-निरोध से उत्पन्न एकाग्रता को के संबंध में विचार करते हुए कहा गया है कि ध्यान के लिए पूर्व या ध्यान कहा गया है, तो दूसरी ओर उसमें राग-द्वेष और मिथ्यात्व से उत्तर दिशा में अभिमुख होकर बैठना चाहिये। रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है, उसे ध्यान कहा गया है।४२ आचार्य ध्यान के आसन कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय में ध्यान को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि दर्शन ध्यान के आसनों को लेकर भी जैन-ग्रन्थों में पर्याप्त रूप से और ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित चेतना की जो विचार हुआ है। सामान्य रूप से पद्मासन, पर्यंकासन एवं खड्गासन
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ध्यान के उत्तम आसन माने गये हैं। ध्यान के आसनों के संबंध में जैन आचार्यों की मूलदृष्टि यह है कि जिन आसनों से शरीर और मन पर तनाव नहीं पड़ता हो ऐसे सुखासन ही ध्यान के योग्य आसन माने जा सकते हैं। जिन आसनों का अभ्यास साधक ने कर रखा हो और जिन आसनों में वह अधिक समय पर सुखपूर्वक बैठ सकता हो तथा जिनके कारण उसका शरीर स्वेद को प्राप्त नहीं होता हो, वे ही आसन ध्यान के लिए श्रेष्ठ आसन हैं। ४६ सामान्यतया जैन परम्परा में पद्मासन और खड्गासन ही ध्यान के अधिक प्रचलित आसन रहे हैं। ४७ किन्तु महावीर के द्वारा गोदुहासन में ध्यान करके केवलज्ञान प्राप्त करने के भी उल्लेख हैं। ४८ समाधिमरण या शारीरिक अशक्ति की स्थिति में लेटे-लेटे भी ध्यान किया जा सकता है।
ध्यान का काल
सामान्यतया सभी कालों में शुभ भाव संभव होने से ध्यानसाधना का कोई विशिष्ट काल नहीं कहा गया है । किन्तु जहाँ तक मुनि समाचारी का प्रश्न है, उत्तराध्ययन में सामान्य रूप से मध्याह्न और मध्यरात्रि को ध्यान के लिए उपयुक्त समय बताया गया है । ४९ उपासकदशांग में सकडाल पुत्र के द्वारा मध्याह्न में ध्यान करने का निर्देश है । ५० कहीं-कहीं प्रातः काल और सन्ध्याकाल में भी ध्यान करने का विधान मिलता है।
ध्यान की समयावधि
जैन आचार्यों ने इस प्रश्न पर भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया है कि किसी व्यक्ति की चित्त वृत्ति अधिकतम कितने समय तक एक विषय पर स्थिर रह सकती है। इस संबंध में उनका निष्कर्ष यह है कि किसी एक विषय पर अखण्डित रूप से चित्तवृत्ति अन्तर्मुहूर्त से अधिक स्थिर नहीं रह सकती। अन्तर्मुहूर्त से उनका तात्पर्य एक क्षण से कुछ अधिक तथा ४८ मिनट से कुछ कम है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ध्यान अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय तक नहीं किया जा सकता है। यह सत्य है कि इतने काल के पश्चात् ध्यान खण्डित होता है, किन्तु चित्तवृत्ति को पुनः नियोजित करके ध्यान को एक प्रहर या रात्रिपर्यंत भी किया जा सकता है।
ध्यान और शरीर रचना
जैन आचार्यों ने ध्यान का संबंध शरीर से भी जोड़ा है। यह अनुभूत तथ्य है कि सबल, स्वस्थ और सुगठित शरीर ही ध्यान के लिए अधिक योग्य होता है। यदि शरीर निर्बल है, सुगठित नहीं है तो शारीरिक गतिविधियों को अधिक समय तक नियन्त्रित नहीं किया जा सकता और यदि शारीरिक गतिविधियाँ नियंत्रित नहीं रहेंगी तो चित्त भी नियन्त्रित नहीं रहेगा। शरीर और चित्तवृत्तियों में एक गहरा संबंध है। शारीरिक विकलताएँ चित को विकल बना देती है और चैतसिक विकलताएँ शरीर को । अतः यह माना गया है कि ध्यान के लिए सबल,
जैन साधना एवं आचार
नीरोग और सुगठित शरीर आवश्यक है। तत्त्वार्थसूत्र में तो ध्यान की परिभाषा देते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि उत्तमसंहनन वाले का एक विषय में अंतःकरण की वृत्ति का नियोजन ध्यान है। जैन आचार्य यह मानते हैं कि छः प्रकार की शारीरिक संरचना में से वज्रऋषभनाराच, अर्धवज्रऋषभनाराच, नाराच और अर्धनाराच- ये चार शारीरिक संरचनाएँ ही (संहनन) ध्यान के योग्य होती है। ५२ यद्यपि हमें यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि शारीरिक संरचना का सह-संबंध मुख्य रूप से प्रशस्त ध्यानों से ही है, अप्रशस्त ध्यानों से नहीं। यह सत्य है कि शरीर चित्तवृत्ति की अस्थिरता का मुख्य कारण होता है। अतः ध्यान की वे स्थितियाँ जिनका विषय प्रशस्त होता है और जिनके लिए चित्तवृत्ति की अधिक समय तक स्थिरता आवश्यक होती है. वे केवल सबल शरीर में ही सम्भव होती हैं। किन्तु अप्रशस्त आतं रौद्र आदि ध्यान तो निर्बल शरीरवालों को ही अधिक होते हैं। अशक्त या दुर्बल व्यक्ति ही अधिक चिन्तित एवं चिड़चिड़ा होता है।
ध्यान किसका?
ध्यान के संदर्भ में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि ध्यान किसका किया जाये ? दूसरे शब्दों में ध्येय या ध्यान का आलम्बन क्या है ? सामान्य दृष्टि से विचार करने पर तो किसी भी वस्तु या विषय को ध्येय / ध्यान के आलम्बन के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि सभी वस्तुओं या विषयों में कमोवेश ध्यानकर्षण की क्षमता तो होती ही है चाहे संसार के सभी विषय ध्यान के आलम्बन होने की पात्रता रखते हों, किन्तु उन सभी को ध्यान का आलम्बन नहीं बनाया जा सकता है। व्यक्ति के प्रयोजन के आधार पर ही उनमें से कोई एक विषय ही ध्यान का आलम्बन बनता है। अतः ध्यान के आलम्बन का निर्धारण करते समय यह विचार करना आवश्यक होता है कि ध्यान का उद्देश्य या प्रयोजन क्या है? दूसरे शब्दों में ध्यान हम किसलिए करना चाहते हैं ? इसका निर्धारण सर्वप्रथम आवश्यक होता है। वैसे तो संसार के सभी विषय चित्त को केन्द्रित करने का सामर्थ्य रखते हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि बिना किसी पूर्व विचार के उन्हें ध्यान का आलम्बन अथवा ध्येय बनाया जाये। किसी स्त्री का सुन्दर शरीर ध्यानाकर्षण या ध्यान का आलम्बन होने की योग्यता तो रखता है, किन्तु जो साधक ध्यान के माध्यम से विक्षोभ या तनावमुक्त होना चाहता है, उसके लिए यह उचित नहीं होगा कि वह स्त्री के सुन्दर शरीर को अपने ध्यान का विषय बनाये, क्योंकि उसे ध्यान का विषय बनाने से उसके मन में उसके प्रति रागात्मकता उत्पन्न होगी, वासना जागेगी और पाने की आकांक्षा या भोग की आकांक्षा से घिस में विक्षोभ पैदा होगा। अतः किसी भी वस्तु को ध्यान का आलम्बन बनाने के पूर्व यह विचार करना आवश्यक होता है कि हमारे ध्यान का प्रयोजन या उद्देश्य क्या है ? जो व्यक्ति अपनी वासनाओं का पोषण चाहता है, वही स्त्री-शरीर के सौन्दर्य को अपने ध्यान का आलम्बन बनाता है और उसके माध्यम से आर्तध्यान का भागीदार बनता है। किन्तु जो भोग के स्थान पर त्याग और वैराग्य को
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अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहता है, जो समाधि का इच्छुक है, समावेश होता है। अत: हमें यह मानना होता है कि इन अप्रशस्त ध्यानों उसके लिए स्त्री-शरीर की वीभत्सता और विद्रूपता ही ध्यान का आलम्बन की पात्रता तो आध्यात्मिक दृष्टि से अपूर्ण रूप से विकसित सभी प्राणियों होगी। अत: ध्यान के प्रयोजन के आधार पर ही ध्येय का निर्धारण करना में किसी न किसी रूप में रहती ही है। नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि होता है। पुन: ध्यान की प्रशस्तता और अप्रशस्तता भी उसके ध्येय या सभी में आर्तध्यान और रौद्रध्यान पाये जाते हैं। किन्तु जब हम ध्यान का आलम्बन पर आधारित होती है, अत: प्रशस्त ध्यान के साधक अप्रशस्त तात्पर्य केवल प्रशस्त ध्यान अर्थात् धर्मध्यान और शुक्लध्यान से लेते हैं विषयों को अपने ध्यान का आलम्बन या ध्येय नहीं बनाते हैं। तो हमें यह मानना होगा कि इन ध्यानों के अधिकारी सभी प्राणी नहीं हैं।
जैन दार्शनिकों की दृष्टि में प्राथमिक स्तर पर ध्यान के लिए उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में किस ध्यान का कौन अधिकारी है इसका किसी ध्येय या आलम्बन का होना आवश्यक है, क्योंकि बिना आलम्बन उल्लेख किया है।५७ इसकी विशेष चर्चा हमने ध्यान के प्रकारों के प्रसंग के चित्त की वृत्तियों को केन्द्रित करना सम्भव नहीं होता है, वे सभी में की है। साधारणतया चतुर्थ गुणस्थान अर्थात् सम्यक्दर्शन की प्राप्ति विषय और वस्तुएँ जिनमें व्यक्ति का मन रम जाता है, ध्यान का के पश्चात् ही व्यक्ति धर्मध्यान का अधिकारी बनता है। धर्मध्यान की आलम्बन बनने की योग्यता तो रखती हैं, किन्तु उनमें से किसी एक को पात्रता केवल सम्यग्दृष्टि जीवों को ही है। आर्त और रौद्र ध्यान का अपने ध्यान का आलम्बन बनाते समय व्यक्ति को यह विचार करना परित्याग करके अपने को प्रशस्त चिन्तन से जोड़ने की सम्भावना केवल होता है कि उससे वह राग की ओर जायेगा या विराग की ओर, उसके उसी व्यक्ति में हो सकती है, जिसका विवेक जाग्रत हो और जो हेय, ज्ञेय चित्त में वासना और विक्षोभ जागेंगे या समाधि सधेगी। यदि साधक का और उपादेय के भेद को समझता हो। जिस व्यक्ति में हेय-उपादेय अथवा उद्देश्य ध्यान के माध्यम से चित्त-विक्षोभों को दूर करके समाधिलाभ या हित-अहित के बोध का ही सामर्थ्य नहीं है, वह धर्मध्यान में अपने चित्त समताभाव को प्राप्त करना है तो उसे प्रशस्त विषयों को ही अपने ध्यान को केन्द्रित नहीं कर सकता। का आलम्बन बनाना होगा। प्रशस्त आलम्बन ही व्यक्ति को प्रशस्त ध्यान यह भी स्मरणीय है कि आर्त और रौद्र ध्यान पूर्व संस्कारों के की दिशा की ओर ले जाता है।
कारण व्यक्ति में सहज होते हैं, उनके लिए व्यक्ति को विशेष प्रयत्न या ध्यान के आलम्बन के प्रशस्त विषयों में परमात्मा या ईश्वर का साधना नहीं करनी होती, जबकि धर्मध्यान के लिए साधना (अभ्यास) स्थान सर्वोपरि माना गया है। जैन दार्शनिकों ने भी ध्यान के आलम्बन आवश्यक है। इसीलिए धर्मध्यान केवल सम्यग्दृष्टि को ही हो सकता है। के रूप में वीतराग परमात्मा को ध्येय के रूप में स्वीकार किया है।५३ धर्मध्यान की साधना के लिए व्यक्ति में ज्ञान के साथ-साथ वैराग्य/विरति चाहे ध्यान पदस्थ हो या पिण्डस्थ, रूपस्थ हो या रूपातीत; ध्येय तो भी आवश्यक मानी गई है और इसलिए कुछ लोगों का यह मानना है परमात्मा ही है, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन-धर्म में कि धर्मध्यान पाँचवें गुणस्थान अर्थात् देशव्रती को ही संभव है। अत: आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं है। आत्मा की शुद्धदशा ही परमात्मा स्पष्ट है कि जहाँ आर्त और रौद्रध्यान के स्वामी सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि है।५४ इसलिए जैन-दर्शन में ध्याता और ध्येय अभिन्न हैं। साधक आत्मा दोनों प्रकार के जीव हो सकते हैं, वहाँ धर्मध्यान का अधिकारी सम्यग्दृष्टि ध्यान-साधना में अपने ही शुद्ध स्वरूप को ध्येय बनाता है। आत्मा, श्रावक और विशेषरूप से देशविरत श्रावक या मुनि ही हो सकता है। आत्मा के द्वारा आत्मा का ही ध्यान करता है।५५ जिस परमात्मास्वरूप जहाँ तक शुक्लध्यान का प्रश्न है, वह सातवें गुणस्थान के अप्रमत्त को ध्याता ध्येय के रूप में स्वीकार करता है वह उसका अपना ही शुद्ध जीवों से लेकर १४ वें अयोगी केवली गुणस्थान तक के सभी व्यक्तियों स्वरूप है।५६ पुन: ध्यान में जो ध्येय बनता है वह वस्तु नहीं, चित्त की में सम्भव है। इस संबंध में श्वेताम्बर-दिगम्बर के मतभेदों की चर्चा ध्यान वृत्ति होती है, ध्यान में चित्त ही ध्येय का आकार ग्रहण करके हमारे के प्रकारों के प्रसंग में आगे की गयी है। सामने उपस्थित होता है, अत: ध्याता भी चित्त है और ध्येय भी चित्त है। इस प्रकार ध्यान-साधना के अधिकारी व्यक्ति भिन्न-भिन्न ध्यानों जिसे हम ध्येय कहते हैं, वह हमारा अपना ही निज रूप है, हमारा की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न कहे गये हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से अपना ही प्रोजेक्शन (Projection) है। ध्यान वह कला है जिसमें जितना विकसित होता है वह ध्यान के क्षेत्र में उतना ही आगे बढ़ सकता ध्याता अपने को ही ध्येय बनाकर स्वयं उसका साक्षी बनता है। हमारी है। अत: व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास उसकी ध्यान-साधना से जुड़ा वृत्तियाँ ही हमारे ध्यान का आलम्बन होती हैं और उनके माध्यम से हम हुआ है। आध्यात्मिक साधना और ध्यान-साधना में विकास का क्रम अपना ही दर्शन करते हैं।
अन्योन्याश्रित है। जैसे-जैसे व्यक्ति प्रशस्त की दिशा में अग्रसर होता है
उसका आध्यात्मिक विकास होता है और जैसे-जैसे उसका आध्यात्मिक ध्यान के अधिकारी
विकास होता है, वह प्रशस्त ध्यानों की ओर अग्रसर होता है। ध्यान को व्यापक अर्थों में ग्रहण करने पर सभी व्यक्ति ध्यान के अधिकारी माने जा सकते हैं, क्योंकि जैन-दर्शन के अनुसार आर्त ध्यान का साधक गृहस्थ या श्रमण? और रौद्र ध्यान तो निम्नतम प्राणियों में भी पाया जाता है। अपने व्यापक ध्यान की क्षमता त्यागी और भोगी दोनों में समान रूप से अर्थ में ध्यान में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ही प्रकार के ध्यानों का होती है, किन्तु अक्सर भोगी जिस विषय पर अपना ध्यान केन्द्रित करता
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है वह विषय अन्त में उसके मन को प्रमथित करके उद्वेलित ही बनाता साधु को? वस्तुत: निर्लिप्त जीवन जीने वाला व्यक्ति चाहे वह साधु हो है। अत: उसके ध्यान में यद्यपि कुछ काल तक चित्त तो स्थिर रहता है, या गृहस्थ, उसके लिए धर्मध्यान संभव हो सकता है। दूसरी ओर किन्तु उसका फल चित्तवृत्तियों की स्थिरता न होकर अस्थिरता ही होती आसक्त, दंभी और साकांक्ष व्यक्ति, चाहे वह मुनि ही क्यों न हो, उसके है। जिस ध्यान के अन्त में चित्त उद्वेलित होता हो वह ध्यान साधनात्मक लिए धर्मध्यान असंभव होता है। ध्यान की संभावना साधु और गृहस्थ ध्यान की कोटि में नहीं आता है। यही कारण है कि परवर्ती जैन होने पर निर्भर नहीं करती। उसकी संभावना का आधार ही व्यक्ति के दार्शनिकों ने अपने ग्रन्थों में आर्तध्यान और रौद्रध्यान को ध्यान के रूप चित्त की निराकुलता या अनासक्ति है। जो चित्त अनासक्त और निराकुल में परिगणित ही नहीं किया, क्योंकि वे अन्ततोगत्वा चित्त की उद्विग्नता है, फिर वह चित्त गृहस्थ का हो या मुनि का, इससे अन्तर नहीं पड़ता। के ही कारण बनते हैं। यही कारण था कि दिगम्बर-परम्परा ने यह मान ध्यान के अधिकारी बनने के लिए आवश्यक यह है कि व्यक्ति का मानस लिया कि गृहस्थ का जीवन वासनाओं, आकांक्षाओं और उद्विग्नताओं से निराकांक्ष, अनाकुल और अनुद्विग्न रहे। यह अनुभूत सत्य है कि कोईपरिपूर्ण है, अत: वे ध्यान- साधना करने में असमर्थ हैं।
कोई व्यक्ति गृहस्थ जीवन में रहकर भी निराकांक्ष, अनाकुल और ज्ञानार्णव में इस मत का प्रतिपादन हुआ है कि गृहस्थ ध्यान अनुद्विग्न बना रहता है। दूसरी ओर कुछ साधु, साधु होकर भी सदैत का अधिकारी नहीं है।५८ इस संबंध में उसका कथन है कि गृहस्थ आसक्त, आकुल और उद्विग्न रहते हैं। अत: ध्यान का संबंध गृही जीवन प्रमाद को जीतने में समर्थ नहीं होता, इसलिए वह अपने चंचल मन या मुनि-जीवन से न होकर चित्त की विशुद्धि से है। चित्त जितना विशुद्ध को वश में नहीं रख पाता। फलत: वह ध्यान का अधिकारी नहीं हो होगा ध्यान उतना ही स्थिर होगा। पुन: जो श्वेताम्बर और यापनीय सकता। ज्ञानार्णवकार का कथन है कि गृहस्थ का मन सैंकड़ों झंझटों परम्परायें गृहस्थ में भी १४ गुणस्थान सम्भव मानती हैं, उनके अनुसार से व्यथित तथा दुष्ट तृष्णा रूप पिशाच से पीड़ित रहता है, इसलिए तो आध्यात्मिक विकास के अग्रिम श्रेणियों का अरोहण करता हुआ उसमें रहकर व्यक्ति ध्यान आदि की साधना नहीं कर सकता। जब गृहस्थ भी न केवल धर्मध्यान का अपितु शुक्ल -ध्यान का भी अधिकारी प्रलयकालीन तीक्ष्ण वायु के द्वारा स्थिर स्वभाववाले बड़े-बड़े पर्वत होता है। भी स्थानभ्रष्ट कर दिये जाते हैं, तो फिर स्त्री-पुत्र आदि के बीच रहने वाले गृहस्थ को जो स्वभाव से ही चंचल है, क्यों नहीं भ्रष्ट किया जा ध्यान के प्रकार सकता।५९ इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए ज्ञानार्णवकार तो यहाँ तक सामान्यतया जैनाचार्यों ने ध्यान का अर्थ चित्तवृत्ति का किसी कहता है कि कदाचित् आकाश-कुसुम और गधे को सींग (श्रृंग) एक विषय पर केन्द्रित होना ही माना है। अत: जब उन्होंने ध्यान के संभव भी हों६० लेकिन गृहस्थ जीवन में किसी भी देश और काल में प्रकारों की चर्चा की तो उसमें प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों ही प्रकार के ध्यान संभव नहीं होता। इसके साथ ही ज्ञानार्णवकार मिथ्यादृष्टियों, ध्यानों को गृहीत कर लिया। उन्होंने आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये अस्थिर अभिप्राय वालों तथा कपटपूर्ण जीवन जीने वालों में भी ध्यान ध्यान के चार प्रकार माने।६३ ध्यान के इन चार प्रकारों में प्रथम दो को की संभावना को स्वीकार नहीं करता है।६१
अप्रशस्त अर्थात् संसार का हेतु और अन्तिम दो को प्रशस्त अर्थात् मोक्ष यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या गृहस्थ-जीवन में का हेतु कहा गया है।६४ इसका आधार यह माना गया है कि आर्त और ध्यान संभव नहीं है। यह सही है कि गृहस्थ जीवन में अनेक द्वन्द्व होते रौद्रध्यान राग-द्वेष जनित होने से बंधन के कारण हैं, इसलिए वे है और गृहस्थ आर्त और रौद्रध्यान से अधिकांश समय तक जुड़ा रहता अप्रशस्त हैं। जबकि धर्मध्यान और शुक्लध्यान कषाय भाव से रहित है। किन्तु एकान्त रूप से गृहस्थ में धर्म-ध्यान की संभावना को अस्वीकार होने से मुक्ति के कारण हैं, इसलिए वे प्रशस्त हैं। ध्यानशतक की टीका नहीं किया जा सकता। अन्यथा गृहस्थ लिंग की अवधारणा खण्डित हो में तथा अमितगति के श्रावकाचार में इन चार ध्यानों को क्रमश: जायेगी। अत: गृहस्थ में भी धर्म-ध्यान की संभावना है।
तिर्यंचगति, नरकगति, देवगति और मुक्ति का कारण कहा गया है। यह सत्य है कि जो व्यक्ति जीवन के प्रपंचों में उलझा हुआ है, यद्यपि प्राचीन जैन-आगमों में ध्यान का यह चतुर्विध वर्गीकरण ही मान्य उसके लिए ध्यान संभव नहीं है। किन्तु गृहस्थ जीवन और गृही वेश में रहा है। किन्तु जब ध्यान का संबंध मुक्ति की साधना से जोड़ा गया तो रहने वाले सभी व्यक्ति आसक्त ही होते हैं, यह नहीं कहा जा सकता। आर्त और रौद्रध्यान को बंधन का कारण होने से ध्यान की कोटि में ही अनेक सम्यग्दृष्टि गृहस्थ ऐसे होते हैं, जो जल में कमलवत् गृहस्थ परिगणित नहीं किया गया। अत: दिगम्बर-परम्परा की धवला टीका६५ जीवन में अलिप्त भाव से रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए धर्म-ध्यान की में तथा श्वेताम्बर परम्परा के हेमचन्द्र के योगशास्त्र६६ में ध्यान के दो ही संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। स्वयं ज्ञानार्णवकार यह प्रकार माने गए-धर्म और शुक्ल। ध्यान में भेद-प्रभेदों की चर्चा से स्पष्ट स्वीकार करता है कि जो साधु मात्र वेश में अनुराग रखता हुआ अपने रूप से यह ज्ञात होता है कि उसमें क्रमश: विकास होता गया है। प्राचीन को महान समझता है और दूसरों को हीन समझता है, वह साधु भी ध्यान आगमों यथा-स्थानांग, समवायांग, भगवतीसूत्र में तथा झाणाज्झया के योग्य नहीं है।६२ अत: व्यक्ति में मुनिवेशधारण करने से ध्यान की (ध्यानशतक) और तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान के चार विभागों की चर्चा करके
पात्रता नहीं आती है। प्रश्न यह नहीं कि ध्यान गृहस्थ को संभव होगा या क्रमश: उनके चार-चार विभाग किये गए हैं, किन्तु उनमें कहीं भी ध्यान రంగారo
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चित्त का
के पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार प्रकारों की चर्चा नहीं प्रमत्त संयत में निदान को छोड़कर अर्थात् अप्राप्त की प्राप्ति की आकांक्षा है। जबकि परवर्ती साहित्य में इनकी विस्तृत चर्चा मिलती है। सर्वप्रथम को छोड़कर अन्य तीन ही आर्तध्यान होते हैं- स्थानांगसूत्र में इनके निम्न इनका उल्लेख योगीन्दु के योगसार और देवसेन के भावसंग्रह में मिलता चार लक्षणों का उल्लेख हुआ है-७४ ।। है।६७ मुनि पद्मसिंह ने ज्ञानसार में अर्हन्त के संदर्भ में धर्मध्यान के
- उच्च स्वर से रोना। अन्तर्गत पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ की ही चर्चा की है, किन्तु
२) शोचनता - दीनता प्रकट करते हुए शोक करना। उन्होंने रूपातीत का कोई स्पष्ट निर्देश नहीं किया है।६८ इस विवेचना में। एक समस्या यह भी है कि पिण्डस्थ और रूपस्थ में कोई विशेष अन्तर
३) तेपनता - आँसू बहाना। नहीं दिखाया गया है। परवर्ती साहित्य में आचार्य नेमिचन्द्र के द्रव्यसंग्रह ४) परिदेवनता करुणा-जनक विलाप करना। में ध्यान के चार भेदों की चर्चा के पश्चात् धर्मध्यान के अन्तर्गत पदों के
ध्यान - रौद्र ध्यान आवेगात्मक अवस्था है। रौद्र . जाप और पंचपरमेष्ठि के स्वरूप का भी निर्देश किया गया है।६९ इसके
ध्यान के भी चार भेद किये गये हैं७५ टीकाकार ब्रह्मदेव ने यह भी बताया है कि जो ध्यान मंत्र-वाक्यों के
१) हिंसानुबंधी - निरन्तर हिंसक प्रवृत्ति में तन्मयता करानेवाली आश्रित होता है वह पदस्थ है, जिस ध्यान में 'स्व' या आत्मा का
चित्त की एकाग्रता। चिन्तन होता है वह पिंडस्थ है, जिसमें चेतना-स्वरूप या विद्रूपता का विचार किया जाता है वह रूपस्थ है तथा निरंजन व निराकार का ध्यान
२) मृषानुबंधी
- असत्य भाषण करने सम्बन्धी चित्त की ही रूपातीत है।५० अमितगति७१ ने अपने श्रावकाचार में ध्येय या ध्यान
एकाग्रता। के आलम्बन की चर्चा करते हुए पिण्डस्थ आदि इन चार प्रकार के ३) स्तेनानुबन्धी - निरन्तर चोरी करने- कराने की प्रवृत्ति सम्बन्धी ध्यानों की विस्तार से लगभग (२७ श्लोकों में) चर्चा की है। यहाँ
चित्त की एकाग्रता पिण्डस्थ से पहले पदस्थ ध्यान को स्थान दिया गया है और उसकी ४) संरक्षणानुबन्धी - परिग्रह के अर्जन और संरक्षण सम्बन्धी विस्तृत चर्चा भी की गई है। शुभचन्द्र७२ ने ज्ञानार्णव में पदस्थ आदि
तन्मयता। ध्यान के इन प्रकारों की पूरे विस्तार के साथ (लगभग २७ श्लोकों में) कुछ आचार्यों ने विषयसंरक्षण का अर्थ बलात् ऐन्द्रिक भोगों चर्चा की है। परवर्ती आचार्यों में वसुनन्दि, हेमचन्द्र, भास्करनन्दि आदि का संकल्प किया है, जबकि कुछ आचार्यों ने ऐन्द्रिक विषयों के संरक्षण ने भी इनकी विस्तार से चर्चा की है। पुनः पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, में उपस्थित करता के भाव को ही विषयसंरक्षण कहा है। स्थानांग में वारुणी और तत्त्वभू ऐसी पिण्डस्थ ध्यान की जो पाँच धारणाएँ कही गई इसके भी निम्न चार लक्षणों का निर्देश है।७६ हैं उनका भी प्राचीन ग्रन्थों में कहीं उल्लेख नहीं मिलता। तत्त्वार्थसूत्र और
१) उत्सन्नदोष . हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर प्रवृत्ति उसकी प्राचीन टीकाओं में लगभग ६ठी-७वीं शती तक इनका अभाव
करना। है, इससे यही सिद्ध होता है कि ध्यान के प्रकारों, उपप्रकारों, लक्षणों, आलम्बनों आदि की जो चर्चा जैन-परम्परा में हुई है. वह क्रमशः २) बहुदोष - हिंसादि सभी पापों के करने में संलग्न विकसित होती रही है और उन पर अन्य परम्पराओं का प्रभाव भी है।
रहना। प्राचीन आगमिक साहित्य में स्थानांगसूत्र में ध्यान के प्रकारों, ३) अज्ञानदोष - कुसंस्कारों के कारण हिंसादि अधार्मिक कार्यों लक्षणों, आलम्बनों में अनुप्रेक्षाओं का जो विवरण मिलता है, वह इस
को धर्म मानना। प्रकार है:
४) आमरणान्त दोष - मरणकाल तक भी हिंसादि क्रूर कर्मों को (१) आर्तध्यान- आर्तध्यान हताशा की स्थिति है। स्थानांग के
करने का अनुताप न होना। अनुसार इस ध्यान के चार उपप्रकार हैं।७३ अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर (३) धर्मध्यान- जैन आचार्यों ने साधना की दृष्टि से केवल उसके वियोग की सतत् चिन्ता करना यह प्रथम प्रकार का आर्तध्यान है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ही ध्यान की कोटि में रखा है। यही कारण दुःख के आने पर उसे दूर करने की चिन्ता करना यह आर्तध्यान का है कि आगमों में इनके भेद और लक्षणों की चर्चा के साथ-साथ इनके दूसरा रूप है। प्रिय वस्तु का वियोग हो जाने पर उसकी पुन: प्राप्ति के आलम्बनों और अनुप्रेक्षाओं का भी उल्लेख मिलता है। स्थानांगसूत्र आदि लिए चिन्तन करना तीसरे प्रकार का आर्तध्यान है और जो वस्तु प्राप्त में धर्मध्यान के निम्न चार भेद बताये गये हैं।७६ । नहीं है उसकी प्राप्ति की इच्छा करना चौथे प्रकार का आर्त ध्यान है। १) आज्ञाविचय- वीतराग सर्वज्ञप्रभु के आदेश और उपदेश तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार यह आर्त ध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत के सम्बन्ध में आगमों के अनुसार चिन्तन करना। में होता है। इसके साथ ही मिथ्यादृष्टियों में भी इस ध्यान का सद्भाव होता २) अपायविचय- दोषों और उनके कारणों का चिन्तन कर है। सैद्धान्तिक दृष्टि से मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि तथा देशविरत उनसे छुटकारा कैसे हो, इस सम्बन्ध में विचार करना। दूसरे शब्दों में सम्यम्दृष्टि में आर्तध्यान के उपर्युक्त चारों ही प्रकार पाये जाते हैं, किन्तु हेय क्या है? इसका चिन्तन करना।
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8.33
३) विपाकविचय- पूर्वकर्मों के विपाक के परिणामस्वरूप धर्मध्यान के अधिकारी के सम्बन्ध में चर्चा उपलब्ध होती है। जिनभद्र८१ उदय में आनेवाली सुखदुःखात्मक विभिन्न अनुभूतियों का समभावपूर्वक के अनुसार जिस व्यक्ति में निम्न चार बातें होती हैं वही धर्मध्यान का वेदन करते हुए उनके कारणों का विश्लेषण करना। दूसरे कुछ अधिकारी होता है। १. सम्यग्ज्ञान (ज्ञान) २. दृष्टिकोण की विशुद्धि आचार्यों के अनुसार हेय के परिणामों का चिन्तन करना ही विपाकविचय (दर्शन), ३. सम्यक् चारित्र या आचरण और ४. वैराग्यभाव। हेमचन्द्र८२ धर्मध्यान है।
ने योगशास्त्र में इन्हें ही कुछ शब्दान्तर के साथ प्रस्तुत किया है। वे विपाकविचय धर्मध्यान को निम्न उदाहरण से भी समझा जा धर्मध्यान के लिए १. आगमज्ञान, २. अनासक्ति, ३. आत्मसंयम और सकता है
४. मुमुक्षुभाव को आवश्यक मानते हैं। धर्मध्यान के अधिकारी के मान लीजिए कोई व्यक्ति हमें अपशब्द कहता है और उन सम्बन्ध में तत्त्वार्थ का दृष्टिकोण थोड़ा भिन्न है। तत्त्वार्थ के श्वेताम्बर-मान्य अपशब्दों को सुनने से पूर्वसंस्कारों के निमित्त से क्रोध का भाव उदित पाठ के अनुसार धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत, उपशांतकषाय और क्षीणकषाय होता है। उस समय उत्पन्न होते हुए क्रोध को साक्षी भाव से देखना और में ही सम्भव है। गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से यदि हम कहें तो सातवें क्रोध की प्रतिक्रिया व्यक्त न करना तथा यह विचार करना कि क्रोध का से लेकर ग्यारहवें और बारहवें तक में ही धर्मध्यान संभव है। यदि इसे परिणाम दुःखद होता है अथवा यह सोचना कि मेरे निमित्त से इसको निरंतरता में ग्रहण करें तो अप्रमत्त संयत से लेकर क्षीणकषाय तक कोई पीड़ा हुई होगी, अत: यह मुझे अपशब्द कह रहा है, यह विपाकविचय अर्थात् सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक धर्मध्यान की धर्मध्यान है। संक्षेप में कर्मविपाकों के उदय होने पर उनके प्रति साक्षी संभावना है। तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बर-मान्य मूलपाठ में धर्म-ध्यान के भाव रखना, प्रतिक्रिया के दुःखद परिणाम का चिन्तन करना एवं अधिकारी की विवेचना करने वाला सूत्र है ही नहीं। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र की प्रतिक्रिया न करना ही विपाकविचय धर्मध्यान है।
दिगम्बर-टीकाओं में पूज्यपाद अकलंक और विद्यानन्दि सभी ने धर्मध्यान ४) संस्थानविचय-लोक के स्वरूप के चिन्तन को सामान्यरूप के स्वामी का उल्लेख किया है किन्तु उनका मंतव्य श्वेताम्बर-परम्परा से से संस्थानविचय धर्मध्यान कहा जाता है, किन्तु लोक एवं संस्थान का भित्र है। उनके अनुसार चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक अर्थ आगमों में शरीर भी है। अत: शारीरिक गतिविधियों पर अपनी ही धर्म ध्यान की संभावना है। आठवें गुणस्थान से श्रेणी प्रारंभ होने के चित्तवृत्तियों को केन्द्रित करने को भी संस्थानविचय धर्मध्यान कहा जा कारण धर्मध्यान संभव नहीं है। इस प्रकार धर्मध्यान के अधिकारी के सकता है। अपने इस अर्थ में संस्थानविचय धर्मध्यान शरीर-विपश्यना प्रश्न पर जैन आचार्यों में मतभेद रहा है। या शरीर-प्रेक्षा के निकट है। आगमों में धर्मध्यान के निम्न चार लक्षण (४) शुक्लध्यान- यह धर्मध्यान के बाद की स्थिति है। शुक्लध्यान कहे गये हैं-७८
के द्वारा मन को शान्त और निष्पकम्प किया जाता है। इसकी अन्तिम १) आज्ञारुचि- जिन-आज्ञा के सम्बन्ध में विचार-विमर्श परिणति मन की समस्त प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध है। शुक्लध्यान चार करना तथा उसके प्रति निष्ठावान रहना।
प्रकार के हैं८३- १. पृथक्त्व-वितर्क-सविचार-इस ध्यान में ध्याता कभी २) निसर्गरुचि- धर्मकार्यों में स्वाभाविक रूप से रुचि होना। द्रव्य का चिन्तन करते करते पर्याय का चिन्तन करने लगता है और कभी
३) सूत्ररुचि- आगम-शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन में रुचि पर्याय का चिन्तन करते-करते द्रव्य का चिन्तन करने लगता है। इस होना।
ध्यान में कभी द्रव्य पर तो कभी पर्याय पर मनोयोग का संक्रमण होते ४) अवगाढ़रुचि- आगमिक विषयों के गहन चिन्तन और रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही रहता है। २. एकत्व-वितर्क-अविचारीमनन में रुचि होना। दूसरे शब्दों में आगमिक विषयों का गम्भीरता से योग-संक्रमण से रहित एक पर्याय विषयक ध्यान एकत्व-वितर्क-अविचारअवगाहन करना।
ध्यान कहलाता है। ३. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती-मन, वचन और शरीर स्थनांगसूत्र में धर्मध्यान के आलम्बनों की चर्चा करते हुए व्यापार का निरोध हो जाने एवं केवल श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया के उसमें चार आलम्बन बताये गये हैं७६. १. वाचन-अर्थात् आगम साहित्य शेष रहने पर ध्यान की यह अवस्था प्राप्त होती है। ४. समुच्छिन्न-क्रियाका अध्ययन करना, २. प्रतिपृच्छना-अध्ययन करते समय उत्पन्न शंका निवृत्ति-जब मन, वचन और शरीर की समस्त प्रवृत्तियों का निरोध हो के निवारणार्थ जिज्ञासावृत्ति से उस सम्बन्ध में गुरुजनों से पूछना। ३. जाता है और कोई भी सूक्ष्म क्रिया शेष नहीं रहती उस अवस्था को परिवर्तना-अधीत सूत्रों का पुनरावर्तन करना ४. अनुप्रेक्षा-आगमों के समुच्छिन्न-क्रिया-निवृत्ति शुक्लध्यान कहते हैं। इस प्रकार शुक्लध्यान की अर्थ का चिन्तन करना। कुछ आचार्यों की दृष्टि में अनुप्रेक्षा का अर्थ प्रथम अवस्था से क्रमश: आगे बढ़ते हुए अन्तिम अवस्था में साधक संसार की अनित्यता आदि का चिन्तन करना भी है।
कायिक, वाचिक और मानसिक सभी प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध कर अन्त स्थानांगसूत्र के अनुसार धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही गई में सिद्धावस्था प्राप्त कर लेता है, जो कि धर्म-साधना और योग-साधना हैं:- १. एकत्वानुप्रेक्षा, २. अनित्यानुप्रेक्षा, ३. अशरणानुप्रेक्षा और ४. का अन्तिम लक्ष्य है। संसारानुप्रेक्षा। ये अनुप्रेक्षाएँ जैन-परम्परा में प्रचलित १२ अनुप्रेक्षाओं के स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के निम्न चार लक्षण कहे
ही अन्तर्गत हैं। जिनभद्र के ध्यानशतक तथा उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में गये हैं८४. asiardianswaridudd6d6d6d6dadid - ९९dsridransariwaridaritrinidrivarsansariwarika
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१) अव्यथ-परीषह, उपसर्ग आदि की व्यथा से पीड़ित होने पर भी क्षोभित नहीं होना।
२) असम्मोह किसी भी प्रकार से मोहित नहीं होना । ३) विवेक- स्व और पर अर्थात् आत्म और अनात्म के भेद को समझना । भेदविज्ञान का ज्ञाता होना।
४) व्युत्सर्ग- शरीर, उपधि आदि के प्रति ममत्व भाव का पूर्ण त्याग दूसरे शब्दों में पूर्ण निर्ममत्व से युक्त होना।
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इन चार लक्षणों के आधार पर हम यह बता सकते हैं कि किसी व्यक्ति में शुक्लध्यान संभव होगा या नहीं।
स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के चार आलम्बन बताये गये ५१. क्षान्ति (क्षमाभाव), २. मुक्ति (निलभता), ३. आर्जव (सरलता) और ४. मार्दव (मृदुता)। वस्तुतः शुक्लध्यान के ये चार आलम्बन चार कषायों के त्याग रूप ही हैं, शान्ति में क्रोध का त्याग है और मुक्ति में लोभ का त्याग है। आर्जव माया ( कपट) के त्याग का सूचक है तो मार्दव मान- कषाय के त्याग का सूचक है।
इसी ग्रन्थ में शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख भी हुआ है, किन्तु ये चार अनुप्रेक्षाएँ सामान्य रूप से प्रचलित १२ अनुप्रेक्षाओं से क्वचित् रूप में भिन्न ही प्रतीत होती हैं। स्थानांग में शुक्लध्यान की निम्न चार अनुप्रेक्षाएँ उल्लिखित ८
१) अनन्तवृत्तितानुप्रेक्षा संसार के परिभ्रमण की अनन्तता का विचार करना।
३) अशुभानुप्रेक्षा संसार, देह और भोगों की अशुभता का विचार
२) विपरिणामानुप्रेक्षा- वस्तुओं के विविध परिणमनों का विचार वशीकरण, स्तम्भन आदि षट्कर्मों के लिए मंत्र-सिद्धि की जो चर्चा है
करना।
वह वैदिकधारा का प्रभाव है, क्योंकि उसके बीज अथर्ववेद आदि में भी हमें उपलब्ध होते हैं, जबकि ध्यान, समाधि आदि के द्वारा आत्मविशुद्धि की जो चर्चा है वह निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा का प्रभाव है। किन्तु यह भी सत्य है कि सामान्य रूप से श्रमणधारा और विशेष रूप से जैनधारा पर भी हिन्दू तान्त्रिक साधना और विशेष रूप से कौलतंत्र का प्रभाव आया है ।
करना।
४) अपायानुप्रेक्षा राग, द्वेष से होने वाले दोषों का विचार करना । शुक्लध्यान के चार प्रकारों के सम्बन्ध में बौद्धों का दृष्टिकोण भी जैन-परम्परा के निकट ही है। बौद्ध परम्परा में चार प्रकार के ध्यान माने गये हैं।
१) सवितर्कसविचारविवेकजन्य प्रीतिसुखात्मक प्रथम ध्यान । २) वितर्कविचाररहित समाधिजप्रीतिसुखात्मक- द्वितीय ध्यान। ३) राग और विराग के प्रति उपेक्षा तथा स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त उपेक्षास्मृतिसुखविहारी - तृतीय ध्यान ।
जैन साधना एवं आचार
चाद्ये पूर्वविदः - ९ / ३९) श्वेताम्बर मूलपाठ और दिगम्बर मूलपाठ में तो अन्तर नहीं है, किंतु 'च' शब्द से क्या अर्थ ग्रहण करना चाहिए, इसे लेकर मतभेद है। श्वेताम्बर- परम्परा के अनुसार उपशान्त कषाय एवं क्षीणकषाय पूर्वधरों में चार शुक्लध्यानों में प्रथम दो शुक्लध्यान सम्भव हैं। बाद के दो, केवली (सायोगी केवली और आयोगी केवली) में सम्भव हैं। दिगम्बर- परम्परा के अनुसार आठवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक शुक्लध्यान है। पूर्व के दो शुक्लध्यान आठवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती पूर्वधरों में सम्भव होते हैं और शेष दो तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवार्ती केवली को होते हैं।८७
जैन-ध्यान साधना पर तान्त्रिक साधना का प्रभाव पूर्व में हम विस्तार से यह स्पष्ट कर चुके हैं कि ध्यान-साधना श्रमण परम्परा की अपनी विशेषता है, उसमें ध्यान-साधना का मुख्य प्रयोजन आत्माविशुद्धि अर्थात् चित्त को विकल्पों एवं विक्षोभों से मुक्त कर निर्विकल्पदशा या समाधि (समत्व) में स्थित करना रहा है। इसके विपरीत तान्त्रिक साधना में ध्यान का प्रयोजन मन्त्रसिद्धि और हठयोग में षटचक्रों का भेदन कर कुण्डलिनी को जागृत करना है। यद्यपि उनमें भी ध्यान के द्वारा आत्मशांति या आत्मविशुद्धि की बात कही गई है, किन्तु यह उनपर श्रमणधारा के प्रभाव का ही परिणाम है, क्योंकि वैदिकधारा के अथर्ववेद आदि प्राचीन ग्रन्थों में मंत्र सिद्धि का प्रयोजन लौकिक उपलब्धियों के हेतु विशिष्ट शक्तियों की प्राप्ति ही था। वस्तुतः हिन्दू तान्त्रिक साधना वैदिक और श्रमण परम्पराओं के समन्वय का परिणाम है। उसमें मारण, मोहन,
वस्तुतः जैन-तंत्र में सकलीकरण, आत्मरक्षा, पूजाविधान और षट्कर्मों के लिए मन्त्रसिद्धि के विधि-विधान हिन्दू तन्त्र से प्रभावित हैं। मात्र इतना ही नहीं, जैन ध्यान-साधना, जो श्रमणधारा की अपनी मौलिक साधना पद्धति है, पर भी हिन्दू तंत्र विशेष रूप से कौलतंत्र का प्रभाव आया है। यह प्रभाव ध्यान के आलम्बन या ध्येय को लेकर है। जैन - परम्परा में ध्यान-साधना के अन्तर्गत विविध आलम्बन की चर्चा तो प्राचीन काल से थी, क्योंकि ध्यान-साधना में चित्त की
४) सुखदुःख एवं सौमनस्य- दौर्मनस्य से रहित असुख अदुःखात्मक उपेक्षा एवं परिशुद्धि से युक्त चतुर्थ ध्यान ।
इस प्रकार चारों शुक्लध्यान बौद्ध परम्परा में भी थोड़े शब्दिक एकाग्रता के लिए प्रारम्भ में किसी न किसी विषय का आलम्बन तो लेना अन्तर के साथ उपस्थित हैं। ही पड़ता है। प्रारम्भ में जैन- परम्परा में आलम्बन के आधार पर धर्मध्यान को निम्न चार प्रकार में विभाजित किया गया था
योग - परम्परा में भी समापत्ति के चार प्रकार बतलाये हैं, जो कि जैन- परम्परा के शुक्लध्यान के चारों प्रकारों के समान ही लगते हैं, समापत्ति के निम्न चार प्रकार हैं- १. सवितर्का २. निर्वितर्का ३. सविचारा और ४ निर्विचारा |
१. अज्ञाविचय, ३. विपाक विचय
२. अपायविचय ४. संस्थानाविय
इन चारों की विस्तृत चर्चा हम पूर्व में कर चुकें हैं। यह भी शुक्लध्यान के स्वामी के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र के (शुक्ले स्पष्ट है कि धर्मध्यान के ये चारों आलम्बन जैनों के अपने मौलिक हैं।
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किन्तु आगे चलकर इन आलम्बनों के संदर्भ में तंत्र का प्रभाव आया और इसके पश्चात् अपने हृदय भाग में अधोमुख आठ पंखुड़ियों वाले कमल लगभग ग्यारहवीं-बारहवीं शती के आलम्बन के आधार पर धर्मध्यान के का चिंतन करे और यह विचार करे कि ये आठ पखंड़ियाँ अनुक्रम से १. नवीन चार भेद किये गये
ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. १. पिण्डस्थ २. पदस्थ
नाम, ७. गोत्र और ८. अंतराय कर्मों की प्रतिनिधि हैं। इसके पश्चात् यह ३. रूपस्थ ४. रूपातीत
चिंतन करे कि उस अहँ से जो अग्नि-शिखायें निकल रही हैं, उनसे यह स्पष्ट है कि धर्मध्यान के इन आलम्बनों की चर्चा मूलत: अष्टदलकमल की अष्टकर्मों की प्रतिनिधि ये पखंड़ियाँ दग्ध हो रही हैं। कौलतन्त्रों से प्रभावित है, क्योंकि शुभचन्द्र (ग्यारहवीं शती) और अंत में यह चिंतन करे कि अर्ह के ध्यान से उत्पन्न इन प्रबल अग्निहेमचन्द्र (बारहवीं शती) के पूर्व हमें किसी भी जैन-ग्रंथ में इनकी चर्चा शिखाओं ने अष्टकर्म रूपी उस अधोमुख कमल को दग्ध कर दिया है नहीं मिलती है। सर्वप्रथम शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णव में और हेमचन्द्र उसके बाद तीन कोण वाले स्वस्तिक तथा अग्निबीज रेफ से युक्त ने योगशास्त्र के अन्त में ध्यान के इन चारों आलम्बनों की चर्चा की है। वह्निपुर का चिंतन करना चाहिए और यह अनुभव करना चाहिए कि उस इनके पूर्व के किसी भी आचार्य ने इन चारों आलम्बनों की कोई चर्चा रेफ से निकली हुई ज्वालाओं ने अष्टकर्मों के साथ-साथ मेरे इस शरीर नहीं की है। मात्र यही नहीं, पिण्डस्थ- ध्यान के अन्तर्गत धारणाएँ हैं- को भी भस्मीभूत कर दिया है। इसके पश्चात् उस अग्नि के शांत होने की १. पार्थिवी, २. आग्नेयी, ३. मारुति, ४. वारुणी और ५. तत्त्ववती। धारणा करे। वस्तुत: ध्यान के इन चार आलम्बनों में और पञ्च धारणाओं में ध्यान का (ग) वायवीय धारणा- आग्नेयी धारणा के पश्चात् साधक विषय स्थूल से सूक्ष्म होता जाता है। आगे हम संक्षेप में इनकी चर्चा यह चिंतन करे कि समग्र लोक के पर्वतों को चलायमान कर देने में और करेंगे। ध्यान के इन चारों आलम्बनों या ध्येयों और पाँचों धारणाओं को समुद्रों को भी क्षुब्ध कर देने में समर्थ प्रचण्ड पवन बह रहा है तथा मेरे जैनों ने कौलतंत्र से गृहीत करके अपने ढंग से किस प्रकार समायोजित देह और आठ कर्मों के भस्मीभूत होने से जो राख बनी थी, उसे वह किया है यह निम्न विवरण से स्पष्ट हो जायेगा।
प्रचण्ड पवन वेग से उड़ाकर ले जा रहा है। अंत में यह चिंतन करना (१) पिण्डस्थ ध्यान- ध्यान-साधना के लिए प्रारम्भ में कोई चहिए कि उस राख को उड़ाकर यह पवन भी शांत हो रहा है। न कोई आलम्बन लेना आवश्यक होता है। साथ ही इसके क्षेत्र में प्रगति (घ) वारुणीय धारणा- वायवीय धारणा के पश्चात् साधक के लिए यह भी आवश्यक होता है कि इन आलम्बनों का विषय क्रमश: यह चिंतन करे कि अर्धचन्द्राकार कलाबिन्दु से युक्त वरुण बीज 'व' से स्थूल से सूक्ष्म होता जाये। पिण्डस्थ ध्यान में आलम्बन का विषय सबसे उत्पन्न अमृत के समान जल से युक्त मेघमालाओं से आकाश व्याप्त है स्थूल होता है। पिण्ड शब्द के दो अर्थ हैं- शरीर अथवा भौतिक वस्तु। और इन मेघमालाओं से जो जल बरस रहा है, उसने शरीर और कर्मों पिण्ड शब्द का अर्थ शरीर लेने पर पिण्डस्थ ध्यान का अर्थ होगा- की जो भस्मी उड़ी थी उसे भी धो दिया है। आन्तरिक शारीरिक गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित करना, जिसे हम (ङ) तत्त्ववती धारणा- उपर्युक्त चारों धारणाओं के द्वारा शरीरप्रेक्षा भी कह सकते हैं, किन्तु पिण्ड का अर्थ भौतिक तत्त्व करने पर सप्तधातुओं से बने शरीर और अष्टकर्मों के समाप्त हो जाने पर साधक पार्थिवी आदि धारणायें भी पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत ही आ जाती हैं। पूर्णचन्द्र के समान निर्मल एवं उज्जवल कांति वाले विशुद्ध आत्मतत्त्व ये धारणायें निम्न है
का चिंतन करे और यह अनुभव करे कि उस सिंहासन पर आसीन मेरी (क) पार्थिवीधारणा- आचार्य हेमचंद्र के योगशास्त्र के अनुसार शुद्ध-बुद्ध-आत्मा अरहंत स्वरूप है। पार्थिवीधारणा में साधक को मध्यलोक के समान एक अतिविस्तृत इस प्रकार की ध्यान-साधना के फल की चर्चा करते हुए क्षीरसागर का चिंतन करना चाहिए। फिर यह विचार करना चाहिए कि आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि पिण्डस्थ ध्यान के रूप में इन पाँचों उस क्षीरसागर के मध्य में जम्बूद्वीप के समान एक लाख योजन विस्तार धारणाओं का अभ्यास करने वाले साधक का उच्चाटन, मारण, मोहन, वाला और एक हजार पंखुड़ियों वाला एक कमल है। उस कमल के मध्य स्तम्भन आदि सम्बन्धी दुष्ट विद्यायें और मांत्रिक शक्तियाँ कुछ भी नहीं में देदीप्यमान स्वर्णिम आभा से युक्त मेरु पर्वत के समान एक लाख बिगाड़ सकती हैं। डाकिनी-शाकिनियाँ, क्षुद्र योगिनियाँ, भूत, प्रेत, योजन ऊँची कर्णिका है, उस कर्णिका के ऊपर एक उज्जवल श्वेत पिशाचादि दुष्ट प्राणी उसके तेज को सहन करने में समर्थ नहीं हैं। उसके सिंहसान है, उस सिंहासन पर आसीन होकर मेरी आत्मा अष्टकर्मों का तेज से वे त्रास को प्राप्त होते हैं। सिंह, सर्प आदि हिंसक जन्तु भी समूल उच्छेदन कर रही है।
स्तम्भित होकर उससे दूर ही रहते हैं। (ख) आग्नेयीधारणा- ज्ञानार्णव और योगशास्त्र में इस धारणा यहाँ यह ज्ञातव्य है कि हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में (७/८के विषय में कहा गया है कि साधक अपने नाभिमण्डल में सोलह २८) तान्त्रिक परम्परा की इन पाँचों धारणाओं को स्वीकार करके भी पंखड़ियों वाले कमल का चिंतन करे। फिर उस कमल की कर्णिका पर उन्हें जैन धर्म-दर्शन की आत्मविशुद्धि की अवधारणा से योजित किया अर्ह की, और प्रत्येक पंखुड़ी पर क्रमश: अ, आ, इ, ई, उ, ऊ ऋ ऋ, है। क्योंकि इन धारणाओं के माध्यम से वे अष्टकर्मों के नाश के द्वारा लु, लू ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:- इन सोलह स्वरों की स्थापना करे। शुद्ध आत्मदशा में अवस्थित होने का ही निर्देश करते हैं, किन्तु जब वे
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ इसी पिण्डस्थ ध्यान की पाँचों धारणाओं के फल की चर्चा करते हैं, तो स्पष्ट ऐसा लगता है कि वे तांत्रिक परम्परा से प्राभावित हैं, क्योंकि यहाँ उन्होंने उन्हीं भौतिक उपलब्धियों की चर्चा की है जो प्रकारान्तर से तांत्रिक साधना का उद्देश्य होती है।
(२) पदस्थ ध्यान
जिस प्रकार पिण्डस्य ध्यान में ध्येयभौतिक पिण्ड या शरीर होता है उसी प्रकार पदस्थ ध्यान में ध्यान का आलम्बन पवित्र मंत्राक्षर, बीजाक्षर या मातृकापद होते हैं। पदस्य ध्यान का अर्थ है पदों अर्थात् स्वर और व्यञ्जनों की विशिष्ट रचनाओं को अपने ध्यान का आलम्बन या ध्येय बनाना। इस ध्यान के अन्तर्गत मातृकापदों अर्थात् स्वर- व्यञ्जनों पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इस पदस्य ध्यान में शरीर के तीन केन्द्रों अर्थात् नाभिकमल, हृदयकमल तथा मुखकमल की कल्पना की जाती है। इसमें नाभिकमल के रूप में सोलह पंखुड़ियों वाले कमल की कल्पना करके उसकी उन पंखुड़ियों पर सोलह स्वरों का स्थापन किया जाता है। हृदयकमल में कर्णिका सहित चौबीस पटल वाले कमल की कल्पना की जाती है और उसकी मध्यकर्णिका तथा चौबीस पटलों पर क्रमशः क, ख, ग, घ आदि 'क' वर्ग से 'प' वर्ग तक के पच्चीस व्यञ्जनों की स्थापना करके उनका ध्यान किया जाता है। इसी प्रकार अष्टपटलयुक्त मुखकमल की कल्पना करके उसके उन अष्ट पटलों पर य, र, ल, व, श, ष, स, ह, इन आठ वर्णों का ध्यान किया जाता है। चूँकि सम्पूर्ण वाङ्मय इन्ही मातृकापदों से निर्मित है, अतः इन मातृकापदों का ध्यान करने से व्यक्ति सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञाता हो जाता है। (योगशास्त्र ८ / १-५)|
जैन साधना एवं आचार
किया जाता है। इस ध्यान का साधक योगी सर्वप्रथम हृदयकमल में स्थित कर्णिका में इस पद की स्थापना करता है तथा वचन - विलास की उत्पत्ति के अद्वितीय कारण स्वर तथा व्यंजन से युक्त, पंचपरमेष्ठि के वाचक, मूर्धा में स्थित चंद्रकला से झरनेवाले अमृत के रस से सराबोर महामंत्र प्रणव (ॐ) श्वास को निश्चल करके कुम्भक द्वारा ध्यान करता है । इस ध्यान की विशेषता यह है कि स्तम्भन कार्य में पीत, वशीकरण में लाल, क्षोभन में मूंगे के रंग के समान, विद्वेषण में कृष्ण, कर्मनाश अवस्था में चंद्रमा की प्रभा के समान उज्जवल वर्ण का ध्यान किया जाता है।
हेमचन्द्र के अनुसार पंचपरमेष्ठि नामक ध्यान में प्रथम हृदय में आठ पंखुड़ीवाले कमल की स्थापना करके कर्णिका के मध्य में सप्ताक्षर 'अरहंताणं' पद का चिन्तन किया जाता है। तत्पश्चात् चारों दिशाओं के चार पत्रों पर क्रमशः 'णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं तथा णमो लोए सव्वसाहूणं' का ध्यान किया जाता है तथा चार विदिशाओं के पत्रों पर क्रमशः 'एसो पंचणमुक्कारो सव्वपावप्पणासणी, मंगलागं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मगलं' का ध्यान किया जाता है। शुभचंद्र के मतानुसार मध्य एवं पूर्वादि चार दिशाओं में तो णमो अरहंताणं आदि का तथा चार विदिशाओं में क्रमश: 'सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः सम्यक् चारित्राय नमः तथा सम्यग्तपसे नमः' का चिंतन किया जाता है।
इनके अतिरिक्त इन दोनों नमस्कारमंत्र से सम्बन्धित अनेक ऐसे मन्त्रों या पदों का उल्लेख है जिनका ध्यान या जप करने से मनोव्याधियाँ शान्त होती है, कष्टों का परिहार होता है तथा कर्मों का आसव रुक जाता है। इनकी विस्तृत चर्चा हम तन्त्र-साधना और जैन धर्म नामक पुस्तक में कर चुके हैं।
ज्ञानार्णव के अनुसार मंत्र व वर्णों (स्वर- व्यञ्जनों) के ध्यान में समस्त पदों का स्वामी 'अहं' माना गया है, जो रेफ कला एवं बिन्दु से युक्त अनाहत मंत्रराज है। इस ध्यान के विषय में कहा गया है कि साधक को एक सुवर्णमय कमल की कल्पना करके उसके मध्य में कर्णिका पर विराजमान, निष्कलंक, निर्मल चंद्र की किरणों जैसे आकाश एवं संपूर्ण दिशाओं में व्याप्त 'अहं' मंत्र का स्मरण करना चाहिए। तत्पश्चात् उसे मुखकमल में प्रवेश करते हुए, प्रवलयों में भ्रमण करते हुए, नेत्रपालकों पर स्फुरित होते हुए, भाल-मण्डल में स्थिर होते हुए, तालुरन्ध्र से बाहर निकलते हुए, अमृत की वर्षा करते हुए, उज्ज्वल चंद्रमा के साथ स्पर्धा करते हुए, ज्योतिर्मण्डल में भ्रमण करते हुए, आकाश में संचरण करते हुए तथा मोक्ष के साथ मिलाप करते हुए कुम्भक के समान सम्पूर्ण अवयवों में व्याप्त होने का चिन्तन करना चाहिए।
इस प्रकार चित्त एवं शरीर में इसकी स्थापना द्वारा मन को क्रमशः सूक्ष्मता के 'अहं' मंत्र पर केंद्रित किया जाता है। अहं के स्वरूप में अपने को स्थिर करने पर साधक के अन्तरंग में एक ऐसी ज्योति प्रकट होती है, जो अक्षय तथा अतीन्द्रिय होती है। इसी ज्योति का नाम ही आत्मज्योति है तथा इसी से साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। प्रणव नामक ध्यान में अहं के स्थान पर 'ॐ' पद का ध्यान
{१०२]
इस प्रकार पदस्थ ध्यान में चित्त को स्थित करने के लिए मातृका पदों बीजाक्षरों एवं मंत्राक्षरों का आलम्बन किया जाता है।
जैनाचार्यों ने यह तो माना है कि इस पदस्थ ध्यान से विभिन्न लब्धियाँ वा अलौकिक शक्तियां भी प्राप्त होती है, किन्तु वे साधक को इनसे दूर रहने का ही निर्देश करते हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य चित्त को शुद्ध और एकाग्र करना है, न कि भौतिक उपलब्धिाँ प्राप्त करना ।
(३) रूपस्य ध्यान इस ध्यान में साधक अपने मन को अह पर केन्द्रित करता है अर्थात् उनके गुणों एवं आदर्शों का चिन्तन करता है । अत के स्वरूप का आवलम्बन करके जो ध्यान किया जाता है वह ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है। रूपस्थ ध्यान का साधक रागद्वेषादि विकारों से रहित समस्त गुणों, प्रतिहार्यो एवं अतिशयों से युक्त जिनेन्द्रदेव का निर्मल चित्त से ध्यान करता है। वस्तुतः यह सगुण परमात्मा का ध्यान है।
(४) रूपातीत ध्यान रूपातीत ध्यान का अर्थ है रूप-रंग से अतीत निरंजन, निराकार, ज्ञान स्वरूप एवं आनन्दस्वरूप सिद्ध परमात्मा का स्मरण करना। इस अवस्था में ध्याता ध्येय के साथ एकत्व की अनुभूति करता है। अतः इस अवस्था को समरसीभाव भी कहा गया है। इस तरह पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत ध्यानों द्वारा
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क्रमशः भौतिक तत्त्वों या शरीर, मातृकापदों, सर्वज्ञदेव तथा सिद्धात्मा का चिंतन किया जाता है; क्योंकि स्थूल ध्येयों के बाद क्रमश सूक्ष्म और सूक्ष्मतर ध्येय का ध्यान करने से मन में स्थिरता आती है और ध्याता एवं ध्येय में कोई अन्तर नहीं रह जाता।
जैन धर्म में ध्यान-साधना का विकासक्रम
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जैन धर्म में ध्यानसाधना की परम्परा प्राचीनकाल से ही उपलब्ध होती है। सर्वप्रथम हमें आचारांग में महावीर के ध्यान-साधना संबंधी अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। आचारांग के अनुसार महावीर अपने साधनात्मक जीवन में अधिकांश समय ध्यान-साधना में ही लीन रहते थेट आचारांग से यह भी ज्ञात होता है कि महावीर ने न केवल चित्तवृत्तियों के स्थिरीकरण का अभ्यास किया था, अपितु उन्होंने दृष्टि के स्थिरीकरण का भी अभ्यास किया था। इस साधना में वे अपलक होकर दीवार आदि किसी एक बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करते थे। इस साधना में उनकी आँखें लाल हो जाती थीं और बाहर की ओर निकल आती थीं जिन्हें देखकर दूसरे लोग भयभीत भी होते थे। ८९ आचारांग के ये उल्लेख इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि महावीर ने ध्यान-साधना की बाह्य और आभ्यन्तर अनेक विधियों का प्रयोग किया था। वे अप्रमत्त (जाग्रत होकर समाधिपूर्वक ध्यान करते थे। ऐसे भी उल्लेख उपलब्ध होते हैं कि महावीर के शिष्य- प्रशिष्यों में भी यह ध्यान-साधना की प्रवृत्ति निरन्तर बनी रही। उत्तराध्ययन में मुनिजीवन की दिनचर्या का विवेचन करते हुए स्पष्ट रूप से निर्देश दिया गया है कि मुनि दिन और रात्रि के द्वितीय प्रहर में ध्यान साधना करे। ९० महावीरकालीन साधकों के ध्यान की कोष्ठोपगत विशेषता आगमों में उपलब्ध होती है। यह इस बात की सूचक है कि उस युग में ध्यान-साधना मुनि-जीवन का एक आवश्यक अंग थी। भद्रबाहु द्वारा नेपाल में जाकर महाप्राण ध्यान की साधना करने का उल्लेख भी मिलता है । ९१ इसी प्रकार दुर्बलिकापुष्यमित्र की ध्यान-साधना का उल्लेख आवश्यकचूर्णि में है। १२ वद्यपि आगमों में ध्यान संबंधी निर्देश तो है, किन्तु महावीर और उनके अनुयायियों की ध्यान प्रक्रिया का विस्तृत विवरण उनमें उपलब्ध नहीं है।
महावीर के युग में श्रमण परम्परा में ऐसे अनेक श्रमण थे जिनकी अपनी-अपनी ध्यान-साधना की विशिष्ट पद्धतियाँ थी। इनमें बुद्ध और महावीर के समकालीन किन्तु उनसे ज्येष्ठ रामपुत्त का हम प्रारम्भ में ही उल्लेख कर चुके हैं। आचारांगसूत्र में साधकों के सम्बन्ध में विपस्सी और पासग ९३ जैसे विशेषण मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि भगवान् महावीर की निर्ग्रन्थ-परम्परा में भी ज्ञाता - द्रष्टाभाव में चेतना को स्थिर रखने के लिए विपश्यना जैसी कोई ध्यान साधना की पद्धति रही होगी। उसमें श्वासोच्छ्वास-प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, कषाय या चित्त प्रेक्षा के संकेत तो हैं किन्तु विस्तृत विवरणों के अभाव में आज उस पद्धति की सम्पूर्ण प्रक्रिया की चर्चा नहीं की जा सकती, परन्तु आचारांग जैसे प्राचीन आगम में इन शब्दों की उपस्थिति इस तथ्य की सूचक अवश्य है कि उस युग में ध्यान साधना की जैन- परम्परा की अपनी
कोई विशिष्ट पद्धति थी। यह भी हो सकता है कि साधकों की प्रकृति के अनुरूप ध्यान-साधना की एकाधिक पद्धतियाँ भी प्रचलित रही हों, किन्तु आगमों को अन्तिम वाचना तक वे विलुप्त होने लगी थीं। जिस रामपुत्त का निर्देश भगवान् बुद्ध के ध्यान के शिक्षक के रूप में मिलता है, उनका उल्लेख जैन परंपरा के प्राचीन आगमों में जैसे सूत्रकृतांग, अंतकृद्शा, औपपातिकदशा, ऋषिभाषित आदि में होना १४ इस बात का प्रमाण है कि निर्ग्रन्थ- परम्परा रामपुत्त की ध्यान-साधना की पद्धति से प्रभावित थी। बौद्ध परम्परा की विपश्यना और निर्ग्रथ- परम्परा की आचारांग की ध्यान साधना में जो कुछ निकटता परिलक्षित होती है, यह सूचित करती है कि सम्भवतः दोनों का यह सूचित करती है कि सम्भवतः दोनों का मूल खोत रामपुत्त की ध्यानपद्धति ही रही होगी इस संबंध में तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन किया जाना अपेक्षित है।
वह
षट् आवश्यकों में कायोत्सर्ग को भी एक आवश्यक माना गया है। कायोत्सर्ग ध्यान-साधनापूर्वक ही होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। प्रतिक्रमण में अनेक बार कायोत्सर्ग (ध्यान) किया जाता है। वर्तमानकाल में भी यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से जीवित है। आज भी ध्यान की इस परम्परा में आचार संबंधी दोषों के चिन्तन के अतिरिक्त नमस्कार मंत्र, चतुर्विंशतिस्तव के माध्यम से पंचपरमेष्ठि अथवा तीर्थंकरों का ध्यान किया जाता है। हुआ मात्र यह है कि ध्यान की इस समग्र प्रकिया में, जो सजगता अपेक्षित थी, वह समाप्त हो गयी है और ये सब ध्यान संबंधी प्रक्रियाएँ रूढ़ि मात्र बनकर रह गई हैं। यद्यपि इन प्रक्रियाओं की उपस्थिति से यह ज्ञात होता है कि ध्यान की इन प्रक्रियाओं से चेतना से सतत् रूप से जाग्रत या ज्ञाता द्रष्टा भाव में स्थिर रखने का प्रयास किया जाता रहा है।
आगम युग तक जैन-धर्म में ध्यान का उद्देश्य मुख्य रूप से आत्मशुद्धि या चारित्रशुद्धि ही था अथवा यों कहें कि वह चित्त को समभाव में स्थिर रखने का प्रयास था।
मध्य युग में जब भारत में तंत्र और हठयोग संबंधी साधनाएँ प्रमुख बनीं तो उनके प्रभाव से जैन-ध्यान की प्रक्रिया में परिवर्तन आया। आगमिक काल में ध्यान-साधना में शरीर, इन्द्रिय, मन और चित्तवृत्तियों के प्रति सजग होकर चेतना को द्रष्टाभाव या साक्षीभाव में स्थिर किया जाता था, जिससे शरीर और मन के उद्वेग और आकुलताएँ शान्त हो जाती थीं। दूसरे शब्दों में वह चैतसिक समत्व अर्थात् सामायिक की साधना थी, जिसका कुछ रूप आज भी विपश्यना में उपलब्ध हैं। किन्तु जैसे-जैसे भारतीय समाज में तंत्र और हठयोग का प्रभाव बढ़ा वैसे-वैसे जैन साधनापद्धति में भी परिर्वतन आया। जैन ध्यानपद्धति में पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ आदि ध्यान की विधियाँ और पार्थिवी, आग्नेयी, वायवीय और वारुणीय जैसी धारणाएँ सम्मिलित हुई। बीजाक्षरों तथा मंत्रों का ध्यान करने की परम्परा विकसित हुई और षट्चक्रों के भेदन का प्रयास भी हुआ। यह स्पष्ट है कि यह सब कौलतन्त्र एवं हठयोग से जैनपरम्परा में आया।
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यदि हम जैन परम्परा में ध्यान की प्रक्रिया का इतिहास देखते
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारहैं तो यह स्पष्ट लगता है कि उस पर अन्य भारतीय ध्यान एवं योग की पुनर्स्थापित करना था। भगवान् बुद्ध की ध्यान- साधना की विपश्यना परम्पराओं का प्रभाव आया है, जो हरिभद्र के पूर्व से ही प्रारंभ हो गया पद्धति की जो एक जीवित परम्परा किसी प्रकार से बर्मा में बची रही थी, था। हरिभद्र उनकी ध्यान-विधि को लेकर भी उसमें अपनी परम्परा के वह सत्यनारायणजी गोयनका के माध्यम से पुनः भारत में अपने जीवंत अनुरूप बहुत कुछ परिवर्तन किये थे। पूर्व मध्ययुग की जैन ध्यान- रूप में लौटी। उस ध्यान की जीवंत परम्परा के आधार पर जैनों को, साधना-विधि उस युग की योग-साधना-विधि से पर्याप्त रूप से प्रभावित भगवान महावीर की ध्यान-साधना की पद्धति क्या रही होगी, इसका हुई थी।
आभास हुआ। जैन-समाज का यह भी सद्भाग्य है कि कुछ जैन-मुनि एवं मध्ययुग में ध्यान-साधना का प्रयोग भी बदला। प्राचीन काल साध्वियाँ उनकी विपश्यना की साधना-पद्धति से जुड़े। संयोग से मुनि श्री में ध्यान-साधना का प्रयोजन मात्र आत्म-विशुद्धि या चैतसिक समत्व नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) जैसे प्राज्ञ साधक विपश्यना-साधना से जुड़े था, किन्तु उमास्वाति (ईसा की तीसरी-चौथी शती) के युग में उसके और उन्होंने विपश्यना ध्यान-पद्धति तथा हठयोग की प्राचीन ध्यानसाथ विभिन्न ऋद्धियों और लब्धियों की चर्चा भी जुड़ी और यह माना पद्धति को आधुनिक मनोविज्ञान एवं शरीरविज्ञान के आधारों पर परखा । जाने लगा कि ध्यान-साधना से विविध अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त की जा और उन्हें जैन साधना परम्परा से आपूरित करके प्रेक्षाध्यान की जैनधारा सकती हैं। तत्त्वार्थभाष्य में उमास्वाति ने ध्यान से सिद्ध होने वाली विधि- को पुनर्जीवित किया है। यह स्पष्ट है कि आज प्रेक्षाध्यान-प्रक्रिया जैनलब्धियों की विस्तृत चर्चा की है जिनका उल्लेख हम सूरिमन्त्र की ध्यान की एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में अपना अस्तित्व बना चुकी है। साधना के प्रसंग में कर चुके है।
उसकी वैज्ञानिकता और उपयोगिता पर भी कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया ध्यान की प्रभावशीलता को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक जा सकता है, किन्तु उसके विकास में सत्यनारायणजी गोयनका द्वारा तो था, किन्तु इसके अन्य परिणाम भी सामने आये। जब अनेक साधक भारत लायी गयी विपश्यना-ध्यान की साधना-पद्धति के योगदान को भी इन हठयोगी साधनाओं के माध्यम से ऋद्धि या लब्धि प्राप्त करने में विस्मृत नहीं किया जा सकता। आज प्रेक्षाध्यान-पद्धति निश्चित रूप से असमर्थ रहे तो उन्होंने यह मान लिया कि वर्तमान युग में ध्यान-साधना विपश्यना की ऋणी है। गोयनका जी का ऋण स्वीकार किए बिना हम संभव ही नहीं है। ध्यान-साधना की सिद्धि केवल उत्तम संहनन के धारक अपनी प्रामाणिकता को सिद्ध नहीं कर सकेंगे। साथ ही इस नवीन पद्धति मुनियों अथवा पूर्वधरों को ही संभव थी। ऐसे भी अनेक उल्लेख उपलब्ध के विकास में आचार्य महाप्रज्ञजी का जो महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, उसे होते हैं जिनमें कहा गया है कि पंचमकाल में उच्चकोटि का धर्मध्यान या भी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने विपश्यना से बहुत कुछ लेकर भी शुक्लध्यान संभव नहीं है। मध्ययुग में ध्यान-प्रक्रिया में कैसे-कैसे उसे प्राचीन हठयोग की षट्चक्र भेदन आदि की अवधारणा से तथा परिवर्तन हुए, यह बात प्राचीन आगमों में तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं, आधुनिक मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान से जिस प्रकार समन्वित और दिगम्बर जैन-पुराणों, श्रावकाचारों एवं हरिभद्र, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र आदि परिपुष्ट किया है, वह उनकी अपनी प्रतिभा का चमत्कार है। यहाँ विस्तार के ग्रंथों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। मध्यकाल में ध्यान से न तो विपश्यना के सन्दर्भ में और न प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में कुछ कह की निषेधक और समर्थक दोनों धाराएँ साथ-साथ संभव न हो, किन्तु पाना संभव है, किन्तु यह सत्य है कि ध्यान-साधना की इन पद्धतियों धर्मध्यान की साधना तो संभव है। मात्र यह ही नहीं, मध्ययुग में को अपना कर जैन साधक न केवल जैन ध्यान-पद्धति के प्राचीन स्वरूप धर्मध्यान के स्वरूप में काफी कुछ परिर्वतन किया गया और उसमें अन्य का कुछ आस्वाद करेंगे, अपितु तनावों से परिपूर्ण जीवन में आध्यात्मिक परम्पराओं की अनेक धारणाएँ सम्मिलित हो गयीं। जैसे पिण्डस्थ, शान्ति और समता का आस्वाद भी ले सकेंगे। पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान, पार्थिवी, आग्नेयी, वायवीय, सम्यक् जीवन जीने के लिए विपश्यना और प्रेक्षाध्यान पद्धतियों वारुणीय एवं तत्त्ववती धारणाएँ, मातृकापदों एवं मंत्राक्षरों का ध्यान, का अभ्यास और अध्ययन आवश्यक है। हम आचार्य महाप्रज्ञ के प्राणायाम, षट्चक्रभेदन आदि इस युग में ध्यान-संबंधी स्वतंत्र साहित्य इसलिए भी ऋणी हैं कि उन्होंने न केवल प्रेक्षाध्यान-पद्धति का विकास का भी पर्याप्त विकास हुआ। झाणाज्झयण (ध्यानशतक) से लेकर किया अपितु उसके अभ्यास केन्द्रों की स्थापना भी की। साथ ही जीवनज्ञानार्णव, ध्यानस्तव, योगशास्त्र आदि अनेक स्वतंत्र ग्रंथ भी ध्यान पर विज्ञान ग्रंथमाला के माध्यम से प्रेक्षाध्यान से संबंधित लगभग ४८ लिखे गये। मध्ययुग तन्त्र, हठयोग और जैन-ध्यान के समन्वय का युग लघुपुस्तिकाएँ लिखकर उन्होंने जैन ध्यान-साहित्य को महत्त्वपूर्ण अवदान
कहा जा सकता हैं। इस काल में जैन ध्यान-पद्धति योग परम्परा से, भी दिया है। विशेष रूप से हठयोग की परम्परा से एवं तांत्रिक परम्परा से पर्याप्त रूप यह भी प्रसन्नता का विषय है कि विपश्यना और प्रेक्षा की से प्रभावित और समन्वित हुई।
ध्यान-पद्धतियों से प्रेरणा पाकर आचार्य नानालालजी ने समीक्षण ध्यानआधुनिक युग तक यही स्थिति चलती रही। आधुनिक युग में विधि को प्रस्तुत किया और इस संबंध में एक-दो प्रारंभिक पुस्तिकाएँ भी जैन ध्यान-साधना की पद्धति में पुन: एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। निकाली हैं; किन्तु प्रेक्षाध्यान-विधि की तुलना में उनमें न तो प्रतिपाद्य इस क्रान्ति का मूलभूत कारण तो श्री सत्यनारायणजी गोयनका द्वारा विषय की स्पष्टता है और न वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण ही। अभी-अभी क्रोध
बौद्धों की प्राचीन विपश्यना साधना-पद्धति को बर्मा से लाकर भारत में समीक्षण आदि एक-दो पुस्तकें और भी प्रकाश में आयी हैं किन्तु इस సాగరుడు సాగుతారు తరతరతరంగారుగుపొరుగువారందరు గురువారం సాగుతారుశారుగారుసారం
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन साधना एवं आचार
पद्धति को वैज्ञानिक और प्रायोगिक बनाने के लिए अभी उन्हें बहुत कुछ करना शेष रहता है।
वर्तमान युग और ध्यान
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वर्तमान युग में जहाँ एक ओर योग और ध्यान संबंधी साधनाओं के प्रति आकर्षण बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर योग और ध्यान के अध्ययन बढ़ा और शोध में भी विद्वानों की रुचि जागृत हुई है। आज भारत की अपेक्षा पाश्चात्य देशों में योग और ध्यान के प्रति विशेष आकर्षण देखा जाता है, क्योंकि भौतिक आकांक्षाओं के कारण जीवन में जो तनाव आ गये हैं, वे उससे मुक्ति चाहते हैं। आज भारतीय योग और ध्यान की साधनापद्धतियों को अपने-अपने ढंग से पश्चिम के लोगों की रुचि के अनुकूल बनाकर विदेशों में निर्यात किया जा रहा है। योग और ध्यान की साधना में शारीरिक विकृतियों और मानसिक तनावों को समाप्त करने की जो शक्ति रही हुई है, उसके कारण भोगवादी और मानसिक तनावों से संत्रस्त पश्चिमी देशों के लोग चैतसिक शान्ति का अनुभव करते हैं और यही कारण है कि उनका योग और ध्यान के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। इन साधना पद्धतियों का अभ्यास कराने के लिए भारत से परिपक्व एवं अपरिपक्व दोनों ही प्रकार के गुरु विदेशों की यात्रा कर रहे हैं। यद्यपि अपरिपक्व भोगाकांक्षी तथाकथित गुरुओं के द्वारा ध्यान और योगसाधना का पश्चिम में पहुँचना भारतीय ध्यान और योग परम्परा की मूल्यवत्ता एवं प्रतिष्ठा दोनों ही दृष्टि से खतरे से खाली नहीं है। आज जहाँ पश्चिम में भावातीत ध्यान साधना भक्ति वेदान्त, रामकृष्ण मिशन आदि के कारण भारतीय ध्यान एवं योग साधना की लोकप्रियता बढ़ी है वहीं रजनीश आदि के कारण उसे एक झटका भी लगा है। आज श्री चित्तमुनिजी, स्वर्गीय आचार्य सुशीलकुमारजी, डॉ० हुकमचन्द्र भारिल्ल आदि ने जैन-ध्यान और साधना विधि से पाश्चात्य देशों में बसे हुए जैनों को परिचित कराया है। तेरापंथ की कुछ जैन-समणियों ने भी विदेशों मे जाकर प्रेक्षाध्यान-विधि से उन्हें परिचित कराया है। यद्यपि इनमें कौन ३. कहाँ तक सफल हुआ है यह एक अलग प्रश्न हैं, क्योंकि सभी के अपने-अपने दावे हैं। फिर भी इतना तो निश्चित है कि आज पूर्व और ४ पश्चिम दोनों में ही ध्यान और योग साधना के प्रति रुचि जागृत हुई है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि योग और ध्यान की जैन-विधि सुयोग्य साधकों और अनुभवी लोगों के माध्यम से ही पूर्व-पश्चिम में विकसित हो, अन्यथा जिस प्रकार मध्ययुग में हठयोग और तंत्र साधना से प्रभावित होकर भारतीय योग और ध्यान परम्परा विकृत हुई थी उसी प्रकार आज भी उसके विकृत होने का खतरा बना रहेगा और लोगों की उससे आस्था उठ जायेगी।
५.
ध्यान एवं योग संबंधी साहित्य
इस युग में गवेषणात्मक दृष्टि से योग और ध्यान संबंधी साहित्य को लेकर पर्याप्त शोधकार्य हुआ है। जहाँ भारतीय योग-साधना और पतञ्जलि के योगसूत्र पर पर्याप्त कार्य हुए हैं, वहीं जैन- योग की
ओर भी विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ है। ध्यानशतक, ध्यानस्तव, ज्ञानार्णव आदि ध्यान और योग संबंधी ग्रंथों की समालोचनात्मक भूमिका तथा हिन्दी - अनुवाद के साथ प्रकाशन इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयत्न कहा जा सकता है। पुनः हरिभद्र के योग संबंधी ग्रंथों का स्वतंत्र रूप से योग चतुष्टय के रूप में प्रकाशन इस कड़ी का एक अलग चरण है। पं० सुखलालजी का 'समदर्शी हरिभद्र' अर्हददास बंडोबा दिघे का पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान से प्रकाशित जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन', मंगला सांड का 'भारतीय योग' आदि गवेषाणात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रकाशन कहे जा सकते हैं। अंग्रेजी भाषा में विलियम जेम्स का 'जैन - योग', डॉ० नथमल टाटिया की 'Studies in Jaina Philosophy', पद्मनाभ जैनी का 'Jain Path of Purification' आदि भी इस क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं जैन-ध्यान और योग को लेकर लिखी गई मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) की 'जैन-योग' 'चेतना का ऊर्ध्यारोहरण', 'किसने कहा मन चंचल है', 'आभामण्डल' आदि तथा आचार्य तुलसी की प्रेक्षा अनुप्रेक्षा आदि कृतियाँ इस दृष्टि से अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है। उनमें पाश्चात्य मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान का तथा भारतीय हठयोग की षट्चक्र की अवधारणा को भी अपने ढंग से समन्वित किया है। उनकी ये कृतियाँ जैन योग और ध्यान-साधना के लिए अवश्य मील का पत्थर साबित होगी।
संदर्भ
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२.
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७.
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९.
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सूत्रकृतांग सूत्र, संपा• मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८२, १/३/४/२-३
स्थानांगसूत्र, संपा - मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८१, १०/१३३ (इसमें अन्तकृदृशा की प्राचीन विषय वस्तु का उल्लेख है) इसिभासियाई (ऋषिभाषित) संपा०- महोपाध्याय विनयसागर, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, १९८८, अध्याय २३ वही, अध्याय २३
वही २२ / १४
उत्तराध्ययनसूत्र संपा० - साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९७२; २६ / १८
श्रमणसूत्र (उपाध्याय अमरमुनि), प्रका० सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सं० २००७ प्रथम संस्करण पृ० १३३ १३४
१०. उत्तराध्ययनसूत्र संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९७२; २३ / ५५-५६
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन साधना एवं आचार
११. भगवद्गीता गीता प्रेस, गोरखपुर, ६/३४
३६. योगशास्त्र, संपा०- मुनिसमदर्शी, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १२. तत्त्वार्थसूत्र विवे०- पं० सुखलाल संघवी, प्रका०- पार्श्वनाथ १९६३ १२/५-६
विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६; ९/२७ ३७. तत्त्वार्थसूत्र विवे०- पं० सुखलाल संघवी, प्रका०- पार्श्वनाथ १३. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर ६/३४।।
विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी १९७६ ९/२७ १४. उत्तराध्ययनसूत्र संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, ३८. वही ९/३१ आगरा, १९७२, २३/५६
३९. वही ९/३६ १५. पुढो छंदा इह माणवा, पुढो दुक्खं पवेदित। -आचारांग १/५/२/ ४०. ध्यानस्तव (जिनभद्र, प्र० वीर सेवा मंदिर)२ .
१५२ अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरहत्तए- ४१. तत्त्वार्थसूत्र विवे०- पं० सुखलाल संधवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम आचारांग सूत्र, संपा०- मधुकर मुनि प्रका०- श्री आगम प्रकाशन शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६ ९/२७ समिति, ब्यावर १९८०; /३/२/११८
४२. भगवतीआराधना, विजयोदया टीका- देखें ध्यानशतक प्रस्तावना . १६. ध्यानशतक (झाणाज्झयण) जिनभद्र क्षमाश्रमण, विनयसुन्दर पृ० २६. ग्रन्थमाला, जामनगर, वि०सं० १९९७ ९३-९६
४३. पंचास्तिकाय कुन्दकुन्द, प्रका०- परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमत १७. वही, ९७-१००
राजचन्द्र आश्रम, अगास, वी०सं० २४९५ १५२ १८. वही, १०१
४४. णाणेण झाणसिद्धि १९. वही, १०२
४५. ज्ञानार्णव संपा०- पं० बालचन्द्र शास्त्री, जैन-संस्कृति-संघ, २०. वही, १०३
सोलापुर, १९७७ २७/२३-३२ २१. वही, १०४
४६. वही, २८/११ २२. आवश्यकनियुक्ति प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, गा० १४६२ ४७. वही, २८/१० २३. आवश्यकसूत्र- आगारसूत्र (श्रमणसूत्र-अमरमुनि) प्र०सं०पृ० ३७६. ४८. 'गोदोहियाए उक्कुडयनिलिज्जाए'कल्पसूत्र १२० २४. उत्तराध्ययनसूत्र संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, ४९. उत्तराध्यनसूत्र संपा० - साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९७२ २८/३५
आगरा, १९९२ २६/१२ २५. तत्त्वार्थवार्तिक संपा०- महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, ५०. उपासकदशांग ८/१८२ काशी, १९५७ ६/२४/८
५१. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधे ध्यानम्। तत्त्वार्थसूत्र- ९/२६ २६. धवला, पुस्तक ८, पृ० ८८ (दसण-णण-चरित्तेसु सम्ममवट्ठाणं ५२. तत्त्वार्थ-स्वोपज्ञ भाष्य, उमास्वाति ९/२६ समाही)
५३. ज्ञानार्णव- संपा०- बालचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संघ, सोलापुर २७. योगः समाधिध्यानमित्यनर्थान्तरम् तत्त्वार्थन्तरम्। तत्त्वार्थराजवार्तिक १९७७ ३२/९५, ३६/१-८, मोक्खपाहुड ७
संपा०- महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५७; ५४. अप्पा सो परमप्पा ६/१/१२
५५. तत्त्वानुशासन सिद्धसेन गणि, प्रका०- जीवन चंद साकरचंद २८. कायावाङ्मन: कर्मयोगः। तत्त्वार्थसूत्र,विवे० पं० सुखलाल संघवी झवेरी, सूरत, १९३० ७४ प्रका०- पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, १९७६; ६/
१ ५६. मोक्खपाहुड अष्टप्राभृत, कुन्दकुन्द, प्रका०- परमश्रुत प्रभावक २९. योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। योगसूत्रम् संपा०- पं० धुन्धीराज शास्त्री, मंडल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, आगरा, १९६९,५
प्रका०- चौखम्बा संस्कृत सीरीज, बनारस, १९३० १/२ (पतंजलि) ५७. तत्त्वार्थसूत्र, विवे० पं० सुखलाल संघवी, प्रका०- पार्श्वनाथ विद्याश्रम ३०. 'युजंपी योगे' हेमचन्द्र धातुमाला, गण प्रका०- जैनग्रन्थ प्रकाशन शोध संस्थान, वाराणसी १९७६ ९/३१-४१ सभा, अहमदाबाद, १९३०,७
५८. ज्ञानार्णव संपा०- पं० बालचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संघ, ३१. उत्तराध्ययनसूत्र संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, सोलापुर, १९७७; ४/१०-१५ आगरा १९७२ ३०/३०
५९. वही, ४/१६ ३२. आवश्यकसूत्र-आगारसूत्र
६०. वही, ४/१७ ३३. योगशास्त्र संपा०- मुनि समदर्शी, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, ६१. वही, ४/१८-१९ आगरा, १९६३ १२/२
६२. वही, ४/३३ ३४. अभिधम्मत्थसंगहो, संपा०- भदन्त रेवतधम्म, प्रका०- संस्कृत ६३. तत्त्वार्थसूत्र विवे०- पं० सुखलाल संघवी, प्रका०- पार्श्वनाथ विश्वविद्यालय, वाराणसी, बुद्धाब्द- २५१०, ५/१
विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी, १९७६; ९/२९ ३५. भारतीय दर्शन (दत्ता),पृ० १९०
६४. वही ९/३०, ध्यानशतक जिनभद्र क्षमाश्रमण विनयसुन्दर चरण ___indidrodraduardwordroidndiandiardiardiardiarinidada[१०६/odmoroubranduomdioudiomarwaridabasiarathwordarovara
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जैन-धर्म में पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठान
पूजाविधान, अनुष्ठान और कर्मकाण्डपरक साधनाएँ प्रत्येक तांत्रिक उपासना पद्धति के अनिवार्य अंग हैं। कर्मकाण्डपरक अनुष्ठान और पूजा विधान उसका शरीर है, तो आध्यात्म-साधना उसका प्राण है। भारतीय धर्मों में प्राचीनकाल से ही हमें ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक धर्म कर्मकाण्डात्मक अधिक रहा है, वहीं प्राचीन श्रमण परम्पराएँ आध्यात्मिक साधनात्मक अधिक रहीं हैं।
जैन- परम्परा मूलतः श्रमण परम्परा का ही एक अंग है और इसलिए यह भी अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है मात्र यही नहीं उत्तराध्ययनसूत्र जैसे प्राचीन जैन ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ आदि कर्मकाण्ड का विरोध ही परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययनसूत्र की यह विशेषता है कि उसने धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों को एक आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया है। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग ने यज्ञ, श्राद्ध और तर्पण के नाम पर कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के माध्यम से सामाजिक शोषण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, जैन और बौद्ध परम्पराओं ने उनका खुला विरोध किया और इस विरोध में उन्होंने इन सबको एक नया अर्थ प्रदान किया। भारतीय अनुष्ठानों और कर्मकाण्डों में यज्ञ, स्नान आदि अति प्राचीनकाल से प्रचलित रहे हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है उसमें कहा गया है कि "जो पाँच संवरों से पूर्णतया सुसंवृत हैं अर्थात् इन्द्रियजयी हैं जो जीवन के प्रति अनासक्त हैं, जिन्हें शरीर के प्रति ममत्वभाव नहीं है, जो पवित्र हैं और जो विदेह भाव में रहते हैं, वे आत्मजयी महर्षि ही श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं। उनके लिए तप ही अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है। मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ ही कलली (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है। यही यज्ञ संयम से युक्त होने के कारण शान्तिदायक और सुखकारक है ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञों की प्रशंसा की है।" स्नान के आध्यात्मिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसमें कहा गया है- धर्म ही ह्रद (तालाब) है, ब्रह्मचर्य तीर्थ (घाट) है और अंनाकुल दशारूप आत्म प्रसन्नता ही जल है, जिसमें स्नान करने से साधक दोषरहित होकर विमल एवं विशुद्ध हो जाता है। "
बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय के सुत्तनिपात में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन किया है। उसमें उन्होंने बताया है कि कौन सी अग्नियाँ त्याग करने योग्य हैं और कौन सी अग्नियाँ सत्कार करने योग्य हैं। वे कहते हैं कि "कामाग्नि, द्वेषाग्नि और मोहाग्नि त्याग करने योग्य है और आह्वनीयाग्नि, गार्हपत्याग्नि और दक्षिणाग्नि अर्थात् माता-पिता की सेवा, पत्नी और सन्तान की सेवा तथा श्रमण-ब्राह्मणों की सेवा करने योग्य है। महाभारत के शान्तिपर्व और गीता में भी यज्ञों के ऐसे ही आध्यात्मिक और सेवापरक अर्थ किये गये हैं।
इससे स्पष्ट है कि जैन- परम्परा ने प्रारम्भ में धर्म के नाम पर किये जाने वाले कर्मकाण्डों का विरोध किया और अपने उपासकों तथा साधकों को ध्यान, तप आदि की अध्यात्मिक साधना के लिए प्रेरित किया। साथ ही साधना के क्षेत्र में किसी देवी-देवता को उपासना एवं उससे किसी प्रकार की सहायता या कृपा की अपेक्षा अनुचित ही माना। जैन धर्म के प्राचीनतम ग्रंथों में हमें धार्मिक कर्मकाण्डों एवं विधि-विधानों के सम्बन्ध में केवल तप एवं ध्यान की विधियों के अतिरिक्त अन्य कोई उल्लेख नहीं मिलता है। पार्श्वनाथ ने तो तप के कर्मकाण्डात्मक स्वरूप का भी विरोध किया था। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का नवीं अध्ययन महावीर की जीवनचर्या के प्रसंग में उनकी ध्यान एवं तप साधना की पद्धति का उल्लेख करता है। इसके पश्चात् आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध, दशवैकालिक सूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, आदि ग्रंथों में हमें मुनि-जीवन से सम्बन्धित भिक्षा, आहार, निवास एवं विहार सम्बन्धी विधि- विधान मिलते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के तीसवें अध्याय में तपस्या के विविध रूपों की चर्चा भी हमें उपलब्ध होती है। इसी प्रकार की तपस्याओं की विविध चर्चा हमें अन्तकृत्दशा में भी उपलब्ध होती है, जो कि उत्तराध्ययनसूत्र के तप सम्बन्धी उल्लेखों की अपेक्षा परवर्ती एवं अनुष्ठानपरक है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अंतगडदसाओ (अंतकृत्दशा) का वर्तमान स्वरूप ईसा की ५वीं शताब्दी के पश्चात् का ही है। उसमें आठवें वर्ग में गुणरत्नसंवत्सरतप, रत्नावलीतप, लघुसिंहक्रीड़ातप, कनकावलीतप, मुक्तावलीतप, महासिंहनिष्क्रीडिततप, सर्वतोभद्रतप, भद्रोत्तरतप, महासर्वतोभद्रतप और आयम्बिलवर्धमानतप आदि के उल्लेख मिलते हैं। हरिभद्र ने तप-पंचाशक में आगमानुकूल उपर्युक्त तपों की चर्चा के साथ ही कुछ लौकिक व्रतों एवं तपों की भी चर्चा की है जो तांत्रिक साधनों के प्रभाव से जैन धर्म में विकसित हुए थे।
षडावश्यकों का विकास
जहाँ तक जैन श्रमण साधकों के नित्यप्रति के धार्मिक कृत्यों का सम्बन्ध है, हमें ध्यान एवं स्वाध्याय के ही उल्लेख मिलते हैं। उत्तराध्ययन के अनुसार मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में भिक्षाचर्या और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करे इसी प्रकार रात्रि के चार प्रहरों मे भी प्रथम में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में निद्रा और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करे। नित्य कर्म के सम्बन्ध में प्राचीनतम उल्लेख 'प्रतिक्रमण' अर्थात् अपने दुष्कर्मों की समालोचना और प्रायश्चित्त के मिलते हैं। पार्श्वनाथ और महावीर की धर्मदेशना का एक मुख्य अन्तर प्रतिक्रमण की अनिवार्यता रही है। महावीर के धर्म को सप्रतिक्रमण धर्म कहा गया है। महावीर के धर्मसंघ के सर्वप्रथम प्रतिक्रमण एक दैनिक अनुष्ठन बना। इसी से षडावश्यकों की अवधारणा का १०७]
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विकास हुआ। आज भी प्रतिक्रमण षडावश्यकों के साथ किया जाता है। पाँचवीं शती के लगभग का माना जाता है। क्योंकि तब से जैनाचार्यों के श्वेताम्बर-परम्परा के आवश्यकसूत्र एवं दिगम्बर और यापनीय-परम्परा के लिए 'क्षमाश्रमण' पद का प्रयोग होने लगा था। गुरुवंदन पाठों से ही मूलाचार में इन षडावश्यकों के उल्लेख हैं। ये षडावश्यक कर्म हैं- चैत्यों का निर्माण होने पर चैत्यवंदन का विकास हुआ और चैत्यवंदन सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग (ध्यान) की विधि को लेकर अनेक स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे गये है।
और प्रत्याख्यान। यद्यपि प्रारम्भ में इन षडावश्यको का सम्बन्ध मुनि- जिनपूजा-विधि का विकास जीवन से ही था, किन्तु आगे चलकर उनको गृहस्थ उपासकों के लिए इसी स्तवन एवं वंदन की प्रक्रिया का विकसित रूप जिनभी आवश्यक माना गया। आवश्यकनियुक्ति५ में वंदन कायोत्सर्ग आदि पूजा में उपलब्ध होता है, जो कि जैन-अनुष्ठान का महत्त्वपूर्ण एवं की विधि एवं दोषों की जो चर्चा है, उससे इतना अवश्य फलित होता अपेक्षाकृत प्राचीन अंग है। वस्तुत: वैदिक यज्ञ-यागपरक कर्मकाण्ड है कि क्रमश: इन दैनन्दिन क्रियाओं को भी अनुष्ठानपरक बनाया गया की विरोधी जनजातियों एवं भक्तिमार्गी परम्पराओं में धार्मिक अनुष्ठान था। आज भी एक रूढ़ क्रिया के रूप में ही षडावश्यकों को सम्पन्न किया के रूप में पूजा-विधि का विकास हुआ था और श्रमण-परम्परा में जाता है।
तपस्या और ध्यान का। यक्षपूजा के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में जहाँ तक गृहस्थ उपासकों के धार्मिक कृत्यों या अनुष्ठानों उपलब्ध हैं। फिर इसी भक्तिमार्गीधारा का प्रभाव जैन और बौद्ध धर्मों का प्रश्न है, हमें उनके सम्बन्ध में भी ध्यान एवं उपोषथ या प्रौषध पर भी पड़ा और उनमें तप, संयम एवं ध्यान के साथ जिन एवं बुद्ध विधि के ही प्राचीन उल्लेख उपलब्ध होते हैं। उपासकदशासूत्र में की पूजा की भावना विकसित हुई। परिणामत: सर्वप्रथम स्तूप, चैत्यशकडालपुत्र एवं कुण्डकौलिक के द्वारा मध्याह्न में अशोकवन में वृक्ष आदि के रूप में प्रतीक-पूजा प्रारम्भ हुई, फिर सिद्धायतन शिलापट्ट पर बैठकर उत्तरीय वस्त्र एवं आभूषण उतारकर महावीर की (जिनमन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिन-प्रतिमाओं की पूजा होने धर्मप्रज्ञप्ति की साधना अर्थात् सामायिक एवं ध्यान करने का उल्लेख लगी। फलत: जिन-पूजा एवं दान को गृहस्थ का मुख्य कर्त्तव्य माना है। बौद्ध-त्रिपिटक साहित्य से यह ज्ञात होता है कि निग्रंथ श्रमण गया। दिगम्बर-परम्परा में तो गृहस्थ के लिए प्राचीन षडावश्यकों के अपने उपासकों को ममत्वभाव का विसर्जनकर कुछ समय के लिए स्थान पर निम्न षट् दैनिक कृत्यों की कल्पना की गयी-जिन-पूजा, समभाव एवं ध्यान की साधना करवाते थे। इसी प्रकार भगवतीसूत्र में गुरु-सेवा; स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान। भोजनोपरान्त अथवा निराहार रहकर श्रावकों के द्वारा प्रौषध करने के
हमें आचारांगसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, भगवतीसूत्र, उल्लेख मिलते हैं। त्रिपिटक में बौद्धों ने निग्रंथों के उपोषथ की आदि प्राचीन आगमों में जिन-पूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं आलोचना भी की है। इससे यह बात पुष्ट होती है कि सामायिक, मिलता है। अपेक्षाकृत परवर्ती आगमों-स्थानांग आदि में जिन-प्रतिमा एवं प्रतिक्रमण एवं प्रौषध की परम्परा महावीरकालीन तो है ही। जिनमन्दिर (सिद्धायतन) के उल्लेख तो हैं, किन्तु उनमें भी पूजा
सूत्रकृतांगसूत्र में महावीर की जो स्तुति उपलब्ध होती है, वह सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। जबकि 'राजप्रश्नीयसूत्र में सम्भवत: जैन-परम्परा में तीर्थंकरों के स्तवन का प्राचीनतम रूप है। सूर्याभदेव और ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी के द्वारा जिन-प्रतिमाओं के पूजन उसके बाद कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र एवं राजप्रश्नीयसूत्र में हमें वीरासन के के उल्लेख हैं। राजप्रश्नीय के वे अंश जिसमें सूर्याभदेव के द्वारा जिनशक्रस्तव (नमोत्थुणं) का पाठ करने का उल्लेख प्राप्त होता है। दिगम्बर- प्रतिमा-पूजन एवं जिन के समक्ष नृत्य, नाटक, गान आदि के जो परम्परा में आज वंदन के अवसर पर जो 'नमोऽस्तु' कहने की परम्परा उल्लेख हैं, वे ज्ञाताधर्मकथा से परवर्ती हैं और गुप्तकाल के पूर्व के नहीं है वह इसी 'नमोत्थुणं' का संस्कृत रूप है। दुर्भाग्य से दिगम्बर-परम्परा हैं। चाहे 'राजप्रश्नीयसूत्र' का प्रसेनजित-सम्बन्धी कथा पुरानी हो, किन्तु में यह प्राकृत का सम्पूर्ण पाठ सुरक्षित नहीं रह सका। चतुर्विंशतिस्तव सूर्याभदेव सम्बन्धी कथा-प्रसंग में जिनमन्दिर के पूर्णतः विकसित स्थापत्य का एक रूप आवश्यकसूत्र में उपलब्ध है, इसे 'लोगस्स' का पाठ भी के जो संकेत हैं, वे उसे गुप्तकाल से पूर्व का सिद्ध नहीं करते हैं। फिर कहते हैं। यह पाठ कुछ परिवर्तन के साथ दिगम्बर-परम्परा के ग्रंथ भी यह सत्य है कि जिन-पूजा-विधि का इससे विकसित एवं प्राचीन तिलोयपण्णत्ति में भी उपलब्ध है। तीन आवों के द्वारा 'तिक्खुत्तो' के उल्लेख श्वे० परम्परा के आगम-साहित्य में अन्यत्र नहीं है। पाठ से तीर्थंकर गुरु एवं मुनि-वंदन की प्रक्रिया भी प्राचीनकाल में दिगम्बर-परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द ने भी रयणसार में दान प्रचलित रही है। अनेक आगमों में तत्सम्बन्धी उल्लेख हैं। श्वेताम्बर और पूजा को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य माना है, वे लिखते हैंपरम्परा में प्रचलित 'तिखुत्तो' के पाठ का भी एक परिवर्तित रूप हमें
दाणं पूजा मुक्ख सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। षट्खण्डागम के कर्म अनुयोगद्वार के २८वें सूत्र में मिलता है। तुलनात्मक झाणज्झयणं मुक्ख जइ धम्मे ण तं विणा सो वि॥६ अध्ययन के लिए दोनों पाठ विचारणीय हैं। गुरुवंदन के लिए 'खमासमना' अर्थात् गृहस्थ के कर्तव्यों में दान और पूजा मुख्य और यति/ के पाठ की प्रक्रिया उसकी अपेक्षा परवर्ती है। यद्यपि यह पाठ आवश्यकसूत्र श्रमण के कर्तव्यों में ध्यान और स्वाध्याय मुख्य हैं। इस प्रकार उसमें भी जैसे अपेक्षाकृत प्राचीन आगम में मिलता है, फिर भी इसमें प्रयुक्त पूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों को गृहस्थ के कर्तव्य के रूप में प्रधानता मिली। क्षमाश्रमण या क्षपकश्रमण (खमासमणो) शब्द के आधार पर इसे चौथी, परिणामत: गृहस्थों के लिए अहिंसादि अणुव्रतों का पालन उतना महत्त्वपूर्ण
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नहीं रह गया, जितना पूजा आदि के विधि-विधानों को सम्पन्न करना । प्रथम तो पूजा को कृतिकर्म (सेवा) का एक रूप माना गया, किन्तु आगे चलकर उसे अतिथिसंविभाग का अंग बना दिया गया।
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दिगम्बर परम्परा में भी जैन अनुष्ठानों का उल्लेख सर्वप्रथम हमें कुन्दकुन्द-रचित 'दस भक्तियों' में एवं यापनीय परम्परा में मूलाचार के षडावश्यक अध्ययन में मिलता है। जैन शौरसेनी में रचित इन सभी भक्तियों के प्रणेता कुन्दकुन्द हैं यह कहना कठिन है, फिर भी कुन्दकुन्द के नाम से उपलब्ध भक्तियों में से पाँच पर प्रभाचन्द्र की क्रियाकलाप' नामक टीका है। अतः किसी सीमा तक इनमें से कुछ के कर्ता के रूप में कुन्दकुन्द (लगभग पाँचवीं शती) को स्वीकार किया जा सकता है। दिगम्बर-परम्परा में संस्कृत भाषा में रचित 'बारह भक्तियाँ भी मिलती हैं। इन सब भक्तियों के मुख्यतः पंचपरमेष्ठि- तीर्थंकर, सिद्ध, आचार्य मुनि एवं श्रुत आदि की स्तुतियाँ हैं। श्वेताम्बर - परम्परा में जिस प्रकार नमोत्थुणं ( शक्रस्तव), लोगस्स (चतुर्विंशतिस्तव), चैत्यवंदन आदि उपलब्ध हैं, उसी प्रकार दिगम्बर- परम्परा में भी ये भक्तियाँ उपलब्ध हैं। इनके आधार पर ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में जिन - प्रतिमाओं के सम्मुख केवल स्तवन आदि करने की परम्परा रही होगी। वैसे मथुरा से प्राप्त कुषाणकालीन पुरातत्त्वीय अवशेषों में कमल के द्वारा जिन प्रतिमा के अर्चन के प्रमाण मिलते हैं, इसकी पुष्टि 'राजप्रश्नीयसूत्र' से भी होती है। यद्यपि भावपूजा के रूप में स्तवन की यह परम्परा जो कि जैन-अनुष्ठान - विधि का सरलतम एवं प्राचीनरूप है, आज भी निर्विवाद रूप से चली आ रही है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराएं मुनियों के लिए तो केवल भावपूजा अर्थात् स्तवन का ही विधान करती है, द्रव्यपूजा का विधान तो मात्र गृहस्थों के लिए ही है। मथुरा के कुषाणकालीन जैन अंकनों में मुनि को स्तुति करते हुए एवं गृहस्थों को कमलपुष्प से पूजा करते हुए प्रदर्शित किया गया है। यद्यपि पुष्प-जैसे सचिन द्रव्य से पूजा करना जैन धर्म के सूक्ष्म अहिंसा सिद्धान्त के प्रतिकूल कहा जा सकता है, किन्तु दूसरी शती से यह प्रचलित रही इससे इंकार नहीं किया जा सकता। पाँचवीं शती या उसके बाद के सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर अन्थों में इसके उल्लेख उपलब्ध हैं। इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा आगे की गई है।
द्रव्यपूजा के सम्बन्ध में राजप्रश्नीयसूत्र में वर्णित सूर्याभदेव द्वारा की जाने वाली पूजा-विधि आज भी (वेताम्बर परम्परा में उसी रूप में प्रचलित है। उसमें प्रतिमा के प्रमार्जन, स्नान, अंगप्रोच्छन, गंध विलेपन, अथवा गंध, माल्य, वस्त्र आदि के अर्पण के उल्लेख हैं। राजप्रश्नीयसूत्र में उल्लिखित पूजा विधि भी जैन परम्परा में एकदम विकसित नहीं हुई है। स्तवन से चैत्यवंदन और चैत्यवंदन से पुष्प आदि से द्रव्य अर्चा प्रारम्भ हुई यह सम्भव है कि जिनमन्दिरों और जिनबिम्बों के निर्माण के साथ ही हिन्दू-परम्परा के प्रभाव से जैनों में भी द्रव्यपूजा प्रचलित हुई होगी। फिर क्रमशः पूजा की सामग्री में वृद्धि होती गई और अष्टद्रव्यों से पूजा होने लगी। डॉ० नेमिचन्द शास्त्री के शब्दों में- “पूजनसामग्री के विकास की एक सुनिश्चित परम्परा हमें जैन वाङ्मय में उपलब्ध होती है। आरम्भ में पूजन विधि केवल पुष्पों द्वारा सम्पन्न की
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जाती थी, फिर क्रमश: धूप, चंदन ओर नैवेद्य आदि पूजा- द्रव्यों का विकास हुआ। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण एवं जटासिंहनन्दि के वरांगचरित से भी हमारे उक्त कथन का सम्यक् समर्थन होता है।
यापनीय परम्परा के ग्रन्थ वरांगचरित' (लगभग छठी सातवीं शती) में नाना प्रकार के पुष्प, धूप और मनोहारी गंध से भगवान् की पूजा करने का उल्लेख है। ज्ञातव्य है कि इस ग्रन्थ में पूजा में वस्त्राभूषण समर्पित करने का उल्लेख भी है।
इसी प्रकार दूसरे यापनीय-धन्य पद्मपुराण में उल्लिखित है कि रावण स्नान कर धौतवस्त्र पहन, स्वर्ण और रत्ननिर्मित जिनबिम्बों की नदी के तट पर पूजा करने लगा। उसके द्वारा प्रयुक्त पूजा सामग्री में धूप, चंदन, पुष्प और नैवेद्य का ही उल्लेख आया है, अन्य द्रव्यों का नहीं देखें
स्थापयित्वा घनामोदसमाकृष्टमधुव्रतैः धूपैरालेपनैः पुष्पैर्मनोज्ञैर्बहुभक्तिभिः ।। १
अतः स्पष्ट है कि प्रचलित अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने की प्रथा यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बरों की अपेक्षा कुछ समय के पश्चात् ही प्रचलित हुई होगी।
दिगम्बर-परम्परा में सर्वप्रथम हरिवंशपुराण में जिनसेन ने पूजा सामग्री में चंदन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवेध का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का क्रम यथावत् नहीं है और न जल का पृथक् निर्देश ही है। अभिषेक में दुग्ध, इक्षुरस, घृत, दधि एवं जल का निर्देश है, पर पूजन सामग्री में जल का कथन नहीं आया है। स्मरण रहे कि प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम विकास अभिषेक है, जो अपेक्षाकृत परवर्ती है। पूजा के अष्टद्रव्यों का विकास भी शनै: शनै: हुआ है, इस कथन की पुष्टि अमितगति श्रावकाचार से भी होती है, क्योंकि इसमें गंध, पुष्प, नैवेध, दीप, धूप, और अक्षत इन छः द्रव्यों का ही उल्लेख उपलब्ध होता है।
वरांगचरित, पद्मपुराण, पद्मनन्दिकृत पंचविंशति, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, वसुनन्दिश्रावकाचार आदि ग्रंथों में इन पूजा द्रव्यों का फलादेश भी है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजा करने से ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार भावसंग्रह में भी अष्टद्रव्यों का पृथक्-पृथक् फलादेश बताया गया है।
डॉ० नेमिचन्दजी शास्त्री एवं मेरे द्वारा प्रस्तुत यह विवरण श्वेताम्बर दिगम्बर परम्पराओं में पूजा द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट कर देता है।
श्वेताम्बर- परम्परा में पंचोपचारी पूजा से अष्टप्रकारी पूजा और उसी से सर्वोपचारी या सत्र हभेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी पूजा वैष्णवों की षोडशोपचारपूजा का ही रूप है। बहुत कुछ रूप में इसका उल्लेख राजप्रश्नीय एवं वरांगचरित १० में उपलब्ध है।
राजप्रश्नीयसूत्र में वर्णित पूजा-विधान
राजप्रश्नीयसूत्र - ११ में सूर्याभदेव द्वारा की गई जिन पूजा का
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वर्णन इस प्रकार है।- “सूर्याभदेव ने व्यवसाय-सभा में रखे हुए पुस्तकरत्न पञ्चोपचार पूजा में गंध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य- ये पाँच को अपने हाथ में लिया, हाथ में लेकर उसे खोला, खोलकर उसे पढ़ा वस्तुएँ देवता को समर्पित की जाती हैं। दशोपचार पूजा पादप्रक्षालन, और पढ़कर धार्मिक क्रिया करने का निश्चय किया, निश्चय करके पुस्तकरत्न अय॑समर्पण, आचमन, मधुपर्क, जल, गंध, पुष्प, धूप, दीप और को वापस रखा, रखकर सिंहासन से उठा और नन्दा नामक पुष्करिणी नैवेद्यसमर्पण इन दस प्रक्रियाओं द्वारा पूजा-विधि सम्पन्न की जाती है। पर आया। नन्दा पुष्करिणी में प्रविष्ट होकर उसने अपने हाथ-पैरों का इसी प्रकार षोडशोपचार पूजा में १. आह्वान, २. आसन-प्रदान ३, प्रक्षालन किया तथा आचमन कर पूर्णरूप से स्वच्छ और शुचिभूत होकर स्वागत, ४. पाद-प्रक्षालन, ५. आचमन, ६. अर्ध्य, ७. मधुपर्क, ८. स्वच्छ श्वेत जल से भरी हुई भंगार (झारी) तथा उस पुष्करिणी में उत्पन्न जल, ९. स्नान, १०, वस्त्र ११, आभूषण, १२ गन्ध, १३. पुष्प, शतपत्र एवं सहस्रपत्र कमलों को ग्रहण किया, फिर वहाँ से चलकर जहाँ १४. धूप, १५. दीप और १६. नैवेद्य से पूजा की जाती है। सिद्धायतन (जिनमंदिर) था, वहाँ आया। उसमें पूर्वद्वार से प्रवेश करके प्रकारान्तर से गायत्रीतंत्र में षोडपोपचार पूजा के निम्न अंग भी जहाँ देवछन्दक और जिन-प्रतिमा थी वहाँ आकर जिन-प्रतिमाओं को मिलते हैंप्रणाम किया। प्रणाम करके लोममयी प्रमार्जनी हाथ में ली, प्रमार्जनी से
१. आह्वान २. आसन-प्रदान, ३. पाद-प्रक्षालन, ४. जिन-प्रतिमा को प्रमार्जित किया। प्रमार्जित करके सुगन्धित जल से उन अय॑समर्पण, ५. आचमन, ६. स्नान, ७. वस्त्रअर्पण, ८. लेपन, ९. जिन-प्रतिमाओं का प्रक्षालन किया। प्रक्षालन करके उन पर गोशीर्ष चंदन यज्ञोपवीत, १० पुष्प, ११. धूप, १२. दीप (आरती) १३. नैवेद्यका लेप किया। गोशीर्ष चंदन का लेप करने के पश्चात् उन्हें सुवासित प्रसाद, १४. प्रदक्षिणा १५. मंत्रपुष्प और १६ शय्या। वस्त्रों से पौंछा, पौंछकर जिन-प्रतिमाओं को अखण्ड देवदूष्य युगल षोडशोपचार पूजा की उक्त दोनों सूचियों में मात्र नाम और पहनाया। देवदूष्य पहनाकर पुष्पमाला, गंधचूर्ण एवं आभूषण चढ़ाये। क्रम का आंशिक अन्तर है। इस पञ्चोपचार, दशोपचार और षोडशोपचार तदनन्तर नीचे लटकी लम्बी-लम्बी गोल मालाएँ पहनायीं। मलाएँ, पूजा के स्थान पर जैन-धर्म में अष्टप्रकारी और सत्रह भेदी पूजा प्रचलित पहनाकर पंचवर्ण के पुष्पों की वर्षा की। फिर जिन-प्रतिमाओं के समक्ष रही है। पूजा-विधान के दोनों प्रकार पूजा के द्रव्यों की संख्या एवं पूजा विभिन्न चित्रांकन किये एवं श्वेत तन्दुलों से अष्टमंगल का आलेखन के अंगों के आधार पर हैं। सिद्धान्ततः इनमें कोई भिन्नता नहीं है। किया। उसके पश्चात् जिन-प्रतिमाओं के समक्ष धूपक्षेप किया। धूपक्षेप
जैनों की सत्र हभेदी पूजा में निम्न विधि से पूजा सम्पन्न की करने के पश्चात् विशुद्ध, अपूर्व, अर्थसम्पन्न महिमाशाली १००८ छन्दों जाती हैसे भगवान् की स्तुति की । स्तुति करके सात-आठ पैर पीछे हटा। पीछे १. स्नान, २. विलेपन, ३. वस्त्र-युगल-समर्पण ४. वासक्षेपहटकर बाँया घुटना ऊँचा किया तथा दायाँ घुटना जमीन पर झुकाकर समर्पण, ५. पुष्पसमर्पण, ६. पुष्पमालासमर्पण, ७. पंचवर्ण की अंगरचना तीन बार मस्तक पृथ्वीतल पर नमाया। फिर मस्तक ऊँचा कर दोनों हाथ (अंगविन्यास), ८. गन्ध-समर्पण, ९. ध्वजा-समर्पण, १०. आभूषणजोड़कर मस्तक पर अंजलि करके 'नमोत्थुणं अरहन्ताणं........ठाणं समर्पण, ११. पुष्पगृहरचना, १२. पुष्पवृष्टि १३. अष्ट-मंगल-रचना, संपत्ताणं'नामक शक्रस्तव का पाठ किया। इस प्रकार अर्हन्त और सिद्ध १४. धूप-समर्पण, १५. स्तुति, १६. नृत्य और १७. वादिन पूजा भगवान् की स्तुति करके फिर जिनमंदिर के मध्य भाग में आया। उसे (वाद्य बजना)। प्रमार्जित कर दिव्य जलधारा से सिंचित किया और गोशीर्ष चंदन का लेप यहाँ दोनों परम्पराओं के पूजा-विधानों में जो बहुत अधिक किया तथा पुष्पसमूहों की वर्षा की। तत्पश्चात् उसी प्रकार उसने मयूरपिच्छिसमरूपता है, वह उनके पारस्परिक प्रभाव की सूचक है इनमें भी पञ्च के से द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्यालों को प्रमार्जित किया तथा उनका स्थान पर अष्ट और षोडश के स्थान पर सप्तदश उपचारों के उल्लेख प्रक्षालन कर उनको चंदन से अर्चित किया तथा धूपक्षेप करके पुष्प एवं यह बताते हैं कि जैनों ने हिन्दू-परम्परा से इसे ग्रहण किया है। आभूषण चढ़ाये। इसी प्रकार उसने मणिपीठिकाओं एवं उनकी जिन
इसी प्रकार जहाँ तक पूजा के अंगों का प्रश्न है, जैन-परम्परा प्रतिमाओं की, चैत्यवृक्ष की तथा महेन्द्र-ध्वजा की पूजा-अर्चना की। में भी हिन्दू तांत्रिक परम्पराओं के ही समान आह्वान, स्थापना, सन्निधिकरण, इससे स्पष्ट है कि राजप्रश्नीयसूत्र के काल में पूजा सम्बन्धी मन्त्रों के पूजन और विसर्जन की प्रक्रिया समान रूप से सम्पन्न की जाती है। इसमें अतिरिक्त जिन-पूजा की एक सुव्यवस्थिति प्रक्रिया निर्मित हो चुकी थी। देवता के नाम को छोड़कर शेष सम्पूर्ण मन्त्र भी समान ही हैं। पूजालगभग ऐसा ही विवरण वरांगचरित के २३वें सर्ग में भी है। विधान की इन समरूपताओं का फलितार्थ यही है कि जैन-परम्परा इन
विधि-विधानों के सम्बन्ध में हिन्दू-परम्परा से प्रभावित हुई है। जैन तांत्रिक पूजा-विधानों की तुलना
'राजप्रश्नीयसूत्र' के अतिरिक्त अष्टप्रकारी एवं सत्रह भेदी इष्ट देवता की पूजा भक्तिमार्गीय एवं तांत्रिक साधना का भी पूजा का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति एवं उमास्वाति के पूजाविधि- प्रकरण' आवश्यक अंग हैं- इन सम्प्रदायों में सामान्यतया पूजा के तीन रूप में भी उपलब्ध है। यद्यपि यह कृति उमास्वाति की ही है अथवा उनके प्रचलित रहे हैं- १. पञ्चोपचार पूजा, २. दशोपचार पूजा और ३. नाम से अन्य किसी की रचना है, इसका निर्णय करना कठिन है। षोडशोपचार पूजा।
अधिकांश विचारक इसे अन्यकृत मानते हैं। इस पूजाविधि-प्रकरण में
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यह बताया गया है कि पश्चिम दिशा में मुख करके दन्तधावन करें फिर शताब्दी से ही जैन-ग्रंथों में इसका समर्थन देखा जाता है। सम्भवतः ईसा पूर्वमुख हो स्नानकर श्वेत वस्त्र धारण करें और फिर पूर्वोत्तर मुख होकर की छठी-सातवीं शती तक जैन-धर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक जिनबिम्ब की पूजा करें। इस प्रकरण में अन्य दिशाओं और कोणों में कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था। यही कारण है कि आठवीं शती में स्थित होकर पूजा करने से क्या हानियाँ होती हैं, यह भी बतलाया गया हरिभद्र को इनमें कर्मकाण्डों का मुनियो के लिए निषेध करना पड़ा। है। पूजाविधि की चर्चा करते हुए यह भी बताया गया है कि प्रात: काल ज्ञातव्य है कि हरिभद्र ने सम्बोधप्रकरण के कुगुरु अधिकार में चैत्यों में वासक्षेप-पूजा करनी चाहिए। इसमें पूजा में जिनबिम्ब के भाल, कंठ निवास, जिन-प्रतिमा की द्रव्यपूजा, जिन-प्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, आदि नव स्थानों पर चंदन के तिलक करने का भी उल्लेख है। इसमें यह नाटक आदि का जैन-मुनि के लिए निषेध किया है। यद्यपि पंचाशक में भी बताया गया है कि मध्याह्नकाल में कुसुम से तथा संध्या को धूप और उन्होंने इन पूजा-विधानों को गृहस्थ के लिए करणीय माना है। दीप से पूजा की जानी चाहिए। इसमें पूजा के लिए कीट आदि से रहित पुष्यों के ग्रहण करने का उल्लेख है। साथ-साथ यह भी बताया गया है जैनधर्म का अनुष्ठानपरक जैन-साहित्य . कि पूजा के लिए पुष्प के टुकड़े करना या उन्हें छेदना निषिद्ध है। इसमे
अनुष्ठान सम्बन्धी विधि-विधानों को लेकर जैन-परंपरा के गंध, धूप, अक्षत, दीप, जल, नैवेद्य फल आदि अष्टद्रव्यों से पूजा का दोनों ही सम्प्रदायों में अनेक ग्रन्थ रचे गये हैं। इनमें श्वेताम्बर-परंपरा में भी उल्लेख है। इस प्रकार यह ग्रंथ भी श्वेताम्बर जैन-परम्परा की पूजा- उमास्वाति का 'पूजाविधिप्रकरण', पादलिप्तसूरि की 'निर्वाणकलिका' पद्धति का प्राचीनतम आधार कहा जा सकता है। दिगम्बर-परम्परा में अपरनाम 'प्रतिष्ठा-विधान' एवं हरिभद्रसूरि का 'पंचाशकप्रकरण' प्रमुख जिनसेन के महापुराण में एवं यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति में जिन- प्राचीन ग्रन्थ कहे जाते हैं। हरिभद्र के १९ पंचाशकों में श्रावकधर्म पंचाशक, प्रतिमा की पूजा के उल्लेख हैं।
दीक्षा पंचाशक, वंदन पंचाशक, पूजा पंचाशक (इसमें विस्तार से जिनपूजा _इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैनपरम्परा में का उल्लेख है), प्रत्याख्यान पंचाशक, स्तवन पंचाशक, जिनभवननिर्माण सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। पंचाशक, जिनबिम्बप्रतिष्ठा पंचाशक, जिनयात्रा विधान पंचाशक, उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या स्तुति का स्थान भी था। उसी से आगे श्रमणोपासकप्रतिमा पंचाशक, साधुधर्मपंचाशक, साधुसमाचारी पंचाशक, चलकर भावपूजा और द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई। उसमें भी पिण्डविशुद्धि पंचाशक, शील-अंग पंचाशक, आलोचना पंचाशक, द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिए हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर प्रायश्चित्त पंचाशक, दसकल्प पंचाशक, भिक्षुप्रतिमा पंचाशक, तप पंचाशक
और दिगम्बर दोनों परंपराओं में जिन-पूजा सम्बन्धी जो जटिल विधि- आदि हैं। प्रत्येक पंचाशक ५०-५० गाथाओं में अपने-अपने विषय का विधानों का विस्तार हुआ, वह भी ब्राह्मण-परम्परा का प्रभाव था। फिर विवरण प्रस्तुत करता है। इस पर चन्द्रकुल के नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि आगे चलकर जिनमंदिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के का विवरण भी उपलब्ध है। जैन धार्मिक क्रियाओं के सम्बन्ध में एक सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। पं० फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री दूसरा प्रमुख ग्रन्थ 'अनुष्ठानविधि' है। यह धनेश्वरसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि ज्ञानपीठ पूजांजलि की भूमिका में और स्व० डॉ० नेमिचंदजी शास्त्री ने की रचना है। यह महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है तथा इसमें सम्यक्त्वअपने एक लेख पुष्पकर्म-देवपूजा: विकास एवं विधि' में इस बात को आरोपणविधि, व्रत-आरोपणविधि, पाण्मासिक सामायिक विधि, स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जैन-परंपरा में पूजा-द्रव्यों का क्रमशः श्रावकप्रतिमावहनविधि, उपधानविधि, प्रकरणविधि, मालाविधि, तपविधि, विकास हुआ है। यद्यपि पुष्पपूजा प्राचीनकाल से प्रचलित है फिर भी यह आराधनाविधि, प्रव्रज्याविधि उपस्थापनाविधि, केशलोचविधि, जैन-परंपरा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। एक पंचप्रतिक्रमणविधि, आचार्य उपाध्याय एवं महत्तरा पदप्रदानविधि, पोषधविधि, ओर तो जैन पूजा-विधान पाठ में ऐसे हैं, जिनमें मार्ग में होने वाली ध्वजरोपणविधि, कलशरोपणविधि आदि के साथ आत्मरक्षा कवच एवं एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा काप्रायश्चित हो, यथा
सकलीकरण जैसी तान्त्रिक क्रियाओं के निर्देश मिलते हैं। इस कृति के ईर्यापथे प्रचलताद्य मया प्रमादात्
पश्चात् तिलकाचार्य की 'समाचारी' नामक कृति भी लगभग इन्हीं विषयों एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकाय बाधा।
का विवेचन करती है। जैन कर्मकाण्डों का विवेचन करने वाले अन्य निदर्तिता यदि भवेव युगान्तरेक्षा,
ग्रन्थों में सोमसुन्दरसूरि का 'समाचारी शतक', जिनप्रभसूरि (वि०सं० मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे।।
१३६३) की 'विधिमार्गप्रपा, वर्धमानसूरि का 'आचारदिनकर', हर्षभूषणगणि स्मरणीय है कि श्वे० परम्परा में चैत्यवंदन में भी 'इरियाविहि (वि०सं० १४८०) का श्राद्धविधिविनिश्चय' तथा समयसुन्दर का 'समाचारी विराहनाये' नामक पाठ मिलता है- जिसका तात्पर्य भी चैत्यवंदन के शतक' भी महत्त्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त प्रतिष्ठाकल्प के नाम से अनेक लिए जाने में हुई एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी प्रायश्चित्त किया जाता लेखों की कृतियाँ हैं, जिनमें जैन-परम्परा के अनुष्ठानों की चर्चा है। है। तो दूसरी ओर उन पूजा-विधानों में, पृथ्वी, वायु, अप अग्नि और दिगम्बर-परम्परा में धार्मिक क्रियाकाण्डों को लेकर वसुनन्दि का वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का विधान है, यह एक 'प्रतिष्ठासारसंग्रह' (वि०सं० ११५०), आशाधर का 'जिनयज्ञकल्प' आन्तरिक असंगति तो है ही। यद्यपि यह भी सत्य है कि चौथी-पाँचवीं (सं० १२८५) एवं महाभिषेककल्प, सुमतिसागर का
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-- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार'दसलाक्षणिकव्रतोद्यापन', सिंहनन्दी का 'व्रततिथिनिर्णय, जयसागर का रखने के लिए जैन-धर्म के साथ कुछ ऐसे अनुष्ठानों को भी जोड़ें जो 'रविव्रतोद्यापन', ब्रह्मजिनदास का 'जम्बूद्वीपपूजन', 'अनन्तव्रतपूजन', अपने उपासकों के भौतिक कल्याण में सहायक हों। निवृत्तिप्रधान अध्यात्मवादी 'मेघामालोद्यापनपूजन' (१५वीं शती), विश्वसेन का षण्णवतिक्षेत्रपाल एवं कर्मसिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले जैनधर्म के लिए यह पूजन (१६वीं शती), बुधवीरु 'धर्मचक्रपूजन' एवं 'वृहद्धर्मचक्रपूजन' न्याय-संगत तो नहीं था, फिर भी ऐतिहासिक सत्य है कि उसमें यह (१६वीं शती), सकलकीर्ति के 'पंचपरमेष्ठिपूजन', 'षोडशकारणपूजन' प्रवृत्ति विकसित हुई है। एवं गणधरवलयपूजन' (१६वीं शती) श्रीभूषण का 'षोडशसागारव्रतोद्यापन', यह हम पूर्व में कह चुके हैं कि जैन-धर्म का तीर्थंकर व्यक्ति नागनन्दि का 'प्रतिष्ठाकल्प' आदि प्रमुख कहे जा सकते हैं। के भौतिक कल्याण में साधक या बाधक नहीं हो सकता है, अत: जैन
अनुष्ठानों में जिनपूजा के साथ यक्ष-यक्षियों के रूप में शासनदेवता तथा जैन पूजा-अनुष्ठानों पर तंत्र का प्रभाव
देवी की कल्पना विकसित हुई और यह माना जाने लगा कि अपने जैन-अनुष्ठानों का उद्देश्य तो लौकिक उपलब्धियों एवं विघ्न- उपास्य तीर्थंकर की अथवा अपनी उपासना से शासनदेवता (यक्ष-यक्षी) बाधाओं का उपशमन न होकर व्यक्ति का अपना आध्यात्मिक विकास ही प्रसन्न होकर उपासक का सभी प्रकार से कल्याण करते हैं। है। जैन साधक स्पष्ट रूप से इस बात को दृष्टि में रखता है कि प्रभु की शासनरक्षक देवी-देवता के रूप में सरस्वती, अम्बिका, पद्यावती, पूजा और स्तुति केवल भक्त के स्वरूप या जिनगुणों की उपलब्धि के चक्रेश्वरी, काली आदि अनेक देवियों तथा मणिभद्र, घण्टाकर्ण महावीर, लिए है। आचार्य समन्तभद्र स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हे नाथ! चूंकि पार्श्वयक्ष, आदि यक्षों, नवग्रहों, अष्ट दिक्पालों एवं अनेक क्षेत्रपालों आप वीतराग हैं, अत: आप अपनी पूजा या स्तुति से प्रसन्न होने वाले (भैरवों) के पूजा-विधानों को जैन-परम्परा के स्थान मिला। इन सबकी नहीं हैं और आप विवान्तवैर हैं इसलिए निन्दा करने पर भी आप पूजा के लिए जैनों ने विभिन्न अनुष्ठानों को किंचित् परिवर्तन के साथ अप्रसन्न होने वाले नहीं है। आपकी स्तुति का मेरा उद्देश्य तो केवल हिन्दू तांत्रिक परम्परा से ग्रहण, कर लिया। भैरवपद्मावतीकल्प आदि अपने चित्तमल को दूर करना है
ग्रन्थों से इसकी पुष्टि होती है। जैन पूजा और प्रतिष्ठा की विधि में न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ! विवान्तवैर। तान्त्रिक परम्परा के अनेक ऐसे तत्त्व भी जुड़ गये जो जैन-परम्परा के
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः, पुनातु चित्तं दुरिताअनेभ्यः।। मूलभूत मंतव्यों से भिन्न हैं। हम यह देखते हैं कि तन्त्र के प्रभाव से जैनइसी प्रकार एक गुजराती जैन-कवि कहता है
परम्परा में चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, घण्टाकर्ण महावीर, नाकोड़ा अजकुलगतकेशरि लहरे निजपद सिंह निहाल।
भैरव, भूमियाजी, दिक्पाल, क्षेत्रपाल, आदि की उपासना प्रमुख और तिम प्रभुभक्ति भवि लहेरे जिन आतम संभार।।
तीर्थंकरों की उपासना गौण होती गई। हमें अनेक ऐसे पुरातत्त्वीय साक्ष्य जैन-परम्परा का उद्घोष है- 'वन्दे तद्गुणलब्धये' अर्थात् मिलते हैं जिनके अनुसार जिन-मन्दिरों में इन देवियों की स्थापना होने वन्दन करने का उद्देश्य प्रभु के गुणों की उपलब्धि करना है। जिनदेव की लगी थी। जैन-अनुष्ठानों का एक प्रमुख ग्रन्थ 'भैरवपद्मावतीकल्प है, जो एवं हमारी आत्मा तत्त्वतः समान है, अत: वीतराग के गुणों की उपलब्धि मुख्यतया वैयक्तिक जीवन की विघ्न-बाधाओं के उपशमन और भौतिक का अर्थ है स्वरूप की उपलब्धि। इस प्रकार जैन-अनुष्ठान मूलतः उपलब्धियों के लिए विविध अनुष्ठानों का प्रतिपादन करता है। इस ग्रन्थ आत्मविशुद्धि और स्वस्वरूप की उपलब्धि के लिए है। जैन-अनुष्ठानों में में वर्णित अनुष्ठानों पर जैनेत्तर-तन्त्र का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है जिन गाथाओं या मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उनमें भी अधिकांशत: जिसकी विस्तृत चर्चा आगे की गई है। जो पूजनीय के स्वरूप का ही बोध कराते हैं अथवा आत्मा के लिए ईस्वी छठी शती से लेकर आज तक जैन-परम्परा के अनेक पतनकारी प्रवृत्तियों का अनुस्मरण कर उनसे मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं, आचार्य भी शासनदेवियों, क्षेत्रपालों और यक्षों की सिद्धि के लिए जिनपूजा के विविध प्रकारों में जिन पाठों का पठन किया जाता है या जो प्रयत्नशील देखे जाते हैं और अपने अनुयायियों को भी ऐसे अनुष्ठानों स्तोत्र आदि प्रस्तुत किये जाते हैं, उनका मुख्य उद्देश्य आत्मविशुद्धि ही के लिए प्रेरित करते रहे हैं। जैनधर्म में पूजा और उपासना का यह दूसरा है। साधक आत्मा, आत्म-विशुद्धि में बाधक शक्तियों के निवर्तन के लिए पक्ष जो हमारे सामने आया, वह मूलत: तान्त्रिक परम्परा का प्रभाव ही ही धर्म-साधना करता है। वह धर्म को इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के है। जिनपूजा एवं अनुष्ठान विधियों में अनेक ऐसे मन्त्र मिलते हैं, जिन्हें शमन की साधना मानता है।
ब्राह्मण-परम्परा के तत्सम्बन्धी मन्त्रों का मात्र जैनीकरण कहा जा सकता किन्तु जैसाकि हम पूर्व में बता चुके हैं मनुष्य की वासनात्मक है। उदाहरण के रूप में जिस प्रकार ब्राह्मण-परम्परा में इष्ट देवता की पूजा स्वाभाविक प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ कि जैन-परम्परा में भी अनुष्ठानों के समय उसका आह्वान, स्थापन, विसर्जन आदि किया जाता है उसी का आध्यात्मिक स्वरूप पूर्णतया स्थिर न रह सका, उसमें विकृति आयी। प्रकार जैन-परम्परा में भी पूजा के समय जिन के आह्वान और विसर्जन जैन-धर्म का अनुयायी आखिर वही मनुष्य है, जो भौतिक जीवन में के मन्त्र बोले जाते हैं- यथासख-समद्धि की कामना से मुक्त नहीं है। अत: जैन आचार्यों के लिए यह ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवौषट्-आह्वानम् आवश्यक हो गया कि वे अपने उपासकों की जैन धर्म में श्रद्धा बनाये
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः- स्थापनम्
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहतो भव भव वषट्सविधायनम् रह पाना कठिन है और इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि जैन-परम्परा ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ ज:ज: ज: विसर्जनम। को पूजा अनुष्ठान विधियों में हिन्दू तान्त्रिक परम्परा का प्रभाव आया।
ये मन्त्र जैन-दर्शन की मूलभूत मान्यताओं के प्रतिकूल हैं, क्योंकि जहाँ ब्राह्मण-परम्परा का यह विश्वास है कि आह्वान करने पर जैन-परम्परा के विविध पूजा-विधान देवता आते हैं और विसर्जन करने पर चले जाते हैं। वहाँ जैन-परम्परा में
तन्त्र युग में जैन-परम्परा के विविध अनुष्ठानों में गृहस्थ के सिद्धावस्था को प्राप्त तीर्थकर या सिद्ध न तो आह्वान करने पर उपस्थित नित्यकर्म के रूप में सामायिक, प्रतिक्रमण आदि षडावश्यकों के स्थान होमकते हैं और न विसर्जन करने पर जाते ही हैं। पं० फलचन्दजीने पर जिनपूजा को प्रथम स्थान दिया गया। जैन-परम्परा में स्थानकवासी, 'ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि' नामक पुस्तक की भूमिका में विस्तार से इसकी श्वेताम्बर-तेरापंथ तथा दिगम्बर-तारणपंथ को छोड़कर शेष परम्पराएँ समीक्षा की है तथा आह्वान एवं विसर्जन सम्बन्धी जैन पूजा-मन्त्रों को
जिनप्रतिमा के पूजन को श्रावक का एक आवश्यक कर्तव्य मानती हैं। ब्राह्मण-मन्त्रों का अनुकरण माना है। तुलना कीजिए
श्वेताम्बर-परम्परा में पूजा सम्बन्धी जो विविध अनुष्ठान प्रचलित हैं उनमें आवाहनं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम् ।
प्रमुख हैं- अष्टप्रकारीपूजा, स्नात्रपूजा या जन्मकल्याणकपूजा, विसर्जनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥१॥
पंचकल्याणकपूजा, लघुशान्तिस्नावपूजा, बृहदशान्तिस्नावपूजा, नमिऊणपूजा, मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च।
अर्हत्पूजा, सिद्धचक्रपूजा, नवपदपूजा, सतहभेदीपूजा, अष्टकर्म की तत्सर्वं क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥२॥
पूजा, अन्तरायकर्म की पूजा, भक्तामरपूजा आदि। दिगम्बर-परम्परा में
-विसर्जनमंत्र। प्रचलित पूजा अनुष्ठानों में अभिषेकपूजा, नित्यपूजा, देवशास्त्रगुरुपूजा, इनके स्थान पर हिन्दू धर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैं- जिनचैत्यपूजा, सिद्धपूजा आदि प्रचलित हैं। इन सामान्य पूजाओं के आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
अतिरिक्त पर्वदिनपूजा आदि विशिष्ट पूजाओं का भी उल्लेख हुआ है। पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वरम् ॥१॥
पर्वपूजाओं में षोडशकारणपूजा, पंचमेरुपूजा, दशलक्षणपूजा,रत्नत्रयपूजा मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन ।
आदि का उल्लेख किया जा सकता है। यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे ॥२॥
दिगम्बर-परम्परा की पूजा-पद्धति में बीसपंथ और तेरहपंथ में इसी प्रकार अष्टद्रव्यपूजा एवं सन्नाह भेदी पूजा में सचित्त कुछ मतभेद है। जहाँ बीसपंथ पुष्प आदि सचित्त द्रव्यों से जिनपजा को द्रव्यों का उपयोग, प्रभु को वस्त्राभूषण, गंध, माल्य, आदि का समर्पण; स्वीकार करता है वहाँ तेरहपंथ सम्प्रदाय में उसका निषेध किया गया है। यज्ञ का विधान, विनायकयन्त्र-स्थापना, यज्ञोपवीतधारण आदि भी जैन- पुष्प के स्थान पर वे लोग रंगीन अक्षतों (तन्दलों) का उपयोग करते हैं। परम्परा के अनकल नहीं है। इधर जब तान्त्रिक साधना का प्रभाव बढ़ने इसी प्रकार जहाँ बीसपंथ में बैठकर वहीं तेरहपंथ में खड़े रहकर पजा लगा, तो उसमें भी इन पूजा-विधियों का प्रवेश हआ। दसवीं शती के करने की परम्परा है। अनन्तर इन विधि-विधानों को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ, फलत: पूर्व
फलतः पर्व यहाँ विशेषरूप से उल्लेखनीय यह है कि श्वेताम्बर और प्रचलित आध्यात्मिक उपासना गौण हो गयी। प्रतिमा के समक्ष रहने पर दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के प्राचीन ग्रंथों में अष्टद्रव्यों से पूजा के ही आह्वान, स्थापन, सनिधीकरण, पूजन और विसर्जन क्रमश: पंचकल्याणको उल्लेख मिलते हैं। यापनीय-ग्रंथ वारांगचरित (त्रयोविंशसर्ग) में जिनपजा की स्मति के लिए व्यवहत होने लगे। पूजा को वैयावत्य का अंग माना सम्बन्धी जो उल्लेख हैं वे श्वेताम्बर-परम्परा के राजप्रश्नीयसत्र के पूजा
एक प्रकार से इसे आहारदान केनल्य स्थान प्राप्त सम्बन्धी उल्लेखों से बहुत कुछ मिलते है। हुआ। पूजा के समय सामायिक या ध्यान की मूलभावना में परिवर्तन हुआ। द्रव्यपूजा को अतिथि-संविभाग व्रत का अंग मान लिया गया। उसे जैन पूजा-विधान की आध्यात्मिक प्रकृति गृहस्थ का एक अनिवार्य कर्तव्य बताया गया। यह भी हिन्दू-परम्परा की
यह सत्य है कि जैन पूजा-विधान और धार्मिक अनुष्ठानों पर अनकति ही थी। जहाँ यह माना जाता हो कि तीर्थंकरों ने दीक्षा के समय भक्तिमार्ग एवं तन्त्र साधना का व्यापक प्रभाव है और उनमें अनेक स्तरों सचित्तद्रव्यों, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गंध, माल्य आदि का त्याग कर पर समरूपताएँ भी हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि इन पूजा-विधानों में भी दिया था, मात्र यही नहीं जिस जैन-परम्परा में एक वर्ग ऐसा भी हो जो जैनों की आध्यात्मिक जीवन-शैली स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है. तीर्थकर के कवलाहार का भी निषेध करता हो, वही परम्परा, तीर्थकर की क्योंकि उनका प्रयोजन भिन्न है। यह उनमें बोले जाने वाले मंत्रों से स्पष्ट पूजा में वस्त्र, आभूषण, गंध, माल्य, नैवेद्य आदि अर्पित करे, यह क्या हो जाता हैसिद्धान्त की विडम्बना नहीं ही जायेगी? मंदिर एवं जिनबिम्ब प्रतिष्ठा
“ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युआदि से सम्बन्धित सम्पूर्ण अनुष्ठान जैन-परम्परा में ब्राह्मण-परम्परा की निवारणाय श्रीमजिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा।" देन है और उसकी मूलभूत प्रकृति के प्रतिकूल कहे जा सकते हैं। वस्तुतः
इसीप्रकारचन्दन आदि के समर्पण के समय जल के स्थान पर किसी भी परम्परा के लिए अपनी सहवर्ती परम्परा से पूर्णतया अप्रभावित चन्दन आदि शब्द बोले जाते हैं, शेष मंत्र वही रहता है, किन्तु पूजा के
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारप्रयोजनभेद से इसका स्वरूप बदलता भी है। जैसे:
विविधदुःखविनाशी दुष्टदाविपाशी. ___ॐ ह्रीं अहं परमात्मने अन्तरायकर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर कलिमलभवक्षाली भव्यजीवकृपाली । जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा।
असुरमदनिवारी देवनागेन्द्रनारी . ऊँ ह्रीं अहं परमात्मने अनन्तान्तज्ञानशक्तये श्री समकितव्रतदृढ जिनमुनिपदसेव्यं ब्रह्मपुण्याब्धिपूज्यम् ।११।। करणाय/प्राणातिपातविरमणव्रतग्रहणाय जलं यजामहे स्वाहा।
ॐ आँ ह्रीं मन्त्ररूपायै विश्वविघ्नहरणायै सकलजन हितकारिकायै इसी प्रकार अष्टद्रव्यों के समर्पण में भी प्रयोजन की भिन्नता श्री पद्मावत्यै जयमालार्थ निर्वापामीति स्वाहा । परिलक्षित होती है:
लक्ष्मीसौभाग्यकरा जगत्सुखकरा बन्ध्यापि पुत्रार्पिता ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशाय जलं निर्वापमिति स्वाहा। नानारोगविनाशिनी अघहरा (त्रि) कृपाजने रक्षिका । ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय भवतापविनाशाय चंदन निर्वापमिति स्वाहा।
रङ्गानां धनदायिका सुफलदा वाञ्छार्थिचिन्तामणि: ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वापमिति स्वाहा।
त्रैलोक्याधिपतिर्भवार्णवत्राता पद्यावती पातु वः ॥१२॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वापमिति स्वाहा।
इत्याशीर्वादः
स्वस्तिकल्याणभद्रस्तु क्षेमकल्याणमस्तु वः । ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वापमिति स्वाहा।
यावच्चन्द्रदिवानाथौ तावत् पद्मावतीपूजा ॥१३॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय अपकर्मदहनाय धूपं निर्वापमिति स्वाहा।
ये जनाः पूजन्ति पूजां पद्मावती जिनान्विता । ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वापमिति स्वाहा।
ते जनाः सुखमायान्ति यावन्मेरुर्जिनालयः ।।१४।। इन पूजा मन्त्रों से यह सिद्ध होता है कि जैन-परम्परा से इन
प्रस्तुत स्तोत्र में पद्मावती-पूजन का प्रयोजन वैयक्तिक एवं सभी पूजा-विधानों का अन्तिम प्रयोजन तो आध्यात्मिक विशुद्धि ही लौकिक एषणाओं की पर्ति तो है ही, इससे भी एक कदम आगे बढ़कर माना गया है। यह माना गया है कि जलपूजा आत्मविशुद्धि के लिए की
इसमें तत्र के मारण, मोहन, वशीकरण आदि षट्कर्मों की पूर्ति की जाती है। चन्दनपूजा का प्रयोजन कषायरूपी अग्नि को शान्त करना
आकांक्षा भी देवी से की गई है। प्रस्तुत पद्मावतीस्तोत्र का निम्न अंश अथवा समभाव में अवस्थित होना है। पुष्पपूजा का प्रयोजन अन्त:करण
इसका स्पष्ट प्रमाण हैमें सद्भावों का जागरण है। धूपपूजा कर्मरूपी इन्धन को जलाने के लिये
ॐ नमो भगवति! त्रिभुवनवशंकारी सर्वाभरणभूषिते पद्यनयने! है, तो दीपपूजा का प्रयोजन ज्ञान के प्रकाश को प्रकट करना है।
पद्मिनी पद्मप्रमे! पद्मकोशिनि! पद्मवासिनि! पद्महस्ते! ह्रीं ह्रीं कुरु कुरु अक्षतपूजा का तात्पर्य अक्षतों के समान कर्म के आवरण से रहित अर्थात्
कम क आवरण स राहत अथात् मम हृदयकायं कुरु कुरु, मम सर्वशान्तिं कुरु कुरु, मम सर्वराज्यवश्य निरावरण होकर अक्षय पद प्राप्त करना है। नैवेद्यपूजा का तात्पर्य चित्त
कुरु कुरु, सर्वलोकवश्यं कुरु कुरु, मम सर्व स्त्रीवश्यं कुरु कुरु, मम में आकांक्षाओं और इच्छाओं की समाप्ति है। इसी प्रकार फलपूजा
सर्वभूतपिशाचप्रेतरोष हर हर, सर्वरोगान् छिन्द छिन्द, सर्वविघ्नान् भिन्द मोक्षरूपी फल की प्राप्ति के लिये की जाती है। इस प्रकार जैन-पूजा की
भिन्द, सर्वविर्ष छिन्द छिन्द, सर्वकुरुमगं छिन्द छिन्द, सर्वशाकिनी छिन्द विधि में और हिन्दुभक्तिमार्गीय और तांत्रिकपूजा विधियों में बहुत कुछ किन प्रीजिनपटामोजानिमोटलाय देवी
नाही " समरूपता होते हुए भी उनके प्रयोजन भिन्न रूप में माने गये हैं। जहाँ
ह्र: स्वाहा। सर्वजनराज्यस्त्रीपुरुषवश्यं सर्व २ ॐ आँ काँ ऐं क्लीं ह्रीं सामान्यतया हिन्दू एवं तांत्रिकपूजा-विधियों का प्रयोजन इष्टदेवता को
देवि! पद्मावति। त्रिपुरकामसाधिनी दुर्जनमतिविनाशिनी त्रैलोक्यक्षेभिनी प्रसन्न कर उसकी कृपा से अपने लौकिक संकटों का निराकरण करना श्रीपार्श्वनाथोपसर्गहारिणी क्लीं ब्लं मम दृष्टान हन हन, मम सर्वकार्याणि रहा है। वहाँ जैन पूजा-विधानों का प्रयोजन जन्म-मरण रूप संसार से
साधय साधय हुं फट् स्वाहा।। विमुक्ति ही रहा। दूसरे, इनमें पूज्य से कृपा की कोई आकांक्षा भी नहीं
आँ क्रों ह्रीं क्लीं सौ पद्म! देवि! मम सर्वजगदृश्यं कुरु कुरु, होती है मात्र अपनी आत्मविशुद्धि की आकांक्षा की अभिव्यक्ति होती है, सती
___ सर्वविघ्नान् नाशय नाशय, पुरक्षोभं कुरु कुरु, ही संवौषट् स्वाहा। क्योंकि दैवीयकृपा (grace ofGod) का सिद्धान्त जैनों के कर्म-सिद्धान्त
ॐ आँ क्रॉ हाँ द्राँ द्रीं क्लीं ब्लू सः हw पद्मावती सर्वपुरजनान् के विरोध में जाता है।
क्षोभय क्षोभय, मम पादयोः पातय पातय, आकर्षणीं ह्रीं नमः।
ॐ ह्रीं क्रॉ अहं मम पापं फट् दह दह हन हन पच पच पाचय जैन पूजा-विधान और लौकिक एवं मैतिक मंगल की कामना ।
पाचय हं मं मां हं क्ष्वी हंस में वह्य यहः क्षां क्षीं हूं क्षं स क्षों क्षं क्षः यहाँ भी ज्ञातव्य है कि तीर्थंकरों की पूजा-उपासना में तो यह सिं हाँ ह्रीं हे हों हौं हहि: हि द्रो दि द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते आत्मविशुद्धिप्रधान जावनाष्ट कायम रहा, किन्तु जिनशासन करवाक श्रीमते ठः ठः मम श्रीरस्तु, पुष्टिरस्तु, कल्याणमस्तु स्वाहा।। देवों की पूजा-उपसना में लौकिकमंगल और भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कामना किसी न किसी रूप में जैनों में भी आ गई। इस कथन
ज्वालामालिनीस्तोत्र की पुष्टि भैरवपद्यावती कल्प में पद्मावती के निम्न मन्त्र से होती है-१२
- इससे यह फलित होता है कि तान्त्रिक साधना के षट्कर्मों की
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार
सिद्धि के लिए भी जैन-परम्परा में मंत्र, जप, पूजा आदि प्रारम्भ हो गये खी खू खाँ ख: ग्रीवां भञ्जय भञ्जय, छम्ल्व्यूँ छाँ छी छु छौं छ: थे। उपरोक्त पद्मावतीस्तोत्र के अतिरिक्त भैरवपद्यावतीकल्प में परिशिष्ट के अन्तराणि छेदय छेदय, ठम्ल्व्यूँ ट्रांहूँ छौं ठः महाविद्यापाषाणास्त्रैः हन रूप में प्रस्तुत निम्न ज्वालामालिनी मन्त्र स्तोत्र से भी इस कथन की पुष्टि हन, बल्व्यूँ ब्राँ ब्रों बूं बौँ ब्रः समुद्रे! जम्भय जृम्भय, झाँ झ: घाँ डॉ घ्रः होती है। यह स्तोत्र निम्न है-१३
सर्वडाकिनी: मर्दय मर्दय, सर्वयोगिनी: तर्जय तर्जय, सर्वशत्रून् प्रस प्रस, ॐ नमो भगवते श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय शशाङ्कशखगोक्षी- खं खं खं खं खं खं खादय खादय, सर्वदैत्यान् विध्वंसय विध्वंसय रहारधवलगात्राय धातिकर्मनिर्मलोच्छेदनकराय जातिजरामरणविनाशनाय सर्वमृत्यून् नाशय नाशय, सर्वोपद्रव महाभय स्तम्भय स्तम्भय, दह २ वैलोक्यवशङ्कराय सर्वासत्त्वहितकण्य सुरासुरेन्द्रमुकुट- कोटिघृष्टापादपीठाय पंच २ मथ २ यय: २ धम २ धरू २ खरू २ खगरावणसुविधा घातय संसारकान्तारोन्मूलनाय अचिन्त्यबलपराक्रमाय अप्रतिहतचक्राय त्रैलोक्यनाथाय २ पातय २ सच्चन्द्रहासशस्त्रेण छेदय २ भेदय २ झरू २ छरू २ हरू देवाधिदेवाय धर्मचक्राधीश्वराय सर्वविद्यापरमेश्वराय कुविद्यानिधनाय, २ फट २ घे हाँ हाँ आँ क्रों क्ष्वीं ह्रीं क्लीं ब्लूँ द्रां द्रीं क्रॉ क्षी क्षों क्षी
तत्पादपङ्कजाश्रमनिवेविणि! देवि! शासनदेवते! त्रिभुवनसझो- ज्वालामालिनी आज्ञापयति स्वाहा ॥इति सर्वरोगहरस्तोत्रम्।। मिणि! त्रैलोक्याशिवापहारकारिणि! स्थावरजङ्गमविषमविषसंहारकारिणि! इससे स्पष्ट है कि जैन-परम्परा ने किन्हीं स्थितियों में हिन्दू सर्वाभिचारकर्माम्यवहारिणि! परविद्याच्छेदिनि! परमन्त्रप्रणाशिनि! तान्त्रिक परम्परा का अन्धानुकरण भी किया है और अपने पूजा-विधान अष्टमहानागकुलोच्चाटनि! कालदुष्टमृतकोत्थापिनि! सर्वविघ्नविनाशिनी! में ऐसे तत्त्वों को स्थान दिया है, जो उसकी आध्यात्मिक, निवृत्तिप्रधान सर्वरोगप्रमोचनि! ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रचन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रोत्पातमरणभय- और अहिंसक दृष्टि के प्रतिकूल हैं, फिर भी इतना अवश्य है कि इस पीडासम्मर्दिनि! त्रैलोक्यमहिते! भव्यलोकहितकरि। विश्वलोकवशङ्करि! अत्र प्रकार पूजा-विधान तीर्थंकरों से सम्बन्धित न होकर प्राय: अन्य देवीमहाभैरवरुपधारिणी! महाभीमे! भीमरूपधारिणी! महारौद्रि! रौद्ररूपधारिणी! देवताओं से ही सम्बन्धित है। प्रसिद्धसिद्धविद्याधरयक्षराक्षसगरुडगन्धर्वकिनकिं-पुरुषदैत्योरगरुद्रेन्द्रपूजिते! प्रस्तुत स्तोत्र की भी यही विशेषता है कि इसके प्रारम्भ में ज्वालामालाकरालितदिगन्तराले! महामहिषवाहने! खेटककृपाणत्रिशूलहस्ते! जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए उनमें आध्यात्मिक विकास की कामना की शक्तिचक्रपाशशरासनविशिखपविराजमाने! षोडशार्द्धभुजे! एहि एहि हल्ल्यूँ गई है। लौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कामना अथवा मारण, मोहन, ज्वालामालिनि! ह्रीं क्लीं ब्लूं फट् द्राँ द्रीं ह्रीं ह्रीं हूँ हैं ह्रौं ह्र: ह्रीं देवान् वशीकरण आदि की सिद्धि की कामना तो मात्र उनकी शासन-देवी आकर्षय, आकर्षय, सर्वदुष्टाहान् आकर्षय आकर्षय, नागग्रहान् आकर्षय ज्वालामालिनी से की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि परवर्ती आकर्षय, यक्षग्रहान् आकर्षय आकर्षय, राक्षसग्रहान् आकर्षय आकर्षय, जैनाचार्यों ने भी तीर्थकर-पूजा का प्रयोग तो आत्मविशुद्धि ही माना है, गान्धर्वग्रान् आकर्षय आकर्षय, गान्धर्यग्रहान् आकर्षय आकर्षय, ब्रह्मग्रहान् किन्तु लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए यक्ष-यक्षी, नवग्रह, दिक्पाल आकर्षय आकर्षय, भूतग्रहान् आकर्षय आकर्षय, सर्वदुष्टान् आकर्षय एवं क्षेत्रपाल (भैरव) की पूजा सम्बन्धी विधान भी निर्मित किये हैं। यद्यपि आकर्षय, चोरचिन्ताग्रहान् आकर्षय आकर्षय, कटकट कम्पावय कम्पावय, ये सभी पूजा-विधान हिन्द-परम्परा से प्रभावित हैं और उनके समरूप भी शीर्ष चालय चालय, बाहुं चालय चालय, गात्रं चालय चालय, पार्ट्स हैं। चालय चालय, सर्वाङ्ग चालय चालय, लोलय लोलय, धूनय धूनय, पूजा-विधानों के अतिरिक्त अन्य जैन-अनुष्ठानों में श्वेताम्बर कम्पय कम्पय, शीघ्रमवतारं गृह गृण्ह, ग्राहय ग्राहय, अचेलय अचेलय, परम्परा में पर्युषणपर्व, नवपदओली, बीस स्थानक की पूजा आदि आवेशय आवेशय इम्ल्व्यू ज्वालामालिनि! ह्रीं क्लीं ब्लूँ द्राँ द्रीं ज्वल सामूहिक रूप से मनाये जाने वाले जैन-अनुष्ठान हैं। उपधान नामक तपज्वल र र र र र र रां प्रज्वल, प्रज्वल हूँ प्रज्वल प्रज्वल, अनुष्ठान भी श्वेताम्बर-परम्परा में बहुप्रचलित हैं। आगमों के अध्ययन एवं धगधगधूमान्धकारिणी! ज्वल ज्वल, ज्वलितशिखे! देवग्रहान् दह दह, आचार्य आदि पदों पर प्रतिष्ठित होने के लिए भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक गन्धर्वग्रहान् दह दह, यक्षग्रहान् दह दह, भूतग्रहान् दह दह, ब्रह्मराक्षसग्रहान् जैन-संघ में मुनियों को कुछ अनुष्ठान करने होते हैं, जिनको सामान्यतया दह दह, व्यन्तरमाहन् दह दह, नागग्रहान् दह दह, सर्वदुष्ट महान् दह दह, 'योगोद्वहन एवं सूरिमंत्र की साधना कहते हैं। विधिमार्गप्रपा में दशवैकालिकसूत्र, शतकोटिदैवतान् दह दह, सहस्रकोटिपिशाचराजान् दह दह, घे घे स्फोटय उत्तराध्ययनसूत्र, आचारंगसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, स्फोटय, मारय मारय, दहनाक्षि! प्रलय प्रलय, धगधगितमुखे! ज्वालामालिनी! निशीथसूत्र, भगवतीसूत्र आदि आगमों के अध्ययन सम्बन्धी अनुष्ठानों हाँ ह्रीं हं ह्रौं ह्रः सर्वग्रहहृदयं दह दह, पच पच, छिन्द छिन्द भिन्धि एवं कर्मकाण्डों का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। भिन्धि हः हः हा: हा: हे: हे: हुं फट् फट् घे घे क्षम्ल्व्यू क्षाँ क्षीं ा क्षौं क्षः दिगम्बर-परम्परा में प्रमुख अनुष्ठान या व्रत निम्न हैंस्तम्भय स्तम्भय, हा पूर्व बन्धय बन्धय, दक्षिणं बन्धय बन्धय, पश्चिमं दशलक्षणव्रत, अष्टाह्निकाव्रत, द्वारावलोकनव्रत, जिनमुखावलोकनव्रत, बन्धय बन्धय, उत्तरं बन्धय बन्धय, भल्ल्यू भ्रां प्री | श्रौं भ्रः ताडय जिनपूजाव्रत, गुरुभक्ति एवं शास्त्रभक्तिव्रत, तपांजलिव्रत, मुक्तावलीव्रत, ताडय, मल्व्यू माँ म्री नौं म्र: नेत्रे यः स्फोटय स्फोटय, दर्शय दर्शय, कनकावलिव्रत, एकावलिव्रत, द्विकावलिव्रत, रत्नावलीव्रत, मुकुटसप्तमीव्रत, हल्व्यं प्रां प्री पूँ प्रौं प्रः प्रेषय प्रेषय, एल्यू प्रां प्रीं धूं प्राँ घ्र: जठरं भेदय सिंहनिष्क्रीडितव्रत, निर्दोषसप्तमीव्रत, अनन्तव्रत, षोडशकारणव्रत, भेदय, झल्ल्यू झाँ झू झी झों झः मुष्टिबन्धेन बन्धय बन्धय, खल्यूँ खाँ ज्ञानपच्चीसीव्रत, चन्दनषष्ठीव्रत, रोहिणीव्रत, अक्षयनिधिव्रत, पंचपरमेष्ठिव्रत,
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारसर्वार्थसिद्धिव्रत, धर्मचक्रव्रत, नवनिधिव्रत, कर्मचूखत, सुखसम्पत्तिव्रत, ४. मूलाचार, वट्टकेराचार्य, प्रा०- भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, इष्टासिद्धिकारकनिःशल्य अष्टमीव्रत आदि इनके अतिरिक्त दिगम्बर-परम्परा १९८४-१९९२. में पंचकल्याण बिम्बप्रतिष्ठा, वेदीप्रतिष्ठा एवं सिद्धचक्र-विधान, इन्द्रध्वज- ५. आवश्यकनियुक्ति, भद्रबाहु, प्रका०, आगमोदय समिति, वी०नि०सं० विधान, समवसरण-विधान, ढाई-द्वीप-विधान, त्रिलोक-विधान, वृहद् २४५४, १२२०-२६, १५६-६१. चारित्रशुद्धि-विधान, महामस्तकाभिषेक आदि ऐसे प्रमुख अनुष्ठान है जो ६. रयणसार, संपा०-डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, प्रका०- श्री वीरनिर्वाण कि वृहद् स्तर पर मनाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त पद्मावती आदि देवियों ग्रंथ प्रकाशन समिति, इन्दौर, वी०नि०सं० २५९०. एवं विभिन्न यक्षों, क्षेत्रपालों-भैरवों आदि के भी पूजा-विधान जैन-परम्परा ७. भारतीय संस्कृत के विकास में जैन-वाङ्गमय का अवदान, डॉ० में प्रचलित हैं। जिन पर तन्त्र-परम्परा का स्पष्ट प्रभाव है।
नेमिचन्द शास्त्री, प्रका०- अ०भा० जैन विद्वत् परिषद्, सागर मन्दिरनिर्माण तथा जिनबिम्बप्रतिष्ठा के सम्बन्ध में जो भी १९८२, पृष्ठ-३८७। अनेक जटिल विधि-विधानों की व्यवस्था जैन-संघ में आई है और इस ८. वरांगचरित, संपा०, ए०एन० उपाध्ये, माणिकचंद दिग० सम्बन्ध में प्रतिष्ठाविधि, प्रतिष्ठातिलक या प्रतिष्ठाकल्प आदि अनेक जैन ग्रंथमाला समिति, मुम्बई वि०सं०१९८४, २३/६१ग्रंथों की रचना हुई है वे सभी हिन्दू तान्त्रिक परम्परा से प्रभावित हैं। वस्तुतः सम्पूर्ण जैन-परम्परा में मृत और जीवित अनेक अनुष्ठानों पर ९. पद्मपुराण, संपा०- पन्नालाल जैन, प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ काशी, किसी न किसी रूप में तन्त्र का प्रभाव है जिनका समग्र तुलनात्मक एवं १९४४, १०/८९ समीक्षात्मक विवरण तो किसी विशालकाय ग्रंथ में ही दिया जा सकता १०. वशंगचरित, संपा०- एम०एन० उपाध्ये, प्रका०- माणिकचंद है। अत: इस विवेचन को यही विराम देते हैं।
दिगम्बर जैन ग्रंथमाला समिति, मुंबई, वि०सं० १९८४,२३/ सन्दर्भ १. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- साध्वी चन्दना, प्रका०- वीरायतन प्रकाशन, ११. राजप्रश्नीयसूत्र, संपा०- मधुकरमुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन आगरा, १९७२, १२/४०-४४.
समिति, ब्यावर, १९८२, २०० २. वही, १२/४६
१२. भैरवपद्यावतीकल्प, संपा० प्रो० के०बी० अभ्यंकर ३. गीता, संपा०- डब्ल्यू, डी०पी०, आक्सफोर्ड, १९५३, ४) १३. वही, परिशिष्ट-२५, पृष्ठ १०२-१०३.
२६-३३
నారురురురురురురువారం
సా
యంతరకరసారంగపాలు
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पर्युषण पर्व : एक विवेचन
भारत पर्वो (त्योहारों) का देश है। वैसे तो प्रत्येक मास में कोई के विशेष नियम। आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) के पज्जोसवणाकप्प न कोई पर्व आता ही है, किन्तु वर्षा ऋतु में पर्वो की बहुलता है नामक अष्टम अध्याय में साधु-साध्वियों के वर्षावास सम्बन्धी विशेष जैसे- गुरुपूर्णिमा, रक्षाबन्धन, जन्माष्टमी, ऋषि-पञ्चमी, गणेश चतुर्थी, आचार-नियमों का उल्लेख है। अत: इस सन्दर्भ में पज्जोसवण का अनन्त चतुर्दशी, श्राद्ध, नवरात्र, दशहरा, दीपावली आदि-आदि। वर्षा अर्थ वर्षावास होता है। ऋतु का जैन-परम्परा का प्रसिद्ध पर्व पर्युषण है। जैन-परम्परा में पर्वो (२) निशीथ में इस शब्द का प्रयोग एक दिन विशेष के को दो भागों में विभाजित किया गया है- एक लौकिक पर्व और अर्थ में हुआ है। उसमें उल्लेख है कि जो भिक्षु ‘पज्जोसवणा' में दूसरा आध्यात्मिक पर्व। पर्युषण की गणना आध्यात्मिक पर्व के रूप किंचित्मात्र भी आहार करता हैं उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है।' में की गई है। इसे पर्वाधिराज कहा गया है। आगमिक साहित्य में इस सन्दर्भ में 'पज्जोसवण' शब्द समग्र वर्षावास का सूचक नहीं हो उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर पर्युषण पर्व का इतिहास दो सहस्र सकता है, क्योंकि यह असम्भव है कि सभी साधु-साध्वियों को चार वर्ष से भी अधिक प्राचीन प्रतीत होता है। यद्यपि प्राचीन आगम-साहित्य मास निराहार रहने का आदेश दिया गया हो। अत: इस सम्बन्ध में में इसकी निश्चित तिथि एवं पर्व के दिनों की संख्या का उल्लेख नहीं पज्जोसवण शब्द किसी दिन विशेष का सूचक हो सकता है, समग्र मिलता है। मात्र इतना ही उल्लेख मिलता है कि भाद्र शुक्ला पञ्चमी वर्षाकाल का नहीं। का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये। वर्तमान में श्वेताम्बर-परम्परा का पुनः यह भी कहा गया है कि जो भिक्षु अपर्युषणकाल में मूर्तिपूजक सम्प्रदाय इसे भाद्र कृष्ण द्वादशी से भाद्र शुक्ल चतुर्थी तक पर्युषण करता है और पर्युषण काल में पर्युषण नहीं करता है, वह तथा स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय इसे भाद्र कृष्ण त्रयोदशी दोषी है। यद्यपि यहाँ 'पज्जोसवण' के एक दिन विशेष और से भाद्र-शुक्ल पञ्चमी तक मानता है। दिगम्बर-परम्परा में यह पर्व वर्षावास दोनों ही अर्थ ग्रहण किये जा सकते हैं। फिर भी इस प्रसङ्ग भाद्र शुक्ल पञ्चमी से भाद्र शुक्ल चतुर्दशी तक मनाया जाता है। उसमें में उसका अर्थ एक दिन विशेष करना ही अधिक उचित प्रतीत इसे दशलक्षण पर्व के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार श्वेताम्बर- होता है। परम्परा में यह अष्ट दिवसीय और दिगम्बर-परम्परा में दश दिवसीय (३) निशीथ में पज्जोसवण का एक अर्थ वर्षावास के लिए स्थित पर्व है। इसके जितने प्राचीन एवं विस्तृत ऐतिहासिक उल्लेख श्वेताम्बर- होना भी है। उसमें यह कहा है कि जो भिक्षु वर्षावास के लिए स्थित परम्परा में प्राप्त हैं, उतने दिगम्बर-परम्परा में नहीं है। यद्यपि दस (वासावासं पंज्जासवियसि) होकर फिर ग्रामानुग्राम विचरण करता है, कल्पों (मुनि के विशिष्ट आचारों) का उल्लेख श्वेताम्बर एवं दिगम्बर वह दोष का सेवन करता है। अत: इस सन्दर्भ में पर्युषण का अर्थ दोनों परम्पराओं में पाया जाता है। इन कल्पों में एक 'पज्जोसवणकप्प' वर्षावास बिताने हेतु किसी स्थान पर स्थित रहने का संकल्प कर लेना (पर्युषण कल्प) भी है। श्वेताम्बर-परम्परा के बृहद्-कल्प भाष्य' में, है अर्थात् अब मैं चार मास तक इसी स्थान पर रहूँगा ऐसा निश्चय दिगम्बर-परम्परा के मूलाचार में और यापनीय-परम्परा के ग्रन्थ भगवती. कर लेना है। ऐसा लगता है कि पर्युषण वर्षावास के लिए एक स्थान आराधना' में इन दस कल्पों का उल्लेख है। किन्तु इन ग्रन्थों की पर स्थिति हो जाने का एक दिन विशेष था- जिस दिन श्रमण-संघ अपेक्षा भी अधिक प्राचीन श्वेताम्बर छेदसूत्र-आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) को उपवासपूर्वक केश-लोच, वार्षिक प्रतिक्रमण (सांवत्सरिक प्रतिक्रमण) तथा निशीथ में 'पज्जोसवण' का उल्लेख है। आयारदशा के आठवें और पज्जोसवणाकप्प का पाठ करना होता था। कल्प का नाम ही पर्युषण कल्प है, जिसके आधार पर ही आगे चलकर कल्पसूत्र की रचना हुई है और जिसका आज तक पर्युषण के दिनों पर्युषण के पर्यायवाची अन्य नाम - में वाचन होता है।
“पर्युषण' के अनेक पर्यायवाची नामों का उल्लेख निशीथभाष्य
(३१३९) तथा कल्पसूत्र की विभिन्न टीकाओं में उपलब्ध होता है। पर्युषण (पज्जोसवण) शब्द का अर्थ
इसके कुछ प्रसिद्ध पर्यायवाची शब्द निम्न हैं- पज्जोसमणा ___ आयारदशा एवं निशीथ आदि आगम-ग्रन्थों में पर्युषण शब्द (पर्युपशमना), परिवसणा (परिवसना), पज्जूसणो (पर्युषण), वासावास के मूल प्राकृत रूप पज्जओसवण शब्द का प्रयोमें भी अनेक अर्थों में (वर्षावास) पागइया (प्राकृतिक), पढमसमोसरण (प्रथम समवसरण), हुआ है। निम्न पंक्तियों में हम उसके इन विभित्र अर्थों पर विचार परियायठवणा (पर्यायस्थापना), ठवणा (स्थापना), जट्ठोवग्ग (ज्येष्ठावग्रह)। करेंगे।
इसके अतिरिक्त वर्तमान में अष्टाह्निक पर्व या अठाई महोत्सव नाम (१) श्रमण के दस कल्पों में एक कल्प ‘पज्जोसवणकल्प' है। भी प्रचलित है। इन पर्यायवाची नामों से हमें पर्युषण के वास्तविक पज्जोसवणकप्प का अर्थ है- वर्षावास में पालन करने योग्य आचार स्वरूप का भी बोध हो जाता है। Harioritamidstarriorsardarodaiduodaividnia-[११७-ordinidadridabrdashiadrinidaditidindiadioardar
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यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारपज्जोसमणा (पर्युपशमना)
पढमसमोसरण (प्रथम समवसरण) पज्जोसमणा शब्द की व्युत्पत्ति परि+उपशमन से भी की जाती प्राचीन परम्परा के अनुसार आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को संवत्सर है। परि अर्थात् पूरी तरह से, उपशमन अर्थात् उपशान्त करना। पर्युषण पूर्ण होने के बाद श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से नववर्ष का प्रारम्भ होता पर्व में कषायों की अथवा राग-द्वेष की वृत्तियों को सम्पूर्ण रूप से है। वर्ष का प्रथम दिन होने से इसे पढमसमोसरण (प्रथम समवसरण) क्षय करने हेतु साधना की जाती है, इसलिए उसे पज्जोसमणा कहा गया है। दिगम्बर जैन-परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर के (पर्युपशमना) कहा जाता है।
प्रथम समवसरण की रचना और उसकी वाक्धारा का प्रस्फुटन श्रावण
कृष्णा प्रतिपदा को हुआ था। इसी दिन उन्होंने प्रथम उपदेश दिया पज्जोसवणा/परिवसणा (परिवसना)
था, इसलिए इसे प्रथम समवसरण कहा जाता है। वर्तमानकाल में भी कुछ आचार्य पज्जोसवण की व्युत्पत्ति परि+उषण से भी करते चातुर्मास में स्थिर होने के पश्चात् चातुर्मासिक प्रवचनों का प्रारम्भ श्रावण हैं। उषण धातु वस् अर्थ में भी प्रयुक्त होती है- उषणं वसनं। इस कृष्णा प्रतिपदा से ही माना जाता है। अत: इसे पढमसमोसरण कहा प्रकार पज्जोसवण का अर्थ होगा- परिवसना अर्थात् विशेष रूप से गया है। निशीथ में पर्युषण के लिए 'पढमसमोसरण' शब्द का प्रयोग निवास करना। पर्युषण में एक स्थान पर चार मास के लिए मुनिगण हुआ है। उसमें कहा गया है कि जो साधु प्रथम समवसरण अर्थात् स्थित रहते हैं, इसलिए इसे परिवसना कहा जाता है। परिवसना का श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पश्चात् वस्त्र, पात्र आदि की याचना करता आध्यात्मिक अर्थ पूरी तरह आत्मा के निकट रहना भी है। 'परि' अर्थात् है वह दोष का सेवन करता है। सर्व प्रकार से और 'वसना' अर्थात् रहना- इस प्रकार पूरी तरह से आत्मा में निवास करना या रहना परिवसना है, जो कि पर्युषण के परियायठवणा/परियायवत्यणा (पर्याय स्थापना) आध्यात्मिक स्वरूप को स्पष्ट करता है। इस पर्व की साधना में साधक पर्युषण पर्व में साधु-साध्वियों को उनके विगत वर्ष की संयम बहिर्मुखता का परित्याग कर तथा विषय-वासनाओं से मुँह मोड़कर साधना में हुई स्खलनाओं का प्रायश्चित देकर उनकी दीक्षा पर्याय का आत्मसाधना में लीन रहता है।
पुनर्निर्धारण किया जाता है। जैन-परम्परा में प्रायश्चित के विविध रूपों
में एक रूप छेद भी है। छेद का अर्थ होता है- दीक्षा पर्याय में पज्जूसण (पर्युषण)
कमी करना। अपराध एवं स्खलनाओं की गुरुता के आधार पर विविध 'परि' उपसर्ग और 'उष्' धातु के योग से भी पर्युषण शब्द की कालं की दीक्षा/छेद किया जाता है और साधक की श्रमण-संघ में व्युत्पत्ति मानी जाती है। उष् धातु दहन अर्थ की भी सूचक है। इस ज्येष्ठता और कनिष्ठता का पुनर्निर्धारण होता है, अत: पर्युषण का व्याख्या की दृष्टि से इसका अर्थ होता है सम्पूर्ण रूप से दग्ध करना एक पर्यायवाची नाम परियायठवणा (पर्याय-स्थापना) भी कहा गया अथवा जलना। इस पर्व में साधना एवं तपश्चर्या के द्वारा कर्म रूपी है। साधुओं की दीक्षा पर्याय की गणना भी पर्युषणों के आधार पर मल को अथवा कषाय रूपी मल को दग्ध किया जाता है, इसलिए की जाती है। दीक्षा के बाद जिस साधु को जितने पर्युषण हुए हैं, पज्जूसण (पर्युषण) आत्मा के कर्म एवं कषाय रूपी मलों को जला उसको उतने वर्ष का दीक्षित माना जाता है। यद्यपि पर्यायठवणा के कर उसके शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने का पर्व है।
इस अर्थ की अपेक्षा उपर्युक्त अर्थ ही अधिक उचित है।
वासावास (वर्षावास)
ठवणा (स्थापना) 'पर्युषणाकल्प' में पर्युषण शब्द का प्रयोग वर्षावास के अर्थ में चूँकि पर्युषण (चातुर्मास काल) की अवधि में साधक एक स्थान भी हुआ है। वर्षाकाल में साधु-साध्वी एक स्थान पर स्थित रहकर पर स्थित रहता है इसलिए इसे ठवणा (स्थापना) भी कहा जाता है। पर्युषण कल्प का पालन करते हुए 'आत्मसाधना' करते हैं, इसलिए दूसरे पर्युषण (संवत्सरी) के दिन चातुर्मास की स्थापना होती है, इसलिए इसे वासावास (वर्षावास) भी कहा जाता है।
__ भी इसे ठवणा (स्थापना) कहा गया है।
पागड्या (प्राकृतिक)
. जेंडोवग्ग (ज्येष्ठावग्रह) पागइया का संस्कृत रूप प्राकृतिक होता है। प्राकृतिक शब्द , अन्य ऋतुओं में साधु-साध्वी एक या दो मास से अधिक एक स्वाभाविकता का सूचक है। विभाव अवस्था को छोड़कर स्वभाव अवस्था स्थान पर स्थित नहीं रहते हैं, किन्तु पर्युषण (वर्षाकाल) में चार मास में परिरमण करना ही पर्युषण की साधना का मूल हार्द है। वह विकृति तक एक ही स्थान पर स्थित रहते हैं, इसलिए इसे जेट्ठोवग्ग (ज्येष्ठावग्रह) से प्रकृति में आना है, विभाव से स्वभाव में आना है, इसलिए उसे भी कहा गया है। पागइया (प्राकृतिक) कहा गया है। काम, क्रोध आदि विकृतियों (विकारों) का परित्याग कर क्षमा, शान्ति, सरलता आदि स्वाभाविक गुणों में अष्टाह्निक पर्व रमण करना ही पर्युषण है।
पर्युषण को अष्टाह्निक पर्व या अष्टाह्निक महोत्सव के नाम से
dwordaroridrioranbedivorirbrdwaroordibriuoniahid-6d[११८/Hondinabrdadiurbedrondubeinbediobridwobodrsadnoramidar
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ- जैन साधना एवं आचार
भी जाना जाता है। वर्तमान में यह पर्व आठ दिनों तक मनाया जाता है इसलिए इसे अष्टात्रिक अर्थात् आठ दिनों का पर्व भी कहते हैं।
दशलक्षण पर्व
दिगम्बर- परम्परा में इसका प्रसिद्ध नाम दशलक्षण पर्व है। दिगम्बरपरम्परा में भाद्र शुक्ल पञ्चमी से भाद्र शुक्ल चतुर्दशी तक दश दिनों में, धर्म के दस लक्षणों की क्रमशः विशेष साधना की जाती है, इसे दशलक्षण पर्व कहते हैं।
अतः
पर्युषण (संवत्सरी) पर्व कब और क्यों?
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प्राचीन प्रन्थों विशेष रूप से कल्पसूत्र एवं निशीथ के देखने से यह स्पष्ट होता है कि पर्युषण मूलतः वर्षावास की स्थापना का पर्व था। यह वर्षावास की स्थापना के दिन मनाया जाता था। उपवास, केशलोच, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण एवं प्रायचित क्षमायाचना (कषायउपशमन) और पज्जोसवणाकप्प (पर्युषण कल्पकल्पसूत्र) का पारायण उस दिन के आवश्यक कर्तव्य थे। इस प्रकार पर्युषण एक दिवसीय पर्व था । यद्यपि निशीथचूर्णि के अनुसार पर्युषण के अवसर पर तेला (अष्टम भक्त=तीन दिन का उपवास) करना आवश्यक था। उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि 'पज्जोसवणाए अट्ठम न करेइ तो चउगुरु' अर्थात् जो साधु पर्युषण के अवसर पर तेला नहीं करता है तो उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है। " इसका अर्थ है कि पर्युषण की आराधना का प्रारम्भ उस दिन के पूर्व भी हो जाता था। जीवाभिगमसूत्र के अनुसार पर्युषण एक अठाई महोत्सव (अष्ट दिवसीय पर्व) के रूप में मनाया जाता था। उसमें उल्लेख है कि चातुर्मासिक पूर्णिमाओं एवं पर्युषण के अवसर पर देवतागण नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव मनाया करते हैं। " दिगम्बर- परम्परा में आज भी आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन की पूर्णिमाओं (चातुर्मासिक पूर्णिमाओं) के पूर्व अष्टाह्निक पर्व मनाने की प्रथा है। लगभग आठवीं शताब्दी से दिगम्बर- साहित्य में इसके उल्लेख मिलते हैं। प्राचीनकाल में पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता था और उसके साथ ही अष्टाह्निक महोत्सव भी होता था। हो सकता है कि बाद में जब पर्युषण भाद्र शुक्ल चतुर्थी / पञ्चमी को मनाया जाने लगा तो उसके साथ भी अष्ट-दिवस जुड़े रहे और इसप्रकार वह अष्ट दिवसीय पर्व बन गया।
वर्तमान में पर्युषण पर्व का सबसे महत्त्वपूर्ण दिन संवत्सरी पर्व माना जाता है। समवायानसूत्र के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास और बीस रात्रि पश्चात् भाद्रपद अर्थात् शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर लेना चाहिये। निशीथ के अनुसार पचासवीं रात्रि का उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये। उपवासपूर्वक सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना, श्रमण का आवश्यक कर्तव्य तो था ही, लेकिन निशीथचूर्णि में उदयन और चण्डप्रद्योत के आख्यान से ऐसा लगता है कि वह गृहस्थ के लिए भी अपरिहार्य था। लेकिन मूल प्रश्न यह है कि यह सांवत्सरिक पर्व कब किया जाय ? सांवत्सरिक पर्व के दिन समय वर्ष के अपराधों और भूलों का प्रतिक्रमण करना होता है, अतः
इसका समय वर्षान्त ही होना चाहिये । प्राचीन परम्परा के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को वर्ष का अन्तिम दिन माना जाता था । श्रावण बदी प्रतिपदा से नव वर्ष का आरम्भ होता था। भाद्र शुक्ल चतुर्थी या पश्चमी को किसी भी परम्परा (शास्त्र) के अनुसार वर्ष का अन्त नहीं होता । अतः भाद्र शुक्ल पञ्चमी को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की वर्तमान परम्परा समुचित प्रतीत नहीं होती। प्राचीन आगमों में जो देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का उल्लेख है, उसको देखने से ऐसा लगता है कि उस अवधि के पूर्ण होने पर ही तत् सम्बन्धी प्रतिक्रमण (आलोचना) किया जाता था। जिस प्रकार आज भी दिन की समाप्ति पर देवसिक, पक्ष की समाप्ति पर पाक्षिक, चातुर्मास की समाप्ति पर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है, उसी प्रकार वर्ष की समाप्ति पर सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाना चाहिये । प्रश्न होता है कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की यह तिथि भिन्न कैसे हो गई? निशीथचूर्णि में जिनदासगणि ने स्पष्ट लिखा है कि पर्युषण पर्व पर वार्षिक आलोचना करनी चाहिये। (पज्जोसवनासु वरिसिया आलोयणा दायिवा)। चूँकि वर्ष की समाप्ति आषाढ़ पूर्णिमा को ही होती है, इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण अर्थात् सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। निशीयभाष्य में स्पष्ट उल्लेख है— आषाढ़ पूर्णिमा को ही पर्युषण करना उत्सर्ग सिद्धान्त है।
सम्भवत: इस पक्ष के विरोध में समवायाङ्ग और आयारदशा ( दशाश्रुतस्कन्ध) के उस पाठ को प्रस्तुत किया जा सकता है जिसके अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के एक मास और बीस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर पर्युषण करना चाहिए। चूँकि कल्पसूत्र के मूल पाठ में यह भी लिखा हुआ है कि श्रमण भगवान् महावीर ने आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास और बीस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर वर्षावास (पर्युषण) किया था उसी प्रकार गणधरों ने किया स्थविरों ने किया और उसी प्रकार वर्तमान श्रमण निर्मन्थ भी करते हैं। निश्चित रूप से यह कथन भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण करने के पक्ष में सबसे बड़ा प्रमाण है। लेकिन हमें यह विचार करना होगा कि क्या यह अपवाद-मार्ग था या उत्सर्ग मार्ग था? यदि हम कल्पसूत्र के उसी पाठ को देखें तो उसमें यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि इसके पूर्व तो पर्युषण एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना कल्पता है, किन्तु वर्षा ऋतु के एक मास और बीस रात्रि का अतिक्रमण करना नहीं कल्पता है- 'अंतरा वि य कप्प (पज्जोसवित्तए) नो से कप्पड़ तं स्यणि उवाइणा वित्तए।' निशीथचूर्णि में और कल्पसूत्र की टीकाओं में भाद्र शुक्ल चतुर्थी को पर्युषण या संवत्सरी करने का कालक आचार्य की कथा के साथ जो उल्लेख है वह भी इस बात की पुष्टि करता है कि भाद्र शुक्ल पञ्चमी के पूर्व तो पर्युषण किया जा सकता है किन्तु उस तिथि का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। निशीवचूर्णि में स्पष्ट लिखा है कि 'आसाद पूर्णिमाए पज्जोसेवन्ति एस उसग्गो सेस कालं पज्जोसेवन्ताणं अववातो अवताते वि सबीससतिरातमासात परेण अतिकम्मेण वदृति सवसतिराते मासे पुण्णे जति वासखेतं लब्भति तो रूक्ख हेावि पज्जोसवेयव्वं तं पुण्णमाए पश्चमीए दसमीए एवमाहि पव्वेसु
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारपज्जुसवेयव्वं नो अपवेसुर२ अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण करना अवधारणा से दक्षिण भारत में विकसित दिगम्बर-परम्परा अपरिचित यह उत्सर्ग-मार्ग है और अन्य समय में पर्युषण करना अपवाद-मार्ग होती गई। मूलाचार में मुनिलिङ्ग प्रसङ्ग में दस कल्प सम्बन्धी जिस है। अपवाद मार्ग में भी एक मास और २० दिन अर्थात् भाद्र शुक्ल गाथा का उल्लेख हुआ है, उसे देखने से ज्ञात होता है कि अचेलता पञ्चमी का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये। यदि भाद्र शुक्ल पञ्चमी की पुष्टि के लिए ही उस गाथा को बृहद्-कल्प-भाष्य से या अन्यत्र तक भी निवास के योग्य स्थान उपलब्ध न हो तो वृक्ष के नीचे पर्युषण कहीं से ग्रहण किया गया है। इसकी परवर्ती गाथाओं में मयूरपिच्छि कर लेना चाहिये। अपवाद-मार्ग में भी पञ्चमी, दशमी, अमावस्या एवं आदि का विवेचन है। यदि यह गाथा मूलाचार का अङ्ग होती तो उसमें पूर्णिमा इन पर्व तिथियों में ही पर्युषण करना चाहिए, अन्य तिथियों इसके बाद क्रमश: दस कल्पों का विवेचन होना चाहिए था। जबकि में नहीं। इस बात को लेकर निशीथभाष्य एवं चूर्णि में यह प्रश्न उठाया इसकी पूर्ववर्ती गाथा अचेलता का वर्णन करती है और परवर्ती गाथाएँ गया है कि भाद्र शुक्ल चतुर्थी को अपर्व तिथि में पर्युषण क्यों किया मयूरपिच्छिका का। आश्चर्य यह भी है कि मूलाचार के टीकाकार आचार्य जाता है? इस सन्दर्भ में उसमें कालक आचार्य की कथा दी गयी है। वसुनन्दी शय्यातर एवं पज्जोसवण नामक कल्पों के मूलभूत अर्थों से कथा इस प्रकार है- कालक आचार्य विचरण करते हुए वर्षावास भी परिचित नहीं हैं। उन्होंने पज्जोसवण कल्प का अर्थ तीर्थङ्करों के . हेतु उज्जयिनी पहुंचे। किन्तु किन्हीं कारणों से राजा रुष्ट हो गया, पञ्च-कल्याणक स्थानों की पर्युपासना किया है (पज्जो-पर्या पर्युपासनं अत: कालक आचार्य ने वहाँ से विहार करके प्रतिष्ठानपुर की ओर निषधकाया: पञ्च-कल्याण स्थानानां च सेवनं पर्येत्युच्यते श्रमणस्य . प्रस्थान किया और वहाँ श्रमण-संघ को आदेश भिजवाया कि जब श्रामणस्य वा कल्पो विकल्प: श्रमण कल्प:- मूलाचार, भाग २, तक हम नहीं पहुँचते हैं तब तक आप लोग पर्युषण न करें। वहाँ । पृ.१०५) पज्जोसवणा में आये हुए 'सवणा' का पाठान्तर 'समणा' का सातवाहन राजा श्रावक था, उसने कालक आचार्य को सम्मान के कर 'श्रमण' अर्थ किया है जो कि यथार्थ नहीं है ऐसा लगता है कि साथ नगर में प्रवेश कराया। प्रतिष्ठानपुर पहुँचकर आचार्य ने घोषणा दिगम्बर आचार्य पज्जोसवणाकप्प के मूल अर्थ से परिचित नहीं थे। की कि भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण करेंगे। यह सुनकर राजा ने यापनीय शिवार्य की भगवती-आराधना में भी इन्हीं दस कल्पों का निवेदन किया कि उस दिन नगर में इन्द्रमहोत्सव होगा। अत: आप विवेचन करने वाली गाथा है। किन्तु यहाँ पर यह गाथा ग्रन्थ का मूल भाद्र शुक्ल षष्ठि को पर्युषण कर.लें। किन्तु आचार्य ने कहा कि शास्त्र अङ्ग है, क्योंकि आगे और पीछे की गाथाओं में भी कल्प का विवेचन के अनुसार पञ्चमी का अतिक्रमण करना कल्प्य नहीं है। इस पर राजा है। इसके टीकाकार अपराजित. सूरि ने इस गाथा की बहुत ही विस्तृत ने कहा कि फिर आप भाद्र शुक्ल चतुर्थी को ही पर्युषण करें। आचार्य टीका लिखी है और प्रत्येक कल्प का वास्तविक अर्थ स्पष्ट किया ने इस बात की स्वीकृति दे दी और श्रमण-संघ ने भाद्र शुक्ल चतुर्थी है। यही नहीं, उन्होंने इस सम्बन्ध में आगमों (श्वेताम्बर आगमों) के को पर्युषण किया।१३
सन्दर्भ भी प्रस्तुत किये हैं। यह स्वाभाविक भी था, क्योकि यापनीय यहाँ ऐसा लगता है कि आचार्य लगभग भाद्र कृष्ण पक्ष के अन्तिम आचार्य आगमिक साहित्य को मान्य करते थे। अपराजित सूरि ने दिनों में ही प्रतिष्ठान पर पहुँचे थे और भाद्र कृष्ण अमावस्या को पर्युषण पज्जोसवणाकप्प का अर्थ वर्षावास के लिए एक स्थान पर स्थित रहना करना सम्भव नहीं था। यद्यपि वे अमावस्या के पूर्व अवश्य ही प्रतिष्ठानपुर ही किया जो श्वेताम्बर-परम्परा से मूल अर्थ के अधिक निकट है। पहँच चुके थे, क्योकि निशीथचूर्णि में यह भी लिखा है कि राजा उन्होंने चातुर्मास का उत्सर्गकाल एक सौ बीस दिन बतलाया है, साथ ने श्रावकों को आदेश दिया कि तुम लोग भाद्र कृष्ण अमावस्या को ही यह भी बताया है कि यदि साधु आषाढ़ शुक्ल दशमी को चातुर्मास पाक्षिक उपवास करना और भाद्र शुक्ल प्रतिपदा को विविध पकवानों स्थल पर पहुँच गया है तो वह कार्तिक पूर्णिमा के पश्चात् तीस दिन के साथ पारणे के लिए मुनिसंघ को आहार प्रदान करना। चूँकि और ठहर सकता है। अपराजित सूरि के अनुसार अपवाद काल सौ शास्त्र-आज्ञा के अनुसार सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के पूर्व तेला करना दिनों का होता है। यहाँ श्वेताम्बर-परम्परा से उनका भेद स्पष्ट होता होता था, अतः भाद्र शुक्ल द्वितीया से चतुर्थी तक श्रमण संघ ने तेला है, क्योकि श्वेताम्बर-परम्परा में अपवाद काल भाद्र शुक्ल पंचमी से किया। भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पारणा किया। जनता ने आहार-दान कार्तिक पूर्णिमा तक सत्तर दिन का ही है। इस प्रकार वे यह मानते कर श्रमण संघ की उपासना की। इसी कारण महाराष्ट्र देश में भाद्र हैं कि उत्सर्ग रूप में तो आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को और अपवाद रूप शुक्ल पञ्चमी श्रमण-पूजा नाम से भी प्रचलित है। यह भी सम्भव में उसके बीस दिन पश्चात् तक भी पर्युषण अर्थात् वर्षावास की स्थापना है कि इसी आधार पर हिन्दू परम्परा में ऋषि पञ्चमी का विकास हुआ है। कर लेनी चाहिये। इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा के आगमिक आधारों
पर आषाढ़ पूर्णिमा ही पर्युषण को उत्सर्ग तिथि ठहरती है। आज भी पर्युषण/दशलक्षण और दिगम्बर-परम्परा
दिगम्बर-परम्परा में वर्षायोग की स्थापना के साथ अष्टाह्निक पर्व मनाने जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया कि दिगम्बर-ग्रन्थ मूलाचार की जो प्रथा है वही पर्युषण के मूल हार्द के साथ उपयुक्त लगती है। के समयसाराधिकार की ११८वी गाथा में और यापनीय-संघ के ग्रन्थ जहाँ तक दशलक्षण पर्व के इतिहास का प्रश्न है वह अधिक भगवती-आराधना की ४२३वीं गाथा में दस कल्पों के प्रसङ्ग में पर्युषण पुराना नहीं है। मुझे अब तक किसी प्राचीन ग्रन्थ में इसका उल्लेख
कल्प का उल्लेख हुआ है। किन्तु ऐसा लगता है कि पर्युषण की मूलभूत देखने को नहीं मिला है। यद्यपि १७वीं शताब्दी की एक कृति व्रतansantrationsansanasiasanansantanssional professionis m embransansaniambia
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारतिथिनिर्णय में यह उल्लेख अवश्य है कि दशलाक्षणिक व्रत में भाद्रपद कुछ व्यक्ति यह तर्क उठाते हैं कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण आषाढ़ी पूर्णिमा की शुक्ल पञ्चमी को प्रोषध करना चाहिए। इससे पर्व का भी मुख्य को ही करना चाहिए। यही वर्ष का अन्तिम दिन है। भाद्रपद शुक्ल दिन यही प्रतीत होता है। 'क्षमाधर्म' आराधना का दिन होने से भी पञ्चमी को जैन-ज्योतिष की दृष्टि से तथा अन्य किसी भी दृष्टि से यह श्वेताम्बर-परम्परा की संवत्सरी-पर्व की मूल भावना के अधिक निकट वर्ष का न अन्तिम दिन है और न प्रारम्भिक दिन। बैठता है। आशा है दिगम्बर-परम्परा के विद्वान् इस पर अधिक प्रकाश इसका समाधान यह है कि यद्यपि आषाढ़ पूर्णिमा संवत्सर का डालेंगे।
अन्तिम दिन माना गया है, किन्तु शास्त्र में जो पर्युषण का विधान इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा में भी पर्युषण का उत्सर्गकाल आषाढ़ है वह आषाढ़ पूर्णिमा से पचास दिन के भीतर किसी पर्व-तिथि अर्थात् पूर्णिमा और अपवादकाल भाद्र शुक्ल पञ्चमी माना जा सकता है। पञ्चमी, दशमी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि में मनाने का है। निर्दोष
स्थान आदि की प्राप्ति न हो तो भी आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास समन्वय कैसे करें?
और बीस दिन बीत जाने पर तो अवश्य ही मनाना होता है। इस उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आषाढ़ पूर्णिमा पर्युषण (संवत्सरी) दृष्टि से देखें तो आषाढ़ पूर्णिमा से पचासवाँ दिन एक निश्चित दिन पर्व की अपर सीमा है और भाद्र शुक्ल पञ्चमी अपर सीमा है। इस है, इस दिन पर्युषण निश्चित रूप से करना ही होता है। इस दिन प्रकार पर्युषण इन दोनों तिथियों के मध्य कभी भी पर्व-तिथि में किया का उल्लङ्घन करने पर प्रायश्चित्त आता है, अर्थात् अन्य सभी विकल्प जा सकता है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार आषाढ़ के दिनों को पार कर लेने के बाद पचासवाँ दिन निर्विकल्पक दिन पूर्णिमा को केशलोच, उपवास एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर वर्षावास है, अत: इस दिन का सबसे अधिक महत्त्व है। यह सीमा का वह की स्थापना कर लेनी चाहिये, यह उत्सर्ग-मार्ग है। यह भी स्पष्ट है अन्तिम पत्थर है जिसका उल्लङ्घन नहीं किया जा सकता। आचार्यों कि बिना किसी विशेष कारण के अपवाद-मार्ग का सेवन करना भी ने इसी दिन को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का दिन स्वीकार कर दूरदर्शिता उचित नहीं है। प्राचीन युग में जब उपाश्रय नहीं थे तथा साधु साध्वियों का परिचय दिया है, साथ ही समस्त श्रमण-संघ को एकसूत्र में बाँधे के निमित्त बने उपाश्रयों में नहीं ठहरते थे, तब योग्य स्थान की प्राप्ति रखने का भी एक सुन्दर मार्ग दिखाया है। बीच के दिन तो अपनी-अपनी के अभाव में पर्युषण (वर्षावास की स्थापना) कर लेना सम्भव नहीं सुविधा के दिन हो सकते हैं, जिस दिन जहाँ पर जिसको स्थान आदि था। पुनः साधु-साध्वियों की संख्या अधिक होने से आवास-प्राप्ति की सुविधा मिले वह उसी पर्व-तिथि (पञ्चमी-दशमी-पूर्णिमा आदि) सम्बन्धी कठिनाई बराबर बनी रहती थी। अत: अपवाद के सेवन की को पर्युषण कर ले तो इससे सङ्घ में बहुरूपता आ जाती है, विभिन्नता -सम्भावना अधिक बनी रहती थी। स्वयं भगवान् महावीर को भी स्थान आती है, फिर मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिना वाली स्थिति आ सकती है, इसलिए सम्बन्धी समस्या के कारण वर्षाकाल में विहार करना पड़ा था। भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा से पचासवें दिन पर्युषण निशीथचूर्णि की रचना तक अर्थात् सातवीं-आठवीं शताब्दी तक करने अर्थात् सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने का निश्चित विधान है, जो साधु-साध्वी स्थान की उपलब्धि होने पर अपनी एवं स्थानीय संघ की सङ्घ की एकता और श्रमण-सङ्घ की अनुशासनबद्धता के लिए भी सुविधा के अनुरूप आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा से भाद्र शुक्ल पञ्चमी तक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है"।१६ कभी भी पर्युषण कर लेते थे। यद्यपि उस युग तक चैत्यवासी साधुओं यदि सम्पूर्ण जैन समाज की एकता की दृष्टि से विचार करें तो ने महोत्सव के रूप में पर्व मनाना तथा गृहस्थों के समक्ष कल्पसूत्र आज साधु-साध्वी वर्ग को स्थान उपलब्ध होने में सामान्यतया कोई का वाचन करना एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना आदि आरम्भ कर कठिनाई नहीं होती है। आज सभी परम्परा के साधु-साध्वी आषाढ़ दिया था, किन्तु तब भी कुछ कठोर आचारवान साधु थे, जो इसे पूर्णिमा को वर्षावास की स्थापना कर लेते हैं और जब अपवाद का आगमानुकूल नहीं मानते थे। उन्हीं को लक्ष्य में रखकर चूर्णिकार ने कोई कारण नहीं है तो फिर अपवाद का सेवन क्यों किया जाये? कहा था- यद्यपि साधु को गृहस्थों के सम्मुख पर्युषण कल्प का वाचन दूसरे भाद्रपद शुक्ल पक्ष में पर्युषण | संवत्सरी करने से जो अपकाय नहीं करना चाहिए, किन्तु यदि पासत्था (चैत्यवासी-शिथिलाचारी और त्रस की विराधना से बचने के लिए संवत्सरी के पूर्व केशलोच साधु) पढ़ता है तो सुनने में कोई दोष नहीं है। लगता है कि आठवीं का विधान था उसका कोई मूल उद्देश्य हल नहीं होता है। वर्षा में शताब्दी के पश्चात् कभी संघ की एकरूपता को लक्ष्य में रखकर किसी बालों के भीगने से अपकाय की विराधना और त्रस जीवों के उत्पत्ति प्रभावशाली आचार्य ने अपवादकाल की अन्तिम तिथि भाद्र शुक्ल की सम्भावना रहती है। अत: उत्सर्ग मार्ग के रूप आषाढ़ पूर्णिमा चतुर्थी/पञ्चमी को पर्युषण (संवत्सरी) मनाने का आदेश दिया हो। को संवत्सरी/पर्युषण करना ही उपयुक्त है, इसमें आगम से कोई विरोध युवाचार्य मिश्रीमलजी म. ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। वे भी नहीं है और समग्र जैन समाज की एकता भी बन सकती है। साथ लिखते हैं कि “सामान्यत: संवत्सर का अर्थ है- वर्ष। वर्ष के अन्तिम .ही दो श्रावण या दो भाद्रपद का विवाद भी स्वाभाविक रूप से हल दिन किया जाने वाला कृत्य सांवत्सरिक कहलाता है। वैसे जैन-परम्परा हो जाता है। के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को संवत्सर समाप्त होता है, और श्रावण यदि अपवाद-मार्ग को ही स्वीकार करना है तो फिर अपवाद-मार्ग प्रतिपदा (श्रावण बदी १) को नया संवत्सर प्रारम्भ होता है। इसलिए के अन्तिम दिन भाद्र शुक्ल पञ्चमी को स्वीकार किया जा सकता है। इस
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - जैन साधना एवं आचारदिन को स्थानकवासी और तेरापंथी समाज तो मानता ही है, मूर्तिपूजक शिथिलाचार प्रविष्ट हो गया हो, अत: जनसाधारण के समक्ष मुनि-आचार समाज को भी इसमें आगमिक दृष्टि से कोई बाधा नहीं आती है, क्योंकि का विवेचन करना उचित नहीं समझा जाता हो। इस निषेध का एक कालकाचार्य की भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी की व्यवस्था अपवादिक व्यवस्था तात्पर्य यह भी हो सकता है कि पर्युषण-कल्प की आवृत्ति के साथ थी और एक नगर विशेष की परिस्थिति विशेष पर आधारित थी। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के अवसर पर साधुओं को उनके विगत वर्ष आज चूँकि उसका कोई कारण नहीं, पुन: स्वयं निशीथचूर्णि के अनुसार के अतिचारों या दोषों का प्रायश्चित्त भी दिया जाता रहा हो। अन्य तैर्थिकों चतुर्थी अपर्व-तिथि है; अत: आषाढ़ पूर्णिमा और भाद्र शुक्ल पञ्चमी या गृहस्थों के उपस्थित रहने पर प्रथम तो साधु अपने अपराधों या में से किसी एक दिन को पर्व का मूल दिन चुन लिया जाये। शेष दोषों को स्वीकार ही नहीं करेंगे, साथ ही सबके समक्ष दण्ड दिये जाने दिन उसके आगे हो या पीछे, यह अधिक महत्त्व नहीं रखता है- पर उनकी बदनामी होगी। अत: सांवत्सरिक प्रतिक्रमण और पर्युषण-कल्प सुविधा की दृष्टि से उन पर एक आम सहमति बनाई जा सकती है। का जनता के समक्ष वाचन पहले निषिद्ध था। किन्तु कालान्तर में उस
समाचारी (आचार सम्बन्धी भाग) को गौण करके तथा उसमें कथा पर्युषण में पठनीय आगम-ग्रन्थ
भाग, इतिहास को जोड़कर गृहस्थों के समक्ष उसके पठन की परम्परा वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में पर्युषण में कल्पसूत्र- प्रचलित हो गई, जो कि आज १५०० वर्षों से निरन्तर प्रचलित है। वाचन की परम्परा है। पहले पर्युषण (संवत्सरी) के दिन साधुगण रात्रि श्वेताम्बर-समाज की स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में के प्रथम प्रहर में दशाश्रुतस्कन्ध (आयारदशा) के आठवें अध्ययन पर्युषण कल्पसूत्र के स्थान पर अन्तकृत्दशाङ्गसूत्र के वाचन की प्रथा है। इसका कल्प का पारायण करते थे, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने वर्तमान कल्पसूत्र प्रारम्भ स्थानकवासी परम्परा के उद्भव के साथ ही हुआ है। अत: का प्राचीनतम अंश बताया है। कालान्तर में इस अध्याय को उससे यह प्रथा ४०० वर्ष से अधिक पुरानी नहीं है। यद्यपि मूल कल्पसूत्र अलग कर तथा उसके साथ महावीर, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ऋषभ में ऐसा कुछ नहीं है जो स्थानकवासी परम्परा के प्रतिकूल हो, फिर के जीवनवृत्तों एवं अन्य तीर्थङ्करों के सामान्य उल्लेखों तथा स्थविरावली भी इस नवीन प्रथा का प्रारम्भ क्यों हुआ यह विचारणीय है। प्रथम (महावीर से परवर्ती आचार्य परम्परा) को जोड़कर कल्पसूत्र नामक स्वतन्त्र कारण तो यह हो सकता है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा से अपनी ग्रन्थ की रचना की गई, जो कि लगभग पन्द्रह सौ वर्षों से पर्युषण भिन्नता रखने के लिए इसका वाचन प्रारम्भ किया गया हो। दूसरे इसे पर्व में पढ़ा जाता है। पर्युषण के अवसर पर जनसाधारण के समक्ष इसलिए चुना गया हो कि पर्युषण के आठ दिन माने गये थे और कल्पसूत्र पढ़ने की परम्परा का प्रारम्भ वीर-निर्वाण के ९८० या ९९३ यह अष्टम अङ्ग था तथा इसमें आठ ही वर्ग थे। तीसरे यह कि कल्पसूत्र वर्ष के बाद आनन्दपुर नगर में ध्रुवसेन राजा के समय हुआ था। की अपेक्षा भी इसमें तप-त्याग की विस्तृत चर्चा थी, जो आडम्बरजनसाधारण के समक्ष पढ़ने के उद्देश्य से ही इसमें तीर्थङ्करों के जीवन- रहित तप-त्यागमय आचार प्रधान स्थानकवासी परम्परा के लिए अधिक चरित्रों का समावेश किया गया था क्योकि उस समय तक हिन्दुओं अनुकूल थी। चौथे कल्पसूत्र का जिन टीकाओं के साथ वाचन हो और बौद्धों में भी अपने उपास्य देवों के जीवन-चरित्रों को जनसाधारण रहा था, उनमें मूर्तिपूजा आदि सम्बन्धी ऐसे प्रसङ्ग थे जिनका वाचन के समक्ष पढ़ने की प्रथा प्रारम्भ हो चुकी थी और जैन आचार्यों के करना उनके लिए सम्भव नहीं था। अत: उन्हें एक नये आगम का लिए भी यह आवश्यक हो गया था कि वे भी अपने उपास्य तीर्थङ्करों चुनाव ही अधिक उपयुक्त लगा हो। अन्तकृत्दशाङ्गसूत्र में प्रथम पाँच का जीवनवृत्त अपने अनुयायियों को बतायें। ध्रुवसेन के पुत्रशोक को वर्गों में भगवान् अरिष्टनेमि के काल के ४१ त्यागी पुरुषों एवं १० दूर करने का कथानक इस परम्परा के प्रारम्भ होने का एक निमित्त महिलाओं का जीवनवृत्त है। शेष तीन वर्गों में महावीरकालीन १६ माना जा सकता है, किन्तु उसका मूल कारण तो उपर्युक्त तत्कालीन त्यागी पुरुषों एवं २३ महिलाओं का जीवनवृत्त है, जिन्होंने साधना परिस्थिति ही थी। यद्यपि इसके पूर्व भी 'पर्युषण-कल्प' की आवृत्ति के उत्तुङ्ग शिखरों पर चढ़कर तथा देहभाव से ऊपर उठकर कठोर पर्युषण (संवत्सरी) के दिन मुनिवर्ग सामूहिक रूप से करता था, तथापि तपश्चर्याएँ की और अपने अन्तिम समय में कैवल्य को प्राप्त कर मोक्षरूपी निशीथ के अनुसार उसका गृहस्थों के सामने वाचन निषिद्ध था। निशीथ लक्ष्मी का वरण किया। सूत्र में मुनियों को गृहस्थों एवं अन्य तैर्थिकों के साथ पर्युषण करने दिगम्बर-परम्परा में इन दशलक्षणपर्व के दिनों में तत्त्वार्थसूत्र के का चातुर्मासिक प्रायश्चित्त (अर्थात् १२० दिन के उपवास का दण्ड) दस अध्यायों के वाचन की परम्परा रही है, जो दिन की संख्या के बताया गया है-जे भिक्खू अण्णउत्थिएणवा गारत्थिएणवा पज्जोसवेइ साथ सङ्गतिपूर्ण है। तत्त्वार्थसूत्र जैन-तत्त्वज्ञान का साररूप ग्रन्थ होने पज्जोसवंतं वा साइज्जइ-निशीथ (१०/४७)। सम्भवतः यह निषेध से पर्व के दिन में इसका वाचन उपयुक्त ही है। इसी प्रकार दस धर्मों इसलिए किया गया था कि पर्युषण-कल्प का वाचन गृहस्थों एवं अन्य पर प्रवचन भी नैतिक चेतना के जागरण की दृष्टि से उचित है। तैर्थिकों के समक्ष करने पर उन्हें मुनि के वर्षावास सम्बन्धी आचार- यद्यपि विभिन्न परम्पराओं में पर्युषण में पठनीय ग्रन्थों में से किसी नियमों की जानकारी हो जायेगी और किसी को उसके विपरीत आचरण का भी महत्त्व कम नहीं है, किन्तु जैन-सङ्घ की एकात्मकता की दृष्टि करते देखकर वे उसकी आलोचना करेंगे, इससे सङ्घ की बदनामी होगी। से किसी समणसुत्तं जैसे सर्वमान्य ग्रन्थ के वाचन की परम्परा भी प्रारम्भ यह भी सम्भव है निशीथ की रचना के समय तक मुनि-जीवन में की जा सकती है।
तक चेतना के बा में पठनीय ग्रन्याता की दृष्टि
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारपर्युषण (संवत्सरी) के आवश्यक कर्तव्य
श्रमण, श्रमणी, श्रावक एवं श्राविका सभी के लिए यह आवश्यक है। १. तप/संयम
निशीथ के अनुसार पर्युषण के दिन कणमात्र भी आहार करना ३. कषायों का उपशमन/क्षमायाचना वर्जित था।" निशीथभाष्य में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो जैन-साधना निर्ग्रन्थ भाव की साधना है, जीवन से काम-क्रोध साधु पक्खी को उपवास, चौमासी को बेला और पज्जोसवण (संवत्सरी) की गाँठों का विसर्जन है, राग-द्वेष से ऊपर उठना है। चाहे श्रावकत्व को तेला नहीं करता है, उसे क्रमश: मासगुरु, चतुर्लघु और चतुर्गुरु हो या श्रमणत्व इसी बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति की क्रोध, का प्रायश्चित्त आता है। यद्यपि चूर्णि में यह मान लिया गया है कि अहङ्कार, कपट और लोभ की वृत्तियाँ शिथिल हों। मन तृष्णा एवं किसी परिस्थति विशेष के कारण पर्युषण में आहार करता हुआ भी आसक्ति के तनावों से मुक्त हो। पर्युषण इन्हीं की साधना का पर्व शुद्ध है।८ साधु-साध्वी वर्ग के साथ ही श्रावकवर्ग में पर्युषण (संवत्सरी) है। कल्पसूत्र में कहा गया है- यदि क्लेश उत्पन हुआ हो तो साधु में उपवास करने की परम्परा थी। निशीथचूर्णि में चण्डप्रद्योत और क्षमायाचना कर ले। क्षमायाचना करना, क्षमा प्रदान करना, उपशम उदयन की कथा से यह बात सिद्ध होती है (निशीथचूर्णि, भाग-३, धारण करना और करवाना साधु का आवश्यक कर्तव्य है, क्योकि पृ० १४७)। इस प्रकार पर्युषण पर्व में तप-साधना एक आवश्यक जो उपशम (शान्ति) धारण करता है, वह (भगवान् की आज्ञा का) कर्तव्य है। तप का मूल उद्देश्य अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना है आराधक होता है, जो ऐसा नहीं करता है, वह विराधक होता है, और पर्युषण संयम-साधना' का पर्व है। । ।
क्योंकि उपशमन ही श्रमण-जीवन का सार है (उवसम सारं खु
सामण्णं)।१९ निशीथचूर्णि में कहा गया है कि यदि अन्य समय में २. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण/वार्षिक प्रायश्चित
हुए क्लेश-कटुता की उस समय क्षमायाचना न की गई हो तो पर्युषण पर्युषण का दूसरा महत्त्वपूर्ण कर्तव्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमण। में अवश्य कर लेंवे। वार्षिक प्रायश्चित है। विगत वर्ष में हुए व्रतभंग, दोषसेवन, अनाचार इस प्रकार पर्युषण तप, संयम की साधना के साथ कषायों के या दुराचारों का अन्तर्निरीक्षण कर, उनकी आलोचना कर, उनके लिए उपशमन का पर्व है। क्षमायाचना एक ऐसा उपाय है, जो कटुता के प्रायश्चित्त ग्रहण करना यह पर्युषण का दूसरा आवश्यक कर्तव्य है। मल को धोकर हृदय को निर्मल बना देता है। १. आचेलकुद्देसिय सिज्जायर रायपिंड कितिकम्मे ।
...१०. निशीथचूर्णि, जिणदासगणि, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, वत जेट्ठ पडिक्कमणे मासं पज्जोसवण कप्पे ।।
१९५७, ३२१७। - बृहत्कल्पभाष्य, संपा० - पुण्यविजयजी, प्रका०-आत्मानंद जैन ११. जीवाभिगम-नन्दीश्वर द्वीप-वर्णन। सभा, भावनगर, वि०सं० १९९८, ६३६४।
१२. निशीथचूर्णि, संपा०- जिणदासगणि, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, २. मूलाचार, वट्टकेराचार्य, प्रका०. जैनमन्दिर शक्कर बाजार, इन्दौर आगरा, १९५७, ३१५३।। की पत्रकार प्रति, समयसाराधिकार, १८।
१३. वही, ३१५३ (कथा विस्तारपूर्वक वर्णित है) ३. भगवती-आराधना, शिवकोट्याचार्य, प्रका०- सखाराम नेमिचन्द्र १४. वही। दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर, १९३५,४२३
१५. दशलाक्षणिक व्रते भाद्रपद मासे शुक्ले श्री पंचमीदिने प्रोषध: कार्यः। दशाश्रुतस्कन्ध (आयारदशा), संपा०- मुनि कन्हैयालाल, प्रका.-अ.भा. - व्रततिथिनिर्णय, आचार्य सिंहनन्दी, प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ, श्वे.स्था. जैनशास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, १९६०, अध्याय ८ । काशी, १९५०, पृ०२४। जे भिक्खु पज्जोसवणाए इत्तिरियं पि आहारं आहारेति अहारेंते वा १६. पर्युषण पर्व प्रवचन, संपा०- श्रीचन्द सुराना, प्रका०- मुनि श्री सात्तिज्जति। -निशीथसूत्रम, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर, १९७६, पृ० ३७-३८।। आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९७८, १०/४५।
१७. जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तिरियं पि आहारं आहारेति आहारेन्तं वा जे भिक्खू अपज्जोसवणाए पज्जोसवइ पज्जोसवंतं वा साइज्जइ। सातिज्जति। -निशीथसूत्रम, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन -निशीथसूत्रम्, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, स्थावर, १९७८, १०/४३।
समिति, ब्यावर, १९७८, १०/४५।। जे भिक्खू वासावासं पज्जोसवियसि गामाणुगामं दुइज्जइ दुइज्जत वा १८. पंज्जोसवणाए जइ अट्ठमं न करेइ तो चउगुरुं, कारणे हिं साइज्जइ-निशीथसूत्रम, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम पज्जोसवणाए आहारेंतो सुद्धो। प्रकाशन समिति, स्थावर, १९७८, १०/४१।
-निशीथचूर्णि, संपा०- जिनदासगणि, प्रका० - सन्मति ज्ञानपीठ, परि-सामस्त्येन उषणं-वसनं पर्युषणा-- कल्पसूत्र, सुबोधिनी-टीका, आगरा, १९७५, ३२१७। विनयविजयोपाध्याय, प्रका० हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९३९, १९. कल्पसूत्र, २८६। पृ० १७२।
२०. कसाय कडताए न खामितं तो-पज्जोसवणा सु अवस्सं विओसवेयव्वं। ९. निशीथसूत्रम्, संपा०,- मधुकर, मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन -निशीथचूर्णि, जिनदासगणी, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, समिति, ब्यावर, १९७८,१०/४६।।
१९५७, ३१७९।
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जैन धर्म की परम्परा, इतिहास के झरोखे से
द्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार य व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के धर्मों के इतिहास में जैनधर्म का भी अपना एक विशिष्ट स्थान है, क्योंकि वैचारिक उदारता, दार्शनिक गंभीरता, विपुल साहित्य और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के धर्मों में इसका अवदान महत्त्वपूर्ण है। आइए ! इस महान धर्म-परम्परा का इतिहास के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करें।
श्रमणपरंपरा :
विश्व के धर्मो की मुख्यतः सेमेटिक धर्म और आर्य-धर्म, ऐसी दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धर्मों में यहूदी, ईसाई और मुसलमान आते हैं, जबकि आर्य-धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक) बौद्ध और जैन धर्मों की गणना की जाती है। इनके अतिरिक्त सुदूर पूर्व के देश जापान और चीन में विकसित कुछ कन्फूशियस एवं शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं।
आर्य-धर्मों में जहाँ हिन्दू धर्म के वैदिक स्वरूप को प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है। वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक कहा जाता है। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म श्रमण परम्परा के धर्म है। श्रमण- परंपरा की विशेषता यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीवन की दुःखमयता को उजागरकर संन्यास एवं वैराग के माध्यम से निर्वाण की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है। इस निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा ने अपनी तप एवं योग की आध्यात्मिक साधना एवं शीलों या व्रतों के रूप में नैतिक मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों के इतिहास में अपना विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस श्रमण-परंपरा में न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित हैं, अपितु औपनिषदिक और सांख्य-योग की धारायें भी सम्मिलित हैं, जो आज वृहद् हिन्दू धर्म का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धारायें भी थीं, जो आज विलुप्त हो चुकी है।
पारस्परिक सौहार्द की प्राचीन स्थिति :
प्राकृत-साहित्य में ऋषिभाषित (इसिभासियाई) और पाली साहित्य में थेरगाथा ऐसे ग्रन्थ हैं। जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अति प्राचीन काल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं के होते हुए भी इन ऋषियों में पारस्परिक सौहार्द था ।
डॉ. सागरमल जैन...
ऋषिभाषित, जो कि प्राकृत-जैन आगमों और बौद्ध पालीपिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, अध्यात्मप्रधान श्रमणधारा के इस पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित करता है । यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् तथा शेष सभी प्राकृत और पाली - साहित्य के पूर्व ई. पू. लगभग चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ, बौद्ध, औपनिषदिक एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के ४५ 'ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ थेरगाथा में भी श्रमणधारा के विविध ऋषियों के उपदेश एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं । ऐतिहासिक एवं अनाग्रही दृष्टि से अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है, न तो ऋषिभासित (इसि भासियाई) के सभी ऋषि जैन-परम्परा के हैं और न थेरगाथा के सभी थेर (स्थविर) बौद्ध परम्परा के हैं । जहाँ ऋषिभासित में सारिपुत्र, वात्सीपुत्र ( वज्जीपुत्त) और महाकाश्यप बौद्ध परम्परा के हैं, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य, अरुण, असितदेवल, नारद, द्वैपायन, अंगारिस भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से संबंधित हैं, तो संजय (संजय वेलट्ठिपुत्त) मंखली गोशाल, रामपु आदि अन्य स्वतंत्र श्रमण-परंपराओं से संबंधित है। इसी प्रकार थेरगाथा में वर्द्धमान आदि जैन धारा के, व नारद आदि औपनिषदिक धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है। सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिकधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ, किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है । यह सही है कि वैदिक धारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमण धारा निवृत्तिमार्गी थी और इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवनमूल्यों का संघर्ष था । किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
श्रमणधारा का उद्भव मानव-व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न था, जिसमें श्रमण ब्राह्मण- सभी सहभागी बने थे। ऋषिभाषित में इन ऋषियों को अर्हत् कहना और सूत्रकृतांग में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना, प्राचीन काल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक सौहार्द का ही सूचक है।
निर्ग्रन्थ परंपरा :
लगभग ई. पू. सातवीं-छठी शताब्दी का युग एक ऐसा युग था जब जन-समाज इन सभी श्रमणों, तपस्वियों, योगसाधकों एवं चिन्तकों के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनता था और अपने जीवन को आध्यात्मिक एवं नैतिक साधना से जोड़ता था। फिर भी वह किसी वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष से बँधा हुआ नहीं था। दूसरे शब्दों में उस युग में धर्म-परंपराओं या धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव नहीं हुआ था। क्रमशः इन श्रमणों, साधकों एवं चिंतकों के आसपास शिष्यों, उपासकों एवं श्रद्धालुओं का एक वर्तुल खड़ा हुआ। शिष्यों एवं प्रशिष्यों की परम्परा चली और उनकी अलग- अलग पहचान बनने लगी। इसी क्रम में निर्गन्थ-परम्परा का उद्भव हुआ, जहाँ पार्श्व की परम्परा के श्रमण अपने को पार्श्वापत्य-निर्ग्रन्थ कहने लगे, वहीं वर्द्धमान महावीर के श्रमण अपने को ज्ञातृपुत्रीय निर्ग्रन्थ कहने लगे । सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का भिक्षु संघ शाक्यपुत्रीय श्रमण के नाम से पहचाना जाने लगा ।
पार्श्व और महावीर की एकीकृत परम्परा निर्ग्रन्थ के नाम से जानी जाने लगी। जैनधर्म का प्राचीन नाम हमें निर्ग्रन्थ धर्म के रूप में मिलता है। जैन शब्द तो महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद अस्तित्व में आया है। अशोक (ई. पू. तृतीय शताब्दी), खारवेल (ई. पू. द्वितीय शताब्दी) आदि के शिलालेखों में जैनधर्म का उल्लेख निग्रन्थ- संघ के रूप में ही हुआ है।
पार्श्व एवं महावीर की परम्परा :
ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग आदि से ज्ञात होता है कि पहले निर्ग्रन्थधर्म में नमि, बाहुक, कपिल, नारायण (तारायण), अंगिरस भारद्वाज, नारद आदि ऋषियों को भी, जो कि वस्तुतः उसकी परम्परा के नहीं थे, अत्यन्त सम्मानपूर्ण
स्थान प्राप्त था। पार्श्व और महावीर के समान इन्हें भी अहंत् कहा गया था किन्तु जब निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय पार्श्व और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा तो इन्हें प्रत्येकबुद्ध के रूप में सम्मानजनक स्थान तो दिया गया, किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा से पृथक् मान लिया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि ई.पू. पाचवीं या चौथी शती में निर्ग्रन्थ-संघ पार्श्व और महावीर तक सीमित हो गया। यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारंभ में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भी पृथक्-पृथक् ही थीं। यद्यपि `उत्तराध्ययन एवं भगवतीसूत्र की सूचनानुसार महावीर के जीवनकाल में पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उनके संघ में सम्मिलित हुए थे, किन्तु महावीर के जीवनकाल में महावीर और पार्श्व की परंपराएँ पूर्णत: एकीकृत नहीं हो सकीं। उत्तराध्ययन में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गौतम और पार्श्वापत्य परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी ने परस्पर मिलकर दोनों संघों के एकीकरण की भूमिका तैयार की थी । यद्यपि आज हमारे पास ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि पार्श्व की परम्परा पूर्णतः महावीर की परम्परा में विलीन हो गई थी। फिर भी इतना निश्चित है कि पार्श्वापत्यों का एक बड़ा भाग महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गया था और महावीर की परम्परा ने पर्श्व को अपनी ही परम्परा के पूर्व पुरुष के रूप में मान्य कर लिया था । पार्श्व के लिए 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग इसका प्रमाण है । कालान्तर में ऋषभ, नमि और अरिष्टनेमि जैसे प्राक् - ऐतिहासिक काल के महान् व्यक्तियों को स्वीकार करके निर्ग्रन्थ- परम्परा ने अपने अस्तित्व को अति प्राचीनकाल से जोड़ने का प्रयत्न किया।
ऋषभ आदि तीर्थकरों की ऐतिहासिकता का प्रश्न :
वेदों एवं वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों से इतना तो निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि वातरशना मुनियों एवं व्रात्यों के रूप में श्रमणधारा उस युग में भी जीवित थी और जिसके पूर्व पुरुष ऋषभ थे। फिर भी आज ऐतिहासिक आधार पर यह बता पाना कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएँ क्या थीं और वे वर्तमान जैन परंपरा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संयास मार्ग के
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. यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। ऋषभ, नमि, अजित, अर, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को छोड़कर अन्य तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्य पूर्णतः मौन हैं और इनके प्रति हमारी आस्था का आधार परवर्ती काल के आगम और अन्य कथा - ग्रन्थ ही है । महावीर और आजीवक - परंपरा :
जैन धर्म के इस पूर्व इतिहास की इस संक्षिप्त रूपरेखा के पश्चात् जब हम पुनः महावीर के काल की ओर आते हैं तो कल्पसूत्र एवं भगवती में कुछ ऐसे सूचना -सूत्र मिलते हैं, जिनके आधार पर ज्ञातृपुत्र श्रमण महावीर के पार्श्वापत्यों के अतिरिक्त आजीवकों के साथ भी निकट सम्बन्धों की सूचना मिलती है।
गया है। इस प्रकार आजीवकों के निर्ग्रन्थ-संघ से जुड़ने एवं अलग होने की यह घटना निर्ग्रन्थ परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। साथ ही निर्ग्रन्थों के प्रति अपेक्षाकृत उदार भाव दोनों संघों की आंशिक निकटता का भी सूचक है।
निर्ग्रन्थ - परम्परा में महावीर के जीवनकाल में हुए संघभेद :
महावीर के जीवनकाल में निर्ग्रन्थ-संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण घटना महावीर के जामातृ कहे जाने वाले जमालि से उनका वैचारिक मतभेद होना और जमालि का अपने पाँच सौ शिष्यों सहित उनके संघ से अलग होना है। भगवती, आवश्यक-निर्युक्ति और परवर्ती ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण उपलब्ध जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में यह माना गया है है। निर्ग्रन्थ- संघ-भेद की इस घटना के अतिरिक्त हमें बौद्ध कि महावीर के दीक्षित होने के दूसरे वर्ष में ही मंखलीपुत्र गोशालक पिटक - साहित्य में एक अन्य घटना का उल्लेख भी मिलता है उनके निकट संपर्क में आया था, कुछ वर्ष दोनों साथ भी रहे, जिसके अनुसार महावीर के निर्वाण होते ही उनके भिक्षुओं एवं किन्तु नियतिवाद और पुरुषार्थवाद सम्बन्धी मतभेदों के कारण श्वेत वस्त्रधारी श्रावकों में तीव्र विवाद उत्पन्न हो गया । निर्ग्रन्थदोनों अलग-अलग हो गए। हरमन जेकोबी ने तो यह कल्पना संघ के इस विवाद की सूचना बुद्ध तक भी पहुँचती है। किन्तु भी की है कि महावीर की निर्ग्रन्थ-परम्परा में नग्नता आदि जो पिटक - साहित्य में इस विवाद के कारण क्या थे, इसकी कोई आचारमार्ग की कठोरता है, वह गोशालक की आजीवकपरंपरा चर्चा नहीं है। एक सम्भावना यह हो सकती है कि यह विवाद का प्रभाव है। यह सत्य है कि गोशालक के पूर्व भी आजीवकों महावीर के उत्तराधिकारी के प्रश्न को लेकर हुआ होगा । श्वेताम्बर की एक परम्परा थी, जिसमें अर्जुन आदि आचार्य थे। फिर भी और. दिगम्बर परम्पराओं में महावीर के प्रथम उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि कठोर लेकर मतभेद है। दिगम्बर-परम्परा महावीर के पश्चात् गौतम को साधना की यह परम्परा महावीर से आजीवक परम्परा में गई या पट्टधर मानती है, जबकि श्वेताम्बर - परम्परा सुधर्मा को । श्वेताम्बरआजीवकगोशालक के द्वारा महावीर की परम्परा आई। क्योंकि परम्परा में जो महावीर के निर्वाण के समय गौतम को निकट के इस तथ्य का कोई प्रमाण नहीं है कि महावीर से अलग होने के दूसरे ग्राम में किसी देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने हेतु भेजने पश्चात् गोशालक आजीवक परम्परा से जुड़ा था । या वह प्रारंभ की जो घटना वर्णित है, वह भी इस प्रसंग में विचारणीय हो में ही आजीवक परम्परा में दीक्षित होकर महावीर के पास आया सकती है। किन्तु दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती है कि था फिर भी इतना निश्चित है कि ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी बौद्धों ने जैनों के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्बन्धी परवर्ती विवाद के बाद तक भी इस आजीवक परम्परा का अस्तित्व रहा है। को पिटकों के संपादन के समय महावीर के निर्वाण की घटना यह निर्ग्रन्थों एवं बौद्धों की एक प्रतिस्पर्धी श्रमण - परंपरा थी, के साथ जोड़ दिया हो । मेरी दृष्टि में यदि ऐसा कोई विवाद घटित जिसके श्रमण जैनों की दिगम्बर शाखा के समान नग्न रहते थे। हुआ होगा तो वह महावीर के नग्न व वस्त्र रखने वाले श्रमणों के जैन और आजीवक दोनों परम्पराएँ प्रतिस्पर्धी होकर भी एक बीच हुआ होगा। क्योंकि पार्श्वापत्यों के महावीर के निर्ग्रन्थ संघ दूसरे को अन्य परम्पराओं की अपेक्षा अधिक सम्मान देती थीं, में प्रवेश के साथ ही उनके संघ में नग्न और सवस्त्र ऐसे दो वर्ग इस तथ्य की पुष्टि हमें बौद्ध पिटक साहित्य में उपलब्ध व्यक्तियों अवश्य ही बन गए होंगे और महावीर ने श्रमणों के इन दो वर्गों के षट्विध वर्गीकरण से होती है। निर्ग्रन्थों को अन्य परम्परा के को सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्रधारी के रूप श्रमणों से ऊपर और आजीवक - परम्परा से नीचे स्थान दिया में विभाजित किया होगा। विवाद का कारण ये दोनों वर्ग ही रहे মমউমিট{ z Fমমট
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासहोंगे। मेरी दृष्टि में बौद्ध परम्परा में जिन्हें श्वेत वस्त्रधारी श्रावक अभिलेख घटना का उल्लेख करता है वह लगभग छठी-सातवीं कहा गया वे वस्तुतः सवस्त्र श्रमण ही होंगे। क्योंकि बौद्ध- शती का है। आज भी तमिल जैनों की विपुल संख्या है और वे परम्परा में श्रमण (भिक्ष) को भी श्रावक कहा गया है, फिर भी भारत में जैन धर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के इस सम्बन्ध में गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।
प्रतिनिधि हैं। यद्यपि बिहार, बंगाल और उड़ीसा की प्राचीन जैन
परम्परा कालक्रम से विलुप्त हो गई है, किन्तु सराक जाति के निर्यन्थ - संघ की धर्मप्रसार - यात्रा :
रूप में उस परम्परा के अवशेष आज भी शेष हैं। सराक शब्द भगवान महावीर के काल में उनके निर्ग्रन्थ संघ का प्रभाव- श्रावक का ही अपभ्रंश रूप है और आज भी इस जाति में क्षेत्र बिहार एवं पूर्वी उत्तरप्रदेश तथा उनके आसपास का प्रदेश रात्रिभोजननिषेध जैसे कुछ संस्कार शेष हैं। ही था। किन्तु महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन सीमाओं में विस्तार होता गया। फिर भी आगमों और निर्यक्तियों की रचना
उत्तर और दक्षिण के निर्यन्य श्रमणों में आधार-भेद : तथा तीर्थंकरों की अवधारणा के विकास-काल तक उत्तरप्रदेश, दक्षिण में नया निर्ग्रन्थ-संघ, अपने साथ विपुल प्राकृतहरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी राजस्थान के कुछ भाग तक ही जैन-साहित्य तो नहीं ले जा सका, क्योंकि उस काल तक निर्ग्रन्थों के विहार की अनुमति थी। तीर्थंकरों के कल्याणक्षेत्र भी जैनागम-साहित्य की पूर्ण रचना ही नहीं हो पाई थी, किन्तु वह यहीं तक सीमित थे। मात्र अरिष्टनेमि ही ऐसे तीर्थंकर है, जिनका अपने साथ श्रुत-परंपरा से कुछ दार्शनिक विचारों एवं महावीर सम्बन्ध शोरसेन (मथुरा के आसपास के प्रदेश) के अतिरिक्त के कठोर आचारमार्ग को ही लेकर चला था, जिसे उसने बहुत सौराष्ट्र से भी दिखाया गया है और उनका निर्वाण गिरनार पर्वत काल तक सुरक्षित रखा। आज की दिगम्बरपरम्परा का पूर्वज माना गया है। किन्तु आगमों में द्वारिका और गिरनार की जो यही दक्षिणी अचेल-निर्ग्रन्थ-संघ है। इस संबंध में अन्य कुछ निकटता वर्णित है वह यथार्थ स्थिति से भिन्न है। सम्भवतः मुद्दे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विचारणीय हैं। महावीर के अपने युग अरिष्टनेमि और कृष्ण के निकट सम्बन्ध होने के कारण ही में भी उनका प्रभाव क्षेत्र मुख्यतया दक्षिणी बिहार ही था जिसका कृष्ण के साथ-साथ अरिष्टनेमि का सम्बन्ध भी द्वारिका से जोड़ा केन्द्र राजगृह था, जबकि बौद्धों एवं पार्थापत्यों का प्रभाव-क्षेत्र गया होगा। अभी तक इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्यों का उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर उत्तरप्रदेश था जिसका केन्द्र श्रावस्ती अभाव है। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा में खोज करें। था। महावीर के अचेल-निर्ग्रन्थ-संघ और पार्थापत्य सन्तरोत्तर
जो कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं, उनसे ऐसा लगता है (सचल)-निग्रन्थ-सघ क साम्मलन का भूमिका भा श्रावस्ता कि निर्ग्रन्थ-संघ अपने जन्मस्थल बिहार से दो दिशाओं में अपने
___में गौतम और केशी के नेतृत्व में तैयार हुई थी। महावीर के प्रचार-अभियान के लिए आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण-बिहार एवं
सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह नालंदा में होना और बुद्ध के श्रावस्ती बंगाल से उड़ीसा के रास्ते तमिलनाडु गया और वहीं से उसने
में होना भी इसी तथ्य का प्रमाण है। दक्षिण की जलवायु उत्तर श्रीलंका और स्वर्णदेश (जावा-सुमात्रा आदि) की यात्राएँ की।
की उपेक्षा गर्म थी अतः अचेलता के परिपालन में दक्षिण में गए लगभग ई. पू. दूसरी शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण
निर्ग्रन्थ-संघ को कोई कठिनाई नहीं हुई, जबकि उत्तर से निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थों को श्रीलंका से निकाल दिया गया। फलतः वे पुनः
संघ में कुछ पापित्यों के प्रभाव के और कुछ अति शीतल तमिलनाडु में आ गए। तमिलनाडु में लगभग ई.पू. प्रथम
जलवायु के कारण यह अचेलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी और द्वितीय शती में ब्राह्मी लिपि में अनेक जैन-अभिलेख मिलते हैं,
एक वस्त्र रखा जाने लगा। स्वभावतः भी दक्षिण की अपेक्षा उत्तर जो इस तथ्य के साक्षी भी हैं कि निर्ग्रन्थ-संघ महावीर के निर्वाण
के निवासी अधिक सुविधावादी होते हैं और बौद्धधर्म में भी बद्ध के लगभग दो-तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल प्रदेश में पहुँच
के निर्वाण के पश्चात् सुविधाओं की माँग वात्सीपुत्रीय भिक्षुओं ने चुका था। मान्यता तो यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु चन्द्रगुप्त
ही की थी, जो कि उत्तरी तराई क्षेत्र के थे। बौद्ध पिटक-साहित्य मौर्य को दीक्षित करके दक्षिण गए थे। यद्यपि इसकी ऐतिहासिक
में निर्ग्रन्थों को एक-शाटक और आजीवकों को नग्न कहा प्रामाणिकता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो सकी है. क्योंकि जो गया, यह भी यही सूचित करता है कि लज्जा और शीत निवारण
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हेतु उत्तरी भारत का निर्ग्रन्थ-संघ कम से कम एक वस्त्र तो रखने लग गया था। मथुरा में ईसवीं सन् प्रथम शताब्दी के आसपास की जैन श्रमणों की जो मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनमें सभी में श्रमणों को एक वस्त्र से युक्त दिखाया गया है। वे सामान्यतया नग्न रहते थे किन्तु भिक्षा या जन समाज में जाते समय वे वस्त्रखंड हाथ पर डालकर अपनी नग्नता छिपा लेते थे और अतिशीत आदि की स्थिति में उसे ओढ़ लेते थे।
यह सुनिश्चित है कि महावीर बिना किसी पात्र के दीक्षित हुए थे। आचारांग से उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले तो वे गृही- पात्र का उपयोग कर लेते थे, किन्तु बाद में उन्होंने इसका त्याग कर दिया और पाणिपात्र हो गए अर्थात् हाथ में ही भिक्षा ग्रहण करने लगे। सचित्त जल का प्रयोग निषिद्ध होने से संभवतः सर्व प्रथम निर्ग्रन्थ- संघ में शौच के लिए जलपात्र का ग्रहण किया गया होगा, किन्तु भिक्षुकों की बढ़ती हुई संख्या और एक ही घर से प्रत्येक भिक्षु को पेट भर भोजन न मिल पाने के कारण आगे चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो गया होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की परिचर्या के लिए भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित हो गई होगी। मथुरा में ईसा की प्रथम-द्वितीय शती की एक जैन श्रमण की प्रतिमा मिली है, जो अपने हाथ में एक पात्र - युक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन (रजोहरण) लिए हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वेताम्बर - परम्परा में, विशेष रूप से स्थानकवासी और तेरापंथी - परम्परा में प्रचलित झोली के समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं साध्वियों के हाथ में मुख- वस्त्रिका (मुँह - पत्ति) और प्रतिलेखन (रजोहरण) के भी अंकन उपलब्ध होते हैं। प्रतिलेखन के अंकन दिगम्बर- परम्परा में प्रचलित मयूरपिच्छि और श्वेताम्बरपरम्परा में प्रचलित रजोहरण दोनों ही आकारों में मिलते हैं। यद्यपि साहित्यिक और पुरातात्त्विक स्पष्ट साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि वे प्रतिलेखन मयूरपिच्छ के बने होते थे या अन्य किसी वस्तु के । दिगम्बर- परम्परा में मान्य यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती आराधना में प्रतिलेखन (पडिलेहण) का और उसके गुणों का तो वर्णन है, किन्तु यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि किस वस्तु के बने होते थे। इस प्रकार ईसा की प्रथम शती के पूर्व उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ-संघ में वस्त्र, पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका
और प्रतिलेखन (रजोहरण) का प्रचलन था। सामान्यतया मुनि नग्न ही रहते थे, और साध्वियाँ साड़ी पहनती थीं। मुनि वस्त्र का उपयोग उचित अवसर पर शीत एवं लज्जानिवारण हेतु करते थे। मुनियों के द्वारा सदैव वस्त्र धारण किए रहने की परम्परा नहीं थी । इसी प्रकार इन अंकनों में मुखवस्त्रिका भी हाथ में ही प्रदर्शित है, न कि वर्तमान स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं के अनुरूप मुख पर बँधी हुई दिखाई गई है। प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थ भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मुनि के जिन १४ उपकरणों का उल्लेख मिला है, वे संभवतः ईसा की दूसरीतीसरी शती तक निश्चित हो गए थे।
महावीर के पश्चात निर्ग्रन्थसंघ में हुए संघ-भेद :
महावीर के निर्वाण और मथुरा के अंकन के बीच लगभग पाँच सौ वर्षों के इतिहास में हमें जो महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं, वे निह्नवों के दार्शनिक एवं वैचारिक मतभेदों एवं संघ के विभिन्न, गणों, शाखाओं, कुलों एवं संभागों के विभक्त होने से सम्बन्धित हैं। आवश्यकनियुक्ति सात निह्नवों का उल्लेख करती है, इनमें से जामालि और तिष्यगुप्त तो महावीर के समय हुए थे, शेष पाँच आषाढ़भूति, अश्वामित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ट महिल महावीर निर्वाण के पश्चात् २१४ वर्ष से ५८४ वर्ष के बीच हुए। ये निह्नव किन्हीं दार्शनिक प्रश्नों पर निर्ग्रन्थ- संघ की परम्परागत मान्यताओं से मतभेद रखते थे। किन्तु इनके द्वारा निर्ग्रन्थ-संघ में किसी नवीन सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई हो, ऐसी कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं होती है। इस काल में निर्ग्रन्थ- संघ में गण और शाखा -भेद भी हुए किन्तु वे किन दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी मतभेद को लेकर हुए थे, यह ज्ञात नहीं होता है। मेरी दृष्टि में व्यवस्थागत सुविधाओं एवं शिष्य-प्रशिष्यों की परम्पराओं को लेकर ही ये गण या शाखा भेद हुए होंगे। यद्यपि कल्पसूत्र स्थविरावलि में षडुलक रोहगुप्त से त्रैराशिक शाखा निकलने का उल्लेख हुआ है। रोहगुप्त त्रैराशिक मत के प्रवक्ता एक ह्निव माने गए हैं। अतः यह स्पष्ट है कि इन गणों एवं शाखाओं में कुछ मान्यता - भेद भी रहे होंगे, किन्तु आज हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है।
कल्पसूत्र की स्थविरावलि तुंगीयायन गोत्री आर्य यशोभद्र के दो शिष्यों माढरगोत्री सम्भूतिविजय ओ र प्राचीनगोत्री भद्रबाहु
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• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास.
का उल्लेख करती है। कल्पसूत्र में गणों और शाखाओं की उत्पत्ति बताई गई है, वे एक ओर आर्य भद्रबाहु के शिष्य काश्यपगोत्री गौदास से एवं दूसरी ओर स्थूलिभद्र के शिष्यप्रशिष्यों से प्रारम्भ होती हैं। गोदास से गोदासगण की उत्पत्ति हुई। और उसकी चार शाखाएँ ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पौण्ड्रवर्द्धनिका और दासीकर्पाटिका निकली हैं। इसके पश्चात् भद्रबाहु की परम्परा कैसे आगे बढ़ी इस सम्बन्ध में कल्पसूत्र की स्थविरावलि में कोई निर्देश नहीं है। इन शाखाओं के नामों से भी ऐसा लगता है कि भद्रबाहु की शिष्य परम्परा बंगाल और उड़ीसा से दक्षिण की ओर चली गई होगी। दक्षिण में गोदासगण का एक अभिलेख भी मिला है। अतः यह मान्यता समुचित ही है। कि भद्रबाहु की परम्परा से ही आगे चलकर दक्षिण की अचेलक निर्ग्रन्थ-परंपरा का विकास हुआ।
श्वेताम्बरपरम्परा पाटलिपुत्र की वाचना के समय भद्रबाहु के नेपाल में होने का उल्लेख करती है, जबकि दिगम्बरपरम्परा चंद्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करके उनके दक्षिण जाने का उल्लेख करती है। सम्भव है कि वे अपने जीवन के अंतिम चरण में उत्तर से दक्षिण चले गये हों। उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की परम्परा सम्भूतिविजय के प्रशिस्य एवं स्थूलिभद्र के शिष्यों से आगे बढ़ी। कल्पसूत्र में वर्णित गोदासगण और उसकी उपर्युक्त चार शाखाओं को छोड़कर शेष सभी गणों, कुलों और शाखाओं का सम्बन्ध स्थूलभद्र की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही है। इसी प्रकार दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थ संघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर का सचेल निर्ग्रन्थ संघ स्थूलिभद्र की परम्परा से विकसित हुआ । इस संघ में उत्तर बलिस्सहगण, उद्धेहगण, कोटिकगण, चारणगण, मानवगण, वेसवाडिवगण, उड्डवाडियगण आदि प्रमुख गण थे। इन गणों की अनेक शाखाएँ एवं कुल थे। कल्पसूत्र की स्थविरावलि इन सबका उल्लेख तो करती है, किन्तु इसके अन्तिम भाग में मात्र कोटिकगण की वज्र शाखा की आचार्य परम्परा दी गई है, जो देवर्द्धिक्षमाश्रमण (वीर निर्माण सं. ९८०) तक जाती है। स्थूलभद्र के शिष्यप्रशिष्यों की परम्परा में उद्भूत जिन विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों की सूचना हमें कल्पसूत्र की स्थविरावलि से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती है, जो कल्पसूत्र की स्थविरावलि की प्रामाणिकता को सिद्ध करते हैं। दिगम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् तक की जो पट्टावली
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उपलब्ध है, एक तो वह पर्याप्त परवर्ती है। दूसरे भद्रबाहु के नाम के अतिरिक्त उसकी पुष्टि का प्राचीन साहित्यिक और अभिलेखीय कोई साक्ष्य नहीं है । भद्रबाहु के सम्बन्ध में भी जो साक्ष्य है, वह पर्याप्त परवर्ती है। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से उसकी प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगाए जा सकते हैं। महावीर के निर्वाण में ईसा की प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी तक के जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में हुए, उन्हें समझने के लिए अर्द्धमागधी आगमों के अतिरिक्त मथुरा के शिल्प एवं अभिलेख हमारी बहुत अधिक मदद करते हैं। मथुरा शिल्प की विशेषता यह है कि तीर्थंकर प्रतिमाएँ नग्न हैं, मुनि नग्न होकर भी वस्त्र खण्ड से अपनी नग्नता छिपाए हुए हैं। वस्त्र के अतिरिक्त पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन भी मुनि के उपकरणों में समाहित है। मुनियों के नाम, गण, शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र की स्थविरावलि से मिलते हैं। इस तरह ये श्वेताम्बर परम्परा की पूर्व स्थिति के सूचक हैं। जैन धर्म में तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त स्तूप के निर्माण की परंपरा भी थी, यह भी मथुरा के शिल्प से सिद्ध हो जाता है। यापनीय या बोटिक संघ का उद्भव :
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ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छह सौ नौ वर्ष पश्चात् उत्तर भारत निर्ग्रन्थ-संघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित हुई, फलतः उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों में बँट गया। पार्श्वापत्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपाधि बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्य कृष्ण जिनकल्प का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र - पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के जिनकल्प का निषेध नहीं मानना चाहिए। वस्त्र, पात्र का ग्रहण अपवाद - मार्ग है, उत्सर्ग-मार्ग तो अचेलता ही है। आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की इस अचेल - परम्परा को श्वेताम्बरों ने बोटिक (भ्रष्ट) कहा। किंतु आगे चलकर यह परम्परा यापनीय के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हुई । गोपाञ्चाल में विकसित होने के कारण यह गोप्यसंघ नाम से भी जानी जाती थी ।
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासषड्दर्शनसमुच्चय की टीका ने गुणरत्न ने गोप्यसंघ या यापनीय (२) मूलसंघ, (३) यापनीयसंघ, (४) कूचर्क संघ और (५) संघ को पर्यायवाची बताया गया है। यापनीय संघ की विशेषता श्वेतपटमहाश्रमणसंघ। इसी काल में पूर्वोत्तर भारत में वटगोहली यह थी कि एक ओर यह श्वेताम्बर परम्परा के समान आचरांग, से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि अर्द्धमागधी आगम- मिलती है। इस युग का श्वेतपटमहाश्रमणसंघ अनेक कुलों एवं साहित्य को मान्य करता था, जो कि उसे उत्तराधिकार में ही . शाखाओं में विभक्त था, जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं प्राप्त हुआ था, साथ ही वह सचेल, स्त्री और अन्यतैर्थिकों की मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है। मुक्ति को स्वीकार करता था। आगम साहित्य के वस्त्र-पात्र
निर्यन्थ-परम्परा का साहित्य : सम्बन्धी उल्लेखों को वह साध्वियों एवं आपवादिक स्थिति में मुनियों से सम्बन्धित मानता था। किन्तु दूसरी ओर वह दिगम्बर- महावीर के निर्वाण के पश्चात से लेकर ईसा की पाँचवीं परम्परा के समान वस्त्र और पात्र का निषेध कर मुनि की नग्नता शती तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी पर बल देता था। यापनीय मुनि नग्न रहते थे और पानीतलभोजी आगम-साहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अतः (हाथ में भोजन करने वाले) होते थे। इसके आचार्यों ने उत्तराधिकार आज हमें जो आगम उपलब्ध हैं, वे न तो एक व्यक्ति की रचना में प्राप्त आगमों से गाथाएँ लेकर शौरसेनी प्राकृत में अनेक ग्रन्थ हैं और न एक काल की। मात्र इतना ही नहीं, एक आगम में बनाए। इनमें कषाय प्राभृत, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, विविध कालों की सामग्री संकलित है। इस अवधि में सर्वप्रथम मूलाचार आदि प्रसिद्ध हैं।
ई. पू. तीसरी शती में पाटलिपुत्र में प्रथम वाचना हुई, संभवतः दक्षिण भारत में अचेल निर्ग्रन्थपरम्परा का इतिहास ईसवी
इस घाचना में अंगसूत्रों एवं पार्थापत्य-परम्परा के पूर्व साहित्यसन् की तीसरी चौथी शती तक अंधकार में ही है। इस संबंध में ।
ग्रन्थों का संकलन हुआ। पूर्व साहित्य के संकलन का प्रश्र
इसलिए महत्त्वपूर्ण बन गया था कि पापित्य-परंपरा लुप्त होने हमें न तो विशेष साहित्यिक साक्ष्य ही मिलते हैं और न अभिलेखीय
लगी थी। इसके पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा ही। यद्यपि इस काल के कुछ पूर्व के ब्राह्मीलिपि के अनेक गुफा-अभिलेख तमिलनाडु में पाये जाते है किन्तु वे श्रमणों या
में और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभीपुर में समानान्तर निर्माता के नाम के अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं देते । तमिलनाडु
वाचनाएँ हुईं, जिनमें अंग, उपांग आदि आगम संकलित हुए।
इसके पश्चात् वीरनिर्वाण ९८० अर्थात् ई.स. की पाँचवीं शती में में अभिलेखयुक्त जो गुफाएँ हैं, वे संभवतः निर्ग्रन्थों के
वल्लभी में देवर्द्धिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम वाचना हुई। समाधिमरण ग्रहण करने का स्थल रही होंगी। संगमयुग के तमिलसाहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैन-श्रमणों ने
वर्तमान आगम इसी वाचना का परिणाम हैं। फिर भी देवर्द्धि इन भी तमिल भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया
आगमों के सम्पादक ही हैं, रचनाकार नहीं। उन्होंने मात्र ग्रन्थों था। तिरुकुरल के जैनाचार्यकृत होने की भी एक मान्यता है।
को सुव्यवस्थित किया। इन ग्रन्थों की सामग्री तो उनके पहले
की है। अर्धमागधी आगमों में जहाँ आचारांग एवं सूत्रकृतांग के ईसा की चौथी शताब्दी में में तमिल देश का यह निर्ग्रन्थसंघ कर्णाटक के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्थसंघ
प्रथम श्रुतस्कंध, ऋषिभाषित उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि
प्राचीन स्तर के अर्थात ई.पू. के ग्रन्थ हैं, वहीं समवायांग, वर्तमान सचेल (श्वेताम्बर) और अचेलक (यापनीय) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण गया। सचेल श्वेताम्बर-परम्परा राजस्थान,
प्रश्रव्याकरण आदि पर्याप्त परवर्ती अर्थात् लगभग ई.स. की गुजरात एवं पश्चिमी महाराष्ट्र होती हुई उत्तर कर्नाटक पहुँची, तो
पाँचवीं शती के हैं। स्थानांग, अंतकृतदशा, ज्ञाता और भगवती अचेल यापनीय-परम्परा बुन्देलखण्ड एवं विदिशा होकर विंध्य
का कुछ अंश प्राचीन (अर्थात् ई.पू. का) है, तो कुछ पर्याप्त और सतपुड़ा को पार करती हुई पूर्वी महाराष्ट्र से होकर उत्तरी
परवर्ती है। उपांग साहित्य में अपेक्षाकृत रूप से सूर्यप्रज्ञप्ति, कर्णाटक पहुँची। ईसा की पाँचवीं शती में उत्तरी कर्णाटक में
राजप्रश्रीय, प्रज्ञापना प्राचीन हैं। उपांगों की अपेक्षा भी छेदसूत्रों मृगेशवर्मा के जो अभिलेख मिले हैं, उनसे उस काल में जैनों के
की प्राचीनता निर्विवाद है। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में पाँच संघों के अस्तित्व की सूचना मिलती है--(१) निर्ग्रन्थसंघ,
अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं, जो कुछ अंगों और उपांगों की अपेक्षा भी indiatriaritadvidiodivoriwarriorivariorodroid
Minisandinidiansansamirstboardroidaidoard
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासप्राचीन हैं। फिर भी सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम-साहित्य को इसी प्रकार की आलोचना आगे चलकर जिनेश्वर सूरि जिनचन्द्र अन्तिम रूप लगभग ई. सन् की छठी शती के पूर्वार्द्ध में मिला सूरि आदि खरतरगच्छ के अन्य आचार्यों ने भी की । ईसवी सन् यद्यपि इसके बाद भी इसमें कुछ प्रक्षेप और परिवर्तन हुए हैं। की दशवीं शताब्दी में खरतरगच्छ का आविर्भाव भी चैत्यवास ईसा की छठी शताब्दी के पश्चात् से दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के के विरोध में हुआ था, जिसका प्रारम्भिक नाम सुविहितमार्ग या मध्य तक मुख्य आगमिक व्याख्यासाहित्य के रूप में नियुक्ति, संविग्नपक्ष था। दिगम्बर-परम्परा में इस युग में द्रविड संघ, भाष्य, चूर्णि और टीकाएँ लिखी गईं। यद्यपि कुछ नियुक्तियाँ माथुर संघ, काष्टा संघ आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ, प्राचीन भी हैं। इस काल में इन आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त जिन्हे दर्शन-सार नामक ग्रन्थ में जैनाभास कहा गया। स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गए। इस काल के प्रसिद्ध आचार्यों में
इस संबंध में पं. नाथूरामजी प्रेमी ने अपने ग्रन्थ 'जैन सिद्धसेन, जिनभद्रगणा, शिवाय, बट्टकर, कुन्दकुन्द, अकलक, साहित्य और इतिहास' में 'चैत्यवास और वनवास' के शीर्षक समन्तभद्र, विद्यानंद, जिनसेन, स्वयम्भू, हरिभद्र, सिद्धर्षि, शीलांक,
के अन्तर्गत विस्तृत चर्चा की है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के
अना अभयदेव आदि प्रमुख हैं। दिगम्बरों में तत्त्वार्थ की विविध
आधार पर यह कहना कठिन ही है कि इन विरोधों के बावजूद टीकाओं और पुराणों का रचनाकाल भी यही युग है।
भी जैन-संघ इस बढ़ते हुए शिथिलाचार से मुक्ति पा सका है। चैत्यवास और भट्टारक-परंपरा का उदय :
तन्य और भक्तिमार्ग का जैन धर्म पर प्रभाव : दिगम्बर-परम्परा में भट्टारक संप्रदाय और श्वेताम्बर परम्परा
वस्तुतः गुप्तकाल से लेकर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में चैत्यवास का विकास भी इसी युग अर्थात् ईसा की पाँचवीं
तक का युग पूरे भारतीय समाज के लिए चरित्रबल के हास और शती से होता है, यद्यपि जिन-मंदिर और जिन-प्रतिमा के निर्माण
ललित कलाओं के विकास का युग है। यही काल है जब के पुरातात्त्विक प्रमाण मौर्यकाल से तो स्पष्ट रूप से मिलने
खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों में कामुक अंकन किए गए। लगते हैं। शक और कुषाण-युग में इसमें पर्याप्त विकास हुआ,
कास हुआ, जिन-मंदिर भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। यही वह युग फिर भी ईसा की ५ वीं शती से १२ वीं शती के बीच जैनशिल्प
_है जब कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की कथा को गढ़कर अपने सर्वोत्तम रूप को प्राप्त होता है। यह वस्तुतः चैत्यवास की
धर्म के नाम पर कामुकता का प्रदर्शन किया गया। इसी काल में देन है। दोनों परम्पराओं में इस युग में मुनि वनवास को छोड़कर
तन्त्र और वाम मार्ग का प्रचार हआ। जिसकी अग्नि में बौद्ध
और वा चैत्यों जिनमंदिरों में रहने लगे थे। केवल इतना ही नहीं, वे इन भिक्षसंघ तो परी तरह जल मरा किन्तु जैन भिक्षुसंघ भी उसकी चैत्यों की व्यवस्था भी करने लगे थे। अभिलेख से तो यहाँ तक
लपटों की झुलस से बच न सका। अध्यात्मवादी जैनधर्म पर सूचना मिलती है कि न केवल चैत्यों की व्यवस्था के लिए,
भी तन्त्र का प्रभाव आया। हिन्दू-परम्परा के अनेक देवी-देवताओं अपितु मुनियों के आहार और तेलमर्दन आदि के लिए भी सम्भ्रान्त
को प्रकारांतर से यक्ष, यक्षिणी अथवा शासन-देवियों के रूप में वर्ग से दान प्राप्त किए जाते थे। इस प्रकार इस काल में जैन
जैन देव-मण्डल का सदस्य स्वीकार कर लिया गया। उनकी साधु मठाधीश बन गया था। फिर भी इस सुविधाभोगी वर्ग के
कृपा या उनसे लौकिक सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिए अनेक द्वारा जैन-दर्शन, साहित्य एवं शिल्प का जो विकास इस युग में ।
तान्त्रिक विधि-विधान बने। जैन तीर्थंकर तो वीतराग था, अतः हुआ, उसकी सर्वोत्कृष्टता से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
__ वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था न दुष्टों का विनाश, यद्यपि चैत्यवास में सुविधावाद के नाम पर जो शिथिलाचार
__फलतः दोनों ने यक्ष-यणियों या शासन-देवता को भक्तों के विकसित हो रहा था उसका विरोध श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों
कल्याण की जवाबदारी देकर अपने को युग-विद्या के साथ परम्पराओं में हुआ। श्वेताम्बर-परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र
समायोजित कर लिया। इसी प्रकार भक्ति-मार्ग का प्रभाव भी ने इसके विरोध में लेखनी चलाई। सम्बोधन प्रकरण में उन्होंने
इस युग में जैनसंघ पर पड़ा। तन्त्र और भक्तिमार्ग के संयक्त इन चैत्यवासियों के आगम विरुद्ध आचार की खुलकर आलोचना
प्रभाव से जिनमंदिरों में पूजा-यज्ञ आदि के रूप में विविध प्रकार की, यहाँ तक कि उन्हें नरपिशाच तक कह दिया। चैत्यवास की
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-यतीन्द्रसरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासके कर्मकाण्ड अस्तित्व में आए। वीतराग जिनप्रतिमा की चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन आचार्य आगे आए। इस युग में हिन्दूपरम्परा की षोडशोपचार-पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की भट्टारकों और जैन-यतियों ने साहित्य एवं कलात्मक मंदिरों का जाने लगी। न केवल वीतराग जिन प्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से निर्माण तो किया ही किन्तु चिकित्सा के माध्यम से जनसेवा के सुसज्जित किया गया, अपितु उसे फल-नेवैद्य आदि भी अर्पित क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। किए जाने लगे। यह विडम्बना ही थी कि हिन्दू देवी-देवताओं
सुधारवादी आन्दोलन एवं अमूर्तिक सम्प्रदायों की पूजा पद्धति के विवेकशून्य अनुकरण के द्वारा तीर्थंकर या । सिद्ध परमात्मा का आह्वान और विसर्जन भी किया जाने लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बरपरम्परा में अधिक आया था, किन्तु . जैनपरम्परा में एक परिवर्तन की लहर पुन: सोलहवीं दिगम्बर-परम्परा भी इससे बच न सकी।
शताब्दी में आई। जब अध्यात्मप्रधान जैनधर्म का शुद्ध कर्म - विविध प्रकार के कमकाण्ड और तन्त्र-मन्त्र का प्रवेश काण्ड धार
सावकाश काण्ड घोर आडम्बर के आवरण से धूमिल हो रहा था और उसमें भी हो गया था। श्रमणपरंपरा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी
f-मन सर्वोदयी मुस्लिम शासकों के मूर्तिभंजक स्वरूप से मूर्तिपूजा के प्रति धर्मव्यवस्था का परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध
आस्थाएँ विचलित हो रही थीं, तभी मुस्लिमों की आडम्बर और शूद्र जलत्याग पर बल दिया गया।
रहित सहज धर्म-साधना ने हिन्दुओं की भाँति जैनों को भी
प्रभावित किया। हिन्दू-धर्म में अनेक निर्गुण भक्तिमार्गी संतों यद्यपि बारहवीं एवं तेरहवीं शती में हेमचन्द्र आदि अनेक
के आविर्भाव के समान ही जैन-धर्म में भी ऐसे संतों का आविर्भाव समर्थ जैन दार्शनिक और साहित्यकार हुए, फिर भी जैन परंपरा
हुआ, जिन्होंने धर्म के नाम पर कर्म काण्ड और आडम्बरयुक्त में सहगामी अन्य धर्मपरम्पराओं से जो प्रभाव आ गए थे, उनसे
पूजापद्धति का विरोध किया। फलतः जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं उसे मुक्त करने का कोई सशक्त और सार्थक प्रयास हुआ हो,
दिगम्बर दोनों ही शाखाओं में सुधारवादी आन्दोलन का प्रादुर्भाव ऐसा ज्ञात नहीं होता। यद्यपि सुधार के कुछ प्रयत्नों एवं मतभेदों
हुआ। इनमें श्वेताम्बर-परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर-परम्परा के आधार पर श्वेताम्बर-परम्परा तपागच्छ, अचलगच्छ आदि
में संत तरणतारण तथा बनारसीदास प्रमुख थे। यद्यपि बनारसीदास अस्तित्व में आए और उनकी शाखा प्रशाखाएँ भी बनीं, फिर भी
जन्मना श्वेताम्बर-परम्परा के थे, किन्तु उनका सुधारवादी आन्दोलन लगभग १५ वीं शती तक जैनसंघ इसी स्थिति का शिकार रहा।
दिगंबर-परम्परा से सम्बन्धित था। लोकाशाह ने श्वेतांबर परम्परा मध्ययुग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में जैनों का में मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और आडम्बरों का विरोध महत्त्वपूर्ण अवदान :
किया। इनकी परम्परा आगे चलकर लोकागच्छ के नाम से प्रसिद्ध
हुई। इसी से आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर में यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं
स्थानकवासी परम्परा विकसित हुई। जिसका पुनः एक विभाजन सुविधावाद का युग था फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में
१८ वीं शती में शुद्ध निवृत्तिमार्गी जीवनदृष्टि एवं अहिंसा की निषेधात्मक जैनों ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो, श्रवणबेलगोल,
व्याख्या के आधार पर श्वेताम्बर-तेरापंथ के रूप में हुआ। आबू (देलवाड़ा), तारंगा, राणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और स्थापत्यकला, जो ९ वीं शती से १४ वीं शती के
दिगम्बर-परम्पराओं में बनारसीदास ने भट्टारक-परम्परा बीच में निर्मित हुई, आज भी जैन-समाज का मस्तक गौरव से माज भी जैन समाज का वो के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की
क विरुद्ध अपना आवाज बुलद क
ओर सचित्त द्रव्यों से ऊँचा कर देती है। अनेक प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों
सिकायों जिनप्रतिमा के पूजन का निषेध किया, किन्तु तारणस्वामी तो की रचनाएँ भी इन्हीं शताब्दियों में हुईं। श्वेताम्बर-परम्परा में
बनारसीदास से भी एक कदम आगे थे। उन्होंने दिगम्बर-परम्परा
बनारसाद हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र, मणिभद्र, मल्लिसेन,
में मूर्ति-पूजा का ही निषेध कर दिया। मात्र यही नहीं, उन्होंने
म जिनप्रभ तथा दिगम्बरपरम्परा में विद्यानंदी, शाकटायन, प्रभाचन्द्र
धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठा की। बनारसीदास जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल के हैं। मंत्र-तंत्र के साथ ।
की परम्परा जहाँ दिगम्बर-तेरापंथ के नाम से विकसित हई तो
तारण-स्वामी का वह आन्दोलन तारणपंथ या समैया के नाम iridromedianhviandvantibodieberroristination Horonavordinatoridriomarawdiriomdomindianbidasiation
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहाससे पहचाना जाने लगा। तारणपंथ के चैत्यालयों में मूर्ति के अध्यात्मनिष्ठा आज इसकी एक अलग पहचान बनाती है। इसी स्थान पर शास्त्र की प्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार सोलहवीं एवं प्रकार श्वेताम्बर स्थानकवासी-परम्परा में दीक्षित कानजी स्वामी सत्रहवीं शताब्दी में जैन-परम्परा में इस्लाम धर्म के प्रभाव के ने महान् अध्यात्मवादी दिगम्बर-संत कुन्दकुन्द के समयसार फलस्वरूप एक नया परिवर्तन आया और अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों जैसे अध्यात्म और निश्चय नये प्रधानग्रन्थ के अध्ययन से दिगम्बरका जन्म हुआ फिर भी पुरानी परम्पराएँ यथावत् चलती रहीं। परम्परा में इस शताब्दी में एक नये आन्दोलन को जन्म दिया। पुनः बीसवीं शती में गांधीजी के गुरुतुल्य श्रीमदराजचन्द्र के
इस प्रकार जैन-धर्म में भी युग-युग में देश और काल के कारण अध्यात्म-प्रेमियों का एक नया संघ बना। यद्यपि सदस्य
प्रभाव से अनेक परिवर्तन होते रहे हैं, जिनकी संक्षिप्त झाँकी संख्या की दृष्टि से चाहे यह संघ प्रभावशाली न हो किन्तु उनकी
इस आलेख में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है।
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प्राचीन मालवा के जैन विद्धान और उनकी रचनाएँ
डॉ. तेजसिंह गौड़
उज्जैन (म.प्र.).../
23
लवा भारतीय इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। समाप्त कर जब इनका दशपुर आगमन हुआ तो स्वागत के ना साहित्य के सम्बन्ध में भी यह पिछड़ा हुआ नहीं रहा है। समय माता रुद्रसोमा ने कहा - "आर्यरक्षित तेरे विद्याध्ययन से कालिदास जैसे कवि इस भूखण्ड की ही देन है। प्राचीन मालवा मुझे तब संतोष एवं प्रसन्नता होती जब तू जैन दर्शन और उसके में जैन-विद्वानों की भी कमी नहीं रही है। प्रस्तुत निबंध में साथ ही विशेषतः दृष्टिवाद का समग्र अध्ययन कर लेता।"माता , मालवा के सम्बन्धित जैन विद्वानों के संक्षिप्त परिचय के साथ की मनोभावना एवं उसके आदेशानुसार आर्यरक्षित इक्षुवाटिका उनकी कृतियों का भी परिचय देने का प्रयास किया जा रहा है। गये जहाँ आचार्य श्री तोसलीपुत्र विराजमान थे। उनसे दीक्षा इन विद्वानों के सम्बन्ध में सामग्री यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है। साथ ग्रहण कर जैन-दर्शन एवं दृष्टिवाद का अध्ययन किया। फिर ही आज भी जैनधर्म से सम्बन्धित कई ग्रन्थ ऐसे हो सकते हैं और उज्जैन में अपने गुरु की आज्ञा से आचार्य भद्रगुप्तसूरि एवं । होंगे भी जो प्रकाश में नहीं आए हैं। फिर भी उपलब्ध जानकारी के दतनेतर आर्य वज्रस्वामी के समीप पहुंचकर उनके अन्तेवासी अनुसार कुछ जैन-विद्वान और उनकी रचनायें निम्नानुसार है :- बनकर विद्याध्ययन किया। १. आचार्य भद्रबाह :- आचार्य भद्रबाहु का परिचय देने की आर्य वज्रस्वामी की मृत्यु के उपरांत आर्यरक्षितसूरि तेरह आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। कारण कि इन्हें प्रायः अधिकांश वर्ष तक युगप्रधान रहे। आपने आगमों को चार भागों में व्यक्ति जानते हैं। ये भगवान महावीर के पश्चात् छठे थेर माने निम्नानुसार विभक्त किया :जाते हैं। इनके ग्रंथ 'दसाउ' और 'दस निज्जति' के अतिरिक्त
१. करणचरणानुयोग, २. गणितानुयोग, ३. धर्मकथानुयोग 'कल्पसूत्र' का जैन धार्मिक-साहित्य में विशेष महत्व है। और ४. द्रव्यानुयोग । इसके साथ ही आर्यरक्षितसूरि ने अनुयोगद्वार २. क्षपणक :- ये सम्राट निक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक सूत्र की भी रचना की जो जैन-दर्शन का प्रतिपादक महत्वपर्ण थे। इनके रचे हुए न्यायावतार, दर्शनशुद्धि, सम्मतितर्कसत्र और आगम मान जाता है। यह आगम आचार्य प्रवर की दिव्यतम प्रमेयरत्न कोवा नामक चार ग्रंथ प्रसिद्ध है। इनमें न्यायावतार ग्रंथ दर्शनिक दृष्टि का परिचायक है। अपूर्व है। यह अत्यंत लघु ग्रंथ है, किंतु इसे देख कर सागर में मागर आर्यरक्षित सूरि का स्वर्गवास दशपुर में वीर संवत् ५८३ भरने की कहावत याद आ जाती है। ३२ श्लोकों के इस काव्य में में हआ। क्षपणक ने सारा जैन न्याय शास्त्र भर दिया है। न्यायावतार पर।
. (४) सिद्धसेन दिवाकर : पं. सुखलाल जी ने श्री सिद्धसेन चन्द्रप्रभसरि ने न्यायावतारनिवृत्ति नामक विशेष टीका लिखी है। दिवाकर के विषय में इस प्रकार लिखा है - जहाँ तक मैं जान (३) आर्य रक्षितसूरि : आपका जन्म मन्दसौर में हुआ था। पाया हूँ जैनपरम्परा में तर्क का और तर्कप्रधान संस्कृतवाडूमय पिता का नाम सोमदेव तथा माता का नाम रुद्रसोमा था। लघुभ्राता का आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर।" उज्जैन और विक्रम के का नाम फल्गुरक्षित था जो स्वयं भी आर्यरक्षितसूरि के कहने से साथ इनका पर्याप्त सम्बन्ध रहा है। रचनायें (१) 'सम्मति प्रकरण जैन साधु हो गया था।
प्राकृत में है और जैनदृष्टि और मंतव्यों को तर्क शैली में स्पष्ट इनके पिता सोमदेव स्वयं एक अच्छे विद्वान थे। आर्यरक्षित
न करने तथा स्थापित करने में जैन-वाङ्मय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है, की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर पिता के संरक्षण में हुई। फिर आगे
जिसका आश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर-दिगम्बर-विद्वानों ने
लिया है। सिद्धसेन दिवाकर ही जैन-परम्परा का आद्य संस्कृत अध्ययनार्थ ये पाटलीपुत्र चले गये। पाटलीपत्र से अध्ययन
स्तुतिकार है।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
(२) 'कल्याणमंदिरस्तोत्र' ४४ श्लोकों में है। यह भगवान् पार्श्वनाथ का स्तोत्र है। इसकी कविता में प्रसाद गुण कम और कृत्रिमता एवं श्लेष की अधिक भरमार है। परन्तु प्रतिभा की कमी नहीं है।
(३) वर्धमान शत्रिंशिधास्तोत्र ३२ श्लोकों में भगवान् महावीर की स्तुति है। इसमें कृत्रिमता एवं श्लेष नहीं है। प्रसादगुण
अधिक है । ६
इन दोनों स्तोत्रोंमें सिद्धसेन दिवाकर की काव्यकला उच्च श्रेणी की पाई जाती है।
(४) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका बड़े बड़े जैनाचार्यों ने की है। इसके रचनाकार को दिगम्बर सम्प्रदाय वाले 'उमा स्वामि' और श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले 'उमास्वाति' बतलाते हैं। इस ग्रंथ की टीका सिद्धसेन दिवाकर ने बड़ी विद्वत्ता के साथ लिखी है । " जिनसेन - ये पुन्नाट सम्प्रदाय की आचार्य परम्परा में हुए । ये आदिपुराण के कर्त्ता श्रावक धर्म के अनुयायी एवं पंचस्तूपान्वय के जिनसेन से भिन्न हैं। ये कीर्तिषेण के शिष्य थे।
५.
जिनसेन का 'हरिवंश' इतिहासप्रधान चरितकाव्य श्रेणी का ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की रचना वर्धमानपुर वर्तमान बदनावर जिला धार में की गई थी। दिगम्बरीय सम्प्रदाय के कथासंग्रहों में इसका स्थान तीसरा है।
६. हरिषेण: पुन्नाट संघ के अनुयायियों में एक दूसरे आचार्य हरिषेण हुए। इनकी गुरुपरम्परा मौनी भट्टारक श्री हरिषेण, भरतसेन, हरिषेण इस प्रकार बनती है। अपने कथाकोश की रचना इन्होंने वर्धमानपुर या बढवाण बदनावर में विनायकपाल राजा के शासनकाल में की थी । विनायकपाल प्रतिहार वंश का राजा था। जिसकी राजधानी कन्नौज थी। इसका एक ९८८ वि. सं. का दानपत्र मिला है। इसके एक वर्ष पश्चात् अर्थात् वि.क्र. ९८९, शक संवत् ८५३ में कथाकोश साढ़े बारह हजार श्लोक परिमाण का वृहद् ग्रन्थ है। यह संस्कृतपद्यों में रचा गया है और उपलब्ध समस्त कथाकोशों में प्राचीनतम सिद्ध होता है । इसमें १५७ कथायें हैं। जिनमें चाणक्य, शकराज, भद्रबाहु वररुचि, स्वामी कार्तिकेय आदि ऐतिहासिक पुरुषों के चरित्र भी हैं। इस कथाकोश के अनुसार भद्रबाहु उज्जयिनी के समीप भाद्रपद में ही रह रहे थे और उनके दीक्षित शिष्य राजा चन्द्रगुप्त,
अपरनाम विशाखाचार्य, संघ सहित दक्षिण के पुन्नाट देश को गये थे। कथाओं में कुछ नाम व शब्द जैसे मेदज्ज (मेतार्य), विज्जदाड़ (विद्युदंष्ट्र) प्राकृत रूप में प्रयुक्त हुए हैं जिससे अनुमान होता है कि रचयिता कथाओं को किसी प्राकृत-कृति के आधार पर लिख रहा है। उन्होंने स्वयं अपने कथाकोश को आराधनोधृत कहा है, जिससे अनुमानतः भगवताआराधना का अनुमान होता है । ११ ७. मानतुंग : इनके जीवन के सम्बन्ध में अनेक विरोधी विचार धाराएँ हैं। इनका समय सातवीं या आठवीं शताब्दी के लगभग माना जाता है।
रचनायें - इन्होंने मयूर और बाण के समान स्तोत्रकाव्य का प्रणयन किया। इनके भक्ताभरस्तोत्र का श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायवाले समान रूप से आदर करते हैं । कवि की यह रचना इतनी लोकप्रिय रही कि इसके प्रत्येक अन्तिम चरण को लेकर समस्यापूर्त्यात्मक स्तोत्रकाव्य लिखे जाते रहे। इस स्तोत्र की कई समस्यापूर्तियाँ उपलब्ध है (८) आचार्य देवसेन :- मार्गशीर्ष शुक्ला १० वि. सं. ९९० को धारा में निवास करते हुए पार्श्वनाथ के मंदिर में इन्होंने अपना ग्रन्थ 'दर्शनसार' समाप्त किया । १३ इन्होंने 'आराधनासार' और 'तत्त्वसार' नामक ग्रन्थ भी लिखे हैं । 'आलापपद्धति' और 'नयचक्र' आदि रचनायें आपने धारा में ही लिखीं अथवा अन्यत्र यह रचनाओं से ज्ञात नहीं होता। स्याद्वाद और नयवाद का स्वरूप समझने के लिए देवसेन की रचनायें बहुत उपयोगी हैं । १४ (९) आचार्य महासेन ये लाड़बागड़ संघ के पूर्णचन्द्र थे । आचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गुणाकरसेनसूरि के शिष्य थे। इन्होंने 'प्रद्युम्नचरित' की रचना ११ वीं शताब्दी के मध्य भाग में की ये मुंज के दरबार में थे तथा मुंज द्वारा पूजित थे। न तो इनकी कृति में ही रचनाकाल दिया हुआ है और न ही अन्य रचनाओं की जानकारी मिलती है।
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(१०) अमितगति :- आचार्य अमितगति द्वितीय माथुरसंघ के आचार्य थे जो माधवनसेनसूरि के शिष्य और नेमिषेण के प्रशिष्य थे। अमितगति वाक्यतिराज मुंज की सभा के रत्न थे।
बहुश्रुत विद्वान थे। इनकी रचनाएँ विविध विषयों पर उपलब्ध हैं । इनकी रचनाओं में एक पंचसंग्रह वि.सं. २०७३ में मसूतिकापूर वर्तमान मसूद बिलोदा, जो धार के समीप है, बनाया गया था।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासइन सब उल्लेखों से सुनिश्चित है कि अमितगति धारा नगरी और देवसेन-अमितगति(प्रथम) नेमिषेण - माधवसेन - उसके आसपास के स्थानों में रहे थे। उन्होंने प्रायः अपनी सभी अमितगति(द्वितीय) और शिष्यपरम्परा- शांतिषेण-अमरसेन - रचनायें धारा में या उसके समीपवर्ती नगरों में लिखीं। बहुत श्रीषेण-चन्द्रकीर्ति-अमरकीर्ति इस प्रकार रही है।२६ संभव है कि आचार्य अमितगति के गुरुजन धारा या उसके ११. माणिक्यनन्दी .. ये धारा निवासी थे और वहाँ दर्शन समीपवर्ती स्थानों में रहे हों। अमितगति ने सं. १०५० से १०७३ ।।
शास्त्र का अध्ययन करते थे। इनकी एक मात्र रचना परीक्षामुख तक २३ वर्ष के काल में अनेक ग्रंथों की रचना वहाँ की थी।५
नामक एक न्यायसूत्र ग्रन्थ है। जिसमें कुल २०७ सूत्र है। ये सूत्र कीथ१६ के अनुसार अमितगति क्षेमेन्द्र से अर्धशताब्दी सरल सरस और गम्भीर अर्थ द्योतक है। माणिक्यनन्दी ने आचार्य पहले हुए थे। उनके 'सुभाषितरत्नसंदोह' की रचना ९९४ वि.सं. में अकलंक देव के वचनसमुद्र का दोहन करके जो न्यायामृत हुई थी और उनकी धर्मपरीक्षा बीस वर्ष के अनन्तर लिखी गई। निकाला वह उनकी दार्शनिक प्रतिभा का द्योतक है।१८
१.सुभाषितरत्नसंदोह में ३२ परिच्छेद हैं जिनमें प्रत्येक में १२. नयनन्दी : ये माणिक्यनन्दी के शिष्य थे। इनके द्वारा साधारणतः एक ही छन्द का प्रयोग किया गया है। इसमें जैन- रचित 'सुदर्शनचरित्र' एक खण्डकाव्य है जो महाकाव्यों की श्रेणी नीतिशास्त्र के विभिन्न दष्टिकोणों का आपाततः विचार किया में रखने योग्य है। इसकी रचना वि.सं. ११०० में हुई।१९ सकल गया है, साथ साथ ब्राह्मणों के विचार और आचार के प्रति विहिविहाण इनकी दूसरी रचना है जो एक विशाल काव्य है। इसकी प्रवृत्ति विसंवादात्मक है। प्रचलित रीति के अनुसार स्त्रियों इसकी प्रशस्ति में इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की गई पर खूब आक्षेप किये गये है और एक पूरा परिच्छेद वेश्याओं के है। उसमें कवि ने ग्रन्थ बनाने के प्रेरक हरिसिंह मुनि का उल्लेख सम्बन्ध में है। जैनधर्म के आप्तों का वर्णन २८ वें परिच्छेद में करते हुए अपने से पूर्ववर्ती जैन-जैनेतर और कुछ समसामयिक किया गया है। ब्राह्मणधर्म के विषय में कहा गया है कि वे उक्त विद्वानों का भी उल्लेख किया है। समसामयिक विद्वानों में श्रीचन्द्र,
आप्तजनों की समानता नहीं कर सकते, क्योंकि वे स्त्रियों के पीछे प्रभाचन्द्र, श्रीकुमार का उल्लेख किया है। राजा भोज ने हरिसिंह कामातुर रहते हैं; मद्यसेवन करते हैं और इन्द्रियासक्त होते हैं। के नामों के साथ बच्छराज और प्रभु ईश्वर का भी उल्लेख किया २. धर्मपरीक्षा : इसमें भी ब्राह्मण धर्म पर आक्षेप किये
है जिसने दुर्लभ प्रतिमाओं का निर्माण कराया था। यह ग्रन्थ गये हैं और इससे अधिक आख्यानमूलक साक्ष्य की सहायता
इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व का है। कवि के दोनों ग्रन्थ
अपभ्रंश भाषा में है। इसका रचना काल वि.सं. ११०० है।२१ ली गई है। ३. पंसंग्रह के सम्बन्ध में ऊपर उल्लेख हो चका है। (१३) प्रभाचन्द्र :-ये माणिक्यनदी के विद्याशिष्यों में प्रमख
रहे हैं। ये उनके परीक्षामुख नामक सूत्रग्रंथ के कुशल टीकाकार ४. उपासकाचार ; ५. आराधनासामायिकपाठ
भी हैं और दर्शनसाहित्य के अतिरिक्त वे सिद्धान्त के भी विद्वान ६. भावनाद्वात्रिंशतिका, ७. योगसार (प्राकृत)आदि रचनायें
थे। आचार्य प्रभाचन्द्र ने धारा नगरी में रहते हुए केवल दर्शन अमितगति द्वारा लिखी गईं। इसके अतिरिक्त उनकी निम्नलिखित
शास्त्र का ही अध्ययन नहीं किया, प्रत्युत्त धाराधिप भोज से रचनाएं आज उपलब्ध नहीं है:- १. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २. चन्द्रप्रज्ञप्ति
प्रतिष्ठा पाकर अपनी विद्वत्ता का विकास भी किया। साथ ही ३. सार्धद्वयद्वीप प्रज्ञप्ति और ४. व्याख्याप्रज्ञप्ति ।
विशाल दार्शनिक ग्रन्थों के निर्माण के साथ अनेक ग्रन्थों की अमितगति बहुमुखी प्रतिभा के विद्वान थे। जैनधर्म के रचना की।२२ इनके द्वारा रचित ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैअतिरिक्त संस्कृत के क्षेत्र में भी उनका ऊँचा स्थान माना जाता
१. प्रमेयकमलमार्तण्ड - यह दर्शनग्रन्थ है जो माणिक्य है। वि.सं. ९५३ में माथुरों के गुरु रामसेन ने काष्ठा संघ की एक
नन्दी के परीक्षामुख ग्रन्थ की टीका है। यह ग्रन्थ राजा भोज के शाखा मथुरा में माथुर-संघ का निर्माण किया था। अमित-गति
समय रचा गया था। २३ इसी माथुर संघ का निर्माण किया था। अमितगति इसी माथुर संघ के अनुयायी थे। अमितगति की गुरु-परम्परा-वीरसेन
२. न्यायकुमुदचन्द्र - यह जैनन्याय का प्रामाणिक ग्रन्थ . माना जाता है।२४
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास३. आराधनाकथाकोश - इसमें चन्द्रगुप्त के अतिरिक्त है। इसे सिद्धचक्र भी कहते है, क्योंकि इसके प्रत्येक सर्ग के समन्तभद्र और अकलंक के चरित्र भी वर्णित है।२५
अंत में सिद्ध पद आया है।३१ ४. पुष्पदन्त के महापुराण पर टिप्पण ५. समाधितंत्रटीका, . ४. ज्ञानदीपिका ५. राजमतिविप्रलम्भ - खण्डकाव्य ६. प्रवचनसरोजभास्कर ७. पंचास्तिकायप्रदीप, ८.
६. अध्यात्मरहस्य - (योगसार) - इसमें ७२ संस्कृत आत्मानुशासनतिलक, ९. क्रियाकलापटीका, १०. रत्नकरण्ड- श्लोकों द्वारा आत्मशद्धि, आत्मदर्शन एवं अनभति के योग की टीका, ११. वृहत्स्वयम्भूस्तोत्रटीका १२. शब्दाम्भोजटीका। इनके
भूमिका का प्ररूपण किया गया है। रचनाकाल के सम्बन्ध में जानकारी नहीं मिलती है। प्रभाचन्द्र
७. मूलाराधनाटीका ८. इष्टोपदेशटीका ९. भूपालचतुर्विंश का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और बारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिये।२६
तिकाटीका १०. आराधनासारटीका ११. अमरकोशटीका
१२.क्रियाकलाप - व्याकरणग्रन्थ १३. काव्यालंकारटीका - इन्होंने देवनन्दी की तत्त्वार्थवृत्ति के विषम पदों का एक
अलंकारग्रन्थ १४. सहस्त्रनामस्तवनसटीक, १५. जिनयज्ञ विवरणात्मक टिप्पण लिखा। इनके नाम से अष्टपाहुड पञ्जिका,
कल्पसटीक - इसका दूसरा नाम प्रतिष्ठासारोद्धार धर्मामृत का मूलाचारटीका, आराधनाटीका, आदि ग्रन्थों का भी उल्लेख मिलता
एक अंग है। १६. त्रिषष्टि - स्मृतिशास्त्रसटीक १७. नित्य है, जो उपलब्ध नहीं हैं।
महोद्योतअभिषेकपाठस्नानशास्त्र १८. रत्नत्रयविधान, १९. १४. आशाधर :- पंडित आशाधर संस्कृत-साहित्य के अपारदर्शी अष्टांगहृदयीद्योतिनीटीका-वाग्भट के आयुर्वेदग्रन्थ अष्टांग हृदयी विद्वान थे। ये मांडलगढ़ के मूलनिवासी थे किन्तु मेवाड़ पर की टीका, २०. धर्मामृत मूल, २१ भव्यकुमुदचन्द्रिका - धर्मामृत मुसलमान बादशाह शहाबुद्दीन गौरी के आक्रमणों से त्रस्त होकर पर लिखी गई टीका। मालवा की राजधानी धारानगरी में अपनी स्वयं एवं परिवार की
आशाधर काव्य, न्याय, व्याकरण, शब्दकोश, अलंकार, रक्षा के निमित्त अन्य लागा क साथ आकर बस गय था प. धर्मशास्त्र योगशास्त्र. स्तोत्र और वैद्यक आदि सभी विषयों में आशाधर बघेरवाल जाति के श्रावक थे। इनके पिता
असाधारण थे। का नाम सल्लक्षण एवं माता का नाम श्री रत्नी था। सरस्वती
१५. श्रीचन्द्र : ये धारा के निवासी थे। लाड़बागड़ संघ और नामक इनकी पत्नी थी- जो बहुत सुशील एवं सुशिक्षिता थी।
बलात्कारगण के आचार्य थे। इनके ग्रन्थ इस प्रकार हैं -१. इनके एक पुत्र भी था, जिसका नाम छाहड़ था। इनका जन्म किस संवत् में हुआ यह तो निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता
रविषेण कृत पद्मपुराण पर टिप्पण। २. पुराणसार ३. पुष्पदन्त के किंतु ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इनका जन्म वि.सं.
महापुराण पर टिप्पण ४. शिवकोटि की भगवती-आराधना पर १२३४-३५ के लगभग अनुमानित है।२६ ये नालछा (धार
टिप्पण। पुराणसार सं. १०८० में पद्मचरित की टीका वि.सं. जिला) में ३५ वर्ष तक रहे और अपनी साहित्यिक गतिविधियों
१०८७ में उत्तर पुराण का टिप्पण वि.सं. १०८० में राजा भोज के का केन्द्र बनाया। इनकी रचनाओं का विवरण इस प्रकार है
समय रचा। टीकाप्रशस्तियों में श्रीचन्द्र ने सागर सेन और प्रवचनसेन
नामक दो सैद्धांतिक विद्वानों का उल्लेख किया है जो धारा के १. सागरधर्मामृत - सप्त व्यसनों के अतिचार का ।
| निवासी थे। इससे स्पष्ट विदित होता है कि उस समय धारा में वर्णन। श्रावक की दिनचर्चा और साधक की समाधिव्यवस्था
अनेक जैन-विद्वान और आचार्य निवास करते थे। इनके गुरु आदि इसकेवर्ण्य विषय हैं।२८ रचनासमाप्ति का समय वि.सं.
का नाम श्रीनन्दी का। १२९६ है।२९
१६. कवि दामोदर :- वि.सं. १२८७ में ये गुर्जर देश से मालवा २. प्रमेयरत्नाकर - यह स्याद्वाद विद्या की प्रतिष्ठापना
में आये और मालवा के सल्लखणपुर को देखकर संतुष्ट हो गये।
आगरा करने वाला ग्रन्थ है।३९ ।
ये मेडेत्तम वंश के थे। पिता का नाम कवि माल्हण था जिसने ३. भरतेश्वराभ्युदय - इसमें भारत के ऐश्वर्य का वर्णन दल्ह का चरित्र बनाया था। कवि के ज्येष्ठ भ्राता का नाम जिन
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासदेव था। कवि दामोदर ने सल्लखणपुर में रहते हुए पृथ्वीधर के उल्लेख किया है कि उसने राष्ट्र कूट राजा खोट्टिगदेव की लक्ष्मी पुत्र रामचन्द्र के उपदेश एवं आदेश से तथा मल्हपुत्र नागदेव के का अपहरण किया था। इस कोश में अमरकोश की रीति से अनुरोध से नेमिनाथ चरित्र वि.सं. १८७ में परमार वंशीय राजा । प्राकृत-पद्यों में लगभग एक हजार प्राकृत शब्दों के पर्यायवाची देवपाल के शासन काल में बनाकर समाप्त किया।
शब्द कोई २५० गाथाओं में दिये हैं। प्रारम्भ में कमलासनादि १७. भट्टारक श्रुतकीर्ति - ये नदी संघ बलात्कारगण और
अठारह नाम-पर्याय एक एक गाथा में, फिर लोकाग्र आदि १६७ सरस्वतीगच्छ के विद्वान थे। ये त्रिभूवनमूर्ति के शिष्य थे। अपभ्रंश
तक नाम आधी-आधी गाथा में, तत्पश्चात्, ५९७ तक एक-एक भाषा के विद्वान थे। आपकी उपलब्ध सभी रचनायें अपभ्रंश
चरण में और शेष छिन्न अर्थात् एक गाथा में कहीं चार कहीं पाँच भाषा के पद्धडिया छन्द में रची गई हैं। चार रचनायें उपलब्ध हैं
और कहीं छह नाम दिये गये हैं। ग्रन्थ के ये ही चार परिच्छेद कहे
जा सकते हैं। अधिकांश नाम और उनके पर्याय तद्भव हैं। १. हरिवंशपुराण - जेरहट नगर के नेमिनाथ चैत्यालय .
सच्चे देशी शब्द अधिक से अधिक पञ्चमांस होंगे।३४ में सं. १५५२ माघ कृष्णा पंचमी सोमवार के दिन हस्तनक्षत्र के समय इसे पूर्ण किया।
२. तिलकमंजरी - यह गद्यकाव्य है और इसकी भाषा
बड़ी ओजस्विनी है।३५ २. धर्मपरीक्षा - इस ग्रन्थ को भी सं. १५५२ में रचा। क्योंकि इसके रचे जाने का उल्लेख अपने दूसरे ग्रन्थ परमेष्ठि.
३. अपने छोटे भाई शोभनमुनिकृत स्तोत्र ग्रन्थ पर एक प्रकाशसार में किया है।
संस्कृत-टीका। ३. परमेष्ठिप्रकाशसार - इसकी रचना वि.सं. १५५३
४. ऋषभपंचाशिका ५. महावीरस्तुति ६. सत्यपुरीय की गरुपंचमी के दिन मांडवगढ के दर्ग और जेरहट नगर के ७. महावीरउत्साह-अपभ्रंश और ८. वीरथुई इनकी कृतियाँ है। नेमिश्वर जिनालय में हुई।
१९. कवि वीर - ये अपभ्रंश भाषा के कवि थे। इनके द्वारा ४. योगसार - यह ग्रन्थ सं. १५७२ मार्गशीर्ष महीने के रचित वरांगचरित, शांतिनाथचरित, सद्धय वीर अम्बादेवी राय शुक्ल पक्ष में रचा गया। इसमें गृहस्थोपयोगी सैद्धांतिक बातों पर और जम्बूसामिचरिउ का पता चलता है। किंतु इनकी प्रथम प्रकाश डाला गया है। साथ में कुछ मुनिचर्या आदि का भी
चार रचनाओं में से आज एक भी उपलब्ध नहीं है। पाँचवी कृति उल्लेख किया गया है।
'जम्बूसामिचरिउ' की अंतिम प्रशस्ति के अनुसार वि. सं. १०७६
में माघ शुक्ला दसवीं को लिखी गई। कवि ने ११ संधियों में १८. कवि धनपाल - ये मूलत: ब्राह्मण थे। लघु भ्राता से जैन
चम्बूस्वामी का चरित्र चित्रण किया है। वीर के जम्बूसामिचरित्र धर्म में दीक्षित हुए। पिता का नाम सर्व देव था। वाक्पतिराज
में ११ वीं सदी के मालवा का लोकजीवन सुरक्षित है। वीर के मुंज की विद्वत् सभा के रत्न थे। मुंज द्वारा इन्हें सरस्वती की
साहित्य का महत्त्व मालवा की भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक उपाधि दी गई थी। संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं पर इनका
और लोकसंस्कृति की दृष्टि से तो है ही परन्तु सर्वाधिक महत्त्व समान अधिकार था। मुंज के सभासद होने से इनका समय ११
मालवी भाषा की दृष्टि से है। मालवी शब्दावली का विकास वीं शताब्दी में निश्चित होता है।
'वीर' की भाषा में खोजा जा सकता है। इन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे जो इस प्रकार है -
२०. मेरुतुंगाचार्य - इन्होंने अपना प्रसिद्ध ऐतिहासिक सामग्री १. पाइअ लच्छी नाम माला - इसकी प्रशस्ति के से परिपूर्ण ग्रन्थ प्रबंध चिंतामणि वि.सं. १३६१ में लिखा। इसमें अनुसार कर्ता ने अपनी भगिनी सुन्दरी के लिए धारा नगरी में पाँच सर्ग हैं। इसके अतिरिक्त विचारश्रेणी स्थविरावली और वि.सं. १०२९ में लिखी थी, जबकि मालवनरेन्द्र द्वारा वि.सं.१०२९ महापुरुषचरित या उपदेशशती जिसमें ऋषभ देव, शांतिनाथ में मान्यखेट लूटा गया था। यह घटना ऐतिहासिक प्रमाणों से नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्धमान महावीर तीर्थकरों के विषय में भी सिद्ध होती है। धारा नरेश हर्षदेव ने एक शिलालेख में जानकारी है. की रचना की।
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास२१. तारण स्वामी - ये तारण-पंथ के प्रवर्तक आचार्य थे। ९. संगतिमंडन - यह संगति से सम्बन्धित ग्रन्थ है। इनका जन्म पुहुपावती नगरी में सन् १४४८ में हुआ था। इनके
१०. कविकल्पद्रुमस्कन्ध - इस ग्रन्थ का उल्लेख मंडन पिता का नाम राढा साव था। वे दिल्ली के बादशाह बहलोल लेना लोदी के दरबार में किसी पद पर कार्य कर रहे थे। आपकी शिक्षा
२३. धनदराज - यह मंडन का चचेरा भाई था। इसने शतकमय श्री श्रुतसागर मुनि के पास हुई। इन्होंने चौदह ग्रन्थों की रचना २२. की, जिनके नाम इस प्रकार हैं
(नीति, शृंगार और वैराग्य) की रचना की। नीतिशतक की प्रशस्ति
से विदित होता है कि ग्रन्थ उसने मंडपदुर्ग में सं. १४९० में १. श्रावकाचार २. मालाजी ३. पंडितपूजा ४. कलम - लिखे। बत्तीसी, ५. न्यायसमुच्चयसार ६. उपदेशशुद्धसार ७. त्रियंगी
आगे और विस्तार में न जाते हए इतना ही कहना पर्याप्त सार, ८. चौबीस ठाणा ९. ममलपाहु, १०. सुन्नस्वभाव ११. सिद्धस्वभाव १२. रवात का विशेष १३. छद्मस्थ वाणी और
होगा कि मालवा में जैन-विद्वानों की कमी नहीं रही है। यदि इस
दिशा में और भी अनुसंधान किया जाए तो जैन विद्वानों और १४. नाम माला।
उनकी रचनाओं पर एक अच्छा ग्रन्थ तैयार हो सकता है। २२. मंत्रीमंडन : यह झांझण का प्रपौत्र और बाहड़ का पुत्र था। विश्राम है कि इस ओर ध्यान दिया जायेगा। यह बहुमुखी प्रतिभावान था। मालवा के सुलतान होशंग गौरी का प्रधानमंत्री था। इसके द्वारा लिखे गये ग्रंथों का विवरण इस
सन्दर्भ प्रकार है
१. संस्कृति-केन्द्र उज्जयिनी (पृष्ट ११२-११४) में विस्तृत विवरण १. काव्यमंडन - इसमें पांडवों की कथा का वर्णन है।।
उज्जयिनी - दर्शन, पृष्ठ ९३ २. शृंगार मंडन - यह शृंगार रस का ग्रन्थ है। इसमें १०८
विस्तृत विवरण के लिए द्रष्टव्य (क) श्री राजेन्द्र सूरि स्मारक श्लोक हैं।
ग्रन्थ, पृ. ४५२ से ४५९ (ख) श्री पट्टावली पराग संग्रह, पृ१३६ ३. सारस्वतमंडन - यह सारस्वत व्याकरण पर लिखा ४. स्व. बाबू श्री बहादुरसिंह जी सिंधी स्मृति ग्रन्थ, पृ.१० गया ग्रन्थ है। इसमें ३५०० श्लोक हैं।
The Jain Sources of the History of Ancient India.
Page 150-151 ४. कादम्बरीमंडन - यह कादम्बरी का संक्षिप्तीकरण है ६. संस्कृति-केन्द्र उज्जयिनी, पृ. ११८ जो सुलतान को सुनाया गया था। इस ग्रन्थ की रचना सं. १५०४ ७. वही, पृ. ११८ में हुई थी।
८. . वही, पृ. ११६
9. The Jain sources of the History of India, ५. चम्पूमंडन - यह ग्रन्थ पांडव और द्रौपदी के कथानक
Page 195 andonward. पर आधारित जैनसंस्करण है। रचना-तिथि सं. १५०४ है।
१०. संस्कृत साहित्य का इतिहास गैरोला पृ. ३५१-३५२ ६. चन्द्रविजयप्रबंध - इस ग्रन्थ की रचना-तिथि सं. ११. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. ११६ १५०४ है। इसमें चन्द्रमा की कलाएँ, सूर्य के साथ युद्ध और १२. अनेकान्त, वर्ष १८ किरण ६, पृ. २४२ एवं आगे चन्द्रमा की विजय आदि का वर्णन है।
१३. गुरू गोपालदास वरैया स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ ५४४ ७. अलंकारमंडन - यह साहित्यशास्त्र का पाँच परिच्छेद १४. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, प्र. ८६ में लिखित ग्रन्थ है। काव्य के लक्षण, भेद और रीति. काव्य के १५. गुरु गोपाल दास वरैया स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ ५४५ दोष और गुण, रस और अलंकार आदि का इसमें वर्णन है। १६. संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग - २, पृ. २८६-८७, इसकी रचनातिथि भी सं. १५०४ है।
अनुवादक-मंगल देव शास्त्री
१७. संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग-२, ८. उपसर्गमंडन - यह व्याकरण-रचना पर लिखित ग्रन्थ है।
पृष्ठ ३४४-४५ nanodwordarsanoramidnironioradnoramirontraramid१६Horsriraramidniramirsindanbarodairandavar
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास१८. गुरु गोपाल दास वरेया स्मृतिग्रन्थ, पृ. ५४६
२९. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. ११४ १५. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. १६३ ३०. वीरवाणी, वर्ष १८, अंक १३, पृ. २१ २०. गुरुगोपाल दास वरैया स्मृति-ग्रन्थ, पृ. ५४६-४८ ३१. वही, पृ. २१-२२ २१. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. ६४ ३२. संस्कृत साहित्य का इतिहास, गैरोला, पृ. ३४६ २२. गुरु गोपाल दास वरैया स्मृति ग्रन्थ, पृ.५४८ एवं आगे ३३. गुरु गोपाल दास वरैया स्मृतिग्रन्थ, पृष्ठ ५४६ २३. वही, पृ. ५४८
३४. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. १९५-९६ २४. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. ८९ ३५. वही, पृ. १६४ २५. वही, पृ. १६८
३६. मंत्री-मंडन से सम्बन्धित अधिक जानकारी के लिए देखें २६. गुरु गोपालदास वरैया स्मृतिग्रन्थ, पृ. ५५०
- (क) जैन साहित्य नो इतिहास, मो.क. देसाई (ख) २७. अनेकान्त, वर्ष १६ किरण २ जून १९६४, पृ. ५५०
The Jain Antiquary, Vols IX No. II of 1943 & XI २८. संस्कृत साहित्य का इतिहास गैरोला, पृ. ३४६
No.2 of 1946
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श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय
डॉ. शिवप्रसाद शोध अध्येता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी....)
विश्व के सभी धर्म एवं संप्रदाय अपने उद्भव के पश्चात् परंपरा दिगंबर सम्प्रदाय के रूप में जानी गई। कालान्तर में अनेक शाखाओं-उपशाखाओं आदि में विभाजित
. उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में लगभग दसरी शती में वस्त्र होते रहे हैं। जैनधर्म भी इसका अपवाद नहीं है। यह विभाजन
के प्रश्न को लेकर संघ-भेद हुआ और एक नवीन परंपरा का अनेक कारणों से होता रहा है और इनमें सबसे प्रधान कारण रहा
उद्भव हुआ जो आगे चलकर बोटिक या यापनीय नाम से है--देश और काल की परिवर्तनशील परिस्थितियाँ एवं परिवेश।
प्रसिद्ध हुई। पीछे से जो संघभेद हुए उनके मूल में सैद्धान्तिक इन्हीं के फलस्वरूप परंपरागत प्राचीन विधि-विधानों के स्थान
विधि-विधान संबंधी भेद अवश्य विद्यमान रहे, किन्तु यहाँ इन पर नवीन विधि-विधानों और मान्यताओं को प्रश्रय देने से मूल
सबकी चर्चा न करते हुए मात्र श्वेताम्बर सम्प्रदाय में समयपरंपरा में विभेद उत्पन्न हो जाता है। कभी-कभी यह मतभेद
समय पर उत्पन्न एवं विकसित हुए विभिन्न गच्छों की चर्चा प्रस्तुत वैयक्तिक अहं की पुष्टि और नेतृत्व के प्रश्न को लेकर भी होता
की गई है। है, फलत: एक नई शाखा अस्तित्व में आ जाती है। पुनः इन्हीं कारणों से उसमें भी भेद होता है और नई-नई उपशाखाओं का
. उत्तर और पश्चिम भारत का श्वेताम्बर संघ प्रारंभ में तो उदय होता रहता है।
वारणगण, मानवगण, उत्तरवल्लिसहगण आदि अनेक गणों और
उनकी कुल शाखाओं में विभक्त था, किन्तु कालान्तर में कोटिक निर्ग्रन्थ-श्रमण-संघ में भगवान महावीर के समय में ही
गण को छोड़कर शेष सभी कुल और शाखाएँ समाप्त हो गईं। गोशालक' एवं जामालिने संघभेद के प्रयास किए, परंतु
आज के श्वेताम्बर मुनिजन स्वयं को इसी कोटिकगण से संबद्ध गोशालक आजीवक संघ में सम्मिलित हो गया और जामालि
मानते हैं। इस गण से भी अनेक शाखाएँ अस्तित्व में आईं। उनमें की शिष्य-परंपरा आगे नहीं चल सकी।
उच्चनागरी, विद्याधरी, वज्री, माध्यमिका, नागिल, पद्मा, जयंति वीरनिर्वाण के बाद की शताब्दियों में निर्ग्रन्थ-श्रमण-संघ आदि शाखाएँ प्रमुख रूप से प्रचलित रहीं। इन्हीं से आगे चलकर विभिन्न गण, शाखा, कुल और अन्वयों में विभक्त होता गया। नागेन्द्र, निवृत्ति, चन्द्र और विद्याधर ये चार कुल अस्तित्व में आए। कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों में वीरनिर्वाण संवत् पूर्व मध्ययुगीन श्वेताम्बर गच्छों का इन्हीं से प्रादुर्भाव हुआ। ९८० अर्थात् विक्रम संवत् की ५वीं-६ठी शताब्दी तक उत्तर
ईसवी सन की छठी-सातवीं शताब्दी से ही श्वेताम्बर श्रमण भारत की जैन-परंपरा में कौन-कौन से जैन आचार्यों से कौन
परंपरा को पश्चिमी भारत (गुजरात और राजस्थान) में राजाश्रय कौन से गण, कुल और शाखाओं का जन्म हुआ, इसका सुविस्तृत
प्राप्त होने से इसका विशेष प्रचार-प्रसार हुआ, फलस्वरूप वहाँ विवरण संकलित है। ये सभी गण कुल और शाखाएँ गुरु-परंपरा
अनेक नए-नए जिनालयों का निर्माण होने लगा। जैन-मुनि भी विशेष से ही संबद्ध रही है। इनके धार्मिक विधि-विधानों में ।
अब वनों को छोड़कर जिनालयों के साथ संलग्न भवनों किसी प्रकार का मतभेद था या नहीं, यदि मतभेद था तो किस
(चैत्यालयों) में निवास करने लगे। स्थिर वास एवं जिनालयों प्रकार का था? इन बातों की जानकारी हेतु हमारे पास कोई
का स्वामित्व प्राप्त होने के फलस्वरूप इन श्रमणों में अन्य दोषों साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
के साथ-साथ परस्पर विद्वेष एवं अहंभाव का भी अंकुरण हुआ। निर्ग्रन्थ-श्रमण-संघ के जो श्रमण दक्षिण में चले गए थे, इनमें अपने-अपने अनुयायियों की संख्या में वृद्धि करने की वे भी कालान्तर में गणों एवं अन्वयों में विभाजित हुए। यह होड़ सी लगी हुई थी। इन्हीं परिस्थितियों में श्वेताम्बर श्रमणसंघ
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासविभिन्न नगरों, जातियों, घटनाविशेष तथा आचार्यविशेष के आधार स्थान से हर्षपुरीयगच्छ, पल्ली (वर्तमान पाली) नामक स्थान
| होने लगा। विभाजन की यह प्रक्रिया दसवीं- से पल्लीवालगच्छ आदि अस्तित्व में आए। यद्यपि स्थानाविशेष ग्यारहवीं शताब्दी में तेजी से प्रारंभ हई, जिसका क्रम आगे भी के आधार पर ही इन गच्छों का नामकरण हुआ था, किन्तु जारी रहा।
सम्पूर्ण पश्चिमी भारत के प्रमुख जैन तीर्थों एवं नगरों में इन गच्छों - श्वेताम्बर श्रमणों का एक ऐसा भी वर्ग था जो श्रमणावस्था
के अनुयायी श्रमण एवं श्रावक विद्यमान थे। यह बात सम्पूर्ण में सुविधावाद के पनपने से उत्पन्न शिथिलाचार का कट्टर विरोधी
पश्चिमी भारत के विभिन्न स्थानों में इनके आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित था। आठवीं शताब्दी में हुए आचार्य हरिभद्र ने अपने समय के प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होती है। चैत्यवासी श्रमणों के शिथिलाचार का अपने ग्रंथ संबोधप्रकरण कछ गच्छ तो घटनाविशेष के कारण ही अस्तित्व में में विस्तृत वर्णन किया है और इनके विरुद्ध अपनी आवाज आए। जैसे चंद्रकुल के आचार्य धनेश्वरसूरि (वादमहार्णव के उठाई है। चैत्यवासियों पर इस विरोध का प्रतिकूल असर पड़ा रचनाकार अभयदेवसूरि के शिष्य) साधुजीवन के पूर्व कर्दम
और उन्होंने सुविहितमार्गीय श्रमणों का तरह-तरह से विरोध नामक राजा थे, इसी आधार पर उनके शिष्य राजगच्छीय कहलाए। करना प्रारंभ किया। गुर्जर प्रदेश में तो उन्होंने चावड़ावंशीय
इसी प्रकार आचार्य उद्योतनसूरि ने आबू के समीप स्थित शासक वनराज चावड़ा से राजाज्ञा जारी करा सुविहितमार्गियों केली
टेली नामक ग्राम में वटवृक्ष के नीचे सर्वदेवसरि आदि ८ का प्रवेश ही निषिद्ध करा दिया। फिर भी सुविहितमार्गीय श्रमण
मुनियों को एक साथ आचार्य पद प्रदान किया। वटवृक्ष के शिथिलाचारी श्रमणों के आगे नहीं झुके और उन्होंने चैत्यवास
आधारपर इन मुनिजनों का शिष्य परिवार वटगच्छीय कहलाया। का विरोध जारी रखा। अंतत: चौलुक्य नरेश दुर्लभराज (वि.सं.
वटवृक्ष के समान ही इस गच्छ की अनेक शाखाएँ-उपशाखाएँ १०६६-१०८२) की राजसभा में चंद्रकुलीन वर्द्धमानसूरि के शिष्य
अस्तित्व में आयीं, अतः इसका एक नाम बृहद्गच्छ भी पड़ जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर गुर्जर
गुजर गया। इसी प्रकार खरतरगच्छ, आगमिकगच्छ, पूर्णिमागच्छ,
: भूमि में सुविहितमार्गियों के विहार और प्रवास को निष्कंटक
सार्धपूर्णिमागच्छ, अंचलगच्छ, पिप्पलगच्छ आदि भी घटनाविशेष बना दिया।
से ही अस्तित्व में आए। कालदोष से सुविहितमार्गीय श्रमण भी परस्पर मतभेद के
चाहमानरेश अर्णोराज (ई.सन् ११३९-११५३) की राजसभा शिकार होकर समय-समय पर बिखरते रहे, फलस्वरूप नए नए
नए नए में दिगम्बर आचार्य कुलचन्द्र को शास्त्रार्थ में पराजित करने
में गच्छ (समदाय) अस्तित्व में आते रहे। जैसे चंद्रकुल की एक वाले आचार्य धर्मघोषसरि राजगच्छीय आचार्य शीलभद्रसरि के शाखा वडगच्छ से पूर्णिमागच्छ सार्धपूर्णिमागच्छ, सत्यपुरीयशाखा शिष्य थे। चूँकि ये अपने जीवनकाल में यथेष्ट सिद्धि प्राप्त कर आदि अनेक शाखाएँ-उपशाखाएँ अस्तित्व में आईं। इसी प्रकार
चुके थे, अतः इनकी मृत्यु के पश्चात् इनकी शिष्य-संतति खतरगच्छ से भी कई उपशाखाओं का उदय हुआ।
धर्मघोषगच्छीय कहलायी। जैसा कि लेख के प्रारंभ में कहा जा चुका है एक स्थान
इस प्रकार स्पष्ट है कि विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न पर स्थायी रूप से रहने की प्रवृत्ति से मुनियों एवं श्रावकों के
कारणों से श्वेताम्बर श्रमणसंघ का विभाजन होता रहा और नए
सात मध्य स्थायी संपर्क बना, फलस्वरूप उनकी प्रेरणा से नए-नए नए गच्छ अस्तित्व में आते रहे। इन गच्छों का इतिहास जैनधर्म जिनालयों एवं वसतियों का द्रुतगति से नामकरण होने लगा।
के इतिहास का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अध्याय है, परन्त इस स्थानीयकरण की इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप स्थानों के नाम पर को
ओर अभी तक विद्वानों का ध्यान बहुत कम ही है। आज से ही कुछ गच्छों का भी नामकरण होने लगा, यथा-कोरटा नामक
लगभग ४० वर्ष पूर्व महान् साहित्यसेवी स्व.श्री अगरचंद जी स्थान से कोरंटगच्छ, नाणा नामक स्थान से नाणकीयगच्छ,
नाहटा ने यतीन्द्रसूरि-अभिनन्दनग्रन्थ में 'जैन-श्रमणों के इतिहास
सर ब्रह्माण (आधुनिक वरमाण) नामक स्थान से ब्रह्माणगच्छ, संडेर
15र पर संक्षिप्त प्रकाश' नामक लेख प्रकाशित किया था और लेख
प (वर्तमान संडेराव) नामक स्थान से संडेरगच्छ, हरसोर नामक के प्रारंभ में ही विद्वानों से यह अपेक्षा की थी कि वे इस कार्य के rowariwariwariwaridrowaroomidiariwariwarministrart १९ drinidminiraniwandroinokarodrowdodkarirande
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासलिए आगे आएँ। स्व. नाहटा जी के उक्त कथन को आदेश वि.सं. १६८३ तक के हैं। उपलब्ध साक्ष्यों से इस गच्छ की दो मानते हुए प्रो. एम.ए. ढाँकी और प्रो. सागरमल जैन की प्रेरणा शाखाओं-धंधूकीया और विलाबंडीया का पता चलता है। और सहयोग से मैंने श्वेताम्बर श्रमणों के गच्छों के इतिहास के .
-
.
उपकेशगच्छ१४ पूर्वमध्यकालीन और मध्यकालीन लेखन का कार्य प्रारंभ किया है। यद्यपि मैंने साहित्यिक और श्वेताम्बर परंपरा में उपकेशगच्छ का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर विभिन्न गच्छों का इतिहास
जहाँ अन्य सभी गच्छ भगवान महावीर से अपनी परंपरा जोड़ते लिखने का प्रयास किया है, किन्तु प्रस्तुत लेख में गच्छों का
हैं, वहीं उपकेशगच्छ अपना संबंध भगवान पार्श्वनाथ से जोड़ता मात्र परिचयात्मक विवरण आवश्यक होने से नाहटा जी के नाम
है। अनुश्रुति के अनुसार इस गच्छ का उत्पत्तिस्थल उपकेशपुर उक्त लेख का अनुसरण करते हुए गच्छों का संक्षिप्त विवरण
(वर्तमान ओसिया, राजस्थान) माना जाता है। परंपरानुसार इस प्रस्तुत किया गया है।
गच्छ के आदिम आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीर संवत् ७० में अंचलगच्छ अपरनाम विधिपक्ष वि.सं. ११५९ या ११६९ ओसवालगच्छ की स्थापना की, परन्तु किसी भी प्राचीन ऐतिहासिक में उपाध्याय विजयचन्द्र (बाद में आर्यरक्षितसूरि) द्वारा विधिपक्ष साक्ष्य से इस बात की पुष्टि नहीं होती। ऐतिहासिक साक्ष्यों के का पालन करने के कारण उनकी शिष्य-संतति विधिपक्षीय आधार पर ओसवालों की स्थापना और इस गच्छ की उत्पत्ति कहलायी।११ प्रचलित मान्यता के अनुसार इस गच्छ के अनुयायी का समय ई. सन् की आठवीं शती के पूर्व नहीं माना जा श्रावकों द्वारा मुँहपत्ती के स्थान पर वस्त्र के छोर (अंचल) से सकता। वंदन करने के कारण अंचलगच्छ नाम प्रचलित हुआ। इस उपकेशगच्छ में कक्कसरि. देवगप्तसरि और सिद्धसरि इन गच्छ में अनेक विद्वान् आचार्य और मुनिजन हुए है, परन्तु उनमे तीन पट्टधर आचार्यों के नामों की प्रायः पनरावत्ति होती रही है. से कुछ आचार्यों की कृतियाँ आज उपलब्ध होती हैं। इस गच्छ।
जिससे प्रतीत होता है कि इस गच्छ के अनुयायी श्रमण चैत्यवासी से संबद्ध बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं।१२ इनमें प्राचीनतम
प्राचानतम रहे होंगे। इस गच्छ में कई प्रभावक और विद्वान् आचार्य हो चुके लेख वि.सं. १२०६ का है। अपने उदय से लेकर आज तक इस
ज तक इस हैं, जिन्होंने साहित्योपासना के साथ-साथ नवीन जिनालयों के
पर शानियोगस TI TIT गच्छ की अविच्छिन्न परंपरा विद्यमान है।
निर्माण, प्राचीन जिनालयों के जीर्णोद्धार तथा जिनप्रतिमाओं की ___ आगमिकगच्छ१३ पूर्णिमापक्षीय शीलगुणसूरि और उनके प्रतिष्ठापना द्वारा पश्चिम भारत में श्वेताम्बर-श्रमण-परंपरा को जीवंत शिष्य देवभद्रसूरि द्वारा जीवदयाणं तक का शक्रस्तव, ६७ अक्षरों बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। का परमेष्ठीमन्त्र और तीनस्तुति से देववन्दन आदि बातों में आगमों
अन्यान्य गच्छों की भाँति उपकेशगच्छ से भी कई अवान्तर का समर्थन करने के कारण वि.सं. १२१४ या वि.सं. १२५० में
शाखाओं का जन्म हुआ। जैसे वि.सं. १२६६/ई. सन् १२१० में आगमिकगच्छ या त्रिस्तुतिकमत की उत्पत्ति हुई। इस गच्छ में
द्विवंदनीक शाखा, वि.सं. १३०८/ई. सन् १२५२ में खरतपा यशोभद्रसूरि, सर्वाणंदसूरि, विजयसिंहसूरि, अमरसिंहसूरि, ..
सहार, . शाखा तथा वि.सं. १४९८/ई.सन् १४४२ में खादिरीशाखा अस्तित्व हेमरत्नसूरि, अमररत्नसूरि, सोमप्रभसूरि, आनन्दप्रभसूरि आदि ।
में आई। इसके अतिरिक्त इस गच्छ की दो अन्य शाखाओंकई प्रभावक आचार्य हुए जिन्होंने साहित्यसेवा और धार्मिक
ककुदाचार्यसंतानीय और सिद्धाचार्यसंतानीय का भी पता चला क्रियाकलापों से श्वेताम्बर श्रमणसंघ को जीवन्त बनाए रखने में
है, किन्तु इनके उत्पत्तिकाल के संबंध में कोई जानकारी प्राप्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
नहीं होती। आगमिकगच्छ से संबद्ध विपुल परिणाम में आज साहित्यिक
उपकेशगच्छ के इतिहास से संबद्ध पर्याप्त संख्या में इस आर आभलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हात है। साहित्यिक साक्ष्या के गच्छ के मनिजनों की कतियों की प्रशस्ति. मनिजनों के अध्ययनार्थ अंतर्गत इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा लिखे गए ग्रन्थों की प्रशस्तियों या उनकी प्रेरणा से प्रतिलिपि कराई गई प्राचीन ग्रन्थों की तथा कुछ पट्टावलियाँ आदि हैं। इस गच्छ से संबद्ध लगभग
लगभग दाताप्रशस्तियाँ तथा दो प्रबंध (उपकेशगच्छप्रबंध और
ही २०० प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं, जो वि.सं. १४२० से लेकर नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबंध - रचनाकाल वि.सं. १३९३/ई. सन् aroorbororaniraniramidnidiarioritoriandinidian-२०dmiriradiridroraridroidmiridioxidrionidmirarar
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास१३३६) और उपकेशगच्छ की कुछ पट्टावलियाँ उपलब्ध हैं। श्रावक किसी अन्य बड़े गच्छ में सम्मिलित हो गए होंगे।
इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित बड़ी संख्या में कृष्णर्षिगच्छ प्राक्मध्ययुगीन और मध्ययुगीन श्वेताम्बर जिनप्रतिमाएँ प्राप्त होती है, जिनमें से अधिकांश लेखयुक्त हैं। आम्नाय के गच्छों में कृष्णर्षिगच्छ भी एक है। आचार्य वटेश्वर इसके अतिरिक्त इस गच्छ के मुनिजनों की प्रेरणा से निर्मित क्षमाश्रमण के प्रशिष्य और यक्षमहत्तर के शिष्य कृष्णमुनि की सर्वतोभद्रयंत्र, पंचकल्याणकपट्ट, तीर्थंकरों के गणधरों की शिष्य-संतति अपने गुरु के नाम पर कृष्णर्षिगच्छीय कहलायी। चरणपादुका आदि पर भी लेख उत्कीर्ण हैं। ये सब लेख वि.सं. धर्मोपदेशमाला-विवरण (रचनाकाल वि.सं. ९१५/ई. सन् ८५९) १०११ से वि.सं. १९१८ तक के हैं। उपकेशगच्छ के इतिहास के के रचयिता जयसिंहसरि, प्रभावक-शिरोमणि प्रसन्नचंद्रसूरि, लेखन में उक्त साक्ष्यों का विशिष्ट महत्त्व है।
निस्पृह-शिरोमणि महेन्द्रसूरि, कुमारपालचरित (वि.सं. १४२२/ उपकेशगच्छीय साक्ष्यों के अध्ययन से यह निष्कर्ष ई. सन् १३६८) के रचनाकार जयसिंहसूरि, हम्मीर महाकाव्य निकलता है कि वि.सं. की १०वीं शताब्दी से लेकर वि.सं. की (रचनाकाल नि.सं. १४४४/ई. सन् १३८६) और १६ वीं शताब्दी तक इस गच्छ के मुनिजनों का समाज पर विशेष
रम्भामञ्चरीनाटिका के कर्ता नयचन्द्रसूरि इसी गच्छ के थे। इस प्रभाव रहा, किन्तु इसके पश्चात् इसमें न्यूनता आने लगी, फिर
गच्छ में जयसिंहसूरि, प्रसन्नचन्द्रसूरि, नयचन्द्रसूरि इन तीन पट्टधर भी २०वीं शती के प्रारंभ तक निर्विवादरूप से इस गच्छ का
आचार्यों के नामों की पुनरावृत्ति मिलती है, जिससे अनुमान स्वतंत्र अस्तित्व बना रहा।१५
होता है कि यह चैत्यवासी गच्छ था। इस गच्छ से संबद्ध पर्याप्त
संख्या में अभिलेखीय साक्ष्य भी प्राप्त हए हैं जो वि.सं. १२८७ काशहद-गच्छ अर्बुदगिरी की तलहटी में स्थित काशहृद
से वि.सं. १६१६ तक के हैं। (वर्तमान कासीन्द्रा या कायन्द्रा) नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। जालिहरगच्छ के देवप्रभसूरि द्वारा रचित
अभिलेखीय साक्ष्यों से इस गच्छ की कृष्णर्षितपाशाखा पद्मप्रभचरित (रचनाकाल वि.सं. १२५४/ई सन् ११९८) की .
र का भी उल्लेख प्राप्त होता है। इस शाखा के वि.सं. १४५० से प्रशस्ति से जात होता है कि काशहद और जालिहर ये दोनों. १४७३ तक के लेखों में पुण्यप्रभसूरि, वि.सं. १४८३-१४८७ के विद्याधरगच्छ की शाखाएँ हैं।१६ यह गच्छ कब अस्तित्व में
लेखों में शिष्य जयसिंहसूरि तथा वि.सं. १५०३-१५०८ के लेखों आया, इस गच्छ के आदिम आचार्य कौन थे, इस बारे में कोई
में जयसिंहसूरि के प्रथम पट्टधर जयशेखरसूरि तथा वि.सं. १५१० सूचना प्राप्त नहीं होती। प्रश्नशतक और ज्योतिषचतुर्विंशतिका
के एक लेख में उनके द्वितीय पट्टधर कमलचन्द्रसूरि का के रचनाकार नरचन्द्र उपाध्याय इसी गच्छ के थे। प्रश्रशतक का
प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु इस रचनाकाल वि.सं. १३२४/ई. सन १२६८ माना जाता है।
शाखा के प्रवर्तक कौन थे. यह शाखा कब अस्तित्व में आई, विक्रमचरित (रचनाकाल वि.सं. १४७१/ई सन १४१५ के इस संबंध में कोई सूचना प्राप्त नहीं होती। आसपास) के रचनाकार उपाध्याय देवमूर्ति इसी गच्छ के थे।७ वि.सं. की १७वीं शती के पश्चात् कृष्णर्षिगच्छ से संबद्ध इस गच्छ से संबद्ध कुछ प्रतिमालेख भी प्राप्त होते हैं जो वि.सं. साक्ष्यों का अभाव है। इससे प्रतीत होता है कि इस समय तक १२२२ से वि.सं. १४१६ तक के हैं।
इस गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो चुका था। से उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर विक्रम संवत् की १३ वीं . कोरंटगच्छ९ आबू के निकट कोरटा (प्राचीन कोरंट) शती से १५ वीं शती के अन्त तक इस गच्छ का अस्तित्व सिद्ध नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। उपकेशगच्छ होता है। इस गच्छ से संबद्ध साक्ष्यों की विरलता को देखते हुए की एक शाखा के रूप में इस गच्छ की मान्यता है। इस गच्छ के यह माना जा सकता है कि अन्य गच्छों की अपेक्षा इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को कक्कसूरि, सर्वदेवसूरि और ननसूरि ये तीन अनुयायी श्रावकों और श्रमणों की संख्या अल्प थी। १६वीं नाम पुनः प्राप्त होते रहे। इस गच्छ का सर्वप्रथम उल्लेख वि.सं. शती से इस गच्छ से संबद्ध साक्ष्यों के नितांत अभाव से यह १२०१ के एक प्रतिमालेख में और अंतिम उल्लेख वि.सं. कहा जा सकता है कि इस गच्छ के अनुयायी मुनिजन और १६१९ में प्रतिलिपि की गई राजप्रश्रीय सूत्र की दाताप्रशस्ति में pariwariwaridwarni-dridadidaidaddard6 २१ 6dminirdinidroidiarinidairdrianarraiwand
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासप्राप्त होता है। इस गच्छ से संबद्ध मात्र कुछ दाताप्रशस्ति तथा ११९६ से वि.सं. १६६४ तक के हैं। निष्कर्ष के रूप में कहा जा बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं। ये लेख वि.सं. १६१२ सकता है कि वि.सं. की १२वीं शती में यह गच्छ अस्तित्व में तक के हैं। लगभग ४०० वर्षों के अपने अस्तित्वकाल में इस आया और वि.सं. की १७वीं शती के अंतिम चरण तक विद्यमान गच्छ के अनुयायी श्रमण शास्त्रों के पठन-पाठन की अपेक्षा रहा। इसके पश्चात् इस गच्छ का कोई उल्लेख न मिलने से यह जिन-प्रतिमा की प्रतिष्ठा में अधिक सक्रिय रहे।
प्रतीत होता है कि इस गच्छ के अनुयायी अन्य किन्हीं गच्छों में खंडिलगच्छ२० इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं यथा साम्मालत हा गए होग। भानडारगच्छ, कालिकाचार्यसंतानीय, भावडगच्छ, खरतरगच्छ चन्द्रकुल के आचार्य वर्धमानसूरि के शिष्य भावदेवाचार्यगच्छ, खंडिल्लगच्छ आदि। प्रभावकचरित में जिनेश्वररसूरि ने चौलुक्यनरेश दुर्लभराज की राजसभा में शास्त्रार्थ चन्द्रकुल की एक शाखा के रूप में इस गच्छ का उल्लेख मिलता में चैत्यवासियों को परास्त किया, जिससे प्रसन्न होकर राजा है। इस गच्छ में पट्टधर आचार्यों को भावदेवसरि, विजयसिंहसरि, द्वारा उन्हें खरतर का विरुद्ध प्राप्त हुआ। इस घटना से गर्जरभूमि वीरसूरि और जिनदेवसूरि ये चार नाम पुनः प्राप्त होते रहे। में सुविहितमार्गीय श्रमणों का विहार प्रारंभ हो गया। जिनेश्वरसूरि पार्श्वनाथचरित (रचनाकाल वि.सं. १४१२/ई. सन् १३५६) के . की शिष्य-संतति खरतरगच्छीय कहलाई। इस गच्छ में अनेक रचनाकार भावदेवसूरि इसी गच्छ के थे। इसकी प्रशस्ति के प्रभावशाली और प्रभावक आचार्य हुए और आज भी हैं। इस अंतर्गत उन्होंने अपनी गुरु-परंपरा दी है, जो इस प्रकार है-- गच्छ के आचार्यों ने साहित्य की प्रत्येक विधा को अपनी लेखनी भावदेवसूरि
द्वारा समृद्ध किया, साथ ही जिनालयों के निर्माण, प्राचीन जिनालयों
के पुनर्निर्माण एवं जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा में भी सक्रिय रूप विजयसिंहसूरि
से भाग लिया।२१ वीरसूरि
युगप्रधानाचार्यगुर्वावली२२ में इस गच्छ के ११वीं शती
से १४वीं शती के अंत तक के आचार्यों का जीवनचरित्र दिया जिनदेवसूरि
गया है जो न केवल इस गच्छ के अपितु भारतवर्ष के तत्कालीन
राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसके भावदेवसूरि
अतिरिक्त इस गच्छ से संबद्ध अनेक विज्ञप्तिपत्र, पट्टावलियाँ, विजयदेवसूरि
गुर्वावलियाँ, ऐतिहासिक रास, ऐतिहासिक गीत आदि मिलते हैं,
जो इसके इतिहास के अध्ययन के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। वीरसूरि
अन्यान्य गच्छों की भाँति इस गच्छ की भी कई शाखाएँ अस्तित्व
में आईं, जो इस प्रकार हैं-- जिनदेवसूरि
१. मधुकरा शाखा-- आचार्य जिनवल्लभसूरि के समय
वि.सं. ११६७/ई. सन् ११११ में यह शाखा अस्तित्व में आई। यशोभद्रसूरि
भावदेवसूरि (वि.सं. १४१२/ई. सन् १३५६ में
२. रुद्रपल्लीयशाखा-- वि.सं. १२०४ में आचार्य पार्श्वनाथचरित के रचनाकार) जिनेश्वरसूरि से यह शाखा अस्तित्व में आई। इस शाखा में
अनेक विद्वान आचार्य हए। श्री अगरचंद नाहटा के अनसार कालकाचार्यकथा, यतिदिनचर्या, अलंकारसार, भक्तामरटीका आदि के कर्ता भावदेवसूरि को ब्राउन ने।
वि.संकी १७वीं शती तक इस शाखा का अस्तित्व रहा। पार्श्वनाथचरित के कर्ता उपरोक्त भावदेवसरि से अभिन्न माना है। ३. लघुखरतर शाखा--वि.सं. १३३१/ई. सन् १२७५
इस गच्छ से संबद्ध अनेक प्रतिमालेख मिले हैं जो वि.सं. में आचार्य जिनसिहसूरि से इस शाखा का उदय हुआ। अन्यान्य maatamantimaintamanamanthanindianai ?? } Gambodia andamaina taramananandamaina
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - इतिहास-- ग्रन्थों के रचनाकार, सुल्तान मुहम्मद तुगलक के प्रतिबोधक भावडारगच्छ, पूर्णिमागच्छ आदि कई गच्छ चन्द्रकुल से ही शासनप्रभावक आचार्य जिनप्रभसूरि इसी शाखा के थे। वि.सं. अस्तित्व में आए। इस गच्छ से संबद्ध कई प्रतिमालेख मिलते को १८वीं शती तक इस शाखा का अस्तित्व रहा।
हैं, जो वि.सं. १०७२ से वि.सं. १५५२ तक के हैं। मुनिपतिचरित्र ४. बेगड़ शाखा-- विसं. १४२२ में यह शाखा अस्तित्व
(रचनाकाल वि.सं. १००५) एवं जिनशतक काव्य (रचनाकाल में आई। जिनेश्वरसूरि इस शाखा के प्रथम आचार्य हुए।
वि.सं. १०२५) के रचियता जम्बूकवि अपरनाम जम्बूनाग इसी
गच्छ के थे। सनत्कुमारचरित के रचनाकार चन्द्रसूरि भी इसी ५. पिप्पलक शाखा-- वि.सं. १४७४ में जिनवर्धनसूरि
गच्छ के थे। इसी गच्छ के शिवप्रभसूरि के शिष्य श्रीतिलकसूरि द्वारा इस शाखा का उदय हुआ। श्री नाहटा के अनुसार पिप्पलक
ने वि.सं. १२६१ में प्रत्येक बुद्धचरित की रचना की। वसन्तविलास नामक स्थान से संबद्ध होने से इसे पिप्पलक शाखा के नाम से
के रचनाकार बालचन्द्रसूरि, प्रसिद्ध ग्रन्थसंशोधक प्रद्युम्नसूरि, जाना गया।
शीलवतीकथा के रचनाकार उदयप्रभसरि इसी गच्छ के थे।२३ इसी नाम की एक शाखा वडगच्छीय शांतिसूरि के शिष्य इस गच्छ के संबंध में विशेष विवरण अन्वेषणीय है। महेन्द्रसरि, विजयसिंसरि आदि के द्वारा वि.सं. ११८१/ई. सन्
चैत्रगच्छ मध्ययुगीन श्वेताम्बर गच्छों में चैत्रगच्छ भी एक ११२५ में अस्तित्व में आई।
हैं। चैत्रपुर नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। ६. आद्यपक्षीय शाखा-- वि.सं. १५६४ में आचार्य इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं यथा--चैत्रवालगच्छ, जिनदेवसूरि से यह शाखा अस्तित्व में आई। इस शाखा की एक चित्रवालगच्छ, चित्रपल्लीयगच्छ, चित्रगच्छ आदि। धनेश्वरसूरि गद्दी पाली में थी।
इस गच्छ के आदि आचार्य माने जाते हैं। इनके पट्टधर ७. भावहर्षीया शाखा--वि.सं. १६२१ में भावहर्षसरि भुवनचन्द्रसूरि हुए जिनके प्रशिष्य और देवभद्रसूरि के शिष्य से इसका उदय हुआ। इस शाखा की एक गद्दी बालोतरा में है। जगच्चन्द्रसूरि से वि.सं.१२८५ ई. सन् १२२९ में तपागच्छ का
प्रादुर्भाव हुआ। देवभद्रसूरि के अन्य शिष्यों से चैत्रगच्छ की ८. लघुआचार्य शाखा-- आचार्य जिनसागरसूरि से
अविच्छिन्न परंपरा जारी रही। सम्यक्त्वकौमुदी (रचनाकाल वि.सं. वि.सं. १६८६ में यह शाखा अस्तित्व में आई। इसकी गद्दी
१५०४/ई. सन् १४४८) और भक्तामरस्तवटीका के रचनाकार बीकानेर में विद्यमान है।
गुणाकरसूरि इसी गच्छ के थे।२४ ९. जिनरंगसूरि शाखा-- वि.सं. १७०० में जिनरंगसूरि
चैत्रगच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में अभिलेखीय साक्ष्य से प्रारंभ हुई। इसकी गद्दी वर्तमान में लखनऊ में है।
प्राप्त होते हैं, जो वि.सं. १२६५ से वि.सं. १५९१ तक के हैं। इस १०. श्रीसारीयशाखा-- वि.सं. १७०० के लगभग यह गच्छ से कई अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ, जैसे--भर्तृपुरीय शाखा अस्तित्व में आई, परंतु शीघ्र ही नामशेष हो गई।
शाखा, धारणपद्रीयशाखा, चतुर्दशीयशाखा, चान्द्रसामीय शाखा, ११. मंडोवरा शाखा-- जिनमहेन्द्रसरि, द्वारा वि.सं. सलषणपुरा शाखा, कम्बाइयाशाखा, अष्टापदशाखा, शार्दुलशाखा १८९२ में मंडोवरा नामक स्थान से इसका उदय हुआ। इसकी आदि। एक गद्दी जयपुर में विद्यमान है।
जाल्योधरगच्छ विद्याधरगच्छ की द्वितीय शाखा के रूप श्रीअगरचंद नाहटा और श्री भंवरलाल नाहटा ने इस गच्छ में इस गच्छ का उदय हुआ। यह शाखा कब और किस कारण के साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों का न केवल संकलन अस्तित्व में आई ? इसके पुरातन आचार्य कौन थे? साक्ष्यों के
और प्रकाशन किया है, अपित उनका सम्यक अध्ययन भी अभाव में ये प्रश्न अनुत्तरित हैं। इस गच्छ से संबद्ध मात्र दो समाज के सम्मुख रखा है।
प्रशस्तियाँ--नन्दिपददुर्गवृत्ति की दाताप्रशस्ति (प्रतिलेखनकाल
-वि.सं. १२२६/ई. सन् १९६०) और पद्मप्रभचरित (रचनाकाल चन्द्रगच्छ चन्द्रकुल ही आगे चलकर चन्द्रगच्छ के नाम
- वि.सं. १२५४ ई. सन् ११९८) की प्रशस्ति ही मिलती है। से प्रसिद्ध हुआ। राजगच्छ, वडगच्छ, खरत गच्छ, पूर्णतल्लगच्छ,
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासपद्मप्रभचरित की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह गच्छ तपागच्छ चैत्रगच्छीय भुवनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य और विद्याधरगच्छ की एक शाखा था।२५
देवभद्रसूरि के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि को आघाट में उग्र तप करने इस गच्छ से संबद्ध कळ अभिलेखीय साक्ष्य भी मिलते हैं के कारण वि.सं. १२८५/ई. सन् १२२९ में 'तपा' विरुद्ध प्राप्त जो वि.सं. १२१३ से वि.सं. १४२३ तक के हैं।२६ ग्रन्थ प्रशस्तियों हुआ, इसा
हुआ, इसी कारण उनकी शिष्य-संतति तपागच्छीय कहलाई।७ और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के मुनिजनों
अपने जन्म से लेकर आज तक इस गच्छ की अविच्छिन्न परंपरा
से के गुरु परंपरा की एक तालिका बनती है, जो इस प्रकार है--
विद्यमान है और इसका प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है।
इस गच्छ में अनेक प्रभावक आचार्य और विद्वान् मुनिजन हो बालचन्द्रसूरि
चुके हैं और आज भी हैं। इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में
साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होते हैं,जिनका सम्यक् गुणभद्रसूरि (वि.सं. १२२६ की नन्दीदर्गपदवृत्ति में उल्लिखित)
अध्ययन आवश्यक है। अन्य गच्छों की भाँति इस गच्छ की भी
कई अवान्तर शाखाएँ अस्तित्व में आईं, जैसे--वृद्धपोषालिक, सर्वाणंदसूरि (पार्श्वनाथचरित-अनुपलब्ध के रचनाकार)
लघुपोषालिक, विजयाणंदसूरिशाखा, विमलशाखा,
विजयदेवसूरिशाखा, सागरशाखा, रत्नशाखा, कमलकलशशाखा, धर्मघोषसूरि
कुतुबपुरा शाखा, निगम शाखा आदि।२८
थारापद्रगच्छ प्राक्मध्ययुगीन और मध्ययुगीन निर्ग्रन्थधर्म देवसूरि (वि.सं. १२५४/ई. सन् १९९८ में पद्मप्रभचरित के के श्वेताम्बर आम्नाय के गच्छों में इस गच्छ का महत्त्वपूर्ण रचनाकार)
स्थान है। थारापद्र (वर्तमान थराद, बनासकाँठा मंडल उत्तर
गुजरात) नामक स्थान से इस गच्छ का प्रादुर्भाव हुआ। इस हरिभद्रसूरि (वि.सं. १२९६/ई. सन् १२४० प्रतिमालेख-घोघा) । गच्छ में ११ वीं शती के प्रारंभ में हुए आचार्य पूर्णभद्रसूरि ने
वटेश्वर क्षमाश्रमण को अपना पूर्वज बतलाया है। परंतु इस गच्छ
के प्रवर्तक कौन थे, यह गच्छ कब अस्तित्व में आया, इस बारे हरिप्रभसूरि
चन्द्रसूरि में वे मौन हैं। इस गच्छ में ज्येष्ठाचार्य, शांतिभद्रसूरि प्रथम,
शीलभद्रसूरि प्रथम, सिद्धान्तमहोदधि सर्वदेवसूरि आदि अनेक विबुधप्रभसूरि (वि.सं. १३९२ प्रतिमालेखा)
प्रभावक और विद्वान आचार्य हुए हैं। षडावश्यकवृत्ति (रचनाकाल
वि.सं. ११२२) और काव्यालंकारटिप्पण के कर्ता नमिसाधु ललितप्रभसूरि (वि.सं. १४२३/ई. सन् १३६७ प्रतिमालेख) इसी गच्छ के थे। इस गच्छ से संबद्ध अभिलेखीय साक्ष्य भी जीरापल्लीगच्छ राजस्थान प्रांत के अर्बुदमंडल के अंतर्गत
पर्याप्त संख्या में प्राप्त हुए हैं, जो वि.सं. १०११ से वि.सं. १५३६ जीरावला नामक प्रसिद्ध स्थान है। यहाँ पार्श्वनाथ का एक महिम्न ।
तक के हैं। इस प्रकार इस गच्छ का अस्तित्व प्रायः १६वीं शती के जिनालय विद्यमान है जो जीरावला पार्श्वनाथ के नाम से जाना
मध्य तक प्रमाणित होता है। चूंकि इसके पश्चात् इस गच्छ से संबद्ध जाता है। बृहद्गच्छ पट्टावली में उसकी एक शाखा के रूप में इस
साक्ष्यों का अभाव है। अत: यह माना जा सकता है कि उक्त गच्छ का उल्लेख मिलता है। जीरावला नामक स्थान से संबद्ध काल
सन काल के बाद इस गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो गया होगा। होने के कारण यह शाखा जीरापल्लीगच्छ के नाम से प्रसिद्ध देवानन्दगच्छ देवानन्दसूरि इस गच्छ के प्रवर्तक माने हुई। इस गच्छ से संबद्ध कई प्रतिमालेख मिलते हैं जो वि.सं. जाते हैं। श्री अगरचंद नाहटा के अनुसार वि.सं. ११९४ और १४०६ से वि.सं. १५१५ तक के हैं। इसके संबंध में विशेष वि.सं. १२०१ की ग्रन्थ-प्रशस्तियाँ में इस गच्छ का उल्लेख अध्ययन अपेक्षित है।
मिलता है।३० श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई और श्री लालचंद
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– यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास भगवान गांधी ने प्रसिद्ध ग्रन्थ संशोधक और समरादित्यसंक्षेप पार्श्वचन्द्रसरि हुए जिनके नाम पर पार्श्वचन्द्रगच्छ का उदय हुआ व कर्ता प्रद्युम्नसूरि को देवानन्दगच्छ से संबद्ध बताया है जबकि जो वर्तमान में भी अस्तित्ववान है। इन गच्छों का विशिष्ट अध्ययन हीरालाल रसिकलाल कापड़िया और श्री गुलाबचन्द्र चौधरी ने अपेक्षित है। उन्हें चन्द्रगच्छीय बतलाया है। देवानन्दगच्छ चन्द्रगच्छ की ही
. नागेन्द्रगच्छ जिस प्रकार चन्द्रकुल बाद में चन्द्रगच्छ के एक शाखा रही या उससे भिन्न थी, इस संबंध में अध्ययन की ।
नाम से प्रसिद्ध हुआ, उसी प्रकार नागेन्द्रकुल भी नागेन्द्रगच्छ के आवश्यकता है। चम्पकसेनरास (रचनाकाल वि.सं. १६३०/ ई.
नाम से विख्यात हुआ। पूर्वमध्ययुगीन और मध्ययुगीन गच्छों में सन् १५७४) के रचयिता महेश्वरसूरिशिष्य इसी गच्छ के थे। इस
इस गच्छ का विशिष्ट स्थान रहा। इस गच्छ में अनेक विद्वान् प्रकार वि.सं. की १२ वीं शती से १७वीं शती तक इस गच्छ का
आचार्य हुए हैं। अणहिलपुरपाटन के संस्थापक वनराज चावड़ा अस्तित्व सिद्ध होता है३१, फिर भी साक्ष्यों की विरलता के कारण
के गुरु शीलगुणसूरि इसी गच्छ के थे। उनके शिष्य देवचन्द्रसूरि इस गच्छ के बारे में विशेष विवरण दे पाना कठिन है।
की एक प्रतिमा पाटन में विद्यमान है। अकोटा से प्राप्त ई. सन् धर्मघोषगच्छ३२ राजगच्छीय आचार्य शीलभद्रसूरि के एक की सातवीं शताब्दी की दो जिन प्रतिमाओं पर नागेन्द्रकुल का शिष्य धर्मघोषसूरि अपने समय के अत्यंत प्रभावक आचार्य उल्लेख मिलता है।३४ महामात्य वस्तुपाल तेजपाल के गुरु थे। नरेशत्रय प्रतिबोधक और दिगम्बर विद्वान गुणचन्द्र के विजेता विजयसेनसूरि इसी गच्छ के थे। इसी कारण उनके द्वारा बनवाए के रूप में इनकी ख्याति रही। इनकी प्रशंसा में लिखी गई अनेक गए मंदिरों में मूर्तिप्रतिष्ठा उन्हीं के करकमलों से हुई। जिनहर्षगणि कृतियाँ मिलती हैं, जो इनकी परंपरा में हुए उत्तरकालीन मुनिजनों द्वारा रचित वस्तुपालचरित (रचनाकाल वि.सं. १४८७/ई. सन् द्वारा रची गई हैं। धर्मघोषसूरि की मृत्यु के उपरान्त इनकी १४४१) से ज्ञात होता है कि विजयसेनसूरि के उपदेश से ही शिष्यसंतति अपने गुरु के नाम पर धर्मघोषगच्छ के नाम से वस्तुपाल तेजपाल ने संघयात्राएँ की और ग्रंथ-भण्डार स्थापित विख्यात हुई। इस गच्छ में यशोभद्रसूरि, रविप्रभसूरि, उदयप्रभसूरि, किए तथा जिनमंदिरों का निर्माण कराया। इनके शिष्य उदयप्रभसूरि पृथ्वीचन्द्रसूरि, प्रद्युम्नसूरि, ज्ञानचन्द्रसूरि आदि कई प्रभावक ने धर्माभ्युद महाकाव्य (रचनाकाल वि.सं. १२९०/ई. सन्
और विद्वान् आचार्य हुए, जिन्होंने वि.सं. की १२वीं शती से १२३४) और उपदेशमालाटीका (रचनाकाल वि.सं. १२९९/ई. वि.सं. की १७वीं शती के अंत तक अपनी साहित्योपासना, सन् १२४३) की रचना की। इनकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी तीर्थोद्धार, नूतन जिनालयों के निर्माण की प्रेरणा, जिनप्रतिमाओं गुरुपरंपरा का सुन्दर विवरण दिया है जो इस गच्छ के इतिहास की प्रतिष्ठा आदि द्वारा मध्ययुग में श्वेताम्बर श्रमणपरंपरा को की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वासुपूज्यचरित (रचनाकाल चिरस्थायित्व प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वि.सं. १२९९/ ई. सन् १२४३) के रचयिता वर्धमानसूरि और इस गच्छ से संबद्ध लगभग २०० अभिलेख मिले हैं, जो
सो
प्रबधाचतामा
प्रबंधचिंतामणि के रचयिता मेरुतुंगसूरि भी इसी गच्छ के थे। इस वि.सं. १३०३ से वि.सं. १६९१ तक के हैं। ये लेख जिनमंदिरों गच्छ से संबद्ध प्रतिमालेख भी बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। के स्तम्भादि और तीर्थंकर प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण हैं, जो
वि.सं. १४५५ के एक धातुप्रतिमालेख के आधार पर श्री अगरचंद धर्मघोषगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिए अत्यंत उपयोगी है। नाहटा न यह
नाहटा ने यह मत व्यक्त किया है कि उस समय तक यह गच्छ
उपकेशगच्छ में विलीन हो चुका था। इस गच्छ का भी सम्यक् नागपुरीयतपागच्छ वडगच्छीय आचार्य वादिदेवसूरि के
अध्ययन होना अपरिहार्य है। एक शिष्य पद्मप्रभसूरि ने नागौर में वि.सं. १९७४ या ११७७ में उग्र तप का 'नागौरीतपा' विरुद् प्राप्त किया। उनकी शिष्य
नाणकीयगच्छ३६ श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में नाणकीय संतति नागपुरीयतपागच्छ के नाम से विख्यात हुई।३३ मुनिजिनविजय
र गच्छ का प्रमुख स्थान है। इसके कई नाम मिलते हैं, जैसे--- द्वारा संपादित विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह और श्री मोहनलाल
नाणगच्छ, ज्ञानकीयगच्छ, नाणावालगच्छ आदि। जैसा कि इसके दलीचंद देसाई द्वारा लिखित 'जैनगुर्जरकविओ' भाग-२ में इस
नाम से स्पष्ट होता है कि अर्बुदमंडल में स्थित नाणा नामक गच्छ की पट्टावली प्रकाशित हुई है। इसी गच्छ में १६वीं शती में सीरीज में स्थान से यह गच्छ अस्तित्व में आया। शांतिसूरि इस गच्छ के
स्थ
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासआदिम आचार्य माने जाते हैं। उनके पट्टपर क्रम से सिद्धसेनसूरि, इसी कुल से संबद्ध थे। यद्यपि इस कुल या गच्छ से संबद्ध धनेश्वरसूरि और महेन्द्रसूरि ये तीन आचार्य प्रतिष्ठित हुए। यही अभिलेख वि.सं. की १६वीं शती तक के हैं, परंतु उनकी संख्या चार नाम इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को पुनः-पुनः प्राप्त न्यून ही है। होते रहे। इस गच्छ के मुनिजनों की प्रेरणा से वि.सं. १२७२ में
इस गच्छ के आदिम आचार्य कौन थे, यह गच्छ कब
, बृहत्संग्रहणीपुस्तिका और वि.सं. १५९२ में षट्कर्मअवचूरि की
अस्तित्व में आया, इस बारे में उपलब्ध साक्ष्यों से कोई जानकारी प्रतिलिपि कराई गई। यह बात उनकी दाताप्रशस्ति से ज्ञात होती
नहीं मिलती। यद्यपि पट्टावलियों में नागेन्द्र, चन्द्र और विद्याधर है। गच्छ से संबद्ध यही साहित्यिक साक्ष्य आज प्राप्त होते हैं।
कुलों के साथ इस कुल की उत्पत्ति का भी विवरण मिलता है, इसके विपरीत इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में जिन प्रतिमाएँ
किन्तु उत्तरकालीन एवं भ्रामक विवरणों से युक्त होने के कारण ये मिली हैं, जो वि.सं. ११०२ से वि.सं. १५९९ तक की हैं। इससे
पट्टावलियाँ किसी भी गच्छ के प्राचीन इतिहास के अध्ययन के प्रतीत होता है कि इस गच्छ के मुनिजन पठन-पाठन की ओर से
लिए यथेष्ट प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती है। महावीर की परंपरा प्रायः उदासीन रहते हुए जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा और चैत्यों की
में निवृत्तिकुल का उल्लेख नहीं मिलता, अतः क्या यह पापित्यों
में देखरेख में ही प्रवृत्त रहते थे। श्रावकों को नूतन जिनप्रतिमाओं के ।
की परंपरा से लाटदेश में निष्पन्न हुआ, यह अन्वेषणीय है। निर्माण की प्रेरणा देना ही इनका प्रमुख कार्य रहा। सुविहितमार्गीय मुनिजनों के बढ़ते हुए प्रभाव के बावजूद चैत्यवासी गच्छों का
पल्लीवालगच्छ पल्ली (वर्तमान पाली, राजस्थान) नामक लंबे समय तक बने रहना समाज में उनकी प्रतिष्ठा और महत्त्व
स्थान से पल्लीवाल ज्ञाति और श्वेताम्बरों ने पल्लीवालगज्छ
की उत्पत्ति मानी जाती है। इस गच्छ से संबद्ध साहित्यिक और का परिचायक है।
अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। कालिकाचार्यकथा निवृत्तिगच्छ निर्ग्रन्थ दर्शन के चैत्यवासी गच्छों में
(रचनाकाल वि.सं. १३६५) के रचनाकार महेश्वरसूरि, निवृत्तिकुल (बाद में निवृत्तिगच्छ) भी एक है। पर्युषणाकल्प
पिण्डविशुद्धिदीपिका (रचनाकाल वि.सं. १६२७), उत्तराध्ययन की स्थविरावली में इस कुल का उल्लेख नहीं मिलता। इससे
बालावबोधिनीटीका (रचनाकाल वि.सं. १६२९) और
बा. प्रतीत होता है कि यह कुल बाद में अस्तित्व में आया। इस कुल आचारांगदीपिका के रचयिता अजितदेवसरि इसी गच्छ से संबद्ध का सर्वप्रथम उल्लेख अकोटा से प्राप्त धातु की दो प्रतिमाओं थे। पल्लीवालगच्छ से संबद्ध जो प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं. वे पर उत्कीर्ण लेखों में प्राप्त होता है। उमाकांत पी. शाह ने इन
वि.सं. १३८३ से वि.सं. १६८१ तक के हैं। इस गच्छ की एक लेखों की वाचना इस प्रकार दी है३७--
पट्टावली भी प्राप्त हुई है, जिसके अनुसार यह गच्छ चन्द्रकुल से १. ॐ देवधर्मोयं निवृ(t)त्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य। उत्पन्न हुआ है। २. ॐ निवृ(व)त्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य।
पूर्णतल्लगच्छ-चंद्रकुल से उत्पन्न गच्छों में पूर्णतल्लगच्छ शाह ने इन प्रतिमाओं का काल ई. सन ५५० से ६०० के भी एक है। इस गच्छ में जिनदत्तसरि, यशोभद्रसरि, प्रद्यम्नसरि, मध्य माना है। दलसुख भाई मालवणिया के अनुसार वाचनाचार्य गुणसेनसूरि, देवचन्द्रसूरि, कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि, और क्षमाश्रमण समानार्थक शब्द हैं, अत: जिनभद्रवाचनाचार्य अशोकचन्द्रसूरि, चन्द्रसेनसूरि, रामचन्द्रसूरि, गुणचन्द्रसूरि, और प्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण एक ही व्यक्ति बालचन्द्रसूरि आदि कई आचार्य हुए।३९ तिलकमंजरीटिप्पण, माने जा सकते हैं।
जैनतर्कवार्तिकवृत्ति आदि के रचनाकार शांतिसूरि इसी गच्छ के उपमितिभवप्रपंचाकथा (रचनाकाल वि.सं. ९६२/ई..
थे। देवचंद्रसूरि ने स्वरचित शांतिनाथचरित (रचनाकाल वि.सं. सन् ९०६), सटीकन्यायावतार, उपदेशमालाटीका के रचनाकार ११६०/. सन् ११०४) का
चनाकार ११६०/ई. सन् ११०४) की प्रशस्ति में अपनी गुरु-परंपरा का सिद्धर्षि, चउपन्नमहापुरुषचरियं (रचनाकाल वि.सं. ९२५/ई. सन्
उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है-- ८६९) के रचनाकार शीलाचार्य अपरनाम विमलमति अपरनाम
यशोभद्रसूरि शीलाङ्क, प्रसिद्ध ग्रन्थसंशोधक द्रोणाचार्य सूराचार्य आदि भी
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क
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासप्रद्युम्नसूरि
समुद्रघोषसूरि, विमलगणि, देवभद्रसूरि, तिलकाचार्य, मुनिरत्नसूरि,
कमलप्रभसूरि, महिमाप्रभसूरि आदि कई प्रखर विद्वान् आचार्य गुणसेनसूरि
हो चुके हैं। इस गच्छ की कई आवन्तर शाखाएँ अस्तित्व में
आई. जैसे--प्रधानशाखा या ढंढेरियारशाखा, सार्धपूर्णिमाशाखा, देवचन्द्रसूरि(वि.स. ११६०/ई. सन् ११०४ में शांतिनाथचरित के रचनाकार) कच्छोलीवालशाखा, भीमपल्लीयशाखा, वटपद्रीयशाखा, इसके अतिरिक्त देवचन्द्रसूरि ने स्थानक प्रकरणटीका
बोरसिद्धीयशाखा, भृगुकच्छीयशाखा, छापरियाशाखा आदि। इस अपरनाम मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति की भी रचना की। चौलुक्यनरेश
गच्छ के मुनिजनों द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियों, उनकी प्रेरणा कुमारपालप्रतिबोधक, कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि,
से लिपिबद्ध कराए गए प्राचीन ग्रन्थों की दाताप्रशस्तियों एवं उत्पादादिसिद्धिप्रकरण (रचनाकाल वि.सं. १२०५/ई सन् ११४९)
पट्टावलियों में इस गच्छ के इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित के रचयिता चन्द्रसेनसूरि तथा अशोकचन्द्रसूरि उक्त देवचन्द्रसूरि
है। यही बात इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में प्राप्त प्रतिमालेखों के शिष्य थे। हेमचन्द्रसरि की शिष्य परंपरा में प्रसिद्ध नाट्यकार
के संबंध में भी कही जा सकती है। रामचन्द्र गुणचन्द्र, अनेकार्थसंग्रह के टीकाकार महेन्द्रसूरि, स्नातस्या ब्रह्माणगच्छ अर्बुदमंडल के अंतर्गत वर्तमान वरमाण नामक प्रसिद्ध स्तुति के रचयिता बालचन्द्रसूरि, देवचन्द्रसूरि (प्राचीन ब्राह्मण) नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी उदयचन्द्रसूरि, यशश्चन्द्रसूरि, वर्धमानगणि आदि हुए।
जाती है। इस गच्छ से संबद्ध बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त पिप्पलगच्छ वडगच्छीय आचार्य सर्वदेवसरि के प्रशिष्य होते हैं, जो वि.सं. ११२४ से १६वीं शती के अंत तक के हैं। इन और नेमिचन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य शांतिसूरि ने वि.सं. ११८१/
लेखों में विमलसूरि, बुद्धिसागरसूरि, उदयप्रभुसूरि, मुनिचन्द्रसूरि ई. सन् ११२५ में पीपलवृक्ष के नीचे महेन्द्रसूरि, विजयसिंहसूरि
__आदि आचार्यों के नाम पुनः आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि आदि आठ शिष्यों को आचार्य पद प्रदान किया। पीपलवृक्ष के
इस गच्छ के मुनिजन चैत्यवासी रहे होंगे। इस गच्छ से संबद्ध नीचे उन्हें आचार्य पद प्राप्त होने के कारण उनकी शिष्यसंतति
साहित्यिक साक्ष्यों का प्रायः अभाव है, अत: इसके बारे में सागरचन्द्रसूरि, वस्तुपालतेजपालरास (रचनाकाल वि.सं. १४८४/ ।
विशेष बातें ज्ञात नहीं होती हैं। ई. सन् १४२८), विद्याविलासपवाडो आदि के कर्ता प्रसिद्ध वडगच्छ सुविहितमार्ग प्रतिपालक और चैत्यवास-विरोधी ग्रन्थकार हीरानन्दसूरि, कालकसूरिभास के कर्ता आनन्दमेरु गच्छों में वडगच्छ का प्रमुख स्थान है। परंपरानुसार चन्द्रकुल के इसी गच्छ के थे। इस गच्छ की दो अवान्तर शाखाओं का पता आचार्य उद्योतनसूरि ने वि.सं. ९९४ में आबू के निकट स्थित चलता है--
टेलीग्राम में वटवृक्ष के नीचे सर्वदेवसूरि सहित ८ शिष्यों को १. त्रिभवीयाशाखा २. तालध्वजीयाशाखा
आचार्य पद प्रदान किया। वटवृक्ष के नीचे उन्हें प्राप्त होने के
कारण उनकी शिष्यसन्तति वडगच्छीय कहलाई। वटवृक्ष के अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर वि.सं. १७७८ तक
समान इस गच्छ की भी अनेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ अस्तित्व में इस गच्छ का अस्तित्व सिद्ध होता है।
आईं, अत: इसका एक नाम बृहद्गच्छ भी पड़ गया। गुर्जरभूमि - पूर्णिमागच्छ या पूर्णिमापक्ष मध्ययुगीन श्वेताम्बर-गच्छों में विधिमार्ग-प्रवर्तक वर्धमानसूरि, उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि और में पूर्णिमागच्छ का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। चन्द्रकुल के बुद्धिसागर-सूरि, ननाङ्गीनृत्तिकार अभयदेवसूरि, आचार्य जयसिंह सूरि के शिष्य चन्द्रप्रभसूरि द्वारा पूर्णिमा को आख्यानकमणिकोश के रचयिता देवेन्द्रगणि अपरनाम पाक्षिक पर्व मनाए जाने का समर्थन करने के कारण उनकी नेमिचन्द्रसूरि, उनके शिष्य आम्रदेवसूरि, प्रसिद्ध ग्रन्थकार शिष्यसंतति पूर्णिमापक्षीय या पूर्णिमागच्छीय कहलाई। वि.सं. मुनिचन्द्रसूरि, उनके पट्टधर प्रसिद्ध वादी देवसूरि, रत्नप्रभसूरि, ११४९ या ११५९ में इस गच्छ का आविर्भाव माना जाता है।४१ हरिभंद्रसूरि आदि अनेक प्रभावक और विद्वान् आचार्य हो चुके इस गच्छ में आचार्य धर्मघोषसूरि, देवसूरि, चक्रेश्वरसूरि, हैं। इस गच्छ की कई अवान्तर शाखाएँ अस्तित्व में आईं, जैसे
artantarwarivarmeraditorivandramdasvamidnirmania २७ndarinidminindiadioudioreonitoroordarivarianitarian
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य-इतिहासवि.सं. ११४९ या ११५९ में यशोभद्र-नेमिचन्द्र के शिष्य और लेखांक १६९४ मुनिचन्द्रसूरि के ज्येष्ठ गुरुभ्राता चन्द्रप्रभसूरि से पूर्णिमागच्छ का
वि.सं. १३२५ में प्रतिलिपि की गई कालकाचार्यकथा की उदय हुआ। इसी प्रकार वडगच्छीय शांतिसूरि द्वारा वि.सं. ११८१/
दाताप्रशस्ति में मोढगुरु हरिप्रभसरि का उल्लेख प्राप्त होता है।
ता ई. सन् ११२५ में पीपलवृक्ष के नीचे महेन्द्रसूरि, विजयसिंहसूरिन
र यद्यपि इस गच्छ से संबद्ध साक्ष्य सीमित संख्या में प्राप्त होते हैं, आदि ८ शिष्यों के आचार्यपद प्रदान करने के कारण उनकी
फिर भी उनके आधार पर इस गच्छ का लम्बे काल तक अस्तित्व शिष्यसंतति पिप्पलगच्छीय कहलाई। अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा
सिद्ध होता है। प्रो. एम.ए. ढाकी का मत है कि जैन धर्मानुयायी वि.सं. की १७ वीं शती के अंत तक वडगच्छ का अस्तित्व ज्ञात
मोढ़ ज्ञाति द्वारा स्थानकवासी (अमूर्तिपूजक) जैन धर्म अथवा होता है।
वैष्णवधर्म स्वीकार कर लेने से इस श्वेताम्बरमूर्ति पूजकपरंपरा में मलधारिगच्छ या हर्षपुरीयगच्छ हर्षपुर (वर्तमान हरसौर) गच्छ का अस्तित्व समाप्त हो गया। नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। जिनप्रभसूरि
राजगच्छ चन्द्रकुल से समय-समय पर अनेक गच्छों विरचित कल्पप्रदीप (रचनाकाल वि.सं. १३८९/ई. सन् १३३३) का प्रादर्भाव हआ. राजगच्छ भी उनमें एक है। वि.सं. की ११ के अनुसार एक बार चौलुक्यनरेश जयसिंह सिद्धराज ने
वीं शती के आसपास इस गच्छ का प्रादुर्भाव माना जाता है। हर्षपुरीयगच्छ के आचार्य अभयदेवसूरि के मलमलिन वस्त्र एवं
चन्द्रकुल के आचार्य प्रद्युम्नसूरि के प्रशिष्य और अभयदेवसूरि उनकी मलयुक्तदेह को देखकर उन्हें मलधारि नामक उपाधि से के शिष्य धनेश्वरसरि प्रथम दीक्षा लेने के पर्व राजा थे. अत: अलंकृत किया। उसी समय से हर्षपुरीयगच्छ मलधारिगच्छ के
उनकी शिष्य-संतति राजगच्छ के नाम से विख्यात हुई।४६ इस नाम से विख्यात हुआ। इस गच्छ में अनेक ग्रंथों के प्रणेता ।
गच्छ में धनेश्वरसूरि द्वितीय, अनेक कृतियों के कर्ता पार्श्वदेवगणि हेमचन्द्रसूरि, विजयसिंहसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, लक्ष्मणगणि,
अपरनाम श्रीचन्द्रसूरि, सिद्धसेनसूरि, देवभद्रसूरि, माणिक्यचन्द्रसूरि, विबुधप्रभसूरि, जिनभद्रसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, देवप्रभसूरि, नरचन्द्रसूरि,
प्रभाचन्द्रसूरि आदि कई प्रभावक और विद्वान आचार्य हुए हैं। नरेन्द्रप्रभसूरि, राजशेखरसूरि, सुधाकलश आदि प्रसिद्ध आचार्य
इसी गच्छ के वादीन्द्र धर्मघोषसूरि की शिष्यसंतति अपने गुरु के और विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं। इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा
नाम पर धर्मघोषगच्छीय कहलाई। बड़ी संख्या में रची गई कृतियों की प्रशस्तियों एवं गच्छ से संबद्ध वि.सं. ११९० से वि.सं. १६९९ तक के प्रतिमालेखों में इतिहास
यद्यपि राजगच्छ से संबद्ध अभिलेखीय साक्ष्य भी मिलते संबंधी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है।
हैं, जो वि.सं. ११२८ से वि.सं. १५०९ तक के हैं, तथापि उनकी
संख्या न्यून है। साहित्यिक साक्ष्यों द्वारा इस गच्छ का अस्तित्व __ मोडगच्छ गुजरात राज्य के मेहसाणा जिले में अवस्थित
_ वि.सं. की १४ वीं शती तक ही ज्ञात हो पाता है, किन्तु अभिलेखीय मोढेरा (प्राचीन मोढेर) नामक स्थान से मोढज्ञाति एवं मोढगच्छ
साक्ष्यों द्वारा वि.सं. की १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। ई. सन् की १०वीं शताब्दी की धातु
__ का अस्तित्व प्रमाणित होता है। की दो प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों में इस गच्छ का उल्लेख प्राप्त होता है। इससे प्रमाणित होता है कि उक्त तिथि के पूर्व यह
रुद्रपल्लीयगच्छ यह खरतर गच्छ की एक शाखा है जो गच्छ अस्तित्व में आ चुका था।५ प्रभावकचरित से भी उक्त
वि.सं. १२०४ में जिनेश्वरसूरि से अस्तित्व में आई। रुद्रपल्ली मत की पुष्टि होती है। ई. सन् ११७१/वि.सं. १२२७ के एक लेख
नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति हुई। इस गच्छ में में भी इस गच्छ का उल्लेख मिलता है। श्री पूरनचंद नाहर ने
देवसुन्दरसूरि, सोमसुन्दरसूरि, गुणसमुद्रसूरि, हर्षदेवसूरि, इसकी वाचना इस प्रकार दी है--
हर्षसुन्दरसूरि आदि कई आचार्य हुए हैं। वि.सं. की १७ वीं
शताब्दी तक इस गच्छ की विद्यमानता का पता चलता है।४७ ।। सं. १२२७ वैशाख सुदि ३ गुरौ नंदाणि ग्रामेन्या श्रावकिया आत्मीयपुत्र लूणदे श्रेयोर्थ चतुर्विंशतिपट्टा: कारिताः श्रीमोढगच्छे
वायडगच्छ गुजरात राज्य के पालनपुर जिले में अवस्थित
डीसा नामक स्थान के निकट वायड नामक ग्राम है, जहाँ से बप्पभट्टिसंताने जिनभद्राचार्यैः प्रतिष्ठितः। जैनलेखसंग्रह, भाग २,
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासछठी-सातवीं शती में वायडज्ञाति और वायडगच्छ की उत्पत्ति के रचयिता वीरगणि अपरनाम समुद्रघोषसूरि इसी गच्छ के थे। मानी जाती है। इस गच्छ में पट्टधर आचायों को जिनदत्त, इस गच्छ के प्रवर्तक कौन थे? यह गच्छ कब अस्तित्व में राशिल्ल और जीवदेव ये तीन नाम पुनः पुनः प्राप्त होते थे, आया? इस बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती।५५ सरवाल जिससे पता चलता है कि इस गच्छ के अनुयायी चैत्यवासी रहे। जैनों की कोई ज्ञाति थी, अथवा किसी स्थान का नाम था, जहाँ बालभारत और काव्यकल्पलता के रचनाकार अमरचन्द्रसूरि, से यह गच्छ अस्तित्व में आया, यह अन्वेषणीय है। विवेकविलास व शकुनशास्त्र के प्रणेता जिनदत्तसूरि वायडगच्छ के ही थे। सुकृतसंकीर्तन का रचनाकार ठक्कुर अरिसिंह इसी
सन्दर्भ गच्छ का अनुयायी एक श्रावक था।
१. भगवतीसूत्र १५/१/५३९-६१. विद्याधरगच्छ नागेन्द्र, निर्वृत्ति और चन्द्रकुल की भाँति २. वही ९/३३/३८६-७. विद्याधरकुल भी बाद में विद्याधरगच्छ के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
अपम प्रसिद्ध हुआ। ३. कल्पसूत्रस्थविरावली २०५-२२३. इस गच्छ से संबद्ध कुछ प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं। जालिहरगच्छीय देवप्रभसूरि द्वारा रचित पद्मप्रभचरित (रचनाकाल वि.सं. १२५४/
४. नन्दीसूत्रस्थविरावली २५-४८. ई. सन् ११९८) की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि काशहद और ५. विशेषावश्यकभाष्य ३०५३ और आगे, आवश्यकभाष्य १४५ जालिहर ये दोनों विद्याधर गच्छ की शाखाएँ हैं।४९ विद्याधरगच्छ । और आगे, आवश्यकचूर्णि, प्रथम भाग, पृ. ४२७, ५८६. के संबंध में विशेष विवरण अन्वेषणीय हैं।
६. कल्पसूत्रस्थविरावली २१६-२२१. संडेरगच्छ मध्ययुगीन श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में ७. वही संडेरगच्छ का भी प्रमुख स्थान है। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट
८. सम्बोधप्रकरण होता है संडेर (वर्तमान सांडेराव, राजस्थान) नामक स्थान से यह गच्छ अस्तित्व में आया। ईश्वरसूरि इस गच्छ के आदिम ९. . खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, संपा. जिनविजय (सिंधी जैन आचार्य माने जाते हैं। शालिसूरि, सुमतिसूरि, शांतिसूरि और ग्रंथमाला, ग्रथांक ४२, बंबई १९५६), पृ. २-३. ईश्वरसूरि ये चार नाम पुनः इस गच्छ के पट्टधर आचार्यों को १०. द्रष्टव्य संदर्भ संख्या १२. प्राप्त होते रहे। संडेरगच्छीय मुनिजनों द्वारा लिखित ग्रन्थों की
११. श्रीपार्श्व--अंचलगच्छदिग्दर्शन (बंबई, १९८० ई.), पृ.१०. अन्त्य प्रशस्तियों एवं उनकी प्रेरणा से लिखाए गए ग्रन्थों की दाता प्रशस्तियों में इस गच्छ के इतिहास की महत्त्वपर्ण सामग्री १२. अगरचंद नाहटा-- जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश, संकलित है। यही बात इस गच्छ से संबद्ध प्रतिमालेखों--जो यतीन्द्रसूरिअभिनंदनग्रंथ (आहोर, १९५८ ई), पृ. १४१. वि.सं. १०३९ में वि.सं. १७३२ तक के हैं, के बारे में भी कही १३. शिवप्रसाद---आगमिकगच्छ अपरनाम (प्राचीन) जा सकती है। सागरदत्तरास (रचनाकाल वि.सं. १५५०),ललितागंचरित, त्रिस्तुतिकगच्छ का इतिहास, पं. दलसुखभाई मालवणिया श्रीपालचौपाई, सुमित्रचरित्र आदि के रचनाकार ईश्वरसूरि इसी गच्छ अभिनंदनग्रंथ, वाराणसी १९९१ ई. स. पृष्ठ २४१-२८४. के थे। प्राचीन ग्रन्थों के प्रतिलेखन की पुष्पिकाओं के आधार पर ई..
१४. शिवप्रसाद--उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, श्रमण वर्ष सन की १८वीं शती तक इस गच्छ का अस्तित्व ज्ञात होता है।
४२, अंक ७-१२, पृ. ९१-१८२. सरवालगच्छ पूर्वमध्ययुगीन श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों
१५. वही, पृ. १८१-१८२. में सरवालगच्छ भी एक है। चन्द्रकुल की एक शाखा के रूप में . इस गच्छ का उल्लेख प्राप्त होता है। इस गच्छ से संबद्ध वि.सं. १६. C.D. Dalal--A Deccriptive Catalogue Of Manuscripts
in the jain Bhandars at Pattan, Gackwad's Oriental १११० से वि.सं. १२८३ तक के कुछ प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं।
Series No. LXXVI. Baroda. 1937, A.D., pp 215-6. पिण्डनियुक्तिवृत्ति (रचनाकाल वि.सं. ११६०/ई. सन् ११०४) ModidrorariandroloredroidroidroidroidroidroM२९ Hamarirrormiriibrarorridorrowarmarooritam
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१७. H.D. Velankar-jinaratnakosa, Bhandarkar oriental Research institute, government Oriental Series, Class C No. 4 Poona, 1994, A. D. pp. 349 350.
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
१८. शिवप्रसाद कृष्णर्षिगच्छ का इतिहास, निर्ग्रन्थ जिल्द १, अहमदाबाद १९९५, हिन्दी खण्ड, पृष्ठ २४-३५. १९. शिवप्रसाद -- कोरंटगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, श्रमण, वर्ष ४०, अंक ५, पृ. १५-४३.
२०. शिवप्रसाद - - भावडारगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, श्रमण, वर्ष ४०, अंक ३, पृ. १५-३३.
२१. नाहटा, पूर्वाक्त, पृ. १४५-१४६.
२२. मुनि जिनविजय--संपा. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ४२, बंबई १९५६ ई., भूमिका, पृ. ६-१२.
२३. भोगीलाल सांडेसरा- महामात्य वस्तुपाल का साहित्यमण्डल और संस्कृत साहित्य में उसकी देन, जैन-संस्कृति-संशोधन मंडल, सन्मति प्रकाशन नं. १५, वाराणसी, १९५९ ई., पृ. १०६-१०९.
२४. वेलणकर, पूर्वोक्त, पृ. २८८ और ४२३-४२४.
२५. द्रष्टव्य सन्दर्भ संख्या १६.
२६. शिवप्रसाद -- जालिहरगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, श्रमण, वर्ष ४३, अंक ४-६, पृ. ४१-४६.
२६ शिवप्रसाद -- जीरापल्लीगच्छ का इतिहास, श्रमण, वर्ष ४७, अंक ९, पृ. २३-३३.
२७. नाहटा, पूर्वोक्त, पृ. १४८.
२८. वही, पृ. १४८ - १४९
एवं
मुनिकान्तिसागर -- शत्रुंजयवैभव, कुशल संस्थान, पुष्प ४, जयपुर १९९० ई., पृ. ३६९ - २७०.
२९. शिवप्रसाद -- थारापद्रगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, निर्ग्रन्थ, वर्ष अंक १, अहमदाबाद १९९४ ई. १,
३०. नाहटा, पूर्वोक्त, पृ. १४८ - १४९.
For Private
मोहनलाल दलीचंद देसाई -- जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, बंबई, १९३३ ई., पृ. ३८४.
पं. लालचंद भगवानदास गांधी -- ऐतिहासिक लेख संग्रह, बडोदरा, १९६३ ई., पृ. १६२.
हीरालाल रसिकलाल कापड़िया-- जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास भाग २, बड़ोदरा, १९६८ ई., पृ. १३२.
गुलाबचंद्र चौधरी -- जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग .६, वाराणसी १९७३ ई., पृ. २७०-७१.
३१. नाहटा, पूर्वोक्त पृ. १५०.
३२. शिवप्रसाद -- धर्मघोषगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, श्रमण, वर्ष ४१, अंक १- ३, पृ. ४५ - १०३.
३३. नाहटा, पूर्वोक्त, पृ. १५१.
३४. U.P. Shah - Akota Bronzes, (Bombay 1959) PP. 34-35 सांडेसरा, पूर्वोक्त, पृ. ९६-१००.
३५. नाहटा, पूर्वोक्त, पृ. १५१.
३६. शिवप्रसाद, नाणकीयगच्छ, श्रमण, वर्ष ४०, अंक ७, पृ. २
३४.
३७. शाह, पूर्वोक्त, पृ. २९, ३३-३४.
इस गच्छ के संबंध में विचार के लिए द्रष्टव्य-- शिवप्रसाद, निवृत्तिकुल का संक्षिप्त इतिहास,
ले ३० Fo
निर्ग्रन्थ वर्ष २, अहमदाबाद १९९६ ई., हिन्दी खंड, पृष्ठ ३४-३९.
३८. अगरचंद नाहटा -- पल्लीवालगच्छपट्टावली, श्री आत्मारामजी शताब्दी ग्रन्थ, पृ. १८२-१९६.
३९. भोगीलाल सांडेसरा -- हेमचन्द्राचार्य का शिष्य मंडल, जैनसंस्कृति-संशोधन- मंडल, पत्रिका नं. ३१, वाराणसी १९५१ ई., पृ. ३ - २०.
४०. शिवप्रसाद, पिप्पलगच्छ का इतिहास, श्रमण, वर्ष ४७, अंक १०-१२, वर्ष ४८, अंक १-३, पृष्ठ ८३ - ११७. ४१. शिवप्रसाद, पूर्णिमागच्छ का इतिहास, श्रमण, वर्ष ४२, और ४३ के विभिन्न अंक
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास४२. शिवप्रसाद .ब्राह्मण गच्छ का इतिहास, श्रमण, वर्ष ४८, 144-159. अंक ७-९, पृष्ठ १४-५०.
४६. शिवप्रसाद, राजगच्छ का इतिहास, संस्कृतिसंधान, वर्ष ५, ४३. शिवप्रसाद--बृहद्गच्छ का संक्षिप्त इतिहास, पं. दलसुख . वाराणसी १९९२, पृष्ठ ३३-४८. भाई मालवणिया अभिनंदनग्रंथ, पृ. १०५-११७.
४७. शिवप्रसाद, वायडगच्छ का इतिहास, निर्ग्रन्थ, जिल्द २, ४४. मुनिजिनविजय, संपा. कल्पप्रदीप अपरनाम विविधतीर्थकल्प . हिन्दी खण्ड, पृष्ठ ४०-४८. सिंघी जैन ग्रंथमाला, ग्रथांक १०, शांति निकेतन-१९३४
४८. शिवप्रसाद, विद्याधर कुल और विद्याधर गच्छ, संस्कृतिई., पृ. ५१.
संधान, वर्ष ८, वाराणसी १९९५ ई. पृ. ११-१७ ४४: शिवप्रसाद, हर्षपुरीयगच्छ अपरनाम मलधारीगच्छ का ४९ दाव्य--संदर्भसंख्या १६ संक्षिप्त इतिहास, श्रमण, वर्ष ४७, अंक ४६, पृष्ठ ३६-६७.
५०. शिवप्रसाद--संडेरगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, पं. दलसुख ४५. M.A. Dhaky-- "Modhera, Modha-Vansa, Modha
भाई मालवणिया अभिनंदनग्रन्थ, पृ. १९४-२१७. Gaccha and Modha-Caityas, journal of the Asiatic Socity of Bombay, Volumes 56-59/1981-84 ५१. शिवप्रसाद--सरवालगच्छ का संक्षिप्त इतिहास संस्कृति. (Combined) (New Series), Bombay-1986, A.D., pp.
.संधान, वर्ष ४, वाराणसी, १९९२ ई., पृ. ५१-५६.
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चैत्रगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
मध्ययुगीन श्वेताम्बर- गच्छों में चैत्रगच्छ भी एक था। चैत्रपुर
से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है । इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं, यथा चित्रवालगच्छ, चैत्रवालगच्छ, चित्रपल्लीयगच्छ, चित्रगच्छ आदि। धनेश्वरसूरि इस गच्छ के आदिम आचार्य थे। इनके पट्टधर भुवनचन्द्रसूरि हुए जिनके प्रशिष्य और देवभद्रसूरि के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि से वि.सं. १२८५ ई. सन् १२२९ में तपागच्छ का प्रादुर्भाव हुआ। देवभद्रसूरि के अन्य शिष्यों से चैत्रगच्छ की अविच्छिन्न परंपरा जारी रही ।
चैत्रगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिए साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध है। साहित्यिक साक्ष्यों के अंतर्गत इस गच्छ से संबद्ध केवल तीन प्रशस्तियाँ मिलती हैं। इस गच्छ की कोई पट्टावली नहीं मिलती, किन्तु तपागच्छीय आचार्यों की प्राचीन कृतियों की प्रशस्तियों एवं इस गच्छ की विभिन्न पट्टावलियों में चैत्रगच्छ के प्रारम्भिक चार आचार्यों का उल्लेख मिलता है । अलबत्ता इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित अनेक जिनप्रतिमाएँ उपलब्ध हुई इन पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होता है कि ये वि.सं. १२६५ / ई. सन् १२०९ से वि.सं. १५९१ / ई. सन् १५३५ के मध्य प्रतिष्ठापित की गई थीं। अभिलेखीय और साहित्यिक साक्ष्यों द्वारा इस गच्छ की विभिन्न शाखाओं जैसे भर्तृपुरीय शाखा, धारणपद्रीय (थारापद्रीय ) शाखा, चतुर्दशीपक्ष शाखा, चन्द्रसामीय शाखा, सलषणपुरा शाखा, कम्बोइया और अष्टापद शाखा, शार्दूल शाखा आदि का भी पता चलता है।
अध्ययन की सुविधा के लिए सर्वप्रथम साहित्यिक साक्ष्यों और तत्पश्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत है-सम्यक्त्वकौमुदी -- चैत्रगच्छीय आचार्य गुणाकरसूरि ने वि.सं. १५०४ / ई. सन् १४४८ में उक्त ग्रंथ की रचना की। इसकी प्रशस्ति में यद्यपि उन्होंने अपनी गुरुपरंपरा के किसी आचार्य का नामोल्लेख नहीं किया है, किन्तु चैत्रगच्छ से संबद्ध सबसे प्राचीन प्रशस्ति होने से यह महत्त्वपूर्ण है।
डॉ. शिवप्रसाद...
गुणाकरसूरि की दूसरी कृति है वि.सं. १५२४ ई. सन् १४६८ में रचित भक्तामरस्तवव्याख्या । इसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि चैत्रगच्छीय आचार्य धनेश्वरसूरि की मूल परंपरा में गुणाकरसूरि हुए, जिन्होंने उक्त कृति की रचना की । वि.सं. १५५४ / ई. सन् १४९८ में लिपिबद्ध की गई भक्तामरस्तव व्याख्या की एक प्रति मुनि पुण्यविजय जी के संग्रह में उपलब्ध है, जिसकी दाताप्रशस्ति में चैत्रगच्छीय मुनि चारुचन्द्र का उल्लेख है।
दशवैकालिकसूत्र की वि.सं. १७६८ / ई. सन् १७१२ लिखी गई एक प्रति की दाताप्रशस्ति' में चैत्रगच्छ की देवशाखा का उल्लेख है। यह प्रति उक्त शाखा के आचार्य रत्नदेवसूरि के पट्टधर सौभाग्यदेवसूरि की परंपरा के मुनि बेलजी के पठनार्थ लिखी गई थी । चैत्रगच्छ से संबद्ध यही साहित्यिक साक्ष्य प्राप्त
हैं। जैसा कि पूर्व में कहा गया है तपागच्छ से संबद्ध प्राचीन प्रशस्तियों एवं पट्टावलियों में चैत्रगच्छ के प्राचीन आचार्यों का विवरण प्राप्त होता है। जो इस प्रकार है-
जगच्चन्द्रसूरि
(वि.सं. २८५ /ई. सन् १२२९ में तपागच्छ के प्रवर्तक) चैत्रगच्छ से संबद्ध दो लेख चित्तौड़ से प्राप्त हुए हैं। इनमें से एक लेख चैत्रगच्छ की मूलशाखा और दूसरा भर्तृपुरीयशाखा से संबद्ध है। त्रिपुटी महाराज ने प्रथम लेख की वाचना इस प्रकार दी है-
40
. कार्तिक सुदि १४ चैत्रगच्छे रोहणाचल चिंतामणि .. सा मणिभद्र सा. नेमिभ्याम् सह वंडाजितायाः सं. राजन श्रीभवनचन्द्रसूरिशिष्यस्य विद्वत्तया सहृत्तया च रंजितं श्रीगुर्जरराज श्रीमेदपाटप्रभुप्रभृतिक्षितिपतिमानितस्य श्री ( ३ ) x x x लघुपुत्र देदासहितेन स्वपितुरामित्य प्रथमपुत्रस्य वर्मनसिंहस्य पूर्वप्रतिष्ठित
धनेश्वरसूरि
भुवनचन्द्रसूरि
देवभद्रसूरि
३२ 66666
For Private Personal Use Only
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास-श्रीसीमंधरस्वामी श्रीयुगमंधरस्वामी।"
नरेश को भीम द्वितीय (वि.सं. १२३४-१२७७.ई. सन् ११७८इस लेख में चैत्रगच्छीय आचार्य भवनचन्द्रसरि के शिष्य १२२१) तथा मेदपाट (मेवाड़) के राजा को गुहिलवंशीय शासक का उल्लेख है, किन्तु उनका नाम नहीं दिया गया है। साहित्यिक
सामंतसिंह (वि.सं. १२२८-१२५८. ई. सन् ११७१-१२०२) साक्ष्यों में भुवनचन्द्रसूरि के शिष्य देवभद्रसरि का उल्लेख मिलता अथवा उसके उत्तराधिकारी कुमारसिंह से समीकृत किया जा है, अत: यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि चित्तौड के उक्त सकता है। लेख में वर्णित भुवनचन्द्रसूरि के शिष्य उक्त देवभद्रसूरि ही हों। चूंकि चैत्रगच्छ से संबद्ध कोई भी साक्ष्य वि.सं. १२६५/
देवभद्रसरि के शिष्य जगच्चन्द्रसरि से वि.सं. १२८५ ई. ई. सन् १२०२ के पूर्व का नहीं है, किन्तु अंतर्साक्ष्यों के आधार सन् १२२९ में तपागच्छ का प्रादुर्भाव हआ. अत: देवभद्रसरि पर उक्त मितिरहित लेख निश्चय ही वि.सं. १२६५ के पूर्व का का समय उनसे लगभग ३० वर्ष पूर्व अर्थात वि.सं. १२५५ के सिद्ध होता है, अतः इसे चैत्रगच्छ का सबसे प्राचीन साक्ष्य माना आसपास माना जा सकता है। प्रायः यही समय उक्त लेख का जा सकता है। भी हो सकता है। इस आधार पर उक्त लेख में उल्लिखित गुर्जर चैत्रगच्छ से संबद्ध प्रतिमालेखों का विवरण इस प्रकार है--
क्रमांक वि.सं. तिथि/वार
प्रतिष्ठास्थान
संदर्भग्रंथ
१२६५ तिथिविहीन
आचार्य का नाम प्रतिमा लेख
/स्तम्भ लेख पद्मदेवसूरि पार्श्वनाथ
की धातुप्रतिमा का लेख
आदिनाथ जिनालय, (नाहटों में) बीकानेर
२.
१२७३ फाल्गुन वदि २ धर्मसिंहसूरि
रविवार
गुरुमूर्ति पर उत्कीर्ण लेख
चिन्तामणिपार्श्वनाथ जिनालय, सादड़ी(राज.)
अगरचंद नाहटा, संपा., बीकानेर जैन लेख संग्रह, लेखाङ्क १४८० अरविन्दकुमारसिंह, "चिन्तामणिपार्श्वनाथ मंन्दिर के तीन जैन प्रतिमालेख" पं.दलसुखभाई मालवणिया - अभिनन्दनग्रन्थ, पृष्ठ १७२-७३ नाहटा, पूर्वोक्त लेखाङ्क. १२६
आषाढ़ सुदि १०..सूरि शुक्रवार
चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिना; बीकानेर
१३००
माघ वदि २
हरिचन्द्रसूरि
लख
१३१२ वैशाख वदि४ यशोदेवसूरि
के पट्टधर
देवेन्द्रसूरि १३१२ माघ वदि ५ देवेन्द्रसूरि बुधवार
के पट्टधर धर्मदेवसूरि
शांतिनाथ आदिनाथ
दौलतसिंह लोढा की प्रतिमा पर जिनालय,
सम्पा; श्रीप्रतिमालेखसंग्रह उत्कीर्ण लेख थराद
लेखाङ्क......। पार्श्वनाथ की धातु चिंतामणि पार्श्वनाथ जिना., मुनि विशालविजय की प्रतिमा पर चिंतामणि शेरी, राधनपुरप्रितमालेख उत्कीर्ण लेख राधनपुर
संग्रह लेखाङ्क. ३६ चन्द्रप्रभ की चिन्तामणि जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, प्रतिमा पर बीकानेर
लेखाङ्क १५३ उत्कीर्ण लेख
६.
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________________
वही, लेखाङ्क १६२०
८.
९.
मुनि जयन्तविजय, संपा.अर्बुद प्राचीन जैनलेख-संदोह, लेखाङ्क ५२९ पूरनचन्द नाहर, संपा.जैन-लेख-संग्रह भाग-२, लेखाङ्क १९२१ मुनि बुद्धिसागर, संपा.जैन-धातु-प्रतिमा-लेख-संग्रह, भाग-१,लेखाङ्क ४६२ मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१,लेखाङ्क ४६३
१०.
११.
१२.
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास१३२० फाल्गुन सुदि १२ रविप्रभसूरि पार्श्वनाथ की धातु पार्श्वनाथ जिनालय,
की प्रतिमा पर (कोचरों में)
उत्कीर्ण लेख बीकानेर १३२१ चैत्र सुदि ३ शालिभद्रसूरि आदिनाथ . अनुपूर्ति लेख, शुक्रवार
की प्रतिमा आबू
का लेख १३२१ फाल्गुन सुदि आमदेवसूरि शांतिनाथ बावन जिनालय
की चौबीसी करेड़ा, मेवाड़
प्रतिमा लेख १३२६ चैत्रवदि १२ शालिभद्रसूरि
पार्श्वनाथ देरासर, शुक्रवार के शिष्य
लाडोल धर्मचन्द्रसूरि १३२६ चैत्रवदि १२ शालिभद्रसूरि अजितनाथ पार्श्वनाथ देरासर, शुक्रवार के शिष्य
की धातु की
लाडोल धर्मचन्द्रसूरि प्रतिमा का लेख १३२६ ...वदि ३ पद्मप्रभसूरि जिन प्रतिमा पर चिन्तामणि जिनालय, बुधवार
उत्कीर्ण लेख बीकानेर १३२७ फाल्गुन सुदि१२ अजितसिंहसूरि
चन्द्रप्रभ जिनालय, के संतानीय
जैसलमेर कनकप्रभसूरि १३३१ तिथिविहीन
पार्श्वनाथ की चिंतामणि पार्श्वनाथ
प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर १३३२(?) वैशाखसुद११ देवेन्द्रसूरि के संतानीय चतुर्विशति
रविवार धर्मदेवसूरि पट्ट पर उत्कीर्ण लेख १३३३ आषढ़ सुदि २ देवाणंदसूरि शांतिनाथ की शांतिनाथ जिनालय,
धातु की प्रतिमा शांतिनाथ पोल,
का लेख अहमदाबाद १३३३ माघ सुदि १ देवचन्द्रसूरि के स्तम्भलेख जैन मंदिर, पट्टधर अमरचन्द्रसूरि
रत्नपुर, के शिष्य अजितदेवसूरि
मारवाड़ १३३४ वैशाख सुदि ५ भद्रेश्वरसूरि जिन प्रतिमा पंचायती मंदिर, गुरुवार के शिष्य
पर उत्कीर्ण जयपुर
नरचन्द्रसूरि १३३४ " देवभद्रसूरि कायोत्सर्ग जैनमंदिर
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १६८ नाहर, पूर्वोक्त, भाग ३, लेखाङ्क २२२९
१३.
१४.
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १७८ वही. लेखाङ्क १८३
१५.
, १६.
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१,लेखाङ्क १२९७
१७.
नाहर, पूर्वोक्त, भाग-१ लेखाङ्क ९३५
विनयसागर, संपा.प्रतिष्ठालेखसंग्रह,
लेखाङ्क ८६ नाहर, पूर्वोक्त,
लेख
१९.
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________________
लेखाङ्क २०९०
२०.
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१, लेखाङ्क ४५६
नाहर, पूर्वोक्त, भाग-३,लेखाङ्क २४१६
-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासके संतानीय जिन प्रतिमा तिवरी,सिरोही भाग-२
पं. सोमचंद्र पर उत्कीर्ण लेख १३३५ चैत्र वदि५ पद्मचंद्रसूरि शालिभद्रसूरि पार्श्वनाथ रविवार के पट्टधर
की प्रतिमा पर देरासर, शालिभद्रसूरि के उत्कीर्ण लेख लाडोल शिष्य रविचन्द्रसूरि
और धर्मचन्द्रसूरि १३३९ तिथिविहीन धर्मदेवसूरि नेमिनाथ वीर जिनालय,
की प्रतिमा पर जैसलमेर
उत्कीर्ण लेख १३४० ज्येष्ठ सुदि १३ देवप्रभसूरि पार्श्वनाथ
सुपार्श्वनाथ का रविवार के संतानीय की प्रतिमा बड़ा पंचायती अमरभद्रसूरि का लेख
जैनमंदिर, के पट्टधर
जयपुर अजितदेवसूरि ११३४.... ....५ रत्नप्रभसूरि पार्श्वनाथ नवखंडापार्श्वनाथ रविवार के पट्टधर की धातुप्रतिमा जिनालय,
पद्मप्रभसूरि का लेख भोयरापाडो,खंभात १३५२ फाल्गुन सुदी १ गुणचन्द्रसूरि वासुपूज्य शीतलनाथ जिनालय, बुधवार
की धातु-प्रतिमा उदयपुर का लेख
२२.
विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ११३४
२३.
२४.
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२ लेखाङ्क ८७९ आचार्य विजयधर्मसूरि, संपा., प्राचीन लेख-संग्रह लेखाङ्क५० एवं नाहर, पूर्वोक्त, भाग-२ लेखाङ्क १०४१ मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग -२, लेखाङ्क ९२६
२५.
१३५४ माघ वदि ५
धर्मदेवसूरि
पार्श्वनाथ की धातु-प्रतिमा कालेख
पार्श्वनाथ जिनालय, माणेक चौक, खंभात
२६.
१३५९(?)वैशाख सुदि ६ रत्नसिंहसूरि
चिंतामणि पार्श्वनाथ जिनालय, बीकानेर लूणवसही,आबू
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क २८१ मुनि जयन्तविजय, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ३८४
१३६१ तिथिविहीन
स्तम्भलेख
वर्धमानसूरि के शिष्य जयसेन उपाध्याय आमदेव सूरि
१३६९
॥
महावीर की प्रतिमा चिन्तामणि पार्श्वनाथ का लेख जिनालय, बीकानेर आदिनाथ की प्राचीन जैनमंदिर प्रतिमा का लेख लालबाग, मुंबई
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क २४४ मुनि कान्तिसागर, संपा.जैन-धातु-प्रतिमा-लेख, लेखाङ्क
२९.
१३६९ फाल्गुन सुदि ९ अजितदेवसूरि
सोमवार
tosaridroidrstarsa-sosiationsasrandiba
sic ३५ /Horomailonsidasidasionsidensidusrordibasnesiandorar
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________________
-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास३०. १३७१ आषाढ़ सुदि३ श्री उद...? महावीर की धातु- जैनमंदिर
मुनि जयंतविजय, संपा.गुरुवार प्रतिमा का लेख भावरी ग्राम,
अर्बुदाचल-प्रदक्षिणा-जैन-लेख-संदोह, सिरोही
लेखाङ्क५२४ १३७३ वैशाख सुदि ७ पद्मदेवसूरि शांतिनाथ की चिंतामणि पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त, सोमवार
प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर लेखाङ्क २५३ १३७८ वैशाख सुदि६ रत्नसिंहसूरि जिनप्रतिमा पर
वही, लेखाङ्क २७६ बुधवार
उत्कीर्ण लेख ३३. १३७८ ज्येष्ठ वादि ९ हेमप्रभसूरि के सुमतिनाथ विमलवसही, मुनि जयंतविजय, संपा. सोमवार शिष्य रामचन्द्रसूरि की प्रतिमा आबू
अर्बुद-प्राचीन-जैन-लेख-संदोह, पर उत्कीर्ण लेख
लेखाङ्क १३९ एवं मुनि जिन विजय, संपा.प्राचीन जैनलेख-संग्रह
भाग-२, लेखाङ्क २०२ ३४. १३८१ वैशाख सुदि १ धर्मदेवसूरि पार्श्वनाथ चन्द्रप्रभ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्ति, भाग-३
की प्रतिमा पर जैसलमेर
लेखाङ्क २२४९
उत्कीर्ण लेख ३५. १३८६ माघ वदि २ पद्मदेवसूरि शांतिनाथ चन्द्रप्रभ जिनालय, मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, सोमवार के पट्टधर मानदेवसूरि की धातुप्रतिमा पर जानीशेरी, बडोदरा भाग-२,लेखाङ्क १५०
उत्कीर्ण लेख ३६. १३८७ माघ वदि ९ पद्मदेवसूरि पार्श्वनाथ स्तम्भन पार्श्वनाथ मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, शुक्रवार के पट्टधर की धातु की , जिनालय,
भाग-२,लेखाङ्क १०४१ मानदेवसूरि प्रतिमा का लेख खारवाड़ा, खंभाग ३७. १३..? फाल्गुन सुदि ८ मानदेवसूरि
चिंतामणि पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त,
जिनालय, बीकानेर लेखाङ्क ३८१ मार्गशीर्ष सुदि ९ मदनसूरि महावीर
वही, लेखाङ्क ३२६ शनिवार के पट्टधर की धातु की
धर्मसिंहसूरि प्रतिमा का लेख १३८८ वैशाख वदि २ हरिचन्द्रसूरि शांतिनाथ जैन देरासर, मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त सोमवार
की धातु की कोलवड़ा
भाग-१, लेखाङ्क ६५९
प्रतिमा का लेख ४०. १३८८ तिथिविहीन आमदेवसूरि
चन्द्रप्रभदेरासर, नाहर, पूर्वोक्त, जैसलमेर
भाग-३, लेखाङ्क २२५५ ४० अ. १३९१ चैत्रवदि ७ मानदेवसूरि पद्मदेवसूरि के शिष्य
मधुसूदन ढाकी और लक्ष्मण भोजक सोमवार भीमा के मूर्ति शत्रुञ्जय
"शत्रुञ्जयगिरिनाकेटलाक पर उत्कीर्ण लेख
अप्रकट प्रतिमा लेखो"
सम्बोधि वर्ष ७, अंक १-४ ro-sasardasrorsio-draniramidnidiosrowingdail- ३६ Horonsidaridrodriedridaritadinsidasidadeomadra
१३८८
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________________
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास१३९१ माघ सुदी ६ हरिप्रभसूरि
अजितनाथ वीर जिनालय- मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्तरविवार के शिष्य धर्मदेवसूरि की प्रतिमा का लेख बड़ोदरा
भाग २, लेखाङ्क ४९ ४२. १३९२(३) माघ वदि ११ पद्मदेवसूरि नमिनाथ सीमंधरस्वामी वही, भाग-२ शुक्रवार के शिष्य मानदेवसूरि की धातु की का मंदिर
लेखाङ्क १०६८
प्रतिमा का लेख खारवाडो, खंभात ४३. १३९६ माघवदि २ मानदेवसूरि पार्श्वनाथ पार्श्वनाथ देरासर, वही, भाग-१ सोमवार
की धातु की देवसानो पाडो, लेखाङ्क १०९३
प्रतिमा का लेख अहमदाबाद १३९७ माघ... "
शांतिनाथ जिनालय वही, भाग-२
छाणी, बड़ोदरा लेखाङ्ग २५६ १४०५ वैशाख सुदि २ धर्मदेवसूरि आदिनाथ की शांतिनाथ देरासर, वही, भाग-१
धातु की प्रतिमा कनासानो पाडो, लेखाङ्क ३५७
का लेख पाटण १४०८ वैशाख सुदि ५ पद्मदेवसूरि के शांतिनाथ की धातु- शीतलनाथ जिनालय मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त,
गुरुवार पट्टधर मानदेवसूरि प्रतिमा का लेख कुंभारपाडो, खंभात भाग-२, लेखाङ्क ६५० १४१७ ज्येष्ठ सुदि ९ मानदेवसूरि आदिनाथ की धातु शांतिनाथ देरासर, वही, भाग-१ गुरुवार
की प्रतिमा का लेख कनासानो पाडो, पाटण लेखाङ्क ३२४ वैशाख सुदि १२ मुनिरत्नसूरि शांतिनाथ की चिंतामणि जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, बुधवार की प्रतिमा का लेख बीकानेर
लेखाङ्क ४४९ आषाढ़ सुदि६ धर्मदेवसूरि आदिनाथ की धातु "
वही, लेखाङ्क ४७० गुरुवार
की प्रतिमा का लेख धर्मचन्द्रसूरि शतिनाथकी धातुकी संभवनाथ देरासर, मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेख पादरा
भाग-२,लेखाङ्क १४ ५० अ. १४३२ फाल्गुन सुदि २ गुणाकरसूरि गुरुप्रतिमा
मधुसूदन ढाकी और के शिष्यरत्नप्रभसूरि की पर उत्कीर्ण लेख
लक्ष्मण भोजकप्रतिमा के प्रतिष्ठापक
"शत्रुजयगिरिना केटलाक उनके शिष्य गुणसमुद्रसूरि
अप्रकट प्रतिमा लेखों", सम्बोधि, जिल्द ७, अंक १-४,
लेखाङ्क २७ १४३५ माघ वदि १३ गुणदेवसूरि पार्श्वनाथ की धातु चिंतामणि जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, सोमवार की पंचतीर्थी बीकानेर
लेखाङ्क५१६
प्रतिमा का लेख १४४६ वैशाख वदि..... देवंचन्द्रसूरि आदिनाथ सुमतिनाथ मुख्य बावन बुद्धिसागर, पूर्वोक्त,
के पट्टधर
की धातु की जिनालय,मातर भाग-२,लेखाङ्क ५२४ पार्श्वचन्द्रसूरि प्रतिमा का लेख
शुक्रवार
సారసాగరంగరంగరంగరంగ 29 గారు రంగుగరుకుగాంతంలో
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१४७७
"
- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास. ५३. १४५१ ज्येष्ठ सुदि ४ पासदेवसूरि शांतिनाथ की जैनमंदिर, ऊँझा वही, भाग-१, रविवार धातु की पंचतीर्थी
लेखाङ्क १५५
प्रतिमा का लेख ५४. १४५८ फाल्गुन वदि १ वीरचन्द्रसूरि आदिनाथ चिंतामणि जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, शुक्रवार की धातु की प्रतिमा बीकानेर
लेखाङ्क५८५ का लेख वैशाख सुदि ३ धर्मदेवसूरि शांतिनाथ की धातु संभवनाथजिनालयबोलपीपलो, मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, सोमवार के पट्टधर पार्श्वचन्द्रसूरि की प्रतिमा का लेख खंभात
भाग-२,लेखाङ्क ११३३ मार्गशीर्ष सुदि१० वीरचन्द्रसूरि। आदिनाथ की धातु चिंतामणि पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त, बुधवार
की प्रतिमा का लेख जिनालय,बीकानेर लेखाङ्क ६२९ फाल्गुन सुदी ९ पार्श्वचन्द्रसूर सूरके शिष्य
धर्मनाथ देरासर, मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त,भाग-१, सोमवार मलयचन्द्रसूरि
उपलोगभारो, अहमदाबाद लेखाङ्क १११३ १४७७ वैशाख सुदि ५ गणेशदेवसूरि अनन्तनाथ की धातु शांतिनाथ देरासर, वही, भाग-२,
की चौबीसी प्रतिमा छाणी, बड़ोदरा लेखाङ्क २६७ पर उत्कीर्ण लेख शांतिनाथ की धातु सहस्रफणा पार्श्वनाथ मुनि विशालविजय, की चौबीसी प्रतिमा जिनालय, बम्बावाली पूर्वोक्त, लेखाङ्क १००
का लेख शेरी, राधनपुर (१४)७८ वैशाख सुदि६ जयानन्दसूरि पार्श्वनाथ की अनुपूर्ति लेख, अर्बुद-प्राचीन-जैन-लेख-संदोह, सोमवार प्रतिमा का लेख आबू
लेखाङ्क६६० १४८४ वैशाख सुदि ११ जिनदत्त (देव) सूरि धातु की चौबीसी कल्याण पार्श्वनाथ, मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त,भाग १, रविवार
जिनप्रतिमा पर देरासर, वीसनगर लेखाङ्क५३४ .
उत्कीर्ण लेख __ १४८७ मार्गशीर्ष सुदि ९ जिनदेवसूरि श्रेयांसनाथ की मुनि सुव्रतनाथ जिनालय,वही, भाग-२, शनिवार
धातु की प्रतिमा खारवाडो, खंभात लेखाङ्क १०२५
का लेख १४९३ माघ सुदि ८ धनदेवसूरि पार्श्वनाथ की धातु की आदिनाथ जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, शुक्रवार प्रतिमा का लेख राजलदेसर
लेखाङ्क २३४७ ६४. १४९९ कार्तिक सुदि १५ ...तिलकसरि धर्मनाथ की वीर जिनालय, वही, लेखाङ्क १३४१ गुरुवार
धातु की पंचतीर्थी बीकानेर
प्रतिमा का लेख ५. १४९९ माघ सुदि६ मुनितिलकसूरि सुमतिनाथ आदिनाथ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त सोमवार के पट्टधर
की प्रतिमा सेठों की हवेली भाग-२,लेखाङ्क १९०१ गुणाकरसूरि का लेख
के पास, उदयपुर
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________________
६६.
-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास-- १४९९ फाल्गुन वदि २ जयानन्दसूरि, मुनिसुव्रत की पार्श्वनाथ जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, गुरुवार
मुनितिलकसूरि धातु की सरदार शहर लेखाङ्क २३८४ गुणाकरसूरि चौबीसी प्रतिमा
का लेख वैशाख सुदि ५ श्रीसूरि
शांतिनाथकी धातु शांतिनाथ जिनालय, मुनि विशालविजय, गुरुवार
चौबीसी प्रतिमा कडुवामत की शेरी, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १३२
का लेख . माघ सुदि १० सुमतिसूरि, चन्द्रप्रभ की चौबीसी पंचायती मंदिर, विनयसागर, पूर्वोक्त, सोमवार गुणाकरसूरि प्रतिमा का लेख जयपुर
लेखाङ्क ३४६ फाल्गुन सुदि१३ मुनितिलकसूरि शांतिनाथ की प्रतिमा "
नाहर, पूर्वोक्त, शनिवार का लेख
भाग-२, लेखाङ्क ११४५ १५०३ मार्गशीर्ष वदि१० "
संभवनाथ की शांतिनाथ
विनयसागर, पूर्वोक्त, पंचतीर्थी प्रतिमा जिनालय, रतलाम लेखाङ्क ३७०
का लेख १५०३ मार्गशीर्ष सुदि६ मलयचंद्रसूरि सुमतिनाथ चन्द्रप्रभ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त,
जैसलमेर
भाग-३, लेखाङ्क २३२० १५०४ माघ सुदि ५ गुणाकसूरि के श्रेयांसनाथ की चिंतामणि पार्श्वनाथ जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, रविवार सानिध्य में धातु की प्रतिमा बीकानेर
लेखाङ्क ९०४ मुनितिलकसूरि कालेख १५०५ माघ वदि ७ मुनितिलकसूरि मुनिसुव्रत की पंचतीर्थी शांतिनाथ जिनालय विनयसागर, पूर्वोक्त
प्रतिमा का लेख रतलाम
लेखाङ्क ३९७ १५०६ माघ वदि ३
वासुपूज्य चिंतामणि पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त, गुरुवार
की धातु की जिनालय, बीकानेर लेखाङ्क ९००
प्रतिमा का लेख १५०६ माघ सुदि६
धर्मनाथ की प्रतिमा अस्पष्ट
नाहर, पूर्वोक्त, भाग-१ का लेख
लेखाङ्क २१३ १५०७ भाद्रपद सुदि१३ गुणदेवसूरि के सुविधिनाथ की महावीरजिनालय, मुनि कान्तिसागर, शुक्रवार संतानीय
धातु की प्रतिमा पायधुनी, मुंबई पूर्वोक्त, भाग-१, जिनदेवसूरि का लेख
लेखाङ्क १०६
७२.
७३.
७४.
७५.
७६.
७७.
मुनि तिलकसूरि
१५०७ माघ सुदि ५
गुरुवार
सुमतिनाथ बावन जिनालय, की धातु की प्रतिमा पेथापुर का लेख
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१, लेखाङ्क ७०४
driodromidnironidiomadroomidnidmoonGridwara ३९
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For Private & Personal use only
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________________
७८.
___७९.
८०.
८१.
८२.
___८३.
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास१५०८ वैशाख सुदि ५ "
धर्मनाथ की धातु की जैनमंदिर,
नाहर, पूर्वोक्त, सोमवार
प्रतिमा का लेख पटना (बिहार) भाग-१, लेखाङ्क २७७ १५०८ "
श्रेयांसनाथ की गौड़ी पार्श्वनाथ, जिनालय, मुनि कान्तिसागर, धातु की प्रतिमा पायधुनी, मुंबई पूर्वोक्त, भाग-१ लेखाङ्क १११
का लेख १५०८ मार्गशीर्ष वदि २ मुक्तिवि...सूरि आदिनाथ की पंचायती मंदिर, विनयासगर, पूर्वोक्त, बुधवार पंचतीर्थी जयपुर
लेखाङ्क ४३४
प्रतिमा कालेख १५०८ मार्गशीर्ष सुदि ३ गुणदेवसूरि शांतिनाथ की धातु की जैनमंदिर,
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, शुक्रवार के संतानीय प्रतिमा के लेख बोटाड
लेखाङ्क २३५ . जिनदेवसूरि १५०९ माघ वदि ९ वीरदेवसूरि के पट्टधर आदिनाथ की धातु जैनमंदिर ,
मुनि कान्तिसागर, मंगलवार पासदेवसूरि की प्रतिमा का लेख चांदवाड, नासिक पूर्वोक्त, लेखाङ्क ११५ १५११ ज्येष्ठ वदि ९ गुणदेवसूरि कुन्थुनाथ नेमिनाथ जिनालय, मुनि विशालविजय, रविवार के संतानीय की धातु की सेठ की शेरी, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १७६
जिनदेवसूरि के पंचतीर्थी राधनपुर
पट्टधर रत्नदेवसूरि प्रतिमा का लेख १५१२ वैशाख वदि ३ "
विमलनाथ की धातु शांतिनाथ देरासर, मुनि बुद्धिसागर, शुक्रवार की चौबीसी प्रतिमा वीसनगर
पूर्वोक्त, भाग-१,लेखाङ्क ५०४
का लेख १५१२ पौष वदि ५ मुनितिलकसूरि चौमुख शांतिनाथ
वही, भाग-१, शुक्रवार देरासर, अहमदाबाद
लेखाङ्क ८९५ १५१३ वैशाख सुदि५ गुणदेवसूरि के संतानीय शांतिनाथ की धातु कल्याण पार्श्वनाथ मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, शनिवार रत्नदेवसूरि प्रतिमा का लेख देरासर, मामानी पोल, भाग-२ लेखाङ्क ३२
बड़ोदरा, १५१३ वैशाख सुदि ५ मुनितिलकसूरि संभवनाथ की आदिनाथ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त, भाग-२, शुक्रवार के पट्टधर प्रतिमा का लेख नागौर
लेखाङ्क १२६४ एवं गुणाकरसूरि
विनयासगर,पूर्वोक्त, लेखाङ्क ५०५ १५१३ माघ वदि ५ गुणाकर सूरि
चिंतामणि पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त,
जिनालय, बीकानेर लेखाङ्क ९७५ १५१३ माघ सुदि६ "
विमलनाथ धर्मनाथ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त, रविवार
की प्रतिमा का लेख बड़ा बाजार, कलकत्ता भाग-१, लेखाङ्क १०१ १५१५ ज्येष्ठ सुदि ५ रामदेवसूरि कुन्थुनाथ की
शीतलनाथ जिनालय, वही, भाग-२, . प्रतिमा का लेख उदयपुर
लेखाङ्क १०९०
८४.
...
९०.
శారతారురురురురువారం సాయరుగారుసారంగుసారులో o సాగురువారసాగరసారసాసారుసారంగారసాగరం
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१५१५
९३.
१५१९
१५२३
९८.
१५२५
- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासमार्गशीर्ष वदि११ मुनितिलकसूरि संभवनाथ की चिंतामणि पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त, के पट्टधर
धातु की प्रतिमा जिनालय,बीकानेर लेखाङ्क ९८५ गुणाकरसूरि का लेख माघ वदि १२, " श्रेयांसनाथ की धातु "
वही, लेखाङ्क १००३ गुरुवार
की प्रतिमा का लेख आषाढ़ वदि ९ " शांतिनाथ की . जैन मंदिर,
नाहर, पूर्वोक्ति, शनिवार प्रतिमा का लेख अलवर
भाग-१, लेखाङ्क ९९२ पौष वदि १३ श्रीसूरि
संभवनाथकी धातु संभवनाथ देरासर, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, मंगलवार
की प्रतिमा का लेख झवेरीवाड़,अहमदाबाद भाग-१, लेखाङ्क ८६४ वैशाख वदि ४ गुणदेवसूरि कुन्थुनाथ की धातु शंखेश्वर पार्श्वनाथ वही, भाग-१, गुरुवार के पट्टधर रत्नदेवसूरि प्रतिमा का लेख देरासर, वीरमगाम लेखाङ्क १५०५ वैशाख सुदि ३ ....................
मुनिसुव्रत की धातु आदिनाथ जिनालय, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त सोमवार
की प्रतिमा का लेख शेखनो पाडो, भाग-१, लेखाङ्क १०१९
अहमदाबाद वैशाख सुदि ६ रामचन्द्रसूरि कुन्थुनाथ की धातु की पार्श्वनाथ जिनालय, वही, भाग-२, गुरुवार प्रतिमा का लेख भरुच
लेखाङ्क ३१२ ज्येष्ठ सुदि ५ गुणदेवसूरि धर्मनाथ की बालावसही, मुनि कान्तिसागर, बुधवार के संतानीय प्रतिमा का लेख शत्रुञ्जय
शत्रुञ्जयवैभव, लेखाङ्क १८ जिनदेवसूरि ज्येष्ठ वदि ४ सोमकीर्तिसूरि शीतलनाथ की वीरजिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, बुधवार ......? धातु की प्रतिमा बीकानेर
लेखाङ्क १२२६ का लेख आषाढ़ सुदि१३ सोमकीर्तिसूरि सुमतिनाथ शीतलनाथ जिनालय, नाहर, पूर्वोक्त, भाग-२, रविवार के पट्टधर की प्रतिमा का लेख उदयपुर
लेखाङ्क १०९४ चारूचंद्रसूरि माघ सुदि ९ । साधु कीर्तिसूरि धर्मनाथ की धातु की चिंतामणि पार्श्वनाथ नाहटा, पूर्वोक्त बुधवार चारुचन्द्रसूरि प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर लेखाङ्क १०५४ चैत्र वदि १० ज्ञानदेवसूरि शांतिनाथ की धातु गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, मुनि विशालविजय, गुरुवार
की पंचतीर्थी प्रतिमा गौड़ीजी की खड़की, पूर्वोक्त, लेखाङ्क २५७
का लेख राधनपुर माघ वदि६ सोमकीर्तिसरि चन्द्रप्रभ की प्रतिमा पंचायती जैन मंदिर, नाहर, पूर्वोक्त रविवार का लेख मिर्जापुर
भाग-१, लेखाङ्क ४३२ फाल्गुन सुदि८ सोमकीर्तिसूरि सुमतिनाथ की धातु शीतलनाथ जिनालय, वही, भाग-२, शनिवार के पट्टधर वीचन्द्रसूरि की प्रतिमा का लेख उदयपुर
लेखाङ्क १०९६
१५२७
१००.
१५२७
१०१.
१५२७
१०२.
१५२८
१०३.
१५२९
१०४.
१५३१
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्ध - इतिहास१०५ १५३४ वैशाख वदि १३ सोमकीर्तिसूरि
पार्श्वनाथ जिनालय, मुनि कान्तिसागर सोमवार के पट्टधर
भद्रावती
जैन-धातु-प्रतिमा-लेख, वारवेन्द्र (वीरचन्द्र) सूरि
भाग-१, लेखाङ्क २२७ १०६. १५३७ ज्येष्ठ वदि ४ सोमकीर्तिसूरि धर्मनाथ की धातु की संभवनाथ देरासर मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त,
मंगलवार के पट्टधर चारुचन्द्रसूरि प्रतिमा का लेख झवेरीवाड़, अहमदाबाद भाग-१, लेखाङ्क ८४२ १०७. १५३८ वैशाख वदि ५ रत्नदेवसूरि के पट्टधर चन्द्रप्रभ की धातु की आदिनाथ का बड़ा चैत्य, लोढ़ा, पूर्वोक्त,
बुधार अमरदेवसूरि प्रतिमा के लेख थराद
लेखाङ्क २१३ १५४० मार्गशीर्ष सुदि ५ सोमकीर्तिसूरि वासुपूज्य की धातु विमलनाथ जिनालय नाहटा, पूर्वोक्त,
के पट्टधर चारुचन्द्रसूरि की प्रतिमा का लेख कोचरों का चौक, बीकानेर लेखाङ्क १५८३ १५४२ वैशाख सुदि ९ सोमकीर्तिसूरि आदिनाथ की पाषाण शांतिनाथ जिना; वही, लेखाङ्क २५३६
की प्रतिमा का लेख हनुमानगढ़, बीकानेर - वैशाख वदि १० सोमदेवसूरि पार्श्वनाथ की धातु की पार्श्वनाथ देरासर, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, शुक्रवार प्रतिमा का लेख अहमदाबाद
भाग-१, लेखाङ्क ९१९ ११. १५४८
कार्तिक सुदि ११ सोमदेवसूरि धर्मनाथ की जैनमंदिर, पंजाबी शत्रुञ्जयवैभव गुरुवार
प्रतिमा का लेख धर्मशाला, पालिताना लेखाङ्क २४३ चन्द्रप्रभ की बड़ा मंदिर, वही, लेखाङ्क २४१, प्रतिमा का लेख पालिताना
एवं नाहर, पूर्वोक्त, भाग-१,
लेखाङ्क ६७५ ___ ११३. १५५८ माघ सुदि ५ गुणदेवसूरि के
शांतिनाथ देरासर, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१, बुधवार संतानीय रत्नदेवसूरि
ऊँझा
लेखाङ्क २१३ ___ १५५९ माघ सुदि १० भुवनकीर्तिसूरि श्रेयांसनाथ की धातु आदिनाथ जिना; अदाचलप्रदक्षिणाजैनलेख.
की प्रतिमा का लेख बासा, सिरोही संदोह, लेखाङ्क ५५३ ___ वैशाख सुदि ७ "
अजितनाथ की धातु वीर जिनालय, नाहटा, पूर्वोक्त, की प्रतिमा का लेख बीकानेर
लेखाङ्क १३६८ ११६. १५७९ तिथिविहीन वीरदेवसूरि के पट्टधर संभवनाथ की धातु संभवनाथ देरासर, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१,
पासदेवसूरि का प्रतिमा का लेख कड़ी
लेखाङ्क ७३७ ११७. १५९१ वैशाख वदि २ वीरचन्द्रसूरि शीतलनाथ की धातु पार्श्वनाथ देरासर वही, भाग-१, सोमवार
की प्रतिमा देवसानो पाडो, लेखाङ्क १०८२
का लेख अहमदाबाद, ११८. १५९१ " "
सुमतिनाथ की धातु अजितनाथ जिना, वही, भाग-१,
की प्रतिमा का लेख शेखनो पाडो, अहमदाबाद लेखाङ्क १००२ ११९. १५९१ वैशाख वदि ६ विजयदेवसूरि पार्श्वनाथ की प्रतिमा कपडवज का मंदिर शत्रुञ्जयवैभव, शुक्रवार
का लेख शत्रुञ्जय
लेखाङ्क २८५ अभिलेखीय साक्ष्यों की पूर्वोक्त सूची से यद्यपि चैत्रगच्छीय अनेक मुनिजनों के नाम ज्ञात होते हैं, किन्तु उनमें से कुछ के पूर्वापर संबंध ही स्थापित हो पाते हैं, जो इस प्रकार हैं---
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- यतीन्द्रसरि स्मारक ग्रन्य - इतिहास -
जिनेश्वरसूरि
रत्नप्रभसूरि
जिनदेवसूरि वि.सं. १३०३
पद्मप्रभसूरि वि.सं. १३२४-१३४...?
यशोदेवसूरि
देवेन्द्रसूरि वि.सं. १३१२ धर्म देवसूरि वि.सं. १३१२-१३५४
हेमप्रभसूरि
• रामचन्द्रसूरि वि.सं. १३७८
पद्मचन्द्रसूरि
शालिभद्रसूरि
।
रविचंद्रसूरि
धर्मचंद्रसूरि
पद्मदेवसूरि वि.सं. १३७३
अजितसिंहसूरि
मानदेवसूरि वि.सं. १३८६-१४१७
कनप्रभसूरि वि.सं १३२७
मदनसूरि
देवचन्द्रसूरि
:
धर्मसिंहसूरि वि.सं.१३८८
अमरप्रभसूरि
अजितदेवसूरि वि.सं. १३३३-१३६९
हरिप्रभसूरि
देवचन्द्रसूरि
धर्मदेवसूरि (वि.सं. १३९१-१४३०)
देवप्रभसूरि
पार्श्वचन्द्रसूरि वि.सं. १४४६ पार्श्वचन्द्रसरि(विसं. १४४६-१४६६)
सोमचन्द्रसूरि वि.सं. १३३४
मलयचन्द्रसूरि(वि.सं. १४७४-१५०३) రంగురంగుగరుగారురంగురంగురువారం
వారసాగశారువారసాగరరరరరwood
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________________
- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास.
साहित्यिक साक्ष्यों के अंतर्गत सम्यक्त्वकौमुदी(रचनाकाल
वि.सं. १५०४/ई. सन् १४४८) और भक्तामरस्तवव्याख्या गुणदेवसूरि वि.सं. १५३५-१५७७
(रचनाकाल वि.सं. १५२४/ई. सन् १४६८) के कर्ता चैत्रगच्छीय
गुणाकरसूरि का नाम आ चुका है, किन्तु वे किसके शिष्य थे, जिनदेवसूरि वि.सं. १५०७-१५०८ यह बात उक्त साक्ष्य से ज्ञात नहीं होती। अभिलेखीय साक्ष्यों में
जयानन्दसूरि के पट्टधर मुनितिलकसूरि (वि.सं. १५०१-१५०८, रत्नदेवसूरि वि.सं. १५११-१५५८ ..
प्रतिमालेख) के शिष्य गुणाकरसरि (वि.सं. १४९९-१५१९, प्रतिमालेख) का उल्लेख मिलता है। अतः समयामयिकता के आधार पर मुनितिलकसूरि के पट्टधर गुणाकरसूरि को सम्यक्त्वकौमुदी आदि के कर्ता गुणाकरसूरि से अभिन्न माना जा सकता है।
जयानन्दसूरि
मुनितिलकसूरि वि.सं. १५०१-१५०८
गुणाकरसूरि वि.सं. १४९९-१५१९
जयानन्दसूरि
मुनितिलकसूरि (वि.सं. १५०१-१५०८)
प्रतिमा लेख
वीरदेवसूरि
गुणाकरसूरि (वि.स. १४९९-१५१९)
प्रतिमा लेख
पासदेव (पार्श्वदेव) सूरि वि.सं. १५०९
वि.सं. से १५०४/ई. सन् १४४८ में सम्यक्त्वकौमुदी और
वि.सं. १५२४ / ई. सन् १४६८ में भक्तामरस्तवव्याख्या के रचनाकार ठीक इसी प्रकार चैत्रगच्छीय सोमकीर्तिसरि के शिष्य चारुचन्द्रसूरि (वि.सं. १५२७-१५४०, प्रतिमा लेख) और वि.सं. १५५४/ई. सन् १४९८ में प्रतिलिपि की गई भक्तामरस्तवव्याख्या की दाता प्रशस्ति में उल्लिखित चैत्रगच्छीय चारुचन्द्रसूरि एक ही व्यक्ति मालूम पड़ते हैं--
सोमकीर्तिसूरि
चारुचन्द्रसूरि
वीरचन्द्रसूरि वि.सं. १५२७-१५४०
वि.सं. १५३१-१५३४ परंतु इन सबको मिलाकर भी चैत्रगच्छीय मनिजनों की गुरु-शिष्य परंपरा की नामावली की अविच्छिन्न तालिका का पुर्नगठन कर पाना कठिन है।
రంగురంగురువారంవారు గురువారందరగారం లో రంగురంగురువారందరగారురంగురంగులో
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्ध - इतिहास
जयन्तविजय जी ने इस लेख की वाचना इस प्रकार दी है--
_ 'संवत् १३३८ श्रीचैत्रगच्छे भर्तृपुरीय सा. खुनिया भा. होली सोमकीर्तिसूरि (वि.सं. १५२७-१५४२, प्रतिमालेख)
पु. हरया केशववाण रावण बेल पु. नरसिंह खीमड हरिचंदेण निजपूर्वजपित्रोः श्रेयो) श्रीशांतिनाथबिंब का. श्रीवर्धमानसूरभिः।'
शांतिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख चारुचन्द्रसूरि वीरचन्द्रसूरि
अनुपूर्तिलेख, आबू (वि.सं. १५२७-१५४०, प्रतिमालेख) (वि.सं. १५३१-१५३४, प्रतिमा लेख)
इस शाखा से संबद्ध तृतीय लेख वि.सं. x x १४ का है। वि.सं. १५५४/ई. सन् १४९८ में लिपिबद्ध की गई
यह चित्तौड़ से प्राप्त हुआ है। त्रिपुटी महाराज ने इनकी वाचना भक्तामरस्तवव्याख्या
इस प्रकार की है-- की दाताप्रशस्ति में उल्लिखित
'संवत् x x १४ वर्षे मार्गसुदि ३ श्रीचैत्रपुरीयगच्छे चैत्रगच्छ की शाखायें-- जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है,
श्रीवुडागणि भतृपुर महादुर्ग श्री गुहिलपुत्रवि xx हार श्रीडवड़ादेव । साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों से चैत्रगच्छ की कई शाखाओं आदिजिन बाभांग दक्षिणाभिमखदारगफायां कलिं तदेवीनां चत. का पता चलता है। इनका अलग-अलग विवरण इस प्रकार है--
xxxx लानां चतुर्णां विनयकानां पादुकाघटितसहसाकार १. भर्तपरीय शाखा -- जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, सहिताश्रीदेवीचित्तोडरी मूर्ति xxxx श्रीभ्र (भ) र्तृगच्छीय चैत्रगच्छ की इस शाखा का नामकरण भर्तृपुर (वर्तमान भटेवर, महाप्रभावक श्रीआम्रदेवसरिभिः xxx श्री सा. सामासु सा. राजस्थान) नामक स्थान से हुआ प्रतीत होता है। इस शाखा से हरपालेन श्रेयसे पण्योपार्जना x व्यधीयते।। संबद्ध तीन लेख मिले हैं। प्रथम लेख वि.सं. १३०३ और द्वितीय लेख वि.सं. १३३४ का है। तृतीय लेख...१४ का है, अर्थात्
यद्यपि इस लेख के प्रथम दो अंक नष्ट हो गए हैं, फिर भी इसके प्रथम दो अंक नष्ट हो गए हैं। श्रीपूरनचन्द नाहर और
र
लख क
लेख की भाषाशैली पर राजस्थानी भाषा के प्रभाव को देखते विजयधर्मसूरि ने वि.सं. १३०३/ई. सन १२४७ के लेख की हुए इसे १६वीं शती के प्रारंभ अर्थात् १५१४ वि.सं. का माना जा वाचना इस प्रकार दी है--९
सकता है। 'संवत् १३०३ वर्षे चैत्र वदि ४ सोमदिने श्रीचैत्रगच्छे भर्तृपुरीय शाखा से संबद्ध उक्त लेखों से यद्यपि कई श्रीभद्रेश्वरसंताने भर्तृपुरीयवत्स श्रे. भीम अर्जुन कडवट श्रे. चूडा मुनिजमुनों के नाम ज्ञात होते हैं, किन्तु उनके आधार पर इस पुत्र श्रे. वयजा धांधल पासड उवादिभि : कुटुंबसमेतैः... प्रतिमा शाखा के मुनिजनों की गुरु-परंपरा की कोई लंबी तालिका नहीं कारिता। प्रति. श्रीजिनेश्वरसूरिशिष्यैः श्रीजिनदेवसूरिभिः।।' - बन पाती है।
.. तीर्थङ्कर की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
२. धारणपद्रीयशाखा- यद्यपि प्रतिमालेखों में 'धारणपद्रीय' प्रतिष्ठास्थान--करेड़ा पार्श्वनाथ जिनालय, करेड़ा
नाम मिलता है, जो संभवतः थारणपद्रीय होना चाहिए। इस भर्तृपुरीय शाखा से संबद्ध द्वितीय लेख वि.सं. १३३८/ई. शाखा से संबद्ध २५ प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं, जो वि.सं. १४०० से सन् १२८२ का है, जो शांतिनाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण है। मुनि वि.सं. १५८२ तक के हैं। इनका विवरण इस प्रकार है--
१.
१४०० तिथिनष्ट
राजदेवसूरि
शांतिनाथ की धर्मनाथ जिनालय, मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, धातु की पंचतीर्थी उपलोगभारो, भाग-१, लेखाङ्क १०१९ प्रतिमा का लेख अहमदाबाद श्रेयांसनाथ की संभवनाथ देरासर, वही, भाग-१, धातु की प्रतिमा झवेरीवाड़, अहमदाबाद लेखाङ्क ८६६ का लेख .
२.
१४५७
आषाढ सुदि ५ पासदेवसूरि गुरुवार
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________________
३.
लेखाङ्क५
- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास १५०६ पौष वदि ६ विजयदेवसूरि सुविधिनाथ की शांतिनाथ जिनालय, वी, भाग-२, सोमवार
धातु की प्रतिमा पादरा
का लेख १५०७ वैशाख सुदि११ लक्ष्मीदेवसूरि विमलनाथ की धातु अजितनाथ जिनालय, वही, भाग-१, सोमवार
की प्रतिमा का लेख शेखनोपाडो, अहमदाबाद लेखाङ्क ९९८ १५०७
कुन्थुनाथ की धातु शांतिनाथ जिनालय, विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, की प्रतिमा का लेख मांडल
लेखाङ्क २३० १५११ माघ सुदि५
आदिनाथ की आदिनाथ चैत्य, दौलतसिंह लोढ़ा, पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेख थराद
लेखाङ्क ६७ पौष वदि ५
नमिनाथ
आदिनाथ देरासर, विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, रविवार की धातु प्रतिमा जामनगर
लेखाङ्क २८४ का लेख अजितनाथ की वीरचैत्य,
लोढ़ा, पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेख थराद
लेखाङ्क १७ . १५१३ पौष वदि ५ लक्ष्मीदेव सूरि अजितनाथ की वीर चैत्य,
लोढ़ा, पूर्वोक्त, रविवार प्रतिमा का लेख थराद
लेखाङ्क ३ १५१७ ज्येष्ठ सुदि ५ "
जैन देरासर, विजयधर्मसूरि, गुरुवार की धातु प्रतिमा महुवा
पूर्वोक्त, लेखाङ्क ३१५ का लेख
१५१३
"
कुन्थुनाथ
१५१७
॥
ज्येष्ठ सुदि
सुमतिनाथ की धातु शांतिनाथ जिनालय, मुनिविशालविजय, की पंचतीर्थी प्रतिमा भानीपोल, राधनपुर पूर्वोक्त, लेखाङ्क २१२
का लेख १५१७ पौष वदि५ "
सुविधिनाथ की मोतीसा की
शत्रुञ्जयवैभव, गुरुवार
प्रतिमा का लेख टूक,शत्रुञ्जय लेखाङ्क १५१ ३. १५१७ "
सुमतिनाथ शांतिनाथ देरासर, मुनि बुद्धिसागर, की धातु की प्रतिमा अहमदाबाद
पूर्वोक्त, भाग-१, का लेख
लेखाङ्क १०३१ कुन्थुनाथ की धातु चन्द्रप्रभजिना, वही, भाग-२,
प्रतिमा का लेख सुल्तानपुरा, बड़ोदरा लेखाङ्क १९९ १५१७ माघ सुदि १० "
धर्मनाथ की धातु नेमिनाथ जिना, मुनि विशालविजय, बुधवार
की पंचतीर्थी प्रतिमा सेठ की शेरी, पूर्वोक्त, लेखाङ्क २०७ का लेख
राधनपुर १५२२ तिथिविहीन
शांतिनाथ देरासर विजयधर्मसूरि, जामनगर
पूर्वोक्त, लेखाङ्क ३६६ १५२४ चैत्र वदि ५ "
श्रेयांसनाथ की आदिनाथ चैत्य, लोढ़ा, पूर्वोक्त, प्रतिमा का लेख थराद
लेखाङ्क १५५ १८. १५२७ कार्ति वदि २ ज्ञानदेवसूरि नमिनाथ की शांतिनाथ जिना, मुनि बुद्धिसागर, शनिवार
धातु की प्रतिमा. लिंवडीपाडा, पाटन पूर्वोक्त, भाग-१, ridridiadridorandutoradardidrordibrariedo ४६ Fordarodaridroidroiddlondndibaabardasranitarivaran
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________________
१९.
२०.
२१.
२२.
२३.
२४.
२५.
१५२८
१५२८
१५२८
१५३०
१५३२
१५५४
१५८२
चैत्रवदि १
गुरुवार
पौष वदि ३
सोमवार
तिथिविहीन
पौष ... रविवार
ज्ञानदेवसूरि
- यतीन्द्रसूरि स्मारक राज्य - इतिहास.
वैशाख वदि १० सोमदेवसूरि
शुक्रवार
तिथिविहीन
वैशाख सुदि १० विजयदेवसूरि
शुक्रवार
37
लक्ष्मीदेवसूरि के पट्टधर शीतलनाथ की धातु ज्ञानदेवसूर की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
?
राजदेवसूरि (वि.सं. १४००) १ प्रतिमा लेख
धर्मनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख
पासदेवसूरि (वि.सं. १४५७) १ प्रतिमा लेख
1
विमलनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख
आदिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख
अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर धारणपद्रीय (थारापद्रीय) शाखा के मुनिजनों की तालिका इस प्रकार बनती है-
नमिनाथ की धातु की चौबीसी प्रतिमा का लेख
?
आदिनाथ देरासर, जामनगर
आदिनाथ चैत्य, थराद
चन्द्रप्रभ, जिनालय, जानीशेरी, बड़ोदरा,
नेमीनाथ जिना, शेठ की शेरी
राधनपुर
ম{ ४७
चिंतामणि पार्श्वनाथ, देरासर, कड़ी,
जैनमंदिर, लुआणा,
थराद
लक्ष्मीदेवसूरि (वि.स. १५०७ - १५२८) १४ प्रतिमालेख
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ४१४
1
ज्ञानदेवसूर
(वि.सं. १५२७-१५३०) ५ प्रतिमालेख
लोढ़ा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ३७
For Private Personal Use Only
मुनि बुद्धिसागर,
पूर्वोक्त, भाग-२, लेखाङ्क १५३
मुनि विशालविजय, पूर्वोक्त, लेखाङ्क २६८
अगरचंद नाहटा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १८१८
मुनि बुद्धिसागर,
पूर्वोक्त, भाग-१, लेखाङ्क ७४१
विजयदेवसूरि (वि.सं. १५०६ ) १ प्रतिमा लेख
लोढ़ा, पूर्वोक्त, लेखाङ्क ३६७
सोमदेवसूरि (वि.सं. १५३२ - १५५४) २ प्रतिमा लेख
विजयदेवसूरि (वि.सं. १५८२) १ प्रतिमालेख
1
३. चतुर्दशीपक्ष - चैत्रगच्छ की इस शाखा का केवल एक लेख मिला है, जो वि.सं. १५०६ का है। मुनि बुद्धिसागर ने इस लेख की वाचना इस प्रकार दी है-
“संवत् १५०६ वर्षे माघ सुदि १३ रवौ श्रीश्रीमालज्ञातीय सा. मेलाभा. करमादेसुतश्रीरंगभा. अमरी स्वेश्रेोहेतवे श्री श्रीचन्द्रप्रभनाथमुख्यचतुर्विंशतिपट्टः कारितः चतुर्दशीपक्षे चैत्रगच्छे श्रीगुणदेवसूरिसंताने श्रीजिनदेवसूरिभिः प्रतिष्ठितः शुभं भवतु।।”
प्रतिष्ठास्थान-- श्री अमीजरा पार्श्वनाथ जिनालय, जीरारवाडो, खंभात
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास४. चन्द्रसामीय शाखा - चैत्रगच्छ की इस शाखा से संबद्ध कई लेख मिले हैं, जो वि.सं. १५१० से वि.सं. १५४७ तक के हैं। इन सभी लेखों में मलयचन्द्रसूरि के पट्टधर लक्ष्मीसागरसूरि का प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लेख है। इनका विवरण इस प्रकार है-- १. १५१० माघ सुदी ५ मलयचन्द्रसूरि के पट्टधर चन्द्रप्रभ की धातु महावीर जिना, मुनि विशालविजय, शुक्रवार लक्ष्मीसागरसूरि की पंचतीर्थी प्रतिमा भयराशेरी,राधनपुर पूर्वोक्त, लेखाङ्क १६३
का लेख २. १५१८ पौष वदि१३
शीतलनाथ की धातु कुंथुनाथ जिना, मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, मंगलवार
की प्रतिमा का लेख मांडवीपोल खंभात भाग-२, लेखाङ्क ६४५ ३. १५२० चैत्र वदि८
विमलनाथ की धात शांतिनाथ जिना..भानीपोल मुनि विशालविजय, शुक्रवार की पंचतीर्थी प्रतिमा राधनपुर
पूर्वोक्त, लेखाङ्क २२६ कालेख
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त,
लेखाङ्क ३४६ ४. १५२० चैत्रवदि८ लक्ष्मीसागरसूरि संभवनाथ की धातु अजितनाथ जिना., मुनिविशालसागर, शुक्रवार
की पंचतीर्थी प्रतिमा भौंयराशेरी राधनपुर पूर्वोक्त, लेखाङ्क २२८
का लेख ५. १५२० पौष वदि१३
शांतिनाथ की धातु जैनमंदिर, कोबा, मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, मंगलवार की प्रतिमा का लेख अहमदाबाद
भाग-१, लेखाङ्क ७६९ जगवल्लभ,पार्श्वनाथ देरासर, वही, भाग १,
नीशापोल,अहमदाबाद लेखाङ्क ११९६ ७. १५२१ माघ सुदि१
चौमुखजी
वही, भाग-१, गुरुवार
देरासर, ईडर
लेखाङ्क १४५७ ८. १५२१ माघसुदि१३(?)
सुपार्श्वनाथ की धातु जगवल्लभ पार्श्वनाथ, वही, भाग-१, गुरुवार
का प्रतिमा का लेख, देरासर, नीशापोल, लेखाङ्क ११९५
अहमदाबाद, १५२२ कार्तिक सुदि२ "
वासुपूज्य की धातु जैन मंदिर,
वही, भाग-१, की प्रतिमा का लेख डभोई
लेखाङ्क १५ ज्येष्ठ वदि १
कुन्थुनाथ की धातु महावीर जिनालय, मुनि कान्तिसागर शुक्रवार
की प्रतिमा का लेख पायधुनी, मुंबई पूर्वोक्त, लेखाङ्क २१० ११. १५३२ ज्येष्ठ सुदि ५
शीतलनाथ की धातु शांतिनाथ जिना, मुनि विशालविजय, सोमवार
की पंचतीर्थी प्रतिमो भानीपोल,राधनपुर पूर्वोक्त, लेखाङ्क २८०
का लेख १२. १५३४ कार्तिक सुदि१३ "
शांतिनाथ की सुपार्श्वनाथ का बड़ा नाहर, पूर्वोक्त
प्रतिमा का लेख पंचायती मंदिर, जयपुर भाग-२,लेखाङ्क ११६३ १३. १५३४ कार्तिक सुदि१३ लक्ष्मीसागरसूरि शांतिनाथ की गौडीपार्श्वनाथ, मुनि कान्तिसागर, रविवार
प्रतिमा का लेख जिनालय, पालिताना संपा.,शत्रुञ्चयवेभव,लेखाङ्क २१६ १४. १५३६ ज्येष्ठ सदि६ "
विमलनाथ की पंचायतीमंदर, सराफाबाजार नाहर, पूर्वोक्त, मंगलवार
प्रतिमा का लेख लश्कर, ग्वालियर भाग-२,लेखाङ्क १४१० १५. १५४७ माघ सुदि १३ "
श्रेयांसनाथ चौमुखशांतिनाथ देरासर, मुनि बुद्धिसागर, रविवार की धातु की प्रतिमा अहमदाबाद
पूर्वोक्त, भाग-१,लेखाङ्क ८८४
का लेख viodiooooooooooooootomorronditionarsionardar[ ४८ Foominiroinsomewormitosdmiridiostonsionitoriority
गुरुवार
रविवार
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासअभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा चैत्रगच्छीय मलयचन्द्रसूरि की का. प्र. चैत्रगच्छ सलषणपुरा भ. श्रीज्ञानदेवसूरिभिः।।" गुरु परंपरा इस प्रकार निश्चित की जा चुकी है--
वासुपूज्य की धातुप्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
प्रतिष्ठास्थान--आदिनाथ जिनालय, जामनगर हरिप्रभसूरि
चैत्रगच्छीय धारणपद्रीय (धारापद्रीय) शाखा के
लक्ष्मीसागरसूरि के शिष्य ज्ञानदेवसूरि (वि.सं. १५२७-१५३०, धर्मदेवसूरि (वि.सं. १३९१-१४३०)
प्रतिमालेख) का उल्लेख मिलता है। ये दोनों ज्ञानदेवसूर एक ही
व्यक्ति है, या अलग-अलग, इस संबंध में निश्चयात्मक रूप से पार्श्वचन्द्रसूरि (वि.सं. १४४६ - १४६६) ।
कुछ भी कह पाना कठिन है। मलयचन्द्र सूरि (वि.सं. १४७४ - १५०३)
६-७ कम्बोइया शाखा और अष्टापदशाखा
राजगच्छपट्टावली (रचनाकार, अज्ञात, रचनाकाल वि.सं. की समसामयिकता के आधार पर पार्श्वचन्द्रसूरि के शिष्य
१६वीं शती का अंतिम चरण) में चैत्रगच्छ की इन दो शाखाओं मलयचन्द्रसूरि और चैत्रगच्छ की चन्द्रसामीय शाखा के
का उल्लेख है, परंतु किन्हीं अन्य साक्ष्यों से उक्त शाखाओं के लक्ष्मीसागरसूरि के गुरु मलयचन्द्रसूरि को एक ही व्यक्ति माना
बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती। जा सकता है। लक्ष्मीसागरसूरि के पश्चात् इस शाखा का कोई उल्लेख नहीं मिलता, अत: यह कहा जा सकता है कि उसके
८. शार्दूलशाखा - चैत्रगच्छ की इस शाखा का एकमात्र लेख बाद इस शाखा का अस्तित्व समाप्त हो गया। चैत्रगच्छ की यह
वि.सं. १६८६/ई. सन् १६३० का है।५ इस लेख में राजगच्छ के
एक अन्वय के रूप में चैत्रगच्छ की उक्त शाखा का उल्लेख है। शाखा चन्द्रसामीय क्यों कहलाई, इस संबंध में हमें कोई सूचना
इस शाखा के संबंध में अन्यत्र किसी भी प्रकार का कोई विवरण प्राप्त नहीं होती।
अनुपलब्ध है। ५.सलषणपुराशाखा---इस शाखा से संबद्ध केवल दो प्रतिमायें
९.देवशाखा - जैसा कि पूर्व में हम देख चुके हैं,दशवैकालिक मिली हैं, जो वि.सं. १५३०/ई. सन् १४७४ में एक ही तिथि में - एक ही मुहूर्त में और एक ही आचार्य द्वारा प्रतिष्ठापित हुई हैं। ये .
सूत्र की वि.सं. १७६८/ई. सन् १७१२ की प्रतिलिपित प्रशस्ति में
चैत्रगच्छ की देवशाखा का उल्लेख है।१६ इस शाखा के प्रवर्तक प्रतिष्ठापक आचार्य हैं चैत्रगच्छीय सलषणपुरा शाखा के आचार्य
कौन थे, यह कब अस्तित्व में आयी इस बारे में कोई विवरण ज्ञानदेवसूरि। आचार्य विजयधर्मसूरि१३ ने इन लेखों की वाचना
प्राप्त नहीं होता। चैत्रगच्छ तथा उसकी किसी शाखा का उल्लेख इस प्रकार दी है--
करने वाला अंतिम साक्ष्य होने से यह महत्त्वपूर्ण है। ___संवत् १५३० वर्षे पो (पौ)ष वदि६ रवौ श्रीश्रीमालज्ञातीय
ऐसा प्रतीत होता है कि भर्तपुर (भटेवर) थारापद्र (थराद) श्रे. देपाल भा. हरपू सुत भूमाकेन भा. माल्हणदे हेदान (नि)
और सलषणपुर में चैत्रगच्छ का उपाश्रय बन जाने पर वहाँ के मित्तं सुसुवसहितेन स्वये (श्रे) यस (से) श्रीवासुपूज्यबिंबं क.
चैत्रगच्छीय आचार्यों के साथ उक्त स्थानवाचक विशेषण जोड़ा (का.) श्रीचे (चै)त्रगछे (च्छे) श्रीज्ञानदेवसूरिभिः प्रतिष्ठित (ष्ठितं)
जाने लगा होगा। इनमें से सलषणपुरा शाखा का अस्तित्व तो त...न्य. गाम...."
अल्पकाल में ही समाप्त हो गया, किन्तु भर्तपरीय और थारापद्रीय वासुपूज्य की धातुप्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख
शाखा का लगभग २०० वर्षों तक अस्तित्व बना रहा। प्रतिष्ठास्थानआदिनाथ जिनालय, जामनगर
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता हैकि यह गच्छ ई. सन् "संवत १५३० वर्षे पौष वदि ६, रवी श्रीश्रीमालज्ञा. श्रे. की १२ वीं शती के प्रारंभ में अस्तित्व में था और १८ वीं शती गेला भा. पूरी स. रत्नाकेन भा. रूपिणि द्वि. भा. कीरूहितेन के प्रथम चरण तक विद्यमान रहा। लगभग ६०० वर्षों के लंबे स्वपितृपूर्वजन, (नि) मितं (त्तं) आत्मश्रेयार्थं श्रीवासुपूज्यबिंबं इतिहास में इस गच्छ के मुनिजनों (गुणाकरसूरि, चारुचन्द्रसूरि
Abramontimerimangonomorransemen Granarod te promenerannsacramenrG
GAGDAGA
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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : इतिहास.
आदि को छोड़कर) ने न तो स्वयं कोई ग्रन्थ लिखा है और न ही किन्हीं ग्रन्थों की प्रतिलिपि कराई, बल्कि प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में अपनी भूमिका निभाते रहे। धनेश्वरसूरि, भुवनचन्द्रसूरि, देवभद्रसूरि और जगच्चन्द्रसूरि को छोड़कर इस गच्छ में ऐसा कोई प्रभावक आचार्य भी नहीं हुआ, जो श्वेताम्बर श्रमणपरंपरा में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर सकता । ई. सन् की १८ वीं शताब्दी के प्रथम चरण के बाद इस गच्छ से संबद्ध साक्ष्यों के अभाव से यह सुनिश्चित है कि इस समय के बाद इस गच्छ का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया और इस गच्छ के अनुयायी किन्हीं अन्य गच्छों में सम्मिलित हो गए होंगे।
सन्दर्भ
१. अगरचन्द्र नाहटा 'जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश' यतीन्द्रसूरि - अभिनंदन - ग्रन्थ (आहोर, १९५८ ई.) पृष्ठ १४७ पर श्री नाहटा द्वारा उद्धृत मुनि बुद्धिसागर का
मत।
मुनि कान्तिसागर, शत्रुञ्जय वैभव (कुशल संस्थान, जयपुर, १९९० ई.) पृष्ठ २६९
२. तपागच्छीय देवेन्द्रसूरि - कृत श्राद्धदिनकृत्यप्रकरण की प्रशस्ति Muni Punyavijay- Catalogue of Palm Leaf Manuscripts in the Shanti Nath Jain Bhandara, Canbay (g.o.s. no. 149 Part two, Baroda, 1966, A.D.) PP 263-265.
तपागच्छीय क्षेमकीर्तिसूरिकृत बृहत्कल्पसूत्रवृत्ति (रचनाकाल वि.सं. १३२२ / ई. सन् १२५६ ) की प्रशस्ति ।
C. D. Dalal - A. Desciptive Catalogue of Manuscripts in the jain Bhandars at pattan (G.O.S. No. LXXVI, Baroda, 1937 A.D.) PP 354-356. तपागच्छीय विभिन्न पट्टावलियों के सन्दर्भ में दृष्टव्य त्रिपुटी महाराज, संपा. पट्टावलीसमुच्चय, भाग-१-२ (चारित्र-स्मारक, ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क, २२ एवं ४४, अहमदाबाद १९३३ - १९५० ई.)
मुनि जिनविजय, संपा., विविधगच्छीयपट्टावली - संग्रह (सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क ५३, बंबई १९६१ ई.)
For Private
मुनि कल्याणविजयगणि, संपा. श्री पट्टावलीपरागसंग्रह (कल्याणविजय शास्त्रसंग्रह- समिति, जालोर, ई. सन् १९६६ )
३. A. P. Shah Catalogue of Sanskrit and Prakrit Mss Muni Shri Punyavijayajis Collection (L.D. Series No. 2, Ahamedabad, 1963 A.D.) Part 1 P.P. 131, No. 2554
४. Ibid, Part 1, P. 93, No. 1464
५.
Ibid, Part 1, P.83, No. 1018
६. द्रष्टव्य, पादटिप्पणी, क्रमांक २
७.
त्रिपुटी महाराज, जैनतीर्थोनो इतिहास, (श्री चारित्र - स्मारक ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, १९४९ ई.) पृष्ठ ३८५ और आगे. ८. G. C. Choudhary, Political History of Northern In dia (Sohanlal Jaindharma Pracharak Samiti, Amritsar, 1954 A.D.) P.P. 172-173.
९. पूरनचन्द्र नाहर, सम्पा. जैनलेखसंग्रह, भाग - २ (कलकत्ता १९२७ ई.), लेखाङ्क १९४२ तथा
५०
विजयधर्मसूरि, संग्राहक- प्राचीनलेखसंग्रह ( यशोविजय जैन ग्रंथमाला, भावनगर, १९२९ ई.) लेखाङ्क ३९.
१०. मुनि जयन्तविजय, संपा. अर्बुद प्राचीन जैन, लेख-संदोह (विजयधर्मसूरि-जैन-ग्रंथमाला, पुष्प ४०, छोटा सराफा, उज्जैन वि.सं. १९९४) लेखाङ्क ५३५.
११. त्रिपुटी महाराज - जैन तीर्थोंनों इतिहास, पृष्ठ ३८५ और आगे
"
१२. मुनि बुद्धिसागरसूरि संपा. जैन धातुप्रतिमालेखसंग्रह भाग२, (श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडल, पादरा, ई. सन् १९२४) लेखाङ्क ७५४
१३. आचार्य विजयधर्मसूरि-पूर्वोक्त, लेखाङ्क ४२८-४२९ १४. मुनि जिनविजय, पूर्वोक्त, पृष्ठ ५७-७१.
१५. मुनि जिनविजय-संपा., प्राचीन जैनलेखसंग्रह, भाग-२,
(जैन आत्मानंद, सभा, भावनगर, १९२१ ई.) लेखाङ्क ३९८. पूरनचंद नाहर, पूर्वोक्त, भाग-१, लेखाङ्क ८३०.
१६. द्रष्टव्य, पादटिप्पणी, क्र. ५.
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इतिहास - लेखन की भारतीय अवधारणा
डॉ. असीम कुमार मिश्र....)
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
-तिहास-लेखन पर कुछ लिखने से पूर्व इस विषय पर विचार उदाहरण-साहित्य में प्रसंगत: किसी ऐतिहासिक पात्र या घटना २करना आवश्यक है कि इतिहास किसे कहा जाए। प्रकृत का वर्णन भी मिल जाता है, जिससे इतिहास-लेखन में सहायता विषय पर आने से पूर्व इतिहास के संबंध में भारतीय और मिलती है। आख्यान या आख्यायिका का अर्थ ऐतिहासिक पाश्चात्य अवधारणाओं से परिचित होना परमावश्यक है। इतिहास कथा है। शतपथब्राह्मण में आख्यान और इतिहास का अन्तर के व्युत्पत्तिपरक शब्दार्थ से स्पष्ट होता है कि इस शब्द के बताया गया है। पुराणों में सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलय), वंश निहितार्थ में भूतकाल के स्मरणीय महापुरुषों और प्रसिद्ध घटनाओं (ऋषियों और राजाओं की वंशावलियाँ), मन्वन्तर तथा का वर्णन सन्निहित है। इतिहास शब्द का प्राचीन प्रयोग अथर्ववेद वंशानुचरित ये मुख्य घटक थे। स्मरणीय है कि वंशावली केवल और ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलता है। अथर्ववेद में इसकी चर्चा ऋक्, राजाओं की ही नहीं बल्कि ऋषियों की भी दी जाती थी और यजुस् और साम तथा गाथा और नाराशंसी के साथ हुई है। राजाओं से पूर्व उसे स्थान दिया जाता था। इसीलिए जैनऐतिहासिक रचनाओं को ब्राह्मणों और उपनिषदों में इतिहासवेद पट्टावलियाँ जिनमें जैन सूरियों, भट्टारकों की वंशावली है, जैन - कहा गया है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र (ई. प.तृतीय शती) में इतिहास-लेखन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। वेदों की गणना करते हुए लिखा है कि ऋक्, साम और यजुस् वेदों में शन: शेप और परुरवा आदि के आख्यान मिलते त्रिवेद है, इनके साथ अथर्व और इतिहासवेद की गणना वेदों के हैं, जो परवर्ती ऐतिहासिक नाटकों और प्रबंधों के स्त्रोत रहे हैं। अतर्गत की जाती है। कााटल्य ने इतिहास का पचम वद का बाद में इतिहास और पुराण परस्पर घुल-मिल गए। पुराण शब्द महत्त्व प्रदान कर उसे ज्ञान के क्षेत्र में काफी ऊँचा स्थान दिया
का प्रयोग अथर्ववेद में प्राचीन जनश्रुति (Ancient-Lore) के है। वहद्देवता में पूरे एक सूक्त को इतिहास सूक्त कहा गया है। अर्थ में हआ है। शतपथब्राह्मण में इतिहास-पराण प्रायः यगपत कौटिल्य ने इतिहास की परिभाषा देते हुए अर्थशास्त्र में लिखा है
व्यवहृत मिलते हैं। इनका इतिहास पुराण में क्रमशः विलय हो कि पुराण, इतिवृत्त, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र और
गया है। इतिहास और पुराण का वर्णन-क्षेत्र एक ही था और अर्थशास्त्र इतिहास है। इस प्रकार प्राचीन भारतीय मान्यता के
विषय-वस्तु भी प्रायः समान ही थी। पुराणों में इतिहास, आख्यान अनुसार इतिहास शब्द बहुत व्यापक और विस्तृत था। इसके और गाथा सम्मिलित थे। इनसे वंश-साहित्य या वंशानचरित परिक्षेत्र में अनेक विषय समाविष्ट थे। अर्थशास्त्र में प्रयुक्त 'पुराण' का विकास हआ और वंशवर्णन पुराणों का प्रमुख लक्षण माना शब्द का अभिप्राय उन आख्यायिकाओं से है जो प्राचीन (पुरा)
जाने लगा। हरिवंश और रघुवंश इसके प्रमाण हैं। आख्यायिका काल से पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित होती आई हैं। इतिवृत्त का
भी एक प्रकार की इतिहास-रचना थी। कालान्तर में अर्थशास्त्र शब्दार्थ है 'भूत में घटित घटना'। यह आधुनिक इतिहास के और धर्मशास्त्र ने अपना स्वतंत्र विकास कर लिया। इस प्रकार शब्दार्थ के अधिक निकट है। इतिवृत्त में भूतकाल की घटनाओं
हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन भारतीय वाङ्मय में इतिहास और स्मरणीय व्यक्तियों का ब्योरा संग्रहीत किया जाता है। की स्पष्ट अवधारणा मिलती है और उसके आधार पर इतिहास उदाहरण या दृष्दान्त साहित्य के अंतर्गत वे कथाएँ कहानियां -रचना होती थी। किन्त कछ पाश्चात्य विद्वानों की देखा-देखी आती हैं जिनमें प्राचीनकाल के यथार्थ या कल्पित व्यक्तियों भारतीय विद्वानों के एक वर्ग में यह धारणा प्रचलित थी कि के दृष्टान्त देकर किसी नैतिक सिद्धांत या राजनीतिक नियम को
प्राचीन भारत में इतिहास और इतिहासकार नहीं थे। जिस देश में अनुमोदित-समर्थित किया जाता है। इसीलिए जैन-कथा -
इतिहास शब्द का इतना प्राचीन प्रयोग मिलता है और जिसे आख्यायिका साहित्य में ऐसे दृष्टान्त पर्याप्त मिलते हैं । इस विटा और में इतना अन्य
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासअपरिचित रहे हों या उसके रचना-कौशल का उनमें ज्ञान न रहा विचार है कि हमारे देश में इतिहास वैदिक काल से था, किन्तु हो यह बात संभव नहीं लगती।
उसका स्वरूप स्वदेशी है, न कि पाश्चात्य। इतिहास संबंधी ज्ञान के इतने महत्त्वपूर्ण अंग की स्पष्ट धारणा इस देश में
भारतीय एवं पाश्चात्य अवधारणाओं में अंतर के कारण ही यह
" न रही हो यह बात किसी तरह गले के नीचे नहीं उतरती।
भ्रामक विचार फैला। यह तो ज्ञात है कि हमारे देश में अश्वमेध टिलहार्ड द शार्डिन और लोएस डिकिन्सन जैसे कछ पाश्चात्य
यज्ञ वैदिककाल से होते रहे हैं। यज्ञ की तैयारी के समय संबंधित लेखकों ने यह मत प्रचारित किया था और हीरानंद शास्त्री जैसे चक्रवर्ती सम्राट के प्रताप, शौर्य और वीरतापूर्ण कार्यों का विद्वान ने इसका समर्थन किया कि प्राचीन भारत में स्पष्ट बखान 'नाराशंसी' के रूप में छंदों में गाए जाने की प्रथा प्रचलित इतिहास-ग्रन्थ नहीं लिखे गए। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी थी। राजाओं की ही नहीं ऋषियों की प्रशंसा के भी प्रमाण हैं। प्रकारान्तर से यही माना है। आधुनिक इतिहासकार काल, व्यक्ति कुछ गाथाओं (दशराज्ञ) में ब्राह्मण पुरोहित वशिष्ठ की प्रशंसा
और स्थान एवं घटना को इतिहास का महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं। की गई है जिसने सुदास को दश राजाओं पर विजय प्राप्त करने इसी आधार पर वे हमारे प्राचीन इतिहास ग्रन्थों-महाभारत आदि का मार्ग दिखाया। ऋग्वेद में ही इन्द्र की प्रशस्ति मिलती है। यही को आधुनिक अर्थ में इतिहास-ग्रन्थ नहीं मानते, क्योंकि प्रशस्ति की परिपाटी आगे 'गाथा' और 'नाराशंसी' में मिलती है, महाभारतकार ने २४ हजार श्लोकों में से किसी भी श्लोक में जिसका अर्थ नर या श्रेष्ठ आदमी की प्रशंसा अर्थात् महापुरुषों संभवत: उसकी रचना का समय और स्थान का विवरण नहीं की प्रशस्ति है।यह एक रचना की विधा थी। इसमें केवल यज्ञकर्ता दिया। लेकिन क्या काल की उपेक्षा के कारण शेष तीनों वर्णन राजा की ही नहीं वरन देवों, ऋषियों और प्राचीन राजाओं की ऐतिहासिक न होकर पौराणिक हो गए। उनका यह कथन कि भी प्रशंसा के गीत गाए जाते थे। इस प्रकार की नाराशंसी और आधनिक अर्थ में इतिहास-लेखन की अवधारणा पाश्चात्य गाथाएँ जनमेजय-परीक्षित. मरुतऐक्ष्वाक. कैव्य-पांचाल और जगत् में विकसित हुई सर्वथा मान्य नहीं है। भारतीय काल की
भरत आदि प्रतापी सम्राटों के संबंध में ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलती सनातनता में विश्वास करते हैं न कि परातनता में। आधुनिक
है। बाद में यह कार्य सूतों और मागधों ने सँभाल लिया। यजुर्वेद इतिहास भूत या प्राचीन काल की घटनाओं का विवरण देने को
और वायुपुराण में इनका उल्लेख मिलता है। ये लोग राजाओं, ही महत्त्वपूर्ण मानता है। हमारे देश में जड़, मृत या भूत की
राजवंशों, उनके कार्यों तथा उनकी शासन-व्यवस्था का लेखाउपासना प्रशस्त नहीं मानी गई। मिस्त्र में भूत की उपासना प्रबल
जोखा रखते थे। मागधों सूतों का मुख्य कार्य देवों, ऋषियों और रूप से प्रचलित थी। इसीलिए ममी को पिरामिडों में सुरक्षित
महापुरुषों तथा प्रतापी राजाओं की वंशावली तैयार करना था। रखा गया। ईसाई और इस्लाम में मृतकों को गाढ़कर उनके ऊपर
सत को पौराणिक भी कहते थे। वैसे तो आगे चलकर सूतकब्र बनवाना मिस्री भूत-पूजा का ही अनुकरण है। भारतीय संस्कृति में मृतकों को अग्नि में जलाने के बाद जो शेष रहता है,
मागध शब्द भी पुराण इतिहास की तरह समानार्थी हो गए थे, पर उसे जल में प्रवाहित किया जाता है और शेष केवल सनातन
मागध वंशावली रखते थे और सूत पुराण तैयार करते थे। पार्जिटर बचता है। संभवतः इसीलिए महाभारत और पुराणों में तिथिक्रम
___ का कथन है कि उन्हीं सूतों ने राजवंशों की विरुदावलियाँ, प्रतापी नहीं मिलता है। प्रायः पुराणों में जो राजवंशावलियाँ है उनसे राजा
राजाओं के शौर्यप्रताप की कहानियाँ एकत्र की, जो बाद में इतिहास के तिथिक्रम-निर्धारण में कम ही सहायता मिलती है।
पुराणों में सम्मिलित की गई और इतिहास का महत्त्वपूर्ण स्त्रोत
बनीं। सूत, वैशंपायन, लोमहर्षण आदि सूत ही थे। इनका उल्लेख पाश्चात्य विचारकों का मत है कि सिकन्दर के आक्रमण
प्राचीन भारतीय साहित्य में बराबर मिलता है। भारत के प्राचीनतम और चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की निश्चित तिथि ई.पू. ३२५
राजा 'पृथु' का उल्लेख सूत्रों ने किया है। इसी पृथु के नाम पर को ही आधार मानकर पुराणों की संख्या को समय-सूचक
'पृथ्वी' का नामकरण हुआ। पृथु का उल्लेख मेगस्थनीज और बनाया गया है। अत: यह आधार भी दृढ़ नहीं है। सच्चिदानन्दमूर्ति,
डायोडोरस जैसे विदेशी लेखक भी करते हैं। सूत एक प्रकार वी.वी. गोखले, के.पी. जायसवाल और विश्वंभरशरण पाठक
के चारण थे जो विरुदावली गाते थे, वंशावली बखानते थे। बाद प्रमाणपूर्वक इस मत का खण्डन करते हैं। इन विद्वानों का
में ये शासकों की वंशावली बनाने और उसके रखरखाव के widiororandioudiodorovomdwardousootocornironid ५२ 16amororanimoondutomoromandrovindramdondomodoor
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---- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासकार्य में नियुक्त हो गए। सूतों द्वारा सुरक्षित वंशावली ही पुराणों की व्याख्या करते हए लिखा है कि इतिहास रोचक विषय है। में आई है। आगे चलकर वंशावली ऐतिहासिक रचना की प्रतिनिधि इसमें इतिवृत्त, ऐहित्य और आम्नाय भी सम्मिलित होता है। इसे विधा बन गई। वंशलेखन की परंपरा ई.पू. चौथी शताब्दी तक आर्ष भी कहते हैं, क्योंकि यह ऋषिप्रोक्त है। यह अच्छी और इनके द्वारा चलती रही। नंदों और मौर्यों के समय वैदिक यज्ञ मनोहरकथा वार्ता द्वारा धर्मशास्त्र का उपदेश करता है। बाद में
और कर्मकाण्ड शिथिल हो गए, तो वंश-रचना भी ठप हो गई। इतिहास में परिगणित कई शास्त्र जैसे पुराण, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र पुराणों से ही वंशावली लिखने की प्रेरणा बौद्धों और जैनों को आदि का स्वतंत्र विकास हुआ और इतिहास की अवधारणा भी मिली। बौद्ध-साहित्य में बुद्धवंश (सुत्तपिटक), दीपवंश और संकुचित हो गई। यह भूतकाल की घटनाओं का अभिलेख मात्र महावंश आदि रचनाएँ तथा जैनों में विमलसूरिकृत 'पउमचरिउ' समझा जाने लगा। इतिहास-लेखक राजदरबारी कर्मचारी हो या हरिवंश आदि वंशानुचरित ग्रन्थ है। परवर्ती जैन-साहित्य में गए। परिणामतः इतिहास की अवधारणा में बड़ा फर्क पड़ा। इस प्रकार के चरित-काव्य प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। संस्कृत, पहले इतिहास का जो व्यापक स्वरूप था वह संकुचित हुआ। प्राकृत और अपभ्रंश में लिखे गए पुराणों की संख्या भी बहत है। पहले इतिहास को वह पुरावृत्त माना जाता था, जिसमें नैतिक, इनमें हेमचन्द्रकृत परिशिष्टपर्वन, प्रमुख है, जिसमें आचार्यों, आध्यात्मिक, लौकिक और सौन्दर्यमूलक प्रेरण महापुरुषों की जीवनियाँ तो हैं ही, साथ ही साथ मौर्यकालीन वह ऐसा विवरण मात्र रह गया जिसमें आश्रयदाता राजा के इतिहास भी है। इसी क्रम में त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित, प्रताप और विजयों की गाथा प्रमुख रूप से अतिशयोक्ति-पूर्वक प्रभावकचरित आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं।
वर्णित हो। रानियों को राजश्री का पर्याय मानकर हर विजय के धीरे-धीरे भारतीय इतिहास-लेखन की मूल अवधारणा
साथ एक रानी की प्राप्ति, उसके सौंदर्य-शृंगार की चर्चा एक लुप्त होने लगी। सूतों का महत्त्व घट गया फिर भी वंशावलियाँ
काव्य रुढ़ि बन गई। लेखक इतिहासकार नहीं बल्कि कवि बन रखी जाती थीं। अर्थशास्त्र में राजकीय अभिलेखों को रखने के
गया। कल्पना का विस्तार हुआ, इतिहास सिकुड़ता गया, यथातथ्य लिए 'गोप' नामक पदाधिकारी की चर्चा मिलती है। ये गोप वर्णन बाधित होता गया। तिथिक्रम और वंशानक्रम को इस दस-पाँच गाँवों के निवासियों का आर्थिक, व्यापारिक, सामाजिक
प्रवृत्ति ने सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया। प्रायः इतिहासकारों विवरण रखते थे। हेनसांग ने इस प्रकार के अभिलेख 'नि-लो- ने कवि की भूमिका का निर्वाह अधिक किया, इतिहासकार के पी-वा' देखे थे, जिनमें दैवी आपदाओंतथा प्रजा की स्थिति का '
व कर्तव्य का पालन कम किया। विवरण रहता था। नगरकोट के किले में शाही वंश की वंशावली पाश्चात्य विचारकों में संभवत: 'हेरोडोटस' ने सर्वप्रथम अल्बरूनी ने भी देखी थी। प्रशासन में एक स्वतंत्र विभाग 'हिस्ट्री' शब्द का प्रयोग किया। इस शब्द में स्टोरी (Story) भी अक्षपटलिक के अधीन यही काम करता था। मौर्यों ने पुरालेख- आख्यान या पुरावृत्त का सूचक है। अत: रेनियर और हेनरी पेरी संग्रहालयों की परिपाटी चलाई थी। यहीं से लेखकों ने पुराणों जैसे लेखक मानते हैं कि समाज में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों के लिए सामग्री एकत्रित की। संभवतः इसीलिए विभिन्न पुराणों एवं उनकी उपलब्धियों की कहानी ही इतिहास है। इतिहास को
। छोड़कर प्रायः एकरूपता है। हमारे पुराण अतीत और वर्तमान का सेतु बताते हुए जॉन डिबी दोनों पर ग्रन्थों तथा इतिहास-ग्रन्थों में केवल इतिवृत्त ही नहीं रहता था, दोनों का अन्योन्य प्रभाव स्वीकार करते हैं। हमने राजधर्म एवं अर्थात् ऐतिहासिक व्यक्तियों और पात्रों का विवरण ही नहीं आध्यात्मिकता को प्रधान मानकर प्रारंभ में धार्मिक इतिहास दिया जाता था, बल्कि उनकी रानजीतिक, सामाजिक, नैतिक लिखा, बाद में राजनैतिक लेखन भी हुआ पर यहाँ की तुलना में
और आर्थिक परंपराओं का वर्णन तथा तत्संबंधी संस्थाओं के पश्चिम में प्रारंभ से ही भौतिक जगत् को प्रधान मानकर राजनीतिक क्रिया-कलाप भी वर्णित रहते थे। महाभारत को इसी अर्थ में और सामाजिक इतिहास लिखा गया। उसी को यथार्थ और इतिहास कहा गया है।
वैज्ञानिक इतिहास की संज्ञा दी गई और हमारे पुराण-इतिहासप्रमुख जैन-इतिहासकार जिनसेन ने 'आदिपुराण' में इतिहास
ग्रंथों को काल्पनिक और अनैतिहासिक घोषित कर दिया गया। ग्रथा पुराणों में वैवस्वत मनु से लेकर महाभारत-काल तक के राजवंशों
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ इतिहासकी एक सौ पीढ़ियों का उल्लेख मिलता है, जिसे इस लंबे इतिहास-दर्शन और उसकी दृष्टि में अंतर उत्पन्न करता है। आधुनिक अंतराल को देखते हुए कम बताकर विश्वसनीय नहीं माना गया। भारतीय एवं पाश्चात्य इतिहासकारों द्वारा राजछत्रों के इतिहास किन्तु पुराणों में केवल राजतन्त्रों को सम्मिलित किया गया पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है। परन्तु सच्चा इतिहास प्रजा उसमें उन गणराज्यों के शासन को नहीं गिना गया है जो लंबे के आदर्शों के उत्थानपतन के साथ गतिशील होता है। कहने का समय तक चलते रहे थे। संभवतः पुराणों में कालगत व्यतिक्रम तात्पर्य यह है कि इतिहास संबंधी अवधारणाओं में काफी का दोष इसीलिए आया हो।
वैषम्य है। केवल राजनीतिक इतिहास ही सही इतिहास नहीं है भूमिदान के समय दानपत्रों पर दाता राजा की वंशावली
या केवल भूतकालीन घटनाओं का विवरण मात्र इतिहास नहीं लिखे जाने का उल्लेख याज्ञवल्य, बृहस्पति और व्यास भी।
र है और न ही केवल राजा, सामंत, राजपुत्र या राजपुरुषों का करते हैं, लेकिन बाद में विजेता शासकों ने इसमें काट-छाँट वणन हा झतहास ह। झतहास का विषय प्रजातन्त्र, प्रजा, उनके किया या नष्ट किया। कई वंशावलियों का अन्य ग्रन्थों में उल्लेख उत्थान-पतन, अ
उत्थान-पतन, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति का लेखाहै पर वे ग्रन्थ लुप्त हो गए जैसे-अस्माकवंश, ससिवंश, क्षेमेन्द्रकृत .
जोखा भी है। सी.एच.फिलिप्स ने अपनी पुस्तक में एक महत्त्वपूर्ण नृपावली, हेलराजकृत पार्थिवावली, ११ राजकथा (कल्हण द्वारा बात कही है, वह यह कि 'इस ग्रन्थ के विभिन्न ख्यातिलब्ध उल्लिखित) आदि। भाग्यवश अतुलकृत मुशिकवंश एवं रुद्रकृत ।
विद्वान इतिहास-लेखन की कोई सर्वसम्मत परिभाषा नहीं दे राष्ट्रौधवंश सुरक्षित है। सारांश यह कि वंशावलियाँ थीं पर वे नष्ट
सके हैं ९३। मेरी दृष्टि में इसका कारण यही होगा कि वे भारतीय हो गईं। इसलिए कालगणना में व्यतिक्रम हो गया। इसीलिए यह और पाश्चात्य दृष्टिकोण में सामंजस्य नहीं स्थापित कर सके। कहना कि यहाँ इतिहास ही नहीं था या यहाँ के लेखकों में उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में इतिहास-बोध नहीं था, गलत है।
इतिहास की स्पष्ट अवधारणा थी। इसके प्रमाण में एक भारतीय वस्तुतः इतिहास-संबंधी अवधारणाओं का यह अंतर दो इतिहासकार कल्हण' के विचार अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक संस्कृतियों के अंतर के कारण है। भारतीय संस्कृति संश्लिष्ट ।
हैं। वह कहता है कि इतिहासकार का पवित्र कर्त्तव्य व्यतीत युग संस्कृति है और अनेक को एक में मिलाकर बनी है। सच्चा
का सच्चा चित्र पाठक के समक्ष प्रस्तुत करना है। मिथकीय
का सण इतिहासकार इन भेदों के भीतर छिपे ऐक्य-विधायक तत्त्वों को
अमृत किसी एक व्यक्ति को अमरत्व प्रदान कर सकता है,
अमृत कर पहचानकर उनका उद्घाटन करता है न कि भारतीय महाप्रजा किन्तु एतहासिक सत्य क लखन द्वारा हातहासकार अनेक को निषाद, द्रविड, किरात, आर्य आदि खण्डों में बाँटकर अनेक .
महापुरुषों के साथ स्वयं को भी अमर कर देता है। इतिहासकार स्पर्धात्मक संघर्षों को जन्म देता है। सच्चे इतिहासकार की दृष्टि
का लक्षण बताता हुआ वह कहता है कि अनासक्त होना और में भारतीय इतिहास का आद्य देवता प्रजापति है और उसका रागद्वेष से दूर रहना इतिहासकार का प्रथम गुण है। समीक्षात्मक आराध्य तत्त्व भारतीय महाप्रजा है। इस अखण्ड तत्त्व को नहीं बुद्धि और संदेहवादी विचारणा इतिहास-लेखक को प्रथम श्रेणी भूलना चाहिए। भारतीय दृष्टि में अध्यात्म, दर्शन. ज्ञान और का इतिहासकार बनाते हैं४ कल्हण ने उन्हीं आदर्शों के अनसार संस्कृति पर विचार करने के लिए एकत्र महासभा अधिक काफी खोजबीन के पश्चात् काश्मीरी शासकों और वहाँ की ऐतिहासिक घटना थी न कि किसी राजनेता की मृत्यु या किसी व
यथार्थ राजनैतिक घटनाओं को आधार मानकर इतिहास लिखा। शासक के युद्ध इत्यादि की घटना। वह इतिहास जो भारतीय दृष्टि
किन्तु प्रायः अन्य लेखकों ने इन आदर्शों का पालन नहीं किया। से ग्रन्थों में अंकित है उसे पाश्चात्य इतिहासकार इतिहास ही नहीं अपने नायक के गुणों को लिखने की प्रवृत्ति, काव्यात्मक कल्पना. मानते। उनकी दृष्टि में महावीर की धार्मिक यात्राओं या गौतम
काल तथा तिथिक्रम की उपेक्षा आदि के कारण उनके लेखन में के महाभिनिष्क्रमण से अधिक महत्त्वपूर्ण घटना कोलम्बस की
वह उदात्त रूप नहीं मिलता जो रागद्वेष से ऊपर उठकर, गुणदोष यात्रा मानी जाती है। एक की यात्रा अनन्त की खोज के लिए थी, का सम्यक विवचन
का सम्यक विवेचन करके तथा घटनाओं का यथातथ्य विवरण दूसरे की देशों पर विजय के लिए थी। संस्कतियों का यही भेट देकर कल्हण ने अपनी रचना में प्रस्तुत किया है। जैन रचनाकार
भी इस प्रवृत्ति से अछते नहीं रहे। उन्होंने महत्त्वपूर्ण पात्रों और
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ इतिहासउससे संबंधित घटनाओं को धार्मिक सिद्धान्तों के दृष्टान्त के प्रायः लड़ते रहे। इस राजनीतिक उथल-पुथल के कारण रूप में प्रस्तुत किया है, जिसके कारण घटनाएँ और पात्र क्रमशः राजनीतिक अभिलेख लगातार नष्ट किए जाते रहे। धार्मिक रुढ़ होते गए और ऐतिहासिक तथ्य दब गए। उदाहरणार्थ-पज्जोत दृष्टिकोण एवं धार्मिक साहित्य आदि को भण्डार आदि में सुरक्षित (प्रद्योत), बिंबसार, अजातशत्रु और नरवाहन आदि की कथाएं रखने के कारण प्रायः वे बचे रहे किन्तु मुस्लिम-आगमन के प्रायः इसी रूप में प्रस्तुत होती रहीं? इस प्रकार इतिहास-ग्रंथ साथ स्थिति भिन्न हो गई। इसके विपरीत तिब्बत, नेपाल और क्रमशः मिथक या लीजेण्ड बनते गए। किन्तु इस आधार पर काश्मीर आदि दूर देशों में जहाँ निरंतर युद्ध आदि नहीं हुए वहाँ यह कथन कि हमारे यहाँ इतिहास-ग्रन्थ नहीं लिखे गए या राजनीतिक इतिहास भी बचा रहा जो यह सिद्ध करने के लिए एकमात्र इतिहास ग्रन्थ कल्हण-कृत राजतरंगिणी ही लिखा गया, काफी है कि यहाँ इतिहास-ग्रंथों की रचना तो हुई पर वे नष्ट कर गलत होगा।
दिये गये। इसीलिए भारतीय आदर्श इतिहासकार का प्रतिनिधित्व भारत में विशद्ध रूप से इतिहास ग्रन्थों की कमी के कई अकेले कल्हण ही करता है। पुराणों में उल्लिखित राजवंशों के कारण हैं। यहाँ अतीत की स्मृति इतिहास के रूप में नहीं रखी
__ आधार पर देश का राष्ट्रीय इतिहास और इसका विकास प्राचीन गई। हमने अतीत के दो प्रकार माने हैं। एक मृत अतीत जैसे
को एवं मध्यकालीन भारत के निरंतर बदलते मानचित्र पर प्रदर्शित व्यक्ति और घटनाएँ आदि, दूसरा जीवन्त अतीत अर्थात् परंपराएँ। करना भा
करना भी कठिन था। इसलिए समग्र राष्ट्रीय इतिहास और उसका भारत में परंपराओं की सुरक्षा का प्रयास इतिहास लिखकर नहीं
विकास कदाचित् न लिखा जा सका हो और अलग-अलग प्रत्युत क्रियात्मक स्तर पर सबको परंपरा की सुरक्षा में सहभागी
राज्यों और प्रदेशों पर आधारित काव्य-शैली में ग्रन्थों का लिखा बनाकर किया गया। इतिहास-ग्रन्थों में गड़बड़ी का एक कारण
जाना ही संभव हुआ हो। सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राटों का उल्लेख यह भी था कि ऐतिहासिक ग्रन्थों को समय-समय पर परिवर्तित
अवश्य किया गया और ऐसे ही सम्राटों की वीर गाथाएँ पुराणों परिवर्द्धित किया गया, पर प्राचीन मूल पाठ को नवीन परिवर्द्धन
में संकलित हैं। बाद के लेखकों ने कुमारपाल-चरित, विक्रमांक से अलग नहीं किया गया। परिवर्द्धनकर्ता और मूल लेखक का
देव-चरित आदि की तरह व्यक्तिगत राजाओं का आख्यान या परिचय भी कई स्थलों पर अलग-अलग नहीं देने से कति एवं इतिवृत्त लिखा जिसमें क्रमश: इतिहास पुराकथा बनता गया है। कृतिकार में घपला हुआ। इसी प्रकार इतिहास-ग्रन्थों में से जैन लेखकों द्वारा इस प्रकार की तमाम रचनाएँ की गई. ऐतिहासिक एवं अनैतिहासिक घटनाओं को छाँटकर अलग नहीं जिनमें चालुक्यों, चावड़ों, परमारों, पालों आदि का इतिहास किया गया। इतिहासकारों ने इतिहास-लेखन से अधिक पुराण, चरितकाव्य, चौपई, प्रबंध आदि के रूप में सुरक्षित है। काव्यलेखन को वरीयता दी। यही नहीं अर्थ और राजशक्ति की कुमारपालचरित, द्वयाश्रयकाव्य, परिशिष्टपर्वन्, सुकृत-संकीर्तन, अपेक्षा मोक्ष और धर्मशक्ति को अधिक महत्त्व देने के कारण कीर्ति-कौमुदी, प्रभावकचरित, प्रबंधचिंतामणि आदि रचनाओं हमारे यहाँ सेक्युलर साहित्य की तुलना में धार्मिक और में राजाओं, महात्माओं और तीर्थंकरों तथा शलाकापुरुषों का आध्यात्मिक साहित्य ही अधिक लिखे गए। इतिहास-ग्रथों की इतिहास कल्पना और जैन सिद्धान्त के रंग में रंगकर प्रस्तुत कमी का कारण उनका कम लिखा जाना तो है ही पर इसके किया गया है। इनमें कथा या काव्य का आनंद उत्पन्न करने के अन्य कई कारण भी हैं। यदि राजतरंगिणी जैसी ऐतिहासिक लिए यथार्थ घटनाओं और ऐतिहासिक तथ्यों को मनोरंजक रचना काश्मीर में लिखी जा सकती थी तो अन्यत्र भी अवश्य बनाने की दृष्टि से तोड़ा-मरोड़ा गया। यह सभी प्राचीन भारतीय
ही लिखी गयी होगी। राजनीतिक रचनाओं और अभिलेखों का इतिहासकारों पर लागू होता है, केवल जैन इतिहासकार ही 'उत्तर भारत में एकबारगी लोप होने का प्रमुख कारण कम्बोडिया, अपवाद नहीं है। ऐतिहासिक प्रबंधकाव्य, चरितकाव्य, जीवनियों जावा की तरह विजेता राजवंशों या राजाओं द्वारा विजित का प्रचलन पूर्व मध्यकाल में अधिक हुआ जिसमें जैनों का राजा के अभिलेखों को नष्ट करना भी रहा है। काश्मीर योगदान महत्त्वपूर्ण है। बाणकृत हर्षचरित इसका प्रारंभिक प्रमाण आदि सुदूर प्रांतों की अपेक्षा उत्तर भारत और मध्य भारत पर है। यह ऐतिहासिक काव्य माना जाता है। पाश्चात्य विद्वान् इसे बराबर आक्रमण होते रहे और देशी राजे-रजवाड़े भी आपस में पूर्णतया ऐतिहासिक नहीं मानते। वस्तुतः सत्य दो प्रकार का సాగరరరరరరసారసాగరసాగeno 55గవారు అందరురురురురురరసారసాగరంలో
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ इतिहासमाना गया है, एक निरपेक्ष सत्य और दूसरा सापेक्ष सत्य (नाम, संश्लिष्ट संरचना को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है। रूप आदि) जो निरंतर परिवर्तनीय है। पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि इतिहास का अध्ययन करने के लिए संश्लेषणात्मक दृष्टि न साथ में इतिहास का संबंध इसी दूसरे दर्जे के सत्य से है। यह मान्य ही विश्लेषणात्मक दृष्टि भी आवश्यक है इसलिए दोनों दृष्टियों में तथ्य है कि भारतीयों ने प्रथम कोटि के सत्य पर अधिक बल सामंजस्य बैठाए बिना इतिहास का अध्ययन सम्भव नहीं हो दिया, इसलिए दोनों की इतिहास-संबंधी अवधारणाओं में बड़ा सकता। किसी देश का प्रामाणिक इतिहास लिखने के लिए एक अंतर है। उन्होंने इतिहास का अर्थ केवल राजनीतिक घटनाओं समन्वित और समग्र दृष्टिकोण को आधार मानकर चलना उपयोगी का वर्णन और राज्यों के उत्थान-पतन की कथा ही नहीं माना है, क्योंकि इतिहास एक तरफ तो घटनाओं का वैज्ञानिक विवेचन था। इतिहास किसी राष्ट्र अथवा समाज द्वारा अपने अतीत में करने के लिए वस्तुनिष्ठ अध्ययन की अपेक्षा रखता है, वहीं मूल्यवान समझी जाने वाली धरोहर की रक्षा का समुचित दूसरी ओर घटनाओं की व्याख्या में व्याख्याता का निजी दृष्टिकोण साधन है। पद्मगुप्तकृत नवसाहसांकचरित, वाक्पतिराजकृत भी महत्त्वपूर्ण होता है। गउडवहो, अश्वघोषकृत बुद्धचरित, मेरुतुंगकृत प्रबंधचिंतामणि,
इस कसौटी पर हम देखें तो अनेक जैन-ग्रन्थ पर्याप्त विल्हणकृत विक्रमांकदेवचरित आदि ग्रन्थ भारतीय दृष्टि से समर्थित
ऐतिहासिक महत्त्व के सिद्ध होते हैं। जैसे--नन्दीसूत्र, कल्पसूत्र,
र इतिहास है।
हरिवंशपुराण, तिलोयपण्णत्ति, परिशिष्टपर्वन, द्वयाश्रयकाव्य, इतिहास की प्राचीन एवं आधुनिक परिभाषा का समन्वय कुमारपालचरित, कुमारपालभूपालचरित आदि। इसी क्रम में करते हुए बी.एस. आप्टे ने अपने संस्कृत्-हिन्दी कोश में जो सोमेश्वरकृत कीर्ति-कौमुदी, अरिसिंहकृत सुकृत-संकीर्तन,सोमप्रभ परिभाषा दी है, वह पर्याप्त संतोषजनक है। उन्होंने लिखा है कि कृत कुमारपालप्रतिबोध आदि भी उल्लेखनीय है। जैन-प्रबंधों इतिहास से अभिप्राय उन व्यतीत घटनाओं से है, जो कथायुक्त में जिनचन्द्रकृत प्रबंधावली, प्रभाचंद्र-कृत प्रभावकचरित, मेरुतुंग हों तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का संदेश दें५। भारतीय कृत प्रबंधचिंतामणि और राजशेखरकृत प्रबन्धकोश की इतिहास इतिहास का सम्यक् लेखन भारतीय समाज और संस्कृति की के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण मान्यता है। इन ग्रन्थों से सातवाहनों, चाहमानों,
चालुक्यों, चावडों, परमारों आदि का इतिहास ज्ञात होता है।
सन्दर्भ
१. बी.एस.पाठक, एन्शियन्ट हिस्टारियन्स ऑफ इण्डिया, पृ. ३ २. कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र, अनु. - सामशास्त्री, खण्ड - १,
तृतीय अध्याय, पृ. ७-१० ३. इतिहास स्वरूप और सिद्धान्त, सम्पा. - डॉ. गोविन्द चन्द्र
पाण्डेय, पृ ५२ ४. बी.एस. पाठक, एन्शियन्ट हिस्टारियन्स ऑफ इण्डिया, पृ. २ ५. अर्थशास्त्र, खण्ड १, तृतीय अध्याय, पृ. ७-१० ६. बी.एस. पाठक, एन्शियन्ट हिस्टारियन्स ऑफ इण्डिया,
९. भारतीय इतिहास-लेखन की भूमिका, अनु. - प्रो. जगन्नाथ
अग्रवाल पृ., २१ १०. बी.एस. पाठक, एन्शियन्ट हिस्टारियन्स ऑफ इण्डिया,
पृ १९ ११. आदिपुराण१/२४-२५ १२. वासुदेव शरण अग्रवाल, इतिहासदर्शन, पृ. १ १३. सी.एच.फिलिप्स, हिस्टारियन्स ऑफ इण्डिया, पाकिस्तान व
सिलोन, प्रस्तावना, पृ. १ १४. वही, पृ. २१ १५. बी.एस.आप्टे - संस्कृत-हिन्दी कोश
७. डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, इतिहासदर्शन, पृ. ७ ८. सी.एच. फिलिप्स, हिस्टारियन्स ऑफ इण्डिया, पाकिस्तान
व सिलोन पृ. १५ - १६
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वैदिक एवं श्रमण-वाङ्मय में नारी-शिक्षा
डॉ. सुनीता कुमारी....
बी.एस.एम.कॉलेज, रुड़की
क्षा प्राप्त करना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया अथवा ब्रह्म-प्राप्ति है। वस्तुतः शिक्षा का यही वास्तविक स्वरूप श में समाज के सभी सदस्य सहभागी बन सकते हैं। इसमें है। ब्रह्म वह चरम सत्ता है जिसमें समस्त भासमान जगत् परिव्याप्त किसी प्रकार का भेद नहीं होना चाहिए, परंतु दुर्भाग्यवश इस है। शिक्षा के द्वारा इस ब्रह्म को प्राप्त कर मनुष्य समस्त संसार क्षेत्र में विविध प्रकार के भेद किए गए हैं। कभी जन्म के आधार को अपने गुणों से परिव्याप्त कर देता है। पर, कभी वर्ण के आधार पर, कभी कर्म के आधार पर इस
. मनुष्य के समक्ष लौकिक एवं आध्यात्मिक ये दो प्रकार प्रकार के विभिन्न भेद शिक्षा के क्षेत्र में मिल जाते हैं। यद्यपि इन की आवश्यकताएँ रहती हैं। इन दोनों की सम्यक पर्ति करना सबके कई कारण बताए जाते हैं, लेकिन आज ये मान्यताएँ
मनुष्य का धर्म है। शिक्षा मनुष्य को उसके इस धर्म से अवगत लगभग समाप्तप्राय हो गई हैं। आज जो भी व्यक्ति शिक्षा ग्रहण कराती है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है। - ज्ञान (शिक्षा) की करना चाहता है, वह विविध प्रकार की शिक्षाओं को प्राप्त कर
प्रतिष्ठा बनाए रखना व्यक्ति का नैतिक धर्म है। स्वाध्याय एवं सकता है। नारी-शिक्षा भी आज एक ज्वलंत प्रश्न है। प्राचीनकाल प्रवचन से मनष्य का चित्त एकाग्र हो जाता है। वह स्वतंत्र बन से लेकर आज तक स्त्रियों ने शिक्षा-जगत् के विभिन्न क्षेत्रों में। जाता है। नित्य उसे धन प्राप्त होता है। वह सुख से सोता है। वह अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। सभी ने उसकी बुद्धिमत्ता
अपना परम चिकित्सक बन जाता है। वह इंद्रियों पर संयम रखने और कुशलता को सराहा है। लेकिन यहाँ ऐसे उदाहरणों की भी
की कला से अवगत हो जाता है। उसकी प्रज्ञा बढ़ती है। वह यश कमी नहीं है, जहाँ स्त्रियों को शिक्षा ग्रहण करने से रोका गया है।
को प्राप्त करता है। शतपथ ब्राह्मण का यह कथन शिक्षा के उनकी प्रतिभा को दबाकर उनकी भावनाओं को कुण्ठित करने स्वरूप को स्पष्ट कर देता है। यहाँ शिक्षा इंद्रियसंयम, यशवृद्धि, का प्रयत्न हुआ है। इनके चाहे जो भी कारण रहे हों, परंतु
भा कारण रह हा, परतु
प्रजावटि f
प्रज्ञावृद्धि, चित्त-एकाग्र तथा नैतिक धर्म इन सबको प्राप्त कराने सामाजिक सुव्यवस्था हेतु स्त्रियों का शिक्षित होना अत्यंत की मामय से यक
ना अत्यत की सामर्थ्य से युक्त मानी गई है। इन विविध रूपों में शिक्षा आवश्यक है। क्योंकि वास्तव में स्त्रियों को ही गृहस्थी की
मनुष्य को लौकिक सुख के साथ-साथ आध्यात्मिक सुख भी सुव्यवस्थित संचालिका एवं समाज की नीति-निर्देशिका होने प्राप्त कराती है। क्योंकि शतपथ ब्राह्मण में शिक्षा को धन प्राप्त का गौरव प्राप्त है।
कराने वाला एवं सुखपूर्वक निद्रा दिलाने वाला भी कहा गया है। शिक्षा का स्वरूप
जैन-परंपरा में शिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा शिक्षा का अर्थ 'सीखना' है। सीखने की यह प्रक्रिया गया है। - शिक्षा मनुष्य को पूर्ण करने वाली कामधेनु है। शिक्षा मनुष्य के जन्म लेने से ही प्रारंभ हो जाती है और मृत्यपर्यंत ही चिंतामणि है। शिक्षा ही धर्म है तथा कामरूप फल से रहित चलती रहती है। उसकी सीखने की यह प्रवृत्ति ही उसे सुसंस्कृत सम्पदाओं की परंपरा उत्पन्न करती है। शिक्षा ही मनुष्य का बंधु बनाती है और वह नैष्ठिक आचरण की ओर प्रवृत्त होता है। है, शिक्षा ही मित्र है, शिक्षा ही कल्याण करने वाली है, शिक्षा ही उसकी यह प्रवृत्ति उसके व्यक्तित्व का निर्धारक होने के साथ- साथ ले जाने वाला धन है और शिक्षा ही सब प्रयोजनों को सिद्ध साथ उसकी सामाजिक अभिवृत्ति का भी परिचय देती है। करने वाली है। मनुष्य अपने आप में कभी पूर्ण नहीं हो सकता, प्राचीनकाल में भारतीय चिंतकों ने मनुष्य की आध्यात्मिक लेकिन शिक्षा उसकी अपूर्णता को दूर कर उसे पूर्ण बनाती है। वृत्ति को उसके व्यक्तित्व-निर्माण एवं सामाजिक अभिप्रेरणा मनुष्य के समक्ष विविध प्रकार की समस्याएँ रहती हैं, जिन्हें वह का मूल कारण माना है, जिसकी अंतिम परिणति मोक्ष, कैवल्य हल नहीं कर पाता है। परंतु शिक्षा उसे एक ऐसा माध्यम प्रदान
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासकरती है, जिसकी सहायता से वह अपने मनोरथों को पूर्ण करता बिना अध्ययन किए शिक्षा की प्राप्ति शायद ही संभव हो। चाहे है। मनोरथों का जाल बहुत घना है। आसक्ति इसे और भी यह पारंपरिक विधि से ग्रहण किया गया हो अथवा गैर परंपरागत कठिन बना सकती है। शिक्षा मनुष्य को इसका बोध कराती है विधि से। आत्मा को धर्म में स्थित किए बिना आत्म-साक्षात्कार
और व्यक्ति अनासक्त भाव से अपने प्रयोजनों को पूर्ण करता संभव नहीं है। आत्म-साक्षात्कार किए बिना चरमपद भी नहीं है। उसकी यही अनासक्ति कामरूप फल से रहित सम्पदाओं पाया जा सकता है। अतः अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने की परंपरा उत्पन्न करती है।
और चरमपद की अभिलाषा रखने वालों को शिक्षा रूपी प्रकाश शिक्षा एक सामाजिक संविदा है। यह मनुष्य को समाज
से युक्त होना चाहिए। द्वारा स्वीकृत मूल्यों और मान्यताओं से अवगत कराती है। यह यहाँ चरमपद से हमारा तात्पर्य मनुष्य की उस अवस्था से मनुष्य की मानसिक जिज्ञासाओं को शांत रखने का मार्ग सुलभ है, जहाँ वह, पूर्ण ज्ञानी है। अत: उसे समस्त प्रकार के बोधों से कराती है। जिन पर चलकर वह विविध प्रकार के कला-कौशल युक्त होना चाहिए। वह परम सत्य की ज्योति का साक्षात्कार का ज्ञान प्राप्त करता है। वह जितना ही अधिक इस दिशा में करने की अवस्था से युक्त हो। इस रूप में शिक्षा का व्यापक अग्रसर होता है, उतना ही अधिक सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करता जाता अर्थ माना जाता है तथा इसकी एक विशेष विधि भी मान्य की है। शिक्षा के कारण उसके अंतर्मन के चक्षु इतने अधिक विकसित गई है। यह विधि है श्रवण, मनन और निविध्यासन । इस विधि हो जाते हैं, कि वह विभिन्न प्रकार के रहस्यों को उद्घाटित करने को अपनाकर व्यक्ति पूर्ण बोध से युक्त हो जाता है। वह परम लगता है। महाभारत में कहा भी गया है कि शिक्षा के समान सत्य की ज्योति का साक्षात्कार करने लगता है। वह अपने कोई तीक्ष्ण चक्षु नहीं है। शिक्षा की यह तीक्ष्णता ही उसकी स्वरूप में रमण करने लगता है। वह आत्मधर्म की अवस्था से शक्ति है। उसकी शक्ति की इस परिधि से संसार का कोई भी अवगत होने लगता है। उसके जीवन का परम लक्ष्य क्या है? तत्त्व बाहर नहीं जा सकता। सम्पूर्ण तत्त्वों का दिग्दर्शन शिक्षा के वह कौन है? आदि कितने ही महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के समाधान की द्वारा संभव है। इसीलिए ज्ञान (शिक्षा) को मनुष्य का तृतीय नेत्र ओर अग्रसर होता है। थोड़े शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि कहा जाता है, जो सभी प्रकार के तत्त्वों के दिग्दर्शन की क्षमता शिक्षा का एक रूप मनुष्य को उसके परम लक्ष्य या ध्येय से रखता है। ज्ञान (शिक्षा) व्यक्ति में शक्ति का संचार करता है, अवगत कराना भी है। जिसकी सहायता से वह यथार्थ-अयथार्थ, सम्यक् असम्यक्
उपर्युक्त चिंतन शिक्षा के विविध रूपों को स्पष्ट करता है, तत्त्वों के स्वरूप से अवगत होता है। वह इस स्तर पर अपने को जो इसके विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालता है। शिक्षा के निम्न प्रतिष्ठापित कर लेता है कि हेय-उपादेय के बीच अंतर स्थापित
तर स्थापित लिखित स्वरूप हो सकते हैं--१. मूल्यों और सामाजिक कर सके।
मान्यताओं का निर्धारण करने वाली एक सामाजिक प्रक्रिया, २. प्रकाश और अंधकार मानव जीवन के दो विरोधी पक्ष हैं। मनुष्य को उसके कर्त्तव्यों से अवगत कराने वाली एक विधि, प्रायः मनुष्य प्रकाश को ही अपनाना चाहता है। अंधकार को ३. अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर विविध प्रकार के कला, अज्ञान अथवा अशिक्षा का पर्याय माना गया है। शिक्षा के द्वारा कौशल, विज्ञान एवं तकनीक से मनुष्य को समृद्ध करने वाली अज्ञानरूपी इस अंधकार को मिटाया जा सकता है। इसीलिए क्रिया, ४. मनुष्य को सांसारिक वैभव, सुख-समृद्धि प्रदान बहुधा यह कहा गया है कि मनुष्य को शिक्षा रूपी प्रकाश से कराने वाली प्रक्रिया, ५. मनुष्य के अंत: और बाह्य व्यक्तित्व युक्त होना चाहिए। शिक्षा का यह प्रकाश मानव-जीवन में का निर्माण, ६. आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने वाली मूलभूत परिवर्तन ला सकता है। वह उसे चरमपद पर आरूढ़ क्रियाएँ, ७. मनुष्य को आत्मस्वरूप में स्थित करना, ८. परम करा सकता है। आत्म-साक्षात्कार करा सकता है। दशवैकालिक सत्य की ज्योति का साक्षात्कार कराना आदि। प्रत्येक रूप में में कहा गया है-- आत्मा को धर्म में स्थापित करने के लिए शिक्षा मनुष्य के लिए अत्यंत उपयोगी है, जिसका मुख्य प्रयोजन अध्ययन करना चाहिए। अध्ययन शिक्षा का अविभाज्य अंग है। मनुष्य को लौकिक एवं पारलौकिक सुख प्रदान करना है।
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• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास.
शिक्षा का साधन
शिक्षा एक प्रक्रिया है, जो ग्रहण की जाती है। ग्रहण करने की प्रक्रिया शिशु के जन्म से प्रारंभ होकर मृत्युपर्यंत चलती रहती है। शिक्षा के साथ भी यही होता है । बालक किसी कुल या परिवार में जन्म लेता है और वही परिवार उसकी प्रथम या प्रारंभिक शिक्षाशाला होती है। शिक्षा का प्रारंभिक ज्ञान परिवार में प्राप्त करने के बाद एक विशेष काल में शिशु बाह्य जगत् में बनी हुई विभिन्न शालाओं में प्रवेश लेकर विविध प्रकार की विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करता है। प्राचीन काल में शिक्षा की मौखिक परंपरा चला करती थी और विद्यार्थी स्मृति के आधार पर शिक्षा ग्रहण करते थे। वैदिक युग में ऋषिकुल की परंपरा थी और ऋषिगण अपने पुत्रों को मौखिक शिक्षा दिया करते थे। शिक्षा की यह परंपरा पारिवारिक संस्था के रूप में स्थापित थी । "
पारिवारिक शिक्षा-दान की यह परंपरा बहुत काल तक चलती रही। बाद में यज्ञ-विधानों तथा इसी तरह की अन्य जटिलताओं के कारण गुरुकुलों की स्थापना हुई। इनमें ऋषि पुत्रों के साथ-साथ समाज के अन्य लोग भी शिक्षा ग्रहण करने लगे।' इन गुरुकुलों में शास्त्रीय शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक दायित्व का भी ज्ञान विद्यार्थियों को कराया जाता था। यद्यपि गुरुकुलों में बालकों को ही शिक्षा दी जाती थी, परंतु यहाँ कन्याएँ भी शिक्षा प्राप्त करती थीं। वे विद्याग्रहण करने के साथ-साथ शास्त्रों की भी रचना किया करती थीं। इस अनुक्रम में विश्ववारा, घोषा, लोपामुद्रा आदि विश्वविश्रुत नारियों का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है। उन्होंने वैदिक (ऋग्वेद) मंत्रों की रचना की थी । " शास्त्र - रचना के साथ-साथ स्त्रियाँ अध्यापन कार्य भी किया करती थीं। अध्ययन कार्य में रत रहने वाली इन स्त्रियों को उपाध्याया कहा जाता था। ये स्त्रियाँ स्त्रीशालाओं का संचालन किया करती थीं, जिनमें बालिकाएँ विविध प्रकार की शिक्षा ग्रहण करती थीं। १°
-
वैदिक परंपरा की भांति श्रमण-परंपरा में भी शिक्षा की मौखिक विधि ही स्वीकृति थी । यहाँ भी शिक्षा का हस्तांतरण पारिवारिक एवं पारम्परिक रूप में चलता था। ओघनियुक्ति में यह उल्लेख मिलता है कि एक वैद्य अपनी मृत्यु के पूर्व वैद्यक विद्या अपनी पुत्री को सिखा गया था। ११ श्रमण- परंपरा में भिक्षुणी - संघ एक महत्त्वपूर्ण संस्था थी । इस संघ में अनाश्रिता
శార
स्त्री, अनगार अवस्था को प्राप्त करने को इच्छुक नारी तथा सांसारिक जीवन की दुःखमयता के कारण इससे त्राण पाने वाली महिलाओं को प्रवेश दिया जाता था। ऐसी स्त्रियों को यहाँ शास्त्रीय शिक्षा का ज्ञान प्रदान कराया जाता था। इस संघ में प्रवेश की अनिच्छुक स्त्रियों को नियमित शास्त्रीय शिक्षा नहीं दी जाती थी। १२ तात्पर्य यह है कि श्रमणपरंपरा में प्रायः उन्हीं स्त्रियों को शास्त्रीय शिक्षा दी जाती थी जो सांसारिक अवस्था को त्यागकर संन्यासमय जीवन को अपना लेती थीं या अपनाने को उद्यत रहती थीं।
स्त्रियों के शिक्षा ग्रहण करने के संबंध में वैदिक परंपरा में श्रमण-परंपरा की इन विधियों का अनुपालन नहीं होता था । यहाँ स्त्रियाँ एक ही अवस्था में संसारिक एवं शास्त्रीय दोनों शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं। यहाँ स्त्रियाँ -सद्योवधु एवं ब्रह्मवादिनी इन दो रूपों में शिक्षा ग्रहण कर सकती थीं । सद्योवधु विवाह के पूर्व वैवाहिक जीवन की आवश्यकतानुसार कुछ मंत्रों का अध्ययन
कर लेती थी, जबकि ब्रह्मवादिनी अपनी शिक्षा को पूर्ण करके ही विवाह करती थी । यंज्ञवल्क्य ऋषि की दो पत्नियाँ थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी । मैत्रेयी जहाँ ब्रह्मवादिनी थी वहीं कात्यायनी गृहस्थधर्मा। यहाँ वैदिक और श्रमण परंपरा का अंतर स्पष्ट परिलक्षित होता है। श्रमणपरंपरा में जहाँ संन्यास मार्ग की ओर प्रवृत्त स्त्री को शास्त्रीय शिक्षा देने का प्रावधान है, वहीं वैदिक परंपरा में गृहस्थ और पारिवारिक जीवन बिताने वाली स्त्री भी शास्त्रीय शिक्षा से युक्त होती है।
वैदिक परंपरा में स्त्रियों को पारिवारिक संस्था के साथसाथ गुरुकुलों में भेजकर शास्त्रीय ज्ञान की शिक्षा दी जाती थी । प्रायः इसे एक आवश्यक कार्य माना जाता था। लेकिन श्रमण - परंपरा में विशेषरूप से बौद्ध युग के प्रारंभिक काल तक नारी शिक्षा का प्रचलन समाप्तप्राय हो गया था । १४ स्त्री को विवाह के
पूर्व और पश्चात् केवल कुशल गृहिणी बनने की ही शिक्षा दी
जाती थी। इसका प्रधान कारण यह था कि उस काल में स्त्रियों को दी जाने वाली शास्त्रीय शिक्षा निरर्थक समझी जाती थी । १५ प्रायः संन्यास - मार्ग की ओर प्रवृत्त तथा भिक्षुणी बनने वाली स्त्रियों को ही भिक्षुणी - संघ में शास्त्रोचित ज्ञान दिया जाता था । श्रमण-साहित्य में कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं, जहाँ इस बात का उल्लेख किया गया है कि वैदिक परंपरा की भाँति श्रमण
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- यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्ध - इतिहासपरंपरा में भी स्त्रियां गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करती थीं। रूप में उपलब्ध हो जाता है, जबकि श्रमणग्रंथों में पाठभेद
मिलता है। इसके पीछे प्रमुख कारण माना जा सकता है--श्रमण शिक्षण-विधि
-परंपरा में लोकभाषा का प्रयोग। लोकभाषा स्थान-स्थान पर शिक्षा प्राप्त की जाती है और इसे प्राप्त करने के लिए परिवर्तनीय रही है। फलस्वरूप श्रमण-परंपरा के ग्रंथ इस परिवर्तन विशेष प्रकार की विधि अपनाई जाती है। शिक्षण-विधि में से प्रभावित हए और उनमें पर्याप्त पाठभेद मिलता है। यही लेखन और मौखिकी दोनों प्रकार की प्रक्रियाएँ स्वीकृत हैं। पाठभेद श्रमण-साहित्य की अपनी विशेषता है जो उसे तत्कालिक लेखन अथवा मौखिकी दोनों में ही भाषा का प्रयोग होता है। लोकभाषा का प्रतिनिधित्व करने का गौरव प्रदान करती है। प्राचीनकाल में जब लेखन-कला का अविष्कार नहीं हो पाया .
उपर्युक्त चिंतन के आधार पर हम प्राचीन शिक्षण-विधि था, वैदिक एवं श्रमण दोनों ही परंपराओं में मौखिक विधि का ,
के विविध प्रतिरूपों तथा अपनाई जाने वाली भाषाओं को प्रयोग किया जाता था। शिक्षण-विधि स्मृति पर आधारित थी। .
निम्न रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं-- भाषा के प्रयोग के रूप में जहाँ वैदिक परंपरा में प्रायः संस्कृतनिष्ठ शब्दों का उपयोग होता था वहीं श्रमण-परंपरा में लोकभाषा
* मौखिक एवं स्मृति-आधारित शिक्षा व्य (प्राकृत, पालि आदि) अपनाई जाती थी। लेखन-कला का
सूत्रात्मक शैली अविष्कार होने के बाद भी यही परंपरा चलती रही। परिणामस्वरूप
* कथा एवं दृष्टान्त-विधि वैदिक परंपरा का अधिसंख्य साहित्य संस्कृत भाषा में निबद्ध है, जबकि श्रमण-परंपरा के ग्रंथ प्राकृत और पाली भाषा में मिलते
* उपदेशमूलक शिक्षा हैं। बाद में श्रमण-ग्रंथ भी संस्कृत भाषा में रचे गए, लेकिन उसे * संस्कृत एवं श्रमण-साहित्य पर वैदिकों का प्रभाव ही माना जा सकता है।
* लोकभाषा (पाली, प्राकृत आदि) प्राचीन काल में सम्पूर्ण शिक्षा मौखिक और स्मृति के आधार पर चलती थी। इसलिए उसे इस रूप में प्रस्तुत किया
सहशिक्षा . जाता था आसानी से याद किया जा सके। बात को अति शिक्षा शालाओं में ग्रहण की जाती है और इसे बालक एवं संक्षिप्त और सूत्ररूप में प्रस्तुत किया जाता था। ताकि उसे उसी बालिकाएँ दोनों प्राप्त करते हैं। अतएव हमारे समक्ष इसके लिए रूप में स्मृति में रखा जा सके। यही कारण है कि प्रारंभिक एक व्यवस्था बनाने की समस्या आती है और इसके तीन संभावित साहित्य, मंत्र, सूत्र आदि संक्षिप्त रूप में मिलते हैं। विषयों को प्रारूप हो सकते हैं--१. पुरुष-शिक्षा-शाला, २. स्त्री-शिक्षाकथाओं के रूप में भी प्रस्तुत किया जाता था, जिसके कारण शाला और ३. मित्र-शिक्षा-शाला। शिक्षा-शालाओं की ये तीनों मूल तत्त्वों को कथा-प्रसंगों के साथ याद रखना अधिक सगम ही व्यवस्थाएँ आज मान्य हैं। वैदिक एवं श्रमण-परंपरा में शिक्षा होता था। विषय-वस्तुओं को लौकिक दृष्टांतों अथवा जीवन के शालाओं की क्या व्यवस्था थी? क्या आज की ही भाँति उस प्रसंगों के साथ तुलना करके प्रतिपादित किया जाता था। अतः काल में भी यही तीनों व्यवस्थाएँ मान्य थीं अथवा कुछ और बाद के ग्रन्थ विवरणात्मक शैली में रचे गए जिनमें सत्रों की व्यवस्था स्वीकृत थी, आदि प्रश्रों पर विचार करना है। व्याख्या, कथानकों और दृष्टांतों के प्रयोग आदि होते थे।
सहशिक्षा से हमारा तात्पर्य शिक्षा-प्राप्ति की उस व्यवस्था प्राय: प्राचीन काल में दोनों ही परंपराओं में उपदेशमलक से है, जहाँ स्त्री-पुरुष एक साथ शिक्षा ग्रहण करते हों। सहशिक्षा शिक्षण-पद्धति स्वीकार की जाती थी। परंत दोनों की विधियों में की यह व्यवस्था प्राचीनकाल में भी मान्य थी और आज भी अंतर था। वैदिकों ने शब्दों को यथावत रूप में स्वीकार किया प्रचलति है। कुछ चिंतकों ने इसे श्रेष्ठ माना है, जबकि कतिपय जबकि श्रमण-परंपरा में शब्दों की जगह अर्थ को प्रधान माना विद्वानों की दृष्टि में यह उचित नहीं है। उनके मतानुसार सहशिक्षा गया। यही कारण है कि आज भी वैदिक साहित्य अपने मूल बालक-बालिकाओं के संस्कार को विकृत कर देती है। उनका
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-- यतीन्द्रसूरि स्मारक अन्य इतिहास --- यह मत है कि शिक्षा की यह व्यवस्था छात्रों को शिक्षा-प्राप्ति के अध्यात्मज्ञान आदि रूपों में शिक्षा की विभिन्न कोटियाँ हैं। परंतु मल उद्देश्यों से विरत कर देती है। वे विपरीत-लिंगों के सामान्य अगर स्थूल रूप में शिक्षा को वर्गीकृत किया जाए तो यह दो आकर्षण में बँध जाते हैं। वे संस्कारों को ग्रहण करने की रूपों में विभाजित होगी। प्रथम लौकिक अथवा व्यवहारिक अपेक्षा कसंस्कारों से अधिक आबद्ध हो जाते हैं। इसे पूर्णतः शिक्षा और द्वितीय आध्यात्मिक शिक्षा। शिल्प, नृत्य, गायन, सत्य नहीं माना जा सकता है। कुछ आपवादिक उदाहरणों को वादन, चिकित्सा आदि लौकिक शिक्षा है, जबकि तत्त्वज्ञान, छोड़कर बहुसंख्य प्रतिभाओं को सहशिक्षा की ही देन माना जा आत्मविद्या, ईश्वरमीमांसा आदि आध्यात्मिक शिक्षा है। मनुष्य सकता है।
के लिए ये दोनों ही आवश्यक हैं। जहाँ लौकिक शिक्षा मनुष्य गुरुकुल जिन्हें प्राचीन काल में शिक्षा देने वाली प्रमुख
की जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होती है, वहीं संस्था का गौरव प्राप्त है, प्रायः बालकों को ही प्रवेश मिलता आध्यात्मिक शिक्षा मनुष्य को परम उपादेय के संबंध में बताती था। नारी-जाति में जन्म लेना यहाँ प्रवेश से वंचित रहने की है। एक सांसारिक सुख एवं यश प्रदान करती है तो दसरी एकमात्र अयोग्यता थी। लेकिन बाद में इस दिशा में मलभत पारलौकिक सुख प्राप्ति का साधन बनती है। भारतीय परंपरा में परिवर्तन हुए और कन्याओं का भी प्रवेश गुरुकुलों में होने लगा।
सलों को शिक्षा का यही उत्स माना गया है। यहीं से सहशिक्षा रूपी शाला का प्रारंभ माना गया। वैदिक शिक्षा चाहे व्यवहारिक हो अथवा आध्यात्मिक दोनों के वाङ्मय में सहशिक्षा की स्थिति पर प्रकाश डालने के लिए लिए व्यक्ति को स्वयं प्रयास करना पड़ता है। आध्यात्मिक आचार्य भवभूतिकृत उत्तररामचरित का दृष्टांत प्रस्तुत किया जा शिक्षा के लिए संयमित आचरण तथा कर्मबंधनों को अल्प सकता है। वाल्मीकि-आश्रम में आत्रेयी लव-कुश के साथ करने वाली विशेष प्रकार की क्रियाओं का आश्रय लिया जाता शिक्षा प्राप्त करती थी। बाद में वह अगस्त्य मुनि के आश्रम में है। दूसरी तरफ व्यवहारिक शिक्षा के फिर विविध प्रकार के शिक्षा-ग्रहण हेतु प्रवेश लेती है। दो मुनियों के आश्रमों में स्त्री कर्म करने पड़ते हैं, जो प्रायः कर्मबंधनों को दृढ़ करते हैं। इस जाति को जिस प्रकार शिक्षा दी जा रही है वह सहशिक्षा की प्रकार की शिक्षा-प्राप्ति में व्यक्ति स्वार्थ एवं कषाय से ग्रस्त हो उत्तम व्यवस्था की सूचक अवश्य मानी जा सकती है। सकता है। इन प्रवृत्तियों से मुक्त रखने के लिए व्यक्ति को जहाँ तक श्रमण-परंपरा की बात है तो यहाँ वैदिक
आध्यात्मिक शिक्षा दी जाती है जिसके आधार पर समाज में परंपरा की तरह स्त्रियों को शिक्षित नहीं किया जाता था। प्रायः
एक नैतिक व्यवस्था का निर्माण होता है। यह नैतिक व्यवस्था कन्याओं को गृहस्थी संबंधी शिक्षा का ज्ञान कराया जाता था,
समाज की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है और इस पर आरूढ़ जिसे वे अपने परिवार में सीख लेती थीं। यहाँ प्रायः कन्या से
होकर व्यक्ति लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही प्रकार के सुखों यही अपेक्षा की जाती थी कि वह गार्हस्थ-शिक्षा में निपुणता
का उपभोग करने की क्षमता प्राप्त करता है। प्राप्त कर ले। शास्त्रीय शिक्षा को उनके जीवन में विशेषकर गार्हस्थ्य, ललितकला, नृत्यकला, चित्रकला, गायन, वादन, लौकिक जीवन में कुछ भी महत्त्व नहीं दिया जाता था। लेकिन शिल्प, राजनीति, वैद्यक आदि जीवनोपयोगी शिक्षाओं को -श्रमण परंपरा में गुरुकुल जैसी व्यवस्था का प्रारंभ हो जाने के व्यावहारिक शिक्षा कहा जाता है। मनुष्य के लिए ये महत्त्वपूर्ण बाद वहाँ शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र-छात्राओं का उल्लेख मानी गई हैं। स्त्रियों की भागीदारी शिक्षा के विविध क्षेत्रों में रही हमारे समक्ष इस परंपरा में स्वीकृत सहशिक्षा-व्यवस्था का विवरण है। गार्हस्थ शिक्षा स्त्रियाँ अपने परिवार में सीखती थीं। ऋग्वेद में प्रस्तुत करता है ।
यह स्पष्ट किया गया है कि स्त्रियाँ (कन्याएँ) माता के साथ
गृहकार्य में हाथ बँटाने के साथ-साथ पिता के साथ कृषि कार्य शिक्षा के प्रकार
में भी सहभागी बनती थीं १९। व्यवहारिक शिक्षा का मुख्य शिक्षा का क्षेत्र बहुत व्यापक है और इसके विविध रूप प्रयोजन लौकिक सुख उपलब्ध कराना ही माना जाता था। भी हैं। शिल्पज्ञान, नृत्यज्ञान, चिकित्सा-विद्या, आत्मविद्या, शरीर को स्वस्थ रखना भी एक महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक शिक्षा है।
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पल्लीवालगच्छ का इतिहास
डॉ. शिवप्रसाद......
मानदेवसूरि
कर्णसूरि
विष्णुसूरि
आम्रदेवसूरि
सोमतिलकसूरि
निर्ग्रन्थ परम्परा के श्वेताम्बर आम्नाय में चन्द्रकल से समयसमय पर अस्तित्व में आए विभिन्न गच्छों में पल्लीवालगच्छ भी एक है। जैसा कि इसके अभिधान से स्पष्ट होता है वर्तमान राजस्थान प्रान्त में अवस्थित पाली (प्राचीन पल्ली) नामक स्थान से यह गच्छ अस्तित्व में आया। इस गच्छ में महेश्वरसूरि प्रथम अभयदेवसूरि, महेश्वरसूरि द्वितीय, नन्नसूरि, अजितदेवसूरि, हीरानंदसूरि आदि कई रचनाकार हो चुके हैं। इस गच्छ से संबद्ध
अभिलेखीय साक्ष्य भी मिलते हैं, जो वि.सं. १२५७ से लेकर वि.सं. १९८१ तक के हैं। इस गच्छ की दो पट्टावलियां भी मिलती हैं, जो सद्भाग्य से प्रकाशित है। इस निबंध में उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। अध्ययन की सुविधा के लिए सर्वप्रथम पट्टावलियों, तत्पश्चात् ग्रन्थ प्रशस्तियों और अन्त में अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण एवं इन सभी का विवेचन किया गया है।
जैसा कि ऊपर कहा गया है पल्लीवालगच्छ की आज दो पट्टावलियाँ मिलती हैं । प्रथम पट्टावली वि.सं. १६७५ के पश्चात् रची गई है। इसमें उल्लिखित गुरु-परंपरा इस प्रकार है--
महावीर
भीमदेवसूरि
विमलसूरि
नरोत्तमसूरि
स्वातिसूरि
हेमसूरि
हर्षसूरि
भट्टारक कमलचन्द्र
सुधर्मा
गुणमाणिक्यसूरि
सुन्दरचन्द्रसूरि(वि.सं. १६७५ में स्वर्गस्थ)
प्रभुचन्द्रसूरि (वर्तमान)
पल्लीवालगच्छ की द्वितीय पट्टावली वि.सं. १७२८ में दिनेश्वरसूरि
। रची गई है। इसमें भगवान महावीर के ८ वें पट्टधर स्थूलिभद्र से ___ (पाली में ब्राह्मणों को जैन धर्म में दीक्षित किया) महेश्वरसूरि (वि.सं. ११५० में स्वर्गस्थ)
लेकर ३६१ वें पट्टधर उद्योतनसूरि तक का विवरण दिया गया
है, जो इस प्रकार है-- देवसूरि
महावीर
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
सुधर्मा
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२९. नन्दसूरि (वि.सं.१०९८ में स्वर्गस्थ)
८. स्थूलिभद्र
९. सुहस्तिसूरि
१०. इन्द्रदिन्न सूरि ११. आर्यदिन्नसूरि
४०. उद्योतनसूरि (वि.सं. ११२३ में स्वर्गस्थ) ४१. महेश्वरसूरि (वि.सं. ११४५ में स्वर्गस्थ) ४२. अभयदेवसूरि (वि.सं. ११६९ में स्वर्गस्थ) ४३. आमदेवसूरि (वि.सं. ११९९ में स्वर्गस्थ) ४४. शांतिसूरि (वि.सं. १२२४ में स्वर्गस्थ) ४५. यशोदेवसूरि (वि.सं. १२३४ में स्वर्गस्थ)
१२. सिंहगिरि
१३. वज्रस्वामी
४६. नन्नसूरि (वि.सं. १२३९ में स्वर्गस्थ)
१४. वज्रसेन
१५. चन्द्रसूरि
४७. उद्योतनसूरि (वि.सं. १२४३ में स्वर्गस्थ) ४८. महेश्वरसूरि (वि.सं. १२७४ में स्वर्गस्थ) ४९. अभयदेवसूरि (वि.सं. १३२१ में स्वर्गस्थ)
१६. शांतिसूरि
१७. यशोदेवसूरि
१८. ननसूरि १९. उद्योतनसूरि २०. महेश्वरसूरि २१. अभयदेवसूरि
५०. आमदेवसूरि (वि.सं. १३७४ में स्वर्गस्थ) ५१. शांतिसूरि (वि.सं. १४४८ में स्वर्गस्थ) ५२. यशोदेवसूरि (वि.सं. १४८८ में स्वर्गस्थ)
५३. नन्नसूरि (वि.सं. १५३२ में स्वर्गस्थ)
२२. आमदेवसूरि
५४. उद्योतनसूरि (वि.सं. १५७२ में स्वर्गस्थ)
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास५५. महेश्वरसूरि (वि.सं. १५९९ में स्वर्गस्थ) उदकानल चौरेभ्यः मूषकेभ्यस्तथैव च।
रक्षणीया प्रयत्नेन यत कष्टेन लिख्यते।।१।। ५६. अभयदेवसूरि (वि.सं. १५९५ में स्वर्गस्थ)
संवत् १३७८ वर्ष भाद्रपद सुदि ४ श्रावकमोल्हासुतेन ५७. आमदेवसूरि (वि.सं. १६३४ में स्वर्गस्थ)
भार्याउदयसिरिसमन्वितेन पुत्रसोमा-लाखा-खेतासहितेन
श्रावकऊदाकेन श्रीकल्पपुस्तिकां गृहीत्वा श्री अभयदेवसूरीणां ५८. शांतिसूरि (वि.सं. १६६१ में स्वर्गस्थ) समर्पिता वाचिता च। ५९. यशोदेवसूरि (वि.सं. १६९२ में स्वर्गस्थ)
इस प्रशस्ति में रचनाकार ने यद्यपि अपनी गुरु-परंपरा,
रचनाकाल आदि का कोई निर्देश नहीं किया है, फिर भी ६०. नन्नसूरि (वि.सं. १७१८ में स्वर्गस्थ)
पल्लीवालगच्छ से संबद्ध सबसे प्राचीन साक्ष्य होने इसे अत्यंत
महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। ६१. उद्योतनसूरि (वि.सं. १७३७ में स्वर्गस्थ)
इस प्रशस्ति के अंत में वि.सं. १३७८ में किन्हीं अभयदेवसूरि इस पट्टावली में ४१ वें पट्टधर महेश्वरसूरि के वि.सं. ११४५ को पुस्तक समर्पण की बात कही गई है।ये अभयदेवसूरि कौन में निधन होने की बात कही गई है। प्रथम पट्टावली में भी थे। महेश्वरसरि से उनका क्या संबंध था, इस बारे में उक्त प्रशस्ति महेश्वरसूरि का नाम मिलता है और वि.सं. ११५० में उनके से कोई सूचना प्राप्त नहीं होती। पल्लीवालगच्छ की द्वितीय निधन होने की बात कही गई है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि पदावली में हम देख चके हैं कि महेश्वरसरि के पट्रधर के रूप महेश्वरसूरि इस गच्छ के प्रभावक आचार्य थे। इसी कारण दोनों
में अभयदेवसरि का नाम आता है। इस आधार पर इस प्रशस्ति
में पट्टावलियों में न केवल इनका नाम मिलता है, बल्कि इन्हें
में उल्लिखित अभयदेवसूरि महेश्वरसूरि के शिष्य सिद्ध होते हैं।
में समसामयिक भी बतलाया गया है।
पल्लीवालगच्छ से संबद्ध अगला साहित्यिक साक्ष्य है पल्लीवालगच्छ का उल्लेख करने वाला महत्वपूर्ण साक्ष्य वि.सं. १५४४/ई. स. १४८८ में नन्नसरि द्वारा रचित है महेश्वरसूरि द्वारा रचित कालकाचार्यकथा की वि.सं. १३६५ में
सीमंधरजिनस्तवन । यह ३५ गाथाओं में रचित एक लघुकृति लिखी गई प्रति की दाताप्रशस्ति', जो इस प्रकार है-
है। नन्नसरि के गरु कौन थे, इस बारे में उक्त प्रशस्ति से कोई इति श्रीपल्लीवालगच्छे श्री महेश्वरसरिभिर्विरचिता सूचना प्राप्त नहीं होती। कालिकाचार्यकथासमाप्त।।
वि.सं.१५७३/ई.स. १५१९ में प्राकृत भाषा में ८८ गाथाओं श्रीमालवंशोऽस्ति विशालकीर्तिः श्रीशांतिसूरिप्रतिबोधित डीडाकाख्यः। में रची गई विचारसारप्रकरण की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि श्रीविक्रमाद्वेदनभर्महर्षिवत्सरैः(?) श्री आदिचैत्यकारापित नवहरे च।।१।। . इसके रचनाकार महेश्वरसरि द्वितीय भी पल्लीवालगच्छ के थे।
उपासकदशाङ्ग और आचारांग की वि.सं. १५९१/ई. १५३५ में लिखी गई प्रति की पुष्पिकाओं में भी पल्लीवालगच्छ के
नायक के रूप में महेश्वरसरि का नाम मिलता है।" स्वश्रेयसे कारितकल्पपुस्तिका ...पुण्योदयरत्नभूमिः।
वि.सं.की १७वीं शताब्दी के प्रथम चरण में पल्लीवालगच्छ श्रीपल्लिगच्छे स्वगुणौकधाम्ना वाचिता श्रीमहेश्वरसूरिभिः।।१०।। में अजितदेवसूरि नामक एक प्रसिद्ध रचनाकार हो चुके हैं।
नृपविक्रमकालातीत सं. १३६५ वर्षेभाद्रपदवदौ नवम्यां इनके द्वारा रचित कई कृतियाँ मिलती है, जो इस प्रकार हैं-- तिथौ सीमेदपाटमंडले वऊणाग्रामे कल्पपस्तिका लिखिता।।छ।।
१. कल्पसिद्धान्तदीपिका २. पिण्डविशुद्धिदीपिका (वि.सं. १६२७)
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास३. उत्तराध्ययनसूत्रबालावबोध (वि.सं. १६२९)
अजितदेवसूरि के शिष्य हीरानन्दसरि हए जिनके द्वारा रचित ४. आचारांगदीपिका
चौबोलीचौपाई नामक कृति प्राप्त होती है। इसकी प्रशस्ति ५. आराधना JRK. P-३१
में इन्होंने अपने गुरु-प्रगुरु आदि का उल्लेख किया है। ६. जीवशिखामणाविधि
पालीवाल विरुदे प्रसिद्ध, चंद्रगच्छ सुपहाण। ७. चन्दनबालाबेलि
सूरि महेसर पाटधर, तेजै दीपइ भाण ।।७।।
तासु पसायै हर्षधर, पभणै हीराणंद ।।८।। ८. चौबीस जिनावली कल्पसिद्धान्तदीपिका की प्रशस्ति में इन्होंने स्वयं
चौबोली चौपाई की वि.सं. १७७० में लिखी गई एक को महेश्वरसूरि का शिष्य कहा है--
प्रति जिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञान भण्डार बीकानेर में संरक्षित है। इतिश्री चंद्रगच्छांभोजदिनमणीनां श्रीमहेश्वरसरिसर्व्वसरिशिरोमणीनां
. पल्लीवालगच्छ से संबद्ध पर्याप्त संख्या में अभिलेखीय पट्टे श्रीअजितदेवसूरिणा विरचिता श्रीकल्पसिद्धान्तदीपिका समाप्ता। साक्ष्य प्राप्त हात
a ma साक्ष्य प्राप्त होते हैं, जो वि.सं. १२६१ से लेकर वि.सं. १६८१
तक के हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है--
क्रमांक वि.सं. तिथि/मिति
प्रतिष्ठास्थान
सन्दर्भ ग्रन्थ
आचार्य या मुनि का नाम
प्रतिमा-लेख/ शिलालेख
१.
१२५७
-
प्रतिमा लेख
१३४३
माघ सुदि १२
-
पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख
शीतलनाथ जिनालय, कुम्भारवाडो, खंभात
मुनि कांतिसागर, संपा. शत्रुञ्जयवैभव, लेखांक ११ मुनि बुद्धिसागरसूरि, संपा. जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह भाग-२,लेखांक ६५५ श्री अगरचंद नाहटा, संपा. बीकानेर जैन लेख संग्रह, लेखांक २००
महेश्वरसूरि
माघ सुदि १२ रविवार
पार्श्वनाथ की - प्रतिमा का लेख
चिंतामणिजी का मंदिर, बीकानेर
वही,लेखांक २२४४
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
केशरिया जी का मंदिर, देशनोक, बीकानेर
१३६१
आषाढ सुदि३
"
वही, लेखांक २२७
पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख
६. .
१३७३
वैशाखसुदि १२
गुणाकरसूरि
चिंतामणिजीका मंदिर, बीकानेर जैन मंदिर, आर्वी शांतिनाथ जिना. भोयरापाडो खंभात
१३८३
"
माघ सुदि १० सोमवार
महेश्वरसूरि के पट्टधर अभयदेवसरि
मुनि कांतिसागर, संपा. जैन धातुप्रतिमा लेख संग्रह,लेखांक २७ लेखांक २७ मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त. भाग-२,लेखांक ८९९ नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक ४२४
फाल्गुन सुदि ११ अभयदेवसूरि गुरुवार
आदिनाथ की प्रतिमा का लेख
चिंतामणिजी का मंदिर, बीकानेर
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१०.
११.
१२.
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१७.
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२०.
२९.
२२.
२३.
१४३५
१४५३
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१४८२
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१४८६
१४९३
१४९३
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१५०१
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फाल्गुन सुदि २
शुक्रवार
वैशाख सुदि २
माघ सुदि १३
शनिवार
फाल्गुन वदि १
शुक्रवार
मार्गशीर्ष बदि २
माघ सुदि ५
गुरुवार
माघ सुदि ११
शनिवार
माघ सुदि.......
वैशाख सुदि ३
ज्येष्ठ सुदि ३
सोमवार
ज्येष्ठ बंदि १२
कार्तिक सुदि १५
आषाढ़ सुदि
गुरुवार
तिथिविहीन
-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास. अभयदेवसूरि के पट्टधर चंद्रप्रभ की
आमदेवसूरि
प्रतिमाका लेख
शांतिसूरि
यशोदेवसूरि
19
यशोदेवसूरि
11
हरिभद्रसूरि
यशोदेवसूरि
"
शांतिनाथ के पट्टधर यशोदेवरि
यशोदेवसूरि
पार्श्वनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
ל
सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख
श्रेयांसनाथ की प्रतिमा का लेख
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
पार्श्वनाथ की
प्रतिमा का लेख
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
संभवनाथ की प्रतिमा का लेख
कुन्थुनाथ
की प्रतिमा का लेख
धर्मनाथ की
प्रतिमाका लेख
सुमतिनाथ की
प्रतिमा का लेख
संभवनाथ की
प्रतिमा का लेख
नमिनाथ की
प्रतिमा का लेख
आदिनाथ जिनालय,
मालपुरा
चिंतामणि पार्श्वनाथ जिनालय, किशनगढ़
वासुपूज्य जिनालय,
बीकानेर
आदिनाथ जिनालय, हीरावाडी, नागौर
बावन जिनालय,
का
महावीर जिनालय,
बीकानेर
शांतिनाथ जिनालय,
रतलाम
महावीर जिनालय,
सांगानेर
चिंतामणिजी का मंदिर, बीकानेर
सुमतिनाथ मुख्य
बावन जिनालय मातर
शांतिनाथ जिनालय,
भिंडी बाजार, मुंबई
महावीर जिनालय,
बीकानेर
अनुपूर्ति लेख
आबू
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विजयगच्छीय जिनालय, वही, लेखांक २९७
जयपुर
,
विनयसागर, संपा प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखक १६२
वहीं, लेखांक १७७
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक १३९०
विनयसागर, पूर्वोक्त.
लेखांक १८३. एवं पूरनचंद नाहर,
संपा. जैन लेख संग्रह, भाग-२.
"
लेखांक १२३७
पूरनचंदनाहर, पूर्वोक्त. भाग-२ लेखांक १९३१
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक १३१७
विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक २६२
वही, लेखांक २६१
नाहटा, पूर्वोक्त,
लेखांक ७६७
वही, लेखांक ७९५
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त
भाग- २, लेखांक ४८५
मुनि कांतिसागर, संपा.
जैन धातु प्रतिमा का लेख लेखांक ९५
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक १२७६
मुनि जयंत विजय, संपा. अर्बुद प्राचीन, जैन लेख संदोह लेखांक ६३६
Surara
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२४.
२७
२६.
२७.
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वैशाख सुदि ६
फाल्गुन वदि ३
वैशाख वदि २
1
माघ...........
वैशाख सुदि ५
माघ वदि ५
|
वैशाख सुदि ९
ज्येष्ठ सुदि ५
शुक्रवार
वैशाख.....९
गुरुवार
वैशाख...९
सोमवार
आषाढ़ सुदि ६
शुक्रवार
आषाढ़ सुदि ९
नन्नाचार्य संतानीय
शांतिनाथ के पट्टधर
"
यशोदेवसूरि के पट्टधर ननसूरि के पट्टधर उद्योतनसूरि...... के पट्टधर शांतिसूर के पट्टधर यशोदेवसूरि
यशोदेवसूरि
नन्नसूर
यशोदेवसूरि
श्री रत्नसूरि
• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ -
यशोदेवसूरि के पट्टधर नत्रसूरि
उद्योतनसू
"
सूरि के पट्ट सूर अजूण (उद्योतन)
सूरि
"
पार्श्वनाथ
की प्रतिमा का लेख
नमिनाथ की धातु की प्रतिमा का लेख
सुमतिनाथ की प्रतिमा का लेख
धर्मनाथ की
प्रतिमा का लेख
कुन्थुनाथ की
प्रतिमा का लेख
संभवनाथ की धातु की पंचतीर्थी प्रतिमा
का लेख
पद्मप्रभ की
प्रतिमा का लेख
श्रेयांसनाथ की
प्रतिमा का लेख
धर्मनाथ की
प्रतिमा का लेख
सुविधिनाथ क
प्रतिमा का लेख
चंद्रप्रभ की
प्रतिमा का लेख आदिनाथ की प्रतिमा का लेख
इतिहास.
का लेख
संभवनाथ की धातु
की पंचतीर्थी प्रतिमा
[ ६७ ]
मुनिसुव्रतं की
जैन मंदिर,
धातु की प्रतिमा का लेखखंडप, मारवाड
.
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नाकोड़ा
सीमंधर स्वामी का
मन्दिर, तालाबवाला पोल, सूरत
धर्मनाथ जिनालय,
खजवाना
मुनिसुव्रत जिनालय,
मालपुरा
शांतिनाथ जिनालय,
नाकोड़ा
कुन्थुनाथ जिनालय,
राधनपुर
घरदेवासर,
बडोदरा
पार्श्वनाथ जिनालय,
सांभर
पार्श्वनाथ जिनालय,
बूंदी
शांतिनाथ जिनालय,
नापासर
महावीर जिनालय, वोहारनटोला, लखनऊ
बालाबसही, शत्रुंजय
स्वामीजी का मंदिर, रोशन मुहल्ला, आगरा
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विनयसागर, लेखक - श्री नाकोड़ा तीर्थ लेखांक
१९
विजयधर्मसूरि, संपा. प्राचीन लेख संग्रह, लेखांक २२९
विनयसागर, संपा.
प्रतिष्ठा लेख संग्रह, लेखांक ४३०
वही, लेखांक ४७०
नाहर, पूर्वोक्त, भाग - २ लेखांक १८८७
मुनि विशालविजय, संपा. प्रतिमा लेख संग्रह, लेखांक २५८
मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त
भाग - २, लेखांक २२८
नाहर, पूर्वोक्त, भाग - २ लेखांक २१११
विनयसागर, संपा. प्रतिष्ठालेखसंग्रह, लेखांक ७२०
वही, लेखांक ७५९
नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक २३३३
नाहर, पूर्वोक्त, भाग - २ लेखांक १५५५ शत्रुंजयवैभव, लेखांक २१८
नाहर, पूर्वोक्त, भाग - २. लेखांक १४६२
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३८.
१५३७
ज्येष्ठ वदि४ सोमवार
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
पार्श्वनाथ की सपरिकर आदिनाथ की छत्री के प्रतिमा का लेख बाहर आले में सपरिकर
मूर्ति, नाकोड़ा तीर्थ
श्री नाकोडा तीर्थ लेखांक ५७
३९.
१५४०
आषाढ वदि १
आदिनाथ की प्रतिमा का लेख
पार्श्वनाथ देरासर, सरधना
विनयसागर, प्रतिष्ठा लेख संग्रह लेखांक ८२३
१५५०
फाल्गुन सुदि ११ " गुरुवार
धर्मनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
शांतिनाथ जिनालय, नाकोड़ा तीर्थ
श्री नाकोड़ा तीर्थ, लेखांक ५९
१५५१
पौष सुदि १०
"
नमिनाथ की प्रतिमा का लेख
विमलनाथ जिना., सवाई माधोपुर
प्रतिष्ठालेख संग्रह लेखांक ८६३
पौष सुदि १५ सोमवार
शीतलनाथ की प्रतिमा का लेख
महावीर जिनालय, डांगों में, बीकानेर
१५५८
चैत्र वदि १३ सोमवार
ननसूरि के पट्टधर उद्योतनसूरि ॥
शीतलनाथ की - प्रतिमा का लेख
जिनदत्तसूरि की दादावाड़ी, शत्रुश्चय महावीर जिनालय, सांगानेर
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक १५३७ शत्रुञ्जय वैभव लेखांक २५८ विनयसागर, प्रतिष्ठा लेख संग्रह . लेखांक ९०१ मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२,लेखांक ४४
१५५९
आषाढ़ सुदि १० बुधवार
अजितनाथ की प्रतिमा का लेख
१५६६
माघ वदि २ रविवार
वासुपूज्य की प्रतिमा का लेख
वीर जिनालय, बडोदरा
१५७५
महेश्वरसूरि
आषाढ़ वदि७ रविवार
कुन्थुनाथ की प्रतिमा का लेख
महावीर जिनालय, मेड़तासिटी
विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक ९५६ वही, लेखांक ९७३
१५८३
"
फाल्गुन वदि१ शुक्रवार
पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख
विमलनाथ जिनालय, सवाई माधोपुर वासुपूज्य जिनालय, बीकानेर
आषाढ़ सुदि३
"
नाहटा, पूर्वोक्त, लेखांक १३९५
रविवार
पद्मप्रभ की प्रतिमा का लेख श्रेयांसनाथ की प्रतिमा का लेख
आषाढ वदि ८
आमदेवसूरि
वही, लेखांक १६२७
पार्श्वनाथ जिनालय, कोचरों में, बीकानेर
५०.
१६६७
श्री नाकोड़ा तीर्थ, लेखांक ९०
भाद्रपद सुदि ९ यशोदेवसूरि शिलापट्टप्रशस्ति शुक्रवार
के समय, सुमतिशेखर
(शिलालेख के रचनाकार) द्वितीय आषाढ सुदि २ यशोदेवसूरि शिलापट्टप्रशस्ति रविवार के समय उपा. कनकशेखर(चौकी मंडप में)
५१.
१६७८
वही, लेखांक ९१
पार्श्वनाथ जिनालय, नाकोड़ा
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For Private & Personal use only
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध-इतिहासके शिष्य सुमति शेखर एवं देवशेखर (शिलालेख के रचनाकार)
५२.
१६७२
भंडारस्थ प्रतिमा, वही, लेखांक ९२ शांतिनाथ जिनालय, नाकोडा रंगमंडप,
वही, लेखांक ९५ पार्श्वनाथ जिनालय नाकोड़ा
१२.
१६८१
माघ सुदि ४ श्री ...शेखरसूरि शांतिनाथ की शनिवार
प्रतिमा का लेख चैत्र वदि ५ । यशोदेवसूरि के समय शिलालेख मंगलवार हरशेखर के शिष्य नाकोड़ा
कनकशेखर के शिष्य देवशेखर एवं सुमतिशेखर
(शिलालेख के रचनाकार) आषाढ वदि६ -
शिलालेख सोमवार फाल्गुन सुदि १० -
वासुपूज्य की बुधवार
प्रतिमा का लेख
५३.
१६८१
वही, लेखांक ९७
नाभिमंडप, पार्श्वनाथ जिनालय, नाकोड़ातीर्थ पंचतीर्थी मंदिर, नाकोडा
५४.
१६८१
वही,लेखांक ९६
उक्त अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के आचार्यों का जो पट्टक्रम निश्चित होता है, वह इस प्रकार है--
शांतिसूरि (कोई लेख उपलब्ध नहीं) ? महेश्वरसूरि (प्रथम) (वि.सं. १३४५-१३६१)
यशोदेवसूरि (वि.सं.१६६७-१६८१)
अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लिखित महेश्वरसूरि 'प्रथम' अभयदेवसूरि (वि.सं. १३८३-१४०९)
(वि.सं. १३४५-१३६१) और कालकाचार्य कथा (वि.सं.
१३६५/ई.स. १३०९ की उपलब्ध प्रति) के रचनाकार महेश्वरसूरि आमसूरि (वि.सं. १४३५)
को समसामयिकता, नामसाम्य आदि को दृष्टिगत रखते हुए एक शांतिसूरि (वि.सं. १४५३-१४५८)
ही व्यक्ति माना जा सकता है। ठीक यही बात अभिलेखीय
साक्ष्यों से ज्ञात नत्रसूरि (वि.सं. १५२८-१५३०) और सीमंधर यशोदेवसूरि (वि.सं. १४७६-१५१३)
जिनस्तवन (रचनाकाल वि.सं. १५४४/ई. सन् १४८८) के कर्ता
नन्नसूरि के बारे में भी कही जा सकती है। इसी प्रकार वि.सं. नन्नसूरि (वि.सं. १५२८-१५३०)
१५७३/ई.स. १५२४ में विचारसारप्रकरण के रचनाकार महेश्वरसूरि
और वि.सं. १५७५-१५९३ के मध्य विभिन्न जिनप्रतिमाओं के उद्योतनसूरि (वि.सं. १५३३-१५६६)
प्रतिष्ठापक महेश्वरसरि द्वितीय भी एक ही व्यक्ति मालम पडते हैं।
जैसा कि पीछे हम देख चुके हैं, अजितदेवसरि ने भी अपनी महेश्वरसूरि (द्वितीय) (वि.सं. १५७५-१५९३)
कृतियों में स्वयं को महेश्वरसूरि का शिष्य बताया है, जिन्हें
महेश्वरसूरि द्वितीय से अभिन्न माना जा सकता है। अभयदेवसूरि (कोई लेख उपलब्ध नहीं)
उक्त साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर
पल्लीवालगच्छीय मुनिजनों की गुरु-परंपरा की जो तालिका आमसूरि (वि.सं. १६२४)
बनती है, वह इस प्रकार है-- andramdrintinidiaomindaiadridhiariadmiridra-[ ६९ dirstindiandiarioritrinsidroid-dramdaridrosdadi
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासमहेश्वरसूरि प्रथम (वि.सं. 1345-1361) प्रतिमा लेख
जहां तक दूसरी पट्टावली की प्रामाणिकता की बात है. कालकाचार्यकथा के रचनाकार
इसमें यशोदेव-- नत्रसूरि-- उद्योतनसूरि-- महेश्वरसूरि--
अभयदेवसूरि-- आमसूरि-- शांतिसूरि-- इन पट्टधर आचार्योके अभयदेवसूरि (वि.सं. 1383-1409) प्रतिमा लेख
नामों की पुनरावृत्ति दर्शाई गई है। जैसा कि हम पीछे देख चुके (कालकाचार्य कथा की वि.सं. 1365/ई. स. 1309 में लिखी गई प्रति वि.सं. 1378/ई. स. 1322
हैं, साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों से इसका समर्थन होता में इन्हें समर्पित की गई)
है। इस प्रकार इस पट्टावली में दिए गए पट्टधर आचार्यों के नाम
और उनके पट्टक्रम की प्रामाणिकता प्रायः सिद्ध हो जाती है, आमसूरि (वि.सं. 1435) प्रतिमालेख
किन्तु इसमें ५७वें पट्टधर आमसूरि, ५८वें पट्टधर शांतिसूरि और
५९वें पट्टधर यशोदेवसूरि से संबद्ध तिथियों को छोड़कर प्रायः शांतिसूरि (वि.सं. 1453-1458) प्रतिमालेख
सभी तिथियां मात्र अनुमान के आधार पर कल्पित होने के
कारण अभिलेखीय या अन्य साहित्यिक साक्ष्यों से उनका समर्थन यशोदेवसूरि (वि.सं. 1476-1513) प्रतिमालेख
नहीं होता तथापि पल्लीवाल गच्छ से संबद्ध आचार्यों का नन्नसूरि (वि.सं. 1528-1530) प्रतिमालेख
प्रामाणिक पट्टक्रम प्रस्तुत करने के कारण इसकी महत्ता निर्विवाद । (वि.सं. 1544 में सीमंधर जिनस्तवन के रचनाकार) है। इस पट्टावली में ४१वें पट्टधर महेश्वरसूरि का निधन वि.सं.
११५० में बतलाया गया है। प्रथम पट्टावली में भी वि.सं. ११४५ उद्योतनसूरि (वि.सं. 1533-1556) प्रतिमालेख
में महेश्वरसूरि के निधन की बात कही गई है और उन्हें
पल्लीवालगच्छ का प्रवर्तक बताया गया है। दोनों पट्टावलियों महेश्वरसूरि (वि.सं. 1575-1593) प्रतिमालेख
द्वारा महेश्वरसूरि को समसामयिक सिद्ध करने से यह अनुमान । (वि.सं. 1573 में विचारसारप्रकरण के रचनाकार)
ठीक लगता है कि महेश्वरसूरि इस गच्छ के प्रतिष्ठापक रहे होंगे। अजितदेवसूरि (पिंडविशुद्धिदीपिका, अभयदेवसूरि (साक्ष्य अनुपलब्ध) - मुनि कांतिसागर के अनुसार प्रद्योतनसूरि के शिष्य इन्द्रदेव
कल्पसिद्धान्तदीपिका । आदि के कर्ता)
से विक्रम संवत् की १२वीं शती में यह गच्छ अस्तित्व में आया, हीराचंद (चौवालीचौपाई के कर्ता) आमसूरि (वि.सं. 1624) प्रतिमालेख
किन्तु उनके इस कथन का आधार क्या है, ज्ञात नहीं होता। शांतिसूरि (साक्ष्य अनुपलब्ध)
... उपकेशगच्छ से निष्पन्न कोरंटगच्छ में हर तीसरे आचार्य
का नाम ननसूरि मिलता है, इससे यह संभावना व्यक्त की जा यशोदेवसूरि (वि.सं. 1667-1681) प्रतिमालेख सकती है कि पल्लीवालगच्छ भी उक्त गच्छों में से किसी एक जहाँ तक पल्लीवाल गच्छ की उक्त दोनों पावलियों के गच्छ से उद्भूत हुआ होगा। इस गच्छ से संबद्ध १६वीं शती की विवरणों की प्रामाणिकता का प्रश्न है, उसमें प्रथम पावली का ग्रन्थ-प्रशस्तियों में इसे कोटिकगण और चंद्रकुल से निष्पन्न यह कथन कि महेश्वरसूरि की शिष्यसंतति पल्लीवालगच्छीय बताया गया है, परंतु इस गच्छ में पट्टधर आचार्यों के नामों की कहलाई, सत्य के निकट प्रतीत होता है। चूँकि इस पावली के पुनरावृत्ति को देखते हुए इसे चैत्यवासी गच्छ मानना उचित प्रतीत अनुसार वि.सं. ११४५ में उनका निधन हुआ, अत: यह निश्चित होता है। वस्तुतः यह गच्छ सुविहितमर्गीय था या चैत्यवासी, इसके है कि उक्त तिथि के पूर्व ही यह गच्छ अस्तित्व में आ चुका था। आदिम आचार्य कौन थे, यह कब और क्यों अस्तित्व में आया यद्यपि इस पट्टावली में उल्लिखित अनेक बातों का किन्हीं भी साक्ष्यों के अभाव में ये सभी प्रश्न अभी अनुत्तरित ही रह जाते हैं। अन्य साक्ष्यों से समर्थन नहीं होता, अतः उन्हें स्वीकार कर पाना
सन्दर्भ कठिन है, फिर भी इसमें पल्लीवालगच्छ के उत्पत्ति संबंधी
१. मुनि जिनविजय, संपा. विविधगच्छीयपट्टावली संग्रह , सिंधी साक्ष्य उपलब्ध होने के कारण इसे महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।
जैन ग्रंथमाला, ग्रन्थाक ५३, मुंबई १९६१ ई.स., पृष्ठ ७२-७६
Page #877
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास२. श्री अगरचंद्र नाहटा, पल्लीवालगच्छपट्टावली
6. A.P.Shah, Ed. Catalague of Sanskrit & Prakrit Mss.
Munu Shree punya Vijayji's callectin,vol.1, I.d. seश्री मोहनलाल दलीचंद देसाई, संपा. श्री आत्मारामजी
ries No. 5, Ahmadabad, 1965, A.D.P-189, NO. शताब्दी ग्रंथ , मुंबई १९३६ ई. स. हिन्दी खण्ड पृष्ठ १८२
3343. १९६.
७. श्री आत्माराम शताब्दी ग्रंथ, पृष्ठ १९१-१९२ उक्त दोनों पट्टावलियां श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने ।
८. वही, पृष्ठ १९२ स्वसंपादित जैनगुर्जरकविओं भाग-३,खंड-२, पृष्ठ २२४४२२५४ में भी प्रकाशित की है।
९. वही, पृष्ठ १९४-१९५ ३. Muni Punyavijaya, Ed.catalogue of Palm Leaf Mss १०.-११. वही, पृष्ठ १९२
in the Shate Natha jaina Bhandara, Cambay, Vd, १२. मनि कांतिसागर, शत्रंजय वैभव, कुशल पुष्प ४, कुशल G.O.S, No. 135, Baroda, 1961, A.D., PP. 81-82
__ संस्थान, जयपुर १९९० ई., पृष्ठ ३७२. ४-५. श्री अगरचंद नाहटा, पल्लीवालगच्छपट्टावली, श्री
१३.शिवप्रसाद कोरंटगच्छ का इतिहास, श्रमण, वर्ष ४०, अंक आत्मारामजी शताब्दी ग्रंथ, पृष्ठ १९१
५, पृष्ठ १५ और आगे।
iandoriandednewindiaadimirroranianitarirdaridrorल ७१ Adminidiriridwareinindiansardariwaridaritaram
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प्राचीन एवं अर्वाचीन त्रिस्तुतिक गच्छ
डा. शिवप्रसाद.....
र्व मध्यकाल में श्वेताम्बर श्रमणसंघ का विभिन्न गच्छों और उपगच्छों में विभाजन जैन धर्म के इतिहास की एक अत्यंत
महत्त्वपूर्ण घटना है। चन्द्रकुल (बाद में चंद्रगच्छ) से अनेक छोटी-बड़ी शाखाओं (गच्छों) का प्रादुर्भाव हुआ और ये शाखाएँ पुन: कई उपशाखाओं में विभाजित हुई। चन्द्रकुल की एक शाखा (वडगच्छ/बृहद्गच्छ) के नाम से प्रसिद्ध हुई। वडगच्छ से वि.सं. ११४९ में पूर्णिमागच्छ का प्रादुर्भाव हुआ और पूर्णिमागच्छ की एक शाखा वि.सं. की १३वीं शती से आगमिकगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई।
पूर्णिमागच्छ के प्रवर्तक आचार्य चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य आचार्य शीलगुणसूरि इस गच्छ के आदिम आचार्य माने जाते हैं। इस गच्छ में यशोभद्रसूरि, सर्राणंदसूरि, विजयसिंहसूरि, अमरसिंहसूरि, हेमरत्नसूरि, अमररत्नसूरि, सोमप्रभसूरि, आणंदप्रभसूरि, मुनिरत्नसूरि, आनन्दरत्नसूरि आदि कई विद्वान् एवं प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अपने साहित्यिक और धार्मिक क्रियाकलापों से श्वेताम्बर श्रमणसंघ को जीवन्त बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान की।
पूर्णिमागच्छीय आचार्य शीलगुणसूरि और उनके शिष्य देवभद्रसूरि द्वारा जीवदयाणं तक का शक्रस्तव और ६७ अक्षरों का परमेष्ठीमंत्र, तीन स्तुति से देववंदन आदि बातों में आगमपक्ष के समर्थन से वि.सं. १२१४ या १२५० में आगमिकगच्छ अपरनाम त्रिस्तुतिकमत का प्रादुर्भाव हुआ इस गच्छ का त्रिस्तुतिक नाम इसलिए प्रसिद्ध हुआ कि वे आगगिक आधारों पर प्रतिक्रमण में शासनदेवता एवं क्षेत्रपाल आदि की स्तुति का विरोध करते थे तथा अरिहन्त, चैत्य एवं गुरु की स्तुति को ही स्थान देते थे।
आगमिक गच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिए साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं। साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के आचार्यों द्वारा लिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों तथा इस गच्छ और इसकी शाखाओं की पट्टावलियों का उल्लेख किया जा सकता है। अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के आचार्यो/मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिन प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों को रखा गया है, इनकी संख्या सवा दो सौ के आसपास है।
पट्टावलियों द्वारा इस गच्छ की दो शाखाओं-धंधूकीया और विडालंबीया का पता चलता है।
आगमिकगच्छ और उसकी शाखाओं की पट्टावलियों की तालिका इस प्रकार है-- क्र. पट्टावली का नाम रचनाकार संभावित तिथि
सन्द ग्रंथ १. आगमिकगच्छपट्टावली अज्ञात
१३वीं शती
विधिगच्छीयपट्टावली लगभग
संग्रह-संपा. जिनविजय,
२.
आगमिकगच्छपट्टावली
अज्ञात
१६वीं शती
पृष्ठ ९-१२ जैनगूर्जरकविओ, भाग-३ परिशिष्ट, संपा. मोहनलाल दलीचंद देसाई
लगभग
पृष्ठ २२२४-२२३२
aaniramidniwarirdrolonidrowdnironotoroorirandiridni७२oonrisaririwariwomdwonditionindmarikandariramir
Page #879
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________________
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासधंधूकीया शाखा की
अज्ञात १७वीं शती
वही, पृष्ठ २२३२ पट्टावली
लगभग विडालंबीया शाखा अज्ञात
१८वीं शती लगभग वही पृष्ठ २२३३ की पट्टावली आगमिकगच्छ पट्टावली मुनिसागरसूरि १६वीं शती पट्टावली समुच्च्य, भाग-२ लगभग १५८-१६२
जैन सत्यप्रकाश, वर्ष६, अंक ४ जैन परंपरानो इतिहास, भाग-२ पृष्ठ ५४०-५४२ विविधगच्छीय पट्टावली
संग्रह, पृष्ठ २३४-२३५ ६. धंधूकीय शाखा की पट्टावलीअज्ञात
१७ वीं शती लगभग विविधगच्छीय पट्टावली
संग्रह, पृष्ठ २३५-२३६ उक्त तालिका की प्रथम पट्टावली में आगमिकगच्छ के प्रवर्तक आचार्य शीलगुणसूरि का पूर्णिमागच्छीय आचार्य चंद्रप्रभसूरि के शिष्य के रूप में उल्लेख है। इसके अतिरिक्त इस पड़ावली से आगमिकगच्छ के इतिहास के बारे में कोई सूचना नहीं मिलती है।
तालिका में प्रदर्शित अंतिम दोनों पट्टावलियां आगमिक गच्छ के प्रकटकर्ता शीलगुणसूरि से प्रारंभ होती हैं। ये पट्टावलियां इस प्रकार हैं--
मुनिसागरसूरि द्वारा रचित आगमिकगच्छपट्टावली में उल्लिखित
गुरु परंपरा की सूची शीलगुणसूरि (आगमिकगच्छ के प्रवर्तक)
देवभद्रसूरि
धर्मघोषसूरि
यशोभद्रसूरि
सर्वाणंदसूरि
अभयदेवसूरि
वज्रसेनसूरि
जिनचन्द्रसूरि
arrorborocarrorswordwordworwariwarobardGA60-6-७३
karGrowondirdiwandirani
Page #880
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________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
हेमसिंहसूरि
रत्नाकरसूरि
विजयसिंहसूरि
गुणसमुद्रसूरि
अभयसिंहसूरि
सोमतिलकसूरि
सोमचन्द्रसूरि
गुणरत्नसूरि
मुनिसिंहसूरि
शीलरत्नसूरि
आणंदप्रभसूरि
मुनिरत्नसूरि
मुनिसागरसूरि (पट्टावली के लेखक)
तालिका में क्रमांक ६ पर प्रदर्शित आगमिकगच्छ (घंधकीया शाखा) की पट्टावली में उल्लिखित गुरु-परंपरा की सूची -
शीलगुणसूरि
देवभद्रसूरि
।
धर्मघोषसूरि
यशोभद्रसूरि
सर्वाणंदसूरि
अभयदेवसूरि
वज्रसेनसूरि
जिनचन्द्रसूरि
विजयसिंहसूरि
Page #881
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________________
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - इतिहास
अभयसिंहसूरि
अमरसिंहसूरि
हेनरत्नसूरि
अमररत्नसूरि
सोमरत्नसूरि
गुणनिधानसूरि
उदयरत्नसूरि
सौभाग्यसुन्दरसूरि
धर्मरत्नसूरि
मेघरत्नसूरि जैसा कि स्पष्ट है कि उक्त दोनों पट्टावलियां आगमिकगच्छ के प्रकटकर्ता शीलगुणसूरि से प्रारंभ होती है। इनमें प्रारंभ के ४ आचार्यों के नाम भी समान है, अत: इस समय तक शाखाभेद नहीं हुआ था, ऐसा माना जा सकता है। आगे यशोभद्रसूरि के तीन शिष्यों - सर्वाणंदसूरि, अभयदेवसूरि और वज्रसेनसूरि को पट्टावलीकार मुनिसागरसूरि ने एक सीधे क्रम में रखा है, वहीं धंधूकीया शाखा की पट्टावली में उन्हें यसोभद्रसूरि का शिष्य बतलाया गया है। सर्वाणंदसूरि की शिष्य परंपरा में जिनचंद्रसूरि हुए, शेष दो आचार्यों अभयदेवसूरि और वज्रसेनसूरि की शिष्यपरंपरा आगे नहीं चली। जिनचंद्रसूरि के शिष्य विजयसिंहसूरि का दोनों पट्टावलियो में समान रूप से उल्लेख है। पट्टावलीकार मुनिसागरसूरि ने जिनचन्द्रसूरि के दो अन्य शिष्यों हेमसिंहसूरि और रत्नाकरसूरि का भी उल्लेख किया है, परंतु उनकी परंपरा आगे नहीं चली। विजयसिंहसूरि के शिष्य अभयसिंहसूरि का नाम भी दोनों पट्टावलियों में समान रूप से मिलता है। अभयसिंहसूरि के दो शिष्यों अमरसिंहसूरि और सोमतिलकसूरि से यह गच्छ दो शाखाओं में विभाजित हो गया। अमरसिंहसूरि की शिष्यसंतति आगे चलकर धंधूकीया शाखा और सोमतिलकसूरि की शिष्य परंपरा विडालंबीया शाखा के नाम से जानी गई। यह उल्लेखनीय है कि प्रतिमा-लेखों में कहीं भी इन शाखाओं का उल्लेख नहीं हुआ है, वहां सर्वत्र केवल आगमिकगच्छ का ही उल्लेख है, किन्तु कुछ प्रशस्तियों में स्पष्ट रूप से इन शाखाओं का नाम मिलता है तथा दोनों शाखाओं की पट्टावलियां तो स्वतंत्र रूप से मिलती ही हैं, जिनकी प्रारंभ में चर्चा की जा चुकी है।
अभयसिंहसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित एक जिनप्रतिमा पर वि.सं. १४२१ का लेख उत्कीर्ण है, अत: यह माना जा सकता है कि वि.सं. १४२१ के पश्चात् अर्थात् १५वीं शती के मध्य के आसपास यह गच्छ दो शाखाओं में विभाजित हुआ होगा।
चूँकि इस गच्छ के इतिहास से संबद्ध जो भी साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं, वे १५वीं शती के पूर्व के नहीं हैं और इस समय तक यह गच्छ दो शाखाओं में विभाजित हो चुका था, अतः इन दोनों शाखाओं का ही अध्ययन कर पाना संभव है। शीलगुणसूरि तक के ८ पट्टधर आचार्यों में केवल अभयसिंहसूरि का ही वि.सं. १४२१ के एक प्रतिमा लेख में प्रतिमा प्रतिष्ठापक
anoranorandednoranorandirbrowonlowdroidroraniwanirbidrobM ७५Hoodiacondardoiidnidrabinirdroidwardd-ordorand
Page #882
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास. के रूप में उल्लेख है। शेष ७ आचार्यों के बारे में मात्र पट्टावलियों से ही न्यूनाधिक सूचनाएं प्राप्त होती हैं, अन्य साक्ष्यों से नहीं। लगभग २०० वर्षों की अवधि में किसी गच्छ में ८ पट्टधर आचार्यों का होना असंभव नहीं लगता, अतः आगमिक गच्छ के विभाजन के पूर्व इन पट्टावलियों की सूचना को स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है।
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है अभयसिंहसूरि के पश्चात् उनके शिष्यों अमरसिंहसूरि और सोमतिलकसूरि की शिष्यसन्तति आगे चलकर क्रमशः धन्धूकीया शाखा और विडालंबीयाशाखा के नाम से जानी गई, यह बात निम्न प्रदर्शित तालिका से स्पष्ट होती हैशीलगुणसूरि ( आगमिकगच्छ के प्रवर्तक)
अभयसिंहसूर
1
अमरसिंहसूर
I
हेमरत्नसूर
1
अमररत्नसूर
1
सोमरत्नसूर
15 Ikybab
विजयसिंह सूरि
।
प्रारंभ ..........
सर्वानन्दसूरि
I
जिनचन्द्रसूरि
I
गुणसमुद्रसूरि
1
सोमतलिकसूरि
1
सोमचंद्रसूरि
1
गुणरत्नसूर
1
मुनिसिंहसूर
विडालंबीया शाखा प्रारंभ ............
देवभद्रसूरि
।
धर्मघोषसूरि
।
यशोभद्रसूरि
।
अभयदेवसूरि
सिंहसूर
अध्ययन की सुविधा के लिए दोनों शाखाओं का अलग-अलग विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। इनमें सर्वप्रथम साहित्यिक साक्ष्यों और तत्पश्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों के विवरणों की विवेचना की गई है।
శర
वज्रसेनसूरि
For Private Personal Use Only
रत्नाकर
Page #883
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- यतीन्द्र सूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
साहित्यिक साक्ष्य १. पुण्यसाररास--यह कृति आगमगच्छीय आचार्य हेमरत्नसूरि के शिष्य साधुमेरू द्वारा वि.सं. १५०१ पौषवदि ११ सोमवार को धंधुका नगरी में रची गई। कृति के अंत में रचनाकार ने अपनी गुरु परंपरा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है--
अमरसिंहसूरि
हेमरत्नसूरि
साधुमेरू (रचनाकार) २. अमररत्नसूरिफागु मरुगुर्जर भाषा में लिखित ८ गाथाओं की इस कृति को श्री मोहनलाल दलीचन्द्र देसाई ने वि.संवत् की १६वीं शती की रचना माना है। इस कृति में रचनाकार ने अपना परिचय केबल अमररत्नसूरि शिष्य इतना ही बतलाया है। यह रचना प्राचीन फागुसंग्रह में प्रकाशित है।
अमररत्नसूरि
अमररत्नसूरिशिष्य ३. सुन्दरराजारास-आगमगच्छीय अमररत्नसूरि की परंपरा के कल्याणराजसूरि के शिष्य क्षमाकलश ने वि.सं. १५५१ में इस कृति की रचना की। क्षमाकलश की दूसरी कृति ललिताङ्गकुमाररास वि.सं. १५५३ में रची गई है। दोनों ही कृतियां मरु गुर्जर भाषा में है। इसकी प्रशस्ति में रचनाकार ने अपनी गुरु परंपरा का सुन्दर परिचय दिया है, जो इस प्रकार है--
अमररत्नसूरि
सोमरत्नसूरि
कल्याणराजसूरि
क्षमाकलश (सुन्दरराजारास एवं ललिताङ्गकुमाररास के कर्ता) ४. लघुक्षेत्रसमासचौपाई"--यह कृति आगमगच्छीय मतिसागरसूरि द्वारा वि.सं. १५९४ में पाटन नगरी में रची गई है। इसकी भाषा मरु-गुर्जर है। रचना के प्रारंभ और अंत में रचनाकार ने अपनी गुरु-परंपरा की चर्चा की है, जो इस प्रकार है--
सोमरत्नसूरि
उदयरत्नसूरि
गुणमेरूसूरि
मतिसागरसूरि (रचनाकार)
రంగారగారంగారకరంగారంలో 99
సంసారసాగరమbarambarbian
Page #884
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
अभिलेखीय साक्ष्य आगमिक गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित तीर्थङ्कर प्रतिमाओं पर वि.सं. १४२१ से वि.सं. १६८३ तक के लेख उत्कीर्ण हैं। इन प्रतिमालेखों के आधार पर इस गच्छ के कुछ मुनिजनों के पूर्वापर संबंध स्थापित होते हैं, जो इस प्रकार हैं--
१. अमरसिंहसूरि-- इनके द्वारा वि.सं. १४५१ से वि.सं. १४७८ के मध्य प्रतिष्ठापित ७ प्रतिमालेख उपलब्ध हैं, इनका विवरण इस प्रकार हैं--
वि.सं. १४५१ ज्येष्ठ सुदि ४ रविवार १ प्रतिमा वि.सं. १४६२ वैशाख सुदि ३ वि.. १४६५
माघ सुदि ३ रविवार वि.सं. १४७०
तिथिविहीन . वि.सं. १४७५ वि.सं. १४७६
चैत्र वदि १ शनिवार वि.सं. १४७८
वैशाख सुदि ३ गुरुवार
"
"" १४८
१४८५
१४८८
२. अमरसिंहसूरि के पट्टधर हेमरत्नसूरि-- हेमरत्नसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित ४० प्रतिमाएँ अद्यावधि उपलब्ध हुई हैं। ये सभी प्रतिमाएँ लेख युक्त हैं। इन पर वि.सं. १४८४ से वि.सं. १५२१ तक के लेख उत्कीर्ण हैं। इनका विवरण इस प्रकार है-- वि.सं. १४८४ वैशाख सुदि ३ शुक्रवार
१ प्रतिमा मार्गशीर्ष सुदि ५ रविवार ज्येष्ठ वदि..
२ प्रतिमा १४८७ माघ सुदि ५ गुरुवार
१ प्रतिमा ज्येष्ठ सुदि १० शुक्रवार १४८९
माघ वदि २ शुक्रवार १४८९
तिथिविहीन " १४९०
फाल्गुन सोमवार " १४९१
द्वितीय ज्येष्ठ वदि ७ शनिवार १४९२
ज्येष्ठ वदि.............
माघ वदि ८ बुद्धवार १५०४
फाल्गुन सुदि १२ गुरुवार १५०५ माघ सुदि ९ शनिवार
२ प्रतिमा १५०६
तिथिविहीन ज्येष्ठ सुदि ९
१ प्रतिमा १५०७
माघ सुदि १३ शुक्रवार तिथिविहीन
२ प्रतिमा १५१२ ज्येष्ठ वदि ५ सोमवार
१ प्रतिमा ooooooooరుoరంగారసాగర ఆ రసాయరంగంగంగంగంగంలో
१५०३
१५०७
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For Private & Persortal Use Only
Page #885
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________________
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३. हेमरत्नसूरि के पट्टधर अमररत्नसूरि-- इनके द्वारा वि.सं. १५२४ से वि.सं. १५४७ के मध्य प्रतिष्ठापित १८ प्रतिमाएं उपलब्ध हुई हैं। इनका विवरण इस प्रकार है-
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१५१९ १५२१
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४. अमररत्नसूरि के पट्टधर सोमरत्नसूरि १५८१ तक की हैं। इसका विवरण इस प्रकार हैं-
वि.सं. १५४८
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77 77
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ इतिहासज्येष्ठ सुदि १० रविवार वैशाख वदि १० शुक्रवार
वैशाख सुदि ५ शुक्रवार
फाल्गुन वदि ३ शुक्रवार
वैशाख सुदि १० गुरुवार
फाल्गुन सुदि ८ शनिवार
वैशाख सुदि ३
वैशाख सुदि ३ सोमवार
माघ सुदि ५ गुरुवार वैशाख वदि ११ शुक्रवार
वैशाख सुदि ३ गुरुवार माघ वदि ९ शनिवार
माघ सुदि ३ सोमवार आषाढ़ सुदि १ गुरुवार
१५५२ १५५२
वैशाख सुदि २ गुरुवार कार्तिक यदि १३ शनिवार तिथिविहीन
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वैशाख सुदि ५ शुक्रवार
ज्येष्ठ वदि १ शुक्रवार
माघ वदि २ शुक्रवार
५
माघ वैशाख सुदि ३
ज्येष्ठ वदि १३ बुद्धवार
वैशाख सुदि ६ सोमवार
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वैशाख सुदि ३ वैशाख सुदी ३ माघ वदि ८ शनिवार
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१ प्रतिमा
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१ प्रतिमा
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२ प्रतिमा
१ प्रतिमा
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४ प्रतिमा
१ प्रतिमा
आषाढ़ सुदि ३ शुक्रवार वैशाख सुदि २ मंगलवार वैशाख सुदि ५ गुरुवार इनके द्वारा प्रतिष्ठापित १२ प्रतिमाएं मिलती हैं, जो वि.सं. १५४८ से वि.सं.
"
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१ प्रतिमा
"
"
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास"" १५५५
ज्येष्ठ सुदि ९ रविवार "" १५५६
वैशाख सुदि १३ रविवार "" १५६७
वैशाख सुदि ३ बुद्धवार "" १५६९
वैशाख सुदि ९ शुक्रवार ""१५७१
चैत्र वदि २ गुरुवार.२ "" १५७१
चैत्र वदि ७ गुरुवार "" १५७३
वैशाख सुदि ६ गुरुवार "" १५७३
फाल्गुन सुदि २ रविवार
माघ सुदि ५ गुरुवार इस प्रकार अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर आगमगच्छ के उक्त मुनिजनों का जो पूर्वापर संबंध स्थापित होता है, वह इस प्रकार है--
अमरसिंहसूरि (वि.सं. १४५१-१४८३)
"" १५८१
हेमरत्नसूरि (वि.सं. १४८४-१५२१)
अमररत्नसूरि (वि.सं. १५२४-१५४७)
सोमरत्नसूरि (वि.सं. १५४८-१५८१) पूर्व प्रदर्शित पट्टावलियों की तालिका में श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई द्वारा आगमिकगच्छ और उसकी दोनों शाखाओं की अलग-अलग प्रस्तुत की गई पट्टावलियों को रखा गया है। देसाई द्वारा दी गई आगमिकगच्छ की गुर्वावली शीलगुणसूरि से प्रारंभ होकर हेमरत्नसूरि तक एवं धंधूकीया शाखा की गुर्वावली अमररत्नसरि से प्रारंभ होकर मेघरत्नसरि तक के विवरण के पश्चात समाप्त होती है। ये दोनों गुर्वावलियां मुनि जिनविजय जी द्वारा दी गई धंधूकीयाशाखा की गुर्वावली (जो शीलगुणसूरि से प्रारंभ होकर मेघरत्नसूरि तक के विवरण के पश्चात् समाप्त होती है) से अभिन्न है, अतः इन्हें अलग-अलग मानने और इनकी अप्रामाणिकता का कोई प्रश्र ही नहीं उठता है।
अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा ज्ञात पूर्वोक्त चार आचार्यों (अमरसिंहसरि-हेमरत्नसरि- अमरत्नसरि - सोमरत्नसरि) के नाम इसी क्रम में धंधकीया शाखा की पट्रावली में मिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त ग्रंथप्रशस्तियों द्वारा आगमिक गच्छ के मुनिजनों के जो नाम ज्ञात होते हैं, उनमें से न केवल कुछ नाम धंधकीयाशाखा की पट्टावली में मिलते हैं, बल्कि इस शाखा के साधुमेरूसूरि, कल्याणराजसूरि, क्षमाकलशसूरि, गुणमेरूसूरि, मतिसागरसूरि आदि ग्रन्थकारों के बारे में केवल उक्त ग्रन्थ प्रशस्तियों से ही ज्ञात होते
__ इस प्रकार धंधूकीया शाखा की परंपरागत पट्टावली में उल्लिखितं अभयसिंहसूरि, अमरसिंहसूरि, हेमरत्नसूरि, अमररत्नसूरि, सोमरत्नसूरि आदि आचार्यों के बारे में जहाँ अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा कालनिर्देश की जानकारी होती है, वहीं ग्रंथप्रशस्तियों के आधार पर इस शाखा के अन्य मुनिजनों के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है।
साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के संयोज से आगमिकगच्छ की धंधूकीया शाखा की परंपरागत पट्टावली को जो नवीन स्वरूप प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है--
aroriworldwonlondiworbronironorom60-60-6606-८०60-6A6oririwordkoriadroombridAGA6A6A6A6ondi
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहाससाहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर निर्मित आगमिकगच्छ (धंधकीया शाखा) का वंश वृक्ष
(तालिका-१)
शीलगुणसूरि
देवभद्रसूरि
धर्मघोषसूरि
यशोभद्रसूरि
सर्वाणंदसूरि
___ अभयदेवसूरि
अभयदेवसूरि
वज्रसेनसूरि
वज्रसेनसूरि
जिनचन्द्रसूरि
विजयसिंहसूरि
अभयसिंहसूरि (वि.सं. 1421)
। प्रतिमालेख अमरसिंहसूरि (वि.सं. 1451-1483)
प्रतिमालेख हेमरत्नसूरि (वि.सं. 1484-1521)
प्रतिमालेख
साधुमेरु (वि.सं. 1501 में पुण्यसाररास के कर्ता)
अमररत्नसूरि (वि.सं. 1524-43)
। प्रतिमालेख
सोमरत्नसूरि (वि.सं. 1584-81)
। प्रतिमालेख गुणनिधानसूरि
कल्याणराजसूरि
अमररत्नसूरिशिष्य (अमररत्न
सूरिगाफु के कर्ता) क्षमाकलश (वि.सं. 1551 में सुंदरराजारास)
(वि.सं. 1553 में ललिताङ्गकुमारररास)
उदयरत्नसूरि (वि.सं. 1586-87)
प्रतिमालेख
गुणमेरूसूरि
सौभाग्यसुन्दरसूरि (वि.सं. 1610) प्रतिमा लेख
धर्मरत्नसूरि
मतिसागरसूरि (वि.सं. 1594) लघुक्षेत्रसमासचौपाई के रचनाकार
मेघरत्नसूरि
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
जैसा कि पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है, अभयसिंहसूरि के पश्चात् उनके शिष्यों अमरसिंहसूरि और सोमतिलकसूरि से आगमिकगच्छ की दो शाखाएं अस्तित्व में आईं। अमरसिंहसूरि की शिष्यसंतति आगे चलकर धंधूकीया शाखा के नाम से जानी गई। उसी प्रकार सोमतिलकसूरि की शिष्य परंपरा विडालंबीया शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई ।
मुनिसागरसूरि द्वारा रचित आगमिकगच्छपट्टावली में अभयसिंहसूरि के पश्चात् सोमतिलकसूरि से मुनिरत्नसूरि तक ७ आचार्यो का क्रम इस प्रकार मिलता है-
सोमतिलकसूरि
I
सोमचंद्रसूरि
I
गुणसू
1
मुनिसिंह सूरि
I
शीलरत्नसूरि
I
आनन्दप्रभसूर
मुनिरत्नसूरि
साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर इस पट्टावली के गुणरत्नसूरि और मुनिरत्नसूरि के अन्य शिष्यों के संबंध में भी जानकारी प्राप्त होती है।
।
गजसिंहकुमार रास ६ ( रचनाकाल वि.सं. १५१३) की प्रशस्ति में रचनाकार देवरत्नसूरि ने अपने गुरु गुणरत्नसूरि का ससम्मान उल्लेख किया है।
इसी प्रकार मलयसुन्दरीरास ७ (रचनाकाल वि.सं. १५४३) और कथाबत्तीसी (रचनाकाल वि.सं. १५५७) की प्रशस्तियों में रचनाकार ने अपनी गुरुपरंपरा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है-
मुनसिंहसूर
I
मतिसागरसूर
I
उदयधर्मसूरि ( रचनाकार)
आगमिकगच्छीय उदयधर्मसूरि (द्वितीय) द्वारा रचित धर्मकल्पद्रुम की प्रशस्ति में रचनाकार ने अपनी गुरु-परंपरा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है-
आनन्दप्रभसूर
मुनिसागरसूरि
I
उदयधर्मसूरि
( धर्मकल्पद्रुम के रचनाकार)
मुनिरत्नसूर
।
For Private
[ ८२
आनन्दरत्नसूर
Personal Use Only
Pommi
Page #889
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास.
अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा इस पट्टावली के अंतिम चार आचार्यों का जो तिथिक्रम प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है-
मुनिसिंहसूर द्वारा वि.सं. १४९९ कार्तिक सुदी ५ सोमवार को प्रतिष्ठापित भगवान् शांतिनाथ की एक प्रतिमा प्राप्त हुई है। इसी प्रकार मुनिसिंहसूरि के शिष्य शीलरत्नसूरि द्वारा वि.सं. १५०६ से वि.सं. १५१२ तक प्रतिष्ठापित ५ प्रतिमाएं मिलती हैं। शीलरत्नसूरि के शिष्य आनन्दप्रभसूरि द्वारा वि.सं. १५१३ से वि.सं. १५२७ तक प्रतिष्ठापित ६ प्रतिमाएं प्राप्त होती है। आनन्दप्रभसूरि के शिष्य मुनिरत्नसूरि द्वारा वि.सं. १५२३ और वि.सं. १५४२ में प्रतिष्ठापित २ जिन प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा ही मुनिरत्नसूरि के शिष्य आनन्दरत्नसूरि का भी उल्लेख प्राप्त होता है । उनके द्वारा प्रतिष्ठापित ५ तीर्थंङ्कर प्रतिमाएँ मिली हैं, जो वि.सं. १५७१ से वि.सं. १५८३ तक की है। उक्त बात को तालिका के रूप में निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
सोमतिलकसूरि
1
सोमचंद्रसूरि
I
गुणरत्नसूरि
।
मुनिसिंहसूरि (वि.सं. १४९९) १ प्रतिमालेख
I
शीलरत्नसूरि (वि.सं. १५०६ - १५१२) ५ प्रतिमालेख
।
आनन्दप्रभसूरि (वि.सं. १५१३ - १५ - २७) ६ प्रतिमालेख
आनन्दरत्नसूरि (वि.सं. १५७१ - १५८३) ५ प्रतिमालेख
श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई द्वारा प्रस्तुत आगमिकगच्छ की विडालंबीया शाखा की गुर्वावली इस प्रकार है-
मुनिरत्नसूरि
उदयसागरसूरि
1
भानु भट्टसूरि
I
माणिक्यमंगलसू
(वि.सं. १६३९ में अंबडरास के रचनाकार)
।
मुनिरत्नसूर (वि.सं. १५२३ - १५४२) २ प्रतिमालेख
1
आनन्दरत्नसूरि
1
ज्ञानरत्नसूर
1
हेमरत्नसूर
I
7
धर्महंससूरि
(वि.सं. १६२० के लगभग नववाड ढालबंध के रचनाकार)
उक्त पट्टावली के आधार पर मुनिसागरसूरि द्वारा रचित आगमिकगच्छपट्टावली में ६ अन्य नाम भी जुड़ जाते हैं। इस प्रकार ग्रन्थ प्रशस्ति, प्रतिमालेख तथा उपर्युक्त पट्टावली के आधार पर मुनिसागरसूरि द्वारा रचित पट्टावली अर्थात् आगमिकगच्छ की विडालंबीया शाखा की पट्टावली को जो नवीन स्वरूप प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है-
८३
For Private Personal Use Only
JENDADA
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________________
(तालिका-२)
साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर निर्मित आगमिकगच्छ ( विडालंबीयाशाखा ) का वंश वृक्ष
शीलगुणसूरि
1
देवभद्रसूरि
सर्वाणंदसूरि
जिनचंद्रसूरि
विजयसिंहसूरि
अभयसिंहसूरि
अमरसिंहसूरि
-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
देवरत्नसूरि (गजसिंहसकुमारास)
मतिसागरसरि
(वि.सं. १५०६ - १५१३ प्रतिमा लेख )
उदयधर्मसूरि (प्रथम) (मलयसुन्दरीरास वि.सं. १२४३)
धर्मघोषसूरि
1
यशोभद्रसूरि
अभयदेवसूरि
हेमसिंह सूरि
शीलरत्नसूर
I
सोमतिलकरि
सोमचंद्रसूरि
गुणरत्नसूर
मुनिसिंहसूरि
(वि.सं. १४९९ वि.सं. १५१३ के रचनाकार) प्रतिमा का लेख
गुणप्रभसूर (वि.सं. १५२०) प्रतिमा लेख
वज्रसेनसरि
आनन्दप्रभसूरि
(वि.सं. १४१३-१५१४ वि.सं. १५५७)
रत्नाकरसूरि
उदयधर्मसूरि (द्वितीय) (धर्मकल्पद्रुम के रचनाकार०)
मुनिसागर सूरि (आगमिकवली) के रचनाकार
रत्नतिलकसूरि (वि.सं. १५८४ के मेघदूत की प्रति के लेखक )
[ ८४
मुनिरत्नसूर
(वि.सं. १५२३ - १५४३ ) प्रतिमा लेख
अमरसिंहसूरि
आनन्दरत्नसूरि (वि.सं. १५७१ - १५८३)
प्रतिमा लेख
|
ज्ञानरत्नसूर
हेमरत्नसूर (वि.सं. १५७७) प्रतिमा लेख
Page #891
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
देवरत्नसूर (वि.सं. १५०५-१५३३) प्रतिमालेख
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
कुलवर्धनसूरि (वि.सं. १६४३-८३) प्रतिमालेख
साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर आगमिक गच्छ के जयानन्दसूरि, देवरत्नसूरि, शीलरत्नसूरि, विवेकरत्नसूरि, संयमरत्नसूरि, कुलवर्धनसूरि, विनयमेरूसूरि, जयरत्नगणि, देवरत्नगणि, वरसिंहसूरि, विनयरत्नसूरि आदि कई मुनिजनों के नाम ज्ञात होते हैं। इन मुनिजनों के परस्पर संबंध भी उक्त साक्ष्यों के आधार पर निश्चित हो जाते हैं और इनकी जो गुर्वावली बनती है, वह इस प्रकार है
?
:
:
जयानन्दसूरि (वि.सं. १४७२ - १४९४ )
1
शील सिंहसूरि (कोष्ठक चिन्तामणि स्वोपज्ञटीका (श्रीचन्द्रचरित वि. सं. १३९४
विनयमेरु (वि. सं. १५९९) प्रतिमालेख
वरसिंहसूर (आवश्यक बालावबोधवृत्ति)
उदयसागरसूरि
1
भानु भट्टसूरि
I
माणिक्य मंगलसूरि
(वि.सं. १६३९ में अंबडरास के रचनाकार)
1
विवेकरत्नसूर (वि.सं. १५४४-७९ ) प्रतिमा लेख
।
धर्महंससूरि (वि.सं. १६२० के लगभग
नववाडढालबंध के रचनाकार)
संयमरत्नसूर (वि.सं. १५८० - १६१६ )
1
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वि.सं. १५७१ में यतिजीतकल्प रचनाकार
जयरत्नमणि
देवरत्नगणि
I
I
आगमिकगच्छ के मुनिजनों की उक्त तालिका का आगमिकगच्छ की पूर्वोक्त दोनों शाखाओं ( धूंधकीया शाखा और विडालंबीया शाखा) में से किसी के साथ भी समन्वय स्थापित नहीं हो पाता, ऐसी स्थिति में यह माना जा सकता है कि आगमिकगच्छ में उक्त शाखाओं के अतिरिक्त भी कुछ मुनिजनों की स्वतंत्र परंपरा विद्यमान थी।
विनयमरत्नसूरि (वि.सं. १६७३ माघसुदी १३ भगवतीसूत्र की प्रतिलिपि)
इसी प्रकार आगमिकगच्छीय जयतिलकसूरि, मलयचंद्रसूरि २, जिनप्रभसूरि ३, सिंहदत्तसूरि ४ आदि की कृतियां तो उपलब्ध होती है, परंतु उनके गुरु परंपरा के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं मिलती है।
अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा भी इस गच्छ के अनेक मुनिजनों के नाम तो ज्ञात होते हैं, परंतु उनकी गुरु-परंपरा के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं मिलती। यह बात प्रतिमालेखों की प्रस्तुत तालिका से भी स्पष्ट होती है-
कমউनिমले মिটई 64
Page #892
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्र.
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
संवत्
१४२०
९.
१४२१
५. अ. १४४०
१४२१
१४३८
१४३९
१४५१
१४६२
१४६४
१४७०
तिथि
कार्तिक सुदि ५
रविवार
कार्तिक सुदि ५ रविवार
माघ वदि ११
सोमवार
आषाढ़ सुदि ९
शुक्रवार
पौष वदि
रविवार
- १
पौष वदि - - - - १
ज्येष्ठ सुदि ४ रविवार
वैशाख सुदि ३
माघ सुदि ३
शनिवार
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास.
आचार्य का नाम
अभयसिंहसूर
जयतिलकसूर
जाणंदसूर
श्री तिलकसूरि
अमरसिंहसूर
अमरसिंहसूर
अमरसिंह सूरि
अमरसिंहसूरि
प्रतिमालेख
स्तम्भलेख
देवकुलिका का
लेख
पद्मप्रभ की प्रतिमा
का लेख
आदिनाथ की
प्रतिमा का लेख
पार्श्वनाथ की
प्रतिमा का लेख
पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख
आदिनाथ की पंचतीर्थी प्रतिमा
का लेख
शांतिनाथ की धातु पंचतीर्थी प्रतिमा
का लेख
पार्श्वनाथ की
प्रतिमा का लेख
शांतिनाथ की
चौबीसी प्रतिमा
का लेख
शांतिनाथ की
चौबीसी प्रतिमा
का लेख
For Private
प्रतिष्ठा स्थान
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वीर जिनालय,
जीरावला
जीरावलीतीर्थ
चैत्यदेवकुलिका,
जैन मंदिर थराद
गौड़ी पार्श्वनाथ
जिनालय, गोगा
दरवाजा, बीकानेर
महावीर स्वामी
का मंदिर, ओसिया
नेमिनाथ जिनालय,
मांडवीपोल, खंभात
कोठार पंचतीर्थी,
शत्रुञ्जय
जैन मंदिर,
वणा
मनमोहन पार्श्वनाथ
जिनालय, मीयागाम
चिंतामणि पार्श्वनाथ
जिनालय, बीजापुर
పాదరసాని దరరరర సాహ
जैन देरासर, सौदागर
पोल, अहमदाबाद
सन्दर्भ ग्रंथ
मुनि जयंतविजय
संपा. आबू, भाग-५
लेखाङ्क १२२.
लोढ़ा, दौलतसिंह
संपा. श्री प्रतिमा लेख
संग्रह, लेखाङ्क ३०४ (अ)
नाहटा, अगरचंद
संपा. बीकानेर
जैन लेख संग्रह
लेखाङ्क-१६३६
नाहर, पूरनचंद
संपा. जैन लेख संग्रह
भाग-१, लेखाङ्क ७९५ मुनि बुद्धिसागर
संपा. - जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह, भाग-२
लेखांक ६३१
मुनि कंचनसागर
संपा. शत्रुञ्जयगिरिराज
दर्शन, लेखाङ्क २६५
मुनि विजयधर्मसूरि
संपा. प्राचीन लेख संग्रह
लेखाङ्क ९४
मुनि बुद्धिसागर
पूर्वोक्त, भाग - २ लेखाङ्क २७७
वही, भाग-१
लेखाङ्क ४२२
वही, भाग-१
लेखाङ्क ८२६
Page #893
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०.
११.
१२.
१३.
१६.
१४. १४७६
१८.
१५. १४७८
१९.
१४७१
२०.
१४७२
२१.
१४७५
१७. १४८३
२२.
१४७६
१४८२
१४८४
१४८४
१४८५
१४८५
१४८७
ambambambambi
ज्येष्ठ सुदि ११
चैत्र वदि १
शनिवार
चैत्र वदि ९
रविवार
वैशाख सुदि ३
गुरुवार
फाल्गुन सुदि ३
रविवार
माघ वदि ११
गुरुवार
वैशाख सुदि ३
शुक्रवार
मार्गशीर्ष सुदि ५
रविवार
ज्येष्ठ वदि ......
ज्येष्ठमास.......१
माघ सुदि ५
गुरुवार
• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
चौबीसी जिन
प्रतिमा का लेख
संभवनाथ की
प्रतिमा का लेख
अमरसिंहसूरि
जयानंदसूर
अमरसिंहसूरि
अमरसिंहसूर
जाणंदसूर
अमरसिंहसूरि
जाणंदसूर
जाणंदसूर
हेमराजसूरि
अमरसिंह के पट्टधर श्री ...... रत्नसूरि अमरसिंहसूरि
के पट्टधर
रत्नसूर अमरसिंह
के पट्टधर
हेमरत्नसूर
अमरसिंहसूर
के पट्टधर
हेमरत्नसूर
पद्मप्रभ की
प्रतिमा का लेख
महावीर स्वामी
की चौबीसी
प्रतिमा का लेख
शांतिनाथ की
पंचतीर्थी प्रतिमा
का लेख
शांतिनाथ की
का लेख
श्रेयांसनाथ की
प्रतिमा का लेख
चंद्रप्रभ स्वामी
जैन मंदिर,
थराद
पार्श्वनाथ देरासर,
थराद
अजितनाथ जिनालय,
नदियाड
चोसठिया जी
का मंदिर, नागौर
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सुमतिनाथ मुख्य
बावन जिनालय,
धातु प्रतिमा का लेख
सुमतिनाथ की
पंचतीर्थी प्रतिमा
का लेख
पार्श्वनाथ की
पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख पाटण
सुमतिनाथ की
पंचतीर्थी प्रतिमा
मातर
जैन देरासर,
पाटडी
शांतिनाथ जिनालय,
कडाकोटडी
पार्श्वनाथ देरासर,
सीमंधरस्वामी
का जिनालय,
अहमदाबाद,
पार्श्वनाथ देरासर,
अहमदाबाद,
जैन मंदिर
वणा
चिंतामणि पार्श्वनाथ देरासर, बीजापुर
लोढ़ा, पूर्वोक्त
लेखाङ्क ७५ मुनिबुद्धिसागर
पूर्वोक्त, भाग-१,
सीमंधर स्वामी का
मंदिर, अहमदाबाद
लेखाङ्क ९०१
वही, भाग-२
लेखाङ्क ३९८
विनयसागर
संपा. प्रतिष्ठा लेख संग्रह
लेखाङ्क २१५
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त
भाग-२, लेखाङ्क ४७०
विजयधर्मसूरि
पूर्वोक्त, लेखाङ्क १२० बुद्धिसागर, पूर्वोक्त
, लेखाङ्क ६१३
भाग-२,
चौबीसी प्रतिमा का लेख
सुविधिनाथ की
चौबीसी प्रतिमा
का लेख
पार्श्वनाथ की
चौबीसी प्रतिमा
का लेख
ম{ ८७ porn টটकটটঠটট
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१, लेखाङ्क २१७
वही, भाग-१
लेखाङ्क १२३१
वही, भाग-१
लेखाङ्क ९००
विजयधर्मसूरि
पूर्वोक्त, लेखाङ्क १३५
बुद्धिसागर
पूर्वोक्त, भाग - १
लेखाङ्क ४२३
वही, भाग-१,
लेखाङ्क १२२६
Page #894
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३.
१४८८
नाहटा, अगरचंद पूर्वोक्त, लेखाङ्क७
२४.
१४८८
२५.
१४८९
नाहटा, पूर्वोक्त भाग-२, लेखाङ्क १७९८ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१, लेखाङ्क ४४० बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१, लेखाङ्क १३४६
शुक्रवार
२६.
१४८९
२७.
१४९०
-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्ध - इतिहासज्येष्ठ सुदि १० हेमरत्नसूरि शीतलनाथ की चिंतामणि पार्श्वनाथ शुक्रवार
पंचतीर्थी प्रतिमा जिनालय, बीकानेर
का लेख जयानंदसूरि पार्श्वनाथ की पंचतीर्थी आदिनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख बालकेश्वर, मुंबई, माघ वदि २ अमरसिंहसूरि पार्श्वनाथ की कुंथुनाथ देरासर,
के पट्टधर हेमरत्नसूरि चौबीसी प्रतिमा का लेख बीजापुर तिथिविहीन अमरसिंहसूरि शांतिनाथ की शांतिनाथ देरासर,
के पट्टधर प्रतिमा का लेख शांतिनाथ पोल, हेमरत्नसूरि
अहमदाबाद फाल्गुन...
अमरसिंहसूरि पार्श्वनाथ की गौड़ी पार्श्वनाथ जिनालय, सोमवार के पट्टधर
धातुप्रतिमा राधनपुर हेमरलसूरी का लेख द्वितीय ज्येषठ वदि७ हेमरत्नसूरि कुंथुनाथ की शांतिनाथ देरासर, शनिवार
प्रतिमा का लेख शांतिनाथ पो,
अहमदाबाद ज्येष्ठ वदि.. हेमरत्नसूरि वासुपूज्य की चिंतामणि जिनालय,
प्रतिमा का लेख बीकानेर चैत्रवदि ८ जयाणंदसूरि धर्मनाथ की धातु वीर जिनालय, गुरुवार
पंचतीर्थी प्रतिमा
राधनपुर
का लेख माघ सुदि ५ जयानंदसूरि संभवनाथ की शांतिनाथ जिनालय, गुरुवार के शिष्य श्रीसूरि धातु पंचतीर्थी
राधनपुर प्रतिमा का लेख
मुनि विशालविजय, संपा. राधनपुर प्रतिमालेखसंग्रह, लेखाङ्क ११८ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१,लेखाङ्क १२६९
२८. १४९१ ।
२९. १४९२
नाहटा, अगरचंद पूर्वोक्त, लेखाङ्क७६३ मुनि विशालविजय, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १२२
३०.
१४९३
३१.
१४९४
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १६२ एवं मुनि विशालविजय, पूर्वोक्त, लेखाङ्क १२३ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२, लेखाङ्क १०८६
३२.
१३९६
फाल्गुन वदि२ शुक्रवार
जयानंदसूरि के शिष्य श्रीसूरि
विमलनाथ की चौबीसी का प्रतिमा
लेख
मुनिसिंहसूरि
३४.
नवपल्लव पार्श्वनाथ जिनालय, बोलपीपलो,खंभात आदिनाथ की जिनालय, खेरालु चिंतामणि पार्श्वनाथ जिनालय, राधनपुर गोड़ी पार्श्वनाथ देरासर, बीजापुर
१५००
कार्तिक सुदि५ सोमवार
चैत्रसुदि १३ रविवार माघ वदि३ शुक्रवार
सिंहदत्तसूरि
शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख पार्श्वनाथ की प्रतिमा का लेख शांतिनाथ की प्रतिमा का लेख
वही, भाग-१ लेखाङ्क७५५ मुनि विशालविजय पूर्वोक्त, लेखाङ्क १३१ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१ लेखाङ्क४४८
३५.
१५०३
सिंहदत्तसूरि
Page #895
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६.
१५०३
माघ वदि८ बुधवार
- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासहेमरत्नसरि सुविधिनाथ मुनिसुव्रत जिनालय,
की प्रतिमा का लेख भरुच
३७.
१५०३
हेमरत्नसूरि
३८.
१५०३
हेमरत्नसूरि
माघ सुदि ४ गुरुवार माघ सुदि५ गुरुवार फाल्गुन सुदि १२ गुरुवार
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२ लेखांक ३३८ नाहटा, पूर्वोक्त लेखांक ८७८ मुनि जयंतविजय पूर्वोक्त, लेखांक ७८ मुनि बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१ लेखांक १३१२ वही, भाग-१, लेखांक १३०९
३९.
१५०४
अमरसिंहसूरि के पट्टधर हेमरत्नसूरि जिनचंद्रसूरि
४०
१५०४
४१.
१५०५
हेमरत्नसूरि
_१५०५
हेमरत्नसूरि
माघ सुदि ९ शनिवार माघ सुदि९ शनिवार चैत्र वदि४ बुधवार
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखांक २०८ लोढ़ा, दौलतसिंह पूर्वोक्त, लेखांक १ मुनि कंचनसागर, पूर्वोक्त, लेखांक १७९
४३.
१५०६
शीलरत्नसूरि
कुंथुनाथ की चिंतामणि पार्श्वनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, बीकानेर शीतलनाथ की धातु धर्मनाथ जिनालय, पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख मडार विमलनाथ शांतिनाथ जिनालय, की प्रतिमा . शांतिनाथ पोल का लेख
अहमदाबाद पार्श्वनाथ
शांतिनाथ जिनालय, की प्रतिमा शांतिनाथ पोल, कालेख . अहमदाबाद शांतिनाथ की ओसवालों का धातु प्रतिमा का लेख मंदिर, पूना सुमतिनाथ की महावीर स्वामी प्रतिमा का लेख का मंदिर, थराद वासुपूज्य स्वामी देहरी नं. ९७, की पंचतीर्थी शत्रुञ्जय प्रतिमा का लेख संभवनाथ की मनमोहन पार्श्वनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, मीयागाम शांतिनाथ की वासुपूज्यस्वामी पंचतीर्थी प्रतिमा का जिनालय, कालेख बीकानेर सुविधिनाथ हीरालाल गुलाबसिंह की धातु की का घरदेसर, चौबीसी प्रतिमा चितपुर रोड, का लेख
कलकत्ता सुविधिनाथ यति पन्नालाल, की धातु की का घर देरासर, चौबीसी प्रतिमा
कलकत्ता का लेख मुनि सुव्रतस्वामी नवघरे का मंदिर की प्रतिमा का लेख चेलपुरी, दिल्ली
४४.
१५०६
चैत्र वदि५ गुरुवार पौष वदि२ बुधवार
हर्षतिलकसूरि सिंहदत्तसूरि हेमरत्नसूरि
४५.
१५०६
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२,लेखांक २८२ नाहटा, अगरचंद पूर्वोक्त, लेखांक १३२६ नाहर, पूरनचंद, पूर्वोक्त, भाग-२ लेखांक १००४
४६.
१५०६
तिथिविहीन
अमररत्नसूरि के पट्टधर हेमरत्नसूरि
४७.
१५०६
तिथिविहीन
अमररत्नसूरि हेमरलसूरि
वही, भाग-१ लेखांक ३९१
४८. १५०७
वैशाख वदि६ गुरुवार
शीलरत्नसूरि
वही, भाग-१ लेखांक ४७६
Page #896
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९.
१५०७
वैशाख वदि६ गुरुवार माघ सुदि५ शुक्रवार
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१,लेखांक ९७ विनयसागर पूर्वोक्त, लेखांक ४२०
५०.
१५०७
१५०७
५२.
१५०७
५३.
१५०८
५४.
१५०८
माघ सुदि १३ शुक्रवार वैशाख सुदि६ गुरुवार चैत्र सुदि १३ रविवार
चैत्र सुदि १३ रविवार
चैत्र सुदि १३ रविवार वैशाख वदि ११ रविवार वैशाख वदि १२ रविवार
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासशीलरत्नसूरि शांतिनाथ की जैन मंदिर,
प्रतिमा का लेख वडावली सिंहदत्तसूरि आदिनाथ की पद्मप्रभ जिनालय,
पंचतीर्थी प्रतिमा घाट, जयपुर
कालेख हेमरत्नसूरि अभिनंदन स्वामी शांतिनाथ, जिनालय,
की प्रतिमा का लेख दंतालवाडो,खंभात शीलरत्नसूरि शांतिनाथ की जैन मंदिर
प्रतिमा का लेख वडावली सिंहदत्तसूरि चंद्रप्रभ की पार्श्वनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख भरुच सिंहदत्तसूरि विमलनाथ की शांतिनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख चौकसी पोल,खंभात सिंहदत्तसूरि शांतिनाथ की चिंतामणि पार्श्वनाथ
प्रतिमा का लेख जिनालय,शकोपुर,खंभात हर्षतिलकसूरि श्रेयांसनाथ की वीर जिनालय,
प्रतिमा का लेख भरुच जिनरत्नसूरि शांतिनाथ की शांतिनाथ देरासर, प्रतिमा का लेख शांतिनाथ पोल,
अहमदाबाद देवरत्नसूरि शांतिनाथ की घर देरासर,
चौबीसी प्रतिमा बड़ोदरा
का लेख देवरत्नसूरि कुंथुनाथ की मुनिसुव्रत जिनालय,
चौबीसी कालेख भरुच दे...भिः
आदिनाथ की संग्रामसोनी के मंदिर चौबीसी कालेख की देवकुलिका, उज्जयन्त
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक ६८२ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१, लेखांक ९७ वही, भाग-२, लेखांक ३१५ वही, भाग-२, लेखांक ८४२ वही, भाग-२ लेखांक ९०९ वही, भाग-२, लेखांक ३४२ वही, भाग-१ लेखांक १३४९
५५.
१५०८
५६.
१५०८
५७
१५०८
५८.
१५०८
आषाढ सुदि २ रविवार
वही, भाग-२ लेखांक २२०
५९. १५०९ वैशाख वदि५
शनिवार ५९. (अ)१५(०?)९ वैशाख वदि ११
शुक्रवार
वही, भाग-२ लेखांक ३३१ . ढाकी, एम.ए.पं. बेचरदासदोशी स्मृतिग्रन्थ, पृ. १८८ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२,लेखांक ९८८
६०.
१५१०
हर्षतिलकसूरि
फाल्गुन वदि३ शुक्रवार
अजितनाथ की प्रतिमाका लेख
शांतिनाथ जिनालय, माणेक चौक, खंभात धर्मनाथ जिनालय, बड़ा बाजार, कलकत्ता
६१.
१५१०
जिनरत्नसरि
फाल्गुन वदि३ शुक्रवार
आदिनाथ की. प्रतिमा का लेख
नाहर, पूरनचंद, पूर्वोक्त, भाग-१ लेखांक १००
Page #897
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२.
१५१०
फाल्गुन वदि ३ शुक्रवार फाल्गुन वदि३ शुक्रवार
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२,लेखांक ६१९ विजयधर्मसूरि पूर्वोक्त, लेखांक २६०
६३.
१५१०
१५११
आषाढ़ सुदि६ शुक्रवार आषाढ़ सुदि६ शुक्रवार
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१,लेखांक ७१८ वही, भाग-१ लेखांक १२५०
१५११
६६.
१५११
आषाढ़ सुदि६ शुक्रवार माघ सुदि १ शुक्रवार
६७.
१५११
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहाससिंहदत्तसूरि सुमतिनाथ की
आदिनाथ जिनालय, प्रतिमा का लेख मांडवीपोल,खंभात सिंहदत्तसूरि विमलनाथ की गौड़ीजी भंडार,
धातुप्रतिमा उदयपुर
का लेख देवरत्नसूरि वासुपूज्य की जैन मंदिर,
प्रतिमा का लेख कालोल देवरत्नसूरि सुमतिनाथ की शांतिनाथ देरासर,
पंचतीर्थी प्रतिमा अहमदाबाद
का लेख देवगुप्तसूरि शांतिनाथ की सीमंधर स्वामी
प्रतिमाका लेख का जिनालय, अहमदाबाद सिंहदत्तसूरि शांतिनाथ की शांतिनाथ जिनालय,
पंचतीर्थी प्रतिमा राधनपुर
का लेख सिंहदत्तसूरि शांतिनाथ की संभवनाथ देरासर,
चौबीसी प्रतिमा का लेख कड़ी हेमरत्नसूरि नमिनाथ की पंचतीर्थी,
प्रतिमा का लेख . शत्रुञ्जय हेमरत्नसूरि सुमतिनाथ की जैन मंदिर,
प्रतिमा का लेख बडावली हेमरलसूरि सुमतिनाथ की वीर जिनालय,
प्रतिमा का लेख अहमदाबाद हेमरत्नसूरि कुंथुनाथ की जैन मंदिर,
प्रतिमा का लेख बडावली हेमरत्नसूरि कुंथुनाथ की गोपों का
धातु प्रतिमा उपाश्रय, बाड़मेर
का लेख हेमरत्नसूरि कुन्थुनाथ की चंद्रप्रभ स्वामी चौबीसी प्रतिमा का लेख का जिनालय,
जैसलमेर
६८.
१५१२
माघ सुदि १०
सातिनाथको
बुधवार
६९.
१५१२
७०.
१५१२
७१.
१५१२
ज्येष्ठ वदि ५ सोमवार ज्येष्ठ सुदि १० रविवार वैशाख वदि १० गुरुवार वैशाख वदि १० गुरुवार वैशाख सुदि५
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१, लेखांक ११६० मुनि विशालविजय पूर्वोक्त लेखांक १७० बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१, लेखांक ७२३ मुनि कंचनसागर पूर्वोक्त, लेखांक ४३९ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१, लेखांक ९५ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१,लेखांक ९५९ वही, भाग-१ लेखांक ९४ नाहर, पूरनचंद पूर्वोक्त, भाग-१ लेखांक ७४१ वही,भाग-३ लेखांक २१६५ एवं नाहटा, अगरचन्द पूर्वोक्त, लेखांक २७७५
७२.
१५१२
७३.
१५१२
७४.
१५१२
वैशाख सुदि५ शुक्रवार
నారుపోరు సాగుతారురురురురురువారం వారంరురురురురువారసాగరం
Page #898
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५.
७६.
७७.
८०.
७८. १५१२
८१.
७९. १५१३
८२.
८३.
८४.
८५.
८६.
८७.
१५१२
१५१२
८९.
१५१२
९०.
१५१३
१५१३
१५१३
१५१५
१५१५
१५१५
१५१५
८८. १५१५
१५१५
१५१६
१५१६
Emsis
शीलरत्नसूरि
आदिरत्नसूर
ज्येष्ठ सुदि १०
रविवार
फाल्गुन वदि ३
शुक्रवार
चैत्र सुदि ५
बुधवार
ज्येष्ठ सुदि ३
गुरुवार
आषाढ़ सुदि १०
गुरुवार
माघ वदि २
शुक्रवार
वैशाख सुदि १
गुरुवार
वैशाख सुदि १०
गुरुवार
कार्तिक वदि १
रविवार
कार्त्तिक वदि १
रविवार
माघ सुदि ५
शनिवार
फाल्गुन सुदि ८
शनिवार
चैत्र वदि ४
गुरुवार
वैशाख सुदि ३
• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
सूर
नमिनाथ की
चौबीसी का लेख
जैन मंदिर,
आदिनाथ की
प्रतिमा का लेख
रत्नसूर
हेमरत्नसूरि
आणंदप्रभसूर
देवरत्नसूर
देवरत्नसूर
साधुरत्नसूरि
हेमरत्नसूरि
हेमरत्नसूर
देवरत्नसूरि
देवरत्नसूरि
पादप्रभसूरि
हेमरत्नसूर
आणंदप्रभसूर
हेमरत्नसूर
वादनवाड़ा,
सुमतिनाथ की
प्रतिमा का लेख
सुमतिनाथ की
प्रतिमा का लेख
कुंथुनाथ की धातु
की प्रतिमा का लेख
श्रेयांसनाथ की धातु
प्रतिमा का लेख
श्रेयांसनाथ की
प्रतिमा का लेख
अजितनाथ की
प्रतिमा का लेख
For Private
शांतिनाथ देरासर,
शांतिनाथ पोल, अहमदाबाद जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ६
अंक १०, पृष्ठ ३७२-७४, लेखांक ८
जैन मंदिर,
बडावली
सुमतिनाथ जिनालय,
चोलापोल, खंभात
संभवनाथ की
सीमंधरस्वामी का
प्रतिमा का लेख
देरासर, अहमदाबाद
प्रतिमा का लेख
संभवनाथ की पंचतीर्थी आदिनाथ जिनालय, करमदी पद्मप्रभजिनालय,
कडाकोटडी, खंभात
सीमंधरस्वामी का
जिनालय, अहमदाबाद
गौड़ी पार्श्वनाथ
जिनालय, पालिताना
शांतिनाथ जिनालय,
खाडीवकाडो, खेड़ा,
Personal Use Only
जीरावला पार्श्वनाथ
देरासर, घोघा
शांतिनाथ जिनालय,
रामगाम
नवपल्लव पार्श्वनाथ
जिनालय, बोलपीपलो, खंभात
चिंतामणि पार्श्वनाथ
जिनालय चौकसीपोल,
खंभात
वासुपूज्य की प्रतिमा
का लेख
सुविधिनाथ की
प्रतिमा का लेख
शांतिनाथ की
प्रतिमा का लेख
पार्श्वनाथ की
पंचतीर्थी प्रतिमा
का लेख
चंद्रप्रभस्वामी की
प्रतिमा का लेख
विमलनाथ की
पंचतीर्थी प्रतिमा का लेखबड़ोदरा
[ ९२ ট
गुजरात नेमिनाथ जिनालय,
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१, लेखांक १३२१
भोंय पाडो, खंभात
आदिनाथ जिनालय,
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१, लेखांक ९५
वही, भाग-२ लेखांक ६९५
विजयधर्मसूरि
पूर्वोक्त, लेखांक २८७
वही, लेखांक २९२
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२, लेखांक १०९८ वही, भाग-२,
लेखांक ८००
वही, भाग-१, लेखांक ११६३
विनयसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ५३१
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त,
भाग- २, लेखांक ५९३
वही,
लेखांक १२१२ विजयधर्मसूरि,
पूर्वोक्त, लेखांक ६६०
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२, लेखांक ४०७
वही, भाग-२
लेखांक ८८९
वही, भाग-२
लेखांक १२५
SAGRONO
Page #899
--------------------------------------------------------------------------
________________
९१.
१५१
साति
वही,
९२.
१५१६
९३.
१५१६
९४.
१५१६
ज्येष्ठ सुदि३ गुरुवार आषाढ़ सुदि३ रविवार आषाढ़ सुदि९ शुक्रवार कार्तिक सुदि १५ शनिवार वैशाख सुदि ३ सोमवार वैशाख सुदि १२ सोमवार माघ सुदि५ शुक्रवार
-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध इतिहासदेवरत्नसूरि वासुपूज्य की सुमतिनाथ मुख्यबावन
प्रतिमा का लेख जिनालय, मातर देवरत्नसूरि श्रेयांसनाथ की पार्श्वनाथ जिनालय
प्रतिमा का लेख नाहटों की गवाड़, बीकानेर देवरत्नसूरि नमिनाथ की चांदी सुपार्श्वनाथ जिनालय,
की सपरिकर प्रतिमा का लेख । सिंहदत्तसूरि वासुपूज्य स्वामी की सुव्रतनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख खारवाडो,खंभात हेमरलसूरि शीलनाथ की शांतिनाथ जिनालय,
पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख लखनऊ आणंदप्रभसूरि आदिनाथ की प्रतिमा पार्श्वनाथ देरासर,
का लेख अहमदाबाद आणंदप्रभसूरि कुंथुनाथ की प्रतिमा सुविधिनाथ जिनालय, कालेख
घोघा, काठियावाड़
९५.
१५१७
९६.
१५१७
भाग-२,लेखांक ४९९ नाहटा, अगरचंद, पूर्वोक्त, लेखांक १५१३ वही, लेखांक १७६१ नाहटों की गवाड़, बीकानेर बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक १०३२ नाहर, पूर्वोक्त, भाग-२ लेखांक १५०५ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१,लेखांक १०८९ नाहर, पूरनचंद, पूर्वोक्त, भाग-२ लेखांक १७६९ वही, भाग-१ लेखांक ५५७ एवं विनयासागर, पूर्वोक्त लेखांक ५७२ नाहटा, अगरंचद पूर्वोक्त, लेखांक २४०८ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१,लेखांक १२८४
९७.
१५१७
९८.
१५१७
देवरत्नसूरि
माघ सुदि५ शुक्रवार
धर्मनाथ की प्रतिमा कालेख
संभवनाथ जिनालय, अजमेर
९९. १५१७
देवरत्नसूरि
माघ सुदि५ शुक्रवार माघ सुदि५ शुक्रवार
१००. १५१७
महेंद्रसूरि
१०१. १५१७
पूर्णदेवसूरि
वही,
माघ सुदि५ शुक्रवार ज्येष्ठसुदि २ शनिवार
१०२. १५१८
देवरत्नसूरि
विमलनाथ की प्रतिमा शांतिनाथ जिनालय, का लेख
चुरु, राजस्थान आदिनाथ की प्रतिमा शांतिनाथ जिनालय, का लेख
शांतिनाथ पोल,
अहमदाबाद मुनिसुव्रत की धर्मनाथ देरासर, प्रतिमा का लेख अहमदाबाद संभवनाथ की. महावीर जिनालय, चौबीसी प्रतिमा चौकसीपोल,खंभात कालेख पद्मप्रभ स्वामी की पार्श्वनाथ जिनालय, पंचतीर्थी प्रतिमा राधनपुर का लेख धर्मनाथ की पंचतीर्थी मोतीसा की ट्रक, प्रतिमा का लेख शत्रुजय
भाग-१, लेखांक ११३१ वही, भाग-२ लेखांक ८२७
१०३. १५१८
हेमरलसूरि
माघ सुदि५ गुरुवार
मुनिविशालविजय, पूर्वोक्त, लेखांक २१६
१०४. १५१९
देवरत्नसूरि
ज्येष्ठ वदि १ गुरुवार
मुनि कंचनसागर पूर्वोक्त, लेखांक ४६२
Page #900
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०५. १५१९
वैशाख वदि ११
शुक्रवार
१०६. १५१९
१०७. १५१९
१०८. १५१९
वैशाख सुदि३ गुरुवार वैशाख सुदि ३ गुरुवार माघ वदि९ शनिवार माघ सुदि३ सोमवार चैत्र वदि८ शुक्रवार वैशाख वदि७ शनिवार
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासहेमरत्नसूरि धर्मनाथ की पंचतीर्थी नवपल्लव पार्श्वनाथ
प्रतिमा का लेख देरासर, खंभात हेमरत्नसूरि पद्मप्रभास्वामी की पार्श्वनाथ जिनालय,
पंचतीर्थी का लेख अजार हेमरत्नसूरि कुन्थुनाथ की पंचतीर्थी चंद्रप्रभ जिनालय,
प्रतिमा का लेख जैसलमेर हेमरत्नसूरि अजितनाथ की कुन्थुनाथ जिनालय,
चौबीसी का लेख घड़ियाली पोल, बड़ोदरा हेमरत्नसूरि वासुपूज्य की धातु शांतिनाथ देरासर,
प्रतिमा का लेख जामनगर शीतलनाथ की धातु शांतिनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख वीरमगाम आणंदप्रभसूरि मुनि सुव्रतस्वामी की गौड़ी पार्श्वनाथ
धातु पंचतीर्थी प्रतिमाका लेख
१०९. १५१९
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक १०८९ नाहर, पूरनचंद, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक १७२१ वही, भाग-३ लेखांक २३४४ - बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२, लेखांक १६० विजयधर्मसूरि पूर्वोक्त, लेखांक ३३० विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त लेखांक ३४५ मुनि विशालविजय, देरासर, राधनपुर पूर्वोक्त, लेखांक २३१ बुद्धिसागर पूर्वोक्त भाग-२, लेखांक ८२४ वही, भाग-२, लेखांक ६६६
११०. १५२०
१११. १५२०
खिवाद७
११२. १५२०
११३. १५२०
१५२१
११५. १५२३
वैशाख वदि७ शनिवार आषाढ़ सुदि९ गुरुवार आषाढ़ सुदि १ गुरुवार कार्तिक वदि ५ सोमवार वैशाख सुदि १३ गुरुवार फाल्गुन वदि ४ सोमवार वैशाख सुदि३ सोमवार
आणंदप्रभसूरि संभवनाथ की प्रतिमा मनमोहन पार्श्वनाथ के शिष्य गुणप्रभसूरि का लेख जिनालय, चौकसीपोल, खंभात हेमरत्नसूरि मुनिसुव्रत की चौबीसी कुन्थुनाथ जिनालय, कालेख
खंभात हेमरत्नसूरि शीतलनाथ की चिंतामणि जिनालय,
पंचतीर्थी प्रतिमा का लेखबीकानेर मुनिरत्नसूरि शांतिनाथ की . आदिनाथ जिनालय,
पंचतीर्थी प्रतिमा का लेखमाणेक चौक,खंभात सिंहदत्तसूरि आदिनाथ की प्रतिमा बावन जिनालय, का लेख
पेथापुर देवरत्नसूरि कुन्थुनाथ की धातु जील्लावाला देरासर,
प्रतिमा का लेख घोघा देवरत्नसूरि कुन्थुनाथ की धातु- चिंतामणि पार्श्वनाथ
पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख
११६. १५२३
११७. १५२३
नाहटा, अगरचंद-पूर्वोक्त लेखांक १०२२ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग- २,लेखांक १००५ वही, भाग-१,लेखांक ७१३ विजयधर्मसूरि पूर्वोक्त, लेखांक ३७० मुनि जयंतविजय, देरासर, लाजग्राम पूर्वोक्त, भाग-५, लेखांक ४७७ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१,लेखांक ७४ विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक ६३९
११८. १५२४
११९. १५२४
अमररत्नसरि
कातिकवाद१३ शनिवार वैशाख सुदि २ गुरुवार
सुमतिनाथ की जैन मंदिर, पंचतीर्थी प्रतिमा का लेख गांभू संभवनाथ की चौबीसी चिंतामणि पार्श्वनाथ प्रतिमा का लेख जिनालय, किशनगढ़
१२०. १५२४
अमररत्नसूरि
Page #901
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२१. १५२५
१२२. १५२५
पौष वदि५ सोमवार माघ सुदि १३ बुधवार माघ सुदि १३ बुधवार
का लेख
१२३. १५२५
-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासदेवरत्नसूरि पार्श्वनाथ की धातु जैन देरासर, लींबडी
प्रतिमा का लेख देवरत्नसूरि सुविधिनाथ की प्रतिमा पार्श्वनाथ जिनालय,
माणेक चौक, खंभात जयचंद्रसूरि के अभिनंदनस्वामी की घेर देरासर, गामदेवी, पट्टधर देवरत्नसूरि चौबीसी का लेख वाचागांधी रोड, मुंबई अमररत्नसूरि कुन्थुनाथ की धातु की आदिनाथ जिनालय,
पंचतीर्थी प्रतिमा का लेखजामनगर आनन्दप्रभसूरि धर्मनाथ की धातु नवखंडा पार्श्वनाथ
प्रतिमा का लेख देरासर,घोघा देवरत्नसरि पद्मप्रभ की प्रतिमा सुमतिनाथ मुख्यबावन कालेख
जिनालय, मातर अमररत्नसूरि पार्श्वनाथ की धातु सुविधिनाथ देरासर,
की प्रतिमा का-लेख घोघा सिंहदत्तसूरि सुमतिनाथ की धातु राधनपुर के पट्टधर
की पंचतीर्थी प्रतिमा सोमदेवसूरि कालेख
विजयधर्मसूरि पूर्वोक्त, लेखांक ३८८ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक ९३७ नाहर, पूर्वोक्त भाग-२, लेखांक १८०० विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त लेखांक ४०३ वही, लेखांक ४०९
१२४. १५२५
१२५. १५२७
वैशाख वदि६ शुक्रवार वैशाख वदि १०
१२६. १५२७
१२७. १५२७
१२८. १५२८
आषाढ़ सुदि५ रविवार
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक ४६८ विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त लेखांक ४०५ मुनि विशाल विजय पूर्वोक्त, लेखांक २६२ एवं मुनिजयंतविजय, आबू, भाग-५, लेखांक ५१० विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखांक ४१३
१२९. १५२८
अमररत्नसूरि
पौष सुदि३ सोमवार
१३०. १५२९
देवरत्नसूरि
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक ९४७
वैशाख सुदि५ शुक्रवार वैशाख सुदि५ शुक्रवार
१३१. १५२९
देवरत्नसूरि
वही,
भाग-२,लेखांक ६४३
धर्मनाथ की धातु की आदिनाथ जिनालय, पंचतीर्थी प्रतिमा जामनगर का लेख अभिनंदस्वामी की पार्श्वनाथ जिनालय, प्रतिमा का लेख माणेक चौक, खंभात पार्श्वनाथ की रत्नमय कुन्थुनाथ जिनालय, प्रतिमा के परिकर का मांडवीपोल, लेख
खंभात संभवनाथ की पंचतीर्थी संभवनाथ जिनालय, प्रतिमा का लेख मांडवीपोल,खंभात पद्मप्रभ की पंचतीर्थी जैन मंदिर, थराद प्रतिमा का लेख मुनिसुव्रतस्वामी की विमलनाथ जिनालय, प्रतिमा का लेख (कोचरों में) बीकानेर कुन्थुनाथ की प्रतिमा आदिनाथ जिनालय, कालेख
माणेक चौक,खंभात
१३२. १५२९
अमररत्नसूरि
१५२९
अमररत्नसूरि
ज्येष्ठ वदि १ शुक्रवार ज्येष्ठ वदि१ शुक्रवार माघ वदि२ शुक्रवार माघ सुदि १० गुरुवार
वही, भाग-२ लेखांक ११४२ लोढा, दौलतसिंह पूर्वोक्त, लेखांक ८२ नाहटा, अगरचन्द, पूर्वोक्त, लेखांक १५८२ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक १०१०
१३४. १५३०
अमररत्नसूरि
१३५. १५३०
देवरत्नसूरि
Page #902
--------------------------------------------------------------------------
________________
– यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास - १३६. १५३१ माघ सुदि५ अमररत्नसूरि चंद्रप्रभस्वामी की मुनिसुव्रत देरासर, वही,
पंचतीर्थी प्रतिमा का लेखडभोई
भाग-१,लेखांक ६५ १३७. १५३१
माघ वदि ८ देवरत्नसूरि आदिनाथ की प्रतिमा जैन मंदिर, ऊंझा बुद्धिसागर, पूर्वोक्त सोमवार कालेख ,
भाग-१,लेखांक १८२ १५३१ माघ वदि८ देवरत्नसूरि संभवनाथ की चौबीसी चिंतामणि पार्श्वनाथ वही, भाग-२ सोमवार प्रतिमा का लेख जिनालय,खंभात
लेखांक १११९ १३९. १५३१ माघ वदि ८ देवरत्नसूरि सुविधिनाथ की सुमतिनाथ जिनालय, नाहर, पूरनचमंद सोमवार
पालितान
पूर्वोक्त, भाग-२, लेखांक १७५९
एवं विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखांक ४३५ १४०. १५३१ माघ वदि८ देवरत्नसूरि वासु पूज्य स्वामी की चिंतामणि पार्श्वनाथ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त सोमवार प्रतिमा का लेख देरासर, कड़ी
भाग-१,लेखांक ७२२ वैशाख...। अमररत्नसूरि अभिनंदस्वामी की आदिनाथ जिनालय, विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, धातु प्रतिमा का लेख जामनगर
लेखांक ४४६ १४२. १५३२ वैशाख....। अमररत्नसूरि शांतिनाथ की प्रतिमा बावन जिनालय, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त
का लेख पेथापुर
भाग-१,लेखांक ७१२ १४३. १५३२ ज्येष्ठ वदि १३ अमररत्नसूरि महावीर स्वामी की आदिनाथ जिनालय, मुनिविशाल विजय,
धातु-पंचतीर्थी प्रतिमा राधनपुर
पूर्वोक्त, लेखांक २८१
का लेख १४४. १५३२ वैशाख सुदि३ अमररत्नसूरि पार्श्वनाथ की प्रतिमा सुमतिनाथ जिनालय, विनय सागर, पूर्वोक्त
का लेख नागौर
लेखांक ७४५ एवं नाहर, पूरनचंद,
पूर्वोक्त, भाग-२,लेखांक १३२३ । १४५. १५३२ वैशाख...। अमररत्नसूरि श्रेयांसनाथ की पंचतीर्थी धर्मनाथ देरासर, डभोई बुद्धिसागर, पूर्वोक्त
तीर्थ प्रतिमा का लेख
भाग-१,लेखांक ५७ माघ सुदि५ देवरत्नसूरि संभवनाथ की प्रतिमा पार्श्वनाथ जिनालय, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त रविवार का लेख
भाग-२,लेखांक ३०८ १४७. १४३५ माघ सुदि५ आनन्दप्रभसूरि वासुपूज्यस्वामी की जैन देरासर,
वही, भाग-१ शुक्रवार
प्रतिमा का लेख गेरीता
लेखांक ६७१ वैशाख सुदि६ अमररत्नसूरि वासुपूज्यस्वामी की जैन मंदिर,
वही, भाग-१ सोमवार प्रतिमा का लेख चाणस्मा
लेखांक ११४ १४९. १५३५ आषाढ़ सुदि २ अमररत्नसूरि कुंथुनाथ की प्रतिमा जैन मंदिर
वही, भाग-१ मंगलवार
का लेख गेरीता
लेखांक ६६६ १५०. १५३६ वैशाख सुदि३ अमररत्नसूरि विमलनाथ की प्रतिमा जैन मंदिर, पाडीव नाहर, पूरनचंद गुरुवार
कालेख सिरोही राजस्थान पूर्वोक्त भाग-२
लेखांक २०९१ andidratamdardarsanilaodsaradirdroidronidaold-[ ९६ amirsidamirsidiardiasarariandiardiasardarodia
१५३३
खंभात
१५३५
Page #903
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५१. १५३६
- चन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासपौष वदि...गुरुवार सिंहदत्तसूरि नमिनाथ की धातु बड़ा मंदिर, सीहोर
प्रतिमा का लेख
१५२. १५३६
पं.उदयरत्न
पंचतीर्थी प्रतिमा
जैन मंदिर, बड़ावली
१५३. १५३७
नाहर, पूरनचंद पूर्वोक्त, भाग-२ लेखांक १७३७ एवं विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त, लेखांक ४६७ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१, लेखांक ९८ मुनि कंचनसागर पूर्वोक्त, लेखांक २३५ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक १५६ विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त लेखांक ४८२ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२, लेखांक ९५ वही, भाग-२ लेखांक १३६
१५४
माघ सुदि५ शुक्रवार पौष सुदि९ रविवार माघ सुदि५ शुक्रवार चैत्र वदि८ मंगलवार वैशाख सुदि १ गुरुवार वैशाख सुदि २ गुरुवार
१५३७
१५५. १५४२
१५४२
१५७. १५४२
१५८. १५४२
१५९. १५४३
वैशाख सुदि १० गुरुवार वैशाख वदि १० शुक्रवार वैशाख वदि१० शुक्रवार फाल्गुन सुदि २ शुक्रवार
सिंहदत्तसूरि के शांतिनाथ की प्रतिमा कोठार पंचतीर्थी-२ पट्टधर सोमदेवसूरि का लेख
शत्रुञ्जय सिंहदत्तसूरि सुमतिनाथ की प्रतिमा चंद्रप्रभ जिनालय,
का लेख
जानीशेरी, बड़ोदरा आनन्दप्रभसूरि विमलनाथ की धातु शांतिनाथ जिनालय, के पट्टधर मुनिरलसूरि प्रतिमा का लेख घोघा जिनचंद्रसूरि अजितनाथ की प्रतिमा आदिनाथ जिनालय, का लेख
बड़ोदरा श्रीसूरि
विमलनाथ की प्रतिमा दादा पार्श्वनाथ का लेख जिनालय, नरसिंहजी
की पोल, बड़ोदरा जिनचंद्रसूरि आदिनाथ की प्रतिमा विमलनाथ जिनालय, कालेख
चौकसीपोल,खंभात जिनचंद्रसूरि सुविधिनाथ की शांतिनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख सेठ वाडो,खेड़ा जिनचंद्रसूरि शीतलनाथ की सुमतिनाथ मुख्य बावन
प्रतिमा का लेख जिनालय, मातर विवेकरत्नसरि विमलनाथ की जैन देरासर, सौदागर
प्रतिमा का लेख पोल, अहमदाबाद जिनचंद्रसूरि पार्श्वनाथ की प्रतिमा घर देरासर, बड़ोदरा
कालेख विवेकरत्नसूरि स्तम्भ लेख मुनि सुव्रत जिनालय,
भरुच विवेक रत्नसूरि चंद्रप्रभा स्वामी की वीर जिनालय गीपटी
प्रतिमा का लेख खंभात अमररत्नसूरि वासु पूज्य स्वामी की महावीर जिनालय,
प्रतिमा का लेख डीसा
१६०, १५४३
१५४४
१६२. १५४४
वही, भाग-२ लेखांक ८०६ वही, भाग-२ लेखांक ४३२ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२, लेखांक ५१६ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१, लेखांक ८२४ वही, भाग-१, लेखांक २४९ वही, भाग-२ लेखांक ३२१ वही, भाग-२ लेखांक७०६ नाहर, पूरनचंद, पूर्वोक्त, भाग-२ लेखांक २७०६
१६३. १५४६
माघ वदि १३
१६४. १५४६
माघ सुदि १३
१६५. १५४७
वैशाख सुदि५ गुरुवार
Page #904
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________________
१६६. १५४७
१६७. १५४७
वैशाख वदि६ शुक्रवार पौष वदि६ रविवार पौष वदि १० बुधवार
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक ८५ मुनि विशालविजय, पूर्वोक्त, लेखांक ३०६ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१,लेखांक २२८
१६८. १५४७
१५४७
१५४
माघ सुदि १३ रविवार वैशाख सुदि २ शनिवार वैशाख सुदि३
यिका
१७१. १५४८
१७२. १५४९
सं
१७३. १५५२
आषाढ़ सुदि ३ सोमवार माघ वदि८ शनिवार वैशाख सुदि ३
- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासविवेक रत्नसरि सुविधिनाथ की मनमोहन पार्श्वनाथ
प्रतिमा का लेख जिनालय, बड़ोदरा अमररत्नसूरि सुविधिनाथ की धातु वीर जिनालय,
प्रतिमा का लेख राधनपुर अमररत्नसूरि सुविधिनाथ की धातु पार्श्वनाथ देरासर,
की पंचतीर्थी प्रतिमा पाटन
का लेख अमररत्नसूरि शीतलनाथ की धातु बड़ा मंदिर, के पट्टधर श्रीसूरि की प्रतिमा का लेख कातर ग्राम जिनचंद्रसूरि शीतलनाथ की शांतिनाथ जिनालय,
प्रतिमाका लेख चौकसीपोल खंभात, सोमरत्नसूरि श्रेयांसनाथ की प्रतापसिंहजी का
प्रतिमा का लेख मंदिर, रामघाट, वाराणसी विवेकरत्नसूरि अजितनाथ की संभवनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख बोलपीपलो,खंभात सोमरत्नसूरि सुमतिनाथ की पंचतीर्थी मनमोहन पार्श्वनाथ
प्रतिमा का लेख जिनालय, मीयागाम सोमरत्नसूरि सुमतिनाथ की चन्द्रप्रभ जिनालय
प्रतिभा का लेख भोपरापाडो,खंभात विवेकरत्नसूरि विमलनाथ की सुमतिनाथ मुख्य बावन
प्रतिमा का लेख जिनालय,मातर अमररत्नसूरि के मुनिसुव्रत की धातु बृहखरत गच्छ पट्टधर सोमरत्नसूरि की प्रतिमा का लेख का उपाश्रय, जैसलमेर सोमरत्नसरि मुनिसुव्रत की पार्श्वनाथ जिनालय,
चौबीसी प्रतिमा का लेख दाहोद | विवेकरत्नसूरि अभिनन्दनस्वामी की शांतिनाथ जिनालय,
चौबीसी प्रतिमा का लेख पादरा विवेकरत्नसूरि श्रेयांसनाथ की धातु जैनमंदिर, राधनपुर
की चौबीसी प्रतिमा
कालेख भावसागरसूरि शीतलनाथ की सीमंधरस्वामी का
प्रतिमा का लेख देरासर, अहमदाबाद आणंदसूरि शांतिनाथ की प्रतिमा शांतिनाथ जिनालय, कालेख
बीजापुर
१७४, १५५२
विजयधर्मसूरि, पूर्वोक्त लेखांक ४९६ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक ८३४ नाहर, पूरनचंद-पूर्वोक्त, भाग-१,लेखांक ४२३ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२, लेखांक ११३९ वही, भाग-२ लेखांक २७६ वही भाग-२ लेखांक - ८९४ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक ४६६ नाहर, पूर्वोक्त, लेखांक २४८५ विनयसागर, पूर्वोक्त लेखांक ८८७ बुद्धिसागर,पूर्वोक्त लेखांक८ मुनि विशालविजय, पूर्वोक्त, लेखांक ३२१
१७५. १५५४
फाल्गुन सुदि...।
१७६. १५५५
१७७. १५५६
ज्येष्ठ सुदि ९ रविवार वैशाख सुदि १३ रविवार वैशाख सुदि२
१७४
१५५९
१७९. १५६०
वैशाख सुदि३ शुक्रवार
१८०. १५६०
वैशाख सुदि३ बुधवार फाल्गुन वदि५ रविवार
लख
बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१, लेखांक १२३६ वही, भाग-१ लेखांक ४३९
१८१. १५६४
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१८२. १५६६
१८३. १५६७
माघ सुदि५ सोमवार वैशाख सुदि३ बुधवार वैशाख सुदि९ शुक्रवार
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - इतिहासशिवकुमारसूरि वासुपूज्य की प्रतिमा वीर जिनालय, गीपटी का लेख
खंभात सोमरत्नसूरि मुनिसुव्रत की प्रतिमा पद्मप्रभ जिनालय,
का लेख सोमरत्नसूरि आदिनाथ की धातु आदिनाथ जिनालय,
की चौबीसी प्रतिमा का लेख
१८४. १५६९
१८५. १५७०
१८६. १५७१
पौषवदि५ रविवार
चैत्रवदि २ गुरुवार
चैत्र वदि २ गुरुवार
१८७. १५७१
१८८. १५७१
१८९. १५७३
१९०. १५७३
वही, भाग-२ लेखांक ७१० वही, भाग-१, लेखांक ६२४ नाहर, पूर्वोक्त, जयपुर भाग-२, लेखांक १२१६ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-२,लेखांक १०० वही, भाग-१, लेखांक ५५२ नाहर, पूरनचंद पूर्वोक्त, भाग-१ लेखांक १५७७ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, भाग-१,लेखांक ६७० वही, भाग-२ लेखांक ४१४ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-१, लेखांक ४३३ नाहर, पूर्वोक्त, भाग-१, लेखांक १११ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, लेखांक ४२१ वही, भाग-२, लेखांक १९५ मुनि कंचनसागर, पूर्वोक्त, लेखांक २३७ मुनिबुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२, लेखांक २९४ वही, भाग-२ लेखांक ३३७ वही, भाग-२ लेखांक १७१
१९१. १५७५
शिवकुमारसूरि अजितनाथ की आदिनाथ जिनालय,
प्रतिमाका लेख बड़ोदरा आनन्दरत्नसूरि वासु पूज्य स्वामी की आदिनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख बड़नगर सोमरत्नसूरि अभिनंदन स्वामी की महावीर जिनालय,
चौबीसी प्रतिमा लखनऊ
का लेख सोमरत्नसूरि वासुपूज्य स्वामी की जैनदेरासर, गेरीता
प्रतिमा का लेख सोमरत्नसूरि वासुपूज्य स्वामी की आदिनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख खेड़ा अमररत्नसूरि श्रेयांसनाथ की वीर जिनालय, के पट्टधर सोमरत्नसूरि चौबीसी प्रतिमा का लेख बीजापुर आनन्दरत्नसूरि धर्मनाथ की प्रतिमा धर्मनाथ जिनालय, का लेख
बड़ा बाजार, कलकत्ता मुनिरलसूरि पद्मप्रभ की चौबीसी पद्मावती देरासर, के पट्टधर आनन्दरत्नसूरि प्रतिमा का लेख
बीजापुर भाग-१, मुनिरत्नसूरि के चंद्रप्रभस्वामी की चंद्रप्रभ जिनालय, पट्टधर आनन्दरत्नसूरि प्रतिमा का लेख सुल्तानपुरा, बड़ोदर, हेमरत्नसूरि शांतिनाथ की कोठार पंचतीर्थी ४
प्रतिमा का लेख शत्रुजय विवेकरत्नसूरि धर्मनाथ की चतुर्मुख आदिनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख भरुच विवेकरत्नसूरि संभवनाथ की प्रतिमा मुनि सुव्रत जिनालय,
का लेख विवेकरत्नसरि सुमतिनाथ की प्रतिमा नेमिनाथ जिनालय,
का लेख . मेहतापोल बड़ोदरा
चैत्र वदि७ गुरुवार वैशाख सुदि६ गुरुवार फाल्गुन सुदि २ रविवार माघ सुदि६ गुरुवार माघ सुदि५ गुरुवार माघ सुदि ९ शनिवार माघ सुदि १३ गुरुवार माघ वदि५ गुरुवार माघ वदि५ गुरुवार माघ सुदि ८ गुरुवार
१९२. १५७५
१९३. १५७६
१९४. १५७७
१९५. १५७८
१९६.. १५४
भरुच
१९७. १५७४
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास१९८. १५७९ वैशाख सुदि५ विवेकरत्नसूरि शीतलनाथ की धातु शांतिनात जिनालय, मुनि विशालविजय, सोमवार की चौबीसी प्रतिमा का लेख
राधनपुर पूर्वोक्त, लेखांक ३३६ १९९. १५७९ फाल्गुन सुदि५ शिवकुमारसूरि शीतलनाथ की धातु जैन मंदिर,
मुनि जयंतविजय, सोमवार की चौबीसी
भ्रामरा ग्राम आवू, प्रतिमा का लेख
भाग-५,लेखांक १८२ २००. १५७९ फाल्गुन सुदि५ शिवकुमारसूरि शीतलनाथकी. शांतिनाथ जिनालय बुद्धिसागर, पूर्वोक्त
प्रतिमा का लेख कडाकोटडी,खंभात भाग-२,लेखांक ६१५ २०१. १५८१ माघ सुदि५ सोमरत्नसूरि मुनिसुव्रत की पंचतीर्थी वीर जिनालय,
लोढ़ा, दौलतसिंह गुरुवार प्रतिमा का लेख थराद
पूर्वोक्त, लेखांक २४७ २०२. १५८३ ज्येष्ठ सुदि९ मुनिरत्नसूरि के श्रेयांसनाथ की धातु शांतिनाथ देरासर, मुनि विशालविजय, शुक्रवार पट्टधर आनंदरत्नसूरि की चौबीसी प्रतिमा का लेख
राधनपुर पूर्वोक्त, लेखांक ३४२ २०३. १५८४ वैशाखवदि ४ शिवकुमारसूरि आदिनाथ की प्रतिमा मुनिसुव्रत जिनालय, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त
का लेख भरुच
भाग-२,लेखांक ३४८ २०४. १५८४ वैशाख सुदि ४ शिवकुमारसूरि श्रेयांसनाथ की प्रतिमा जैनमंदिर,
वही, भाग-१ का लेख झुंडाल
लेखांक ७७५ २०५. १५८६ माघ वदि५ उदयरत्नसूरि शीतलनाथ की पंचतीर्थी देरी नं. ७१/२
मुनिकंचनसागर,
प्रतिमा का लेख पंचतीर्थी,शत्रुञ्जय पूर्वोक्त, लेखांक ४५२ २०६. १५८७ पौष वदि६ सिंहदत्तसूरि के पट्टधर वासु पूज्यस्वामी की चंद्रप्रभ जिनालय, बुद्धि सागर, पूर्वोक्त
रविवार शिवकुमारसूरि प्रतिमा का लेख सुल्तानपुर, बड़ोदरा भाग-२, लेखांक १९३ २०७. १५८७ माघ वदि८
उदयरलसूरि
विमलनाथ की सीमन्धरस्वामी का वही,भाग-१ गुरुवार प्रतिमा का लेख जिनालय, अहमदाबाद
लेखांक १२१६ २०८. १५८७ माघ वदि... उदयरत्नसूरि विमलनाथ की जैन मंदिर, ईडर
वही, भाग-१, गुरुवार प्रतिमा का लेख
लेखांक १४७७ २०९. १५८७ माघ वदि८ उदयरलसूरि संभवनाथ की पार्श्वनाथ देरासर, वही, भाग-१ गुरुवार प्रतिमा का लेख लाडोल
लेखांक ४६८ २१०. १५९१ वैशाख वदि६ संयमरत्नसूरि वासुपूज्य स्वामी की शांतिनाथ जिनालय, बुद्धिसागर, पूर्वोक्त, शुक्रवार
प्रतिमा का लेख ऊंडीपोल,खंभात भाग-२,लेखांक ६७३ २११. १५९९ ज्येष्ठ सुदि १० संयमरत्नसूरि आदिनाथ की चौबीसी जैन देरासर, सौदागर वही, भाग-६
विनयमेरूसूरि प्रतिमाका लेख पोल, अहमदाबाद लेखांक ८६० २१२. १५९९ ज्येष्ठ सुदि ११
आदिनाथ की प्रतिमा विमलनाथ जिनालय, नाहटा, अगरचंद रविवार
कालेख
(कोचरों में) बीकानेर पूर्वोक्त,लेखांक १५७७ २१३. १६१० चैत्र सुदि १५ उदयरत्नसूरि
विमलवसही, आवू मुनि जयंतविजय, बुधवार के पट्टधर
आबू, भाग-२ सौभाग्यरत्नसूरि के परिवार
लेखांक १९४ raniromitriviniromidniromidiedsonividuardinironid [१००/Howondrieddindwindowonitoniromiditoriamirarioriter
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२१४. १६१२
वैशाख सुदि६ बुधवार फाल्गुन सुदि५ गुरुवार वैशाख वदि७
२१५. १६४३
चतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास - के हर्षरत्न उपाध्याय, पं. गुमणंदिर, माणिकरत्न, विद्यारत्न, सुमतिराज आदि संयमरत्नसूरि संभवनाथ की धातु की शांतिनाथ देरासर,
पंचतीर्थी प्रतिमा का लेखराधनपुर __ संयमरत्नसूरि शांतिनाथ की धातु की संभवनाथ जिनालय, के पट्टधर कुलवर्धनसूरि प्रतिमा का लेख पादरा
शांतिनाथ की प्रतिमा शांतिनाथ जिनालय, का लेख
खंभात कुलवर्धनसूरि पार्श्वनाथ की शीतलनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख कुंभारवाडो, खंभात कुलवर्धनसूरि अजितनाथ की शांतिनाथ जिनालय,
प्रतिमा का लेख कनासानो पाडो, पाटन
मुनि विशालविजय, पूर्वोक्त ३५१ बुद्धिसागर, पूर्वोक्त भाग-२,लेखांक ११
२१६. १६६७
वही, भाग-२ लेखांक६१०
२१७. १६६७
वैशाख वदि७
वही, भाग-२ लेखांक ६४९
२१८. १६८३
ज्येष्ठ सुदि६
वही, भाग-१ लेखांक ३६१
गुरुवार
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आगमिकगच्छ १३वीं शती के प्रारंभ अथवा मध्य में अस्तित्व में आया और १७वीं शती के अंत तक विद्यमान रहा। लगभग ४०० वर्षों के लंबे काल में इस गच्छ में कई प्रभावक आचार्य हुए, जिन्होंने अपनी साहित्योपासना और नूतन जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना, प्राचीन जिनालयों के उद्धार आदि द्वारा पश्चिमी भारत (गुजरात, का में श्वेताम्बर श्रमणसंघ को जीवंत बनाए रखने में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भी स्मरणीय है कि वह यही काल है, जब संपूर्ण उत्तर भारत पर मुस्लिम शासन स्थापित हो चुका था, हिन्दुओं के साथ-साथ बौद्धों और जैनों के भी मंदिर-मठ समान रूप से तोड़े जाते रहे, ऐसे समय में श्वेताम्बर श्रमण संघ को न केवल जीवंत बनाए रखने बल्कि उसमें नई स्फूर्ति पैदा करने में श्वेताम्बर जैन आचायों ने अति महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
विक्रम संवत् की १७वीं शताब्दी के पश्चात इस गच्छ से संबद्ध प्रमाणों का अभाव है। अत: यह कहाजा सकता है कि १७वीं शती के पश्चात् इस गच्छ का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया होगा और इसके अनुयायी श्रमण एवं श्रावकादि अन्य गच्छों में सम्मिलित हो गए होंगे।
वर्तमान समय में भी श्वेताम्बर श्रमण संघ की एक शाखा त्रिस्तुतिकमत अपरनामत बृहद्सौधर्मतपागच्छ के नामसे जानी जाती है, किन्तु इस शाखा के मुनिजन स्वयं को तापगच्छ से उद्भूत तथा उसकी एक शाखा के रूप में स्वीकार करते हैं।१२ आगे हम इसका विवरण दे रहे हैं।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
सन्दर्भ सूची
नाहटा अगरचन्द - जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश, यतीन्द्र सूरि अभिनन्दनग्रन्थ (आहोर १९५८ ई.) पृ. १३५-१६५ २. आषाढ़ादि पनर ओकेतरइ, पोसवादि इग्यारिसि अंतरइ।
धंधूकपूरि कृपारस सत्र सोमवार समर्थिक अचरित्र।। कुमतरुख वणभंग गइंद जिनशासन रयणायर इंदु। सद्गुरू श्री अमरसिंह सूरिंद सेवई भविय जसुय अरविंद ।। तसुपाटि नयनानन्द अमीबिंदु गुरु, श्री हेमरत्नसूरि मुणिंद । आगमगच्छ प्रकाश दिणिंद जसु दीसइ वर परि यरविंद ।। सुगुरु पसाई नयर गोआलेर, धणी पुण्यसार रिद्धिउ कुबेर । तासु गुम इस वर्णवइ अजस्त्र, साधुमेरुगणि पडित मिश्र।। देसाई, मोहनलाल दलीचंद, जैन गुर्जर कविओं (नवीन संस्करण, अहमदाबाद १९८६ ई.) भाग-१,पृ.८५ और आगे.
८५ और आगे। ३. देसाई, पूर्वोक्त, पृ. ४७८ और आगे। ४. वही, पृ. २०१ - २०२ ५. देसाई पूर्वोक्त पृ. ३३७ और आगे
मिश्र शितिकंठ - हिन्दी जैन साहित्य का वृहद् इतिहास (भाग-१) मरु गुर्जर (वाराणसी १९९० ई.) पृ. ४०० ७. मिश्रशितिकंठ - पूर्वोक्त, प्र.३३४ और आगे
कर्मग्रन्थ- रचनाकाल वि.सं. १४५०; मलयसुन्दरीकथा- रचनाकाल अज्ञात : सुलसाचरित (प्राचीन प्रति वि.सं. १४५३) कथाकोश (विसं. १५ वी. शती का ।
मध्य ९. स्थूल भद्र कथानक - प्रकाशित १०. मल्लिनाथ चरित (१३ वीं शती के आसपास) ११. स्थूल भद्ररास (१६ वीं शती के प्रथम चरण के आसपास) १२. जैन विद्या के आयाम (दलसख भाई मालवणिया) भाग-३
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छाजहड़गोत्रीय ओसवालवंश का इतिहास
भँवरलाल नाहटा....
मोसवाल, श्रीमाल, पोरवाड़ आदि जैन-जातियों का इतिहास आश्रय लेना चाहिए। क्योंकि अपनी गुरु यजमानी कायम करने
प्रायः अंधकाराच्छन्न है। यद्यपि कहा जाता है कि भगवान् के लिए जो मनगढंत संवादों की सृष्टि, भ्रांत धारणाएँ इतिहास में महावीर के ७० वर्ष के पश्चात् पार्श्वनाथ-संतानीय श्री रत्नप्रभसूरिजी घालमेल हो गई हैं, उनमें से तथ्यांश निकालना बड़ा कठिन हो ने ओसियाँ नगर में ओसवाल बनाए, पर ऐतिहासिक प्रमाणों का रहा है। ऐसी स्थिति में श्री सोहनलालजी भणशाली का प्रामाणिक अभाव हमें यह बात मानने को विवश नहीं कर सकता। पार्श्वनाथ शिलालेखी प्रयत्न हमें इतिवृत्त सत्यांश के निकट ले जाने में -परम्परा भगवान महावीर के शासन में विलीन होचुकी थी। सक्षम है। कुछ ज्ञान-भंडारों में प्राप्त कवित्त छंदादि भी पाए जाते जैनागमों में पाश्र्थापत्यों के उल्लेख केवल उनके पूर्व संबंध के हैं। भाटों की बहियों में उनके वंश-परम्परा में मिले हुए सत्यांशों द्योतक हो सकते हैं। वस्तुतः चैत्यवासी ढीले पासत्थे वर्ग की की सम्प्राप्ति के भी कथंचित् परवर्ती इतिवृत्त-संकलन में सहायक परम्परा, बारंबार वे ही बँधे-बँधाए नाम हमें उनकी प्रामाणिकता होने को नकारा नहीं जा सकता। में संदिग्ध ही प्रतीत होते हैं। प्राचीन शिलालेख, प्रतिमाओं के पर्वकाल में बडे-बडे विदान ग्रन्थकार होते हए भी उन्होंने अभिलेख, स्थविरावलियाँ, आगम-पंचांगी-टीका, चूर्णि, नियुक्ति, इस विषय की ग्रन्थ-रचना क्यों नहीं की? यदि पहले से इस भाष्य आदि में कहीं भी उन जाति के श्रावकों की, दीक्षित मुनि, परिपाटी को कायम रखा जाता तो हमें इतिहास तो आसानी से आचार्य वर्ग के नामों की गंध तक नहीं पायी जाती, जबकि मिल जाता पर एक उदात्त भावना का रहस्य जो पूर्वाचार्यों की मथुरा आदि के शिलालेख अन्य जाति के लोगों का अस्तित्व दीर्घदृष्टि में था उससे हम वंचित रह जाते। श्री अभयदेवसूरिजी ने प्रत्यक्ष बतलाते हैं।
स्वधर्मीकुलक में लिखा है कि एक नवकार मन्त्र को धारण ओसियाँ का मंदिर नौवीं शताब्ती से पूर्व का नहीं है।
नही
करन वा
करने वाला स्वधर्मी बन्धु हमारे सगे भाई से भी बढ़कर है। इस स्वर्णगिरि, जालौर, साँचोर, आदि के मंदिर, कक्कुक, बाउक के
भावना में अपना उत्पत्ति-इतिहास वरीयता और कनिष्ठता की।
भावना उत्पन्न कर देता अतः यह बात भी कथंचित् स्वीकार्य अभिलेखादि जो भी प्रमाण प्रस्तुत करें, हम विक्रमीय छठी
कही जा सकती है। शताब्दी से पूर्व इन जातियों का अस्तित्व प्रमाणित करने में अक्षम है। उपकेशगच्छचरित्रादि सभी ग्रन्थ तेरहवीं, चौदहवीं
अपने वंश का गौरव, पूर्वजों के कार्यकलाप आदि जानना शताब्दी के परवर्ती हैं। कुछ ताडपत्रीय ग्रन्थ प्रशस्तियां भी हमें आवश्यक है, अतः हमें प्रामाणिक साधनों द्वारा जितना भी हो परवर्ती काल की उत्पत्ति ही सचित करती हैं। ऐसी स्थिति में हमें सके प्रकाश में लाना अभीष्ट है। ओसवाल जाति में जिन-जिन द्विसहस्राब्दी से पूर्व की घटना मानने का मोह त्यागकर वास्तविक
गोत्रों का इतिवृत्त प्रचुर और प्रामाणिक उपलब्ध है, उनमें से
अपनी रुचि के अनुसार संग्रह कर प्रकाश में लाने का सत्प्रयत्न सतह पर आने के लिए प्रामाणिकता की ओर ध्यान देना चाहिए।
होना चाहिए। ऐसे गोत्रों में बोथरा-बच्छावत, नाहटा-बाफणा, भगवान महावीर के समय में हर जाति के लोग जैन होते थे,
रांका-सेठ, मालू, दूगड़, नाहर आदि अनेक इतिहास हाथ में लिए सर्वव्यापक जैनधर्म को तलवार के बल पर नष्ट किया गया,
जा सकते हैं। यहाँ राठौड़-राष्ट्रकूट वंश से उद्भूत छाजहड़वंश का दक्षिण भारत का इतिहास एवं शिल्प इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
इतिहास दिया जा रहा है। जैनाचार्यों ने हमें समाज-व्यवस्था दी जिससे आज हम उनके उपकारों से जैन हैं, अपने प्रयत्न से नहीं।
सर्वप्रथम आज से ठीक पाँच सौ वर्ष पूर्व लिखित सचित्र
स्वर्ण-रौप्याक्षरी संस्कृत के ४८ श्लोकों में लिखित छाजहड़ राय बहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा, श्री पूरणचंद नाहर वंश की प्रशस्ति जो खरतरगच्छ की वेगड़ शाखा से संबंधित है, आदि इतिहासविदों की राय मानकर हमें प्रामाणिक इतिहास का उसे यहाँ सानुवाद उद्धृत करता हूँ।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासलगभग अर्द्धशताब्दी पूर्व यह सचित्र प्रति सूरत नगर के त्रयोदशमहीपालाः तत्पुत्रा: धांधलादयाः। श्री मोहन लाल जी महाराज के ज्ञान भंडार में थी। जब अहमदाबाद वंशो येषां धरापीठे वरा विस्तरितः श्रियः।।५।। . में साहित्यप्रदर्शनी हुई, तब वहाँ आई थी और उस समय प्रकाशित
उसके धांधल आदि तेरह पुत्र महीपाल/राजा पृथ्वीपीठ के हुए प्रशस्तिसंग्रह में यह प्रशस्ति प्रकाशित हुई थी। न मालूम कब
विस्तारक हुए। यह ग्रन्थ और प्रशस्ति वहाँ से निकलकर मद्रास में विक्रयार्थ
धांधलस्याङ्गजः श्रेष्ठः ऊदलाह्वोनरेश्वरः। आ गई।
तन्नंदनो रामदेवो रामदेव इव श्रिया।।६।। मैंने इस प्रशस्ति को आचार्य महाराज श्री विशालसेन सूरिजी की कृपा से बैंकलॉकर से मँगवाकर विले पारले में
धांधल का पुत्र ऊदल नामक श्रेष्ठ नरेश्वर हुआ, जिसका नकल की। इसमें एक पूरे पत्र में आचार्य महाराज का सुंदर चित्र
पुत्र रामदेव रामदेव की भाँति धनिक हुआ। देखा है, पूरी प्रति मैंने नहीं देखी।
तत्पुत्र प्रवरश्चासीत् ठाकुरात्सिंह नामकः ।
गुरो समीपतो येन प्राप्तं श्राद्धत्वमुज्ज्वलम् ।।७।। कल्पसूत्रप्रशस्ति
उसका प्रवर (बड़ा पुत्र) ठाकुरसिंह नामक हुआ, जिसने ।।ॐ।। नमो श्रीजिनचन्द्रसूरिगुरुभ्योनमः
गुरु महाराज के पास उज्ज्वल श्रावकत्व प्राप्त किया। श्रेयःसंपत्तिवल्लीविपुलजलधरं पार्श्वनाथं जिनेशं,
ब्रह्मनामा बभूवाथ पुण्यकर्मणि कर्मठः। नत्वा संसेव्यमानं सुरनरनिकरैर्भासुरैर्भक्तिमद्धिः।
तत्सुतः संप्रतिर्जज्ञे सत्त्यागैक प्रधानधीः।।८।। मक्तंदोषैरशेषैर्जिनवरवृषभं वारिदस्थायकायं,
पण्यकार्य करने में कर्मठ ब्रह्म नामक उसका पुत्र हुआ, कुर्वेहं पुस्तकेऽस्मिन् भविकजनमनप्रीतये सत्प्रशस्तिः ।।१।।
जो त्यागी और प्रधान बुद्धिवाला था। श्रेय और सम्पत्तिरूपी वल्ली के लिए विपुल जलधर के श्रीमखेडपरे रम्ये सदद्धरणनामकः सदृश पार्श्वनाथ भगवान को नमस्कार कर भक्तिमान् तेजस्वी व्यवहारी श्रियाहारी धनेन धनदोपमः ।।९।। देवों और मानववृन्द से पूज्यमान, मेघ की भाँति विशाल काया वाले, ऋषभनाथ जिनेश्वर को नमन कर भव्यजनों के मन को
श्रीखेड़ नामक सुंदर नगर में धनद के सदृश धनिक सद् - प्रीति देने वाली इस पुस्तक (कल्पसूत्र) की प्रशस्ति (की
__ (उत्तम)-उद्धरण श्रेष्ठ व्यापारी हुआ। रचना) करता हूँ।
चित्रकूटे पुरे रम्ये पार्श्वभवने योऽकारयद्वारम्। ऊकेशवंशे प्रवरो विभाति, सर्वेषु वंशेषु रमाप्रधानम्।
सौवर्णा वलभी जजे तस्माच्छाहड़ाभिधा ।।१०।। तस्मिन् सुगोत्रं प्रवरं प्रशस्यते नाम्ना महच्छज्जहड़ाभिधानम्।।२।। . इसने चित्तौड़ नगर में श्री पार्श्वनाथ के रम्य भवन में श्रेष्ठतम __ ओसवाल वंश सभी वंशों में महान् व धनाढ्यों में प्रधान
स्वर्णमय छज्जे बनवाए जिससे छाजहड़ (गोत्र) का नाम हुआ। है, उसमें प्रशस्त छाजहड़ नामक सुगोत्र है।
श्री शान्तिपुरे भवनं खेड़ापुर्यां येनात्र कारितम् । क्षत्रियवंशः पूर्वं विदितः श्रीराष्टकूट इति नाम्ना।
प्रतिष्ठा विहिता तत्र श्रीजिनपतिसूरिभिः ।।११।। श्री जयचन्द्रो राजा जातश्चतुरङ्गबलयुक्तः ।।३।।
इसी ने खेडनगर में संदर शान्तिनाथ भवन बनवाया जिसकी ___ पहले क्षत्रियों में सुविदित श्री राष्ट्रकूट (राठौड़) नामक प्रतिष्ठा श्री जिनपतिसूरि महाराज ने की। वंश में चतुरंगिणी सेनाबलयुक्त श्री जयचन्द्र राजा हुआ। तेषां वासं गृहीत्वाथाभवन् खरतरः स तु। तस्यान्वये प्रसिद्धः त्यागी भोगी सदाश्रियः।।
अनेकधर्मकर्माणि कृतवान्निजवित्ततः।।१२।। आस्थान स्थैर्ययुतः संजातो....थुधुर्यः।।४।।
उन गुरु महाराज से वासक्षेप ग्रहण कर वह खस्तर हो उनकी वंशपरंपरा में त्यागी, भोगी, लक्ष्मीसंपन्न आस्थानजी गया। उसने अपने वित्त द्वारा अनेक धर्मकार्य किए। प्रधान स्थिरता वाले हुए। G G AG Gram Gram Granton Gram Gramontina porterinonimnGronGGAGAGranGaminsansar
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- यतीन्द्रमरिरमारक ग्रन्थ - इतिहासतत्पुत्राऽथ कुलधर कुलभारधुरन्धरः
श्री मद्वेगडनासौ संजातः कुलमण्डनम्। प्रौढप्रतापसंयुक्तः शत्रूणां तपनोपमः।।१३।।
यस्यानुजः सिंगड़ाह्वः श्रीजिनेश्वरसूरिराट्।।२१।। उनका पुत्र कुलधर हुआ जो कुलभार वहन करने में धुरंधर, यह श्रीमद् वेगड़ नामक कुलमण्डन हुआ जिसका अनुज । प्रौढ़ प्रतापी और शत्रुओं के लिए तपनोपम था।
सिंगड़ नामक का था जो श्री जिनेश्वरसूरिराट् हुआ। श्रीजावालपुरे भिन्नमाले श्री वाग्भटे तथा
वील्हणदे नामिकास्या पूर्वपत्नी प्रशस्यते। प्रासादा कारिता तेन निजवित्तव्ययोद्वराः।।१४।।
भरतो भरमश्चापि भोजो भट्टाभिधः सुता।।२२।। श्री जावालपुर भीनमाल, बाड़मेर में उसने अपने
वील्हणदे नामक प्रथम पत्नी थी जिसके भरत, भरम, न्यायोपार्जित वित्त से प्रासाद बनवाए।
भोजा और भट्ट नामक पुत्र हुए। तत्सूनुरजितो जातः सामंतस्तु तदंगजः
परा कुतिगदेनाम्नी शीलालंकारधारिणी । हेमाभिधः श्रियायुक्तः सुनु/दाविधस्ततः।।१५।।
तत्कुक्षिपद्मिनो हंसौ पुत्रौ द्वौ महिमाद्भुतौ ।।२३।। उसका पुत्र अजित तत्पुत्र सामंत हुआ जिसका पुत्र हेमा
दूसरी कौतिगदे नामक शीलालंकारधारिणी पत्नी थी जिसके और उसका पुत्र बीदा नामक हुआ।
कोखरूप पद्मसरोवर से हंससदृश दो महिमाशाली पुत्र हुए। तत्पुत्रौ भुवने ख्यातौ मालामलयसिंहको।
आद्य सूराभिधो मंत्री प्रसिद्धो धरणीतले। मालापुत्रो जूठिलाह्वः कालू नामा तदंगजः।।१६।
दानी मानी कलाशाली वदान्यो राजपूजितः।।२४।। उसके दो पुत्र माला और मलयसिंह विश्वविख्यात हुए।
. प्रथम सरामंत्री पृथ्वी में प्रसिद्ध है जो दानी मानी कलाशाली
व राजमान्य है। माला का पुत्र जूठिल और उसका पुत्र कालू हुआ।
कलाकलापसंयुक्तः मंत्री भुवनपालकः। सूनुर्मलयसिंहस्य मंत्री झांझणनामकः सन्मोहणदेवधरः भादूभ्रातृविराजितः।।१७।।
द्वितीयस्त्वभवत्पुत्रो धनवान् धर्मकर्मकृत्।।२५।।
कलाकलाप संयुक्त मंत्री भुवनपाल दूसरा पुत्र है, जो । मलयसिंह का पुत्र झाँझण मंत्रीश्वर हुआ जो मोहन, देवधर
धर्मकार्य करने वाला तथा धनवान है। और भादू भाइयों से सुशोभित था।
श्री जिनधर्मसूरीणां पदस्थापनमादरात्। झांझणस्यसुतः श्रेष्ठः श्रीमत्सत्यपुरे वरे
येनाकारि स्वसंपत्या महेवलपुरोत्तमे।।२६।। चाह्वानभीमराजेन्द्रराज्यभारधुरन्धरः।।१८।।
जिसने श्री जिनधर्मसूरि का पदस्थापना-महोत्सव महेवा झांझण का पुत्र सत्यपुर (साचौर) में श्रेष्ठ था, जो चौहान
नामक उत्तम नगर में आदरपूर्वक स्वधन सम्पत्ति द्वारा किया। भीमनरेश्वर की राज्यधुरा का वाहक था।
भार्या भुवनपालस्य कर्णादेवी मनोहरा। शत्रजये महातीर्थे येन यात्रा कृता वरा।
तस्याश्चत्वारः सत्पुत्राः सुपुत्रीपंचममुत्तमम्।।२७।। श्रीसघं मेलयित्वा च स्ववित्तं सफलीकृतम्।।१९।।
भुवनपाल की भार्या कर्णादेवी मनोहरा थी,उसके चार इसने शत्रुजय महातीर्थ का संघ निकालकर तीर्थयात्रा
सुपुत्र और पाँचवीं उत्तम पुत्री हुई। कर अपने धन को सफल दिया।
प्रथमो धनदत्ताह्वः गांगदत्तस्तथापरः निजदानेन येनात्र कल्पवृक्षाःतिरस्कृताः
शिवनामा तृतीयस्तु तुर्यः संग्राम इत्यमी।।२८।। यशो यदीयं सर्वत्र विस्तीर्ण भूमिमण्डले।।२०।। दान के द्वारा जिसने कल्पवृक्ष को भी तिरष्कृत कर दिया
पहला धनदत्त, दूसरा गांगदत्त तीसरा शिव और चौथा
संग्राम है। था। उसकी यशकीर्ति भू-मंडल में विस्तृत हुई। droiddroivdiodoroordarodromotoriorsdaridroid [१०५-darsamirmanshmororanoramondroidroidrorarokarokare
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - इतिहासतेषां मध्ये पुण्यात्मा गांगदत्तो गुणाधिकः।
पत्तामिधः सुपुण्यात्मा पाबू नाम्नीति तत्प्रिया। नाम्ना गेलमदेवी भार्या तस्य प्रजायतः।।२९।।
नेताभिधानः सत्पुत्रं प्रिया नवरंगदे इति ।।३७।। इनमें पुण्यात्मा गांगदत्त गुणों में विशिष्ट है, जिसकी भार्या पत्ता नामक पुण्यात्मा की पत्नी पाब नाम की है। उसके गेलम देवी हुई।
सुपुत्र नेता की प्रिया नवरंगदे हैं। तत्कुक्षिशुक्तिमुक्तायाः पुत्राः पञ्च गुणोज्जवला:।
तुर्यश्चतुर्थनामासौ भार्यारूपीति नामिका। राजसिंहः श्रियाशाली मंत्रीशो राजवल्लभः।।३०।।
चाचाभिधानो देसूरु लघुपुत्रद्वयं वरः।।३८।।
ग माया
उसकी कोख रूपी सीप में मोती के सदृश पाँच गणवान चौथा नामके चतुर्थ पुत्र की भार्या रूपी नाम की है। चाचा पुत्र हुए। राजसिंह मंत्रीश्वर राज्य में वल्लभ और क्रियाशाली था। नामक तथा देसूरु नामक दो श्रेष्ठ लघु पुत्र हैं। जसामिधानः राणाह्वः मंत्री दूदाभिधस्तथा।
प्रथमा पुत्रिका येठी, रंगी नाम्नी द्वितीयका। महीकर्ण इतिख्याताः सर्वे सर्वत्र भूतले।।३१।।
चंगी नाम्नी तृतीया तु, पुत्रीतृतयमुत्तमम् ।।३९।। जसा, राणा, मंत्री दूदा एवं महीकर्ण ये सभी पृथ्वी तल में पहली पुत्री जेठी, दूसरी रंगी, तीसरी चंगी, तीन श्रेष्ठ पुत्रियाँ प्रसिद्ध हुए। तन्मध्यमंत्रीवर्यवस्तु राजसिंहो विशेषतः
तेनेदं राजसिंहेन परिवारयुतेन च। त्यागी भोगी यशस्वी च श्रीमान् कुलविभूषणम्।।३२।। सौवर्णाक्षरै श्रेष्ठं श्रीकल्पागमपुस्तकम्।।४०।।
__इनमें मंत्रीश्वर राजसिंह विशेषत: त्यागी, भोगी, यशश्वी व उस राजसिंह ने सपरिवार यह कल्पागम की श्रेष्ठ पस्तक कुलभूषण श्रीमान् था।
स्वर्णाक्षरों में (लिखवाई)। पदस्थापना कर्मादिपुण्यकार्याण्यनेकशः।
श्रीमत् खरतरगच्छे श्रीजिनदत्तसूरयः। कृतानीह पुनःकर्ता सम्पत्तेरनुमानतः।।३३।।
तेषामनुक्रमे जात श्रीजिनकुशलनामकः ।।४१।। इसने अपनी सम्पत्ति के अनुसार पदस्थापनोत्सवादि पुण्य . श्री खरतरगच्छ में जिनदत्तसूरि जी हुए। उनकी परंपरा में कार्य अनेक बार किए।
अनुक्रम से श्रीजिनकुशल नामक (सूरि) हुए। भार्या राजलदेवीति सतीकुलमत्तिलका।
श्रीजिनपद्मसूरीन्द्रो जिनलब्धिस्ततः प्रभुः। चम्बगोत्रीयभोजाह्वनन्दिनीगुणबंधुरा।।३४।।
श्रीजिनचन्द्रसूरीशस्तत्पट्टोद्धरणः प्रभुः।।४२।। उसकी भार्या राजलदेवी चम्बगोत्रीय भोजशाह की पुत्री श्री जिनपद्मसूरि, श्री जिनलब्धिसूरि के पट्टप्रभाकर श्री । गुणविशिष्टा, सतीकुलतिलका थी।
जिनचन्द्रसूरि हुए। तस्याःकुक्षौ सुरत्नानि रत्नभूमौ यथास्फुटम्।
श्री जिनेश्वरसूरीन्द्रो विख्यातो जगतीतले। पुत्रा रत्नान्यजायन्त तन्नामानि यथाक्रमम्।।३५।।
तत्पट्टे प्रगटश्चासीत् श्री जिनशेखरसूरिराट् ।।४३।। उसकी रत्नगर्भा कोख से पुत्ररत्न जन्मे जिनके नाम क्रमशः श्री जिनेश्वरसूरि जगत्प्रसिद्ध हुए, उनके पट्टपर श्री कहते हैं।
जिनशेखरसूरिराज हुए। आद्य सत्ताभिधो मंत्री सौंदर्यादिगुणान्वितः
तत्पट्टाभरणं श्रीमान् श्रीजिनधर्मुनीश्वरः। सक्तादेवी प्रिया तस्य विद्यते गुणसंयुता।।३६।।
तस्याणुर्जिनचन्द्राख्यसूरिस्तस्योपदेशेन।।४४।। पहला सत्ता नामक मंत्री गुणशाली था उसकी प्रिया सक्ता उनके पट्ट पर श्री जिनधर्मसूरीश्वर, फिर शिष्याणु श्री। देवी बड़ी गुणवती है।
जिनचन्द्रसूरि हुए, जिनके उपदेश से - AMENDMENGmbinasimamiana podpanner Gaman Santana Gabon Gambia
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से प्रसिद्ध थे। जैसलमेरनरेश गणदेव, जैत्रसिंह, समियाणा के राजा समरसिंह और शीतलदेव आप ही के परम भक्त थे। दिल्ली सम्राट् कुतुबुद्दीन को आपने अपने सद्गुणों द्वारा चमत्कृत किया था। आपने अपने जीवन में शासन - प्रभावना के अनेक कार्य दीक्षा, प्रतिष्ठा, संघयात्रा, पदवी प्रदान आदि अपने शासन
-काल में किए थे। जिसके लिए युगप्रधानाचार्य - गुर्वावली देखनी चाहिए। सं. १३४३ वैशाख सुदि १० के दिन जावालिपुर में सूरि
स्वर्ण और रजताक्षर युक्त चित्रश्रेणि से विराजित शुद्धसूत्रार्थ पद प्राप्त किया और सं. १३७६ मिती आषाढ़ सुदि ९ को संयुक्त यह पुस्तक जयवंत हो।
कोसवाणा में स्वर्गवासी हुए। प्रकटप्रभावी दादाश्री जिनकुशलसूरि
पुण्यवृद्धयै समृद्ध्यैच वाच्यमानं सदाभवेत् मंत्रीशराजसिंहस्य श्रीकल्पागमपुस्तकम्।। ४७ ।।
• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ इतिहास
श्रीमद्विक्रमतोषट्वेदेषु ( ) शशि संख्यया । वत्सरेआश्विने मासे लिखापितमिदं महत् ।। ४५ ।।
श्री विक्रमादित्य के संवत् १५४६ में आश्विन मास में यह महान् (कल्पसूत्र) लिखवाया।
सौवर्णे (र) जतश्चापिऽक्षरैर्युक्तं चित्रश्रेणिविराजितम् । शुद्धसूत्रार्थसंयुक्तं पुस्तकं जयतादिदम् ।। ४६ ।।
-
कलिकालकेवली श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर उनके भतीजे कुशलकीर्ति जो मंत्रीश्वर जेसल ( जिल्हागर) की पत्नी जयश्री के पुत्र थे, विराजमान हुए। इनकी दीक्षा सं. १३४६ / ७ में तथा सूरिपद सं. १३७७ में पाटण में श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य द्वारा मंत्री कर्मचन्द्र के पूर्वज तेजपाल रुद्रपाल द्वारा पट्ट महोत्सव सम्पन्न
जहाँ तक पृथ्वी, श्रेष्ठ मेरु पर्वत व चन्द्र सूर्य और ध्रुव हैं, हुआ। आपके द्वारा दीक्षा, प्रतिष्ठा, संघयात्रादि बड़े-बड़े कार्य यह कल्पसूत्र ग्रन्थ बांचा जाता हुआ आनंद दे। प्रचुर परिणाम में सम्पन्न हुए। शत्रुञ्जय की प्राचीन खरतरवसही का अद्वितीय कलापूर्ण जिनालय आपके द्वारा प्रतिष्ठित है। सिंध प्रांत में विचर कर धर्मप्रभावना करते हुए सं. १३८९ मिती फाल्गुन बदि ५ या १५ को देरावर में स्वर्गवास हुआ। आप तीसरे दादा साहब नाम से प्रकट प्रभावी हैं। सारे भारत में आपके चरण व मूर्तियाँ सैकड़ों दादावाड़ियों और जिनालयों में प्रतिष्ठित हैं। आप छोटे दादाजी के नाम से प्रसिद्ध हैं और भक्तजनों का मनोवांछित पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के तुल्य प्रकटप्रभावी हैं। सैकड़ों स्तवन - स्तोत्र व पूजाएँ अहर्निश गीयमान हैं। श्री जिनपद्मसूरि
मंत्रीश्वर राजसिंह से लिखाया गया, सदा वाच्य मान यह कल्पागम ग्रन्थ पुण्यवृद्धिकारक एवं समृद्धिकारक हो । यावद्वरा वरो मेरुश्चन्द्रसूर्यौ ध्रुवस्तथा श्रीकल्पपुस्तकं तावद्वाच्यमानं तु नंदतात् । । ४८ ।।
।। इति कल्पपुस्तकप्रशस्तिः । । शुभंभवतु ।। श्री छहः । । संवत् १५४७ वर्षे आसो सुदि १० दिनवा. क्षमामूर्ति गणि उद्यमेन लिखितं जो. बडूआकेन । मं. राजसिंह कल्पपुस्तकं । शुभं भवतु ।
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(यह १०० पत्रमय ६० के लगभग चित्रों वाला कल्पसूत्र श्री विशालसेन सूरिजी ने मद्रास में चालीस हजार में प्राप्त किया था। प्रशस्ति के चार पत्र दो वर्ष बाद ग्यारह हजार में लिए । ) छाजहड़ गोत्र के दीक्षित आचार्य कलिकाल - केवली श्री जिनचन्द्रसूरि
ये छाजहड़गोत्रीय अम्बदेव के पुत्र थे। सं. १३८४ माघ सुदि ५ को दादा श्री जिनकुशलसूरि द्वारा दीक्षित हुए, पद्ममूर्ति नाम प्रसिद्ध हुआ। ये बाल्यकाल में ही सरस्वती की कृपा से बड़े विद्वान् हो गए। तृशृंगम नरेश रामदेव की सभा में अपनी प्रतिभा से सभी विद्वानों को चमत्कृत किया। सं. १३९३ तक की तीर्थयात्रा, दीक्षा आदि के वृतान्त गुर्वावली में हैं। सं. १४०० में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पट्ट पर आषाढ़ बदि १ को श्री जिनलब्धिसूरि विराजित हुए ।
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खरतरगच्छ में श्री जिनप्रबोधसूरि के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज गढ़ सीवाणा (समियाणा) के मंत्री देवराज के पुत्र थे। आपकी माता का नाम कोमल देवी था। आपका जन्म सं. १३२४ मिती मार्गशीर्ष सुदि ४ को हुआ। सं. १३३२ मिती जेठ सुदि ३ को श्री जिनप्रबोधसूरि से दीक्षित हुए। आपका नाम क्षेमकीर्ति रखा गया। आपका जन्मनाम खेमराय था। आप बड़े विद्वान् और प्रभावक आचार्य थे। आप कलिकाल - केवली विरुद्
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• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास.
श्री जिनचन्द्रसूरि
श्री जिनलब्धिसूरि के पट्टधर श्री जिनचंद्रसूरि सं. १४०६ माघ सुदि १० को बैठे। मारवाड़ के कुसुमाण (कोसवाणा ) गाँव के मंत्री केल्हा छाजहड़ की पत्नी सरस्वती के पुत्र थे। आपका नाम पातालकुमार तथा दीक्षा नाम यशोभद्र हुआ। सं. १३८१ वै.ब. ६ को पाटण में प्रतिष्ठा के समय बड़ी दीक्षा हुई। सं. १४१४ मिती आषाढ़ बदि १३ को स्तम्भतीर्थ में स्वर्गवासी हुए । श्री जिनभद्रसूरि
ये उलपुर मेवाड़ के छाजहड़ धीणिग की पत्नी खेतल देवी के सुपुत्र थे । इनका जन्म नाम रामणकुमार था। ये बड़े विद्वान और प्रभावक आचार्य थे। सं. १४७५ मिती माघ सुदि १५ को श्री जिनराजसूरि जी के पाट पर विराजे । इन्होंने ७ स्थानों में ज्ञानभंडार स्थापित किए व अनेक जिनालयों, प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की। जैसलमेरनरेश वैरिसिंह और त्र्यंबकदास आदि
जगण आपके भक्त थे। श्री भावप्रभाचार्य और श्री कीर्तिरत्नसूरि को आपने आचार्यपद दिया । चालीस वर्ष के आचार्य काल में आपने बड़ी शासन सेवा की। सं. १५१४ मार्गशीर्ष बदि ९ में कुंभलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ।
श्रीजिनेश्वरसूरि
आप खरतर गच्छ की वेगड़ शाखा के प्रथम आचार्य थे। शाखा में भट्टारक पद छाजहड़गोत्रीय को ही दिया जाता था, ये छाजहड़ झांझण की धर्मपत्नी झबकू देवी के पुत्र थे । आपने छह मास पर्यंत बाकुला और एक लोटा जल की तपश्चर्या द्वारा कराही देवी को प्रसन्न किया था । सं. १४०९ में स्वर्णगिरि पर महावीर जिनालय और सं. १४११ में श्रीमाल नगर में प्रतिष्ठा कराई। सं. १४१४ में आचार्य पद प्राप्त किया। पाटण में खान का मनोरथ पूर्ण किया। राजनगर के बादशाह महमूद वेगड़ा को बोध दिया। बादशाह ने समारोहपूर्वक पदोत्सव किया। आपके भ्राता ने ५०० घोड़ों का दान दिया और एक करोड़ द्रव्य व्यय किया। बादशाह ने 'वेगड़' विरुद् दिया तब से छाजहड़ वेगाड़ा भी कहलाए। बादशाह ने कहा - " मैं भी बेगड़ तुम भी बेगड़, गड़ गुरु गच्छ नाम। सेवक गच्छ नायक सही बेगड़, अविचल पामो ठाम " ॥
ये शक्तिपुर (जोधपुर) में सं. १४३० में अनशनपूर्वक स्वर्ग पधारे। वहाँ स्तूप बनवाया जो बड़ा चमत्कारी है। सं. १४२५ और १४२७ में प्रतिष्ठाएँ कराई थीं।
जिनशेखरसूरि
सं. १४५० में आचार्यपद प्राप्त कर प्रभावक और प्रतापी बने। महेवा के राठौड़ जगमाल पर गुजरात के बादशाह की फौज आने पर अभिमंत्रित सरसों और चावल द्वारा घोड़े और सवार पैदा कर युद्ध में विजयी बनाया। बीबी ने कहा -
पग पग नेता पाड़िया, पग पग पाड़ी ढाल । बीबी पूछे खान ने जग केता जगमाल ।।
बादशाह को गुरु के पास लाने पर आन मना के छोड़ दिया। सं. १४८० में महेवा में स्वर्गवासी हुए ।
श्रीजिनधर्मसूरि
आप सं. १४८० मिती ज्येष्ठ सुदि १०, गुरुवार को श्री जिनेश्वरसूरि के पाट पर बैठे। आपने अनेक जगह प्रतिष्ठाएँ कराईं, ग्रामानुग्राम विचरे, तीर्थयात्राएँ कीं । जयानंदसूरिजी को आचार्य पद दिया। सूराचंद के निकट रायपुर में महावीर जिनालय की सं. १५०९ में प्रतिष्ठा की। राणा घड़सी को प्रतिबोध देकर श्रावक बनाया। राणा ने घड़सीसर व कालूमुहता ने कालूसर कराया। महेवा में भी वणवीर ऊदा ने महोत्सव किया। रावलजी वंदनार्थ आए । पट्टावली में बिहार का विस्तृत वर्णन है। सं. १५१२ में मंत्री समर सरदार ने प्रतिष्ठा करवाई। मंत्री जेसंघ और उसकी भार्या जमना देने अपने पुत्र देदा को समर्पित किया । सं. १५१३ में जेसलमेर पधारे, रावल देवकरण सन्मुख आए । मंत्री गुणदत्त ने बिम्ब प्रतिष्ठा कराई। रावलजी ने नया उपाश्रय बनवाया। देदा को दीक्षा दी, दयाधर्म नाम प्रसिद्ध किया । जेसलमेर में पानी बरसाकर अकाल मिटाया।
१५२३ में मंत्री गुणदत्त मं. राजसिंह ने आषाढ़ में नंदि महोत्सव पूर्वक जयानंदसूरि से आचार्य पद दिलाकर जिनचंद्रसूरि को पट्टधर किया । श्रावण में जिनशेखर सूरि स्वर्गवासी हुए। सं. १५२५ में आषाढ़ सुदि १० को स्तूप - प्रतिष्ठा हुई।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास - श्री जिनचन्द्रसूरि
को संधारा कर १५ दिन की संलेखना पूर्ण कर १० वर्ष ५
माह ५ दिन का आयुष्य पूर्णकर स्वर्गवासी हुए। आप बड़े आप मंत्री कुलधर के वंशज थे। दीक्षा का वर्णन ऊपर
प्रभावक आचार्य थे। आ गया है। आपके मारवाड़ कच्छ, गुजरात देश में विचरने एवं तीर्थयात्रा करने का पट्टावली में उल्लेख है। समियाणा छाजहड़गोत्र के लेख (अभिलेख) (गढ़सीवाणा) के राणा देवकरण स्वागतार्थ आए। श्री जयरत्नसूरि
(नाहर २००८) सं. १४६४ वै. ब.८ शनिवार उपवेश छा. ने आचार्य पद दिया, वन्ना गुणराज ने महोत्सव किया। जयरत्नसूरि गोत्रीय जठिल वंशीय मंत्री निणा भा. नामलदे पत्र में सीहा भा का दश सभलाकर जाधपुर, तिमरा, सातलमर हात हुए जसलमर सरमदे पत्र मं. समधर भा. सक्तादे. पु. सदारंग कीका सहित पधारे। काल मंत्री के वंशज मंत्री सीहा के पुत्र मं. समधर, श्रेयांसनाथ प्रतिमा खरतरगच्छीय श्री जिनचंद्रसरि पट्टे श्री समशेरसिंह ने प्रवेशोत्सव किया। गणधर वसही की भरतप्रतिमा जिनमेरूसरि से प्रतिष्ठा कराई। सीहा-समधर ने बनवाई थी, प्रतिष्ठा की। श्री महिमा मंदिर को,
२. (नाहर २१५९) सं. १५१३ माघ सुदि ३, सोमवार को अपने पाट पर स्थापित कर श्री जिन मेरुसूरि नाम प्रसिद्ध किया।
उपकेश ज्ञातीय छाजहड़गोत्रीय मं. झूठा। ल सुत महं कालू भा. पौ १५५९ सं. ब. १० को स्वर्गवासी हुए।
कर्मादे के पुत्र म. नोडने स्वपुत्र श्रेयांसनाथ बिंब कराके श्री जिनमेरुसूरि
खरतरगच्छीय जयशेखर सूरि ने प्रतिष्ठा की। छाजहड़गोत्रीय समरथ साह की पत्नी मूला देवी की कोख
३. (नाहर २१६९) सं. १५१३ मिती माघ सुदि ३ शुक्रवार से आपका जन्म हुआ। दीक्षा का नाम महिमामंदिर था। ये राजस्थान,
उपकेशज्ञातीय छाजहड़गोत्र के मंत्री देवदत्त भार्या रयणादे के गुजरात और सिंध में विचरे। जयसिंह सूरि को आचार्य पद व
पुत्र मं. गुणदत्त भार्या सातलदे सहित धर्मनाथ बिंब बनवाकर
खरतरगच्छ के आचार्य जिनशेखर सूरि पट्टे भ. श्री जिनधर्मसूरि भावशेखर, देवकलोल, देवसुंदर, क्षमासुंदर को उपाध्याय पद एवं
से प्रतिष्ठा करवाई। ज्ञानसुंदर, क्षमामूर्ति, ज्ञानसमुद्र को वाचक पद दिया। विहारक्षेत्र व जीवनी का वर्णन पड़ावली में है।
... ४. (नाहर २३६८) सं. १५८१ के माघ बदि ६ बुध को
उपकेशवंशीय छाजहड़ गोत्रीय मंत्री कालू भार्या कर्मादे पुत्र म. श्री जिनगुणप्रभसूरि
रादे छाहड़ा नयणा सोना नोडा ने पितृ मातृ श्रेयार्थ श्री सुमतिनाथ वेगड़ गच्छ पट्टावली में इनकी जीवनी विस्तार से दी गई बिंब बनवाके खरतरगच्छीय श्री जिन हंससूरि से प्रतिष्ठा कराई। है एवं गुणप्रभसूरि-प्रबंध भी उपलब्ध है। ये छाजहड़गोत्रीय जूठिल
५. (नाहर २४०१) सं. १५३६ मिती फाल्गुन सुदि ५ कलशृंगार नगराज नागलदे के पुत्ररत्न थ। त्रिपुरा देवी के संकेत भौमवार को उपकेशवंश के छाजहदगोत्रीय मंत्री कलधर संतानीय से इन्हें दीक्षा दी गई। स. १५६५ मार्गशीष चतुर्थी गुरुवार को मं जढिल पत्र मं काल भार्या कर्मा दे प. नयणा भा. नामलदे जन्म, सं. १५७५ में दीक्षा व सं १५८२ में जोधपुर में फाल्गुन सुदि
के प्र.मंत्री सीहा की भार्या चोपड़ा सा.सवा के पुत्र सं. जिनदत्त ४ को पट्टाभिषेक हुआ। जोधपुर के गंगेवराव, जेसलमेर के रावल,
भा..लखाई की पुत्री श्राविका अपूर्व नामक ने पुत्र समधर, इनके भक्त थे। ये बड़े प्रभावक थे। अनेक चमत्कारों का वर्णन ।
समरा, संदू के साथ स्वपुण्यार्थ श्री आदिदेव के प्रथम पुत्र भरत पाया जाता है। अकबर-प्रतिबोधक श्री जिनचंद्रसूरि (चौथे दादा
चक्रवर्ती की कायोत्सर्गमय प्रतिमा बनवाई। श्री खरतरगच्छ के साहब) को इन्होंने ही सं. १६१२ में सूरिपद दिया था, रावल
श्री जिनदत्तसूरि श्री जिनकुशलसूरि संतानीय श्री जिनचन्द्रसूरि, मालदेव ने पट्टाभिषेकोत्सव किया। मंत्री राजसिंह के संघ
पं. जिनेश्वरसूरि शाखा के जिनशेखसूरि के पट्टधर श्री जिनधर्मसूरि सहित तीर्थ यात्राएं की। दुष्काल के समय वर्षा के लिए श्री धरणन्द्रादि का आह्वान कर वर्षा कराई। रावल लूण करण ने
पट्टे पूज्य श्रीजिनचन्द्रसूरि ने प्रतिष्ठा की (श्राविना सूरमदे कारित) मोतियों से वधाया अनेक चमत्कारपूर्ण जीवनी के लिए पट्टावली ६. (नाहर २४३७) सं. १४३२ फाल्गुन सुदि ३ रविवार देखनी चाहिए। सं. १६५५ वैशाख बदि ८.को तिविहार ग्यारस को उपकेश वंश के छाजहड़गोत्रीय सं. वेगडा श्रेयार्थ देवदत्त
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासपुत्र मं. गुणदत्त भार्या सोमलदे के पुत्र धर्मसिंह ने पुत्र समरथादि प्रिया चांपल दे। द्वितीय देपाल उसकी प्रिया दाडिम दे, तीसरा के परिवार सहित भार्या के पुण्यार्थ श्री नमिनाथबिंब बनवाकर महिराज जिसकी प्रिया महिगल दे थी। इनमें मंत्रीश्वर देपाल
ट्टधर श्री जिनचंद्र सूरि से प्रतिष्ठा करवाई। दाडिम के तीन पुत्र १. उदयकर्ण, २. श्रीकर्ण, ३. सहस्त्रकिरण ७. (नाहर २४४७) सं. १६७३ (चैत्रादि) मितीजेठ सुदि था सहस्त्रकिरण को भायो सिरियाद। उसके प १५ सोमवार मल नक्षत्र में जैसलमेर नगर में राउल श्री कल्याण मंत्री दीदा सूर्यमल की भार्या मूलादे की कोख से उत्पन्न मंत्री जी के राज्य में खरतरवेगडगच्छ के श्री जिनेश्वरसरि के विजय हरिश्चंद्र मंत्रीश्वर विजयपाल थे। मंत्री दीदा की भार्या श्रा. सवीरदे। राज्य में छाजहड गोत्रीय मं. कलधरान्वये मं. वेगड पत्र मं. सरा पुत्र ३ हुए-१. मंत्रीश्वर हमीर, २. कर्मसिंह, ३. धर्मदास। हमीर तत्पुत्र मं. देवदत्त पुत्र मंत्री गुणदत्त पुत्र मं. सुरजन मं. चकमा,
मंत्रीश्वर की भार्या चांपलदे उसके विजयी पत्र देवीदास मंत्री धरमसी, रत्ना, लखमसी मंत्री सरजन पत्र जीआ दस। जीआ विजयपाल की भार्या विमलादे, उसका पुत्र मंत्रीश्वर तेजपाल पुत्र मंत्री पंचाइण पुत्र मं. चांपसी म. उदयसिंह मं. ठाकरसी। मं. हुआ। तेजपाल की भार्या कनका दे प्रभृति समस्त परिवार के टोडरमल पुत्र सोनापाल सहित उपाश्रय बनवाया। सूत्रधार पांचा साथ सं. १६६३ मार्गशीर्ष बहुल ६ सं.१६६३ सोमवार पुष्य अबाणी ने निर्माण किया।
नक्षत्र में ब्रह्मयोग में खरतरवेगड़गच्छ के श्री जिनेश्वर सूरि
जिनशेखरसूरि पट्टे जिनधर्मसूरि-जिनचंद्रसूरि पट्टेजिनमेरूसूरि पट्टे ८. (नाहर २५०६) सं. १६७४ चैत्र से ७५ वर्षे मार्गशीर्ष
श्री जिनगुण प्रभसूरि गुरु के स्तूप की प्रतिष्ठा श्री जिनेश्वर सूरि ने बदि के त्रुटित लेख में छाजहड़ काजल पुत्र उद्धरण पुत्र कुल धर
की रावल भीमसेन के जेसलमेर राज्य में। श्री जिन गुणप्रभसूरि अजित पुत्र माधव...
के शिष्य पं. मतिसागर ने पट्टिका लिखी मंत्री भीमा पुत्र मं. पदा ९. (नाहर २४७८) सं. १४६२ माघ बदि ८ शुक्रवार को पुत्र मं. माणिक ने १० देहरी को दिया। थंभ सिलावट अखा ३० ज्ञा. छाजहड़गोत्रीय सं. जइत कर्ण भार्या दुलहदे पुत्र लखमण
शिवदास हेमाणी ने किया। जसा वधआणी सिलावट ने किया। ने माता पिता के श्रेयार्थ शांति जिन प्रतिमा बनवाकर पल्लिगच्छीय समस्त छोटे बड़े संघों का कल्याण हो। श्री शांतिसूरि से प्रतिष्ठित करवायी।
छाजहड़गोत्र १०. (नाहर २५०५) जेसलमेर श्मशान भूमि - जेसलमेर के थंभप्रतिष्ठा कराने वालों के नामों की प्रशस्ति
सं. १२१५ में मणिधारी दादा श्री जिनचन्द्र सूरिजी समियाणा लिखते हैं--
गढ़ (गढ़ सीवाणा) पधारे, वहाँ राठौड़ आस्थान के पुत्र धांधल
तत्पुत्र रामदेव का पुत्र काजल रहता था। काजल ने सूरिजी से ऊकेश वंश के छाजहड़ गोत्रीय पहले क्षत्रिय राठौड़
कहा - "गुरुदेव! रसायन से स्वर्णसिद्धि की बात लोक में सुनते के थे। राजा आस्थान के धांधल आदि १३ पुत्र हुए। धांधल का
हैं, क्या यह सत्य है ?" गुरुदेव ने कहा "हम लोग सावध क्रिया पुत्र ऊदिल उसका पुत्र रामदेव तत्पुत्र काजल वह संप्रति सेठ के
क के त्यागी हैं, अत: धर्मक्रिया के अतिरिक्त आचरण वर्ण्य है। " गोद गया। उसने श्रावक धर्म स्वीकार किया। उसके अनुक्रम से
काजल ने कहा एक बार मुझे दिखाइये, धर्मवृद्धि ही होगी। सूरिजी ऊधरण हुआ। उसका पुत्र कुलधर, कुलधर का पुत्र अजित
ने कहा - "यदि तुम जैनधर्म स्वीकार करो तो मैं दिखा सकता अजितपुत्र सामंता उसका पुत्र हेमराज, पुत्र बादा तत्पुत्र माला
हूँ।" काजल अपने पिता से पूछ कर जैन-श्रावक हो गया। मलयसिंह नामक, माला पुत्र जूठिल पुत्र कालू प्रधान। चौहान
सूरिजी ने दीवाली की रात्रि में लक्ष्मी मंत्र से अभिमंत्रित वासक्षेप घड़सी राजा का राज्यमंत्रीश्वर था। उसने रायपुर नगर में जिनालय
देते हुए कहा - यह चूर्ण जिस पर डालोगे वही सोना हो जाएगा। बनवाया। उसकी पत्नी शीलालंकारधारिणी कर्मादे हुई। उसके
यह प्रभाव केवल आज रात्रि भर के लिए है। काजल जैनमंदिर, ५ पत्र थे-रादे, छाहड़, नेणा, सोनपाल, नोड राजा एव अरथू देवी के मंदिर और अपने घर के छज्जों पर वासक्षेप डालकर सो नामक बहिन थी। इनमें सोनपाल मंत्रीश्वर उसकी भार्या सं.,थाहरू
गया। प्रातःकाल तीनों छज्जे स्वर्णमय देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। की पुत्री सहजलदे थी। उसने तीन पत्र रत्न जन्मे । मंत्री सतोपाल
सभी लोग इस चमत्कार को देखकर आनन्दमग्न हो गए। काजल
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासने गुरु महाराज से प्रतिबोध पाकर सम्यक्त्वसहित बारह व्रत पाटण पीरात मांझिसो तो सारोजगजाने कोलै पल्लीवाल सो तो पाइली मुझारजू।। स्वीकार किए। गुरु महाराज ने स्वर्णमय छाजों के प्रादुर्भाव से ताके पीछे खेड़वीचि वेगड़ विरुद धर्यो सर्यो मकसूद खरतरे सिरदारजू। छाजहड़ गोत्र की स्थापना की।
कलश दंडचढ़ाया वेगड़ विरुद पाया धराया तातेगच्छ चौरासीवे वेगडसिंगार जू।।४।।
पहिला छाजड़ कोला वरडीया पल्लीवालउवा का गुरु पल्लीवाल पल्ली शुभ थान जू। उद्धरण छाजहड़
बीजा वेगड़ प्रसिद्ध खेड़ में हुआ समृद्ध सातवीस देहरा कराया सुप्रधान जू। एक बार श्री जिनपतिसूरिजी ने अजमेर-चातुर्मास में रामदेव
सोवन कलशदंड मंडपमंड अखंड पातसाहीसनाथ मेदनीमंडानजू
खेड पल्ली सोनगिरि गूजर जंगलधर गौरी गृह एने थानवेगड़े दीवान जू।।४।। आदि के समक्ष प्रसंगवश खेड़निवासी उद्धरण शाह मंत्री की प्रशंसा की। रामदेव उद्धरण से आकर मिला। उसने सेठ रामदेव को बहुत
श्री जिनेश्वरसूरि-गीत में ही सम्मानित किया। उसने मंत्री की पत्नी को जिनालय जाते समय तंवेगड विरुदेवडो.छाजहडाकल छात्र हो. छाबभर के साड़ियां आदि ले जाते देखा तो आश्चर्यपूर्वक नौकर से गच्छ खरतर नो राजियो, तूसींगड़ वड गात्र हो...३ इसका कारण ज्ञात किया कि स्वधर्मी बहिनों को भेंट करने के लिए परतो पूर्योखान नोअणहिल वाडइ मांहि हो ये प्रतिदिन ले जाती हैं। राम देव उद्धरण के घर का आचार देखकर महाजन बंद मूकावियो, मेल्यो संघ उच्छाहि हो...६ प्रसन्न हुआ। एक बार उद्धरण ने नागपुर में मंदिर-निर्माण कराया आराधी आणंदसूवाराही विपुराय हो था। प्रतिष्ठा के लिए बुलाए आचार्य के न पहँचने पर मंत्री पत्नी जो धरणेंद्र पिण परगट कियो, प्रगटीअति महिमाय हो....५ खरतरों की पुत्री थी, के कथन से चैत्यवालिया के पास प्रतिष्ठान राजनगरनइ पागुरया, प्रतिबोध्या महमद हो। कराके सकुटुम्ब मंत्री खरतरगच्छीय श्रावक हो गया।
पदढवणो परगट कियो, दुःख दुरजन गया रद हो...७
सी गडसींग वधारिया, अति ऊंचा असमान हो ऊपर सं.१२१५ में मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरिजी से छाजहड़ धीगड भाई पांचसई,घोड़ादीधा दान हो...८ गोत्र उत्पन्न हुआ. लिखा है जब कि यहाँ उद्धरण छाजहड़ के द्वारा सवा कोटि धन खरचीयो. हरख्यो महमद साह हो खरतरगच्छीय होने का उल्लेख है। इस विषय की एक प्रसिद्ध विरुद दियो वेगड तणो, परगट थयो जग माह हो ९ (हे.पै.का.से.पृ. ३१४) गाथा उद्धृत की जाती है-- 'बारह सौ पणयाले विक्कमे वच्छरे वइक्कंते
श्री क्षेमराज उपाध्याय गीतसार उद्धरण केड पमुहा छाजहडा खरतरा जाया।'
छाजहड़गोत्रीय लीलासाह की पत्नी लीलादेवी के पुत्र थे १५१६ में उद्धरण ने खेड़ नगर में जिनपति सूरि से प्रतिष्ठा कराई।
गच्छ नायक के श्री जिनचंद्रसूरि जी से दीक्षा ली। वा. सोमध्वज के जिसका ऊपर कल्पसूत्रप्रशस्ति में वर्णन है।
शिष्य हुए। गुरुपरंपरा :-जिन कुशल-विनयप्रभ- विजयतिलक-क्षेमकीर्ति
क्षेमहंस-सोमध्वजशि. आपके तीन शिष्य थे, जिनमें प्रमोदमाणिक्य शि. वेगड़ शाखा के जिनसमुद्रसूरि-रचित महाराजा अनूपसिंह
जयशोम के शि. गुणविनय हुए। क्षेमराज की कृतियाँ-- जौर राठौड़ वंशावली संबंधी काव्य में छाजहड़-गोत्र संबंधी प्राप्त पद्य--
१ उपदेशसप्ततिका (सं. १५४७ हिसार, श्रीमाल पपर वोदा आदि) .. कुमर स्वरूप देखी काजलज्यों नेत्र रेखी छाजड़े में सुविशेषी काजल देनाम जू।
२. इक्षुकार चौपई गा. ५० आणि के सेठ को दीनो, लहिणो सोदूर कीन्हों, दोहू को रह्यो अक्रीनोआवेनिज धाम जू।।।
३. श्रावक विधि चौपई गा ७०, सं. १५४६ बरहड़ीयां का गोत छाजड़े ते छाजड़ोत ऐसे गोत छाजड़ को भयो तिण ठाम जू।
४. पार्श्वनाथ रास ना. २५ वदत समुंद महाराजश्री अनूपसिंह जी कोकाको करें काम वाको सरें कामज॥३८ ५. सीमंधरस्तवन ६. पार्श्वनाथ १०८ नाम काजल के वेर उद्धरण जूकिए उद्धार सातवीस चैत्य खेड़ वीचि गुरु वेण जू।
७. वरकाणा स्त. एवं स्तवन सज्झादि उपलब्ध हैं। श्रीजिनपति सूरि प्रतिष्ठा करी पडूर मांड्यो विषवाद भूर वरडीये तेण जू।।
श्री जिनलाभ सूरिजी महाराज की पदस्थापना कच्छ के मांडवी बंदर जीत्योखरतरे सूर वेगड़ पडूर हारयो गुरु वरडीये कोले भये मैणजू।
में छाजहड़गोत्रीय शाह भोजराज कारित नंदी महोत्सवपूर्वक हुई थी। वेगड़ कोले भाई छाजड़ दोनूं कहाई वृद्ध वंत हो सहाई जोलूंजिन जैन जू।।३९।। छाजड़ में घालि दीनौ ताहूँ पै छाजड़ भये असल वरडीया तें छाजड़ कुमार जू।
आचार्य शाखा के (६५) जिनचंद्रसूरि का सं.११७४६ मार्गशीर्ष सुदि
१२ को लूण करणसर में छाजहड़ रतनसी जोधाणी ने पदोत्सव किया था। andidabrandardwondondoniyorderGovindvdroidnidi१११Hidndroidndirdabrdwordwondiwondiniromidroombinirdabudanda
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-- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासक्षत्रिय वंश राठौड़ राजा जयचंद
वंशज आस्थान जी
धांधल आदि १३ पुत्र
ऊदल
रामदेव
ठाकुरसिंह - जैन बना
ब्रह्म
उद्धरण (खेड़पुर में हुआ, चित्तौड़ में पार्श्वभवः बनवाये, सोने के छज्जे करवाये जिसके छाज हड़ गोत्र हुआ। खेड़ में शान्तिनाथ जिनालय बनवाये
श्री जिनपतिसूरि से प्रतिष्ठा कराके खरतक श्रावक हुआ।
कुलधर - इसने जावालपुर भिन्नमाल, बाहड़मेर में जिनालय बनवाये।
अजित
सामंत
बीदा
माला
मलयांसह
जूठिल
झांझण
मंत्री कालू (मार्या कर्मा दे)
मोहण देवधर भाहू
गत्यपुर के राजा भीम का राज्यधुरा वाहक हुआ।
शत्रुजय का संघ निकाला। सींगड़ - जिनेश्वर सूरि हुए
छाहड़
नेणा मं. सोनपाल नोड़ राजा अरघू (पुत्री)
(थाहरू पुत्री सहजबद्दे)
पडूनी २
सतोपाल (चांपल दे)
म. देपाल (दाडिम दे)
महिराज (महिगल दे)
दवाल्हण दे
२ कैरतिग दे
उदयकर्ण
श्री कर्ण
सहसकिरण (सिरीया दे)
भरत
भरम भोज भट्ट १.सूरा मंत्री २. भवनपाल - महेवा
__(दानी, मानी, कलाविद, राजमान्य) (मार्या कण्णादेवी)
म. सूर्यमल ( मूलादे)
दीदा (सवीर दे)
१.घनदत्त
३.शिव
४.संग्रल
२.गांगदत्त (मार्या गेलम देनी)
धर्मदास
३. राणा
४. दूदा
५. यहीकण
१.राजसिंह २. जसा (चंजभोजा पुत्री राजलदे)
म. हरीश्चन्द्र विजमाल हमीरकर्मसिंह
(विमला दे) (चांपल दे)
तेजपाल देवीदास
(कनकादे) (सपरिवार ने जिन गुणप्रभसूरि स्तूप पाहुका)
यह उसी के आधार पर
३.
१.सत्ता २.पत्ता (शक्तादने) पानू
| ४. चौथा चाचा देसरू
(मार्यारुणी) पुत्री ३ (१ जेसी २ रंगी ३ चंगी)
नेता
(नवरंग दे) यहां केवल कल्प सूत्र प्रशस्ति और गुणप्रसूरि स्तूप के आधार से अपनी "जेसलमेर के कलापूर्ण मंदिर'' पुस्तक के यहां वंश वृक्ष है। नाहर जी के लेख संग्रह के प्रतिमा लेखों में और भी बहुत नाम आये हैं। तथा अन्य लेख संग्रहों विस्तृत वंशवृक्ष तैयार हो सकता है। nidrodaridriddaridrsdrsansaridroidnid ११२/drridindiansarswaminidiosaridrioritoria
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जैसलमेर : पुरातात्त्विक तथ्य
भारत की पश्चिमी सीमा का प्रहरी जैलसमेर नगर अपने कलापूर्ण जिनालयों और ताड़पत्रीय ग्रंथों के लिए विश्वविश्रुत है। गत सौ-सवासौ वर्षों में अनेक पुरातत्त्वज्ञ, कला-मर्मज्ञ, पर्यटक एवं तीर्थ यात्रीगण उस दुर्गम प्रदेश में अपनी प्राचीन ग्रंथादि एवं इतिहास की शोध - रुचि के कारण भयानक कष्ट उठाकर जाते रहे हैं। क्योंकि वहाँ मार्ग में जलाभाव स्वाभाविक है। वहाँ सैकड़ों तालाब आदि हैं, किन्तु वर्षा तीसरे वर्ष होती है और दुष्काल का ठावा-ठिकाना माना जाता रहा है। कहा भी जाता है कि-'पग पूगल धड़ मेड़ते बाहां बाहड़मेर, भूल्यो चुक्यो बीकपूर ठावो जेसलमेर। '
वहाँ के ज्ञानभण्डार देखने विदेशी विद्वान् भी गए। जैनाचार्य श्री जिनकृपाचंद्र सूरिजी, श्री हरिसागरसूरिजी मुनिश्री पुण्यविजयजी पुरातत्त्वाचार्य जिनविजयजी आदि ने सुव्यवस्थित करने का प्रशंसनीय कार्य किया तथा गायकवाड़ सरकार ने चिमनलाल डाह्याभाई तथा पं. लालचंद भगवान दास गांधी ने वहाँ के ग्रंथों की सूची भी प्रकाशित की थी। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने विशेष रूप से कार्य किया, अंत में जोधपुर निवासी स्वर्गीय जौहरीमलजी पारख ने ग्रंथों का फिल्मीकरण भी करवाया।
भँवरलाल नाहटा...
उनके स्वर्गवास को साठ वर्ष बीत जाने पर भी प्रकाशित नहीं हो सका है ?
जब श्री हरिसागरसूरिजी का जैसलमेर ज्ञानभण्डार के निरीक्षण/ शोध के लिए विराजना हुआ तब काकाजी अगरचंदजी के साथ वहाँ जाकर २५ दिन हम रहे और नाहरजी के प्रकाशित किए हुए लेखों को मिलाकर संशोधन किया और छूटे हुए अवशिष्ट २७१ लेख संग्रह कर बीकानेर जैनलेखसंग्रह के साथ प्रकाशित किए।
नाहरजी का प्रकाशन आज से ६७ वर्ष पूर्व हुआ था। सन् १९३६ में तो उनका स्वर्गवास ही हो गया था ।
आर्यावर्त में सर्वप्राचीन जैनधर्म है और इसमें अनादिकाल से मूर्तिपूजा का प्रचलन रहा है। अन्यधर्मो में मूर्तिपूजा जैन धर्म के बाद ही चली थी, यों देवलोक, नंदीश्वर, द्वीपादि में सर्वत्र अनादिकाल से प्रथा चली आना सिद्ध है। मूर्तिपूजा का विरोध मुस्लिम शासनकाल में ही हुआ और उनकी संस्कृति के प्रभाव से जैनधर्म में भी यह दुष्प्रभाव फैला।
किसी भी नगर गाँव के बसने से पूर्व अपने इष्टदेव का मंदिर निर्माण करना अनिवार्य था। जैसलमेर बसने से पूर्व लौद्रवाजी में प्राचीनतम मंदिर था। आज जो चार सौ वर्ष प्राचीन मंदिर है, वह जैसलमेर के निवासी धर्मनिष्ठ सेठ थाहरुशाह भणशाली द्वारा निर्मित है, उसके नीचे वाले भाग के घिसे हुए पत्थर स्वयं यह उद्घोष कर रहे हैं कि वे सहस्त्राब्दि पूर्व के निश्चित रूप से हैं। लौद्रवपुर तथा राजस्थान के विभिन्न स्थानों से आए हुए जैन श्रावकों ने वहाँ अपने निवासस्थान में अनेकों गृहचैत्यालय तथा किले में जिनालय का निर्माण कराया था। लौद्रवपुर वीरान हो गया।
सन् १९२९ में स्वनामधन्य श्री पूरनचंदजी नाहर ने वहाँ के शिलालेख व प्रतिमा लेखों का संग्रह करके इतिहास के साथ ४७९ अभिलेख, जैनलेखसंग्रह का तृतीय भाग जैसलमेर नाम से सचित्र प्रकाशित किया। उन दिनों मैं उनके संपर्क में आने से प्रायः रविवार को उनके यहाँ जाता और हस्तलिखित ग्रंथों व अन्य सामग्री का आवश्यकतानुसार निरीक्षण करता। उनका संग्रह देखकर हमने भी संग्रह कार्य प्रारंभ किया । फलस्वरूप आज हम सवा-डेढ़ लाख ग्रंथों तथा पुरातत्त्व सामग्री का संग्रहालय, कलाभवन, बीकानेर में स्थापित कर सके । नाहरजी ने जैनलेखसंग्रह ३ भाग निकाले । वे बंगाल के जैनों में सर्वप्रथम ग्रेजुएट और पुरातत्त्ववेत्ता थे। जब जैलसमेर का तृतीय खण्ड छप रहा था तब मैंने भी अपने संग्रह के ऐतिहासिक स्तवनादि प्रकाशित करवाए थे। नाहरजी ने मथुरा के अभिलेखों का हिन्दी व अँग्रेजी अनुवाद सहित ग्रंथ तैयार किया था, पर वह अद्यावधि
[ ११३
नाहरजी ने किले के मंदिरों के फुटनोट में लिखा है कि वृद्धिरत्नमाला में वृद्धिरत्नजी ने श्री पार्श्वनाथजी का मंदिर संवत् १२१२ में प्रतिष्ठा का समय लिखा है परंतु यह जैसलमेर नगर की स्थापना का समय है। मंदिर तो २५० वर्ष बाद बने थे। मंदिर - प्रतिष्ठा का वर्णन और संवत् प्रशस्ति में स्पष्ट है । नाहरजी का यह लेख वर्तमान परिवेश की अपेक्षा ठीक है, किन्तु मंदिर
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासजो नगर बसने के समय बसा था, उसकी अवस्थिति का कोई दो-दो वर्ष के अंतर में तीन बार शायद ही आरोपित हुए हैं। ये अभिलेख आदि प्राप्त नहीं होता। यवन शासक अलाउद्दीन किस स्थान पर थे, यह जानने के लिए हमारे पास कोई साधन खिलजी की ध्वंस लीला के शिकार प्राचीन मंदिर कितने क्या नहीं है, किन्तु प्राचीन क्षतिग्रस्त जिनालय के स्थान पर हुए हों, थे, उनका अवशिष्ट शिल्पगत प्रमाण नहीं मिलता, किन्तु अनुमान सहज ही किया जा सकता है। युगप्रधानाचार्य-गुर्वावली आदि एवं ग्रंथों की प्रशस्तियों में प्राचीन
पंद्रहवीं, सोलहवीं शती के जैलसमेर की जाहोजलाली मंदिर की प्रतिष्ठा के स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होते हैं।
अपने पूर्ण मध्याह्न में थी और उसी समय जैसलमेर दुर्ग पर ताडपत्रीय ग्रंथप्रशस्तियों से सिद्ध होता है कि मणिधारी विश्वविख्यात कलापूर्ण जिन मंदिरों का क्रमशः निर्माण हुआ दादा श्री जिनचंद्र सूरि के पट्टधर आचार्य श्री जिनपतिसूरिजी के था। इन मंदिरों का इतिहास जानने के लिए मंदिरों, शिलालेख परम् भक्त सेठ क्षेमंधर के पुत्र जगद्धर ने यहाँ पार्श्वनाथ जिनालय प्रशस्ति, प्रतिमालेख और चैत्य-परिपाटी स्तवनादि से बड़ी सहायता का निर्माण कराया था। आचार्यश्री जिनपतिसूरिजी महाराज सं. मिलती है। १२६० में जैसलमेर पधारे उस समय यहाँ देवग्रह बना हुआ था, जैसलमेर में सर्वप्रथम पार्श्वनाथ जिनालय निर्माण सेठ जिसमें फाल्गुन सुदि २ के दिन उन्होंने श्री पार्श्वनाथ भगवान की
जगद्धर का गौरवपूर्ण वंश परिचय ताड़पत्रीय ग्रंथ-प्रशस्तियों के प्रतिमा स्थापित की। इस प्रतिष्ठा-स्थापना का महोत्सव सेठ
आधार पर दे रहा है। जगद्धर ने बड़े समारोहपूर्वक किया था। ये बोथरा बच्छावत
ऊकेशवंश में आषाढ़ सेठ महर्द्धिक और धर्मिष्ठ हुए हैं। वे आदि के पूर्वज थे।
पहले महेश्वर धर्म को मानने वाले माहेश्वरी थे, जो प्रतिदिन पाँच सं. १३२१ में जिनेश्वरसूरिजी (द्वितीय) ने जैसलमेर में
सौ याचकों, पथिकों को घृत व अन्नदान करते थे। इन्होंने दम्भी जसोधवलकारित देवगृह के शिखर पर मिती ज्येष्ठ शुक्ल १२ के
व्यास की दुष्टता देखकर माहेश्वरत्व छोड़ दिया, क्योंकि लघुकर्मी दिन भगवान पार्श्वनाथ की स्थापना एवं ध्वजारोपण किया था।
थे। अतः उपकेशपुर में वीतराग मुनिपुङ्गवों से सम्यक्त्वरत्न इसी प्रकार सं. १३२३ मिति ज्येष्ठ सुदि १० के दिन जावालिपुर में
प्राप्त कर आर्हत् धर्म स्वीकार कर सपरिवार श्रावक हो गए। जेसलमेर के विधिचैत्य पर आरोपण करने के लिए सा. नेमिकमार
इनके पुत्र जामुबाग और उनका पुत्र सेठ बोहित्य हुआ इसके सा. गणदेव के बनवाए हुए स्वर्णमय दण्डकलश की प्रतिष्ठा हुई। पद्मदेव और वीह नामक दो पत्र थे। सेठ पद्मदेव भार्या देवश्री ये दोनों भ्राता सेठ यशोधवल के वंशज थे। (आवश्यकलघु
का पुत्र सुप्रसिद्ध सेठ क्षेमंघर हुआ। पद्मदेव ने नागौर के पास वृतिप्रशस्ति पृ. ३८) सं. १३२५ में वैशाख सुदि १४ के दिन
। कुडिलुपुर में जिनालय निर्माण कराया। क्षेमंधर ने मरुकोट दुर्ग स्वर्णमय दण्डकलशादि का आरोपणोत्सव विशेषविस्तारपूर्वक
में मणिधारी दादा श्री जिनचंद्रसूरिजी से प्रतिबोध पाकर विधि सम्पन्न हुआ था। युगप्रधान-आचार्य-गुर्वावली से ज्ञात होता है
मार्ग स्वीकार किया और सं. १२१८ वैशाख सुदि १० को धर्कट कि उस समय जैसलमेर मरुस्थल के जनपदों में मुख्य महादुर्ग वंशीय पार्श्वनाथ के पत्र सेठ गोल्लककारित चंद्रप्रभ जिनालय था। श्री जिनप्रबोध सूरिजी महाराज स. १३४० के फाल्गुन में की 'प्रतिष्ठा दण्ड-कलश ध्वजारोहण के समय ५०० द्रम्म देकर यहाँ पधारे तब महाराज कर्णदेव ने सामने आकर स्वागत किया
माला ग्रहण की। उस समय वहाँ राजासिंहबल का राज्य था। और आग्रहपूर्वक चातुर्मास भी कराया। दादाश्री जिनकुशलसूरिजी
सेठ क्षेमंधर के दो पुत्र महेन्द्र और प्रद्युम्न इतः पूर्व दीक्षित महाराज ने सिंधुदेश-विहार के समय जैसलमेर पधारकर
हो चुके थे, वे चैत्यवासी-परंपरा में थे। अपने पुत्र प्रद्युम्नाचार्य स्वहस्तकमलों से प्रतिष्ठित श्री पार्श्वनाथ भगवान को वंदन किया।
को सुविहित विधिमार्ग में लाने के लिए इन्होंने सं. १२४४ में उपर्यक्त प्रमाणों से जैसलमेर बसने के पश्चात् वर्तमान आशापल्ली में श्री जिनपतिसूरीजी के साथ शास्त्रार्थ कराया और मंदिरों के निर्माण से पूर्व वहाँ श्री पार्श्वनाथ स्वामी का स्वर्ण
विधिचैत्यों की गरिमा मान्य कराई पर वे विधि मार्ग में न आए। दण्डकलशयुक्त सौधशिखरी जिनालय होना सिद्ध होता है। ये
। अजयपुर के विधि चैत्य में मण्डप-निर्माण हेतु सेठ क्षेमंधर ने
भ मंदिर एकाधिक हो सकते हैं, क्योंकि स्वर्ण-दण्ड-कलश आदि सोलह हजार रुपए प्रदान किए और हजारों पारुत्थक (मद्रा) inodrowondooriwaridwohrowdriwaridrodaridrira[११४Hiwariridwaridniramidniduiriramidairaniudnoramonand
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- यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासव्यय कर अपने कुल के श्रेयार्थ तीर्थ यात्राएँ कीं। इनके यशोदेवी वर्तमान में जो सर्वप्राचीन कलापूर्ण और मुख्य जिनालय
और हंसिनी नामक भार्याएँ थी। यशोदेवी के पुत्र जगद्धर ने श्री पार्श्वनाथ स्वामी का है। वह खिलजी काल में मुसलमानों के जैसलमेर में देवविमानतुल्य पार्श्वनाथ जिनालय का निर्माण कराया। अधिकार में जैसलमेर था। वह ध्वस्त किए जिनालय के स्थान इनकी स्त्री का नाम साढलही था। जिसकी कोख से १ यशोधवल, में ही बना या अन्यत्र यह पता नहीं, क्योंकि वर्तमान जिनालय २ भुवनपाल, ३. सहदेव नामक पुत्र और आसुला, हीरला रांका सेठ परिवार द्वारा निर्मित है। जिस की विस्तृत, प्रशस्ति में नामक दो पुत्रियाँ हुईं। सेठ, यशोधवल, मरुस्थल-कल्पद्रुम कहलाते उनकी वंशपरंपरा दी गई है। थे। वे प्रतिदिन देशान्तरों से आए हए श्रावकों की भोजनादि से
यह प्रतिष्ठा सं. १३१७ वैशाख सुदि१० को हुई थी। श्री भक्ति करते थे। दूसरे भ्राता भुवनपाल बड़े पुण्यात्मा थे। छह अभयतिलक गणि ने अपने महावीररास में लिखा है कि भवनपाल मास भूमिशय्या, एकासनत्व, स्नानत्याग, षडावश्यक, नवकार ने यह सौधशिखरी जिनालय राय मंडलिक के आदेश से बनवाया मंत्र स्मरण, ब्रह्मचर्य आदि अनेक नियमों के धारक थे। सं.
और मण्डलिकविहार नामक मंदिर बनवाकर अपने पिता श्री १२८८ आश्विन सुदि १० को पालनपुर में गुरु महाराज श्री
जगद्धर शाह के कुल में कलश चढ़ाया। जिनपतिसूरि के स्तूपरत्न पर ध्वजारोहण कराया। श्री भीमपल्ली
भीमपल्ली पुरिविहिभुयणि अनु संठिउ वीर जिणंदो,. में सौधशिखरी प्रासाद निर्माण कराके श्री जिनेश्वरसूरिजी के
तसुउवरि भुयण उतुंग वर तोरणं, मंडलिराय आएसि अइ सोहणं करकमलों से वीरप्रभु की स्थापना कराई। इनकी पत्नी पुण्यिनी साहुणा भुवणपालेण करावियं, जगधर साहुकुलि कलश चाडावियं। बड़ी पुण्यात्मा थी, जिसके त्रिभुवनपाल और धीदा नामक पुत्र हेम धय दंड कलसो तहि कारिओ, पहु जिणेसर सूरि पासि पइठाविओ हुए। उनके क्षेमसिंह और अभयचंद्र पुत्र हुए।
विक्कमेवरिसि तेरहइसतरोतरे (१३१७) सेय वइसाह दसमीइ सुहवासरे अपने गुरु श्री जिनेश्वरसूरिजी की श्रीसंघ सेना के सेनापति
इसी वंश में सा. वीरदेव बड़े नामांकित व्यक्ति हुए, बने। और तीर्थयात्रा द्वारा अपने कल पर अपने नाम का कलश जिनके द्वारा सं. 1381 में श्री जिनकुशल सरिजी के सान्निध्य चढ़ाया। उदारचेता भुवनपाल ने प्रत्येकबुद्ध-चरित्र लिखवाकर में शंगत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकालने का विशद वर्णन श्री जिनेश्वरसूरि को समर्पित किया। अभयचंद्र की भार्या लक्ष्मिनी मिलता है। उसके भाई सा. मालदेव व हुलमसिंह,धनपाल, थी और धीधा, जगसिंह, तेजा नामक तीन पुत्र और पद्मिनी व सामल के नाम भी पूर्वजों के रूप में आए हैं। सं. 1377 में कुमारिका दो पुत्रियाँ एवं साचा आदि पौत्र-प्रपौत्र हुए। सेठ जगद्धर श्री जिनकुशलसूरिजी के पट्टाभिषेक के समय भी वीरदेव पत्तन द्वारा श्रीमालनगर में समवशरण, प्रतिष्ठा व शांतिनाथ स्थापना के में उपस्थित ह । इन्हें भीमपल्ली के मुकुटमणि साधुराज उल्लेख मिलते हैं।
सामल के पुत्र थे, लिखा है। सेठ क्षेमंधर की द्वितीय पत्नी हंसिनी के १ भीमदेव २ श्री नाहरजी के जैनलेखसंग्रह ततीय भाग में प्रकाशित पदम ३ पुरिसड़ पुत्र थे। पद्म की स्त्री जयदेवी और पुत्र का नाम
जयदवा आर पुत्र का नाम अभिलेखों के अतिरिक्त रांका सेठ परिवार द्वारा निर्मापित वर्तमान
भी साढल महाश्रावक था।
जिनालय गत लेखों के अतिरिक्त निम्नोक्त कल्पसूत्र लेखनप्रशस्ति उपर्युक्त इतिवृत्त जैलसमेर में सर्वप्रथम देवविमान सदृश भी इसी परिवार से संबंधित होने से यहां उद्धृत की जा रही है। पार्श्वनाथ जिनालय निर्माण कराने वालों का है जो जैसलमेर
कल्पसूत्र-लेखन-प्रशस्ति ज्ञानभण्डार की कई ताड़पत्रीय ग्रंथप्रशस्तियों एवं युग-प्रधानाचार्य -गुर्वावली के आधार पर लिखा गया है। इस समय न तो कोई
गृक्षगच्चारुशाखायुगा..नासप्रयोजयत्।
श्रीमानूवेशवंशोऽयं, चिरं नंद्यान् महीतले ।।१।। शिलालेख-प्रशस्ति आदि उपलब्ध है और न उस मंदिर का पता है। जिनालय निर्माता का गोत्र भी नहीं लिखा है। अत: बोहित्थ
ता चा-शेष्ठिरंककशाखायां, यक्षदेवस्य नन्दनः। के वंशज बोथरा गोत्र समझना चाहिए।
अभूत् झांबटकाभिख्य, तत्सूनुर्धांधलोत्तमः।।२।। श्रीगजू भीमसिघाख्यानभूतां धांधलाङ्गजौ।
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य इतिहासगजूकस्य गणदेवो, मोक्षदेवस्तया सुतौ।।३।। श्री आंबराज आदाय संघशपदमुत्तमम्। मेघा जेसल मोहण, नामान इतिच विख्याता।
शत्रुञ्जयोज्जयजन्ताद्रि तीर्थे यात्रा विनिर्ममे।।१९।। गणदेवस्य रसालाच, चत्वारोजज्ञिरे पुत्राः।।४।। श्रोष्ठी की हट धन्नाौमतिापूंजीयुतेस्तथा। जेसलभार्यापूरी, तत्पुत्रास्त्रय इमे गुणैः ख्याता।
श्री शत्रुञ्जयतारङ्गारासणेषुनुता जिना।।२०।। लक्ष्मीवन्तो यशसा, भुवनत्रयमण्डनप्रवराः।।५।। पुनरस्तोगालोकयो धने वारमनोहरम्। आम्बाकः प्रथमस्तत्रापरो जीन्दाभिधस्तथा।
अत्याडम्बरतः संघ निधाय शकटो द्भटम्।।२१।। तृतीयो मूलराजाख्यो जातो पुण्य जनाग्रणी।।६।। साधर्मिकादिवात्सल्यं कुर्वन्दानं ददन्मुदा। आंबराजस्य भार्येयं, बहुरी तत्सुताविमौ।
श्री संघेशपदं लात्वा श्री जिनराजसूरियुक् ।।२२।। शिवराज महाराजो, राणी श्याणी च पुत्रिवे।।७।। चतुर्दशे शते वर्षे नन्द वेद मिते५ करोत्। वल्लभा मूलराजस्य माल्हणदेऽभिधा बुधा।
यात्रां शत्रुजयेतीर्थे रैवते चापि कीहटः ।।२३।। सहस्रराज तत्सूनुः श्रीदेवगुरुभचिन्तभाक् ।।८।। तथा श्रीकोहटाद्यैश्च पुञ्जीमातुः सुबान्धवैः। मोहनभार्या पुंजी च तु तत्सूनवः चत्वारः।
'मालारोपणोत्सवोऽकारि श्रीजिनराजसूरिभिः।।२४।। कीहट पासा देल्हा, धन्ना संघाधिप...ऽमी:।।९।। तदातृतोत्सवो भावसुन्दरस्य यतेरपि। को हटभार्या जाता, कर्पूरीतत्सुता चत्वारः।
चतुर्दशशते ने दबाण'प्रमितवत्सरे।।२५।। प्रथमश्चोसभदत्ता धामाकान्हाख्यजगमालाः।।१०।। धन्नाधामाभिधानाभ्यां पंचम्युद्यापनं महत् सरस्वतिकौतिगदेव्या भार्ये साधु पासदत्तस्य।
सागरचंद्रसूरीणामुपदेशात्कृतं वरम्।।२६ ।। नील्हाविमलाबंधु, सरस्वतीनन्दनौ जातो।।११। इतश्चास्मिन् महादुर्गे चतुर्दशशते मुदा। कौतिगदेवीपुत्राः कर्मणहेमाख्यठवकुराः प्रवरा।
त्रिसप्ततितमेवर्षे सफली नुर्वाता धनम्।।२७।। देल्हाकस्योत्पन्नौ, पुत्रौ जीवन्द कुम्पाख्यौ।।१२।। संघाधिपतिना शेष्ठि धनराजेन साधुना आल्हीसुवल्लभाजज्ञे, धन्ना संघपतेस्तयोः।।
जगपालसुताद्यात्मपरिवारयुतने पै।।२८।। जगपालस्तथानाथू अमराख्यौ सुता इमे।।१३।। सर्गसंघसमाकार्य नानादे शनिवासिनम्। धन्यस्य जगपालस्या, सतीनायकदे प्रिया।
निशिष्टा सुप्रतिष्ठाप्ययं बिम्बानांकारितोत्तमा।।२९।। सुते चंद्रावली हस्तू, इत्याख्ये च मनोहरे।।१।। एवंविधानिसद्धर्म कार्याणि प्रतिवासरम्। नायकदेश्राविकया गुरुवरजिनभद्रसूरिवचनेन।
.बु णास्ते चिरं श्राद्धाः विजयन्ते महीतले।।३०।। पुण्यार्थमलेखि तथा सन्देहविषौषधिग्रन्थः।।२।। इतश्च--श्री वीरतीर्थंकर राजतीर्थे स्वामीसुधर्मागणभृद्वभूव । इतश्च-आम्ब्रको मुनि चतुर्दशे४ शते बाणे बाहु' मिते वत्सरे
तदन्वये चन्द्रकुलावतंश उद्योतन श्रीगुरुवर्द्धमानः।।३१।। करोत्।देवराजपुरि यात्रयोत्सवं श्री
जिनेश्वरः श्रीजिनचन्द्रसूरि संविग्नभावोऽभयदेवसूरि। जिना दया रूपदेशनात् ।।१४।।
वैरंगिक श्री जिनवल्लभोऽपि, युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः।।३२।। उच्चानगयाँ यवनाकुलायां, यः कारयामास महाप्रतिष्ठा
भाग्याधिकः श्री जिनचंद्रसूरि क्रियाकठोरो जिनपतिसूरि। मुनि द्विविद्यो' प्रमितेशुभाब्दे,विस्तारतः सूरि जिनोदयाख्यैः।।१५।। जिनेश्वरसूरिरुदारचेताः जिनप्रबंधोऽपितपोपनंता।।३३।। तथा मनुष्यलक्षं...: स्पुटघोटकपेटकम्
प्रभावकः श्रीजिनचन्द्रसूरिः सूरिर्जिनादिः कुशलावसानः। शकटानां सहरूाणि मीलये त्वा महाजनम्।।१६।। पद्मापदं श्री जिनपद्मसूरिर्लब्धेर्निधानं जिनलब्धिसूरिः।।३४।। माग्ाणानां समस्ताशा...आपूरयन् धनम्।
सैद्धान्तिकः श्रीजिनचन्द्रसूरिर्जिनोदय:सूरिरभूदभूरि। सद्दानधारया वर्षन् मार्गभाद्रपदांबुनत्।।१७।। ततः परं श्रीजिनराजसूरिर्वाकचातुरीरंजितदेवसूरिः।।३५।। चतुर्दशशते वर्षे षट्त्रिंशदधिवे नरे(१४३६)
स्वबंधुजिंदामिधमूलराजः संयुक्तसंघाधिप आंबराजः। श्री जिनराजसूरीणां पादाब्जं सिरसा स्पृशत्।।१८।।
अलेखयत्पुस्तकमात्ममातृपूंजी सुपुण्याय गिराथ तेषां।।३६।।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासप्रशस्ति का संक्षिप्त सार
का उद्यापन आचार्य श्री सागरचंद्रसूरि के उपदेश से किया। सं.
१४७३ में इसी महादुर्ग जैसलमेर उत्सवादि के आयोजन में धन उपकेशवंश की श्रेष्ठि-रांका शाखा/गोत्र के यक्षदेव के पुत्र सफल किया। संघपति सेठ धनराज ने अपने पुत्र जगपाल आदि झांबट के पुत्र धांधल हुए। उनके पुत्र गजू और भीमसिंह थे। गजू के के साथ नाना देश निवासी संघ को आमंत्रित कर प्रतिमाओं की पत्र गणदेव और मोक्षदेव थे। गणदेव के मेघा, जेसल, मोहन और प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रकार प्रतिदिन धार्मिक कार्य करते हुए रसाल हुए। जेसल की भार्या पूरी के तीन पुत्र प्रसिद्ध गुणवान, श्राक्क पृथ्वी पर चिरकाल जय विजयी हो। धनवान और तीन लोक में मण्डनस्वरूप थ। उनके नाम आबा, इसके पश्चात भगवान महावीर के शासन में गणधर सधर्मा जीदा और मलराज थे। आबरज की भायो बहुरी के दो पुत्र शिवराज स्वामी की परंपरा में चंद्रकल के उद्योतन सरि से श्री जिनराजसरि और महीराज तथा राणी और श्याणी दो पुत्रियाँ थीं, मूलराज की
पर्यंत पट्टधरों की नामावली देने के पश्चात् ३६वें श्लोक में स्वबंधु प्रिया माल्हण दे तथा पुत्र सहस्त्रराज देवगुरु भक्त था।
जिंदा, मूलराज सहित आंबराज ने यह ग्रंथ माता पूंजी और अपने मोहन की भार्या पूंजी के चार पुत्र ऋषभदत्त, धामा, कान्हा पुण्यार्थ लिखाने का उल्लेख किया है। और जगमाल थे। पासदत्त के सरस्वती और कौतिग देवी दो
"संवत् १४९७ वर्षे अश्वयुजिमासिश्रीवलक्षपक्षे १० स्त्रियाँ थी। सरस्वती के वील्हा और विमल दो पुत्र थे। कौतिगदेवी
विजयदशम्यां सोमे अद्येह श्रीजेसलमेरुमहादुर्गे श्रीवैरिसिंह भूमृति के पुत्र कर्मण, हेमा और ठकुरा थे। धन्ना संघपति की वल्लभा
राज्यं प्रति पालयति सतिश्रीतरहागच्छगगनदिननाथायमान आल्ही थी, जिसमें पुत्री हस्तू, चंद्रावली मनोहर थी। नायकदे श्राविका ने गुरुवर श्री जिनभद्रसरिजी के वचनों से संदेहविषौषधि
श्रीजिनराजसूरिपट्टसारसहकारवनवसंतायमानश्रीमन्श्री
जिनभद्रसूरीश्वरविजयराज्ये श्रीकल्पपुस्तक प्रशस्तिः समर्थिता। ग्रंथ लिखवाया।
शिवमस्तु सर्वजगतः।।श्री।।श्री।।" आंबा ने सं. १४२५ में श्री जिनेश्वरसूरि गुरु के उपदेश से
(श्री जेसलमेरनगरस्य बृहत्खरतटगच्छोपाश्रये पंचायती भंडारेप्रति।) देरावर दादा तीर्थ यात्रोत्सव किया। उच्चा नगरी जो यवना कुल थी, उसमें से १४२७ में श्री जिनोदयसूरिजी से प्राण-प्रतिष्ठा करवाई
करवाई किले के वर्तमान मंदिरों में सर्वप्राचीन श्री पार्श्वनाथ जिनालय तथा लाख मनुष्य..घोड़े, हजारों गाड़ों के साथ महाजनों ने मिलकर
है, जिसका नाम लक्ष्मणबिहार तत्कालीन महारावल लक्ष्मणजी प्रयाण किया। याचकजनों की आशा पूर्ण की। भाद्रव मास की
के नाम से यह खरजरप्रासादचूडामणि प्रसिद्ध किया। सं. १४५९ भांति धन की दानवृष्टि की।
में निर्माण प्रारंभ होकर सं. १४७३ में १४ वर्षों में पूर्णाहति हुई। सं. १४३६ में श्री जिनराजसरि महाराज की चरण-वंदना
श्री पार्श्वनाथ मंदिर निर्माताओं द्वारा दो प्रशस्तियाँ सुशोभित संघ सहित की। शत्रंजय गिरनार तीर्थों की यात्रा करके आंबराज हैं जो नाहरजी के लेखांक २११२ और २०१३ में प्रकाशित हैं। आदि ने संघपति पद प्राप्त किया। सेठ कीहट, धन्ना आदि ने जिनके आधार पर उपरिलिखित वंशवृक्ष दिया गया है, जो माता पंजी सहित शत्रंजय, तारंगा. आरासण आदि तीर्थों की प्रकाश्यमान इस कल्पसूत्र प्रशस्ति जो सं. १४९७ में लिखी गई. यात्रा की। फिर बहत से धनाढ्य लोगों के साथ संघ सहित से समर्थित है। यह २२ और २४ पंक्तियों में शिलोत्कीर्णित है। सुसज्जित मनोहर गाड़ियों में तीर्थयात्रा करते हुए स्वधर्मवात्सल्य ।
पर्युक्त वंशवृक्ष में कल्पसूत्रप्रशस्ति में प्राप्त पत्नियों और पुत्रियों एवं दान-पुण्य करने में सतत संलग्न रहकर श्री जिनराजसरिजी के नाम भी जोड़ दिए गए हैं। गणदेव के पुत्रों में मोहन के बाद महाराज से संघपति पद प्राप्त किया।
वेडूर के स्थान पर कल्पसूत्रप्रशस्ति में रसाल नाम लिखा है।
कुछ नाम अन्य लेखों से भी समर्थित होते हैं। सं. १४४९ में सेठ कीहट आदि ने माता पंजी तथा बंधु बांधवों सहित शत्रुजय, गिरनार यात्रा कर श्री जिनराजसूरिजी के
- पूज्य श्री जिनधरणेन्द्रसूरिजी महाराज के दफ्तर में इस सान्निध्य में मालारोपण महोत्सव मनाया एवं यति भावसंदर का रांका सेठ परिवार से संबंधित जो कवित्त मिला है. उसे यहाँ दीक्षोत्सव संपन्न हुआ। सं. १४५४ में धन्ना, धामा द्वारा पंचमी तप उद्धृत किया जा रहा है।
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कवित्त
कीहट नो जिण भुवण जेण मइयो जेसा । तासु वंश जावड़ सुजस दारव्यौ भुणियाणै ।। सोनेरूपै साह सोह जिण सासण चाढ़ी। तेजपथग पुहकरण भला जु सेठ भराडी ।।
शिवराज
गणदेव 1
मेघ
आंबा ( बहुरी)
।
पुत्रियांनी वाणी
जेसल (भार्यापूरी)
महीराज
1
सोमा
(मकू )
ऋषभदत्त धामा कान्हा जगमल
(चांपू )
•चतीन्द्रसूरि स्मारक अन्य इतिहास
मीरदत्त
पासदत्त
कीहट ( कपूरी) ( १ सरस्वती २ कौतिगदे
गजू
जींदा मूलराज (माल्हणदे)
1
सहसराज
मोहन ( पूंजी )
वंशवृक्ष
मोखदेव
वेडूर
रांका श्रेष्ठि जाखदे - आसदेव
झांबट
धांधल
देल्हा निवेद
-
कूंपा
विमलदत्त कर्मण हेम ठाकुरसिंह
इस कवित्त के नामों में तथा आगे दिए जाने वाले वंशवृत्त के नामों में (कीहट के पुत्रों के नामों में) साम्यता देखी जाती है। विशेष शोध आवश्यक है।
सूरै समरै नोड़राज सोड काम उत्तम कीया। टापर नै भोजै एण परि जैतारण जग जस लीया ।।
रूपा
भीमसिंह
1
जयसिंह
धन्ना
( आल्ही)
लाखण
1
मम्मण
[ ११८ fondaGnGud
जमपाल नाथू अमर (नायक दे)
1
पुत्री चंद्रावली हस्तू
गेल्हा
नरसिंह
1
भोज
हरिराज
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास -
कीहट जावड़
___सोनो १
समरा
जइयो
रामो
मघा
रूपो
नोडो
सांडो सूरौ १ समेरा
सेरबो १ लालो २ भादो ३ मंडलक ४ सहजो हापरा १ भोजो
तेज़ो जयसिंह १ मोटा २ कानो १ बलराज २ | घिरो १ भूपति २ लालो ३ माणक १ गिरो २ लखण ३ जइयो
चोला छजौ जगमाल
खेतो १ लखो २ सीहा ३ कानो १ भीनो २ सांगो ठाकुर
___वेणो विरधो नाधो मांडो
___ वीरम १ जोधा २ जयवंत ३ रवीमा सीचो१ साकर२ सिवो ३ सुरताण४
जसो १ परीयो २ आणंद ३ सारंग : हीरो १ खेतीर मानो ३ देदो ४ सावल थोभण कपूर
कमा १ केलो २
जालप लालो भगवान
मेहाजल
रवीमो१ जीवोर हरो१ वीरो २ सकरमण ३ आसो १ केलो २
केशव जैतोर दामोदर३ देदो४ समरय वणो १ वच्छो २ अमरोइ ३ सतादास आणदो १ जगो २ .
मोहन१ गिरधर२ भारमल३
जगों अजबो धन्नो वरवतो १ चेनो २ .
जैमों उत्तमो हाथी १ जेहोर मन्नो ३
अजबो१ आसोर वरवतो अमरो कीकम नोथो भाई दास१ सतीदासर भैरो३ किसनो४ माणौ लखमो बुधौ
रहा
न
..रूपा जावड़ रो केड़ सुखा रे साथ लुको थयो पुर मांडल में रहे छ।
evendrvernmenevermerevers-E9mergengwengvengugeswerswergudargM११९MrPMEAmerprepungunpoJAKHAIRAVRAJuQAAMRAPARAMEngxQgore
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--चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
सेठ झांझण
जैतो सोमो
मोकल ९९ मालोर
ठाकुर
बूचो
मोकल १
पातो२
हरराज कुंभो १
पदमी मालो२
ठाकुर३ बरजांग १ वीदा २ हरखो ३ झाझो पेसो जावड़ करमो मेरो रुपो १ राणौ २ रायपाल ३ अमीपाल श्रीकर्ण देदो (ये सब बागसूरी में है।)
(बूंदी छै) (कोठिये छै) साकर समरथर नेमो३ नोडो ४ सदो५ (खान लै मसूदै वास छै)
अमरो १ लाखो २ वीरपाल ३ कालो ४ जोधा ५ तेजी सावल
वछा १ हासो २ हेमो ३ नेतो १ खेतों २ कालो देवराज ।
वछौ जीवो १ जगू २ लधो ३ भैरव ४
वधो वृद्ध आद्यगणे जैतारण रा..........
सेठ नाथा खेतोजी १ हीरो २ मानो ३ देदो ४
ईसर सोभा १
आभार तिलोक चंद १ खुश्याल चंद २ गुमान चंद ३ हरचंद ४ खीमराज १
भीमराज २ माणकचंद
- भैरो महाचंद १ विरधो २ मोती ३
जीवराज १ विजयराज २ खूबो १ हुकमो २ चेनो ३ सवाई ४ हेमराज १ अखो २ विनयचंद ३ सांवत ४
रूपो
यह वंशवृक्ष पूज्य श्री जिनधर्मेन्द्रसूरिजी महाराज के दफ्तर के आधार पर तैयार किया गया है। यद्यपि शिलालेखों तथा कल्पसूत्रप्रशस्ति के तत्कालीन उल्लेखित कीहट के वंशजों के नामों में नामांतर हो सकता है। यह अंतर दो पत्नियों या ऐसे अन्य किसी कारण से हो सकता है ? इन वंशावृक्षों में जहाँ तक नाम आए हैं, उनके बाद उनके वंशज वर्तमान के नाम जोड़कर इन्हे पूरा कर सकते हैं।
श्री पार्श्वनाथ भगवान के वर्तमान जिनालय तथा इससे पूर्व के जिनालय का वर्णन ताडपत्रीय ग्रंथों तथा युगप्रधानाचार्य गुर्वावली से लिया गया है तथा वर्तमान का इतिहास श्रीपूज्य जी के दफ्तर, कल्पसूत्रप्रशस्ति तथा शिलालेखों के आधार पर लिखा गया है। जैसलमेरके कलापूर्ण जैनमंदिर तो अपने कला एवं वैभव के लिए विश्वविश्रुत हैं।
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दक्षिण भारत का जैन - पुरातत्त्व
आन्ध्र
आन्ध्रप्रदेश में जैनधर्म मगध से पहुँचा । नयसेन ने धर्मामृत में जैन राजा को अंगदेश से आंध्र के भत्तिपोल में पहुँचने की कथा को तीर्थंकर वासुपूज्य तथा इक्ष्वाकु काल में माना है। हरिषेण के वृहत्कथाकोष ( ९३१ ई.) में कुछ और ही लिखा है। जो भी हो, पर इतना निश्चित है कि वहाँ जैनधर्म महावीर से पहले अस्तित्व में था।
आचार्य कुन्दकुन्द आंध्र और कर्नाटक के सीमावर्ती Satusकुन्द नगर के ही थे, जिनका समय ल. प्रथम शती है। जैनसंस्कृति में महावीर के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता है। कुन्दकुन्दाम्नाय नाम से जैनधर्म को पहचाना जा सकता है। कोण्डकुन्द पहाड़ी पर एक छोटी सी गुफा है जो उनकी तपस्या· स्थली मानी जाती है । गोदावरी जिले के आर्यवतम में एक जैनटेराकोट मिला है जिसकी पूजा की जाती है। मथुरा में भी प्रथम शती का ऐसा ही टेराकोट प्राप्त हुआ है। यहाँ छह जैन मूर्तियाँ मिली है, लगभग इसी समय की । आर्यावतम से मिलती-जुलती मूर्तियाँ गौतमी और ककिनद में भी पाई गई हैं।
कुन्दकुन्दाम्नाय में ही उमास्वाति और समन्तभद्र हुए जो दक्षिण के ही थे । नन्दि, देव, सिंह, सेन आदि के नाम से बाद में गणगच्छ बने और सभी जैनाचार्य इन्हीं गणगच्छों की परिधि में आ गए। समन्तभद्र के बाद सिंहनन्दि पेरूर (आंध्र) में ही हुए वक्रगच्छ में। पूज्यपाद, अकलंक, वासवचंद्र, बालसरस्वती, गोपनन्दि आदि प्रमुख आचार्य आंध्र से ही रहे हैं।
पुनः कीलभद्राचार्य और उनकी परंपरा को अर्हत जिनपूजा के लिए दिया जाता है। विजयवाड़ा में अब यह सब मात्र ऐतिहासिक उल्लेख रह गए हैं। गुण्डिवाड़ा और धर्मावरम में अवश्य कुछ जैनमूर्तियाँ इस काल की पाई जाती हैं।
डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर'...
राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष जैन धर्मावलम्बी था। उसने विरुदंकर्यपोल में एक जैनमंदिर बनवाया । यहाँ की तीर्थंकर महावीर की मूर्ति मद्रास संग्रहालय में रखी गई है। भीम शल्कि ने हनुमानकोंड दुर्ग में जैन मंदिर बनवाए, यहाँ के पद्माक्षि जैन मंदिर में यक्ष-यक्षी की सुंदर प्रतिमा मिली है। वेंगि के गुणग विजयादित्य ने भी जल्लुर में जैनवस्ती का निर्माण कराया। रामतीर्थम में दो जैन- गुफाएँ हैं । यहीं पास में गुरुभक्त पहाड़ी पर एक जैनगुफा है, जिसमें अनेक जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ रखी हुई हैं।
दनवुलपद (चुटुपट्ट जिला) में नित्यवर्ष इन्द्र तृतीय (८१४१७ ई.) के काल की एक वृहदाकार जैन - वसदि मिली है, जिसमें दो मंदिर, चार तोरण, दो चौमुख, एक तीर्थंकर पादपीठ, दो दसफुटी पार्श्व प्रतिमायें और एक पद्मावती - प्रतिमा खुदाई में प्राप्त हुई है। दुर्गराज ने कटकाभरण नामक जिनालय बनवाया और उसके साथ ही व्यय के लिए एक ग्राम दान में दिया। इस मंदिर के मुख्य आचार्य थे कोटिमदुवगणी और यापनीयसंघ के श्रीमंदिर देव ।
६०९ ई. में पश्चिमी चालुक्यवंशी पुलकेशी द्वितीय ने कलिंग पिष्टपुर वेंगि आदि पर विजय पाते हुए आगे दक्षिण में बचा वेंग का राज्य अपने छोटे भाई कुब्जविष्णुवर्धन को दिया ६२७ ई. में । इस मल्लिकार्जुन पहाड़ी का संबंध श्वेताम्बर संप्रदाय से भी रहा है । चपट्ट जिले में दिगंबर आचार्य वृषभ के आवास की सूचना सन्यसिगुण्डि गुफा से मिलती है। विष्णुवर्धन तृतीय (७१८७५५ ई.) का एक शिलालेख मिला है, जिसमें कहा गया है कि मुनिसिकोन्द्र जिस पर किसी और ने अधिकार कर लिया था,
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१२१
पश्चिम गोदावरी जिले में पेदिमिरम में एक जैन पल्लि है, यहाँ जैनमूर्ति मिली है। अम्मराज द्वितीय के काल में भी कचमारू में जैनधर्म लोकप्रिय था। अरहनन्दि के आग्रह पर अम्मराज ने कलचम्बरू गाँव का दान किया जैनमंदिर के लिए, जो आज नष्ट हो गया है। ताम्रपत्र इसका मिला है। एक अन्य लेख भी मिला है, जिसमें विजयवाडा में इसी राजा द्वारा निर्मित दो जिनालयों का उल्लेख है। वहीं बोधन में श्रमण बेलगोल से भी बड़ी बाहुबली मूर्ति की स्थापना की गई थी पर वह भी आज नहीं मिलती। यह बोधन शायद पोदनपुर रहा होगा। बड्डेग ने विमुलवाड़ा में और
Sum
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासउसके पुत्र ओमकेशरी तृतीय ने सोमदेवसूरि को एक जिनालय विक्रमादित्य के काल में भी जैन बस्तियां बनती रही हैं यहाँ। भेंट किया था। यहाँ अनेक जैन मूर्तियाँ मिली है, इस काल की। वेलन्तिचोल-काल भी जैन संप्रदाय के लिए अनुकूल हैदराबाद से लगभग १५० कि.मी. दूर कुलचारम ग्राम में ऋषभदेव साग मितीय और गला
दव रहा है। गोंक द्वितीय जैन राजा था। उसने गुन्तूर जिले में मुनुगोडु
रेता की एक प्राचीन भव्य प्रतिमा मिली है।
गाँव में पृथ्वीतिलक नामक जैन वसति बनवाई थी। गोंक प्रथम कल्याणी चालुक्य में तैलप द्वितीय ने जैनधर्म को अच्छा ने भी यहाँ एक जैनमंदिर बनवाया था। जिसमें अनेक जैनाचार्य प्रश्रय दिया। पोटलचेरूव (पाटनचेरू) में हैदराबाद से लगभग रहते थे। तेनालि में भी एक जैन वसति थी। गोदावरी और कृष्णा १६ कि.मी. दूर है, जहाँ अनेक जैनमंदिर और मूर्तियाँ आज भी नदियों के बीच कोलानियों का भी राज्य रहा है। उन्होंने भी जैन सुरक्षित हैं। वर्धमानपुर (वड्डमानु) शायद यही रहा होगा। यहाँ मंदिरों को दान दिया। अछन्त आदि अनेक वसतियाँ है, यहां भी मूर्तियाँ मिली हैं। बड्डमानु के आगे पेदतुंबलम में एक बड़ी पेनुगोण्डा आदि गाँवों में। जैन बसदि के चिह्न मिलते हैं, जो वीरशैवों द्वारा विनष्ट कर दी
हैहयकाल में गोदावरीडेल्टा में अनेक जैनमंदिरों का निर्माण गई। यहीं एक पार्श्वनाथ मूर्ति भी मिली है। गडबल के पास पुडुल ।
हुआ। ततिपाक में एक बड़ा जिनालय है। नेडनुरू में भी में भी जैन-पुरातत्त्व पाया जाता है।
जैनपुरातत्त्व मिलता है। लोल्ला में एक अंबिका की मूर्ति मिली हनुमानकोण्डा के समान अडोनी में एक जैन-गुफा मिली है। हैहय वंश वस्तुत: जैनधर्मावलंबी था। इसलिए इस काल में है। जिसमें पार्श्वनाथ आदि तीर्थंकरों की अनेक मूर्तियाँ मिलती जैन वसदियों का निर्माण खूब हुआ। पीठपुर में उनकी बनवाई हैं। पुदुर से भी बड़ा जैन केन्द्र नायकल्लु रहा है, जहाँ एक बड़ी दो जैन मूर्तियां मिली हैं। गौतमी के किनारे बसे सिला, काजुलुरू जैन वसदि के चिह्न बिखरे पड़े हैं। पाँच फीट ऊँची एक सुंदर आदि अनेक स्थानों पर जैन-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। ककिनद के पार्श्वनाथ मूर्ति भी यहाँ मिली है। रायदुर्गम पहाड़ी पर भी चालुक्य पास नेमम् में अनेक जैनमंदिरों के अवशेष मिले हैं।भोगपुर के कालीन जैनमंदिर है। कम्बदुर (अनन्तपुर), योगरकुन्त, अमरपुरम्, पास मन्नमनयक द्वारा निर्मित (११८७ ई.) एक राज्य जिनालय कोट्टशिवरम आदि स्थानों पर भी बहुत जैन-पुरातत्व प्राप्त हैं। मिलता है। आंध्र के दक्षिण में चित्तोर जिले में निद्र और निदथुर यहाँ तैलप द्वितीय द्वारा लेख भी ताडिपर्ति में दो जिनालय थे। जैनमंदिर खड़े हैं। चन्द्रप्रभ और पार्श्वना के जिन्हें १२०८ ई. में उदयादित्य ने
११६२ ई. में विज्जल कलचरी राजा ने छिपगिरि में एक बनवाया था, उसने कुछ गाँव भी इन मंदिरों को दिए थे। पर अनि आज उनका कोई चिह्न नहीं मिल रहा है। वारंगल किले में चार
विज्जल ने अपने एक मंत्री के दामाद वासववीर को जैनमंदिर हैं। काकतीय राजाओं की राजधानी बनने के पहले ही
कोषाध्यक्ष बनाया। वासव पक्का शैव था। उसने विज्जल की यहाँ एक बड़ी जैन वसदि थी।
हत्या करा दी और वहाँ से भाग गया। बाद में उसने हजारों की तेलंगाना प्रदेश में और भी अन्य जैन वसदियां है। तेलंगाना
संख्या में जैनों को मारा और उनके मंदिरों को नष्ट किया अकेले शिलालेखों में ३५ शिलालेख हैं, जो जैन पूजादान की बात करते
ओट्टवछेरुवु में ५०० वसदियों को नष्ट किया। पालकुरुकि सोमनाथ हैं उज्जिलिकिले के बडिड जिनालय में। उसी पाषाण पर एक कवि के अनसार कोलनपाक के सारे जैन मंदिर वीर-शैवों ने अन्य लेख खुदा है जो इन्द्रसेन पंडित नाम से दान का उल्लेख
हथिया लिए और अन्य जैन-मंदिरों को धल में मिला दिया। करता है। यह दान (१०९७ ई.) जैनालय को चलाने के लिए दिया गया था। वीरशैवों ने इस जिनालय को बाद में अपने
आन्ध्र के इतिहास और संस्कृति के निर्माण में जैनों का अधिकार में कर लिया। अन्य शिलालेखों में नं. दो का शिलालेख
बहुत बड़ा योगदान रहा है। यद्यपि तेलगू में जैनसाहित्य अधिक राजा बेक्कल्लु का है, जिसने गुणसेन को ग्राम दान दिया। नं.
तो नहीं मिलता पर उनके द्वारा किए गए कल्याण-कार्य आज
भी देखे जा सकते हैं। सिवग्गण, आर्यावतम, ३२ का कल्याण चालुक्य का है, जिसने १११९ ई. में ब्रह्मेश्वर
पेनुकोण्डा, देव को पार्श्वनाथ जिनालय के खर्च के लिए ग्रामदान दिया। राजा
भोगपुरम्, हनुमानकोण्डा, वारंगल किला आदि स्थानों पर बनाए
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासगए तालाब आज भी जनता के उपयोग में आ रहे हैं। वीर शैवों शिलप्पधिकारं (पहली, दूसरी शती) के रचयिता इलंगोवडिगल द्वारा नष्ट किए जाने के बावजूद जैनधर्म आन्ध्र में जीवित रहा, चेरनाडु के युवराज थे। शिलप्पधिकारं के गंभीर अध्ययन से यह उसके लोकमांगलिक कार्यों का ही फल कहा जाना चाहिए। पता चलता है कि इलंगोवडिगल पक्के जैन थे। केरल के
जैनधर्म को समाप्त करने में शंकराचार्य का विशेष हाथ रहा है। केरल
पुरातत्त्व विभाग यदि प्राचीन स्थलों की खुदाई करे और वैदिक केरल में जैनधर्म कर्नाटक या तमिलनाडु से गया होगा। मंदिरों और मस्जिदों की गहराई से छानबीन करे तो जैनधर्म के वह यहाँ ई.पू. तृतीयचतुर्थ शताब्दी तक तो पहुँच ही गया था। इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ सकता है। अन्य प्रदेशीकी तरह यहाँ भी जैनधर्म अच्छी स्थिति में रहा है पर मसलमानों ने भी जैनों पर कम अत्याचार नहीं किए। अनेक कारणों से उसका सम्यक् अध्ययन नहीं हो पाया। कभी अत्याचारों के कारण ही जैन परिवर्तित होकर शैव, वैष्णव और जैन-स्थानों को बौद्ध बता दिया गया तो कभी वैदिक बना लिया
मुस्लिम बन गए। 'जैन अल्लाउदीन' जैसे नाम यह तथ्य प्रस्तुत गया, कभी उन्हें नष्ट कर दिया गया तो कभी मस्जिदों के रूप में
करते हैं कि परिवर्तित जैन-समुदाय आज भी जैनधर्म को अपने परिवर्तित कर दिया गया। कुणवसिस कोट्टम का प्रसिद्ध जैनमंदिर
में समाए हुए है। हैदरअली की विनाशलीला का शिकार बन गया। टीपू सुल्तान ने भी ऐसे ही घृणात्मक कार्य किए हैं। दसों जैन-मंदिरों ने
कर्नाटक मस्जिदों का रूप ले लिया।
दक्षिण भारत में जैनधर्म के प्रचार प्रसार में ई.पू. चतुर्थ वर्तमान तमिलनाडु के दो जैनस्थल चित्रल और शती के अंतिम चरण के आसपास श्रुतकेवली भद्रबाहु और नागरकोविल प्राचीन त्रावनकोर के भाग थे। अब कोचीन और चन्द्रगुप्त के आगमन से तेजी अधिक आई। श्रीलंका में तो मलाबार को मिलाकर केरल राज्य बना दिया गया। यहाँ प्राकृतिक जैनधर्म इसके पूर्व था ही। भद्रबाहु-संघ का प्रवेश कर्नाटक में गुहामंदिर मिलते हैं, जिन्हें समाधि-स्थल का रूप दे दिया गया कदाचित्, उत्तर भारत के मालवा क्षेत्र से हुआ होगा। कर्नाटक -मूनिमडा कहकर या फिर नए मंदिर बना लिए गए। अरियन्नूर से ही फिर जैन धर्म तमिल क्षेत्र में पहुंचा होगा। श्रवणवेलगोल कदाचित् प्राचीनतम स्थल है, जहाँ पर्वत को काटकर समाधि के शिलालेखों से इस परंपरा की पुष्टि होती है। चालुक्य, के योग्य स्थान बनाया गया था।
राष्ट्रकूट, गंग आदि वंशों ने जैन धर्म का राज्याश्रय और उसका इसी तरह कल्लिल का गुहा मंदिर है, जिसमें महावीर,
अच्छा प्रसार-प्रसार किया। सारा प्रदेश जैनमय सा हो गया। यहाँ पार्श्वनाथ और पद्मावती की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। महावीर की
की कुरुम्बर जाति मूलतः जैन थी जो सारे दक्षिण में फैली थी। मूर्ति अपरिपूर्ण है। लोगों की धारणा है कि देवगण उसे पूरा करने
मद्रास के पास पुलाल में उसका प्रथम शती ई.पू. का आदिनाथ आते रहते हैं। महावीर मूर्ति गुफा की पृष्ठभाग की दीवार पर खुदी
का एक भव्य मंदिर है। ऐसे ही अनेक उदाहरण मिलते हैं।
का एक है, सिंहासन में बीच में सिंहलांछन है, ऊपर त्रिछत्र है. चारों के चामुंडराय, इरगप्पन तथा हुल्लर जैसे अमात्यों और राजाओं ने साथ गंधर्व है, दायीं ओर पद्मावती है, और बायीं ओर पार्श्वनाथ
o कर्नाटक में जैन-पुरातत्व को काफी समृद्ध कर दिया है। मूर्ति है। इसका समय लगभग आठवीं शती होना चाहिए। पर डॉ. राजमल जैन इसे और भी प्राचीन मानना चाहते हैं।
वायनाड जिले के सुल्तान बत्तारी में एक ध्वस्त जैन मंदिर ऐहोल (बीजापुर) में मेगुटिनाक जिनालय में सुरक्षित यह देखा जा सकता है, जहाँ के स्तम्भों पर बडी संदर सर्पाकृतियाँ शिलालेख शक सं.५६१ (६३४ ई.) का है, जिसे कवि रविकीर्ति उकेरी गई है। ये आकतियाँ आज भी देखी जा सकती हैं। ने बड़ी प्रांजल संस्कृत भाषा में कन्नड़ लिपि में लिखा। इसमें प्राचीनकाल में केरल में जैनधर्म काफी लोकप्रिय था। केरल चालुक्यवंश की कीर्ति का वर्णन करते हुए सत्याभय पुलकेशि को, उस समय चेरनाडू कहा जाता था। तमिल महाकाव्य की जैनयात्रा और जिनमंदिर निर्माण का वर्णन है। दिग्विजय का an d idrohidibidroidrotonianbrdinidroid१२३Hamiraramiridwordridridoravarsamirmiriamirritories
मैसूर
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - इतिहास - वर्णन करने वाला यह एक सुंदर काव्य है। इसके अतिरिक्त का शिलालेख है, पुलकेशी द्वितीय के संदर्भ में। अकलंक इन्हीं मरोल (१०२४ ई.) अरसिबिदि में प्राप्त आलेख भी महत्त्वपूर्ण रविकीर्ति के शिष्य थे। वादामी का मेगण वसदि और लक्कुडि है। अक्कादेवी, जयसिंह द्वितीय की बहिन ने जैनधर्म का अच्छा का ब्रह्मजिनालय और पट्टदकल की जैनवसदि कला की दृष्टि से प्रसार किया। होनवाड व हुंगुण्ड जैनसंस्कृति के गढ़ थे। बड़े महत्त्वपूर्ण हैं, जहां मध्यकालीन गुफाएँ और जैनमंदिर हैं।
बेलगाँव क्षेत्र प्राचीन काल में कुण्डी या कहन्डी मण्डल रायपुर जिले में हम्पी का गानिगिति मंदिर बड़ा प्रसिद्ध है। कहा जाता था जो शिलाहार और रट्ट परिवारों के अधिकार में हम्पी के महल-क्षेत्र के आसपास खुदाई की गई थी, जिससे दो था। कोन्नुर हलसी (खानपुर) और सौनदत्ती अच्छे जैन-केन्द्र जैनमंदिर प्रकाश में आए हैं। वैसे यहाँ काफी मंदिर हैं। पान थे। गोक्का प्लेट देज्जा महाराज के दान का उल्लेख करता है सुपारी जैन मंदिर में एक संस्कृत शिलालेख मिला है। जिसके आर्हत पूजा के लिए। यहाँ के किले में जैन-पुरातत्त्व दर्शनीय है। अनुसार देवराज द्वितीय ने सं. १४२६ में पार्श्वनाथ चैत्यालय यहाँ १०८ जैनमंदिर रहे हैं। कमलवसदि दर्शनीय है।
बनवाया था। बल्लादी जिले में हरपनहल्ली की होस-वसदि में ___ अदूर में दो शिलालेख मिले हैं, जो जैनमंदिर के लिए
कलात्मक नाग प्रतीक दर्शनीय है। यहाँ का उज्जिम जैन-मंदिर भूमिदान का उल्लेख करते हैं। नारायण-मंदिर के दो शिलालेख
शैवों के अधिकार में है। हुवली का अनन्तवसदि मंदिर कलात्मक जैनों के हैं। मूलगुण्ड और लक्कुण्डि उत्तम जैनकेन्द्र थे।
है, जहाँ दसवीं शती की धरणेन्द्र पद्मावती के साथ तीर्थंकर
पार्श्वनाथ की सुंदर प्रतिमा कला सुरक्षित है। उत्तर कन्नड जिले में १५ से १७ वीं शती तक का जैन पुरातत्त्व मिलता है। दक्षिण कन्नड जिला तो और भी समृद्ध है
धारवाड के लक्ष्मेश्वर नगर में ५३ शिलालेख हैं, जिनमें इस दिशा में। बेल्लरी जिले में गुफा-जैन-मंदिर है, जिसमें बहुत
इस नगर के अनेक नाम मिलते हैं। यहाँ के शंख वसदि मंदिर में सारी मूर्तियाँ रखी हुई हैं। कोगाली जैन शिलालेख (१० वीं शती)
प्राप्त ७०० ई. के शिलालेख के अनुसार अकलंक परंपरा के है नन्दि बेवरू मन्नेरा मसलेलाद कुदतनी आदि स्थान ऐसे हैं, जो
पंडित उदयदेव चालुक्य राजा विजयादित्य द्वितीय के राजगुरु जैनकेन्द्र माने जाते हैं।
थे। महाकवि पम्प का आदिपुराण इसी मंदिर में लिखा गया था।
यहीं के अनन्तनाथ वसदि में पद्मावती और सरस्वती की सुंदर वस्तुत: कर्नाटक का चप्पा-चप्पा जैन-संस्कृति का परिचय
मूर्तियाँ है। लक्ष्मेश्वर के समीपवर्ती बंकापुर में गुणभद्राचार्य ने देता है। यहाँ सभी स्थानों के पुरातत्त्व के विषय में लिखना
अपना उत्तर पुराण पूरा किया था। यहाँ के कुछ जैनमंदिर आज संभव नहीं है। पर कतिपय महत्त्वपूर्ण स्थलों का उल्लेख करना
मस्जिदों के रूप में विद्यमान हैं। कोटमचगी का पार्श्वनाथ मंदिर अत्यावश्यक है। उदाहरणत: बीदर जिले का मलखंड राष्ट्रकूट
नरेडिल का नारायण मंदिर, बंदरसिंगी की आदिनाथ प्रतिमा, राजाओं का प्राचीन मान्यखेटनगर है, जो अमोघवर्ष के समय
कलस्नयु का जैन वसदि, आरट्टकाल का पार्श्वनाथ वसदि,गुडिगेरी जैन-संस्कृति का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया था। लगभग २००
का महावीर वसदि, हवेरी का मुद्ददु माणिक्य वसदि, अम्मिनवाबी वर्षों तक यह नगर जैनकेन्द्र बना रहा है। यहाँ सोमदेव, पुष्पदन्त
का पार्श्वनाथ वसदि आदि मंदिरों का पुरातत्त्व भी अत्यन्त जैसे मूर्धन्य आचायों ने साहित्य सृजन किया। यहाँ नेमिनाथ
महत्त्वपूर्ण है। वसति नाम का लगभग ८वीं शताब्दी का एक जैनमंदिर है।
कारथीड जिले का उत्तर कनाड़ा भाग कभी वनवासी बीजापुर का विशाल जैनमंदिर १५वीं शताब्दी में मस्जिद
प्रदेश कहा जाता था। पुष्पदंत भूतबलि द्वारा की गई षटखण्डागम के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। यहाँ पार्श्वनाथ मंदिर कुछ
की रचना का श्रेय इसी प्रदेश को जाता है। ग्रेल्सोप्पा में समय पहले जमीन से निकाला गया है। यहाँ की करामुद्दीन
ज्वालामालिनी की मूर्ति, हाडुवल्ली में त्रिकाल चौबीसी की मस्जिद भी मूलत: जैनमंदिर ही है। इसी जिले में ऐहोल एक
कांस्यमूर्ति, गुंडबल की पार्श्वनाथ की मूर्ति विशेष उल्लेखनीय गाँव है, जो किसी समय चालुक्य की राजधानी रहा है। यहाँ के
हैं। हमचा का इतिहास लगभग १५०० वर्ष पुराना है। इसे अतिशय
म मेगटी मंदिर में जैनाचार्य रविकीर्ति द्वारा लिखित सन् ६३४ ई.
क्षेत्र कहा जाता है। यहाँ २२ शिलालेख हैं, जिनमें सान्तर राजवंश
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ इतिहासका इतिहास दिया हुआ है। तदनुसार जिनदत्त राजा को पद्मावती की कृपा से लोहे को भी सोना बनाने की शक्ति प्राप्त हुई थी। इसी तरह बकोड दन्दलि के चिक्कमागुडि, उद्रि आदि स्थानों की वसदियाँ भी पुरातत्त्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
चिकमंगलूर जिले के नरसिंह राजपुर में अनेक जैनमंदिर हैं, जिनमें चन्द्रप्रभ की यक्षी ज्वालामालिनी की कलात्मक प्रतिमाएँ हैं। यहीं समीप में शृंगेरी मठ है, जो किसी समय जैनों का गढ़ था। यहाँ शारदा मंदिर में एक जैन स्तम्भ पड़ा हुआ है। यहीं पास ही आचार्य कुन्दकुन्द की जन्मभूमि कुन्दकुन्दबेट्ट है, जहाँ कुन्दाद्रि पर उनके चरण बने हुए हैं। इस पर्वत पर खण्डहर, मूर्तियाँ एवं कलात्मक शिलाखण्ड बिखरे पड़े हैं।
तमिलनाडु
तमिलनाडु में जैन धर्म ने कर्नाटक से प्रवेश किया होगा। श्रीलंका में महावंश के अनुसार पाण्डुकाभय (३३७-३०७ ई.पू.) ने निर्ग्रन्थ ज्योतिय के लिए अनुराधापुर में एक मंदिर बनवाया था। इसका तात्पर्य है ई.पू. चतुर्थ शती तक जैन धर्म दक्षिण में पहुँच चुका था। देवचन्द्र ने राजवलिकषे में लिखा है कि भद्राबाहु ने विशाखाचार्य (चन्द्रगुप्त मौर्य २९७ ई. पू.) को निर्देश दिया था कि वे चोल पांडदेशों में और आगे जायें। रत्ननंदि के भद्रबाहुचरित (१५ वीं शती) में उनके चोल देश में जाने का उल्लेख भी है।
मद्रास के समीपवर्ती तिरुनेलबेली, रामानंद, त्रिची, पुदुक्कोट्टई, मदुराई और तिनबेलि जिलों में जैन- पुरातत्त्व बहुतायत में मिलता है। यहाँ के अधिकांश जैन- शिलालेख तृतीय शती ई.पू. के हैं । यहाँ तथा आरकोट जिले में शताधिक जैनगुफाएँ हैं, उत्तरी आरकोट में पंच पाण्डवमलई और तिरुमलई पहाड़ियाँ हैं, जहाँ जैनपुरातत्त्व भरा पड़ा हुआ है । विलपक्कम में एक जैन मूर्ति मिली है। यहीं नागनाथेश्वर मंदिर में ८४५ ई. का एक लेख मिला है, जिसमें लिखा है कि यहाँ पास में वल्लिमलै और तिरुमलै जैन गुफाएँ हैं । तिरुमलै में धर्मचक्र आदि को दर्शाती अच्छी पेंटिंग हैं। वेदोल के पास विदल और विदरपल्ली है, जो जैन - वसतियाँ मानी जाती हैं। पोन्नुर में आदिनाथ का बड़ा मंदिर है। यहां ज्वालामालिनी की अच्छी मूर्ति है। इसी के पास नीलगिरि पहाड़ी है, जिस पर हेलाचार्य की सुंदर मूर्ति है, ज्वालामालिनी के
साथ। विद्यादेवी की भी मूर्ति यहाँ मिलती है। मद्रास से २५ मील दूर उत्तर पश्चिमवर्ती पुलाल में आदिनाथ का प्रथम शती ई.पू. का एक भव्य जैनमंदिर है।
दक्षिण आरकोट जिले में पाटलिपुर नगर है, जहाँ प्रथम शती में द्राविड संघ रहा करता था। छठी शती तक वह यहाँ बना रहा। यह तथ्य बिल्लुपुर तिरुनरंगोण्डई में प्राप्त जैनपुरातत्त्व से सिद्ध होता है। चोलवंदिपुर में अन्दिमलै के आसपास अनेक जैन स्थापत्य है। जहाँ महावीर आदि तीर्थंकरों की मूर्तियाँ मिली हैं। और चट्टानों पर खुदी भी हैं। गिन्जी तालुका तो आज भी जैन पुरातत्त्व को सहेजे हुए। यहां एक जैनमठ भी है। चित्रकुट में दो जैन मंदिर भी है, मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ के ।
तिरुपरुट्टिकुनरम (जिनकाञ्ची) -- जिनकाञ्ची मद्रास से लगभग ६० कि.मी. दूर कान्ची का एक भाग है, जो तिरुपरुट्टिकुनरम ग्राम से संबद्ध है। बॅगेस ने इसे दक्षिण के अर्काट जिले के चित्रामूर ग्राम से समीकृत किया था, जो सही नहीं है। दक्षिण में चार विद्यास्थान माने जाते थे- जिनकान्चीपुर कोल्हापुर, पेनुकोण्डा और देहली। जिनकांचीपुर प्रारंभ से ही जैन, बौद्ध और वैष्णव संस्कृति का गढ़ रहा है। ह्यूनसांग ६४० ई. के लगभग यहाँ पहुँचा था। उसने यहाँ के जैनों की बहुसंख्या का उल्लेख किया है और अस्सी जैन मंदिरों के अस्तित्व की सूचना दी है।
यहाँ प्राप्त शिलालेखों से पता चलता है कि यहाँ मुख्यतः दिगंबर - जैनधर्म का प्रचार-प्रसार हुआ है। दिगंबर जैनों के चार संघ हैं- मूल, द्राविड, काष्ठा और यापनीय। इनमें दक्षिण में द्राविड संघ का प्रभाव अधिक रहा है। जिनकांची के शिलालेखों में गुरु और शिष्य की व्यवस्थित धर्मसत्ता मिलती है । कुन्दकुन्दाचार्य समन्तभद्र, सिंहनन्दी पूज्यपाद, अकलंक आदि आचार्यो का सम्बन्ध यहाँ से रहा है। अकंलक की शास्त्रीय वादविवाद परंपरा कांची से लगभग २० कि.मी. दूर तिरुप्पनकूट से संबद्ध है, जहाँ एक चित्र में ओखल है, और सामने जैनमुनि उपदेश दे रहे हैं।
अकलंक के बाद जिनकांची का संबंध आचार्य चन्द्रकीर्ति, अनन्तवीर्य, भावनन्दि, पुष्पसेन आदि आचार्यों से रहा है। पुष्पसेन का राजनीतिक प्रभाव बुक्का द्वितीय (१३८५- १४०६ ई.) के सेनापति और मंत्री इरुगप्पा के ऊपर अधिक था। उसी के परिणामस्वरूप विजयनगर के राजाओं ने उन्हें संरक्षण दिया। यहीं उनका भी समाधि स्थल है, मंदिर के भीतर मुनिवास में ।
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासयहाँ के मंदिरो में चित्रकला के अवशेष भी दृष्टव्य हैं। कणकचंद्र पण्डित का शिष्य था, जिसे सुंदर पाण्ड्या के काल में उड़ीसा में रामगढ़ पहाड़ी की जोगी मेर गुफा में भित्तिचित्रों के भूमिदान भी मिला था। १३वीं शती तक यह स्थान जैन-श्रमण अवशेष को प्राथमिक स्तर का कह सकते हैं, सित्तन्नवासल चित्र वसति बना रहा। भी इसी कोटि के हैं। धर्मप्रचार की दृष्टि से जैनों ने चित्रकला का
बोम्मइमलइ में भी एक गहा मंदिर है. जिसमें उल्लेख है अच्छा उपयोग किया है।
कि जैन-श्रमणों के लिए यहाँ ७५३ ई. सन् में भूमिदान मिला पुटुक्कोत्तई
था। सदियरपइ में ८वीं शती की महावीरमूर्ति है एक गुहामंदिर
में। इसे सुंदर पांड्या के ही समय काफी भूमिदान दिया गया था। पटक्कोत्तई (तमिलनाड) जिले में काफी जैन-पुरातत्व 1वीं से १३वीं शती तक यह भी एक जैनकेन्द्र रहा है। मिलता है। लगभग १६ कि.मी. पर सित्तनवसल प्रधान केन्द्र है। इसमें एक जैनगुफा, जैनमंदिर और भित्तिचित्र है। जैनगुफा लगभग
मलयक्कोइ पुटुक्कोत्तइ से १८ कि.मी. दूर है। यहाँ एक द्वितीय शती ई. पू. की मानी जाती है। ब्राह्मीलिपि में लेख भी है।
गुफामंदिर में गुणसेन नामक जैन मुनि का उल्लेख है शिलालेख ७-८ वीं शती तक यहाँ श्रमणों का आवास रहा है। समीपवर्ती
में। यहाँ से १२ कि.मी. दूर पोत्तम्बुर में एक जिनमूर्ति मिली है । पहाड़ी पर गुहा-मंदिर है जो लगभग ७वीं शती का है। इसमें तीन
जो गणेश के नाम से पूजी जाती है। इसे ग्रामवासी मोत्तईपिल्लयर तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं--ऋषभदेव, नेमिनाथ और महावीर।
कहते हैं। यह मूर्ति १२वीं शती की है। आदित्यचोल (८८८ ई.) मंडप की एक दीवार पर पार्श्वनाथ का चित्र है, जिस पर श्री
के शिलालेख से पता चलता है कि यह एक जैनकेन्द्र था ८वीं तिरुवसिरियम लिखा है, जिसका अर्थ है महान् आचार्य। समवशरण
शती में। इसी के पास चेत्तियति है जो समनर कुण्डु कहा जाता आदि के भी संदर भित्तिचित्र हैं। समणरमेड, तेक्कादर आदि
है। यह भी एक जैनकेन्द्र रहा है। यहाँ एक मंदिर है, जिसमें
- पार्श्वनाथ और महावीर की सुंदर मूर्तियाँ हैं १० वीं शती की स्थानों पर भूगर्भ से जैन मूर्तियाँ निकली है।
अम्बिका की भी एक अच्छी मूर्ति है। यहाँ के लेख में मतिसागर तेणिमलइ की समीपवर्ती पहाड़ी पर जैनसाधुओं के लिए।
मुनि का उल्लेख है, दयापाल और वादिराज उनके शिष्य थे। एक आवास स्थान-सा बना है, जो लगभग प्रथम शती का । होगा। ब्राह्मीलेख भी है। यहाँ ८वीं शती तक श्रमण रहा करते थे।
चेत्तिपत्ति के पास कयममत्ति है, जहाँ जैनमंदिर के अवशेष
पड़े हुए हैं। इसे 'समदर तिदल' कहा जाता है । सिद्धासन में एक यहाँ तीन जिनमूर्तियाँ भी हैं।
मूर्ति मिली है। यहाँ इसी के साथ एक जैनमठ भी था जिसे ___ पुट्टक्कोत्तई से १८ कि.मी. दूर नारन्तमलइ पहाड़ी है जो
तिरुवयतलमदरम कहा जाता था। जिसे नगरत्तर आदि श्रेष्ठियों ने समतटकुडग के नाम से जानी जाती है। यहाँ दो मंदिर हैं, एक
बनवाया था। शिव का और दूसरा अर्हतजिन का। अर्हतजिन का मंदिर १३वीं शती में वैष्णव-मंदिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और
सित्तनवसल के पास ही अन्नवसल है, जो किसी समय
समर्थ जैनकेन्द्र रहा है। यद्यपि यहाँ एक मंदिर ध्वस्त हो गया है फिर उसे पतिनेनभूमि विन्न गरूलवार केलि कहा जाने लगा। अर्धमंडप में जैनाचार्य नेमिचंद का उल्लेख है शिलालेख में।
र पर तीर्थंकर मूर्तियाँ अच्छी हालत में मिली हैं। कोनगुडु में महावीर १२वीं शती में इस मंदिर को भूमिदान भी दिया गया था। लगभग
की मनोरम मूर्ति मिली है ११वीं शती की। सोमपत्तुर में एक १२२८ ई. में वैष्णवों ने इसे अपने अधिकार में ले लिया मरवरमन
तालाब के किनारे जैनमंदिर है जो ध्वस्त हो गया है इसके स्तम्भ सुन्दर पांडवा के काल में। यहां के अर्धमण्डप को ही महामण्डप
वगैरह, तेन्नगुडि के शिवमंदिर में लगे है। यहाँ तीर्थंकर और यक्षी के रूप में बदल दिया गया।
मूर्तियाँ मिली हैं। आलुरुंदरमलइ नरतमलइ के पास ही है। इसमें भी लगभग
पदक्कोत्तइ में एक जैन-मूर्ति-संग्रहालय है, जहाँ आसपास प्रथम सदी का गुहामंदिर है। जिसमें ध्यानमद्रा में तीर्थंकरों की का मूर्तियों को एकत्रित कर दिया गया है। मोसक्कडि से प्राप्त मूर्तियाँ हैं। यहीं१०वीं शती का लेख भी है। तदनसार धर्मदेवाचार्य मूर्तियां कलात्मक दृष्टि से बहुत अच्छी हैं। आदिनाथ पार्श्वनाथ dardiariordarbaridroidisardaridrsariridroid१२६binirdinidiadiansaxsridododiaries
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- यतीन्दमूरिस्मारक - इतिहासऔर महावीर की भी अलंकृत मूर्तियाँ है,१० से १५वीं शती के अरिष्टनेमि आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं। इसके साथ ही माघनदि बीच तक की।
गुणसेन, वर्धमान काकनन्दी आर्यनन्दी आदि आचार्यों के उल्लेख तामिलनाड में ५३० जैन-शिलालेख मिले हैं जिनसे पता हैं। इनका समय ७-८वीं शती है। ज्ञानसम्बन्धर राजा के शैव चलता है कि यहाँ ८-१०वीं शती के पूर्व जैनधर्म अच्छी स्थिति
बन जाने पर जैनधर्म को अनेक आघात सहना पड़े। यानै मलै, में था। द्वितीय शती ई. पू. से मदराई तिरुनेलवेली. रामानद नागमले, समणमले आदि नगर भी पुरातत्त्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण आदि जिलों में जैन अवशेष मिलने लगते हैं। चंद्रगुप्त का संघ तामिलनाडु में ई.पू. तृतीय शती में ही फैल गया था। श्रमण - सातवीं शती के बाद तमिलनाडु में जैनधर्म के लिए कड़ा वेलगोला यात्राकाल में ही संगमकाल में चेर, चोल और पांड्य संघर्ष करना पड़ा है। संत अप्परै ने कांची में और सम्बन्दर ने नरेशों ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में खूब सहयोग दिया। मदुरै में जैनधर्म के विरोध में तीव्र आन्दोलन चलाया, फिर भी तिरुप्परकुनर और मुत्तुपत्ति रिकार्ड से पता चलता है कि श्रीलंका अज्जनन्दी जैनधर्म का प्रचार-प्रसार करते रहे। आदि से जैन-साधु वहाँ आते रहते थे। प्रथम शती में आर्यनन्दी तिन्नेवेल्लि क्षेत्र में कलगमले में द्वितीय शती ई.प. के और बालचन्द्रदेव ने मदुराई में १२३ वीं शती में जैनधर्म का लेखादि मिलते है। यहाँ की जैनकला देखने लायक है। आगे प्रचार किया। दान और सल्लेखना के आलेख पचासों हैं।
त्रावनकोर क्षेत्र में तिरुच्चरणत्तु मलै पहाड़ी पर जैन-मंदिर है, जो जिनसे जैनधर्म की लोकप्रियता का पता चलता है।
आज वैदिक समुदाय के अधिकार में है। यहाँ की महावीर और मदुरै में तीन प्रकार का जैन पुरातत्त्व मिलता है-(१) पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ आज भी वैदिक देवता के रूप में पूजी जा शिलालेखों सहित जैनगुफाएँ, (२) पाषाण चट्टानों पर उत्कीर्ण रही हैं। नगर कोइलका जैनमंदिर नागराजस्वामी पर भी उन्हीं का
जैन-देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और (३) वत्तेलुत्तु लिपि में लिखे अधिकार है। पार्श्वनाथ महावीर पद्मावती आदि तीर्थंकरों और तमिल लेख। पांड्य राजाओं के शासनकाल में मदुरै एक सशक्त शासनदेवी-देवताओं की मूर्तियाँ मुख्य मण्डल के स्तम्भों पर जैन केन्द्र रहा होगा। तेवरमतथा स्थल पुराण के अनुसार अनैमलै अभी भी उत्कीर्ण हैं। मूलरूप से वस्तुत: यह जैनमंदिर था जो नागमलै और पथुमलै आदि पहाड़ियों पर प्राप्त जैन-पुरातत्त्व इसका यहाँ के लेखों से भी पुष्ट होता है। इनके अतिरिक्त कलुगुमलै, प्रमाण है। अरिट्रपट्टि, मंगलं, मुत्तपट्रि, कोंगर पलियंकुलं, तिरप्परे नागलापुर,कायल, धर्मपुरी, विजयमंगलं,मह कुंजरं, वरिच्चयु, अलगरमलै, करुंगलकुडि, किलुवलजू, विक्किर भी ऐसे हैं, जहाँ जैनमंदिर और मूर्तियाँ भूगर्भ से प्राप्त हुई हैं। मंगलं, मेत्तुपेत्तु (सिद्धरमलइ) आदि स्थल भी उदाहरणीय हैं। कालीकट और पालघाट जिलों में और भी जैनकेन्द्र हैं।
मदुरै के पास तिरुपरकुनर में सरस्वती तीर्थ है, जहाँ पार्श्व गणपतिवत्तम में एक बस्तीमंदिर है केरल-मैसूर रोड पर। एडक्कल । और सपार्श्व की फण सहित संदर मूर्तियाँ हैं। पास ही गुफा के ऊपर बना मंदिर भी जैनमंदिर होना चाहिए। पालघाट में अन्नामलै पहाड़ी है, जिस पर जैन-पुरातत्त्व सामयी प्रचुर परिमाण एक छोटा-सा मंदिर है। इसके अतिरिक्त मृत्तपत्तन और मचलापट्टन में मिलती है। यह स्थान अब ब्राह्मण समुदाय के अधिकार में है। में भी जैन मंदिर हैं। अलातूर में भी एक पुराना मंदिर है, जिसमें यहाँ तीर्थंकर और शासन देवताओं की मूर्तियाँ मिलती हैं और महावीर पर्यकासन में हैं दूसरी मूर्ति पार्श्वनाथ की है, जिस पर लेखों में अज्जनन्दी आदि आचार्यों का उल्लेख है। पास ही तीन फण है, वह कायोत्सर्ग मद्रा अलगरमले पहाडी पर भी जैन-लेख है, जिनमें अज्जनन्दी का
तीसच्चारणटमले में एक संदर गहा मंदिर है जिसमें लगभग उल्लेख है। उसी के पास उत्तमपलैयं मुत्तषत्ति, कोंगर, पुलियंगुल तीस मर्तियाँ उत्कीर्ण है। एक अन्य गुफा का नाम श्रान्तनपाडा किलक्कडि.पेच्छिपल्लं, पोयगैमलै, पंचपाण्डवमलै आदि अनेक है। इन गफाओं को देखने के बाद मंदिरों की संरचना पर ध्यान स्थान हैं, जहाँ जैनपुरातत्त्व सामग्री बहुतायत में मिलती है। यहाँ
जाता है। सिलप्पदिकारम से कुणिवायिलकोंट्टम नामक जैन मंदिर तिरुक्कतम्बले करंदी नामक एक जैनकेन्द्र है। उत्तमपलियम का पता चलता है जिसे हैदरअली ने नष्ट कर दिया था। बिहार भी इसी के अंतर्गत रहा होगा. जहाँ अस्टोपवासी और
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- तान्द्रसूरि माइ कोडगन्लुर के जैनमंदिर द्राविड शैली के हैं, ग्रेनाइट पाषाण इस प्रकार पिछले लगभग दो हजार वर्षों से तमिलनाडु में के हैं। पर आज वे वैष्णवों के हाथ में हैं। इसी तरह कहा जाता है जैनसंस्कृति अस्तित्व में बनी रही है। अस्तित्व में ही नहीं बल्कि कि वहाँ की मस्जिद वस्तुतः प्राचीन जैनमंदिर है। इरिजालकुडा वहाँ के साहित्य और संस्कृति को भी प्रभावित किया है। प्रारंभिक का कूडल माणिक्यं नामक विशाल जैनमंदिर भी उल्लेखनीय है, तमिल-साहित्य मूलत: जैनों का अधिक रहा है। वह वीरशैवों और जहाँ भरत की मूर्ति है और लेख भी।
वैदिकों द्वारा नष्ट किए जाने के बावजूद अपना योगदान बनाए त्रिचूर में बडक्कन्नाथ है. जो शायद मल रूप में जैनमंदिर रखे रहा। अब अधिकांश मंदिरों पर वैदिकों का अधिकार है। रहा होगा। कोडिक्कोड में तुक्कोविल नामक एक श्वेताम्बरमंदिर पल्लव महेन्द्रवर्मन और पांड्यराजा कुनपाड्यन जैन थे है, जिसका निर्माण लगभग ५०० वर्ष पहले हुआ था। बंगर पर वे बाद में शैव अप्पार और ज्ञान संबन्धर द्वारा बाह्मणधर्म में मंजेश्वर में एक चतुर्मुखी मंदिर है, जिसे सर्वतोभद्र कहा जाता है। प्रविष्ट कर लिए गए। यह प्रक्रिया होयसल राज्यकाल तक चलती वायनाड में मानदवाड़ी में एक आदीश्वर मंदिर है, जो प्राचीन रही। होयसल सम
रही। होयसल सम्राट विट्ठीगा जैन था पर रामानुज ने उसे वैष्णव मंदिर को ध्वस्तकर खड़ा किया गया है। फिर भी कहीं-कहीं न
या है। फिर भा कहा-कहा बना लिया। प्राचीनता के निशान बचे रह गए। सुल्तान बत्तारी का जैनमंदिर भी आज खण्डहर के रूप में पड़ा हुआ है। ऐसे ही प्राचीन जैन -
. दक्षिण जैन-स्थापत्य-कला की यह विशेषता रही है कि मंदिरों में पालक्काड और नागरकोविल के तथा गोदपर अलातर. यहाँ के जैनमंदिर और गुफाएँ जैन-साधुओं के निवास स्थान थे, मंडर किण्णालर आदि स्थानों के जैन - मंदिर भी उल्लेखनीय जिन्हें इतनी उत्कृष्टता से ग्रेनाइट के विशाल पत्थरों पर चिकनाई हैं। उनमें अलातूर मंदिर विशेष उल्लेखनीय है जो कांगदेश से सहित तराशा गया है कि हमें मौर्यकालीन बलुआ पत्थरों को संबद्ध है। यह कांगदेश और उसके राजगण जैन धर्म के संरक्षक चमकाने की दक्षता का स्मरण हो आता है। चट्टान काटकर रहे हैं। यहाँ प्राप्त लेखों में जैन-मंदिरों को दान देने के उल्लेख मंदिर निर्माण किए जाने की प्रथा जैनों में लगभग सातवीं शती हैं। ये लेख ११०२ ई. के हैं।
तक रही है। त्रिचिरापल्लै जिले के पुगलुर गाँव के आसपास पाई गई यहाँ हम कुछ और विशेषस्थानों का उल्लेख कर रहे है जो गुफाएँ और अरुनत्तुर की पहाडियाँ तथा कोयम्बतूर जिले की पुरातत्त्व की दृष्टि से और भी महत्त्वपूर्ण हैं। चेंगलपट्ट जिले के अरच्चलूर (नागमलै) की पहाड़ियाँ भी जैन-संस्कृति की दृष्टि मगरल में एक अजैन मंदिर में दो जैन मूर्तियां रखी हुई हैं। इसी से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। दक्षिण उत्तर अर्काट जिले के विदुर, तरह आरपाक्क विषार, विल्लिवाक्कम, पेरुनगर आदि स्थानों पोत्रुर तिरुनलंगोंडई, चित्तमुर, तोण्डईमंडल आदि नगरों में प्राप्त पर जैनमूर्तियाँ और स्थापत्य असुरक्षित सा पड़ा हुआ है। उत्तर जैन- मंदिर, मूर्तियाँ और गुफाएँ भी अनेक कालों की कला को अर्काड जिले के कच्चूर,नंवाक्क, कावनूरु, कुट्टैनवल्लूर, तिरुमणि, समाहित किए हुए हैं। यहां प्राप्त जैन शिलालेख दिगम्बर जैन सेवूर, अनन्तपुर, आरणि, पुनताकै, तिरुवोत्तूर, तिरुप्पननूर, करन्दै, संप्रदाय के इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मद्रास पूण्डि, पोन्नर, पोन्नरमलै, तिरुक्कोनि वेणुकुन्ट जैसे कुछ ऐसे जैन का तिरुवल्लुवर मंदिर वह है, जहाँ तिरुवकुरल काव्य लिखा गया स्थल है, जहाँ जैन मूर्तियाँ और मंदिर हैं पर अच्छी स्थिति में नहीं था। तिरुमलै और मैलापोट तथा पुदुक्कोट्टई, तेनिमलै, नस्तमलै, है। नंवाक्क, पुनताक्कै, तिरुवोत्तूर, वल्लिमलै, मयिलापुर आदि अनुरुत्तुमलै, बोम्मईमलै, मलयक्कोइल, पुत्तम्बर, छेत्तिपत्ति, कयम्पत्ति, ऐसे स्थान है, जहाँ के जैनमंदिरों को वैदिक मंदिरों में परिवर्तित अन्नवसल, कनगुडि, छित्तिर सेम पचुर आदि स्थान भी जैन इतिहास कर दिया गया है। और संस्कृति की दृष्टि से विशेष दृष्टव्य हैं। पुझल कोटलं, जिंगिरि,
दक्षिण आर्काड जिले में कीलकुप्प स्थान से एक सुंदर मेलचित्तमुर, पोलुन्नुरमलै मुनिगिरि, मन्नरगुडी, विजयमंगलं आदि
जैन-मूर्ति जमीन से निकली थी, कुछ समय पहले। तिरुमदिक सैकड़ों ऐसे स्थल है, जहाँ ईसा पूर्व से लेकर १५वी शताब्दी तक और तिरुप्पापलियर में गणधरवीच्चर जैसे अनेक शैव मंदिर ऐसे का समृद्ध जैन-पुरातत्त्व मिलता है। तमिलनाडु वस्तुत: जैन-पुरातत्त्व हैं जो मलतः जैनमंदिर थे। यहाँ धर्मसेन ने किसी कारणवश की दृष्टि से बहुत ही समृद्ध है।
शैव बनकर जैनधर्म पर बडा अत्याचार किया। toroorkarianitoriandarmanoramoniamorowokarina १२८dmiriamirrorionidmoonindianarmadardarodar
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-चन्द्रसार मारा इतिहास सिरुकडवूर में एक तालाब की चट्टान पर २८ तीर्थंकरों अनेक वसदियाँ है जो पुरातत्त्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। की सौम्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। तृतीय शती की एक प्राचीन गुफा
कारकल के पास ही मूडबिद्री अथवा वेणपुर भी एक भी है यहाँ। मेलचित्तामूर में एक पुरातन मंदिर है, जिसमें प्राचीन
अच्छा स्थान है। कहा जाता है यहाँ भगवान पार्श्वनाथ और जैन मूर्तियाँ हैं। कूष्माण्डनी देवी की भी मूर्ति है। यहाँ के मठ में
महावीर ने भी बिहार किया था। लगभग ५वीं शताब्दी से यहाँ समृद्ध शास्त्रभंडार भी है। तोण्डूर, तायनूर, पेरुम्बुर्गे, सनुक्के, जैनधर्म का अस्तित्व मिलता है। वैसे यहाँ की जैनपरंपरा तो मुदलूर, सातमंगल, गुडलूर, सीयमंगल,सीदमंगल, विलुक्कं,
बहुत पुरानी है। हेमांगद देश यहीं था, जिसके जैन राजा जीवन्धर वोल्लिमेडुपेट्टै, पेरणी, तिरुनंरुकन्डं, सोलवाण्डिपुरं आदि कतिपय
थे और सलुववंशीय अनेक राजा भी जैन थे। यहाँ अनेक बसदियाँ ऐसे प्राचीन स्थान हैं, जहाँ पुराने जैनमंदिर तो हैं ही साथ ही
हैं, जिनमें त्रिभुवन तिलकमणि मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। इसी भूगर्भ से मूर्तियाँ भी निकली हैं।यहाँ शासन देवी-देवताओं की
तरह चंद्रनाथ वसदि का भैरोदेवी मण्डप, अम्मनवार वसदि की
। भी मर्तियाँ प्राप्त होती हैं। उनमें कृष्णाण्डी और पद्मावती देवी पंक्तिबद चौबीस तीर्थंकरों की मर्तियाँ, चोटार महल में काष्ठ की मूर्तियाँ अधिक लोकप्रिय रही है।
स्तम्भ पर उत्कीर्ण नवनारीकुंजर, सिद्धांत वसदि विशेष उल्लेखनीय तंजाऊर जिले के तंजाऊर नगरमें आदिनाथ का प्राचीन है। इसके साथ ही धर्मस्थल की ३९ फीट की बाहुबली मूर्ति, जिनालय है, जिसमें सरस्वती, ब्रह्मदेव, ज्वालामालिनी और हलेबिड की शान्तलेश्वर वसदि और होयसलेश्वर वसदि भी कूष्मांडिनी देवियों के मंदिर हैं। तिरुप्पपुगलूर का शैवमंदिर मूलतः पुरातत्त्व की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी हैं। यहाँ सुरक्षित कन्नड और जैनमंदिर था। तिरुनाकेश्वर के भी शैवमंदिर जैनमंदिरों के परिवर्तित संस्कृत के शिलालेख इतिहास की दृष्टि से आकलनीय हैं। रूप हैं। मन्नारगुडि और दीपंगुडि का ज्वालामालिनी मंदिर भी
श्रमणबेलगोल कर्नाटक का प्रमुखतम स्थल है, जहां दर्शनीय है। रामनाथपुर जिले के कोविलंकुल में किडार,
पुरातत्त्व का हर भाग लहराता रहा है। इसलिए हम यहाँ इसे कुछ पेरिथपट्टन्नं, मंजियूर, सेलवनूर, तिरुनेलवेली जिले के एरुवाडि,
विस्तार के साथ प्रस्तुत करना चाहेंगे। अरुगमंगलं, कुलुगुमले, कायल, बलियूर, कोयंपुत्तूर जिले के धर्मपुरी, विजयमंगल, तिरुमूर्तिमलै, कडुलर (ओटी), कुंभकोण
कर्नाटक आदि स्थानों पर जैनमूर्तियाँ और मंदिर बिखरे पडे हए हैं।
प्राकृतिक सौन्दर्य से हरा-भरा स्थल, लंबे-चौड़े मैदानों तमिलनाडु वस्तुत: कर्नाटक के बाद ऐसा दक्षिणवर्ती जैन से घिरी पहाड़ियाँ, श्वेत सरोवर (बेलगोला) को गोद में समेटे प्रदेश है, जहाँ कला और स्थापत्य के साथ ही आचार्य कुन्दकुन्द, मनमोहक बसदियां, नारियल, सुपारी आदि वृक्षों को बगल में समन्तभद्र, अकलंक जैसे दार्शनिक हुए और संलप्पदिकारं, दबाए रोड मानो गोमटेश मूर्ति की ओर निष्पलक निहार रहे हैं। नीलकेशि तिरुक्करल आदि जैसे ग्रंथ लिखे गए।
बेंगलौर से १४५ कि.मी. और मैसूर से ११० कि.मी. पर बसे ____ मंगलूर जिले का कारकल एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहा है।
इस छोटे परंतु रमणीय कस्बे में प्राचीन जैन संस्कृति की गहरी यहाँ के सान्तर राजा जैनधर्म के अनुयायी रहे हैं। यह शिलालेखों
छाप दिखाई देती है। लगता है, लगभग ई.पू. तीसरी सदी के से प्रमाणित है। कहा जाता है पद्मावती देवी ने उनकी सहायता
श्रुतकेवली भद्रबाहु और उनके शिष्य चंद्रगुप्त ससंघ आज भी की थी, भैरवी का रूप धारण कर। तबसे इन राजाओं के नाम के
कहीं श्रवणबेलगोला के आसपास रहकर नेमिचंद सिद्धांत चक्रवर्ती साथ भैरव जुड़ गया। यहाँ की प्रसिद्ध मूर्ति भगवान गोमटेश
के शिष्य चामुण्डराय द्वारा निर्मित विश्वविश्रुत भगवान् बाहुबली बाहुबली की है, जो ४२ फीट ऊँची है। यह मूर्ति एक छोटी पहाड़ी पर अवस्थित है। १३ फरवरी १४३२ में प्रतिष्ठापित यह श्रवणबेलगोला परिकर में चार स्मारक हैं-(१) छोटा पहाड़ मूर्ति बड़ी कलात्मक और मनोहर है। उसके सामने ब्रह्मदेव (चिक्क बेट्ट)-चंद्रगिरि, (२) बड़ा पहाड़ (दोडवेट)-विन्ध्यगिरि, मानस्तम्भ है, जिसके ऊपर लिखा है इसे जिनदत्त के वंशज (३) नगर और (४) जिननाथपुर। भैरवपुत्र वीर पाण्डव नृपति ने बनवाया। इसी स्थान पर और भी
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास(१) छोटा पहाड़ (चंद्रगिरि)
में ९० चित्र फलक हैं (१२वीं सदी) जिनका संबंध चंद्रगुप्त
और भद्रबाहु के जीवन से है। कत्तले वसदि (१.११८ ई. में अपर नाम इंद्रगिरि, कटवप्र, कालवप्प, तीर्थगिरि, ऋषगिरि
निर्मित) में आदिनाथ की मूर्ति है। अब इस मंदिर में अंधेरा आदि। अनेक साधुओं का समाधिस्थल। ७वीं सदी तक घने जंगल से घिरी पहाड़ी पर ९-१०वीं सदी से उसका रूप परिवर्तित।
(कत्तले) नहीं है, प्रकाश की व्यवस्था है। प्रदक्षिणा पथ इसकी
विशेषता है। गंगराज सेनापति ने इसे बनवाया था। मज्जिगण आचार्य भद्रबाहु और उनके शिष्य प्रभाचंद्र (सम्राट चंद्रगुप्त
वसदि में १४वें तीर्थंकर अनन्तनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। मौर्य) की तपोभूमि और समाधिस्थल। २७१ शिलालेख प्राप्त।
इसकी पश्चिम दिशा में शासन वसदि है। जिसका निर्माण १११८ उनमें प्राचीनतम वह शिलालेख (छठी सदी) जिसमें इन दोनों
ई. में होय्यसल नरेश विष्णुवर्धन के सेनापति गंगराज ने कराया। आचार्यों का उल्लेख। यहीं वह भी स्थल जहां से चामुण्डराय ने
शासन वसदि और चामुण्डराय वसदि के बीच एक-दो स्मारक विन्ध्यगिरि पर बाण छोड़कर गोमटेश मूर्ति के शीर्ष भाग को
हैं, जिन्हें गंगराज मंडप कहते हैं। उसके पश्चिम में चंद्रप्रभ वसदि प्रकट किया था।
है, जिसका निर्माण गंगनरेश शिवमार द्वितीय ने ८वीं शती में नगर की बायीं और बड़ी-बड़ी चट्टानों से भरा २४० सीढ़ियां किया। इसमें अम्बिका और ज्वालामालिनी की आकर्षक मर्तियाँ और ९३५ फुट की समानान्तर भूमि के बाद मुत्तालय स्मारकों हैं। इस वसदि के बायीं ओर सपार्श्वनाथ वसदि है, जिसमें का प्रारंभ। बीच में लगभग १६वीं सदी का तोरण। सुत्तालय के सप्तफणयुक्त सुपार्श्वनाथ की मूर्ति है। पूर्व प्राकृतिक भद्रबाहु गुहा जिसमें भद्रबाहु और चंद्रगुप्त के पद
चंद्रगिरि पर्वत पर सर्वाधिक संदर द्रविड शैली में निर्मित चिह्न ११वीं सदी में निर्मित। बाद में वह मंदिर में परिवर्तित।
चामुण्डराय वसदि है, जिसमें तीर्थंकर नेमिनाथ की ५ फीट की सुत्तालय के पास एक तालाब। सुत्तालय में १३ मंदिर, ७ मंडप,
मनोज्ञ प्रतिमा है। गर्भगृह के दोनों और अलंकृत यक्ष सर्वाहण २ स्तम्भ और एक विराट मूर्ति। दक्षिण प्रवेश द्वार पर गंगकला
और दक्षिणी कूष्मण्डिनी निर्मित है। चामुण्डराय ने इसका निर्माण का मनोहारी नमूना कूगे ब्रह्मदेव मानस्तम्भ। दायीं और शांतिनाथ
कराया जिसका अनुकरण होय्यसल नरेशों ने हेलिबिड आदि वसदि में ११वीं सदी में निर्मित शांतिनाथ की १३ फीट ऊंची
मंदिरों के निर्माण में किया। इसे चामुण्डराय के पुत्र जिनदेव ने मूर्ति। इसके उत्तर में लोहे के घेरे में खड़ी बाहुबली के भाई भरत
९९५ई. में बनवाया। यहां के एक अन्य लेख से पता चलता है की ९ फीट की विशालकाय मूर्ति। कलाकार अरिष्टनेमि का
कि बेलगोला के चेलोक्यरंजन नामक जैन मंदिर का निर्माण कदाचित् प्रारंभिक प्रयोग। इसके पूर्व युगल महानवमि मंडप (१२वीं सदी में होयसल राजा नरसिंह प्रथम द्वारा निर्मित)। दोनों
गंगराज के पुत्र एचन्ना ने ११३८ई. में कराया था। गंगाचारि इसका
कलाकार था। इस तरह यह वसदि कई चरणों में बनाई गई। वसदियों के बीच छठी सदी का प्राचीनतम शिलालेख जिसमें भद्रबाहु, चंद्रगुप्त, द्वादशवर्षीय अकाल आदि का वर्णन है।
इसी वसदि के समीप एडकट्टे वसदि है, जिसका निर्माण
गंगराज की पत्नी लक्ष्मी ने १११८ ई. में किया। इसके दायीं और द्राविड़ शैली में निर्मित पार्श्वनाथ वसदि। उसके गर्भगृह में
सबतिगंधवारण वसदि है। जिसे होयसल नरेश विष्णुवर्धन की १५ फीट ऊंची पार्श्वनाथ सप्तफण युक्त श्यामवर्ण की मनोज्ञ
सर्वाधिक प्रिय जैन पत्नी शान्तला देवी ने ११२३ ई. में निर्मित मूर्ति (११वीं सदी)। सामने मानस्तम्भ (१७५० ई.), दायीं ओर
किया। इसमें शांतिनाथ की पाँच फीट की मूर्ति और यक्ष पद्मावती की मूर्ति और आसपास यक्षमूर्ति, कूष्माण्डिनी देवी और घुड़सवार की मूर्ति। इस वसदि के उत्तर में चंद्रगुप्त वसदि
किम्बपुरुष तथा यक्षी महामानसी की मूर्तियां हैं। इसके पूर्व
तेरिन वसदि है, जिसे १११७ ई. में माचिकब्बे और शांतिकब्बे ने (९वीं सदी)। उसमें तीन कोठरियाँ जिसमें पार्श्वनाथ, पद्मावती
बनवाया। इसमें ४ फीट ऊंची बाहुबलिस्वामी की मूर्ति है, जिसे और कूष्माण्डिनी देवी की विशाल मूर्तियाँ १२वीं सदी की होयसल कलाकारी में निर्मित। बरामदे में गंग कलाकारी में निर्मित
कर्नाटक परंपरा ने तीर्थंकर के समान पूजना प्रारंभ किया। अंत धरणेन्द्र और सर्वाण्ह यक्ष की मूर्तियां। सामने सभा भवन में
में शांतीश्वर वसदि है, जिसे गंगराज बोम्मण के पुत्र एचिमय्य ने क्षेत्रपाल की मूर्ति। अलंकृत द्वार के दोनों ओर जालीदार पाषाण
बनवाया। सर्वाग्रह और अंबिका की भी मूर्तियां यहां है।
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासपरकोटे के कोने में राष्ट्रकूट-काल (९८२ ई.) में निर्मित ११वीं सदी में विष्णुवर्धन के सेनापति भरतमय्य ने कराया। एक मण्डप है, जिसमें राजा इंद्र चतुर्थ का समाधिलेख है। कुछ बाद में उनसे लगा हुआ खुला मण्डप जोड़ा गया। अन्य लेखों में गंगराज के परिवार के नामोल्लेख है। ऐसे कुछ
अखण्ड बागिल से कुछ आगे बढ़ने पर तीसरा तोरण और भी यहां मण्डप है, जहां समाधिलेख उत्कीर्ण है। परकोटे के
आता है जो कचिन गुब्बि बागिलु कहलाता है और २१ सीढ़ियों बाहर ब्रह्मदेव मंदिर है, जिसमें १०वीं सदी के कुछ महत्त्वपूर्ण
बाद एक और तोरण आता है जिसे गुल्लेकायि अज्जि बागिल नामोल्लेख हैं।
कहा जाता है। यहाँ से प्राकार प्रारंभ होता है, जिसे होयसल नरेश (२) बड़ा पहाड़ (विन्ध्यगिरि)
विष्णुवर्धन के सेनापति एवं अमात्य गंगराज ने १११७ ई. के
लगभग बनवाया था। इस प्राकार के भीतर विभिन्न देव-देवियों विन्ध्यगिरि उल्टे कटोरे की आकृति में ६५० सीढ़ियों को।
की ४३ मूर्तियाँ हैं। परकोटा बनने के पूर्व यहाँ गोम्मटेश्वर मूर्ति समेटे ४३५ फीट ऊँचा सिर उठाए लगभग ५८ फीट ऊँची भ..
का निर्माण हो चुका था। इस मूर्ति के सामने खड़े होने पर बायीं बाहुबलि की मनोज्ञ मूर्ति को समाहित किए हुए है। इसका इतिहास
और सिद्धर वसदि है, जिसमें सिद्ध भगवान की तीन फीट ऊँची ई. सन् ९८० से प्रारंभ होता है। मूर्ति के निर्माण के साथ। बाद में
मूर्ति है और उसके दोनों ओर दो कलात्मक छह फीट ऊँचे स्तम्भ है। १२वीं सदी में परकोटा, मूर्ति के समीप दो परिचारक, अष्टदिक्पाल, द्वारमण्डप, मानस्तम्भ और दो कोठरियाँ जोड़ी गईं। अनन्तर
पश्चिमी ओर ओडेया मण्डप है, जिसमें पत्थर के आधार अन्य वसदियां भी।
पर तीन मूर्तियाँ खड़ी है-नेमिनाथ, आदिनाथ और शांतिनाथ।
इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण लेख भी हैं। सामने गुल्लेकायि अज्जि सीढ़ियों पर चढ़ते ही बाईं और ब्रह्मदेव का मंदिर (१८७८
मण्डप है, जिसमें पाँच स्तम्भ, एक शिलालेख और एक वृद्धा ई.) है। बाद में कुछ ऊपर चढ़कर तोरणपथ मिलता है, जिसे
की मूर्ति है। यह अज्जि कुरती और चुनरे वाली साड़ी पहने है। १४वीं सदी में बनाया गया। उस पर धरणेन्द्र और गजलक्ष्मी के
इसका निर्माण १७वीं सदी में हुआ है। कहा जाता है, अज्जि की चित्र उकेरे गए हैं। यहीं बाहरी किले का प्रवेश द्वार (१८वीं सदी)
ही मूल भूमिका थी बाहुबलि स्वामी के मस्तकाभिषेक करनेमिलता है। भीतर जाने पर दायीं ओर एक मंदिर है जो २४
कराने में। दन्तकथा के अनुसार यक्षि पद्मावती ने चामुण्डराय तीर्थंकरों को समर्पित है (१७वीं सदी)। वहीं ओदेगल वसदि
___ का दर्द दलन करने के लिए वृद्धा का रूप धारण किया। नगर (त्रिकूट वस्ती) है, जो सबसे ऊँचा है। १२ स्तम्भों वाला द्वारमण्डप,
को भी बिलिगुल्ल (बेंगन) नाम दिया गया। वृद्धा ने इसी फल तीन गर्भगृहों में तीन विशाल मूर्तियाँ और होयसल कला की
के खोल से भगवान का अभिषेक किया था। अभिव्यक्ति यहाँ है। इसमें २७ अभिलेख हैं।
अज्जिमण्डप के साने वाले खुले प्रांगण में गोम्मटेश्वर की इसके पश्चिम में चागद कंभ (कलात्मक त्यागद स्तम्भ है ।
भव्य मूर्ति खड़ी है। बाह्य द्वारमण्डप में १७-१८वीं सदी में (१०वीं सदी) जहाँ चामुण्डराय ने संसार त्याग किया था। यह
निर्मित दो द्वारपाल शोभित हैं। प्रवेश-द्वार के बायी ओर १२वीं स्तम्भ गंग कारीगरी का उत्कृष्ट नमना है। इसके दायीं ओर दो
सदी के कवि बोप्पण पंडित का शिलालेख है, जो गोम्मटेश की मूर्तियाँ हैं, जो शायद चामुण्डराय और नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती
मूर्ति की चमत्कारात्मकता का वर्णन करता है। भीतरी मण्डप में की है। यहीं पास ही दो तलैया हैं और एक खुला भवन बारह
अष्टदिक्पाल हैं और खले प्रांगण में गोम्मटेश की मूर्ति अपनी स्तम्भों वाला। इसका निर्माण चेत्रण ने किया १७वीं सदी में।
भव्यता को प्रकट कर रही है। ५८'८" ऊँची इस मूर्ति को ई. इसी चेन्नण व सदि में एक संदर मानस्तम्भ भी है।
९८० में गंगराज सेनापति चामुण्डराय ने प्रतिष्ठापित किया था। चागद कंभ से आगे चढ़ने पर अखण्ड बागिलु (द्वार) है इस विराट मर्ति को चट्टान से काटकर कुशल शिल्पी अरिष्टनेमि जो एक ही शिला को काटकर बनाया गया है। इसके ऊपर ने गोम्मटेश का रूप दिया। इसके घुघराले केश, नुकीली नासिका, गजलक्ष्मी का बहुत सुंदर चित्र है, पास ही दो कोठरियाँ हैं, जिनमें अर्धनिमीलित नेत्र, सुंदर ओंठ, व्यवस्थित ठुड्डी, २६' चौड़ा भरत बाहुबलि की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। यह सब निर्माण १०वीं- वक्षस्थल देखते ही बनता है। इस मूर्ति के माप के बारे में
andramodroinodriwariwarirandisarowarduariwariritonira[१३१droidnirodeoromaniramirroriramidnirmirandir
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१५' २"
१६' २"
०.
- चीन्द्रमूरिमारक इतिहासविद्वानों में मतैक्य नहीं है। पर १९८० में भारतीय कला इतिहास गोमटेश की मूर्ति के वल्मीक पर विशाल चरणों के चारों संस्थान, कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड़ ने थियोडलैट उपकरण ओर कन्नड़, तमिल और मराठी में शिलालेख उत्कीर्ण हैं, जो यह के माध्यम से जो माप प्रस्तुत की है, वह अधिक विश्वसनीय घोषित करते हैं कि इस मूर्ति का प्रतिष्ठापक चामुण्डराय है। इसी है। तदनुसार उसका कुल माप ५८' ८" आता है, जो इस मूर्ति के बायें चरण के पास एक गोल पत्थर का कुंण्ड है, जो प्रकार है--
कदाचित् गन्धोदक को इकट्ठा करने के निमित्त बनाया गया है। पाँव की ऊँचाई
२८"
यहीं १२वीं सदी में दो द्वारपालों की मूर्तियाँ गंगराज ने बनवाई
साथ ही परकोटे की दीवार और जालान्ध्र का निर्माण कराया। पाँव के आदि से घुटने तक
दूसरे द्वारमण्डप में यक्ष मूर्ति और मानस्तम्भ को बलदेव ने पाँव के आदि से कमर रेखा तक ३१' ४'
बनवाया। लगभग ५०० वर्षों के बाद स्तम्भों को अलंकृत . पाँव के आदि से नाभि तक ३५' १"
किया गया ओर फर्श बनाया गया। सुत्तालय में गोमटेश मूर्ति के पाँव के आदि से गर्दन रेखा तक ५७'८"
तीनों और चौबीसी मूर्तियाँ तथा अंबिका की मूर्ति है, जिन्हें घुटने से कमर रेखा तक
समय-समय पर अनेक श्रेष्ठियों ने प्रतिष्ठापित कराया था। कमर रेखा से नाभि तक
२'९"
(३) श्रवणबेलगोल नगर नाभि से गर्दन रेखा तक
२०' ११” गर्दन रेखा से गर्दन तक
गोमटेश मूर्ति की स्थापना के बाद इस नगर को गोम्मटपुर
कहा जाने लगा लगभग १२वीं सदी में। इसके पूर्व वह 'बेल्गोल' गर्दन से सिर की चोटी तक
के नाम से जाना जाता था, क्योंकि यहां धवल सरस् या तालाब बाहुओ की लम्बाई
था। धीरे-धीरे श्रद्धालु भक्तों और यात्रियों में वृद्धि होने लगी। शिश्न की लम्बाई
४'."
फलतः पानी की कमी को दूर करने के लिए तालाब खोदे गए। कानों से की लम्बाई
११२० और ११५९ ई. के बीच भंडार वसदि बनाई गई। समीप नाक की लम्बाई
ही आवास स्थल बनवाए गए और छोटे पहाड़ के अधोभाग से हाथ की लम्बाई
अक्कन वसदि तक नगर फैल गया १२वीं सदी में। यहीं उत्तर (क) कलाई से बीच की अंगुली लम्बाई ८' ०"
की ओर १११७ ई. में गंगराज के भतीजे हिरिएचिमप्प ने जिननाथपुर
की स्थापना की और अरेगल वसदि की स्थापना की। पश्चिम (ख) कलाई से तर्जनी तक लम्बाई
की ओर १२०० ई. में रेचण्ण दण्डनायक ने शान्तीश्वर वसदि (ग) कलाई अंगूठा तक
५'०"
बनाई। बाद में सिद्धांत वसदि और मांगायि वसदि जैसी अन्य कुल ऊँचाई
५८'८"
वसदियाँ भी जुड़ती गईं और श्रवणबेलगोला नगर की सुंदरता
बढ़ती चली गई। एक ही पत्थर से बनी निराधार खड़ी इतनी विशाल मूर्ति निश्चित ही दुनिया में अद्वितीय कही जासकती है। बामियान भण्डार वसदि-- श्रवणबेलगोला का यह सबसे बड़ा (अफगानिस्तान) की बुद्ध मूर्तियां १२०, और १७५' अवश्य है, जिनालय है। इसे होयसल राजा नरसिंह के भंडारी हुल्लमप्प ने पर वे एक शिलाखण्ड से निर्मित नहीं है। रयाम्सीज २ की मूर्ति ११५९ ई. में बनवाया था। इसके गर्भगृह में एक ही पंक्ति में (ईजिप्ट) लगभग गोमटेश की ऊँचाई के बराबर है, पर वह मूर्ति चौबीस तीर्थंकरों की मनोज्ञ मूर्तियाँ विराजमान है। प्रवेशद्वार पर न देवता की है और न ही निराधार खडी है। मेम्नान की मूर्ति इन्द्र नृत्य की कलात्मक मूर्तियाँ है। नवरंग आकर्षक है और तीस
और चाप्रोन का स्फिंक्स भी भले ही लगभग दस फीट बडे हों फीट ऊँचे परकोटे में भी सुंदर आकृतियां उकेरी गई हैं। मंदिर के पर वे एक ही पाषाण खण्ड से बनी कलाकृति नहीं हैं। सामने भव्य मानस्तम्भ है जो उत्तरकाल में बनाया गया है।
°
५' १०"
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-चतान्द्रसूरि स्मारक ग्रन्या इतिहास - भंडार-वसदि में ईशान्य में जैनमठ है, जिसे मूलतः १२वीं युक्त ग्यारह फणयुक्त पद्मासन मूर्ति संस्थापित है। इसे गंगराज सदी में बनाया गया था, पर उसका ३००-४०० वर्ष पूर्व नवीनीकरण के भाई हिरि एचिमय्य ने बनवाया था। हुआ है। इस मठ के भीतर के भित्तिचित्र और गर्भगृह की धातु
श्रवणबेलगोल के दक्षिण-पश्चिम में एक चौकोर समाधि मूर्तियाँ तथा द्वार-मण्डप की गजाकृतियाँ विशेषतः दृष्टव्य हैं।
मण्डप है जो आचार्य नेमिचन्द्र के शिष्य की निषध्या है (१२१३
जो इनकी संरचना १७-१८ वीं सदी में हुई है। ज्वालामालिनी, शारदा ई.)। यहीं एक और निषध्या है, जो चारुकीर्ति की समाधि है और कूष्माण्डिनी देवियों की भी यहाँ कलात्मक मूर्तियां हैं।
(१६४३ ई.)। अक्कन-वसदि-- भण्डार वसदि सेहमसीधे अंत में अक्कन
श्रवणबेलगोल से ६ कि.मी. दूर उत्तर में हेलेवेलगोल है, वसदि पहुँचते हैं, यहाँ होयसल शैली में निर्मित गर्भगृह और प्रवेश
जिसमें होयसल शैली का एक ध्वस्त जैनमंदिर है। एक अन्य मण्डप निर्मित मिलते हैं। अलंकृत गर्भगृह में पार्श्वनाथ की सप्तफण
ग्राम साहल्ली ५ कि.मी. दूर तथा कम्बदहल्ली १८ कि.मी. यक्त मर्ति है, साथ ही मंदिर की प्रभावली में चौबीस तीर्थंकरों की दर है. जहाँ गंगराज परिवार द्वारा निर्मित अनेक कलात्मक जैन - मर्तियाँ और सुखनासि में यक्ष, धरणेन्द्र, यक्षिणी और पद्मावती मंदिर दर्शनीय हैं। की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। इसका निर्माण ११०३ ई. में होयसल परिवार
श्रवणबेलगोल और उसके परिकर के मंदिरों का इतिहास ने कराया। इस वसदि के घंटाकार स्तम्भ, कीर्तिमुख, शिखर आदि
नवीं सदी से प्रारंभ होता है। चन्द्रगिरि पर्वत पर ११२५ ई. के की अलंकृत द्राविड शैली की आकर्षक कलाकृतियाँ है।
बाद का कोई मंदिर नहीं है पर विन्ध्यगिरि पर नवीं से १८वीं सदी इसके समीप ही मांगायि-वसदि है जिसे १३१५ में राजनर्तकी तक की कलाकतियाँ उपलब्ध होती हैं। चन्द्रगिरि स्थित चामण्डराय मांगायि ने बनवाया था। इसमें तीर्थंकर की रमणीय प्रतिमाएँ वसदि सर्वाधिक अलंकत है। इस नगर में लगभग ५३० शिलालेख विराजित हैं। पश्चिम में सिद्धान्तवसदि है, जिसमें हमारे जैन - मिलते हैं। इनमें २७४ चन्द्रगिरि पर, १७२ विन्ध्यगिरि पर और सिद्धान्त-ग्रन्थ धवला, जयधवला, महाधवला, भूवलय आदि शेष नगर के आसपास मिले हैं। इनमें मराठी का एक प्राचीनतम सुरक्षित रखे गए थे। इसी के पास दानशाला-वसदि है। शिलालेख भी है। ये सभी शिलालेख जैनधर्म और संस्कति से
श्रवणबेलगोला नगर के बीच एक कल्याण सरोवर है. संबद्ध है। चन्द्रगिरि की पार्श्वनाथ बस्ती में प्राप्त दो शिलालेख जिसका जीर्णोद्धार चिक्कदेव राजेन्द्र महास्वामी ने लगभग १७०० विशेष उल्लेखनीय है, जो भद्रबाह और चन्द्रगप्त की दक्षिण - ई. में किया। भण्डार-वसदि के दक्षिण में एक जक्की कटे यात्रा का विवरण देते हैं। और उनकी समाधि-स्थली होने का नामक सरोवर है, जिसका निर्माण जक्कीम्मव्वे ने ११२० ई. में संकेत करते हैं। कराया था। दक्षिण में एक चेनड कुण्ड भी उल्लेखनीय है, जिसे
श्रवणबेलगोल का संबंध समाधिमरण से अधिक रहा है। चेनण्ण ने १६७३ में बनवाया था।
यहाँ पर साधक आध्यात्मिक मरण की कामना लेकर आते हैं। (४) जिननाथपुर
यह सिलसिला १२वीं सदी तक चलता रहा, पर उसके बाद वह
विरल हो गया। ऐसे स्मारक यहाँ लगभग १०० मिलते हैं। चन्द्रगिरि पर्वत के पीछे ब्रह्मदेव मंदिर के पास लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर जिननाथपुर नगर है, जिसे गंगराज सेनापति
यह नगर दिगम्बर जैन-संस्कृति का जीवन्त केन्द्र रहा है। ने १११८ ई. में बसाया था। उसमें शांतिनाथ-वसदि होयसल इसमें गंगकला का उत्कृष्ट नमूना देखने को मिलता है। साथ ही कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस मंदिर के गर्भगह में शांतिनाथ भरत और बाहुबली की अनूठी प्रतिमाएँ; कलात्मक, ऐतिहासिक, की साढ़े पाँच फीट ऊँची भव्य मूर्ति तथा बाह्य दीवारों पर यक्ष पौराणिक और सामाजिक महत्त्व वाले भित्तिचित्र, यक्ष-यक्षणियों धरणेन्द्र, सरस्वती, अंबिका, मन्मथ, चक्रेश्वरी आदि की अनेक की मूर्तियां भी दृष्टव्य है। कलात्मक मूर्तियाँ अंकति हैं। इसी वसदि के समीप एक अरेगल्ल- इस नगर की जैन-संस्कृति का संरक्षण करने का वसदि है, जिसमें पार्श्वनाथ की पाँच फीट ऊँची प्रभावली - उत्तरदायित्व चारुकीर्ति भट्रारक को रहा है। सर्वप्रथम इसका
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक इतिहासउल्लेख ११३१ ई. के शिलालेखों में मिलता है। बाद में १३१३ आदिनाथ और उनके पुत्र भरत बाहुबली से रहा है। राज्य के ई. तक उसका उल्लेख नहीं है। १४वीं सदी के प्रारंभिक काल में बँटवारे के समय भरत को अयोध्या और बाहुबली को पोदनपुर उसका उल्लेख मिलने लगता है। १३९८ ई. में चारुकीर्ति परंपरा का राज्य दिया गया। यह पोदनपुर भारत के उत्तरी भाग में था या में आने वाला व्यक्ति श्रुतकीर्तिदेव का शिष्य था। यह परंपरा दक्षिणापथ के किसी अंचल में, यह विषय विवादग्रस्त है। बाबू १८५६ ई. तक चली। बाद में कदाचित् मुनि के स्थान पर कामताप्रसाद जी ने उसे दक्षिणापथ में माना हैदराबाद के आसपास। भट्टारक का समावेश हुआ। १८५८ ई. के बाद के शिलालेखों में शायद इसी धारणा से बंबई में वोरवली में पोदनपुर की स्थापना चारुकीर्ति मुनियों का उल्लेख नहीं मिलता। उसी परंपरा में वर्तमान हुई। कतिपय विद्वान उसे अफगानिस्तान में रखते हैं। भट्टारक चारुकीर्ति स्वामीजी दीक्षित हुए हैं।
इस प्रकार जैनधर्म दक्षिण भारत में खूब पनपा और उसकी श्रवणबेलगोल इसी परंपरा में आज भी जैन-संस्कृति के कला-सम्पदा अनोखी रही। पुरातत्त्व में उसके जो चिह्न हमें संरक्षण का केन्द्र बना हुआ है। उसका मूल संबंध प्रथम तीर्थंकर मिलते हैं, उनका आलेखन हमने यहाँ संकेत में किया है।
శిరంగంగయందురురురురురురుసారంగారరసారం రంగారరసాయరుగారుసారసాదశరువారం
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कोरटाजी तीर्थ का प्राचीन इतिहास
आचार्यदेव यतीन्द्रसूरिजी......)
D
देश मारवाड़ में जिस प्रकार ओसियाँ, आबू, कुंभारिया, नामक टीका और रत्नप्रभाचार्यपूजा में लिखा है कि
राणकपुर और जैसलमेर आदि पवित्र और प्राचीन तीर्थ उपकेशगच्छीय श्री रत्नप्रभसूरिजी ने ओसियाँ और कोरंटक माने जाते हैं, उसी प्रकार कोरंटक (कोरटाजी) तीर्थ भी प्राचीनता नगर में एक ही लग्न में दो रूप करके महावीर प्रतिमा की की दृष्टि से कम प्रसिद्ध नहीं है। यह पवित्र और पूजनीय स्थान प्रतिष्ठांजनशलाका की। प्रसिद्ध जैनाचार्य आत्मारामजी ने भी जोधपुर रियासत के बाली परगने में एरनपुरा स्टेशन से १३ मील स्वरचित जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर के पृष्ठ ८१ पर लिखा है - पश्चिम में है। यह किसी समय बड़ा आबाद नगर था। वर्तमान में 'एरनपुरा की छाबनी से ३ कोश के लगभग कोरंट नामा नगर यहाँ सभी जातियों की गृह-संख्या ४०८ और जनसंख्या लगभग ऊजड़ पड़ा है, जिस जगो कोरटा नाम का आज के काल में १७५० है। इनमें वीसा और ओसवाल-जैनों के ६७ घर हैं, जिन गाम बसता है, वहाँ भी श्री महावीरजी की प्रतिमा श्री रत्नप्रभसूरिजी में इस समय पुरुष १२२ और स्त्रियाँ ११३ हैं। इस समय यह की प्रतिष्ठा करी हुई है। विद्यमान काल में सो एक छोटे ग्राम के रूप में देख पड़ता है। इससे लगी हुई एक
पण्डित धनपाल ने वि.सं. १०८१ के लगभग 'सत्यपुरीय छोटी, परंतु बड़ी विकट पहाड़ी है। पहाड़ी के ऊपर अनन्तराम
श्री महावीर उत्साह बनाया है। उसकी १३वीं गाथा के 'कोरिंट सांकला ने अपने शासनकाल में एक सुदृढ़ दुर्ग बनवाया था जो
सिरिमाल धार आहड नराणउ' इस प्रथम चरण में कोरंट तीर्थ धोलागढ़ के नाम से प्रसिद्ध था और अब भी इसी नाम से
का भी नमस्करणीय उल्लेख किया गया है। तपागच्छीय पहचाना जाता है। इस समय यह दुर्ग नष्टप्राय है। दुर्ग के मध्यभाग सोमसन्दरजी के समय में मेघ (मेह) कवि ने स्वरचित तीर्थमाला में पहाड़ी की चोटी पर 'वरवेरजी' नामक माता का स्थान और
में 'कोरंटउ', पंन्यास शिवविजयजी के शिष्य शीलविजयजी ने उसी के पास एक छोटी गुफा है। गुफा के भीतरी कक्ष में किसी
कसा अपनी तीर्थमाला में 'वीर कोरटि मयाल', और ज्ञानविमलसूरिजी तपस्वी की धूनी मालूम पड़ती है। इस समय गुफा में न कोई ने निज तीर्थमाला में 'कोरटइं जीवितस्वामीवीर' इन वाक्यों से रहता है और न कोई आता जाता है। कोरटाजी के चारों तरफ के
इतर तीथों के साथ-साथ इस तीर्थ को भी वंदन किया है। इन खण्डहर, पुराने जैनमंदिर, आदि के देखने से प्राचीन काल में
कथनों से भी जान पड़ता है कि विक्रम की ११वीं शती से लेकर यह कोई बड़ा भारी नगर रहा होगा ऐसा सहज ही अनुमान हो ।
१८वीं तक यहाँ अनेक साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका यात्रा सकता है। इसका पश्चिम-दक्षिण भाग झारोली गाँव के पहाड़ से
करने को आते थे। अतएव यह पवित्र पूजनीय तीर्थ है, और लगा हुआ है।
अति प्राचीन प्रतीत होता है। प्राचीन श्री महावीरमंदिर
प्रतिमा-परिवर्तन . इसकी प्राचीनता सिद्ध करने वाला श्री महावीर प्रभु का
आचार्य रत्नप्रभसूरि-प्रतिष्ठित श्री महावीर प्रतिमा कब मंदिर है। यह धोलागढ़ पहाड़ी से, अथवा कोरटाजी से पौन
और किस कारण से खंडित या उत्थापित हुई ज्ञात नहीं। संवत् मील दक्षिण में 'नहरवा' नामक स्थान में स्थित है। श्री वीरनिर्वाण
१७२८ में विजयप्रभसूरि के शासनकाल में जयविजयगणि के के ७० वर्ष बाद इस भव्य मंदिर की प्रतिष्ठा हुई है ऐसा
उपदेश से जो महावीर-प्रतिमा स्थापित की गई थी, उसका इस उपकेशगच्छ-पट्टावली से विदित होता है। इसके चारों तरफ
मंदिर के मण्डपगत एक स्तम्भ के लेख से पता लगता है। लेख सदृढ़ परिकोष्ट और भीतरी आंगन में प्राचीन समय का प्रच्छन्न
तरी आगन म प्राचान समय का प्रच्छन्न इस प्रकार हैभूमिगृह (तलघर) बना हुआ है। श्री कल्पसूत्र की कल्पद्रमकलिका
didndramdabrdabriudnisorditoriuordionorrowdoribu6-१३५/-ordinarondiniorditoriwomorrordwairbudhionironironidroordar
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-तीन्द्रनन्ध - इतिहास"संवत् १६२८ वर्षे श्रावण शुदि १ दिने, भट्टारक-श्री ऐसा वृद्धप्रवाद है। इस कथन से इसकी समृद्धता एवं सम्पन्नावस्था विजयप्रभसूरीश्वरराज्ये, कोरटानगरे पण्डित श्री ५ श्री का तो सहज अनुमान हो सकता है। श्रीजयविजयगणिना उपदेशथी मु. जेता पुरसिंगभार्या, मु.
कोरंटगच्छ
१ महारायसिंग भा. सं. बीका, सांवरदास, को. उधरणा, मु. जेसंग, सा. गांगदास, सा. लाधा, सा. खीमा, सा. छांजर, सा. नारायण, जिस समय यह नगर अतीव सम्पन्न एवं प्रसिद्ध था, उस सा. कचरा प्रमुख समस्त संघ भेला हुई ने श्री महावीर पबासण समय इसके नाम से 'कोरंटगच्छ' नामक गच्छ भी निकला था। बइसार्थो छे, लिखितं गणि मणिविजयकेशरविजयेन. वोहरा महवद वह विक्रमीय १६वीं शताब्दी तक विद्यमान था। इस गच्छ के सुत लाधा पदम लखतं समस्त सघंनइ मांगलिकं भवति शभं मूल उत्पादक आचार्यश्री कनकप्रभसूरिजी माने जाते हैं। उएसवंशभवतु।"
स्थापक श्रुतकेवली श्रीरत्नप्रभसूरिजी के वे छोटे गुरुभ्राता थे।
इस गच्छ के आचार्यों की प्रतिष्ठित जिन प्रतिमाएँ अनेक गाँवों में इस प्रतिमा के भी शिखा, कान, नासिका, लांछन, परिकर,
पाई जाती हैं। वि.सं. १५१५ के लगभग इस स्थान में ही 'कोरंट हस्तांगुली और चरणांगुलियाँ खंडित हो गई थीं। अतः पूजने और
तपा' नाम की एक शाखा भी निकली थी। मालूम होता है कि सुधारने के योग्य न होने से उसके स्थान पर नवीन महावीर
यह गच्छ अपनी शाखा के सहित विक्रम की १८वीं शताब्दी में प्रतिमा वि. सं. १९५९ वैशाख शुदि १५ गुरुवार के दिन महाराज
विलीन हो गया। इस समय इसका नामशेष ही रहा जान पड़ता है। श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी ने स्थापित की जो विद्यमान है और जयविजयगणि-स्थापित खण्डित प्रतिमा भी स्मृति के लिए एक ताम्रपत्र का पता गूढमण्डप में विराजमान रक्खी गई है।
विक्रम संवत् १६०१ में जब माटुंगानिवासी ईगलिया नामक नवीन महावीर-प्रतिमा कोरटा के ठाकुर विजयसिंह के मरेठा मारवाड को लूटने के लिए आया था, तब वह कोरटा से समय में सियाणा (मारवाड़)-निवासी प्राग्वाट पोमाजी लुंबाजी एक ताम्रपत्र और कालिकादेवी की मूर्ति ले गया था। कहा ने बनवाई है। जो लगभग ७ फुट ऊँची है, और बहुत सुंदर है। जाता है कि वह ताम्रपत्र अब भी माटुंगा में एक महाजन के पास प्रतिष्ठा के समय जो एक छोटा प्रशस्ति-लेख लगाया गया था. है। कोरटा के महाजन प्रतापजी की बही में उक्त ताम्रपत्र से उससे जान पड़ता है कि महावीर-प्रतिमा कोरटाजी के रहने चौदह ककार उतारे गए हैं। वे इस प्रकार है-कणयापुरपाटण १, वाले ओसवाल कस्तूरचंद यशराज ने विराजमान की थी। हरनाथ कनकधर राजा २, कनकावती राणी ३, कनैयां कुवर ४, कनकेसर टेकचंद ने वीरमंदिर पर कलशारोपण किया था, पोमावा-निवासी मुता ५, कालिकादेवी ६, कांबीवाव ७, केदारनाथ ८, सेठ हरनाथ खमाजी ने ध्वजा और कलापुरा-निवासी ओसवाल ककुआतालाव ९, कलरवाव १०, केदारिया बांभण ११, रतनाजी के पुत्रों ने दण्डारोपण किया था।
कनकावली वेश्या १२, किशनमंदिर १३, केशरियानाथ १४ ।
इन चौदह ककारों में से किसन (चारभुजा) का मंदिर कोरंटकनगर की प्राचीन जाहोजलाली
गाँव के बीच में, कालिकादेवी और कुकुआतालाव गाँव के इस ग्राम के कोरंटपुर, कोरंटक, कोरंटी, कणयापुर, दक्षिण में, कांबीवाव और केदारनाथ गाँव से पौन मील पूर्वकोलापल क्रमशः परिवर्तित नाम मिलते हैं। वि.सं. १२४१ के दक्षिण कोण में, कलरवाव धोलागढ और बांभणेरा गाँव के लेखों में इसका कोरंट नाम सर्वप्रथम लिखा हुआ ज्ञात होता है। मध्य में तथा केसरियानाथबिंब कोरटाजी के नए मंदिर में इससे पूर्व के लेखों में यह नाम नहीं पाया जाता। उपदेशतरंगिणी विराजमान हैं। ग्रंथ से पता चलता है कि संवत् १२५२ में यहाँ श्री वृद्धदेवसूरिजी'
किंवदन्ती है कि आनन्दचोकला के राज्यकाल में नाहड ने चौमासा कर के मंत्री नाहड़ और सालिग के पांच सौ कुटुंबी मंत्री ने कालिका मंदिर केदारनाथ खेतलादेवल महादेवदेवल को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। इनके पहले भी कोरटनगर में और कांबीवाव इन पाँच स्थानों से संबंधित उनके भमिस्थल श्री वृद्धदेवसूरिजी ने तीस हजार जैनेतर कुटुम्बों को जैन बनाया था,
1, महावीर प्रभु की सेवा में अर्पण किए थे, परंतु आज कांबीवाव
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-नीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासके अतिरिक्त अन्य कोई स्थान महावीर प्रभु के मंदिर के अधिकार जो सभी प्राचीन और सर्वांगसुंदर हैं। इनके प्रतिष्ठाकार देवसूरिजी, में नहीं है।
शांतिसूरिजी और +++ सूरिजी आदि आचार्य हैं। कोरटावासियों
का कहना है कि यदि दस-बीस हजार का खर्च उठाकर यहाँ की दूसरे दो प्राचीन जिनमंदिर
जमीन को खोदने का काम कराया जाए तो सैकड़ों प्राचीन जिन गाँव से पश्चिम में धोलागढ़ की ढालू भूमि पर पहला मंदिर प्रतिमाएँ निकलने की संभावना है। श्री आदिनाथ का और दूसरा गाँव में उत्तर की ओर है। इन दोनों मंदिरों की स्तंभमालाओं के एक स्तम्भ पर 'ॐ नादा' अक्षर
नया जैन मंदिर उत्कीर्णित हुए देखाई पड़ते हैं। इससे ज्ञात होता है कि ये मंदिर यह मंदिर कोरटाजी के पूर्व पक्ष पर अति विशाल, रमणीय नाहड के पुत्र ढाकलजी ने अपने श्रेय के लिए बनवाए होंगे। एवं शिखरबद्ध है। भूमि से निर्गत उपर्युक्त विशाल, प्राचीन और नाहड और सालिग के कुटुंबियों द्वारा कोरंटादि नगरों में सर्वाङ्गसंदर श्री ऋषभदेवस्वामी की प्रतिमा दो काउसगियों के नाहडवसहि प्रमुख ७२ जिनालय बनवाने का उल्लेख सहित विराजमान है। इस विशालकाय मंदिर की प्रतिष्ठा और उपदेशतरंगिणी के ग्रन्थकार ने किया भी है। इनमें प्रथम जिनालय इसी उत्सव में नवीन तीन सौ जिनबिम्बों की अंजनशलाका सं. की मण्डप स्तम्भमालाएँ यशोश्चन्द्रोपाध्याय के शिष्य पद्मचन्द्र १९५९ वैशाख श.१५ गुरुवार के दिन श्रीमद्विजयराजेन्द्रसरीश्वरजी उपाध्याय ने अपनी माता सूरी और ककुभाचार्य के शिष्य भट्टारक महाराज ने की है। स्थूलिभद्र ने निज माता चेहणी के श्रेयार्थ बनवाई है, ऐसा दो स्तम्भों के लेखों से ज्ञात होता है। इन दोनों की प्राचीन मूलनायक
राज्य-परिवर्तन प्रतिमाएँ खण्डित हो जाने से, उनको मंदिरों की भ्रमती में भंडार
कोरटाजी जागीर पर प्राचीन समय में किस-किस राजा , दी गई और उनके स्थान पर एक ऋषभदेव प्रतिमा संवत् १९०३ सामंत एवं ठाकर का अधिकार रहा. यह बतलाना अति कठिन माघ श. ५ मंगलवार के दिन और दूसरी पार्श्वनाथ प्रतिमा सं. है। परंत प्राप्त सामग्रियों से जान पडता है कि इस पर भीनमाल १९५५ फाल्गुण कृ. ५ को प्रतिष्ठित एवं विराजमान की गई हैं।
के राजा रणहस्ती वत्सराज, जयंतसिंह-उदयसिंह और चाचिगदेव प्रथम के प्रतिष्ठाकार सागरगच्छीय श्री शांतिसागरसूरिजी और का. चंद्रावती और आब के परमार राजाओं का, अणहिलवाड द्वितीय के सौधर्मबृहत्तपागच्छीय श्री विजयराजेन्द्रसरीश्वरजी हैं।
(पाटण) के चावडा और सोलंकियों का, नाडौल और जालोर प्राचीन मूर्तियों की प्राप्ति
के सोनगरा चौहानों का, सिरोही के लाखावत देवडा चौहानों का,
आंबेर और मेवाड़ के महाराणाओं का क्रमशः अधिकार रहा। सबसे प्राचीन जिस महावीर मंदिर का ऊपर उल्लेख किया
सं. १८१३ और १८१९ के मध्य में उदयपुर महाराणा की कृपा
और के मध्य में उदयप गया है, उसके परिकोष्ट का संभारकार्य कराते समय बायीं ओर
से पाँच गाँवों के साथ कोरटा जागीर वांकली के ठाकुर रामसिंह
र की जमीन खोदने पर दो हाथ नीचे सं. १९११ ज्येष्ठ शु. ८ के
' को मिली। गोडवाड़ परगना जब जोधपुर के महाराजा को मिला दिन पाँच फुट बड़ी सफेद पाषाण की अखंडित श्री ऋषभदेव
तब महाराजा विजयसिंहजी ने सं. १८३१ जेठ कृ. ११ को भगवान की एक प्रतिमा और उतने ही बड़े कायोत्सर्गस्थ दो बिंब
ठाकुर रामसिंह को कोरटा, बांभणेरा, ३ पोईणा, ४ नाखी, ५ एवं तीन जिन प्रतिमाएँ निकली थीं। कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाओं में
पोमावा, ६ जाकोड़ा और ७ वागीण इन सात गाँवों की जागीर की एक संभवनाथ और दूसरी शांतिनाथ भगवान की है। इनकी
सनद कर दी और अब तक उसी के वंशजों के अधिकार में रही है। प्रतिष्ठा सं. ११४३ वैशाख शु. २ गुरुवार के दिन बृहद्गच्छीय श्री विजयसिंहसूरिजी ने का है। इसी प्रकार संवत् १९७४ में नहरवा कोरटाजी तीर्थ का मेला नामक स्थान की जमीन से १३ तोरण और चार धातुमय जिन इस प्राचीनतम तीर्थ की समन्नति के लिए कणीपटी के प्रतिमाएँ निकली थीं। अब तक समय-समय पर कोरटाजी की
२७ गाँवों के जैनों ने विद्वान् मुनिवरों की सम्मति मानकर कार्तिक
कहानिया आसपास की जमीन से छोटे-बड़ी ५० प्रतिमाएं उपलब्ध हुई हैं श. १५ और चैत्र श. १५ के दो मेले सं. १९७० से प्रारंभ किए
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासजो आज तक प्रतिवर्ष भरते चले आ रहे हैं। यात्रियों के वाले यात्रियों को इस प्राचीनतम तीर्थ की यात्रा का भी लाभ आराम के लिए एक विशाल धर्मशाला और एक प्राचीन उपासरा अवश्य लेना चाहिए। भी है।
सन्दर्भ जैनियों के लिए संक्षिप्त सूचना
एकदा कोरण्टस्थाने वृद्धश्रीदेवसूरयो विक्रमात् सं. १२५२ यहाँ तीन प्राचीन और एक नवीन एवं चार सौधशिखरी वर्षे चतुर्मासीं स्थिता; तत्र मंत्रि नाहड़ो लघुभ्राता सालिगस्तयोः जिनमंदिर हैं। सबसे प्राचीनतम श्रीमहावीर प्रभु का मंदिर है। यह ५०० कुटुम्बानां च प्रतिबोधस्तत.मुद्रित उपदेशतरंगिणी' पृ.१०२ तीर्थ एरनपुरारोड स्टेशन से १२ मील पश्चिम में है। एरनपुरारोड
मंत्रिणा ढधर्मरङ्गेण । ७२ जैनविहारा नाहड़वसहि प्रमुखाः से कोरटाजी तक मोटर, बैलगाड़ी, ताँगा, ऊँट आदि सवारियां कारिता: कोरंटादिषु प्रतिष्ठिताः । उपदेशतरंगिणी ५. १०३ मिलती हैं। आबूराज और गोडवाड़ की पंचतीर्थी की यात्रा करने
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प्राचीन लक्ष्मण
वि
तीर्थ है। इस तीर्थ की
वर्णन करने चले हैं वह लक्ष्मणी प्राचीनता कम से कम २००० वर्षों से भी अधिक काल की सिद्ध होती है, जिसे हम आगे दिए गए प्रमाण - लेखों से जान सकेंगे।
क्रम की सोलहवीं शताब्दी के जिस तीर्थ का हम यहाँ
जब मांडवगढ़ यवनों का समराङ्गण बना था उस वक्त इस बृहत्तीर्थ पर भी यवनों ने हमला किया और मंदिरादि तोड़े, तब से ही इसके ध्वंस होने का कार्य प्रारंभ हो गया और क्रमशः विक्रमीय १९वीं शताब्दी में उसका केवल नाममात्र ही अस्तित्व रह गया और वह भी अपभ्रंश लखमणी होकर जहाँ पर भीलभिलालों के २०-२५ टापरे ही दृष्टिपथ में आने लगे।
१.
२.
३.
४.
एक समय एक भिलाला कृषिकार के खेत में से सर्वाङ्गसुंदर ११ जिन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई। कुछ दिनों के व्यतीत होने के पश्चात् ११ प्रतिमाजी जहाँ से प्राप्त हुई थीं वहाँ से दो-तीन हाथ की दूरी पर दो प्रतिमाएँ और निकलीं। एक प्रतिमा तो पहले से ही निकली हुई थी, जिन्हें भिलाले लोग अपने इष्टदेव मानकर तेल सिन्दूर से पूजते थे । भूगर्भ से निर्गत इन १४ प्रतिमाओं के नाम व लेख इस प्रकार हैं
क्रं.
श्री लक्ष्मणी तीर्थ का इतिहास
५.
६.
७.
८.
नाम
श्री पद्मप्रभस्वामी
श्री आदिनाथजी
श्रीमहावीरस्वामीजी
श्रीमल्लीनाथजी
श्रीनमिनाथजी
श्री ऋषभदेवजी
श्री अजितनाथजी
श्री ऋषभदेवजी
ऊँचाई (इंच)
३७
२७
३२
२६
२६
१३
२७
१३
९.
. १०.
११.
१२.
१३.
१४.
मुनिराज जयंतविजय.......
श्रीसंभवनाथजी
श्रीचन्द्रप्रभस्वामीजी
श्री अनन्तनाथजी
श्रीचौमुखजी
श्रीअभिनंदनस्वामी (खं.) श्रीमहावीरस्वामीजी (खं.)
१० ॥
१३ ।।
१३ ।।
१५
१०
चरमतीर्थाधिपति श्रीमहावीरस्वामीजी की ३२ इंच बड़ी प्रतिमा सर्वाङ्गसुन्दर श्वेतवर्ण वाली है। उसके ऊपर लेख नहीं है, परंतु उस पर रहे चिह्नों से ज्ञात होता है कि ये प्रतिमाजी महाराजा सम्राट् संप्रति के समय में प्रतिष्ठित हुई होंगी ।
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९॥
अजितनाथ प्रभु की १५ इंच बड़ी प्रतिमा वेलू-रेती की बनी हुई दर्शनीय एवं प्राचीन प्रतीत होती है।
श्रीपद्मप्रभुजी की प्रतिमा जो ३७ इंच बड़ी है, वह भी श्वेतवर्णी परिपूर्णांग है, उस पर का लेख मंद पड़ जाने से 'सं. १०१३ वर्षे वैशाख सुदि सप्तम्यां केवल इतना ही पढ़ा जाता है । श्री मल्लीनाथजी एवं श्याम श्रीनमिनाथजी की २६-२६ इंच बड़ी प्रतिमाएँ भी उसी समय की प्रतिष्ठित हों ऐसा आभास होता है। इस लेख में ये तीनों प्रतिमाएँ १ हजार वर्ष प्राचीन है।
श्री आदिनाथजी की २७ इंच और ऋषभदेवस्वामी की १३-१३ इंच बादामी वर्ण की प्रतिमाएँ कम से कम ७०० वर्ष प्राचीन हैं एवं तीनों एक ही समय की प्रतीत होती हैं।
श्रीआदिनाथस्वामी की प्रतिमा पर लेख इस प्रकार है-
'संवत् १३१० वर्षे माघसुदि ५ सोमदिने प्राग्वाटज्ञातीय मंत्रीगोसल तस्य चि. मंत्री आ (ला) लिगदेव तस्य पुत्र गंगदेव तस्य पत्नी गांगदेवी, तस्याः पुत्र मंत्री पदम तस्य भार्या मांगल्या प्र. ।'
शेष पाषाण-प्रतिमाओं के लेख बहुत ही अस्पष्ट हो गए हैं, परंतु उनकी बनावट से जान पड़ता है कि ये भी पर्याप्त प्राचीन हैं । उपरोक्त प्रतिमाएँ भूगर्भ से प्राप्त होने के बाद श्री पार्श्वनाथस्वामीजी की एक छोटी सी धातुप्रतिमा चार अंगुल
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासप्रमाण का निर्गत हुई, जिसके पृष्ठभाग पर लिखा है कि 'संवत् उस समय श्रीमदुपाध्यायजी श्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज १३०३ आ.शु.४ ललित सा.' यह बिंब भी ७०० वर्ष प्राचीन है। (वर्तमान आचार्यश्री) वहाँ विराज रहे थे। आपके सदपदेश से विक्रम संवत्सर १४२७ के मार्गशीर्ष मास में जयानंद नामा
नरेश ने लक्ष्मणी के लिए (मंदिर, कुआँ, बगीचा, खेत आदि के जैन मुनिराज अपने गुरुवर्य के साथ निमाड प्रदेश स्थित तीर्थक्षेत्रों निमित्त) पूर्व-पश्चिम ५११ फीट, उत्तर-दक्षिण ६११ फीट भमि की यात्रार्थ पधारे, उनकी स्मृति में उन्होंने दो छंदों में विभक्त
श्रीसंघ को अमूल्य भेंट दी और आजीवन मंदिर-खर्च के लिए प्राकृतमय 'नेमाड-प्रवास' गीतिका बनाई. उन छंदों से भी जाना ७१ रु. प्रतिवर्ष देते रहना स्वीकृत किया। जा सकता है कि उस समय नेमाड़ प्रदेश कितना समृद्ध था और महाराजश्री का सदुपदेश, नरेश की प्रभुभक्ति एवं श्रीसंघ लक्ष्मणी भी कितना वैभवशाली था।
का उत्साह इस प्रकार के भावना-त्रिवेणीसंगम से कुछ ही दिनों मांडव नगोवरी सगसया, पंच ताराउर वरा,
- में भव्य त्रिशिखरी प्रासाद बन कर तैयार हो गया। आलिराजपुरं, विंस-इग सिंगारी-तारण, नंदुरी द्वादश परा।
कुक्षी, बाग, टाँडा आदि आसपास के गांवों के सद्गृहस्थों ने भी हत्थिणी सग लखमणी उर, इक्क सय सुह जिणहरा,
लक्ष्मी का सद्व्यय करके विशाल धर्मशाला, उपाश्रय, ऑफिस, भेटिया अणुवजणवए, मुणि जयाणंद पवरा ।।१।।
कुआँ, बावडी आदि बनवाए एवं वहाँ की सुंदरता विशेष विकसित
करने के लिए एक बगीचा भी बनाया गया, जिसमें गुलाब, लक्खातिय सहस बिपणसय, पण सहस्स सग सया,
मोगरा, चमेली, आम आदि के पेड़ लगाए गए। सय इगविसं दुसहसि सयल, दुन्नि सहस कणय मया। गाम गामि भक्ति परायण, धम्माधम्म सुजागणगा,
जो एक समय अज्ञात तीर्थस्थल था, वह पुनः उद्धरित हो मुणि जयाणंद निरक्खिया, सबल समणोवासगा।।२।।
जनता में प्रसिद्ध हुआ। मिट्टी के टीलों को खुदवाने पर बहुत सी
ऐतिहासिक चीजें प्राप्त हुई हैं। प्राचीन समय के बर्तन आदि भी। मंडपांचल में ७०० जिनमंदिर एवं तीन लाख जैनों के घर,
बगीचे के निकटवर्ती खेत में ४-५ प्राचीन मंदिरों के पब्बासन तारापुर में ५ मंदिर ५०० श्रावकों के घर, तारणपुर में २१ मंदिर ७०० जैनधर्मावलम्बियों के घर, नान्दूरी में १२ मंदिर २१००
प्राप्त हुए। श्रावकों के घर, हस्तिनीपत्तन में ७ मंदिर २००० श्रावकों के घर प्रतिष्ठाकार्य और लक्ष्मणी में १०१ जिनालय एवं २००० जैनधर्मानुयायियों
वर्तमान आचार्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी ने जो उस के घर धन धान्य से सम्पन्न, धर्म का मर्म समझने वाले एवं
समय उपाध्यायजी थे, वि.सं. १९९४ मार्गशीर्ष शुक्ला १० को भक्तिपरायण देखे, आत्मा में प्रसन्नता हुई। लक्ष्मणी, लक्ष्मणपुर,
अष्टदिनावधि अष्टाह्निका महोत्सव के साथ बड़े ही हर्षोत्साह से लक्ष्मणीपुर आदि इस तीर्थ के नाम हैं ऐसा यहाँ पर अस्तव्यस्त
शुभलग्नांश में नवनिर्मित मंदिर की प्रतिष्ठा की। तीर्थाधिपति श्री पड़े पत्थरों से जाना जाता है।
पद्मप्रभस्वामीजी गादीनशीन किए गए और अन्य मूर्तियाँ भी लक्ष्मणी का पुनरुद्धार एवं प्रसिद्धि
यथास्थान विराजमान कर दी गई। प्रतिष्ठा के दिन नरेश ने रु.
२००१ भेंट किये और मंदिर की रक्षा का भार अपने ऊपर पूर्वलिखित पत्रों से विदित है कि यहाँ पर भिलाले के खेत
लिया। सचमुच सर प्रतापसिंह नरेश की प्रभुभक्ति एवं तीर्थ-प्रेम में से १४ प्रतिमाएँ भूनिर्गत हुईं तथा आलिराजपुरनरेश ने उन
सराहनीय है। प्रतिमाओं को तत्रस्थ श्री जैन-श्वेताम्बर-संघ को अर्पित किया। श्रीसंघ का विचार था कि ये प्रतिमाजी आलिराजपुर लाई जाएँ,
प्रतिष्ठा के समय मंदिर के मख्यद्वार-गंभारा के दाहिनी परंतु नरेश के अभिप्राय से वहीं मंदिर बँधवा कर मर्तियों को ओर एक शिलालेख संगमरमर के प्रस्तर पर उत्कीर्ण करवाकर स्थापित करने का विचार किया गया जिससे उस स्थान का लगाया गया जो निम्न ऐतिहासिक महत्त्व प्रसिद्धि में आये।
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-चतान्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ इतिहासश्रीलक्ष्मणीतीर्थप्रतिष्ठा-प्रशस्तिः
वर्तमान लक्ष्मणी -- तीर्थाधिपश्रीपद्मप्रभस्वामिजिनेश्वरेभ्यो नमः।
यह तो अनुभवसिद्ध बात है कि जहाँ जैसी हवा एवं जैसा श्रीविक्रमीयनिधिवसनन्देन्दुतमे वत्सरे कार्तिकाऽसिताऽमावस्यां
खानपान व वातावरण होता है वहाँ रहनेवाले का स्वास्थ्य भी शनिवासरेऽतिप्राचीने श्रीलक्ष्मणीजैनमहातीर्थे बालकिरातस्य क्षेत्रतः वैसा ही रहता है। आज के वैद्य एवं डाक्टरों का भी अभिप्राय है श्रीपद्मप्रभजिनादितीर्थेश्वराणामनुपमप्रभावशालिन्योऽतिसुन्दरत
कि जहाँ की हवा, पानी एवं वातावरण शद्ध होगा वहाँ पर रहनेवाले माश्चतुर्दशप्रतिमाः प्रादुरभवन् । तत्पूजार्थ प्रतिवर्षमेकसप्ततिरूप्यकसं- व्याक्त प्रफुल्लत रहग। प्रदानयुतं श्रीजिनालयधर्मशालाऽऽरामादिनिर्माणार्थ लक्ष्मणी यद्यपि पहाड़ी पर नहीं है तथापि वहाँ की हवा श्वेताम्बरजैनश्रीसंघस्याऽऽलिराजपुराधिपतिना राष्ट्रकूटवंशीयेन के.सी. पानी तथा इतने मधुर एवं सुहावने लगते हैं कि वहाँ से हटने का आई.ई. इत्युपाधिधारिणा सर् प्रतापसिंह बहादुर भूपतिना पूर्वपश्चिमे दिल ही नहीं होता। पानी इतना पाचनशक्तिवाला है कि वहाँ पर ५११ दक्षिणोत्तरे ६११ फुटपरिमितं भूमिसमर्पणं व्याधायि, रहनेवालों का स्वास्थ्य अत्यंत सुंदर रहता है। तीर्थरक्षार्थमेकं सुभट (पुलिस) नियोजितञ्च ।
इस समय तीर्थ की स्थिति बहुत अच्छी है। दर्शनार्थ आने तत्राऽलीराजपुरनिवासिना श्वेताम्बरजैनसंघेन धर्मशालाऽऽराम- के लिये दाहोद स्टेशन से मोटर द्वारा आलीराजपुर आना पड़ता कूपद्वयसमन्वितं पुरातनजिनालयस्यजीर्णोद्धारमकारयत् । प्रतिष्ठा है; वहाँ पर यात्रियों को हर एक प्रकार की सुविधा प्राप्त है। चास्य वेदनिधिनन्देन्दुतमे विक्रमादित्यवत्सरेमार्गशीर्षशुक्लदशम्यां बैलगाड़ी अथवा मोटर द्वारा आलीराजपुर से लक्ष्मणी जाना पड़ता चन्द्रवासरेऽतिबलवत्तरे शुभलग्ननवांशेऽष्टाह्निकमहोत्सवैः, है। वहाँ पर मुनीमजी रहते हैं। यात्रियों को रहने के लिये कमरे, सहाऽऽलीराजपुरजैनश्रीसंघेनैव सूरिशक्रचक्रतिलकायमानानां रसोई बनाने के लिये बर्तन और सोने-बैठने के लिये बिछौने श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छावतंसकानां विश्वपूज्यानामाबालब्रह्मचारिणां आदि की सुविधायें पीढ़ी की ओर से दी जाती है। प्रभुश्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वराणामन्तेवासीनां व्याख्यानवाचस्पति
लक्ष्मणीतीर्थ का उद्धार आचार्य श्रीमद्विजयतीन्द्रसूरीश्वरजी -महोपाध्यायविरुधारिणा श्रीमद्यतीन्द्रविजयमुनिपुङ्गवानों के संपर्ण प्रयत्नों से ही संपन्न हुआ और यह एक ऐतिहासिक करकमलेनाऽकारयत् ।।
चीज बन गई है। चढ़ती-पड़ती के क्रमानुसार लक्ष्मणी पुन: उद्धरित हुआ।
- श्री राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ से साभार. इस तीर्थ के उद्धार का संपूर्ण श्रेय मदि किसी को है तो वह श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज को है।
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मरुधर और मालवे के पाँच तीर्थ
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सवीं शताब्दी भारतीय इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इसमें अनेक धर्मप्रचारक और राष्ट्रीय नेता पैदा हुये हैं। धर्मोद्धारकों में परम पूज्य प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का विशिष्ट और गौरवशाली स्थान है। आपने अपनी सर्वतोमुखी शास्त्र सम्मत्त विविध प्रवृत्तियों से जैन समाज का बड़ा ही गौरव बढ़ाया है। आपने जहाँ क्रियोद्धार कर श्रमण-संघ को वास्तविक प्रकार से चारित्र - पालन का मार्ग पुनः दिखलाया, वहाँ साहित्य - निर्माण कार्य भी महत्त्वपूर्ण प्रकारों से सम्पन्न किया और प्राचीन तीर्थों का उद्धार कार्य भी । आपने जिन प्राचीन तीर्थों और चैत्यों की सेवा की हैं, उनका यहाँ इस लघु लेख में परिचय देना ही हमारा ध्येय है।
१. श्रीकोरटाजीतीर्थ :
कोरंटनगर, कनकापुर, कोरंटपुर, कणयापुर और कोरंटी आदि नामों से इस तीर्थ का प्राचीन जैन साहित्य में उल्लेख मिलता है। उपकेशगच्छ-पट्टावली के अनुसार श्री महावीर देव के महापरिनिर्वाण के पश्चात् ७० वें वर्ष में श्री पार्श्वनाथसंतानीय श्री स्वयंप्रभसूरीश पट्टालंकार उपकेशवंश-संस्थापक श्रीरत्नप्रभसूरिजीने ओसिया और यहाँ एक ही लग्न में श्रीमहावीर देव की प्रतिमा स्थापित की थी। इस नगर से श्रीरत्नप्रभसूरि के शासनकाल में ही श्रीकनकप्रभसूरि से उपकेशगच्छ में से कोरंटगच्छ की उत्पत्ति हुई थी। श्रीकनप्रभसूरि रत्नप्रभसूरि के गुरुभाई थे। कोरंटगच्छ में अनेक महाप्रभाविक जैनाचार्य हुये हैं। वि.सं. १५२५ के लगभग कोरंट · तपा नामक एक शाखा भी निकली थी। कई शताब्दियों तक यह नगर जनधन और सब प्रकार से उन्नत और समृद्ध रहा है। वर्तमान में इसके खण्डहर देख कर भी ऐसा विश्वास किया जा सकता है और उल्लेख तो मिलते ही हैं।
यह प्राचीन समृद्ध नगर ५०० घरों के एक लघु ग्राम के रूप में आज एरणपुरा स्टेशन से १२ मील दूर पश्चिम की ओर
विद्यमान है। इसका वर्तमान नाम कोरटा है। अभी यहाँ जैनों के ५० घर और उनमें लगभग २५० मनुष्य हैं तथा चार जिनेन्द्र मन्दिर हैं। जिन की व्यवस्था स्वर्गीय गुरुदेव प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से संस्थापित श्री जैन पीढी करती आ रही है।
व्याख्यान - वाचस्पति श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरि शिष्य
मुनि देवेन्द्रविजय 'साहित्यप्रेमी'...
(१) श्रीमहावीर - मन्दिर
कोरटा के दक्षिण में यह मन्दिर है । यह विशेषतः प्राचीन सादी शिल्पकला के लिये नमूनारूप है। श्री श्री रत्नप्रभसूरीश्वजीने वीरात् सं. ७० में इसकी प्रतिष्ठा की थी। विक्रम संवत् १७२८ में श्रावण सुदी १ के दिन श्री विजयप्रभसूरि के आज्ञावर्ती श्री जयविजय गणीने प्राचीन प्रतिमा के स्थान पर नवीन दूसरी प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। तत्सम्बन्धी एक लेख मन्दिर के मण्डप के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इस श्रीजयविजयगणीप्रतिष्ठित प्रतिमा उत्तमांर्ग विकल हो जाने पर आचार्यवर्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने उपदेश से मन्दिर का पुनरुद्धार करवाकर नूतन श्री वीरप्रतिमा प्रतिष्ठित की और श्रीजयविजयगणी द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा लेपादि से सुधरवा कर मन्दिर की नव चौकी में विराजमान करवा दी।
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(२) श्री आदिनाथ- मन्दिर
सन्निकटस्थ धोलागिरि की ढालू जमीन पर यह मन्दिर है। इसको विक्रम की १३वीं शताब्दी में महामात्य नाहड़ के किसी कुटुम्बीने अपने आत्मकल्याण के लिये निर्मित किया ज्ञात होता है। इसमें (आयतन) निर्माता की प्रतिष्ठित करवाई हुई प्रतिमा खण्डित हो जाने पर उसे हटा कर नवीन प्रतिमा वि.सं. १९०३ मेंदेवसूरिगच्छीय श्रीशान्तिसूरिजीने प्रतिष्ठित की और वही प्रतिमा अभी भी विराजित है। मूलनायकजी की प्रतिमा के दोनों ओर विराजित प्रतिमाएँ श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज द्वारा प्रतिष्ठित नूतन बिम्ब हैं।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास(३) श्रीपार्श्ववनाथ मन्दिरः
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से ही सम्पन्न यह जिनालय गाँव के मध्य में है। इसको कब, किसने
हुआ था। यह प्रतिष्ठा-महोत्सव मरुधर के १५० वर्ष के इतिहास में बनाया और किस गच्छ के मनिपंगव ने प्रतिष्ठित किया यह
आहोर के प्रतिष्ठोत्सव (१९५५) के पश्चात् दूसरा था। अज्ञात है। अनुमानतः ज्ञात होताहै कि ऊपर वर्णित श्रीआदिनाथ
प्रतिष्ठाप्रशस्ति:चैत्य से यह प्राचीन है। इसकी स्तम्भमाला के एक स्तम्भ पर वीरनिर्वाणसप्तति-वर्षात्पार्श्वनाथसंतानीयः । ॐना++++ढ़ा' लेखाक्षर अवशिष्ट हैं। इससे ज्ञात होता है कि विद्याधरकुलजातो, विद्यया रत्नप्रभाचार्यः ।।१।। महामात्य श्री नाहड़ के द्वितीय पुत्र श्री ढाकलजी द्वारा निर्मित द्विधा कृतात्मा लग्ने, चैकस्मिन् कोरंट ओसियायां । यह मन्दिर हो और इसी से अमात्य के नाम के आगे मंगल का वीरस्वामिप्रतिमा-मतिष्ठपदिति पप्रथेऽथ प्राचीनम् ।।२।। संसूचक ॐ लगाया हो। श्रीमहावीर मन्दिर के स्तम्भों पर भी देवड़ा ठक्कुर विजयसिंहे, कोरंटस्थ वीरजीर्णबिम्बम् । 'ॐना०००ढ़ा' लिखा हुआ मिलता है। संभवतया उक्त मंत्रीपुत्रने
उत्थाप्य राधशुक्ले निधिशरनवेन्दुके पूर्णिमा गुरौ ।।३।। प्राचीन श्री वीर मन्दिर का भी उद्धारकार्य करवाया हो। इस
सुस्थिषभे लग्ने, तस्य सौधर्मबृहत्तपोगच्छीयः । पार्श्वनाथ मन्दिर का उद्धार विक्रमीय सत्रहवीं शताब्दी में कोरटा
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिः प्रतिष्ठांजनशलाके चक्रे ।।४।। के ही नागोतरागोत्रीय किसी श्रावक ने करवाया था। तत्पश्चात्
कोरंटवासिमूतामोखासुतकस्तूरचन्द्रयशराजौ ।
दत्वोदधिशतमेकं श्रीमहावीरप्रतिमामतिष्ठिपत्ताम् ।।५।। समय-समय पर कुछ अंशों में उद्धार-कार्य होता रहा है। इसमें
हरनाथसुतष्टेकचन्द्रस्तच्चैत्यकोपरि । पहले श्रीशान्तिनाथ भगवान की प्रतिमा मूलनायक केस्थान
कलशारोपणं चक्रे, भूबाणगुणदायकः ।।६।। पर विराजमान थी। उसके विकलांग हो जाने पर उसके स्थान पर
पोमावापुरवासी हरनाथात्मजः खुमाजी श्रेष्ठी । श्रीपार्श्वनाथजी की प्रतिमा विराजित की गई। जिसकी प्राणप्रतिष्ठा
पृथ्वीशरसमुद्रां प्रदाय ध्वाजामारोपयामास ।।७।। श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वजी महाराजने की है। श्री पार्श्ववनाथजी
ओसवालरतनसुता हीरचेन नवलकस्तूरचन्द्रा । के दोनों ओर विराजित प्रतिमा भी नूतन हैं।
शशिवसुकरदा दण्ड-मतिष्ठिपन् कलापुरावासिनस्ते ।।८।। (४) श्रीकेशरियानाथ का मन्दिर :
राजेन्द्रसूरिशिष्यवाचकः मोहनविजयाभिधो धीरः ।
लिलेख प्रशस्तिमेनां, गुरुपदकमलध्यानशुभंयुः ।।९।। विक्रम संवत् १९११ जेठ सुदि ८ के दिन प्राचीन श्री वीर
।।इति श्रीकोरंटपुरमण्डन-श्रीमहावीरजिनालयस्य प्रतिष्ठाप्रशस्तिः ।। मन्दिर के कोट का निर्माण कार्य करवाते समय कहीं बाईं ओर की जमीन के एक टेकरे को तोड़ते समय श्वेत वर्ण की पाँच
- सं. १९५९ वैशाख सुदि १५ । मु. कोरटा मारवाड - फीट प्रमाण की विशालकाय श्रीआदिनाथ भगवान की पद्मासनस्थ (२) श्री भाण्डवा तीर्थ और इतनी ही बड़ी श्रीसंभवनाथ तथा श्रीशान्तिनाथजी की कायोत्सर्गस्थ मनोहर एवं सर्वांगसुन्दर अखण्डित दो प्रतिमायें
यह भाण्डवा अथवा भाण्डवपुर नाम का ग्राम जोधपुर से निकली थीं। इन कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाओं को विक्रम संवत् ११४३
राणीबाड़ा जानेवाली रेल्वे लाइन के मोदरा स्टेशन से २२ मील
दूर उत्तर-पश्चिम में चारों ओर से रेगिस्तान से घिरा हुआ है। यहाँ वैशाख सुदि द्वितीया गुरुवार को श्रावक रामाजरुक ने बनवाया
जैनेतरों के २०० घर आबाद हैं । यह ग्राम और मंदिर बहुत और बृहद्गच्छीय श्रीविजयसिंहसूरिजीने इनकी प्रतिष्ठांजनशलाका की। श्रीआदिनाथ प्रतिमा पर लेखादि नहीं है । इन प्रतिमाओं को
प्राचीन है । सर्वप्रथम जालोर (जाबालीपुर) के परमार भाण्डुसिंह
ने इसको बसा कर इस पर शासन किया था। उसके वंशजों ने भी विराजमान करने के हित कोरटा के श्रीसंघ ने श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से यह
कितनी ही पीढ़ियों तक शासन किया। वि.सं. १३२२ में बावतरा
के दय्या राजपूत बुहड़सिंह ने परमारों को परास्त कर इस पर विशालकाय दिव्य एवं मनोहर मन्दिर बनवाया है। इसका प्रतिष्ठा
__ अपना अधिकार स्थापित किया था । इसके वंशजों ने शनैः महोत्सव विक्रम संवत् १९५९ वैशाख सुदि पूर्णिमा को
शनैः इस प्रान्त में सर्वत्र स्थान-स्थान पर अपना शासन
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
जमा लिया जिससे कलान्तर में इस प्रान्त का नाम ही दियावटपट्टी हो गया । बाद में इस पर जोधपुर नरेश का अधिकार हो जाने पर विक्रम संवत् १८०३ में जोधपुराधपि रामसिंह ने दय्या लुम्बाजी से इसे छीन कर समीपस्थ आणाग्राम के ठाकुर मालमसिंह को दिया । आज भी उक्त ठाकुर के वंशज भगवानसिंहजी यहाँ जागीदार हैं।
विक्रम की ७ वीं शताब्दी में इस प्रान्त में बेसाला नाम का एक अच्छा कस्बा आबाद था । जिसमें जैन श्वेताम्बरों के सैंकड़ों घर थे। वहाँ एक भव्य मनोहर विशाल सौध-शिखरी जिनालय था। इसके प्रतिष्ठाकारक आचार्य का नाम क्या था और वे किस गच्छ के थे यह अज्ञात है । मात्र जिनालय के एक स्तंभ पर सं. ८१३ श्री महावीर इतना लिखा है।
बेसाला पर मेमन डाकुओं के नियमित हमले होते रहने से जनता उसे छोड़ कर अन्यत्र जा बसी, डाकुओं ने मन्दिर पर भी आक्रमण करके उसे तोड़ डाला, किसी प्रकार प्रतिमा को बचा लिया गया। जनश्रुत्यनुसार कोमता के निवासी संघवी पालजी प्रतिमाजी को एक शकट में विराजमान कर कोमता ले जा रहे थे कि शकट भांडवा में जहाँ वर्तमान में चैत्य है, वहाँ आकर रुक गया और लाख-लाख प्रयत्न करने पर भी जब गाड़ी नहीं चलीं तो सब निराश होगये । रात्रि के समय अर्ध- जागृतावस्था में पालजी को स्वप्न आया कि प्रतिमा को इसी स्थान पर चैत्य बनवा कर उस में विराजमान कर दो । स्वप्नानुसार पालजी संघवी ने यह मन्दिर विक्रम संवत् १२३३ माघ सुदि ५ गुरुवार को बनवा कर महामहोत्सव सहित उक्त प्रभावशाली प्रतिमा को विराजमान करा दिया। आज भी यहाँ पालजी संघवी के वंशज ही प्रति वर्ष मन्दिर पर ध्वजा चढ़ाते हैं । इसका प्रथम जीर्णोद्धार वि.सं. १३५९ में और द्वितीय जीर्णोद्धार विक्रम संवत् १६५४ में दियावट पट्टी के जैन श्वेताम्बर श्री संघने करवाया था ।
विक्रमीय २० वीं शताब्दी के महान् ज्योतिर्धर परमक्रियोद्धारक प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज जब आहोर से संवत् १९५५ में इधर पधारे तो समीपवर्ती ग्रामों के निवासी श्रीसंघने उक्त प्रतिमा को यहाँ से नहीं उठाने और इसी चैत्य का विधिपूर्वक पुनरोद्धारकार्य सम्पन्न करने को कहा। गुरुदेव ने सारी पट्टी में भ्रमण कर जीर्णोद्धार के लिये उपदेश भी दिये।
स्वर्गवास के समय वि.सं. १९६३ में राजगढ़ (मध्य भारत ) में गुरुदेव ने कोरटा, जालोर, तालनपुर और मोहनखेड़ा के साथ इस तीर्थ की भी व्यवस्था उद्धारादि सम्पन्न करवाने का वर्तमानाचार्य श्रीयतीन्द्रसूरिजी को आदेश दिया था। आपने भी गुर्वाज्ञा से उक्त समस्त तीर्थों की व्यवस्था तथा उद्धारादि के लिए स्थान-स्थान के जैन श्रीसंघ को उपदेश दे-देकर सब तीर्थों का उद्धार कार्य करवाया। श्री अभिधानराजेन्द्रकोष के संपादन और उसकी अर्थव्यवस्था में में लग जाने से थोड़े विलंब से इस तीर्थ के तृतीयोद्धार को आपने वि.सं. १९८८ में प्रारंभ करवाया जो कि वि.सं. २००७ में पूर्ण हुआ । इसकी प्रतिष्ठा का महामहोत्सव वि.सं. २०१० ज्येष्ठ सु. १ सोमवार को दशदिनावधिक उत्सव के साथ सम्पन्न हुआ था । इस प्रतिष्टोत्सव में २५ सहस्र के लगभग जनता उपस्थित हुई थी। इस महामहोत्सव को इन पंक्तियों के लेखक ने भी देखा है। यहाँ यात्रियों के ठहरने के लिए मरुधरदेशीय श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्री संघ की ओर से मंदिर के तीनों ओर विशालकाय धर्मशाला बनी हुई है। मंदिर में मूलनायकजी के दोनों ओर की सब प्रतिमाजी श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के द्वारा प्रतिष्ठित है। मूल मंदिर के चारों कोनों में जो लघु मंदिर हैं, उनमें विराजित प्रतिमाएँ वि.सं. १९९८ में बागरा में श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से प्रतिष्ठित हैं, जो यहाँ २०१० के प्रतिष्ठोत्सव के अवसर पर विराजमान की गई हैं।
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प्रत्येक जैन को एक बार अवश्य रेगिस्तान के इस प्रकट प्रभावी प्राचीन तीर्थ का दर्शन-पूजन करना चाहिए। *
( ३ ) श्रीस्वर्णगिरितीर्थ - जालोर
यह प्राचीन तीर्थ जोधपुर से राणीवाड़ा जाने वाली रेलवे लाइन के जालोर स्टेशन के समीप स्वर्णगिरि नाम से प्रख्यात पर्वत पर स्थित है। नीचे नगर में प्राचीनार्वाचीन १३ मंदिर हैं। ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि जालोर नवमी शताब्दी में अति समृद्ध था। वर्तमान में पर्वत पर किले में ३ प्राचीन और दो नूतन भव्य जिनमंदिर है। प्राचीन चैत्य यक्षवसति (श्री महावीर मंदिर). अष्टापदावतार (चौमुख) और कुमारविहार (पार्श्वनाथ चैत्य) हैं।
यक्षवसति जिनालय सबसे प्राचीन है। यह भव्य मंदिर दर्शकों को तारंगा के विशालकाय मंदिर की याद दिलाता है।
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- तान्दरि स्मारक पदय - इतिहासइसको नाहट (नामक राजा) ने बनवाया था ऐसा निम्न प्राकृत था और वि.सं. १६८१, १६८३ तथा १६८६ में अलग-अलग पद्म से ध्वनित होता है।
तीन बार महामहोत्सवपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठाएँ करवा कर सैकड़ों नवनवइ लक्खधणवड़ अलद्धवासे सुवण्णगिरि सिहरे।
जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई थीं। साँचोर (राजस्थान) में भी नाहडनिवकारवियं थुणि वीरं जक्खवसहीए।।१।।
जयमलजी की बनवाई प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं। इस समय वे ही
प्रतिमाएँ प्रायः किले के सब चैत्यों में विराजमान है। यानी यहाँ ९९ लक्ष रुपयों की संपत्ति वाले श्रेष्ठियों को भी रहने को स्थान नहीं मिलता था, किले पर सब करोड़पति ही
बाद में इन सब मंदिरों में राजकीय कर्मचारियों ने राजकीय निवास करते थे। ऐसे सुवर्णगिरि के शिखर पर नाहड (राजा) युद्ध सामना
युद्ध सामग्री आदि भर कर इनके चारों ओर काँटे लगा दिए थे। द्वारा निर्मित यक्षवसति में श्रीमहावीरदेव की स्तुति करो।
विहारानुक्रम से महान् ज्योतिर्धर आगमरहस्यवेदी प्रभु
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का वि.सं. १९३२ के उत्तरार्ध कुमारविहार जिनालय को सं. १२२१ के लगभग परमार्हत्
में जालोर पधारना हुआ। आप से जिनालयों की उक्त दशा देखी महाराजाधिहाज कुमारपाल भूपाल ने कलिकाससर्वज्ञ श्रीमद्
न गई। आपने तत्काल राजकर्मचारियों से मंदिरों की माँग की हेमचन्द्रसूरीन्द्र के उपदेश से कुमारविहार के गुणनिष्पन्न
और उनको अनेक प्रकार से समझाया, परंतु जब वे किसी नामाभिधान से विख्यात यह चैत्य बनवाया था। पहले यह ७२
प्रकार नहीं माने तो गुरुदेव ने जनता से दृढ़तापूर्वक घोषणा की जिनालय था। परंतु सं. १३३८ के लगग अलाउद्दीन ने धर्मान्धता से प्रेरित हो जालोर (जाबालीपुर) पर चढ़ाई की थी, तब उस
कि जब तक स्वर्णगिरि के तीनों जिनालयों को राजकीय शासन नराधम के पापी हाथों से इस गिरि एवं आबू के सुप्रसिद्ध मंदिरों
से मुक्त नहीं करवाऊँगा, तब तक मैं नित्य एक ही बार आहार से स्पर्धा करने वाले नगर के मनोहर एवं दिव्य मंदिरों का नाश
लूँगा और द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी और
अमावस्या तथा पूर्णिमा को उपवास करूँगा। आपने इसी कार्य हुआ था। उन मंदिरों की याद दिलाने वाली तोपखाना मस्जिद जो खण्डित मंदिरों के पत्थरों से धर्मान्ध यवनों ने बनवाई थी
को सम्पन्न करने के हेतु सं. १९३३ का वर्षावास जालोर में ही वह मस्जिद आज भी विद्यमान है। इस तोपखाने में लगे अधिकांश
किया। यथासमय आपने योग्य व्यक्तियों की एक समिति पत्थर खण्डित मंदिरों के हैं और अखण्डित भाग तो जैनपद्धति
बनाई और उन्हें वास्तविक न्याय की प्राप्ति हेतु जोधपुर-नरेश के अनुसार है। इस में स्थान-स्थान पर स्तम्भों और शिलाओं
यशवंतसिंहजी के पास भेजा। पर लेख हैं। जिनमें कितने ही लेख सं. ११९४, १२३९, १२६८, कार्यवाही के अंत में राजा यशवंतसिंहजी ने अपना न्याय १३२० आदि के हैं।
इस प्रकार घोषित किया 'जालोरगढ़ (स्वर्णगिरि) के मंदिर जैनों उक्त दो चैत्यों के सिवाय चौमख अष्टापदावतार चैत्य भी के हैं, इसलिए उनका मन न दुखाते हुए शीघ्र ही मंदिर उन्हें सौंप प्राचीन है। यह चैत्य कब किसने बनवाया यह अज्ञात है। दिए जाएँ और इस निमित्त उनके गुरु श्री राजेन्द्रसूरिजी जो अभी
विक्रम संवत् १०८० में यहीं (जालोर में) रहकर श्रीश्री तक आठ महीनों से तपस्या कर रहे हैं. उन्हें जल्दी से पारणा बुद्धिसागरसूरिवर ने सात हजार श्लोक परिमित श्री बद्धिसागर करवाकर दो दिन में मुझे सूचना दी जाए।' व्याकरण बनाई थी, उसकी प्रशस्ति में लिखा है --
इस प्रकार गुरुदेव अपने साधनामय संकल्प को पूरा कर श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालात् साशीतिके याति समासहस्त्रे। विजयी हुए। सश्रीकजाबालीपुरे तदाद्यं दृब्धं मया सप्तसहस्त्रकल्पम्।।११।.
गुरुदेव की आज्ञा से मंदिरों का जीर्णोद्धार प्रारंभ हुआ और बहुत वर्षों तक स्वर्णगिरि के ये ध्वस्त मंदिर जीर्णावस्था वि.सं. १९३३ के माघ सु. १ रविवार को महामहोत्सवपूर्वक में ही रहे। विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में जोधपुर-निवासी और प्रतिष्ठाकार्य करवाकर गुरुदेव ने नौ (९) उपवास की पारणा जालोर के सर्वाधिकारी मंत्री श्री जयमल मुहणोत ने यहाँ के करके अन्यत्र विहार किया। इस प्रतिष्ठा का परिचायक लेख श्री सब ध्वस्त जिनालयों का निजोपार्जित लक्ष्मी से पुनरुद्धार करवाया अष्टापदावतार चौमुख मंदिर में लगा हुआ है--
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहाम्'संवच्छुभे त्रयस्त्रिंशन्नन्दैकविक्रमाद्वरे। भगवान् की प्रतिमा वि.सं. १९२८ मग. सु. पूर्णिमा को सवा माघमासे सिते पक्षे, चंद्रे प्रतिपदातिथौ।।१।। प्रहर दिन चढ़े पुरानी गोरवड़ावाव से निकली थी। यह श्री पार्श्वनाथ जालंधरे गढे श्रीमान्, श्रीयशस्वन्तसिंहराट्। प्रतिमा सं. १०२२ फा. सु. ५ गुरुवार को श्री श्रीबप्पभट्टीसूरिजी तेजसाधुमणिः साक्षात्, खण्डयामास यो रिपून्।।२।। के करकमलों से प्रतिष्ठित है। विजयसिंहश्च किल्लादार धर्मी महाबली।
इस प्रतिमा को वि.सं. १९५० माह वदि २ सोमवार को तस्मिन्नवसरे संघर्जीर्णोद्धारश्चः कारितः।।३।।
महोत्सवपूर्वक श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने प्रतिष्ठित चैत्यं चतुर्मुखं सूरिराजेन्द्रेण प्रतिष्ठितम्। एवं श्रीपार्श्वचैत्येऽपि, प्रतिष्ठा कारिता वरा।।४।।
किया था। ओशवंशे निहालस्य, चोधरी कानुगस्य च।
इस स्थल के तुंगीयापुर, तुंगीयापत्तन और तारन (तालन) सुत प्रतापमल्लेन प्रतिमा स्थापिता शुभा।।५।। पुर ये तीन नाम हैं। श्रीऋषभजिनप्रासादात् उल्लिखितम्।।
५. श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ (मध्य भारत ) इस समय भी श्री विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज अपने (श्री शत्रजयदिशिवंदनार्थ प्रस्थापित तीर्थ) उपदेश से इन प्राचीन तीर्थ कल्प जिनमंदिरों का उद्धार कार्य
महामालव की प्राचीन राजधानी धारा के पश्चिम में १४ करवाते रहते हैं एवं इसके हेतु सहस्रों रुपयों की सहायता
कोस दूर माही नदी के दाहिने तट पर राजगढ़ नगर आबाद है। करवाई है।
यहाँ जैनों (श्वेताम्बरों) के २५० घर और ५ जिनचैत्य है। यहाँ से यद्यपि कोरटा एवं इस तीर्थ के संबंध में कतिपय लेखकों ठीक १ मील दूर पश्चिम में श्रीमोहनखेडातीर्थ स्थित है। यह तीर्थ ने इतिहास लिखा है, किन्तु उपर्युक्त वास्तविक घटनाओं का श्री सिद्धाचलदिशिवंदनार्थ संस्थापित किया गया है। इसके निर्माता वर्णन नहीं करने का जो भाव रखता है, वह अशोभनीय है। राजगढ़ के निवासी संघवी दल्लाजी लुणाजी प्राग्वाटने विश्वपूज्य
चारित्रचूड़ामणि, शासनसम्राट श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ४. तालनपुरतीर्थ (मध्यभारत)
से जब व्याख्यान में अपने कृत पापों का प्रायश्चित माँगा और आलिराजपुर से कुक्षी जाने वाली सड़क की दाहिनी ओर गुरुदेव ने जो इस रमणीय शांतिप्रद स्थान पर श्री आदिनाथ प्रभ यह तीर्थ है। यह तीर्थस्थान बहत प्राचीन है और ऐसा कहा जाता का चैत्य बनवाने का उपदेश दिया, उसके फलस्वरूप यह बना है कि पूर्वकाल में यहाँ २१ जिनमंदिर और ५ हजार श्रमणोपासकों है। संघवी ने यह विशाल जिनालय शीघ्रातिशीघ्र बनवाकर के घर थे। यहाँ खंडहर रूप में बावडी, तालाब और भगर्भ से गुरुदेव के करकमलों से महामहोत्सव-पूर्वक सं. १९४० मगपर प्राप्त होने वाले पत्थरों और जिनप्रतिमाओं से इसकी प्राचीनता सुदि ७ गुरुवार को इसको प्रतिष्ठासम्पन्न करवाया। इस मंदिर की सिद्ध होती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि किसी समय यह मूलनायक-प्रतिमा श्री आदिनाथ भगवान की है, जो सवा हाथ नगर दो-तीन कोस के घेरे में आबाद था। वि.सं. १९१६ में एक बड़ी श्वेत वर्ण की है। मूल चैत्य से ठीक पीछे ही आरसोपल की भिलाले के खेत से आदिनाथबिम्ब आदि २५ प्रतिमाएँ प्राप्त मनोरम छत्री है, जिसमें श्री ऋषभदेव प्रभु के चरणयुगल प्रस्थापित हुई। जिन्हें समीपस्थ कुक्षी नगर के जैन श्रीसंघ ने विशाल हैं। इस मंदिर के दक्षिण में एक मंदिर और है. जिसमें श्री सौधशिखरी जिनालय बनवाकर उसमें विराजमान किया इनमें से पार्श्वनाथ भगवान की तीन प्रतिमाएँ विराजमान हैं। मूल मंदिर में किसी प्रतिमा पर लेख नहीं है, अत: यह कहना कठिन है कि ये ओइल पेंट कलर के विविध चित्र अंकित हैं। किस शताब्दी की हैं। अनुमान और प्रतिमाओं की बनावट से ज्ञात उक्त मंदिरों के ठीक सामने तीर्थस्थापनोपदेश-कता होता है कि ये प्रतिमाएँ एक हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन हैं। जैनाचार्य प्रभ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का समाधि
यहाँ जैन-श्वेताम्बरों के दो मंदिर हैं। एक तो उक्त ही है मंदिर है, जहाँ विक्रम संवत् १९६३ पौष स. ७ मोहनखेडा और दसरा उसी के पास श्री गौडीपार्श्वनाथजी का है। पार्श्वनाथ (राजगढ़) में श्रीसंघ ने उनके पार्थिव शरीर का अंत्येष्टि संस्कार
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-चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासकिया था। समाधि-मंदिर के बन जाने पर इसमें गुरुदेव की
सन्दर्भ प्रतिमा स्थापित की गई। इस संदर समाधि-मंदिर की भित्तियों
१. उक्त पट्टावली में यह संवत् लिखा हुआ मिलता है। परन्तु पर गुरुदेव के विविध जीवन-चित्र आलेखित हैं। इस तीर्थ का
इतिहासज्ञों के समक्ष यह अभी मान्य नहीं हो सका है। उद्धार-कार्य हाल ही में वर्तमानाचार्य श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से सम्पन्न हुआ है। वि.सं. २०१३ चैत्र सु.
__ - सम्पादक १० को दोनों मंदिर और समाधि-मंदिर पर आपके ही करकमलों २. 'संवत् १६२८ वर्षे श्रावण सुदि १ दिन, भट्टारक से ध्वजदण्ड समारोपित हुए हैं।
श्रीविजयप्रभ सूरीश्वर राज्ये श्रीकोरटानगरे, पण्डित श्री ५ श्री
श्रीजय विजयगणिना उपदेशथी मु. जेतपुरा सिंगभार्या, म. महाराय जब वि.सं. २०१२ ज्येष्ठ पूर्णिमा को लगभग १८ वर्षों के पश्चात् गुरुदेव श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का मुनिमण्डल
सिंगभार्या, सं. बीका, सांवरदास, को उधरणा, मु. जेसंग, सा.
गांगदास, सा. ताधा, सा. खीसा, सा. छाँजर, सा. नारायण, सा. सह यहाँ पर पदार्पण हुआ उस समय मालव-निवासी श्री संघ तीर्थदर्शन एवं गुरुदेव की मंगलमय वाणी को सुनने की उत्कण्ठा
कचरा प्रमुख समस्त संघ भेला हुईने श्री महावीर पवासण बदूसार्या
छे लिखितं गणी मणिविजयकेसरविजयेन बाहरा महवद सुत लाधा से लगभग चार हजार की संख्या में उपस्थित हुआ था। गुरुदेव का श्रीसंघ को यही उपदेश हुआ कि समाज की आध्यात्मिक
पदम लखतं, समस्त संघ नर मांगलिक भवति शुभं भवतु।' उन्नति के लिए समाज में श्रेष्ठ गुरुकुलों का होना आवश्यक है, ३. उत्तमांग विकल महिला को मूलनायक रखना या नहीं क्योंकि इस भौतिकवाद के युग में मानवमात्र को शांति की रखना के लिए देखिये श्री वर्तमानाचार्य-लिखित 'श्रीकोरटाजी प्राप्ति यदि किसी से हो सकती है, तो वह एकमात्र धार्मिक तीर्थ का इतिहास' शिक्षा से ही जो केवल गुरुकुल द्वारा ही प्रसारित की जा ४. विशेष ज्ञातव्य बोतां के लिए कविवर मनि श्रीविद्याविजयजी सकती है।
महाराज द्वारा लिखित 'श्री भाण्डवपुर जैन तीर्थ मण्डन श्रीवीरचैत्य गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर श्रीसंघ ने श्रीमोहनखेडा - प्रतिष्ठामहोत्सव' देखिए तीर्थ में ही 'श्री आदिनाथ-राजेन्द्रजैन-गुरुकुल' नाम की शिक्षण प'स्वास्ति श्री पार्श्वजिनप्रदेशात्संवत १०२२ वर्षे मासे फालाने संस्था का सर्वानुमति से खोलना तत्काल घोषित कर दिया। इस सदि पक्षे ५ गरुवासरे श्रीमान श्रेष्ठी श्रीसखराज राज्ये प्रतिष्ठितं श्री समय यह संस्था राजगढ़ में चल रही है और मोहनखेड़ा में भवन
नखड़ा म भवन बप्पभट्टी (ट्ट) सूरिभिः तुंगिया पन्तने।'
बप्पटी (ट: बन जाने पर निकट भविष्य में ही वहाँ प्रारंभ हो जाएगी। ।।इति।।
- श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ से साभार
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– यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहाससौंदर्य - वृद्धि एवं उत्तम स्वास्थ्य सभी को प्रिय है। उबटन व मालिश इस दिशा में महती भूमिका निभाते है। स्त्रियों की इस
शिक्षा का उद्देश्य मानव-व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास में क्षेत्र में विशेष रुचि रही है। श्रमणपरंपरा के ग्रंथों में संगधित
निहित माना जाता है। मनुष्य के बाह्य एवं अंतरंग सभी गुणों को उबटन बनाने एवं उनका शरीर पर लेपन करने की विशेष विधि
पूर्ण विकसित किए बिना सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास कर का विवरण मिलता है २०।
पाना संभव नहीं है। वैदिक एवं श्रमण दोनों ही परंपराओं में ललितकलाओं में संगीत, गायन, वादन, चित्रकला को व्यक्तित्व की पूर्णावस्था को मोक्ष, निर्वाण अथवा कैवल्य महत्त्वपूर्ण माना गया है। प्राचीन शास्त्रों में इन विद्याओं में कहा गया है। यह अध्यात्म की पराकाष्ठा है जो लौकिक साधनों पारंगत स्त्रियों का उल्लेख किया गया है। तैत्तरीय संहिता में
को अपनाकर एवं उनका त्याग करके प्राप्त की जाती है। शिक्षा कन्याओं की संगीत-अभिरुचि का वर्णन मिलता है २१। स्त्रियाँ का भी यही परम उद्देश्य है। पुरुषों की भाँति ही मंत्रों का सामगान किया करती थीं। उनमें
- सामान्यतया शिक्षा को लौकिक हितों को पूरा करने का मंत्रों के शुद्धाच्चारण तथा स्वरों के उचित आरोह एवं अवरोह की
एक माध्यम मान लिया जाता है। कुछ अर्थों में इसे स्वीकार सामर्थ्य होती थी। भाव-भंगिमाओं और नृत्यकला में अन्योन्याश्रय
किया जा सकता है। परंतु शिक्षा का एकमात्र यही उद्देश्य मान संबंध है। मत्स्यपुराण में नृत्यकला में निष्णात नारियों का वर्णन
लिया जाए तो यह कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकता। यदि इस मिलता है। नृत्यकला से सम्पन्न स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार की भाव
लौकिक उत्थान के पीछे आध्यात्मिक उन्नति का भाव भी भंगिमाओं के आधार पर पुरुषों को लुभाती थीं।२२ चित्रकला में
पनपता रहे तभी इसे समुचित कहा जाएगा। वस्तुतः शिक्षा का निष्णात नारियों में चित्रलेखा का अद्वितीय स्थान है। स्मृति के
यही परम ध्येय है। उपनिषदों में इस बात पर बल दिया गया है आधार पर रेखाचित्रों की सहायता से इसके द्वारा बनाए गए चित्रों
तथा यह स्पष्ट करने का प्रयत्न भी हुआ है कि शिक्षा-प्राप्ति का को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना गया है। शिल्पकला एक विज्ञान
? उद्देश्य कर्म प्रधान होते हुए भी मुक्ति के लिए था। शिक्षापद्धति है। श्रमण-परंपरा में नन्दुत्तरा नामक स्त्री को शिल्प-कला एवं
में कर्म की उपेक्षा न थी, बल्कि इसकी अपेक्षा वहीं तक थी जहाँ विविध प्रकार की वैज्ञानिक कलाओं की विज्ञ स्त्री माना गया ,
तक यह मोक्ष-प्राप्ति में सहायक बन सके। कर्म जीवन को है।२४
जगत् से आबद्ध करने के लिए नहीं, बल्कि इससे विमुक्त करने व्यावहारिक शिक्षा के लिए जहाँ व्यक्ति को अपने बुद्धि के लिए थार५। यहाँ कर्म धर्म था कामना नहीं, कर्त्तव्य था कौशल का प्रयोग करना पड़ता है, वहीं आध्यात्मिक शिक्षा के स्वेच्छा नहीं, मुक्ति था बंधन नहीं। लिए त्याग, संयम, तप आदि का अभ्यास अनिवार्य है। इन
शिक्षा मनुष्य में अंतर्निहित शक्तियों को उद्घाटित करती सबके लिए ब्रह्मचर्य, सदाचरण, उत्तमशील, सच्चारित्र्य जैसे सम्यक्
2 है। यह मनुष्य के महनीय गुणों को उद्भासित एवं विकसित आचरण का पालन करना होता है। इनके अभ्यास से योग और
करती है। इसके कारण व्यक्ति लौकिक एवं पारलौकिक सुखो तप सिद्ध किए जा सकते हैं। इन्हें सिद्ध करने से ज्ञान की अभिवृद्धि
को प्राप्त करने की क्षमता से युक्त हो जाता है। बृहत्कथाकोश होती है और इनकी सहायता से आध्यात्मिक उत्क्रान्ति या शिक्षा ।
में कहा भी गया है कि निर्दोष तथा श्रमपूर्वक अभ्यस्त विद्या को प्राप्त किया जा सकता है। यह शिक्षा स्वाध्याय मात्र से ही
ऐहिक एवं पारलौकिक कार्यों को सफल बनाती है २६। शिक्षा संभव नहीं है। बल्कि इसके लिए विभिन्न तरह के कार्यों को
प्राप्त करने के बाद मनुष्य आत्म-अनात्म के भेद को समझने आचरण में लाना पड़ता है। वैदिक परंपरा में ब्रह्मवादिनी स्त्रियों
लगता है। वह आत्मस्वातंत्र्य के अर्थ से भलीभाँति परिचित हो को आध्यात्मिक शिक्षा की धारिका माना जाता है। जबकि श्रमण
जाता है। उसके जीवन के लिए वास्तव में क्या उपादेय है इसे परंपरा में श्रमणसंघ में प्रविष्ट स्त्रियों को इस प्रकार की शिक्षा से
समझने लगता है और उसकी क्रिया भी इसी के अनुरूप होती युक्त माना गया है।
है। वह आत्मोन्मुख होकर परम शांति को प्राप्त करता है। आचार्य कुंदकुंद शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासआत्मा की ओर उन्मुख कराने वाली शिक्षा ही उपादेय है, क्योंकि ४. नास्ति विद्या समं-चक्षुः। महाभारत, १२/३३९/६, गीताप्रेस, यही व्यक्ति को आत्मा को स्वतंत्र कराने की शक्ति प्राप्त कराती गोरखपुर
५. ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रं, समस्ततत्त्वार्थविलोचन दक्षम्। आत्मस्वातंत्र्य का यह भाव व्यक्ति में श्रेष्ठ गुणों का संचार शुभाषितरत्नसन्दोह पृष्ठ १९४, निर्णयसागर प्रेस, बंबई १९२६ करता है। वह अपनी शक्ति का सम्यक् उपयोग करता है। उसके
अप्पाणं ठावइस्सामि ति अज्झाइयव्वं भवइ। दसवेआलियसुतं, समक्ष उसका लक्ष्य स्पष्ट रहता है और वह उसे प्राप्त करने के
९/४/४, मूलसुत्ताणि (कन्हैयालालजी कमल), आगम लिए एकाग्रचित्त होकर अपनी संकल्प शक्ति को दृढ़ बनाता है।
अनुयोग प्रकाशन, वखतावरपुरा, सांडेराव (राजस्थान), वीर दशवैकालिक में शिक्षा के संबंध में कहा गया है २८- व्यक्ति
संवत् २५०३ को शिक्षा द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। स्वयं एवं दूसरों को धर्म में स्थापित करने की क्षमता प्राप्त
७. एन.एन. मजुमदार-हिस्ट्री ऑफ एडुकेशन इन इन्सिएन्ट इंडिया, होती है। अनेक प्रकार के श्रुतों का अध्ययन किया जाता है
पृ. ५८, मूल ग्रंथ उपलब्ध नहीं होने के कारण यह उद्धरण जिनके कारण व्यक्ति श्रुत-समाधि में रत हो जाता है। श्रत
'डा. निशान्द शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक 'जैन - वाङ्मय में समाधि में रत व्यक्ति विविध प्रकार की विद्याओं का ज्ञान प्राप्त
शिक्षा के तत्त्व' (पृ. १६), वैशाली शोध संस्थान, वैशाली
१९८८ के आधार पर दिया गया है। करता है। वह अपनी इस ज्ञान-क्षमता का प्रयोग हेय-उपादेय के निर्णय में करता है। इसमें सफल होकर सम्यक् प्रयास करके ८. अलब्रेट वेबर : द हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर, पृ. २०परम उपादेय को प्राप्त कर सर्वदुःखों से मुक्त हो जाता है। वह २२, चौखंभा संस्कृत सीरीज, वाराणसी-१९६१ सत-चित्-आनंद की अवस्था में रमण करने लगता है। उसके ९. स्वामी माधवानंद एवं रमेशचंद्र मजमदार-ग्रेट वीमेन ऑफ मन में सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया:' का भाव हिलोरें ।
इंडिया, पृ. ९५, अद्वैत आश्रम, मायावती, अल्मोड़ा १९५३ मारने लगता है। यही शिक्षा की ओजस्विता है और उद्देश्य की
१०. छात्रादया: शालायाम् ,पाणिनि, ६/२/४७ पराकाष्ठा भी।
. ११. ओघनियुक्ति, (द्रोणाचार्य), आ.वि.सू.जै. ग्रंथमाला, सूरत वैदिक एवं श्रमण वाङ्मय के इस अनुशीलन से हम इस । निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वैदिक एवं श्रमण दोनों ही परंपराओं में १९५७, गाथा ६२२-६२३ नारी-शिक्षा की पर्याप्त एवं समुचित व्यवस्था थी। स्त्रियाँ जीवन १२. एफ.इ. की- इंडियन एडुकेशन इन इन्सिएन्ट एण्ड लेटर के प्रत्येक क्षेत्र में भाग लेती थीं। वे सफल गहिणी होने के इंडिया,पृ. ७८-७९ , आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १९४२ साथ-साथ कुशल एवं परमविदुषी अध्यापिका भी होती थीं। वे १३.बहदारण्यक उपनिषद. ४/५/१ ललितकलाओं व ज्ञान -विज्ञान के विविध विषयों में निष्णात
१४. की : इंडियन एडुकेशन इन एन्सिएन्ट एण्ड लेटर टाइम्स, प्रखर बुद्धि की धारिका होने के साथ-साथ आध्यात्मिक गुणों से
पृष्ठ ७४ एवं ७९ सम्पन्न विवेकवान व्यक्तित्व की स्वामिनी भी होती थीं।
१५. वही, पृ. ७५ संदर्भ
१६. दीघनिकाय- १/९६, नालंदा देवनागरी पालि ग्रन्थमाला, १. सर्वं खल्विदं ब्रह्म। छान्दोग्य उपनिषद्, ३/१४/१, गीताप्रेस,
बिहार, १९५८ गोरखपुर
संयुत्तनिकाय ३/११, नालंदा देवनागरी पालि ग्रंथमाला, बिहार, २. शतपथ ब्राह्मण, ११/५,७, पूना संस्करण
१९५९ ३. महापुराण (भाग-२), ३८/४३, अनु.-पं. पन्नालाल जैन, १७.अस्मिन्नगस्त्यप्रमुखाः प्रदेशे भूयांस उद्गीथविदो वसन्ति। भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९७१
तेभ्योऽधिगन्तुं निगमान्तविद्यां वाल्मीकिपादिहपर्यटामि। and-stariudriduod-ordeoduddidrordrobinirdnird-१४९idirandirbideoromotorioriritorionitoid-buildren
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासउत्तररामचरित, २/३
२४.परमत्थदीपिनी (थेरगाथा की अट्टकथा) पाली टेक्स्ट १८.संयुत्तनिकाय ३/१११, नालंदा देवनागरी पालि ग्रन्थमाला,
सोसायटी, लंदन १९४० बिहार, १९५९
२५.तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये। १९. ऋग्वेद संहिता १/१९१/१४,८५८१/५-६, ३/५५/१२, संपा.- २६.बृहत्कथाकोश १९/८२ संपा.- डा.ए.एन. उपाध्ये, भारतीय
जयदेव शर्मा, आर्य साहित्य मंडल लिमिटेड, अजमेर विद्या भवन, बंबई, संवत् १९९९ २०. आचारांग सूत्र, २/२/३ सू. ३१७-३१८, श्री सिद्धचक्र साहित्य २७.जो वेददि वेदिज्जदि समए विणस्सहे उभय तं जाणगो इ .. प्रचारक समिति, बंबई १९३५
.. णाणी उभयपि ण कंखइ कयापि। समयसार २१६, अनु:-पं. सूयगडं, १/४/२/७, संपा.-डा. पी.एल. वैद्य, पना १९३५ परमेष्ठी दास न्यायतीर्थ, जैन ग्रन्थमाला, मारोड मारवाड:
१९५३ नायाधम्मकहाओ, १/१/१३, संपा डा. पी.एल. वैद्य, पूना
२८. १. सुयं मे भविस्सइ त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। १९४० महावग्ग, पृ. २८७, नालंदा देवनागरी पालि-ग्रंथमाला, विहार,
२. एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। १९५६
३. अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयत्वं भवइ। २१.तैत्तरीय संहिता ६/१/६/५
४.ठिओ परं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। दसवेआलियं २२.मत्स्यपुराण ८२/२९, १३१/१९, संपा.- श्रीराम शर्मा, बरेली २३.विष्णुपुराण ३२/२२, संपा. श्री राम शर्मा. बरेली
मूलसुत्ताणि--मुनि कन्हैयालाल 'कमल'
९/४
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आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
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२१ वीं सदी की प्रमुख समस्याएँ और जैन-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में उनके समाधान
डॉ. सागरमल जैन....
आज सम्पूर्ण विश्व अशान्त एवं तनावपूर्ण स्थिति में हैं। हर क्षेत्र में कृत्रिमता और छद्मों का बाहुल्य है। उसके भीतर बौद्धिक विकास से प्राप्त विशाल ज्ञान-राशि और वैज्ञानिक उसका 'पशुत्व' कुलाँचे भर रहा है, किन्तु बाहर वह अपने को तकनीक से प्राप्त भौतिक सुख-सुविधा एवं आर्थिक समृद्धि 'सभ्य' दिखाना चाहता है। अन्दर वासना की उद्दाम ज्वालायें मनुष्य की आध्यात्मिक, मानसिक एवं सामाजिक विपन्नता को और बाहर सच्चरित्रता और सदाशयता का छद्म जीवन, यही दूर नहीं कर पाई हैं। ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने वाले सहस्त्राधिक आज के मानव-जीवन की त्रासदी है, पीड़ा है। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के होते हुए भी आज का
आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और भोग-लोलुपता पर विवेक
दमित मूलप्रवृत्तियों और उनसे जनित दोषों के कारण मानवता एवं संयम का अंकुश नहीं लगा पाया है। भौतिक सुख-सुविधाओं
आज भी अभिशप्त है, दोहरे संघर्षों के कारण आज उसका का यह अम्बार भी उसके मानस को सन्तुष्ट नहीं कर सका है।
__ मानस तनावयुक्त है - विक्षुब्ध है, तो बाह्य संघर्षों से गुजर रही आवागमन के सुलभ साधनों ने विश्व की दूरी को कम कर
है, १. आन्तरिक और २. बाह्य। आन्तरिक संघर्ष के कारण दिया है, किन्तु मनुष्य-मनुष्य के बीच हृदय की दूरी आज ज्यादा
सामाजिक जीवन अशान्त और अस्त-व्यस्त है। आज का मनुष्य हो गई है। सुरक्षा के साधनों की यह बहुलता आज भी उसके मन
परमाणु-तकनीक की बारीकियों को अधिक जानता है, किन्तु में अभय का विकास नहीं कर पाई है। आज भी मनुष्य उतना ही
एक सार्थक सामंजस्यपूर्ण जीवन के आवश्यक मूल्यों के प्रति आशंकित, आतंकित और आक्रामक है, जितना आदिम युग में
उसका उपेक्षा भाव है। वैज्ञानिक प्रगति से समाज के पुराने मूल्य रहा होगा। मात्र इतना ही नहीं, आज विध्वंसकारी शस्त्रों के ।
. ढह चुके हैं और नए मूल्यों का सृजन अभी हो नहीं पाया है। निर्माण के साथ उसकी यह आक्रामक वृत्ति अधिक विनाशकारी
इक्कीसवीं शती के प्रवेश द्वार पर खड़े आज हम मूल्य-रिक्तता बन गई है और आज शस्त्र-निर्माण की इस अंधी दौड़ में सम्पूर्ण
की स्थिति में जी रहे हैं और मानवता नए मूल्यों की प्रसव-पीड़ा मानव-जाति की अन्त्येष्टि की सामग्री तैयार की जा रही है। से गजर रही है। आज हम उस कगार पर खडे हैं जहाँ मानवआर्थिक सम्पन्नता की इस अवस्था में भी मनुष्य की इस
जाति का सर्वनाश हमें पुकार रहा है। देखें, इस दुःखद स्थिति में अर्थलोलपता ने मानव-जाति को शोषक और शोषित ऐसे दो जैनधर्म के सिद्धान्त हमारा क्या मार्गदर्शन कर सकते हैं? वों में बाँट दिया है जो एक-दूसरे को पूरी तरह निगल जाने की
वर्तमान में मानव जीवन की समस्याएँ निम्नांकित हैं - तैयारी कर रहे हैं। एक भोगाकांक्षा और तृष्णा की दौड़ में पागल है, तो दूसरा पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए व्यग्र और १. मानसिक अन्तर्द्वन्द्व, २. सामाजिक एवं जातीय संघर्ष, विक्षुब्ध। आज विश्व में वैज्ञानिक तकनीकी और आर्थिक ३. पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या, ४. विध्वंसक शस्त्रों का समृद्धि की दृष्टि से सबसे अधिक विकसित राष्ट्र यू.एस.ए. मानसिक अम्बार,५. धार्मिक रूढ़िवाद,६.वैचारिक संघर्ष एवं ७. आर्थिक तनावों एवं आपराधिक प्रवृत्तियों के कारण सबसे अधिक परेशान संघर्ष। है। इस सम्बन्धी उसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं। आज मनुष्य
माज मनुष्य अब हम इन सभी समस्याओं पर जैनधर्म की शिक्षाओं का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि इस तथाकथित सभ्यता के की दृष्टि से विचार कर यह देखेंगे कि वह इन समस्याओं के
समाधान के क्या उपाय प्रस्तुत करता है। स्वाभाविक जीवन-शैली भी उससे छिन गई है। आज जीवन के
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक संन्दर्भ में जैनधर्ममानसिक अन्तर्द्धन्द्ध
ममत्व व राग भाव के कारण मेरे परिजन,मेरी जाति, मेरा धर्म, __मनुष्य में उपस्थित रागद्वेष की वृत्तियाँ और उनसे उत्पन्न
मेरा राष्ट्र ऐसे संकुचित विचार विकसित कर अपने 'स्व' को
संकुचित कर लेता है। परिणामस्वरूप अपने और पराये का क्रोध, मान, माया और लोभ के आवेग हमारी मानसिक समता को भंग करते हैं। विशेष रूप से राग और द्वेष की वृत्ति के कारण
भाव उत्पन्न होता है, फलतः भाई-भतीजावाद, जातिवाद, हमारे चित्त में तनाव उत्पन्न होते हैं और इसी मानसिक तनाव के
साम्प्रदायिकता आदि का जन्म होता है। आज मनुष्य-मनुष्य के
बीच सुमधुर सम्बन्धों के स्थापित होने में यही विचार सबसे कारण हमारा बाह्य व्यवहार भी असन्तुलित हो जाता है। इसलिए
अधिक बाधक है। हम अपनी रागात्मकता के कारण अपने भगवान महावीर ने राग-द्वेष और कषायों अर्थात् क्रोध, अहंकार,
'स्व' की संकुचित सीमा बनाकर मानव-समाज को छोटे-छोटे लोभ आदि की वृत्तियों पर विजय को आवश्यक माना था। वे
घेरों में विभाजित कर देते हैं. फलत: मेरे और पराए का भाव कहते थे कि जब तक व्यक्ति राग-द्वेष से ऊपर नहीं उठ जाता
उत्पन्न होता है और यही आगे चलकर जो सम्पूर्ण मानव-जाति है, तब तक वह मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। वीतरागता ही
एक ही है (एगा मणुस्सजाई) उसे जाति, वर्ण अथवा राष्ट्र के नाम महावीर की दृष्टि में जीवन का सबसे बड़ा आदर्श है। इसी की उपलब्धि के लिए उन्होंने समभाव की 'साधना' पर बल दिया।
पर विभाजित करता है, यह मानवता के प्रति सबसे बड़ा अपराध
है। महावीर के अनुसार सम्पूर्ण मानव-जाति को एक और यदि महावीर की साधना-पद्धति को एक वाक्य में कहना हो तो
प्रत्येक मानव को अपने समान मानकर ही हम अपने द्वारा बनाए हम कहेंगे की वह समभाव की साधना है। उनके विचारों में धर्म का एकमात्र लक्षण है - समता। वे कहते हैं कि 'समता ही धर्म
गए क्षुद्र घेरों से ऊपर उठ सकते हैं और तभी मानवता का
कल्याण संभव होगा। है'। जहाँ समता है, वहाँ धर्म है और जहाँ विषमताएँ हैं, वहीं अधर्म है।
भारत में आज जो जातिगत संघर्ष चल रहा है, उसके आचारांग में उन्होंने कहा था कि आर्यजनों ने समत्व की
पीछे मूलतः जातिगत ममत्व एवं अहंकार की भावना ही साधना को ही धर्म बताया है। समत्व की यह साधना तभी पूर्ण
कार्य कर रही है। महावीर का कहना था कि जाति या कुल होती है जबकि व्यक्ति क्रोध, मान, माया और लोभ जैसे आवेगों।
का अहंकार मानवता का सबसे बड़ा शत्रु है। किसी जाति या
कुल में जन्म लेने मात्र से कोई व्यक्ति महान् नहीं होता है, पर विजय पाकर राग-द्वेष की वृत्ति से ऊपर उठ जाता है। वर्तमान युग में मानव-जाति में जो मानसिक तनाव दिन-प्रतिदिन
अपितु वह महान् होता है अपने सदाचार से एवं अपने तप
त्याग से। महत्त्व जाति विशेष में जन्म लेने का नहीं सदाचार बढ़ रहे हैं उनका कारण यह है कि राग-द्वेष की वृत्तियाँ मनुष्य
का है। भगवान महावीर ने जाति के नाम पर मानव-समाज पर अधिक हावी हो रही है। वस्तुत: व्यक्ति की ममता, आसक्ति
के विभाजन को और ब्राह्मण आदि किसी वर्ग विशेष की और तृष्णा ही इन तनावों की मूल जड़ है और महावीर इनसे
श्रेष्ठता के दावे को कभी स्वीकार नहीं किया। उनके धर्मसंघ ऊपर उठने की बात कहकर मनुष्य को तनावों से मुक्त करने का उपाय सुझाते हैं। आचारांग में वे कहते हैं कि जितना
में हरिकेशी जैसे चाण्डाल, शकडाल जैसे कुंभकार, अर्जुन
जैसे माली और सुदर्शन जैसे वणिक सभी समान स्थान पाते जितना ममत्व है, उतना-उतना सुख और दुःख वस्तुगत नहीं है,
थे। वे कहते थे कि चांडाल कुल में जन्म लेने वाले इस आत्मगत है। वे हमारी मानसिकता पर निर्भर करते हैं। यदि हमारा मन अशान्त है तो फिर बाहर से सुख-सुविधा का अम्बार
हरिकेशिबल को देखो, जिसने अपनी साधना से महानता
अर्जित की है। वे कहते थे जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य भी हमें सुखी नहीं कर सकता है।
या शूद्र नहीं होता है। इस प्रकार महावीर ने जातिगत आधार सामाजिक एवं जातीय संघर्ष
पर मानवता के विभाजन को एवं जातीय अहंकार को निन्दनीय सामाजिक और जातीय संघर्षों के मूल में जो प्रमुख
मानकर सामाजिक समता एवं मानवता के कल्याण का मार्ग कारण रहा है - वह यह है कि व्यक्ति अपने अन्तस में निहित प्रशस्त किया ह।
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- नीन्द मुरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक में नैनधर्म. अहिंसा का सामूहिक परिपालन ही युद्ध की समस्या में भी बनी रहेगी, फिर भी उस विधि की कमी यह थी कि उसमें समाधान -
केवल वैयक्तिक स्तर पर ही युद्ध की समस्या का निराकरण
सुझाया गया था। भरत और बाहुबली के बीच हार-जीत का वैयक्तिक एवं सामाजिक सुरक्षा एवं हितों के संरक्षण के
निर्णय करने के लिए दृष्टि-युद्ध, मुष्टि-युद्ध आदि के जो सुझाव लिए संघर्ष की समस्या मानव-समाज में चिरकाल से ही रही है।
दिए गए थे, वे वैयक्तिक स्तर पर ही थे। किन्तु इक्कीसवीं शती युद्धों और संघर्षों के उल्लेख मानव-समाज के इतिहास में
में अहिंसा का परिपालन वैयक्तिक स्तर पर करने से समस्या अतिप्राचीन काल से ही पाए जाते हैं, यह कोई नवीन समस्या
का समाधान नहीं होगा, अपितु अब अहिंसा का परिपालन नहीं है, किन्तु आणविक और रासायनिक अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण
सामूहिक स्तर पर करना होगा। क्योंकि अब युद्ध की हिंसा के के परिणामस्वरूप आगामी शती में युद्ध और संघर्ष की भयंकरता
परिणामों को भुगतने के लिए केवल व्यक्तियों को नहीं, अपितु पूर्व की शताब्दियों की अपेक्षा कई गुना अधिक होगी। आज
सम्पूर्ण समाज या मानवता को भागीदार बनना होता है। इक्कीसवीं मानवता बारूद के उस ढेर पर खड़ी है, जहाँ उसके सर्वनाश के
शती के पूर्व गाँधी के एक अपवाद को छोड़कर सामान्यतया आसार स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। आज मानवता के समक्ष महावीर
वैयक्तिक अहिंसा के परिपालन से ही युद्ध की समस्या का और महाविनाश - ये दो ही विकल्प खुले हुए हैं, इनमें से चुनाव
समाधान सुझाया गया था, किन्तु अब युद्ध और हिंसा की समस्या उसे करना है। आज युद्ध और संघर्ष की समस्या मात्र व्यक्तियों,
को केवल वैयक्तिक स्तर पर नहीं अपितु सामूहिक स्तर पर ही समाजों या राष्ट्रों के बीच की समस्या नहीं है, वह सम्पूर्ण मानवता
सुलझाना होगा। आज कुछ व्यक्तियों या वर्गों के अहिंसक बन की समस्या है। क्योंकि युद्ध और संघर्ष चाहे वे वैयक्तिक,
जाने से काम नहीं चलेगा। अब तो सम्पूर्ण मानवता को अहिंसा सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर हों, उनके परिणाम सम्पूर्ण मानवता
के परिपालन का व्रत लेना होगा। क्योंकि आज एक व्यक्ति या को प्रभावित करेंगे। युद्ध एवं संघर्ष पूर्व की शताब्दियों में भी
एक राष्ट्र का पागलपन भी सम्पूर्ण मानवता का संहारक बन होते थे, फिर भी उनका परिणाम कुछ व्यक्तियों तक या व्यक्तियों
सकता है। के एक वर्ग विशेष तक ही सीमित होता था। वस्तुतः वे उन्हीं। व्यक्तियों या वर्गों के बीच होते थे, जो स्वेच्छा से उनमें जुड़ते पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या थे, यद्यपि कभी-कभी आक्रमण, नृशंस हत्याओं या लूटमार के
आज जब पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या के कारण परिणाम स्वरूप जनसाधारण को भी उनके परिणाम भुगतने होते
सम्पूर्ण प्राणिजगत् के अस्तित्व का संकट उपस्थित हो गया है, थे, फिर भी उनके परिणाम सीमित लोगों पर ही होते थे। किन्तु
हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध केवल मनुष्य जाति तक सीमित आगे आने वाली शती में जो भा युद्ध या सघर्ष होगे, व चाह नहीं माना जा सकता। अब हिंसा केवल मानवीय हिंसा तक व्यक्तियों, वर्गों या राष्ट्रों के बीच हों, फिर भी उनके परिणाम
सीमित नहीं है। अब हिंसा का सम्बन्ध पेड़-पौधे, जल-थल
की सम्पर्ण मानवता को भगतने होंगे। अब यद्धों और संघर्षों में
और वायु सभी के साथ जुड़ गया है। रासायनिक उद्योगों के केवल उन्हीं लोगों का विध्वंस नहीं होगा, जो इनमें लिप्त हैं, .
कचरे एवं दूषित गैसों के साथ-साथ आवागमन के आधुनिक अपितु उसके विध्वंसक परिणाम उन्हीं लोगों को ज्यादा भुगतना
। ज्यादा भुगतना साधनों से निकलने वाले दूषित धुएँ के कारण यह समस्या होंगे, जो उनमें लिप्त नहीं है और जिनका उन युद्धों से कोई
अधिक गम्भीर बनती जा रही है। अतः इक्कीसवीं शती में हिंसा सम्बन्ध नहीं है।
और अहिंसा को उसी व्यापक अर्थ में ग्रहण करना होगा, जिसका इक्कीसवीं शती में युद्ध की समस्या को केवल वैयक्तिक निर्देश भगवान महावीर ने आज से २५०० वर्ष पूर्व किया था। प्रयत्नों से वैयक्तिक स्तर पर नहीं सुलझाया जा सकेगा। अब यह सर्वविदित है कि भगवान महावीर ने पेड़-पौधे ही नहीं उसके लिए सामाजिक स्तर पर प्रयत्न आवश्यक होगा। जैनधर्म जल-थल और वायु के प्रति भी की गई हिंसा को हिंसा माना था में युद्ध और संघर्ष के निराकरण के लिए जो अहिंसक या और उससे बचने का निर्देश दिया था। इक्कीसवीं शती में हमें
अल्पहिंसक विधि प्रदान की गई थी, उसकी उपयोगिता तो भविष्य पर्यावरण में प्रदूषण उत्पन्न करने वाले व्यक्ति को एक मनुष्य andednsidiarioriadriedriwarioriandaridrinidanwar ३ Hariridinidiorandindianswarsansarswaran
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_रानीलगरि स्मारक गत्य राधतिक सन्दर्भ में जनधर्मकी हत्या करने वाले व्यक्ति की अपेक्षा अधिक दोषी मानना बदले में आक्सीजन निःसृत करते हैं, जिससे प्राणियों का जीवन होगा। क्योंकि पर्यावरण के प्रदूषण का परिणाम केवल एक चलता है। पेड़-पौधों के द्वारा मनुष्य और दूसरे शाकाहारी प्राणियों व्यक्ति तक सीमित न होकर सम्पूर्ण मानवता या प्राणिजगत् पर को भोजन प्राप्त होता है और उन प्राणियों से निकले मल-मूत्र से होता है।
पेड-पौधे अपना भोजन ग्रहण करते हैं। पेड़-पौधे हमें आहार और जीवन जीने का नियम संघर्ष नहीं, सहकार :
प्राण वायु प्रदान करते हैं और हम पेड़-पौधों को आहार और
प्राणवायु प्रदान करते हैं। इस प्रकार जीवन का चक्र संघर्ष नहीं एकमात्र समाधान
सहकार पर निर्भर है। आगामी सदी में हमें जैन -आचार्यों के पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होने का मूलभूत द्वारा दी गई इस जीवन-दृष्टि को अपनाना होगा, तभी हम मानवता कारण यह था कि मनुष्य ने जीवन के विविध रूपों को मानवीय का और जीवन के विविध रूपों का संरक्षण कर सकेंगे। जीवन का एक साधन मान लिया था। वह यह मानने लगा था।
निःशस्त्रीकरण : युग की अनिवार्यता कि मनुष्य का जीवन न केवल सर्वश्रेष्ठ है, अपित उसे अपनी सुख-सुविधाओं के लिए जीवन के दूसरे रूपों को नष्ट करने का आत्मसुरक्षा के नाम पर हिंसक अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण अधिकार भी है। पाश्चात्य विकासवादियों ने जीवन का नियम एवं संग्रह की वृत्ति अतिप्राचीन काल से ही चली आ रही है। 'अस्तित्व के लिए संघर्ष' और 'योग्यतम की विजय' प्रतिपादित मनुष्य ने अस्त्र-शस्त्रों का विकास अपने अस्तित्व के संरक्षण किया था, जो एक मिथ्या धारणा पर आधारित है। यह सत्य है एवं भय से विमुक्ति के लिए किया था। किन्तु अस्त्र-शस्त्रों के कि जीवन का संरक्षण और विकास जीवन के दसरे रूपों पर निर्माण एवं संग्रह की यह वृत्ति मनुष्य में आज तक अभय का आधारित होता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य को विकास नहीं कर सकी है। आज अस्त्र-शस्त्रों के संग्रह की इस जीवन के दूसरे रूपों को नष्ट करने का खला अधिकार है। यह वृत्ति ने मानव को बारूद के ढेर पर खड़ा कर दिया है। कब सत्य है कि मानवीय जीवन का सर्वश्रेष्ठ रूप है किन्त इसका इसका विस्फोट मानव जाति को राख का ढेर बना देगा, कोई अर्थ यह भी नहीं है कि मनुष्य को जीवन के दूसरे रूपों को नष्ट नहीं जानता है। मनुष्य ने जिसके माध्यम से अभय को खोजने करने का खुला अधिकार है। जैन-दार्शनिक यह तो स्वीकार की कोशिश की थी, आज वही भय का सबसे बड़ा कारण बना करते हैं कि एक जीवन जीवन के दूसरे रूपों पर अपने अस्तित्व हुआ है। यही कारण था कि आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व के लिए निर्भर है, फिर भी उनके अनुसार 'जीवन का नियम भगवान महावीर ने यह उद्घोष कर दिया था कि अस्त्र-शस्त्र के संघर्ष नहीं सहकार' है। जहाँ पाश्चात्य विकासवादी ने संघर्ष को सहारे मानव जाति में अभय का विकास सम्भव नहीं है। उन्होंने जीवन का नियम बताया है, वहाँ जैन-दार्शनिकों ने सहकार को आचारांग में कहा था - "अत्थि सत्थेन परंपरं, नत्थि असत्थेन जीवन का नियम बताया है। जैन-दार्शनिकों के अनसार विकास परंपरं" अर्थात् शस्त्र तो एक से बढ़कर एक हो सकते हैं. किन्त की प्रक्रिया संघर्ष में नहीं, सहयोग पर निर्भर है। जैनदार्शनिक अशस्त्र से बढ़कर तो कुछ हो ही नहीं सकता है। महावीर की उमास्वाति ने आज से २००० वर्ष पूर्व तत्त्वार्थसत्र में एक सत्र यह वाणी आज शत-प्रतिशत सत्य सिद्ध हो रही है। अस्त्र-शस्त्रों दिया था - "परस्परोपग्रहोजीवानाम"। जिसका तात्पर्य है एक के निर्माण की दौड़ में हमने एक से बढ़कर एक संहारक शस्त्रों दूसरे का सहयोग करना ही जीवन का नियम है। जीवनयात्रा का निर्माण किया और संहारक शस्त्रों के निर्माण की यह दौड पारस्परिक सहयोग के सहारे चलती है। हम जीवन के दूसरे रूपों आज उस स्थिति तक पहुँच चुकी है, जहाँ सम्पूर्ण मानवता के का विनाश करके अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं रख सकते। लिए एक चिता तैयार कर ली गई है, कब और कौन उसे मुखाग्नि व्यवहार में भी हम देखते है कि जहाँ मनष्य का जीवन पेड- देकर समाप्त कर देगा, कोई नहीं जानता। अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण पौधों पर आश्रित है, वहीं पेड़-पौधों का जीवन मनष्य एवं के द्वारा जिस अभय की खोज का प्रयत्न मानव-जाति ने किया अन्य प्राणियों पर निर्भर है। वे मनुष्य एवं दसरे प्राणियों की था, वह वृथा ही सिद्ध हुई है। यदि मानव जाति में अभय का श्वांस से निकली कार्बन-डाइआक्सआइड को ग्रहण कर उसके विकास करना है तो वह शस्त्रीकरण से नहीं, निःशस्त्रीकरण से ordarsandarbarianarmadanandad y
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- यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्य - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म-- ही संभव होगा। आज शस्त्र और सेना के सहारे एक देश दूसरे के होगा। इक्कीसवीं सदी में आसन और ध्यान इस आधार पर मन में भय और असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर रहा है। आज समर्थित नहीं होंगे कि उनसे पारलौकिक जीवन में कोई उपलब्धि विश्व के सम्पूर्ण देशों के उत्पादन का लगभग ३०% भाग सेना होगी, अपितु अब हमें उनकी वैयक्तिक तनाव-मुक्ति एवं शारीरिक
और शस्त्रों के निर्माण में खर्च हो रहा है यदि यह ३०% राशि स्वास्थ्य के लिए प्रासंगिकता सिद्ध करनी होगी। जहाँ तक जैन मानवता के कल्याण में लगती तो कितना अच्छा होता। इक्कीसवीं -आचार का प्रश्न है यह आवश्यक होगा कि हम उसकी शती की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है, मानव-जाति में अभय वैज्ञानिकता को सिद्ध करें। इक्कीसवीं सदी में मांसाहार का का विकास करना । जैन चिन्तकों ने स्पष्ट रूप से यह उद्घोष त्याग इस आधार पर तो नहीं कराया जा सकेगा कि उसके किया था कि “दाणाणं सेट्ठ अभयपयाणं" अर्थात् दानों में परिणामस्वरूप नरक की प्राप्ति होगी अथवा नहीं करने र अभयदान से बढ़कर कोई दान नहीं है। दूसरों के हित और मंगल स्वर्ग की उपलब्धि होगी। किन्तु यदि हम वैज्ञानिक दृष्टि से यह के प्रयत्नों में यदि कोई प्रयत्न सबसे बड़ा हो सकता है तो वह है सिद्ध कर दें कि मांसाहार मनुष्य का स्वाभाविक आहार नहीं है प्राणिजगत् में अभय का यह विकास और यह अभय का विकास । अथवा उसके कारण मानव-स्वास्थ्य पर दूषित प्रभाव होता है शस्त्रीकरण से नहीं निःशस्त्रीकरण से ही सम्भव होगा। अथवा उसके कारण पर्यावरण का सन्तुलन भंग होगा और
परिणाम-स्वरूप मानव जाति को अपने अस्तित्व का खतरा धर्म का आध्यात्मीकरण
उठाना होगा अथवा उसके परिणाम-स्वरूप मानव की करुणा विगत शताब्दियों में धर्म का सम्बन्ध मुख्य रूप से विधि- की भावना समाप्त होगी, मानव स्वभाव में क्रूरता उत्पन्न होगी विधानों और कर्मकाण्डों तक सीमित होकर रह गया है, इक्कीसवीं और फलतः हिंसा आदि संघर्ष होंगे अथवा यह कि मांसाहार शताब्दी में हमें धर्म के स्वरूप में परिवर्तन करना होगा। अब सहज न्याय (Natural Justice) के प्रतिकूल है। धर्म को 'रिच्युलिस्टिक' के स्थान पर 'स्पीच्युलिस्टिक' बनाना
- इस प्रकार जैन आचार के प्रत्येक विधि-विधान को तार्किक होगा। अब धर्म का कर्मकाण्डात्मक स्वरूप समाप्त करके उसे
युक्तियों के साथ और वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट करना होगा आध्यात्मिक बनाना होगा। जैनधर्म में धर्म का प्रयोजन भगवान
और यदि हम ऐसा कर सके तो निश्चय ही इक्कीसवीं सदी के । को प्रसन्न करना न होकर आध्यात्मिक शान्ति की प्राप्ति है। अब
अनुरूप हमारी यह आचार-संहिता सुरक्षित रह सकेगी। यह वही धर्म जनता को अधिक आकर्षित करेगा जो उसे आध्यात्मिक
सत्य है कि आने वाली इक्कीसवीं सदी जैनधर्म के अहिंसा शान्ति प्रदान करेगा। अब वह धर्म, जो नरक के भय और स्वर्ग
आदि सिद्धान्तों और जीवनमूल्यों को प्रतिष्ठित करने में सहायक के प्रलोभन पर खड़ा हुआ था, कोई अर्थ नहीं रखेगा, उसका
ही होगी। क्योंकि जैन-दर्शन के विभिन्न सिद्धान्त वैज्ञानिक आधारों। स्थान वह धर्म लेगा जो तात्कालिक परिणाम प्रस्तुत करेगा।
पर स्थित हैं तथा सहज न्याय के समर्थक है। इक्कीसवीं सदी में इक्कीसवीं सदी में धर्म का कर्मकाण्डात्मक प्रश्र गौण तो जैन धर्म का यदि कोई पक्ष खण्डित होगा तो केवल वे थोथे अवश्य होगा, किन्तु मानव-प्रकृति का जो भावनात्मक पक्ष कर्मकाण्ड और प्रदर्शन ही समाप्त होंगे, जो मूलतः अन्य परम्पराओं है,उसकी पूर्ति के लिए भक्तिभाव और पूजा-अर्चना के तत्त्व के अन्धानुकरण के परिणामस्वरूप जैनधर्म में प्रविष्ट हो गए हैं। बने रहेंगे। यद्यपि इक्कीसवीं सदी में धर्म के क्षेत्र में तार्किकता
वस्तुतः इक्कीसवीं सदी में यदि कोई धर्म और जीवन प्रमुख होगी, किन्तु श्रद्धा का तत्त्व भी बना रहेगा। आवश्यकता
___ मूल्य खड़े रह सकते हैं तो उन्हें वैज्ञानिक और तार्किक यह होगी की धार्मिक कर्मकाण्डों की उद्देश्यात्मकता को स्पष्ट
आधारों पर युक्तिसंगत होना चाहिए। इस प्रकार इक्कीसवीं कर उन्हें ऐहिक जीवन की सुख-शांति के साथ जोड़ना होगा।
सदी में जैन -धर्म में श्रद्धा पक्ष गौण होगा और ज्ञान पक्ष अब धार्मिक जीवन से सम्बन्धित वे ही कर्मकाण्ड मान्य प्रमुख होगा। जहाँ तक जैन आचार का प्रश्न है, उसमें जो भाव हो सकेंगे, जिनकी प्रासंगिकता को तार्किक और वैज्ञानिक आधार पक्ष की प्रधानता है वह अधिक मुखर होगी और पर सिद्ध किया जा सकेगा। जो भी कर्मकाण्ड तार्किक और कर्मकाण्डात्मक पक्ष गौण होगा। वैज्ञानिक आधारों पर सिद्ध नहीं होंगे, उनका परित्याग करना
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अपराध एवं उपकार की आध्यात्मिक समझ से तनावमुक्ति
डॉ. पारसमल अग्रवाल....
प्रोफेसर, भौतिक विज्ञान विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन (म.प्र.)
१. समस्या के प्रकार
रहने पर आपको उपकारी होने का प्रमाणपत्र देती, वह बुद्धि कभी आप किसी के उपकारी बनते हैं किन्तु जिसका
अब आपको उसकी मृत्यु होने पर अपराधी होने का एहसास
करा रही है। आप अपनी नजरों में अपराधी हैं या उपकारी? क्या उपकार आपने किया है, वह आपको अपराधी मानता है। उसकी यह मान्यता आपके तनाव का कारण बन सकती है।
उसकी मृत्यु के कारणों की आप जाँच करा सकेंगे? एक शिक्षक ने उपकार की भावना से पड़ौसी के आग्रह
ऐसी घटना अपने वालों के साथ भी घट सकती है। कभी एवं निवेदन को स्वीकार करके उसके बच्चे को कई महीनों तक
शादी हेतु लड़के/लड़की के चयन में भी आपका योगदान होता निःशुल्क पढ़ाया। परीक्षा के एक माह पूर्व उस बच्चे ने पड़ौसी
है व वह शादी दुःखद शादी बन सकती है। स्वयं के लिए या शिक्षक को छोड़कर किसी अन्य शिक्षक के घर पर ट्यूशन
पुत्र, पुत्री, बहन, मित्र के लिए वर-वधू का चयन, व्यवसाय का पढ़ना प्रारंभ किया। बालक द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। पड़ौसी
निर्धारण, नौकरी के लिए किसी सिफारिश, बच्चे की पढ़ाई, रोगी
की देखभाल आदि कार्यों में ही नहीं अपितु स्थान-स्थान पर शिक्षक मानता है कि बालक इतना कमजोर था, फिर भी उसके पढ़ाने से वह उत्तीर्ण होने योग्य बन गया। बालक मानता है कि
हमारे जीवन में ऐसे प्रसंग आते हैं, जहाँ हमारी गाड़ी कई बार पड़ौसी शिक्षक ने उसका समय व्यर्थ गँवाया। दूसरे शिक्षक की
हमारी इच्छा के विपरीत घूम जाती है। तब हम अपनी तुच्छ बुद्धि ट्यूशन वह यदि शुरू से ही कर लेता, तो प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण
के अनुसार किसी को अपराधी व किसी के अपराधी मानकर होता। कौन सही है? पड़ौसी शिक्षक उपकारी है या अपराधी?
तनाव आमंत्रित करते रहते हैं। कुछ तनाव अल्पकालीन होते हैं, कौन न्याय करे? कैसे न्याय करे? क्या भविष्य में वह शिक्षक
तो कुछ तनाव इतने दीर्घकालीन हो जाते हैं कि किसी को
डिप्रेशन तक की स्थिति आ जाती है। इस तरह से किसी का उपकार करना बंद कर दे?
इसी प्रकार यह भी संभव है कि कोई आप पर उपकार २. अनेक पक्षों की यथार्थ समझ करे किन्तु आपको लगे कि उसने अपराध किया है। आपका उक्त स्थिति में अध्यात्म के मूलभूत सिद्धान्त बहुत उपयोगी यह भाव भी आपके तनाव का कारण बन सकता है।
सिद्ध हो सकते हैं। आगे बढ़ने के पूर्व यह सावधानी रखनी होगी एक अन्य संभावना पर भी विचार करते हैं। सडक पर कि कई घटनाएँ ऐसी होती हैं, जहाँ अपराधी एवं उपकारी का एक्सीडेंट से बेहोश एक अज्ञात व्यक्ति को आप अस्पताल निर्णय करना निर्णायक के उद्देश्य पर निर्भर करता है। दंगे में एक पहुँचाते हैं। एक दूसरा व्यक्ति भी यही सेवाकार्य करना चाहता व्यक्ति का इकलौता बच्चा मारा जाता है। वह बदले की भावना था किन्तु आपने आग्रह करके यह सेवाकार्य करने का जिम्मा से हत्यारे की तलाश कर रहा है। क्या साम्प्रदायिक विद्वेष या अपने ऊपर लिया। आप अस्पताल में उसकी सेवा-शुश्रूषा राजनीतिक अराजकता या कमजोर प्रशासन आदि भी जिम्मेदार करते हैं व जेब से अपना रुपया भी खर्च करते हैं किन्त उसकी नहीं है? गाँधीजी ऐसे बदले की भावना से दुःखी पिता को मत्य हो जाती है। उसकी मृत्य से आपको उलझन पैदा हो जाती उसकी तलाश में यह सुझाव देकर मदद करते हैं कि वह उसी है। आप सोचते हैं कि आप या अन्य व्यक्ति किसी अधिक बडे दंगे के किसी अनाथ बच्चे को अपना बच्चा मानकर पाले। अस्पताल में बड़े डॉक्टर के पास ले गए होते. तो शायद इसकी गाँधीजी की यह सलाह उसके बच्चे के अपराधी की तलाश का मृत्यु नहीं होती। आपकी स्वयं की वह बुद्धि, जो उसके जीवित उत्तर किसी अपेक्षा से है भी व किसी अपेक्षा से नहीं भी। उनके
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गतीलगनिमारक गत्य गवतिक सन्दर्भ में जैनधर्महै कि भगवान महावीर ने मनुष्य की संचय-वृत्ति एवं भोगवृत्ति अनेकान्त और अपरिग्रह की यह त्रिवेणी मानव-जाति के कल्मषों पर संयम रखने का उपदेश देकर मानवजाति के आर्थिक संघर्षों को धो डालने के लिए उतनी ही उपयोगी है, जितनी महावीर के के निराकरण का मार्ग प्रशस्त किया था। वस्तुतः भगवान युग में थी। महावीर ने वृत्ति में अनासक्ति, विचारों में अनेकान्त, व्यवहार में
आज मात्र वैयक्तिक स्तर पर ही नहीं सामाजिक स्तर पर अहिंसा, आर्थिक जीवन में अपरिग्रह और उपभोग में संयम के भी अहिंसा. अनेकान्त और अपरिग्रह की साधना करनी होगी, सिद्धान्त के रूप में मानवता के कल्याण का जो मार्ग प्रदर्शित
० तभी हम एक समतामूलक समाज की रचना कर मानव-जाति किया था, वह इक्कीसवीं सदी में भी उतना ही प्रासंगिक होगा,
को सन्त्रासों से मुक्ति दिला सकेंगे और यही महावीर के प्रति जितना कि आज से २५०० वर्ष पूर्व था। आज भी अहिंसा, हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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____ यतीन्दसूरि रमारक गत्य - आधुनिक मन में जैनबर्न - वैचारिक संघर्ष
संघर्षों के निराकरण का अमोघ उपाय सिद्ध होगा। राजनीति के
क्षेत्र में यही प्रजातन्त्र की सुरक्षा कर उसे जीवित रख सकेगा। आज मानव-समाज में वैचारिक संघर्ष विशेष रूप से राजनीतिक पार्टियों के संघर्ष और धार्मिक संघर्ष भी अपनी आर्थिक संघर्ष चरम सीमा पर हैं। आज धर्म के नाम पर मनुष्य एक-दूसरे के
आज विश्व में जब कभी युद्ध और संघर्ष के बादल मँडराते खून का प्यासा है। महावीर की दृष्टि में इसका सबसे बड़ा कारण
हैं तो उनके पीछे कहीं न कहीं कोई आर्थिक स्वार्थ होते हैं। यह है कि हम अपने ही धर्म, सम्प्रदाय या राजनीतिक मतवाद
आज का युग अर्थप्रधान युग है। मनुष्य में निहित संग्रह-वृत्ति को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं और इस प्रकार दूसरों के धर्म या मन्तव्यों
और भोग-भावना अपनी चरम सीमा पर है। वस्तुतः हम अपने की आलोचना करते हैं। महावीर का कहना था कि दसरे धर्म. .
स्वार्थों से ऊपर उठकर दूसरों की पीडाओं को जानना ही नहीं सम्प्रदाय या मतवाद को पूर्णतः मिथ्या कहना ही हमारी सबसे
चाहते। अपनी संग्रह-वृत्ति के कारण हम समाज में एक कृत्रिम बड़ी भूल है। वे कहते हैं कि जो लोग अपने-अपने मत की
अभाव उत्पन्न करते हैं। जब एक ओर संग्रह के द्वारा सम्पत्ति के प्रशंसा और दूसरे के मतों की निन्दा करते हैं, वे सत्य को ही
पर्वत खड़े होते हैं तो दूसरी ओर स्वाभाविक रूप से खाइयाँ विद्रपित करते हैं। महावीर की दृष्टि में सत्य का सर्य सर्वत्र
बनती है। फलतः समाज धनी और निर्धन, शोषक और शोषित प्रकाशित हो सकता है, अतः हमें यह अधिकार नहीं है कि हम
ऐसे दो वर्गों में बंट जाता है और कालान्तर में इनके बीच वर्गदूसरों को मिथ्या कहें। दूसरों के विचारों, मतवादों या सिद्धान्तों
संघर्ष प्रारम्भ होते हैं। इस प्रकार समाज-व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो का समादर करना महावीर के चिन्तन की सबसे बड़ी विशेषता
जाती है। समाज में जो भी आर्थिक विषमताएँ हैं, उसके पीछे रही है। वे कहते थे कि दूसरों को मिथ्या कहना ही सबसे बड़ा
महावीर की दृष्टि में परिग्रह वृत्ति ही मुख्य है। यदि समाज से मिथ्यात्व है। भगवान महावीर ने जिस अनेकान्तवाद की स्थापना
आर्थिक संघर्ष समाप्त करना है तो हमें मनुष्य की संग्रह-वृत्ति की उसका मूल उद्देश्य विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों और मतवादों के
और भोगवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा। महावीर ने इसके लिए बीच समन्वय और सद्भाव स्थापित करना है। उनके अनुसार
अपरिग्रह, परिग्रह-परिमा और उपभोग-परिभोग-परिमाण के व्रत हमारी आग्रहपूर्ण दृष्टि ही हमें सत्य को देख पाने में असमर्थ बना
प्रस्तुत किए। उन्होंने बताया कि मुनि को सर्वथा अपरिग्रही होना देती है। महावीर की शिक्षा आग्रह की नहीं अनाग्रह की है। जब
चाहिए। साथ ही गृहस्थ को भी अपनी सम्पत्ति का परिसीमन तक दुराग्रह रूपी रंगीन चश्मों से हमारी चेतना आवृत रहेगी, हम
करना चाहिए, उनकी एक सीमा-रेखा बना लेना चाहिए। सत्य को नहीं देख सकेंगे।
इसी प्रकार उन्होंने वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति के वे कहते थे कि सत्य, सत्य होता है. उसे मेरे और पराये के।
विरोध में मनुष्य को यह समझाया था कि वह अपनी घेरे में बाँधना उचित नहीं है। सत्य जहाँ भी हो, उसका आदर
आवश्यकताओं और इच्छाओं को सीमित करे। महावीर कहते करना चाहिए। महावीर के इस सिद्धान्त का प्रभाव परवर्ती जैनाचार्यों
थे कि मनुष्य को जीवन जीने का अधिकार तो है, किन्तु उसे पर भी पड़ा है। आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि व्यक्ति चाहे श्वेताम्बर
दूसरों को उनकी सुख-सुविधा से वंचित करने का अधिकार हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य धर्मावलम्बी, यदि वह समभाव
नहीं है। उन्होंने व्यक्ति को खान-पान आदि वृत्तियों पर संयम की साधना करेगा, राग, आसक्ति या तृष्णा के घेरे से उठेगा तो
रखने का उपदेश दिया था। यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है वह अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त करेगा। अपने ही धर्मवाद से
कि भगवान महावीर ने आज से २५०० वर्ष पूर्व अपने गृहस्थ मुक्ति मानना यही धार्मिक सद्भाव में सबसे बड़ी बाधा है।
उपासकों को यह निर्देश दिया था कि वे अपने खान-पान की महावीर का सबसे बड़ा अवदान है कि उन्होंने हमें आग्रहमुक्त
वस्तुओं की सीमा निश्चित कर लें। जैन-आगमों में इस बात का होकर सत्य देखने की दृष्टि दी और इस प्रकार मानवता को धमों, मतवादों के संघर्षों से ऊपर उठना सिखाया। महावीर का यह ।
विस्तृत विवरण है कि गृहस्थ को अपनी आवश्यकता की किन
किन वस्तुओं की मात्रा निर्धारित कर लेनी चाहिए। अभी विस्तार अनाग्रही या अनेककांतवादी दृष्टिकोण इक्कीसवीं सदी में वैचारिक
से चर्चा में जाना सम्भव नहीं है, फिर भी इतना कहा जा सकता
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-यतीन्द्रसरि स्मारक गन्य - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्मइस उत्तर से पुलिस विभाग, जासूसी विभाग, न्यायालय आदि भौतिक कारणों के मूल में, अध्यात्म के अनुसार एक सुंदर एवं की उपयोगिता समाप्त नहीं हो जाती है। साम्प्रदायिक सौहार्द, सरल व्याख्या है। अध्यात्म के अनुसार जो कुछ भी किसी के उन्नत राजनीतिक वातावरण, कुशल एवं चुस्त प्रशासकीय मशीनरी जीवन में घटित होता है, उसके लिए वह आत्मा ही जिम्मेदार है। आदि भी किसी रूप में उस व्यक्ति के पुत्र की मृत्यु के लिए उसके द्वारा ही किए गए शुभ कार्यों का अच्छा एवं अशुद्ध, अपराधी हैं। गाँधीजी जब उक्त सलाह दे रहे होते हैं, तब गाँधीजी अशुभ कर्मों का बुरा फल उसे मिलता है। कहा गया है - भी ये सभी पक्ष जान रहे होते हैं। वे इन पक्षों को नकारते नहीं है। "उवगरं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि।" वे तो आवश्यकतानुसार इन पक्षों को गौण करते हैं। वे इन पक्षों
इसका भावार्थ यह है कि जीव द्वारा किए गए शुभ-अशुभ को गौण करके आध्यात्मिक पक्ष की तरफ उस परिस्थिति में उस व्यक्ति को ले जाना चाहते हैं।
कर्म ही जीव का उपकार-अपकार करते हैं। 'जैसा बोओगे
वैसा ही काटोगे' इस कथन से भी हम भलीभाँति परिचित हैं ही। सच्ची अनेकान्तमयी समझ में भौतिक कारणों के अतिरिक्त
, एक एक्सीडेंट से बालक की मृत्यु होने पर यह कहा जाएगा कि
पीटेट से बालक की मात्र आध्यात्मिक पहलू भी एक विशेष स्थान रखता है। अपने
बालक के सुख-दुःख के लिए बालक की आत्मा तथा मातातनावों के संदर्भ में उपकारी व अपराधी के निर्णय में भी ऐसी
पिता एवं परिजनों के दुःख के लिए माता-पिता एवं परिजनों की ही अनेकांत दृष्टि की आवश्यकता है, जहाँ सभी पक्षों का यथायोग्य
आत्मा के पूर्व कर्म जिम्मेदार हैं। सभी के दुःख की मात्रा में भी ज्ञान भी हो व यह विवेक भी हो कि किस प्रश्न का किस सन्दर्भ भिन्नता हो सकती है। में समुचित उत्तर क्या होगा?
उक्त आध्यात्मिक तथ्य की मूल भावना समझने हेतु एक अध्यात्म की विस्तृत व्याख्या आगे वर्णित की जा रही है।
सरल प्रश्न पर विचार कर सकते हैं - 'यदि मेरे नाम पर दस तनावग्रस्त व्यक्ति की समस्या के कई उत्तरों में से यह भी एक
लाख रुपये की लाटरी खुलती है, तो उसके लिए जिम्मेदार उत्तर है। यह उत्तर कब व कितना उपयोगी हो सकता है, यह कौन है? उसका श्रेय किसको दें व क्यों दें?' समस्याग्रस्त व्यक्ति के विवेक एवं विकास की स्थिति पर निर्भर
इस प्रश्न के उत्तर में आधुनिक सांख्यिकी का यह उत्तर करेगा। तनाव कम करने में ही नहीं अपितु मानसिक एवं ।
होता है कि लाटरी में कोई भी नंबर निकल सकता था, प्रत्येक भावनात्मक स्वास्थ्य बनाए रखने में भी यह दृष्टिकोण अनेकों
नंबर निकलने की संभावना समान थी। यह संयोग यानी चांस के जीवन में अत्युपयोगी सिद्ध हुआ है।
की बात है कि निकला हुआ नंबर आपका था। आधुनिक विज्ञान ३. आध्यात्मिक दृष्टिकोण
के पास इस प्रश्न का उत्तर देने हेतु और भी अधिक विस्तार हमारे जीवन में कई घटनाएँ होती हैं। हमें कोई पढाता है। करने की क्षमता है। बहुत सूक्ष्म विवेचन करने वाला भौतिक कोई हमारी चिकित्सा करता है। कोई ईर्ष्या या अज्ञान या बदले
विज्ञान मेरे नंबर निकलने का कारण लाटरी की मशीन में शुरू की भावना से नीचे गिराना चाहता है। इन अपेक्षाओं से हमारे
SC में क्या था व कितना उसे हिलाया गया या घुमाया गया उसके जीवन में हमारे लिए कई निर्विवाद रूप से उपकारी एवं कई
आधार पर बता सकता है किन्तु पुनः प्रश्न उठता है कि मशीन निर्विवाद रूप से अपराधी नजर आते हैं। वस्तु-व्यवस्था की व्याख्या
को उतना ही क्यों घुमाया गया व शुरू में ऐसा ही क्या था कि यहाँ ही समाप्त नहीं होती है। जो डॉक्टर आपके लिए उपकारी है,
अंत में मेरा नंबर निकला और अधिक सूक्ष्म विवेचन करने वही डॉक्टर आपके ही साथी किसी अन्य असफल रोगी को
वाले इसका संबंध मशीन को घुमाने वाले व्यक्ति के शरीर अपराधी नजर आ सकता है, जबकि दोनों का समान ऑपरेशन
न के परमाणुओं, मानसिकता आदि एवं मशीन के पूर्व इतिहास उसने समान सावधानी एवं विशेषज्ञता के साथ किया है।
के आधार पर कह सकते हैं। प्रश्न पनः यह हो सकता है कि
वे परमाणु, मानसिकता, इतिहास आदि ऐसी अवस्था में ही किसी भी कार्यक्रम या घटना की सफलता एवं असफलता क्यों थे जिससे अन्ततोगत्वा दस लाख रुपये का लाभ मझे के लिए कई जिम्मेदार कारण बताए जा सकते हैं। समस्त
मिला? సాగరరరరరరరరరర
రరరరరరరరరరరరరుగయలో
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्मप्रश्रों एवं उत्तरों की यह श्रृंखला आगे से आगे बढ़ती रह यहाँ अध्यात्म इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देता है। अध्यात्म सकती है किन्तु सामान्य चिन्तन या प्रचलित तर्क में कहीं भी जीवन को अनंत मानता है। अध्यात्म के अनुसार मेरी आत्मा यह गुंजाइश नहीं है, जो यह बता सके कि मेरे नाम पर लाटरी के अनंत जीवन के किसी बिन्दु पर या किन्हीं बिन्दुओं पर मेरे खुलना महज संयोग न होकर सृष्टि के अकाट्य नियमों पर द्वारा ही ऐसा कुछ हुआ था, जिससे अभी दस लाख की लाटरी आधारित है। 'महज संयोग' जैसे शब्द किसी अपेक्षा हमारी की प्राप्ति की प्रसन्नता मिली है या दस लाख रुपये खर्च करने अज्ञानता ही बताते हैं।
की सामर्थ्य प्राप्त हुई है। क्या किया व कब किया? इनके यह महज संयोग वाली बात आइन्स्टीन जैसे वैज्ञानिक गणितीय सूत्र मनुष्य के ज्ञान की सीमा से परे प्रतीत होते हैं स्वीकार नहीं करते हैं। आइन्स्टीन जैसे वैज्ञानिक यह कहेंगे कि किन्तु यह जानना एवं मानना कि 'मेरे कार्यों का फल मुझे आज के अच्छे से अच्छे कम्प्यटर भी इसका हिसाब तो नहीं मिलता है' अपने आपमें मानवीय ज्ञान का एक महत्त्वपर्ण सत्र लगा सकते हैं कि लाटरी से कौनसा नंबर निकलेगा किन्तु ।
- बनता है। इस सत्र से 'कारण-कार्य सिद्धान्त' की रक्षा होती है। वैज्ञानिक चिन्तन इससे सहमत है कि सृष्टि के समस्त कण यह सूत्र क
यह सूत्र कई विद्वानों ने कई रूपों में दिया है। पाश्चात्य विद्वान निश्चित नियमों के अनुसार ही हलन-चलन करते हैं अत: जो
के अनुसार ही हलन चल करने आतो वेन डायर' लिखते हैं - भी नंबर निकला है, वह नियमों के अनुसार ही निकला है, यानी There truly are no accidents. This Universe is उस परिस्थिति में वह नंबर निकलना न तो वैज्ञानिक आश्चर्य है
working perfectly including all the subatomic particles
that make up you and those you blame. It is all just as it और न ही चांस या महज संयोग। इसी प्रकार जिस परिस्थिति
is supposed to be. Nothing more nothing less. में मुझे जो भी लाटरी का टिकट मिला है, वह भी न तो वैज्ञानिक
इन पंक्तियों का भावार्थ यह है कि - आश्चर्य है और न ही चांस।
. "सचमुच में देखा जाए तो सृष्टि में एक्सीडेंन्ट नहीं होते हैं। इस प्रकार धुरंधर वैज्ञानिक गहराई में चांस शब्द की ऐसी
सृष्टि के प्रत्येक अवयव सहित यह सम्पूर्ण सृष्टि पूर्णतया उचित व्याख्या करते हैं कि चांस भी प्रकृति के नियमों के अधीन एक
विधि से कार्य कर रही है। सब कुछ जैसा होना चाहिए वैसा ही व्यवस्था सिद्ध होता है। इतना होते हुए भी यह प्रश्र फिर भी
है। न तो ज्यादा और न कम।" विचारणीय रह जाता है कि एक रुपया खर्च करके लाटरी के टिकट तो लाखों व्यक्तियों ने खरीदे किन्तु मैंने ऐसा क्या विशेष
इसी क्रम में लुई हे की निम्नांकित पंक्तियाँ भी ध्यान देने कार्य किया था कि बदले में मुझे दस लाख रुपयों की प्राप्ति योग्य हैंहुई? जैसे कोई व्यक्ति हमारे कार्यालय में आए व हम यह पूछे I believe that everyone, myself included, is 100% कि 'आप कैसे पधारे?' इसका उत्तर यदि आगन्तुक यह दे कि
responsible fore every, thing in our lives the best and वह स्कूटर से आया है या अमुक सिटी बस से बस स्टॉप पर ।
the worst. आया व फिर पैदल चलकर आया है, तो यह उत्तर कितना . इन
- इन पंक्तियों का भावार्थ यह है किअप्रासंगिक होगा। हम उसके आगमन का मूल प्रयोजन जानना "मेरी आस्था यह है कि हमारे जीवन में होने वाली समस्त चाहते हैं और वे आगमन की विधि बता रहे हैं।
अच्छी एवं बुरी घटनाओं के लिए हममें से प्रत्येक व्यक्ति १०० कुल मिलाकर स्थिति यह है कि भौतिक विज्ञान लाटरी प्रतिशत जिम्मेदार है।" खलने की विधि बता सकता है किन्तु यह नहीं बता सकता है कि इन पंक्तियों के आशय का खुलासा करते हुए लुई हे आगे मेरे किस कार्य के प्रतिफल में मुझे इतना लाभ मिला है। इस प्रकार लिखती हैं कि गहराई से देखा जाए, तो अन्य व्यक्ति या स्थान के प्रश्न के उत्तर के अभाव में एक व्यक्ति लाटरी खुलने पर तो या वस्तु दोष के पात्र नहीं हैं। भाग्य कहकर बात समाप्त कर देता है किन्तु एक्सीडेंट आदि से हानि
इसी तथ्य को अधिक वजन के साथ व्यक्त करने हेतु होने पर सारी दुनिया को दोषी बताते हुए दुःखमग्न हो जाता है।
वेन डायर एक उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि जैसे हमारे
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म. स्वप्न में जब कोई जानवर या मनुष्य दिखाई देता है, तब उसका पहला एकान्त कथन अनावश्यक रूप से उस चोर ने व्यापारी कारण वह जानवर या मनुष्य नहीं होकर स्वप्न देखने वाला के जीवन में आकर व्यापारी को यातना पहुँचाई व धन छीना, स्वयं ही होता है, उसी प्रकार हमारे जीवन में भी जो कुछ दिखाई अतः चोर सजा का पात्र है। देता है, वह हमारे आमंत्रण से ही आता है।
इस तरह की आध्यात्मिक व्याख्या को भौतिक विज्ञान या गणित के सूत्रों की तरह से नहीं समझाया जा सकता है किन्तु एक बार ऐसी आध्यात्मिक समझ होने पर जीवन के कई तनाव हल हो सकते हैं। हमारे जीवन में कई घटनाएँ ऐसी हो सकती हैं, जिनमें हमें ऐसा लगता है कि दूसरों की गलती से हमें नुकसान हुआ नुकसान की पूर्ति हेतु हमारे जो भी लौकिक प्रयास होते हैं, वे किसी अपेक्षा से उचित व किसी अपेक्षा से अनुचित हो सकते हैं किन्तु हमारे विचारों में जो तनाव एवं घृणा उस व्यक्ति के प्रति होती है, उससे हमारा ही समय कष्टप्रद बनता है एवं शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ता है। इसके विपरीत जब हम अपने नुकसान के लिए दूसरों को पूर्णतया जिम्मेदार नहीं मानते हैं, तब हमारे तनाव बहुत कम रह जाते हैं।
विज्ञान के विकास के लिए भी यह एक अच्छा विषय कुछ या कई वर्षों बाद बन सकता है ।
यह व्याख्या समस्या का एक पहलू है । अन्य पक्षों पर भी विचार करने की आवश्यकता है। चोर या हत्यारे को सजा देना भी समाज में क्या आवश्यक है? इस तरह के प्रश्न को अब हम अनेकान्त के साथ आगे देखते हैं।
(ग) अध्यात्म पर विश्वास रखने वाला व्यापारी उक्त बिन्दु (ख) में विश्वास के कारण हानि के लिए कम खेद श्रेय देने व श्रेय लेने से संबंधित समस्याओं पर भी उपर्युक्त महसूस करेगा। उसके तनाव कम होंगे। अध्यात्म को जानने विश्लेषण उपयोगी सिद्ध हो सकता है। वाला बिन्दु (क) को भी जान रहा हो सकता है। बिन्दु (क) एवं (ख) विपरीत प्रतीत होते हैं किन्तु दोनों में विरोध नहीं है। ये (क) और (ख) एक साथ लागू होते हैं ।
अपराध एवं अपराधी की अनेकान्तमयी व्याख्या
इतना सब पढ़ने के बाद पाठक के मस्तिष्क में कई प्रश्न उपस्थित हो सकते हैं। संभावित प्रश्नों का समाधान अनेकान्त व्याख्या द्वारा हो सकता है। निम्नांकित उदाहरण द्वारा एकान्त व्याख्याओं एवं अनेकान्त व्याख्याओं का अंतर समझने से कई प्रश्नों के हल हो सकते हैं।
एक घटना पर विचार करें। घटना यह है कि एक चोर ने एक व्यापारी को यातना पहुँचाई व उसका धन छीना । इस घटना से संबंधित एकान्त कथन निम्नांकित हो सकते हैं -
दूसरा एकान्त कथन - व्यापारी की हानि एवं यातना उसकी ही आत्मा द्वारा किए गए पिछले कर्मों का फल है अतः चोर दोषी नहीं है। चोर को सजा नहीं मिलना चाहिए ।
अब अनेकान्त दृष्टि से देखें, तो हमें उपर्युक्त दोनों कथनों की त्रुटियाँ ज्ञात होंगी। अनेकान्त दृष्टि से निम्नांकित चार बिन्दु एक साथ महत्त्वपूर्ण हैं
-
For Private
(क) चोर ने लालच किया । चुराने के लिए बुरे भाव रखे । चुराने का बुरा प्रयत्न किया। चोर के बुरे भाव एवं बुरे प्रयत्न हेतु चोर जिम्मेदार है व सजा का पात्र है।
(ख) व्यापारी की हानि उसके ही कर्मों का फल है।
(घ) अध्यात्म को चूँकि व्यापारी ने समझा है, विश्वास किया है, श्रद्धा है किन्तु उसके जीवन में अभी अध्यात्म थोड़े ही अंशों' में उतरा है (संत नहीं है ) । अतः व्यापारी अपने पुराने संस्कारों के वश स्वयं के हित की भावना से या जनहित की भावना से चोर को पकड़वाने व वापस धन प्राप्त करने के प्रयत्न करे, तो कोई आश्चर्य नहीं ।
इस उदाहरण से कई संभावित प्रश्न हल हो सकते हैं। जो गृहस्थ व्यक्ति जीने की कला में चतुर हैं व जिन्होंने अध्यात्म उक्त रहस्य समझा है, वे किसी भी हानि से अधिक समय तक अशांत नहीं बने रहते हैं। आक्रोश व क्रोध अधिक समय तक ऐसे व्यक्तियों को परेशान नहीं करता है। जहाँ तक हानि की क्षतिपूर्ति का प्रश्न है, वे परिस्थिति के अनुसार या तो हानि को स्वीकार करके भूलने का प्रयास करते हैं या यथायोग्य कार्यवाही करते हैं। किन्तु दोनों अवस्थाओं में, संबंधित व्यक्ति के प्रति हृदय में शत्रुता के भाव शून्य के बराबर करने का सहज ही प्रयास होता है।
जे টिसमये मिळेल ११ मট
Personal Use Only
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३.
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्मइस सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करना रह , १. उचित रोजगार की प्राप्ति में देरी होने पर तनावग्रस्त होकर गया है कि यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु उसके ही कर्मों का फल निराश हो जाना। है व हत्यारे को उसके मारने के बुरे भावों व मारने के बुरे प्रयत्नों
अपने या अपने परिवार के सदस्यों की शादी हेतु योग्य की ही सजा मिलती है, तो फिर ऐसा क्यों कहा जाता है कि
साथी की खोज में देरी होने पर तनाव ग्रस्त होकर निराश अमुक हत्यारे ने अमुक व्यक्ति को मारा है?
हो जाना। इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि कम शब्दों ,
जब अपने व्यक्ति ही पराए की तरह व्यवहार करने लगें, में अधिक तथ्य आ जाने की सुविधा से ही माँ बच्चे को कहती
तब तनावयुक्त होकर दुनिया को धिक्कारना। है कि 'आटा पिसा लाओ।' इस वाक्य में दो कथन आ गए हैं - ये गेहूँ पिसाने हैं व गेहूँ का दलिया नहीं बनवाना है अपित आटा ४. आकस्मिक आपत्ति के आगमन पर घबरा जाना। बनवाना है। इसी प्रकार 'उसने एक व्यक्ति को मारने का अपराध ५. आगामी संभावित विपत्ति से भयभीत होना। किया है।' इस एक पंक्ति में तीन बातें आ जाती हैं - मारने का
यशयोग्य कार्य के बदले अपयश के मिलने से दुःखी होना। इरादा किया है, मारने का प्रयत्न किया है व मारने का प्रयत्न
जाने-अनजाने में अपने निमित्त से अन्य की हानि या आधा-अधूरा न होकर पूर्ण हुआ है। स्पष्ट है कि तीन पंक्तियों के बदले एक पंक्ति का उपयोग अधिक सुविधाप्रद है व उस
स्वयं की हानि का इतना पछतावा होना कि सदैव अपने
को ही धिक्कारते रहना व किसी अन्य कार्य में रुचि न व्यक्ति के रिकार्ड एवं सजा की दृष्टि से भी इस तरह की एक
रहना। पंक्ति के उपयोग से कोई अंतर नहीं पड़ता है अतः उक्त एक पंक्ति का उपयोग इस अपेक्षा से उचित ही है।
प्रकृति की व्यवस्था पर अविश्वास के कारण अपनी
आर्थिक एवं शारीरिक सुरक्षा हेत भौतिक साधनों एवं सारांश यह है कि मरने वाला अपने कर्मों के फल से मरता
यश की असीमित उपलब्धि के संचय की भावना से है किन्तु मारने वाला अपने मारने के बुरे भाव एवं बुरे प्रयत्न के
स्वयं की शक्ति, शान्ति एवं रिश्तों का बलिदान करना व कारण समाज में व प्रकृति की व्यवस्था में सजा का पात्र बनता है।
अन्य परिचित-अपरिचित व्यक्तियों के शोषण की भावना लाभ एवं उपकार की स्थिति में भी ऐसा ही अनेकान्त
रखना। लागू होता है (क) लाभ पाने वाले व्यक्ति के कर्मों के फल से
मनोवैज्ञानिक भी इस तरह की समस्याओं का समाधान उसे लाभ मिलता है। (ख) जिसने लाभ पहुँचाने का प्रयास किया है, वह व्यक्ति उसके अच्छे विचारों एवं अच्छे प्रयत्नों के .
अच्छी सफलता के साथ कर रहे हैं किन्तु आध्यात्मिक समझ
कई मामलों में अधिक प्रभावी व स्थाई सिद्ध हो सकती है। . लिए प्रशंसा, प्रतिष्ठा एवं प्रोत्साहन का पात्र बनता है एवं (ग) लाभ पाने वाला आध्यात्मिक गृहस्थ लाभ पहुँचाने वाले व्यक्ति अध्यात्म के ग्रन्थ यहाँ यह कहते हैं कि आत्मा के साथ के प्रति यथायोग्य आभार भी अनुभव करता है।
लगी हुई कर्मवर्गणा का प्रभाव भी लाटरी की मशीन पर पड़ता
है। यानी अध्यात्म एवं विज्ञान में मूल अंतर इस लाटरी खुलने प्रकृति की व्यवस्था की समझ का लाभ
की प्रक्रिया में यह आ जाता है कि विज्ञान चैतन्य तत्त्व एवं प्रकृति की व्यवस्था की यह आध्यात्मिक समझ व्यक्ति कर्म-वर्गणा के अस्तित्व को छोड़कर व्याख्या करना चाहता है। को आध्यात्मिक विकास की तरफ तो अग्रसर करेगी ही किन्त लाटरी खुलने की दार्शनिक व्याख्या में आत्मा के पुराने कार्यों साथ ही जीवन की कई दुःखदायी समस्याओं में भी प्रकाश का के आधार पर आटोमैटिक निश्चित समय पर प्रभावी होने वाले स्रोत बन सकेगी। जीवन की ऐसी कई भौतिक समस्याओं में से रिमोट कंट्रोल के अस्तित्व की स्वीकृति भी है। भारतीय दर्शन निम्नांकित समस्याओं में इस आध्यात्मिक समझ का लाभ स्पष्ट ऐसे रिमोट कंट्रोल को आत्मा के साथ लगे हुए अति सूक्ष्म नजर आ सकता है।
अचेतन कणों का पुंज या कर्म-वर्गणा के रूप में स्वीकारता है।
DrawariwariwariwordworosorawbrarabradAadirard-o- १२dririrandirowomowonodromidniridwardwordGrowordGitarai
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म सन्दर्भ / टिप्पणी
हों, जिन्हें हम अभी तक नहीं पहचान पाए हों। उनका एवं कई
वैज्ञानिकों का सोच यह भी है कि जिसे विज्ञान अभी सूक्ष्म मान १. स्वामी कार्तिकेय, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ३१९.
रहा है, वह सूक्ष्म न होकर भावी सूक्ष्म-सूक्ष्म की तुलना में स्थूल २. मेरे नाम पर लाटरी खुलने वाला यह कथन काल्पनिक हो व जब सूक्ष्म-सूक्ष्म समझ में आ जाएगा, तब छिपे हुए सूक्ष्म
उदाहरण के रूप में है। इसे व अन्य भी ऐसे उदाहरणों को सूक्ष्म कारण ऐसे ज्ञात होंगे कि समान कारण से समान कार्य कृपया लेखक के जीवन से संबंधित न मानें।
होता है, यह सिद्धान्त पुनः मान्य हो जाए। ३. लाटरी के उदाहरण का अर्थ कृपया यह न लिया जाए कि ५. wayne W.Dyer, "You'll see it when you believe it. अध्यात्म लाटरी का समर्थन करता है।
(Arrow Books, London, 1990), Page 247. ४. यह लाटरी के खुलने की वैज्ञानिक प्रक्रिया की चर्चा ६. Louise L. Hay, 'You can heal your Life'. (Hay
आइन्स्टीन के समान कारण होने पर समान कार्य होने के House, Santa Monica, USA) P.7 सिद्धान्त पर आधारित है। इस संदर्भ में निम्नांकित ७. सन्दर्भ ५, पृ. ६७ पर वेन डायर निम्नांकित पंक्तियों में । वैज्ञानिक विकास भी ध्यान देने योग्य है।
यह बात व्यक्त करते हैं: इस शताब्दी में विकसित क्वाण्टम सिद्धान्त से चांस, "In our dreaming body we create everything that
happens. We create all of the people, the events, संभावना आदि को वैज्ञानिक स्वीकृति मिली है। इतना ही नहीं,
everybody's reactions, the time frame, everything. समान कारण होते हुए भी समान कार्य न होने की बात भी We also create everything that we need for our क्वाण्टम सिद्धान्त स्वीकारता है। इसी कारण क्वाण्टम सिद्धान्त
waking consciousness." में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त ऐसा भी है, जिसे अनिश्चितता का ८. जैन-दर्शन के सिद्धान्तों के अनुसार अध्यात्म के अभ्यास सिद्धान्त (Uncertainty Principle) कहा जाता है। क्वाण्टम के धनी गृहत्यागी सन्त सभी के प्रति पूर्ण क्षमा भाव सिद्धान्त में कई बातें इतनी विशिष्ट हैं कि न्यूटन के नियम आदि रखते हैं। पुराने चिरसम्मत सिद्धान्त इसके सामने फीके हो गए हैं। कोई
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एवं ईसाई धर्म के विशेषज्ञ Dr.Norभी आधुनिक प्रयोग क्वाण्टम सिद्धान्त को परास्त नहीं कर
man Vincent Peale अपनी पुस्तक 'AGuide to conसका है, अपितु नए-नए प्रयोगों की व्याख्या करने हेतु क्वाण्टम
fident Living' (Fawcatt publications, Inc. Greenसिद्धान्त की विशेष आवश्यकता होती है। क्वाण्टम सिद्धान्त के wich, Conn.) के पृष्ठ १८१ पर अध्यात्म की महत्ता प्रशंसक आइन्स्टीन भी रहे हैं व क्वाण्टम सिद्धान्त को आइन्स्टीन निम्नांकित रूप में व्यक्त करते हैं - ने भी पनपाया है किन्तु आइन्स्टीन क्वाण्टम सिद्धान्त के
"In whatever way spiritual experience occurs, it अनिश्चितता सिद्धान्त, चांस, संभावना आदि को अंतर्मन से is a method superior to psychological discipline स्वीकार नहीं कर सके। समान कारण होने पर भी समान कार्य
and is more effective and certain of permanence.
This comparison is not to be interpreted as miniनहीं होता है, इस बात को भी आइन्स्टीन ने अस्वीकार करना
mizing the value of psychological discipline, a चाहा। उनका सोच यह रहा कि हम जिन्हें समान कारण कह रह . value I readily grant." हैं, वे समान कारण न हों, हो सकता है कुछ विभिन्न कारण ऐसे
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द्वन्द्व और उनका निवारण
डा. रामनारायण एवं डा. रज्जन कुमार.....
प्रवक्ता, पार्श्वनाथविद्यापीठ, वाराणसी.
द्वन्द्व मनुष्य की एक प्रमुखं मनोवैज्ञानिक समस्या है। मनुष्य मार्क्स (१९७६) के शब्दों में द्वन्द्व को एक ऐसी परिस्थिति के रूप को जीवन के प्रारंभ से ही द्वन्द्व का सामना करना पड़ता है। द्वन्द्व में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें परस्पर विरोधी प्रेरक उत्पन्न होने के कई कारण हैं जिनमें से एक कारण कुण्ठा भी है। सक्रिय होते हैं, जिसमें सभी की पूर्ति नहीं की जा सकती है। कण्ठा द्वन्द्व का रूप उस समय ले लेती है, जब व्यक्ति विभिन्न लैजारस के शब्दों में-दन्द उस समय उत्पन्न होता है. जबकि परिस्थितियों के बीच समायोजन का प्रयास करता है और उसमें
एक व्यक्ति को दो असंगत अथवा पारस्परिक रूप से विरोधी वह सफल नहीं हो पाता है। मनुष्य की अनेक इच्छाएँ,
आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रायः एक ही समय पर पूरा करना आवश्यकताएँ तथा रुचियाँ होती हैं किन्त यह जरूरी नहीं कि
होता है, अथवा जब विवश होकर एक आवश्यकता की पूर्ति उसकी सभी इच्छाएँ व आवश्यकताएँ पूरी ही हो जाएँ। इन सबके
करने पर दूसरी आवश्यकता की पूर्ति कर पाना असंभव ही हो कारण एक ऐसा वातावरण बन जाता है जिसकी परिधि में वह
जाता है। उलझ जाता है। वातावरण की इस परिधि में मनुष्य को कुछ विरोधी शक्तियों का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण
द्वन्द्व का अर्थ है-विपरीत विचारों, इच्छाओं, उद्देश्यों का उसके मन में संघर्ष उत्पन्न होता है और यही संघर्ष द्वन्द्व का
विरोध। जनक बन जाता है।
रच (१९६७) ने भी कहा है - "जब कोई व्यक्ति दो में से कोई संघर्ष के अनेक रूप हो सकते हैं- जैसे- एक व्यक्ति का
लक्ष्य चुनने को बाध्य होता है या किसी एक लक्ष्य के प्रति दूसरे से संघर्ष, व्यक्ति का उसके वातावरण से संघर्ष, पारिवारिक ।
विधेयात्मक या निषेधायात्मक भाव रखता है तो उसे द्वन्द्वसंघर्ष, सांस्कृतिक संघर्ष, आदि। इन सबसे कहीं अधिक गम्भीर कुण्ठा का सामना करना पड़ता है।"
और भयानक है - आंतरिक संघर्ष। यह संघर्ष व्यक्ति के विचारों, मानसिक द्वन्द्व का अर्थ स्पष्ट करते हुए फ्रायड ने लिखा है संवेगों, इच्छाओं, भावनाओं, दृष्टिकोणों आदि में होता है। कि 'इदम् अहम् और परम् अहम् के बीच सामंजस्य का अभाव
संघर्ष का मुख्य आधार--उचित और अनचित का विचार होने से मानसिक द्वन्द्व उत्पन्न होता है।' होता है।
. उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि द्वन्द्व का द्वन्द्व की परिभाषा - द्वन्द्व, अन्तर्द्वन्द्व तथा कहीं-कहीं संघर्ष इन अनुभव व्यक्ति उस समय करता है, जब उसे दो वांछित लक्ष्यों
में से किसी एक का चयन करना होता है, या किसी एक लक्ष्य तीनों का English अनुवाद Cinflict है तथा Conflict शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Conlictus शब्द से हुई है, जिसका अर्थ
के प्रति उसकी धारणा विधेयात्मक एवं निषेधात्मक दोनों तरह है एक साथ टकराना। अतः द्वन्द्व का अर्थ एक ऐसी स्थिति से है,
की होती है। इसके अतिरिक्त द्वन्द्व का अनुभव उन दशाओं में भी जिसमें दो आवेगों का एक समय पर ही पारस्परिक रूप से
होता है, जिनमें लक्ष्य तक पहुँचने के लिए दो मार्ग उपलब्ध हैं, टकराव व संघर्ष होता है। या यों कहा जाय कि द्वन्द्व की अवस्था
परंतु व्यक्ति यह तय नहीं कर पाता है कि किस मार्ग का चयन उस समय उत्पन्न होती है, जब पर्यावरण में आवश्यकता की
किया जाय या उपलब्ध लक्ष्यों में से सभी निषेधात्मक है, परंतु पूर्ति के लिए एक से अधिक लक्ष्य उपलब्ध होते हैं. परंत चयन किसी एक का चयन करना ही है। किसी एक ही का करना हो या एक ही लक्ष्य के प्रति व्यक्ति की द्वन्द्व का वर्गीकरण आवृत्ति विधेयात्मक एवं निषेधात्मक दोनों प्रकार की होती है।
द्वन्द्वों का वर्गीकरण उनके स्रोतों व चेतन तथा अचेतन roine
రంగసాగరసారం : రవారందరంగం
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ रूपों के आधार पर निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है-(क) स्त्रोतों (Sources) के आधार पर वर्गीकरण
(i) आंतरिक आवश्यकताओं तथा बाह्य प्रतिरोधों में द्वन्द्व । (ii) दो बाह्य आग्रहों के परस्पर विरोध से द्वन्द्व । (iii) दो आंतरिक आवश्यकताओं के परस्पर विरोध से द्वन्द्व । (ख) चेतन के आधार पर वर्गीकरण
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(i) उपागम उपागम द्वन्द्व (Approach Approach Conflict) (ii) परिहार - परिहार द्वन्द्व (Avoidance - Avoidance Conflict) (iii) उपागम - परिहार द्वन्द्व (Approach Avoidance Conflict) (iii) दो हरा उपागम - परिहार द्वन्द्व (Double Approach Avoidence Conflict)
(ग) अचेतन के आधार पर वर्गीकरण
(i) इदम् तथा अहम् के द्वन्द्व (Conflict between Id and Ego ) (ii) अहम् तथा पराहम् के द्वन्द्व (Conflict between Ego and super Ego)
(iii) इदम् तथा पराहम् के द्वन्द्व (Conflict between Id and super Ego)
द्वन्द्वों के इन विभिन्न रूपों में कठोर आधार पर मौलिक अंतर नहीं होता है, बल्कि इनमें पर्याप्त मात्रा में पारस्परिक रूप से Overlapping ही रहता है । द्वन्द्वों के इन विभिन्न रूपों के विधिवत् वर्णन करने से पहले यहाँ पर द्वन्द्व के स्रोतों का विवेचन करना अति आवश्यक प्रतीत होता है।
द्वन्द्व के विभिन्न स्त्रोत व्यक्ति में प्रायः द्वन्द्वों के मुख्य स्त्रोत निम्नलिखित ढंग से होते हैं
(i) आंतरिक आवश्यकताओं तथा बाह्य प्रतिरोधों में टकराव से उत्पन्न द्वन्द्व - व्यक्ति अपनी विभिन्न जैविक आवश्यकताओं व आवेगों की पूर्ति अपने बाह्य पर्यावरण के अंतर्गत ही करता है, परंतु बाह्य पर्यावरण के इस संबंध में अनेक प्रतिरोध अधिकांशतः भौतिक अवरोधों, सामाजिक परंपराओं तथा सांस्कृतिक मूल्यों के रूप में होते हैं और वे व्यक्ति के आवेगों की पूर्ति तथा संतुष्टि गलत तरीकों से व्यक्त करने की अनुमति
आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
नहीं देते। उदाहरणार्थ परिवार में जब एक बड़ा बालक किसी दूसरे छोटे बालक से खिलौना छीन लेता है तब छोटे बालक को कभी-कभी एकदम क्रोध आ जाता है, और वह बड़े बालक से अपना खिलौना न मिलने पर उसको मारने व गाली देने लगता है परंतु तुरंत ही माता-पिता या घर-परिवार के अन्य व्यक्ति उसके ऐसे असभ्य व्यवहार अथवा क्रोध के आवेगों की गलत रूप से अभिव्यक्ति से मना करते हैं। इस प्रकार यहाँ बालक के लिए बाह्य प्रतिरोधों के कारण आंतरिक आवेगों की पूर्ति न होने पर द्वन्द्व उत्पन्न होता है। बालक के लिए आरंभिक जीवन में ऐसी अनेक स्थितियाँ आती हैं, परंतु धीरे-धीरे समय बीतने के साथ-साथ उनका रूप समाजीकृत होता चला जाता है तथा फिर उनमें प्रायः ऐसा तीव्र द्वन्द्व उत्पन्न नहीं होने पाता ।
जैन-चिंतकों ने भी इस प्रकार के द्वन्द्व का उल्लेख किया है। उनका यह मानना है कि यह द्वन्द्व बाह्य एवं आंतरिक संवेगों में पारस्परिक संघर्षों के फलस्वरूप उत्पन्न होता है । उपासकदशांग में
'चुल्लशतक नामक गृहस्थ साधक इसी द्वन्द्व से पीड़ित व्यक्ति है। यद्यपि वह आत्मविकास की साधना में रत रहता है, लेकिन देव द्वारा बाह्य वस्तु (धन, सम्पत्ति आदि) के नष्ट करने की धमकी से वह भयभीत हो जाता है। इससे बचने हेतु वह देव को पकड़ना चाहता है और अपने व्रत को भंग कर लेता है। धन, सम्पत्ति आदि बाह्य साधन हैं जो व्यवहारिक रूप में मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। इच्छाएं बाह्य और आंतरिक दोनों होती है। यहाँ चुल्लशतक बाह्य वस्तु को बचाने के लिए आंतरिक उद्वेग से ग्रसित होकर देव को पकड़ना चाहता है क्योंकि उसके मन में यह भय बैठ जाता है कि धन-सम्पत्तिविहीन व्यक्ति शक्तिहीन होता है । शक्तिहीन होकर संघर्ष में जीना नहीं चाहता । उस समय वह सोचता है कि देव को वह पकड़ लेगा और अपने धन का अपहरण नहीं होने देगा। लेकिन वह इस मिथ्या माया से ठगा जाता है तब वह पुनः अपनी व्रताराधना में ठीक उसी तरह प्रवृत्त हो जाता है, जैसे कि परिपक्व बालक समाजगत समस्याओं को समझ लेने पर इस तरह के द्वन्द्व से बचने लगता है।
१५
(ii) दो बाह्य आग्रहों के परस्पर विरोध से द्वन्द्व - समाज कभी-कभी व्यक्ति के सम्मुख परस्पर रूप से विरोधी भूमिकाएँ प्रस्तुत करता है, तथा उनका परिपालन करने के लिए भारी आग्रह करता है । उदाहरणार्थ, समाज के नैतिक व धार्मिक उपदेश
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यतीन्द्रसूरि मा आधृतिक सन्दर्भ में जैनधर्म - व्यक्ति से संसार के अन्य समस्त व्यक्तियों के एक ही ईश्वर की से तीव्र द्वन्द्व उत्पन्न होता है, क्योंकि जब वह विद्यार्थी परीक्षा में संतान होने के नाते उनके प्रति एक ओर समानता का व्यवहार उच्च अंक प्राप्त करने के लिए अधिक समय तक पढ़ना चाहता करने की अपेक्षा रखते हैं तथा दूसरी ओर ठीक इसके विपरीत, है, तब वह खेलकूद को अधिक समय नहीं दे सकता और यदि उससे अपने राष्ट्र, अपने धर्म, समाज व समूह को ही सर्वश्रेष्ठ वह अधिक समय अपने खेल में देता है तब वह परी मानने का भी आग्रह करते हैं। मूलरूप से ऐसी सामाजिक अंक नहीं पा सकता। ठीक इसी प्रकार, जब एक विद्यार्थी रात में भूमिकाओं से व्यक्ति में द्वन्द्व उत्पन्न स्वाभाविक ही है। ऐसे ही पढ़ना भी चाहे व साथ ही साथ शीघ्र ही सोने की भी उसकी समाज व्यक्ति को एक ओर सामाजिक अनुरूपता (Social इच्छा रहती हो, तब ऐसी स्थिति में उसमें दो आंतरिक इच्छाओं Conformity) के व्यवहार के लिए पढ़ाता है तथा दूसरी ओर के परस्पर विरोध से द्वन्द्व उत्पन्न होना स्वाभाविक ही होता है। आर्थिक स्तर पर उसे व्यक्तिवाद (Individualism) की शिक्षा
यहाँ हम उपासकदशांग में वर्णित सुरादेव नामक गृहस्थ देता है तथा उसे घोर प्रतिस्पर्धा भी सिखाता है। इसी प्रकार कहा जा
साधक का उदाहरण प्रस्तुत करके इस द्वन्द्व को स्पष्ट करना सकता है कि समाज व्यक्ति को एक ओर सहयोग तथा दूसरी ओर
चाहेंगे। सुरादेव आध्यात्मिक साधना में रत है। उसकी आंतरिक विरोध (प्रतिस्पर्धा) के परस्पर विरोधी आग्रहों से उन व्यक्तियों में
इच्छा है कि वह शुद्ध और संयमपूर्ण जीवन जिए। इसके लिए द्वन्द्व की स्थितियाँ उत्पन्न करता है। आधुनिक युग में जिस तरह से
साधनाक्रम में एक देव उसे यह धमकी देता है कि वह अपनी सामाजिक परिवर्तन हो रहा है, उसमें ऐसे मूल्यों के द्वन्द्व (Con
उग्र साधना से विरत हो जाए अन्यथा उसके शरीर में एक साथ flict in Values) साधारणत: अत्यधिक देखने को मिलते हैं।
१६ महारोग उत्पन्न कर देगा। जिसके कारण तीव्र वेदना के साथ जैन-दर्शन में सभी जीवों को सैद्धांतिक रूप से समान उसकी मृत्यु हो जाएगी। सुरादेव देव की इस धमकी से भयभीत समझा जाता है, परंतु व्यावहारिक स्तर पर इसमें भिन्नता भी हो जाता है और इससे बचने के लिए उसे पकड़ना चाहता है देखी जाती है। यद्यपि यह भिन्नता सामाजिक स्तर पर ही परिलक्षित और अपना व्रत भंग कर लेता है। सुरादेव की आंतरिक इच्छा है होती है, फिर भी यह द्वन्द्व की जनक तो है ही। वस्तुत: इस तरह कि वह आध्यात्मिक शुद्धि प्राप्त करे साथ ही साथ उसका शरीर के द्वन्द्व का उदाहरण जैन-चिंतन में नहीं मिलता है क्योंकि यहाँ । स्वस्थ रहे, लेकिन देव द्वारा उसके शरीर में सोलह महारोग एक सभी जीवों को निश्चयात्मक दृष्टि से समान माना गया है, लेकिन साथ उत्पन्न करने की धमकी उसे उनके कारण उत्पन्न महावेदना पर्यायदृष्टि से यहाँ जीवगत भेद दृष्टिगोचर होता है और इसका का बोध कराती है। वह इस वेदना से बचना चाहता है। कारण जीव के कर्मों को मान लिया जाता है । अतः इस रूप में फलस्वरूप वह इसे उत्पन्न करने वाले प्रमुख कारण देव को इसके कारण मनुष्य के मन में जो द्वन्द्व उत्पन्न होता है, वह दो पकड़ना चाहता है। अतः इसे दो आंतरिक इच्छाओं के परस्पर बाह्य आग्रहों के परस्पर विरोध का ही परिणाम माना जा सकता विरोध से उत्पन्न द्वन्द्व का उदाहरण माना जा सकता है। है। यही कारण है कि जैनों में सभी दुःखों से मुक्ति के लिए मोक्ष तानी
चेतन स्तरीय द्वन्द्व - Lewin के अनुसार व्यक्ति के चेतन द्वन्द्व पद को स्वीकार किया है, लेकिन इसकी प्राप्ति व्यक्तिगत साधना सी
के भी प्रायः निम्नलिखित चार रूप होते हैं-- से ही संभव है।
(i) उपागम-उपागम द्वन्द्व - ऐसे द्वन्द्व को आकर्षण-आकर्षण (iii) दो आंतरिक आवश्यकताओं के परस्पर विरोध से द्वन्द्व- दन्ट भी कहते हैं. इसके अंतर्गत व्यक्ति की दविधा यह रहती है
___ व्यक्ति कभी-कभी परस्पर रूप से विरोधी अपनी ही कि वह दो समान लक्ष्यों में से किस लक्ष्य को स्वीकार करे और आंतरिक आवश्यकताओं के द्वन्द्व के जाल में फँस जाता है। किसे अस्वीकार करे, क्योंकि स्थिति ऐसी है कि वह उन दोनों में उदाहरणार्थ, जब एक विद्यार्थी परीक्षा में भी उच्च श्रेणी के अंक से केवल एक को स्वीकार कर सकता है तथा एक के स्वीकार प्राप्त करना चाहता है व साथ ही साथ खेलकूद में भी अपनी करने पर यहाँ दूसरे लक्ष्य की प्राप्ति स्वयं ही समाप्त हो जाती प्रबल रुचि रखना चाहता है, तब ऐसी स्थिति में एक सामान्य है। जैसे एक नवयुवती के सामने विवाह के लिए दो ऐसे उत्तम विद्यार्थी के लिए ऐसी दो परस्पर रूप से विरोधी आवश्यकताओं प्रस्ताव विचाराधीन होते हैं, जो कि सब दृष्टियों से एकदम आकर्षक పరవాడతారురురురురురురువారmade 6 సారయుతంగురువారం సాయంతirationుసారంగ
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - होते हैं, तब उसकी मानसिक उलझन यह होती है कि वह किसे में से किसी एक का चयन करना होता है, जबकि यह दोनों में से स्वीकारे तथा किसे अस्वीकारे। उसकी वास्तविक मानसिक द्वन्द्व किसी को भी नहीं चाहता है। जैसे जब एक बीमार बालक से का ऐसी स्थिति को आरेख के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है- उसकी माँ कड़वी गोली लेने या फिर उसके स्थान पर इंजेक्शन उपागम - उपागम द्वन्द्व
लेने के लिए पूछती है, तब बालक स्वाभाविकतः इन दोनों कटु
व कष्टकारक स्थितियों में से किसी एक को भी स्वीकार नहीं सुंदर व आकर्षक युवक
सुंदर व आकर्षक युवक
करना चाहता, परंतु साथ ही साथ उसका संकट यह भी है कि तथा < > नवयुवती
तथा
वह इस स्थिति से बच भी नहीं सकता। दाँत के दर्द से पीड़ित उपागम
उपागम दिल्लीवि.वि.का प्रवक्ता
जवाहरलालहरूवि.वि. व्यक्ति के सम्मुख भी कभी-कभी ऐसे ही संकट की स्थिति उस काप्रवक्ता
समय आ जाती है, जब वह दाँत के डाक्टर के पास दाँत निकलवाने
के भय से भी डरता है, तथा घर पर दाँत के दर्द को भी सहन नहीं इस आरेख में नवयुवती विवाह के लिए दोनों युवकों की
कर पाता। ऐसे ही, पारिवारिक जीवन में जब एक युवक की माँ ओर समान रूप से आकर्षित है, परंतु वह उनमें से केवल एक
व उसकी पत्नी में घोर युद्ध छिड़ जाता है, तब उसके मन में यह का ही चयन कर सकती है, वह किसे स्वीकार करे तथा किसे
द्वन्द्व उठ खड़ा होता है कि वह इन दोनों में से किसका पक्ष ले व अस्वीकार करे, यही उस युवती का द्वन्द्व है। जिसे उपागम
किसका न ले। माँ का पक्ष लेने पर पत्नी के प्रकोप को भी वह उपागम द्वन्द्व कहा जा सकता है।
भलीभांति जानता है और पत्नी का पक्ष लेकर वह माँ के कोमल जैन-दर्शन में इस द्वन्द्व का चित्रण भावना अधिकार द्वारा ।
हृदय को भी ठेस नहीं पहुँचाना चाहता। आरेख की सहायता से समझाया जा सकता है। व्यक्ति के मन में उत्पन्न स्थायी मिथ्या इस दन्द को स्पष्ट किया जा सकता है-- संस्कारों के निर्माण करने की प्रक्रिया भावना कहलाती है इनकी
परिहार-परिहार द्वन्द्व कुल संख्या बारह है, जिनमें अन्यत्व भावना भी एक है जो व्यक्ति को अन्य वस्तओं से उसकी भिन्नता का अर्थ-बोध पत्नी के प्रकोप का भय <--------पति ---------->माके भावोंकोठेस का भयपहचने
परिहार परिहार कराती है। मरणविभत्ति में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है-- हमारा यह शरीर भिन्न है, हमारे बंधु-बांधव भिन्न हैं। संसार के उपर्युक्त आरेख के माध्यम से व्यक्ति के परिहार-परिहार समस्त भौतिक पदार्थ उनके रिश्ते-नाते हमसे भिन्न हैं तथा हम द्वन्द्व को दर्शाया गया है। पारिवारिक कलह में माँ व पत्नी के (आत्मा) उन पदार्थों से भिन्न हैं (मरणविभत्ति, ५९०)। इस बीच कलह की स्थिति यह है कि वह किसका पक्ष ले। अपनी आध्यात्मिक चिंतन से किसी के मन में जो द्वन्द्व उत्पन्न होता है माँ का पक्ष ले या पत्नी का। दोनों स्थितियों में से एक का पक्ष उसे निम्न आरेख द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है--
उसके लिए लेना खतरे की घंटी के बजने के ही समान है। आध्यात्मिक मोह <--- माता ---> पुत्रमोह (इसी तरह के अन्य परिहार - परिहार द्वन्द्व की स्थिति में भी व्यक्ति के लिए अपने
सांसारिक मोह) विवेक से तथा तर्क वितर्क के सहारे एक उपयुक्त निर्णय का इस आरेख में माता के समक्ष दो पक्ष हैं--पत्रमोह तथा समय पर लेना आवश्यक होता है। यहाँ व्यक्ति द्वारा कोई भी दूसरी तरफ अन्यत्व भावना के रूप में आध्यात्मिक मोह । वह ।
निर्णय न लेना भी एक प्रकार से उसका एक निर्णय ही होता है, दोनों प्रकार के मोह-बंधन को तोड नहीं पा रही है। इसके परंतु एक निष्क्रिय निर्णय की अपेक्षा व्यक्ति का सक्रिय निर्णय कारण उसके मन में जो द्वन्द्र उत्पन्न हो रहा है. वह उपाग- अधिक उपयुक्त व उचित रहता है, क्योंकि इसमें उसके विवेक उपागम, द्वन्द्व का उदाहरण है।
की शक्ति व मानसिक बल की शक्ति सम्मिलित रहती है। परिहार-परिवार नन्द-कभी कभी व्यक्ति ऐसी टट की जैन-चिंतन में मकरन्द-पुत्र जिन पालित और जिनरक्षित स्थिति में फँस जाता है, जब व्यक्ति को दो निषेधात्मक लक्ष्यों को परिहार-परिहार द्वन्द्व से ग्रसित माना जा सकता है। रत्नदेवी
torolarordandidrobodoorowondwordroidrorists
१७ Horondinirbudvard-ordrobarodroidododcordinarodar
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- यतीन्द सरि स्मारक सत्य के चक्रव्यूह में फँसे दोनों व्यक्तियों को शैलक यक्ष द्वारा मुक्ति दिलाने के लिए जो शर्त रखी गई थी, वही दोनों व्यक्तियों के मन में उत्पन्न इस द्वन्द्व का जनक माना गयी । यक्ष ने कहा मैं तुम दोनों को रत्नदेवी के चंगुल से मुक्त कर सकता हूँ । तुम दोनों मेरी पीठ पर बैठ जाना मैं वायु मार्ग से इस देवी की परिसीमा से तुम्हें बाहर कर दूँगा । परंतु तुम दोनों किसी भी स्थिति में पीछे मुड़कर नहीं देखोगे अगर ऐसा करोगे तो तुम्हें मैं अपने पीठ से नीचे गिरा दूँगा और तुम अपने प्राणों से हाथ धो बैठोगे । यक्ष ने यह भी कहा कि वह रत्नदेवी हम सबका पीछा करेगी और तुम दोनों को अपने मायाजाल में फँसाकर पुनः वापस बुलाने के सारे प्रयत्न भी करेगी। तुम्हें इनसे सावधान रहना होगा और पीछे मुड़कर नहीं देखना होगा। अन्यथा मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर पाऊँगा और तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा ।
यक्ष उन दोनों को लेकर रत्नदेवी के सीमा क्षेत्र से बाहर जाने लगा। रत्नदेवी ने उनका पीछा किया। उन्हें बहुत सारे प्रलोभन दिए । निपालित शैलक यक्ष की चेतावनी को ध्यान में रखकर किसी प्रकार के द्वन्द्व का शिकार नहीं हुआ। परंतु जिनरक्षित द्वन्द्व का शिकार हुआ और अपने प्राणों से हाथ धो बैठा। यद्यपि जिनपालित ने अपने मन को द्वन्द्व से मुक्त रखने का प्रयत्न किया और सफल भी हुआ, लेकिन उसके मन में दो निषेधात्मक भाव उत्पन्न हुए।
१. प्राण जाने का भय, २. सुख-वैभव छूटने का भय। सुख वैभव < --- जिनरक्षित ---> प्राण जाने का भय छूटने का दुःख (iii) उपागम - परिहार द्वन्द्व इस में व्यक्ति के सामने ऐसी स्थिति होती है जिसमें दो विरोधी तत्त्व एक साथ मिलकर उसके व्यवहार में द्वन्द्व उत्पन्न कते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति एक ही समय पर एक विषय अथवा व्यक्ति के प्रति आकर्षित होकर उसकी ओर बढ़ना भी चाहता है, परंतु साथ ही साथ उसकी ओर बढ़ने से उसे भय भी लगता है। जैसे जब एक व्यक्ति अपने Boss से अपनी वेतनवृद्धि या किसी अन्य अनुमति के लिए आता है, तब उसके मन में कभी-कभी यह संकोच भी होने लगता है कि कहीं उसका दे उसके इस क्रियाकलाप से गुस्सा न हो जाए और उसे प्राप्ति के स्थान पर उल्टे क्षति ही न हो जाए। ऐसे ही, जब एक पुराने मधुमेह के रोगी के सम्मुख स्वादिष्ट
आधुतिक सन्दर्भ में जैनधर्म
मिठाई जैसे जलेबी खाने को रख दी जाए, तब वह भी ऐसी ही दुविधा में पड़ जाता है, क्योंकि पुराना मधुमेह का रोगी होने के कारण जलेबी खाने से तुरंत उसका रोग और भी अधिक बढ़ जाता है और गरम-गरम जलेबी खाने को मन भी खूब ललचाता है।
इस प्रकार उपागम - परिहार द्वन्द्व की स्थिति व्यक्ति के लिए एक लक्ष्य की ओर बढ़ने तथा साथ ही साथ उससे बचने की भी रहती है तथा जैसे-जैसे व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है, वैसे-वैसे ही उसके द्वन्द्व का रूप उग्र होने लगता है अथवा ऐसी स्थिति में लक्ष्य की धनात्मक शक्ति व नकारात्मक शक्ति दोनों ही तीव्र हो जाती हैं और व्यक्ति एक ऐसे कुचक्र में फँस जाता है कि क्या करे और क्या न करे?
जैन-चिंतन में १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ के तीर्थंकर बनने के पूर्व की एक घटना को उपागम परिहार द्वन्द्व के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है- (ज्ञाताधर्म - कथा, अष्टम अध्ययन) मल्लिनाथ के आकर्षक और चित्तभावन रूप पर मोहित होकर प्रतिबुद्धि चंद्रच्छाय, शंख, रुक्मि, अदनिशत्रु और जितशत्रु इन छह राजाओं ने कुंभराजा (मल्लिनाथ के पिता) से उसकी पुत्री का हाथ माँगा। कुंभ के इनकार करने पर छहों राजाओं ने सम्मिलित रूप से उसके राज्य पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। इसकी जानकारी मल्लि राजकुमारी को भी हुई। मल्लिराजकुमारी भावी तीर्थंकर होने वाली थी । उसे जातिस्मरणादि का बोध था। वह अपने एवं उन छहों राजाओं के पूर्वभव एवं आगामी भव के परिणाम से अवगत थी। वह उन राजाओं को इसके संबंध में बताना चाहती थी । यह उसका उन छहों के प्रति आकर्षण था। लेकिन उसी क्षण उसके मन में यह भी था कि अगर वह ऐसा करती है तो राजागण उसके पिता के राज्य पर आक्रमण करेंगे और व्यापक नरसंहार हो सकता है। यह मल्लिकुमारी का उन छहों के प्रति विकर्षण भाव था । अतः मल्लिकुमारी के मन में एक ही क्षण में दो परस्पर विरोधी भाव उठ रहे थे - आकर्षण एवं विकर्षण (भय) । ये दोनों मिलकर उपागम यह मल्लिकुमारी का उन छहों के प्रति विकर्षण भाव था। परिहार द्वन्द्व उत्पन्न कर रहे थे।
(iv) दोहरा उपागम परिहार द्वन्द्व - ऐसे द्वन्द्व की स्थिति में व्यक्ति ऐसी दुविधाओं में एक साथ पड़ जाता हैं कि उसे कुछ भी निश्चित रूप से करने में संतुष्टि के साथ- साथ असंतुष्टि भी
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यतीन्द्रसूरि स्मारक गन्य अपरिहार्य रूप से मिलती है। जब विद्यार्थी खेल भी दक्षता तथा अध्ययन में उच्च श्रेणी की सफलता चाहता है, तब उसका द्विस्तरीय संघर्ष यह रहता है कि खेल में दक्ष होने पर वह अपने कालेज में लोकप्रिय अवश्य होता है, परंतु साथ ही साथ खेल में अधिक समय देने पर उसके अध्ययन का बहुमूल्य समय नष्ट हो जाता है। दूसरी ओर जब वह शैक्षिक उपलब्धि चाहता है व इससे उसको माता-पिता का अनुमोदन प्राप्त होता है, उसकी कक्षा में प्रतिष्ठा बढ़ती है, परंतु केवल अध्ययन में ही व्यस्त रहने पर वह अपने मित्रों में अप्रिय बन जाता है। अतः ऐसे द्वन्द्व का समाधान करने के लिए उसे काफी सोच-समझकर विवेकपूर्ण निर्णय लेना होगा।
जैन ग्रंथ उपासकदशांग में चुल्लशतक नामक गृहस्थ साधक दोहरे उपागम-परिहार द्वन्द्व से पीड़ित व्यक्ति लगता है। ( उपासकदशांग, पंचम अध्ययन)। एक तरफ वह उग्र साधना अपनी आध्यात्मिक उन्नति हेतु कर रहा है दूसरी तरफ वह लौकिक संपदा से भी मुक्त रहना चाहता है, क्योंकि यह कहा गया है कि इस संसार में धन या अर्थ वह परम साधन है, जो व्यक्ति को सब कुछ उपलब्ध करा सकता है। पारलौकिक या आध्यात्मिक चिंतन में इस सिद्धांत को महत्त्वहीन ही माना गया है। लेकिन आध्यात्मिक साधना में रत चुल्लशतक संभवतः इस बात को विस्मृत कर बैठा और द्वन्द्व का शिकार हो गया। जब देव उपसर्ग के रूप में उसे यह धमकी देने लगा कि मैं तुम्हारी सारी सम्पत्ति राजमार्गो पर बिखेर दूँगा तुम निर्धन एवं धनहीन हो जाओगे । तुम्हें महादरिद्रता का कष्ट भोगना पड़ेगा। चुल्लशतक यह कष्ट उठाना नहीं चाहता था, फलस्वरूप देव को उसने पकड़ना चाहा और अपने व्रत को खण्डित कर लिया।
अचेतन स्तरीय द्वन्द्व - व्यक्ति के अचेतन द्वन्द्व के निम्नलिखित तीन रूप होते हैं-
(i) इदम् तथा अहम् के द्वन्द्व - इदम् के आवेग अभिन्न रूप से सुखात्मक सिद्धान्त द्वारा संचालित होते रहते हैं, जबकि अहम् का संबंध जीवन की कठोर वास्तविकताओं से रहता है। अतः इदम् के आवेगों तथा अहम् के प्रतिरोधों में टकराव से द्वन्द्व उत्पन्न होना सहज रूप से ही समझा जा सकता है।
वस्तुतः व्यक्ति के अहम् का उद्गम व विकास इदम् के मुक्त आवेगों पर आवश्यक संयम व नियंत्रण स्थापित होने के
आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
पश्चात् ही सम्भव होता है । व्यक्ति का विकसित अहम् इस तथ्य. का द्योतक होता है कि अब इदम् के आनन्दभोगी आवेगों का स्वरूप अधिकांशतः समाजीकृत अथवा सामाजिक मानकों व मूल्यों के अनुरूप संगठित हो गया है। परंतु यदि अहम् विकास में कुछ निर्बलता रहती है, तब इससे यह भी स्पष्ट पता लगता है कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति की इदम् की दमित इच्छाएँ अचेतन रूप से अनेक रूप धारण करके विविध मनोश्चनाओं व लक्षणों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति के मार्गों की सतत् खोज कर रही हैं।
ऐसा माना गया है कि इदम् ही अहम् के रूप में विकसित होता है। अगर सामान्य ढंग से यह परिवर्तन होता रहे तो इसके कारण व्यक्ति के मन में किसी प्रकार का द्वन्द्व नहीं बनता, लेकिन जब मूल्यबोध और नैतिकता की परिधि में आकर विचार करते हैं तो इदम् की कुछ अनुभूतियों को दबाना पड़ता है। वही दबी हुई इदम् की वृत्ति क्रियाशील होकर विविध प्रकार की विकृतियों को जन्म देती है यही द्वन्द्व भी उत्पन्न करती है । द्वन्द्व चलने, बात करने, सोचने आदि सभी क्रियाओं पर प्रभाव डालता है। जैन - चिंतकों ने भी इस तरह के द्वन्द्व के संबंध में विचार किया। उन्होंने भी मनुष्य की विभिन्न क्रियाओं का वर्णन करने का प्रयत्न किया और आचार पक्ष एवं नैतिक मान्यताओं की परिधि में ले आया। जैनग्रंथों में इस पर चिंतन करते हुए कहा गया है कि व्यक्ति किस प्रकार गमन करे, किस प्रकार आसन ग्रहण करे, किस प्रकार शयन करे, कैसे आहार ले, किस प्रकार बोले ताकि अल्प पापकर्मों का बंधन हो । (दशवैकालिक, ४/ ७) यद्यपि जैनों ने पाप कर्मों का अल्प बंधन और क्रियाओं को नैतिकता की परिधि में लाकर इसे आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया है, परंतु इसे इदम् तथा अहम् के संघर्षो का परिणाम मान जा सकता है। यह संघर्ष एक द्वन्द्व को उत्पन्न करता है जिसे मनोवैज्ञानिकों ने इदम् तथा अहम् का द्वन्द्व कहा है।
Conscious चेतन अवचेतन Unconscious
Ego ( अत्यहम)
Ego अहम्
Ego अहम्
बाहरी यथार्थता
Reality or External stimuli
सेन्सर Censor
अहम् का संबंध एक ओर
(ii) अहम् तथा पराहम् के द्वन्द्व इदम् की आनन्द-योग इच्छाओं तथा दूसरी ओर पराहम् के
{ १९ JGnGnG
mimbimbin
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. चतीन्दयग्रिमारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म. धार्मिक व नैतिक मानदण्डों से जुड़ा रहता है। अहम् की इन तरह के अपमान सहने के लिए किया है। मैं प्रात: वापस अपने दोनों विपरीत व विरोधी व्यवहारों में समन्वय तथा तालमेल राज्य लौट जाऊँगा। यह उनके अहम् की चेतना थी। उसी क्षण कभी-कभी इदम् की वासनापूर्ण इच्छाओं को भी दुरुत्साहित उनके मन में विचार आया कि संघ के प्रमुख आचार्य भगवान कर जाता है। इससे पराहम व्यक्ति के अहम् को कचोटने लगता महावीर हैं, संघ से जाने के पहले मुझे उनसे इसकी अनुमति है। इससे ही व्यक्ति में अपराध-भावना, पाप-धारणा व प्रायश्चित लेनी चाहिए। उनके मन में यह भावना पराहम् के कारण जागृत की कटु वेदना होने लगती है। सामान्यत: अहम् अनेक अवसरों हुई। एक तरह कष्टों से ऊबकर उन्हें छोड़ने का भाव दूसरी तरफ पर पराहम् की ऐसी साधारण कटु आलोचनाओं व संघर्षों की प्रमुख से अनुमति लेकर जाना अनुशासन की मर्यादा बनाए स्थिति को सहन भी कर जाता है, तथा ऐसे द्वन्द्व की व्यवहारिक रखने का द्योतक है। इसलिए इसे पराहम् का ही कार्य माना जा जीवन में विशेष रूप से चिंता भी नहीं करता। परंतु ऐसे द्वन्द्वों का सकता है। अत: एक ही समय छोड़ना और पूछकर छोड़ने का स्वरूप उस स्थिति में अति कष्टदायक हो जाता है, जबकि पराहम् जो भाव मेघमुनि के मन में उठता है, उसे अहम् और पराहम् के का रूप अति विकसित हो जाता है। इससे अहम् की सुरक्षात्मक संघर्ष के फलस्वरूप उत्पन्न द्वन्द्व ही कहा जा सकता है। संरचना विघटित होकर टूटने लगती है, तथा व्यक्ति के व्यवहार
(iii) इदम् तथा पराहम् के द्वन्द्व - इदम् के वासनापूर्ण क्षणिक में कभी-कभी अनेक मानसिक व संवेगात्मक विकृति के लक्षण
आवेगों तथा पराहम् के कठोर नैतिक आदशों में संघर्ष सहजरूप भी दिखाई देने लगते हैं।
से ही बोधगम्य है। सामान्यतः व्यक्ति का सुसंगठित अहम् इन वस्तुत: ऐसे संघर्ष अथवा द्वन्द्व पराहम् के ही एक रूप दोनों परस्पर विरोधी आग्रहों में समन्वय व तालमेल बैठाने में अन्तरात्मा की कठोरता द्वारा प्रभावित होते हैं व कभी-कभी सफल रहता है, परंतु फिर भी व्यक्ति के व्यवहारिक व सामाजिक ऐसे गंभीर द्वन्द्व पराहम् के दोषपूर्ण अहम्-आदर्शों द्वारा निर्धारित जीवन में ऐसे द्वन्द्वों का प्रक्रम नित चलता ही रहता है। ऐसे द्वन्द्वों होते हैं। ऐसे ही जब कभी व्यक्ति के अहम्-आदर्शों का रूप से प्रायः तंत्रिका-तापी तथा मनोविकृति की स्थिति तब तक अलौकिक व अव्यवहारिक होता है, तब सामान्यतः ऐसे उच्च उत्पन्न नहीं होती, जब तक व्यक्ति का अहम् इन दोनों परस्पर आदर्शों से व्यक्ति सदैव नीचे व पीछे ही रहता है। इस कारण रूप से विरोधी आग्रहों में संतुलन बनाए रखने में पर्याप्त रूप से व्यक्ति में निरंतर ऐसे अभाव के बने रहने से यह उसके अचेतन शक्तिशाली रहता है। परंतु जब व्यक्ति के अहम् में इनके के द्वन्द्व का मुख्य कारण बन जाता है।
परस्पर विरोधी आग्रहों पर नियंत्रण व समन्वय करने में स्थायी जैन-चिंतन में मेघमुनि का दृष्टान्त अहम् तथा पराहम् के
शिथिलता आ जाती है, तब व्यक्ति में या तो इदम् के आवेग ही संघर्ष के कारण उत्पन्न द्वन्द्व का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करता है।
या फिर पराहम् के आदेश ही व्यक्तित्व का केन्द्रीय संचालक सम्राट मेघकमार ने अपने समस्त वैभवों का परित्याग करके बन जाता है। उस स्थिति में व्यक्ति या तो इदम् के प्रभाव के भगवान महावीर के सानिध्य में मुनिधर्म को अंगीकार किया।
कारण भोग-इच्छाओं में ही लिप्त हो जाता है, या फिर पराहम् के रात्रि-विश्राम के समय श्रमण-परंपरा में ज्येष्ठानुक्रम में मुनियों
कठोर आदर्शों के आग्रहों के कारण अति धार्मिक व व्यवहारिक के लिए छोटे-बड़े क्रम से संस्तारक बिछाने का विधान है।
बन जाता है। सांसारिक तथा व्यवहारिक जीवन में ऐसी दोनों मेघमनि उस समय सबसे कनिष्ठ थे। उन्हें बिस्तर विश्राम-स्थल कठोर प्रवृत्तियाँ प्रायः कुसमायोजन की ही ओर उम्मुख रहती हैं। के द्वार के पास मिल पाया। द्वार के पास मनियों का आने-जाने प्रायः द्वन्द्वों का ऐसा स्वरूप व्यक्तित्व के लिए विघटनकारी का क्रम लगा रहा । इसी अनुत्क्रम में उनके शरीर पर दूसरे
तथा क्षतिजनक ही होता है। सामान्य व्यक्ति में भी कुछ अचेतन मुनियों के पाँव का आघात भी लगा। इस कारण उन्हें नींद नहीं
द्वन्द्व रहते हैं, परंतु उनके रूप प्रायः कभी भी अहम् के सुरक्षात्मक आई। वे प्रतापी सम्राट थे। एशोआराम में पले थे इस तरह के संगठन का उल्लंघन नहीं करने पाते हैं। कष्ट को सहन नहीं कर पाए। इन सबके कारण उनके अहम् को जैनमत में इस द्वन्द्व को रथनेमि और राजीमति के उदाहरण ठेस लगी। वे सोचने लगे मैंने अपने वैभव का त्याग क्या इस द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। जहाँ राजमति १६वें तीर्थंकर sardarodisardarodariwarobarsaridroid २०diridrinidadrdasardaariusdaidasranslation
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- यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक संदर्भ में जैनधर्म - अरिष्टनेमि की होने वाली पत्नी थी, वहीं रथनेमि अरिष्टनेमि के
वर्गीकरण भाई थे। अरिष्टनेमि के वैराग्य लेने के बाद राजीमति भी दीक्षित (Lewin 1935 Ruch 1967 पर आधारित) होकर रैवतक पर्वत पर आरूढ़ अरिष्टनेमि की वंदना करने जा
द्वन्द्व की प्रवणता (Gradients of Conflict)--अधिकांश रही थी। उसी पर्वत की एक गुफा में रथनेमि भी त्यागमय
द्वन्द्वों की उत्पत्ति ऐसे लक्ष्यों से होती है, जिनमें आकर्षण और जीवन को अपनाकर तपाराधना में लीन था। वर्षा के कारण
विकर्षण दोनों पाए जाते हैं। जैसे किसी छात्र को मक्खन खाने राजीमति को उसी गुफा में शरण लेनी पड़ी। परंतु इस बीच वह
का शौक है, परंतु मोटापे का भी भय है, किसी छात्र को पर्वतारोहण वर्षा से पूरी तरह भीग गई थी। उसने अपने गीले वस्त्रों को
में रुचि है, परंतु दुर्घटना से डरता है या कोई बच्चा बत्तख को सुखाने के लिए उसे जमीन पर फैला दिया। इसी बीच साधनारत
पकड़ने के लिए अग्रसर होना चाहता है, परंतु उसकी आवाज से रथनेमि की दृष्टि राजीमति के वस्त्रहीन देह पर पड़ी। वह वासना
डरता भी है। इन सभी परिस्थितियों में आकर्षणात्मक विकर्षण के आवेग से भर गया और राजीमति की शरीर को पाने के लिए
दोनों है। इन परिस्थितियाँ को उभय कर्षणात्मक (Ambivalent) उससे अनुनय विनय करने लगा। राजीमति ने उसे ऐसा करने से
परिस्थितियां कहते हैं। लक्ष्य-वस्तुओं से व्यक्ति की समझ से रोका और उपदेश देकर उसे उसके लक्ष्य का ज्ञान कराया।
आकर्षण एवं विकर्षण की मात्रा जितनी होगी, उसी के अनुरूप राजीमति के उपदेश से वह वासनात्मक आवेग से मुक्त हुआ
व्यक्ति के व्यवहार में लक्ष्यों के प्रति उपागम या परिहार की और अपने त्यागमय जीवन पर दृढ हो गया। यहाँ रथनेमि द्वारा
तीव्रता भी होगी। उसे द्वन्द्व की प्रवणता या तीव्रता कहते हैं राजीमति के शरीर को पाने की चाहत इदम् की आनंदात्मक
(Brown, १९४८) हिलगार्ड (१९७५) इत्यादि ने इस प्रसंग में अनुभूति को प्रकट करती है, दूसरी तरफ राजीमति के उपदेश
निम्नलिखित निष्कर्ष प्रस्तुत किया है-- द्वारा विवेक का जागरण पराहम् की भावना पर प्रकाश डालता है। रथनेमि के मन में उस समय जो द्वन्द्व उत्पन्न हआ उसे इदम (i) यदि प्रयोज्य विधेयात्मक लक्ष्य (+ve) के समीप है तो उसे तथा पराहम के संघर्ष का परिणाम ही कहा जा सकता है जहां प्राप्त करने का प्रयास तीव्र हो जाएगा। अहम् इन विरोधी भावों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। (ii) निषेधात्मक उद्दीपक (-ve) प्रयोज्य के जितना ही समीप
होगा, वह उससे उतना ही दूर होना चाहेगा। (A)
(iii) सामान्यतया विधेयात्मक उद्दीपक (+ve) की तुलना में निषेधात्मक उद्दीपक (-ve) से दूर होने की प्रवृत्ति अधिक प्रबल होती है। जैनमत में द्वन्द्वप्रवणता-द्वन्द्वप्रवणता की अवधारणा जैन मत में निम्न रूपों में देखी जा सकती है--
लक्ष्य
(i) प्रयोज्य विधेयात्मक लक्ष्य के समीप रहने पर उसे प्राप्त करने का अधिक प्रयत्न करता है। यही प्रवणता चुल्लशतक में पाई जाती है। जब देव उसकी धन-सम्पत्ति को अपहरण करने की धमकी देता है तब वह (चुल्लशतक) उस देव को पकड़कर इस कार्य को होने ही नहीं देना चाहता है। यहाँ चुल्लशतक के समक्ष देव के रूप में लक्ष्य समीप था। उसने सोचा कि अगर मैं इसे पकड़ लेता हं तो मेरे धन का अपहरण नहीं हो पाएगा क्योंकि इसे लेने वाला देव मेरी गिरफ्त में आ
जाएगा। aniramidrorarianoonironironionbondonoonistant२१Hdniroinororaniranoranidroritiiranikariramirrowrir
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-- यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म -
तिना अधिक समीप रक्षा-युक्तियों के महत्त्वपूर्ण कार्य-- होता है, वह उससे उतना ही अधिक दूर रहना चाहता है। यहाँ
सामान्य व्यक्ति के जीवन में समायोजन की दृष्टि से रक्षा मकरंद-पुत्र जिनपालित को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। उसके समक्ष मृत्यु के भय के रूप में निषेधात्मक
" युक्तियों का विशेष योगदान माना जाता है। इस संबंध में इसके
त्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं-- लक्ष्य था- पीछे मुड़कर नहीं देखना। उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपने प्राणों की रक्षा की। जबकि वह नित्य भोग (१) रक्षायुक्तियों से व्यक्ति की समायोजन संबंधी आवश्यकता विलासों में रत्नदेवी के साथ लिप्त रहा था, लेकिन यह भोग की सरलता पूर्वक संतुष्टि होती है। विलास भी अंततः उसकी मृत्यु का कारण बनता। इसलिए वह (२) इनसे व्यक्ति में कंठाजनित तनाव, निराशा व असफलता इनसे बचना चाहा तथा रत्नदेवी के लाख प्रलोभनों का भी उस
की प्रबलता तथा कटुता में विशेष रूप से कमी आती पर प्रभाव नहीं पड़ा। क्योंकि उसके समक्ष मृत्यु के रूप में अत्यंत बलशाली निषेधात्मक लक्ष्य था, जिससे उसे बचना था।
(३) इनसे व्यक्ति के विघटन की प्रक्रिया की कारगर रूप से (iii) मल्लिनाथ के उदाहरण में तृतीय निष्कर्ष को समझाया
रोकथाम होती है। जा सकता है। स्वर्णमूर्ति के अंदर सड़े हुए अन्न की दुर्गंध एवं
(४) इनसे व्यक्ति में दुश्चिन्ता की मात्रा कम होती है। बिना दुर्गंध के स्वर्णमूर्ति का छहों राजाओं द्वारा जो अवलोकन किया गया, वह वस्तुतः विधेयात्मक उद्दीपक की तलना में (५) इनसे एक प्रकार से व्यक्ति के आत्म सम्मान की रक्षा निषेधात्मक उद्दीपक से दूर होने की मनुष्य की प्रवृत्ति का
होती है, तथा साथ ही साथ व्यक्ति के अहम की संरचना सूचक है। प्रायः दुर्गंध से मनुष्य दूर भागता है, जबकि मनोरम
की भी पर्याप्त सुरक्षा रहती है। एवं आकर्षक वस्तुएँ मनुष्य को लुभाती है और वह इनके पास (६) इनसे व्यक्ति में द्वन्द्वों के प्रति सहनशीलता की शक्ति में आना चाहता है।
वृद्धि होती है, क्योंकि रक्षा-युक्तियाँ, व्यक्ति तथा उसके द्वन्द्व के निवारण - व्यक्ति को जीवन में अनेक प्रबल कुण्ठाओं,
द्वन्द्वों के मध्य में बफर का काम करती है तथा इस प्रकार द्वन्द्वों तथा विभिन्न प्रतिबल स्थितियों का मुख्य रूप से सामना
व्यक्ति को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचने पाती है। करना पड़ता है, तथा इनके प्रति यथासंभव समायोजन खोजने (७) इनकी समायोजी प्रक्रिया अप्रत्यक्षतः तथा अचेतन रूप का भी प्रयास करना पड़ता है। व्यक्ति अपने तर्क व विवेक के से निर्धारित होती है, अतः व्यक्ति के लिए ऐसी क्रियाएँ आधार पर अपने द्वन्द्वों से उत्पन्न निराशाओं, विफलताओं व
एक प्रकार के प्रयास रहित रूप से स्वतः ही सम्पन्न होती हीनताओं के दुष्प्रभाव को कम करने का चेतन रूप से भरसक
रहती हैं। प्रयास करता है, परंतु जब व्यक्ति इस प्रक्रम में असफल हो जाता है, तब व्यक्ति का अचेतन अति कुशलता के साथ उसके .
(८) इनसे व्यक्तित्व की एकता व्यावहारिकता अखंडित अथवा द्वन्द्वों के तनावों के दुष्प्रभावों तथा कटु अनुभवों का निवारण
समाकलित रहती है, तथा इनके कारण व्यक्तित्व की प्रायः विभिन्न मानसिक रचनाओं के माध्यम से सम्पन्न करता है।
स्थाई संरचना के विघटित होने की आशंका प्रायः नहीं इन मानसिक रचनाओं का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति में द्वन्द्वों से उत्पन्न
रहती। आंतरिक संवेगात्मक तनावों के प्रति विभिन्न युक्तियों के द्वारा (९) इनसे व्यक्ति के आत्म-सम्प्रत्यय पर भी प्रायः प्रतिकूल व्यक्ति के आत्म-सम्मान तथा उसके अहम् की रक्षा करना प्रभाव नहीं पड़ने पाता। होता है। इसी कारण मनोरचनाओं को रक्षायुक्तियों की संज्ञा दी
१०) इनके प्रभाव के कारण अधिकांशतः व्यक्तित्व के जाती है। वस्तुतः व्यक्ति के समायोजन-प्रक्रम तथा उसके व्यक्तित्व के विकास में रक्षा-युक्तियों की अति महत्त्वपूर्ण तथा
समायोजन तथा विकास की प्रक्रिया विशेष सीमाओं के
अंतर्गत सहज रूप से ही सम्पन्न होती रहती है। प्रभावी भूमिका रहती है।
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- यतीन्दमनिमारक गन्य आधतिक गर्भ में जैन धर्मरक्षायुक्तियों के उपयोग की परिसीमाएँ--
मानसिक विरचनाओं के कारण व्यक्ति समस्या की इनके दो कारण हैं
वास्तविकता को नजरअंदाज करने लगता है। ऐसा करने से (१) प्रथम यह कि रक्षा-युक्तियों का स्वरूप अधिकांशतः
उसका मानसिक दबाव कम हो जाता है। उदाहरणार्थ एक छोटे
से बच्चे की माँ जो किसी खतरनाक रोग से पीड़ित है, यह अचेतन रूप से ही निर्धारित होता है। अतः स्वयं व्यक्ति
दिखावा कर सकती है कि वह पीड़ित नहीं है, क्योंकि वास्तविकता को भी यह ज्ञात नहीं होने पाता कि वह इसके माध्यम से
को दिल से स्वीकार कर लेने पर अत्यधिक मानसिक कष्ट अपने किस द्वन्द्व व विफलता को छिपाने अथवा इनके उपयोग से वह अपने किस वेदनापूर्ण अनुभव के प्रभाव
होगा। अत: वह वास्तविकता को नजरअंदाज करके प्रसन्नचित
रहने का प्रयास कर सकती है। दैनिक जीवन में भी.देखने में आता को कम कर रहा है।
है कि व्यक्ति अपने प्रति की गई आलोचनाओं को नजरअंदाज (२) दूसरे यह कि जब व्यक्ति रक्षा-युक्तियों का उपयोग चेतन · करता रहता है, क्योंकि उन पर ध्यान केन्द्रित करते रहने से व्यक्ति
स्तर पर विस्तृत रूप से करने लगता है, तब स्वाभाविकतः उलझनों से ग्रस्त हो सकता है। फ्रायड ने कहा है कि व्यक्ति इससे व्यक्ति के व्यवहार में अधिक कृत्रिमता आ जाती असुखद अनुभवों का दमन कर देता है या उसे स्मृति से निकाल देने है, तथा व्यक्ति स्वयं अपने मिथ्या व्यवहार से आंतरिक का प्रयास भी कर सकता है, ताकि उसका समायोजन बना रहे। रूप से आत्म-अवमूल्यन व कुछ स्थितियों में आत्म
मानसिक विरचना अनेक प्रकार की हो सकती है, परंतु छल का अनुभव भी करने लगता है। इस प्रकार व्यक्ति
अभी तक यह निश्चित नहीं हो पाया है कि किन्हें मुख्य और के चेतन रूप से रक्षा-युक्ति के उपयोग के प्रयास से
किन्हें गौण माना जाए। सामान्यतः व्यक्ति में निम्नलिखित समायोजन के स्थान पर उल्टे उससे कुसमायोजन ही
मनोरचनाएँ अथवा रक्षा-युक्तियाँ क्रियाशील रहती हैं जो निम्न उत्पन्न होता है।
हैं, जिनके द्वारा द्वन्द्व का समाधान हो सकता है। संक्षेप में, रक्षा युक्तियों का समायोजी मूल्य व महत्त्व
१.दमन Repression -दमन से तात्पर्य चेतना में से किसी ऐसी कुछ विशेष परिसीमाओं के अंतर्गत ही रहता है, इन सीमाओं के
इच्छा, विचार या अनुभव को निकाल देना है जो दुःखद या उल्लंघन होने पर व्यक्ति के व्यवहार में असामान्य व्यवहार के ।
कष्टकर है। कोलमैन (१९७४) के कथनों के अनुसार किसी लक्षण निश्चित रूप से दिखाई देने लगते हैं।
खतरनाक इच्छा या असहनीय स्मृति को चेतना से हटा देना ही द्वन्द्वों की समस्याओं से बचने के विभिन्न रूप-- दमन है। इसी कारण दमन को प्रेरित विस्मरण (Motivated
forgetting) भी कहा जाता है। सामान्यतया समायोजन के लिए समायोजन की समस्याओं से बचने के लिए व्यक्ति प्रत्यक्ष
ऐसा करना लाभकारी होता है, परंतु सदैव ऐसा करना हानिकारक उपायों के अतिरिक्त मानसिक विरचनाओं का भी सहारा ले
भी हो सकता है। फ्रायड के कहने के मुताबिक दमित इच्छाएँ सकता है। इस अवधारणा का उपयोग फ्रायड ने उन अचेतन
अचेतन मन में पड़ी रहती हैं और अनुकूल अवसर मिलने पर प्रक्रमों के लिए किया है जिनके द्वारा व्यक्ति चिंता आदि से
चेतना में आने का प्रयास करती हैं। इनका प्रदर्शन स्वप्नों में बंचने का प्रयास करता है। फ्रायड का विश्वास था कि अचेतन ।
प्रायः होता है। प्रक्रम संकट की वास्तविकता को न्यून कर देता है। और इनके परिणामस्वरूप समस्याओं के प्रति व्यक्ति की धारणा में अंतर दमन की मनोरचना का यहाँ अन्य समरूप मानसिक आ जाता है। परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि संकट वास्तव में संरचनाओं से अंतर स्पष्ट करना अति आवश्यक है। ये संरचनाएँ घट जाता है बल्कि व्यक्ति को उसके बारे में विभ्रम होने लगता निम्नांकित हैं--(i) निरोध तथा (ii) अवदमन। है और समस्या की तीव्रता इस प्रकार मानसिक स्तर पर घट (i) निरोध--इसके अंतर्गत व्यक्ति सोच-विचार के आधार पर जाती है।
एक विशेष क्रिया अथवा इच्छित अभिव्यक्ति से अपने आपको
दूर रखता है। ordedridrordidroidiariramidnididrodairidल २३drinidirodriwaridriomaritriaritariandodkar
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म(ii) अवदमन--इसके अंतर्गत वह अपनी अनैतिक इच्छापूर्ति द्वन्द्व-निवारण में दमन के ही अंतर्गत निरोध की भी प्रक्रिया का चेतन स्तर पर विरोध करता है और उसे जान बूझकर अपनाई जाती है। जैनों ने इस हेतु संवर का प्रयोग किया है। संवर अचेतन में धकेल देता है।
कर्माश्रय को करने की एक प्रक्रिया है। निरोध में द्वन्द्व उत्पन्न शैशवकालीन अवस्था में दमन-दमन का प्रक्रम मनुष्य ।
करने वाली इच्छाओं पर रोक लगाई जाती है। जबकि संवर की में उसके शैशवकालीन जीवन से ही प्रारंभ हो जाता है। दमन के
प्रक्रिया में आत्मा की ओर आने वाले उन कर्म पुद्गलों को जो प्रक्रम के अंतर्गत ही शिशु अपनी अनेक शैशवकालीन घृणाओं,
उन्हें विकृत कर सकते हैं, रोका जा सकता है। (तत्त्वार्थसूत्र, ९/ द्वन्द्रों व संघर्षों को ऐसे दमन के कारण भल जाता है तथा इससे १) यद्यपि यह एक आध्यात्मिक क्रिया है. लेकिन जैनों ने उसके आने वाले जीवन में समायोजन तथा विकास का मार्ग
मानसिक, कायिक तथा वाचिक इन तीनों ही क्रियाओं को
मा प्रशस्त होता है। जिन शिशुओं में अहम् का संगठन अधिक ।
कर्मबंधन का कारण माना है,(तत्त्वार्थ सूत्र ६/१,२) जबकि प्रशस्त हो जाता है, उनके अचेतन दमन का प्रक्रम भी तदनुसार ।
मनोवैज्ञानिकों ने मुख्य रूप से द्वन्द्व के लिए मानसिक विचारों अधिक प्रबल ही ही रहता है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति में
को ही मुख्य स्थान दिया है। जैनों के अनुसार मानसिक विचार दमित असामाजिक व अनैतिक इच्छाएँ भी व्यक्ति के चेतन
भी कर्म की कोटि में आते हैं जो जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप स्तर पर नहीं आ पाती है। परंतु यदि व्यक्ति के अहम् का संगठन
को विकृत करते हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार द्वन्द्व भी व्यक्ति किसी कारण निर्बल रहता है, तब इससे ऐसी अनेक दमित
की सामान्य प्रकृति को असामान्य बनाने की क्षमता रखता है, इच्छाएँ व इदम् की वासनाएँ व्यक्ति के अहम् की सुरक्षा,
इसीलिए वे द्वन्द्व निवारण की बात करते हैं। संरचना के अवरोध को लाँघकर या फिर कुछ थोड़ा अपना रूप २. प्रक्षेपण(Projection) - यह एक ऐसी रक्षायुक्ति होती है, ही बदलकर चेतन स्तर अपनी अभिव्यक्ति का मार्ग विभिन्न जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी कमजोरियों एवं दोषों को लक्षणों के रूप में खोजने लगती हैं। इस प्रकार की स्थिति प्रायः दूसरे पर आरोपित करता है, या दूसरों को माध्यम बनाता है। इस तंत्रिकातापी तथा मनोविकृति व्यक्ति में ही देखने को मिलती प्रक्रम के कारण व्यक्ति अपनी असफलता के लिए स्वयं को है। अत: विभिन्न व्यक्तियों में अपने-अपने अहम् की संरचना के उत्तरदाययी न मानकर दूसरों को जिम्मेदार ठहराता है (Page आधार पर दमन की मात्राएँ भी भिन्न-भिन्न होती है। मानसिक दृष्टि १९६२)। फ्रायड ने प्रक्षेपण को एक अचेतन प्रक्रिया बताया से स्वस्थ व्यक्तियों में इसकी मात्रा प्राय: अधिक ही रहती है। जबकि मार्क्स (१९७६) ने प्रक्षेपण को वास्तविकता को अस्वीकार द्वन्द्व-निवारण हेतु जैन-परंपरा में मनोवैज्ञानिक प्रविधियों
करने का एक विशेष रूप कहा है। सीयर्स (१९३७) के भी को दार्शनिक रूप से प्रस्तत किया गया है। मनोवैज्ञानिकों ने अनुसार इस विरचना का प्रकार्य अपने दोषों को दूसरे पर आरोपित जिस प्रकार दमन (Repression) की प्रक्रिया के आधार पर
करना है। जैसे, परीक्षा में असफल होने पर छात्र अपने अध्यापकों अवांछित इच्छाओं को चेतन स्तर से हटाकर अचेतन में दबाने
र या परीक्षकों को दोषी ठहराता है। की विधि को स्वीकार किया है, ठीक उसी तरह जीव के फ्रायड के कथानुसार प्रक्षेपण वह प्रक्रम है, जिसमें इद विविध भावों को व्यक्त करते हुए जैनों ने औपशमिक भाव (Id) की इच्छापूर्ति में असफल होने पर अहम् (Ego) बाहरी पर प्रकाश डाला है(तत्त्वार्थसूत्र, २/१)। औपशमिक भाव कारणों को उत्तरदायी मानता है। क्योंकि यदि स्वयं को उत्तरद उपशम से पैदा होता है। उपशम की इस क्रिया में जीव कर्मों मान लिया जाए तो मानसिक तनाव अधिक उत्पन्न होगा। अन्य से उसी प्रकार शुद्ध हो जाता है. जैसे गंदा जल गंदगी के नीचे मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि प्रक्षेपण विरचना के परिणामस्वरूप बैठ जाने से शुद्ध हो जाता है यद्यपि मात्र कर्म को ही जीव के व्यक्ति वास्तविकता से भागना चाहता है. इसी कारण वह भावों का जनक नहीं कहा जा सकता फिर भी इसे जीव को अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है विकत करने वाला एक सर्वप्रमुख कारण अवश्य कहा जा (Kleinmuntz १९९६)। सकता है।
३. प्रतिक्रिया संरचना-प्रतिक्रिया संरचना वह मानसिक विरचना
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---यतीन्द्रसूरि मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्महै जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति किसी तीव्र प्रेरक या इच्छा दिखावटी तर्क प्रस्तुत करता है, बल्कि अपने वर्तमान निष्फल को छिपाने के प्रयास में उसके विपरीत व्यवहार करता है (हिल प्रयासों को भी न्यायोचित ठहराने का प्रयास करता है। उदाहरणार्थ गार्ड आदि १९७५)।
जब एक विद्यार्थी परीक्षा में फेल हो जाता है, तब प्रायः यही मनोविश्लेषणवादी विचारधारा के अनुसार, एक व्यक्ति
कहते सुना जाता है कि पेपर बहुत कठिन थे, उत्तर पुस्तिका के के व्यवहार में कभी-कभी ऐसा देखने में आता है कि वह
जाँचने में जरूर कुछ गड़बड़ी हुई है, परीक्षाकाल में उसकी वस्तुतः कोई एक विशेष व्यवहार करना चाहता है, परंतु वह
तबीयत खराब थी और इन्हीं कारणों से वह परीक्षा में सफल वैसा न करके ठीक उसके विपरीत ही व्यवहार करते देखा जाता
नहीं हो सका, परंतु वह यह कभी स्वीकार नहीं करता कि मैंने है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति किसी एक व्यक्ति अथवा विषय के
परीक्षा में सफल होने के लिए आवश्यक परिश्रम नहीं किया। प्रति घृणा के स्थान पर प्रेम करने लगता है और प्रेम के स्थान
क्योंकि ऐसा कहने व मानने से उसके अहम् को गहरी चोट पर घृणा करने लगता है। वस्तुतः यहाँ व्यक्ति की ऐसी विपरीत
लगती है व उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी कम होती है तथा इस प्रतिक्रिया से ही उसका अहम् व समायोजन सुरक्षित रहता है।
आत्मस्वीकृति से उसकी अयोग्यता प्रत्यक्षतः सिद्ध होती है। जैसे जब एक कर्मचारी पर उसके बॉस (Boss) की नित अकारण
स्पष्टत: व्यक्ति इस कठोर व कटु स्थिति को कभी भी स्वीकार ही डाँट-फटकार पड़ती रहती है, तब ऐसी स्थिति में संबंधित
नहीं कर सकता। इस कारण वह अपने अहम् की रक्षा व सामाजिक अधीनस्थ कर्मचारी की स्वाभाविक प्रतिक्रिया अपने बॉस को
प्रतिष्ठा को बचाने के लिए अपने निष्फल प्रयासों पर पर्दा डालने उल्टी कड़ी डाँट-फटकार लगाने की भी होती है. परंत ऐसे का प्रयास करता है व लज्जा की वेदना से बचना चाहता है। व्यवहार के परिणाम को देखकर प्रायः वह ऐसा न करके ठीक युक्तीकरण के मुख्यतः दो रूप होते हैं-- इसके विपरीत बॉस के प्रति विनम्रता का ही व्यवहार करते देखा
(i) प्रथम, जिसके अंतर्गत व्यक्ति अपनी पसंद व नापसंद जाता है और निरंतर स्थिति को संभालते हुए अपने वास्तविक के अधिकार पर अपने व्यवहार का यक्तीकरण करता है, जैसे आवेगों व संवेगों को नियंत्रित व दमित कर लेता है। इस प्रकार
जब एक विश्वविद्यालय के प्रॉफसर से यह पछा जाता है कि वे
जब प्रतिक्रिया संरचना एक ऐसी रक्षायक्ति होती है, जिसके अंतर्गत
अपनी योग्यता के आधार पर एक I.A.S. आफिसर क्यों नहीं व्यक्ति अपने कष्टकर, संकट-सूचक व क्षति-जनक आवेगों व बने। इस प्रश्र के उत्तर में प्रोफेसर महोदय यह कहते हैं कि उन्हें भावनाओं को अचेतन में धकेल देता है और उनके स्थान पर आफिसर बनना पसंद ही नहीं था. तब उनका ऐसा यक्तीकरण उनके विपरीत भाव व व्यवहार को प्रदर्शित करने लगता है। इस
अपनी पसंद व नापसंद के आधार पर कहा जाता है। प्रकार यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रतिक्रिया संरचना की रक्षायुक्ति का व्यक्तित्व के समायोजन में एक विशेष सीमा तक
(ii) द्वितीय प्रकार के युक्तीकरण के अंतर्गत व्यक्ति अपनी
विफलता के लिए बाह्य परिस्थितियों की कठोरता व क्रूरता को महत्त्वपूर्ण योगदान है।
दोषी ठहराता है। ४. युक्तीकरण (Rationalization) - जब व्यक्ति अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के प्रयास में वास्तविक कारण
इन दो मुख्य रूपों के अतिरिक्त, व्यक्ति की प्रतिक्रिया के के स्थान पर अवास्तविक कारणों के आधार किसी बात का आधार पर भी युक्तीकरण के दो और अन्य रूप होते हैं-- औचित्य सिद्ध करता है तो उस प्रक्रम को युक्तीकरण कहते हैं (i) अंगूर खट्टे हैं-इसके अनुसार जब एक व्यक्ति को मनपसंद कोलमैन, (१९७४) ने भी लिखा है कि इस विरचना में व्यक्ति लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, तब वह उसमें अनेक दोष निकालकर अपने द्वारा किए जाने वाले कार्यों को (तों) के आधार पर अपने अहम् की रक्षा करता है। इस संबंध में लोमड़ी व मीठे उचित ठहराने का प्रयास करता है।
अंगलों की कहानी अति लोकप्रिय है। जंगल में एक ऊँचे स्थान युक्तीकरण की रक्षा-युक्ति से व्यक्ति न केवल अपने पर एक लोमड़ी सुन्दर, पके व मीठे अंगूरों के गुच्छे लटकते अतीत के अल्प व विफल प्रयासों के संबंध में ही बनावटी व
देखती है, लोमड़ी का मन अंगूरों को पाने के लिए अति लालयित
వారుగారుంగారుంగారుంగారురురురతide oornananడుసారంగారసాగరంలో
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्महो उठता है और उसके लिए वह अंगूरों के गुच्छों को ऊपर की ही मिल पाता है और व्यक्ति का दृष्टिकोण अवास्तविक हो ओर कद-कदकर पकड़ने का प्रयास करने लगती है. परंत जाता है। अत: व्यक्ति को चाहिए कि वह सदैव वास्तविकता को बार-बार प्रयास करने पर भी जब वह अंगूर के गुच्छे तक नहीं महत्त्व दे और आवश्यकतानुसार अपने व्यवहार में सुधार करे। पहुँच पाती. तब वह अति निराश होकर वहाँ से चल देती है। ह.बौद्धिककरण(Intellectualization)-मानसिक विरचना इसी बीच जब वहाँ पेड़ पर बैठा कौआ, लोमड़ी से पूछता है कि का यह वह प्रक्रम है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति दुःखद, उसने अंगूरों को क्यों छोड़ दिया तब लोमड़ी का यह कहना है
भयपूर्ण या कष्टकर परिस्थितियों के प्रति विमुखता या तटस्थता कि अंगूर खट्टे थे, इस लिए उनका पाना तथा खाना पसंद नहीं ।
की भावना विकसित करता है, ताकि उसका व्यवहार या कार्य किया। यहाँ लोमड़ी द्वारा प्रस्तुत यह तर्क स्पष्टतः कितना ऊपरी
संबंधित संवेगात्मक दशाओं से प्रभावित न हो सके। डाक्टरों में तथा छिछला है, इसको सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। इसी इस विरचना को देखा जा सकता है। वे चीडफाड करते समय कहानी के संदर्भ में जब व्यक्ति अपने मन-पसंद लक्ष्य के
रोगियों को कष्ट में देखकर भी कष्ट का चेतन अनुभव नहीं करते
गाने प्राप्त न होने पर अपने अनेक तर्क प्रस्तुत करते देखा जा सकता
सकता हैं उनके लिए ऐसा करना भी आवश्यक है, क्योंकि यदि वे भी
सोनिया है, तब ऐसे युक्तीकरण को अंगूर खट्टे हैं, की संज्ञा दी जाती है। भावक हो जाएँ तो शल्यक्रिया में बाधा पड़ सकती है (Mahi (ii) नीबू मीठा होता है-वास्तव में, नीबू खट्टा होता है, परंतु 1971, Coleman 1975)। व्यक्ति के पास इसके अतिरिक्त जब कोई अन्य विकल्प नहीं बौद्धिककरण की रक्षायक्ति का एक दसरा रूप उस स्थिति होता, तब वह विवश होकर खट्टे नीबू को ही मीठा कहने लगता में भी देखने में आता है जब व्यक्ति दो विरोधी तथा असंगत है। ऐसे ही जब निर्धन व्यक्ति अपनी सूखी रोटी में ही असली मल्यों का बौद्धिक स्तर पर यक्तीकरण प्रस्तत करते देखा जाता स्वाद की बातें करता है, और अपनी झोंपड़ी में सुख और शांति
_है। ऐसी रक्षायुक्ति प्राय: उस स्थिति में भी देखने में आती है,
के का अधिक गुण गान करते देखा जाता है, तथा सारे जीवन को जबकि एक व्यापारी भ्रष्ट ढंग से धन कमाकर उसमें से कछ ही उच्च श्रेणी का सिद्ध करते देखा जाता है, तब उसके ऐसे अंश मंदिर के निर्माण के लिए दान कर देता है। ऐसी रक्षायुक्ति यक्तीकरण का स्वरूप नीबू मीठा होता है, के युक्तीकरण के से व्यक्ति भ्रष्ट ढंग से धन कमाने के लिए अपनी अंतरात्मा की समरूप ही होता है।
धिक्कार से बचने का कुशल प्रयास करते देखा जाता है, तथा इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि युक्तीकरण की रक्षायुक्ति . इससे अपने अहम् की सुरक्षा करते देखा जाता है। का व्यक्ति के जीवन में समायोजन के प्रक्रम में महत्त्वपूर्ण ७. अतिपति- यदि कोई व्यक्ति किसी लक्ष्य को प्राप्त करने में योगदान रहता है। इससे व्यक्ति जीवन की अनेक कठोरताओं
असफल हो जाता है तो उसमें हीन भावना विकसित हो जाती है व कटुताओं को सहनशील बना लेता है व व्यर्थ की अन्तर्द्वन्द्व से
और उसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए किसी अन्य लक्ष्य को प्राप्त मक्त होने का प्रयास करता है और अन्ततोगत्वा अपने अहम् व करके संतष्टि चाहता है। रच. १९६९ के मतानसार, क्षतिपर्ति एक सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने में सफल रहता है।
ऐसा प्रयास है, जिसमें किसी कमी या अवांछित विशेषता को ५. विस्थापन( Displacement) - विस्थापन वह मानसिक छिपाकर वांछित गुणों के विकास पर बल दिया जाता है। विरचना है जिसके द्वारा व्यक्ति को द्वन्द्व को नियंत्रित या कम उदाहरणार्थ, शारीरिक सौंदर्य में कमी होने पर व्यक्ति एक अच्छा करने में सहायता मिलती है तथा इसके साथ-साथ प्रेरक या वार्ताकार बनकर सामाजिक प्रशंसा अर्जित कर सकता है परंतु इच्छा की किसी न किसी रूप में पूर्ति भी होती है। हिलगार्ड असुरक्षा एवं हीनता की भावना अत्यधिक हो जाने पर व्यक्ति (१९७५) के कहने के अनुसार विस्थापन की दशा में चिंता, क्षतिपूर्ति में असफल हो जाता है। द्वन्द्व तथा अन्य तनावपरक दशाओं में संतुलन स्थापित करने में
८. तदात्मीकरण (Identification) - फ्रायड, १९४४ ने सहायता मिलती है। इस प्रसंग में यह भी ध्यान देने की बात है
समायोजन स्थापित करने में तदात्मीकरण का विशेष महत्त्व
पितो नटातील कि मानसिक विरचनाओं से समस्याओं का अस्थाई समाधान बतलाया है। इस मानसिक विरचना के आधार पर व्यक्ति किसी boorboorboorboorborionidrowonawaniroinod- २६ admiriwaririwordboardroidward-id-d-d-dowdede
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ- आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
आदर्श की विशेषताओं के अनुरूप अपने अंदर विशेषताएँ विकसित करने का प्रयास करता है, जैसे बच्चे अपने मातापिता या अन्य सदस्यों के व्यवहारों की नकल करके उनके जैसा व्यवहार करने का प्रयास करते हैं। आजकल युवक एवं युवतियाँ फिल्मी कलाकारों के हावभावों की नकल करते देखे जा रहे हैं। इसी प्रकार विभिन्न दलों के कार्यकर्ता अपने दलों के अध्यक्षों जैसा व्यवहार करते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि तदात्मीकरण अपनी कमजोरी छिपाने का एक तरह का प्रयास कभी-कभी व्यक्ति संभावित कष्ट से बचने के लिए उस व्यक्ति के अनुसार कार्य करने लगता है जो उसे कष्ट पहुँचाने में सक्षम है Bettetheim 1943। यहाँ तदात्मीकरण का रूप एक प्रकार से अनुकरण का ही होता है। अतः यहाँ अनुकरण तथा तदात्मीकरण के अंतर को स्पष्ट करना भी आवश्यक है।
अनुकरण तथा तदात्मीकरण में अंतर
अनुकरण का रूप प्रायः स्थूल व भौतिक होता है, जैसे जब एक बालक अन्य बालकों को ताली बजाते देखकर स्वयं भी ताली बजाने लगता है, तब व्यवहार का ऐसा रूप अनुकरण कहलाता है, परंतु जब बालक या व्यक्ति अपना व्यवहार किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के व्यवहार के अनुकूल उस जैसी प्रतिष्ठा, प्रभाव व सम्मान पाने के लिए करता है, तब उसके व्यवहार में तदात्मीकरण की मनोरचना देखने में आती है। दूसरे, अनुकरण की प्रक्रिया में उद्दीपक विषय-वस्तु या घटना का होना एक प्रकार से आवश्यक होता है, जबकि तदात्मीकरण के लिए व्यक्ति के सम्मुख संबंधित व्यक्ति की उपस्थिति प्राय: इतनी आवश्यक नहीं होती। तीसरे, अनुकरण एक सरल, शारीरिक क्रिया है, जबकि तदात्मीकरण एक अपेक्षाकृत जटिल मानसिक क्रिया है, इसके
-
अतिरिक्त अनुकरण अधिकांशतः एक चेतन क्रिया होती है, जबकि तदात्मीकरण का रूप प्रायः अचेतन प्रक्रिया का होता है।
विस्तृत रूप से तदात्मीकरण की रक्षायुक्ति न केवल व्यक्तित्व के अहम् के विस्तार तथा रक्षा में ही सहायक होती है, बल्कि व्यक्ति की दमित प्रबल इच्छाओं की पूर्ति का साधन भी होती है। उदाहरणार्थ जब एक विद्यार्थी में एक प्रसिद्ध डाक्टर अथवा प्रशासनिक अधिकारी बनने की इच्छा रहती है, परंतु कुछ कारणवश उसकी ये इच्छाएँ उस समय पूरी नहीं होने पातीं, तब वह अपनी इन दमित इच्छाओं की संतुष्टि बड़े होकर एक पिता के रूप में अपने एक लड़के को डाक्टर तथा दूसरे को प्रशसानिक अधिकारी बनाने में देखने में आती है। ऐसे ही, एक व्यक्ति स्वयं अशिक्षित रहने पर अपनी सन्तान को उच्च स्तर की शिक्षा-दीक्षा देकर अपने व्यक्तित्व की शिक्षा के दमित अभाव की पूर्ति में तदात्मीकरण की रक्षायुक्ति ही अपनाते देखा जाता है।
९. उदात्तीकरण - उदात्तीकरण से तात्पर्य उस मानसिक विरचना से है, जिसके द्वारा व्यक्ति किसी लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल होने पर किसी दूसरे लक्ष्य का चयन करके अपनी इच्छा पूर्ति करने का प्रयास करता है। यद्यपि नवीन लक्ष्य से उसे उतनी संतुष्टि नहीं मिलती है जितनी की मूल लक्ष्य से संभावित थी फिर भी ऐसा करने से उसकी समस्या का समाधान हो जाता है और समायोजन स्थापित करने में भी सहायता मिलती है। जैसे आक्रामकता के स्थान पर पहलवानी, मुक्केबाजी या खेलकूद में भाग लेना । इससे मिलती-जुलती एक और विरचना है जिसे प्रतिस्थापन कहते हैं इसमें भी व्यक्ति मूल लक्ष्य की जगह नया लक्ष्य चुनकर अपना काम चलाता है।
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चिकित्सा के प्रति समाज-सांस्कृतिक उपागम
डॉ. रामनारायण एवं डॉ. रज्जन कुमार
प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी...ly
चिकित्सा अथवा उपचार का उद्देश्य संबंधित व्यक्ति के समाज-सांस्कृतिक उपागम के प्रति नव फ्रायडवादियों अपानुकूलक व्यवहार में ऐसा परिवर्तन अथवा सुधार लाना की भूमिका - कुछ मनोविज्ञानियों विशेषत: नवफ्रायडवादियोंहोता है, जिससे उसका व्यवहार स्वीकार्य तथा सामान्य स्थिति जैसे कैरन हार्नी, फ्राम, माडीनर व अलेक्जेंडर आदि का यह में आ सके। चूंकि अपानुकूलक व्यवहार के अनेक रूप तथा अभिन्न मत रहा है कि आधुनिक पाश्चात्य सामाजिक जीवन का विविध कारण होते हैं, अतः उनके कुशल व सफल उपचार की जैसा वर्तमान स्वरूप है, उसके अंतर्गत व्यक्ति में मूलभूत भी प्रायः अलग-अलग ही पद्धतियाँ होती हैं।
दुश्चिन्ता (Basic Anxiety) का उत्पन्न होते रहना, एक प्रकार से ___ वास्तव में प्राचीन युग से ही अपानुकूलक व्यवहार के
अपरिहार्य ही है, क्योंकि यह सामाजिक व्यवस्था एक ऐसी
आर्थिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है, जिससे जनसाधारण को सुधार के लिए कुछ अपने ढंग का उपचार अवश्य ही किया
निरंतर संघर्षरत व स्पर्धारत रहना पड़ता है व जिसमें उसे थोड़ेजाता रहा है। पाषाण युग में इसके उपचार के लिए संबंधित रोगी
थोड़े समय पर ही बेरोजगारी, भुखमरी, सामाजिक अत्याचार के सिर में एक सूराख (Trephine) ही बना दिया जाता था,
सार्वजनिक जीवन में निरंतर बढ़ते घोर भ्रष्टाचार, अपार आर्थिक जिससे कि उसके शरीर में घुसी हुई व्याधिजनक व दुष्ट आत्मा
संकट व शोषण का असहाय शिकार बनते रहना पड़ता है। उसके शरीर को छोड़कर कहीं और चली जाए। मध्यकालीन
पूँजीवादी व्यवस्था में भ्रष्टाचार तथा मनोविकार-स्पष्टतः युग में भी इस संबंध में जादू-टोना व झाड़-फूंक आदि के
ऐसी व्यवस्था में जमाखोरी, घूसखोरी, चोरबाजारी, तस्करी, अतिरिक्त, ऐसे व्यक्ति के प्रति प्रायः अति क्रूरता के व्यवहार
भिक्षावृत्ति, वेश्यावृत्ति, मद्यव्यसन तथा अपराध प्रवृत्ति में भी का भी प्रचलन रहा, परंतु आधुनिक वैज्ञानिक युग में इस दिशा
निरंतर वृद्धि ही होती जाती है और व्यक्ति अनेक मानसिक में निश्चित रूप से अपार प्रगति हुई है और अब अपानुकूलक
संघर्षों, ग्रंथियों व व्याधियों के अदृश्य जाल में सहज रूप में ही व्यवहार की यथार्थ हेतुकी (Etiology) के अध्यययन के संदर्भ
फँसता जा रहा है। अतः व्यक्ति की ऐसी घोर अंधकारमय में अनेक अचूक उपचारात्मक पद्धतियाँ विकसित हुई हैं तथा
समाज-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में ही एक तर्कसंगत प्रश्र निरंतर विकसित होती जा रही हैं।
यह उत्पन्न होता है कि क्या ऐसी समाज-सांस्कृतिक व्यवस्था एक रोगी की चिकित्सा के प्रति समाज-सांस्कृतिक की स्थिति जनसाधारण के लिए अपरिहार्य ही है और क्या चिकित्सा के विभिन्न रूप होते हैं तथा ये रूप लगभग एक इसका कोई अन्य स्वीकार्य तथा व्यावहारिक विकल्प संभव समस्या-बालक के लिए प्रतिपालक गृह (Foster home) से नहीं है। लेकर अन्य सामाजिक मूल संस्थाओं में आवश्यक संशोधन पूंजीमूलक (Capitalistic) अर्थव्यवस्था तथा मूल दुश्चिन्ता तथा उनमें आमूल परिवर्तन लाने तक विस्तृत हैं। इसका मुख्य (Basic Anxiety) - यहाँ इस संबंध में एक तथ्य सामान्यतः कारण यही है कि कभी-कभी एक विकृति की उत्पत्ति में संबंधित अनुभव होने लगा है कि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था तथा इस व्यक्तित्व की निर्बलता अथवा संवेदनशीलता की भमिका न पर आधारित राजनीतिक व समाज-सांस्कृतिक संरचना ही ऐसी होकर इसके विशेष विकृतिजन्य समाज-सांस्कृतिक पर्यावरण है, जिसमें साधारणतः निर्धन व धनी व्यक्ति को भी नित की ही विशिष्ट भूमिका रहती है।
आधारभूत दुश्चिन्ता मानसिक कुण्ठा, विरोध, अवसाद तथा विषाद
से ग्रस्त रहने के लिए विवश रहना पड़ता है व जिसमें राजनीतिक anoramidnicombrowordroidroidrowdnoramadiraniranira- २८ admirabiroditonidirdiridwidwidwaaniramidndi
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म भ्रष्टाचार, सामाजिक अत्याचार व मानसिक विकार एक प्रकार से अपरिहार्य ही हैं तथा जिसमें मानव समाज के अधिकांश भाग को, अपरिहार्य रूप से गरीबी, महँगाई, भुखमरी, बीमारी, अभाव, मिथ्या अकाल व काल की निरंतर काली छाया में रहने को ही विवश रहना पड़ता है। अतः इस संबंध में यहाँ तर्कसंगत रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या इस आदिमकालिक समाज सांस्कृतिक व्यवस्था की निजी सम्पत्ति जैसी अति जर्जर व भ्रष्टाचारजन्य सामाजिक संस्था के उन्मूलन, अथवा इसमें गंभीर संशोधन की आवश्यकता नहीं है? इस संबंध में यहाँ यह भी देखा जाना आवश्यक है कि मानवसमाज में मानव के मूल अधिकारों के दमन व शोषण तथा सामाजिक अत्याचार व भ्रष्टाचार के लिए राजनीतिक स्तर पर सामान्यवाद व उपनिवेशवाद कहाँ तक उत्तरदायी हैं?
निजी सम्पत्ति की प्रचीन संस्था में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता-
वस्तुतः स्थायी मानसिक चिकित्सा व मानसिक स्वास्थ्य के लिए वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था पर आधारित प्रत्येक राष्ट्र को अपनी ऐतिहासिक व राजनीतिक पृष्ठभूमि में भारी परिवर्तन अथवा आमूल परिवर्तन की आवश्यकता जान पड़ती है, क्योंकि व्यापक रूप से संसार में एक प्रकार से मूलदुश्चिन्ता की कुण्ठाकारक व विकासजन्य स्थिति समाजवादी व्यवस्था वाले राष्ट्रों में प्रायः देखने को नहीं मिलती। निश्चिततः यहाँ इस कथन का यह उद्देश्य कदापि नहीं है कि वर्तमान लोकतांत्रिक व पूँजीवादी व्यवस्था के स्थान पर समाजवादी व्यवस्था का अंधा अनुकरण किया जाए, परंतु यहाँ यह समझना कि पूँजीवादी समाजों की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था ही अनेक मानसिक व्याधियों की जननी है, क्योंकि इसके अंतर्गत अनेक निजी सम्पत्ति व विशेषाधिकारों जैसी लगभग आदिकाल की संस्थाओं को जो कि इस आधुनिक युग में अपनी जर्जर अवस्था में पहुँच गई हैं, इस युग में उन्हें स्थिर रखना, सामाजिक न्याय की दृष्टि से कहाँ तक उचित व न्यायसंगत है। स्पष्टतः इसमें व्यापक स्तर पर आमूल परिवर्तन की ऐतिहासिक आवश्यकता है व इसमें व्यापक परिवर्तन लाने से ही मानव समाज अनेक भ्रष्ट विचारों, मिथ्या विश्वासों, भ्रामक लालसाओं व दूषित तथा विकारजन्य प्रभावों से मुक्त हो सकता है।
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चिकित्सा एवं ध्यानयोग
(i) भावातीत ध्यान (Transcendental Meditation)
तनाव मुक्ति (Tension reduction or relaxation) की यह एक ऐसी महत्त्वपूर्ण विधि है, जिसके अंतर्गत व्यक्ति एक ऐसी सीधी परंतु शिथिल ध्यानआसन की स्थिति में बैठा होता है, जिसमें संबंधित व्यक्ति के मन (अथवा मस्तिष्क के चिंतन संबंधी केन्द्रों) पर न तो किसी प्रकार का भार रहता है और तनावशील नियंत्रण ही रहता है। वस्तुतः यह ध्यान (Meditation) की ऐसी शारीरिक व मानसिक स्थिति होती है, जिसमें व्यक्ति का तंत्रिका तंत्र व्यावहारिकतः शिथिल तथा निष्क्रिय ही बना रहता है, परंतु इस प्रक्रम में वह प्रायः एक मंत्र का अपने मन में कुछ उच्चारण व जाप अवश्य करते रहता है।
इस भावातीत ध्यान की स्थिति के सुबह व शाम के अभ्यास से एक तनावग्रस्त व्यक्ति कुछ ही दिनों में अपने मानसिक तनाव से मुक्त होते देखा जाता है। वस्तुतः भावातीत ध्यान की स्थिति में व्यक्ति की विचार की गति, श्वास की गति व नाड़ी की गति भी एकदम शिथिल पड़ जाती | इस स्थिति में व्यक्ति को पसीना भी कम ही आता है, जो कि प्रायः शारीरिक दृष्टि से, इस सत्य की ओर संकेत करता है कि व्यक्ति इस स्थिति में पूर्णतः विश्रामदायक व शांतिदायक मुद्रा में है। वस्तुतः भावातीत ध्यान की ऐसी स्थिति के निरंतर अभ्यास से एक व्यक्ति अपने उत्तेजनशीलता, आक्रामकता, विरोध, अवसाद व उन्माद आदि भावों से कुछ ही समय पश्चात् मुक्त होते देखा जाता है।
तनावमुक्ति की इस पद्धति के प्रतिपादक महर्षि महेश योगी हैं। आधुनिक काल में यह पद्धति न केवल भारतवर्ष में, बल्कि विदेशों के अनेक बड़े नगरों जैसे लॉस एंजिल्स, कनाडा, साउथ अफ्रीका आदि में भी अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है तथा इस कारण इसके प्रचलन में नित्य वृद्धि होती जा रही है।
(ii) योग चिकित्सा (Yoga Therapy)- मूलरूप से इस चिकित्सा पद्धति के प्रतिपादक महर्षि पतञ्जलि है, जिन्होंने लगभग ईसा से ४०० वर्ष पूर्व इसका सूत्रपात किया था। इस चिकित्सा पद्धति की मूल अवधारणा यह है कि जब तक व्यक्ति का मन व व्यवहार उसके पर्यावरण के प्रभाव के कारण दूषित
{ २९ pain
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ होता रहता है, तभी तक उसमें मानसिक विकृति उत्पन्न होते देखी जाती है। इसके विपरीत यदि एक व्यक्ति अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुकूल व अनुरूप ही निरंतर व्यवहार करने का अभ्यास करता रहता है, तब इससे न केवल उसका इष्टतम विकास ही संभव होता है, बल्कि वह विकृतिजन्य पर्यावरणगत दुष्प्रभावों से भी एक प्रकार से मुक्त रहता है। मानवतावादी तथा अस्तिपरकवादी विचारधाराओं के अनुरूप यह दार्शनिक विचार पद्धति भी, मानव के मानसिक स्वास्थ्य व व्यक्तित्व विकास के लिए उसकी क्षमताओं व जन्मजात विभवों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति व विकास पर ही बल देती है।
महर्षि पतञ्जलि ने इस स्थिति की प्राप्ति को व्यवहारिकतः कठिन ही बताया है, परंतु साथ ही साथ उनका यह भी कहना है कि व्यक्ति इस चिरमय सुखद स्थिति को वर्षों से नियंत्रण व अभ्यास (अथवा योग) से अवश्य प्राप्त कर सकता है। इस प्रक्रम में उसे अपने आपको बाह्य पर्यावरण के दुष्प्रभावों से अधिकांशतः प्रभावित होने से बचाव करने का सतत् अभ्यास करना होता है व अपने संवेगों तथा विचारों की प्रक्रियाओं पर भी आवश्यक नियंत्रण स्थापित करना सीखना होता है।
पतञ्जलि योग - चिकित्सा के अंतर्गत वस्तुतः व्यक्ति को यम, नियम, संयम, प्राणायाम, अहिंसा, शुद्धता, संतोष, स्वाध्याय, ध्यान, आसन, प्रत्याहार व समाधि आदि का अटूट अभ्यास करना होता है। ऐसे मानसिक गुणों के अभ्यास द्वारा व्यक्ति न केवल विभिन्न शारीरिक क्रियाओं को ही आवश्यक रूप से नियमित कर सकता है, बल्कि वह इनसे अनेक मनोकायिक विकारों पर नियंत्रण भी स्थापित कर सकता है। कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों जैसे Vahia 1069 व Naug 1975 के आधार पर योग - चिकित्सा पद्धति से दुश्चिन्ताग्रस्त हिस्टीरिया व मनोकायिक विकारों से पीड़ित तथा अवसादी जैसी स्थिति से पीड़ित व्यक्तियों को विशेष रूप से लाभ पहुँचते देखा गया है।
इस प्रकार योग - चिकित्सा पद्धति का व्यापक रूप से शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर अत्यधिक लाभप्रद प्रभाव देखने में आया है। इस कारण इसका उपयोग भारत तथा विदेशों में भी व्यापक रूप से अनेक विद्यार्थियों, शिक्षकों व अन्य सामान्य व्यक्तियों में निरंतर बढ़ते देखा जा रहा है।
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आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
(iii) मस्तिष्क - विद्युत् लहर चिकित्सा (Brain-Wave Therapy)
विद्युत्लहरों का प्रत्यक्षतः संबंध व्यक्ति के रक्त चाप (Blood Pressure) तथा स्वायत्त से तंत्रिकातंत्र के कार्यों से रहता है तथा विद्युत्-लहरों के विभिन्न रूपों. (a, b, y, q) को उनकी विभिन्न गतियों से पहचाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त, मस्तिष्क की असामान्य स्थिति में विद्युत लहरों का स्वरूप उसकी सामान्य स्थिति में भी सफलतापूर्वक पहचाना जा सकता है। इसके लिए संबंधित व्यक्ति को जीव- प्रतिपुष्टि प्रशिक्षण (Bio Feedback training-B.F.T.) की आवश्यकता होती है।
इसके पश्चात् संबंधित विद्युत् उपकरण की सहायता से जीव प्रतिपुष्टि सूचना के आधार पर एक व्यक्ति अपने रक्तचाप व स्वायत्त तंत्रिका तंत्र के कार्यों के सामान्य तथा असामान्य रूपों को समझकर उनमें समय-समय पर आवश्यक संशोधन व सुधार भी कर सकता है। इस प्रकार Brain- Wave की लहरों को नियमित व संतुलित किया जा सकता है। यहाँ इस संबंध में Bio-Feed back Traing (B.F.T.) को Electronic Yoga भी कहते हैं, क्योंकि इसके माध्यम से अनेक मनोकायिक विकारों व दुश्चिन्ता के तनावों को कम किया जा सकता है।
(२) जल- चिकित्सा (Hydro-Therapy) - जिस रोगी में दीर्घकालिक रूप से उत्तेजित बने रहने की रोगात्मक स्थिति बनी ही रहती है, या फिर जिस रोगी में निरंतर शक्तिहीनता व भावशून्यता तथा ध्यान रिक्तता की घोर निराशाजनक स्थिति बनी ही रहती है, उसे जल चिकित्सा की अनुप्रयुक्ति से अपने रोगजन्य व कुण्ठाकारक लक्षणों से अपेक्षाकृत शीघ्र भारमुक्त होते देखा जाता है। या यों कहा जा सकता है कि साधारणतः स्नान का स्वस्थ व्यक्ति के मन पर भी सुखद प्रभाव पड़ते देखा जाता है, परंतु जब एक रोगी का मन अति अशान्त व उदास होता है, उस स्थिति में बहते पानी में तैरने व नहाने से मन पर और भी अधिक प्रशान्तक व आनन्ददायक प्रभाव देखने में है। । कुछ समय के लिए (लगभग एक घंटे) ठंडे जल से भरे हुए पानी के टब में स्वेच्छा से नहाते रहने का भी मानसिक रोगी पर स्वास्थ्यवर्धक व शांतिदायक प्रभाव रहता है। कभीकभी एक अशान्त रोगी के शरीर को ठंडे पानी के बड़े तौलिये में कुछ समय के लिए लपेट देने का भी गहरा संतोषजनक
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में नेता वर्म प्रभाव रहता है। अतः कुछ साधारण मानसिक रोगियों के लिए आधार पर सुस्थापित भी किया। जलचिकित्सा भी अति उपयोगी रहती है।
व्यवहार चिकित्सा और उसका स्वरूप-इस चिकित्सा (v) व्यवहार चिकित्सा (Behaviour-Therapy)-- व्यवहार पद्धति के समर्थकों ने परंपरागत मनोविश्लेषणवादी मनश्चिकित्सा चिकित्सा का मख्य बल संबंधी रोगी के Maladaptive व्यवहार पद्धति का डटकर विरोध किया तथा वैज्ञानिक दृष्टि के संदर्भ में में प्रायोगिक आधार पर स्थापित अधिगम के नियमों द्वारा ऐसे इसके संप्रत्यों को आत्मनिष्ठ रहस्यमयी तथा असत्यापनीय अनुकूली व्यवहार की दीक्षा आरंभ की जाती है, जिससे उसका (Unverifiable) ठहराया। Eysenek 1957 ने भी मानसिक रोगियों पुराना अपानुकूलक (Maladaptive) व्यवहार विधिवत् रूप से . के उपचार में मनोविश्लेषणवादी उपचार पद्धति की घोर आलोचना निरंतर निर्बल पड़कर समाप्त हो जाता है तथा उसमें नवीन की। वस्तुतः व्यवहार-चिकित्सा पद्धति ने अपनी उपचार पद्धति अनुकूली (Adaptive) व्यवहार एवं आदत का रूप सशक्त बनता में प्रयोगशाला आधारित अधिगम के नियमों को प्रयुक्त किया जाता है। मानसिक रोगों के उपचार में मनोवैज्ञानिकों ने इस तथा कुछ स्थितियों में प्रेक्षणमूलक तथा सत्यापनीय ढंग से पद्धति के अपनाने में पिछले लगभग दो दशकों से अपनी गहरी अपनी उपचार पद्धति के पक्ष में आवश्यक प्रमाण भी प्रस्तुत रुचि दिखाई है। साधारणतः व्यवहार-चिकित्सा को कभी-कभी किए। व्यवहार-संशोधन अथवा व्यवहार-उपान्तरण (Behaviour -
व्यवहार-चिकित्सा का आलोचनात्मक मूल्यांकनModification) चिकित्सा भी कहा जाता है।
व्यवहारवादी मनोविज्ञानी अपनी उपचार-पद्धति को सरल, स्पष्ट, इस चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत Clinician की सैद्धांतिक कुशल तथा वैज्ञानिक कहते हैं। इनके अनुसार मनोरोग का अवधारणा मूलतः यह रहती है कि एक विशेष रोगी के व्यवहार कारण संबंधित व्यक्ति का एक दोषजन्य सीखा हुआ व्यवहार का आधार पुराना दोषजन्य व्यवहार ही होता है, जो अब उसकी ही होता है, जिसका नए ढंग से सीखने के द्वारा ही निर्मूलन भी एक खराब आदत बन चुका है। अत: अब उसके उपचार के लिए किया जा सकता है। परंतु मनोविश्लेषणवादी इस उपचार-पद्धति पूर्व स्थापित उन अधिगम नियमों व सिद्धांतों का सहारा लिया जाना को केवल यांत्रिक, ऊपरी, अकुशल व अमानवीय रूप से कठोर चाहिए, जिससे उसकी पुरानी रोगग्रस्त आदत धीरे-धीरे निर्बल ही बनाते हैं। इसके अतिरिक्त, इस उपचार-पद्धति द्वारा अधिक पड़कर छूट जाए तथा उपयुक्त प्रशिक्षण व पुनर्बलन (re- गंभीर रूप से पीड़ित जैसे मनस्तापी (Psychotic) व्यक्ति का inforcement) द्वारा उसमें ऐसे नवीन व्यवहार व आदत का नवनिर्माण उपचार नहीं होने पाता। वस्तुतः व्यवहार-चिकित्सा के पोषक किया जाए जिसे कि उसके लिए एक प्रकार से उसकी सामाजिक व रोग के लक्षणों को दूर करने में ही उपचार के लक्ष्य को पूरा मान उपचार की दृष्टि से सामान्य तथा स्वस्थ माना जाता है।
लेते हैं, जबकि मनोविश्लेषणवादी यह विश्वासपूर्ण ढंग से कहते इस चिकित्सा-पद्धति में संबंधित रोगी के अचेतन के
हैं कि जब तक एक रोगी व्यक्ति के लक्षणों के मूल कारण को अभिप्रेरण (Unconscious Motivation) की ओर ध्यान न देकर
- ही नहीं पहचाना जाता है, तब तक उसका ठीक ढंग से सफल उसके प्रत्यक्ष स्पष्ट अथवा प्रेक्षणमूलक (observable) व्यवहार
उपचार भी संभव नहीं होता। अतः मनोविश्लेषणवादी दृष्टिकोण पर ही मुख्य बल केन्द्रित रहता है। इस उपचार-प्रक्रम के अंतर्गत
मनोरोग के उपचार में उसके रोग के वास्तविक कारणों को
जानने के लिए संबंधित व्यक्तित्व के अचेतन में गहरे धरातल Pavlov के अनुबंधन संबंधी अधिगम के सिद्धांत का भी सहारा लिया जाता है तथा आवश्यकतानुसार Skinner के नैमत्तिक तक पहुंचने का प्रयास करता है। स्पष्टतः समय व धन के (Operant) अनुबंधन के अधिगम सिद्धांत को भी अनप्रयक्त आधक व्यय के कारण इस उपचार-पद्धति का अनुप्रयोग केवल किया जाता है। इस उपचार-पद्धति के पोषक J.B.Watson रहे सामर
सीमित ही रह जाता है, जबकि व्यवहार-चिकित्सा पद्धति का हैं। उन्होंने अपने प्रयोगों के आधार पर Experimental Neuro
स्वरूप प्रायः अपने में बोधगम्य व प्रत्यक्ष तथा अपेक्षाकृत sis को स्थापित करके भी दिखाया तथा उसका उपचार भी
सरल रूप से व्यक्ति के व्यवहार को शीघ्र ही आवश्यक मोड़ प्रत्यक्षतः प्रायोगिक आधार पर अथवा प्रेक्षणमलक तथ्यों के दन म सक्षम ह।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - भारतीय मनोचिकित्सा : स्वरूप एवं पद्धति देवी या भूत के प्रकोप को दूर कराने की प्राचीन युग से प्रथा
- रही है और इस संबंध में आश्चर्यजनक बात यह रही है कि इस भारतवर्ष की प्राचीन चिकित्सा पद्धतियाँ के उल्लेख
प्रकार के ऊपरी उपचार के पश्चात् संबंधित रोगी अच्छा भी होता भारतीय संस्कृति के चार मुख्य वेद-ग्रन्थों विशेषतः अथर्ववेद .
हुआ पाया गया है, भले ही यहाँ उसके अच्छा होने का कोई और में मिलते हैं। इसमें अनेक मानसिक विकृतियों जैसे, उन्माद,
आधार रहा होगा। जिन मनोरोगियों पर ऐसे उपचार का कोई मूर्छा, अपस्मार, तीव्र भय, मानसपाप व पापभावना आदि का
प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता था, उन्हें प्रायः अनेक धार्मिक तीर्थों भी वर्णन है। इनके अतिरिक्त, इनमें अनेक संवेगात्मक विकृतियों
के दर्शन से लाभ उठाने की बात सोची जाती रही है। ऐसा एक जैसे क्रोध, ईर्ष्या, मोह, काम, शाप व दुःस्वप्न का भी उल्लेख है। इन मानसिक व्याधियों के उपचार के रूप में वेदों में मंत्रविद्या,
प्रसिद्ध धार्मिक तीर्थ स्थान राजस्थान में है, जहाँ पर प्रतिदिन
सैकड़ों व्यक्ति आधुनिक मनोवैज्ञानिक भाषा में अपने मानसिक संकल्प, आत्म संसूचन, संवशीकरण, आश्वासन, उतारण, हवन,
रोगों, विषम जालों अथवा अपने सिर पर भूत के चढ़े होने के ब्रह्म कवच, मंगलकर्म, जप, तप व व्रत आदि पर विशेष बल
प्रकोप या फिर सिर पर आई हुई देवी की कुपित दृष्टि के कष्ट को दिया गया है।
दूर करने के उद्देश्य से बालाजी के मंदिर दर्शनार्थ आते रहते हैं। वेद में मनोविकृति का उपचार--
यहाँ आने वाले ऐसे व्यक्तियों में इतना अवश्य है कि अधिकांश अथर्ववेद में मानसिक व्याधियों से पीडित व्यक्तियों को।
व्यक्ति देश के ग्रामीण अंचलों से ही आते हैं, परंतु साथ ही
साथ बड़े नगरों से उच्च स्तर के शिक्षित व्यक्तियों, मानवशास्त्री रोग-मुक्त करने की अनेक विधियों व पद्धतियों पर भी अति
शोधकर्ताओं व पत्रकारों आदि की भी यहाँ संख्या कम नहीं विस्तृत प्रकाश डाला गया है। एक व्यक्ति को व्याधि-मुक्त
रहती है। इसमें भले ही उनका दृष्टिकोण ऐसे स्थान पर आने की करने की ये प्रमुख विधियाँ व पद्धतियाँ इस प्रकार रही हैं,
जिज्ञासा व सामान्य जानकारी कम ही रहती हो, परंतु वे यहाँ भूतविद्या, मंत्रविद्या, प्रायश्चित्त मंत्रसिद्धि, आत्मसिद्धि, हवन,
आते अवश्य रहते हैं। अनेकों मानसिक व्याधियों से छुटकारा आसन, नियम, जप, तप, व्रत, पूजा, भय, प्रार्थना, प्राणायाम,
पाने की मनोकामना से भी आते रहते हैं और उनमें से अनेक ध्यान, ज्ञान, आश्वासन, योग व समाधि आदि।
व्यक्ति यहाँ पर प्रचलित विभिन्न उपचार-पद्धतियों की विभिन्नताओं प्राचीन भारत में मनोविकृत्ति के संबंध में दो रूप की जैसे स्वयं नत्य करने, बंधनमुक्त रूप से बोलने, गाने व अधिकांशतः दृष्टिगोचर रहे हैं, जिनमें एक रूप व्यावहारिकतः ।
सिर हिलाने के एकदम प्रभावी होने की बात का दावा भी करते असाध्य मनोरोग जैसे मनोविक्षिप्ति का रहा है, तथा जिसका
जिसका देखे गए हैं। इन सब भारतीय उपचार-पद्धतियों में देवी-देवताओं उपचार या तो नहीं रहा है, या फिर उसका उपचार दीर्घकालीन व
नव की स्तुति, भक्ति, मंत्रों की शक्ति व भूत-विद्या की आलौकिक
मन धार्मिक कर्मकाण्डों की परिधि के ही अंतर्गत रहा है। अधिकांशतः
शितः शक्ति में ही निहित बताया गया है। अथर्वेद में वर्णित मनोविकृति ऐसे रोगी व्यक्ति के घर को छोड़कर बाहर कहीं चले जाने की
। के प्रति इन विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियों की शक्ति का ज्ञान इस
भी भी प्रथा रही है। इसके अतिरिक्त उपचार का दूसरा रूप, तथ्य से पता लगता है कि आधनिक पाश्चात्य देशों में भी व्यावहारिकतः ऐसे साध्य मानसिक रोगों का रहा है, जिसके
मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुभावातीत ध्यान (Transcenप्रति यही धार्मिक भावना रहती है कि ऐसे व्यक्ति पर किसी भूत
dental Meditation) की असाधारण शक्ति को अत्यधिक मान्यता की छाया पड़ गई है, या फिर कोई देवी उसके सिर पर आ गई है
दी जाने लगी है और इन देशों में भी इस प्रकार के ध्यान-केन्द्रों
की संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। रही है। ऐसी स्थितियों में संबंधित व्यक्ति का उपचार सिर पर चढ़े हुए भूत या सिर पर आई हुई देवी का किसी प्रकार से नैतिक उपचार (MoralTherapy)-- उतारना होता है। इसके लिए ही सयानों (भूतविद्या में जाने माने
Pinel, Tuke, Dorothea Dix, Benjamin Rush के महान व्यक्तियों) को बुलाया जाता रहा है, या फिर उनके पास जाकर प्रयासों से मनोविकतिविज्ञान के विकास को अत्यधिक बल
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ- आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
मिला। इससे ही मानसिक रोगियों के प्रति व्यवहार में मानवीय उपागम का प्रसार हुआ और उनके उपचार में निर्दयी व कठोर व्यवहार के स्थान पर नैतिक चिकित्सा (Moral therapy) पद्धति के महत्त्व को समझा जाने लगा। मानसिक रोगियों की नैतिक चिकित्सा का तर्कसंगत आधार अब यह माना जाने लगा है कि मानसिक रोगी, वास्तव में, एक प्रकार से सामान्य व्यक्ति ही होते हैं, परंतु उनका व्यक्तित्व कुछ कारणों से निर्बल व हीन होने के कारण Stress, मनोवैज्ञानिक व कठोर सामाजिक स्थितियों में शीघ्र ही टूट जाता है व छिन्न-भिन्न हो जाता है। अतः मानसिक रूप से ऐसे हताश व निराश रोगियों के नैतिक बल को जागृत व विकसित करने की अधिक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता होती है। व्यवहारिक रूप में, नैतिक चिकित्सा पद्धति के फलस्वरूप अनेक रोगियों के जीवन में चमत्कारिक लाभप्रद परिवर्तन देखने में आया है।
मानसिक रोगियों में नैतिक चिकित्सा के लाभकारी प्रभाव को समझकर इस तर्क के आधार पर आगे चलकर सामान्य व्यक्तियों के जीवन में भी मानसिक स्वास्थ्य अभियान का शुभारंभ हुआ। इसके अंतर्गत मनोचिकित्सकों ने मानसिक स्वास्थ्य रक्षा के नियमों की तरफ जन-साधारण का ध्यान केन्द्रित किया और यह बताने का प्रयास किया कि किस प्रकार एक व्यक्ति का व्यक्तित्व अमानुषिक व क्रूर व्यवहार से अस्तव्यस्त हो जाता है और जीवन में कभी-कभी अत्यधिक मनोवैज्ञानिक भय के कारण वह मनोविकृत भी हो जाता है। इस दिशा में कालीफॉर्ड बियर्स का कार्य विशेषतः उल्लेखनीय व प्रशंसनीय है।
ब्रह्म का स्वरूप सत् व चित् होने के कारण स्थायी है, परंतु माया का स्वरूप अस्थायी अथवा चंचल है। इस दर्शन के अनुसार व्यक्ति के रूप में जब तक ब्रह्म, प्रकृति अथवा माया - लीन बना रहता है, तब तक व्यक्ति दुःखी ही रहता है। अतः व्यक्ति की दुःख से मुक्ति तभी संभव है, जब पुरुष की प्रकृति अथवा माया के लुभाने वाले स्वरूप से मुक्ति हो । अतः महर्षि कपिल ने, जो कि सांख्यदर्शन के रचियता हैं, ज्ञान के माध्यम से व्यक्ति को माया के लुभाने वाले छल व कपटी तथा क्षणिक रंगभरे रूप से अपने को मुक्त करने के लिए कहा है, जिससे वह प्रकृति (माया) के कारण उत्पन्न दुःखों तथा विकारों से छुटकारा पा सके।
बौद्ध दर्शन का मनोचिकित्सा के प्रति दृष्टिकोण
बौद्ध दर्शन के अनुसार संसार में दुःख है, दुःख का कारण तथा उसका निवारण भी है। इस दर्शन के महान रचयिता गौतम बुद्ध के अनुसार, संसार में दुःख के मूल कारण, व्यक्ति के स्वयं अपने राग, द्वेष और मोह हैं। इनके प्रभाव के कारण, जीवन में व्यक्ति अथक प्रयास करके पद, धन, सम्पत्ति व प्रतिष्ठा की प्राप्ति के लिए नित लालायित ही रहता है। परंतु इतना कुछ प्राप्त कर लेने पर भी जीवन में प्रायः उसे शांति की प्राप्ति नहीं होती। इस दर्शन के अनुसार, व्यक्ति के जीवन में स्थायी सुख व शांति की स्थिति केवल निर्वाण (Nirvana) से ही प्राप्त होती है, जिसका आधार सच्ची साधना होती है। प्राचीन भारतवर्ष में उपचार पद्धतियों के सूक्ष्म व सीमित उल्लेख के साथ-साथ यहां सांख्य दर्शन, योग-दर्शन व बौद्ध दर्शन के उपचार का वर्णन यहाँ केवल सन्दर्भ रूप में ही किया गया है तथा इनके प्रस्तुतीकरण का उद्देश्य यहाँ यह स्पष्ट करना भी है कि इनका लक्ष्य तथा बल विशेषतः मानव का एक इकाई के रूप में ही उपचार पर रहा है। इनमें व्यापक रूप से, व्यक्ति के [ ३३ ]
बियर्स येल विश्वविद्यालय के एक ऐसे स्नातक थे, जिन्हें स्वयं एक मानसिक रोगी के रूप में उस समय के तीन विभिन्न मानसिक चिकित्सालयों में अत्यधिक क्रूर व कठोर व्यवहार को सहना व भुगतना पड़ा, परंतु फिर भी जब उन्हें वहाँ एक सेवक का मैत्रीपूर्ण मृदु व्यवहार मिला, तब इसका उनके ऊपर अत्यधिक सुखद व स्वस्थ प्रभाव पड़ा और वे शीघ्र ही अपने आपको स्वस्थ व सामान्य अनुभव करने लगे। बीयर्स ने अपने मानसिक संस्थाओं के कुछ अनुभवों के आधार पर अपनी आत्मकथा A Mind That Found itselt लिखी और अपने व्यक्तिगत प्रयासों के द्वारा तथा शिक्षित व विचारशील व्यक्तियों
का सहयोग प्राप्त किया और मानसिक चिकित्सालयों में अनेक सुधार लाने के लिए उनका ध्यान आकर्षित किया। सांख्यदर्शन का मनोचिकित्सा का रूप -- इस दर्शन के अनुसार, सृष्टि की रचना में दो मूलभूत तत्त्वों का योगदान रहता है, ब्रह्म तथा प्रकृति। ब्रह्म सत् व चित् है तथा प्रकृति माया है। ब्रह्म रूप में पुरुष व माया के रूप में प्रकृति के मिलन से व्यक्ति की रचना होती है।
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक गन्दर्भ में जैनधर्म - जीवन से सम्बन्धित सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक पक्षों की सैद्धान्तिक रूप से ऐसी समाज वादी व्यवस्था में एक ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। अतः इस संबंध में यहाँ समाज के मेहनतकश व्यक्ति तन-मन से अपने उत्पादन का आधुनिक युग में व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से तथा कार्य सम्पन्न करते देखे जाते हैं तथा इस प्रक्रम में उनमें सैद्धान्तिक रूप से समाजवादी व आत्म-निर्भरता पर आधारित स्वाभाविकतः धीरे-धीरे पर्याप्त सामाजिक चेतना व अपने समाजवादी दृष्टिकोणों का कुछ संक्षिप्त उल्लेख भी अति तर्क सम्बन्धित उत्तरदायित्व की भावना भी विकसित होते देखी जाती संगत तथा न्यायसंगत जान पड़ता है।
है, और इससे आगे चलकर, सम्बन्धित समाज में एक ऐसी समाजवादी उपागम (Socialistic Approach) -
स्थिति आ जाती है, जिसमें लगभग समस्त सदस्य अपने दायित्व समाजवादी उपागम, समाज के स्तर पर व्यक्ति के कल्याण
.. के भाव को पूर्णरूप से समझने लगते हैं। के मार्ग की खोज करता है। समाजवादी दार्शिनिक दृष्टिकोण मूलरूप से, इस दृष्टिकोण के संस्थापक कार्ल मार्क्स हैं वस्तुत: ऐसी सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक व्यवस्था पर तथा इसके मुख्य पोषक लेनिन रहे हैं। स्पष्टतः इस उपागम के बल देता है, जिसमें आर्थिक व राजनैतिक सत्ता खेतिहर व कारण विश्व के समाजवादी देशों में पिछले छः या सात दशकों में औद्योगिक मजदूरों, कुशल कर्मचारियों व प्रौद्योगिक विदों (Tech- अपार आर्थिक व सामाजिक प्रगति देखने में आयी है भले ही, nologists) के हाथों में संचित व केन्द्रित होता है, क्योंकि वे ही इस उपागम को कार्यरूप देने में प्रारम्भ में कुछ कठिनाइयाँ रही समाज में उत्पादन के वास्तविक स्त्रोत व साधन है तथा उनके हों. परन्त इस समय इसके कुछ चमत्कारी परिणाम समाजवादी ही माध्यम से एक समाज व राष्ट्र की इष्टतम आर्थिक प्रगति देशों की अपार आर्थिक व सामाजिक प्रगति में अवश्य देखने सम्भव है और राजनैतिक सत्ता के भी उनके हाथों में होने से, को मिल रहे हैं, जिनमें कम से कम, व्यापक स्तर पर, जन उत्पादन के मार्ग में न किसी शोषण का भाव ही श्रमिकों के मन
मन साधारण बेकारी, भुखमरी, बीमारी, सामाजिक अत्याचार व में रहता है और न उनको पूँजीवादी-व्यवस्था में व्याप्त औद्योगिक
राजनैतिक भ्रष्टाचार से अवश्य मुक्त रहते देखने में आ रहे हैं। तालाबंदी व किसी अन्य विघ्न काही भय छाया रहता है।
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THERAPY
Treatment; application of various treatment
.
Medical Therapy (Biological therapy)
Socio-Cultural Therapy
Psychological Therapy
Psycho Therapy
-Yoga Therapy
Non-Directive Therapy
- Stone Therapy
or
Client - Centraed Therapy
Planet - Therapy Raykee Therapy
- Psycho - Surgery
Directtive Therapy or Brain Surgery
Expressive Peruasive - Insulin Coma therapy
Repressive Therapies Therapies - E.C.T. or Electro
Existential Shock Therapy - Psychoanalysis Therapy
Therapy - Drug Therapy - Hypno - Therapy
Humanistic Therapy -Brain wave therapy - Music - Therapy - Electro sleep therapy - Painting - Therapy
Gestalt Therapy - Vitamine therapy Occupational Therapy
Behaviour Therapy - Hydrotherapy - Social Participation Therapy - Rest - therapy - Audio - Visual Therapy
Play Therapy - Heat therapy
- Psychodrama Therapy - Color therapy - Biblio Therapy - Massage therapy Rational Therapy - Acupressure Therapy - Radio Therapy
derderderderdom Erdmoromeriamordinariansriomsnomsromeroreno 34
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स्वास्थ्य और अध्यात्म
पहला सुख निरोगी काया' जानते, मानते और आवश्यक होते हुए भी आज मानव प्रायः कितना स्वस्थ एवं सुखी है ? यह जनसाधारण से छिपा हुआ नहीं है। प्रत्येक मनुष्य जीवन पर्यन्त स्वस्थ रहना चाहता है । परन्तु चाहने मात्र से तो स्वास्थ्य प्राप्त नहीं हो जाता । मृत्यु निश्चित है। जन्म के साथ आयुष्य के रूप में श्वासों का जो खजाना लेकर हम जन्म लेते हैं, वह धीरेधीरे क्षीण होता जाता है। जीवन के अंतिम क्षणों तक उस संचित, संग्रहीत प्राण ऊर्जा के प्रवाह को संतुलित, नियंत्रित एवं सही संचालित करके तथा उसका सही उपयोग करके ही हम शांत सुखी एवं स्वस्थ रहकर दीर्घ जीवन जी सकते हैं।
रोग क्या है ?
उपचार से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि रोग क्या है? रोग कहाँ, कब और क्यों होता है? उसके प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कारण क्या हैं तथा उसके सहायक एवं विरोधी तत्त्व क्या है? क्या शारीरिक रोगों का मन और आत्मा से संबंध है? शरीर की प्रतीकारात्मक शक्ति कैसे कम होती है? उसको बढ़ाने अथवा कम करने वाले तत्त्व कौन से हैं? वास्तव में प्राकृतिक नियमों के जाने-अनजाने वर्तमान अथवा भूतकाल में उल्लंघन अर्थात् असंयमित, अनियमित, अनियंत्रित, अविवेकपूर्ण स्वछन्द आचरण के द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक क्षमताओं का दुरुपयोग अथवा असंतुलन रोग है। जिसके परिणामस्वरूप शरीर, मन और आत्मा ताल से ताल मिलाकर आचरण नहीं करते। शरीर की सभी क्रियाएँ, अंग, उपांग एवं अवयव अपना-अपना कार्य स्वतंत्रतापूर्वक नहीं कर पाते। फलतः शरीर के अवांछित विजातीय अनुपयोगी विकारों का बराबर विसर्जन नहीं होता। उनमें अवरोध उत्पन्न होने से जो पीड़ा, दर्द, कमजोरी, चैतन्य, शून्यता, तनाव, बैचेनी आदि की जो स्थिति शरीर में उत्पन्न होती है, वही रोग कहलाती है।
रोग का प्रारंभ आत्मविकारों से
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मनुष्य का शरीर अनन्त गुणधर्मी है। अतः हमें अनेकान्त
Spide
दृष्टिकोण से उसको समझना होगा तथा रोग उत्पन्न करने वाले कारणों से बचना होगा। शक्ति की सबसे गहरी एवं प्रथम परत आत्मा पर होती है। पूवर्जित कर्मों के अनुसार ही इस जन्म में हमें हमारी प्रज्ञा, श्रद्धा, आयुष्य, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, अनुकूलप्रतिकूल, संयोग-वियोग आदि मिलते हैं। हमारी आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन एवं अनन्त सुख से परिपूर्ण है, परंतु कर्मों से आच्छादित होने के कारण उसका सही रूप प्रकट नहीं हो पाता । ज्ञानावरणीय कर्मों के अनुसार हमारी प्रज्ञा होती है । दर्शनावरणीय कर्मों के प्रभाव से हमें सोचने, समझने, विश्वास करने एवं चिन्तन की सही अथवा गलत दृष्टि मिलती है। वेदनीय कर्मों के अनुसार हमें सुख-दुःख की प्राप्ति होती है । आयुष्य कर्मों के आधार पर हमारी आयुष्य का बन्ध होता है। मोहनीय कर्म राग-द्वेष एवं आसक्ति अथवा अनासक्ति के भाव पैदा करता है। गोत्र कर्म के अनुसार हमें कुल, परिवार, जाति, प्रथा आसपास का वातावरण मिलता है। नामकर्म के अनुरूप हमें पद और प्रतिष्ठा मिलती है। अंतराय कर्मों का उदय विकास एवं सुखद उपलब्धियों में अवरोध उत्पन्न करता है। जिसके परिणामस्वरूप सभी अनुकूलताएँ होते हुए भी इच्छित लक्ष्यप्राप्ति में कुछ न कुछ बाधा उपस्थित हो जाती है।
चंचलमल चोरड़िया जालोरी गेट के बाहर, जोधपुर...
कर्मों की इन विसंगतियों का प्रभाव हम अपने आसपास के वातावरण में स्पष्ट अनुभव करते हैं। आत्मा पर आए इन कर्मों के आवरणों को मनुष्य जीवन में सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा दूर किया जा सकता है। सारे कर्मों का क्षय होने से मनुष्य नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा, भक्त से भगवान के रूप में सर्वज्ञ, सर्वदर्शी व अनन्तसुखी बन जाता है। अपने स्वभाव में स्थित हो जाता है। यही सम्पूर्ण स्वस्थता है । यही मानव-जीवन का परम लक्ष्य । जो आत्मोत्थान में जितना जितना विकसित होता है, उतना उतना ही आत्मबली बनता जाता है। रोगों की जड़ें ही समाप्त होने लगती है । उपचार की आवश्यकताएँ कम होती जाती हैं। आत्मा के विकार आत्मज्ञानी के मार्ग निर्देशन में व्यक्ति के सम्यक् पुरुषार्थ एवं सम्यक् आचरण से ही दूर किए
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-यतीन्द्रमूनिमारक गाना गवतिक सन्दर्भ में ... - जा सकते हैं। अतः हमें स्वस्थ रहने के लिए आत्मा में विकार अनुसार आज रोगों का नामकरण किया जा रहा है तथा अधिकांश. बढ़ाने वाली प्रवृत्तियों से बचना चाहिए।
प्रचलित चिकित्सा-पद्धतियों का ध्येय उन लक्षणों को दूर कर
रोगों से राहत पहुँचाने मात्र का होता है। विभिन्न चिकित्सारोग में मन की भूमिका
पद्धतियाँ और उनमें कार्यरत चिकित्सक आज असाध्य एवं शक्ति एवं रोग की दूसरी परत मन से संबंधित होती है। संक्रामक रोगों के उपचार के जो बड़े-बड़े दावे और विज्ञापन मन का जितना विकसित स्वरूप मानव-जीवन में प्राप्त होता है, करते हैं, वे कितने भ्रामक तथा अस्थाई होते हैं, जिस पर पूर्वाग्रह उतना अन्य किसी प्राणी में नहीं मिलता। मन से ही मनन, छोड़ सम्यक् चिंतन आवश्यक है। जब निदान ही अधूरा हो, चिंतन, कृति, विकृति, संकल्प, इच्छाओं, एषणा, भावनाओं का अपूर्ण हो तब प्रभावशाली उपचार के दावे छलावा नहीं तो क्या नियंत्रण होता है। मन बड़ा चंचल है। उसकी स्वछन्द एवं हैं? अतः उपचार करते समय जो चिकित्सा-पद्धतियाँ शारीरिक अनियंत्रित गतिविधियाँ अधिकांश रोगों की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण व्याधियों को मिटाने के साथ-साथ मन एवं आत्मा के विकारों भूमिका निभाती हैं। मन को संयमित, नियंत्रित तथा अनुशासित को दूर करती हैं, वे ही उपचार स्थाई एवं प्रभावशाली होते हैं, रखने से हम अनेक रोगों से सहज ही बच जाते हैं। आज हम इसमें हमें तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिए। सत्य सनातन होता जितना ख्याल शारीरिक स्वच्छता-शुद्धता का रखते हैं, बाह्य है। करोड़ों व्यक्तियों के कहने से दो और दो पाँच नहीं हो जाते पर्यावरण एवं प्रदूषण की चिंता करते हैं, क्या इतनी चिंता मन में हैं। दो और दो चार ही होते हैं। अतः जिन्हें स्थायी रूप से उठने वाले क्रोध, हिंसा, क्रूरता, तिरस्कार, वासना आदि विचारों रोगमुक्त बनना हो, रोग के सभी कारणों से बचना एवं उपचार के प्रदूषण की करते हैं? इन आवेगों से ही रोग बढ़ते हैं। मन का से दूर करना चाहिए। नियंत्रण हमारी स्वयं की सजगता पर निर्भर करता है। इसी कारण एक जैसे रोग की स्थिति में एक व्यक्ति बहुत परेशान ' एवं बेचैन रहता है। हाय-हाय करता है, जबकि दूसरा तनिक भी आज चिकित्सा के बारे में असमंजस की स्थिति है। कोई विचलित नहीं होता। स्वस्थ चिंतन, मनन, स्वाध्याय, ध्यान एवं रोग का कारण रासायनिक अंसतुलन एवं वायरस अथवा विषैले कार्योत्सर्ग द्वारा मन को अशुभ से शुभ, अनुपयोगी से उपयोगी कीटाणुओं को मानते हैं तो कुछ वात, कफ, पित्त के असंतुलन प्रवृत्तियों में लगाया जा सकता है। जो स्वस्थ जीवन के लिए को ही रोग का आधार बतलाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सक वाणियाँ अति आवश्यक है।
करते हैं। जितनी चिकित्सा-पद्धतियाँ उतने ही सिद्धान्त। किसी
पद्धति को अवैज्ञानिक गलत नहीं कहा जा सकता। परन्तु शारीरिक लक्षणों पर आधारित रोग का निदान
अधिकांश चिकित्सा पद्धतियों में चिकित्सक प्रायः एक पक्षीय
चिंतन के पूर्वाग्रहों से ग्रसित होते हैं। उनके चिंतन में समग्रता आत्मा और मन के पश्चात् रोग एवं शक्ति की तीसरी परत एवं व्यापक दृष्टिकोण का अभाव होता है। होती है शरीर की आंतरिक क्रियाओं पर और अंत में उनके
जनसाधारण से ऐसी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वे लक्षण बाह्य रूप से प्रकट होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि
शरीर, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा-पद्धतियों के बारे में विस्तृत जानकारी
शरीर स्वास्थ्य एवं जितने रोग अथवा उनके कारण होते हैं उतने हमारे ध्यान में नहीं रखें। अधिकांश रोगियों को न तो रोग के बारे में सही जानकारी आते। जितने ध्यान में आते हैं; उतने हम अभिव्यक्त नहीं कर होती है और न वे अप्रत्यक्ष रोगों को रोग ही मानते हैं। जब तक सकते। जितने रोगों को अभिव्यक्त कर पाते हैं, वे सारे के सारे रोग के स्पष्ट लक्षण प्रकट न हों, रोग सहनशक्ति से बाहर नहीं चिकित्सक अथवा अति आधुनिक समझी जाने वाली मशीनों
आ जाता, विकारों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जाता। रोगी की पकड़ में नहीं आते। जितने उनकी समझ से लक्षण स्पष्ट का एकमात्र उद्देश्य येन-केन प्रकारेण उत्पन्न लक्षणों को हटा रूप से प्रकट होते हैं, उन सभी का वे उपचार नहीं कर पाते। कर अथवा दबाकर शीघ्रातिशीघ्र राहत पाना होता है। जैसे ही परिणामस्वरूप जो लक्षण स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं, उनके उसे आराम मिलता है, वह अपने आपको स्वस्थ समझने लग
अपूर्ण--
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थजाता है। रोगी रोग का कारण स्वयं को नहीं मानता और न अधिकांश चिकित्सक उपचार में रोगी की सजगता और पूर्ण भागीदारी की आवश्यकता ही समझते हैं। विभिन्न चिकित्सापद्धतियों की प्रभावशीलता के भ्रामक विज्ञापन एवं डाक्टरों के पास रोगियों की बढ़ने वाली भीड़ के आधार पर रोगी उपचार हेतु चिकित्सक को आत्मसमर्पण कर देता है। डाक्टर पर उसका इतना अधिक विश्वास हो गया है कि रोग का सही कारण अथवा निदान मालूम किए बिना उपचार प्रारंभ करवा शीघ्रातिशीघ्र राहत पाना चाहता है। रोगी चिकित्सक के द्वारा बताए पथ्य एवं परहेज और मार्गदर्शन का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन भी करता है, परंतु शरीर, मन और आत्मा पर उपचार से पड़ने वाले सूक्ष्मतम परिवर्तनों की तरफ पूर्ण रूप से उपेक्षित रहने के कारण उपचार के बावजूद स्वस्थ नहीं हो पाता और कभी-कभी तो दवा उसके जीवन का आवश्यक अंग बन जाती है।
आधुनिक सन्दर्भ में धर्मक्रूरता, तनाव, अशान्ति तो नहीं बढ़ रही है? आलस्य एवं थकान की स्थिति तो नहीं बन रही है? दर्द कब, कहाँ और कितना होता है ? मन में संकल्प विकल्प कैसे आ रहे हैं, इत्यादि सारे रोग के लक्षण हैं। जिनकी सूक्ष्मतम जानकारी रोगी की सजगता से ही प्राप्त हो सकती है तथा इन सभी लक्षणों में जितना - जितना सुधार और संतुलन होगा उतना ही उपचार स्थायी और प्रभावशाली होता है। मात्र रोग के बाह्य लक्षणों के दूर होने अथवा पीड़ा और कमजोरी से राहत पाकर अपने आपको स्वस्थ मानने वालों को पूर्ण उपचार न होने से नए-नए रोगों के लक्षण प्रकट होने की संभावना बनी रहती है।
रोग के विभिन्न प्रभाव एवं लक्षण
रोग स्वयं की गलतियों से उत्पन्न होता है, अतः उपचार में स्वयं की सजगता और सम्यक् पुरुषार्थ आवश्यक है। जब तक रोगी रोग के कारणों से नहीं बचेगा, उसकी गंभीरता को नहीं स्वीकारेगा, तब तक पूर्ण स्वस्थ कैसे हो सकेगा? रोग प्रकट होने से पूर्व अनेकों बार अलग-अलग ढंग से चेतावनी देता है । परंतु रोगी उस तरफ ध्यान ही नहीं देता । इसी कारण उपचार एवं परहेज के बावजूद चिकित्सा लंबी, अस्थाई, दुष्प्रभावों वाली हो तो भी आश्चर्य नहीं? अतः रोग होने की स्थिति में रोगी को स्वयं से पूछना चाहिए कि उसको रोग क्यों हुआ? रोग कैसे हुआ और कब ध्यान में आया? रोग से उसकी विभिन्न शारीरिक प्रक्रियाओं तथा स्वभाव में क्या परिवर्तन हो रहे हैं? इस बात की जितनी सूक्ष्म जानकारी रोगी को हो सकती है, उतनी अन्य को नहीं? उसके मल के रंग, बनावट एवं गंध में तो परिवर्तन नहीं हुआ? कब्ज अथवा दस्त या गैस की शिकायत तो नहीं हो रही है ? पेशाब की मात्रा एवं रंग और स्वाद में तो बदलाव नहीं हुआ? भूख में परिवर्तन, प्यास ज्यादा या कम लगना, अनिद्रा या निन्द्रा और आलस्य ज्यादा आना, पाँच इंद्रियों के विषयों तथा रंग, रूप, स्वाद, स्पर्श एवं श्रवण, वाणी एवं दृष्टि की क्षमताओं में तो कमी नहीं आई? श्वसन में कोई अवरोध तो नहीं हो रहा है? स्वभाव में चिड़चिड़ापन, निराशा, क्रोध, भय, अधीरता, घृणा,
[ ३८
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रोगी ही जान सकता है कि उसका कौन सा अंग कब सर्वाधिक सक्रिय रहता है? अतः जब तक रोगी सजग नहीं होगा, रोग एवं उपचार से पड़ने वाले अच्छे अथवा बुरे परिणामों से परिचित नहीं होगा। तब तक वह हानिकारक प्रभावों से कैसे बचेगा? अतः उपचार में रोगी की सजगता परमावश्यक है। नेता को हटाने के लिए जिस प्रकार उसके सहयोगियों को अलग करना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार मुख्य रोग से छुटकारा पाने के लिए अप्रत्यक्ष रोगों की उपेक्षा से स्थायी समाधान कठिन होगा।
स्वास्थ्य के प्रति सरकारी उपेक्षा -
है।
आज हमारे स्वास्थ्य पर चारों तरफ से आक्रमण हो रहा स्वास्थ्य मंत्रालय की नीतियों में स्वास्थ्य गौण है । भ्रामक विज्ञापनों तथा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक प्रदूषण, पर्यावरण, दुर्व्यवसनों एवं दुष्प्रवृत्तियों पर प्रभावशाली कानूनी प्रतिबंध नहीं है। उल्टी वे सरकारी संरक्षण में पनप रही हैं। आज राष्ट्रीयता, नैतिकता व स्वास्थ्य के प्रति सजगता थोथे नारों और अंधानुकरण तक सीमित हो रही हैं। परिणामस्वरूप जो नहीं खिलाना चाहिए, वह खिलाया जा रहा है। जो नहीं पिलाना चाहिए उसे सरकार पैसे के लोभ में पिला रही है। कामवासना, क्रूरता, हिंसा आदि के जिन दृश्यों को सार्वजनिक रूप से नहीं दिखाया जाना चाहिए, मनोरंजन के नाम से दिखाया जा रहा है। जो नहीं पढ़ाना चाहिए वह पढ़ाया जा रहा है और जो अकरणीय एवं समाज एवं राष्ट्र के लिए घातक गतिविधियाँ हैं, वे करवाई जा रही हैं। आज रक्षक ही भक्षक हो रहे हैं। खाने में मिलावट आम बात हो गई है। सारा वातावरण पाशविक वृत्तियों से दूषित हो रहा है। सरकारी तंत्र
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__ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य आधुनिक ! - को सच्चाई जानने, समझने एवं उसकी क्रियान्विति में कोई रचि गुर्दे, लीवर, पाँचों इंद्रियों का निर्माण स्वयं कर सकता है तब नहीं है। सारे सोच का आधार हैं भीड़, संख्या और बल। क्योंकि । क्या उसे स्वस्थ नहीं रख सकता? मानव-जीवन अमूल्य है। जनतन्त्र में उसी के आधार पर नेताओं का चुनाव और नीतियाँ अतः अज्ञानवश उसके साथ छेड़छाड़ न हो। वर्तमान की उपेक्षा निर्धारित होती है। फलतः उनके माध्यम से राष्ट्र विरोधी, भविष्य की समस्या न बने इस हेतु हमें अपने प्रति सजग, जनसाधारण के लिए अनुपयोगी स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली विवेकशील और ईमानदार बनना होगा। जो स्क्यं लापरवाह, कोई भी गतिविधि स्वार्थवश आराम से चलाई जा सकती है। बेखबर है उसकी चिंता दूसरा कैसे कर सकता है? आज अधिकांश उपचार हेतु रोगी की सजगता एवं सम्यक पुरुषार्थ चिकित्सकों का दृष्टिकोण पूर्वाग्रहों से परिपूर्ण है। अहं से ओतप्रोत आवश्यक -
है। दुष्प्रभावों के प्रति उपेक्षापूर्ण है। उपचार में साधन, साध्य
एवम् सामग्री की पवित्रता संदिग्ध है। उपचार में आत्मा और मन ऐसी परिस्थितियों में हमें अपने स्वास्थ्य का ख्याल स्वयम्
के विकार पूर्ण रूप से उपेक्षित हैं। अर्थात उपचार की प्राथमिकताएँ रखना होगा। अपनी क्षमताओं को समझ उनका सदुपयोग कर
ही गलत हैं। निदान अपूर्ण होता है तब सही उपचार, पूर्ण स्वास्थ्य डाक्टरों की पराधीनता को छोड़ना होगा। सर्वप्रथम रोग के
की प्राप्ति की आशा, मिथ्या कल्पना नहीं तो क्या? स्थायी कारणों से बचना होगा। कोई रोग एक दिन में प्रकट नहीं हो जाता। रोग कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे बाजार से खरीदा जा सके,
उपचार तो अपने आपको स्वावलंबी बनाने वाली, सभी काल उधार लिया जा सके अथवा चुराया जा सके? क्या हमारा श्वास
में उपलब्ध सभी के लिए उपलब्ध सभी स्थानों पर उपलब्ध कोई दूसरा ले सकता है? खाना अन्य कोई पचा सकता है? प्रभावशाली स्वावलम्बी अहिंसात्मक चिकित्सा-पद्धतियों से ही प्यास दूसरों के पानी पीने से शान्त हो सकती है? हमारी निद्रा
- पी पीने से शान्त हो सकती है। माना संभव हो सकेगा। क्योंकि वे हिंसा पर नहीं अहिंसा पर आधारित अन्य कोई ले सकता है? शरीर से निकलने वाले मल, पेशाब हैं। विषमता पर नहीं समता पर तथा साधना पर आधारित है, आदि अवांछित तत्त्वों का विसर्जन दसरा कर सकता है? हमारी जिनमें शरीर, मन एवं आत्मा तीनों के विकारों को दूर करने की रक्त, मांसपेशियाँ, कोशिकाएँ, हड्डियां जैसी प्रतिक्षण बनने वाली क्षमता है। परंतु उसके लिए रोगी की सजगता, सम्यक् पुरुषार्थ वस्तुएँ भी शरीर स्वयम् ही बनाता है। शरीर जब हृदय, फेफड़े, और आचरण आवश्यक है।
నగరంగరం గరం
గరంగరంగా
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.. अज्ञान सभी रोगों का मूल है?
चंचलमल चोरडिया जालोरी गेट के बाहर, जोधपुर....)
स्वस्थ कौन?
बराबर न करे तो यह उसकी विभावदशा है अर्थात् शारीरिक
रोगों का प्रतीक है। स्वास्थ्य का मतलब है स्व में स्थित हो जाना अर्थात् अपने निज स्वरूप में आ जाना या विभाव-अवस्था से स्वभाव शरीर विभिन्न तंत्रों का समूह है। जैसे ज्ञानतंत्र, नाड़ीतंत्र, में आ जाना। जैसे अग्नि के संपर्क से पानी गरम हो जाता है. श्वसन, पाचन, विसर्जन, मज्जा, अस्थि, लासिका, शुद्धिकरण, उबलने लगता है, परंतु जैसे ही अग्नि से उसको अलग करते हैं, प्रजननतंत्र आदि। सभी आपसी सहयोग से अपना - अपना धीरे-धीरे वह ठण्डा हो जाता है। शीतलता पानी का स्वभाव है. कार्य स्वयं ही करते हैं, क्योंकि ये चेतनाशील प्राणी के लक्षण गर्मी नहीं। उसको वातावरण के अनुरूप रखने के लिए किसी अथवा स्वभाव हैं। परंतु यदि किसी कारणवश कोई भी तंत्र बाह्य आलंबन की आवश्यकता नहीं होती। उसी प्रकार शरीर में शिथिल हो जाता है एवं उसके कार्य को संचालित अथवा नियंत्रित जैसे हड़ियों का स्वभाव कठोरता है. परंत किसी कारणवश कोई करने के लिए बाह्य सहयोग लेना पड़े तो यह शरीर की विभावदशा हड़ी नरम हो जाए तो रोग का कारण बन जाती है। मांसपेशियों है अर्थात् शारीरिक रोग का सूचक है। का स्वभाव लचीलापन है। परंतु उनमें कहीं कठोरता आ जाती मन का कार्य मनन करना, चिंतन करना, संकल्प करना, है, गाँठ बन जाती है तो शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। हृदय एवं विकल्प करना व इच्छाएँ करना आदि है। इस पर जब ज्ञान एवं रक्त को शरीर में अपेक्षाकृत गरम रहना चाहिए, परंतु यदि वे ठंडे विवेक का अंकश रहता है तो वह शभ में प्रवृत्ति करता है। हो जायें तो, मस्तिष्क तनाव मुक्त शान्त रहना चाहिए, परंतु वह व्यक्ति को नर से नारायण बनाता है। परंत जब स्वछन्द होता है उत्तेजित हो जायें तो रोग का सूचक है। शरीर का तापक्रम ९८.४ तो अपने लक्ष्य से भटका देता है। जब चाहा, जैसा चाहा डिग्री फारहेनाइट रहना चाहिए, परंतु वह बढ़ जावे अथवा कम चिंतन-मनन, इच्छा-एषणा, आवेग करने लग जाता है, जिसका हो जायें। शरीर में सभी अंगों एवं उपांगों का आकार निश्चित परिणाम होता है क्रोध, मान, माया, लोभ, असंयम, द्वन्द्व, प्रमाद होता है। परंतु, वैसा न हो। विकास जिस अनुपात में होना चाहिए, जैसी अशभ प्रवृत्तियाँ। ये सब मानसिक रोगों का कारण हैं। उस अनुपात में न हो। जैसे शरीर बेढंगा हो, शरीर में विकलांगता इसके विपरीत क्षमा, करुणा, दया, मैत्री, सेवा, विनम्रता, सरलता, हो, आंखों की दृष्टि कमजोर हो, कान से कम सुनाई देता हो, मुँह संतोष, संयम एवं शभ प्रवत्तियाँ मन के उचित कार्य हैं। अतः से बराबर बोल न सकें, आदि शरीर की विभाव-दशाएँ हैं। अतः मानसिक स्वस्थता के प्रतीक हैं। अज्ञान, मिथ्यात्व, मोह आत्मा रोग की प्रतीक हैं। शरीर का गुण है - जो अंग और उपांग शरीर की विभावदशा है जो कर्मों के आवरण से उसको अपना भान के जिस स्थान पर स्थित है, उनको वहीं स्थित रखना। हलन- नहीं होने देती। अतः आत्मा के रोग हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त चलन के बावजूद आगे पीछे न होने देना। शरीर में विकार उत्पन्न दर्शन, वीतरागता शुद्धात्मा के लक्षण हैं जो आत्मा की स्वस्थता हो जाने पर उसको दूर कर पुनः अच्छा करना। यदि कोई हड्डी के द्योतक हैं। जैसे कोई व्यक्ति केवल झूठ बोलकर ही जीना ट जाए तो उसे पुनः जोड़ना। चोट लग जाने से घाव हो गया चाहे. सत्य बोले ही नहीं तो क्या दीर्घकाल तक अपना जीवन हो, तो उसको भरना तथा पुनः त्वचा का आवरण लगाना तथा संचारू रूप से चला सकता है? नहीं। क्योंकि झूठ बोलना रक्त बहने अथवा रक्तदान आदि से शरीर में रक्त की कमी हो आत्मा का स्वभाव नहीं। व्यक्ति छोटा हो या बड़ा अपने स्वभाव गई हो तो उसकी पुनः पूर्ति करना। ये सब कार्य व गुण शरीर के में बिना किसी परेशानी के सदैव रह सकता है। बाह्य आलम्बनों स्वभाव हैं। परंतु यदि किसी कारणवश शरीर इन कार्यों को एवं परिस्थितियों में जितना-जितना वह विभाव-अवस्था में
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-चनीन्दगरिमारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में धर्मजाएगा। शारीरिक मानसिक अथवा आत्मिक रोगी बनता जाएगा। कर्मों की तरफ दृष्टि जाने लगती है। उसके शुद्धिकरण का प्रयास जितना-जितना अपने स्वभाव को विकसित करेगा स्वस्थ बनता प्रारंभ होने लगता है। सभी चेतनशील प्राणियों में एक जैसी जाएगा। अपने आपको पूर्ण स्वस्थ रखने की कामना रखने आत्मा के दर्शन होने लगते हैं। सत्य प्रकट होते ही पूर्वाग्रह एवं वालों को इस तथ्य, सत्य का चिंतन कर अपने लक्ष्य की तरफ एकान्तवादी दृष्टिकोण समाप्त होने लगता है। अनेकान्तवादी दृष्टि आगे बढ़ना चाहिए।
विकसित होने लगती है। जैसे खुद को दुःख होता है वैसे ही
दूसरों के दुःख का अनुभव होने लगता है। आरोग्य एवं नीरोगता में अंतर
__ अतः स्वयं के लाभ के लिए दूसरों को कष्ट पहुँचाने की _ 'नीरोग' का मतलब है। रोग उत्पन्न ही न हो और 'आरोग्य'
प्रवृत्ति कम होने लगती है। सत्य को पाने के लिए उसका सारा का मतलब है। शरीर में रोगों की उपस्थिति होते हुए भी हमें ।
_प्रयास होने लगता है एवं अनुपयोगी कार्यों के प्रति उसमें उदासीनता उनकी पीड़ा एवं दुष्प्रभावों का अनुभव न हो। आज हमारा सारा
आने लगती है और जीवन में समभाव बढ़ने लगता है। अर्थात् प्रयास आरोग्य रहने तक ही सीमित हो गया है। उसमें भी हम
उसके जीवन में सम (समता), संवेग (सत्य को पाने की तीव्र मात्र शारीरिक रोगों को ही रोग मान रहे हैं। मानसिक एवं आत्मिक
अभिलाषा), निर्वेद (अनुपयोगी कार्यों के प्रति उपेक्षावृति), रोग जो ज्यादा खतरनाक हैं, हमें जन्म-मरण एवं विभिन्न योनियों
अनुकम्पा (प्राणिमात्र के प्रति दया, करुणा, परोपकार, मैत्री का में भटकाने वाले हैं, की तरफ ध्यान ही नहीं। शारीरिक रूप से ।
भाव) तथा सत्य के प्रति आस्था हो जाती है। यही सम्यक्त्व के भी नीरोग बनना असंभव सा लगता है। चाहे रोग शारीरिक हों,
पाँच लक्षण है। उसका उद्देश्य मेरा जो सच्चा के स्थान पर सच्चा चाहे मानसिक अथवा आत्मिक उनका प्रभाव तो शरीर पर ही
जो मेरा हो जाता है। उसका जीवन स्वर पर कल्याण के लिए ही पड़ेगा। अभिव्यक्ति तो शरीर के माध्यम से ही होगी, क्योंकि
कार्यरत रहता है। मन और आत्मा अरूपी हैं। उनको इन भौतिक आँखों से नहीं देखा जा सकता। मुख्य रूप से रोग आधि (मानसिक) व्याधि सम्यक्दर्शी का चिकित्सा के प्रति दृष्टिकोण - (शारीरिक) उपाधि (कर्मजन्य) के रूप में ही प्रकट होते हैं। सम्यग्दर्शन होने पर व्यक्ति रोग के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष वर्तमान अतः आधि, व्याधि, उपाधि का शमन करने से ही समाधि,
मान, एवं भूत संबंधी शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक कारणों को परम शांति अथवा स्वास्थ्य अर्थात् नीरोग-अवस्था की प्राप्ति
देखेगा, समझेगा और उन कारणों से बचने का प्रयास करने हो सकती है।
लगेगा। फलतः रोग उत्पन्न होने की संभावनाएँ बहुत कम हो स्वास्थ्य का सम्यक् दर्शन -
जाएँगी। जो स्वस्थ रहने के लिए अति आवश्यक है। रोग उत्पन्न
हो भी गया हो तो उसके लिए दूसरों को दोष देने के बजाय स्वयं सम्यग्दर्शन का सीधा-साधा सरल अर्थ होता है सही ।
की गलतियों को ही उसका प्रमुख कारण मानेगा तथा धैर्य एवं दृष्टि, सत्य दृष्टि, सही विश्वास। अर्थात् जो वस्तु जैसी है जितनी
सहनशीलता पूर्वक उसका उपचार करेगा। उपचार कराते समय महत्त्वपूर्ण है, जितनी उपयोगी है, उसको उसके स्वरूप, गुण एवं
क्षणिक राहत से प्रभावित नहीं होगा, दुष्प्रभावों की उपेक्षा नहीं धर्म के आधार पर जानना। सम्यक् दर्शन से स्वविवेक जागृत
करेगा। साधन, साध्य एवं सामग्री की पवित्रता पर विशेष ध्यान होता है। स्वदोषदर्शन की प्रवृत्ति विकसित होती है। वस्तस्थिति
रखेगा। ऐसी दवाओं से बचेगा जिनके निर्माण एवं परीक्षण में ऐसी हो गई है कि हमारा शरीर रूपी नौकर एवं मन रूपी मुनीम
किसी भी जीव को कष्ट पहुँचता हो। उपचार के लिए अनावश्यक आत्मा रूपी मालिक पर शासन कर रहें हैं। हमारी स्थिति उस शेर
हिंसा को प्रोत्साहन नहीं देगा। आशय यह है कि सम्यग्दर्शन होने के समान हो गई है जो भेड़ियों के बीच पल कर बड़ा होने से न
के पश्चात् व्यक्ति पाप के कार्यों अर्थात अशुभ प्रवृत्तियों से यथा अपनी शक्तियों का भान भूल जाता है। सम्यग्दर्शन से आत्मा
संभव बचने का प्रयास करता है। उसका जीवन पानी में कमल और शरीर का भेदज्ञान होता है। आत्मा का साक्षात्कार होने से
की भाँति निर्लिप्त होने लगता है। प्रत्येक कार्य को करने में उसकी अनन्त शक्ति का भान होने लगता है। उसके ऊपर आए उसका विवेक एवं सजगता जागत होने लगते हैं। अनकल एव imilaritariatriardibasutrdarshikarditoriado ४१dividorsdrsdasudasuddandramodindiansarriand
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जनवर्गप्रतिकूल परिस्थितियों का उस पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। रोगों के अन्य कारण एवं उपचार की सीमाएँ - उसका प्रयास नवीन कर्मों का क्षय कर आत्मा को नर से
रोग होने के मुख्य कारण हमारे पूर्वकृत संचित अशुभ नारायण बनाने का होता है।
कर्मों का उदय, हमारी अप्राकृतिक जीवन-पद्धति, अर्थात् पूर्वकृत कर्मों का वर्तमान जीवन से संबंध - असंयमित, अनियमित, अनियंत्रित, अविवेकपूर्ण अपनी क्षमताओं
के प्रतिकूल शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक अशुभ प्रवृत्तियाँ जन्म के साथ मृत्यु निश्चित है। पूर्वकृत पुण्यों के आधार
हैं। सम्यक् दर्शन होने के पश्चात् रोग होने पर व्यक्ति रोग का पर हम प्राण-ऊर्जा अर्थात् श्वासों के रूप में आयुष्य का जो
कारण अपनी गलतियों को मानेगा और धैर्य, सहनशीलता खजाना लेकर आते हैं प्रतिक्षण कम होता जाता है। जीवन के
समभावपूर्वक उनको सहन कर कमों से हल्का होना चाहेगा। अंतिम समय तक उस संचित संगृहीत प्राण-ऊर्जा को संतुलित
रोग की स्थिति में हाय-हाय कर, चिल्लाकर सबको परेशान एवं नियंत्रित कैसे रखा जाए, यह स्वास्थ्य की मूलभूत आवश्यकता
कर, नवीन कर्मों का बंध नहीं करेगा। जिससे कर्मों का रोग है। पूर्वकृत कों के आधार पर ही हमें अपना स्वास्थ्य, सत्ता,
सदैव के लिए चला जाएगा। परंतु अपरिहार्य कारणों से धैर्य एवं साधन, संयोग अथवा वियोग मिलते हैं। अनुकूल अथवा प्रतिकूल
सहनशीलता के अभाव में अगर उपचार भी कराएगा तो इस परिस्थितियाँ बनती हैं। परंतु कभी कभी पूर्वकृत पुण्यों के उदय
बात का अवश्य विवेक रखेगा कि उपचार के लिए जो साधन, से व्यक्ति को मनचाहा रूप, सत्ता, बल, साधन एवं सफलताएँ
साध्य एवं सामग्री कार्य में ली जा रही है, वह यथासंभव पवित्र लगातार मिलने लगती हैं। प्रतिकूल परिस्थितियाँ, वियोग, रोग
हो। यदि उपचार कर्मबंध का कारण बने तो कर्जा चुकाने के यदि उत्पन्न न होते तो व्यक्ति अज्ञानवश अभिमानपूर्वक कर्म -
लिए ऊँची ब्याज की दर पर नया कर्जा लेने के समान होगा। सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता। कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए हमें चिंतन करना होगा कि वे कौन से कारण हैं जिनसे मिथ्यात्व सब पापों की जड़ - बहुत से बालक जन्म से ही विकलांग अथवा रोगग्रस्त होते हैं?
आज अज्ञानवश अहिंसाप्रेमी उपचार के नाम पर हिंसक कोई गरीब के घर में कोई अमीर के घर में जन्म क्यों लेते हैं?
दवाइयों की गवेषणा तक नहीं करते। भूल का प्रायश्चित्त होता कोई बुद्धिमान तो कोई मूर्ख क्यों बने हैं? भारतीय संविधान में
है। जानते हुए भूलें करना एवं बाद में प्रायश्चित्त लेकर दोषों से प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र का सर्वोच्च पद प्राप्त करने का अधिकार
अपना शुद्धिकरण करना कहाँ तक तर्कसंगत है। वे प्रभावशाली, है, परंतु चाहते हुए अथवा प्रयास करने के बावजूद भी सभी
स्वावलंबी, अहिंसक चिकित्सा-पद्धतियों को सीखने, समझने राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन पाते? संसार की सारी
एवं अपनाने हेतु क्यों नहीं प्रेरित होते? ऐसी पद्धतियों के प्रशिक्षण, विसंगतियाँ एवं हमारे चारों तरफ का वातावरण हमें पुनर्जन्म एवं
प्रचार-प्रसार एवं शोध हेतु जनसाधारण को प्रेरणा क्यों नहीं कों की सत्ता के बारे में निरंतर सजग और सतर्क कर रहे हैं।
देते? अहिंसा-प्रेमियों द्वारा सेवा के नाम पर हिंसा पर आधारित अज्ञानवश उसके महत्त्व को न स्वीकारने से उसके प्रभाव से कोई
अस्पतालों के निर्माण एवं संचालन तथा प्रेरणा के पीछे उनकी बच नहीं सकता। पारस को पत्थर कहने से वह पत्थर नहीं हो
दृष्टि सम्यक् नहीं कही जा सकती ? जाता और पत्थर को पारस मान लेने से वह पारस नहीं बन जाता। सम्यक दर्शन रोग के इस मूल कारण पर दृष्टि डालता है एवं कर्मों
इसी कारण मिथ्यात्व को सबसे बड़ा पाप माना जाता है। को दूर करने की प्रेरणा देता है, जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
भारत भर के बच्चों के पोलियो पल्स के टीके चंद माह पहले
लगाने का अभियान चला, परंतु शायद ही किसी ने यह जानने अपनी सफलताओं का अहम करने वालों के जैसे ही
का प्रयास किया कि इनके कोई दुष्प्रभाव तो नहीं होते? ये पूर्वकृत पुण्यों का क्षय हो जाता है और अशुभ कर्मों का उदय
दवाइयाँ कैसे बनती हैं? इसके निर्माण में बछड़ों के ताजे खून प्रारंभ होने लगता है, उनका अहम चूर-चूर हो जाता है। अपराध
एवं बंदरों के गुर्दो के अवयवों की आवश्यकता होती है। अमेरिका के प्रथम प्रयास में न पकड़ा जाने वाला यदि अपनी सफलता
में लगभग १ हजार परिवारों को इन इंजेक्शनों के दष्प्रभावों के पर गर्व करे तो यह उसका अज्ञान ही होगा। Shanindiannaraman a ndamoornool Roomaroornanandamaharanaries
ह.
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-यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - फलस्वरूप क्षतिपूर्ति के रूप में लगभग ७० लाख डालर का शरीर में स्वयं स्वस्थ होने की क्षमता है - भुगतान करना पड़ा। लगभग ६० से ७० प्रतिशत इन दवाइयों
आज हमारे सारे सोच का आधार जो प्रत्यक्ष है, जो अभी का निर्माण करने वाली कंपनियाँ, दुष्प्रावों की क्षतिपूर्ति का
सामने है. उसके आगे-पीछे जाता ही नहीं। सही आस्था लक्ष्य - भुगतान माँगने वालों के कारण बंद हो रही हैं। ऐसी दवाइयों का
प्राप्ति की प्रथम सीढ़ी है। रोग कहीं बाजार में नहीं मिलता। सेवन कर अथवा अस्पतालों का निर्माण और संचालन की कर्तव्य-बोध हेत चिंतन करने की प्रेरणा देता है। चेतावनी देता प्रेरणा देकर कहीं हम बूचड़खानों को तो अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहन है। परंतु सही दृष्टि न होने से हम उसको शत्र मानते हैं। हम स्वप्न नहीं दे रहे हैं। जब तक पाप से नहीं डरेंगे, धर्म की तरफ तीव्र में हैं। बेहोशी में जी रहे हैं। दर्द उस बेहोशी को भंग कर हमें गति से कैसे बढ़ पाएँगे? ठीक उसी प्रकार जब तक हिंसा से सावधान करता है। रोगी सुनना नहीं चाहता है। उसको दबाना निर्मित दवा लेने का हमारा मोह भंग नहीं होगा, न तो हम पूर्ण चाहता है। उपचार स्वयं के पास है और खोजता है बाजार में, स्वस्थ बनेंगे और न प्रभावशाली, स्वावलंबी व अहिंसात्मक डाक्टर एवं दवाइयों के पास। जितना डाक्टर एवं दवा में विश्वास चिकित्सा-पद्धतियों को सीखने, समझने एवं अपनाने का मानस है, उतना अपने आप पर, अपनी छिपी क्षमताओं पर नहीं, यही ही बना पाएँगे। आज चिकित्सा के लिए जितना जानवरों पर तो मिथ्यात्व हैं। क्या वह कभी चिंतन करता है कि मनुष्य के अत्याचार हो रहा है, उतना शायद और किसी कारण से नहीं। अलावा अन्य चेतनाशील प्राणी अपने आपको कैसे ठीक करते क्योंकि जानवरों के अवयवों की जितनी ज्यादा कीमत दवाई हैं? क्या स्वस्थ रहने का ठेका दवा एवं डाक्टरों के संपर्क में व्यवसाय वाले दे रहे हैं, उतनी अन्य कोई व्यवसाय नहीं देते। रहने वालों ने ही ले रखा है? वस्तुतः हमें इस बात पर विश्वास जब दवाइयों के लिए जानवर कटेंगे तो मांसाहार को कोई रोक
करना होगा कि शरीर ही अपने आपको स्वस्थ करता है, अच्छी नहीं सकता। सम्यग्दर्शन में आस्था रखने वाले प्रत्येक साधक
से अच्छी दवा और चिकित्क तो शरीर को अपना कार्य करने में
सहयोग मात्र देता है। जिसका शरीर सहयोग करेगा वही स्वस्थ एवं अहिंसा-प्रेमियों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा को
होगा। स्वास्थ्य के संबंध में यही दृष्टि सम्यक्दर्शन है, सच्चा प्रोत्साहन देने वाली प्रवृत्तियों से अपने को अलग रखना चाहिए।
ज्ञान है तथा संपूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त करने का मूलभूत आधार भी।
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जैन-दर्शन में पर्यावरण-संरक्षण
कन्हैयालाल लोढ़ा....)
का उपाय जैन
प्रस्तुत लेख में
किया जा रहा
भारतीय संस्कृति में पर्यावरण शब्द का प्रयोग प्राकृतिक आत्मिक प्रदूषण को माना गया है, शेष सभी प्रदूषण इसी प्रदूषण पर्यावरण तक ही सीमित न होकर प्राणि-जगत् तथा मानव- के कटु फल, फूल, पत्ते व काँटे हैं। अत: जैन-धर्म इसी मूल जीवन से संबंधित आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, पारिवारिक, प्रदूषण को दूर करने पर जोर देता है। इस प्रदूषण के मिटने पर सामाजिक, आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों के लिए हुआ है। इन ही अन्य प्रदूषण मिटना संभव मानता है, जबकि अन्य संस्थाएँ, समस्त क्षेत्रों में पर्यावरण-प्रदूषण का मूल कारण आत्मिक सरकारें, राजनेता प्राकृतिक प्रदूषण को मिटाने पर जोर देते हैं। विकार है। आत्मिक विकार का क्रियात्मक रूप विषय-भोग है। परंतु उनके इस प्रयत्न से प्रदूषण मिट नहीं पा रहा है। एक रूप भोगवादी संस्कृति ने ही समस्त पर्यावरण-प्रदूषणों को जन्म में मिटने लगता है तो दूसरे रूप में फूट पड़ता है, केवल रूपान्तर दिया है। उन प्रदूषणों से मुक्ति पाने का उपाय जैन-दर्शन में मात्र होता है, जबकि जैन-वाङ्मय में प्रतिपादित सूत्रों के पालन गृहस्थ धर्म है। प्रस्तुत लेख में इसी पर विस्तार से विवेचन से सभी प्रकार के प्रदूषण समूल रूप से नष्ट होते हैं। इसी विषय
का अति संक्षिप्त रूप में ही यहाँ विवेचन किया जा रहा है। पर्यावरण शब्द 'परि' उपसर्गपूर्वक 'आवरण' से बना है, ऊपर कह आए हैं कि समस्त प्रदूषणों का मूल कारण जिसका अर्थ है - जो चारों ओर से आवृत्त किए हो, चारों ओर आत्मिक प्रदूषण अर्थात् आत्मिक विकार है। आत्मिक विकार छाया हुआ हो चारों का शाब्दिक अर्थ वायुमंडल होता है, परंतु हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि प्रमाणित है, इन्हें ही पाप भी वर्तमान में वातावरण शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है, जैसे कहा जाता है। इन सब पापों की जड़ है विषय-कषाय से मिलने कहा जाता है कि व्यक्ति जैसे वातावरण में रहता है उसके वैसे वाले सुखों के भोग की आसक्ति। भोगों की पूर्ति के लिए भोग ही भले-बुरे संस्कार पड़ते हैं। इस रूप में पर्यावरण शब्द भारत -सामग्री व सुविधाएँ चाहिए। भोगजन्य, सुख सामग्री व सुविधा के प्राचीन धर्मों में वातावरण से अर्थात मानव-जीवन से संबंधित -प्राप्ति के लिए धन सम्पत्ति चाहिए। धन प्राप्त करने के लोभ से सभी क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण दो प्रकार का होता है - ही मानव हिंसा, झूठ, चोरी, संग्रह, परिग्रह, शोषण आदि दूषित परिशुद्ध एवं अशुद्ध। जो पर्यावरण जीवन के लिए हितकर होता कार्य करता है। स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वस्तुओं का है वह परिशुद्ध पर्यावरण है और जो पर्यावरण जीवन के लिए उत्पादन करता है, असली वस्तुओं में हानिप्रद नकली वस्तुएँ अहितकर होता है, वह अशुद्ध पर्यावरण है। इसी अशुद्ध पर्यावरण मिलाता है और इसी प्रकार के अनेक प्रदूषणों को जन्म देता है। को प्रदूषण कहते हैं।
वर्तमान में जितने भी प्रदूषण दिखाई देते हैं, इन सबके मूल में पाश्चात्य देशों में प्रदूषण शब्द प्राकृतिक प्रदूषण का सूचक
भोगलिप्सा व भोग-वृत्ति ही मुख्य है। है। परंतु भारतीय धर्मों में विशेषत: जैनधर्म में पर्यावरण-प्रदूषण जब तक जीवन में भोग वृत्ति की प्रधानता रहेगी तब तक केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं है। प्रत्येक आत्मिक, मानसिक, भोगसामग्री प्राप्त करने के लिए लोभवृत्ति भी रहेगी। कहा भी है सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि जीवन से कि लोभ पाप का बाप है अर्थात् जहाँ लोभ होता है वहाँ पाप की संबंधित समस्त क्षेत्र इसकी परिधि में आते हैं। जीवन से संबंधित उत्पत्ति होती ही है। अतः प्रदूषण के अभिशाप से बचना है तो ये सभी क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए हैं। इनमें से किसी भी एक क्षेत्र में . पापों से बचना ही होगा, पापों को त्यागना ही होगा। पापों का उत्पन्न हुए प्रदूषण का प्रभाव अन्य सभी क्षेत्रों पर पड़ता है। जैन त्याग ही जैनधर्म की समस्त साधनाओं का आधार व सार है। -दर्शन में प्रदूषण, दोष, पाप, विकार, विभाव, एकार्थक शब्द पापों से मुक्ति को ही जैनधर्म में मुक्ति कहा गया है। अतः हैं। जैन-दर्शन में इन सभी क्षेत्रों के प्रदूषणों का मूल कारण जैनधर्म की समस्त साधनाएँ, प्रदूषण को दूर करने वाली है।
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గరగరగపోరు సాగురువారం గురువారసాగరం
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- यतीन्दगरिक ग्रन्य आवृत्ति को जैनधर्मजैनधर्म में अनागार एवं आगार दो प्रकार के धर्म कहे गये हैं। का लक्ष्य सहज प्राकृतिक जीवन से हटकर भोग भोगना हो अनागारधर्म को धारण करने वाले साधु होते हैं जो पापों के पूर्ण जाता है तो वह भोग के सुख के वशीभूत होकर अपने हितत्याग की साधना करते हैं। आगार-धर्म को धारण करने वाले अहित को, कर्त्तव्य-अकर्तव्य को भूल जाता है और वह कार्य गृहस्थ होते हैं, उनके लिए बारह व्रत धारण करने एवं कुव्यसनों भी करने लगता है, जिसमें उसका स्वयं का ही अहित हो। के त्याग का विधान है। यही आगार (गृहस्थ) धर्म प्रदूषणों से उदाहरणार्थ - किसी भी मनुष्य से कहा जाये कि हम तुम्हारी बचने का उपाय है। इसी परिप्रेक्ष्य में यहाँ बारह व्रतों का विवेचन आँखों का मूल्य पाँच लाख रुपए देते हैं, तुम अपनी दोनों आँखें किया जा रहा है--
हमें बेच दो तो कोई भी आंखें बेचने को तैयार नहीं होगा। स्थूल प्राणातिपात का त्याग - पहला व्रत है स्थूल प्राणातिपात ।
अर्थात् वह अपनी आँखों को किसी भी मूल्य पर बेचने को का त्याग करना। प्राणातिपात उसे कहा जाता है जिससे किसी तैयार नहीं है। वह आँखों को अमूल्य मानता है। परंतु वही भी प्राणी के प्राणों का घात हो । प्राण दस कहे गए हैं--१. मनुष्य चक्षु इंद्रिय के सुखभोग के वशीभूत हो टेलीविजन, श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण, २. चक्षुरिन्द्रियबल प्राण, ३. घ्राणेन्द्रियबल
सिनेमा आदि को अधिक समय देकर अपनी आँखों से अधिक प्राण, ४. रसनेन्द्रियबल प्राण, ५. स्पर्शेन्द्रियबल प्राण, ६. मनबल
काम लेकर उनकी शक्ति क्षीण कर देता है। इस प्रकार वह प्राण, ७. वचनबल प्राण, ८.कायाबल प्राण, ९. श्वासबल प्राण
अपनी आँखों की अमूल्य प्राण की शक्ति को हानि पहुँचाकर और १०. आयुष्यबल प्राण। इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण
अपना ही अहित कर लेता है। यही बात कान, जीभ आदि को आघात लगे, हानि पहुँचे वह प्राणातिपात है। यह प्राणातिपात
समस्त इंद्रियों के विषयों के सेवन से होने वाले प्राणों के अतिपात प्राणी का अर्थात् चेतना का ही होता है, निष्प्राण (अचेतन) का
पर घटित होती है। जैन-दर्शन ने पृथ्वी, पानी, हवा तथा वनस्पति न ही, क्योंकि अचेतन जगत पर प्राकृतिक प्रदूषण या अन्य
में जीव माना है, इन्हें प्राणवान् माना है। इन्हें विकृत करने को किसी भी प्रकार के प्रदूषण का कोई भला बुरा प्रभाव नहीं
इनका प्राणातिपात माना है। परंतु मनुष्य अपने सुख-सुविधा व पड़ता है, नहीं उसे सुख-दुख होता है। अतः प्रदूषण का संबंध
संपत्ति-प्राप्ति के लोभ से इनका प्राण हरण कर इन्हें निर्जीव, प्राणी से ही है। इस प्रकार के प्रत्येक प्रदषण से प्राणी के ही प्राणों निष्प्राण व प्रदूषित कर रहा है यथा-- का अतिपात होता है। इसी प्राणातिपात को वर्तमान में प्रदूषण पृथ्वीकाय का प्राणातिपातप्रदषण - कहा जाता है। अतः प्रत्येक प्रकार का प्रदूषण प्राणातिपात है,
कृषि-भूमि में रासायनिक खाद एवं एण्टीबायोटिक दवाएँ प्राणातिपात से बचना प्रदूषण से बचना है, प्रदूषण से बचना प्राणातिपात से बचना है।
डालकर भूमि को निर्जीव बनाया जा रहा है जिससे उसकी उर्वरा
-शक्ति प्राणशक्ति नष्ट होती है। परिणामस्वरूप भूमि बंजर हो जैन-दर्शन में समस्त पापों, दोषों तथा प्रदूषणों का मूल जाती है फिर उसमें कछ भी पैदा नहीं होता है तथा रासायनिक खाद प्राणातिपात को ही माना है। यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि प्राणी
प्राणा
र
से पैदा हुई फसलें शरीर के लिए हानिकारक एवं प्रदूषित होती है। प्राणातिपात या प्रदूषण क्यों करता है? उत्तर में कहना होगा कि प्राणी को शरीर मिला है, इससे उसे चलना. फिरना, बोलना.
- भूमि का दोहन करके खाने खोदकर खनिज पदार्थ, लोह, खाना, पीना, मल विसर्जन करना आदि कार्य व क्रियाएँ करनी
ताँबा, कोयला, पत्थर आदि प्रतिवर्ष करोड़ों टन निकाला जा
" रहा है। उसे निर्जीव बनाया जा रहा है तथा उसे कौडियों के भाव होती हैं। परंतु इन सब क्रियाओं में प्रकृति का सहज रूप में उपयोग करें तो न तो प्रकृति को हानि पहुँचती है और न प्राण
विदेशों को अपने देश में उपभोग की वस्तुएँ प्राप्त करने एवं शक्ति का ह्रास होता है। इससे प्राणी का जीवन तथा प्रकृति का
विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिए बेचा जा रहा है। भले ही इस संतुलन बना रहता है। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों वर्षों से
भूमि-दोहन में भावी पीढ़ियों के लिए खनिज पदार्थ न बचे, इस पृथ्वी पर पशु-पक्षी, मनुष्य आदि प्राणी रहते आए हैं, परंतु
__कारण यह कि खनिज पदार्थ नए पैदा नहीं हो रहे हैं और भावी प्रकृति का संतुलन बराबर बना रहा। पर जब प्राणी के जीवन
पीढ़ियाँ इन पदार्थों के लिए तरस-तरस कर मरें, अपने पूर्वजों के इस दुष्कर्म का फल अत्यंत दुःखी होकर भोगें। इस बात की
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ चिंता वर्तमान पीढ़ी व सरकारों को कतई नहीं है। यही बात पेट्रोलियम पदार्थों पर भी घटित होती है उनका भी इसी प्रकार भयंकर दोहन हो रहा है। आज विश्व में पचास करोड़ कारें, अरबों दुपहिया वाहन तथा करोड़ों कारखानों में अरबों टन पेट्रोल जलाया जा रहा है, जिससे पेट्रोल के भण्डार खाली होते जा रहे हैं, इससे एक दिन भावी पीढ़ियों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा । इस प्रकार पेट्रोल तथा लोहा आदि धातुओं के दोहन से होने वाला अभाव जलवायु प्रदूषण व तापमान वृद्धि का दुष्प्रभाव भावी पीढ़ियों के लिए अभिशाप बनने वाला है।
अपकाय का प्राणातिपात- प्रदूषण -
-
जैन- दर्शन के अनुसार जल में अन्य पदार्थ मिलने से अपकाय के प्राणों का हरण होना माना गया है, यही जलप्रदूषण है। वर्तमान में धन कमाने के लिए बड़े-बड़े कारखाने लगे हैं, उनमें प्रतिदिन करोड़ों-अरबों लीटर जिस जल का उपयोग होता है, वह सब जल प्रदूषित हो जाता है। रासायनिक पदार्थों के संपर्क से तथा नगर के गंदे नालों का जल मल-मूत्र आदि गंदगी से दूषित होता जा रहा है। यह दूषित जल धरती में उतरकर कुंओं के जल को तथा नदी में गिरकर नदी के जल को दूषित करता जा रहा है। दूषित जल के कीटाणुओं का नाश करने के लिए पीने के पानी की टंकियों में पोटेशियम परमेगनेट मिलाया जा रहा है जो स्वास्थ्य के लिए अहितकर है। नलों से भी जल का बहुत अपव्यय होता है। यह सब जल का प्रदूषण ही है। जैन धर्म में एक बूँद जल भी व्यर्थ बहाना पाप तथा बुरा माना गया है। अतः जैनधर्म के सिद्धांतों का पालन किया जाए तो जल के प्रदूषण से पूर्णतः बचा जा सकता है।
वायुकाय का प्राणातिपातप्रदूषण -
वायु में विकृत तत्त्व मिलने से वायुकाय के प्राणों का तपात होता है, यही वायुप्रदूषण है। बड़े कारखानों की चिमनियों से लगातार विषैला धुआँ निकलकर वायु को दूषित करता जा रहा है, करोड़ों कारखानों में विषैली गैसों का उपयोग रहा है। वेगैसें वायु में मिलकर इसकी प्राणशक्ति का क्षय कर रही हैं। इस प्रदूषण के प्रभाव से ध्रुवों में ओजोन परत भी क्षीण हो गई है, उसमें छेद होते जा रहे हैं, जिससे सूर्य की हानिकारक किरणें सीधे मानव-शरीर पर पड़ेंगी जिसके फलस्वरूप केंसर आदि
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आधुनिक सन्दर्भ में जैनवर्स
भयंकर असंख्य, असाध्य रोगों का खतरा उत्पन्न हो जाने वाला है। वायु प्रदूषण से नगरों में तो नागरिकों को श्वास लेने के लिए स्वच्छ वायु मिलना भी कठिन हो गया है और दम घुटने लगता है, जिससे दमा, क्षय आदि रोग भयंकर रूप में फैलने लगे हैं। जैन दर्शन में इस प्रकार के वायु प्रदूषण को पाप माना गया है और इस पाप से बचने के लिए उपदेश दिया गया है।
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वनस्पतिकाय का प्राणातिपात- प्रदूषण
जैनागम आचारांगसूत्र के प्रथम अध्ययन में वनस्पति की तुलना मनुष्य जीवन से की गई है जैसे मनुष्य का शरीर बढ़ता है, खाता है, उसी प्रकार वनस्पति भी बढ़ती है, भोजन करती है। अतः वनस्पति को सजीव माना गया है तथा इसके संरक्षण का विधान है। परंतु वर्तमान में वनस्पतिकाय का प्राणातिपात भयंकर रूप से हो रहा है। लकड़ी के प्रलोभन से जंगल काटे जा हैं। पहले जहाँ पहाड़ों पर व समतल भूमि पर घने जंगल थे, जिन्हें पार करना कठिन था, जिन्हें अटवी कहा जाता था। उनका तो आज नाम-निशान ही नहीं रहा। जो जंगल बचे और जो वन सरकार के द्वारा सुरक्षित घोषित किए गए हैं उन वनों में भी चोरी छिपे भयंकर कटाई हो रही है। इसका प्रभाव जलवायु पर पड़ा है। इनके कट जाने से आर्द्रता कम हो गई जिससे वर्षा में बहुत कमी हो गई है। घने जंगलों में लगे वृक्ष प्रदूषित वायु का कार्बनडाइ - ऑक्साइड ग्रहण कर बदले में ऑक्सीजन देकर वायु को शुद्ध करते थे, वह शुद्धिकरण की प्रक्रिया अति धीमी हो गई है। फलतः वायु में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है जो मानव-जाति के स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक
रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाइयाँ डालने से कृषि में अनाज, फल, फूल, व दालों की संरचना में उनका दूषित प्रभाव बढ़ता जा रहा है जो स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक है तथा पौष्टिक तत्त्वों - विटामिन, प्रोटीन, कैलोरी का भी घातक है। यही कारण है कि अमेरिका में रासायनिक खाद से उत्पन्न हुए गेहूँ के भाव से बिना रासायनिक खाद में उत्पन्न हुए गेहूँ का
मूल्य आठ गुना है।
यसकाय-प्राणातिपात -
दो इंद्रियों से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव जैसे केंचुए, चींटी, मधुमक्खी, भौरे, चूहे, सर्प, पक्षी, पशु आदि चलने फिरने
Ammon
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यतीन्दगरिमारक गत आवृनिक गन्दर्भ - वाले जीव त्रसकाय कहे जाते हैं। इन जीवों की उत्पत्ति प्रकृति ३. अचौर्य व्रत - से स्वतः होती है और ये सभी जीव फसल का संतुलन बनाए
अपहरण करना चोरी है। वर्तमान में अपहरण के नए-नए रखने में सहायक होते हैं। केंचुआ जीव भूमि की उर्वरा-शक्ति
रूप निकल आए हैं। व्यापार द्वारा उपभोक्ताओं के धन का बढ़ाते हैं। आज दवाइयों से इन जीवों को मार दिया जाता है,
अपहरण तो किया ही जाता है। कल कारखानों में श्रमिकों को जिससे पैदावार में असंतुलन हो गया है तथा जीवों की अनेक
श्रम का पूरा प्रतिफल न देकर उनके श्रम का भी अपहरण किया प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं।
जाता है। उनकी विवशता का लाभ उठाया जाता है। जीवन - जैन-धर्म में उपर्युक्त सब प्रकार के जीवों का प्राणातिपात रक्षक दवाइयों के बीस, तीस गुने दाम लेकर धन का अपहरण करने रूपी प्रदुषणों के त्याग का विधान किया गया है। यदि इस किया जाता है तथा नकली दवाइयाँ बनाकर रोगियों को मृत्यु व्रत का पालन किया जाए और पृथ्वी, जलवायु, वनस्पति आदि के मुख में धकेला जा रहा है। लाटरी के द्वारा गरीबों के कठिन को प्रदूषित न किया जाए, इनका हनन न किया जाए तो मानव श्रम से की गई कमाई का अपहरण किया जा रहा है। संक्षेप में जाति प्राकृतिक प्रदूषणों से सहज ही बच सकती है। फिर कहें तो जितने भी शोषण के तरीके हैं वे सभी अपहरण के रूप सरकार को पर्यावरण के लिए किसी भी कानून को बनाने की हैं। बिना प्रतिफल दिए या कम प्रतिफल देकर अधिक लाभ आवश्यकता ही नहीं रहेगी। इस प्रकार से अहिंसा के पालन से उठाना शोषण या अपहरण है। यह अति भयंकर आर्थिक प्रदूषण प्राणातिपात के त्याग में पर्यावरण संबंधी समस्त समस्याओं है। इसी से आर्थिक विषमता उत्पन्न होती है। इससे गरीब अधिक का समाधान निहित है।
गरीब और धनवान अधिक धनवान होते जा रहे हैं। इस विषमता
से ही आज आर्थिक जगत् में भयंकर प्रतिद्वन्द्व व संघर्ष चल रहा २. मृषावाद विरमण -
है। युद्ध का भी प्रमुख कारण यह आर्थिक शोषण व प्रतिद्वन्द्वता दूसरा व्रत है मिथ्याभाषण का, झूठ का त्याग करना अर्थात् की होड ही है। जैनधर्म में अपहरण व शोषण का त्याग प्रत्येक जो वस्तु जिस गुण-धर्मवाली है उसे वैसी ही बताया जाए। आज मानव के लिए आवश्यक बताया गया है। यदि इस अचौर्य व्रत चारों ओर व्यापार में मृषावाद का ही बोलबाला है। उदाहरण के का पालन किया जाए तो भुखमरी, गरीबी, आर्थिक, लूट, अकाल लिए रासायनिक खाद दीर्घकाल की उपज की तथा स्वास्थ्य को मत्य यद आदि प्रदषणोंओं का अंत हो जाए। दृष्टि से हानिकारक है, खेतों की उर्वरा-शक्ति को नष्ट करने वाला है। उसकी इन बुराइयों को छिपाकर उसे खेती के लिए ४. व्यभिचार का त्याग - लाभप्रद बताया जाता है। इसी प्रकार सिन्थेटिक धागे के वस्त्र इस व्रत में अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य समस्त प्रकार स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक हैं, उनकी इस यथार्थता को के यौन-संबंधों को त्याज्य कहा गया है। जैनदर्शन में परस्त्रीगमन, छिपाया जाता है और उनके लाभ के गुण गाए जाते हैं। वेश्यागमन तथा अतिभोग को सर्वथा त्याज्य कहा गया है। यदि एण्टीबायोटिक दवाइयों से शरीर की प्रतिरक्षात्मक शक्ति का इसका पालन किया जाए तो एडस जैसी असाध्य बीमारियों से भयंकर ह्रास होता है जिससे वृद्धावस्था में रोगों से प्रतिरोध करने सहज ही बचा जा सकता है। आज जो एड्स तथा यौन-संबंधी की शक्ति ही नहीं रहती है। इस तथ्य को छिपाया जाता है और अनेक रोग व प्रदषण बडी तेजी से फैल रहे हैं, जिससे मानव धड़ल्ले से विज्ञापन द्वारा इनके लाभप्रद होने का प्रचार-प्रसार जाति को खतरा उत्पन्न हो गया है, इसका कारण इस व्रत का किया जाता है। आज विज्ञापनदाता विज्ञापित वस्तु से होने पालन न करना ही है। कामोत्तेजक तथा अश्लील चलचित्र वाली भयंकर हानि को छिपाकर उसके तात्कालिक लाभ को बनाना व उन्हें देखना इस व्रत को भंग करना ही है। इससे आज बहुत बढ़ा-चढ़ाकर जनता को मायाजाल में फँसाता है जो धोखा अविवाहित लड़कियों के गर्भ रहने, गर्भपात कराने तथा तलाक है। जैनसाधना में ऐसे कार्य को मृषावाद कहा गया है और । आदि घटनाओं में वृद्धि हो रही है। ब्यूटी पार्लर व प्रसाधन इसका निषेध किया गया है। जैन-दर्शन के इस सिद्धांत को सामग्री से शारीरिक अस्वस्थता बढ़ती जा रही है। इन भयंकर अपना लिया जाए तो ऐसे प्रदूषणों से बचा जा सकता है। प्रदषणों से बचाव इस व्रत के पालन करने से ही संभव है। సూరురురురరరరరరరరరంలో ఆరుగురు దురదromotions
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ
५. परिग्रह परिमाण व्रत -
गृहस्थ को भूमि, भवन, खेत, वस्तु, धन, धान्य, गाय, भैंस आदि की आवश्यकता पड़ती है। अतः इन्हें अपने परिवार की आवश्यकतानुसार रखना, इससे अधिक धन उपार्जन की दृष्टि से न रखना, इस व्रत में आता है। इस व्रत में परिग्रह या संग्रह को बुरा बताया गया है । उत्पादन को बुरा नहीं कहा गया है| आनंद, कामदेव आदि आदर्श श्रावकों के पास हजारों गायें थी उन्होंने उनका परिमाण किया, उन्हें बेचा नहीं है। परिमाण करने के पश्चात् गायों के जो बछड़े-बछड़ी पैदा होते, वे जब परिमाण से अधिक हो जाते तब दूसरों को दान दे दिए जाते थे। जिससे वे उनका पालन पोषण कर अपनी आजीविका चलाते थे। जैनधर्म में ग्रहस्थ के लिए उत्पादन करने का निषेध नहीं है, क्योंकि कोई व्यक्ति भोजन करना तो उपादेय माने और अन्नउत्पादन को हेय माने, यह घोर विसंगति है। अतः उत्पादन सर्वहितकारी प्रवृत्ति से करना परंतु उसका अपनी आवश्यकताओं से अधिक संग्रह न करना ही इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है । इस व्रत के पालन से उदारता, सेवा, परोपकार की श्रेष्ठ वृत्ति का विकास होता है। सेठ व श्रेष्ठ कहा ही उसे जाता है जो अपने धन का उपयोग दूसरों की सेवा में करे। इस व्रत का पालन किया तो विश्व की गरीबी दूर हो जाए । आर्थिक शोषण का अन्त हो जाए • और जीवन के लिए आवश्यक अन्न, वस्त्र, मकान आदि की कमी न रहे। आज जो आर्थिक जगत् में होड़ लगी है तथा संघर्ष हो रहा है, उसका कारण संग्रहवृत्ति अर्थात् परिग्रह ही है।
आर्थिक बुराइयों एवं समस्त प्रदूषणों से बचने का उपाय है,
परिग्रह - परिमाण व्रत। इस प्रकार इस व्रत के पालन से पर्यावरण का स्वयमेव शुद्धिकरण हो जाता है।
६. दिशा-परिमाण व्रत -
धन कमाने तथा विषय - सुख भोगने के लिए मनुष्य देश देशान्तरों में भ्रमण करता है । यह भ्रमण परिग्रह व भोग- वृद्धि हेतु होता है। ऐसे भ्रमण को जैन-दर्शन में मानव-जीवन के लक्ष्य शान्ति, मुक्ति तथा परमानंद में बाधक माना गया है और इससे यथासंभव बचने के लिए मर्यादा करने का विधान किया गया है। वर्तमान में लोग धन कमाने, सुख-सुविधा पाने एवं अधिकाधिक भोग भोगने के लिए अपनी जन्म भूमि को छोड़कर शहरों की ओर दौड़ रहे हैं। फलस्वरूप एक ही शहर में लाखों,
आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
करोड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठी होती जाती रही है। उन लोगों के यांत्रिक लाखों वाहनों से तथा उद्योगों में लगे यंत्रों से निकली विषैली गैसों से, उनके मल-मूत्र से, उनके द्वारा फेंके हुए कूड़े कचरे से, उनके श्वास से निकली कार्बनडाइ-ऑक्साइड से भयंकर प्रदूषण फैलता जा रहा है। भारत में दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, कानपुर आदि शहर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । जहाँ श्वास लेने के लिए शुद्ध वायु मिलना कठिन हो गया है, जिससे वहाँ दमा, क्षय, हृदयरोग, कैंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ बड़ी तीव्र गति से फैलती जा रही हैं। यदि दिशा परिमाणव्रत का पालन किया जाए अर्थात् अपने गाँव में रहकर स्वास्थ्यप्रदायक, सादा, सहज, स्वाभाविक, प्राकृतिक जीवन जिया जाए तो बड़े-बड़े नगरों में उत्पन्न होने वाले समस्त प्रदूषणों एवं दूषित पर्यावरण संबंधी. समस्याओं से सहज ही में बचा जा सकता है।
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७. उपभोग - परिभोग-परिमाण व्रत
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इस व्रत में फल-फूल, वस्त्र, विलेपन, खानपान आदि समस्त उपभोग - परिभोग सामग्री की मर्यादा करने का विधान है। क्योंकि भोग- परिभोग ही आत्मिक दोषों, मानसिक द्वन्द्वों रूपी प्रदूषणों के कारण हैं । अतः जैनधर्म में साधुओं के लिए तो इन्हें पूर्ण त्याज्य ही कहा गया है। गृहस्थ की वृद्धि के लिए भी भोगों की वृद्धि को हेय माना गया है और इन्हें सीमित मर्यादित रखने का विधान है। जैन दर्शन का मानना है कि उपभोगवादी संस्कृति ही समस्त दोषों व प्रदूषणों की जननी है। अतः जब तक संस्कृति का आधार उपभोग रहेगा तब तक प्रदूषण भी बना
रहेगा। कारण यह किसी वस्तु का दुरुपयोग करने से ही प्रदूषण पैदा होता है। वस्तु के सदुपयोग से वस्तु का जितना उपयोग होता है, उससे अधिक उसका उत्पादन होता है। उसका अनावश्यक व्यय नहीं होता है। भोगवादी संस्कृति पशुता से भी निम्न स्तर की स्थिति की द्योतक है, कारण यह कि पशुप्रकृति के अनुरूप चलता है, प्रकृति को हानि नहीं पहुँचाता है। जैसे पशु- पक्षी भूख लगने पर ही खाते हैं, भूख नहीं होने पर नहीं खाते हैं । इस प्रकार प्रकृति का संतुलन बना रहता है। परंतु मनुष्य भूख न होने पर भी स्वाद के वशीभूत हो भोजन कर लेता है। अर्थात् मनुष्य का जीवन प्रकृति के अधीन नहीं है । वह प्रकृति से अपने को ऊपर उठाने में स्वतंत्र है। यही मानव-जीवन की विशेषता भी है। मानव इस स्वतंत्रता का सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों कर सकता
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुदिक सन्दर्भ में जैनधर्म है। सदुपयोग है प्रकृति का यथासंभव कम या उतना ही उपयोग इसी सातवें व्रत में सद्गृहस्थों के लिए पंद्रह कार्यों, कर्मादानों कला जितना जीवन के लिए अत्यावश्यक है। इससे प्रकृति की का निषेध किया गया है। इनमें से अधिकांश कर्मादान प्रदूषण देन का अर्थात् वस्तुओं का व्यर्थ व्यय नहीं होता है जिससे से ही संबंधित हैं यथा - इंगालकम्मे-अर्थात् अंगार-कर्म। प्रकृति का संतुलन बना रहता है तथा प्रकृति के उत्पादन में वृद्धि अंगार कर्म से अभिप्राय है, कोयले बनाकर बेचना और इससे होती है। भारतवर्ष की संस्कृति में अन्न को देवता माना गया है। अपनी आजीविका चलाना। कोयला बनाने के लिए लकड़ी को अन्न के एक दाने को भी व्यर्थ नष्ट करने को घोर पाप या जलाया जाता है, जिससे धुआँ निकलता है जो वायु को प्रदूषित अपराध माना जाता रहा है। पेड़ के एक फूल, पत्ते व फल को करता है। वर्तमान में रेल के इंजन, मिलों, फैक्ट्रियों, कारखानों व्यर्थ तोड़ना अनुचित व पाप समझा जाता रहा है। पेड़-पौधों के इंजन पत्थर के कोयले से चलते हैं जिससे विषैले प्रदूषित को क्षति पहुंचाना तो दूर रहा उलटा उन्हें पूजा जाता है। खाद और धुंए व गैसें निकलती हैं, जो आस पड़ोस जल देकर उनका संवर्धन व पोषण किया जाता है। यही कारण के लिए बड़ी घातक होती है। इनसे श्वास, दमा, क्षय आदि रोग हो है कि आज से कुछ वर्ष पूर्व तक भारत में घने जंगल थे। जब से जाते हैं। जैन-दर्शन में सद्गृहस्थ के लिए इंगालकम्मे का निषेध उपभोक्तावादी संस्कृति का पश्चिम के देशों से भारत में आगमन है। इसके पालन से धुंए, गैसों के प्रदूषण से बचा जा सकता है। हुआ, प्रचार-प्रसार हुआ उसके पश्चात् ही सारे प्रदूषण पैदा हुए बणकम्मे-अर्थात वनकर्म। जंगल से लकड़ी, बाँस आदि
और वनों का विनाश हो गया। अगणित वनस्पतियों तथा पशु- काटकर बेचना जिससे वनों का विनाश होता है, जिससे अनेक पक्षियों की जातियों का अस्तित्व ही मिट गया। जहाँ पहले सिंह
प्रदूषणों की उत्पत्ति होती है। जैनदर्शन में सदगृहस्थ के लिए यह भ्रमण करते थे, आज वहाँ खरगोश भी नहीं रहे।
व्यवसाय त्याज्य बताया गया है। वर्तमान में विज्ञान के विकास के साथ भोग-सामग्री
फोडीकम्मे-अर्थात् विस्फोट-कर्म। विस्फोट करके पृथ्वी अत्यधिक बढ़ गई तथा बढ़ती जा रही है, जिसके फलस्वरूप
के फलस्वरूप को फोड़ना, खानों को खोदना और उनसे पत्थर, मिट्टी, कोयला,
को रोग बढ गए हैं और बढ़ते जा रहे हैं। उदाहरणार्थ टेलीविजन को लोहा केरोसिन आदि निकालकर बेचना। बारूद के विस्फोट से ही लें। टेलीविजन के समाप बठन स बच्चा म रक्त-कसर जस विस्फोट-स्थल के चारों ओर निकटवर्ती क्षेत्रों में प्रदूषण फैलता असाध्य रोग हो जाते हैं। आंखों की दृष्टि कमजोर हो जाती है। है। जैनदर्शन में फोडीकम्मे अर्थात विस्फोट-कर्म का निषेध टेलीविजन के परदे पर जो चलचित्र दिखाए जाते हैं उनमें प्रदर्शित की अभिनेता -अभिनेत्री का नृत्य, गान, हावभाव, वेशभूषा व अन्य भोग-वस्तुएँ पाने एवं भोग-भोगने की कामनाएँ-वासनाएँ उत्पन्न
दंत वणिज्जे-हाथी-दाँत आदि पशुओं के अंगों का व्यापार हो जाती हैं, उन सबकी पूर्ति होना संभव नहीं है। कामनाओं,
करना। वर्तमान में इस व्यापार के फलस्वरूप हाथियों की वासनाओं की पूर्ति न होने से तनाव, हीनभाव, दबाव, द्वन्द्व, कुंठाएँ
हस्ती को ही खतरा उत्पन्न हो गया है। वन की शोभा को भारी पैदा होती हैं जिससे मानसिक ग्रंथियों का निर्माण होता है, जिसके
धक्का लगा है, इसीलिए विश्व की समस्त सरकारों ने इस फलस्वरूप व्यक्ति मानसिक रोगी होकर जीवन पर्यंत दुःख भोगता
व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया है। जैन-दर्शन ने इसके व्यापार हैं, साथ ही रक्तचाप, हृदयकैंसर, अल्सर, मधमेह जैसे शारीरिक का निषध पहल स हा कर रखा है। रोगों का शिकार भी हो जाता है। जैनधर्म का मानना है कि भोग रस वणिज्जे-मदिरा आदि रस जिनका पीना शरीर, परिवार, स्वयं आत्मिक एवं मानसिक रोग है और इसके फलस्वरूप शारीरिक समाज आदि वातावरण को प्रदूषित करता है। इसलिए इनके रोगों की तथा सामाजिक विकृति की उत्पत्ति होती है।
व्यापार को जैनदर्शन ने सद्गृहस्थों के लिए त्याज्य कहा है। इस प्रकार इन आत्मिक, मानसिक, शारीरिक आदि समस्त विष वणिज्जे-विष का व्यापार करना। वर्तमान में यह प्रदूषणों की जड़ भोगवादी संस्कृति है और इसका उपाय जैन - व्यापार विषैली दवाइयों की निर्माता-फार्मेसियों से उभरकर आया दर्शन में प्रतिपादित भोगोपभोग-परिमाण व्रत का पालन करना है। है। इन फार्मेसियो में निर्मित एण्टीबायोटिक आदि अधिकांश
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-चतीन्द्रसूरि मारक पन्थ - आधुनिक पद का वर्मएलोपेथिक दवाइयाँ विष से निर्मित होती हैं। यह विष मिश्रित है' (iii) हिंसप्पयाणे--अर्थात् हिंसा में सहायक होना, हिंसक अस्त्र यह उन दवाइयों पर स्पष्ट लिखा भी रहता है। ये दवाइयाँ तत्काल -शस्त्रों का निर्माण करना जैसे अणुबम, उद्जनबम बनाना, तो लाभ पहुँचाती है परंतु इनसे शरीर की रोग-प्रतिरोधक एवं जैविक और रासायनिक शस्त्रों का निर्माण करना। इन शस्त्रों से जीवन-शक्ति का बहुत अधिक ह्रास होता है जिससे आयु क्षीण इतना प्रदूषण उत्पन्न होता है कि एक ही बार में हजारों-लाखों होती है और भविष्य में रोग के दुष्प्रभाव से भयंकर दुःख भोगना लोगों की मृत्यु हो जाती है। जो बच जाते हैं वे भी अपंगपड़ता है। यही कारण है कि वर्तमान में विदेशी लोग एवं उच्च अपाहिज हो जाते हैं। नागासाकी और हिरोशिमा नगर इसके स्तर के बुद्धिमान व्यक्ति इनके सेवन से बचने का प्रयत्न करते प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जैन दर्शन में ऐसे हिंसक अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण हैं। ये लोग जब अन्य कोई भी उपचार शेष नहीं रहता है तब ही करने, व्यापार करने, वितरण करने, उपयोग करने आदि को उनका सेवन करते हैं। इसीलिए इन दवाइयों की निर्माता विदेशी अनर्थदण्ड व त्याज्य कहा है। जैन-दर्शन में निरूपित इस व्रत कंपनियाँ अपनी दवाइयाँ एशिया के अविकसित देशों में विक्रय का पालन किया जाए तो युद्धों के दूषित वातावरण का सदा के कर रही हैं। जैन-दर्शन में शरीर को दूषित व विषैला करने वाली लिए अंत हो जाए। हिंसा से निर्मित प्रसाधन-सामग्री, चर्म के इन वस्तुओं के निर्माण व व्यापार को त्याज्य कहा गया है। जूते, रेशमी वस्त्र आदि भी हिंसप्पयाणे अनर्थदण्ड में आते हैं, इसी प्रकार वन को जलाना, नदी-तालाब आदि जलाशयों
इसलिए ये भी त्याज्य हैं। अस्त्रों-शस्त्रों के निर्माण के निरोध से
बचने वाले धन का उपयोग कर सारे संसार की भुखमरी व के जल को सुखाकर भूमि निकालकर बेचना आदि अन्य कर्मादान भी प्रदूषण पैदा करने वाले होने से जैन दर्शन में इनका
गरीबी को दूर किया जा सकता है। त्याग आवश्यक बताया गया है।
(iv) पापकम्मोवएसे अर्थात् पापकर्म को प्रोत्साहन देना। अपनी ८. अनर्थदण्ड-विरमण व्रत-अनर्थ का मतलब है व्यर्थ, स्वाथपूति, भागा एव धन
स्वार्थपूर्ति, भोगों एवं धन की प्राप्ति के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, निष्प्रयोजन अहितकर-दण्ड का अर्थ है यातना विनाश। अतः
ठगी, शोषण आदि के लिए प्रेरित करना व समर्थन करना, प्रोत्साहन अनर्थ-दण्ड-विरमण व्रत का अर्थ निष्प्रयोजन व अहितकर
देना, प्रशिक्षण देना आदि कार्य करना। जैसे रेडियो, टेलीविजन विनाश का त्याग करना है। अनर्थदण्ड ये हैं--
आदि में कामोत्तेजक, भोगवर्द्धक, विज्ञापन देना, इनके लिए
क्लब बनाना आदि कार्य इसी श्रेणी में आते हैं। जैन-दर्शन में (i) अवज्झाणारिये अर्थात् अपध्यान का करना, दुश्चितन करना।
इस प्रकार के मानसिक, सामाजिक, वातावरण को दूषित करने किसी भी व्यक्ति, समाज, राज्य, देश, संस्था को हानि पहुँचाने,
वाले कार्यों को सर्वथा त्याज्य कहा गया है। तात्पर्य यह है कि बुरा करने की सोचना। वर्तमान में प्रात:काल ही समाचारपत्र
जो कार्य अपने लिए हितकर न हो और दूसरों के लिए हानिकारक पढ़कर किसी नेता, देश, समाज, व्यवस्था, घटना आदि के प्रति ।
[ हो उसे अनर्थदण्ड कहते हैं। जैसे मनोरंजन के लिए ऊंटों की रोष, आक्रोश करना, अपने मन को दूषित करना एवं वातावरण पीठ पर बच्चों को बाँधकर ऊँटों को दौड़ाना, जिससे बच्चे को दूषित करना अपध्यान है। इससे किसी को भी लाभ नहीं
चिल्लाते हैं तथा गिरकर मर जाते हैं। मुर्गी व साँडों को परस्पर होता है इसलिए इसे अनर्थदण्ड कहा गया है। अतः जैन-दर्शन में
लड़ाना आदि। आजकल सौंदर्य प्रसाधन सामग्री के लिए अनेक वातावरण दूषित करने वाले ऐसे चिंतन को गृहस्थ के लिए।
पशु-पक्षियों की निर्मम हत्याएँ की जाती हैं, इस प्रकार प्रसाधनत्याज्य कहा गया है।
सामग्री के निर्माण में पशुओं का वध तो होता ही है साथ ही (ii) पमायायरिये - मद, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा को सामग्री का उपयोग करने वाले के स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती प्रमाद कहा जाता है। मद का अर्थ मद्यपान करना व अभिमान है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जो स्वादिष्ट वस्तुएँ बनाती हैं, उन पदार्थों करना है। मद्यपान अर्थात् शराब, धूम्रपान, गुटखा आदि नशीले के विटामिन प्रोटीन आदि प्रकृति-प्रदत्त पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते पदार्थों का सेवन करना। इससे अपने शरीर, परिवार, समाज व हैं, साथ ही वस्तुओं का मूल्य भी बीसों गुना हो जाता है। जो साथियों का वातावरण दूषित होता है। इससे किसी को भी लाभ अर्थ की बहुत बड़ी हानि है या दण्ड है अर्थात् अनर्थ दण्ड है। नहीं होने से इसे जैन दर्शन ने दण्ड माना है और त्याज्य बताया है। आज भोग परिभोग के लिए जिन कृत्रिम वस्तुओं का निर्माण हो
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महा
-यतीन्द्रसूरि माय आधुनिक सन्दर्भ में मर्म - रहा है। उन वस्तुओं के लाभकारी गुण या तत्त्व तो नष्ट हो ही करता है, वह भी दूषण है। गृहस्थ-जीवन की सुंदरता व सार्थकता
ते हैं साथ ही वे स्वास्थ्य तथा आर्थिक दृष्टि से भी हानिकारक अपनी न्यायपूर्वक उपार्जित सामग्री से बालक, वृद्ध, रोगी, सेवक, होती हैं। अतः वे अनर्थदण्ड रूप ही हैं। यही नहीं तली हुई संत-महात्मा आदि उन लोगों की सेवा करने में है जो उपार्जन चटपटी मिर्च, मसालेदार वस्तुओं को भी अनर्थदण्ड के रूप में करने में असमर्थ हैं। लिया जा सकता है, क्योंकि ये शरीर के लिए हानिकारक होती
जैन-धर्म में तप का बड़ा महत्त्व है। तप में (१) अनशन हैं, पाचनशक्ति बिगड़ती है। आस्ट्रेलिया, यूरोप आदि देशों के
(२) अनादरी भूख से कम खाना (३) आयंबिल रस का विकसित नागरिक स्वास्थ्य के लिए ऐसी तली हुई मिर्च मसालेदार -
परित्याग आदि है। ये सभी तप भोजन से होने वाले प्रदूषणों को हानिकारक वस्तुओं का उपयोग व उपभोग प्रायः नहीं करते हैं। दर करते हैं। उदर को अतिभोजन तथा गरिष्ठ भोजन के पचने में सिंथेटिक वस्त्र भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इसलिए अब
कठिनाई होती है। जिससे पाचन-शक्ति कमजोर हो जाती है विदेशों में पुन: सूती वस्त्रों को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है,
तथा पेट में सडाँध पैदा हो जाती है जो गैस बनाती है जिससे जिससे इसकी मांग बढ़ी है। यदि अनर्थदण्ड विरमण व्रत का अनेक रोग पैदा होते हैं। कहा जाता है कि सभी रोगों की जड पालन किया जाए तो इन सब प्रदूषणों से बचा जा सकता है।
उदर-विकार है, पेट की खराबी है। यह पेट की खराबी तथा (९) सामायिक (१०) देशावकासिक (११) पौषध व्रत इससे संबंधित अगणित रोग, उपवास, उणोदरी तथा आयंबिल
ये तीनों व्रत मानसिक एवं आत्मिक विकारों प्रदषणों से से जाते हैं। रूस में तो सभी रोगों के उपचार के लिए उपवास बचने तथा गुणों का पोषण करने के लिए है। अनुकूल, प्रतिकूल,
न चिकित्सा पद्धति प्रचलित ही है। पूज्य श्री घासीलाल म.सा. ने परिस्थितियों में समभाव से रहना, उनसे प्रभावित न होना, उनके
हजारों रोगियों का रोग आयंबिल तप से ही दूर किया था। प्रति राग द्वेष न करना, मन का संतुलन न खोना सामायिक है।
आयंबिल में एक ही प्रकार का घृत तेल आदि से रहित भोजन इससे व्यक्ति परिस्थिति से अतीत हो जाता है, ऊपर उठ जाता
किया जाता है। जिससे जितनी भूख है उससे अधिक भोजन से है, अत: सांसारिक सुख-दुःख के प्रभाव से मुक्त हो जाता है।
बचा जा सकता है। एक ही रस के भोजन में आमाशय को (१०) देशावकासिक व्रत छठे दिशा तथा सातवें भोग-परिभोग ऐनजाइम जिनसे भोजन पचता है, बनाने में कठिनाई नहीं होती परिमाण व्रत इन दोनों व्रतों का ही विशेष रूप है। छठे तथा
है। इसीलिए आस्ट्रेलिया-निवासी प्रायः एक समय में एक ही सातवें व्रतों में दिशा व भोग वस्तुओं की जीवन पर्यंत के लिए
रस का भोजन करते हैं। यदि मीठे स्वाद की वस्तुएँ खाते हैं तो मर्यादा की गई है। उसे प्रतिदिन के लिए और सीमित करना
उनके साथ खट्टे, नमकीन आदि स्वाद की वस्तुएँ नहीं खाते हैं। देशावकासिक व्रत का उद्देश्य है। पौषध व्रत में सांसारिक ।
तात्पर्य यह है कि शारीरिक रोगों व प्रदूषणों को दूर करने की दृष्टि प्रवृत्तियों से एक दिन के लिए विश्राम लेना है। इसमें साधुत्व ।
से तप का बड़ा महत्त्व है। का आचरण करना है, साधुत्व का रस चखना है। विश्राम से इसी प्रकार रात्रि-भोजन-त्याग, मांसाहार-त्याग, मद्य-त्याग, शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, विवेक का उदय होता है, संवेदन शिकार-त्याग आदि जैन-दर्शन के सिद्धांतों से शारीरिक, सामाजिक, शक्ति का विकास होता है अर्थात् आत्मिक गुणों का पोषण पारिवारिक तथा आर्थिक प्रदूषणों से बचा जा सकता है। लेख के होता है।
विस्तार के भय से इन पर यहाँ विवेचन नहीं किया जा रहा है। (१२) अतिथि-संविभाग व्रत -
उपसंहार-प्राणी के जीवन के विकास का संबंध प्राणशक्ति गृहस्थ जीवन में दान का बहुत महत्त्व है। गृहस्थ जीवन
के विकास से है न कि वस्तुओं के उत्पादन से तथा न भोग - का भूषण ही न्यायपूर्वक उत्पादन व उपार्जन करना तथा उसे
परिभोग सामग्री की वृद्धि से है। आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक, आवश्यकता वाले लोगों में वितरण करना है। जो उत्पादन व
भौतिक, पारिवारिक, सामाजिक क्षेत्र के पर्यावरणों में प्रदूषण उपार्जन नहीं करता है. वह अकर्मण्य व आलसी है वह गहस्थ की उत्पत्ति, प्राप्त वस्तुओं के दुरुपयोग से व भाग से होता है। जीवन के लिए दषण है। इसी प्रकार जो उत्पादन करके संग्रह क्योंकि भोग से ही समस्त दोष पनपते हैं, जो प्रदूषण पैदा करते
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- गनीन्दमूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्महैं। और भोग के त्याग से संयममय मर्यादित जीवन से उपर्युक्त व्रत दूसरों के प्रति होने वाली बुराइयों व प्रदूषणों से बचाते हैं। सभी क्षेत्रों में विकास या पोषण होता है। पर्यावरण-प्रदूषण से चौथे से लेकर सातवें व्रत तक तथा दसवाँ व्रत भोग परिभोग बचें तथा पर्यावरण का समुचित शुद्धिकरण हो, यही जैन-दर्शन को मर्यादित रखने के लिए हैं, जिनसे पर्यावरण का संतुलन के तत्त्वज्ञान का उद्देश्य है।
___ बना रहता है। आठवाँ व्रत सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित होने किसी भी प्रकार का वातावरण दूषित न हो इसके लिए
से बचाता है। नवाँ व ग्यारहवाँ व्रत आत्म-पर्यावरण शुद्धि का जैन-दर्शन में गृहस्थ धर्म के रूप में उपर्युक्त बारह व्रतों के
पोषक है। बारहवाँ व्रत सर्वहितकारी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने पालन का प्रतिपादन किया गया है। इन बारह व्रतों में प्रथम तीन
वाला है। इस प्रकार जैन-जीवन-पद्धति समस्त प्रकार की पर्यावरण की शुद्धि में सहायक है।
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आकाश की अवधारणा : आगमों के विशेष सन्दर्भ में
भारतीय दर्शन की प्रायः सभी शाखाओं में आकाश की अवधारणा देखी जाती है। अंतर केवल मान्यताओं का है। चार्वाक उसे पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) के रूप में स्वीकार करता है तो बौद्ध दर्शन में वसुबन्धु आकाश का वर्णन 'तत्राकाशं अनावृत्ति' कहकर करते हैं।" अर्थात् आकाश न तो दूसरों को आवृत्त करता है और न ही दूसरों से आवृत्त होता है। किसी भी रूप (वस्तु) को अपने में प्रवेश करने से नहीं रोकता। अत: आकाश धर्म है तथा नित्य अपरिवर्तनशील असंस्कृत (जिसका उत्पाद - विनाश नहीं होता) धर्म है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार आकाश एक सरल (अमिश्रित) निरंतर स्थायी तथा अनन्त द्रव्य है। यह शब्द का अधिष्ठान है जो रंग, रस, गंध और स्पर्श आदि गुणों से रहित है । अपनयन की क्रिया द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि शब्द आकाश का विशिष्ट गुण है। वस्तुतः यह निष्क्रिय है किन्तु समस्त भौतिक पदार्थ इसके साथ संयुक्त पाये जाते हैं। सांख्य दर्शन एकमात्र प्रकृति तत्त्व को मानकर उसी से प्रकृति की सारी वस्तुओं की उत्पत्ति मानता है । इसके अनुसार शब्द तन्मात्रा से शब्द गुणवाले आकाश की उत्पत्ति होती है। जैन दर्शन में पंचास्तिकाय की अवधारणा मान्य है। धर्म, अधर्म, आकाश जीव और पुद्गल पंचास्तिकाय के अंतर्गत आते हैं। इन्हीं पंचास्तिकायों में काल को समावेशित करके छह द्रव्यों की सत्ता मानी गई है। आकाश इन्हीं छह द्रव्यों में से एक है । ( जैन मतानुसार आकाश के स्वरूप की चर्चा आगे की जाएगी ) । इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय दर्शन में आकाश के स्वरूप के विषय में मतभिन्नता है ।
फिर देशात्मक । मध्ययुगीन दार्शनिकों में विशेषतः सन्त ऑगस्टाइन ने देश को वस्तुओं से स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं माना है । " रेनेदेकार्त जो बुद्धिवादी दार्शनिक है, ने देश को व्याप्ति (Extention) कहकर उसे जड़ वस्तुओं का मौलिक गुण माना। उनके 'अनुसार विस्तार जड़ का भौतिक धर्म है । जो जड़ में निहित होता है जड़ के विस्तार से भिन्न अथवा अलग नहीं माना जा सकता और न ही दोनों को एक-दूसरे से अलग कर सकते हैं। हमें कभी भी किसी ऐसी वस्तु या पदार्थ का बोध नहीं होता जो देश में फैला न हो । यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि देकार्त की दृष्टि में विस्तार (Extention) तथा देश (Space) दोनों एक ही हैं। अतः स्पष्ट होता है कि देकार्त के अनुसार विस्तार जड़ पदार्थ का मौलिक धर्म है। लाइब्नित्ज के अनुसार देश और काल की कोई अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं होती। उसके अनुसार हम लोग वस्तुओं को भिन्न-भिन्न अवस्थाओं और स्थितियों में देखते हैं यथा, यहाँ वहाँ दूर नजदीक इत्यादि और इसके आधार पर ही देश की कल्पना कर लेते हैं। अतः देश की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है- देश (Space) काल, गति, स्थिरता आकार आदि प्रत्ययों की उत्पत्ति मन से होती है, क्योंकि बुद्धि ही इनका आधार है, जिनका किसी भी प्रकार बाह्य जगत से संबंध होता है।" इससे स्पष्ट होता है कि लाइब्नित्ज देश की यथार्थ सत्ता नहीं मानते, क्योंकि वे पूर्ण रूप से इसे मानसिक अथवा बौद्धिक मानते हैं । इमानुएल काण्ट के अनुसार देश केवल प्राग् अनुभव अंत: दर्शन की उपज है। उनका मानना है कि देश कोई ऐसा आनुभाविक प्रत्यय नहीं जिसे बाह्य अनुभूतियों आकाश के विषय में उपर्युक्त मतभिन्नताएँ न केवल भारतीय से पूर्णतः असंबद्ध कहा जाए । यह दिखाने के लिए जो संवेदनाएँ दर्शन बल्कि पाश्चात्य दर्शन में भी देखने को मिलती हैं। अरस्तू हमें प्राप्त होती हैं, उनका बाह्य वस्तुओं से संबंध है तथा यह के देश (Space) विषयक विचारों के बारे में कुछ विद्वानों का जानने के लिए कि वे वस्तुएँ न केवल हमसे बाहर और और एक मानना है कि अरस्तू दर्शन में देश वह है जिसमें वस्तुएँ स्थित हैं। दूसरे से भिन्न हैं बल्कि वे भिन्न-भिन्न स्थानों पर भी हैं, देश को उनके आधार रूप में मानना आवश्यक है। तात्पर्य है कि बाह्य अन्य विद्वानों के अनुसार अरस्तू ने देश की सत्ता को वस्तुओं पर निर्भर माना है। प्लॉटिनस ने देश की उत्पत्ति को वस्तुओं की अनुभूतियाँ तभी संभव हैं जब संवेदनाएँ देश रूपी साँचे में ढलकर उत्पत्ति के बाद की घटना माना है। वस्तुएँ पहले द्रव्यात्मक हैं, हमारी चेतना में प्रवेश करें। अतः सिद्ध है कि देश संवेदन móramónórambra 43 þóramónóramóné
डॉ. विजय कुमार
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.....
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• प्रतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ ग्राहिता के पूर्वानुभाविक तत्व है।" मिशाल के तौर पर यदि हम एक फूल की कल्पना करते हैं तो इसके साथ ही देश का विचार भी आ जाता है, क्योंकि गुलाब कुछ न कुछ दिक् घेरता है और इसी प्रकार गुलाब की उपस्थिति किसी न किसी काल में होती है | अतः काण्ट के अनुसार देश और काल की कल्पना तो वस्तुओं के अभाव में संभव है, परंतु किसी भी वस्तु की कल्पना बिना देश और काल के संभव नहीं है। अतः देश और काल संवेदनग्राहिता के पूर्वानुभविक तत्त्व हैं । काण्ट के अनुसार देश और काल पूर्वानुभाविक हैं, यह इस बात से भी सिद्ध होता है कि देश और काल अपरिमित ( Infinite ) हैं, जिन्हें कोई भी व्यक्ति अपनी अनुभूतियों में नहीं ला सकता । "
भारतीय एवं पाश्चात्य चिंतकों के विचारों को देखने के पश्चात आकाश के संबंध में तीन विचारधाराएँ स्पष्ट होती हैं-(i) आकाश प्राग्-अनुभव अंत: दर्शन की उपज है।
(ii) आकाश जड़ पदार्थों से जुड़ा है या उनका गुणरूप या क्रमरूप है।
(iii) आकाश जड़ और चेतन से सर्वथा भिन्न एक स्वतंत्र वास्तविकता है।
प्रथम विचारधारा के समर्थकों में काण्ट का नाम प्रमुख है । इनका मानना है कि आकाश स्वयं में कोई वास्तविक तत्त्व नहीं है, बल्कि हमारे मस्तिष्क की उपज है। चूँकि हम व्यवहार में वास्तविक पदार्थों के विस्तार को देखते हैं और यह अनुभव करते हैं कि इसका कोई न कोई आधार होना चाहिए। उस आधार रूप में हम आकाश की कल्पना कर लेते हैं। अर्थात् आकाश आत्मनिष्ठ है, ज्ञाता में निहित है। वास्तविक पदार्थ या पदार्थ का गुण नहीं | प्रश्न होता है कि वास्तविक पदार्थों का आधार यदि वास्तविक नहीं होता है तो काल्पनिक आश्रय के द्वारा उनका टिकाव कैसे हो सकता है। अतः आकाश को वास्तविक मानना ही पड़ता है। जहाँ तक आकाश के पूर्वानुभाविक अंतः दर्शन का प्रश्न है, जो वस्तुओं के प्रत्यक्ष करने के अपरिहार्य आधार हैं। हमारी सभी संवेदन-सामग्रियाँ देशकाल द्वारा व्यवस्थित होकर ही हमारी चेतना में प्रवेश करती हैं । काण्ट के इस मत की आलोचना करते हुए वर्टेण्डरसेल ने कहा है- यदि यह मान लिया जाए कि सभी संवेदन - सामग्रियाँ देश (Space) और काल
आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
(Time) द्वारा व्यवस्थित होकर ही हमारी चेतना में प्रवेश करती हैं तो प्रश्न होता है कि संवदेन - सामग्रियाँ देश और काल को सदा ही उसी रूप में व्यवस्थित क्यों करती है, जैसा कि हम उन्हें देखते हैं, वे क्यों नहीं उन्हें किसी भिन्न अथवा दूसरे रूप में व्यवस्थित करती हैं। मिशाल के तौर पर हम हमेशा क्यों यह देखते हैं कि मनुष्य की आंखें उसके मुख के ऊपर हैं, उससे भिन्न अथवा दूसरे रूप में व्यवस्थित क्यों नहीं ?" यद्यपि काण्ट ने इसका समाधान दिया है, जिसका विस्तृत विवेचन हम यहाँ नहीं कर सकते । किन्तु आकाश की वास्तविक सत्ता को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा ।
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लाइब्नित्ज के अनुसार भी आकाश की स्वतंत्र सत्ता नहीं होती । वस्तुओं की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं और स्थितियों के आधार पर हम देश (Space) की कल्पना कर लेते हैं। इस प्रकार लाइनिज आकाश को जड़ पदार्थों से जोड़ देते हैं। प्रश्न होता है कि यदि भौतिक पदार्थों का अभाव है तो आकाश के अस्तित्व का भी होगा? अत: लाइब्नित्ज की यह मान्यता स्वीकारने योग्य नहीं है। क्योंकि आकाश अनन्त है और भौतिक जगत् शांत । आकाश अमूर्त है जबकि भौतिक पदार्थ मूर्त। साथ ही आकाश को भौतिक पदार्थ का गुण भी मानना उपयुक्त नहीं जान पड़ता, जैसा कि डेकार्त ने माना है। स्थान रोकना या स्थान पाना भौतिक पदार्थ का गुण है किन्तु जिसमें स्थान पाया जाता है, वह तो उससे भिन्न ही होता है। एक ही स्थान में अनेक पदार्थों का आश्रित होना और एक ही पदार्थ का कालांतर में अनेक स्थानों में आश्रित होना आश्रय देने वाले तत्त्व को आश्रित तत्त्व से भिन्न कर देता है। दूसरी बात कि आकाश अमूर्त है तथा भौतिक पदार्थ मूर्त | फिर अमूर्त आकाश मूर्त पदार्थ का गुण कैसे बन सकता है?
जैन दर्शन के अनुसार आकाश सर्वव्यापी, एक अमूर्त और अनन्त प्रदेश वाला है। 'आकाशस्यावगाहः ' आकाश का लक्षण है ।" वह जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को स्थान देता है। अत: वह अवगाहन गुणवाला है। स्वरूप की दृष्टि से अवर्ण, अगंध, अस्पर्श, अरूपी, अजीव शाश्वत अवस्थित व लोकालोकरूप द्रव्य है । ११ स्थानाङ्गसूत्र के अनुसार वह द्रव्य की अपेक्षा से एक द्रव्य है। क्षेत्र की अपेक्षा से लोकालोक प्रमाण अर्थात् सर्वव्यापक है । काल की अपेक्षा से वह ध्रुव,
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- यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अव्यवस्थित और नित्य है। लोकाकाश और अलोकाकाश का विभाजन सर्वप्रथम भाव की अपेक्षा से अवर्ण, अरस आदि है तथा गुण की अपेक्षा आचारांगसूत्र में देखा जाता है। द्वितीय अध्ययन में लोक की से अवगाहन गुणवाला है ।१२ अवगाहना चार प्रकार की बताई चर्चा करते हुए उसके तीन भाग बताए गए हैं--अधोभाग, ऊर्ध्वभाग गई है।१३ द्रव्यावगाहना, क्षेत्रावगाहना, कालावगाहना तथा और तिर्यग्भाग।१५ पं. दलसुखभाई मालवणिया ने भी लिखा है भावावगाहना। जिस द्रव्य का जो शरीर या आकार है, वही कि आचारांग के द्वितीय अध्ययन का नाम लोकविजय है तथा उसकी द्रव्यावगाहना है, इसी प्रकार आकाश रूप क्षेत्र को पाँचवें अध्ययन का नाम लोगसार है और उसके बीच तिर्यग क्षेत्रावगाहना, मनुष्यक्षेत्र रूप समय की अवगाहना को लोक में मनुष्य रहता है, यह मान्यता भी स्थिर हो गई थी।... कालावगाहना तथा भाव अर्थात् पर्यायों वाले द्रव्यों की अवगाहना साथ ही लोकों के तीनों भागों में जाने का निर्देश है, लोक के भावावगाहना कहलाती है।
अलावा अलोक की कल्पना भी देखी जाती है।६ लोक के आकाश के दो विभाग हैं-लोकाकाश तथा अलोकाकाश।१४ .
अतिरिक्त अलोक की कल्पना जैन-दर्शन को छोड़कर अन्य विश्व में जो रिक्त स्थान है. वह लोकाकाश तथा विश्व के के किसी दर्शन में देखने को नहीं मिलती। यह जैन-दर्शन की बाहर रिक्त स्थान अलोकाकाश है। दूसरी भाषा में जहाँ पुण्य
अपनी विशिष्टता का द्योतक है। इस सन्दर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ और पाप का फल देखा जाता है वह लोक है। पण्य पाप का का मत है कि अलोक का अर्थ है केवल आकाश और लोक फल वहीं देखा जाता है जहाँ धर्म, अधर्म काल, जीव और
का अर्थ है चेतन और अचेतन तत्त्व से संयुक्त आकाश । जैन
का अथ पदगल रहते हैं। अत: वही लोकाकाश है जहाँ ये सब रहते हैं। -दर्शन के अनुसार लोक-अलोक का विभाग नैसर्गिक है. जहाँ इन द्रव्यों का अभाव होता है. वहाँ अलोकाकाश है। तात्पर्य अनादिकालीन है। वह किसी ईश्वरीय सत्ता द्वारा कृत नहीं है। है कि जहाँ आकाश ही आकाश है वहाँ अलोकाकाश है।
लोक की स्वीकृति प्रायः सभी दर्शनों ने की है। जगत् या सृष्टि आकाश अनन्तप्रदेशी, नित्य, अनन्त तथा निष्क्रिय है। चूँकि
को सब मानते हैं। किन्तु अजगत या असष्टि को कोई दार्शनिक लोक की सीमा होती है, किन्तु अलोक की कोई सीमा नहीं होती
स्वीकार नहीं करता। यह भगवान महावीर की मौलिक देन है।१७ इसलिए आकाश को अनन्त प्रदेशी स्वीकार किया गया है।
आचार्य महाप्रज्ञजी और मालवणियाजी के विचारों से यह नहीं आकाश का यह विभाजन वस्तुतः चौदह रज्जु ऊँचा पुरुषाकार
समझना चाहिए कि दोनों में अंतर है। बस दृष्टि-भेद है तो कथन लोक के कारण हुआ है। यद्यपि आकाश की दृष्टि से लोकाकाश
का। आचार्य का कथन जैन-दर्शन की मौलिकता पर आधारित और अलोकाकाश में कोई भेद नहीं है। वह सर्वत्र एकरूप
है, तो मालवणिया जी का कथन आगमों की ऐतिहासिकता पर। अर्थात् सर्वव्यापक है। लोकाकाश और अलोकाकाश के इस लोक से बाहर अलोकाकाश है जिसे व्याख्या-प्रज्ञप्ति में विभाजन को निम्न आकृति से स्पष्ट समझा जा सकता है-- सुषिर गोल संस्थानवाला बतलाया गया है। जैन-दर्शन में
अलोकाकाश को गोलाकार शून्य वृत्त से दर्शाया जाता है।९९ आकाश लोक और अलोक दोनों में विद्यमान है। लोक में सात अवकाशान्तर पाये जाते हैं। अवकाशान्तर आकाश का एक पर्यायवाची नाम है।२० रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा,
भारतीय सृष्टि विद्या से साभार धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातमःप्रभा ये सात भूमियाँ हैं जो घनाम्बु, वात और आकाश पर स्थित है ।२१ जैन मतानसार जगत् के समस्त पदार्थ आकाश पर ही स्थित हैं। स्थानांगसूत्र में लोकस्थिति का निरूपण करते
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-यतीन्दसूरि स्मारक गत्य आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्महुए कहा गया है वायु (तनुवात) आकाश पर प्रतिष्ठित है। समुद्र द्वारा समर्थित है। परमाणु के दो भाग हैं--इलेक्ट्रोन और प्रोटोन। (घनोदधि) वायु पर प्रतिष्ठित है। पृथ्वी समुद्र पर प्रतिष्ठित है। इन दोनों के बीच में एक अवकाश विद्य त्रस स्थावर प्राणी पृथ्वी पर प्रतिष्ठित है। अजीव जीव पर प्रतिष्ठित समस्त पदार्थों में से यदि अवकाश को निकाल दिया जाए तो है। जीव कर्म पर प्रतिष्ठित है। अजीव जीव के द्वारा संगृहीत है। उसकी ठोसता आँवले के आकार से वृहत् नहीं होगी।२६ जीव कर्म के द्वारा संगृहीत है । यहाँ आपत्ति उठाई जा सकती है जैन-दर्शन द्वारा मान्य लोकाकाश और अलोकाकाश के कि आकाश सब पदार्थों का आश्रयदाता है, तो आकाश को भी विषय में एक प्रश्र यह भी देखने को मिलता है कि पहले आश्रय देने वाला कोई होगा। आकाश को आश्रय देने वाला लोकाकाश की सत्ता बनी या अलोकाकाश की। सामान्यतया कोई और है, ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आ जाएगा। यदि
ऐसा माना जाता है कि सष्टि से पूर्व शून्य आकाश था, जिसमें भौतिक पदार्थ को ही आश्रयदाता मानते हैं तो भी अनवस्थादोष
पृथ्वी, जल, तेज, वायु आदि की उत्पत्ति हुई। जैसा कि आ सकता है। क्योंकि किसी भी प्रकार का भौतिक पदार्थ बिना
छान्दोग्योपनिषद में वर्णन आया है कि प्रवाहण जैवलि से पछा आश्रय टिक नहीं सकता। अतः अभौतिक द्रव्य आकाश की
गया कि पदार्थों की चरमगति क्या है? उत्तरस्वरूप उन्होंने कहा धारणा करते हैं। अतः आकाश स्व-आधारित है और पदार्थों को
जिससे समस्त पदार्थों का उद्भव होता है, और अंत में आकाश आश्रय देना उसका स्वभाव है। भगवती वृत्ति में कहा गया है।
में ही विलीन हो जाता है ।२७ लेकिन जैन-दर्शन के असार सृष्टि आकाश स्वप्रतिष्ठित है, इसलिए उसका किसी पर प्रतिष्ठित होने
अनादि और अनन्त है। अत: उसके अनुसार लोकाकाश और का उल्लेख नहीं है ।२३ प्रश्न होता है आकाश यदि स्वप्रतिष्ठित है
अलोकाकाश में पूर्व और पश्चात् का क्रम होने का प्रश्न ही उत्पन्न तो फिर सभी द्रव्यों को स्वप्रतिष्ठित क्यों न मान लिया जाए?
नहीं होना चाहिए। भगवई में स्पष्ट कहा गया है कि लोकान्त इसका उत्तर देते हुए डा. मोहनलाल मेहता कहते हैं कि निश्चय
और अलोकान्त पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों दृष्टि से तो सभी द्रव्य आत्मप्रतिष्ठित हैं, किन्तु व्यवहार-दृष्टि से
शाश्वतभाव हैं। रोह! यह अनानुपूर्वी है-लोकान्त और अलोकान्त अन्य द्रव्य आकाशाश्रित हैं। इन द्रव्यों का संबंध अनादि है,
में पूर्व - पश्चात का क्रम नहीं है ।२८ ।। अनादि संबंध होते हुए भी इनमें शरीर हस्तादि की तरह आधाराधेय भाव घट सकता है। आकाश अन्य द्रव्य से अधिक व्यापक है,
वैशेषिक-दर्शन दिक् को एक स्वतंत्र द्रव्य के रूप में अतः सबका आधार है।२४ आकाश सबका आधार है यह
स्वीकार करता है। उनकी यह मान्यता उचित नहीं जान पड़ती व्याख्याप्रज्ञप्ति में वर्णित महावीर के इस कथन से भी स्पष्ट होता
है। जैन-दर्शन के अनुसार दिशा कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। आकाश है। 'आकाशतत्त्व से जीवों और अजीवों को क्या लाभ है' के प्रदेशों में सूर्योदय की अपेक्षा दिशाओं की कल्पना की गई है।
पं. महेन्द्र कुमार जैन का मानना है कि आकाश के प्रेदशों में गणधर की इस जिज्ञासा को शांत करते हुए महावीर ने कहा है'गौतम ! आकाश नहीं होता तो ये जीव कहाँ होते? ये धर्मास्तिकाय
पंक्तियाँ सभी तरफ कपड़े में तंतु के समान श्रेणीबद्ध है। एक और अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते? काल कहाँ पर बरतता?
परमाणु जितने आकाश को रोकता है, वह प्रदेश कहलाता है। पुद्गल का रंगमंच कहाँ पर बनता? यह विश्व निराधार ही होता।२५
इस नाप से आकाश के अनन्त प्रदेश हैं। यदि हम पूर्व, पश्चिम जगत् सर्वव्यापक है। ऐसी कोई भी जगह नहीं जहाँ आकाश की
आदि का व्यवहार होने से दिशा को एक स्वतंत्र द्रव्य मानेंगे तो , सत्ता नहीं हो। सामान्यतया जिसे हम ठोस समझते हैं, उनमें भी
पूर्वदेश, पश्चिमदेश आदि व्यवहारों से देशद्रव्य भी स्वतंत्र मा ना आकाश अर्थात् रिक्त स्थान होता है। मूर्त द्रव्यों में भी आकाश
होगा, फिर प्रांत, जिला आदि अनेक स्वतंत्र द्रव्यों की कल्पना निहित रहता है। मिसाल के तौर पर लकड़ी में जब हम कील
करनी होगी जो उचित नहीं है ।२९ इस संबंध में विशिष्टाद्वैतवादी ठोंकते हैं तो कील लकड़ी के रिक्त स्थान में ही समाहित होती
श्री निवासाचार्य का मत भी उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा है - है। तात्पर्य है कि लकडी में भी आकाश है। आचार्य महाप्रज्ञ के
आकाश के जिस प्रदेश से सूर्य उदित होता है, उस प्रदेश को पूर्व अनुसार प्रत्येक पदार्थ में अवकाश होता है। परमाणु भी अवकाश
दिशा कहा जाता है तथा वहाँ के मूर्त पदार्थों को पूर्व माना जाता शून्य नहीं है। अवकाशान्तर का यह सिद्धांत आधुनिक विज्ञान ।
है। जहाँ सर्य अस्तंगत होता है, आकाश का वही प्रदेश पश्चिम
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४.
-चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - दिशा कहलता है। सूर्योदय में सूर्य की ओर मुँह करके खड़ा होने ३. न्यायसूत्र ४:२, २१-२२ पर जो दाहिनी ओर आकाश होता है उसे दक्षिण दिशा और बायीं ।
मानविकी-पारिभाषिक-कोष (दर्शनखण्ड), डा. नगेन्द्र, ओर के आकाश को उत्तर दिशा कहते हैं। अतएव आकाश से
पृ. १६८-१६९। अतिरिक्त दिशा नामक कोई द्रव्य नहीं है ।३० दिशा की उत्पत्ति के विषय में आचारांग नियुक्ति में कहा गया है कि तिर्यक् लोक ५.
५. वही से दिशा और अनुदिशा की उत्पत्ति होती है। आकाश के दो 6.. Our Idea of Space, fugue, motion, rest their origin प्रदेशों से दिशा का प्रारंभ होता है और वह दिशा दो-दो प्रदेशों in the common sense, in the mind itself for they
are ideas of pure understaing which however, की वृद्धि करती हुई असंख्य प्रदेशात्मक बन जाती है। अनुदिशा
have reference to the exteral world केवल एक देशात्मक होती है। ऊर्ध्व और अधोदिशा का प्रारंभ
Duncen Philosophical works of Leibnitz, p.150 चार प्रदेशों से होता है। उसमें अन्त तक चार ही प्रदेश हैं किन्तु वृद्धि नहीं होती। इससे स्पष्ट होता है कि दिशा आकाश से 7. Space in not an empirical concept abstracted from ex
ternal experiences. For in order that certain sensations पृथक् कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है।
may be refered to something outside me (i.e. someइस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-दर्शन में आकाश की
thing in a different position in space from that in which
find myself), and further in order that I may be able to अवधारणा, लोकाकाश और अलोकाकाश के रूप में विभक्त percieve them in outside and besides each other and है। अलोकाकाश, जैन-दर्शन की मौलिक अवधारणा है।
thus as not merely different but indifferent places, the
presentation of space must already give the foundaलोकाकाश लोक तक सीमित है, तो अलोकाकाश असीमित है। tion. डा. मोहनलाल मेहता का कहना है कि जब आकाश कोई
B. Russell History of western Philosophy, P. 741 भावात्मक तत्त्व नहीं है, तब आकाश के आधार पर लोकाकाश
That the idea of space stems a priori and not from exऔर अलोकाकाश की कल्पना न करते हुए केवल लोक और
perience is clear frow the facm that space is 'infinite अलोक रूप विभाजन को ही स्वीकार करना चाहिए।३२ कहा which no one can experience or demonstrate further
more, it is possible to conceive the complete absence जा सकता है कि लोकाकाश और अलोकाकाश दो भिन्न द्रव्य
of things from space, but not the absence of phenomनहीं हैं, बल्कि आकाश द्रव्य के ही दो रूप हैं। जहाँ धर्म, अधर्म, enon from time, but not the absence of time itself, which,
therefore is given a priori". जीव पुद्गल और काल की स्थिति है, वह लोक है और जहां इसका अभाव है वह अलोक है। वस्तुतः अलोक, लोक के
Klinke, Kant for Everyman, P. 84 - 85 चारों ओर व्याप्त है, उसमें समाया हुआ है। पण्णवणा में लोक 9.
There is here......... a difficulty which he seems to have को आकाशरूपी वस्त्र की एक कारी या थिगली कहा गया है never felt. What induces me to arrange objects of per
ception as I do rather than otherwise ? why for instant, ३३ | भगवतीवृत्ति में कहा गया है अलोक में आकाश परिपूर्ण नहीं
do I always see people eyes above their mouths and है। उसका एक भाग लोक में है।३४ अतः लोकाकाश और not below them ?..... Kant holds that the mind orders
raw material of sensation, but never thinks it necessary अलोकाकाश दो नहीं बल्कि एक ही आकाश के रूप हैं। यह
to say why it orders it, it does and not otherwise. सत्य है कि आकाश इंद्रियगम्य नहीं है। इसलिए इसकी सिद्धि
B. Russell, History of western Philosophy, P.741 लौकिक प्रत्यक्ष द्वारा संभव नहीं है। किन्तु आगम प्रमाण से इसकी सत्ता मान्य है।
१०. तत्त्वार्थसूत्र ५/१८ सन्दर्भ
११. आगासत्थिकाए अवण्णे अगंधे अरसे अफासे अरुवी अजीवे
सासए अवट्रिए लोगालोगदव्वे। स्थानांगसूत्र ५/३/१७२ १. बौद्ध-दर्शन-मीमांसा, आचार्य बलदेव उपाध्याय, पृ. १७५ .
१२. वही २. वैशेषिकसूत्र २: १,२७, २९-३१ ansardarsanskarodaidodioraniramidnidian ५७ Hamritaminoransarsonsidaritaminodridaosaridrda
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--यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - १३. चउविहा ओगाहणा पण्णत्ता, तं जहा-दव्वोगाहणा, भगवतीवृत्ति १/३१०
खेत्तोगाहणा, कालोगाहणा, भावोगाहणा। वही ४/१/१८८ २४. जैन धर्म-दर्शन, डा. मोहनलाल मेहता, पृ. २१४-२१५ १४. गोयमा। दुविहे आगासे पण्णत्ते, तंजहा-लोयाकासे य २५. भगवती १३/४. उदधत-श्रीदेवेन्द्रमनि शास्त्री. जैन-दर्शन अलोयागासे या वही २/१०/१० ।
में आकाश तत्त्व: एक अध्ययन, श्रमणोपासक, अप्रैल १५. आयातचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभागं जाणति उ8 . ७८, पृ. १६ ___भागं जाणति, तिरियं भागं जाणति। आचारांगसूत्र १/२/५/९१ २६. भगवई, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. १३५ १६. जैन-दर्शन का आदिकाल, पं. दलसुखभाई मालवणिया, २७. तंह प्रवाहणो जैवलिर् उचाव-अस्य लोकस्य का गतिर् पृ. २४१-२४२
इत्य आकाश इति होवाच। सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्या १७. भगवई, पृ. १३४
काशाद् एवं समुत्पद्यन्ते, आकाशं प्रत्यस्तम् यान्त्या काशोह्य १८. अलोए णं भंते। किखंठिए पण्णत्ते? गोयमा झसिरगोलसंढिए
एवेभ्यो ज्यायान्, आकाशः परायणम्। छान्दोग्योपनिषद् पण्णत्ते ।। भगवती ११/९९
१/८1८,१/९/१ १९. भारतीय सृष्टिविद्या, डा. प्रकाश, पृ-.१०
२८. रोहा! लोयंते य अलोययंते य पुटिव पेते, पच्छा पेते-दो
वेते सासयाभावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा! भगवई, आचार्य २०. व्याख्याप्रज्ञप्ति में आकाश के निम्नलिखित पर्यायवाची
महाप्रज्ञ, १/६/२९६ बताए गए हैं- आकाश, आकाशास्तिकाय, गगन, नभ, सम, विषम,खह, विहायस, वीचि, विवर, अम्बर, अम्बरस,
२९. जैनदर्शन, पं. महेन्द्रकुमार जैन, तृतीय संस्करण, पृ. १३३ छिद्र, शुषिर, मार्ग, विमुख, अर्द, व्यर्द, आधार, व्योम, ३०. सूर्यपरिस्पन्दयुक्ताकाशस्यैव (सूर्यपरिस्पन्दादिभिराकाशस्यैव) भाजन अंतरिक्ष श्याम अवकाशान्तर. अगम. स्फटिक प्राच्यादिव्यवहारोपपत्तौ दिगिति न पृथग्द्रव्यकल्पनम। और अनन्त। व्या. प्र. २/६
यतीन्द्रमतदीपिका, व्याख्याकार, आचार्य शिवप्रप्रसाद
द्विवेदी, पृ. ७८-७९। २१. रत्नशर्कराबालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयो
घनााम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः। सप्ताधोऽधः पृथुतराः। तत्त्वार्थ- ३१. आचारांगनियुक्ति, ४२/४४, उद्धृत, श्री देवेन्द्रमुनिशास्त्री, सूत्र ३/१
जैनदर्शन में आकाश तत्त्व, श्रमणोपासक, अप्रैल १९७८,
पृ. १९ २२. अट्ठविद्या लोगट्ठिती पण्णत्ता, तं जहा-आगसपतिट्टिते वाते,
वातपट्ठिते उदही (उदधिपतिट्ठिता पुढवी, पुढवीपतिट्ठिता ३२. जैन धर्म-दर्शन, डा. मोहनलाल मेहता, पृ. २१८ तसा थावरा पाणा, अजीवा जीवपतिट्ठिता) जीवा ३३. आगासथिग्गले णं भंते! किणा फुडे? कइहिं वा काएहिं कम्मपतिट्टिता, अजीवा जीवसंगहीता, जीवा कम्मसंगहीता।
फुडे? पण्णवणा १५/५३ स्थानाङ्गसूत्र ८/१४, भगवई १.६.३१०
३४. अलोकाकाशस्य देशत्वं लोकालोकरूपाकाशद्रव्यस्य २३. आकाशं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतेति।
भागरूपत्वात्। भगवतीवृत्ति, २/१४०
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व्यसनमुक्त हो जीवन
परमपूज्य व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज शिष्य
ज्योतिषाचार्य ज्योतिषसम्राशिरोमणि मुनिजयप्रभविजय श्रमण....
आज के इस भौतिक चकाचौध वाले युग में बहुसंख्यक व्यसन का अर्थ कष्ट होता है। यह संस्कृतशब्द है। यह प्रवृत्तिजन्य व्यक्ति किसी न किसी व्यसन से : ग्रस्त हैं। कुछ व्यसन आज है। अर्थात्, जिस प्रवृत्ति से कष्ट होता है, उस प्रवृत्ति को व्यसन एक फैशन का रूप में ले चुके हैं। जब व्यसनग्रस्त व्यक्तियों कहा जाता है। यहाँ एक प्रश्न उत्पन्न होता है। वह यह कि यदि का ध्यान इन व्यसनों के दुष्परिणामों की ओर आकर्षित किया कोई व्यक्ति यह कहे कि उसे मदिरापान से कष्ट नहीं आनंद जाता है, तो वे अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें स्वीकार तो कर लेते हैं, मिलता है, इसलिए मदिरापान उसके लिए व्यसन नहीं है, तो क्या किन्तु व्यसन त्यागने के लिए तत्परता प्रदर्शित नहीं करते हैं। यह सत्य मान लिया जाएगा? नहीं, कदापि नहीं। कारण यह है
आज की नई पीढ़ी तो प्रायः व्यसनाधीन होती जा रही है। उसे कि मदिरापान का तात्कालिक परिणाम उस व्यक्ति के लिए व्यसनों से दूर रखने के प्रयास भी निरर्थक सिद्ध होते जा रहे हैं। आनंददायक भले ही हो, किन्तु अंतिम परिणाम हर दशा में व्यसनों के भयावह दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। फिर भी कष्टप्रद ही रहने वाला है। अतः मदिरापान व्यसन है। व्यसन एक समाज व सरकार उनकी ओर से उदासीन हैं। हम यहाँ व्यसन प्रकार का विषवृक्ष है, जो मनुष्य के जीवन को शनैः-शनैः नष्ट शब्द का उपयोग कर रहे हैं, किन्तु यह व्यसन क्या है? इसको करता है। उसके परिवार की सुख-शांति को बर्बाद करता है। समझना आवश्यक है। इसे समझने के लिए व्यसन का अर्थ यहाँ एक बात और कहना उचित प्रतीत होती है। वह यह कि
और उसके प्रकारों की विवेचना आवश्यक प्रतीत होती है। वही बुराई व्यक्ति को अपनी ओर शीघ्रता से आकर्षित करती है। हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं
व्यक्ति उसकी ओर आकृष्ट होकर उसे अपनाने लगता है। फिर व्यसन के संबंध में किसी यशस्वी कवि ने लिखा है
धीरे-धीरे वह उसमें डूब जाता है। उससे बाहर निकल पाना
उसके लिए कठिन हो जाता है। वैसरे यह कहते हुए भी हम सुनते व्यसनस्य मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते।
हैं कि क्या करें आदत पड़ गई है अब छूटती ही नहीं है। किन्तु व्यसन्यधोऽधो व्रजति स्वर्यात्यव्यसनी मत:।।
व्यक्ति यह भूल जाता है कि आदत भी उसने ही डाली है। यदि _तात्पर्य यह है कि मृत्यु और व्यसन इन दोनों में से व्यसन व्यक्ति दृढ संकल्प कर ले तो आदत में परिवर्तन करना कोई अधिक हानिप्रद है। क्योंकि मृत्यु एक बार ही कष्ट देती है, पर बडा कार्य नहीं है। जो अपनी आदत में परिवर्तन नहीं कर पाते व्यसनी व्यक्ति जीवन भर कष्ट पाता है और मरने के पश्चात् भी हैं. उनमें आत्मबल की कमी रहती है। जो व्यक्ति व्यसनों के वह नरक आदि में विभिन्न प्रकार के कष्टों का उपभोग करता है।
दुष्परिणामों से परिचित रहते हुए भी यदि उनका परित्याग नहीं जबकि अव्यसनी जीते जी भी यहाँ पर सुख के सागर पर तैरता है करते हैं. उनका सामाजिक जीवन प्रायः नष्ट हो जाता है और और मरने के पश्चात स्वर्ग के रंगीन सुखों का उपभोग करता है। प्रतिष्ठा समाप्त हो जाती है। पारिवारिक जीवन संघर्षमय हो व्यसन का अर्थ - कोई भी व्यक्ति जन्मजात व्यसनी नहीं जाता है, अत: जहाँ तक हो सके व्यसनों से बचना ही चाहिए। होता। व्यसन तो एक आदत है, जो संगति में रहने पर पड़ती है। व्यसन के प्रकार - व्यसनों को संख्या की सीमा में बाँध पाना जो जैसे वातावरण और व्यक्तियों की संगति में रहेगा उसके सरल नहीं है। कारण कि प्रत्येक वह आदत जो परिवार में संघर्ष अनुरूप ही उसका जीवन, उसकी आदत बन जाएगी। किंचित् को जन्म देती है. समाज में प्रतिष्ठा को ठेस पहँचाती है. व्यसन ही कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा जो काजल की कोठरी में रहकर की श्रेणी में आती है। फिर भी विद्वानों ने व्यसन में भेद, प्रकार भी बेदाग निकल आए। जब व्यसन के अर्थ पर आते हैं तो बताए हैं। वैदिक ग्रंथों में अठारह प्रकार के व्यसन बताते हए andidroidniwandwimitaniwomsiwandwindowondinbiwiroad-6 ५९Horridorironioritoroorieirdmivincibridnidiadride
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कहा गया है
दश कामसमुत्थानि तथाऽष्टौ कोधजानि च । व्यसनानि दुरन्तानि यत्नेन परिवर्जयेत् ॥ मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः । तीर्थत्रिकं वृथाऽट्य च कामजो दशको गणः ॥ शून्यं साहसं द्रोहे ईर्ष्याऽसूयार्थदूषणम्। वाग्दण्डजं च पारूष्यं क्रोधजोऽपि गणोष्टकः ।।
अठारह व्यसन में दस व्यसन कामज है और आठ व्यसन कोधज हैं। जो इस प्रकार है
दस कामज व्यसन - दिन का शयन, (४) (७) नृत्य सभा, (८) (१०) व्यर्थ भटकना ।
- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ -
आठ क्रोधज व्यसन - (१) चुगली खाना, (२) अति साहस करना, (३) द्रोह करना, (४) ईर्ष्या, (५) असूया, (६) अर्थ दोष, (७) वाणी से दण्ड और कठोर वचन ।
(१) मृगया, (२) अक्ष (जुआ), (३) परनिन्दा, (५) परस्त्री सेवन, (६) मद, गीत सभा, (९) वाद्य की महफिल और
इस संबंध में जैन साहित्य का आलोडन करते हैं तो पाते हैं कि जैनाचार्य मुख्य रूप से सात प्रकार के व्यसन बताते हैं ।
यथा
द्यूतं 'च मांसं च सुरा च वेश्या पापद्धि चौर्य परदारसेवा । एतानि सप्तव्यसनानि लोके घोरातिघोरं नरकं नयन्ति । सात व्यसन इस प्रकार हैं
(१) जुआ, (२) मांसाहार, (३) मद्यपान, (४) वेश्यागमन, (५) शिकार, (६) चोरी और (७) पर स्त्रीगमन । यदि हम सूक्ष्मता से विचार करें तो जितने भी व्यसन हैं, वे सभी इन सात व्यसनों में आ जाते हैं।
ট
वर्तमान युग में कुछ नवीन प्रवृत्तियां पाई जाती हैं। जैसे अश्लील साहित्य पढ़ना, अश्लील चलचित्र देखना, तम्बाकू सेवन, गुटखे के रूप में या बीड़ी, सिगरेट के रूप में, विभिन्न प्रकार के गुटखों का सेवन आदि। ये सब भी व्यसनों की भाँति ही हानिप्रद है। प्रारंभ में तो व्यसन सामान्य से लगते हैं, किन्तु आगे चलकर ये उग्र रूप धारण कर लेते हैं। व्यक्ति को इनकी बुराई उस समय दिखाई देती है, जब वह कैंसर अथवा व्यसन जन्य किसी भयंकर रोग से ग्रस्त हो जाता है और उपचार कराने
आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म.
के बाद भी ये रोग ठीक नहीं हो पाते हैं। व्यक्ति को अपने सामने अपनी मृत्यु दिखाई देती है। तब वह पश्चात्ताप करता है। और उस घड़ी को कोसता है जब उसने व्यसन प्रारंभ किया, किन्तु अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। समय रहते आदमी को चेत जाना चाहिए। पहली बात तो यह कि उसे किसी व्यसन में पड़ना ही नहीं चाहिए और यदि किसी कारणवश उसे कोई व्यसन लग गया है तो तत्काल उसे मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए। किन्तु व्यक्ति ऐसा न करते हुए उसमें और अधिक डूबता चला जाता है। उसकी आँख तो तब खुलती है जब उसे अपने पतन का गर्त दिखाई देता है। अब हम जिन सात व्यसनों का नामोल्लेख ऊपर कर चुके हैं, उनके विषय में संक्षिप्त रूप में विचार करेंगे।
जुआ - जुआ का जन्म कैसे हुआ? यह कहना तो कठिन है। किन्तु अनुमान यह लगाया जा सकता है कि बिना किसी श्रम के सम्पत्ति प्राप्त करने की लालसा से इसका जन्म हुआ होगा। अथवा मनोरंजन के लिए खेले जाने वाले किसी खेल के माध्यम से इसकी उत्पत्ति हुई होगी। कुछ भी हो, यह एक ऐसा व्यसन है कि जिसे भी एक बार इसकी आदत या यों कहें लत लग जाती
वह इसमें और अधिक डूबता चला जाता है। हारने के बाद भी व्यक्ति दाँव पर दाँव लगाता चला जाता है। अपना सब कुछ खो जाने के पश्चात् वह चिंताग्रस्त हो जाता है। ऋण लेकर भी जुए पर दाँव लगाता है। उसकी आशा मृग मरीचिका ही सिद्ध होती है। धन प्राप्त करने की लालसा में वह दाँव पर दाँव लगाकर अपने आपको बर्बाद कर लेता है।
हमारे ऋषिमुनियों ने जुए को त्याज्य माना है। तभी तो ऋग्वेद में कहा गया है- अक्षैर्मा दिव्यः । (१०.३४.१३)
सूत्रकृतांग सूत्र ९ / १० में चौपड़ अथवा शतरंज के रूप में जुआ खेलना मना किया गया है। जुए को लोभ का बालक भी कहा गया है और यह कहा गया है कि यह फिजूलखर्ची का माता-पिता है। जुआ किसी भी रूप में खेला जावे, वह असाध्य रोग है । यदि इतिहास के पृष्ठ पलटेंगे तो हमें ज्ञात हो जाएगा कि जुआ प्राचीन काल में भी प्रचलित था और न केवल सामान्य जन पतन के गर्त में समा चुके हैं। महाभारत का उदाहरण हमारे सामने है। युधिष्ठिर ने अंधा होकर अपनी पत्नी द्रौपदी तक को दाँव पर लगा दिया था। इससे अधिक व्यक्ति का पतन और sanna bf ho ja
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - क्या हो सकता है। जुए के कारण राजा नल और दमयंती की जो स्थानांग सूत्र में भी मांसाहारी को नरकगामी बताया गया दुर्गति हुई वह किसी से छिपी हुई नहीं है। प्राचीन काल में एक है। इसी प्रकार आचार्य मनु के अनुसार-मांस का अर्थ ही है, मिथ्या धारणा यह थी कि यदि कोई जुआ खेलने के लिए जिसका मैं मांस खा रहा हूं वह अगले जन्म में मुझे खाएगा। यदि आह्वान करता है तो उसे ठुकराना नहीं चाहिए वरन् उसका मांस को मां और स रूप में लिखे तो उसका अर्थ होता है मुझे निमंत्रण स्वीकार कर जुआ खेलना चाहिए।
खाएगा। आचार्य मनु का कथन इस प्रकार हैवर्तमान समय में जुए का प्रचलन अनेक रूपों में है। मांसभक्षयिताऽमुत्र, तस्य मांसमिहाझ्यहम्। अधिकारी वर्ग क्लबों में जुआ खेलते हैं। धनाढ्य अपने तरीके
र एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।मनुस्मृति 5-55॥ से खेलते हैं और गरीब अपने तरीके से। कहने का तात्पर्य यह है कई लोग मांसाहार में अधिक पौष्टक तत्त्वों की बात कर कि जैसे-जैसे सभ्यता और संस्कृति का विकास हो रहा है, इसको खाने का समर्थन करते हैं, किन्तु यह उनकी मिथ्या वैसे-वैसे इस व्यसन का भी विकास हो रहा है। व्यक्ति स्वयं ही धारणा है वर्तमान अनुसंधानों से यह निश्चित हो गया है कि अपने विनाश के द्वार खोल रहा है। इस विषय पर और भी बहत मांसाहार से अधिक पौष्टिक तत्त्व शाकाहारी भोजन में है। साथ कुछ लिखा जा सकता है, किन्तु यहां इतना ही कहना पर्याप्त ही यह भी तथ्य सामने आया है कि मांसाहारी भोजन से अनेक होगा कि समझदारी इसी में है कि जुए को अपनाया ही नहीं असाध्य रोग भी उत्पन्न होते हैं इसलिए यह सहज ही कहा जा जाए। इस व्यसन से दूर ही रहना उचित है।
सकता है कि मांसाहार धार्मिक दृष्टि से तो त्याज्य है ही, वैज्ञानिक (२) मांसाहार - महाभारत में कहा गया है कि मांस न पेड़ पर
दृष्टि से भी इसका सेवन सदैव हानिप्रद है। इसलिए मांसाहार
कभी भी नहीं करना चाहिये। मांसाहार सामाजिक नैतिक, धार्मिक लगता है और न भूमि में उत्पन्न होता है। यह प्राणिजन्य है, इसलिए त्याज्य है। वास्तविकता तो यह है कि यह भी एक ।
आर्थिक वैज्ञानिक आदि सभी दृष्टि से अनुपयुक्त है और स्वास्थ्य व्यसन ही है। एक बार जिस व्यक्ति को इसकी चाट लग जाती
की दृष्टि से भी उपयुक्त नहीं है। है, वह इसके पीछे-पीछे लगा रहता है। व्यक्ति यह भूल जाता है (३) मद्यपान- शराब क्या है? सड़ा हुआ पानी, जिस पदार्थ से कि बिना हिंसा किए, किसी प्राणी के प्राण लिए मांस उपलब्ध शराब अर्थात् मदिरा बनायी जाती है उसे पहले सड़ाया जाता है। नहीं हो सकता। आचार्य मनु के शब्दों में जीवों की हिंसा के उसके पश्चात् मदिरा बनती है इसमें हिंसा भी है, मद्यपान एक बिना मांस उपलब्ध नहीं होता और जीवों का वध कभी स्वर्ग ऐसा व्यसन है। जो व्यक्ति की विवेक बुद्धि को नष्ट कर देता है। प्रदान नहीं करता
जिस पदार्थ के सेवन से व्यक्ति की मानसिक स्थिति में परिवर्तन नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसा, मांसमुत्पद्यते क्वचित्।
आता है, वह मद्यपान के अंतर्गत आता है। इस दृष्टि से इसके न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।।48।। अनेक रूप हो सकते हैं। हम यहाँ उन सबका वर्णन नहीं करेंगे। समुत्पत्तिं च मांसस्य बधबन्धौ च देहिनाम्।
मद्यपान से शरीर तो नष्ट होता ही है, मद्यपान करने वाले का धन प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।।49॥
भी बरबाद होता है और घर का चैन भी बरबाद होता है। इसके जब जीव के वध के बिना मांस प्राप्त नहीं हो सकता तो विषय में कहा गया है कि मदिरा का प्रथम घूट मानव का मूर्ख फिर इसका त्याग करना ही उचित है। कारण कि हिंसाजन्य बनाती है, द्वितीय चूंट पागल बनाती है, तृतीय चूंट से वह दानव समस्त पाप भी लगते हैं, जो हिंसा करता है, उसे स्वर्ग मिल नहीं की तरह कार्य करने लगता है और चौथी बूंट से वह मुर्दे की सकता। हिंसक की दुर्गति ही होती है। आचार्य हेमचंद्र ने हिंसा भाँति भूमि पर लुढ़क पड़ता है मदिरा पान करने वाले वाला के फल बताते हुए लिखा है कि पंगपन कोढीपन. लला आदि व्यक्ति समझता है कि वह मदिरा पी रहा है। किन्तु वास्तविकता हिंसा के ही फल हैं
इसके विपरीत यह है कि मदिरा व्यक्ति को पीती है। जब व्यक्ति पंगु-कुष्ठि-कुणित्वादि दृष्टवा हिंसाफलं सुधीः।
मदिरापान का आदी हो जाता है तो वह धीरे-धीरे अनेक रोगों से निरागस्त्र सजन्तूनां हिंसां संकल्पतस्तजेत॥ योगशास्त्र 2/19॥ ग्रस्त हो जाता है और अंत में मृत्यु भी प्राप्त हो सकती है इस
अर्थ में मदिरा धीमा विष भी है। amodeodidroidiwordwordwordwordwordworrordirado- ६१160mirroriabbrdwordromowordrowomdivoritorionirombord
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ अनेक व्यक्ति यह कहते है कि मदिरा तो टॉनिक है, इससे शारीरिक थकान मिटती है । सुस्ती दूर होती है और चुस्ती आती है, किन्तु यह उनकी मिथ्या धारणा है । मदिरा पान करने वाले व्यक्ति की शारीरिक शक्ति घट जाती है और वह शीघ्र ही थक भी जाता है । मदिरा पान से पेट की ज्ञानवाही और क्रियावाही नाड़ियाँ निश्चेष्ट हो जाती है, जिससे भूख का भान नहीं रहता । लाभ की अपेक्षा हानि होती है। पाचन संस्थान विकृत हो जाता है नशा उतरने के पश्चात् शरीर का अंग अंग शिथिल हो जाता है, इसलिए मद्यपान त्याज्य है। किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जा सकता। आचार्य हरिभद्र ने मद्यपान के सोलह दोष इस प्रकार बताये हैं
•
(१) शरीर विद्रूप होना (२) शरीर में विविध रोग उत्पन्न होना (३) परिवार में तिरस्कृत होना (४) समय पर कार्य करने की क्षमता न होना (५) अन्तर्मानस में द्वेष उत्पन्न होना (६) ज्ञान तन्तुओं का धुँधला हो जाना, (७) स्मृति का लोप हो जाना (८) बुद्धि भ्रष्ट होना (९) सज्जनों से संपर्क समाप्त हो जाना (१०) वाणी में कठोरता आना (११) नीच कुलोत्पन्न व्यक्तियों से संपर्क (१२) कुलहीनता, (१३) शक्ति ह्रास (१४) धर्म, (१५) अर्थ १६ काम इन तीनों का नाश होना ।
महाकवि कालिदास ने जब एक मदिरा विक्रेता से पूछा कि उसके पात्र में क्या है तो उसने उत्तर दिया कि उसके पात्र में आठ दुर्गुण हैं। (१) मस्ती, (२) पागलपन, (३) कलह (४) धृष्टता (५) बुद्धि का नाश (६) सच्चाई और योग्यता से घृणा (७) खुशी का नाश और (८) नरक का मार्ग ।
उपर्युक्त दुर्गुणों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मद्यपान कितना हानिप्रद है। किसी मनोवैज्ञानिक ने लिखा है कि मदिरापान से असंतुष्ट व्यक्ति सुख प्राप्त करने का प्रयास करता है, निरुत्साही व्यक्ति साहस, ढुलमुल मनोवृत्तिवाला आत्म विश्वास और इसी प्रकार उदास व्यक्ति सुख की खोज करता है, किन्तु सबको इसके विपरीत विनाश मिलता है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मद्यपान किसी भी स्थिति में हितकर नहीं है। इसका सेवन विनाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकता है, इसलिए कभी भी किसी भी स्थिति में इसका उपयोग नहीं करना चाहिये । कारण यह भी है कि आचार्य हेमचंद्र ने भी लिखा है।
आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म
विवेकः संयमो ज्ञानं, सत्यं शौचं दया क्षमा । मद्यात् प्रलीयते सर्वं तृण्यां वह्निकणादिव ॥ योग शास्त्र ३ / १६
तात्पर्य यह है कि आग की नन्हीं सी चिनगारी विशालकाय घास के ढेर को नष्ट कर देती है। वैसे ही मदिरापान से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, क्षमा आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते है । (४) वेश्यागमन - चिंतनकारों ने वेश्यागमन को कुपथागामी व्यसन की संज्ञा दी है। यह एक ऐसा चमकीला, लुभावना और आकर्षक व्यसन है, जो जीवन को न केवल निंदनीय बनाता है,
वरन् बरबाद भी कर देता है। वेश्या अपने शिकार को फँसाने के लिए कपट व्यवहार करती है। अपनी निर्लज्ज भाव भंगिमा से उसे अपने जाल में फँसाती है, वह इतना अपनत्व प्रदर्शित करती है कि वेश्यागामी यह समझ लेता है कि वह उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित है। परिणामस्वरूप वेश्यागामी अपना सर्वस्व अर्थात् यौवन बल स्वास्थ्य धन आदि सब कुछ उस पर लुटा देता है और उसकी आँख तो जब खुलती है तब वेश्यागामी की जेब खाली हो जाती है और वेश्या उसे दुत्कार कर अपने कोठे से निकाल देती है, एक वेश्या वेश्यागामी को दर दर का भिखारी बना देती है। शारीरिक दृष्टि से भी वह इतना क्षीण हो चुका होता है कि कुछ कर सकने का सामर्थ्य उसमें शेष नहीं रहता है। भर्तृहरि ने वेश्या के संबंध में लिखा है
वेश्याऽसौ मदनज्वाला रूपेन्धनसमेक्षिताओ। कामिभिर्यत्र हूयन्ते यौवानाचि धनानि च ॥
इसका तात्पर्य यह है कि वेश्या कामाग्नि की ज्वाला है, जो सदा रूप-ईंधन से सुसज्जित रहती है। इस रूप ईंधन से सजी हुई वेश्या कामाग्नि ज्वाला में सभी के यौवन धन आदि भस्म कर देती है।
वेश्या आर्थिक और शारीरिक शोषण करने वाली जीती जागती प्रतिमा है वह समाज का कोढ़ है, मानवता का अभिशाप है, समाज के माथे पर कलंक का काला टीका है । समस्त नारी जाति की लांछन है। शास्त्रों में नारी का गौरव गरिमा का चित्रण करते हुए जिन महान रूपों में चित्रित किया गया है, वैश्या नारी होते हुए भी नारी के उन रूपों के विपरीत रूप प्रस्तुत करने वाली है। सद्गुणों के स्थान पर अवगुणों की खान है । लज्जा को
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म नारी का आभूषण कहा गया है, किन्तु वेश्या का इस आभूषण __पापद्वधो तनुमद्वधोज्झितघृण। पुत्रेऽपि दुष्टाशयः। से कोई संबंध नहीं है, वह निर्लज्ज है। वेश्या के संबंध में
इसका तात्पर्य यह है कि जिस भी व्यक्ति को शिकार का कथासरित्सागर में ठीक ही कहा गया है कि वेश्याओं से स्नेह
व्यसन लग जाता है कि वह मानव प्राणीवध करने में दया को की इच्छा करना बालू से तेल निकालने के समान है।
तिजांजलि देकर हृदय को कठोर बना देता है। वह अपने पुत्र के कः प्राज्ञो वांछितस्नेहं वेश्याषु सिकतासु च। प्रति भी दया नहीं रख पाता।
वेश्या कामांध व्यक्तियों को अपने जाल में फंसाती है। आचार्य वसुनन्दी ने कहा हैकामांध व्यक्ति के संबंध में कहा गया है कि कौए को रात में महमज्जससेवी पावड पावं चिरेण जं घोरं।। दिखायी नहीं देता। चमगादड़ को दिन में दिखायी नहीं देता,
तं एयदिणे पुरिसो लहेइ पारद्धिरमणेण।. श्रावकाचार।। किन्तु कामांध को न दिन में दिखायी देता है ओर न रात में। ऐसे कामांध व्यक्ति वेश्या के चंगुल में फँसकर अपना सर्वस्व नष्ट
कहने का तात्पर्य यह है कि मधु मद्य मांस का दीर्घकाल
तक सेवन करने वाला जितने महान पाप का संचय करता है, कर देते हैं। इतना ही नहीं वेश्याएँ अनेक प्रकार की गुप्त व्याधियों से भी ग्रसित रहती है, जिसके कारण जो भी व्यक्ति
उतने सभी पापों को शिकारी एक दिन में शिकार खेलकर संचित उनके संपर्क में आता है, वह भी इन व्याधियों का शिकार हो
कर लेता है। इस कथन से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता जाता है और फिर जीवन पर्यन्त दुःख भोगता रहता है, वेश्या तो
है कि शिकार कितना भयंकर व्यसन है। यहां एक बात और शरीर की सौदागर होती है। वह धन के बदले अपना तन बेचती
सहज ही कही जा सकती है कि जो व्यक्ति अन्य प्राणियों के है। इसलिए वेश्यागमन को दुर्व्यसन माना गया है। फिर आजकल
प्राणों का हरण करता है उसके जीवन में आनंद का कोई स्थान एड्स नामक एक नया रोग भी उत्पन्न हो गया है। यह रोग
नहीं है। अर्थात् उसे आनंद उपलब्ध नहीं होता है। इसके साथ ही
एक अन्य बात यह भी है कि शिकारी शिकार करने के लिए यौनाचार के कारण होता है, इसका अभी तक कोई उपचार नहीं निकला है, इसलिए इस घातक रोग से बचने के लिए भी वेश्या ।
अनेक कठिनाइयों में फँस जाता है। उसे वन-वन भटकना पड़ता का परित्याग कर देना चाहिये। इस व्यसन से सदैव ही बचने का।
है, कई बार मार्ग भूल कर घंटों भूखा-प्यासा वन में इधर से उधर प्रयास करना चाहिये।
भटकता रहता है, और कभी कभी जिनका का वह शिकार
करने के लिए जाता है, स्वयं उनका शिकार भी बन जाता है। (५) शिकार- शिकार अर्थात् आखेट । अपने मनोरंजन
अथवा अन्य हिंसक जीवन उसे अपना लक्ष्य बना लेते हैं। वनों प्रयोजन के लिए किसी प्राणी का आखेट करना, शिकार करना में शिकार के लिए भटकते हए अनेक प्रकार के कष्ट भी सहन शिकार है। यह मनुष्य के जंगलीपन का प्रतीक है। जैन ग्रंथों में करने पडते है। इसे पापर्द्धि के कहा गया है कि जिसका तात्पर्य है पाप के द्वारा
शिकार करना किसी भी स्थिति में न्याय संगत नहीं है। प्राप्त वृद्धि।
इस वर्तमान भौतिकवादी युग में अंग श्रृंगार, फैशन, विलासिता शिकार करना वीरता का नहीं कायरता का प्रतीक है,
के लिए निरीह पशु पक्षियों का वध करना कदापि उचित नहीं क्रूरता का द्योतंक है। शिकार में शिकारी अपने आपको छिपाकर ।
कहा जा सकता। उस समस्त सामग्री पर प्रतिबंध लगना चाहिये, पशु पर अपने अस्त्र-शस्त्र का प्रहार कर उसे मारता है। इस
इस जिसमें निरीह प्राणियों के प्राणों का हरण किया जाता है। शिकार
। प्रकार छिपकर प्रहार करना कायरता की निशाना है। यदि पशु
१ पशु के पापाचार से बचना चाहिये।. पाप से बचकर अपने आपका पलटकर शिकारी पर आक्रमण कर दे तो शिकारी को प्राणों का
जीवन सुखमय बनाने का प्रयास करना चाहिये। संकट उत्पन्न हो जाता है। शिकारी के पास धर्म नाम की कोई चीज नहीं होती। वह तो पाप से अपनी आय प्राप्त करता है।
(६) चोरी- किसी वस्तु अथवा धन को उसके स्वामी से शिकारी के संबंध में कर्पूर प्रकरण में कहा गया है
पूछे बिना ले लेना चोरी हैं। यों यदि सक्ष्म परिभाषा की जाये तो
__कई बातों का उदाहरण के लिए यदि हम अपना कार्य नहीं करते రసారసాగరరరరరరmodi aa ro
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म हैं तो कामचोर कर नहीं देते हैं, तो टैक्सचोर हो जाते हैं, भगवान किसी से छिपकर अथवा स्वामी की दृष्टि बचाकर वस्तु महावीर ने कहा है
ले लेना छन्न चोरी है । जैसे सुनार देखते देखते स्वर्ण रजत चुरा अदिन्नमन्नेसु य णो गहेज्जा। सूत्रकृतांग। १०/२
लेता है वह नजर चोरी है। ऊपर से ठगना, झूठा विज्ञापन करने
धन कमाना ठगी चोरी है। ताला गाँठ आदि खोलकर वस्तु या इसका तात्पर्य यह है कि बिना दी हुई किसी भी वस्तु को
धन ले जाना उद्घाटक चोरी कहलाती है। किसी को डरा धमका ग्रहण न करो। भगवान का तो यह भी कहना है कि दाँत कुरेदने
कर उसे लूटे लेना बलात्, चोरी है। किसी पर आक्रमण करके, के लिए एक तिनका भी न लो।
उसके घर या दुकान में प्रवेश कर धन सम्पत्ति ले जाना घातक दन्तसोहणमाइस्स अदत्तस्स विवज्जंण। उत्तराध्ययन १९/२८ चोरी कहलाती है। आजकल ये सभी प्रकार की चोरियाँ खूब हो
की
सभी समोरीका निशा रही है, बल्कि अंतिम तीन प्रकार की चोरियों का तो बोलबाला है। ही किया है। प्रश्न यह उपस्थित होता है कि व्यक्ति चोरी क्यों इनके अतिरिक्त वर्तमान युग में कुछ सभ्य प्रकार की करता है। पहली बात तो यह है कि वह अपनी आवश्यकता की चोरियाँ भी हो रही है। जैसे कम बोलना और अधिक मूल्य पर्ति के लिए करता है। इससे बड़ी और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि लेना, मिलावट करना, घुस-घोरी, झूठे दस्तावेजों के माध्यम से चोरी करने का कारण लोभ है उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है। सम्पत्ति हड़पना। पक्षपात करना, अर्थ चोरी के साथ-साथ सूवे अतित्ते ये परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेिं।
आजकल नाम की चोरी, साहित्य की चोरी उपकार की चोरी, अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं।। ३२/२९ आदि भी खूब हो रही हैं। विवेक सम्पन्न व्यक्ति को इस प्रकार
की चोरियों से बचना चाहिये। तात्पर्य यह है कि रूप में अतप्त तथा परिग्रह में आसक्त । है। उस और उपसक्त (अत्यन्त आसक्त) व्यक्ति सन्तोष को चोरी मनुष्य के चरित्र को नष्ट करती है, उसके साहस और प्राप्त नहीं होता। वह असंतोष के दोष से दुःखी एक लोभ से कर्तव्य परायणता को समाप्त करती है चोरी व्यक्ति में हीन व्याकुल व्यक्ति दूसरे की अदत्त (नहीं दी हुई) वस्त ग्रहण करता भावना का संचार करती है चोरी करना भी पाप की श्रेणी में आता (चुराता) है।
है। अतः सदैव इससे बचने के लिए प्रयास करना चाहिये। इससे
तभी बचा जा सकता है कि जब मन में आए लोभ से बचा जाये। इसे चोरी का आभ्यन्तर कारण कह सकते हैं।
अतः लोभ को भी अपने पास फटकने नहीं देना चाहिये। चोरी के बाह्य कारण निम्नानुसार बताये जाते हैं
(७) परस्त्री सेवन- कामवासना एक ऐसी ज्वाला है, जो (१) बेकारी (२) दरिद्रता (३) फिजूलखर्ची (४) यशः जैसे-जैसे भोग में अभिवृद्धि होती है, वैसे-वैसे और भड़कती कीर्ति की लालसा (५) स्वभाव या कुसंस्कार और
जाती है। परिणाम यह होता है कि मनुष्य की सम्पूर्ण सुखशांति (६) अराजकता।
उस ज्वाला में भस्म हो जाती है। परस्त्री गमन निंदनीय कृत्य है। संस्कारी व्यक्ति किसी भी स्थिति में चोरी ओर निकटतम परस्त्री गामी व्यक्ति अविश्वसनीय होता है। उसकी स्वयं की कार्य नहीं करेगा। वास्तविकता तो यह है कि चोरी एक असामाजिक पत्नी भी सदैव उससे नाराज रहती है। उसका मन सदैव कलुषित वर्जित कार्य है। संस्कारवान व्यक्ति इस तथ्य से भलीभाँति रहता है। उसका ध्येय एक ही रहता है। परनारी सेवन। जिस भी परिचित रहता है। इस कारण वह चोरी करना तो क्या चोरी के नारी को वह देखता है, वह उसकी ओर वासनात्मक दृष्टि से विषय में कुछ सकारात्मक विचार भी नहीं कर सकता। आकर्षित हो जाता है। वह वासनांध हो जाता है। परस्त्रीगामी प्रश्न व्याकरण सूत्र में चोरी के तीस नाम बताये गये हैं।
व्यक्ति जीवन भर असंतुष्ट बना रहता है। एक विचारक ने छह प्रकार की चोरी बतायी है। (१) छन्न चोरी विचारकों ने परस्त्रीगमन के प्रमुख कारण इस प्रकार बताये (२) नजर चोरी (३) ठगी करके चोरी (४) उद्घाटक चोरी हैं। (५) बलात् चोरी और (६) घातक चोरी।। androidrodrsairdriadrianitariandidreddinidad ६४Karinitarinirodaradirdindidroidddddddasaram
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म(१) क्षणिक आवेश (२) अज्ञानता (३) बुरी संगित (४) उसका उदाहरण अन्यत्र मिलना कठिन है धर्मपत्नी के संबंध में पति के परस्त्रीगमन को देखकर उसकी पत्नी भी पथभ्रष्ट होती है कहा गया है कि वह मंत्री की भांति (५) विकृत साहित्य का पढ़ना (६) धनमद के कारण, (७) सेवा करती है। धार्मिक कार्यों में पति को प्रेरणा प्रदान करती है। धार्मिक अंधविश्वास (८) सहशिक्षा (९) अश्लील चलचित्र, पृथ्वी की भाँति क्षमाशील होती है। माता के समान स्नेह से
ह और (११) मादक पदार्थों का सेवन। भोजन कराती है। ये सब गुण पर स्त्री में कहाँ मिलते हैं? यहाँ एक बात स्पष्ट करना उचित प्रतीत होता है वह यह पर स्त्री से संबंध रखने में पुरुष के प्राण भी संकट में पड़ कि जिस प्रकार एक पुरुष के लिए पर स्त्री सेवन व्यसन है, ठीक जाते हैं। मानसिक अशांति बनी रहती है। मनुष्य सदैव संदेहशील उसी प्रकार एक स्त्री के लिए पर पुरुष सेवन भी व्यसन है, बना रहता है। महर्षि वाल्मीकि के अनुसार पर स्त्री से अवैध निंदनीय है।
संबंध रखने जैसा कोई पाप नहीं है। ___यह बात सत्य है कि गृहस्थ कामवासना का पूर्ण रूप से परदाराभिमशत्तुि नान्यतः पापतरं महत्। वाल्मीकि रामायण३३९/३० परित्याग नहीं कर सकता। कामवासना को नियंत्रित करने के
आचार्य मनु ने भी इसे (परस्त्री सेवन को) निकृष्ट कार्य लिए मनीषियों ने विवाह संस्कार का विधान किया है। विवाह
माना है। समाज की नैतिक शांति, पारिवारिक प्रेम और प्रतिष्ठा को सुरक्षित
नहीद्दशमनायुतयं लोके किंचित् दृश्यते। रखने का एक उपाय है। गृहस्थ को चाहिये कि वह अपनी
याद्दशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम्। मनुस्मृति।। ४/३४१ विवाहित पत्नी में ही संतोष करके शेष सभी पर स्त्री आदि के साथ मैथुन विधि का परित्याग करे। उपासक दशांग में भी यही
महाकवि कालिदास ने परस्त्रीसेवन को अनायों का कार्य कहा गया है।
कहा हैसदार संतोषिलिए अवषिं सव्व मेहुण विहिं पच्चक्खाई।
अनार्य:- परदारव्यवहारः अभिज्ञान शाकुन्तल। इन
उदाहरणों को प्रस्तुत करने का उद्देश्य यही है कि परस्त्रीसेवन को पर स्त्री सेवन सभी दृष्टि से गलत है, हानिप्रद है। यह
सभी ने अनुचित बताया है। अतः इसका परित्याग करना ही अवैध पापाचार है। धर्मपत्नी को छोड़कर जिस भी स्त्री के साथ
उचित है। यदि इस ओर दृष्टि ही न जाये इसका विचार ही नहीं संबंध बनाया जाता है कि वह निंदनीय तो है ही समाज में
किया जाये और स्व धर्म पत्नी में ही संतोष रखकर अपने प्रतिष्ठा के प्रतिकूल भी है। फिर धर्मपत्नी जिस प्रेम लगन और
कर्तव्य की पूर्ति करते हुए धर्माराधना की जाये तो ऐसा पापाचारों निष्ठा से अपने पति का साथ निभाती है, उसका पर स्त्री में से बचा जा सकता है। अभाव होता है पर स्त्री कभी भी व्यक्ति को बीच भँवर में छोड़कर उसको धोखा दे सकती है। वह अपनी प्रतिष्ठा (इज्जत)
इस निबंध में संक्षेप में सप्त व्यसनों पर विचार किया के नाम पर पुरुष को पतन के गर्त में ढकेल सकती है, सो सेवा
गया है, सभी व्यसन कष्ट कर, निंदनीय पाप में वृद्धि करने वाले, धर्मपत्नी करती है, उस सेवा भावना का पर स्त्री में अभाव रहता
प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाने वाले हैं। अतः इनसे बचकर ही रहना है। धर्म पत्नी न केवल अपने पति की सेवा करती है, वरन पति के
चाहियोयदि मनुष्य इससे बचकर जीवन यापन करता है तो माता-पिता की भी सेवा करती है। परिवार को एक सूत्र में बाँधे ।
उसके जीवन में सच्चरित्रता नैतिकता धार्मिक भावना का सागर रखती है। अपनी संतान के पालन पोषण में जो त्याग वह करती है,
दहाड़ें मारेगा। जीवन व्यसन मुक्त रहेगा तो जीवन विकास के द्वार स्वतः खुलते चले जायेंगे।
రతరతరతరతరతరతరతied గరుగురురరరరరరరరwand
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जैन धर्म की परम्परा, इतिहास के झरोखे से
यद्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के धर्मों के इतिहास में जैन धर्म का अपना एक विशिष्ट स्थान है क्योंकि वैचारिक उदारता, दार्शनिक गंभीरता, विपुल साहित्य और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के धर्मों में इसका अवदान महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत निबन्ध में हम इस धर्म परम्परा को इतिहास के आइने में देखने का प्रयास करेंगे।
श्रमण परम्परा
विश्व के धर्मो की मुख्यतः सेमेटिक धर्म और आर्य धर्म, ऐसी दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धर्मों में यहूदी, ईसाई और मुसलमान आते हैं जबकि आर्य धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक), बौद्ध और जैन धर्म की गणना की जाती है। इनके अतिरिक्त सुदूर पूर्व के देश जापान और चीन में विकसित कुछ धर्म कन्यूशियस एवं शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं आर्य धर्मों में जहाँ हिन्दू धर्म के वैदिक स्वरूप को प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक कहा जाता है। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म श्रमण परम्परा के धर्म हैं। श्रमण परम्परा की विशेषता यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीवन की दुःखमयता को उजागर कर संन्यास एवं वैराग्य के माध्यम से निर्वाण की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है। इस निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा ने अपनी तप एवं योग की आध्यात्मिक साधना एवं शीलों या व्रतों के रूप में नैतिक मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों के इतिहास में अपना विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस श्रमण परम्परा में न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित है, अपितु औपनिषदिक और सांख्ययोग की धारायें भी सम्मिलित हैं जो आज बृहद् हिन्दू धर्म का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धाराएं भी थीं जो आज विलुप्त हो चुकी हैं।
पारस्परिक सौहार्द की प्राचीन स्थिति
प्राकृत साहित्य में ऋषिभाषित (इसिमासियाई) और पालि साहित्य में थेरगाथा ऐसे ग्रन्थ हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अति
प्राचीन काल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं के होते हुए भी इन ऋषियों में पारस्परिक सौहार्द था।
ऋषिभाषित जो कि प्राकृत जैन आगमों और बौद्ध पालिपिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, अध्यात्मप्रधान श्रमणधारा के इस पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित करता है। यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् तथा शेष सभी प्राकृत और पालि साहित्य के पूर्व ई०पू० लगभग चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्मन्ध, बौद्ध, औपनिषदिक एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के ४५ ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ धेरगाथा में भी श्रमण धारा के विभिन्न ऋषियों के उपदेश एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं। ऐतिहासिक एवं अनामही दृष्टि से अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो ऋषिभासित (इसिभासियाई) के सभी ऋषि जैन परम्परा के है और न थेरगाथा के सभी शेर (स्थविर) बौद्ध परम्परा के हैं जहाँ ऋषिभाषित में सारिपुत्र, वात्सीपुत्र (चज्जीपुत्त) और महाकाश्यप बौद्ध परम्परा के हैं, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य, अरुण, असितदेवल, नारद, द्वैपायन, अंगिरस, भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से सम्बन्धित हैं, तो संजय (संजय बेलपित्त), मंखली गोशालक, रामपुत्त आदि अन्य स्वतन्त्र भ्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार थेरगाथा में वर्द्धमान आदि जैन धारा की, तो नारद आदि औपनिषदिक धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिक धारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है। यह सही है कि वैदिक धारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमण धारा निवृत्तिमार्गी और इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवन मूल्यों का संघर्ष था किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो भ्रमण धारा का उद्भव मानव व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न था जिसमें श्रमण-ब्राह्मण सभी सहभागी बने थे। ऋषिभाषित में इन ऋषियों को अहंत कहना और सूत्रकृतांग में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना, प्राचीन काल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक सौहार्द का
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हमारे पास ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह
कहा जा सके कि पार्श्व की परम्परा पूर्णतः महावीर की परम्परा में विलीन निर्ग्रन्थ परम्परा
हो गयी थी। फिर भी इतना निचित है कि पार्थापत्यों का एक बड़ा भाग लगभग ई०पू० सातवीं-छठी शताब्दी का युग एक ऐसा युग महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गया था और महावीर की परम्परा था जब जन समाज इन सभी श्रमणों, तपस्वियों, योग-साधकों एवं ने पार्श्व को अपनी ही परम्परा के पूर्व पुरुष के रूप में मान्य कर लिया चिन्तकों के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनता था और अपने जीवन को था। पार्श्व के लिए 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग इसका प्रमाण है। आध्यात्मिक एवं नैतिक साधना से जोड़ता था। फिर भी वह किसी वर्ग- कालान्तर में ऋषभ,नमि और अरिष्टनेमि जैसे प्रागैतिहासिक काल के विशेष या व्यक्ति-विशेष से बंधा हुआ नहीं था। दूसरे शब्दों में उस युग महान् व्यक्तियों को स्वीकार करके निर्ग्रन्थ परम्परा ने अपने अस्तित्व को में, धर्म परम्पराओं या धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव नहीं हुआ था। क्रमशः अति प्राचीनकाल से जोड़ने का प्रयत्न किया। इन श्रमणों, साधकों एवं चिन्तकों के आसपास शिष्यों, उपासकों एवं श्रद्धालुओं का एक वर्तुल खड़ा हुआ। शिष्यों एवं प्रशिष्यों की परम्परा ऋषभ आदि तीर्थकरों की ऐतिहासिकता का प्रश्न चली और उनकी अलग-अलग पहचान बनने लगी। इसी क्रम में निर्ग्रन्थ वेदों एवं वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों से इतना तो निर्विवाद परम्परा का उद्भव हुआ। जहाँ पार्श्व की परम्परा के श्रमण अपने को रूप से सिद्ध होता है कि वातरशना मुनियों एवं व्रात्यों के रूप में श्रमण पार्थापत्य-निर्ग्रन्थ कहने लगे, वहीं वर्द्धमान महावीर के श्रमण अपने को धारा उस युग में भी जीवित थी जिसके पूर्व पुरुष ऋषभ थे। फिर भी आज ज्ञात्रपुत्रीय निर्ग्रन्थ कहने लगे। सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का भिक्षु संघ शाक्य ऐतिहासिक आधार पर यह बता पाना कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक पुत्रीय श्रमण के नाम से पहचाना जाने लगा।
एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएं क्या थीं और वे वर्तमान जैन पार्श्व और महावीर की एकीकृत परम्परा निर्ग्रन्थ के नाम से जानी परम्परा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संन्यास जाने लगी। जैन धर्म का प्राचीन नाम हमें निम्रन्थ धर्म के रूप में ही मिलता मार्ग के प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। ऋषभ, है। जैन शब्द तो महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद नमि, अजित, अर, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को छोड़कर अन्य अस्तित्व में आया है। अशोक (ई०पू० तृतीय शताब्दी), खारवेल तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्य पूर्णत: मौन (ई०पू० द्वितीय शताब्दी) आदि के शिलालेखों में जैन धर्म का उल्लेख हैं और उनके प्रति हमारी आस्था का आधार परवर्ती काल के आगम और निर्ग्रन्थ संघ के रूप में ही हुआ है।
अन्य कथा ग्रन्थ ही हैं।
पार्श्व एवं महावीर की परम्परा
महावीर और अजीवक परम्परा ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग आदि से ज्ञात होता है जैन धर्म के इस पूर्व-इतिहास की इस संक्षिप्त रूप रेखा देने कि पहले निर्ग्रन्थ धर्म में नमि, बाहुक, कपिल, नारायण (तारायण), के पश्चात् जब हम पुन: महावीर के काल की ओर आते हैं तो कल्पअंगिरस, भारद्वाज, नारद आदि ऋषियों को भी जो कि वस्तुत: उसकी सूत्र एवं भगवती में कुछ ऐसे सूचना सूत्र मिलते हैं, जिनके आधार पर परम्परा के नहीं थे, अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था। पार्श्व और महावीर ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर के पार्थापत्यों के अतिरिक्त आजीवकों के साथ के समान इन्हें भी अर्हत् कहा गया था किन्तु जब निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय पार्श्व भी निकट सम्बन्धों की पुष्टि होती है। और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा तो इन्हें प्रत्येक-बुद्ध के रूप में जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में यह माना गया है कि सम्मानजनक स्थान तो दिया गया किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा महावीर दीक्षित होने के दूसरे वर्ष में ही मंखली पुत्र गोशालक उनके निकट से पृथक् मान लिया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि ई०पू० पांचवीं सम्पर्क में आया था, कुछ वर्ष दोनों साथ भी रहे किन्तु नियतिवाद और या चौथीं शती में निर्ग्रन्थ संघ पार्श्व और महावीर तक सीमित हो गया। पुरुषार्थवाद सम्बन्धी मतभेदों के कारण दोनों अलग-अलग हो गये। हरमन यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारम्भ में महावीर और पार्श्व की जेकोबी ने तो यह कल्पना भी की है कि महावीर की निर्ग्रन्थ परम्परा में परम्पराएँ भी पृथक्-पृथक् ही थीं। यद्यपि उत्तराध्ययन एवं भगवतीसूत्र की नग्नता आदि जो आचार्य मार्ग की कठोरता है, वह गोशालक की सूचनानुसार महावीर के जीवन काल में पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण आजीवक परम्परा का प्रभाव है। यह सत्य है कि गोशालक के पूर्व भी उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उनके संघ में सम्मिलित हुए थे किन्तु आजीवकों की एक परम्परा थी जिसमें अर्जुन आदि आचार्य थे। फिर भी महावीर के जीवन काल में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ पूर्णतः ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि कठोर साधना एकीकृत नहीं हो सकी। उत्तराध्ययन में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है की यह परम्परा महावीर से आजीवक परम्परा में गई या आजीवक कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गोशालक के द्वारा महावीर की परम्परा में आई। क्योंकि इस तथ्य का गौतम और पार्थापत्य परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी ने परस्पर कोई प्रमाण नहीं है कि महावीर से अलग होने के पश्चात् गोशालक मिलकर दोनों संघों के एकीकरण की भूमिका तैयार की थी। यद्यपि आज आजीवक परम्परा से जुड़ा था या वह प्रारम्भ में ही आजीवक परम्परा
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सौराष्ट्र से भी दिखाया गया है और उनका निर्वाण स्थल गिरनार पर्वत
माना गया है। किन्तु आगमों में द्वारिका और गिरनार की जो निकटता निर्ग्रन्थ परम्परा में महावीर के जीवनकाल में हुए संघ भेद वर्णित है वह यथार्थ स्थिति से भिन्न है। सम्भवतः अरिष्टनेमि और कृष्ण
महावीर के जीवनकाल में निर्ग्रन्थ संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण के निकट-सम्बन्ध होने के कारण ही कृष्ण के साथ-साथ अरिष्टनेमि का घटना महावीर के जामातृ कहे जाने वाले जामालि से उनका वैचारिक सम्बन्ध भी द्वारिका से जोड़ा गया होगा। अभी तक इस सम्बन्ध में मतभेद होना और जामालि का अपने पाँच सौ शिष्यों सहित उनके संघ ऐतिहासिक साक्ष्यों का अभाव है। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा से अलग होना है। भगवती, आवश्यक नियुक्ति और परवर्ती ग्रन्थों में में खोज करें। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण उपलब्ध है। निर्ग्रन्थ संघ-भेद की इस घटना जो कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं उससे ऐसा लगता है के अतिरिक्त हमें बौद्ध पिटक साहित्य में एक अन्य घटना का उल्लेख कि निर्ग्रन्थ संघ अपने जन्म स्थल बिहार से दो दिशाओं में अपने प्रचार भी मिलता है जिसके अनुसार महावीर के निर्वाण होते ही उनके भिक्षुओं अभियान के लिए आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण-बिहार एवं बंगाल से एवं श्वेत वस्त्रधारी श्रावकों में तीव्र विवाद उत्पन्न हो गया। निर्ग्रन्थ संघ उड़ीसा के रास्ते तमिलनाडु गया और वहीं से उसने श्रीलंका और के इस विवाद की सूचना बुद्ध तक भी पहुँचती है। किन्तु पिटक साहित्य स्वर्णदेश (जावा-सुमात्रा आदि) की यात्राएँ की। लगभग ई०पू० दूसरी में इस विवाद के कारण क्या थे, इसकी कोई चर्चा नहीं है। एक सम्भावना शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण निर्ग्रन्थों को श्रीलंका से यह हो सकती है कि यह विवाद महावीर के उत्तराधिकारी के प्रश्न को निकाल दिया गया। फलत: वे पुन: तमिलनाडु में आ गये। तमिलनाडु लेकर हुआ होगा। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में महावीर के प्रथम में लगभग ई०पू० प्रथम-द्वितीय शती से ब्राह्मी लिपि में अनेक जैन उत्तराधिकारी को लेकर मतभेद है। दिगम्बर परम्परा महावीर के पश्चात् अभिलेख मिलते हैं जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि निर्ग्रन्थ संघ महावीर गौतम को पट्टधर मानती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा सुधर्मा को। श्वेताम्बर के निर्वाण के लगभग दो, तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल प्रदेश में परम्परा में महावीर के निर्वाण के समय गौतम को निकट के दूसरे ग्राम पहुँच चुका था। मान्यता तो यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु, चन्द्रगुप्त में किसी देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने हेतु भेजने की जो घटना वर्णित मौर्य को दीक्षित करने दक्षिण गये थे। यद्यपि इसकी ऐतिहासिक है, वह भी इस प्रसंग में विचारणीय हो सकती है। किन्तु दूसरी सम्भावना प्रामाणिकता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो सकती है क्योंकि जो यह भी हो सकती है कि बौद्धों ने जैनों के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्बन्धी अभिलेख घटना का उल्लेख करता है वह लगभग छठी-सातवीं शती परवर्ती विवाद को पिटकों के सम्पादन के समय महावीर के निर्वाण की का है। आज भी तमिल जैनों की विपुल संख्या है और वे भारत में घटना के साथ जोड़ दिया हो। मेरी दृष्टि में यदि ऐसा कोई विवाद घटित जैन धर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के प्रतिनिधि हैं। यद्यपि हुआ होगा तो वह महावीर के नग्न रखने वाले श्रमणों के बीच हुआ बिहार, बंगाल और उड़ीसा की प्राचीन जैन परम्परा कालक्रम में विलुप्त होगा, क्योंकि पापित्यों के महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में प्रवेश के साथ हो गयी है किन्तु सराक जाति के रूप में उस परम्परा के अवशेष आज ही उनके संघ में नग्न और सवस्त्र ऐसे दो वर्ग अवश्य ही बन गये होंगे भी शेष हैं। 'सराक' शब्द श्रावक का ही अपभ्रंश रूप है और आज और महावीर श्रमणों के इन दो वर्गों को सामायिक-चारित्र और भी इस जाति में रात्रि भोजन निषेध जैसे कुछ संस्कार शेष हैं। छेदोपस्थापनीय-चारित्र धारी के रूप में विभाजित किया होगा। विवाद का कारण ये दोनों वर्ग ही रहे होंगे। मेरी दृष्टि में बौद्ध परम्परा में जिन्हें श्वेत उत्तर और दक्षिण के निर्ग्रन्थ श्रमणों में आधार भेद वस्त्रधारी श्रावक कहा गया, वे वस्तुतः सवस्त्र श्रमण ही होंगे। क्योंकि दक्षिण में गया निम्रन्थ संघ अपने साथ विपुल प्राकृत जैन बौद्ध परम्परा में श्रमण (भिक्षु) को भी श्रावक कहा गया है, फिर भी इस साहित्य तो नहीं ले जा सका क्योंकि उस काल तक जैनागम साहित्य
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की पूर्ण रचना ही नहीं हो पाई थी। वह अपने साथ श्रुत परम्परा से कुछ दार्शनिक विचारों एवं महावीर के कठोर आचार मार्ग को ही लेकर चला था जिसे उसने बहुत काल तक सुरक्षित रखा। आज की दिगम्बर परम्परा का पूर्वज यही दक्षिणी अचेल निर्ग्रन्थ संघ है। इस सम्बन्ध अन्य कुछ मुद्दे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विचारणीय हैं। महावीर के अपने युग में भी उनका प्रभाव क्षेत्र मुख्यतया दक्षिण बिहार ही था जिसका केन्द्र राजगृह था, जबकि बौद्धों एवं पार्थापत्यों का प्रभाव क्षेत्र उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश था जिसका केन्द्र श्रावस्ती था। महावीर के अचेल निर्ग्रन्थ संघ और पाश्र्वापत्य सन्तरोत्तर (सचेल) निर्ग्रन्थ संघ के सम्मिलन की भूमिका भी श्रावस्ती में गौतम और केशी के नेतृत्व में तैयार हुई थी। महावीर के सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह नालन्दा में होना और बुद्ध के श्रावस्ती में होना भी इसी तथ्य का प्रमाण है। दक्षिण का जलवायु उत्तर की अपेक्षा गर्म था, अतः अचलता के परिपालन में दक्षिण में गये निर्धन्य संघ को कोई कठिनाई नहीं हुई जबकि उत्तर के निर्ग्रन्थ संघ में कुछ पार्श्वापत्यों के प्रभाव से और कुछ अति शीतल जलवायु के कारण यह अचेलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी और एक वख रखा जाने लगा। स्वभावतः भी दक्षिण की अपेक्षा उत्तर के निवासी अधिक सुविधावादी होते हैं। बौद्ध धर्म में भी बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् सुविधाओं की मांग वात्सीपुत्रीय भिक्षुओं ने ही की थी जो उत्तरी तराई क्षेत्र के थे। बौद्ध पिटक साहित्य में निर्मन्यों को एक शाटक और आजीवकों को नग्न कहा गया है। यह भी यही सूचित करता है कि लज्जा और शीत निवारण हेतु उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ कम से कम एक वस्त्र तो रखने लग गया था। मथुरा में ईस्वी सन् प्रथम शताब्दी के आसपास की जैन श्रमणों की जो मूर्तियां उपलब्ध हुई हैं उनमें सभी में श्रमणों को एक वस्त्र से युक्त दिखाया गया है। वेसामान्यतया नग्न रहते थे किन्तु भिक्षा या जन समाज में जाते समय वह वस्त्र खण्ड हाथ पर डालकर अपनी नग्नता छिपा लेते थे और अति शीत आदि की स्थिति में उसे ओढ़ लेते थे।
इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं साध्वियों के हाथ में मुख वस्त्रिका (मुंह- पत्ति) और प्रतिलेखन (रजोहरण) के अंकन उपलब्ध होते हैं। प्रतिलेखन के अंकन दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मयूर पिच्छि और श्वे० परम्परा में प्रचलित रजोहरण दोनों ही आकारों में मिलते हैं। यद्यपि स्पष्ट साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि वे प्रतिलेखन मयूरपिच्छ के बने होते थे या अन्य किसी वस्तु के दिगम्बर परम्परा में मान्य यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती आराधना में प्रतिलेखन (पडिलेहण) और उसके गुणों का तो वर्णन है किन्तु यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे किस वस्तु के बने होते थे। इस प्रकार ईसा की प्रथम शती के पूर्व उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र, पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन (रजोहरण) का प्रचलन था । सामान्यतया मुनि नग्न ही रहते थे और साध्वियाँ साड़ी पहनती थीं मुनि वस्त्र का उपयोग उचित अवसर पर शीत एवं लज्जा निवारण हेतु करते थे। मुनियों के द्वारा सदैव वस्त्र धारण किये रहने की परम्परा नहीं थी। इसी प्रकार अंकनों में मुखवस्त्रिका भी हाथ में ही प्रदर्शित है, न कि वर्तमान स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं के अनुरूप मुख पर बंधी हुई दिखाई गई है। प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मुनि के जिन १४ उपकरणों का उल्लेख मिला है, वे सम्भवतः ईसा की दूसरी-तीसरी शती तक निश्चित हो गये थे ।
महावीर के पश्चात् निर्मन्ध संघ में हुए संघभेद
महावीर के निर्वाण और मथुरा के अंकन के बीच लगभग पाँच सौ वर्षों के इतिहास से हमें जो महत्त्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं। वे निहवों के दार्शनिक एवं वैचारिक मतभेदों एवं संघ के विभिन्न, गणों, शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों में विभक्त होने से सम्बन्धित हैं। आवश्यक नियुक्ति सात नियों का उल्लेख करती है, इनमें से जामालि और तिष्यगुप्त तो महावीर के समय में हुए थे, शेष पाँच आषाढ़भूति, अश्वामित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल महावीर निर्माण के पश्चात् २१४ वर्ष से ५८४ वर्ष के बीच हुए ये निह्नव किन्हीं दार्शनिक प्रश्नों पर निर्ग्रन्थ संघ की परम्परागत मान्यताओं से मतभेद रखते थे। किन्तु इनके द्वारा निर्व्रन्ध संघ में किसी नवीन सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई हो, ऐसी कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं होती। इस काल में निर्ग्रन्थ संघ में गण और शाखा भेद भी हुए किन्तु वे किन दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी मतभेद को लेकर हुए थे, यह ज्ञात नहीं होता है। मेरी दृष्टि में व्यवस्थागत सुविधाओं एवं शिष्य-प्रशिष्यों की परम्पराओं को लेकर ही ये गण या शाखा भेद हुए होंगे। यद्यपि कल्पसूत्र स्थविरावलि में बदुलक रोहगुप्त से त्रैराशिक शाखा निकलने का उल्लेख हुआ है। रोहगुप्त वैराशिक मत के प्रवक्ता एक निह्नव माने गये हैं। अतः यह स्पष्ट है कि इन गणों एवं शाखाओं में कुछ मान्यता भेद भी रहे होंगे किन्तु आज हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है। कल्पसूत्र की स्थविरावलि तुंगीयायन गोत्री आर्य यशोभद्र के
यह सुनिश्चित है कि महावीर बिना किसी पात्र के दीक्षित हुए थे। आचारांग से उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले तो वे गृही पात्र का उपयोग कर लते थे किन्तु बाद में उन्होंने इसका त्याग कर दिया और पाणिपात्र हो गये अर्थात् हाथ में ही भिक्षा ग्रहण करने लगे। सचित्त जल का प्रयोग निषिद्ध होने से सम्भवतः सर्वप्रथम निर्वन्ध संघ में शौच के लिए जलपात्र का ग्रहण किया गया होगा किन्तु भिक्षुकों की बढ़ती हुई संख्या और एक ही घर से प्रत्येक भिक्षु को पेट भर भोजन न मिल पाने के कारण आगे चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो गया होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की परिचर्या के लिए भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित हो गई होगी। मथुरा में ईसा की प्रथम द्वितीय शती की एक जैन श्रमण की प्रतिमा मिली है जो अपने हाथ में एक पात्र युक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन (रजोहरण) लिए हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वे० परम्परा में, विशेष रूप से स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में प्रचलित झोली के समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी प्रदर्शित है।
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
दो शिष्यों माढरगोत्री सम्भूतिविजय और प्राचीनगोत्री भद्रबाहु का उल्लेख मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन भी मुनि के उपकरणों में समाहित हैं। मुनियों करती है। कल्पसूत्र में गणों और शाखाओं की उत्पत्ति बताई गई है, वे के नाम, गण, शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र की एक ओर आर्य भद्रबाहु के शिष्य काश्यप गोत्री गोदास से एवं दूसरी ओर स्थविरावलि से मिलते हैं। इस प्रकार ये श्वेताम्बर परम्परा की पूर्व स्थिति स्थूलिभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों से प्रारम्भ होती है। गोदास से गोदासगण के सूचक हैं। जैन धर्म में तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त स्तूप के निर्माण की उत्पत्ति हुई और उसकी चार शाखाएं ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, की परम्परा भी थी, यह भी मथुरा के शिल्प से सिद्ध हो जाता है। पौण्ड्रवर्द्धनिका और दासीकटिका निकली हैं। इसके पश्चात् भद्रबाहु की परम्परा कैसे आगे बढ़ी, इस सम्बन्ध में कल्पसूत्र की स्थविरावलि में कोई यापनीय या बोटिक संघ का उद्भव' निर्देश नहीं है। इन शाखाओं के नामों से भी ऐसा लगता है कि भद्रबाहु ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छ: सौ नौ वर्ष की शिष्य परम्परा बंगाल और उड़ीसा से दक्षिण की ओर चली गई होगी। पश्चात् उत्तर भारत निर्ग्रन्थ संघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित दक्षिण में गोदास गण का एक अभिलेख भी मिला है। अत: यह मान्यता हुई, फलतः उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों समुचित ही है कि भद्रबाहु की परम्परा से ही आगे चलकर दक्षिण की में बंट गया। पार्थापत्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि अचेलक निर्ग्रन्थ परम्परा का विकास हुआ।
के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपधि श्वेताम्बर परम्परा पाटलिपुत्र की वाचना के समय भद्रबाहु के बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर नेपाल में होने का उल्लेख करती है जबकि दिगम्बर परम्परा चन्द्रगुप्त आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्य कृष्ण जिनकल्प मौर्य को दीक्षित करके उनके दक्षिण जाने का उल्लेख करती है। सम्भव का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र-पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने है कि वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में उत्तर से दक्षिण चले गये हों। लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की परम्परा सम्भूतिविजय के प्रशिष्य एवं पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के जिनकल्प का निषेध नहीं स्थूलिभद्र के शिष्यों से आगे बढ़ी। कल्पसूत्र में वर्णित गोदास गण और मानना चाहिए। वस्त्र, पात्र का ग्रहण अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग मार्ग तो उसकी उपर्युक्त चार शाखाओं को छोड़कर शेष सभी गुणों, कुलों और अचेलता ही है। आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की इस अचेल परम्परा शाखाओं का सम्बन्ध स्थूलिभद्र की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही है। इसी को श्वेताम्बरों ने बोटिक (भ्रष्ट) कहा। किंतु आगे चलकर यह परम्परा प्रकार. दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थ संघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर यापनीय के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हुई। गोपाञ्चल में विकसित होने का सचेल निर्ग्रन्थ संघ स्थूलिभद्र की परम्परा से विकसित हुआ। इस संघ के कारण यह गोप्य संघ नाम से भी जानी जाती थी। षट्दर्शनसमुच्चय में उत्तर बलिस्सहगण, उद्धेहगण, कोटिकगण, चारणगण, मानवगण, की टीका में गुणरत्न ने गोप्य संघ या यापनीय संघ को पर्यायवाची बताया वेसवाडिवगण, उडवाडियगण आदि प्रमुख गण थे। इन गणों की अनेक है। यापनीय संघ की विशेषता यह थी कि एक ओर यह श्वेताम्बर परम्परा शाखाएं एवं कुल थे। कल्पूसत्र की स्थविरावलि इन सबका उल्लेख तो के समान आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि करती है किन्तु इसके अंतिम भाग में मात्र कोटिकगण की वज्री शाखा अर्द्धमागधी आगम साहित्य को मान्य करता था जो कि उसे उत्तराधिकार की आचार्य परम्परा दी गई है जो देवर्द्धिक्षमाश्रमण (वीर निर्माण में ही प्राप्त हुआ था, साथ ही वह सचेल, स्त्री और अन्यतैर्थिकों की मुक्ति सं०९८०) तक जाती है। स्थूलभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों की परम्परा में उद्भूत को स्वीकार करता था। आगम साहित्य के वस्त्र-पात्र सम्बन्धी उल्लेखों जिन विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों की सूचना हमें कल्पसूत्र की को वह साध्वियों एवं आपवादिक स्थिति में मुनियों से सम्बन्धित मानता स्थविरावलि से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती था किन्तु दूसरी ओर वह दिगम्बर परम्परा के समान वस्त्र और पात्र का है जो कल्पसूत्र की स्थविरावलि की प्रामाणिकता को सिद्ध करते हैं। निषेध कर मुनि की नग्नता पर बल देता था। यापनीय मुनि नग्न रहते दिगम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् थे और पानीतलभोजी (हाथ में भोजन करने वाले) होते थे। इसके आचार्यों तक की जो पट्टावली उपलब्ध है, एक तो वह पर्याप्त परवर्ती है दूसरे ने उत्तराधिकार में प्राप्त आगमों से गाथायें लेकर शौरसेनी प्राकृत में अनेक भद्रबाह के नाम के अतिरिक्त उसकी पुष्टि का प्राचीन साहित्यिक और ग्रन्थ बनाये। इनमें कषायप्राभृत, षट्खण्डागम, भगवती-आराधना, अभिलेखीय कोई साक्ष्य नहीं है। भद्रबाहु के सम्बन्ध में भी जो साक्ष्य मूलाचार आदि प्रसिद्ध हैं। हैं, वह पर्याप्त परवर्ती हैं। अत: ऐतिहासिक दृष्टि से उसकी प्रामाणिकता दक्षिण भारत में अचेल निर्ग्रन्थ परम्परा का इतिहास ईस्वी सन् पर प्रश्न चिह्न लगाये जा सकते हैं। महावीर के निर्वाण से ईसा की प्रथम की तीसरी चौथी-शती तक अंधकार में ही है। इस सम्बन्ध में हमें न तो एवं द्वितीय शताब्दी तक के जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ विशेष साहित्यिक साक्ष्य ही मिलते हैं और न अभिलेखीय ही। यद्यपि संघ में हुए, उन्हें समझने के लिए अर्द्धमागधी आगमों के अतिरिक्त मथुरा इस काल के कुछ पूर्व के ब्राह्मी लिपि के अनेक गुफा अभिलेख तमिलनाडु का शिल्प एवं अभिलेख हमारी बहुत अधिक मदद करते हैं। मथुरा शिल्प में पाये जाते हैं किन्तु वे श्रमणों या निर्माता के नाम के अतिरिक्त कोई की विशेषता यह है कि तीर्थकर प्रतिमाएँ नग्न हैं, मुनि नग्न होकर भी जानकारी नहीं देते। तमिलनाडु में अभिलेख युक्त जो गुफायें हैं, वे
वस्त्र खण्ड से अपनी नग्नता छिपाये हुए हैं। वस्त्र के अतिरिक्त पात्र, झोली, सम्भवत: निर्ग्रन्थ के समाधि मरण ग्रहण करने के स्थल रहे होंगे। संगम aroubrowondvoniroiwordwonitoriwomabritoriamiridroid-[७०] omiridroraordivodeoroordinatorironivorironorardwara
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युग के तमिल साहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैन श्रमणों ने भी तमिल भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया था। तिरूकुरल के जैनाचार्यकृत होने की भी एक मान्यता है । ईसा की चौथी शताब्दी में तमिल देश का यह निर्मन्थ संघ कर्णाटक के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्ध संघ सचेल (श्वेताम्बर) और अचेलक (यापनीय) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण में गया। सचेल चेताम्बर परम्परा राजस्थान, गुजरात एवं पश्चिमी महाराष्ट्र होती हुई उत्तर कर्नाटक पहुँची, तो अचेल यापनीय परम्परा बुन्देलखण्ड एवं विदिशा होकर विंध्य और सतपुड़ा को पार करती हुई पूर्वी महाराष्ट्र से होकर उत्तरी कर्नाटक पहुँची। ईसा की पाँचवी शती में उत्तरी कनार्टक मे मृगेशवर्मा के जो अभिलेख मिले हैं उनसे उस काल में जैनों के पाँच संघों के अस्तित्व की सूचना मिलती है- (१) निर्ग्रन्थ संघ (२) मूल संघ (३) यापनीय संघ, (४) कूचर्क संघ और (५) श्वेतपट महाश्रमण संघा इसी काल में पूर्वोत्तर भारत में वटगोहली से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना मिलती है। इस युग का श्वेतपट महाश्रमण संघ अनेक कुलों एवं शाखाओं में विभक्त था जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है।
भी छेद सूत्रों की प्राचीनता निर्विवाद है। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं, जो कुछ अंगों और उपांगों की अपेक्षा भी प्राचीन है। फिर भी सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम साहित्य को अन्तिम रूप लगभग ई० सन् की छठी शती के पूर्वार्ध में मिला यद्यपि इसके बाद भी इसमें कुछ प्रक्षेप और परिवर्तन हुए हैं। ईसा की छठी शताब्दी के पश्चात् से दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य तक मुख्य आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाएँ लिखी गईं। यद्यपि कुछ नियुक्तियाँ प्राचीन भी हैं। इस काल में इन आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त स्वतंत्र अन्य भी लिखे गये। इस काल के प्रसिद्ध आचार्यों में सिद्धसेन, जिनभद्रगणि, शिवार्य बङ्गकेर, कुन्दकुन्द अकलंक, समन्तभद्र, विद्यानन्द, जिनसेन, स्वयम्भू, हरिभद्र, सिद्धर्षि, शीलांक, अभयदेव आदि प्रमुख हैं। दिगम्बरों में तत्त्वार्थ की विविध टीकाओं और पुराणों का रचना काल भी यही युग है।
निर्ग्रन्थ परम्परा का साहित्य
महावीर के निर्वाण के पश्चात् से लेकर ईसा की पाँचवी शती तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी आगम साहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अतः आज हमें जो आगम उपलब्ध हैं, वे न तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की मात्र इतना ही नहीं, एक ही आगम में विविध कालों की सामग्री संकलित है। इस अवधि में सर्वप्रथम ई०पू० तीसरी शती में पाटलिपुत्र में प्रथम वाचना हुई, सम्भवत: इस वाचना में अंगसूत्रों एवं पार्थापत्य परम्परा के पूर्व साहित्य के ग्रन्थों का संकलन हुआ। पूर्व साहित्य के संकलन का प्रश्न इसलिये महत्त्वपूर्ण बन गया था कि पार्श्वापत्य परम्परा लुप्त होने लगी थी। इसके पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में समानान्तर वाचनाएँ हुई, जिनमें अंग, उपांग आदि आगम संकलित हुए। इसके पश्चात् वीर निर्वाण ९८० अर्थात् ई० सन् की पाँचवी शती में वल्लभी में देवर्द्धिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम वाचना हुई। वर्तमान आगम इसी वाचना का परिणाम है। फिर भी देवर्द्धि इन आगमों के सम्पादक ही हैं, रचनाकार नहीं। उन्होंने मात्र ग्रन्थों को सुव्यवस्थित किया। इन ग्रन्थों की सामग्री तो उनके पहले की है। अर्धमागधी आगमों में जहाँ आचारांग एवं सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि प्राचीन स्तर के अर्थात् ई०पू० के ग्रन्थ है, वहीं समवायांग, वर्तमान प्रश्नव्याकरण आदि पर्याप्त परवर्ती अर्थात् लगभग ई०स० की पांचवीं शती के हैं। स्थानांग, अंतकृतदशा, ज्ञाता और भगवती का कुछ अंश प्राचीन (अर्थात् ई०पू० का) है, तो कुछ पर्याप्त परवर्ती है। उपांग साहित्य में अपेक्षाकृत रूप में सूर्य प्रज्ञप्ति, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना प्राचीन है। उपांगों की अपेक्षा
Gand ७१ ]
चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का उदय
दिगम्बर परम्परा में भट्टारक सम्प्रदाय और श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवास का विकास भी इसी युग अर्थात् ईसा की पांचवीं शती से होता है, यद्यपि जिन मन्दिर और जिन प्रतिमा के निर्माण के पुरातात्त्विक प्रमाण मौर्यकाल से तो स्पष्ट रूप से मिलने लगते हैं। शक और कुषाण युग में इसमें पर्याप्त विकास हुआ, फिर भी ईसा की ५वीं शती से १२वीं शती के बीच जैन शिल्प अपने सर्वोत्तम रूप को प्राप्त होता है यह वस्तुतः चैत्यवास की देन है। दोनों परम्पराओं में इस युग में मुनि बनवास को छोड़कर चैत्यों, जिन मन्दिरों में रहने लगे थे केवल इतना ही नहीं, वे इन चैत्यों की व्यवस्था भी करने लगे थे। अभिलेख से तो यहां तक सूचना मिलती है कि न केवल चैत्यों की व्यवस्था के लिए, अपितु मुनियों के आहार और तेलमर्दन आदि के लिये भी संभ्रान्त वर्ग से दान प्राप्त किये जाते थे। इस प्रकार इस काल में जैन साधु मठाधीश बन गया था। फिर भी इस सुविधाभोगी वर्ग के द्वारा जैन दर्शन, साहित्य एवं शिल्प का जो विकास इस युग में हुआ उसकी सर्वोत्कृष्टता से इन्कार नहीं किया जा सकता यद्यपि इस चैत्यवास में सुविधावाद के नाम पर जो शिथिलाचार विकसित हो रहा था उसका विरोध श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में हुआ । श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र ने इसके विरोध में लेखनी चलाई। 'सम्बोध प्रकारण' में उन्होंने इन चैत्यवासियों के आगम विरुद्ध आचार की खुलकर अलोचना की, यहाँ तक कि उन्हें नर-पिशाच तक कह दिया। चैत्यवास की इसी प्रकार की आलोचना आगे चलकर जिनेश्वरसूरि जिनचन्द्रसूरि आदि खरतरगच्छ के अन्य आचार्यों ने भी की। ईस्वी सन् की दशवीं शताब्दी में खरतरगच्छ का आविर्भाव भी चैत्यवास के विरोध में हुआ था जिसका प्रारम्भिक नाम सुविहित मार्ग या संविग्न पक्ष था। दिगम्बर परम्परा में इस युग में द्रविड़ संघ, माथुर संघ, काष्टा संघ आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ, जिन्हें दर्शन - सार नामक ग्रन्थ में जैनाभास कहा गया।
इस संबंध में पं० नाथूरामजी 'प्रेमी' ने अपने 'ग्रंथ' जैन साहित्य
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्ध -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
और इतिहास' में चैत्यवास और बनवास के शीर्षक के अन्तर्गत विस्तृत प्रशाखाएं भी बनीं, फिर भी लगभग १५वीं शती तक जैन संघ इसी स्थिति चर्चा की है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहना कठिन का शिकार रहा। है कि इन विरोधों के बावजूद जैन संघ इस बढ़ते हुए शिथिलाचार से मुक्ति पा सका।
मध्ययुग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र मे जैनों का महत्त्वपूर्ण अवदान
यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं तन्त्र और भक्ति मार्ग का जैन धर्म पर प्रभाव
सुविधावाद का युग था फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में जैनों वस्तुत: गुप्तकाल से लेकर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी तक ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो, श्रवणबेलगोल, आबू का युग पूरे भारतीय समाज के लिए चरित्रबल के ह्रास और ललित (देलवाड़ा), तारंगा, रणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और कलाओं के विकास का युग है। यही काल है जब खजुराहो और कोणार्क स्थापत्य कला जो ९वीं शती से १४वीं शती के बीच में निर्मित हुई, के मंदिरों में कामुक अंकन किये गये। जिन मंदिर भी इस प्रभाव से अछूते आज भी जैन समाज का मस्तक गौरव से ऊँचा कर देती है। अनेक नहीं रह सके। यही वह युग है जब कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों की रचनाएं भी इन्हीं शताब्दियों कथा को गढ़कर धर्म के नाम पर कामुकता का प्रदर्शन किया गया। इसी में हुई। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरी, हेमचन्द्र, काल में तन्त्र और वाम मार्ग का प्रचार हुआ, जिसकी अग्नि में बौद्ध भिक्षु मणिभद्र, मल्लिसेन, जिनप्रभ आदि आचार्य एवं दिगम्बर परम्परा में संघ तो पूरी तरह जल मरा किन्तु जैन भिक्षु संघ भी उसकी लपटों की विद्यानन्दी, शाकटायन, प्रभाचन्द्र जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल झुलस से बच न सका। अध्यात्मवादी जैन धर्म पर भी तन्त्र का प्रभाव के हैं। मंत्र-तंत्र के साथ चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन आचार्य आगे आया। हिन्दू परम्परा के अनेक देवी-देवताओं को प्रकारांतर से यक्ष, यक्षी आये। इस युग के भट्टारकों और जैन यतियों में साहित्य एवं कलात्मक अथवा शासन देवियों के रूप में जैन देवमंडल का सदस्य स्वीकार कर मंदिरों का निर्माण तो किया ही साथ ही चिकित्सा के माध्यम से लिया गया। उनकी कृपा या उनसे लौकिक सुख-समृद्धि प्राप्त करने के जनसेवा के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। लिये अनेक तान्त्रिक विधि-विधान बने। जैन तीर्थकर तो वीतराग था अतः वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था न दुष्टों का विनाश, फलतः सुधारवादी आंदोलन एवं अमूर्तिक सम्प्रदायों का आविर्भाव जैनों ने यक्ष-यक्षियों या शासन-देवता को भक्तों के कल्याण की जवाबदारी
जैन परम्परा में एक परिवर्तन की लहर पुनः सोलहवीं शताब्दी देकर अपने को युग-विद्या के साथ समायोजित कर लिया। इसी प्रकार में आयी। जब अध्यात्म प्रधान जैनधर्म का शुद्ध कर्म-काण्ड के घोर भक्ति मार्ग का प्रभाव भी इस युग में जैन संघ पर पड़ा। तन्त्र मार्ग के आडम्बर के आवरण में धूमिल हो रहा था और मुस्लिम शासकों के संयुक्त प्रभाव से जिन मंदिरों में पूजा-यज्ञ आदि के रूप में विविध प्रकार मूर्तिभंजक स्वरूप से मूर्ति पूजा के प्रति आस्थाएं विचलित हो रही थीं, के कर्मकाण्ड अस्तित्व में आये। वीतराग जिन प्रतिमा की हिन्दू परम्परा तभी मुसलमानों की आडम्बर रहित सहज धर्म साधना ने हिन्दुओं की की षोडशोपचार पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की जाने लगी। न केवल भांति जैनों को भी प्रभावित किया। हिन्दू धर्म में अनेक निर्गुण भक्तिमार्गी वीतराग जिनप्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से सुसज्जित किया गया, अपितु सन्तों के आविर्भाव के समान ही जैन धर्म में भी ऐसे सन्तों का आविर्भाव उसे फल-नेवैद्य आदि भी अर्पित किये जाने लगे। यह विडम्बना ही थी हुआ जिन्होंने धर्म के नाम पर कर्मकाण्ड और आडम्बर युक्त पूजा-पद्धति कि हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा पद्धति के विवेकशून्य अनुकरण के द्वारा का विरोध किया। फलत: जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही तीर्थकर या सिद्ध परमात्मा का भी आह्वान और विसर्जन किया जाने शाखाओं में सुधारवादी आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें श्वेताम्बर लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बर परम्परा में अधिक आया था किन्तु परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर परम्परा में सन्त तरणतारण तथा दिगम्बर परम्परा भी इस से बच न सकी।
बनारसीदास प्रमुख थे। यद्यपि बनारसीदास जन्मना श्वेताम्बर परम्परा के विविध प्रकार के कर्मकाण्ड और मंत्र-तंत्र का प्रवेश उनमें भी थे किन्तु उनका सुधारवादी आंदोलन दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित था। हो गया था। श्रमण परम्परा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी धर्म व्यवस्था का लोकाशाह ने श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध और शूद्र जल त्याग पर आडम्बरों का विरोध किया। इनकी परम्परा आगे चलकर लोंकागच्छ के बल दिया गया।
नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी से आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर यद्यपि बारहवीं एवं तेरहवीं शती में हेमचन्द्र आदि अनेक समर्थ में स्थानकवासी परम्परा विकसित हुई। जिसका पुन: एक विभाजन १८वीं जैन दार्शनिक और साहित्यकार हुए, फिर भी जैन परम्परा में सहगामी शती में शुद्ध निवृत्तिमार्गी जीवन दृष्टि एवं अहिंसा की निषेधात्मक व्याख्या अन्य धर्म परम्पराओं से जो प्रभाव आ गये थे, उनसे उसे मुक्त करने का के आधार पर श्वेताम्बर तेरापंथ के रूप में हुआ। कोई सशक्त और सार्थक प्रयास हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। यद्यपि दिगम्बर परम्पराओं में बनारसीदास ने भट्टारक परम्परा के सुधार के कुछ प्रयत्नों एवं मतभेदों के आधार पर श्वेताम्बर परम्परा विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की और सचित्त द्रव्यों से जिन-प्रतिमा के तपागच्छ, 'अंचलगच्छ आदि अस्तित्व में आये और उनकी शाखा- पूजन का निषेध किया किन्तु तारणस्वामी तो बनारसीदास से भी एक
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यतीन्द्रसूरि स्मारकअन्य आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
कदम आगे थे। उन्होंने दिगम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा का ही निषेध कर दिया। मात्र यही नहीं, इन्होंने धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठा की। बनारसीदास की परम्परा जहाँ दिगम्बर तेरापंथ के नाम से विकसित हुई तो तारण स्वामी का वह आन्दोलन तारणपंथ या समैया के नाम से पहचाना जाने लगा। तारणपंथ के चैत्यालयों में मूर्ति के स्थान पर शास्त्र की प्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी में जैन परम्परा में इस्लाम धर्म के प्रभाव के फलस्वरूप एक नया परिवर्तन आया और अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का जन्म हुआ। फिर भी पुरानी परम्पराएं यथावत चलती रहीं। पुनः बीसवीं शती में गांधी जी के गुरुतुल्य श्रीमद्राजचन्द्र के कारण अध्यात्म प्रेमियों का एक नया सघ बना। यद्यपि सदस्य संख्या की दृष्टि से चाहे यह संघ प्रभावशाली न हो किन्तु उनकी अध्यात्मनिष्ठा आज इसकी एक अलग पहचान बनाती है। इसी प्रकार श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा में दीक्षित कानजी स्वामी ने महान् अध्यात्मवादी दिगम्बर संत कुन्दकुन्द के 'समयसार' जैसे अध्यात्म और "निश्चयनय' प्रधान ग्रन्थ के अध्ययन से दिगम्बर पराम्परा में इस शताब्दी में एक नये आंदोलन को जन्म दिया।
के प्रसार के लिए कोई जैन मुनि वायुयान से यात्रा कर लेता है तो वह कोई बहुत बड़ा अपराध करता है, यह नहीं कहा जा सकता। किन्तु जहाँ पाद - विहार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं. यहाँ भी वाहन प्रयोग तो उचित नहीं माना जा सकता। पुनः हमें यह भी विचार करना होगा कि वह विदेश यात्रा जैनधर्म की गरिमा को स्थापित करती है या उसे खण्डित करती है। विदेशों में जैन मुनि जैनधर्म का गौरव तभी स्थापित कर सकता है। जब उसकी अपनी जीवनचर्या कठोर एवं संयमपरक हो। हमें इस तथ्य
को स्मरण रखना है कि जैन श्रमणों की सुविधावादी प्रवृत्ति जैनधर्म के लिए भी उतनी खतरनाक सिद्ध होगी, जैसी कभी बौद्ध धर्म के लिए हुई थी कि वह अपनी मातृभूमि में ही अपना अस्तित्व खो बैठा था। विदेशयात्रा कोई बड़ा अपराध नहीं है। अपराध है जैन श्रमणों की बढ़ती हुई सुविधावादी प्रवृत्ति एवं बिना सामुदायिक निर्णय के पूर्व प्रचलित आचारव्यवस्था का उल्लंघन आज का जैन-भ्रमण इतना सुविधावादी और भोगवादी होता जा रहा है कि एक सामान्य जैन- गृहस्थ की अपेक्षा भी उसका खान-पान और सम्पूर्ण जीवन शैली अधिक सुविधासम्पन्न हो गयी है। एक भ्रमण के लिए वर्ष में होने वाला खर्च सामान्य गृहस्थ से कई गुना अधिक होता है।
आज के जैन श्रमण की जीवन-शैली इतनी सुविधाभोगी हो गई है कि वह जन सामान्य की अपेक्षा सम्पन्न श्रेष्ठिवर्ग के आसपास केन्द्रित हो रहा है और उसकी जीवन शैली उसे और अधिक सुविधाभोगी बना रही है- यदि वाहन प्रयोग सामान्य हो गया तो जैन श्रमण जनसाधारण और ग्रामीण जैन परिवार से बिल्कुल कट जायेगा। वाहन सुविधा और विदेश यात्रा को युग की आवश्यकता मानकर भी उस सम्बन्ध में कुछ मर्यादाएँ निश्चित करनी होंगी।
विदेशयात्रा और वाहन प्रयोग की नवीन परम्परा
आज पुनः जैनधर्म के आचार-विचार को लेकर परिवर्तन की बात कही जाती हैं। परम्परागत आचार-व्यवस्था को नकार कर श्वेताम्बर जैनमुनियों एवं दिगम्बर भट्टारकों का एक वर्ग वाहन प्रयोग और विदेश यात्रा को आज आवश्यक मानने लगा है। यह सत्य है कि युगीन परस्थितियों के बदलने पर किसी भी जीवित धर्म के लिए यह आवश्यक होता है कि वह युगानुरूप अपनी जीवन शैली में परिवर्तन करे। आज विज्ञान और तकनीकी का युग है। प्रगति के कारण आज देशों के बीच दूरियाँ सिमट गयीं। आज जैन परिवार भी विश्व के प्रत्येक कोने में पहुँच चुके हैं। अतः उनके संस्कारों को जीवित रखने और विश्व में जैनधर्म की अस्मिता को स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि जैन श्रमण-वर्ग विश्व के देशों की यात्रा कर जैनधर्म का प्रसार करे, किन्तु इस हेतु आचारनियमों में कुछ परिवर्तन तो लाना ही होगा। धर्म-प्रसार के लिए जैन श्रमण देश - विदेश की यात्राएँ प्राचीनकाल से ही करते रहे। महावीर के युग में जैन-मुनियों ने यात्रा में बाधक नदियों को नावों से पार करके अपनी यात्राएँ की थीं। मात्र नदियों को पार करके ही नहीं, महासागर को जहाजों से पार करके भी जैन मुनियों ने लंका और सुवर्णद्वीप तक की यात्राएँ की थीं ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध है। अतः आज यदि विदेशों में जैनधर्म
४
५.
अपरिपक्व वय और अपरिपक्व विचारों के श्रमण- श्रमणियों को किसी भी परिस्थिति में विदेश यात्रा की अनुमति न दी जाये। जिस प्रकार प्राचीनकाल में बड़ी नदियों को नौका से पार करने की वर्ष में संख्या निर्धारित होती थी, उसी प्रकार वर्ष में एक या दो से अधिक यात्राओं की अनमुति न हो। जिस क्षेत्र में वे जायें, वहाँ रुककर संस्कार - जागरण का कार्य करें, न कि भ्रमण-सुख के लिए यात्राएँ करते रहें।
"
६.
वाहन यात्रा को अपवाद मार्ग ही माना जाये और उसके लिए समुचित प्रायश्चित्त की व्यवस्था हो ।
७.
देश में भी आपवादिक परस्थितियों में अथवा किसी सुदूर प्रदेश की यात्रा ज्ञान-साधना अथवा धर्म के प्रसार के लिए आवश्यक होने पर ही वाहन द्वारा यात्रा की अनुमति दी जाये। बिना अनमुति के वाहन[ ७३ ]
१. चरित्रवान् और विद्वान् भ्रमण या श्रमणी ही आचार्य और संघ की
अनुमति से विदेश भेजे जायें। यह निर्णय पूर्णतः आचार्य और संघ की सर्वोच्च समिति के अधीन हो कि किस श्रमण या श्रमणी को विदेश भेजा जाये।
२.
जिस श्रमण या श्रमणी को विदेश यात्रा के लिए भेजा जाये उसे उस देश की भाषा और जैनशास्त्र तथा दर्शन का समुचित ज्ञान हो और उनके ज्ञान का प्रमाणीकरण और उनकी जैनधर्म के प्रति निष्ठा का सम्यक् मूल्यांकन हो।
३.
विदेश यात्रा धर्म-संस्कार जागृत करने के लिए हो न कि घूमने-फिरने के लिए अतः प्रथमतः उन्हीं क्षेत्रों में यात्रा की अनुमति हो जहाँ जैन परिवारों का निवास हो और उस क्षेत्र में वे अपने परम्परागत नियमों का वाहन प्रयोग आदि के अपवाद को छोड़कर उसी प्रकार पालन कर सकें।
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - प्रयोग सर्वथा निषिद्ध ही माना जाये।
के प्रभाव से समय-समय पर अनेक परिवर्तन होते रहे हैं और इन्हीं ___ इस प्रकार विशिष्ट नियंत्रणों के साथ ही वाहन-प्रयोग और परिवर्तनों के फलस्वरूप ही जैनधर्म के विभिन्न सम्प्रदाय अस्तित्व में आये विदेश-यात्रा की अनुमति अपवाद-मार्ग के रूप में मानी जा सकती हैं। यदि हम उनके इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को तटस्थ दृष्टि से समझने है। उसे सामान्य नियम कभी भी नहीं बनाया जा सकता क्योंकि का प्रयत्न करेगें तो विभिन्न सम्प्रदायों के प्रति गलतफहमियाँ दूर होंगी भूतकाल में भी वह एक अपवाद-मार्ग ही था। इस प्रकार आचार-मार्ग और जैन धर्म के मूलधारा में रहे हुए एकत्व का दर्शन कर सकेगें। में युगानुरूप परिवर्तन तो किये जो सकते हैं परन्तु उनकी अपनी साम्प्रदायिक सद्भाव और एक दूसरे को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए उपयोगिता होनी चाहिए और उनसे जैनधर्म के शाश्वत मूल्यों पर कोई इस ऐतिहासिक दृष्टिकोण की आज महती आवश्यकता है। आज हम इसे आँच नहीं आनी चाहिए।
अपनाकर अनेक पारस्परिक विवादों का सहज समाधान पा सकेगें। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-परम्परा में देश और काल
जैन-इतिहास : अध्ययन-विधि एवं मूलस्रोत
समग्र एवं संश्लेषणात्मक अध्ययन की आवश्यकता
प्रभाव को सम्यक् प्रकार से समझना होगा। भारत के सांस्कृतिक इतिहास भारतीय संस्कृति के सम्यक् ऐतिहासिक अध्ययन के लिए यह को समझने और उसके प्रामाणिक लेखन के लिए एक समग्र किन्तु आवश्यक है कि उसकी प्रकृति को पूरी तरह से समझ लिया जाये। सबसे देशकाल-सापेक्ष दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। ऐतिहासिक अध्ययन के लिए जहाँ एक ओर विश्लेषणात्मक वस्तुत: कोई भी विकसित संस्कृति संश्लिष्ट संस्कृति ही होती है क्योंकि दृष्टिकोण आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर एक समग्र दृष्टिकोण उसके विकास में अनेक संस्कृतियों का अवदान होता है। भारतीय संस्कृति (HolisticqApproach) भी आवश्यक है। भारतीय ऐतिहासिक को हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि चारदीवारी में अवरुद्ध करके कभी भी सम्यक् अध्ययन का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसे विभिन्न धर्मों और परम्पराओं रूप से नही समझा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर को खण्ड-खण्ड के एक घेरे में आबद्ध करके अथवा उसके विभिन्न पक्षों को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया- शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, ठीक करके देखने का प्रयत्न हुआ है। अपनी आलोचक और विश्लेषणात्मक उसी प्रकार भारतीय संस्कृति को खण्डों में विभाजित करके देखने से दृष्टि के कारण हमने एक दूसरे की कमियों को ही अधिक देखा है। मात्र उसकी आत्मा ही मर जाती है। अध्ययन की दो दृष्टियाँ होती हैं- यही नहीं, एक परम्परा में दूसरी परम्परा के इतिहास को और उसके जीवनविश्लेषणात्मक और संश्लेषणात्मक। विश्लेषणात्मक पद्धति तथ्यों को मूल्यों को भ्रान्त रूप से प्रस्तुत किया गया है। खण्डों में विभाजित करके देखती है, तो संश्लेषणात्मक विधि उसे समग्र भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के लेखन में पहली भूल तब हुई रुप से देखती है। भारतीय संस्कृति के इतिहास को समझने के लिए यह जब दूसरी परम्पराओं को अपनी परम्परा से निम्न दिखाने के लिए उन्हें आवश्यक है कि इसके विभिन्न घटकों अर्थात् हिन्दू, बौद्ध और जैन गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया। प्रत्येक परम्परा की अगली पीढ़ियाँ दूसरी परम्पराओं का समन्वित या समग्र रूप में अध्ययन किया जाये। जिस प्रकार परम्परा के उस गलत प्रस्तुतीकरण को ही आगे बढ़ाती रहीं। दूसरे शब्दों एक इंजन की प्रक्रिया को समझने के लिए न केवल उसके विभिन्न घटकों में कहें तो भारतीय संस्कृति और विशेष रूप से भारतीय दर्शन में प्रत्येक अर्थात् कल-पुर्षों का ज्ञान आवश्यक है, अपितु उनके परस्पर संयोजित पक्ष ने दूसरे पक्ष का विकृत चित्रण ही प्रस्तुत किया। मध्यकालीन दार्शनिक स्वरूप को तथा एक अंग की क्रिया के दूसरे अंग पर होने वाले प्रभाव ग्रंथों में इस प्रकार का चित्रण हमें प्रचुरता से उपलब्ध होता है। को भी समझना होता है। सत्य तो यह है कि भारतीय इतिहास के शोध सौभाग्य या दुर्भाग्य से जब पाश्चात्य इतिहासकार इस देश में के सन्दर्भ में अन्य सहवर्ती परम्पराओं के अध्ययन के बिना भारतीय आये और यहाँ के इतिहास का अध्ययन किया तो उन्होंने भी अपनी संस्कृति का समग्र इतिहास प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता। संस्कृति से भारतीय संस्कृति को निम्न सिद्ध करने के लिए विकृत पक्ष
कोई भी धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नही होती हैं, को उभार कर इसकी गरिमा को धूमिल ही किया। फिर भी पाश्चात्य लेखकों वे अपने देश-काल तथा अपनी सहवी अन्य परम्पराओं से प्रभावित में कुछ ऐसे अवश्य हुए हैं जिन्होंने इसको समग्र रूप में प्रस्तुत करने होकर ही अपना स्वरूप ग्रहण करती है। यदि हमें जैन, बौद्ध या हिन्दू का प्रयत्न किया और एक के ऊपर दूसरी परम्परा के प्रभाव को देखने किसी भी भारतीय सांस्कृतिक धारा के इतिहास का अध्ययन करना है का भी प्रयत्न किया। किन्तु उन्होंने अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए तो उनके देशकाल और परिवेश को तथा उनकी सहवर्ती परम्पराओं के भारतीय संस्कृति की एक धारा को दूसरी धारा के विरोध में खड़ा कर
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दिया और इस प्रकार भारतीय संस्कृति की एकात्मता को खण्डित किया यदि हमें भारतीय संस्कृति का प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करना है तो यह आवश्यक है कि हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक समन्वित और समग्र दृष्टिकोण के आधार पर पुनर्मूल्यांकन हो।
-यतीन्द्रसूरि स्मारकमान्य आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
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आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ अध्ययन जैन- दृष्टिकोण किसी भी व्याख्या या अध्ययन के दो पक्ष होते हैं१. आत्मनिष्ठ और २. वस्तुनिष्ठ । आत्मनिष्ठ व्याख्या में व्याख्याता का अपना दृष्टिकोण प्रधान होता है और वह अपने दृष्टिकोण के अनुरूप तथ्यों को व्याख्यायित करता है जबकि वस्तुनिष्ठ व्याख्या में तथ्य / घटनाक्रम प्रधान होता है और व्यक्ति निरपेक्ष होकर उसे व्याख्यायित करता है, फिर भी इतना निश्चित है कि व्याख्या व्याख्याता से पूर्णतः निरपेक्ष नहीं हो सकती है। व्याख्या में तथ्य / घटनाक्रम और व्याख्याता व्यक्ति दोनों ही आवश्यक हैं। अतः कोई भी व्याख्या एकान्त रूप से आत्मनिष्ठ या वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकती है। उसके आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ दोनों ही पक्ष होते हैं।
ऐतिहासिक अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि उसका अध्ययन और ऐतिहासिक तथ्यों का मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ आधार पर हो दूसरे शब्दों में प्रामाणिक इतिहास-लेखन, अध्ययन और मूल्यांकन के लिए वस्तुनिष्ठ या तथ्यपरक अनाग्रही दृष्टि आवश्यक है, इसमें किसी प्रकार का वैमत्य नहीं है। इतिहास लेखन, अध्ययन एवं मूल्यांकन सभी व्यक्ति से संबंधित है और व्यक्ति चाहे कितना ही तटस्थ और अनामही क्यों न हो, फिर भी उसमें कहीं न कहीं आत्मनिष्ठ पक्ष का प्रभाव तो रहता ही है। ऐसे व्यक्ति तो विरल ही होते हैं जो निरपेक्ष और तटस्थ हों। दूसरे, इतिहास-लेखन घटनाओं की व्याख्या है और इस व्याख्या में आत्मनिष्ठ पक्ष की पूर्ण उपेक्षा भी संभव नहीं है। जैन दार्शनिकों ने अपने अनेकान्त सिद्धान्त के द्वारा यह स्थापित किया था कि प्रत्येक वस्तु तथ्य और घटना अपने आप में जटिल और बहुआयामी होती है, उसकी व्याख्या अनेक दृष्टिकोणों के आधार पर संभव है। उदाहरण के रूप में ताजमहल का निर्माण एक ऐतिहासिक घटना है किन्तु ताजमहल निर्माता के चरित्र की व्याख्या विभिन्न रुचियों के व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न प्रकार से की जा सकती है। किसी के लिए यह कला का उत्कृष्ट प्रेमी हो सकता है तो किसी के लिए वह प्रेयसी के प्रेम में अनन्य आसक्त कोई उसे अपना विलासी तो कोई उसे जनशोषक भी कह सकता है। इस प्रकार एक तथ्य की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से हो सकती है।
तथ्यों की जटिलता एक सत्य
तथ्य की जटिलता और व्याख्या सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोण की संभावना ये दो ऐसे तथ्य है जिन पर ऐतिहासिक मूल्यांकन निर्भर करता है। जिसे आज 'हिस्ट्रीओग्राफी' कहा जाता है वह अन्य कुछ नही अपितु ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या के विभिन्न सिद्धातों के मूल्यांकन का शास्त्र
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हैं। यह मूल्यांकन विभिन्न दृष्टिकोणों पर आधारित होता है। अतः हम यह कह सकते हैं कि जैनों का अनेकान्त सिद्धान्त ऐतिहासिक मूल्यांकन के क्षेत्र में भी पूर्णतः लागू होता है। हमें उन दृष्टिकोणों या सिद्धान्तों की सापेक्षता को समझना है जिसके आधार पर ऐतिहासिक मूल्यांकन होते हैं। जब तक ऐतिहासिक मूल्यांकन का हार्द नहीं समझ पायेंगे तब तक ऐतिहासिक मूल्यांकन एवं ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या मात्र किसी एक दृष्टिकोण पर या किसी एक सिद्धान्त पर संभव नही है। इतिहास न तो पूर्ण वस्तुनिष्ठ (Objective) हो सकता है न पूर्ण आत्मनिष्ठ (Subjective) ही। जब भी हमें किसी इतिहास-लेखक की किसी घटनाक्रम की व्याख्या का अध्ययन करना होता है तो हमें यह देखना होगा कि उस व्यक्ति का दृष्टिकोण क्या है वह किन परिवेश और परिस्थितियों में उस व्याख्या को प्रस्तुत कर रहा है।
सहवर्ती परम्परा के प्रभाव और तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता
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यदि हम जैन-परम्परा के इतिहास को देखें तो हमें स्पष्ट रूप से यह दिखाई देता है कि किस प्रकार अन्य सहवर्ती धाराओं के प्रभाव से उसके ऐतिहासिक चरित्रों में पौराणिकता या अलौकिकता का प्रवेश होता गया और आचार और विचार के क्षेत्र में परिवर्तन आता गया। इसका सबसे अच्छा उदाहरण स्वयं भगवान महावीर का जीवन चरित्र ही है। महावीर के जीवनवृत्त संबंधी सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांग के प्रथम एवं द्वितीय श्रुत स्कंध में तथा उसके बाद कल्पसूत्र में उपलब्ध होता है। तत्पश्चात् नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी-साहित्य में उनके जीवन का चित्रण मिलता है। इनके बाद जैन-पुराणों और चरित्रकाव्यों में उनके जीवनवृत्त का चित्रण किया गया है। यदि हम उन सभी विवरणों को सामने रखकर तुलनात्मक दृष्टि से उनका अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर के जीवन में किस प्रकार क्रमश: अलौकिकताओं का प्रवेश होता गया। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध के नवें अध्ययन में महावीर एक कठोर साधक हैं जो कठोर जीवनचर्या और साधना के द्वारा अपनी जीवन यात्रा को आगे बढ़ाते हैं. किन्तु आचारांग के द्वितीय श्रुत स्कंध से प्रारम्भ होकर कल्पसूत्र और परवर्ती महावीर चरितों में अलौकिकताओं का प्रवेश हो गया। अत: सामान्य रूप से प्राचीन भारतीय इतिहास और विशेष से जैन-इतिहास जो हमें पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध होता है, उसके ऐतिहासिक तथ्यों की खोज अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना होगा। यह कहना उचित नहीं है कि समस्त पौराणिक आख्यान ऐतिहासिक न होकर मात्र काल्पनिक हैं। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि पुराणों और चरितकाव्यों में काल्पनिक अंश इतना अधिक है कि उसमें से ऐतिहासिक तथ्यों को निकाल पाना एक दुरूह कार्य हैं। जो स्थिति हिन्दू-पुराणों की है वही स्थिति जैन पुराणों और चरित ग्रंथों की भी है। यह भी सत्य है कि जैन इतिहास के लेखन के लिए हमारे पास जो आधारभूत सामग्री है वह इन्हीं ग्रंथों में निहित है, किन्तु इस सामग्री का उपयोग अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना होगा।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकसत्य आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म,
जैन इतिहास के अध्ययन के स्रोत
(अ) जैन आगम, आगमिक व्याख्याओं एवं पुराणों के कथानक
पुराणों के अतिरिक्त आगमिक व्याख्याओं विशेषत: निर्युक्ति, भाष्यों और चूर्णियों में भी अनेक ऐतिहासिक कथानक संकलित हैं किन्तु उनमें भी वही कठिनाई है जो जैन-पुराणों में है ऐतिहासिक कथानक और काल्पनिक कथानक दोनों एक दूसरे से इतने मिश्रित हो गये हैं, उन्हें अलग-अलग करने में अनेक कठिनाईयाँ है सत्य तो यह है कि एक ही कथानक में ऐतिहासिक और काल्पनिक दोनों ही तत्व समाहित हैं और उन्हें एक दूसरे से पृथक् करना एक जटिल समस्या है। फिर भी उनमें जो ऐतिहासिक सामग्री है उसका प्राचीन भारतीय इतिहास की रचना में उपयोग महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है । आगमिक व्याख्याओं में अधिकांश कथानक व्रत -पालन अथवा उसके भंग के कारण हुए (ई) प्रबन्ध ग्रन्थ दुष्परिणामों को अथवा किसी नियम के संबंध में उत्पन्न हुई आपवादिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए ही दिये गए हैं। ऐसे कथानकों में चाणक्य कथानक, भद्रबाहु कथा, कालक-कथा, भद्रबाहु द्वितीय और वाराहमिहिर आदि के कथानक ऐसे हैं जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। मरण-विभक्ति तथा भगवती आराधना की मूल कथाओं और उन कथाओं को लेकर बने बृहद् आराधना कथाकोश आदि का भारतीय इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है।
और उपयोगी कही जा सकती है। इन स्थविरावलियों और पट्टावलियों में न केवल आचार्य परम्परा का निर्देश होता है, अपितु उसमें कुछ काल्पनिक बातों को छोड़कर अनेक आचार्यों के व्यक्तित्व व कृतित्व के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। हिमवंत स्थविरावली और नन्दीसंघ पट्टावली जिनकी प्रामाणिकता के संबंध में कुछ प्रश्नचिह्न हैं फिर भी वे जैनधर्म के इतिहास को एक नवीन दिशा देने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आज भी शताधिक ऐसी पट्टावलियाँ उपलब्ध होती हैं, जिनके इतिहास लेखन महत्त्व को हम नहीं नकार सकते। उनका ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यांकन आवश्यक है।
प्रभाचन्द्रकृत
पट्टावलियों के अतिरिक्त अनेक प्रबंध भी (१२वीं से १५वीं शती तक) लिखे गये जिनमें कुछ विशिष्टि जैनाचार्यों के कथानक संकलित हैं। इनमें हेमचन्द्रकृत परिशिष्टपर्व, प्रभावकचरित, मेरुतुंगकृत प्रबंधचिन्तामणि, राजशेखरकृत प्रबंधकोश आदि प्रमुख हैं। इन प्रबंधों के कथानकों में भी अनेक स्थलों पर आचायों के चरित में अलौकिकता का मिश्रण है। आज उनकी सत्यता का हमारे पास कोई आधार नहीं है फिर भी इन प्रबन्धों में अनेक ऐतिहासिक तथ्य निहित हैं।
(ब) ऐतिहासिक चरित काव्य एवं स्थविरावलियाँ
इसी प्रकार परवर्ती काल में अनेक ऐतिहासिक चरित-काव्य (एफ) चैत्यपरिपाटियाँ भी लिखे गये हैं, जैसे- त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित, कुमारपाल चरित, कुमारपालभूपाल चरित आदि जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसे ही जैन आगमों विशेष रूप से कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में जो स्थविरावलियाँ दी गयी हैं वे भी ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व की है। उनमें दिये गये अनेक आचार्यों के नाम तथा उनके गण, कुल, शाखा आदि के उल्लेख मथुरा के अभिलेखों में मिलने से उनका ऐतिहासिक महत्त्व स्पष्ट है। (स) ग्रन्थ - प्रशस्तियाँ
ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से ग्रंथ- प्रशस्तियों का भी अत्यन्त महत्त्व होता है। उनमें लेखक न केवल अपनी गुरु-परम्परा का उल्लेख करता है, अपितु अनेक सूचनाएँ भी देता है, जैसे यह ग्रंथ किसके काल में, किसकी प्रेरणा से और कहाँ लिखा गया। यह ठीक है कि ग्रंथ प्रशस्तियों में विस्तृत जीवन परिचय नहीं मिलता किन्तु उनमें संकेत रूप में जो सूचना मिलती है, वह इतिहास लेखन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहण करती है।
स्थविरावलियों, पड़ावलियों, प्रबंधों के अतिरिक्त जैन-इतिहास की महत्त्वपूर्ण विद्या चैत्य परिपाटियाँ या यात्रा विवरण हैं जिनमें विभिन्न तीर्थों के निर्देश तो हैं ही, उनके संबंध में अनेक ऐतिहासिक सत्य भी वर्णित हैं। मरुगुर्जर में हमें सैकड़ों चैत्य परिपाटियाँ (१६वीं से १९वीं शती तक) उपलब्ध होती हैं। जिनमें आचार्यों ने अपने यात्रा-विवरणों को संकलित किया है। इसी से मिलती-जुलती एक विधा तीर्थमालाएं है। यह भी चैत्य परिपाटी और यात्रा विवरणों का ही एक रूप है। इसमें लेखक विभिन्न तीर्थों का विवरण देते हुए तीर्थ के अधिनायक की स्तुति करता है। यद्यपि परवर्ती काल की तीर्थमालाओं में मुख्य रूप से तीर्थनायक की प्रतिमा के सौन्दर्य-वर्णन को प्रमुखता मिली है किन्तु प्राचीन तीर्थमालाएँ मुख्य रूप से नगर, राजा और वहाँ के सांस्कृतिक परिवेश का भी विवरण देते हैं और इस दृष्टि से वे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत करती हैं। अधिकांश तीर्थमालाएँ १५वीं से १८-१९वीं शताब्दी के मध्य की है और इनकी भाषा मुख्यतः मरु-गुर्जर है किन्तु कुछ तीर्थमालाएँ प्राचीन भी हैं। इसी क्रम में जैनाचार्यों ने अनेक नगर-वर्णन भी लिखे हैं, जैसेनगरकोट कांगडा वर्णन नगर वर्णनों संबंधी इन रचनाओं में न केवल नगर का नाम है अपितु उनकी विशेषताएँ तथा उन नगरों से संबंधित उस काल के अनेक ऐतिहासिक वर्णन भी निहित हैं। चैत्य परिपाटियों और तीर्थमालाओं की एक विशेषता यह होती है कि वे उस नगर या तीर्थ के संबंध में पूरा विवरण देती हैं।
(द) पट्टावलियाँ
जैन-परम्परा में अनेक पट्टावलियाँ (गुरु-शिष्य परम्परा) भी लिखी गयी हैं। उनमें आचार्यों के संबंध में उल्लेखित कुछ चमत्कारों को छोड़ दें तो शेष सूचनाएँ जैन संघ के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
(जी) विज्ञप्ति-पत्र
प्राकृत भाषा के अभिलेखों में अजमेर से ३२ मील दूर बारली एक अन्य विधा जिसमें इतिहास-संबंधी सामग्री व नगर- (बड़ली) नामक स्थान से प्राप्त एक जैन-लेख जो एक पाषाण स्तम्भ पर वर्णन दोनों ही होते हैं वे विज्ञप्ति-पत्र कहे जाते हैं। विज्ञप्ति-पत्र वस्तुत: ४ पक्तियों में खुदा हैं, सबसे प्राचीन बताया गया है। इस लेख की लिपि एक प्रकार के विनति पत्र हैं जिसमें किसी आचार्य विशेष से उनके को स्वगौरी शंकर हीराचन्द ओझा ने अशोक से पूर्व का माना है। ई०पू० नगर में चार्तुमास करने का अनुरोध किया जाता है। ये पत्र इतिहास ३-२ शती से जैन-अभिलेख बहुतायत से मिलते हैं। मात्र मथुरा से ही के साथ ही साथ कला के भी अनुपम भंडार होते हैं। इसमें जहाँ एक लगभग ई०पू० २शती से लेकर १२वीं शती तक के २०० से भी अधिक ओर आचार्य की प्रशंसा और महत्त्व का वर्णन होता है, वहीं दूसरी अभिलेख मिले हैं। मथुरा से प्राप्त ये अभिलेख प्राकृत, संस्कृत मिश्रित ओर उस नगर की विशेषताओं के साथ-साथ नगर निवासियों के चरित्र प्राकृत में तथा संस्कृत में हैं। इन अभिलेखों का विशेष महत्त्व इसलिए का भी उल्लेख होता है। लगभग १५वीं शती से प्रारम्भ होकर १६. भी है क्योंकि इनकी पुष्टि कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों से १७कों शती तक अनेक विज्ञप्ति पत्र आज भी उपलब्ध हैं। ये विज्ञाप्ति भी होती है। इससे पूर्व कलिंग-नरेश खारवेल का उड़ीसा के हाथी गुंफा पत्र जन्मपत्री के समान लम्बे आकार के होते हैं जिसमें नगर के से प्राप्त शिलालेख एक ऐसा अभिलेख है जो खारवेल के राजनीतिक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के सुन्दर चित्र भी होते हैं, जिससे इनका कलात्मक क्रिया-कलापों पर प्रकाश डालने वाला एक मात्र स्त्रोत है। यह अभिलेख महत्त्व भी बढ़ जाता है।
न केवल ई०पू० प्रथम-द्वितीय शती के जैन संघ के इतिहास को प्रस्तुत इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि आगम, आगमिक करता है, अपितु खारवेल के राज्यकाल व उसके प्रत्येक वर्ष के कार्यों व्याख्यायें, स्वतत्र ग्रंथों की प्रशस्तियाँ, धार्मिक कथानक, चरित-ग्रंथ, का भी विवरण देता है। अत: यह सामान्य रूप से भारतीय इतिहास और प्रबंध-साहित्य, पट्टावलियाँ, स्थविरावलियाँ, चैत्य-परिपाटियाँ, विशेष रूप से जैन इतिहास की महत्त्वपूर्ण थाती है। तीर्थमालाएँ, नगस्वर्णन और विज्ञप्ति पत्र आदि सब मिलकर सामान्य परवर्ती अभिलेख विशेषतः ५-६वीं शती के दक्षिण से प्राप्त रूप से भारतीय इतिहास विशेषत: जैन-इतिहास के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण अभिलेखों में चालुक्य-पुलकेशी द्वितीय का रविकीर्ति रचित शिलालेख योगदान प्रदान करते हैं।
(६३४ ई०), हथुडी के धवल राष्ट्रकूट का बीजापुर लेख (९९७ ई०)
आदि प्रमुख हैं। दक्षिण से प्राप्त अभिलेखों की विशेषता यह है कि उनमें (एच) अभिलेख
आचार्यों की गुरु परम्परा, कुल, गच्छ आदि का विवरण तो मिलता ही इन साहित्यिक स्त्रोतों के अतिरिक्त अभिलेखीय स्त्रोत भी जैन- है साथ ही अभिलेख लिखवाने वाले व्यक्तियों व राजाओं के संबंध में इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्त्रोत हैं। इनमें परिवर्तन-संशोधन की गुंजाइश कम भी सूचना मिलती है। होने तथा प्राय: समकालीन घटनाओं का उल्लेख होने से उनकी अन्य प्रमुख अभिलेख कक्क का घटियाल प्रस्तर लेख प्रामाणिकता में भी सन्देह का अवसर कम होता है। जैन-अभिलेख विभिन्न (वि०सं० ९१८), कुमारपाल की बडनगर -प्रशस्ति (वि०सं० उपादानों पर उत्कीर्ण मिलते हैं जैसे-शिला, स्तम्भ, गुफा, धातु प्रतिमा, १२०८), विक्रमसिंह कछवाहा का दूबकुण्ड लेख (१०८८ ई०), स्मारक, शय्यापट्ट, ताम्रपट्ट आदि पर। ये अभिलेख मुख्यतया दो प्रकार जयमंगलसूरि रचित चाचिंग-चाहमान का सुन्धा पर्वत अभिलेख आदि के हैं- १. राजनीतिक और २. धार्मिक। राजनीतिक या शासन पत्रों के हैं जिनसे धार्मिक इतिहास के साथ ही साथ राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप में जो अभिलेख हैं वे प्राय: प्रशस्तियों के रूप में हैं जिसमें राजाओं इतिहास भी ज्ञात होता है। की विरुदावलियाँ, सामरिक विजय, वंशपरिचय आदि होता है। धार्मिक इस प्रकार जैन साहित्यिक व अभिलेखीय दोनों ही स्त्रोतों से अभिलखों में अनेक जैन जातियों के सामाजिक इतिहास, जैनाचार्यों के महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। हमें यह समझ लेना चाहिये कि जैनसंघ, गण, गच्छ आदि से संबंधित उल्लेख होते हैं।
विद्वानों, रचनाकारों ने जैन-इतिहास के लिए हमें महत्त्वपूर्ण अवदान किया जैन-अभिलेखों की भाषा प्राकृत, संस्कृत, कत्र मिश्रित है, जिसका सम्यक् मूल्यांकन और उपयोग अपेक्षित है। हम इतिहासविदों संस्कृत, कन्नड़, तमिल, गुजराती और पुरानी हिन्दी हैं। दक्षिण के कुछ से अनुरोध करते हैं कि वे अपने अध्ययन व भारतीय इतिहास की नवीन लेख तमिल में तथा अधिकांश कनड़ा मिश्रित संस्कृत में हैं जिनमें ऐहोल व्याख्या के लिए इन स्रोतों का भरपूर उपयोग करें ताकि कुछ नवीन तथ्य प्रशस्ति, राष्ट्रकूट गोविन्द का मन्ने से प्राप्त लेख, अमोघवर्ष का कोन्नर- सामने आ सकें। शिलालेख आदि मुख्य हैं।
dadirdastdirdindiwdnidied-idiwowdrinidad[ ७७ ]
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जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदायःयापनीय
सामान्यतया आज विद्वर्ग और जन-साधारण जैन धर्म के शब्द के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं यथा-यापनीय, जापनीय, यपनी, दो प्रमुख सम्प्रदायों-श्वेताम्बर और दिगम्बर से ही परिचित हैं किन्तु आपनीय, यापुलिय, आपुलिय, जापुलिय, जावुलीय, जाविलिय, जावलिय, उसका ‘यापनीय' नामक एक अन्य महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय भी था, जो ई० जावलिगेय, आदि-आदि । सर्वप्रथम 'यापनीय' शब्द का प्रयोग हमें सन् की दूसरी शती से पन्द्रहवीं शताब्दी तक (लगभग १४०० वर्ष) जैन आगम-साहित्य और पाली त्रिपिटक-साहित्य में प्राप्त होता है। जीवित रहा और जिसने न केवल अनेक जिन-मन्दिर बनवाये एवं प्राकृत और पाली-साहित्य में 'यापनीय' शब्द का प्रयोग कुशल-क्षेम मूर्तियाँ स्थापित की, अपितु जैन-साहित्य-क्षेत्र में और विशेषकर शौरसेनी पूछने के प्रसंग में ही हुआ है । दूसरों से कुशल-क्षेम पूछते समय यह जैन-साहित्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण अवदान प्रदान किया । यह पूछा जाता था कि आपका ‘यापनीय' कैसा है (किं यापनीयं ?) । सम्प्रदाय आज से ५० वर्ष पूर्व तक जैन-समाज के लिए पूर्णत: अज्ञात 'भगवती' नामक जैन-आगम में यापनीय का प्राकृत रूप 'जावनिच्च' बना हुआ था । संयोग से विगत ५० वर्षों की शोधात्मक प्रवृत्तियों के प्राप्त होता है । भगवती में सोमिल नामक ब्राह्मण भगवान महावीर से कारण इस सम्प्रदाय के कुछ अभिलेख एवं ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं। प्रश्न करता है- हे भन्ते ! आपकी यात्रा कैसी हुई ? आपका यापनीय फिर भी अभी तक इस सम्प्रदाय पर चार-पाँच लेखों के अतिरिक्त कोई कैसा है ? आपका स्वास्थ्य (अव्वावह) कैसा है ? आपका विहार कैसा भी विशेष सामग्री प्रकाशित नहीं हुई है । सर्वप्रथम प्रो० ए. एन उपाध्ये है ? भगवती और ज्ञाताधर्मकथा में इस प्रसंग में दो प्रकार से एवं पं० नाथूराम जी प्रेमी ने ही इस सम्बन्ध में कुछ लेख प्रकाशित यापनीयों की चर्चा हुई है - इन्द्रिय-यापनीय और नो-इन्द्रिय यापनीय । किये थे । किन्तु उनके पश्चात् इस दिशा में पुनः उदासीनता आ गई इन्द्रिय-यापनीय की व्याख्या करते हुए भगवान् महावीर ने कहा था कि है। प्रस्तुत लेख उसी उदासीनता को तोड़ने का एक प्रयास मात्र है। मेरी श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियाँ व्याधिरहित एवं मेरे नियन्त्रण में हैं। इसी आशा है जैन-विद्या के विद्वान् इस दिशा में सक्रिय होंगे। प्रकार नो-इन्द्रिय यापनीय को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था कि मेरे
आज विशृङ्खलित होते हुए जैन समाज के लिए इस सम्प्रदाय क्रोध, मान, माया, लोभ विच्छिन्न या निर्मूल हो गये हैं, अब वे का ज्ञान और भी आवश्यक है क्योंकि इस सम्प्रदाय की मान्यताएँ आज अभिव्यक्त या प्रकट नहीं होते हैं ? भी जैनधर्म की दिगम्बर और श्वेताम्बर शाखाओं के बीच योजक कड़ी उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता बन सकती हैं । दुर्भाग्य से आज भी अनेक जैन विद्वान् और मुनिजन है कि भगवतीसूत्र में इन्द्रिय और मन की नियन्त्रित एवं शान्त स्थिति यह नहीं जानते हैं कि एक ऐसा सम्प्रदाय जो श्वेताम्बर और दिगम्बर के के अर्थ में ही यापनीय शब्द का प्रयोग हुआ है । इन्द्रियों की वृत्तियों मध्य एक योजक कड़ी के रूप में विद्यमान था एवं लगभग १४०० और मन की वासनाओं का शान्त एवं नियन्त्रित होना ही यापनीय की वर्षों तक अपने को जीवित बनाये रखकर आज से ६०० वर्ष पूर्व काल कुशलता का सूचक है । वस्तुत: यह मनुष्य के मानसिक कुशल-क्षेम के गर्भ में ऐसा विलीन हो गया कि आज लोग उसका नाम तक नहीं का सूचक है। 'किं जवणिच्च' का अर्थ है आपकी मनोदशा कैसी है ? जानते हैं। आज जैन धर्म में 'यापनीय' परम्परा का कोई भी अनुयायी अत: यापनीय शब्द मनोदशा (Mood) या मानसिक स्थिति (Mental नहीं है । यह परम्परा आज मात्र इतिहास की वस्तु बनकर रह गयी है state) का सूचक है । इस शब्द का प्रयोग मन की प्रसन्नता को जानने किन्तु इनके द्वारा स्थापित मन्दिर एवं मूर्तियाँ तथा सृजित साहित्य के लिए प्रश्न के रूप में किया जाता था। सहज ही आज हमें उसका स्मरण करा देते हैं। आज जब जैनधर्म में बौद्ध पाली-साहित्य में भी इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढमूल होता जा रहा है, यापनीय संघ के हुआ है । भगवान बुद्ध का अपने ग्राम में आगमन होने पर भृगु, इतिहास और उनकी मान्यताओं का बोध न केवल जैन संघ में समन्वय भगवान से पूछते हैं कि हे भिक्षु ! आपका क्षमा-भाव कैसा है ? का सूत्रपात कर सकता है, वरन् टूटते हुए जैन संघ को पुनः एकता की आपका यापनीय कैसा है ? आपको आहार आदि के लाभ में कोई कड़ी में जोड़ सकता है । वस्तुत: 'यापनीय' परम्परा वह सेतु है जो कठिनाई तो नहीं है ? प्रत्युत्तर में भगवान बुद्ध ने कहा, मेरा क्षमा-भाव श्वेताम्बर और दिगम्बर के बीच की खाई को पाटने में आज भी (क्षमनीय) अच्छा है, मेरा यापनीय सुन्दर है । मुझे आहार-लाभ में कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है । अग्रिम पंक्तियों में हम ऐसे कठिनाई नहीं है । इस प्रकार यहाँ भी यापनीय शब्द जीवन-यात्रा के महत्त्वपूर्ण और समन्वयवादी सम्प्रदाय के सन्दर्भ में गवेषणात्मक दृष्टि कुशल-क्षेम के सन्दर्भ में ही प्रयुक्त हुआ है । 'किच्च यापनीय' का अर्थ से कुछ विचार करने का प्रयत्न करेंगे।
है आपकी जीवन-यात्रा कैसी चल रही है ?
इस प्रकार हम देखते है कि जहाँ पाली-साहित्य में 'यापनीय' यापनीय शब्द का अर्थ
शब्द जीवन-यात्रा के सामान्य अर्थ का सूचक है । वहाँ जैन-साहित्य में भाषा एवं उच्चारण-भेद के आधार पर आज हमें ‘यापनीय' वह इन्द्रियों एवं मन की वृत्तियों या मनोदशा का सूचक है, भगवती
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और ज्ञाताधर्मकथा में 'इन्द्रिय-यापनीय' और 'नो इन्द्रिय-यापनीय' को स्पष्ट करते हुए यही बताया गया है कि जिसकी इन्द्रियाँ स्वस्थ और नियन्त्रण में है तथा जिसका मन वासनाओं के आवेग से रहित एवं शान्त हो चुका है ऐसे नियन्त्रित इन्द्रिय और मनवाले व्यक्ति का यापनीय कुशल है। यद्यपि यहाँ 'यापनीय' शब्द इन्द्रिय और मन की वृत्तियों का सूचक है किन्तु अपने मूल अर्थ में तो यापनीय शब्द व्यक्ति की 'जीवन यात्रा' का सूचक है। व्यक्ति की जीवनयात्रा के कुशलक्षेम को जानने के लिए ही उस युग में यह प्रश्न किया जाता था कि आपका यापनीय कैसा है ? बौद्ध परम्परा में इसी अर्थ में यापनीय शब्द का प्रयोग होता था किन्तु जैन- परम्परा ने उसे एक आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया था। ज्ञाताधर्मकथा एवं भगवती में महावीर 'यात्रा' को ज्ञान, दर्शन और चारित्र की साधना से जोड़ा तो 'यापनीय' को इन्द्रिय और मन की वृत्तियों से । इस प्रकार निर्ग्रन्थ परम्परा में यापनीय शब्द का एक नया अर्थ लिया गया। प्रो० ए. एन. उपाध्ये यहाँ अपना मत व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि- "नायाधम्मकहाओ (शाताधर्मकथा) में 'इन्दिय जवणिज्जे' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ यापनीय न होकर यमनीय होता है, जो यम् (नियन्त्रण) धातु से बनता है। इसकी तुलना 'थवणिज्ज' शब्द से की जा सकती है जो स्थापनीय शब्द के लिए प्रयुक्त होता है । इस तरह 'जवणिज्ज' का सही संस्कृत रूप यापनीय नहीं हो सकता । अतः जवणिज्ज' साधु वे हैं जो यम- याम का जीवन बिताते थे। इस सन्दर्भ में पार्थ प्रभु के उज्जाम- चातुर्याम धर्म से यम- याम की तुलना की जा सकती है।""
किन्तु प्रो० ए. एन. उपाध्ये का 'जयनिष्य' का यमनीय अर्थ करना उचित नहीं है। यदि उन्होंने विनयपिटक का उपर्युक्त प्रसंग देखा होता जिसमें 'यापनीय' शब्द का जीवनयात्रा के कुशल क्षेम जानने के सन्दर्भ में स्पष्ट प्रयोग है, तो सम्भवतः वे इस प्रकार का अर्थ नहीं करते । यदि उस युग में इस शब्द का 'यमनीय' के रूप में प्रयोग होता तो फिर पाली साहित्य में यापनीय शब्द का स्पष्ट प्रयोग न मिलकर 'यमनीय' शब्द का ही प्रयोग मिलता । अतः स्पष्ट है कि मूल शब्द 'यापनीय' ही है, यमनीय नहीं है। यद्यपि आगमों में आध्यात्मिक दृष्टि से यापनीय शब्द की व्याख्या करते हुए उसे अवश्य ही मन और इन्द्रिय की नियंत्रित या संयमित दशा का सूचक माना गया है ।
यापनीय शब्द की उपर्युक्त व्याख्याओं के अतिरिक्त विद्वानों ने उसकी अन्य व्याख्यायें भी देने का प्रयत्न किया है। प्रो० तैलंग के अनुसार यापनीय शब्द का अर्थ बिना ठहरे सदैव विहार करने वाला है" सम्भव है कि जब उत्तर और दक्षिण भारत में चैत्यवास अर्थात् मन्दिरों में अपना मठ बनाकर रहने की प्रवृत्ति पनप रही थी तब उन मुनियों को जो चैत्यवास का विरोध कर सदैव विहार करते थे यापनीय कहा गया हो । किन्तु इस व्याख्या में कठिनाई यह है कि चैत्यवास का विकास परवर्ती है, वह ईसा की चौथी या पाँचवीं शती में प्रारम्भ हुआ जब कि यापनीय संघ ईसा की दूसरी के अन्त या तीसरी शती के प्रारम्भ में अस्तित्व में आ चुका था ।
प्रो० एम० ए० छाकी पापनीय शब्द के मूल में यावनिक मानते हैं। उनके अनुसार सम्भावना यह है कि मथुरा में शक और कुषाणों के काल में कुछ यवन जैन मुनि बने हों और उनकी परम्परा यावनिक (यवन- इक्) कही जाती हो। उनके मतानुसार 'यावनिक ' शब्द आगे चल कर यापनीय बन गया है। यह सत्य है कि यापनीय परम्परा का विकास मथुरा में उसी काल में हुआ है, जब शक, हूण आदि के रूप में यवन भारत में प्रविष्ट हो चुके थे और मथुरा उनका केन्द्र बन गया था। फिर भी व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से यावनिक का यापनीय रूप बनना यह सन्तोषजनक व्याख्या नहीं है
संस्कृत और हिन्दी शब्द कोशों में 'यापन' शब्द का एक अर्थ परित्याग करना या निष्कासित करना भी बताया गया है। प्रो० आप्टे ने 'याप्य' शब्द का अर्थ निकाले जाने योग्य, तिरस्करणीय या नीच भी बताया है" इस आधार पर यापनीय शब्द का अर्थ नीच, तिरस्कृत या निष्कासित भी होता है। अतः संभावना यह भी हो सकती है कि इस वर्ग को तिरस्कृत, निष्कासित या परित्यक्त मानकर 'यापनीय' कहा गया हो ।
वस्तुतः प्राचीन जैन आगमों एवं पाली- त्रिपिटक में यापनीय शब्द जीवन यात्रा के अर्थ में ही प्रयुक्त होता था 'आपका यापनीय कैसा है' इसका अर्थ होता था कि आपकी जीवन-यात्रा किस प्रकार चल रही है। इस आधार पर मेरा यह मानना है कि जिनकी जीवन-यात्रा सुविधापूर्वक चलती हो वे यापनीय है। सम्भवतः जिस प्रकार उत्तर भारत में श्वेताम्बरों ने इस परम्परा को अपने साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश में 'बोटिक' अर्थात् भ्रष्ट या पतित कहा; उसी प्रकार दक्षिण में दिगम्बर परम्परा ने भी उन्हें सुविधावादी जीवन के आधार पर अथवा उन्हें तिरस्कृत मानकर थापनीय कहा हो।
इस प्रकार हमने यहाँ यापनीय शब्द की सम्भावित विभिन्न व्याख्याओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। किन्तु आज यह बता पाना तो कठिन है कि इन विविध विकल्पों में से किस आधार पर इस वर्ग को यापनीय कहा गया था ।
बोटिक शब्द की व्याख्या
यापनीयों के लिए श्वेताम्बर परम्परा में लगभग ८वीं शताब्दी तक 'बोडिय' (बोटिक) शब्द का प्रयोग होता रहा है।" मेरी जानकारी के अनुसार श्वेताम्बर - परम्परा में सबसे पहले हरिभद्र के ग्रन्थों में यापनीय शब्द का प्रयोग हुआ है ।१२ फिर भी यापनीय और बोटिक एक ही हैं ऐसा स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। हरिभद्र भित्र-भित्र प्रसंगों में इन दोनों शब्दों की व्याख्या तो करते हैं किन्तु ये दोनों शब्द पर्यायवाची है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं करते हैं।
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'बोडिय' शब्द का संस्कृत रूपान्तरण बोटिक किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र की शान्त्याचार्य की टीका में बोटिक शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है - "बोटिकाश्चासौ चारित्रविकलतया मुण्डमात्रत्वेन अर्थात् चारित्रिक विकलता के कारण मात्र मुण्डित बोटिक कहे जाते [ ७९ ]mas
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हैं । किन्तु इस व्याख्या से बोटिक शब्द पर कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। मात्र बोटिकों के चरित्र के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। मेरी दृष्टि में प्राकृत के 'बोडिय' के स्थान पर 'वाडिय' शब्द होना चाहिए था जिसका संस्कृत रूप वाटिक होगा। 'वाटिक' शब्द का अर्थ वाटिका या उद्यान में रहने वाला है। विशेषावश्यकभाष्य में शिवभूति की कथा से स्पष्ट है कि बोटिक मुनि नग्न रहते थे, भिक्षादि प्रसंग को छोड़कर सामान्यतया ग्राम या नगर में प्रवेश नहीं करते थे और वे नगर के बाहर उद्यानों या वाटिकाओं में ही निवास करते थे १४ ।
अतः सम्भावना यह है कि वाटिका में निवास के कारण वे वाडिय या बाडिय कहे जाते होगें जो आगे चलकर 'बोडिय' हो गया। हमें कल्पसूत्र में वेसवाडिय (वैश्यवाटिक) उदुवाडिय (ऋतुवाटिक) आदि गणों के उल्लेख मिलते हैं। जिस प्रकार श्वेतपट प्राकृत में सेतपट से अपड> सेअअ सेबड़ा हो गया, उसी प्रकार सम्भवतः वाटिका वाडिया बाडिय बोडिय हो गया हो। आज भी मालवप्रदेश में उद्यान को बाडी कहा जाता है। इसी प्रसंग में मुझे मालवी बोली में प्रयुक्त 'बोडा' शब्द का भी स्मरण हो जाता है। गुजराती एवं मालवी में केशरहित मस्तक वाले व्यक्ति को 'बोडा' कहा जाता है। सम्भावना यह भी हो सकती है कि लुंचित केश होने से उन्हें 'बोडिय' कहा गया हो। शब्दों के रूप परिवर्तन की ये व्याख्याएं मैनें अपनी बुद्धअनुसार करने की चेष्टा की है। भाषाशास्त्र के विद्वानों से अपेक्षा है कि इस सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डालें ।
प्रो० एम० ए० ढाकी बोटिक की मेरी इस व्याख्या से सहमत नहीं है। उनका कहना है कि 'बोटवु' शब्द आज भी गुजराती में भ्रष्ट या अपवित्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है"। सम्भवतः यह देशीय शब्द हो और उस युग में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता हो । अतः श्वेताम्बरों ने उन्हें साम्प्रदायिक अभिनिवेशवश 'बोडिय' कहा होगा । क्योंकि श्वेताम्बर- परम्परा उनके लिए मिध्यादृष्टि, प्रभूततर विसंवादी, सर्वविसंवादी और सर्वापलापी जैसे अनादरसूचक शब्दों का प्रयोग कर रही थी । भोजपुरी और अवधी में बोरना या बूड़ना शब्द डूबने के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। व्यञ्जना से इसका अर्थ भी पतित या गिरा हुआ हो सकता है।
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'बोडिय' शब्द की इन विभिन्न व्याख्याओं में मुझे प्रो० बाकी की व्याख्या अधिक युक्तिसंगत लगती है क्योंकि इस व्याख्या से वापनीय और बोटिक शब्द पर्यायवाची भी बन जाते हैं यदि यापनीय का अर्थ तिरस्कृत या निष्कासित और बोटिक का अर्थ भ्रष्ट या पतित है, तो दोनों पर्यायवाची ही सिद्ध होते हैं । किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि ये दोनों नाम उन्हें साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश के वश दिये गये हैं। जहाँ श्वेताम्बरों ने उन्हें बोडिय (बोटिक भ्रष्ट) कहा, वहीं दिगम्बरों ने उन्हें यापनीय तिरस्कृत या निष्कासित कहा। इनके लिए बोटिक शब्द का प्रयोग केवल श्वेताम्बर परम्परा के आगमिक व्याख्या-ग्रन्थों तक ही सीमित रहा है, इन ग्रन्थों के अतिरिक्त इस शब्द का प्रयोग अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है।
आगे चलकर इस वर्ग ने स्वयं अपने लिए 'यापनीय' शब्द को स्वीकार कर लिया होगा क्योंकि यापनीय शब्द की व्याख्या प्रशस्त अर्थ में भी सम्भव है। अभिलेखों में भी ये अपने को 'यापनीय' के रूप में ही अंकित करवाते थे ।
यापनीय संघ की उत्पत्ति
यापनीय सम्प्रदाय कब उत्पन्न हुआ ? यह प्रश्न विचारणीय है । भगवान महावीर का धर्म संघ कब और किस प्रकार विभाजित होता गया इसका प्राचीनतम उल्लेख हमें कल्पसूत्र" और नन्दीसूत्र १९ की स्थविरावलियों में मिलता है। ये स्थविरावलियाँ स्पष्ट रूप से हमें यह बताती हैं कि यद्यपि महावीर का धर्मसंघ विभिन्न गणों में विभाजित हुआ और ये गण शाखाओं में शाखायें कुल में और कुल सम्भोगों में विभाजित हुए फिर भी नन्दीसूत्र और कल्पसूत्र की स्थविरावलियों में ऐसा कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है जिससे महावीर के धर्मसंघ के यापनीय, श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में विभाजित होने की कोई सूचना मिलती हो इन दोनों स्ववरावलियों में भी कल्पसूत्र की । स्थविरावली अपेक्षाकृत प्राचीन है, इसमें दो बार परिवर्धन हुआ है। अन्तिम परिर्वधन वीर निर्वाण सम्वत् १८० अर्थात् ईसा की पाँचवीं शताब्दी का है नन्दीसूत्र की स्थविरावली भी इसी काल की है । किन्तु दोनों स्थविरावलियाँ स्थूलभद्र के शिष्यों से अलग हो जाती हैं। इनमें कल्पसूत्र की स्थविरावली का सम्बन्ध वाचक-वंश से जोड़ा जाता है । सम्भवतः गणधरवंश संघ व्यवस्थापक आचार्यों की परम्परा (Administrative lineage) का सूचक है जबकि वाचकवंश उपाध्यायों या विद्यागुरुओं की परम्परा का सूचक है। वाचकवंश विद्यावंश है । यह विद्वान् जैनाचार्यों के नामों का कालक्रम से संकलन है ।
कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियाँ अन्तिम रूप से देवर्धिगणि क्षमाश्रमण तक की परम्परा का वीरनिर्वाण से एक हजार वर्ष तक अर्थात् ई. पू. पाँचवीं शती से ईसा की पाँचवीं शती तक का उल्लेख करती है, फिर भी इसमें सम्प्रदाय-भेद की कहीं चर्चा नहीं है, मात्र गणभेद आदि की चर्चा है।
श्वेताम्बर परम्परा के उपलब्ध आगमिक साहित्य स्थानाङ्ग और आवश्यकनियुक्ति में हमें सात निद्वयों का उल्लेख मिलता है" (निह्नव वे हैं जो सैद्धान्तिक या दार्शनिक मान्यताओं के सन्दर्भ में मतभेद रखते हैं, किन्तु आचार और वंश वही रखते हैं।) इन सात निह्नवों में कहीं भी बोटिक (बोडिय) जिन्हें सामान्यतया दिगम्बर मान लिया जाता है, किन्तु वस्तुतः जो यापनीय हैं, का उल्लेख नहीं है। बोटिक सम्प्रदाय का सर्वप्रथम उल्लेख आवश्यक मूलभाष्य की गाथा (१४५ से १४८ तक) में मिलता है" ये गायायें हरिभद्र की आवश्यकनियुक्ति की टीका में नियुक्ति गाथा ७८३ के पश्चात् संकलित है। इस प्रकार श्वेताम्बर आगमिक साहित्य आवश्यक मूलभाष्य की रचना के पूर्व तक बोटिक, यापनीय एवं दिगम्बर परम्पराओं के सम्बन्ध में हमें कोई सूचना नहीं Gand co Jin
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देता है। आश्चर्य यह है कि स्वीमुक्ति एवं केवलीकवलाहार का निषेध करने वाली दिगम्बर-परम्परा का उल्लेख तो विक्रम की आठवीं शती के पूर्व किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थ में नहीं मिलता है। साहित्यिक दृष्टि से यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में जो उल्लेख उपलब्ध हैं वे लगभग ईसा की ५वीं शताब्दी या उसके पश्चात् के हैं। यद्यपि ऐसा लगता है कि इसके पूर्व भी यह सम्प्रदाय अस्तित्व में तो अवश्य ही आ गया था। जहाँ तक अभिलेखीय साक्ष्यों का प्रश्न है, मथुरा के ईसा की प्रथम और द्वितीय शताब्दी के जो जैन अभिलेख उपलब्ध हैं, इनमें गणों शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों के उल्लेख मिलते हैं। ये समस्त गण, कुल, शाखायें और सम्भोग कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार ही हैं। दिगम्बर साहित्य में हमें इन गणों, शाखाओं एवं कुलों का किञ्चित भी संकेत उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि मथुरा से उपलब्ध उन सभी मूर्तियों और आयागपट्टों (जिनपर ये अभिलेख अंकित है) में तीर्थङ्कर को नग्न रूप में अंकित किया गया है किन्तु वहीं उसी काल में कल्पसूत्र एवं आचारात्र (द्वितीय श्रुतस्कंध में उल्लिखित महावीर के गर्भपरिवर्तन की घटना का अंकन भी उपलब्ध होता है २४ । साथ ही उन अभिलेखों में कल्पसूत्र के अनुरूप गण, कुल, शाखा और संभोगों के उल्लेख यह सूचित करते हैं कि ये सभी अभिलेख और मूर्तियाँ दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध नहीं हैं पुनः मथुरा के प्राचीन शिल्प में मुनि के हाथ की कलाई पर लटकते हुए वस्त्र खण्ड का अंकन भी जिससे वे अपनी नग्नता को छिपाये हुए हैं, इस शिल्प को दिगम्बर- परम्परा से पृथक् करता है। पुनः मथुरा का जैन शिल्प यापनीय भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यापनीय परम्परा की उत्पत्ति इससे परवर्ती है इसमें आर्य कृष्ण (अज्ज कण्ह) का जिनके शिष्य शिवभूति से आवश्यक मूलभाष्य में बोटिक या यापनीय परम्परा का विकास माना गया है, नामोल्लेख पूर्वक अंकन उपलब्ध है। पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने इसे अर्धस्फालक सम्प्रदाय का माना है", किन्तु इस सम्प्रदाय के अस्तित्व का दशवीं शती के पूर्व का कोई भी साहित्यिक या अभिलेखीय साक्ष्य नहीं है पं० नाथूरामजी प्रेमी के अनुसार ऐसा कोई सम्प्रदाय नहीं था। यह मात्र संघभेद के पूर्व की स्थिति है" सत्य तो यह है कि यापनीयों या बोटिकों ने आर्य कृष्ण के उसी वखखण्ड का विरोध करके अचेलक परम्परा के पुनः स्थापन का प्रयत्न किया था। देश-काल के प्रवाह में जैन संघ में जो परिवर्तन आ रहे थे उसी का विरोध यापनीयों या बोटिकों की उत्पत्ति का कारण बना।
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श्वेताम्बर - परम्परा में मतभेद और संघभेद सम्बन्धी जो सूचनायें उपलब्ध हैं, उनमें प्रथमतः स्थानाङ्ग एवं आवश्यकनियुक्ति में सात निह्नवों की चर्चा है। ये सात निह्नव जामालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल हैं। इनमें प्रथम दो महावीर के जीवन काल में और शेष पाँच उनके निर्वाण के पश्चात् २१४ से ५८४ वर्ष के बीच में हुए हैं२८ । किन्तु इनमें बोटिक या बोडिय का कहीं भी उल्लेख नहीं है। हम ऊपर देख चुके हैं कि बोडिय (बोटिक) का सर्वप्रथम उल्लेख आवश्यकमूलभाष्य में है। इसके अनुसार वीर-निर्वाण के ६०९ वर्ष के पश्चात् रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में अज्ज कन्ह के शिष्य शिवभूति द्वारा बोटिक परम्परा की उत्पत्ति हुई। आवश्यकमूलभाष्य आवश्यक नियुक्ति एवं विशेषावश्यकभाष्य के मध्यकाल की रचना है। उपलब्ध आवश्यकनिर्युक्ति वीर निर्वाण के पश्चात् ५८४ वर्ष तक की अर्थात् ईसा की प्रथम शती की घटनाओं का उल्लेख करती है, अतः उसके पश्चात् ही उसका रचना-काल माना जा सकता है। विशेषावश्यकभाष्य का रचनाकाल सामान्यतया ईसा की छठी शताब्दी का अन्तिम चरण (शक ५३१ के पूर्व ) माना जाता है" । अतः इस अवधि के बीच ही बोटिक मत या यापनीय परम्परा का प्रादुर्भाव हुआ होगा। आवश्यकमूलभाष्य में जो वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद अर्थात् ईसा की द्वितीय शती में इस सम्प्रदाय की उत्पत्ति का उल्लेख है, वह किसी सीमा तक सत्य प्रतीत होता है ।
दिगम्बर- परम्परा में जैन संघ के विभाजन की सूचना देने वाला कोई प्राचीन ग्रंथ नहीं है, मात्र ई० सन् ९४२ (वि० सं० १९९९) में देवसेन द्वारा रचित 'दर्शनसार है" इस ग्रन्थ के अनुसार विक्रम की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् सौराष्ट्र देश के वलभी नगरी में श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई। इसमें यह भी कहा गया है कि श्रीकलश नामक श्वेताम्बर मुनि से विक्रम संवत् २०५ में पापनीय संघ उत्पन्न हुआ। चूँकि 'दर्शनसार' आवश्यकमूलभाष्य की अपेक्षा पर्याप्त परवतीं है अतः उसके विवरणों की प्रामाणिकता को स्वीकार करने में विशेष सतर्कता की आवश्यकता है, फिर भी इतना निश्चित है कि जब आवश्यकमूलभाष्य और दर्शनसार दोनों ही वि० सं० १३६ अथवा १३९ या वीर निर्वाण संवत् ६०६ या ६०९ में संघ भेद की घटना का उल्लेख करते हैं तो एक दूसरे से पुष्टि होने के कारण इस तथ्य को अप्रामाणिक नहीं माना जा सकता कि विक्रम सम्वत् की प्रथम शती के अन्त या द्वितीय शताब्दी के प्रारम्भ में जैनों में स्पष्ट रूप से संघभेद हो गया। 'दर्शनसार' में इस संघ भेद की घटना के ७० वर्ष पश्चात् में भी यापनीय संघ की उत्पत्ति का उल्लेख है । आवश्यकमूलभाष्य कहा गया है कि शिवभूति के शिष्य कौडिन्य और कोट्टवीर से यह परम्परा आगे चली५ । अतः यह मानने में विशेष बाधा नहीं आती कि यही बोटिक सम्प्रदाय जिसका उल्लेख आवश्यकमूलभाष्य में मिलता है, ईसा की दूसरी शताब्दी के अन्त में एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुआ होगा। यद्यपि यह प्रश्न अनिर्णीत ही है कि उसने पूर्ण स्वतंत्र होकर 'यापनीय' नाम कम धारण किया, क्योंकि 'यापनीय' [ ८१ ]ম
इस प्रकार अभिलेखीय और साहित्यिक दोनों ही प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि ईसा की लगभग दूसरी शताब्दी तक चाहे महावीर के धर्मसंघ में विभिन्न गण, शाखा, कुल और सम्भोग अस्तित्व में आ गये थे, फिर भी श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय जैसे वर्गों का स्पष्ट विभाजन नहीं हो पाया था । अतः यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में श्वेताम्बर दिगम्बर एवं यापनीय सम्प्रदाय ईसा की तीसरी शती या उसके पश्चात् ही अस्तित्व में आये हैं। यद्यपि इस संघ भेद के मूल कारण इसके पूर्व भी भीतर-भीतर अपनी जड़ें जमा चुके थे ।
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शब्द का सबसे प्राचीन प्रयोग दक्षिण भारत में मृगेशवर्मन् के ईसा की जिनकल्प का विच्छेद हो गया । शिवभूति ने कहा-मैं जिनकल्प का पाँचवी शताब्दी के एक अभिलेख में मिलता है । किन्तु उत्तर भारत आचरण करूँगा, उपधि के परिग्रह से क्या लाभ? क्योंकि परिग्रह के में इससे पूर्व यह सम्प्रदाय अपनी जड़ें जमा चुका होगा। संभावना यह सद्भाव में कषाय, मूर्छा आदि अनेक दोष हैं। आगम में भी अपरिग्रह है कि इसके पूर्व श्वेताम्बर इसे बोटिक कहने लगे होंगे किन्तु यह अपने का उल्लेख है, जिनेन्द्र भी अचेल थे अत: अचेलता सुन्दर है। इस पर आपको पंचस्तूपान्वय प्रकट करता रहा होगा क्योंकि अचेलक परम्परा आचार्य ने उत्तर दिया कि शरीर के सद्भाव में भी कभी-कभी कषाय, में जिसका एक अंग यापनीय भी है, परम्परा के विभेद-सूचक शब्दों में मूर्छा आदि होते हैं तब तो देह का भी परित्याग कर देना चाहिए, सबसे प्राचीन यही है । संभावना यही है कि इसी पंचस्तूपान्वय नाम को आगम में अपरिग्रह का जो उपदेश दिया गया है उसका तात्पर्य यह है लेकर यापनीयों ने दक्षिण भारत में प्रवेश किया होगा और वहाँ इन्हें कि धार्मिक उपकरणों में मूर्छा नहीं रखना चाहिए। जिन भी एकान्त श्वेताम्बरों द्वारा निष्कासित मानकर दिगम्बर-परम्परा द्वारा यापनीय नाम रूप से अचेलक नहीं हैं, क्योंकि सभी जिन एक वस्त्र लेकर दीक्षित दिया गया होगा।
होते हैं । गुरु के इस प्रकार प्रतिपादित करने पर भी शिवभूति कमोदय
के कारण वस्त्रों का त्याग करके संघ से पृथक् हो गया । उसे वन्दन यापनीय सम्प्रदाय का जीवन-काल
करने हेतु आई उसकी बहन उत्तरा भी उसका अनुसरण कर अचेल हो - साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों से हम स्पष्ट रूप से इस गई। किन्तु भिक्षार्थ नगर में आने पर गणिका ने उसे देखा और कहा निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यापनीय सम्प्रदाय विक्रम संवत् की द्वितीय कि इस प्रकार लोग हमसे विरक्त हो जायेगें या हमारे प्रति आकर्षित शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अस्तित्व में आया क्योंकि आवश्यकमूलभाष्य नहीं होंगे। उसने उत्तरा के उर में वस्त्र बांध दिया। यद्यपि उसने वस्त्र की यापनीयों की उत्पत्ति वीर-निर्वाण संवत् ६०९ बताता है और तब से अपेक्षा नहीं की, कितु शिवभूति ने कहा कि इसे देवता का दिया हुआ लेकर विक्रम संवत् की १५वीं शताब्दी तक इसका अस्तित्व रहा । इस मानकर ग्रहण करो। शिवभूति के दो शिष्य हुए कौडिन्य और कोट्यवीर । तथ्य की कागबाड़े से प्राप्त शक संवत् ३१६ अर्थात् विक्रम संवत् इन शिष्यों से उसकी पृथक् परम्परा आगे बढ़ी३६ | ४५१ के इस सम्प्रदाय के अन्तिम अभिलेख से पुष्टि होती है । इस अर्धमागधी आगम-साहित्य एवं मथुरा के अंकन से ज्ञात अभिलेख में यापनीय संघ के आचार्यो-धर्मकीर्ति और नागकीर्ति का होता है कि आर्यकृष्ण के समय में मुनि नग्नता को छिपाने के लिए वस्त्र उल्लेख है । अत: ऐतिहासिक दृष्टि से यह सम्प्रदाय लगभग १३०० खण्ड का उपयोग करते थे । सम्भवतः शिवभूति का इसी प्रश्न पर वर्षों तक जीवित रहा।
आर्य कृष्ण से विवाद हुआ होगा। इस कथा में भी मतभेद का मुख्य
कारण वस्त्र एवं उपधि का ग्रहण ही माना गया है । कथानक के अन्य यापनीय-संघ की उत्पत्ति-कथा
तथ्यों में कितनी प्रामाणिकता है यह विचारणीय है। यह सम्भव है कि यापनीयों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर शिवभूति द्वारा अचेलकता को ग्रहण करने पर उनकी बहन एवं सम्बन्धित दोनों ही सम्प्रदायों में कथायें उपलब्ध होती हैं । श्वेताम्बर परम्परानुसार साध्वियों ने भी अचेलकत्व का आग्रह किया होगा किन्तु शिवभूति ने रथवीरपुर नगर के दीपक नामक उद्यान में आर्यकृष्ण नामक आचार्य का साध्वियों की अचेलकता को उचित न समझकर कहा हो कि जिस आगमन हुआ । उस नगर में सहस्रमल्ल शिवभूति निवास करता था। प्रकार तीर्थंङ्गर देवदूष्य नामक वस्त्र ग्रहण करते हैं उसी प्रकार साध्वियों प्रतिदिन अर्द्धरात्रि के पश्चात् घर आने के कारण उसकी अपनी माता को भी देवता का दिया हुआ मानकर एक वस्त्र ग्रहण करना चाहिए । और पत्नी से कलह होती थी। एक बार रात्रि में विलम्ब से आकर द्वार इस प्रकार श्वेताम्बर-परम्परा में बोटिकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो खुलवाने पर उसकी माता ने द्वार न खोलते हुए कहा इस समय जहाँ कथा मिलती है वह साम्प्रदायिक अभिनिवेश से पूर्णतया मुक्त तो नहीं द्वार खुला हो वहीं चले जाओ । निराश होकर नगर में घूमते समय उसे है- फिर भी इतनी सत्यता अवश्य है कि बोटिक अचेलकता के प्रश्न मुनियों का निवास-द्वार दिखाई पड़ा । उसने अन्दर जाकर मुनियों का को लेकर तत्कालीन परम्परा से अलग हुए थे तथा उन्होंने साध्वियों के वन्दन किया और प्रव्रजित होने की आकांक्षा व्यक्त की। पहले आचार्य लिए एक वस्त्र रखना मान्य किया था । कथानक का शेष भाग सहमत नहीं हुए परन्तु स्वयं उसके केश-लुश्चन कर लेने पर आचार्य ने साम्प्रदायिक अभिनिवेश की रचना है । ऐतिहासिक दृष्टि से इसकी उसे मुनिलिङ्ग प्रदान किया । एक बार रथवीरपुर आगमन पर राजा ने सत्यता इस अर्थ में है कि आर्यकृष्ण और शिवभूति काल्पनिक व्यक्ति उसे बहुमूल्य रत्नकम्बल भेंट किया । आचार्य ने इसके ग्रहण करने पर न होकर ऐतिहासिक व्यक्ति हैं क्योंकि उनका उल्लेख कल्पसूत्र की आपत्ति की, उन्होंने शिवभूति को बिना बताये ही रत्नकम्बल का आसन स्थविरावली में मिलता है । अज्जकण्ह (आर्यकृष्ण) का उल्लेख मथुरा निर्मित कर लिया। इस कारण आचार्य और शिवभूति में मतभेद उत्पन्न के अभिलेख में भी है। हो गया। एक बार आचार्य द्वारा जिनकल्प का वर्णन करते समय उसने दिगम्बर-परम्परा में यापनीय-संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दो वर्तमान में जिनकल्प का आचरण न करने और अधिक उपधि (परिग्रह) कथानक उपलब्ध होते हैं । देवसेन (लगभग ई० सन् की दसवीं रखने का कारण पूछा ? आचार्य ने उत्तर दिया- जम्बू स्वामी के पश्चात् शताब्दी) के दर्शनसार नामक ग्रन्थ की २९वीं गाथा के अनुसार श्री
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जाता था,
ल
कलश नामक श्वेताम्बर साधु ने विक्रम की मृत्यु के २०५ वर्ष पश्चात् दूसरी शताब्दी में जैनमुनि वस्त्रखण्ड, पिच्छि या रजोहरण एवं पात्र कल्याण नगर में यापनीय-संघ प्रारम्भ किया । ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में धारण करने लगे थे । हो सकता है छेदसूत्रों में वर्णित १४ उपकरण विस्तृत विवरण का अभाव है।
पूर्ण रूप से प्रचलित न भी हो पाये हों किन्तु इतना अवश्य है कि वस्त्रयापनीय-संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दूसरा कथानक खण्ड रखकर नग्नता छिपाने का प्रयत्न और भिक्षा-पात्रों का प्रयोग होने रत्ननन्दी के भद्रबाहुचरित्र (ईसा की लगभग १५वीं शताब्दी में उपलब्ध लगा था । यह वस्त्रखण्ड सम्भवतः मुख वस्त्रिका के रूप में ग्रहण किया होता है।
जाता था, उसे हाथ की कलाई पर डालकर नग्नता को छिपा लिया करहाटक के राजा भूपाल की पत्नी नृकुलादेवी ने राजा से जाता था, विशेष रूप से जब भिक्षादि हेतु नगर में जाना होता था । आग्रह किया कि वे उसके पैतृक नगर जाकर वहाँ आये हुए आचार्यों शिवभूति का आर्यकृष्ण से इसी प्रश्न को लेकर विवाद हुआ होगा। को आने हेतु अनुनय करें । राजा ने नृकुलादेवी के निर्देशानुसार अपने जहाँ आवश्यकमूलभाष्य में आर्यकृष्ण और शिवभूति के मध्य गुरुमन्त्री बुद्धिसागर को भेजकर उन मुनियों से करहाटक पधारने की प्रार्थना शिष्य का सम्बन्ध बताया गया है, वहाँ कल्पसूत्र स्थविरावली में की । राजा के आमन्त्रण को स्वीकार कर वे मुनिगण करहाटक पधारे। शिवभूति को अज्ज दुज्जेन्त कण्ह के पहले दिखाया गया है । फिर भी उनके स्वागत हेतु जाने पर राजा ने देखा कि वे साधु सवस्त्र हैं और दोनों की समकालिकता में कहीं बाधा नहीं आती है। वस्तुत: विवाद उनके पास भिक्षा-पात्र और लाठी भी है । यह देखकर राजा ने उन्हें दोनों के बीच हुआ था इसमें कोई सन्देह नहीं है । श्वेताम्बर-परम्परा में वापस लौटा दिया । नृकुला देवी को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने उन भी रत्नकम्बल प्रसङ्ग को लेकर जो कथानक खड़ा किया गया है वह मुनियों से दिगम्बर मुद्रा में पिच्छि-कमण्डलु लेकर पधारने का आग्रह मुझे प्रामाणिक नहीं लगता । वस्तुतः महावीर के पश्चात् उनके संघ में किया और उन्होंने तदनुरूप दिगम्बर मुद्रा धारण कर नगर-प्रवेश किया। वस्त्र-पात्र ग्रहण करने का क्रमश: विकास हुआ है । क्षुल्लकों और इस प्रकार वे साधु-वेष से तो दिगम्बर थे किन्तु उनके क्रिया-कलाप सदोजलिङ्ग वाले व्यक्तियों अथवा राज-परिवार से आये व्यक्तियों के श्वेताम्बरों जैसे थे । यापनीय-संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में रत्ननन्दी का लिए अपवादरूप में वस्त्र रखने की अनुमति पहले से ही थी किन्तु जिन यह कथन पूर्णत: प्रामाणिक नहीं है । यापनीयों की उत्पत्ति श्वेताम्बर- कल्प का विच्छेद मानकर जब यह सामान्य नियम बनने लगा तो परम्परा से न होकर उस मूल धारा से हुई है जो श्वेताम्बर-परम्परा की शिवभूति ने इसका विरोध कर अचेलता को ही उत्सर्ग-मार्ग स्थापित पूर्वज थी, जिससे काल-क्रम में वर्तमान श्वेताम्बर-धारा का विकास हुआ करने का प्रयत्न किया । उनके पूर्व भी आर्यरक्षित को अपने पिता जो है । वस्तुत: महावीर के धर्मसंघ में जब वस्त्र-पात्र आदि में वृद्धि होने उनके ही संघ में दीक्षित हो गये थे, नग्नता धारण करवाने हेतु विशेष लगी थी और अचेलकत्व-प्रतिष्ठा क्षीण होने लगी, उससे अचेलता के प्रयत्न करना पड़ा था क्योंकि वे अपने परिजनों के समक्ष नग्न नहीं पक्षधर यापनीय और सचेलता के पक्षधर श्वेताम्बर ऐसी दो धारायें रहना चाहते थे । यद्यपि इन्हीं आर्यरक्षित ने भिक्षा-पात्र के अतिरिक्त निकलीं। पुन: यापनीय सम्प्रदाय का जन्म दक्षिण में न होकर उत्तर वर्षाकाल में मल-मूत्र आदि के लिए एक अतिरिक्त पात्र रखे जाने की भारत में हुआ। यापनीयों ने जब दक्षिण भारत में प्रवेश किया होगा तब अनुमति भी दी थी। महावीर के काल से ही निर्ग्रन्थ-संघ में नग्नता का वे श्वेताम्बर साधु का वेश लेकर गये थे । यह एक भ्रान्त धारणा ही है। एकान्त आग्रह तो नहीं था किन्तु उसे अपवाद के रूप में तो स्वीकृत उनके कथन में मात्र इतनी ही सत्यता हो सकती है कि यापनीयों के किया ही गया था। किन्तु जब जिनकल्प को विच्छिन्न मानकर अचेलता आचार-विचार में कुछ बातें श्वेताम्बर-परम्परा के समान और कुछ बातें के अपवाद को ही उत्सर्ग मानकर नग्नता को छिपाने के लिए वस्त्रदक्षिण में उपस्थित दिगम्बर-परम्परा के समान थीं।
खण्ड रखना अनिवार्य किया होगा तो शिवभूति को अचेलता को ही इन्द्रनन्दी के 'नीतिसार' में यद्यपि यापनीयों की उत्पत्ति-कथा उत्सर्ग-मार्ग के रूप में स्वीकार करने के लिए संघर्ष करना पड़ा। नहीं दी गई है किन्तु पाँच प्रकार के जैनाभासों की चर्चा करते हुए उसमें उन्होंने जिनकल्प को विच्छिन्न न मानकर समर्थ के लिए अचेलता और उन्होंने यापनीयों का भी उल्लेख किया है - गोपुच्छिक श्वेतवासा, पाणीतल-भोजी होना आवश्यक माना । आपवादिक स्थिति में वस्त्र-पात्र द्रविड़, यापनीय और नि:पिच्छक ।
से उनका विरोध नहीं था। भगवतीआराधना में हमें उनके इसी दृष्टिकोण इन्द्रनन्दी के उपर्युक्त कथन से मात्र इतना ही फलित होता है का समर्थन मिलता है । यद्यपि यह कहना अत्यन्त कठिन है कि उनके कि यापनीय-परम्परा इन्द्रनन्दी की मूलसंघीय दिगम्बर-परम्परा से भिन्न द्वारा अचेलकत्व के पुनर्स्थापन के इस प्रयास से स्पष्ट रूप से संघ-भेद थी, वे उन्हें जैनाभास मानते थे अर्थात् उनकी दृष्टि में यापनीय जैनधर्म हो गया था क्योंकि कल्पसूत्र की पट्टावली में जो अन्तिम परिवर्धन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं । वस्तुत: यापनीय-संघ की उत्पत्ति और देवर्द्धिगणि के समय पाँचवीं शताब्दी में हुआ उसकी पहली गाथा में स्वरूप सम्बन्धी जो कथानक मिलते हैं वे सभी विरोधियों द्वारा प्रस्तुत गौतम गोत्रीय फल्गुमित्र, वशिष्ठ गोत्रीय धनगिरि, कोत्स गोत्रीय शिवभूति है और संघ की यथार्थ स्थिति से अवगत नहीं कराते हैं । यापनीय-संघ और कौशिक गोत्रीय दोष्यन्त या दुर्जयन्त कृष्ण का नामोल्लेख है। की उत्पत्ति के सम्बन्ध में मेरा चिन्तन इस प्रकार है -मथुरा के अङ्कनों यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि इसमें शिवभूति के पश्चात् आर्यकृष्ण से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यकृष्ण के समय अर्थात् विक्रम की का उल्लेख है जबकि आवश्यकमूलभाष्य में शिवभूति को आर्यकृष्ण
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का शिष्य बताया गया है । सम्भावना यह हो सकती है कि शिवभूति परम्परा से मतभेद के जो उल्लेख मिलते हैं उनसे यही फलित होता है
और आर्यकृष्ण गुरु-शिष्य न होकर गुरु बन्धु हो । किन्तु इससे कि उनका मुख्य विवाद मुनि के ही सचेल और अचेल होने के सम्बन्ध शिवभूति और आर्यकृष्ण के समकालिक होने में कोई बाधा नहीं आती में था । स्त्री-मुक्ति और कवलाहार के सम्बन्ध में इनका कोई मतभेद है । यह भी सत्य ही है कि उपधि के प्रश्न को लेकर शिवभूति और नहीं था । विशेषावश्यकभाष्य में इन्हें आचाराङ्ग आदि आगमों को आर्यकृष्ण के बीच यह विवाद हुआ होगा और शिवभूति के शिष्यों स्वीकार करने वाला माना गया है। ये दिगम्बर-परंपरा के समान न कौडिन्य और कोट्यवीर से अचेलता की समर्थक यह धारा पृथक् रूप तो स्त्री-मुक्ति और केवली-मुक्ति का निषेध करते थे और न जैनागमों का से प्रवाहित होने लगी।
पूर्णत: विच्छेद ही स्वीकार करते थे । मात्र यह कहते थे कि आगमों में
जो वस्त्र-पात्र के उल्लेख हैं वे आपवादिक स्थिति के हैं । इस प्रकार ये यापनीयों का उत्पत्ति-स्थल
स्त्री-मुक्ति और केवली-कवलाहार की विरोधी और आगमों को विच्छिन्न यापनीयों अथवा बोटिकों के उत्पत्ति-स्थल को लेकर श्वेताम्बर मानने वाले दिगम्बर सम्प्रदाय से भिन्न हैं । इस सम्बन्ध में पं० और दिगम्बर परम्पराएँ भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखती हैं । श्वेताम्बरों के दलसुखभाई मालवणिया, प्रो० ढाकी और मेरा लेख द्रष्टव्य है। अनुसार उनकी उत्पत्ति रथवीरपुर नामक नगर में हुई, यह नगर मथुरा के यदि हम बोटिकों की इस मान्यता की तुलना यापनीय-परम्परा समीप उत्तर भारत में स्थित था । जबकि दिगम्बरों के अनुसार इनका से करते हैं तो दोनों में कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता। यापनीयों का उत्पत्ति स्थल दक्षिण भारत में उत्तर पश्चिमी कर्णाटक में स्थित करहाटक जो भी साहित्य उपलब्ध है, उससे भी स्पष्ट रूप से यही निष्कर्ष था२९ । इस प्रकार श्वेताम्बरों के अनुसार वे उत्तर में और दिगम्बरों के निकलता है कि यापनीय यद्यपि मुनि की अचेलता पर बल देते थे अनुसार दक्षिण में उत्पन्न हुए । प्रश्न यह है कि उनमें से कौन सत्य है। किन्तु दूसरी ओर वे स्त्री-मुक्ति, अन्य तैर्थिकों (दूसरी धर्म-परम्परा) की श्वे० परम्परा के पक्ष में तथ्य यह है कि उसमें इस विभाजन को मुक्ति, केवलीकवलाहार और आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आर्यकृष्ण और शिवभूति से सम्बन्धित किया है - इन दोनों के उल्लेख कल्प, व्यवहार, मरणविभक्ति, प्रत्याख्यान आदि अर्धमागधी आगमों कल्पसूत्र स्थविरावली में उपलब्ध है । पुन: आर्यकृष्ण की अभिलेख को स्वीकार करते थे। वे दिगम्बर-परम्परा के समान अंग आदि आगमों सहित मूर्ति भी मथुरा से उपलब्ध है जो वस्त्रखण्ड कलाई पर डालकर के सर्वथा विच्छेद की बात नहीं मानते हैं, इस परम्परा में आगे चलकर अपनी नग्नता छिपाये हुए हैं । अस्तु, आवश्यकमूलभाष्य का उत्तर जिन स्वतन्त्र ग्रन्थों और उनकी टीकाओं का निर्माण हुआ उनमें अर्धमागधी भारत में उनकी उत्पत्ति का संकेत प्रामाणिक है । जहाँ तक रत्ननन्दी के आगम-साहित्य की सैकड़ों गाथायें और उद्धरण प्राप्त होते हैं । अत: दक्षिण भारत में इनकी उत्पत्ति के उल्लेख का प्रश्न है, वह इसलिए उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर पूर्णरूपेण सुनिश्चित है कि यापनीय और
अधिक प्रामाणिक नहीं है क्योंकि प्रथम तो वह उनकी उत्पत्ति १२०० बोटिक दोनों सम्प्रदाय एक ही हैं । सम्भवत: उन्हें 'बोटिक' श्वेताम्बरों वर्षों बाद जब यह सम्प्रदाय मरणासन्न स्थिति में था तब लिखा गया - ने और 'यापनीय' नाम दिगम्बरों ने प्रदान किया था। क्योंकि श्वेताम्बर जबकि आवश्यकमूलभाष्य उनकी उत्पत्ति के लगभग २०० वर्ष पश्चात् ग्रन्थों के अतिरिक्त उनके लिये कहीं भी बोटिक नाम का उल्लेख नहीं निर्मित हो चुका था । दूसरे उस कथानक की पुष्टि के अन्य कोई है । उस समय वे अपने आपको क्या कहते थे? यह शोध का विषय साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य नहीं है । दक्षिण भारत में उनकी है । यद्यपि अभिलेखीय साक्ष्यों से यह निश्चित होता है कि पांचवीं उत्पत्ति बताने का मूल कारण यह है कि यापनीयों का दिगम्बर-परम्परा शताब्दी से वे अपने लिये 'यापनीय' शब्द का प्रयोग करने लगे थे। से साक्षात्कार दक्षिण भारत में ही हुआ था ।
अभिलेखों में सर्वप्रथम 'यापनीय' शब्द का सम्प्रदाय के अर्थ में प्रयोग
मृगेशवर्मन के हल्सी के अभिलेख में हुआ है जो पाँचवीं शती का है। क्या यापनीय और बोटिक एक हैं? .
अत: इसके पश्चात् इनके लिए यापनीय शब्द प्रयोग होने लगा होगा जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं प्राचीन श्वेताम्बर- और आवश्यक मूलभाष्य में प्रयुक्त बोटिक केवल श्वेताम्बर आगमिक साहित्य में यापनीय संघ का उल्लेख हरिभद्र के पूर्व उपलब्ध नहीं होता व्याख्या-साहित्य तक ही सीमित रह गया । है, उसके पूर्व हमें जो उल्लेख मिलता है, वह बोटिकों का ही है, अत: यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि बोटिक कौन थे ? क्या यापनीय-संघ के अभिलेखीय साक्ष्य इनका यापनीयों से कोई सम्बन्ध था ? इनकी परम्परा क्या थी ? यापनीय-संघ और उसके आचार्यों, भट्टारकों एवं उपासकों के बोटिकों की उत्पत्ति-कथा से ही यह स्पष्ट है कि इन्होंने जिनकल्प का सम्बन्ध में हमें जो सूचनायें उपलब्ध होती हैं, उनके दो आधार हैं- एक विच्छेद स्वीकार नहीं किया था और वस्त्र को परिग्रह मानकर मुनि के साहित्यिक उल्लेख और दूसरे अभिलेखीय साक्ष्य । इन साहित्यिक लिए अचेलकता का ही प्रतिपादन किया । शिवभूति द्वारा अपनी बहन उल्लेखों और अभिलेखीय साक्ष्यों में भी अभिलेखीय साक्ष्य अधिक उत्तरा को वस्त्र रखने की अनुमति देना यह भी सूचित करता है कि इस प्रामाणिक कहे जा सकते हैं क्योंकि प्रथम तो वे समकालिक होते हैं, सम्प्रदाय में साध्वियाँ सवस्त्र रहती थीं । इस सम्प्रदाय के तत्कालीन दूसरे इनमें किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना अत्यल्प होती है।
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यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में हमें अनेक अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध भरण-पोषण का भी उल्लेख है । इससे भी यही लगता है कि इस काल होते हैं । इन अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर प्रो० आदि नाथ तक यापनीय मुनि पूर्णतया मठाधीश हो चुके थे और मठों में ही उनके नेमिनाथ उपाध्ये ने 'अनेकान्त वर्ष २८, किरण-१ में यापनीय-संघ के आहार की व्यवस्था होती थी। इसके पश्चात् यापनीय संघ से सम्बन्धित सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है । प्रस्तुत विवेचन का आधार उनका एक अन्य दानपत्र पूर्वी चालुक्यवंशीय 'अम्मराज द्वितीय' का है५१ । वही लेख है किन्तु हमने इन अभिलेखों के मुद्रित रूपों को देखकर इसने कटकाभरण जिनालय के लिए मलियपुण्डी नामक ग्राम दान में अपेक्षित सामग्री को जोड़ा भी है।
दिया था । इस मन्दिर के अधिकारी यापनीय-संघ 'कोटिमडुवगण' यापनीय-संघ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम अभिलेख हमें नन्दिगच्छ के गणधर सदृश मुनिवर जिननन्दी के प्रशिष्य मुनिपुंगव 'कदम्बवंशीय' मृगेशवर्मन् ई० सन् (४७५-४९०) का प्राप्त होता है। दिवाकर के शिष्य जिनसदृश गुणसमुद्र महात्मा श्री मन्दिर देव थे। इस अभिलेख में यापनीय, निम्रन्थ एवं कुर्चकों को भूमिदान का इससे पूर्व के अभिलेख में जहाँ यापनीय नन्दीसंघ ऐसा उल्लेख है, उल्लेख मिलता है। इसी काल के एक अन्य अभिलेख (ई० सन् वहाँ इसमें यापनीय-संघ नन्दीगच्छ ऐसा उल्लेख है। ४९७ से ५३७ के मध्य) दामकीर्ति, जयकीर्ति प्रतीहार, निमित्तज्ञान यापनीय-संघ से ही सम्बन्धित ई० सन् ९८० का चालुक्यवंश पारगामी आचार्य बन्धुसेन और तपोधन शास्त्रागम खिन्न कुमारदत्त का भी एक अभिलेख मिलता है५२ । इस अभिलेख में शान्तिवर्मा द्वारा नामक चार यापनीय आचार्यों एवं मुनियों के उल्लेख है । इसमें निर्मित जैन मन्दिर के लिए भूमिदान का उल्लेख है, इसमें यापनीय-संघ यापनीयों को तपस्वी (यापनीयास्तपस्विनः) तथा सद्धर्ममार्ग में स्थित के काण्डूरगण के कुछ साधुओं के नाम दिये गये हैं यथा - बाहुबलिदेवचन्द्र, (सद्धर्ममार्गस्थित) कहा गया है । आचार्यों के लिए 'सूरि' शब्द का रविचन्द्रस्वामी, अर्हनन्दी, शुभचन्द्र, सिद्धान्तदेव, मौनिदेव और प्रभाचन्द्रदेव प्रयोग हुआ है । इन दोनों अभिलेखों से यह भी सूचना मिलती है कि आदि । इसमें प्रभाचन्द्र को शब्द विद्यागमकमल, षट्तर्काकलङ्क कहा राजा ने मन्दिर की पूजा, सुरक्षा और दैनिक देखभाल के साथ-साथ गया है । ये प्रभाचन्द्र - 'प्रमेय कमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमदचन्द्र' के अष्टाह्रिका महोत्सव एवं यापनीय साधुओं के भरण-पोषण के लिए दान कर्ता प्रभाचन्द्र से भिन्न यापनीय आचार्य शाकटायन के 'शब्दानुशासन' दिया था, इससे यह फलित होता है कि इस काल तक यापनीय-संघ पर 'न्यास' के कर्ता हैं। के मुनियों के आहार के लिए कोई स्वतन्त्र व्यवस्था होने लगी थी और प्रो० पी० बी० देसाई ने अपने ग्रन्थ में सौदत्ति (बेलगाँव) के भिक्षावृत्ति गौण हो रही थी अन्यथा उनके भरण-पोषण हेतु दान दिये एक अभिलेख की चर्चा की है जिसमें यापनीय-संघ के काण्डूरगण के जाने के उल्लेख नहीं होते. । इसके पश्चात् देवगिरि से कदम्बवंश की शुभचन्द्र प्रथम, चन्द्रकीर्ति, शुभचन्द्र द्वितीय, नेमिचन्द्र प्रथम, कुमार दूसरी शाखा के कृष्णवर्मा के (ई० सन् ४७५-४८५) काल का कीर्ति, प्रभाचन्द्र और नेमिचन्द्र द्वितीय के उल्लेख हैं५३ । इसी प्रकार अभिलेख मिलता है, जिसमें उसके पुत्र युवराज देववर्मा द्वारा त्रिपर्वत यापनीय-संघ से सम्बन्धित ई० सन् १०१३ का एक अन्य अभिलेख के ऊपर के कुछ क्षेत्र अर्हन्त भगवान के चैत्यालय की मरम्मत, पूजा 'बेलगाँव' की टोड्डावसदी की नेमिनाथ की प्रतिमा की पादपीठ पर और महिमा के लिए यापनीय संघ को दिये जाने का उल्लेख है ।८ इस मिला है, जिसे यापनीय-संघ के पारिसय्य ने ई० सन् १०१३ में अभिलेख के पश्चात् ३०० वर्षों तक हमें यापनीय-संघ से सम्बन्धित निर्मित करवाया था। इसी प्रकार सन् १०२० ई० के 'रवग' लेख कोई भी अभिलेख उपलब्ध नहीं होता जो अपने आप में एक विचारणीय में प्रख्यात यापनीय-संघ के 'पुत्रागवृक्षमूलगण के प्रसिद्ध उपदेशक तथ्य है । इसके पश्चात् ई० सन् ८१२ का राष्ट्रकूट राजा प्रभूतवर्ष का आचार्य कुमारकीर्ति पण्डितदेव को 'हुविनवागे' की भूमि के दान का एक अभिलेख प्राप्त होता है । इस अभिलेख में यापनीय आचार्य उल्लेख है।५५ ई० सन् १०२८-२९ के हासुर के अभिलेख में कुविलाचार्य के प्रशिष्य एवं विजयकीर्ति के शिष्य अर्ककीर्ति का यापनीय-संघ के गुरु जयकीर्ति को सुपारी के बाग और कुछ घर मन्दिर उल्लेख मिलता है । इस अभिलेख में यापनीय नन्दीसंघ और पुत्रागवृक्ष को दान में देने के उल्लेख हैं ।५६ 'हुली' के दो अभिलेख जो लगभग मूलगण एवं श्री कित्याचार्यान्दय का भी उल्लेख हुआ है । इस ई० सन् १०४४ के हैं उनमें यापनीय-संघ के पुन्नागवृक्ष मूलगण के अभिलेख में यह भी उल्लेख है कि आचार्य अर्ककीर्ति ने शनि के बालचन्द्रदेव भट्टारक७ का तथा दूसरे में रामचन्द्रदेव का उल्लेख है। दुष्प्रभाव से ग्रसित पुलिगिल देश के शासक विमलादित्य का उपचार इसी प्रकार ई० सन् १०४५ के मुगद (मैसूर) लेख में भी यापनीय-संघ किया था। इस अभिलेख से अन्य फलित यह निकलता है कि ईसा की के कुमुदिगण के कुछ आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं - श्रीकीर्ति नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में यापनीय आचार्य न केवल मठाधीश बन गये गोरवडि, प्रभाशशांक, नयवृत्तिनाथ, एकवीर, महावीर, नरेन्द्रकीर्ति थे अपितु वे वैद्यक और यन्त्र-मन्त्र आदि का कार्य भी करने लगे थे। नागविक्कि, वृत्तीन्द्र, निरवद्यकीर्ति, भट्टारक, माधवेन्दु, बालचन्द्र, लगभग ९वीं शताब्दी के एक अन्य अभिलेख में जो कि चिंगलपेठ, रामचन्द्र, मुनिचन्द्र, रविकीर्ति, कुमारकीर्ति, दामनंदि, विद्यगोवर्धन, तमिलनाडु से प्राप्त हुआ है, यापनीय संघ और कुमिलिगण के महावीराचार्य दामनन्दि वड्डाचार्य आदि ।५९ यद्यपि प्रोफेसर उपाध्ये ने इन नामों में से के शिष्य अमरमुदलगुरू का उल्लेख है जिन्होंने देशवल्लभ नामका एक कुछ के सम्बन्ध में कृत्रिमता की सम्भावना व्यक्ति की है किन्तु उनका जिनमन्दिर बनवाया था । इस दानपत्र में यापनीय-संघ के साधुओं के आधार क्या है, यह उन्होंने अपने लेख में स्पष्ट नहीं किया है।
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इसी प्रकार मोरब जिला धारवाड के एक लेख में यापनीय- अभिलेख६९ में उभय सिद्धान्त चक्रवर्ती यापनीय-संघ के कण्डूंरगण के संघ के जय-कीर्तिदेव के शिष्य नागचन्द्र के समाधिमरण का उल्लेख गुरु सकलेन्दु सैद्धान्तिक का उल्लेख है । इसी क्षेत्र के मनोलि जिला है। इसमें नागचन्द्र के शिष्य कनकशक्ति को मन्त्रचूडामणि बताया गया बेलगाँव के एक अभिलेख में यापनीय-संघ के गुरु मुनिचन्द्रदेव के है। सन् १०९६ में त्रिभुवनमल्ल के शासनकाल में यापनीय-संघ के शिष्य पाल्य कीर्ति के समाधिमरण का उल्लेख है- ये पाल्यकीर्ति पुन्नागवृक्ष मूलगण के मुनिचन्द्र विद्य भट्टारक के शिष्य चारुकीर्ति सम्भवत: सुप्रसिद्ध वैयाकरण पाल्यकीर्ति शाकाटायन ही हैं, जिनके पंडित को सोविसेट्टि द्वारा एक उपवन दान दिये जाने का उल्लेख है ।६१ द्वारा लिखित शब्दानुमान एवं उसकी अमोघवृत्ति प्रसिद्ध है । इनके द्वारा इस दानपत्र में यह भी उल्लेख है कि इसे मुनिचन्द्र सिद्धान्तदेव के लिखित स्त्री-निर्वाण और केवली मुक्ति-प्रकरण भी शाकटायन-व्याकरण शिष्य दायियय्य ने लिपिबद्ध किया था। धर्मपुरी जिला बीड़, महाराष्ट्र के साथ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हुए हैं। इससे स्पष्ट है कि ये के एक लेख में यापनीय-संघ और वन्दियूर गण के महावीर पंडित को यापनीय-परम्परा के आचार्य थे । इसी प्रकार १३वीं शदी के हुकेरि कुछ नगरों से विविधकरों द्वारा प्राप्त आय का कुछ भाग भगवान् की जिला बेलगाँव के एक अभिलेख में" कीर्ति का नामोल्लेख मिलता पूजा और साधुओं के भरण-पोषण हेतु दान दिये जाने का उल्लेख है।६२ है। यापनीय-संघ का अन्तिम अभिलेख२ ईसवी सन् १३९४ का इसी प्रकार ११ वीं शताब्दी के एक अन्य अभिलेख में यापनीय-संघ कगवाड जिला बेलगाँव में उपलब्ध हुआ है। यह अभिलेख तलघर में की माइलायान्वय एवं कोरेयगण के देवकीर्ति को गन्धवंशी शिवकुमार स्थित भगवान् नेमिनाथ की पीठिका पर अंकित है। इस पर यापनीयद्वारा जैन-मन्दिर निर्मित करवाने और उसकी व्यवस्था हेतु कुमुदवाड संघ और पुत्रागवृक्षमूलगण के नेमिचन्द्र, धर्मकीर्ति और नागचन्द्र का नामक ग्राम दान में देने का उल्लेख है ।६३ इस अभिलेख में देवकीर्ति उल्लेख हुआ है। के पूर्वज गुरुओं में शुभकीर्ति, जिनचन्द्र, नागचन्द्र, गुणकीर्ति आदि आचार्यों का भी उल्लेख है । इसी प्रकार बल्लाल देव, गणंधरादित्य के यापनीय-संघ के अवान्तर गण और अन्वय समय में ईसवी सन् ११०८ में मूलसंघ पुन्नागवृक्ष मूलगण की आर्यिका अभिलेखीय एवं साहित्यिक आधारों से हमें यापनीय-संघ के रात्रिमती कन्ति की शिष्या बम्मगवुड़ द्वारा मन्दिर बनवाने का उल्लेख अवान्तर गणों और अन्वयों की सूचना मिलती है । इन्द्रनंदि के है । यहाँ मूलसंघ का उल्लेख कुछ भ्रान्ति उत्पन्न करता है, यद्यपि नीतिसार के आधार पर प्रो० उपाध्ये लिखते हैं कि यापनीयों में सिंह, पुन्नागवृक्षमूल गण के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह आर्यिका नन्दि, सेन और देवसंघ आदि नाम से सबसे पहले संघ-व्यवस्था थी, यापनीय-संघ से ही सम्बन्धित थी क्योंकि पुन्नागवृक्षमूलगण यापनीय- बाद में गण, गच्छ आदि की व्यवस्था बनीं । किन्तु अभिलेखीय संघ का ही एक गण था ।
सूचनाओं से यह ज्ञात होता है कि गण ही आगे चलकर संघ में बइलमोंगल जिला बेलगाँव से चालुक्यवंशी त्रिभुवन मल्लदेव परिवर्तित हो गए । कदम्ब- नरेश रविवर्मा के हल्सी अभिलेख में के काल का अभिलेख६५ प्राप्त है इसमें यापनीय-संघ मइलायान्वय यापनीय संघेभ्यः ऐसा बहुवचनात्मक प्रयोग है। इससे यह सिद्ध होता कारेय गण के मूल भट्टारक और जिनदेव सूरि का विशेष रूप से है कि यापनीय-संघ के अन्तर्गत भी कुछ संघ या गण थे । यापनीय संघ उल्लेख है । इसी प्रकार विक्रमादित्य षष्ठ के शासन काल का हूलि के एक अभिलेख में 'यापनीय नन्दीसंघ" ऐसा उल्लेख मिलता है ।७५ जिला बेलगाँव का एक अभिलेख है जिसमें यापनीय-संघ के कण्डूरगण ऐसा प्रतीत होता है कि नंदिसंघ यापनीय परम्परा का ही एक संघ था। के बहुबली शुभचन्द्र, मौनिदेव, माघनंदि आदि आचार्यों का उल्लेख है। कुछ अभिलेखों में यापनीयों के नंदिगच्छ का भी उल्लेख उपलब्ध होता एकसम्बि जिला बेलगाँव से प्राप्त एक अभिलेख में विजयादित्य के है । ६ दिगम्बर-परम्परा के अभिलेखों में गच्छ शब्द का प्रयोग नहीं सेनापति कालण द्वारा निर्मित नेमिनाथ बसति के लिए यापनीय-संघ मिलता, सामान्यतया उनमें संघ, गण और अन्वय के प्रयोग पाये जाते पुत्रागवृक्षमूलगण के महामण्डलाचार्य विजयकीर्ति को भूमिदान दिये हैं। जबकि श्वेताम्बर-परम्परा के अभिलेखों में गण, गच्छ, शाखा, कुल जाने का उल्लेख है । इस अभिलेख में इन विजयकीर्ति की गुरुपरम्परा और संभोग के प्रयोग हुए हैं। यापनीय-संघ के अभिलेखों में भी केवल के रूप में मुनिचन्द्र विजयकीर्ति प्रथम, कुमारकीर्ति और त्रैविध विजयकीर्ति उपर्युक्त अभिलेख में गच्छ शब्द का प्रयोग मिला है। का भी उल्लेख हुआ है।
यापनीयसंघ के जिन गणों, अन्वयों का उल्लेख मिला हैअर्सिकेरे, मैसूर के एक अभिलेख में यापनीय-संघ के उनमें पुन्नागवृक्षमूलगण, कुमिलि अथवा कुमुदिगण मडुवगण, कण्डूरगण, मडुवगण की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है । इस मन्दिर की मूर्ति प्रतिष्ठा या काणूरगण, बन्दियूर गण, कोरेय गण का उल्लेख प्रमुख रूप से पुत्रागवृक्ष-मूलगण और संघ (यापनीय के शिष्य भाणकसेली) द्वारा हुआ है। सामान्यतया यापनीय-संघ से सम्बन्धित अभिलेखों में कराई गई थी । प्रतिष्ठाचार्य यापनीय-संघ के मडुवगण के कुमारकीर्ति अन्वयों का उल्लेख नहीं हुआ है, किन्तु ११वीं शताब्दी के कुछ सिद्धान्त थे । इस अभिलेख में यापनीय शब्द को मिटाकर काष्ठामुख अभिलेखों में कोरेयगण के साथ मइलायान्वय अथवा मैलान्वय के शब्द को जोड़ने की घटना की सूचना भी सम्पादक से मिलती है। उल्लेख मिलते हैं। इनके अतिरिक्त १२वीं शताब्दी में लोकापुर जिला बेलगाँव के एक इन गणों और अन्वयों का अवान्तर भेद किन-किन सैद्धान्तिक
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मतभेदों पर आधारित थे, इसकी हमें कोई प्रामाणिक जानकारी प्राप्त और प्रकाश, अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४४नहीं होती है । इन गणों और अन्वयों की चर्चा के प्रसंग में एक २५३. महत्त्वपूर्ण चर्चा यह है कि कुछ अभिलेखों में यापनीय-नन्दिसंघ ऐसा २. ए. एन. उपाध्ये : जैन सम्प्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और उल्लेख मिला है तो क्या इस आधार पर यह माना जाय कि नंदिसंघ प्रकाश, अनेकान्त वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६. यापनीय-परम्परा से सम्बन्धित था । पुन: नंदिसंघ के कुछ अभिलेखों में ३. जत्ता ते भंते ? जवणिज्ज (ते भंते ?) अव्वाबाहं (ते भंते ?)द्रविड़गण और 'अरुणान्वय' के भी उल्लेख मिलते हैं तो क्या हम यह फासुयविहारं (ते भंते ?)? माने कि द्रविड़ गण और अरुणान्वय का सम्बन्ध भी यापनीय संघ से सोमिला ! जत्ता वि मे, जवणिज्ज पि मे, अव्वा वाहं पि मे, था ? यद्यपि इतना तो निश्चित है कि 'दर्शनसार' में जिन जैनाभासों की फासुयविहारं पि मे भगवई (लाडनूं), १०/२०६-२०७ चर्चा की गई है, उनमें यापनीय और द्रविड़ दोनों को ही सम्मिलित ४. किं ते भंते ! जवणिज्जं ? किया गया है - इसमें यह भी कहा गया है कि द्रविड़ संघ में स्त्रियों सोमिला ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा इंदियजवणिज्जे य, को दीक्षा दी जाती थी इससे यह सम्भावना तो व्यक्ति की ही जा सकती नोइंदियजवणिज्जे य॥ है कि द्रविड़ संघ और यापनीय संघ दोनों स्त्री की प्रव्रज्या के समर्थक से किं तं इंदियजवणिज्जे ? थे और वे मूलसंघीय दिगम्बर-परम्परा जो स्त्री की दीक्षा का निषेध इंदियजवणिज्जे-जं मे सोइंदिय-चक्खिदिय-घाणिंदियकरती थी, से भिन्न थे । इसी कारण उनको जैनाभास कहा गया । जिभिदियफासिंदियाई निरुवहयाई वसे वर्दृति, सेत्तं सम्भावना यही है कि दोनों में पर्याप्त रूप से निकटता थी। प्रो० ढाकी इंदियजवणिज्जे ॥ से किं तं नोइदियजवणिज्जे? को तो मान्यता है कि द्रविड़ संघ का विकास यापनीय नन्दी-संघ से ही नो इंदियजवणिज्जे जं मे कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा नो हुआ होगा ।
उदीरेंति, सेत्तं नोइंदियजवणिज्जे, सेत्तं जवणिज्जे । श्वेताम्बर स्रोतों से यह जानकारी भी मिलती है कि यापनीय
- भगवई (लाडनूं), १०/२०८-२१० परम्परा गोप्य-संघ के नाम से भी जानी जाती थी। हरिभद्र के षड्दर्शन- ५. आयस्मंतं भगु भगवा एतदवोच - “कच्चि, भिक्खु, खमनीयं, समुच्चय की टीका में गुणरत्न लिखते हैं कि नाग्न्य लिंग और पाणिपात्रीय कच्चि यापनीयं, कच्चि पिण्डकेन न किलमसी" ति ? खमनीयं, दिगम्बर चार प्रकार के हैं -
भगवा, यापनीयं, भगवा, न चाहं, भन्ते पिण्डकेन किलमामी" (१) काष्ठा संघ (२) मूलसंघ, (३) माथुर संघ और (४) ति। गोप्य संघ ।
- महावग्गो, १०-४-१६ १. काष्ठा संघ में चमरी गाय के बालों की पिच्छी रखी जाती ६. अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६. है। इसे भी दर्शनसार में जैनाभास कहा गया है । मूलसंघ और गोप्य ७. पूर्वोक्त, अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६ संघ में मयूर-पिच्छी ग्रहण की जाती है । माथुर संघ निष्पिच्छिक है। ८. प्रो. एम. ए. ढाकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर । इनमें प्रथम तीन अर्थात् काष्ठा, मूल और माथुर संघ के साधु बन्दर ९. अ- कालिका प्रसाद : बृहत् हिन्दी कोश (ज्ञानमंडल, वाराणसी) करनेवाले को 'धर्म वृद्धि' कहते हैं तथा स्त्री एवं सवस्त्र की मुक्ति को वि. सं. २००९, पृ. १०६८ स्वीकार नहीं करते । गोप्य-संघ के मुनि वन्दन करने वाले को 'धर्म- (ब) वामन शिवराम आप्टे : संस्कृत-हिन्दी कोश (दिल्ली - १९८४) लाभ' कहते हैं तथा स्त्री मुक्ति और केवली मुक्ति को स्वीकार करते हैं। पृ. ८३४ यह गोप्य-संघ यापनीय-संघ भी कहा जाता है।
१०. वामन शिवराम आप्टे-वही, पृ० ८३४ सन्दर्भ
११. आवश्यकनियुक्ति (हरभिद्रीयवृत्ति) में उपलब्ध मूलभाष्य गाथा, १. a- Indian Antiquary, Vol. VII, p. 34
पृ०२१५-१६ b-H. Luders: E. IV; p338
१२. 'स्त्रीग्रहणं तासामपि तद्भव इव संसारक्षयो भवति इति ज्ञापनार्थc- नाथूराम प्रेमी: जैन हितैषी, XIII पृ० २५०-७५
वच: यथोक्तम् यापनीयतंत्रे" - श्री ललितविस्तरा, पृ० ५७d- A. N. Upadhye : Journal of the University ५८, प्रका० ऋषभदेव केशरीमल संस्थान, रतलाम । of Bombay, 1956, I, VI pp 22ff,
१३. उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य की टीका, पृ०, १८१. e. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास - द्वितीय संस्करण, १४. आवश्यक टीका (हरिभद्र कृत), पृ. ३२३ बम्बई १९५६, पृ० ५६, १५५, ५२१
१५. अ- थेरेहिंतो भद्दजसेहिंतो भारद्दायसगुत्तेहिंतो एत्थ णं उडुवाडियगण f. P.B. Desai : Jainism in South India, pp. 163- नाम गणे निग्गए । कल्पसूत्र (प्राकृतभारती, जयपुर संस्करण) 66 आदि ।
सूत्र, २१३ । g. ए. एन. उपाध्ये : जैन सम्प्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ (ब) थेरेहितो णं कामिड्ढिहितो कुंडलिसगोत्तेहिंतो एत्थ णं वेसवाडियगणे browondwonotonewboramotorditoriuddromidniwodriwood८७ ]idndindiadesisdudwoniuddrd-iridwarorarorobiomewords
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४०.
नाम गणे निग्गये । कल्पसूत्र, सूत्र-२१४
२८. स्थानाङ्ग, ७/१४०-१४२ व संग्रहणी गाथा . १६. देखिये बोडु- हिन्दी-गुजराती कोश (अहमदाबाद-१९६१) पृ. २९. आवश्यक मूलभाष्य, १४५-१४८ ३४८
- उद्धृत आवश्यक नियुक्ति हरिभद्रीय वृत्ति, पृ. २१५-२१६ १७. (अ) प्रो. एम. ए. ढाकी से व्यक्तिगत प्राप्त सूचना पर आधारित ३०. आवश्यक नियुक्ति ७९-७८३
(ब) देखिये बोटवू- हिन्दी-गुजराती कोश, पृ. ३४८ ३१. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका पृ. ३७३ १८. कल्पसूत्र स्थविरावली, २०७-२२४
३२. वही, पृ. ३७२ १९. नन्दीसूत्र (मधुकर मुनि), गाथा, २५-५०
३३. जैनसाहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ. ३७२ २०. पट्टावलीपरागसंग्रह कल्याण विजयगणि के प्रारम्भिक अध्याय ३४. वही, पृ. २७२-२७३ । २१. (अ) समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तित्थसि सत्त पवयणणिण्हगा ३५. आवश्यक मूलभाष्य गाथा, १४५-१४८, उद्धृत आवश्यक नियुक्ति
पण्णत्ता, तं जहा-बहुरता, जीवपएसिया, अवत्तिया, सामुच्छेइया, हरिभद्रीय वृत्ति दोकिरिया, तेरासिया अवद्धिया ।।
३६. जैन शिलालेख-संग्रह, भाग २, अभिलेख सं १०२-१०३ एएसि णं सत्तण्हं पवयणणिण्हगाणं सत्तं मम्मायरिया हुत्था, तं ३७. आवश्यकनियुक्ति हरिभद्रीयवृत्ति, पृष्ठ २१६-२१८ जहा- जमाली, तीसगुत्ते, आसाढे, आसमित्ते, गंगे, छलुए, ३८. Jain Stupas and other Antiquities of Mathuraगोट्ठामाहिले ।। एतेसि णं सत्तण्ह पवयणणिण्हगाणं सत्त उप्पत्तिणगरा V.A. Smith, Plate No. 10,15,17, pp 24.25 हुत्था, तं जहा -
३९. (अ) कल्पसूत्र । स्थानाङ्ग, सत्तम, ठाणं १४०-१४२, पृष्ठ संख्या, ७५३-७५४; (3T) Jain Stupas and other Antiquities of बहुरय जमालिपंभवा जीवपएसस य तीसगुत्ताओ।
Mathura- V.A. Smith, Plate No. 10,15,17, pp अव्वत्ताऽऽसाढाओ' - सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ ॥७७९।।
24.25 गंगाओ दोकरिया छलुगा तेरासियाण उप्पत्ती ।
Annals of theB.O.R.I. XV-III. IV, pp. 198 ff, थेरा य गोट्ठमात्यि पुट्ठमबद्धं परूविंति ॥७८०।।
Poona, 1934; सावत्थी उसन्नपुर सेयविया मिहिल उल्लुगतीरं ।
देखें अनेकान्त, वर्ष २८, किरण१, पृ० १३४ पुरिमंतरंजि दसपुर रतवीरपुरं च नगराइ ।।७८१।। ४१. भद्रबाहुचरित -कोल्हापुर १९२१, IV पृ० १३५-१५४ देखें चोद्दस सोथस वासा चोद्दसवीसुत्तरां य दोण्णि सया।
अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १। अट्ठावीसा य दुवे पंचेव सया उ चोयाला ॥७८२॥ ४२. गोपुच्छिकाः श्वेतावासा: द्राविडो यापनीयकाः । पंथ सया तुलसीया छच्चेव सया ण्वोत्तरा होति ।
नि: पिच्छिकश्चेति पंचैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ॥ णाणुप्पत्तीय दुवे उप्पण्णा णित्वुए सेसा ॥७८३।।
देखें-अनेकान्त, वर्ष २८ किरण. १, पृ० २४६ छब्वाससयाई नवुत्तराई तइया सिद्धिगयस्स वीरस्स । ४३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ३०५४ तो बोडियाण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्पण्णा ।। ४४. पं० बेचरदास दोशी स्मृति ग्रन्थ, सम्पादक : प्रो० एम. ए. ढाकी रहवीरपुरं नयरं दीवगमुज्जाण अज्जकण्हे य।
एवं प्रो० सागरमलजैन । पा. वि. शो० सं० से प्रकाशित, पृ० सिवभुइस्सूवहिमि य पृच्छा थेराण कहणा य ॥
६८-७३ ऊहाए पण्णत्तं बोडियसिवभूइत्तराहि इमं । ४५. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२, लेख क्रमांक ९९. मिच्छादसणमिणमो रहवीरपुरे समुप्पण्णं ॥ ४६. वही, भाग २, लेख क्रमांक ९९ बोडियसिवभूईओ बोडियलिंगस्स होई उप्पत्ती । ४७. वही, भाग२, लेख क्रमांक ९९,१०० कोडिण्ण-कोट्टवीरा . परंपराफासमुप्पण्णा ।। ४८. वही, भाग २, लेख क्रमांक १०५ -आवश्यक मूलभाष्य, १४५-१४८, उद्धृत-आवश्यक नियुक्ति ४९. वही भागर, लेख क्रमांक १२४ हरिभद्रीयवृत्ति, पृ० २१५
५०. वही, भाग ४, लेख क्रमांक ७० २३. पट्टावली परागसंग्रह, कल्याणविजय जी
५१. वही, भाग२, लेख क्रमांक १४३ २४. Jaina Stupas and Other Antiquities of India- ५२. वही, भाग२, लेख क्रमांक १६०
V.A. Smith, Plate No. 10,15,17pp. 24,25 ५३. Jainism in South India and Some Jaina Epi२५. Ibid, pp.24-25.
graphs- Desai P.B. p. 165. २६. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ० ३८५ ५४. देखें -अनेकान्त, वर्ष २८, किरण१, पृ० २४७ २७. (अ) वही, पृ० ३८१ (ब) जैनहितैषी, भाग १३, अंक ९-१० ५५. (अ) Journal of the Bombay Historical Society,
अग
२२.
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III, pp.102-200.
(ब) अनेकान्त, वर्ष २८ किरण १, पृ० २४८ ५६. (अ) वही, पृ० २४८
(ब) South Indian Inscriptions XII No. 65, Ma-
dras 1940. ५७. जैन शिलालेख संग्रह, भाग ४, लेख क्रमांक १३० ५८ वही, ५९ (अ) अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४८
(ब) South Indian Inscriptions, XII No. 65, Ma- dras 1940.
(स) जैन शिलालेख संग्रह, भाग ४, लेखक्रमांक १३१ ६०. वही, भाग ४, लेखक्रमांक १४३ ६१. वही, १६८ ६२. वही, भाग ५, लेखक्रमांक ६९-७० ६३. I.A.XVIII. p. 309, Also see Jainism in South
India P.B. Desai, p. 115 ६४. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेखक्रमांक २५० ६५. Annual Report of South Indian Insciptions.
1951-52, No. 33, p- 12 See also.
अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४८ ६६. जैन शिलालेख संग्रह, भाग ४, लेखक्रमांक २०७ ६७. वही, भाग ४, लेखक्रमांक २५९. ६८. Journal of the Karnatak University, X, 1965,
159,ff. ६९. जैनशिलालेख संग्रह, भाग ५, लेखक्रमांक ११७. ७०. Jainism in South India, P.B. Desai, p. 404 ७१. जैनशिलालेख संग्रह, सं० भाग २, क्रमांक ३८४. ७२. जिनविजय (कन्नड़) बेलगाँव जुलाई १९३१ ७३. अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २५०. ७४. Epigraphia Indian X. No.6; see Ibid., p. 247. ७५. अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४४-४५. ७६. वही, वर्ष २८, किरण १, पृ० २५०. ७७. जैन शिलालेख संग्रह, भाग लेख क्रमांक । ७८. Annals of the B.O.R.I. XV, pp. 198, Poona
1934, ७९. व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर । ८०. दिगम्बरा: पुनर्नाग्न्यलिङ्गाः पाणिपात्राश्च । ते चतुर्धा
काष्ठासङ्घमूलसङ्घ- माथुरसङ्घ-गोप्यसङ्घ-भेदात् । काष्ठासंघे चमरीबालैः पिच्छिका, मूलसङ्के मायूरपिच्छै: पिच्छिका, माथुरसङ्के मूलतोऽपि पिच्छिका नादृता, गोप्या मायूरपिच्छिका। आद्यास्त्रयोऽपि सङ्घावन्द्यमाना धर्म वृद्धिं भणन्ति, स्त्रीणां मुक्तिं केवलिनां भुक्ति सव्रत-स्यापि सचीवरस्य मुक्तिं च न मन्वते, गोप्यस्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति, स्त्रीणां मुक्ति केवलिनां भुक्ति च मन्यन्ते । गोप्या यापनीया इत्यप्युच्यन्ते।। -षडदर्शनसमुच्चय-हरिभद्रसूरि, कारिका ४४: २ गुणरत्न टीका
aniraniraniranoramironironironiromidnironiromorroriM८९ ]ironoriandiritonitoriwariwaririwarooriwariwarikdrowond
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समदर्शी आचार्य हरिभद्र
आचार्य हरिभद्र जैनधर्म के प्रखर प्रतिभासम्पन्न एवं बहुश्रुत घृणा एवं विद्वेष की उन विषम परिस्थितियों में भी समभाव, सत्यनिष्ठा, आचार्य माने जाते हैं । उन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा विपुल एवं उदारता, समन्वयशीलता और सहिष्णुता का परिचय दिया । यहाँ यह बहुआयामी साहित्य का सृजन किया है । उन्होंने दर्शन, धर्म, योग, अवश्य कहा जा सकता है कि समन्वयशीलता और उदारता के गुण उन्हें आचार, उपदेश, व्यंग्य और चरित-काव्य आदि विविध विधाओं के जैन-दर्शन की अनेकान्त दृष्टि के रूप में विरासत में मिले थे, फिर भी . ग्रन्थों की रचना की है । मौलिक साहित्य के साथ-साथ उनका टीका- उन्होंने अपने जीवन-व्यवहार और साहित्य-सृजन में इन गुणों को जिस साहित्य भी विपुल है । जैन धर्म में योग सम्बन्धी साहित्य के तो वे आदि शालीनता के साथ आत्मसात् किया था वैसे उदाहरण स्वयं जैन-परम्परा प्रणेता हैं। इसी प्रकार आगमिक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में टीका करने में भी विरल ही हैं। वाले जैन-परम्परा में वे प्रथम टीकाकार भी हैं । उनके पूर्व तक आगमों आचार्य हरिभद्र का अवदान धर्म-दर्शन, साहित्य और समाज पर जो नियुक्ति और भाष्य लिखे गये थे वे मूलत: प्राकृत भाषा में ही के क्षेत्र में कितना महत्त्वपूर्ण है इसकी चर्चा करने के पूर्व यह आवश्यक थे । भाष्यों पर आगमिक व्यवस्था के रूप में जो चूर्णियाँ लिखी गयी है कि हम उनके जीवनवृत्त और युगीन परिवेश के सम्बन्ध में कुछ
थीं वे भी संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा में लिखी गयीं । विशुद्ध संस्कृत विस्तार से चर्चा कर लें। ..' भाषा में आगमिक ग्रन्थों की टीका लेखन का सूत्रपात तो हरिभद्र ने ही किया। भाषा की दृष्टि से उनके ग्रन्थ संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं जीवनवृत्त में मिलते हैं । अनुश्रुति तो यह है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थों की रचना यद्यपि आचार्य हरिभद्र ने उदार दृष्टि से विपुल साहित्य का की थी किन्तु वर्तमान में हमें उनके नाम चढ़े पर हुए लगभग ७५ ग्रन्थ सृजन किया, किन्तु अपने सम्बन्ध में जानकारी देने के सम्बन्ध में वे उपलब्ध होते हैं । यद्यपि विद्वानों की यह मान्यता है कि इनमें से कुछ अनुदार या संकोची ही रहे । प्राचीन काल के अन्य आचार्यों के समान ग्रन्थ वस्तुत: याकिनीसूनु हरिभद्र की कृति न होकर किन्हीं दूसरे हरिभद्र ही उन्होंने भी अपने सम्बन्ध में स्वयं कहीं कुछ नहीं लिखा । उन्होंने ग्रन्थनामक आचार्यों की कृतियाँ हैं । पंडित सुखलालजी ने इनमें से लगभग प्रशस्तियों में जो कुछ संकेत दिए हैं उनसे मात्र इतना ही ज्ञात होता है ४५ ग्रन्थों को तो निर्विवाद रूप से उनकी कृति स्वीकार किया है क्योंकि कि वे जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा के 'विद्याधर कुल' से सम्बन्धित इनमें 'भव-विरह' ऐसे उपनाम का प्रयोग उपलब्ध है। इनमें भी यदि हम थे। इन्हें महत्तरा याकिनी नामक साध्वी की प्रेरणा से जैनधर्म का बोध अष्टक-प्रकरण के प्रत्येक अष्टक को, षोडशकप्रकरण के प्रत्येक षोडशक प्राप्त हुआ था, अत: उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में अपने आपको को, विशिकाओं में प्रत्येक विंशिका को तथा पश्चाशक में प्रत्येक 'याकिनीसूनु' के रूप में प्रस्तुत किया है, साथ ही अपने ग्रन्थों में अपने पनाशक को स्वतन्त्र ग्रन्थ मान लें तो यह संख्या लगभग २०० के उपनाम 'भवविरह' का संकेत किया है । कुवलयमाला में उद्योतनसूरि ने समीप पहुँच जाती है । इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य हरिभद्र एक भी इनका इसी उपनाम के साथ स्मरण किया है। जिन ग्रन्थों में इन्होंने प्रखर प्रतिभा के धनी आचार्य थे और साहित्य की प्रत्येक विधा को अपने इस 'भवविरह' उपनाम का संकेत किया है वे ग्रन्थ निम्न हैं - उन्होंने अपनी रचनाओं से समृद्ध किया था।
अष्टक, षोडशक, पञ्चाशक, धर्मबिन्दु, ललितविस्तरा, प्रतिभाशाली और विद्वान् होना वस्तुत: तभी सार्थक होता है शास्त्रवार्तासमुच्चय, पञ्चवस्तुटीका, अनेकान्तजयपताका, योगबिन्दु, जब व्यक्ति में सत्यनिष्ठा और सहिष्णुता हो । आचार्य हरिभद्र उस युग संसारदावानलस्तुति, उपदेशपद, धर्मसंग्रहणी और सम्बोध-प्रकरण। के विचारक हैं जब भारतीय चिन्तन में और विशेषकर दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र के सम्बन्ध में उनके इन ग्रन्थों से इससे अधिक या विशेष सूचना वाक्-छल और खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति बलवती बन गयी थी। प्रत्येक उपलब्ध नहीं होती। दार्शनिक स्वपक्ष के मण्डन एवं परपक्ष के खण्डन में ही अपना आचार्य हरिभद्र के जीवन के विषय में उल्लेख करने वाला बुद्धिकौशल मान रहा था । मात्र यही नहीं, दर्शन के साथ-साथ धर्म के सबसे प्राचीन ग्रन्थ भद्रेश्वर की कहावली है । इस ग्रन्थ में उनके जन्मक्षेत्र में भी पारस्परिक विद्वेष और घृणा अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुकी स्थान का नाम बंभपुनी उल्लिखित है किन्तु अन्य ग्रन्थों में उनका थी । स्वयं आचार्य हरिभद्र को भी इस विद्वेष-भावना के कारण अपने जन्मस्थान चित्तौड़ (चित्रकूट) माना गया है । सम्भावना है कि ब्रह्मपुरी दो शिष्यों की बलि देनी पड़ी थी। हरिभद्र की महानता और धर्म एवं चित्तौड़ का कोई उपनगर या कस्बा रहा होगा । कहावली के अनुसार दर्शन के क्षेत्र में उनके अवदान का सम्यक् मूल्यांकन तो उनके युग की इनके पिता का नाम शंकर भट्ट और माता का नाम गंगा था । पं० इन विषम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है । आचार्य सुखलाल जी का कथन है कि पिता के नाम के साथ भट्ट शब्द सूचित हरिभद्र की महानता तो इसी में निहित है कि उन्होंने शुष्क वाग्जाल तथा करता है कि वे जाति से ब्राह्मण थे। ब्रह्मपुरी में उनका निवास भी उनके
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ब्राह्मण होने के अनुमान की पुष्टि करता है । गणधरसार्धशतक और अन्य भवविरह का इच्छुक कहते हों । यह भी सम्भव है कि अपने प्रिय शिष्यों ग्रन्थों में उन्हें स्पष्टरूप से ब्राह्मण कहा गया है । धर्म और दर्शन की अन्य के विरह की स्मृति में उन्होंने यह उपनाम धारण किया हो। पं० परम्पराओं के सन्दर्भ में उनके ज्ञान-गाम्भीर्य से भी इस बात की पष्टि होती सुखलालजी ने इस सम्बन्ध में निम्न तीन घटनाओं का संकेत किया हैहै कि उनका जन्म और शिक्षा-दीक्षा ब्राह्मण कुल में ही हुई होगी।
(१) धर्मस्वीकार का प्रसंग (२) शिष्यों के वियोग का प्रसंग कहा यह जाता है कि उन्हें अपने पाण्डित्य पर गर्व था और और (३) याचकों को दिये जाने वाले आशीर्वाद का प्रसंग तथा उनके अपनी विद्वत्ता के इस अभिमान में आकर ही उन्होंने यह प्रतिज्ञा कर ली द्वारा भवविरहसूरि चिरंजीवी हो कहे जाने का प्रसंग । इस तीसरे प्रसंग थी कि जिसका कहा हुआ समझ नही पाऊँगा उसी का शिष्य हो जाऊँगा। का निर्देश कहावली में है । जैन अनुश्रुतियों में यह माना जाता है कि एक बार वे जब रात्रि में अपने घर लौट रहे थे तब उन्होंने एक वृद्धा साध्वी के मुख से प्राकृत की निम्न हरिभद्र का समय गाथा सुनी जिसका अर्थ वे नहीं समझ सके
हरिभद्र के समय के सम्बन्ध में अनेक अवधारणाएँ प्रचलित चक्कीदुर्ग हरिपणगं पणगं चक्की केसवो चक्की । हैं। अंचलगच्छीय आचार्य मेरुतुंग ने 'विचार- श्रेणी' में हरिभद्र के केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ ।। स्वर्गवास के सन्दर्भ में निम्न प्राचीन गाथा को उद्धृत किया है -
- आवश्यकनियुक्ति, ४२१ पंचसए पणसीए विक्कम कालाउ झत्ति अस्थिमओ । अपनी जिज्ञासुवृत्ति के कारण वे उस गाथा का अर्थ जानने के हरिभद्रसूरी भवियाणं दिसउ कल्लाणं ।। लिए साध्वीजी के पास गये । साध्वीजी ने उन्हें अपने गुरु आचार्य उक्त गाथा के अनुसार हरिभद्र का स्वर्गवास वि० सं० ५८५ जिनदत्तसूरि के पास भेज दिया । आचार्य जिनदत्तसूरि ने उन्हें धर्म के दो में हुआ। इसी गाथा के आधार पर प्रद्युम्नसूरि ने अपने विचारसारप्रकरण' भेद बताए - (१) सकामधर्म और (२) निष्कामधर्म । साथ ही यह भी एवं समयसुन्दरगणि ने स्वसंगृहीत 'गाथासहस्री' में हरिभद्र का स्वर्गवास बताया कि निष्काम या निस्पृह धर्म का पालन करने वाला ही 'भवविरह' वि० सं० ५८५ में माना है । इसी आधार पर मुनि श्रीकल्याणविजयजी अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है। ऐसा लगता है कि प्राकृत भाषा और ने 'धर्म-संग्रहणी' की अपनी संस्कृत प्रस्तावना में हरिभद्र का सत्ता-समय उसकी विपुल साहित्य-सम्पदा ने आचार्य हरिभद्र को जैन धर्म के प्रति वि० सं० की छठी शताब्दी स्थापित किया है। आकर्षित किया हो और आचार्य द्वारा यह बताए जाने पर कि जैन-साहित्य कुलमण्डनसूरि ने 'विचारअमृतसंग्रह' में और धर्मसागर उपाध्याय के तलस्पर्शी अध्ययन के लिये जैन मुनि की दीक्षा अपेक्षित है, अतः ने तपागच्छगुर्वावली में वीर-निर्वाण-संवत् १०५५ में हरिभद्र का समय वे उसमें दीक्षित हो गए। वस्तुत: एक राजपुरोहित के घर में जन्म लेने निरूपित किया है - के कारण वे संस्कृत व्याकरण, साहित्य, वेद, उपनिषद्, धर्मशास्त्र, पणपन्नदससएहिं हरिसूरि आसि तत्थ पुवकई । दर्शन और ज्योतिष के ज्ञाता तो थे ही, जैन-परम्परा से जुड़ने पर उन्होंने परम्परागत धारणा के अनुसार वी० नि० के ४७० वर्ष पश्चात् जैन-साहित्य का भी गम्भीर अध्ययन किया । भात्र यही नहीं, उन्होंने अपने वि० सं० का प्रारम्भ मानने से (४७०+५८५ = १०५५) यह तिथि इस अध्ययन को पूर्व अध्ययन से परिपुष्ट और समन्वित भी किया। उनके पूर्वोक्त गाथा के अनुरूप ही वि० सं० ५८५ में हरिभद्र का स्वर्गवास ग्रन्थ योगसमुच्चय, योगदृष्टि, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि इस बात का निरूपित करती है । स्पष्ट प्रमाण हैं कि उन्होंने अपनी पारिवारिक परम्परा से प्राप्त ज्ञान और
आचार्य हरिभद्र का स्वर्गवास वि० सं० की छठी शताब्दी के जैन-परम्परा में दीक्षित होकर अर्जित किए ज्ञान को एक दूसरे का पुरक उत्तरार्ध में हुआ, इसका समर्थन निम्न दो प्रमाण करते हैं - बनाकर ही इन ग्रन्थों की रचना की है। हरिभद्र को जैनधर्म की ओर (१) तपागच्छ-गुर्वावली में मुनिसुन्दरसूरि ने हरिभद्रसूरि को
आकर्षित करने वाली जैन साध्वी महत्तरा याकिनी थी, अत: अपना धर्म- मानदेवसूरि द्वितीय का मित्र बताया है जिनका समय विक्रम की छठी • ऋण चुकाने के लिये उन्होंने अपने को महत्तरा याकिनीसन अर्थात शताब्दी माना जाता है । अत: यह उल्लेख पूर्व गाथोक्त समय से अपनी याकिनी का धर्मपुत्र घोषित किया । उन्होंने अपनी रचनाओं में अनेकशः संगति रखता है। अपने साथ इस विशेषण का उल्लेख किया है । हरिभद्र के उपनाम के (२) इस गाथोक्त समय के पक्ष में दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण रूप में दूसरा विशेषण ‘भवविरह' है। उन्होंने अपनी अनेक रचनाओं साक्ष्य हरिभद्र का 'धूर्ताख्यान' है जिसकी चर्चा मुनि जिनविजयजी ने में इस उपनाम का निर्देश किया है । विवेच्य ग्रन्थ पञ्चाशक के अन्त में 'हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' (पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, १९८८) हमें 'भवविरह' शब्द मिलता है । अपने नाम के साथ यह भवविरह में नहीं की थी । सम्भवत: उन्हें निशीथचूर्णि में धूर्ताख्यान का उल्लेख विशेषण लगाने का क्या कारण रहा होगा, यह कहना तो कठिन है, फिर सम्बन्धी यह तथ्य ज्ञात नहीं था । यह तथ्य मुझे 'धूर्ताख्यान' में मूलभी इस विशेषण का सम्बन्ध उनके जीवन की तीन घटनाओं से जोड़ा स्रोत की खोज करते समय उपलब्ध हुआ है । धूर्ताख्यान के समीक्षात्मक जाता है । सर्वप्रथम आचार्य जिनदत्त ने उन्हें भवविरह अर्थात् मोक्ष प्राप्त अध्ययन में प्रोफेसर ए० एन० उपाध्ये ने हरिभद्र के प्राकृत धूर्ताख्यान करने की प्रेरणा दी, अत: सम्भव है उनकी स्मति में वे अपने को का संघतिलक के संस्कृत धूर्ताख्यान पर और अज्ञातकृत मरुगुर्जर में
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निबद्ध धूर्ताख्यान पर प्रभाव की चर्चा की है। इस प्रकार उन्होंने (महाभारत) और रामायण का उल्लेख करते हैं । हरिभद्र ने तो एक स्थान धूर्ताख्यान को हरिभद्र की मौलिक रचना माना है । यदि धूर्ताख्यान की पर विष्णुपुराण, महाभारत के अरण्यपर्व और अर्थशास्त्र का भी उल्लेख कथा का निबन्धन हरिभद्र ने स्वयं अपनी स्वप्रसूत कल्पना से किया है किया है, अत: निश्चित ही यह आख्यान इनकी रचना के बाद ही रचा तो वे निश्चित ही निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि के लेखन-काल से गया होगा । उपलब्ध आगमों में अनुयोगद्वार महाभारत और रामायण पूर्ववर्ती हैं। क्योंकि इन दोनों ग्रन्थों में यह कथा उपलब्ध है । भाष्य में का उल्लेख करता है । अनुयोगद्वार की विषयवस्तु के अवलोकन से इस कथा का सन्दर्भ निम्न रूप में उपलब्ध होता है -
ऐसा लगता है कि अपने अन्तिम रूप में वह लगभग पाँचवीं शती ससएलासाढ- मूलदेव, खण्डा य जुण्णउज्जाणे । की रचना है । धूर्ताख्यान में 'भारत' नाम आता है, 'महाभारत' नहीं। सामत्यणे को भत्तं, अक्खात जो ण सद्दहति ।। अतः इतना निश्चित है कि धूर्ताख्यान के कथानक के आद्यस्रोत की चोरभया गावीओ, पोट्टलए बंधिऊण आणेमि । पूर्व सीमा ईसा की चौथी या पाँचवीं शती से आगे नहीं जा सकती। तिलअइरूढकुहाडे, वणगय मलणा य तेल्लोदा ।। पुनः निशीथभाष्य और निशीथचूर्णी में उल्लेख होने से धूर्ताख्यान वणगयपाटण कुंडिय, छम्मास हत्थिलग्गणं पुच्छे । के आद्यस्रोत की अपर-अन्तिम सीमा छठी-सातवीं शती के पश्चात् रायरयग मो वादे, जहि पेच्छइ ते इमे वत्था ।। नहीं हो सकती । इन ग्रन्थों का रचनाकाल ईसा की सातवीं शती का
भाष्य की उपर्युक्त गाथाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उत्तरार्ध हो सकता है । अत: धूर्ताख्यान का आद्यस्रोत ईसा की पाँचवीं भाष्यकार को सम्पूर्ण कथानक जो कि चूर्णि और हरिभद्र के धूर्ताख्यान से सातवीं शती के बीच का है। में है, पूरी तरह ज्ञात है, वे मृषावाद के उदाहरण के रूप में इसे प्रस्तुत करते यद्यपि प्रमाणाभाव में निश्चितरूप से कुछ कहना कठिन है, किन्तु हैं । अत: यह स्पष्ट है कि सन्दर्भ देने वाला ग्रन्थ उस आख्यान का एक कल्पना यह भी की जा सकती है कि हरिभद्र की गुरु-परम्परा जिनभद्र आद्यस्रोत नहीं हो सकता । भाष्यों में जिस प्रकार आगमिक अन्य आख्यान और जिनदास की हो, आगे कहीं भ्रान्तिवश जिनभद्र का जिनभट और सन्दर्भ रूप में आये हैं, उसी प्रकार यह आख्यान भी आया है । अत: यह जिनदास का जिनदत्त हो गया हो, क्योंकि '६' और 'ट्ट' के लेखन में और निश्चित है कि यह आख्यान भाष्य से पूर्ववर्ती है। चूर्णि तो स्वयं भाष्य पर 'त' और 'स' के लेखन में हस्तप्रतों में बहुत ही कम अन्तर रहता है। पुनः टीका है और उसमें उन्हीं भाष्य गाथाओं की व्याख्या के रूप में लगभग तीन हरिभद्र जैसे प्रतिभाशाली शिष्य का गुरु भी प्रतिभाशाली होना चाहिए, जब पृष्ठों में यह आख्यान आया है, अत: यह भी निश्चित है कि चूर्णि भी इस कि हरिभद्र के पूर्व जिनभट्ट और जिनदत्त के होने के अन्यत्र कोई संकेत नहीं आख्यान का मूलस्रोत नहीं है। पुन: चूर्णि के इस आख्यान के अन्त में स्पष्ट मिलते हैं। हो सकता है कि धूर्ताख्यान हरिभद्र की युवावस्था की रचना हो लिखा है- “सेसं धुत्तवखाणगाहाणुसारेण" (पृ०१०५) । अत: निशीथभाष्य और उसका उपयोग उनके गुरुबन्धु सिद्धसेन क्षमाश्रमण (छठी शती) ने
और चूर्णि इस आख्यान के आदि स्रोत नहीं माने जा सकते । किन्तु हमें अपने निशीथभाष्य में तथा उनके गुरु जिनदासगणि महत्तर ने निशीथचूर्णि निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि से पूर्व रचित किसी ऐसे ग्रन्थ की कोई में किया हो । धूर्ताख्यान को देखने से स्पष्ट रूप से यह लगता है कि यह जानकारी नहीं है जिसमें यह आख्यान आया हो ।
हरिभद्र के युवाकाल की रचना है क्योंकि उसमें उनकी जो व्यंग्यात्मक शैली जब तक अन्य किसी आदिस्रोत के सम्बन्ध में कोई जानकारी है, वह उनके परवर्ती ग्रन्थों में नहीं पायी जाती। हरिभद्र जिनभद्र एवं नहीं है, तब तक हरिभद्र के धूर्ताख्यान को लेखक की स्वकल्पनाप्रसूत जिनदास की परम्परा में हुए हो, यह मात्र मेरी कल्पना नहीं है। डॉ. हर्मन मौलिक रचना क्यों नहीं माना जाये ! किन्तु ऐसा मानने पर भाष्यकार जैकोबी और अन्य कुछ विद्वानों ने भी हरिभद्र के गुरु का नाम जिनभद्र माना और चूर्णिकार, इन दोनों से ही हरिभद्र को पूर्ववर्ती मानना होगा और इस है । यद्यपि मुनि श्री जिनविजयी ने इसे उनकी भ्रान्ति ही माना है । सम्बन्ध में विद्वानों की जो अभी तक अवधारणा बनी हुई है वह खण्डित वास्तविकता जो भी हो, किन्तु यदि हम धूर्ताख्यान को हरिभद्र की मौलिक हो जायेगी। यद्यपि उपलब्ध सभी पट्टावलियों तथा उनके ग्रन्थ लघुक्षेत्रसमास रचना मानते हैं तो उन्हें जिनभद्र (लगभग शक संवत् ५३०) और सिद्धसेन की वृत्ति में हरिभद्र का स्वर्गवास वीर-निर्वाण संवत् १०५५ या विक्रम क्षमाश्रमण (लगभग शक संवत् ५५०) तथा उनके शिष्य जिनदासगणि संवत् ५८५ तथा तदनुरूप ईसवी सन् ५२९ में माना जाता है। किन्तु महत्तर (शक संवत् ५९८ या वि० सं०७३३) के पूर्ववर्ती या कम से कम पट्टावलियों में उन्हें विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्र एवं जिनदास समकालिक तो मानना ही होगा। का पूर्ववर्ती भी माना गया है । अब हमारे सामने दो ही विकल्प हैं या
यदि हम हरिभद्र को सिद्धसेन क्षमाश्रमण एवं जिनदासगणि महत्तर तो पट्टावलियों के अनुसार हरिभद्र को जिनभद्र और जिनदास के पूर्व का पूर्ववर्ती मानते हैं तब तो उनका समय विक्रम संवत् ५८५ माना जा मानकर उनकी कृतियों पर विशेषरूप से जिनदास महत्तर पर हरिभद्र का सकता है । मुनि जयसुन्दर विजयजी शास्त्रवार्तासमुच्चय की भूमिका में उक्त प्रभाव सिद्ध करें या फिर धूर्ताख्यान के मूलस्रोत को अन्य किसी पूर्ववर्ती तिथि का समर्थन करते हुए लिखते हैं - प्राचीन अनेक ग्रन्थकारों ने श्री रचना या लोक-परम्परा में खोजें । यह तो स्पष्ट है कि धूर्ताख्यान चाहे हरिभद्रसूरि को ५८५ वि० सं० में होना बताया है। इतना ही नहीं, किन्तु वह निशीथचूर्णि का हो या हरिभद्र का, स्पष्ट ही पौराणिक युग के पूर्व श्री हरिभद्रसूरि ने स्वयं भी अपने समय का उल्लेख संवत् तिथि-वार-मास की रचना नहीं है। क्योंकि वे दोनों ही सामान्यतया श्रुति, पुराण, भारत और नक्षत्र के साथ लघुक्षेत्रसमास की वृत्ति में किया है, जिस वृत्ति की
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ताड़पत्रीय जैसलमेर की प्रति का परिचय मुनि श्री पुण्यविजय-सम्पादित हरिभद्र के ग्रन्थों में मिलते हैं । इनमें सबसे पूर्ववर्ती जिनभद्र का सत्ता'जैसलमेर कलेक्शन' पृष्ठ ६८ में इस प्रकार प्राप्य है : “क्रमांक १९६, समय भी शक संवत् ५३० अर्थात् विक्रम संवत् ६६५ के लगभग जम्बू द्वीपक्षेत्रसमासवृत्ति, पत्र २६, भाषा, प्राकृत-संस्कृत, कर्ता : हरिभद्र है। अत: हरिभद्र के स्वर्गवास का समय विक्रम संवत् ५८५ किसी आचार्य, प्रतिलिपि ले० सं० अनुमानत: १४वीं शताब्दी ।" भी स्थिति में प्रामाणिक सिद्ध नहीं होता। इस प्रति के अन्त में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है -
हरिभद्र को जिनभद्रगणि, सिद्धसेनगणि और जिनदासमहत्तर इति क्षेत्रसमासवृत्तिः समाप्ता ।
का समकालिक मानने पर पूर्वोक्त गाथा के वि० सं० ५८५ को शक विरचिता श्री हरिभद्राचार्यैः ।।छ।।
संवत् मानना होगा और इस आधार पर हरिभद्र का समय ईसा की सातवीं लघुक्षेत्रसमासस्य वृत्तिरेषा समासतः ।
शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध होता है । हरिभद्र की कृति दशवैकालिकवृत्ति रचिताबुधबोधार्थ श्री हरिभद्रसूरिभिः ।।१।।
में विशेषावश्यकभाष्य की अनेक गाथाओं का उल्लेख यही स्पष्ट करता पञ्चाशितिकवर्षे विक्रमतो बज्रति शुक्लपञ्चम्याम् । है कि हरिभद्र का सत्ता-समय विशेषावश्यकभाष्य के पश्चात् ही होगा । शुक्रस्य शुक्रवारे शस्ये पुष्ये च नक्षत्रे ।।२।।
भाष्य का रचनाकाल शक संवत् ५३१ या उसके कुछ पूर्व का है । अत: ___ ठीक इसी प्रकार का उल्लेख अहमदाबाद, संवेगी उपाश्रय के यदि उपर्युक्त गाथा के ५८५ को शक संवत् मान लिया जाय तो दोनों हस्तलिखित भण्डार की सम्भवतः पन्द्रहवीं शताब्दी में लिखी हुई क्षेत्र में संगति बैठ सकती है । पुन: हरिभद्र की कृतियों में नन्दीचूर्णि से भी समास की कागज की एक प्रति में उपलब्ध होता है ।
कुछ पाठ अवतरित हुए हैं । नन्दीचूर्णि के कर्ता जिनदासगणिमहत्तर ने दूसरी गाथा में स्पष्ट शब्दों में श्री हरिभद्रसूरि ने लघुक्षेत्रमास- उसका रचना-काल शक संवत् ५९८ बताया है । अत: हरिभद्र का सत्ता वृत्ति का रचनाकाल वि० सं० (५) ८५, पुष्यनक्षत्र शुक्र (ज्येष्ठ) मास, समय शक संवत् ५९८ तदनुसार ई. सन् ६७६ के बाद ही हो सकता शुक्रवार-शुक्लपञ्चमी बताया है । यद्यपि यहाँ वि० सं० ८५ का उल्लेख है। यदि हम हरिभद्र के काल सम्बन्धी पूर्वोक्त गाथा के विक्रम संवत् है । तथापि जिन वार-तिथि-मास-नक्षत्र का यह उल्लेख है उनसे वि० को शक संवत् मानकर उनका काल ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध सं० ५८५ का ही मेल बैठता है । अहमदाबाद वेधशाला के प्राचीन एवं आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माने तो नन्दीचूर्णि के अवतरणों की ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष श्री हिम्मतराम जानी ने ज्योतिष और गणित संगति बैठाने में मात्र २०-२५ वर्ष का ही अन्तर रह जाता है । अत: के आधार पर जाँच करके यह बताया है कि उपर्युक्त गाथा में जिन वार- इतना निश्चित है कि हरिभद्र का काल विक्रम की सातवीं/आठवीं अथवा तिथि इत्यादि का उल्लेख है, बड़ वि० सं० ५८५ के अनुसार बिलकुल ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी ही सिद्ध होगा। ठीक है, ज्योतिषशास्त्र के गणितानुसार प्रामाणिक है।
___ इससे हरिभद्र की कृतियों में उल्लिखित कुमारिल, भर्तृहरि, इस प्रकार श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने स्वयं ही अपने समय की धर्मकीर्ति, वृद्धधर्मोत्तर आदि से उनकी समकालिकता मानने में भी कोई अत्यन्त प्रामाणिक सूचना दे रखी है, तब उससे बढ़कर और क्या प्रमाण बाधा नहीं आती । हरिभद्र ने जिनभद्र और जिनदास के जो उल्लेख किये हो सकता है जो उनके इस समय की सिद्धि में बाधा डाल सके ? शंका हैं और हरिभद्र की कृतियों में इनके जो अवतरण मिलते हैं उनमें भी इस हो सकती है कि 'यह गाथा किसी अन्य ने प्रक्षिप्त की होगी' किन्तु वह तिथि को मानने पर कोई बाधा नहीं आती। अत: विद्वानों को जिनविजयजी ठीक नहीं, क्योंकि प्रक्षेप करने वाला केवल संवत् का उल्लेख कर के निर्णय को मान्य करना होगा। सकता है किन्तु उसके साथ प्रामाणिक वार-तिथि आदि का उल्लेख नहीं पुनः यदि हम यह मान लेते हैं कि निशीथचूर्णि में उल्लिखित कर सकता । हाँ, यदि धर्मकीर्ति आदि का समय इस समय में बाधा प्राकृत धूर्ताख्यान किसी पूर्वाचार्य की कृति थी और उसके आधार पर ही उत्पन्न कर रहा हो तो धर्मकीर्ति आदि के समयोल्लेख के आधार पर श्री हरिभद्र ने अपने प्राकृत धूर्ताख्यान की रचना की तो ऐसी स्थिति में हरिभद्रसूरि को विक्रम की छठी शताब्दी से खींचकर आठवीं शताब्दी के हरिभद्र के समय को निशीथचूर्णि के रचनाकाल ईसवी सन् ६७६ से आगे उत्तरार्ध में ले जाने की अपेक्षा उचित यह है कि श्री हरिभद्रसूरि के इस लाया जा सकता है । मुनि श्री जिनविजयजी ने अनेक आन्तर और बाह्य अत्यन्त प्रामाणिक समय-उल्लेख के बल से धर्मकीर्ति आदि को ही छठी साक्ष्यों के आधार पर अपने ग्रन्थ 'हरिभद्रसूरि का समय-निर्णय' में हरिभद्र शताब्दी के पूर्वार्ध या उत्तरार्ध में ले जाया जाय ।
के समय को ई० सन् ७००-७७० स्थापित किया है। यदि पूर्वोक्त गाथा किन्तु मुनि श्रीजयसुन्दरविजयजी की उपर्युक्त सूचना के के अनुसार हरिभद्र का समय विक्रम सं० ५८५ मानते हैं तो जिनविजयजी अनुसार जम्बूद्वीप क्षेत्र समासवृत्ति का रचनाकाल है । पुनः इसमें मात्र द्वारा निर्धारित समय और गाथोक्त समय में लगभग २०० वर्षों का अन्तर ८५ का उल्लेख है, ५८५ का नहीं । इत्सिंग आदि का समय तो रह जाता है। जो उचित नहीं लगता है । अत: इसे शक संवत् मानना सुनिश्चित है । पुनः समस्या न केवल धर्मकीर्ति आदि के समय की है, उचित होगा। इसी क्रम में मुनि जिनविजयजी ने 'चतुर्थस्तुतिनिर्णयशंकोद्धार' अपितु जैन-परम्परा के सुनिश्चित समयवाले जिनभद्र, सिद्धसेनक्षमाश्रमण में 'रत्नसंचयप्रकरण' को निम्न गाथा का उल्लेख किया है - एवं जिनदासगणि महत्तर की भी है- इनमें से कोई भी विक्रम संवत् पणपण्णबारससए हरिभद्दोसूरि आसि पुव्वकाए । ५८५ से पूर्ववर्ती नहीं है जबकि इनके नामोल्लेख सहित ग्रन्थावतरण इस गाथा के आधार पर हरिभद्र का समय वीर-निर्वाण संवत
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CI
१२५५ अर्थात् वि० [सं० ७८५ या ईसवी सन् ७२८ आता है। इस गाथा में उनके स्वर्गवास का उल्लेख नहीं है, अतः इसे उनका सत्ता समय माना जा सकता है । यद्यपि उक्त गाथा की पुष्टि हेतु हमें अन्य कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। यदि हम इसी प्रसंग में वीर निर्वाण संवत् के सम्बन्ध में चली आ रही ६० वर्ष की भूल को संशोधित कर वीर निर्वाण को वि० पू० ४१० या ई० पू० ४६७ मानते हैं जैसा कि मैंने अपने एक निबन्ध (देखें: सागर जैन-विद्या भारती, भाग १ ) में सिद्ध किया है, तो ऐसी स्थिति में हरिभद्र का स्वर्गवास काल १२५५-४६७ = ७८८ ई० सिद्ध हो जाता है और यह काल जिनविजयजी द्वारा निर्धारित हरिभद्र के सत्तासमय ईसवी सन् ७०० से ७७० के अधिक निकट है।
हरिभद्र, अकलंक और सिद्धर्षि से पूर्ववर्ती हैं। अकलंक का समय विद्वानों ने ई० सन् ७२० ७८० स्थापित किया है। अतः हरिभद्र या तो अकलंक के पूर्ववर्ती या वरिष्ठ समकालीन ही सिद्ध होते है ।
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हरिभद्र के उपर्युक्त समय निर्णय के सम्बन्ध में एक अन्य महत्त्वपूर्ण समस्या खड़ी होती है सिद्धर्षिकृत उपमितिभवप्रपंचकथा के उस उल्लेख से जिसमें सिद्धर्षि ने हरिभद्र को अपना धर्मबोधकर गुरु कहा है उन्होंने यह कथा वि० सं० २६२ में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी, गुरुवार के दिन पूर्ण की थी। सिद्धर्षि के द्वारा लिखे गये इस तिथि के अनुसार यह काल ९०६ ई० सिद्ध होता है तथा उसमें बताए गए वार, नक्षत्र आदि भी ज्योतिष की गणना से सिद्ध होते हैं। सिद्ध उपमितिभवप्रपंचकथा में हरिभद्र के विषय में लिखते हैं कि उन्होंने (हरिभद्र ने ) अनागत अर्थात् भविष्य में होने वाले मुझको जानकर ही मेरे लिये चैत्यवंदनसूत्र का आश्रय लेकर 'ललितविस्तरा वृत्ति की रचना की। यद्यपि कुछ जैन धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान कथानकों में सिद्धर्षि और हरिभद्र के पारस्परिक सम्बन्ध को सिद्ध किया गया है और यह बताया गया है कि सिद्धर्षि हरिभद्र के हस्तदीक्षित शिष्य थे, किन्तु सिद्धर्षि का यह कथन कि 'भविष्य में होने वाले मुझको जानकर ............' यही सिद्ध करता है कि आचार्य हरिभद्र उनके थे, साक्षात् गुरु नहीं ।
परम्परा-गुरु
स्वयं सिद्धार्थ ने भी हरिभद्र को कालव्यवाहित अर्थात् पूर्वकाल
हरिभद्र का व्यक्तित्व
हरिभद्र का व्यक्तित्व अनेक सद्गुणों की पूँजीभूत भास्वर प्रतिभा है । उदारता, सहिष्णुता, समदर्शिता ऐसे सगुण हैं जो उनके व्यक्तित्व को महनीयता प्रदान करते हैं। उनका जीवन समभाव की साधना को समर्पित है । यही कारण है कि विद्या के बल पर उन्होंने धर्म और दर्शन के क्षेत्र में नए विवाद खड़े करने के स्थान पर उनके मध्य समन्वय साधने का पुरुषार्थ किया है। उनके लिए 'विद्या विवादाय' न होकर पक्ष-व्यामोह से ऊपर उठकर सत्यान्वेषण करने हेतु है । हरिभद्र पक्षाग्रही न होकर सत्याग्रही हैं, अतः उन्होंने मधुसंचयी भ्रमर की तरह विविध धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं से बहुत कुछ लिया है और उसे जैन- परम्परा की अनेकान्त दृष्टि से समन्वित भी किया है। यदि उनके व्यक्तित्व की महानता को समझना है तो विविध क्षेत्रों में उनके अवदानों का मूल्यांकन करना होगा और उनके अवदान का वह मूल्यांकन ही उनके व्यक्तित्व का मूल्याकंन होगा ।
हरिभद्र, सिद्धर्षि और अकलंक के पूर्ववर्ती हैं. इस सम्बन्ध में एक अन्य प्रमाण यह है कि सिद्धर्षि ने न्यायावतार की टीका में अकलंक द्वारा मान्य स्मृति प्रत्यभिज्ञा और तर्क- इन तीन प्रमाणों की चर्चा की है। अकलंक के पूर्व जैनदर्शन में इन तीन प्रमाणों की चर्चा अनुपस्थि है। हरिभद्र ने भी कहीं इन तीन प्रमाणों की चर्चा नहीं की है। अतः
में होने वाले तथा अपने को अनागत अर्थात् भविष्य में होने वाला कहा के सार तत्त्व और मूल उदेश्यों को समझने का प्रयत्न ।
है। अतः दोनों के बीच काल का पर्याप्त अन्तर होना चाहिए। यद्यपि
(४) अन्य दार्शनिक मान्यताओं में निहित सत्यों को एवं
धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान क्या है ? यह समझने के लिए इस चर्चा को हम निम्न बिन्दुओं में विभाजित कर रहे हैं
(१) दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण । (२) अन्य दर्शनों की समीक्षा में भी शिष्ट भाषा का प्रयोग तथा अन्य धर्मों एवं दर्शनों के प्रवर्तकों के प्रति बहुमानवृत्ति ।
(३) शुष्क दार्शनिक समालोचनाओं के स्थान पर उन अवधारणाओं
का प्रयत्न ।
यह सत्य है कि सिद्धर्षि को उनके ग्रन्थ ललितविस्तरा के अध्ययन से इनकी मूल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए जैन-दृष्टि के साथ उनके समन्वय जिन-धर्म में स्थिरता हुई थी, इसलिए उन्होंने हरिभद्र को धर्मबोध प्रदाता गुरु कहा, साक्षात् गुरु नहीं कहा। मुनि जिनविजयजी ने भी हरिभद्र को सिद्धर्षि का साक्षात् गुरु नहीं माना है ।
'कुवलयमाला' के कर्ता उद्योतनसूरि ने अपने इस ग्रन्थ में जो शक संवत् ६९९ अर्थात् ई० सन् ७७७ में निर्मित है, हरिभद्र एवं उनकी कृति 'समराइच्चकहा' तथा उनके भवविरह नाम का उल्लेख किया है। अतः हरिभद्र ई० सन् ७७७ के पूर्व हुए है. इसमें कोई विवाद नहीं रह जाता है ।
(५) अन्य दार्शनिक परम्पराओं के ग्रन्थों का निष्पक्ष अध्ययन करके उन पर व्याख्या और टीका का प्रणयन करना ।
(६) उदार और समन्वयवादी दृष्टि रखते हुए पौराणिक अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन करना ।
(७) दर्शन और धर्म के क्षेत्र में आस्था या श्रद्धा की अपेक्षा तर्क एवं युक्ति पर अधिक बल किन्तु शर्त यह कि तर्क और युक्ति का प्रयोग अपने मत की पुष्टि के लिए नहीं, अपितु सत्य की खोज के लिए हो।
(८) धर्म-साधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर चरित्र की निर्मलता के साथ जोड़ने का प्रयत्न ।
(९) मुक्ति के सम्बन्ध में एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण | (१०) उपास्य के नाम-भेद को गौण मानकर उसके गुणों
[ ९४ ]স
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वस्थ
पर बल ।
दार्शनिकों ने अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के कारण कहीं-कहीं वैचारिक
उदारता का परिचय दिया है, फिर भी ये सभी विचारक इतना तो मानते ही अन्य दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण हैं कि अन्य दर्शन ऐकान्तिक दृष्टि का आश्रय लेने के कारण मिथ्या
जैन-परम्परा में अन्य परम्पराओं के विचारकों के दर्शन एवं दर्शन हैं जबकि जैन-दर्शन अनेकान्त-दृष्टि अपनाने के कारण सम्यग्दर्शन धर्मोपदेश के प्रस्तुतीकरण का प्रथम प्रयास हमें ऋषिभाषित (इसिभासियाई हैं। वस्तुत: वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस लगभग ई० पू० ३ शती) में परिलक्षित होता है । इस ग्रंथ में अन्य ऊँचाई का स्पर्श हरिभद्र ने अपनी कृतियों में किया है वैसा उनके पूर्ववर्ती धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं के प्रवर्तकों, यथा-नारद, असितदेवल, जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता । यद्यपि हरिभद्र याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचन्द्र, यशोविजय, आनन्दघन आदि
और उनके विचारों को निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है । निश्चय ही अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति समभाव और उदारता का परिचय देते हैं, वैचारिक उदारता एवं अन्य परम्पराओं के प्रति समादर भाव का यह अति किन्तु उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती प्राचीन काल का अन्यतम और मेरी दृष्टि में एकमात्र उदाहरण है। अन्य है। उदारहण के रूप में हेमचन्द्र अपने महादेव-स्तोत्र (४४) में निम्न परम्पराओं के प्रति ऐसा समादर भाव वैदिक और बौद्ध परम्परा के प्राचीन श्लोक प्रस्तुत करते हैं - साहित्य में हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । स्वयं जैन-परम्परा में भी यह भव-बीजांकुरजनना रागाद्याक्षयमुपागता यस्य । उदार दृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकी । परिणामस्वरूप यह ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। महान् ग्रन्थ जो कभी अंग-साहित्य का एक भाग था, वहाँ से अलगकर वस्तुत: २५०० वर्ष के सुदीर्घ जैन-इतिहास में ऐसा कोई भी परिपार्श्व में डाल दिया गया । यद्यपि सूत्रकृतांग, भगवती आदि आगम-ग्रन्थों समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसे हरिभद्र के समतुल्य कहा में तत्कालीन अन्य परम्पराओं के विवरण उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें अन्य जा सके । यद्यपि हरिभद्र के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक आचार्यों ने जैनदर्शनों और परम्पराओं के प्रति वह उदारता और शालीनता परिलक्षित नहीं दर्शन की अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का होती, जो ऋषिभाषित में थी। सूत्रकृतांग अन्य दार्शनिक और धार्मिक परिचय अवश्य दिया है फिर भी उनकी सृजनधर्मिता उस स्तर की नहीं मान्यताओं का विवरण तो देता है किन्तु उन्हें मिथ्या, अनार्य या असंगत है जिस स्तर की हरिभद्र की है। उनकी कृतियों में दो-चार गाथाओं या कहकर उनकी आलोचना भी करता है । भगवती में विशेष रूप में मंखलि- श्लोकों में उदारता के चाहे संकेत मिल जायें किन्तु ऐसे कितने हैं गोशालक के प्रसंग में तो जैन-परम्परा सामान्य शिष्टता का भी उल्लंघन कर जिन्होंने समन्वयात्मक और उदार दृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, देती है । ऋषिभाषित में जिस मखलि-गोशालक को अर्हत् ऋषि के रूप में शास्त्रवार्तासमुच्चय और योगदृष्टिसमुच्चय जैसी महान् कृतियों का प्रणयन सम्बोधित किया गया था, भगवती में उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत किया किया हो । गया है। यहाँ यह चर्चा मैं केवल इसलिए कर रहा हूँ कि हम हरिभद्र की अन्य दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यतः उदारदृष्टि का सम्यक् मूल्यांकन कर सकें और यह जान सकें कि न केवल दो दृष्टियों से किया जाता है - एक तो उन परम्पराओं की आलोचना करने जैन-परम्परा में, अपितु समग्र भारतीय दर्शन में उनका अवदान कितना की दृष्टि से और दूसरा उनका यथार्थ परिचय पाने और उनमें निहित सत्य
को समझने की दृष्टि से । आलोचना एवं समीक्षा की दृष्टि से लिखे गए जैन-दार्शनिकों में सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रन्थों में ग्रन्थों में भी आलोचना के शिष्ट और अशिष्ट ऐसे दो रूप मिलते हैं। अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत किया है । उन्होंने बत्तीस साथ ही जब ग्रन्थकर्ता का मुख्य उद्देश्य आलोचना करना होता है, तो द्वात्रिंशिकाएँ लिखी हैं, उनमें नवीं में वेदवाद, दशवीं में योगविद्या, वह अन्य परम्पराओं के प्रस्तुतीकरण में न्याय नहीं करता है और उनकी बारहवीं में न्यायदर्शन, तेरहवीं में सांख्यदर्शन, चौदहवीं में वैशेषिकदर्शन, अवधारणाओं को भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करता है । उदाहरण के रूप में पन्द्रहवीं में बौद्धदर्शन और सोलहवीं में नियतिवाद की चर्चा है, किन्तु स्याद्वाद और शून्यवाद के आलोचकों ने कभी उन्हें सम्यक् रूप से प्रस्तुत सिद्धसेन ने यह विवरण समीक्षात्मक दृष्टि से ही प्रस्तुत किया है। वे करने का प्रयत्न नहीं किया है । यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों अनेक प्रसंगों में इन अवधारणाओं के प्रति चुटीले व्यंग्य भी कसते हैं। में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है। अपने ग्रन्थ धूर्ताख्यान में वस्तुत: दार्शनिकों में अन्य दर्शनों के जानने और उनका विवरण प्रस्तुत वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अन्धविश्वासों का सचोट खण्डन करने की जो प्रवृत्ति विकसित हुई थी उसका मूल आधार विरोधी मतों भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वे न तो अपने विरोधी के का निराकरण करना ही था । सिद्धसेन भी इसके अपवाद नहीं हैं। साथ विचारों को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उनके सम्बन्ध में अशिष्ट ही पं० सुखलालजी संघवी का यह भी कहना है कि सिद्धसेन की कृतियों भाषा का प्रयोग ही करते हैं । में अन्य दर्शनों का जो विवरण उपलब्ध है वह भी पाठ-भ्रष्टता और व्याख्या के अभाव के कारण अधिक प्रामाणिक नहीं है। यद्यपि सिद्धसेन दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों की रचना और उसमें हरिभद्र का स्थान दिवाकर, समन्तभद्र, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हरिभद्र के पूर्ववर्ती यदि हम भारतीय दर्शन के समग्र इतिहास में सभी प्रमुख
महान् है।
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दर्शनों के सिद्धान्त को एक ही ग्रन्थ में पूरी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहाँ हरिभद्र करने के क्षेत्र में हुए प्रयत्नों को देखते हैं, तो हमारी दृष्टि में हरिभद्र ही बिना किसी खण्डन-मण्डन के निरपेक्ष भाव से तत्कालीन विविध दर्शनों को वे प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने सभी प्रमुख भारतीय दर्शनों की मान्यताओं को प्रस्तुत करते हैं, वहाँ वैदिक परम्परा के इन दोनों की मूलभूत शैली निष्पक्ष रूप से एक ही ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय खण्डनपरक ही है । अत: इन दोनों ग्रन्थों में अन्य दार्शनिक मतों के की कोटि का और उससे प्राचीन दर्शन संग्राहक कोई अन्य ग्रन्थ हमें प्रस्तुतीकरण में वह निष्पक्षता और उदारता परिलक्षित नहीं होती, जो प्राचीन भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं होता।
हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में है। हरिभद्र के पूर्व तक जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों ही परम्पराओं इसके पश्चात् वैदिक परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में के किसी भी आचार्य ने अपने काल के सभी दर्शनों का निष्पक्ष परिचय देने मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थान-भेद' का क्रम आता है । मधुसूदन की दृष्टि से किसी भी ग्रन्थ की रचना नहीं की थी। उनके ग्रन्थों में अपने सरस्वती ने दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक और नास्तिक के रूप में किया विरोधी मतों का प्रस्तुतीकरण मात्र उनके खण्डन की दृष्टि से ही हुआ है। है । नास्तिक-अवैदिक दर्शनों में वे छ: प्रस्थानों का उल्लेख करते हैं। . जैन-परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व सिद्धसेन दिवाकर और समन्तभद्र ने इसमें बौद्ध-दर्शन के चार सम्प्रदाय तथा चार्वाक और जैनों का समावेश अन्य दर्शनों के विवरण तो प्रस्तुत किये हैं किन्तु उनकी दृष्टि भी हुआ है । आस्तिक-वैदिक दर्शनों में-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, खण्डनपरक ही है । विविध दर्शनों का विवरण प्रस्तुत करने की दृष्टि पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा का समावेश हुआ है । इन्होंने पाशुपत से मल्लवादी का नयचक्र महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ कहा जा सकता है किन्तु दर्शन एवं वैष्णव दर्शन का भी उल्लेख किया है। पं० दलसुखभाई उसका मुख्य उद्देश्य भी प्रत्येक दर्शन की अपूर्णता को सूचित करते हुए मालवणिया के अनुसार प्रस्थान-भेद के लेखक की एक विशेषता अनेकान्तवाद की स्थापना करना है । पं० दलसुखभाई मालवणिया के अवश्य है जो उसे पूर्व उल्लिखित वैदिक परम्परा के अन्य दर्शनशब्दों में नयचक्र की कल्पना के पीछे आचार्य का आशय यह है कि कोई संग्राहक ग्रन्थों से अलग करती है, वह यह कि इस ग्रन्थ में वैदिक दर्शनों भी मत अपने आप में पूर्ण नहीं है। जिस प्रकार उस मत की स्थापना के पारस्परिक विरोध का समाधान यह कह कर किया गया है कि इन दलीलों से हो सकती है उसी प्रकार उसका उत्थापन भी विरोधी मतों की प्रस्थानों के प्रस्तोता सभी मुनि भ्रान्त तो नहीं हो सकते, क्योंकि वे सर्वज्ञ दलीलों से हो सकता है । स्थापना और उत्थापन का यह चक्र चलता थे। चूँकि बाह्य विषयों में लगे हुए मनुष्यों का परम पुरुषार्थ में प्रवष्टि रहता है । अतएव अनेकान्तवाद में ये मत यदि अपना उचित स्थान प्राप्त होना कठिन होता है, अतएव नास्तिकों का निराकरण करने के लिए इन करें, तभी उचित है अन्यथा नहीं । नयचक्र की मूलदृष्टि भी स्वपक्ष मुनियों ने दर्शन-प्रस्थानों के भेद किये हैं। इस प्रकार प्रस्थान-भेद में अर्थात् अनेकान्तवाद के मण्डन और परपक्ष के खण्डन की ही है । इस यत्किञ्चित् उदारता का परिचय प्राप्त होता है किन्तु यह उदारता केवल प्रकार जैन-परम्परा में भी हरिभद्र के पूर्व तक निष्पक्ष भाव से कोई भी वैदिक परम्परा के आस्तिक दर्शनों के सन्दर्भ में ही है, नास्तिकों का दर्शन-संग्राहक ग्रन्थ नहीं लिखा गया ।
निराकरण करना तो सर्वदर्शनकौमुदीकार को भी इष्ट ही है । इस प्रकार जैनेतर परम्पराओं के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में आचार्य शंकर दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में हरिभद्र की जो निष्पक्ष और उदार दृष्टि है वह हमें विरचित माने जाने वाले 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' का उल्लेख किया जा अन्य परम्पराओं में रचित दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में नहीं मिलती है । यद्यपि सकता है । यद्यपि यह कृति माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह की अपेक्षा वर्तमान में भारतीय दार्शनिक परम्पराओं का विवरण प्रस्तुत करने वाले प्राचीन है, फिर भी इसके आद्य शंकराचार्य द्वारा विरचित होने में सन्देह अनेक ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं किन्तु उनमें भी लेखक कहीं न कहीं अपने है। इस ग्रन्थ में भी पूर्वदर्शन का उत्तरदर्शन के द्वारा निराकरण करते हुए इष्ट दर्शन को ही अन्तिम सत्य के रूप में प्रस्तुत करता प्रतीत होता है। अन्त में अद्वैत वेदान्त की स्थापना की गयी है । अत: किसी सीमा हरिभद्र के पश्चात् जैन-परम्परा में लिखे गए दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों तक इसकी शैली को नयचक्र की शैली के साथ जोड़ा जा सकता है में अज्ञातकर्तृक 'सर्वसिद्धान्तप्रवेशक' का स्थान आता है किन्तु इतना निश्चित किन्तु जहाँ नयचक्र, अन्तिम मत का भी प्रथम मत से खण्डन है कि यह ग्रन्थ किसी जैन आचार्य द्वारा प्रणीत है, क्योंकि इसके मंगलाचरण करवाकर किसी भी एक दर्शन को अन्तिम सत्य नहीं मानता है, वहाँ में 'सर्वभाव प्रणेतारं प्रणिपत्य जिनेश्वरं' ऐसा उल्लेख है । पं० सुखलाल 'सर्वसिद्धान्तसंग्रह' वेदान्त को एकमात्र और अन्तिम सत्य स्वीकार संघवी के अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रतिपादन शैली हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय करता है । अत: यह एक दर्शनसंग्राहक ग्रन्थ होकर भी निष्पक्ष दृष्टि का ही अनुसरण करती है। अन्तर मात्र यह है कि जहाँ हरिभद्र का ग्रन्थ का प्रतिपादक नहीं माना जा सकता है । हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय पद्य में है वहाँ सर्वसिद्धान्तप्रवेशक गद्य में है। साथ ही यह ग्रन्थ हरिभद्र के की जो विशेषता है वह इसमें नहीं है।
षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा कुछ विस्तुत भी है। जैनतर परम्पराओं में दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जैन-परम्परा के दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में दूसरा स्थान जीवदेवसूरि माधवाचार्य (ई० १३५०?) के 'सर्वदर्शनसंग्रह' का आता है । किन्तु के शिष्य आचार्य जिनदत्तसूरि (विक्रम १२६५) के 'विवेकविलास' का 'सर्वदर्शनसंग्रह की मूलभूत दृष्टि भी यही है कि वेदान्त ही एकमात्र आता है । इस ग्रन्थ के अष्टम उल्लास में षड्दर्शनविचार नामक प्रकरण सम्यग्दर्शन है । ‘सर्वसिद्धान्तसंग्रह' और 'सर्वदर्शनसंग्रह' दोनों की है, जिसमें जैन, मीमांसक, बौद्ध, सांख्य, शैव और नास्तिक- इन छ:
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दर्शनों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। पं० दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार इस ग्रन्थ की एक विशेषता तो यह है कि इसमें न्यायवंशेषिकों का समावेश शैवदर्शन में किया गया है। मेरी दृष्टि में इसका कारण लेखक के द्वारा हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का अनुसरण करना ही है, क्योंकि उसमें भी न्यायदर्शन के देवता के रूप में शिव का ही उल्लेख किया गया है -
'अक्षपादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिवः ।।१३।।
यह ग्रन्थ भी हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय के समान केवल परिचयात्मक और निष्पक्ष विवरण प्रस्तुत करता है और आकार में मात्र ६६ श्लोक प्रमाण हैं।
दर्शन के क्षेत्र में अपनी दार्शनिक अवधारणाओं की पुष्टि तथा विरोधी अवधारणाओं के खण्डन के प्रयत्न अत्यन्त प्राचीनकाल से होते रहे हैं। प्रत्येक दर्शन अपने मन्तव्यों की पुष्टि के लिये अन्य दार्शनिक मतों की समालोचना करता है। स्वपक्ष का मण्डन तथा परपक्ष का खण्डन - यह दार्शनिकों की सामान्य प्रवृत्ति रही है। हरिभद्र भी इसके अपवाद नहीं हैं। फिर भी उनकी यह विशेषता है कि अन्य दार्शनिक मतों की समीक्षा में वे सदैव ही शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तथा विरोधी दर्शनों के प्रवर्तकों के लिए भी बहुमान प्रदर्शित करते हैं। दार्शनिक समीक्षाओं के क्षेत्र में एक युग ऐसा रहा है जिसमें अन्य दार्शनिक परम्पराओं को न केवल भ्रष्ट रूप में प्रस्तुत किया जाता था, अपितु उनके प्रवर्तकों का उपहास भी किया जाता था। जैन और जैनेतर दोनों ही परम्पराएँ इस प्रवृत्ति से अपने को मुक्त नहीं रख सकीं । जैन परम्परा के सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र आदि दिग्गज दार्शनिक भी जब अन्य दार्शनिक परम्पराओं की समीक्षा करते हैं तो न केवल उन परम्पराओं की मान्यताओं के प्रति, अपितु उनके प्रवर्तकों के प्रति भी चुटीले व्यंग्य कस देते हैं । हरिभद्र स्वयं भी अपने लेखन के प्रारम्भिक काल में इस प्रवृत्ति के अपवाद नहीं रहे हैं। जैन आगमों की टीका में और धूर्ताख्यान जैसे ग्रन्थों की रचना में वे स्वयं भी इस प्रकार के चुटीले व्यंग्य कसते हैं, किन्तु हम देखते हैं कि विद्वत्ता की प्रौढ़ता के साथ हरिभद्र में धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति लुप्त हो जाती है और अपने परवर्ती ग्रन्थों में वे अन्य परम्पराओं और उनके प्रवर्तकों के प्रति अत्यन्त शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं तथा उनके प्रति बहुमान सूचित करते हैं। इसके कुछ उदाहरण हमें उनके ग्रन्थ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में देखने को मिल जाते हैं। अपने ग्रन्थ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्रारम्भ में ही ग्रन्थ रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं -
यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । जायते द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ।
अर्थात् इसका अध्ययन करने से अन्य दर्शनों के प्रति द्वेष- बुद्धि समाप्त होकर तत्त्व का बोध हो जाता है। इस ग्रन्थ में वे कपिल को दिव्य पुरुष एवं महामुनि के रूप में सूचित करते हैं -कपिलो दिव्यो हि स महामुनिः (शास्त्रवार्तासमुच्चय, २३७) । इसी प्रकार वे बुद्ध को भी अर्हत्, महामुनिः सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैं - यतो बुद्धो महामुनिः सुवैद्यवत् (वही, ४६५ - ४६६) । यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर अन्य दार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास करते हैं न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को गाय का बछड़ा या बैल और महर्षि कणाद को उल्लू कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हरिभद्र अपने विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं। 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में यद्यपि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की स्पष्ट समालोचना है किन्तु सम्पूर्ण ग्रन्थ में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं मिलता जहाँ हरिभद्र ने शिष्टता की मर्यादा का उल्लंघन किया हो। इस টমd ९७ ]
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जैन- परम्परा में दर्शन- संग्राहक ग्रन्थों में तीसरा क्रम राजशेखर (विक्रम १४०५) के षड्दर्शनसमुच्चय का आता है। इस ग्रन्थ में जैन, सांख्य, जैमिनीय, योग, वैशेषिक और सौगत (बौद्ध) इन छः दर्शनों का उल्लेख किया गया है । हरिभद्र के समान ही इस ग्रन्थ में भी इन सभी को आस्तिक कहा गया है और अन्त में नास्तिक के रूप में चार्वाक दर्शन का परिचय दिया गया है। हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय और राजशेखर के षड्दर्शनसमुच्चय में एक मुख्य अन्तर इस बात को लेकर है कि दर्शनों के प्रस्तुतीकरण में जहाँ हरिभद्र जैनदर्शन को चौथा स्थान देते हैं वहाँ राजशेखर जैनदर्शन को प्रथम स्थान देते हैं पं० सुखलाल संघवी के अनुसार सम्भवतः इसका कारण यह हो सकता है कि राजशेखर अपने समकालीन दार्शनिकों के अभिनिवेशयुक्त प्रभाव से अपने को दूर नहीं रख सके ।
पं० दलसुखभाई मालवणिया की सूचना के अनुसार राजशेखर के काल का ही एक अन्य दर्शन संग्राहक ग्रन्य आचार्य मेरुतुंगकृत 'षड्दर्शननिर्णय' है' । इस ग्रन्थ में मेरुतुंग ने जैन, बौद्ध, मीमांसा, सांख्य, न्याय और वैशेषिक इन छः दर्शनों की मीमांसा की है किन्तु इस कृति में हरिभद्र जैसी उदारता नहीं है। यह मुख्यतया जैनमत की स्थापना और अन्य मतों के खण्डन के लिये लिखा गया है। इसकी एकमात्र विशेषता यह है कि इसमें महाभारत, स्मृति, पुराण आदि के आधार पर जैनमत का समर्थन किया गया है |
पं० दलसुखभाई मालवणिया ने षड्दर्शनसमुच्चय की प्रस्तावना में इस बात का भी उल्लेख किया है कि सोमतिलकसूरिकृत 'षड्दर्शनसमुच्चय' की वृत्ति के अन्त में अज्ञातकृत एक कृति मुद्रित • है। इसमें भी जैन, न्याय, बौद्ध, वैशेषिक, जैमिनीय, सांख्य और चार्वाक - ऐसे सात दर्शनों का संक्षेप में परिचय दिया गया है किन्तु अन्त में अन्य दर्शनों को दुर्नय की कोटि में रखकर जैनदर्शन को उच्च श्रेणी में रखा गया है। इस प्रकार इसका लेखक भी अपने को साम्प्रदायिक अभिनिवेश से दूर नहीं रख सका।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दर्शन संग्राहक ग्रन्थों की रचना में भारतीय इतिहास में हरिभद्र ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने निष्पक्ष भाव से और पूरी प्रामाणिकता के साथ अपने ग्रन्थ में अन्य दर्शनों का विवरण दिया है। इस क्षेत्र में वे अभी तक अद्वितीय हैं।
समीक्षा में शिष्टभाषा का प्रयोग और अन्य धर्मप्रवर्तकों के प्रति बहुमान
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
प्रकार हरिभद्र ने अन्य परम्पराओं के प्रति जिस शिष्टता और आदरभाव का परिचय दिया है, वह हमें जैन और जैनेतर किसी भी परम्परा के अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होती ।
हरिभद्र ने अन्य दर्शनों के अध्ययन के पश्चात् उनमें निहित सारतत्त्व या सत्य को समझने का जो प्रयास किया, वह भी अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है और उनके उदारचेता व्यक्तित्व को उजागर करता है। यद्यपि हरिभद्र चार्वाक दर्शन की समीक्षा करते हुए उसके भूत स्वभाववाद का खण्डन करते हैं और उसके स्थान पर कर्मवाद की स्थापना करते हैं । किन्तु सिद्धान्त में कर्म के जो दो रूप द्रव्यकर्म और भावकर्म माने गए हैं उसमें एक ओर भावकर्म के स्थान को स्वीकार नहीं करने के कारण जहाँ वे चार्वाक दर्शन की समीक्षा करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे द्रव्यकर्म की अवधारणा को स्वीकार करते हुए चार्वाक के भूत स्वभाववाद की सार्थकता को भी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि भौतिक तत्त्वों का प्रभाव भी चैतन्य पर पड़ता है ।११ प० सुखलालजी संघवी लिखते हैं कि हरिभद्र ने दोनों पक्षों अर्थात् बौद्ध एवं मीमांसकों के अनुसार कर्मवाद के प्रसंग में चित्तवासना की प्रमुखता को तथा चार्वाकों के अनुसार भौतिक तत्त्व की प्रमुखता को एक-एक पक्ष के रूप में परस्परपूरक एवं सत्य मानकर कहा कि जैन कर्मवाद में चार्वाक और मीमांसक तथा बौद्धों के मन्तव्यों का सुमेल हुआ है । १२
इसी प्रकार 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में हरिभद्र यद्यपि न्यायवैशेषिक दर्शनों द्वारा मान्य ईश्वरवाद एवं जगत-कर्तृत्ववाद की अवधारणओं की समीक्षा करते हैं, किन्तु जहाँ चार्वाकों, बौद्धों और अन्य जैन आचार्यों ने इन अवधारणाओं का खण्डन किया है, यहाँ हरिभद्र इनकी भी सार्थकता को स्वीकार करते हैं। हरिभद्र ने ईश्वरवाद की अवधारणा में भी कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देखने का प्रयास किया है। प्रथम तो यह कि मनुष्य में कष्ट के समय स्वाभाविक रूप से किसी ऐसी शक्ति के प्रति श्रद्धा और प्रपत्ति की भावना होती है जिसके द्वारा वह अपने में आत्मविश्वास जागृत कर सके। पं० सुखलालजी संघवी लिखते हैं कि मानव मन की प्रपत्ति या शरणागति की यह भावना मूल में असत्य तो नहीं कही जा सकती। उनकी इस अपेक्षा को ठेस न पहुंचे तथा तर्क व बुद्धिवाद के साथ ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वय भी हो, इसलिए उन्होंने (हरिभद्र ने) ईश्वर-कर्तृत्ववाद की अवधारणा को अपने ढंग से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है ।" हरिभद्र कहते हैं कि जो व्यक्ति आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने विकास की उच्चतम भूमिका प्राप्त हुआ हो वह असाधारण आत्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष है। उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्त्ता तथा भक्ति का विषय होने के कारण उपास्य है । १४ इसके साथ ही हरिभद्र यह भी मानते हैं कि प्रत्येक जीव तत्त्वतः अपने शुद्ध रूप में परमात्मा और अपने भविष्य का निर्माता है और इस दृष्टि से यदि विचार करें तो वह 'ईश्वर' भी है और 'कर्ता भी है। इस प्रकार ईश्वर-कर्तत्ववाद भी समीचीन ही सिद्ध होता है। हरिभद्र सांख्यों के प्रकृतिवाद की भी समीक्षा करते हैं, किन्तु वे प्रकृति को जैन-परम्परा में स्वीकृत कर्मप्रकृति के रूप में देखते
हैं। वे लिखते हैं कि "सत्य न्याय की दृष्टि से प्रकृति कर्म - प्रकृति ही है और इस रूप में प्रकृतिवाद भी उचित है क्योंकि उसके वक्ता कपिल दिव्य पुरुष और महामुनि है ।"
'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में हरिभद्र ने बौद्धों के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद की भी समीक्षा की है किन्तु वे इन धारणाओं में निहित सत्य को भी देखने का प्रयत्न करते हैं और कहते हैं कि महामुनि और अर्हत् बुद्ध उद्देश्यहीन होकर किसी सिद्धान्त का उपदेश नहीं करते । उन्होंने क्षणिकवाद का उपेदश पदार्थ के प्रति हमारी आसक्ति के निवारण के लिये ही दिया है क्योंकि जब वस्तु का अनित्य और विनाशशील स्वरूप समझ में आ जाता है तो उसके प्रति आसक्ति गहरी नहीं होतो। इसी प्रकार विज्ञानवाद का उपदेश भी बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा को समाप्त करने के लिए ही है । यदि सब कुछ चित्त के विकल्प हैं और बाह्य रूप सत्य नहीं है तो उनके प्रति तृष्णा उत्पन्न ही नहीं होगी । इसी प्रकार कुछ साधकों की मनोभूमिका को ध्यान में रखकर संसार की निस्सारता का बोध कराने के लिए शून्यवाद का उपदेश दिया है।" इस प्रकार हरिभद्र को दृष्टि में बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद इन तीनों सिद्धान्तों का मूल उद्देश्य यही है कि व्यक्ति की जगत् के प्रति उत्पन्न होने वाली तृष्णा का प्रहाण हो ।
अद्वैतवाद की समीक्षा करते हुए हरिभद्र स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि सामान्य की दृष्टि से तो अद्वैत की अवधारणा भी सत्य है। इसके साथ ही साथ वे यह भी बताते हैं कि विषमता के निवारण के लिए और समभाव की स्थापना के लिए अद्वैत की भूमिका भी आवश्यक है।" अद्वैत परायेपन की भावना का निषेध करता है, इस प्रकार द्वेष का उपशमन करता है। अतः वह भी असत्य नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार अद्वैत वेदान्त के ज्ञान मार्ग को भी वे समीचीन ही स्वीकार करते हैं । १९
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्य दार्शनिक अवधारणाओं की समीक्षा का उनका प्रयत्न समीक्षा के लिये न होकर उन दार्शनिक परम्पराओं की सत्यता के मूल्यांकन के लिये ही है । स्वयं उन्होंने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्राक्कथन में यह स्पष्ट किया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य अन्य परम्पराओं के प्रति द्वेष का उपशमन करना और सत्य का बोध करना है" । उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि उन्होंने ईमानदारी से प्रत्येक दार्शनिक मान्यता के मूलभूत उद्देश्यों को समझाने का प्रयास किया है और इस प्रकार वे आलोचक के स्थान पर सत्य के गवेषक ही अधिक प्रतीत होते हैं ।
अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्येता एवं निष्पक्ष व्याख्याकार
भारतीय दार्शनिकों में अपने से इतर परम्पराओं के गम्भीर अध्ययन की प्रवृत्ति प्रारम्भ में हमें दृष्टिगत नहीं होती है । बादरायण, जैमिनि आदि दिग्गज विद्वान् भी जब दर्शनों की समालोचना करते हैं तो ऐसा लगता है कि वे दूसरे दर्शनों को अपने सतही ज्ञान के आधार पर भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करके उनका खण्डन कर देते हैं । यह सत्य है कि
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अनैकान्तिक एवं समन्वयात्मक दृष्टि के कारण अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्ययन की परम्परा का विकास सर्वप्रथम जैन दार्शनिकों ने ही किया हं । ऐसा लगता है कि हरिभद्र ने समालोच्य प्रत्येक दर्शन का ईमानदारीपूर्वक गम्भीर अध्ययन किया था, क्योंकि इसके बिना वे न तो उन दर्शनों में तर्क या बुद्धिवाद का समर्थन निहित सत्यों को समझा सकते थे, न उनकी स्वस्थ समीक्षा ही कर सकते थे और न उनका जैन मन्तव्यों के साथ समन्वय कर सकते थे । हरिभद्र अन्य दर्शनों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु उन्होंने उनके कुछ महत्त्वपूर्ण प्रन्थों पर तटस्थ भाव से टीकाएँ भी लिखीं। दिनाग के 'न्यायप्रवेश' पर उनकी टीका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। पतञ्जलि के 'योगसूत्र' का उनका अध्ययन भी काफी गम्भीर प्रतीत होता है क्योंकि उन्होंने उसी के आधार पर एवं नवीन दृष्टिकोण से योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशिका आदि ग्रन्थों की रचना को थी। इस प्रकार हरिभद्र जैन और जैनेतर परम्पराओं के एक ईमानदार अध्येता एवं व्याख्याकार भी हैं। जिस प्रकार प्रशस्तपाद ने दर्शन ग्रन्थों की टीका लिखते समय तद्-तद् दर्शनों के मन्तव्यों का अनुसरण करते हुए तटस्थ भाव रखा, उसी प्रकार हरिभद्र ने भी इतर परम्पराओं का विवेचन करते समय तटस्थ भाव रखा है ।
अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन
यद्यपि हरिभद्र अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं के प्रति एक उदार और सहिष्णु दृष्टिकोण को लेकर चलते हैं, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे उनके अतर्कसंगत अन्धविश्वासों को प्रश्रय देते हैं। एक ओर वे अन्य परम्पराओं के प्रति आदरभाव रखते हुए उनमें निहित सत्यों को स्वीकार करते हैं, तो दूसरी ओर उनमें पल रहे अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन भी करते हैं। इस दृष्टि से उनकी दो रचनाएँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं- (१) धूर्ताख्यान और (२) द्विजवदनचपेटिका । 'धूर्ताख्यान' में उन्होंने पौराणिक परम्पराओं में पल रहे अन्धविश्वासों का सचोट निरसन किया है। हरिभद्र ने धूर्ताख्यान में वैदिक परम्परा में विकसित इस धारणा का खण्डन किया है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, पेट से वैश्य तथा पैर से शूद्र उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार कुछ पौराणिक मान्यताओं यथा-शंकर के द्वारा अपनी जटाओं में गंगा को समा लेना, वायु के द्वारा हनुमान का जन्म, सूर्य के द्वारा कुन्ती से कर्ण का जन्म, हनुमान के द्वारा पूरे पर्वत को उठा लाना, वानरों के द्वारा सेतु बाँधना, श्रीकृष्ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण करना, गणेश का पार्वती
शरीर के मैल से उत्पन्न होना, पार्वती का हिमालय की पुत्री होना आदि अनेक पौराणिक मान्यताओं का व्यंग्यात्मक शैली में निरसन किया है। हरिभद्र धूर्ताख्यान की कथा के माध्यम से कुछ काल्पनिक बातें प्रस्तुत करते है और फिर कहते हैं कि यदि पुराणों में कही गयी उपर्युक्त बातें सत्य हैं तो ये सत्य क्यों नहीं हो सकती। इस प्रकार धूर्तांख्यान में वे व्यंग्यात्मक किन्तु शिष्ट शैली में पौराणिक मिथ्या विश्वासों की समीक्षा करते हैं। इसी प्रकार द्विजवदनचपेटिका में भी उन्होंने ब्राह्मण परम्परा में पल रही मिथ्याधारणाओं एवं वर्ण-व्यवस्था का सचोट खण्डन किया है। हरिभद्र सत्य
के समर्थक है किन्तु अन्धविश्वासों एवं मिथ्या मान्यताओं के वे कठोर समीक्षक भी ।
हरिभद्र में यद्यपि एक धार्मिक की श्रद्धा है किन्तु वे श्रद्धा को तर्क-विरोधी नहीं मानते हैं। उनके लिए तर्करहित श्रद्धा उपादेय नहीं है । वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि न तो महावीर के प्रति मेरा कोई राग है। और न कपिल आदि के प्रति कोई द्वेष ही है
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।
लोकतत्वनिर्णय ३८ उनके कहने का तात्पर्य यही है कि सत्य के गवेषक और साधना के पथिक को पूर्वाग्रहों से युक्त होकर विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा करनी चाहिए और उनमें जो भी युक्तिसंगत लगे उसे स्वीकार करना चाहिए। यद्यपि इसके साथ ही वे बुद्धिवाद से पनपने वाले दोषों के प्रति भी सचेष्ट हैं। वे स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि युक्ति और तर्क का उपयोग केवल अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए ही नहीं किया जाना चाहिये, अपितु सत्य की खोज के लिए किया जाना चाहिए
आग्रही वत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र तस्य मतिर्निविष्टा । निष्पक्षपातस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र तस्य मतिरेति निवेशम् ।।
आग्रही व्यक्ति अपनी युक्ति (तर्क) का भी प्रयोग वहीं करता हैं जिसे वह सिद्ध अथवा खण्डित करना चाहता है, जबकि अनाग्रही या निष्पक्ष व्यक्ति जो उसे युक्तिसंगत लगता है, उसे स्वीकार करता है। इस प्रकार हरिभद्र न केवल युक्ति या तर्क के समर्थक हैं किन्तु वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि तर्क या युक्ति का प्रयोग अपनी मान्यताओं की पुष्टि या अपने विरोधी मान्यताओं के खण्डन के लिये न करके सत्य की गवेषणा के लिये करना चाहिए और जहाँ भी सत्य परिलक्षित हो उसे स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार वे शुष्क तार्किक न होकर सत्यनिष्ठ तार्किक हैं ।
कर्मकाण्ड के स्थान पर सदाचार पर बल
हरिभद्र की एक विशेषता यह है कि उन्होंने धर्म साधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर आध्यात्मिक पवित्रता और चारित्रिक निर्मलता के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। यद्यपि जैन परम्परा में साधना के अंगों के रूप में दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान और चारित्र (शील) को स्वीकार किया गया है । हरिभद्र भी धर्म-साधना के क्षेत्र में इन तीनों का स्थान स्वीकार करते
हैं
किन्तु वे यह मानते हैं कि न तो श्रद्धा को अन्धश्रद्धा बनना चाहिए, न ज्ञान को कुतर्क आश्रित होना चाहिए और न आचार को केवल बाह्यकर्मकाण्डों तक सीमित रखना चाहिए। वे कहते हैं कि 'जिन' पर मेरी श्रद्धा का कारण राग भाव नहीं है, अपितु उनके उपदेश की युक्तिसंगतता है। इस प्रकार वे श्रद्धा के साथ बुद्धि को जोड़ते हैं, किन्तु निरा तर्क भी उन्हें इष्ट नहीं है। वे कहते हैं कि तर्क का वाग्जाल वस्तुतः एक विकृति है जो हमारी श्रद्धा [ ९९ ]
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एवं मानसिक शान्ति को भंग करने वाला है। वह ज्ञान का अभिमान योग्यता के आधार पर है। जिस प्रकार वैद्य अलग-अलग व्यक्तियों को उत्पन्न करने के कारण भाव-शत्रु है। इसलिए मुक्ति के इच्छुक को तर्क उनकी प्रकृति की भिन्नता और रोग की भिन्नता के आधार पर अलगके वाग्जाल से अपने को मुक्त रखना चाहिए । वस्तुत: वे सम्यग्ज्ञान अलग औषधि प्रदान करता है, उसी प्रकार महात्माजन भी संसाररूपी और तर्क में एक अन्तर स्थापित करते हैं। तर्क केवल विकल्पों का व्याधि-हरण करने हेतु साधकों की प्रकृति के अनुरूप साधना को भित्रसृजन करता है, अत: उनकी दृष्टि में निरी तार्किकता आध्यात्मिक भिन्न विधियाँ बताते हैं ।२५ वे पुनः कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश की विकास में बाधक ही है। 'शास्त्र- वार्तासमुच्चय' में उन्होंने धर्म के दो भिन्नता, उपासकों की प्रकृतिगत भिन्नता अथवा देशकालगत भिन्नता के विभाग किये हैं- एक संज्ञान-योग और दूसरा पुण्य-लक्षण ।२२ ज्ञानयोग आधार पर होकर तत्त्वतः एक ही होती है ।२६ वस्तुतः विषय-वासनाओं वस्तुतः शाश्वत सत्यों की अपरोक्षानुभूति है और इस प्रकार वह तार्किक से आक्रान्त लोगों के द्वारा ऋषियों की साधनागत विविधता के आधार ज्ञान से भिन्न है। हरिभद्र के अनुसार अन्धश्रद्धा से मुक्त होने के लिए पर स्वयं धर्म-साधना की उपादेयता पर कोई प्रश्नचिह्न लगाना अनुचित तर्क एवं युक्ति को सत्य का गवेषक होना चाहिए, न कि खण्डन- ही है। वस्तुत: हरिभद्र की मान्यता यह है कि धर्म-साधना के क्षेत्र में बाह्य मण्डनात्मक । खण्डन-मण्डनात्मक तर्क या युक्ति साधना के क्षेत्र में आचारगत भिन्नता या उपास्य की नामगत भिन्नता बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं उपयोगी नहीं है, इस तथ्य की विस्तृत चर्चा उन्होंने अपने ग्रन्थ है। महत्त्वपूर्ण यह है कि व्यक्ति अपने जीवन में वासनाओं का कितना योगदृष्टिसमुच्चय में की है । इसी प्रकार धार्मिक आचार को भी वे शमन कर सका है, उसकी कषायें कितनी शान्त हुई हैं और उसके शुष्क कर्मकाण्ड से पृथक् रखना चाहते हैं। यद्यपि हरिभद्र ने कर्मकाण्डपरक जीवन में समभाव और अनासक्ति कितनी सधी है। ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु पं० सुखलाल संघवी ने प्रतिष्ठाकल्प आदि को हरिभद्र द्वारा रचित मानने में सन्देह व्यक्त किया है। हरिभद्र के समस्त मोक्ष के सम्बन्ध में उदार दृष्टिकोण उपदेशात्मक साहित्य, श्रावक एवं मुनि-आचार से सम्बन्धित साहित्य हरिभद्र अन्य धर्माचार्यों के समान यह अभिनिवेश नहीं रखते को देखने से ऐसा लगता है कि वे धार्मिक जीवन के लिए सदाचार पर हैं कि मुक्ति केवल हमारी साधना-पद्धति या हमारे धर्म से ही होगी। ही अधिक बल देते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थों में आचार सम्बन्धी जिन बातों उनकी दृष्टि में मुक्ति केवल हमारे धर्म में है- ऐसी अवधारणा ही भ्रान्त का निर्देश किया है वे भी मुख्यतया व्यक्ति की चारित्रिक निर्मलता और है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कषायों के उपशमन के निमित्त ही हैं। जीवन में कषायें उपशान्त हों, नासाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। समभाव सधे यही उनकी दृष्टि में साधना का मुख्य उद्देश्य है। धर्म के न पक्षसेवाश्रयेन मुक्ति, कषाय मुक्ति किल मुक्तिरेव।। नाम पर पनपने वाले थोथे कर्मकाण्ड एवं छम जीवन की उन्होंने खुलकर ___ अर्थात् मुक्ति न तो सफेद वस्त्र पहनने से होती है, न दिगम्बर निन्दा की है और मुनिवेश में ऐहिकता का पोषण करने वालों को आड़े रहने से, तार्किक वाद-विवाद और तत्त्वचर्चा से भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो हाथों लिया है, उनकी दृष्टि में धर्म साधना का अर्थ है
सकती। किसी एक सिद्धान्त विशेष में आस्था रखने या किसी व्यक्ति अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः ।
विशेष की सेवा करने से भी मुक्ति असम्भव है। मुक्ति तो वस्तुतः कषायों मोक्षण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त होने में है। वे स्पष्ट रूप
- योगबिन्दु, ३१ से इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि मुक्ति का आधार कोई धर्म, साधनागत विविधता में एकता का दर्शन
सम्प्रदाय अथवा विशेष वेशभूषा नहीं है । वस्तुत: जो व्यक्ति समभाव धर्म साधना के क्षेत्र में उपलब्ध विविधताओं का भी उन्होंने की साधना करेगा, वीतराग दशा को प्राप्त करेगा, वह मुक्त होगा। उनके सम्यक् समाधान खोजा है। जिस प्रकार 'गीता' में विविध देवों की शब्दों मेंउपासना को युक्तिसंगत सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है, उसी प्रकार सेयंबरोय आसंबरो य बुद्धो य अहव अण्णो वा । हरिभद्र ने भी साधनागत विविधताओं के बीच एक समन्वय स्थापित
समभावभावि अप्या लहइ मुक्खं न संदेहो ।। करने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं कि जिस प्रकार राजा के विभिन्न अर्थात् जो भी समभाव की साधना करेगा वह निश्चित ही मोक्ष सेवक अपने आचार और व्यवहार में अलग-अलग होकर भी राजा के को प्राप्त करेगा, फिर चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर हो, बौद्ध हो सेवक हैं- उसी प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित आचार-पद्धतियाँ बाह्यतः या अन्य किसी धर्म को मानने वाला हो। भिन्न-भिन्न होकर भी तत्त्वत: एक ही हैं। सर्वज्ञों की देशना में नाम आदि का भेद होता है, तत्त्वत: भेद नहीं होता है ।२४
साधना के क्षेत्र में उपास्य का नाम-भेद महत्त्वपूर्ण नहीं हरिभद्र की दृष्टि में आचारगत और साधनागत जो भिन्नता है हरिभद्र की दृष्टि में आराध्य के नाम-भेदों को लेकर धर्म के वह मुख्य रूप से दो आधारों पर है। एक साधकों की रुचिगत विभिन्नता के क्षेत्र में विवाद करना उचित नहीं है। लोकतत्त्वनिर्णय में वे कहते हैंआधार पर और दूसरी नामों की भिन्नता के आधार पर। वे स्पष्ट रूप से यस्य अनिखिलाश्च दोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते । कहते हैं कि ऋषियों के उपदेश में जो भिन्नता है वह उपासकों की ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।।
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वस्तुत: जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिनमें सभी से चर्चा की थी, अब मैं उनकी क्रान्तिधर्मिता की चर्चा करना चाहूँगा। गुण विद्यमान हैं फिर उसे चाहे ब्रह्मा कहा जाये, चाहे विष्णु, चाहे जिन कहा जाय, उसमें भेद नहीं । सभी धर्म और दर्शनों में उस परमतत्त्व या क्रान्तदर्शी हरिभद्र परमसत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित विषय-वासनाओं हरिभद्र के धर्म-दर्शन के क्रान्तिकारी तत्त्व वैसे तो उनके सभी से ऊपर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है, किन्तु ग्रन्थों में कहीं न कहीं दिखाई देते हैं, फिर भी शास्त्रवार्तासमुच्चय, हमारी दृष्टि उस परमतत्त्व के मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी धूर्ताख्यान और सम्बोधप्रकरण में वे विशेषरूप से परिलक्षित होते हैं । होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं । जब कि यह नामों जहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय और धूर्ताख्यान में वे दूसरों की कमियों को का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है । योगदृष्टिसमुच्चय में उजागर करते हैं वहीं सम्बोधप्रकरण में अपने पक्ष की समीक्षा करते हुए वे लिखते हैं कि
उसकी कमियों का भी निर्भीक रूप से चित्रण करते हैं। सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च ।
हरिभद्र अपने युग के धर्म-सम्प्रदायों में उपस्थित अन्तर और शब्देस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एक एवैवमादिभिः ।। बाह्य के द्वैत को उजागर करते हुए कहते हैं, "लोग धर्म-मार्ग की बातें
अर्थात् सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में करते हैं, किन्तु सभी तो उस धर्म-मार्ग से रहित हैं ।" मात्र बाहरी केवल शब्द भेद हैं, उनका अर्थ तो एक ही है। वस्तुत: यह नामों का विवाद क्रियाकाण्ड धर्म नहीं है। धर्म तो वहाँ होता है जहाँ परमात्म-तत्त्व की तभी तक रहता है जब तक हम उस आध्यात्मिक सत्ता की अनुभूति नहीं गवेषणा हो । दूसरे शब्दों में, जहाँ आत्मानुभूति हो, 'स्व' को जानने और कर पाते हैं । व्यक्ति जब वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्ति की भूमिका पाने का प्रयास हो । जहाँ परमात्म-तत्त्व को जानने और पाने का प्रयास का स्पर्श करता है तब उसके सामने नामों का यह विवाद निरर्थक हो नहीं है वहाँ धर्म-मार्ग नहीं है । वे कहते हैं- जिसमें परमात्म-तत्त्व की जाता है। वस्तुत: आराध्य के नामों की भिन्नता भाषागत भिन्नता है, मार्गणा है, परमात्मा की खोज और प्राप्ति है, वही धर्म-मार्ग मुख्य-मार्ग स्वरूपगत भिन्नता नहीं । जो इन नामों के विवादों में उलझता है, वह है२८ । आगे वे पुनः धर्म के मर्म को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- जहाँ अनुभूति से वंचित हो जाता है । वे कहते हैं कि जो उस परमतत्त्व की विषय-वासनाओं का त्याग हो; क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषायों अनुभूति कर लेता है उसके लिये यह शब्दगत समस्त विवाद निरर्थक से निवृत्ति हो; वही धर्म-मार्ग है । जिस धर्म-मार्ग या साधना-पथ में हो जाते हैं।
इसका अभाव है वह तो (हरिभद्र की दृष्टि में) नाम का धर्म है। वस्तुतः इस प्रकार हम देखते हैं कि उदारचेता, समन्वयशील और धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ है और हो रहा है उसके सम्बन्ध में हरिभद्र सत्यनिष्ठ आचार्यों में हरिभद्र के समतुल्य किसी अन्य आचार्य को खोज की यह पीड़ा मर्मान्तक है । जहाँ विषय-वासनाओं का पोषण होता हो, जहाँ पाना कठिन है । अपनी इन विशेषताओं के कारण भारतीय दार्शनिकों घृणा-द्वेष और अहंकार के तत्त्व अपनी मुट्ठी में धर्म को दबोचे हुए हों, उसे के इतिहास में वे अद्वितीय और अनुपम हैं।
धर्म कहना धर्म की विडम्बना है । हरिभद्र की दृष्टि में वह धर्म नहीं अपितु
धर्म के नाम पर धर्म का आवरण डाले हुए कुछ अन्य अर्थात् अधर्म ही क्रान्तदर्शी समालोचक : जैन-परम्परा के सन्दर्भ में
है। विषय-वासनाओं और कषायों अर्थात् क्रोधादि दुष्प्रवृत्तियों के त्याग के हरिभद्र के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यह उक्ति अधिक सार्थक अतिरिक्त धर्म का अन्य कोई रूप हो ही नहीं सकता है। उन सभी लोगों है - 'कुसुमों से अधिक कोमल और वज्र से अधिक कठोर ।' उनके चिन्तन की, जो धर्म के नाम पर अपनी वासनाओं और अहंकार के पोषण का में एक ओर उदारता है, समन्वयशीलता है, अपने प्रतिपक्षी के सत्य को प्रयत्न करते हैं और मोक्ष को अपने अधिकार की वस्तु मानकर यह कहते समझने और स्वीकार करने का विनम्र प्रयास है तो दूसरी ओर असत्य और हैं कि मोक्ष केवल हमारे धर्म-मार्ग का आचरण करने से होगा, समीक्षा करते अनाचार के प्रति तीव्र आक्रोश भी है । दुराग्रह और दुराचार फिर चाहे वह हुए हरिभद्र यहाँ तक कह देते हैं कि धर्म-मार्ग किसी एक सम्प्रदाय की अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या अपने विरोधी के, उनकी समालोचना का बपौती नहीं है, जो भी समभाव की साधना करेगा वह मुक्त होगा, वह चाहे विषय बने बिना नहीं रहता है । वे उदार हैं, किन्तु सत्याग्रही भी । वे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई । वस्तुत: उस युग में समन्वयशील हैं, किन्तु समालोचक भी । वस्तुत: एक सत्य-द्रष्टा में ये दोनों जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश आज की भाँति ही अपने चरम सीमा पर थे, तत्त्व स्वाभाविक रूप से ही उपस्थित होते हैं । जब वह सत्य की खोज करता यह कहना न केवल हरिभद्र की उदारता की सदाशयता का प्रतीक है, है तो एक ओर सत्य को, चाहे फिर वह उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो अपितु उनके एक क्रान्तदर्शी आचार्य होने का प्रमाण भी है। उन्होंने जैनया उसके प्रतिपक्षी में, वह सदाशयतापूर्वक उसे स्वीकार करता है, किन्तु परम्परा के निक्षेप के सिद्धान्त को आधार बनाकर धर्म को भी चार भागों दूसरी ओर असत्य को, चाहे फिर वह उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या में विभाजित कर दिया. उसके प्रतिपक्षी में, वह साहसपूर्वक उसे नकारता है । हरिभद्र के व्यक्तित्व का यही सत्याग्रही स्वरूप उनकी उदारता और क्रान्तिकारिता का उत्स (१) नामधर्म - धर्म का वह रूप जो धर्म कहलाता है किन्तु
है। पूर्व में मैने हरिभद्र के उदार और समन्वयशील पक्ष की विशेष रूप जिसमें धार्मिकता का कोई लक्षण नहीं है । वह धर्मतत्त्व से रहित मात्र రురురురురురురురురురురురువారం.
రుచaninుగరు
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नाम का धर्म है।
२७३) । वस्तुतः यहाँ हरिभद्र ने मन्दिर निर्माण, प्रतिष्ठा, पूजा आदि
कार्यों में उलझने पर मुनि-वर्ग का जो पतन हो सकता था, उसका (२) स्थापनाधर्म - जिन क्रियाकाण्डों को धर्म मान लिया पूर्वानुमान कर लिया था । यति-संस्था के विकास से उनका यह अनुमान जाता है, वे वस्तुतः धर्म नहीं धार्मिकता के परिचायक बाह्य रूप मात्र सत्य ही सिद्ध हुआ । इस सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें एक हैं । पूजा, तप आदि धर्म के प्रतीक हैं, किन्तु भावना के अभाव में वे ओर उनके युग के समाज के प्रति उनकी आत्म-पीड़ा मुखर हो रही है वस्तुत: धर्म नहीं हैं । भावनारहित मात्र क्रियाकाण्ड स्थापना धर्म है। तो दूसरी ओर उसमें एक धर्मक्रान्ति का स्वर भी सुनाई दे रहा है । जिन
द्रव्य को अपनी वासना-पूर्ति का साधन बनाने वाले उन श्रावकों एवं (३) द्रव्यधर्म - वे आचार-परम्पराएँ जो कभी धर्म थी या तथाकथित श्रमणों को ललकारते हुए वे कहते हैं - जो श्रावक जिनधार्मिक समझी जाती थीं, किन्तु वर्तमान सन्दर्भ में धर्म नहीं हैं। प्रवचन और ज्ञान-दर्शन गुणों की प्रभावना और वृद्धि करने वाले जिनसत्वशून्य अप्रासंगिक बनी धर्म-परम्पराएँ ही द्रव्यधर्म हैं। द्रव्य का जिनाज्ञा के विपरीत उपयोग करते हैं, दोहन करते हैं अथवा
भक्षण करते हैं, वे क्रमश: भवसमुद्र में भ्रमण करने वाले, दुर्गति में जाने (४) भावधर्म - जो वस्तुतः धर्म है वही भाव धर्म है । यथा- वाले और अनन्त संसारी होते हैं ।३५ इसी प्रकार जो साधु जिनद्रव्य का समभाव की साधना, विषयकषाय से निवृत्ति आदि भावधर्म हैं। भोजन करता है वह प्रायश्चित् का पात्र है। वस्तुतः यह सब इस तथ्य
हरिभद्र धर्म के इन चार रूपों में भावधर्म को ही प्रधान मानते का भी सूचक है कि उस युग में धर्म साधना का माध्यम न रहकर वासनाहैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार तक्रादि के संयोग, मन्थन की प्रक्रिया पूर्ति का माध्यम बन रहा था। अत: हरिभद्र जैसे प्रबुद्ध आचार्य के लिये
और अग्नि द्वारा परितापन के फलस्वरूप दूध रूपी आत्मा घृत रूप उसके प्रति संघर्ष करना आवश्यक हो गया। परमात्मतत्त्व को प्राप्त होता है ।३२ वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह सम्बोधप्रकरण में हरिभद्र ने अपने युग के जैन-साधुओं का जो जो भागवत धर्म है, वही विशुद्धि का हेतु है । यद्यपि हरिभद्र के इस चित्रण किया है वह एक ओर जैन-धर्म में साधु-जीवन के नाम पर जो कथन का यह आशय भी नहीं लेना चाहिए कि हरिभद्र कर्मकाण्ड के कुछ हो रहा था उसके प्रति हरिभद्र की पीड़ा को प्रदर्शित करता है तो पूर्णत: विरोधी हैं। उन्होंने स्वयं ही सम्बोधप्रकरण की लगभग ५०-६० दूसरी ओर यह भी बताता है कि हरिभद्र तत्कालीन परिस्थितियों के मूक गाथाओं में आत्मशुद्धि निमित्त जिनपूजा और उसमें होने वाली आशातनाओं दर्शक और तटस्थ समीक्षक ही नहीं थे, अपितु उनके मन में सामाजिक का सुन्दर चित्रण किया है । मात्र उनका प्रतिपाद्य यह है कि इन और धार्मिक क्रान्ति की एक तीव्र आकांक्षा भी थी। वे अपनी समालोचना कर्मकाण्डों का मूल्य भावना-शुद्धि के आधार पर ही निर्धारित होता के द्वारा जनसमाज में एक परिवर्तन लाना चाहते थे । है।३४ यदि धार्मिक जीवन में वासना और कषायों का शमन और आत्म- तत्कालीन तथाकथित श्रमणों के आचार-व्यवहार पर कटाक्ष विशुद्धि नहीं होती है तो कर्मकाण्ड का कोई मूल्य नहीं रह जाता है। करते हुए वे लिखते हैं कि जिन-प्रवचन में पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, वस्तुत: हरिभद्र साध्य की उपलब्धि के आधार पर ही साधन का संसक्त और यथाछन्द (स्वेच्छाचारी)- ये पाँचों अवन्दनीय हैं । यद्यपि ये मूल्यांकन करते हैं। वे उन विचारकों में से हैं जिन्हें धर्म के मर्म की लोग जैन मुनि का वेश धारण करते हैं, किन्तु इनमें मुनित्व का लक्षण नहीं पहचान है, अत: वे धर्म के नाम पर ढोंग, आडम्बर और लोकैषणा की है। मुनि-वेश धारण करके भी क्या-क्या दुष्कर्म करते थे, इसका सजीव पूर्ति के प्रयत्नों को कोई स्थान नहीं देना चाहते हैं । यही उनकी चित्रण तो वे अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण के द्वितीय अधिकार में 'कुगुरु क्रान्तधर्मिता है।
गुर्वाभास पार्श्वस्थ आदि स्वरूप' के अर्न्तगत १७१ गाथाओं में विस्तार से हरिभद्र के युग में जैन-परम्परा में चैत्यवास का विकास हो करते हैं। इस संक्षिप्त निबन्ध में उन सबकी समग्र चर्चा एवं व्याख्या करना चुका था । अपने आपको श्रमण और त्यागी कहने वाला मुनिवर्ग तो सम्भव नहीं है, फिर भी हरिभद्र की कठोर समालोचक दृष्टि का परिचय जिनपूजा और मन्दिर निर्माण के नाम पर न केवल परिग्रह का संचय कर देने के लिये कुछ विवरण देना भी आवश्यक है। वे लिखते हैं, ये मुनिरहा था, अपितु जिनद्रव्य (जिन-प्रतिमा को समर्पित द्रव्य) का अपनी वेशधारी तथाकथित श्रमण आवास देने वाले का या राजा के यहाँ का भोजन विषय-वासनाओं की पूर्ति में उपयोग भी कर रहा था। जिन-प्रतिमा और करते हैं, बिना कारण ही अपने लिये लाए गए भोजन को स्वीकार करते जिन-मन्दिर तथाकथित श्रमणों की ध्यान-भूमि या साधना-भूमि न बनकर हैं, भिक्षाचर्या नहीं करते हैं, आवश्यक कर्म अर्थात् प्रतिक्रमण आदि श्रमणभोग-भूमि बन रहे थे । हरिभद्र जैसे क्रांतिदर्शी आचार्य के लिये यह सब जीवन के अनिवार्य कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं, कौतुक कर्म, भूत-कर्म, देख पाना सम्भव नहीं था, अत: उन्होंने इसके विरोध में अपनी कलम भविष्य-फल एवं निमित्त-शास्त्र के माध्यम से धन-संचय करते हैं, ये घृतचलाने का निर्णय लिया। वे लिखते हैं - द्रव्य-पूजा तो गृहस्थों के लिये मक्खन आदि विकृतियों को संचित करके खाते हैं, सूर्य-प्रमाण भोजी होते है, मुनि के लिए तो केवल भाव-पूजा है। जो केवल मुनिवेशधारी हैं, हैं अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक अनेक बार खाते रहते हैं, न तो साधूमुनि-आचार का पालन नहीं करते हैं, उनके लिए द्रव्य-पूजा जिन- समूह (मण्डली) में बैठकर भोजन करते हैं और न केशलुंचन करते हैं।७ प्रवचन की निन्दा का कारण होने से उचित नहीं है (सम्बोधप्रकरण, १/ फिर ये करते क्या हैं ? हरिभद्र लिखते हैं कि वे सवारी में घूमते हैं,
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अकारण कटि वस्त्र बाँधते हैं और सारी रात निश्चेष्ट होकर सोते रहते हैं। अरे, देवद्रव्य के भक्षण में तत्पर, उन्मार्ग के पक्षधर और साधुजनों न तो आते-जाते समय प्रमार्जन करते हैं, न अपनी उपधि (सामग्री) का को दूषित करने वाले इन वेशधारियों को संघ मत कहो । अरे, इन अधर्म प्रति-लेखन करते हैं और न स्वाध्याय ही करते हैं । अनेषणीय पुष्प, और अनीति के पोषक, अनाचार का सेवन करने वाले और साधुता के फूल और पेय ग्रहण करते हैं । भोज-समारोहों में जाकर सरस आहार चोरों को संघ मत कहो । जो ऐसे (दुराचारियों के समूह) को राग या ग्रहण करते हैं । जिन-प्रतिमा का रक्षण एवं क्रय-विक्रय करते हैं। द्वेष के वशीभूत होकर भी संघ कहता है उसे भी छेद-प्रायश्चित्त होता है उच्चाटन आदि कर्म करते हैं। नित्य दिन में दो बार भोजन करते हैं तथा ।४३ हरिभद्र पुन: कहते हैं - जिनाज्ञा का अपलाप करने वाले इन मुनि लवंग, ताम्बूल और दूध आदि विकृतियों का सेवन करते हैं । विपुल वेशधारियों के संघ में रहने की अपेक्षा तो गर्भवास और नरकवास कहीं मात्रा में दुकूल आदि वस्त्र, बिस्तर, जूते, वाहन आदि रखते हैं । स्त्रियों अधिक श्रेयस्कर है । के समक्ष गीत गाते हैं । आर्यिकाओं के द्वारा लायी सामग्री लेते हैं। हरिभद्र की यह शब्दावली इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि धर्म लोक-प्रतिष्ठा के लिए मुण्डन करवाते हैं तथा मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण के नाम पर अधर्म का पोषण करने वाले अपने ही सहवर्गियों के प्रति उनके धारण करते हैं । चैत्यों में निवास करते हैं, (द्रव्य) पूजा आदि कार्य मन में कितना विद्रोह एवं आक्रोश है । वे तत्कालीन जैन-संघ को स्पष्ट आरम्भ करवाते हैं, जिन-मन्दिर बनवाते हैं, हिरण्य-सुवर्ण रखते हैं, चेतावनी देते हैं कि ऐसे लोगों को प्रश्रय मत दो, उनका आदर-सत्कार मत नीच कुलों को द्रव्य देकर उनसे शिष्य ग्रहण करते हैं । मृतक-कृत्य करो, अन्यथा धर्म का यथार्थ स्वरूप धूमिल हो जाएगा। वे कहते हैं कि निमित्त जिन-पूजा करवाते हैं, मृतक के निमित्त जिन-दान (चढ़ावा) यदि आम और नीम की जड़ों का समागम हो जाय तो नीम का कुछ नहीं करवाते हैं । धन-प्राप्ति के लिये गृहस्थों के समक्ष अंग-सूत्र आदि का बिगड़ेगा, किन्तु उसके संसर्ग में आम का अवश्य विनाश हो जाएगा। प्रवचन करते हैं । अपने हीनाचारी मृत गुरु के निमित्त नदिकर्म, बलिकर्म वस्तुत: हरिभद्र की यह क्रान्तदर्शिता यथार्थ ही है, क्योंकि दुराचारियों के आदि करते हैं । पाठ-महोत्सव रचाते हैं । व्याख्यान में महिलाओं से सानिध्य में चारित्रिक पतन की सम्भावना प्रबल होती है। वे स्वयं कहते हैं, अपना गुणगान करवाते हैं । यति केवल स्त्रियों के सम्मुख और जो जिसकी मित्रता करता है, तत्काल वैसा हो जाता है । तिल जिस फूल आर्यिकाएँ केवल पुरुषों के सम्मुख व्याख्यान करती हैं । इस प्रकार में डाल दिये जाते हैं उसी की गन्ध के हो जाते हैं । ६ हरिभद्र इस माध्यम जिन-आज्ञा का अपलाप कर मात्र अपनी वासनाओं का पोषण करते हैं। से समाज को उन लोगों को सतर्क रहने का निर्देश देते हैं जो धर्म का ये व्याख्यान करके गृहस्थों से धन की याचना करते हैं। ये तो ज्ञान के नकाब डाले अधर्म में जीते हैं क्योंकि ऐसे लोग दुराचारियों की अपेक्षा भी विक्रेता हैं । ऐसे आर्यिकाओं के साथ रहने और भोजन करने वाले भी समाज के लिये अधिक खतरनाक हैं । आचार्य ऐसे लोगों पर कटाक्ष द्रव्य-संग्राहक, उन्मार्ग के पक्षधर मिथ्यात्वपरायण न तो मुनि कहे जा करते हुए कहते हैं- जिस प्रकार कुलवधू का वेश्या के घर जाना निषिद्ध सकते हैं और न आचार्य ही ।“ ऐसे लोगों का वन्दन करने से न तो है, उसी प्रकार सुश्रावक के लिये हीनाचारी यति का सान्निध्य निषिद्ध है। कीर्ति होती है और न निर्जरा ही, इसके विपरीत शरीर को मात्र कष्ट और दुराचारी अगीतार्थ के वचन सुनने की अपेक्षा तो दृष्टि विष सर्प का कर्मबन्धन होता है ।३९
सान्निध्य या हलाहल विष का पान कहीं अधिक अच्छा है (क्योंकि ये वस्तुत: जिस प्रकार गन्दगी में गिरी हुई माला को कोई भी धारण तो एक जीवन का विनाश करते हैं, जबकि दुराचारी का सानिध्य तो नहीं करता है, वैसे ही ये भी अपूज्य हैं। हरिभद्र ऐसे वेशधारियों को जन्म-जन्मान्तर का विनाश कर देता है)।७ फटकारते हुए कहते हैं - यदि महापूजनीय यति (मुनि) वेश धारण करके फिर भी ऐसा लगता है कि इस क्रान्तदशी आचार्य की बात शुद्ध चरित्र का पालन तुम्हारे लिए शक्य नहीं है तो फिर गृहस्थ वेश क्यों अनसुनी हो रही थी क्योंकि शिथिलाचारियों के अपने तर्क थे। वे लोगों नहीं धारण कर लेते हो? अरे, गृहस्थवेश में कुछ प्रतिष्ठा तो मिलेगी, के सम्मुख कहते थे कि सामग्री (शरीर-सामर्थ्य) का अभाव है । वक्र किन्तु मुनि-वेश धारण करके यदि उसके अनुरूप आचरण नहीं करोगे तो जड़ों का काल है । दुषमा-काल में विधि मार्ग के अनुरूप आचरण कठिन उल्टे निन्दा के ही पात्र बनोगे। यह उन जैसे साहसी आचार्य का कार्य है। यदि कठोर आचार की बात कहेंगे तो कोई मुनि-व्रत धारण नहीं हो सकता है जो अपने सहवर्गियों को इतने स्पष्ट रूप में कुछ कह सके। करेगा। तीर्थोच्छेद और सिद्धान्त के प्रवर्तन का प्रश्न है, हम क्या करें । जैसा कि मैंने पूर्व पृष्ठों में चर्चा की है, हरिभद्र तो इतने उदार हैं कि वे उनके इन तर्कों से प्रभावित हो मूर्ख जन-साधारण कह रहा था कि कुछ भी अपनी विरोधी दर्शन-परम्परा के आचार्यों को भी महामुनि, सुवैद्य जैसे उत्तम हो वेश तो तीर्थङ्कर-प्रणीत है, अत: वन्दनीय है । हरिभद्र भारी मन में से विशेषणों से सम्बोधित करते हैं, किन्तु वे उतने ही कठोर होना भी जानते मात्र यही कहते हैं कि मैं अपने सिर की पीड़ा किससे कहूँ ।४५ हैं, विशेष रूप से उनके प्रति जो धार्मिकता का आवरण डालकर भी किन्तु यह तो प्रत्येक क्रान्तिकारी की नियति होती है। प्रथम अधार्मिक हैं। ऐसे लोगों के प्रति यह क्रान्तिकारी आचार्य कहता है- क्षण में जनसाधारण भी उसके साथ नहीं होता है । अत: हरिभद्र का इस
ऐसे दुश्शील, साध-पिशाचों को जो भक्तिपूर्वक वन्दन नमस्कार पीड़ा से गुजरना उनके क्रान्तिकारी होने का ही प्रमाण है । सम्भवतः करता है, क्या वह महापाप नहीं है ?४२ अरे ! इन सुखशील स्वच्छन्दाचारी, जैन-परम्परा में यह प्रथम अवसर था, जब जैन समाज के तथाकथित मोक्ष-मार्ग के वैरी, आज्ञाभ्रष्ट साधुओं को संयति अर्थात् मुनि मत कहो। मुनि-वर्ग को इतना स्पष्ट शब्दों में किसी आचार्य ने लताड़ा हो। वे स्वयं
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दुःखी मन से कहते हैं - हे प्रभु ! जंगल में निवास और दरिद्र का साथ अभिनिवेश विकसित हो गया था। कुलगुरु की वैदिक अवधारणा की अच्छा है, अरे व्याधि ! और मृत्यु भी श्रेष्ठ है, किन्तु इन कुशीलों का भाँति प्रत्येक गुरु के आस-पास एक वर्ग एकत्रित हो रहा था जो उन्हें सान्निध्य अच्छा नहीं है । अरे । (अन्य परम्परा के) हीनाचारी का साथ अपना गुरु मानता था तथा अन्य को गुरु रूप में स्वीकार नहीं करता भी अच्छा हो सकता है, किन्तु इन कुशीलों का साथ तो बिल्कुल ही था। श्रावकों का एक विशेष समूह एक विशेष आचार्य को अपना गुरु अच्छा नहीं है । क्योंकि हीनाचारी तो अल्प नाश करता है किन्तु ये तो मानता था, जैसा कि आज भी देखा जाता है । हरिभद्र ने इस परम्परा शीलरूपी निधि का सर्वनाश ही कर देते हैं । वस्तुतः इस कथन के में साम्प्रदायिकता के दुरभिनिवेश के बीज देख लिये थे। उन्हें यह स्पष्ट पीछे आचार्य की एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि है। क्योंकि जब हम किसी को लग रहा था कि इससे साम्प्रदायिक अभिनिवेश दृढ़ होंगे। समाज विभिन्न इतर परम्परा का मान लेते हैं तो उसकी कमियों को कमियों के रूप में छोटे-छोटे वर्गों में बँट जाएगा। इसके विकास का दूसरा मुख्य खतरा ही जानते हैं । अत: उसके सम्पर्क के कारण संघ में उतनी विकृति नहीं यह था कि गुणपूजक जैन-धर्म व्यक्तिपूजक बन जायेगा और वैयक्तिक आती है, जितनी जैन-मुनि का वेश धारण कर दुराचार का सेवन करने रागात्मकता के कारण चारित्रिक दोषों के बावजूद एक विशेष वर्ग की, वाले के सम्पर्क से । क्योंकि उसके सम्पर्क से उस पर श्रद्धा होने पर एक विशेष आचार्य की इस परम्परा से रागात्मकता जुड़ी रहेगी । युगव्यक्ति का और संघ का जीवन पतित बन जाएगा । यदि सदभाग्य से द्रष्टा इस आचार्य ने सामाजिक विकृति को समझा और स्पष्ट रूप से अश्रद्धा हुई तो वह जिन-प्रवचन के प्रति अश्रद्धा को जन्म देगा (क्योंकि निर्देश दिया- श्रावक का कोई अपना और पराया गुरु नहीं होता है, सामान्यजन तो शास्त्र नहीं वरन् उस शास्त्र के अनुगामी का जीवन देखता जिनाज्ञा के पालन में निरत सभी उसके गुरु हैं ।५२ काश, हरिभद्र के द्वारा है), फलत: उभयतो सर्वनाश का कारण होगी, अत: आचार्य हरिभद्र बार- कथित इस सत्य को हम आज भी समझ सकें तो समाज की टूटी हुई बार जिन-शासन-रसिकों को निर्देश देते हैं-ऐसे जिन शासन के कलंक, कड़ियों को पुनः जोड़ा जा सकता है। शिथिलाचारियों और दुराचारियों की तो छाया से भी दूर रहो, क्योंकि ये तुम्हारे जीवन, चारित्रबल और श्रद्धा सभी को चौपट कर देंगे। हरिभद्र को क्रान्तदर्शी समालोचक : अन्य परम्पराओं के सन्दर्भ में जिन-शासन के विनाश का खतरा दूसरों से नहीं, अपने ही लोगों से
पूर्व में हमने जैन-परम्परा में व्याप्त अन्धविश्वासों एवं धर्म के नाम अधिक लगा । कहा भी है
पर होने वाली आत्म-प्रवंचनाओं के प्रति हरिभद्र के क्रान्तिकारी अवदान की इस घर को आग लग गई घर के चिराग से । चर्चा सम्बोधप्रकरण के आधार पर की है। अब मैं अन्य परम्पराओं में
वस्तुत: एक क्रान्तदर्शी आचार्य के रूप में हरिभद्र का मुख्य प्रचलित अन्धविश्वासों की हरिभद्र द्वारा की गई शिष्ट समीक्षा को प्रस्तुत उद्देश्य था जैन-संघ में उनके युग में जो विकृतियाँ आ गयी थीं, उन्हें करूँगा। दूर करना । अत: उन्होंने अपने ही पक्ष की कमियों को अधिक गम्भीरता हरिभद्र की कान्तदर्शी दृष्टि जहाँ एक ओर अन्य धर्म एवं दर्शनों से देखा । जो सच्चे अर्थ में समाज-सुधारक होता है, जो सामाजिक में निहित सत्य को स्वीकार करती है, वहीं दूसरी ओर उनकी अयुक्तिसंगत जीवन में परिवर्तन लाना चाहता है, वह प्रमुख रूप से अपनी ही कमियो कपोलकल्पनाओं की व्यंग्यात्मक शैली में समीक्षा भी करती है। इस सम्बन्ध को खोजता है । हरिभद्र ने इस रूप में सम्बोधप्रकरण में एक में उनका धूर्ताख्यान नामक ग्रन्थ विशेष महत्त्वपूर्ण है । इस ग्रन्थ की रचना क्रान्तिकारी की भूमिका निभाई है । क्रान्तिकारी के दो कार्य होते हैं, का मुख्य उद्देश्य भारत (महाभारत), रामायण और पुराणों की काल्पनिक एक तो समाज में प्रचलित विकृत मान्यताओं की समीक्षा करना और और अयुक्तिसंगत अवधारणाओं की समीक्षा करना है। यह समीक्षा उन्हें समाप्त करना, किन्तु मात्र इतने से उसका कार्य पूरा नहीं होता व्यंग्यात्मक शैली में है । धर्म के सम्बन्ध में कुछ मिथ्या विश्वास युगों से रहे है । उसका दूसरा कार्य होता है सत् मान्यताओं को प्रतिष्ठित या पुनः हैं, फिर भी पुराण-युग में जिस प्रकार मिथ्या-कल्पनाएँ प्रस्तुत की गईं - प्रतिष्ठित करना । हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने दोनों बातों को वे भारतीय मनीषा के दिवालियेपन की सूचक सी लगती हैं । इस पौराणिक अपनी दृष्टि में रखा है।
प्रभाव से ही जैन-परम्परा में भी महावीर के गर्भ-परिवर्तन, उनके अंगूठे को उन्होंने अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण में देव,गुरु, धर्म, श्रावक आदि दबाने मात्र से मेरु-कम्पन जैसी कुछ चामत्कारिक घटनाएँ प्रचलित हुईं। का सम्यक् स्वरूप कैसा होना चाहिए, इसकी भी विस्तृत व्याख्या की है। यद्यपि जैन-परम्परा में भी चक्रवर्ती, वासुदेव आदि की रानियों की संख्या हरिभद्र ने जहाँ वेशधारियों की समीक्षा की है, वहीं आगमोक्त दृष्टि से गुरु एवं उनकी सेना की संख्या, तीर्थङ्करों के शरीर-प्रमाण एवं आयु आदि के कैसा होना चाहिये, इसकी विस्तृत विवेचना भी की है। हम उसके विस्तार विवरण सहज विश्वसनीय तो नहीं लगते हैं, किन्तु तार्किक असंगति से युक्त में न जाकर संक्षेप में यह कहेंगे कि हरिभद्र की दृष्टि में जो पाँच महाव्रतों, नहीं हैं । सम्भवत: यह सब भी पौराणिक परम्परा का प्रभाव था जिसे जैनपाँच समितियों, तीन गुप्तियों के पालन में तत्पर है जो जितेन्द्रिय, संयमी, परम्परा को अपने महापुरुषों की अलौकिकता को बताने हेतु स्वीकार करना परिषहजयी, शुद्ध आचरण करने वाला और सत्य मार्ग को बताने वाला है, पड़ा था, फिर भी यह मानना होगा कि जैन-परम्परा में ऐसी कपोलवही सुगुरु है ।
कल्पनाएँ अपेक्षाकृत बहुत ही कम हैं । साथ ही महावीर के गर्भहरिभद्र के युग में गुरु के सम्बन्ध में एक प्रकार का वैयक्तिक परिवर्तन की घटना, जो मुख्यत: ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय की श्रेष्ठता
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स्थापित करने हेतु गढ़ी गई थी, के अतिरिक्त, सभी पर्याप्त परवर्ती काल की हैं और पौराणिक युग की ही देन हैं और इनमें कपोल-काल्पनिकता का पुट भी अधिक नहीं है। गर्भ परिवर्तन की घटना छोड़कर, जिसे आज विज्ञान ने सम्भव बना दिया है, अविश्वसनीय और अप्राकृतिक रूप से जन्म लेने का जैन परम्परा में एक भी आख्यान नहीं है, जबकि पुराणों में ऐसे हजार से अधिक आख्यान हैं। जैन परम्परा सदैव तर्कप्रधान रही है, यही कारण था कि महावीर की गर्भ-परिवर्तन की घटना को भी उसके एक वर्ग ने स्वीकार नहीं किया।
शरीर को पहाड़ के समान मानना, रावण द्वारा अपने सिरों को काटकर महादेव को अर्पण करना और उनका पुनः जुड़ जाना, बलराम का माया द्वारा गर्भ-परिवर्तन, बालक श्री कृष्ण के पेट में समग्र विश्व का समा जाना, अगस्त्य द्वारा समुद्र-पान और जह्रु के द्वारा गंगापान करना, कृष्ण द्वारा गोवर्धन उठा लेना आदि पुराणों में वर्णित अनेक घटनाएँ या तो उन महान् पुरुषों के व्यक्तित्व को धूमिल करती हैं या आत्म-विरोधी हैं अथवा फिर अविश्वसनीय हैं। यद्यपि यह विचारणीय है कि महावीर के गर्भ-परिवर्तन की घटना, जो कि निश्चित ही हरिभद्र के पूर्व पूर्णतः मान्य हो चुकी थी, को स्वीकार करके भी हरिभद्र बलराम के गर्भ परिवर्तन को कैसे अविश्वसनीय कह सकते है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि हरिभद्र धूर्ताख्यान में एक धूर्त द्वारा अपने जीवन में घटित अविश्वसनीय घटनाओं का उल्लेख करवाकर फिर दूसरे धूर्त से यह कहलवा देते हैं। कि यदि भारत (महाभारत), रामायण आदि में घटित उपर्युक्त घटनाएँ सत्य हैं, तो फिर यह भी सत्य हो सकता है ।
हरिभद्र द्वारा व्यंग्यात्मक शैली में रचित इस ग्रन्थ का उद्देश्य तो मात्र इतना ही है कि धर्म के नाम पर पलने वाले अन्धविश्वासों को नष्ट किया जाय और पौराणिक कथाओं में देव या महापुरुष के रूप में मान्य व्यक्तित्वों के चरित्र को अनैतिक रूप में प्रस्तुत करके उसकी आड़ में जो पुरोहित वर्ग अपनी दुश्चरित्रता का पोषण करना चाहता था, उसका पर्दाफाश किया जाय उस युग का पुरोहित प्रथम तो इन महापुरुषों के चरित्रों को अनैतिक रूप में प्रस्तुत कर और उसके आधार पर यह कहकर कि यदि कृष्ण: गोपियों के साथ छेड़छाड़ कर सकते हैं, विवाहिता राधा के साथ अपना प्रेम-प्रसंग चला सकते हैं, यदि इन्द्र महर्षि गौतम की पत्नी के साथ छल से सम्भोग कर सकता है तो फिर हमारे द्वारा यह सब करना दुराचार कैसे कहा जा सकता है ? वस्तुतः जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में वे अपनी परम्परा के श्रमण-वेशधारी दुश्चरित्र कुगुरुओं को फटकारते हैं, उसी प्रकार धूर्ताख्यान में वे ब्राह्मण परम्परा के तथाकथित धर्म के ठेकेदारों को लताड़ते हैं। फिर भी हरिभद्र की फटकारने की दोनों शैलियों में बहुत बड़ा अन्तर है । सम्बोधप्रकरण में वे सीधे फटकारते हैं जब कि धूर्ताख्यान में व्यंग्यात्मक शैली में इसमें हरिभद्र की एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि छिपी हुई है। हमें जब अपने घर के किसी सदस्य को कुछ कहना होता है तो परोक्ष रूप में तथा सभ्य शब्दावली का प्रयोग करते है । हरिभद्र धूर्ताख्यान में इस दूसरी व्यंग्यपरक शिष्ट शैली का प्रयोग करते हैं और अन्य परम्परा के देव और गुरु पर सीधा आक्षेप नहीं करते हैं।
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दूसरे धूर्ताख्यान, शास्त्रवार्तासमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्चय, लोकतत्त्वनिर्णय, सावयपण्णत्ति आदि से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आराध्य या उपास्य के नाम के सम्बन्ध में हरिभद्र के मन में कोई आग्रह नहीं है, मात्र आग्रह है तो इस बात का कि उसका चरित्र निर्दोष और निष्कलंक हो। धूर्ताख्यान में उन्होंने उन सबकी समालोचना की है जो अपनी वासनाओं की पुष्टि के निमित्त अपने उपास्य के चरित्र को धूमिल करते हैं। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि कृष्ण के चरित्र में राधा और गोपियों को डाल कर हमारे पुरोहित वर्ग ने क्या-क्या नहीं किया ? १०4] लक्ष्यले ि
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हरिभद्र के ग्रन्थों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये एक ऐसे आचार्य हैं जो युक्ति को प्रधानता देते हैं। उनका स्पष्ट कथन है कि महावीर ने हमें कोई धन नहीं दिया है और कपिल आदि ऋषियों ने हमारे धन का अपहरण नहीं किया है, अतः हमारा न तो महावीर के प्रति राग है और न कपिल आदि ऋषियों के प्रति द्वेष । जिसकी भी बात युक्तिसंगत हो उसे ग्रहण करना चाहिये ।" इस प्रकार हरिभद्र तर्क को ही श्रद्धा का आधार मानकर चलते हैं। जैन परम्परा के अन्य आचार्यों के समान वे भी श्रद्धा के विषय देव, गुरु और धर्म के यथार्थ स्वरूप के निर्णय के लिए क्रमशः वीतरागता, सदाचार और अहिंसा को कसौटी मानकर चलते हैं और तर्क या युक्ति से जो इन कसौटियों पर खरा उतरता है, उसे स्वीकार करने की बात कहते हैं । जिस प्रकार सम्बोधप्रकरण में मुख्य रूप से गुरु के स्वरूप की समीक्षा करते हैं उसी प्रकार धूर्ताख्यान में वे परोक्षत: देव या आराध्य के स्वरूप की समीक्षा करते प्रतीत होते हैं। वे यह नहीं कहते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु एवं महादेव हमारे आराध्य नहीं हैं। वे तो स्वयं ही कहते हैं जिसमें कोई भी दोष नहीं है और जो समस्त गुणों से युक्त है वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो या महादेव हो, उसे मैं प्रणाम करता हूँ" । उनका कहना मात्र यह है कि पौराणिकों ने कपोल कल्पनाओं के आधार पर उनके चरित्र एवं व्यक्तित्व को जिस अतर्कसंगत एवं भ्रष्ट रूप में प्रस्तुत किया है उससे न केवल उनका व्यक्तित्व धूमिल होता है, अपितु वे जन-साधरण की अश्रद्धा का कारण बनते हैं ।
धूर्ताख्यान के माध्यम से हरिभद्र ऐसे अतर्कसंगत अन्धविश्वासों से जन-साधारण को मुक्त करना चाहते हैं, जिनमें उनके आराध्य और उपास्य देवों को चरित्रहीन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उदाहरण के रूप में चन्द्र, सूर्य, इन्द्र, वायु, अग्नि और धर्म का कुमारी एवं बाद में पाण्डुपत्नी कुन्ती से यौन-सम्बन्ध स्थापित कर पुत्र उत्पन्न करना, गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या से इन्द्र द्वारा अनैतिक रूप में यौन-सम्बन्ध स्थापित करना, लोकव्यापी विष्णु का कामी जनों के समान गोपियों के लिए उद्विग्न होना आदि कथानक इन देवों की गरिमा को खण्डित करते हैं। इसी प्रकार हनुमान का अपनी पूंछ से लंका को घेर लेना अथवा पूरे पर्वत को उठा लाना, सूर्य और अग्नि के साथ सम्भोग करके कुन्ती का न जलना, गंगा का शिव की जटा में समा जाना, द्रोणाचार्य का द्रोण से, कर्ण का कान से, कीचक का बाँस की नली से एवं रक्त कुण्डलिन् का रक्तबिन्दु से जन्म लेना, अण्डे से जगत् की उत्पत्ति, शिवलिंग का विष्णु द्वारा अन्त न पानह, किन्तु उसी लिंग का पार्वती की योनि में समा जाना, जटायु के
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हरिभद्र इस सम्बन्ध में सीधे तो कुछ नहीं कहते हैं, मात्र एक लिकबहुटीका । २१. देवेन्द्रनरकेन्द्रप्रकरण ।२२. द्विजवदनचपेटा । प्रश्न चिह्न छोड़ देते हैं कि सराग और सशस्त्र देव में देवत्व (उपास्य) २३. धर्मबिन्दु । २४. धर्मलाभसिद्धि । २५. धर्मसंग्रहणी । की गरिमा कहाँ तक ठहर पायेगी । अन्य परम्पराओं के देव और गुरु २६. धर्मसारमूलटीका ।२७. धूर्ताख्यान । २८. नंदीवृत्ति । २९. न्यायके सम्बन्ध में उनकी सौम्य एवं व्यंग्यात्मक शैली जहाँ पाठक को प्रदेशसूत्रवृत्ति । ३०. न्यायविनिश्चय। ३१. न्यायामृततरंगिणी । चिन्तन के लिए विवश कर देती है, वहीं दूसरी ओर वह उनके ३२. न्यायावतारवृत्ति । ३३. पंचनिग्रन्थी। ३४. पंचलिंगी । क्रान्तिकारी, साहसी व्यक्तित्व को प्रस्तुत कर देती है । हरिभद्र सम्बोधप्रकरण ३५. पंचवस्तुसटीक । ३६. पंचसंग्रह । ३७. पंचसूत्रवृत्ति । में स्पष्ट कहते हैं कि रागी-देव, दुराचारी-गुरु और दूसरों को पीड़ा ३८. पंचस्थानक । ३९. पंचाशक । ४०. परलोकसिद्धि । ४१. पिंडनियुक्तिवृत्ति। पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों को धर्म मानना, धर्म साधना के सम्यक् स्वरूप ४२. प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या । ४३. प्रतिष्ठाकल्प । ४४. बृहन्मिथ्यात्वमंथन को विकृत करना है । अत: हमें इन मिथ्या विश्वासों से ऊपर उठना ४५. मुनिपतिचरित्र ४६. यतिदिनकृत्य । ४७. यशोधरचरित । होगा । इस प्रकार हरिभद्र जनमानस को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने का ४८. योगदृष्टिसमुच्चय। ४९. योगबिन्दु । ५०. योगशतक । प्रयास कर अपने क्रान्तदर्शी होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
५१. लग्नशुद्धि । ५२. लोकतत्त्वनिर्णय । ५३. लोकबिन्दु । वस्तुत: हरिभद्र के व्यक्तित्व में एक ओर उदारता और ५४. विंशतिविंशिका । ५५. वीरस्तव । ५६. वीरांगदकथा । समभाव के सद्गुण हैं तो दूसरी ओर सत्यनिष्ठा और स्पष्टवादिता भी है। ५७. वेदबाह्यतानिराकरण । ५८. व्यवहारकल्प । ५९. शास्त्रउनका व्यक्तित्व अनेक सदुणों का एक पूँजीभूत स्वरूप है । वे पूर्वाग्रह या वार्तासमुच्चयसटीक । ६०. श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति । ६१. श्रावकधर्मतंत्र । पक्षाग्रह से मुक्त हैं, फिर भी उनमें सत्याग्रह है जो उनकी कृतियों में स्पष्टतः ६२. षड्दर्शनसमुच्चय । ६३. षोडशक ।६४. समकित पचासी। ६५. परिलक्षित होता है।
संग्रहणीवृत्ति । ६६. संमत्तसित्तिरी । ६७. संबोधसित्तरी। ६८. समराइच्चकहा। आचार्य हरिभ्रद की रचनाधर्मिता अपूर्व है, उन्होंने धर्म, दर्शन ६९. सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणसटीक । ७०. स्याद्वादकुचोद्यपरिहार। योग, कथा साहित्य सभी पक्षों पर अपनी लेखनी चलाई । उनकी किन्तु इनमें कुछ ग्रन्थ ऐसे भी जिन्हें 'भवविरहांक' समदर्शी रचनाओं को ३ भागों में विभक्त किया जा सकता है।
आचार्य हरिभद्र की कृति है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है । आगे हम उन्हीं १. आगमग्रन्थों एवं पूर्वाचार्यों की कृतियों पर टीकाएँ. कृतियों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं जो निश्चित रूप से समदर्शी एवं आचार्य हरिभद्र आगमों के प्रथम संस्कृत-टीकाकार हैं । उनकी टीकाएँ भव-विरहांक से सूचित याकिनीसूनु हरिभद्र द्वारा प्रणीत हैं । अधिक व्यवस्थित और तार्किकता लिये हुये हैं।
आगमिक व्याख्याएँ २. स्वरचित ग्रन्थ एवं स्वोपज्ञ टीकाएँ - आचार्य ने जैन- जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है, हरिभद्र जैन-आगमों की दर्शन और समकालीन अन्य दर्शनों का गहन अध्ययन करके उन्हें संस्कृत में व्याख्या लिखने वाले प्रथम आचार्य हैं । आगमों की व्याख्या अत्यन्त स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है । इन ग्रन्थों में सांख्य-योग, न्याय- के सन्दर्भ में उनके निम्न ग्रन्थ उपलब्ध हैं - वैशेषिक, अद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि दर्शनों का प्रस्तुतीकरण एवं (१) दशवैकालिक वृत्ति, (२) आवश्यक लघुवृत्ति, (३) मायक् समालोचना की है। जैन-योग के तो वे आदि प्रणेता थे, उनका अनुयोगद्वार वृत्ति, (४) नन्दी वृत्ति, (५) जीवाभिगमसूत्र लघुवृत्ति (६) योग विषयक ज्ञान मात्र सैद्धान्तिक नहीं था। इसके साथ ही उन्होंने चैत्यवन्दनसूत्र वृत्ति (ललितविस्तरा) और (७) प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या । अनेकान्तजयपताका नामक क्लिष्ट न्याय ग्रन्थ की भी रचना की।
इनके अतिरिक्त आवश्यक सूत्र बृहत्वृत्ति और पिण्डनियुक्ति३. कथा-साहित्य • आचार्य ने लोक प्रचलित कथाओं के वृत्ति के लेखक भी आचार्य हरिभद्र माने जाते हैं, किन्तु वर्तमान में माध्यम से धर्म-प्रचार को एक नया रूप दिया है । उन्होंने व्यक्ति और आवश्यक वृत्ति अनुपलब्ध है । जो पिण्डनियुक्तिटीका मिलती है उसकी समाज की विकृतियों पर प्रहार कर उनमें सुधार लाने का प्रयास किया उत्थानिका में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इस ग्रन्थ का प्रारम्भ तो हरिभद्र ने है। समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान और अन्य लघु कथाओं के माध्यम से किया था, किन्तु वे इसे अपने जीवन-काल में पूर्ण नहीं कर पाए, उन्होंने उन्होंने अपने युग की संस्कृति का स्पष्ट एवं सजीव चित्रांकन किया है। स्थापनादोष तक की वृत्ति लिखी थी, उसके आगे किसी वीराचार्य ने लिखी। ___ आचार्य हरिभद्र-विरचित ग्रन्थ-सूची निम्न है -
आचार्य हरिभद्र द्वारा विरचित व्याख्या ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय १. अनुयोगद्वार- वृत्ति । २. अनेकान्तजयपताका । इस प्रकार है - ३. अनेकान्तघट्ट । ४. अनेकान्तवादप्रवेश । ५. अष्टक । १. दशवैकालिक वृत्ति - यह वृत्ति शिष्यबोधिनी या बृहवृत्ति ६. आवश्यकनियुक्तिलघुटीका । ७. आवश्यकनियुक्तिबहुटीका । के नाम से भी जानी जाती है । वस्तुत: यह वृत्ति दशवैकालिक सूत्र की ८. उपदेशपद । ९. कथाकोश । १०. कर्मस्तववृत्ति । ११. कुलक। अपेक्षा उस पर भद्रबाहुविरचित नियुक्ति पर है । इसमें आचार्य ने १२. क्षेत्रसमासवृत्ति । १३. चतुर्विंशतिस्तुति । १४. चैत्यवंदनभाष्य । दशवैकालिक शब्द का अर्थ, ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल की आवश्यकता १५. चैत्यवन्दनवृत्ति । १६. जीवाभिगमलघुवृत्ति ।१७. ज्ञानपंचकविवरण। और उसकी व्युत्पत्ति को स्पष्ट करने के साथ ही दशवैकालिक की रचना १८. ज्ञानदिव्यप्रकरण। १९. दशवैकालिक-अवचूरि ।२० दशवैका- क्यों की गई इसे स्पष्ट करते हुए सय्यंभव और उनके पुत्र मनक के पूर्ण
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यतीन्द्रसूरि मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
कथानक का भी उल्लेख किया है । प्रथम अध्याय की टीका में आचार्य शासन में उत्पन्न चार अनुयोगों का विभाजन करने वाले आर्यरक्षित से ने तप के प्रकारों की चर्चा करते हुए ध्यान के चारों प्रकारों का सुन्दर सम्बद्ध गाथाओं का वर्णन है । चतुर्विंशतिस्तव और वंदना नामक विवेचन प्रस्तुत किया है। इस प्रथम अध्याय की टीका में प्रतिज्ञा, हेतु, द्वितीय और तृतीय आवश्यक का नियुक्ति के अनुसार व्याख्यान कर उदाहरण आदि अनुमान के विभिन्न अवयवों एवं हेत्वाभासों की भी चर्चा प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ आवश्यक की व्याख्या में ध्यान पर विशेष के अतिरिक्त उन्होंने इसमें निक्षेप के सिद्धान्तों का भी विवेचन किया है। प्रकाश डाला गया है । साथ ही सात प्रकार के भयस्थानों सम्बन्धी
दूसरे अध्ययन की वृत्ति में तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, अतिचारों की आलोचना की गाथा उद्धृत की गई है । पञ्चम आवश्यक पाँच इन्द्रिय, पाँच स्थावरकाय, दस प्रकार का श्रमण धर्म और १८००० के रूप में कायोत्सर्ग का विवरण देकर पंचविधकाय के उत्सर्ग की शीलांगों का भी निर्देश मिलता है । साथ ही इसमें रथनेमि और राजीमती तथा षष्ठ आवश्यक में प्रत्याख्यान की चर्चा करते हुए वृत्तिकार ने के उत्तराध्ययन में आए हुए कथानक का भी उल्लेख है । तृतीय शिष्यहिता नामक आवश्यक टीका सम्पन्न को है। आचार्य हरिभद्र अध्ययन की वृत्ति में महत् और क्षुल्लक शब्द के अर्थ को स्पष्ट करने की यह वृत्ति २२,००० श्लोक प्रमाण है। के साथ ही ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार को ३. अनुयोगद्वार वृत्ति- यह टीका अनुयोगद्वार चूर्णि की शैली स्पष्ट किया गया है तथा कथाओं के चार प्रकारों को उदाहरण सहित पर लिखी गयी है जो कि नन्दीवृत्ति के बाद की कृति है । इसमें समझाया गया है । चतुर्थ अध्ययन की वृत्ति में पञ्चमहाव्रत और आवश्यक' शब्द का निपेक्ष-पद्धति से विचार कर नामादि आवश्यकों रात्रिभोजन-विवरण की चर्चा के साथ-साथ जीव के स्वरूप पर भी का स्वरूप बताते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव का स्वरूप स्पष्ट दार्शनिक दृष्टि से विचार किया गया है । इसमें भाष्यगत अनेक गाथाएँ किया गया है। श्रुत का निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया है । स्कन्ध, भी उद्धृत गयी हैं। इसी प्रकार पंचम अध्ययन की वृत्ति में १८ स्थाणु उपक्रम आदि के विवेचन के बाद आनुपूर्वी को विस्तार से प्रतिपादित अर्थात् व्रत-षट्क, काय-षट्क, अकल्प्य भोजन-वर्जन, गृहभाजनवर्जन, किया है । इसके बाद द्विनाम, त्रिनाम, चतुर्नाम, पञ्चनाम, षट्नाम, पर्यंकवर्जन, निषिध्यावर्जन, स्नानवर्जन और शोभावर्जन का उल्लेख हुआ सप्तनाम, अष्टनाम, नवनाम और दशनाम का व्याख्यान किया गया है। है । षष्ठ अध्ययन में क्षुल्लकाचार का विवेचन किया गया है। सप्तम प्रमाण का विवेचन करते हुए विविध अंगुलों के स्वरूप का वर्णन तथा अध्ययन की वृत्ति में भाषा की शुद्धि-अशुद्धि का विचार है । अष्टम समय के विवेचन में पल्योपम का विस्तार से वर्णन किया गया है। अध्ययन की वृत्ति में आचार-प्रणिधि की प्रक्रिया एवं फल का प्रतिपादन शरीर पञ्चक के पश्चात् भावप्रमाण में प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य, आगम, है। नवम अध्ययन की वृत्ति में विनय के प्रकार और विनय के फल तथा दर्शन चारित्र, नय और संख्या का व्याख्यान है । नय पर पुनः विचार अविनय से होने वाली हानियों का चित्रण किया गया है । दशम अध्ययन करते हुए ज्ञाननय और क्रियानय का स्वरूप निरूपित करते हुए ज्ञान की वृत्ति भिक्षु के स्वरूप की चर्चा करती है । दशवैकालिक वृत्ति के अंत और क्रिया दोनों की एक साथ उपयोगिता को सिद्ध किया गया है। में आचार्य ने अपने को महत्तरा याकिनी का धर्मपुत्र कहा है।
४. नन्दी वृत्ति - यह वृत्ति नन्दीचूर्णि का ही रूपान्तर है । इसमें २. आवश्यक वृत्ति - यह वृत्ति आवश्यक नियुक्ति पर प्राय: उन्हीं विषयों के व्याख्यान हैं जो नन्दीचूर्णि में हैं। इसमें प्रारम्भ आधारित है। आचार्य हरिभद्र ने इसमें आवश्यक सूत्रों का पदानुसरण में नन्दी के शब्दार्थ, निक्षेप आदि एवं उसके बाद जिन, वीर और संघ न करते हुए स्वतन्त्र रीति से नियुक्ति-गाथाओं का विवेचन किया है। की स्तुति की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए तीर्थङ्करावलिका, गणधरावलिका नियुक्ति की प्रथम गाथा की व्याख्या करते हुए आचार्य ने पाँच प्रकार और स्थविरावलिका का प्रतिपादन किया गया है । नन्दी वृत्ति में ज्ञान के के ज्ञान का स्वरूप प्रतिपादित किया है । इसी प्रकार मति, श्रुत, अवधि, अध्ययन की योग्यता-अयोग्यता पर विचार करते हुए लिखा है कि अयोग्य मनःपर्यय और केवल की भी भेद-प्रभेदपूर्वक व्याख्या की गई है। को ज्ञान-दान से वस्तुत: अकल्याण ही होता है । इसके बाद तीन प्रकार की सामायिक नियुक्ति की व्याख्या में प्रवचन की उत्पत्ति के प्रसंग पर पर्षद् का व्याख्यान, ज्ञान के भेद-प्रभेद, स्वरूप, विषय आदि का विवेचन प्रकाश डालते हुए बताया है कि कुछ पुरुष स्वभाव से ही ऐसे होते हैं, किया गया है। केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन के क्रमिक उपयोग आदि का जिन्हें वीतराग की वाणी अरुचिकर लगती है, इसमें प्रवचनों का कोई प्रतिपादन करते हुए युगपद्वाद के समर्थक सिद्धसेन आदि का, क्रमिकत्व दोष नहीं है । दोष तो उन सुनने वालों का है। साथ ही सामायिक के के समर्थक जिनभद्रगणि आदि का तथा अभेदवाद के समर्थक वृद्धाचार्यों उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र आदि तेईस द्वारों का विदेचन करते हुए का उल्लेख किया गया है । इसमें वर्णित सिद्धसेन, सिद्धसेन दिवाकर सामायिक के निर्गमद्वार के प्रसंग में कुलकरों की उत्पत्ति,उनके पूर्वभव, से भिन्न हैं, क्योंकि सिद्धसेन दिवाकर तृतीय मत अभेदवाद के प्रवर्तक आयु का वर्णन तथा नाभिकुलकर के यहाँ भगवान् ऋषभदेव का जन्म, हैं। द्वितीय मत क्रमिकत्व के समर्थक जिनभद्र आदि को सिद्धान्तवादी तीर्थङ्कर नाम, गोत्रकर्मबंधन के कारणों पर प्रकाश डालते हुए अन्य कहा गया है । अन्त में श्रुत के श्रवण और व्याख्यान की विधि बताते आख्यानों की भाँति प्राकृत में धन नामक सार्थवाह का आख्यान दिया हुए आचार्य ने नन्द्यध्ययन-विवरण सम्पत्र किया है। गया है । ऋषभदेव के पारणे का उल्लेख करते हुए विस्तृत विवेचन ५. जीवाभिगमसूत्र-लघुवृत्ति - इस वृत्ति के अपरनाम के रूप हेतु 'वसुदेवहिंडी' का नामोल्लेख किया गया है । भगवान् महावीर के में 'प्रदेशवृत्ति' का उल्लेख मिलता है । इसका ग्रन्थान ११९२ गाथाएँ
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है किन्तु वृत्ति अनुपलब्ध है । जीवाभिगमसूत्र पर आचार्य मलयगिरि पद में उपयोग और पश्यता की भेदरेखा स्पष्ट करते हुए साकार उपयोग कृत एकमात्र वृत्ति उपलब्ध है जिसमें अनेक ग्रन्थ और ग्रन्थकारों के आठ प्रकार और साकार पश्यता के छ: प्रकार बताए गए हैं। का नामोल्लेख भी किया गया है । उसमें हरिभद्रकृत तत्त्वार्थ टीका का उल्लेख है, परन्तु जीवाभिगम पर उनकी किसी वृत्ति का आचार्य हरिभद्र की स्वतंत्र कृतियाँ उल्लेख नहीं है।
षोडशक - इस कृति में एक-एक विषयों को लेकर १६-१६ ६. चैत्यवन्दनसूत्र-वृत्ति (ललितविस्तरा) - चैत्यवन्दन के पद्यों में आचार्य हरिभद्र ने १६ षोडशकों की रचना की है । ये १६ सूत्रों पर हरिभद्र ने ललितविस्तरा नाम से एक विस्तृत व्याख्या की रचना षोडशक इस प्रकार हैं - (१) धर्मपरीक्षाषोडशक,(२) सद्धर्मदेशनाषोडषक, की है । यह कृति बौद्ध-परम्परा के ललितविस्तर की शैली में प्राकृत मिश्रित (३) धर्मलक्षणषोडशक (४)धर्मलिंगषोडशक, (५) लोकोत्तरतत्त्वप्राप्तिषोडशक, संस्कृत में रची गयी है । यह ग्रंथ चैत्यवन्दन के अनुष्ठान में प्रयुक्त होने (६) जिनमंदिर निर्माणषोडशक, (७) जिनबिम्बषोडशक,(८) प्रतिष्ठाषोडशक, वाले प्राणातिपातदण्डकसूत्र (नमोत्थुणं), चैत्यस्तव (अरिहंत चेईयाणं), (९) पूजास्वरूपषोडशक, (१०) पूजाफलषोडशक, (११) श्रुतज्ञानलिङ्गषोडशक, चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स), श्रुतस्तव (पुक्खरवर), सिद्धस्तव (सिद्धाणं- (१२) दीक्षाधिकारिषोडशक, (१३) गुरुविनयषोडशक, (१४) योगभेद षोडशक, बुद्धाणं), प्रणिधानसूत्र (जय-वीयराय) आदि के विवेचन के रूप में लिखा (१५) ध्येयस्वरूपषोडशक (१६) समरसषोडशक । इनमें अपने-अपने गया है। मुख्यत: तो यह ग्रन्थ अरहन्त परमात्मा की स्तुतिरूप ही है, परन्तु नाम के अनुरूप विषयों की चर्चा है। आचार्य हरिभद्र ने इसमें अरिहन्त परमात्मा के विशिष्ट गुणों का परिचय देते विंशतिविंशिका - विंशतिविंशिका नामक आचार्य हरिभद्र की हुए अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य में तर्कपूर्ण समीक्षा भी की यह कृति २०-२० प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है । ये विशिकाएँ है। इसी प्रसंग में इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम यापनीय-मान्यता के आधार पर निम्नलिखित हैं-प्रथम अधिकार विंशिका में २० विशिकाओं के विषय का स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया गया है ।
विवेचन किया गया है । द्वितीय विंशिका में लोक के अनादि स्वरूप का ७. प्रज्ञापना-प्रदेश-व्याख्या - इस टीका के प्रारम्भ में विवेचन है । तृतीय विंशिका में कुल, नीति और लोकधर्म का विवेचन जैनप्रवचन की महिमा के बाद मंगल की महिमा का विशेष विवेचन है। चतुर्थ विंशिका का विषय चरमपरिवर्त है । पाँचवीं विंशिका में शुद्ध करते हुए आवश्यक टीका का नामोल्लेख किया गया है । भव्य और धर्म की उपलब्धि कैसे होती है, इसका विवेचन है । छठी विंशिका में अभव्य का विवेचन करने के बाद प्रथम पद की व्याख्या में प्रज्ञापना के सद्धर्म का एवं सातवीं विंशिका में दान का विवेचन है। आठवीं विंशिका विषय, कर्तत्व आदि का वर्णन किया गया है । जीव-प्रज्ञापना और में पूजा-विधान की चर्चा है । नवीं विंशिका में श्रावकधर्म, दशवीं अजीव-प्रज्ञापना का वर्णन करते हुए एकेन्द्रियादि जीवों का विस्तारपूर्वक विंशिका में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं एवं ग्यारहवीं विंशिका में वर्णन किया गया है । द्वितीय पद की व्याख्या में पृथ्वीकाय, अप्काय,
मुनिधर्म का विवेचन किया गया है । बारहवीं विंशिका भिक्षा-विंशिका अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रियादि के स्थानों का
है। इसमे मुनि के भिक्षा-सम्बन्धी दोषों का विवेचन है । तेरहवीं, वर्णन किया गया है । तृतीय पद की व्याख्या में कायाद्यल्प-बहुत्व,
शिक्षा-विंशिका है । इसमें धार्मिक जीवन के लिये योग्य शिक्षाएँ प्रस्तुत आयुर्बन्ध का अल्प-बहुत्व, वेद, लेश्या, इन्द्रिय आदि दृष्टियों से जीव
की गई हैं। चौदहवीं अन्तरायशुद्धि-विशिंका में शिक्षा के सन्दर्भ में होने विचार, लोक सम्बन्धी अल्प-बहुत्व, पुद्गलाल्प-बहुत्व, द्रव्याल्प-बहुत्व
वाले अन्तरायों का विवेचन है । ज्ञातव्य है कि इस विंशिका में मात्र छ: अवगाढाल्प-बहुत्व आदि पर विचार किया गया है। चतुर्थ पद में नारकों
गाथाएँ ही मिलती हैं, शेष गाथाएँ किसी भी हस्तप्रति में नहीं मिलती की स्थिति तथा पञ्चम पद की व्याख्या में नारकपर्याय, अवगाह,
हैं । पन्द्रहवीं आलोचना-विंशिका है। सोलहवीं विंशिका प्रायश्चित्त
विंशिका है। इसमें विभिन्न प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त विवेचन है । सत्रहवीं षट्स्थानक, कर्मस्थिति और जीवपर्याय का विश्लेषण किया गया है ।
विंशिका योगविधान-विंशिका है। उसमें योग के स्वरूप का विवेचन है षष्ठ और सप्तम पद में नारक सम्बन्धी विरहकाल का वर्णन है । अष्टम
। अट्ठारहवीं केवलज्ञान-विंशिका में केवलज्ञान के स्वरूप का विश्लेषण पद में संज्ञा का स्वरूप बताया है । नवम पद में विविध योनियों एवं
है । उन्नीसवीं सिद्धविभक्ति-विंशिका में सिद्धों का स्वरूप वर्णित है । दशम पद में रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों का चरम और अचरम की दृष्टि से
बीसवीं सिद्धसुख-विंशिका है जिसमें सिद्धों के सुख का विवेचन है। इस विवेचन किया गया है । ग्यारहवें पद में भाषा के स्वरूप के साथ ही
प्रकार इन बीस विंशिकाओं में जैनधर्म और साधना से सम्बन्धित विविध स्त्री, पुरुष और नपुंसक के लक्षणों को बताया गया है। बारहवें पद में निति
औदारिकादि शरीर के सामान्य स्वरूप का वर्णन तथा तेरहवें पद की व्याख्या में जीव और अजीव के विविध परिणामों का प्रतिपादन किया योगविंशिका गया है । आगे के पदों की व्याख्या में कषाय, इन्द्रिय, योग, लेश्या, यह प्राकत में निबद्ध मात्र २० गाथाओं की एक लघु रचना है। काय-स्थिति, अन्तः क्रिया, अवगाहना, संस्थानादि क्रिया, कर्म प्रकृति, इसमें जैन-परम्परा में प्रचलित मन, वचन और काय-रूप प्रवृत्ति वाली कर्म-बन्ध, आहार-परिणाम, उपयोग, पश्यता, संज्ञा, संयम, अवधि, परिभाषा के स्थान पर मोक्ष से जोड़ने वाले धर्म-व्यापार को योग कहा प्रविचार, वेदना और समुद्घात का विशेष वर्णन किया गया है। तीसवें गया है । साथ ही इसमें योग का अधिकारी कौन हो सकता है, इसकी
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भी चर्चा की गई है। योगविंशिका में योग के निम्न पाँच भेदों का वर्णन योग का अधिकारी माना है । योग का प्रभाव, योग की भूमिका के है- (१) स्थान, (२) उर्ण, (३) अर्थ, (४) आलम्बन, (५) अनालम्बन। रूप में पूर्वसेवा,पाँच प्रकार के अनुष्ठान, सम्यक्त्व-प्राप्ति का विवेचन, योग के इन पाँच भेदों का वर्णन इससे पूर्व किसी भी जैन-ग्रन्थ में नहीं विरति, मोक्ष, आत्मा का स्वरूप, कार्य की सिद्धि में समभाव, मिलता। अत: यह आचार्य की अपनी मौलिक कल्पना है । कृति के कालादि के पाँच कारणों का बलाबल, महेश्वरवादी एवं पुरुषाद्वैतवादी अन्त में इच्छा, प्रकृति, स्थिरता और सिद्धि -इन चार योगांगों और के मतों का निरसन आदि के साथ ही हरिभद्र ने 'गुरु' की विस्तार कृति, भक्ति, वचन और असङ्ग-इन चार अनुष्ठानों का भी वर्णन किया से व्याख्या की है। गया है। इसके अतिरिक्त इसमें चैत्यवन्दन की क्रिया का भी उल्लेख
आध्यात्मिक विकास की पाँच भूमिकाओं में से प्रथम चार का पतञ्जलि के अनुसार सम्प्रज्ञात-असम्प्रज्ञात के रूप में निर्देश, सर्वदेव
नमस्कार की उदारवृत्ति के विषय में 'चारिसंजीवनी', न्याय गोपेन्द्र और योगशतक
कालातीतं के मन्तव्य और कालातीत की अनुपलब्ध कृति में से सात ___यह १०१ प्राकृत-गाथाओं में निबद्ध आचार्य हरिभद्र की योग
अवतरण, आदि भी इस ग्रन्थ के मुख्य प्रतिपाद्य हैं । पुन: इसमें जी सम्बन्धी रचना है । ग्रंथ के प्रारम्भ में निश्चय और व्यवहार दृष्टि से र
के भेदों के अन्तर्गत अपुनर्बन्धक सम्यक् दृष्टि या भिन्न ग्रंथी, देशविरति योग का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है, उसके पश्चात् आध्यात्मिक
और सर्व-विरति की चर्चा की गई है। योगाधिकार प्राप्ति के सन्दर्भ में विकास के उपायों की चर्चा की गई है । ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में चित्त
पूर्वसेवा के रूप में विविध आचार-विचारों का निरूपण किया गया है। को स्थिर करने के लिये अपनी वृत्तियों के प्रति सजग होने या उनका
आध्यात्मिक विकास की चर्चा करते हुए अध्यात्म, भावना, अवलोकन करने की बात कही गई है । अन्त में योग से प्राप्त लब्धियों की चर्चा की गई है।
ध्यान, समता और वृत्ति-संक्षय- इन पाँच भेदों का निर्देश किया गया है।
साथ ही इनकी पतञ्जलि-अनुमोदित सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि योगदृष्टिसमुच्चय
से तुलना भी की गई है । इसमें विविध प्रकार के यौगिक अनुष्ठानों की योगदृष्टिसमुच्चय जैन-योग की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। भी चर्चा है जो इस बात को सूचित करते हैं कि साधक योग-साधना आचार्य हरिभद्र ने इसे २२७ संस्कृत-पद्यों में निबद्ध किया है । इसमें किस उद्देश्य से कर रहा है । यौगिक अनुष्ठान पाँच हैं- (१) विषानुष्ठान, सर्वप्रथम योग की तीन भूमिकाओं का निर्देश है: (१) दृष्टियोग, (२) गरानुष्ठान, (३) अनानुष्ठान, (४) तद्धेतु-अनुष्ठान, (५) अमृतानुष्ठान । (२) इच्छायोग और (३) सामर्थ्ययोग।
इनमें पहले तीन 'असद् अनुष्ठान' हैं तथा अन्तिम के दो अनुष्ठान दृष्टियोग में सर्वप्रथम मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, 'सदनुष्ठान' है। प्रभा और परा- इन आठ दृष्टियों का विस्तृत वर्णन है । संसारी जीव की ___ 'सद्योगचिन्तामणि' से प्रारम्भ होने वाली इस वृत्ति का श्लोकअचरमावर्तकालीन अवस्था को 'ओघ-दृष्टि' और चरमावर्तकालीन अवस्था परिणाम ३६२० है । योगबिन्दु के स्पष्टीकरण के लिये यह वृत्ति को योग-दृष्टियों के प्रसंग में ही जैन-परम्परा सम्मत चौदह गुणस्थानों की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भी योजना कर ली है। इसके पश्चात् उन्होंने इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग की चर्चा की है । ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने योग-अधिकारी के षड्दर्शनसमुच्चय रूप में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और सिद्धयोगी- इन चार
षड्दर्शनसमुच्चय आचार्य हरिभद्र की लोकविश्रुत दार्शनिक प्रकार के योगियों का वर्णन किया है।
रचना है । मूल कृति मात्र ८७ संस्कृत श्लोकों में निबद्ध है । इसमें आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रन्थ पर १०० पद्य प्रमाण वृत्ति भी आचार्य हरिभद्र ने चार्वाक, बौद्ध, न्याय-वैशेषिक, सांख्य, जैन और लिखी है, जो ११७५ श्लोक परिमाण है।
जैमिनि (मीमांसा दर्शन) इन छ: दर्शनों के सिद्धान्तों का, उनकी मान्यता
के अनुसार संक्षेप में विवेचन किया है । ज्ञातव्य है कि दर्शन-संग्राहक ग्रन्यों योगबिन्दु
में यह एक ऐसी कृति है जो इन भिन्न-भिन्न दर्शनों को खण्डन-मण्डन हरिभद्रसूरि की यह कृति अनुष्टुप छन्द के ५२७ संस्कृत पद्यों से ऊपर उठकर अपने यथार्थ स्वरूप में प्रस्तुत करती है। इस कृति के में निबद्ध है । इस कृति में उन्होंने जैन-योग के विस्तृत विवेचन के साथ- सन्दर्भ में विशेष विवेचन हम हरिभद्र के व्यक्तित्व की चर्चा करते समय साथ अन्य परम्परासम्मत योगों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक कर चुके हैं । विवेचन भी किया है। इसमें योग-अधिकारियों की चर्चा करते हुए उनके दो प्रकार निरूपित किये गए हैं - (१) चरमावृतवृत्ति, (२) अचरमावृत- शास्त्रवार्तासमुच्चय आवृत वृत्ति । इसमें चरमावृतवृत्ति को ही मोक्ष का अधिकरी माना गया जहाँ षड्दर्शनसमुच्चय में विभिन्न दर्शनों का यथार्थ प्रस्तुतीकरण है । योग के अधिकारी-अनधिकारी का निर्देश करते समय मोह में है, वहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय में विविध भारतीय दर्शनों की समीक्षा आबद्ध संसारी जीवों को 'भवाभिनन्दी' कहा है और चारित्री जीवों को प्रस्तुत की गयी है । षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा यह एक विस्तृत कृति
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है। आचार्य हरिभद्र ने इसे ७०२ संस्कृत श्लोकों में निबद्ध किया है। वहाँ अनेकान्तवादप्रवेश सामान्य व्यक्ति हेतु अनेकान्तवाद को बोधगम्य यह कृति आठ स्तबकों में विभक्त है । प्रथम स्तबक में सामान्य उपदेश बनाने के लिये लिखा गया है । यह ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में निबद्ध है। के पश्चात् चार्वाक मत की समीक्षा की गयी है । द्वितीय स्तबक में भी इसकी विषय-वस्तु अनेकान्तजयपताका के समान ही है । चार्वाक मत की समीक्षा के साथ-साथ एकान्त-स्वभाववादी आदि मतों की समीक्षा की गयी है । इस ग्रन्थ के तीसरे स्तबक में आचार्य हरिभद्र न्यायप्रवेश-टीका ने ईश्वर-कर्तृत्व की समीक्षा की है। चतुर्थ स्तबक में विशेष रूप से सांख्य हरिभद्र ने स्वतन्त्र दार्शनिक ग्रन्थों के प्रणयन के साथ-साथ अन्य मत की और प्रसंगान्तर से बौद्धों के विशेषवाद और क्षणिकवाद का खण्डन परम्परा के दार्शनिक ग्रन्थों पर भी टीकाएँ लिखीं हैं। इनमें बौद्ध दार्शनिक किया गया है। पञ्चम् स्तबक बौद्धों के ही विज्ञानवाद की समीक्षा प्रस्तुत दिङ्नाग के न्याय-प्रवेश पर उनकी टीका बहुत ही प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ करता है । षष्ठ स्तबक में बौद्धों के क्षणिकवाद की विस्तार से समीक्षा की में न्याय-सम्बन्धी बौद्ध मन्तव्य को ही स्पष्ट किया गया है । यह ग्रन्थ गयो है । सप्तम स्तबक में हरिभद्र ने वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता और हरिभद्र की व्यापक और उदार दृष्टि का परिचय देता है । इस ग्रन्थ के स्याद्वाद की प्रस्थापना की है। साथ ही इस स्तबक के अन्त में वेदान्त की माध्यम से जैन-परम्परा में भी बौद्धों के न्याय-सम्बन्धी मन्तव्यों के अध्ययन समीक्षा भी की गयी है । अष्टम् स्तबक में मोक्ष एवं मोक्ष-मार्ग का विवेचन की परम्परा का विकास हुआ है। है। इसी क्रम में इस स्तबक में प्रसंगान्तर से सर्वज्ञता को सिद्ध किया है। इसके साथ ही इस स्तबक में शब्दार्थ के स्वरूप पर भी विस्तार से चर्चा धर्मसंग्रहणी उपलब्ध होती है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें न्याय-वैशेषिक, यह हरिभद्र का दार्शनिक ग्रन्थ है। १२९६ गाथाओं में निबद्ध सांख्य, बौद्ध आदि दर्शनों की समीक्षा होते हुए भी उनके प्रस्थापकों के प्रति इस ग्रन्थ में धर्म के स्वरूप का निक्षेपों द्वारा निरूपण किया गया है। विशेष आदर-भाव प्रस्तुत किया गया है और उनके द्वारा प्रतिपादित मलयगिरि द्वारा इस पर संस्कृत टीका लिखी गयी है । इसमें आत्मा के सिद्धान्तों का जैन दृष्टि के साथ सुन्दर समन्वय किया गया है । इस सन्दर्भ अनादि-अनिधनत्व,अमूर्त्तत्व, परिणामित्व ज्ञायक-स्वरूप, कर्तृत्व-भोक्तृत्व में हम विशेष चर्चा हरिभद्र के व्यक्तित्व एवं अवदान की चर्चा के प्रसंग में और सर्वज्ञ-सिद्धि का निरूपण किया गया है। कर चुके हैं, अत: यहाँ इसे हम यहीं विराम देते हैं।
लोकतत्त्वनिर्णय अनेकान्तजयपताका
लोकतत्त्वनिर्णय में हरिभद्र ने अपनी उदार दृष्टि का परिचय दिया जैनदर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त अनेकान्तवाद है। इस सिद्धान्त है। इस ग्रन्थ में जगत्-सर्जक-संचालक के रूप में माने गए ईश्वरवाद के प्रस्तुतीकरण हेतु आचार्य हरिभद्र ने संस्कृत भाषा में इस ग्रन्थ की की समीक्षा तथा लोक-स्वरूप की तात्त्विकता का विचार किया गया है। रचना को । चूँकि इस ग्रन्थ में अनेकान्तवाद को अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों इसमें धर्म के मार्ग पर चलने वाले पात्र एवं अपात्र का विचार करते हुए पर विजय प्राप्त करने वाला दिखाया गया है, अत: इसी आधार पर सुपात्र को ही उपदेश देने के विचार की विवेचना की गयी है। इसका नामकरण अनेकान्तजयपताका किया गया है । इस ग्रन्थ में छः अधिकार है- प्रथम अधिकार में अनेकान्तदृष्टि से वस्तु के सद्-असद् दर्शनसप्ततिका स्वरूप का विवेचन किया गया है। दूसरे अधिकार में वस्तु के नित्यत्व इस प्रकरण में सम्यक्त्वयुक्त श्रावकधर्म का १२० गाथाओं में
और अनित्यत्व की समीक्षा करते हुए उसे नित्यानित्य बताया गया है। उपदेश संगृहीत है । इस ग्रन्थ पर श्री मानदेवसूरि की टीका है। तृतीय अधिकार में वस्तु को सामान्य अथवा विशेष मानने वाले दार्शनिक मतों की समीक्षा करते हुए अन्त में वस्तु को सामन्य- ब्रह्मसिद्धिसमुच्चय विशेषात्मक सिद्ध करके अनेकान्तदृष्टि की पुष्टि की गयी है। आगे चतुर्थ
आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित इस संस्कृत ग्रन्थ में कुल ४२३ पद्य अधिकार में वस्तु के अभिलाप्य और अनभिलाप्य मतों की समीक्षा करते ही उपलब्ध हैं। आद्य पद में महावीर को नमस्कार कर ब्रह्मादि के स्वरूप हुए उसे वाच्यावाच्य निरूपति किया गया है। अगले अधिकारों में बौद्धों को बताने की प्रतिज्ञा की है। इस ग्रन्थ में सर्वधर्मों का समन्वय किया के योगाचार-दर्शन की समीक्षा एवं मुक्ति सम्बन्धी विभिन्न मान्यताओं की गया है। यह ग्रन्थ अपूर्ण प्रतीत होता है। समीक्षा की गयी है । इस प्रकार इस कृति में अनेकान्त दृष्टि से परस्पर विरोधी मतों के मध्य समन्वय स्थापित किया गया है ।
सम्बोधप्रकरण
१५९० पद्यों की यह प्राकृत-रचना बारह अधिकारों में विभक्त अनेकान्तवादप्रवेश
है। इसमें गुरु, कुगुरु, सम्यक्त्व एवं देव का स्वरूप, श्रावकधर्म और जहाँ अनेकान्तजयपताका प्रबुद्ध दार्शनिकों के समक्ष अनेकान्तवाद प्रतिमाएँ, व्रत, आलोचना तथा मिथ्यात्व आदि का वर्णन है । इसमें के गाम्भीर्य को समीक्षात्मक शैली में प्रस्तुत करने हेतु लिखी गयी है, हरिभद्र के युग में जैन-मुनि-संघ में आये हुए चारित्रिक पतन का सजीव
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चित्रण है जिसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं ।
संस्कृत भाषा में निबद्ध की थी। यद्यपि अनेक ग्रन्थों में इसका उल्लेख धर्मबिन्दुप्रकरण
मिलता है, परन्तु इसकी आज तक कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई है । नाम५४२ सूत्रों में निबद्ध यह ग्रन्थ चार अध्यायों में विभक्त है। इसमें साम्य के कारण अनेक बार हरिभद्रकृत इस प्राकृत कृति (सावयपण्णत्ति) श्रावक और श्रमण-धर्म की विवेचना की गयी है । श्रावक बनने के पूर्व को तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वाति की रचना मान लिया जाता है, जीवन को पवित्र और निर्मल बनाने वाले पूर्व मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों किन्तु यह एक भ्रान्ति ही है । पश्चाशक की अभयदेवसूरिकृत वृत्ति की विवेचना की गयी है । इस पर मुनिचन्द्रसूरि ने टीका लिखी है। में और लावण्यसूरि कृत द्रव्य सप्तति में इसे हरिभद्र की कृति माना गया
है। इस कृति में सावग (श्रावक) शब्द का अर्थ, सम्यक्त्व का स्वरूप उपदेशपद
नवतत्त्व, अष्टकर्म, श्रावक के १२ व्रत और श्रावक समाचारी का इस ग्रन्थ में कुल १०४० गाथाएँ हैं । इस पर मुनिचन्द्रसूरि विवेचन उपलब्ध होता है । ने सुखबोधिनी टीका लिखी है। आचार्य ने धर्मकथानयोग के माध्यम इस पर स्वयं आचार्य हरिभद्र की दिग्प्रदा नाम की स्वोपज्ञ से इस कृति में मन्द बुद्धि वालों के प्रबोध के लिए जैन धर्म के संस्कृत टीका भी है। इसमें अहिंसाणुव्रत और सामायिकव्रत की चर्चा उपदेशों को सरल लौकिक कथाओं के रूप में संगृहीत किया है। करते हुए आचार्य ने अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर दिया है । टीका मानव पर्याय की दुर्लभता एवं बुद्धि-चमत्कार को प्रकट करने के में जीव की नित्यानित्यता आदि दार्शनिक विषयों की भी गम्भीर चर्चा लिये कई कथानकों का ग्रन्थन किया है। मनुष्य-जन्म की दुर्लभता उपलब्ध होती है। को चोल्लक, पाशक, धान्य, घूत, रत्न, स्वपन, चक्रयूप आदि जैन-आचार सम्बन्धी ग्रन्थों में पञ्चवस्तुक तथा श्रावकप्रज्ञप्ति के दृष्टान्तों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है।
अतिरिक्त अष्टकप्रकरण, षोडशकप्रकरण, विंशिकाएँ और पश्चाशकप्रकरण
भी आचार्य हरिभद्र की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं । पंचवस्तुक (पंचवत्युग)
_आचार्य हरिभद्र की यह कृति प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें अष्टकप्रकरण १७१४ पद्य हैं जो निम्न पाँच अधिकारों में विभक्त हैं
इस ग्रन्थ में ८-८ श्लोकों में रचित निम्नलिखित ३२ १. प्रव्रज्याविधि के अन्तर्गत २२८ पद्य हैं । इसमें दीक्षासम्बन्धी प्रकरण हैं - विधि-विधान दिये गए हैं।
(१) महादेवाष्टक, (२) स्नानाष्टक, (३) पूजाष्टक, २. नित्यक्रिया सम्बन्धी अधिकार में ३८१ पद्य हैं । यह (४) अग्निकारिकाष्टक, (५) विविधभिक्षाष्टक, (६) सर्वसम्पमुनिजीवन के दैनन्दिन प्रत्ययों सम्बन्धी विधि-विधान की चर्चा करता है। स्करिभिक्षाष्टक,(७) प्रच्छन्नभोजाष्टक, (८) प्रत्याख्यानाष्टक, (९) ज्ञानाष्टक,
३. महाव्रतारोपण-विधि के अन्तर्गत ३२१ पद्य हैं । इसमें बड़ी (१०) वैराग्याष्टक (११) तपाष्टक, (१२) वादाष्टक, (१३) धर्मवादाष्टक, दीक्षा अर्थात् महाव्रतारोपण-विधि का विवेचन हुआ है, साथ ही इसमें (१४) एकान्तनित्यवादखण्डनाष्टक, (१५) एकान्तक्षणिकवाद-खण्डनाष्टक, स्थविरकल्प, जिनकल्प और उनसे सम्बन्धित उपधि आदि के सम्बन्ध में (१६) नित्यानित्यवादपक्षमंडनाष्टक, (१७) मांसभक्षण-दूषणाष्टक, भी विचार किया गया है।
(१८) मांसभक्षणमतदूषणाष्टक (१९) मद्यपानदूषणाष्टक (२०) मैथुनदूषाणाष्टक, चतुर्थ अधिकार में ४३४ गाथाएँ है। इनमें आचार्य-पद स्थापना, (२१) सूक्ष्मबुद्धिपरिक्षणाष्टक, (२२) भावशुद्धिविचाराष्टक, गण-अनुज्ञा, शिष्यों के अध्ययन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों की चर्चा (२३) जिनमतमालिन्य निषेधाष्टक, (२४) पुण्यानुबन्धिपुण्याष्टक, करते हुए पूजा-स्तवन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों का निर्देश इसमें (२५) पुण्यानुबन्धिपुण्यफलाष्टक, (२६) तिर्थकृतदानाष्टक, मिलता हैं । पञ्चम अधिकार में सल्लेखना सम्बन्धी विधान दिये गए हैं। (२७) दानशंकापरिहाराष्टक, (२८) राज्यादिदानदोषपरिहाराष्टक, इसमें ३५० गाथाएँ है।
(२९) सामायिकाष्टक, (३०) केवलज्ञनाष्टक, (३१) तीर्थंकरदेशनाष्टक, इस कृति की ५५० श्लोक-परिमाण शिष्यहिता नामक (३२) मोक्षस्वरूपाष्टक । इन सभी अष्टकों में अपने नाम के अनुरूप स्वोपज्ञ टीका भी मिलती है। वस्तुत: यह ग्रन्थ विशेष रूप से जैन- विषयों की चर्चा है। मुनि-आचार से सम्बन्धित है और इस विधा का यह एक आकर-ग्रन्थ भी कहा जा सकता है।
धूर्ताख्यान
यह एक व्यंग्यप्रधान रचना है। इसमें वैदिक पुराणों में वर्णित श्रावकप्रज्ञप्ति (सावयफण्णत्ति )
असम्भव और अविश्वसनीय बातों का प्रत्याख्यान पाँच धूर्तों की कथाओं ४०५ प्राकृत-गाथाओं में निबद्ध यह रचना श्रावकाचार के के द्वारा किया गया है । लाक्षणिक शैली की यह अद्वितीय रचना है। सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ऐसा माना जाता रामायण, महाभारत और पुराणों में पाई जाने वाली कथाओं की है कि इसके पूर्व आचार्य उमास्वाति ने भी इसी नाम की एक कृति अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक, अबौद्धिक मान्यताओं तथा प्रवृत्तियों का कथा
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के माध्यम से निराकरण किया गया है । व्यंग्य और सुझावों के माध्यम ११. साधधर्मविधि से असम्भव और मनगढन्त बातों को त्यागने का संकेत दिया गया है। १२. साधुसामाचारी विधि खड्डपना के चरित्र और बौद्धिक विकास द्वारा नारी को विजय दिलाकर १३. पिण्डविधानविधि मध्यकालीन नारी के चरित्र को उद्घाटित किया गया है।
१४. शीलाङ्गविधानविधि
१५. आलोचनाविधि ध्यानशतकवृत्ति
१६. प्रायश्चित्तविधि पूर्व ऋषिप्रणीत ध्यानशतक ग्रन्थ का गम्भीर विषय-आर्त, रौद्र, १७. कल्पविधि धर्म, शुक्ल- इन चार प्रकार के ध्यानों का सुगम विवरण दिया गया है। १८. भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि ध्यान का यह एक अद्वितीय ग्रन्थ है।
१९. तपविधि
उपरोक्त पंचाशक अपने-अपने विषय को गम्भीरता से किन्तु यतिदिनकृत्य
संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं । इन सभी पंचाशकों का मूल प्रतिपाद्य श्रावक इस ग्रन्थ में मुख्यतया साधु के दैनिक आचार एवं क्रियाओं का एवं मुनि-आचार से सम्बन्धित हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि जैन-परम्परा वर्णन किया गया है । षडावश्यक के विभिन्न आवश्यकों को साधु को में श्रावक और मुनि के लिए करणीय विधि-विधानों का स्वरूप उस युग अपने दैनिक जीवन में पालन करना चाहिए, इसकी विशद् विवेचना इस में कैसा था । ग्रन्थ में की गयी है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र बहुआयामी व्यक्तित्व
के धनी एक विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न आचार्य रहे हैं। उनके द्वारा की गई पञ्चाशक (पंचासग)
साहित्य-सेवा न केवल जैन-साहित्य अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में आचार्य हरिभद्रसूरि की यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में रचित अपना विशिष्ट स्थान रखती है । हरिभद्र ने जो उदात्त दृष्टि, असाम्प्रदायिक है। इसमें उन्नीस पञ्चांशक हैं जिसमें दूसरे में ४४ और सत्तरहवें में ५२. वृत्ति और निर्भयता अपनी कृतियों में प्रदर्शित की है, वैसी उनके पूर्ववर्ती तथा शेष में ५०-५० पद्य हैं । वीरगणि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि के शिष्य अथवा उत्तरवर्ती किसी भी जैन-जनेतर विद्वान् ने शायद ही प्रदर्शित की यशोदेव ने पहले पञ्चाशक पर जैन महाराष्टी में वि. सं० ११७२ में एक हो । उन्होंने अन्य दर्शनों के विवेचन की एक स्वस्थ परम्परा स्थापित चर्णि लिखी थी जिसमें प्रारम्भ में तीन पद्य और अन्त में प्रशस्ति के चार की तथा दार्शनिक और योग-परम्परा में विचार एवं वर्तन की जो पद्य हैं, शेष ग्रन्थ गद्य में है, जिसमें सम्यक्त्व के प्रकार, उसके यतना, अभिनव दशा उद्घाटित की वह विशेषकर आज के युग के असाम्प्रदायिक अभियोग और दृष्टान्त के साथ-साथ मनुष्य-भव की दुर्लभता आदि एवं तुलनात्मक ऐतिहासिक अध्ययन के क्षेत्र में अधिक व्यवहार्य है । अन्यान्य विषयों का निरूपण किया गया है। सामाचारी विषय का अनेक बार उल्लेख हुआ है। मण्डनात्मक शैली में रचित होने के कारण इसमें 'तुलादण्ड न्याय' का उल्लेख भी है । आवश्यक चूर्णि के देशविरति में १. आवश्यक-टीका की अन्तिम प्रशस्ति में उन्होंने लिखा हैजिस तरह नवपयपयरण में नौ द्वारों का प्रतिपादन है, उसी प्रकार यहाँ पर “समाप्ता चेयं शिष्यहिता नाम आवश्यकटीका । कृति: भी नौ द्वारों का उल्लेख है।
सिताम्बराचार्यजिनभट- निगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकापंचाशकों में जैन-आचार और विधि-विधान के सम्बन्ध में चार्यजिनदत्तशिष्यस्य धर्मतो याकिनी - महत्तरासूनोरल्पमतेराचार्य अनेक गम्भीर प्रश्नों को उपस्थित करके उनके समाधान प्रस्तुत किये हरिभद्रस्य । गये हैं । निम्न उनीस पंचाशक उपलब्ध होते हैं ।
जाइणिमयहरिआए रइया एएउ धम्मपुत्तेण । १. श्रावकधर्मविधि
हरिभद्दायरिएणं भवविरहं इच्छामाणेण ।। २. जिनदीक्षाविधि
-उपदेशपद की अन्तिम प्रशस्ति ३. चैत्यवन्दनविधि
३. चिरं जीवउ भवविरहसूरि ति । -कहावली, पत्र ३०१अ ४. पूजाविधि
४. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पं० सुखलालजी, पृ० ४० ५. प्रत्याख्यानविधि'
५. षड्दर्शनसमुच्चय, सम्पादक डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना, पृ० १४। ६. स्तवनविधि
६. वही, प्रस्तावना, पृ० १९।। ७. जिनभवननिर्माणविधि
७. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ४३ । ८. जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि
८. वही, पृ० ४७ । ९. यात्राविधि
९. षड्दर्शनसमुच्चय, सम्पादक डॉ० महेन्द्रकुमार, प्रस्तावना, पृ० १४ । १०. उपासकप्रतिमाविधि
१०. वही, पृ० १९ ।
के कारण इसमें
सन्दर्भ
२.
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-यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
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११. कर्मणो भौतिकत्वेन यद्वैतदपि साम्प्रतम् ।
- वही, १/४ उत्तरार्ध आत्मनोव्यतिरिक्तं तत् चित्रभावं यतो मतम् ॥
२९. जत्थ य विसय-कसायच्चागो मग्गो हविज्ज णो अपणो । शक्तिरूपं तदन्ये तु सूरयः सम्प्रचक्षते ।
___ - वही, १/५ पूर्वार्ध अन्ये तु वासनारूपं विचित्रफलदं मतम् ।।
३०. सेयम्बरो य आसम्बरो य बुद्धो य अहव अण्णो वा । - शास्त्रवार्तासमुच्चय, ९५-९६
समभावभावि अप्पा लहइ मुक्खं न संदेहो । १२. समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ५३-५४ ।
- वही, १/३ १३. वही, पृ० ५५ ।
३१. नामाइ चउप्पभेओ भणिओ । - वही, १/५ १४. ततश्चेश्वर कर्तृत्त्ववादोऽयं युज्यते परम् ।
(व्याख्या लेखक की अपनी है । ) सम्यग्न्यायाविरोधेन यथाऽऽहुः शुद्धबुद्धतः।।
३२. तक्काइ जोय करणा खोरं पयउं घयं जहा हुज्जा ।
-वही, १/७ ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् ।
३३. भावगयं तं मग्गो तस्स विसुद्धीइ हेउणो भणिया । यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद्गुणभावतः ।।
- वही, १/११ पूर्वार्द्ध तदनासेवनादेव यत्संसारोऽपि तत्त्वतः ।
३४. तम्मि य पढमे सुद्दे सब्बाणि तयणुसाराणि । - वही, १/१० तेने तस्यापि कर्तृत्वं कल्प्यानं न दुष्यति ।।
३५. वही, १/९९-१०४ - शास्त्रवार्तासमुच्चय, २०३-२०५
३६. वही, १/१०८ १५. परमैश्वर्ययुक्तत्वान्मत: आत्मैव चेश्वरः ।
३७. वही, २/१०, १३, ३२, ३३, ३४. स च कति निर्दोष: कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥
३८. वही, २/३४-३६, ४२, ४६, ४९-५० २/५२, ५६-७४ वही, २०७
८८-९२ १६. प्रकृतिं चापि सन्न्यायात्कर्मप्रकृतिमेव हि ॥
३९. वही, २/२० एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि ।
४०. जह असुइ ठाणंपडिया चंपकमाला न कीरते सीसे । कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः ।
पासत्थाइठाणे वट्टमाणा इह अपुज्जा ।। - वही, २/२२
वही, २३२-२३७ ४१. जड चरिउं नो सक्को सद्ध जइलिंग महवपूयट्ठी। १७. अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये ।
तो गिहिलिंग गिण्हे नो लिंगी पूयणारिहओ ।। क्षणिक सर्वमेवेति बुद्धेनोक्तं न तत्त्वतः ।।
-वही, १/२७५ विज्ञानमात्रमप्येवं बाह्यसंगनिवृत्तये ।
४२. एयारिसाण दुस्सीलयाण साहुपिसायाण मत्ति पूव्वं । विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनाऽर्हतः ।।
जे वंदणनमंसाइ कुव्वंति न महापावा ? - वही, ४६४-४६५
-वही, १/११४ १८. अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभावप्रसिद्धये ।
४३. सुहसीलाओ सच्छंदचारिणो वेरिणो सिवपहस्स। अद्वैतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टिा न तु तत्त्वत: ।। वही, ५५० आणाभट्टाओ बहुजणाओ मा भणह संवुत्ति ।। १९. ज्ञानयोगादतो मुक्तिरिति सम्यग् व्यवस्थितम् ।
देवाइ दव्वभक्खणतप्परा तह उमग्गपक्खकरा । तन्त्रान्तरानुरोधेन गीतं चेत्थं न दोषकृत् ।। वही, ५७९
साहु जणाणपओसं कारिणं माभणंह संघं ।। २०. यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः ।।
जहम्म अनीई अणायार सेविणो धम्मनीइं पडिकूला । जायते द्वेषशमन: स्वर्गसिद्धिसुखावहः ॥ वही, २१.
साहुपभिइ चउरो वि बहुया अवि मा भणह संघ । योगदृष्टिसमुच्चय, ८७ एवं ८८
असंघं संघ जे भणित रागेण अहव दोसेण । २२. शास्त्रवार्तासमुच्चय, २०
छेओ वा मुहत्तं पच्छित्तं जायए तेसिं ॥ २३. योगदृष्टिसमुच्चय, ८६-१०१ ।
-वही, १/११९-१२१, १२३ २४. वही, १०७-१०९ ।
४४. गब्भपवेसो वि वरं भद्दवरो नरयवास पासो वि । २५. चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः ।
मा जिण आणा लोवकरे वसणं नाम संघे वे ॥ यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः ।। - वही, १३४
- वही, २/१३२ २६. यद्वा तत्तत्रायपेक्षा तत्कालादिनियोगतः ।
४५. वही, २/१०३ ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैषाऽपि तत्त्वत: ।। - वही, १३८ ४६. वही, २/१०४ २७. मग्गो मग्गो लोए भणंति, सव्वे मग्गणा रहिया ।
४७. वेसागिहेसु गमणं जहा निसिद्धं सुकुल बहुयाणं ।
-सम्बोधप्रकरण, १/४ पूर्वार्ध तह हीणायार जइ जण संग सवाण पडिसिद्धं ॥ २८. परमप्प मग्गणा जत्थ तम्मग्गो मुक्ख मग्गुति ।।
परं दिट्ठि विसो सप्पो वरं हलाहलं विसं । andnidrioniadosdooranoranoramionlonbombridd-११३]60mintonabrdnisonindmaromindiantributionirdoodword
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-चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
होणायार अगीवत्थ वयणपसंगं खु णो भो ॥
४८. वही, २ / ७७-७८ ४९. बाला बंयति एवं वेसो तित्वकराण एसोवि नमणिज्जो धिद्धि अहो सिरसूलं कस्स पुक्करिमों ॥
वहीं, श्रावक-धर्माधिकार, २.३
५०. वरं वाही वरं मच्चू वरं दारिद्दसंगमो । वरं अरण्णेवासो य मा कुलीलाण संगमो ॥ हीणायारो वि वरं मा कुसीलएण संगमो भद्दं । जम्हा होणो अप्प नास सव्वं ह सील निहिं ॥ हु
-
वही, २ / ७६
आचार्य हेमचन्द्र भारतीय मनीषारूपी आकाश के एक देदीप्यमान नक्षत्र हैं। विद्योपासक श्वेताम्बर जैन आचायों में बहुविध और विपुल साहित्यस्वष्टा के रूप में आचार्य हरिभद्र के बाद यदि कोई महत्त्वपूर्ण नाम है तो वह आचार्य हेमचन्द्र का ही है। जिस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने विविध भाषाओं में जैन-विद्या की विविध विद्याओं पर विपुल साहित्य का सृजन किया था, उसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने विविध विद्याओं पर विपुल साहित्य का सृजन किया है। आचार्य हेमचन्द्र गुजरात की विद्वत्परम्परा के प्रतिभाशाली और प्रभावशाली जैन आचार्य हैं। उनके साहित्य में जो बहुविधता है वह उनके व्यक्तित्व एवं उनके ज्ञान की बहुविधता की परिचायिका है। काव्य, छन्द, व्याकरण, कोश, कथा, दर्शन, अध्यात्म और योग-साधना आदि सभी पक्षों को आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी सृजनधर्मिता में समेट लिया है। धर्मसापेक्ष और धर्मनिरपेक्ष दोनों ही प्रकार के साहित्य के सृजन में उनके व्यक्तित्व की समानता का अन्य कोई नहीं मिलता है। जिस मोढ़वणिक जाति ने सम्प्रति युग में गाँधी जैसे महान् व्यक्ति को जन्म दिया उसी मोढ़वणिक जाति ने आचार्य हेमचन्द्र को भी जन्म दिया था।
यही २/१०१-१०२ ५१. विस्तार के लिए देखें सम्बोधप्रकरण गुरुस्वरूपाधिकार । इसमें ३७५ गाथाओं में सुगुरु का स्वरूप वर्णित है । ५२. नो अप्पण पराया गुरुणो कइया वि हुंति सङ्घाणं । जिण वयण रयणनिहिणो सव्वे ते वन्निया गुरुणो ॥ वही, गुरुस्वरूपाधिकरः ३
आचार्य हेमचन्द्र: एक युगपुरुष
आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात के धन्धुका नगर में श्रेष्ठि चाचिग तथा माता पाहिणी की कुक्षि से ई० सन् १०८८ में हुआ था। जो सूचनाएँ उपलब्ध हैं उनके आधार पर यह माना जाता है कि हेमचन्द्र के पिता शैव और माता जैनधर्म की अनुवायी थीं। आज भी गुजरात की इस मोठ्वणिक जाति में वैष्णव और जैन दोनों धर्मों के अनुयायी पाए जाते हैं। अतः हेमचन्द्र के पिता चाचिग के शैवधर्मावलम्बी और माता पाहिणी के जैनधर्मावलम्बी होने में कोई विरोध नहीं है क्योंकि प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में ऐसे अनेक परिवार रहे हैं जिनके सदस्य भिन्न-भिन्न धर्मों के अनुयायी होते थे। सम्भवतः पिता के शैवधर्मावलम्बी और माता के जैनधर्मावलम्बी होने के कारण ही हेमचन्द्र के जीवन
५३. लोकतत्त्वनिर्णय, ३२-३३
५४. योगदृष्टिसमुच्चय, १२९ ।
५५. जिननकोश, हरिदामोदर वेलंकर, भंडारकर आरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना १९४४, पृ० १४४
में धार्मिक समन्वयशीलता के बीज अधिक विकसित हो सके। दूसरे शब्दों में धर्मसमन्वय की जीवनदृष्टि तो उन्हें अपने पारिवारिक परिवेश से ही मिली थी।
आचार्य देवचन्द्र जो कि आचार्य हेमचन्द्र के दीक्षागुरु थे, स्वयं भी प्रभावशाली आचार्य थे। उन्होंने बालक चंगदेव (हेमचन्द्र के जन्म का नाम) की प्रतिभा को समझ लिया था, इसलिये उन्होंने उनकी माता से उन्हें बाल्यकाल में ही प्राप्त कर लिया। आचार्य हेमचन्द्र को उनकी अल्प बाल्यावस्था में ही गुरु द्वारा दीक्षा प्रदान कर दी गई और विधिवत् रूप से उन्हें धर्म, दर्शन और साहित्य का अध्ययन करवाया गया। वस्तुतः हेमचन्द्र की प्रतिभा और देवचन्द्र के प्रयत्न ने बालक के व्यक्तित्व को एक महनीयता प्रदान की। हेमचन्द्र का व्यक्तित्व भी उनके साहित्य की भाँति बहुआयामी था। वे कुशल राजनीतिज्ञ, महान् धर्मप्रभावक, लोककल्याणकर्ता एवं अप्रतिम विद्वान् सभी कुछ थे। उनके महान् व्यक्तित्व के सभी पक्षों को उजागर कर पाना तो यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी मैं कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न अवश्य करूँगा। हेमचन्द्र की धार्मिक सहिष्णुता
यह सत्य है कि आचार्य हेमचन्द्र की जैनधर्म के प्रति अनन्य निष्ठा थी किन्तु साथ ही वे अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु भी थे। उन्हें यह गुण अपने परिवार से ही विरासत में मिला था। जैसा कि सामान्य विश्वास है, हेमचन्द्र की माता जैन और पिता शैव थे। एक ही परिवार में विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की उपस्थिति उस परिवार की सहिष्णुवृत्ति की ही परिचायक होती है। आचार्य की इस कुलगत सहिष्णुवृति को जैनधर्म के अनेकान्तवाद की उदार दृष्टि से और अधिक बल मिला। यद्यपि यह सत्य है कि अन्य जैन आचार्यों के समान हेमचन्द्र ने भी 'अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका' नामक समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखा और उसमें अन्य दर्शनों की मान्यताओं की समीक्षा भी की। किन्तु इससे यह अनुमान नहीं लगाना चाहिये कि [११४]
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मवाना
हेमचन्द्र में धार्मिक उदारता नहीं थी। वस्तुतः हेमचन्द्र जिस युग में हुए अन्धविश्वासों का पोषण न हो। इस सन्दर्भ में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं थे, वह युग दार्शनिक वाद-विवाद का युग था। अत: हेमचन्द्र की यह कि जिस धर्म में देव या उपास्य रागद्वेष से युक्त हों, धर्मगुरु अब्रह्मचारी विवशता थी कि वे अपनी परम्परा की रक्षा के लिये अन्य दर्शनों की हों और धर्म में करुणा व दया के भावों का अभाव हो, ऐसा धर्म वस्तुतः मान्यताओं का तार्किक समीक्षा कर परपक्ष का खण्डन और स्वपक्ष का अधर्म ही है। उपास्य के सम्बन्ध में हेमचन्द्र को नामों का कोई आग्रह मण्डन करें। किन्तु यदि हेमचन्द्र की 'महादेवस्तोत्र' आदि रचनाओं एवं नहीं, चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन, किन्तु उपास्य होने उनके व्यावहारिक जीवन को देखें तो हमें यह मानना होगा कि उनके के लिये वे एक शर्त अवश्य रख देते हैं, वह यह कि उसे राग-द्वेष से जीवन में और व्यवहार में धार्मिक उदारता विद्यमान थी। कुमारपाल के मुक्त होना चाहिये। वे स्वयं कहते हैं किपूर्व वे जयसिंह सिद्धराज के सम्पर्क में थे किन्तु उनके जीवनवृत्त से हमें भवबीजांकुरजननरागद्याक्षयमुपागतास्य। ऐसा कोई संकेत-सूत्र नहीं मिलता कि उन्होंने कभी भी सिद्धराज को ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो वा जिनो वा नमस्तस्मै।।४ जैनधर्म का अनुयायी बनाने का प्रयत्न किया हो। मात्र यही नहीं, जयसिंह इसी प्रकार गुरू के सन्दर्भ में भी उनका कहना है कि उसे सिद्धराज के दरबार में रहते हुए भी उन्होंने कभी किसी अन्य परम्परा के ब्रह्मचारी या चरित्रवान होना चाहिये। वे लिखते हैं किविद्वान् की उपेक्षा या अवमानना की हो, ऐसा भी कोई उल्लेख नहीं सर्वाभिलाषिणः सर्व भो जिनः सपरिग्रहः। मिलता। यद्यपि कथानकों में जयसिंह सिद्धराज के दरबार में उनके अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशाः गुरवो न तु।।५ दिगम्बर जैन आचार्य के साथ हुए वाद-विवाद का उल्लेख अवश्य है अर्थात् जो आकांक्षा से युक्त हो, भोज्याभोज्य के विवेक से रहित परन्तु उसमें भी मुख्य वादी के रूप में हेमचन्द्र न होकर बृहद्गच्छीय हो, परिग्रह सहित और अब्रह्मचारी तथा मिथ्या उपदेश देने वाला हो, वादिदेवसूरि ही थे। यह भी सत्य है कि हेमचन्द्र से प्रभावित होकर वह गुरु नहीं हो सकता। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो हिंसा और कुमारपाल ने जैनधर्मानुयायी बनकर जैनधर्म की प्रर्याप्त प्रभावना की, परिग्रह में आकण्ठ डूबा हो, वह दूसरों को कैसे तार सकता है। जो स्वयं किन्तु कुमारपाल के धर्म-परिवर्तन या उनको जैन बनाने में हेमचन्द्र का दीन हो वह दूसरों को धनाढ्य कैसे बना सकता है।६ अर्थात् चरित्रवान, कितना हाथ था, यह विचारणीय है। वस्तुतः हेमचन्द्र के द्वारा न केवल निष्परिग्रही और ब्रह्मचारी व्यक्ति ही गुरु योग्य हो सकता है। धर्म के स्वरूप कुमारपाल की जीव-रक्षा हुई थी अपितु उसे राज्य भी मिला था। यह तो के सम्बन्ध में भी हेमचन्द्र का दृष्टिकोण स्पष्ट है। वे स्पष्ट रूप से यह आचार्य के प्रति उसकी अत्यधिक निष्ठा ही थी जिसने उसे जैनधर्म की मानते हैं कि जिस साधनामार्ग में दया एवं करुणा का अभाव हो, जो ओर आकर्षित किया। यह भी सत्य है कि हेमचन्द्र ने उसके माध्यम से विषयाकांक्षाओं की पूर्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानता हो, जिसमें संयम अहिंसा और नैतिक मूल्यों का प्रसार करवाया और जैनधर्म की प्रभावना का अभाव हो, वह धर्म नहीं हो सकता। हिंसादि से कलुषित धर्म, धर्म भी करवाई किन्तु कभी भी उन्होंने राजा में धार्मिक कट्टरता का बीज नहीं न होकर संसार-परिभ्रमण का कारण ही होता है। बोया। कुमारपाल सम्पूर्ण जीवन में शैवों के प्रति भी उतना ही उदार रहा,
इस प्रकार हेमचन्द्र धार्मिक सहिष्णुता को स्वीकार करते हुए जितना वह जैनों के प्रति था। यदि हेमचन्द्र चाहते तो उसे शैवधर्म से भी इतना अवश्य मानते हैं कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण नहीं पूर्णत: विमुख कर सकते थे, पर उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया बल्कि होना चाहिये। उनकी दृष्टि में धर्म का अर्थ कोई विशिष्ट कर्मकाण्ड न होकर उसे सदैव ही शैवधर्मानुयायियों के साथ उदार दृष्टिकोण रखने का आदेश करुणा और लोकमंगल से युक्त सदाचार का सामान्य आदर्श ही है। वे दिया। यदि हेमचन्द्र में धार्मिक संकीर्णता होती तो वे कुमारपाल द्वारा स्पष्टत: कहते हैं कि संयम, शील, और दया से रहित धर्म मनुष्य के सोमनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार करा कर उसकी प्रतिष्ठा में स्वयं भाग क्यों बौद्धिक दिवालियेपन का ही सूचक है। वे आत्म-पीड़ा के साथ उद्घोष लेते? अथवा स्वयं महादेवस्तोत्र की रचना कर राजा के साथ स्वयं करते हैं कि यह बड़े खेद की बात है कि जिसके मूल में क्षमा, शील भी महादेव की स्तुति कैसे कर सकते थे? उनके द्वारा रचित और दया है, ऐसे कल्याणकारी धर्म को छोड़कर मन्दबुद्धि लोग हिंसा
महादेवस्तोत्र इस बात का प्रमाण है कि वे धार्मिक उदारता के समर्थक को भी धर्म मानते हैं। • थे। स्तोत्र में उन्होंने शिव, महेश्वर, महादेव आदि शब्दों की सुन्दर और इस प्रकार हेमचन्द्र धार्मिक उदारता के कट्टर समर्थक होते हुए
सम्प्रदाय-निरपेक्ष व्याख्या करते हुए अन्त में यही कहा है कि संसार भी धर्म के नाम पर आयी हुई विकृतियों और चरित्रहीनता की समीक्षा रूपी बीज के अंकुरों को उत्पन्न करने वाले राग और द्वेष जिसके समाप्त करते हैं। हो गए हों उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ, चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, महादेव हों अथवा जिन हों।३
सर्वधर्मसमभाव क्यों?
हेमचन्द्र की दृष्टि में सर्वधर्मसमभाव की आवश्यकता क्यों धार्मिक सहिष्णुता का अर्थ मिथ्या-विश्वासों का पोषण नहीं है, इसका निर्देश पं० बेचरदासजी ने अपने 'हेमचन्द्राचार्य'९ नामक
यद्यपि हेमचन्द्र धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक हैं, फिर भी वे ग्रन्थ में किया है। जयसिंह सिद्धराज की सभा में हेमचन्द्र ने इस सन्दर्भ में सतर्क हैं कि धर्म के नाम पर मिथ्याधारणाओं और सर्वधर्मसमभाव के विषय में जो विचार प्रस्तुत किये थे, वे पं० amomidnisonawanirbirdid-ordeoraniraniwarinirbndra-[११५]-iworridwarranorandednisordinirbirbirbirdmirandorner
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बेचरदासजी के शब्दों में निम्नलिखित हैं
गुजरात और उसके सीमावर्ती प्रदेश में एक विशेष वातावरण निर्मित कर "हेमचन्द्र कहते हैं कि प्रजा में यदि व्यापक देश-प्रेम और दिया। उस समय के गुजरात की स्थिति का कुछ चित्रण हमें हेमचन्द्र शूरवीरता हो किन्तु यदि धार्मिक उदारता न हो तो देश की जनता खतरे के महावीरचरित में मिलता है। उसमें कहा गया है कि “राजा के हिंसा में ही होगी, यह निश्चित ही समझना चाहिये। धार्मिक उदारता के अभाव और शिकारनिषेध का प्रभाव यहाँ तक हुआ कि असंस्कारी कुलों में जन्म में प्रेम संकुचित हो जाता है और शूरवीरता एक उन्मत्तता का रूप ले लेने वाले व्यक्तियों ने भी खटमल और जूं जैसे सूक्ष्म जीवों की हिंसा लेती है। ऐसे उन्मत्त लोग खून की नदियों को बहाने में भी नहीं चूकते बन्द कर दी। शिकार बन्द हो जाने से जीव-जन्तु जंगलों में उसी निर्भयता और देश उजाड़ हो जाता है। सोमनाथ के पवित्र देवालय का नष्ट होना से घूमने लगे, जैसे गौशाला में गायें। राज्य में मदिरापान इस प्रकार बन्द इसका ज्वलन्त प्रमाण है। दक्षिण में धर्म के नाम पर जो संघर्ष हुआ उनमें हो गया कि कुम्भारों को मद्यभाण्ड बनाना भी बन्द करना पड़ा। मद्यपान हजारों लोगों की जानें गयीं। यह हवा अब गुजरात की ओर बहने लगी के कारण जो लोग अत्यन्त दरिद्र हो गए थे, वे इसका त्याग कर फिर है किन्तु हमें विचारना चाहिये कि यदि गुजरात में इस धर्मान्धता का प्रवेश से धनी हो गए। सम्पूर्ण राज्य में द्यूतक्रीड़ा का नामोनिशान ही समाप्त हो गया तो हमारी जनता और राज्य को विनष्ट होने में कोई समय नहीं हो गया।"१° इस प्रकार हेमचन्द्र ने अपने प्रभाव का उपयोग कर गुजरात लगेगा। आगे वे पुनः कहते हैं कि जिस प्रकार गुजरात के महाराज्य के में व्यसनमुक्त संस्कारी जीवन की जो क्रान्ति की थी, उसके तत्त्व आज विभिन्न देश अपनी विभिन्न भाषाओं, वेशभूषाओं और व्यवसायों को करते तक गुजरात के जनजीवन में किसी सीमा तक सुरक्षित हैं। वस्तुत: यह हुए सभी महाराजा सिद्धराज की आज्ञा के वशीभूत होकर कार्य करते हैं, हेमचन्द्र के व्यक्तित्व की महानता ही थी जिसके परिणामस्वरूप एक उसी प्रकार चाहे हमारे धार्मिक क्रियाकलाप भिन्न हों फिर भी उनमें विवेक- सम्पूर्ण राज्य में संस्कार क्रान्ति हो सकी। दृष्टि रखकर सभी को एक परमात्मा की आज्ञा के अनुकूल रहना चाहिये। इसी में देश और प्रजा का कल्याण है। यदि हम सहिष्णुवृत्ति से न रहकर, स्त्रियों और विधवाओं के संरक्षक हेमचन्द्र धर्म के नाम पर यह विवाद करेंगे कि यह धर्म झूठा है और यह धर्म यद्यपि हेमचन्द्र ने अपने 'योगशास्त्र' में पूर्ववर्ती जैनाचार्यों के सच्चा है, यह धर्म नया है यह धर्म पुराना है, तो हम सबका ही नाश समान ही ब्रह्मचर्य के साधक को अपनी साधना में स्थिर रखने के लिये होगा। आज हम जिस धर्म का आचरण कर रहे हैं, वह कोई शुद्ध धर्म नारी-निन्दा की है। वे कहते हैं कि स्त्रियों में स्वभाव से ही चंचलता, न होकर शुद्ध धर्म को प्राप्त करने के लिये योग्यताभेद के आधार पर निर्दयता और कुशीलता के दोष होते हैं। एक बार समुद्र की थाह पायी बनाए गए भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिक बंधारण मात्र हैं। हमें यह ध्यान रहे जा सकती है किन्तु स्वभाव से कुटिल, दुश्चरित्र कामिनियों के स्वभाव कि शस्त्रों के आधार पर लड़ा गया युद्ध तो कभी समाप्त हो जाता है, की थाह पाना कठिन है।११ किन्तु इसके आधार पर यह मान लेना कि परन्तु शास्त्रों के आधार पर होने वाले संघर्ष कभी समाप्त नही होते, अत: हेमचन्द्र स्त्री-जाति के मात्र आलोचक थे; गलत होगा। हेमचन्द्र ने नारी धर्म के नाम पर अहिंसा आदि पाँच व्रतों का पालन हो, सन्तों का समागम जाति की प्रतिष्ठा और कल्याण के लिये जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया उसके हो, ब्राह्मण, श्रमण और माता-पिता की सेवा हो, यदि जीवन में हम कारण वे युगों तक याद किये जायेंगे। उन्होंने कुमारपाल को उपदेश देकर इतना ही पा सकें तो हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।"
विधवा और निस्सन्तान स्त्रितयों की सम्पत्ति को राज्यसात किये जाने की हेमचन्द्र की चर्चा में धार्मिक उदारता और अनुदारता के स्वरूप क्रूर-प्रथा को सम्पूर्ण राज्य में सदैव के लिये बन्द करवाया और इस माध्यम और उनके परिणामों का जो महत्त्वपूर्ण उल्लेख है वह आज भी उतना से न केवल नारी-जाति को सम्पत्ति का अधिकार दिलवाया,१२ अपितु ही प्रासंगिक है जितना कि कभी हेमचन्द्र के समय में रहा होगा। उनकी सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा भी की और अनेकानेक विधवाओं को
संकटमय जीवन से उबार दिया। अत: हम कह सकते हैं कि हेमचन्द्र हेमचन्द्र और गुजरात की सदाचार-क्रान्ति
ने नारी को उसकी खोई हुई प्रतिष्ठा प्रदान की। हेमचन्द्र ने सिद्धराज और कुमारपाल को अपने प्रभाव में लेकर गुजरात में जो महान् सदाचार क्रान्ति की, वह उनके जीवन की एक प्रजारक्षक हेमचन्द्र महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है और जिससे आज तक भी गुजरात का जनजीवन हेमचन्द्र की दृष्टि में राजा का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्तव्य अपनी प्रभावित है। हेमचन्द्र ने अपने प्रभाव का उपयोग जनसाधारण को अहिंसा प्रजा के सुख-दुःख का ध्यान रखना है। हेमचन्द्र राजगुरु होकर
और सदाचार की ओर प्रेरित करने के लिए किया। कुमारपाल को प्रभावित जनसाधारण के निकट सम्पर्क में थे। एक समय वे अपने किसी अति कर उन्होंने इस बात का विशेष प्रयत्न किया कि जनसाधारण में से निर्धन भक्त के यहाँ भिक्षार्थ गए और वहाँ से सूखी रोटी और मोटा खुरदुरा हिंसकवृत्ति और कुसंस्कार समाप्त हों। उन्होंने शिकार और पशु-बलि के कपड़ा भिक्षा में प्राप्त किया। वही मोटी रोटी खाकर और मोटा वस्त्र धारण निषेध के साथ-साथ मद्यपान-निषेध, द्यूतक्रीड़ा-निषेध के आदेश भी राजा कर वे राजदरबार में पहुंचे। कुमारपाल ने जब उन्हें अन्यमनस्क, मोटा से पारित कराये। आचार्य ने न केवल इस सम्बन्ध में राज्यादेश निकलवाए, कपड़ा पहने दरबार में देखा, तो जिज्ञासा प्रकट की, कि मुझसे क्या कोई अपितु जन-जन को राज्यादेशों के पालन हेतु प्रेरित भी किया और सम्पूर्ण गलती हो गई है? आचार्य हेमचन्द्र ने कहा-“हम तो मुनि हैं, हमारे लिये
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सामाजिक
तो सूखी रोटी और मोटा कपड़ा ही उचित है। किन्तु जिस राजा के राज्य करने वाला और अपने बलाबल का विचार कर कार्य करने वाला, २४. में प्रजा को इतना कष्टमय जीवन बिताना होता है, वह राजा अपने प्रजा- व्रत, नियम में स्थिर, ज्ञानी एवं वृद्ध जनों का पूजक, २५. अपने आश्रितों धर्म का पालक तो नहीं कहा जा सकता। ऐसा राजा नरकेसरी होने के का पालन-पोषण करने वाला, २६. दीर्घदर्शी, २७. विशेषज्ञ, २८. स्थान पर नरकेश्वरी ही होता है। एक ओर अपार स्वर्ण-राशि और दूसरी कृतज्ञ, २९. लोकप्रिय, ३०. लज्जावान, ३१. दयालु, ३२.
ओर तन ढकने का कपड़ा और खाने के लिये सूखी रोटी का अभाव, शान्तस्वभावी, ३३. परोपकार करने में तत्पर, ३४. कामक्रोधादि अन्तरंग यह राजा के लिये उचित नहीं है।" कहा जाता है कि हेमचन्द्र के इस शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला और ३५. अपनी इन्द्रियों को वश उपदेश से प्रभावित हो राजा ने आदेश दिया कि नगर में जो भी अत्यन्त में रखने वाला व्यक्ति ही गृहस्थ-धर्म का पालन करने योग्य है।"१४ गरीब लोग हैं, उनको राज्य की ओर से वस्त्र और खाद्य-सामग्री प्रदान
वस्तुतः इस समग्र चर्चा में आचार्य हेमचन्द्र ने एक योग्य की जाय।१३
नागरिक के सारे कर्तव्यों और दायित्वों का संकेत कर दिया है और इस इस प्रकार हम देखते हैं कि हेमचन्द्र यद्यपि स्वयं एक मुनि प्रकार एक ऐसी जीवनशैली का निर्देश किया है जिसके आधार पर का जीवन जीते थे किन्तु लोकमंगल और लोकल्याण के लिये तथा निर्धन सामंजस्य और शान्तिपूर्ण समाज का निर्माण किया जा सकता है। इससे जनता के कष्ट दूर करने के लिये वे सदा तत्पर रहते थे और इसके लिये यह भी फलित होता है कि आचार्य हेमचन्द्र सामाजिक और पारिवारिक राजदरबार में भी अपने प्रभाव का प्रयोग करते थे।
जीवन की उपेक्षा करके नहीं चलते, वरन् वे उसे उतना ही महत्त्व देते
हैं जितना आवश्यक है और वे यह भी मानते हैं कि धार्मिक होने के लिये समाजशास्त्री हेमचन्द्र
एक अच्छा नागरिक होना आवश्यक है। स्वयं मुनि होते हुए भी हेमचन्द्र पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था के लिये सजग थे। वे एक ऐसे आचार्य थे जो हेमचन्द्र की साहित्य-साधना१५ जनसाधारण के सामाजिक जीवन के उत्थान को भी धर्माचार्य का
हेमचन्द्र ने गुजरात को और भारतीय संस्कृति को जो महत्त्वपूर्ण आवश्यक कर्तव्य मानते थे। उनकी दृष्टि में धार्मिक होने की आवश्यक अवदान दिया है, वह मुख्यरूप से उनकी साहित्यिक प्रतिभा के कारण शर्त यह भी थी कि व्यक्ति एक सभ्य समाज के सदस्य के रूप में जीना ही है। इन्होंने अपनी साहित्यिक प्रतिभा के बल पर ही विविध विद्याओं सीखे। एक अच्छा नागरिक होना धार्मिक जीवन में प्रवेश करने की में ग्रन्थ की रचना की। जहाँ एक ओर उन्होंने अभिधान-चिन्तामणि, आवश्यक भूमिका है। अपने ग्रन्थ 'योगशास्त्र' में उन्होंने स्पष्ट रूप से अनेकार्थसंग्रह, निघंटुकोष और देशीनाममाला जैसे शब्दकोषों की रचना यह उल्लेख किया है कि श्रावकधर्म का अनुसरण करने के पूर्व व्यक्ति की, वहीं दूसरी ओर सिद्धहेम-शब्दानुशासन, लिङ्गानुशासन, धातुपारायण एक अच्छे नागरिक का जीवन जीना सीखे। उन्होंने ऐसे ३५ गुणों का जैसे व्याकरण ग्रन्थ भी रचे। कोश और व्याकरण ग्रन्थों के अतिरिक्त निर्देश किया है जिनका पालन एक अच्छे नागरिक के लिये आवश्यक हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन जैसे अलंकार ग्रन्थ और छन्दानुशासन जैसे रूप से वांछनीय है। वे लिखते हैं कि - "१. न्यायपूर्वक धन-सम्पत्ति छन्दशास्त्र के ग्रन्थ की रचना भी की। विशेषता यह है कि इन सैद्धान्तिक को अर्जित करने वाला, २. सामान्य शिष्टाचार का पालन करने वाला, ग्रन्थों में उन्होंने संस्कृत भाषा के साथ-साथ प्राकृत और अपभ्रंश के ३. समान कुल और शील वाली अन्य गोत्र की कन्या से विवाह करने उपेक्षित व्याकरण की भी चर्चा की। इन सिद्धान्तों के प्रायोगिक पक्ष के वाला, ४. पापभीरु, ५. प्रसिद्ध देशाचार का पालन करने वाला, ६.निन्दा लिये उन्होंने संस्कृत-प्राकृत में द्वयाश्रय जैसे महाकाव्य की रचना की है। का त्यागी, ७. ऐसे मकान में निवास करने वाला जो न तो अधिक खुला हेमचन्द्र मात्र साहित्य के ही विद्वान् नहीं थे अपितु धर्म और दर्शन के हो न अति गुप्त, ८. सदाचारी व्यक्तियों के सत्संग में रहने वाला, ९. क्षेत्र में भी उनकी गति निर्बाध थी। दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने माता-पिता की सेवा करने वाला, १०. अशान्त तथा उपद्रव युक्त सत्संग- अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका और प्रमाणमीमांसा स्थान को त्याग देने वाला, ११. निन्दनीय कार्य में प्रवृत्ति न करने वाला, जैसे प्रौढ़ ग्रन्थ रचे तो धर्म के क्षेत्र में योगशास्त्र जैसे साधनाप्रधान ग्रन्थ १२. आय के अनुसार व्यय करने वाला, १३. सामाजिक प्रतिष्ठा एवं की भी रचना की। कथासाहित्य में उनके द्वारा रचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित समृद्धि के अनुसार वस्त्र धारण करने वाला, १४. बुद्धि के आठ गुणों का अपना विशिष्ट महत्त्व है। हेमचन्द्र ने साहित्य, काव्य, धर्म और दर्शन से युक्त, १५. सदैव धर्मोपदेश का श्रवण करने वाला, १६. अजीर्ण जिस किसी विधा को अपनाया, उसे एक पूर्णता प्रदान की। उनकी इस के समय भोजन का त्याग करने वाला, १७. भोजन के अवसर पर विपुल साहित्यसर्जना का ही परिणाम था कि उन्हें कलिकालसर्वज्ञ की स्वास्थ्यप्रद भोजन करने वाला, १८. धर्म, अर्थ और काम इन तीनों वर्गों उपाधि प्रदान की गयी। का परस्पर विरोध-रहित भाव से सेवन करने वाला, १९. यथाशक्ति
साहित्य के क्षेत्र में हेमचन्द्र के अवदान को समझने के लिये अतिथि, साधु एवं दीन-दुःखियों की सेवा करने वाला, २०. मिथ्या- उनके द्वारा रचित ग्रन्थों का किंचित् मूल्यांकन करना होगा। यद्यपि हेमचन्द्र आग्रहों से सदा दूर रहने वाला, २१. गुणों का पक्षपाती, २२. निषिद्ध के पूर्व व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनीय व्याकरण का अपना महत्त्व था, देशाचार और कालाचार का त्यागी, २३. अपने बलाबल का सम्यक् ज्ञान उस पर अनेक वृत्तियाँ और भाष्य लिखे गए, फिर भी वह विद्यार्थियों के
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लिये दुर्बोध ही था। व्याकरण के अध्ययन की नई सहज एवं बोधगम्य प्रणाली को जन्म देने का श्रेय हेमचन्द्र को है। वह हेमचन्द्र का
था कि परवर्तीकाल में ब्राह्मण-परम्परा में इसी पद्धति को आधार बनाकर ग्रन्थ लिखे गए और पाणिनि के अष्टाध्यायी की प्रणाली पठन-पाठन से धीरे-धीरे उपेक्षित हो गयी। हेमचन्द्र के व्याकरण की एक विशेषता तो यह है कि आचार्य ने स्वयं उसकी वृत्ति में कतिपय शिक्षा सूत्रों को उद्धृत किया है। उनके व्याकरण की दूसरी विशेषता यह है कि उनमें संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत के व्याकरण भी दिये गए हैं। व्याकरण के समान ही उनके कोशवन्य, काव्यानुशासन और छन्दानुशासन जैसे साहित्यिक सिद्धान्त ग्रन्थ भी अपना महत्त्व रखते हैं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और परिशिष्टपर्व के रूप में उन्होंने जैनधर्म की पौराणिक और ऐतिहासिक सामग्री का जो संकलन किया है, वह भी निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है। यहाँ उनकी योगशास्त्र, प्रमाणमीमांसा आदि सभी कृतियों का मूल्यांकन सम्भव नहीं है, किन्तु परवर्ती साहित्यकारों द्वारा किया गया उनका अनुकरण इस बात को सिद्ध करता है कि उनकी प्रतिभा से न केवल उनका शिष्यमण्डल अपितु परवर्ती जैन या जैनेतर विद्वान् भी प्रभावित हुए। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने हेमचन्द्र की समग्र कृतियों का जो श्लोक-परिमाण दिया है, उससे पता लगता है कि उन्होंने दो लाख श्लोक परिमाण साहित्य की रचना की है जो उनकी सृजनधर्मिता के महत्त्व को स्पष्ट करती है। साधक हेमचन्द्र
हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि एक महान् साहित्यकार और प्रभावशाली राजगुरु होते हुए भी मूलतः हेमचन्द्र एक आध्यात्मिक साधक थे। यद्यपि हेमचन्द्र का अधिकांश जीवन साहित्य सृजन के साथ-साथ गुजरात में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार तथा वहाँ की राजनीति में अपने प्रभाव को यथावत् बनाये रखने में बीता, किन्तु कालान्तर में गुरु से उलाहना पाकर हेमचन्द्र की प्रसुप्त अध्यात्मनिष्ठा पुनः जाग्रत हो गई थी। कुमारपाल ने जब हेमचन्द्र से अपनी कीर्ति को अमर करने का उपाय पूछा तो उन्होंने दो उपाय बताए- १. सोमनाथ के मन्दिर का जीर्णोद्वार और २. समस्त देश को ऋणमुक्त करके विक्रमादित्य के समान अपना संवत् चलाना । कुमारपाल को दूसरा उपाय अधिक उपयुक्त लगा किन्तु समस्त देश को ऋणमुक्त करने के लिये जितने धन की आवश्यकता थी, उतना उसके पास नहीं था, अतः उसने गुरु हेमचन्द्र से धन प्राप्ति का उपाय पूछा। इस समस्या के समाधान हेतु यह उपाय सोचा गया कि हेमचन्द्र के गुरु देवचन्द्रसूरि को पाटन बुल वाया जाए और उन्हें जो स्वर्णसिद्धि विद्या प्राप्त है उसके द्वारा अपार स्वर्णराशि प्राप्त करके समस्त प्रजा को ऋणमुक्त किया जाए। राजा, अपने प्रिय शिष्य हेमचन्द्र और पाटन के श्रावकों के आग्रह पर देवचन्द्रसूरि पाटण आए किन्तु जब उन्हें अपने पाटण बुलाए
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जाने के उद्देश्य का पता चला तो न केवल वे पाटण से प्रस्थान कर गए अपितु उन्होंने अपने शिष्य को अध्यात्म-साधना से विमुख हो लोकैषणा में पड़ने का उलाहना भी दिया और कहा कि लौकिक प्रतिष्ठा अर्जित करने की अपेक्षा पारलौकिक प्रतिष्ठा के लिये भी कुछ प्रयत्न करो। जैनधर्म की ऐसी प्रभावना भी जिसके कारण तुम्हारा अपना आध्यात्मिक विकास ही कुंठित हो जाय तुम्हारे लिये किस काम की? कहा जाता है कि गुरु के इस उलाहने से हेमचन्द्र को अपनी मिथ्या महत्त्वाकांक्षा का बोध हुआ और वे अन्तर्मुख हो अध्यात्म साधना की ओर प्रेरित हुए। १६ वे यह विचार करने लगे कि मैंने लोकैषणा में पड़कर न केवल अपने आपको साधना से विमुख किया अपितु गुरु की साधना में भी विघ्न डाला। पश्चात्ताप की यह पीड़ा हेमचन्द्र की आत्मा को बराबर कचोटती रही जो इस तथ्य की सूचक है कि हेमचन्द्र मात्र साहित्यकार या राजगुरु ही नहीं थे अपितु आध्यात्मिक साधक भी थे।
वस्तुतः हेमचन्द्र का व्यक्तित्व इतना व्यापक और महान् है कि उसे समग्रतः शब्दों की सीमा में बाँध पाना सम्भव नहीं है। मात्र यही नहीं, उस युग में रहकर उन्होंने जो कुछ सोचा और कहा था वह आज भी प्रासंगिक है। काश! हम उनके महान् व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर हिंसा, वैमनस्य और संघर्ष की वर्तमान त्रासदी से भारत को बचा सकते।
सन्दर्भ
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
हेमचन्द्राचार्य, पृ० ५३-५६.
:
१०. देखें महावीरचरित्र (हेमचन्द्र) ६५-७५ (कुमारपाल के सम्बन्ध में महावीर की भविष्यवाणी).
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
हेमचन्द्राचार्य (पं० बेचरदास जीवराज दोशी), पृ० १२३. आचार्य हेमचन्द्र (वि० भा० मुसलगांवकर), पृ० १९१. देखें: महादेवस्तोत्र (आत्मानन्द सभा, भावनगर), पृ० १ १६ महादेवस्तोत्र, पृ० ४४.
योगशाख, २/९. योगशास्त्र,
११८]
वही २/१०.
वही, २/१३.
वही, १/४०.
योगशास्त्र, २/८४-८५.
हेमचन्द्राचार्य, पृ० ७७.
वही, पृ० १०१-१०४.
योगशास्त्र, १/४७-५६.
देखें : आचार्य हेमचन्द्र (वि० भा० मुसलगांवकर), अध्याय ७. हेमचन्द्राचार्य, पृ० १३-१७८.
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जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा
समग्र भारतीय परम्पराओं में 'तीर्थ' की अवधारणा को महत्त्व- द्रव्यतीर्थ तो मात्र बाह्यमल अर्थात् शरीर की शुद्धि करते हैं अथवा वे पूर्ण स्थान प्राप्त है फिर भी जैन-परम्परा में तीर्थ को जो महत्त्व दिया केवल नदी, समुद्र आदि के पार पहुंचाते हैं, अत: वे वास्तविक तीर्थ गया है वह विशिष्ट ही है, क्योंकि उसमें धर्म को ही तीर्थ कहा गया है नहीं हैं । वास्तविक तीर्थ तो वह है जो जीव को संसार-समुद्र से उस
और धर्म-प्रवर्तक तथा उपासना एवं साधना के आदर्श को तीर्थङ्कर कहा पार मोक्षरूपी तट पर पहुँचाता है। विशेषावश्यकभाष्य में न केवल गया है। अन्य धर्म परम्पराओं में जो स्थान ईश्वर का है, वही जैन-परम्परा लौकिक तीर्थस्थलों (द्रव्यतीर्थ)की अपेक्षा आध्यात्मिक तीर्थ (भावतीर्थ) में तीर्थङ्कर का । वह धर्मरूपी तीर्थ का संस्थापक माना जाता है । दूसरे का महत्त्व बताया गया है, अपितु नदियों के जल में स्नान और उसका शब्दों में जो तीर्थ अर्थात् धर्म-मार्ग की स्थापना करता है, वही तीर्थङ्कर पान अथवा उनमें अवगाहन मात्र से संसार से मुक्ति मान लेने की धारणा है। इस प्रकार जैनधर्म में तीर्थ एवं तीर्थङ्कर की अवधारणाएँ परस्पर जुड़ी का खण्डन भी किया गया है । भाष्यकार कहता है कि “दाह की शान्ति, हुई हैं और वे जैनधर्म की प्राण हैं।
तृषा का नाश इत्यादि कारणों से गंगा आदि के जल को शरीर के लिए
उपकारी होने से तीर्थ मानते हो तो अन्य खाद्य, पेय एवं शरीर-शुद्धि जैनधर्म में तीर्थ का सामान्य अर्थ
करने वाले द्रव्य इत्यादि भी शरीर के उपकारी होने के कारण तीर्थ माने जैनाचार्यों ने तीर्थ की अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डाला जायेंगे किन्तु इन्हें कोई भी तीर्थरूप में स्वीकार नहीं करता है" १६ है। तीर्थ शब्द की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या करते हुए कहा गया है - वास्तव में तो तीर्थ वह है जो हमारे आत्मा के मल को धोकर हमें तीर्यते अनेनेति तीर्थ: अर्थात् जिसके द्वारा पार हुआ जाता है वह तीर्थ संसार-सागर से पार कराता है । जैन-परम्परा की तीर्थ की यह कहलाता है । इस प्रकार सामान्य अर्थ में नदी, समुद्र आदि के वे तट अध्यात्मपरक व्याख्या हमें वैदिक परम्परा में भी उपलब्ध होती है। उसमें जिनसे पार जाने की यात्रा प्रारम्भ की जाती थी तीर्थ कहलाते थे; इस कहा गया है- सत्य तीर्थ है, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह भी तीर्थ है । समस्त अर्थ में जैनागम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में मागध तीर्थ, वरदाम तीर्थ और प्रभास प्राणियों के प्रति दयाभाव, चित्त की सरलता, दान, सन्तोष, ब्रह्मचर्य का तीर्थ का उल्लेख मिलता है ।
पालन, प्रियवचन, ज्ञान, धैर्य और पुण्य कर्म - ये सभी तीर्थ हैं ।
तीर्थ का लाक्षणिक अर्थ
द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ लाक्षणिक दृष्टि से जैनाचार्यों ने तीर्थ शब्द का अर्थ लिया -
जैनों ने तीर्थ के जंगमतीर्थ और स्थावरतीर्थ ऐसे दो विभाग भी जो संसार समुद्र से पार कराता है, वह तीर्थ है और ऐसे तीर्थ की स्थापना किये हैं। इन्हें क्रमश: चेतनतीर्थ और जड़तीर्थ अथवा भावतीर्थ और करने वाला तीर्थङ्कर है । संक्षेप में मोक्ष-मार्ग को ही तीर्थ कहा गया है। द्रव्यतीर्थ भी कह सकते हैं । वस्तुत: नदी, सरोवर आदि तो जड़ या द्रव्य आवश्यकनियुक्ति में श्रुतधर्म, साधना-मार्ग, प्रावचन, प्रवचन और तीर्थ हैं, जबकि श्रुतविहित मार्ग पर चलने वाला संघ भावतीर्थ है और तीर्थ- इन पाँचों को पर्यायवाची बताया गया है। इससे यह स्पष्ट होता वही वास्तविक तीर्थ है । उसमें साधुजन पार कराने वाले हैं, ज्ञानादि है कि जैन-परम्परा में तीर्थ शब्द केवल तट अथवा पवित्र या पूज्य स्थल रत्नत्रय नौका-रूप तैरने के साधन हैं और संसार-समुद्र ही पार करने की के अर्थ में प्रयुक्त न होकर एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तीर्थ से वस्तु है। जिन ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि द्वारा अज्ञानादि सांसारिक भावों जैनों का तात्पर्य मात्र किसी पवित्र स्थल तक ही सीमित नहीं है । वे से पार हुआ जाता है, वे ही भावतीर्थ हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि तो समग्र धर्ममार्ग और धर्म-साधकों के समूह को ही तीर्थ-रूप में मल हैं, इनको जो निश्चय ही दूर करता है वही वास्तव में तीर्थ है। व्याख्यायित करते हैं ।
जिनके द्वारा क्रोधादि की अग्नि को शान्त किया जाता है वही संघ
वस्तुत: तीर्थ है । इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन जैन-परम्परा में तीर्थ का आध्यात्मिक अर्थ
आत्मशुद्धि की साधना और जिस संघ में स्थित होकर यह साधना की जैनों ने तीर्थ के लौकिक और व्युत्पत्तिपरक अर्थ से ऊपर जा सकती है, वह संघ ही वास्तविक तीर्थ माना गया है। उठकर उसे आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया है। उत्तराध्ययनसूत्र में चाण्डालकुलोत्पन्न हरकेशी नामक महान् निर्ग्रन्थ साधक से जब यह पूछा 'तीर्थ के चार प्रकार गया कि आपका सरोवर कौन-सा है ? आपका शान्तितीर्थ कौन-सा है? विशेषावश्यकभाष्य में चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख है, तो उसके प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि धर्म ही मेरा सरोवर है और ब्रह्मचर्य नाम-तीर्थ, स्थापनातीर्थ, द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ । जिन्हें तीर्थ नाम दिया ही शान्ति-तीर्थ है जिसमें स्नान करके आत्मा निर्मल और विशुद्ध हो गया है वे नामतीर्थ हैं । वे विशेष स्थल जिन्हें तीर्थ मान लिया गया है,
जाती है। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि सरिता आदि वे स्थापनातीर्थ हैं । अन्य परम्पराओं में पवित्र माने गये नदी, सरोवर dowdeoadindabardabudibedivoroubroadbudabudabudiaid- ११९]-Drdrobedroodwordsbrowondinaroortovodivororandibrar
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-यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म .
आदि अथवा जिनेन्द्रदेव के गर्भ, जन्म, दीक्षा, कैवल्य-प्राप्ति एवं नहीं थी, जितनी कि शैव सम्प्रदाय की । निर्वाण के स्थल द्रव्यतीर्थ हैं, जबकि मोक्षमार्ग और उसकी साधना करने ३. तीसरे वर्ग में ऐसे तीर्थ का उल्लेख हआ है "जिसमें प्रवेश वाला चतुर्विधसंध भावतीर्थ है । इस प्रकार जैनधर्म में सर्वप्रथम तो तो कठिन है किन्तु साधना सुकर है।' भाष्यकार ने इस सन्दर्भ में जैनों जिनोपदिष्ट धर्म, उस धर्म का पालन करने वाले साधु-साध्वी, श्रावक के ही अचेल सम्प्रदाय का उल्लेख किया है । इस संघ में अचेलकता
और श्राविकारूप चतुर्विधसंघ को ही तीर्थ और उसके संस्थापक को अनिवार्य थी, अत: इस तीर्थ को प्रवेश की दृष्टि से दुष्कर, किन्तु तीर्थङ्कर कहा गया है। यद्यपि परवर्ती काल में पवित्र स्थल भी द्रव्यतीर्थ अनुपालन की दृष्टि से सुकर माना गया है। के रूप में स्वीकृत किये गये हैं।
४. ग्रन्थकार ने चौथे वर्ग में उस तीर्थ का उल्लेख किया है
जिसमें प्रवेश और साधना दोनों दुष्कर है और स्वयं इस रूप में अपने तीर्थ शब्द धर्मसंघ के अर्थ में
ही सम्प्रदाय का उल्लेख किया है । यह वर्गीकरण कितना समुचित है प्राचीन काल में श्रमण-परम्परा के साहित्य में 'तीर्थ' शब्द का यह विवाद का विषय हो सकता है किन्तु इतना निश्चित है कि साधनाप्रयोग धर्म-संघ के अर्थ में होता रहा है। प्रत्येक धर्मसंघ या धार्मिक मार्ग की सुकरता या दुष्करता के आधार पर जैन-परम्परा में विविध प्रकार साधकों का वर्ग तीर्थ कहलाता था, इसी आधार पर अपनी परम्परा से के तीर्थों की कल्पना की गई है और साधना मार्ग को ही तीर्थ के रूप भिन्न लोगों को तैर्थिक या अन्यतैर्थिक कहा जाता था। जैन-साहित्य में में ग्रहण किया गया है। बौद्ध आदि अन्य श्रमण-परम्पराओं को तैर्थिक या अन्य तैर्थिक के नाम इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-परम्परा में तीर्थ से तात्पर्य से अभिहित किया गया है । बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय के सामबफलसुत्त मुख्य रूप से पवित्र स्थल की अपेक्षा साधना-विधि से लिया गया है और में भी निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र महावीर के अतिरिक्त मंखलिगोशालक, ज्ञान, दर्शन और चारित्र-रूप मोक्षमार्ग को ही भावतीर्थ कहा गया है, अजितकेशकम्बल, पूर्णकाश्यप, पकुधकात्यायन आदि को भी तित्थकर क्योंकि ये साधक के विषय-कषायरूपी मल को दूर करके समाधि रूपी (तीर्थंकर) कहा गया है१२ । इससे यह फलित होता है कि उनके साधकों आत्मशान्ति को प्राप्त करवाने में समर्थ हैं। प्रकारान्तर से साधकों के वर्ग का वर्ग भी तीर्थ के नाम से अभिहित होता था। जैन-परम्परा में तो को भी तीर्थ कहा गया है । भगवतीसूत्र में तीर्थ की व्याख्या करते हुए जैनसंघ या जैन साधकों के समुदाय के लिए तीर्थ शब्द का प्रयोग स्पष्टरूप से कहा गया है कि चतुर्विध श्रमणसंघ ही तीर्थ है ।५ श्रमण, प्राचीन काल से लेकर वर्तमान युग तक यथावत् प्रचलित है । श्रमणी, श्रावक और श्राविकायें-इस चतुर्विध श्रमणसंघ के चार अंग हैं। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर की स्तुति करते हुए कहा है कि हे इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि प्राचीन जैन ग्रन्थों में तीर्थ शब्द को भगवन् ! आपका यह तीर्थ सर्वोदय अर्थात् सबका कल्याण करने संसार-समुद्र से पार कराने वाले साधन के रूप में ग्रहीत करके त्रिविध वाला है१३ । महावीर का धर्मसंघ सदैव ही तीर्थ के नाम से अभिहित साधना-मार्ग और उसका अनुपालन करने वाले चतुर्विध श्रमणसंघ को किया जाता रहा है।
ही वास्तविक तीर्थ माना गया है।
साधना की सुकरता और दुष्करता के आधार पर तीर्थों का निश्चयतीर्थ और व्यवहारतीर्थ : वर्गीकरण
जैनों की दिगम्बर-परम्परा में तीर्थ का विभाजन निश्चयतीर्थ और विशेषावश्यकभाष्य में साधना-पद्धति के सुकर या दुष्कर होने व्यवहारतीर्थ के रूप में हुआ है । निश्चयतीर्थ के रूप में सर्वप्रथम तो के आधार पर भी इन संघरूपी तीर्थों का वर्गीकरण किया गया है। आत्मा के शुद्ध-बुद्ध स्वभाव को ही निश्चयतीर्थ कहा गया है। उसमें कहा भाष्यकार ने चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि-- गया है कि पंचमहाव्रतों से युक्त सम्यक्त्व से विशुद्ध, पाँच इन्द्रियों से
१. सर्वप्रथम कुछ तीर्थ (तट) ऐसे होते हैं जिनमें प्रवेश भी संयत निरपेक्ष आत्मा ही ऐसा तीर्थ है जिसमें दीक्षा और शिक्षा रूप स्नान सुखकर होता है और जहाँ से पार करना भी सुखकर होता है। इसी प्रकार करके पवित्र हुआ जाता है । १६ पुनः निर्दोष सम्यक्त्व, क्षमा आदि धर्म, कुछ तीर्थ या साधक-संघ ऐसे होते हैं, जिनमें प्रवेश भी सुखद होता निर्मलसंयम, उत्तम तप और यथार्थज्ञान-ये सब भी कषायभाव से रहित है और साधना भी सुखद होती है । ऐसे तीर्थ का उदाहरण देते हुए और शान्तभाव से युक्त होने पर निश्चयतीर्थ माने गये हैं। इसी प्रकार भाष्यकार ने शैवमत का उल्लेख किया है, क्योंकि शैव सम्प्रदाय में मूलाचार में श्रुतधर्म को तीर्थ कहा गया है, क्योंकि वह ज्ञान के प्रवेश और साधना दोनों ही सुखकर माने गये हैं।
माध्यम से आत्मा को पवित्र बनाता है। सामान्य निष्कर्ष यह है कि वे २. दूसरे वर्ग में वे तीर्थ (तट) आते हैं जिनमें प्रवेश तो सभी साधन जो आत्मा के विषय-कषायरूपी मल को दूर कर उसे सुखरूप हो किन्तु जहाँ से पार होना दुष्कर या कठिन हो । इसी प्रकार संसार-समुद्र से पार उतारने में सहायक होते हैं या पवित्र बनाते हैं, वे कुछ धर्मसंघों में प्रवेश तो सुखद होता है किन्तु साधना कठिन होती है। निश्चयतीर्थ हैं। यद्यपि बोधपाहुड की टीका (लगभग ११वीं शती) में यह ऐसे संघ का उदाहरण बौद्ध संघ के रूप में दिया गया है । बौद्ध-संघ स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है कि 'जो निश्चयतीर्थ की प्राप्ति का कारण में प्रवेश तो सुलभतापूर्वक सम्भव था, किन्तु साधना उतनी सुखरूप है ऐसे जगत्-प्रसिद्ध मुक्तजीवों के चरणकमलों से संस्पर्शित ऊर्जयंत,
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
शत्रुञ्जय, पावागिरि आदि तीर्थ हैं और कर्मक्षय का कारण होने से वे धार्मिक कृत्य माना जाता है । इसके विपरीत जैन-परम्परा में तीर्थ स्थल व्यवहारतीर्थ भी वन्दनीय माने गये हैं। इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा में को अपने आप में पवित्र नहीं माना गया, अपितु यह माना गया कि भी साधनामार्ग और आत्मविशुद्धि के कारणों को निश्चयतीर्थ और तीर्थंकर अथवा अन्य त्यागी-तपस्वी महापुरुषों के जीवन से सम्बन्धित पंचकल्याणक भूमियों को व्यवहार-तीर्थ माना गया है । मूलाचार में भी होने के कारण वे स्थल पवित्र बने हैं । जैनों के अनुसार कोई भी स्थल यह कहा गया है कि दाहोपशमन, तृषानाश और मल की शुद्धि ये-तीन अपने आप में पवित्र या अपवित्र नहीं होता, अपितु वह किसी महापुरुष कार्य जो करते हैं वे द्रव्यतीर्थ हैं 'किन्तु जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र से से सम्बद्ध होकर या उनका सान्निध्य पाकर पवित्र माना जाने लगता है, युक्त जिनदेव हैं वे भावतीर्थ हैं' यह भावतीर्थ ही निश्चयतीर्थ है। कल्याण यथा - कल्याणक भूमियाँ, जो तीर्थङ्कर के गर्भ जन्म, दीक्षा कैवल्य या भूमि तो व्यवहारतीर्थ है । इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही निर्वाणस्थल होने से पवित्र मानी जाती है । बौद्ध-परम्परा में भी बुद्ध के परम्पराओं में प्रधानता तो भावतीर्थ या निश्चयतीर्थ को ही दी गई है, जीवन से सम्बन्धित स्थलों को पवित्र माना गया हैं। किन्तु आत्मविशुद्धि के हेतु या प्रेरक होने के कारण द्रव्यतीर्थों या हिन्दू और जैन परम्परा में दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि व्यवहारतीर्थों को भी स्वीकार किया गया है । स्मरण रहे कि अन्य धर्म- जहाँ हिन्दू-परम्परा में प्रमुखतया नदी-सरोवर आदि को तीर्थ रूप में परम्पराओं में जो तीर्थ की अवधारणा उपलब्ध है, उसकी तुलना जैनों स्वीकार किया गया है वहीं जैन-परम्परा में सामान्यतया किसी नगर के द्रव्यतीर्थ से की जा सकती है।'
अथवा पर्वत को ही तीर्थस्थल के रूप में स्वीकार किया गया। यह अन्तर
भी मूलत: तो किसी स्थल को स्वत: पवित्र मानना या किसी प्रसिद्ध जैन-परम्परा में तीर्थ शब्द का अर्थ-विकास
महापुरुष के कारण पवित्र मानना - इसी तथ्य पर आधारित है । पुनः श्रमण-परम्परा में प्रारम्भ में तीर्थ की इस अवधारणा को एक इस अन्तर का एक प्रसिद्ध कारण यह भी है- जहाँ हिन्दू परम्परा में आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया गया था। विशेषावश्यकभाष्य जैसे प्राचीन बाह्य-शौच (स्नानादि, शारीरिक शुद्धि) की प्रधानता थी, वहीं जैनआगमिक व्याख्या-ग्रन्थों में भी वैदिक परम्परा में मान्य नदी, सरोवर परम्परा में तप और त्याग द्वारा आत्मशुद्धि की प्रधानता थी, स्नानादि तो आदि स्थलों को तीर्थ मानने की अवधारणा का खण्डन किया गया और वर्त्य ही माने गये थे। अत: यह स्वाभाविक था कि जहाँ हिन्दूं-परम्परा उसके स्थान पर रत्नत्रय से युक्त साधनामार्ग अर्थात् उस साधना में चल में नदी-सरोवर तीर्थ रूप में विकसित हुए, वहाँ जैन-परम्परा में साधनारहे साधक के संघ को तीर्थ के रूप में अभिहित किया गया है । यही स्थल के रूप में वन-पर्वत आदि तीर्थों के रूप में विकसित हुए । यद्यपि दृष्टिकोण अचेल-परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार में भी देखा जाता है, जिसका आपवादिक रूप में हिन्दू-परम्परा में भी कैलाश आदि पर्वतों को तीर्थ उल्लेख पूर्व में हम कर चुके हैं।
माना गया, वहीं जैन-परम्परा में शत्रुजय नदी आदि को पवित्र या तीर्थ किन्तु परवर्ती काल में जैन-परम्परा में तीर्थ सम्बन्धी अवधारणा के रूप में माना गया है, किन्तु यह इन परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव में परिवर्तन हुआ और द्रव्य तीर्थ अर्थात् पवित्र स्थलों को भी तीर्थमाना का परिणाम था । पुनः हिन्दू-परम्परा में जिन पर्वतीय स्थलों जैसे कैलाश गया। सर्वप्रथम तीर्थङ्करों के गर्भ, जन्म, दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण से आदि को तीर्थ रूप में माना गया उनके पीछे भी किसी देव का निवाससम्बन्धित स्थलों को पूज्य मानकर उन्हें तीर्थ के रूप में स्वीकार किया स्थान या उसकी साधनास्थली होना ही एकमात्र कारण था, किन्तु यह गया । आगे चलकर तीर्थङ्करों के जीवन की प्रमुख घटनाओं से निवृत्तिमार्गी परम्परा का ही प्रभाव था । दूसरी ओर हिन्दू-परम्परा के सम्बन्धित स्थल ही नहीं अपितु गणधर एवं प्रमुख मुनियों के निर्वाणस्थल प्रभाव से जैनों में भी यह अवधारण बनी कि यदि शत्रुजय नदी में स्नान
और उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना से जुड़े हुए स्थल भी तीर्थ के नहीं किया तो मानव जीवन ही निरर्थक हो गया। रूप मे स्वीकार किये गये। इससे भी आगे चलकर वे स्थल भी, जहाँ 'सतरूंजी नदी नहायो नहीं, तो गयो मिनख जमारो हार'। कलात्मक मन्दिर बने या जहाँ की प्रतिमाएँ चमत्कारपूर्ण मानी गयीं, तीर्थ कहे गये।
तीर्थ और तीर्थयात्रा
पूर्व विवरण से स्पष्ट है कि जैन-परम्परा में 'तीर्थ' शब्द के हिन्दू और जैनतीर्थ की अवधारणाओं में मौलिक अन्तर अर्थ का ऐतिहासिक विकास-क्रम है । सर्वप्रथम जैन धर्म में गंगा आदि
यह सत्य है कि कालान्तर में जैनों ने हिन्दू-परम्परा के समान लौकिक तीर्थों की यात्रा तथा वहाँ स्नान, पूजन आदि को धर्म साधना ही कुछ स्थलों को पवित्र और पूज्य मानकर उनकी पूजा और यात्रा को की दृष्टि से अनावश्यक माना गया और तीर्थ शब्द को आध्यात्मिक अर्थ महत्त्व दिया, किन्तु फिर भी दोनों अवधारणाओं में मूलभूत अन्तर है। प्रदान कर आध्यात्मिक साधना मार्ग को तथा उस साधना का अनुपालन हिन्दू-परम्परा नदी, सरोवर आदि को स्वत: पवित्र मानती है, जैसे- करने वाले साधकों के संघ को ही तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया। गंगा। यह नदी किसी ऋषि-मुनि आदि के जीवन की किसी घटना से किन्तु कालान्तर में जैन-परम्परा में भी तीर्थङ्करों की कल्याणक भूमियों सम्बन्धित होने के कारण नहीं, अपितु स्वतः ही पवित्र है । ऐसे पवित्र को पवित्र स्थानों के रूप में मान्य करके तीर्थ की लौकिक अवधारणा स्थल पर स्नान, पूजा-अर्चना, दान-पुण्य एवं यात्रा आदि करने को एक का विकास हुआ । ई०पू० में रचित अति प्राचीन जैन-आगमों जैसे
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म ...
आचारांग आदि में हमें जैन तीर्थस्थलों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है की जन्म कल्याणक आदि भूमियों के अतिरिक्त उत्तरापथ में धर्मचक्र, यद्यपि उनमें हिन्दू-परम्परा के तीर्थस्थलों पर होने वाले महोत्सवों तथा मथुरा में देवनिर्मितस्तूप और कौशल की जीवन्तस्वामी की प्रतिमा को यात्राओं का उल्लेख मिलता है। परन्तु आध्यात्ममार्गी जैन-परम्परा मुनि पूज्य बताया गया है । इसी प्रकार वे स्थल, जहाँ कलात्मक एवं भव्य के लिए इन तीर्थमेलों और यात्राओं में भाग लेने का भी निषेध करती मन्दिरों का निर्माण हुआ अथवा किसी जिन-प्रतिमा को चमत्कारी मान थी । ईसा की प्रथम शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी के मध्य निर्मित लिया गया, तीर्थ रूप में मान्य हुए। उत्तरापथ, मथुरा और कोशल आदि परवर्ती आगमिक साहित्य में भी यद्यपि जैन-तीर्थस्थलों और तीर्थयात्राओं की तीर्थ रूप में प्रसिद्धि इसी कारण थी । हमारी दृष्टि से सम्भवत: आगे के स्पष्ट संकेत तो नहीं मिलते, फिर भी इनमें तीर्थङ्करों की कल्याणकभूमियों, चलकर तीर्थों का जो विभाजन कल्याणक क्षेत्र, सिद्धक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र विशेष रूप से जन्म एवं निर्वाणस्थलों की चर्चा है२२ । साथ ही तीर्थङ्करों के रूप में हुआ, उसका भी यही कारण था। की चिता-भस्म एवं अस्थियों को क्षीरसमुद्रादि में प्रवाहित करने तथा तीर्थ क्षेत्र के प्रकार -जैन-परम्परा में तीर्थ स्थलों का देवलोक में उनके रखे जाने के उल्लेख इन आगमों में हैं । उनमें वर्गीकरण मुख्य रूप से तीन वर्गों में किया जाता है - अस्थियों एवं चिता-भस्म पर चैत्य और स्तूप के निर्माण के उल्लेख भी १. कल्याणकक्षेत्र, २. निर्वाणक्षेत्र और ३. अतिशयक्षेत्र । मिलते हैं । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में ऋषभ के निर्वाणस्थल पर स्तूप बनाने का १.कल्याणक क्षेत्र- जैन- परम्परा में सामान्यतया प्रत्येक उल्लेख है२३ । इस काल के आगम ग्रन्थों में हमें देवलोक एवं तीर्थंकर के पाँच कल्याणक माने गये हैं। कल्याणक शब्द का तात्पर्य नन्दीश्वरद्वीप में निर्मित चैत्य आदि के उल्लेखों के साथ-साथ यह भी तीर्थंकर के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना से सम्बन्धित पवित्र दिन से है। वर्णन मिलता है कि पर्व-तिथियों में देवता नन्दीश्वरद्वीप जाकर महोत्सव जैन-परम्परा में तीर्थंकरों के गर्भ-प्रवेश, जन्म, दीक्षा (अभिनिष्क्रमण), आदि मनाते हैं२४ । यद्यपि इस काल के आगमों में अरिहंतों के स्तूपों कैवल्य (बोधिप्राप्ति) और निर्वाण दिवसों को कल्याण दिवस के रूप एवं चैत्यों के उल्लेख तो हैं किन्तु उन पवित्र स्थलों पर मनुष्यों द्वारा में माना जाता है। तीर्थंकर के जीवन को ये महत्त्वपूर्ण घटनाएँ जिस नगर आयोजित होने वाले महोत्सवों और उनकी तीर्थ-यात्राओं पर जाने का या स्थल पर घटित होती हैं उसे कल्याणक भूमि कहा जाता है। तीर्थङ्करों कोई उल्लेख नहीं है । विद्वानों से मेरी अपेक्षा है कि यदि उन्हें इस तरह की इन कल्याणक भूमियों का एक संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार हैका कोई उल्लेख मिले तो वे सूचित करें ।
२. निर्वाणक्षेत्र- निर्वाणक्षेत्र को सामन्यतया सिद्धक्षेत्र भी यद्यपि लोहानीपुर और मथुरा में उपलब्ध जिन-मूर्तियों, आयागपट्टों, कहा जाता है । जिस स्थल से किसी मुनि को निर्वाण प्राप्त होता है, स्तूपांकनों तथा पूजा के निमित्त कमल लेकर प्रस्थान आदि के अंकनों वह स्थल सिद्धक्षेत्र या निर्वाणस्थल के नाम से जाना जाता है । सामान्य से यह तो निश्चित हो जाता है कि जैन-परम्परा में चैत्यों के निर्माण और मान्यता तो यह है कि इस भूमण्डल पर ऐसी कोई भी जगह नहीं है जहाँ जिन-प्रतिमा के पूजन की परम्परा ई०पू० की तीसरी शताब्दी में भी से कोई न कोई मुनि सिद्धि को प्राप्त न हुआ हो । अत: व्यावहारिक दृष्टि प्रचलित थी। किन्तु तीर्थ और तीर्थयात्रा सम्बन्धी उल्लेखों का आचारांग, से तो समस्त भूमण्डल ही सिद्धक्षेत्र या निर्वाणक्षेत्र है । फिर भी उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे इस काल के प्राचीन आगमों में सामान्यतया जहाँ से अनेक सुप्रसिद्ध मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया हो, अभाव हमारे सामने एक प्रश्न चिह्न तो अवश्य ही उपस्थित करता है। उसे निर्वाण-क्षेत्र कहा जाता है। जैन-परम्परा में शत्रुजय, पावागिरि,
तीर्थ और तीर्थयात्रा सम्बन्धी समस्त उल्लेख नियुक्ति, भाष्य तुंगीगिरि ,सिद्धवरकूट, चूलगिरि, रेशन्दगिरि, सोनागिरि आदि सिद्धक्षेत्र और चूर्णि साहित्य में उपलब्ध होते हैं । आचारांग नियुक्ति में अष्टापद, माने जाते हैं। सिद्धक्षेत्रों की विशिष्ट मान्यता तो दिगम्बर-परम्परा में ऊर्जयन्त, गजाग्रपद, धर्मचक्र और अहिच्छत्रा को वन्दन किया गया प्रचलित है, किन्तु श्वेताम्बर-परम्परा में भी शत्रुजयतीर्थ सिद्धक्षेत्र ही है। है ।२५ इससे यह स्पष्ट होता है कि नियुक्ति काल में तीर्थस्थलों के दर्शन, ३. अतिशयक्षेत्र- वे स्थल, जो न तो किसी तीर्थङ्कर की वन्दन एवं यात्रा की अवधारणा स्पष्ट रूप से बन चुकी थी और इसे पुण्य कल्याणक-भूमि हैं, न किसी मुनि की साधना या निर्वाण-भूमि हैं किन्तु कार्य माना जाता था । निशीथचूर्णि में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जहाँ की जिन-मूर्तियाँ चमत्कारी हैं अथवा जहाँ के मन्दिर भव्य हैं, वे तीर्थङ्करों की कल्याणक भूमियों की यात्रा करने से दर्शन की विशुद्धि अतिशय क्षेत्र कहे जाते है । आज जैन-परम्परा में अधिकांश तीर्थ होती है अर्थात् व्यक्ति की श्रद्धा पुष्ट होती है।
अतिशयक्षेत्र के रूप में ही माने जाते हैं । उदाहरण के रूप में आबू, इस प्रकार जैनों में तीर्थङ्करों की कल्याणक-भूमियों की तीर्थरूप रणकपुर, जैसलमेर, श्रवणबेलगोला आदि इसी रूप में प्रसिद्ध हैं । हमें में स्वीकार कर उनकी यात्रा के स्पष्ट उल्लेख सर्वप्रथम लगभग छठी स्मरण रखना चाहिए कि जैनों के कुछ तीर्थ न केवल तीर्थङ्करों की शती से मिलने लगते हैं । यद्यपि इसके पूर्व भी यह परम्परा प्रचलित मूर्तियों के चामत्कारिक होने के कारण, अपितु उस तीर्थ के अधिष्ठायक तो अवश्य ही रही होगी। इस काल में कल्याणक भूमियों के अतिरिक्त देवों की चमत्कारिता के कारण भी प्रसिद्धि उन तीर्थों के अधिष्ठायक वे स्थल, जो मन्दिर और मूर्तिकला के कारण प्रसिद्ध हो गये थे, उन्हें देवों के कारण ही हुई है। इसी प्रकार हुम्मच की प्रसिद्धि पार्श्व की यक्षी भी तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया और उनकी यात्रा एवं वन्दन को पद्मावती की मूर्ति के चामत्कारिक होने के आधार पर ही है। भी बोधिलाभ और निर्जरा का कारण माना गया। निशीथचूर्णि में तीर्थङ्करों इन तीन प्रकार के तीर्थों के अतिरिक्त कुछ तीर्थ ऐसे भी हैं जो
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. इस कल्पना पर आधारित हैं कि यहाँ पर किसी समय तीर्थङ्कर का तीर्थों के महत्त्व एवं यात्राओं सम्बन्धी विवरण हमें मुख्य रूप पदार्पण हुआ था या उनकी धर्मसभा (समवसरण) हुई थी। इसके साथ- से परवर्ती काल के ग्रन्थों में ही मिलते हैं। सर्वप्रथम 'सारावली' नामक साथ आज कुछ जैन-आचार्यों के जीवन से सम्बन्धित स्थलों पर गुरु- प्रकीर्णक में शत्रुजय - 'पुण्डरीक तीर्थ' की उत्पत्ति-कथा, उसका महत्त्व मंदिरों का निर्माण कर उन्हें भी तीर्थ रूप में माना जाता है। एवं उसकी यात्रा तथा वहाँ किये गये तप, पूजा, दान आदि के फल
विशेष रूप से उल्लिखित हैं ।३२ तीर्थयात्रा
इसके अतिरिक्त विविधतीर्थ-कल्प (१३वीं शती) और तीर्थजैन-परम्परा में तीर्थयात्राओं का प्रचलन कब से हुआ, यह मालायें भी जो कि १२वीं-१३वीं शताब्दी से लेकर परवर्ती काल में कहना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि चूर्णिसाहित्य के पूर्व आगमों में तीथ पर्याप्त रूप से रची गयीं; तीर्थों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती स्थलों की यात्रा करने का स्पष्ट उल्लेख कही नहीं मिलता है । सर्वप्रथम हैं । जैन-साहित्य में तीर्थयात्रा-संघों के निकाले जाने सम्बन्धी विवरण निशीथचूर्णि में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि तीर्थंकरों की कल्याणक- भी १३वीं शती के पश्चात् रचित अनेक तीर्थमालाओं एवं अभिलेखों में भूमियों की यात्रा करता हुआ जीव दर्शन-विशुद्धि को प्राप्त करता है। यत्र-तत्र मिल जाते हैं, जिनकी चर्चा आगे की गयी है। इसी प्रकार व्यवहारभाष्य और व्यवहार चूर्णि में यह उल्लेख है कि जो तीर्थयात्रा का उद्देश्य न केवल धर्म-साधना है, बल्कि इसका मुनि अष्टमी और चतुर्दशी को अपने नगर के समस्त चैत्यों और व्यावहारिक उद्देश्य भी है, जिसका संकेत निशीथचूर्णि में मिलता है। उपायों में ठहरे हुए मुनियों को वन्दन नहीं करता है तो वह मासलघु उसमें कहा गया है कि जो एक ग्राम का निवासी हो जाता है और अन्य प्रायश्चित्त का दोषी होता है ।
ग्राम-नगरों को नहीं देखता वह कूपमंडूक होता है । इसके विपरीत जो तीर्थयात्रा का उल्लेख महानिशीथसूत्र में भी मिलता है । इस भ्रमणशील होता है वह अनेक प्रकार के ग्राम-नगर, सनिवेश, जनपद, ग्रन्थ का रचना-काल विवादास्पद है । हरिभद्र एवं जिनदासगणि द्वारा राजधानी आदि में विचरण कर व्यवहार-कुशल हो जाता है तथा नदी, इसके उद्धार की कथा तो स्वयं ग्रन्थ में ही वर्णित है। नन्दीसूत्र में गुहा, तालाब, पर्वत आदि को देखकर चक्षु-सुख को भी प्राप्त करता आगमों की सूची में महानिशीथ का उल्लेख अनुपलब्ध है। अत: यह है। साथ ही तीर्थंकरों की कल्याणक-भूमियों को देखकर दर्शन-विशुद्धि स्पष्ट है कि इसका रचना-काल छठी से आठवीं शताब्दी के मध्य ही हुआ भी प्राप्त करता है । पुनः अन्य साधुओं के समागम का भी लाभ लेता होगा। इस आधार पर भी कहा जा सकता है कि जैन-परम्परा में तीर्थ है और उनकी समाचारी से भी परिचित हो जाता है। परस्पर दानादि द्वारा यात्राओं को इसी कालावधि में विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ होगा। विविध प्रकार के घृत, दधि, गुड़, क्षीर आदि नाना व्यञ्जनों का रस भी
महानिशीथ में उल्लेख है कि 'हे भगवन् ! यदि आप आज्ञा ले लेता है । दें तो हम चन्द्रप्रभ स्वामी को वन्दन कर और धर्मचक्र की तीर्थयात्रा कर निशीथचूर्णि के उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि वापस आयें।"३०
जैनाचार्य तीर्थयात्रा की आध्यात्मिक मूल्यवत्ता के साथ-साथ उसकी जिनयात्रा के सन्दर्भ में हरिभद्र के पंचाशक में विशिष्ट विवरण व्यावहारिक उपादेयता भी स्वीकारते थे। उपलब्ध होता है । हरिभद्र ने नवें पंचाशक में जिनयात्रा के विधि-विधान का निरूपण किया है, किन्तु ग्रन्थ को देखने से ऐसा लगता है कि तीर्थविषयक श्वेताम्बर जैन-साहित्य वस्तुत: यह विवरण दूरस्थ तीर्थों में जाकर यात्रा करने की अपेक्षा अपने तीर्थविषयक साहित्य में कुछ कल्याणक-भूमियों के उल्लेख नगर में ही जिन-प्रतिमा की शोभा-यात्रा से सम्बन्धित है । इसमें यात्रा समवायांग, ज्ञाता और पर्दूषणाकल्प में हैं । कल्याणक भूमियों के के कर्तव्यों एवं उद्देश्यों का निर्देश है। उनके अनुसार जिनयात्रा में अतिरिक्त अन्य तीर्थक्षेत्रों के जो उल्लेख उपलब्ध होते हैं उनमें श्वेताम्बरजिनधर्म की प्रभावना के हेतु यथाशक्ति दान, तप, शरीर-संस्कार, उचित परम्परा में सबसे पहले महानिशीथ और निशीथचूर्णि में हमें मथुरा, गीत-वादन, स्तुति आदि करना चाहिए । तीर्थ-यात्राओं में श्वेताम्बर उत्तरापक्ष और चम्पा के उल्लेख मिलते हैं । निशीथचूर्णि, व्यवहारभाष्य, परम्परा में जो छह-री पालक संघ यात्रा की जो प्रवृत्ति प्रचलित है, उसके व्यवहारचूर्णि आदि में भी नामोल्लेख के अतिरिक्त इन तीर्थों के सन्दर्भ पूर्व-बीज भी हरिभद्र के इस विवरण में दिखाई देते हैं। आज भी में विशेष कोई जानकारी नहीं मिलती; मात्र यह बताया गया है कि मथुरा तीर्थयात्रा में इन छह बातों का पालन अच्छा माना जाता है- स्तूपों के लिए, उत्तरापथ धर्मचक्र के लिए और चम्पा जीवन्तस्वामी की १. दिन में एकबार भोजन करना (एकाहारी)
प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध थे। तीर्थ सम्बन्धी विशिष्ट साहित्य में तित्थोगालिय २. भूमिशयन (भू-आधारी)
प्रकीर्णक, सारावली प्रकीर्णक के नाम महत्त्वपूर्ण माने जा सकते हैं ३. पैदल चलना (पादचारी)
किन्तु तित्थोगालिय प्रकीर्णक में तीर्थस्थलों का विवरण न होकर के ४. शुद्ध श्रद्धा रखना (श्रद्धाचारी)
साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की विभिन्न कालों ५. सर्वसचित्त का त्याग (सचित्त परिहारी)
में विभिन्न तीर्थंकरों द्वारा जो स्थापना की गई, उसके उल्लेख मिलते हैं, ६. ब्रह्मचर्य का पालन (ब्रह्मचारी)
उसमें जैनसंघरूपी तीर्थ के भूत और भविष्य के सम्बन्ध में कुछ सूचनाएँ
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प्रस्तुत की गई है। उसमें महावीर के निर्वाण के बाद आगमों का विच्छेद उल्लेख है । किस प्रकार से होगा ? कौन-कौन प्रमुख आचार्य और राजा आदि होगें,
सम्भवतः समग्र जैन तीर्थों का नामोल्लेख करने वाली उपलब्ध इसके उल्लेख हैं । इस प्रकीर्णक में श्वेताम्बर-परम्परा को अमान्य ऐसे रचनाओं में यह प्राचीनतम रचना है ।३२ यद्यपि इसमें दक्षिण के उन आगम आदि के उच्छेद के उल्लेख भी हैं । यह प्रकीर्णक मुख्यतः दिगम्बर जैन-तीर्थों के उल्लेख नहीं है जो कि इस काल में अस्तित्ववान् महाराष्ट्री प्राकृत में उपलब्ध होता है, किन्तु इस पर शौरसेनी का प्रभाव · थे। इस रचना के पश्चात् हमारे सामने तीर्थ समबन्धी विवरण देने वाली भी परिलक्षित होता है । इसका रचनाकाल निश्चित करना तो कठिन है दूसरी महत्त्वपूर्ण एवं विस्तृत रचना विविधतीर्थकल्प है, इस ग्रन्थ में फिर भी यह लगभग दसवीं शताब्दी के पूर्व का होना चाहिए, ऐसा दक्षिण के कुछ दिगम्बर तीर्थों को छोड़कर पर्व, उत्तर, पश्चिम और मध्य अनुमान किया जाता है।
भारत के लगभग सभी तीर्थों का विस्तृत एवं व्यापक वर्णन उपलब्ध तीथ सम्बन्धी विस्तृत विवरण की दृष्टि से आगमिक और होता हैं, यह ई० सन् १३३२ की रचना है । श्वेताम्बर-परम्परा की तीर्थ . प्राकृत भाषा के ग्रन्दों में 'सारावली' को मुख्य माना जा सकता है। इसमें सम्बन्धी रचनाओं में इसका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान माना जा सकता मुख्यरूप से शत्रुजय अपरनाम पुण्डरीक नाम कैसे पड़ा ? ये दो बातें है। इसमें जो वर्णन उपलब्ध है, उससे ऐसा लगता है कि अधिकांश मुख्य रूप से विवेचित हैं और इस सम्बन्ध में कथा भी दी गई है । यह तीर्थस्थलों का उल्लेख कवि ने स्वयं देखकर किया है । यह कृति सम्पूर्ण ग्रन्थ लगभग ११६ गाथाओं में पूर्ण हुआ है । यद्यपि यह ग्रंथ अपभ्रंश मिश्रित प्राकृत और संस्कृत में निर्मित है । इसमें जिन तीर्थों का प्राकृत भाषा में लिखा गया है, किन्तु भाषा पर अपभ्रंश के प्रभाव को उल्लेख है वे निम्न हैं - शत्रुजय, रैवतकगिरि, स्तम्भनतीर्थ, अहिच्छत्रा, देखते हुए इसे परवर्ती ही माना जायेगा। इसका काल दशवीं शताब्दी अर्बुद (आबु), अश्वावबोध (भड़ौच), वैभारगिरि (राजगिरि), कौशाम्बी, के लगभग होगा।
अयोध्या, अपापा (पावा) कलिकुण्ड, हस्तिनापुर, सत्यपुर (साचौर), इस प्रकीर्णक में इस तीर्थ पर दान, तप, साधना आदि के अष्टापद (कैलाश), मिथिला, रत्नवाहपुर, प्रतिष्ठानपत्तन (पैठन), काम्पिल्य, विशेषफल की चर्चा हुई है । गन्थ के अनुसार पुण्डरीक तीर्थ की महिमा अणहिलपुर, पाटन, शंखपुर, नासिक्यपुर (नासिक), हरिकंखीनगर,
और कथा अतिमुक्त नामक ऋषि ने नारद को सुनायी, जिसे सुनकर उसने अवंतिदेशस्थ अभिनन्दनदेव, चम्पा, पाटलिपुत्र, श्रावस्ती, वाराणसी, दीक्षित होकर केवलज्ञान और सिद्धि को प्राप्त किया । कथानुसार कोटिशिला, कोकावसति, ढिंपुरी, अंतरिक्षपार्श्वनाथ, फलवर्द्धिपार्श्वनाथ, ऋषभदेव के पौत्र पुण्डरीक के निर्वाण के कारण यह तीर्थ पुण्डरीकगिरि (फलौधी), आमरकुण्ड, (हनमकोण्ड-आंध्रप्रदेश) आदि। के नाम से प्रचलित हुआ । इस तीर्थ पर नमि, विनमि आदि दो करोड़ इन ग्रंथों के पश्चात् श्वेताम्बर-परम्परा में अनेक तीर्थमालायें एवं केवली सिद्ध हुए हैं । राम, भरत आदि तथा पंचपाण्डवों एवं प्रद्युम्न, चैत्यपरिपाटियाँ लिखी गईं जो कि तीर्थ सम्बन्धी साहित्य की महत्त्वपूर्ण शाम्ब आदि कृष्ण के पुत्रों के इसी पर्वत से सिद्ध होने की कथा भी अंग हैं । इन तीर्थमालाओं और चैत्यपरिपाटियों की संख्या शताधिक है प्रचलित है । इस प्रकार यह प्रकीर्णक पश्चिम भारत के सर्वविश्रुत जैन- और ये ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं-अठारवीं शताब्दी तक तीर्थ की महिमा का वर्णन करने वाला प्रथम ग्रन्थ माना जा सकता है। निर्मित होती रही हैं । इन तीर्थमालाओं तथा चैत्यपरिपाटियों में कुछ तो श्वेताम्बर-परंपरा के प्राचीन आगमिक साहित्य में इसके अतिरिक्त अन्य ऐसी हैं जो किसी तीर्थ विशिष्ट से ही सम्बन्धित हैं और कुछ ऐसी हैं कोई तीर्थ सम्बन्धी स्वतन्त्र रचना हमारी जानकारी में नहीं है। जो सभी तीर्थों का उल्लेख करती हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से इन चैत्य
इसके पश्चात् तीर्थ सम्बन्धी साहित्य में प्राचीनतम जो रचना परिपाटियों का अपना महत्त्व है, क्योंकि ये अपने-अपने काल में जैन उपलब्ध होती है, वह बप्पभट्टिसूरि की परम्परा के यशोदेवसूरि के गच्छ तीर्थों की स्थिति का सम्यक् विवरण प्रस्तुत कर देती हैं । इन चैत्यके सिद्धसेनसूरि का सकलतीर्थस्तोत्र है । यह रचना ई० सन् १०६७ परिपाटियों में न केवल तीर्थक्षेत्रों का विवरण उपलब्ध होता है, अपितु अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की है। इस रचना में सम्मेतशिखर, वहाँ किस-किस मन्दिर में कितनी पाषाण और धातु की जिन प्रतिमाएँ शत्रुञ्जय,ऊर्जयन्त, अर्बुद, चित्तौड़, जालपुर (जालौर) रणथम्भौर, गोपालगिरि रखी गयी हैं, इसका भी विवरण उपलब्ध हो जाता है। उदाहरण के रूप (ग्वालियर) मथुरा, राजगृह, चम्पा, पावा, अयोध्या, काम्पिल्य, भद्दिलपुर, में कटुकमति लाधाशाह द्वारा विरचित सूरतचैत्यपरिपाटी में यह बताया शौरीपुर, अंगइया (अंगदिका), कन्नौज, श्रावस्ती, वाराणसी, राजपुर, गया है कि इस नगर के गोपीपुरा क्षेत्र में कुल ७५ जिनमंदिर, ५विशाल कुण्डनी, गजपुर, तलवाड़, देवराउ, खंडिल, डिण्डूवान (डिण्डवाना),नरान, जिन मंदिर तथा १३२५ जिनबिम्ब थे । सम्पूर्ण सूरत नगर में १० पपुर (षट्टउदेसे) नागपुर ( नागौर-साम्भरदेश), पल्ली, सण्डेर, नाणक, विशाल जिनमन्दिर, २३५ देरासर (गृहचैत्य), ३गर्भगृह, ३९७८ जिन कारण्ट, भिन्नमाल,(गुर्जर देश), आहड़ (मेवाड़ देश) उपकेसनगर प्रतिमाएँ थीं। इसके अतिरिक्त सिद्धचक्र, कमलचौमुख, पंचतीर्थी, "राडउए) जयपुर (मरुदेश) सत्यपुर (साचौर), गुहुयराय, पश्चिम चौबीसी आदि को मिलाने पर १००४१ जिनप्रतिमाएँ उस नगर में थीं,
ल्ली, थाराप्रद, वायण, जलिहर, नगर, खेड़, मोढेर, अनहिल्लवाड़ ऐसा उल्लेख है । यह विवरण १७३९ का है । इस पर से हम अनुमान (चट्ठावल्लि), स्तम्भनपुर, कयंवास, भरुकच्छ (सौराष्ट्र), कुंकन, कलिकुण्ड, कर सकते हैं कि इन रचनाओं का ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से मानखेड़ (दक्षिण भारत) धारा, उज्जैनी (मालवा) आदि तीर्थों का कितना महत्त्व है। सम्पूर्ण चैत्यपरिपाटियों अथवा तीर्थमालाओं का
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उल्लेख अपने आप में एक स्वतन्त्र शोध का विषय है। अतः हम उन सबकी चर्चा न करके मात्र उनकी एक संक्षिप्त सूची प्रस्तुत कर रहे हैं रचनातिथि
रचना
सकलतीर्थस्तोत्र
अष्टोत्तरीतीर्थमाला
कल्पप्रदीप अपरनाम विविधतीर्थकल्प तीर्थयात्रास्तवन वि०सं०१४वीं शती
अष्टोत्तरीतीर्थमाला
तीर्थमाला
पूर्वदेशीय चैत्यपरिपाटी
सम्मेतशिखर तीर्थमाला
श्री पार्श्वनाथ नाममाला
तीर्थमाला
तीर्थमाला
शत्रुञ्जयतीर्थपरिपाटी
सूरतचैत्यपरिपाटी
तीर्थमाला
सम्मेतशिखरतीर्थमाला
गिरनार तीर्थ
चैत्यपरिपाटी
पार्श्वनाथ चैत्यपरिपाटी
शाश्वततीर्थमाला
जैसलमेरचेत्यपरिपाटी शत्रुञ्जयचैत्यपरिपाटी
आदिनाथ रास
- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म
पार्श्वनाथसंख्यास्तवन
रचनाकार
सिद्धसेनसूरि
महेन्द्रसूरि
वि०सं०११२३ वि०सं० १२४१
जिनप्रभसूरि
विनयप्रभ उपाध्याय
वि०सं०१३८९
मुनिप्रभसूरि मेघकृत
हंससोम
वि०सं०] १५वीं शती वि०सं० १६वीं शती वि०सं० १५६५ वि०सं० १७१७ मेघविजय उपाध्याय वि०सं०१७२१
विजयसागर
शत्रुञ्जयतीर्थयात्रारास विनीत कुशल
कविलावण्यसमय
शीलविजय वि०सं० १७४८ सौभाग्यविजय वि०सं० १७५० देवचन्द्र वि०सं० १७६९ वि०सं० १७९३ वि०सं० १७९५
घालासाह
ज्ञानविमलसूरि जयविजय
रत्नसिंह सूरिशिष्य
मुनिमहिमा
कल्याणसागर
वाचनाचार्य मेरुकीर्ति
जिनसुखसूरि
कावीतीर्थवर्णन तीर्थराज चैत्यपरिपाटीस्तवन साधुचन्द्रसूरि पूर्वदेशचैत्यपरिपाटी
जिनवर्धनसूरि खेमराज
मंडपांचलचैत्यपरिपाटी
रत्नकुशल
कवि दीपविजय वि०सं० १८८६
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भगवती आराधना एवं मूलाचार हैं किन्तु इनमें तीर्थ शब्द का तात्प धर्मतीर्थ या चतुर्विधसंघ रूपी तीर्थ से ही है दिगम्बर- परम्परा । में तीर्थक्षेत्रों का वर्णन करने वाले ग्रन्थों में तिलोयपण्णत्ती को प्राचीनतम माना जा सकता है । तिलोयपण्णत्ती में मुख्य रूप से तीर्थङ्करों की कल्याणक भूमियों के उल्लेख मिलते हैं। किन्तु इसके अतिरिक्त उ क्षेत्र मंगल की चर्चा करते हुए पावा, ऊर्जयंत और चम्पा के नामी का उल्लेख किया गया है । इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती में राजगृह का पंचशैलनगर के रूप में उल्लेख हुआ है और उसमें पाच शैलो का यथार्थ और विस्तृत विवेचन भी है। समन्तभद्र ने स्वयम्भुस्तोत्र में ऊर्जयंत का विशेष विवरण प्रस्तुत किया है। दिगम्बर-परम्परा में इसके पश्चात् तीर्थों का विवेचन करने वाले ग्रन्थों के रूप में दशभक्तिपाठ प्रसिद्ध हैं। इनमें संस्कृतनिर्वाणभक्ति और प्राकृतनिर्वाणकाण्ड महत्त्वपूर्ण हैं। सामान्यतया संस्कृतनिर्वाणभक्ति के कर्ता "पूज्यपाद" और प्राकृतभक्तियों के कर्ता "कुंदकुंद" को माना जाता है। पंडित नाथूराम जी प्रेमी ने इन निर्वाणभक्तियों के सम्बन्ध में इतना ही कहा है कि, जब तक इन दोनों रचनाओं के रचयिता का नाम मालूम न हो तब तक इतना ही कहा जा सकता है कि ये निश्चय ही आशाधर से पहले की (अब से लगभग ७०० वर्ष पहले की ) हैं । प्राकृतभक्ति में नर्मदा नदी के तट पर स्थित सिद्धवरकूट, बड़वानी नगर के दक्षिण भाग में चूलगिरि तथा पावागिरि आदि का उल्लेख किया गया है किन्तु ये सभी तीर्थक्षेत्र पुरातात्त्विक दृष्टि से नवीं दसवीं से पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं। इसलिए इन भक्तियों का रचनाकाल और इन्हें जिन आचार्यों से सम्बन्धित किया जाता है वह संदिग्ध बन जाता है। निर्वाणकाण्ड में अष्टापद, चम्पा, ऊर्जयंत, पावा. सम्मेदगिरि, गजपंथ, तारापुर, पावगिरि, शत्रुञ्जय, तुंगीगिरि, सवनगिरि, सिद्धवरकूट, चूलगिरि, बड़वानी, द्रोणगिरि, मेढगिरि, कुंथुगिरि, कोटशिला, रिसिंदगिरि, नागद्रह मंगलपुर, आशारम्य, पोदनपुर, हस्तिनापुर, वाराणसी, मथुरा, अहिछत्रा, जम्बूवन, अर्गलदेश, पिवडकुंडली, सिरपुर, होलगिरि, गोम्मटदेव आदि तीर्थों के उल्लेख हैं। इस निर्वाणभक्ति में आये हुए चूलगिरि, पावगिरि, गोम्मटदेव, सिरपुर आदि के उल्लेख ऐसे हैं, जो इस कृति को पर्याप्त परवर्ती सिद्ध कर देते हैं। गोम्मटदेव (श्रवणबेलगोला) की बाहुबली की मूर्ति का निर्माण ई० सन् ९८३ में हुआ। अतः यह कृति उसके पूर्व की नहीं मानी जा सकती और इसके कर्ता भी कुंदकुंद नहीं माने जा सकते।
कुण्डपुर, जृम्भिकामाम, वैभारपर्वत, पावानगर, कैलाशपर्वत, यह सूची 'प्राचीनतीर्थमालासंग्रह' सम्पादक-विजयधर्मसूरिजी के आधार ऊर्जयंत, पावापुर, सम्मेदपर्वत, शत्रुञ्जयपर्वत, द्रोणीमत, सह्याचल पर दी गई है।
आदि ।
पाँचवीं से दशवीं शताब्दी के बीच हुए अन्य दिगम्बर आचार्यों की कृतियों में कुंदकुंद के पश्चात् पूज्यपाद का क्रम आता है। पूज्यपाद ने निर्वाणभक्ति में निम्न स्थलों का उल्लेख किया है
रविषेण ने 'पद्मचरित' में निम्न तीर्थस्थलों की चर्चा की है। कैलाश पर्वत, सम्मेदपर्वत, वंशगिरि, मेघरव, अयोध्या, काम्पिल्य,
दिगम्बर- परम्परा का तीर्थविषयक साहित्य
दिगम्बर - परम्परा में प्राचीनतम ग्रन्थ कसायपाहुड, षट्खण्डागम, रत्नपुर, श्रावस्ती, चम्पा, काकन्दी, कौशाम्बी, चन्द्रपुरी, भद्रिका, मिथिला,
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वाराणसी, सिंहपुर, हस्तिनापुर, राजगृह, निर्वाणगिरि आदि । दिगम्बर परम्परा की तीर्थ सम्बन्धी शेष प्रमुख तीर्थवन्दनाओं की सूची इस प्रकार है
रचना
शासनचतुस्त्रिशिका निर्वाणकाण्ड
तीर्थवन्दना
जीरावला पार्श्वनाथस्तवन
पार्श्वनाथस्तोत्र
माणिक्यस्वामीविनति
मांगीतुंगीगीत
तीर्थवन्दना
तीर्थवन्दना जम्बूद्वीपजयमाला
जम्बूस्वामिचरित
सर्वतीर्थ वन्दना श्रीपुरपार्श्वनाथविनती
पुष्पांजलिजयमाला तीर्थजयमाला
तीर्थवन्दना
बलिभद्र अष्टक
बलिभद्र अष्टक मुक्तागिरि जयमाला
रामटेक छंद
पद्मावती स्तोत्र षट्तीर्थ वन्दना
मुक्तागिरि आरती
अकृत्रिम चैत्यालयजयमाला
पार्श्वनाथ जयमाला तीर्थवन्दना
रचनाकर
मदनकीर्ति
""
उदयकीर्ति
पद्मनंदि
श्रुतसागर
अभयचन्द
गुणकीर्त
मेघराज
सर्वत्रैलोक्यजिनालय जयमाला विश्वभूषण
मेरुचन्द्र
गंगादास
धनजी
यतीन्द्रसूरि स्मारक अन्य समाज एवं संस्कृति
से प्रकाशित ।
३. भारत के प्राचीन जैनतीर्थ डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, वाराणसी-५ ।
तीर्थजयमाला
सुमतिसागर
राजमल्ल
ज्ञानसागर
लक्ष्मण
सोमसेन
जयसागर
चिमणा पंडित जिनसेन
मकरंद
तोपकरि
देवेन्द्रकीर्ति
जिनसागर
समय
१२वीं - १३वीं शती
""
१४ वीं शती
१५ वीं शती
"
"
""
१६ वीं शती
१६वीं १७वीं शती १७वीं शती
"
222
"
१७वीं शती
१७वीं - १८वीं शती १८वीं शती
"
"
राघव
पं० दिलसुख ब्रह्म हर्ष
कवीन्द्रसेवक
:
नोट उक्त तालिका डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर द्वारा संपादित तीर्थवन्दनसंग्रह के आधार पर प्रस्तुत की गयी है ।
२८ वी - १९वीं शती १९वीं शती
""
"
४. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ १,२,३,४,५, (सचित्र)
- श्री बलभद्र जैन प्रका० भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, बम्बई । ५. तीर्थदर्शन भाग १ एवं २
3
प्रकाशक - श्री महावीर जैन कल्याण संघ, मद्रास ६००००७ इसके अतिरिक्त पृथक् पृथक् तीयों पर भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध हैं ।
संदर्भ
१.
२.
३.
४.
६.
७.
आधुनिक काल के जैन तीर्थ विषयक प्रन्यः १- जैन तीर्थोनो इतिहास (गुजराती), मुनि श्री न्यायविजय जी श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला, अहमदाबाद १९४९ ई० २- जैनतीर्थसर्वसंग्रह, भाग-१, (खण्ड १-२), भाग-२ पं० अम्बालाल पी० शाह, आनन्द जी कल्याण जी की पेढ़ी, झवेरीवाड़, अहमदाबाद ९. मिथिले १२६]
८.
(अ) अभिधानराजेन्द्रकोष, चतुर्थ भाग, पृ० २२४२ (ब) स्थानांग टीका । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ३/५७,५९,६२ (सम्पा० मधुकर मुनि) सुयधम्मतित्थमग्गो पावयणं पवयणं च एगट्ठा । सुत्त तंतं गंथो पाढो सत्थं पवयणं च एगट्ठा ।। -विशेषावश्यक भाष्य, १३७८
के ते हरए ? के य ते सन्तितित् ? कहिंसि णहाओ व रयं जहासि ? धम्मे हरये बंभे सन्तितित्थे अणाविले अतपसन्प्रलेसे । जहिंसि व्हाओ विमलो विसुद्धो सुसीइओ पजहामि दोस ।।
-उत्तराध्ययनसूत्र, १२/४५-४६ देहाइतारयं जं वज्झमलावणयणाइमे च । गंताणच्चतिफलं च तो दव्वतित्थं तं । इह तारणाइफलयंति ण्हाण-पाणा ऽवगाहणईहिं । भवतारयंति केई तं नो जीवोवघायाओ ||
- विशेषावश्यक भाष्य १०२८ २०२९ देहोवगारि वा तेण तित्थमिह दाहनासणाईहिं । महु-मज्जमंस वेस्सादओ वि तो तित्थमावनं ॥
वही, १०३१
सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदयातीर्थं सर्वत्रार्जवमेव च ॥ दानं तीर्थ दमस्तीर्थं संतोषस्तीर्थमुच्यते । ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं तीर्थं च प्रियवादिता ।। तीर्थनामपि तत्तीर्थं विशुद्धिमनसः परा ।
शब्दकल्पद्रुम- 'तीर्थ', पृ० ६२६ भावे तित्यं संघो सुयविहियं तारओ तहिं साहू । नाणाइतियं तरणं तारियव्यं भवसमुद्दो यं ॥
विशेषावश्यक भाष्य, १०३२ जं नाण- दंसण-चरितभावओ तव्विवक्खभावाओ ।
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-यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
समाइसु वा य सुधि भाषणयणाई ।
भव भावओ य तारेइ तेणं तं भावओ तित्थं ॥
(ब) आवश्यकनियुक्ति, ३८२-८४ तह कोह-लोह-कम्ममयदाह-तण्हा-मलावणयणाई । २३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २।१११ (लाडनूं) एगतेणच्चतं च कुणइ य सुद्धिं भवोघाओ ।
२४. (अ) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (जम्बुद्दीवपण्णत्ति), २/११४-२२ दाहोवसमाइसु वा जतिसु थियमहव दंसगाईसु ।
(ब) आवश्यकनियुक्ति, ४५ तो तित्य संघो च्चिय उभय व विसेसणविसेस्सं ॥
(स) समवायांग, ३५/३ कोहग्गिदाहसमणादओ व ते चेव जस्स तिण्णत्था ।
२५. अट्ठावय उजिते गयग्गपए धम्मचक्के य । होई तियत्य तित्थं तमत्थवदो फलत्थोऽयं ॥
पासरहावतनगं चमरुप्पायं च वंदामि - वही, १०३३-१०३६
- आचारांगनियुक्ति, पत्र १८ १०. नाम ठवणा-तित्थं, दवतित्थं चेव भावतित्यं च ।
२६. निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ० २४ • अभिधानराजेन्द्रकोष, चतुर्थ भाग, पृ० २२४२ २७. उत्तरावहे धम्मचक्कं, महुर ए देवणिम्मिय थूभो कोसलाए व ११. 'परतित्थिया'- सूत्रकृतांग, १।६।१।।
जियंतपडिमा, तित्थकराण वा जन्मभूमीओ। १२. एवं वुत्ते, अन्नतरो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं
-निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ० ७९ एतदवोच-'अयं, देव, पूरणो कस्सपो सङ्की चेव गणी च गणाचरियो २८. वही, भाग ३.१० २४ च, नातो, यसस्सी, तित्थकरो, साधुसम्मतो बहुजनस्स, २९. निस्सकडमनिस्सकडे चेइए सव्वहिं थुई तिन्नि । वेलंब चेइआणि रत्तन्नू, चिरपब्बजितो, अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो।
व नाउं रक्किक्किक आववि,' 'अट्ठमीचउदसी सुंचेइय सववाणि - दीघनिकाय (सामञफलसुत्तं), २१२ साहुणो सव्वे वन्देयव्या नियमा अवसेस-तिहीसु जहसत्ति ॥' १३. सर्वापदामम्तकरं निरन्तं सौंदर्य तीर्थमिदं तवैव ।।
एएसु अट्ठमीमादीसु चेइयाई साहुणो वा जे अणणाए वसहीए
___ - युक्त्यनुशासन, ६१ ठिआते न वंदंति मास लहु ।। १४. अहव सुहोत्तारूत्तारणाइ दव्वे चउब्विहं तित्थं ।
-व्यवहारचूर्णि-उद्धृत जैनतीर्थोनो इतिहास, भूमिका, पृ० ५० एवं चिय भावम्मिवि तत्थाइमयं सरक्खाणं ।।
३०. जहन्नया गोयमा ते साहुणो त आयरियं भणंति जहा-णं जइ भयवं -विशेषावश्यक भाष्य, १०४०-४१ तमे आणावेहि ताणं अम्हेहिं तित्थयत्तं करि (२) या चंदप्पहसामियं (भाष्यकार ने इस सूत्र की व्याख्या में चार प्रकार के तीर्थों का
वंदि (३) या धम्मचक्कं गंतूणमागच्छामो ।। उल्लेख किया है।)
-महानिशीथ, उद्धृत, वही, पृ० १० १५. तित्यं भंते तित्य तित्थगरे तित्य ? गोयमा ! अरहा ताव णियमा ३१. श्री पंचाशक प्रकरणम्- हरिभद्रसूरि, जिनयात्रा पंचाशक पृ०
तित्थगरे, तिथं पुण चाउव्यणाइणे समणसंघे । तं जहा-समणा, २४८-६३ अभयदेवसूरि की टीका सहित-प्रकाशक-ऋषभदेव समणीओ, सावया, सावियाओ य ।।
केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम) -भगवतीसूत्र, शतक २०, उद्दे०८, ३२. पइण्णयसुत्ताई-सारावली पइण्णयं, पृ० ३५०-६० बम्बई १६. 'बयसंमत्तविसुद्धे पंचेदियसंजदे णिरावेक्खो।
४०००३६ पहाए उ मुणी तित्थेदिक्खासिक्खा सुण्हाणेण ॥'
३३. अहाव - तस्स भावं णाऊण भणेज्जा-'सो वत्थन्वो एगगामणिवासी __- बोधपाहुड, मू० २६-२७ कूवमंडुक्को इव ण गामणगरादी पेच्छति । अम्हे पुण अणियतवासी, १७. बही, टीका २६।११।२१
तुम पि अम्हेहिं समाणं हिंडतो णाणाविध-गाम-गरागर १८. सुधम्मो एत्थ पुण तित्यं । मूलाचार, ५५७
सन्निवेसरायहाणिं जाणवदे य पेच्छंतो अभिधाणकुसलो भविस्ससि, १९. 'तज्जगत्प्रसिद्धं निश्चयतीर्थप्राप्तिकारणं
तहा सर वाबि-वप्पिणि-णदि-कूव-तडाग-काणणुज्जाण कंदरमुक्तमुनिपादस्पृष्ट तीर्थउर्जयन्तशत्रुजयलाटदेशपावागिरि-1- वही, दरि-कुहर-पव्वते य णाणाविह-रुक्खसोभिए पेच्छंतो चक्खुसुहं २०. दुविहं च हो तित्यं णादब्य दव्यभावसंजुत्तं ।
पाविहिसि, तित्थकराण य तिलोगपूइयाण जम्मण-णिक्खणएदेसि दोण्हं पि य पत्तेय परूवणा होदि ॥
विहार-केवलुप्पाद-निव्वाणभूमीओ य पेच्छंतो दंसणसुद्धिं काहिसि
-मूलाचार, ५६० 'तहा अण्णोण्ण साहुसमागमेण य सामायारिकुसलो भविस्ससि, २१. से भिक्खु वा भिक्खु वा ..... थूभ महेसु वा, चेतिय महेसु वा सव्वापुब्वे य चइए वंदंतो बोहिलाभं निज्जित्तेहिसि, अण्णोण्णतडाग महेसु वा, दह महेसु वा गई महेसु वा सरमहेसु वा ....
सुय-दाणाभिगमसडेसु संजमाविरुद्ध विविध- वंजणोववेयमण्यं णो पडिगाहेज्जा।
घय-गुल-दधि-क्षीरमादियं च विगतिवरिभोगं पाविहिसि ॥२७१६। - आचारोग, २११।२।२४ (लाडनूं) -निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ० २४, प्रकाशक-सन्मतिज्ञानपीठ, २२. (अ) समवायांग, प्रकीर्णक समवाय, २२५/१
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ- आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म -
३४. सम्मेयसेल-सेत्तुञ्ज-उज्जिते अब्बुयंमि चित्तउडे ।
जालउरे रणथंभे गोपालगिरिंमि वंदामि ॥ १९ ॥ सिरिपासनाहसहियं रम्मं सिरिनिम्मयं महाथूभं । कालिकाले वि सुयित्थं महुरानयरीड (ए) वंदामि ॥ २०॥ रायगिह-चम्प-पावा- अउज्झ-कंपिल्लट्ठणपुरेसु । भद्दिलपुरि-सोरीयपुरि-अङ्गइया-कन्नउज्जेसु ॥२१॥ सावत्थि- दुग्गामाइसु वाणारसीपमुहपुव्वदेसंमि । कम्मग- सिरोहमासु भयाणदेसंमि वंदामि ॥ २२॥ राजउर- कुण्डणीसु य वंदे गज्जउर पंच य सयाई । तलवाड देवराउ रुउत्तदेसंमि वंदामि ॥ २३ ॥ खंडिल - डिंडूआणय नराण हरसउर खट्टऊदेसे । नागरमुव्विदंतिसु संभरिदेसंमि वेदेमि ||२४|| पल्ली संडेरय-नाणएसु कोरिंट-भिन्नमाल्लेलेसु । वंदे गुज्जरदेसे आहाडाईसु मेवाडे ||२५|| एस-किराड विजयपुराईसु मरुमि वंदामि ।
सच्चउर- गुड्डरायसु पच्छिमदेसंमि वंदामि ॥ २६ ॥ थारा उद्दय- वायड जालीहर-नगर- खेड- मोढेरे । अणहिल्लवाडनयरे वड्डावल्लीयं बंभाणे ॥२७॥ निहयकलिकालमहियं सायसतं सयलवाइथंभणए । थंभणपुरे कयवासं पासं वंदामि भत्तीए ॥ २८ ॥ कच्छे भरुयच्छंमि य सोरट्ठ- मरहट्ठ-कुंकण - थलीसु । कलिकुण्ड-माणखेडे दक्षि (क्खि) णदेसंमि वंदामि ॥२९॥ धारा- उज्जेणीसु य मालवदेसंमि वंदामि । वंदामि मणुयविहिए जिणभवणे सव्वदेसेसु ॥ ३० ॥ भरहाय (म्मि) मणुयविहिया महिया मोहारिमहियमाहप्पा | सिरिसिद्ध सेणसूरीहिं संध्या सिवसुहं देंतु ॥३१॥ Discriptive Catalogue of Mss in the Jaina Bhandars at Pattan-G.O.S. 73, Baroda, 1937, p. 56
३५. तिलोयपण्णत्त, १/२१-२४
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समाज
और संस्कृति
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जैन-एकता का प्रश्न
विश्व के प्रमुख धर्मों में जैनधर्म एक अल्पसंख्यक धर्म है। यथावत् हैं। आश्चर्य तो यह है कि आज भी एक जाति का जैन परिवार लगभग ३ अरब की जनसंख्या वाले इस भूमण्डल पर जैनों की अपनी जाति के वैष्णव परिवार में तो विवाह-सम्बन्ध कर लेगा किन्तु जनसंख्या ५० लाख से अधिक नहीं है अर्थात विश्व के ६०० व्यक्तियों इतर जाति के जैन परिवार में विवाह-सम्बन्ध करना उचित नहीं में केवल १ व्यक्ति जैन हैं। दुर्भाग्य यह है कि एक अल्पसंख्यक धर्म समझेगा । विगत दो दशकों में हिन्दू खटिक एवं गुजराती बलाईयों के होते हुए भी वह आज अनेक सम्प्रदायों और उपसम्प्रदायों में बँटा हुआ द्वारा जैनधर्म अपनाने के फलस्वरूप वीरवाल और धर्मपाल नामक जो है । दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो मूल शाखाएँ तो हैं ही, किन्तु वे दो नवीन जैन जातियाँ अस्तित्व में आई है किन्तु उनके साथ भी शाखाएँ भी अवान्तर सम्प्रदायों में और सम्प्रदाय गच्छों में विभाजित पारस्परिक सामाजिक एकात्मकता का अभाव ही है । जैन-जातियों में हैं । दिगम्बर- परम्परा के बीसपंथ, तेरापंथ और तारणंपथ ये तीन पास्परिक अलगाव की यह स्थिति उनकी भावनात्मक एकता में बाधक उपविभाग हैं । वर्तमान में कानजी स्वामी के अनुयायियों का नया है। हमारा बिखराव दोहरा है- जातिगत और दूसरा सम्प्रदायगत । जब सम्प्रदाय भी बन गया है। श्वेताम्बर-परम्परा में मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तक इन जातियों में परस्पर विवाह-सम्बन्ध और समानस्तर की सामाजिक तेरापंथी ये तीन सम्प्रदाय हैं। इनमें मूर्तिपूजक और स्थानकवासी अनेक एकात्मकता स्थापित नहीं होगी तब तक भावनात्मक एकता को स्थायी गच्छों में विभाजित हैं । तेरापंथी सम्प्रदाय में भी अब नवतेरापंथ का उदय आधार नहीं मिलेगा । अनेक जातियों में जो दसा और बीसा का भेद है हुआ है । इनके अतिरिक्त भी जैनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर और उस आधार पर या सामान्यरूप में भी जातियों को एक दूसरे से परम्पराओं की मध्यवर्ती-योजक कड़ी के रूप यापनीय' नामक एक ऊँचा-नीचा समझने की जो प्रवृत्ति है, उसे भी समाप्त करना होगा। स्वतन्त्र सम्प्रदाय ईसा की दूसरी शताब्दी से लेकर १५ वीं शताब्दी तक वर्तमान परिस्थितियों में चाहे इन जातिगत विभिन्नताओं को मिटा पाना अस्तित्व में रहा । किन्तु आज यह विलुप्त हो गया है । वर्तमान में सम्भव नहीं हो, किन्तु उन्हें समान स्तर की सामाजिकता तो प्रदान की श्रीमद्राजचन्द्र के कविपंथ का भी एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में जा सकती है । यदि समान स्तर की सामाजिकता और पारस्परिक अस्तित्व है, यद्यपि इसके अनुयायी बहुत ही कम हैं । जैनधर्म के ये सभी विवाह-सम्बन्ध स्थापित हो जायें तो जातिवाद की ये दीवारें अगली दोसम्प्रदाय आज परस्पर बिखरे हुए हैं और कोई भी ऐसा सूत्र तैयार नहीं चार पीढ़ियों तक स्वत: ही ढह जायेंगी । जैनधर्म मूलत: जातिवाद का हो पाया है जो इन बिखरी हुई कड़ियों को एक दूसरे से जोड़ सके। समर्थक नहीं रहा है, यह सब उस पर ब्राह्मण-संस्कृति का प्रभाव है। भारत जैन महामण्डल नामक संस्था के माध्यम से इन्हें जोड़ने का प्रयास यदि हम अन्तरात्मा से जैनत्व के हामी हैं तो हमें ऊँच, नीच और किया. गया किन्तु उसमें उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नहीं हुई। जातिवाद की इन विभाजक दीवारों को समाप्त करना होगा, तभी
जैन समाज न केवल धार्मिक दृष्टि से विभिन्न सम्प्रदायों में बँटा भावनात्मक सामाजिक एकता का विकास हो सकेगा। हुआ है अपितु सामाजिक दृष्टि से अनेक जातियों और उपजातियों में विभाजित है। इसमें अग्रवाल, खण्डेवाल, बघेरवाल, मोढ़ आदि कुछ साम्प्रदायिकता का विष जातियों की स्थिति तो ऐसी है जिनके कुछ परिवार जैनधर्म के अनुयायी आज जैन समाज का श्रम, शक्ति और धन किन्हीं रचनात्मक हैं तो कुछ वैष्णव । एक ही जाति में विभिन्न जैन-उपसम्प्रदायों के कार्यों में लगने के बजाय पारस्परिक संघर्षों, तीर्थो और मन्दिरों के अनुयायी भी पाये जाते हैं - जैसे ओसवालों में श्वेताम्बर, मूर्तिपूजक, विवादों, ईर्ष्यायुक्त प्रदर्शनी और आडम्बरों तथा थोथी प्रतिष्ठा की स्थानकवासी और तेरापंथी। इन तीनों सम्प्रदायों के अनुयायी तो प्रचुरता प्रतिस्पर्धा में किये जाने वाले आयोजनों में व्यय हो रहा है । इस नग्न से पाये ही जाते हैं किन्तु क्वचित् दिगम्बर जैन और वैष्णव धर्म के सत्य को कौन नहीं जानता है कि हमने एक-एक तीर्थ और मंदिर के अनुयायी भी मिलते हैं।
झगड़ों में इतना पैसा बहाया है और बहा रहे हैं कि उस धन से उसी स्थान
पर दस-दस भव्य और विशाल मन्दिर खड़े किये जा सकते थे। जातिवाद का विष
अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, मक्सी, केसरियाजी जैसे अनेक तीर्थ-स्थलों पर डा० विलास आदिनाथ संगवे ने अपनी पुस्तक 'जैन-कम्युनिटी' आज भी क्या हो रहा है ? जिस जिन-प्रतिमा को हम पूज्य मान रहे हैं, में उत्तर भारत की ८४ तथा दक्षिण भारत की ९१ जैन जातियों का उसके साथ क्या-क्या कुकर्म हम नहीं कर रहे हैं ? उस पर उबलता उल्लेख किया है। पुराने समय में तो इन जातियों में पारस्परिक भोजन- . पानी डाला जाता है, नित्यप्रति गरम शलाखों से उसकी आँखे निकाली व्यवहार सम्बन्धी कठोर प्रतिबन्ध थे। विवाह सम्बन्ध तो पूर्णतया वर्जित और लगायी जाती है । अनेक बार लैंगोट आदि के चिह्न बनाये और थे। आज खान-पान (रोटी-व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध तो शिथिल मिटाये गये हैं। क्या यह सब हमारी अन्तरात्मा को कचोटता नहीं है ? हो गये हैं किन्त विवाह (बेटी-व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध अभी भी पारस्परिक संघर्षों में वहाँ जो घटनाएँ घटित हुई हैं, वे क्या
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ समाज एवं संस्कृति
एक अहिंसक समाज के लिए शर्मनाक नहीं हैं ? क्या यह उचित है कि चींटी की रक्षा करनेवाला समाज मनुष्यों के खून से होली खेले? पत्र-पत्रिकाओं में एक दूसरे के विरुद्ध जो विष वमन किया जाता है, लोगों की भावनाओं को एक दूसरे के विपरीत उभाड़ा जाता है, वह क्या समाज के प्रबुद्ध विचारकों के हृदय को विक्षोभित नहीं करता है ? आज आडम्बरपूर्ण गजरथों, पञ्चकल्याणकों और प्रतिष्ठा समारोहों मुनियों के चातुर्मासों में चलनेवाले चौकों और दूसरे आडम्बरपूर्ण प्रतिस्पर्धा आयोजनों में जो प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयों का अपव्यय हो रहा है, वह क्या धन के सदुपयोग करनेवाले मितव्ययी जैन समाज के लिए हृदय विदारक नहीं है ? भव्य और गरिमापूर्ण आयोजन बुरे नहीं हैं किन्तु वे जब साम्प्रदायिक दूरभिनिवेश और ईर्ष्या के साथ जुड़ जाते हैं तो अपनी सार्थकता खो देते हैं। पारस्परिक प्रतिस्पर्धा में हमने एक-एक गाँव में और एक-एक गली में दस-दस मन्दिर तो खड़े कर लिये किन्तु उनमें आबू, राणकपुर, जैसलमेर, खुजराहो या गोमटेश्वर जैसी भव्यता एवं कला से युक्त कितने हैं ? एक-एक गाँव या नगर में चार-चार धार्मिक पाठशालाएँ चल रही हैं, विद्यालय चल रहे हैं किन्तु सर्व सुविधा सम्पन्न सुव्यवस्थित विशाल पुस्तकालय एवं शास्त्र भण्डार से युक्त जैन विद्या के अध्ययन और अध्यापन केन्द्र तथा शोध संस्थान कितने हैं? अनेक अध्ययन-अध्यापन केन्द्र साम्प्रदायिक प्रतिस्पर्धा में एक ही स्थान पर खड़े तो किये गये किन्तु समग्र समाज के सहयोग के अभाव में कोई भी सम्यक् प्रगति नहीं कर सका ।
एकता की आवश्यकता क्यों ?
जैन-समाज की एकता की आवश्यकता दो कारणों से है । प्रथम तो यह कि पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष एवं प्रतिस्पर्धा में समाज के श्रम, शक्ति और धन का जो अपव्यय हो रहा है, उसे रोका जा सके। जैसा हमने सूचित किया आज समाज का करोड़ों रुपया प्रतिस्पर्धी थोथे प्रदर्शनों और पारस्परिक विवादों में खर्च हो रहा है, इनमें न केवल हमारे धन का अपव्यय हो रहा है, अपितु समाज की कार्य-शक्ति भी इसी दिशा में लग जाती है। परिणामतः हम योजनापूर्वक समाज सेवा और धर्म प्रसार के कार्यों को हाथ में नहीं ले पाते हैं । यद्यपि अनियोजित सेवाकार्य आज भी हो रहे है किन्तु उनका वास्तविक लाभ समाज और धर्म को नहीं मिल पाता है। जैन समाज के सैकड़ों कॉलेज और हजारों स्कूल चल रहे हैं किन्तु उनमें हम कितने जैन- अध्यापक खपा पाये हैं और उनमें से कितने में जैन दर्शन, साहित्य और प्राकृत भाषा के अध्ययन की व्यवस्था है । देश में जैन समाज के सैकड़ों हॉस्पीटल हैं, किन्तु उनमें हमारा सीधा इन्वाल्वमेण्ट न होने से हम जन-जन से अपने को नहीं जोड़ पाये हैं, जैसा कि ईसाई मिशनरियों के अस्पतालों में होता है । सामाजिक बिखराव के कारण हम सर्व सुविधा सम्पन्न बड़े अस्पताल या जैन विश्वविद्यालय आदि के व्यापक कार्य हाथ में नहीं ले पाते हैं।
दूसरे जैनधर्म की धार्मिक एवं सामाजिक एकता का प्रश्न आज इसीलिए महत्त्वपूर्ण बन गया है कि अब इस प्रश्न के साथ हमारे
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अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा हुआ है। प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था में किसी वर्ग की आवाज इसी आधार पर सुनी और मानी जाती है कि उसकी संगठित मत-शक्ति एवं सामाजिक प्रभावशीलता कितनी है । किन्तु एक विकेन्द्रित और अननुशासित धर्म एवं समाज की न तो अपनी मत-शक्ति होती है और न उसकी आवाज का कोई प्रभाव ही होता है । यह एक अलग बात है कि जैन समाज के कुछ प्रभावशाली व्यक्तित्व प्राचीनकाल से आज तक भारतीय शासन एवं समाज में अपना प्रभाव एवं स्थान रखते आये हैं किन्तु इसे जैन समाज की प्रभावशक्ति मानना गलत होगा। यह जो भी प्रभाव रहा है उनकी निजी प्रतिभाओं का है, इसका श्रेयं सीधे रूप में जैन समाज को नहीं है। चाहे उनके नाम का लाभ जैन समाज की प्रभावशीलता को बताने के लिए उठाया जाता रहा है। मानवतावादी वैज्ञानिक धर्म, अर्थ सम्पन्न समाज तथा विपुल साहित्यिक एवं पुरातत्त्वीय सम्पदा का धनी यह समाज आज उपक्षित क्यों है ? यह एक नितान्त सत्य है कि भारतीय इतिहास में जैन समाज स्वयं एक शक्ति के रूप में उभरकर सामने नहीं आया । यदि हमें एक शक्ति के रूप में उभर कर आना है तो संगठित होना होगा। अन्यथा धीरे-धीरे हमारा अस्तित्व नाम शेष हो जायेगा । आज 'संघे शक्तिः कलियुगे' लोकोक्ति को ध्यान में रखना होगा।
हमारे विखराव के कारण
यह सही है कि जैन समाज की इस विच्छिन्न दशा पर प्रबुद्ध विचारकों ने सदैव ही चार-चार आँसू बहाये है और उसकी वेदना का हृदय की गहराइयों तक अनुभव किया है। इसी दशा को देखकर अध्यात्मयोगी संत आनन्दघनजी को कहना पड़ा था -
गच्छना बहुभेद नयन निहालतां
तत्व नी बात करता नी लाजे । यद्यपि प्रबुद्ध वर्ग के द्वारा समय-समय पर एकता के प्रयत्न भी हुए हैं, चाहे उनमें अधिकांश उपसम्प्रदायों की एकता तक ही सीमित रहे हों। भारत जैन- महामण्डल, वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ, श्वेताम्बर जैन- कान्फरेन्स, दिगम्बर जैन महासभा, स्थानकवासी जैनकान्फरेन्स इसके अवशेष हैं। इनके लिए अवशेष शब्द का प्रयोग मैं जानबूझकर इसलिए कर रहा हूँ कि आज न तो कोई अन्तर की गहराइयों से इनके प्रति श्रद्धानिष्ठ है और न इनकी आबाज में कोई बल है ये केवल शोभा मूर्तियों हैं, जिनके लेवल का प्रयोग हम साम्प्रदायिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए या एकता का ढिंढोरा पीटने के लिए करते रहते हैं । अन्तर में हम सब पहले श्वेताम्बर, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, दिगम्बर, बीस पन्थी, तेरापन्थी, कानजीपंथी हैं, बाद में जैन। वस्तुतः जब तक यह दृष्टि नहीं बदलती है, इस समीकरण को उलटा नहीं जाता, तब तक जैन समाज की भावात्मक एकता का कोई आधार नहीं बन सकता । आज स्थानकवासी जैन श्रमण संघ को जिसके निर्माण के पीछे समाज के प्रबुद्धवर्ग की वर्षों का श्रम एवं साधना थी और समाज का लाखों रुपया व्यय हुआ था, किसने नामशेष बनाया है ? इसके लिए
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बाहर के लोगों की अपेक्षा अन्दर के लोग अधिक जवाबदार हैं। प्रतिष्ठित होगी तभी समाज में एकता की भावना सबल होगी । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक-समाज के मुनिवर्ग के अहमदाबाद सम्मेलन का कोई व्यक्तिपूजा, पूजक और पूज्य दोनों के अहंकार का सिंचन करती है और प्रभावकारी परिणाम क्यों नहीं निकला? .
उनकी चारित्रिक स्खलनाओं का कारण बनती है। लेखक ने जीवित आज तेरापन्थ जिसकी एकता पर हमें नाज़ था, विखराव की आचार्यों और मुनियों के ऐसे स्तोत्र देखे, जिनमें उनके गुणों एवं स्थिति में क्यों है ? दिगम्बर-मुनिसंघ यद्यपि अभी अल्पसंख्या में हैं अतिशयों का ऐसा चित्रण है जो उन्हें वीतराग-प्रभु के समकक्ष ही किन्तु उसमें भी विखराव के लक्षण उभर कर सामने आने लगे हैं। प्रस्तुत करता है। समाज में अभिनन्दन-समारोहों और अभिनन्दन-ग्रन्थों अलग-अलग तम्बू लगने लगे हैं । कानजीपन्थ और मूल आम्नाय का की आयी हुई बाढ़ भी अहंकार-पुष्टि का ही माध्यम है । अहंकार ऐसा विवाद तो खुलकर सामने आ ही गया था, चाहे कानजी स्वामी के मीठा जहर है-जिससे मुक्ति पाना बड़ा कठिन है । जब भी किसी व्यक्ति स्वर्गवास के पश्चात् उसमें कुछ कमी आई हो ? बात कठोर अवश्य के ऐसे पुष्ट अहंकार पर चोट पड़ती है या ईर्ष्यावश किसी व्यक्ति की है, किन्तु सही स्थिति यह है कि आज समाज का अधिकांश मुनिवर्ग, महत्वाकांक्षा जाग जाती है तो वह अपना अखाड़ा अलग बना लेता है। कुछ नेतृत्व के भूखे श्रावक और पण्डित अपनी दुकान जमाने के अनेक सम्प्रदायों के उद्भव के पीछे यही एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा है। चक्कर में हैं ? अपनी पूजा एवं प्रतिष्ठा बटोरने के प्रयास में है । वे विभित्र सम्प्रदायों के उद्भव की जो कहानियाँ जैन-ग्रन्थों में दी गई हैं, सभी महावीर के नाम का उपयोग तो केवल इसलिए करते हैं कि अपनी वे इसी बात की पुष्टि करती हैं। किसी के अहंकार का अमर्यादित पोषण दुकान चल निकले । जब हम सब अपनी दुकान जमाने को आतुर होंगे दूसरे की महत्वाकांक्षा को बढ़ता और समाज में ईर्ष्या या विद्वेष के तो महावीर की दुकान कौन चलायेगा ? जब मुनीम अपनी दुकान जमाने विष-वृक्ष को पनपाता है।। के फेर में पड़ जाता है तो सेठ की दुकान की क्या स्थिति होगी - हमारी धार्मिक एवं सामाजिक एकता का विकास तभी सम्भव यह सुविदित ही है । जैन-एकता की पीठ में जब भी कोई छुरा भोंका है जब सामाजिक जीवन व्यक्तियों के अहंकार के पोषण की ये गया है तो ऐसे ही लोगों के द्वारा भौका गया है।
अमर्यादित प्रवृत्तियाँ प्रतिबन्धित हों और दूसरों को हीन या अपमानित
अनुभव करने के अवसर उपस्थित नहीं हों । विखराव का मूल कारण-प्रतिष्ठा की भूख
समाज में जब भी कोई मुनि या पण्डित.थोड़ा बहुत प्रवचन- धार्मिक सम्प्रदायों के पारस्परिक संघर्षों का उद्भव क्यों और पटु बना कि वह अपना एक अलग तम्बू गाड़ने का प्रयास करने लगता कैसे ? है। अपने उपासक, अपनी संस्था और अपना पत्र इस प्रकार एक नया विभिन्न युगों में जैनाचार्य अपने युग की तात्कालिक परिस्थितियों वर्ग खड़ा हो जाता है और विखराव की स्थिति आ जाती है । विखराव से प्रभावित होकर साधना के बाह्य नियमों में परिवर्तन करते रहे हैं। इसलिए होता है कि समाज की आस्था का मूल- केन्द्र महावीर या देशकालगत परिस्थितियों के प्रभाव के कारण और साधक की साधना उनका धर्म न होकर वह मुनि, आचार्य या विद्वान् होता है । लेखक ने क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म-साधना के बाह्य रूपों में ऐसे स्वयं देखा है कि आज स्थानकवासी समाज में अधिकांश मुनि और परिवर्तनों का हो जाना स्वाभाविक ही था और न केवल जैन अपितु सभी साध्वियाँ प्रवचन के पूर्व में, अन्त में और प्रार्थनाओं में अपने-अपने धर्मों के इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है, साधना सम्बन्धी ये सब वर्तमान आचार्यों का ही स्तवनगान करते हैं। अब तो भक्तामर शैली विविधताएँ धार्मिक संघों का कारण नहीं बनतीं । साम्प्रदायिक में संस्कृत भाषा में निबद्ध जीवित आचार्यों के स्तोत्र बन चुके हैं। शायद मतान्धता और संघषों का कारण साधना सम्बन्धी विविधता में नहीं आज हम उस महावीर को भुला चुके हैं जिसे हमारी सभी की आस्था अपितु मनुष्य की ममता, आसक्ति, अहंकार और स्वार्थपरता में हो रहा का केन्द्र होना चाहिये और जिसके आधार पर ही हम सब एकता के है। सूत्र में बंध सकते हैं । जो जैन धर्म गुणपूजक था, जिसके महान् आचाया. वस्तुतः मनुष्य जब अपने धर्माचार्य के प्रति रागात्मकता के ने अपने नमस्कार-मंत्र में किसी भी व्यक्ति का, यहाँ तक कि महावीर कारण अथवा अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार के कारण अपने का भी नाम न रखा था, उसमें बढ़ती हुई यह व्यक्ति-उपासना ही हमारे धर्म, सम्प्रदाय या साधना पद्धति को ही एकमात्र और अन्तिम सत्य तथा विखराव का कारण है । यदि हम सच्चे हृदय से जैन-एकता को चाहते अपने. धर्मगुरु को ही सत्य का एक मात्र प्रवर्तक मान लेता है, तो हैं- समाज से ये व्यक्ति-परक स्तुतियाँ तत्काल बन्द कर देना चाहिए। परिणामस्वरूप साम्प्रदायिक वैमनस्य का सूत्रपात हो जाता है। वस्तुत: सार्वजनिक प्रार्थनासभाओं, प्रवचनों आदि में केवल तीर्थंकरों का ही धार्मिक वैमनस्यों और धार्मिक संघों के मूलभूल कारण मनुष्य का स्तवन हो, किसी आचार्य या मुनि विशेष का नहीं । आचार्यों और अपने धर्माचार्य और सम्प्रदाय के प्रति आत्यान्तिक रागात्मक तथा मुनियों के प्रति विनयभाव तो रहे, किन्तु श्रद्धा का केन्द्र वीतरागता और तज्जन्य अपने मत की ऐकान्तिक सत्यता का आग्रह ही है । यद्यपि समतामय धर्म ही हो -कोई व्यक्ति नहीं। संक्षेप में हम व्यक्तिपूजक नहीं, विखराव के अन्य कारण भी होते हैं। गुणपूजक बनें । समाज में जब व्यक्तिपूजा के स्थान पर गुणपूजा वस्तुतः धार्मिक विविधताओं और धर्म-सम्प्रदायों के उद्भव
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के अनेक कारण होते हैं जिनमें से कुछ उचित कारण और कुछ अनुचित जैन हो और उसमें साम्प्रदायिक दुराग्रह भी हो, यह नहीं हो सकता । यदि कारण होते हैं।
हम साम्प्रदायों में आस्था रखते हैं, तो इतना सुनिश्चित है कि हम जैन उचित कारण निम्न हैं -१.सत्य सम्बन्धी दृष्टिकोण-विशेष या नहीं हैं । जैनधर्म की परिभाषा हैविचार-भेद, २. देशकालगत भिन्नता के आधार पर आचार सम्बन्धी स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नियमों की भिन्नता, ३. पूर्वप्रचलित धर्म या सम्प्रदाय में युग की नास्त्यन्य पीडनं किश्चित् जैनधर्मःस उच्यते ।। आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तन या संशोधन । जबकि अनुचित कारण जो स्याद्वाद में आस्था रखता है तथा पक्षपात से दूर है और ये हैं - १.वैचारिक दुराग्रह, २. पूर्व सम्प्रदाय या धर्म में किसी व्यक्ति जो किसी को पीड़ा नहीं देता, वही जैनधर्म का सच्चा अनुयायी है। का अपमानित होना, ३.किसी व्यक्ति को प्रसिद्धि पाने की महत्वाकांक्षा, अहिंसा और अनेकान्त के सच्चे अनुयायियों में साम्प्रदायिक वैमनस्य ४.पूर्व सम्प्रदाय के लोगों से अनबन हो जाना।
पनपे, यह सम्भव नहीं है । यहाँ हमारे जीवन के विरोधाभास स्पष्ट हैं। यदि हम उपर्युक्त कारणों का विश्लेषण करें, तो हमारे सामने हम अहिंसा की दुहाई देते हैं और अपने ही सहधर्मी भाइयों को पीटने । दो बातें स्पष्टत: आ जाती हैं। प्रथम, यह कि देशकालगत तथ्यों की या पिटवाने का उपक्रम करते हैं - हमारी साम्प्रदायिक वैमनस्यता ने विभिन्त्रता, वैचारिक विभिन्नता अथवा प्रचलित परम्पराओं में आयी हुई अहिंसा की पवित्र चादर पर खून की छीटें डाली हैं - अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ विकृतियों के संशोधन के निमित्त विविध धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव और केसरियाजी की घटनाएँ आज भी इसकी साक्षी हैं । हम अनेकांत होता है, किन्तु ये कारण ऐसे नहीं हैं जो साम्प्रदायिक वैमनस्य के आधार का नाम लेते हैं और साम्प्रदायिक क्षुद्रताओं से बुरी तरह जकड़े हुए कहे जा सकें । वस्तुतः जब भी इनके साथ मनुष्य के स्वार्थ , दुराग्रह, अपने सम्प्रदाय के अलावा हमें सभी मिथ्यात्वी नजर आते हैं। अपरिग्रह अहंकार, महत्वाकांक्षा और पारस्परिक ईर्ष्या के तत्त्व प्रमुख बनते हैं, की दुहाई देते हैं किन्तु देवद्रव्य के नाम पर धन का संग्रह करते हैं, तभी धार्मिक उन्मादों का अथवा साम्प्रदायिक कटुता का जन्म होता है मन्दिरों की सम्पत्तियों के लिए न्यायालयों में वाद प्रस्तुत करते हैं । और शान्ति प्रदाता धर्म ही अशान्ति का कारण बन जाता है। आज के आश्चर्य तो यह है कि वादी के नाम में परम अपरिग्रही भगवान् का नाम वैज्ञानिक युग में जब व्यक्ति धर्म के नाम पर यह सब देखता है तो उसके भी जुड़ता है । जिस प्रभु ने अपनी समस्त धन-सम्पत्ति का दान करके मन में धार्मिक अनास्था बढ़ती है और वह धर्म का विरोधी बन जाता है। जीवनपर्यन्त अपरिग्रह की साधना की, उसके अनुयायी होने का दम्भ यद्यपि धर्म के विविध सम्प्रदायों में बाह्य नियमों की भिन्नता हो सकती भरनेवाले हम क्या उसी प्रभु की एक प्रतिमा या मन्दिर भी अपने दूसरे है, तथापि यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो इसमें भी एकता भाई को प्रदान नहीं कर सकते ? वस्तुतः हमारे जीवन-व्यवहार का और समन्वय के सूत्र खोजे जा सकते हैं।
जैनत्व से दूर का भी रिश्ता नहीं दिखाई देता है।
हमारे अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त मात्र साम्प्रदायिक वैमनस्य का अन्त कैसे हो ?
दिखावा हैं-छलना हैं - वे हमारे जीवन के साथ जुड़ नहीं पाये हैं तभी धर्म के क्षेत्र में असहिष्णुता का जन्म तब होता है जब हम यह तो आध्यात्मिक सन्त आनन्दघन जी को वेदना के दो आँसू बहाते हुए मान लेते हैं कि हम जिस आचार्य को अपनी आस्था या श्रद्धा का केन्द्र कहना पड़ा थामान रहे हैं, उसका पक्ष ही एकमात्र सत्य है और उसके अतिरिक्त अन्य गच्छना भेद बहु नयने निहालतां, सभी मिथ्यात्वी और शिथिलाचारी हैं । 'हम सच्चे और दूसरे झूठे' की तत्त्वनी बात करतां न लाजे । भ्रान्त धारणा धार्मिक असहिष्णुता को जन्म देती है। यह मान लेना कि उदरभरणादि निज काज करतां यकां, सत्य का सूर्य केवल हमारे घर को ही आलोकित करता है, एक मिथ्या मोह नडिया कलिकाल राजे । धारणा ही है। जबकि जैनधर्म का अनेकान्तवाद यह मानता है कि सत्य गच्छों और सम्प्रदायों के विविध भेदों को अपने समक्ष देखते का बोध और प्रकाशन दूसरों के द्वारा भी सम्भव है, सत्य हमारे विपक्ष हुए भी हमें अनेकांत के सिद्धान्त की दुहाई देने में शर्म क्यों नहीं आती? में हो सकता है । हम ही सदाचारी और शुद्धाचारी है.. दूसरे सब वस्तुतः इस कलिकाल में व्यामोहों (दुराग्रहों) से प्रस्त होकर सभी केवल शिथिलाचारी और असंयती हैं - यह कहना क्या उन लोगों को शोभा अपना पेट भरने के लिए अर्थात् वैयक्तिक पूजा और प्रतिष्ठा पाने के देता है जिनके शास्त्र 'अन्यलिंगसिद्धा' का उद्घोष करते हैं । आज लिए प्रयत्नशील हैं। भावार्थ यही है कि सम्प्रदायों और गच्छों के नाम दुर्भाग्य तो यह है कि जो दर्शन अनेकांत के सिद्धान्त के द्वारा विश्व के पर हम अपनी-अपनी दुकानें चला रहे हैं । जिनप्रणीत धर्म और विभिन्न धर्म और दर्शनों में समन्वय की बात कहता है ओर जो सिद्धान्तों का उपदेश तो केवल दूसरों के लिए है - तुम हिंसा मत करो, 'षदरसण जिन अंग भणीजे' की व्यापक दृष्टि प्रस्तुत करता है, वह तुम दुराग्रही मत बनो, तुम परिग्रह का संचय मत करो आदि । किन्तु स्वयं अपने ही सम्प्रदायों के बीच समन्वय-सूत्र नहीं खोज पा रहा है। हमारे अपने में कहाँ हिंसा, आग्रह और आसक्ति (स्वार्थ-वृत्ति) के तत्त्व
एक ओर अनेकांतवाद का उद्घोष और दूसरी ओर सम्प्रदायों छिपे हुए हैं, इसे नहीं देखते हैं । वस्तुतः साम्प्रदायिक वैमनस्य इसीलिए का व्यामोह - दोनों एक साथ सत्य नहीं हो सकते । वस्तुत: कोई व्यक्ति है कि अहिंसा, अनाग्रह और जनासक्ति के धार्मिक आदर्श हमारे जीवन
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का अंग नहीं बन पाये हैं यदि धर्म का अमृत जीवन में प्रविष्ट हो जाये करना पड़ता होगा, जिसको बाद में वे त्याग देते होंगे। स्वयं महावीर तो साम्प्रदायिकता के विष का प्रवेश ही नहीं हो सकता । हम एकता द्वारा प्रारम्भ में एकवस्त्र ग्रहण करना भी यही सूचित करता है । यद्यपि की दिशा में तभी गतिशील हो सकेंगे जब जीवन में अहिंसा, अनाग्रह, परम्परागत मान्यताएँ कुछ भित्र हैं। भगवती आराधना जैसे दिगम्बरों के नि:स्वार्थता और अपरिग्रह के तत्त्व विकसित होंगे। इनके विकास के द्वारा मान्य ग्रन्थों में भी अपवादरूप से मुनि के वस्त्र ग्रहण करने का साथ ही साम्प्रदायिक दौर्मनस्य अपने आप समाप्त हो जायेगा । यदि विधान है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि अचेलता प्रकाश आयेगा तो अंधकार अपने आप समाप्त हो जायेगा। प्रयत्न और पूर्ण अपरिग्रह का समर्थक दिगम्बर मुनि वर्ग भी परिस्थितिवश अन्धकार को मिटाने का नहीं, प्रकाश को प्रकट करने का करना है। परिग्रह के पंक में फँस गया । चौथी शताब्दी के पश्चात् से अधिकांश हमें प्रयत्न सम्प्रदायों को मिटाने का नहीं, जीवन में धर्म और विवेक को दिगम्बर मुनि न केवल जिनालयों में निवास करने लगे अपितु अपने नाम विकसित करने के लिए करना है।
से जमीन आदि का दान प्राप्त करने लगे - और वस्त्र धारण कर राज
सभाओं में जाने लगे। इन्हीं से दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारकों की परम्परा . जैनधर्म के साम्प्रदायिक मतभेद : उनके निराकरण के उपाय । का विकास हुआ है । मध्ययुग में इन भट्टारकों का ही सर्वत्र प्रभाव था
और अचेलक दिगम्बर मुनि प्रायः विलुप्त ही हो गये थे । उनकी (अ) सचेलता और अचेलता का प्रश्न
उपस्थिति के कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं । दिगम्बरत्व सर्वप्रथम हम श्वेताम्बर, दिगम्बर सम्प्रदायों के मतभेद को ही का समर्थन तो बराबर बना रहा किन्तु व्यवहार में उसका प्रचलन नहीं लें और देखें कि उसमें कितनी सार्थकता है । श्वेताम्बर और दिगम्बर रह सका । वस्तुत: जिन-मुद्रा को धारण करना सहज नहीं है । आज सम्प्रदायों में विवाद का मूल मुद्दा मुनि के नग्नत्व का है । क्योंकि से .४०-५० वर्ष पूर्व तक सम्पूर्ण भारत में दिगम्बर मुनियों की संख्या तीर्थप्रवर्तक प्रभु महावीर निर्वस्त्र (अचेल) रहे, यह बात दोनों को मान्य दस भी नहीं थी । वस्तुतः साधना एवं तप-त्याग के ऐसे उच्चतम है । आर्यिका (साध्वी), श्रावक और श्राविका की सवस्त्रला (सचेलता) आदर्श कभी लोक-व्यवहार्य नहीं रहे हैं । चाहे मनुष्य अपनी सुविधाभोगी भी दोनों को स्वीकार्य है । सवत्रता की समर्थक श्वेताम्बर-परम्परा के वृत्ति के कारण हो अथवा उनकी अव्यवहार्यता के कारण हो, उनसे नीचे प्राचीन आगमों में भी मुनि की अचेलता का न केवल समर्थन है अपितु अवश्य उतरा है । श्वेताम्बर मुनिवर्ग तो आगमोक्त मुनि आधार के शिखर अचेलकत्व की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा भी की गई है । जिन और से धीरे-धीरे काफी नीचे उतर आया है किन्तु दिगम्बर मुनि भी अनेक जिनकल्पी अर्थात् जिन के समान आचरण करनेवाले मुनि नग्न रहते थे, बातों में उस ऊँचाई पर स्थित नहीं रह सके, उन्हें भी नीचे उतरना पड़ा यह बात श्वे० परम्परा को भी मान्य है । वस्तुत: जब साम्प्रदायिक है। दुरभिनिवेश बढ़ा तो एक ओर श्वेताम्बरों ने जिनकल्प (अचेलकत्व) के वस्तुत: यह सब हमें यह बताता है कि मुनिधर्म की साधना विच्छेद की घोषणा कर दी तो दूसरी ओर दिगम्बरों ने मूलभूत आगम- के क्षेत्र में कुछ स्तर और उनके आरोहण का क्रम स्वीकार करना साहित्य को ही अमान्य कर दिया । इस विवाद का परिणाम यहाँ तक आवश्यक है । मुनि की निर्वस्वता की पोषक दिगम्बर परम्परा भी ऐलक हुआ कि वे० साहित्य में यह कह दिया गया कि जिनकल्पी मुक्त नहीं क्षुल्लक के रूप में ऐसे वर्गों को स्वीकार करती है जो केवल सवत्रता होता है । वह केवल स्वर्गगामी होता है, जबकि दिगम्बर आचार्यों ने यह के अतिरिक्त अन्य आचार-नियमों का पालन करने में दिगम्बर मुनि के कह दिया कि यदि तीर्थंकर भी सवस्त्र होगा तो मुक्त नहीं होगा। समान ही होते हैं और दिगम्बर समाज में उनकी मुनिवत् प्रतिष्ठा भी होती निष्पाक्षरूप से श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम-साहित्य का अध्ययन है। विवाद का प्रश्न मात्र इतना है कि उन्हें उच्च श्रेणी का गहस्थ माना करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वस्त्र-पात्र आदि उपाधियों का जाये या प्राथमिक श्रेणी का मुनि । निर्वस्त्रता के आत्यन्तिक आग्रह के विकास क्रमशः ही हुआ है । आचारांग मुनि के लिए मूलत: अचेलता कारण दिगम्बर परम्परा उन्हें मुनि मानने को तैयार नहीं होती - किन्तु का ही समर्थन करता है। अपवाद रूप में वह लज्जा-निवारणार्थ गुहांग यदि तटस्थ भाव से देखें तो उनके लिए 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग स्वयं ढकने के लिए एक कटि वस्त्र और शीत सहन नहीं कर सकने पर इस बात को सूचित करता है कि वे मुनियों के वर्ग के सदस्य हैं। शीतकाल में एक या दो अतिरिक्त वस्त्र ग्रहण करने की अनुमति देता क्षुल्लक शब्द का अर्थ 'छोटा' है चूँकि वे मुनि जीवन की साधना के है - उन्हें भी ग्रीष्मकाल में त्याग देने की बात कहता है । इस प्रकार प्राथमिक स्तर पर हैं, अत: उन्हें क्षुल्लक कहा जाता है । क्षुल्लक शब्द उसमें मुनि के लिए अधिकतम तीन और साध्वी के लिए अधिकतम चार छोटा मुनि का सूचक है, छोटे गृहस्थ का नहीं । श्वे० मान्य आगम वस्त्रों को ग्रहण करने का ही विधान है । आचारांग और समवायांग में उत्तराध्ययन में एक क्षुल्लकाध्ययन नाम से जो अध्याय है, वह मुनि मुनि को वस्त्र धारण करने की अनुमति तीन कारणों से दी गई है- आचार को ही अभिव्यक्त करता है । इसलिए क्षुल्लक मुनि ही होता है, १. इन्द्रिय विकार, २. लज्जाशीलता और ३. परीषह (शीत) सहन करने गृहस्थ नहीं । श्वेताम्बर आचार्यों ने क्षुल्लक का अर्थ बालवय का मुनि में असमर्थता । वस्तुतः महावीर के संघ में दीक्षित हुए युवा मुनियों को किया है, यह उचित नहीं लगता है । उसका अर्थ साधना के प्राथमिक इन्द्रियविकार और लोक-लज्जा के निमित्त प्रारम्भ में अधोवस्त्र धारण स्तर पर स्थित मनि करना अधिक यक्ति-संगत है । ऐसा लगता है कि
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ -समाज एवं संस्कृति -
महावीर के संघ में निर्वस्त्र और सवस्त्र दोनों ही प्रकार के मुनि थे। समर्थक पद्य मिले हैं। यद्यमि इस समस्या का हल इन ग्रन्थों के आधारों श्वेताम्बर आगम तो जिनकल्प और स्थविर कल्प के नाम से दो विभाग पर नहीं खोजा जा सकता क्योंकि उत्तराध्ययन के एक अपवाद को स्वीकार करते ही हैं । दिगम्बर-परम्परा को भी यह मानने में कोई आपत्ति छोड़कर श्वेताम्बर और दिगम्बर-साहित्य के प्राचीनतम अंश प्राय: इस नहीं होगी कि महावीर के संघ में दिगम्बर मुनियों के अतिरिक्त ऐलक सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ भी प्रकाश नहीं डालते हैं जबकि सम्प्रदाय
और क्षुल्लक भी थे । मात्र वस्त्रधारी होने से ऐलक और क्षुल्लक गृहस्थ भेद के बाद रचित परवर्ती साहित्य में दोनों अपने पक्ष की पुष्टि करते नहीं कहे जा सकते । गृहस्थ तो घर में निवास करता है । जिसने घर, हैं । ज्ञाताधर्मकथा जिसमें मल्ली का स्त्री तीर्थकर के रूप में चित्रण है परिवार आदि का परित्याग कर दिया है वह तो अनगार है, प्रव्रजित है, तथा अन्तकृतदशा जिसमें अनेक स्त्रियों की मुक्ति के उल्लेख हैं, विद्वानों मुनि है। अत: ऐलक,क्षुल्लक ये मुनियों के वर्ग हैं, गृहस्थों के नहीं। की दृष्टि में संघ-भेद के बाद की रचनाएँ हैं । निष्पक्ष रूप से यदि विचार ऐसा लगता है कि महावीर ने सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीयचारित्र किया जाये तो बात स्पष्ट है कि बंधन और मुक्ति का प्रश्न आत्मा से. का जो भेद किया था, उसका सम्बन्ध मुनियों के दो वर्गों से होगा। सम्बन्धित है, न कि शरीर से । बन्धन और मुक्ति दोनों आत्मा की होती जैनेतर साहित्य भी इस बात की पुष्टि करता है कि महावीर के समय में है, शरीर की नहीं । पुनः श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराएँ इस विषय में ही निर्ग्रन्थों में सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों वर्ग थे। बौद्ध पिटक-साहित्य भी एकमत हैं कि आत्मा स्वरूपतः न स्त्री है और न पुरूष । साथ ही में 'निग्गंथा- एक साटका' के रूप में एक वस्त्र धारण करने वाले आत्मा का बन्धन और मुक्ति राग-द्वेष या कषाय की उपस्थिति और . निर्ग्रन्थों का उल्लेख है। आचारांग और उत्तराध्ययन में मुनि के वस्त्रों के अनुपस्थिति पर निर्भर है- उसका स्त्रीपर्याय और पुरुषपर्याय से कोई सीधा प्रसंग में 'सान्तरोत्तर' शब्द का प्रयोग हुआ है जो इस बात का प्रमाण सम्बन्ध नहीं है । वस्तुतः जो भी राग-द्वेष की ग्रन्थियों से मुक्त होंगे, जो है कि कुछ निम्रन्थ मुनि - एक अधोवस्त्र (कटिवस्त्र) या अन्तरवासक वीतराग और क्षीण-कषाय होंगे और जो निर्वेद अर्थात् स्त्रीत्व-पुरुषत्व के साथ उत्तरीय रखते थे। श्वे० परम्परा द्वारा 'सान्तरोत्तर' का अर्थ रंगीन की वासना से रहित होंगे, वही मुक्त होंगे। मुक्ति का निकटतम कारण या बहुमूल्य वस्त्र करना उचित नहीं । ऐसा लगता है कि जहाँ महावीर राग-द्वेष रूपी कर्म-बीज का नष्ट होना और वीतरागता का प्रकट होना के मुनि या तो नग्न रहते थे या कटिवस्त्र धारण करते थे, वहाँ पार्श्वनाथ है। अत: यही मानना उपयुक्त होगा कि जो भी वीतराग हो सकेगा वही की परम्परा के साधु कटिवस्त्र के साथ उत्तरीय भी धारण करते थे। मुक्त होगा- यहाँ स्त्री का, सवस्त्र मुनि या गृहस्थ का या अन्य परम्पराओं आचारांग की वस्त्र सम्बन्धी यह व्यवस्था ऐलक और क्षुल्लक की वस्त्र- के वेश धारण करने वाला का राग समाप्त होगा या नहीं, इस विवाद मर्यादाओं के रूप में दिगम्बर-समाज में आज भी मान्य है। में पड़ना न तो उचित है और न आवश्यक है - जो भी वीतराग एवं
इन सब चर्चाओं के आधार पर हम मुनि के वस्त्र सम्बन्धी इस निकषाय हो सकेगा वह मुक्त हो सकेगा - यदि स्त्री पर्यायधारी आत्मा विवाद को इस प्रकार हल कर सकते हैं कि प्राचीन परम्परा के अनुरूप के कषाय क्षीण हो जायेंगे तो वह मुक्त हो जायेगी, यदि नहीं हो सकेंगे मुनियों के दो वर्ग हों-एक निर्वस्त्र और दूसरा सवस्त्र । दिगम्बर-परम्परा तो नहीं हो सकेगी । इससे बढ़कर यह कहना कि उसके कषाय समाप्त यह आग्रह छोड़े कि वस्त्रधारी मुनि नहीं है और श्वेताम्बर-परम्परा निर्वस्त्र ही नहीं होंगे, हमें कोई चेष्टा नहीं करना चाहिए । पुनः श्वेताम्बर और मुनियों की आचारगत श्रेष्ठता को स्वीकार करे । जहाँ तक मुनि आचार दिगम्बर दोनों परम्पराएँ आज यह मानती हैं कि अभी ८२ हजार वर्ष तक के दूसरे नियमों के प्रश्न हैं - यह सत्य है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर तो इस भरतक्षेत्र से कोई मुक्त होनेवाला नहीं है । साथ ही दोनों के दोनों की परम्पराओं में मूलभूत आगमिक मान्यताओं से काफी स्खलन अनुसार उन्नीस हजार वर्ष बाद जिनशासन का विच्छेद हो जाना है . हआ है। आज कोई भी पूरी तरह से आगम के नियमों का पालन नहीं अर्थात् दोनों सम्प्रदायों को भी समाप्त हो जाना है । इसका अर्थ यह हुआ कर कर रहा है । अत: निष्पक्ष विद्वान् आगम-ग्रन्थ और युगीन कि दोनों सम्प्रदायों के जीवनकाल में यह विवादास्पद घटना घटित ही परिस्थितियों को दृष्टिगत रखकर वस्त्र-पात्र सम्बन्धी एक आचार-संहिता नहीं होना है तो फिर उस सम्बन्ध में व्यर्थ विवाद क्यों किया जाये। क्या प्रस्तुत करें जिसे मान्य कर लिया जाये ।
इतना मान लेना पर्याप्त नहीं है- जो भी राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर
उठ सकेगा क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों को जीत सकेगा, स्त्रीमुक्ति का प्रश्न और समाधान
वही मुक्ति का अधिकारी होगा। कहा भी है-कषायमुक्ति मुक्तिकिलरेव । श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं का दूसरे विवाद का मुद्दा स्त्रीमुक्ति का है । जहाँ तक इस सम्बन्ध में आगमिक मान्यता का प्रश्न केवली-कवलाहार का प्रश्न और समाधान है श्वेताम्बर-आगम-साहित्य और यापनीय संघ का साहित्य जो मुनि के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में विवाद का तीसरा मुद्दा दिगम्बरत्व का समर्थक है, इस बात को स्वीकार करता है कि स्त्री और केवली के आहार-विहार से सम्बन्धित है। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक और सवस्त्र की मुक्ति सम्भव है । यद्यपि कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों और तत्त्वार्थ व्यावहारिक दृष्टि से श्वे० परम्परा का मत अधिक युक्तिसंगत लगता है, की दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं में स्त्रीमुक्ति का निषेध है किन्तु कुछ यद्यपि केवली या सर्वज्ञ को अलौकिक व्यक्तित्व से युक्त मान लेने पर विद्वानों के अनुसार दिगम्बर- ग्रन्थ मूलाचार और धवला टीका में इसके यह बात भी तर्कगम्य लगती है कि उसमें आहार आदि की प्रवृत्ति नहीं
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होनी चाहिए क्योंकि आहार, वचन आदि की प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक होंगी। पूर्व दूसरी, तीसरी शताब्दी तक रचित जैन-ग्रन्थ जिन-प्रतिमा और किन्तु जो वीतराग हैं, अनासक्त हैं, उनकी कोई इच्छा नहीं हो सकती। उसके पूजन के सम्बन्ध में मौन ही हैं । दिगम्बर-परम्परा के कुन्दकुन्द वह तो शरीर से भी निरपेक्ष है, अत: उसमें शरीर-रक्षण का भी कोई आदि के आगमरूप मान्य ग्रन्थों में जिन-प्रतिमा सम्बन्धी क्वचित् प्रयत्न होगा ऐसा मानना भी उचित नहीं है । आश्चर्यजनक यह है कि निर्देश हैं, किन्तु ये सभी ईसा के बाद की रचनाएँ हैं। श्वेताम्बर आगम-साहित्य में भी केवल भगवती काप्रसंग जो प्रक्षिप्त ही
जैनधर्म में मूर्तिपूजा की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए यह लगता है, को छोड़ कर कहीं ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है जिसमें कहा जाता है कि महावीर के जीवनकाल में ही उनकी चन्दन की एक कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् महावीर कहीं आहार लेने गये हों या उनके प्रतिमा का निर्माण हुआ था, जिसमें उन्हें राजकुमार के रूप में तपस्या लिये आहार लाया गया हो या उन्होंने आहार ग्रहण किया हो-यह बात करते हुए अंकित किया गया था । चूँकि यह प्रतिमा उनके जीवनकाल श्वेताम्बर-परम्परा के लिए भी विचारणीय अवश्य है । आखिर ऐसे में ही निर्मित हुई थी, इसलिए इसे जीवन्तस्वामी की प्रतिमा कहा गया उल्लेख क्यों नहीं मिलते । ।
है। जीवन्तस्वामी की प्रतिमा का उल्लेख संघदासगणिकृत वसुदेवहिण्डी, यद्यपि भावनात्मक एकता के दृष्टि से इस विवाद को हल जिनदासकृत आवश्यकचूर्णि और हरिभद्रसूरि की आवश्यकवृत्ति में है, करना हो तो इतना मान लेना पर्याप्त होगा कि केवली स्वत: आहार पर ये सभी परवर्ती काल अर्थात् ईसा की छठी, सातवीं और आठवीं आदि की प्राप्ति की इच्छा या प्रयत्न नहीं करता है । वर्तमान संदों में शताब्दी की रचनाएँ हैं । उनके कथन की प्रामाणिकता को केवल श्रद्धा इस बात को अधिक महत्त्व देना इसलिए भी उचित नहीं है कि दोनों के के आधार पर ही स्वीकार किया जा सकता है । जीवन्तस्वामी की प्राप्त अनुसार अगले ८२००० वर्ष तक भरतक्षेत्र में कोई केवली नहीं होगा। सभी प्रतिमाएँ पुरातात्त्विक दृष्टि से पाँचवीं, छठी शताब्दी की हैं ।
जीवन्तस्वामी की प्रतिमा के सम्बन्ध में डा० मारुतिनन्दनप्रसाद तिवारी मूर्तिपूजा का प्रश्न
का यह निष्कर्ष द्रष्टव्य है “पाँचवों, छठी शताब्दी ईस्वी के पहले जैन-धर्म के सम्प्रदायों में एक मुख्य विवादास्पद प्रश्न जीवन्तस्वामी के सम्बन्ध में हमें किसी प्रकार की ऐतिहासिक सूचना मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में है । दिगम्बर-सम्प्रदाय के तारणपन्थी और प्राप्त नहीं होती है।' इस प्रकार कोई भी ऐसा साहित्यिक और श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के स्थानकवासी एवं तेरापन्थी मूर्तिपूजा का विरोध पुरातात्त्विक साक्ष्य प्राप्त नहीं होता है जिसके आधार पर महावीर के पूर्व करते हैं। मूर्तिपूजा को लेकर अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जैनधर्म अथवा उनके जीवनकाल में जिन-प्रतिमा की उपस्थिति को सिद्ध किया में मूर्तिपूजा का प्रचलन कब से हुआ । यह बात स्पष्ट है कि ऐतिहासिक जा सके । दृष्टि से प्राचीनतम आगम आचरांग, सूत्रकृतांग, दशवैकालिक,
यद्यपि पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से यह उत्तराध्ययन आदि में मूर्ति या मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में कोई स्पष्ट उल्लेख कहा जा सकता है कि जिन-प्रतिमा का निर्माण महावीर के निर्वाण के नहीं पाये जाते हैं । अन्तकृत आदि कुछ परवर्ती आगमों में यक्ष आदि, लगभग डेढ़ सौ-दो सौ वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा पूर्व की तीसरी, चौथी की प्रतिमाओं और उनके पूजन का उल्लेख तो है किन्तु जिन-प्रतिमा के शताब्दी में हो गया था। सबसे प्राचीन उपलब्ध जिन-प्रतिमा लोहनीपुर पूजन का कोई उल्लेख नहीं है । देवलोकों में शाश्वत जिन-प्रतिमा की है जो पटना-संग्रहालय में सुरक्षित है । यह प्रतिमा लगभग ईसा पूर्व सम्बन्धी उल्लेख तथा सूर्याभदेव और द्रौपदि के द्वारा जिन-प्रतिमा के तीसरी शताब्दी की है । यद्यपि मूर्ति का शिरोभाग अनुपलब्ध है किन्तु पूजन सम्बन्धी उल्लेख भगवती एवं ज्ञाताधर्मकथा में प्राप्त होते हैं, मूर्ति की दिगम्बरता और कायोत्सर्ग-मुद्रा उसे जिन-प्रतिमा सिद्ध करती किन्तु विशाल आगम-साहित्य की दृष्टि से ये सब उल्लेख भी अत्यल्प है। मौर्ययुगीन चमकदार आलेप के अतिरिक्त उसी स्थल के उत्खनन ही कहे जा सकते हैं । दूसरे विद्वानों द्वारा इन आराम-ग्रन्थों का रचनाकाल से प्राप्त मौर्ययुगीन ईटें एवं एक रजत-आहत- मुद्रा भी मूर्ति के आचारांग आदि की अपेक्षा काफी परवर्ती माना जाता है । जिन-प्रतिमा मौर्यकालीन होने के समर्थक साक्ष्य हैं । इसी काल की कुछ अन्य जिनके पूजन के सम्बन्ध में विस्तृत निर्देश हमें उत्तरकालीन रचनाओं, प्रतिमा एवं तत्सम्बन्धी हाथी-गुंफा के शिलालेख भी उपलब्ध हैं । ईसा आगमिक नियुक्तियों, चूर्णियों, भाष्यों, वृत्तियों और टीकाओं में ही पूर्व दूसरी और प्रथम शताब्दी की तो अनेक जिन-प्रतिमाएं और उपलब्ध होते हैं। महावीर के पूर्व जिन-प्रतिमाओं के अस्तित्व का कोई आयागपट मथुरा से प्राप्त हुए हैं जिनसे यह स्पष्ट रूप से सिद्ध होता साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य भी उपलब्ध नहीं है । यद्यपि हड़प्पा है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा का प्रचलन ईसा से लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व से प्राप्त एक नग्नपुरुष की मृत्तिकामूर्ति को जिन-प्रतिमा कहा जाता है प्रारम्भ हो गया था। चाहे यह बात विवादास्पद हो सकती है कि महावीर किन्तु वह जिन-प्रतिमा है, यह बात विवादस्पद ही है । महावीर की ने जिन-प्रतिमा के पूजन का उपदेश दिया था या नहीं ? किन्तु यह जीवनचर्या के सम्बन्ध में आचारांग, कल्पसूत्र आदि में जो प्राचीनतम निर्विवाद सत्य है कि जैनधर्म में जिन-प्रतिमा के निर्माण और पूजन की उल्लेख उपलब्ध हैं उसमें उनके किसी जिन-मन्दिर में जाने या जिनमूर्ति परम्परा लगभग बाईस सौ, तेईस सौ वर्षों से निरन्तर चली आ रही है। के पूजन करने का उल्लेख नहीं है, यद्यपि यक्षायतनों और यक्ष-चैत्यों पुनः जिन-प्रतिमाएँ और जिन-मन्दिर जैनधर्म और जैन-संस्कृति और में उनके जाने और विश्राम करने के उल्लेख प्रचुरता से मिलते हैं। ईसा इतिहास की महत्त्वपूर्ण धरोहर हैं जिन्हें अस्वीकार करने का अर्थ
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अपने इतिहास और संस्कृति को ही अस्वीकार करना होगा। पत्थर का चुम्बन, हजरत मुहम्मद के पवित्र बाल के प्रति मुस्लिम
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जैनधर्म की श्वेताम्बर और सम्प्रदाय की आस्था, कब्र-पूजा और मुहर्रम ये सब प्रतीकपूजा के ही तो दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में मूर्तिपूजा का विरोध सोलहवीं शताब्दी से रूप हैं । अधिक क्या मूर्तिपूजा के विरोधी जैनधर्म के स्थानकवासी, प्रारम्भ हुआ। मूर्तिपूजा-विरोधी यह आन्दोलन इस्लामधर्म से प्रभावित तेरापंथी और तारणपंथी सम्प्रदायों के अनुयायियों के घरों में भी अपने है। इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा पूज्य माता-पिताओं, धर्म-गुरुओं और साधु-साध्वियों के चित्रों को का विरोध करने वाले लोंकाशाह और तारण स्वामी दोनों ही मुस्लिम सुविधा से देखा जा सकता है । स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा के शासकों के राज्याधिकारी थे। किन्तु यह मानना भी कि केवल मुसलमानों अधिकांश घर अब अपने आचार्यों के चित्रों से मंडित हैं और उन चित्रों के प्रभाव के कारण जैनधर्म में मूर्तिपूजा के विरोध प्रारम्भ हुआ पूरी तरह के प्रति उनके मन में श्रद्धा और आदर का भाव है । लेखक ने स्वयं सत्य नहीं होगा । जैनधर्म में मूर्तिपूजा के विरोध के कुछ आन्तरिक अनेक स्थानों पर स्थानकवासी और तेरापंथी आचार्यों के चित्रों के समीप कारण भी थे। मूर्तिपूजा के नाम बढ़ता हुआ आडम्बर, हिंसा का समर्थन उनके अनुयायियों को धूप-दीपदान करते देखा है । अनेक स्थानकवासी, और जटिल कर्मकाण्ड भी इस विरोध में सहायक बने हैं।
तेरापंथी और तारणपंथी तीर्थयात्रा करते हुए आसानी से देखे जा सकते मूर्तिपूजा सम्बन्धी जो विवाद आज जैन सम्प्रदायों में है, हैं। यद्यपि निर्गुणोपासना या भावाराधना एक उच्च स्थिति है किन्तु मूर्ति उसका निर्णय यदि शास्त्र की अपेक्षा सामान्य बुद्धि के आधार पर करें का पूर्ण विरोध समुचित नहीं है । मूर्तियों और चित्रों के प्रति मनुष्य का तो किसी एक समन्वयात्मक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है । उस आकर्षण और श्रद्धाभाव स्वाभाविक है। सम्बन्ध में उसकी उपयोगिता को ही आधार बनाकर चलना होगा । यह सही है कि मनुष्यों की भावनाओं के पवित्रीकरण एवं निष्पक्ष शोधों से यह बात स्पष्टरूप से प्रमाणित हो चुकी है कि जैनधर्म वीतराग के गुणों का स्मरण दिलाने में मूर्ति निमित्त कारण अवश्य है। में मूर्ति और मूर्ति-पूजा का विकास क्रमिकरूप से हुआ है। पुरातात्त्विक वह ध्यान का आलम्बन है तथा हमारे हृदयों को पवित्र भावनाओं और
और साहित्यिक साक्ष्य इसके प्रमाण हैं । दूसरे यह भी सत्य है कि श्रद्धा से आपूरित करती है । अत: मूर्ति का ऐकान्तिक विरोध भी उचित मूर्तिपूजा को लेकर परवर्तीयुग में जितने आडम्बर और कर्मकाण्ड खड़े नहीं है । यद्यपि मूर्ति को मूर्तिरूप में ही स्वीकार करना चाहिए। वह किये गये हैं, उन्होंने जैनधर्म की मूलात्मा पर कुठाराघात किया है। वीतराग-प्रभु या भगवान् नहीं । मूर्ति भगवान् है-यह मानने के कारण उन्होंने एक सहज एवं सरल साधना-पद्धति को जटिल बनाया है। अनेक अन्धविश्वासों को बढ़ावा मिलता है । मूर्तियों के सम्बन्ध में अनेक मूर्तिपूजा के साथ जुड़नेवाले इस कर्मकाण्ड पर ब्राह्मण-संस्कृति और चमत्कारिक घटनाएँ प्रचलित हैं, वे चाहे एक बार हमारी श्रद्धा को भक्तिमार्ग का प्रभाव है । चक्रेश्वरी, मणिभद्र एवं यक्ष-यक्षी, भैरव आदि आन्दोलित करती हों किन्तु जैनधर्म की साधना और उपासना से उसका की पूजा एवं यज्ञ जैन-सिद्धान्तों की मूलात्मा के साथ मेल नहीं खाते कोई सम्बन्ध नहीं है कि जिसकी वे प्रतिमाएँ हैं, वह तो वीतराग है - हैं । यद्यपि जैनों की आस्था को दूसरी ओर केन्द्रित होता देखकर उसका इस चमत्कार प्रदर्शन आदि से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि यह जैनाचायों को यह सब करना पड़ा था। . .... .. कहा जाए कि जिन-शासन के रक्षक देव ऐसा करते हैं तो वे उन
यह निर्विवाद तथ्य है कि मानव जाति के इतिहास में प्रारम्भ अतिशय क्षेत्रों की प्रतिमाओं जिन्हें लेकर दोनों पक्ष न केवल झगड़ते हैं, से ही मूर्तियों और प्रतिकृतियों का महत्व रहा है। आदि-युग के शैलचित्र अपितु उस प्रतिमा के साथ भी अशोभनीय कृत्य करते हैं सम्बन्ध में
और गुहाचित्र इस बात के प्रमाण हैं कि मानवीय सभ्यता के प्रारम्भ से कोई ऐसा चमत्कार क्यों नहीं दिखाते, जिससे विवाद शांत हो जाये ओर ही प्रतिकृतियों के निर्माण ने मनुष्य को आकर्षित किया है । प्रतीक-पूजा सही स्थिति प्रकट हो जाये । क्या जिन और जिनशासन की इस फजीहत का इतिहास बहुत पुराना है । वस्तुत: मानवीय सभ्यता प्रतीकात्मक को देखकर उन्हें तरस नहीं आता ? अतः मूर्ति को चमत्कार से नहीं, कला के सहारे ही विकसित हुई है। हमारी भाषा और हमारे शब्द-संकेत साधना से जोड़ें। जिनके आधार पर हमारे धर्मशास्त्र रचे गये हैं, मानवीय भावनाओं और . जहाँ तक श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की मूर्तियों की विचारों की अभिव्यक्ति की प्रतीकात्मक शैली हैं। चाहे हम वृक्षों की भिन्नता के समाधान का प्रश्न है, यह सत्य है कि प्रारम्भ में श्वेताम्बर-जैन पूजा करें, स्तूपों की पूजा करें, चाहे शास्त्रों की पूजा करें या मूर्तियों की भी नग्न मूर्तियों की ही पूजा करते हैं । मथुरा की दिगम्बर मूर्तियाँपूजा करें, सभी प्रतीक-पूजा के रूप हैं । वास्तविकता यह है कि मानव श्वेताम्बर आचार्यों के द्वारा ही प्रतिष्ठित थीं । उनके गच्छ और शाखाओं अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों, चित्रों और प्रतिकृतियों के नाम नन्दी और कल्पसूत्र की पट्टावलियों के अनुरूप ही हैं । वहाँ जो (मूर्तियों) का उपयोग करता रहा है । मात्र यही नहीं, वह अपने पूज्यजनों कण्ह नामक जैन मुनि की मूर्ति मिली है, कटिवस्त्र के चिह्न से युक्त नहीं के प्रतीक-चिह्नों और उनकी प्रतिकृतियों के प्रति प्राचीनकाल से ही श्रद्धा है, अतः श्वेताम्बर और दिगम्बर मूर्तियों की यह भिन्नता संघभेद के बहुत और सम्मान का भाव रखता आया है। आदिम जातियों में तथा हिन्दू- बाद की घटना है । आभूषण, अलंकरण और स्फटिक नेत्र आदि का धर्म में प्रतीकपूजा प्रचलित है ही, किन्तु मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी प्रयोग और भी बाद में हुआ है । निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर यह इस्लाम धर्म में भी किसी रूप में प्रतीकपूजा प्रचलित है । काबे के पवित्र लगता है कि वीतराग प्रतिमा पर यह अंग-प्रशोभन उचित नहीं है । मूर्ति
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और मन्दिर के साथ जो परिग्रह जुड़ता जा रहा है वह युक्तिसंगत नहीं है श्वेताम्बर मुनि श्री न्यायविजय जी ने भी इसका विरोध किया था। यही सब विवादों का मुख्य कारण बन रहा है।
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एकता की दृष्टि से यही अच्छा विकल्प होगा कि पद्मासन की ध्यान मुद्रायुक्त प्रतिमाओं को ही अपनाया जाए और उस पर कन्दोरा, लंगोट, स्फटिक नेत्र आदि का उपयोग न हो। यद्यपि इसे तभी अपनाना होगा जबकि दोनों सम्प्रदाय अपना विलीनीकरण कर लें अन्यथा ऐसी मूर्तियों को लेकर जैसे विवाद आज है, वैसे विवाद बाद में भी उठ खड़े होगें ।
जहाँ तक मूर्तिपूजा सम्बन्धी विधि-विधान का प्रश्न है, उसमें भी आडम्बर बाद में ही बढ़ा है, अतः अच्छा यही होगा कि दिगम्बरपरम्परा के तेरापंथ में जो अचित द्रव्यों से पूजा का विधान है उसे स्वीकार कर लिया जाये। मूर्ति की द्रव्य पूजा में हिंसा अल्पतम हो, यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है। जिन मन्दिरों में यज्ञों को तो तत्काल बन्द कर देना चाहिए, वह पूर्णतः ब्राह्मण-संस्कृति का प्रभाव है मात्र यही नहीं, द्रव्यपूजा की अपेक्षा भावपूजा पर और प्रभु भक्ति के माध्यम से प्रभु के गुणों को जीवन में उतारने का लक्ष्य अधिक रहे । जिन - प्रतिमा हमारी भावनाओं की विशुद्धि का साधन है और एक साधन के रूप में उसका स्थान है। यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि मूर्ति और उसकी द्रव्यपूजा की आवश्यकता, साधना और ज्ञानवे प्राथमिक स्तर पर उसी प्रकार है, जिस प्रकार वर्णमाला का अर्थबोध कराने के लिए प्राथमिक स्तर पर चित्रों की सहायता अपेक्षित है ।
मुखवस्त्रिका के प्रश्न का समन्वय
में
श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एक विवाद मुखवत्रिका को लेकर भी हमारी एकता का स्वरूप क्या हो ? है। स्थानकवासी और श्वेताम्बर तेरापंथी डोरा डालकर उसे सदैव ही मुखपर बाँधे रहते हैं। मुख्वस्त्रिका का विकास महावीर के परवर्ती काल हुआ है। ऐसा कोई भी ठोस प्रमाण नहीं है, जिससे सिद्ध हो कि महावीर ने मुखवस्त्रिका रखी थी। आचारांग के प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्वन्ध में मुखवत्रिका का उल्लेख नहीं है । यद्यपि लगभग दो हजार वर्ष पूर्व से इसका प्रयोग श्वेताम्बर परम्परा में होता रहा है, ऐसा चेताम्बर आगम- साहित्य से सिद्ध होता है । तथापि डोरा डालकर बाँधने के सम्बन्ध में ठोस ऐतिहासिक प्रमाण १७-१८ वीं के पूर्व के नहीं मिले हैं। मुखवस्त्रिका के उपयोग का मुख्य उद्देश्य तो वायुकायिक जीवों की रक्षा है। डोरा डालकर उसका प्रयोग करना मात्र एक सुविधा की बात है। एकता की दृष्टि से इस समस्या का हल यही हो सकता है प्रवचन आदि के प्रसंगों पर उसे बाँधा जाये, अन्य अवसरों पर बातचीत करते समय उसका सावधानीपूर्वक उपयोग किया जाये ।
दया दान के विवाद का प्रश्न
श्वेताम्बर तेरापंथ का जैन समाज के अन्य सम्प्रदायों से मुख्य विवाद दया दान के प्रश्न को लेकर है। यद्यपि आज यह कहा जाता
है कि आचार्य भिक्षु ने स्थानकवासी समाज के साधुओं में आई आचारगत विकृतियों को दूर करने के लिए क्रान्ति की थी, चाहे इस बात में आंशिक सत्यता भी हो किन्तु मूल बात तो विचारगत भिन्नता की थी। मूल प्रश्न यही था कि लोक-मंगल के उन कार्यों को जिनमें अल्पतम हिंसा की भी सम्भावना हो, धर्म के अन्तर्गत माना जाये अथवा नहीं? आचार्य भिक्षु ने ऐसे कार्यों को स्पष्टरूप से धर्म-साधना के अन्तर्गत नहीं माना था। चाहे उनकी इस मान्यता के पीछे निरपेक्ष अहिंसा के सिद्धान्त का और तत्सम्बन्धी सूत्रकृतांग आदि के कुछ आगमिक प्रमाणों का बल भी हो, किन्तु यह अवधारणा मनुष्य की जन-कल्याणकारी प्रवृत्तियों के विरोध में जाती है और लोक-व्यवहार में जैनधर्म को आलोचना का विषय बनाती है। यही कारण है कि तेरापंथ-परम्परा के व्यवहार कुशल आचार्य तुलसी ने इस वास्तविकता को समझा और लोक व्यवहार के नाम पर ही सही, लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियों को अपने धर्म लोक में प्रोत्साहित किया है। इस सम्बन्ध में कट्टर तेरापंथियों ने उनकी आलोचना भी की है। किन्तु उन्होंने साहसपूर्वक यह परिवर्तन किया है। राणावास की शिक्षा संस्थाएँ और लाडनूं का आयुर्वेदिक चिकित्सा केन्द्र इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। आज कोई भी तेरापंथी मुनि अन्य सम्प्रदाय के मुनियों को आहार देना या असंयती जनों की सेवा करना पाप है। - ऐसा स्पष्ट उद्घोष नहीं करता है। यह एक शुभ लक्षण है --इसके कारण तेरापंथ और दूसरे जैन-सम्प्रदायों के बीच की दूरी कम हुई है और वह जन साधारण में आलोचना का विषय बनने से बचा है । व्यवहार के क्षेत्र में सेवा और दान का महत्त्व है, इतना तो हमें मानकर चलना होगा ।
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एकता की बात करना सहज है किन्तु वह एकता किस प्रकार सम्भव होगी, यह बता पाना कठिन है। एकता का एक रूप तो वह हो सकता है जिसमें सभी अपने नाम रूप खोकर एक हो जायें अर्थात् सभी सम्प्रदाय विलीन होकर जैनधर्म और समाज का एक ही रूप अस्तित्व में रहे । एकता का यह स्वरूप आदर्श तो हो सकता है किन्तु इसकी व्यवहार्यता सन्देहास्पद है। आज सम्प्रदायों की जड़ें इतनी गहरी जम चुकी हैं कि उन्हें पूरी तरह उखाड़ पाना सम्भव नहीं है। सम्प्रदायों के अस्तित्व के साथ ही लोगों के हित और सम्मान के प्रश्न जुड़े हुए हैं। बाहर से चाहे हम सब एकता की बातें करें किन्तु भीतर से कोई भी अपने अस्तित्व और अहं को विलीन करने को तैयार नहीं हैं। जब भी हमें अपने हितों या अस्तित्व के प्रति खतरा नजर आता है, हम 'धर्म खतरे में हैं' का नारा लगाना प्रारम्भ कर देते हैं। जब आज हम एक मूर्ति या मन्दिर पर से भी अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहते हैं, तो क्या यह सम्भव है कि हम अपनी सम्पूर्ण सामाजिक एवं धार्मिक सम्पत्ति को समर्पित करने को सहज ही तैयार हो जाएँगे जय स्थानकवासी मुनि वर्ग की अपनी बनाई हुई एकता को कायम नहीं रख सका तो यह कैसे कहा जा सकता है कि सभी सम्प्रदायों के मुनि और श्रावक अपनी-अपनी
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - समाज एवं संस्कृति -
धारणाओं को त्याग कर एक सूत्र में बँध जाएँगें ।
का एक न्यायाधिकरण (पंचायत) बना दिया जाए और सभी विवाद उसे जैन-समाज में और विशेषरूप से स्थानकवासी समाज में अभी सुपुर्द कर दिये जायें । वह विवादों के तथ्यों की समीक्षा करके अन्त में भी कुछ ऐसे आचार्य एवं प्रमुख मुनिगण हैं जो दूसरे सम्प्रदाय के जो निर्णय दे, उसे मान्य कर लिया जाए । मूर्ति और मन्दिर सम्बन्धी आचार्यों एवं मुनियों के साथ बैठने, प्रवचन देने, उनसे विचार-चर्चा निर्णयों में जैसा कि पूर्व में तीर्थंकर के सम्पादक डॉ० नेमीचंदजी ने करने में अपने सम्यक्त्व की हानि समझते हैं । हमारा अहं एक पाट सूचित किया था - पुरातत्त्वविदों की सहायता ली जा सकती है । स्पष्ट से भी सन्तुष्ट नहीं होता-पाट पर पाट लगाया जाता हैं जबकि कहीं एवं तथ्यात्मक साक्ष्यों के आधार पर जिन विवादों का निराकरण सम्भव आर्यिकाओं को और कहीं तो सामान्य मुनियों को भी उनके सम्मुख भूमि न हो, उनके सम्बन्ध में विभाजन की नीति अपना ली जाए । इस सम्बन्ध पर बैठना होता हैं । अनेक में यह ललक होती है कि दूसरे समाज के में यदि दोनों सम्प्रदाय के लोग उदारदृष्टि का परिचय दें, तो यह प्रतिष्ठित आचार्य, विद्वान् और राजनेता उनके समीपं तो आयें किन्तु उन्हें असम्भव नहीं है। बराबरी का आसन देने में हम संकोच का अनुभव करते हैं । अनेक बार (२) परस्पर एक दूसरे की आलोचना, पर्चेबाजी या एक दूसरे ऐसी घटनाएँ आलोचना का विषय बनी हैं और उन्होंने पारस्परिक के विरुद्ध समाचार पत्रों में लेखन बन्द कर दिया जाए। वैमनस्य की खाई को अधिक चौड़ा किया है । अपने को सम्यक्तवी (३) विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों के पारस्परिक मिलन एवं अपने को संयती (साधु) और दूसरे को असंयती (साधु), अपने को सामूहिक प्रवचनों के लिए प्रयास किये जाएँ । वे मिलन के समय एक शुद्धाचारी और दूसरों को शिथिलाचारी मानना या कहना भी भावात्मकता. दूसरे को समान भाव से आदर प्रदान करें । प्रवचन-मंच पर सभी को की सबसे बड़ी बाधा है, अत: इस दृष्टि को सबसे पहले छोड़ना होगा। बराबरी का स्थान दिया जाए। मुनि-आचार में तरतमता महावीर से लेकर आज तक रही है और भविष्य (४) महावीर जयन्ती, क्षमापना आदि पर्वो को सामूहिक रूप में भी रहेंगी। किन्तु व्यावहारिक जीवन में यदि इस आधार पर भेदभाव से मनाया जाये । पर्व-तिथियों, संवत्सरी आदि की एकरूपता का प्रयत्न किया जाएगा, तो सामाजिक एकता खण्डित होगी । क्या एक ही किया जाये। सम्प्रदाय के सभी साधु ज्ञान, तपस्या, साधना आदि की दृष्टि से समान (५) सर्व सम्प्रदायों की भारत जैन महामण्डल या जैन महा होते हैं? यदि उनमें तरतमता होते हुए भी उनके प्रति समान व्यवहार सभा जैसी कोई संस्था हो जो पारस्परिक विवादों को सुलझाने के साथ होता है, तो फिर अन्य सम्प्रदायों के प्रति समादर एवं समानता का ही जैन समाज के सामान्य हितों की रक्षा का प्रयत्न करें तथा भावी व्यवहार क्यों नहीं किया जा सकता । यद्यपि यह प्रसत्रता का विषय है एकता के लिए आधारभूमि प्रस्तुत करें। कि आज अधिकांश मुनियों में पारस्परिक मिलन और समादर की भावना दूसरे चरण में हमें विभिन्न उपसम्प्रदायों एवं गच्छों के विलीनीकरण बढ़ी है और इसके सुफल भी सामने आये हैं, पुरानी कटुता और का प्रयास करना होगा -- अर्थात् स्थानकवासी, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक एवं आलोचना-प्रत्यालोचना में कमी हुई है, फिर भी अभी ऐसे प्रयत्नों की तेरापन्थी अपने आवान्तर मतभेदों को त्यागकर अपना संगठन तैयार आवश्यकता है जिससे विविध सम्प्रदाय के आचार्य एक दूसरे के निकट करें। इसी चरण में दिगम्बर-सम्प्रदाय भी अपने आवान्तर भेदों को । आ सकें ताकि भावात्मक एकता की दिशा में हम आगे बढ़ सके। हमारी समाप्त कर एकरूप हो जायें । यह कार्य दुःसाध्य तो नहीं है, किन्तु एकरूपता के आदर्श स्वरूप का प्रस्तुतीकरण तो हमने विवादस्पद श्रमसाध्य अवश्य है । प्रबुद्ध मुनियों की देखरेख में निष्पक्ष विद्वानों की प्रश्नों की चर्चा करते हुए किया है, किन्तु उनकी व्यवहार्यता आज ऐसी समिति बना दी जाये जो प्रत्येक सम्प्रदाय के लिए आगम और कितनी होगी? यह बता पाना कठिन है। अत: एकता के आदर्श की वर्तमान परिस्थिति दोनों को ध्यान में रखकर एक आचार संहिता प्रस्तुत
ओर बढ़ने के लिए हमें कुछ चरण निश्चित कर लेने होंगें । प्रथम चरण करे। जब धीरे-धीरे इन आवान्तर सम्प्रदायों के संगठन सुदृढ़ हो जायें में हमें वे कार्य करने होगें, जिनसे पारस्परिक कटुता कम को । इस तो अन्त में तीसरे चरण में सर्व सम्प्रदायों के विलीनीकरण के लिए सम्बन्ध में निम्न उपाय करने होंगे
जैनधर्म का सर्वमान्य स्वरूप प्रस्तुत किया जाये और चारों सम्प्रदाय (१) मूर्तियों, मन्दिरों और तीर्थों अथवा अन्य सम्पत्ति अपने नाम-रूपों को विलीन कर उस एक ही महासंघ के अंग बन सम्बन्धी विवाद यथाशीघ्र निपटा लिये जाएँ । इसके लिए निष्पक्ष लोगों जायें।
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जैन-धर्म में नारी की भूमिका
- भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में श्रमण-परम्परा विवेक- कालावधि ईसा की ५वीं शती से बारहवीं शती तक है। उसमें भी अपने प्रधान एवं क्रान्तिधर्मी रही है । उसने सदैव ही विषमतावादी और युग के सन्दर्भो के साथ आगम युग के सन्दर्भ भी मिल गये हैं। इसके वर्गवादी अवधारणाओं के स्थान पर समतावादी जीवन-मूल्यों को अतिरिक्त इन आगमिक व्याख्याओं में कुछ ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं, स्थापित करने का प्रयास किया है । जैन-धर्म भी श्रमण-परम्परा का ही जिनका मूल स्रोत, न तो आगमों में और न व्याख्याकारों के समकालीन एक अंग है अत: उसमें भी नर एवं नारी की समता पर बल दिया गया समाज में खोजा जा सकता है, यद्यपि वे आगमिक व्याख्याकारों की और स्त्री के दासी या भोग्या स्वरूप को नकार कर उसे पुरुष के समकक्ष मन:प्रसूत कल्पना भी नहीं कहे जा सकते हैं । उदाहरण के रूप में ही माना गया है। फिर भी यह सत्य है कि जैन धर्म और संस्कृति का मरुदेवी, ब्राह्मो, सुन्दरी तथा पार्श्वनाथ की परम्परा की अनेक साध्वियों विकास भी भारतीय संस्कृति के पुरुष-प्रधान परिवेश में ही हुआ है, से सम्बन्धित विस्तृत विवरण, जो आगमिक व्याख्या-ग्रन्थों में उपलब्ध फलतः क्रान्तिधर्मी होते हुए भी वह अपनी सहगामी ब्राह्मण-परम्परा के हैं, वे या तो आगमों में अनुपलब्ध हैं या मात्र संकेत रूप में उपलब्ध व्यापक प्रभाव से अप्रभावित नहीं रह सकी और उसमें भी विभिन्न कालों हैं, किन्तु हम यह नहीं मान सकते हैं कि ये आगमिक व्याख्याकारों की में नारी की स्थिति में परिवर्तन होते रहे।
मन:प्रसूत कल्पना है। वस्तुत: वे विलुप्त पूर्व साहित्य के ग्रन्थों से था यहाँ हम आगमों और व्याख्या साहित्य के आधार पर जैनाचार्यों अनुश्रुति से इन व्याख्याकारों को प्राप्त हुए हैं । अतः आगमों और की दृष्टि में नारी की क्या स्थिति रही है इसका मूल्यांकन करेंगे, किन्तु आगमिक व्याख्याओं के आधार पर नारी का चित्रण करते हुए हम यह इसके पूर्व हमें इस साहित्य में उपलब्ध सन्दर्भो की प्रकृति को समझ नहीं कह सकते कि वे केवल आगमिक व्याख्याओं के युग के सन्दर्भ लेना आवश्यक है। जैन आगम-साहित्य एक काल की रचना नहीं है। हैं, अपितु उनमें एक ही साथ विभिन्न कालों के सन्दर्भ उपलब्ध हैं। वह ईसा पूर्व पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पाँचवी शती तक अर्थात् अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उन्हें निम्न काल-खण्डों में विभाजित एक हजार वर्ष की सुदीर्घ कालावधि में निर्मित, परिष्कारित और किया जा सकता है - परिवर्तित होता रहा है अत: उसके समग्र सन्दर्भ एक ही काल के नहीं १. पूर्व युग - ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक । हैं । पुन: उनमें भी जो कथा-भाग है, वह मूलतः अनुश्रुतिपरक और २. आगम-युग • ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर ई० सन् की प्रागैतिहासिक काल से सम्बन्ध रखता है । अत: उनमें अपने काल से पाँचवीं शताब्दी तक । भी पूर्व के अनेक तथ्य उपस्थित हैं जो अनुश्रुति से प्राप्त हुए हैं। उनमें ३. प्राकृत-आगमिक व्याख्या-युग • ईसा की पाँचवी शताब्दी से कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जिनकी ऐतिहासिकता विवादास्पद हो सकती है आठवीं शताब्दी तक ।
और उन्हें मात्र पौराणिक कहा जा सकता है । जहाँ तक आगमिक ४. संस्कृत-आगमिक -व्याख्या एवं पौराणिक कथा-साहित्य व्याख्या-साहित्य का सम्बन्ध है, वह मुख्यतः आगम-ग्रन्थों पर प्राकृत युग - आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक । एवं संस्कृत में लिखी गयी टीकाओं पर आधारित है अत: इसकी इसी सन्दर्भ में एक कठिनाई यह भी है कि इन परवी आगमों
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के रूप में मान्य ग्रन्थों तथा प्राकृत एवं संस्कृत आगमिक व्याख्याओं का आदि से युक्त शारीरिक संरचना स्त्रीलिंग है, यही द्रव्य-स्त्री हैं, जबकि काल लगभग एक सहस्राब्दी अर्थात् ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से पुरुष के साथ सहवास की कामना को अर्थात् स्त्रियोचित काम-वासना लेकर ईसा की बारहवीं शताब्दी तक व्याप्त है । पुन: कालविशेष में भी को वेद कहा गया है। वही वासना की वृत्ति भाव-स्त्री है । जैन जैन-विचारकों का नारी के सन्दर्भ में समान दृष्टिकोण नहीं है। प्रथम तो आगमिक व्याख्या-साहित्य में स्त्री की काम-वासना के स्वरूप को उत्तर और दक्षिण भारत की सामाजिक परिस्थिति की भिन्नता के कारण चित्रित करते हुए उसे उपलअग्निवत् बताया गया है । जिस प्रकार
और दूसरे श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं के भेद के कारण इस युग उपल-अग्नि के प्रज्वलित होने में समय लगता है किन्तु प्रज्वलित होने के जैन आचार्यों का दृष्टिकोण नारी के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न रहा है। पर चालना करने पर बढ़ती जाती है, अधिक काल तक स्थायी रहती जहाँ उत्तर भारत के यापनीय एवं श्वेताम्बर जैन आचार्य नारी के सम्बन्ध है उसी प्रकार स्त्री की काम-वासना जाग्रत होने में समय लगता है, में अपेक्षाकृत उदार दृष्टिकोण रखते हैं, वहीं दक्षिण भारत के दिगम्बर किन्तु जाग्रत होने पर चालना करने से बढ़ती जाती है और अधिक स्थायी जैन आचार्यों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अनुदार प्रतीत होता है । इसके होती है। जैनाचार्यों का यह कथन एक मनोवैज्ञानिक सत्य लिए हुए लिए अचेलता का आग्रह और देशकालगत परिस्थितियाँ दोनों ही है । यद्यपि लिंग और वेद अर्थात् शारीरिक संरचना और तत्सम्बन्धी उत्तरदायी रही हैं, अत: आगमिक व्याख्या-साहित्य के आधार पर नारी कामवासना सहगामी माने गये हैं, फिर भी सामान्यतया जहाँ लिंग शरीर की स्थिति का चित्रण करते समय हमें बहुत ही सावधानीपूर्वक तथ्यों पर्यन्त रहता है, वहाँ वेद (कामवासना) आध्यात्मिक विकास की एक का विश्लेषण करना होगा । पुनः आगमिक व्याख्या-साहित्य और जैन विशेष अवस्था में समाप्त हो जाता है। जैन-कर्मसिद्धान्त में लिंग का पौराणिक कथा-साहित्य दोनों में ही नारी-सम्बन्ध में जो सन्दर्भ उपलब्ध कारण नामकर्म (शारीरिक संरचना के कारक तत्त्व) और वेद का कारण हैं. वे सब जैन आचार्यों द्वारा अनुशंसित थे, यह मान लेना भी भ्रान्त मोहनीयकर्म (मनोवृत्तियाँ) माना गया है। इस प्रकार लिंग, शारीरिक धारणा होगी । जैन आचार्यों ने अनेक ऐसे तथ्यों को भी प्रस्तुत किया संरचना का और वेद मनोवैज्ञानिक स्वभाव और वासना का सूचक है है जो यद्यपि उस युग में प्रचलित रहे हैं, किन्तु वे जैन-धर्म की धार्मिक तथा शारीरिक परिवर्तन से लिंग में और मनोभावों के परिवर्तन से वेद मान्यताओं के विरोधी हैं । उदाहरण के रूप में बहु-विवाह-प्रथा, में परिवर्तन सम्भव है । निशीथचूर्णि (गाथा ३५९) के अनुसार लिंगवेश्यावृत्ति, सतीप्रथा, स्त्री के द्वारा मांस-भक्षण एवं मद्यपान आदि के परिवर्तन से वेद (वासना) में भी परिवर्तन हो जाता है इस सम्बन्ध में उल्लेख हमें आगमों एवं आगमिक व्याख्या-साहित्य में उपलब्ध होते हैं, सम्पूर्ण कथा द्रष्टव्य है । जिसमें शारीरिक संरचना और स्वभाव की दृष्टि किन्तु वे जैनधर्मसम्मत थे, यह नहीं कहा जा सकता । वस्तुत: इस से स्त्रीत्व हो, उसे ही स्त्री कहा जाता है । सूत्रकृतांग-नियुक्ति में स्त्रीत्व साहित्य में लौकिक एवं धार्मिक दोनों ही प्रकार के सन्दर्भ हैं जिन्हें के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रजनन, कर्म, भोग, गुण और भाव अलग-अलग रूपों में समझना आवश्यक है।
ये दस निक्षेप या आधार माने गये हैं, अर्थात् किसी वस्तु के स्त्री कहे अत: नारी के सम्बन्ध में जो विवरण हमें आगमों और जाने के लिए उसे निम्न या एकाधिक लक्षणों से युक्त होना आगमिक व्याख्या-साहित्य में उपलब्ध होते हैं, उन्हें विभिन्न काल खण्डों आवश्यक है, में विभाजित करके और उनके परम्परासम्मत और लौकिक स्वरूप का विश्लेषण करके ही विचार करना होगा । तथापि उनके गम्भीर विश्लेषण यथा - से हमें जैनधर्म में और भारतीय समाज में विभिन्न कालों में नारी की क्या (१) स्त्रीवाचक नाम से युक्त होना जैसे - रमा, श्यामा आदि । स्थिति थी, इसका एक ऐतिहासिक परिचय प्राप्त हो जाता है। (२) स्त्री रूप में स्थापित होना जैसे - शीतला आदि की स्त्री आकृति
से युक्त या रहित प्रतिमा । नारी-लक्षण
(३) द्रव्य - अर्थात् शारीरिक संरचना का स्त्री रूप होना ।। नारी की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति की चर्चा के (४) क्षेत्र - देश-विदेश की परम्परानुसार स्त्री की वेशभूषा से युक्त होने पूर्व हमें यह भी विचार कर लेना है कि आगमिक व्याख्याकारों की दृष्टि पर उस देश में उसे स्त्रीरूप में समझा जाता है । में नारी शब्द का तात्पर्य क्या रहा है। सर्वप्रथम सूत्रकृतांग नियुक्ति और (५) काल- जिसने भूत, भविष्य या वर्तमान में से किसी भी काल चूर्णि में नारी शब्द के तात्पर्य को स्पष्ट किया गया है । स्त्री को द्रव्य में स्त्री-पर्याय धारण की हो, उसे उस काल की अपेक्षा से स्त्री स्त्री और भावस्त्री ऐसे दो विभागों में वर्गीकृत किया गया है।' कहा जा सकता है। द्रव्य-स्त्री से जैनाचार्यों का तात्पर्य स्त्री की शारीरिक संरचना (शारीरिक (६) प्रजनन क्षमता से युक्त होना । चिह्न) से है, जबकि भाव-स्त्री का तात्पर्य नारी-स्वभाव (भेद) से है। (७) स्त्रियोचित कार्य करना । आगम और आगमिक व्याख्याओं दोनों में ही स्त्री-पुरुष के वर्गीकरण का (८) स्त्रो रूप में भोगी जाने में समर्थ होना । आधार लिंग और वेद माने जाते रहे हैं । जैन-परम्परा में स्त्री की शारीरिक (९) स्त्रियोचित गुण होना और संरचना को लिंग कहा गया है । रोमरहित मुख, स्तन, योनि, गर्भाशय (१०) स्त्री सम्बन्धी वासना का होना ।
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जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी- चरित्र का विकृत पक्ष
युक्त महाजंगल की भाँति दुर्गम्य, कुल, स्वजन और मित्रों से विग्रह जैनाचार्यों ने नारी-चरित्र का गम्भीर विश्लेषण किया है। कराने वाली, परदोष-प्रकाशिका, कृतघ्ना, वीर्यनाशिका, शूकरवत् जिस नारी-स्वभाव का चित्रण करते हुए सर्वप्रथम जैनागमग्रन्थ तन्दुलवैचारिक प्रकार शूकर खाद्य-पदार्थ को एकान्त में ले जाकर खाता है उसी प्रकार प्रकीर्णक में नारी की स्वभावगत निम्न ९४ विशेषताएं वर्णित हैं - भोग हेतु पुरुष को एकान्त में ले जाने वाली, अस्थिर स्वभाव वाली,
नारी स्वभाव से विषम, मधुर वचन की वल्लरी, कपट-प्रेम जिस प्रकार अग्निपात्र का मुख आरम्भ में रक्त हो जाता है किन्तु रूपी पर्वत, सहस्रों अपराधों का घर, शोक-उद्गमस्थली, पुरुष के बल अन्ततोगत्वा काला हो जाता है उसी प्रकार नारी आरम्भ में राग उत्पन्न के विनाश का कारण, पुरुषों की वधस्थली अर्थात् उनकी हत्या का करती है परन्तु अन्ततः उससे विरक्ति ही उत्पन्न होती है, पुरुषों के मैत्री कारण, लज्जा-नाशिका, अशिष्टता का पुज, कपट का घर, शत्रुता की विनाशादि की जड़, बिना रस्सी की पाग, काष्ठरहित वन की भाँति पाप खान, शोक की ढेर, मर्यादा की नाशिका, कामराग की आश्रय-स्थली, करके पाश्चाताप में जलती नहीं है, कुत्सित कार्य में सदैव तत्पर, दुराचरणों का आवास, सम्मोह की जननी, ज्ञान का स्खलन करने वाली, अधार्मिक कृत्यों की वैतरणी, असाध्य व्याधि, वियोग पर तोत्र दुःखी शील को विचलित करने वाली, धर्मयाग में बाधा रूप, मोक्षपथ साधकों न होने वाली, रोगरहित उपसर्ग या पीड़ा, रतिमान के लिए मनोभ्रम की शत्रु, ब्रह्मचर्यादि आचार-मार्ग का अनुसरण करने वालों के लिए कारण, शरीर-व्यापी दाह का कारण, बिना बादल बिजली के समान, दूषण रूप, काम को वाटिका, मोक्षपथ की अर्गला, दरिद्रता का घर, बिना जल के प्रवाहमान और समुद्रवेग की भाँति नियन्त्रण से परे कही विषधर सर्प की भाँति कुपित होने वाली, मदमत्त हाथी की भाँति गई है । तन्दुलवैचारिक की वृत्ति में इनमें से अधिकांश गुणों के सम्बन्ध • कामविह्वला, व्याघ्री की भाँति दुष्ट हृदय वाली, ढंके हुए कूप की भाँति में एक-एक कथा भी दी गई है।
अप्रकाशित हृदय वाली, मायावी की भाँति मधुर वचन बोलकर स्वपाश - उत्तराध्ययनचूर्णिी में भी स्त्री को समुद्र की तरंग के समान में आबद्ध करने वाली, आचार्य की वाणी के समान अनेक पुरुषों द्वारा चपल स्वभाव वाली, सन्ध्याकालीन आभा के समान क्षणिक प्रेम वाली एक साथ ग्राह्य, शुष्क कण्डे की अग्नि की भाँति पुरुषों के अन्त: करण और अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर पुरुष का परित्याग कर देने वाली में ज्वाला प्रज्जलित करने वाली, विषम पर्वतमार्ग की भाँति असमतल कहा गया है । आवश्यक भाष्य और निशीथचूर्णि में भी नारी के चपल अन्त:-करण वाली, अन्तर्दूषित घाव की भाँति दुर्गन्धित हृदय वाली, स्वभाव और शिथिल चरित्र का उल्लेख हुआ है। निशीथचूर्णि में यह कृष्ण सर्प की तरह अविश्वसनीय, संसार (भैरव) के समान मायावी, भी कहा गया है कि स्त्रियाँ थोड़े से उपहारों से ही वशीभूत की जा सन्ध्या की लालिमा की भाँति क्षणिक प्रेम वाली, समुद्र की लहरों की सकती हैं और पुरुषों को विचलित करने में सक्षम होती हैं । भाँति चंचल स्वभाव वाली, मछलियों की भाँति दुष्परिवर्तनीय स्वभाव आचारांगचूर्णि एवं वृत्ति में उसे शीतपरिषह कहा गया है अर्थात् अनुकूल वाली, बन्दरों के समान चपल स्वभाव वाली, मृत्यु की भाँति निर्विरोध लगते हुए भी त्रासदायी होती है । १२ काल के समान दयाहीन, वरुण के समान पाशुयक्त अर्थात् पुरुषों को
सूत्रकृतांग में कहा गया है कि स्त्रियाँ पापकर्म नहीं करने का कामपाश में बाँधने वाली, जल के समान अधोगामिनी, कृपण के समान वचन देकर भी पुन: अपकार्य में लग जाती हैं । १३ इसकी टीका में रिक्त हस्त वाली, नरक के समान दारुणत्रासदायिका, गर्दभ के सदृश टीकाकार ने कामशास्त्र का उदाहरण देकर कहा है कि जैसे दर्पण पर दुष्टाचार वाली, कुलक्षणयुक्त घोड़े के समान लज्जारहित व्यवहार पड़ी हुई छाया दुह्यि होती है वैसे ही स्त्रियों के हृदय दुर्ग्राह्य होते हैं। वाली, बाल-स्वभाव के समान चंचल अनुराग वाली, अन्धकारवत् पर्वत के दुर्गम मार्ग के समान ही उनके हृदय का भाव सहसा ज्ञात नहीं दुषवेश्य, विष-बेल की भाँति संसर्ग-वर्जित, भयंकर मकर आदि से होता। सूत्रकृतांग-वृत्ति में नारी-चरित्र के विषय में कहा गया है कि अच्छी युक्त वापी के समान दुष्प्रवेश, साधुजनों की प्रशंसा के अयोग्य, विष- तरह जीती हुई, प्रसन्न की हुई और अच्छी तरह परिचित अटवी और स्वी वृक्ष के फल की तरह प्रारम्भ में मधुर किन्तु दारुण अन्तवाली, खाली का विश्वास नहीं करना चाहिए । क्या इस समस्त जीवलोक में कोई मुट्ठी से जिस प्रकार बालकों को लुभाया जाता है उसी प्रकार पुरुषों को अंगुलि उठाकर कह सकता है, जिसने स्त्री की कामना करके दुःख न लुभाने वाली, जिस प्रकार एक पक्षी के द्वारा मांस-खण्ड ग्रहण करने पाया हो ? उसके स्वभाव के सम्बन्ध में यही कहा गया है कि स्त्रियाँ पर अन्य पक्षी उसे विविध कष्ट देते हैं उसी प्रकार के दारुण कष्ट स्त्री मन से कुछ सोचती हैं, वचन से कुछ और कहती हैं तथा कर्म से कुछ को ग्रहण करने पर पुरुषों को होते हैं, प्रदीप्त तृणराशि की भाँति ज्वलन और करती हैं ।।५।। स्वभाव को न छोड़ने वाली, घोर पाप के समान दुर्लघ्य, कूट कार्षापण की भाँति अकालचारिणी, तीव्र क्रोध की भाँति दुर्रक्ष्य, दारुण दुखदायिका, स्त्रियों का पुरुषों के प्रति व्यवहार घृणा की पात्र, दुष्टोपचारा, चपला, अविश्वसनीया, एक पुरुष से बैंधकर स्त्रियाँ पुरुषों को अपने जाल में फँसाकर फिर किस प्रकार न रहने वाली, यौवनावस्था में कष्ट से रक्षणीय, बाल्यावस्था में दुःख उसकी दुर्गति करती हैं उसका सुन्दर एवं सजीव चित्रण सूत्रकृतांग और से पाल्य, उद्वेगशीला, कर्कशा, दारुण वैर का कारण, रूप-स्वभाव उसकी वृत्ति में उपलब्ध होता है । उस चित्रण का संभिप्त रूप निम्न गर्विता, भुजंग के समान कुटिल गति वाली, दुष्ट घोड़े के पद-चिह्न से है।
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जब वे पुरुष पर अपना अधिकार जमा लेती हैं तो फिर उसके से यह कहा गया हैं -स्त्रियों में जो दोष होते हैं वे दोष नीच पुरुषों में साथ आदेश की भाषा में बात करती हैं । वे पुरुष से बाजार जाकर अच्छे- भी होते हैं अथवा मनुष्यों में जो बल और शक्ति से युक्त होते हैं उनमें अच्छे फल, छुरी, भोजन बनाने हेतु ईंधन तथा प्रकाश करने हेतु तेल स्त्रियों से अधिक दोष होते हैं । जैसे अपने शील की रक्षा करने वाले लाने को कहती हैं । फिर पास बुलाकर महावर आदि से पैर रेंगने और पुरुषों के लिए स्त्रियाँ निन्दनीय हैं, वैसे ही अपने शील की रक्षा करने शरीर में दर्द होने पर उसे मलने को कहती हैं। फिर आदेश देती हैं कि वाली स्त्रियों के लिए पुरुष निन्दनीय हैं । सब जीव मोह के उदय से मेरे कपड़े जीर्ण हो गये हैं, नये कपड़े लाओ तथा भोजन-पेय पदार्थादि कुशील से मलिन होते हैं और वह मोह का उदय स्त्री-पुरुषों में समान लाओ । वह अनुरक्त पुरुष की दुर्बलता जानकर अपने लिए आभूषण, रूप से होता है । अत: ऊपर जो स्त्रियों के दोषों का वर्णन किया गया विशेष प्रकार के पुष्प, बाँसुरी तथा चिरयुवा बने रहने के लिए पौष्टिक है वह सामान्य स्त्री की दृष्टि से है । शीलवती खियों में ऊपर कहे हुए
औषधि की गोली माँगती हैं । तो कभी अगरु, तगर आदि सुगन्धित दोष कैसे हो सकते हैं ? १८ द्रव्य, अपनी प्रसाधन-सामग्री रखने हेतु पेटी, ओष्ठ रंगने हेतु चूर्ण, छाता, जूता आदि माँगती हैं। वह अपने वस्त्रों को गवाने का आदेश जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी-चरित्र का उज्ज्वल पक्ष
: हैं तथा नाक के केशों को उखाड़ने के लिए चिमटी, केशों के लिए स्त्रियों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है - जो गुणसहित कंघी, मुख-शुद्धि हेतु दातौन आदि लाने को कहती हैं । पुन: वह अपने स्त्रियाँ हैं, जिनका यश लोक में फैला हुआ है तथा जो मनुष्य-लोक में प्रियतम से पान, सुपारी, सुई, धागा, मूत्रविसर्जन-पात्र, सूप, ऊखल देवता समान हैं और देवों से पूजनीय हैं, उनकी जितनी प्रशंसा की जाये आदि तथा देव-पूजा हेतु ताम्रपात्र और मद्यपान हेतु मद्य-पात्र माँगती कम है । तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, और श्रेष्ठ गणधरों को हैं । कभी वे अपने बच्चों के खेलने हेतु मिट्टी की गुड़िया, बाजा, जन्म देने वाली महिलाएँ श्रेष्ठ देवों और उत्तम पुरुषों के द्वारा पूजनीय झनझुना, गेंद आदि मैंगवाती हैं और गर्भवती होने पर दोहद-पूर्ति के होती हैं । कितनी ही महिलाएं एक-पतिव्रत और कौमार्य ब्रह्मचर्य-व्रत लिए विभिन्न वस्तुएँ लाने का आदेश देती हैं। कभी वे उसे वस्त्र धोने धारण करती हैं कितनी ही जीवनपर्यंत वैधव्य का तीव्र दुःख भोगती का आदेश देती हैं, कभी रोते हुए बालक को चुप कराने के लिए कहती हैं। ऐसी भी कितनी शीलवती स्त्रियाँ सुनी जाती हैं जिन्हें देवों के द्वारा
सम्मान आदि प्राप्त हुआ तथा जो शील के प्रभाव से. शाप देने और इस प्रकार कामिनियाँ दास की तरह वशवर्ती पुरुषों पर अपनी अनुग्रह करने में समर्थ थीं। कितनी ही शीलवती स्त्रियाँ महानदी के जल आज्ञा चलाती हैं । वे उनसे गधे के समान काम करवाती हैं और काम प्रवाह में भी नहीं डूब सकी और प्रज्वलित घोर आग में भी नहीं जल न करने पर झिड़कती हैं, आँखें दिखाती हैं तो कभी झूठी प्रशंसा कर सकी तथा सर्प, व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके । कितनी ही उससे अपना काम निकालती हैं।
स्त्रियाँ सर्वगुणों से सम्पन्न साधुओं और पुरुषों से श्रेष्ठ चरमशरीरी पुरुषों यद्यपि नारी-स्वभाव का यह चित्रण वस्तुतः उसके घृणित पक्ष को जन्म देने वाली माताएँ हुई हैं । १९ अन्तकृद्दशा और उसकी वृत्ति का हो चित्रण करता है किन्तु इसकी आनुभविक सत्यता से इन्कार भी में कृष्ण द्वारा प्रतिदिन अपनी माताओं के पाद-वन्दन हेतु जाने का नहीं किया जा सकता । परन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि नारी उल्लेख है ।२ आवश्यकचूर्णि और कल्पसूत्र-टीका में उल्लेख है कि के प्रति जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अनुदार ही था, उचित नहीं होगा । जैन- महावीर ने अपनी माता को दुःख न हो, इस हेतु उनके जीवित रहते धर्म मूलत: एक निवृत्तिपरक धर्म रहा है, निवृत्तिपरक होने के कारण संसार-त्याग नहीं करने का निर्णय अपने गर्भकाल में ले लिया था ।२१ उसमें संन्यास और वैराग्य पर विशेष बल दिया गया है । संन्यास और इस प्रकार नारी वासुदेव और तीर्थंकर द्वारा भी पूज्य मानी गयी है। वैराग्य के लिए यह आवश्यक था कि पुरुष के सामने नारी का ऐसा चित्र महानिशीथ में कहा गया है कि जो स्त्री भय, लोकलज्जा, कुलांकुश एवं प्रस्तुत किया जाय जिसके फलस्वरूप उसमें विरक्ति का भाव प्रस्फुटित धर्मश्रद्धा के कारण कामाग्नि के वशीभूत नहीं होती है, वह धन्य है, हो । यही कारण था कि जैनाचार्यों ने आगमों और आगमिक व्याख्याओं पुण्यवती है, वंदनीय है, दर्शनीय है, वह लक्षणों से युक्त है, वह
और इतर साहित्य में कठोर शब्दों में नारी-चरित्र की निन्दा की, किन्तु सर्वकल्याणकारक है, वह सर्वोत्तम मंगल है, (अधिक क्या) वह (तो इसका यह अर्थ नहीं रहा कि जैनाचार्यों के सामने नारी-चरित्र का साक्षात् ) श्रुत देवता है, सरस्वती है, अच्युता है........ परम पवित्र उज्ज्वलतम पक्ष नहीं रहा है । सूत्रकृतांग-नियुक्ति में स्पष्ट रूप से यह सिद्धि, शाश्वत शिवगति है । (महानिशीथ, २/सूत्र २३, पृ० ३६) कहा गया है जो शील-प्रध्वंसक चरित्रगत दोष नारी में पाये जाते हैं वे जैनधर्म में तीर्थंकर का पद सर्वोच्च माना जाता हैं और पुरुषों में भी पाये जाते हैं इसलिए वैराग्य मार्ग में प्रवर्तित स्त्रियों को भी श्वेताम्बर परम्परा ने मल्ली कुमारी को तीर्थकर माना है ।२२ इसिमण्डलत्यू पुरुषों से उसी प्रकार बचना चाहिए जिस प्रकार स्त्रियों से पुरुषों को बचने (ऋषिमण्डल स्तवन) में ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दना आदि को वन्दनीय माना का उपदेश दिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों गया है ।२३ तीर्थंकरों की अधिष्ठायक देवियों के रूप में चक्रेश्वरी, ने नारी-चरित्र का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह मात्र पुरुषों में वैराग्य- अम्बिका, पद्मावती, सिद्धायिका आदि देवियों को पूजनीय माना गया भावना जागृत करने के लिए ही है । भगवती-आराधना में भी स्पष्ट रूप है और उनकी स्तुति में परवर्ती काल में अनेक स्तोत्र रचे गये हैं।
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यद्यपि यह स्पष्ट है कि जैनधर्म में देवी पूजा की पद्धति लगभग गुप्त काल में हिन्दू-परम्परा के प्रभाव से आई है। उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक की चूर्णि में राजीमति द्वारा मुनि रथनेमि को २५ तथा आवश्यक - चूर्णि में ब्राह्मी और सुन्दरी द्वारा मुनि बाहुबली को प्रतिबोधित करने के उल्लेख हैं । न केवल भिक्षुणियाँ अपितु गृहस्थ उपासिकाएँ भी पुरुष को सन्मार्ग पर लाने हेतु प्रतिबोधित करती थीं। उत्तराध्ययन में रानी कमलावती राजा इपुकार को सन्मार्ग दिखाती है, इसी प्रकार उपासिका जयन्ती भरी सभा में महावीर से प्रश्न करती है२८ तो कोशावेश्या अपने आवास में स्थित मुनि को सन्मार्ग दिखाती है, ये तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि जैनधर्म में नारी की अवमानना नहीं की गई। चतुर्विध धर्मसंघ में भिक्षुणीसंघ और श्राविकासंघ को स्थान देकर निर्मन्थ-परम्परा ने स्त्री और पुरुष की समकक्षता को ही प्रमाणित किया है। पार्श्व और महावीर के द्वारा बिना किसी हिचकिचाहट के भिक्षुणी संघ की स्थापना की गई, जबकि बुद्ध को इस सम्बन्ध में संकोच रहा यह भी इसी तथ्य का द्योतक है कि जैनसंघ का दृष्टिकोण नारी के प्रति अपेक्षाकृत उदार रहा है।
जैनसंघ में नारी का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान था इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि उसमें प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान काल तक सदैव ही भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की और गृहस्थ उपासकों की अपेक्षा उपासिकाओं की संख्या अधिक रही है। समवायांग, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र एवं आवश्यकनिर्युक्ति आदि में प्रत्येक तीर्थंकर की भिक्षुणियों एवं गृहस्थ उपासिकाओं की संख्या उपलब्ध होती है। इन संख्यासूचक आंकड़ों में ऐतिहासिक सत्यता कितनी है, यह एक अलग प्रश्न है, किन्तु इससे तो फलित होता है कि जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी जैनधर्म संघ का महत्त्वपूर्ण घटक थी । भिक्षुणियों की संख्या सम्बन्धी ऐतिहासिक सत्यता को भी पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। आज भी जैनसंम में लगभग नौ हजार दो सौ भिक्षु भिक्षुणियों में दो हजार तीन सौ भिक्षु और छह हजार नौ सौ भिक्षुणियाँ हैं । भिक्षुणियों का यह अनुपात उस अनुपात से अधिक ही है जो पार्श्व और महावीर के युग में माना गया है।
पूर्णता और मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया गया है। हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं तथा नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि साहित्य में कहीं भी ऐसा संकेत नहीं मिलता है जिसमें स्त्री मुक्ति का निषेध किया गया हो अथवा किसी ऐसे जैन-सम्प्रदाय की सूचना दी गयी हो जो स्त्रीमुक्ति को अस्वीकार करता है । सर्वप्रथम दक्षिण भारत में कुन्दकुन्द आदि कुछ दिगम्बर आचार्य लगभग पाँचवी- छठी शताब्दी में स्त्री-मुक्ति आदि का निषेध करते हैं। कुन्दकुन्द सुत्तपाहुड में कहते हैं कि स्त्री अचेल (नग्न) होकर धर्मसाधना नहीं कर सकती और सचेल चाहे तीर्थकर भी हो मुक्त नहीं हो सकता ।" इसका तात्पर्य यह भी है कि कुन्दकुन्द स्त्री तीर्थंकर की यापनीय (मूलतः उत्तर भारतीय दिगम्बर संघ) एवं श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित अवधारणा से परिचित थे । यह स्पष्ट है कि पहले स्त्री तीर्थंकर की अवधारणा बनी, फिर उसके विरोध में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया। सम्भवतः सबसे पहले जैनपरम्परा में स्त्रीमुक्ति-निषेध की अवधारणा का विकास दक्षिण भारत में दिगम्बर सम्प्रदाय द्वारा हुआ। क्योंकि सातवीं-आठवीं शताब्दी तक उत्तर भारत के श्वेताम्बर आचार्य जहाँ सचेलता को लेकर विस्तार से चर्चा करते हैं वहाँ स्त्रीमुक्ति के पक्ष-विपक्ष में कोई भी चर्चा नहीं करते हैं । इसका तात्पर्य है कि उत्तर भारत के जैन सम्प्रदायों में लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी तक स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवाद उत्पन्न ही नहीं हुआ था । इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा पं० बेचरदास स्मृति ग्रन्थ में पं० दलसुखभाई, प्रो० ढाकी और मैंने अपने लेख में की है।" यहाँ केवल हमारा प्रतिपाद्य इतना ही है कि स्त्रीमुक्ति का निषेध दक्षिण भारत में पहले और उत्तर भारत में बाद में प्रारम्भ हुआ है क्योंकि श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में लगभग आठवी-नौवीं शताब्दी से स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को विवाद के विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनपरम्परा में भी धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री की समकक्षता किस प्रकार कम होती गयी। सर्वप्रथम तो स्त्री की मुक्ति की सम्भावना" को अस्वीकार किया गया है, फिर नग्नता को ही साधना का सर्वस्व मानकर उसे पांच महाव्रतों के पालन करने के अयोग्य मान लिया गया और उसमें यथाख्यातचारित्र ( सच्चरित्रता की उच्चतम अवस्था) को असम्भव बता दिया गया। सुत्तपाहुड में तो स्पष्ट रूप से स्त्री के लिए प्रव्रज्या का निषेध कर दिया गया। दिगम्बर-परम्परा में स्त्री को जिन कारणों से प्रव्रज्या और मोक्ष के अयोग्य बताया गया है, वे निम्न हैं१. स्त्री की शरीर रचना ही ऐसी है कि उससे रक्तस्राव होता है, उस पर बलात्कार सम्भव है अतः वह अचेल या नग्न नहीं रह सकती। चूंकि स्त्री अचेल या नग्न नहीं हो सकती, दूसरे शब्दों में वह पूर्ण परिग्रह का त्याग किये बिना उसके द्वारा महाव्रतों का ग्रहण एवं मुक्ति प्राप्ति सम्भव नहीं हो सकती ।
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धर्मसाधना के क्षेत्र में स्त्री और पुरुष की समकक्षता के प्रश्न पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं । सर्वप्रथम उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृद्दशा · आदि आगमों में स्पष्ट रूप से स्त्री और पुरुष दोनों को ही साधना के सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति प्राप्ति के लिए सक्षम माना गया है। उत्तराध्ययन में स्त्रीलिंग सिद्ध का उल्लेख है ।" ज्ञाता," अन्तवृद्दशा एवं आवश्यक चूर्ण में भी अनेक स्त्रियों के मुक्त होने का उल्लेख है। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में आगमिक काल से लेकर वर्तमान तक स्त्री मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार कर साधना के क्षेत्र में दोनों को समान स्थान दिया गया है। मात्र इतना ही नहीं यापनीय परम्परा के ग्रन्थ में भी जो कि दिगम्बरों में भी आगम रूप षट्खण्डागम और मूलाचार में मान्यता प्राप्त हैं, स्त्री-पुरुष दोनों में क्रमश: आध्यात्मिक विकास की
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२. स्त्री करुणा प्रधान है, उसमें तीव्रतम क्रूर अध्यवसायों का अभाव होता है अतः निम्नतम गति सातवें नरक में जाने के अयोग्य होती है। जैनाचार्यों की इस उदार और मनोवैज्ञानिक मान्यता के आधार पर दिगम्बर- परम्परा ने यह मान लिया कि तीव्र पुरुषार्थ के अभाव में जो
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निम्नतम गति में नहीं जा सकती, अत: वह उच्चतम गति में भी नहीं आगमिक व्याख्याओं के काल में जैन-परम्परा में भी पुरुष की महत्ता बढ़ी जा सकती । अतः स्त्री की मुक्ति सम्भव नहीं । और ज्येष्ठकल्प के रूप में व्याख्यायित किया गया। अंग-आगमों में मुझे एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला जिसमें साध्वी अपनी प्रवर्तिनी आचार्य और तीर्थंकर के अतिरिक्त दीक्षा में कनिष्ठ भिक्षु को वन्दन या नमस्कार करती हो, किन्तु परवर्ती आगम एवं आगमिक व्याख्यासाहित्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी के लिए भी सद्यः दीक्षित मुनि वन्दनीय है। (बृहत्कल्पभाष्य भाग ६ गावा ६३९९ ; कल्पसूत्र कल्पलता टीका) । सम्भवतः जैन- परम्परा में पुरुष की ज्येष्ठता का प्रतिपादन बौद्धों के अष्टगुरु धर्मों के कारण ही हुआ हो ।
३. यह भी कहा गया है कि चंचल स्वभाव के कारण स्त्रियों ध्यान की स्थिरता नहीं होती है, अतः वे आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकतीं ।
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जैनधर्म संघ में नारी की महत्ता को यथासम्भव सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया गया है । मथुरा में उपलब्ध अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि धर्मकार्यों में पुरुषों के समान नारियाँ भी समान रूप से भाग लेती थीं। वे न केवल पुरुषों के समान पूजा, उपासना कर सकती थीं, अपितु वे स्वेछानुसार दान भी करती थीं और मन्दिर आदि बनवाने में समान रूप से भागीदार होती थीं। जैन-परम्परा में मूर्तियों पर जो प्राचीन अभिलेख उपलब्ध होते हैं उनमें सामान्य रूप से पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों के नाम भी उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं । ४९ यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में कुछ लोग यह मानते हैं कि स्त्री को जिन प्रतिमा के स्पर्श, पूजन एवं अभिषेक का अधिकार नहीं है, किन्तु यह एक परवर्ती अवधारणा है, यह एक परवर्ती अवधारणा है, मथुरा के जैन-शिल्प में साधु के समान ही साध्वी का अंकन और स्त्री-पुरुष दोनों के पूजा सम्बन्धी सामग्री सहित अंकन यही सूचित करते हैं कि प्राचीन काल में जैन परम्परा में दोनों का समान स्थान रहा है ।
४. एक अन्य तर्क यह भी दिया गया है कि स्त्री में वादसामर्थ्य एवं तीव्र बुद्धि के अभाव के कारण ये दृष्टिवाद के अध्ययन में अयोग्य होती है अतः वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकतीं।
यद्यपि श्वेताम्बर - परम्परा ने भी उन्हें बौद्धिक क्षमता के कारण दृष्टिवाद, अरुणोपपात, निशीथ आदि के अध्ययन के अयोग्य अवश्य माना फिर भी उनमें 'मोक्षप्राप्ति' की क्षमता को स्वीकर किया गया । शारीरिक संरचना के कारण इसके लिए संयम-साधना के उपकरण के रूप में वस्त्र आवश्यक हों किन्तु आसक्ति के अभाव के कारण वह परिग्रह नहीं है, अतः इसमें प्रव्रजित होने एवं मुक्त होने की सामर्थ्य है । ३९
यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि मुनि के अचेलकत्व (दिगम्बर तत्त्व ) की पोषक यापनीय परम्परा ने स्त्री-मुक्ति और पंच महाव्रत आरोपण रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र (स्त्री-दीक्षा) को स्वीकार किया है। उससे वित द्राविड़, काष्ठा और माथुर संघों में भी स्त्री दीक्षा (महानतारोपण) को स्वीकार किया गया है। यद्यपि इस कारण वे मूल संघीय दिगम्बर- परम्परा की आलोचना के पात्र भी बने और उन्हें जैनाभास तक कहा गया। इससे स्पष्ट है कि न केवल श्वेताम्बरों ने अपितु दिगम्बर- परम्परा के अनेक संघों ने भी स्त्री-मुक्ति और स्त्री-दीक्षा को स्वीकार करके नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया था । ४० यह निश्चित ही सत्य है कि आगमिक काल के जैनाचार्यों ने न केवल स्त्री-मुक्ति और स्त्री-दीक्षा को स्वीकार किया, अपितु मल्लि को स्त्री तीर्थकर के रूप में स्वीकार करके यह भी उद्घोषित किया कि आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च पद की अधिकारी नारी भी हो सकती है खी तीर्थंकर की अवधारणा जैनधर्म की अपनी एक विशिष्ट अवधारणा है जो नारी गरिमा को महिमामण्डित करती है ।
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ज्ञातव्य है कि बौद्धपरम्परा जो कि जैनों के समान ही श्रमण धारा का एक अंग थी, स्त्री के प्रति इतनी उदार नहीं बन सकी, जितनी जैन परम्परा । क्योंकि बुद्ध स्त्री को निर्वाण पद की अधिकारिणी मानकर भी यह मानते थे कि स्त्री बुद्धत्व को प्राप्त नहीं कर सकती है। नारी को संघ में प्रवेश देने में उनकी हिचक और उसके प्रवेश के लिए अष्टगुरु धर्मों का प्रतिपादन जैनों की अपेक्षा नारी के प्रति उनके अनुदार दृष्टिकोण का ही परिचायक है। यद्यपि हिन्दू धर्म में शक्ति उपासना के रूप में स्त्री को महत्त्व दिया गया है, किन्तु जैनधर्म में तीर्थंकर की जो अवधारणा है, उसको अपनी एक विशेषता है वह यह सूचित करती है कि विश्व का सर्वोच्च गरिमामय पद पुरुष और स्त्री दोनों ही समान रूप से प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि परवर्ती आगमों एवं आगमिक व्याख्या-साहित्य में इसे एक आश्चर्यजनक घटना कहकर पुरुष के प्राधान्य को स्थापित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया। (स्थानांग, १० / १६० ) किन्तु
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आगमिक व्याख्याकाल में हम देखते हैं कि यद्यपि संघ के प्रमुख के रूप में आचार्य का पद पुरुषों के अधिकार में था, किसी स्त्री के आचार्य होने का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु गणिनी प्रवर्त्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका आदि पद स्त्रियों को प्रदान किये जाते थे और वे अपने भिक्षुणी संघ की स्वतन्त्र रूप से आन्तरिक व्यवस्था देखती थीं। यद्यपि तरुणी भिक्षुणियों की सुरक्षा का दायित्व भिक्षु संघ को सौंपा गया था, किन्तु सामान्यतया भिक्षुणियाँ अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं रखती थीं, क्योंकि रात्रि एवं पदयात्रा में भिक्षु और भिक्षुणियों का एक ही साथ रहना सामान्यतया वर्जित था। इस सुरक्षा के लिए भिक्षुणी संघ में प्रतिहारी आदि के पद भी निर्मित किये गये थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि साधना के क्षेत्र में स्त्री की गरिमा को यथासम्भव सुरक्षित रखा गया फिर भी तथ्यों के अवलोकन से यह निश्चित होता है कि आगभिक व्याख्याओं के युग में और उसके पश्चात् जैन परम्परा में भी स्त्री को अपेक्षा पुरुष को महत्ता दी जाने लगी थी ।
नारी की स्वतन्त्रता
नारी की स्वतन्त्रता को लेकर प्रारम्भ में जैनधर्म का दृष्टिकोण उदार था यौगलिक काल में स्त्री-पुरुष सहभागी होकर जीवन जीते थे। । आगम-ग्रन्थ ज्ञाताधर्मकथा में राजाद्रुपद द्रौपदी से कहते हैं कि मेरे द्वारा
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विवाह किये जाने पर तुझे सुख-दुःख हो सकता है अतः अच्छा हो कि स्थान महत्त्वपूर्ण हो गया और यह उद्घोष किया गया कि पुत्र के बिना तू अपना वर स्वयं ही चुन । यहाँ ग्रन्थकार के ये विचार वैवाहिक जीवन पूर्वजों की सुगति/मुक्ति सम्भव नहीं ।५ फलतः आगे चलकर हिन्दू के लिये नारी-स्वातन्त्र्य के समर्थक हैं । इसी प्रकार हम देखते हैं कि परम्परा में कन्या की उत्पत्ति को अत्यन्त हीनदृष्टि से देखा जाने उपासकदशांग में महाशतक अपनी पत्नी रेवती के धार्मिक विश्वास, लगा । इस प्रकार वैदिक हिन्दू-परम्परा में पुत्र-पुत्री की समकक्षता को खान-पान और आचार-व्यवहार पर कोई जबरदस्ती नहीं करता है । जहाँ अस्वीकार कर पुत्र को अधिक महनीयता प्रदान की गई किन्तु इसके आनन्द आदि श्रावकों की पत्नियाँ अपने पति का अनुगमन करती हुई विपरीत जैन-आगमों में हम देखते हैं कि उपासक और उपासिकाएँ पुत्रमहावीर से उपासक-व्रतों को ग्रहण करती हैं और धर्मसाधना के क्षेत्र में पुत्री हेतु समान रूप से कामना करते हैं । चाहे अर्थोपार्जन और भी पति की सहभागी बनती हैं, वहीं रेवती अपने पति का अनुगमन नहीं पारिवारिक व्यवस्था की दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों में भी पुत्र की प्रधानता करती है, मात्र यही नहीं, वह तो अपने मायके से मँगाकर मद्य-मांस का रही हो किन्तु जहाँ तक धार्मिक जीवन और साधना का प्रश्न था, जैनसेवन करती है और महाशतक के पूर्ण साधनात्मक जीवन में विघ्न- धर्म में पुत्र की महत्ता का कोई स्थान नहीं था। जैन कर्म-सिद्धान्त ने बाधाएँ भी उपस्थित करती है ।" इससे ऐसा लगता है कि आगम-युग स्पष्ट रूप से यह उद्घोषित किया कि व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार ही तक नारी को अधिक स्वातन्त्र्य था किन्तु आगमिक व्याख्या-साहित्य में सुगति या दुर्गति में जाकर सुख-दुःख का भोग करता है । सन्तान के हम पाते हैं कि पति या पत्नी अपने धार्मिक विश्वासों को एक दूसरे पर द्वारा सम्पन्न किये गये कर्मकाण्ड पूर्वजों को किसी भी प्रकार प्रभावित लादने का प्रयास करते हैं। चूर्णि-साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ हैं नहीं करते। इस प्रकार उसमें धार्मिक आधार पर पुत्र की महत्ता को जिनमें पुरुष स्त्री को अपने धार्मिक विश्वासों की स्वतन्त्रता नहीं देता अस्वीकार कर दिया गया । फलत: आगमिक युग में पुत्र-पुत्री के प्रति
समानता की भावना प्रदर्शित की गई किन्तु अर्थोपार्जन और पारिवारिक इसी प्रकार धर्मसंघ में भी आगम-युग में भिक्षुणी-संघ की व्यवस्था में पुरुष की प्रधानता के कारण पुत्रोत्पत्ति को ही अधिक सुखद व्यवस्था को भिक्षुसंघ से अधिक नियन्त्रित नहीं पाते हैं । भिक्षुणी-संघ माना जाने लगा । यद्यपि ज्ञाताधर्मकथा में मल्लि आदि के जन्मोत्सव के अपने आन्तरिक मामलों में पूर्णतया आत्मनिर्भर था, गणधर अथवा उल्लेख उपलब्ध हैं, किन्तु इन उल्लेखों के आधार पर यह मान लेना आचार्य का उस पर बहुत अधिक अंकुश नहीं था, किन्तु छेदसूत्र एवं कि जैन संघ में पुत्र और पुत्री की स्थति सदैव ही समकक्षता की रही, आगमिक व्याख्या-साहित्य के काल में यह नियन्त्रण क्रमश: बढ़ता उचित नहीं हेगा । आगमिक व्याख्या साहित्य एवं पौराणिक साहित्य में जाता है । इन ग्रंथों में चातुर्मास, प्रायश्चित्त, शिक्षा, सुरक्षा आदि सभी उपर्युक्त आगमिक अपवादों को छोड़ कर जैनसंघ में भी पुत्री की अपेक्षा क्षेत्रों में भिक्षुकवर्ग का प्रभुत्व बढ़ता हुआ प्रतीत होता है । फिर भी बौद्ध पुत्र को जो अधिक सम्मान मिला उसका आधार धार्मिक मान्यतायें न भिक्षुणी-संघ की अपेक्षा जैन भिक्षुणी-संघ में स्वायत्तता अधिक थी। होकर सामाजिक परिस्थितियाँ थीं । यद्यपि भिक्षुणी संघ की व्यवस्था के किन्हीं विशेष परिस्थितियों को छोड़कर वे दीक्षा, प्रयश्चित्त, शिक्षा और कारण पुत्री पिता के लिये उतनी अधिक भारस्वरूप कभी नहीं मानी गयी सुरक्षा की अपनी व्यवस्था करती थीं और भिक्षु-संघ से स्वतन्त्र विचरण जितनी उसे हिन्दू-परम्परा में माना गया था। करते हुए धमोपदेश देती थीं जबकि बौद्धधर्मसंघ में भिक्षुणी को उपोसथ, इस प्रकार जैन आगमों और आगमिक व्याख्या-साहित्य से जो वर्षावास आदि भिक्षुसंघ के अधीन करने होते थे।
सूचनाएँ उपलब्ध हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि यौगलिकयद्यपि जहाँ तक व्यावहारिक जीवन का प्रश्न था जैनाचार्य काल अर्थात् पूर्व युग में और आगमयुग में पुत्र और पुत्री दोनों की ही हिन्दू परम्परा के चिन्तन से प्रभावित हो रहे थे। मनुस्मृति के समान उत्पत्ति सुखद थी किन्तु आगमिक व्याख्याओं के युग में बाह्य सामाजिक व्यवहार भाष्य में भी कहा गया है
एवं आर्थिक प्रभावों के कारण स्थिति में परिवर्तन आया और पुत्री की जाया पितब्बसा नारी दत्ता नारी पतिव्यसा ।
अपेक्षा पुत्र को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। विहया पुत्तवसा नारी नत्यि नारी सयंवसा ।।३/२३३
___ अर्थात् जन्म के पश्चात् स्त्री पिता के अधीन, विवाहित होने पर विवाह-संस्था और नर-नारी की समकक्षता का प्रश्न पति के अधीन और विधवा होने पर पुत्र के अधीन होती है अतः वह विवाह-व्यवस्था प्राचीन काल से लेकर आज तक मानवीय कभी स्वाधीन नहीं है । इस प्रकार आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की समाज-व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण अंग रही है । यह सत्य है कि स्वाधीनता सीमित की गयी है।
जैनधर्म के अनुयायियों में भी प्राचीनकाल से विवाह-व्यवस्था प्रचलित
रही है किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि निवृत्तिप्रधान होने के पुत्र-पुत्री की समानता का प्रश्न
कारण जैनधर्म में विवाह-व्यवस्था को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया चाहे प्रारम्भिक वैदिक धर्म में पुत्र और पुत्री की समकक्षता गया । धार्मिक दृष्टि से वह स्वपत्नी या स्वपति सन्तोषव्रत की व्यवस्था स्वीकार की गई हो किन्तु परवर्ती हिन्दू धर्म में अर्थोपार्जन और धार्मिक करता है जिसका तात्पर्य है व्यक्ति को अपनी काम-वासना को स्वपति कर्मकाण्ड दोनों ही क्षेत्रों में पुरुष की प्रधानता के परिणामस्वरूप पत्र का या स्वपत्नी तक ही सीमित रखना चाहिए । तात्पर्य यह है कि यदि
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ -समाज एवं संस्कृति
ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव न हो तो विवाह कर लेना चाहिए । विवाह ब्रह्मचर्य पालन करने में असफल हो तो उसे विवाह-बन्धन मान लेना विधि के सम्बन्ध में जैनाचार्यों की स्पष्ट धारणा क्या थी, इसकी सूचना चाहिए । जहाँ तक स्वयंवर विधि का प्रश्न है निश्चित ही नारी-स्वातन्त्र्य हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं में नहीं प्राप्त होती है । जैन की दृष्टि से यह विधि महत्त्वपूर्ण थी । किन्तु जनसामान्य में जिस विधि विवाह विधि का प्रचलन पर्याप्त रूप से परवर्ती है और दक्षिण के का प्रचलन था वह माता-पिता के द्वारा आयोजित विधि ही थी। यद्यपि दिगम्बर आचार्यों की ही देन है जो हिन्दू-विवाह-विधि का जैनीकरण मात्र इस विधि में स्त्री और पुरुष दोनों की स्वतंत्रता खण्डित होती थी। है। उत्तर भारत के श्वेताम्बर जैनों में तो विवाह-विधि को हिन्दू धर्म के जैनकथा साहित्य में ऐसे अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं जहाँ बलपूर्वक अनुसार ही सम्पादित किया जाता है । आज भी श्वेताम्बर जैनों में अपनी अपहरण करके विवाह सम्पन्न हुआ। इस विधि में नारी की स्वतंत्रता कोई विवाह-पद्धति नहीं है । जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं से पूर्णतया खण्डित हो जाती थी; क्योंकि अपहरण करके विवाह करने का जो सूचना हमें मिलती है उसके अनुसार यौगलिक काल में युगल रूप अर्थ मात्र यह मानना नहीं है कि स्त्री को चयन की स्वतंत्रता ही नहीं है, से उत्पन्न होने वाले भाई-बहन युवावस्था में पति-पत्नी का रूप ले लेते अपितु यह तो उसे लूट की सम्पत्ति मानने जैसा है। थे । जैन पुराणों के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव से ही विवाह-प्रथा का जहाँ तक आगमिक व्याख्याओं का प्रश्न है उनमें अधिकांश आरम्भ हुआ। उन्होंने भाई-बहनों के बीच स्थापित होने वाले यौन विवाह माता-पिता के द्वारा आयोजित विवाह ही हैं, केवल कुछ प्रसंगों सम्बन्ध (विवाह-प्रणाली) को अस्वीकार कर दिया। उनकी दोनों पुत्रियों में ही स्वयंवर एवं गन्धर्व विवाह के उल्लेख मिलते हैं जो आगम युग ब्राह्मी और सुन्दरी ने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का निर्णय किया। एवं पूर्व काल के हैं । माता-पिता के द्वारा आयोजित इस विवाह-विधि फलतः भरत और बाहुबलि का विवाह अन्य वंशों की कन्याओं से किया में स्त्री-पुरुषों को समकक्षता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । यद्यपि यह गया । जैन साहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सत्य है कि जैनाचार्यों ने विवाह-विधि के सम्बन्ध में गम्भीरता से चिन्तन आगमिक काल तक सं विवाह सम्बन्धी निर्णयों को लेने में स्वतन्त्र थी नहीं किया किन्तु यह सत्य है कि उन्होंने स्त्री को गरिमाहीन बनाने का और अधिकांश विवाह उसकी सम्मति से ही किये जाते थे जैसा कि प्रयास भी नहीं किया । जहाँ हिन्दू-परम्परा में विवाह स्त्री के लिए बाध्यता ज्ञाताधर्मकथा में मल्लि' और द्रौपदी के कथानकों से ज्ञात होता है। थी, वहीं जैन-परम्परा में ऐसा नहीं किया गया । प्राचीनकाल से लेकर ज्ञाताधर्मकथा में पिता स्पष्ट रूप से पुत्री से कहता है कि यदि मैं तेरे लिए अद्यावधि विवाह करने न करने के प्रश्न को स्वी-विवेक पर छोड़ दिया पति चुनता हूँ तो वह तेरे लिए सुख-दुःख का कारण हो सकता है, गया। जो स्त्रियाँ यह समझती थीं कि वे अविवाहित रहकर अपनी साधना इसलिए अच्छा यही होगा तू अपने पति का चयन स्वयं ही कर । मल्लि कर सकेंगी उन्हें बिना विवाह किये ही दीक्षित होने का अधिकार था । और द्रौपदी के लिये स्वयंवरों का आयोजन किया गया था । विवाह-संस्था जैनों के लिए ब्रह्मचर्य की साधना में सहायक होने के रूप
... आगम ग्रन्थों से जो सूचना मिलती है उसके आधार पर हम में ही स्वीकार की गई। जैनों के लिए विवाह का अर्थ था अपनी वासना इतना ही कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक युग और आगम- युग में को संयमित करना । केवल उन्हीं लोगों के लिए विवाह-संस्था में प्रवेश सामान्यतया स्त्री को अपने पति का चयन करने में स्वतन्त्रता थी। यह आवश्यक माना गया था जो पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने में भी उसकी इच्छा पर निर्भर था कि वह विवाह करे या न करे । पूर्वयुग असमर्थ पाते हों अथवा विवाह के पूर्व पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का व्रत नहीं में ब्राह्मी, सुन्दरी, मल्लि, आगमिक युग में चन्दनबाला, जयन्ती आदि ले चुके हैं । अत: हम कह सकते हैं कि जैनों ने ब्रह्मचर्य की आंशिक ऐसी अनेक स्त्रियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं जिन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यपालन साधना के अंग के रूप में विवाह-संस्था को स्वीकार करके भी नारी की स्वीकार किया और विवाह अस्वीकार कर दिया। आगमिक व्याख्याओं स्वतन्त्र निर्णय-शक्ति को मान्य करके उसकी गरिमा को खण्डित नहीं में हमें विवाह के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं । डॉ जगदीश चन्द्र जैन होने दिया। ने जैन-आगमों और आगमिक व्याख्याओं में उपलब्ध विवाह के विविध रूपों का विवरण प्रस्तुत किया है यथा - स्वयंवर, माता-पिता द्वारा बहुपति और बहुपत्नी-प्रथा आयोजित विवाह, गन्धर्व-विवाह (प्रेमविवाह), कन्या को बलपूर्वक विवाह-संस्था के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न बहुविवाह का ग्रहण करके विवाह करना, पारस्परिक आकर्षण या प्रेम के आधार पर भी है । इसके दो रूप हैं बहुपत्नी-प्रथा और बहुपति-प्रथा । यह स्पष्ट विवाह, वर या कन्या को योग्यता देखकर विवाह, कन्यापक्ष को शुल्क है कि द्रौपदी के एक अपवाद को छोड़कर हिन्दू और जैन दोनों ही देकर विवाह और भविष्यवाणी के आधार पर विवाह । किन्तु हमें परम्पराओं में नारी के सम्बन्ध में एक-पति प्रथा की अवधारणा को ही आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिल स्वीकार किया गया और बहुपति प्रथा को धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना सका जहाँ जैनाचार्यों के गुण-दोषों के आधार पर इनमें से किसी का गया। जैनाचार्यों ने द्रौपदी के बहुपति होने की अवधारणा को इस आधार समर्थन या निषेध किया हो या यह कहा हो कि यह विवाह-पद्धति उचित पर औचित्यपूर्ण बताने का प्रयास किया है कि सुकमालिका आर्या के भव है या अनुचित है । यद्यपि विवाह के सम्बन्ध में जैनों का अपना कोई में उसने अपने तप के प्रताप से पाँच पति प्राप्त करने का निदान (निश्चय म्जतन दातोण नहीं था पर इतना अवश्य माना जाता था कि यदि कोई कर) लिया था ।५५ अतः इसे पूर्वकर्म का फल मानकर सन्तोष किया
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गया । किन्तु दूसरी ओर पुरुष के सम्बन्ध में बहुपत्नी प्रथा की स्पष्ट अवधारणा आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य में मिलती है। इनमें ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं जहाँ पुरुषों को बहुविवाह करते दिखाया गया है। दुःख तो यह है कि उनकी इस प्रवृत्ति की समालोचना भी नहीं की गई है । अतः उस युग में जैनाचार्य इस सम्बन्ध में तटस्थ भाव रखते थे, यही कहा जा सकता है क्योंकि किसी जैनाचार्य ने बहुविवाह को अच्छा कहा हो, ऐसा भी कोई सन्दर्भ नहीं मिलता है। उपासकदशा में श्रावक विधवा विवाह एवं नियोग
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के स्वपत्नीसन्तोषव्रत के अतिचारों का उल्लेख मिलता है, उसमें 'परविवाहकरण' को अतिचार या दोष माना गया है ।५३ 'परविवाहकरण' की व्याख्या में उसका एक अर्थ दूसरा विवाह करना बताया गया है अतः हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि जैनों का आदर्श एकपत्नीव्रत ही रहा है।
तो एकपत्नी प्रथा को ही माना जाता था । उपासकदशा में १० प्रमुख उपासकों में केवल एक की ही एक से अधिक पत्नियाँ थीं। शेष सभी को एक-एक पत्नी थी साथ ही उसमें श्रावकों के व्रतों के जो अतिचार बताये गये हैं उनमें स्वपत्नीसन्तोष व्रत का एक अतिचार 'परविवाहकरण' है । यद्यपि कुछ जैनाचार्यों ने 'परविवाहकरण' का अर्थ स्व-सन्तान के अतिरिक्त अन्यों की सन्तानों का विवाह सम्बन्ध करवाना माना है किन्तु उपासक दशांग की टीका में आचार्य अभयदेव ने इसका अर्थ एक से अधिक विवाह करना माना है । अतः हम यह कह सकते हैं कि धार्मिक आधार पर जैनधर्म बहुपत्नी प्रथा का समर्थक नहीं है। बहुपत्नी
प्रथा का उद्देश्य तो वासना में आकण्ठ डूबना है जो निवृत्तिप्रधान जैनधर्म की मूल भावना के अनुकूल नहीं है। जैन ग्रन्थों में जो बहुपत्नी प्रथा की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं वे उस युग की सामाजिक स्थिति के सूचक हैं। आगम-साहित्य में पार्श्व, महावीर एवं महावीर के नौ प्रमुख उपासकों की एक-एक पत्नी मानी गई है।
बहुपत्नी प्रथा के आविर्भाव पर विचार करें तो हम पाते हैं कि यौगलिक काल तक बहुपत्नी प्रथा प्रचलित नहीं थी। आवश्यकचूर्णि के 'अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव ने दो विवाह किये थे। किन्तु उनके लिए दूसरा विवाह इसलिए आवश्यक हो गया था कि एक युगल में पुरुष की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उस स्त्री को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से यह आवश्यक था। किन्तु जब आगे चलकर स्त्री को एक सम्पत्ति के रूप में देखा जाने लगा तो स्वाभाविक रूप से स्त्री के प्रति अनुग्रह को भावना के आधार पर नहीं, अपितु अपनी कामवासनापूर्ति और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए बहुविवाह की प्रथा आरम्भ हो गयी । यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यद्यपि समाज में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी किन्तु इसे जैनधर्म-सम्मत एक आचार मानना अनुचित होगा क्योंकि जब जैनों में विवाह को ही एक अनिवार्य धार्मिक कर्तव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया तो बहुविवाह को धार्मिक कर्त्तव्य के रूप में स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं उठता। जैन आगम और आगमिक व्याख्या - साहित्य में यद्यपि पुरुष के द्वारा बहुविवाह के अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं किन्तु हमें एक भी ऐसा सन्दर्भ नहीं मिलता जहाँ कोई व्यक्ति गृहस्थोपासक के व्रतों को स्वीकार करने के पक्षात् बहुविवाह करता है। यद्यपि ऐसे सन्दर्भ तो हैं कि मुनिव्रत या श्रावकत्रत स्वीकार करने के पूर्व अनेक गृहस्थोपासकों की एक से अधिक पत्नियाँ थी। किन्तु व्रत स्वीकार करने के पश्चात् किसी ने अपनी पत्नियों की संख्या में वृद्धि की हो, ऐसा एक भी सन्दर्भ मुझे नहीं मिला। आदर्श स्थिति विधुर विवाह
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यद्यपि आगमिक व्याख्या साहित्य में नियोग और विधवाविवाह के कुछ सन्दर्भ उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यह भी जैनाचार्यों द्वारा समर्थित नहीं है। निशीथचूर्णि में एक राजा को अपनी पत्नी से नियोग के द्वारा सन्तान उत्पन्न करवाने के सन्दर्भ में यह कहा गया है कि जिस प्रकार खेत में बीज किसी ने भी डाला हो फसल का अधिकारी भूस्वामी ही होता है उसी प्रकार स्वस्त्री से उत्पन्न सन्तान का अधिकारी उसका पति ही होता है। यह सत्य है कि एक युग में भारत में नियोग की परम्परा प्रचलित रही किन्तु निवृत्तिप्रधान जैनधर्म ने न तो नियोग का समर्थन किया, न ही विधवा विवाह का । क्योंकि उसकी मूलभूत प्रेरणा यही रही कि जब भी किसी सी या पुरुष को कामवासना से मुक्त होने का अवसर प्राप्त हो वह उससे मुक्त हो जाय । जैन आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में हजारों सन्दर्भ प्राप्त होते हैं जहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् विधवायें भिक्षुणी बनकर संघ की शरण में चली जाती थीं जैन संघ में भिक्षुणियों की संख्या के अधिक होने का एक कारण यह भी था कि भिक्षुणी संघ विधवाओं के सम्मानपूर्ण एवं सुरक्षित जीवन जीने का आश्रयस्थल था। यद्यपि कुछ लोगों के द्वारा यह कहा जाता है कि ऋषभदेव ने मृत युगल पत्नी से विवाह करके विधवा विवाह की परम्परा को स्थापित किया था । किन्तु आवश्यक चूर्णि से स्पष्ट होता है कि वह स्त्री मृत युगल की बहन थी, पत्नी नहीं । क्योंकि उस युगल में पुरुष की मृत्यु बालदशा में हो चुकी थी । अतः इस आधार पर विधवा विवाह का समर्थन नहीं होता है। जैनधर्म जैसे निवृत्तिप्रधान धर्म में विधवा-विवाह को मान्यता प्राप्त नहीं थी। यद्यपि भारतीय समाज में ये प्रथाएं प्रचलित थीं इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है ।
जब समाज में बहुविवाह को समर्थन हो तो विधुर-विवाह को मान्य करने में कोई आपत्ति नहीं होगी। किन्तु इसे जैनधर्म में धार्मिक दृष्टि से समर्थन प्राप्त था, यह नहीं कहा जा सकता। पत्नी की मृत्यु के पश्चात् आदर्श स्थिति तो यही मानी गई थी कि व्यक्ति वैराग्य ले ले । मात्र यही नहीं अनेक स्थितियों में पति, पत्नी के भिक्षुणी बनने पर स्वयं भी भिक्षु बन जाता है। यद्यपि सामाजिक जीवन में विधुर - विवाह के अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं जिनके संकेत आगमिक व्याख्या - साहित्य में मिलते हैं ।
कले १९ ম
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विवाहेतर यौन सम्बन्ध
में गर्भ रह जाने पर संघ उस भिक्षुणी के प्रति सद्भावनापूर्वक व्यवहार जैनधर्म में पति-पत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध स्थापित करता था तथा उसके गर्भ की सुरक्षा के प्रयत्न भी किये जाते थे । प्रसूत करना धार्मिक दृष्टि से सदैव ही अनुचित माना गया । वेश्यागमन और बालक को जब वह उस स्थिति में हो जाता था कि वह माता के बिना परस्त्रीगमन दोनों को अनैतिक कर्म बताया गया । फिर भी न केवल रह सके तो उसे उपासक को सौंपकर अथवा भिक्षु-संघ को सौंपकर ऐसी गृहस्थ स्त्री-पुरुषों में अपितु भिक्षु-भिक्षुणियों में भी अनैतिक यौन सम्बन्ध भिक्षुणी पुनः भिक्षुणी-संघ में प्रवेश पा लेती थी। ये तथ्य इस बात स्थापित हो जाते थे, आगमिक व्याख्या-साहित्य में ऐसे सैकड़ों प्रसंग के सूचक हैं कि सदाचारी नारियों के संरक्षण में जैनसंघ सदैव सजग उल्लिखित हैं । जैन-आगमों और उनकी टीकाओं आदि में ऐसी अनेक था। स्त्रियों का उल्लेख मिलता है जो अपने साधना-मार्ग से पतित होकर स्वेच्छाचारी बन गयी थीं । ज्ञाताधर्मकथा, उसकी टीका, आवश्यकचूर्णि नारी-रक्षा आदि में पार्थापत्य परम्परा की अनेक शिथिलाचारी साध्वियों के उल्लेख बलात्कार किये जाने पर किसी को भिक्षुणी की आलोचना का मिलते हैं ।५६ ज्ञाताधर्मकथा में दौपदी का पूर्व जीवन भी इसी रूप में अधिकार नहीं था। इसके विपरीत जो व्यक्ति ऐसी भिक्षुणी की आलोचना वर्णित है । साधना काल में वह वेश्या को पाँच पुरुषों से सेवित देखकर करता उसे ही दण्ड का पात्र माना जाता था । नारी की मर्यादा की रक्षा स्वयं पाँच पतियों की पत्नी बनने का निदान कर लेती है ।५७ निशीथचूर्णि के लिए जैनसंघ सदैव ही तत्पर रहता था। निशीथर्ण में उल्लिखित में पुत्रियों और पुत्रवधु के जार अथवा धूर्त व्यक्तियों के साथ भागने के कालकाचार्य को कथा में इस बात का प्रमाण है कि अहिंसा का प्राणपण उल्लेख हैं । आगमिक व्याख्याओं में मुख्यत: निशीथचूर्णि, बृहत्कल्पभाष्य से पालन करने वाला भिक्षुसंघ भी नारी की गरिमा को खण्डित होने की व्यवहारभाष्य आदि में ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जहाँ स्त्रियाँ अवैध स्थिति में दुराचारियों को दण्ड देने के लिए शस्त्र पकड़कर सामने आ सन्तानों को भिक्षुओं के निवास स्थानों पर छोड़ जाती थीं 1 आगम और जाता था । निशीथचूर्णि में कालकाचार्य की कथा इस बात का स्पष्ट आगमिक व्याख्यायें इस बात की साक्षी हैं कि स्त्रियाँ सम्भोग के लिए प्रमाण है कि आचार्य ने भिक्षुणी (बहन सरस्वती) की शील-सुरक्षा के भिक्षुओं को उत्तेजित करती थीं उन्हें इस हेतु विवश करती थीं और लिये गर्दभिल्ल के विरुद्ध शकों की सहायता लेकर पूरा संघर्ष किया था। उनके द्वारा इन्कार किये जाने पर उन्हें बदनाम किये जाने का भय दिखाती निशीथ, बृहत्कल्पभाष्य आदि में स्पष्ट रूप से ऐसे उल्लेख हैं कि यदि थीं। आगमिक व्याख्याओं में इन परिस्थितियों में भिक्षु को क्या करना संघस्थ भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा के लिये दुराचारी व्यक्ति की हत्या चाहिए, इस सम्बन्ध में अनेक आपवादिक नियमों का उल्लेख मिलता करने का कार्य भी अपरिहार्य हो जाये तो ऐसी हत्या को भी उचित माना है । यद्यपि शीलभंग सम्बन्धी अपराधों के विविध रूपों एवं सम्भावनाओं गया। नारी के शील की सुरक्षा करने वाले ऐसे भिक्षु को संघ में के उल्लेख जैन परम्परा में विस्तार से मिलते हैं किन्तु इस चर्चा का सम्मानित भी किया जाता था। बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है कि जल, उद्देश्य साधक को वासना सम्बन्धी अपराधों से विमुख बनाना ही रहा अग्नि, चोर और दुष्काल की स्थिति में सर्वप्रथम स्त्री की रक्षा करनी है । यह जीवन का यथार्थ तो था किन्तु जैनाचार्य उसे जीवन का चाहिए । इसी प्रकार डूबते हुए श्रमण और भिक्षुणी में पहले भिक्षुणी को विकृतपक्ष मानते थे और उस आदर्श समाज की कल्पना करते हैं जहाँ और क्षुल्लक और क्षुल्लिका में से क्षुल्लिका की रक्षा करनी चाहिए । इसका पूर्ण अभाव हो।
. इस प्रकार नारी की रक्षा को प्राथमिकता दी गई । आगमिक व्याख्याओं में उन घटनाओं का भी उल्लेख है जिनके कारण स्त्रियों को पुरुषों की वासना का शिकार होना पड़ा था। सती-प्रथा और जैनधर्म पुरुषों की वासना का शिकार होने से बचने के लिए भिक्षुणियों को अपनी उत्तरमध्य युग में नारी उत्पीड़न का सबसे बीभत्स रूप सती शील-सुरक्षा में कौन-कौन-सी सतर्कता बरतनी होती थी यह भी उल्लेख प्रथा बन गया था, यदि हम सती प्रथा के सन्दर्भ में जैन आगम और निशीथ और बृहत्कल्प दोनों में ही विस्तार से मिलता है। रूपवती व्याख्या-साहित्य को देखें तो स्पष्ट रूप से हमें एक भी ऐसी घटना का भिक्षुणियों को मनचले युवकों और राजपुरुषों की कुदृष्टि से बचने के उल्लेख नहीं मिलता जहाँ पत्नी पति के शव के साथ जली हो या जला लिए इस प्रकार का वेश धारण करना पड़ता था ताकि वे कुरुप प्रतीत दी गयी हो । यद्यपि निशीथचूर्णि में एक ऐसा उल्लेख मिलता है जिसके हो । भिक्षुणियों को सोते समय क्या व्यवस्था करनी चाहिए इसका भी अनुसार सौपारक के पाँच सौ व्यापारियों को कर न देने के कारण राजा बृहत्कल्पभाष्य में विस्तार से वर्णन है । भिक्षुणी-संघ में प्रवेश करने ने उन्हें जला देने का आदेश दे दिया था और उक्त उल्लेख के अनुसार वालों की पूरी जाँच की जाती थी। प्रतिहारी भिक्षुणी उपाश्रय के बाहर उन व्यापारियों की पत्नियाँ भी उनकी चिताओं में जल गयी थीं ।६२ दण्ड लेकर बैठती थी । शील-सुरक्षा के जो विस्तृत विवरण हमें लेकिन जैनाचार्य इसका समर्थन नहीं करते हैं । पुनः इस आपवादिक आगमिक व्याख्याओं में मिलते हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष वर्ग उल्लेख के अतिरिक्त हमें जैन-साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख स्त्रियों एवं भिक्षुणियों को अपनी वासना का शिकार बनाने में कोई कमी उपलब्ध नहीं होते हैं, महानिशीथ में इससे भिन्न यह उल्लेख भी मिलता नदी रखता था । पुष द्वारा बलात्कार किये जाने पर और ऐसी स्थिति है कि किसी राजा की विधवा कन्या सती होना चाहती थी किन्त उसके
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पितृकुल में यह रिवाज नहीं था अत: उसने अपना विचार त्याग दिया । अत्याचार किये गये, जैन भिक्षुणी-संघ उसके लिए रक्षाकवच बना इससे लगता है कि जैनाचार्यों ने पति की मृत्योपरान्त स्वेच्छा से भी क्योंकि भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने के बाद न केवल वह पारिवारिक अपने देह-त्याग को अनुचित ही माना है और इस प्रकार के मरण को उत्पीड़न से बच सकती थी अपितु एक सम्मानपूर्ण जीवन भी जी सकती बाल-मरण या मूर्खता ही कहा है । सती प्रथा का धार्मिक समर्थन जैन- थी । आज भी विधवाओं, परित्यक्ताओं, पिता के पास दहेज के अभाव, आगम-साहित्य और उसकी व्याख्याओं में हमें कहीं नहीं मिलता है। कुरूपता अथवा अन्य किन्हीं कारणों से अविवाहित रहने के लिये विवश
यद्यपि आगमिक व्याख्याओं में दधिवाहन की पत्नी एवं कुमारियों आदि के लिये जैन भिक्षुणी-संघ आश्रयस्थल है। जैन भिक्षुणीचन्दना की माता धारिणी आदि के कुछ ऐसे उल्लेख अवश्य हैं जिनमें संघ ने नारी-गरिमा और उसके सतीत्व दोनों की रक्षा की । यही कारण ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त देह-त्याग किया गया है किन्तु यह किसती-प्रथा जैसी कुत्सित प्रथा जैन-धर्म में कभी भी नहीं रही। अवधारणा सती प्रथा की अवधारणा से भिन्न है । जैन धर्म और दर्शन महानिशीथ में एक स्त्री को सती होने का मानस बनाने पर भी यह नहीं मानता है कि मृत्यु के बाद पति का अनुगमन करने से अर्थात् अपनी कुल-परम्परा में सती प्रथा का प्रचलन नहीं होने के कारण अपने जीवित चिता में जल मरने से पुनः स्वर्गलोक में उसी पति की प्राप्ति निर्णय को बदलता हुआ देखते हैं । यह इस बात का प्रमाण है कि होती है। इसके विपरीत जैनधर्म अपने कर्म-सिद्धान्त के प्रति आस्था जैनाचार्यों की दृष्टि सतीप्रथा विरोधी थी। जैन आचार्य और साध्वियाँ के कारण यह मानता है कि पति-पत्नी अपने-अपने कर्मों और मनोभावों विधवाओं को सती बनने से रोककर उन्हें संघ में दीक्षित होने की प्रेरणा के अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं । यद्यपि परवर्ती जैन कथा- देते थे। जैन-परम्परा में ब्राह्मी, सुन्दरी और चन्दना आदि को सती कहा साहित्य में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ एक भव के पति-पत्नी गया है और तीर्थंकरों के नाम-स्मरण के साथ-साथ आज भी १६ आगामी अनेक भवों के जीवनसाथी बने, किन्तु इसके विरुद्ध भी सतियों का नाम स्मरण किया जाता है, किन्तु इन्हें सती इसलिये कहा उदाहरणों की जैन कथा-साहित्य में कमी नहीं है ।
गया कि ये अपने शील की रक्षा हेतु या तो अविवाहित रहीं या पति अतः यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि धार्मिक आधार की मृत्यु के पश्चात् इन्होंने अपने चरित्र एवं शील को सुरक्षित रखा । पर जैन धर्म सतीप्रथा का समर्थन नहीं करता । जैन धर्म के सती प्रथा आज जैन साध्वियों के लिये एक बहुप्रचलित नाम महासती है उसका के समर्थक न होने के कुछ सामाजिक कारण भी रहे हैं । व्याख्या- आधार शील का पालन ही है । जैन-परम्परा में आगमिक व्याख्याओं और साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ वर्णित हैं जिनके अनुसार पति की मृत्यु पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबन्ध-साहित्य लिखा गया, उसमें के पश्चात् पत्नी न केवल पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करती थी, सर्वप्रथम सती प्रथा का ही जैनीकरण किया हुआ एक रूप हमें देखने अपितु पति के व्यवसाय का संचालन भी करती थी। शालिभद्र की माता को मिलता है । तेजपाल-वस्तुपाल प्रबन्ध में बताया गया है कि तेजपाल भद्रा को राजगृह की एक महत्त्वपूर्ण श्रेष्ठी और व्यापारी निरूपित किया और वस्तुपाल की मृत्यु के पश्चात् उनकी पत्नियों ने अनशन करके अपने गया है जिसके वैभव को देखने के लिये श्रेणिक भी उसके घर आया प्राण त्याग दिये ।६५ यहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् शरीर त्यागने का था । आगमों और आगमिक व्याख्याओं में ऐसे अनेक उल्लेख हैं जहाँ उपक्रम तो है किन्तु उसका स्वरूप सौम्य और वैराग्य-प्रधान बना दिया कि स्त्री पति की मृत्यु के पश्चात् विरक्त होकर भिक्षुणी बन जाती थी। गया है । वस्तुः यह उस युग में प्रचलित सती प्रथा की जैनधर्म में क्या यह सत्य है कि जैन भिक्षुणी-संघ विधवाओं, कुमारियों और परित्यक्ताओं प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है । का आश्रय-स्थल था । यद्यपि जैन आगम-साहित्य एवं व्याख्या-साहित्य दोनों में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ पति और पुत्रों के जीवित रहते गणिकाओं की स्थिति हुए भी पत्नी या माता भिक्षुणी बन जाती थी । ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी गणिकायें और वेश्यायें भारतीय समाज का आवश्यक घटक पति और पुत्रों को सम्मति से दीक्षित हुई थी किन्तु इनके अलावा ऐसे रही हैं । उन्हें अपरिगृहीता-स्त्री माना जाये या परिगृहीता इसे लेकर जैन उदाहरणों की भी विपुलता देखी जाती है जहाँ पत्नियाँ पति के साथ आचार्यों में विवाद रहा है । क्योंकि आगमिक काल में उपासक के लिये 'अथवा पति एवं पुत्रों की मृत्यु के उपरान्त विरक्त होकर संन्यास ग्रहण हम अपरिगृहीता-स्त्री से सम्भोग करने का निषेध देखते हैं। भगवान् कर लेती थीं। कुछ ऐसे उल्लेख भी मिले हैं जहाँ स्त्री आजीवन ब्रह्मचर्य महावीर के पूर्व पार्थापत्य-परम्परा के शिथिलाचारी श्रमण यहाँ तक को धारण करके या तो पितृगृह में ही रह जाती थी अथवा दीक्षित हो कहने लगे थे कि बिना विवाह किये अर्थात् परिगृहीत किये बिना यदि जाती थी। जैन-परम्परा में भिक्षुणी संस्था एक ऐसा आधार रही है जिसने कोई स्त्री कामवासना की आकांक्षा करती है तो उसके साथ सम्भोग करने हमेशा नारी को संकट से उबारकर न केवल आश्रय दिया है, अपितु उसे में कोई पाप नहीं है ।६६ ज्ञातव्य है कि पार्श्व की परम्परा में ब्रह्मचर्य व्रत सम्मान और प्रतिष्ठा का जीवन जीना सिखाया है।
अपरिग्रह के अधीन माना गया था क्योंकि उस युग में नारी को भी सम्पत्ति जैन भिक्षुणी-संघ उन सभी स्त्रियों के लिये जो विधवा, माना जाता था, चूँकि ऐसी स्थिति में अपरिग्रह के व्रत का भंग नहीं था - परित्यक्ता अथवा आश्रयहीन होती थीं, शरणदाता होता था । अत: जैन इसलिये शिथिलाचारी श्रमण उसका विरोध कर रहे थे। यही कारण था धर्म में सती प्रथा को कोई प्रश्रय नहीं मिला । जब भी नारी पर कोई कि भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य को जोड़ा था !
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-यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ-समाज एवं संस्कृति -
चूंकि वेश्या या गणिका परस्त्री नहीं थी, अतः परस्त्री-निषेध आचार्य दे देते थे । मथुरा के अभिलेख इस बात के साक्षी हैं कि के साथ स्वपत्नी-सन्तोषव्रत को भी जोड़ा गया और उसके अतिचारों में गणिकाएँ जिनमन्दिर और आयागपट्ट (पूजापट्ट) बनवाती थीं।" यह अपरिगृहीतागमन को भी सम्मिलित किया गया और कहा गया कि जैनाचार्यों का उदार दृष्टिकोण था जो इस पतित वर्ग का उद्धार कर उसे गृहस्थ उपासक को अपरिगृहीत (अविवाहित) स्त्री से सम्भोग नहीं करना प्रतिष्ठा प्रदान करता था । चाहिए । पुन: जब यह माना गया है कि परिग्रहण के बिना सम्भोग सम्भव नहीं, साथ ही द्रव्य देकर कुछ समय के लिये गृहीत वेश्या भी नारी-शिक्षा परिगृहीत की कोटि में आ जाती है, तो परिणामस्वरूप धनादि देकर
नारी-शिक्षा के सम्बन्ध में जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं अल्पकाल के लिए गृहीत स्त्री (इत्वरिका) के साथ भी सम्भोग का से हमें जो सूचना मिलती है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है निषेध किया गया और गृहस्थ उपासक के लिए आजीवन हेतु गृहीत कि प्राचीन काल में नारी को समुचित शिक्षा प्रदान की जाती थी । : अर्थात् विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त सभी प्रकार के यौन सम्बन्ध निषिद्ध अपेक्षाकृत परवर्ती आगम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, आवश्यकचूर्णि एवं दिगम्बरमाने गये । जैनाचार्यों में सोमदेव (१०वीं शती) एक ऐसे आचार्य थे परम्परा के आदिपुराण आदि में उल्लेख है कि ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों जिन्होंने श्रावक के स्वपत्नीसंतोष-व्रत में, वेश्या को उपपत्नी मानकर ब्राह्मी और सुन्दरी को गणित और लिपि विज्ञान की शिक्षा दी थी। मात्र उसका भोग राजा और श्रेष्ठी वर्ग के लिए विहित मान लिया था - किन्तु यही नहीं, ज्ञाताधर्मकथा और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में स्त्री को चौंसठ कलाओं यह एक अपवाद ही था।
का उल्लेख मिलता है । यद्यपि यहाँ इनके नाम नहीं दिये गये हैं तथापि यद्यपि आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं से प्राप्त सूचनाओं के यह अवश्य सूचित किया गया है कि कन्याओं को इनकी शिक्षा दी जाती आधार पर यह कहा जा सकता है कि अन्य सभी लोगों के साथ जैनधर्म है। सर्वप्रथम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की टीका में इनका विवरण उपलब्ध होता के प्रति श्रद्धावान् सामान्यजन भी किसी न किसी रूप में गणिकाओं से है ७५ आश्चर्यजनक यह है कि जहाँ ज्ञाताधर्मकथा में पुरुष की ७२ सम्बद्ध रहा है । आगमों में उल्लेख है कि कृष्ण वासुदेव की द्वारिका कलाओं का वर्णन है, वहीं नारी की चौसठ कला का निर्देशमात्र है। नगरी में अनंगसेना प्रमुख अनेक गणिकाएँ भी थीं। स्वयं ऋषभदेव फिर भी इतना निश्चित है कि भारतीय समाज में यह अवधारणा बन चुकी के नीलांजना का नृत्य देखते समय उसकी मृत्यु से प्रतिबोधित होने की थी। ज्ञाताधर्मकथा में देवदत्ता गणिका को चौंसठ कलाओं में पण्डित, कथा दिगम्बर-परम्परा में सुविश्रुत है । कुछ विद्वान् मथुरा में इसके चौंसठ गणिका गुण (काल-कला) से उपपेत, उन्तीस प्रकार से रमण अंकन को भी स्वीकार करते हैं । ज्ञाताधर्मकथा आदि में देवदत्ता आदि करने में प्रवीण, इक्कीस रतिगुणों में प्रधान, बत्तीस पुरुषोपचार में गणिकाओं की समाज में सम्मानपूर्ण स्थिति की सूचना मिलती है ।०. कुशल, नवांगसूत्र प्रतिबोधित और अठारह देशी भाषाओं में विशारद समाज के सम्पत्र परिवारों के लोगों के वेश्याओं से सम्बन्ध थे, इसकी कहा है। इन सूचियों को देखकर स्पष्ट रूप से ऐसा लगता है कि सूचना आगम, आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन पौराणिक साहित्य स्त्रियों को उनकी प्रकृति और दायित्व के अनुसार भाषा, गणित, में विपुल मात्रा में उपलब्ध है । कान्हड कठिआरा और स्थूलभद्र के लेखनकला आदि के साथ-साथ स्त्रियोचित नृत्य, संगीत और ललितकलाओं आख्यान सुविश्रुत हैं किन्तु इन सब उल्लेखों से यह मान लेना कि तथा पाक-शास्त्र आदि में शिक्षित किया जाता था। वेश्यावृत्ति जैनधर्मसम्मत थी या जैनाचार्य इसके प्रति उदासीन भाव रखते यद्यपि आगम और आगमिक व्याख्याएँ इस सम्बन्ध में स्पष्ट थे सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी । हम यह पूर्व में संकेत कर ही चुके हैं कि नहीं हैं कि ये शिक्षा उन्हें घर पर ही दी जाती थी अथवा वे गुरुकुल में जैनाचार्य इस सम्बन्ध में सजग थे और किसी भी स्थिति में इसे जाकर इनका अध्ययन करती थीं । स्त्री-गुरुकुल के सन्दर्भ के अभाव से औचित्यपूर्ण नहीं मानते थे । सातवीं-आठवीं शती में तो जैनधर्म का ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही की जाती अनुयायी बनने की प्रथम शर्त यही थी कि व्यक्ति सप्त दुर्व्यसन का त्याग थी। सम्भवतः परिवार की प्रौढ़ महिलाएँ ही उनकी शिक्षा की व्यवस्था करे । इसमें परस्त्रीगमन और वेश्यागमन दोनों निषिद्ध माने गये थे। करती थीं किन्तु सम्पन्न परिवारों में इस हेतु विभिन्न देशों की दासियों एवं उपासकदशा में "असतीजन-पोषण" श्रावक के लिए निषिद्ध गणिकाओं की भी नियुक्ति की जाती थी जो इन्हें इन कलाओं में पारंगत कर्म था।
बनाती थीं। आगमिक व्याख्याओं में हमें कोई भी ऐसा सन्दर्भ उपलब्ध आगमिक व्याख्याओं में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि नहीं हुआ जो सहशिक्षा का निर्देश करता हो । नारी के गृहस्थ-जीवन अनेक वेश्याओं और गणिकाओं की अपनी नैतिक मर्यादाएँ थीं, वे सम्बन्धी इन शिक्षाओं के प्राप्त करने के अधिकार में प्रागैतिहासिक काल उनका कभी उल्लंघन नहीं करती थीं । कान्हडकठिआरा और स्थूलभद्र से लेकर आगमिक व्याख्याओं के काल तक कोई विशेष परिवर्तन हुआ के आख्यान इसके प्रमाण हैं । ऐसी वेश्याओं और गणिकाओं के प्रति हो, ऐसा भी हमें ज्ञात नहीं होता; मात्र विषयवस्तु में क्रमिक विकास जैनाचार्य अनुदार नहीं थे, उनके लिए धर्मसंघ में प्रवेश के द्वार खुले थे, हुआ होगा । यद्यपि लौकिक शिक्षा में स्त्री और पुरुष की प्रकृति एवं कार्य वे श्राविकाएँ बन जाती थीं । कोशा ऐसी वेश्या थी जिसकी शाला में के आधार पर अन्तर किया गया था, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि.
जैन मनियों को नि:संकोच भाव से चातुर्मास व्यतीत करने की अनुज्ञा स्त्री और पुरुष में कोई भेद-भाव किया जाता था । नारी को यकीन wordarsonsibitoniromowonditoriwoodworminod-6- २२ doodwainiwaridwardwordwaridwarorarirmwavimar
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आवश्यक सभी पक्षों की सम्पूर्ण शिक्षा दी जाती थी । यद्यपि यह सत्य था। किन्तु निषेध का यह क्रम आगे बढ़ता ही गया । बारहवीं-तेरहवीं है कि उस युग में स्त्री और पुरुष दोनों के लिए कर्म-प्रधान शिक्षा का शती के पश्चात् एक युग ऐसा भी आया जब उसमें आगमों के अध्ययन ही विशेष प्रचलन था ।
का मात्र अधिकार ही नहीं छीना गया, अपितु उपदेश देने का अधिकार जहाँ तक धार्मिक-आध्यात्मिक शिक्षा का प्रश्न है वह उन्हें भी समाप्त कर दिया गया । आज भी श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक परम्परा के भिक्षुणियों के द्वारा प्रदान की जाती थी । सूत्रकृतांग से ज्ञात होता है कि तपागच्छ में भिक्षुणियों को इस अधिकार से वंचित ही रखा गया है ।
जैन-परम्परा में भिक्षु को स्त्रियों को शिक्षा देने का अधिकार नहीं था। यद्यपि पुनर्जागृति के प्रभाव से आज अधिकांश जैन-सम्प्रदायों में वह केवल स्त्रियों और पुरुषों की संयुक्त सभा में उपदेश दे सकता था। साध्वियाँ आगमों के अध्ययन और प्रवचन का कार्य कर रही हैं। सामान्यतया भिक्षुणियों और गृहस्थ उपासिकाओं दोनों को ही स्थविरा निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन काल भिक्षुणियों के द्वारा ही शिक्षा दी जाती थी । यद्यपि आगमों एवं आगमिक और आगम-युग की अपेक्षा आगमिक व्याख्या-युग में किसी सीमा तक व्याख्याओं में हमें कुछ सूचनायें उपलब्ध होती हैं जिनके आधार पर यह
में समा गाला टोती है जिनके आधार पर यह नारी के शिक्षा के अधिकार को सीमित किया गया था । तुलनात्मक दृष्टि कहा जा सकता है कि आचार्य और उपाध्याय भी कभी-कभी उन्हें शिक्षा से यहां यह भी द्रष्टव्य है कि नारी-शिक्षा के प्रश्न पर वैदिक और जैन प्रदान करते थे । व्यवहार सूत्र में उल्लेख है कि तीन वर्ष की पर्याय वाला
परम्परा में किस प्रकार समानान्तर परिवर्तन होता गया । आगमिक निर्ग्रन्थ, तीस वर्ष की पर्याय वाली भिक्षुणी का उपाध्याय तथा पाँच वर्ष
___ व्याख्या-साहित्य के युग में न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अपितु धर्मसंघ की पर्याय वाला निर्ग्रन्थ साठ वर्ष की पर्याय वाली श्रमणी का आचार्य
__ में और सामाजिक जीवन में भी स्त्री की गरिमा और अधिकार सीमित होते
गये । इसका मुख्य कारण तो अपनी सहगामी हिन्दू-परम्परा का प्रभाव हो सकता था । जहाँ तक स्त्रियों के द्वारा धर्मग्रन्थों के अध्ययन का
ही था किन्तु इसके साथ ही अचेलता के अति आग्रह ने भी एक प्रश्न है अति प्राचीनकाल में इस प्रकार का कोई बन्धन रहा हो, हमें ज्ञात
महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा अपेक्षाकृत उदार नहीं होता । अन्तकृद्दशा आदि आगम-ग्रन्थों में ऐसे अनेक उल्लेख रही किन्त समय के प्रभाव से वह भी नहीं बच सकी और उसमें भी मिलते हैं जहाँ भिक्षुणियों के द्वारा सामायिक आदि ११ अंगों का शिक्षा, समाज और धर्मसाधना के क्षेत्र में आगम युग की अपेक्षा अध्ययन किया जाता था । यद्यपि आगमों में न कहीं ऐसा कोई स्पष्ट आगमिक व्याख्या-यग में नारी के अधिकार सीमित किये गये। उल्लेख है कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन नहीं कर सकती थी और न इस प्रकार काल-क्रम में जैन धर्म में भी भारतीय हिन्दू समाज ही ऐसा कोई विधायक सन्दर्भ उपलब्ध होता है, जिसके आधार पर यह के प्रभाव के कारण नारी को उसके अधिकारों से वंचित किया गया था, कहा जा सके कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन करती थी। किन्तु आगमिक फिर भी भिक्षुणी के रूप में उसकी गरिमा को किसी सीमा तक सुरक्षित व्याख्याओं में स्पष्ट रूप से दृष्टिवाद का अध्ययन स्त्रियों के लिए निषिद्ध रखा गया था । मान लिया गया । भिक्षुणियों के लिए दृष्टिवाद का निषेध करते हुए कहा गया कि स्वभाव की चंचलता एवं बुद्धि-प्रकर्ष में कमी के कारण उसके भिक्षुणी-संघ और नारी की गरिमा लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषिद्ध बताया गया है । जब एक ओर यह
जैन भिक्षुणी-संघ में नारी की गरिमा को किस प्रकार सुरक्षित मान लिया गया कि स्त्री को सर्वोच्च केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती रखा गया इस सम्बन्ध में यहाँ किंचित् चर्चा कर लेना उपयोगी होगा। है, तो यह कहना गलत होगा कि उनमें बुद्धि-प्रकर्ष की कमी है। मुझे जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं जैनधर्म के भिक्षुणी-संघ के द्वार ऐसा लगता है कि जब हिन्दू-परम्परा में उसी नारी को जो वैदिक ऋचाओं बिना किसी भेदभाव के सभी जाति, वर्ण एवं वर्ग की स्त्रियों के लिए की निर्मात्री थी, वेदों के अध्ययन से वंचित कर दिया गया तो उसी के खुले हुए थे । जैन भिक्षुणी-संघ में प्रवेश के लिए सामान्य रूप से वे प्रभाव में आकर उस नारी को जो तीर्थकर के रूप में अंग और मूल ही स्त्रियाँ अयोग्य मानी जाती थीं, जो बालिका अथवा अतिवृद्ध हों साहित्य का मूलस्रोत थी, दृष्टिवाद के अध्ययन से वंचित कर दिया अथवा मूर्ख या पागल हों या किसी संक्रामक और असाध्य रोग से गया । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि दृष्टिवाद का मुख्य पीड़ित हों अथवा जो इन्द्रियों या अंग से होन हों, जैसे अंधी, पंगु, लूली विषय मूलत: दार्शनिक और तार्किक था और ऐसे जटिल विषय के आदि । किन्तु स्त्रियों के लिए भिक्षुणी-संघ में प्रवेश उस अवस्था में भी अध्ययन को उनके लिए उपयुक्त न समझकर उनका अध्ययन निषिद्ध वर्जित था - जब वे गर्भिणी हों अथवा उनकी गोद में अति अल्पवय कर दिया गया हो । बृहत्कल्पभाष्य और व्यवहारभाष्य की पीठिका में का दूध पीता हुआ शिशु हो.। इसके अतिरिक्त संरक्षक अर्थात् माताउनके लिए महापरिज्ञा, अरुणोपपात और दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध पिता, पति, पुत्र की अनुज्ञा न मिलने पर भी उन्हें संघ में प्रवेश नहीं दिया किया गया है । किन्तु आगे चलकर निशीथ आदि अपराध और प्रायश्चित्त जाता था। किन्तु सुरक्षा प्रदान करने के लिए विशेष परिस्थितियों में ऐसी
सम्बन्धी ग्रन्थों के अध्ययन से भी उसे वंचित कर दिया गया। यद्यपि स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी जाती थी। निरवायलिकासूत्र निशीथ आदि के अध्ययन के निषेध करने का मूल कारण यह था कि के अनुसार सुभद्रा ने अपने पति की आज्ञा के विरुद्ध ही भिक्षुणी-संघ अपराधों की जानकारी से या तो वह अपराधों की ओर प्रवृत्त हो सकती में प्रवेश कर लिया था । यद्यपि स्थानांग के अनुसार गर्भिणी स्त्री का थी या दण्ड देने का अधिकार पुरुष अपने पास सुरक्षित रखना चाहता भिक्षुणी- संघ में प्रवेश वर्जित था, किन्तु उत्तराध्ययननियुक्ति,
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आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि में ऐसे संकेत भी मिलते हैं जिनके निवास वर्जित माना गया, जहाँ समीप में ही भिक्षु अथवा गृहस्प निवास अनुसार कुछ स्त्रियों ने गर्भवती होने पर भी भिक्षुणी-संघ में दीक्षा ग्रहण कर रहे हों । भिक्षुओं से बातचीत करना और उनके द्वारा लाकर दिये कर ली थी। मदनरेखा अपने पति की हत्या कर दिये जाने पर जंगल जाने वाले वस्त्र, पात्र एवं भिक्षादि को ग्रहण करना भी उनके लिए में भाग गयी और वहीं उसने भिक्षुणी-संघ में प्रवेश ले लिया। इसी प्रकार निषिद्ध ठहराया गया। आपस में एक दूसरे का स्पर्श तो वर्जित था ही, पद्मावती और यशभद्रा ने गर्भवती होते हुए भी भिक्षुणी-संघ में प्रवेश उन्हें आपस में अकेले में बातचीत करने का भी निषेध किया गया था। ले लिया था और बाद में उन्हें पुत्र-प्रसव हुए । वस्तुतः इन अपवाद. यदि भिक्षुओं से वार्तालाप आवश्यक भी हो, तो भी अग्र-भिक्षुणी को नियमों के पीछे जैन आचार्यों की मूलदृष्टि यह थी कि नारी और गर्भस्थ आगे करके संक्षिप्त वार्तालाप की अनुमति प्रदान की गयी थी। वस्तुतः शिशु का जीवन सुरक्षित रहे, क्योंकि ऐसी स्थितियों में यदि उन्हें संघ ये सभी नियम इसलिए बनाये गये थे कि कामवासना जागत होने एवं में प्रवेश नहीं दिया जाता है, तो हो सकता था कि उनका शील और चारित्रिक स्खलन के अवसर उप्लब्ध न हों अथवा भिक्षुओं एवं गृहस्थों जीवन खतरे में पड़ जाय और किसी स्त्री के शील और जीवन को के आकर्षण एवं वासना की शिकार बनकर भिक्षुणी के शील की सुरक्षा सुरक्षित रखना संघ का सर्वोपरि कर्त्तव्य था । अतः हम कह सकते हैं खतरे में न पड़े। कि नारी के शील एवं जीवन की सुरक्षा और उसके आत्मनिर्णय के किन्तु दूसरी ओर उनकी सुरक्षा के लिए आपवादिक स्थितियों अधिकार को मान्य रखने हेतु पति की अनुमति के बिना और गर्भवती में उनका भिक्षुओं के सानिध्य में रहना एवं यात्रा करना विहित भी मान होने की स्थिति में भी उन्हें जो भिक्षुणी-संघ में प्रवेश दे दिया जाता था- लिया गया था। यहाँ तक कहा गया कि आचार्य, युवा भिक्षु और वृद्धा यह नारी के प्रति जैन-संघ की उदार एवं गरिमापूर्ण दृष्टि ही थी। भिक्षुणियाँ तरुण भिक्षुणियों को अपने संरक्षण में लेकर यात्रा करें। ऐसी
सामान्यतया साधना की दृष्टि से भिक्षु-भिक्षुणियों के आहार, यात्राओं में पूरी व्यूह-रचना करके यात्रा की जाती थी -सबसे आगे भिक्षाचर्या, उपासना आदि से सम्बन्धित नियम समान ही थे, किन्तु स्त्रियों आचार्य एवं वृद्ध भिक्षुगण, उनके पश्चात् युवा भिक्षु, फिर वृद्ध भिक्षुणियाँ, को प्रकृति और सामाजिक स्थिति को देखकर भिक्षुणियों के लिए वस्त्र उनके पश्चात् युवा भिक्षुणियाँ उनके पश्चात् वृद्ध भिक्षुणियाँ और अन्त में के सम्बन्ध में कुछ विशेष नियम बनाये गये । उदाहरण के लिए जहाँ युवा भिक्षु होते थे । निशीथचूर्णि आदि में ऐसे भी उल्लेख हैं कि भिक्षु सम्पूर्ण वस्त्रों का त्याग कर रह सकता था वहाँ भिक्षुणी के लिए भिक्षुणियों की शीलसुरक्षा के लिए आवश्यक होने पर भिक्षु उन मनुष्यों नग्न होना वर्जित मान लिया गया था । मात्र यही नहीं उसकी आवश्यकता की भी हिंसा कर सकता था जो उसके शील को भंग करने का प्रयास को ध्यान में, रखते हुए उसकी वस्त्र-संख्या में भी वृद्धि की गयी थी। करते थे। यहाँ तक कि ऐसे अपराध प्रायश्चित्त योग्य भी नहीं माने गये जहाँ भिक्षु के लिए अधिकतम तीन वस्त्रों का विधान था वहाँ भिक्षुणी थे। भिक्षुणियों को कुछ अन्य परिस्थितियों में भी इसी दृष्टि से भिक्षुओं के लिए चार वस्त्रों को रखने का विधान था । आगे चलकर आगमिक के सानिध्य में निवास करने की भी अनुमति दे दी गयी थी, जैसे -भिक्षुव्याख्या-साहित्य में न केवल उसके तन ढंकने की व्यवस्था की गयी, भिक्षुणी यात्रा करते हुए किसी निर्जन गहन वन में पहुँच गये हों अथवा बल्कि शील-सुरक्षा के लिए उसे ऐसे वस्त्रों को पहनने का निर्देश दिया भिक्षुणियों को नगर में अथवा देवालय में ठहरने के लिए अन्यत्र कोई गया, जिससे उनका शीलभंग करने वाले व्यक्ति को सहज ही अवसर स्थान उपलब्ध न हो रहा हो अथवा उन पर बलात्कार एवं उनके वस्त्रउपलब्ध न हो। इसी प्रकार शील-सुरक्षा की दृष्टि से भिक्षुणी को अकेले पात्रादि के अपहरण की सम्भावना प्रतीत होती हो। इसी प्रकार विक्षिप्तभिक्षार्थ जाना वर्जित कर दिया गया था। भिक्षुणी तीन'या उससे अधिक चित्त अथवा अतिरोगी भिक्षु को परिचर्या के लिए यदि कोई भिक्षु संख्या में भिक्षा के लिए जा सकती थीं। साथ में यह भी निर्देश था कि उपलब्ध न हो तो भिक्षुणी उसकी परिचर्या कर सकती थी। भिक्षुओं के युवा भिक्षुणी वृद्ध भिक्षुणी को साथ लेकर जाए । जहाँ भिक्षु ६ लिए भी सामान्यतया भिक्षुणी का स्पर्श वर्जित था किन्तु भिक्षुणी के किलोमीटर तक भिक्षा के लिए जा सकता था, वहीं भिक्षुणी के लिए कीचड़ में फँस जाने पर, नाव में चढ़ने या उतरने में कठिनाई अनुभव सामान्य परिस्थितियों में भिक्षा के लिए अति दूर जाना निषिद्ध था । इसी करने पर अथवा जब उसकी हिंसा अथवा शीलभंग के प्रयत्न किये जा प्रकार भिक्षुणियों के लिए सामान्यतया द्वार रहित उपाश्रयों में ठहरना भी रहे हों तो ऐसी स्थिति में भिक्षु भिक्षुणी का स्पर्श कर उसे सुरक्षा प्रदान वर्जित था । इन सबके पीछे मुख्य उद्देश्य नारी के शील की सुरक्षा थी। कर सकता था । जैन-परम्परा में आचार्य कालक की कथा इस बात का क्योंकि शील ही नारी के सम्मान का आधार था । अत: उसकी शील- स्पष्ट प्रमाण है । भिक्षुणी के शील की सुरक्षा को जैन भिक्षु-संघ का सुरक्षा हेतु विविध नियमों और अपवादों का सृजन किया गया है। अनिवार्य एवं प्राथमिक कर्त्तव्य माना गया था ।
नारी की शील-सुरक्षा के लिए जैन आचार्यों ने एक ओर ऐसे इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-परम्परा में नारी के शीलनियमों का सृजन किया जिनके द्वारा भिक्षुणियों का पुरुषों और भिक्षुओं सुरक्षा के लिए पर्याप्त सतर्कता रखी गई थी। से सम्पर्क सीमित किया जा सके, ताकि चारित्रिक स्खलन की सम्भावनाएँ मात्र यही नहीं, जैनाचार्यों ने अपनी दण्ड-व्यवस्था और संघअल्पतम हों। फलस्वरूप न केवल भिक्षुणियों का भिक्षुओं के साथ व्यवस्था में भी नारी की प्रकृति को सम्यक् रूप से समझने का प्रयत्न
और विहार करना निषिद्ध माना गया, अपितु ऐसे स्थलों पर भी किया है । पुरुषों के बलात्कार और अत्याचारों से पीड़ित नारी को उन्होंने
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दुत्कारा नहीं, अपितु उसके समुद्धार का प्रयत्न किया। जैन दण्डव्यवस्था में उन भिक्षुणियों के लिये किसी प्रकार के दण्ड को व्यवस्था नहीं की गई थी जो बलात्कार की शिकार होकर गर्भवती हो जाती थीं अपितु उनके और उनके गर्भस्थ बालक के संरक्षण का दायित्व संघ का माना गया था । प्रसवोपरान्त बालक-बालिका के बड़ा हो जाने पर वे पुनः भिक्षुणी हो सकती थी । इसी प्रकार वे भिक्षुणियाँ भी जो कभी वासना के आवेग में बहकर चारित्रिक स्खलन की शिकार हो जाती थीं, तिरस्कृत नहीं कर दी जातीं, अपितु उन्हें अपने को सुधारने का अवसर प्रदान किया जाता था । इस तथ्य के समर्थन में यह कहा गया था कि क्या बाड़ से प्रस्त नदी पुनः अपने मूल मार्ग पर नहीं आ जाती है ? जैन- प्रायश्चित व्यवस्था में भी स्त्रियों या भिक्षुणियों के लिए परिहार और पाराचिक (निष्कासन) जैसे कठोर दण्ड वर्जित मान लिये गये थे, क्योंकि इन दण्डों के परिणाम स्वरूप वे निराश्रित होकर वेश्यावृत्ति जैसे अनैतिक कर्मों के लिये बाध्य हो सकती थीं। इस प्रकार जैनाचार्य नारी के प्रति सदैव सजग और उदार रहे हैं।
हम यह पूर्व में ही सूचित कर चुके हैं कि जैनधर्म का भिक्षुणी संघ उन अनाथ, परित्यक्ता एवं विधवा नारियों के लिए सम्मानपूर्वक जीने के लिए एक मार्ग प्रशस्त करता था और यही कारण है कि प्राचीन काल से लेकर आजतक जैनधर्म अभागी नारियों के लिए आश्रय स्थल या शरणस्थल बना रहा है। सुश्री हीराबहन बोरदिया ने अपने शोध कार्य के दौरान अनेक साध्वियों का साक्षात्कार लिया और उसमें वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचीं थीं कि वर्तमान में भी अनेक अनाथ, विधवा, परित्यक्ता खियाँ अथवा वे कन्यायें जो दहेज अथवा कुरूपता के कारण विवाह न कर सकीं, वे सभी जैन भिक्षुणी संघ में सम्मिलित होकर एक सम्मानपूर्ण स्वावलम्बन का जीवन जी रही हैं। जैन भिक्षुणियों में से अनेक तो आज भी समाज में इतनी सुस्थापित हैं कि उनकी तुलना में मुनि-वर्ग का प्रभाव भी कुछ नहीं लगता है ।
मणिप्रभा श्री जी और साध्वी श्री मृगावतीजी भी ऐसे नाम हैं कि जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों ही उनकी यशोगाथा को उजागर करते हैं। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में आर्यिका ज्ञानमतीजी का भी पर्याप्त प्रभाव है। उनके द्वारा प्रकाशित प्रन्थों की सूची से उनकी विद्वत्ता का आभास हो जाता है ।
अतः हम यह कह सकते हैं कि जैनधर्म में उसके अतीत से लेकर वर्तमान तक नारी की और विशेष रूप से भिक्षुणियों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। जहाँ एक ओर जैनधर्म ने नारी को सम्मानित और गौरवान्वित करते हुए, उसके शील संरक्षण का प्रयास किया और उसके आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया; वहीं दूसरी ओर ब्राह्मी सुन्दरी और चन्दना से लेकर आज तक की अनेकानेक सतीसाध्वियों ने अपने चरित्रबल तथा संयम-साधना से जैनधर्म की ध्वजा को फहराया है।
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विभिन्न धर्मों में नारी की स्थिति की तुलना
(१) हिन्दू धर्म और जैनधर्म हिन्दू-धर्म में वैदिक युग में नारी की भूमिका धार्मिक और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी और उसे पुरुष के समकक्ष ही समझा जाता था । स्त्रियों के द्वारा रचित अनेक वेद ऋचाएँ और यज्ञ आदि धार्मिक कर्मकाण्डों में पत्नी की अनिवार्यता, निश्चय ही इस तथ्य की पोषक हैं। मनु का यह उद्घोष कि नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवता रमण करते हैं, इसी तथ्य को सूचित करता है कि हिन्दूधर्म में प्राचीनकाल से नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, इन सबके अतिरिक्त भी देवी उपासना के रूप में सरस्वती, लक्ष्मी, महाकाली आदि देवियों की उपासना भी इस तथ्य की सूचक है कि नारी न केवल उपासक है अपितु उपास्य भी है। यद्यपि वैदिक युग से लेकर तंत्रयुग के प्रारम्भ तक नारी की महत्ता के अनेक प्रमाण हमें हिन्दूधर्म में मिलते हैं किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी है कि स्मृति-युग से ही उसमें क्रमशः नारी के महत्त्व का अवमूल्यन होता गया। स्मृतियों में नारी को पुरुष के अधीन बनाने का उपक्रम प्रारम्भ हो गया था और उनमें यहाँ तक युवावस्था में पति के अधीन और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रह कर ही अपना जीवन जीना होता है। इस प्रकार वह सदैव ही पुरुष के अधीन ही है, कभी भी स्वतन्त्र नहीं है। स्मृति-काल में उसे सम्पत्ति के अधिकार से भी वंचित किया गया और सामाजिक जीवन में मात्र उसके दासी या भोग्या स्वरूप पर ही बल दिया गया। पति की सेवा को ही उसका एकमात्र कर्त्तव्य माना गया ।
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यह विडम्बना ही थी कि अध्ययन के क्षेत्र में भी वेद-सचाओं को निर्मात्री नारी को उन्हीं ऋचाओं के अध्ययन से वंचित कर दिया गया। उसके कार्यक्षेत्र को सन्तान उत्पादन, सन्तान पालन, गृहकार्य सम्पादन तथा पति की सेवा तक सीमित करके उसे घर की चारदीवारी রপীল २५ পমটsndh
इस आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जैनधर्म के विकास और प्रसार में नारी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। आज भी जैन समाज में भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की संख्या तीन गुनी से भी अधिक है जो समाज पर उनके व्यापक प्रभाव को द्योतित करती है। वर्तमान में भी अनेक ऐसी जैन साध्वियाँ हुई हैं और हैं जिनका कहा गया कि नारी को बाल्यकाल में पिता के अधीन, युग समाज पर अत्यधिक प्रभाव रहा है जैसे स्थानकवासी परम्परा में पंजाबसिंहनी साध्वी पार्वतीजी जो अपनी विद्वत्ता और प्रभावशीलता के लिये सुविश्रुत थीं। जैनधर्म के कट्टर विरोधी भी उनके तर्कों और बुलंदगी के सामने सहम जाते थे । इसी प्रकार साध्वी यशकुँवरजी जिन्होंने मूक पशुओं की बलि को बन्द कराने में अनेक संघर्ष किये और अपने शौर्य एवं प्रवचनपटुता से अनेक स्थलों पर पशुबलि को समाप्त करवा दिया। उसी क्रम में स्थानकवासी- परम्परा में मालव सिंहनी साध्वी श्री रत्नकुँवरजी और महाराष्ट्र-गौरव साध्वी श्री उज्ज्वलकुँवरजी के भी नाम लिये जा सकते हैं जिनका समाज पर प्रभाव किसी आचार्य से कम नहीं था. मूर्तिपूजक परम्परा में वर्तमान युग में साध्वी श्री विचक्षण श्री जी,
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में कैद कर दिया गया । हिन्दू धर्म में नारी की यह दुर्दशा मुस्लिम उत्पीड़न का शिकार नहीं बनीं । जैनधर्म का भिक्षुणी- संघ ऐसी नारियों आक्रान्ताओं के आगमन के साथ क्रमश: बढ़ती ही गयी । रामचरितमानस के लिए एक शरण-स्थल रहा और उसने उन्हें सम्मानपूर्ण और स्वावलम्बी के रचयिता युग-कवि तुलसीदास को भी कहना पड़ा कि 'ढोल गँवार जीवन जीना सीखाया । यही कारण था कि उसमें सतीप्रथा जैसी वीभत्स शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी' । हिन्दू धर्म का मध्ययुग का प्रथाएँ भी अपनी जड़ें नहीं जमा सकीं। जैनधर्म में वे स्त्रियाँ जो सामाजिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि बहुपत्नीप्रथा और सतीप्रथा जैसी क्रूर क्षेत्र में पुरुष के अधीन होकर जीवन जीती थीं भिक्षुणी बनकर पुरुषों के
और नृशंस प्रथाओं ने जन्म लेकर उसमें नारी के महत्त्व और मूल्य को लिए वन्दनीय और मार्गदर्शक बन जाती थीं । इस प्रकार तुलनात्मक प्राय: समाप्त ही कर दिया था । वर्तमान समाज-व्यवस्था में भी हिन्दू दृष्टि से निश्चय ही हम यह कह सकते हैं कि हिन्दूधर्म की तुलना में धर्म में नारी को पुरुष के समकक्ष गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है यह कहना जैनधर्म में नारी की स्थिति बहुत कुछ सम्मानपूर्ण रही है । कठिन है, यद्यपि नारी-चेतना का पुनः जागरण हुआ है किन्तु यह भी भय है कि पश्चिम के अन्धानुकरण में वह कहीं गलत दिशा में मोड़ न (२) बौद्धधर्म और जैनधर्म . ले ले।
बौद्धधर्म और जैनधर्म दोनों ही श्रमण-परम्परा के धर्म रहे हैं हिन्दूधर्म में यद्यपि संन्यास की अवधारणा को स्थान मिला और दोनों में भिक्षुणी संस्था की उपस्थिति रही है, फिर भी नारी के प्रति हुआ है और प्राचीनकाल से ही हिन्दू-संन्यासिनियों के भी उल्लेख मिलने जैनधर्म की अपेक्षा बौद्धधर्म का दृष्टिकोण अधिक अनुदार रहा है। प्रथम लगते हैं, फिर भी संन्यासिनियों के आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में तो भगवान् बुद्ध भिक्षुणी-संघ की स्थापना के लिए सहमत ही नहीं हए हिन्दूधर्मग्रन्थ प्रायः मौन ही हैं। हिन्दूधर्म में प्राचीनकाल से लेकर आज थे किन्तु जब अपनी क्षीरदायिका मौसी गौतमी और अन्तेवासी आनन्द तक यत्र-तत्र किन्हीं संन्यासिनियों की उपस्थिति के उल्लेख को छोड़कर ने किसी प्रकार अपने प्रभाव का उपयोग करके बुद्ध को सहमत करने संन्यासिनियों का एक सुव्यवस्थित वर्ग बना हो ऐसा नहीं देखा जाता का प्रयत्न किया तो बुद्ध ने भिक्षुणी-संघ की स्थापना की स्वीकृति कुछ है । यही कारण है कि हिन्दू-धर्म में विधवाओं, परित्यक्ताओं और शर्तों के साथ प्रदान की। जबकि जैनधर्म में महावीर के पूर्व में भी पार्श्व अविवाहिता स्त्रियों के लिए सम्मान पूर्ण जीवन जीने के लिये कोई का भिक्षुणी-संघ सुव्यवस्थित ढंग से कार्यरत था और महावीर को भी आश्रयस्थल नहीं बन सका और वे सदैव ही पुरुष के अत्याचारों और, इस सम्बन्ध में किसी प्रकार का संकोच नहीं हुआ था। इस प्रकार जैनधर्म प्रताड़नाओं का शिकार बनीं । चाहे सिद्धान्तरूप में स्त्रियों के संदर्भ में का भिक्षुणी-संघ बौद्धधर्म के भिक्षुणी-संघ से पूर्ववर्ती था । पुनः बुद्ध ने हिन्दू धर्म में कुछ आदर्शवादी उद्घोष हमें मिल जाएँ किन्तु व्यावहारिक भिक्षुणी-संघ की स्थापना के समय ही जिन अष्ट-गुरुधर्मों (अष्ट पुरुष की जीवन में हिन्दू धर्म में स्त्रियाँ उपेक्षा का ही विषय बनी रहीं। श्रेष्ठता सम्बन्धी नियमों) के पालन के लिए स्त्रियों को बाध्य किया, वे
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि हिन्दूधर्म स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि बुद्ध की दृष्टि नारियों के प्रति अपेक्षाकृत की अपेक्षा जैन धर्म में नारी की स्थिति और भूमिका दोनों ही अधिक अनुदार थी । इन अष्ट गुरुधर्मों के अनुसार भिक्षुणी संघ प्रत्येक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण रहीं । यों तो जैनधर्म हिन्दूधर्म के सहवर्ती धर्म के रूप में ही भिक्षु-संघ के अधीन था। चिर प्रव्रजिता और वयोवृद्धा भिक्षुणी के लिए विकसित हुआ है और इसीलिए प्रत्येक काल में वह हिन्दूधर्म से सद्यः प्रव्रजित भिक्षु न केवल वन्दनीय था अपितु वह उनका अनुशास्ता प्रभावित रहा है । हिन्दूधर्म के नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण और उसके भी हो सकता था । भिक्षुणी को उपदेश देने का अधिकार भी नहीं था । दुष्परिणामों का शिकार वह भी बना है । जिस प्रकार हिन्दूधर्म में वेद- यद्यपि यहाँ यह कहा जा सकता है कि बौद्धधर्म के समान ही जैनधर्म ऋचाओं की रचयिता स्त्री को उनके अध्ययन से वंचित कर दिया गया, में भी तो चिरकाल की दीक्षित एवं वयोवृद्धा भिक्षुणी के लिए सद्यः उसी प्रकार जैन धर्म में भी स्त्री के लिए न केवल दृष्टिवाद के अध्ययन दीक्षित भिक्षु वन्दनीय होता है, किन्तु मेरी दृष्टि में जैनधर्म में यह नियम को अपितु आगमों के अध्ययन को भी वर्जित मान लिया गया, यद्यपि बौद्धधर्म के प्रभाव अथवा इस देश की पुरुष-प्रधान संस्कृति के कारण प्राचीन आगम-साहित्य में स्त्रियों के अंग-आगम के अध्ययन के उल्लेख कालांतर में ही आया होगा । प्राचीनतम आगम आचारांग भिक्षु-भिक्षुणी एवं निर्देश उपलब्ध हैं । यह सत्य है कि इस सम्बन्ध में जैनधर्म ने के नियमों एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों के निर्देश तो करता है, किन्तु हिन्दूधर्म का अनुसरण ही किया । बृहत्तर हिन्दू-समाज का एक अंग बने कहीं यह उल्लेख नहीं करता है कि चिरप्रव्रजित भिक्षुणी सद्य: दीक्षित रहने के कारण जैनों के सामाजिक जीवन में स्त्रियों की स्थिति हिन्दूधर्म भिक्षु को वंदन करे । परवर्ती आगम में भी मात्र ज्येष्ठ-कल्प का उल्लेख के समान ही रही है, फिर भी जैनधर्म की सामाजिक व्यवस्था में हिन्दूधर्म है। की भाँति बहुपत्नीप्रथा इतनी अधिक हावी नहीं हुई कि पुरुष की दृष्टि में ज्येष्ठ-कल्प का तात्पर्य है कि कनिष्ठ अपने से प्रव्रज्या में स्त्री मात्र भोग्या बनकर रह गयी हो। इसके पीछे जैनधर्म का संन्यासमार्गीय ज्येष्ठ को वंदन करे । यह टीकाकारों की अपनी कल्पना है कि उन्होंने दृष्टिकोण ही प्रमुख रहा है । दूसरे जैनधर्म में प्रारम्भ से लेकर आज तक ज्येष्ठ कल्प को पुरुषज्येष्ठ के रूप में व्याख्यायित किया । मूल-आगमों भिक्षुणीसंघ की जो एक सुदृढ़ व्यवस्था रही है, उसके कारण उसमें नारी में ऐसी कोई भी व्यवस्था उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर जैनधर्म विशेषरूप से विधवा, परित्यक्ता और कुमारियाँ पुरुष के अत्याचार और में स्त्री को पुरुष की अपेक्षा निम्न माना गया हो । आगमों में स्त्री को न
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केवल मोक्ष का अधिकारी बताया गया, अपितु उसे तीर्थंकर जैसे सर्वोच्च पद की भी अधिकारी घोषित किया गया है । ज्ञाताधर्मकथा में मल्लि का स्त्री तीर्थंकर के रूप में उल्लेख है अतः हम स्पष्ट रूप से यह कह सकते हैं कि बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म का दृष्टिकोण नारी के प्रति अधिक उदार था। बौद्धधर्म में नारी कभी भी बुद्ध नहीं बन सकती है, किन्तु जैनधर्म में चाहे अपवाद रूप में ही क्यों न हो, स्त्री तीर्थंकर हो सकती है । यद्यपि परवर्ती काल में जैनधर्म की दिगम्बर शाखा में, जो नारी को तीर्थंकरत्व एवं निर्वाण के अधिकार से वंचित किया गया था, वह उसके अचेलता पर अधिक बल देने के कारण हुआ था। चूँकि सामाजिक स्थिति के कारण नारी नग्न नहीं रह सकती थी अतः दिगम्बर परम्परा ने उसे निर्वाण और तीर्थंकरत्व के अयोग्य ही ठहरा दिया । किन्तु यह एक परवर्ती ही घटना है ईसा की सातवीं शती के पूर्व जैन साहित्य में ऐसे उल्लेख नहीं मिलते हैं।
यद्यपि बौद्धधर्म में भिक्षुणीसंघ अस्तित्व में आया और संघमित्रा जैसी भिक्षुणिओं ने बौद्धधर्म के प्रसार में महत्त्वपूर्ण अवदान भी दिया किन्तु बौद्धधर्म का यह भिक्षुणी संघ चिरकाल तक अस्तित्व में नहीं रह सका चाहे उसके कारण कुछ भी रहें हों। आज बौद्धधर्म विश्व के एक प्रमुख धर्म के रूप में अपना अस्तित्व रखता है, किन्तु कुछ श्रामणियों को छोड़कर बौद्धधर्म में कहीं भी भिक्षुणी संघ की उपस्थिति नहीं देखी जाती है । यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना रही है। चाहे इसके मूल में भी बौद्धाचार्यों के मन में बुद्ध का यह भय ही काम कर रहा हो कि भिक्षुणियों की उपस्थिति से संघ चिरकाल तक जीवित नहीं रहेगा। जबकि जैनधर्म में आज भी सुसंगठित भिक्षुणी संघ उपस्थित है और भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की संख्या तीन गुनी से अधिक है। यह बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म के नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण का परिचायक है ।
ईसाई धर्म और जैनधर्म
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नारी के सम्बन्ध में ईसाई धर्म और जैनधर्म का दृष्टिकोण बहुत कुछ समान है तीर्थकरों की माताओं के समान ईसाई धर्म में यीशु की माता मरियम को भी पूजनीय माना गया है। साथ ही ईसाईधर्म में जैनधर्म की भांति ही भिक्षुणी संस्था की उपस्थिति रही हैं। आज भी ईसाईधर्म में न केवल भिक्षुणी-संस्था सुव्यवस्थित रूप में अस्तित्व रखती है अपितु ईसाई भिक्षुणियां (Nuns) अपने ज्ञानदान और सेवाकार्य से समाज में अधिक आदरणीय और महत्त्वपूर्ण बनी हुई हैं। ईसाई धर्म संघ द्वारा स्थापित शिक्षा संस्थाओं, चिकित्सालयों और सेवाश्रमों में इन भिक्षुणियों की त्याग और सेवा भावना अनेक व्यक्तियों के मन को मोह लेती है । यदि जैन-समाज उनसे कुछ शिक्षा ले तो उसका भिक्षुणी संघ समाज के लिए अधिक लोकोपयोगी बन सकता है और नारी में निहित समर्पण और सेवा की भावना का सम्यक् उपयोग किया जा सकता है ।
जहाँ तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, निश्चय ही पाश्चात्य ईसाई समाज में नारी की पुरुष से समकक्षता को बात कही जाती है।
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यह भी सत्य है कि पाश्चात्य देशों में नारी भारतीय नारी की अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र है और अनेक क्षेत्रों में वह पुरुषों के समकक्ष खड़ी हुई है किन्तु इन सबका एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि यहाँ का पारिवारिक व सामाजिक जीवन टूटता हुआ दिखाई देता है। बढ़ते हुए तलाक और स्वच्छन्द यौनाचार ऐसे तत्त्व हैं जो ईसाई नारी की गरिमा को खण्डित करते हैं जहाँ हिन्दूधर्म और जैनधर्म में विवाह सम्बन्ध को आज भी न केवल एक पवित्र सम्बन्ध माना गया है, अपितु एक आजीवन सम्बन्ध के रूप में देखा जाता है, वहाँ ईसाई समाज में आज विवाह यौन वासनाओं की पूर्ति का माध्यम मात्र ही रह गया है। उसके पीछे रही हुई पवित्रता एवं आजीवन बन्धन की दृष्टि समाप्त हो रही है। यदि ईसाई धर्म अपने समाज को इस दोष से मुक्त कर सके तो सम्भवतः वह नारी की गरिमा प्रदान करने की दृष्टि से विश्वश्रमों में अधिक सार्थक सिद्ध हो सकता है ।
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४. इस्लाम धर्म और जैनधर्म
जहाँ तक इस्लामधर्म और जैनधर्म का सम्बन्ध है सर्वप्रथम हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि दोनों की प्रकृति भिन्न है । इस्लामधर्म में संन्यास की अवधारणा प्रायः अनुपस्थित है और इसलिए उसमें नारी को पुरुष के समकक्ष स्थान मिल पाना सम्भव ही नहीं है । उसमें अक्सर नारी को एक भोग्या के रूप में ही देखा गया है। बहुपत्नी प्रथा का खुला समर्थन भी इस्लाम में नारी की स्थिति को हीन बनाता है। वहाँ नव पुरुष को बहुविवाह का अधिकार है अपितु उसे यह भी अधिकार है कि वह चाहे जब मात्र तीन बार तलाक कहकर विवाह बन्धन को तोड़ सकता है। फलतः उसमें नारी को अत्याचार व उत्पीड़न की शिकार बनाने की सम्भावनाएँ अधिक रही हैं। यह केवल हिन्दूधर्म व जैनधर्म की ही विशेषता है कि उसमें विवाह के बन्धन को आजीवन एक पवित्र बन्धन के रूप में स्वीकार किया जाता है और यह माना जाता है कि यह बन्धन तोड़ा नहीं जा सकता है। यद्यपि इस्लाम में नारी के सम्पत्ति के अधिकार को मान्य किया गया है, किन्तु व्यवहार में कभी भी नारी पुरुष की कैद एवं उत्पीड़न से मुक्त नहीं रह सकी । उसमें स्त्री पुरुष की वासनापूर्ति का साधन मात्र ही बनी रही। भारत में पर्दाप्रथा, सतीप्रथा जैसें कुप्रथाओं के पनपने के लिए इस्लामधर्म ही अधिक जिम्मेदार रहा है।
इस तुलानात्मक विवरण के आधार पर अन्त में हम यह कह सकते हैं कि विभिन्न धर्मों की अपेक्षा जैनधर्म का दृष्टिकोण नारी के प्रति अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक एवं उदार है । यद्यपि इस सत्य को स्वीकर करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है कि समसामयिक परिस्थितियों और सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव से जैनधर्म में भी नारी के मूल्य व महत्त्व का क्रमिक अवमूल्यन हुआ है। किन्तु उसमें उपस्थित भिक्षुणी संघ ने न केवल नारी को गरिमा प्रदान की, अपितु उसे सामाजिक उत्पीड़न और पुरुष के अत्याचारों से बचाया भी है। यही जैनधर्म की विशेषता है।
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सन्दर्भ
१८. भगवती आराधना, गाथा ९८७-८८ व ९९५-९६ १. दव्वाभिलावचिन्धे वेए भावे य इत्थिणिक्खेवो ।
१९. वही, गाथा ९८९-९४ अहिलावे जह सिद्धि भावे वेयम्मि उवउत्तो ।।
२०. तए णं से कण्हे वासुदेव पहाए जाव विभूसिए देवईए देवीए
-सूत्रकृतांग नियुक्ति, ५४. पायवंदाये हब्बमागच्छइ । - अन्तकृद्दशा,सूत्र १८ २. अभिधान राजेन्द्रकोष, भाग२, पृ० ६२३ .
२१. नो खलु मे कप्पइ अम्मापितीहि जीवंतेही मुण्डे भवित्ता ३. यद्वशात् स्त्रियाः पुरुषं प्रत्यभिलाषो भवति, यथा पित्तवणा अगारवासाओ अणगारियं पव्वइए-कल्पसूत्र ९१ मधुरद्रव्यं प्रति स फुफुमादाहसमः यथा यथा चाल्यते तथा तथा ज्वलति (एवं) गब्भत्थो चेव अभिग्गहे गेण्हति णाहं समणे होक्खामि जाव बृहति च । एवमबलाऽपि यथा यथा संपृश्यते पुरुषेण तथा तथा अस्या एताणि एत्थ जीवंतित्ति । अधिकतरोऽभिलाषो जायते, भुज्यमानायां तु छनकरीषदाहतुल्योऽभिलाषोः -आवश्यकचूर्णि, प्रथम भाग, पृ० २४२, प्र० ऋषभदेव जी केशरीमल, मन्द इत्यर्थः इति स्त्रीवेदोदयः । - वही, भाग६, पृष्ठ १४३०. श्वेताम्बर सं० रतलाम १९२८. ४. संमत्तंतिमसंधयण तियगच्छेओ बि सत्तरि अपुव्वे ।
२२. तए णं मल्ली अरहा........केवलनाणदंसणे समुप्पन्ने । - हासाइछक्कअंतो छसट्ठि अनियट्टिवेयतिगं ।।
- ज्ञाताधर्मकथा ८/१८६ ५. देखें - कर्मप्रकृतियों का विवरण । - कर्मग्रन्थ, भाग २, गाथा १८ २३. अज्जा वि बंभि-सुन्दरि-राइभई चन्दणा पमुक्खाओ। ६. णाम ठवणादविए ‘खेत्ते काले. य.प्रज्जणणकम्मे । ___कालतए वि जाओ ताओ य नमामि भावेणं ।। भोगे गुणे य भावे दस ए ए इत्थीणिक्खेवो ॥
-ऋषिमण्डलस्तव २०८ -सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा ५४. २४. देवीओ चक्केसरी अजिया दुरियारी कालि महाकाली। ७. तन्दुलवैचारिक, सावचूरि सूत्र १९ (देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार अच्चुय संता जाला सुतारया असोय सिरिवच्छा ।। ग्रन्थमाला)
पवर वजियं कुसा पण्णत्ती निव्वाणि अच्चुया धरणी । ८. वही।
वइरोट्टाछुत गंधारि अंब उपमावई सिद्धा॥ ९. समुद्रवीचीचपलस्वभावा: संध्याभ्रमरेखेव मुहूर्तरागाः ।
-प्रवचनसारोद्धार, भाग१, पृ० ३७५-७६, देवचन्द लालभाई स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं निपीडितालक्तकवद् त्यजन्ति । जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सन् १९२२
उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ६५, ऋषभदेवजी केशरीमल संस्था रत्नपुर २५. तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं । (रतलाम) १९३३ ई०.
अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइयो ।। १०. पगइत्ति सभाओ । स्वभावेन च इत्थी' अल्पसत्वा भवति ।
उत्तराध्ययन सूत्र २२/४८ -निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ०५८४, आगरा, १९५७-५८ (तथा) दशवैकालिकचूर्णि, पृ० ८७-८८, मणिविजय सीरीज भावनगर । ११. सा य अप्पसत्तत्ताणओ जेण वातेण वत्थमादिणा । २६. भगवं वंभी-सुन्दरीओ पत्थवेति ....इमं व भणितो । अप्पेणावि लोभिज्जति, दाणलोभिया य अकज्जं पिकरोति ।।
ण किर हत्थिं विलग्गस्स केवलनाणं उप्पज्जई ।। . -वही, भाग ३, पृ० ५८४ । । __ -आवश्यकचूर्णि, भाग १,पृ० २११ १२. आचारांगचूर्णि, पृ०३१५ ।
स . २७. वंतासी पुरिसो रायं, न सो होई पसंसिओ।। १३. एवं पि ता वदित्तावि अदुवा कम्मुणा अवकरेंति ।
__ माहणेणं परिचत्तं धणं आदारमिच्छसि ॥
- सूत्रकृतांग १/४/२३ • उत्तराध्ययन सूत्र १४/३८ एवं उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० २३० १४. दुपहियं हृदयं यथैव वदनं यदर्पणान्तर्गतम्
(ऋषभदेव केशरीमल संस्था रतलाम, सन् १९३३) भावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते ।
२८. भगवती १२/२ । -सूत्रकृतांग १/४/२३, प्र० सेठ छगनलाल, मूंथा बंगलोर १९३० २९. जइ वि परिचित्तसंगो तहा वि परिवडइ । १५. सुहृवि जियासु सुदृवि पियासु सुदृवि लद्वपरासु ।
महिलासंसग्गीए कोसाभवणूसिय व्व रिसी ।। अडईसु महिलियासु य वीसंभो नेव कायव्यो ।
-भक्तपरिज्ञा,गा० १२८ उन्भेउ अंगुली सो पुरिसो सयलंमि जीवलोयम्मि। (तथा ) कामं तएण नारी जेण न पत्ताई दुक्खाई॥ तुम एत सोयसि अप्पाणं णवि, तुम एरिसओ चेव होहिसि,
. -वही, विवरण १/४/२३ उवसामेति लखबुद्धी, इच्छामी वेदावच्चंति गतो, पुणोवि आलोवेत्ता १६. वही १/४/२
विरहति ।। १७. एए चेव य दोसा पुरिससमाये वि इत्थियाणं पि ।
__ आवश्यकचूर्णि २, पृ० १८७ -सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा ६१ ण दुक्कर तोडिय अंबपिंडी, ण दुक्करंणच्चितु सिक्खियाए ।
सूत्रकृतांग ।।
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यथैव वदनं
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक दय - समाज एवं संस्कृति तं दुक्कर तं च महाणुभाग, ज सो मुणी पमयवणं निविट्ठो ॥ ४१. जैन-शिलालेख संग्रह, भाग २
-वही १, पृ० ५५५ ४२. (क) बृहत्कल्पभाष्य, भाग३, २४११, २४०७, (ख) ३०. कल्पसूत्र, क्रमशः १९७, १६७,१५७ व १३४, प्राकृत- बृहत्कल्पभाष्य, भाग४, ४३३९ । भारती, जयपुर १९७७
(ग) व्यवहारसूत्र ५/१-१६ । ३१. चातुर्मास-सूची, पृ० ७७ प्र. अ. भा. समग्र जैन चातुर्मास ४३. जस्स णं अहं पुत्ता ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सूची प्रकाशन परिषद्, बम्बई, १९८७ ।
सयमेव दलइस्सामि, तत्य णं तुम सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि ।
-ज्ञाताधर्मकथा १६/८५ ३२. इत्थी पुरिससिद्धा य , तहेव य नपुंसगा ।
४४. तए णं सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोणमंसेहिं सोल्लेहिं य सुरं सलिंगे अनलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य ॥
च आसाए माणी विहरइ । -उत्तराध्ययन सूत्र ३६/५०
__ -उवासगदसाओ, ०२४४ ३३. ज्ञाताधर्मकथा - मल्लि और द्रौपदी अध्ययन ।
तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहूहिं सील जाव ३४. (अ) तथैव हत्थिखंधवरगताए केवलनाणं, सिद्धाए इमामे भावेमाणस्स चोद्दस संवंच्छरा वइक्कंता । एवं तहेव जेटुं पुतं ठवेइ जाव ओसप्पिणीए पदमसिद्धो मरुदेवा । एवं आराहणं प्रतियोगसंगहो कायव्यो। पोसहसालाए धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जिता णं विहरइ । -आ० चूर्णि, भाग २, पृ० २१२
- उवासगदसाओ, २४५ द्रष्टव्य, वही, भाग १, पृ० १८१ व ४८८1 .
४५. अपुत्रस्य गतिर्नास्ति । (ब) अन्तकृद्दशा के वर्ग ५ में १०, वर्ग ७ में १३, वर्ग ८ में ४६. जइ णं अहं दारगं वा पयायामि तो णं अहं जायं य जाव १० । इस प्रकार कुल ३३ मुक्त नारियों का उल्लेख प्राप्त होता है। अणुबुड्डेमित्ति । ३५. (अ) मणुस्सिणीसु मिच्छाइट्ठि सासणसम्माइट्टि-ट्ठाणे सिया
- ज्ञाताधर्मकथा १/२/१६. पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओसंजदासंजदसंजदट्ठाणे णियमा
४७. न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ, न मित्तबग्गा न सुया न पज्जत्तियाओ॥ . षट्खण्डागम १/१, ९२-९३
बंधवा । (ब) एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जावो ।
एक्को संय पच्चणु होइ दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ।। ते जंगपुज्ज कित्तिं सुहं च लभ्रूण सिझंति ॥
___ -उत्तराध्ययन १३/२३ ४८. ज्ञाताधर्मकथा, अध्ययन ८, सूत्र ३०,३१ । -मूलाचार ४/१९६
४९. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृष्ठ १५२ । ३६. लिंग इत्थीणं हवदि भुंजई पिंड सुएयकालम्मि ।
५०. वही, भाग१, पृष्ठ १४२-१४३ । अज्जिय वि एकवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ ॥
५१. जैनागम साहित्य में भारतीय समाज - डॉ जगदीशचन्द्र जैन, णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो। प03-08 णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उमग्गया सव्वे ।।
५२. ज्ञाताधर्मकथा, अध्याय १६, सूत्र ७२-७४ ।
- सूत्रप्राभृत २२,२३ ५३. उवासगदसा १, ४८ । (तथा) सुणहाण गद्दहाण य गोपसुमहिलाणं दोसदे मोक्खो। ५४. वही, अभयदेवकृतवृत्ति, पृ० ४३ । जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहि सव्वेहिं ।। ५५. निशीथचूर्णि, भाग २, ३८१ ।
, -शीलप्राभृत २९ ५६. ज्ञाताधर्मकथा, द्वितीयश्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग, अध्याय २५ 36. Aspects of Jainology, Vo.. 2; Pt. Bechardas Doshi . द्वितीय वर्ग, अध्याय५; तृतीय वर्ग, अध्याय १-५४ । Commeinoration Vol. page 50-110
५७. वही, प्रथमश्रुतस्कन्ध, अध्याय १६, सूत्र ७२-७४ । ३८. इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर दृष्टिकोण के लिए देखिए- अभिधान- ५८. निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ० २६७ । राजेन्द्रकोष, भाग २, पृ० ६१८-६२१ (तथा) इत्थीसु ण पावया
५९. वही, भाग २, पृ० १७३ । भणिया -सूत्रप्राभृत, पृ० २४-२६
६०. वही, भाग १, पृ० १२९ । एवं
६१. वही, भाग ३, पृ० २३४ । णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे होइ तित्थयरो ।। वही २३ ६२. (अ) वही, भाग २, पृ० ५९-६० । ३९. इस सम्बन्ध में दिगम्बर पक्ष के विस्तृत विवेचन के लिए देखें
(ब) तेंसिं पंच महिलसताई, ताणि वि अग्गिं पावट्ठाणि । -जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग ३, पृ० ५९६-५९८। एवं श्वेताम्बर पक्ष
- वही, भाग ४, पृ०१४ । के लिये देखें
६३. महानिशीथ, पृ० २९ । देखें, जैनागम साहित्य में भारतीय अभियान राजेन्द्रकोष, भाग २, पृ० ६१८-६२१ ।
समाज, पृ० २७१ ।
६४. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० ३१८ । ४०. इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा के लिए देखें -यापनीय सम्प्रदाय, प्रो० सागरमल जेन ।
६५. मन्त्रिण्यौ ललितादेवी सौख्वौ अनशन ममतुः । . .
-प्रबन्धकोश, पृष्ठ १२९. Howaridridroidiodawordarodaidairanidminidia२९ -Harishmiriditoriuordwormiribartodootarairiwar
/१९६४८. जो
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६६. एवमेगे उ पासत्था, पन्नवंति अणारिया ।
७३. साविको जाया अबंभस्स पच्चक्खइ णण्णत्थ रायाभियोगेण । इत्थीवसंगया बाला, जिणसासणपरम्मुहा ।।
- आवश्यकचूर्णि, भाग१, पृ० ५५४-५५ । जहा गंडं पिलागं वा, पिरपीलेज मुहत्तंगं ।
७४. जैनशिलालेख संग्रह, भाग २, अभिलेख क्रमांक ८ । एवं विन्नवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिया ।।
७५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-शान्तिसूरीय वृत्ति, अधिकार २,३० । -सूत्रकृतांग १/३/४/९-१० ७६. ज्ञाताधर्मकथा ४/६ । ६७. उपासकदशा १/४८।
७७. तम्हा उ वज्जए इत्थी ......आघाते ण सेवि णिग्गंथे । ६८. अणंगसेणा पामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं .....।
-सूत्रकृतांग १/४,१/११ - आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० ३५६ । ७८. कप्पइ निग्गंथीणं विइकिट्ठए काले सज्झायं करेत्तए निग्गंथ ६९. आदिपुराण, पृ० १२५, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, १९१९। निस्साए । (तथा) पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे, सट्ठिवास परियाए
७०. अड्डा जाव .........सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणा ईसर समणीए निग्गंथीए कप्पइ आयरिय उवज्झायत्ताए उद्दिसित्ताए । सेणावच्चं कारेमाणी .........।
- व्यवहारसूत्र ७, १५, व २० । ७१. देखें-जैन, बौद्ध और गीता का आचार दर्शन, भागर, डा. ७९. इस समस्त चर्चा के लिए देखें - मेरे निर्देशन में रचित और सागरमल जैन, पृ० २६८ ।
मेरे द्वारा सम्पादित ग्रन्थ-जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ- डॉ.अरुण प्रताप ७२. .......असईजणपोसणया । उपासकदशा, १/५१
सिंह।
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म शुभ:पुन्यस्य अशुभ: पापस्य
- सा.श्री महेन्द्रश्री जी म.सा.
शुभस्य पुण्यम्
'जो जीव परमार्थ से ब्रह्म है, परमार्थ भूतज्ञानस्वरूप आत्मा तत्वार्थ सूत्रकार कहते हैं - शुभः पुम्यरस, अशुभः पापस्य
का अनुभव नहीं करते वे जीव अज्ञान से पुण्य चाहते हैं व पुण्य ! शुभभाव से पुण्य बंध और अभ्रम भाव से पाप बंध होता है। संसार के गमन का कारण है तो भी वे जीव मोक्ष का कारण
ज्ञानस्वरूप आत्मा को नहीं जानते। पुण्य को ही मोक्ष का कारण कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाह सुसलां कह त होदि
मानते हैं। समयसार १५४ सुसलीलं जं संसारं पवे से दि. १११४५ कुदकुन्दाचार्य का कथन है ऐसा जगत जानता है। परन्तु परमार्थ दृष्टि से कहते हैं कि जो प्राणी
'जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान तो सम्यक्त्व है और उन । को संसार में ही प्रवेश कराता है वह कर्म शुभ अच्छा कैसे हो ।
जीवादिक पदार्थों का अधिगम, वह ज्ञान हैं तथा रागादि का त्याग
वह चारित्र है - यही मोक्ष का मार्ग है।' समयसार १५५ सकता है ? टीकाकार अमृतन्द्राचार्य कहते हैं - जो शुभ अथवा अशुभ
टीकाकार कहते हैं - 'मोक्ष के कारण निश्चय से सम्यक जीव का परिणाम है, वह केवल अज्ञान से एक ही है, उसके एक
दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। जीवादिक पदार्थों के यथार्थ श्रद्धान होने पर कारण का अभेद है इसलिए कर्म एक ही है तथा शुभ
स्वाभाव से ज्ञान का परिणाम सम्यक दर्शक है, जीवादिक पदार्थों अथवा अशुभ प्रदूगल का परिणाम केवल प्रदुगलमय है, इसलिए
के ज्ञान स्वभाव से ज्ञान का होना सम्यक ज्ञान है, तथा रागादि के एक ही है। शुभ अथवा अशुभ मोक्ष का और बन्ध का मार्ग ये दोनों
त्याग स्वभाव से ज्ञान का होना सम्यक् चारित्र है। इस कारण ज्ञान पृथक हैं, केवल जीवमय तो मोक्ष का मार्ग है और केवल प्रद्गलमय
ही परमार्थ रूप से मोक्ष का कारण है।' बन्ध का मार्ग है। वे अनेक है, एक नहीं है। उनके एक न होने पर _ 'सम्यक्त्व मोक्ष का कारण है। उसके स्वभाव का रोकने भी केवल प्रद्गलमय बन्धमार्ग की आश्रितता के कारण आश्रय वाले मिथ्यात्व है, वह स्वयं कर्म ही हैं, उसके उदय से ही ज्ञान को के अभेद से कर्म एक ही है।
मिथ्यादृष्टित्व है; ज्ञान भी मोक्ष का कारण है, उसके स्वभाव को हन्कन्दाचार्य आगे कहते हैं - जैसे लोहे की बेडी पृष्प को
रोकने वाला प्रकट अज्ञान है, वह स्वयं कर्म ही, उसके उदय से बांधती है और सुवर्ण को भी बांधती है, इसी प्रकार शुभ अथवा ।
ज्ञान को अज्ञान है; और चारित्र मोक्ष का कारण है, उसके स्वभाव अशुभ किया हुआ कर्म जीव को बांधता ही है। इसलिए दोनों
का प्रतिबंधक प्रकट कषाय है, वह स्वयं कर्म है, उसके उदय से कुशीलों से राग या संसर्ग का निषेध करते हैं। निश्चय से परमार्थ रूप
ही अचरित्र्य है। क्योंकि कर्म के स्वयंमेव मोक्ष के कारण सम्यकदर्शन जीव नाम पदार्थ का स्वरूप यह है। जो शुद्ध है, केवली है, मुनि है,
ज्ञान चारित्र का तिरोयायित्व है, इसी कारण कर्म का प्रतिवेध किया ज्ञानी है - ये जिनके ज्ञान है उस स्वभाव में स्थित मुनि मोक्ष को
गया है।' १६१ से १६३ प्राप्त होते हैं।
'मोक्ष के चाहनेवालों को यह समस्त कर्म ही त्याग ने योग्य टीकाकार कहते हैं ज्ञान ही मोक्ष का कारण है क्योंकि शुभ
हैं। इस तरह इन समस्त ही कर्म को छोड़ने से पुण्य-पाप की तो अशुभ कर्मरूप है, वह बन्धक का कारण है। अत: मोक्ष की हेत्रता
बात क्या है, कर्म सामान्य में दोनों ही आ जाते हैं....'कलश १०९ असिद्ध है।
पश्चांतवर्ती सभ टीकाकारऐं, सभी आचार्यों और आध्यात्म मोक्ष का उपादान कारण आत्मा ही है. सो आत्मा का परमार्थ ग्राथ लेखकों ने इसी मत की पुष्टि की। दोनों मतों में मान्य तत्वार्थ से ज्ञान, स्वभाव है। ज्ञान है वह आत्मा ही है. आत्मा है वह जान ही सूत्र में, उनके टीकाकारों ने भी शुभभाव से पुण्य बंध होता है इसे है, इसलिए ज्ञान को ही मोक्ष का कारण कहा है।
पुष्ट किया।
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
श्वेताम्बर मत में अशुभ से शुभ, तुलनात्मक दृष्टि से अभीष्ट और कारणीय माना। धूप से छाया में खरा रहना बेहत माना। आगे सामग्री का पंचेन्द्रिय विषयों की पूर्ति में स्वयं (कुटुम्बियों ) के लिए उपयोग - उपयोग करने की अपेक्षा दान देना बेहतर पुण्य उपार्जन माना। पाप से पुण्य बेहतर माना । अशुभ से हटा अतः उसका बंध ठकने से संवर भी माना ।
स्थानकवासी गत में शुभभाव से उत्पन्न पुण्य कर्म को नाव की उपमा दी और जैसे नाव किनारे तक ले जाने में सहायक हैं वैसे शुभकर्म से उपार्जित वज्रऋषमनाराच संहनन वाला शरीर मोक्ष तक ले जाने से सहायक है औरजैसे तट पर जाते ही नाव छोड़ देने पर ही स्थल पर पांव रखा जा सकते हैं वैसे ही उस शरीरादि को छोड़ने पर ही मोक्ष रूपी स्थल, सिद्धशिला पर आत्मा ठहरती हैं।
उपयोग आत्मा का लक्षण है। एक समय के लिए भी आत्मा उपयोग रहित नहीं होता है। उपयोग दो प्रकार का होता है अशुद्धोपयोग और शुद्धोपयोग । उपयोग जब आत्माकार होता है, आत्मा का उपयोग आत्मा में ही रहता है, आत्मा आत्मा में रहत है - ठहरती तो वह आत्मा शुद्धोपयोग कहलाती है। शुद्धात्मा, सिद्धात्मा का यही स्वरूप है। संसारी आत्मा के सदा अशुद्धपयोग रहता है। इसके दो प्रकार है - अशुभ और शुभ । उपयोग जब 'पर' में जातारमता-ठहरता है तब अशुद्धोपयोग कहलाता है। 'पर के निर्मित बाहर में अनन्त होते है और जब तक आत्मा के ( अनंतानुबंधी) मिथ्यात्व कर्म का उद्य रहता है तब तक ऐसे अशुभ भाव निरन्तर, प्रति समय, ऐसे रहते हैं कि आत्मा अनंतानुबंधी कषाय । राग में वर्तन करता है। मिथ्यात्व - दशा में भी कषायारग की मंदता होती है तब यह शुभभाव में रहता है जिससे पुण्यकर्म का बंध होता हैं, परन्तु साथ में मिथ्याल रहने से अनंत राग होने से भयंकर अशुभ भाव के कारण पाप का बंध भी होता रहता है।
मिथ्यात्व दशा में बंदे पुण्य कर्म का उदय होने पर जीव चिन्तन मनन की क्षमता वाली गति-योनि क्षमता में आत है और मिथ्यात्कर्म के क्षय, सम्यकत्व के उदय में जड़-चेतन, आत्मापरमात्मा एवं पर का भेद ज्ञान कहलाता है । शुभ से शुभतर की उच्च श्रेणियों में चढ़ते चढ़ते ऐसा अपूर्वभाव आता है कि सम्यक्त्व प्रकट हो जाती है।
सम्यक्त्व प्रकट होने पर भी असुभ शुभ दोनो भावों रहते हैं परन्तु अशुभ- रूपी कषाय । राग की हेयता दृढ़ हो जाने से ऐसा
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अशुभ भाव नहीं होता कि अनन्त से बंधन हो । अशुभ भाव घटता और शुभ भाव बढ़ता है। मिथ्यात्व दशा में होने वाले शुभ और सम्यक्त्व - दशा में होने वाले शुभ में अनन्तगुना अन्तर हो जाता है। जब अनुराग अज्ञानी, रागी, संसारी सो नहीं होता । ज्ञानी, वीतरागी और शुद्धात्मा का स्मरण - चिन्तन-मनन- गुजानुराध-गुजस्मरणबहुमान - विनयभाव आता है । यह सहजभाव शुभतर, उत्कृष्ट, सातिश्य पुण्य उपार्जन करने वाला है।
प्रश्न हैं, सम्यक्तत्व प्रकट होने के बाद वह शुभभाव में रहना चाहता है या नहीं ? यदि शुद्ध सम्यक्टत्व प्रकट हुई है तो 'चाह' ही मिट जाती है। कोई इच्छा, आकांक्षा, मनोकामना, वासना, तृष्णा नहीं रहती । यदि प्रीति भाव संसार-कार्य करने की इच्छा रहती है तो गुरू / सदगुरू / आत्मा के दर्शन ही नहीं हुए यह माना जाएगा। अप्रत्यारव्यानावरजीत के उदय से तीव्रोद्य से घर-परिवार संसार (शरीरादि) का कार्य करता है परन्तु उसमें अहंबुद्धि नहीं होती, किंचित मात्र भी राग करना नहीं चाहता, श्रेणी अनुसार जो रागसमता में हैं उसी के परिणाम स्वरूप रागादि होते हैं, करना नहीं है। अशुभ तो क्या शुभराग भी हेयानिकृष्ट/अनाचारणीय हो जाता है। यदि उसने परमात्वस्वरूप स्वात्मस्रूप जाना और माना है, उसी का दृढ़ता से श्रद्धाप्रतीति- सवसंवेदन है तो उसी शुद्दात्मस्वरूप का लड़प, मात्र मोक्ष का लक्ष्य हो जाता है।
समंतदंसी न करेई पावं सम्यंवदृष्टि पाप नहीं करता । दृष्टि पुण्य-पाप बंद से हटकर 'मुक्त' पर चली जाए और फिर भी इच्छापूर्वक शुभाशुभ करके पुण्य-पाप का बंध ही करता रहे यही नहीं होता ।
सायवत्व प्रकट होने के बाद मिथ्यायाभाववृति नहीं होती, पूर्व कर्मों के संयोग से जो ब्रह्म में प्रवृत्ति होती है उसमें तादारम्य नहीं होता और ऐसा नहीं होता अर्थात् मिथ्याभाव वृत्ति (शुभाशुभ) नहीं टलती तो समझना कि सम्यक्त्व (या ज्ञान) हुआ ही नहीं है।
ज्ञान का क्षयोपशय हुआ है (अर्थात् जब तक अंशमात्र भी ज्ञानावरणीय शेष है), दर्शन - विशुद्धि पूर्णता पर नहीं पहुंची है। (दर्शनावरणीय शेष है), अप्रत्यारव्यानावरणीय प्रत्यारव्यानावरणीयसंज्जवल कषाय, नाकेषाय अवशिष्ट है, अन्नराय कर्म टूटा नहीं है तब तक, छाती कर्मबंध है।' छाती का बंध 'है' ही नहीं, अशुभ भाव होने से छाती के बंध होता भी है। जब छाती कर्मों का बंध है तो अधानी (पुण्य-पापरूप) कर्मों का होना (विद्यामान होना) और
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - उनका बंध होना भी निरंतर है, परन्तु क्या वह सम्यक ज्ञान सम्यक्दर्शनी दूसरे रूप में आचार्य उमास्वाति ने १६ बोल दिए है, सम्यक्त्वी इन शुभाशुभ प्रवृत्तियों (अशुभ और शुभ उपयोग) में जाना- दर्शन विशुद्धि से लगायत प्रवचन वत्सलता तक किसी किन्ही रमणकरना-ठहरना चाहता है तो उत्तर होगा-नहीं।
बातों की साधना (शुभतम भाव से) करता है तो तीर्थकर प्रकृति सम्यक्त्वी के मिथ्यात्वनामाकर्म की निरन्तर निर्जरा है और का बध करता है। (अध्याय ६ का २३१) शुद्धोयोगी को, शुद्धात्मस्वरूप का सकयं हो जाने से अवशिष्ट टीकाकार श्री उपाध्याय श्री केवल मुनि ने धर्मचिन्तन, छाती का भी नाश करता है तब कषायाराग की मन्दता और गुरुवन्दन और उपदेश श्रवण को शुभ क्रिया माना है। शुभ अर्थातत् बुद्धिगत मति श्रुत ज्ञान के कारण स्वतः/सहज ही पुण्यबंध होता उत्कृष्ट/प्रशस्त शुभ जो बंधन का हेतु होता है। है-करता नहीं, भावित्व नहीं, भोत्कृत्व नहीं, ज्ञातादृष्टा होता है।
अन्नादि दान भी शुभ है जिससे शांतावेदनय का बंध होता है, रागादि मात्र को, बंध मात्र को वह हेय कर चुका, हय में आए को
अनुकूल संयाम मिलते है- बाहर में स्वस्थ शरीर सुस्वर आदि, भी वह ज्ञाता दृष्टाभाव से रहकर क्षय करता जाता है।
आज्ञानुवर्ती सन्तानें, प्रिय परिजन, विमुल धन मिलेगा धर्मचिन्तनादि सम्यक्त्वी की दृष्टि में आश्रव और बंध हेम हो जाते हैं, भी शुभ की श्रेणी में है, परन्तुं ये उत्कृष्टम हैं। आत्मा के धर्म संवर-निर्जरा-मोक्ष का ही लक्ष्य होता है और उत्तरोत्तर गुजस्थानों (स्वभाव) का चिन्तन, पूर्णात्मा के गुणों का चिन्तन,पूर्णात्मा के में वह प्रमाद का छोड़ अप्रमन्त अवस्था में धर्मध्यान में जाकर गुणों का चिन्तन, उनके द्वारा बताए मोक्ष-मार्ग का निंतन श्रवण कर्मों की निर्जरा ही करना चाहता है। शुभ तथा अशुभ दोनों से परे करता है। इससे सातिशय पुण्य का बंध होगा। जितना-जितना मात्र शुद्ध उपयोग में निर्जरा होती है। सत्ता में अशुभ कर्मों का उदय उसमें तन्मय होगा, उतना-उतना उत्कृष्ट अर्थात् अनुयाग बंध होने से छाती का बंध भी होता है परन्तु क्षीण-क्षीण करता जाता अधिक और स्थिति बंध कम होगा। बंध का फल आएगा -
तीर्थप्रभु का सानिध्य, उपदेश श्रवण, गुरू का समागम, आत्मचिन्तन सम्यक्त्वी के प्रशस्त शभ भाव होते हैं. बह्म में पर में आदि। ये आत्मा का शुद्धोपयोग में ले जाने के लिए उत्कष्ट भमि प्रवत्ति करना ही नहीं चाहता है। 'कार्य की सरलता से भाव (मन) प्रदान करते है, परन्तु इन्हें (सब बाह्य प्रवृत्तियों को) बध कहा है। की सरलता से, वचन की सरलता से तथा अन्यथा प्रवृत्ति नहीं
चाहे तीर्थंकर-परमात्मा का शुद्धात्म स्वरूपही तड़प में हो। आलंबन करने से शुभनामकम के शरीर का प्रयोग बंध होता है। भगवती
'पर' का ही है और जब तक 'पर' से जुड़ा है, 'स्व' याने स्वात्मा से २१, ८, ३, ९ सरल (शुभ) परिणाम (भावों) से बंध ही होता है। नहीं जुड़ा और इसी कारण निर्जरा और मोक्ष नहीं होता। चौदह
पूर्वधारी चार ज्ञान के धारक मौसम-गजधर भी तीर्थंकर प्रभु सम्यक्त्वी के प्रशस्त शुभ भाव होते हैं, बह्म में, पर में प्रवृत्ति
पारी महावीर को छोड़ते हैं तब केवल ज्ञान होता है। करना ही नहीं चाहता है। 'कार्य की सरलता से भाव (मन) की सरलता से, वचन की सरलता से तथा अन्यथा प्रवृत्ति नहीं करने से
तीर्थंकर नाम कर्म उत्कृष्ठतम है पर है तो बंधा उसे भोगना शुभनामकम के शरीर का प्रयोग बंध होता है। भगवती २१,८,३.९
पड़ता है। आधाती कर्मेड की यही विशेषता है कि भागने से, वेदन
करने से निर्जरित होते हैं। सरल (शुभ) परिणाम (भावों में बंध ही होता है। सम्यक्त्वी के सक्रय में थोड़ा होता है। जो भावमोक्ष और
अशुद्ध के साथ शुभभावों को भी तत्वार्थ सूत्रकार ने आश्रवट्ठार द्रव्यमोक्ष में स्थित अरिहंत, सिद्ध परमात्मा है. उनकी भक्ति में में लिया है। इनसे बंध माना है।सानावेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय लीन होता है। अर्हत भक्ति से लगाकर प्रवचन भक्ति और (धर्म) एक अपक्षा स, हास्य, रात, प्ररुषवद, शुभ आय. शभ नाम और प्रभावता तक के बीस बोलों में से एकाधिक में इतना अधिक
शुभ गोत्र में आठ पुण्य प्रकृतियाँ है। विस्तार की अपेक्षा ये ४२ तत्लीन हो जाता है कि एक 'तू-ही-तु' की रटन हो जाती है। इस
प्रकार की कही गई हैं। इन पुण्य प्रकृतियों का बध से भी आत्मा रसायन से तीर्थकर-कर्म-प्रकृति का बंध होता है। उत्कृष्ट तम ।
को छूटना पड़ता है। फिर चाहे वे उत्कृष्ट रुपवाली हो जा स प्रशस्त-राग से भी नामकर्म की प्रकृति (उत्कृष्टतम तीर्थंकर प्रकृति)
सातवेदनीय, उच्च गोत्र, मनुष्य गति, पंचोन्द्रिय जाति, वज्रऋषभनार का बंध होता है। (ज्ञाताधर्म कथा अध्याय ५ सूत्र ६४)
चसंहनन, समचतुरख संस्थान, तेजस्विता,शुभ विहायोगत, सुभगनाम,
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म सुस्वरनाम, आदेयनाम, यशोकीर्तिनाम, तीर्थंकर नाम ये बंध हैं शेष रह जाय जो आयुव्य पूरी होते न रखयें तो केवली समुद्धात्
और इनसे छूटे बिना मोक्ष नहीं है। यह अवश्य है कि इन्हें निर्जरित करते हैं - ऐसा व्यवहार-कथन है, सब स्वतः होता है, प्रद्गतकरने के लिए उस पुण्यात्मा को कुछ करना नहीं पड़ता, उदय में कर्म स्वत: प्रद्गल-रूप, स्वशादि से परिणामित होते हैं। आती हैं, वेदन होता है और खिर जाती है। आत्म-स्वरूप प्रकट
तब प्रश्न है कि पुण्य उपार्जन करे या नहीं? पुण्य भी, सम्यक्त्व करने में, आत्मानन्द के भोग में ये आड़े आती।
का स्पर्श होने के पूर्व तक जीव करता ही है। कर्म चेतना और उदाहरण, सिर पर अंगारे-रूप अनंत वेदना (असातावेदनीय कर्मफल चेतना में ही रहता है। ज्ञान चेतना जगने पर सम्यक्त्व होने का अग्रतम रूप) होते हुए भी अनंत आत्मसाधना, केवलज्ञान पर, सम्यक्त्व-दशा में 'करना-करना' (कर्तृव्य-भोत्कृव्य) श्रद्धा केवलदर्शन और मोक्ष होता है। पुण्य या पाप की अघाती कर्म में पूर्णतः हेम हो जाता है। श्रद्धा में मात्र 'होना' जो 'हूँ वह जो प्रकृतियां कहां बाधा दे रहा है।
जाऊँ, धातीकर्म आत्मा के स्वरूप को आवरित करते हैं, पूर्जानन्द बसा क्या हूँ ? देहाति नोकर्म से परे, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म में बाधा पहुँचाते हैं। उनका का अंश मात्र भी शेष रहे तो केवल से परे और रागदि (कषायादि) भाव कर्म से भी परे-शुद्ध, बुद्धज्ञान-केवल दर्शन अटका रहता है। अधाती कर्म इस अर्थ में मुक्त अनंत ज्ञानादि-गुजसम्पन्न, मात्र ज्ञाता-दुष्ट भावभातां शद्धात्मा अधाती हैं कि स्वरूप का धात नहीं करते, स्वरूप चरण, अतीन्द्रिय- हूँ - वह जो जाऊँ। वही हो जाऊँ, मात्र होना है करना कुछ नहीं है। आनन्द, सर्वज्ञता-सर्वदर्शिता में बाधक नहीं होते।
केवल होना है। यह पूर्ण श्रद्धा-यहीं पूर्ण प्रतीति सतत बनी रहना है धाती कर्मों में सबसे विकराल मोहनीय हैं। (दर्शन) सम्यक्त्व है। तब फिर वह न अशुभ में प्रवृत्त होना चाहेगा, न शुभ मिथ्यात्वमोहनीय तो आत्मस्वरूप का ज्ञान और मान ही नहीं देता
में। प्रवृत्ति नहीं मात्र निवृत्ति....निवृत्ति...निवृत्ति। प्रवृत्ति भी निवृत्ति और चारिममोहनीय वीतरगता (आत्मा का निजगण) प्रकट नहीं हतु। होने देता। एक समय मे ७० कोटाकोटि सागरायम बंध करवा अनन्त पुमअय उपार्जन पहले कर लिया तभी तो पर हम सकताहै। कितना भारी-भरकम? पहाड़-जैसा। पर सम्यक्तत्व की दुर्लभ मनुष्य-जन्म(मनुव्यता), पंचोन्द्रिय पूर्णता, उच्चमोत्र, एक सुरंग और सम्पक ज्ञान का एक विस्फोट, क्षणमात्र में उस उच्चनाम, उच्चकुल जिसमें महावीर के वीतराग-मार्ग, मोक्षमार्ग पहाड़ को उड़ा देता है। इसे भोगना ही पड़े, ऐसा नहीं है। आत्म- की आराधना का सुअवसर, अर्थात् जिनेश्वर भगवन्तों के गुणचिन्तन पुरुषार्थ से, ज्ञान से छाती कर्म ट जाते हैं।
का अवसर, सदगुरू भगवन्तों से निश्रित जिनवाणी, आत्मा को परन्तु कितना ही पुरुषार्थ कर लें, पर्णज्ञानी अपना अनन्त
कर्ममल से हटाने-धोकर शुद्ध करने वाली वाणी को भी सुलभताआत्मवीर्य लगाएँ तब भी अधाती कर्मबंध अड वर्जित सातावदेनीय दुर्लभ से दुर्लभतर वस्तुएँ मिल गई। किससे मिली अनन्त पुण्य. उच्चगोत्र लगायत तीर्थकर नाम प्रकति का (पर्व) क्षय नहीं कर सातिश्य पुण्य से मिली। बुद्धि भी मिली, हिताहित का ज्ञेय-हेयसकते। भोगे छूटते है। प्रभु तीर्थंकर अरिष्टनेमि के सानिध्य में दीक्षा
उपादेय को जानने, भेद करने, उपादेयत की आराधना करने की लेकर एक ही दिन में मुनि गजसुकुमाल के वत ज्ञ३नी केवलदशई
शक्ति-बुद्धि अर्थात् ब्राह्म अनुकूलताएँ भी मिल गई। किससे होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं। पर वे तीर्थकर चाहे (चाह तो
मिली अनन्त पुण्य, सातिशय पुण्य से मिली। बुद्धि भी मिली, रहती ही नहीं) तो भी सिद्धशिला पर, आयव्यकर्म आदि चारों
हिताहित का ज्ञेय-हेय-उपादेय को जानने, भेद करने, उपादेयत की आघाती कर्म भोगे बिना नहीं जा सकते।
आराधना करने की शक्ति-बुद्धि अर्थात् ब्राह्म अनुकूलताएँ भी
मिल गई। श्रद्धा और संयम का पुरुषार्थ अति-अति, महान् दुर्लभतम (द्रव्य) मुक्तावस्था के बाधक हुए। स्वरूपानंद में कोई
है पर उन्हें सुलभ करने की अनुकूल सामग्री तो मिल गई। बाधा नहीं देते यह निश्चित है। इसीलिए इन्हें अघाती कहा। आयुव्य स्वतः पूरा हो जाता है। उसके सात ही नाम, गोम, वेदनीय भी पूरे
इतनी वियुलता गई कि (द्रषम) काल और इस (मरन) क्षेय हो जाते हैं। ये सब स्वत: पूरे होते हैं। सातावेदनीय कभी अधिक
में भी धर्मध्यान की उत्कृष्टम दशा (आठवें में प्रवेश की पूर्व स्थिति) लाने की सुलभता मिल गई।
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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - पूर्व के महान पुण्य से इतनी अनुकूलताएँ तो मिल चुकी हैं - कहा जाता है। उत्कृष्टतम तीर्थंकर नाम कर्म और अब सोचें कि अब और कौन सा पुय करें? श्रद्धा और संयम की वजभाषमनाराचसंहनन भी हों तो भी आत्मशुद्धि तो आत्म के ही आराधना तो आत्मा को स्वयं करना है। आत्मा के ज्ञानादि अनन्त ज्ञान-दर्शन-चरित्र गुणों से ही हो ही होगा। गणों को प्रकट करना हैं तो वे भी आत्मा के ही ज्ञानादि गणों से ही
शुद्ध निमित्त मिलें तो मैं भी शद्ध बनं ऐसा क्यों सोचें? शुद्ध प्रकट होंगे।
बनूं - ऐसा दृढ़ निश्चय करें तो तद्नुकूल निमित्त मिलेगा ही मिलेगा। सोचें कि अब ओर क्या करें, क्या बनें? चक्रवर्ती बनने का निमित्त क्या कर सकता है ? मात्र 'ऊंगली दर्शन'। माँ बच्चे को पुण्य करें। चक्रवर्ती बन जाएँ ओर कुछ विशेष कुरु, सभी चक्रवता ऊंगला के इशारे से ऊपर-आकाश में चन्द्रमा दिखाती है, बच्चा माँ छ: खण्ड साधते हैं, मैं सातवां साधुं तो सातवी नारकी में जाता है। और उसकी ऊंगली को देखना बंद करे तो चन्द्रमा दिखे। निमित्त जीव साक्षात् प्रभु तीर्थंकर के समोशरण में चला जाए पर उनके की (पुण्य के फल से आए निमित्त की) आवश्यकता मात्र इतनी भीतर में रहे हुए अनन्त ज्ञानादि गुणों पर अन्नर दृष्टि नहीं हो और ही है, वह दिखाता नहीं, देखने में निमित्त बनता है, देखता व्यक्ति बाहर के (आठ महाप्रति हर्यादि) वैभव को देखकर, चमत्कृत, स्वयं है। ऐसे ही पुण्य प्रकृतिरूप जितनी अनुकूल साममियाँ हैं वे होकर वाह-वाह करता हुआ लोट आए तो, अनन्त (पूर्ण) पुण्य- मात्र निमित्त हैं, कर्ता नहीं, कर्त्ता तो आत्मा स्वयं है, आत्म को ही उपार्जित किए (जिससे तीर्थंकर का सानिध्य मिला) वे भी निष्फल आत्मारूप करना है और जब आत्मा हो गए। बाहर में मिले हुए, पुण्य के फल स्वरूप सभी अनुकूल हुए अनन्त ज्ञानादि गुणों का कर्ता होता है, भोक्ता होता है तब सारे प्रसंग उपादन की अक्षमता (निर्बलता) से अफल हो जाते हैं। वे निमित्त बाहर तो जाते हैं (उनके बाहर हुए बिना अनन्त ज्ञानादि ग्रज शुद्धतम निमित्ति भी काम नहीं आए।
सम्पन्नता आती ही नहीं है) जब आत्मा अपने ही ज्ञानादि गुणों का ४२ ही पुण्य प्रकृतियाँ आत्मसाधना नहीं करवा सकती,
कर्ता-भोक्ता होता है तब आत्मा मात्र ज्ञाता दृष्टा होता है, न कर्ता न आत्मसाधना तो आत्म को ही, आत्म (के ज्ञानादि) द्वारा ही करना
भोक्ता, मात्र होता है, अपने आप में होता है, मैं आप जो भी ऐसा होगा और तब ये (पुण्य प्रकृतियाँ) निमित्त (सहायक) बनीं ऐसा
होने का दृढ़ निश्चय करेंगे होना चाहेगें - अवश्य होंगे।
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आचार्य देव श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
दीक्षा शताब्दी स्मारक गन्ध
प्रकाशन की स्मृति में
अंग्रेजी विभाग
प्रस्तुति डॉ. श्रीमती ताराबहिन रमणलालभाई शाह
मुम्बई
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Application of Anekantavada
Dr. Ramesh S. Betai
But the most important achievement of In- man tries to get free from the bondage of Karma by dian thought was in philosophy. It was regarded as making a constant and persistent effort to break the goal of all the highest practical and theoretical the shackles of sins and constantly get enriched in activities, and it indicated the point of unity amidst merit - papa and punya. all the apparent diversities which the complex
(3) This will become possible by a life of vows, growth of culture over a vast area inhabited by dif- fasts. observance of a religious and moral conduct
produced. It is essentially one of the and love and respect towards all. spiritual aspirations and obedience to the law of
(4) A selfless, unselfish life of compassion in the spirit, which were regarded as superior to eve
which man constantly lifts his Jiva high, higher and rything else, and it has out lived all the political
highest for spiritual sublimation and also wishes changes through which India passed." S.N.
and prays for spiritual sublimation and also wishes Dasgupta.'
and prays for the blessed state of all. Introductory
(5) There is more of giving up, silent suffer
ing, restraint, enunciation and even self torture of in the realm of India philosophy, Shramana
the body so that the Jiva rises higher and higher. dharma Vis-a-vis Brahmanadharma is known. In the former the outstanding contribution of the jain
(6) Purity of the Jiva, a hard and steadfast life, faith is -
a simple life more of giving rather than receiving
and unstinted faith in breaking down the knots of (a) Anekatattvada or Anekajivavada-plural
bondage and to become Nirgrantha to deserve to ism of the souls or pluralism of Reality
aspire after the higher and the highest. (b) Uplift of the Jivas through self control, aus
In the sphere of knowledge that can guide terity, cessation of karma to rise to the blessed sta
the lives of the recluses and the men of the world tus of 'Siddha'.
(the shramanas and the shravakas) aspiring for a (c) Constant gradual enrichment of Jnana
higher life, we have the following doctrines. (Knowledge) of reality that follows, and,
(i) Anekavada (d) The consequent rise to the ultimate salva
. (ii) Syadvada tion (Moksha), the uniquely blessed state that all Jivas can aspire after, for which all the Jivas have
(iii) Saptabhenginaya equal right."
The theory of knowledge that evolves as a . In the reals of the conduct and character in
result of the relation of these three, applies both to worldly life, the dominant ideals and doctrines are -
Sadhus and Shravakas in their constant effort to
rise higher, so that one has a better life as a man of (1) The cultivation of a spirit of non-hurt to and
the world and the gradual scaling to the higher and compassion towards even the most insignificant
highest. Adherence to this is naturally more stiff and looking Jivas and universal love towards all. Non
steadfast for Sadhus. violence to life, or non-hurt to living beings in their basic doctrine.
Before we come to a discussion and analy
sis of the problem of Anekantavada and its appli(2) A Gradual Uplift of the Jiva through a se
cation in the different spheres of life, it is necesries of births and deaths, during the course of which
sary that we analyse in brief the different technical inionswonomwondomarosimindrom rennonia 1 promontoriononosticirocromancierownica
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- YATEENDRASURI SMARAK GRANTH terms of Jainism so that our due analysis of the and infinite power ananta Virya." problem becomes clear and to the point. The terms Now these souls are infinite in numbers: they to be analysed are -
are substances and are eternal. They occupy count Anekatattvavada
less spacepoints in our mudane world, known as Karmabandha
Lokakasa. They are entrapped in the bodies whose Status of Parama tma - Siddha
size in expansion and contraction they take to.
There are classes of Jivas beginning from plants Salva:ion
and point higher and higher to come to the state of Tirthankara
human beings when they have mind and intellect. to be followed by our analysis of As Dasgupta saysAnekantavada, Syadvada and saptabhanginaya. "The whole space of the world is closely
packed with them lika a box filled with powder. The Anekatattvavada (Pluralism of Jivas or Atmas )
nigodas furnish the supply of souls in place of those The Jains believe that all living beings in this that have reached Moksa. But and infinitesimally universe constantly struggle through and undergo small fraction of one single nigoda has sufficed to the cycle of births and deaths in this mundane world replace the vacancy caused in the world by the and existence. The constant effort of the Jiva is to Nirvana of all the souls that have been liberate from get free from the shackles of the bondage of Karma beginningless past down to the present."" because of which it suffers from Papa (sins) and
But it as it may, the Jainas believe in plurality earns Punya (merit) in its countless births. It has to
of the souls, The Jiva trapped in the body or living reach a stage when its Papa is totally annihilated,
in the body, is overcome by Karma that that is terit is no more expected to aspire after earning even
ror striking bondage and its constant struggle is to merit; it is expected to scale still higher heights. rise higher, by annihilation of Karma and the conAll the Jivas struggle through the cycle of the se- sequent Papa - sin and by gaining merit-Punya by ries of inumerable lives for total freedom from all
meritorious deeds and ecquirement of knowledge. bondage, not only of Papa but also of Punya. All
Enrichment of knowledge and annihilation of the the Jivas can get qualified to scale the higher and
bondage of Karma going on constantly in the highest uplift; no Jiva though temporarily lowly is course of the infinite series of births that is has to lost or condemned in the Jaina.faith. Siddhi or lib
take to. Then the higher state of Atma is achieved. eration or salvation is the ideal or the ultimate aim
The process is on and the march towards liberain view.
tion is on. Then the Atma becomes Parama Atma9; The three gems of right knowledge (samyak every atma can rise higher higher as laid down Jvnana), right vision (Samyak darshana) and right above. Parama- tma is not the paramatma, God the conduct and character (Samyak Charitra) come to Supreme, the unique force at the root of the entire its help and reecue. As Dasgupta states
universe. Then follows the stage of Tirthankara and *The Principle of life is entirely distinct from ultimately comes the stage of siddha - the stage of the body, and it is most erroneous to think that life attainment or purfection by the Jiva. We may call it is either the product or the property of the body. It is salvation or liberation. But even with this, the Jainas an account of this life - principle that the body ap- have retained the theory of pluralism. Even though pears to be living. This principle is the soul." there might be found distant affinity or influence of and,
Advaits of the Upanishads here; the fact remains
that they retain pluralism as against absolutism. "The soul in its pure state is possessed of
This speaks for the very wide, shall we say, almost infinite perception - ananta dar sana, infinite knowl
a universal outlook, in that the terrors - striking sufedge. ananta Jnnana, infinite bliss - anants-sukha
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-YATEENDRA SURI SMARAK GRANTH fering and torture of the Jiva aspiring after libera- untiring effort at raising it by right knowledge, right tion in the intinite cycle of so-called births and vision and right conduct and character. deaths is there, but all the Jivas, if they so will, if
The consequent rise to the ultimate state of they develop genuine free-will can aspire for sal
salvation comes next, It is the highest blessed vation. This theory has remained at the very root stage that even Tirthankaras would aspire after. The of the Anekantavada that they have evolved, de- Jainas call this state Siddhadasha that is to be all veloped and entiched in their theory of knowledge. and end all of the effort and aspiration of the Jiva.
Radhakrishan is an Advaiti. We do not go into the details of the philosophy beKevaladvaitavadi and a follower of shankara. He cause this would be enough for our purpose, to go is thus an absolutist and he criticises the pluralism to the principle of Anekantavada and further, its of the souls of the Jainas in these words;
application in life, in its varied spheres. "It is not possible for us to support the doc
Anekantavada - Meaning trine of the plurality of souls when we have no means of finding out whether in the ultimate condi
The word is explained by Dasgupta as rela. tion there is any basis for distinction. Salvation is tive pluralism" and by Radhakrishnan as" the docinconsistent with a separate personality that is trine of the manyness of reality" and the doctrine throughout hampered by what is external and con- of non-absolutism" by Sukhalalji. tingent and is bound up with the bodily organism and nature itself. The particularity of self opens the
Pandit Sukhlal is right when he states that - way to error and sin and salvation means the abo
"Not only Jainas, even discriminative nonlition of this particularity."
Jains know, the Jain philosophy and the Jain sect Here, it is not our purpose to go in to the
as nonabsolutist philosophy or as non-absolutist intricacies of the problem; we are to go to the doc
faith. For Jainas this belief in non-absolutism has trine of Anekantavada We have referred above to
a place of pride in their faith and they have claimed the way of life, the Acharadharma both for sadhus that the doctrine is great, liberal and excellent."12 and men of the world. It is the means whereby the It is a method of thought and analysis. It is a Jivas progress to higher and higher rise, uplift, a mental eye that is open from all directions and all more blessed birth or state.
sides. We will understand it, first of all by means of Now, as the Jaina dharma is the a simple example from life. sharamana dharma as opposed to the ritualist Take the example of a woman. say around Brahmana dharma. Along with the Buddhists, once 30. How do diferent persons view her? She is only that the nighest aspiration for the Jiva. is constant a beautiful woman to a passerby, a woman to a and untiring, sublimation and uprise, the path to- Sadhu. But she is wife to her husband, mother to wards liberation is through the constant effort at its her children, sister to her brother and sisters. cwn uplift through self-control, austerity, self-suf- daugher to her parents, a friend to her companions. iering and even self-torture so that gradually an employee to her boss in the office where she Karma-both good and bad-continues to get anni- serves, a good neighebour etc. We ask ourselves. hilated: so that the rising Jiva slowly and steadily If she has so many personalities what is she in regets free from the shackles of the bondage of ality ? we cannot deny any of the persepectives of Karma
the woman in question. Every view of hers in cor
rect from one angle of vision. As Sukhlalji states. Karmabandha
“This partiality is based on truth and that only This leads to constant and gradual The theory of this non-absolutism is not just an imenrichments of knowledge of Reality followed by agination; it is a doctrine proved by truth, it is pni.
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH
losophy and subject of discriminativeness. The lifeforce of non-absolutism lies in this that it asks us to think with an open mind and it inspires us to think over and adopt other views also. Thus power and life of nonabsolutism is open-mindedness, clarity and impartiality of thought."""
There could be no better explanation or clear cut analysis of the doctrine than this. Actually, with every vision apparently different, we come to touch upon reality, one or other aspect of reality. With every different vision we come nearer to truth about reality."4
We can take other subtler examples. In the Chhandogya Upanishad, we have the story of Indra and Virochana who came as pupils at the feet of Brahma; they wanted to be instructed about the reality that Brahman was. Virochana, the representative of the demons, returned satisfied that he had grasped the truth when he came to understand that body was reality and therefore body shall be worshipped, decorated, pampered.15
But Indra, the representative of gods was given part of the truth and he returned several times with further testing and as taking questions, ultimately to grasp the truth that
"The purusah that you visualize in the eyes, that is Brahman, "16 The questions that arose in the mind of Indra every time show that every time he had known and grasped only the partial truth. The angle of vision differed was widened every time and brought him nearer to truth or reality, This repeated thinking by Indra is the outcome of so many questions one after the other that spring from the different angles of vision over the same reality. This is simply a means to reach the fuller conception, an all sided full vision of reality, call it this wordly or other worldly.
Saptabhangi Naya
While Dr. Radhakrishnan comes to a discussion on Saptabhangi Naya, he rightly opines that it is a logical correllary of the anekantavada. The Jainas adopt the view of pluralistic realism and there too, in the realm of logical analysis and knowledge.
Ge6d[ 4
This doctrine too can be applicable as consistently following the Jaina philosophy. Radhakrishnan explains this consistancy17, and addas;
"Since reality is multiform and ever chang ing, nothing can be considered to be existing everywhere and at all times and in all ways and places, and it is impossible to pledge ourselves to an inflexible creed, 18 The seven steps of the Bhanga are - 1. May be it is (Syat Asti)
2.
May be it is not (Syat Nasti)
3.
May be it is and it is not. (Astinasti)
4.
May be it is indescribable (Syat Avaktavya) 5. May be it is and is indescribable (Syat asti Avaktavya)
6. May be it is not and is indescribable (Syat nasti Avaktavya)
7. May be it is, it is not and is indescribable (Syat Asti-nasti-Avaktavya)
This doctrine guides the student to view a thing, an object, a principle or Jiva in several options i.e., as many ways as, possible. This syadvada is known as saptabhangi naya because of the seven probabilities which try to cover up all the probabilities (Syat) or the options Sukhlalji states that
"The number seven is laid down because more than seven options bhangas are not possible. Split the first three in a variety and sapts bhangi results. If we can find more than seven bhangas, Jain philosophy cannot insist on saptabhangi."
However, he is of the opinion that the first three are the most important and the rest are rather minor off-shoots of the three. Dr. Apte is of the opinion that the first two are the most important. 20 However, if we insist on giving importance to all the seven, there should be no harm. Knowledge of a thing can be grasped by as many options as possible and scholars and sages have contended that both in our life and in the realm of drarma and darshana(philosophy), there be some things or problems or experiences that defy all due expression in words. ]s
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-YATEENDRASURI SMARAK GRANTH
One statemant in the Taittiriya Upnished has these words 'about the through grasp of absolute Reality that is Brahman.
That from which speech comes back together with the mind without attaining him."
According to this statement the Ultimate Reality is not within the purview of speech.
Buddhism states that is mans life there are several things that are indefinable (Avyakrita) and so, states the Acaranga sutra (170)
``All sounds or word fall back and there is no reason there."
Jainism also refers to several experiences as Anabhilapya in the same sense.
A brief sumary of this famous doctrine of Saptabhangi, which elaborates or Anekantavada, is very much there with Jainism because of its famous doctrine of Pluralistic Realism" Thus it is, that Anekatmavada is a link between pluralistic Realism and the theory of knowledge of the Jainas.
It would be in fitness of things it we give a brief summery of the doctrine of Naya in the words of Pundit Sukhlalji. This will go a long way in helping us to expand views in the realm of application -
(1) The spirit of Saptabhangi is inspired by the desire to co-ordinate the contemporary mutually contradictory isms..
(2) We should there by precisely check the nature of the object and derive real knowledge. This is the goal.
(3) Basically, only three options are possible with regard to any trait that strikes the intellect. However we multiply the number by changes of word, only number seven is possible.
(4) Saptabhangi is found with each trait of an object. This is one proof of the view of Anekanta. It's examples are given as word, Atma etc. This is because the ancient Arya thinkers thought principally on Atma, and at the most took Sabda in their discussion on the authority of the Agamas.
(5) In the philosophies, vedic etc., in the.philosophy of Vallabha in particular, the doctrine of Sarva dharma Samanvaya the co-ordination of all traits, is a form only of this, Shankara himself describes object but states that it is indefinable.
(6) The purpose at the root is to bring to gether all that cannot be disproved by proof,"22
Radhakrishan however states -
"This fact that we are conscious of our relativity means the we have to reach out to a fuller conception. It is from that higher absolute point of view that the lower relatives can be explained. All true explanation is from above downwards."23
and
"The recognition of every form of knowledge as relative, something bound to pass over into something else, requires us to assume a larger reality, an absolute in which all the relatives fall"24
We can state that even this attempt on part of the scholars and sages to take up these Saptabhangsinaya, which is a corrolary to Anekantavada is an attempt by the Jain as to reach the highest conceivable truth, to prefection. Even as an attempt to reach perfection, it is worth experimentation.
If we state that absolutism is an extreme, so is pluralistic Realise of the Jainas; the Jains also given to us descriptions of the freed soul in the stages-Jiva, Atma, Paramatama, Tirthankara and Siddha. It is true that positive descriptions are given of the great soul as that it has infinite consciousness, pure understanding, absolute freedom and external bliss................ 25
Application of Anekantavada
As we come to the question of application of this doctrime in various spheres of life and in the spheres of philosophy, we will take a few examples and see how the doctrine will suit and apply in these. But as we do this, two statements will be worth noticing.
Grávamávad 5 þáðmónáið
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-YATEENDRASURI SMARAK GRANTH - As Dasgupta states -
as the momentous decision came, the parents were
shocked, unhappy, baffled. ...... nothing could be affirmed abso
Now, the whole position came to this. The lutely, as all affirmetions were true only under cer
younger son was firm on his decision though he tain limitations. "26
sought the consent of his parents for his new life and,
and initiation.
The mother, through extreme, emotional at.....................all affirmations are true of a thing
tachment was not inclined to give her consent, only in a certain limited sense. All things (vastu)
though she was very much religious. thus possess an infinite number of qualities (Anekadharmatmakam Vastu) each of which can:
The father had, besides emotional attachment, only be affirmed in a particular sense. Such an or
several worldly and practical considerations in not dinary thing as a jug will be found to be the obiect giving consent. of an infinite number of quailities from infinite points The elder son has his own views partly lovof view, which are all true in certain restricted ing and partly selfish and he suggested that the senses and not absolutely". 27
parents give their consent. and.. "
The grant parents looked upon this as grand
opportunity to win laurels in the society, to win pres"Thus in some relation or other, anything may tige. They advised the parent of the boy to give their be affirmed of any other, thing, and again in other consent willingly and illingly, and raise the status relations, the very same thing cannot be affirmed of the family high. of it. The different standpoints from which, things. There was a friend of the younger brother who (though possessed of infinite determinations) can advised initiation into monk-hood only after proper be spoken of as possessing this or that quality or maturity and after passing through mundane life as appearing in relation to this or that, are techni- for a few years. cally called Naya !"
Another friend stongly advised the parents
not to give consent, but to get him married to his Application
sister who desired so. Let us now take a few glaring example
Thus, truth is to be viewed at from several whereby we can see how Anekantvada can be
angles by the parents to arrive at a decision whether applied in life. The First example that we take is
or not to give their consent. They are of open that from family life. There is, say, the case of a fam
hearted and give weight to all the opinions. ily of four-husband, wife and two sons. The sons
Now there are several angles of vision from are brough up well, highly educated and the par
which the proposal is being viewed and every anents sacrificed lots for the sons with the intention
gle of vision is based on some consideration or of imparting good cultural heritage, education and settled life to them. Then comes the question of their
another. The whole proposal is in a fix and the relacareer. Whatever the ambitions of the parents the
tives suggest other alternatives also. All want to
come to a postive decision which also reflects elder son resolves to take up his fathers business and the younger one states that he wants to be
upon the proposal of the younger son and its concome a Jain Sadhu. For years tha parents had seen
sequences. A sincere attempt is there on part of all that their younger son had little interest in worldly
to come to a unanimous decision in which the atlairs and he was getting more and more leaning
visioning by all shall prevent conflicts the towards Dharma. Parents were themselves reli
visionings of all should come together because the
question is to be solved, as far as possible, to the gious and so, for years they encouraged him. But 44
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(3)
YATEENDRASURI SMARAK GRANTH satisfaction of all. Here, Anekantavada and of knowledge, thingking and conduct."29 Saptabhangi come to the resume. The family may
Another example will be this. A Jain Sadhu sit together and discuss the problems whether or considers as to what his relation with the society in not the parents should give their consent to the
the mundane world should be. He has renounced younger son. The doctrine of non-absolutism when
the woidly life and stays in an upashrays. He has grasped will guide them. The following fundamen
taken to the life of renunciation, a life of austerities tals will be accepted be all.
and suffering so that his consciousness scales (1) The keen desire of the young man is worth higher and higher hights to come to a stage of sal
serious consideration, definitely not worth out- vation. As Dr. Radhakrishan state - right rejection.
"A Jiva is a particular kind of existent thing. (2) Different family member and friends can have The liverated Jiva, freed from matter is Atman. The
different views on the matter due to their vary. Atman is pure consciousness untainted by matter. ing considrations, angles of vision and under- It excludes all space and externality. It is the Jiva standing.
purified, raised to the highest spiritual status which There can be several options (a) consent be is mere forless consciousness."30 granted (b) consent be not granted; Now what should be his attitude to the world? (c)consent be postponed and the young man There are several options : be advised to reconsider the matter (d) The 1:
He may remain awayfrom worldly men and young man may be advised to think longer
women, keep them at an arms' length. over the matter and see if he can find some
2. Be may tender advice as his consciousness other alternative for himself, (e) all family
tells, when advice is sought. members may ponder over the matter and consider whether they can give up or modify
He may deliver regular sermons to larger or their stand; (f) someone may feel that the prob
smaller assemblies. lem of consent defies all consideration and so- 4. He may go for begging but with his mind unlutions; (g) All might try to come to a positive concerned about what he receives or about dicision of yes or no very difficult though it is.
the family of donor. Good intentions, avoidance of conflict, modi- 5. He may indirectly suggest his tastes to them. fication of their stands and consideration, a spirit 6. He may go and attend marriage ceremoniee of mutual trust and respect for each other and spirit to bless the newly married. of adjustment etc.; are in fact in the young minds of 7. He may visit libraries for further studies and the members of the family and the man. Faith in
acquisition of knowledge. goodness and confidence in each other, due re
8.
He may take interest in worldly affairs at times. spect for each others views etc. are the points that are taught by this theory of non-absolutism and the
He will remain unconcerned about what hapseven possible alternatives.
pens around him and consciously raise his
Atma to a higher status. Here, we are convinced that the application of the doctrine will go a long way in solving the
He may become a staunch propagator of the
Jaina faith. problem. This fructifies the explanation of Anekantavada given by Sukhlalji :
This will naturally be in addition to his regular "Non-absolutism is a method of thinking and
and staunch duties as a sadhu, or as a Sadhaks.
a analysis. It is a mental eye that is open from all
All these options stand before him, now and directions and all sides. It refuses outright to view. then. Every time he will go deep into their pros and from a broken or an incomplete angle, any subject cons and the consequent effect upon his person
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-YATEENDRASURI SMARAK GRANTH
ality and every time he should examine the propriety of the options, its rightness and wrongness as it has occured to him. All the while he will remain alert about the influence, good or bad / adverse of the option adopted. He will consider every option from several angles of vision, including that of his onward march towards the highest goal. Cool thingking, is not possible. He will also consider the effects good and bad, of his mixing with people, his influence on them and theirs on him. All the while he will keep present in his consciousness that all are Jivas though as higher status or lower and that all can get qualified of their own free-will to rise to the highest state of Siddha, may be as a result of the struggle of hundreds of births. Unconcerned and impersonal sympathy, compassion, etc. will remain in his heart. Then he will grasp the real meaning of unselfish spirit of non-hurting to animals. A little sense of distinction constantly at work will help him to rise higher even here. This is the magic-like effect of Anekantavada and its grand guiding principle of Saptabhangi.
We may now take the case of the factory workers who have given notice of strike and have submitted a charter of demands. Some of the demands (may be true, some may be false, some may be exaggerted.) Some justitfied demands too 'may be' not possible to be met due to (a) the financial stringency of the company, and (b) due to the diffi culty in paying even the minimum dividend to the share-holders. Here, the workers will claim that all their demands are just and the management might not be willing to pay more or sanction more benefits to the workers; the share-holders desire to have higher dividents. All have their own angles of vision, interests and truth (which is not absolute) . and these are based on certain other considerations. Here truth and solution are to be sought. We can agree about the sevenfold judgement, though there can be more facets, we can consider with an open mind and study the problem in all varied aspects and argue
(1) May be the demands are true and just. (2) May be the demands are false and unjust
(3) May be they are true from one angle of vision and may be, false from another angle of vision. May be, the demands defy all solutions. May be, the demands are just and and yet difficult be met.
(4)
(5)
(6) May be the demands are false and yet not conceding would create other problems.
(7) May be the demands are true or false and defying all the solutions.
(8) Even if we take just these seven judgments
and proceed to find a solution, it would be possible, to arrive at truth be
(a) A sincere attempt by all to understand and accept the points of view and other considerations concerned in the matter.
(b) A spirit of give and take based on humanitarian grounds may be sought to be helpful.
(c) Mutual understanding and adjustments may be brought in.
(d) Respect for all and sincerity shall be at
work.
(e) All in their moments of calm and wisdom might combine to find a way out.
(f) Even the workers must realize the consequences of extremism that they have to face.
This is the spirit of Anekantavada which has a corrolary in the seven fold judgment in application. Umeshmishra therefore rightly stresses the point that
"When man is baffled by the problem that he faces, he tries hard to probe into reality and try to examine and analyse its traits, its multi-facets and so many angles of vision. It is here that the spirit of Anekantavada and the seven-fold judgment come to his rescue."31
STEG 8
The word 'syat' in the saptabhangi or syadvada is significant it implies -
(a)
(b)
acceptance of many facets of truth; acceptance of very great difficulty in arriving at what might be called absolute truth, which evades man for long.
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aoni
YATEENDRASURI SMARAK GRANTH (c) Only through respect for others, one break out, the very essence; essence does not here mean
ground and come nearer to the vision of oth- necessarily only the best in Jainism as stated earers. This requires larger hearteness.
lier, Can he possibliy become objective ? How? Avoidance of extremes though it is not exactly
Becoming objective means making his state of the adherence to the middle path (Madhyama
mind clean and this is, possible by a conscious Marga) of the Buddhists
due acceptance that he can become open-minded. (e) Itis a hard affort to arrive at the right decision
He has to keep the doors and windows of his mind
and heart open to receive all good and all that is () In the realms of Jnana it is a constant attempt
human, as Mahatma Gandhi stated once. to come near and also nearer to truth.
bay now study one more case. It is the He will not take for granted Jainism as he will case of a devoted christian scholar, making an at Christianity-his own Dharma. He can become crititempt in all sincerity at an objective, comparative cal of Jainism. But even his angle of vision of deep study of Jainism to arrive at, not necessarily
Dharma might misguide him, if he were to evalute the best in Jainism but actually at the very essence Jainism by his own concepts which are his own of Jainism.
and foreign to Jainism. This can be understood by
a concrete example, There are so many As he is a men of deep conviction, faith and westerners, who, when they evalute our Indian devotion towards Christanity, his own religion is so Philosphy, feel that it is no philosophy at all. Here very much in his blood that it becomes very difti- the mistake committed is to view Indian Philosocult for his to study and view other religions and phy from their western angle of vision, often with a philosophies impartially, though in our case, the sense of superiority - complex. A thorough grasp scholar is not begotted and does not like any priest of what we call the saptabhangi can save him from of the past, proclaim that christ is the only prophet committing such a mistake. He will have to put on and christianity the only religion: "For him thebasic do his best of put on the vision of varied judgments. question is -- can he become absolutely neutral Perhaps it was schopenhaver who did not commit and objective and study Jainism to draw its picture this mistake when he had these words of admiraas it is ? On one side stands his deep regard for tion about the Upanishadsand faith in his own religion which is interwoven
"The Upanishads are a solace of my life; they as if in his blood inself.
will become a solace of my death." This is no doubt coupled with a deep study of Jainism look upon all the Jivas with the same his own Dharma; he is a christian not just blind and kind and sympathetic consideration, though it conmechanical faith but by conviction, with this he stud- cedes that there are cadres and stages in these. ies Jainism. Can he become open-minded? Can The Jiva that is an insect or an animal today is not he become neutral about that which strikes him as so tomorrow. This will come to the grasp of the stusurprising? Can he become objective ? What can dent by a thorugh grasp of Anekatntavada or pluhe do and how ? He is honest to hisself and keenly ralism in the realm of Reality manyness of Reality. desires to make a study of a religion not of his own. Man avoids extremes when he applies his partial Here it is that the very much prised great doctrine vision. Then it is that the Jaina theory of knowledge of Anekantavada can come to his help, his rescue. dominated by Anekantavada guides his. A humanThis great doctrine and Syadvada with it can pos- istic and liberal outlook is to be cultivated and he sibly guide his way.
will be helped in becomeing objective in his effort
at the right understanding and grasp of Jainism that After a very careful, all-sided and through
is then followed by his comparative study. The study of Jainism and all things associated with it:
Jaina theory of knowledge dominated by after viewing Jainism in practice, he will try to find
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-YATEENDRASURI SMARAK GRANTH - Anekantavada guides him. A humanistic and lib- that was in deep sleep, and brings to real and new eral outlook is to be cultivated and he will be helped life my speech by its own lustre-it holds the masin becoming objective in his effort at the right un- tery of the entire power to do so. It also brings to life derstanding and grasp of jainism that is then fol- and new awakening the organs (prana) of hand, lowed by his comparative study. The Jaina theory feet, hearing, touch etc." of knowledge will help him in becoming free from
The effort to awaken faith in Dharma is here prejudices, from the overpowering sense of supe
honest, sincere, hard and persistent. But he does riority and evalution on lower levels. May be all his
not pretend, he does not enter self-deception. Faith efforts might fail in grasping certain things here.
in Dharma does not awaken though he does not But Saptabhangi has to taught him & experience.
give up vows, fasts etc. that are preseribed, does May be it is Avatkavya or indefinable or in
not give up study and hearing of sermons. But he expressible."
feels all-the-while that he resorts to these things A persistent effort at becoming ofbjective will mechanically; the necessary inner faith does not be creating an awakening in his inner conscious awaken. Dharma does not become a part and parness and this is due to his effort to apply cel of his life, his personality. He is keen on feelAnekantavada that we have alaborated earlier, ing, experiencing that Dharma is an inner urge that considerably. This persistent effort will surely not must be satisfied. He wants to feel in all sincerity go in vain and he will come to a stage when his on that concepts that were perhaps reconceived motions "I am not what I am, nothing if I am not relior prejudices have been almost revolutionised. This gious." is a hard and tough effort - this is the practical and
Here again, application of Anekantavada can theoretical application of the doctrine. But the ef
come to his rescue if he grasps it, adopts it in its fort was really worth and it has brought his person
right meaning, correct perspective and sincere feelality higher; now he has got the due training of mind
ing and experience, as we have laid down above. and heart. Thus, for an objective and comparative
Let him ponder over the doctrine, argue with him. study, the doctrine itself has become the torch
self with the help of the Saptabhangi and go ahead. bearer. It has refined his angle of vision of his own
The doors of his heart will open. He will begin Dharma and his brought him on better grounds to
slowly and steadily to feel that - undertake the task.
(i) He feels the inner urge to have all sympathy, We now take the last example of the appli
compassion, warm regards for all the conceivcation of Anekantavada
able Jivas, whatever their status and limitaAnekantavada - We tak the example of a man
tions. who is sincere in his feeling that faith in Dharma
His heart will begin to feel that non-hurt to all does not ganuinely awaken in his consciousness
living beings, self-sacrifice for them and for even though
his own self are what he learns. (1) He practises Dharma consciously as
(iii) Then it is that he hates none, retaliates preached to him by heritage, the psychic effects
against no-body, even when attackeds. that his Jiva has brought from the previous lives,
This takes his own Atma to scale higher the study of the scriptures and hearing of the sermons. He takes the vows and observes fasts he.
heights and achievements. He very regularly says his prayers and tries to
Knowledge gained thereby has made him a awaken his consciousness, he prays
better and a higher human being, ever on the "My salutations to you, O'divina Purusha.
path of progress, sublimation to the highest
conceivable aspiration as a man. purusha that enters internally deep in my speech, inreimenovanenmerensromeramerimaranorennen 10 panoramaNeramerimerameramenormowanoramramor
(iv)
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-YATEENDRASURI SMARAK GRANTH (vi) He will then be convinced that has adopted plication of the doctrine to solve our problems.
Dharma as a part and parcel of his personal- (8) sympathy, compassion, respects for all the ity. The inner experience of being a religious
Jivas develops in natural course. human being has awakened. He may then
(9) This naturally means non-hurt-physical, menbe a christian or a Hindu, a Jaina or a Bud
tal, emotional and philosophical-to others. dhist; he has become Dharmika.
(10) The doctrine thus accepts the principle of All this is sufficient to convince him about the
unity in the midst of diversity, even though magic that has worked on him, thanks to the appli
absolutism in thephilosophical sense finds no cation of Anekantavada.
prominent place in Jainism, not even in its The Summing up
theory of knowledge. . This is how we have studied and analysed
(11) Compromise, adjustment etc. develop in life
though temporal, selfish solutions are not althe doctrine of Anekantavada, We defined it in the
lowed to evolve. words of great scholars and learnt of the theory and
(12) All this shows that application of this doctrine elaborated on it. Then, as we applied it in life. by means of five varied examples, we find, to our great
in life is more important than mere theory just
as we can state that Darshana is more msurprise, that the doctrine of Anekantavada has a far wider application, and, in practical application,
portant than mere tattvajnana, as explained the meaning of the doctrine gets for widened and
by Radhakrishan, Dasgupta, Sukhlalji and all
others. elaborated. In practice, the theory of knowledge in application, becomes for more expanded and ex- (13) The doctrine will be of no help to arm. pressive, it is further clarified. The theory is very
chairadicals in the western sense of the term. much there, but its various facets give to us almost . We may end our study of the problem of nona new, vision and clear concept. Application of this extermism with these scholarly words of Dalsukh great doctrine means these points
Malvania - (1) acceptance that truth can have and does have
"Non-extremism must be adopted in full, obmany facets mundane life as also in philo , servance of non-violence is to be resorted to. Thus, sophical life.
the principle of non-extremism, the philosophical The doctrine stands true to men of the world doctrine of Jainism springs from non-violence. as also to sadhus.
The meaning of non-extremism is this - keep All facets must be duly respected and given the doors of thinking open, and you will acquire the same importance when a problem is to truth from the thoughts of all, For those who are be resolved.
insistent about truth, the false insistence to be given (4) Absolute truth and as absolute solution are
up is--only what I belive is truth and what others difficult to arrive at.
believe in is falsehood." If one does not give up
this, he will be doing injustice to other and this too (5) The doctrine is a natural corrology to the phi
amounts to violence. It is, therefore, absolutely nec. losophy of Anekatmavada and the
essary for the non-violent to be non-extremist Saptabhangi Naya is a natural corrolory to the
Therefore, the development of Jain Philosophica doctrine of knowledge that is Anekantavada.
doctrine of Jainism springs from non-violence. (6) It brings the Jivas nearer and makes them
The meaning of non-extremism is this keep more tolerant to the different outlook of oth
the doors of thinking open, and you will acquire ers.
truth from the thoughts of all, For those who are (7) liboral outlook develops in us due to the ap- insistent about truth, the false insistence to be given iniintindinioni i niinom 11 tincidintrinsinin nimiini
(2)
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH up is - "only what I belive is truth and what others 11. "Indian philosophy", Vol. 1 p. 388. belive in is falsehood." If one does not give up this, 12. "Essence of Jainism" - p. 167 Pandit Sukhlal, he will be doing injustice to others and this too
tr. R.S. Betai. amounts to violence. It is, therefore, absolutely nec
13. "Essence of Jainism, "p. 167, Pundit Sukhlal, essary for the non-violent to be non-extremist.
tr. R.S. Betai. Therefore, the development of Jain Philosophy lies
14. This is similar to the statement in the realm of not is extremism but non-extremism."33
philosophy that " पादे पादे जायते तत्त्वबधिः with Footnotes
every theory and concept we are enlightened 1. History of Indian Philosophy" Vol. One p. 1
more about Reality." 2. As designated by S. Radhakrishnan.
15. This was one of the methods of teaching the
doctrines of the panishads, the pupil shall be 3. Actually, except for Charvakadarahana, all
taken upto the stage of the fulfilment of his philosophies accept and adopt salvation or
desire to know, his Jijnasa and shall be Moksha as the final goal of their metaphysi
guided further only if this inspires further cal, spiritual pursuits & also called Nirvana.
doubts and questions in the mind. The Jijnasa Their concepts of Moksha or Nirvana how
of virochans was satisfied by this his, underever vary.
standing and he inquired no further. That is This is one meaning of the term "Nirgrantha".
also areason why the Gita says - 7 StGeta In fact, becoming totally free from Karma on
जनयेदज्ञानां कर्मसगिनाम् । one side and aspiring to get enriched in Jnana on the other is the way, of the sadhus and the
16. 99 3f&ionegud 1954. sharavaks both to enrich their inner awaken- 17. Indian Philosophy," Vol. one p. 304 ing and consciousness so that the path to 18. Vide as in 17 Moksha becomes clear; ultimately of course,
19. Vide Essence of Jainism," Pundit Sukhalal, even Jnana is expected not to become a
tr. R.S. Betai bondage.
20. Vide his paper 6. History of Indian philosophy Vol. 1 p.
21. uat arut Flat : 1 7. As above P.
22. "Essence of Jainism," P. 182-183, Pundit 8. As above P.
Sukhlal tr. R.S. Betai The Jainas do not accept the existence of an
23. "Indian Philosophy" Vol. one, p. 306 absolute, highest, one supreme Reality called Parabrahma or Paramatma or god the su
24. "Indian Philosophy", Vol. one p. 307 preme that Shankara looks upon as the high
25. "Indian Philosophy," Vol. one, p. 333 est and only Reality as Kevaladvaitavadin, 26. "History of Indian Philosophy," Vol. one. p. which is known by the western scholars by
176. the term "monism". Pluralism of Atmas is the
27. As above, p. 176 very basis of Jainism and in its absence, it
28. As above, p. 176 would not be Jainism.
29. 'Essence of Jainism' Pundit Sukhlalji, p.167; Equal respect for all the Jivas is the very basis of their liberalism and the consequencos
tr. R. S. Betai of this have a far-extending bearing on the 30. Indian Philosophy," Vol. one, p. 335 whole faith.
31. "Bhartiya Darshan" (Hindi) Dr. Umesh
Mishra, p. 130
9.
10.
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH 32. WSTT: Afyyny dufHHİ YHTE
Indian Philosophy - Hiriyana. संजीवयत्यरितालपूक्तिधरः स्वधाम्नो।।
5. Syadvadamanjari अन्यांद्रच हस्तचरण श्रवणत्वगादीन्।
6. Essence of Jainism (Jain Dharmano Pran प्राणान्नमो भगवते पुरुषात्व तुम्यम्।।
Gujarati)
- Trans. Ramesh S. Betai 33. "Essence of Jainism," Pundit Sukhlalji, p. 16
7. History of Indian Philosophy - Sinha (Preface) tr. R. S. Betai.
8. Heart of Hindustan - S. Radhakrishnan Select Bibliography
9. Run Atma Chhun Tarvlatabai Mahasatiji 1. History of Indian Philosophy, vol. 1, S. N.
(trans. R. S. Betai) Dasgupta
10. Atma - Siddhi Shastra - Shrimad Rajchandra 2. Indian Philosophy vol. 1, SS. Radhakrishnan '11. Lokatattvanirnaya - Haribhadrasuri 3. Bharatiya Tattvajnana (Hindi)-Umesh Mishra 12. Uppadeshamala - Dharmadasgani (Prakrit)
infi inilind
rominion
13 Homininou
ochondrion
imin
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On Mathematical Contents of Jaina Prakrit Texts
A Brief Survey
Prof Padmavathamma, H.O.D. Mathematics, Mysore University
Prof. L.C. Jain Hon. Director A.V.R.I.above Diksha Jewelers, 554, Sarafa, jabalpur (M.P.) INDIA (NORTH)
ABSTRACT
the Jaina Karma philosophy in the symbolic forms, Certain mathematical contents of the Prakrit
akrit arithmetical, algebraical and geometrical.? texts are simply described here in view of the sym
Mahaviracharya', the author of the Ganitasara bolic mathematic used in Karnataka Vritti of the samaraha, did collect the mathematical material from Gommatasara and the Labdhisara as elaborated
the Jaina source material and he goes beyond in by Pt. Todaramala. This consolidates the Karma
stating that whatever is more to be said may be theory in the Jaina School. The cosmological seen in the Agama. Sridharacharya is still contheory contains the astronomical and geographi- troversial, however, in the history of mathematics. cal mathematics which is quite simple for study yet deeper in approach to setting of mathematical
Still now we do not have the Jyotisapatala of background of a model.
Mahaviracharya, nor the Parikarma text or com
mentary work of Kundkundacarya. Similarly the 1. INTRODUCTION
commentaries of Tumbucluracarya and
Samantabhadracarya are not available which Let us start with a quotaton of the philosopher
could have told and traced the algebraic symbolscientist Albert Einstein, regarding mathematical ism of the Karnataka Vritti of Kesava Varni. achievements of the Greeks round about the Christain era, "We reverence Greece as the cra
There are several problems in the history of dle of western science. Here for the first time the
mathematics and science which could be solved world witnessed the miracle of logical system which
regarding the source in India if we could channelize proceeded from step to step with such precision
the talents of brilliant scholars of Jainism and that every single one of its propositions was abso. Prakrit towards this end in our universities. Bhopal lutely indubitable - I refer to Euclid's geometry. This
university has opened such a course in the departadmirable truimph of reasoning gave the human
ment of religion and culture recently. The problems intellect the necessary confidence in itself for its
are regarding the origination of and motivation of subsequent achievements. If Eculid failed to kin
a paradigm shift in the terminology and usage of dle your youthful enthusiasm, then you were not
symbols. In the Prakrit texts, we find the logical born to be a scientific thinker."
and philosophical co-mathematical terms, no doubt
as in other philosophies, but the mathematical If we go through the Jaina technical terms in manipulation through symbols is a peculiarity of the Prakrit texts of the Karananuyoga or the the Digambara Jaina School. There is also no Dravyanuyoga, we find that most of the terms are doubt that this was the achievement in the south importing mathematical significance. Philosophy perhaps round about the period of here is tinged with mathematics as Bertrand Russell Kundkundacarya, when writing of the scripture puts it, it is a beginning of a mathematical philoso- might have been in full swing, after the compilaphy. His work, Introduction to Mathematical Philoso- tion of the Satkhandgama' and the Kasayaphuda phy' is worth reading. If one reads the Karnataka texts. Round about this period we find certain revoVritti of the Gommatasara, one can carry the same lutionary events which speak of the mathematical impression, for it carries the mathematical details of talents of some genius. inimoimimaritionin rintosiominciano 14 incontinction infinitionsintrininin
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH 2. Mathematical Terms, Symbols, And Events sion of calendar. Success in building up various Round About the Christian Era.
programmes in the Karma theory will depend on
how we are able to form states, input and outputs We shall relate the events and not go into their
from the mathematical data furnished in the comcontroversial details. Then it is upto the scholars
mentaries of the Gommata sara and the Labdhisara, to solve the problem of their source on the basis of oblem of their source on the basis of
the
through C** language. an indispensable necessity. Zero in the place value system was needed by the Jaina School. We also Let us have a look at the mathematical mate. find the place value system used in addition of the rial in these texts which could be helpful in comtactor as well as in their subtraction, in the puterization. The simile and the number measures Karnataka Vritti. Zero was used in the writing of (upama and samkhya pramana) are finite and the Mahabandha to fill up the gaps and so on. transfinite cardinals and ordinals of various types
of sets (rasis). There are fourteen types of seThe Jain calender records a precession in the
quences (dharas) in the Trilokasara" which locate Vedamga Jyotisa calender during this period, and
several types of sets and their measures. Every the Vikrama Samvat is established in India. Per
topic in the Karma theory deals with the minimum haps this was the era when various texts quoted
(jaghanya) and the maximum (utkrishta) fixing the by Virsenacarya were compilled for mathematical
domains and ranges between which the computer imports of the Karma philosophy. For example, the
is to work. The eight operations called the Varganasutra Vedanaksetravidhana, the
parikarmasataka not only deal with the finite Khottaniogaddara, Pariyamma, Kalavihano, and
quntities but also transfinite quantities as well as so on were some of the mathematical texts which
the fixed and variable sets. The trikona-yantra (tricould survive against the time.!
angular matrix) can be given several programmes The cosmological texts including astronomy
for the variability of the measures of the mass and geography, e.g., the Tiloyapannatti, the
number (pradesas), configurations (prakrtis), en. Suryaprajnapti, the Candapannatti, and so on, did
ergy levels (anubhagas) and the life-times (sthitis) not only depict calendrical details as the Vedamga
of the Karma ultimate particles (paramanus). The Jyotisa but there was also a unified astronomical
Labdhisara depicts these variations in a symbolic theory, set in a mathematical universe. When sev
way of mathematics. 12 The equations and inequaleral processes are depicted through a single 'ma
ity relations given in this way may pave the way to nipulation it becomes a unified theory which is re
more complex manipulation of the problems posed garded as simple. The Greeks splitted it through
in the modern set up of the Karmic data, the epicycles for finer calculations. Einstein gave
Before we give the measureable terms it will a unified theory. Now there is an attempt for a theory not be out of place to suggest that the vast mathof every thing (TOE) in physics. The Jaina School ematical data could be arranged in a computer file tried to give such a theory of every thing for the in a graded manner. From the lowest value we go biological phenomena through the mathematical to the largest value in a certain programme and theory of karma. 10 The question is whether we could these could be coded in one of the computer's high computerize such a theory and prepare files in the level languages such as Fortran Mathematica or software to execute programmes as is happening C++. The contiollable and observable situations even in astrology. What could be the resluts in the are defined in terms of the control (guna) and reachbenefit of a society or a nation? Astronomical pro
able (margana) stations (sthanas). Thus the comgrammes will be found to be simpler. Rogers Duter could be helpful in showing the time dependBillard has already computerized the Yuga sys- ent and time-independent phenomenology of the tem of Indian astronomy leaving the Prakrit ver- Karma theory of the Prakit texts referred above.
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH We now relate only the terms of the Prakrit Various terms of the Labdhisara have been texts which denote a measure which could be cal- defined by Todaramala in the Arthasamdrsti culated to give a rough or fine gradation or topol- Adhikara of his samyakinana Candrika commenogy. One should note that a variable measure is tary. These terms like the Apakarsana, Utkarsana, given in an algebraic way, set theoretic in approach. etc. give operational details in the theory of Karma. Its measure is therefore given between its minimum. suitable value. This could be approximate also as
The relations between various entities have is found in several places of the Labdhisara or the
been given through several formulae, both in the Suryaprajnapti, Tiloyapannatti or the texts on the
Karma theory and the Cosmological theory. These Ganitanuyoga. Surely, this is based on probability.
formulae can be seen in a collected form in the
project work on the Labdhisara assigned by the . Datta had collected some terms and tried to Indian National Science Academy, New Delhi.8 give their interpretation admitting that his attempt For Astronomy, published Doctoral thesis of Lishk.9 was premature. The Dhavala texts and the For Cosmological formulae, one can see the Karnataka Vrtti were not before him. However, his Mathematics of the Tiloyapannatti."10 point of view was only historical. yet one has to dewive deep into the theory also for showing the 3. Concluding Remarks definitions and their historical importance. Dr. A.N.
The appearance of the Ganitasara samgraha Singh also atempted the same way while he con
of Mahaviracarya in 1912, gave the first indication tributed articles on the mathematics of the Dhavala
of the existance of the Jaina School of Mathematcs and other texts. 14 However a study of the hierar
in the South India. It was a full book on practical chy of various topics is needed for fruitful results
mathematics. He was the first mathematician in the and recognition.
world to recognize the imaginary quantities. Most In this brief article we give certain mathemati
of his formulae may be seen in other forms in the cal terms out of which the asterisk marked will be Digambara Jaina texts on the Karma theory. Forthose whose measure could be rather ascertained
mulae given in the commentary of the Suryaprajnapti (translated into Hindi from their Prakrit version)
deserve special attention. The mathematics of the Parikkarma (eight operations-pratyutpanna,
medieval period may also be seen in the works on bhagahara, varga, vargamula, ghana, ghanmula,
astronomy and astrology which still await Hindi and sankalita and vyutkalita); jiva rasi*; Ajiva rasi";
English translation. These may be found in the salaka (counting rod); samkhyata*; asamkhyata*,
Digambara and Svetambara Grantha Bhandaras. Muhurta*; Antarmuthurta*: Samaya*; Pradesa*;
The Bhandara-keepers have to realize in right earVarga*; Vargana*: Spardhaka“; Gunahani"; Nana nest that it is their prime duty to engage Panditas Gunahani*; Anyanyabhyasta rasit;
to translate the still unpublished scientific works Samayaprabaddha*: pudgala paramanu rasit: into Hindi, rather than repeating publication of the Akasa pradesa rasi*: kala samaya rasi :
published works. In this respect we must acknowlKevalajnana rasi"; Kalpa"; Avali*; Rajju*: Yojana:
edge our indebtendness to the foreign scholars Kalasavarna; Yavat-tavat; Addha; Uddhara; who took interest in such affairs. Now the circumVyavahara; Ardhaccheda; Trikaccheda;
stances have changed and now we have to de. Vargasalaka; Vargita-samvargita; Vikalpa; pend on our own attempts, attitude and choice, in Bhanga; Samdrsti; Ganana Sthana; Oja and the larger interest of the culture. Yugma rasis; Gunasreni; Sarvadhana; Gaccha; Mukha; Madhyadhana; Adidhana; Uttaradhana:
References And Notes Dharas; Alpabahutva; Utsedha; Dhanusa; Bana; 1. Albert Einstein, Ideas and opinions, Calcutta, Viskambha; Ksetraphala; and so on.
1979. p. 271.
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2.
3.
4.
-YATEENDRASURI SMARAK GRANTH
Commatasara of Namicandra Siddhantacakravarti, vols. 1-4, Bhartiya Jnana Pitha, New Delhi, 1978-81.
The Ganitasara samgraha of Mahaviracarya, ed, and trans. by L.C. Jain, Sholapur, 1963. A hecent article short in the Ganita Bharati, vol. 9 (1987), numbers 1-4 P. 54-56, by Ganitanand, Ranchi, has appeared on the date of sridhara. His remarks are worth mentioning here, S.B. Dixit (1896) had found a reference to sridhara by name in an old manuscript of Mahavira's Ganitasara samgraha (ca. 85), and so put the former before the later..... Royal Asiatic Society, Bombay Rs. 230 of GSS also ends with the words (ABORI? Vo. 31, p. 268)
The similarity of several rules and of many other features between the works of sridhara and mahavira is accepted by scholars. Both may have drawn from a third and common source which is not known nor likely to be known. But most of the scholars considered Mahavira as borrower (he himself named his work as a "collection").
The date circa 799 A.D. was assigned to Sridhara by N.C. Jain, by equating him to the Jaina author of Jyotirhnanavidhi (799). And to reconcile salutations Sivam' and 'Jinam' of the different manuscripts it has been suggested that the same Sridhara, after writing mathematical works, may have turned a Jaina toward the end of his life.
The above note also gives the opinion of B. Dutta and A.N. Singh as 750 A.D. as the probable date of Sridhara. It appears that the common source material for both of the above mathematicians have been the Kasayapahuda and the Satkhandagama and their commentaries which might have been before them. As the modieval Jaina writers have been writing Jina and Siva for the same daity, some scribe might have got it changed under certain unknown circumstances. It does not seem possible that Sridhara could have availed the opportunity of the Jaina source material as a non-Jaina,
and he must have compiled the work as a Jaina. It also seems possible that under certain circumstances he might have adopted Saivism but whether he wrote two such manuscripts after his conversion is doubtful. Thus looking into the needs of the Digambara Jaina School of Mathematics in the South, and both were Jainas in the Digambara Jaina Schools of Mathematics For this purpose of convincing argument one may see the project work on the Labdhisara of Namicandra Siddhantackaravarti, Indian National Science Academy, 1984-87, by L.C. jain.
5.
6.
7.
8.
9.
Mention has been made by N.C. Jain while he was at Arrah Jaina Siddhanta Bhavana, and this manuscript is not available now.
Vide The Section of Mathematics in the Science and Civilization in China vol.3., by J. Needham and W. Ling, Cambridge, 1959.
These texts are in several volumes and have gone out of print. New editions of the former are now coming out of the press. Sathaandgama of Acarya Puspadanta and Bhutabali, Books 1-16, Amaroti. Vidisha, 1939-1959. Cf. Also, Kasaya Pahuda of Gunabhadracharya, alongwith the Jayadhavala commentary of Virsenacarya and Jinasenacarya, vol. 1-13, and the following Mathura, 1944..
For the texts of the Svetambara Jaina School, cf. the exhaustive article, The Jaina School of Mathematics, by B.B. Dutta, Bul. Cal. Math. Soc., vol. xxi, no. 2, 1929, pp. 115-145.
For details, see the 'Jaina Astronomy' by Dr. S.S. Lishk, (1978), Doctoral Thesis approved by the (Patiala) Punjabi University, 1987, Vidyasagara Publications, Delhi. Ct. also Jain, L.C., (1976). On the Spira-elliptic Motion of the Sun implicit in the Tiloyapannatti, IJHS, vol. 13, no. 1, 1978, pp. 42-49.
Jain, L.C. System Theory in Jaina School of Mathematics, IJHS, Vol. 14, no.1, 1979, pp. 29-63.
Gnóvðmótor 1,7 porméré
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11.
--YATEENDRASURI SMARAK GRANTH Trilokasara of Nemicandra
History of Hindu Matiematics, Bombay, 1962. Siddhantackravarti, Sri. Mahavirji, 1976. Cf. also Jain, L.C. Divergent squences locating
15. Cf. ref. 4 for details. Transfinite sets in trilokasara, IJHS, vol. 12, 16. Cf. Jain, G.R. Cosmology, old and new, no. 1, 1977, pp. 57-75.
Gwalior, 1942. 12. Cf. the project referred in 4.
17. Cf. re. 4 for the project on the Labdhisara. 13. Cf. the ref. 8.
18. Cf. ref. 9. 14.
Singh, A.N. Mathematics of Dhavala, 19. Ct. Jain. L.C., Tiloyapannatti ka Ganita, in inSathkandagama, book 4 loc., citl., Amaroti,
troduction to the Jambudiva pannatti 1942, pp. i-xxiv. Datta, B.B., and Singh, A.N.,
Samgaho, Sholapur, 1958, pp. 1-109.
citli, havala,
B.B.
invincimirimicininiranimini
18 originaamin
inin iniintindir
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Sadhna of Mahavira as Depicted in Upadhan Sruta
- Dr. Ashok Kumar Singh
Acarangasutra, the first of the eleven Angas, deals with the conduct or acara. Remarkably the term acara' as used by Mahavira does not con note merely moral conduct, rather, it is of five kinds - knowledge, faith, self-discipine, austerities and spiritual exertion. Thus, it is clear that acara comprehends all the three right means of liberation, i. e. faith, knowledge as well as conduct. As Acarangasutra describes the means of obtaining liberation, it has been designated in Acaranga Niryukti, as the essence of the entire Jaina Instruction · (Ittha Ya mokhovao esa ya saro pavayanassa). Acaranga Niryukti Verse 91.? It is divided into two Srutaskandhas. It is now generally agreed that first Srutakandha is the oldest part of of Jaina canons as a whole. Second Srutakandha of Acaranga known as Cula is certainly a subsequent addition. At present, first Srutaskndha contains eight chapers only but the tradition holds that originally it had nine chapters, its eight chapter Mahaparijna, now being extinct. Some scholars believe that its ninth chapter Upadhansruta is also added in later times. Jacobi also held this view. To quote his words - The last lecture, a sort of popular ballad on the glorious suferings of the prophet, was perhaps added in later times; (Sacared Books of the East, Intro P. XLVII - pt.1i), However, valid this claim may be yet it is undoubtedly older in relation to rest of the canonical texts. This chapter, may rightly, be acredited to have the oldest depiction of Mahavira's life, that too, in a realistic and natural way, without any exaggeration. Padmabhusana Pt. Daisukhabhai Malavania,“ also held that Upadhanasruta, presented a realistic account of Mahavira's life of sandna, after initiation (to attainment of omnisocience). Dr. Tatias has also expressed the similar view infact, the biography of Mahavira in the Ayaro, chapter IX, which undoubtedly is the oldest and at the same time absolutely free from mythology, is an illustration of the extreme type of asceticism, adumberated in the text.
The description of Upadhana Sruta is a testisony to the fact that Mahavira had already practised what he preached. It serves well to illustrate and to set a high example of true ascetic's life. We can say that description of Upadhanasruta alone is sufficient to impart respectability to whole set of ethical doctrine of Jainas. As it is a demonstration of preachings by the preacher himself, in its ideal from. Upadhanasruta, as it stands now, contains 69 gathas divided into four Uddesakas (lectures). According to Acaranga Niryukti, the name of the four uddesakas are - Cariya (Ramblings). Sijja (Seats), Parisahas (Endurance of Hardships) and Acigiccha (abandonment of medication). These contain 23, 16, 14 and 17 gathas respectively. However, this division is not stricity and exciusively applicable to the content of Upadhanastruta. For instance fourth Uddesaka, entitied Acikitsa contains only two verses on abandonment of medication, and description of Hardship is found in lind as well in lrd Uddesakas.
Before, discussing the sadhana of Mahavira as depicted in upadhanastruta, an understanding of various meanings of term 'upadhana' is essen. tial. In Sutrakrtanga tika? Upadhan has been de. fined as austerity leading to liberation, in Sthananga tika8 as that through which sruta/knowledge res. pites and in Vyavahara Bhasya tika as that which enriches knowledge. In Aupapatika sutra." it means performance or doing, in Silanka's commentary on Acaranga" it means pillow, in 2 Upadespanda of Haribhadra, upadhi or Upadhi meaning things, implements or attachment to worldly things. In Pravacana sayra" and Vidhimargaprapa?" it has been used as austerity performed for the reading of canonical sutras. Generally the term used for that particular austerity, observed to attain knowldedge.
We can say that the term comprehends all austerities and perfomances contributing to liberation. Acaranga Niryuktiis also confirms this view.
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH where it has been classified as Dravya and Bhava. be conscious of external world and extraneous According to Niryukti, Dravya Upadhana means circumstancess. In other words, when orre is conbed, place of residence, etc. while Bhava scious of the self, becomes unconscious of exUpadhana is austerity and conduct. In the light of ternal world. That is exactly, what marked the foregoing discussion, we can say that the title of sadhna of Mahavira. He was always vigilant to the chapter is absolutely right and comprehends his soul and he had become totally in different to the subject matter deait within.
all things other than self. About the sadhana of Mahavira, as described Mahavira remained equipoised all though his in this chapter, Dr. Tatia's observation is to the sadhana. With reference to his endurance of hardpoint. He likens it with sadhana of Buddha. He ship and favourable and favourable and adverse remarks, although it is not possible to have a full situations the term 'Ahiyasae saya samio' (Aca. picture of the course of meditation followed by the 1.9.2.1 and 1.9.3..1) and Avakaham bhagavam Nayaputta, the strands that we are able to gather Samiasi (1.9.4.16.) have been mentioned to defrom stray references, make it plausible that it was note that he bore all hardships with equipoised not essentially different from one, practised and state of mind. He became absolutely calm and preached by Gautam Buddha. So far as the way of poised, achieving through complete self-purificameditation is concarned, it was not much differ- tion, discipline of mind, body and speech.ent.' Though both observed the hard austerities in their course of sadhna yet later on Buddha de
Equipoised state of mind or equanimity is very clared the futility of hard penances for the attain
essential for sadhakas. Absence of it results in atment of knowledge while Mahavira commended
tachment and aversion, the ultimate cause of tham. (Ayaro Introduction p. XXIII).
Karma-bondage. One whose mind is equipoised
is sure, not be commit sin. This equanimity and The specific features of his sadhana, draw in equality form the basis of sadhana of Mahavira. our attention are (0) His constant vigilance (ii) His Mahavira echoed the similar spirit when he equanimity and equipoised state of mind, (iii) His preached sammatta-dansi na karei pavam (1.3.2) indifference to external world, (iv) Practice of medi- ie the equanimous person does not commit sin. tation, (v) Practice of non-violence, (vi) Abandonment of medication (vii) Abandonment of bodily Practice of Meditation care (viii) Control of sleep (ix) Abandonment of vitiated food, tasty food, (x) Practice of fasting and
Indeed, the practice of meditation is the most diet control (xi) Places of residence and (xii) En.
persistent theme dominating all other descriptions, durance of Hardhsips.
constituting the content of Upadhana sruta. Dr.
Tatia" has rightly observed that ninth chapter is In the first uddesaka of third chapter Sitosniya an illustration of the role that was assigned to of Acaranga, Mahavira preached apamatto parivae dhyana in the life of an ascetic. His austerities (1.3, 1.11 Aca) that is one should be ever vigtilant. flowed from his jnana. He meditated day and night, In practice also he was always vigilant and never self-restrained, mindful and concentrated. slackened for a moment as is evident from the term Apamatte' (1-9-2-4) and 'No Pamayam saim pi
Mahavira would always choose secluded kuvittha' occurred in this sruta (1.9.4.15).
piaces for meditation. If he did not get one, he Apramattata (Consciousness) and Pramattata
would seclude himself from out world and get him(Unconsciouness) are relative terms. One can
self immersed deeply in the very depths of the innever be conscious and unconscious simultane- nermost soul. ously. When one is conscious of the self, cannot
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH - There is a gatha 18 Adu porisim tiryambhittim, Hardships cakkhumasajja antaso jhai, depicting a particular mode of his meditation. It has been differently in
Mahavira had to bear terrible hardships of variterpreted by scholars ancient as well as modern,
ous types caused by inhabitants, animals, insects Jinadas Gani19. Silanka 20. Jacobi21 and Pt.
etc. while in meditation he would be bit even by a Malavania22 have interpreted it as an instance of
snake or a mongoose or a dog; occasionally atmeditation while walking, while Acarya
tacked by ants which made his body bleed and Mahaprajna has interpreted it as the instance of
frequentiy tormented by gad-flies, mosquitoes, bees Trataka dhyana. Commenting on this gatha he has
and wasps. While meditating in a deserted hut he said that fixing the gaze on the wall has been the
would be discomforted by burgalars or debauches, meditational technique of Buddhist monks also.
while meditating on the crossroads, he would be Concentrating on a point with detailed and
upbraided or even hurt by village-guards, equipped unblinkling eyes is called Trataka. By accomplish
with lances or spears. He would often have to bear ment of this sadhna of Trataka one can percieve
even sexual advances caused by women. all three worlds viz. upper, lower and middle. Ac
In the course of depiction of sadhna, one cording to him. Abhayadevasuri23 also has inter
whole uddesaka has been devoted to hardships preted the 'tiryaqbhitti' as the rampart of wall or a and adverse conditions he has to face in ladha mound or the rock.
country (i.e., the districts of Tamulaka, Midnapur. The interpretation of this gatha in the light of
Hugli and Burdavan in West Bengal) surrounded Trataka dhyana is correct. It apppears that fearsome
with prickly grass and hilly area. The people freappearance of Mahavira with eyes bulged out, did
quently attacked him, dogs bite him. Instead of not fit with the divine charm attributed to him, later
coming to his rescue, inhabitants set dogs on him. on, by the tradition. That is why, in Curni and tika it
He would not brush away ancroaching creatures has been explained as meditation while walking.
or annoying insects either himself or make others
to do so. Sometimes while entering some villages He always meditated in complete motionless he was forcibly stopped and even hit by people state in any posture. He used to meditate in shade with a slap or a blow, or a stick, or a spear. Some in winter and in scorching sun in summer. He never inhabitants would even mangle, spit, fling heaps allowed his meditation to be hindered.
and thus inflict hardships on him. Some would lift
him up and throw him down, while in meditation, The practice of non-violence gets precedence
some would push him out of his seat. But he had over all other principles that constitute the spiritu
abandone all care of the body. He was highly tolality. Mahavira, during the course of his sadhana,
erant of the feeling of pain and anguish. Like a warobserved total non-violence. After having fully
rior, Mahavira wearing the armour of total abstiknown the existence of living beings of earth-body,
nence from sinful activites never subdued by hardwates-body, fire-body, air-body, seeds and vegeta
ships and would never be disturbed and would altion and mobile living beings, and after having rec
ways meditate. ognised their existence and ascertained their animatedness. Mahavira carefully rambled about Just as an elephant fighting on the battle front doing no violence to them. He committed no vio- is not easily baffled by piercing weapons, so also lence to any living beings either by himself or with Mahavira remained completely unruffled by and the assistance of others. Mahavira would take triumphed over various kinds of hardships, he exevery care not to cause any hindrance or appre- periences in ladha area. hension to any one whether birds, animals or human beings while on his way for ailms. (1.9.4.11,12). incontri romani incontraronger 21
h orarioncontine ntininger
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-YATEENDRASURI SMARAK GRANTH Endurance of severe cold, snow-fall After long spells of sleepessness, for the upkeep and scorching heat
and maintenance of body, he would have only a
nap28. After only a moment's sleep, he would be At the time of initiation, Mahavira had put only awake again and would sit in meditation with fuli one robe and resolved that he would not cover him- internal watchfulness. When, sometimes, sleep torself with this robe in winter 24 Accordingly even in mented him too much at night, he would come out the case of severe cold and in snowfall, Mahavira of the resting place and stroll for a about a muhurta would not even think of seeking windless abode or so. According to Acaranga Curni,29 during the or clothes to warp up himself with. In cold he would entire period of 12. years of his sadhana, he slept stand under the shed. When the night grew colder, only for one Muhurta at Asthikagrama, during which he would come outside in the cold under the open he dreamed of ten dreams. According to sky and go back to the shed, alternately, conform Acaranga, "' dueto disturbance created by demi-god ity with right conduct. In servere cold, he would while in kayotsarga Mahavira lost alertness and boldly walk with his hands outspreat and would slept for a muhurta. not try to avoid cold by folding arm to his shoulders. 25 in summer he would sit in scorching sun. Places of Residences
Abandonment of Medication
Though Mahavira would choose a secluded
place 31 for meditation yet he lived in all sorts of Mahavira would not approve medication for places, such as work-houses (like potter's lodge, himself. Though he was free from internal diseses etc.), assembly houses, shops, manufactories of yet he would occasionally be afflicted by the exter- under a shed of straw32. He sometimes used to stay nali.e. injuries caused by accidents, etc. in the form in inns, in villages and towns, sometime in cremaof attacks by human beings and animals or other tion grounds, in deserted houses or under the trees. beings. To illustrate his indifference in extreme form What is noteworthy, is that he used to live cheertowords medication, the instance of cow-boy driv- fully in these diverse lodgess and his practice of ing a wooden-nail into his ears, is given in Jaina meditation remained unobstructed. Literature. A physician 'Kharaka' had to take it out and dress his wound. The moot point, here, is that Abandonment of vitiated food, tasty mahavira never wished any one to do any thing to food and practice of fasting and dihim.
etary control Soon after initiation into ascetic life, Mahavira
Mahavira always refused such food as prehad vowed to lead a life of self-abnegation by aban
pared for the monks. He was devoid of any ardent doning all bodily care. "In accordance with that he
longing for delicacies. He would not care whether abandoned all sorts of purgatives, emetics, un
or not his meal included cooked savoury, vegetaguents, bathing, shampooing or massaging or even
bles, whether he got cold rice, or stale bean soup, cleaning of the teeth.26
whether his meals consisted of vapid stuff like Alongwith contrui of diet and control of powerder of gram or only grams, whether or not senses, control of sleep constituted the main fea
he got any food at all. He did not even think of any ture of his sadhana. In accordance with his preach
particular 'kind of food. Fully aware of the sinfuling - 'Munino saya jagaranti'27, that is wise are
ness, vitiating the alms that he received; he would alwayas awake' he would not seek sleep for the never accept vitiated food. sake of pleasure and comfort. On feeling drowsy
As control of diet and fasting was significant he would stand up and keep himself side awake.
* part of his sadhana, he would take meals after eimennenstraine
r inarinnar 22 increanErrorEveramenerananntrimaranerne
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- YATEENDRASURI SMARAK GRANTH ther two or three or even five days fast. Mahavira 9. Pustim Nayati Aneneti Upadhananilived on three grains for eight months. He would - Vyavahara Bhasya Tika, p. 25 go without water either for over two months or as
10. Paia - Sadda Mahannao p. 163
10 long as for six months. He would not bother about type of meal or total non-availibity of meal. He would
& Illustrated Ardhmagadhi Dictionary Vol II, P.297 eat alms with complete control of his passions. 11. Upa samipyena dhiyate. Vyavasthayata
ityupadhanam Acarangatika p. 29 Beclaiming all his passions, abandoning all 12 Pain sadda mahannao . 163 kinds of attachments, Fulling all kinds of infatuations with sound or form. Always exerting himself
13. Illustrated Ardha Magadhi Dictronary p. 296 in self-discipline, he never slackened for a moment.
14. Dr. S.M. Jain (P.V.R.I. Voranasi)
15. Davvuvahan sayane Bhavuahanam Tavo Achieving through complete self-purification,
Carittassa Niryukti samgrah p. 448 discipline of mind, body and speech he became
16. Ayaro Introduction p. XXII completely calm and poised. Practised with simplicity of heart. Through entire period of sadhana
17. Ibid he remained equipoised and tranquil.
18. Acaranga, 1/9/1/4 He followed without any reservation the
19. Acaranga Curni p. 324, aiormentioned code of conduct and attained om
20. Acaranga Tika - p. 314, niscience or Keval Jnana.
21. Jaina sutras pt. 1. p. 79-80, Thus we can say that this chapter has very
22. Mahavira Carita Mimamsa p. 105 succesfully depicted his rigorus ascetic life, prac- 23. Bhagavati sutra-tika p. 543-44, tice of non-violence, non-attachment, self-control 24. No cevimena Vatthena, Pihissami Tamsi Hemante. and spiritual vigilance. It also gives us the glimpse Kamdhan25 Acaranga 1/9/1/22 Ayaro P. 382 of his equanimity which was maintained in all the
26. Samsohanani ca Vamanani ca, Gayabbhanganam, situations, be it pangs of hunger and thirst, vagaries
Sinanam ca. Sambahavam na se kappe, damta - of heat and cold, painful bites of animals and insects
pakkhelanam parinnae. and above all barborous treatment from people.
27. Acarange sutra 1/3/1/1 References
28. Ibid 1/9/2/5-6 1. Pancavihe ayare pannatle, tam jaha - Nanayare,
29. Sthananga 10/103 Damsanayare, Carittayare, Tavayare, Viriyayareg 30. Ayaro p. 393-99 Sthanang 5/2/141 (Ladanun)
31. Sayanehim Vitimissehim & Je Ke me Agarattha 2. Niryukti Sanigraha, P. 421
Acaranga 1/9/15,6 3. Jaina Sutras, Pt One, Introd. P. XLVII.
32. Avesana - Sabha - Pavasu, Paniya satasu egada 4. Malvania, Mahavira Carita Mimamsa Pt. 1, P. 104
vaso 1 5. Ayaro, Intro. P. VIII.
Aduva Paliyatthanesu, Palalapumjesu egada vaso II 6. CARIYA, SIJJA YA PARISAHA YA AYAMKIYA (A)
Agamtare Aramagare, Game Nagare vi egada Vaso CIGICCHA YA Niryukti SAMGRAHA. P. 447 Susane Sunnagare Va, Rukkhamule vi, egode vaso li 7. Moksam prati samipyena dadhatiti upadhanani
Acaranga 1/9/2/2,3 - Sutrakrtanga Tika - P. 59 8. Upadhiyate - upastabhyate srutamaneneti
upadhanani - Sthanange tika, p. 174 maammermeramanmaram GreenG Enermend 23 Primorskem norm amaramEnGramGranormeringan
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH -
Exposition of naya in Jaina philosophy
DR Ajit shuk deo sharma
Serious students of indian philosophy are fers of thing as a whole, nayas have relation to well aware of the brilliant part played by jaina Lo analysis, whereas saptabhangi relates to synthegicians in their polemics with Hindu and Buddhist sis. Nayavada is the analytical method of knowllogicians in ancient and medieval India. There is edge while saptabhangi or syadvada as the synno doubt about it, that jaina logic is one of the most thetical method of knowing a thing. According to valuable and ancient logic of india. Specially the H. Jacobi. It would be more correct to say that doctrines of nonabsolutism, the method of dialec- syadvada is a logical development the a corollary tical predications and the method of standpoints of nayavada. Dr A.N. Upadhye oboserves that are the separate and peculiar dialectic develop syadvada is a corollary of nayavada and that the ment of jaina logic. In the present paper I Want to letter is analytical and Primarily conceptual and the discuss the method of standpoints in broad outline, formar is synthetical and verbal. In this connecleaving out subtle details. Because the subject.is tion Dr. padmarjiah says." Although not quite inobviously very wide in scope, it cannot be treated correct, this distinction is apt to the somewhat misfully in a small dissertation like this.
understood if we are not aware of the background
against which it is made. This is because the so: My treatment of the topic falls under four sec
called primary conceptual method is also verbal, tions. Viz, 1. naya and syadvada. 2. naya and
in as much as it not merely requires the aid of word pramana. 2 Naya and Niksepa and 4. Definitions
for the the expressin ot its various standpionts but and kinds of nayas.
also has as many as three, among its seven, stand
points which are exclusively designated a 1 Nayavada ans syadvada
saptabhangi. Further he says "Similarly, in conThe method of standpoints (nayas) and the tradiction to the verdal elements of the concepmethod of dialectical predications (Syadvada) are tual' nayavada, the 'mainly verbal method of the two main wings of non- absolutism Syadvada is so much charged with the epistemo(Anekantavada). In the words of siddhasena - logical character that we might say that its verbal Divakara, Nayas offer the individual Jewels, which
side is more instrumental than intrinsic in value. But are strung together by means of syadvada, into a under Syadvada no distinctions, such as the verba! necklace. Logically, these are two complremetary modes of syadvada and non-verbal or the episteprocesses forming a natural and inevitable devel- mological modes of syadvada can be made since opment of the relativistic presuppositon of the Jaina all modes are both verbal and epistemological. metaphysics. They form a schema wihch is pereminently one of correlative methods rather than 2. Naya and Pramana of theories of reality, although they both prasuppose
Knowledge is attained by means of pramana and explain the primordial notion that all reality is
and Naya. Here, Pramana is mentioned first as it relativistic, Nayavada is principally an analytical
is of superior excellence because it is the source method Investigating a particular standpoint of a
or origin of Naya. The nayas are the division of factual situation accoding to the purpose and level
Pramana. Jaina scripturs say, "Accepting knowlof the equipment of experient (jnatr) Making a fur
edge derived from Pramana, ascertaining one ther distinction between nayavada and syadvada
particular state or mode of substance is naya. (saptabhangti) it can be said that nayas refer to
Secondary, the range of Pramana comprises all the parts of a thing, whereas the saptabhangi reiniinomotrimonio incontrario 24 hormon noronsvom imontraintenir
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-YATEENDRASURI SMARAK GRANTH attributes. Similarly, it has been said that Pramana and linguistic symbols, which fall to express the is a comprehensive view, whereas naya is a par- knowledge in its pristime comprehensiveness untial view. In other words, Pramana is called com- less their significance is rightly analysed." plete judgement (Sakaladesa) while Naya is called incomplete judgment (vikaladesa). Through com- 3. Naya and Niksepa plete judgment, it is not possible for us to describe
Etymologically, the term "Niksepa' stands for the infinite characteristics of an object. To overcome this difficulty, we use only one word that
putting together' or classifying; but this meaning
can hardly be recognised in the developed forms descibes one characteristic of that object and hold
of the concept of niksepa. It is one such technique the remaining characteristics to the indentical with
of exposition of words as well as interpretation of it. By this method we can describe all characteris
the nature of reality. Now, Naya may be distintics of an object by the description of a particular
guished from it. Naya is a point of view from which aspect only. This type of preposition is called
we make some statement about the thing, while pramana, saptabhangi or complete judgment. The
Niksepa is an aspect of the thing itself. If we conidentity of all other aspects with a simple aspect is proved by the identity of time, quality, substratum,
sider the statements merely as such, its point of
view is naya; if we consider the fact which justifies relation, association and word. In the case of in
the point of view it is niksepa. complete judgment the order is reversed. Every judgment presuposes some difference in every 4. Definition of Naya and its kinds aspect or quality. In regard to a complete judgement, time, quality etc. establish identity among The Jaina doctrine of modes or stand point various qualities, whereas with regard to an incom- corresponds to the Greek doctrine of tropes, modes plete judgement time, quality, etc. prepare the ground and conditions. The Jaina epistemology elaborated for difference among various qualities. This kind of this doctrine in order to show that several judg. judgement is called Naya-Saptabhangi also. ments or propositions may be true about the same In this connection, a question can be raised,
object, but from different points or view. Here, it is
interesting to note that each fact, however trivial it how the partical truth conveyed by a naya is as valid
may appear, can be thoroughly understood in the as the full truth conveyed by pramana? The Jaina logicians attempt an answer to this by employing
context of the entire reality and only in the light of
its interconnection with the rest of reality. A real is an analogical argument, in which they compare
possessed of an infinite number of aspects and naya to a part of a sea which is pramana. "Now in
attributes which can be thoroughly comprehended so far as a part is identical with the whole itself,
only by a person who is directly acquainted with there is an essential non-difference between the
the whole order of the reality, in one word, who is two; a naya shares the validity, at any rate in some
omnicient. But this does not mean that the Jaina measure, of pramana. But, in so far as a naya is
here offers a counsel of perfection which amounts different from the whole, in some sense, it cannot
to a counsel of despair for a person like us whose be identical the whole and therefore the view of the
resources are limited. Though the full knowledge naya as identical with the whole must be invalid.
of all the possible characteristics even of a particle When it becomes invalidi.e. when its partial truth is
of dust can not be claimed by any one of us, the taken to be the whole truth, It is called a Kunaya or
knowledge of one or the other attribute can be atDurnaya. According to Dr. Tatia, the contingen
tained if we are dispassionate and free from bias cies of Naya' and 'Durnaya' arise only when a
for one angle of vision and prepared for approachknowledge situation is sought to be expressed in or
ing it from other standpoints. Therefore, we must understood through inadequate logical categories
recongnise that there are different ways of approach
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- YATEENDRASURI SMARAK GRANTH — or expressing the same truth, and it is this that peo- ther divided into three categories, viz., Naigama, ple may refer to when they speak of approaching Samgraha and Vyavahara. The subdivision of the the same trugh from different stand points, this is paryayarthikanaya are four; Rjusutra, Sabda, the way in which the Jain non absolutism dealth Sambhirudha and Evamabhuta. with opposed with oppased doctrines of the different schools. In this connection it can be said, 'It is
(1) Naigama : It seems to be somewhat obnow not merely that all theories are on an equal foot
scure and is therefore differently interpreted by the ing, in the sense that we have no way of arguing for
shcolars. According to Pujyapada it relates to the one against another, and hence the idea that one
purpose of intention of something which is not acstandpoint is superior to another must be left out."
complished. For instance, a person who goes
equipped with an axe is asked by any one for what If we look at an object from infinite number of purpose he is going. The person replies that the view, we can say that there are infinite kinds of he goes to fetch a wooden measure (prastha). But nayas because the object is composed of infinite at that time the wooden measure is based on the number of characteristics and one naya knows only mere intention to make it. Similarly, one is engaged one characteristic. Therefore, there is difference in fetching fuel, water, pot etc. He is asked by anof opinion among the Jainas on nayavada on the other person what he does? The former replies that question of the number of nayas. But looking at it he cooks food (odana). But he is not actually cookfrom a specific point of view, it is maintained thating food. He is only engaged in activity which will maya is of two kinds.
ultimately result in cooking food. Thus, in each of
the two examples food (odana) and measure (1) Dravyarthika (dealing with generality) and
(Prastha) there is a central purpose which gives (2) Paryayarthika (dealing with particularity).
meaning to a course of conduct of some duration. Again, the first is called Arthanaya in as much as
The course of conduct is represented by different they deal with objects of knowledge, whereas the
modes of activity at different stages. In spite of this other are called 'Sabdanaya' in as much as they
difference the whole series and also every indipertain to terms and its meanings.
vidual item tend towards the idea aimed at. Dravyarthika is the view of looking at the iden
Again, Naya-karnika says that it views an tity of things, while Paryayarthika is the view which
object is possessing both the general and particulooks at the difference of things. Man speaks of
lar properties, because no object is possed of a something either from the standpoint of identity or
general property unaccompanied with some parfrom that of difference. Statements of things from
ticular property nor even of a specific property the former point of view are put under the head of
unaccompanied with the general one common to dravyarthika. Propositions of ogbects from the
its class. Consider, for instance the statement. 1 standpoint of difference fall under the category of
am concious'. Here, the property of being conparyayarthika. Many minor classifications of things
scious is a general quality that exists in all living ranging between general (dravyarthika) and par.
beings whereas 'l' indicates the speaker a person ticular (paryayarthika) view points are also possi
or an individual. ble. But briefly speaking, there can be only two groups of statements. The view point of itentity, According to the true relations of the teleologiupon which are founded the statements of gener- cal and interpreting idea, this naigama is sub-dialisation, is called Dravyarthika Naya, while the vided into three viz. vartam ana, bhuta and view point of difference, upoin which are founded bhavisyat or bhava. Vartamana naigama belong the statements of particularisation is called to the past, yet transferred to present. When we say paryayarthika Naya. The dravyarthikanaya is fur- that today is the parinirvana day of Lord Mahavira,
imeminiminimiminiminirati
26 minstensioniminiranimiranim
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-YATEENDRASURI SMARAK GRANTH we do not mean that the Lord Mahavira is to attain
The fallacy of this naya occurs when we conor attaining nirvana on the day we actually sosider the general property alone as constituting a spoke. The event took place many centuries ago thing. This kind of fallacious propositions gives rise on a corresopnding day of that year. Because of to confusion of thought, because the general qualithis correspondence an event true of the day cen- ties alone can never constitute an actual object. turies ago is also associated with all such corre
(3) Vyavahara : This Naya means the popusponding days of the subsequent years. In the
lar and conventional point of view, which rests on Bhuta naigama instead of looking back to the past
sense-parception of the concrete present. The conwe may look forward to a remote future, instead of
crete reality of things is sufficient for our practical detecting in the concrete present the continuity of
life. It amounts to knowing things by the Co the past, we may discover in it something which is
value. It takes into consideration a general oot yet to be. As for example, when on perceiving
as possessing specific properties. It does not deal would be king we say, "Here comes His Royal High- with generality as does the sangraha nava. On ness.' It means that he is not yet king now, but is the other hand it classifies the subject matter of going to be one soon. Similarly we may speak of the sangraha in the mode of particularity. Examievery Bhavyajive a good soul as siddhajiva, a per nation of the specific Dravyas. Jiva Dravya and fect soul. For somehow in the far off future perfec- Ajiva Dravya, both belonging to the Dravya Genus. tion will be the goal of all; for everyone is God in whould be an illustration of the vyavahara naya. the germ. Such an assertion is true according to
Fallacy of Vyavahara Naya lies in wrong se. Bhavanaigam or future Naigam.
lection of species. When the generic correlative of (2) Samaraha : This standpoint is that which specific feature is entirely ignored the resultant comprehends several different modes under one
fallacy comes to have only the semblance of this common head through their belonging to the same
naya. Which select, only four primary elements as class. In other words, it deals with the general char
real, is the best example of this naya. This type of acteristic of an object or the class character of a
fallacy is found in the Indian philosophy. factual situation. As for example, 'reality is one (4) Rjusutra : The argument underlying this because it exists' is prossition of this naya. It does
standpoint is that of immediate utility which natunot look at the particular properties of reality but rally must be grounded upon the present aspect of regards the general property as its subject matter a thing. It denies all continuity and identity. It is though there can be no general or universal with- purely momentary. It is important to note here that out particular, yet the enquiring from this stand- it does not refer to the past or future of the thing. In point keeps in view the generic qualities only. this respect it is still narrower than the vyavanaric
present. At least for vyavaharic view there is a tolThis naya is of two kinds, para-sangraha
erable duration; for the present and the conven(ultimiate class-view) and Apara Sangraha (infe
tional things are real so far. But according to this rior class-view). Every existing thing partakes of
naya a thing is what it is in the present mathematithe nature of reality. Hence we may speak of all
cal moment. To speak of duration of a thing is rethings as one in the ultimate Reality and it is the
jected by this view as an unwarrented assumpexample of Parasangraha naya. But the different tion. Thus it enables to secure the balance between classes of things living and non-living included in change and permanence. Accordingly when we this ultimate Reality may themselves be spoken claim to know a thing; we mean thereby to know it of as different classes and it is the subject matter only with reference to its present substantive state of the Apara-sangraha naya.
(Dravya) name (Nama) and form. For example, we
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH say, "It is very pleasant now." This proprsion more exaggerated than the above nayas. The falpredicats something which is true of the subject lacy of this naya consists in treating the synonymus only at the moment of the predication.
words as having absolutely different meanings. The fallacy of this naya occure when the per
(7) Evambhuta : Etymologically, evambhuta manence of things is altogether denied. Each and means the truth of the word and its sense in its every object is taken to be momentary without hav- entirety. It calls for a different designation for each ing any kind of general features in it.
of the different attitudes which the same object
assums under different conditions. In other words, (5) Sabda : The present stand point of syno
it recognises an object denoted by a word only in nyms refers to the function of synonymous words
respect of its own natural function as suggested which, despite their differences in tense, case;
by the derivative meaning of that word. Thus, acgender, number and so forth convey the same
cordingly to this principle, the redical sense in genmeaning. In other words, it reats synonymous
eral is not the appropriate sense of a term. Even words as all having, the same sense. The mean
the root signification must have different gradations ing is that the sabda-naya does not concern itself
and aspects. Of these various aspects and gradawith but simply deals with symomymous as if they
tions in the manifestations of the thing. Only one were pure equivalents of one another. For instance
particular aspect or gradation is contemplated by kumbha, kalasa, ghata are all expressive of one
the root of a term and it is this contemplated asand the same object viz. jan. Again, Jiva, Atman,
pect or gradation which is the legitimate meaning Prana etc. are synonymus terms and though these
of the terms in its current usage. The very same differ from one another in their etymological hear
thing in a different attitude must he designated by ings, yet they all refer to the one and the same
a different term altogether. For instance, Purandara thing conventionally.
should be designated as such only when he is Fallacy of Sabadanaya occurs when we ig
actually engaged in the act of destroying his ennore the distinguishing features of it and deal with
emies. Similarly the designaton sakra' is approsynonymous words as absolutely having the same
priate only when he is actually manifesting his meaning. The sabdadvaitavadins and a few otherprowess. Thus Purandara becomes as different schools in Indian Philosophy are said to have come from sakra as a cow is from a Jara. mitted this fallacy.
The fallacy of this naya lies in making the ex(6) Samabhirudha : It is the differentiation of istence of a thing absolutely dependent on the perterm's according to their roots. The difference in formance of the special function with reference to the roots must mean a corresponding difference
which a particular name has been awarded to it. in the terms and therefore in their meanings. In
Thus, each of the seven nayas has a greater other words, it distinguishes the meanings of syn
extent or denotation than the one which follows it. onymous wordts purely on etymological grounds.
Naigama has thus the gratest and ebambhuta the For instance, a jar (Kumbha), a pitcher (kalasa)
least extent: Naigama deals with real and unreal. and a pot (ghata) signify different things according
Samgraha deals with real only Vyavadhara with to their meanings. The point is that while the sabda
only a part of the real. Sabda with only the expres. naya would treat synonyms as equivalent words,
sion of the real. Samabhitrudh with only one parthe samabhirudha naya would distinguish them
ticular expression. Evamabhuta with only that parfrom one another on etymological grounds. Thus
ticular expression which applies to the thing in its it is only a special application of sabdha-naya. In
present activity becoming specialised it becomes narrower and
Thef
.
:
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH In this connection, it can be noted that there 2. Padmarajiah, Y.J. Jaina Teories of Reality and cannot be a thing which is devoid of its modifica- Knowledge, p. 301 tions of birth and decay. On the other hand, modi- 3. Jacob, H- Studies in Jainism, p. 17.52 fications cannot exist without an abiding or eter
Upadhye, A.N. (edd) Pravacanasara, Intronal something, a permanent, for birth decay and
duction-LXXXV stability-these three constitute the characteristic of a substance or entity. These three characteristics
Padmarajiah, Y.J. Jaina Theories of Reality must dwell together in harmony to make a real
and Knowledge, p. 304 diffinition of a thing in its integral form. In this re
6.
Ibid. P. 305 spect each naya, therefore, if taken independently 7. Pujyapada, Sarvarthasiddhi, Sutra - 6 isolated from the other, can never yield an edequate 8. Satkhandagama - p. 163. idea of an entity. Both these therefore, divorced from
Vidyananda, Tattvarthasloka Vartika 1-6., each other, are wrong in their standpoints. Therefore, Jaina logicians say that a man who holds
Suri, Vadideva : Syadvada-ratnakara vol. IV., the view of the cumulative character of truth
p. 44. (Anekantavada) never says that a particular view 11. Vidyananda : Astasahhastri, p. 209 is right or that a particular view is wrong. Again if do Tattvarthaslokavartika, 1-6 . all the nayas arrange themselves in a proper way 12. Samantabhandra : Aptamimansa, Gatha - and supplement to each other, then alone they are
108 worthy of being termed as the whole truth or the
Vidyananda : Astasahhastri, p. 290 right view in its entirety. But in this case they merge
13.. Tetia, N.: Acarya Bhiksu Commemoration vo. their individuality in the collective whole." There
Sec. III, P. 103 fore the right approach should be to accept the relating validity of knowledge. In order to give a
14. Jayadhavala, p. 283 logical shape to this view the Jainas have formuled; Sthananga - 209 a theory of relative standpoint" and they are of
There are four distinct phase of the develop opinion that there can never be an absolute claim
ment of the doctine in the exegalical and logiabout the truth of any expression."
cal literature of the Janas, Viz. At last, we can say in the words of G.H. Rao 1. Niksena as doctrine of verbal usage, that each philosophy approaching reality from a 2. Nikespa as a doctrine of aspects of reality particular and a partial standpoint, looks upon the 3 Nama-niksepa as entailing a doctrine of imone they adopt as the only true standpoint. Jainas
port of words and reject the idea of the absolute which is playing
Niksepa as a critique of absolutism. havoc in the field of philosophy by creating absolute monism, absolute pluralism, and absolute ni
Dr. Tattia, Acarya Bhiksu commenoration volhilism. By thus rejecting the absolute and one
ume, Sect. III, p. 71 sided, they claim to save philosophy from the 15. Raju, P.T. The philosophical Traditions of inchaos of conflicting opinions. Without partiality to dia, p. 97 any one they promise to give us a theory of relativ- 16. Hemachandra : Anya-yoga-vyavaccheda ity which harmonises all standpoints."
dvatrinshika, SU-5, Akalanka : Laghistraya
Tika-62 NOTES AND REFERENCES
17. There are mainly three traditions which are 1. Siddhasena Divakahr, Sanmatitarkah
based on the number of nayas occuring in Prakarana, Gatha-22-25.
the classification adopted by each of them
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH within the framework of reality which is con
Akalanka : Tattvarthavartika - Sut. 1/33 ceived to be fundamentally dravy a 24. Vinavavijaya; Naya karnika, Sutra 8 Suri, paryayarthika. The first one adopts a classi
Vadideva: Pramana naya tattvaloka - vol. fication of seven, our treatment of the subject
VII-23-4 has been based on this classification. The
n. The 25. Ibid. second tradition drops ama which is the first
Prabhacandra : Nyayakumudacandra, p. among the seven nayas recognised by the first tradition. The third tradition reduces the
636,792 Samantabhadra : Laghistraya,
Karika 43,71 number from seve to five by sub-suming samabhirudha and evambhuta, the last two
Vinayavijaya : Naya Karnika, Sutra 14 standpoints under sabda, and thus treating Akalanka : Tatvarthavaratika -1/33 them as two subdivisions of the sabdanaya. Vidyananda : Tattvarthaslokavartika p. 272, Dr. Padmrajiah, Jaina Theories of Reality and
273 knowledge, p. 325
Siddhasena Divakara : Nayayavatara (Edd. 18. Siddhasena Diakara: Sanmatitarka -
P.L. Vaidya), p.82. Prakarana - 1.3.
28. Vinayavijaya : Naya Karnika sutra 15 19. Suri, Vadideva: Pramana-naya tattvaloka,
Prabhacandra : Nayakumudacandra vol. II. p. Vol. VII, P.6
638 20. Ibid., p. 27
29. Suri, Vadideva, Pramananayatattvaloka, vol. 21. Vinaya Viaya : Nayakarnika - Sutra-5.
VII. 36 Akalanka. Tattvartha-raja vartika 1/33. 30. Ibid. p. 40 Suri, Vadideva : Syadvada-ratnakara, Vol.V.
Vinaya vijaya : Naya Karnika sutra 17.18. P. 1052
31. Sidasena Divakara : Sanmatitarka, Gatha 1/ Prabhacandra : Nayakumudacandra, p. 84
12,13 Pujyapada : Sarvartha Siddhi, Sutra Vidyananda : Tattavarth slokavartika, p. 249. 30
Samantabhadra : Laghiyastraya, p. 39, 68 32. Siddhasena Divakara : Sanmatitarka, Gatha 22. Edd. Chakrabarty, A: Sacred Books of
1/25,28 Jainas, Vol. III. p. C-III.
33. Pandey, R.C.: A Panorama of Indian Philoso23. Vinaya-vijaya : Nayakarnika, Sutra-6
phy, p. 44 Pujyapada : Sarvarthasiddhi
34. Rao, G.H. : The half yearly Journal of the Vidyananda ; Tattvarthaslokavaratika - p. 270
Mysore University (1942) pp. 79-80.
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The Mystic Syllable Om
Dr. A. N. Jain
mantra. Thus the sanctity or the sacredness was granted to Om.
The mystic syllable Om occupies a prominent and auspicious place in the field or Sadhana (spir- itual practics) whether it may be in the line of Hindu, Buddha or Jain religion.
The antiquity of this syllable is traced back to the Vedas. It occurs for the first time in the Vajasaneyi Samhita of the Yajurveda (2.13, 40.17 etc.) The word Pranava is found in 19.25.
The four matras of Om became five, presided over by five gods - Brahma, Visnu, Rudra, Isana and Sarva. This seems to be precursor of later Saivism
The Satapathabrahmana developed it as essence of the Vedas and of the universe.
The Pratisakhya of the Yajurveda (8, 9, 11) lays down the recitation of Om in the beginning of study, and before chanting a Vedic mantra. It also mentions that Om is the name of Brahma (Omiti namanirdeso Brahmanah. Thus it identified. Om with Brahma.
The Aitareya brahmana (V 3.2) gives its three componants 37, 3, 7 for the first time. These three componants are derived from the three Vyahrtis :
To: and Fa: from the three Vedas, viz. the Rigveda, the Yajurveda and the Sama Veda; from the three gods - agni, Vayu and Aditya and from the three worlds - Prthivi, Antariksha, and Vayu respectively.
The Gopathabrahmana gives two accounts Thereof and presents full development of Om.
. According to first account, Brahma created Brahma on the lotus-leaf. The latter created two letters with four matras :
3īt and
From 317 transformed into 7 were
The Baudhayana sutra (4.1 gives further mystic character to Om by stating that it is papanasaka (destroyer of sin).
This idea is elaborated in the later Sannyasopanisad as follow :
यस्तु द्वादशसाहस्रं प्रणवं जपतेऽन्वहम्। तस्य द्वादशभिर्मासैः परं ब्रह्म प्रकाशते।। सर्वेषामेव पापानां संघाते समुपस्थिते। तारं द्वादश साहस्रमभ्यसेच्छेदनं हि तत्।।
It also describes it as the best mantra which is sacred, purifying, bringing piety and fulfilling all desires and identifies it with Brahma.
मांगल्यं पावनं धयं सर्वकामप्रसाधनम्।
ओंकारं परमं ब्रह्म सर्वमन्त्रेषु नायकम्।।
This idea is also corroborated in the Yogatatvopanisad :
सर्वविघ्नहरो मन्त्रः प्रणवः सर्वदोषह। एवमभ्यासयोगेन सिद्धिसरम्भसंभवा।।
The Yajurveda Kalpasutra gives reason for its sacred character :
ओंकारश्चाथ शब्दश्च द्वावेतो ब्रह्मणः पुरा। कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान्मांगलिकावभौ।
produced water, moon, the Atharvaveda, Om, the Vyahrti Janah and the metre anustubh etc.
From ware created the Itihasa, Puranas, gita, nrtya and vidhya
From the HF were produced the three Vyahrtis, three deities, three Vedas, three worlds and three metres - Gayatri, Tristubh and Jagati.
The second account says that the gods got victory by Om. Consequently they gave boon to it that it will be recited in the beginning of every Vedic
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH - The regular full treatment of this sacred sylla- . The method of reaching the Brahma through ble is found in the earlier Upanisads. The seed meditation is discribed in the Mundakopanised :sown in the Gopatha brahmana is seen sprouting
"3. Taking as a bow the great weapon of the here. Thus the Chandogyopanisad which identified udgitha with Om says :
Upanishad, one should put upon it an arrow sharp
ened by meditation. Stretching it with a thought di"1. Om one should reverence the Udgitha (Loud rected to the essence of That, Penetrate That
Chant) as this syllable, for one sings the loud Impenrishable as the mark, my friend. chant (ud + gi) beginning) with Om'..
4. The mystic syllable Om (pranava) is the The further explanation thereof (is as follows): bow. the arrow is the soul (atman). 2. The essence of things here is the earth.
Brahma is said to be the mark (laksya). The essence of the earth is water.
By the undistracted man is it to be penetrated. The essence of water is plants
One should come to be in It, as the arrow (in The essence of plants is a person (purusa) the mark) The essence of a person is speech.
The Mandukyopanisad (9-12) gives further The essence of speech is the Rig (hymn')
detailed description of the four matras of Om : The essence of the Rig is the Saman ( charnt") The essence of the Saman is the Udgitha It identifies the four matras of Om as follows: (loud singing')
Pada Matra State Designation of Self In other place it gives the gradual origin of
First Om and identifies it with everything.
Waking. Vaisvanara Second 3
dream Taijasa "2 (3). Prajapati brooded upon the worlds. From them, when they had been brooded upon,
Third
deep Prajna - issued forth the threefold knowledge. He brooded
sleep upon this. From it, when it had been brooded upon, Fourth matraless Fourth Advaita issued forth these syllables : bhur, bhuvah, svar.
In the Tantrasastra he fourth matra is called 3(4) He brooded upon them. From them, ardhamatra and is identified with the female godhead. when they had been brooded upon, issued forth It is described as one which cannot be recited of the syllable Om. As all leaves are held together by
अर्धमात्रा स्थिता नित्या, याऽनुच्चार्या विशेषतः । a spike, so all speech is held togethe by Om. Verily, Om is the world-all. Verily, Om is this world-all."
त्वमेव सा त्वं, सावित्री त्वं देवी जननी पराय।। - दुर्गासप्तशती The Prasnopanisad (V. 2) identifies Om with Puspadanta in his Sivamahimnah Stotra the higher and the lower brahma -
elaborates this idea clearly and succinctly :: "To him then he said : "Verily, O Satyakama,
"The triad (of Vedas), the three vrttis (states that which is the syllable Om is both the higher and of waking, sleeping, deep sleep), the three worlds the lower Brahma.
and also the three gods (Brahma, Visnu, Rudra),
naming these with the three letters a etc. (a, u, m) Therefore with this support, in truth, a knower
and also that which is beyond differentiation, the reaches one or the other." (II.2.4)
fourth state, your domain, enclosed by subtle
sounds (all this constituting), You, O refuge-giver, inirinimiinirinin incontri indiriminin 32 svimentinin inciminimin insanin iris
I
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YATEENDRASURI SMARAK GRANTH complete and in your parts, the word om de
Kathopanisad (2.15) which says that Om is a scribes."
word which all the Vedas speak, of which all
the penances also speak, with a view to atThus put in a tabular form the Om expresses
taining it (the Sadhakas) observe celibacy. I following things with its three component letters:
shall tell you it in brief. It is Om. Letter Veda Stages Gunas Worlds Gods
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यलयो वीतरागाः। Rgveda Waking Sattva Bhur Brahma
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ . Yajurveda dreaming rajas Bhuvah, Visnu
One who departs leaving the body (at the time
of death, reciting the letter Om, the one Samaveda deep, tamas Svar Siva
lottered Brahma, and thinking of me, one gets sleep
the highest state (moksa) (8.13). . The half matra speaks of the fourth stage
The Yogasastra and the Tantrasastra identify which is enclosed by its subtle sounds. This stage
Om, from adhibhautika point of view, with the procis inexplicable. Only the accomplished yogis can
ess of breathing. During 24 hours one breaths experience it in their brain as a feeling that an ant in moving there.
21,600 times. While inhaling the sound is pro
duced and while exhaling the sound is produced. The mystic power of Om is felt also by the
By omitting the consonants and from this one Bauddha and Jain Sadhakas. The mantra of
gets the sound Om. Avalokitesvara Buddha is famous. It begins with Om as "Om Manipadme hum"
In this manner, Om represents Parabrhama
from the Adhyatmika point of view; three gods viz. The Jain philosophers derive it from the sa
Brahma, visnu and siva the Adhidaivika point of cred and mystic Navakara mantra and identify it
view and the So ham or the Ajapamantra from the with five Paramesthins.
Adhibhautika point of view. अरिहन्ता असरीरा आयरिय - उवज्झाय-मुणिणो।
It is therefore rightly called the mantra-raja or पंचक्खरनिप्फनो ओंकारो पंचपरमिठ्ठीय
the king of all the mantras. The five Paramesthins are - 3767, FHS, 3R,
Upasana of Om उपाध्याय and साधु Now the word सिद्ध is replaced by अशरीरी and साधु by मुनि. Then taking initial letter of
Now this mantra which according to the sage
Patanjali, is expressive of the god, can be attended these words viz अ + अ + आ and आ + उ + म give by ...
: upon in three ways:joining with each other the letter Om. Sri Simhatilaka Suri in his Srimantrar ahasya says :
1. It can be recited orally with one or two or
three matras. This sort of recitation of Om in short, अर्हददेहाचार्योपाध्याय मुनीन्द्र पूर्ववर्णोत्थः।
long and prolonged (pluta) form cures one from disप्रणवः सर्वत्रादौ ज्ञेयः परमेष्ठसंस्मृत्यैय
eases. Srimadbhagavadgita also extols Om in sev- 2. It can be meditated upon. For this its popueral places :
lar form is drawn as 3. But eariler, it was written in 1. It is spoken as a vibhuti of the Lord Sri Krsna -
manuscripts as 3, the form which is adopted by
the Jains, Sriharsa in his Naisadhiyacaritam gives प्रणवः सर्ववेदेषु
a still earlier form as 3. It is also represent it as. 2. It reiterates in (8.11) the mantra of the
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-YATEENDRASURI SMARAK GRANTH To achieve different results, various colours
(3) By identification :- The meditation of Om are also associated with it. Sri should better be done for getting emancipation or Samantabhadracarya in his Omkarastotra says - eternal bliss. This can best be done by identifying
it with the process of breathing alongwith medition श्वेते शान्तिकपुष्टया ख्याऽनवधादिकराय च ।
or by identifying one self with the three gods, whom पीते लक्ष्मीकरायापि ओंकाराय नमो नमः ।।
it represents. रक्ते वश्यकरायापि कृष्णे शत्रुक्षयकृते ।
I end this article with the most popular mantra धूम्रवर्णे स्तम्भनाय ओंकाराय नमो नमः ।।
accepted by all the three streams of Indian Sadhana
viz. Arya, Bauddha and Jain. For peace and nourishment while coloured;
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । for obtaining wealth the yellow coloured, for subjugation the red-coloured, for annihilation of enemies
कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः ।। the black-coloured and for stagnation the smoke
The yogis constantly meditate upon Omkara coloured om, should be meditated upon.
with a bindu, as it fulfills all the desires and bestows highest beatitude. My obeisance to (that) Omkara.
imovinnordiomioonotononciation na
34 songnifintiinfinition for financimitinin
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References and notes
1. Albert Einstein, Ideas and opinions, Calcutta,
1979, p. 271. 2. Gommatasara
of Namicandra Siddhantacakravart, vols. 1-4, Bhartiya Jana Pitha, New Delhi, 1978-81.
3. The Ganitasara samgraha of Mahaviracarya, ed.
and trans. by L.C. Jain, Sholapur, 1963. 4. A recent article short in the Ganita Bharati, vol.
9 (1987), numbers 1-4 p. 54-56, by Ganitanand, Ranchi, has appeared on the date of Sridhara. His remarks are worth mentioning here, S.B.Dixit (1896) had found a reference to sridhara by name in an old manuscript of Mahavira's Ganitasara samgraha (ca. 85), and So put the former before the later. ................Royal Asiatic Society, Bombay Rs. 230 of GSS also ends with the words (ABORI? Vol. 31, p. 268)
the Satkhandagama and their commentaries which might have been before them. As the modieval Jaina writers have been writing Jina and Siva for the same daity, some scribe might have got it changed under certain unknown circumstances. It does not seem possible that sridhara could have availed the opportunity of the Jaina source material as a non-Jaina, and he must have compiled the work as a Jaina. It also seems possible that under certain circumstances he might have adopted Saivism.but whether he wrote two such manuscripts after his conversion is doubtful. Thus looking into the needs of the digambara Jaina School of Mathematics in the South India, for their theory of Karma, it seems now most probable that both took help from the same source material of the south, and both were Jainas in the Digambara Jaina Schools of Mathematics for this purpose of convincing argument one may see the project work on the Labdhisara of Namicandra Siddhantacakravarti, Indian National Science Academy, 1984-87, by L.C. Jain.
The similarity of several rules and of may other fea
tures between the works of sridhara and mahavira is accepted by scholars. Both may have drawn from a thirrd and common source which is not known nor likely to be known. But most of the scholars considered Mahavira as borrower (he himself named his work as a collection").
5. Mention has been made by N.C. Jain while he
was at Arrah Jaina Siddhant Bhavana, and this
manuscript is not available now. 6. Vide The Section on Mathematics in the Sci
ence and Civilization in China vol. 3., by J. Needham and W.Ling, Cambridge, 1959.
The date circa 799 A.D. was assigned to sridhara by N.C. Jain, by equating him to the Jaina author of Jyotir Jnanavidhi (799). And to reconcile salutations Sivam' and Jinam' of the different manuscripts it has been suggested that the same sridhara, after writing mathematical works, may have turned a Jains toward the end of his life. The above note also gives the opinion of B.Dutta and A.N. Singh as 750 A.D. as the probable date of Sridhara. It appears that the common source material for both of the above math - ematicians have been the Kasayapahuda and
7. These texts are in several volume and have
gone out of print. New editions of the former are now coming out of the press. Satkhandagama of Acarya Puspadanta and Bhutabali, Books 116, Amaraoti, Vidisha, 1939-1959. Cf. also, Kashaya Pahuda of Gunabhadracarya, alongwith the Jayadhavals commentary of Virsenacarya and Jinasenacarya, yol. 1-13, and the following Mathura, 1944...
8. For the texts of the Svetambara Jaina School,
cf. the exhaustive article, The Jaina School of
infrontoisensacioncronominaroni 35 hominio infiintarinio oririi
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----YATEENDRASURI SMARAK GRANTH - Mathematics, by B.B. Dutta, Bul; Cal.. Màth. 2:12.Cf. the project referred in 4. Soc., vol. xxi, no. 2, 1929, pp. 115-145.
13.Cf. the ref. 8. 9. For details, see the Jaina Astronomy by Dr. S.S. Lishk, (1978), Doctoral thesis approved by the
14. Singh, A.N.,? Mathematics of Dhavala, (Patiala) Punjabi University, 1987, Vidyasagara
Satkhandagama, book 4 loc. cit., Amaraoti, Publications, Delhi. Cf. also Jain, L.C., * (1976).
1942, pp. i-xxiv. Datta, B.B., and Singh, A.N., On the Spiro-elliptic Motion of the Sun implicit
History of Hindu Mathematics, Bombay, 1962 in the Tiloyapannatti, IJHS, vol. 13, no. 1, 1978,
15. Cf. ref. 4 for details. pp. 42-49.
16. Cf. Jain, G.R., Cosmology, old and new, Gwalior, 10. Jain, L.C., System Theory in Jaina School of
1942. Mathematics, IJHS, vol. 14, no. 1, 1979, pp. 29- 63.
17. Cf. ref. 4 for the project on the Labdhisara. 11. The Trilokasara of Nemicandra Siddhan- 18. Cf. ref. 9. tacakravarti, Sri Mahavirji, 1976. Cf. also Jain,
Jan,
10 CH lain ia
19. Cf. Jain, L.C., Tiloyapannatti ka Ganita, in introL.C. ? Divergent sequences locating Transfinite
duction to the Jambudiva pannatti Samgaho, Sets in Trilokasars, IJHS, vol. 12, no. 1, 1977,
Sholapur, 1958, pp. 1-109.. pp. 57-75.
BIBLIOGRAPHY
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Malavania, Ramesh Malavania, 8, Opera So2. Acaranga Curni, Jinadasa Gani, R. K. S.S.
ciety, Ahmedabad - 7 ed. 1st, 1992. Ratlam (M.P.), ed. Ist, 1941.
8. Niryukti - Samgraha - ed. Vijayanemisuri, Harsa
Puspamrta Jaina Granthamala (189), 3. Acaranga Tika (Ist Srutaskandha), Siddhacakra
Lakhabaval, Santipuri, Maharastra, ed. 1st, Sahitya Pracaraka Samiti Surat, ed. Ist, 1934.
1989. 4. Avaro - Comment., Ed. & trans by Yuvacarya.19. Sutrakrtanga-Tika pt. 1, Agamodaya Samiti, Mahap rajna, Jain Cononical Text Series, Jaina
Bombay, 1919. Visva Bharati Ladanum ed. 1st 1981. dll
10. Sthananga - Tika - Seth Maneklal Cunni lal, 5. Bhagavatisutra - Tika, Agamodaya Samiti,
Ahamadabad, ed. 1st, 1937. Bombay, ed. Ist 1918.
11. Vyavahara Bhasya Tika, Vakil Kesavala! 6. Jaina Sutras - Jacobi Hermann,
Premchand, Ahmedabad, ed. 1st. 1926. (S.B.E.S. Vol. XXII, pt. 1), M.L.B.D., Delhi, Rep.ed. 1964.
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શ્રીમવિજય યતીસૂરિ
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સમ્પાદક ડૉ. રમળલાલ ચી. શાહ પ્રો.શ્રીમતી તારાબેન શાહ
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વિનય
ડૉ. રમણલાલ ચી. શાહ
જૈન ધર્મની તાત્ત્વિક ઓળખાણ એની કોઈ પણ એક લાક્ષણિકતાથી કરાવવી હોય તો એને વિનામૂનો ઘણો તરીકે ઓળખાવી શકાય. જૈન ધર્મમાં વિનય ગુણની મીમાંસા વિવિધ દષ્ટિથી કરવામાં આવી છે અને વિનયને ધર્મના મૂળ તરીકે બતાવવામાં આવ્યો છે. વ્યક્તિના વર્તમાન જીવનના વિકાસના ચણતરના પાયામાં વિનય રહેલો હોવો જોઈએ. બીજી બાજુ આધ્યાત્મિક ક્ષેત્રે ધર્મરૂપી વૃક્ષમાં જો વિનયરૂપી મૂળ હોય તો જ તે મોક્ષરૂપી ફળ આપી શકે. આમ મોક્ષરૂપી ફળની પ્રાપ્તિ માટે વિનયગુણ જીવમાં હોવો અનિવાર્ય મનાયો છે.
‘દ્વત્રિશદ્ધાત્રિશિકા'માં ઉપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજીએ કહ્યું છે : कर्मणां द्राग् विनयनाद्विनयो विदुषां मतः । अपवर्गफलाढस्य मूलं धर्मतरोरयम् ॥ ..
વિનય કર્મોનું ત્વરિત વિનયન કરે છે. જેના ઉપર મોક્ષરૂપી ફળ ઊગે છે એવા ધર્મરૂપી વૃક્ષનું એ મૂળ છે એમ જ્ઞાનીઓ કહે છે.
વિનય' સંસ્કૃત ભાષાનો શબ્દ છે. વિનય એટલે વિનય. ‘નય' શબ્દના સંસ્કૃતમાં ભિન્નભિન્ન અર્થ થાય છે. નય એટલે સદ્વર્તન, સારી રીતભાત, જીવનશૈલી. નય એટલે દોરી જવું, રક્ષણ કરવું. નય એટલે ન્યાય, નીતિ, મધ્યસ્થતા, સિદ્ધાન્ત, દર્શનશાસ્ત્ર, વિ. એટલે વિશિષ્ટ, વિશિષ્ટપણે. વિનયનો સાદો અર્થ થાય છે ‘વિશેષપણે સારું વર્તન.' એનો બીજો અર્થ થાય છે “સારી રીતે દોરી જવું,’ ‘સારી રીતે રક્ષણ કરવું', જીવન-વ્યવહારમાં વિનય એ સદ્વર્તનનો પર્યાય છે. સદ્વર્તન સૌને ગમે છે. વિનયી માણસ બીજાને પ્રિય થઈ પડે છે. વિનયની સાથે વિવેક, પ્રસન્નતા, ભલાઈ, કૃતજ્ઞતા, નિર્મળતા, નિર્દભતા, નિરભિમાનપણું વગેરે ગુણો ઘનિષ્ઠ રીતે સંકળાયેલા છે. સાચો વિનય વશીકરણનું કામ કરે છે.
‘વિનય' શબ્દની વ્યાખ્યા જુદી જુદી રીતે કરવામાં આવે છે, જેમ કે
(૧) વિશેન નતીતિ વિનાઃ |
જે વિશેષતાથી દોરી જાય તે વિનય અથવા જે વિશેષતા તરફ લઈ જાય તે વિનય.
(૨) વિનીયતે-ગાની કર્મ વેન સ વિનાઃ |
જેના દ્વારા કર્મનું વિનયન કરવામાં આવે છે, કર્મોનો ક્ષયોપશમ કરવામાં આવે છે તે વિનય.
(૩) પૂ૫ બાવરઃ વિનાઃ | પૂજ્યો પ્રત્યે આદર એ વિનય.
(૪) ગુorઘપુ નીચેરિઃ વિનાઃ |
ગુણાવિકો-અધિક ગુણવાળાઓ પ્રત્યે નીચે નમવાનો ભાવ તે વિનય.
(૫) રત્નત્રયવસ્તુ નીવૈવૃત્તિઃ વિનાઃ |
રત્નપત્ર (જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર) ધારણ કરવાવાળા પ્રત્યે નમવાનો ભાવ તે વિનય.
(૬) વાવ-વિનયનંઃ વિનાઃ | કષાયો અને ઇન્દ્રિયોનું જે વિનયન કરે તે વિનય. (૭) વિશષે વિવિધ વા નો વિનાઃ | વિશિષ્ટ અને વિવિધ પ્રકારના નય (સિદ્ધાન્ત) તે વિનય.
જે કમળને વિલય તરફ લઈ જાય છે અર્થાત્ તેનો નાશ કરે છે તે વિનય.
विनयति क्लेशकारकं अष्टप्रकारं कर्म इति विनयः ।।
આઠ પ્રકારનાં ક્લેશકારક કર્મોનું જે વિનયન કરે છે એટલે કે તેને નરમ પાડી અંકુશમાં રાખે છે તે વિનય.
अनाशातना बहुमानकरणं च विनयः । આશાતના ન કરવી અને બહુમાન કરવું તે વિનય.
જ્યાં નમસ્કારનો ભાવ છે ત્યાં વિનય છે. નમસ્કારનો સાચો ભાવ જીવનમાં ધર્મ પ્રત્યે રુચિ જન્માવે છે. શ્રી હરિભદ્રસૂરિએ કહ્યું છે : ઘર્ષ મૂનમૂતા વંટના | ધર્મના પાયામાં વંદના છે. નવકારમંત્રમાં નમસ્કારનો ભાવ છે. પંચપરમેષ્ઠીને એમાં નમસ્કાર છે. નવકારમંત્રમાં પ્રત્યેક પદનો પ્રારંભ જ નમો શબ્દથી થાય છે. એક જ વખતે નમો શબ્દ ન પ્રયોજતાં પ્રત્યેક પદ સાથે નમો શબ્દ જોડાયેલો છે. આરાધક જીવમાં નમસ્કારનો ભાવ, વિનયગુણ દૃઢ થાય તે માટે ફરી ફરીને નમો પદ તેમાં રહેલું છે. નવકારમંત્રમાં પદને નમસ્કાર છે અને પદમાં રહેલા ગુણોને નમસ્કાર છે. નવકારમંત્રમાં એ રીતે વિનયનો મહિમા ગૂંથાયેલો છે. સામાન્ય રીતે વ્યવહારમાં નીચેનું પદ ધરાવતી વ્યક્તિ પોતાના કરતાં ચડિયાતા પદવાળી વ્યક્તિને નમસ્કાર કરે, પોતાના કરતાં નીચેના પદવાળી વ્યક્તિને નમસ્કાર ન કરે. પરંતુ નવકારમંત્રમાં તો આચાર્ય ભગવંત પણ નમો ઉવન્નાયા પદ બોલે અને નમો નો સર્વસાહૂણં પદ પણ બોલે. તેવી જ રીતે ઉપાધ્યાય મહારાજ પણ બોલે. આ દર્શાવે છે. કે નવકારમંત્રમાં વિનયનો મહિમા કેટલી બધી સૂક્ષ્મ કોટિનો છે. જૈન ધર્મમાં તો આચાર્યની પદવી આપવામાં આવે એ વિધિ દરમિયાન નૂતન આચાર્યને એમના ગુરુ ભગવંત પણ પાટ ઉપરથી નીચે ઊતરી વંદન કરે છે. એમાં પણ વિનયગુણનો મહિના રહેલો છે.
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ જન્મમરણની ઘટમાળથી સતત ઊભરાતા આ સંસારમાં કોઈપણ જૈન આગમગ્રંથોમાં વિનય ઉપર, વિશેષતઃ શિષ્યના ગુરુ કાળે કેટલાક જીવો બાલ્યાવસ્થામાં હોય છે, તો કેટલાક પ્રત્યેના વિનય ઉપર બહુ જ ભાર મૂકવામાં આવ્યો છે. પિસ્તાલીસ વૃદ્ધાવસ્થામાં, બધા જ મનુષ્યો સમકાળે જન્મે, સમકાળે મોટા થાય આગમોમાં ‘ઉત્તરાધ્યયનસૂત્ર' અને 'દસવૈકાલિક સૂત્ર' અત્યંત અને સમકાળે મૃત્યુ પામે તો સંસારનું સ્વરૂપ કંઈક જુદું જ હોય. મહત્ત્વનાં છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં તો પહેલું અધ્યયન જ ‘વિનય' તેમ થતું નથી એટલે બાલ્યાવસ્થાના જીવોને પરાવલંબિત રહેવું પડે વિશેનું છે. એની ૪૮ ગાથામાં સાધુ ભગવંતોએ પોતાના ગુરુભગવંત છે. વૃદ્ધોને, રોગગ્રસ્તોને, અપંગોને પણ પરાધીનતા ભોગવવી પડે સાથે કેવો કેવો વિનયવ્યવહાર સાચવવો જોઈએ એની નાની નાની છે. આમ જીવોને એકબીજાની ગરજ સતત પડતી રહે છે. બીજાની સ્થૂલ વિગતો સહિત મહત્તા દર્શાવવામાં આવી છે. ઉ.ત. નીચેની સહાય જોઈતી હોય તો માણસને વિનયી બનવું પડે છે. ક્યારેક કેટલીક ગાથાઓ પરથી એનો ખ્યાલ આવશે : અનુનય, કાલાવાલાં કરવાની આવશ્યક્તા પણ ઊભી થાય છે.
आणानिद्देसकरे गुरूणमुक्वायकारए । ઉદ્ધત, સ્વછંદી માણસોને સહાય કરવાનું મન ન થાય એ કુદરતી
इंगियाकारसंपन्ने से विणीए ति बुच्चइ ॥ છે. આમ, સંસારનું સ્વરૂપ જ એવું છે કે જે માણસને વિનયી
(જે ગુરુની આજ્ઞા અને નિર્દેશનું પાલન કરે છે, જે ગુરુની બનવાની ફરજ પાડે છે. કેટલાક સ્વભાવે જ વિનયી હોય છે.
શુશ્રુષા કરે છે તથા એમનાં ઇગિત અને આકારને સમજે છે તે કેટલાકને ગરજે વિનયી બનવું પડે છે. વિનય વિના સંસાર ટકી ન
વિનીત વિનયવાન કહેવાય છે.) શકે. બેચાર વર્ષના બાળકને પણ વડીલો પાસેથી કંઈક જોઈતું હોય તો એની વાણીમાં ફરક પડે છે. એને વિનય કે અનુનય કરવાનું
नापुट्ठो वागरे किंचि पुट्ठो वा नालियं वए । શીખવવું પડતું નથી.
कोहं असच्चं कुब्वेजा धारेज्जा विषमप्पियं ॥ સામાન્ય વ્યવહારજીવનમાં મનુષ્યસ્વભાવના એક લહાણ તરીકે
(વગર પૂછે કંઈ પણ બોલે નહિ, પૂછવામાં આવે તો અસત્ય રહેલા વિનયગુણથી માંડીને ઉચ્ચ આધ્યાત્મિક ક્ષેત્રે આત્માના સ્વભાવ
ન બોલે, ક્રોધ ન કરે, મનમાં ક્રોધ ઊઠે તો એને નિષ્ફળ બનાવે તરીકે રહેલા વિનયગુણ સુધી વિનયનું સ્વરૂપ વિસ્તરેલું છે.
અને વિષમ કે અપ્રિયને ધારણ કરે અર્થાતું ત્યારે સમતા રાખે.)
HF R * વિનય હંમેશાં હૃદયના ભાવપૂર્વકનો સાચો જ હોય એવું નથી. બાહ્યાચારમાં વિનય દેખાતો હોય છતાં અંતરમાં અભાવ, ઉદાસીનતા
नेव पल्हत्थियं कुज्जा पक्खपिंडं वे संजए । કે ધિક્કાર-તિરસ્કાર રહેલાં હોય એવું પણ બને છે. કેટલાકને વિનય पाए पसारिए वा वि न चिट्टे गुरुणंतिए ॥ દેખાડવા ખાતર દેખાડવો પડતો હોય છે. લોભ, લાલચ, લજ્જા, (ગુરુની સાવ પાસે પલાંઠી વાળીને ન બેસે, ઊભડક પણ ન સ્વાર્થ, ભય વગેરેને કારણે પણ કેટલાક વિનયપૂર્વકનું વર્તન કરતા બેસે તથા પગ લાંબા-પહોળા કરીને ન બેસે.) હોય છે. ક્યારેક વિનયમાં દંભ કે કૃત્રિમતાની ગંધ બીજાને તરત आसणगओ न पुच्छेज्जा नेव सेजागओ कयाइ वि । આવી જાય છે. જેમના પ્રત્યે વિનય દાખવવામાં આવતો હોય
आगम्मुक्कुडुओ संतो पुच्छज्जा पंजलीयडो ॥ २२ ॥ એવી વ્યક્તિ પણ તે પામી જાય છે. હાવભાવમાં અતિરેક, વચનમાં
(પોતાનાં આસન કે શય્યા પર બેઠાં બેઠાં ગુરુને કશું પૂછે અતિશયોક્તિ વગેરે દ્વારા દંભી વિનયી માણસનો ખુશામતનો ભાવ
નહિ, પરંતુ પાસે જઈને, ઊકડ બેસીને, હાથ જોડીને પૂછે.) છતો થઈ જાય છે. જૈન ધર્મમાં વિનયને પુણ્ય તરીકે અને તપ તરીકે બતાવવામાં
स देव गंधब्ब मणुस्सपूइए चइत्तु देहं मलपंकपुब्बयं । આવ્યો છે. પુણ્ય એટલે શુભ કર્મ, પુણ્ય અનેક પ્રકારનાં છે. એમાં
सिद्धे वा हवइ सासए देवे वा अप्परए महिड्ढिए ॥ ४८ ॥ મુખ્યત્વે નવ પ્રકારનાં પુણ્ય ગણાવાય છે : (૧) અન્ન, (૨) વસ્ત્ર,
(દવ, ગંધર્વ અને મનુષ્યથી પૂજિત એવો વિનયી શિષ્ય મળ (૩) વસતિ, (૪) ઉપકરણ, (૫) ઔષધિ, (૬) મન, (૭) વચન, (૮) કાયા અને (૯) નમસ્કાર.
અને પંકથી બનેલા દેહનો ત્યાગ કરીને શાશ્વત સિદ્ધગતિ પ્રાપ્ત કરે
છે અથવા મહર્ફિક દેવ બને છે.) આ નવ પ્રકારમાં એક પ્રકાર તે નમસ્કારનો છે. નમસ્કારમાં
‘દસવૈકાલિક' સૂત્રના નવમાં અધ્યયનમાં ‘વિનય સમાધિ” વિનય રહેલો છે. એટલે વિનય એ પણ એક પ્રકારનું પુણ્ય છે;
નામના ચાર ઉદ્દેશક આપવામાં આવ્યા છે. એ ચારે ઉદેશક બહુ એટલે એ શુભ પ્રકારનું કર્મ છે. બીજી બાજુ વિનયનો છ પ્રકારનાં
ધ્યાનથી સમજણપૂર્વક વાંચવા જેવા અને જીવનમાં ઉતારવા જેવા અત્યંતર તપમાં સમાવેશ થાય છે. તપથી કર્મની નિર્જરા થાય છે.
છે. એમાંથી નમૂનારૂપ થોડીક ગાથાઓ જોઈએ ? વિનય ગુણની જીવમાં આંતરિક પરિણતિ કેવી થાય છે તેના ઉપર આધાર રહે છે કે તેનો વિનય તે શુભ કર્મબંધનું નિમિત્ત બને છે
यंभा व कोहा व मयप्पमाया કે પૂર્વબદ્ધ કર્મની નિર્જરાનો હેતુ બને છે. સૂક્ષ્મ પ્રક્રિયા કેવા પ્રકારની
गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे । થઈ તે તો જ્ઞાનીઓ કહી શકે, પરંતુ વિનયનો ગુણ જીવને માટે
सो चेव उ तस्स अभूइभावो ઉપકારક અને ઉપાસ્ય છે.
નં ૩ વરસ પહાય હો | ૬ ૧/૧
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જે શિષ્ય ગર્વ, ક્રોધ, માયા કે પ્રમાદને કારણે ગુરુની પાસેથી વિનય નથી શીખતો તે તેના વિનાશ માટે થાય છે, જૈમ કીચક(વાંસ)નું ફળ એના વધને માટે થાય છે.)
विवत्ती अविणीयस्स संपत्ति विणियस्स यं । जस्सेयं दुहओ नायं सिक्खं से अभिगच्छेई ॥
(અવિનયીને વિપત્તિ અને વિનયીને સંપત્તિ પ્રાપ્ત થાય છે. જે આ બંનેને જાણે છે તે સાચી શિક્ષાને - સાચા જ્ઞાનને પામે છે.) છે निदेसवत्ती पुण जे गुरुणं सुयत्थघम्मा विणयम्मि कोविया । तरितु ते ओहमिणं दुरतरं ववितु कम्पं गइमुत्तमं गय ॥
જિં ગુરુના આશાવી છે, ધર્મમાં ગીતાર્થ છે, વિનયમાં કૌવિદ છે તેઓ આ દુસ્તર સંસારને તરી જઈને, કર્મોનો ક્ષય કરીને ઉત્તમ ગતિને પામે છે.)
અવિનયી વ્યક્તિની કેવી દશા થાય છે તે વિશે ‘દસવૈકાલિક’ સૂત્રમાં કહ્યું છે :
तहेब अमिणीयया लोगंति नरनारिओ । दीसंति दुहमेहंता छाया ते विगलिंदिया ॥ दंडसत्यपरिजुना असम्भवयणेहि य कणा विवन्नछंदा सुम्पिवासाए परिगया ॥
(એ પ્રમાણે લોકોમાં જે સ્ત્રીપુરુઓ અવિનથી હોય છે તે દુઃખી ઇન્દ્રિયોની વિકલતાવાળા, દંડ તથા શસ્ત્રથી હન્નાયેલા, અસભ્ય વચનો વડે તિરસ્કૃત, દયાજનક, વિવશ, ભૂખતરસથી પીડિત થયેલાં એવાં એવાં દુઃખોનો અનુભવ કરનારા એવા મળે છે.
આમ, આગમગ્રંથોમાં વિનયનો મહિમા બતાવવાની સાથે અવિનયનાં કેવાં કેવાં માઠાં ફળ મળે છે તે પણ બતાવવામાં આવ્યું છે.
અવિનયી જીવ મોક્ષ માટે અધિકારી બનતો નથી. વિનયો ગુણ આત્મામાં પ્રગટ્યા વિના મોક્ષના અધિકારી થવાનું નથી. એટલા માટે વિનર વડો સંસારમાં એમ કહેવાય છે. પ્રાથમિક દશામાં વિનયના ગુણથી મોક્ષની યોગ્યતા પ્રાપ્ત થાય છે અને વિનયના ગુણને સારી રીતે ખીલવવાથી તીર્થંકર નામકર્મ બંધાય છે. પવત્તા ગ્રંથમાં કહ્યું છે ઃ વિશ ય સંખ્યા ૧પ શિવપાલામાં સંવંતિ । વિનયસંપન્નતાથી તીર્થંકર નામકર્મ બંધાય છે.
જૈન દર્શનમાં દરેક વસ્તુના સામાન્ય દૃષ્ટિએ જ્યારે પ્રકારો બતાવવામાં આવે છે ત્યારે પ્રથમ વર્ગીકરણ દ્રવ્ય અને ભાવની દૃષ્ટિએ હોય છે. વિનયમાં પણ દ્રવ્ય વિનયને અને ભાવ વિનય એવા બે પ્રકારો બતાવવામાં આવે છે. દ્રવ્ય વિનય બાહ્ય વિનય અને ભાવ વિનયને અત્યંતર વિનય તરીકે ઓળખાવી શકાય. લોકવ્યવહારમાં ઉપયોગી એવા વિનયને લૌકિક વિનય તરીકે અને મોક્ષમાર્ગની સાધનામાં અનિવાર્ય એવા વિનયને લોકોત્તર વિનય તરીકે ઓળખવામાં આવે છે. શ્રી લક્ષ્મીસૂરિ ‘ઉપદેશપ્રાસાદ'માં કહે છે :
વિનય
बाह्याभ्यन्तरमेदाभ्यां द्विविधो विनय स्मृतः ।
तदेकैकोऽपि द्विभेदो लोकलोकोत्तरात्मकः ॥
૩
(બાહ્ય અને અત્યંતર એવા બૈદ વડે વિનય બે પ્રકારનો છે. તેના પણ લૌકિક અને લોકોત્તર એવા બે ભેદ છે.)
બાહ્ય અને અત્યંતર વિનય સાથે હોવા કે ન હોવાની દૃષ્ટિએ ચાર ભાંગા બતાવવામાં આવે છે :
8749
(૧) બાહ્ય વિનય હોય પણ અત્યંતર વિનય ન હોય. ઉપ (૨) અત્યંતર વિનય હોય પણ બાહ્ય વિનય ન હોય. (૩) બાહ્ય વિનય હોય અને અત્યંતર વિનય પણ હોય. જા (૪) બાહ્ય વિનય પણ ન હોય અને અત્યંતર વિનય પણ ન હોય. લોકવ્યવહારમાં આવકાર આપવો, હાથ જોડવા, મસ્તક નમાવવું, આસન આપવું, સારાં કાર્યોની પ્રશંસા કરવી, માતાપિતા, ઉપકારી વગેરેનો ઉપકાર માનવી, તેડવા-મૂકવા જવું વગેરે બા વિનય છે. હ્રદયમાં તેમના પ્રત્યે પ્રીતિ-બહુમાનનો ભાવ ધરાવવો તેમના ઉપકારનું સ્મરન્ન કરવું વગેરે અત્યંતર વિનય છે.
લોકોત્તર ભા વિનમાં ગુરુભગવંત વગેરેની શુશ્રુષા કરવી, ઊભા થવું. આસન આપવું, વંદન કરવાં, તેડવા-મૂકવા જવું, સુખશાતા પૂછવી વગેરે બતાવવામાં આવે છે અને લોકોત્તર અત્યંતર વિનયમાં તીર્થંકર પરમાત્મા, સિદ્ધ ભગવંતો વગેરેને ભાવથી વંદન, તેમના ઉપકારોનું સ્મરણ ઇત્યાદિ ગણાય છે.
કેટલીક વાર માત્ર બાહ્યાચાર તરીકે વિનષપૂર્વકનું વર્તન હોય અથવા લજ્જાદિ કારણે તેમ કરવું પડતું હોય, પણ અંતરમાં વિનયનો ભાવ ન હોય. એને માટે શીતલાચાર્યનું દૃષ્ટાન્ત આપાવમાં આવે છે. કેટલીક વાર વિનયનો બાહ્ય આચાર ન હોય, પણ અંતરમાં પ્રીતિ, આદર, પૂજ્યભાવ ઇત્યાદિ એમાં હોય. ભગવાન મહાવીર સ્વામીના સમવસરણમાં સાતમા દેવલોકના દેવો આવે છે. તેઓ વિનયવંદન કરતા નથી. તેઓ મનથી ભગવાનને પ્રશ્ન કરે છે. ભગવાન તેમના પ્રશ્નને સમજી લઈ ઉત્તર આપે છે કે ‘મારા સાતસો શિષ્યો મોક્ષે જો. આ પ્રસંગે ગૌતમ સ્વામીને કુતૂહલ થાય છે.
તેઓ ભગવાનને પ્રશ્ન કરે છે કે દેવોએ વંદન કરવાનો વિનય કેમ દાખવ્યો નહિ ? ત્યારે ભગવાન એમને કહે કે એ દેવોએ અંતરથી વંદન કર્યાં છે. આ જાણીને ગૌતમ સ્વામીને આશ્ચર્ય થાય છે. અહીં બાહ્ય વિનય નથી, પણ અત્યંતર વિનય અવશ્ય છે. કેટલાયે સાધુઓ, ગ્રાહ્યો વગેરેમાં આપાને બાહ્ય વિનય અને અત્યંતર એમ બંને પ્રકારનો વિનય જેવા મળે છે. અઇમ્મુના મુનિ વગેરે ઘણાંનાં દૃષ્ટાંત આપી શકાય. તો કેટલાકમાં બાહ્ય કે અત્યંતર એવો એક પ્રકારનો વિનય હોતો નથી. ગોશાલ ગોામા પલ્લ એનાં ઉદાહરણો છે.
જીવનમાં બાહ્ય અને અત્યંતર વિનયના વિવિધ પ્રસંગો ઉપસ્થિત થાય છે. ઉદાહરણ તરીકે એક વર્ષોવૃદ્ધ શ્રાવક પંડિત એક નવદીક્ષિત યુવાન સાધુને ભણાવવા આવે છે. એ વખતે શ્રાવક પર્કિન સાધુ મહારાજને વંદન કરે છે, પરંતુ સાધુ મહારાજ ગૃહસ્થ
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ પંડિતને વંદન કરતા નથી. આ બાહ્ય વ્યવહારની વાત થઈ. હવે (૪) ઉપચારવિનય. શ્રાવક પંડિત સાધુ મહારાજને એમના વેશને કારણે જ માત્ર વંદન આ ચાર પ્રકારમાં તપવિનયનો સમાવેશ કરી વિનય પાંચ કરતા હોય અને અંતરમાં આદરભાવ ન હોય તો તે માત્ર બાહ્ય પ્રકારનો ‘ભગવતી આરાધનામાં બતાવાવમાં આવ્યો છે. વિનય થયો કહેવાય. એમના અંતરમાં પણ સાધુ મહારાજનાં ત્યાગ
विणओ पुण पंचविहो णिदिठो णाणदंसणचरित्ते । વૈરાગ્ય પ્રત્યે આદર હોય અને અંતરમાં પણ ભાવથી વંદન હોય
तवविणओ य चउत्थो उवयारिओ विणओ ॥ તો તે બાહ્ય અને અત્યંતર એમ બંને પ્રકારનો વિનય ગણાય.
વિશેષાવશ્યકભાષ્ય'માં પાંચ પ્રકારનો વિનય જુદી રીતે સાધુ મહારાજે વેશ ધારણ કર્યો હોવાથી ગૃહસ્થને દ્રવ્યવંદન કરવાનું
બતાવવામાં આવ્યો છે : એમને હોય નહિ, પણ એ જ વખતે તેઓ મનોમન ભાવથી “આ મારા ઉપકારી જ્ઞાનદાતા છે” એમ સમજી વંદન કરે તો બાહ્ય
लोगोवयारविणओ अत्थनिमित्तं च कामहेउं च । વિનય ન હોવા છતાં અત્યંતર વિનય હોઈ શકે. પરંતુ એ સાધુ
भयविणय मुक्खविणओ विणओ खलु पंचहा होई ॥ અંતરમાં પણ એવો ભાવ ન રાખે અને હું તો સાધુ છું, એમના લોકોપચારવિનય, અર્થનિમિત્તે વિનય, કામહેતુથી વિનય, કરચાં ચડિયાતો છું, મારે એમને વંદન શા માટે કરવાનાં હોય ? ભયવિનય અને મોક્ષવિનય એમ પાંચ પ્રકારનો વિનય છે. -એવો ભાવ રાખે તો ત્યાં બાહ્ય અને અત્યંતર એમ બંને પ્રકારનો ઔપપાતિકસૂત્રમાં સાત પ્રકારનો વિનય બતાવવામાં આવ્યો છે : વિનય ન હોય.
सत्तविहे विणए पण्णत्ते तं जहाવિનયના વ્યવહારવિનય અને નિશ્ચયવિનય એવા બે ભેદ
णाणविणए, दंसणविणए चरित्तविणए, પાડવામાં આવે છે. આત્માના સમ્યગ્દર્શન, જ્ઞાન, ચારિત્ર્યરૂપી ગુણો
मणविणए, वयणविणए, कायविणए, પ્રત્યેનો વિનય તે નિશ્ચય-વિનય અને સાધુ-સાધ્વીઓ, વડીલો વગેરે
लोगावयारविणए । પ્રત્યે વ્યવહારમાં વંદનાદિ પ્રકારનો જે વિનય દાખવવામાં આવે છે
(વિનય સાત પ્રકારનો છે, જેમ કે (૧) જ્ઞાનવિનય, (૨) તે વ્યવહાર-વિનય. આ બંને પ્રકારના વિનયનું પ્રયોજન રહે છે, તેમ છતાં જીવને સાધનામાં ઉચ્ચ ભૂમિકાએ લઈ જનાર તે
દર્શનવિનય, (૩) ચારિત્રવિનય, (૪) મનવિનય, (૫) વચનવિનય, નિશ્ચયવિનય છે.
(૬) કાયવિનય અને (૭) લોકોપચારવિનય.) જેઓ મિથ્યાત્વી છે, કુલિંગી છે, કુગુરુ છે તેઓના પ્રત્યે
આમ વિનયના જે જુદા જુદા પ્રકાર બતાવ્યા છે તેમાં સાધનાની અંતરથી પૂજ્ય ભાવ રાખવો, તેમની સાથે વંદનાદિ વ્યવહાર કરવો
દષ્ટિએ મહત્ત્વના તે જ્ઞાનવિનય, દર્શનવિનય, ચારિત્રવિનય અને ઇત્યાદિ પ્રકારનો વિનય ત્યાજ્ય મનાયો છે. માત્ર ઔપચારિક
ઉપચારવિનય છે. અર્થવિનય, કામવિનય અને ભયવિનય તો સ્પષ્ટ કારણોસર કેવળ માત્ર દ્રવ્ય વિનય દાખવવાના પ્રસંગો ઉપસ્થિત
રીતે લૌકિક પ્રકારના છે. અર્થવિનયમાં ધનદોલત, માલમિલકત થાય તો પણ તેઓ આધ્યાત્મિક માર્ગની આરાધ્ય વ્યક્તિઓ છે
વગેરેનું પ્રયોજન રહેલું છે. વેપારમાં માણસ બીજા વેપારીઓ પ્રત્યે, એવો બહુમાનપૂર્વકનો વિનયભાવ ન હોવો જોઈએ.
ઘરાકો પ્રત્યે, લેણદારો પ્રત્યે, સરકારી અધિકારીઓ પ્રત્યે પોતાના
સ્વાર્થે વિનય દાખવતો હોય છે. વધુ લાભ મેળવવાનો અને કેવળ નિશ્ચય નયની દૃષ્ટિથી વિનય ત્રણ પ્રકારનો બતાવવામાં
નુકસાનમાંથી બચવાનો એમાં આશય હોય છે. કામવિનયમાં માણસ આવે છે. ઘવનમાં કહ્યું છે : ગા-વંસન-વેરા વિળો ત્તિ |
પોતાની ઇચ્છાઓને સંતોષવા માટે વિનવણી વગેરે પ્રકારનો વિનય જ્ઞાનવિનય, દર્શનવિનય અને ચારિત્રવિનય એમ ત્રણ પ્રકાર
દાખવતો હોય છે. ભયવિનયમાં ભયથી બચવા માટે દુશ્મનો પ્રત્યે, વિનયના છે.
પોલીસ પ્રત્યે, સરકારી અધિકારી પ્રત્યે, રક્ષક બની શકે એમ હોય નિશ્ચય અને વ્યવહાર ઉભય દૃષ્ટિએ વિનય ચાર પ્રકારનો
એવી વ્યક્તિ પ્રત્યે વિનય દાખવવામાં આવે છે. આવો લૌકિક બતાવવામાં આવે છે. તત્ત્વાર્થસૂત્રમાં કહ્યું છે : જ્ઞાનવર્શનવારનો વારી
વિનય કાયમનો નથી હોતો. કામ પત્યા પછી, સ્વાર્થ સંતોષાઈ જ્ઞાનવિનય, દર્શનવિનય, ચારિત્રવિનય અને ઉપચારવિનય.
ગયા પછી, ભયમાંથી મુક્તિ મળ્યા પછી માણસ ઘણી વાર વિનયી શ્રી લક્ષ્મીસૂરિએ “ઉપદેશપ્રાસાદ”માં આ રીતે વિનય ચાર
મટી જાય છે અને ક્યારેક તો વિપરીત સંજોગોમાં એ જ વ્યક્તિ પ્રકારનો બતાવ્યો છે :
પ્રત્યે અવિનયી પણ બને છે. चतुर्धा विनयः प्रोत्कः सम्यग्ज्ञानादिभेदतः ।
મન, વચન અને કાયાથી થતો વિનય લૌકિક પણ હોય છે धर्मकार्ये नरः सोऽर्हः विनयाह्वतपोऽचितः ॥
અને લોકોત્તર પણ હોય છે. એમાં મનથી થતો વિનય અત્યંતર વિનય ચાર પ્રકારનો કહેલો છે. તે સમ્યજ્ઞાનાદિ ભેદ પ્રમાણે પ્રકારમાં આવી શકે, વચન અને કાયાથી થતો વિનય બાહ્ય પ્રકારનો છે. જે વિનય નામના તપથી યુક્ત હોય તે જ ધર્મકાર્ય માટે યોગ્ય હોય છે. ક્યારેક મન, વચન અને કાયા એ ત્રણ પ્રકારનો વિનય ગણાય છે.
એકસાથે પણ સંભવી શકે અને તે લોકોત્તર પણ હોઈ શકે છે. આમ, અહીં વિનય, મુખ્યત્વે ચાર પ્રકારનો બતાવવામાં આવ્યો
અધ્યાત્મમાર્ગમાં લોકોત્તર વિનયની જ ઉપયોગિતા છે. છે : (૧) જ્ઞાનવિનય, (૨) દર્શનવિનય, (૩) ચારિત્રવિનય અને સમ્યજ્ઞાન પ્રત્યે અને જ્ઞાની પ્રત્યેનો પૂજ્ય ભાવ તે જ્ઞાનવિનય
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વિનય છે. જ્ઞાનાચારનાં આઠ અંગો દર્શાવવામાં આવ્યાં છે. એ આઠ જો વિનય ન હોય અથવા અવિનય હોય તો તે વિદ્યાનું સારું ફળ અંગો તે જ્ઞાનવિનયના આઠ પ્રકાર છે. જ્ઞાનાચાર નીચે પ્રમાણે છે : મળે નહિ. એવી વિદ્યાનું મૂલ્ય ઓછું છે. વિનય વિનાની વિદ્યા काले विणए बहुमाणे उवहाणे तह अनिन्हवणे ।
બહુ ટકતી નથી એમ પણ કહેવાય છે. વિસ્મૃતિ એમાં ભાગ ભજવી बंजण अत्य तदुभए अविहो नाणमायारो ॥
જાય છે. બીજી બાજુ ગુરુ પ્રત્યે વિનય હોય તો વિદ્યા સફળ થાય કાળ, વિનય, બહુમાન, ઉપધાન, અનિહ્નવપણું, વ્યંજન,
છે. શ્રેણિક મહારાજા અને ચાંડાલનું દષ્ટાન્ત એ માટે જાણીતું છે. અર્થ તથા તદુભય (વ્યંજન અને અર્થ સાથે) એમ આઠ પ્રકારના
બહુમાનપૂર્વકનો વિનય હોય તો હૃદયમાં અને ચિત્તમાં એવી જ્ઞાનાચાર છે. શાસ્ત્રગ્રંથોમાં આ આચારોની વિગત છણાવટ
નિર્મળતા પ્રસરે છે કે જેથી વસ્તુપરિસ્થિતિ ઇત્યાદિ તરત સમજાય કરવામાં આવી છે.
છે, પ્રશ્નોનો સાચો ઉકેલ જડી આવે છે; અનુમાન સાચાં પડે છે. જ્ઞાનવિનયમાં શાસ્ત્રગ્રંથ તથા જેમાં અક્ષરો, માતૃકાઓ હોય
શાસ્ત્રકારો કહે છે કે, ગુરુ પ્રત્યેના વિનયના પરિણામે શિષ્યમાં
વૈનેયિકી બુદ્ધિ ઉત્પન્ન થાય છે. એ બુદ્ધિથી સાચા નિર્ણયો લઈ એવાં ઉપકરણો, સાધનો વગેરેને પગ લગાડવો, કચરામાં ફેંકવાં,
શકાય છે અને પ્રશ્નો જલદી સમજી શકાય છે. આવી વૈનેયિકી ઘૂંક લગાડવું, એના પર માથું મૂકીને સૂઈ જવું, ફાડી નાખવું ઇત્યાદિ
બુદ્ધિનાં દૃષ્ટાન્તો કથાગ્રંથોમાં જોવા મળે છે. પ્રકારનો અવિનય ન થાય તે પ્રત્યેક બહુ કાળજી રાખવી જોઈએ. એટલું જ નહિ, એ પ્રત્યે બહુમાન ધરાવવું જોઈએ.
વિદ્યાપ્રાપ્તિમાં ગુરુ પ્રત્યેના વિનયની સાથે બહુમાનની પણ જ્ઞાનીઓનો દ્વેષ ન કરવો જોઈએ, તેમની ઇર્ષ્યા, નિંદા,
એટલી જ આવશ્યક્તા છે. વિનય અને બહુમાન આમ તો સાથે
સાથે જ હોય છે, છતાં તે બંને વચ્ચે થોડો તફાવત પણ છે. ગુરુ ભર્લ્સના ન કરવી જોઈએ. કોઈકને જ્ઞાન અપાતું હોય તો તેમાં અંતરાય ન નાખવો જોઈએ. પોતે શિષ્યને કે શ્રાવકને કશું શીખવતાં
પ્રત્યેનો વિનય વંદન, અભ્યત્થાન ઇત્યાદિ દ્વારા વ્યક્ત કરી શકાય
છે. એ બાહ્યાચાર છે. પરંતુ બહુમાન તો હૃદયની સાચી પ્રીતિથી હોય ત્યારે, અમુક જ્ઞાન છુપાવવાનો, ઓછું અધિકું કહેવાનો પ્રયત્ન
જ જન્મે છે. જો હૃદયમાં બહુમાન હોય તો ગુરુને અનુસરવાનું, ન કરવો જોઈએ. હું શીખવીશ તો તે મારા કરતાં આગળ વધી
તેમના ગુણોને ગ્રહણ કરવાનું મન થાય છે, તેમનામાં રહેલી નજીવી જશે એવો ઇષ્ણુર્ભાવ ન રાખવો જોઈએ. તેવી જ રીતે શિષ્યના
ત્રુટિઓ પ્રત્યે ધ્યાન જતું નથી. પોતાની સાધનાના વિકાસ માટે મનમાં પણ એમ જ થવું જોઈએ કે પોતે પોતાના ગુરુ કરતાં
સતત ચિંતવન રહ્યા કરે છે. “ગૌતમ પૃચ્છા'માં કહ્યું છે : આગળ વધી જવું છે. વળી શિષ્ય ગુરુએ કરેલા અર્થ કરતાં જાણી જોઈને અવળો અર્થ ન કરી બતાવવો જોઈએ, અર્થ વગરનો વિવાદ
विजा विन्नाणं वा मिच्छा विणएण गिहिउं जो उ । ન કરવો જોઈએ તથા ગુરુના ઉપકારને ન છૂપાવવો જોઈએ. જ્ઞાન
अवमन्नइ आयरियं सा विजा निष्फला तस्स ॥ અને જ્ઞાનની ચૌદ પ્રકારની આશાતના શાસ્ત્રગ્રંથોમાં બતાવી છે વિદ્યા અને વિજ્ઞાન જો મિથ્યા વિનયથી (પ્રીતિ વગર ખોટા, તેવી આશાતના ન થવી જોઈએ.
કૃત્રિમ દેખાવથી) ગ્રહણ કરવામાં આવે અને આચાર્યની અવગણના શાનનો મહિમા જૈન ધર્મમાં ઘણો જ મોટો છે. એટલે જ કરવામાં આવે તો તેની વિદ્યા નિષ્ફળ જાય છે. તીર્થકરોએ આપેલો ઉપદેશ ગણધરભગવંતો દ્વારા જે ઊતરી આવ્યો આમ દ્રવ્યવિનયની સાથે ભાવવિનયની એટલી જ આવશ્યક્તા છે અને જે શ્રુતજ્ઞાન તરીકે ઓળખાય છે તેના પ્રત્યે બહુમાન છે, એટલું જ નહિ પણ એ વિનયની સાથે પ્રીતિયુક્ત બહુમાનનો દર્શાવવા જ્ઞાનપંચમી અથવા શ્રુતપંચમીનું પર્વ મનાવવામાં આવે સાચો ભાવ પણ અંતરમાં રહેવો જોઈએ. તો જ વિદ્યાનું ગ્રહણ છે. જૈન દર્શનમાં જ્ઞાન-જ્ઞાની પ્રત્યેનો વિનય ઉચ્ચ કોટિનો અને વધુ સફળ થઈ શકે છે. આમ વિનય અને બહુમાન બંને હોવા કે મહિમાવંત છે.
ન હોવા વિશે શાસ્ત્રકારો ચાર પ્રકાર બતાવે છે : ‘ઉપદેશપ્રાસાદ’માં શ્રી લક્ષ્મી સૂરિએ કહ્યું છે :
(૧) વિનય હોય પણ બહુમાન ન હોય. એ માટે શ્રીકૃષ્ણના श्रुतस्याशातना त्याज्या तद्विनयः श्रुतात्मकः ।
પુત્ર પાલકકુમારનું દષ્ટાન્ત આપાવમાં આવે છે. शुश्रूषादिक्रियाकाले तत् कुर्यात् ज्ञानिनामपि ॥
(૨) બહુમાન હોય, પણ વિનય ન હોય. એ માટે સાંબકુમારનું શ્રુતજ્ઞાનની આશાતના ત્યજવી જોઈએ. શ્રુતજ્ઞાનનો વિનય
દષ્ટાન્ત આપાવમાં આવે છે. શ્રુતસ્વરૂપ જ ગણાય છે. એટલા માટે શુશ્રુષા વગેરે પ્રકારની ક્રિયા
(૩) વિનય અને બહુમાન પણ હોય. એ માટે મહારાજા કરતી વખતે શ્રુતજ્ઞાનીનો પણ વિનય કરવો.
કુમારપાળનું દૃષ્ટાન્ન આપવામાં આવે છે. આમ, જ્ઞાનના વિનય સાથે જ્ઞાનીનો પણ વિનય કરવાનો
(૪) વિનય ન હોય અને બહુમાન પણ ન હોય. એ માટે હોય છે. એટલે કે જ્ઞાનના વિનયમાં જ્ઞાનીનો વિનય પણ સમજી
શ્રેણિક મહારાજની દાસી કપિલાનું દષ્ટાન્ન આપવામાં આવે છે. લેવાનો છે. જ્ઞાન અને વિનયનો પરસ્પર ગાઢ સંબંધ છે. જેમ દર્શન વિનયને સમ્યકત્વવિનય પણ કહેવામાં આવે છે. વિનયવિનયભાવ વધે તેમ જ્ઞાન વધે અને જેમ જ્ઞાન વધે તેમ વિનયભાવ ગુણનો સમકિત સાથે ગાઢ સંબંધ છે. સમકિતના ૬૭ બોલમાં પણ વધે. વિદ્યા વિના શોખન્ને એમ કહેવાયું છે. વિદ્યા હોય પણ સઘણા, શુદ્ધિ, લિંગ, ભૂષણ, આગાર, જયણા, ભાવના વગેરેના
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ જે પ્રકારોની ગણના કરવામાં આવે છે તેમાં વિનયના દસ પ્રકારનો (૯) જ્ઞાની, (૧૦) આચાર્ય, (૧૧) ઉપાધ્યાય, (૧૨) વિર પણ સમાવેશ થાય છે. દસ પ્રકાર તે આ પ્રમાણે છે : (૧) અરિહંત, અથવા વડીલ સાધુ અને (૧૩) ગણિ. (૨) સિદ્ધ, (૩) આચાર્ય, (૪) ઉપાધ્યાય અને (૫) સાધુ એ આ તેરનો વિનય પણ (૧) ભક્તિ કરવા વડે, (૨) બહુમાન પંચપરમેષ્ઠી પ્રત્યેનો વિનય તે વિનયના પાંચ પ્રકાર. તદુપરાંત કરવા વડે, (૩) ગુણસ્તુતિ કરવા વડે તથા (૪) આશાતના કે ચૈત્ય (એટલે જિનપ્રતિમા), શ્રત (શાસ્ત્ર સિદ્ધાન્ત), ધર્મ (ક્ષમાદિ અવહેલના ન કરવા વડે કરવાનો છે. એમ પ્રત્યેકની સાથે આ ચાર દસ પ્રકારનો યતિધર્મ), પ્રવચન (એટલે સંઘ) અને દર્શન (એટલે પ્રકાર જોડીએ તો કુલ બાવન પ્રકારનો વિનય થાય. સમકિત તથા સમકિત) એ પાંચ પ્રત્યેનો જે વિનય તેના પાંચ
- આ તેરનું જે વર્ગીકરણ કરવામાં આવ્યું છે તેનો પંચપરમેષ્ઠીમાં, પ્રકાર. આમ, કુલ દસ પ્રકારનો વિનય સમકિતની પ્રાપ્તિ માટે
ધર્મમાં અને સંઘમાં એમ ત્રણમાં સમાવેશ કરી શકાય અથવા એ અનિવાર્ય છે. વળી આ પાંચ પ્રકારે કરવાનો છે : (૧) ભક્તિથી
તેરને દેવતત્ત્વ, ગુરુતત્ત્વ અને ધર્મતત્ત્વમાં સમાવી શકાય. પરંતુ એટલે કે હૃદયની પ્રીતિથી, (૨) બહુમાનથી, (૩) પૂજાથી,
વિનય ગુણની આરાધના કરનારના મનમાં સ્પષ્ટતા રહે એ માટે (૪) ગુણપ્રશંસાથી અને (૫) અવગુણ ઢાંકવાથી તથા આશાતના
આ વર્ગીકરણ વધુ વિસ્તારવાળું કરવામાં આવ્યું છે. ત્યાગથી. આ રીતે દસ પ્રકારનો વિનય અને તે પ્રત્યેક પાંચ રીતે
શાસ્ત્રોમાં પાંચ પ્રકારનાં ચારિત્ર બતાવવામાં આવ્યાં છે. એ કરવાનો. એટલે કુલ પચાસ પ્રકારે વિનય થયો કહેવાય. આ
ચારિત્રના ધારક પંચ મહાવ્રતધારી પ્રત્યે વિનય દાખવવો તે ચારિત્રપ્રકારના વિનયથી સમકિતની પ્રાપ્તિ થાય છે અને પ્રાપ્ત થયેલું
વિનય છે અને પોતે તે પ્રકારના ચારિત્રનું પાલન કરવું તે પણ સમકિત વધુ નિર્મળ થાય છે. આમ, દર્શનવિનયથી દર્શનવિશુદ્ધિ
ચારિત્રવિનય છે. ઇન્દ્રિયોને સંયમમાં રાખવી, કષાયો ઉપર કાબૂ થાય છે. સમકિતના ૬૭ બોલની સક્ઝાયમાં ઉપાધ્યાય શ્રી
મેળવવો, ગુણિ સમિતિ સહિત મહાવ્રતોનું પાલન કરવું, આવશ્યક યશોવિજયજી મહારાજે કહ્યું છે :
ધર્મક્રિયાઓ ઉત્સાહપૂર્વક પરિપૂર્ણ રીતે કરવી, શક્તિ અનુસાર તપ અરિહંત તે જિન વિચરતાજી
કરવું, પરીષહો સહન કરવા ઇત્યાદિનો ચારિત્રવિનયમાં સમાવેશ કર્મ ખપી હુઆ સિદ્ધ;
થાય છે. ચેઇઅ જિન પ્રતિમા કહીજી,
જ્ઞાનવિનય, દર્શનવિનય અને ચારિત્રવિનય એ ત્રણ વિનય સૂત્ર સિદ્ધાન્ત પ્રસિદ્ધ
ઉપરાંત કોઈક ગ્રંથોમાં તપવિનય જુદો બતાવવામાં આવે છે. વસ્તુતઃ ચતુર નર, સમજો વિનયપ્રકાર
તપવિનયને ચારિત્રવિનયમાં સમાવિષ્ટ કરી શકાય છે, પરંતુ સ્પષ્ટતા જિમ લહીએ સમકિત સાર.
ખાતર તપવિનયને જુદો પણ બતાવવામાં આવે છે. એમાં પોતાની શક્તિ અનુસાર તપ કરવું અને ઓછું તપ કરનારની કે તપ ન કરી
શકનાર એવા બાલ, ગ્લાન, વૃદ્ધ વગેરેની ટીકાનિંદા ન કરવાનું ભગતિ બાહ્ય પ્રતિપત્તિથીજી,
કહ્યું છે. પોતાનાથી અધિક તપ કરનારની ઇર્ષ્યા ન કરવી કે દ્વેષભાવ હૃદયપ્રેમ બહુમાન;
ધારણ ન કરવો તથા પોતાના તપ માટે અહંકાર ન કરવો, તપમાં ગુણયુતિ અવગુણ ઢાંકવાજી,
માયા ન કરવી, દંભ ન કરવો, લુચ્ચાઈ ન કરવી, તપ કરીને ક્રોધ આશાતનાની હાણ.
ન કરવો વગેરેની ભલામણ કરવામાં આવી છે. પાંચ ભેદ એ દસ તણોજી
વિનયને તપના એક પ્રકાર તરીકે પણ ગણાવવામાં આવ્યો વિનય કરે અનુકૂળ,
છે. છ પ્રકારનાં બાહ્ય અને છ પ્રકારનાં અત્યંતર તપ એમ મુખ્ય સીંચે તે સુધારસેજી,
બાર પ્રકારનાં તપ છે. આ બાર પ્રકારનાં તપમાં આઠમું તપ અને
છ પ્રકારનાં અત્યંતર તપમાં બીજું તપ તે વિનય છે. શાસ્ત્રકારે ધર્મવૃક્ષનું મૂલ. આવશ્યકચૂર્ણિમાં નીચે પ્રમાણે વિનય તે પ્રકારનો બતાવ્યો
કહ્યું છે : છે અને તે પ્રત્યેક ચાર પ્રકારે કરવાનો કહ્યો છે :
पायच्छित्तं विणओ बेयावच्चं तहेब सज्झावो तित्थयरंसिद्धकुलगण-संधकियाधम्मनाणनाणीणं ।
झाणं उसग्गो वि अ अभितरो तवो होइ । आयरियथेरओज्झा-गणीणं तेरस पयाणि ॥
પ્રાયશ્ચિત્ત, વિનય, વૈયાવચ્ચ, સ્વાધ્યાય, ધ્યાન અને વ્યુત્સર્ગ
એ છ પ્રકારનાં અત્યંતર તપ છે. આ જ પ્રકારનાં તપ અનુક્રમે असासायणा य भती, बहुमाणे तह य वन्नसंजलणा ।
મૂકવામાં આવ્યાં છે. આગળનું તપ ન હોય તો પાછળનું તપ સિદ્ધ तित्थगराई तेरस चउग्गुणा होति बावन्ना ॥
ન થાય. જેમકે વિનય ન હોય તો વૈયાવચ્ચ ન આવે. વિનય અને કેટલાક દસને બદલે તેર પ્રકારનો વિનય નીચે પ્રમાણે બતાવે છે :
વૈયાવચ્ચ ન હોય તો સ્વાધ્યાય સફળ થાય નહિ. તે જ પ્રમાણે (૧) અરિહંત અથવા તીર્થંકર, (૨) સિદ્ધ, (૩) કુલ, પ્રાયશ્ચિત્તનો ભાવ ન હોય તો વિનય ન આવે. પોતાનાં પાપ કે (૪) ગણ, (૫) સંઘ, (૬) ક્રિયા, (૭) ધર્મ, (૮) જ્ઞાન, ભૂલ માટે પ્રાયશ્ચિત્તનો ભાવ આવે તો જ વિનય આવે.
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માં આવ્યો તક સૂત્રમાં
શ્રેજી ભાષા
વિનય કોઈકને પ્રશ્ન થાય કે ઉપવાસ વગેરે બાહ્ય તપ સમજી શકાય ગુરુભગવંતોનો મહિમા બરાબર સચવાય. ઔપપાતિક સૂત્રમાં એમ છે, પણ વિનયને અત્યંતર તપ તરીકે કેવી રીતે ઓળખાવી શકાય ? વિનયમાં કોઈ કષ્ટ તો હોતું નથી, તો એને તપ કેમ लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते तं जहाકહેવાય ? પરંતુ વિનય પણ એક પ્રકારનું ભારે તપ છે, કારણ કે
(૧) સમાવિત્તિય, (૨) પરછંતાનુવત્તિ, (૩) દેવું, (૪) વિનયમાં અહંકારને મૂકવાનો છે. માન મૂક્યા વગર વિનય આવે વડિવિઝરિયા, (૫) અત્તાવેસણથા, (૬) કેશવાનનુયા, (૭) સચદે, નહિ. હું અને મારું - ગરું અને મન એ આત્માના મોટા શત્રુઓ
(૯) અપૂરતોમવા. છે. સાધનાના માર્ગમાં અહંકાર, મમકાર, મતાગ્રહ, હઠાગ્રહ,
લોકોપચાર વિનય સાત પ્રકારનો છે : (૧) ગુરુ વગેરેની પાસે દષ્ટિરાગ વગેરે મોટા અંતરાયો છે. દરેક જીવમાં ઓછેવત્તે અંશે
રહેવું, (૨) એમની ઇચ્છાનુસાર વર્તવું, (૩) એમનું કાર્ય કરી માનકષાય રહેલો છે. “હું” અને “મારું”નું વિસ્મરણ અને વિસર્જન
આપવું, (૪) કરેલા ઉપકારનો બદલો વાળવો, (૫) વ્યાધિગ્રસ્તની કરવાનું છે. એમ કરવું કષ્ટદાયી છે. જીવને પોતાને વારંવાર સ્વભાવ
સારસંભાળ રાખવી, (૬) દેશકાલાનુસાર પ્રવૃત્તિ કરવી, (૭) એમનાં તરફ વાળવાનો ભારે પુરુષાર્થ કરવો પડે છે. એ માનસિક સૂક્ષ્મ
બધાં કાર્યોમાં અનુકૂળ વૃત્તિ રાખવી. પ્રક્રિયા છે. એ કષ્ટદાયક સૂક્ષ્મ પુરુષાર્થ છે, એટલે જ એ તપ છે.
ઉપચારવિનય પણ પ્રત્યક્ષ ઉપચારવિનય અને પરોક્ષ એટલા માટે વિનયનો અભ્યતર તપમાં સમાવેશ કરવામાં આવ્યો છે.
ઉપચારવિનય એમ બે પ્રકારનો છે. પ્રત્યક્ષ ઉપચારવિનયમાં આચાર્ય, કોઈને એમ થાય કે માનને જીતવામાં તે શી વાર લાગતી હશે ?
ઉપાધ્યાય, સાધુ વગેરે બહારથી પધારતા હોય તો સન્મુખ લેવા પણ વાસ્તવમાં એમ નથી. ક્રોધ, માન, માયા અને લોભ એ ચાર
જવું, બેઠા હોઈએ તો ઊભા થવું, પોતાના આસન પર બેઠાં બેઠાં કષાયમાંથી ક્રોધ તરત દેખાઈ આવે છે. માન ક્યારેક વચન દ્વારા
જવાબ ન આપતા પાસે જઈ જવાબ આપવો, તેમને વંદન કરવાં, વ્યક્ત થઈ જાય અથવા ક્રોધની સાથે તે પણ જોડાઈ જાય અથવા
વંદન કરતી વખતે અમુક અંતર રાખવું, તેઓ રસ્તામાં ચાલતા ક્રોધને તે ઉશ્કેરે ત્યારે તે દેખાઈ આવે છે, પરંતુ બાહ્ય વર્તનમાં
હોય ત્યારે તેમની આગળ નહિ પણ બાજુમાં કે પાછળ ચાલવું, આડંબર રાખીને માણસ પોતાના મનમાં પોતાના માનને સંતાડે છે.
એમનાં ઉપકરણો વગેરેની સંભાળ રાખવી, તેઓ કોઈની સાથે ક્યારેક તો પોતાને પણ ખબર ન પડે કે પોતાનામાં આટલું બધું
વાત કરતા હોય ત્યારે વચ્ચે ન બોલવું, તેમને પ્રિય અને અનુકૂળ માન રહેલું છે. જ્યારે માન ઘવાય છે, પોતાની અવમાનના કે
લાગે એવી વાણી બોલવી અને એવું વર્તન રાખવું, સમકક્ષ સાધુ અવહેલના થાય છે ત્યારે જ ખબર પડે છે કે પોતાનામાં કેટલું બધું
સાથેના વ્યવહારમાં અભિમાન ન રાખવું, દ્વેષ ન કરવો, ક્ષમા માન પડેલું છે. માન કોઈ એક જ વાત માટે નથી હોતું. એક
ભાવ ધારણ કરવો, આઠ પ્રકારના મદનો ત્યાગ કરવો ઇત્યાદિ વિષયમાં લઘુતા દર્શાવનાર વ્યક્તિ બીજા વિષયમાં એટલી લધુતા
નાનીમોટી ઘણી બધી વાતોનો સમાવેશ થાય છે. ન પણ ધરાવતી હોય. મદ આઠ પ્રકારના બતાવવામાં આવ્યા છે
પરોક્ષ ઉપચારવિનયમાં તેઓ ન હોય ત્યારે તેમને મન, વચન, : (૧) જાતિમદ, (૨) કુલમદ, (૩) રૂપમદ, (૪) ધનમદ, (૫) ઐશ્વર્યમદ, (૫) બલમદ, (૭) જ્ઞાનમદ અને (૮) લાભમદ, આ
કાયાદિથી વંદન કરવાં, તેમના ઉપકારોનું સ્મરણ કરવું, તેમના
ગુણોનું પણ સ્મરણ કરવું, તેમની આજ્ઞાનું પાલન કરવાનો ભાવ તો મુખ્ય પ્રકારના મદ છે. પરંતુ તે ઉપરાંત પણ બીજા ઘણા મદ
રાખવો, તેમની કોઈ ત્રુટિઓ હોય તો તે મનમાં ને યાદ કરવી કે હોઈ શકે છે. વળી આ આઠ મદના પણ બહુ પેટાપ્રકાર હોય છે.
બીજા કોઈ આગળ તેમની નિંદા ન કરવી વગેરે બતાવવામાં ગરીબ માણસ ધનનો મદ ન કરે, પણ રૂપનો મદ કરી શકે છે.
આવે છે. કદરૂપો માણસ રૂપનો મદ ન કરે, પણ ધનનો મદ કરી શકે છે. અરે, જ્ઞાની માણસ પોતાના જ્ઞાનનો અહંકાર કરી શકે છે. જ્યાં
ઉપચારવિનયને શુશ્રુષાવિનય પણ કહેવામાં આવે છે. તે અનેક સુધી જીવમાંથી મદ જતો નથી ત્યાં સુધી સાચો વિનય પરિપૂર્ણ
પ્રકારનો હોય છે. ઔપપાતિક સૂત્રમાં કહ્યું છે : રીતે આવી શકતો નથી. આથી જ માન કષાયને જીતવાનું ઘણું सुस्सुसणा विणए अणेगविहे. पण्णत्ते तं जहाદુષ્કર મનાયું છે. માન જીવ પાસે આઠ પ્રકારનાં ભારે કર્મ બંધાવી अभुट्ठाणाइ वा, आसणामिग्गहेउ बा, आसणप्पयाणेइ वा, सक्कारेइ શકે છે. એમાં પણ સૌથી વધુ ભારે તે મોહનીય કર્મ છે. સાચા वा, कित्तिकम्मेइ वा, अंजलिपग्गहेइ वा, इत्तस्स अणुगच्छणया, ठियस्स વિનયમાં આ મોહનીય કર્મનો ક્ષયોપશમ કે ક્ષય કરવાનું સામર્થ્ય पज्जुवासणया, गच्छंतस्स पडिसंसाहणया । છે. જિનાજ્ઞાના પાલનથી અવિનય દૂર થાય છે અને વિનય આવે (શુશ્રુષાવિનય અનેક પ્રકારનો છે, જેમ કે ગુરુ વગેરે આવે તો છે એટલે વિનયને યોગ્ય રીતે જ તપના એક પ્રકાર તરીકે ઓળખાવી ઊભા થવું, આસન માટે નિમંત્રણ કરવું, આસન આપવું, સત્કાર શકાય.
કરવો, કૃતિકર્મ કરવું એટલે કે વંદન કરવું, હાથ જોડી સામે બેસવું, ઉપચારવિનય અથવા લોકોપચાર વિનયમાં વડીલ સાધુસાધ્વીઓ આવકાર આપવા સામે જવું, સ્થિરતા કરી હોય તો સેવા કરવી પ્રત્યે આદરભાવપૂર્વક વ્યવહાર રાખવાની આવશ્યક્તા ઉપર ઘણો અને જતા હોય ત્યારે પહોંચાડવા જવું.) ભાર મૂકવામાં આવ્યો છે. એ માટે વિવિધ પ્રકારના નિયમો વિનય આત્માનો ગુણ છે. અવિરતિધર અને સર્વવિરતિધર બતાવવામાં આવ્યા છે કે જેથી મનમાં સંશય ન રહે અને આચાર્યાદિ - એવા સૌમાં એ ગુણ રહેલો છે. વ્યવહારમાં ઔપચારિક રીતે પણ
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ તે પ્રગટ થાય છે અને પરોક્ષ રીતે ભાવથી અંતઃકરણમાં પણ તે મળતાં ગમે તેને ગુરુ ધારી લઈને, તેમની આજ્ઞામાં રહીને બહુ પ્રકાશિત થાય છે. સાધુ, ઉપાધ્યાય અને આચાર્ય પણ વિનય દાખવે વિનય દર્શાવતા હોય છે. “એક સપુરુષની સઘળી ઇચ્છાને માન છે. અવધિજ્ઞાની અને મન:પર્યવજ્ઞાની મહાત્માઓ પણ વિનય દાખવે આપ અને તન, મન, તથા ધનથી તારી જાતને તેમનાં ચરણોમાં છે અને ચૌદ પૂર્વધર પણ વિનયવાન હોય છે. હવે પ્રશ્ન એ આવે સમર્પિત કરી દે' - એવાં ઉપદેશાત્મક વાક્યો વંચાવીને દંભી છે કે કેવળજ્ઞાન થયા પછી કેવલી ભગવંતને વિનય દાખવવાનો અસદ્દગુરુઓ પોતાનાં ભક્ત-ભક્તાણીને માનસિક રીતે ગુલામ જેવાં હોય ? આ અંગે જુદી જુદી અપેક્ષાથી વિચારણા થઈ શકે છે. જો બનાવી દે છે. તેમની પાસે જો ધન હોય તો તે છળકપટ કરી હરી તીર્થંકર પરમાત્મા સમવસરણમાં બિરાજમાન થતી વખતે નો તિથ્થસ લે છે અને તનથી સમર્પિત થવાનો અવળો અર્થ કરી ભક્તાણીઓનું અને નો સંપર્સ એમ બોલી વિનય દાખવતા હોય તો કેવલી શારીરિક શોષણ પણ કરતા હોય છે. અને આ બધું ધર્મને નામે, ભગવંતો વિનય કેમ ન દાખવે ?
આત્મસાક્ષાત્કાર કરાવવાના નામે, પ્રભુનું દર્શન કરાવવાના નામે, આમ, જીવન કઈ કક્ષા સુધી પોતાના ગુરુનો વિનય કરે એ સમક્તિની પ્રાપ્તિ કરાવવાના નામે, ઝટઝટ મોક્ષ અપાવી દેવાના. વિશે પણ વિચારણા થઈ છે. શ્રીમદ્ રાજચંદ્ર “આત્મસિદ્ધિ શાસ્ત્ર'માં નામે કરતા હોય છે અને અંધશ્રદ્ધાળુ ભોળી ભક્તાણી પોતાને લખ્યું છે :
“ગુરુજી મળ્યા, ગુરુજી મળ્યા, હવે બેડો પાર છે' એમ સમજી, જે સદ્ગુરુ ઉપદેશથી પામ્યો કેવળજ્ઞાન,
વિનયવંત બની એમની સર્વ ઇચ્છાઓને અધીન બની જાય છે. ગુરુ રહ્યા છઘસ્થ પણ વિનય કરે ભગવાન.
સંસારમાં વિનયના નામે આજ્ઞાપાલનના નામે આવો ગંદવાડ પણ
વખતોવખત પ્રવર્તતો હોય છે. સમજુ આરાધકે એવા માયાવી કેવળી ભગવાન પણ પોતાના ઉપર ઉપકાર કરનાર, પોતાના
ગુરુઓથી ચેતતા રહેવું જોઈએ. કેવળજ્ઞાનનું નિમિત્ત બનનાર એવા ઉપદેશક ગુરુનો, છદ્મસ્થ હોવા છતાં વિનય કરે છે. ગુરુ અને શિષ્યમાં એવો નિયમ નથી કે
જેમ શિષ્ય ગુરુ પ્રત્યે અવિનય ન કરવો તેમ ગુરુએ પણ પહેલાં ગુરુને જ કેવળજ્ઞાન થાય અને પછી જ શિષ્યને કેવળજ્ઞાન
પોતાના શિષ્યો પ્રત્યે અવિનયી વર્તન ન કરવું જોઈએ. પક્ષપાત, થાય. શિષ્યને પહેલાં કેવળજ્ઞાન જો પ્રગટ થાય તો તરત તે ગુરુ
અકારણ શિક્ષા, વધુ પડતો દંડ, શિષ્યની સેવાશુશ્રુષાનો વધુ પડતો પ્રત્યેનો વિનય પડતો મૂકે ? અથવા વિનય સહજ રીતે છૂટી જાય ?
લાભ લેવો, ક્રોધ કરવો, શિષ્યોને બધાંના દેખતાં ટોકવા ઇત્યાદિ અલબત્ત કેવળજ્ઞાન થાય કે તરત શિષ્ય એમ પોતાના ગુરુને કહે
પ્રકારનું વર્તન ગુરુ ભગવંતે ટાળવું જોઈએ. જેઓ પોતે જાણે છે કે નહિ કે મને કેવળજ્ઞાન થયું છે અને હવે હું તમારી વૈયાવચ્ચ કરીશ
પોતાનામાં શિથિલાચાર છે, સ્વચ્છંદતા છે, પ્રલોભનો છે, પક્ષપાત નહિ. બીજી બાજુ ગુરુને જેવી ખબર પડે કે પોતાના શિષ્યને
છે, ક્રોધાદિ કષાયો ઉગ્ન છે, ધર્મમાં શ્રદ્ધા દઢ નથી એવા કુગુરુઓ કેવળજ્ઞાન થયું છે અને પોતે હજુ છvસ્થ છે, તો ગુરુ ભગવંત
શિષ્યો પાસે જો વિનય કરાવડાવે તો તેથી તેઓ દુર્ગતિમાં ધકેલાઈ તરત જ પોતાના કેવલી શિષ્યને વંદન કરે જ. પરંતુ જ્યાં સુધી
જાય છે. ગુરુને અણસાર ન આવે ત્યાં સુધી કેવલી શિષ્ય વિનય કરે કે નહિ ?
આમ, જૈન દર્શનમાં વિનયના ગુણનો ઘણો મહિમા દર્શાવવામાં આ વિષયમાં શાસ્ત્રકારોમાં વિભિન્ન મત હોવા છતાં શ્વેતામ્બર
આવ્યો છે. “ધર્મકલ્પદ્રુમ' નામના ગ્રંથમાં કહ્યું છે : પરંપરામાં તો મૃગાવતી, પુષ્પચૂલા, ચંડરુદ્રાચાર્યના શિષ્ય વગેરેનાં मूलं धर्मद्रुमस्य द्युपति नरपतिश्रीलतामूलकन्दः । દષ્ટાન્તો છે કે જેઓએ પોતાને કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થયા પછી પણ सौन्दर्याकानविया निखिलगुणनिधिर्वश्यताचूर्णयोगः । પોતાના ગુરુનો વિનય સાચવ્યો હતો. શ્રીમદ્ રાજચંદ્ર લખ્યું છે,
सिद्धाज्ञामन्त्रमन्त्राधिगममणि महारोहणाद्रिः समस्ताજે સદ્ગુરુના ઉપદેશથી કોઈ કેવળજ્ઞાન પામ્યા, તે સદ્ગુરુ હજુ
नर्थप्रत्यर्थितन्त्रं त्रिजगति किं न किं साधु पत्ते ? છદ્મસ્થ રહ્યા હોય, તો પણ જે કેવળજ્ઞાનને પામ્યા છે એવા તે
विनयः કેવળી ભગવાન પ્રસ્થ એવા પોતાના સરની વૈયાવચ્ચ કરે એવો વિનયનો માર્ગ શ્રી જિને ઉપદેશ્યો છે.'
અર્થાત્ વિનય ધર્મરૂપી વૃક્ષનું મૂળ છે, દેવેન્દ્ર અને નરપતિની
લક્ષ્મીરૂપી લતાનો મૂળકંદ છે, સૌન્દર્યનું આહ્વાન કરવાની વિદ્યા આ વિનય માત્ર ઉપચાર વિનય હોય તો પણ એ કેવળી
છે, સર્વ ગુણોનો નિધિ છે, વશ કરવા માટેનો ચૂર્ણનો યોગ છે, ભગવંતનો વિનય છે. આમ છતાં આ અત્યંત સૂક્ષ્મ વિષય અંતે
પોતાની આજ્ઞા સિદ્ધ થાય એ માટેના મંત્રયંત્રની પ્રાપ્તિ માટેના તો કેવલીગમ્ય છે.
મણિઓ, રત્નોનો મોટો રોહણાચલ (પર્વત) છે. અને સમસ્ત વિનય દરેક પ્રસંગે યોગ્ય સ્થાને જ હોય એવું નથી. વિનય
અનર્થનો નાશ કરનારું તંત્ર છે. આવો વિનય ત્રણે જગતમાં શું શું કરનારને પક્ષે માત્ર એમનું ભોળપણ જ હોય, પરંતુ દંભી, માયાવી,
સારું ન કરી શકે ? બની બેઠેલા લુચ્ચા અસગુરુઓ શિષ્ય-શિષ્યાના કે ભક્ત
એક વિનયના ગુણથી જીવ ઉત્તરોત્તર કેવી રીતે વિકાસ સાથે ભક્તાણીના વિનયનો મોટો ગેરલાભ ઉઠાવતા હોય એવા પ્રસંગો
છે અને મોક્ષગતિ પ્રાપ્ત કરવા સુધી પહોંચી શકે છે તેનો ક્રમ પણ વખતોવખત બનતા હોય છે. સંસારમાં દુઃખનો પાર નથી
બતાવતા ઉમાસ્વાતિ મહારાજ “પ્રશમરતિ'માં કહે છે : અને દુઃખી, મૂંઝાયેલી વ્યક્તિઓ જરાક આશ્વાસન મળતાં, મંત્રતંત્ર
વિનાનં શુકૂવા, શુકૂણાનં શ્રુતજ્ઞાનમ્ |
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વિનય ज्ञानस्य फलं विरतिविरतिफलं चास्त्रव निरोधः ॥
વિનય સર્વ કલ્યાણોનું ભાજન છે. संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम् ।
આ માટે જ “તત્ત્વામૃતમાં કહ્યું છે : तस्मात् क्रियानिवृत्ति क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥
ज्ञानभावनया जीवो लभते हितमात्मनः । योगनिरोधाद् भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः ।
बिनयाचारसंपन्नो विषयेषु पराङ्मुखः ॥ तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः ॥
(વિનયયુક્ત આચારવાળો તથા વિષયોથી વિમુખ થયેલો જીવ અર્થાત્ વિનયનું ફળ ગુરુશુશ્રુષા છે. ગુરુશુક્રૂષાનું ફળ શ્રુતજ્ઞાન જ્ઞાનભાવના વડે પોતાનું હિત પ્રાપ્ત કરે છે.). છે. શ્રુતજ્ઞાનનું ફળ વિરતિ છે. વિરતિનું ફળ આગ્નવનિરોધ છે. आत्मानं भावयेन्नित्यं, ज्ञानेन विनयेन च । આગ્નવનિરોધ એટલે કે સંવરનું ફળ તપોબલ છે. તપનું ફળ નિર્જરા मा पुनर्मियमाणस्स पश्चात्तापो भविष्यति ॥ છે. એનાથી ક્રિયાની નિવૃત્તિ થાય છે. ક્રિયા-નિવૃત્તિથી અયોગિત્વ
(જ્ઞાન અને વિનય વડે હંમેશાં આત્માનું ચિંતન-ભાવન કરવું થાય છે. અયોગિત્વ એટલે કે યોગનિરોધથી ભવસંતતિ અર્થાત્ જોઈએ, જેથી મરતી વખતે માણસને પશ્ચાત્તાપ કરવો પડે નહિ.) ભવપરંપરાનો ક્ષય થાય છે. એથી મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. આ રીતે
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પ્રભુ સાથેની ગોઠડીને માણીએ
પ.પૂ. શ્રી પ્રદ્યુમ્નસૂરિ મહારાજ
વિશ્વના જીવમાત્ર પ્રત્યેની કરુણાથી છલકાતા હૃદયના સ્વામી પરમાત્મા જ્યાં વિરાજમાન છે તે મંદિરમાં જવાનાં ત્રણ બારણાં છે. : ભક્તિ, વૈરાગ્ય અને જ્ઞાન; પણ ગર્ભાગારમાં જવાનું બારણું એક જ છે : તલ્લીનતા. ત્યાં પહોંચો એટલે ગર્ભદીપ દેખાય અને તેના અજવાળે પરમની ઝાંખી થાય. સાધકની મથામણ આ પરમતત્ત્વની ઝાંખી માટેની જ હોય છે. તેનાં ત્રણ સાધનોમાં ભક્તિ એ દેખીતી રીતે સહેલું સાધન જણાય છે પણ તાત્ત્વિક રીતે તે સૌથી અઘરું છે; કારણ કે જ્ઞાન-વૈરાગ્યની સરખામણીમાં ભક્તિમાં અહમૂનો સૌથી વધુ વિલય કરવો પડે છે. ભક્તિને “એકશેષ' કહેવામાં આવે છે તે આ અર્થમાં. એક ‘તે' જ બાકી રહે છે - ત્વમેવ, ભક્તિનાં ત્રણ સોપાનમાં અનુક્રમે તવાદૃ, તવૈવાર્દ અને છેલ્લે મારું આવે છે. છેલ્લે તું જ તે હું છું'ની સ્થિતિ પ્રગટે છે. પછી દેખતી રીતે ભક્ત સક્રિય લાગતો હોય છે, પણ વાસ્તવમાં તો ભક્તના ખોખામાં ભગવાન જ જાણે જીવતા હોય એટલું અહમૂનું વિલોપન ભક્તિ માગી લે છે. એટલે જ ભક્તિનો માર્ગ કપરો છે. આ બાબત એક કવિએ સરસ વાત કરી છે :
“એ અગોચર તત્ત્વ સાથે ક્યાં કશું સંધાય છે ? એક વચન, પહેલો પુરુષ, ત્યાં વચ્ચે આવી જાય છે !”
એ અહમૂનો લય તે જ પ્રભુનો જય છે અને તેથી વચલો પડદો ઉઠી જાય છે અને ભક્તનું કશું છાનું રહેતું નથી : તેહથી કહો છાનું કહ્યું, જેને સોંપ્યાં તન-મન-વિત્ત હો”
- ઉ. યશોવિજયજી અને આવી કો'ક ક્ષણે ભક્ત અને ભગવાનનું અંગત મિલન રચાય છે અને ત્યારે જે ગોઠડી થાય છે તે તો અંગત રહેતી નથી : “જાને સબ કોઈ.”
સ્તવન એટલે ભક્તની ભગવાન સાથેની ગોઠડી. મુનિરાજ શ્રી ભુવનચંદ્રજી મહારાજે સંપાદિત કરેલ શ્રી પાર્શ્વચન્દ્ર સૂરિકૃત સ્તવનચોવીશીનાં સ્તવનોમાંથી પસાર થતી વખતે આવા સુભગ મિલનનાં દર્શન થાય છે. કવિએ પ્રભુ સાથે ગોઠડી માંડી છે ને પછી જાણે આપણી આગળ એની વાત કરે છે : પ્રત્યક્ષ જાણે જિન કુંથુ દીઠા,
પદ્માસનિઈ ધ્યાન ધરેવિ બાંઠા; નાશાગ્રિ સમ્યગ્ર નિજદૃષ્ટિ રાખઇ, તિણ હેતિ વાણી વયણિઈ ન ભાખઈ.”
- ૧૭૮ પોતાના મનમાં ઘૂંટાતી વ્યથાની વાત - કુગુરુ સંગની દાસ્તાન - તેમના મોઢે વારંવાર આવે છે :
‘મિથ્યાદરિસણ પાપિયઉ એ, ચિત અંતરિ આવી થાપિયઉ એ, તિણિ કુગુરુ-કુદેવિ નમાવિયલ એ, એ પ્રાણી પ્રાણિ ભાવિયલ એ.'
- ૨/૫ ‘‘ત્યજી કુગુરુ વલિ સુ ગુરુને સંગિત રાચઉં.”
- ૧૦૯ એ જ પ્રમાણે ત્રણ સો ને ત્રેસઠ પાખંડીને પણ એ જ સંદર્ભમાં યાદ કરે છે :
‘ત્રઇસઠિ અધિકા ત્રણિ સય, પાખંડીના ધર્મ, જિનમત લહિ તે જ કરિય, ગુરુ વિણ ન લહ્યઉ મર્મ.”
- ૩/૮ ‘‘ત્રિષ્ણિ સય ઇસકિ ચોર, પાખંડી અતિ ઘોર, તાસુ વિઘન સવિ ટાલઇ, નિજ પ્રભુ આદેશ્યલું પાલ.” -પ/૪
તેમ". સમયમાં ગચ્છના ભેદોની જે સ્થિતિ પ્રવર્તતી હતી તેનો સખેદ ઉલ્લેખ કવિ કરે છે અને સાથે આત્મનિવેદન પણ કરે છે : આગમવચન ઉથાપિયઉં, નિયનિય ગચ્છ તિ થાપિયઉં,
આપિયઉ કિમ લહઉં દંસણ તાહરઉં એ ? હિવ એ સહૂ આલેઇઇ, સુપ્રસન્ન નયણ નિહાલિયાં, ટાલિયઈ ભવદુહ બંધન માહરઉં એ.”
- ૪/૧૧ સ્તવનોનું ભાષાકર્મ પણ સાફ અને સ્વચ્છ છે; અભિવ્યક્તિની કળા પણ આગવી છે. કર્મગ્રન્થના ગહન પદાર્થો ગુજરાતી પદ્યમાં સુગમ રીતે ગૂંથી લેવાયા છે. અહીં તેમનું શાસ્ત્રીય વિષયનું તથા ભાષા પરનું પ્રભુત્વ સ્વયં સ્પષ્ટ જણાઈ આવે છે. અઢારમાં શ્રી અરનાથ ભગવાનના સ્તવનમાં ધર્માધર્મની ચર્ચા નોંધપાત્ર છે, તો વીસમા મુનિસુવ્રતસ્વામી ભગવાનના સ્તવનમાં ગુણસ્થાનકની દષ્ટિએ કરેલું નિરૂપણ પણ, તેઓ આ વિષયમાં કેટલા રમમાણ હશે તેની પ્રતીતિ કરાવે છે. પાર્શ્વનાથ ભગવાનના સ્તવનમાં ચૌદ સ્વપ્નની ગૂંથણી સુંદર કરી છે, જ્યારે ધર્મનાથ પ્રભુના સ્તવનમાં કલ્પસૂત્રગત સંખે ઇવ નિરંજણે' વગેરે ઉપમાઓને સફળપણે ગૂંથી લીધી છે.
કવિનો વિદ્યમાનકાળ વિક્રમના સોળમા શતકનો છે. તે સમયે સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયની શરૂઆત થઈ ચૂકી હતી. આથી તદ્વિષયક
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પ્રભુ સાથેની ગોઠડીને માણીએ ચિંતન પણ સ્રાવનોમાં ઊતરી આવ્યું છે. સ્થાપનાનિર્લેપ અર્થાત્ મૂર્તિના સંદર્ભમાં કવિ જાશે સ્વાનુભવસિદ્ધ ઉદ્દગાર કાઢે છે : “નામિઈ શિક હવા વિશેષ જાકા
જે દેખિ ચોખઉ જિનભાવ આણઉં.''
- ૧૭૪૯ તેના જ અનુસંધાનમાં ચોવીસમા મહાવીર સ્વામીના વનમાં દૃઢતાપૂર્વક જે પ્રતિપાદન કવિ કરે છે તે અસરકારક છે. શ્રી ભગવતીજી સૂત્રના પ્રારંઙે ‘નમો બંભીએ લિવિએ' પદ છે, તેને પણ અહીં સંભાર્યું છે. આ સ્તવનમાં બોલચાલની ભાષામાં થયેલું નિરૂપણ સુંદર લાગે છે :
“મા, મા, એમ ન ભાખિયઈ જી, એ અસમંજસ વાર્ષિ; પ્રતિમા નહુ ઉથાપિયઇ જી, એ મતિ સાચી જાણિ’' - ૨૪/૫ વિચારશીલ સાધકને પોતાના સમસામયિક મત-પંથના સંદર્ભે વિધાન કરવું જ પડે છે; એવા પ્રસંગે તેઓ કરસાહિએ અંગુલિનિર્દેશ કરવો જ પસંદ કરે છે.
સાહિત્યની ષ્ટિએ જોઈએ તો આ સ્તવનોમાં ઉપમા આદિ અલંકારો, યમક, પ્રાસ આદિ ભાષાકીય શણગાર સુંદર રીતે પ્રયોજાયા છે. રચનામાં પ્રૌઢતા છે. શ્રી સંભવનાથ ભગવાનના વનનો ઉપાડ કેટલો સહજસુંદર છે : "મંગલવલ્લિ વિતાન ધન, શ્રી સંવ જિનરાય''
શ્રી અભિનંદન સ્વામી ભગવાનના સ્તવનમાં પહેલી અને બીજી કર્દીમાં, મુક્તિફળ મેળવવા લાખ યોજનનું શરીર કરીએ તો પણ તે ન મળે અને પ્રભુના ચરણે જે નીચા નમે તેને તે તરત જ મળે એ કેવો મજાનો વિરોધાલંકાર દર્શાવ્યો છે !
તેરમા વનમાં એક પ્રાકૃત સુભાષિતની છાયા સરસ રીતે ઝીલાઈ છે ઃ
“સરસ દૂધ સતંદુલ સ્પર્ધા નિી, કલકલઈ જિમ ખીર રસાઉલી; સઘણ કુન્નુસ મિશ્રિત રાખડી, તાબડ ના કાંઈ નિઈ ચડી ?''
-૧૩/૮
પ્રાકૃતમાં સુભાષિત આ પ્રમાણે છે :
जई बहुल दुध्यथचला उच्छल धवलतंडुला श्रीरा ता किं कलकुक्करिया, रवडिआ नो तव्व
॥२॥
બાવીસમા સ્તવનમાં શ્રી નેમિનાથ ભગવાનના સમ્યક્ત્વ પામવાના પ્રસંગને -
‘“તિહાં સાધુનઉ શુદ્ધ આચાર દેખી, લી દસ કુમતની મતિ ઉવેખી.
આમ એક પંક્તિના ઇશારે રજૂ કર્યો છે. અન્યત્ર ગુજરાતી પઘમાં આ વાત આવી હોય એવું સ્મરણ નથી. પ્રસંગ યાદગાર છે. ‘ત્રિષષ્ટિ'માં પર્વ આઠમામાં આવે છે.
૧૧
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ધન અને ધનવતીનો એ પહેલો ભવ છે. ગ્રીષ્મના ભર તાપના દિવસો છે. ઉકળાટ કેટાળીને કંપની ઉપવનમાં શીતળ તામંડપમાં વિશ્રામ કરી રહ્યાં છે. ત્યાં ધનવતી ભરબપોરે ધોમ તાપમાં રસ્તા ઉપર એક મુનિને મૂર્છાવશ થઈને પડતા જુએ છે, ધનને કહે છે અને ધન તુર્ત દોડીને શીતોપચાર કરે છે, મુનિ સ્વસ્થ બને છે. ધન મુનિને પૂછે છે : ‘‘આવી અવસ્થા કેમ થઈ ? આપના પગમાંથી લોહી નીકળે છે, સખત તાપ લાગ્યો છે અને આપને મૂર્છા આવી ગઈ.' મુનિ કહે છે કે આ કષ્ટ તો ભાવિમાં લાભ કરનારું છે માટે મને તે પીડાદાયક નથી, પણ આ જન્મ-મરણની પીડા મને મોટી લાગે છે. આ સાંભળી ધનને આશ્ચર્ય થયું. ધને મુનિની સેવા કરી, આ નિમિત્તે તેને ત્યાં સય્યદર્શનની પ્રાપ્તિ થઈ. ત્રિષ, પર્વ ૮, સર્ગ ૧, શ્લોક ૧૧૧થી ૧૨૪) આ પ્રસંગનો ઉલ્લેખ સ્તવનમાં બે લીટીમાં થયો છે.
આમ, પ્રસ્તુત સ્તવનોની વિષયપસંદગી નાવીન્યપૂર્ણ છે. ચર્ચિતચર્વજ્ઞ અહીં નથી એ નોંધવું જોઈએ.
પ્રભુભક્તિ એ ખારા સંસારની મીઠી વીરડી છે. આ સ્તવનોને નિરાંતે માણતાં આવો જ અનુભવ થશે એ નિઃશંક છે.
કર્તાએ આ સ્તવનોમાં દેશી ઓછી અને છંદ વધુ વાપર્યા છે. બે-ત્રજ્ઞ દેશી, બાકી ઉપજાતિ, ભુજંગપ્રયાત (ભુજંગી), ધ્રુવિલંબિત અને ચોપાઈનો પ્રયોગ થયો છે. સત્તરમા-અઢારમા સૈકાથી ગુજરાતી સ્તવન-સાહિત્યમાંથી વૃત્તો (છંદો) નીકળી ગયાં. આ રચનાઓ તે પહેલાંની છે, તેથી નોંધપાત્ર છે.
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જૈન ધાર્મિક સંદર્ભ અને
મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્ય
ઘ ડૉ. કાન્તિભાઈ બી. શાહ
આરંભ : જૈન પ્રભાવ
આ
છેક ૧૨મી સદીથી માંડી ૧૯મી સદીના પૂર્વાર્ધના ગાળાનું ગુજરાતી સાહિત્ય મધ્યકાીન પરંપરામાં સર્જયું છે. આ મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાયિમાં જૈન સાહિત્યની વિપુલતા ધ્યાન ખેંચે તેવી છે. સામાન્ય અંદાજ પ્રમાણે જૈન કવિઓનું પ્રમાણ લગભગ ૭૫ ટકા જેટલું જોવા મળે છે. એમાંયે પ્રાનરસિંહયુગના ગુજરાતી સાહિત્યમાં તો કેટલાક જૂજ અપવાદો બાદ કરતાં તમામ ઉપલબ્ધ સાહિત્ય જૈન સાહિત્ય છે. ઇ.સ. ૧૧૮૫નું રચનાવર્ષ ધરાવતી સૌથી વહેલી ઉપલબ્ધ ગુજરાતી કૃતિ ભરતેશ્વર બાહુબલિ રાસ' (સાલિસૂરિષ્કૃત) જૈન રચના છે - કર્તૃત્વ અને કથાનક બન્ને સંદર્ભે.
આ કૃતિની ભાષા અપભ્રંશમાંથી સંક્રાંત થતી ગુજરાતી ભાષા છે. જેનો અણસાર મહાન જૈનાચાર્ય કોમચંદ્રના સિદ્ધઐમ' વ્યાકરણગ્રંથના આઠમા અધ્યાયમાં આવતા ‘અપભ્રંશ દુહા’માં સાંપડે છે. આમ ગુજરાતી ભાષા અને ગુજરાતી સાહિત્યના પ્રારંભકાળે સંવત ૧૧૪૫ (ઈ.સ. ૧૦૯૮)ની કાર્તિકી પૂર્ણિમાએ જન્મેલા કલિકાલસર્વજ્ઞ હેમચંદ્રાચાર્ય ગુજરાતી ભાષા-સાહિત્યના વિકાસમાં મોટું પ્રભાવક બળ બની રહ્યા. એમણે ‘સિદ્ધહૈમ' જેવો. વ્યાકરણગ્રંથ અને રીનામમાલા જેવો શબ્દો આપીને ભાષા સાથે મોટું કામ પાર પાડ્યું.
સિદ્ધરાજ પછી ગુજરાતની ગાદીએ આવેલા રાજા કુમારપાળનો હેમચંદ્ર સાથેનો સંબંધ શિષ્ય જેવો રહ્યો. આ આચાર્યના સમાગમથી સં. ૧૨૧૬ (ઇ.સ. ૧૧૬૦૯માં કુમારપાળે પ્રગટપણે જૈન ધર્મ અંગીકાર કરી ‘અમારિ-ધોષણા,' જિનાલયોની રચના, જર્ણોદ્વારી, પ્રજાકલ્યાણનાં કામો દ્વારા જૈનધર્મનું ઉત્કૃષ્ટતાથી પાલન કર્યું. કુમારપાળને હાથે થયેલી જૈન શાસનની આ પ્રભાવકતા મધ્યકાલીન ગુજરાતમાં કુમારપાળ વિશે રચાયેલા રાસ-પ્રબંધોમાં વિાણી જોઈ
આમ ગુજરાતી ભાષાસાહિત્યનો આરંભકાળ એ જૈન શાસનની પ્રભાવક્તાનો કાળ બની રહ્યો. તે પછીના અલાઉદીન ખીલજના મુસ્લિમ સરદારોએ ગુજરાતમાં સર્જેલી પાયમાલીના કાળમાં પણ વિરક્ત જૈન સાધુઓએ ઉપાશ્રયોમાં એમની સરસ્વતી-ઉપાસના ચાલુ જ રાખી જેનો મોટો લાભ ગુજરાતી સાહિત્યને થયો.
જૈન દર્શનનો આધારસ્રોત
જૈન દર્શન અને જૈન ધર્મોપદેશના મુખ્ય આધારરૂપ ગ્રંથો તે ૪૫ આગમો ગણાયાં છે. આ આગમો તે ૧૧ અંગ (૧૨મું અંગ ‘દૃષ્ટિવાદ' પાછળથી લુપ્ત થયું), ૧૨ ઉપાંગો, ૪ મૂલસૂત્રો, ૧ નંદીસૂત્ર, ૧ અનુયોગદ્વાર, ૬ છેદસૂત્રો, ૧૦ પ્રકીર્ણક (પયન્ના).
આજથી આતી હજાર વર્ષ અગાઉ ભગવાન મહાવીરે એમના જીવનકાળ દરમ્યાન લોકભાષામાં આપેલા ઉપદેશને સુધર્માસ્વામી આદિ એમના ગણધર ભગવંતોએ દ્વાદશાંગી આગમસૂત્રોમાં ગૂંથી લીધો. શ્રુતપરંપરાએ પાછળથી વીસરાવા આવેલાં એ સૂત્રોની જાળવણીનું કામ હાથ ધરાયું અને જુદે જુદે સમયે ભરાયેલી પરિષર્દોમાં એ સૂત્રીની વાચનાઓ તૈયાર થઈ. જેવી કે માપુરી વાચના, વલભી વાચના. એના ઉપર પાછળથી નિર્યુક્તિ, ચૂર્ણિ, ભાષ્ય અને ટીકાના અનેક શાસ્ત્રગ્રંથો લખાયા.
ઉમાસ્વાતિએ જૈન દર્શનના સંદોહનરૂપ ‘તત્ત્વામિંગમસૂત્ર'ની રચના કરી. તો સિદ્ધસેન દિવાકરે ‘ન્યાયાવતાર' નામક સંસ્કૃત ગ્રંથ દ્વારા જૈન પ્રમાણનો પાયી સ્થિર કર્યો. અને પ્રાકૃતમાં “સાતિ પ્રકરણ' થી અનેકાન્તવાદનું સ્થાપન કર્યું.
આશરે વિ.સં. ૭૫૭થી ૮૨૭ના ગાળામાં વિદ્યમાન એવા શ્રી પરિભદ્રસૂરિએ સંસ્કૃત અને પ્રાકૃત ભાષામાં ધર્મવિચાર અને દાર્શનિક વિષયના અનેક ગ્રંથો દ્વારા સાંખ્ય, યોગ, ન્યાય, વૈશ્વિક, અદ્ભુત, ચાર્વાક, બૌદ્ધ, જૈન આદિ સર્વે દર્શનો અને મતોની અનેક રીતે આલોચના કરી નવો યુગ સ્થાપ્યો. તેમણે ૧૪૦૦ ગ્રંથો રચ્યાનું કહેવાય છે. એમણે પ્રાકૃતમાં રચેલી ગદ્યકથા 'સમરાઇચ્ચકા' (સમરાદિત્યકથા) અત્યંત સુપ્રસિદ્ધ કથા બની છે. આ મહાન જૈનાચાર્ય હરિભદ્રસૂરિ સુધીમાં જૈન દર્શનનો પાયો સ્થિર થઈ ચૂક્યો હતો એમ કહી શકાય.
ઉપર નિર્દિષ્ટ કરેલા શાસ્ત્રગ્રંથોમાં રજૂઆત પામેલાં તત્ત્વદર્શન, બૌધઉપદેશ અને કથાનકો મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્યનો એક મુખ્ય આધારસ્રોત ગણી શકાય. જીવ-અજીવ આદિ નવ તત્ત્વો, કર્મબંધ અને એનો ક્ષયોપશમ, કર્મના પ્રકારો, સમ્યક્ત્વ, બાર ભાવના, સાધુ અને શ્રાવક જીવનનાં પાંચ મહાવતો, છ આવશ્યકો વગેરેને નિરૂપતી વિવિધ સ્વરૂપવાળી લધુ-દીર્ઘ રચનાઓ મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્યમાં થઈ છે. જેમકે પંડિત વીરવિજયની ‘૪૫ આગમની પૂજા'માં ૪૫ આગમોનો સંક્ષેપમાં
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૧૩
જૈન ધાર્મિક સંદર્ભ અને મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્ય પરિચય મળે છે. આ જ કવિની ‘ચોસઠ પ્રકારી પૂજા'માં આઠ લૌકિક કથાઓ આપવા ઉપરાંત 'ત્રિભુવનદીપકપ્રબંધ' જેવી પ્રકારના કર્મબંધોનું નિરૂપણ કરતી, પ્રત્યેક કર્મની અષ્ટપ્રકારી મધ્યકાલીન ગુજરાતીની પહેલી રૂપકકથા પણ જૈન સાધુ કવિ એવી ચોસઠ પૂજાઓ છે. એમાં પ્રત્યેક કર્મના દૃષ્ટાંત રૂપે આવતી, જયશેખરસૂરિ પાસેથી પ્રાપ્ત થાય છે. પૂર્વભવને આલેખતી સંક્ષિપ્ત કથાઓ પણ મળે છે. ઉપાધ્યાય દસ્તાવેજી મૂલ્ય ધરાવતી સામગ્રી યશોવિજયજીએ ‘દ્રવ્યગુણપર્યાયનો રાસ” અને “સમક્તિના સડસઠ
ઐતિહાસિક ઘટનાઓ અને ઐતિહાસિક વ્યક્તિવિશેષોનું બોલની સઝાય' જેવી, જૈન સિદ્ધાંતોને નિરૂપતી રચનાઓ કરી
નિરૂપણ કરતું સાહિત્ય પણ જૈનકવિઓને હાથે રચાયું છે જૈન છે. પ્રાગુનરસિંહયુગમાં (સં. ૧૩૨૭ | ઇ.સ. ૧૨૭૧માં) રચાયેલા
ગુજરાતી સાહિત્યની આ એક વિશેષતા રહી છે. જૈનેતર સાહિત્યમાં અજ્ઞાત કવિના ‘સમક્ષેત્રિરાસુ'માં જૈન ધર્મમાં અતિ પવિત્ર ગણાયેલાં
‘કાન્હડદે પ્રબંધ' કે “રણમલછંદ' જેવી ઐતિહાસિક ઘટનાનું જિનમંદિર, જિનપ્રતિમા, જ્ઞાન, સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક, શ્રાવિકા
નિરૂપણ કરતી રચનાઓ અપવાદ રૂપે, જૂજ મળે છે. જ્યારે જૈન - એ સાત પુણ્યક્ષેત્રોની ઉપાસનાનું નિરૂપણ છે. ‘૩૪ અતિશય
સાહિત્ય આ બાબતમાં એકદમ જુદું તરી આવે છે. સ્તવન,’ ‘બાર વ્રત સઝાયરાસ,’ ‘બાર ભાવના સંધિ,’ ‘સિદ્ધાંત
વિમલમંત્રી (‘વિમલપ્રબંધ'), રાજા કુમારપાળ (‘કુમારપાળ ચોપાઈ' જેવી અસંખ્ય લઘુ રચનાઓ ઉપરાંત જૈન સિદ્ધાંતોની
રાસ'), મહામાત્ય વસ્તુપાળ અને તેજપાળ (‘વસ્તુપાળ-તેજપાળરાસ') સરળ સમજૂતી માટે અસંખ્ય બાલાવબોધો પણ રચાયા છે. જેવા
જેવા રાજપુરુષોનાં ચરિત્રો, સમ્રાટ અકબરના ખાસ નિમંત્રણથી કે ‘પડાવશ્યક બાલા.,’ ‘નવતત્ત્વ બાલા’,’ ‘જીવવિચારગ્રંથ
ફત્તેહપુર સિક્રી જઈ અકબરને પ્રભાવિત કરી અમારિ-ઘોષણા બાલા”
પ્રવર્તનમાં મુખ્ય ભાગ ભજવનાર જૈનાચાર્ય શ્રી હીરવિજયસૂરિનું જૈન કથાનકો
ચરિત્ર (‘હીરવિજયસૂરિરાસ'), શુભવિજય તેમજ પંડિત વીરવિજય મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્યનો મોટો ભાગ તો પરલક્ષી જેવા સાધુઓના નિર્વાણપ્રસંગે એમના જ શિષ્યોથી રચાયેલાં ચરિત્રો કથનાત્મક કવિતાએ રોક્યો છે. એમાં જૈન સાધુકવિઓએ આલેખેલાં (‘શુભવેલિ,’ ‘પં.વીરવિજયનિર્વાણ રાસ'), ક્રાંતિવિજયે રચેલું જૈન કથાનકોનો મહત્ત્વનો ફાળો છે. આ કથનાત્મક સાહિત્યનો ઉપાધ્યાય યશોવિજયજીનું ચરિત્ર (‘સુજસવેલિભાસ') ઐતિહાસિક વ્યાપ ઘણો જ મોટો છે. એકલાં તીર્થકરોનાં કથાનકોની વાત કરીએ વ્યક્તિ વિશેષોનું નિરૂપણ કરે છે. તોપણ એ ૨૪ તીર્થકરો સુધી વિસ્તરેલાં છે. વિશેષ કરીને જૈનોના હઠીસિંહના દહેરાનો અંજનશલાકા પ્રતિષ્ઠા-મહોત્સવ, મુંબઈપ્રથમ તીર્થંકર ઋષભદેવ અને એમના પુત્રો ભરત અને બાહુબલિ. ભાયખલામાં શેઠ મોતીશાએ કરાવેલી પ્રતિષ્ઠા, શેઠ મોતીશાએ વિશેનાં, બાવીસમાં તીર્થંકર નેમિનાથ અને રાજિમતી વિશેનાં, શત્રુજ્ય ઉપર બંધાવેલી ટ્રક અને ચૈત્ય-પ્રતિષ્ઠા, અમદાવાદના શેઠ ૨૩મા તીર્થંકર પાર્શ્વનાથ વિશેનાં અને છેલ્લા ૨૪મા તીર્થંકર મહાવીર પ્રેમાભાઈ-હીમાભાઈએ કાઢેલો સિદ્ધાચલ ગિરનારનો સંઘ, હરકુંવર સ્વામીના ૨૭ ભવોને આવરી લેતાં કથાનકો આલેખાયેલાં છે. શેઠાણીએ કાઢેલો સંઘ વગેરે ઘટનાઓને નિરૂપતી કૃતિઓ અનુક્રમે
આ ઉપરાંત ગૌતમસ્વામી આદિ ગણધરોનાં (‘ગૌતમસ્વામીનો ‘હઠીસિંહની અંજનશલાકાનાં ઢાળિયાં,’ ‘મોતીશાનાં ભાયખલાનાં રાસ'), અભયકુમાર, શ્રેણિકકુમાર જેવા રાજપુરુષનાં (‘અભયકુમાર- ઢાળિયાં,’ ‘મોતીશા શેઠની ટૂંકની પ્રતિષ્ઠાવર્ણન ગર્ભિત સિદ્ધાચલ શ્રેણિકરાજાનો રાસ'), સુદર્શન, શાલિભદ્ર આદિ શ્રેષ્ઠીઓનાં (‘સુદર્શન સ્તવન,’ ‘સિદ્ધાચલ-ગિરનાર સંઘ સ્તવન/હીમાભાઈ શેઠ સિદ્ધાચલ શ્રેષ્ઠીનો રાસ’ ‘ધન્નાશાલિભદ્ર રાસ') સ્થૂલિભદ્ર, જંબૂસ્વામી, સંઘવર્ણન,’ સંઘવણ હરકુંવર સિદ્ધક્ષેત્ર સ્તવન’ મળે છે. મેતાર્યમુનિ, ઈલાચીકુમાર આદિ સાધુઓનો (‘જંબુસ્વામીરાસ,’ આ ઉપરાંત દીર્ઘ કૃતિઓમાં જૈન સાધુકવિ પોતાની ગુરુપરંપરા ‘જંબુસ્વામી ફાગ,’ ‘મેતારજ ઋષિ ચોપાઈ,’ ‘સ્થૂલિભદ્રફાગુ,” આપે, રચનાનાં સ્થળ-સમય જણાવે, નગરવર્ણન કરે, સમકાલીન
ગુણરત્નાકરછંદ,’ ‘શ્રી ચૂલિભદ્રજીની શિયળવેલ,’ ‘ઇલાચીકુમારની પ્રેરક વ્યક્તિઓ વિશેની માહિતી નિર્દેશે. આ બધી વીગતો ભરપૂર સઝાય,'), સતી સ્ત્રીઓનાં (‘ચંદનબાળારસ,’ ‘અંજનાસતી રાસ') દસ્તાવેજી મૂલ્ય ધરાવતી બની રહે છે. વગેરેનાં કથાનકોનું નિરૂપણ કરતું ભરપૂર સાહિત્ય રચાયું છે. ધાર્મિક પ્રયોજનવાળું સાહિત્ય
જૈન સાધુઓએ જૈન કથાઓ આપવા ઉપરાંત રામાયણ, જૈન સાહિત્ય એ મુખ્યત્વે ધાર્મિક પ્રયોજનવાળું સાહિત્ય છે. મહાભારત આદિનાં જૈનેતર કથાવસ્તુઓને પણ ઉપયોગમાં લીધાં અને ક્યાંક તો આ પ્રયોજનને અભિનિવેશપૂર્વક સિદ્ધ કરે છે. છે. એમ કરવામાં આ કથાનકોની જૈન પરંપરાઓ પણ વિકસી ધમ્મો મંગલમુકિä અહિંસા સંજમો તવો' - “અહિંસા, સંયમ, છે. જેમકે રાસ/પ્રબંધ/ચરિત્ર એવી સ્વરૂપ સંજ્ઞાઓવાળી જુદી જુદી તપ એ મંગલ - ઉત્કૃષ્ઠ ધર્મ છે.' જૈન ધર્મ અહિંસા, સંયમ, તપ, રચનાઓમાં જૈન પરંપરાની નળ-દમયંતીની કથાનો વિકાસ જોઈ વૈરાગ્ય, કર્મબંધક્ષય દ્વારા નિર્વાણ - મોક્ષપ્રાપ્તિની મુખ્યતયા વાત શકાય છે.
કરે છે. એટલે જૈન સાહિત્ય જે કંઈ ચરિત્રકથાઓ, ધર્મકથાઓ, જૈન સાધુકવિઓએ ‘બૃહત્કથા'ની પરંપરાની લૌકિક કથાવસ્તુને પદ્યવાર્તાઓ આલેખે એનો પ્રધાન સૂર તો વૈરાગ્ય-સંયમપણ પ્રયોજી છે. એમણે ‘વિક્રમચરિત્રકુમાર રાસ,’ ‘વિદ્યાવિલાસ માર્ગાભિમુખતાનો જ હોય છે. નેમ-રાજિમતીના કથાનકમાં ચોપાઈ,’ ‘આરામશોભા રાસ,” “માધવાનલ-કામકંદલા રાસ' જેવી લગ્નોત્સવના ભોજન માટે વધેરાતાં પશુપંખીનો ચિત્કાર સાંભળીને
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૧૪
શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ નેમનાથ લગ્નના લીલા તોરણેથી પાછા ફરી ગિરનાર ઉપર ચાલ્યા તીર્થંકર પાર્શ્વનાથની સ્તુતિના છે આ ઉપરાંત મહાવીર, નેમનાથ જાય છે. પોતાના જ ભાઈ ભરતની સાથે યુદ્ધ ખેલતા બાહુબલિ, આદિ તીર્થકરો, વિહરમાન જિનેશ્વર સીમંધર સ્વામી, મહાવીરના ભાઈને મારવા ઉગામેલી મૂઠીથી વૈરાગ્ય ભાવ જાગ્રત થતાં જ મુખ્ય ગણધર ગૌતમસ્વામી, સરસ્વતી, પદ્માવતી આદિ દેવીઓની કેશલોચ કરવા પ્રેરાય છે. કોશા-વેશ્યામાં પોતાની મોહાંધતાને સ્તુત્યાત્મક છંદરચનાઓ થઈ છે. કારણે પિતાના થયેલા મરણને પણ પોતે જાણી શક્યા નહીં એ સક્ઝાય, સ્તવન, પૂજા, થોય (સ્તુતિ), ચૈત્યવંદન, ચોવીશી પશ્ચાત્તાપનો ભાવ સ્થૂલિભદ્રને રાજ્યનું મંત્રીપદ ઠુકરાવીને વીશી, ગહૂળી - એ બધાં જૈન સંદર્ભ ધરાવતાં કાવ્યસ્વરૂપો છે. દીક્ષાજીવન અંગીકાર કરવા તરફ વાળે છે. લગ્નની પ્રથમ રાત્રિએ - સઝાય એક લઘુ કાવ્યપ્રકાર છે. આમ તો સક્ઝાય એટલે જંબૂસ્વામીના બ્રહ્મચર્યનો પ્રભાવ પ્રભવ નામના ચોરને પણ સ્વાધ્યાય. એ રીતે ધર્મચિંતન કે અધ્યાત્મચિંતન માટેની એ રચના દીક્ષાસ્વીકાર માટે પ્રેરે છે. આમ અસંખ્ય જૈન કથાઓમાં રાજવીઓ, છે. મુખ્યત્વે એમાં ધાર્મિક આચારવિચારોનું તેમજ એ માટેની દષ્ટાંત શ્રેષ્ઠીઓ, ગૃહસ્થો છેવટે સંયમ-વૈરાગ્ય-તપને માર્ગે પળે છે. કથાઓનું એમાં સંક્ષેપમાં નિરૂપણ હોય છે. જેમકે “સમ્યક્તના કાવ્યસ્વરૂપો અને જૈન સંદર્ભ
૬૭ બોલની સઝાય,’ ‘સામાયિકના કર દોષની સજ્જાય'; કામ- મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્યનાં કેટલાક કાવ્યસ્વરૂપો જૈન
ક્રોધ-મોહ-લોભની સઝાય, તેમજ “શૂલિભદ્ર સઝાય,’ ‘હીરવિજયસૂરિ સાધુકવિઓને હાથે ખેડાયાં ને વિકસ્યાં છે. દા.ત. રાસ/રાસા સ્વરૂપ
નિર્વાણ સક્ઝાય,’ ‘દશાર્ણભદ્રની સઝાય,’ ‘ઇલાચીકુમારની મૂળમાં રાસ એ મંદિરમાં વર્તુળાકારે સમૂહનૃત્ય સાથે તાલબદ્ધ
સઝાય,' “આષાઢભૂતિની સક્ઝાય.' રીતે ગાવા માટેની લધુ ભાવપ્રધાન રચના હતી. પણ ધીમે ધીમે સ્તવન એ પણ જિનમંદિરમાં ગાવા માટેનું ભક્તિભાવસભર એમાં કથનતત્ત્વ ઉમેરાઈને દીર્ઘકૃતિ માટે “રાસ/રાસા' સંજ્ઞા પ્રયોજાવા ગેય પદ છે. જેમાં મુખ્યત્વે તીર્થંકરના રૂપગુણ, મૂર્તિની શોભા, લાગી. જૈન સાધુઓએ અસંખ્ય રાસાઓ લખ્યા. આપણે આગળ
એથી હૃદયમાં જાગતો ઉલ્લાસ-આદિનું ગાન કરવામાં આવે છે. જોયું તેમ ગુજરાતી સાહિત્યની ઉપલબ્ધ કૃતિઓમાં સૌથી જૂનામાં
પણ ભગવાનની આ સ્તવના ઉપરાંત ચૈત્યો, તીર્થો, પર્યુષણ આદિ જૂની રચના ‘ભરતેશ્વર બાહુબલિરાસ” એ જૈન સાધુ સાલિસૂરિકૃત
ધાર્મિક પર્વો વગેરેની પણ સ્તવન-રચનાઓ વિપુલ પ્રમાણમાં થઈ રચના છે. પછી તો કોઈ મહાનદની જેમ એ પ્રકાર અસ્મલિત
છે “ચોવીશી' એ ક્રમશઃ વર્તમાન ચોવીસેય તીર્થકરોની સ્તવનાનો વહેતો જ રહ્યો છે. જોકે એ હકીકત સ્વીકારવી જોઈએ કે મોટા
પદસમૂહ છે. એ જ રીતે વિહરમાન વીસ જિનેશ્વરોની સ્તવનાના ભાગની આવી રાસરચનાઓ કાવ્યસૌંદર્યના ઊંચા ઉન્મેષો સિદ્ધ
પદસમૂહને ‘વીશી' કહે છે. થોય (સ્તુતિ) એ પણ સ્તવન જેવો કરતી નથી.
લઘુ પદપ્રકાર છે જે મુખ્યત્વે સામાયિક, પ્રતિક્રમણ જેવી ક્રિયાવિધિઓમાં
કાઉસગ્ગ (કાયોત્સર્ગ) સમાપ્ત કરતી વેળાએ પ્રકટપણે ગવાય છે. ફાગુપ્રકાર પણ જૈન સાધુ કવિઓએ જ ખેડ્યો છે. પ્રાગુનરસિંહયુગમાં
ચૈત્યવંદન’એ દેવવંદનની વિધિ વેળાએ ગાવા માટેની લઘુ રચના છે. સિરિલિભદ્ધફાગ' જેવી જિનપદ્મસૂરિની રચેલી આરંભની ફાગુરચના પ્રાપ્ત થાય છે. પછી તો જૈન-જૈનેતર કવિઓએ આ
‘પૂજા' સંજ્ઞા એક ચોક્કસ જૈન સંદર્ભ ધરાવે છે. જૈન પ્રકારને પણ ખૂબ ખેડ્યો-વિકસાવ્યો છે. “બારમાસા” એ બંને
દહેરાસરોમાં અવારનવાર ત્રિગડા ઉપરના સિંહાસને પ્રભુજીની પરંપરામાં વિકસેલો પ્રકાર છે. પણ એમાંયે નરસિંહ પૂર્વેની
ધાતુની મૂર્તિ પધરાવીને, પુષ્પ, ફળ, અક્ષત, જળ, ચંદન, ધૂપ,
દીપ અને નૈવેદ્ય - એ આઠ પ્રકારે ક્રમશઃ પૂજનવિધિ કરતા જઈને નેમિનાથ ચતુષ્કટિકા' જેવી રચના જૈન કવિ વિનયચંદ્રની પ્રાપ્ત
જે પૂજા ભણાવવામાં આવે છે તે સમયે ગાવા માટેની જે રચના થાય છે. એ જ રીતે મધ્યકાલીન ગુજરાતીનું જૂનામાં જૂનું રૂપકકાવ્ય
તેને “પૂજા' કહેવામાં આવે છે. વિધવિધ દેશીઓમાં અને વિવિધ ‘ત્રિભુવનદીપકપ્રબંધ’ પણ જૈન સાધુકવિ જયશેખરસૂરિનું મળે છે.
લયછટાઓમાં વાજિંત્રોની સૂરાવલિના સથવારે આ ‘પૂજા’ઓનું ‘વિવાહલો' સ્વરૂપવાળી જૈન કવિઓની રચનામાં એક ચોક્કસ
સામુદાયિક ગાન ભક્તિ ઓચ્છવનો એક અનેરો માહોલ ઊભો કરે ધાર્મિક સંદર્ભ પ્રાપ્ત થાય છે. કૃતિનું નામ હોય ‘જિનચંદ્રવિવાહલો.’
છે. આવી પૂજા-રચનાઓમાં પંડિત વીરવિજયજીની પૂજા સૌથી તો અહીં પ્રશ્ન થાય કે સાધુ અને વિવાહ ? પણ અહીં કાવ્યનાયક
વિશેષ પ્રચલિત બની છે. - સાધુ સંયમસુંદરી કે મોક્ષસુંદરીને વર્યા એમ નિરૂપણ હોય.
‘વેલી' સ્વરૂપસંજ્ઞા ઘણું ખરું ચરિત્રાત્મક કાવ્ય માટે જૈન દીક્ષા પ્રસંગ નિમિત્તે કૃતિ સમગ્ર ચરિત્રલક્ષી પણ બને.
સાહિત્યમાં પ્રયોજાયેલી જણાય છે. દા.ત. ‘શુભવેલી,’ ‘શ્રી યૂલિ‘છંદ' સંજ્ઞાવાળી જે નાનીમોટી રચનાઓ મધ્યકાલીન
ભદ્રની શિયળવેલી,’ ‘સુજસવેલિ ભાસ' વગેરે “ગહૂળી' એટલે ગુજરાતીમાં મળે છે તેમાંની મોટા ભાગની તો જૈન રચનાઓ છે.
પાટલા કે બાજઠ પર ઘઉં (કે અક્ષત)ની સ્વસ્તિક આદિ મંગલ રણમલ્લ છંદ' જેવી જૂજ જૈનેતર રચનાઓની તુલનામાં ચારણી
આકૃતિ રચીને સાધુભગવંતના સામૈયા ટાણે એમનું સ્વાગત કરતી વપરાશના છંદોલયની છટામાં ગાન કરતી “રંગરત્નાકર નેમિનાથ
વખતે ગાવાની રચના. પં. વીરવિજયજીએ રચીને કેટલીક ગહૂળીઓ છંદ' (લાવણ્યસમયકૃત), ‘ગુણરત્નાકર છંદ' (સહજસુંદરકૃત) આદિ જૈન સમાજમાં પ્રચલિત થઈ છે. છંદ સ્વરૂપની બહુસંખ્ય રચનાઓ જૈન કવિઓની છે. સૌથી વધારે
મધ્યકાળમાં બાલાવબોધ, સ્તબક, ટબો, ઔક્તિક, બોલી વગેરે છંદો સ્તુતિ-પ્રશસ્તિના રચાયા છે એમાંયે સૌથી વિશેષ ત્રેવીસમાં
ગદ્યપ્રકારો છે. આ પ્રકારો પણ જૈન સાધુઓને હાથે જ મુખ્યતયા
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જૈન ધાર્મિક સંદર્ભ અને મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્ય
૧૫ ખેડાયેલા જોવા મળે છે. અનેક પુરોગામી ગ્રંથો ઉપર જૈન સાધુઓએ હોઈ અસંખ્ય હસ્તપ્રતો જૈન જ્ઞાનભંડારોમાં જળવાઈ છે. એની સામાન્ય જનોને અવબોધ માટે બાલાવબોધો રચ્યા છે. એમાં તુલનામાં જૈનેતરો જ્ઞાનભંડારોની આવી વ્યવસ્થા કે હસ્તપ્રતોનું મધ્યકાલીન ગુજરાતી ભાષાનું શબ્દભંડોળ, બોલચાલની લઢણનું જતન કરી શક્યા નથી. જુદાજુદા સમયગાળાની અસંખ્ય હસ્તપ્રતો ગદ્ય વગેરે પ્રાપ્ત થતું હોઈ તત્કાલીન ગુજરાતી ભાષાના સ્વરૂપને ઉપલબ્ધ હોવાને કારણે ભાષા-સાહિત્યના વિકાસનો ઇતિહાસ પણ વધુ યથાર્થરૂપે સમજવા માટે આ ગદ્યરચનાઓ વધુ અગત્યની બની સુપેરે ઉપલબ્ધ બની શક્યો છે. જૈન ગૂર્જર કવિઓ'માં શ્રી રહે છે.
મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઈએ શતકવાર આપેલી જૈન કવિઓની જૈન પરિભાષા
કૃતિઓની વર્ણનાત્મક હસ્તપ્રતસૂચિ ઉપર નજર નાખી જવાથી આજે પણ જૈનો સામાયિક, પ્રતિક્રમણ, ચૈત્યવંદન, ગુરુવંદન
પણ આ વાતની પ્રતીતિ થાય એમ છે. આદિ રોજિંદી ધાર્મિક ક્રિયાવિધિમાં પ્રાકૃત-અર્ધમાગધી ભાષામાં
મધ્યકાળનું અમુદ્રિત સાહિત્ય વધારે ને મુદ્રિત ઓછું, છતાં એ રચાયેલાં સૂત્રોને ઉપયોગમાં લે છે. પરિણામે એ પુરોગામી
સાહિત્યનો ઇતિહાસ રચવામાં આ જ્ઞાનભંડારોમાં સચવાયેલી ભાષાઓનાં શબ્દભંડોળ-વાક્યરચના-વાક્યખંડોનો જૈનોના રોજિંદા
હસ્તપ્રતોની યાદીઓનો ફાળો ઘણો મોટો છે.' ધાર્મિક વ્યવહારો વેળાની અરસપરસ બોલાતી ભાષામાં પણ ઉપયોગ અતિ મહત્ત્વની તથા અન્યત્ર અનુપલબ્ધ એવી કેટલીક જૈનેતર થતો સાંભળવા મળે છે જેમકે “ક્ષમા કરો' એમ બોલવાની જગાએ કૃતિઓ પણ જૈન ભંડારોમાંથી મળી આવી છે. જેવી કે ભીમકૃત જૈનો પરસ્પર ‘મિચ્છા મિ દુક્કડમ્' કહે, સાધુભગવંતોને વંદન સદયવત્સચરિત્ર, વીરસિંહકૃત ‘ઉષાહરણ, પદ્મનાભકૃત કરતી વખતે મત્યએણ વંદામિ’ એમ જ બોલે, ગુરુનો આદેશ ‘કાન્હડદેપ્રબંધ,' અજ્ઞાત કવિકૃત ‘વસંતવિલાસ'ની લઘુ અને વિસ્તૃત ઝીલતી વેળા શિષ્ય “તહત્તિ' કહે, જિનાલયમાં પ્રવેશતી વેળા શ્રાવક વાચનાઓ, ચતુર્ભુજની “ભ્રમરગીતા” વ. નિસિહી' (નૈવિકી = પાપસહિતના વ્યાપારનો નિષેધ) કહે. સમાપન એ જ રીતે સાધુસાધ્વીઓ માટેનાં, શ્રાવકો માટેનાં, જિનાલયોમાં સાહિત્ય રસિકો તરીકે આપણને કેવળ કૃતિમાંના ‘સાહિત્યપદારથ' વપરાશમાં લેવાતાં કેટલાંક ઉપકરણોને પણ ચોક્કસ નામોથી સાથે જ નિસબત હોય એ સમજી શકાય. પણ જેમ શબ્દને ઓળખવામાં આવે છે. આમ એક ચોક્કસ જૈન પરિભાષા વિકસેલી છે. અર્થબોધનો, તેમ કૃતિને સંસ્કારનો સંદર્ભ વળગેલો છે. કોઈપણ
મધ્યકાલીન ગુજરાતી જૈન સાહિત્યમાં આવી જૈન પરિભાષાનું કૃતિને સંસ્કારસંદર્ભથી ઊતરડીને કેવળ કાવ્યતત્ત્વને પામવાનું મુશ્કેલ શબ્દભંડોળ ઠીકઠીક છે જેને ચોક્કસ જૈન ધાર્મિક સંદર્ભમાં જ છે. છતાં આ બધા ધાર્મિક/સાંપ્રદાયિક સંદર્ભોની વચ્ચે કેવળ એના સમજી શકાય. આ પરિભાષાના કેટલાક શબ્દો જોઈએ : સામાયિક, કાવ્યસૌંદર્યથી ધ્યાનાકર્ષક બને એવું પણ કેટલુંક જૈન ગુજરાતી પ્રતિક્રમણ, પચ્ચકખાણ, કાઉસગ્ગ, જયણા, વૈયાવચ્ચ, પરીષહ, સાહિત્યમાં અચૂક મળી આવે. ઉપસર્ગ, નવકાર, પંચપરમેષ્ઠી, સમવસરણ, દેશના, ગોચરી, જિનપદ્મસૂરિનું શ્રી સ્થૂલિભદ્રસાગુ, જસવંતસૂરિની “શૃંગારમંજરી,’ ચોવિહાર, અતિચાર, ધર્મલાભ, ખામણાં, વાંદણાં, મુહપતી, સહજસુંદરકૃત ‘ગુણરત્નાકરછંદ,” ઉપાધ્યાય યશોવિજયજી રચિત ઓધો, પડવો, પડાવશ્યક, સમક્તિ વગેરે.
ચોવીશી,” અન્ય સ્તવનો અને “સમુદ્ર વહાણ સંવાદ, આનંદઘનજીનાં પદબંધો દેશીબંધોનો પ્રચુર પ્રયોગ અને નિર્દેશ
પદો, લાવણ્યસમયની બારમાસા આદિ રચનાઓ, કુશળલાભની જૈન કવિઓએ રાસાઓમાં અને સ્તવનાદિ લઘુ રચનાઓમાં માધવાનલ ચોપાઈ,’ નયસુંદરની “ઢોલા-મારુ ચોપાઈ,’ સમયસુંદરનો પ્રચલિત દેશીબંધોનો ભરપૂર ઉપયોગ કર્યો છે. જૈન કવિઓની નલદવદંતી રાસ,' શ્રાવક કવિ ઋષભદાસનો “હીરવિજયસૂરિરાસ,' ખાસિયત એ છે કે પોતે જે દેશીબંધને ઉપયોગમાં લીધો હોય તેનો જિનહર્ષની કેટલીક રાસારચનાઓ, પંડિત વીરવિજયજીની કતિને મથાળે નિર્દેશ કરે છે. આવા ૨૪૦૦ ઉપરાંત દેશીબંધો ભક્તિભાવસભર સુગેય લયાત્મક પૂજાઓ અને સ્તવનસક્ઝાયાદિ ઉપયોગમાં લેવાયા હોવાની યાદી “જૈન ગૂર્જર કવિઓ'માં શ્રી કેટલીક લઘુકૃતિઓ, ઉદયરત્નની કેટલીક લઘુ રચનાઓ - વગેરેમાં મોહનલાલ દ. દેસાઈએ કરી છે. જે કૃતિઓને આ કવિઓએ
કાવ્યતત્વે સભર એવાં કેટલાંક રસસ્થાનો સાહિત્યરસિકોને નિઃશંકપણે છંદ' સંજ્ઞાથી ઓળખાવી છે એમાં એમણે ચારણી વપરાશવાળા આસ્વાદ્ય બનવાનાં. અક્ષરમેળ કે માત્રામેળ છંદોમાં કે પૂરકો દ્વારા તે-તે છંદોની ચાલ સંદર્ભ-સાહિત્ય ચાલિમાં છંદોગાન કર્યું છે.
૧, “જૈન સાહિત્યનો સંક્ષિપ્ત ઇતિહાસ,” લે. મોહનલાલ દલીચંદ જ્ઞાનભંડારોહસ્તપ્રતોની જાળવણી
દેસાઈ, પ્રકા. શ્રી જૈન જે. કોન્ફરન્સ ઓફિસ, મુંબઈ, આવૃત્તિ એ તો સુવિદિત છે કે મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્ય કાં કંઠસ્થ
૧, ઈ.સ. ૧૯૩૩. સ્વરૂપે કાં હસ્તપ્રતો દ્વારા સચવાયુ, જળવાયું ને પ્રસાર પામતું ૨. “મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્યમાં જૈનોનું પ્રદાન,” લે. જયંત રહ્યું. જૈનોએ જ્ઞાનભંડારોની એક ચોક્કસ વ્યવસ્થા નિપજાવી હોઈ
કોઠારી, પ્રકા. શબ્દમંગલ, અમદાવાદ, આવૃત્તિ ૧, ઈ.સ. અને હસ્તપ્રતોની જાળવણીની એક વિશિષ્ટ પ્રકારની કુનેહ ધરાવતા ૧૯૮૫.
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હેમચંદ્રાચાર્યોત્તર સંસ્કૃત જૈનસાહિત્યમાં હેમ-કુમારપાળ સંબંધિત રૂપક કથાઓ
a ડૉ. પ્રફ્લાદ પટેલ
ગુજરાતના મહાન જ્યોતિર્ધર કલિકાલસર્વજ્ઞ હેમચંદ્રાચાર્યનું સ્થાન એક સર્જક તરીકે તેમજ એક મહાન ધર્મપુરુષ તરીકે, સમગ્ર ગુજરાતના ધાર્મિક, સાંસ્કૃતિક, સાહિત્યિક અને રાજકીય ઇતિહાસમાં ચિરંજીવ અને પ્રગાઢ અસર મૂકી જનાર વિરલ પ્રતિભા તરીકેનું છે.
સૌપ્રથમ ‘ગૂર્જર' શબ્દ પ્રચલિત કરનાર હેમચંદ્રાચાર્ય છે. વર્તમાન ગુર્જરગિરાનાં મૂળ એમની વાણીમાં છે. ગુજરાતને ભારતીય સાહિત્યકારોની પંગતમાં સ્થાન અપાવવાનું કાર્ય એમને હાથે થયું છે. સિદ્ધરાજની સ્થળ વિજયગાથાઓને “સિદ્ધહેમ શબ્દાનુશાસન દ્વારા માળવાની સરસાઈમાં ગુજરાતની કીર્તિને ભારતવ્યાપી તેમણે કરી; તેમજ અહિંસા જેવા મહાધર્મની મહત્તાને વર્તમાન ગુજરાતી સમાજ સુધી પહોંચાડનાર હેમચંદ્રાચાર્યનું વ્યક્તિત્વ લોકોત્તર હતું.
ઉપનિષમાં પરબ્રહ્મ-પરમેશ્વર વિશે કહ્યું છે કે – તેના પ્રકાશ્યા પછી જ બધું પ્રકાશે છે અને તેના પ્રકાશથી જ બધું પ્રકાશિત થાય છે. ગુજરાત ઉપરની હેમચંદ્રાચાર્યની પ્રભાવક અસર જોતાં આ કથન એમને માટે પ્રયુક્ત કરી શકાય તેમ છે. તેમના વિરાટ વ્યક્તિત્વનાં કેટલાંક પાસાંઓને અનુલક્ષીને - થોડાક વિવાદો સર્જીને આપણે એમની પ્રતિભાને ઓળખવામાં ઊણા ઊતર્યા છીએ. પરંતુ મહામાનવોનું કેટલુંક તો લોકોત્તર હોય છે. મહતાં દિ સર્વષથવા અનાતિમ્ | (શિશુપાલવધ)
એક વીતરાગ સાધુ હોવા છતાં ગુજરાત માટેની તેમની ભાવના પ્રશસ્ય છે. “જ્યાં લક્ષ્મી લેશ પણ દુઃખ ન પામે અને સરસ્વતી સાથે વેર ન રાખે' એવા ગુજરાતની કલ્પનામાં તેઓ રાચતા હતા.
એમની સિદ્ધિઓ ચાર પ્રકારે મૂલવાઈ છે (૧) વિદ્વાન સાહિત્યકાર, (૨) સંસ્કારનિર્માતા સાધુ, (૩) સમયધર્મી રાજનીતિજ્ઞ અને (૪) સૌથી વિશેષ આધ્યાત્મિક સાધુ તરીકે - પરિણામે તેમનામાં લોકસંગ્રહની - લોકાનુગ્રહની ભાવના સદૈવ જાગ્રત હતી.
ગુજરાતની સંસ્કારિતાનો પિંડ બાંધનાર આ આચાર્ય માત્ર કુમારપાળના જ ગુર ન હતા, પરંતુ ગૂર્જર રાષ્ટ્રના કુલગુરુ સમાન હતા તેથી જ સમકાલીનોથી પ્રારંભીને વર્તમાન સદી સુધીના સાહિત્યકારોએ તેમને સ્મરણ-વંદનાથી સન્માનિત કર્યા છે. તેમના સમકાલીન ‘કુમારપાળ પ્રતિબોધ'ના કર્તા સોમપ્રભાચાર્યના મતે તેમણે વ્યાકરણ, છંદ, અલંકાર, યોગ, જિનચરિત્રો, તર્કશાસ્ત્ર વગેરેની રચનાથી પ્રજાના અજ્ઞાન-અંધકારને દૂર કરવા પ્રયત્ન કર્યો.
कुलुप्तं व्याकरणं नवं विरचितं छंदो नवं द्वयाश्रया - लंकारी प्रथितौ नवौ प्रकटितं श्रीयोगशास्त्रं नवम् ।
तर्कः संज़नितो नवो जिनवरादीनां चरितं नवम् बद्धं येन केन केन विधिना मोह कृतो दूरतः ॥
તો બીજી બાજુ આચાર્ય ધર્મપુરુષ તરીકે મહારાજા કુમારપાળના પ્રતિબોધક હતા. તેમણે સિદ્ધરાજને મિત્ર તરીકે જૈન ધર્મનો ઉપદેશ આપ્યો પરંતુ તેને જૈન ધર્મી બનાવવામાં સફળ ન થઈ શક્યા પણ કુમારપાળને જૈન ધર્માનુરાગી કરીને જૈન ધર્મને રાજધર્મ સ્થાપિત કરવામાં સફળ થયા. - આચાર્ય સૌપ્રથમ ધર્મોપદેશક હતા. પ્રાચીન કાળમાં પણ પ્રજાને ઉપદેશ આપવા કરતાં રાજવીઓને ઉપદેશ આપીને ધાર્યા પરિણામો પ્રાપ્ત કર્યાનાં અનેક દૃષ્ટાંતો જૈન ઇતિહાસ-કથાઓમાં મળી આવે છે, અને તે પણ ધર્મકથાનુયોગ દ્વારા વિશેષ પ્રમાણમાં. જૈન આગમશાસ્ત્રોમાં જે વર્ણન આવે છે તે તમામનો સમાવેશ ચાર પ્રકારના અનુયોગમાં કરવામાં આવે છે. તેમાં ધર્મકથાનુયોગને પ્રથમ સ્થાન આપવામાં આવ્યું છે. એથી વિશેષ તો ધર્મોપદેશનું કાર્ય પ્રભાવક રીતે તો રૂપકાત્મક કથાઓ દ્વારા થયું છે. તેથી જ ભારતીય કથા-આખ્યાનસાહિત્યમાં રૂપકાત્મક સાહિત્યનું સ્થાન વિશિષ્ટ છે.
પરંતુ એક વાત સ્પષ્ટ છે કે હેમચંદ્રાચાર્યે ઉપદેશના માધ્યમ તરીકે રૂપક જેવા પ્રભાવશાળી સાહિત્યપ્રકારને સ્પર્શ કર્યો નથી; તો પણ બીજી એક ઉલ્લેખનીય બાબત એ છે કે હેમચંદ્રાચાર્ય અને કુમારપાળને કેન્દ્રમાં રાખીને તેમના સમકાલીન અને પરવર્તી જૈન સર્જકોએ રૂપક રચનાઓ કરી છે. તે બાબત હેમચંદ્રાચાર્યનો પ્રભાવ અને કુમારપાળ માટેનો આદર સૂચવે છે. તેમના સમકાલીન સોમપ્રભાચાર્યથી શરૂ કરીને જિનમંડન ગણિ (પંદરમી સદી) સુધી આ ગુરુશિષ્યની બેલડી સંબંધિત અનેક રૂપક રચનાઓ થઈ છે.
જૈન પરંપરામાં રૂપક સાહિત્યના મહત્ત્વને લીધે પ્રથમ તેના સ્વરૂપની ચર્ચા અસ્થાને નથી. અંગ્રેજી સાહિત્યમાં જેને Allegory કહે છે તે રૂપકાત્મક સાહિત્યમાં અમૂર્ત ભાવોને મૂર્ત રૂપે ઉપસ્થિત કરવામાં આવે છે. હૃદયના સૂક્ષ્મ ભાવો ઇન્દ્રિયોનો વિષય બની શકતા નથી; જ્યારે તે જ ભાવો ઉપમા-રૂપક દ્વારા સ્થૂળ-મૂર્તરૂપ ધારણ કરે છે તો ઇન્દ્રિયગોચર થતાં વધારે સ્પષ્ટ અને બોધગમ્ય બને છે. ઇન્દ્રિયો દ્વારા સાક્ષાત્ રૂપમાં પ્રત્યક્ષ થતાં એ સૂક્ષ્મભાવો સજીવ રૂપ ધારણ કરીને હૃદયને અત્યધિક પ્રભાવિત કરવા સમર્થ બને છે. તેથી રૂપક સાહિત્યમાં અમૂર્તનું મૂર્તમાં વિધાન પ્રચલિત થયું.
જૈન આગમ સાહિત્યમાં ‘ઉત્તરાધ્યયનસૂત્ર,’ ‘સૂત્રકૃતાંગ’ જ્ઞાતાધર્મકથા' વગેરેમાં આવાં રૂપકો છે, પરંતુ તે અલ્પશબ્દ
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હેમચંદ્રાચાર્યોત્તર સંસ્કૃત જૈનસાહિત્યમાં હેમ-કુમારપાળ સંબંધિત રૂપક કથાઓ દેહયુક્ત અને કૂટ-કોયડા રૂપે છે. સંપૂર્ણ રૂપક કથા તરીકે સિદ્ધર્ષિકૃત વિ.સં. ૧૨૨૯માં કુમારપાળ મહારાજાનું અવસાન થયું અને ‘ઉપમિતિભવ પ્રપંચાકથાનું સ્થાન ભારતીય સાહિત્યમાં સર્વોત્તમ અજયપાળ ગાદીએ આવ્યો, (વિ.સં. ૧૨૨૯-૩૨). ગુજરાતની છે. એક ધર્મકથા-વિશેષ તો રૂપકાત્મક ધર્મકથા તરીકે તેનો પ્રભાવ સંસ્કારિતાના અંધકાર યુગના પ્રારંભે મોઢવણિક ગોત્રના અને પરવર્તી જૈન સાહિત્યમાં - સંસ્કૃતપ્રાકૃત બંનેમાં - છેક સત્તરમી અજયપાળના મંત્રી યશપાલે “મોહરાજપરાજય” નામે રૂપકાત્મક સદીના ઉપાધ્યાય યશોવિજયજી સુધી વિસ્તર્યો છે.
નાટક લખ્યું અને તે દ્વારા પદમાં મહાવીર-મૂર્તિપ્રતિષ્ઠાના મહોત્સવ હેમચંદ્રાચાર્યના સમકાલીન મલધારી હેમચંદ્રાચાર્યે પણ રૂપક પ્રસંગે ભજવાયું હતું. કથાઓ લખી છે. તેમની પ્રાકૃત કથા “ભવભાવના'માં સંસ્કૃત આ નાટકમાં યશપાલે હેમચંદ્રાચાર્યની ખૂબ પ્રશંસા કરી છે. ‘ભુવનભાનુકેવલીચરિતમ્' રૂપકાત્મક રચના છે. તે ઉપરાંત તેમણે અજયપાળના રાજ્યમાં આ નાટક ભજવાયું એનો અર્થ એ કે ‘ઉપદેશમાળા' અપરનામ “પુષ્પમાળા'માં પણ રૂપકની રચનાઓ તત્કાલીન સમાજમાં હેમ-કુમાર લોકહૃદયમાં દિવ્ય મૂર્તિ તરીકે કરી છે. પરંતુ કલિકાલસર્વજ્ઞ હેમચંદ્રાચાર્યે આ ક્ષેત્રે કોઈ પ્રદાન પ્રતિષ્ઠા પામ્યા હતા. કર્યું નથી.
પ્રસ્તુતઃ નાટક સંપૂર્ણતયા રૂપક છે, તેમાં તેમ-કુમારની જોડી હેમચંદ્રાચાર્ય “ઉપમિતિભવપ્રપંચાકથા'થી પ્રભાવિત થાય એવા અને વિદૂષક સિવાયનાં પાત્રો રૂપકાત્મક છે. ઐતિહાસિક સંજોગો હતા; ઇતિહાસ જોઈએ તો ગુજરાતની સંસ્કૃતિને
કથાવસ્તુ પોષનારાં બે નગરો - વલભી અને ભિન્નમાળ. વલભી ભાગ્યે
કુમારપાળે મોહરાજનું સ્વરૂપ જાણવા માટે મોકલેલ જ્ઞાનદર્પણ આઠમી સદીમાં; ભિન્નમાળનો વૈભવ ટક્યો અગિયારમી સદી સુધી.
ગુપ્તચર સમાચાર આપે છે કે જનમનોવૃત્તિ નગર ઉપર કબજો કરીને આ બંને નગરોનાં લુપ્ત થતાં વિદ્યાતેજ, ધર્મઝરણાં આધ્યાત્મિક
મોહરાજે રાજા વિવેકચંદ્ર અને રાણી શાન્તિ તથા પુત્રી કૃપાસુંદરીને સાહિત્યની સરવાણીઓ પાટણે ઝીલીને સર્વને સવાયાં કરીને
નિર્વાસિત કર્યા છે. બીજું એ પણ કહે છે કે કુમારપાળે જૈન મુનિના આત્માસાત્ કર્યા.
પ્રભાવમાં આવીને તેની રાણી કીર્તિમંજરી અને રાણીના ભાઈ આમ ભિન્નમાળની ધર્મ અને સાહિત્યની પરંપરાઓ પાટણમાં પ્રતાપને રાજ્યમાંથી દૂર કર્યા છે તેથી રાણી મોહરાજ સાથે ભળી ઊતરી. વળી જૈન રૂપક સાહિત્યના સમર્થક ત્રણ જૈનાચાર્યો . જઈને કુમારપાળ ઉપર હુમલો કરવાની તૈયારી કરે છે. (અંક ૧) નગર સાથે સંબંધ ધરાવતા હતા. “સમરાઇઍકહા'ના સર્જક
ભવિષ્યવેત્તા ગુરુપદેશ પાસેથી જ્ઞાત થયું કે કુમારપાળ હરિભદ્રાચાર્ય આ નગરમાં અવારનવાર વિહરતા હતા. ઉદ્યોતનસૂરિએ
કૃપાસુંદરીને પરણીને ત્રિલોકશત્રુ મોહરાજને જીતશે. આ તરફ પ્રાકૃતકથા “કુવલયમાળા' (શક સંવત ૭૦૦) આ નગરમાં પૂર્ણ
વિવેકચંદ્ર સપરિવાર હેમચંદ્રાચાર્યના આશ્રમમાં સ્થિત હોવાથી કરી હતી. તો સિદ્ધર્ષિએ “ઉપમિતિભવપ્રપંચાકથા' વિ.સં. ૯૬૨માં
કુમારપાળે કૃપાસુંદરીને જોઈ અને તેના પ્રત્યે આકર્ષાયા. રાજાને આ નગરમાં લખી હતી.
કપાસુંદરીનો પુરુષદ્વેષ અને લગ્ન માટેની પ્રતિજ્ઞાઓ જાણવા હેમચંદ્રાચાર્ય આ સર્વ રચનાઓથી જ્ઞાત હોય જ. હરિભદ્રની મળી કે - સમરાઇ કહા' નિર્દિષ્ટ ભવભીરુતા અને ઉપમિતિનિરૂપિત
इह भरतनृपायन्न केनापि त्यक्तं ભવપ્રપંચોની સભાનતા ધર્મપુરુષ હેમચંદ્રાચાર્યને પ્રભાવિત કરે જ,
मुञ्चति मृतधनं यस्तदपि पापैकमूलम् । પરિણામે જ તેમણે કુમારપાળનું એ રીતે ઘડતર કર્યું કે તે માત્ર પરમ માહેશ્વર' ન રહેતાં જીવનની પાછલી અવસ્થામાં ‘પરમાહત'
निजजनपदसीमां मोचयेयश्च द्यूत - બન્યા. તેમણે જ આચાર્યને પોતાને માટે ‘યોગશાસ્ત્ર' રચવાની
પ્રમુa ચસન સ વરો મન ભવતુ || - (૨-૪૩) વિનંતી કરી. ‘વીતરાગસ્તોત્ર' પણ તેમણે કુમારપાળ માટે જ લખ્યું હતું
કૃપાસુંદરી પ્રત્યે ઇગાર્ભાવથી તેને કુરૂપ બનાવવા ઇચ્છતી આમ હેમચંદ્રાચાર્યે રૂપક સાહિત્ય ભલે ન લખ્યું, પરંતુ એક
કુમારપાળની પત્ની રાજ્યશ્રીને દેવી દ્વારા આદેશ મળ્યો કે કુમારપાળ વાત તો સ્પષ્ટ છે કે જૈન સર્જકોમાં હેમચંદ્રાચાર્ય માટે તો અપૂર્વ
કપાસુંદરીને પરણીને મોહરાજને જીતશે તેથી સ્વયે રાજ્યશ્રીએ જ આદર હતો જ, પણ એમના ઉપદેશથી પરમાત બનેલા કુમારપાળ
ઇબ્દાર્ભાવ ત્યજીને કૃપાસુંદરી કુમારપાળને પરણે એવો પ્રસ્તાવ માટે પણ સદ્ભાવ જાગ્યો. તેથી જ આ બેલડીને કેન્દ્રમાં રાખીને
મૂકવો. આ અંકમાં રાજાએ અપુત્ર મૃતકન ત્યાગની જાહેરાત કરી. જેમાં તમામ પાત્રો ભાવાત્મક-રૂપકાત્મક હોય પણ હેમ-કુમારને पल्या क्षार इव क्षते पतिमृतौ यस्यापहारः किल । માનવપાત્રો તરીકે રજૂ કરીને હિંસાત્યાગ, માંસમદિરાયાગ, आपाधोधि कुमारपालनृपतिर्देवो रुदत्याधनं સમવ્યસનનિષ્કાસન, અપુત્ર મૃતકધનત્યાગ, પરસ્ત્રીગમનત્યાગ આદિ વિઝાઇન સાં પ્રજ્ઞાસુ હતાં મુસત્ય તસ્વયમ્ II -૧૬ (અંક ૩) મુદાઓને આવરી લેતી રૂપકાત્મક રચનાઓ જૈન સાહિત્યમાં .
ત્યારપછી રાજા પોતાના રાજ્યમાંથી સવ્યસનનિષ્કાસનનું કાર્ય થઈ છે.
શરૂ કરે છે. ધૂતક્રીડા, માંસભક્ષણ, મદિરાપાનાદિ વ્યસનો જે હવે હેમ-કુમાર સંબંધિત રચનાઓ અંગેનો ઉપક્રમ છે. પરંપરાથી રાજ્યમાં વસેલાં હતાં, તે સર્વને રાજ્યની સીમા બહાર ૧. નોટરીનtMય - યશપાલ
કાઢવામાં આવે છે. (અંક ૪).
વિવેકચંદ્ર કૃપાસુંદરી સાથે કુમારપાળનાં લગ્ન જાહેર કર્યા અને
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૧૮
શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ મોહરાજ યુદ્ધ ચડ્યો. રાગદ્વેષ સાથે વ્યસનો તેના સૈન્યમાં ભળે છે, છે. રાગકેસરી અને દ્વેષગજેન્દ્ર નામે બે પુત્રો છે. મિથ્યાદર્શન નામે પરંતુ હેમચંદ્રાચાર્ય દ્વારા પ્રાપ્ત યોગશાસ્ત્રરૂપ કવચ - યોગશાસ્ત્ર નામ મંત્રી છે, અને માન, ક્રોધ, મત્સરાદિ યોદ્ધાઓ છે. વરવિવાં તથા વીતતુતિiા વિંશતિથિ નિશા થી તે અભેદ્ય એકવાર રાજા ચિત્તવિક્ષેપ નામે મંડપમાં વિપર્યાસ સિંહાસન અને અદશ્ય રહે છે. છેવટે યુદ્ધમાં મોહરાજ પરાજિત થતાં ઉપર આરૂઢ હતો ત્યારે મિથ્યાદર્શન મંત્રીએ કહ્યું: “હે દેવ, વિવેકચંદ્રને જનમનોવૃત્તિનગરમાં પુનઃ સ્થાપિત કરવામાં આવે છે. ચારિત્રધર્મ નામે રાજાનો સંતોષ સેવક તમારા લોકોને વિવેક પર્વત
આ નાટકમાં પીટર્સને કુમારપાળનો આધ્યાત્મિક વિકાસ ઉપર આવેલા જૈનનગરમાં લઈ જાય છે. પરંતુ વિષયાભિલાષ મંત્રી નિહાળ્યો છે.
અને તેનાં ઇન્દ્રિયાદિ બાળકો અને તેમના કષાયાદિ સહાયકો લોકોને ૨. કુમારપારિવોર (પ્રાકૃત) સોમપ્રભાચાર્ય - વિ.સં. ૧૨૪૧
જૈનનગરમાં જતા અટકાવે એવી આજ્ઞા કરો.” ત્યારપછી મોહરાજે
ઇન્દ્રિયાદિ બાળકોને એ કાર્ય માટે નિયુક્ત કર્યા. આ રીતે વિમર્શકુમારપાળના મૃત્યુ પછી અગિયારમા વર્ષે તેમના લઘુ
પ્રકર્ષે ઇન્દ્રિયોના કુળની-શીલની વિગતો આપી. સમકાલીન સોમપ્રભાચાર્યે કુમારપાળ પ્રતિબોધ'ની રચના કરી હતી. મૂળ સ્વરૂપે તો હેમચંદ્રાચાર્યે સમયે સમયે વિવિધ વ્યાખ્યાનો દ્વારા
ઇન્દ્રિયોએ કહ્યું : “હે દેવ, અમે તો આપનાં દર્શન જ કર્યા કુમારપાળને ધર્મબોધ આપીને જૈનધર્મ સ્વીકારાવ્યો તેનું વિસ્તૃત
નથી અને મનમંત્રીના આદેશ અનુસાર જ વર્તીએ છીએ, તો પણ
મને અમને જ દોષિત ઠરાવે છે.' ડરી ગયેલા મને કહ્યું : “આમાં નિરૂપણ છે.
તો મારો કે ઇન્દ્રિયોનો દોષ જ નથી, આપને સુખ-દુઃખ મળે છે કવિ કુમારપાળની જીવદયા ભાવનાથી અને તેના પ્રેરક
તેમાં પૂર્વકૃત કર્મો જ નિમિત્ત છે.' પરંતુ સ્પર્શેન્દ્રિય પ્રધાને મનમંત્રીને હેમચંદ્રાચાર્યની ઉપદેશ શક્તિથી ખૂબ પ્રભાવિત છે.
જ પૂર્વકૃત કર્મો માટે પણ કારણભૂત સાબિત કર્યો. स्तुमस्त्रिसंध्यं प्रभुहेमसूरेरनन्य तुल्यामुपदेशशक्तिम्
અંતમાં આત્મરાજે સર્વ ઇન્દ્રિય પ્રધાનો અને મનમંત્રીને પ્રથમ अतीन्द्रियज्ञानविवर्जितोऽपि यः क्षोणिभर्तुळधितप्रबोधम् । ધારણ કરવા ઉપદેશ આપ્યો અને પોતાની મતિ જિનરાજ, સાધુધર્મ सत्त्वानुकंपा न महीभुजां स्यादित्येष क्लृप्तो वितथ प्रवादः અને જીવદયામાં લીન થયેલી જણાવી સૌને શુભ માર્ગે વળવા બિનેત્રી તિજ પેન માધ્યઃ સ ષ સુમારપાન / જણાવ્યું.
પ્રસ્તુત ગ્રંથના પાંચમાં પ્રસ્તાવના છઠ્ઠા પ્રકરણમાં “જીવન વાર્તાલાપ-સંવાદનો ઉત્તરાર્ધ સંપૂર્ણતયા “ઉપમિતિભવઇન્દ્રિયસંલાપકથા' સંપૂર્ણતયા રૂપકાત્મક છે. અહીં કુમારપાળ પાત્ર પ્રપંચાકથા’ના ચોથા પ્રસ્તાવના રસના કથાનકના સંક્ષિપ્તીકરણ જેવો તરીકે નથી પરંતુ કથા તેને ઉદ્દેશીને આ રીતે રજૂ કરવામાં આવી છે. છે. તફાવત એટલો જ છે કે ઉપમિતિમાં રસનાનું મૂળ શોધવાની લાવશ્યલક્ષ્મીના સ્થાનરૂપ દેહનામે પાટણ નગરીમાં નાડીરૂપ
વાત છે જ્યારે અહીં સર્વ ઇન્દ્રિયોનાં મૂળ શોધવાની વાત છે. માર્ગમાં પવન કોટવાળ છે. આત્મા નામે રાજા, બુદ્ધિરૂપી રાણી
સમગ્ર ગ્રંથ કુમારપાળની જૈનત્વ તરફ ગતિ સૂચવી જાય છે. સાથે ભોગોપભોગમાં આસક્ત છે. રાજાને મનરૂપી મહામંત્રી અને
૩. અવંશવિજ્ઞાન - મેરૂતુંગસૂરિ સ્પર્શન, રચના, પ્રાણાદિ પાંચ ઇન્દ્રિયોરૂપી પ્રધાનો છે.
મેરૂતુંગસૂરિએ વિ.સં. ૧૩૬૧ના વૈશાખ સુદિ પૂર્ણિમા ને એક વાર મનમંત્રીએ રાજાને ફરિયાદ કરી કે “અજ્ઞાન કોટિ
રવિવારે આ ઐતિહાસિક પ્રબંધ પૂર્ણ કર્યો હતો. આ ઐતિહાસિક જીવનો દુઃખી કરે છે.' ત્યારે રાજાએ કહ્યું કે : “હે મન, તારી વાત
પ્રબંધના પરિશિષ્ટમાં કુમારપાળનો અહિંસા કુમારી સાથેનો વિવાહ અયુક્ત છે. વિવિધ આરંભ કરનાર, અબ્રહ્મનું સેવન કરનાર તું
શુદ્ધ રૂપક તરીકે નિરૂપિત છે. તુલનાત્મક અધ્યયન પરથી સ્પષ્ટ ક્યાં અને જીવદયા ક્યાં ? ઊંટના પગે ઝાંઝર ન શોભે, હું તારાં
થાય છે કે મેરૂતુંગ સૂરિએ “મોહરાજપરાજય'માંથી પ્રેરણા લઈને કુકર્મોથી ભવોભવની વિડંબના પામું છું.'
આ રૂપક પ્રબંધ રચ્યો છે. ઐતિહાસિક પ્રબંધરચનામાં રૂપકનું પ્રત્યુત્તરમાં મનમંત્રીએ સ્પર્શનપ્રમુખ પાંચે પ્રધાનોને દોષિત
અસ્તિત્વ હેમ-કુમાર તરફના અહોભાવનું પ્રતીક છે. ઠરાવી અન્ય પુરુષોની પ્રધાન તરીકે માગણી કરી. સ્પર્શન તો
ત્રિલોકસમ્રાટ અદ્ધર્મની અનુકંપા દેવીથી અહિંસા કન્યા ઉત્પન્ન સમગ્ર શરીરમાં વ્યાપ્ત હોવાથી સર્વ ઇન્દ્રિયોના પ્રેરક તરીકે મંત્રી
થઈ અને તે હેમચંદ્રાચાર્યના આશ્રમમાં વૃદ્ધકુમારી થઈ જાય છે. મનને જ જવાબદાર માને છે; વળી એણે એમ પણ કહ્યું કે
એકવાર અહિંસા કુમારીને જોઈને કુમારપાળ એના સૌન્દર્યથી મુગ્ધ કુળશીલની પરીક્ષા કર્યા વગરના સેવકો સ્વામીને દુઃખ આપે છે,
થઈ જાય છે, અને તેની માગણી કરે છે. તો આચાર્ય તેને કુમારીની માટે સૌનાં કુળશીલની તપાસ કરવી જોઈએ.
દુપૂરણીય પ્રતિજ્ઞા જણાવે છે. અંતે બુદ્ધિના ભાઈ વિમર્શ અને પુત્ર પ્રકર્ષ - મામા ભાણેજને
सत्यवाक् परलक्ष्मीभुक् सर्वभूताभयप्रदः । પાંચેય ઇન્દ્રિયપ્રધાનોની કુળશીલની તપાસ સોંપવામાં આવી. તેમણે
सदा स्वदारसंतुष्टस्तुष्टो मे स पतिर्भवेत् ॥ ५ ॥ આપેલો અહેવાલ આ પ્રમાણે છે.
सुदूरं दुर्गतेर्बन्धून् दूतान् सप्तपौरुषान् ।
निर्वासयति यश्चित्तात् स शिष्टो मे पतिर्भवेत् ॥ ६ ॥ ચિત્ત નામે અટવીમાં જ્ઞાનાવરણીયાદિ સાત માંડલિક રાજાઓથી
मत्सोदरं सदाचार संस्थाप्य हृदयासने । શોભતો મહામોહ નામે રાજા રાજ્ય કરે છે. તેને મૂઢતા નામે રાણી
तदेकचित्तः सेवेत स कृती मे पतिर्भवेत् ॥ ७ ॥
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હેમચંદ્રાચાર્યોત્તર સંસ્કૃત જૈનસાહિત્યમાં હેમ-કુમારપાળ સંબંધિત રૂપક કથાઓ
કુમારપાળે આચાર્યની પ્રેરણાથી ના શરતો સ્વીકારીને વૃકુમારી અહિંસા સાથે લગ્ન કર્યું. કન્યાનું મુખમંડળ નિહાળવા બોત્તેર લાખની આવકનો રુદતીકરત્યાગ - નિઃસંતાનધનન્ત્યાગ રૂપ દાન કર્યું.
આ સમયે રાજાની દિશા નામની પની વિધાના પાસે ચાલી ગઈ, વિધાતાએ અને આશ્વાસન આપ્યું કે : “સત્યપ્રિય એવા કુમારપાળ જૈન સાધુના કહેવાથી વિરકત થયા છે. હવે હું તને એવા પિત સાથે પરણાવીશ કે જેથી તારું એક ચકી રાજ્ય ચાલે.'' ૪. સોનામાંગ - શેખરસૂરિ
‘જૈનકુમારસંભવ’ના કાં શેખરસૂરિએ વિ.સં. ૧૪૬૨માં આ ગ્રંથની રચના કરી છે. પ્રસ્તુત ગ્રંથમાં ભગવાન પદ્મનાભના શિષ્ય ધર્મરુચિ દ્વારા રજૂ થયેલું આત્મસ્વરૂપ-નિરૂપણ મુખ્ય વસ્તુ છે. પરંતુ આ સંપૂર્ણ રૂપકાત્મક રચનામાં મોહ-વિવેક યુદ્ધમાં વિવેકનો વિજય બતાવતાં કલિયુગમાં દુ:ખી પૃથ્વીના ઉદ્ધારાર્થે રાજા કુમારપાળના જન્મનો ઉલ્લેખ કર્યો છે.
શરીરમાં મજ્જપર્યંત જૈનધર્મી આ રાજીએ અઢાર દેશોમાંથી માર' શબ્દ દૂર કર્યો, કતલખાનાં અને મદિરાની ભઠ્ઠીઓ બંધ કરાવી. मज्जाजैनेन येनोच्यै राजर्षिख्यातिमीयुषा ।
अष्टदशदेशेषु मारीशब्दोऽपि वारितः ॥ ६-३४
कलेः कलेवरे भक्तपानदानेन ये हिते ।
ते ते अमुना सूना भ्राष्ट्रय मोहस्य यल्लभे ॥ ६-४१
પુરોગામીઓનાં રૂપકો અનુસાર કુમારપાળના સદ્ગુણ પ્રાકટ્યના ઉદ્દેશથી અહીં રૂપકાત્મક પાત્રો સાથે કુમારપાળનો ઉલ્લેખ કર્યો છે. તેના રાજ્યમાં ચારે વર્ણો હિંસા ત્યજી જૈન બન્યા.
संजातमार्हतं चातुर्वर्ण्य हिंसां जहौ जनः '
सर्वत्र साधवोऽर्च्यन्तेऽधीयते धार्मिकी श्रुतिः ॥ ६-४६ ॥ ૫. કુમારપાનપ્રબંધ - જિનમંડન ગણી વિ.સં. ૧૪૯૨ ઇતિહાસ પર પ્રકાશ પાડતી આકૃતિમાં વિ.સં. ૮૦૨માં અણહિલપુર પાટણની સ્થાપનાથી વિ.સં. ૧૨૩૦ સુધીની ઘટનાઓની સંક્ષિપ્ત રજૂઆત છે; તેમાં પણ રૂપકાત્મક અંશ છે.
એકવાર ગુરુવંદના કરતા રાજાએ પૌષધશાળાના દરવાજે એક સુંદર કન્યા જોઈ. હેમચંદ્રાચાર્યે કન્યાનો પરિચય કરાવ્યો કે તે વિમલચિત્ત નગરના હર્મ રાજા અને વિરતિ રાણીની પુત્રી કૃપાસુંદરી છે. તેને યોગ્ય વર ન મળતાં તે વૃદ્ધકુમારી તરીકે પ્રસિદ્ધ છે.
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વળી આ પરિવારના અહીં આગમન વિશે કહ્યું કે અદ્ધર્મ અને રાજચિત્તપુરના મોહરાજ વચ્ચે નિરંતર યુદ્ધો થતાં રહે છે. કળિયુગમાં મોહરાજ ફાવી ગયો છે તેથી અર્ધદ્ધર્મ અત્યારે તેના પરિવાર સાથે કુમારપાળના રાજ્યમાં વો છે.
કૃપાસુંદરીના પિરવારની મહત્તા જાણીને કુમારપાળે તેની સાથે લગ્ન કરવા વિચાર્યું. તેણે મનિષકર્ષ હાય પાસુંદરીની પ્રતિજ્ઞાઓ જાણી - મૃત્તકધન ત્યજે, રાજ્યમાંથી વ્યસનોનું નિષ્કાસન કરે તેની સાથે કૃપાસુંદરી લગ્ન કરો. જાહેર કરવામાં આવ્યું કે હેમચંદ્રાચાર્ધના ઉપદેશથી આ બધું પહેલેથી જ કુમારપાળે કર્યું છે. किथामश्वमयं त्यक्त्वा परनारपरामुखः । स्वदेशे परदेशे च हिंसादिकमवारयत् ॥
આ સાંભળી પ્રસન્ન થયેલા ધર્મપે વિરતિને જણાવીને કૃપાસુંદરી કુમારપાળને પરણાવી. - વિ.સં. ૧૨૧૬ના માગશર સુદી બીજના શુભ દિવસે.
હેમચંદ્રાચાર્યે આશીર્વાદ આપ્યા હૈ :
या प्रायेन पुरा निरीक्षितुमपि श्री श्रेणिकायेनृषिः कन्यां तां परिणायितोऽसि नृपते ! त्वं धर्मभूमिशितुः । अस्यां प्रेम महद्विधेयमनिश खण्ड्यं च नेताद्वयो
यस्मादेतदुरुप्रसंगवशतो भावी भृशं निवृत्तः ॥
‘‘શ્રેણિક જેવા રાજા-મહારાજાઓ જેને જોવા પણ પામ્યા નથી તેવી પાસુંદરીને પરણીને કે રાજન, સુખી થઈશ.'' જૈન પરંપરા માને છે કે ભગવાન મહાવીરની હયાતીમાં તેમના પરમભક્ત શ્રેણિકે અહિંસાક્ષેત્રે જે કામ ન કર્યું તે કામ કુમારપાળે શ્રદ્ધેય ગુરુ હેમના આશીર્વાદથી કર્યું એવી ગર્ભિતાર્થ છે.
મોહરાજને જીતીને પોતાના પિતાનું રાજ્ય પાછું અપાવવા કૃપસુંદરીએ કુમારપાળને વિનંતી કરી તો કુમારપાળે મોહરાની રાજધાની પાસે પડાવ નાખ્યો અને જ્ઞાનદર્પણ દૂત સાથે કહેવાયું. ધર્મરાજનું રાજ્ય પાછું આપ્યું અગર યુદ્ધ માટે તૈયાર થાઓ ' મોહરાજે પડકાર ઝીલી લીધો, તેણે દુર્બાન સેનાપતિ સાથે માત્સર્યનું ક્વચ ધારણ કર્યું અને નાસ્તિક્યના હાથી પર બેસી રાગ ક્રોધાદિ વીરો સાથે યુદ્ધ આરંભ્યું; પરંતુ શસ્ત્રો ખૂટી પડતાં તે યુદ્ધભૂમિમાંથી ભાગી ગયો.
આમ હેમચંદ્રાચાર્ય અને મહારાજા કુમારપાળને કેન્દ્રમાં રાખી ગુજરાતમાં લખાયેલું રૂપક-સાહિત્ય સમગ્ર સંસ્કૃત સાહિત્યમાં આગવું સ્થાન ધરાવે છે.
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અતિચાર
અને ભારતીય ફોજદારી ધારો
ડૉ. કવિન શાહ
વિચારનો સાર તત્ત્વજ્ઞાન છે. તત્ત્વજ્ઞાનનો સાર ધર્મ છે. અને ધર્મનો સાર આચાર છે. મનુસ્મૃતિમાં “મારા પરમો ધર્મ:''નો ઉલ્લેખ થયેલો છે. ૪૫ આગમમાં સૌપ્રથમ અંગ સૂત્ર તરીકે આચારાંગને સ્થાન આપવામાં આવ્યું છે. તે ઉપરથી આચારની મહત્તાનો પ્રાથમિક ખ્યાલ આવી શકે તેમ છે. આચાર છે ત્યાં જ ધર્મ છે.
આચારને વિવિધ ધર્મો ને સંપ્રદાયો સમજાવે છેતદ્અનુસાર આચાર એ શૌચ ક્રિયા કુલપરંપરાથી રિવાજનું પાલન. આચારમાં ધર્માચારનો પણ સમાવેશ થાય છે. દરેક ધર્મમાં વિશિષ્ટ આચારસંહિતા છે. તેનો મૂળભૂત હેતુ મનુષ્યમાં રહેલી દિવ્યતાની અનુભૂતિ કરાવવાનો, આત્મસ્વરૂપ પામવાનો છે. આચાર માત્ર બાહ્યાડંબર બની જાય ત્યારે આચારની નિંદા કરવામાં આવે છે. પણ આચાર ખોટો નથી. તેનું આચરણ કરનાર અજ્ઞાની-અર્ધદગ્ધ છે એટલે આચારથી જે પામી શકાય તે પામી શકતો નથી. સંસારી કે ત્યાગી જીવન જીવતા માનવીઓ હોય તો પણ આચારના હાર્દને સમજીને પાલન કરે તો આચારનું મૂલ્ય સુવર્ણ કરતાં પણ અધિક છે કે જેનાથી આત્માની અનંત શક્તિ ને દિવ્યતાનો પરિચય થાય છે.
આચાર વિશે જૈન ધર્મમાં સાધુનાં પાંચવ્રત અને શ્રાવકનાં ૧૨ વ્રતનો ઉલ્લેખ થયેલો છે. વ્રતગ્રહણ પછી તેમાં લાગેલા દોષના નિવારણ માટે અતિચારનું વિધાન છે. દેવગુરુ અને ધર્મની સાક્ષીએ લાગેલા અતિચારની નિંદા અને ગહ કરવાની પવિત્ર ક્રિયા અતિચાર દ્વારા પ્રતિક્રમણમાં થાય છે.
મનુષ્યમાં રહેલી તામસી ને રાજસી પ્રકૃતિથી વિકૃત વર્તનથી જે અતિચાર ને અનાચારનું સેવન થાય છે તેને નિયંત્રિત કરવા માટે આચારસંહિતા છે. આવી આચારસંહિતાના પાલનથી કુટુંબ, સમાજ અને રાષ્ટ્રમાં શાંતિ સ્થપાય છે. રાજ્યની શાંતિનો આધાર પણ માનવ સમાજના સંસ્કારપૂર્ણ સભ્ય વર્તન પર અવલંબે છે.
ધર્માચરણ દ્વારા માનવ વધુ સંસ્કારી ને સંયમી બની કુટુંબ, સમાજ ને રાજ્યમાં પોતાના આવા વ્યવહારથી શાંતિમય જીવન જીવે છે. જેમ જેમ ધર્માચરણની શિથિલતા વધતી ગઈ તેમ તેમ ધર્મના આચારમાંથી રાજ્ય સરકારે રાષ્ટ્રમાં ‘શાંતિ, સલામતી, જીવોને જીવવા દો' જેવા ઉદાર વિચારોથી કાયદા ઘડીને વ્યક્તિના વર્તનને સુધારવા નિયંત્રિત કરવા માટે પ્રયત્નો કર્યા છે. કાયદાના
ભંગ બદલ આ જન્મમાં સરકારી કાયદેસરની કાર્યવાહી કરીને જે તે વ્યક્તિ કે સંસ્થાને શિક્ષા કરે છે.
ભારતીય ફોજદારી કાયદામાં ઘણા કાયદા એવા છે કે જેને ધર્મના અતિચારની સાથે સીધો સંબંધ છે. કાયદાના ઉદ્ભવસ્થાન તરીકે ધર્મનો સ્વીકાર કરવામાં આવ્યો છે. ધર્મ, જાતિ અને કાયદાનો એકબીજા સાથે ગાઢ સંબંધ છે. વ્યવહારજીવનમાં સંપત્તિ અને સત્તાના પ્રભાવથી કાયદામાંથી છટકી જઈ શકાય પણ કર્મસત્તા ઉદયમાં આવે ત્યારે કોઈ છટકબારી રહેતી નથી.
વર્તમાન સમયના કેટલાક કાયદા અને અતિચારનો તુલનાત્મક પરિચય અહીં આપવામાં આવ્યો છે. તેનું મુખ્ય પ્રયોજન ધર્મ એ કપોલકલ્પિત હમ્બગ, માત્ર પાપ-પુણ્યનો ડર ફેલાવીને લોકોને ગભરાવવાનું છે એવી માન્યતાનું જોર વધી રહ્યું છે ત્યારે આ વિગતો ધર્મની શ્રદ્ધા, આત્માની શાશ્વતતા અને કર્મ પુનર્જન્મના શુભાશુભ ફળનો કર્તા ભોકતા આત્મા છે ને શરીરે એ સાધન છે, સાધ્ય મોક્ષ છે જેવી જૈન દર્શનની મૂળભૂત માહિતી સ્પષ્ટ કરવામાં માર્ગદર્શન અને તે છે. - “હિન્દુ કાયદો” એ નામથી કાયદાનું પુસ્તક પ્રગટ થયેલ છે. તેમાં હિંદુ કાયદાની વિગતવાર માહિતી આપવામાં આવી છે. કાયદાના ઉદ્ગમસ્થાનમાં ધર્મગ્રંથોનો મોટો ફાળો છે. હિન્દુ કાયદા અંગેની માહિતી, મહત્ત્વની વિગતો અત્રે નોંધવામાં આવી છે. મુસ્લિમ જ્ઞાતિ માટે મુસ્લિમ કાયદો અસ્તિત્વ ધરાવે છે. તેમાં કુરાને શરીફમાં હજરત મહંમદ પયગંબરે જે વિચારો વ્યક્ત કર્યા છે તેનો સંદર્ભ રહેલો છે. વિશ્વના ધર્મનો મહદ્ અંશે દેશ-પરદેશના કાયદા પર પ્રભાવ પડેલો છે. ભારતીય ફોજદારી ધારો ઇ.સ. ૧૮૬૦થી અમલમાં આવ્યો છે.
આ ધારાના અસ્તિત્વ પહેલાં રાજા-મહારાજાઓ પોતાના તાબા, હેઠળના વિસ્તારમાં પ્રજાજનોની શાંતિ ને સુખાકારી માટે ધર્મનો આશ્રય લઈને વહીવટ કરતા હતા. પૂર્વજીવનમાં ડોકિયું કરતાં એમ લાગે છે કે વ્યક્તિ ને સમાજ-જીવનમાં ધર્મનો વિશેષ પ્રભાવ હતો એટલે લોકો નીતિપરાયણ અને માનવીય ગુણોથી સંસ્કાર-સંપન્ન જીવન જીવતા હતા.
ધર્મ દ્વારા લોકોની અનૈતિક એષણાઓ અને આચારનું નિર્મૂળ કરવાનું કાર્ય થયું હતું. વર્તમાનમાં સ્વતંત્રતા, સ્વચ્છંદતા, ધર્મપ્રત્યે
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ડા.
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અતિચાર અને ભારતીય ફોજદારી ધારો અશ્રદ્ધા અને નાસ્તિતાથી અનેક અનર્થો સર્જાય છે. જીવનની શાંતિ બૌદ્ધ ધર્મનો પ્રભાવ પડેલો જણાય છે. નિયમો અને પુરાવા અંગે ને સલામતીને મરણતોલ ફટકા વાગ્યા છે ત્યારે તુલનાત્મક વિચારો પણ વિગતો છે. ફોજદારી કાયદાની પણ વ્યવસ્થિત વિચારણા થયેલી વ્યક્તિના જીવનને ઊર્ધ્વગામી બનાવવામાં પ્રેરક બને તેમ છે. હિન્દુ છે. લોકોની વૈરવૃત્તિ કે ગુનાખોરીના સંબંધમાં તત્કાલીન સામાજિક કાયદા અંગેની ઐતિહાસિક માહિતી અહીં આપવામાં આવી છે. અને માનવીય વિચારણાને લક્ષમાં લેવામાં આવે છે.
હિંદુ કાયદો હિંદુ ધર્મના ગ્રંથોને આધારે રચાયો હતો. તેમાં નારદસ્મૃતિ ૪00 એ.ડી.ના સમયમાં લખાયેલ હોય તેવો કોઈ દૈવી અંશો નથી. વળી કોઈ રાજાએ પણ આ કાયદા ઘડ્યા સંભવ છે. તેના પ્રથમ વિભાગમાં ન્યાયતંત્રની વિગતો છે. જ્યારે નથી. ધર્મગ્રંથોમાં વ્યક્તિના વર્તનને માનવીય ગુણોના સંદર્ભમાં બીજામાં મનુસ્મૃતિનાં ૧૮ શીર્ષક હેઠળની માહિતીની ચર્ચા છે. વિકાસ કરવા માટે ચોક્કસ આચાર વિચારના નિયમો હતા. નારદમૃતિ મનુષ્યના વ્યવહાર અંગે પ્રકાશ પાડે છે. તેમાં પ્રાયક્તિ નીતિશાસ્ત્રના નિયમો એ પણ ધર્મ ગ્રંથોમાંથી જ નવા સ્વરૂપે સ્થાન અંગે કોઈ વિધાન નથી. તેમાં વારસો, મિલકત, ભાગીદારી, બક્ષિસ ધરાવે છે. હિંદુ કાયદો રૂઢિઓ પર આધારિત હતો એવો મત જેવા વિષયોની તાર્કિક ચર્ચા કરી છે. નારદમૃતિ મૌખિક કરતાં પ્રચલિત છે. ધર્મગ્રંથોમાંથી આ કાયદાનો ઉદ્દભવ થયો એમ લેખિત પુરાવાને વધુ સમર્થન આપે છે. સ્વીકારીએ એટલે તેમાં સામાજિક, ધાર્મિક, નૈતિક અને કાનૂની
દાવા અરજી, પક્ષકાર પુરાવાની રજૂઆત, આરોપની સાબિતી. જવાબદારીઓનો સમાવેશ થાય છે. ધર્મના નામથી લોકોની વગેરે વિશે નોંધપાત્ર ચર્ચા કરવામાં આવી છે. હિંદુ લગ્નધારો ૧૮ આચારશુદ્ધિ વિશેષ રીતે અસરકારક બની હતી. દિનપ્રતિદિન મે ૧૯૫૫થી અમલમાં આવ્યો છે. ત્યાર પહેલાં રૂઢિ અને સામાજિક સમાજજીવનમાં પરિવર્તનના પ્રવાહની સાથે ધાર્મિક માન્યતાઓ નિયમો અનુસાર છૂટાછેડા ભરણપોષણ વગેરેનું અનુસરણ થતું હતું. બદલાઈ અને વર્તનમાં ફેરફાર થતાં નૈતિક મૂલ્યોનું ધોરણ બદલાતાં
વર્તમાન ફોજદારી કાયદાના સંદર્ભને સમજવા માટે હિંદુ કાયદાની કાયદાના સ્વરૂપે હિંદુ ધર્મના નિયમો અસ્તિત્વમાં આવ્યા છે. કાયદો
ભૂમિકા પૂરક નીવડે તેવી છે. બંધારણની સત્તાથી પાર્લામેન્ટ ઘડે છે. એટલે ધર્મના નિયમોના
દિન-પ્રતિદિન ધર્મ પ્રત્યેની અશ્રદ્ધા, વડિલોની નીતિમત્તાનો પાલન માટે કોઈ ફરજ પાડી શકે નહિ. તેમાં સ્વેચ્છાપૂર્વક નિયમ
હાસ અને તેનો સમાજના લોકો પર પડેલો પ્રભાવ, મર્યાદા અને પાલનની જવાબદારી છે. જ્યારે કાયદાનું પાલન કરવાની દેશના
આચારવિચારને ફગાવીને અમર્યાદ વર્તન, ભૌતિકવાદનો પ્રભાવ, નાગરિક તરીકે જવાબદારી રહેલી છે. ખ્રિસ્તીયુગ શરૂ થયો ત્યાર
આજ્ઞાપાલન અને વિનય વિવેક જેવા ગુણોનું નિકંદન, અહમુમાં પહેલાં પણ હિંદુ કાયદો અમલમાં હતો એનું મૂળ વેદ-સ્મૃતિઓ
રાચવાની વૃત્તિ, સત્તા લાલસા, વર્તનમાં સ્વનિયંત્રણને સ્થાને શ્રુતિઓ જેવા અતિ પ્રાચીન ગ્રંથોમાં રહેલું છે.
અનિયંત્રણ, સુધારક-નવી વિચારધારાનું અનુસરણ, ધાર્મિક સાધુ શ્રુતિ-એટલે સાંભળેલું. પૂર્વકાલીન રૂષિઓ શ્રુત પરંપરાથી
સંતોનો સમાજ પરનો પ્રભાવ ઘટી જવો, ભ્રષ્ટાચાર અને આડંબર, ધર્મના વિચારો આત્મસાત્ કરતા હતા. તેમાં મુખ્યત્વે ધાર્મિક વિચારો
વિચારોમાં સંઘર્ષ ને મંથન, નીતિશાસ્ત્ર, સામાજિક રૂઢિઓ નિયમો જ હતા. કાયદો કરી શકાય તેવા વિચારો કરતાં માનવ સાથે સંબંધ
જ્ઞાતિપંચ - પ્રથા વગેરેમાં આમૂલ પરિવર્તન આવતાં જનજીવનમાં ધરાવતા નૈતિક નિયમો વિશેષ રીતે જોવા મળે છે. વેદ-વેદાંગો
શાંતિ, સલામતી, વ્યવસ્થા સ્થપાય તે હેતુથી ધર્મને બદલે સરકારે અને ઉપનિષદો એ શ્રુતિઓના ઉદાહરણ રૂપ છે.
બંધારણ અનુસાર ઘડેલા કાયદાઓ અને તેમાં વખતોવખત થતા સ્મૃતિઓ :- એ રૂષિઓનાં વચનોનો સંગ્રહ છે. તેમાં ધર્મના સુધારાનો અમલ થઈ ગયો છે. તત્ત્વતઃ અંતરઆત્માનો અવાજ ને વિચારો અને નિયમોની નોંધ છે. આવી સ્મૃતિઓમાં ગૌતમ,
નીતિમત્તા એ માત્ર જાહેર સમારંભો ને પ્રસંગોમાં વિક્ટોરિયા બૌધાયન, વસિષ્ઠ, વિષ્ણુ, મનુ, યાજ્ઞવલ્કય અને નારદસ્મૃતિ રાણીના ઢંઢેરાની માફક ઉચ્ચારણ છે. વાસ્તવિક્તામાં તો કાયદો કે નોંધપાત્ર છે. છેલ્લી ત્રણ સ્મૃતિઓ હાલ ઉપલબ્ધ છે. બાકીની ફરજપાલનની નાગરિક જવાબદારી કોઈપણ ધર્મના સભ્ય તરીકે જે અલેખિત છે.
હોવી જોઈએ તે રહી નથી. પરિણામે કાયદાની લાંબી માયાજાળથી મનુસ્મૃતિનો રચનાસમય ચોક્કસ નક્કી થઈ શકતો નથી. તેમાં જીવન વ્યવહાર ચાલે છે. ભગવાન મનુએ આપેલાં ૧૮ શીર્ષક હેઠળ દીવાની અને ફોજદારી જૈન ધર્મમાં બાર વ્રતોનો ઉલ્લેખ છે. મનુષ્ય પોતાના જીવનમાં કાયદા હાલ જે અમલમાં છે તેનો મૂળ સંદર્ભ રહેલો છે. મિલકત જે કોઈ પાપ-ગુનો કે અમર્યાદ વર્તનથી અન્યને દુઃખ કે ત્રાસ કરાર, ભાગીદારી, માલિક અને નોકરનો સંબંધ વગેરે વિસ્તારથી આપે, સ્વાર્થવશ બનીને સ્થાવરજંગમ સંપત્તિ પચાવી પાડે, પૈસા વિગતો આપવામાં આવી છે. મનુસ્મૃતિમાં રૂઢિ અને તેના પાલન કમાવા માટે અસત્ય વચન બોલવાં, તોલમાપ, લેણદેણ હિસાબની પર ભાર મૂકવામાં આવ્યો છે. અને દંડવિધાન પણ જણાવેલું છે. નોંધ, બે પક્ષકારો વચ્ચેના કરારની વિગતોમાં સુધારાવધારા, ખોટી મનુસ્મૃતિ કરતાં નારદ અને યાજ્ઞક્યસ્મૃતિ વધુ વ્યવસ્થિત રીતે સાક્ષી પૂરવી, અનૈતિક સંબંધો રાખવા, એમ વિશિષ્ટ પ્રકારની સંકલિત થયેલી છે.
વિગતોનો જૈન અતિચારમાં સમાવેશ થાય છે તેનો તુલનાત્મક યાજ્ઞવલ્કય સ્મૃતિના પાયામાં મનુસ્મૃતિ છે. તેમાં મનુષ્યના વિચાર કરતાં ખ્યાલ આવશે કે કાયદો નવો નથી, એ તો ધર્મમાંથી આચાર, વ્યવહાર, પ્રાયશ્ચિત નામના ત્રણ વિભાગમાં કાયદાની જ ઉદ્ભવ્યો છે લોકોની નૈતિક માન્યતાઓ સ્વાર્થ, વિલાસ, વિવેક વિગતો ચર્ચવામાં આવી છે. તેમાં ૧૦૦૯ શ્લોકો છે. તેના પર બુદ્ધિનો અભાવ અને ઐહિક સુખની ઘેલછાને કારણે જીવનમાં
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ પરિવર્તન આવ્યું, પરિણામે સામાજિક સુવ્યવસ્થા અને શાંતિમય “પ્રથમ જ્ઞાન પછી દયા રે સંવર મોહ વિનાશ. જીવન માટે રાજ્ય તરફથી ધર્મના નિયમો કાયદા સ્વરૂપે અમલમાં ગુણથાનક પગ ઢોલિયે રે, જેમ લહો મોક્ષ આવાસરે.' આવ્યા છે. ધર્મની દૃષ્ટિએ જે વાતનો સ્વીકાર થતો નથી તે
(૩) ભવિમાd લાચારીથી કાયદાને આધીન વ્યક્તિને સ્વીકારવી પડે છે. તે કહેવાતાં સાધુ અને શ્રાવકનાં વ્રતો તથા અન્ય નાનામોટા નિયમોના સંસ્કારી માનવીનું ધોર કલંક છે. ફોજદારી કાયદાની અને પાલનની પાર્શ્વભૂમિકા રૂપે જ્ઞાન જ ઉપયોગી છે. કોઈ વર્તન, અતિચારની વિગતોની નીચે મુજબ છે. .
પ્રવૃત્તિ કે ક્રિયામાં સ્કૂલના થઈ છે કે દોષ લાગ્યો છે તે જ્ઞાન વગર ‘અતિચાર'ની તાડપત્રીય નોંધ સંવત ૧૩૬૯ની મળે છે, જેનું
જાણી શકાય નહિ. એટલે જ્ઞાન પર વિશેષ ભાર મૂકવામાં આવ્યો પ્રાચીન ગુજરાતી ગદ્યસંદર્ભમાં મુદ્રણ થયેલું છે. અતિચાર ગુજરાતી
છે. કર્મવાદના સિદ્ધાંત પ્રમાણે શુભાશુભ કર્મના બંધમાં કરવું કરાવવું અને મારવાડી ભાષાના મિશ્રણવાળી જૈન સાહિત્યની ગદ્યરચના
અને અનુમોદના કરવી એમ ત્રણેનો સહયોગ છે. સારા કામમાં છે. નાણંમિ-અતિચાર સૂત્ર અને વંદિત્તસૂત્રમાં અતિચારનો મિતાક્ષરી
સહકાર આપવાથી વ્યક્તિની સાત્ત્વિકતામાં વૃદ્ધિ થાય છે. જ્યારે પરિચય છે. આપણાં સૂત્રો એકબીજા સાથે ગાઢ સંબંધ ધરાવે છે.
નીતિ ધર્મ-સમાજ કે કાયદાથી પ્રતિબંધિત વર્તન કે કૃત્ય કરવામાં નાસંમિ અને વંદિત્તસૂત્ર પ્રાકૃત ભાષામાં છે. અર્થ સહિત આ સૂત્રોનું
આવે છે ત્યારે સાત્ત્વિક્તાને બદલે રાજસી અને તામસી પ્રકૃતિનો જ્ઞાન હોય તો અતિચારનું સ્વરૂપ સમજી શકાય છે. જ્યારે સૂત્રાર્થ
જ પરિચય થાય છે જે માનવને પશુતા તરફ ધકેલી દે છે. “અહિંસા
પરમો ધર્મ'ના સૂત્રને ચરિતાર્થ કરવા માટે સમગ્ર જીવ સૃષ્ટિ પ્રત્યે જ્ઞાન ન હોય ત્યારે ગદ્યમાં અતિચારનું શ્રવણ અર્થ બોધમાં ઉપકાર
દયાભાવ રાખવા જ્ઞાન આવશ્યક છે. મનુષ્યવધ, ખૂન, અપરાધ, નીવડે છે.
મનુષ્યવધને લગતા ફોજદારી કાયદાની કલમ ૨૯૯થી ૩૧૮ સુધીની - હિંસાની વ્યાખ્યા આપતાં ઉમાસ્વાતી સ્વામી તત્ત્વાર્થ સૂત્રમાં
છે. આ વિભાગમાં ગર્ભપાત કરાવવો, ઉપેક્ષા દ્વારા મૃત્યુ નીપજાવવું, જણાવે છે કે પ્રમત્તયોગાતું પ્રાણબરો હિંસાઃ પ્રમાદવશ થઈને જીવનો
આત્મહત્યા કરવી. વગેરે અને તેમાં મદદગારી કરવી મનુષ્ય શરીર વધ કરવો તે હિંસા છે. રાગદ્વેષ કે વૈરવૃત્તિથી જીવોનું મારણ -
અને જિંદગીને લગતા ગુનાઓનો સમાવેશ થયેલો છે. “ખૂનકા પીડન, છેદન, ભયોત્પાદન આદિ થાય તે પણ હિંસા જ છે. હિંસા
બદલા ફાંસી' – લોક વ્યવહારમાં પણ આ કહેવત જાણીતી છે. બે પ્રકારની છે - દ્રવ્યહિંસા અને ભાવહિંસા. મન, વચન અને
કર્મશાસ્ત્ર પ્રમાણે એવું માનવામાં આવે છે કે : કાયાથી ક્રોધ, માન, માયા અને લોભ પૂર્વક જે ક્રિયાઓ થાય તેના
હોય વિપાકે દશગુણુંએ એકવારકિયું કર્મ પરિણામે તેવી વ્યક્તિ આત્મહત્યા કરે કે અગ્નિસ્નાન કરે તો તે
સહસ કોટી ગમે રે તીવ્ર ભાવના મર્મ રે દ્રવ્ય હિંસા છે. ચોરી-મિલકતની ઉચાપત, ભેળસેળ કે મિશ્રણ દ્વારા
પ્રાણી જિન વાણી ધરો ચિત્ત / ૩ /'' અન્ય વ્યક્તિ કે પરિવારને દુ:ખી કરવા તે ભાવહિંસા છે.
સર્વ જીવોને પોતાના જેવા જ ગણીને સ્વરક્ષા સમાન અન્ય જીવો જીવસ્ય ભોજનમ્'ના સૂત્રોની ભોગપ્રધાન
જીવોનું રક્ષણ કરવું જોઈએ, અહિંસા ધર્મનો આ મૂળભૂત વિચાર મનોવૃત્તિવાળા કહેવાતા આધુનિકતાવાદીઓએ ત્યાગપ્રધાન ભારતીય
છે. હેમચંદ્રાચાર્ય યોગશાસ્ત્રમાં જણાવે છે કે : સંસ્કૃતિના દેશમાં “જીવો જીવસ્ય રક્ષણ” સૂત્રને ચરિતાર્થ કરી
"आत्मवत् सर्व भूतेषु, सुख दुःख प्रियाप्रिये બતાવવું જોઈએ, તો નૃજન્મ સાર્થક થાય. બાકી શક્તિશાળી માનવી
चिंतयन्नाल्मनोऽनिष्टां, हिंसा मन्यस्य नाचरेत्" १५. માનવ સિવાયની જીવસૃષ્ટિનો સંહાર કરે તેમાં એની શક્તિની કોઈ
જેમ પોતાને સુખ વહાલું છે અને દુઃખ અપ્રિય છે. તેમ સર્વ બલિહાસ નથી. સાચી શક્તિ તો આત્મસ્વરૂપ પામવા માટે
જીવોને સુખ પ્રિય અને દુઃખ અપ્રિય છે એમ જાણી પોતાને અનિષ્ટ બતાવવાની છે, કે જેના પાયામાં અહિંસા ધર્મ છે.
લાગતી હિંસા બીજાના સંબંધમાં ન કરવી જોઈએ. અર્થાત્ બીજા. આચારપાલન માટે જ્ઞાનની અનિવાર્ય આવશ્યક્તા છે.
જીવોને મારવા જોઈએ નહિ. હિંસા કરીને દાનપુણ્યથી છૂટી જઈશું અજ્ઞાનતાને કારણે વર્તનમાં દોષ લાગવાનો સંપૂર્ણ સંભવ છે. એટલે
એ વિચાર યોગ્ય નથી. શાસ્ત્રમાં જણાવ્યું છે કે : તો જ્ઞાન પહેલું અને પછી દયા કે અન્ય ધર્મનું આચરણ થાય.
“તે પ્રળિયાન રૌદ્રધ્યાનપરીયો | દશવૈકાલિક સૂત્રમાં તેનો ઉલ્લેખ થયેલો છે.
સુપૂણે ગ્રાહ્ય સત ના જતી | ૨૭ ” “पढमं नाणं तओ दया एवं चिट्ठइ सव्व संजए ।
પ્રાણીઓના ઘાત કરવા વડે કરી રૌદ્રધ્યાનમાં તત્પર સુભૂમ अन्नाणं किं काही किंवा नहा छेव पावगं"
અને બ્રહ્મદત ચક્રવર્તીઓ સાતમી નરકે ગયા છે. વૈરભાવ અને દશ. અધ્ય. ૪. ગા. ૧૦ હિંસાના પરિણામવાળા જીવો શાંતિથી નિદ્રા પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી પ્રથમ જ્ઞાન અને પછી દયા એવી રીતે સર્વ સંયમી પુરુષની અને સતત ભયના વાતાવરણમાં જીવે છે. સ્થિતિ છે. જે અજ્ઞાની હશે તે શું કરશે ? શું આચરશે ? અથવા હિંસાની પ્રવૃત્તિથી જ વ્યક્તિ ને સમષ્ટિની શાંતિનો સંહાર પુણ્ય પણ કેવી રીતે જાણશે ? આ પ્રકારનો સંદર્ભ જ્ઞાનપંચમીના થયો છે. માનવશરીરધારી જે હિંસાનું સામ્રાજ્ય ચલાવી રહ્યો છે તે સ્તવનમાં પણ મળી આવે છે.
જોતાં શાંતિ ક્યાંથી પ્રાપ્ત થાય ? સમગ્ર ધર્માચરણ, દાન, પુણ્ય,
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અતિચાર અને ભારતીય ફોજદારી ધારો
ઇંદ્રિયદમન પણ જો હિંસાયુક્ત હોય તો નિષ્ફળ છે.
માનવીય ગુણોમાં કેન્દ્ર સ્થાને જીવદયા છે. દયા ‘અન્યમાં પણ દયાધિક ગુણો જે જિનવચન અનુસાર રે,
સર્વ તે ચિત્ત
અનુમોદિયે, સમક્તિ બીજ નિરધાર રે. ચેતન જ્ઞાન જુવાળીએ ॥ ૨૦ ક (અમૃત વેલની સજ્ઝાય)
ટૂંકમાં જે રક્ષક છે, જીવદયા, પ્રતિપાલક છે, અને પોતાના તમામ વ્યવહારમાં તેનું પાલન કરે છે તે નિર્ભય છે. પહેલા વ્રતના અતિચારમાં માનવહિંસા ઉપરાંત તિર્યંચ પંચેન્દ્રિયથી આરંભીને પૃથ્વીયના સૂક્ષ્મજીવોની હિંસા ન થાય તે માટેની મહત્ત્વની માહિતી આપવામાં આવી છે. પ્રાણીઓને ઘાસ-ચારો સમયસર ન આપવો, મર્યાદા ઉપરાંત ભાર મૂકીને વાન વિકાવું, મિલ્કતરૂપે ઢોરની લેવેચ કરવી, વગેરે દ્વારા હિંસા છે. તેનાથી વ્યક્તિ અને પ્રાણીઓને થતા માનસિક ત્રાસમાં વ્યક્તિ નિમિત્તરૂપ ન બને એવો વ્યવહાર મનુષ્યોએ કરવા જઈએ હિંસાનો અર્થ માત્ર મૃત્યુ નીપજાવવું એવો નથી પણ ધર્મ-નીતિ કે કાયદાના સંદર્ભમાં વિસ્તારથી સમજવાનો છે.
૭. કલમ ૨૯૫માં જણાવ્યા પ્રમાણે કોઈ વર્ગની વ્યક્તિઓના ધર્મનું અપમાન કરવાના ઇરાદાથી કોઈ ધાર્મિક સ્થળો અથવા તેમણે પવિત્ર માનેલ કોઈક વસ્તુનો નાશ કરવો, નુકસાન કરવું, અપવિત્ર કરવું. ક. ૨૯૫. હું કોઈબ્ધ વર્ગના ધર્મનું અથવા ધાર્મિક માન્યતાઓનું અપમાન કરીને બે વર્ગની ધાર્મિક માન્યતાઓ ઉપર હુમલો કરવાના ઇરાદાથી જાણી જોઈને દ્વેષબુદ્ધિથી કૃત્ય કરવું. ક. ૦૮માં જણાવ્યું છે કે જે કરવાનો અથવા નહિ કરવાનો ગુનેગારનો દશ હોય તે જો કરવામાં આવશે, નહિ કરવામાં આવશે તો તે કુંવી અવકૃપાનો ભોગ બનશે એવું કોઈ વ્યક્તિને મનાવીને પ્રેરિત કરાવવામાં આવેલ કાર્ય શિક્ષાને પાત્ર છે. કાયદાની આ કલમ દ્વારા પણ મનુષ્યની ધર્મભાવનાની લાગી દાખવીને માનસિક હિસા ન થાય તેવો સંદર્ભ મળે છે. અહિંસા સંબંધી કાયદાની જોગવાઈઓને ધર્મબુદ્ધિથી વિચારીને જીવન વ્યવહાર ચલાવવામાં આપનો મિની ાતિ ને સલામતીનો પ્રશ્ન સ્વાભાવિક રીતે ઉકલી જાય તેમ છે. પ્રથમ વ્રતમાં ઉપરોક્ત હિંસા સંબંધી ધર્મ અને દાની વિગતોનો સૂક્ષ્મ અભ્યાસ ને જાણકારી સૌ કોઈને માર્ગદર્શક બને તેવી છે.
૮. બીજ મૃષાવાદનાં વ્રતના અતિચારોમાં ખોટું આળ ચઢાવવું ડો લેખ લખ્યો, હૂંડી સાખ ભરી થાપણો સો કીધો, કન્યા, ગૌ, ઢોર, ભૂમિ સંબંધી લેહણે દેહણે વ્યવસાયવાદ વઢવાડ કરતાં મોટકું જૂઠ્ઠું બોલ્યા વગેરેમાં અસત્ય વચનો દ્વારા પાપનો બંધ થાય છે તેમ જણાવ્યું છે. ફોજદારી કાયદામાં કલમ ૧૯૧ ખોટો પુરાવો આપવો ખોટી સાક્ષી આપવીનો ઉલ્લેખ છે. સત્યનું આચરણ કરનારે આ દોષોથી બચવા સતત પ્રયત્નશીલ રહેવું જોઈએ.
૯. તોલ અને માપને લગતા ગુનાઓનો ફોજદારી કાયદામાં કલમ ૨૪૬થી ૨૬૭ સુધીમાં સમાવેશ કરેલો છે.
૧૦. ત્રીજા અદત્તાદાન નામના વ્રતમાં જણાવ્યા પ્રમાણે ચોરાઈ
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વસ્તુ વહોરી, સજીવ નિર્જીવ વસ્તુના ભેળસંભેળ કીધાં ફૂડે કાટલે સોલે માન માપ વીર્યાં દાણચોરી કીધી સાંટે લાંચ લીધી વિશ્વાસઘાત કીધો, ડાંડી ચઢાવી લહકે, ત્રટકે કૂંડાં કાટલાં માનમાપાં કીધાં, થાપણ ઓળવી, આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિઓ ધર્મની દૃષ્ટિએ યોગ્ય નથી તો વ્યવહાર અને કાયદાથી પણ તેનો ત્યાગ કરવા માટે જોગવાઈ થયેલી છે. આવાં કૃત્યો કરનારને કાયદાથી શિક્ષા થાય છે. વ્યક્તિની મિલક્ત લઈ લેવા અંગેના ગુનાઓ કલમ ૩૭૯થી ૪૨૪માં દર્શાવવામાં આવ્યા છે. તેમાં લૂંટ, ધાડ, ચોરી, બરાઈથી કઢાવવું મિલકતની ગુનાહિત ઉંચાપત, ઠગાઈચોરાયેલી મિલકત મેળવવી ઠગાઈ, દગલબાજીયુક્ત દસ્તાવેજો બનાવવા વગેરે ગુના અદત્તાદાન વ્રતની સાથે સામ્ય ધરાવે છે.
૧૧. ચોથા દત્તના અતિચારમાં ઉત્થરપહગૃત્તિનાગમન, અપરિણિતાગમન, વિધવા, વેશ્યા, પરસ્ત્રી સાથે દૃષ્ટિ વિપર્યાંસ કીધો, સ્વદારાસંતોષ વગેરે દ્વારા લગ્નજીવન અંગેનાં અતિચારોનો ઉલ્લેખ છે. ફોજદારી કાયદામાં કલમ ૪૯૩-૪૯૮માં આ સંબંધી વ્યવસ્થા છે. દ્વિપતિ-પત્નીકરણ, વ્યભિચાર, બળાત્કાર કોઈ સ્ત્રીને ગુનાહિત હેતુથી ભગાડવી, એ કાયદાથી પ્રતિબંધિત છે. અને તેને માટે શિક્ષાની જોગવાઈ છે.
કુદરતી ન્યાયનો સિદ્ધાંત કાયદામાં પણ કેટલેક અંશે સ્વીકારવામાં આવે છે કાયદો માનવતા વિરુદ્ધ હોવો જોઈએ નહિ.
પ્રાકૃતિક કુદરતી કાપાને પદ્મ જાવો જોઈએ.
૧૨. પ્રાકૃતિક ન્યાય એ કુદરત તરફથી મળે છે. જ્યારે ન્યાયાલયમાં પ્રાપ્ત થતો ન્યાય કે શિક્ષા એ કાયદાને આધારે મનુષ્ય દ્વારા નિર્શિત થાય છે. પૈસા સત્તા કે લાગવગને કારણે કોઈ ગુનેગાર કાયદાથી છટકીને વ્યવહાર જીવનમાં નિર્દોષ જાહેર થાય પણ કુદરતના દરબારમાં તો તેને પોતાના કર્મનું ફળ પછી તે શુભ કે અશુભ હોય તો ભોગવવું પડે છે. કુદરતનો ન્યાય આ જ જન્મમાં મળે કે પુનર્જન્મમાં મળે તે કર્મવાદથી શ્રદ્ધાપૂર્વક જાણી શકાય છે. કુદરતી ન્યાય અદશ્ય છે. કથા કર્મની કેવી રીતે કોર્ણ ફાંકા ભોંગથી તેવા જ્ઞાની આ કાળમાં નથી, પ્રાકૃતિક કાયદાને Divine law, Natural law, Eternal law જેવા શબ્દોથી ઓળખવામાં આવે છે. તેમાં ગર્ભિત રીતે ધર્મની વિચારધારાઓનો પ્રભાવ રહેલો છે. કુદરતી કાયદો આત્મસાને પાળવાનો હોય છે. આધ્યાત્મિક સાધનાના નિયમોનું પાલન આ પ્રકારના કાયદાના ઉદાહરણરૂપ છે. કુદરતી રીતે કોઈ વ્યક્તિને ક્યારે શિક્ષા થશે તે જાણી શકાનું નથી. ઈશ્વરથી - પાપથી ડરો'' એ સૂત્ર કેન્દ્રમાં રાખીને વર્તન કરનાર વ્યક્તિને કુદરતી રીતે જ નિયમપાલનસ્ખલના માટે પ્રાયશ્ચિત્ત અને આચાર શુદ્ધિ કરવાની ભાવના થાય છે.
ધર્મગ્રંથોમાં માનવીય ગુણોના વિકાસ અંગેની આચારસંહિતાનો વિગતવાર ઉલ્લેખ થાય છે. આચારના નિયમોને નીતિશાસ્ત્રમાં સ્થાન આપવામાં આવ્યું છે. નીતિશાસ્ત્ર માનવવર્તનનું નિયંત્રણ કરતી આચારવિચારની ચોક્કસ માહિતી આપે છે. તેમાં વ્યક્તિએ શું કરવું જોઈએ અને શું ન કરવું જોઈએ તેના પર વિશેષ ભાર મૂકવામાં આવ્યો છે. ટૂંકમાં નીતિશાસ્ત્ર મનુષ્યના આદર્શ વર્તનના
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ઘડતર ને વિકાસનો રાજમાર્ગ બતાવે છે જેનું અનુસરણ કરનાર વ્યક્તિ જીવનમાં સુખ શાંતિના સામ્રાજ્યનો ભોક્તા થાય છે.
નીતિશાસ્ત્રના નિયમોના ઉલ્લંઘન માટે કોઈ શિક્ષા કરવાની વ્યવસ્થા નથી. તે તો વ્યક્તિએ પોતે જ પોતાની તે માનવ તરીકેની જવાબદારી સમજીને પાલન કરવાના હોય છે. માનવ મૂલ્યોનું જતન કરવામાં નીતિશાસ્ત્રના વિચારોનો મહદ્અંશે ફાળો રહેલો છે. નીતિ દ્વારા સમાજની સભ્યતા, ગૌરવ અને ભવ્યતાનું દર્શન થાય છે. તેથી નીતિશાસ્ત્રના નિયમોની ઉપેક્ષા થઈ શકે નિહ. કાયદામાં કોઈ પણ એવો ન હોય કે જેનાથી માનવમૂલ્યોનો વિચ્છેદ થાય. ધર્મના સ્થાપિત થયેલા નિયમો વ્યક્તિ ને સમષ્ટિના કલ્યાણ માટે છે તેવી ઉદાર ભાવનામાં આત્મ કલ્યાણનો પણ સમાવશ થાય છે.
શ્રી યનીન્દ્રસૂરિ દીયાશતાબ્દિ ગ્રંથ
૧૩. ડો. શેઠના ન્યાયશાસ્ત્રના સંદર્ભમાં જણાવે છે કે લોકસમૂહના કાયદાઓના અરીસામાં તેની સંસ્કૃતિનું અને તેની વિચારસરણીનું પ્રતિબિંબ પડે છે. તેના કાયદાઓંના ઉચ્ચસ્તરી પરથી દેશની સભ્યતાની ભાવનાની તેના સકારાત્મક નીતિશાસ્ત્રની અનુભૂતિ થાય છે.'' કાયદાના ભંગ માટે ન્યાયાલય દ્વારા આરોપીનો ગુનો પુરવાર થતાં શિક્ષા ફરમાવવામાં આવે છે.
૧૪. ન્યાયશાસ્ત્રમાં જણાવ્યા પ્રમાણે શિક્ષાના ચાર પ્રકાર છે. નિવારક : કાયદાનું મુખ્ય ધ્યેય એ છે કે અપરાધીને શિક્ષા કરવામાં આવે તો તેના જેવું માનસ ધરાવનારા સમાજના અન્ય લોકો તેને ચેતવણીરૂપ ગણીને અપરાધ કે ગુનો ન કરે. અપરાધ એ અપરાધીને માટે કદી પણ લાભકારક હોતો નથી. તેનાથી અંતે તો ઐહિક નુકસાન છે. પારલૌકિક દૃષ્ટિએ પણ તેને જન્મધારણ કરીને દુઃખ (ફળ) ભોગવવું પડે છે. આ પ્રકારની શિલા દૃષ્ટાંત રૂપ બનીને દુનિયાના લોકો અપરાધના માર્ગે જતા અટકે તેવો હેતુ હેલો છે.
નિરોધક : નિવારક શિક્ષા અપરાધીના મનમાં ભય પેદા કરીને અપરાધ નહિ કરવા માટે પ્રેરક બને છે. જ્યારે નિરોધક શિક્ષામાં અપરાધીને નિષ્ણુગ્ધ કરીને અપરાધી અટકાવવાનો છે. દા.ત. દેહાંતદંડની શિક્ષા કારાવાસ, ડ્રાઇવીંગ લાયસન્સ રદ કરવું વગેરે નિવારક શિક્ષા અપરાધ ન કરવાનો ભય ઉત્પન્ન કરાવે છે. જ્યારે નિર્માધક શારી અપરાધીને નિર્સીંગ્સ (dible) બનાવવામાં આવે છે.
સુધારશિક્ષા : અપરાધીના ચારિત્ર અને તેની મુરાદના સંઘર્ષમાંથી ગુનો કરવાનું નિમિત્ત મળે છે ત્યારે તેના ચારિત્રને મજબૂત બનાવવાનો પ્રયત્ન કરવામાં આવે છે આ સિદ્ધાંત પ્રમા ગુનેગાર એક રોગી છે અને તેના રોગનું નિવારણ કરવાનું કાર્ય કરે છે. રોગીને મારી નાખીને રોગ મટાડી શકાશે નહિ એમ સમજવાનું છે. સુધારક શિક્ષા તરીકે કારાવાસ અને પરિવીલ (Probation) વધુ અસરકારક છે.
એવા પણ કેટલાક ગુનેગારો છે કે જે જીવનમાં કદી પણ સુધરવા માગતા જ નથી અને રીઢા ગુનેગાર બની ગયા છે. તેઓને માટે નિવા૨ક અને સુધારક શિક્ષાનો સમન્વય જ ઉપયોગી બને છે. પ્રતિકારક શિક્ષા : આશિયાથી સમાજમાં નૈનિક સંતોષની
લાગણી પ્રગટે છે. કાયદાની ભાષામાં આંખ માટે આંખ અને દાંત માટે દાંતનો" પ્રાકૃતિક નિષમ રહેલો છે. સમાજના લોકો અપરાધીનો નિરસ્કાર કરે તો તેથી તે અપરાધમાંથી બચી શકો
નથી. આ શિાની એક અર્થ પ્રાયશ્ચિત્ત રૂપે ગણવાનો છે. અપરાધીને દોષ પૂર્ણ કૃત્ય માટે દંડ આપવો પડે છે. અન્યાયને સ્થાને ન્યાય સ્થાપવા માટે શિક્ષા કાર્ય કરે છે. કોઈ વ્યક્તિને નુકસાન થાય તો તે ન્યાયસંગત રીતે તેવી વ્યક્તિ દ્વારા અન્યને નુકસાન ભરપાઈ કરવાનું અનિવાર્ય બને છે.
ન્યાયશાસ્ત્રમાં આવી શિક્ષાના પ્રકારનો વિચાર કર્યા પછી ગુનેગારને દેહાંત દંડ, દેશ પાર કરવો. દૈહિક કે શારીરિક શિક્ષા, કારાવાસ, જેલવાસ, અનિર્ધારિત સજ, દંડ આર્થિક), એકાંત કારાવાસ જેવી શિક્ષાઓમાંથી ગુનાને અનુલક્ષીને દંડસંહિતા પ્રમાણે ન્યાયાલયમાં શિક્ષા નિર્ધારિત થાય છે.
કર્મસત્તાની દૃષ્ટિએ શિક્ષા એટલે અશુભ કર્મનો બદલો ભોગવવા માટે જન્મમરણના ચક્રમાં ફરવાનું. ૮૪ લાખ જીવયોનિમાં ભ્રમણ કરવાનું છે. વ્યક્તિનું ચારિત્ર ઊંચા પ્રકારનું ઘડવામાં ધર્મનો ફાળો છે. સદ્ગુણો ને સંસ્કારોનું પોષણ થાય તો પછી ગુનાહિત માનસ બને નહિ એટલે ધર્મ ને ભૂલીને અમર્યાદ-અતંત્રતાનો રોગ સમાજને લાગુ પડ્યો છે. તેને કારણે ગુનાઓની સંખ્યા વધતી જાય છે. જૈન અને અન્ય દર્શનોમાં પણ નરકનાં દુઃખોનો સંદર્ભ મળે છે. આ નરભૂમિ અમાવાસ્યા કરતાં પણ કાળી છે. તેની ભૂમિ લીમડા કરતાં પણ અધિક કડવી છે. પ્રકાશ તો નામ માત્ર નથી. માત્ર અંધકારનું સામ્રાજ્ય ચોતરફ વિસ્તરેલું હોય છે. અહીંની જગા પણ અશુચિમય પદાર્થોથી ઉભરાતી, લીંટ, પરૂ, લોહી, પેશાબ, ચરબી, વિષ્ટા આદિથી અત્યંત દુર્ગંધમય હોય છે. જ્યાં જીવો પોતાનાં અશુભ કર્મ ભોગવવા માટે જન્મ લે છે. પરમાધામી દેવો પૂર્વજન્મનાં અશુભકર્મોનું સ્મરણ કરાવીને શિક્ષા ભોગવવાની ફરજ પાડે છે. ત્યારે આ જીવ છટકી શકતો નથી. આવી અશરણ દયનીય હાલત નારકીના જીવની હોય છે. અપરંપાર વેદના સહન કરવા માટે નરક ભૂમિ છે. જ્યાં વેદનાની કારમી ચીસો ને બચવા માટે આજીજી ને કાલુી સંભળાય છે. કાયદામાં ક્રિયાનું સ્વરૂપ છે. કર્મસત્તા દ્વારા થતી શિક્ષાનાં ઉદાહરણ નીચે મુજબ છે :
માયા-કપટ કરનારને તિર્યંચનો અવતાર મળે છે. પરસ્ત્રી સાથેના સંબંધનું ફળ લોખંડના થાંભલા સાથે બાંધવામાં આવે છે અને મસ્તક પર તલવારથી ઘા કરે છે. ચોરી અને જુગારના વ્યસનમાં સાપેલા વોને પાણીમાં પીવામાં આવે છે. બીજાને અન્યાય કરવાવાળી વ્યક્તિને સળગતા અગ્નિમાં જ્વાળાઓથી બળીને ત્રાસ ભોગવવો પડે છે. ખોટા ચોપડા લખીને અન્યને છેતરનાર વ્યક્તિને ભૂંડ જેવાં પ્રાણીઓ નરકમાં એના શરીરને ખાઈ જાય છે. કષાય કરવા ઉત્તેજન આપવાના કર્મની શિક્ષા પરમાધામી દેવો વ્યક્તિને ઊંધા મસ્તકે અગ્નિમાં મૂકીને નાન કરે છે. તોલમાપમાં ધોખાબાજી કરનારને અગ્નિમાં પ્રવેશ કરાવીને સખત શારીરિક શિક્ષા થાય છે. પરનિંદા ચાડી-ચુગલી કરનારને સર્પ અજગર વીછી જેવા પ્રાીઓ વ્યક્તિને ડંખ-પીડ આપીને મારી નાખે છે.
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અતિચાર અને ભારતીય ફોજદારી ધારો
૨૫ ધર્મસ્થાનમાં વહીવટમાં બેદરકારી, ઉપેક્ષા, ગેરવહીવટ કરનારને અર્થમાં ભવ્ય જીવોને કર્મ રહિત થઈને નિર્મળ ચારિત્રના પાલનમાં પરમાધામી દેવો સખત શારીરિક શિક્ષા દ્વારા ત્રાસ આપે છે. એકસાધન રૂપ બને છે. વિશ્વાસઘાત અને અસત્ય બોલનારને અગ્નિમાં બાળી મૂકવામાં આવે ધર્મની તમામ ક્રિયાઓમાં દ્રવ્યબળની, સાથે ભાવબળ મહત્ત્વનું છે. કોઈ વ્યક્તિને બાળી મૂકનાર વ્યક્તિને અગ્નિમાં નાખીને
છે. પ્રતિક્રમણની આરાધનામાં ભાવબળની વૃદ્ધિ થતાં વ્રતની તલવારથી છેદન કરવામાં આવે છે.
અલનાકે નાની મોટી ભૂલોને યાદ કરીને પ્રાયશ્ચિત્ત કરવાથી પ્રાણીઓનું શોષણ કરે તેને બળદની જગાએ સ્થાન આપીને આત્માની શુદ્ધિ થાય છે. “ક્ષમા વીરસ્ય ભૂષણમુ” કહીએ છીએ ઘાણીની આજુબાજુ ફરવું પડે છે. સાસુ-વહુ એકબીજાને હેરાનગતિ તો તેવી ક્ષમાપનાનો આદર્શ જીવનમાં મૂર્તિમંત કરવા માટે વિચારો કરે તેનાં ફળ સ્વરૂપે પરમાધામી દેવો ભાલાથી ઘા કરીને ત્રાસ ઉપયોગી બને છે. આપે છે. નશીલા પદાર્થોનું સેવન કરનાર વ્યક્તિને ધખધખતા ક્ષમા એટલે ક્રોધથી મુક્તિ-વૈરનો ત્યાગ અને સહનશીલતા. સીસાનો રસ પીવડાવવામાં આવે છે. આપઘાત કરનાર વ્યક્તિને
૧૫. “વંતી ગુદાળ મૂર્વ, પૂર્વ ઘમઘ ઉત્તમ વતી પરમાધામી દેવો લોખંડની ગદા મારીને હેરાન પરેશાન કરે છે.
हरइ महाविक्खाइव खंती दुरिसाई सब्बीरं ॥" પક્ષીઓનો શિકાર કરનારને નારકીનાં પક્ષીઓ ચાંચ મારીને વ્યક્તિના શરીરને ફોલી ખાય છે. અતિચાર અને ફોજદારી ધારાના
સભ્યોનું મૂળ શાંતિ ક્ષમા છે. ધર્મનું મૂળ પણ ઉત્તમ ક્ષમા છે. તુલનાત્મક પરિચયમાં શિક્ષા અંગેની માહિતી પણ તેના એક
તે મહાવિદ્યાની જેમ સર્વ દુરિતોનો નાશ કરે છે. ભાગરૂપે મૂકવામાં આવે છે જેથી સમગ્ર રીતે અભ્યાસ કરનારને
અતિચારો લાગ્યા હોય તેનું શોધન કરીને મનવચન અને માનવજન્મની સાર્થકતા, નીતિમય જીવનવ્યવહારશુદ્ધિ અને આવાં
કાયાના શુભયોગથી પ્રાયશ્ચિત કરી પુનઃદોષ ન લાગે તેની સતત શુભ નિમિત્તોથી સાદું જીવન અને ઉચ્ચવિચાર દ્વારા આત્મકલ્યાણના
યતના કરવા અતિચારનું મહત્ત્વનું-મૂળભૂત લક્ષણ છે. અતિચારની પાત્રી બનવાનું ભાથું પ્રાપ્ત થઈ શકે છે.
મૂળ ગાથાઓ ભદ્રબાહુસ્વામીએ રચેલા દશવૈકાલિક સૂત્રની આ રીતે વિચારતાં ધર્મ અને કાયદાનો અવિભાજ્ય સંબંધ છે.
નિર્યુક્તિમાં મળે છે. આ વિષય પર હરિભદ્રસૂરિની ટીકા ઉપલબ્ધ ધાર્મિક અશ્રધ્ધા અને આચારની શિથિલતાનું પ્રમાણ દિનપ્રતિદિન
છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં પણ આવો સંદર્ભ પ્રાપ્ત થાય છે. એટલે વધી જતાં કાયદાનું પ્રમાણ વધ્યું છે. આ વિશ્વમાં સૂર્ય, ચંદ્ર, સમુદ્ર
વ્રત-નિયમ અતિચાર અને પ્રાયશ્ચિત્ત એકબીજા સાથે શરીર અને જેવાં શાશ્વત પ્રકૃતિતત્ત્વો સમાન ધર્મ શાશ્વત છે. એનું સ્વરૂપ
આત્માસમાન સંબંધ ધરાવે છે. આ બધામાંથી કોઈની પણ ઉપેક્ષા
થઈ શકે નહિ. બદલાતું નથી. માણસ પોતાને અનુકૂળ આવે તેવા મનસ્વી સુધારા કે ફેરફારો કરીને ધર્મને નવું સ્વરૂપ આપી પ્રચાર કરે છે. તેનાથી
કાયદામાં પણ કોઈપણ ગુનો કરવા માટે સહાય કરવી, ઉત્તેજન ધર્મ દ્વારા આત્માના અનંત સુખની પ્રાપ્તિનો એક અને અંતિમ હેતુ
આપવું તે માટે શિક્ષાની જોગવાઈ કરવામાં આવી છે. ફોજદારી સિદ્ધ થતો નથી માત્ર ભવભ્રમણ વધે છે. સમાજના લોકો કાયદાથી
કાયદામાં મદદગારી ૧૬ (Abetment) અંગે કલમ ૧૦૭થી ૧૨૦ ગભરાય છે. તેમાંય લક્ષ્મીનંદનો તો કાયદાથી પણ ગભરાતા નથી.
સુધીના કાયદાની માહિતી છે. કોઈ વ્યક્તિ બીજી વ્યક્તિને ગુનો પૈસાથી સત્તાને અધિકાર ખરીદી શકાય છે. એવો ન્યાય તોળાય
કરવા માટે ઉશ્કેરણી કરે, કાવતરા દ્વારા મદદ કરવી, ગુનાહિત છે. વ્યવહારજગતમાં માણસ આમ છટકી જાય તો કર્મસત્તા ઉદયમાં
કૃત્ય કરવા માટે કોઈ પણ પ્રકારની સહાય કરવી આ કાયદામાં આવે ત્યારે નિરાધાર બની ચોધાર આંસુએ રડવા છતાં કોઈ મદદરૂપ
ઈરાદાનો પણ સમાવેશ થયેલો છે. થતું નથી. કર્મ તો એકલાએ જ ભોગવવાનાં છે. તેનો જો વિચાર ધર્મમાં કર્મબંધ માટે મન-વચન અને કાયા એમ ત્રણનો ઉલ્લેખ કરવામાં આવે તો વ્યવહાર જીવનમાં આચારશુદ્ધિ વધે. કોર્ટમાં છે. મનથી કર્મબંધ કે અશુભ કૃત્યોનું ચિંતવન એ પાપ છે. મનથી કાયદાને આધારે ન્યાય અપાય છે. ગુનો કરનાર વ્યક્તિ કાયદાની બંધાતાં કર્મને કાયદાની પરિભાષામાં ઇરાદા સાથે સમાન રીતે છટકબારીઓ વકીલ મારફતે શોધીને છટકી જાય - નિર્દોષ જાહેર ગણવામાં આવે છે. ‘ઇરાદા' કે મનથી બાંધેલું કર્મ એક માનસિક થાય અને સંતોષ માની જીવે પણ અવિનાશી આત્મા કર્મ પ્રમાણે પ્રક્રિયા છે. અને તે વર્તન કે માણસની ચાલચલગત દ્વારા સંયોગો નવું શરીર ધારણ કરીને કર્મોનું ફળ ભોગવે છે.
કે આચરણ કરેલા ગુનાને આધારે જાણવા કે માનવા માટે કારણરૂપ પ્રતિક્રમણની શાસ્ત્રોક્ત ક્રિયા દ્વારા અતિચારનું સ્મરણ કરીને
છે. દુષ્કૃત્યો કરવાં, કરાવવા અને અનુમોદના કરવી એ ધર્મની આત્મશુદ્ધિ થાય છે. પ્રતિક્રમણની ક્રિયા એટલે મિથ્યાત્વમાંથી પાછા
દષ્ટિએ પાપ કર્યા સમાન છે અને તેનું ફળ અવશ્ય ભોગવવું પડે હઠીને સમ્યત્વમાં સ્થિર થવું અવિરતિમાંથી વિરતિમાં જોડાવું.
છે. કૃત્યની પાછળ મનુષ્યનો ઇરાદો રહેલો છે. મનમાં વિચારપ્રમાદમાંથી મુક્ત થઈને નિયમ-સંયમમાં પ્રવૃત્ત થવું. ક્લેશવાસિત
ઇરાદો (Intention) ઉદ્ભવે નહિ ત્યાં સુધી કોઈ કૃત્ય વાસ્તવિક સંસારની પ્રવૃત્તિમાંથી નિવૃત્ત થઈને ક્લેશરહિત થવા માટેની મહાન
રીતે થતું નથી. ધર્મની તમામ ક્રિયાઓ અને આન મનશુદ્ધિ માટે ઉપકારી પવિત્રને મોક્ષ માર્ગની ઘાતક છે. કષાયની શાંતિ ક્ષમા,
છે. પણ વ્યવહારમાં ક્રિયાની જડતા જોવા મળે છે એટલે માણસ નમ્રતા, સંતોષ અને સરળતાના ગુણોથી થાય છે. સવાર, સાંજ,
વર્ષો પછીની આરાધનાને અંતે હતો તેવો જ રહ્યો છે એ કરૂણ પાક્ષિક, ચોમાસી અને સંવત્સરીની પ્રતિક્રમણની આરાધનાથી સાચા
ઘટના છે.
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ કાયદો સમાજ, રાષ્ટ્ર અને વિશ્વમાં શાંતિ અને સલામતી માટે જેવી પ્રવૃત્તિઓથી ઉભરાતું રાજ્યતંત્ર મનુષ્યને શાંતિ આપી શકે છે. તેના દ્વારા વ્યક્તિને વિશ્વશાંતિ પ્રાપ્ત થઈ શકે છે. પૂર્વકાલીન તેમ નથી. અંતે તો ચાર શરણ વગર ઉદ્ધાર કોઈનોય થયો નથી સમયમાં જે કામ ધર્મથી થતું હતું ને જીવનમાં શાંતિને આબાદી ને થવાનો નથી એ એક શાશ્વત સૂત્રને જીવનમાં ચિંતન અને હતી તે આજના ભૌતિકવાદી અંતિમ વલણના યુગમાં મૃત:પ્રાય મનન કરી પચાવવાથી સાચી શાંતિના સામ્રાજ્ય તરફ પ્રગતિ થાય. થઈ ગઈ છે. છતાં શાંતિની વાટાઘાટો, શિબિર, રાષ્ટ્રીય પરિતોષિક અતિચાર અને ફોજદારી કાયદાના તુલનાત્મક વિચારોનું જેવી આડંબરશાહી રીતરસમો ચાલી રહી છે. પણ વાસ્તવિકતામાં નિરૂપણ માનવજીવનનાં કિંમતી વર્ષો, સ્વછંદતા-અનાચારનીતિને શાંતિની દિશામાં શૂન્યાવકાશથી આગળ કોઈ પ્રગતિ થઈ નથી. બદલે આત્માર્થે નિયમ-સંયમ દ્વારા વીતે ને શાશ્વત સુખ મેળવવામાં સાચી શાંતિ, સુખ ને સમૃદ્ધિ એ આત્માની છે જે વ્યક્તિના
પથ પ્રદર્શક બની આત્મકલ્યાણ કરે તે તરફ સુન્નવાચકો ધર્મપ્રેરણા પોતાનામાં સ્થિત છે. તેનું શોધન કરવાનું છે. મનુષ્યજન્મ એટલે
પ્રાપ્ત કરી સ્વ-પરના હિતમાં નિમગ્ન થાય એવી ઉદાર ભાવનાથી જીવનશોધન અને તેના દ્વારા આત્મશોધન. તે માટેનો રાજમાર્ગ અભ્યાસલેખ તૈયાર કર્યો છે. આનો વિસ્તારથી અભ્યાસ કરવા આચાર સંહિતાનું અણી શુદ્ધ સ્વયંશિસ્ત અને ગુરુ આજ્ઞા - વિનય અન્ય કાયદાઓ સાથે પણ તુલના થઈ શકે. પણ ફોજદારી કાયદાના ધર્મનું પાલન, વિવેક મર્યાદા જેવા ગુણો દિનપ્રતિદિન લુપ્ત થતા સંદર્ભમાં માનવ વ્યવહાર વર્તનની વિશુદ્ધિનો મૂળભૂત વિચાર કેન્દ્રમાં ગયા અને માનવતાના નામે સત્તાલાલસા-શોષણ-ધનલાલસા-વૈરવૃત્તિ
રાખ્યો છે. અહમૂનો ગુણાકાર કરવાની વૃત્તિ-ગુલામી મનોદશામાં પ્રજાને પીસવી
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મોહનિવજયકૃત ચંદાજાનો રાસ
૩ ડૉ. કીર્તિદા જોશી
‘ચંદરાજાનો રાસ’રૂપવિજયના શિષ્ય મોહનવિજયની રચના છે. મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્યની આ રાસકૃતિની રચના સંવત ૧૭૮૩ને પોષ સુદ પાંચમ છે. ૪ ઉલ્લાસમાં વિભાજીત આ રાસની ૧૦૮ ઢાળ છે અને તેની ગાથા સંખ્યા ૨૬૭૯ છે. આટલી વિસ્તૃત આ રચનાનું વૃત્તોને અદ્ભુતરસિક છે.
એકવાર અજાણતાં જ વક્રગતિવાળા ઘોડા પર સવારી કરતા કરતા રાજા વીરસેન જંગલમાં પહોંચી જાય છે. ત્યાં પાણી પીવા અને સ્નાન કરવા નિમિત્તે તે પુષ્કરણી નામની વાવમાં ઊતરે છે. આંતરપ્રાસ અને અંત્યપ્રાસની યોજનાથી કવિએ કરેલું વાવનું વર્ણન ધ્યાનાર્હ છે :
સરૂપ તવ ગૃપ ઉતર્યો, બાં પર છાંd, પાણી પીવા કારણે પૈકી પુખરાજ માતિ,
જન્મપૂરી સનૂરી ભૂ તાટૂંક સમાન પર્ટિન જટિલ બહર્ટિકના નિવડ નિવડ સોપાન, વિમળ કમળ જળ ઉપરે પરિમલ બહુ પ્રકાર; ગુણ લીણા સ્વર ઝીણા, પીણા દ્વિરેફ ઝંકાર, નફરી સમ શફરી તિહાં, અવિકરિફરિય અનેક; પંચ શ્રમ મંધર પર્ષિકને પુરી કરે જ સેક
કવિને વિશેષ રસ કથાવર્ણનમાં છે તેથી તરત કથાતંતુ સાધે છે. વાવમાં ઊતરેલો રાજ વીરસેન જોગીના બંધનમાં ફસાયેલી એક યુવતિને જુવે છે ને તેને બંધનમાંથી મુક્ત કરે છે. યુવત પોતાનો પરિચય આપતાં કહે છે કે જલક્રીડા કરવા જતાં જોગીએ મારું અપહરણ કરેલું હતું. કે રાજકુવરી ચંદ્રાવતી છું અને જ્યોતિષીઓએ મારા માટે ભવિષ્ય ભાખ્યું હતું કે આભાપુરીનો રાજા વીરસેન આ કન્યાનો પતિ થશે. રાજા તેની સાથે લગ્ન કરે છે. વીરસેનના આ નવા સંબંધથી તેની આગલી રાણી વીરમતીને દુ:ખ થાય છે. સમય જતાં ચંદ્રાવતીને પુત્ર થાય છે તેનું નામ ચંદ રાખવામાં આવે છે. ચંદ આ રચનાનું નાયક પાત્ર છે. અપરમાતા વીરમતી કથાનું બીજ છે. વીરમતીના મનનૌ સંતાન ન થવાનો અસંતોષ ચંદરાજાના જીવનમાં દુઃખોની હારમાળા સર્જે છે.
અપત્યસુખથી વંચિત હોવાને કારણે હતાશ થયેલી રાણી વીરમતી એકવાર વિવિધ સ્ત્રીઓને પોતાનાં સંતાનો સાથે આનંદ કરતી જુએ છે ને મનમાં વિચારે છે.
‘અંગજ લેઈ ઉત્સંગમાં રે ન રમાડ્યો જિણે નાર રે તે કાં સરજી સંસારમાં ધિક ધિક અવતાર રે.’
અપત્યસુખની પ્રાપ્તિ માટે રાત્રી વીરમની વિદ્યાધર પાસે વિદ્યા પ્રાપ્ત કરેલા એક પોપટની મદદ લે છે. પોપટ ચૈત્રી પૂનમની રાતે ઋષભદેવ સ્વામીના મંદિરે આવતી અપ્સરાઓને મળવાનું કહે છે. વીરમતી અપ્સરાને મળે છે અને પોતાનું દુઃખ કહે છે ત્યારે અપ્સરા કહે છે :
‘ભાગ્યમાં સુત નથી તાહરે, નિરુણ એક વિચાર રે માટે હું તને તે સુખને બદલે,
ગગનચરણી, કુરણી, વિવિધકરણી રૂપ રે, નીરતરણી આદિ વિદ્યા દેઉં તુજ અનૂપ રે.’
વિવિધ વિદ્યાઓ પ્રાપ્ત થતાં અપત્યસુખની ખેવના છોડી વીરમતી ઉન્મત્ત બને છે. વિદ્યાપ્રાપ્તિ સજ્જનને થાય તો એ એનો ઉપયોગ પારાવાર ઉપકાર માટે કરે છે પણ,
*વીરમતી વિઘા થકી મદમાતી નિરબીહ,
જિમ અફ્રિ પંખાળો થી, જિમ પાખીઓ સિંહ
હવે કથામાં વળાંક આવે છે. વીરસેન અને ચંદ્રાવતી જરાવસ્થાનું જ્ઞાન થતાં ચંદકુમારનાં ગુણાવલી સાથે લગ્ન કરાવીને પુત્ર ચંદકુમારને વિમાતાને સોંપી દીક્ષા લે છે. ચંદકુમાર અપરમાતાને ‘કથન ન લોપીશ તુમ તણું' કહી માનાં વચન શિરોધાર્ય કરે છે. ચંદકુમારગુણાવલીનું સાવન આનંદથી પસાર થાય છે. અહીં વિએ ચંદરાજાના વૈભવ અને ઠાઠનું દુહામાં કરેલું વર્ણન નોંધપાત્ર છે. એમાં ખાસ કરીને સમકાળે છએ ઋતુ ચંદરાજાના દરબારમાં વર્તી રહી હતી એ દર્શાવતા વર્ણનમાં કવિની કવિત્વશક્તિનો પરિચય થાય છે :
મદજળતનું કાળીઘટા, દંત દામિની રંગ;
પાઉસ (= વર્ષા = પર દરબારમાં, ઉદ્ધત અતિ માતંગ, નાસા કેંસર પિચરડી, ચીણ અભીર થત
હીષ ધમાલ ગુલાલ ગતિ, ખેલે તુરંગ વસંત. નૃપમયંક વાણી સુધા, પ્રજા કર્ણ જિમ સીપ; અવિતથ મોતી નીપજે, સદા શરદ ઉદ્દીપ. નિત નિત નવલા ભેટા, મુખ આગળ દીપન, કીધાં ધાન ખળાં મનુ, ઋતુ આવે હેમંત ભય હિમથી આનન કમળ, દાધા વેપથુ શીત; અનામી જે આવિ નમ્યા, તિહાં શિશિર સુપવિત્ત. નચ પુર નચ ઘર નચ વચ્ચે, નહીં જક કોઈને આધ; અન્ય દેશ રાજા ભણી, સદા દુરંત નિદાધ,
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વિમાતા વીરમતીથી ચંદરાજાનાં આ વૈભવ-શાંતિ સહન થતાં નથી તેથી ચતુરાઈથી સ્ત્રીચરિત્ર વડે તે રાણી ગુણાવલીને દેશાંતર જોવા જવા સંમત કરે છે. પ્રાપ્ત વિદ્યાનો દુરુપયોગ કરીને વીરમતી વર્ષાઋતુનું વાતાવરણ નગરમાં કરે છે પછી પોતે ગભીનું રૂપ ધારણ કરીને ખરનાદ દ્વારા નગરીમાં નિદ્રાનો ઉન્માદ પ્રસરાવે છે. કવિએ દુહામાં આ વાતાવરણનું કરેલું વર્ઝન લાક્ષણિક છે
દૂર્જન જન મન જેવી શ્યામ ઘટા ઘનઘોર,
ઉત્તર વાળી ઉન્હીહી, મોર કરે ઝીંઝોર. દહ દિશી દમકે દામિની, જિમ મનમથ કરવાળ, ગુહિરો અતિ ગાજે ગયા, કોરા વચ્ચે વિમા જળધારા નિશ્ડ પડે, શીતળ પવન પ્રસાર, સક્કર કક્કર સમ ઉડે, ઝડ મંડે જળધાર.
શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ થ
પરંતુ, ચંદરાજા વીરમતીની ચંચળતા પામી જાય છે. પોતે ચતુરાઈ કરીને વીરમતી અને ગુણાવલી જે આંબાના વૃક્ષ પર બેસીને દેશાંતર જોવા જવાનાં હતાં તે વૃક્ષના પોલાણમાં સંતાઈ જાય છે. વીરમતી ગુણાવતીને અષ્ટાપદ-પર્વત, સમેતિશખર, અર્બુદાચળ, સિદ્ધાચળ, ગીરનાર આ પાંચ તીર્થો તથા જંબુદ્વીપની ફરતે વલયાકારે રહેલા સમુદ્રનું દર્શન કરાવીને વિમલપુરી તરફ જાય છે. વિમલપુરીના રાજા મકરધ્વજની પુત્રી પ્રેમલાલચ્છીનાં લગ્ન કનકરથના પુત્ર કનકધ્વજ સાથે થવાનાં હતાં. આ લગ્નોત્સવમાં બંને આવે છે. બંને પરણનાર કન્યાના આવાસે જાય છે. ચંદરાજા તેમની પાછળ નગરમાં પ્રવેશ કરે છે ત્યાંજ સેવકો તેમને વરપક્ષના ઉતારે લઈ જાય છે.
હવે શું થશે ? પછી શું થયું ? જેવી કૂતુહલવૃત્તિની હારમાળા સર્જતા આ રાસનું વસ્તુ ક્રમશઃ આગળ વધે છે. ચંદરાજા લગ્ન હોવા છતાં રોશની કે ધામધૂમ જોવા ન મળતાં વિચારમાં પડે છે ને એક પછી એક દરવાજો પસાર કરતા જાય છે ત્યાં દરેક દરવાજે ‘પધારો ચંદરાય’ એમ આવકાર મેળવે છે તેથી તે આશ્ચર્યમાં ગરકાવ થઈ જાય છે. છેવટે સાતમા દરવાજે પહોંચે છે ત્યાં તેમને રાજા કનકરથ મળે છે. કનકરથ પોતાના કુષ્ઠરોગી અને કદરૂપા પુત્ર માટે મકરધ્વજની પુત્રી પ્રેમલાલચ્છીને પરણી લાવવા ચંદરાજાને આગ્રહભરી વિનંતી કરે છે. ચંદરાજા આ અધમ કૃત્યનો અસ્વીકાર કરે છે એટલે કનકરથ તેમને પોતાનો પરિચય આપી સમગ્ર પરિસ્થિતિ સમજાવીને તેમની મુંઝવણનો અંત આણે છે.
કનકરથ કહે છે કે ‘સિંધ દેશના સિંધલપુર નગરમાં હું અને મારી પત્ની કનકાવતી રહીએ છીએ. અમે નિઃસંતાન હતાં. મારી પત્નીના આગ્રહથી મેં આરાધના કરી ગોત્રદેવીને પ્રસન્ન કર્યાં અને સંતાનની માંગણી કરી. ગોત્રજદેવીએ મારા નસીબમાં પુત્ર ન હોવાનું કહ્યું પરંતુ દેવીને વિનંતી કરતાં દેવીએ સંતુષ્ટ થઈને વરદાન આપ્યું કે
વ્રુત્ત ધારી એક તારે પડ તેમની દેવ કુર, ' મેં કહ્યું
પાપે પૂ. કરું વિનતિ, અવધારો અરજ મુખ્ય માર
ત્યારે દેવીએ કહ્યું -
‘બાંધ્યાં કરમ જેણે ખરાં, તસ ટાળી ન શકે હોય.'
સમય જતાં રાણીને આખા શરીરે કોઢવાળો પુત્ર થયો તે પુત્રને કનકધ્વજ નામ આપ્યું. અમે આ કુંવરની લોકો પાસે ખોટી પ્રશંસા કરતા અને કહેતા :
‘રૂપ અધિક રૃપ જાતનો જી સુર કુંવર ઇસ્યો નહીં સ્વર્ગ.’ 'કોઈ દુષ્ટ નયન સંતાપ, હોવે હેત હેતથી જ,
હું ભાજક ભૂધરામાંહે, રાખીએ તિન્ને સંકેતથી જી,
હવે એકવાર માલ વેચવા વિમલપુરી ગયેલા વેપારીઓએ મારા પુત્ર કનકધ્વજનાં રૂપગુણની પ્રશંસા ત્યાંના રાજા મકરધ્વજ પાસે કરી. મકરધ્વજે તેમની પ્રશંસાથી પ્રભાવિત થઈને પોતાની પુત્રી પ્રેમલાલચ્છીનો વિવાહ કનકધ્વજ સાથે નક્કી કરી આપવાનું કામ વેપારીઓને સોંપ્યું. કુંવરના રૂપગુણની તપાસ કર્યા વિના લગ્નસંબંધ નક્કી ન થાય એવી સલાહ કનકરથને મંત્રીઓએ આપી. તેથી રાજાએ તેમના ચાર પ્રધાનો અને કુંવરના રૂપની પ્રશંસા કરનાર વેપારીઓને સિંધલપુર તપાસ કરવા મોહ્યા. કુદરોગી કુંવરનો વિવાહ કરવો એ મારા માટે અનૈતિક કાર્ય હતું તેથી મેં અનિચ્છા દર્શાવી પણ મારા મંત્રી હિંસકે કહ્યું :
કુળદેવી રાધા, કશું પુત્ર નિર્દેગ,
હિયડાથી રખે હારતા, મેળશું સર્વ સંયોગ.'
આ મંત્રી હિંસકની ઓળખ એના નામથક ભાવકને મળી જાય છે. વળી, કવિને મુખ્યત્વે સીધા પ્રસંગક્શનમાં જ રસ છે. પાત્રોના બાહ્ય પહેરવેશ કે તેમનાં કોઈ સૂક્ષ્મ મનોવલણો કે તેમના સારાં કે ખરાબ ગુણ-લક્ષણનાં સીધાં વર્ણન કવિએ ભાગ્યે જ આપ્યાં છે. પણ ‘હિંસક’ જેનું નામ એની કુટિલતાનો પરિચય કવિ પ્રસ્તુત પંક્તિઓમાં આપે છે
‘કપટી કુટિલ કદાગ્રહી દુર્મતિ હિંસક નામ, જળ કહે ત્યાં થળ પણ નહીં, ચલવે ડાકડમાળ, રવિ ઉદયાસ્ત લગે સદા, ખોટી હાલ ને ચાલ.'
પછી કનકરથે કહ્યું કે મકરધ્વજના પ્રધાનોએ પ્રેમલાલચ્છી સાથે રાજકુમારનાં લગ્ન કરવાનો પ્રસ્તાવ મુક્યો અને કુંવરને બતાવવાનું કહ્યું. ત્યારે મંત્રી હિંસકે કપટ કર્યું :
‘કુંવર રહે મોશાળ,
છાંથી જોપણ દોઢસો, અાગો, અળગો મણે નિશાળ' પરંતુ પ્રધાનોએ વરને તેવાનો આગ્રહ રાખ્યો. તેથી મંદિર તેરા મંત્રી ૨.
તૈલાદિક યોગે નવડાવ્યા, આસણ વાસણ મંડાવ્યાં રે, ભોજન જુગતે શું જમાવ્યા રે
સન્માન્યા ભૂષણ આપી રૈ, જગમાં લોભ સમો નહીં પાપી રે.' ને એમ પ્રધાનોને ફોસલાવી લીધા. પ્રધાનોએ પોતાનું કામ પતાવી દીધાની વાત રાજાને કરી તેથી રાજાને લગ્નનું મુહર્ત વાવ્યું.
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મોહનવિજયકૃત ચંદરાજાનો રાસ આમ લગ્ન નક્કી થતાં કનકરથ કહે છે કે મેં કુળદેવીને “સાચી વિમાસણ એહ હો જે ભાડે પરણી મિયા’ આરાધીને કુષ્ટરોગમાંથી કુંવરને મુક્ત કરવાનું કહ્યું.
તેથી રાજા “જિમ અહિ છેડે કંચુકી' એમ પ્રેમલાની ઉપેક્ષા ‘તવ દેવીએ ઉપદિગ્ધ કર્મરોગ નહીં જાય
કરીને દેહચિંતા માટે જાઉં છું એવું કપટ કરીને ઊઠી જાય છે. પણ વારીશ ચિંતા સકળ, કોઈક કરી ઉપાય.’
પ્રેમલા સાથે જવાની હઠ કરે છે. ચંદ કહે છે : પછી પરિસ્થિતિ નિભાવવા ઉપાય દર્શાવ્યો.
હઠ શું કરો દુર્જન કરશે અદેખ હો ‘લગન સમય આભાનૃપતિ, નારી વિમાત સમેત;
અણું ન ઘટે વાધ નહીં, જે વિવિધ લખિયા લેખ હો, આવી પરણશે પ્રેમલા, એ તુમ અમ સંકેત.”
અકથ એ કથા છે અંગને, બાંધી મુઠી લાખની હો” આ રીતે મારી ના છતાં પ્રધાને અયુક્ત કાર્ય કર્યું છે પણ પછી ત્યાંથી નીકળી જાય છે ને આંબાના વૃક્ષની બખોલમાં દેવીની મદદ મળતાં અમે સાજન માજન લઈને આવ્યા છીએ. જઈને બેસે છે. વીરમતી ને ગુણાવલી થોડીવાર પછી વૃક્ષ પર . લગ્નવેળા થતાં પુરોહિતોએ વર પધરાવવાનું કહ્યું પરંતુ કોઈક કોઈક આવે છે. વીરમતી વિદ્યાપ્રતાપે વૃક્ષ ઉડાડે છે. બંને ચંદરાજા સહિત બહાના હેઠળ અમે એને અટકાવી રાખ્યું છે એટલામાં દેવીવચન આભાપુરી આવી જાય છે. ફરી પાછું વિધાનો ઉપયોગ કરી વીરમતી પ્રમાણે તમે આવી પહોંચતાં તમારે હવે આ કામ કરવું પડશે.
પ્રાતઃકાળનું આગમન કરાવે છે. ચંદરાજા વેશ બદલી સૂવાનો ઢોંગ આ હકીકત સાંભળી ચંદરાજા કનકરથને કહે છે :
કરે છે. રાણી ગુણાવલી રાજાને જગાડતાં કેટલાંક વચનો બોલે છે એ તુમ કરવી ન ઘટે અનીત
જેનાથી ચંદરાજા આગળ જે પરિસ્થિતિ થઈ તેમાં ગુણાવલી નિર્દોષ હિંસકને ઓલંભો દીજે કેહી વાતનો હો
છે એમ સમજી જાય છે ને વિચારે છે : દીસે છે તુમચી ખોટી જી રીત
લાગ્યો સંગ વિમાતાનો તિણે પલટાણી નારી પરણી કિમ આપું પાછી આછી ગહિની હો
ગુણાવલી પોતાનો દોષ પકડાઈ ગયો છે એમ સમજી જાય છે. કિણ વિધ લાજવીએ ક્ષત્રીવટ’
તે વિવિધ રીતે પોતાની નિર્દોષતા અને પતિવ્રતાપણાને સિદ્ધ કરવાનો પણ પછી ચંદરાજાને કનકરથ રીઝવી લે છે. ચંદરાજા ભાવિયોગે
પ્રયત્ન કરે છે. એમ વાર્તાલાપ કરતાં : પાણિગ્રહણ કરવાનું કબુલ કરે છે. વરરાજા બનેલા ચંદરાજાનું કવિએ
અંગ વિલક્યું નારીએ, પેખ્યો પરણિત કંત, કરેલું વર્ણન પ્રસન્ન વાતાવરણની અનુભૂતિ કરાવે છે.
થઈ વિલખી જાણ્યા ખરા, વિમળપુરી ઉદંત.” ‘સિંહલરાયે ચંદનનું કીધું પરમ પવિત્ર,
ગુણાવલી સાસુને જઈ બધી વાત કરે છે અને ઉમેરે છે કે પહેરાવ્યો બહુ મૂલનો, વરનો વેશ વિચિત્ર,
આપણે મારા પતિને છેતરવા ગયાં પણ આપણે જ છેતરાઈ ગયાં. રથ સજવાળા સજાકિયા, જોડયા વૃષભ તરંગ,
‘દેશ વિદેશ જોતાં થકાં, દુહવ્યા છયલ સુલતાન'. રણણ ઝણણ બહુ રણઝણે, રંગાચંગ સુરંગ.
વીરમતી ગુણાવલીની વાત સાંભળી ક્રોધિત થાય છે ને લંબ ઝુંબ ઝાલા લુલિત, શિણગારી સુખપાલ,
વહુ મત ધરો ચિંતા શોક લગાર હોં' જાણીએ હરખ સમુદ્રમાં, નાવા તરેય વિશાળ.
એમ કહી ચંદની હત્યા કરવા તૈયાર થાય છે. અહીં વીરમતીનું ફરહરિયા નેજા પવન, ઝિંખણીઓ ઝણણંત,
વિમાતાપણું સૂચવાય છે. તે કહે છે : ખબર કરે મનુ સુરભણી, ચંદ જેહ પરણંત
હું તને મૂકીશ નહીં, જાઈશ કિંથા તું દેવ વીરમતી અને ગુણાવલી નગરમાં ફરીને ત્યાં વરને જોવા આવે છે.
ઈણ વેળા સંભાર તું, ઈષ્ઠ હોય જે દેવ ગુણાવલી વરરાજાને જોતાં જ “બાઈ વર બીજો નહીં, એ મુજ છાતી પર બેઠી ચઢી, થયો સભય નૃપચંદ’ પ્રીતમ કોક' એમ કહે છે પણ ગુણાવલીના સંદેહને વીરમતી ગુણાવલીની વિનંતીથી વિમાતા ચંદરાજાને જીવતદાન આપે છે સ્વીકારતી નથી.
પણ ડંસીલી તેનો ડંસ છોડતી નથી. ચંદરાજાનું જીવતર નકામું લગ્નવિધિ પછી સોગઠાબાજીની રમત રમતાં ચંદરાજા કરવા જેવું કાર્ય કરે છે. ‘દરવક એક કીધો હો મંત્યો મંત્રથી પ્રેમલાલચ્છીને સંકેતથી પ્રયત્ન કરે છે કે પોતે આભાપુરીનો ચંદરાજા વીરમતીએ તિસિવાર, દોરો લઈ બાંધ્યો હો કંઠે ચંદને તેહથી નૃપ છે. ચંદરાજાની સાંકેતિક ભાષાથી વિચક્ષણ પ્રેમલા વિચારમાં પડી જુવો સુંદર કૂકડો' આ સૃષ્ટિની લીલા કેવી છે? ભાવિ અન્યથા થતું જાય છે.
નથી. ધુરંધર રાજા પક્ષી બની ગયો. રત્નજડિત સિંહાસન પર ને રંગ હતો જે પરણતાં તે રંગ નહિ ખેલત હો
સુવર્ણની હિંચોળા ખાટ પર હિંચકનાર રાજા હવે ઉકરડા પર ને એ રંગમેં તે રંગમેં, અંતર અનંતાનંત હો'
પાંજરામાં લોઢાની સળી પર બેસે છે. તે દરમ્યાન મંત્રી હિંસક ચંદરાજાને નીકળી જવાનું સૂચવે છે.
વીરમતી ગુણાવલીને ચંદરાજાને કૂકડો બનાવ્યાની ઘટનાની જાણ ચંદરાજા “આ મેળો આ રાતડી' ઘડીએ વિસરી શકે તેમ નથી પણ
કોઈને ન કરવા કહે છે, નહીં તો એનું પરિણામ સારું નહીં આવે
સજા છે,
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૩૦
શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ એવી ધમકી આપે છે. ગુણાવલી કૂકડાને પોતાની પાસે રાખે છે ને હમણાં રાજા વિદ્યાધર વિદ્યા સાથે છે તેથી હું રાજ્ય ચલાવીશ. કાલે સારું થશે એવી આશાએ જીવે છે. કવિ અહીં આશય વિશે મંત્રી સોનાના પીંજરામાંના કૂકડા વિશે પૂછે છે ત્યારે કહે છે કે કહે છે :
ગુણાવલીના વિનોદ માટે મેં ખરીદ્યો છે. ચાલે જગત મંડાણ સકળ આશા વડે,
એમ ત્રણ વર્ષ પસાર થઈ જાય છે. વીરમતી વિદ્યા વડે અને આઠે માસે ચાતુક મુખ જળ લવ પડે.
દેવીની આરાધના કરીને હિમાલયના રાજા હેમરથ સહિત બધા
રાજાઓને વશ કરી લે છે. હેમરથ સાથેના યુદ્ધનું વર્ણન તેમાં અનળનાં ઈંડાં જેહ તે આશાએ વધે,
આવતી ઉપમાઓ અને પ્રાસાનુપ્રાસને કારણે નોંધપાત્ર છે. આશાજાળ વિશાળ બંધાણી છે બી.”
પ્રબળદળ યુગલ કિલ સબળ હુઆ અચળ, હવે પ્રેમલાલચ્છીનું શું થયું તે વિશે કવિ કહે છે. ચંદારાજા
ધરણી ધરણી તણી ઝંડી માયા, પ્રેમલાને છોડી જતો રહ્યો પછી રાત પડતાં તેને કોઢિયા પતિના ઓરડામાં ધકેલી દઈને બહારથી સાંકળ મારી દેવામાં આવે છે.
અનશના જાણ પંચાનન તનમના, પ્રેમલાને પોતાની સાથે થયેલા તરકટની ખબર પડે છે. તે કનકધ્વજને અરૂણ હુવા ઘણા માડી જાય તિરસ્કારે છે. કહે છે કે મારા પલંગ પર બેસવાથી તું મારો પતિ થઈ ભણણ ભંકાર ભંભેરવે કઈ થયા, શકે તેમ નથી.
કીર્તિ કમળા કર ગૃહણ રાગી.' સોવનકળશ બેઠા વતી, શું હોવે હો ગરૂડોપકાગ.”
આમ સાત વર્ષ પસાર થઈ જાય છે. આભાપુરીમાં એકવાર સવારે કનકાવતીની માતાને જાણ થાય છે કે પ્રેમલાએ તેના નટલોકો ખેલ કરવા આવે છે એમાંના શિવકુમાર નટની પુત્રી પુત્રને તિરસ્કાર્યો છે તેથી તે તરકટ રચે છે. રડારોળ કરીને કહે છે
શિવમાલા પંખીઓની ભાષા જાણતી હોય છે. તે નાટકના ઉત્તમ કે પ્રેમલાના સંગથી મારા પુત્રને રોગવિકાર થયો છે.
ખેલ કરે છે. નાટકને અંતે નટ ચંદરાજાનું યશોગાન કરે છે તેથી પ્રેમના પિતાને ઘેર આવે છે. પિતા પણ તેને ધિક્કારે છે.
વીરમતી નારાજ થાય છે. વળી, નટને કશી ભેટ પણ આપતી પ્રધાનની સલાહ અને કનકથની વિનંતીને અવગણીને રાજા
નથી. ત્યારે કૂકડારૂપે રહેલા ચંદરાજા સોનાનું કચોળું ચાંચથી પકડી પ્રેમલાનો વધ કરવા તેને મારાઓને સોંપી દે છે ને કહે છે
નટ તરફ ફેંકે છે. બીજા દિવસે પણ ખેલ થાય છે. એમાં પણ
વીરમતી નટને ભેટ આપતી નથી ને કૂકડો રત્નજડિત કચોળું નટ “જો જીવિત ચાહો તુમે, તો નવિ કરો વિલંબ
તરફ ફેંકે છે. આ જોઈ વીરમતી કૂકડાને મારવા તૈયાર થાય છે. પ્રેમલા મારાઓ સામે ખડખડાટ હસે છે ને પોતાનો વધ કરવા
ગુણાવલી આજીજી કરીને વીરમતી પાસેથી કૂકડાને ઉગારી લે છે. કહે છે. જીવનના અંત સમયે પ્રેમલાને ખડખડાટ હસવાનું કારણ
ત્રીજીવારના ખેલ વખતે પંખીની ભાષા સમજતી શિવમાલીને મારાઓ પૂછે છે. પ્રેમલા કરે છે “જો રક્ષક જ ભક્ષક બને, જો વાડ
કૂકડો પોતાને ભેટરૂપે માગી લેવા કહે છે. શિવાલા પિતા થઈને ચીભડા ગળતી હોય તો કોને કહેવા જોઈએ.' મારાઓ આ
શિવકુમારને આ વાતની જાણ કરે છે પછી શિવમાલા પોતાના વાત રાજાને પહોંચાડે છે. છેવટે રાજા પુત્રીને બોલાવીને તેના પતિ
ખેલથી રાણી વીરમતીને રીઝવે છે. શિવકુમાર પર રાણી પ્રસન્ન વિશેની સઘળી વાત કરવા કહે છે.
થાય છે ને ભેટ માગવા કહે છે. શિવકુમાર શિવમલાની સૂચનાથી પ્રેમલા સઘળા પ્રપંચની જાણ કરે છે અને પોતાને પરણનાર કૂકડો ભેટમાં માંગે છે. ગુણાવલી કૂકડો આપવા તૈયાર થતી નથી. રાજા ચંદ હતો એમ કહે છે.
મંત્રી ગુણાવલીને સમજાવે છે અને નટને જણાવે છે. જેહને પરણાવી તમે તે નહીં પ્રીતમ એહ:
ચંદનરેસર એહ છે, પંખી માયે કર્યો ધરી ખેદ' પૂરવદિશી આભાપુરી, વીરસેનનો જાત.
શિવમલા તો આ જાણતી જ હતી. ગુણાવલી શિવમાલાને ચંદનૃપતિ પતિ માહરો, તમે અવધારો તાત.”
કૂકડાની ભાળ રાખવા વારંવાર કહે છે. રાજાને તપાસ કરતાં જાણવા મળે છે કે પ્રેમલાનો વિવાહ હવે એક નવી કથા ઉમેરાય છે. નટો દેશદેશ ફરતા પોતનપુર કરવા ગયેલા પ્રધાનો ધનની લાલચે વરને જોયા વિના જ તેને પહોંચે છે. ત્યાંના મંત્રીની પુત્રી લીલાવતી નગરશેઠના પુત્ર જોયો છે એમ ખોટું બોલ્યા હતા. રાજા દીકરીને ધીરજ આપે છે. લીલાધરને પરણી હતી. એકવાર એક ભીખારીએ લીલાધર પાસે ‘આણીશ મા તું હીયડે ચિંતા.. તુજ ઉપર કાલે તાત હોશે સુપ્રસન્ન'
ભીખ માગી તે ન મળતાં ભીખારીએ લીલાધરને મહેણું માર્યું. જેને દૈવ રાખે તેનો વાંકો વાળ કરવાને કોઈ સમર્થ નથી.
જે નિજ ભુજબળ ધન ન કમાવે ધિગુ વિગુ જીવિત તેહનું, ચંદરાજાની શોધ માટે રાજાએ તજવીજ કરવા માંડી.
કુદાકુદ પરાયે પઈસે, કરતાં જાય કેહનું.' આ બાજુ આભાપુરીનો મંત્રી વીરમતીને કહે છે તમે રાજાને તેથી રૂપસુંદર પરદેશ કમાવા જવાની હઠ લે છે. રાજા, મંત્રી કોઈ કારણસર સંતાડી રાખ્યો છે તો હવે પ્રગટ કરો કારણ
અને નગરશેઠ લીલાધર પરદેશ જાય એવું ઇચ્છતા નથી. તેથી “નૃપ વિણરાજ વિધુંસલા, તે તો ઠાલે ઉખલ બે મુશલા.'
જ્યોતિષીને સાધે છે. જ્યોતિષી કહે છે છ-બાર મહિનામાં સારું વીરમતી ચતુરાઈપૂર્વક મંત્રીની વાત ટાળે છે અને કહે છે કે મુહૂર્ત આવતું નથી માટે પ્રભાતમાં કૂકડો બોલે ત્યારે ઉત્તમ મુહર્ત
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મોહનવિજયકૃત ચંદરાજાનો રાસ ગણીને તે દિવસે પરદેશ જઈ શકાશે. રાજા ગુપ્ત આદેશ દ્વારા અવગુણ ઉપર ગુણ કરવો એ સજ્જનતાનું કામ છે' નગરના બધા કૂકડાઓને નગર બહાર પહેલેથી જ મોકલી દે છે. એમ કહી તેને બચાવી લે છે. પછી એકવાર રાત્રે ચંદરાજાને લીલાધર દરરોજ કૂકડો બોલવાની રાહ જુએ છે. એવામાં પેલા રાણી ગુણાવલી યાદ આવે છે. ચંદરાજા ગુપ્ત રીતે ગુણાવલીને અને નાટકિયા ત્યાં આવી પહોંચે છે. તેઓ પ્રધાનના આવાસની બાજુમાં મંત્રીને પોતાની મુક્તિની વાત જણાવે છે. રાતવાસો રહે છે. સવાર થતાં તેમની પાસેનો કૂકડો બોલે છે એટલે
વીરમતીને આ વાતની જાણ થતાં તે દેવતાની સહાયથી ચંદને લીલાધર પરદેશ જવાની તૈયારી કરે છે.
મારી નાખવા તેની પાસે પહોંચે છે પરંતુ ચંદરાજાના પ્રભાવથી લીલાવતી રોષે ભરાય છે. તે રાજા.ના હુકમનો ભંગ કરનાર
દેવતાઓ જ એવી સ્થિતિ સર્જે છે કે વીરમતી મૃત્યુ પામે છે. નાટકિયા પાસેથી કૂકડો મેળવવા કહે છે. નાટકિયાને વિશ્વાસ આપી
પ્રેમલાને લઈ ચંદનરેશ આભાપુરી પહોંચે છે. ગુણાવલી અને કૂકડાને મંત્રી લીલાવતી પાસે લાવે છે. લીલાવતી કૂકડાને કહે છે :
પ્રેમલાને પરસ્પર પ્રેમ બંધાય છે. સમય પસાર થતાં બંનેને ક્રમશઃ ‘વિણ અવગુણ તેં મુજ થકી, વેર વસાવ્યું આજ.
ગુણશેખર અને મણિશેખર એમ બે પુત્રો થાય છે. તું પંખી વિણ પંખિણી, વનમાં વ્યાકુળ થાય;
એકવાર મુનિ સુવ્રતસ્વામી આભાપુરીમાં આવે છે. ચંદરાજા તો અમે સરજી નારિઉં, પતિવિણ કિમ દિન જાય.
તેમને પૂછે કે પોતાનાં કયાં કર્મોને કારણે તેમને ઘણા દુઃખમાંથી અવિવેકી તિર્યંચ તું, નિપટ નિહુર નિરમોહ;
પસાર થવું પડ્યું. સુવ્રતસ્વામી રાજાને પૂર્વભવનું વૃત્તાંત કહે છે. જો તું બોલ્યો ન હોત તો હોત ન કંતાવિછોહ'
એકાદ અપવાદ બાદ કરતાં બધી જ મધ્યકાલીન જૈન રાસકૃતિઓમાં લીલાવતી પોતાના વિરહની વાત કરે છે તે સાંભળી કૂકડાને બને છે તેમ રાજાને વૈરાગ્ય થાય છે તેઓ દીક્ષા લે છે. તેમની પોતાની પૂર્વાવસ્થા સાંભળી આવે છે. કૂકડો મૂર્ણિત થઈ જાય છે. સાથે બંને રાણીઓ, મંત્રી, નટ, નટપુત્રી પણ દીક્ષા લે છે. લીલાવતી તેને શાંત કરે છે. પછી કૂકડો પોતાની વિરહવ્યથા જમીન નર્યા અદ્ભુતરસથી ભરપૂર અને કથારસનું પ્રાધાન્ય ધરાવતી પર અક્ષરો લખીને જણાવે છે. કૂકડાની વ્યથા સાંભળીને લીલાવતીને આ રચનામાં કથા આરંભથી અંત સુધી એકસરખી ગતિમાં ચાલે છે થાય છે મારું દુઃખ તો કૂકડા કરતાં ઘણું અલ્પ છે. લીલાવતીને જેણે કારણે કથારસની ભરપૂર અનુભૂતિ થાય છે. કથાની રજૂઆત પશ્ચાત્તાપ થતાં તે કૂકડાની ક્ષમા માગે છે ને કૂકડો નાટકિયાને સૂત્રબદ્ધ છે. “હવે શું થશે ?' એવો ઉદ્ગાર ભાવકને થયા કરે અને સોંપી દે છે.
એક કુતૂહલનો સંતોષ થાય ત્યાં બીજું અને બીજાનું નિરાકરણ થાય નાટકિયા ત્યાંથી નીકળી દેશવિદેશ ફરતા ફરતા વિમલપુરી ત્યાં ત્રીજું એમ કુતૂહલની માળા ચાલે છે. આવે છે. પ્રસંગવશાત્ તેઓ રાજાને આભાપુરીની વાત કરે છે. કૃતિના વસ્તુના કેન્દ્રમાં મુખ્યત્વે તો જૈનધર્મના ચાર સિદ્ધાંત મંત્રી કૂકડા વિશે પૂછે છે ત્યારે તે ચંદનરેશને ત્યાંથી મળ્યો હોવાનું
દાન, શીલ, તપ ને ભાવ છે. તેની સાથે કર્મફળની મહત્તા, પ્રારબ્ધ, કહે છે. નટો ચોમાસું નગરમાં ગાળવાનું નક્કી કરે છે. પ્રેમલા સ્વાર્થ નહીં પરમાર્થ જેવા અનેક નાના મોટા વિષયોની ચર્ચા થઈ છે. નાટકિયા વિમલપુરીમાં રહે ત્યાં સુધી કૂકડો પોતાની પાસે રાખવા
કથારસની સાથે, જ્યાં તક મળી છે ત્યાં વર્ણનો થયાં છે. માંગી લે છે.
જેમકે, વિમળાપુરીનું, ચંદરાજાની સભાનું, આભાપુરીનું, ઘોડાઓનું, ચાર માસ પસાર થઈ જાય છે. નાટકિયા આવીને કૂકડો માગે
ગુણાવલીના વિરહનું, પ્રેમલાલચ્છીના સૌંદર્યનું વગેરે. છે. પ્રેમલા કૂકડાને ચાર દિવસ વધુ રાખવા સંમતિ મેળવે છે. તે
વર્ણનોની જેમ જ્યાં જ્યાં તક મળી છે ત્યાં કવિએ અનુભવજ્ઞાનનાં પછી તે કૂકડાને લઈને પુંડરગિરિની યાત્રાએ જાય છે. પુંડરગિરિ
વાક્યો, કહેવતો, વ્યવહારનીતિનાં શિક્ષાસૂત્રો તથા સુભાષિતોની પર એક સૂર્યકુંડ હોય છે જે
લ્હાણી કરી છે જેમાં તેમનો બહોળો જીવનાનુભવ અને બહુશ્રુતતા ‘જાણું સ્વર્ગ શિરિ ભણી, કાઢી દંત હસંત'
દેખાય છે જેમકે : એવો અનુપમ હોય છે. લાંબા સમયના દુઃખથી છૂટવા અને
* ધતૂરો ખાનાર માણસ બધે સોનું સોનું દેખે છે. સદ્ગતિ પામવા કૂકડો સૂર્યકૂંડમાં ઝંપલાવે છે. પ્રેમલા કૂકડાને
* ઉતાવળથી પાળો થાય ને ધીરજથી મહેલ બંધાય. બચાવવા તેની પાછળ કુંડમાં કૂદે છે. પાણી અડતાં અપરમાતાએ ચંદરાજાને બાંધેલો દોરો જે ઘણો જીર્ણ થઈ ગયો હતો તે તૂટી જાય
* ભાવિ અન્યથા થતું નથી. છે ને ચંદરાજા તત્કાળ કૂકડો મટી મનુષ્ય થઈ જાય છે. શાશનદેવી
* ગ્રહણ ચંદ્ર અને સૂર્યનું જ થાય છે, તારાઓનું થતું નથી. બંનેને બહાર કાઢે છે. પ્રેમલા ચંદરાજાને ઓળખે છે ને પિતાને આ
* કર્મ પાસે સૌ સરખા. વાતની જાણ કરે છે. યાત્રાએથી પાછા ફરી ચંદરાજા વાજતેગાજતે * પુણ્યનો ઉદય થાય ત્યારે બધા સંયોગો અનુકૂળ થઈ જાય છે. નગરપ્રવેશ કરે છે.
* કરતાં નેટ જગમાં સોહિલી, મકરધ્વજ પોતાની સાથે ઠગાઈ કરનાર કનકરથને ભારે દંડ પણ દોહિલું નિરવહિવું. દેવા વિચારે છે પણ ચંદરાજા
* ગાંઠ તણી ઊંઘલડી વેચી, ઉજાગરો કુણ આણે.
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ * દુ:ખે પાસું તાસ દુઃખ, અવરને હાંસું થાય;
આ ઉપરાંત કવિની ટલીક લાક્ષણિક અભિવ્યક્તિ પણ નોંધપાત્ર મીયાંની દાઢી બળે, અન્ય તાપવા જાય.
છે. જેમકે : કથામાંનાં બધાં જ પાત્રો તેમના પૂર્વજન્મના કર્મબળે વિવિધ ૧, ‘જાસ મધુરતાથી થઈ, ખંડ તે ખંડોખંડ' સંકટોમાં ફસાય છે. કર્મનો ઉદય થતાં સંકટમાંથી મુક્ત થાય છે.
(જૈની મધુરતા આગળ ખાં શરમાઈને ટૂકડે ટુકડા થઈ ગઈ.) પ્રત્યેક પાત્રના પૂર્વજન્મ અને આ જન્મના કર્મફળ વિશે પરસ્પરનો
૨. ‘સુપન તણી વાત તમે નાકે સળ કાં આણો' સંબંધ કવિએ જે રીતે નિરૂપ્યો છે તેમાં તેમની વ્યવસ્થિત
આ રાસમાં કવિએ દીપવિજયે રચેલા ચંદ-ગુલાવણીના બે પત્રો આયોજનશક્તિનો પરિચય થાય છે.
પણ જોડ્યા છે તેમાં આવતી સમસ્યાઓ ધ્યાનાર્હ છે. આ રાસ પદરચના છે જે ગાવાનો હોય છે. કવિએ ગેયતાને
આમ મુખ્યત્વે કથારસપ્રધાનતાની સાથે કેટલાંક સારાં વર્ણનો, અનુરૂપ સઘળી યોજના કરી છે. પ્રત્યેક ઢાળને આરંભે દુહા મૂક્યા
પ્રાસાનુપ્રાસની યોજનાનો મહત્તમ ઉપયોગ, કેટલાંક વ્યવહારનીતિનાં છે. દુહા મુખ્ય કથાને આગળ વધારવામાં મદદરૂપ બને છે. દરેક
શિક્ષાસૂત્રો, કેટલેક ઠેકાણે વસ્તુને રજૂ કરવાની કવિની લાક્ષણિક ઢાળના આરંભમાં દેશી આવે છે. દરેક ઢાળની અલગ અલગ એમ
રીત આ બધી રીતે “ચંદરાજાનો રાસ’ આસ્વાદ્ય રચના છે. કુલ ૧૦૮ દેશી છે જેમાં કવિની બહુશ્રુતતાનો પરિચય થાય છે.
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અગડદત્ત કથા
0 શ્રીમતી કલ્પના કનુભાઈ શેઠ
પ્રાસ્તાવિક
માનવહૃદયમાં જીજ્ઞાસા અને કુતૂહલની લહેરો એકઠી કરી તેને ફરી ક્રમે ક્રમે સંતોષવાની અદ્દભુત શક્તિ કથામાં રહેલી છે, જેથી શ્રોતાજનો કથા સાંભળતી વખતે તેમાં એકાકાર થઈ જાય છે. આબાલ-વૃદ્ધ દરેક માનવીને કથા-વાર્તામાં અખૂટ રસ પડે છે. જેથી દરેક દેશને પોતાની કથાઓ-લોકકથાઓ હોય છે. આમ કથા સર્જવાની વૃત્તિ આદિમાનવ જેટલી પ્રાચીન ગણી શકાય. પ્રથમ તો કથાઓ મૌખિક પરંપરામાં જ હતી, ક્રમશઃ તેનો વિકાસ થતાં સ્વકીય પોત દર્શાવતું લોકસાહિત્ય ભારતમાં ઇ. સ. પૂર્વેની બીજી કે ત્રીજી શતાબ્દીથી પ્રાપ્ત થાય છે. ભારતમાં ઈ. સ. પૂર્વેની ૧૫૦૦ની આસપાસ આર્યોના આગમનથી કથાસાહિત્યનો ઉદ્ગમ અને વિકાસ દેખાય છે.
ભારતની ત્રણે પરંપરા-વૈદિક, બૌદ્ધ અને જૈનમાં આવું સાહિત્ય રચાયેલું છે. તેમાં જૈન પરંપરામાં વિપુલ પ્રમાણમાં કથાસાહિત્ય પ્રાપ્ત થાય છે. જૈનપરંપરામાં સૌપ્રથમ એના આગમસાહિત્ય અને તેના પર લખાયેલા ટીકાત્મક સાહિત્ય-નિયુક્તિ, ભાષ્ય, ચૂર્ણિ અને ટીકાસાહિત્યમાં આવી કથાઓ સાંપડે છે. આમાં જૈન પરંપરામાં પ્રચલિત એવા સ્થૂલિભદ્ર, કરકંડુ, મૃગાપુત્ર જેવા ધાર્મિક પુરુષો અને મૃગાવતી, સુલસા, સુભદ્રા જેવી ધાર્મિક સ્ત્રીઓની ચરિત્રકથા નોંધપાત્ર છે. આ પછી એ વિષય પર જૈન મુનિઓએ સ્વતંત્ર ચરિત્રકથાગ્રંથો રચ્યા છે, આવી અનેક ચરિત્રકથાઓમાંની એક છે. અગડદત્તમુનિની કથા, જૈન પરંપરામાં અગડદત્ત અંગેની કથાને મહત્ત્વપૂર્ણ સ્થાન છે. પરિણામે જૈન સાહિત્યમાં આ કથાને આધારે અનેક કૃતિઓ જેવી કે આખ્યાન કાવ્યો, રાસ, પ્રબંધની રચના જૈન વિદ્વાનોએ કરી છે.'
સંસ્કૃત, પ્રાકૃત, ગુજરાત, રાજસ્થાની વગેરે અનેક ભાષામાં ગદ્ય અને પદ્યમાં અગડદત્ત અંગેનું કથાસાહિત્ય ઉપલબ્ધ છે.
આ કથા જૈન પરંપરામાં સર્વપ્રથમ પાંચમી ૨. તાબ્દીમાં સંઘદાસગણ દ્વારા રચાયેલ પ્રાકૃતકથાગ્રંથ “વસુદેવ હિન્ડી” અન્તર્ગત પ્રાપ્ત ધમ્મિલહિન્ડી કથામાં એક ઉદાહરણ રૂપે પ્રાપ્ત થાય છે. આ પછી આઠમી શતાબ્દીમાં જિનદાસ ગણિ કૃત ‘ઉત્તરાધ્યયન ચૂર્ણિ'માં તે એક દષ્ટાંત લેખે જોવા મળે છે. આ પછી આ કથા પ્રાકૃતમાં વાદિવેતાલ શાંતિસૂરિ કૃત ‘ઉત્તરાધ્યયન ટીકા' (ઇ. સ.) અને નેમિચંદ્રસૂરિ કૃત ઉત્તરાધ્યયન ટીકા (ઇ. સ. ૧૯૬૩)માંથી
મળી આવી છે. કોઈ એક અજ્ઞાત કવિ કૃત ‘અગડદાચરિત્ર' પ્રકાશિત થયેલ છે. પણ એની રચના ક્યારે થઈ તે અનિશ્ચિત હોવાથી તે અંગે ચોક્કસપણે કાંઈ જ કહી શકાય તેમ નથી.
આ કથાની પરંપરા આગળ જતાં લોકભાષા ગુજરાતી અને રાજસ્થાનમાં ઈ. સ. ૧૬મી સદીથી મનાય છે, જે લગભગ ૧૮મી સદી સુધી સતત ચાલુ રહે છે. અગડદત્ત સંબંધિત પ્રાપ્ત કાવ્યોની સૂચિ આ પ્રમાણે છે : (૧) અગડદત્ત રાસ (સં. ૧૫૮૪ અષાઢ વદી ૧૪ શનિવાર)
ભીમકૃત. (૨) અગડદત્ત મુનિ ચોપઈ (સં. ૧૬૦૧) સુમતિકૃત."
અગડદત્ત રાસ (સં. ૧૬ ૨૫, કારતક સુદ ૧૫, ગુરુવાર) કુશલલાભ કૃત
અગડદત્ત પ્રબંધ (સં. ૧૬૬૬) શ્રી સુંદર કૃત (પ) અગડદત્ત ચોપાઈ સં. ૧૬૭૦) ક્ષેમકલશ કૃત
અગડદત્ત રાસ (રચના સં. ૧૬૭૯) લલિતકીર્તિ કૃત અગડદત્ત રાસ (સં. ૧૭મી શતાબ્દી) ગુણવિનય કૃત અગડદત્ત રાસ (રચના સં. ૧૬૮૫) સ્થાનસાગર કૃતo
અગડદત્ત ચોપાઈ (રચના સં. ૧૭૦૩) (પુણ્યનિધાન કૃત) ૧૧ (૧૦) અગડદત્ત રાસ - કલ્યાણસાગર કૃત'૧૨ (૧૧) અગડદત્ત ઋષિ ચોપાઈ (ર સં. ૧૭૮૭) શાંતિસૌભાગ્ય કૃત (૧૨) અગડદત્ત રાસ (અપૂર્ણ)૧૪
આ બધી ગુજરાતી અને રાજસ્થાનીમાં ઉપલબ્ધ કૃતિઓમાં કુશલલાભ રચિત કૃતિ ‘અગડદત્તરાસ' વિશેષ રસપ્રદ હોઈ તેનો સંક્ષિપ્ત સાર અત્રે પ્રસ્તુત કરવામાં આવે છે. અગડદત્તનો પરિચય :
વસંતપુર નગરમાં ભીમસેન રાજા, તેને સુંદરી નામે પટરાણી, તેને સૂરસેન નામે સામંત, તેને અગડદત્ત નામે પુત્ર. સૂરસેનની
ખ્યાતિથી આકર્ષાઈ એક સુભટ રાજા પાસે આવ્યો. રાજાની અનુમતિ મેળવી સુભટ અને સૂરસેન વચ્ચે યુદ્ધ થયું, જેમાં સૂરસેન મરાયો. રાજાએ સુભટને સેનાપતિ બનાવી અનંગસેન નામ આપ્યું. આ ઘટનાથી અગડદત્તની માતા દુ:ખી થઈ કેમકે સૂરસેનની ઇચ્છા પોતાના પછી પુત્ર અગડદત્તને સેનાપતિ બનાવવાની હતી.
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ
અગડદત્તની શિક્ષા :
સોમદત્ત બ્રાહ્મણ સાથે મિલન - શસ્ત્રવિદ્યામાં પારંગતતા :
અગડદત્તના પિતાની ઇચ્છા તેને શસ્ત્રમાં પારંગત બનાવવાની હતી તેવી રીતે માતા પણ શસ્ત્રવિદ્યા પ્રાપ્ત કરી અભંગસેનને હરાવે તેમ ઇચ્છતી હતી. આથી તે આઠ વર્ષનો થતાં તેને ચંપાપુરીમાં સોમદત્ત પ્રાહ્મણ પાસે યુદ્ધકળા વિદ્યા શીખવા મૂક્યો. અગાદ પોતાનો સમગ્ર વૃત્તાંત સોમદત્તને કર્યો આથી તે તેને શસ્ત્રવિદ્યા શીખવવા સંમત થયો. તેણે એના મેવા-જમવાની વ્યવસ્થા એક વ્યવહારી વિપારી)ના ધરે કરી આપી. તે વૈપારીને મનમંજરી નામે સ્વરૂપવાન પુત્રી હતી.
અગડદત્તનો મદનમંજરી સાથે પરિચય અને વિવાહ-વચન' :
વિકાઅે રહેતો અગડદત્ત એકવાર વૃક્ષવાટિકામાં બેસી અભ્યાસ કરતો હતો ત્યારે મનમંજરીને તેને જોયો અને તે એના પર મોહિત થઈ. પોતાના ઝરૂખામાંથી નીક્કી ઝાડની ગ્રીનેડાળીએ કૂદતી તે અગડદત્ત પાસે આવી પહોંચી અને પોતાના પ્રેમનો એકરાર કર્યો. અગડદત્તે પ્રથમ અભ્યાસ પૂર્ણ કરવા તરફ જ લક્ષ રાખવાનું જણાવી એના પ્રેમને ઇન્કાર કર્યો. તેના આગ્રહને વશ થઈ અભ્યાસ પૂર્ણ થયા પછી એની સાથે વિવાહ કરવાનું વચન આપ્યું. રાજા સાથે મિલન - ચોરને પકડવાનું બીડું ઝડપી તેમાંથી સફળ પાર ઉતરવું :
અભ્યાસ પૂર્ણ થયા પછી સોમદત્તે અગડદત્ત અને મદનમંજરીના વિવાહનો પ્રસ્તાવ રાજા સમક્ષ મૂક્યો. રાજાએ તેને બોલાવ્યો. બરાબર તે જ સમયે નગરના મહાજન, શ્રેષ્ઠીજનો નગરમાં પ્રવર્તી રહેલા ચોરના ઉપદ્રવ વિષે ફરિયાદ કરવા રાજા પાસે આવ્યા. રાજાએ ચોર પકડવાનું બીડું ફેરવ્યું અને ચોરને પકડી લાવનારને સવલાખ રૂપિયાનું ઇનામ જાહેર કર્યું. અગડદત્તે તે બીડું ઝડપી લીધું અને સાત દિવસમાંજ ચોર પકડી આપવાનું વચન આપ્યું. ચોરની તપાસાર્થે અગડદત્તે વેશ્યાગૃહો, જુગારીના અડ્ડા, ભિક્ષાગૃહો, સભા, ઉઘાન જેવા ચોરના સામાન્ય ઠેકાણાંઓ પર તપાસ કરી પરંતુ ચોરનો પત્તો મળ્યો નહીં. આમ કરતાં છ દિવસ પસાર થઈ ગયા. સાતમે દિવસે ચિંતાતુર બની ચોર વિષે વિચાર કરતો, તે એક ઝાડ નીચે બેઠો હતો ત્યારે તેણે એક યોગીને જોયો જે એને ચોર હોવાની શંકા ગઈ એટલે તે યોગી પાસે ગયો અને પોતાની ઓળખ આપતાં કહ્યું કે પોતે એક જુગારી છે. જુગારમાં બધું ધન હારી જઈ ચોરી કરવા નીકળ્યો છે. આ સાંભળી યોગીએ તેને પોતાની સાથે લીધો.
આ પછી યોગી વેશબદલી અગડદત્ત સાથે ચોરી કરવા નીકળ્યો. તેમણે ‘સાગરસેવી' નામના વેપારીના ઘરે છાપો માર્યો. ત્યાંથી ઘણું બધું ધન એકઠું કરી પોતાના નિશ્ચિત ઠેકાણે ગો જ્યાં તેના અનેક માણસો સૂતાં હતાં. તેણે અગદત્તને પણ તેઓની સાથે સૂઈ જવા કહ્યું. ઊંઘી ગયાનો ઢોંગ કરી તો અગડદત્ત ત્યાં સૂઈ રહ્યો. થોડીવાર પછી પેલા યોગી રૂપી ચોરે તેના સૂતેલા માણસોનાં માથાં
એકપછી એક કાપી નાખ્યાં. આ જોઈ અગડદત્ત સાવધાન થઈ ગયો. જેવો તે યોગી ચોર તેની પાસે આવ્યો કે તરત જ ગડદત્ત તેના પર મરોલ પ્રહાર કર્યો. મરતી વખતે યોગીચોરે તેને કહ્યું, સામે પર્વત પર રહેલા પીપળાના ઝાડ પાસે જઈ મારી બેન વીરમતીને આ તલવાર આપજે જેથી તે તારી સાથે લગ્ન કરશે. મારો વધ કરનારને જ તે વળે તેવી તેની પ્રતિજ્ઞા છે.'
તલવાર લઈ અગડદત્ત પેલા પીપળાના ઝાડ પાસે ગયો, ત્યાં ગુફામાં વીરમતીને મળ્યો. તલવાર જોઈ પોતાના ભાઈની હત્યા થઈ છે અને આ જ હત્યારો છે તેમ તે સમજી ગઈ. આનો બદલો લેવા તેણે અગનને આવકાર્યો અને પ્રેમપૂર્વક પલંગ પર બેસાડ્યો. તે ગૃહના ઉપલે માળે ગઈ. અગડદત્ત સ્ત્રીચારિત્રથી જ્ઞાત હતો તેથી તે પલંગ પરથી ઊઠી જઈ ખુલ્લામાં ઊભો રહી ગયો. વીરમતીએ ઉપરથી એક મોટી શિલા પાડી જેવી પલંગના સૂરેપૂરા થઈ ગયા. નીચે ઊતરી તો અગડદત્તને સલામત જોઈ તેને આશ્ચર્ય થયું. તેણે અગડદત્ત પર તલવારથી હુમલો કર્યો પરંતુ તે બચી ગયો. વીરમતી અને તેનો સંપૂર્ણ ખજાનો લઈ અગડદત્તરાજા પાસે ગયો. અગડદત્તનું મદનમંજરી સાથે સ્વગૃહે આગમન- સરોવરતીરે દેવળમાં સર્પદંશથી મૃત્યુ અને વિદ્યાધર દ્વારા પુનઃવન ઃ
અગડદત્તને મળી રાજા ખૂબ પ્રસન્ન થયા અને તેણે એનાં મદનમંજરી સાથે લગ્ન કરાવી આપ્યાં. અગડદત્ત પછી પત્નીને લઈ વસંતપુર જવા નીકળ્યો. રસ્તામાં ગોકુલ નામે સ્થળે પહોંચતાં લોકોએ જાણ કરી કે તે રસ્તો ભૂલી ગયો છે, હવે જે માર્ગથી જવાય છે ત્યાં વચ્ચે નદી, સિંહ, સાપ, અને ચોર આ ચાર મોટાં ભયસ્થાનો છે. અને તેનો સામનો કરવો મુશ્કેલ છે. લોકો તથા મદનમંજરીની ના હોવા છતાં પણ તેણે તે વિકટ રસ્તો અપનાવ્યો. બધાં સંકટોને પાર કરતો તે વસંતપુર પહોંઓ તો તેના કુટુંબીઓએ તેનું ભાવ્ય સ્વાગત કર્યું.
અભંગસેન ત્યાં સ્વાગતાર્થે આવ્યો હતો તે સમયે તે બંને વચ્ચે ન યુદ્ધ થયું જેમાં અભંગીન હાર્યો અને મરાય. રાજાને અગડદત્તને સેનાપતિપદ આપ્યું. અગદત્ત પત્ની સાથે એક રાત્રિ ત્યાં રોકાયો, અગડદની ગેરહાજરીમાં મદનમંજરી સરોવર પાસે રહેલા કોઈ એક ૫૨૫રુષ સાથે સંભોગ કરવા લાગી. આકાશમાર્ગે જતાં વિદ્યાધરે આ જોયું. તેને દુ:ખ થયું અને તે ગુસ્સે પણ થયો. તેને મારવા માટે વિદ્યાધર નીચે આપ્યો ત્યાંજ મદનમંજરીને એક કાળોતરો સર્પ ડસ્યો અને તે નિશ્ચેતન થઈ ઢળી પડી. ત્યાં આવી
પહોંચેલો અગડદત્ત આ જોઈ ખૂબ વિલાપ કરવા લાગ્યો, તે તેની સાથે બળી મરવા તૈયાર થયો. વિદ્યાધરે તેને સમજાવ્યું કે સ્ત્રીજાત તો હલકી, અધમ છે તો તેની પાછળ શોક કરવો વ્યર્થ છે. છતાં પણ અગડદત્ત ન માન્યો ત્યારે વિદ્યાધરે મંત્રપ્રયોગ દ્વારા મદનમંજરીને પુનર્જીવિત કરી.
અગડદત્તને મદનમંજરીએ સમીપમાં રહેલા દેવળમાં જ આરામ કરવા કહ્યું. ત્યાં દેવળમાં અંધારું હતું તેથી તેને દીવો
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અગડદત્ત કથા
૩૫ પ્રગટાવવા અગ્નિ લાવવા કહ્યું. અગડદત્ત અગ્નિની શોધમાં નીકળ્યો. કે અમોઘપ્રહારી સાથેની હરીફાઈમાં તેના પિતા મૃત્યુ પામ્યા છે તે દરમ્યાન મદનમંજરીની મુલાકાત દેવળમાં છુપાયેલા ત્રણ ચોરો અને માતા પોતાને શસ્ત્રવિદ્યામાં પારગામી બનાવવા ઇચ્છે છે. સાથે થઈ. વાતચીત દરમ્યાન મદનમંજરીએ તેઓને કહ્યું કે, “હું અગડત્તની શિક્ષા મારા પતિની હત્યા કરીશ અને તમે મને તમારી સાથે લઈ જજો.’
દઢપ્રહારી સાથે મિલન - શસ્ત્રવિદ્યામાં પારંગતતા : પ્રથમ ચોરોએ આનાકાની કરી પછી સંમત થયા. મદનમંજરીએ
આઠ વર્ષનો થતાં માતાએ કૌશાંબીનગરમાં રહેતા પિતાના ચોરના દીવાથી દેવળમાં પ્રકાશ કર્યો. અગડદત્ત આગ લઈ પાછો
પરમ મિત્ર દેઢિપ્રહારી પાસે તેને મોકલ્યો. ત્યાં તેણે પોતાની બધી ફરતો હતો ત્યારે તેના પ્રવેશપૂર્વે તેણે દેવળમાં પ્રકાશ જોયો. દેવળમાં
વાત કહી. દઢપ્રહારીએ તેને પુત્રતુલ્યમાની બધી વિદ્યા શીખવાડી. આવી તેણે મદનમંજરીને પ્રકાશ વિષે પૂછ્યું ત્યારે તેણે કહ્યું, ‘તમે
તેમાં તે પારંગત થયો. જે આગ લઈ આવ્યાં તેનું પ્રતિબિંબ હશે. દીવો પ્રગટાવવા અગડદત્તે
અગડદત્તનો શ્યામદત્તા સાથે પરિચય અને વિવાહવચન : હાથમાંનું ખંજર મદનમંજરીને પકડવા આવ્યું ત્યારે તેણે એનો વધ કરવા ખગથી પ્રહાર કર્યો પરંતુ તે નિશાન ચૂકી ગઈ અને ખગ
અગડદત્ત ગુરુના ઘરની વૃક્ષ વાટિકામાં અભ્યાસ કરતો હતો
ત્યારે ગુરુના પડોશમાં રહેતા યજ્ઞદત્તની પુત્રી શ્યામદત્તાએ તેને દૂર જઈ પડ્યું, અગડદતે ખગ પડવા અંગે પૃચ્છા કરી ત્યારે તેણે
જોયો. તે એના પર મોહિત થઈ ગઈ. તે એની સમીપ જઈ પોતાના કહ્યું, ‘ખગ ઊલટું પકડાયું હતું જેથી પડી ગયું.'
પ્રેમનો એકરાર કરી પોતાને સ્વીકારવાની જીદ કરવા લાગી. ત્રણે ચોરોએ આ ઘટના જોઈ. તેઓ સ્ત્રીચરિત્ર અને સંસારની
અગડદત્તે તેને વચન આપ્યું કે ઉજ્જયિની પાછા ફરતાં તે જરૂરથી નિઃસારતા વિષે વિચારવા લાગ્યા. સ્ત્રી કામવાસનાને વશ થઈ
તેને સાથે લઈ જશે અને લગ્ન કરશે. સ્વાર્થી બની પોતાના પતિની નિર્દોષ હત્યા કરે છે તેવું ચિંતન કરતાં તેમનામાં વૈરાગ્ય ભાવ ઊત્પન્ન થયો અને ત્યાંથી ચાલી
રાજા સાથે મિલન-ચોરને પકડવાનું બીડું ઝડપી તેમાંથી સફળ પાર
ઊતરવું ? નીકળ્યા. આગળ જતાં તેઓને મુનિનો ભેટો થયો અને ત્રણેએ તેમની પાસે દીક્ષા લીધી. અગડદત્ત પત્ની સાથે પોતાના ગૃહે પહોંચ્યો
એકવાર અગડદત્ત પોતાની કુશળતા દર્શાવવા રાજા પાસે અને પુત્રવાન બન્યો.
રાજદરબારમાં ગયો. બધા તેની વિદ્યા પર પ્રસન્ન થયા. તે જ
સમયે નગરના મહાજનોએ આવી રાજાને ચોર વિષયક ફરિયાદ * પ્રધાન સાથે ફરતાં મુનિ ભુજંગમ રૂપી ચોર સાથે મિલન :
કરી જણાવ્યું કે કોઈ ચોર નગરમાં અપૂર્વ રીતે ચોરી કરી ધનએક દિવસ અગડદત્ત પોતાના પ્રધાન સાથે ફરતો મુનિ ભુજંગમ
લક્ષ્મી તૂટી જાય છે. ત્યારે રાજાએ નગરરક્ષકને સાત રાત્રિમાં જ કે જે પૂર્વે ચોર હતો, ને તેના સાથી મુનિઓ સાથે તપશ્ચર્યા કરતો'
ચોર પકડી લાવવાનું કહ્યું. તે બીડું અગડદને ઝડપી લીધું અને હતો ત્યાં આવી પહોંચ્યો. તેણે તેઓનાં દર્શન કર્યા. આટલી
રાજાને વિનંતી કરતાં કહ્યું કે તે પોતે જ સાતરાત્રિમાં ચોર પકડી યુવાવસ્થામાં વૈરાગ્ય ધારણ કરવાનું કારણ પૂછ્યું ત્યારે તેઓએ
હાજર કરશે. જણાવ્યું કે તેઓના વૈરાગ્યનું મૂળ કારણ અગડદત્ત છે. અગડદત્તે
પાનાગાર, ધૂતશાળા, ધર્મશાળા, ભિક્ષુગૃહ, દાસીગૃહ, આ અગડદત્તનો પરિચય પૂછળ્યો ત્યારે તેઓએ મંદનમંજરીનું
વેશ્યાગૃહ, ઉદ્યાન, શૂન્ય દેવળો જેવાં ચોરનાં સામાન્ય સ્થાનોએ દુરાચરણ, પરપુરુષ સાથે સંભોગ, દેવળમાં બનેલી ઘટના અને
તેણે ચોરની તપાસ કરી. પરંતુ તેનો પત્તો લાગ્યો નહિ. છ દિવસ તેઓ સાથે કરેલી નાસી છૂટવાની યુક્તિ સહિત સર્વ હકીકતો કહી.
તો આમ જ વીતી ગયા. સાતમે દિવસે જીર્ણ અને મેલાં કપડાં અગડદતનો વૈરાગ્ય અને દીક્ષા :
પહેરી ચિંતા કરતો તે આંબાના ઝાડ નીચે બેઠો હતો ત્યાં એક મુનિ બનેલા ચોર પાસેથી પોતાની કથા સાંભળીને અગડદત્ત
પરિવ્રાજક આવી બેઠો અને અગડદત્તને તેની ઓળખી પૂછી. દુ:ખી થયો. સ્ત્રીચરિત્ર પર વિચાર કરતાં તેને સંસારની અસારતા અગડદત્તે કહ્યું, પોતે ઉજ્જયિનીનો વતની છે, અને વૈભવ ક્ષીણ અને વિષય લાલસા પ્રત્યે ઉદાસીનતા ઊભરાઈ. તેને વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન
થતાં રખડે છે. પરિવ્રાજકે પોતે તેને વિપુલ ધન અપાવશે એમ કહી થયો. તેણે મુનિ ભુજંગમ પાસે દીક્ષા અંગીકાર કરી. તે નવમું
તેને પોતાની સાથે લીધો. પરિવ્રાજક રૂપી ચોરે ધનિક માણસના મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શિવપુરી પહોંચશે.
ઘરમાં ખાતર પાડ્યું. અંદર જઈ અનેક પ્રકારના માલ ભરેલી પેટીઓ જૈન પરંપરાના આગમેતર ગ્રંથમાં આ કથા સર્વપ્રથમ આપણને બહાર લાવ્યો. થોડીવારમાં પોતાના માણસોને બોલાવી પેટીઓ વસુદેવહિડી' માંથી મળી આવે છે જેનો સાર નીચે પ્રમાણે છે. ઊપડાવી નગર બહારના જીર્ણોદ્યાનમાં બધા પહોંચ્યા. ત્યાં તેણે અગડદત્તનો પરિચય :
બધાને થોડીવાર સૂઈ જવા કહ્યું. અગડદત્તને તેના વિષે શંકા હતી ઉજ્જયિની નગરીમાં જિતશત્રુ નામે રાજા, તેને અમોઘરથ નામે
જ, આથી તે સૂવાનો ઢોંક કરતો પડ્યો રહ્યો. થોડીવાર પછી સારથી, યશોમતી એની પત્ની, એને અગડદત્ત નામે સુંદર પુત્ર
પરિવ્રાજક રૂપી ચોર તેના ઊંઘી ગયેલા માણસોને એક પછી એક હતો. વારંવાર રડતી અને દુઃખી થતી પોતાની માતા પાસેથી જાણ્યું
એમ વારાફરતી મારી નાખવા લાગ્યો. તે દરમ્યાન આ બધું જોઈ
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ અગડદા ઊઠીને એક વૃક્ષ પાછલ છુપાઈ ગયો પરિવ્રાજક રૂપી દઢધર્મ આદિ છ મુનિઓ સાથે મિલન : ચોરની નજર ચુકવી અગડદત્તે તેના પર પ્રહાર કરી તેને મારી એકવાર અગડદત્ત રાજાના કામ અંગે દશપુરમાં ગયો. ત્યારે નાંખો. અગડદત્તને પોતાની તલવાર આપતાં તેણે કહ્યું, “સ્મશાનને
તપથી કૃશ થયેલા બે મુનિઓ તેને ત્યાં ભિક્ષાર્થે આવ્યા. અગડદત્તે છેવાડે આવેલા શાન્તિગૃહ પાસે અવાજ કરજે જેથી મારી બહેન
તેઓને પ્રાસુક આહાર વહોરાવ્યો. પછી અગડદત્ત તેઓના દર્શનાર્થે આવશે. તેને મારી તલવાર તું આપજે, જેથી તે તારી પત્ની થશે
ગયો. યૌવનાવસ્થામાં રહેલા તમે બધાએ કેમ દીક્ષા અંગીકાર કરી અને તું મારા ભોંયરાનો સ્વામી થજે.'
તેવો સવાલ અગડદને પૂછતાં તેઓમાંના મોટા મુનિએ કહ્યું, અગડદત્ત તલવાર લઈ શાન્તિગૃહ પાસે ગયો. ત્યાં અવાજ
એકવાર એક તરુણ અમે તરુણી રથમાં બેસી અટવીમાંથી પસાર કરતાં પેલા ચોરની સૌંદર્યવાન બહેન બહાર આવી. તલવાર જોઈ
થતા હતાં ત્યારે તરુણે અમારા અર્જુન ચોર નામે સેનાપતિને માર્યો પોતાના ભાઈની હત્યા અને હત્યારાને ઓળખી ગઈ. બદલો લેવાના
તેનો બદલો લેવા અને તરુણનો પીછો કર્યો. નગરઉજાણીના પ્રસંગે જૂર આશયથી તેણે અગડદત્તને અંદર બોલાવી પલંગમાં બેસાડ્યો. તે ઉપરના માળે ચાલી ગઈ. અગડદત્તને તેના પર શંકા હોવાથી
તરુણને મારી નાખવાના આશયથી નજીક રહેલા દેવકુળમાં અમે તે ઊઠીને દૂર જઈ ખૂણામાં ઊભો રહ્યો. થોડીવાર પછી ઊપરથી
છુપાઈ રહ્યા. ત્યારે સંધ્યા સમયે તરુણીને એકાએક સર્પ કરડ્યો અને એક મોટી શિલા પલંગ પર પડી અને પલંગના ચૂરેચૂરા થઈ ગયા.
તે મરી ગઈ. તરુણ વિલાપ કરતો તેની પાછળ મરવા તૈયાર થયો બેનને તો પોતાના ભાઈનો હત્યારો માર્યાનો સંતોષ થયો. જેવી તે
ત્યારે વિદ્યારે તેને સજીવન કરી. તરુણીને દેવકુળમાં રાખી તરુણ ઊપરથી નીચે આવી ત્યાં જ અગડદત્તે તેને ચોટલાથી પકડી લીધી.
અગ્નિ લેવા ગયો ત્યારે અમારામાંના નાનાએ તરુણીને કહ્યું, “અમે ચોરની બહેન, તથા ખજાનો વગેરે બધું લઈ તે રાજા પાસે ગયો. તારા પતિને મારી નાખીશું અને તેને ઉપાડી જઈશું. જો તું આ તેની વીરતા જોઈ રાજા પણ ખૂબ પ્રસન્ન થયો.
વાત તારા પતિને કરીશ તો તને પણ મારી નાંખીશું.' ત્યારે તરુણીએ અગડદત્તનું શ્યામદત્તા સાથે સ્વદેશગમન - ઉદ્યાનમાં શ્યામદત્તાનું કહ્યું, “તમારે મારા પતિનો વધ કરવાની જરૂર નથી. અગ્નિ સર્પદંશથી મૃત્યુ અને વિદ્યાધર દ્વારા પુનર્જીવન :
પ્રગટાવવા તે મને તેની તલવાર પકડવા આપશે ત્યારે હું જ તેનો પછી કોઈ એકવાર અગડદત્ત શ્યામદત્તાને લઈ ઉજ્જયિની જવા વધ કરી નાખીશ અને તમે મને તમારી સાથે લઈ જજો.' તરુણ નીકળ્યો. વત્સજનપદના સરહદના ગામે પહોંચ્યાં ત્યારે ત્યાંના આવ્યો અને તરુણીના હાથમાં તલવાર આપી. ત્યારે જેવી તે તરુણનો લોકોએ આગળ જતાં હાથી, વાઘ, દષ્ટિવિષ સર્પ અને અર્જુન વધ કરવા તલવાર ઉગામવા ગઈ કે તરત જ છુપાઈ રહેલા નાનાએ ચોરનો મોટો ભય છે અને તેમાંથી બચવું મુશ્કેલ છે તેમ કહ્યું છતાં તેના હાથ પર ચોટ લગાવી જેથી તે તેનું નિશાન ચૂકી ગઈ અને પણ પોતાની વીરતા અને બહાદુરીથી બધાનો સામનો કરતો તલવાર તરુણની નજીક જઈ પડી અને તરુણ બચી ગયો.આ જોઈ અટવીમાંથી પસાર થઈ સલામત રીતે ઉજ્જયિની પહોંચ્યો. ઘરે અમને સ્ત્રીનું ચરિત સમજાયું કે પોતાની પાછળ મરવા તૈયાર થયેલા પહોંચી માતાને મળી પરસ્પર ખુશ થયાં. રાજાને મળવા ગયો તો
પતિની પણ સ્ત્રી હત્યા કરી શકે છે. આમ વિચારતાં અમને સંસારની રાજાએ તેને પિતાનું કામ સોંપી બમણો શિરપાવ આપ્યો. એકવાર
અસારતા સમજાઈ અને અમે દીક્ષા અંગીકાર કરી.' મદનોત્સવના પ્રસંગે રાજાએ નગરઉજાણીનો કાર્યક્રમ કર્યો ત્યારે
અગડદત્તનો વૈરાગ્ય અને દીક્ષા : અગડદત્ત શ્યામદત્તા, મિત્રો અને પરિવાર સહિત ઉદ્યાનમાં ક્રીડાથે ગયાં. સંધ્યા સમયે હીંડોળા પર હીંચતી શ્યામદત્તાને કાકોદર સર્વે
સાધુઓના વાત સાંભળી, તે તરુણ એટલે પોતે જ અને તરુણી ડંસ દીધો. તે નિચેતન થઈ ઢળી પડી. તે ખૂબ વિલાપ કરવા
તે શ્યામદત્તા - તેવું તે સમજી ગયો. પોતાની સ્ત્રી આટલી બેવફા લાગ્યો. પરિજનો ઘરે ગયાં. રાત્રિએ વિદ્યાધર યુગલ ત્યાંથી પસાર
છે જાણી સ્ત્રી પરની તેની શ્રદ્ધા નાશ પામી. તેનામાં વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થતું હતું ત્યારે તેણે વિલાપ કરતાં અગડદત્તને જોયો. કરુણાભાવે થયો અને તે સાધુના ચરણોમાં ઢળી પડ્યો. તેણે દીક્ષા અંગીકાર ત્યાં આવી વિલાપનું કારણ જાણ્યું. વિદ્યાધરે શ્યામદત્તાને સ્પર્શ કરી, મહાવ્રતો ધારણ કર્યા, તપશ્ચર્યા કરી અને દેવલોક પ્રાપ્ત કર્યું. કર્યો તો તે સજીવન થઈ અને વિદ્યાધર યુગલ ત્યાંથી વિદાય થયું. આ રીતે કુશલલાભ કૃત ૧૬મી સદીમાં રચિત “અગડદા રાસ' બન્ને દેવકુલમાં ગયાં. અગડદત્ત સ્મશાનમાંથી અગ્નિ લેવા ગયો તે એ પ્રાકૃત ભાષામાં ઈ. સ. પાંચમાં સૈકામાં રચાયેલ ‘વસુદેવહિડી’ પાછો ફર્યો ત્યારે તેના આવતા પૂર્વે તેણે દેવકુલમાં પ્રકાશ જોયો.
અંતર્ગત પ્રાપ્ત થતી “અગડદત્ત કથાનું વિકસિત રૂપ છે. આથી તે તે અંગે પૃચ્છા કરતાં શ્યામદત્તાએ જણાવ્યું કે “એ તો તમારા હાથમાં
કથા તથા રાસની તુલના નિમ્નલિખિત કથા પ્રસંગો દ્વારા કરી શકાય છે. રહેલા અગ્નિનો પ્રકાશ દેવકુલમાં પડ્યો હતો.પછી દીવો
(૧) અગડદત્તનો પરિચય : વ. હિ. અંતર્ગત પ્રાપ્ત કથામાં પ્રગટાવતી વખતે પોતાના હાથમાં રહેલી તલવાર અગડદત્તે
અગડદત્ત ઉજ્જયિની નગરીના સારથી અમોઘરથના પુત્ર૧૫ શ્યામદત્તાને પકડવા આપી ત્યારે અચાનક તલવાર અગડદત્ત પાસે
છે. જ્યારે કુશલલાભ કૃત રાસમાં અગડદત્ત વસંતપુરના પડી. આમ તલવાર પડવાનું કારણ પૂછતાં શ્યામદત્તાએ કહ્યું, “મને
સેનાપતિ સુરસેનનો પુત્ર છે.* કથામાં અગડદત્તની માતાનું ગભરાટ થયો અને તલવાર હાથમાંથી સરી પડી.” પછી તેઓ
નામ યશોમતી છે જ્યારે રાસમાં તેની માતાના નામનો સુખપૂર્વક દિવસો વીતાવવા લાગ્યાં.
કોઈ નિર્દેશ નથી.
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અગડદત્ત કથા (૨). અગડદાની શિક્ષા : માતા પતિના મૃત્યુથી દુઃખી છે. અને દ્ધદ્ધ યુદ્ધ કર્યું તેવો કોઈ ઉલ્લેખ નથી. જ્યારે રાસમાં કથા
પુત્રને પિતા જેવો શસ્ત્રમાં પારંગત બનાવવા શસ્ત્રવિદ્યા વિકાસ પામે છે. કથાને રોચક બનાવવા અગડદત્ત શિક્ષા શીખવા માટે તેને કશીબામાં રહેતા પોતાના પતિના પ્રાપ્ત કરી વસંતપુર પાછો ફરે છે ત્યારે પિતાના હત્યારા પરમમિત્ર અને સહાધ્યાયી દઢપ્રહારીને ત્યાં મોકલે છે.
અભંગસેનને સ્વાગતાર્થે સરોવર પાસે આમંત્રિત કરે છે. રાસમાં તેની માતા પતિના મૃત્યુના શોક ઉપરાંત પોતાનો તેની સાથે સ્વંદ્વયુદ્ધ કરી તેને મારી નાખે છે તેવો ઉલ્લેક અનાદર થતો જોઈ અભંગસેન સાથે બદલો લેવાની ભાવના
મળે છે.૨૨ સેવે છે. સ્વર્ગીય પતિની ઇચ્છા પુત્રને શસ્ત્રમાં પારંગત
વિદ્યાધર અને નાયિકા : કથામાં નગર ઉજાણીના પ્રસંગે બનાવવાની હોઈ તેમના મિત્ર ઉપાધ્યાય સોમદત્ત પાસે
નાયિકા શ્યામદત્તાને નાગ ડંસ દે છે ત્યારે તે મૃત્યુ પામે છે. ચંપાપુર મોકલે છે.
અગડદત્તને વિલાપ કરતો જોઈ ત્યાંથી પસાર થનાર વિદ્યાધર (૩) નાયિકાનું નામ : કથામાં નાયિકાનું નામ શ્યામદત્તા છે
યુગલ કટુણાઆવે ત્યાં આવે છે અને એને સજીવન કરે . જ્યારે રાસમાં નાયિકાનું નામ મદનમંજરી૧૯ છે જે તેના
છે.૨૩ તેવો ઉલ્લેખ છે જ્યારે રાસમાં આ કથાને એક નવો વર્ણિત રૂપસૌંદર્યને અનુરૂપ અને પ્રમાણાત્મક લાગે છે.
જ વળાંક મળે છે. સરોવર કિનારે અગડદત્તની ગેરહાજરીમાં (૪) નાયિકાનું પ્રણયનિવેદન : કથામાં નાયિકા શ્યામદત્તા વૃક્ષ
નાયિકા મદનમંજરી પરપુરુષ સાથે સંભોગ કરે છે. ત્યાંથી વાટિકામાં સ્વરૂપવાન અગડદત્તને જોઈ પોતે મોહી જાય છે
પસાર થતો એક વિદ્યાધર આ જુએ છે તેથી દુઃખી અને અને પોતાનો સ્વીકાર કરવા અનુરોધ કરે છે. તેટલો જ
ગુસ્સે થાય છે. મદનમંજરીને શિક્ષા કરવા તે નીચે ઉતરી ઉલ્લેખમાત્ર છે. જ્યારે રાસમાં આ કથા વિસ્તૃત રૂપ ધારણ
આવે છે. તે દરમ્યાન એક કાળોતરો સર્પ તેને ડંસ દે છે કરે છે. તેમાં નાયિકા મદનમંજરી વૃક્ષવાટિકામાં નાયકને
અને તે મૃત્યુ પામે છે. તે જોઈ વિદ્યાધર તેને યોગ્ય શિક્ષા જોઈ તેના પર મુગ્ધ થાય છે. ઝરૂખામાંથી ઝાડની ડાળીએ
થયાનો સંતોષ અનુભવે છે. મદ: મંજરીના દુશ્ચરિત્રથી ડાળીએ કુદતી તેની પાસે પહોંચી પ્રણય નિવેદન કરે છે.
અજાણ એવો અગડદત્ત તેની પાછળ બળી મરવા તૈયાર આ પ્રણયનું કારણ તેના પતિનું વિદેશગમન ૨૦ છે તેમ
થાય છે ત્યારે અગડદત્તની કરુણાર્દ વિનતીથી વિદ્યાધરે ના દર્શાવવામાં આવ્યું છે.
છૂટકે મદનમંજરીને સજીવન કરી બચાવી છે તેવો ઉલ્લેખ (૫) અગડદત્તનો વિવાહ : કથામાં અગડદત્ત-''મદત્તાનો વિવાહ
મળી આવે છે જે કથાને રોચક અને મર્મીલી બનાવે છે. થયાનો કોઈ ઉલ્લેખ નથી. અગડદત્ત શ્યામદત્તાને લઈ
(૯) કથામાં વિદ્યાધર યુગલનો ઉલ્લેખ છે જ્યારે રાસમાં એક ઉજ્જયિની જાય છે તેટલો માત્ર નિર્દેશ છે. જ્યારે રાસમાં
વિધાધરનો ઉલ્લેખ છે. અગડદત્ત-મદનમંજરીના વિવાહનો પ્રસ્તાવ લઈ શૂરસેન રાજા પાસે જાય છે. ત્યારે અગડદત્ત ઉપદ્રવી ચોરને પકડી મારી
(૧૦) કથામાં નાયક-નાયિકાનાં સુંદર રોમાંચક નખ-શિખ વર્ણનો નાંખી તેનો ખજાનો રાજાને ભેટ ધરે છે અને મદોન્મત્ત
છે. તેમાં અનેક ઉપમા, ઉપમેય અને રૂપકો દ્વારા પ્રાકૃતિક હાથીને અંકુશિત કરે છે ત્યારે રાજા પોતે જ તેઓનાં લગ્ન
વર્ણનો તથા અટવીનાં ભયાનક વર્ણનો કરવામાં આવેલાં કરાવી આપે છે તેવો ઉલ્લેખ છે. જેથી કથાના રસપ્રવાહને
છે. જ્યારે રાસમાં વિસ્તૃત વર્ણનોને સ્થાન આપવામાં આવ્યું સરળતાથી આગળ ધપાવી વાંચ. ના દિલમાં સાહસિક
નથી. કથાને પરંતુ રોચક અને ધાર્મિક બનાવવાનો પ્રયત્ન અગડદત્ત પ્રત્યેના માનમાં વૃદ્ધિ કરે છે.
કરેલો જણાય છે. અગડદત્તનું સ્વદેશ પાછા આવવું ; કથામાં અગડદત્ત (૧૧) અગડદાન દીધા : કથામાં અગડદત્ત દીક્ષિત થઈ પોતાના શ્યામદત્તા સાથે ઉજ્જયિની પાછો ફરે છે તેમાં અટવીનું
ચરિત્રનું સ્વયં આત્મવૃતાંત કહે છે. જ્યારે રાસમાં અગડદત્ત ભયાનક, બિહામણું વર્ણન છે. જેમાં અગડદા પાખંડી દેવસ્થાનમાં મળેલા ચોરોના નાયક દ્વારા પોતાનું ચરિત્ર પરિવ્રાજકરૂપી ચોર, હાથી, વાધ, દષ્ટિવિષ સર્પ અને અર્જુન સાંભળી સંસારની અસારતા અને સ્ત્રીચરિત્રની વિષમતા નામે ભયાનક ચોર જેવાં સંક્ટોનો સામનો કરી હેમખેમ જાણી દીક્ષા અંગીકાર કરે છે તેઓ ઉલ્લેક મળી આવે છે. પાર ઊતરે છે તેવો ઉલ્લેખ છે. જ્યારે રાસમાં કથા જેવાં
આમ અગડદત્તકથા સાથે અગડદા રાસનાં અને જેટલાં ભયાનક, બિહામણાં વર્ણનો નથી. તેમાં નદી,
પ્રસંગોપાત્તની તુલના કરતાં કથાકાર કરતાં રાસકારે અનેક સિંહ, સર્પ અને ચોર જેવાં ચાર સંકટોનો ઉલ્લેખ કરેલો છે
સ્થાને સુધારો – વધારો સ-રસ અને રોચક બનાવી છે એમ જેમાંથી ચોરી અને સર્પ-એમ બે સંકટો સમાન છે અને
કહી શકાય છે. બાકીનાં સંકટો ભિન્ન મળી આવે છે.
સંદર્ભસૂચિ અભંગસેન વધ : કથામાં શિક્ષા પ્રાપ્ત કરી પાછાં ફરતાં
શ્રી ભવરલાલ નાહટા, અગડત્ત કથા અને તત્સંબંધી જૈન અગડદત્તે તેના પિતાના હત્યારાની હત્યા કરી કે તેની સાથે
સાહિત્ય, વરદા, વર્ષ ૨ અંકડ ૩ પૃછ ૨
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ ૨ ડો. જે. સી. જૈન, પ્રાકૃત જૈન કથા સાહિત્ય પૃ. ૧૧
ભોગીલાલ સાંડેસરા, પ્રકા. ગુજ. સાહિત્ય અકાદમી, રાજસ્થાન પ્રાપ્તવિદ્યા પ્રતિષ્ઠા, જોધપુર, ઇ મિ. . ગાંધીનગર, ૧૯૮૮ પૃ. ૫૪ (૨૭૨ ૩૩).
૧૬ ‘વસન્તપુર સેનાપતિ જેહ, સૂરસેન નડ મંદન એક ચો. તે જ પ્રથાક, ૧૧૨૪
૫૫ ભંડારકર પ્રાચ્ય વિદ્યામંદિર પૂના ચું, ૬૦૫. ભંડારકર પ્રાચ્યવિદ્યા મંદિર, પૂના, હ, ઝ. ૬૦૫. પ્રાચ્ય ૧૭ વસુદેવહિડી-અનું ભો ગીલાલ સોડસરા, ગુજ. સાહિ. વિદ્યામંદિર વડોદરા હ. ગ્રં. ૧૪૨૮૯
અકાદમી, ગાંધીનગર પૃ. ૫૪ વરદા વર્ષ ૧૨, અંક - ૩ પૃ. ૨
૧૮ ભાંડારકર પ્રાચ્યવિદ્યા મંદિર પૂના ગ્રં - ૬૦૫, ચોપાઈ ૨૫ સંઘ ભંડાર, પાલનપુર પ્રશ્ન ક્રમાંક દાબડા ૪૬, પૃ. ૨૩
- ૨૭ સીમંધર સ્વામી જીપ ભંડાર, સુરત. દા. ૨૪
१८ इणा अवसरि वाडी नह पासि, सागरसेटी तबाऽ आवासा । ३६ ૯ નાહરાજીનો અભય જૈન ગ્રંથાલય સંગ્રહ
साहमइ ऋषि सेठि कुंअरी, सेह नऽ नाम मदनमंजरी ॥ ३७ ૧૦ સેંટ્રલ લાયબ્રેરી વડોદરા પોથી ૫૩૨૫ દાબડા ૮૦. ૨૦ અગડદત્તરાસ : ભાંડારકર પ્રા. વિ. મું. પૂના ગ્રં. ૬૦૫, (પ્રતિક્રમાંક ૩૭
ચો (૫૪-૫૬) ૧૧ હાલાભાઈ ભંડાર, પાટણ.
૨૧ અગડદત્ત રાસ : ભાંડારકર પ્રા. વિ. મંડળ પૂના, ગ્રંથ-૬૫ ૧૨ નાહાટજી ભંડાર, અભય જૈન સંગ્રહ ગ્રંથાલય
ચો.૧૩૫-૧૩૬ ૧૩ ભાડાસ્કર ઇન્ટિટૂટ, પૂના,
૨૨ અગડદત્તરાસ : ભાંડારકર પ્રા. વિ. મંદિર પૂના, ૬૦૫ ચો
- ૨૩૫ - ૨૩૭ ૧૪ નાહટજી ભંડાર, અભયજૈન સંગ્રહ ગ્રંથાલય ૧૫ શ્રી સંઘદાસ ગણિ-વાચક રચિત વસુદેવહિડી અનુ.
૨૩ વાસુદેવંહિડી : અનુ ભોગીલાલ સાંડેસરા સા. અકા. ૧૯૫૫
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સાધુસંતોની વાણીમાં પ્રગટ થતી બિનસાંપ્રદાયિકતા અને સામાજિક સંવાદિતા
ડૉ. કનુભાઈ શેઠ
પ્રાસ્તાવિક
પ્રાચીન-મધ્યકાલીન જૈન સાહિત્ય બહુધા જૈન સંતો-સાધુઓમુનિઓ દ્વારા રચાયેલ છે. આ સાહિત્ય પ્રાય: પદ્યમાં રચાયેલ છે. ગદ્ય પ્રમાણમાં અલ્પ છે. આવું પદ્યાત્મક સાહિત્ય સંસ્કૃત, પ્રાકૃત, અપભ્રંશ, પ્રાચીન ગુજરાતી, રાજસ્થાની, વ્રજ, તામિલ, તેલુગુ વગેરે ભાષામાં પ્રાપ્ત થાય છે. વિષયની અપેક્ષાએ એમાં દર્શન, યોગ, કાવ્યો, કથા, ચરિત્ર, પ્રબંધ, નાટક, છંદ, અલંકાર તથા આધ્યાત્મિક અને ઉપદેશાત્મક પદ-સાહિત્ય વિપુલ પ્રમાણમાં જોવા મળે છે. જૈન ધર્મના સિદ્ધાંતો સ્કૂટ કરવા માટે જૈન સંતોએ સર્જેલી ગ્રંથસંપત્તિ પ્રમાણમાં વિપુલ છે. એમાં એમણે મધ્યસ્થપણે તત્ત્વનિરૂપણ કરતા લોકકલ્યાણ કે સામાજિક સંવાદિતા પરત્વે વિશેષ ઝોક આપ્યો છે. અત્રે જૈન સંપ્રદાયના આવા કેટલાક સંતોની વાણીમાં પ્રગટ થતી બિનસાંપ્રદાયિક્તા અને સામાજિક સંવાદિતાનું અવલોકન કરવાનો ઉપક્રમ છે. મહાવીરવાણીમાં સ્વાહિતા
સમ્યક પ્રકારે પવિત્ર જ્ઞાનસંપત્તિ કે શુદ્ધ વિચારધારા પ્રદાન કરનાર પરંપરા તે સંપ્રદાય (સમ + અ + દાય અર્થાત્ સમ્યક પ્રકારે પ્રદાન કરનાર). આવા સંપ્રદાય એક કરતાં અનેક હોય તે ઇચ્છનીય છે. પરંતુ જો આવા સંપ્રદાયો પરસ્પર સંઘર્ષ કરે તો તે સંપ્રદાય ન રહેતાં “સંપ્રદાહ' (સમ + અ + દાહ અર્થાત્ ખૂબ બાળનાર) થાય છે. આવા સંપ્રદાય પાસે અપેક્ષા રહે કે બીજું કોઈ જ્ઞાન ન મળે પણ ફક્ત સત્ય, અહિંસા, મૈત્રી, પરસ્પર સંવાદિતા, પરોપકાર અને સંયમના જ બોધપાઠો સારી રીતે પ્રાપ્ત થાય તો ઈહલોક અને પારલૌકિક સુખ માટે, તેમજ જીવનકલ્યાણ માટે - સામાજિક સંવાદિતા માટે તે પર્યાપ્ત છે. જો જનતાના બૌદ્ધિક વિકાસ કે જ્ઞાનવિનોદ માટે એમણે બીજું આપવું હોય તો પરસ્પરના સંઘર્ષ વગર સભ્યતાથી, મધ્યસ્થતાથી, ઉચ્ચ વાત્સલ્યભાવથી આપે.
વૈદિક અને શ્રમણ-સંસ્કૃતિ મહાવીર અને બુદ્ધના જમાનામાં પરસ્પર સંઘર્ષમાં આવી અને એ મહાપુરુષોને એમના પ્રખર તપોબળે સારો વિજય અપાવ્યો. મોટા મોટા વિદ્વાનો કોઈ મહાવીરના શાસનમાં (મહાવીરના ગૌતમ આદિ પ્રથમ અગિયાર શિષ્યો પ્રખર બ્રાહ્મણ વિદ્વાનો હતા) જોડાયા, તો કોઈ બુદ્ધના શાસનમાં.
મહાવીરના ક્રાન્તિકારક ઉપદેશમાં મુખ્યત્વે લોકોમાં પ્રચલિત અંધવિશ્વાસ હટાવવો, હિંસાનું વાતાવરણ મિટાવવું, અહિંસામૈત્રીભાવનો પ્રચાર કરવો, વિવેકબુદ્ધિના ઉદ્ઘાટન દ્વારા ધર્મો અને
દર્શનો સંબંધી સમન્વય રેખા-સંવાદિતા રજૂ કરવી, અને સહુથી મોટી વાત એ છે કે માણસોને એ દર્શાવવું કે તમારું સુખ તમારા હાથમાં જ છે. ધન-વૈભવમાં, પરિગ્રહમાં અસલી સુખ જોવાની ચેષ્ટા કરશો તો અસફળ રહેશો. જનતામાં સત્યનો પ્રચાર થાય તે માટે એ સંતે તે વખતે વિર્ભાષા ગણાતી એવી સંસ્કૃત ભાષાને સ્થાને જનસમાજમાં - લોકસમાજમાં પ્રચલિત એવી પ્રાકૃત ભાષામાં પોતાની ઉપદેશ-વાણી વહેવડાવી હતી. મહાવીરે ખૂબ ભારપૂર્વક કહ્યું છે કે, “માનવ પોતાનું આત્મહિત-પોતાનું જીવનશોધન જેટલું વધુ સાધે છે તેટલું વધુ બીજાનું ભલું - બીજાનું હિત કરી શકે છે અને એટલી વધુ સંવાદિતા સમાજમાં સ્થાપે છે.”
બધા સત્યશોધકની સત્યખોજ કરવાની પદ્ધતિ જુદી જુદી હોય છે. મહાવીરની નિરૂપણશૈલી જુદી છે. આ શૈલીનું નામ છે અને કાન્તની શૈલી.
વસ્તુનું પૂર્ણ તથા પર્યાપ્ત દર્શન થવું કઠિન છે. જેમને થાય તેને પણ તેના તે જ રૂપમાં શબ્દ દ્વારા ઠીક ઠીક કથન કરવું કઠિન જ છે. દેશ, કાળ, પરિસ્થિતિ, ભાષા, શૈલી વગેરેના ભેદના કારણે તે બધાંનાં કથનોમાં કંઈ ને કંઈ ભિન્નતા, વિરુદ્ધતા દેખાઈ આવે એ અનિવાર્ય છે. આવી વસ્તુસ્થિતિ જોઈ મહાવીરે વિચાર્યું કે એવો માર્ગ કાઢવો જોઈએ, જેથી વસ્તુનું પૂર્ણ યા અપૂર્ણ સત્યદર્શન કરવાવાળા સાથે અન્યાય ન થવા પામે. બીજાનું દર્શન અપૂર્ણ અને આપણી પોતાની વિરુદ્ધ હોવા છતાં જો સત્ય હોય, અને એ જ પ્રમાણે આપણું પોતાનું દર્શન અપૂર્ણ અને બીજાથી વિરુદ્ધ હોવા છતાં જો સત્ય હોય તો એ બંનેને ન્યાય મળે એવો માર્ગ કાઢવો જોઈએ. એ માર્ગ તે અનેકાન્ત દષ્ટિ, સંવાદિતાની દષ્ટિની આ ચાવી વડે તે સંતે વૈયક્તિક તથા સામૂહિક જીવનની વ્યાવહારિક અને પારમાર્થિક સમસ્યાઓનાં તાળાં ખોલી નાખ્યાં છે. આમ સામાજિક સંવાદિતા ઊભી કરી. એમણે કહ્યું - રાગદ્વેષની વૃત્તિને વશ ન થતાં સાત્વિક માધ્યચ્ય રાખવું. માધ્યશ્મનો પૂર્ણ વિકાસ ન થાય ત્યાં સુધી તે તરફ લક્ષ્ય રાખી કેવળ સત્યની જ જિજ્ઞાસા રાખવી. જેમ આપણા પોતાના પક્ષ કે મત પર, તેમ બીજાના વિરોધી લાગતા પક્ષ કે મત પર, આદરપૂર્વક વિચાર કરવો અને જેમ વિરોધી પક્ષ કે મત પર, તેમ આપણા પોતાના પક્ષ કે મત પર પણ તીવ્ર સમાલોચક દષ્ટિ રાખવી. પોતાના અને બીજાઓના
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४०
શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ અનુભવોમાંથી જે જે અંશ ઠીક માલૂમ પડે - ચાહે તે વિરોધી જ જ વિશેષ પણે બળ આપ્યું છે. આ જ સિદ્ધાંત ઉત્તમ વ્યવસ્થાપક કેમ ન જણાતા હોય-એ બધાનો વિવેકપ્રજ્ઞાથી સમન્વય કરવાની છે અને એને ન માનવાથી એની જગ્યાએ નનનીવર્ગના અપસિદ્ધાંતને ઉદારતાનો અભ્યાસ કરવો અને અનુભવના વધવા પર પૂર્વના સ્થાપિત કરવાથી સામાજિક સંવાદિતાને હાની પહોંચે છે. તે સમયે સમન્વયમાં જ્યાં ભૂલ જણાય ત્યાં મિથ્યાભિમાન છોડી સુધારો
ઉચ્ચ અને નીચ ભાવની સંકુચિત વૃત્તિ એટલી - કટ્ટર અને કઠોર કરવો અને એ ક્રમે આગળ વધવું. આમ આ દષ્ટિ એટલે સંપૂર્ણ
હતી કે નીચ અને હલકા-શુદ્ર ગણાતા માણસો ઉપર કઠોર સંવાદિતા સ્થાપવી.
જુલમ-સીતમ કરવામાં આવતો હતો. જેમકે “ગૌતમ ધર્મસૂત્ર'માં
કહ્યું છે કે - વેદ સાંભળનાર શુદ્રના કાનમાં સીસુ અને લાખ ભરી મહાવીરની વાણીમાં ધ્યાન ખેંચનારી ત્રણ બાબત છે.
દેવી; એ વેદનું ઉચ્ચારણ કરે તો જીભ કાપી નાખવી; અને યાદ અનેકાન્ત, અહિંસા અને અપરિગ્રહ. અને કાના વિશે આપણે ચર્ચા
કરી લે તો એનું શરીર કાપી નાખવું : કરી છે કે માનવવર્ગમાં પરસ્પર સૌમનસ્ય-સંવાદિતા સાધવાનો માર્ગ અનેકાન્ત દષ્ટિના યોગે સરળ થાય છે. અહિંસામાંથી અનેકાન્ત
अथ दास्य वेदमुपशृण्वतस्रपुजतुम्यां श्रोत्रप्रनिपूरणम् । દષ્ટિ ફુરે છે. અને અનેકાન્ત દષ્ટિના યોગે અહિંસા જાગૃત થાય
उदाहरणे-जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः ॥ છે. આમ એ બન્ને વચ્ચે ઘનિષ્ઠ સંબંધ છે. હિંસામાં અસત્ય ચોરી
गौतमधर्मसूत्र વગેરે બધા દોષો અને બૂરાઈઓનો સમાવેશ થઈ જાય છે. હિંસા,
न शुद्राय मतिं दघान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम् । જૂઠ, ચોરી, લુચ્ચાઈ, વગેરે બધા દોષો પરિગ્રહના આવેશમાંથી न चात्योपदिशेद् धर्म न यास्य व्रतमादिशेत् ॥ જન્મે છે. એ જ સમાજમાં વિષમતા આણે છે અને વર્ગવિગ્રહ
વાસિષ્ટ ધર્મસૂત્ર જગાડી ધાંધલ અને ધિંગાણા મચાવરાવે છે. બધાં પાપો અને
વળી “વાસિષ્ઠ ધર્મસૂત્ર'માં કહ્યું છે કે શુદ્રને બુદ્ધિ ન આપવી સ્વચ્છન્દતા તથા વિકાસોન્માદોનું મૂળ એ છે. અહિંસાની સાધના અને યજ્ઞનો પ્રસાદ ન દેવો અને એને ધર્મનો ઉપદેશ તથા વ્રતનો પરિગ્રહના સમુચિત નિયંત્રણ વગર અશક્ય હોઈ પરિગ્રહ નિયમન આદેશ ન આપવો. આમ ધર્મનાં દ્વાર તેમને માટે બંધ હતાં. આ જીવનહિતની અને સમાજહિતની પ્રથમ ભૂમિ બને છે. માટે સંદર્ભમાં મહાવીરે જણાવ્યું કે - ગૃહસ્થવર્ગના તેમજ સમગ્ર સમાજના ભલા માટે એ મહાત્માએ उच्चो गुणे कर्मणि यः स उच्यते । પરિગ્રહ પરિમાણ (પરિમિત પરિગ્રહ), જેના વગર સમાજમાં કે
नीचो गुणे कर्मणि यः स नीचः । જનતામાં મૈત્રી તથા સુખ-શાંતિ સ્થપાઈ શકતી નથી, તેના ઉપર
शुद्रोऽपि चेत् सच्चरितः स उच्चो, । ખૂબ જ ભાર આપ્યો છે. અને એ રીતે લોકોનું વ્યવહારુ જીવન
द्विजोऽपि चेद् दुश्चरितः स नीचः ॥ ઉજ્જવળ અને સુખશાંતિવાળું બને એ દિશામાં એ સંતપુરુષનો
જે ગુણ-કર્મમાં ઉચ્ચ છે તે ઉચ્ચ છે અને જે ગુણકર્મમાં નીચ ઉપદેશપ્રચાર વ્યાપક બનેલો છે. આજે સામ્યવાદ અને સમાજવાદનું
છે તે નીચ છે. કહેવાતો શુદ્ર પણ સચ્ચરિત્ર હોય તો ઉચ્ચ છે અને આંદોલન જગત ઉપર ફરી વળ્યું છે, પણ સામ્યવાદનો સામાજિક
કહેવાતો બ્રાહ્મણ પણ દુશ્ચરિત્ર હોય તો નીચ છે. આમ કહી વર્તનના સંવાદિતાનો વિશુદ્ધ રૂપનો પ્રચાર પરિગ્રહ પરિમાણ અને લોકમૈત્રીનો
સુસંસ્કાર પર ઉચ્ચપણું પ્રતિષ્ઠ હોવાનું સમજાવ્યું. માત્ર વાણીથી જ વિશાલ નાદ બજાવી અઢી હજાર વર્ષ પૂર્વે સર્વ પ્રથમ શ્રેષ્ઠ રીતે
ન સમજાવ્યું પણ નીચ, દલિત કે અસ્પૃશ્ય ગણાતાઓને માટે પણ મહાવીરે કરેલો એ ઐતિહાસિક સત્ય છે.
પોતાનાં ધર્મસંસ્થાનાં દ્વાર ખુલ્લા કરી દીધાં, આમ મહાવીર મહાવીરે તે સમયમાં પ્રચલિત થયેલી દાસ-દાસીની બૂરી સામાજિક સંવાદિતા પ્રસ્થાપિત કરવાનો પ્રયાસ કર્યો હતો. પ્રથાઓ હટાવવા તીવ્ર તપશ્ચર્યા કરી લોકોને સમાનતાના પાઠ તે સમયે સ્ત્રીને હીન કોટીએ મૂકી દેવામાં આવી હતી. વેદમાં ભણાવ્યા હતા. મહાવીરે દાસીપણામાં સપડાઈ ગયેલી રાજકુમારી
સ્ત્રીને તિરસ્કારવામાં આવી હતી તે વખતે મહાવીરે જગત આગળ ચન્દનબાળા'ને સાધ્વી બનાવી હતી તે નોંધપાત્ર છે. આ છે સ્ત્રીને પુરુષ સમકક્ષ જાહેર કરી અને ધાર્મિક ક્ષેત્રમાં પુરુષના સરખે સામાજિક સંવાદિતાનું જ ઉદાહરણ.
દરજ્જુ ચઢાવી અને તેને સન્યાસ-દીક્ષામાં પણ સ્વીકારી. એમણે સામાજિક સંવાદિતા સ્થાપવા અર્થે ઉત્તરાધ્યન સૂત્રમાં કહ્યું : એમના ધર્મ માર્ગને એના સાચા રૂપમાં માનવધર્મ કહી શકીએ. कम्मुणा बंभणो होई कम्मुणा होइ खत्तिओ
જે બધા પ્રત્યે ન્યાય અને સમાનતાની દષ્ટિવાળો હોઈ જગતનો વો ટોટું સુદ્ધો વડુ મુળા || ૩૦ ||
કોઈપણ માણસ પોતાના સ્થિતિ-સંજોગ પ્રમાણે એને અનુસરી શકે
છે, પાળી શકે છે એ પૂર્ણદા વિતરાગ જ્ઞાની માર્ગ “જિન' પ્રકાશ (ઉત્તરાધ્યન, પચીસમું અધ્યયન)
કે પ્રચારમાં આણેલ હોવાને કારણે જ જૈનધર્મ કહેવાય છે. બાકી કર્મથી બ્રાહ્મણ છે. કર્મથી ક્ષત્રિય છે. કર્મથી વૈશ્ય છે અને
એની વાસ્તવિક્તા અને વ્યાપકતા જોતાં એ સર્વજનસ્પર્શી અને કર્મથી શુદ્ર છે.
સર્વજનહિતાવહ માર્ગદર્શક ધર્મ જનધર્મ' કહી શકાય. આમ મહાવીરે (અને બુદ્ધ પણ) કર્મળા વર્ગના સિદ્ધાંત ઉપર
વળી મહાવીર કહે છે -
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સાધુસંતોની વાણીમાં પ્રગટ થતી બિનસાંપ્રદાયિક્તા અને સામાજિક સંવાદિતા સમતાથી શ્રમણ થવાય છે. બ્રહ્મચર્યથી બ્રાહ્મણ થવાય છે. હરિભદ્રસૂરિ બીજી રીતે પણ ઉપચાર વગર ઇશ્વરને કર્તા જ્ઞાન (વિવેકજ્ઞાન)થી મુનિ થવાય છે અને તપથી તાપસ થવાય છે. બતાવે છે : समवाए समणो होइ बंभचरेण बंभणो ।
परमैश्वर्यकृत्वान्मत आत्मैव वेश्वरः । નાળા ૧ મુળી હોર્ તવેન હોર્ તાવતો ૩૧ /
सच कर्तेति निर्दोषे कर्तृवादो व्यवस्थितः ॥ ४ ॥ સમતા એટલે સર્વ પ્રાણીઓ પ્રત્યે સમાનતાનો ભાવ કેળવી
અથવા પરમાત્મા ઈશ્વર છે એમ મનાયું છે, કેમકે દરેક આત્મા આત્મીયતા બતાવવી તે, તેમજ સુખદુઃખ, લાભહાનિ, જય
(જીવ) એના સાચા રૂપમાં પરમ ઐશ્વર્યપુંગી છે અને આત્મા (જીવ) પરાજયના પ્રસંગોમાં મનનું સમતોલપણું ન ગુમાવતાં એનું ધૈર્ય
તે ચોખ્ખી રીતે કર્તા છે જ. આવી રીતે ઈશ્વરકર્તુત્વવાદ વ્યવસ્થિત જાળવી રાખવું તે.
થઈ શકે છે. બ્રહ્મચર્ય એટલે પૌલિક સુખોપભોગમાં લુબ્ધ ન થતાં મનનો
આમ હરિભદ્રસૂરિ સંવાદિતા સ્થાપવા પ્રયત્ન કરે છે. નિરોધ કરી બ્રહ્મમાં (પરમાત્મા અથવા પરમાત્મા પદે પહોંચાડનાર કલ્યાણમાર્ગમાં) વિચરવું, વિહરવું - રમમાણ થવું તે.
આચાર્ય હેમચન્દ્રાચાર્ય પ્રભાસ પાટણમાં સોમનાથ મહાદેવની
મૂર્તિના સામીપ્ય સ્તુતિ કરતી વખતે નીચેનો શ્લોક બોલ્યા હતા. જેમકે યશોવિજયજી કહે છે -
તે તેમની બિનસાંપ્રદાયિક્તા તથા સામાજિક સંવાદિતા પ્રસ્થાપિત જૈન ધર્મનો મુખ્ય ઉપદેશ એ છે કે “જે જે રીતે રાગ-દ્વેષ ઓછા થાય, નષ્ટ થાય, તે તે રીતે વર્તા-પ્રવર્તે ( િવ€ળા
કરવાનો પ્રયાસ છે. जह जह रागदोषा लहुं विलिजन्ति वह वह पयष्टि अव्यं एसा आणा
भवतीजाकर जनना रागायाः क्षयमुपागता यस्या । ગિળ રાખે છે
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्यै ॥ આધ્યાત્મપરીક્ષા-અંતિમગાથા. - યશોવિજયજી ભવ-સંસારના કારણભૂત રાગ, દ્વેષ આદિ સમગ્ર દોષો જેના આમ મહાવીર વાણીમાં પદે પદે સામાજિક સંવાદિતા પ્રગટ ક્ષય પામ્યા છે તે ચાહે બ્રહ્મા, વિષ્ણુ, શંકર અથવા જિન હોય તેને થાય છે.
મારા નમસ્કાર છે. સંત હરિભદ્રસૂરિ (આઠમી સદી) એમના તત્ત્વપૂર્ણ સુંદર ગ્રંથ મૂર્તિ એ આવા વીતરાગતાના ઉચ્ચતમ આદેશનું (પરમાત્માનું) શાસ્ત્રવર્તાિ સમુગ' માં જૈનદર્શનસંમત “ઇશ્વર જગતકર્તા નથી? વીતરાગતાનો પ્રતિભાસ પાડનારું પ્રતીક છે તે પ્રતીક દ્વારા આદર્શ એ સિદ્ધાંત યુક્તિપુરસ્સર સિદ્ધ કર્યા પછી એ સમભાવસાધક અને (પરમાત્મા)ની પૂજા-ભક્તિ થઈ શકે છે. આદર્શને કયા નામથી ગુણપૂજક આચાર્ય કહે છે :
પૂજવું એ બાબતમાં આ શ્લોક કહે છે કે આદર્શનું પૂજન અને ततश्वेश्वरकर्तृत्ववादोऽयं युज्यते परम
ભક્તિ અમુક જ નામ જ ઉચ્ચારીને થઈ શકે એવું કાંઈ નથી. ગમે સી[ ચાર વિરોઘેન વઘા ડું: ૧૦ || તે નામ આપીને અને ઉચ્ચારીને આદર્શને પૂજી શકાય છે. ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात् ।
- સંત યશોવિજયજી પણ એમની “પરમાત્માપચીસી' નામની થતો મુસ્તિતસ્તHI: ર્તા ચાલ્ ગુમાવતઃ || ૧૧ // કૃતિમાં કહે છે કે - तदनासेवनादेव यत् संसारोऽपि तत्त्वतः ।
बुध्यो जिनो हृषीकेश शम्भुर्ब्रह्मादिपूरुषः । તેન તપ ઝૂંવં તુતિ / ૧૨ /
इत्यादिनामभेदेऽपि नार्थतः स बिमिद्यते ॥ ઈશ્વરકતૃત્વનો મત આવી રીતની યુક્તિથી ઘટાવી શકાય છે કે બુદ્ધ, જિન, હૃષીકેશ- શમ્મુ, બ્રહ્મા, આદિ પુરુષ વગેરે જુદાં રાગદ્વેષ મોહરહિત પૂર્ણ વીતરાગ પૂર્ણજ્ઞાની પરમાત્મા એ જ ઈશ્વર જુદાં નામ છતાં એ બધાનો અર્થ એક જ છે. એક જ પરમાત્મા એ છે. અને તેણે ફરમાવેલ કલ્યાણમાર્ગને આરાધવાથી મુક્તિ પ્રાપ્ત બધાં નામોથી અભિહિત થાય છે. અને વળી ‘અનેકાન્ત વિભૂતિ થાય છે, માટે યુક્તિના દેનાર ઈશ્વર છે એમ ઉપચારથી કહી શકાય
દ્વાત્રિશિકા' નામના ગ્રંથમાં યશોવિજયજી કહે છેઅને એ પરમાત્માએ બતાવેલ સદ્ધર્મમાર્ગનું આરાધન નહિ કરવાથી
रागादिजेता भगवन् । जिनोऽसि । ભવભ્રમણ જે કરવું પડે છે તે પણ ઈશ્વરનો ઉપદેશ નહિ માન્યાનું પરિણામ છે.
बुध्धोऽसि बुद्धि परमामुपेतः ‘ઈશ્વર કર્તા છે' એવા વાક્ય પર કેટલાકનો આદર બંધાયો છે
कैवल्यविद् व्यापितयाऽसि विष्णुः તેમને લક્ષ્યમાં રાખીને પૂર્વોક્ત પ્રકારની વ્યાખ્યા - દેશના આપવામાં शिवोऽसि कल्याण विभूति पूर्णः ॥ આવી છે એમ હરિભદ્રસૂરિ કહે છે.
હે પ્રભુ, તું રાગાદિ દોષોનો જેતા હોવાથી જિન છે, પરમ कर्ताऽयमिति तद्वाक्ये यतः केषाश्चिदादरः ।
બુદ્ધિને પ્રાપ્ત થયેલ હોઈ બુદ્ધ છે. કૈવલજ્ઞાનથી વ્યાપક હોવાથી अतस्तदानुगुण्येन तस्य कर्तृत्वदेशना ॥ ३॥
વિષ્ણુ છે અને કલ્યાણપૂર્ણ હોવાથી શિવ છે.
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ અહીં તાત્પર્ય એ છે કે તમને ગમે તે મૂર્તિનું અને ગમે તે વ્યવહાર માર્ગ હેતુએ સંઘની સ્થાપના પણ કરી છે અને તેના નામનું આલંબન લો, છતાં જેમની પૂજનીય મૂર્તિનો આકાર-પ્રકાર આચારની રજૂઆત કરી છે તો પણ, તેનો અર્થ એ નથી કે જે કે રચનાપ્રકાર ભિન્ન હોય અથવા જેઓ આદર્શ ઓળખવા માટે
સંઘમાં ન હોય તથા તે એ પ્રકારના આચાર ન પાળતો હોય તો જુદા નામનો ઉપયોગ કરતા હોય તેમની સાથે તે કારણે વિરોધ કે
પણ જો તે સત્ય-અહિંસાને માર્ગે ચાલતો હોય તો તે જૈન છે. પછી તકરાર કે વિસંવાદિતા કરવાનું કોઈ કારણ નથી, એટલું જ નહિ,
તે ભલે ગમે તે જાતિ-કુળ-વંશ-સંપ્રદાયનો હોય, પણ તે અવશ્ય તેની બાબતોને લઈને તેમના પ્રત્યેના આપણા મૈત્રીશાળી વ્યવહારમાં
જૈન છે. અને તે મોક્ષનો અધિકારી છે એમ જૈન ધર્મ કહે છે : ફરક ન પડવો જોઈએ. વીતરાગતા એ પ્રત્યેક માનવનું અંતિમ સાધ્ય-ધ્યેય હોવું જોઈએ
આમ જૈન ધર્મમાં પાયા રૂપે જ સામાજિક સંવાદિતા રહેલી છે. એ મુખ્ય બાબત સિવાય જૈન ધર્મ અન્ય સંપ્રદાયોની તત્ત્વવિષયક અઢારમી સદીમાં થઈ ગયેલ સંત આનંદઘનજીના સમયમાં માન્યતા અને આચારસંહિતા અથવા ક્રિયાકાંડ પ્રત્યે આદર ધરાવે જૈન સંપ્રદાય વિચ્છિન્ન હતો. પ્રત્યેક ગ૭ સ્વમતાગ્રહી હતો. એટલે છે તે બાબત યશોવિજયજીના ‘પરમાત્માપચ્ચીસી'ના નીચેના કવિ કહે છે : શ્લોકથી સ્પષ્ટરેખ થાય છે.
ગચ્છના ભેદબહુ નયન નીહાળતાં, जितेन्द्रिया जितक्रोधा दान्तात्मानः शुभाशयाः
તત્ત્વની વાત કરતાં ન લાજે, परमात्मगतिं यान्ति विभन्नेरिव वर्त्मनिः ।
ઉદરભરણાદિ નિજ કાજ કરતાં થકી, જીતેન્દ્રિય, ક્રોધાદિકપાપરહિત. શાન્તમના, શુભ આશયોવાળા
મોહ નડીઆ કલિકાલકાજે, સજ્જનો જુદા જુદા માર્ગથી પણ પરમાત્મા દશાએ પહોંચી શકે છે.
રામ ભણી, રહેમાન ભણાવી, અરિહંત પાઠ પઢાઈ જયશેખરસૂરિ પોતાની સંબોહસત્તરમાં કહે છે કે -
ઘર ઘર ને હું ધંધે વિલગી, અલગી જીવ સગાઈ. सेयंबरो य आसंवरो य बुध्यो व अहव अन्नोवा
આમ આનંદઘનજી ગચ્છ માનતા નથી, તે બધા સંપ્રદાયના સમમવમવિ કપ તારું કુવરવું ન સંવેદો // ૨
સમન્વયમાં માનનારા છે. તે સામાજિક સંવાદિતામાં માને છે. શ્વેતાંબર, દિગંબર, બૌદ્ધ યા અન્ય કોઈ પણ જો સમભાવભાવિત હોય તો અવશ્ય મુક્તિ પ્રાપ્ત કરે છે.
સંદર્ભ ઃ ૧. જૈન દર્શન, ન્યાયવિજયજી પાટણ. ૧૯૬૮ જૈન ધર્મનો પરિચય કરવાથી માલુમ પડે છે કે તે વસ્તુતઃ
૨. યશોદોદન, હીરાલાલ કાપડિયા. વાડારૂપ સંપ્રદાય નથી. તે જીવનવિધિ કે જીવનચર્યા છે. તો પણ
૩. આનંદઘનનાં પદો, હીરાલાલ કાપડિયા તીર્થકરે ચતુર્વિધ સંઘની સ્થાપના કરી છે (સાધુ-સાધ્વી-શ્રાવકશ્રાવિકા) અને આચાર-ક્રિયા-પદ્ધતિ-પણ પ્રદર્શિત કરી છે, અને
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દીક્ષાના પ્રકારો
a પ. પૂ. સાધ્વી શ્રી મોક્ષગણાશ્રીજી મ. સા.
જિનેશ્વર ભગવંતે જે માનવ જન્મને દુર્લભ કહ્યો છે તે માનવ જન્મ મળ્યા પછી તેને સારી અને સાચી રીતે સફળ કરવો હોય તો તે માટે જિનશાસનમાં ત્યાગવૈરાગ્યમય દીક્ષાનો બોધ અપાયો છે. દીક્ષા એટલે સર્વવિરતિ; ત્યાગવૈરાગ્યમય ગૃહસ્થજીવન એટલે દેશવિરતિ. ગૃહસ્થજીવનનો પણ ત્યાગ એટલે સર્વવિરતિ. કંચનકામિનીનો ત્યાગ, વિષયોનું વમન, કષાયોનું શમન, ઇન્દ્રિયોનું દમન દીક્ષામાં અનિવાર્ય ગણાય છે. પરંતુ બધી દીક્ષા લેનારા એક જ આશયવાળા નથી હોતા. દીક્ષા પણ જુદા જુદા હેતુથી લેવાય છે.
“ઉપદેશ ચિંતામણિ' નામના પોતાના ગ્રંથમાં કવિચક્રચક્રવર્તી શ્રી જયશેખસૂરિએ આગમશાસ્ત્રોના આધારે “વિશ્ર્વ ચંતિ સૌનસET' દીક્ષાના જે સોળ પ્રકાર બતાવ્યા છે તે નીચે પ્રમાણે છે : ૧. છંદા, ૨. રોષા, ૩. પરિપૂના, ૪. સ્વપ્ના, ૫. પ્રતિકૃતા, ૬. સ્મારણિકા, ૭. રોગિણી, ૮. અનદતા, ૯, દેવસંજ્ઞપ્તિ, ૧૦. વત્સાનુબંધિકા, ૧૧. જનિતકન્યકા, ૧૨, બહુજન સમુદિતા, ૧૩. આખ્યાતા, ૧૪. સંગરા, ૧૫. વૈયાકરણી, ૧૬. સ્વયંબુદ્ધા.
દીક્ષાના આ પ્રકારો વિષે આપણે વિગતે જોઈએ :
૧. છંદા દીક્ષા : પોતાના અભિપ્રાયથી ગોવિંદ વાચકની જેમ અથવા બીજાની ઇચ્છાથી એટલે કે ભાઈને વશ થયેલા ભવદેવની જેમ વૈરાગ્યના ભાવ વગર જે દીક્ષા લે તે છંદાદીક્ષા કહેવાય છે.
શાક્યમતનો ગોવિંદ નામનો મોટો વાદી હતો. કોઈક સમયે અનેક શાસ્ત્રોમાં પારંગત શ્રીગુપ્ત નામના જૈન આચાર્ય પરિવાર સહિત ત્યાં પધાર્યા. તેઓએ જિનેશ્વરોએ કહેલ કર્મક્ષય કરનાર ધર્મ સંભળાવ્યો. નગરલોકમાં આનંદ વ્યાપી ગયો. નગરમાં વાત ફેલાઈ કે “આ સૂરિ જેવા બીજા કોઈ શ્રતરત્નના સમુદ્ર નથી.' આ સાંભળી ગોવિંદ વ્યાકુળ બન્યો. ગર્વથી ઊંચી ગ્રીવા કરતો વાદયુદ્ધ કરવા તે આચાર્યની સમીપે પહોંચ્યો. વાદયુદ્ધ થયું, પરંતુ આચાર્યે યુક્તિયુક્ત વચનોથી વાદી ગોવિંદને નિરુત્તર કર્યો. પછી ગોવિંદ વિચારવા લાગ્યો કે જ્યાં સુધી આચાર્યના જૈન સિદ્ધાંતનાં ઊંડાં રહસ્યનું અધ્યયન ન કર્યું હોય, ત્યાં સુધી આચાર્યને જીતી શકાશે નહિ. એટલે તે બીજા પ્રદેશોમાં રહેલ બીજા એક જૈન આચાર્યની પાસે ગયો. ત્યાં એમનો વિશ્વાસ ઉત્પન્ન કર્યો. પરંતુ શાસ્ત્રના અભ્યાસ માટે દીક્ષા અંગીકાર કરવી પડે એમ હતી એટલે ગોવિંદે દીક્ષા લીધી. તેમની પાસે તે શાસ્ત્રો ભણવા લાગ્યો. પરંતુ વિપરીત શ્રદ્ધા હોવાથી તે સમ્યક રીતે બોધ ન પામ્યો. કેટલાક દિવસો બાદ પેલા આચાર્ય પાસે વાદ કરવા ગયો પણ તે આચાર્યે તેને નિરૂત્તર કર્યો. ફરી બીજી દિશામાં જઈ આગમો ભણીને વાદ કરવાની તેને ઇચ્છા થઈ. પરંતુ તે વખતે પણ આચાર્યે તેને નિરૂત્તર કર્યો. આમ વાદ
કરવા માટે તેણે સ્વેચ્છાએ દીક્ષા લીધી હતી. પરંતુ તેમાં વૈરાગ્યનો સાચો ભાવ નહોતો.
ભવદેવનું દષ્ટાંત : આ કથા જંબુસ્વામીના પૂર્વભવની છે. ભવદત્ત અને ભવદેવ એ બે સગા ભાઈ હતા. ભવદત્તે નાની ઉંમરમાં આર્ય સુસ્થિતસૂરિ પાસે દીક્ષા લીધી. થોડા વખતમાં જ તેઓ ભણી ગણી હોંશિયાર સાધુ થયા. ઘણા સમય પછી ભવદત્તમુનિ પોતાના નાના ભાઈને પ્રતિબોધવાના આશયથી પોતાના ગામમાં આવ્યા. તે સમયે ભવદેવનાં લગ્ન નાગિલા નામની કન્યા સાથે થવાની તૈયારી ચાલતી હતી. મુનિ થયેલા પોતાના ભાઈના આવવાના સમાચાર સાંભળી ભવદવ દોડતો આવ્યો. તે મુનિને પગે લાગ્યો. મુનિએ ‘ભવદેવ ! લે આ પાત્ર” એમ કહી સાથે ૨હેલું ઘીનું પાત્ર ભવદેવના હાથમાં આપ્યું. ભવદત્તમુનિ ગોચરી હોરાવી ગુરુમહારાજ પાસે જવા નીકળ્યા. ભાઈ સાથે જ ચાલે છે. રસ્તામાં વાતો કરતાં કરતાં ગુરુ પાસે પહોંચ્યા. ગુરુ ભગવંતને ગોચરી બતાવી ત્યાં ગુરુ પાસે બેઠેલા સાધુઓ બોલ્યા, કેમ ભવદત્તમુનિ ! ભાઈને દીક્ષા આપવા લઈ આવ્યા છો ?' ગુરુદેવે ભવદેવને પૂછ્યું, “કેમ ભદ્ર ! દીક્ષા લેવી છે ને ?'
ભવદેવે મુંઝાયો. તેની સામે નાગીલા તરવરી. પરંતુ હું એમ કહ્યું કે, “મારે વ્રત નથી લેવું' તો મારા ભાઈની તેમના સાધુઓ આગળ શી કિંમત ? એમ વિચાર કરી ભાઈને વશ થયેલા ભવદેવે હા પાડી. એટલે ભવદેવને દીક્ષા આપી. આમ, ભવદેવે દીક્ષા લીધી, પણ તે પોતાની ઇચ્છાથી નહિ, પણ ભાઈની ઇચ્છાથી.
૨. રોષા દીક્ષા : માતાદિકના તિરસ્કારથી ઉત્પન્ન થયેલા રોષથી શિવભૂતિની જેમ જે દીક્ષા લેવાય તે રોષાદીક્ષા કહેવાય.
શિવભૂતિનું કથાનક આ પ્રમાણે છે : શિવભૂતિ રથનગરનો નિવાસી હતો. તેની શૂરવીરતાથી ખુશ થઈને રાજાએ તેને
સહસ્રમલ'નું બિરૂદ આપ્યું હતું. તે સ્વભાવે સ્વતંત્ર હતો. અને રોજ રાતે ઘણે મોડેથી ઘરે આવતો. તેની આ ટેવથી દુઃખી થઈને તેની પત્નીએ સાસુને વાત કહી. સાસુએ વહુને કહ્યું : “તું આજે સૂઈ જા. તે આવશે ત્યારે હું જ બારણું ઉઘાડીશ.'
રોજની જેમ સહસ્રમલે મોડી રાતે ઘરનાં બારણાં ખટખટાવ્યાં. બારણાં ખોલ્યા વગર માએ કહ્યું, “આ કંઈ ઘરે આવવાનો સમય છે ? જા જ્યાં બારણાં ખુલ્લાં હોય ત્યાં જા. હું અત્યારે બારણું નહીં ખોલું.' શિવભૂતિને આથી રોષ ચડ્યો. ત્યાંથી તે ચાલી નીકળ્યો. ઘણું રખડ્યો પણ કોઈનાં બારણાં ખુલ્લાં ન જોયાં. ફરતાં ફરતાં તે એક ઉપાશ્રય પાસે આવ્યો. ત્યાંના બારણાં ખુલ્લાં જોતાં તે અંદર
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ ગયો. સાધુ-ભગવંતને જોઈ વંદન કર્યા અને દીક્ષા લેવાની ભાવના ૫. પ્રતિશ્રુતા દીક્ષા : પ્રતિકૃત એટલે પ્રતિજ્ઞા કરવાથી જે જણાવી. સ્વજનોની સંમતિ શિવભૂતિએ ન લીધી જેથી ગુરુભગવંતે દીક્ષા લેવાય તે પ્રતિશ્રુતા દીક્ષા. તે શાલિભદ્રની બહેન પ્રત્યે પ્રતિજ્ઞા દીક્ષા ન આપી. આથી તેણે જાતે જ કેશનો લોચ કર્યો. આ જોઈને કરનાર ધન્યકુમાર (ધન્ના)ની જેમ જાણવી. શ્રી કૃષ્ણસૂરિજીએ તેને મુનિવેશ આપ્યો. શિવભૂતિ હવે મુનિ બન્યા. એક દિવસ શાલિભદ્રની બહેન સુભદ્રા પોતાના પતિ તેમણે દીક્ષા રોષે ભરાઈને લીધી હતી.
ધન્યકુમારના માથાના લાંબા વાળ ગૂંથી આપતી હતી. એ વખતે ૩. પરિધૂના દીક્ષા : નિધનપણાને લીધે કઠિયારાની જેમ જે પોતાના ભાઈ શાલિભદ્ર ઘર છોડી દીક્ષા લેવાના છે એ વાતનું દીક્ષા લેવાય તે પરિધૂના દીક્ષા કહેવાય. રાજગૃહીમાં શ્રેણિકનું સ્મરણ થતાં એની આંખમાંથી આંસુ ટપક્યાં અને ધન્યકુમારના ધર્મનિષ્ઠ રાજ્ય હતું. તેનો મુખ્ય પ્રધાન બુદ્ધિશાળી અભયકુમાર મસ્તક પર પડ્યાં. ધન્યકુમારે એનું કારણ પૂછ્યું. સુભદ્રાએ વાત હતો. એક વખત સુધર્મા ગણધર ભગવંત રાજગૃહી નગરીમાં ઘણા કરી કે પોતાના ભાઈ શાલિભદ્ર રોજ એક એક પત્નીનો ત્યાગ કરી, શિષ્યો સહિત પધાર્યા. આ શિષ્યોમાં એક નૂતન દીક્ષિત સાધુ છેવટે દીક્ષા લેશે. તે સાંભળી ધન્યકુમારે કટાક્ષમાં કહ્યું. “રોજ એક હતા. આ સાધુ હતા તો પૂર્ણ વૈરાગી પણ તે ગૃહસ્થ જીવનમાં એક પત્નીનો ત્યાગ કરવો એવી રીતે તે કાંઈ દીક્ષા લેવાતી હશે ? દુ:ખી હોવાથી કઠિયારાનો ધંધો કરી પોતાનું જીવન નિર્વાહ કરતા. શાલિભદ્ર ડરપોક લાગે છે.' પોતાના પતિનાં આવાં ગર્વયુક્ત વચનો એમણે કોઈ એક વખત સુધર્મા ગણધર ભગવંતની દેશના સાંભળી. સાંભળી સુભદ્રાએ કહ્યું, ‘વાત કરવી સહેલી છે. પણ દીક્ષા લેવી તેથી તેને વૈરાગ્ય જાગ્યો અને દીક્ષા લીધી. આખું રાજગૃહી નગર એ ઘણી દુષ્કર વાત છે. જો દીક્ષા લેવી સહેલી વાત હોય તો તમે આ કઠિયારાને ઓળખતું. કોઈ લોકોએ તેની પાસેથી લાકડાં લીધેલાં પોતે જ કેમ દીક્ષા લેતા નથી ?' સુભદ્રાનાં આવાં વચનોથી અને ખાવાનું આપી તેની કિંમત ચૂકવેલી. પરંતુ હવે તો તેઓ ધન્નાજીએ તરત દીક્ષા લેવાનો નિશ્ચય કર્યો અને વર્ધમાન સ્વામી દીક્ષા લઈ સાધુ થયા. તેમને ગોચરી મળવા લાગી. પરંતુ એમણે પાસે આઠ પત્નીઓ સહિત ચારિત્ર લીધું. દુઃખ અને કષ્ટમાંથી મુક્ત થવા માટે દીક્ષા લીધી હતી.
૬. સ્મારણિકા દીક્ષા : સ્મરણથી જે દીક્ષા લેવાય તે સ્મરણિકા ૪સ્વપ્ના દીક્ષા : પુષ્પચૂલાની દીક્ષાની જેમ જે દીક્ષા લેવાય નામની દીક્ષા કહેવાય. એ માટે શ્રી મલ્લિનાથ ભગવાનનું દષ્ટાન્ત તે સ્વપ્ના દીક્ષા કહેવાય છે.
અપાય છે. પૃથ્વીપુર નગરમાં પુણ્યકેતુ રાજા રાજ્ય કરતા હતા. તેમને વીતશોકા નગરના રાજા મહાબલના વૈશ્રમણ, ચંદ્ર, ધરણ, પુષ્પાવતી નામની રાણી હતી. તેઓને જોડિયા બાળક અવતર્યો. પૂરણ, વસુ અને અચલ એ નામના છ બાળપણના મિત્રો હતા. બંનેનાં નામ રાખ્યાં પુષ્પચૂલ અને પુષ્પચૂલા. જોડલા રૂપે ભાઈ- આગળ જતાં છએ મિત્રોએ સાથે દીક્ષા લીધી. તેઓ સાથે માસક્ષમણ બહેનનો એવો સ્નેહ હતો કે તેઓ એકબીજાથી ક્યારેય જુદાં પડતાં જેવી ઉગ્ર તપશ્ચર્યા કરવા લાગ્યા. તપસ્યામાં બીજા મિત્રો કરતાં નથી. જેમ વય વધતી ગઈ તેમ તેમનો સ્નેહ પણ વધતો ગયો. આગળ રહેવા માટે મહાબલ મુનિ કાંઈક વ્યાધિનું બહાનું કાઢી ભાઈ-બહેન સાથે રહી સુખી થાય એ માટે રાજાએ પુત્ર-પુત્રીને પારણાની વાત ન કરતા. તેથી મિત્રોનાં પારણાં થઈ જતાં ને પોતે પરસ્પર પરણાવી દીધાં. એ જમાનામાં ક્યારેક આવાં લગ્ન પણ પારણું કર્યા વગર તપ આગળ વધારી તપોવૃદ્ધિ કરતા. આવી રીતે થતાં. રાણીએ ઘણો વિરોધ કર્યો, પણ કાંઈ વળ્યું નહીં. હવે તેઓ માયા કરીને ઘણીવાર તેઓ પોતાના મિત્ર સાધુઓને અંધારામાં ભાઈ-બહેન મટી પતિ-પત્ની થયાં. આથી રાણી પુષ્પાવતીને વૈરાગ્ય રાખી તપશ્ચર્યા કરવામાં બીજાના કરતાં આગળ રહેતા. આવા ઉપજ્યો. તેમણે દીક્ષા લઈ લીધી. પછી સારી રીતે આરાધના કરી માયાચારને પરિણામે તેમણે સ્ત્રીવેદ બાંધ્યો. વીસસ્થાનકની ઘોર કાળધર્મ પામી તેઓ સ્વર્ગે ગયાં. કેટલાક સમય પછી રાજા મૃત્યુ તપશ્ચર્યાપૂર્વક ઉત્તમકોટિની આરાધના કરી તેમણે તીર્થકર નામકર્મ પામ્યા. એટલે પુષ્પચૂલ-પુષ્પચૂલા રાજારાણી થયાં. નિઃશંક બની બાંધ્યું. ત્યાંથી એક દેવભવ કરી મહાબલનો જીવ મિથિલાનગરીના તેઓ ભોગો ભોગવવા લાગ્યાં. દેવ બનેલ માતાએ અવધિજ્ઞાનથી રાજા કુંભરાયની રાણી પ્રભાવતીદેવીની કુક્ષીમાં પુત્રી તરીકે ઉત્પન્ન આ જાણ્યું. એથી એમની ગ્લાનિનો પાર ન રહ્યો. એ જીવોની થયો. સમય પૂર્ણ થતાં પુત્રીનો જન્મ થયો ને મલ્લિકુંવરી એવું અજ્ઞાનતા માટે તેમને દયા ઉપજી. પુષ્પચૂલાની પાત્રતા જણાવાથી નામ રાખ્યું. તેમના છએ પૂર્વભવના મિત્રો દેવગતિનું આયુષ્ય પૂર્ણ તેમણે તેને સ્વપ્નમાં નરકનાં ઘોર દુઃખો દેખાડ્યાં. તે જોઈ પુષ્પચૂલા કરી જુદા જુદા દેશમાં રાજાઓને ત્યાં પુત્ર તરીકે અવતર્યા. ભયથી વિહ્વળ બની ગઈ. રાજાને સ્વપ્નની વાત કરી. રાજાએ મલ્લિકુમારી ભાવિમાં તીર્થંકર થવાના હોવાથી અવધિજ્ઞાનથી સ્વપ્નની હકીકત જણાવીને અર્ણિકાપુત્ર આચાર્યને પૂછ્યું. આચાર્ય પોતાના પૂર્વભવના મિત્રોની સ્થિતિ એમણે જાણી લીધી હતી. તેઓ મહારાજે નરકની વેદનાનું વર્ણન કર્યું. પછી તે જ રાત્રિએ દેવે પ્રતિબુદ્ધિકુમાર, ચંદ્રછાયકુમાર, રુકિમકુમાર, શંખકુમાર, અદીનશત્રુ, સ્વર્ગનાં સુખ-વૈભવ પુષ્પચૂલાને સ્વપ્નમાં બતાવ્યાં. પાછાં જિતશત્રુ થયા હતા. આ છે પૂર્વભવના મિત્રો, મલ્લિકુમારીના રૂપ રાજારાણીએ ઉપાશ્રયે આવી ફરી વર્ગનાં સુખોની વાત પૂછી. પર મોહિતી થઈ તેને પરણવાની ઇચ્છા કરવા લાગ્યા. ત્યારે આચાર્ય ભગવંતે તે વિશે સમજાવ્યું. તેથી પ્રતિબોધ પામીને મલ્લિકુમારીએ તેઓને સમજાવવા કરાવેલા છે ગર્ભદ્વારવાળા પુષ્પચૂલાએ સમ્યકત્વપ્રાપ્તિ કરી અને દીક્ષા લીધી.
ઓરડામાં તેમને જુદા જુદા દ્વારથી પ્રવેશ કરાવ્યો. છએ રાજાઓ
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દીક્ષાના પ્રકારો
૪૫ જુદા જુદા ઓરડાઓમાંથી આવવાથી એકબીજાને જોઈ શકતા ન દાંત, આમ આખું શરીર વિચિત્ર જોઈને માત્ર બાળકો જ નહીં પણ હતા. તેમાં મલ્લિકુમારીએ પોતાના જેવી સોનાની પોલી મૂર્તિ કદીક ઢોર પણ ડરી જતાં. જ્યાં જાય ત્યાં બધા જ તેનો અનાદર બનાવરાવી રાખી હતી. તેના માથાના ભાગમાં કળામય કમળ કરે. છેવટે તેના મામાને દયા આવી. એમણે એને પોતાને ત્યાં આકારે એક છિદ્ર કરાવ્યું હતું. તેમાં રોજ જમવાના સમયે એક એક રાખ્યો અને ઢોર ચારવાનું કામ સોંપ્યું. નંદિપેણને યુવાનીમાં કોળીયો મલ્લિકુમારી નાખતાં હતાં. હવે રાજાઓ મલ્લિકુમારીની પરણવાના ઘણા અભરખા થતા, મામા પણ તેને પરણાવવા પ્રયત્ન પ્રતિમા જોઈ મોહિત થયા તે સમયે પ્રતિમાના માથાના ભાગનું કરતા, પણ કેમ કરી ક્યાંય કોઈ કન્યા ન મળી. આથી તે ઘણો ઢાંકણું મલ્લિકુમારીએ ખસેડી નાંખ્યું. તેમાંથી તે વખતે દુર્ગધ ઉછળવા ખિન્ન થયો ત્યારે મામાએ તેને કહ્યું, “જો તને કોઈ કન્યા નહીં લાગી. રાજાઓ તે સહન ન કરી શક્યા. ત્યારે મલ્લિકુમારીએ આપે તો મારી સાત કન્યામાંથી એક તને આપીશ.” પછી મામાએ દેહનું અશુચિપણું સમજાવ્યું અને પૂર્વભવની વાત કહી. જેથી મિત્ર એક પછી એક સાતે યુવાન કન્યાઓને નંદિષેણ સાથે પરણવા રાજાઓને જાતિસ્મરણ જ્ઞાન થયું અને બધાએ સાથે દીક્ષા લીધી. સમજાવ્યું. પણ એકે ન માની. તેઓએ કહ્યું કે “આત્મહત્યા કરીશું,
૭. રોગિણી દીક્ષા : રોગને કારણે જે દીક્ષા લેવાય તે રોગિણી પણ આ તમારા ઊંટ જેવા ભાણાને પરણશું નહીં.' આ જાણી દીક્ષા કહેવાય. એ માટે સનતકુમારનું દષ્ટાન્ત અપાય છે. કોઈ નંદિપેણ સાવ હતાશ અને સૂનમૂન થઈ ગયો. “ખાવા-પીવું ભાવે વખતે સૌધર્મેન્દ્રની સભામાં સનતકુમારના રૂપની પ્રશંસા સાંભળી નહીં ને રાતે ઊંઘે આવે નહીં.' આખરે ઘર છોડી જંગલનો રસ્તો વિજય અને વૈજયંત નામના બે દેવતાઓ સ્વર્ગથી પૃથ્વી ઉપર લીધો. કાંઈ પણ ન સૂઝવાથી તેણે પર્વત પરથી મરવાનું નક્કી આવ્યા. વૃદ્ધ બ્રાહ્મણનું રૂપ લઈ રાજાના મહેલમાં ગયા. તે વખતે કર્યું. પર્વતના શિખર પરથી પડવા જતો હતો ત્યાં અવાજ આવ્યો. આભૂષણ રહિત છતાં સર્વ અંગે સુંદર દેખાતા ચક્રવર્તી સનતકુમાર નહીં....નહીં, આ દુઃસાહસ ન કર.' તેણે આસપાસ જોયું તો. ન્હાવાના આસન પર બેઠેલા હતા. તે સનતકુમારને જોઈને ઈદ્ર સમીપના વૃક્ષ નીચે એક મુનિને જોયા. પાસે જઈને તે બોલ્યો, મિથ્યાવચનવાળો છે એમ દેવો કહેવા લાગ્યા. ચક્રીએ બ્રાહ્મણોને ભગવંત ! હું નિર્ભાગ્યવાન છું. મારા દુઃખનો કોઈ પાર નથી. જોઈ, આવવાનું કારણ પૂછ્યું. દેવોએ કહ્યું, “અમે તમારી રૂપસંપત્તિ જન્મથી સુખ જોયું જ નથી.” મુનિએ કહ્યું, ‘મરવાથી દુઃખ નાશ જોવા આપ્યા છીએ.” રૂપાભિમાની રાજાએ હસીને કહ્યું કે “હે થતું નથી. પોતાના જીવનો ઘાત કરવાથી પાપ લાગે છે. એક બ્રાહ્મણો ! તમે વિદ્વાન છતાં અવસર વિના રૂપ જોવા માટે કેમ પાપનું ફળ તો તું ભોગવે છે અને પાછું બીજું કરવા તૈયાર થયો આવ્યા ? હાવાના આસન પર બેઠેલા મારું શું રૂપ હોય ? હમણાં છે ?'તેણે ગુરુને પૂછ્યું કે ‘દુઃખથી છુટવા મારે શું કરવું?' તેમણે જ આભૂષણ ધારણ કરી સભામાં આવું છું. ત્યાં તમે આવો.' પછી જણાવ્યું કે “સર્વ સુખનું કારણ અને દુઃખનું નિવારણ એક માત્ર સનતકુમાર સભામાં અલંકૃત થઈ આવ્યા. પણ બ્રાહ્મણો તે જોઈ અરિહંતનો ધર્મ છે. એનું શરણ લેવું જોઈએ.” આ સાંભળી નંદિષણ દુઃખી થવા લાગ્યા. રાજાએ દુ:ખી થવાનું કારણ પૂછ્યું. એટલે તે બોધ પામ્યો અને તેણે તેમની દીક્ષા લીધી. બન્ને દેવતાઓએ કહ્યું કે, “હે ભૂપતિ, તે વખતે અમે જે તારું રૂપ
દેવસંજ્ઞપ્તિ દીક્ષા : દેવતાના પ્રતિબોધવાથી જે દીક્ષા લેવાય જોયું હતું તે સર્વોત્તમ હતું. હમણાં તમને ઉત્પન્ન થયેલો કોઢનો તે, દેવસંજ્ઞપ્તિ દીક્ષા કહેવાય. એ માટે માટે મેતાર્ય મુનિનું દષ્ટાન્ત રોગ તમારા રૂપનો નાશ કરે છે.” સનતકુમારે પૂછ્યું, “હે બ્રાહ્મણો ! છે. એક રાજપુત્ર અને પુરોહિતપુત્ર એમ બે મિત્રો હતા. તેમણે આ તમે કેમ જાણો છો ?' બ્રાહ્મણોએ તેમને ઘૂંકવા કહ્યું. સનતકુમાર સાગરચંદ્ર મુનિ પાસે દીક્ષા લીધી. રાજપુત્ર સ્વેચ્છાથી સંયમ પાળતો થેંક્યા એટલે તેમના ઘૂંકમાં ખદબદતા કીડા જણાયા. “અમે દેવતાઓ
હતો જ્યારે પુરોહિત પુત્ર અનિચ્છાથી પાળતો હતો. અંતે અનશન જ્ઞાનદષ્ટિથી સર્વ જાણીએ છીએ.' એમ કહી દેવતા સ્વર્ગે ગયા. કરી તે બન્ને મુનિઓ દેવલોકમાં દેવતા થયા. ત્યાં પરસ્પર પ્રતિજ્ઞા
પછી સનતકુમારે ઉત્પન્ન થયેલા કોઢ રોગથી પોતાનું રૂપ નાશ કરી કે જે સ્વર્ગથી પ્રથમ અને તેને સ્વર્ગમાં રહેલા દેવતાએ પ્રતિબોધ થતું જોયું. એટલે વૈરાગ્યવાન થઈ વિચારવા લાગ્યા કે જે શરીરનું પમાડવો. હવે કર્મવશાત્ પુરોહિતપુત્રનો જીવ સ્વર્ગથી પહેલો વી પાળી પોષી રક્ષણ કરાય છે તે શરીરની આજે અનિષ્ટ અંત અવસ્થા ચાંડાલણીને ત્યાં પુત્રપણે અવતર્યો. ચાંડાલણીએ તે નગરની પ્રત્યક્ષ દેખાય છે. હું આ દેહથી પુણ્ય પ્રાપ્ત કરીને ભાગ્યવંત થાઉં શેઠાણીને પુત્ર ન હોવાથી તે પુત્ર શેઠાણીને આપ્યો. એમ વિચારી સનતકુમાર ચક્રવર્તીએ વિનયસૂરિ પાસે ચારિત્ર લીધું.
શેઠાણીના ઘરમાં રહેલો આ ચાંડાલણી પુત્ર મેતાર્ય યુવાવસ્થાને ૮. અનાદતા દીક્ષા : સ્વજનાદિએ અનાદર કર્યો હોય તેથી જે પામ્યો. તે મેતાર્યને પૂર્વભવનો મિત્ર દેવ સ્વપ્ન વગેરેથી પ્રતિબોધવા દીક્ષા લેવાય તે અનાદત દીક્ષા કહેવાય. દા.ત., નંદિષણની જેમ. લાગ્યો. છતાં મેતાર્ય પ્રતિબોધ પામ્યો નહીં. પછી તેનો વિવાહ નંદીગ્રામમાં સોમિલ બ્રાહ્મણ રહેતો હતો. તેની પત્નીનું નામ મહોત્સવ થયો ત્યારે પણ દેવે તે વિવાહ અટકાવ્યો. છતાં પણ સોમિલા. બિચારાં જન્મજાત દરિદ્રી હતાં. તેમને એક પુત્ર થયો. પ્રતિબોધ ન પામ્યો. ત્યારપછી મેતાર્ય નવ શ્રેષ્ઠીપુત્રીઓ અનુક્રમે તેનું નામ રાખ્યું નંદષેણ. બાળક મોટું થાય તે પહેલાં તો તેનાં પરણ્યો. ત્યારપછી ફરી દેવે તે વિવાહ અટકાવ્યો. છતાં પણ મા-બાપ ગુજરી ગયાં. ઠેબા ખાઈ તે મોટો થયો. પણ તેનું આખું પ્રતિબોધ ન પામ્યો. ત્યારપછી ફરી દેવે આવીને જાગૃત કર્યો. શરીર બેડોળ અને કદરૂપું હતું. બિલાડા જેવી આંખો, ગોળી જેવું ત્યારે પત્નીઓએ દેવતાને વિનંતી કરતાં કહ્યું, “અમારો પતિ બાર મોટું પેટ, લાંબા ને લબડતા હોઠ, મોઢામાંથી બહાર નીકળતા વર્ષ સુધી ઘરમાં રહ્યા પછી દીક્ષા લે એવી આજ્ઞા આપો.” દયાથી
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ આર્દ્ર બનેલા દેવતાએ એ પ્રમાણે આજ્ઞા આપી એટલે મેતાર્થ બાર ભોળવાયો અને ઉપાશ્રયે આવ્યો. શયંભવસૂરિએ તેને દીક્ષા આપી. વર્ષ ઘરમાં રહ્યો. બાર વર્ષ પૂર્ણ થયા પછી વૈરાગ્યવાસિત મેતાર્થે અહીં પણ તેમનું નામ મનકમુનિ જ રાખવામાં આવ્યું. આ પિતાને દીક્ષા લીધી. દીક્ષા મહોત્સવ પણ મિત્રદેવે કર્યો.
આલંબનથી પુત્ર મનકે દીક્ષા લીધી. ૧૦. વત્સાનુબંધિકા દીક્ષા : વત્સ એટલે પુત્ર. વત્સનો ૧૧. જનિતકન્યકા દીક્ષા : અપરિણીત કન્યાથી ઉત્પન્ન થયેલી અનુબંધવાળી દીક્ષા તે વત્સાનુબંધિકા નામની દીક્ષા. દા.ત., વ્યક્તિ જે દીક્ષા લે તે જનિતક કા દીક્ષા. કેશિકુમારની જેમ. વજસ્વામીની માતાની જેમ. (ઉપલક્ષણથી પિતાદિના અનુબંધવાળી (ઉપલક્ષણથી અન્ય રીતે નિંદિત જન્મવાળાની પણ દીક્ષા જાણવી.) દીક્ષા પણ ગણાય. મનક વગેરેની દીક્ષા એવી જાણવી.)
ગંગાકાંઠે સ્મશાનનો સ્વામી બલકોટ નામનો ચાંડાળ હતો. વજસ્વામીનું દષ્ટાંત : વજકુમાર નાના હતા અને પિતાની તેને ગૌરી અને ગાંધારી નામની બે સ્ત્રી હતી. તેમાં ગૌરીને એક દીક્ષાની વાત સાંભળતા જ એમને જાતિસ્મરણ જ્ઞાન થયું. એમને પુત્ર થયો. પૂર્વ ભવે જાતિમદ કર્યો હતો તેથી તે પુત્ર કદરૂપો અને દીક્ષા લેવાના ભાવ જાગ્યા. તેમણે વિચાર્યું કે હું બાળક છું જેથી શ્યામ થયો. ચાંડાલોને પણ ઉપહાસ કરવા લાયક તે થયો. તે હમણાં વ્રત ન લઈ શકું, પણ હું એવું કરું કે જેથી મારી માતા લોકોમાં બહુ નિંદિત બન્યો. તેનું નામ બળ પાડ્યું. વિષવૃક્ષની જેમ સુનંદા મારા પરથી નેહ ઉતારી નાખે.' એમ વિચારીને તે રડવા સૌને દ્વેષ કરવા લાયક તે થયો. ઘણા લોકોને ઉદ્વેગ પમાડતો તે લાગ્યા. માતાએ ઘણાં ઉપાયો કર્યા છતાં તે શાંત થયા નહીં. એમ મોટો થવા લાગ્યો. એકદા બંધુવર્ગ સાથે ભાંડચેષ્ટા કરીને તેણે છ મહિના પસાર થયા. તેટલામાં વજકુમારના પિતા મુનિ નગરમાં સર્વની સાથે કલહ કર્યો. તેથી નેતાઓએ તેને પોતાનાથી દૂર કર્યો. પધાર્યા ને સુનંદાના ઘરે ગોચરી હોરવા પધાર્યા. માતા સુનંદા તે દૂર જઈને બેઠો તેવામાં ત્યાં એક સર્પ નીકળ્યો. એ જ ઈને સર્વ પુત્રથી કંટાળેલી હોવાથી ગોચરીમાં પુત્રને હોરાવી દીધો. ચાંડાલોએ એકદમ ઉઠીને ‘આ ઝેરી સર્પ છે' એમ કહીને તેને પિતામુનિએ તે બાળકને લઈને પોતાના ગુરુ સિંહગિરિમુનિને સોંપ્યો. મારી નાંખ્યો. થોડીવાર પછી બીજો સર્પ નીકળ્યો. તે વિષ રહિત ‘આ તેજસ્વી રત્ન છે, જેથી તેનું પાલન કરવા યોગ્ય છે.' એમ છે એમ જાણીને તેઓએ તેને જવા દીધો. કહી સૂરિએ પાલન માટે શ્રાવિકાઓને સોંપ્યો. અનુક્રમે ત્રણ વર્ષ
તે જોઈને ‘બળે' વિચાર્યું કે વિષધારી સર્પ હણાય છે અને પસાર થતાં માતાએ પુત્રની માંગણી કરી ત્યારે ગુરુએ કહ્યું ‘હવે નિર્વિષ સર્પ મૂકી દેવાય છે. માટે સર્વ કોઈ પોતાના જ દોષથી પુત્ર પાછો શા માટે માંગે છે ?' સુનંદાએ કહ્યું કે, “હું ન્યાયથી ક્લેશ પામે છે એમ સિદ્ધ થયું. તો હવે પોતે ભદ્ર પ્રકૃતિ રાખવી પુત્ર મેળવીશ” એમ કહી રાજદરબારે વાત કરી. રાજદરબારમાં એક તે જ યોગ્ય છે. એમ વિચારતાં તેને જાતિસ્મરણ જ્ઞાન થયું. પોતાનો બાજુ રમકડાં લઈ માતા ઊભી છે ને બીજી બાજુ પિતા ગુરુ ઓધો
પૂર્વ ભવનો વિચાર કરતો તે બળ ગુરુભગવંત પાસે ગયો. તેમની લઈ ઊભા છે. વચમાં વજસ્વામી છે. બાળકને બોલાવતાં જેની
પાસે ધર્મશ્રવણ કરીને તેણે દીક્ષા લીધી. પાસે બાળક જાય તે બાળકનો માલિક થાય. માતા મીઠા વચનોથી
૧૨. પ્રમોદહેતુ દીક્ષા : બહુ માણસોને હર્ષિત કરનારી જે બાળકને બોલાવવા લાગી તે વખતે માતાનાં વચનો સાંભળીને વ્રત
દીક્ષા તે પ્રમોદહેતુ દીક્ષા. એ માટે જંબુસ્વામીનું દષ્ટાન્ત સુપ્રસિદ્ધ છે. લેવા માટે દઢ બુદ્ધિશાળી વજકુમાર વિચારવા લાગ્યા કે માતા ઉપકારી છે એમ વિચારી જો હું માતા પાસે જાઉં તો આ ચતુર્વિધ
જંબુકુમાર રાજગૃહી નગરીનાં ઋષભદત્ત અને ધારિણીના એકના
એક પુત્ર હતા. કોઈ વખત સુધર્મા સ્વામી ગણધર ભગવાનની સંઘ દુભાય. વળી હું વ્રત લઉં તો માતા પણ કદાચ વ્રત લે. એટલે વજકુમારે ઓઘો ગ્રહણ કર્યો. તેથી માતાને પણ વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન
દેશના સાંભળી જંબુકમાર પ્રતિબોધ પામ્યા અને દીક્ષા લેવા માતાથતાં સંયમ લેવાની ભાવના જાગી.
પિતાની રજા લેવા ગયા. માતાએ પરણવા માટે આગ્રહ કર્યો.
જંબુકુમારે નિશ્ચય કર્યો કે પરણ્યા પછી બીજે જ દિવસે પોતે દીક્ષા મનકનું દષ્ટાંત : શયંભવ વિપ્રનો પુત્ર મનક હતો. શયંભવ
લેવી, આઠ કન્યા સાથે જંબુકુમારનાં લગ્ન આરંભાયાં અને એકેક વિ (મનકના જન્મ પહેલાં જ) જૈન દીક્ષા ગ્રહણ કરી હતી. આઠ
કન્યા દસ દસ ક્રોડ કરિયાવર લઈ જંબુકુમારને ત્યાં આવી. આમ વર્ષનો મનક પિતાની શોધ કરવા નીકળ્યો. તે વખતે ફરતાં ફરતાં,
એક જ દિવસમાં જંબુકુમાર એંશી ક્રોડ સોનૈયાનો સ્વામી થયો. પુણ્યથી ખેંચાયો હોય તેમ મનક ચંપાનગરીમાં આવ્યો. આ વખતે
પરંતુ એ નિર્મોહી, નિર્વિકારી, ત્યાગી થવાની જીજ્ઞાસાવાળાએ શથંભવ આચાર્ય કાયચિંતા માટે જતા હતા. તેમણે નિર્દોષ ચળકતા
ત્યાગ-વૈરાગ્ય સભર કથાઓ દ્વારા આઠે કન્યાઓને પ્રતિબોધી. તે લલાટવાળા બાળકને જોયો. અને પૂછ્યું, ‘બાળક ! તું કોણ છે ?
જ રાત્રે પ્રભવાદિ પાંચસો ચોરી, પોતાનાં માતા-પિતા અને આઠ ક્યાંથી આવે છે અને ક્યાં જાય છે?” બાળક બોલ્યો, “મહારાજ ! હું
કન્યાનાં માતા-પિતા એમ પાંચસો સત્યાવીસને પ્રતિબોધ પમાડી રાજગૃહી નગરીથી આવું છું. ત્યાંના વત્સ ગોત્રવાળા શäભવ બ્રાહ્મણનો પુત્ર છું. મારા પિતાએ હું ગર્ભમાં હતો ત્યારે જૈન દીક્ષા
જંબુકમારે એ બધાં સાથે દીક્ષા લીધી.
૧૩. આખ્યાતા દીક્ષા : બીજાએ કહેલા ધર્મને સાંભળીને જે લીધી છે. તેમને શોધવા હું આવ્યો છું.' મુનિ કહ્યું, ‘ભદ્ર ! તારા પિતાને હું સારી રીતે જાણું છું. મારા તે મિત્ર છે, મારો દેખાવ
દીક્ષા લેવાય તે આખ્યાતા દીક્ષા. પ્રભવની જેમ. અને તેમનો દેખાવ બરાબર એક સરખો છે. તું મારી સાથે ચાલ.
જયપુરના રાજા વિધ્યને બે પુત્ર હતા. એક પ્રભવ અને બીજો મને તારો પિતા સમજજે. હું તને પુત્ર સમજીશ.' ભોળો બાળક પ્રભુ. પ્રભવ મોટો હોવા છતાં વિધ્ય રાજાએ પ્રભુને રાજ્ય આપ્યું.
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દીક્ષાના પ્રકારો આથી પ્રભુવનું મન દુભાયું. તે નગર છોડી એક લૂંટારાની પલ્લીમાં વંદન કર્યા. પોતે મુનિ માટે જે અશુભ કલ્પના કરી હતી તે માટે ભળ્યો. ધીમે ધીમે તે મોટો લૂંટારો થયો. તેણે કોઈના મુખેથી ક્ષમા યાચી અને દીક્ષા લેવાની પોતાની અભિલાષા જણાવી. ત્યાર સાંભળ્યું કે રાજગૃહીના ષભદત્ત શેઠનો પુત્ર એંશી ક્રોડ સૌનૈયા પછી માત્ર એમણે જ નહિ એમનાં માતા-પિતા તથા રાજા-રાણી કરિયાવરમાં જેમને મળેલ એવી આઠ શ્રેષ્ઠી પુત્રીઓને પરણી એમ છએ જીવોએ વૈરાગ્યવાસિત બની સાથે દીક્ષા લીધી. પોતાના મહેલમાં આવી ગયો છે. તે જાણી પ્રભવ ચોર પોતાના ૧૫. વૈયાકરણી દીક્ષા : સંદેહવાળા અર્થને જિનાદિકે કહ્યા પાંચસો સાથીદારો સાથે જંબુકમારની હવેલીએ આવ્યો. હવેલીમાં છતાં જે દીક્ષા લેવાય તે વૈયાકરણી નામની દીક્ષા કહેવાય. ગૌતમ પિસતાં જ એણે બધા ઉપર અવસ્થાપિની વિદ્યાનો પ્રયોગ કર્યો. સ્વામીની દીક્ષા એનું ઉદાહરણ છે. એથી બધાને ઊંઘ આવવા લાગી. પણ જંબુકુમારને તે વિદ્યા મૂર્શિત
ગોબર ગામમાં ઈન્દ્રભૂતિ નામના વેદાદિના જાણકાર પંડિત ન કરી શકી. પ્રભવ પાંચસો સાથીદારો સાથે ધનનાં પોટલાં બાંધવા
હતા. તેમને પોતાના જ્ઞાનનું અભિમાન હતું. તે પોતાને સર્વજ્ઞ લાગ્યા. તે જોઈને જંબુકુમારે તે બધાની સામે સ્તંભની વિદ્યાથી
માનતા. કોઈ વખતે પ્રભુ મહાવીર તે ગામ બહાર સમવસર્યા હતા. નજર નાંખી એટલે તે બધા હતા ત્યાં ને ત્યાં ખંભિત થઈ ગયા.
સમવસરણમાં દેવોને જતા જોઈને ઇન્દ્રભૂતિએ પૂછ્યું તો જાણવા પ્રભવે જંબુકુમારને કહ્યું, “ભાગ્યવંત ! મારે તમારે ત્યાં ચોરી નથી મળ્યું કે કોઈ સર્વજ્ઞ આવ્યા છે ત્યાં દેવો જાય છે. “અરે, સર્વજ્ઞ તો કરવી, પણ મને તમે તમારી આ ખંભિની વિદ્યા આપો.’ જંબુકુમારે
હું છું. એ પણ દેવોને ખબર નથી. હું એ ધૂર્તની પાસે જઈ વાદ કહ્યું, “ભાઈ ! હું તો કાલે દીક્ષા લઈશ. મારે કોઈ વિદ્યાની જરૂર કરીને પરાજિત કરી આવું” એમ વિચારી સંકલ્પ કરી ઇન્દ્રભૂતિ નથી. પરંતુ હે પ્રભવ ! વિષયસુખ દુઃખદાયક છે અને તે દેખાવમાં પાંચસો શિષ્ય સાથે પ્રભુ પાસે આવ્યા. પ્રભુએ ઇન્દ્રભૂતિનું નામ મીઠું અને પરિણામે ભયંકર છે એમ સમજ.’ જંબુકુમારે મધુબિન્દુ, લઈ બોલાવ્યા અને કહ્યું કે “હે ગૌતમ ! તમને આત્માના અસ્તિત્વ અઢારનાતરાં, મહેશ્વરદત્ત વગેરેનાં દષ્ટાંતો આપી પ્રભવ ચોરને સંબંધી, વેદના પરસ્પર વિરુદ્ધ વાક્યોથી ઘણા વખતથી શંકા છે. તે પ્રતિબોધ પમાડ્યો. આમ પ્રભવ ચોર જંબુકુમારના ઉપદેશથી શંકાનું મૂળ વેદના વાક્યના અર્થને યથાર્થ રૂપે ન સમજવામાં રહેલું પ્રતિબોધ પામ્યો ને દીક્ષા લીધી. એથી એ દીક્ષાનો પ્રકાર “આખ્યાતા છે.' એવી રીતે પ્રભુએ તેમના અનેક સંશયો ટાળ્યા. એટલે પાંચસો દીક્ષાનો કહેવાય.
શિષ્ય સહિત એ જ વખતે તેમણે પ્રભુ પાસે દીક્ષા લીધી. ૧૪. સંગરા દીક્ષા : પૂર્વ ભવમાં કરી રહેલા સંકેતથી જે ૧૬. સ્વયંબુદ્ધા દીક્ષા : સર્વ તીર્થકરો ભગવાન સ્વયંબુદ્ધા દીક્ષા લેવાય તે, સંગરા દીક્ષા કહેવાય.
નામની દીક્ષા ગ્રહણ કરે છે. ઇષકાર અધ્યયનમાં વર્ણવેલા પુરોહિતના બે પુત્રની દીક્ષા એવી જગતમાં સર્વોત્સકૃષ્ટ સૌંદર્યવાળા અને બાલ્યવયમાં પણ અબાલ હતી. ઇષકાર નગરના ઇષકાર રાજાને ભૃગુ પુરોહિત મંત્રી હતો. બુદ્ધિવાળા પ્રભુ જિતેન્દ્રિય અને સ્થિર આત્માવાળા હોય છે. જન્મથી મોટી ઉંમર થવા આવી છતાં ઘરે સંતાન ન હોવાના કારણે તે ખેદ ત્રણ જ્ઞાનયુક્ત એવા પ્રભુ સંસારના સુખમાં આસક્ત બનતા નથી. કરતો. એક વખત દેવે આવીને ભૃગુ પુરોહિતને કહ્યું કે ‘તમારે તીર્થંકર પરમાત્મા જ્ઞાનથી પોતાની દીક્ષાનો સમય જાણે છે છતાંય ઘરે બે પુત્ર ઉત્પન્ન થશે. તમે ચિંતા ન કરો. પણ તે નાની વયમાં તે સમયે લોકાંતિક દેવતા તેમની પાસે આવીને નમસ્કાર કરીને ત્રણ દીક્ષા લઈ આત્મકલ્યાણ કરશે.' પુત્ર થવાની વધામણીથી પુરોહિત લોકના કલ્યાણ માટે ધર્મતીર્થ પ્રવર્તાવવા માટે વિનંતી કરે છે. રાજી થયો. અનુક્રમે તેના ઘરે બે પુત્રોનો જન્મ થયો. પુત્રો સમજણ દીક્ષા લેવાના સમયને એક વરસ બાકી હોય ત્યારે તીર્થંકર પરમાત્મા થયા. એટલે પિતાએ એમના મનમાં ભય બેસાડી દીધો કે ‘તમારે - વાર્ષિક દાન આપે છે. દાન દીધા પછી માતા-પિતાની અનુજ્ઞા જૈન સાધુનો પરિચય કરવો નહીં. તેઓ છોકરાઓને લઈ જઈ લઈને જેમનો શકેન્દ્ર તથા રાજા વગેરેએ ભક્તિથી મહાભિનિષ્ક્રમણોત્સવ મારી નાંખે છે.' તેથી પુત્ર ડરવા લાગ્યા. કોઈવાર બન્ને પુત્રો કરેલો છે, એવા પ્રભુ સ્વહસ્તે દીક્ષા લે છે. શિબિકામાં બેસી પ્રભુ ફરવા ગયા હતા. ત્યાં પુરોહિતને ત્યાં જૈન મુનિઓ ગોચરીએ દીક્ષા લેવા નીકળે છે ત્યારે મનુષ્યો તેમની વિવિધ પ્રકારે સ્તુતિ કરે આવ્યા. ગોચરી લઈ મુનિઓ ગામ બહાર જતા હતા ત્યાં આ બે છે અને સૌ પ્રભુ સાથે વનમાં આવે છે. ત્યાં અશોકવૃક્ષ નીચે પુત્રોએ તેમને જોયા. પુત્રો મુનિને જોઈ ગભરાયા. તેઓ એક વડ પાલખી ઉતારે છે. પ્રભુ તેમાંથી બહાર નીકળી આભૂષણો ઉતારે વૃક્ષ પર ચડી સંતાઈ ગયા. મુનિઓ પણ એ જ વડ નીચે આવ્યા.
છે. તે સમયે કુળની વડિલ સ્ત્રી હંસ લક્ષણવાળા વસ્ત્રમાં તે અનુકૂલ જગ્યા જાણી મુનિ ત્યાં જ આહાર વાપરવા બેઠા. તે બંને આભૂષણો લઈ લે છે. આભૂષણો ઊતર્યા પછી એક મુષ્ટિથી દાઢીભાઈઓએ જ્યારે મુનિઓને નિર્દોષ આહાર કરતા જોયા ત્યારે મૂછના અને ચાર મુષ્ટિથી મસ્તકના કેશનો એમ પંચમુષ્ટિ લોચ કરે પોતે વિચાર કરવા લાગ્યા કે, “આવું આપણે ક્યાંક જોયેલું છે.'
છે. કેન્દ્ર તે કેશને લઈને પ્રભુને જાણ કરીને ક્ષીરસાગરમાં પધરાવી, એમ વિચારતાં બંનેને જાતિસ્મરણ જ્ઞાન થયું. તેઓએ પૂર્વના એક
દે છે. પછી ઇન્દ્ર પ્રભુના અંધ ઉપર દેવદૂષ્ય નાંખે છે. ત્યારબાદ જન્મમાં સાધુપણું પાળેલું અને તેના પ્રભાવે તેઓ પોતે દેવ થયેલા,
પ્રભુ “નમો સિદ્ધાણં' બોલી સામાયિકનો પાઠ ભણે છે. (આ પાઠમાં તે સર્વ તેમના જોવામાં આવ્યું. તરત વડેની નીચે ઊતરી મુનિઓને
- “ભંતે' એ પદ જિનેશ્વર ભગવંત બોલતા નથી.) દીક્ષિત થતાં એ સમયે જ પ્રભુને ચોથું જ્ઞાન પ્રગટ થાય છે.
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આર્ય વજસ્વામી
3 પ્રો. તારાબહેન રમણલાલ શાહ
આમ દીક્ષાના આવા સોળ પ્રકાર શાસ્ત્રકારોએ બતાવ્યા છે.
ભગવાન મહાવીરસ્વામીના નિર્વાણ પછી એમના શાસનકાળમાં સુધર્માસ્વામીની પરંપરાએ લગભગ પાંચસો વર્ષે આવનાર આર્ય વજસ્વામી છેલ્લા દસપૂર્વધર મહાત્મા હતા. આર્ય સુહસ્તિના ગચ્છમાં તેઓ તેરમા પટ્ટધર હતા.
વજસ્વામી જૈન શાસનની મહાન વિભૂતિઓમાંના એક ગણાય છે.
જૈન ધર્મ પ્રમાણે પૂર્વની સંખ્યા ચૌદની છે. છેલ્લા શ્રુતકેવલી ભદ્રબાહુ સ્વામી ચૌદ પૂર્વના જાણકાર હતા. સ્થૂલિભદ્ર ચૌદ પૂર્વમાંથી દસ પૂર્વ સૂઝથી અને અર્થથી જાણતા હતા અને છેલ્લા ચાર પૂર્વના માત્ર સૂત્રથી જાણકાર હતા, અર્થથી નહિ. એમનામાં ઉદ્ભવેલા ક્ષણિક માનકષાયને કારણે ભદ્રબાહુસ્વામીએ એમને બાકીનાં ચાર પૂર્વ અર્થથી ભણાવ્યાં નહોતાં. ચૌદમાંથી દસ પૂર્વના જાણકાર અથવા ધારણહાર સાધુ ભગવંત દસપૂર્વધર કહેવાય છે. વજસ્વામી એવા દસપૂર્વધર હતા. પૂર્વ અથવા પૂર્વશ્રુત એટલે શું? પ્રત્યેક તીર્થકરના શાસનકાળમાં તેમની પૂર્વે થયેલા તીર્થંકરના કાળનું ચાલ્યું આવતું શ્રુતજ્ઞાન અથવા શ્રુતસાહિત્ય તે પૂર્વશ્રુત કહેવાય છે. એ પૂર્વશ્રુતમાં તે સમયે પ્રવર્તમાન તીર્થંકરના કાળનું શ્રુતસાહિત્ય અથવા ધર્મવિષયક સાહિત્ય ઉમેરાય છે. એમ પ્રત્યેક તીર્થંકરના સમયનું સાહિત્ય ઉમેરાઈને ધર્મસાહિત્યનો રાશિ વિશાળ બનતો જાય છે. આ રીતે કુલ ચૌદ પૂર્વ બન્યાં છે, કારણ કે તે ધૃતરાશિ ચૌદ વિષયવિભાગમાં વહેંચાયેલો છે.
પ્રાચીન પ્રાગૈતિહાસિક કાળમાં લેખન-મુદ્રાણનાં સાધનો નહોતાં. ગુરુમુખેથી સાંભળીને શિષ્યો જ્ઞાન ગ્રહણ કરતા. શ્રુત એટલે સાંભળેલું. તેથી તે શ્રુતસાહિત્ય કહેવાયું. તીર્થંકર ભગવાન જે દેશના આપે તે ગણધર ભગવંતો ઝીલીને દ્વાદશાંગીની રચના કરે. દ્વાદશાંગી એટલે બાર અંગમાં અથવા વિભાગમાં વહેંચાયેલો તીર્થંકર ભગવાનનો ઉપદેશ. બારમા અંગનું નામ છે દૃષ્ટિવાદ, તે અત્યારે લુપ્ત છે. આ વિશાળ પૂર્વશ્રુત તે દષ્ટિવાદનો ભાગ છે. તેમાં જીવન અને જગતના મહત્ત્વના તમામ વિષયોની અત્યંત સૂક્ષ્મ રીતે છણાવટ કરવામાં આવી છે.
ચૌદ પૂર્વનાં નામ આ પ્રમાણે છે : ૧. ઉત્પાદપ્રવાહ, ૨. અગ્રાયણીયપ્રવાહ, ૩. વીર્યપ્રવાદ, ૪. અસ્તિનાસ્તિકવાદ, ૫. જ્ઞાનપ્રવાદ, ૬. સત્યવાદ, ૭. આત્મપ્રવાદ, ૮. કર્મપ્રવાદ, ૯. પ્રત્યાખ્યાનપ્રવાદ, ૧૧, કલ્યાણપ્રવાદ, ૧૨. પ્રાણ-આયુકવાદ, ૧૩. કિયાવિશાલપ્રવાદ અને ૧૪. લોકબિંદુસારપ્રવાદ.
આપણા પૂર્વશ્રતનું કદ આપણે કલ્પી ન શકીએ એટલું મોટું છે. એ કેટલું મોટું છે તે બતાવવા માટે એમ કહેવાય છે કે ફક્ત પ્રથમ પૂર્વશ્રત લખવા માટે એક હાથીના વજન જેટલી શાહી જોઈએ. બીજા પૂર્વમાં બે હાથીના વજન જેટલી, ત્રીજા પૂર્વમાં ચાર હાથીના વજન જેટલી, એમ ઉત્તરોત્તર બમણી બમણી ગણીને, શાસ્ત્રકારોએ બતાવ્યું છે તે પ્રમાણે ચૌદ પૂર્વ લખવા માટે સોળ હજાર ત્રણસો ત્યાશી, અંકે ૧૬૩૮૩ હાથીના વજન જેટલી શાહી વપરાય. ચૌદ પૂર્વમાં લખાયેલાં પદોની સંખ્યાનો કોઈ હિસાબ નથી. આ કરોડો પદો યાદ રાખે તે પૂર્વધર કહેવાય. જેની ગ્રહણશક્તિ, સ્મરણશક્તિ અને ધારણાશક્તિ એ ત્રણે શક્તિ આશ્ચર્યજનક રીતે વિકસી હોય તે જ વ્યક્તિ આ વિશાળ શ્રત ધારણ કરી શકે. દરેક તીર્થકરના કાળમાં મુનિઓની સંખ્યા ઘણી મોટી હોય છે, પરંતુ પૂર્વધર સાધુની સંખ્યા ઘણી મર્યાદિત હોય છે, કારણ કે પૂર્વશ્રત માટેની યથાયોગ્ય ધારણાશક્તિ બહુ ઓછા મુનિઓમાં હોય.
પૂર્વધર બનવા માટે પાત્રતા જોઈએ. આત્માને ઉજ્જવળ કરે એવું આધ્યાત્મિક જ્ઞાન મેળવવા માટે પ્રજ્ઞા ઉપરાંત મહત્ત્વની આવશ્યક્તા તે મુનિપણું છે અને મુનિપણામાં નિર્મળ, નિરઅતિચાર ચારિત્ર છે. જીવ માત્ર પ્રત્યે કરુણાસભર હૃદય તથા મન, વચન, કાયાથી બ્રહ્મચર્યપાલન આ પૂર્વધરનાં અત્યંત મહત્ત્વનાં લક્ષણો છે.
ભગવાન મહાવીર સ્વામીના શાસનકાળમાં એક હજાર વર્ષ સુધી પૂર્વશ્રુતની પરંપરા ચાલી હતી. ત્યાર પછી પૂર્વનો વિચ્છેદ થયો. આર્ય વજસ્વામી ભગવાન મહાવીર પછી લગભગ પાંચસો વર્ષે થયા. વજસ્વામીનો જન્મ વિ. સં. ૨૬માં (વીર સં. ૪૯૬માં) થયો હતો. તેમને બાલવયે દીક્ષા આપવામાં આવી હતી, શાસનમાં જે બાલદીક્ષિત મહાત્માઓ થઈ ગયા છે એમાં વજસ્વામીનું જીવન અદ્ભુત છે. એમના જીવનની બહુ વિગતો આપણને મળતી નથી. પણ જે મળે છે તે ઘણી રસિક છે અને એમના ઉજ્જવળ જીવનને સમજવામાં સહાયરૂપ છે.
વજસ્વામીના પૂર્વભવનો પ્રસંગ પણ અત્યંત પવિત્ર અને પ્રેરક છે. તે આ પ્રમાણે છે : ભગવાન મહાવીર સ્વામીના પ્રથમ ગણધર ગુરુ ગૌતમસ્વામી જ્યારે પવિત્ર તીર્થ અાપદ પર્વતની યાત્રાએ ગયા હતા ત્યારે સ્વર્ગમાંથી વૈશ્રમણ ર્જુભકદેવ પણ પોતાના એક દેવ મિત્રને લઈને તે જ સ્થળે યાત્રાએ આવ્યા. બન્નેએ ગૌતમસ્વામીનાં દર્શન કર્યા, પરંતુ અદ્ભુત કાંતિવાળા ગૌતમસ્વામીનું પુરું શરીર જોઈને મિત્ર દેવના મનમાં પ્રશ્ન થયો કે “સાધુ તે કંઈ આવા ભરાવદાર શરીરવાળા હોય ? સાધુ તો તપ કરે, કષ્ટ સહન કરે એટલે તે કૃશકાય હોય. પરંતુ ગૌતમસ્વામીનું શરીર તો સુખી માણસ જેવું ભરાવદાર છે !'
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આર્ય વજસ્વામી
૪૯ એ દેવના ચહેરા પરથી એની મૂંઝવણનો ખ્યાલ મન:પર્યવજ્ઞાની ગૌતમસ્વામીએ કહેલું આ કંડરીક-પુંડરીક-અધ્યયન સાંભળીને એવા ગૌતમસ્વામીને તરત જ આવી ગયો. મન:પર્યવજ્ઞાન એટલે એ દેવની શંકા નિર્મૂળ થઈ ગઈ. રાજા પુંડરીકની દીક્ષાનો પ્રસંગ બીજાના મનના ભાવો જાણવાની શક્તિ. ગૌતમસ્વામીને થયું કે અને એ કહેનાર ગૌતમસ્વામીનું તેજસ્વી સ્વરૂપ અને અગાધ જ્ઞાન હવે આ દેવના મનનું સમાધાન કેવી રીતે કરવું ?
એમને એટલા બધાં તો સ્પર્શી ગયાં કે દેવલોકમાં પાછા ફર્યા પછી
પણ તેઓ રોજ કંડરીક-પુંડરીકના અધ્યયનનું વારંવાર સ્મરણ કરવા સીધેસીધો ખુલાસો કરવાને બદલે ગૌતમસ્વામીએ દેવોને પાસે
લાગ્યા. કેટલી વાર ? આપણને આશ્ચર્ય થાય પણ તેઓએ રોજ બેસાડીને કંડરીપુંડરીકનો વૃત્તાન્ત કહ્યો. એ વૃત્તાન્ત નીચે પ્રમાણે છે :
પાંચસો વાર સ્મરણ કર્યું. આ રીતે દેવલોકનાં પોતાના શેષ પાંચસો કંડરીક અને પુંડરીક નામના બે રાજકુમાર ભાઈઓ હતા.
વર્ષ સુધી એમણે ગૌતમ સ્વામીને વંદન કરવાપૂર્વક આ કંડરીકબન્ને ભાઈઓ દીક્ષા લેવાનો પ્રબળ ભાવ ધરાવતા હતા, પરંતુ
પુંડરીક-અધ્યયનનું સ્મરણ કર્યા કર્યું. પોતે દેવભવમાં હતા એટલે તેમના પિતાનું મૃત્યુ થતાં રાજ્ય ચલાવવાનો ભાર તેમના શિરે
દીક્ષા લેવાનું તેમને માટે શક્ય નહોતું. પરંતુ દીક્ષાના તેમના ભાવ . આવી પડ્યો. નાના ભાઈ કંડરીકે મોટાભાઈ પુંડરીકને રાજા બનવા એટલા પ્રબળ અને ઊંચા હતા અને ગૌતમસ્વામી પ્રત્યેની એમની મહામહેનતે સમજાવ્યા. પુંડરીકની સંમતિ મળતાં કંડરીકે દીક્ષા લીધી. ભક્તિ એટલી દઢ હતી કે દેવભવના સુખોપભોગ ભૂલી તેઓ દીક્ષા જીવનમાં અતિ દુષ્કર તપ કરવાને લીધે અને પરીષહો સહન જાણે ગૌતમસ્વામીમય બની ગયા હતા. તેથી જ્યારે એ દેવનું કરવાને કારણે કંડરીકને કોઈક અસાધ્ય રોગ લાગુ પડ્યો. વિહાર સ્વર્ગમાંથી ચ્યવન થતાં, ભરતક્ષેત્રમાં મનુષ્ય તરીકે અવતરણ થયું કરતાં કરતાં સાધુ કંડરીક એક દિવસ પોતાના ભાઈ પુંડરીકના ત્યારે તે વજકુમાર તરીકે જન્મ્યા. પરિણામે તેઓ જાણે રાજ્યમાં આવી પહોંચ્યો. રાજા પુંડરીકે એમનું સ્વાગત કર્યું અને ગૌતમસ્વામીનું જ બીજું રૂપ તેવા તેજસ્વી હતા. પોતાના રાજમહેલમાં મુકામ કરાવ્યો. એમને પોતાના સાધુ બનેલા વજસ્વામીના પૂર્વ ભવનું ઉપર પ્રમાણે પ્રમાણે વૃત્તાન્ત મળે છે. ભાઈને આવી દશામાં જોઈને દુઃખ થયું. એમણે રાજવૈદ્યની સલાહ ભગવાન મહાવીરસ્વામીના નિર્વાણ પછી પાંચસો વર્ષે (એટલે અનુસાર યોગ્ય ઔષધોપચાર કરાવ્યા અને ઉત્તમ ખોરાક આપી કે આજથી લગભગ બે હજાર વર્ષ પહેલાં) ભારતવર્ષમાં કંડરીક મુનિને રોગમુક્ત બનાવ્યા. પરંતુ લાંબા સમય સુધી ઉત્તમ અવંતિનગરીમાં તુંબવન નામના ગામમાં ધનગિરિ નામના એક પૌષ્ટિક ખોરાક મળવાથી અને રાજમહેલની સગવડો મળવાથી મુનિ અત્યંત ધાર્મિકવૃત્તિવાળા યુવાન શ્રાવક રહેતા હતા. લગ્નને યોગ્ય કંડરીકનું મન પ્રમાદી થઈ ગયું. દીક્ષાપાલન માટેના તેમના ભાવ એમની વય થતાં એમનાં માતાપિતાએ એમને ઘણી કન્યાઓ બદલાઈ ગયા. રાજા થયેલા પોતાના મોટાભાઈ પુંડરીક કેવું સરસ બતાવી, પરંતુ ધનગિરિને દીક્ષા લેવાની ભાવના હતી. તેથી તેઓ સુખ માણે છે એ જોઈ તેના મનમાં ઈર્ષાનો ભાવ જાગ્યો. મોટાભાઈ
દરેક કન્યાનાં માતાપિતાને પોતાની દીક્ષા લેવાની સાચી વાત કહી પુંડરીક નાના ભાઈના મનની આ વાત સમજી ગયા. એમને પણ
દેતા. એટલે એમના વિવાહ થતા અટકી જતા. પહેલાં તો દીક્ષા જ લેવી હતી. પણ રાજ્યની જવાબદારી આવી
એ જ ગામમાં ધનપાલ નામના એક શ્રેષ્ઠી રહેતા હતા. તેમને પડતાં રાજગાદી સ્વીકારી હતી. એમણે પોતાની દીક્ષા લેવાની
સમિત નામનો એક દીકરો હતો અને સુનંદા નામની એક દીકરી ભાવનાની યાદ અપાવીને પોતાનું રાજ્ય નાના ભાઈ કંડરીકને
હતી. તેઓ બંનેને પણ દીક્ષા લેવાની ભાવના હતી. પરંતુ તેમનાં સમજાવીને સોંપી દીધું.
માતાપિતાને બંને સંતાનોને અને તેમાં પણ સુંદર પુત્રી સુનંદાને
પરણાવવાનો ખૂબ આગ્રહ હતો. કુમાર ધનગિરિની હકીકત જાણતાં હવે મુનિ કંડરીક રાજા થયા અને રાજા પુંડરીક મુનિ થયા.
સુનંદા તેમની સાથે લગ્ન કરવા સંમત થઈ કે જેથી લગ્ન પછી મુનિ પુંડરીક દીક્ષા ગ્રહણ કરીને તરત વિહાર કરી જંગલમાં પહોંચ્યા.
તેઓ બન્ને દીક્ષા લઈ શકે. આવી રીતે લગ્ન કરવાથી બન્નેનાં ત્યાં એક વૃક્ષ નીચે બેસીને રાજા તરીકેનાં પોતાનાં કર્તવ્યોને કારણે
માતા-પિતાને સંતોષ થાય અને લગ્ન પછી દીક્ષા લેવાની બન્નેની બંધાયેલાં અશુભ કર્મોને માટે તથા પોતાના સંસારી જીવન માટે
અભિલાષા પણ પૂરી થાય. આમ પરસ્પર અનુકૂળતા મળી જતાં તેઓ ખૂબ પશ્ચાત્તાપ કરવા લાગ્યા. એમ કરતાં કરતાં તેઓ શુભ
અને બંનેનાં માતા-પિતા સંમત થતાં ધનગિરિ અને સુનંદાનાં ધ્યાનની ઉત્કૃષ્ટ શ્રેણીએ ચડી ગયા. એથી તેમનાં ઘાતી કર્મોનો ક્ષય
લગ્ન થયાં. થયો અને તેમને કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું. એ વખતે તેમનું માત્ર
હવે બન્યું એવું કે બંનેનાં ભોગાવલી કર્મ કંઈક બાકી હશે કે એક જ દિવસનું સાધુપણું હતું.
જેથી લગ્ન પછી સુનંદા સગર્ભા બની. અષ્ટાપદ પર્વત પર - ગૌતમસ્વામીએ પેલા બે દેવોને કહ્યું કે “પુંડરીક રાજા હતા એટલે ગૌતમસ્વામીએ જે દેવને પુંડરીક-કંડરીક અધ્યયન સંભળાવ્યું હતું તે ભરાવદાર શરીર અને તેજસ્વી મુખ કાંતિવાળા હતા. હવે એ જ દેવનો જીવ અવીને સુનંદાના ઉદરમાં ગર્ભરૂપે આવ્યો. ઉદરમાં વખતે જો કોઈ તેમને જુએ તો મનમાં શંકા જાગે કે સાધુ તે કાંઈ રહેલા આ જ્ઞાનવાન અને પુણ્યશાલી જીવના પ્રતાપે અને પ્રભાવ આવા ભરાવદાર દેહવાળા હોય ? એટલે બધા સાધુઓ હંમેશાં ધનગિરિના ઘરમાં આનંદનું વાતાવરણ છવાઈ ગયું. દુર્બળ શરીરવાળા અને ઓછી કાન્તિવાળા જ હોય તેવું નથી.' એક દિવસ ધનગિરિએ સુનંદાને કહ્યું, “સુનંદા ! તારા ઉદરમાં
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કોઈ અસાધારણ પુણ્યશાળી જીવ આવ્યો છે. તે માતા બનશે. ઘરમાં બાળક હશે એટલે તને એક આધાર મળી રહેશે. આપણે લગ્ન પહેલાં પરસ્પર નિર્ણય કર્યો હતો એ પ્રમાણે મને તું દીક્ષા લેવાની હવે રજા આપ.'
શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ
ધનગિરિ અને સુનંદાની ધર્મભાવના ઊંચી હતી. એટલે સુનંદાએ ધનગિરિન દીક્ષા લેવા માટે સમય સમનિ આપી ધનાદિના સાળા સમિત પણ દીક્ષા લેવા તૈયાર થઈ ગયા, બંનેએ સિંહગિરિ નામના આચાર્ય પાસે દીક્ષા લીધા. ધનગિરિ શ્રેષ્ઠી હવે ધનગિરિ અણગાર અને સમિત હવે સમિત અણગાર બન્યા. દીક્ષા લીધા પછી પોતાના ગુરુ મહારાજ સાથે તેઓ ત્યાંથી વિહાર કરી ગયા.
સગર્ભાવસ્થાના નવ માસ પૂરા થતાં સુનંદાએ એક અત્યંત સુંદર, તેજસ્વી પુત્રને જન્મ આપ્યો. આનંદિત થયેલી સુનંદાની સખીઓ નવજાત શિશુને જોઈ કહેવા લાગી, ‘બેટા, જો તારા પિતાજીએ દીક્ષી લીધી ન હોત તો તેઓ તેને જોઈને બહુ જ રાજી ઘાત અને એમણે તારો જન્મોત્સવ બહુ ધામધૂમથી ઊજથ્થો હોત !'
બાળક તો નાનું હતું. બોલતાં પણ તે શીખેલું નિહ. પણ એ સ્ત્રીઓના આ વાક્યમાં બોલાયેલો દીક્ષા' શબ્દ સાંભળતાં જ બાળકને જ્ઞાનાવરણીય કર્મોના લોપાનને કારણે અતિસ્મરણજ્ઞાન (પૂર્વભવનું જ્ઞાન) થયું.
જ્ઞાનવરણીય કર્મો એટલે જ્ઞાનનું આવરણ કરે, જ્ઞાનને ઢાંકી દે તેવા પ્રકારનાં કર્મો, એવાં કર્મો કેવી રીતે બંધાય ? શાસ્ત્રકારો કહે છે કે જ્ઞાન કે જ્ઞાનીનો અવિનય કરવો, અકાળે ભણવું, જ્ઞાનની આશાતના કરવી, જ્ઞાનીની નિંદા કરવી કે ઇર્ષા કરવી, બહુમાન કે ભક્તિભાવ વિના, મન વગર અયન કરવું, શાનને સ્વાર્થે દંભ કે અહંકારથી છુપાવવું. સૂત્રનો ઇરાદાપૂર્વક ખોટી અર્થ કે ખોટો ઉચ્ચાર કરવો, પોતાના જ્ઞાનનું અભિમાન કરવું, અજ્ઞાન કે અજ્ઞાનીની હાંસી કરવી, બીજાની જ્ઞાનપ્રાપ્તિમાં વિઘ્નો નાંખવાં વગેરેથી અશુભ જ્ઞાનાવરણીય કર્મ બંધાય છે. બીજી બાજુ સાન કે જ્ઞાની તરફ ભક્તિભાવ રાખવો, તેમનું બહુમાન કરવું, વિનયપૂર્વક, ભાવપૂર્વક જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવા પ્રયત્ન કરવો, જેનો અધ્યયન કરતા હોય તેમને વિવિધ પ્રકારે સહાય કરવી તથા તેમની જ્ઞાનોપાસનાની અનુમોદના કરવી, તેમને તે માટે અનુકૂળતા કરી આપવી, શાનનો સદુપયોગ કરવો વગેરે કરવાથી જ્ઞાનાવરણીય કર્મોનો થોપશમ થાય છે. ક્ષય એટલે કર્મો ખરી પડવાં અને ઉપશમ એટલે શાંત થઈ જવાં.
વજસ્વામીનાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મોનો લોપશમ ઘણો મોટો હતો. એટલે જ તેમને પોતાના પૂર્વના દૈવભવમાં આનંદપ્રમોદ ભોગવવાને બદલે અષ્ટાપદજીની તીર્થયાત્રાએ જવાના ભાવ થયા હતા. ત્યાં ગણધર ભગવંત શ્રી ગૌતમસ્વામીના દર્શનનો લાભ મળ્યો હતો. તેમની પાસેથી સાંભળેલા ડરીક-પુંડરીક અધ્યયનનું તેઓ રોજ સ્મરણ કરતા અને મનુષ્યભવની તેઓ ઝંખના કરતા, કારણ કે માનવભવ સિવાય દીક્ષા શક્ય નથી. પછીના ભવની તેમની સિદ્ધિ અને આશ્ચર્યજનક, અપાર શક્તિ જોતાં એમ લાગે કે માત્ર છેલ્લા
દેવભવમાં જ નહિ પરંતુ એથીયે પહેલાંના ભવમાં તેમણે જ્ઞાનની અને તપની આરાધના કરી હશે.
બાળક વજ્રકુમારે માતાની સખીઓના મુખેથી ‘દીક્ષા' શબ્દ સાંભળતાં જ મનમાં સંકલ્પ કરી લીધો કે પોતાને હવે જો મનુષ્ય ભવ મળ્યો જ છે, તો પોતે અવશ્ય જલદીમાં જલદી દીક્ષા ગ્રહણ કરવી. વળી પોતાની માતાને પણ દીક્ષા લેવાના ભાવ છે. જો પોતે દીક્ષા લેશે. તો એવી દીક્ષા લેવા માટે માતાને પણ અનુકુળતા મળી. રહેશે. બાળક વજ્રકુમારે વિચાર્યું કે પોતે હજુ બાળક છે, માતાનો એક માત્ર આધાર છે. વત્સલ માતા પોતાને તરત જ દીક્ષા લેવા નહિ દે. પરંતુ બીજી બાજુ દીક્ષા લેવામાં જ માતા-પુત્ર બન્નેનું કલ્યાણ રહેલું છે. માટે માતા થોડી દુઃખી થાય તો પણ પોતે દીક્ષા તો લેવી જ. એ માટે માતાનો પોતાના પરનો વાત્સલ્યભાવ ઓછો કરવાનો ઉપાય તેમણે શોધી કાઢ્યો. માતા એમને ખોળામાં લે કે તરત જ તેઓ રડવા લાગે. આમ રાત દિવસ તેઓ રડીને માતાને જાણી જોઈને સતાવવા લાગ્યા. માતાએ તેમને રાજી રાખવા રમકડાં, કપડાં, ખાદ્યપદાર્થો, મીઠાં હાલરડાં વગેરે દ્વારા અનેક ઉપાયો કર્યાં, પણ તે બધા નિષ્ફળ ગયા. ક્યારેક બહુ કંટાળીને માતા જ્યારે તેમને ધમકી આપતી કે, 'બસ, હવે, બહુ ડીશ તો તને તારા પિતાને સોંપી દઈશ.' પરંતુ આટલું સાંભળતાં જ તેઓ તરત છાના રહી જતા. અને થોડી વાર પછી પાછું રડવાનું ચાલુ કરી દેતા. આ ત્રાસથી વજ્રકુમારની માતા બહુ થાકી ગઈ. તેમની સખીએ તેમને કહ્યું : `સુનંદા, આ આખો દિવસ રડતા બાળકને જોતાં અમારી તને સલાહ છે કે તારા સાધુ પતિ જ્યારે આ ગામમાં પધારે ત્યારે નું આ બાળક એમને સોંપી દેજે.” સુનંદાને પણ લાગ્યું કે આ સિવાય હવે બીજો કોઈ ઉપાય નથી. એથી તે પોતાના સાધુ થયેલા પતિના આગમનની રાહ જોવા લાગી.
થોડા સમય પછી સાધુ આર્ય ધનગિરિ અને સાધુ આર્ય સમિત પોતાના ગુરુ મહારાજ સાથે વિહાર કરતા તે નગરમાં પધાર્યા. ગુરુની રજા લઈ બંને સુનંદાના ઘરે વહોરવા પધાર્યા. સુનંદાને આર્ય ધનગિરિના આગમનના સમાચાર મળ્યા હતા, તેથી તે બાળકને વહોરાવવા ઉત્સુક હતી. ધનગિરિ સુનંદાના ઘરે વહોરવા પધાર્યા તે વખતે સુનંદાને બાળક માટે ફરિયાદ કરતાં કહ્યું, "આપા પુત્રનું મેં અત્યાર સુધી કાળપૂર્વક પાલા પોશ ક્યુછે, પરંતુ તે દિવસરાત રહ્યા જ કરે છે. તેથી હું બહુ કંટાળી ગઈ છું. એ તમારો પણ પુત્ર છે. તમે એના પિતા છો. માટે તમે જો એને લઈ જાવ તો હું ત્રાસમાંથી છૂટું.'
તે દિવસે મુનિ ધનગિરિ જ્યારે વોરવા નીકળતા હતા ત્યારે ભાવિના જાણકાર તેમના ગુરુએ કહ્યું, “ધનગર, આજે તમને જે કોઈ અચિત કે સચિત વસ્તુ વહોરાવે તે લઈ લેજો.'
સુનંદાએ બાળકને વહોરાવવાની વાત કરી ત્યારે ધનગિરિ વિમાસણમાં પડી ગયા, પરંતુ ગુરુ મહારાજના શબ્દો યાદ આવ્યા. બાળક પિન કહેવાય. એટલે ધરિએ બાળકને વારવા માટે સુનંદાને સંમતિ આપી, પણ કહ્યું, ‘તમે બાળકને વહોરાવો ભલે,
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આર્ય વજસ્વામી
૫૧ પણ એ માટે ચાર-પાંચ વ્યક્તિને સાક્ષી તરીકે રાખીને મને વહોરાવા ઇચ્છતા હોય તેમ સુનંદા સાથે આનંદથી રહેવા લાગ્યા. ચાતુર્માસ કે જેથી પાછળથી કોઈ પ્રશ્ન ઊભો ન થાય.” સુનંદાએ પોતાની પૂર્ણ થતાં સાધુ-સાધ્વીઓ બીજે વિહાર કરી ગયાં. સખીઓને સાક્ષી તરીકે રાખી. પછી ખૂબ દુઃખ સાથે રડતા બાળકને આમ કરતાં કરતાં ત્રણ વર્ષ વીતી ગયાં. વજકુમાર ત્રણ વહોરાવી દીધું. મુનિ ધનગિરિએ જેવું બાળક પોતાની ઝોળીમાં વર્ષના થયા. વિહાર કરતાં કરતાં મુનિ ધનગિરિ અન્ય સાધુ સમુદાય મૂક્યું કે તરત જ એ શાંત થઈ ગયું. સુનંદા આશ્ચર્યથી તે જોઈ સાથે પાછા એ જ નગરમાં આવી પહોંચ્યા. તે વખતે સુનંદાએ રહી. મુનિ ધનગિરિએ ઝોળી ઊંચકી તો બાળક બહુ જ વજનવાળું પુત્રને પોતાને પાછો આપવા હકપૂર્વક અને હઠપૂર્વક માગણી કરી. લાગ્યું. આટલા નાના બાળકના વજનથી ધનગિરિના હાથ નીચા આર્ય ધનગિરિએ કહ્યું, “હવે બાળક તમને પાછું આપી શકાય નમી ગયા. બાળકને વહોરીને તેઓ ઉપાશ્રયે પહોંચ્યા. જે બન્યું તે નહિ. સખીઓની સાક્ષીએ વજકુમારને તમે મને સોંપ્યો છે, હવે વિશે ગુરુ મહારાજને વાત કરી અને તેમના હાથમાં બાળક આપ્યું. તેના પર તમારો કોઈ હક રહેતો નથી. તમે એને સાધુ બનાવવા બાળકને હાથમાં લેતાં જ ગુરુ મહારાજના હાથ પણ ભારથી નમી વહોરાવ્યો છે. અમે તેને હવે સાધુ બનાવીશું.' ગયા. તેમનાથી બોલાઈ ગયું કે “અરે આ તે બાળક છે કે વજ છે?” આ સાંભળી સુનંદા નિરાશ થઈ ગઈ. તે હઠે ભરાઈ. બાળકના
બાળકની અત્યંત તેજસ્વી મુખમુદ્રાને જોઈને આર્ય સિંહગિરિએ માલિકીપણા અંગે બન્ને વચ્ચે વિવાદ થયો. તે દિવસોમાં આવા તેનું ભવિષ્ય ભાખતાં પોતાના શિષ્યોને કહ્યું, ‘આ કાંતિમાન બાળક પ્રશ્નોમાં જો કંઈ સમાધાન ન થાય તો છેવટે રાજદરબારમાં વાત મોટો થઈને મહાન ધર્મપ્રવર્તક થશે. જૈન શાસનનો શણગાર થશે, લઈ જવી પડતી. અંતે બન્ને વચ્ચે નક્કી થયું કે આ બાળક અંગે સિદ્ધગિરિ શત્રુંજય મહાતીર્થનો ઉદ્ધારક પણ થશે. માટે એનું ખૂબ
રાજા જે નિર્ણય કરે તે બન્નેએ સ્વીકારવો. જતન કરજો.'
બંને પક્ષ રાજસભામાં ગયા. રાજાએ મંત્રીઓની સલાહ બાળક વજ જેવું બળવાન અને વજનદાર હતું એટલે આર્ય અનુસાર એક કસોટી મૂકી કે રાજસભામાં એક બાજુ સુનંદા હોય, સિંહગિરિએ એનું નામ “વજકુમાર' રાખ્યું. તે બહુ નાનો હોવાથી
બીજી બાજુ આર્ય ધનગિરિ હોય. બંને બાજુ બન્ને પક્ષના માણસો તેની સંભાળની વ્યવસ્થાની જવાબદારી પોતાના સમુદાયની
બેઠાં હોય. વચમાં બાળક વજકુમારને ઊભા રાખવા. ત્યાર પછી સાધ્વીઓને સોંપી. સાધ્વીઓ બાળકને સ્પર્શી ન શકે એટલે તેઓએ
બાળક પોતાની મેળે જેની પાસે જાય તેનો સોંપી દેવો. નગરની કેટલીક શ્રાવિકાને બોલાવીને એની સાર-સંભાળ રાખવાનું રાજસભા ભરાઈ. બન્ને પક્ષે માણસો આવીને બેઠાં. કહ્યું. સાધ્વીઓએ અને શ્રાવિકાઓએ આ રીતે બાળક વજકુમારની વજકુમારની પાલક શ્રાવિકા વજકુમારને સુંદર વસ્ત્રોમાં, વિવિધ ખૂબ વાત્સલ્યપૂર્વક સંભાળ લેવી શરૂ કરી. પૂર્વજન્મના સંસ્કારને
અલંકારોથી શણગારીને લાવી હતી. તેના નાનકડા પગમાં ઘૂઘરીઓ લીધે વજકુમારમાં કેટલીક વિશિષ્ટ સંજ્ઞાઓ જન્મથી જોવા મળતી
પણ પહેરાવી હતી. વજકુમારને બોલાવવા માટે પહેલો માતાનો હતી. તેઓ જાણે સંયમી સાધુઓના આચારને જાણતા હોય એમ
હકક સ્વીકારવામાં આવ્યો. સુનંદાએ બાળકને પોતાના તરફ દેખાતું. તેઓ પોતાના શરીરના નિર્વાહ પૂરતાં આહારપાણી લેતા.
આકર્ષવા માટે ભાતભાતનાં સુંદર વસ્ત્રો, રંગબેરંગી રમકડાં અને આહારપાણી પણ અચિત હોય તો જ લેતા. તેઓ મળ-મૂત્ર વિસર્જન
જાત જાતની મીઠી વાનગીઓ બતાવી અને મીઠા સ્વરે વહાલથી માટે સંજ્ઞા કરી જણાવતા. તેઓ ક્યારેક પોતાનાં કે અન્યનાં કપડાં
બોલાવ્યો; પરંતુ વજકુમાર તેમની પાસે ગયા નહિ, પછી સુનંદા કે કશું બગાડતા નહિ. રમકડે રમવાને બદલે સાધુઓનાં નાનાં
પ્રેમભર્યા વચનો બોલવા લાગી, “હે વજકુમાર, તું મારો પુત્ર છે. નાનાં ઉપકરણોથી તેઓ રમતા. બાળકની આવી સરસ ચેષ્ટાઓ
તને જન્મ આપીને હું ધન્ય બની છું. હું મારું સર્વસ્વ છે. મારા જોઈને સાધ્વીઓને અને શ્રાવિકાઓને આશ્ચર્ય સહિત આનંદ થતો.
ઉદરમાં તે નવ માસ વાસ કર્યો છે. આવ, મારા ખોળામાં બેસ લાખો કરોડોમાં કોઈક જ જોવા મળે તેવું આ બાળક હતું.
અને મારા હૈયાને આનંદથી છલકાવી દે.” આ બાજુ બાળક વજકુમારની આવી સરસ સરસ વાતો
સુનંદાનાં આવાં લાડકોડભર્યા વચનો સાંભળવા છતાં વજકુમાર સુનંદાના કાને આવી. આવું અણમોલ રત્ન જેવું બાળક આપી દેવા
તેના તરફ ગયા નહિ. વજકુમાર બાળક હોવા છતાં તેમનામાં માટે એને ખૂબ પશ્ચાત્તાપ થયો. પોતે મોટી ભૂલ કરી છે એમ એને
કોઈક ગૂઢ દૈવી સમજશક્તિ હતી. તેમણે મનમાં વિચાર્યું કે, “મારી લાગ્યું. બાળકને પાછું મેળવવા એણે શ્રાવિકાઓ પાસે જઈને વિનંતી.
અવજ્ઞાથી મારી માતાને દુ:ખ જરૂર થશે. તેનો મારા પર અસીમ કરી. પરંતુ શ્રાવિકાઓએ બાળક આપ્યું નહિ અને કહ્યું કે “આ તો
ઉપકાર છે. પરંતુ જો હું હવે માતાને સ્વીકારીશ તો સંઘની અને અમારા ગુરુ મહારાજે અમને સોંપેલી જવાબદારી છે. ગુરુ મહારાજે
સાધુત્વની ઉપેક્ષા થશે. વળી મારે સંસારનાં બંધનમાં રહેવું પડશે. અમને બાળક સાચવવા આપ્યું છે. તેથી અમે તમને એ આપી
દીક્ષા લેવાની મારી ભાવના અપૂર્ણ રહેશે. વળી, મારી માતા શકીએ નહિ, પરંતુ મા તરીકે તમારે અહીં આવીને બાળકની સંભાળ
હળુકર્મી છે તથા દીક્ષા લેવાના ભાવવાળી છે. હું તેની પાસે નહિ લેવી હોય તો જરૂર લઈ શકો.” સુનંદાને વજકુમારને મળવાની જાઉં તો પહેલાં તેને અનહદ દુઃખ થશે, પણ પછીથી તેના ચિતનું છૂટ મળી તેથી તે શ્રાવિકાની સાથે રોજ જઈને વજકુમારને સ્તનપાન સમાધાન જરૂર થશે અને તે અવશ્ય દીક્ષા ગ્રહણ કરશે.’ આવા કરાવતી, રમાડતી, જમાડતી અને આનંદ પામતી. વજકુમાર પણ વિચારથી વજકુમાર માતા પાસે ગયા નહિ. એથી માતા સુનંદા પોતે માતાને હેતુપૂર્વક ત્રાસ આપ્યો હતો તેનો બદલો વાળવા અત્યંત નિરાશ થઈ રડી પડી.
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માત થવું.
પરે
શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ હવે સાધુ ધનગિરિનો વારો આવ્યો. તેમણે માત્ર પોતાનું અભ્યાસ કરતાં તે માત્ર સાંભળીને અગિયારે અંગનું જ્ઞાન રજોહરણ ઊંચું કર્યું. તેઓ બોલ્યા. “હે નિર્દોષ, નિષ્પાપ બાળ વજસ્વામીએ મેળવી લીધું. તીર્થંકર ભગવાન સમવસરણમાં વજકુમાર ! જો તું તત્ત્વજ્ઞ હોય અને તારે સંયમવ્રત ધારણ કરવું ત્રિપદીમાં દેશના આપે. તે ગણધર ભગવંતો ઝીલે અને ઔત્પાતિકી હોય તો ધર્મના ધ્વજ જેવું રજોહરણ તું લઈ લે.' મુનિ પિતા બુદ્ધિ વડે તેનો વિસ્તાર કરી તેને દ્વાદશાંગીમાં ગૂંથે. દ્વાદશાંગી ધનગિરિનો અવાજ સાંભળતાં જ વજકુમાર ઘૂઘરીનો મધુર રણકાર એટલે કે બાર અંગ. ગણધર ભગવંતોની દેશના દ્વારા તે લોકો કરતા કરતા હર્ષપૂર્વક ધનગિરિ પાસે દોડી ગયા. જેમ બાળહાથી સુધી પહોંચે, આ બાર અંગમાંથી અગિયાર અંગનું જ્ઞાન કમળને હળવેથી પોતાની સૂંઢમાં લઈ લે તેવી રીતે મુનિ ધનગિરિ વજસ્વામીને બાળવયમાં જ પ્રાપ્ત થયું. પાસેથી રજોહરણ લઈને તેઓ નાચવા લાગ્યા. ત્યાર પછી તેઓ વજસ્વામી આઠ વર્ષના થયા ત્યારે સાધ્વીઓ પાસેથી તેને સાધુપિતાના ખોળામાં બેસી રજોહરણને ભાવપૂર્વક જોવા લાગ્યા. સાધુસમુદાય પાસે લઈ આવવામાં આવ્યા. વય ઘણી નાની હતી વજકુમારના આવા વર્તનથી રાજાએ ચુકાદો જાહેર કર્યો કે છતાં વજસ્વામી ચારિત્રપાલનમાં જાગૃતિપૂર્વક ચીવટવાળા હતા અને વજકુમારને આર્ય ધનગિરિ રાખે.'
પ્રલોભનોથી ચલિત થાય તેવા નહોતા. એક વખત વજસ્વામી રાજાના આ ચુકાદાથી સુનંદાના દુઃખનો પાર રહ્યો નહિ. પરંતુ
પોતાના વડીલ સાધુસમુદાય સાથે અવંતિકાનગરી તરફ વિહાર કરી ત્યાર પછી થોડા દિવસમાં જ તે કંઈક સ્વસ્થ થઈ ગઈ. તેણે વિચાર્યું
રહ્યા હતા. એ સમયે તેમના પૂર્વભવના મિત્ર દેવોએ તેમના કે “મારા પતિએ દીક્ષા લીધી છે, પુત્ર પણ દીક્ષાની ઇચ્છાવાળો છે
ચારિત્રપાલનની કસોટી કરવાનો વિચાર કર્યો. તેઓએ શ્રાવકોનું અને લગ્ન પહેલાં મારી પોતાની પણ દીક્ષાની જ ભાવના હતી.
રૂપધારણ કરીને રસ્તામાં મોટો પડાવ નાંખ્યો. હાથી, ઘોડા, રથ, વળી વજકુમારે તો ઊલટાની દીક્ષા લેવાની મને અનુકૂળતા કરી
તંબૂઓ, સેવકો વગેરે એ પડાવમાં હતા. વળી તેમની પાસે વિવિધ આપી.’ આમ વિચારી સુનંદાએ પણ દીક્ષા લેવાનો નિર્ણય કર્યો.
પ્રકારની ખાદ્ય સામગ્રી પણ હતી. એવામાં ધીમે ધીમે વરસાદ
પડવો ચાલુ થયો. એટલે વજસ્વામી એક સ્થળે આશ્રય લઈને ત્યાર પછી અનુકૂળ સમયે સુનંદાએ ગચ્છના આચાર્ય પાસે દીક્ષા લીધી.
ઊભા રહી ગયા. એ વખતે શ્રાવક વેશધારી દેવોએ તેમને વહોરવા ભગવાન મહાવીર સ્વામીના જૈન શાસનની પરંપરામાં ત્રણ
પધારવા વિનંતી કરી. વજસ્વામી વહોરવા નીકળ્યા, પરંતુ વરસાદ વર્ષના બાળકને દીક્ષા આપવામાં આવી હોય એવું એક માત્ર
ફરી ચાલુ થયો હોવાથી અપકાયની વિરાધના થશે એમ વિચારી અપવાદરૂપ ઉદાહરણ તે વજકુમારનું છે. સામાન્ય રીતે જૈન
તેઓ પાછા ફર્યા. દેવોએ પોતાની શક્તિથી વરસાદ બંધ કરાવ્યો શાસનમાં પાત્રની યોગ્યતા વિચારીને વહેલામાં વહેલી દીક્ષા
અને ફરીથી વજસ્વામીને વહોરવા માટે પધારવા વિનંતી કરી. બાળકની આઠ વર્ષની ઉંમર પૂરી થયા પછી આપવાની પરંપરા છે.
વજસ્વામી ગોચરી વહોરવા ગયા. દેવોએ કુષ્માંડપાક (કોળાપાક) પરંતુ વજકુમારે જન્મથી તે ત્રણ વર્ષની ઉંમરમાં ઊંડી સમજશક્તિ,
વહોરાવવા માટે હાથમાં લીધો. મિષ્ટાન જોઈને બાલસાધુનું મન સંયમની ભાવના, જ્ઞાનની અભિરુચિ, ચિત્તની સ્વસ્થતા અને લલચાય છે કે નહિ તે તેમને જોયું હતું. પરંતુ વહોરતાં પહેલાં વર્તનની પુખ્તતા જે અસાધારણ રીતે દર્શાવી તે જોતાં તેઓ
વજસ્વામીએ વિચાર્યું કે અત્યારે વર્ષાઋતુ ચાલે છે. એટલે આ નિરતિચાર દીક્ષાજીવનનું પાલન કરી શકશે એમ એમના
કાળે અવંતિનગરીમાં આ ફળ ઉત્પન્ન થવાની શક્યતા નથી. તો ગુરુભગવંતને સ્પષ્ટપણે સમજાયું હતું. દીક્ષાર્થી વ્યક્તિની પુખ્ત ઉંમર પછી આ લોકોએ કોળાપાક કેવી રીતે બનાવ્યો હશે ? આમ પોતે હોય, પરિપક્વ વિચાર હોય, સંયમમાં સ્થિરતા હોય પછી જ દીક્ષા વિચારતા હતા તે દરમિયાન વજસ્વામીએ વહોરાવનાર શ્રાવકો દેવાય. પરંતુ યોગ્યતાનુસાર બાળદીક્ષા પણ આપવામાં આવે છે. સામે જોયું. એમના પગનો સ્પર્શ પૃથ્વીને થતો નહોતો. તેમની બાળદીક્ષાના કેટલાક લાભ પણ છે. બાળદીક્ષાર્થીની તીવ્ર યાદશક્તિ આંખો અનિમેષ હતી એટલે કે મટકું મારતી નહોતી. આ ચિહ્નો હોય, કુશાગ્ર બુદ્ધિ હોય, વિદ્યા પ્રાપ્ત કરવાની અદમ્ય ધગશ હોય પરથી તેઓ તરત સમજી ગયા કે આ શ્રાવકવેશધારી દેવો છે. જો તો હજારો શ્લોકો બહુ નાની ઉંમરમાં તે કંઠસ્થ કરી શકે છે. જો તેઓ દેવો છે તો દેવોએ વહોરાવવા તૈયાર કરેલી વાનગી એટલે દીર્ઘ આયુષ્ય મળે તો લાંબો દીક્ષા પર્યાય હોય તો તે ઉત્તમ કે દેવપિંડ તો સાધુઓને ખપે નહિ. તેથી વજસ્વામી વહોર્યા વિના આરાધના અને સ્વાર કલ્યાણનાં અનેક કામો કરી શકે.
જ ત્યાંથી પાછા ફરી ગયા. સાધુ તરીકેનું તેમનું આવું કડક ચારિત્ર વજકુમારને દીક્ષા ત્રણ વર્ષે આપવામાં આવી, પરંતુ તેમના પાલન જોઈને દેવો પ્રસન્ન થયા. દેવોએ પ્રગટ થઈને પોતાની સાધુપણાના આચારો તો નિયમ પ્રમાણે આઠમે વર્ષે શરૂ થયા. સાચી ઓળખાણ આપી. અને વજસ્વામીને વૈક્રિય લબ્ધિ (ઇચ્છા દીક્ષા લીધા પછી તેઓ વજસ્વામી તરીકે ઓળખાયા. ત્રણ વર્ષના પ્રમાણે સ્વરૂપ ધારણ કરવાની શક્તિ) આપી. વજસ્વામીએ પાછા વજસ્વામીની સંભાળ રાખવા માટે સાધ્વીજીઓની દેખરેખ નીચે ફરીને પોતાના ગુરુ મહારાજને બનેલી હકીકતની જાણ કરી. ગુરુ ગૃહસ્થોને જવાબદારી સોંપાઈ.
મહારાજે એમના ચારિત્રપાલનની અનુમોદના કરી. જન્મથી જ વજસ્વામીને પદાનુસારી લબ્ધિ પ્રાપ્ત થઈ હતી. દેવોએ ફરી એકવાર વજસ્વામીની કસોટી કરી હતી. એકવાર આ લબ્ધિ એટલે એવી શક્તિ કે સૂત્રનું એક જ પદ સાંભળતાં ઉનાળાના દિવસોમાં દેવોએ શ્રાવકનો વેશ ધારણ કર્યો અને આખું સૂત્ર આવડી જાય. ઉપાશ્રયમાં સાધ્વીજીઓ અગિયાર અંગનો વજસ્વામીને વહોરવા પધારવા વિનંતી કરી. દેવો એ ઘેબર
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આર્ય વજસ્વામી
વહોરાવવા માંડ્યાં. પરંતુ વજસ્વામીએ તેઓના દેખાવ પરથી જાણી લીધું કે આ દેવો જ છે. તેથી તેમણે ઘેબર કે બીજી કોઈ વાનગી વહોર્યાં નહિ. આથી પ્રસન્ન થયેલા દેવો પ્રગટ થયા અને તેમને આકાશગામિની વિદ્યા આપી. આમ બાળસાધુ વજસ્વામી બે વખત દેવોની કસોટીમાંથી સારી રીતે પાર ઊતર્યા હતા.
વજસ્વામી સાથેના સાધુસમુદાયમાં અગિયાર અંગનું અધ્યયન ચાલનું હતું. વજસ્વામીએ સાથીઓને અગિયાર અંગ ભરાતાં સાંભળીને પોતાની પદાનુસારી લબ્ધિ વડે તે કંઠસ્થ કરી લીધાં હતાં. હવે સાધુઓને એ અંગોનું અધ્યયન કરતા સાંભળીને તેમનું એ જ્ઞાન વધુ ને વધુ દૃઢ બનતું ગયું. વળી જેટલું પૂર્વગત પુત હતું. તે પણ તેમણે સાંભળીને પ્રાપ્ત કરી લીધું હતું. બીજા સાધુઓની જૈમ એક આસને બેસીને એ અંગોનું અધ્યયન કરવાની વધવામીને ખાસ જરૂર નહોતી એટલે તેનો અધ્યયન કરવા બહુ બેસતા નહિ, પોતાને પ્રાપ્ત થયેલી પદાનુસારી લબ્ધિની જાણ તેઓ કોઈને થવા દેતા નહિ. તેથી અન્ય સાધુઓ તેમને ભણવામાં આળસુ ગણતા અને તેમને ભણવા માટે બેસવા સમજાવતા. એટલે બીજા સાધુઓના માત્ર મનના સમાધાનને માટે વજ્રસ્વામી ઘણીવાર એક આસને બેસીને જાણે ભણતા હોય તેમ દેખાવ પૂરો ગણગણાટ કરતા. પરંતુ તે વખતે તેમનું ધ્યાન તો અન્ય સાધુઓ જે કંઈ વિશેષ અધ્યયન કરતા હોય તો એ સાંભળીને ગ્રહણ કરવામાં જ રહેતું હતું.
વળી, આ વખત દરમિયાન એક દિવસ એક અનોખી ઘટના બની હતી. એક દિવસ બપોરના સમયે અન્ય સાધુઓ ભિક્ષા માટે બહાર ગયા હતા. ગુરુ મહારાજ પણ બહાર ગયા હતા. તે વખતે વજ્રસ્વામી એકલા જ ઉપાશ્રયમાં હતા. બાલસહજ કુતૂહલથી તેમને કંઈક નવું કરવાનો ઉત્સાહ આવ્યો. તેમણે પોતાની આસપાસ વર્તુળાકારે થોડે છેટે સાધુઓનાં વસ્ત્રઓને વીંટાળીને સાધુની જગ્યાએ ગોઠવી દીધાં જાણે ત્યાં સાધુઓ બેઠા છે તેવું લાગે, પછી શિષ્યોની વચ્ચે. આચાર્ય મહારાજ જેમ બેસે તેમ તેઓ બેઠા. સામે શિષ્યોને બેઠેલા કલ્પીને મેઘગંભીર અવાજે તેઓ વાચના આપવા લાગ્યા. વળી વચ્ચે વચ્ચે તેઓ સૂત્રના અર્થની ચર્ચા કરવા લાગ્યા. આવું દશ્ય તેઓ ભજવતા હતા તે સમયે ગુરુ મહારાજ બહારથી પાછા ફરી રહ્યા હતા. તેમણે વાચના આપતો કોઈક અવાજ દૂરથી સાંભળ્યો. તેમને આશ્ચર્ય થયું કે શું બધા સાધુઓ જલદી પાછા આવીને સ્વાધ્યાય ક૨વા લાગ્યા હશે !
ગુરુ મહારાજે દૂર ઊભા રહીને ધ્યાનથી બરાબર સાંભળ્યું. તેઓ આકાર્યથી મનમાં બોલી ઊઠ્યા. અરે ! આ તો વજ્રસ્વામીનો અવાજ ! એ તો અગિયાર અંગની વાચના આપે છે.' ગુરુ મહારાજ વિચારમાં પડી ગયા. કે વજસ્વામીએ અયન તો કર્યું નથી, તો પછી શું માતાના ઉદરમાં રહીને જ આ જ્ઞાન પામ્યા હશે ! ખરેખર ! આ તો મહાન આશ્ચર્ય કહેવાય ! વજસ્વામી શા માટે ભણવામાં આળસ લાગતા હતા તેનું કારણ પોતાને સમજાયું. પોતાના બાળ શિષ્યની આવી અદ્ભુત અને અનોખી સિદ્ધિ જોઈને તેમના આશ્ચર્ય અને આનંદનો કોઈ પાર ન રહ્યો.
ગુરુ મહારાજે વિચાર્યું કે પોતે જો અચાનક ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ
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ક૨શે તો વજસ્વામી શરમાઈ જશે. એટલે પ્રવેશતાં પહેલાં દૂરથી તેઓ મોટેથી “નિસ્ટિરી' બોલ્યા. ગુરૂ મહારાજનો અવાજ સાંભળીને વજસ્વામીએ ઝડપથી સાધુઓનાં વસ્ત્રો સહુ સાને ઠેકાો મૂકી દીધાં. પછી તેઓ દોડના ઉપાશ્રયની બહાર આવ્યા. વિનષપૂર્વક ગુરુ પાસેથી દંડો લીધો. ગુરુ આસન પર બેઠા એટલે તેમનાં ચરણ ધોઈ, તેમને વંદન કર્યાં. વજસ્વામીનાં વિનય અને વિદ્વતા જોઈ ગુરુએ વિચાર્યું કે શ્રુતવિદ્યામાં નિપુણ એવા આ મહાન આત્માની યોગ્ય સંભાળ લેવાવી જોઈએ. બીજા સાધુઓ વજસ્વામીની આ શક્તિથી અજ્ઞાત છે. એટલે તેઓ તેમને બાળક ગણીને તેમની અવજ્ઞા ન કરે તે પણ જોવું જોઈએ.
વજ્રસ્વામીની શક્તિથી સહુ પરિચિત થાય તે માટે કેટલાક સમય પછી આચાર્ય ભગવંતે એક યોજના વિચારી. તેમણે શિષ્યોને કહ્યું, ‘બે ત્રણ દિવસ માટે મારે અન્ય સ્થળે વિચરવાનું થયું છે, માટે મારી અનુપસ્થિતિમાં તમારા વાચનાચાર્ય તરીકે વજસ્વામી જવાબદારી સંભાળશે.' આ સાંભળી શિષ્યોને બહુ આશ્ચર્ય થયું. પરંતુ આ તો જ્ઞાની ગુરુભગવંતની આજ્ઞા હતી. માટે જરૂર એમાં કંઈક રહસ્ય હશે એમ સમજી તેઓએ ભક્તિપૂર્વક તે આજ્ઞા સ્વીકારી લીધી.
ગુરુ મહારાજ પોતાની યોજના પ્રમાણે વિહાર કરીને અન્ય સ્થળે ગયા. બીજે દિવસે શિષ્યોએ વજસ્વામી પાસેથી વાચના લેવા માટે એમને સૌની મધ્યમાં મુખ્ય સ્થાને બેસાડ્યા. પછી વિનયપૂર્વક તેઓ સૌએ વજસ્વામીને વંદન કર્યાં. વજસ્વામી પણ ગુરુઆજ્ઞાને માન આપી સાધુઓને શાસ્ત્રપાઠ આપવા લાગ્યા. વાચના આપનાર સાધુ નાની ઉંમરના હતા અને વાચના લેનાર સાધુઓ મોટી ઉંમરના હતા, પરંતુ વજસ્વામીના જ્ઞાનની અને ચારિત્રની એવી અદ્ભુત અસર પડી કે જે બુદ્ધિશાળી સાધુઓ હતા તેઓ તો અત્યંત ઝડપથી શીખવા લાગ્યા, પરંતુ જેઓ અલ્પ બુદ્ધિવાળા અને અલ્પ રુચિવાળા હતા તેઓ પણ સારી રીતે રુચિપૂર્વક અભ્યાસ કરવા લાગ્યા. વળી કુદરતી મંદબુદ્ધિ કે જડ બુદ્ધિવાળા સાધુઓ હતા તેઓ પણ હોંશપૂર્વક ભણવા લાગ્યા. આ વાચના દરમિયાન કેટલીકવાર માત્ર કસોટી કરવા ખાતર જ કેટલાક સાધુઓ વજ્રસ્વામીને પોતે શીખેલા પાઠ ફરી પૂછતા. વામી સૂત્રોની યોગ્ય વ્યાખ્યા આપીને તેને અનુરૂપ અર્થ કરી બતાવતા. એથી સાધુઓને સંતોષ હતો. કેટલાક એવા અલ્પબુદ્ધિવાળા સાધુઓ હતા કે જેઓ આચાર્ય ભગવંત પાસે પહેલાં કેટલીકવાર શીખ્યા હોવા છતાં બરાબર નહોતા સમજી શકતા. તેઓ હવે વજસ્વામી પાસેથી ફક્ત એક જ વારની વાચના લેવાથી તરત શીખી લેવા લાગ્યા હતા. આથી સમગ્ર સાધુસમુદાય અત્યંત પ્રસન્ન થઈ ગયો હતો. આચાર્ય ભગવંત પાછા પધારે તે પહેલાં શક્ય તેટલું વધુ શીખી લેવા તેઓ ઉત્સુક હતા. વજસ્વામી હજુ તો બાળક હતા. છતાં તેમની આવી અનુપમ સિદ્ધિને કારણે સાધુઓ તેમને ગુરુ ભગવંત જેટલું જ માન આપવા લાગ્યા. વજ્રસ્વામીના વડીલ ગુરુબંધુઓ વજસ્વામીને એમના ગુણો અને વિશેષતાઓને કારણે પોતાના ગુરુ મહારાજ જેવા જ ગણે તે ખરેખર ગૌરવભરી હકીકત ગણાય.
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ
વરસ્વામીની શક્તિથી પોતાનો સાધુસમુદાય હવે સુપરિચિત થઈ ગયો હશે એમ વિચારી થોડા દિવસ પછી આચાર્ય ભગવંત પાછા ફર્યા. વરસ્વામી સહિત સૌને વિનયપૂર્વક ગુરુવંદન કર્યાં. ગુરુ મહારાજે તેમના સ્વાધ્યાય વિશે પૂછ્યું ત્યારે સૌ શિષ્યોએ બહુ ઉમળકાથી પોતાની સંતોષકારક પ્રગતિના સમાચાર આપ્યા. વળી શિષ્યોએ સ્વીકાર પણ કર્યો કે વજસ્વામી બાળક છે એમ માની શરૂઆતમાં તેમની અવજ્ઞા કરવાનો ભાવ હતો. પોતાની ભૂલ બદલ તેઓએ ગુરુ મહારાજ પાસે ક્ષમાયાચના કરી. તેઓએ કહ્યું, ‘વજસ્વામી ઉંમરમાં ભલે નાના હોય, પણ પોતાની જ્ઞાનશક્તિ વડે તેઓ સમસ્ત ગચ્છના ગુરુ થવાને પાત્ર છે. અમે સહુ આપને આપીએ છીએ એવું જ માન તેમને આપતા હતા. હવેથી અમારા વાચનાદના વજસ્વામી રહે તેવી આપને વિનંતી કરીએ છીએ
આવાં વાચનો સાંભળી ગુરુ મહારાજે પ્રસન્નતા અને ધન્યતા અનુભવી. એમણે શિષ્યોને કહ્યું, ‘વજ્રસ્વામી ભલે બાળક હોય, પણ તેઓ વિદ્યાવૃદ્ધ છે. માટે મારી અનુપસ્થિતિમાં હું હવે તેમને જ વાચનાચાર્ય તરીકે સ્થાપીને જઈશ.'
જૈનશાસનની પરંપરા પ્રમાણે વજ્રસ્વામીને કાયમ માટે વાચનાચાર્ય તરીકે નીમી શકાય નહિ, કારણ કે તેમણે ગુરુ મહારાજ પાસેથી વિધિસર વાચના લીધી નહોતી. તેઓ તો માત્ર પરોક્ષ રીતે શ્રવણ કરીને જ શ્રુત ભણ્યા હતા. એટલા માટે વજસ્વામીને વિધિસરની વાચના આપવાની આવશ્યક્તા હતી. વજસ્વામી જાણકાર હતા, એટલે ગુરુએ ‘સંક્ષેપાનુષ્ઠાનરૂપ ઉત્સારકલ્પ' (એટલે · સંક્ષેપમાં અનુષ્ઠાન કરાવી લીધું. તદુપરાંત પૂર્વે અપઠિન એટલે કે વજસ્વામીએ પૂર્વે નિત શીખેલું એવું પુતજ્ઞાન પણ અર્થસતિ શીખવાનું ચાલુ કર્યું. વજસ્વામીએ બાકી રહેલું શ્રુતજ્ઞાન બહુ ઝડપથી મહા કરી લીધું.
આ અધ્યયન દરમિયાન ક્યારેક એવું પર બનતું કે વધસ્વામીને ભણાવતાં ભણાવતાં અને તેમની સાથે ચર્ચા કરતાં કરતાં ગુરુ મહારાજની પોતાની કેટલીક શંકાઓ નિર્મૂળ થવા લાગી. આવું થવાનું એક કારણ એમ મનાય છે કે વજસ્વામી પાસે પદાનુસારી લબ્ધિ હતી. એટલે સૂત્રની શરૂઆત થાય ત્યાં જ વજસ્વામીને ગણધર ભગવંતોએ રચેલું મૂળ સૂત્ર આવડી જાય. ગુરુ મહારાજ પાસે શ્રુતપરંપરાથી પ્રાપ્ત થયેલો પાઠ હોય, એથી એમાં પરંપરાપ્રાપ્ત શ્રવણ-ઉચ્ચારણ દોષને કારણે કોઈક સ્થળે કાંઈક પાઠફેર થઈ ગયો હોય એવો સંભવ રહેતો. આવી કેટલીક શંકાઓનું સમાધાન વજ્રસ્વામીની પદાનુસારી લબ્ધિના કારણે થયું હતું.
ગુરુ મહારાજે દષ્ટિવાદ નામના બારમાં અંગનો જેટલો ભાગ પોતે જાણતા હતા તે પણ વજસ્વામીને શીખવી દીધો, કારણ કે વયંસ્વામીના વખતમાં બારણું અંગ લુપ્ત થવા લાગ્યું હતું.
ત્યારપછી એક વખત ગુરુ મહારાજ આચાર્ય ભગવંત સિંહગિરિ પોતાના શિષ્ય સમુદાય સાથે વિહાર કરતાં કરતાં દસપુર નામના નગરે પધાર્યા. ત્યાં તેમણે જાણ્યું કે ભદ્રગુપ્ત નામના આચાર્ય ઉજ્જયિની નગરીમાં બિરાજમાન છે. તેઓ દસ પૂર્વના જ્ઞાતા છે. વળી આર્ય સિંહગિરિના જાણવામાં આવ્યું કે તેઓ કોઈ સાધુને દસ
પૂર્વ ભણાવવાની ભાવના ધરાવે છે, પરંતુ એવી કોઈ સુપાત્ર વ્યક્તિ તેમને હજુ સુધી મળી નથી, કારજા કે દસ પૂર્વ શીખવાં એ ઘણી જ કઠિન વાત હતી. આચાર્ય સિંહગિરિએ વિચાર્યું કે પોતાના શિષ્ય વજસ્વામી પાસે પદાનુસારી લબ્ધિ છે. તેથી તેઓ અવશ્ય દસ પૂર્વ બહુ ઝડપથી ભત્રી લેશે. પોતાના બીજા કોઈ શિોમાં એટલી શક્તિ જણાતી નહોતી. આમ વિચારી આચાર્ય સિંહગિરિએ વિદ્યાપ્રાપ્તિ અર્થે વજસ્વામીને ભદ્રગુપ્તાચાર્ય પાસે મોકલ્યા. વજ્રસ્વામીએ ઉજ્જયિની નગરી તરફ વિહાર કર્યો.
આ બાજુ એવી ઘટના બની કે ભદ્રગુણાચાર્યને એક શુભ સ્વપ્ન આવ્યું, સ્વપ્નમાં કોઈ અતિથિએ આવીને પોતાના હાથમાં રાખેલા પાત્રમાંથી ખીરનું પાન કર્યું અને પરમ તૃપ્તિ અનુભવી. પ્રભાતે ભદ્રગુપ્તાચાર્યે સ્વપ્નની વાત પોતાના શિષ્યોને કહી. તેમણે શિષ્યોને કહ્યુંકે ‘આ સ્વપ્નનો સંકેત મને એવો લાગે છે કે કોઈ બુદ્ધિમાન તેજસ્વી મુનિ અતિથિ રૂપે આવીને મારી પાસેથી દસ પૂર્વનાં સર્વ સૂત્રો અર્થ સાથે શીખી લેશે.'
સ્વામી વિર કરતાં કરતાં વધની નગરી પાસે આવી પહોંચ્યા. નગરીની બહાર રાત્રે રોકાઈને પ્રભાતે તેઓ ભદ્રગુપ્તાચાર્યના ઉપાશ્રયે જવા નીકળ્યા. તેઓ ઉપાશ્રય તરફ ચાલી રહ્યા હતા. બરાબર તે જ વખતે ઉપાશ્રયમાં બિરાજમાન ભદ્રગુપ્તાચાર્યને દૂરથી જાણે તેજના પુંજ જેવું કોઈ આવતું હોય એવું જણાયું. ત્યાર પછી જાણવા મળ્યું કે કોઈ બાલમુનિ ઉપાશ્રય તરફ આવી રહ્યા છે. એ સમયે વજસ્વામીની એક તેજસ્વી બાલમુનિ તરીકેની ખ્યાતિ ચારે બાજુ પ્રસરી ગઈ હતી. એટલે આવનાર મુનિની દેદીપ્યમાન આકૃતિ જોઈને તે વજસ્વામી જ હોવો જોઈએ એવી તેમને ખાતરી થઈ. વજસ્વામીને આવકારવા ભાચાર્ય બહુ આતુર થઈ ગયા. વજસ્વામી જેવા પાસે આવી પહોંચ્યા કે વંદન કરવાનો સમય પણ તેમને આધ્યાવિના ભગુભાચાર્યે બાલમુનિને ઊંચકી લીધા. પોતાના ખોળામાં બેસાડ્યા. અત્યંત વાત્સલ્યભાવ દર્શાવ્યો. પછી કુશળ સમાચાર પૂછ્યા. તે પછી વજ્રસ્વામીએ વિનયપૂર્વક વંદન કરીને કહ્યું, ‘ભગવંત, મારા ગુરુ મહારાજની આજ્ઞાથી અહીં આપની પાસે હું દસ પૂર્વનું અધ્યયન કરવા આવ્યો છું. માટે કૃપા કરીને મને એની વાચના આપશો.’
આવી સુપાત્ર વ્યક્તિ મળતાં ભદ્રગુપ્તાચાર્યના હર્ષનો કોઈ પાર રહ્યો નહિ, કારણ કે સુપાત્રના અભાવે સમગ્ર જૈન સમાજમાં દસ પૂર્વનું જ્ઞાન લુપ્ત થતું જતું હતું. દસ પૂર્વના જ્ઞાતા એક માત્ર ભદ્રગુપ્તાચાર્ય જ હવે વિદ્યમાન હતા. તેમણે વજસ્વામીને અત્યંત ભાવથી અને ઉલ્લાસપૂર્વક દસ પૂર્વનું અધ્યયન ચાલુ કરાવ્યું.
કેટલાક સમય પછી અધ્યન પૂર્ણ થતાં ભદ્રગુણાચાર્યની અનુજ્ઞા લઈ વજસ્વામી સિંહગિરિ આચાર્ય પાસે પાછા આવ્યા. ગુરુ મહારાજને પોતાના શિષ્ય દસ પૂર્વનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને આવ્યા તેથી અત્યંત આનંદ થયો, કારણ કે પોતાના કરતાં પોતાના બાલ શિષ્ય ઘણી વિશેષ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી લીધી હતી. તેમણે સમારંભ યોજાવીને વસ્વામીને દસપૂર્વી અથવા દસપુર્વધર તરીકે વિધિસર જાહેર કર્યા. દસપૂર્વધરની માન્યતા મળતાં જ તે અવસરે મંકદેવોએ વજસ્વામી
જ
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આર્ય વજસ્વામી
પપ ઉપર દિવ્ય પુષ્પોની વૃષ્ટિ કરી. આ રીતે દેવોએ જ્ઞાનપ્રાપ્તિનો અનિમેષ નયને જોઈ જ રહ્યા. નજર ખસેડવાનું મન ન થાય એવા. અદ્ભુત મહિમા કર્યો.
પ્રભાવશાળી તેઓ હતા. રાજાએ ભક્તિભાવથી એમને વંદન કર્યા. કેટલોક કાળ પસાર થતાં વયોવૃદ્ધ થયેલા આચાર્ય ભગવંત વજસ્વામીએ રાજા અને તેમના પરિવારને જે ઉપદેશ આપ્યો તે સિંહગિરિએ પોતાની અસ્વસ્થ રહેતી તબિયતને લક્ષમાં લઈને સાંભળીને સૌએ ધન્યતા અનુભવી. ગચ્છના નાયક તરીકેની જવાબદારી વજસ્વામીને સોંપવાનું વિચાર્યું. એ વખતે રુક્મિણીએ વજસ્વામીને જોતાં જ પોતાના પિતાને એમના સર્વ શિષ્યોએ એ પ્રસ્તાવ સહર્ષ સ્વીકાર્યો. વજસ્વામીને
વિનંતી કરી કે “વજસ્વામી સાથે મારાં લગ્ન કરાવી આપો. એ ગચ્છનાયક તરીકે જાહેર કરવામાં આવ્યા અને એમના હાથ નીચે
સિવાય હું જીવી નહિ શકું.” પોતાના પાંચસો સાધુઓને મૂક્યા.
પિતાએ પુત્રીને ઘણી સમજાવી પણ તે માની નહિ. છેવટે - વજસ્વામી તે બધાથી વયમાં ઘણા નાના હતા, પરંતુ જ્ઞાનમાં
પુત્રીની ઇચ્છાને માન આપી, તેને લગ્નને યોગ્ય શણગાર સજાવ્યા. સૌથી મોટા હતા. કેટલાક સમય પછી આચાર્ય ભગવંતની તબિયત
પછી તેઓ તેને લઈને વજસ્વામી પાસે જવા નીકળ્યા. લગ્ન માટે વધુ અસ્વસ્થ થઈ. પોતાના સાધ્વાચારમાં શિથિલતા ન આવે એ
વજસ્વામી જેટલું ધન માગે તેટલું ધન આપવું એમ વિચારી તેમણે માટે આચાર્ય ભગવંત અનશન સ્વીકારી કાળધર્મ પામ્યા.
સાથે ધન પણ લઈ લીધું. વજસ્વામી ગચ્છના અધિપતિ તરીકે પોતાના પાંચસો શિષ્યોના
વજસ્વામીને આ વાતની અગાઉથી જાણ થઈ ગઈ હતી. સમુદાય સાથે જુદે જુદે સ્થળે વિહાર કરવા લાગ્યા. તેઓ જ્યાં જ્યાં વિચરતા ત્યાં ત્યાં લોકો તેમનું બહુમાનપૂર્વક સ્વાગત કરતા.
રુક્મિણી તો શું પણ કોઈ પણ સ્ત્રીને પોતાના પ્રત્યે કામાકર્ષણ ન તેઓ એટલા તેજસ્વી અને ગૌરવવંત લાગતા કે એમને જોવા,
થાય તે માટે તેમણે પોતાની લબ્ધિનો ઉપયોગ કરીને પોતાના એમનાં દર્શન કરવા લોકો દોડતા. તેમના ઉજ્જવલ શીલ અને
સમગ્ર દેખાવને થોડો વિરૂપ બનાવી દીધો. એ વખતે વજસ્વામીની લોકોત્તર શ્રુતજ્ઞાનથી બધા બહુ જ પ્રભાવિત થઈ જતા. તેઓ
ઉપદેશવાણી સાંભળવા ઘણા લોકો આવતા. તેઓ એ સાંભળીને દેખાવમાં જાણે બીજા ગૌતમસ્વામી વિહરતા હોય તેમ સૌને લાગતું.
ખૂબ પ્રભાવિત થતા. પરંતુ તેઓ માંહોમાંહે વાતો કરવા લાગ્યા તે સમયે પાટલીપુત્રમાં ધન નામના એક મોટા શ્રેષ્ઠી રહેતા હતા.
હતા કે, “આ મહાત્માનો ઉપદેશ તો અદ્ભુત છે. પરંતુ ઉપદેશ તેમણે વિહાર કરતાં - જતાં આવતાં સાધુ-સાધ્વીઓ માટે પોતાની પ્રમાણે એમની મુખાકૃતિ જો આકર્ષક હોત તો કેવું સારું ?' યાનશાળામાં ઊતરવાની વ્યવસ્થા કરી હતી. એક વખત વજસ્વામીએ લોકોના મનના ભાવ જાણી લીધા. બીજે દિવસે વજસ્વામીના સમુદાયની કેટલીક સાધ્વીજીઓએ ત્યાં મુકામ કર્યો એમણે વૈક્રિય લબ્ધિથી એક વિશાળ સહસ્ત્રદળ કમળ બનાવ્યું. હતો. તે વખતે ધન શ્રેષ્ઠીની યુવાન રૂપવતી પુત્રી રુક્મિણી વંદન પછી પોતાનું મૂળ સ્વરૂપ ધારણ કરી રાજહંસની જેમ તે કમળ પર કરવા આવી. સાધ્વીજીઓએ વાતચીતમાં તેની આગળ પોતાના બેઠા. લોકો તેમનું સ્વરૂપ જોઈ આનંદ અને આશ્ચર્યથી મુગ્ધ યુવાન ગુરુ ભગવંત વજસ્વામીની તેજસ્વિતાની બહુ પ્રશંસા કરી. બની ગયા. રુકિમણીને સાધુજીવનની બહુ ખબર નહોતી, પરન્તુ વજસ્વામીના ધન શ્રેષ્ઠી પણ વજસ્વામીનું આવું અલૌકિક સ્વરૂપ જોઈને ગુણગાન સાંભળીને એણે મનમાં એવો દઢ સંકલ્પ કર્યો કે “હું આશ્ચર્યચકિત થઈ ગયા. પોતાની દીકરીએ વગર જોયે પણ યોગ્ય પરણીશ તો વજસ્વામીને જ પરણીશ.' સાધ્વીજીને આ વાતની પસંદગી જ કરી હતી એમ એમને લાગ્યું. તેઓ મોહવશ થઈ ગયા જાણ થઈ. તેઓએ રુક્મિણીને સમજાવી કે “વજસ્વામી તો હતા. એટલે વજસ્વામી સાધુ છે એ વાત તેઓ વિસરી ગયા. પંચમહાવ્રતધારી સાધુ છે. એ તને કેમ પરણે ?” ત્યારે રુક્મિણીએ વજસ્વામીનો વૈરાગ્યવાસિત ઉપદેશ તેમને સ્પર્શે નહિ. તેમણે કહ્યું, ‘વજસ્વામી જો સાધુ હશે તો હું પણ એમની પાસે દીક્ષા પોતાની કન્યા સાથે લગ્ન કરવા માટે વજસ્વામી પાસે પ્રસ્તાવ લઈશ. જેવી તેમની ગતિ હશે તેવી જ મારી થશે.'
મૂક્યો અને એ માટે બહુ આગ્રહ કર્યો. પોતે સાથે જ જે ધન થોડા સમય પછી વજસ્વામી પાટલીપુત્ર પધાર્યા. એમના
લાવ્યા હતા તે સ્વીકારવા માટે કહ્યું અને લગ્ન સમયે બીજું ઘણું આગમનના સમાચાર જાણી રાજા પોતાના પરિવાર સાથે નગર
વધારે ધન પોતે આપશે એવી વાત પણ કરી. ગમે તેવો માણસ બહાર તેમનું સ્વાગત કરવા લાગ્યા. પરંતુ ત્યાં તેઓ મૂંઝવણમાં
છેવટે ધનને વશ થઈ જાય છે એવી શ્રેષ્ઠી તરીકે તેમની માન્યતા પડ્યા, કારણ કે તેજસ્વી પ્રતિભાવાળા, આકર્ષક આકૃતિવાળા,
હતી. વજસ્વામીએ કહ્યું, ‘ભાઈ, હું તો દીક્ષિત છું.” પંચમહાવ્રતધારી મધુરભાષી, સમતાવંત એવા ઘણા સાધુઓમાં વજસ્વામી કોણ છે
સાધુ છું. એટલે મેં આજીવન બ્રહ્મચર્યવ્રત ધારણ કરેલું છે.
પરણવાની વાત તો બાજુ પર રહી, પણ સ્ત્રી માત્રનો સ્પર્શ કે તે તેઓ તરત પારખી શક્યા નહિ. જે જે સાધુઓ આવતા ગયા
સહવાસ પણ અમારે સાધુઓને વર્ય હોય છે. તમારી કન્યા ખરેખર તેમને તેઓ પૂછતા કે “આપ વજસ્વામી છો ?' દરેક કહેતા કે “ના
મારા પ્રત્યે અનુરાગવાળી હોય તો એને સમજાવો કે લગ્ન તો જી ! પૂજ્ય આચાર્ય ભગવંત વજસ્વામી તો પાછળ આવે છે. અમે
ભવભ્રમણ કરાવનાર છે. એમાંથી છૂટવા માટે દીક્ષા લઈ સંયમ એમના શિષ્યો છીએ.”
ધારણ કરે.' છેવટે જ્યારે વજસ્વામી પોતે આવ્યા ત્યારે રાજા તો એમને
ધન શ્રેષ્ઠીએ રુક્મિણીને વાત કરી. એનો જીવ હળુકર્મી હતો.
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શ્રી પતીન્દ્રસૂરિ દીશાશતાબ્દિ ગ્રંથ
વજ્રસ્વામીના ઉપદેશની વાત સાંભળતાં જ તેના મન ઉપર ભારે સર થઈ. એણે વજસ્વામીની વાત મંજૂરી રાખી. એણે માતાપિતાની સંમતિ લઈ વજસ્વામી પાસે ધામધૂમપૂર્વક દીક્ષા લીધી. એક વખત વજસ્વામીએ ઉત્તર દિશામાં વિહાર કર્યો હતો. તે વખતે ત્યાં ભયંકર દુષ્કાળ પડ્યો હતો. અન્નની અછતના કારણે લોકોને પેટપૂરતુ ખાવા મળતું નહોતું. આવી પરિસ્થિતિમાં લોકોની આતિથ્યભાવના ઘટી જાય એ સ્વાભાવિક છે. શ્રીમંતોએ પોતાની દાનશાળાઓ બંધ કરી હતી. અન્નના અભાવે એવી ભીષણ પરિસ્થિતિ પ્રવર્તતી હતી કે ગરીબ માણસો દહીં વેચવાનાં ખાલી થયેલાં માટલાં ફોડીને તેના તૂટેલા ટૂકડામાંથી દહીં ચાટતા હતા. કેટલાક લોકો તો એટલા દુબળા થઈ ગયા હતા કે જારો જીવતાં હાડપિંજર ફરતાં હોય તેવું લાગે. કોઈ સાધુ ગોચરી વહોરવા આવે ત્યારે વહોરાવવું ન પડે એ માટે શ્રાવકો આઘાપાછા થઈ જતા કે જાત જાતનાં બહાનાં બતાવતા. નગર શૂન્યવત્ બની ગયું હતું. લોકો શારીરિક અશક્તિને કારકો બહાર જઈ શકતા નહિ એથી રસ્તાઓ પદસંચારના અભાવે નિર્જન બની ગયા હતા.
આવા ભીષણ દુષ્કાળમાંથી લોકોને ઉગારવા સંઘે વજસ્વામીને વિનંતી કરી. લોકોના કલ્યાણાર્થે વિદ્યાનો ઉપયોગ કરવામાં કોઈ દોષ નથી એમ વિચારી વજસ્વામીએ પોતાની વિશિષ્ટ લબ્ધિથી એક વિશાળ પટનું નિર્માણ કર્યું. તેના પર નગરના બધા લોકોને બેસાડીને એ પટને આકાશમાર્ગે ઉડાડ્યો. પટ થોડો ઊંચે ચડ્યો એવામાં નીચે દંત નામનો એક શ્રાવક આવી પહોંચ્યો. તે પોતાના સ્વજનોને બોલાવવા ગયો હતો એટલે પાછળ રહી ગયો હતો. વજ્રસ્વામીએ પટ પાછો નીચે જમીન ઉપર ઉતાર્યો. દંતને એના સ્વજનો સહિત પટ પર બેસાડી દીધો. પટ ઉપર બેસીને આકાશમાં
ઊડવાનો લોકો માટે આ એક અદભુત અનુભવ હતો. તેઓ જાણે આંબાના વૃક્ષ નીચે બેઠા હોય તેવી શાંતિ અનુભવતા હતા. મૃત્યુમાંથી બચી જવાને કારો લોકોનો ભક્તિભાવ ઊભરાતો હતો. પોતે આકાશમાં ઊડતા હતા તે વખતે નીચે પૃથ્વી પર દેખાતાં મંદિરો જોઈને તેઓ જિર્નાર ભગવાનને બે હાથ જોડી વંદન કરતા તા. ઊંડનાં ઊડતાં નીચે માર્ગમાં પૃથ્વી પરના પર્વતો, નદીઓ અને નગરો જોતાં તેઓ આશ્ચર્ય પામતા હતા. આકાશમાર્ગે આવા વિશિષ્ટ પટને ઊડતો જઈને વ્યંતર દેવો, જ્યોતિક દેવો, વિદ્યાધરો વગેરે આશ્ચર્ય પામ્યા હતા. આકાશમાર્ગે ઊડીને વજસ્વામી બધાં નગરજનોને પુરી નામની સમૃદ્ધ નગરીમાં લઈ આવ્યા અને ત્યાં બધાને ઉતાર્યા.
ધનધાન્યથી સુખી એવી આ પુત્રીનગરીના રાજાએ બૌદ્ધ ધર્મ અંગીકાર કર્યો હતો, પરંતુ રાજ્યની મોટા ભાગની પ્રજા જૈન ધર્મ પાળતી હતી. ધર્મની બાબતમાં જૈન અને બૌદ્ધ લોકો વચ્ચે સ્પર્ધા કે વિવાદનો એ જમાનો હતો. પુરી નગરીમાં ફૂલ જેવી બાબતમાં પણ ચડસાચડસી થતી હતી. માળીને વધારે નાણાં આપીને જૈનો સારાં સારાં હલો ખરીદી લે છે એવી બૌદ્ધોની ફરિયાદ હતી. એથી બૌદ્ધ મંદિરોમાં પૂજા માટે સસ્તાં સામાન્ય ફૂલો વપરાતાં હતાં બીલોએ રાજ્યને ફરિયાદ કરી. એટલે બૌધર્મી રાજાએ જૈનોને
કલો ખરીદવા પર પ્રતિબંધ ફરમાવ્યો. જૈનોએ વસ્વામીને પોતાની આ મુશ્કેલીની વાત કહી. પર્યુષણ પર્વ નજીકમાં આવતાં હતાં. પુષ્પપૂજા વગર પોતાની જિનપૂજા અધૂરી રહેતી હતી. નગરના બધા જૈનોને જો પુષ્પ મળી શકે તો પર્યુષણ પર્વ સારી રીતે ઊજવી શકાય.
વજસ્વામીએ તેઓને સહાય કરવાનું વચન આપ્યું. તેઓ પોતાની આકા ગામની વિદ્યાથી દેવની જેમ આકાશમાં ઉડા. માહેકારી નગરીમાં હુતાશન નામના વિશાળ સુંદર પુષ્પઉદ્યાનમાં તેઓ ઊતર્યા. ત્યાંનો માળી વસ્વામીના પિતા ધનગિરિનો મિત્ર હતો. માળીએ તેમનો ખૂબ આદરપૂર્વક સત્કાર કર્યો. આટલે વર્ષે પણ વજસ્વામી તેમને ભૂલ્યા નહોતા તેથી તેને બહુ સુવાસિત, રંગબેરંગી તથા જિનેશ્વર ભગવાનની પ્રતિમાને ચડાવવા યોગ્ય ફૂલો એકત્ર કરી આપવાનું કહ્યું. વજસ્વામી ત્યાંથી ઊડીને હિમવંતગિરિ પર ગયા. ત્યાં પદ્મસરોવર લહેરાતું હતું. દેવતાઓ પણ જ્યાં દર્શન કરવા જતા એવાં સિદ્ધાયતનો ત્યાં શોભતાં હતાં. ચમરી ગાયના અવાજથી ગુહાઓ ગુંજતી હતી. વિદ્યાધર મારી જિનમંદિરમાં દર્શન કરવા જતા હતા. વજસ્વામીએ પણ જિનમંદિરમાં જઈ દર્શન કર્યાં. પછી તેઓ પદ્મસરોવરે ગયા. તે વખતે લક્ષ્મીદેવી પૂજા કરવા જઈ રહ્યાં હતાં. વસ્યામીને જઈને લક્ષ્મીદેવીએ પોતાનું સહસ્ત્રદલ કમળ તેમને અર્પણ કર્યું. તે લઈને તેઓ પાછા હુતાશન ઉદ્યાનમાં ગયા. ત્યાં પોતાની વિદ્યા વડે તેમણે વિવિધ પ્રકારની શોભાવાળા
એક વિમાનનું નિર્દેશ કર્યું. તેમાં વચમાં કમળ મૂક્યું. તેની આજુબાજુ ફૂલો ગોઠવ્યાં. એ માટે જ઼ભકદેવોએ તેમને સહાય કરી. વજ્રસ્વામીનું વિમાન ત્યાંથી ઊડતું. એ વિમાનની સાથે સાથે પોતપોતાના વિમાનમાં બેસીને ગીતો ગાતા, વાદ્યો વગાડતા જંભદેવો પણ તેમની સાથે ચાલ્યા. તેઓ બધા પુરીનગરી પહોંચ્યા. ફ્લો મળવાથી નગરના જૈનોએ પર્યુષણ પર્વની ભવ્ય ઉજવણી કરી, દેવોએ પણ આ મહોત્સવમાં ભાગ લીધો. આ અસાધારણ ચમત્કારિક ભવ્ય ઘટનાથી પુરીના રાજા પ્રસન્ન થયા એટલું જ નહિ તેમણે જૈન ધર્મનો સ્વીકાર કર્યો. વજસ્વામીના પ્રતામે જૈન ધર્મના થયેલા મહિમાથી લોકો પણ સહુ આનંદિત થયા.
જૈન શાસનની પરંપરામાં વજસ્વામી છેલ્લા દસ પૂર્વધર ગણાય છે. તેઓ પોતે કોઈ સુર્યાસ્ય પાત્રને દસ પૂર્વનું જ્ઞાન આપવા ઇચ્છતા હતા. તે વખતે આર્ષરતિસૂરિ નામના આચાર્યમાં એવી પાત્રતા હતી. વજસ્વામીએ તેમને પૂર્વશ્રુતનું અધ્યયન કરાવ્યું, પરંતુ સંજોગવશાત્ આર્યરક્ષિતસૂરિ દસમું પૂર્વ પૂરું કરી શક્યા નહિ. એટલે વજસ્વામીના કાળધર્મ પામ્યા પછી દસ પૂર્વનો ઉચ્છેદ થયો. આર્ય રક્ષિતસૂરિનો પ્રસંગ નીચે પ્રમાર્ગ છે :
દસપુર નગરમાં સોમદેવ નામનો એક બ્રાહ્મણ રહેતો હતો. તેની પત્નીનું નામ રૂદ્રસોમા હતું. તેમને આર્યરક્ષિત અને ફલ્ગુરક્ષિત નામે બે પુત્રો હતા. આર્યરક્ષિત વિદ્યાભ્યાસ માટે પાટલીપુત્ર ગયા તા. ત્યાં ચૌદ વિધા, છ અંગ, ચાર વેદ, મીમાંસા, ન્યાય, પુરાણ, ધર્મશાસ્ત્ર વગેરેનું અધ્યયન કરીને તેઓ પાછા આવતા હતા. આટલી બધી વિદ્યાઓમાં પારંગત થવા માટે પોતાનો આનંદ દર્શાવવા રાજાએ તેમને હાથી પર અંબાડીમાં બેસાડી, બહુમાનપૂર્વક
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આર્ય વજસ્વામી
તેમનો નગરપ્રવેશ કરાવ્યો. તેમના સ્વાગત માટે રાજાએ તોરણો બંધાવ્યાં અને તેમને ઘણી ભેટસોગાદો આપી. નગરમાં પ્રવેશતાં જ આવા સન્માન સમારંભમાં રોકાવાને કારણે આર્યરક્ષિત પોતાને ઘરે પહોંચવામાં મોડા પડ્યા. વળી કિંમતી વસ્ત્રાદિ લંકારો ભેટ મળવાને લીધે તેઓ સારી રીતે સજ્જ થઈને પોતાને ઘરે ગયા કે જેથી તે જોઈને પોતાનાં માતપિતા બહુ રાજી થાય. પરંતુ ઘરે ગયા ત્યારે માતાએ એટલું જ કહ્યું, “બેટા, તું કુશળ છે ને ? આયુષ્યમાન થજે !' માતાએ હર્ષે ન બતાડ્યો તેથી આર્ચરક્ષિતને આશ્ચર્ય થયું. તેમણે માતાને તેનું કારણ પૂછ્યું, માતાએ કહ્યું, બેટા, તું ધણી સરસ વિદ્યા ભણીને આવ્યો છે. પરંતુ તું જે વિદ્યા ભણીને આવ્યો છે તે વિદ્યાનો ઉપયોગ બરાબર સમજીને નહિ કરે તો તે તને દુર્ગતિમાં લઈ જશે. માટે તારા જીવનને જો ખરેખર સાર્થક કરવું હોય તો તારે જૈન ધર્મનાં બાર અંગ પણ ભણવાં જોઈએ. એમાં પણ દષ્ટિવાદ નામનું છેલ્લું બારણું અંગ ભણી લેવું જોઈએ, કારણ કે એ અત્યંત કઠિન મનાતું અંગ ભણવાની તારામાં શક્તિ અને યોગ્યતા છે. પરંતુ ઐ ભણવા માટે તારે શ્રાવક બનવું પડશે.'
આર્યરક્ષિત વિદ્યાપ્રેમી હતા. માતાની સૂચનાનુસાર તેઓ શ્રાવક થયા. તે સમયે બારમું અંગ કોઈકને જ આવડતું હતું. તોસલીપુત્ર નામના આચાર્ય દષ્ટિવાદ નામનું બારમું અંગ ભણાવતા હતા. એટલે તેમની પાસે ખાવા જવાની આર્યરક્ષિતે તૈયારી કરી. તોસલીપુત્ર દષ્ટિવાદના નવ પૂર્વ સંપૂર્ણ જાણતા હતા પરંતુ દસમું પૂર્વ તેમને પૂરું આવતું નહોતું. આચાર્ય નોાલીપુત્ર પાસે જઈને આર્યરિત એમને અત્યંતભાવથી, વિયનથી વંદન કર્યાં અને પોતે દષ્ટિવાદ ભણવા આવ્યા છે તેમ જ્ઞાવ્યું. તોસલીપુત્રે કહ્યું, 'ભાઈ, એ ભણવાનો અધિકાર માત્ર સાધુઓનો જ છે. એટલે એ માટે તમારે પહેલાં જૈન ધર્મમાં સાધુ તરીકે દીક્ષા ગ્રહણ કરવી પડે, ત્યારપછી તમારે સાધુ જીવનના આચારનું પાલન કરવા સાથે શાસ્ત્રસિદ્ધાન્તોનું અધ્યયન કરવાનું રહે. ત્યાર પછી મને તમારી યોગ્યતા બરાબાર જણાય તે પછી જ હું તમને દષ્ટિવાદ ભણાવી શકું.”
આર્યરક્ષિતે એમની પાસે દીક્ષા લેવાની અને શાસ્ત્રો ભણવાની પૂરી તૈયારી બતાવી. પણ સાથે સાથે અંગત વિનંતી કરી કે દીક્ષા લીધા પછી આ સ્થળ તરત જ છોડીને મારે બીજે વિહાર કરવો પડશે, કારણ કે હિંદુ રાજાનો અને નગરજનોનો મારા પ્રત્યે એવો અનુરાગ છે કે તેઓ મારી પાસે જૈન સાધુપણાનો ત્યાગ કરાવશે.'
ગુરુ તોસલીપુત્રે એ વાત સ્વીકારી લીધી.
આર્યરક્ષિતને દીક્ષા આપ્યા પછી ગુરુ નોસલીપુત્ર પોતાના શિષ્યો સાથે તરત ત્યાંથી વિહાર કરી ગયા. દીક્ષા લઈને આરક્ષિને અધ્યયન માટે એવો તો પુરુષાર્થ કર્યો કે અગિયારે અંગ તેમણે ગુરુ મહારાજ પાસે ભણી લીધાં. તેઓ ગીતાર્થ બન્યા. ગુરુ પાસે હવે દષ્ટિવાદ નામનું બારમું અંગ ભરવાનું ચાલુ કર્યું. તેમની યોગ્યતા જોઈને નોસલીપુત્ર બહુ પ્રસન્ન થયા. વિાદ અંગેનું જેટલું જ્ઞાન પોતાને હતું તે તેમણે આર્યરક્ષિતને આપ્યું. આર્યરક્ષિતની યોગ્યતા અને સામર્થ્ય જોઈને તેમણે કહ્યું કે “તમારામાં દષ્ટિવાદનું દસમું પૂર્વ ખાવાની પૂરી યોગ્યતા છે. માટે એ પણ તમારે ભરી લેવું
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જોઈએ, પરંતુ હાલમાં એ માત્ર ભદ્રગુપ્તાચાર્યને અને વજસ્વામીને એ બેને જ આવડે છે.પરંતુ ભદ્રગુપ્તાચાર્ય હવે વયોવૃદ્ધ થયા છે. અધ્યયન કરાવવા માટે તેઓ અશક્ત થતા જાય છે. માટે તમારે એ ભરવા વધસ્વામી પાસે જવું જોઈએ.'
આર્યરક્ષિતનો અધ્યયન માટેનો ઉત્સાહ વધતો ગયો હતો. દસમું પૂર્વ ભણવાની હવે તેમને તાલાવેલી લાગી હતી. તેથી તેમણે વજ્રસ્વામી પાસે જવા પુરી નગરી તરફ વિહાર કર્યો.
આર્યરક્ષિત વિહાર કરતા પુરી નગરી તરફ જતા હતા ત્યાં માર્ગમાં તેમને જાણવા મળ્યું કે વજસ્વામીને દસ પૂર્વ ભણાવનાર વર્ષોવૃદ્ધ સ્થવિર ભદ્રગુપાચાર્યે તબિયતના કારણે હવે એક સ્થળે સ્વિરવાસ કર્યો છે. એની તપાસ કરી તેઓ દસપૂર્વી ભગુભાચાર્ય પાસે પહોંચ્યા. તેમને વંદન કરી ત્યાં શેકાયા. આર્યંતિ દસ પૂર્વ ભણવા નીકળ્યા છે એ જાણીને ભદ્રગુપ્તાચાર્યને બહુ જ આનંદ થયો. તેમણે આર્ચરક્ષિતતું શાસ્ત્રજ્ઞાન માટેનું સામર્થ્ય તરત પારખી લીધું. અને તેમની જ્ઞાનોપાસનાની ખૂબ અનુમોદના કરી. તેમણે આર્યંજિતને ભલામણ કરતાં કહ્યું, 'મારું આયુષ્ય હવે પુરું થવા આવ્યું છે. મારે નાનવ્રત લેવું છે. આ વ્રત માટે નિર્ધામા કરાવનાર કોઈ હોય તો તે વધારે સારી રીતે પાર પડે. તમે ગીતાર્થ સાધુ છો. એટલે તમારામાં એ યોગ્યતા મને જણાય છે. તમે અહીં જો થોડા દિવસ વધુ રોકાઈ જાવ તો હું અનશનવ્રત સારી રીતે લઈ શકું.’
ભગુમાંચાર્ય જેવા મહાન ઇસપૂર્વી સ્થવિરાચાર્યંની પાસે એમના અંતકાળે રહેવા મળે એ માટે મોટું સદ્ભાગ્ય ગણાય. આર્યરક્ષિતે અત્યંત ભક્તિભાવથી ભદ્રગુપ્તાચાર્યની વિનંતીનો સ્વીકાર કર્યો. તેઓ તેટલો સમય ત્યાં જ રોકાયા.
ભદ્રગુપ્તાચાર્યે એક દિવસ આર્યરક્ષિતને એક એવી શિખામણ પણ આપી કે ‘હે વત્સ ! તમે પાંચસો શિષ્યો સાથે વિચરતા વજ્રસ્વામી પાસે જઈ દસ પૂર્વનું જ્ઞાન પામો તે અત્યંત આવશ્યક છે. હાલ મારા પછી દસ પૂર્વધર એકમાત્ર તેઓ જ છે. પરંતુ તમે વજ્રસ્વામી પાસે એમના ઉપાશ્રયમાં રાત્રે સંથારો કરવાનું રાખશો નહિ. બીજા જુદા ઉપાશ્રયમાં રાખજો.'
આચાર્યના આવા સૂચનથી આર્યરક્ષિતને બહુ આશ્ચર્ય થયું. તેમણે ભદ્ર પ્રાચાર્યને એનું કારણ પૂછ્યું. ભદ્રગુપાચાર્યે કહ્યું કે ‘વજ્રસ્વામીનો આત્મા એટલી બધી ઊંચી કોટિનો છે, તથા એવી લબ્ધિવાળો છે કે સોપક્રમ આયુષ્યવાળી કોઈપણ વ્યક્તિ એક રાત પર વજસ્વામી સાથે રહે તો વધસ્વામીને જેવા ભાવ જાણે તેવા ભાવ એ વ્યક્તિમાં પણ જાગે. વજસ્વામીને હવે ઉંમર થતાં રાત્રે સંથારો કરતી વખતે અનશન કરી દેહ છોડવાના ભાવ રહે છે. એટલે તેમની નજીક સૂનાર વ્યક્તિને પણ એવા જ અનશન કરવાના ભાવ જાગે. તેમની સાથે જ તે કાળધર્મ પામે. પરંતુ તમે હજુ યુવાન છો. તમે શાસનનાં મહાન કાર્યો કરી શકો તેમ છો. માટે તમારે તમારા દીર્ઘ આયુષ્યનો વિચાર કરીને એમની સાથે રાત્રે
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ સંધારો ન કરવો એવી મારી ભલામણ છે.' આર્યરક્ષિતે એ વજસ્વામીએ આર્યરક્ષિતને અભ્યાસ કરાવવાનું શરૂ કરી દીધું. ભલામણનો સ્વીકાર કર્યો.
બુદ્ધિમાન અને તેજસ્વી આર્યરક્ષિતે ઝડપથી નવપૂર્વનો અભ્યાસ ભદ્રગુપ્તાચાર્યના અનશનવ્રત લેવામાં નિર્ણાયક તરીકે આર્યરક્ષિત
પૂરો કરી લીધું. ત્યારપછી દસમાં પૂર્વના યમકોનો અભ્યાસ શરૂ કર્તવ્ય બજાવ્યું. ભદ્રગુણાચાર્ય કાળધર્મ પામ્યા. ત્યારપછી આર્ચરક્ષિત
કર્યો. આ અભ્યાસ ઘણો જ કઠિન અને દીર્ધકાળ ચાલે એવો હતો.
એમાં વાચના લેવામાં, અર્થ સમજવામાં તથા સૂક્ષ્મ રહસ્યો ગ્રહણ વિહાર કરતા કરતા પુરી નગરીમાં પહોંચ્યાં. સાંજ થવા આવી હતી,
કરવામાં ઠીક ઠીક વાર લાગતી હતી. એટલે તેઓ વજસ્વામીના ઉપાશ્રયે ન જતાં ભદ્રગુણાચાર્યની સલાહ
આર્યરક્ષિતને અહીં આવ્યાને ઘણો વખત થઈ ગયો હતો. અનુસાર નગર બહાર એક સ્થળે રાત રોકાયા.
બીજી બાજુ એમનાં માતાપિતા તથા ગુરુ મહારાજ તોસલી પુત્ર એ રાત્રે વજસ્વામીને એક શુભ સ્વપ્ન આવ્યું. સ્વપ્નમાં એમણે
આતુરતાપૂર્વક તેમના પાછા ફરવાની રાહ જોતાં હતાં. આર્યરક્ષિતને જોયું કે કોઈ એક અતિથિ તેમની પાસે આવ્યો છે. એ અતિથિએ
પોતાના મુકામે પાછા ફરવા વારંવાર તેઓ સંદેશા મોકલાવવા તેમના પાત્રમાંથી દૂધ પીધું, પરંતુ થોડુંક દૂધ પાત્રમાં બાકી રહી ગયું.
લાગ્યાં. પરંતુ દસમા પૂર્વનો અભ્યાસ પૂરો કરાવવાની ભાવનાથી પ્રભાતે વજસ્વામીએ પોતાના શિષ્યોને સ્વપ્નની વાત કરી ગુરુ વજસ્વામી રજા આપતા નહોતા, કારણ કે ભદ્રગુપ્તાચાર્યના અને એનું રહસ્ય સમજાવ્યું કે “કોઈ પ્રજ્ઞાશીલ સાધુ મારી પાસે કાળધર્મ પછી દસપૂર્વધર તરીકે હવે માત્ર વજસ્વામી પોતે એકલા અહીં આવશે, તે મારી પાસેથી પૂર્વશ્રુત ગ્રહણ કરશે પરંતુ તે જ રહ્યા હતા. છેવટે આર્યરક્ષિતને લેવા એમના ભાઈ ફલ્યુરક્ષિત પોતાનું અધ્યયન પૂરું નહિ કરી શકે. છેલ્લે થોડુંક અધ્યયન બાકી જાતે આવ્યા. તો પણ આર્યરક્ષિત ગયા નહિ. પરંતુ ત્યારપછી તો રહી જશે.'
ઉપરાઉપરી સંદેશાઓ દ્વારા દબાણ આવવા લાગ્યાં તેથી તેઓ આ સ્વપ્નની વાત થયા પછી થોડી વારમાં જ આર્યરક્ષિત ત્યાં
નિરુપાય થઈ ગયા. એટલે આરક્ષિતે વજસ્વામી પાસે એક વખત આવી પહોંચ્યા. વજસ્વામીને દ્વાદશાવર્તપૂર્વક વંદન કરીને તે તેમની
પોતાના નગરમાં જઈને પાછા આવવા માટે આજ્ઞા માગી. પાસે બેઠા. પોતે તો લીપુત્રના શિષ્ય છે અને પૂર્વશ્રુતનું જ્ઞાન
વજસ્વામીએ પોતાના વિશિષ્ટ જ્ઞાનથી જાણી લીધું કે આર્યરક્ષિત મેળવવાની ભાવનાથી આવ્યા છે એ વાત કરી. એ જાણીને
અહીંથી ગયા પછી પાછા આવી શકશે નહિ. વળી પોતાનું આયુષ્ય વજસ્વામીને અત્યંત આનંદ થયો. વાતવાતમાં ખબર પડી કે
પણ હવે બહુ ઓછું બાકી રહ્યું છે. એટલે દસમાં પૂર્વનો કેટલોક આરક્ષિત તો આગલી સાંજે જ આવી ગયા હતા, અને નગરની
ભાગ ભણાવ્યા વિનાનો જ રહી જશે. પરંતુ એ તો બનવાનું બહાર રહ્યા હતા. વળી તેઓ ત્યાં જ રહીને રોજેરોજ ભણવા .
નિર્માયેલું લાગે છે. વજસ્વામીએ આર્યરક્ષિતને જવા માટે રજા આપી. આવવા ઇચ્છે છે. વજસ્વામીએ કહ્યું, ‘નગર બહાર રહીને તમે
વજસ્વામીની રજા લઈ આરક્ષિત પોતાના નગરમાં પહોંચ્યા. કેવી રીતે ભણશો ? અધ્યયન માટે તો અહીં મારી પાસે જ આવીને
એમનાં માતાપિતા અને સ્વજનોને બહુ આનંદ થયો. આર્યરક્ષિત રહો તો વધુ અનુકૂળતા રહે.” આર્યરક્ષિતે તરત જ ભદ્રગુણાચાર્યે
રાજાને તથા પ્રજાજનોને જૈનધર્મની મહત્તા સમજાવી. એમના આપેલી શિખામણની વાત કહી. સાધુ મહાત્માઓને કશું છુપાવવાનું
ઉપદેશથી પ્રભાવિત થઈ તેમનાં માતા રુદ્રસીમાએ તથા પિતા ન હોય. તેમનામાં માયાચાર ન હોય. આરક્ષિતે જ વજસ્વામીને
- સોમદેવે એમની પાસે જૈન ધર્મની દીક્ષા અંગીકાર કરી. ભદ્રગુપ્તાચાર્યના કાળધર્મના સમાચાર આપ્યા. ભદ્રગુપ્તાચાર્યે જ છેવટે વજસ્વામીએ ધાર્યું હતું તે પ્રમાણે જ થયું. આર્યરક્ષિત પોતાને બહારના ઉપાશ્રયમાં રહેવાની ભલામણ કરી છે એ પણ પોતાના નગરમાં ગયા પછી એવાં કાર્યોમાં પરોવાઈ ગયા કે તેઓ જણાવ્યું. ભદ્રગુણાચાર્યે આવી સલાહ કેમ આપી હશે તે વજસ્વામીને તરત આટલો લાંબો વિહાર કરીને આવી શક્યા નહિ. તરત સમજાયું નહિ. એટલે આ વાતનું રહસ્ય સમજવા માટે આમ છતાં વજસ્વામીએ આર્યરક્ષિતસૂરિને નવપૂર્વનું અધ્યયન વજસ્વામી અંતર્મુખ બની ગયા. એમને પોતાની જ્ઞાનલબ્ધિથી તરત કરાવી દીધું એ એક મોટું અને મહત્ત્વનું કાર્ય થયું. આર્યરક્ષિત જાણવા મળ્યું કે પોતાના જીવનનો અંતકાળ હવે નજીકમાં છે અને દસપૂર્વધર થઈ શક્યા નહિ. એટલે વજસ્વામી જ છેલ્લા દસપૂર્વધર રહ્યા. પોતાને જ અનશન કરવાનો ભાવ જાગશે તો આર્યરક્ષિતને પણ વજસ્વામીના હાથે જે એક બીજું મહત્ત્વનું કાર્ય થયું તે શત્રુંજય પોતાની સાથે રહેવાથી એવો ભાવ જાગશે. જો એમ થાય તો
તીર્થના ઉદ્ધારનું હતું. શત્રુંજય તીર્થનો અધિષ્ઠાતાદેવ કદર્પ યક્ષ આર્યરક્ષિત પોતે મેળવેલા પૂર્વશ્રુતના જ્ઞાનનો ઉપયોગ કેવી રીતે
પ્રભુનો ભક્ત હતો. પરંતુ મોહનીય કર્મના કારમા ઉદયને કારણે કરી શકે ? યુવાન આર્યરક્ષિત દીર્ઘજીવન જીવે તો જ તેઓ
તેની બુદ્ધિ ભ્રમિત થઈ ગઈ હતી. જે રક્ષક હતો તે જ ભક્ષક બની બીજાઓને પૂર્વશ્રુત ભણાવી, શાસનની સેવા સારી રીતે કરી શકે.
ગયો હતો. તેનાં અપકૃત્યો વધવા લાગ્યાં. તીર્થભૂમિમાં મદ્યપાન, માટે ભદ્રગુપ્તાચાર્યે આ કારણથી જ આર્યરક્ષિતને પોતાનાથી જુદા
માંસભક્ષણ, શિકાર જેવી ઘણી પાપલીલાઓ ચાલવા લાગી. એટલે રહેવાનું કહ્યું છે એમ તેમને તરત સમજાઈ ગયું. ભદ્રગુણાચાર્યની
લોકોની ત્યાં યાત્રાએ જવાની હિંમત ચાલતી નહિ, જેઓ હિંમત આવી દીર્ધદષ્ટિથી વજસ્વામીને ઊલટાનો આનંદ થયો. આર્યરક્ષિતના
કરીને ત્યાં જવાનો પ્રયત્ન કરતા તેઓ જીવતા પાછા આવતા નહિ. નિર્ણયથી તેઓ પ્રસન્ન થયા અને આર્યરક્ષિતને રાત્રિ મુકામ બીજે
વજસ્વામીએ જ્યારે આ જાણ્યું ત્યારે તેમને થયું કે હવે તીર્થના કરવા માટે સહર્ષ સંમતિ આપી.
ઉદ્ધારનો સમય પાકી ગયો છે. તેઓ પંચ મહાવ્રતધારી સાધુ મહાત્મા
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આર્ય વજસ્વામી
પ૯ હતા. તેમની ઉમર પણ વધતી જતી હતી. વળી, આવા ભગીરથ લીધો કે ચક્રરત્ન તો ભૌતિક સુખમાં લપટાવે અને નરક ગતિમાં કાર્ય માટે સુપાત્ર અને સમર્થ ગૃહસ્થ એવા કોઈ સહાયકની જરૂર પણ લઈ જાય, પરંતુ કેવળજ્ઞાન તો મોક્ષગતિનું દુર્લભ સાધન રહે. એવી વ્યક્તિ કોણ છે તેનો વિચાર કરતાં તેમની નજરમાં કહેવાય. તેથી તેમણે ભગવાન ઋષભદેવના કેવળજ્ઞાનનો મહોત્સવ ભાવડશાના પુત્ર જાવડશા જણાયા. પરંતુ તે સમયે જાવડશાને મ્લેચ્છો પહેલાં કર્યો અને ચક્રની પૂજા પછી કરી. એ પ્રસંગને યાદ કરી ઉપાડી ગયા હતા અને બંદીવાન બનાવ્યા હતા. તેથી તેમની મદદની જાવડશાએ પણ પહેલાં ગુરુ ભગવંત વજસ્વામી અને તેમના સંઘનું કોઈ આશા નહોતી. વળી આર્યરક્ષિતને નવ પૂર્વ સુધી ભણાવવામાં બહુમાન સાથે સ્વાગત કર્યું. ત્યારપછી તેઓ વહાણોની વ્યવસ્થા પણ ઘણો સમય વીતી ગયો હતો. છેવટે અનુકૂળ સંજોગો પ્રાપ્ત કરવા ગયા. થતાં વજસ્વામીએ સંઘ લઈને જાવડશાની નગરી મધુમતી તરફ
- નગરમાં પધારેલા આર્ય વજસ્વામીએ પોતાના વ્યાખ્યાનમાં પ્રયાણ કર્યું.
શત્રુંજય તીર્થનો મહિમા સમજાવ્યો : 'ઋષભદેવ ભગવાન કેવળજ્ઞાન | જૈન ઇતિહાસમાં જાવડશા નામના બે મહાન શ્રેષ્ઠી થઈ ગયા. પામ્યા પછી નવ્વાણું વાર યાત્રાર્થે શત્રુંજય પર ગયા હતા. વજસ્વામીના સમયના જાવડશાનો પરિચય આ પ્રમાણે છે : મધુમતી ભગવાનના મુખ્ય ગણધર પુંડરીક સ્વામીએ પાંચસો સાધુઓ સાથે નગરીના મુખ્ય શ્રેષ્ઠી ભાવડશા શેઠ અને સૌભાગ્ય શેઠાણીના પુત્ર ત્યાં અનશન કર્યું હતું. અનેક જીવો ત્યાં સિદ્ધગતિને પામ્યા હોવાથી જાવડશા સંસ્કારી, શીલવાન, શૂરવીર, પ્રજાવત્સલ અને પ્રબળ એ સિદ્ધગિરિ તરીકે વિખ્યાત છે. અસંખ્ય સાધુ-સાધ્વીઓનાં ધર્મભાવનાવાળા હતા. તેમના જન્મ સમયે જ્યોતિષીઓએ એવું પગલાંથી તે પવિત્ર બન્યો છે. આવા મહાન તીર્થની અત્યારે ભયંકર ભવિષ્ય ભાખ્યું હતું કે “આ બાળક ભવિષ્યમાં મોટો થઈને આશાતના થઈ રહી છે. ત્યાં ઘોર પાપાચાર થઈ રહ્યો છે. માટે માનવકલ્યાણનાં મોટાં મોટાં કાર્યો કરશે; તે લોકોનો બહુ આદર તેનો હવે ઉદ્ધાર કરવાની આવશ્યક્તા છે. આ કાર્ય કોઈ સમર્થ પામશે અને તે શત્રુંજય તીર્થનો ઉદ્ધારક બનશે.'
પુરુષ જ ઉપાડી શકે. જાવડશા યુવાન થતાં સુશીલા નામની સંસ્કારી કન્યા સાથે વજસ્વામીની પ્રેરક ઉપદેશવાણી સાંભળીને તે કાર્ય કરવા માટે તેમનાં લગ્ન થયાં. પિતા ભાવડશાએ જાવડશાની અપ્રતિમ વીરતા, જાવડશાએ ઉત્સાહપૂર્વક તરત પોતાની તૈયારી દર્શાવી. તેજ વખતે વ્યવહારકુશળતા, કારભાર ચલાવવાની દક્ષતા અને માનવકલ્યાણ કદર્પ નામનો કોઈ એક યક્ષ ત્યાં આવ્યો. તે એક લાખ યક્ષનો માટેની ભાવના જોઈને પોતાની મધુમતીના વારસદાર તરીકે સ્વામી હતો. તેણે પોતાની ઓળખ આપી. વજસ્વામી તેના જીવનજાવડશાને જાહેર કર્યા હતા. તેમના કારભાર દરમિયાન મ્લેચ્છો પરિવર્તનના નિમિત્ત બન્યા હતા તેથી તે તેમની કંઈક સેવા કરીને બાહુબલીજીએ ભરાવેલી ઋષભદેવ ભગવાનની પ્રતિમાને ઉપાડી | ઋણમુક્ત થવા આવી પહોંચ્યો હતો. ગયા હતા અને જાવડશાને પણ બંધનમાં રાખ્યા હતા. પરંતુ આ કદર્પ યક્ષ પૂર્વભવમાં ધનવાનનો પુત્ર હતો. તેને દારૂના જાવડશાએ ઉગ્ર તપશ્ચર્યા સહિત ચક્રેશ્વરીદેવીની આરાધના કરી. ભારે નશાની ટેવ પડી ગઈ હતી. પિતા એને આ દુરાચારમાંથી એથી ચક્રેશ્વરીદેવી પ્રસન્ન થયાં. તેમની સહાયથી જાવડશાએ
છોડાવવા વજસ્વામી પાસે લઈ ગયા હતા. વજસ્વામીએ તેને ઉપદેશ. તક્ષશિલા નગરી નજીક મ્લેચ્છો પાસેથી ઋષભદેવ ભગવાનની
આપી વ્યસનોમાંથી મુક્ત થવા સમજાવ્યું હતું અને કદી દારૂ ન પ્રતિમા પાછી મેળવી હતી અને ત્યાંથી તેઓ ક્ષેમકુશળ મધુમતી
પીવાનાં પચ્ચખાણ લેવડાવ્યાં હતાં. પરંતુ મિત્રોની હલકી સોબતને નગરીમાં પાછા ફર્યા હતા. તેઓ બાર વર્ષે પાછા આવ્યા હતા,
કારણે પચ્ચખાણનો ભંગ કરીને પણ તે ફરી દારૂ પીતો થઈ ગયો તેથી નગરીના લોકોએ ખૂબ ઉમળકાભેર ઉત્સવપૂર્વક જાવડશાનું હતો. એક વાર તે પોતાના ઘરની અગાશીમાં બેસી દારૂ પીતો સ્વાગત કર્યું હતું. એક દિવસ જાવડશા સભા ભરીને બેઠા હતા. એ
હતો તે સમયે આકાશમાં ત્યાંથી ઊડતી એક સમડીની ચાંચમાં વખતે એક સાથે બે શુભ સમાચાર તેમને મળ્યા. એક સમાચાર તે
પકડેલા સર્પના મુખમાંથી ઝેરનું ટીપું સીધું નીચે એના દારૂના ગુરુ વજસ્વામી ગામની નજીક સંઘ સાથે પધાર્યા હતા. બીજા.
પ્યાલામાં પડ્યું, પરંતુ એની તેને ખબર પડી નહિ. દારૂ પીતાં સમાચાર એ હતા કે કરિયાણાથી ભરેલાં એમનાં વહાણો જે સમુદ્રમાં
યુવાનને ઝેર ચડવા લાગ્યું. તે તરફડવા લાગ્યો. દારૂ નહિ પીવાની ઘણા વખતથી ગુમ થઈગયેલાં મનાતાં હતાં તે પાછાં ફર્યા હતાં
પ્રતિજ્ઞાનો પોતે ભંગ કર્યો તેથી તે ખૂબ પસ્તાયો. પણ ઝેરને કારણે એટલું જ નહિ, તેજમતુરી નામની, સોનું બનાવવામાં કામ લાગે તે મૃત્યુ પામ્યો. મૃત્યુ સમયે તેણે કરેલા પશ્ચાત્તાપના પ્રબળ ભાવથી એવી કિંમતી માટી ભરીને પાછા આવ્યા હતાં. જાવડશાએ વિચાર
તેનાં અશુભ કર્યો હળવાં થયાં. તે મૃત્યુ પામીને કદર્પ નામે યક્ષ કર્યો કે પહેલાં કોનું સ્વાગત કરવું ? પરમ ઉપકારી ગુરુ ભગવંતનું થયો. અત્યારે તે કદર્પ યક્ષ વજસ્વામીએ કરેલા ઉપકારના બદલામાં કે લક્ષ્મીથી ભરેલાં વહાણોનું ? એ વખતે તેમને ભરત ચક્રવર્તીના
તીર્થોદ્ધારના કાર્યમાં મદદ કરવા આવી પહોંચ્યો હતો. પ્રસંગનું સ્મરણ થયું.
વજસ્વામી શત્રુંજય તીર્થની દુર્ગમ, જોખમભરેલી યાત્રા સુલભ એકવાર ભરત ચક્રવર્તીને પણ આવી જ વિમાસણ થઈ હતી.
કરવા માંગતા હતા. તે કાળમાં શત્રુંજય તીર્થને સુરક્ષિત કરવાનું તેમને બે સમાચાર સાથે મળ્યા હતા. એક તે ઋષભદેવ ભગવાનને કાર્ય ઘણું જ કપરું હતું. કોઈ મહા ભાગ્યવાન અને સાહસિક વ્યક્તિ કેવળજ્ઞાન થયું અને બીજા સમાચાર તે પોતાને ચક્રરત્નની પ્રાપ્તિ
જ આવા કલ્યાણકારી કાર્ય માટે હિંમત દર્શાવી શકે. વજસ્વામી થઈ. આ બેમાં પહેલાં કોનો મહોત્સવ કરવો ? તેમણે શીધ્ર નિર્ણય પાસે જાવડશાએ ખૂબ આનંદ અને શ્રદ્ધાથી આ કાર્ય કરવાની
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ પોતાની તૈયારી દર્શાવી. લોકોએ જાવડશાને આ શુભ કાર્ય માટે ભયભીત કરવાના પ્રયાસો કર્યા. પરંતુ નવા કદર્પ યક્ષે તે બધાનો આશિષ આપ્યા. તેમના કાર્યમાં કોઈ વિઘ્ન ન નડે એ માટે હિંમતથી સામનો કરીને સહુને ક્ષેમકુશળ પર્વત ઉપર ચડવામાં મદદ કરી. શાસનદેવની પ્રાર્થના કરવામાં આવી. શુભ શત્રુંજય તરફ પ્રયાણ આમ, કેટલાંયે વર્ષો પછી શત્રુંજય મહાતીર્થની આ રીતે ફરીથી કર્યું. સાથે જાવડશા, તેમનો પુત્ર જાજનાગ, તેમના પરિવારના યાત્રા ચાલુ થતી હતી. લોકોના ઉત્સાહનો કોઈ પાર નહોતો. સભ્યો તથા સમસ્ત સંઘના માણસો તેમાં જોડાયા. નવો કદર્પ યક્ષ ભગવાનનાં દર્શનપૂજન થશે એ વિચારે અપૂર્વ આનંદ પ્રવર્તતો પણ પોતાના યક્ષો સાથે આકાશમાર્ગે આવવા નીકળ્યો. શાસનનું હતો. પરંતુ ઉપર પહોંચ્યા પછી ગિરિરાજ પરનાં દશ્યો જોઈને આ પુનિત કાર્ય કરવાનો ઉત્સાહ સહુ હૃદયમાં ઊભરાતો હતો.
લોકોના દુ:ખનો કોઈ પાર ન રહ્યો. ચારે બાજુ માણસોનાં તથા આનંદમગ્ન બનીને લક્ષ્યસ્થાન પ્રતિ યાત્રાસંઘ આગળ વધવા લાગ્યો. પશુ અને પંખીઓનાં હાડકાં, ચામડાં અને મૃત ફ્લેવરો પડેલાં
શત્રુંજય પરના અસુર અને જુલ્મી કદર્પીને તેના સેવકોએ હતાં. કેટલેક સ્થળે જમીન લોહી અને માંસથી ખરડાયેલી હતી. સમાચાર આપ્યા કે જાવડશા સંઘ લઈને શત્રુંજય તરફ આવી રહ્યા વળી મંદિરો તો ખંડિયેર જેવી હાલતમાં હતાં. જાવડશાએ એ બધો છે. આથી અસુરે જાવડશાને આવતા અટકાવવા પોતાના અનુચરોને કચરો ઉપડાવીને ભૂમિને ચોખ્ખી કરાવી. ચારે બાજુ પવિત્ર જળ મોકલ્યા. પણ વજસ્વામીના પ્રભાવને કારણે અનુચરો તેમને છંટાવ્યું અને મંદિરોનાં પુનર્નિર્માણનો દઢ સંકલ્પ કર્યો. અટકાવી શક્યા નહિ. કદÍને જાણવા મળ્યું કે વજસ્વામી નામના કદર્પ અસુરે વિચાર્યું કે તેની વારંવાર હાર થાય છે તેનું કારણ લબ્ધિધારી પ્રભાવક આચાર્યને કારણે પોતાના પ્રયત્ન નિષ્ફળ જાય કદાચ જાવડશા સાથે આવેલી ચમત્કારી પ્રતિમા હોઈ શકે. તેથી છે. એટલે તેણે પોતાના અનુચરોની સંખ્યા વધારીને જાવડશાને
તેણે રાત્રિ દરમિયાન પર્વત પરથી પ્રતિમાને નીચે ઉતારી તળેટીમાં આવતા રોકવા ફરી પ્રયત્નો કર્યા. અનુચર અસુરોએ વારંવાર ભયંકર મૂકી દીધી. પ્રાતઃકાળે પ્રતિમાને તેના સ્થળ ન જોતાં વજસ્વામીએ યુક્તિઓ અજમાવી, પરંતુ વજસ્વામીની લબ્ધિથી તેમના બધા વિશિષ્ટ જ્ઞાનથી જાણ્યું કે અસુર પ્રતિમાને નીચે મૂકી આવ્યો છે. આક્રમક પ્રયત્નો ફરીથી નિષ્ફળ ગયા. અસુરોએ મેઘ ઉત્પન્ન કર્યો વજસ્વામીની આજ્ઞાથી નવો કદર્પ યક્ષ પ્રતિમાને ઉપર લઈ આવ્યો. તો વજસ્વામીએ મેઘને વિખેરવા ભયંકર વંટોળિયો ઉત્પન્ન કર્યો.
બીજી રાત્રે પણ પ્રતિમાને અસુર નીચે લઈ ગયો. પરંતુ પ્રભાતે અસુરોએ વંટોળિયો ઉત્પન્ન કર્યો તો વજસ્વામીએ તેને અટકાવવા નવો કદર્પ યક્ષ તે ફરી ઉપર લઈ આવ્યો. એકવીસ દિવસ સુધી પર્વતો સજર્યા. અસુરોએ પર્વતો ઉત્પન્ન કર્યા તો વજસ્વામીએ રોજે રોજ આ પ્રમાણે ઘટના બન્યા કરી. વજથી તે પર્વતોના ટુકડા કર્યા. તદુપરાંત વજસ્વામીએ પોતાની
અસુરોને હરાવવાનો એક ઉપાય વજસ્વામીએ વિચાર્યો. તેમણે લબ્ધિથી અસુરોએ ઉત્પન્ન કરેલા હાથીઓની સામે સિંહ, સિંહની
ધર્મપરાયણ અને પવિત્ર એવા જાવડશાને કહ્યું કે તમે પતિપત્ની સામે અષ્ટાપદ, દાવાનળની સામે મુશળધાર મેઘ, સર્પોની સામે
બન્ને શીલવાન છો, ધર્મજ્ઞ છો, બ્રહ્મચર્યના આરાધક છો, તમે ગરુડ ઉત્પન્ન કર્યા. વળી દરેક વિ વખતે નવા કદÍએ પણ
બન્ને ભગવાન ઋષભદેવનું ધ્યાન ધરી, પંચપરમેષ્ઠીનું સ્મરણ કરી પોતાના યક્ષો સાથે સહાય કરી અને અસુરના ભયંકર ઉપસર્ગોનો
પ્રતિમા જે રથમાં પધરાવ્યાં છે તે રથનાં આગલાં બે ચક્રો પાસે સામનો કર્યો. આમ, વારંવાર પરાજિત થવા છતાં શરમ અને
રાત્રે સૂઈ જાવ. તમે રાત્રે અંધારામાં જરા પણ ગભરાશો નહિ, દંડના ભયથી અસુર કદર્પના અનુચરોએ પોતાના સ્વામી કદર્પને
ગમે તેવા બળવાન અસુરો પણ તમને કશું નુકશાન નહિ કરી શકે. કહેવા જવાની હિંમત બતાવી નહિ. તેઓ બધા અન્ય સ્થળે ભાગી ગયા.
હું, મારા શિષ્યો તથા સકળ સંઘના સભ્યો ભગવાનનું સ્મરણ અસુરોના ત્રાસમાંથી સંઘ હવે નિર્ભય બની ગયો હતો. સંધે
કરીને પ્રાતઃકાળ સુધી કાઉસગ્ગ ધ્યાને રહીશું.” સહુએ આ વાતનો શત્રુંજય પાસે આદિપુરમાં પડાવ નાખ્યો પરંતુ હજુ તેની કસોટી ખૂબ શ્રદ્ધાપૂર્વક સ્વીકાર કર્યો. વજસ્વામીની સૂચના પ્રમાણે સૌએ પૂરી થઈ નહોતી. પર્વત પરના કદર્પ અસુરને પોતાના સાથીઓની આરાધના કરી. રાત્રે અસુર આવ્યો. પ્રતિમા સુધી પહોંચવા પ્રયત્ન હારની ખબર પડી. એટલે હવે તેણે પોતે સંઘને આવતો અટકાવવા
કર્યા. પરંતુ તેનું બળ નિષ્ફળ ગયું. નાસીપાસ થઈને તે ચાલ્યો જાત જાતના ભયંકર ઉપાયો અજમાવ્યા. તેણે જાવડશાનાં પત્ની ગયો. પ્રાતઃકાળે સૌએ કાઉસગ્ગ પાર્યો અને જોયું તો પ્રતિમાજી સુશીલાદેવીના શરીરમાં તીવ્ર જ્વર પેદા કર્યો. સુશીલાદેવી અસહ્ય | હેમખેમ ત્યાં જ હતાં. એથી સૌ હર્ષોલ્લાસથી નાચી ઊઠ્યા. વેદનાથી તરફડવા લાગ્યાં. વજસ્વામીએ પવિત્ર મંત્રથી
જાવડશાએ નવાં પ્રતિમાની સ્થાપના કરાવવા માટે પવિત્ર જલ, સુશીલાદેવીનો જ્વર દૂર કર્યો. અસુરે શત્રુંજય પર્વતને કંપાયમાન
ઔષધિ, સુગંધી દ્રવ્યો દ્વારા મંદિરને પવિત્ર કરાવ્યું. પછી જૂનાં કર્યો. એથી લોકો ભયભીત બની ગયા. પરંતુ વજસ્વામીએ પવિત્ર
જર્જરિત પ્રતિમાનું ઉત્થાપન કરવાનું કામ ચાલુ કર્યું. ત્યાં વળી જળ, અક્ષત અને કુંકુમથી પર્વતની પૂજા કરાવી. એથી પર્વત સ્થિર
અસુરોએ જૂનાં પ્રતિમાને એ જગ્યાએથી ખસવા ન દીધાં. થઈ ગયો.
વજસ્વામીએ મંત્ર ભણી પવિત્ર વાસક્ષેપ નાખ્યો એટલે અસુરોનું ત્યારપછી શુભ મૂહુર્તે વજસ્વામી, જાવડશા અને સંઘ ઋષભદેવ બળ નષ્ટ થયું. એથી જૂનાં પ્રતિમાને ખસેડી શકાયાં. જાવડશાએ ભગવાનની પ્રતિમા લઈને પર્વત પર ચડવા લાગ્યા. આકાશમાર્ગે
જૂનાં પ્રતિમાને મંદિરની બહાર લાવીને મૂક્યાં ત્યારે અસુરોએ એટલા નવો કદર્પ યક્ષ અને તેના સાથીઓ પણ આવી પહોંચ્યા. માર્ગમાં બધા ભયંકર પોકારો કર્યા કે વજસ્વામી, જાવડશા અને નવા કંદર્પ અસુરે ભૂત, પ્રેત, ડાકણ વગેરેનાં ભયંકર રૂપ લઈને લોકોને યક્ષ સિવાયનાં બાકીનાં બધાં માણસો ભયભીત થઈ ભાગાભાગ
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આર્ય વજસ્વામી કરવા લાગ્યાં. નવા કદર્પ યક્ષે અસુરોનો પ્રતિકાર કરી લોકોને આચારને અનુસરનાર વજસ્વામી દક્ષિણ દેશમાં પધાર્યા. ત્યાંના નિર્ભય બનાવ્યા.
લોકોના આનંદનો કોઈ પાર નહોતો. ધર્મના સાક્ષાત્ અવતાર જાવડશાએ આદિનાથ ભગવાનનાં નવાં પ્રતિમાજીની સમાં અને ધર્મતત્ત્વને પ્રકાશનોર વજસ્વામી પ્રત્યે લોકો અપાર વજસ્વામીના હાથે પ્રતિષ્ઠા કરાવી, તે પ્રતિમાજીના અધિષ્ઠાતા' આદર દર્શાવતા. દેવોની પ્રતિમા પણ જૂનાં પ્રતિમાની સાથે જ પ્રસ્થાપિત કર્યા. બંને વજસ્વામી હવે વૃકે પ્રતા જતા હતા. એક વખત એમને શરદી ઠેકાણે આરતી, પૂજા વગેરેની વ્યવસ્થા કરાવી. આમ, શત્રુંજય થઈ હતી. તેમના એક પ્ય તેમને માટે સૂંઠનો ગાંઠિયો વહોરી તીર્થ પર મંદિરના જીર્ણોદ્ધારનું કાર્ય પૂરું થયું એટલે છેલ્લે મંદિરના લાવ્યા. આહાર લીધા -: છો સૂંઠ લઈશ એમ વિચારી વજસ્વામીએ શિખર પર ધજા ચડાવવા આજીવન ચતુર્થ-વ્રતધારી જાવડશા અને પોતાના કાનની પાછળ તે ગાંઠિયો ભરાવી દીધો કે જેથી આઘોપાછો તેમનાં પત્ની સુશીલાદેવી સાથે ચડવાં. અકથ્ય વિપ્નો વચ્ચે પણ મુકાઈ ન જાય અને તરત હાથવગો રહે. પરંતુ આહાર લીધા પછી નિર્ધારિત કાર્ય પાર પડ્યું, અને પ્રભાવક ગુરુદેવ વજસ્વામીના તેઓ સ્વાધ્યાય અને ધ્યાનમાં લીન થઈ ગયા. સુંઠ લેવાનું તેઓ પોતાને આશીર્વાદ સાંપડ્યા, અમૂલ્ય સહાય મળી એનો અપૂર્વ ભૂલી ગયા. સૂંઠનો ગાંઠિયો કાનની પાછળ ભરાવ્યો છે તે પણ આનંદોલ્લાસ બને અનુભવતાં હતાં. તેઓ બંનેએ જીવનનું એક તેમને યાદ ન રહ્યું. સાંજે પ્રતિક્રમણની ક્રિયામાં મૂહપત્તીનું પડિલેહણ અણમોલ કાર્ય પાર પડ્યાની ધન્યતા મંદિરના શિખર ઉપર કરતી વખતે મસ્તક નીચું નમાવતાં સુંઠનો ગાંઠિયો નીચે પડ્યો. અનુભવી. આવા વિચારે બને એટલા બધાં ભાવવિભોર બની તરત જ તેમને પોતાને થયેલી વિસ્મૃતિનો ખ્યાલ આવ્યો. પોતે ગયાં કે તેમનાં હૃદય એટલો અકથ્ય આનંદ જીરવી શક્યાં નહિ. આચાર્ય છે. આવી વિસ્મૃતિ થવી, પ્રમાદ થવો એ તેમના પદને બને ત્યાં ને ત્યાં જ હૃદય બંધ પડવાને કારણે સ્વર્ગવાસ પામ્યાં. અનરૂપ નથી, એમ તેમને લાગ્યું. વિસ્મૃતિ અને પ્રમાદ થાય તો શત્રુંજય તીર્થનો ઉદ્ધાર થયો. પ્રતિષ્ઠા થઈ, પરંતુ ઉદ્ધારના કાર્યો નિરતિચાર સંયમ જીવનનું પાલન બરાબર થઈ શકે નહિ. પોતાના કોઈ સંકેતપૂર્વકનો વળાંક લીધો. રક્ષક દેવોએ તેમનાં પવિત્ર શરીરને નિરતિચાર સંયમ જીવનનું પાલન દેહની અવસ્થાને કારણે હવે થઈ ક્ષીરસાગરમાં પધરાવ્યાં.
શકે એમ નથી એમ જણાય ત્યારે મહાન આત્માઓ અનશન વ્રત મંદિરમાં નીચે રંગમંડપમાં વજસ્વામી અને સકળ સંઘ, જાવડશા ધારણ કરી દેહનો અંત આણવાનું વધુ પસંદ કરતા હોય છે. પોતાના અને તેમનાં પત્નીનાં ઉપરથી પાછાં આવવાની રાહ જોતાં હતાં. જીવનનો અંતકાલ નજીકમાં છે તેમ વજસ્વામીએ જાણ્યું એટલે સમય ઘણો થયો તેથી સૌને ચિંતા થઈ. વજસ્વામીએ પોતાના એમણે પણ યોગ્ય સમયે અનશન લેવાનો નિર્ધાર કર્યો. વિશિષ્ટ જ્ઞાનથી જાણ્યું કે અદ્ભુત હર્ષના કારણે બન્નેના જીવનો આ સમય ગાળા દરમિયાન બીજી એક ઘટના બની. અંત આવ્યો છે. તેઓ બન્નેના જીવ મહેન્દ્ર દેવલોકમાં દેવ તરીકે ભયંકર દુષ્કાળ ચાલુ થયો હતો. તે ક્યારે પૂરો થશે તે કહી ઉત્પન્ન થયા છે.
શકાય તેમ નહોતું. વજસ્વામીએ પોતાના શિષ્ય વજસેન સ્વામીને - વજસ્વામીએ બધાંને આ હકીકતની જાણ કરી. જાવડશા અને કહ્યું, ‘આ દુષ્કાળ સતત બાર વર્ષ સુથી ચાલશે. દિવસે દિવસે તેમનાં પત્નીના સ્વર્ગવાસના સમાચારથી સકળ સંઘમાં તીવ્ર દુઃખની અન્ન મોંઘુ થતું જશે. ઘણાં લોકો મૃત્યુ પામશે. અનાજ ત્યાં સુધી અને નિરાશાની લાગણી પ્રસરી. થોડી ઘડી પહેલાં જ્યાં અપૂર્વ વધતું વધતું મોઘું થશે કે છેવટે એક લાખ દ્રવ્યના ચોખામાંથી માત્ર હર્ષોલ્લાસ પ્રવર્તતો હતો ત્યાં તીવ્ર શોક પ્રવર્યો. જાવડશાનો પુત્ર એક હાંડલી જેટલો ભાત રંધાશે. જે દિવસે એટલા બધા મોંઘા જાજનાગ તો મૂર્ણિત થઈ ગયો. વજસ્વામીએ મંત્ર ભણીને તેને ભાવે ચોખા રંધાશે ત્યાર પછી બીજા દિવસથી સુકાળ ચાલુ થશે જાગ્રત કર્યો અને સાંત્વન આપતાં કહ્યું કે તારાં માતાપિતા તો એમ સમજવું. માટે તમે તમારા શિષ્યો સાથે અન્યત્ર વિહાર કરી દેવલોકમાં પરમ સુખમાં છે. તેઓ બન્નેએ પોતાનું જીવન સફળ જાવ.' ગુરુ ભગવંતની આજ્ઞાનુસાર કેટલાયે શિષ્યો ત્યાંથી ઝડપથી અને ધન્ય કર્યું છે. તેઓએ એક મહાન કાર્ય સિદ્ધ કરી બતાવ્યું છે. વિહાર કરી ગયા. તું પણ આવાં મહાન કાર્યો કરી તારા માતાપિતાના વારસાને દુષ્કાળના દિવસોમાં વજસ્વામી પોતાના બાકીના શિષ્યોને દીપાવજે. તું તારાં શક્તિ, સમય અને સમૃદ્ધિનો સદુપયોગ કરજે. લઈને વિહાર કરતા હતા. પરંતુ તેમને ક્યાંયથી ગોચરી મળી ધર્મની મહત્તા વધારવામાં સાધુઓની જેમ શ્રાવકો પણ મહત્ત્વનું નહોતી. તેથી કેટલાક શિષ્યો વિદ્યાપિંડનો ઉપયોગ કરવા લાગ્યા કાર્ય કરી શકે છે.'
હતા. વજસ્વામીએ શિષ્યોને કહ્યું, “અપવાદરૂપ કોઈક દિવસ ધર્મના વજસ્વામીની આવી પ્રોત્સાહક વાણી સાંભળી જાજનાગ સ્વસ્થ કારણે, શાસનના હિત માટે પોતાની વિદ્યાથી ઉત્પન્ન કરેલો પિંડ થયો. ધૈર્ય ધારણ કરી પોતાનાં માતાપિતાના નામને ઉજ્જવળ કરવા લેવો પડે તે જુદી વાત છે. પરંતુ સતત વિદ્યાપિંડનો ઉપયોગ કરવો એણે સંકલ્પ કર્યો. શત્રુંજય તીર્થક્ષેત્રમાં યાત્રિકો માટે જરૂરી એવી પડે તો તે આપણા સંયમધર્મને બાધક ગણાય. માટે આવા વિષમ બધી જ વ્યવસ્થા તેણે કરાવી. બંધ પડી ગયેલી યાત્રિકોની અવરજવર ભયંકર સંજોગોમાં જો તમને બધાને યોગ્ય લાગતું હોય તો આપણે ફરી પાછી ચાલુ થઈ. ત્યાર પછી જાજનાગ ગિરનાર વગેરે તીર્થોની આપણા શરીરનો અનશન કરીને સ્વેચ્છાએ ત્યાગ કરીએ.’ યાત્રા કરી, ધર્મનો મહિમા વધારી સ્વગૃહે પાછો ફર્યો.
ધર્માનુરાગી જ્ઞાની સાધુઓ વજસ્વામી સાથે અનશન કરી શત્રુંજય ઉદ્ધારનું મહત્ત્વનું કાર્ય પૂરું કર્યા પછી સંયમધર્મના શરીરનો ત્યાગ કરવા સંમત થયા. નિર્ણય કર્યા પ્રમાણે અનશન
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શ્રી યતીન્દ્રસૂરિ દીક્ષાશતાબ્દિ ગ્રંથ કરવા માટે શુભ દિવસે શુભ મૂહુર્તે સૌને લઈને વજસ્વામી એક નામની નગરીમાં પધાર્યા. નગરીના રાજાનું નામ જિતશત્રુ હતું પર્વત ઉપર ચડવા લાગ્યા. તેમની સાથે એક બાળ સાધુ પણ ચાલ્યા. અને રાણીનું નામ ધારિણી હતું. નગરમાં જિનદત્ત નામના અત્યંત પોતાના ગુરુની સાથે જઈને અનશન કરવાની તેમની પણ તીવ્ર ધનાઢ્ય શ્રેષ્ઠી રહેતા હતા. એમનાં પત્નીનું નામ ઇશ્વરી હતું. એ ભાવના હતી. એટલે તેઓ પાછળ રોકાયા નહિ, પરંતુ વજસ્વામીએ
વખતે સોપારા નગરીમાં પણ ભીષણ દુષ્કાળની પરિસ્થિતિ પ્રવર્તતી જ્યારે જાણ્યું કે બાલમુનિ પણ અનશન કરવા સાથે જોડાઈ ગયા છે
હતી. અનાજ દિવસે દિવસે મોંધું અને દુર્લભ બનતું જતું હતું. ત્યારે તેમણે તે બાલમુનિને પોતાની સાથે હવે ન આવવા માટે
વધારે ધન આપવા છતાં શ્રીમંતો પણ અન્ન મેળવી શકતા નહોતા. આજ્ઞા કરી. બાળમુનિ ગુરુ મહારાજના આશયને સમજી ગયા. પરંતુ તેમના મનમાં ધર્મસંકટ ઊભું થયું, એક તરફ સાથે ન આવવા
આ દુઃખદ પરિસ્થિતિમાંથી છૂટકારો મેળવવા ઇશ્વરીએ પોતાના માટે ગુરુ મહારાજની આજ્ઞા હતી અને બીજી બાજુ અનશન લેવાની
કુટુંબીજનોને કહ્યું, “આ ભયંકર દુકાળ હવે અસહ્ય બની ગયો છે. પોતાની ભાવના હતી. તેઓ પોતે ગુરુમહારાજની આજ્ઞા માન્ય
મને લાગે છે કે હવે કોઈ ઉપાય નથી માટે આપણે અન્નમાં વિષ રાખીને પર્વત ઉપર વધુ આગળ ન ગયા, પણ ત્યાં જ રોકાઈને
ભેળવીને તે ખાઈ લઈએ અને એ રીતે આપણે બધાં જીવનનો અંત એમણે આહારનો ત્યાગ કર્યો. અનશનવ્રત લઈ એક શિલા પર આણીએ.’ ઇશ્વરીની વાત સર્વ સ્વજનોએ સ્વીકારી. તેઓએ અનાજ બેસીને તેઓ ધ્યાનસ્થ થઈ ગયા. બપોરના સૂર્યના પ્રખર તાપથી મેળવવા પ્રયત્ન કર્યો. એક લાખ દ્રવ્યનું એક હાંડલી જેટલું અનાજ શિલા પર બેઠેલા બાળમુનિનો દેહ માખણના પિંડની જેમ ઓગળી ખરીદું. તે રાંધીને ઇશ્વરી તેમાં વિષ નાંખવા જતી હતી ત્યાં જ ગયો. તેઓ કાળધર્મ પામ્યા. એ બાળમુનિનો જીવ દેવલોકમાં દેવ વજસેન આચાર્ય વહોરવા પધાર્યા. સાધુ મહારાજને પોતાના આંગણે તરીકે ઉત્પન્ન થયો. એટલે દેવોએ હર્ષ પામી સ્વર્ગમાં તેમનો સત્કાર આવેલા જોઈને ઇશ્વરીને અનહદ આનંદ થયો. તેણે વિચાર્યું કે કર્યો. ત્યાર પછી દેવો પૃથ્વી પર તેમના શરીરના ત્યાગનો મહિમા
ભવિષ્યમાં સાધુ જેવા સુપાત્રને વહોરાવવાનું સદ્ભાગ્ય મળે કે ન કરવા આવ્યા. દેવોને નીચે આવતા જોઈ કોઈક સાધુએ વજસ્વામીને
મળે. આવો લાભ જતો કેમ કરાય ? તેણે આચાર્ય મહારાજને તેનું કારણ પૂછ્યું. વજસ્વામીએ કહ્યું કે “આપણી સાથે જે બાલમુનિ
અત્યંત ભાવપૂર્વક અન્ન વહોરાવ્યું. તેની સાથેની વાતચીત દરમ્યાન હતા અને એમને ઉપર ન આવવા મેં આજ્ઞા કરી હતી તેમણે ત્યાં જ અનશન કરીને દેહત્યાગ કર્યો છે. એટલે એમનો મહિમા કરવા
વજસેન સ્વામીને ત્યાંની પરિસ્થિતિ વિશે જાણવા મળ્યું. એક લાખ
દ્રવ્યનું મૂલ્ય ચૂકવીને તેઓ એક હાંડલી ચોખા લાવ્યા હતા. તેમાં દેવો આવી રહ્યા છે.” આ પ્રેરક વાત જાણીને અન્ય સાધુઓની અનશન લેવાની ભાવના વધુ દઢ થઈ.
વિષ ભેળવીને પરિવારના સહુ સભ્યો જીવનનો અંત આણવા વજસ્વામીની સાથે એમના શિષ્યોએ અનશન લેવાનો સંકલ્પ
ઇચ્છતા હતા. વજસેન આચાર્યને ગુરુ મહારાજ વજસ્વામીના શબ્દો કર્યો હતો. તેઓ પર્વતના શિખર પર ચઢી રહ્યા હતા. તેઓ આગળ
યાદ આવ્યા. તેમણે ઈશ્વરીને હિંમત આપી અને કહ્યું, “બહેન, હવે પાછળ ચાલતા હતા. તે વખતે કેટલાક સાધુઓની પરીક્ષા કરવા
ચિંતા ન કરશો. આવતી કાલે સવારે અનાજ આવી પહોંચશે અને માટે એક મિથ્યાદષ્ટિ દેવ વણિકનું રૂપ ધારણ કરીને, હાથમાં લાડુ
ફરી સુકાળની સ્થિતિ પ્રવર્તશે.’ અને પાણી લઈને સાધુઓને લલચાવવા આવી પહોંચ્યો. પરંતુ ઇશ્વરીએ પૂછ્યું, ‘ભગવંત, આપ એ કેવી રીતે કહી શકો ?' સ્વાદિષ્ટ આUર જોવા છતાં કોઈ પણ સાધુ જરા પણ ચલિત થયા નહિ. આચાર્ય મહારાજે કહ્યું, “બહેન, અમારા ગુરુ મહારાજ પૂજ્ય - સાધુઓ ત્યાંથી બીજા પર્વત પર ગયા. વજસ્વામી ત્યાં પહોંચી વજસ્વામીએ અમને કહ્યું હતું કે જ્યારે તમને લક્ષમૂલ્યના ભાતની ગયા હતા. વજસ્વામીની સાથે સર્વ સાધુઓએ ત્યાં બેસીને અનશન ગોચરી મળશે ત્યારે તેના બીજા દિવસે સવારે સુકાળ ચાલુ થશે. વ્રત ધારણ કર્યું. થોડા દિવસમાં વજસ્વામી અને અન્ય સર્વ સાધુઓ માટે એક દિવસ રાહ જુઓ.’ કાળધર્મ પામતા ગયા અને દેવલોકમાં દેવ તરીકે ઉત્પન્ન થતા વજસ્વામીની આગાહી સાચી પડી. બીજે દિવસે સુપ્રભાતે ગયા. તે વખતે ઈદ્રરાજા રથમાં બેસી સાધુઓના શરીરનો મહિમા ધનધાન્યથી ભરેલાં વહાણોનો કાફલો સોપારા બંદરે આવી પહોંચ્યો. કરવા ત્યાં આવી પહોંચ્યા. પોતાનો પૂજ્ય ભાવ વ્યક્ત કરવા ઈદ્ર બંદરે અનાજ ઊતર્યું. એથી અન્નની બાબતમાં સૌ કોઈ હવે નિશ્ચિત રથમાં બેસી પર્વત ફરતી ચારે બાજુ પ્રદક્ષિણા કરી. એટલે એ બની ગયાં. ચારે બાજુ આનંદ આનંદ ફેલાયો. દુકાળમાં બચી પર્વતનું ‘રથાવર્ત’ એવું નામ પ્રસિદ્ધ થયું હતું. ઈદ્રરાજાએ કાળધર્મ ગયેલા લોકોના જીવમાં જીવ આવ્યો. પામેલા સર્વ સાધુઓને ભક્તિભાવપૂર્વક વંદન કર્યા. એ વખતે જિનદત્ત શેઠે વજસ્વામીને સોપારામાં વધુ દિવસ રોકાવા વિનંતી પર્વત પરનાં વૃક્ષો પણ ભક્તિભાવથી નીચાં નમ્યાં.
કરી. તેઓ ત્યાં રોકાયા. જિનેશ્વર ભગવંતની પૂજાનો મહોત્સવ - વજસ્વામી છેલ્લા દસ પૂર્વધર હતા. તેમના કાળધર્મ થવાની કર્યો. દીન-દુ:ખીને અન્નનું દાન દેવામાં આવ્યું. વજસેનસ્વામીએ સાથે દસમું પૂર્વ વિચ્છેદ પામ્યું. વળી ચોથું સંઘયણ પણ વિચ્છેદ પામ્યું. સહુના કલ્યાણ માટે ઉપદેશ આપ્યો. એમની પ્રેરણાથી શેઠ-શેઠાણીએ
આ બાજુ દુકાળનાં વર્ષો પૂરાં થતાં હતાં. વજસ્વામીએ સુકાળ વિચાર કર્યો કે “આમ તો આપણે વિષ ખાઈને જીવનનો અંત વિશે જે આગાહી કરી હતી તે સાચી પડી. વજસ્વામીના મુખ્ય આણવાના હતાં. ગુરુ મહારાજના સુયોગથી અને ઉપદેશથી આપણે શિષ્ય વજસેનસ્વામી પોતાના શિષ્યો સાથે વિહાર કરી સોપારા બચી ગયાં છીએ. તો પછી બાકીનાં વર્ષો ધર્મમય જીવનમાં કેમ
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આર્ય વજસ્વામી
પસાર ન કરવાં ?' આમ વિચારી જિનદત્ત શેઠ અને ઇશ્વરી રોકાણીએ વચ્ચેનસ્વામી પાસે દીક્ષા ગ્રહણ કરી. આમ, આર્ય વજસ્વામીની સાથી ભવિષ્યવાણીના પ્રતાપે જ જિનદત્ત શેઠના પરિવારનું રક્ષણ થયું. એટલે જ શેઠ-શેઠાણીએ પંચમહાવ્રત ધારણ કરી પોતાનું જીવન ઉજ્જવળ બનાવ્યું.
૬૩
આર્ય વજસ્વામીના જીવનની થોડીક માહિતી જાણવા મળતાં પણ કેવો હર્ષ-રોમાંચ અનુભવાય છે ! એવી મહાન વિભૂતિના સાક્ષાત્ દર્શનથી કે એમના પ્રત્યક્ષ પરિચયમાં આવવાનું મળે તો કેટલો બધો હર્ષોલ્લાસ થાય ! આવા મહાન જ્ઞાની, તપસ્વી, દસ પૂર્વર, સંગના આરાધક, લબ્ધિધારી અને ધર્મોપદેશક આર્ય સ્વામીને નાં મન કોરિયા વંદન !
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ভক্তিভঙ্গে[ভিত্তি।
=परिचय नाम-मुनि जयप्रभविजय श्रमण पिता-भेरूलाजी धाड़ीवाल माता-प्यारीबाई धाड़ीवाल जन्म-1993 पोष विदी 10
जन्म स्थल-जावरा दीक्षा-सं. 2010
माघ सुदी4 स्थल-सियाणा ज्योतिषाचार्य
पद पदान कार्तिक सुदी 5
2046 स्थल-वाराणसी
पद प्रदान शासन दीपक कार्तिक सुदी 11 स्थल-मनावर मालव रत्न माघ सुदी15
2056 स्थल-जावरा
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________________ श्रीमहिंजय यतीन्सूरीश्वरजी म. सा. | বUTধী যদি == श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढ़ी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ ट्रस्ट मण्डल श्री शीतलनाथ शान्तिनाथ मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव स्मृति श्री सौधर्मबृहतीपगच्छीय श्री निस्तुतिक जैन श्री संघ भेसवाड़ा (राज.) दीक्षा शताब्दी की स्मृति कोटि-कोटि वन्दन मुद्रक - श्री राजेन्द्र ग्राफिक्स, राजगढ़ 35322