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________________ विवेकवान् मन ने इसे लिखकर कोविदजनों को दिया। महासेन का समय दशवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। हरिषेण जो यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य महान् बुद्धि के धारक महानुभाव के शिष्य नेमिदेव हुए, स्याद्वादसमुद्र के पारदर्शी थे और परवादियों के दर्परूपी वृक्षों के उच्छेदन के लिए कुठार के समान थे। जिस प्रकार खान में से अनेक रत्न निकलते हैं, उसी प्रकार उन तपोलक्ष्मीपति के बहुत से शिष्य हुए। उनमें सैकड़ों से छोटे श्री सोमदेव पण्डित हुए जो तप, शास्त्र और यश के स्थान थे। ये भगवान् सोमदेव समस्त विद्याओं के दर्पण, यशोधरचरित के रचयिता, स्याद्वादोपनिषद् के कर्ता तथा अन्य सुभाषितों के भी रचयिता हैं। समस्त महासामन्तों के मस्तकों की पुष्पमालाओं से जिनके चरण सुगन्धित हैं, जिनका यशकमल सम्पूर्ण विद्वज्जनों के कानों का आभूषण है, और सभी राजाओं के मस्तक जिनके चरणकमलों से सुशोभित होते हैं। यशस्तिलक का रचनाकाल विक्रम सं. १०६४ है । ७६ अतः सोमदेवसूरि का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। पद्मप्रभ मलधारिदेव ये आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका के रचयिता हैं। इन्होंने अपने आपको सुकविजन रूपी कमलों के लिए सूर्यसमान, पञ्चेन्द्रियों के विस्तार से रहित तथा गात्रमात्रपरिग्रह कहा है। नियमसार के परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार के अंत में तथा ग्रन्थ के आदि में इन्होंने श्री वीरनन्दि नामक मुनिराज को नमस्कार किया है। मद्रास प्रांत के 'पटशिवपुरम' ग्राम में एक स्तम्भ पर पश्चिमी चालुक्य राजा त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वर के समय का शक सं. ११०७ का एक अभिलेख है, जबकि उसके मांडलिक त्रिभुवनमल्ल, भोगदेवचोल्ल हेजरा नगर पर राज्य कर रहे थे। उसी में यह लिखा है कि जब वह जैन मंदिर बनवाया गया था, तब श्री पद्मप्रभ मलधारिदेव और उनके गुरु श्री वीरनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती विद्यमान थे। अतएव इन प्रमाणों के आधार पर पद्मप्रभमलधारिदेव का समय ईसवी सन् की १२वीं शताब्दी सिद्ध होता है । ७७ इनके द्वारा रचित ९ पद्यों का पार्श्वनाथ स्तोत्र भी प्राप्त हरिषेण नाम के कई आचार्य हुए। डा. एन. एन. उपाध्ये ने छह हरिषेण नाम के ग्रन्थकारों का निर्देश किया है। बृहत्कथाकोश के रचयिता इन सबसे भिन्न है। इन्होंने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में लिखा है- यो बोधको भव्यकुमुद्वतीनां निःशेषराद्धान्तवचोमयूखैः । पुन्नाटसंघाम्बरसंनिवासी श्रीमौनिभट्टारकपूर्णचन्द्रः ॥ जैनालयव्रातविराजितान्ते चंद्रावदातद्युतिसौधजाले । कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्द्धमानाख्यपुरे वसन् सः ॥ सारागमाहितमतिर्विदुषां प्रपूज्यो नानातपोविधिविधानकरो विनेयः । तस्याभवद् गुणनिधिर्जनताभिवन्द्यः श्रीशब्दपूर्वपदको हरिषेणसंज्ञः ॥ 3 इससे स्पष्ट द्योतित होता है कि इनके गुरु का नाम मौनि भट्टारक था । ये पुन्नाट संघ के आचार्य थे। उनका निवास स्थान वर्द्धमानपुर था। इनके द्वारा रचित बृहत्कथाकोश, पद्यमय है। २५०० अनुष्टुप् श्लोकप्रमाण है। हरिषेण का समय ई. सन् की १०वीं शताब्दी माना जाता है। सोमदेवसूरि राजशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत के रचयिता श्रीमत्सोमदेवसूरि दिगंबर संप्रदाय में प्रसिद्ध देवसंघ के आचार्य थे। आचार्यप्रवर के प्रमुख ग्रन्थ यशस्तिलक तथा नीतिवाक्यामृत अध्ययन, मुलवाड दानपत्र तथा राष्ट्रकूट- नरेश कृष्ण तृतीय के ताम्रपत्र से पर्याप्त जानकारी मिलती है। यशस्तिलक की प्रशस्ति के अनुसार शोमदेव के गुरु का नाम नेमिदेव तथा नेमिदेव के गुरु का नाम यसोदेव था । सोमदेव के गुरु नेमिदेव महान् दार्शनिक थे और उन्होंने शास्त्रार्थ में ९३ महावादियों को पराजित किया था । ७४ नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति के अनुसार सोमदेव महेन्द्रदेव भट्टारक के कनिष्ठ भ्राता थे और उन्हें अनेक गौरवसूचक उपाधियाँ प्राप्त थी, जिनमें स्याद्वादाचलसिंह तार्किकचक्रवर्ती, वादीभपंचानन, वाक्कल्लोलपयोनिधि आदि प्रमुख हैं । ७५ लैमुलवाड दानपत्र से विदित होता है कि श्रीगौड़ संघ में यशोदेव नामक आचार्य हुए जो मुनिमान्य थे और जिन्हें उग्रतप के प्रभाव से जैनशासन के देवताओं का साक्षात्कार था। इन f ६२ Jain Education International For Private होता है। शुभचन्द्र शुभचन्द्र नाम के अनेक आचार्य, विद्वान् और भट्टारक हुए। एक शुभचंद्र आचार्य सागवाड़ा के पट्ट पर विक्रम संवत् १६०० (ई. सन् १५४४) में हुए हैं। इन्हें षड्भाषाकविचक्रवर्ती Personal Use Only Gibiyi www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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