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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक संन्दर्भ में जैनधर्ममानसिक अन्तर्द्धन्द्ध
ममत्व व राग भाव के कारण मेरे परिजन,मेरी जाति, मेरा धर्म, __मनुष्य में उपस्थित रागद्वेष की वृत्तियाँ और उनसे उत्पन्न
मेरा राष्ट्र ऐसे संकुचित विचार विकसित कर अपने 'स्व' को
संकुचित कर लेता है। परिणामस्वरूप अपने और पराये का क्रोध, मान, माया और लोभ के आवेग हमारी मानसिक समता को भंग करते हैं। विशेष रूप से राग और द्वेष की वृत्ति के कारण
भाव उत्पन्न होता है, फलतः भाई-भतीजावाद, जातिवाद, हमारे चित्त में तनाव उत्पन्न होते हैं और इसी मानसिक तनाव के
साम्प्रदायिकता आदि का जन्म होता है। आज मनुष्य-मनुष्य के
बीच सुमधुर सम्बन्धों के स्थापित होने में यही विचार सबसे कारण हमारा बाह्य व्यवहार भी असन्तुलित हो जाता है। इसलिए
अधिक बाधक है। हम अपनी रागात्मकता के कारण अपने भगवान महावीर ने राग-द्वेष और कषायों अर्थात् क्रोध, अहंकार,
'स्व' की संकुचित सीमा बनाकर मानव-समाज को छोटे-छोटे लोभ आदि की वृत्तियों पर विजय को आवश्यक माना था। वे
घेरों में विभाजित कर देते हैं. फलत: मेरे और पराए का भाव कहते थे कि जब तक व्यक्ति राग-द्वेष से ऊपर नहीं उठ जाता
उत्पन्न होता है और यही आगे चलकर जो सम्पूर्ण मानव-जाति है, तब तक वह मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। वीतरागता ही
एक ही है (एगा मणुस्सजाई) उसे जाति, वर्ण अथवा राष्ट्र के नाम महावीर की दृष्टि में जीवन का सबसे बड़ा आदर्श है। इसी की उपलब्धि के लिए उन्होंने समभाव की 'साधना' पर बल दिया।
पर विभाजित करता है, यह मानवता के प्रति सबसे बड़ा अपराध
है। महावीर के अनुसार सम्पूर्ण मानव-जाति को एक और यदि महावीर की साधना-पद्धति को एक वाक्य में कहना हो तो
प्रत्येक मानव को अपने समान मानकर ही हम अपने द्वारा बनाए हम कहेंगे की वह समभाव की साधना है। उनके विचारों में धर्म का एकमात्र लक्षण है - समता। वे कहते हैं कि 'समता ही धर्म
गए क्षुद्र घेरों से ऊपर उठ सकते हैं और तभी मानवता का
कल्याण संभव होगा। है'। जहाँ समता है, वहाँ धर्म है और जहाँ विषमताएँ हैं, वहीं अधर्म है।
भारत में आज जो जातिगत संघर्ष चल रहा है, उसके आचारांग में उन्होंने कहा था कि आर्यजनों ने समत्व की
पीछे मूलतः जातिगत ममत्व एवं अहंकार की भावना ही साधना को ही धर्म बताया है। समत्व की यह साधना तभी पूर्ण
कार्य कर रही है। महावीर का कहना था कि जाति या कुल होती है जबकि व्यक्ति क्रोध, मान, माया और लोभ जैसे आवेगों।
का अहंकार मानवता का सबसे बड़ा शत्रु है। किसी जाति या
कुल में जन्म लेने मात्र से कोई व्यक्ति महान् नहीं होता है, पर विजय पाकर राग-द्वेष की वृत्ति से ऊपर उठ जाता है। वर्तमान युग में मानव-जाति में जो मानसिक तनाव दिन-प्रतिदिन
अपितु वह महान् होता है अपने सदाचार से एवं अपने तप
त्याग से। महत्त्व जाति विशेष में जन्म लेने का नहीं सदाचार बढ़ रहे हैं उनका कारण यह है कि राग-द्वेष की वृत्तियाँ मनुष्य
का है। भगवान महावीर ने जाति के नाम पर मानव-समाज पर अधिक हावी हो रही है। वस्तुत: व्यक्ति की ममता, आसक्ति
के विभाजन को और ब्राह्मण आदि किसी वर्ग विशेष की और तृष्णा ही इन तनावों की मूल जड़ है और महावीर इनसे
श्रेष्ठता के दावे को कभी स्वीकार नहीं किया। उनके धर्मसंघ ऊपर उठने की बात कहकर मनुष्य को तनावों से मुक्त करने का उपाय सुझाते हैं। आचारांग में वे कहते हैं कि जितना
में हरिकेशी जैसे चाण्डाल, शकडाल जैसे कुंभकार, अर्जुन
जैसे माली और सुदर्शन जैसे वणिक सभी समान स्थान पाते जितना ममत्व है, उतना-उतना सुख और दुःख वस्तुगत नहीं है,
थे। वे कहते थे कि चांडाल कुल में जन्म लेने वाले इस आत्मगत है। वे हमारी मानसिकता पर निर्भर करते हैं। यदि हमारा मन अशान्त है तो फिर बाहर से सुख-सुविधा का अम्बार
हरिकेशिबल को देखो, जिसने अपनी साधना से महानता
अर्जित की है। वे कहते थे जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य भी हमें सुखी नहीं कर सकता है।
या शूद्र नहीं होता है। इस प्रकार महावीर ने जातिगत आधार सामाजिक एवं जातीय संघर्ष
पर मानवता के विभाजन को एवं जातीय अहंकार को निन्दनीय सामाजिक और जातीय संघर्षों के मूल में जो प्रमुख
मानकर सामाजिक समता एवं मानवता के कल्याण का मार्ग कारण रहा है - वह यह है कि व्यक्ति अपने अन्तस में निहित प्रशस्त किया ह।
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