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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
इन्द्रनन्दि - इन्द्रनन्दि नाम के अनेक विद्वान् आचार्य हो गए हैं। इन्द्रनन्दिसंहिता के रचयिता का नाम विशेष प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त ज्वालामालिनीकल्प के रचयिता एक अन्य इंद्रनन्दि ईसवी सन् की दशवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हो गए हैं। ये वासवनन्दि के प्रशिष्य और वप्पनन्दि के शिष्य थे ।
जिनचन्द्राचार्य - 'सिद्धान्तसार' नामक ग्रंथ के रचनाकार जिनचन्द्राचार्य की भास्करनन्दि के गुरु के रूप में पं. नाथूराम प्रेमी ने संभावना की है।" इनका उल्लेख श्रवणबेलगोल के ५५वें शिलालेख में किया गया है।
जिनचन्द्र नाम के एक और आचार्य हो गए हैं जो धर्मसंग्रह श्रावकाचार के कर्त्ता पं. मेधावी के गुरु थे और शुभचन्द्राचार्य के शिष्य थे। ये शुभचन्द्राचार्य पद्मनन्दि आचार्य के पट्टधर थे और पाण्डवपुराण आदि ग्रन्थों के कर्त्ता शुभचन्द्र से पहले हो गए हैं। श्रीधरसेन - सुप्रसिद्ध दिगंबर जैनाचार्य श्रीधरसेन जैन - वाङ्मय में कोशसाहित्य के रचयिता के रूप में चर्चित हैं। इसका दूसरा नाम मुक्तावलकोश भी है। ये नाना शास्त्रों के पारगामी विद्वान् होने के साथ ही बड़े-बड़े राजपुरुषों के द्वारा पूजित थे। विश्वलोचनकोश में २४५३ पद्य हैं, जो अनुष्टुप् छन्द में रचित हैं। नानार्थकोशों में यह सबसे बड़ा कोश है। इसके कर्त्ता का समय १३५० और १५५० ई. के मध्य अनुमानित किया जाता है।
श्रीधर नाम के अन्य अनेक आचार्य हो गए हैं। एक श्रीधराचार्य ईसवी सन् की आठवीं शती के अंतिम भाग या नवम शती के पूर्वार्द्ध में हुए । इनका उल्लेख भास्कराचार्य केशव, दिवाकर, देवज्ञ आदि ने किया है। इनके द्वारा चार ग्रन्थों की रचना की गयी -
१. गणितसार या त्रिंशतिका, २. ज्योतिर्ज्ञानविधि, ३. जातकतिलक और ४. बीजगणित ।
श्रीधराचार्य गणित और ज्योतिष के अच्छे विद्वान् थे। अन्य आचार्य - उपर्युक्त आचार्यों के अतिरिक्त दुर्गदेवाचार्य, मुनिपद्मकीर्ति, गणधरकीर्ति, भट्टवोसरि, उग्रादित्याचार्य, भावसेन त्रैविद्य, नयसेन, श्रुतमुनि, माघनन्दि, वज्रनन्दि, महासेन द्वितीय, सुमतिदेव, पद्मसिंह, नयनन्दि आदि अनेक दिगम्बर आचार्य हुए, जिन्होंने विविध विषयों पर साहित्य - सर्जना की।
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दक्षिण भारत में दिगम्बर जैन आचार्यों ने द्रविड़ भाषा तमिल, तेलुगू और कन्नड़ के उत्थान में सेवाएँ समर्पित कीं । तोलकाघियम तमिल भाषा के सभी व्याकरण ग्रन्थों का मूल माना जाता है। इसे विद्वानों ने जैनग्रन्थ माना है। इसके कर्त्ता संस्कृत - व्याकरण में तथा साहित्य में निर्विवाद रूप से प्रवीण थे । तिरुक्कुरल एक तमिल नीति-ग्रन्थ है। इसे तमिलवेद भी कहा जाता है। इसके कर्त्ता एलाचार्य कुन्दकुन्द थे । नाडियार एक संग्रहग्रन्थ है, यह भी कुरल के समान समाहत है । शिलप्पदिकारम् चेल के युवराज, जो कि मुनि हो गए थे, की महत्त्वपूर्ण कृति है । यह तमिल के पाँच महाकाव्यों में परिगणित है। पंचमहाकाव्यों में तीन जैनग्रन्थ तथा दो बौद्धग्रन्थों की गणना होती है। अवशिष्ट दो जैन महाकाव्य वलैयापति और जीवकचिन्तामणि हैं। तमिल में पाँच लघुकाव्य भी अतिप्रसिद्ध हैं । ये हैं- यशोधरकाव्य, चूलामणि, उदयनकथै, नागकुमार काव्य और नीलकेशि। ये पाँचों ही जैन रचनाएँ हैं। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेरिच्चारम्, पलनोलि आदि नीतिग्रन्थ, मेरूमंदिरपुराणम्, श्रीपुराणम् आदि पुराण ग्रन्थ, यप्परंगुलक्करिकै, यप्परंगुलवृत्ति, नेमिनाथम्, नानूल आदि व्याकरणग्रन्थ, उच्चनंदिमालै आदि ज्योतिषग्रंथ भी जैन साहित्यकारों की तमिल में महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं"।
उपर्युक्त कृतियों के अतिरिक्त संस्कृत में भट्टारकों ने प्रभूत मात्रा में साहित्यनिर्माण किया। ये भट्टारक प्रारंभ में दिगम्बर मुनि ही हुआ करते थे। धीरे-धीरे इनमें शिथिलाचार बढ़ता गया और ये वस्त्रधारी हो गए तथा राजसी ठाठबाट से रहने लगे, किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं की इनके कारण जैन- संस्कृति और साहित्य दक्षिण में सुरक्षित रहा। इस प्रकार भारतीय साहित्य के क्षेत्र में दिगम्बर जैन आचार्यों का महान योगदान है।
सन्दर्भ
१.
२. 3. ४. 5.
६.
तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा, भाग - २, पृ. ३१
डॉ. रमेशचन्द्र जैन, जैन पर्व - पृ. ६६ - ६९
The Jain sources of the history of India, P. 114 कसायपाहुड़ - पञ्चम भाग, पृ. ३८८
The Jain sources of the History of ancient India. P. 116
कसायपाहुडसुत्त (पं. हीरालाल सद्धान्तशास्त्री द्वारा लिखित
iamond Eɣ movime
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