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- नीन्द मुरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक में नैनधर्म. अहिंसा का सामूहिक परिपालन ही युद्ध की समस्या में भी बनी रहेगी, फिर भी उस विधि की कमी यह थी कि उसमें समाधान -
केवल वैयक्तिक स्तर पर ही युद्ध की समस्या का निराकरण
सुझाया गया था। भरत और बाहुबली के बीच हार-जीत का वैयक्तिक एवं सामाजिक सुरक्षा एवं हितों के संरक्षण के
निर्णय करने के लिए दृष्टि-युद्ध, मुष्टि-युद्ध आदि के जो सुझाव लिए संघर्ष की समस्या मानव-समाज में चिरकाल से ही रही है।
दिए गए थे, वे वैयक्तिक स्तर पर ही थे। किन्तु इक्कीसवीं शती युद्धों और संघर्षों के उल्लेख मानव-समाज के इतिहास में
में अहिंसा का परिपालन वैयक्तिक स्तर पर करने से समस्या अतिप्राचीन काल से ही पाए जाते हैं, यह कोई नवीन समस्या
का समाधान नहीं होगा, अपितु अब अहिंसा का परिपालन नहीं है, किन्तु आणविक और रासायनिक अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण
सामूहिक स्तर पर करना होगा। क्योंकि अब युद्ध की हिंसा के के परिणामस्वरूप आगामी शती में युद्ध और संघर्ष की भयंकरता
परिणामों को भुगतने के लिए केवल व्यक्तियों को नहीं, अपितु पूर्व की शताब्दियों की अपेक्षा कई गुना अधिक होगी। आज
सम्पूर्ण समाज या मानवता को भागीदार बनना होता है। इक्कीसवीं मानवता बारूद के उस ढेर पर खड़ी है, जहाँ उसके सर्वनाश के
शती के पूर्व गाँधी के एक अपवाद को छोड़कर सामान्यतया आसार स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। आज मानवता के समक्ष महावीर
वैयक्तिक अहिंसा के परिपालन से ही युद्ध की समस्या का और महाविनाश - ये दो ही विकल्प खुले हुए हैं, इनमें से चुनाव
समाधान सुझाया गया था, किन्तु अब युद्ध और हिंसा की समस्या उसे करना है। आज युद्ध और संघर्ष की समस्या मात्र व्यक्तियों,
को केवल वैयक्तिक स्तर पर नहीं अपितु सामूहिक स्तर पर ही समाजों या राष्ट्रों के बीच की समस्या नहीं है, वह सम्पूर्ण मानवता
सुलझाना होगा। आज कुछ व्यक्तियों या वर्गों के अहिंसक बन की समस्या है। क्योंकि युद्ध और संघर्ष चाहे वे वैयक्तिक,
जाने से काम नहीं चलेगा। अब तो सम्पूर्ण मानवता को अहिंसा सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर हों, उनके परिणाम सम्पूर्ण मानवता
के परिपालन का व्रत लेना होगा। क्योंकि आज एक व्यक्ति या को प्रभावित करेंगे। युद्ध एवं संघर्ष पूर्व की शताब्दियों में भी
एक राष्ट्र का पागलपन भी सम्पूर्ण मानवता का संहारक बन होते थे, फिर भी उनका परिणाम कुछ व्यक्तियों तक या व्यक्तियों
सकता है। के एक वर्ग विशेष तक ही सीमित होता था। वस्तुतः वे उन्हीं। व्यक्तियों या वर्गों के बीच होते थे, जो स्वेच्छा से उनमें जुड़ते पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या थे, यद्यपि कभी-कभी आक्रमण, नृशंस हत्याओं या लूटमार के
आज जब पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या के कारण परिणाम स्वरूप जनसाधारण को भी उनके परिणाम भुगतने होते
सम्पूर्ण प्राणिजगत् के अस्तित्व का संकट उपस्थित हो गया है, थे, फिर भी उनके परिणाम सीमित लोगों पर ही होते थे। किन्तु
हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध केवल मनुष्य जाति तक सीमित आगे आने वाली शती में जो भा युद्ध या सघर्ष होगे, व चाह नहीं माना जा सकता। अब हिंसा केवल मानवीय हिंसा तक व्यक्तियों, वर्गों या राष्ट्रों के बीच हों, फिर भी उनके परिणाम
सीमित नहीं है। अब हिंसा का सम्बन्ध पेड़-पौधे, जल-थल
की सम्पर्ण मानवता को भगतने होंगे। अब यद्धों और संघर्षों में
और वायु सभी के साथ जुड़ गया है। रासायनिक उद्योगों के केवल उन्हीं लोगों का विध्वंस नहीं होगा, जो इनमें लिप्त हैं, .
कचरे एवं दूषित गैसों के साथ-साथ आवागमन के आधुनिक अपितु उसके विध्वंसक परिणाम उन्हीं लोगों को ज्यादा भुगतना
। ज्यादा भुगतना साधनों से निकलने वाले दूषित धुएँ के कारण यह समस्या होंगे, जो उनमें लिप्त नहीं है और जिनका उन युद्धों से कोई
अधिक गम्भीर बनती जा रही है। अतः इक्कीसवीं शती में हिंसा सम्बन्ध नहीं है।
और अहिंसा को उसी व्यापक अर्थ में ग्रहण करना होगा, जिसका इक्कीसवीं शती में युद्ध की समस्या को केवल वैयक्तिक निर्देश भगवान महावीर ने आज से २५०० वर्ष पूर्व किया था। प्रयत्नों से वैयक्तिक स्तर पर नहीं सुलझाया जा सकेगा। अब यह सर्वविदित है कि भगवान महावीर ने पेड़-पौधे ही नहीं उसके लिए सामाजिक स्तर पर प्रयत्न आवश्यक होगा। जैनधर्म जल-थल और वायु के प्रति भी की गई हिंसा को हिंसा माना था में युद्ध और संघर्ष के निराकरण के लिए जो अहिंसक या और उससे बचने का निर्देश दिया था। इक्कीसवीं शती में हमें
अल्पहिंसक विधि प्रदान की गई थी, उसकी उपयोगिता तो भविष्य पर्यावरण में प्रदूषण उत्पन्न करने वाले व्यक्ति को एक मनुष्य andednsidiarioriadriedriwarioriandaridrinidanwar ३ Hariridinidiorandindianswarsansarswaran
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