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– यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास भगवान गांधी ने प्रसिद्ध ग्रन्थ संशोधक और समरादित्यसंक्षेप पार्श्वचन्द्रसरि हुए जिनके नाम पर पार्श्वचन्द्रगच्छ का उदय हुआ व कर्ता प्रद्युम्नसूरि को देवानन्दगच्छ से संबद्ध बताया है जबकि जो वर्तमान में भी अस्तित्ववान है। इन गच्छों का विशिष्ट अध्ययन हीरालाल रसिकलाल कापड़िया और श्री गुलाबचन्द्र चौधरी ने अपेक्षित है। उन्हें चन्द्रगच्छीय बतलाया है। देवानन्दगच्छ चन्द्रगच्छ की ही
. नागेन्द्रगच्छ जिस प्रकार चन्द्रकुल बाद में चन्द्रगच्छ के एक शाखा रही या उससे भिन्न थी, इस संबंध में अध्ययन की ।
नाम से प्रसिद्ध हुआ, उसी प्रकार नागेन्द्रकुल भी नागेन्द्रगच्छ के आवश्यकता है। चम्पकसेनरास (रचनाकाल वि.सं. १६३०/ ई.
नाम से विख्यात हुआ। पूर्वमध्ययुगीन और मध्ययुगीन गच्छों में सन् १५७४) के रचयिता महेश्वरसूरिशिष्य इसी गच्छ के थे। इस
इस गच्छ का विशिष्ट स्थान रहा। इस गच्छ में अनेक विद्वान् प्रकार वि.सं. की १२ वीं शती से १७वीं शती तक इस गच्छ का
आचार्य हुए हैं। अणहिलपुरपाटन के संस्थापक वनराज चावड़ा अस्तित्व सिद्ध होता है३१, फिर भी साक्ष्यों की विरलता के कारण
के गुरु शीलगुणसूरि इसी गच्छ के थे। उनके शिष्य देवचन्द्रसूरि इस गच्छ के बारे में विशेष विवरण दे पाना कठिन है।
की एक प्रतिमा पाटन में विद्यमान है। अकोटा से प्राप्त ई. सन् धर्मघोषगच्छ३२ राजगच्छीय आचार्य शीलभद्रसूरि के एक की सातवीं शताब्दी की दो जिन प्रतिमाओं पर नागेन्द्रकुल का शिष्य धर्मघोषसूरि अपने समय के अत्यंत प्रभावक आचार्य उल्लेख मिलता है।३४ महामात्य वस्तुपाल तेजपाल के गुरु थे। नरेशत्रय प्रतिबोधक और दिगम्बर विद्वान गुणचन्द्र के विजेता विजयसेनसूरि इसी गच्छ के थे। इसी कारण उनके द्वारा बनवाए के रूप में इनकी ख्याति रही। इनकी प्रशंसा में लिखी गई अनेक गए मंदिरों में मूर्तिप्रतिष्ठा उन्हीं के करकमलों से हुई। जिनहर्षगणि कृतियाँ मिलती हैं, जो इनकी परंपरा में हुए उत्तरकालीन मुनिजनों द्वारा रचित वस्तुपालचरित (रचनाकाल वि.सं. १४८७/ई. सन् द्वारा रची गई हैं। धर्मघोषसूरि की मृत्यु के उपरान्त इनकी १४४१) से ज्ञात होता है कि विजयसेनसूरि के उपदेश से ही शिष्यसंतति अपने गुरु के नाम पर धर्मघोषगच्छ के नाम से वस्तुपाल तेजपाल ने संघयात्राएँ की और ग्रंथ-भण्डार स्थापित विख्यात हुई। इस गच्छ में यशोभद्रसूरि, रविप्रभसूरि, उदयप्रभसूरि, किए तथा जिनमंदिरों का निर्माण कराया। इनके शिष्य उदयप्रभसूरि पृथ्वीचन्द्रसूरि, प्रद्युम्नसूरि, ज्ञानचन्द्रसूरि आदि कई प्रभावक ने धर्माभ्युद महाकाव्य (रचनाकाल वि.सं. १२९०/ई. सन्
और विद्वान् आचार्य हुए, जिन्होंने वि.सं. की १२वीं शती से १२३४) और उपदेशमालाटीका (रचनाकाल वि.सं. १२९९/ई. वि.सं. की १७वीं शती के अंत तक अपनी साहित्योपासना, सन् १२४३) की रचना की। इनकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी तीर्थोद्धार, नूतन जिनालयों के निर्माण की प्रेरणा, जिनप्रतिमाओं गुरुपरंपरा का सुन्दर विवरण दिया है जो इस गच्छ के इतिहास की प्रतिष्ठा आदि द्वारा मध्ययुग में श्वेताम्बर श्रमणपरंपरा को की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वासुपूज्यचरित (रचनाकाल चिरस्थायित्व प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वि.सं. १२९९/ ई. सन् १२४३) के रचयिता वर्धमानसूरि और इस गच्छ से संबद्ध लगभग २०० अभिलेख मिले हैं, जो
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प्रबधाचतामा
प्रबंधचिंतामणि के रचयिता मेरुतुंगसूरि भी इसी गच्छ के थे। इस वि.सं. १३०३ से वि.सं. १६९१ तक के हैं। ये लेख जिनमंदिरों गच्छ से संबद्ध प्रतिमालेख भी बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। के स्तम्भादि और तीर्थंकर प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण हैं, जो
वि.सं. १४५५ के एक धातुप्रतिमालेख के आधार पर श्री अगरचंद धर्मघोषगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिए अत्यंत उपयोगी है। नाहटा न यह
नाहटा ने यह मत व्यक्त किया है कि उस समय तक यह गच्छ
उपकेशगच्छ में विलीन हो चुका था। इस गच्छ का भी सम्यक् नागपुरीयतपागच्छ वडगच्छीय आचार्य वादिदेवसूरि के
अध्ययन होना अपरिहार्य है। एक शिष्य पद्मप्रभसूरि ने नागौर में वि.सं. १९७४ या ११७७ में उग्र तप का 'नागौरीतपा' विरुद् प्राप्त किया। उनकी शिष्य
नाणकीयगच्छ३६ श्वेताम्बर चैत्यवासी गच्छों में नाणकीय संतति नागपुरीयतपागच्छ के नाम से विख्यात हुई।३३ मुनिजिनविजय
र गच्छ का प्रमुख स्थान है। इसके कई नाम मिलते हैं, जैसे--- द्वारा संपादित विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह और श्री मोहनलाल
नाणगच्छ, ज्ञानकीयगच्छ, नाणावालगच्छ आदि। जैसा कि इसके दलीचंद देसाई द्वारा लिखित 'जैनगुर्जरकविओ' भाग-२ में इस
नाम से स्पष्ट होता है कि अर्बुदमंडल में स्थित नाणा नामक गच्छ की पट्टावली प्रकाशित हुई है। इसी गच्छ में १६वीं शती में सीरीज में स्थान से यह गच्छ अस्तित्व में आया। शांतिसूरि इस गच्छ के
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