________________
- यतीन्द सरि स्मारक सत्य के चक्रव्यूह में फँसे दोनों व्यक्तियों को शैलक यक्ष द्वारा मुक्ति दिलाने के लिए जो शर्त रखी गई थी, वही दोनों व्यक्तियों के मन में उत्पन्न इस द्वन्द्व का जनक माना गयी । यक्ष ने कहा मैं तुम दोनों को रत्नदेवी के चंगुल से मुक्त कर सकता हूँ । तुम दोनों मेरी पीठ पर बैठ जाना मैं वायु मार्ग से इस देवी की परिसीमा से तुम्हें बाहर कर दूँगा । परंतु तुम दोनों किसी भी स्थिति में पीछे मुड़कर नहीं देखोगे अगर ऐसा करोगे तो तुम्हें मैं अपने पीठ से नीचे गिरा दूँगा और तुम अपने प्राणों से हाथ धो बैठोगे । यक्ष ने यह भी कहा कि वह रत्नदेवी हम सबका पीछा करेगी और तुम दोनों को अपने मायाजाल में फँसाकर पुनः वापस बुलाने के सारे प्रयत्न भी करेगी। तुम्हें इनसे सावधान रहना होगा और पीछे मुड़कर नहीं देखना होगा। अन्यथा मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर पाऊँगा और तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा ।
यक्ष उन दोनों को लेकर रत्नदेवी के सीमा क्षेत्र से बाहर जाने लगा। रत्नदेवी ने उनका पीछा किया। उन्हें बहुत सारे प्रलोभन दिए । निपालित शैलक यक्ष की चेतावनी को ध्यान में रखकर किसी प्रकार के द्वन्द्व का शिकार नहीं हुआ। परंतु जिनरक्षित द्वन्द्व का शिकार हुआ और अपने प्राणों से हाथ धो बैठा। यद्यपि जिनपालित ने अपने मन को द्वन्द्व से मुक्त रखने का प्रयत्न किया और सफल भी हुआ, लेकिन उसके मन में दो निषेधात्मक भाव उत्पन्न हुए।
१. प्राण जाने का भय, २. सुख-वैभव छूटने का भय। सुख वैभव < --- जिनरक्षित ---> प्राण जाने का भय छूटने का दुःख (iii) उपागम - परिहार द्वन्द्व इस में व्यक्ति के सामने ऐसी स्थिति होती है जिसमें दो विरोधी तत्त्व एक साथ मिलकर उसके व्यवहार में द्वन्द्व उत्पन्न कते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति एक ही समय पर एक विषय अथवा व्यक्ति के प्रति आकर्षित होकर उसकी ओर बढ़ना भी चाहता है, परंतु साथ ही साथ उसकी ओर बढ़ने से उसे भय भी लगता है। जैसे जब एक व्यक्ति अपने Boss से अपनी वेतनवृद्धि या किसी अन्य अनुमति के लिए आता है, तब उसके मन में कभी-कभी यह संकोच भी होने लगता है कि कहीं उसका दे उसके इस क्रियाकलाप से गुस्सा न हो जाए और उसे प्राप्ति के स्थान पर उल्टे क्षति ही न हो जाए। ऐसे ही, जब एक पुराने मधुमेह के रोगी के सम्मुख स्वादिष्ट
Jain Education International
आधुतिक सन्दर्भ में जैनधर्म
मिठाई जैसे जलेबी खाने को रख दी जाए, तब वह भी ऐसी ही दुविधा में पड़ जाता है, क्योंकि पुराना मधुमेह का रोगी होने के कारण जलेबी खाने से तुरंत उसका रोग और भी अधिक बढ़ जाता है और गरम-गरम जलेबी खाने को मन भी खूब ललचाता है।
इस प्रकार उपागम - परिहार द्वन्द्व की स्थिति व्यक्ति के लिए एक लक्ष्य की ओर बढ़ने तथा साथ ही साथ उससे बचने की भी रहती है तथा जैसे-जैसे व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है, वैसे-वैसे ही उसके द्वन्द्व का रूप उग्र होने लगता है अथवा ऐसी स्थिति में लक्ष्य की धनात्मक शक्ति व नकारात्मक शक्ति दोनों ही तीव्र हो जाती हैं और व्यक्ति एक ऐसे कुचक्र में फँस जाता है कि क्या करे और क्या न करे?
जैन-चिंतन में १९वें तीर्थंकर मल्लिनाथ के तीर्थंकर बनने के पूर्व की एक घटना को उपागम परिहार द्वन्द्व के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है- (ज्ञाताधर्म - कथा, अष्टम अध्ययन) मल्लिनाथ के आकर्षक और चित्तभावन रूप पर मोहित होकर प्रतिबुद्धि चंद्रच्छाय, शंख, रुक्मि, अदनिशत्रु और जितशत्रु इन छह राजाओं ने कुंभराजा (मल्लिनाथ के पिता) से उसकी पुत्री का हाथ माँगा। कुंभ के इनकार करने पर छहों राजाओं ने सम्मिलित रूप से उसके राज्य पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। इसकी जानकारी मल्लि राजकुमारी को भी हुई। मल्लिराजकुमारी भावी तीर्थंकर होने वाली थी । उसे जातिस्मरणादि का बोध था। वह अपने एवं उन छहों राजाओं के पूर्वभव एवं आगामी भव के परिणाम से अवगत थी। वह उन राजाओं को इसके संबंध में बताना चाहती थी । यह उसका उन छहों के प्रति आकर्षण था। लेकिन उसी क्षण उसके मन में यह भी था कि अगर वह ऐसा करती है तो राजागण उसके पिता के राज्य पर आक्रमण करेंगे और व्यापक नरसंहार हो सकता है। यह मल्लिकुमारी का उन छहों के प्रति विकर्षण भाव था । अतः मल्लिकुमारी के मन में एक ही क्षण में दो परस्पर विरोधी भाव उठ रहे थे - आकर्षण एवं विकर्षण (भय) । ये दोनों मिलकर उपागम यह मल्लिकुमारी का उन छहों के प्रति विकर्षण भाव था। परिहार द्वन्द्व उत्पन्न कर रहे थे।
(iv) दोहरा उपागम परिहार द्वन्द्व - ऐसे द्वन्द्व की स्थिति में व्यक्ति ऐसी दुविधाओं में एक साथ पड़ जाता हैं कि उसे कुछ भी निश्चित रूप से करने में संतुष्टि के साथ- साथ असंतुष्टि भी
[ १८ non
-
For Private & Personal Use Only
Swimmi
www.jainelibrary.org