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की उपाधि प्राप्त थी। पाण्डवपुराण, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत - टीका आदि अनेक ग्रन्थ इनके द्वारा बनाए हुए हैं। ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र का समय विक्रम संवत् की ११वीं शताब्दी माना जाता है। ज्ञानावर्णव के माहात्म्य के विषय में इन्होंने लिखा है
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
ज्ञानार्णवस्य माहात्म्यं चित्ते को वेत्ति तत्त्वतः । यज्ज्ञानात्तीर्यते भव्यैर्दुस्तरोऽपिभवार्णवः । । ४२ / ८८ ।।
भव्य जीव जिसके ज्ञान से ही अत्यंत कठिनता से पार करने योग्य संसाररूप समुद्र से पार हो जाते हैं, ऐसे ज्ञानार्णव ग्रंथ का माहात्म्य यथार्थरीति से कौन जानता है?
मुनिरामसेन - रामसेन नाम के अनेक व्यक्ति हुए हैं। मुनि रामसेन तत्त्वानुशासन नामक ग्रन्थ के कर्त्ता हुए हैं। इनका समय विक्रम की १०वीं शताब्दी है । ये नागसेन के शिष्य थे। इन्होंने वीरचन्द्र, शुभदेव, महेन्द्रदेव और विजयदेव से शास्त्रों का अध्ययन किया था। इनके ऊपर आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलङ्क और जिनसेन का विशेष प्रभाव पड़ा । तत्त्वानुशासन में ध्यान का विशेष विवेचन है।
माइल्लधवल मलवल ने अपने ग्रन्थ की अंतिम गाथाओं में आचार्य देवसेन को अपना गुरु घोषित किया है। उनकी एकमात्र कृति नयचक्र है। इस ग्रन्थ में द्रव्यसंग्रह तथा पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका के एकत्वसप्तति से कुछ उद्धरण प्रस्तुत किए गए हैं। इनका समय ११३६ से १२४३ ई. के मध्य का माना जाता है ६८ । नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव - नेमिचन्द्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं। एक नेमिचन्द्र वे हैं, जिन्होंने गोम्मटसार, त्रिलोकसार, लब्धिसार, क्षपणासार जैसे मूर्द्धन्य सिद्धान्त ग्रन्थों का प्रणयन किया है और जो सिद्धान्तचक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित थे।
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दूसरे नेमिचन्द्र, जिनका उल्लेख वसुनन्दि सिद्धान्तिदेव ने अपने उपासकाध्ययन में किया है और जिन्हें जिनागमरूप समुद्र की वेलातरङ्गों से धुले हुए हृदयवाला तथा सम्पूर्ण जगत् में विख्यात लिखा है।
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तीसरे नेमिचन्द्र वे हैं, जिन्होंने प्रथम नंबर पर उल्लिखित नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के गोम्मटसार पर जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम की संस्कृत - टीका, जो अभयचन्द्र की मन्दप्रबोधिका और
केशवर्णी की संस्कृतमिश्रित कन्नड़ टीका जीवतत्त्वप्रदीपिका इन दोनों टीकाओं के आधार से रची गई है, लिखी है।
दूसरे नेमिचन्द्र ने ही लघुद्रव्यसंग्रह और बृहद्रव्यसंग्रह की रचना की है । द्रव्यसंग्रह के संस्कृत टीकाकार ब्रह्मदेव ने द्रव्यसंग्रह नेमिचन्द्र को सिद्धान्तिदेव उपाधि के साथ अपनी संस्कृत टीका के मध्य में तथा अधिकारों के अंतिम पुष्पिकावाक्यों में उल्लिखित किया है। वसुनन्दि और उनके गुरु नेमिचन्द्र भी सिद्धान्तिदेव की उपाधि से भूषित मिलते हैं। अतः असंभव नहीं कि ब्रह्मदेव के अभिप्रेत नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव और वसुनन्दि के गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव एक ही हों ९ ।
अनन्तकीर्ति
अनन्तकीर्ति नाम के अनेक विद्वान् आचार्य हुए हैं। इनमें से १० अनन्तकीर्तियों का परिचय डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपने ग्रन्थ 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा' में दिया है। बृहत्सर्वज्ञसिद्धि और लघुसर्वज्ञसिद्धि के कर्त्ता अनन्तवीर्य के वैदुष्य का प्रभाव शान्तिसूरि, अभयदेवसूरि तर्कपञ्चानन तथा प्रभाचंद्र आदि आचार्यों पर पड़ा है। आचार्य वादिराज ने पार्श्वनाथचरित में अनन्तकीर्ति का स्मरण निम्न प्रकार किया है।
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आत्मनेवाद्वितीयेन जीवसिद्धिनिबध्नता । अनन्तकीर्तिना मुक्ति रात्रिमार्गेव लक्ष्यते ।
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इनका समय विद्वानों ने ८४० से १०८२ विक्रम संवत् के बीच माना है।
मल्लिषेण - ग्यारहवीं शताब्दी ईसवी में हुए मल्लिषेण उभयभाषाकविचक्रवर्ती के रूप में विख्यात हैं। इनकी कवि और मन्त्रवादी के रूप में विशेष प्रसिद्धि है। इनकी निम्नलिखित . रचनाएँ प्राप्त हैं।
१. नागकुमार काव्य २. महापुराण
३. भैरवपद्मावतीकल्प
४. सरस्वतीमन्त्रकल्प ५. ज्वालिनीकल्प |
६. कामचाण्डालीकल्प |
महापुराण की रचना धारवाड़ जिले के मूलगुन्द नामक स्थान में की गई है।
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