SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 653
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म वर्ण गहरा नीला माना गया है।९७८ इन्होंने जीवन की संध्यावेला में माने गए हैं।१८८ ये पार्श्व के पूर्ववर्ती तीर्थकर तथा कृष्ण के चम्पक वृक्ष के नीचे कठोर तपस्या कर केवलज्ञान प्राप्त किया ७९ समकालीन माने गए हैं। इनके पिता का नाम समुद्रविजय और और अपनी ३० हजार वर्ष की आयु पूर्ण कर निर्वाण को प्राप्त माता का नाम शिवादेवी कहा जाता है। इनका जन्मस्थान शौरीपुर किया।२८० इनके संघ में ३० हजार मुनियों एवं ५० हजार साध्वियों के माना गया है।८९ इनकी ऊँचाई १० धनुष और वर्ण साँवला होने का उल्लेख है।१८१ त्रिषष्टिकालपुरुषचरित्र में इनके दो पूर्वभवों- था।१९० त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके नौ पूर्वभवों का उल्लेख सुरश्रेष्ठ राजा और अहमिन्द्र देव का उल्लेख है। हुआ है - धनकुमार, अपराजित आदि। इनके एक भाई रथनेमि इनके विषय में अन्य परम्पराओं में कोई उल्लेख नहीं है। थे१९९ जिनका विशेष उल्लेख उत्तराध्ययन के २२वें अध्याय में उपलब्ध होता है। राजीमती के साथ इनका विवाह निश्चित हो २१. नमि गया था, किन्तु विवाह के समय जाते हुए इन्होंने मार्ग में अनेक नमिनाथ वर्तमान अवसर्पिणी काल के इक्कीसवें तीर्थंकर पशु-पक्षियों को एक बाड़े में बंद देखा, तो इन्होंने अपने सारथि माने गए हैं।२८२ इनका जन्म मिथिला के राजा विजय की रानी से जानकारी प्राप्त की कि ये सब पशु-पक्षी किसलिए बाडे में वप्रा की कुक्षि से माना गया है।१८३ इनके शरीर की ऊँचाई १५ बंद कर दिए गए हैं। सारथि ने बताया कि ये आपके विवाहोत्सव धनष और वर्ण काञ्चन माना गया है।१८४ इन्होंने वोरसली वक्ष के के भोज में मारे जाने के लिए इस बाड़े में बंद किए गए हैं। नीचे कठिन तपस्या कर केवलज्ञान प्राप्त किया।१८५ अपनी १० अरिष्टनेमि को यह जानकर बहुत धक्का लगा कि मेरे विवाह के हजार वर्ष की आय व्यतीत कर इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।१८६ निमित्त इतने पशु-पक्षियों का वध होगा. अतः वे बारात से बिना इनकी शिष्य-सम्पदा में २० हजार भिक्षु और ४१ हजार भिक्षुणियाँ विवाह किए ही वापस लौट आए तथा विरक्त होकर कुछ थीं, ऐसा उल्लेख है।१८७ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इनके दो समय के पश्चात् संन्यास ले लिया। इनको संन्यास ग्रहण करने पूर्वभवों का उल्लेख है - सिद्धार्थ राजा और अपराजित विमान के ५४ दिन पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त हुआ। राजीमती, जिससे में ३३ सागर की आयु वाले देव। उनका विवाह सम्बन्ध तय हो गया था, ने भी उनका अनुसरण करते हुए संन्यास ग्रहण कर लिया। बौद्ध एवं हिन्दू परम्पराओं में इनका उल्लेख उपलब्ध है। बौद्ध-परम्परा में नमि नामक प्रत्येकबुद्ध का और हिन्दू-परम्परा अरिष्टनेमि के १८ हजार भिक्षु और ४० हजार भिक्षुणियाँ में मिथिला के राजा के रूप में नमि का उल्लेख है। थीं। १९२ इनको निर्वाणलाभ उर्जयन्त शिखर पर हुआ था।१९३अरिष्टनेमि महाभारत के काल में हुए थे। महाभारत का उत्तराध्ययनसूत्र के ९वें अध्ययन 'नमिप्रवज्या' में नमि के काल ई.पू. १००० के लगभग कहा जाता है। महाभारत के काल उपदेश विस्तार से संकलित हैं। सूत्रकृतांग में अन्य परम्परा के के सम्बन्ध में मतभेद हो सकता है, किन्तु यह सत्य है कि कृष्ण ऋषियों के रूप में तथा उत्तराध्ययन के १८वें अध्ययन में महाभारत-काल में हुए थे और अरिष्टनेमि या नेमिनाथ उनके प्रत्येकबुद्ध के रूप में भी नमि का उल्लेख है। यद्यपि तीर्थंकर चचेरे भाई थे। डॉ. फुहरर (Fuhrer) ने जैनों के २२वें तीर्थंकर नमि और इन ग्रंथों में वर्णित नमि एक ही हैं, यह विवादास्पद है। नेमिनाथ को ऐतिहासिक व्यक्ति माना है। १९४ अन्य विद्वानों ने जैनाचार्य इन्हें भिन्न-भिन्न व्यक्ति मानते हैं - किन्तु हमारी दृष्टि भी नेमिनाथ को ऐतिहासिक पुरुष माना है। प्रो. प्राणनाथ में वे एक ही व्यक्ति हैं, वस्तुत: नमि की चर्चा उस युग में विद्यालंकार ने काठियावाड़ में प्रभासपट्टन नामक स्थान से प्राप्त सर्वसामान्य थी - अतः जैनों ने उन्हें आगे चलकर तीर्थंकर के एक ताम्रपत्र को पढ़कर बताया है कि वह बाबुल देश (Babylonia) रूप में मान्य कर लिया। उत्तराध्ययन के 'नमि' तीर्थंकर नमि ही हैं, क्योंकि दोनों का जन्मस्थान भी मिथिला ही है। के सम्राट नेबुशदनेजर ने उत्कीर्ण कराया था, जिनके पूर्वज रेवानगर के राज्याधिकारी भारतीय थे। सम्राट् नेबुशदनेजर ने भारत में २२. अरिष्टनेमि आकर गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ भगवान् की वन्दना की थी। अरिष्टनेमि वर्तमान अवसर्पिणी काल के बाईसवें तीर्थंकर । इससे नेमिनाथ की ऐतिहासिकता स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy